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‘नान स्टेट ऐक्टर्स’ बनाम ‘स्टेट ऐक्टर्स’
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    भारत के संघी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक भाषण में कहा कि आज दुनिया में एक बड़े हिस्से पर ‘नान स्टेट एक्टर्स’ का कब्जा है और अभूतपूर्व बर्बरता ढा रहा है। उन्होंने इसे वैश्विक शांति व्यवस्था के लिए बड़ा खतरा बताया। 
    मोदी की यह ‘नान स्टेट एक्टर्स’ की धारणा उनकी कोई अपनी मौलिक खोज नहीं है और न ही इससे पैदा होने वाले खतरे के बारे में। यह धारणा बहुत सारी अन्य चीजों की तरह अमेरिकी साम्राज्यवादियों से उधार ली हुई है। 
    यह अमेरिकी साम्राज्यवादी ही हैं जो एक लम्बे समय से कहते आ रहे हैं कि ‘नान स्टेट एक्टर्स’ वैश्विक व्यवस्था के लिए बड़ा खतरा हैं। साथ ही वे यह भी कहते रहे हैं कि इन ‘नान स्टेट एक्टर्स’ को बुरे राज्यों का समर्थन हासिल है जो आतंकवाद को समर्थन और बढ़ावा देते हैं। यह ‘इस्लामी आतंकवाद’ को परिभाषित करने का उनका एक अन्य तरीका है। उन्होंने आतंकवाद को ‘इस्लामी आतंकवाद’ तक सीमित किया और इसे अपनी विश्व व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा घोषित कर दिया। इसने पहले के कम्युनिज्म के खतरे को स्थानापन्न कर दिया। यह 1990 के दशक में हुआ। 
    लेकिन पहले ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के बारे में कुछ बातें साम्राज्यवादियों और पिछड़े पूंजीवादी देशों की सरकारों की अपनी अवधारणा में ‘स्टेट एक्टर्स’ का मतलब सरकारों और उनके द्वारा की जाने वाली कार्यवाहियों के कारकूनों से है। ज्यादा सटीक भाषा में बात करें तो इसका मतलब साम्राज्यवादी और पिछड़े मुल्कों के राज्यों से है, उनकी राज्य सत्ता से है। इस परिभाषा के तहत संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति, उसकी संसद तथा उसकी कुख्यात खुफिया एजेंसी सी.आई.ए. सभी इस ‘स्टेट एक्टर्स’ के तहत आते हैं, सेना तो इसमें आती ही है। इस तरह अमेरिकी साम्राज्यवादी जब अफगानिस्तान या इराक पर हमला करते हैं चाहे वह कानूनों और संधियों का कितना भी बड़ा उल्लंघन हो, तो यह ‘स्टेट एक्टर्स’ का काम है। साम्राज्यवादियों और पिछड़े देशों की सरकारों की नजर में इनकी कार्यवाहियां अपने आप ही वैधानिकता हासिल कर लेती हैं। 
    इसके बरक्स है‘नान स्टेट एक्टर्स’। इसमें दुनियाभर के सारे विद्रोही शामिल हैं। चाहे वह व्यक्ति हो या संगठन, चाहे वे छोटे हों या बड़े और चाहे वे पहाड़ी गुफाओं व जंगलों तक सीमित हों या फिर उनका देश के बड़े हिस्से पर कब्जा हो। इस समय दुनिया का सबसे चर्चित ‘नान स्टेट एक्टर’ इस्लामिक स्टेट आफ इराक एण्ड सीरिया है। नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में भी इसी की ओर इशारा किया था जिसकी बर्बरता के किस्से सारी दुनिया में साम्राज्यवादियों द्वारा प्रचारित किये जाते रहे हैं। इसके पहले अल-कायदा और तालिबान की ज्यादा चर्चा थी। 
