Wednesday, October 1, 2014

अमेरिकी साम्राज्यवादी और आई.एस.आई.एस.

वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
        अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने आई.एस.आई.एस. से लड़ने के लिए तीस देशों का एक गठबंधन बना लिया है। यह खबर किसी चीज की याद दिलाता है? हां! यह एकदम चिरपरिचित लगता है। इसके पहले अमेरिकी साम्राज्यवादी तालिबान से लड़ने के लिए कई देशों का गठबंधन बना चुके हैं और फिर अलकायदा से लड़ने के लिए। इसके भी बहुत पहले वे सोवियत राक्षस से लड़ने के लिए चार दशकों तक नाटो नाम का गठबंधन बना और चला चुके हैं।
यह चिरपरिचित कहानी असल में पिछले पांच-छः दशकों से अमेरिकी साम्राज्यवादियों की रणनीति रही है, सारी दुनिया में अपनी साम्राज्यवादी गतिविधियां करने के लिए। सोवियत संघ और सोवियत खेमा तो उनकी इच्छा और विरोध के बावजूद अस्तित्व में आया था परंतु तालिबान, अलकायदा और अब आई.एस.आई.एस. को खुद इन्होंने ही पाल-पोस कर बड़ा किया था।

1980 के दशक के अंत में सोवियत खेमे की चुनौती समाप्त होने के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए यह सवाल खड़ा हो गया कि वे किसे आम शत्रु घोषित कर सारी दुनिया में अपनी साम्राज्यवादी गतिविधियों को अंजाम दें। इसके लिए उन्होंने कभी बुरे राष्ट्रों  की धुरी, कभी नशीली दवाओं का कारोबार करने वाले अपराधी तथा कभी बचे-खुचे तथाकथित कम्युनिस्ट देशों मसलन क्यूबा इत्यादि का नाम लिया। लेकिन जल्दी ही उन्होंने आतंकवाद को अपना आम शत्रु घोषित किया। यह आतंकवाद इस्लामी कट्टरपंथियों का आतंकवाद था जिसे बुरे राष्ट्र समर्थन दे रहे थे। इसे आम शत्रु ही नहीं, ‘सभ्य राष्ट्रों’ का सबसे बड़ा और खतरनाक शत्रु घोषित कर दिया गया।
महत्वपूर्ण बात यह है कि इस्लामी कट्टरपंथ को 1920 के दशक से पालने-पोसने का काम अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने ही किया था। मुसलमान बहुल देशों में प्रगतिशील शक्तियों के खिलाफ। 1980 के दशक से इन्होंने इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद को पाला-पोसा, मुख्यतः अमेरिका विरोधी अरब शासकों के खिलाफ, लेकिन साथ ही सोवियत खेमे के खिलाफ भी। सोवियत खेमे की चुनौती समाप्त होने के बाद उन्हांेने अपने ही द्वारा पाले-पोसे गये इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद को अपना मुख्य शत्रु घोषित कर दिया गया।
इस तरह आई.एस.आई.एस. से लड़ने के लिए बनाये गये गठबंधन का मामला बहुत पुरानी राजनीति का हिस्सा है। आई.एस.आई.एस. को पिछले तीन सालों में खड़ा करने और आगे बढ़ाने का काम अमेरिकी साम्राज्यवादियों और उनके सहयोगियों ने ही किया। इसमें इजरायल, तुर्की, सऊदी अरब और कतर की प्रमुख भूमिका रही है। सीरिया की असद सत्ता को उखाड़ने के लिए इन शक्तियों ने जिन लोगों को प्रशिक्षित और साजो-सामान से लैस किया था जब वे अपना मकसद हासिल करने में नाकाम रहीं तो इन्होंने आई.एस.आई.एस. को आगे बढ़ाया। बताया जाता है कि इसके लिए सऊदी अरब की जेलों में बंद आतंकवादियों तक को रिहा किया गया। तुर्की की जमीन पर इन्हें प्रशिक्षित कर फिर सीरिया में घुसाया गया।
लेकिन आई.एस.आई.एस. का मामला सीरिया तक सीमित रहता यदि इराक में समीकरण नहीं बदलते। इराक पर हमला कर कब्जा करने के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादी इसका लाभ किसी और को उठाने नहीं दे सकते थे। लेकिन पिछले एक-दो सालों से इराक की अमेरिकी कठपुतली सरकार में ईरान की दखलंदाजी बढ़ने लगी थी। ईरान आम तौर पर ही अमेरिकी साम्राज्यवादियों की आंख का कांटा होने के साथ सीरिया के असद का समर्थक भी है। ऐसे में इराक में ईरान का बढ़ता दखल अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए नाकाबिले बर्दाश्त था। वे इराक को ईरान के हवाले नहीं कर सकते थे।
इसीलिए इन्होंने आई.एस.आई.एस. को इराक की ओर ढकेला। इराक की बेहद कमजोर सरकार इसके सामने नहीं टिकी। आई.एस.आई.एस. ने वहां बड़ी बढ़त हासिल कर ली। इससे वह स्थिति बन गयी कि इराक की सत्ता में ईरान के दखल को किनारे कर पूरे इराकी मामले को अमेरिकी साम्राज्यवादी अपने हाथ में ले सकें।
इराक में अपना मिशन हासिल करने के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादी अब सारे अरब जगत में ही नहीं बल्कि उससे बाहर भी अपनी गतिविधियां इस नये खतरे से लड़ने के नाम पर अंजाम देना चाहते हैं। गठबंधन में शामिल देशों के इसमें अपने हित हैं। इसमें सऊदी अरब-कतर जैसे देश भी शामिल हैं जो अभी भी आई.एस.आई.एस. की भरपूर मदद कर रहे हैं।
हमेशा की तरह इन कुचक्रों की शिकार बाकी देशों की मजदूर-मेहनतकश जनता के साथ स्वयं साम्राज्यवादी देशों की जनता ही होगी। 

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