Page 11

साम्प्रदायिकता की आंच में  झुलसा शमसाबाद
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में शमसाबाद कस्बे में 2-3 सितम्बर को साम्प्रदायिक दंगा हुआ। इस साम्प्रदायिक दंगे की शुरूआत तो फेसबुक पर किये गये आपत्तिजनक कमेंट से हुयी। परन्तु इसकी पृष्ठभूमि में हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा उ.प्र. में 2017 के चुनावों की तैयारियां हैं जो वोटों का धु्रवीकरण कर भाजपा को सत्ता में लाना चाहते हैं। सत्ता पक्ष की सपा सरकार की भी इसमें सहमति है ताकि वह मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में ला सकें। 
    जैसा कि आज पूरे देश में सोशल मीडिया के माध्यम से नफरत भरे, बेहद घृणित संदेश प्रचारित किये जा रहे हैं, शमसाबाद में भी हिन्दू कट्टरपंथियों ने मुस्लिमों के खिलाफ फेसबुक पर टिप्पणी की। मुस्लिम समुदाय के लोगों ने इस पर आपत्ति की तथा प्रशासन से इसमें हस्तक्षेप करने के लिए कहा। लेकिन प्रशासन ने कोई कार्यवाही नहीं की। बाद में आपत्तिजनक टिप्पणी डालने वाले युवक की पिटाई से हिन्दू कट्टरपंथियों को अपने घृणित मंसूबे पूरे करने का मौका मिल गया। और उन्होंने बाजार बंद करवा दिया। शमसाबाद के टोला मोहल्ला में पथराव की घटना शुरू हो गयी। पुलिस मूकदर्शक बनी देखती रही तथा दंगे के बढ़ने का इंतजार करती रही। जब दंगा ज्यादा बढ़ गया तब जाकर पुलिस ने कोई कार्यवाही करनी शुरू की। 
    2014 में आम चुनाव के बाद मोदी-अमित  की जोड़ी गुजरात से निकलकर दिल्ली में डेरा जमा चुकी है और गुजरात के प्रयोग पूरे देश में दोहरा रहे हैं। इसकी केन्द्रीय सरकार के मंत्री लगातार मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत भरे बयान देते रहते हैं। इस पर न तो मोदी की कोई प्रतिक्रिया होती है और न अमित शाह की। यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि चुनावों के दौरान दंगे करवाना, भय का वातावरण बना कर रखना आदि के प्रयोग भाजपा और उसके अनुषांगिक संगठन कर रहे हैं। अभी हाल में भाजपा सरकार ने धार्मिक आधार पर जनसंख्या के आंकड़े जारी किये जिसको लेकर अलग-अलग तरह से दोनों समुदायों के लोगों के प्रति भय, असुरक्षा का माहौल बनाने का काम विश्व हिन्दू परिषद, आरएसएस, बजरंग दल आदि के लोग कर रहे हैं। 
    शमसाबाद में हुए दंगे में सपा व भाजपा दोनों ही चुनावी दृष्टिकोण से काम कर रहे हैं। अब यह देखना है कि इसका फायदा भाजपा उठाती है या सपा। हां, यह तय है कि इसका नुकसान मेहनतकश जनता ही उठायेगी। एक तो इन दंगों के दौरान उनको आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है साथ ही इन दंगों से उनकी एकता कमजोर होती है। मेहनतकश जनता को इन कट्टरपंथी ताकतों का विरोध करना ही होगा क्योंकि ये उनके हितों को ही नुकसान पहुंचाते हैं।      
उत्तराखण्ड में नर्सें हड़ताल पर
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    उत्तराखण्ड में अपने ग्रेड पे को उच्च किये जाने की मांग को लेकर नर्सें 7 सितम्बर से हड़ताल पर हैं। उत्तराखण्ड सरकार ने इनकी मांगों पर कोई कार्यवाही के बजाय एस्मा लगा दिया है और हड़ताल को कुचलने की कोशिश की है। लेकिन नर्सें अपनी मांगों को लेकर आन्दोलनरत हैं। वे सरकार के आगे झुकने को तैयार नहीं हैं। 
    नर्सों के बीच असंतोष उस समय पैदा हुआ जब सरकार ने दिसम्बर 2012 में एक जीओ पारित किया जिसके अनुसार फार्मेसिस्ट व टेक्नीशियनों के वेतनमान में तो वृद्धि की गयी लेकिन नर्सों का वेतन नहीं बढ़ाया गया। उनका कहना है कि नर्सों को साढ़े तीन साल का कोर्स करना पड़ता है जिसमें वे शल्यक्रिया समेत प्रसूति की ट्रेनिंग लेती हैं जबकि फार्मेसिस्ट व टैक्नीशियनों का 2 साल का कोर्स होता है और वे दवा भंडारण, दवा वितरण और विनिर्माण सीखते हैं। इस तरह नर्सों का काम ज्यादा कुशलता की मांग करता है। 
    पहले जब नर्सों का वेतन ग्रेड 4600 था तब फार्मेसिस्ट व टेक्नीशियनों का 2800 व 2 वर्ष बाद 4200 होता था और टेक्नीशियनों का 2800 था। लेकिन दिसम्बर 2012 के जीओ के अनुसार फार्मेसिस्ट का बढ़ाकर 4200 व 2 वर्ष बाद 4600 कर दिया गया। नर्सों की मांग है कि उनका वेतन भी उसी अनुपात में बढ़ाया जाये और 4600 के स्थान पर 4800 तथा 2 वर्ष बाद को ग्रेड पे 5400 किया जाए। इसके साथ ही फार्मेसिस्टों को अंतिम ग्रेड पे जो 5400 था उसको बढ़ाकर डाॅक्टर के ग्रेड पे 7600 के बराबर कर दिया गया है जबकि नर्सों का अन्तिम ग्रेड पे 6600 है। वे दो साल से लगातार इस मांग को उठा रही हैं लेकिन सरकार इस पर कोई सुनवाई नहीं कर रही है। सरकार की इसी तुगलकी फरमान के कारण नर्सें हड़ताल पर जाने को बाध्य हुयी हैं।          
   इन मांगों के अलावा नर्सों के सामने अपने काम के दौरान भी कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। नैनीताल जिले के रामनगर में हड़ताल पर बैठी नर्सों के साथ बातचीत करते हुए उन्होंने बताया कि वैसे तो ड्यूटी टाइम 6 घंटे का होता है लेकिन रात्रि में आने-जाने की सुविधा न होने के कारण उन्हें 12-12 घंटे की ड्यूटी करनी पड़ती है। 6 बीमारों पर एक स्टाफ नर्स का प्रावधान होने के बावजूद उन्हें 15-20 लोगों को अटैण्ड करना पड़ता है। कभी-कभी ये संख्या बढ़ भी जाती है। यह दरअसल सरकार द्वारा नर्सों पर काम का अत्यधिक बोझ डालना तो है ही साथ ही बीमारों की देखभाल के प्रति सरकार के असंवेदनशील नजरिये को भी दिखाता है। 
    आज नर्सों को अपनी इस हड़ताल में सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवा को निजी हाथों में देने की सरकार की साजिशों को भी समझना होगा और इसके खिलाफ आवाज भी उठानी होगी। ऐसा करके वे व्यापक मेेेेहनतकश आबादी को अपने साथ खड़ा कर सकती हैं। और अपनी लड़ाई को ज्यादा मजबूती से लड़ सकती हैं।       रामनगर संवाददाता
‘तरुणाई का तराना’ उपन्यास को पढ़ते हुए एक गृहणी के विचार
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    मैं एक किताब पढ़ रही हूं। इस किताब का नाम है ‘तरूणाई का तराना’ जिसमें एक लड़की है उसका नाम है ताओ चिड़। इस लड़की की अपनी मां खत्म हो गयी है और यह अपने सौतेली मां के द्वारा पल-बढ़ रही है और पढ़ाई भी कर रही है। इसकी सौतेली मां इस लालच में आकर पढ़ा-लिखा रही है कि जब वह इस लड़की को पढ़ा-लिखा देगी तो जब यह बड़ी होगी तो उसे कमा खिला सकेगी या वह इसे किसी रईस(पैसे वाला) आदमी के संग सौदा कर लेगी। 
    इस लड़की की सौतेली मां खुद भी सही नहीं है। वह उसके साथ व्यवहार भी सही नहीं रखती है। जैसे-तैसे वह बड़ी होती जा रही थी, और एक दिन इसने अपनी सौतेली मां को किसी आदमी से बात करते हुए सुन लिया। वह इसका सौदा कर रही थी। फिर लड़की बड़ी परेशान हो जाती है और सोचती है कि क्या करे? उसकी मां भी इसे राजी करने को बड़े प्यार से बात करती है लेकिन लड़की कतई राजी नहीं होती। लड़की अपनी मां से लड़ जाती है। इसकी मां उसे ज्यादा सताती है। वह इसे कमरे में बंद कर देती है। उसे दो-तीन दिन तक खाना नहीं देती। लड़की को पूरी तरह से मजबूर कर देती है। 
    यह लड़की परेशान होकर एक रात उस घर से भाग जाती है। घर से तो निकल जाती है पर उसे पता नहीं है कि वह कहां जाये? लेकिन सोचते-विचारते अपने एक रिश्तेदार के बारे में सोचती है और वहीं चली जाती है। वहां एक स्कूल होता है जिसमें वह पढ़ाना चाहती है। वह नौकरी की बात करती है। उसे वहां नौकरी का दिलासा दिया जाता है। यह करते-करते 20-25 महीने बीत जाते हैं। उस समय इसे कई तरह की नजरों से सामना करना पड़ता है। हम भी समझ सकते हैं वह जवान लड़की किस तरह से अकेले अपने आप को संभाल रही होगी। यह उसके लिए कितना कठिन रहा होगा। 
    एक दिन वहां भी उस स्कूल का एक अध्यापक है जो दिलासा दिए जा रहा था, एक रात दो-चार लोगों से बहस कर रहा था और उल्टी-सीधी बात उस लड़की के बिषय में कर रहा था। जब लड़की यह बात करते सुनती है तो उसके पांव तले की जमीन खिसक जाती है। फिर वह सोचती है कि यह दुनिया ही ऐसी है। जहां हर जगह वही बात, वही गंदी सोच। अब वह करे तो क्या करे। 
    अब वह अपनी जिन्दगी खत्म करने के बारे में सोचती है और एक समुद्र में डूबने चली जाती है। वह डूबने ही जा रही थी तब तक एक जवान लड़का उसको पीछे से पकड़ लेता है और उसे बचा लेता है। वह उसी गांव में रहता है लेकिन इससे पहले उससे कोई बातचीत नहीं हुयी होती बस देखना-दिखाना हुआ होता है। फिर वह रो-रो कर अपनी सारी बात उस लड़के से बता देती है वह घर से क्यों भागी थी और क्यों यहां आयी थी। वह लड़का पूरी हमदर्दी जताते हुए, उसे समझाते हुए उसे वहां से ले जाता है। वह उसे बड़े प्यार से रखता है उसके बारे में बुरा नहीं सोचता। इसी तरह कई दिन-महीनों बीत जाते हैं, वे एक दोस्त जैसे रहते हैं। 
    लेकिन उन्हें भी व्यंग्य कसते हुए लोग कहते हैं कि क्या एक जवान लड़का-लड़की इतने अच्छे दोस्त हो सकते हैं? फिर लड़की सोचने पर मजबूर हो जाती है कि इस लड़के में कोई खराबी मुझे नहीं दिखती और वह मेरी देखभाल भी करता है। वह मेरे लिए नौकरी भी ढूंढने की बात कर रहा है। उस लड़की को लगा कि अब उन्हें शादी कर लेनी चाहिए ताकि लोगों का मुंह बंद हो जाए। वह दोनों शादी करके पति-पत्नी की जिन्दगी बसर करते हैं। 
    जब उनकी शादी को हुए कई महीने बीत जाते हैं तो फिर वह कहती है कि इतने दिन हो गये मेरे लिए तुमने नौकरी की बात नहीं की? तो वह कहता है कि उसकी पढ़ाई अब खत्म हो रही है। उसे एक अच्छी नौकरी मिल जाएगी। फिर वे दोनों खुशी-खुशी अपनी जिन्दगी बसर करेंगे। तब लड़की जवाब देती है ‘‘तुमने मुझसे वादा किया था कि मुझे भी नौकरी करने दोगे।’’ फिर वह समझा-बुझाकर टाल देता है। 
    इसी तरह पारिवारिक समस्या बढ़ती जा रही थी। ताओ चिड़ कहीं अपने मन से पैसा खर्च कर देती तो वह लड़का झल्ला जाता और उस पर गुस्सा करता। हर समय सवाल करता इतने-इतने पैसों का क्या क्या किया। लड़की परेशान होती कि इनका व्यवहार तो दिन-प्रतिदिन बदलता जा रहा है। फिर वह परेशान रहती, जब उसे पाई-पाई का हिसाब देना पड़ता तो वह सोचती कि उस पर विश्वास नहीं है। वह गृहस्थी में खर्च करती है फिर उसमें धीरे-धीरे इसी तरह की लड़ाई होती रहती। एक दिन लड़के के गांव से एक बूढ़ा बुजुर्ग पता लगाते-लगाते आया था। वह उसकी ही जमीन में काम करके अपना पेट पालता था। उसके पिता ने उसकी पूरी मजदूरी नहीं दी थी इसीलिए वह परेशान होकर यहां आया था। ताकि कुछ मदद मिल जाएगी। लेकिन लड़के ने साफ इंकार कर दिया। उसकी पत्नी उसको बड़े ध्यान से देख रही थी। और सोच रही थी कि क्या वह वही आदमी है जिस पर मैंने पूरी तरह विश्वास किया था और अपनाया था? उसे बड़ी हैरानी हुयी। उस बूढ़े को पैसा होने के बावजूद, उसने देने से मना कर दिया। लेकिन बूढ़े को निराश होकर जाते देख उसे बड़ी दया आयी और उसने कुछ पैसा बूढ़े को दे दिया। यह जानने के बाद कि उसकी पत्नी ने उस बूढ़े को पैसा दिया है तो वह बहुत ज्यादा गुस्सा हुआ और अपनी पत्नी से लड़ाई की। 
    लड़की बहुत परेशान रहने लगी। बहुत ज्यादा सोचने लगी कि दुनियां में कैसे-कैसे लोग हैं? यह बूढ़ा एक मजदूर था। दिन-रात खून-पसीना एक करने वाला था। उसका पैसा क्यों रोका गया? ऐसी जिन्दगी से तो वह परेशान रहती थी। सारी दुनिया के बारे में सोचती। ऐसे समाज के बारे में सोचती कि कैसा समाज है। क्या हमें ऐसे ही रहना चाहिए? इस समाज के बारे में नहीं सोचना चाहिए। उसे एक ऐसे अच्छे रास्ते की तलाश थी, जहां कोई ऊंच नीच न हो, एक दूसरे का दर्द समझा जा सके। उसी समय ताओ चिड के पति का एक दोस्त बड़े दिनों के बाद उसके घर आया। अपने दोस्त से मिला उसे बड़ी खुशी हुयी। कई सालों बाद मिलना हुआ था। यह दोस्त और उसका पति एक ही साथ स्कूल में पढ़े थे। अपनी पत्नि से अपने दोस्त को मिलाया। दोस्त ने उन्हें बधाइयां दीं। इस दोस्त का नाम था -‘लू चिआ चूआन’। वह जब भी आता तो अपने दोस्त का हाल चाल पूछ लेता था। यह दोस्त एक सामाजिक काम करने में व्यस्त रहता था। वह अपना निजी काम करते हुए सामाजिक काम करता था। वह अपने देश के बारे में, देश के लोगों  के बारे में सोचता रहता था। यही बात वह अपने दोस्त को भी समझाने की कोशिश करता। लेकिन उसका दोस्त बिल्कुल ध्यान नहीं देता। वह बस अपने निजी काम में व्यस्त रहता। कोई बात नहीं सुनता था। वहीं उसकी पत्नी बड़ी ध्यान से उसकी बातों को गौर करती, बड़े ध्यान से सुनती थी। उसे धीरे-धीरे लगा कि वह एक अच्छा इंसान है। यह सबके बारे में सोचता है और सबका भला चाहता है। 
    कभी-कभी हिचकते हुए उससे बातचीत कर लेती थी। और दुनिया के बारे में जानने की कोशिश करती थी। 
    इसी तरह सामाजिक कामों को लेकर उनकी बातचीत होती रहती थी। एक दिन उसका पति घर में नहीं था। वह अचानक आ गया। लेकिन ताओ चिड सामाजिक कामों में हिस्सा लेने लगी। फिर हर रोज की तरह बात चलने लगी। वह उसके पति का इंतजार करने लगा। बातें करते-करते थोड़ी देर हो गयी। उसका पति आ गया। फिर वह सोचने लगा कि वह उसकी पत्नी को उल्टा-सीधा पाठ पढ़ाएगा। वैसे भी उसे सामाजिक काम पसंद नहीं था। वह अपने पत्नी  से मना करने लगा कि उससे बात न किया करे। वह अब उसका आना पसन्द नहीं करता था। 
    ताओ चिड़ परेशान होती वह सोचती कि कौन सा बुरा काम कर रही है कि वह उसको मना कर रहा है। 
    इसी तरह उनमें कहा सुनी होती रहती। ताओ चिड़ को गुस्सा आता यह कितना स्वार्थी इंसान है। बस अपना ही भला सोचता है। दूसरों का नहीं। ताओ चिड़ इंसानियत के नाते एक अच्छा काम कर रही थी। 
    वह अपने काम को आगे बढ़ा रही थी और सबसे मिल जुलकर रह रही थी। उसके पति को उस पर बड़ा गुस्सा आता था। वह रोज लड़ाई करने लग जाता था। अपनी पत्नी को समझाता कि वह यह सब काम छोड़ दे। अपने निजी कामों पर ध्यान दे। और घर में रहे। 
    लेकिन ताओ चिड़ को अच्छा नहीं लगता जब वह ऐसा व्यवहार करता और न मानने पर उससे लड़ाई करता, उल्टी सीधी बातें करता। 
    एक दिन तो हद हो गयी, ताओ चिड़ के चरित्र पर उसने शक किया। ताओ चिड़ को बर्दाश्त नहीं हुआ। उसके तो पांव तले जमीन खिसक गयी। 
    उसे बड़ी हैरानी हुयी कि उसने किसी गलत आदमी से शादी कर ली थी जो उस पर विश्वास ही नहीं करता। 
    अब उसने निर्णय लिया कि उन्हें एक दूसरे से दूर रहना चाहिए। उन्हें साथ नहीं रहना चाहिए। जब विश्वास ही खत्म हो गया तो क्या फायदा।
    ताओ चिड़ को समाज का काम करने में और पूरी दुनिया के बारे में जानकारी रखने में खुशी होती थी। वह करती भी थी। वह समाज के काम करने में पीछे नहीं हटी। आगे बढ़ती गयी। उसने ईमानदारी से कठिन से कठिन काम काम किया। कई कामों को अंजाम दिया। कितनी मुसीबतें झेलीं। ताओ चिड़ जेल भी गयी। जेल में भी उसने कई तरह की मुसीबतें झेलीं। उसने बहुत ही ज्यादा परेशानी सहीं। जेल में भी उसे बहुत कुछ सीखने को मिला। कई तरह की जानकारियां मिलीं। 
    फिर भी उसने हार नहीं मानी। जेल से बाहर आने के बाद वह और ज्यादा मजबूत व हिम्मत वाली बन गयी। वह अपने देश को बचाने के लिए और इस देश में लोगों के भले के लिए वह मरते दम तक लड़ती रही।
    इसलिए मैं भी चाहती हूं कि हमें भी इस किताब को पढ़कर कुछ सीखना चाहिए और समझना चाहिए। और हमें इसे जरूर पढ़ना चाहिए। कुछ करना भी चाहिए। वास्तव में मुझे बड़ी खुशी हुई। 
    हम भी ऐसे समाज में रहते हैं जहां बस हम अपनी निजी जिन्दगी के बारे में ही सोचते हैं। 
    हमें भी समाज के बारे में सोचना चाहिए। और अपने बच्चों का भविष्य एक अच्छी दिशा में जाए इस पर हमें पुरजोर कोशिश करनी चाहिए। 
    हम देख रहे हैं कि हमारे बच्चों का भविष्य दर-बदर खराब होता जा रहा है। जो बच्चे इस समाज को अच्छा बना सकते हैं। अच्छी देखभाल कर सकते हैं। वही बच्चे एक गन्दी से गन्दी खाई में गिरते जा रहे हैं। उस खाई की गहराई हमें पता भी नहीं है। 
    हम इस बारे में ध्यान नहीं देते। बस हम अपने निजी कामों में ध्यान दे रहे हैं। और उसी में व्यस्त रह रहे हैं। 
    मैं चाहती हूं कि हम अपने निजी काम को लेते हुए और इस समाज में क्या हो रहा है। इसके बारे में हमें भी थोड़ा समय निकालना चाहिए और ध्यान देना चाहिए। 
    इस किताब को पढ़कर मुझे भी यह लगता है कि अगर हम चाहें तो कुछ कर सके तो कर सकते हैं। हमें कभी भी निराश नहीं होना चाहिए। हमें हिम्मत से काम करना चाहिए।
    जब हम एक अच्छा काम करना चाहते हैं तो हमें बेहिचक करना चाहिए। ताकि हमारे बच्चे भी और बच्चों के बच्चे भी गर्व से कह सकें कि हमारे बुजुर्ग हमारे लिए कुछ करके आये हैं।        रंजीता
कर्मचारी राज्य बीमा योजना को बचाओ    -रवि दुग्ग्ल
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
अपने 2015-16 के बजट भाषण में केंद्रीय वित्तमंत्री अरूण जेटली ने यह स्वीकार करते हुए कि कर्मचारी राज्य बीमा योजना सही तरीके से काम नहीं कर रही और समस्याओं से घिरी हुई है, कहा कि ‘‘कर्मचारी राज्य बीमा (ई.एस.आई.) के संबंध में कर्मचारी के पास यह विकल्प होना चाहिए कि वह या तो ई.एस.आई. को चुने या आई.आर.डी.ए. के द्वारा मान्यता प्राप्त किसी स्वास्थ्य बीमा उत्पाद को। हमारी मंशा इस संबंध में सभी संबंधित पक्षों के साथ सलाह-मशविरा के बाद कानूनी संशोधन लाने की है।’’ यह अन्यथा एक बेहतरीन स्वास्थ्य सुरक्षा व्यवस्था को नष्ट करने का एक प्रयास है। यह आम आदमी को अपनी स्वास्थ्य जरूरत को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य बीमा खरीदने का संदेश भी है। अब सरकार यह नहीं देना चाहती। इसलिए हम स्वास्थ्य के लिए बजट आवंटन में 39,231 करोड़ रूपये से 33,260 करोड़ रूपये की गिरावट भी देखते हैं जो कि 15 प्रतिशत की तीखी गिरावट है और मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो वास्तविक अर्थों में इससे भी ज्यादा।
1948 में संसद में एक कानून द्वारा सृजित कर्मचारी राज्य बीमा निगम संगठित क्षेत्र के मजदूर वर्ग के लिए सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम है। इसका सालाना बजट 10,000 करोड़ रुपये से ज्यादा और रिजर्व कोष 25,000 करोड़ रुपये से ज्यादा है। 151 अस्पताल, 32,349 अस्पताल के बेड, 20,346 स्वास्थ्यकर्मी (7340 डाक्टर) और प्रति बीमित कर्मचारी के ऊपर 2551 रुपये के खर्च के साथ यह एक विशाल चिकित्सा संस्थान है, कुछ-कुछ सशस्त्र बलों के समान (38,328 बेड और 5914 करोड़ रुपये चिकित्सा खर्च जो कि प्रति कर्मचारी 19,713 रुपया होता है) और कुछ-कुछ रेलवे के समान (13,963 बेड और 1370 करोड़ रुपये का चिकित्सा खर्च जो कि प्रति कर्मचारी 9660 रुपये प्रति कर्मचारी होता है)।
ई.एस.आई. योजना कोई एक आदर्श सामाजिक स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम नहीं है। 6.18 करोड़ लाभार्थी और 2013-14 में प्रति व्यक्ति 1557 रुपये के खर्च के साथ जो कि उसी वर्ष के आम सरकारी स्वास्थ्य खर्च से 50 प्रतिशत ज्यादा है, के साथ यह आंकड़ों में विशाल लगता है। लेकिन इससे संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए भी सार्वभौमिक पहुंच नहीं बन पाती; वस्तुतः यह संगठित क्षेत्र के रोजगारों के मात्र 42 प्रतिशत हिस्से तक पहुंचता है और अपने स्वरूप में यह ज्यादातर नीले काॅलर वाले मजदूरों को संबोधित है और इस तरह क्षेत्र के भीतर के स्वास्थ्य सुरक्षा का भी बंटवारा कर देता है। 15,000 रुपये प्रति माह से कम की वेतन सीमा एक भेदकारी इंतजाम है क्योंकि इससे इस हिस्से के कम आय वाले मजदूरों के वेतन से अनिवार्य कटौती का बोझ पड़ता है और मजदूरों और प्रबंधन के मध्यम और उच्च स्तर के कैडर को कोई ऐसा योगदान नहीं करना पड़ता। यह निश्चय ही समता के सिद्धांत का विरोधी है और शायद समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन भी।
जो सीमित आंकड़े वार्षिक रिपोर्टाे में उपलब्ध हैं, दिखाते हैं कि बाह्य रोगी परीक्षण खास तौर पर बड़े शहरों में जहां निजी चिकित्सक जो कि इन्श्योरेन्स मेडिकल प्रेक्टिशनर कहलाते हैं। सेवा उपलब्ध कराते हैं, वहां इनका ज्यादा इस्तेमाल होता है। इसका प्रमुख उदाहरण मुंबई है जो कि सबसे बड़े अस्पतालों के साथ ई.एस.आई. का सबसे बड़ा केन्द्र है। 2009-10 में ई.एस.आई. के केन्द्रों पर कुल 52,203 बाह्य रोगियों को देखा गया जबकि 1,29,447 ने पैनल के निजी चिकित्सकों को दिखाया। ऐसे ही विशेषज्ञ परीक्षण के लिए 48,557 लोग ई.एस.आई. केन्द्र पर उपस्थित हुए जबकि 63,195 लोगों ने निजी चिकित्सकों का रुख किया। अस्पताल में भर्ती के मामलें में भी 600 पैनल के निजी अस्पतालों को ज्यादा से ज्यादा भुगतान हो रहा है। (2009-10 में 180 करोड़ रुपये का भुगतान हुआ) जबकि ई.एस.आई. अस्पतालों के भर्ती क्षमता का 50 प्रतिशत से भी कम इस्तेमाल हो रहा है। उदाहरण के लिए ई.एस.आई. के सबसे बड़े अस्पताल, 700 बेड वाले महात्मा गांधी मिशन अस्पताल, मुंबई में 31 प्रतिशत भर्ती क्षमता का इस्तेमाल हो रहा है।
वृतान्तामक सबूतों के आधार पर कहा जा सकता है कि ई.एस.आई. के डाक्टरों को मुख्य तौर पर योजना के तहत मिलने वाले नकद लाभों को हासिल करने के लिए मेडिकल सर्टिफिकेट हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
वार्षिक रिपोर्टों से मिलने वाली जानकारी से एक अन्य मुद्दा उभर कर आता है। 15,000 रुपये की वेतन सीमा की बढ़ोतरी के बाद से ई.एस.आई. का दायरा यद्यपि बढ़ा है। ई.एस.आई. का ध्यान अपनी वेतन में कटौती करने वाले कर्मचारी से हटकर एक नये क्षेत्र- चिकित्सा शिक्षा- की तरफ जा रहा है। ई.एस.आई. बोर्ड 30,000 करोड़ रुपये के रिजर्व कोषों से भरपूर होकर (जो कि मजदूरों का पैसा है) 18 मेडिकल कालेज, 9 डेंटल कालेज और 12 स्नातकोतर संस्थान बनाने जा रही है। इससे ई.एस.आई. की प्रतिष्ठा और धूमिल होगी। ई.एस.आई. योजना को ऐसी दिशा में ले जायेगी जो कि मजदूर वर्ग के पक्ष में नहीं है।
कर्मचारी राज्य बीमा योजना एकमात्र और अलग-थलग कार्यक्रम नहीं है। यह सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसका मूल्यांकन इसी संदर्भ में होना चाहिए। नये हित लाभ जो कि भारत में दिये जा रहे हैं वे कई सारे मंत्रालयों और विभागों मसलन श्रम, सामाजिक कल्याण, सामाजिक न्याय, महिला एवं बाल विकास और स्वास्थ्य में फैले हुए हैं, जिससे स्तरीकरण और विखंडन पैदा होता है।
एक चीज और जिस पर ध्यान देना चाहिए कि आबादी के विभिन्न हिस्सों को मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा की प्रकृति अलग-अलग है। वर्णक्रम के एक छोर पर केन्द्र और राज्य के सिविल सेवा के कर्मचारियों को अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के द्वारा परिभाषित हित लाभों का एक पूरा समुच्चय ही मिलता है। उदाहरण के लिए मात्र उनके सेवानिवृत्ति हित लाभ (पेंशन, प्रोविडेंट फंड, गे्रच्यूटी इत्यादि चिकित्सा छोड़कर) 2010-11 में 1,66,170 करोड़ रुपये थे (यह सकल घरेलू उत्पाद का 2.11 प्रतिशत है) दूसरे छोर पर गरीबी रेखा से नीचे की आबादी है जिन्हें विविध कल्याण और सामाजिक सहायता योजनाओं से तदर्थ हित लाभ मिलते हैं। उदाहरण के लिए 2010-11 में पूरे देश के स्तर पर इन हित लाभों पर 1,46,248 करोड़ रुपया या सकल घरेलू उत्पाद का 1.85 प्रतिशत खर्च आया। अगर हम चिकित्सा और जलापूर्ति और साफ-सफाई को शामिल कर लंे तो यह आकंड़ा 2,48,456 करोड़ रुपये का है।
बजट आवंटन से यह स्पष्ट है कि भारत में सामाजिक सुरक्षा हितलाभ में काफी भेदभावपूर्ण हे। इन दो विरोधी तस्वीर वाले उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायेगी।
एक व्यक्ति जो कि भारतीय सेना में कार्य करता है और मेजर के पद पर सेवानिवृत्त होता है, को पी.एफ. और ग्रेच्युटी के मद में कुल 15 से 20 लाख रुपये के सेवानिवृत्ति हित लाभ प्राप्त होते हैं। उसके बाद जीवन भर उसे आखिरी वेतन का आधा महंगाई भत्ता जोड़कर पेंशन मिलता है जो कि आज की तरीख में 50,000 रुपये प्रति माह है। अगर उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसके पति या पत्नी को जीवन भर इसका आधा यानी कि 25,000 रुपये प्रति माह पेंशन मिलता है। इसके अलावा उन्हें असीमित निःशुल्क चिकित्सा सेवा जिसमें बाह्य परीक्षण, भर्ती इत्यादि शामिल है, मिलता है। इसके अलावा कैंटीन से उन्हें राशन और उपभोक्ता वस्तुए सब्सिडी दरों पर मिलती हैं। मेस और क्लब तक उनकी पहुंच जारी रहती है ताकि अपने समुदाय से वे सामाजिक तौर पर जुड़े रहें। यह सबसे सुंदर तस्वीर है और भारत में लगभग 15 प्रतिशत घरों को ऐसी या इससे मिलती-जुलती सामाजिक सुरक्षा अपने जीविका के माध्यम से मिलती है।
इसके उलट एक दिहाड़ी मजदूर का गरीबी रेखा के नीचे का परिवार होता है। जिसकी दिहाड़ी बाजार के ऊपर निर्भर करती है। अगर वे भाग्यशाली हैं तो वे एक माह में पूरे घर के लिए किसी तरह 5000 रुपये कमा पाते हैं। उन्हें सरकारी संस्थाओं से शिक्षा और चिकित्सा सेवाएं मिलती हैं। लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है कि उन्हें जो चाहिए वह उन्हें मिल जाय और प्रायः इसके लिए उन्हें भुगतान करना पड़ता है। ऐसा भी हो सकता है कि बच्चे स्कूल नहीं जाते हों क्योंकि उन्हें परिवार की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए काम करना पड़ता है। उन्हंे बचत, पी.एफ., ग्रेचुटी या अन्य कोई कार्य संबंधी हितलाभ नहीं मिलते। उन्हें सेवानिवृत्ति की उम्र के बाद भी काम करना पड़ता है। अगर वे मापदंडों पर खरा उतरते हैं तो उन्हें 200 रुपये से लेकर 500 रुपये तक वृद्धावस्था पेंशन मिल सकती है जो कि महंगाई से निरपेक्ष होता है। अगर पति और पत्नी दोनों वृद्धावस्था पेंशन के लिए पात्र होते हैं तो उनमें से किसी एक को ही वृद्धावस्था पेंशन मिलती है। अगर वे भाग्यशाली है तो वे राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना या ऐसी ही एक स्वास्थ्य बीमा के तहत पंजीकृत होंगे जिससे कि किसी विपत्तिजनक बीमारी में उनके इलाज के खर्च का एक हिस्सा मिल जायेगा। यह सबसे बुरी तस्वीर है। और भारत के दो तिहाई परिवारों को इससे या इससे करीब हालत से गुजरना होता है। बचे हुए 20 प्रतिशत मध्यम वर्ग को सामाजिक सुरक्षा के लिए अपने बचत, विस्तारित परिवारिक/सामुदायिक समर्थन से स्वयं इंतजाम करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
भारत में सामाजिक सुरक्षा के उपरोक्त राजनीतिक अर्थशास्त्र को देखते हुए चुनौती विशाल है। सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 6 प्रतिशत सामाजिक सुरक्षा पर खर्च होता है और इसका आधे से ज्यादा हिस्सा भारत की आबादी के ऊपरी 15 प्रतिशत पर खर्च होता है।
ई.एस.आई. संगठित क्षेत्र के मजदूरों को किसी हद तक सामाजिक सुरक्षा देती थी। लेकिन आज जब इसको भी छिन्न-भिन्न करने की कोशिश हो रही है तो इसके खिलाफ आवाज उठाना वक्त की जरूरत है।