    यहां यह ध्यान देने की बात है कि जब साम्राज्यवादियों या पिछड़े पूंजीवादी देशों की सरकारों द्वारा ‘नान स्टेट एक्टर्स’ की बात की जाती है तो इसमें भांति-भांति के अपराधी गिरोह शामिल नहीं होते। ये ‘नान स्टेट एक्टर्स’ केवल विद्रोहियों तक सीमित हैं हालांकि स्वयं इन्हें ही आपराधिक गिरोहों की तरह चिह्नित करने का प्रयास किया जाता है, या कहा जाता है कि नशीली दवाओं के कारोबार सरीखे अपराधों में लिप्त हैं या कम से कम इन भांति-भांति के स्मगलिंग गिरोहों के साथ लिप्त होने की बात की जाती है। यह तो अनकही बात है कि इन ‘नान स्टेट एक्टर्स’ को हथियार और गोला-बारूद इस तरह के गिरोहों से मिल सकते हैं या फिर जैसा कि आगे बात करेंगे अपनी सरकारों के विरोधी ‘स्टेट एक्टर्स’ से। 
    साम्राज्यवादी और पिछड़े देशों की सरकारें इस पर कभी बात नहीं करतीं कि ‘नान स्टेट एक्टर्स’ और ‘स्टेट एक्टर्स’ का वास्तविक रिश्ता क्या है? ज्यादा से ज्यादा वे अपनी विरोधी सरकारों पर आरोप लगाती हैं कि वे ‘नान स्टेट एक्टर्स’ को समर्थन दे रहे हैं। 
    आज यह सच्चाई है कि वामपंथी विद्रोहियों की बात छोड़ दें तो लगभग सारे ही बड़े ‘नान स्टेट एक्टर्स’ साम्राज्यवादियों द्वारा पालित-पोषित हैं या ऐसे ‘स्टेट एक्टर्स’ द्वारा पालित-पोषित हैं जिनका साम्राज्यवादियों से गहरा रिश्ता है। यानी ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के लिए वस्तुतः सीधे-सीधे ‘स्टेट एक्टर्स’ ही जिम्मेदार हैं। 
    कुछ साल पहले तक साम्राज्यवादियों द्वारा सबसे ज्यादा लांछित अल-कायदा और तालिबान को ही लें। तालिबान 1996 से पहले ‘नान स्टेट एक्टर्स’ थे जो 1996 से 2001 तक ‘स्टेट एक्टर्स’ रहे हालांकि उन्हें केवल पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के ‘स्टेट एक्टर्स’ ने ही ‘स्टेट एक्टर्स’ की मान्यता दे रखी थी। अमेरिकी साम्राज्यवादी इस पूरी परियोजना को समर्थन देने के बावजूद इन्हें ‘स्टेट एक्टर्स’ की मान्यता देेने से बचते रहे। 
    पर तालिबान और अल-कायदा नामक ‘नान स्टेट एक्टर्स’ को पैदा किसने किया था? यह खुद अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा स्वीकार की गई बात है कि इन्हें उन्होंने ही पैदा किया था। जब अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के सलाहकार ब्रिजेंस्की, जिन्होंने अफगानिस्तान, सोवियत संघ को ललचाने तथा फिर वहां इसके खिलाफ जिहाद की योजना बनाई थी, से यह पूछा गया कि अफगानिस्तान की अपनी परियोजना के तहत कहीं उन्होंने अल-कायदा नामक भस्मासुर को तो नहीं पैदा कर दिया तो उन्होंने जवाब दिया कि दोनों में से कौन महत्वपूर्ण था- सोवियत संघ का विध्वंस या मुठ्ठी भर आतंकवादियों का पैदा हो जाना। यह जगजाहिर है कि 1980 के दशक में अफगानिस्तान में ‘नास्तिक सोवियत’ हस्तक्षेप के खिलाफ इस्लामी जेहाद खड़ा करने का काम संयुक्त राज्य अमेरिका, सऊदी अरब और पाकिस्तान के ‘स्टेट एक्टर्स’ ने संयुक्त रूप से किया। सी.आई.ए. के वैश्विक नेटवर्क और सऊदी पैसे के बिना अफगानी जेहाद संभव नहीं था। सोवियत हस्तक्षेप के खिलाफ स्वतंत्रता का संघर्ष वहां तब भी होता जैसा कि सिंकदर के हमले के समय से बीसवीं सदी के ब्रिटिश आक्रमण तक अफगानी करते रहे थे। पर वह इस्लामी जेहाद नहीं होता। अफगानिस्तान का इस्लामी जेहाद दुनिया की दो सबसे प्रतिक्रियावादी ताकतों का सामूहिक उत्पाद था- अमेरिकी साम्राज्यवादियों और सऊदी बहावी शासकों। दुनियाभर में जनतंत्र का ढोल पीटने वाले अमेरिकी साम्राज्यवादियों का इस मध्ययुगीन सऊदी सत्ता के साथ गठजोड़ अदभुत था पर जिसका एक सामूहिक आधार दोनों का अतिप्रतिक्रियावादी होना। 
