Wednesday, October 1, 2014

कश्मीर आपदा: दोषी कौन?

वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)
धरती का स्वर्ग कही जाने वाली कश्मीर घाटी आज भयानक आपदा का शिकार है। वहां की डल झील लगभग समूची कश्मीर घाटी को निगल चुकी है। झेलम नदी का तांडव सैकड़ों लोगों की जानें ले चुका है। ऐसे में सहज ही सवाल उठ खड़ा होता है कि इस आपदा का जिम्मेदार कौन है? क्या यह आपदा प्रकृति द्वारा लायी गयी ऐसी आपदा थी जिसके आगे मानव जाति असहाय है या फिर से एक ऐसी आपदा थी जो समय रहते रोकी जा सकती थी। जान-माल के भारी नुकसान से बचा जा सकता था। और अगर ऐसा था तो ऐसा क्यों नहीं किया गया?
हमारे देश में एक परंपरा सी चल पड़ी है कि वर्षा, बाढ़, भूस्खलन सरीखी घटनाओं को प्राकृतिक आपदा की तरह पेश कर दिया जाय। हमारे देश का शासक वर्ग और सरकारें ऐसा ही करती हंै। वे देश की भोली-भाली मेहनतकश जनता को यह झूठी घुट्टी पिलाते हैं कि प्रकृति के इस कहर से बचना असंभव था। इस वर्णन से शासक वर्ग अपनी उन करतूतों को छिपा ले जाते हैं जिससे प्रकृति को कहर बरपाने की ओर ढकेला गया है। शासकों ने प्राकृतिक आपदा का राग उत्तराखण्ड आपदा के समय भी गाया और अब कश्मीर के वक्त भी गाया जा रहा है।
शासकों का प्राकृतिक आपदा का झूठ तब तार-तार होने लगता है जब वैज्ञानिक हलकों से यह आवाज आने लगती है कि वर्षा, बाढ़, भूस्खलन पर्यावरण असंतुलन या पारिस्थितिकी असंतुलन का परिणाम है यानी इंसानी करतूतें पर्यावरण, इकोसिस्टम को तहस-नहस कर रही हैं जो इन आपदाओं के आने का कारण बन रहे हैं। हमारे धूर्त शासक वर्ग इन वैज्ञानिक तर्कों को फिर से तोड़-मरोड़ कर अपने पक्ष में ढाल लेता है और कहता है कि चूंकि पर्यावरण-पारिस्थितिकी को पूरी मानव जाति मिलकर बिगाड़ रही है इसलिए यह मानव निर्मित आपदा है। इस तरह शासक वर्ग फिर से अपने कुकर्माें के लिए समूची जनता को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। हर आदमी को उपदेश दिया जाने लगता है कि वे अपने-अपने स्तर पर पर्यावरण को संतुलित रखने का प्रयास करें।
वास्तविकता यही है कि ये आपदाएं न तो प्राकृतिक हैं न ही मानव निर्मित, ये पूंजीपति वर्ग द्वारा लायी गयी आपदाएं है। पूंजीपति वर्ग के मुनाफे की हवस के लिए पर्यावरण, पारिस्थितिकी को ताक पर रखकर किया गया अंधाधुंध, विकृत, असंतुलित पूंजीवादी विकास इसका जिम्मेदार है। इसीलिए आपदा का दोषी पूंजीपति वर्ग है न कि समूची जनता। कश्मीर की हालिया आपदा से इस बात को समझा जा सकता है।
कश्मीर आपदा के कारणों पर एजेंसियों  द्वारा कारणों को इस रूप में प्रस्तुत किया गया।
‘सेंटर आॅफ साइंस एण्ड इनवायरमेंट’ का विश्लेषण कहता है कि कश्मीर आपदा जलवायु परिवर्तन के कारण आयी अचानक तीव्र वर्षा का परिणाम है। जलवायु परिवर्तन भारत को अब बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। 2005 की मुंबई बाढ़, 2010 के लेह में बादल फटना, 2013 में उत्तराखण्ड आपदा इसके उदाहरण हैं। कश्मीर की हालिया आपदा को और बुरा बनाने का काम झेलम नदी के तट पर किये जा रहे अनियंत्रित विकास व निर्माण ने किया। पिछले 100 वर्षों में श्रीनगर की झीलों, तालाबों व दलदलों का 50 प्रतिशत हिस्सा सड़कें, इमारतें चट कर गयी हैं। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर में बाढ़ की भविष्यवाणी करने का तंत्र मौजूद नहीं है। इसका आपदा नियंत्रण तंत्र प्रारम्भिक स्तर का था इसलिए राज्य इस आपदा से निपटने को तैयार ही नहीं था।