(साभार: इकाॅनामी एण्ड पालिटिकल वीकली। अंक 25 अप्रैल, 2015, अनुवाद हमारा)
श्रम कानूनों के ‘कायाकल्प’ की तैयारी
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    अपने कार्यकाल के एक वर्ष पूरा होने पर मोदी सरकार केन्द्रीय श्रम कानूनों की पूरी संरचना को बदलने की ओर बढ़ रही है। इस योजना के तहत 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को 4 आचार संहिताओं (Code) में समाहित कर दिया जायेगा। इनमें से एक संहिता या नियमावली वेतन एक औद्योगिक संबंध, एक सामाजिक सुरक्षा व संरक्षा (Social Security and Saftey) एवं एक अन्य कल्याण से संबंधित होगी। इसके अलावा एक और पांचवीं संहिता या नियमावली छोटे कारखानों के लिए होगी। औद्योगिक सुरक्षा एवं संरक्षा और वेतन को छोड़कर बाकी नियमावली इस वर्ष के अंत तक लागू करने की योजना है। 
    इस तरह श्रम कानूनों को पूरी तरह से कांटछांट कर उन्हें उद्योगपतियों व कारखानेदारों की मंशा के अनुरूप बनाने की यह कवायद है। श्रम कानूनों में परिवर्तन की यह योजना आकस्मिक नहीं है। लंबे समय से उद्योगपतियों की यह मांग रही है कि उन्हें अत्यधिक श्रम कानूनों के ‘जंजाल’ से मुक्ति दिलायी जाए। दूसरे श्रम आयोग की रिपोर्ट (2002) ने भी श्रम कानूनों को ‘तर्कसंगत’ (पूंजी के मांग के अनुरूप) बनाने और इन्हें क्रियाशील संवर्गों के अंतर्गत एकीकृत करने की बात की गयी थी जिसका मतलब यह था कि पूंजी की जरूरत व इच्छा के अनुरूप श्रम कानूनों को बदलकर उन्हें तर्कसंगत बनाया जाए एवं बहुत से श्रम कानूनों को छांट कर केवल आज के वैश्वीकरण के जमाने में काम योग्य या वास्तविक क्रियाशील कानूनों को कुछ संवर्गों में बांट दिया जाए। 
    इस नये वर्गीकरण के पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि श्रम कानूनों का यह सरलीकरण मजदूर एवं नियोक्ता दोनों को आसानी से समझ में आ जायेगा और बेवजह ही जटिलताओं से दोनों को मुक्ति मिल जायेगी। लेकिन गौरतलब है कि श्रम कानूनों के जटिल होने की यह दलील मालिकों के संगठनों फिक्की या एसोचेम द्वारा ही प्रस्तुत की गयी है जबकि मालिकों को कानून समझने के लिए पेशेवर वकीलों की कोई कमी नहीं रही है। कई कंपनियां तो प्रबंधन के एक हिस्से के रूप में पेशेवर वकीलों को रखती हैं। 
    इस नयी योजना के तहत औद्योगिक संबंधों के तहत एक ही नियमावली में औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926 और औद्योगिक रोजगार (स्टैण्डिंग आर्डर) एक्ट 1946 को सम्मिलित कर दिया जायेगा। 
    इस पूरी मशक्कत का असली मकसद उन कानूनों का पुनरावलोकन या उनमें संशोधन या उनको छांटना है जो औद्योगिक विकास के रास्ते की बाधा है। 
    औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 में संशोधन हेतु मोदी सरकार ने तैयारी कर ली है। प्रस्तावित संशोधन के अनुसार 300 श्रमिकों तक के उद्यमों में छंटनी की छूट मालिकों को मिल जायेगी। इसी तरह ट्रेड यूनियन एक्ट में संशोधन कर ट्रेड यूनियन गठन को कठिन व जटिल बनाने की कोशिश की जा रही है। इस संबंध में संशोधन का मसौदा पत्र के अनुसार किसी उद्यम द्वारा नियोजित 10 फीसदी श्रमिकों या न्यूनतम 100 श्रमिकों के आधार पर ही ट्रेड यूनियन गठित की जा सकेगी। 
    प्रधानमंत्री मोदी के ‘मेक इन इण्डिया’ कार्यक्रम के तहत मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में देशी-विदेशी पूंजी केा आकर्षक प्रलोभन देने के मद्देनजर श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बनाने की एक व्यापक योजना का यह एक अंश मात्र है। 
    श्रम कानूनों की नयी संहिता में वेतन नियमावली के तहत न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, वेतन भुगतान अधिनियम 1936, बोनस संदाय अधिनियम 1965 एवं समान वेतन कानून एक ही साथ सम्मिलित किये जायेंगे। या वह एक ही कानून के अंतर्गत आ जायेंगे। 
    मोदी सरकार ने फिलहाल दिखावटी तौर पर इन प्रस्तावित नियमावली को सुझाव आमंत्रित करने के लिए जारी कर दिया है। श्रम मंत्री बंगारू दत्तात्रेय ने विगत 6 मई को केन्द्रीय श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधियों व उद्योगपतियों के संगठनों के साथ एक त्रिपक्षीय वार्ता की है जिसने औद्योगिक संबंधों से संबंधित मसौदा नियमावली पर चर्चा की है। 
    श्रम विभाग ने मार्च में वेतन संबंधी नियमावली का मसौदा तैयार कर लिया जिसमें वेतन से संबंधित चार कानूनों को समाहित कर लिया जायेगा। उक्त नियमावलियों के संसद में पारित होने के बाद श्रम कानूनों की पूरी तस्वीर बदल जायेगी। मसलन कर्मचारी भविष्य निधि, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम (ईएसआई एक्ट) मातृत्व लाभ अधिनियम, निर्माण मजदूरों से संबंधित कानून, कर्मकार मुआवजा अधिनियम सहित लगभग 12 अधिनियमों को एक ही नियमावली सामाजिक सुरक्षा के अंतर्गत ला दिया जायेगा। 
    मोदी सरकार की इस पूरी मशक्कत का पूंजीपति वर्ग जोर-शोर से स्वागत कर रहा है। वास्तव में श्रम कानूनों से परेशानी का रोना तो पूंजीपति लंबे समय से रोते रहे हैं। 
    श्रम कानूनों को कतरने, निष्प्रभावी बनाने और उन्हें पूंजीपतियोें के अनुरूप अधिकाधिक ढालने का काम मोदी सरकार चाहे कितनी ही चतुराई से करे लेकिन मजदूर वर्ग इसे भली भांति समझता है और वक्त आने पर पूंजीपति वर्ग और उनके प्रधानसेवकों को जरूर सबक सिखायेगा।  
नागौरः एक और खैरलांजी- भंवर मेघवंशी
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    राजस्थान का नागौर जिला दलितों की कब्रगाह बनता जा रहा है। राजधानी जयपुर से तकरीबन ढाई सौ किलोमीटर दूर स्थित अन्य पिछड़े वर्ग की एक दबंग जाट जाति की बहुलता वाला नागौर जिला इन दिनों दलित उत्पीड़न की निरंतर घट रही शर्मनाक घटनाओं की वजह से कुख्यात हो रहा है। विगत एक साल के भीतर यहां पर दलितों के साथ जिस तरह का जुल्म हुआ है और आज भी जारी है, उसे देखा जाये तो दिल दहल जाता है, यकीन ही नहीं आता है कि हम आजाद भारत के किसी एक हिस्से की बात कर रहे हैं। ऐसी ऐसी निर्मम और क्रूर वारदातें कि जिनके सामने तालिबान और अन्य आतंकवादी समूहों द्वारा की जाने वाली घटनाएं भी छोटी पड़ने लगती हैं। क्या किसी लोकतांत्रिक राष्ट्र में ऐसी घटनाएं संभव है? वैसे तो असम्भव है, लेकिन यह संभव हो रही है, यहां के राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे की नाकामी की वजह से।
    नागौर जिले के बसवानी गांव में पिछले महीने ही एक दलित परिवार के झोंपड़े में दबंग जाटों ने आग लगा दी जिससे एक बुजुर्ग दलित महिला वहीं जल कर राख हो गयी और दो अन्य लोग बुरी तरह से जल गए जिन्हें जोधपुर के सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए भेजा गया। इसी जिले के लंगोड गांव में एक दलित को जिंदा दफनाने का मामला सामने आया है। मुंडासर में एक दलित औरत को घसीट कर ट्रैक्टर के गर्म सायलेंसर से दागा गया और हिरडोदा गांव में एक दलित दूल्हे को घोड़ी पर से नीचे पटक कर जान से मरने की कोशिश की गयी। राजस्थान का यह जाटलेंड जिस तरह की अमानवीय घटनाओं को अंजाम दे रहा है, उसके समक्ष तो खाप पंचायतों के तुगलकी फरमान भी कहीं नहीं टिकते हैं, ऐसा लगता है कि इस इलाके में कानून का राज नहीं, बल्कि जाट नामक किसी कबीले का कबीलाई कानून चलता है, जिसमें भीड़ का हुकुम ही न्याय है और आवारा भीड़ द्वारा किये गए कृत्य ही विधान है।
डांगावासः दलित हत्याओं की प्रयोगशाला
    नागौर जिले की तहसील मेडता सिटी का निकटवर्ती गांव है डांगावास, जहां पर 150 दलित परिवार निवास करते हैं और यहां 1600 परिवार जाट समुदाय के हैं। तहसील मुख्यालय से मात्र 2 किलोमीटर दूरी पर स्थित है डांगावास, जी हां, यह वही डांगावास गांव है जहां पिछले एक साल में चार दलित हत्याकांड हो चुके है, जिसमें सबसे भयानक हाल ही में हुआ है. एक साल पहले यहां के दबंग जाटों ने मोहन लाल मेघवाल के निर्दोष बेटे की जान ले ली थी, मामला गांव में ही खत्म कर दिया गया। उसके बाद 6 माह पहले मदन पुत्र गबरू मेघवाल के पांव तोड़ दिये गए। 4 माह पहले सम्पत मेघवाल को जान से खत्म कर दिया गया, इन सभी घटनाओं को आपसी समझाईश अथवा डरा धमका कर रफा दफा कर दिया गया। पुलिस ने भी कोई कार्यवाही नहीं की।
    स्थानीय दलितों का कहना है कि बसवानी में दलित महिला को जिंदा जलाने के आरोपी पकडे नहीं गए और शेष जगहों की गंभीर घटनाओं में भी कोई कार्यवाही इसलिए नहीं हुयी क्योंकि सभी घटनाओं के मुख्य आरोपी प्रभावशाली जाट समुदाय के लोग हैं। यहां पर थानेदार भी उनके हैं, तहसीलदार भी उनके ही और राजनेता भी उन्हीं की कौम के हैं, फिर किसकी बिसात जो वे जाटों पर हाथ डालने की हिम्मत दिखाये? इस तरह मिलीभगत से वर्षों से दमन का यह चक्र जारी है, कोई आवाज नहीं उठा सकता है, अगर भूले भटके प्रतिरोध की आवाज उठ भी जाती है तो उसे खामोश कर दिया जाता है। 
जमीन के बदले जान
    एक और ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि राजस्थान काश्तकारी कानून की धारा 42 (बी) के होते हुए भी जिले में दलितों की हजारों बीघा जमीन पर दबंग जाट समुदाय के भूमाफियाओं ने जबरन कब्जा कर रखा है। यह कब्जे फर्जी गिरवी करारों, झूठे बेचाननामों और धौंस पट्टी के चलते किये गए हैं, जब भी कोई दलित अपने भूमि अधिकार की मांग करता है, तो दबंगों की दबंगई पूरी नंगई के साथ शुरू हो जाती है। ऐसा ही एक जमीन का मसला दलित अत्याचारों के लिए बदनाम डांगावास गांव में विगत 30 वर्षों से कोर्ट में जेरे ट्रायल था, हुआ यह कि बस्ता राम नामक मेघवाल दलित की 23 बीघा 5 बिस्वा जमीन कभी मात्र 1500 रूपये में इस शर्त पर गिरवी रखी गयी कि चिमना राम जाट उसमें से फसल लेगा और मूल रकम का ब्याज नहीं लिया जायेगा। बाद में जब भी दलित बस्ता राम सक्षम होगा तो वह अपनी जमीन गिरवी से छुडवा लेगा। बस्ताराम जब इस स्थिति में आया कि वह मूल रकम दे कर अपनी जमीन छुडवा सकें, तब तक चिमना राम जाट तथा उसके पुत्रों ओमाराम और काना राम के मन में लालच आ गया, जमीन कीमती हो गयी। उन्होंने जमीन हड़पने की सोच ली और दलितों को जमीन लौटने से मना कर दिया। पहले दलितों ने याचना की। फिर प्रेम से गांव के सामने अपना दुखड़ा रखा। मगर जिद्दी जाट परिवार नहीं माना। मजबूरन दलित बस्ता राम को न्यायालय की शरण लेनी पड़ी। करीब तीस साल पहले मामला मेडता कोर्ट में पंहुचा, बस्ताराम तो न्याय मिलने से पहले ही गुजर गया। बाद में उसके दत्तक पुत्र रतनाराम ने जमीन की यह जंग जारी रखी और अपने पक्ष में फैसला प्राप्त कर लिया। वर्ष 2006 में उक्त भूमि का नामान्तरकरण रतना राम के नाम पर दर्ज हो गया तथा हाल ही में कोर्ट का फैसला भी दलित खातेदार रतना राम के पक्ष में आ गया। इसके बाद रतना राम अपनी जमीन पर एक पक्का मकान और एक कच्चा झौंपडा बना कर परिवार सहित रहने लग गया लेकिन इसी बीच 21 अप्रैल 2015 को चिमनाराम जाट के पुत्र कानाराम तथा ओमाराम ने इस जमीन पर जबरदस्ती तालाब खोदना शुरू कर दिया और खेजती के वृक्ष काट लिये। रत्ना राम ने इस पर आपत्ति दर्ज करवाई तो जाट परिवार के लोगों ने ना केवल उसे जातिगत रूप से अपमानित किया बल्कि उसे तथा उसके परिवार को जान से मार देने कि धमकी भी दी गयी। मजबूरन दलित रतना राम मेडता थाने पहंुचा और जाटों के खिलाफ रिपोर्ट दे कर कार्यवाही की मांग की। मगर थानेदार जी चूंकि जाट समुदाय से ताल्लुक रखते हैं सो उन्होंने रतनाराम की शिकायत पर कोई कार्यवाही नहीं की, दोनों पक्षों के मध्य कुछ ना कुछ चलता रहा।
निर्मम नरसंहार
    12 मई को जाटों ने एक पंचायत डांगावास में बुलाने का निश्चय किया, मगर रतना राम और उसके भाई पांचाराम के गांव में नहीं होने के कारण यह स्थगित कर दी गयी। बाद में 14 मई को फिर से जाट पंचायत बैठी। इस बार आर-पार का फैसला करना ही पंचायत का उद्देश्य था। अंततः एकतरफा फरमान जारी हुआ कि दलितों को किसी भी कीमत पर उस जमीन से खदेड़ना है। चाहे जान देनी पड़े या लेनी पड़े। दूसरी तरफ पंचायत होने की सूचना पाकर दलित अपने को बुलाये जाने का इंतजार करते हुये अपने खेत पर स्थित मकान पर ही मौजूद रहे। अचानक उन्होंने देखा कि सैंकड़ों की तादाद में जाट लोग हाथों में लाठियां, लौहे के सरिये और बंदूके लिये वहां आ धमके हैं और मुट्ठी भर दलितों को चारों तरफ से घेर कर मारने लगे। उन्होंने साथ लाये ट्रैक्टरों से मकान तोड़ना भी चालू कर दिया।
    लाठियों और सरियों से जब दलितों को मारा जा रहा था। इसी दौरान किसी ने रतनाराम मेघवाल के बेटे मुन्नाराम को निशाना बना कर फायर कर दिया लेकिन उसी वक्त किसी और ने मुन्ना राम के सिर के पीछे की और लोहे के सरिये से भी वार कर दिया जिससे मुन्नाराम गिर पड़ा और गोली रामपाल गोस्वामी को जा कर लग गयी जो कि जाटों की भीड़ के साथ ही आया हुआ था। गोस्वामी की बेवजह हत्या के बाद जाट और भी उग्र हो गये। उन्होंने मानवता की सारी हदें पार करते हए वहां मौजूद दलितों का निर्मम नरसंहार करना शुरू कर दिया। ट्रेक्टर जो कि खेतों में चलते हैं और फसलों को बोने के काम आते हैं। वे निरीह, निहत्थे दलितों पर चलने लगे। पूरी बेरहमी से जाट समुदाय की यह भीड़ दलितों को कुचल रही थी। तीन दलितों को ट्रैक्टरों से कुचल कुचल कर वहीं मार डाला गया। इन बेमौत मारे गए दलितों में श्रमिक नेता पोकर राम भी था जो उस दिन अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए अपने भाई गणपत मेघवाल के साथ वहां आया हुआ था। जालिमों ने पोकर राम के साथ बहुत बुरा सलूक किया। उस पर ट्रैक्टर चढाने के बाद उसका लिंग नोंच लिया गया तथा आंखों में जलती लकडि़यां डाल कर आंखें फोड़ दी गयी। महिलाओं के साथ ज्यादती की गयी और उनके गुप्तांगों में लकडि़यां घुसेड़ दी गयी। तीन लोग मारे गए, 14 लोगों के हाथ पांव तोड़ दिये गए, एक ट्रेक्टर ट्रोली तथा चार मोटरसाइकिलें जलाकर राख कर दी गयी, एक पक्का मकान जमींदोज कर दिया गया और कच्चे झौपड़े को आग के हवाले कर दिया गया। जो भी समान वहां था उसे लूट ले गए। इस तरह तकरीबन एक घंटा मौत के तांडव चलता रहा, लेकिन मात्र 4 किलोमीटर दूरी पर मौजूद पुलिस सब कुछ घटित हो जाने के बाद पहुंची और घायलों को अस्पताल पहुंचाने के लिए एम्बुलेंस बुलवाई, जिसे भी रोकने की कोशिश जाटों की उग्र भीड़ ने की। इतना ही नहीं बल्कि जब गंभीर घायलों को मेड़ता के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां भी पुलिस तथा प्रशासन की मौजूदगी में ही धावा बोलकर बचे हुए दलितों को भी खत्म करने की कोशिश की गयी। यह अचानक नहीं हुआ, सब कुछ पूर्वनियोजित था।
    ऐसी दरिंदगी जो कि वास्तव में एक पूर्वनियोजित नरसंहार ही था, इसे नागौर की पुलिस और प्रशासन जमीन के विवाद में दो पक्षों की खूनी जंग करार दे कर दलित अत्याचार की इतनी गंभीर और लौमहर्षक वारदात को कमतर करने की कोशिश कर रही है। पुलिस ने दलितों की ओर से अर्जुन राम के बयान के आधार पर एक कमजोर सी एफआईआर दर्ज की है जिसमें पोकरराम के साथ की गयी इतनी अमानवीय क्रूरता का कोई जिक्र तक नहीं है और न ही महिलाओं के साथ हुयी भयावह यौन हिंसा के बारे में एक भी शब्द लिखा गया है। सब कुछ पूर्वनियोजित था, भीड़ को इकट्टा करने से लेकर रामपाल गोस्वामी को गोली मारने तक की पूरी पटकथा पहले से ही तैयार थी ताकि उसकी आड़ में दलितों का समूल नाश किया जा सके। कुछ हद तक वह यह करने में कामयाब भी रहे, उन्होंने बोलने वाले और संघर्ष कर सकने वाले समझदार घर के मुखिया दलितों को मौके पर ही मार डाला। बाकी बचे हुए तमाम दलित स्त्री पुरुषों के हाथ और पांव तोड़ दिये जो जिन्दगी भर अपाहिज की भांति जीने को अभिशप्त रहेंगे, दलित महिलाओं ने जो सहा वह तो बर्दाश्त के बाहर है तथा उसकी बात करना ही पीड़ाजनक है, इनमें से कुछ अपने शेष जीवन में सामान्य दाम्पत्य जीवन जीने के काबिल भी नहीं रही। इससे भी भयानक साजिश यह है कि अगर ये लोग किसी तरह जिंदा बच कर हिम्मत करके वापस डांगावास लौट भी गये तो रामपाल गोस्वामी की हत्या का मुकदमा उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, यानि कि बाकी बचा जीवन जेल की सलाखों के पीछे गुजरेगा, अब आप ही सोचिये ये दलित कभी वापस उस जमीन पर जा पाएंगे। क्या इनको जीते जी कभी न्याय हासिल हो पायेगा? आज के हालात में तो यह असंभव नजर आता है।
    कुछ दलित एवं मानव अधिकार जन संगठन इस नरसंहार के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं मगर उनकी आवाज कितनी सुनी जाएगी यह एक प्रश्न है। सूबे की भाजपा सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी है। कोई भी जिम्मेदार सरकार का नुमाइंदा घटना के चौथे दिन तक ना तो डांगावास पंहुचा था और ना ही घायलों की कुशलक्षेम जानने आया। अब जबकि मामले ने तूल पकड़ लिया है तब सरकार की नींद खुली है, फिर भी मात्र पांच किलोमीटर दूर रहने वाला स्थानीय भाजपा विधायक सुखराम आज तक अपने ही समुदाय के लोगों के दुःख को जानने नहीं पंहुचा। नागौर जिले में एक जाति का जातीय आतंकवाद इस कदर हावी है कि कोई भी उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकता है। दूसरी ओर जाट समुदाय के छात्र नेता, कथित समाजसेवक और छुटभैये नेता इस हत्याकाण्ड के लिए एक दूसरे को सोशल मीडिया पर बधाईयां दे रहे हैं तथा कह रहे हैं कि आरक्षण तथा अजा/जजा कानून की वजह से सिर पर चढ़ गए इन दलितों को औकात बतानी जरूरी थी, वीर तेज पुत्रों ने दलित पुरुषों को कुचल कुचल कर मारा तथा उनके आंखों में जलती लकडि़यां घुसेडी और उनकी नीच औरतों को रगड़-रगड़ कर मारा तथा ऐसी हालत की कि वे भविष्य में कोई और दलित पैदा ही नहीं कर सकें। इन अपमानजनक टिप्पणियों के बारे में मेडता थाने में दलित समुदाय की तरफ से एफआईआर भी दर्ज करवाई गयी है, जिस पर कार्यवाही का इंतजार है।
अगर डांगावास नरसंहार की निष्पक्ष जांच करवानी है तो इस पूरे मामले को सीबीआई को सौंपना होगा क्योंकि अभी तक तो जांच अधिकारी भी जाट लगा कर राज्य सरकार ने साबित कर दिया है कि वह कितनी संवेदनहीन है। आखिर जिन अधिकारियों के सामने जाटों ने यह तांडव किया और उसकी इसमें मूक सहमति रही, जिसने दलितों की कमजोर एफआईआर दर्ज की और दलितों को फंसाने के लिए जवाबी मामला दर्ज किया तथा पोस्टमार्टम से लेकर मेडिकल रिपोर्टस तक सब मैनेज किया, उन्हीं लोगों के हाथ में जांच दे कर राज्य सरकार ने साबित कर दिया कि उनकी नजर में भी दलितों की औकात कितनी है। इतना सब कुछ होने के बाद भी दलित खामोश हैं, यह आश्चर्यजनक बात है। कहीं कोई भी हलचल नहीं है। मेघसेनाएं, दलित पैंथर्स, दलित सेनाएं, मेघवाल महासभाएं सब कौन से दड़बे में छुपी हुयी हैं? अगर इस नरसंहार पर भी दलित संगठन नहीं बोले तब तो कल हर बस्ती में डांगावास होगा, हर घर आग के हवाले होगा, हर दलित कुचला जायेगा और हर दलित स्त्री यौन हिंसा की शिकार होगी, हर गांव बथानी टोला होगा, कुम्हेर होगा, लक्ष्मणपुर बाथे और भगाना होगा। इस कांड की भयावहता और वहशीपन देख कर पूछने का मन करता है कि क्या यह एक और खैरलांजी नहीं है? अगर हाँ तो हमारी मरी हुयी चेतना कब पुनर्जीवित होगी या हम मुर्दा कौमों की भांति रहेंगे अथवा जिंदा लाशें बन कर धरती का बोझ बने रहेंगे। अगर हम दर्द से भरी इस दुनिया को बदल देना चाहते है तो हमें सड़कों पर उतरना होगा और तब तक चिल्लाना होगा जब तक कि डांगावास के अपराधियों को सजा नहीं मिल जाये और एक एक पीडि़त को न्याय नहीं मिल जाये, उस दिन के इंतजार में हमें रोज रोज लड़ना है, कदम कदम पर लड़ना है और हर दिन मरना है, ताकि हमारी भावी पीढियां आराम से, सम्मान और स्वाभिमान से जी सकें।
(लेखक राजस्थान में दलित, आदिवासी और घुमन्तु समुदाय के लिए संघर्षरत है)
(साभारः प्रतिरोध ब्लाॅग)