    या हाल के सबसे ज्यादा चर्चित ‘नान स्टेट एक्टर्स’ आई.एस.आई.एस. यानी इस्लामिक स्टेट आॅफ इराक और सीरिया को लें। यह किसके सौजन्य से आया और फला-फूला? सीरिया में बशर असद के स्टेट एक्टर्स को उखाड़ फेंकने के लिए साम्राज्यवादियों, अरब के सऊदी-कतर इत्यादि मध्ययुगीन सत्ताओं और तुर्की के आधुनिक इस्लामिक ‘स्टेट एक्टर्स’ ने हाथ मिला लिया। असद की सत्ता के खात्मे में इनके अपने-अपने हित थे। इराक के सद्दाम हुसैन के ‘स्टेट एक्टर्स’ को धराशाई करने के लिए इन ‘स्टेट एक्टर्स’ ने अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और संधियों की धज्जियां उड़ाते हुए जो हमला बोला था और जिसके खिलाफ सारी दुनिया में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी, उससे सबक लेते हुए इस बार इन्होंने अपना मकसद हासिल करने के लिए थोड़ा अलग रास्ता अपनाया। इन्होंने अरब जन विद्रोहों की श्रृंख्ला में खड़े हुए सीरिया में जन विद्रोह को अपने मकसद के लिए हड़प लेने का फैसला किया। इन्होंने असद के ‘स्टेट एक्टर्स’ के मुकाबले ‘फ्री सीरियन आर्मी’ नामक ‘नान स्टेट एक्टर्स’ को खड़ा किया। (ऐसा ही तरीका अपनाकर उन्होंने लीबिया में गद्दाफी के ‘स्टेट एक्टर्स’ को धराशाई करने में कामयाबी हासिल कर ली थी।) पर इनके द्वारा प्रायोजित ये ‘नान स्टेट एक्टर्स’ ज्यादा कामयाबी नहीं हासिल कर पाये। चरमराने के बावजूद असद की सत्ता बनी रही। तब इन्होंने कहीं ज्यादा खूंखार ‘नान स्टेट एक्टर्स’ को खड़ा करने का फैसला किया और आई.एस.आई.एस. अस्तित्व में आया। आज इस खूंखार आई.एस.आई.एस. नामक ‘नान स्टेट एक्टर्स’ की बर्बरता के किस्से इनके द्वारा प्रायोजित किये जा रहे हैं। 
    अफ्रीका के बोको हरम, अल शहाबा इत्यादि जिस किसी भी ‘नान स्टेट एक्टर्स’ की जड़ में जाया जाये, वहीं साम्राज्यवादी और इनके सहयोगी ‘स्टेट एक्टर्स’ जरूर मिलेंगे। 
    पर इसका आशय यह नहीं है कि साम्राज्यवादियों और उनके सहयोगी ‘स्टेट एक्टर्स’ द्वारा प्रायोजित इन ‘नाॅन स्टेट एक्टर्स’ का अपना कोई वस्तुगत आधार नहीं है, कि महज उनके एजेन्ट या हथियार हैं। जब भी ‘नान स्टेट एक्टर्स’ बड़ी सफलता हासिल करते हैं तो यह किसी वस्तुगत जरूरत की आपूर्ति के जरिये ही संभव होता है। यदि सोवियत संघ का अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप नहीं होता तो वहां बड़े पैमाने का इस्लामी जेहाद पैदा करना संभव नहीं होता। इसी तरह यदि बशर असद की सीरिया में तानाशाही सत्ता न होती तो आई.एस.आई.एस. का इतना विस्तार नहीं हो पाता। और यदि इराक में अमेरिकी हस्तक्षेप का विध्वंस नहीं होता तो वहां भी यह विस्तार नहीं हो पाता। 
    आज पिछड़े पूंजीवादी देशों में भांति-भांति के आर्थिक, सामाजिक संकट विद्यमान हैं। ये संकट बहुत भांति-भांति से अभिव्यक्त हो रहे हैं। राष्ट्रीयता की समस्या भी इनमें से एक है जो ज्यादातर पिछड़े पूंजीवादी देशों में दशकों से चली आ रही है। सामान्य संकट की अवस्था में धार्मिक कट्टरपंथी और पुनरुत्थानवादी सामने आ रहे हैं और संकट का समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं। 