‘इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ ट्रोपिकल मेटालाजी पूना’ के वैज्ञानिक बी.एन.गोस्वामी के अनुसार भारत में तेजी से पानी बरसने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं और ये भविष्य में और नुकसान कर सकती हैं। वैज्ञानिक पृथ्वी की जलवायु के गर्म होते जाने को इस भारी वर्षा का कारण मानते हैं।
मुंबई की ‘नैचुरल हिस्टरी सोसाइटी आफ इंडिया’ के अनुसार दलदली भूमि का व्यवसायिक गतिविधियों के लिए लगातार घाटी में इस्तेमाल हो रहा है। ये दलदल झेलम का अतिरिक्त पानी सोख सकते थे इसीलिए भारत में दलदल भूमि संरक्षण का कानून बनना चाहिए।
उपरोक्त वैज्ञानिक एजेंसियों की बातों पर गौर करें तो मोटे तौर पर कारण के बतौर जो बातें समझ में आती हैं वे इस प्रकार हैः पृथ्वी की गर्म होती जलवायु एक स्थान पर एक साथ भारी वर्षा की घटनाओं को जन्म दे रही है। इस जलवायु को गर्म करने में देशी-विदेशी पूंजीपतियों के गैसें उत्सर्जित करने वाले उद्योग सर्वप्रथम दोषी हैं। साथ ही पूंजीवादी मुनाफे की हवस ने कश्मीर में झीलों-दलदलों, नदी-तटों की भूमि का बड़ा हिस्सा निगल लिया है। यानी बाढ़ या भारी बारिश के समय अतिरिक्त पानी सोखने के ये जरिये बंद हो गये हैं। और इस सबके साथ कश्मीर में आपदा की भविष्यवाणी व प्रबंध का तंत्र बेहद कमजोर है।
कश्मीर घाटी में झीलों-तालाबों-दलदलों का महत्व इतना ज्यादा है कि किसी हद तक महाराजाओं के शासनकाल व अंगे्रजों के शासनकाल में भी इन्हें झेलम के अतिरिक्त पानी के सोखते के रूप में बनाकर रखा गया। पर आजाद भारत के 6-7 दशकों में ये बात भुला दी गयी। डल झील 2400 हेक्टेअर से घटकर 1200 हेक्टअर रह गयी। वूलन झील व जुड़े दलदल 20,000 हेक्टेअर से घटकर महज 2400 हेक्टेअर के रह गये।
इस सबके लिए कौन दोषी है? निश्चय ही न तो प्रकृति और न ही समूची मानव जाति। इसके लिए केवल व केवल पूंजीपति वर्ग व उसकी सरकारें जिम्मेदार हैं। झेलम व डल झील का तट पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए पूंजी ने चट कर लिया। पर्यावरण को गर्म करने का काम भी पूंजीवादी उद्योग ही कर रहे हैं। इस सबसे बढ़कर आपदा की भविष्यवाणी या प्रबंधन का तंत्र विकसित न करना भी सरकार की ही कमी है। आपदा के बाद बचाव कार्य की जर्जर हालत शासकों के जनता के प्रति उदासीन दृष्टिकोण को ही दिखलाता है। सेना का ज्यादातर ध्यान सम्पन्न लोगों या पर्यटकों को बचाने का ही रहा है। स्थानीय मेहनतकश जनता राहत के लिए अपने भाई-बंधुओं के प्रयासों पर ही अधिक निर्भर रही है। बढ़बोली केन्द्र  सरकार ने तो महज राहत की घोषणा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है जबकि सरकारी पार्टी के कार्यकर्ता मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर के लिए राहत जुटाने में अडंगे ही लगा रहे हैं। कश्मीर आपदा को भी वे सांप्रदायिक नजरिये को फैलाने का जरिया बना रहे हैं।

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