साम्प्रदायिक घटनाओं में कमीः साम्प्रदायिक मानसिकता में वृद्धि
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    सन् 2014 में साम्प्रदायिक हिंसा देश के उन इलाकों में भी फैल गयी, जहां उसका कोई इतिहास नहीं था। हापुड़ और लोनी (उत्तरप्रदेश) जैसे छोटे शहरों व हरियाणा के गुड़गांव को साम्प्रदायिक हिंसा ने अपनी चपेट में ले लिया। सहारनपुर और हैदराबाद में मुसलमानों और सिक्खों के बीच साम्प्रदायिक झड़पें हुईं।
    सन् 2014 की लक्षित हिंसा की सबसे भयावह घटना 23 दिसम्बर को हुई जब असम के कोकराझार और सोनीपुर जिलों में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आॅफ बोडोलैण्ड (एनडीएफबी) के सोंगबिजित धड़े के उग्रवादियों ने महिलाओं और बच्चों सहित, 76 आदिवासियों की जान ले ली। लगभग 7,000 ग्रामीणों को अपने घरबार छोड़कर भागना पड़ा। आदिवासियों द्वारा की गयी बदले की कार्यवाही में तीन बोडो मारे गये। 
    सन् 2014 में साम्प्रदायिक हिंसा की 561 घटनाएं हुईं, जबकि सन् 2013 में ऐसी घटनाओं की संख्या 823 थी। सन् 2014 में साम्प्रदायिक हिंसा में 90 लोग मारे गये और 1,688 घायल हुए। सन् 2013 में ये आंकड़े क्रमशः 133 व 2,269 थे। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री ने ‘‘धार्मिक कारकों, लैंगिक विवादों, मोबाइल एप्स अथवा सोशल मीडिया में धर्म या धार्मिक प्रतीकों के कथित अपमान, धार्मिक स्थलों की जमीन को लेकर विवाद और अन्य मुद्दों’’ को साम्प्रदायिक हिंसा भड़कने का कारण बताया। 
    सन् 2014 में साम्प्रदायिक हिंसा में (असम की नस्लीय हिंसा को शामिल करके) 201 व उसे छोड़कर 90 लोग मारे गये। इसकी तुलना में, आतंकी हमलों में 18 लोगों की मृत्यु हुई और 19 घायल हुए। मारे जाने वालों में 3 पुलिसकर्मी और 4 अतिवादी थे। जम्मू-कश्मीर में हुए आतंकी हमलों में 27 लोग मारे गये। इनमें शामिल थे 15 सुरक्षाकर्मी, 4 नागरिक और 8 अतिवादी। इन हमलों में 5 लोग घायल हुए, जिनमें से एक सरपंच और चार सीमा सुरक्षा बल कर्मी थे। इसके बावजूद, गुवाहाटी में 29 नवम्बर 2014 को राज्यों के पुलिस महानिरीक्षकों और महानिदेशकों की 49वीं वार्षिक बैठक को संबोधित करते हुए केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि आतंकवाद, देश की सुरक्षा के लिए एक गम्भीर चुनौती है और सरकार यह सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्ध है कि दुनिया के किसी भी आतंकी संगठन को भारत में अपने पैर जमाने की इजाजत न दी जाए। उन्होंने संदेह व्यक्त किया कि देश के कुछ पथभ्रष्ट युवा आईसिस जैसे आतंकी संगठनों की ओर आकर्षित हो सकते हैं परन्तु सरकार उन्हें रोकने का हर संभव प्रयास करेगी। साम्प्रदायिक हिंसा में मारे गये लोगों की संख्या, आतंकवादी हमलों की तुलना में 14 गुना थी। परन्तु गृहमंत्री के उद्घाटन भाषण में साम्प्रदायिक हिंसा का जिक्र तक नहीं था। 
    अगर हम असम को छोड़ दें, जहां एनडीएफबी के सोंगबिजित धड़े द्वारा मई में बंगाली मुसलमानों और दिसम्बर में आदिवासियों पर किये गये हमलों में कुल 111 लोग मारे गये, तो 2014 में सभी राज्यों में उत्तरप्रदेश में साम्प्रदायिक हिंसा की सर्वाधिक घटनाएं हुईं। लोकसभा में दी गयी जानकारी के अनुसार, सन् 2014 में उत्तरप्रदेश में हुई 129 साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में 25 लोग मारे गये और 364 घायल हुए। इस मामले में महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर रहा जहां 82 घटनाओं में 12 लोगों की जानें गयीं और 165 घायल हुए। इसी राज्य में, 2013 में 88 साम्प्रदायिक दंगों में 12 लोग मारे गये थे और 352 घायल हुए थे। तीसरे नम्बर पर रहा कर्नाटक जहां 68 घटनाओं में 6 लोगों की मृत्यु हुई और 151 घायल हुए।  सन् 2013 में कर्नाटक में 73 घटनाओं में 11 लोग मारे गये थे और 235 घायल हुए थे। गुजरे साल में राजस्थान में साम्प्रदायिक हिंसा की 61 घटनाएं हुईं, जिनमें 13 लोगों ने अपनी जानें गंवाई और 116 लोग घायल हुए। गुजरात में 59 घटनाओं में 8 लोगों की जानें गयीं और 172 घायल हुए। सन् 2013 में गुजरात में 68 हिंसक साम्प्रदायिक झड़पों में 10 लोगों की मृत्यु हुई थी और 184 घायल हुए थे। सन् 2014 में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं के लिहाज से बिहार पांचवे स्थान पर रहा, जहां 51 घटनाओं में 4 लोग मारे गये और 267 घायल हुए। सन् 2013 में बिहार में हुई 63 घटनाओं में 7 लोग मारे गये थे और 283 घायल हुए थे। 
    हमारे देश में एक सांगठनिक ‘दंगा निर्माण प्रणाली’ विकसित हो गयी है जो राजनैतिक परिस्थितियों के अनुकूल होने पर, जब चाहे दंगे भड़काने में सक्षम है। यह सांगठनिक ढांचा दिन-प्रतिदिन मजबूत होता जा रहा है और भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद से इसके हौंसले और बुलंद हुए हैं। यदि सन् 2014 में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं और उनमें मारे जाने वाले लोगों की संख्या, सन् 2013 की तुलना में कम रही तो इसका कारण यह था कि इस वर्ष दंगों या लक्षित हिंसा से कोई विशेष राजनैतिक लाभ मिलने की उम्मीद नहीं थी। 
    छत्तीसगढ़ के बस्तर में ईसाईयों का सामाजिक बहिष्कार हो रहा है और उनके संगठनों को आरएसएस के निर्देशों के अनुरूप काम करना पड़ रहा है। बस्तर के ईसाई इतने आतंकित हैं कि उनके संगठनों ने एक तथ्यान्वेषण दल (जिसका गठन धार्मिक स्वातन्त्रय के संवैधानिक अधिकार के उल्लंघन के मामलों का अध्ययन करने के लिए किया गया था) से उसकी बस्तर यात्रा रद्द करने को कहा गया क्योंकि उन्हें डर था इससे उनके खिलाफ हिंसा में और तेजी आयेगी। ऐसा लगता है कि साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में कमी और अल्पसंख्यकों को आतंक के साए में रहने के लिए मजबूर किया जाना- ये दोनों ही हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों की सोची-समझी रणनीति का अंग है।
    अल्पसंख्यकों को आतंकित करने की इस कोशिश की प्रतिक्रिया में एमआईएम के तेवर और अधिक आक्रामक होते जा रहे हैं और उसके नेता जहर उगल रहे हैं। इससे हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों को दो तरह से लाभ हो रहा है। एक तो जनता और मीडिया का ध्यान उनकी हरकतों से हट रहा है और दूसरे, उन्हें अपनी कार्यवाहियों और कथनों को उचित ठहराने का मौका मिल रहा है। ‘आप’ के नेताओं ने तो भाजपा पर यह आरोप तक लगाया है कि उसने ही दिल्ली के चुनाव में एमआईएम के उम्मीदवारों को प्रायोजित किया है क्योंकि चुनाव मैदान में एमआईएम की मौजूदगी के कारण धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा और अंततः इससे भाजपा लाभान्वित होगी। 
    सन् 2004 में सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक घटनाएं उत्तरी और पश्चिमी भारत में हुईं, यद्यपि घटनाओं और मरने व घायल होने वालों की संख्या में सन् 2013 की तुलना में कमी आई। ऐसा प्रतीत होता है कि साम्प्रदायिकता भड़काकर दंगे करवाने का मुख्य लक्ष्य चुनाव में लाभ पाना होता है। दक्षिण भारत में केवल कर्नाटक में साम्प्रदायिक हिंसा हुई। मध्य प्रदेश में सन् 2013 में हुई साम्प्रदायिक हिंसा की 84 घटनाओं की तुलना में सन् 2014 में केवल 42 घटनाएं हुईं व इस कारण यह राज्य साम्प्रदायिक हिंसा से सबसे अधिक प्रभावित पांच राज्यों की सूची से हट गया। साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में कमी का कारण यह था कि सन् 2013 में राज्य में विधानसभा चुनाव थे और इसलिए साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया। कई अध्ययनों से यह साफ हो गया कि अन्य पार्टियों की तुलना में, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से सबसे अधिक लाभ भाजपा केा मिलता है। यही कारण है कि चुनाव के कुछ महीने पहले से साम्प्रदायिक हिंसा में वृद्धि होने लगती है। सन् 2013 में अकेले उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में साम्प्रदायिक दंगों में 77 लोग मारे गये थे। भाजपा और उसके सहयोगियों ने 2014 की शुरूवात में हुए लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश में 80 में से 74 लोकसभा सीटों पर विजय हासिल की और भाजपा ने मुजफ्फरनगर और मुरादाबाद मेें हुई साम्प्रदायिक हिंसा के आरोपी अपने नेताओं का सार्वजनिक रूप से सम्मान किया। 
    यद्यपि सन् 2014 में पिछले वर्ष की तुलना में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं कम हुईं और इनमें मारे जाने और घायल होने वाले लोगों की संख्या में भी कमी आई परन्तु समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करने और साम्प्रदायिक घृणा फैलाने के प्रयास अनवरत जारी रहे। भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने खुलेआम यह कहा कि वे ऐसे अंर्तधार्मिक विवाह नहीं होेने देंगे जिनमें लड़का मुसलमान और लड़की हिंदू हो। उन्होंने बिना किसी आधार के यह आरोप लगाया कि एक षड्यंत्र के तहत, हिंदू लड़कियों को प्रेमजाल में फंसाकर उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया जा रहा है। इस षड्यंत्र को उन्होंने लव जिहाद का नाम दिया। हिन्दू राष्ट्रवादियों ने देश के उत्तरी व पश्चिमी इलाकों में इस तरह के विवाहों के खिलाफ कटु अभियान चलाया और घर-घर इसका विरोध करते हुए पर्चे व पुस्तिकाएं बांटी। इसके बाद राजस्थान में चुनाव सभाओं को संबोधित करते हुए भाजपा सरकार में मंत्री मेनका गांधी ने बिना कोई प्रमाण प्रस्तुत किए यह आरोप लगाया कि गौवध से होने वाले मुनाफे का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों को प्रायोजित करने के लिए किया जा रहा है। अगर मेनका गांधी के पास इस आशय के कोई पुख्ता सुबूत हैं तो उन्हें ये सुबूत पुलिस को सौंपने चाहिए ताकि उनकी जांच की जा सके। परन्तु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। एक अन्य मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने दिल्ली में एक घिनौने भाषण में कहा कि भारतीयों के दो वर्ग हैं- रामजादे और हरामजादे- अर्थात् सभी गैर-हिंदू अवैध संतानें हैं। 
    विहिप ने आगरा में गरीब मुसलमानों जोकि कचड़ा बीनकर अपना जीवनयापन करते हैं, को हिंदू बनाने का अभियान चलाया। इसके लिए धमकी और लोभ दोनों का इस्तेमाल किया गया। धमकी यह दी गयी कि अगर वे हिंदू न बने तो उनकी झुग्गियों को उखाड़ फेंका जायेगा और लालच यह दिया गया कि अगर वे अपना धर्म बदलने को तैयार हो जायेंगे तो उन्हें राशन व बीपीएल कार्ड आदि उपलब्ध करवाये जायेंगे। इसके बाद यह धमकी भी दी गयी कि आगरा में क्रिसमस के आसपास बड़ी संख्या में अन्य धर्मों के लोगों को हिंदू बनाया जायेगा और प्रवीण तोगडिया ने यह फरमाया कि भारत में हिन्दुओं की आबादी का प्रतिशत 82 से बढ़ाकर 100 किया जायेगा। एक अन्य भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने यह आधारहीन और तथ्यों के विपरीत आरोप लगाया कि सभी मदरसे आतंकी प्रशिक्षण के अड्डे हैं। तथ्य यह है कि कई मदरसों में हिंदू बच्चे भी पढ़ते हैं। साक्षी महाराज ने ही गोडसे को देशभक्त बताया और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने यह कहा कि वे चाहती हैं कि गीता को राष्ट्रीय पुस्तक घोषित किया जाए। 
    भाजपा नेताओं व हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा घृणा फैलाने के प्रयासों के ये चंद उदाहरण भर हैं। भाजपा नेताओं ने यह बयान भी दिया कि वे हर मस्जिद से लाउडस्पीकर उतार लेंगे। इस तरह के भड़काऊ और आधारहीन वक्तव्यों में से केवल कुछ ही राष्ट्रीय मीडिया में स्थान पाते हैं और उनसे कुछ ज्यादा को क्षेत्रीय भाषाओं के मीडिया में जगह मिलती है परन्तु ऐसे अनेक वक्तव्य और भाषण न तो राष्ट्रीय और न ही क्षेत्रीय मीडिया में प्रकाशित होते हैं। आम चुनाव में भाजपा की जीत के बाद, अलग-अलग बैनरों के तहत काम कर रहे हिंदू राष्ट्रवादियों की हिम्मत बहुत बढ़ गयी है। वे यह मानने लगे हैं कि उनकी हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा, देश के कानून से ऊपर है और वे जो चाहे कर सकते हैं। वे खुलकर विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच घृणा और शत्रुता को बढ़ावा दे रहे हैं और उनके मुख्य निशाने पर हैं अल्पसंख्यक समुदाय। 
    कई मामलों में इस तरह के अभियोगों से धन भी कमाया जा रहा है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं जब मवेशियों को ले जा रहे ट्रकों, जिनका या तो ड्राइवर अथवा मालिक मुसलमान था, को रोक लिया गया और मवेशियों को हिंदुत्व कार्यकर्ता इस बहाने अपने घर ले गए कि इन ट्रकों में गायों को काटने के लिए ले जाया जा रहा था। ऐसे ट्रकों को तभी आगे जाने दिया जाता है जब या तो ड्राइवर अथवा मालिक बड़ी रकम चुकाने को तैयार हो। इसी तरह, बांग्लादेशी मुस्लिम प्रवासियों को घुसपैठिया बताया जा रहा है और ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों में क्रिसमस व नये साल पर होने वाले कार्यक्रमों में हुडदंग मचाने की घटनाएं हो रही हैं। यह आरोप लगाया जाता है कि ईसाई स्कूल, हिंदू विद्यार्थियों का धर्मपरिवर्तन करवा रहे हैं। इस तरह के आधारहीन आरोपों को क्षेत्रीय भाषाओं के मीडिया में भारी प्रचार मिलता है और इससे हिंदू राष्ट्रवादी संगठन, अल्पसंख्यकों की छवि ऐसे एकसार समुदायों के रूप में प्रस्तुत करने में सफल होते हैं जो राष्ट्र-विरोधी और हिंदू-विरोधी हैं। वे सोशल मीडिया के जरिये अल्पसंख्यकों के पवित्र और धार्मिक प्रतीकों का अपमान कर अल्पसंख्यकों को भड़काने की कोशिश भी करते रहते हैं। 
    सच तो यह है कि देश में धार्मिक ध्रुवीकरण इस हद तक बढ़ गया है कि अलग-अलग समुदायों के दो व्यक्तियों के बीच कोई छोटा-सा विवाद भी साम्प्रदायिक रंग अख्तियार कर लेता है। सोमनाथ में आॅटोरिक्शा चालक को दस रुपये कम देने के विवाद मे भड़की साम्प्रदायिक हिंसा में 25 लोग घायल हो गये। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साम्प्रदायिक हिंसा पर दस साल के लिए रोक लगाने की बात कही है। परंतु या तो उनकी पार्टी के सदस्य अपने नेता की बात नहीं मान रहे हैं और या फिर भाजपा में कार्यों का स्पष्ट विभाजन है- प्रधानमंत्री विकास की बात करते हैं और अन्य नेता अपना काम करते हैं। 
    लगातार दुष्प्रचार के जरिये समाज में धु्रवीकरण तो हुआ ही है आम लोगोें के दिमागों में जहर भर गया है और अल्पसंख्यक अपने आप को गंभीर खतरे में महसूस करने लगे हैं। यह इससे भी स्पष्ट है कि सभी जातियों के लोगों ने अपने अल्पसंख्यक-विरोधी रुख के चलते, लोकसभा चुनावों में भाजपा को वोट दिया। हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन, एक रणनीति के तहत बहुत अधिक हिंसा नहीं कर रहे हैं। वे हिंसा की बजाए लोगों के दिमागों का साम्प्रदायिकीकरण करने में जुटे हैं ताकि देश में 1992-93 व 2002 से भी बड़े दंगे करवाये जा सकें। परन्तु यह तभी करवाया जायेगा जब सरकार अलोकप्रिय हो जायेगी।
 (अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
(साभारः हिन्दी सेक्युलर पर्सपेक्टिव, जनवरी प्रथम 2015)