    अक्सर ही संकट का परिणाम तरह-तरह के विद्रोहों में फूट पड़ने के तौर पर होता है जिसमें कुछ तो शुरू से ही हथियारबंद होते हैं या बाद में हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लेते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार आज करीब पचास देश अपने यहां हिंसक विद्रोहों से जूझ रहे हैं।  जब किसी देश में विद्रोह फूटता है तो साम्राज्यवादी अपने हितों के अनुरूप अलग-अलग रुख अख्तियार करते हैं। अपनी पसंद की सरकारों के खिलाफ विद्रोह को कुचलने के लिए, चाहे वह शांतिपूर्ण क्यों न हो, वे हर संभव मदद देते हैं। अरब जन विद्रोहों के समय बहरीन में यही हुआ। इसके मुकाबले अपनी नापसंद की सरकारों के खिलाफ विद्रोह को वे हर संभव हवा देते हैं या मदद करते हैं जैसा कि उन्होंने अरब जनविद्रोहों के समय लीबिया और सीरिया में किया। इतना ही नहीं अपनी नापसंद सरकारों के खिलाफ विद्रोह भड़काने के लिए वे हर संभव प्रयास भी करते हैं जैसाकि वे ईरान में कर रहे हैं। अपनी पसंद की सरकार के खिलाफ विद्रोहों के मामले में वे थोड़ा कौशलपूर्ण तरीका भी अपना सकते हैं। वे जनता की नजरों में धूल-धूसरित हो चुकी सरकारों को अपनी पसंद की किसी अन्य सरकार से प्रतिस्थापित करने के लिए विद्रोह का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। जैसा कि उन्होंने मिस्र में किया जहां आज होस्नी मुबारक के बदले अल सीसी ‘स्टेट एक्टर’ बना हुआ है। 
    जहां तक पड़ोसी मुल्कों का सवाल है उसके ‘स्टेट एक्टर्स’ भी इन विद्रोही ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के मामले में अपने हितांें के हिसाब से ही व्यवहार करते हैं। यदि पड़ोसी मुल्क से संबंध इनके अच्छे हैं तो ये विद्रोह को कुचलने में मदद करते हैं। यदि संबंध शत्रुता के है तो वे विद्रोह को हवा देते हैं और विद्रोहियों को शरण तथा हर संभव मदद भी करते हैं। (अक्सर वे विद्रोह को प्रायोजित भी करते हैं)। पर यहां भी कई बार ज्यादा कौशल दिखाया जाता है और ‘मित्र मुल्कों’ के विद्रोहियों की भी चोरी-छिपे मदद की जाती है, इस संभावना के मददेनजर कि ‘मित्र’ कभी भी शत्रु में बदल सकता है या फिर मित्र से ज्यादा बेहतर सौदेबाजी की जाये। श्रीलंका के लिट्टे के मामले में भारत सरकार का रुख यही था। 
    इस तरह देखा जाये तो ‘स्टेट एक्टर्स’ या ‘नान स्टेट एक्टर्स’ उतने जुदा-जुदा नहीं हैं जैसा कि बराक ओबामा या उनके स्वघोषित मित्र नरेन्द्र मोदी दुनियाभर को बताना चाहते हैं। आज के संकटग्रस्त पूंजीवाद में वे एक दूसरे से गहराई से जुड़े हैं। ‘नान स्टेट एक्टर्स’ अपनी सफलता के लिए ‘स्टेट एक्टर्स’ पर निर्भर हैं (खासकर संसाधनों यानी पैसे, गोला-बारूद और नेटवर्क स्थापना के लिए) तथा ‘स्टेट एक्टर्स’ अपने हितों के मद्देनजर इन्हें बढ़ावा देते हैं और अकसर तो प्रायोजित ही करते हैं। भारत के सारे ही पड़ोसी मुल्क भारत के ‘स्टेट एक्टर्स’ पर कम या ज्यादा मात्रा में आरोप लगाते हैं कि वे उनके यहां ‘नान स्टेट एक्टर्स’ को प्रायोजित कर रहे हैं। असल में तो यह आज साम्राज्यवादियों और अन्य पिछड़े पूंजीवादी देशों के ‘स्टेट एक्टर्स’ की विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके बिना विदेशों में उनके बहुत सारे हित पूरे नहीं हो सकते। 
