Sunday, May 31, 2015

नजीब-केजरी जंगः मंजे अभिनेता आमने-सामने

वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    पूंजीवादी राजनीति में जब दो नाटकीय पात्र आमने-सामने खड़े हो जायें तो इस बात की पूरी संभावना है कि दृश्य नाटकों से बन जाये और दर्शकों को आनंददायक लगे। दिल्ली प्रदेश में आजकल यही हो रहा है। 
    दिल्ली प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग की खासियत यह है कि वे नाट्य कला में रुचि रखते हैं और गाहे-बगाहे नाटकों में अभिनय भी करते हैं। उनके द्वारा अभिनीत एक-दो नाटक तो खासे मशहूर भी रहे हैं। ऐसा तो नहीं लगात कि पिछली कांग्रेस सरकार ने उनकी इस खासियत की वजह से दिल्ली का लेफ्टिनेंट गवर्नर बनाया हो पर उन्होंने केन्द्र के एजेण्ट की भूमिका बखूबी निभाई है। पहले वे केन्द्र की कांग्रेस सरकार के लिए काम कर रहे थे, अब भाजपा सरकार के लिए कर रहे हैं। 

    दिल्ली प्रदेश में उनके सामने खड़े हैं अरविन्द केजरीवाल। ये जन्मजात अभिनेता हैं। खासकर टीवी कैमरों के सामने राजनीतिक स्टंटबाजी में ये उस्ताद हैं। इसी के कारण आज वे दिल्ली की गद्दी पर विराजमान हैं। 
    दिल्ली में भारी बहुमत से आम आदमी पार्टी का जीतना और सरकार बनाना दोनों के लिए भारी पड़ रहा है। नजीब जंग की सूत्रधार भाजपा अपनी हार को अभी भी पचा नहीं पा रही है जबकि केजरीवाल एण्ड कम्पनी को पता है कि जिन झूठे वायदों से वे भारी जीत हासिल करने में कामयाब रहे हैं उन्हें वे पूरा नहीं करेंगे। इसीलिए वे अभी से बहाना तैयार कर रहे हैं। राजनीतिक रूप से इससे अच्छा बहाना क्या हो सकता है कि इस सबकी जिम्मेदारी केन्द्र की भाजपा सरकार के ऊपर डाल दी जाये।
    अन्यथा तो इस बात का क्या तुक हो सकता है कि कुछ अफसरों की नियुक्तियों और तबादलों को इतना बड़ा मुद्दा बनाया जाये। अंग्रेजों द्वारा बनायी गई मशीनरी के सारे अफसर एक जैसे होते हैं। वे कमोवेश एक जैसे ही अक्षम या सक्षम होते हैं। एक जैसे की चाटुकार या आज्ञापालक होते हैं। ऐसे में किसी कुर्सी पर यह अफसर बैठे या वह, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। केजरीवाल जैसे भूतपूर्व अफसर से बेहतर भला इसे कौन समझता होगा?
    लेकिन तब भी अफसरों के तबादले और नियुक्तियों को, भले ही वह दस दिन की अस्थाई तैनाती ही क्यों न हो, मुद्दा बनाने से यह धारणा पैदा की जा सकती है कि केन्द्र की भाजपा सरकार दिल्ली प्रदेश सरकार के काम में टांग अड़ा रही है, उसे सही तरीके से काम नहीं करने दे रही है। यदि एक के बाद एक ऐसी स्थितियां पैदा की जाती रहें तो चुनावों के समय यह दावा किया जा सकता है कि केजरीवाल एण्ड कम्पनी ने तो जनता का भला करने का पूरा प्रयास किया पर भाजपाइयों की वजह से वह सफल नहीं हो पाई।
    अभी तक केजरीवाल एण्ड कंपनी ने यह प्रदर्शित किया है कि अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के आगे उन्हें पूंजीवादी राज्य व्यवस्था के तौर-तरीकों की कोई खास चिन्ता नहीं है। वे आसानी से उनकी अवहेलना कर सकते हैं। ऐसे में यदि अफसरों के तबादलों इत्यादि में परम्परागत तौर-तरीकों की ऐसी-तैसी होती है तो उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। 
    इसके बरक्स केन्द्र की भाजपा सरकार नजीब जंग के माध्यम से दिल्ली प्रदेश सरकार में कुछ न कुछ दखल रखना चाहती है। चूंकि दिल्ली प्रदेश को पूर्ण प्रदेश का दर्जा हासिल नहीं है, इसलिए ऐसा करना उनके लिए और आसान हो जाता है। वैसे भी मोदी की तानाशाही प्रवृत्ति वाली केन्द्र सरकार देश के सारे ही प्रदेशों में अपना दखल चाहती है। कांगे्रसी सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों की दुर्गति इसकी केवल एक बानगी है। 
    नजीब और केजरी की इस नाटकीय जंग में कांग्रेस और माकपा जैसी पार्टियां भाजपा की केन्द्र सरकार के खिलाफ और आम आदमी पार्टी की प्रदेश सरकार के पक्ष में खड़ी हो रही हैं। वे ऐसा इस बिना पर कर रही हैं कि इस सरकार को अपना काम करने की छूट मिलनी चाहिए। वे इस सरकार से आग्रह कर रही हैं कि वह अपने चुनावी वायदे पूरे करे। 
    लेकिन यदि पूंजीवादी पार्टियां अपने चुनावी वायदे पूरे करती हैं तो वे पूंजीवादी पार्टियां न होती और यह पूूंजीवादी लोकतंत्र नहीं होता। दिल्ली की जनता से हर संभव वादा करने वाली इस सरकार ने अपना बनैला चेहरा तब दिखा दिया जब डीटीसी बस सेवा के कर्मचारियों की हड़ताल पर प्रतिबंध लगाकर एस्मा लगा दिया और चार घंटे के अंदर काम पर न लौटने पर बर्खास्तगी की धमकी दे डाली। गेस्ट टीचरों की स्थायी नियुक्ति के आंदोलन को तो इन्होंने भाजपा प्रायोजित ही घोषित कर दिया। 
    भारत की पूंजीवादी राजनीति के इन नये खिलाडि़यों ने दिखाया है कि वे धूर्तता में पुराने खिलाडि़यों को बखूबी टक्कर दे सकते हैं पर इसके साथ ही इनके चेहरे से नकाब का अंतिम चीथड़ा भी उघड़ जा रहा है।     

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