उत्तराखंड: खनन सम्पदा के बेखौफ लुटेरे
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    उत्तराखंड की नदियों में रेता, पत्थर बजरी के रूप में बेशुमार दौलत बिखरी हुयी है। खनन माफिया और प्रेदश सरकार मिलकर इस बेशुमार दौलत को लूटने में लगे हैं। देश की युवा पीढ़ी जिसे इस देश का भविष्य बनना है वह एक ही सपना देखता है कि वह कहीं से एक डम्पर ले आए और रातों-रात लखपति-करोड़पति बन जाए। राजनैतिक दलों के छुटभैये नेता से लेकर कुछ ग्राम प्रधान, बीडीसी तक इस बेशुमार दौलत को नदियों से चोर कर स्टोन क्रेशरों तक पहुंचाने के गोरख धंधे में लगे हुए हैं।
    एक टेªक्टर तथा 6 टायर वाला डम्पर 9 टन(5 घन मीटर) रेता,बजरी,पत्थर (उप खनिज) की रायल्टी देकर नदी से बाहर निकलता है। वह वन विभाग, वन निगम, पुलिस  व प्रशासन की मिली भगत से एक बार की रायल्टी का भुगतान कर तीन चक्कर उपखनिज स्टोन क्रेशर में डालता है। वन निगम की रायल्टी 290 रुपये प्रति घन मीटर (16 रुपये11 पैसे प्रति कु.) की दर से एक गाड़ी पर 1450 रुपये। वन विभाग प्रति गाड़ी पर 75 रुपये ट्रांजिट शुल्क का लेता है तथा 1.50 रुपये कुन्तल की दर से रायल्टी लेता है। इस प्रकार वन विभाग तथा वन निगम द्वारा रायल्टी ट्रांजिट शुल्क मिलाकर 5 घन मीटर (90 कु.) पर 1660 रुपये की वसूली करता है। ज्यादातर वाहनों में 90 कु. की जगह लगभग 200 कु. उपखनिज भरा जाता है जिसे नदी से निकालकर गाड़ी में भरने के लिए मजदूरों को 1000 रुपये का भुगतान किया जाता है। इस तरह एक 200 कु. उपखनिज लोड किये वाहन के लिए 2660 रुपये का भुगतान किया जाता है। एक वाहन एक बार की रायल्टी का भुगतान करने के बाद तीन चक्कर लगाकर 600 कु. उपखनिज स्टोन क्रेशर में डालता है। डम्पर स्वामी बताते हैं कि उन्हें मजदूरी का भुगतान स्वयं करना पड़ता है तथा स्टोन क्रेशर स्वामी उन्हें 12 रुपये कु. का भाड़ा मजदूरी का भुगतान मिलाकर करता है। कई बार वह 10 प्रतिशत गाड़ी में मिट्टी भी काट लेता है। 
    यदि उक्त सभी का गुणा भाग निकाल लिया जाए तो एक बार की रायल्टी, मजदूरी का भुगतान करने के बाद स्टोन क्रेशर स्वामी को 600 कु. उपखनिज के लिए 8860 रुपये का भुगतान करना पड़ता है। जिसमें वाहन का भाड़ा भी शामिल है। इस तरह स्टोन क्रेशर स्वामी को उपखनिज 14.77रुपये कु. की दर से प्राप्त होता है। जिसको स्टोन क्रेशर स्वामी बाजार में 30-32 रुपये कु. बेच रहे हैं। तथा जब नदियों से खनन बंद हो जाता है तो यही उपखनिज वे 50 रुपये से भी अधिक की दर पर बेचते हैं।बगैर अनुमति के रातों-रात की जा रही उपखनिज चोरी की तो कहीं पर भी गिनती ही नहीं है।
    यानि कि दो गुना मुनाफा हाथों-हाथ। कुछ समय रूक गये तो एक के तीन। इतना अति मुनाफा किसी अन्य धंधे में कहां? यही कारण है कि सरकार के मंत्रियों से लेकर पूंजीपतियों की नजर खनन के  खेल पर है।
    वन विकास निगम अध्यक्ष हरीश धामी ने 8 अप्रैल को खनन में लिप्त डम्फर चालक से मारपीट की तथा उस पर हवाई फायर झौंकते हुए ड्राइवर के खिलाफ दफा 307 का मुकदमा लगा दिया तथा अगले दिन मुकदमा वापस भी ले लिया। इस सबके पीछे उनका उद्देश्य खनन माफियाओ से लेन-देन की सैटिंग करना बताया जा रहा है। हरीश धामी ने हरीश रावत के लिए धारचूला से विधान सभा सीट छोड़ी है बताया जा रहा है कि इसके ईनाम स्वरुप उन्हें मोटी कमाई वाले वन विकास निगम अध्यक्ष के पद से नवाजा गया है।
    उत्तराखंड की नदियों में खनन की नहीं चुगान की अनुमति है। चुगान का मतलब है कि नदियों की सतह से 6-8 इंच नीचे तक ही रेता पत्थर इत्यादि निकाला जा सकता है। परंतु मुनाफे की अंधी हवस में खनन माफियाओं ने नदियों को खोदकर पाताल तक गहरा बना दिया है। नदियों के बीच बने गड्ढों में उपखनिज लेने उतरी गाड़ी किसी को दिखाई भी नहीं देती।
    नदियों में चुगान करने के लिए फावड़ों, बेलचों के इस्तेमाल की ही अनुमति है। परंतु नदियों में चुगान नहीं खनन होता है। बड़ी-बड़ी जेसीबी मशीनों द्वारा नदियों का सीना रौंदा जाता है। नदियों को जीवन दायनी मानने वाले, गंगा को मां बताने वाले को नदियों की छाती को जेसीबी से रौंदने पर जरा सी भी शर्म नहीं आती।
    मात्र कुमाऊं में ही 65 स्टोन क्रेशरों को अनुमति दी गयी है। कोसी व दाबका से चुगान के लिए 14 लाख घन मीटर की अनुमति है। परंतु वास्तविकता में नदियों में चुगान नहीं खनन होता है। जानकारों के मुताबिक 14 लाख घन मीटर की अनुमति में 50-60 लाख घन मीटर से भी अधिक उपखनिज कोसी व दाबका से निकाला जायेगा। स्टोन क्रेशरों ने गहरे  गड्ढे खोद कर उपखनिज स्टोर किया हुआ है। सूत्रों का कहना है कि उससे ज्यादा उन्होंने जमीन के भीतर छुपाया हुआ है। खनन लाॅबी की पहुंच सरकार तक है। सरकार के कई मंत्रियों के स्टोन क्रेशरों में हिस्सेदारी है। खनन की लूट का हिस्सा वन निगम, वन विभाग, पुलिस प्रशासन, पर्यावरण खान विभाग के अधिकारी कर्मचारियों के साथ सरकार तक पहुंचता है। जो मजदूर उपखनिज निकालता है उसे मिलता है 5-6 रुपये कु. और जो उपभोक्ता इसे खरीदता है उसे भुगतान करना पड़ता है 30 से 60 रुपये कु. तक। 
  स्टोन क्रेशर में क्रश करने तथा डम्पर का किराया तथा रायल्टी वगैरह जोड़कर इसकी कुल लागत 17-18 रुपये कु. से अधिक नहीं पड़ती तो सवाल उठता है कि यह नदियों में बिखरी प्राकृतिक सम्पदा किसकी है और इसका मालिक कौन है। इसे लूटने की अनुमति माफियाओं को क्यों दी जा रही है?
    खनन माफिया इन प्राकृतिक सम्पदा को अपनी बपौती समझते हैं। यदा-कदा वन विभाग अथवा पुलिस के ईमानदार अधिकारी यदि कभी मौके पर जाकर खनन चोरी को रोकने की कोशिश करते हैं। तो खनन माफिया उन पर फायरिंग तक कर देते हैं। इस कारण पुलिस व अन्य विभाग उनके ऊपर कार्यवाही करते हुए डरते हैं। भ्रष्ट अधिकारी व कर्मचारी तो इन लूटेरों के साथ-साथ दावतें उडाते हैं।
    सरकार के नियमों के अनुसार स्टोन क्रेशर आबादी तथा नदी से कम से कम 500 मीटर दूरी पर होने चाहिए तथा ग्रीन बेल्ट, दीवार तथा क्रेशर से निकलने वाला पानी शोधित करके ही छोड़ा जाए इत्यादि नियम बनाए गये हैं। स्टोन क्रेशर स्वामी नियम कानूनों को ताख पर रखकर, यहां तक की बगैर अनुमति के अपने प्लांट चलाते हैं। स्टोन क्रेशर की अनुमति के लिए पर्यावरण मानकों को पूरा करना जरूरी नहीं बल्कि सुविधा शुल्क देना जरूरी है। क्षमता से अधिक उपखनिज लेकर सड़कों पर दौड रहे डम्पर जनता के लिए किसी यमदूत से  कम नहीं हैं।
    खनन क्षेत्र में बढ़ रही गुण्डागर्दी को रोकने के लिए उत्तराखंड मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बयान दिया है कि वे उत्तराखंड की कोसी व दाबका नदी को निजी हाथों में दे देगें। इससे साफ है कि खनन का काम वन विकास निगम से छीनकर किसी माफिया के सुपुर्द कर दिया जायेगा। सरकार यदि ऐसा करती है तो इसे  खनन में लूट व गुण्डागर्दी की समस्या कम नहीं होगी बल्कि बढे़गी।
    31 मार्च को हुए हमले के बाद वीरपुर लच्छी गांव में 6 अप्रैल को हुयी महापंचायत में उत्तराखंड सरकार की खनन नीति पर भी चर्चा हुयी। महापंचायत ने नदियों से चुगान का काम निजी क्षेत्र से हटाने की पुरजोर वकालत की गयी। तथा प्रस्ताव पारित किया गया कि नदियों से  खनन/चुगान, भंडारण विपणन तथा स्टोन क्रेशरों में पत्थर तोडे़ जाने इत्यादि के काम से निजी क्षेत्र को दूर रखा जाए तथा उक्त सभी कार्य सरकार अपने विभाग/ निगम के माध्यम से करवाए। सभी निजी स्टोन क्रेशरों को सरकार अधिग्रहरण कर उनका राजकीयकरण करे तथा स्टोन क्रेशर चलाने व उपखनिज का भंडारण आबादी से दूर खनन जोन बनाकर सरकार द्वारा वहां पर किया जाए। 
    प्रस्ताव पर चर्चा करते हुए वक्ताओं ने कहा कि 80 के दशक से पूर्व जंगलों से लकड़ी के कटान व विपणन में ठेकेदारी के माध्यम से काम होता था। ठेकेदार एक गाड़ी लकड़ी की रायल्टी व अनुमति से जंगल के जंगल साफ कर देते थे। सरकार द्वारा 1974 में निगम के गठन के बाद 1985 के बाद से  लकड़ी कटान व विपणन आदि का समूचा कार्य निजी ठेकेदारों से छीनकर निगम के माध्यम से करवाना प्रारंभ कर दिया गया। इससे चोरी व गुण्डागर्दी पर काफी हद तक अंकुश लगा हुआ है। वक्ताओं ने यह भी कहा कि उनकी प्रस्तावित राजकीयकरण की नीति आम डम्पर स्वामियों के खिलाफ नहीं है। इस नीति से डम्पर वालों को साफ-सुथरा रोजगार मिलेगा तथा सरकारी भर्ती से लेकर कई अन्य तरीके के रोजगार के अवसर भी पैदा होगें। तथा जनता को भी अपेक्षाकृत सस्ती दरों पर उपखनिज प्राप्त होगा। साथ ही प्राकृतिक संसाधनों की बेतरतीव लूट रुक सकेगी। 
    फिलहाल उत्तराखंड सरकार महापंचायत के निर्णयों पर विचार करने के लिए तैयार नहीं है। क्योंकि नदियों से हो रही लूट का एक हिस्सा सरकार तक भी पहुंचता है। खनन के राजकीयकरण की नीति से सरकार व उसके मंत्रियों की अवैध आय पर रोक लग जायेगी। परंतु इतिहास में जनता ही सबसे बड़ी ताकत रही है। यदि जनता राजकीयकरण की नीति के समर्थन में उठ खड़ी हुयी तो वह सरकार को नीति बदलने के लिए मजबूर भी कर सकती है
    उत्तराखंड सहित पूरे देश में खनिज व अन्य प्राकृतिक सम्पदा के लुटेरे बेहद शक्तिशाली हैं और शासन-प्रशासन इनके इशारों पर नाचता है। मुकेश अम्बानी जहां देश की तेल सम्पदा का दोहन कर अमीर और अमीर बनता गया है वहां अन्य अपनी बारी में कोयला, लोहा, एल्यूमीनियम आदि बहुमूल्य खनिजों की लूट केन्द्र व राज्य सरकारों के मार्फत कर रहे हैं। स्थानीय आबादी को इन लुटेरों के लिए उजाड़ा जा रहा है। वक्त का तकाजा है देश की जनता इस लूट के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंक दे। और यह संघर्ष इन लूटेरों के तंत्र पूंजीवाद  के खात्मे और समाजवाद की स्थापना की ओर जाता है।
    आंदोलन की अगली कड़ी में 5 मई को कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के आवास 10 जनपथ दिल्ली पर प्रदर्शन का निर्णय लिया गया है। आंदोलनकारी ताकतों का कहना है कि प्रदेश सरकार की चाबी सोनिया गांधी के हाथों में है। अतः उनको घेरा जाना जरूरी है।            विशेष संवाददाता
माफिया राज के खिलाफ दिल्ली में गोष्ठी
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    उत्तराखंड में बढ़ते माफिया राज के खिलाफ वीरपुर लच्छी गांव में पत्रकारों व सामाजिक कार्यकर्ता पर माफियाओं के गुण्डों द्वारा किये गये हमले के संदर्भ में दिल्ली में गढ़वाल भवन में 4 अप्रैल को एक विचारगोष्ठी आयोजित की गयी।
    इस गोष्ठी में दिल्ली के जनवादी व प्रगतिशील बुद्धिजीवियों व पत्रकारों द्वारा भागीदारी की गयी। 
    गोष्ठी में विचार व्यक्त करते हुए वरिष्ठ पत्रकार व उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पीसी तिवारी ने कहा कि ‘नागरिक’ संपादक मुनीष कुमार व उपपा महासचिव प्रभात ध्यानी पर जानलेवा हमले ने जनसंघर्षों से जुड़ाव रखने वाले लोगों को सजग किया है। उन्होंने उत्तराखंड में माफियाराज के खिलाफ संघर्ष को उत्तराखण्ड के लोगों की अस्मिता का संघर्ष बताते हुए कहा कि अगर आज हम चुप रहे तो कल कुछ नहीं बचेगा। उन्होंने कहा कि एक सशक्त राजनीतिक युद्ध है जिसे हमने जनपक्षधर व्यवस्था के लिए इस्तेमाल करना है। 
    गोष्ठी में भागीदारी करते हुए अधिवक्ता रवीन्द्र गढि़या ने कहा कि उत्तराखंड में माफिया राज के खिलाफ संघर्ष को सभी मोर्चे पर लड़ा जाना चाहिए। आधुनिक संचार साधनों से इस संघर्ष में अधिकाधिक लोगों को भागीदारी बनाने की जरूरत है। साथ ही ग्रीन ट्राइब्यूनल में भी इस मुद्दे को ले जाने की जरूरत है। 
    सामाजिक कार्यकर्ता अनिल नौटियाल ने बताया कि खनन आज उत्तराखंड की त्रासदी बन गयी है। इसके चलते पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंच रही है। चन्द्रभागा नदी ने अपना मार्ग बदल दिया है। आने वाले समय में केदार तबाही से सरकारों ने कोई सबक नहीं लिया है।   ‘‘चौपाल’’ पत्रिका के संपादक महेन्द्र सिंह बोरा ने कहा कि माफियाराज के खिलाफ एक सशक्त आंदोलन का निर्माण करने के लिए तमाम जनपक्षधर संगठनों व जनवादी शक्तियों को एकजुट करने की जरूरत है। 
    नागरिक प्रतिनिधि नगेन्द्र ने कहा कि उत्तराखण्ड  में वन माफिया से लेकर खनन माफिया व भूमि माफियाओं के खिलाफ संघर्ष की एक लंबी परम्परा रही है। उत्तराखण्ड आंदोलन की शक्तियां भी इन्हीं जनसंघर्षों की परम्परा से निकली थीं। इन जनसंघर्षों में महिलाओं की सशक्त भूमिका रही है। ‘चिपको आंदोलन’ से लेकर उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन और आज भी जगह-जगह उत्तराखण्ड में जनसंघर्षों में महिलाओं की अग्रणी भूमिका दिखाई देती है। वीरपुर लच्छी भी इसका प्रतिनिधिक उदाहरण है। उन्होंने कहा कि अगर सभी जनपक्षधर आंदोलनकारी शक्तियां अगर एकजुट हो जाएं तो उत्तराखण्ड में माफिया राज का खात्मा संभव है और इस ओर बढ़ा जाना चाहिए। 
    पत्रकार राजेश जोशी ने कहा कि सभी जनपक्षधर शक्तियों को माफिया राज के खिलाफ व्यापक एकजुटता दिखाते हुए वीरपुर लच्छी में विशाल सभा कर माफियाओं को उनके गढ़ में चुनौती देनी चाहिए। 
    सभा की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ पत्रकार व समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि माफियाराज के खिलाफ आंदोलन को आगे ले जाना हमारे सामने आज बड़ी चुनौती है। इस मुद्दे के आधार पर इन तमाम लोगों को इकट्ठा किया जाना चाहिए जो उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के बाद से लगातार उद्वेलित हैं। उन्होंने उत्तराखण्ड में जनसंघर्षों की परम्परा पर बात करते हुए कहा कि ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन के दौर में भी माफिया व राजनेताओं का गठजोड़ था लेकिन आंदोलनकारी शक्तियों के सामने वे नहीं टिकते थे। उत्तराखण्ड राज्य बन जाने के बाद से क्षुद्र स्वार्थों के लोग सत्ता का हिस्सा हो गये। उत्तराखण्ड बनने के 15 सालों में इन्हीं क्षुद्र स्वार्थों के लोगों ने खुद को मजबूत किया है। उत्तराखण्ड को आज पुलिस स्टेट में तब्दील किया जा रहा है ताकि माफिया राज का अंत न हो। वीरपुर लच्छी की घटना एक ‘टेस्ट केस’ है। यह राज्य द्वारा दहशत फैलाने की कोशिश का एक हिस्सा है। यह सही समय है कि आंदोलन की शक्तियों को एक नई पहल कर एकजुट होना चाहिए, एक मंच पर आना चाहिए, व्यापक मोर्चा बनाना चाहिए। उन्होंने उत्तराखण्ड प्रशासक की नीयत पर सवाल उठाते हुए कहा कि उत्तराखण्ड पुलिस को कठघरे में खड़ा करने की जरूरत बनती है कि उसने वीरपुर लच्छी की घटना पर अपराधियों पर धारा 307 का मुकदमा क्यों नहीं दर्ज किया। उन्होंने ‘नागरिक’ पत्र एवं उसके संपादक मुनीष कुमार की निर्भीकता एवं जनपक्षधरता की सराहना की साथ ही उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के महासचिव प्रभात ध्यानी के जुझारू व जनपक्षधर एक्टिविस्ट की भूमिका को।
    गोष्ठी को वरिष्ठ पत्रकार सुरेश नौटियाल, भूपेन बसेरा, प्रेम सुंदरियाल, भरत रावत आदि ने भी संबोधित किया। गोष्ठी का संचालन वरिष्ठ पत्रकार चारू तिवारी ने किया।     दिल्ली संवाददाता
हाशिमपुरा नरसंहार- उत्तर प्रदेश पुलिस के इतिहास का एक काला अध्याय -विभूति नारायण राय
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जो जिन्दगी भर आपका पीछा नहीं छोडते। एक दुःस्वप्न की तरह वे हमेशा आपके साथ चलते हैं और कई बार तो कर्ज की तरह आपके सर पर सवार रहते हैं। हाशिमपुरा भी मेरे लिये कुछ ऐसा ही अनुभव है। 22-23 मई सन् 1987 की आधी रात दिल्ली गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गांव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकण्डों के बीच टार्च की कमजोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना- सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर किसी हाॅरर फिल्म की तरह अंकित है।
    उस रात दस-साढ़े दस बजे हापुड से वापस लौटा था। साथ जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी थे जिन्हें उनके बंगले पर उतारता हुआ मैं पुलिस अधीक्षक निवास पर पहुंचा। निवास के गेट पर जैसे ही कार की हेडलाइट्स पड़ी मुझे घबराया हुआ और उड़ी रंगत वाला चेहरा लिये सब इंसपेक्टर वी.बी.सिंह दिखायी दिया जो उस समय लिंक रोड थाने का इंचार्ज था। मेरा अनुभव बता रहा था कि उसके इलाके में कुछ गंभीर घटा है। मैंने ड्राइवर को कार रोकने का इशारा किया और नीचे उतर गया।
    वी.बी.सिंह इतना घबराया हुआ था कि उसके लिये सुसंगत तरीके से कुछ भी बता पाना संभव नहीं लग रहा था। हकलाते हुये और असंबद्ध टुकडों में उसने जो कुछ मुझे बताया वह स्तब्ध कर देने के लिये काफी था। मेरी समझ में आ गया कि उसके थाना क्षेत्र में कहीं नहर के किनारे पीएसी ने कुछ मुसलमानों को मार दिया है। क्यों मारा? कितने लोगों को मारा? कहां से लाकर मारा? स्पष्ट नहीं था। कई बार उसे अपने तथ्यों को दुहराने के लिये कहकर मैंने पूरे घटनाक्रम को टुकड़े-टुकड़े जोड़ते हुये एक नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की। जो चित्र बना उसके अनुसार वी.बी.सिंह थाने में अपने कार्यालय में बैठा हुआ था कि लगभग 9 बजे उसे मकनपुर की तरफ से फायरिंग की आवाज सुनायी दी। उसे और थाने में मौजूद दूसरे पुलिसकर्मियों को लगा कि गांव में डकैती पड़ रही है। आज तो मकनपुर गांव का नाम सिर्फ रेवेन्यू रिकार्ड्स में है। आज गगनचुम्बी आवासीय इमारतों, माॅल और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों वाले मकनपुर में 1987 में दूर-दूर तक बंजर जमीन पसरी हुयी थी। इसी बंजर जमीन के बीच की एक चक रोड पर वी.बी.सिंह की मोटर साइकिल दौड़ी। उसके पीछे थाने का एक दारोगा और एक अन्य सिपाही बैठे थे। वे चक रोड पर सौ गज भी नहीं पहुंचे थे कि सामने से तेज रफ्तार से एक ट्रक आता हुआ दिखायी दिया। अगर उन्होंने समय रहते हुये अपनी मोटर साइकिल चक रोड से नीचे न उतार दी होती तो ट्रक उन्हें कुचल देता। अपना संतुलन संभालते-संभालते जितना कुछ उन्होंने देखा उसके अनुसार ट्रक पीले रंग का था और उस पर पीछे 41 लिखा हुआ था, पिछली सीटों पर खाकी कपड़े पहने कुछ लोग बैठे हुये दिखे। किसी पुलिसकर्मी के लिये यह समझना मुश्किल नहीं था कि पीएसी की 41 वीं बटालियन का ट्रक कुछ पीएसी कर्मियों को लेकर गुजरा था। पर इससे गुत्थी और उलझ गयी। इस समय मकनपुर गांव में पीएसी का ट्रक क्यों आ रहा था? गोलियों की आवाज के पीछे क्या रहस्य था? वी.बी.सिंह ने मोटर साइकिल वापस चक रोड पर डाली और गांव की तरफ बढ़ा। मुश्किल से एक किलोमीटर दूर जो नजारा उसने और उसके साथियों ने देखा वह रोंगटे खड़ा कर देने वाला था मकनपुर गांव की आबादी से पहले चक रोड एक नहर को काटती थी। नहर आगे जाकर दिल्ली की सीमा में प्रवेश कर जाती थी। जहां चक रोड और नहर एक दूसरे को काटते थे वहां पुलिया थी। पुलिया पर पहुंचते-पहुंचते वी.बी.सिंह के मोटर साइकिल की हेडलाइट जब नहर के किनारे उस सरकंडे की झाडि़यों पर पड़ी तो उन्हें गोलियों की आवाज का रहस्य समझ में आया। चारों तरफ खून के धब्बे बिखरे पड़ थे। नहर की पटरी, झाडि़यों और पानी के अन्दर ताजा जख्मों वाले शव पडे थे। वी.बी.सिंह और उसके साथियों ने घटनास्थल का मुलाहिजा कर अन्दाज लगाने की कोशिश की कि वहां क्या हुआ होगा? उनकी समझ में सिर्फ इतना आया कि वहां पड़े शवों और रास्ते में दिखे पीएसी की ट्रक में कोई सम्बन्ध जरूर है। साथ के सिपाही को घटनास्थल पर निगरानी के लिये छोड़ते हुये वी.बी.सिंह अपने साथी दारोगा के साथ वापस मुख्य सड़क की तरफ लौटा। थाने से थोड़ी दूर गाजियाबाद-दिल्ली मार्ग पर पीएसी की 41वीं बटालियन का मुख्यालय था। दोनो सीधे वहीं पहुंचे। बटालियन का मुख्य द्वार बंद था। काफी देर बहस करने के बावजूद भी संतरी ने उन्हें अंदर जाने की इजाजत नहीं दी। तब वी.बी.सिंह ने जिला मुख्यालय आकर मुझे बताने का फैसला किया। जितना कुछ आगे टुकडों-टुकडों में बयान किये गये। वृतांत से मैं समझ सका उससे स्पष्ट हो ही गया था कि जो घटा है वह बहुत ही भयानक है और दूसरे दिन गाजियाबाद जल सकता था। पिछले कई हफ्तों से बगल के जिले मेरठ में सांप्रादायिक दंगे चल रहे थे और उसकी लपटें गाजियाबाद पहुंच रही थीं। मैंने सबसे पहले जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी को फोन किया। वे सोने ही जा रहे थे। उन्हें जगने के लिये कह कर मैंने जिला मुख्यालय पर मौजूद अपने एडिशनल एसपी, कुछ डिप्टी एसपी और मजिस्ट्रेटों को जगाया और तैयार होने के लिये कहा। अगले चालीस-पैंतालीस मिनटों में सात-आठ वाहनों में लदे-फंदे हम मकनपुर गांव की तरफ लपके। नहर की पुलिया से थोड़ा पहले हमारी गाडि़यां खड़ी हो गयीं। नहर के दूसरी तरफ थोड़ी दूर पर ही मकनपुर गांव की आबादी थी लेकिन तब तक कोई गांव वाला वहां नहीं पहुंचा था। लगता था कि दहशत ने उन्हें घरों में दुबकने को मजबूर कर दिया था। थाना लिंक रोड के कुछ पुलिसकर्मी जरूर वहां पहुंच गये थे। उनकी टार्चों की रोशनी के कमजोर वृत्त नहर के किनारे उगी घनी झाडि़यों पर पड़ रहे थे पर उनसे साफ देख पाना मुश्किल था। मैंने गाडि़यों के ड्राइवरों से नहर की तरफ रुख करके अपने हेडलाइट्स आॅन करने के लिये कहा। लगभग सौ गज चैड़ा इलाका प्रकाश से नहा उठा। उस रोशनी में मैंने जो कुछ देखा वह वही दुःस्वप्न था जिसका जिक्र मैंने शुरु में किया है।
    गाडि़यों की हेडलाइट्स की रोशनियां झाडि़यों से टकरा कर टूट टूट जा रही थीं इसलिये टार्चों का भी इस्तेमाल करना पड रहा था। झाडि़यों और नहरों के किनारे खून के थक्के अभी पूरी तरह से जमे नहीं थे, उनमें से खून रिस रहा था। पटरी पर बेतरतीबी से शव पडे थे- कुछ पूरे झाडि़यों में फंसे तो कुछ आधे तिहाई पानी में डूबे। शवों की गिनती करने या निकालने से ज्यादा जरूरी मुझे इस बात की पड़ताल करना लगा कि उनमें से कोई जीवित तो नहीं है। सबने अलग-अलग दिशाओं में टार्चों की रोशनियां फेंक फेंक कर अन्दाज लगाने की कोशिश की कि कोई जीवित है या नहीं। बीच-बीच में हम हांक भी लगाते रहे कि यदि कोई जीवित हो तो उत्तर दे। हम दुश्मन नहीं दोस्त हैं। उसे अस्पताल ले जाएंगे। पर कोई जवाब नहीं मिला। निराश होकर हममें से कुछ पुलिया पर बैठ गये। मैंने और जिलाधिकारी ने तय किया कि समय खोने से कोई लाभ नहीं है। हमें दूसरे दिन की रणनीति बनानी थी, इसलिये जूनियर अधिकारियों को शवों को निकालने और जरूरी लिखा-पढ़ी करने के लिये कहकर हम लिंक रोड थाने के लिये मुड़े ही थे कि नहर की तरफ से खांसने की आवाज सुनायी दी। सभी ठिठक कर रुक गये। मैं वापस नहर की तरफ लपका। फिर मौन छा गया। स्पष्ट था कि कोई जीवित था लेकिन उसे यकीन नहीं था कि जो लोग उसे तलाश रहे हैं वे मित्र हैं। हमने फिर आवाजें लगानी शुरू कीं, टार्च की रोशनी अलग-अलग शरीरों पर डालीं और अंत में हरकत करते हुये एक शरीर पर हमारी नजरें टिक गयीं। कोई दोनांे हाथों से झाडि़यां पकड़े आधा शरीर नहर में डुबोये इस तरह पड़ा था कि बिना ध्यान से देखे यह अन्दाज लगाना मुश्किल था कि वह जीवित है या मृत! दहशत से बुरी तरह वह कांप रहा था और काफी देर तक आश्वस्त करने के बाद यह विश्वास करने वाला कि हम उसे मारने नहीं बचाने वाले हैं, जो व्यक्ति अगले कुछ घंटे हमंे इस लोमहर्षक घटना की जानकारी देने वाला था, उसका नाम बाबूदीन था। गोली उसे छूते हुये निकल गयी थी। भय से वह निश्चेष्ट होकर वह झाडि़यों में गिरा तो भाग दौड़ में उसके हत्यारों को यह जांचने का मौका नहीं मिला कि वह जीवित है या मर गया। दम साधे वह आधा झाडि़यों और आधा पानी में पड़ा रहा और इस तरह मौत के मुंह से वापस लौट आया। उसे कोई खास चोट नहीं आयी थी और नहर से चलकर वह गाडि़यों तक आया। बीच में पुलिया पर बैठकर थोड़ी देर सुस्ताया भी। लगभग 21 वर्षों बाद जब हाािमपुरा पर एक किताब लिखने के लिये सामग्री इकट्ठी करते समय मेरी उससे मुलाकात हुयी जहां पीएसी उसे उठा कर ले गयी थी तो उसे याद था कि पुलिया पर बैठे उसे किसी सिपाही से मांग कर बीड़ी दी थी। बाबूदीन ने जो बताया उसके अनुसार उस दिन अपरान्ह तलाशियों के दौरान पीएसी के एक ट्रक पर बैठाकर चालीस पचास लोगों को ले जाया गया तो उन्होंने समझा कि उन्हें गिरफ्तार कर किसी थाने या जेल ले जाकर जा रहा है। मकनपुर पहुंचने के लगभग पौन घण्टा पहले एक नहर पर ट्रक को मुख्य सड़क से उतारकर नहर की पटरी पर कुछ दूर ले जाकर रोक दिया गया। पीएसी के जवान कूद कर नीचे उतर गये और उन्होंने ट्रक पर सवार लोगों को नीचे उतरने का आदेश दिया। अभी आधे लोग ही उतरे थे कि पीएसी वालों ने उन पर फायर करना शुरु कर दिया। गोलियां चलते ही ऊपर वाले गाड़ी में ही दुबक गये। बाबू दीन भी उनमें से एक था। बाहर उतरे लोगों का क्या हुआ वह सिर्फ अनुमान ही लगा सकता था। शायद फायरिंग की आवाज आस-पास के गांवों में पहुंची जिसके कारण आस-पास से शोर सुनायी देने लगा और पीएसी वाले वापस ट्रक में चढ़ गये। ट्रक तेजी से बैक हुआ और वापस गाजियाबाद की तरफ भागा। यहां वह मकनपुर वाली नहर पर आया और एक बार फिर सबसे उतरने के लिये कहा गया। इस बार डरकर ऊपर दुबके लोगों ने उतरने से इंकार कर दिया तो उन्हें खींच-खींच कर नीचे घसीटा गया। जो नीचे आ गये उन्हें पहले की तरह गोली मारकर नहर में फेंक दिया गया और जो डर कर ऊपर दुबके रहे उन्हें ऊपर ही गोली मारकर नीचे ढकेला गया। बाबूदीन जब यह विवरण बता रहा था तो हमने पहले घटनास्थल का अन्दाज लगाने की कोशिश की। किसी ने सुझाव दिया कि पहला घटनास्थल मेरठ से गाजियाबाद आते समय रास्ते में मुरादनगर थाने में पड़ने वाली नहर हो सकती है। मैंने लिंक रोड थाने के वायरलेस सेट से मुरादनगर थाने को काॅल किया तो स्पष्ट हुआ कि हमारा सोचना सही था। कुछ देर पहले ही मुरादनगर थाने को भी ऐसी ही स्थिति से गुजरना पड़ा था। वहां भी कई मृत शव नहर में पड़े मिले थे और कुछ लोग जीवित थाने लाये गये थे।
    इसके बाद की कथा एक लंबा और यातनादायक प्रतीक्षा का वृतांत है जिसमें भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, पुलिस का गैर पेशेवराना रवैया और घिसट-घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुडे हुये हैं। मैंने 22 मई 1987 को जो मुकदमे गाजियाबाद के थाना लिंक रोड और मुरादनगर पर दर्ज कराये थे वे पिछले 21 वर्षों से विभिन्न बाधाओं से टकराते हुये अभी भी अदालत में चल रहे हैं और अपनी तार्किक परिणति की प्रतीक्षा कर रहें हैं। (साभारः हिन्दी समय)
मार्कण्डेय काटजू की बातों में सत्यांश
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश मार्केण्डेय काटजू ने महात्मा गांधी को ब्रिटिश एजेण्ट और नेताजी सुभाष चंद्र बोस को जापानी फासिस्टों का एजेण्ट कहकर शासक वर्गीय राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया। भारत की संसद के दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा में उनके बयानों की सभी दलों द्वारा भर्त्सना की गयी। यह अभूतपूर्व था क्योंकि ऐसा शायद ही पहले कभी हुआ कि जो व्यक्ति सदन का सदस्य नहीं है उसके बयानों की इस तरह से निन्दा की गयी है। 
    न्यायाधीश काटजू के दोनों ही बयान ढंग से पढ़े और समझे नहीं गये। काटजू ने जो कहा उसमें सत्य का अंश है। महात्मा गांधी की भूमिका के बारे में उन्होंने वही कहा जो लम्बे अर्से से देश के कई बुद्धिजीवी, इतिहासकार और यहां तक कि देश के कई प्रगतिशील और क्रांतिकारी संगठन कहते आये हैं। महात्मा गांधी आत्मगत तौर पर ब्रिटिश एजेण्ट न भी रहे हों वे वस्तुगत तौर पर उनके एजेण्ट साबित होते थे। काटजू ने उन्हें वस्तुगत एजेण्ट ही कहा है। शायद काटजू सही वर्गीय विश्लेषण करते तो वे गांधी जी के बारे में ज्यादा वैज्ञानिक बात कह पाते। महात्मा गांधी ब्रिटिश एजेण्ट नहीं बल्कि उदीयमान भारतीय पूंजीपति वर्ग के एजेण्ट थे और इस कारण वह भारत के मजदूरों-किसानों के साथ धोखा करते थे। इस रूप में उनकी नीतियां, कार्यक्रम, योजनाएं उनके भविष्य और जीवन के साथ एक छल साबित होती थीं। वे जानबूझ कर उस काल में जब हर तरफ मजदूर क्रांति का उदघोष हो रहा था तब भारत के मजदूरों, किसानों, नौजवानों को मध्ययुगीन धार्मिक कूपमंडूकता और पिछड़ेपन को आदर्श बताकर पीछे अंधकार के युग में धकेल रहे थे। 
    जहां तक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का सवाल है वे गांधी जी के मुकाबले कई मामलों में आधुनिक दृष्टिकोण व विचार रखते थे परन्तु उन्होंने जो रास्ता चुना वह गलत था। जापानी फासिस्ट के अत्याचार से चीन, कोरिया, इण्डोनेशिया आदि के साथ पूर्वी एशिया की पूरी धरती कराह रही थी। परन्तु बोस उन्हें भारत के मुक्तिदाता के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। और इस तरह वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ने के नाम पर जापानी फासिस्टों के हाथ में खेल रहे थे। 
    मार्केण्डेय काटजू के बयान उन विषयों पर पुनः बहस छेड़ देते हैं जिन्हें भारत के शासक वर्ग ने युग सत्य के रूप में स्थापित किया हुआ है और यदि कोई उनके तथाकथित युग सत्य पर इस तरह से प्रश्न खड़े करेगा तो वह उनकी आंख की किरकिरी तो बन ही जायेगा। संसद की बौखलाहट और एकता देखने लायक है। यह तो अभिव्यक्ति और मत भिन्नता के अधिकार पर भी हमला है। 
राज्यों में होड़
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घृणित हिन्दूवादी मंसूबों को परवान चढ़ाने के लिए आये दिन भाजपा शासित राज्यों में होड़ चल रही है। चंद रोज पहले छत्तीसगढ़ की रमन सिंह की सरकार ने उस कानून को रदद् कर दिया जिसके तहत सरकारी कर्मचारी-अधिकारी आर एस एस की गतिविधियों में भागीदारी नहीं कर सकते थे। इसी तरह हरियाणा की नयी-नवेली भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री ने राज्य के स्कूलों में गीता को पढ़ाने की वकालत की और अधिकारियों को इस बाबत निर्देश दिये। ऐसी स्थिति मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान आदि राज्यों में भी है।
    छत्तीसगढ़ सरकार का कर्मचारी-अधिकारियों को संघ की गतिविधियों में भागीदारी के फैसले का यह कहकर समर्थन किया गया कि यह मूल कानून मध्य प्रदेश के जमाने का है क्योंकि मध्यप्रदेश ने पहले ही इस कानून को रदद कर दिया है इसलिए छत्तीसगढ़ में इस कानून का औचित्य नहीं है।
    भाजपा शासित राज्यों में शिक्षा में भगवा कार्यसूची को लगातार लागू किया जा रहा है। दीनानाथ बत्रा जैसे अर्द्ध शिक्षित व्यक्ति की कूपमंडूकता से भरी बातों को इतिहास में जबरदस्ती ठूंसा जा रहा है। गुजरात में तो दीनानाथ बत्रा की लिखी किताबों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया गया है।
    संघ की भगवा कार्यसूची को लागू करवा के भाजपाई मुख्यमंत्री जहां संघ से प्रशंसा प्राप्त करना चाहते हैं वहीं दूसरी तरफ उनकी ऐसी कार्यवाहियों से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तीव्र हो रहा है। धार्मिक अल्पसंख्यक ही नहीं समाज में सामान्य धर्मनिरपेक्ष और तार्किक-वैज्ञानिक चिंतन के पक्षधर लोग भी चितिंत और आक्रोशित हैं।
    संघ प्रमुख मोहन भागवत के धार्मिक कूपमंडूकता से भरी बातों को इन राज्यों के मुख्यमंत्री और स्वयं केन्द्र में बैठी मोदी सरकार भी वेद वाक्यों की तरह लेती है। पिछले वर्ष विजयादशमी के दिन मोहन भागवत के सम्बोधन को सरकारी चैनल दूरदर्शन से प्रसारित किया गया। आलोचना करने पर स्वयं प्रधानमंत्री ने मोहन भागवत के साम्प्रदायिक सम्बोधन का समर्थन किया।
    भाजपा शासित राज्यों में केन्द्र में भाजपा सरकार के काबिज होने के बाद संघ की भगवा कार्यसूची लागू करने की होड़ मची हुयी है। यह स्थिति पूरे भारतीय समाज के लिए दिनोंदिन खतरनाक होती जा रही है। इन राज्यों में कांग्रेस पार्टी ही प्रमुख विपक्षी दल है। वह इन सब मामलों में या तो चुप है या फिर रस्मी विरोध तक सिमटी हुयी है। कांग्रेस पार्टी जोकि स्वयं नरम हिन्दुत्व की पक्षधर है, मुखर विरोध कर भी नहीं सकती है। समाज से किसी किस्म के विरोध और प्रतिरोध के न होने के चलते भाजपाई मुख्यमंत्रियों के हौंसले लगातार बढ़ते चले जा रहे हैं।
और मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा...
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
    12 फरवरी को गुड़गांव के डूंडाहेरा स्थित उद्योग बिहार में गौरव इंटरनेशनल फैक्टरी के मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने कई गाडि़यों को आग के हवाले कर दिया। घटना की पृष्ठभूमि में प्रबंधकों व उनके बाउंसरों द्वारा एक मजदूर की बुरी तरह पिटाई करना था। 
    समीचंद नाम का एक मजदूर 10 फरवरी को 10 मिनट लेट आया। यह मजदूर पिछले दो दिनों से बीमार था। और दो दिन छुट्टी करने के बाद यह फैक्टरी पहुंचा था। लेकिन सुरक्षा गार्डों ने उसको ड्यूटी पर नहीं लिया। इस पर समीचंद ने ड्यूटी पर लिये जाने के लिए बहस की। इस पर प्रबंधक और उसके बाउंसरों ने उसको अलग से कमरे में ले जाकर बुरी तरह पीटा। इस पिटाई से उसकी पसलियां तक टूट गयीं। उसके परिजनों ने उसे सफदरजंग हाॅस्पीटल में भर्ती कराया। 
    समीचंद का कहना है कि फैक्टरी में जाने का समय तो होता है परन्तु आने का कोई समय नहीं होता है। सुबह फैक्टरी में 8 बजे घुसने के बाद रात को 2-2 बजे तक छोड़ते हैं। और अगले दिन फिर सुबह आठ बजे पहुंचना होता है। काम की परिस्थितियां इतनी खराब हैं कि मजदूर आत्महत्या कर लेते हैं। सुना है कि एक बार एक मजदूर की लाश बाथरूम में पायी गयी थी। मैनेजमेण्ट ने यह अफवाह उडा रखी है कि बाथरूम में रात को भूत आते हैं। इस डर की वजह से रात में कोई मजदूर बाथरूम नहीं जाता है। 
    गौरव इंटरनेशनल और रिचा ग्लोबल आपस में रिश्तेदार हैं। इनके गुड़गांव में 10-12 प्लांट हैं। जिनमें गारमेंट बनते हैं और एक्सपोर्ट होते हैं। इन सभी प्लांटों के मजदूरों की परिस्थितियां एक जैसी हैं। और मजदूरों के भयंकर शोषण से ये काफी मुनाफा कमाती हैं। 
    12 फरवरी को यह अफवाह फैली कि समीचंद की मौत हो गयी है। मजदूर प्रबंधक के पास सही बात जानने के लिए पहुंचे तो प्रबंधक ने उल्टे मजदूरों का ही धमकाना शुरू कर दिया। इससे मजदूर आक्रोशित हो गये और उनका सालों से दबा गुस्सा फूट पड़ा और फिर इन दोनों फैक्टरियों के कई प्लांटों में मजदूरों ने तोड़फोड़ करनी शुरू कर दी। कई गाडि़यों को आग के हवाले कर दिया गया। 
    कुल मिलाकर यह साफ है कि पूरा एक्सपोर्ट लाइन का गारमेंट उद्योग बारूद के ढ़ेर पर बैठा हुआ है। कोई चिंगारी कभी भी भयानक आग का रूप ले सकती है। चाहे वह ओरियन्ट क्राफ्ट का 2012 का संघर्ष हो या नोयडा का या फिर गौरव इंटरनेशनल। लेकिन जरूरत इस है इन स्वतः स्फूर्त तरीके से फूट रहे आंदोलनों को संगठित करने की। यह अभी नदारद है।     गुड़गांव संवाददाता
तस्वीरें बोलती हैं.....
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    यहां तीन तस्वीरें दी गयीं हैं। तीनों भारत के साम्राज्यवाद से बदलते रिश्तों को दिखलाती हैं। पहली तस्वीर ओबामा के हालिया भारत आगमन के समय प्रधानमंत्री मोदी के प्रोटोकाल तोड़ हवाई अड्डे पर उनके स्वागत के लिए जा पहुंचने की है। तस्वीर में वैसे तो ओबामा-मोदी गले मिल रहे हैं पर कुछ इस तरह से कि एक बड़ा डाॅन अपने छुटभैय्ये को गले लगाये हो। मोदी इस डाॅन ओबामा की बाॅंहों में इस कदर डूबे हैं कि मानो उन्होंने देश को ही ओबामा की बाहों में सौंप दिया हो। 
    तीसरी तस्वीर श्री पेरुम्बदूर स्थित आॅटो पार्ट्स निर्माता कम्पनी एन वी एच इण्डिया आॅटो लिमिटेड की है। यह कम्पनी कोरिया की आॅटो पार्ट्स निर्माता एक कम्पनी की सहायक कम्पनी है। तस्वीर में एक हड़ताली मजदूर को कोरियाई प्रबंधकों द्वारा घसीटकर जमीन पर गिराते और उसके ऊपर खड़े होते दिखलाया गया है। मजदूरों की यह हड़ताल जनवरी 2015 में 15 मजदूरों को बिना वजह काम से निकालने व फैक्टरी में चल रहे अन्य उत्पीड़नों के खिलाफ शुरू हुई। यहां मजदूरों को टायलेट जाते वक्त अनुमति ले कर जाने, साफ पानी का इंतजाम तक न होने, हर समय खुफिया कैमरे की निगाहों में रहने व कोरियाई प्रबंधकों की जब तब गाली-गलौच व थप्पड़ मारने आदि उत्पीड़न झेलना पड़ता है। 
    पहली तस्वीर को भारत के अखबारों ने अपने गौरव की तरह छापा। भारत के मीडिया ने ओबामा के स्वागत में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। एक तरह से पूंजीवादी राजनीति, मीडिया, पूंजीपति वर्ग सब ओबामा के आगे नतमस्तक खड़े थे। अमेरिकी राष्ट्रपति को 26 जनवरी को मुख्य अतिथि बनाने की बात न तो नेहरू न ही इंदिरा सोच सकते थे इसको तो 2015 का मोदी ही सोच सकता था। यह बतलाती है कि भारत के पूंजीवादी शासकों का राष्ट्रवाद अब साम्राज्यवाद विरोध से बहुत दूर जा साम्राज्यवाद से गलबहियां उसकी मातहती में पहुंच चुका है। 
    विदेशी पूंजी से गलबहियां-मातहती का ही परिणाम तीसरी तस्वीर है जहां कोरियाई प्रबंधक मजदूरों के ऊपर-चढ़ा हुआ है। तीसरी तस्वीर को किसी अखबार ने महत्व नहीं दिया। 
    दूसरी तस्वीर भारत के महान पूंजीपतियों के द्वारा पंक्ति लगाकर अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलने की है। यह तस्वीर ओबामा के समक्ष भारत के पूंजीपतियों की भिखारी सरीखी छवि पैदा करती है। दुर्भाग्य यह है कि ये आत्मसम्मान रहित लोग हमारे देश के वास्तविक शासक हैं।  

















अस्ती के संघर्षरत मजदूरों को अभी तक नहीं मिला न्याय
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
दो माह से ज्यादा समय से संघर्ष कर रहे मजदूर अभी भी न्याय मिलने से काफी दूर हैं। श्रम विभाग में लगातार तारीखें लग रही हैं लेकिन मजदूरों को काम पर लेने के पक्ष में समझौता नहीं हो पा रहा है। यहां तक कि उनका पुराना वेतन मिलने में ही कई तारीखें निकल गयीं। पहले श्रम विभाग ने 17 दिसम्बर की तारीख लगायी थी और उसके बाद 18 तारीख लगा दी। लेकिन 18 दिसम्बर को वेतन की सेलरी स्लिप ठेकेदार नहीं लेकर आया और मजदूरों ने सेलरी लेने से इंकार कर दिया।
इस पर भी श्रम विभाग की तरफ से ठेकेदार और प्रबंधन पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी और अगली तारीख 24 दिसम्बर लगा दी। 24 तारीख को वेतन लेने के बाद मजदूर एएलसी के पास गये तो उसने अगली तारीख 6 जनवरी 2015 को लगा दी। इतनी लम्बी तारीख देने के पीछे एएलसी का तर्क था कि एक तो बीच में छुट्टियां हैं और कुछ दिनों वह है नहीं। लेकिन असली मकसद मालिक व ठेकेदार का ज्यादा समय देना और मजदूरों की ताकत को कमजोर करना था।
इसके बाद 6 जनवरी की तारीख में प्रबंधन ने पीसीबी के मज़दूरों को भी लेने से मना कर दिया। और एएलसी ने फिर वही रवैया अपनाया और अगली तारीख अगले दिन की दे दी।

मालिक व शासन-प्रशासन का रवैया मजदूरों के संघर्षों को लम्बा खींचकर उन्हें थका देने का होता है। मजदूरों को यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। और अपने संघर्षों की धार को तेज करना चाहिए। गुड़गांव संवाददाता 
एवरेडी के मजदूर डटे हैं संघर्ष के मैदान में
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
हरिद्वार सिडकुल में स्थित एवरेडी कम्पनी के प्रबंधन ने 30 नवम्बर को गैर कानूनी तालाबंदी कर 122 स्थायी श्रमिकों को बाहर कर दिया था। और उसके बाद 14 मजदूरों को निलम्बित कर दिया था। तभी से मजदूर प्रबंधक से इस कार्यवाही व अपने 14 निलम्बित साथियों को काम पर वापस लेने की मांग कर रहे हैं। प्रबंधन की मनमर्जी का आलम यह है कि उसने 30 नवम्बर की रात को फैक्टरी बंद कर 5 दिसम्बर 2014 को खोल दी थी। लेकिन 14 निलम्बित मजदूरों को लेने के लिए तैयार नहीं हो रहा है। प्रबंधक की चालबाजी का आलम यह है कि वह मजदूरों को तोड़ने के लिए मजदूरों में से ही कुछ मजदूरों को लालच के टुकड़े दिखाकर संघर्ष को तोड़ने का प्रयास कर रहा है। लेकिन मजदूर नेता और मजदूरों की सूझबूझ से प्रबंधक के घृणित मंसूबे नाकाम हो रहे हैं। मजदूर अपने संघर्ष को चलाने के लिए नये-नये तरीके से प्रबंधन और शासन-प्रशासन की मिली भगत का पर्दाफाश कर रहे हैं। मजदूर जुलूस-प्रदर्शन, प्रबंधन का पुतला फूंकना व पर्चा वितरण कर अपनी बात पहुंचा रहे हैं और प्रबंधक तथा नेता-अफसरों की मिली भगत को उजागर कर रहे हैं।        एवरेडी के मजदूरों की एकता की बात की जाए तो सभी 122 मजदूर अभी भी संघर्ष के मैदान में डटे हुए हैं। आम तौर पर मजदूर संघर्षों में अपने संघर्षों की पहल पर जीत हासिल करने में भरोसा कमजोर बना हुआ है। अपनी ताकत पर कम और पूंजीवादी पार्टियों के नेताओं पर ज्यादा भरोसा होता है। ऐसा ही एवरेडी के संघर्ष में बना हुआ है। मजदूर हमलावर न होकर रक्षात्मक की भूमिका में बने हुए हैं जबकि प्रबंधन मजदूरों पर हर तरह से हमला बोल मजदूरों को कमजोर करने की योजना बना रहा है। जब तक मजदूर वर्ग अपनी ताकत पर और मालिकों की चालबाजी का जबाव सही ढंग से नहीं देंगे तब तक इन मालिकों को पीछे नहीं धकेल सकते हैं।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र लगातार एवरेडी के आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका बनाये हुए है। बाकी नामी गिरामी कहलाने वाली यूनियनें दूर खड़े होकर तमाशबीन बनी हुई हैं। हरिद्वार सिडकुल सहित पूरे देश में नामी गिरामी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें मालिकों की तरफदारी कर मजदूर संघर्षों को कमजोर कर रही हैं। अगर ये विरोध करती भी हैं या मजदूर संघर्षों में भूमिका निभाते भी हैं तो मजदूरों को मालिक का वफादार बना जाए, की बात कर मजदूरों के संघर्ष के पक्ष को कमजोर करते हैं। इन बातों की रोशनी में यह समझना होगा कि मजदूरों की लड़ाई के समर्थन में इस देश की व्यवस्था परस्त पार्टी और यूनियनें काम नहीं आ सकतीं, बल्कि अपने संघर्षों के तौर-तरीके बदल संघर्ष की धार को क्रांतिकारी विचारों पर तेज करना होगा।  

  हरिद्वार संवाददाता 
गिरगिट की तरह रंग बदलता यह नायक
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    जी हां! भारतीय एकाधिकारी पूंजीवादी घरानों का यह ‘‘नायक’’ जो बहुत ‘धूर्त’ व ‘मक्कार’ है मगर बहुत ‘साफ-सुथरा’, ‘ईमानदार’ व ‘भोला’ दिखने की भरपूर कोशिश करता है। या यह कहना ज्यादा सही होगा कि कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित न्यूज चैनल, अखबार व सोशल नैटवर्किग साइट्स अपने इस ‘नायक’ की ‘भोली-भाली’ ईमानदार छवि को गढ़ने का हर संभव जतन कर रहा है।
    यह ‘नायक’ धूर्त ही नहीं बल्कि ‘क्रूर’ भी है। धुर साम्प्रदायिक व फासीवादी होने के बावजूद अपने ‘साम्प्रदायिक फासीवादी’ सहोदरों के साथ रहते हुए भी खुद ‘धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक होने का नकाब ओढ़ रहा है। इसीलिए तो संसद में साध्वी निरंजन ज्योति द्वारा दिये गये साम्प्रदायिक बयान पर कारपोरेट घरानों का यह नायक बड़ी ‘‘मासूमियत’’ से उसे माफ कर देने की बात करता है। ‘धर्मातरण’ के मुद्दे पर भी हंगामा होने पर धूर्त नायक द्वारा बड़ी मासूमियत से इस्तीफा देने की धमकी दी जाती है।
    ‘स्वच्छ भारत अभियान’ चलाकर व आकाशवाणी के जरिये ‘मन की बात’ कह कर इस ‘नायक’ ने आम आवाम को जता दिया व बता दिया कि ‘गंदगी’ व ‘नशाखोरी’ के लिए वही यानी अवाम ही जिम्मेदार है। इसलिए सलाह भी दी कि खुद ही हर आदमी झाडू उठाकर निकल जाये तो बस हो गया पूरा भारत स्वच्छ लेकिन ‘‘नायक’’ यह बात गायब कर गया कि इस तरह से झाडू लेकर निकलने के बाद कुछ जगहों पर कूडे का जो ढ़ेर लाखों टन के हिसाब से इकट्ठा होगा उसका प्रबंधन व ‘निस्तारण तो अंततः राज्य यानी सरकार की ही जिम्मेदारी है।
    भारत का एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग अपने इस ‘नायक’ की ‘विकास पुरूष’ ईमानदार व भोली छवि यूं ही नहीं गढ़ रहा है। इसके गढ़ने के पीछे बड़ी वजह तो यही है कि यहां से भी फिर निरंकुशता या तानाशाही व फासीवाद की यात्रा आसानी से पूरी की जा सकती है।
    काॅरपोरेट घरानों ने अपने इस नायक को यूं ही सत्ता पर नहीं बिठाया है। वास्तव में भी यह ‘नायक’ गिरगिट की तरह रंग बदलने में ‘कुशल’ है। गुजरात में इसने काॅरपोरेट घरानों के लिए वह सब कुछ किया जो इनकी चाहत थी। वही चाहत अब केन्द्र की सत्ता पर बिठाकर पूरी करने की ख्वाहिश है। उसका यह ‘नायक’ अब उसी दिशा में बढ़ रहा है।
    काॅरपोरेट घरानों के इस नायक ने बड़ी खूबसूरती से हर सामाजिक समस्या जिसके लिए पूंजीपति वर्ग उसकी सरकार व पूंजीवादी व्यवस्था जिम्मेदार है, आम जनता या व्यक्ति को खुद उसके लिए जिम्मेदार ठहरा दिया है। बेरोजगारी के सम्बंध में चुनाव से पहले ‘अच्छे दिनों’ के ख्वाब दिखाये गये लेकिन सत्ता हासिल होने व प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने के बाद कहा गया कि बेरोजगारी की वजह लोगों का अकुशल होना है। टेसुए बहाने में कुशल इस नायक ने कहा कि लोग ‘कुशल’ नहीं हैं इसलिए बेरोजगार हैं लेकिन बड़ी कुशलता से मंदी के दौर में व वीआरएस के नाम पर जिन लाखों कुशल कामगारों को बेरोजगार बनाया गया उस पर खामोशी ओढ़ ली।
    महंगाई के सम्बंध में यूपीए सरकार को इस ‘नायक’ ने खूब कोसा। मनमोहन सरकार को महंगाई पर लगाम लगाने के लिए ‘खाद्य पदार्थों’ की जमाखोरी व सट्टेबाजी को प्रतिबंधित करने की सलाह इस ‘नायक’ ने दी। लेकिन सत्ता हासिल होने के बाद इस नायक ने अपनी इस सलाह को अपने 56 इंच के सीने में दफन कर दिया है। यह भी कितना ‘हास्यास्पद है कि इस नायक के राज में महंगाई दर तो शून्य हो चुकी है लेकिन खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमतें लगातार बनी हुई हैं।
    टीना अबानी के हाथों को अपने हाथों में थामे और मुकेश अंबानी के हाथों अपनी पीठ थपथपाये जाने पर भी यह नायक बड़ी बेशर्मी से खुद को जनता का प्रधान सेवक कहता है। और सबसे बड़ा मजदूर इस प्रधान सेवक के राज में ही भारत के इतिहास का सबसे बड़ा कर्ज 6200 करोड़ रूपये इनके परम मित्र गौतम अदानी को मिल रहा है।
    डीजल पेट्रोल की कीमतें कुछ कम होने पर ही प्रधान सेवक का महिमा मंडन होने लगता है। यह गायब कर दिया जाता है कि जून 2014 से अब तक कच्चे तेल की कीमतों में 50 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट हो चुकी है। लेकिन भारत में पेट्रोल की कीमत में 11.31 प्रतिशत तो डीजल में मात्र 8.32 की गिरावट आयी है।
    गुजरात में प्रायोजित दंगों पर क्रिया की प्रतिक्रिया जैसा बयान देने वाला यह नायक पेशावर में कट्टरपंथियों द्वारा बच्चों की हत्या पर दुःख व्यक्त करता है लेकिन खुद के नेतृत्व में अल्पसंख्यक महिलाओं व बच्चों को तब जिंदा जला दिया गया तो उसे क्रिया की प्रतिक्रिया कह दिया गया।
    पूंजीपति वर्ग का यह ‘नायक’ कितना भी बेदाग ईमानदार भोला दिखने की कोशिश करे मगर वह धूर्तता व क्रूरता उसकी आंखों से लगातार झलकती रहती है। गिरगिट की तरह रंग बदलना फासीवादियों की साफ पहचान है। हिटलर व मुसोलिनी जैसे फासिस्ट इसमें अव्वल थे। हिटलर व मुसोलिनी का यह चेला भी इस विधा में अव्वल है।
    लेकिन पूंजीपति वर्ग व उसके इस नायक को हिटलर व मुसोलिनी तथा इन जैसे तमाम फासिस्टों के हश्र को याद रखना होगा। इतिहास व समाज विकास की दिशा फासीवाद की ओर बढ़ने वाले शख्स व पूंजीपति वर्ग के खिलाफ खड़ी थी व है। मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवाद की दिशा में उठते कदम मौजूदा दौर के हिटलर व मुसोलिनी का भी वही हश्र करेगी जैसा कि उसने अतीत में किया था।

वैदिक पूंजीवाद -सत्य सागर
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    कुछ भोले-भाले नागरिकों के अलावा कोई ऐसा कदम नहीं उठा सकता पर आश्चर्यजनक रूप से सरकारी क्षेत्र के बैंक ‘स्टेट बैंक आॅफ इण्डिया’ ने अपना नाम बदल कर ‘सेठ बैंक आॅफ इण्डिया’ कर लिया है। 
    बैंक जो भारत की सबसे बड़ी वित्तीय संस्था है, ने अपने वक्तव्य में कहा कि नाम इसलिए बदला गया ताकि यह प्रतिबिम्बित हो सके कि अब भारतीय राज्य नहीं भारतीय सेठ इसकी नीतियां निर्धारित करते हैं। 
    एक लम्बे समय से हम जनता से उसकी जमा पूंजी ले रहे थे और उसे धनियों को किसी भी तरीके से सौंप रहे थे इसलिए नया नाम काफी उचित है’’ यह एक वरिष्ठ बैंक अधिकारी ने कहा। उन्होंने कहा कि सेठ बैंक आॅफ इण्डिया अपना नारा वर्तमान नारे ‘‘आम आदमी के लिए बैंक’’ से बदल कर ‘‘चंद लोगों के लिए सादा चैक’’ करने की योजना बना रहे हैं। 
    इस तरह की बैंकिंग गतिविधियों के पीछे यह सिद्धान्त काम करता रहा है कि गरीबों या मध्यम वर्ग द्वारा जमा धन को अमीर काॅरपोरेशनों को देने से आर्थिक विकास होगा। जो कि बदले में ट्रिकल डाउन के जरिये कारपोरेट मुनाफे से रिसकर उन लोगों तक वापस पहुंच जायेगा जिनकी मुश्किल से हासिल दौलत ले ली गयी थी। यह पूछे जाने पर कि मुख्य शब्द ‘ट्रिकल’ था या केवल ‘ट्रिक’(तरीका) था, वरिष्ठ बैंक अधिकारी ने यह कहते हुए कुछ भी कहने से इंकार कर दिया कि वह बैंक के गुप्तता के नियमों से बंधे हैं जो भारतीय नागरिकों को सच्चाई बताने से रोकते हैं। 
    बैंक की बदली प्राथमिकता से फायदा उठाने वाले सबसे नये सेठ अदाणी ग्रुप के गौतम अदाणी हैं जिन्होंने अपने विवादित कोयला खनन प्रोजेक्ट जो आस्ट्रेलिया में होगा, के लिए 1 अरब डालर का कर्ज लिया है। इतना बड़ा कर्ज एक ऐसी कंपनी जो पहले ही कर्ज में डूबी हो और ऐसे प्रोजेक्ट के लिए जिसके असफल होने की संभावना हो, को देने का निर्णय आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबोट के मीडिया के सामने भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के आलिंगन के वायदे के बाद लिया गया। मि.अदाणी पहले ही प्राइवेट तौर पर मि. मोदी का आलिंगन कर चुके थे। 
    यद्यपि सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ता ने कहा कि निर्णय एक नये विचार ‘वैदिक पूंजीवाद’ के अनुरूप लिया गया जिसे और किसी ने नहीं बल्कि मि. मोदी ने खुद सोचा है। यह शब्द ऐसे आर्थिक तंत्र को अभिव्यक्त करता है जिसमें भारतीय राज्य गायब हो जाता है और जादुई ढंग से भारतीय सेठ की जेब में प्रकट हो जाता है। 
    मि. मोदी का ‘वैदिक पूंजीवाद’ का विचार हिन्दू पौराणिक कहानियों से प्रेरित लगता है जो उनकी दादी उन्हें सुनाती थीं और यह कुछ दशक पहले अमेरिका में आर.एस.एस. प्रचारक रहने के दौरान उनके दिमाग में पनपा। 
    मौजूदा सरकार के करीबी एक योग गुरू का कहना है कि ‘‘नमो ने अमेरिकी तरीके के क्रोनी व जुआरी पूंजीवाद को करीब से देखा और इस पर सहमत हुए कि अमेरिका के वित्तीय जादूगरों ने इसे हमारे पौराणिक ग्रंथों से चोरी किया है जहां भगवान बगैर माता-पिता की भूमिका के बच्चे प्रकट कर देते थे और जब वे चाहते थे राक्षसों को गायब कर देते थे।’’ वैदिक पूंजीवाद भी इसी तरह बुरे कर्ज प्रकट करता है और बगैर किसी की जिम्मेदारी लिए सार्वजनिक सम्पत्ति गायब कर देता है, उनका कहना था।
    गुरू जो इस बात के लिए मशहूर हैं कि उनकी नैतिकता उनके शरीर की तरह ही लाचार है, ने यह भी कहा है कि भारतीय प्रधानमंत्री ने भारत की स्थिति वैश्विक अर्थव्यवस्था में ‘वित्तीय योग’ की मदद से सुधारने की भी योजना बनाई है। पहला आसन जो प्रोत्साहित किया जायेगा वह सभी सार्वजनिक बैंकों की बांह मरोड़ना जैसा कि सेठ बैंक आफ इण्डिया के उदाहरण में किया गया। 
    इन संस्थाओं को उनकी सोच से इतना ताना जायेगा और साथ ही उन्हें एक विशेष प्राणायाम करने के लिए मजबूर किया जायेगा जो उनकी सांस को हमेशा के लिए रोक देगा। 
                              (साभारः काउण्टर करंट.आॅर्ग)

मणिपुर-केन्द्र तनाव -व्यास मुनि तिवारी
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    भारत के उत्तरपूर्वी क्षेत्र के सात राज्यों में से एक मणिपुर इस समय गम्भीर सामाजिक और राजनैतिक संकट से गुजर रहा है। एक तरफ जनता के आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले अनेकों संगठन राष्ट्रीय मुक्ति की मुहिम चला रहे हैं, तथा दूसरी तरफ भारतीय राज्य उन संघर्षो का दमन करने के लिए तमाम तरह के भिन्न-भिन्न तरीके अजमा रहा है, जिसकी वजह से स्थिति बिगड़ती ही जा रही है। काउन्टर इन्सरजेन्सी आपरेशन के परिणामस्वरूप हजारों निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं, सैकड़ों लोग पुलिस की हिरासत से लापता है तथा भारतीय सेना के द्वारा अनेक औरतों का बलात्कार हुआ है। पूरा राज्य अर्धविक्षिप्तता की अवस्था में है। राज्य में अनेकों परिवार व्यक्तिगत त्रासदी झेल रहे हैं, जिन्होंने अपने बेटों-बेटियों को खो दिया, वे लोग शारीरिक और मानसिक रूप से इतने टूट चुके हैं कि उनका पुनर्वास भी मुश्किल कार्य है, सबसे बुरा असर औरतों और बच्चों पर पड़ा है। इन सबका इतना असर है कि राज्य की उत्पादक शक्तियां कमजोर होकर खराब हालत में पहुंच गयी हैं जिससे गरीबी बढ़ती गयी है और हिंसा का चक्र जारी है। भारत की जनतांत्रिक कही जाने वाली प्रणाली का भ्रष्टाचार चरम पर है, अमीर-गरीब की खाई चौडी़ हुई है। परिवारों की एकता टूटने लगी है। आर्थिक तनाव की वजह से परिवारिक मूल्य भी गिरने लगे हेै  ।
     यदि हम इतिहास पर एक नजर डालें तो हमें पता चलता है कि आर्थिक रूप से सुदृढ़ यह राज्य अपने कर्मचारियों का वेतन दे पाने में अक्षम होता जा रहा है, राज्य सरकार अपने विकास के लिए आर्थिक पहल ले पाने में समर्थ नहीं है। एक अजीब तरह की औपनिवेशिक प्रणाली में जीने को बाध्य है। नागरिक सम्मान जैसी जीवनशैली से दूर होती मणिपुरी जनता स्वतंत्रता और स्वाधीनता चाहती है, उनकी भाषा में बात करें तो मणिपुर को भारत ने अपना उपनिवेश बना रखा है। 
    मणिपुर एक छोटा सा खूबसूरत राज्य है जिसमें लगभग 30 से ज्यादा जातीय समूह एक साथ रहते हैं, जिसका इतिहास लगभग 2000 साल पुराना है। पूरे इतिहास में मणिपुर कभी भी भारत का हिस्सा नहीं रहा। 1891 ई0 में जब ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने इस राज्य पर कब्जा किया तो इसकी हैसियत एक एशियाई राज्य की थी। काफी सोच-समझ कर इसे भारतीय साम्राज्य के साथ नहीं मिलाया गया था।
    मणिपुर पर कब्जा होने के 65 साल बाद ब्रिटिश सरकार ने 1947 में भारत को आजाद किया तथा साथ-साथ मणिपुर को 14 अगस्त 1947 को आजादी दे दी, लेकिन ‘इस्टूमेन्ट आफ एक्सेशन’ के तहत मणिपुर के महाराजा बोधचन्द्र ने 11 अगस्त 1947 को ब्रिटिश-भारत के गर्वनर जनरल के साथ एक सन्धि पर हस्ताक्षर किया था, तो भी यह अपनी संप्रभुता को बचाये रखा था, उसमें इस बात का प्रावधान था कि मणिपुर के विदेशी मामलों, रक्षा औैर संचार की देख-रेख भारत करेगा, जबकि भारत के किसी भी भावी संविधान को स्वीकार करने अथवा खारिज करने का पूरा अधिकार मणिपुर के महाराजा का होगा। जुलाई 1947 को महाराजा ने मणिपुर में जनतांत्रिक संविधान की घोषणा कर दी थी, जिसे ‘मणिपुर कांस्टिट्यूशन एक्ट’ के नाम से जाना जाता है।
    उक्त संविधान के तहत अगस्त 1948 में पहला जनतांत्रिक चुनाव हुआ जिसमें मणिपुर के राज्य असेम्बली में 54 सदस्य चुने गये।
    18 अक्टूबर 1948 को राज्य की असेम्बली का राजा द्वारा उद्घाटन किया गया, जिसमें राजतंत्र का जनतंत्र में संक्रमण हुआ। राजा को राज्य का संवैधानिक प्रमुख का दर्जा मिला। इस प्रकार मणिपुर दक्षिण एशिया का पहला देश, जिसने अपने यहां संविधान के तहत जनतंत्र की स्थापना की, जबकि भारत उस समय तक अपना संविधान बना भी नहीं पाया था।
    जिस समय मणिपुर अपने यहां स्वतंत्र तौर पर जनतंत्र लागू कर रहा था, भारत की बेचैनी बढती जा रही थी, वह महाराजा के साथ की गयी संधि को निरस्त करना चाह रहा था ताकि वह मणिपुर को भारत के साथ मिला सके। मजे की बात यह थी कि उस समय तक एक स्वतंत्र जनतांत्रिक देश के रूप में मणिपुर की अंतर्राष्ट्रीय छवि बन गयी थी, और सबसे बड़ी बात यह थी कि मणिपुर की सरकार भारत में शामिल होना नहीं चाहती थी।
    इस तरह की प्रवृत्ति को भांपकर भारत परेशान रहने लगा था, काफी सोच के बाद उसने एक षड्यंत्र मणिपुर के साथ किया। भारत सरकार ने कुछ मसलों पर विचार विमर्श के लिए सित. 1949 में महाराजा को शिलांग आमंत्रित किया। 18 सित. को महाराजा जैसे ही वार्ता स्थल पर पहुचे, भारतीय प्रतिनिधियों ने पहले से तैयार किया हुआ एक दस्तावेज राजा के सामने रखा और कहा कि वे उस पर दस्तखत कर दे। यह दस्तावेज मणिपुर को भारत में मिलाने से सम्बंधित था। महाराजा यह देखकर काफी हैरान हुए तथा यह कहते हुए कि अब उनके पास कोई संवैधानिक अधिकार ऐसा करने के लिए नही हैं और मणिपुर में एक मंत्री परिषद कार्य कर रही है। उन्होंने इसके लिए कुछ समय मांगा कि वे मंत्री परिषद तक यह बातचीत ले जाय। और वापस अपने निवास शिलांग के रेड लेंड लौट आए। यहां पहुंचने पर उन्होंने देखा कि उनके निवास को भारतीय सैनिकों ने चारों तरफ से घेर रखा है, उनसे कहा गया कि उन्हें नजरबंद किया गया है और अपने मंत्री परिषद के किसी सदस्य से सम्पर्क नहीं कर सकते।
    महाराजा ने दो दिनों तक भारतीय सेना का प्रतिरोध किया और फिर बेहद दबाव व तनाव के बीच 21 सित. 1949 को मणिपुर के विलय सम्बंधित दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिये। इस समझौतों के शर्त के अनुसार भारत सरकार ने 15 अक्टू. 1949 को मणिपुर राज्य को भारत में विलय की घोषणा की, तथा एक आदेश जारी कर मणिपुर की मंत्री परिषद और विधान सभा को भंग कर दिया।
    मणिपुर की जनता ने भारतीय राज्य में मिलाए जाने की इस घटना को कभी स्वीकार नही किया, इसके विरोध में कई सभाएं हुई, एक राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन की घोषणा की गयी कि मणिपुर का भारत में विलय का समझौता अवैध है, यह दबाव का समझौता है इसकी पुष्टि राज्य विधान सभा से नहीं है। भारत और मणिपुर की मूल समस्या यहीं से शुरू होती है।  


दमनकारी काला कानून ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून’ एक बार फिर चर्चा में 
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    पिछले कई सालों से जिस खतरनाक निरंकुश दमनकारी कानून के खिलाफ देश के उत्तरपूर्व से लेकर कश्मीर तक में आम जनता बार-बार सड़कों पर उतरती रही है। यह कानून है ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून’। इसके चलते मिले संरक्षण की वजह से सेना की निरंकुशता बढ़ती चली गई है। अफस्पा जैसे काले कानून सेना की निरंकुशता व निर्ममता को बढ़ा देते हैं।        
    अफस्पा (सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून) इस हद तक खतरनाक है कि सेना द्वारा होने वाली गलतियों या इस कानून के अंतर्गत किए जाने वाले हत्याओं के लिए न्यायालय में इस पर मुकदमा भी दर्ज नहीं किया जा सकता। इसलिए इस कानून के अंतर्गत काम कर रही सेना भारत के न्यायालय से भी ऊपर है। इस एक्ट के तहत सेना को अप्रतिबन्धित व अनगिनत अधिकारों से सुसज्जित किया गया है ताकि वह आत्मनिर्णय के अधिकार के तहत न्यायपूर्ण लड़ाई लड़ रहे लोगों की आवाज को खामोश कर सके। 
    इस एक्ट के मुताबिक वारंट आफिसर या सेना के इसी रेंक के समकक्ष व्यक्ति को ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ का तर्क देकर खुद के विवेक से किसी को गोली मारने यानी हत्या करने का अधिकार दिया गया है। शक के आधार पर ही बिना वारंट के तलाशी लेने व गोली मारने का अधिकार सेना को दिया गया है।
      इस कानून के चलते पूर्वोत्तर भारत व कश्मीर की जनता संगीनों के साये में रहने को विवश है। यहां के नागरिकों के बेहद सीमित अधिकारों को भी शासकों ने छीन लिया है। आतंकवाद के नाम पर घरों से किशोरों, युवकों को उठाया जाना व फिर उनको गायब कर देना आम बात है। इसी प्रकार तलाशी के नाम पर महिलाओं से बलात्कार कोई अपवाद नहीं बल्कि आम बात है। ये घृणित कृत्य यहां के आम नागरिकों में निश्चित तौर पर नफरत व आक्रोश ही पैदा कर सकते हैं। 
    सितंबर 1958 में इस काले कानून को भारत सरकार ने पारित किया था । इसे तब असम-मणिपुर में लागू किया गया था । जिसे सन् 72 तक आते आते पूरे ही पूर्वोत्तर क्षेत्र में (असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश) लागू कर दिया गया । इस कानून को फिर बाद के काल में पंजाब व कश्मीर में भी लागू कर दिया गया। इस कानून को लागू करने का एकमात्र मकसद था बर्बर दमन व हत्याओं का दौर चलाकर आजादी की आकांक्षा व संघर्ष का गला घोंट देना। यह कानून पंजाब को छोड़कर आज भी अन्य जगहों पर लागू है। 
    यही कानून है जिसे हटाये जाने की मांग को लेकर मणिपुर की ‘‘इरोम शर्मीला चानू’’ पिछले 14 सालों से भूख हड़ताल पर है। इसी कानून के चलते मणिपुर में निर्दोष लोगों के कत्लेआम व महिलाओं के साथ सशस्त्र बलों द्वारा होने वाले बलात्कार व हत्याओं की वजह से मणिपुर की जनता सड़कों पर उमड़ पड़ती थी। 2004 में ‘मनोरमा बलात्कार हत्याकांड’ ने भारतीय सेना के खिलाफ मणिपुर की महिलाओं के नफरत, आक्रोश व क्षुब्धता को वहां पहुंचा दिया था कि जहां यहां की महिलाओं ने भारतीय सेना के कार्यालय के सामने नग्न प्रदर्शन कर नारे लगाए थे ‘इंडियन आर्मी-रेप अस’। इस प्रतिरोध ने भारतीय शासकों व सेना को अपनी बगलें झांकने को विवश कर दिया था। 
    सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाए जाने की मांग कश्मीर की जनता भी काफी लंबे समय से कर रही है। मणिपुर व अन्य हिस्सों की तरह ही यहां भी सेना पर निर्दोषों की हत्याओं व बलात्कार के आरोप लगते रहे हैं। 23 फरवरी 1991 को कुपवाडा जिले के कुनुन पोसपोरा गांव की 53 महिलाओं के साथ सैनिकों द्वारा बलात्कार किया गया था जिसमें 13 साल से 80 साल तक की महिलायें भी थीं। लेकिन धूर्त शासक व इनका मीडिया यहां होने वाले हर विरोध प्रदर्शन को सांप्रदायिक व अंधराष्ट्रवादी रंग में रंग देने में मशगूल हो जाता है। भाजपा व संघी तो इसमें अव्वल हैं। 
    दिसंबर माह में होने वाले विधान सभा चुनाव के मद्देनजर सारी ही पूंजीवादी पार्टियां नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, कांग्रेस व साम्प्रदायिक भाजपा आदि  इस घटना को व अफस्पा के मामले पर अपना-अपना गेम प्लान कर रही हैं कि कैसे इसे इस्तेमाल करके अधिक सीटें हासिल की जा सकें। मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतें ऐसी घटनाओं का इस्तेमाल अलगाववाद को और मजबूत करने में करती हैं। 
    इस काले कानून को हटाये जाने का जहां तक सवाल है हुक्मरान इसे हटाने की इच्छा कतई नहीं रखते।  

तबाह हुई सोयाबीन की खेती, वादे के बाद भी नहीं मिला है मुआवजा -स्वतंत्र मिश्र
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    देवास से चंद किलोमीटर दूर निपनिया गांव के 70 वर्षीय किसान पोप सिंह खेत में ही दोपहर का खाना निपटा चुके हैं। इस संवाददाता के यह पूछते ही कि इस बार सोयाबीन की फसल कैसी हुई है? पोप सिंह कुछ देर चुप्पी ओढ़ लेते हैं और उनकी आंखें नम हो जाती हैं। सवाल दोहराने पर वे खर-पतवार नाशक ‘टरगा सुपर’ का डिब्बा दिखाते हुए कहते हैं-‘साहब, इस दवा (हर्बीसाइड) ने सब चौपट कर दिया। सारी फसल जलकर खराब हो गई है। हम बर्बाद हो गए।’ लेकिन ‘टरगा सुपर’ बनाने वाली कंपनी धानुका एग्रीटेक लिमिटेड की मध्य प्रदेश शाखा के क्षेत्रीय विक्रय अधिकारी जे. के सिंह ने कहा, ‘सोयाबीन की खेती ‘टरगा सुपर’ की वजह से खराब नहीं हुई है। किसानों ने टरगा के साथ क्लोरीमुरान (छोटू ब्रांड नाम) मिलाकर इस्तेमाल किया है जिसके चलते फसलों का नुकसान हुआ है। ‘छोटू’ का निर्माण कृषि रसायन एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी करती है। टरगा छोटी या नुकीली पत्तियों को मारने के लिए होती है और सोयाबीन की पत्ती चौड़ी होती है।’ 
    गौरतलब है कि निपनिया के आसपास के गांवों हाट पिपलिया, पटारी, अमलावती, मरका, मेंढकी, बरौठा और जावड़ा आदि गांवों के करीब 100 किसानों की लगभग 550 बिगहे पर लगी सोयाबीन बर्बाद हुई है। किसानों द्वारा स्थानीय विक्रेता एजेंसी को जब सोयाबीन फसल के बर्बाद होने की खबर दी गई तो कृषि रसायन एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड के अधिकारियों ने सोयाबीन के खेतों का जायजा लिया और किसानों को प्रति एकड़ (पौने दो बिगहा) 6000 रुपये मुआवजे के तौर पर देने की बात भी की है लेकिन निरीक्षण के बाद से लेकर अब लगभग दो महीने का समय बीत जाने के बावजूद मुआवजे के आश्वासन की तारीखें बदलती रही हैं लेकिन अभी तक किसी के हाथ एक भी धेला नहीं लगा है। कृषि रसायन केंद्र के अधिकारी फसल के नुकसान की बात स्वीकार कर रहे हैं और मुआवजे देने की बात भी कर रहे हैं लेकिन वे अपने कीटनाशक के गड़बड़ होने की बात पर चुप्पी लगा जाते हैं।
    पिछले कुछ दशकों में पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात के बाद मध्य प्रदेश में फसलों की बंपर पैदावार ली जाने लगी है। जाहिर है कि यहां कीटनाशकों और रसायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल भी खूब बढ़ा है। कृषि विशेषज्ञ देवेन्दर शर्मा का मानना है कि कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के अधिक इस्तेमाल से महाराष्ट्र और पंजाब में किसानों को लाभ तो मिला है लेकिन इसके गलत या जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल से इसका नुकसान भी इन राज्यों में दीखने लगा है। 
    फसल सामान्य होती तो एक एकड़ में 7-8 क्विंटल सोयाबीन की पैदावर होती है। इस समय देवास अनाज मंडी में सोयाबीन के भाव 3100-3200 रुपये प्रति क्विंटल चल रहे हैं। अगर किसानों को कंपनियों से मुआवजा मिल भी जाता है तो भी किसानों को प्रति एकड़ कम से कम 19 हजार रुपये का घाटा उठाना पड़ेगा। कृषि रसायन एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड के एक अधिकारी से मुआवजा के बारे में पूछने पर वे अभी 10 दिन का समय और लगने की बात कहते हैं। स्थानीय विक्रेता देवेश पेस्टिसाइड केंद्र के मालिक महेश ने बताया, ‘इस फसल के लिए उन्होंने अकेले टरगा सुपर के साथ छोटू भी 250 लीटर बेची है। किसानों के नुकसान की बात कृषि रसायन केंद्र के अधिकारियों से कई बार की लेकिन कंपनी के अधिकारी हर बार मुआवजा की कोई अगली तारीख बता देते हैं।’ 
    देवास जिले में पिछले 7-8 सालों के दौरान 10 हजार से ज्यादा तालाबों का निर्माण हुआ है। यहां अब 100 फीसदी खेत सिंचित हैं। फसलों की पैदावर भी गुणात्मक रुप से बहुत ज्यादा बढ़ी है लेकिन इस इलाके में खेती से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में रसायन का इस्तेमाल भी बहुत बढ़ा है। टोंक कलां के 75 वर्षीय किसान प्रेम सिंह खिंची अपने इलाके में रसायन और उर्वरकों के ज्यादा इस्तेमाल से चिंतित रहते हैं। वे मध्य प्रदेश के कृषि विभाग में सहायक निदेशक भी रह चुके हैं। उनका कहना है कि रसायनों का इस्तेमाल कब और कितना करें, जिसके चलते भी कई बार उनको नुकसान उठाना पड़ता है।  
    रसायनिकों के व्यापक इस्तेमाल को प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा अच्छा नहीं मानते हैं। वे बताते हैं, ‘हमारे किसान मंडी में बैठे आढ़तियों के दिशा निर्देश से चलते हैं। आढ़तियों को किसानों के नुकसान की चिंता रत्ती भर नहीं होती है, वे तो ज्यादा से ज्यादा लाभ हर हाल में चाहते हैं। कीटनाशकों का इस्तेमाल ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में करने लग जाते हैं। लेकिन अति तो किसी भी चीज को नुकसान पहुंचाने वाली ही होती है। कीटनाशकों के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। खेतों की उर्वरा शक्ति खत्म होती जाती है। कीटनाशकों का रसायन मिटटी में घुल-घुलकर भूजल में मिल जाता है और अंततः वह हमें नुकसान पहुंचाता है। पंजाब में कैंसर के प्रसार की बड़ी वजह कीटनााकों का बहुत ज्यादा इस्तेमाल में लाना ही है’। 
    मध्य प्रदेश के देवास अनाज मंडी और दिल्ली स्थित नरेला अनाज मंडी के कुछ आढ़तियों ने नाम न उजागर करने की शर्त पर बताया कि हम अनाज खरीदने में हमेशा ज्यादा अनाज आपूर्ति कराने वाले किसानों को तवज्जो देते हैं जिसके चलते हर किसान के मन में ज्यादा से ज्यादा अनाज उगाने की बात घर कर जाती है और वे ज्यादा फसल लेने के चक्कर में कीटनाशकों का इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा करने लग जाते हैं।  
    इस समय प्रदेश में कृषि महोत्सव (कृषि क्रांति रथ 25 सितंबर-20 अक्टूबर) चल रहा है जिसमें किसानों को कृषि से लाभ कमाने की बात हो रही है लेकिन वहीं दूसरी ओर देवास के किसान फसल के बर्बाद होने के बाद मुआवजा मिलने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। किसानों का कहना है कि हमारी फसल अब किस रसायन से खराब हुई, यह तो जांच का विषय है लेकिन हमसे मुआवजा का वादा करके लौट चुकी कंपनियां हमें मुआवजा देने में क्यों देर कर रही हैं? क्या वे हमारे मरने का इंतजार कर रही हैं?

‘‘बेटी बचाओ-धर्म बचाओ अभियान’’ 
यानी
साम्प्रदायिकता फैलाओ अभियान
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
संघ परिवार के एक अनुषांगिक संगठन बजरंग दल द्वारा जगह-जगह साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की घटनायें तेज हो गई हैं। ‘लव जिहाद’ व ‘गौ-रक्षा’ के नाम पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ विष वमन के प्रयासों में तेजी आई है।
उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून के व्यस्त बाजार में स्थित पंचायती मंदिर में बजरंग दल द्वारा एक बैनर लगाया गया है, जिस पर लिखा है- ‘‘बेटी बचाओ, धर्म बचाओ’’ के नारे के तहत दिनांक 28 सितम्बर शिवाजी धर्मशाला, सहारनपुर (चैक) से प्रातः 10 बजे से दुपहिया वाहन रैली में भागीदारी करने का आह्वान इस बैनर में किया गया था।
इस बैनर को देखकर पहली नजर में किसी को ऐसा लग सकता है कि यह पोस्टर महिलाओं की सुरक्षा या कन्या भू्रण हत्या को लेकर है। लेकिन गौर से देखने पर पता चलता है कि यह एक धर्म विशेष को सम्बोधित है तथा यह हिन्दुओं को कथित तौर पर मुसलमान युवकों से अपनी बेटियों के किसी सम्भावित प्रेम विवाह को खतरे के बतौर चिह्नित करते हुए अंतरधार्मिक विवाहों को रोकने और उसके आधार पर साम्प्रदायिक गोलबंदी का प्रयास है।
वैसे इस देश में महिलाओं के ऊपर होने वाले अत्याचारों की कोई कमी नहीं है। हिन्दू धर्म में अधिकतर अत्याचार तो धर्म के नाम पर ही किये जाते हैं- सती-प्रथा, देव-दासी प्रथा, बाल-विवाह जैसी बुराइयों का आधार हिन्दू धर्मग्रंथों में है। हिन्दू धर्म में इन बुराइयों को महिमामण्डन किया गया है। रूप कुंवर सती काण्ड को संघ मंडली द्वारा व हिन्दू कट्टरपंथियों द्वारा महिमामण्डन किया गया था। हिन्दू धर्मग्रंथों में नारी को नरक का द्वार कहा गया है। बजरंग दल और संघ मंडली भारत को एक ‘हिन्दू राष्ट’ª बनाना चाहती है लेकिन इनकी इच्छानुसार यदि भारत एक हिन्दू राष्ट्र बनता है तो उसके नियम-कानून मनुस्मृति सरीखे या उसके आधार पर ही होंगे। मनुस्मृति महिलाओं व शूद्रों दोनों को ही इंसानियत का दर्जा नहीं देती। इसकी पुष्टि करते हुए ब्राह्मणवादी-हिन्दूवादी मनुस्मृति के कुछ श्लोक-
श्लोक - अस्वतंत्राः स्त्रियः कार्याः पुरुषैः स्वैर्दिवानिश्म्।
     विषयेषु च सज्जन्त्यः संस्थाप्या आत्मनो वशे।। अर्थात- पुरुषों को चाहिए कि अपनी स्त्रियों को कभी स्वतंत्र न होने दें। रूप रसादि विषयों में उनके  आसक्त होने पर भी उन्हें अपने वश में रखें।
श्लोक - पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
     रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।।
अर्थात- बालपन में पिता, यौवन में स्वामी और बुढ़ापे में पु़त्र स्त्री की रक्षा करते हैं। स्त्री कभी स्वतंत्रता के योग्य नहीं है।
श्लोक - अधिविन्ना तु या नारी निर्गच्छेद्रुषिता गृहात्।
      सा सद्यः संपिरोद्वव्या त्याज्या वा कुलसंनिधौं।।
स्वामी के दूसरा विवाह कर लेने पर स्त्री रुष्ट होकर घर से निकल भागे तो उसे शीघ्र पकड़कर घर के अंदर बंद कर रखना चाहिये अथवा उसे उसके बाप के घर भिजवा देना चाहिए।
रामचरित मानस में तुलसीदास ने महिलाओं के प्रति अपनी नफरत का इजहार इन शब्दों में किया है-
‘‘ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी,
सकल ताड़न के अधिकारी’’
आज महिलाओं के ऊपर जितने अत्याचार हो रहे हैं, जिनमें दहेज हत्या, कन्या भू्रण हत्या, शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर हर स्तर पर गैर बराबरी, पुरुष प्रधान समाज व पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा महिलाओं का शोषण, उत्पीड़न व अपमान के खिलाफ ये धर्म रक्षक अपनी जुबान बंद रखते हैं और तो और इन सारी बुराइयों को ये प्रोत्साहित व महिमामंडित करते हैं। महिलाओं की आजादी के ये घोर विरोधी हैं।
संघ मंडली की समस्त सोच जो उग्र हिन्दूवाद की वकालत करती है। उसके मूल में ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था व पितृसत्ता के मूल्य हैं। महिलाओं व दलितों-वंचितों के लिए इस हिन्दूवादी ध्वजवाहकों की सोच में तीखी नफरत व गैर बराबरी के मूल्य भरे हुए हैं।
बजरंग दल द्वारा दूसरा साम्प्रदायिक अभियान गौ-रक्षा के नाम पर चलाया जा रहा है। गाय, बंदर, सांप की पूजा करने वाले ये पाखंडी लोग आज भी अपने धर्म के दलितों व अछूतों के साथ इंसानों जैसा व्यवहार नहीं करते।
देश भर में आज दलितों के ऊपर उच्च जाति के हिन्दुओं के द्वारा दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किये जा रहे हैं। उनके घर फूंके जा रहे हैं। उनका हुक्का-पानी बंद किया जा रहा है। उन्हें उनके गांवों से भगाया जा रहा है। मिर्चपुर, जींद, भगाणा की घटनायें कोई पुरानी नहीं हैं। जाहिर है दलितों के खिलाफ इस हद तक अत्याचार करने वाले ये लोग ही ‘गौ-रक्षा व बेटी बचाओ’, ‘धर्म बचाओ’ सरीखे अभियानों के ध्वज वाहक हैं।

अतः महिलाओं, दलितों, वंचितों समेत सभी मजदूरों, मेहनतकशों को अपनी एकता व संघर्षों के द्वारा इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के पाखण्ड, घृणा प्रसार अभियान का मुंहतोड़ जबाव देना होगा।

पीपी
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
पाठक हमें माफ करेंगे क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री को हर चीज का संक्षिप्त नाम रखने की आदत है। सो हमने भी भारत के प्रधानमंत्री के असली चरित्र का संक्षिप्तीकरण किया है। पीपी का मतलब है पाखण्डी प्रधानमंत्री।
‘स्वच्छ भारत अभियान’ इस देश के ‘पूँजीपतियों के नये’ सेवक का नया पाखण्ड है। अब लोगों को समझ में आने लगा है कि यह जनता का सेवक नहीं वरन् पूंजीपतियों का सेवक है। वह अपने मदारी के लिए, मदारी के इशारों पर नाच रहा है और जनता का मनोरंजन कर रहा है। जनता भाजपा सरकार के इस प्रहसन को देख रही है कि कैसे मंत्री कूड़ा बिखरवाते हैं और फिर कैमरों के सामने झाडू लगाते हैं।
हद तो तब हो गयी जब इस देश के मुखिया ने 2 अक्टूबर को कैमरों की फ्लश लाइटों के बीच वाल्मीकि बस्ती में झाडू पकड़ ली। वाह! क्या अद्भुत नजारा था। ब्लैक कमांडो के सुरक्षा घेरे में, महंगी डेªेस में सुसज्जित अपने अरबपति सहोदरों के साथ एक ‘मेहतर’। यह लोगों के साथ भद्दा मजाक नहीं तो और क्या है? सफाईकर्मियों की समस्या को, मैला ढ़ोने की कुप्रथा को इस मुल्क का प्रधानमंत्री कैसे देखता है, यह इसका उदाहरण है। पाखंडी प्रधानमंत्री की परवरिश ही ऐसी संस्था में हुई है जो उनसे सिर्फ पाखण्ड ही करवा सकती है।
बेशक हर कोई चाहता है कि उसका परिवेश साफ सुथरा हो किन्तु फिर भी हमारा परिवेश अन्यान्य तरीके से गंदा है। सड़कें, नालियां, कार्यालय, प्लेटफार्म आदि गंदगी से पटे हुए मिल जायेेंगे। हर शहर के डलावघर से भयंकर बदवू आती महसूस होती है। गरीब व घनी बस्तियों में तो गंदगी के पहाड़ मिल जायेेंगे। औद्योगिक बस्तियां तो नरक से भी बदतर हैं।
निश्चय ही ‘स्वच्छ भारत अभियान’ जैसे पाखंडों से यह समस्या खत्म होने वाली नहीं है वरन् समस्या कहीं ज्यादा गंभीर है। ‘स्वच्छ भारत अभियान’ तो स्वयं लोगों को उनकी नजरों में गिराने भर का अभियान है जो यह जताने के लिए है कि ‘देश की गंदगी के लिए इस देश के लोग ही जिम्मेदार है’ जबकि समस्या का सार स्वयं इस पूंजीवादी व्यवस्था में है। इसलिए हमने इस कार्यक्रम के संचालक को पीपी कहा।
हमारे देश में गंदगी एक नगर, शहर व महानगर के बेतरतीब व गैर-योजनाबद्ध विकास का परिणाम है। दूसरा, आमतौर पर सभी औद्योगिक मजदूर बस्तियों में नागरिक सुविधाओं के अभाव के लिए पूंजीपति वर्ग जिम्मेदार है। स्वयं उद्योग-धंधों की स्थापना भी काफी हद तक गैरयोजनाबद्ध तरीकों से होती है। इन औद्योगिक धंधों से निकलने वाले अपशिष्ट इन इलाकों में गंदगी फैलाने का प्रमुख कारण हैं। तीसरा साफ सफाई में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल न के बराबर है। इस कारण ही मैला ढ़ोने व सीवर साफ करने के लिए अभी भी सफाई कर्मचारी ही लगाने पड़ते हैं। चैथा, गरीबी और अशिक्षा। उपरोक्त को दूर किये बिना जब इस देश का प्रधानमंत्री ‘स्वच्छ भारत अभियान’ चलाता है तो वह पाखण्ड नहीं तो और क्या है?
यहां पर यह भी महत्वपूर्ण है कि ‘सफाई के काम’ को जातिगत ढांचे को तोड़े बिना नहीं किया जा सकता है। कैमरों के सामने झाडू उठाना एक बात है और झाडू को आजीविका का स्रोत बनाना बिल्कुल दूसरी बात है। सफाई कर्मियों को सम्मानजनक रोजगार की गारण्टी पहले प्रदान कर दी जाये, सफाई की नौकरी जैसे अपमानजनक कार्य के जातिगत आधार को खत्म करके फिर ‘स्वच्छ भारत अभियान’ जरूर चलाया जाना चाहिए। तब कैमरों की चकाचैंध में झाडू लगाने वालों को हकीकत पता चल जायेगी। जो लोग घरों में झाडू नहीं लगा पाते, जो अपने घर के टायलेट साफ नहीं कर पाते, वे चश्मा लगाये सूट-बूट पहनकर सफाईकर्मी का स्वांग भर रहे हैं।
हमारे देश की सबसे बड़ी गंदगी तो इस देश के पूंजीपति, नौकरशाह, अफसर व राजनेता हैं। वे इस गंदगी के मुख्य स्रोत हैं। ‘स्वच्छ भारत’ के लिए इस गंदगी को हटाना पड़ेगा। इस ‘गंदगी’ ने विभिन्न समस्याओं मसलन् गरीबी, असमानता, भुखमरी, बेरोजगारी, पर्यावरण व आवास समस्या जैसी समस्याओं को जन्म दे रहा है। इसका विकल्प है समाजवाद। जो नगरों, शहरों व महानगरों का योजनाबद्ध तरीके से विकास करेगा, जो उद्योग-धंधों व उनसे सटे मेहनतकशों के रहने वाली जगहों का भी योजनाबद्ध विकास करेगा। जो सबसे विकसित तकनीक अपनाकर सफाई के अमानवीय चरित्र को खत्म करेगा जो वाल्मीकि समाज के लोगों को सम्मानजनक रोजगार प्रदान करके सफाई के जातिगत स्वरूप को खत्म कर देगा। और इस समस्या का मुकम्मिल समाधान कर देगा।

सेमिनार
सांप्रदायिक फासीवाद को बढते खतरे 
वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)
दिनांक 14 सितंबर को बरेली में सांप्रदायिक विरोधी मोर्चे द्वारा ‘सांप्रदायिक फासीवाद का बढ़ते खतरे और जनपक्षधर आंदोलन की चुनौतियां’ विषय पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया। यह सेमिनार उत्तर प्रदेश में बढ़ रहे सांप्रदायिक दंगों व तनावों एवं हिन्दू व मुस्लिम समुदायों में बढ़ रहे सांप्रदायिक धु्रवीकरण एवं केन्द्र में सत्ताधारी दल के सांप्रदायिक फासीवादी रूझानों को संज्ञान में लेते हुए किया गया। सेमिनार में एक आधार पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमें सांप्रदायिकता के इतिहास पर विस्तार पूर्वक चर्चा की गयी।
सेमिनार को संबोधित करते हुए क्रालोस के डा.सूर्यप्रकाश ने कहा कि आज विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था संकट का शिकार है। ऐसे में सरकारों ने पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए जनता के हक-हकूकों को छीनने की नीति अपना ली है। जनता के अधिकारों पर होने वाला हर हमला जनता को जाति-धर्म का भेद भुलाकर एकजुट संघर्ष की ओर बढ़ाता है। इस संकट के दौर में जब पूंजीपति वर्ग अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए मेहनतकशों के खून को और निचोड़ेगा, उसकी थाली से दाल और रोटियां और कम हो जायेगी तो जाहिर है कि मेहनतकश जनता इसका प्रतिरोध भी करेगी। इस संगठित प्रतिरोध को रोकने के लिए शासक वर्ग जनता को जाति धर्म क्षेत्र में बांटकर, दंगे फैलाकर एक दूसरे समुदायों में नफरत फैलाकर मेहनतकशों की एकता को तोड़कर पूंजीपति वर्ग की लूट को मुकम्मल करना चाहता है।
इमके के साथी डीसी मौर्या ने कहा कि पिछले कुछ समय से (खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में) सांप्रदायिक तनाव व दंगे की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। गली-मोहल्लों की छोटी-छोटी घटनाएं जिन्हें पहले आमतौर पर आपसी बातचीत से सुलझा लिया जाता था अब अधिकाधिक सांप्रदायिक रूप लेती जा रही है। धार्मिक जुलूस के मार्गों में डीजे की आवाज, छेड़छाड़ जैसे मामलों को सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है। एक साथ रहने व काम करने वाले लोग अचानक एक दूसरे के खून के प्यासे बन जाते हैं। लेकिन ऐसा यूं ही नहीं हो रहा है। सांप्रदायिक ताकतों ने जमीनी स्तर पर अपनी सक्रियता बहुत बढ़ा दी है। इनके भड़कावे में आकर आम जन मानस भी सांप्रदायिक सोच का शिकार होने लगा है। इसीलिए छोटे-छोटे झगड़ों को सांप्रदायिक नेता व उनके संगठन सांप्रदायिक रंग देने में जुट जाते हैं और दंगा करवा देते हैं। इसीलिए इन घटनाओं के मुख्य दोषी शुरूआती घटना के व्यक्ति नहीं बल्कि घटना का इस्तेमाल कर सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने  वाले सांप्रदायिक संगठन व उनके नेता होते हैं। इनसे मुकाबला करने के लिए सभी जनपक्षधर ताकतों को एकजुट होकर प्रयास करने होंगे।
पछास के साथी कैलाश ने कहा कि सांप्रदायिक संगठनों को शासक वर्ग का समर्थन प्राप्त है। इसी का नतीजा है कि साम्प्रदायिकता के खेल में माहिर पार्टी देश की केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हो चुकी है। अब भी ये पार्टी व इसके तमाम संगठन समाज में साम्प्रदायिकता का जहर घोलने का काम कर रहे हैं। तथा इनकी सरकार शिक्षा-संस्कृति-इतिहास सबका साम्प्रदायीकरण करने में जुटी है। हजारों निर्दोषों की हत्या का दोषी प्रधानमंत्री कई संवैधानिक संस्थाओं को समाप्त कर तथा कई मंत्रालयों को निष्प्रभावी बनाकर सत्ता की सारी ताकत अपने हाथ में केन्द्रित करना चाह रहा है। तमाम पदों पर साम्प्रदायिक सोच के व्यक्ति बैठाये जा रहे हैं। तो दूसरी तरफ दंगों की आड़ में श्रम कानूनों में संशोधन, बीमा विधेयक में संशोधन, रेलवे, बीमा, रक्षा क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर लगी रोक हटाना, भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन, पर्यावरण कानून में संशोधन जैसे जनविरोधी काम किये जा रहे हैं। कुल मिलाकर देशभक्ति, स्वदेशी, राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने वाले आज भारत माता को बेचने की तैयारी कर रहे हैं। गाय व गंगा की रक्षा करने वाले इंसानों के खून से नहाकर खुश हो रहे हैं। आज जरूरत है इसका पर्दाफाश कर इनका असली चरित्र उजागर करने की।
सेमिनार को संबोधित करते हुए बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन के महामंत्री का. संजीव मेहरोत्रा ने कहा कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ मजबूत संघर्ष मजदूर वर्ग ही खड़ा करेगा। यही वह वर्ग है जो दंगों व कफ्र्यू में सबसे परेशान होता है तथा पूंजीवादी व्यवस्था अपने संकट में इसी का शोषण तीव्र करने को साम्प्रदायिक ताकतों को पालती है। तथा जनविरोधी नीतियां भी इसी के ऊपर सबसे ज्यादा थोपती है। दंगों का दंश महिलाओं व बच्चों को भी झेलना पड़ता है। दंगों के दौरान महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे घृणित कार्य किये जाते हैं चूंकि मजदूर वर्ग इतिहास का सबसे क्रांतिकारी वर्ग है। यह समाज की सभी तरह की समस्याओं व शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ खड़ा होगा। तथा अपने पीछे सभी शोषित-उत्पीडि़त तबकों/वर्गाें को खड़ा करेगा तो वह साम्प्रदायिकता व उसकी जननी पूंजीवाद के खिलाफ निर्णायक संघर्ष के मैदान में उतरेगा।
प्रो. जावेद अब्दुल वाजिद ने कहा कि भारत देश में बहुसंख्यक हिन्दू साम्प्रदायिकता हावी है तथा यहां का मुसलमान इससे पीडि़त हैं। इसलिए यहां के मुसलमानों को एकजुट किये बगैर साम्प्रदायिकता के खिलाफ नहीं लड़ा जा सकता। हमें अपने साम्प्रदायिकता विरोधी मोर्चे में तमाम मुस्लिम संगठनों व अन्य धर्मनिरपेक्ष ताकतों को साथ में मिलाना चाहिए। हमें साम्प्रदायिक ताकतों के हर षड्यंत्र को मौके पर विफल कर बेनकाब करना चाहिए। हमें समाज में प्रचारित करना चाहिए कि सभी धर्मों के मेहनतकशों, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, नौजवानों, किसानों, मजदूरों, कर्मचारियों के न केवल हित व जरूरतें एक से हैं बल्कि उनके संघर्षों के मुद्दे भी एक हैं। इसलिए सभी को आपसी झगड़े मिटाकर एकजुट हो जाना चाहिए।
भारत जनपहल मंच के का. अशोक कुमार ने कहा कि साम्प्रदायिक दंगों ने अब शहरों के साथ-साथ गांवों को भी अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया है। दंगों के समय प्रशासन जो समझौते करा रहा है वे ज्यादा दिक्कत तलब हैं। गांवों में हिन्दू/मुस्लिमों के रास्ते व मुहल्ले अलग-अलग किये जा रहे हैं। इससे गांवों की एकता टूट रही है। इससे गांव के किसानों के संघर्ष कमजोर होंगे और उनका शोषण उत्पीड़न तीव्र होगा। इसलिए साम्प्रदायिकता से लड़ाई में मजदूरों/किसानों/आदिवासियों/महिलाओं सभी को अपनी वर्गीय एकता मजबूत करके लड़ना होगा।
पी.यू.सी.एल. की प्रदेश कमेटी सदस्य साथी यशपाल सिंह ने कहा कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का संकट फासीवादी शक्तियों के लिए जमीन तो मुहैय्या करा ही रहा है। परन्तु देश में क्रांतिकारी आंदोलन का कमजोर होना व टूट-फूट बिखराव का शिकार होना भी एक कारण है जो प्रतिक्रियावादी ताकतों को मुंहतोड़ जबाव नहीं दे पा रहा है। पूरी दुनिया में आज दक्षिणपंथी राजनीति हावी होती दिख रही है तो इसके मुकाबले के लिए क्रांतिकारी ताकतों को अपनी बिखरी पड़ी ताकत को इकट्ठा करके शोषित-उत्पीडि़त वर्गाें को अपने साथ में लेकर इन्हें चुनौती देने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
सेमिनार का संचालन करते हुए मो. फैसल ने कहा कि आज केवल हिन्दू-मुस्लिमा की शांति की बातों से साम्प्रदायिकता का मुकाबला नहीं किया जा सकता। इसके लिए हमें दोनों की धर्मों की साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष छेड़ना होगा। हमें शिक्षा-रोजगार-बेहतर मजदूरी के लिए एवं महंगाई-भ्रष्टाचार-बेरोजगारी के खिलाफ ऐसा संघर्ष छेड़ना होगा जिसमें सभी धर्मों के लोग कंधे से कंधा मिलाकर लड़ें। कुल मिलाकर हम बेहतर दुनिया समाजवाद के लिए संघर्ष छेड़ें। ये संघर्ष जितना ही मजबूत होता जाएगा, साम्प्रदायिक ताकतें अलगाव में पड़ती जायेगी। तभी हम अपने शहर व  देश के अमन की रक्षा कर पायेंगे।

अंत में सेमिनार की अध्यक्षता कर रहे का. सहदेव सिंह(एड.) ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ एकजुट संघर्ष की अपील करते हुए सेमिनार के समापन की घोषणा की।               बरेली संवाददाता

प्रबंधन और श्रम अधिकारियों का नापाक गठजोड़
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
सिडकुल पंतनगर में मित्तर फास्टनर्स प्लांट नं.69 सेक्टर नं.6 में है। पिछले लम्बे समय से प्रबन्धन श्रम कानूनों का उल्लघंन कर रहा है। डीएलसी के आदेश को भी धता बताते हुए मजदूरों को धमकाने का काम कर रहा है।
यहां पर मजदूरों को चार-पांच साल काम करने के बाद भी नियुक्ति पत्र नहीं दिया गया। इसकी शिकायत मजदूरों ने जब डीएलसी व एएलसी को दी तब डीएलसी ने वार्ता बुलायी और दिनांक 18 जून को डीएलसी ने आदेश जारी किया कि जिन श्रम कानूनों का उल्लघंन हो रहा है, उनको ठीक किया जाय। और दिनांक 16 जुलाई तक सभी मजदूरों को नियुक्ति पत्र और वेतन स्लिप जारी कर उनके कार्यालय को उनकी प्रतिलिपि दी जायेगी। मगर आज तक प्रबंधन द्वारा न तो मजदूरों को नियुक्ति पत्र दिया और न ही डीएलसी कार्यालय में कोई भी प्रमाण पत्र की प्रतिलिपि दी। डीएलसी को मजदूर प्रतिनिधि दो बार अपने लिखित पत्रों से अवगत करा चुके हैं कि अभी हमारे प्रबन्धन द्वारा आपके आदेशों को लागू नहीं किया गया है। इसके बाद अभी तक डीएलसी ने कोई कार्यवाही नहीं की है।
प्रबन्धन लगातार मजदूरों पर प्रहार कर रहा है और मजदूरों को उकसा रहा है ताकि मजदूर कुछ बोलें और वह उनको फैक्टरी से बाहर करे। सबसे पहले प्रबन्धन ने यह कहना शुरू कर दिया है कि इस बार दीपावली पर बोनस 8.33 प्रतिशत ही मिलेगा जबकि पिछली बार मजदूरों को 6 हजार रूपया दिया गया था। इससे मजदूरों में प्रबन्धन के खिलाफ आक्रोश है कि इस बार उनका बोनस कम क्यों हुआ है। जबकि इस बार पहले से जो वेतन था उसमें प्रत्येक मजदूर का प्रत्येक माह में लगभग 1500-2000 रूपये प्रबंधन खा रहा था मगर जैसे ही मजदूरों ने इसके खिलाफ आवाज उठायी तो प्रबन्धन को पूरा वेतन देना पड़ा। इससे प्रबन्धन मजदूरों से अंदर ही अंदर गुस्से में था। इसमें मजदूरों ने अपनी आंशिक जीत हासिल की थी। प्रबन्धन पहले सभी मजदूरों से 12-16 घंटे काम करवाता था और मजदूर भी अतिरिक्त वेतन की जरूरत के कारण काम करते थे क्योंकि इस महंगाई में पांच हजार रूपये में घर का खर्च चलाना मुश्किल होता था। मजदूर प्रतिनिधियों ने जब प्रबंधन से बात की कि आठ घंटे के अतिरिक्त काम नहीं करेंगे। यदि काम करवायेंगे तो इसका वेतन का दुगुना भुगतान करना होगा। इससे प्रबन्धन ने ओवरटाइम करवाना बंद कर दिया। इससे मजदूरों में निराशा छायी मगर कुल मिलाकर मजदूर इस बात से सहमत हुए थे कि हमारा जो पैसा प्रबन्धक मार रहा था वह अब हमें मिल गया। मगर इसमें भी अभी कुछ मजदूर लालच के वशीभूत होकर प्रबन्धक के बुलावे पर अतिरिक्त काम के लिए जा रहे हैं, जबकि इस समय प्रबन्धक को अतिरिक्त काम की सख्त आवश्यकता है क्योंकि दीपावली पर माल की मांग आयी हुई है। मजदूर अपना आपसी तालमेल नहीं बना पा रहे हैं।
प्रबन्धन वर्ग इस समय मजदूरों से बहुत ज्यादा चिढ़ा हुआ है। प्रबन्धन और स्थानीय विधायक राजकुमार ठुकराल के भाई नीटू ठुकराल जिसका वहां पर भवन निर्माण कार्य का ठेका चल रहा है और इससे पहले वाले घटनाक्रम में विधायक और उसके भाई ने प्रबन्धन का साथ दिया था और मजदूरों ने इसका प्रतिकार किया था, इससे यह बौखलाये हुए थे और मजदूरों को सबक सिखाने के मूढ़ में थे कि अचानक 21 अगस्त को सिक्योरिटी सुपरवाइजर दुर्गेश कुमार को प्रातः 6 बजे बुलाया गया था। मजदूरों का कहना है कि सिक्योरिटी सुपरवाइजर दुर्गेश कुमार हमेशा मजदूरों की मदद करते रहते थे। इससे प्रबन्धन नाराज रहता था। दुर्गेश कुमार ने फैक्टरी के अंदर जैसे ही प्रवेश किया वह सीधे उत्पादन हाल में गया तो वहां पर कुछ नट और बोल्ट बिखरे हुए पड़े थे। दुर्गेश कुमार ने अपना काम छोड़ते हुए नट और बोल्ट को बोरे में भरने लगा कि उसी समय क्वालिटी हेड आया और उसको ऐसा करते हुए देख लिया और उसकी सूचना एच.आर. और जी.एम. को दे दी। उन्होंने दुर्गेश पर चोरी का आरोप लगाया और नीटू ठुकराल के मदद से पुलिस बुलाकर दुर्गेश को पुलिस के हवाले कर दिया। उस समय सामान फैक्टरी के अंदर ही था नीटू ठुकराल व प्रबन्धन के कहने पर पुलिस दुर्गेश को सिडकुल चैकी ले गयी और चैकी में ले जाकर उसकी पिटाई की और उसे लाॅकअप में बंद कर दिया। पुलिस लगातार उसको पट्टे से पीटते हुए चोरी के इल्जाम को स्वीकार करने की बात कर रही थी। दुर्गेश ने असली बात बताने की कोशिश की। आखिर पुलिस की मार के आगे कब तक टिकता और पुलिस से बोला ‘मुझे मत मारो जैसा तुम कहोगे वैसा करूंगा’। इसके बाद पुलिस उसे दो जगह अपने साथ ले गयी लेकिन वहां पर कोई सामान बरामद नहीं हुआ। इस बीच प्रबन्धन ने दो बोरे नट बोल्ट फैक्टरी से लाकर सिडकुल चैकी में रख दिये। जिन्हें पुलिस ने माल बरामदगी दिखा दी। अब पुलिस को उससे पैसा बनाने का खेल शुरू हो गया। जैसे ही मजदूरों को इस बात का पता चला तो फैक्टरी के अधिकांश मजदूर सिडकुल चैकी पहुंचे और मजदूरों ने पुलिस से कहा कि दुर्गेश बहुत ही नेक और ईमानदार व्यक्ति है। प्रबन्धन ने उसे झूठा फंसाया है लिहाजा दुर्गेेश को छोड़ा जाय मगर पुलिस कहां मानने वाली थी। उल्टा पुलिस वालों ने मजदूरों को ही धमकाना शुरू कर दिया। मजदूरों ने कुछ समय तक तो पुलिस का प्रतिरोध किया। उसके बाद दुर्गेश को छुड़ाने के लिए उसके परिजनों व स्थानीय नेताओं से सम्पर्क करना शुरू किया। कुछ समय बाद दुर्गेश के परिजन पुलिस चैकी पहुंचे। पुलिस वालों ने दुर्गेश के घर वालों से मामला रफा दफा करने की एवज में सात हजार रूपया ऐंठ लिये और प्रबन्धन को तीस हजार रुपये का डेविट नोट यानि जुर्माना दुर्गेश के ऊपर डाल दिया। इस समझौते के बाद दुर्गेश को पुलिस ने चैकी से ही छोड़ दिया। फैक्टरी प्रबन्धन और सिक्योरिटी कम्पनी ने दुर्गेश को काम से नहीं निकाला मगर दुर्गेश ने अपनी ओर से ही काम पर जाना बंद कर रखा है। सभी मजदूर प्रबन्धन की घृणित चाल से चितिंत हैं।
फैक्टरी प्रबन्धन लगातार श्रम कानूनों का उल्लघंन कर रहा है फिर भी उस पर श्रम विभाग की ओर से कोई कार्यवाही नहीं हुई। सभी अधिकारी चुप बैठे हैं। मजदूरों से यदि धोखे से भी कोई गलती हो जाय तो सभी अधिकारी व प्रबन्धन उसको सबक सिखाने के लिए एकजुट हो जाते हैं या फिर कोई झूठा जाल बिछाकर फंसाया जाता है।

मजदूरों को साफ समझना होगा कि सभी प्रशासनिक अधिकारी और पुलिस व श्रम विभाग पूंजीपति के इर्द-गिर्द काम करते हैं। नेता भी पूंजीपतियों के साथ खड़े होकर मजदूरों को धमकाते हैं और बल्कि खुली गुंडई पर उतर आते हैं। मजदूरों को इससे निपटने के लिए वर्गीय स्तर पर एकजुट होना होगा तभी इस घृणित गठबंन्धन को मात दी जा सकती है। यह काम कठिन है मगर इसके बगैर मजदूरों को इससे निजात नहीं मिल सकती। इसके लिए मजदूरों को मजदूर संघर्ष को समझकर उससे एकाकार होकर आगे बढ़ना होगा तभी पूंजीपति के जाल से मजदूर मुक्त हो सकते हैं।       रूद्रपुर संवाददाता

आरसीएफ द्वारा जनजागरण
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
पिछले दिनों आरसीएफ (RCF) कपूरथला में चुनाव उपरांत मान्यता में आई आरसीएफईयू (RCFEU) ने रेलवे मे 2004 से लागू नई पेंशन नीति हाल ही में मोदी सरकार द्वारा रेलवे में FDI, को मंजूरी के विरोध में तथा आरसीएफ व अन्य रेलवे में नई भर्ती की मांग को लेकर तीन दिवसीय जनजागरण अभियान चलाने का निर्णय लिया।
स्थानीय वर्कर क्लब में हुई यूनियन की जनरल बाॅडी मीटिंग में विभिन्न वक्ताओं, जिनमें यूनियन अध्यक्ष परमजीत सिंह खालसा, उपाध्यक्ष दर्शन लाल, सचिव व इंडियन रेलवे ईम्प्लाईज फैडरेशन (IREF) के अध्यक्ष सा सर्वजीत सिंह इत्यादि ने पूरे हाउस को एनपीएस लागू होने से कर्मचारी को हुए आर्थिक नुकसान व एफडीआई लागू होने से भविष्य पर मंडरा रहे खतरों से अवगत करवाया। वक्ताओं के अनुसार यदि आसीएफ तथा रेलवे में नई भर्ती नहीं होती तो एफडीआई रूपी दैत्य एक दिन पूरी रेलवे को ही निगल जायेगा।
पूरे हाउस के समर्थन से दिनांक 5 से 7 अगस्त 14 की उपरोक्त नीतियों के विरोध में जनजागरण का निर्णय लिया गया। जिसमें पांच अगस्त को कारखाना गेट पर पैम्फलेट वितरण, 06 अगस्त को कालोनी परिसर में रोष रैली तथा अंत में 07 अगस्त को कारखाना द्वार पर पूरे दिन रोष से भरपूर धरना व शाम की गेट मीटिंग करने का निर्णय लिया गया।
1. पैंफलेट वितरण- यूं तो नई पेंशन स्कीम 2004 से ही रेलवे में लागू हो गयी थी। तब से ही न तो कोई मान्यता प्राप्त संगठन (जिन्होंने स्वयं इस पर हस्ताक्षर किये थे) इसके विरोध में बोला और न ही सरकार द्वारा इसे मुक्त रूप से सार्वजनिक होने दिया गया। परन्तु ज्यों-त्यों इसके नकारात्मक पहलू सामने आते गए कर्मचारियों की चिंता व आक्रोश बढ़ता गया। एनपीएस की इन्हीं नकारात्मक परतोें को खोलता पैंफलेट छपवाकर साथियों के बीच लाने का प्रयास था यह पैंफलेट वितरण कार्यक्रम सुबह सात बजे ही संगठन के समर्पित व परिश्रमी साथी 300 से 400 की संख्या में कारखाना गेट पर पहुंच गये थे। पूरे उत्साह के साथ मौखिक रूप से एनपीएस से होने वाले भविष्य के नुकसानों, तथा एफडीआई के तबाहकुन कल का जिक्र करते हुए, काम पर जा रहे कर्मचारियों को पर्चा लेने व ध्यानपूर्वक पढ़ने के लिए प्रेरित किया। जिसका परिणाम यह हुआ जहां आम तौर पर लोग पाठ्यसामग्री में रुचि नहीं लेते लेकिन इस बार शायद ही कहीं पर पर्चा कहीं फेंका हुआ मिला हो।
2. कालोनी परिसर में रोष मार्च- तय कार्यक्रम के अनुसार छः अगस्त शाम 04 बजे से ही वर्कर क्लब में गहमा-गहमी दिखने लगी थी। रोष प्रदर्शन के कार्यक्रम को सूचारू व प्रभावी ढंग से चलाने के लिए चार-पांच चैपहिया वाहनों का प्रबंध किया गया था। जिन पर लाउडस्पीकर लगाने के साथ-साथ झंडे व बैनर इत्यादि लगाने का काम पूरी तनदेही से करते हुए समयानुसार तैयारी कर ली गयी थी। दिये समय शाम साढ़े छः बजे लगभग 500 लोगों का काफिला जब क्लब से निकला तो साथियों का उत्साह देखने लायक था। ‘एनपीएस रद्द करो’, ‘एफडीआई नहीं चलेगी’ व ‘नई भर्ती के लिए लगाये जा रहे गगनभेदी नारे सुनकर कोई भी समझ सकता था कि एक दिन ये हर रेल कर्मचारी की आवाज बनने वाली है। कालोनी में विभिन्न तयशुदा मार्गों से होते हुए अंत में लगभग 8 बजे रात को संगठन के कालोनी स्थित दफ्तर पहुंच कर समाप्त हुआ। समाप्ति के समय संगठन अध्यक्ष सा. परमजीत सिंह खालास ने साथियों को संबोधित करते हुए इस आवाज को जन-जन की आवाज बनाने का आह्वान किया व इसे संसद भवन के अंदर तक पहुंचाने का प्रण करने को प्रेरित किया।
एक दिवसीय धरना व गेट मीटिंग- पूर्व निर्धारित 7 अगस्त को आरसीएफ गेट पर धरने के लिए लगाया गया विशाल शामियाना सुबह सात बजे से ही गुलजार होना शुरू हो चुका था। 8 बजे तक धरना वादियों की संख्या400 के लगभग हो चुकी थी और एनपीएस व एफडीआई विरोधी नारों की गूंज से ड्यूटी पर आने व जाने वाले लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए काफी था। धरने पर मौजूद साथियों से अपना तजुर्बा साझाा करते हुए नौजवान सा. राय कुमार योगी का मानना था कि लोगों को समस्या समझ में आ जाए तो सरकारों के तख्ते भी पलटे जा सकते हैं। एक मामूली बिल को निरस्त कराना तो छोटी सी बात है। एक अन्य नौजवान साथी रमनदीप सिंह का मानना था कि साम्राज्यवादी नीतियों से उपजे विश्वव्यापी संकट को समझने के लिए नौजवानों को हाइटैक होने के साथ पुस्तकों तथा अन्य पाठ्य सामग्री की और भी ध्यान देना चाहिए। शाम को पांच बजकर पांच मिनट पर शुरू हुई गेट रैली को संबोधित करते हुए, अन्य के अलावा नौजवान नेता स. अमरीक सिंह ने, अपने आप को बहुत बड़ा होने का दावा करने वाले मान्यता प्राप्त संगठनों की कार्यशैली पर करारा प्रहार करते हुए एनपीएस पर दस साल से छाई चुप्पी के लिए जबाव मांगा। उन्होंने इस बात पर भी गहरी चिंता जाहिर की कि एक तरफ अच्छे दिनों का वादा करके सत्तासीन होने वाली मोदी सरकार, कारपोरेट घरानों के इशारे पर श्रम सुधारों की आड़ में श्रमिकों के बचे खुचे अधिकार भी समाप्त करने को आमादा है। इससे भी ज्यादा चिंताजनक सवाल ये कि ऐसे नाजुक व गम्भीर मुद्दे पर देशव्यापी मजदूर संगठन आखिर चुप क्यों हैं?
अंत में रैली को संबोधित करते हुए आईआरईएफ के अध्यक्ष सा. सर्वजीत सिंह ने कहा कि ऐसे समय जब बड़े-बड़े संगठन इन मुद्दों पर खामोश है आरसीएफ से उठी विरोध की इस आवाज को जन-जन की आवाज बनाने तक पहंुचाने के लिए इंडियन रेलवे इंपलाइज फैडरेशन अपनी पूरी ताकत लगा देगी व इसे रेल कर्मी के बड़े संघर्ष के रूप में बदलने के लिए मुख्य कारक के रूप में काम करेगी। आरसीएफईयू के अतिरिक्त सचिव अमरीक सिंह गिल ने आए दिन संघर्ष कर रहे लोगों पर हो रहे सरकारी जबर व निजी व सराकारी जायदाद को नुकसान रोकू कानून को संघर्षशील लोगोें के खिलाफ सरकारी साजिश करार दिया।  इस त्रिदिवसीय कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए यूनियन के बहुत से साथी जैसे बचितर सिंह, जसपाल सिंह, मंजीत सिंह बाजवा, भरत राज, पवन कुमार, तरलोचन सिंह, सुनील कुमार, मुकेश, रामदास, हरिंदर, हैरी, पी.के. कौशल, दर्शन लाल, पवन कुमार दत्ता, बाबू सिंह, संजीव कुमार, हरीश चन्द्र, बाबा अजैब सिंह, अश्वनी कुमार, एम. भटनागर आदि का विशेष योगदान रहा। रैली के अंत में जोश के साथ आगे बढने का आह्वान करते हुए सभी का धन्यवाद किया गया।

कपूरथला से आरसीएफ इम्प्लाइज यूनियन

सावन में भगवा
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
अंततः सावन का महीना गुजरा गया। इसके साथ ही इस वर्ष की कांवड़ यात्रा व रमजान का महीना भी खत्म हो गया। परन्तु इस वर्ष की कांवड यात्रा उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में ऐसे जख्म को पैदा कर गयी है जिसका दर्द इन इलाकों के वाशिन्दे लम्बे समय तक महसूस करेंगे।
किसी को भी रमजान व कांवड़ यात्रा से क्या परेशानी हो सकती है जब तक कि वे एक, विशुद्ध धार्मिक क्रियाकलापों तक सीमित हो। दूसरा वे दूसरे नागरिकों की स्वतंत्रता में खलल न पैदा करती हो। परंतु इस दफा कांवड़ यात्रा थोड़ा अलग थी। इस बार   होने वाली कांवड यात्रा धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक थी। राजनीति के असर के कारण ही यह धार्मिक यात्रा बहुत खतरनाक बन गयी है।
कांवडियों द्वारा सड़क को बात-बात पर जाम करना, बीच सड़क पर डीजे के साथ चलना, गांव से लेकर देहात और शहरों तक इसके लिए विशिष्ट मार्गांे की जिद करना, दूसरे धार्मिक समूहों के प्रति नारेबाजी व बढ़ती आक्रमकता और सबसे बढ़कर दिखावा व इस यात्रा का बाजारीकरण ऐसे पहलू हैं जो इसे धार्मिक समूहों के क्रियाकलापों से ज्यादा फासिस्ट क्रियाकलापों की श्रेणी में पहुंचा देते हैं। अपने दृष्टिकोण व कांवड़ की पवित्रता के नाम पर देश के अन्य नागरिकों के प्रति बद्तमीजी और हिंसा फैलाने की घटनायें हद से पार हो गयी हैं। नशीले पदार्थो का सेवन करके बहुत सारे कांवडियें विभिन्न किस्म के शस्त्रों व आग्नेय शस्त्रों से सुसज्जित होकर सड़कों पर तांडव करते घूमते हैं और राज्य व्यवस्था उनके इस कृत्य के आगे समर्पण करती दिखायी देती है। उनका अपने सोच के लिए हद से ज्यादा आग्रह और राज्य व्यवस्था के विभिन्न अंगों के प्रति हिकारत व उपरोक्त चीजें उन्हें बिल्कुल फासिस्ट गिरोहों के समान खड़ा कर देती हैं। बेशक सभी कांवडि़ये ऐसे नहीं हैं और बहुत सारे विशुद्ध धार्मिक दृष्टिकोण से इस आयोजन में भाग लेते हैं। परन्तु कांवड़ यात्रा में लगने वाला पैसा और राजनीतिक गोंदी की तरह कांवडि़यों की गोलबंदी भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। अफसोस यह है कि इस देश की न्याय व्यवस्था ने भी इस प्रकार के आयोजनों के सामने समर्पण कर दिया है। विभिन्न मामलों में न्यायिक सक्रियता दिखाने वाली न्यायपालिका को राष्ट्रीय व राज्य राजमार्गो पर कंावडियों को यह उत्पात दिखायी क्यों नहीं देता है।
अगर आप अपनी किसी जनसमस्या को लेकर प्रशासन पर दबाब डालने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग पर जाम लगायेंगे तो आप पर मुकदमा चलाया जाता है परंतु कांवडियों पर क्यों नहीं। क्या ये कांवडिये कानून से ऊपर हैं? क्या किसी भी धार्मिक समूह (हिन्दू, मुसलमान या अन्य) को देश के नागरिकों की स्वतंत्रता और कई मामलों के उनके जीवन को खतरे में डालने की छूट की जा सकती है? हालात यह है कि कांवड़ यात्रा के नाम पर होने वाली बेहूदगियों पर सवाल खड़ा करना ही अपराध मान लिया जाता है।
कांवड़ यात्रा के नाम पर गांव, देहात और शहरों की गली-गली तक हमें पूरे महीने भगवा आतंक और कफ्र्यू दिखायी देता है। शहर से लेकर देहात तक पुलिस प्रशासन उनकी सुरक्षा में चैकसी करती नजर आती है। इस बार जो अजीब बात है वह है कांवड़ यात्रा का राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जाना। संघ परिवार का पूरा कुनवा और शिवसेना जैसी शक्तियों ने इस कांवड यात्रा का अपने सामसायिक मंसूबों के लिए भरपूर इस्तेमाल किया। इन संगठनों व पार्टियों के नेताओं ने साम्प्रदायिक धु्रवीकरण करने के लिए न सिर्फ कांवडि़यों को जगह जगह उकसाया बल्कि अन्य कांवड़ जत्थों को झगड़े वाली जगहों पर इकट्ठा करने में भी नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। दूसरी ओर अगर कहीं कांवडि़यों द्वारा किसी भी स्थान पर छोटी सी घटना पर भी विरोध किया वहाँ इन साम्प्रदायिक संगठनों के कार्यकर्ताओं ने पहुंचकर झगड़े को व्यापक व साम्प्रदायिक बनाने में अहम् भूमिका अदा की।
बरेली जिले में जिला प्रशासन पूरी तरह साम्प्रदायिक संगठनों के मंसूबों को पूरा करता नजर आया। गांवों में जहां जहां साम्प्रदायिक झगड़ों की वारदातें हुईं ं(उदाहरण दुनका, कलारी आदि में) वहां-वहां शांति के नाम पर प्रशासन ने एक नायाब तरीका निकाला। इसके अनुसार हिन्दुओं के इलाके से मुस्लिमांें के धार्मिक जुलूस नहीं निकलेंगे और मुस्लिमों के इलाकों से हिंदुओं के। धार्मिक आधार पर यही विभाजन तो संघ परिवार जैसे साम्प्रदायिक संगठन चाहते थे। धार्मिक आधार पर हर गांव और शहर को बांटने की इस कला से तात्कालिक तौर पर शांति स्थापित करने में प्रशासन भले ही सफल हो गया हो लेकिन यह काम धार्मिक भेदभाव, वैमनस्य और जनता के बीच की दूरियों को ज्यादा व्यापक और स्थायी बनाने का कार्य करेगा। यह वही प्रयोग हैं जिसे नरेन्द्र मोदी के गुजरात में पहले ही किया जा चुका है। साम्प्रदायिक व फासीवादी संगठनों के केन्द्रीय सत्ता पर कब्जे का प्रयास कांवडियों पर भी दिखायी दिया। उनको पता था कि इस बार उनकी किसी भी कार्यवाही का विरोध करने की हिम्मत किसी में भी नहीं है।
कांवड़ यात्रा तो शक्ति प्रदर्शन का माध्यम भर था जिसके माध्यम से वे यह जताने में सफल रहे कि दूसरे धार्मिक समूहों कोे इस देश में उनकी मर्जी के मुताबिक जीना होगा। यह केन्द्रीय सत्ता पर साम्प्रदायिक संगठनों के काबिज होने के बाद का विजय जुलूस भी था। यह धार्मिक वर्चस्व को स्थापित करने का माध्यम भी था। लेकिन इस सबमें महत्वपूर्ण यह है कि इस यात्रा में ज्यादातर लोग मजदूर, किसान व अन्य गरीब मेहनतकश हैं। इन्हें ही धार्मिक आधार पर बांटकर शासक वर्ग खुश है और इनकी मेहनत की लूट पर ऐश कर रहा है।


धर्मनिरपेक्षता का ढांचा
(वर्ष-17,अंक-15 : 1-15  अगस्त, 2014)
सोलहवीं लोकसभा के लिए हाल में हुए आम चुनाव में उनकी जीत के बाद हिन्दू राष्ट्रवादी यह दावा कर रहे हैं कि भारतीय मतदाताओं ने धर्मनिरपेक्षता को खारिज कर दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का हमारे देश में घोर दुरूपयोग होता आया है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में आरजेडी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के नारे का इस्तेमाल अपने कुशासन और भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के लिए किया। इस नारे का इस्तेमाल कर अवसरवादी राजनैतिक ताकतों ने अल्पसंख्यक समुदाय के मत हासिल करने की कोशिश भी की। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का एक ही अर्थ है, और वह है, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना। और इसमें भी वे बुरी तरह असफल रहे। समाजवादी पार्टी के शासन के दौरान उत्तर प्रदेश में 100 से अधिक साम्प्रदायिक दंगे हुए। कांग्रेस-शासित प्रदेश भी दंगों की चपेट में आने से बच नहीं सके। सुरक्षा व गुप्तचर एजेंसियों ने आतंकवाद-निरोधक कार्यवाही के नाम पर हिन्दी भाषाी राज्यों और हैदराबाद में बड़ी संख्या में निर्दोष मुस्लिम युवकों को हिरासत में लिया, उन्हें यंत्रणा दी और कुछ मामलों में उन्हें जान से भी मार दिया। ये पार्टियां, साम्प्रदायिक शक्तियों के बढ़ते प्रभाव को रोकने में असफल सिद्ध हुई और वे अल्पसंख्यकों के दानवीकरण पर भी प्रभावी रोक नहीं लगा सकीं।
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की अवसरवादी धर्मनिरपेक्षता में शामिल था अल्पसंख्यक समुदाय के कट्टरपंथी तबके से हाथ मिलाना ताकि उन्हें अल्पसंख्यकों के वोट मिल सकें। अल्पसंख्यकों में भी कट्टरपंथी प्रवृत्ति वाले लोगों की संख्या बहुत कम है। ठीक उसी तरह, जिस तरह बहुसंख्यक समुदाय में सांस्कृतिक राष्ट्रवादी, अल्पसंख्यक हैं। परंतु समस्या यह है कि दोनों ही समुदायों के कट्टरपंथी तबके सुसंगठित हैं। और अपनी बात चिल्ला-चिल्लाकर कहने में सिद्धहस्त हैं। इसके विपरीत जो लोग समझदार और परिपक्व हैं वे चुप्पी साधे रहते हैं। कट्टरवादी तत्व भड़काऊ बातें करते हैं और ऐसे काम करते हैं जिनसे उन्हें मीडिया में खूब तरजीह मिलती है। जैसे, सलमान रश्दी को भारत में आने से रोकना, तस्लीमा नसरीन के वीजा की अवधि बढ़ाने का विरोध या विभिन्न किताबों, फिल्मों, वेबसाईटों और कलाकृतियों पर प्रतिबंध लगाने की मांग। हिंदू राष्ट्रवादी भी बाबरी मस्जिद ढहाने जैसी कार्यवाहियों पर प्रचार पाने की कोशिश में लगे रहते हैं।
हिंदू राष्ट्रवादी संगठन (एचएनओ), अवसरवादी धर्मनिरपेक्षता का इस्तेमाल, अल्पसंख्यकों को कठघरे में खड़ा करने और उन्हें देश की हर समस्या के लिए दोषी ठहराने के लिए करते हैं। एचएनओ अत्यंत सुसंगठित है और उन्होंने न केवल अवसरवादी धर्मनिरपेक्षता की हामी राजनैतिक पार्टियों बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों के प्रति भी आमजनों के मन में घृणा का भाव पैदा कर दिया है। ये संगठन, अवसरवादी धर्मनिरपेक्षता के लिए धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों को नहीं बल्कि राष्ट्र में अल्पसंख्यकों के अस्तित्व को ही दोषी बताते हैं। वे अवसरवादी धर्मनिरपेक्षता का विरोध करने की बजाए इस्लाम और ईसाईयत को विघटनकारी प्रवृत्ति वाले धर्म निरूपित करते हैं। एचएनओ कहते हैं कि जब तक इस देश में मुसलमान और ईसाई रहेंगे तब तक ऐसी पार्टियां भी अस्तित्व में रहेंगी जो अवसरवादी धर्मनिरपेक्षता से राजनैतिक लाभ हासिल करती हैं। एचएनओ के विचारकों की नजर में इस समस्या के दो हल हैंः 1. यदि संभव हो तो अल्पसंख्यकों को इस देश से बाहर कर दिया जाए। 2. उन्हें दूसरे दर्जे का अधिकारविहीन नागरिक बनाकर देश में रहने दिया जाए।
भारत का धार्मिक चरित्र
एचएनओ कहते हैं कि धर्मनिरपेक्षता एक पश्चिमी अवधारणा है जिसे जल्द से जल्द खारिज कर दिया जाना चाहिए। यहां हमें यह स्वीकार करना होगा कि धर्मनिरपेक्षता की कोई सर्वस्वीकार्य परिभाषा नहीं है। फ्रांस, सोवियत यूनियन व तुर्की में धर्मनिरपेक्षता से आशय, धार्मिक संस्थागत ढांचे और राज्य के बीच संघर्ष से रहा है। 
भारत में धर्मनिरपेक्षता को सर्वधर्म समभाव के रूप में देखा जाता रहा है, जिसका अर्थ है कि राज्य सभी धर्मों को एक नजर से देखेगा और सभी धर्मों के लोगों को अपने धर्म में आस्था रखने, उसका पालन व प्रचार करने की स्वतंत्रता होगी। जब भी दो विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच संघर्ष की स्थिति बनेगी तब राज्य निष्पक्ष रैफरी की भूमिका निभाएगा और किसी भी धर्म के व्यक्ति या व्यक्तियों को दूसरे धर्म के मानने वालों के विरूद्ध हिंसा करने की इजाजत नहीं देगा। एचएनओ, हिंदुओं को एक उच्च नस्ल मानते हैं, यद्यपि वे ऊपरी तौर पर हिन्दू धर्म की सहिष्णुता की परंपरा का दम भी भरते हैं। वे चाहते हैं कि हिन्दू धर्म (बल्कि उच्च जातियों के श्रेष्ठी वर्ग की चुनिंदा धार्मिक परंपराओं का देश में प्रभुत्व हो। एचएनओ के पूजनीय विचारक गोलवलकर चाहते थे कि अल्पसंख्यक, हिंदू राष्ट्र, हिंदू परंपराओं और प्रतीकों के गौरव के स्वप्न देखें। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता, समानता, मानवीय गरिमा और नागरिकता जैसी अवधारणाएं पश्चिमी व हिन्दू संस्कृति के विरुद्ध है।
‘हिन्दू’ शब्द का एक धर्म विशेष के अर्थ में प्रयोग, हमारे देश में ब्रिटिश शासन के दौरान प्रचलन में आया। इसके पहले तक, हिंदू समुदाय का अर्थ था सिंधू नदी के पश्चिमी व पूर्वी तटों पर रहने वाले सभी लोग, चाहे वे किसी भी धर्म को मानते हों। आमजनों में धार्मिक चेतना का उदय, प्रभुत्वशाली उच्च जातियों, विशेषकर ब्राह्मणों, के प्रति रोष के कारण हुआ। ब्राह्मणों ने शुद्ध-अशुद्ध की अपनी परिभाषा विकसित कर ली और उन्होंने समाज को जातिगत आधार पर विभाजित कर दिया। ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरुद्ध जनप्रतिरोध का नेतृत्व कई भक्ति संतों, जिनमें तुलसीदास, कबीर, रविदास, मीराबाई, ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, चोखामेला, वरकारी संप्रदाय, बहिना बाई, गुरूनानक, बसवेश्वरा, नारायण गुरू व बंगाल में बाॅल समुदाय व असम में शंकरदेवा इत्यादि ने किया।
निचले दर्जे के समुदायों की धार्मिक चेतना, भक्ति संतों की रचनाओं के जरिए विकसित हुई, जिनमें उन्होंने ऊँच-नीच की अवधारणा का खंडन किया और जोर देकर कहा कि ईश्वर की नजर में सब एक समान है। ईश्वर कभी अपने बंदों को सजा नहीं देता। वह क्षमाशील है। वह राह से भटके लोगों को भी जन्म और पुनर्जन्म के चक्र में फंसाकर प्रताडि़त नहीं करता। ईश्वर की भक्ति का अर्थ है सभी मानवों से प्रेम करना, चाहे उनकी उपासना पद्धति या संस्कृति कोई भी हो और वे किसी भी नस्ल के हों। भक्ति संतों का कहना था कि हमें मनुष्य ही नहीं बल्कि जानवरों और प्रकृति से भी प्रेम करना चाहिए और उनके विरुद्ध भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। मुस्लिम भक्ति संत सालबेग ने भगवान जगन्नाथ की शान में कई रचनाएं लिखी हैं और ऐसा कहा जाता है कि भगवान जगन्नाथ का रथ तब तक आगे नहीं बढ़ता था जब तक कि सालबेग, जगन्नाथ यात्रा में शामिल नहीं हो जाते थे। उसी तरह, रसखान ने भगवान कृष्ण पर सैंकड़ों पद लिखे है। सूफी इस्लाम भी उतना ही समावेशी था और उसने मुसलमानों व हिंदुओं, दोनों को आकर्षित किया। भक्ति संतों की तरह, सूफी संत भी सहदय व क्षमाशील ईश्वर में विश्वास रखते थे और आराधना की समावेशी परंपराओं के हामी थे। सूफी संत मजहर जान-ए-जाना का मानना था कि वेद भी अल्लाह ने नाजिल किए हैं। निजामुद्दीन औलिया का दिन राम और कृष्ण के भजनों से शुरू होता था।
दूसरी ओर, ब्राहाणों और उलेमा ने राजाओं और नवाबों का पल्लू थाम लिया ताकि वे उनसे लाभ अर्जित कर सकें। वे राजाओं-नवाबों के राजतिलक समारोहों में उन्हें आशीर्वाद देते थे और उन्हें शरीयत के ‘सही रास्ते’ पर चलने की सलाह देते थे। वे शासकों को ऊँच नीच की परंपरा का पालन करने और पूजा-अर्चना के विशाल आयोजन करने की प्रेरणा भी देते थे। दूसरी ओर, आम लोगों की धार्मिक चेतना समावेशी थी। उनके लिए सभी रास्ते एक ही ईश्वर की ओर जाते थे। वे सभी धर्मों को सच्चा मानते थे। हर दस में से नौ व्यक्ति इसी सोच के थे। पुरोहित तबके का प्रभाव केवल श्रेष्ठि वर्ग तक सीमित था। भारत में यह परंपरा नहीं थी कि पुरोहित वर्ग अपने मठ स्थापित करें, अपने समर्थकों की सेना खड़ी करें और उसके बाद धर्म के आधार पर शासन चलाए। आम लोगों को धर्म से कोई विशेष प्रेम नहीं था। यही कारण है कि सर्वधर्म समभाव हमारे देश के लिए धर्मनिरपेक्षता की सर्वश्रेष्ठ परिभाषा है। भारत में धर्मनिरपेक्षता, चर्च व राज्य के बीच संघर्ष के रास्ते नहीं आई है- एक ऐसा संघर्ष, जिसमें एक की जीत होगी और दूसरे की हार।
एचएनओ भारत के लोगों को भ्रमित करने के लिए यह कहते हैं कि धर्मनिरपेक्षता, नेहरूवादी अवधारणा है जिसे पश्चिम से उधार लिया गया है। आम हिन्दू दूसरे धर्मो के प्रति केवल सहिष्णु ही नहीं है बल्कि उनका सम्मान भी करता है। उसके लिए सच बहुआयामी है। इसके विपरीत, एचएनओ की सोच में असहिष्णुता कूट-कूटकर भरी हुई है। चूंकि हिन्दुओं में ही बहुत विविधता है इसलिए एचएनओ जानते हैं कि हिन्दुओं को एक करने का एक ही तरीका है और वह है उन्हें यह विश्वास दिला देना कि कोई दूसरा धर्म उनका शत्रु है। हिन्दुओं की आंतरिक विविधता के कारण उनकी एकरूपता के आधार पर उन्हें एक करना दुष्कर है परंतु एक शत्रु, जरूर उन्हें एक बना सकता है। और इसीलिए वे अल्पसंख्यकों के मुंह पर कालिख पोतने की कोशिशों में लगे रहते हैं।
अवसरवादी धर्मनिरपेक्ष ताकतें, मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए अल्पसंख्यकों के कट्टरपंथी एवं साम्प्रदायिक तबके की मांगें स्वीकार करने में आगे रहती हैं। इससे कट्टरपंथी, जो कि संख्या में तो बहुत कम हैं परंतु सुसंगठित हैं, उन्हें मजबूती मिलती है और समुदाय पर अपनी प्रभुता स्थापित करना उनके लिए आसान हो जाता है। अल्पसंख्यकों के कट्टरपंथी तबके की असल में जितनी शक्ति है उससे वह कहीं अधिक शक्तिशाली नजर आता है। बल्कि कभी-कभी तो लगता है सभी अल्पसंख्यक कट्टरपंथी हैं क्योंकि केवल कट्टरपंथी अल्पसंख्यकों की आवाज सुनाई देती है। अपनी बढ़ती हुई ताकत का इस्तेमाल, कट्टरपंथी तबका, समुदाय के कमजोर वर्ग, विशेषकर महिलाओं का दमन करने के लिए इस्तेमाल करता है। वह उदारता व सहिष्णुता के हामी लोगों को दबाता है। अल्पसंख्यकों के कट्टरपंथी तबके की उसके समुदाय पर पकड़ जितनी मजबूत होती जाती है, हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतेें उतनी ही शक्तिसंपन्न होती जाती हैं। दोनों वर्गो के कट्टरपंथी तबके एक-दूसरे को ताकत देते हैं।
एचएनओ भी समाज में उदारवादी सोच को दबाना चाहते हैं और धार्मिक-सांस्कृतिक विविधवर्णिता और बहुवाद के लिए खतरा हैं। वे लोगों से यह अपेक्षा करते हैं कि उनका व्यवहार, उनकी धार्मिक पहचान के अनुरूप हो। यह स्पष्ट है कि एचएनओ समाज से उदारवाद का पूरी तरह से खात्मा तभी कर सकते हैं जब वे एकाधिकारवादी राज्य की स्थापना कर दें। एचएनओ एक ऐसे सांस्कृतिक-एकाधिकारवादी राज्य का निर्माण करना चाहते हैं जो पितृसत्तामक व उच्च जातियों की प्रभुता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करे।
धर्मनिरपेक्षता व राज्य
हमें अवसरवादी धर्मनिरपेक्षता व ‘इंडिया फस्र्ट’ - दोनों को ही इसलिए खारिज करना चाहिए क्योंकि दोनों ही सच्ची धर्मनिरपेक्षता का प्रतिनिधित्व नहीं करते। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है समाज को चर्च व संस्थागत पुरोहिताई के चंगुल से मुक्त करना। उदाहरणार्थ, भारत में शिक्षा व्यवस्था को ब्राहम्णों, मदरसों और चर्च से मुक्त कर दिया गया है। दूसरे शब्दों में, भारत का कोई भी नागरिक किसी भी धार्मिक संस्था के सहयोग के बिना शिक्षा हासिल कर सकता है और धार्मिक ज्ञान, उसकी शिक्षा का अंग हो या न हो, यह निर्णय करने का अधिकार उसे है। सच्ची धर्मनिरपेक्षता की स्थापना के लिए धर्मनिरपेक्ष राज्य व धर्मनिरपेक्ष समाज दोनों ही जरूरी हैं। धर्मनिरपेक्ष राज्य वह है जिसका पथ प्रदर्शक कोई धार्मिक ग्रंथ, सिद्धांत या परंपरा नहीं होती। यद्यपि राज्य का कोई धर्म नहीं होता तथापि वह अपने नागरिकों को यह स्वतंत्रता देता है कि वे अपनी पसंद के धर्म का पालन करें या किसी भी धर्म का पालन न करें या नास्तिकता में विश्वास रखें।
धर्मनिरपेक्ष राज्य का इस बात से कोई लेना देना नहीं होता कि उसके किसी नागरिक का धर्म क्या है। नीति निर्धारण, विधि निर्माण, प्रशासन, शासकीय नियोजन, शिक्षा व न्याय प्रदान करने के मामलों में संबंधित नागरिक का धर्म अप्रासंगिक होता है। सार्वजनिक नीतियां केवल और केवल नागरिकोें की बेहतरी के लिए बनाई जाती है। धर्मनिरपेक्ष राज्य सभी नागरिकों से एकसमान व्यवहार करता है, चाहे वे किसी धर्म को मानते हों। दूसरी ओर, एचएनओ व अल्पसंख्यक समुदाय का कट्टरवादी / साम्प्रदायिक तबका, राज्य से अपने समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में सौदेबाजी करते हैं। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि धर्मनिरपेक्ष राज्य किसी भी धार्मिक समुदाय को कोई मान्यता ही न दे। ऐसा इसलिए क्योंकि मान्यता देने से विभिन्न समुदायों के बीच अधिक से अधिक साम्प्रदायिक अधिकार हासिल करने और सत्ता व राज्य के संसाधनों में अधिक से अधिक हिस्सा प्राप्त करने की प्रतियोगिता प्रारंभ हो जाती है। इससे नागरिकों पर उनके समुदाय का नियंत्रण और कड़ा हो जाता है और उनके अधिकारों व पात्रताओं का आधार उनकी इस या उस समुदाय की सदस्यता बन जाती है। इस तरह राज्य, कट्टरपंथी/ साम्प्रदायिक श्रेष्ठि वर्ग के अधिकारों का संरक्षक बनकर रह जाता है।
एक आदर्श धर्मनिरपेक्ष राज्य को उन लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करनी चाहिए जो अपने समुदाय या समूह के मत से असहमत हों। असहमत होने का अधिकार, सत्य की खोज व ज्ञान प्राप्त करने का एकमात्र रास्ता है। इसी तरह, विभिन्न संस्कृतियों व धर्मो के बीच संवाद सांस्कृतिक उन्नति के लिए आवश्यक है।
धर्मनिरपेक्षता व समाज
धर्मनिरपेक्ष राज्य हवा में पैदा नहीं होता। यद्यपि भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्ष है तथापि भारतीय राज्य सांस्कृतिक इजारेदारों को ताकत देता आया है। चूंकि किसी भी समाज में बहुसंख्यकों का प्रभाव अधिक होता है अतः वे राष्ट्रीय संसाधनों पर अपने उचित हिस्से से अधिक पर कब्जा जमा लेता है। इस तरह की प्रवृत्ति के कई उदाहरण हमारे देश में है। जैसे उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय कि हिन्दुत्व, जीवन पद्धति है या गौवध निषेध व धर्मपरिवर्तन विरोधी कानून या सुरक्षा बलों द्वारा दंगों के दौरान अल्पसंख्यकों को सुरक्षा न देना या उन्हें फर्जी मुठभेड़ों का निशाना बनाना।
राज्य का कोई भी निर्णय या कार्य किसी समूहगत पहचान पर आधारित नहीं होना चाहिए। कोई चीज इतनी पवित्र नहीं है कि उसकी जांच-पड़ताल ही न की जा सके। परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि आस्थावानों की भावना का निरादर किया जाए। हमें तार्किक व विवेकशील दोनों होना चाहिए।...... 
(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
(साभारः हिन्दी सेक्युलर पर्सपेक्टिव जून द्वितीय 2014)

No comments:

Post a Comment