    इसके बावजूद ‘स्टेट एक्टर्स’ इन ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के बारे में उस तरह की बातें करते रहते हैं जिस तरह की बात का जिक्र शुरू में मोदी के संदर्भ में किया गया है। इसके कई कारण हैं। पिछड़े पूंजीवादी मुल्कों के लिए तो उसका एक कारण यही है कि अक्सर ही वे अपने यहां इन ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के विद्रोह का सामना कर रहे होते हैं। भारत में कश्मीर, मध्य भारत से लेकर पूर्वोत्तर तक इसकी लम्बी कतार है। वे इसके लिए पड़ोसी देशों के ‘स्टेट एक्टर्स’ को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन इसी के साथ यह भी है कि इनके द्वारा पड़ोसी देशों में अपने द्वारा समर्थित या प्रायोजित ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के साथ अपने असली रिश्तों को ढंकते भी हैं। इस तरह ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के खिलाफ ऐसी बातें उन्हें दोनों तरह से मदद पहुुंचाती हैं।
    जहां तक साम्राज्यवादी देशों के ‘स्टेट एक्टर्स’ की बात है वे अपने यहां हथियारबंद ‘नान स्टेट एक्टर्स’ से इतने बड़े पैमाने पर ग्रस्त नहीं हैं। उनके यहां ‘नान स्टेट एक्टर्स’ की हथियारबंद गतिविधियां छोटी-मोटी आतंकवादी कार्यवाहियों तक सीमित हैं। ऐसे में उनकेे द्वारा इन ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के खिलाफ बातें दो, उद्देश्य पूरा करती हैं। पहली तो वे दुनियाभर के सारे प्रतिक्रियावादी, खूंखार और बर्बर ‘नान स्टेट एक्टर्स’ से उनके वास्तविक रिश्तों को छुपाती हैं कि वे इस बात को छिपाती हैं कि वे (कम से कम शुरूआत में) इनके द्वारा समर्थित, प्रायोजित और पालित-पोषित हैं। दूसरे ये कि ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के खिलाफ ये बातें वे अपनी नापसंद हुकूमतों के खिलाफ अभियान या यहां तक कि हमले का बहाना बन जाती हैं। यहां याद रखना होगा कि इराक पर कब्जाकारी हमले के पीछे अमेरिकी साम्राज्यवादी ‘स्टेट एक्टर्स’ ने यह धुआंधार प्रचार किया था कि सद्दाम हुसैन के अल-कायदा से और इसीलिए 2001 के ट्विन टावर हमले से संबंध थे। 
    इस तरह ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के खिलाफ ये बातें आतंकवाद के खिलाफ विश्वव्यापी युद्ध का एक हिस्सा हैं और इनका मकसद है सारी दुनिया में अपने प्रभुत्व के लिए की जाने वाली हर तरह की घृणित कार्यवाहियों के लिए एक व्यापक माहौल का निर्माण। इनका इरादा आतंकवाद और ‘नान स्टेट एक्टर्स’ को खत्म करना नहीं है क्योंकि इनमें से ज्यादा इन्हीं की प्रत्यक्ष-परोक्ष जायज या नाजायज संतानें हैं। इनका वास्तविक इरादा इनके बहाने अपने साम्राज्यवादी हितों को आगे बढ़ाना है। 
    अमेरिकी साम्राज्यवादियों की हर संभव नकल करने वाले भारत के छुटभैय्ये ‘स्टेट एक्टर्स’ भी उसी तर्ज पर ‘नान स्टेट एक्टर्स’ की बातें कर रहे हैं पर वे इतने अकुशल और फिसड्डी हैं अपनी हंसी उड़वा लेते हैं। वे दाऊद इब्राहिम नामक भारत विरोधी ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के घर का पता वह लिख देते हैं जो पाकिस्तान के एक राजनायिक यानी ‘स्टेट एक्टर्स’ के घर का होता है। बहरहाल इन पतित और प्रतिक्रियावादी ‘स्टेट एक्टर्स’ के खिलाफ संघर्ष किये बिना प्रतिक्रियावादी ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के खिलाफ कोई संघर्ष नहीं हो सकता। आज मुख्य लड़ाई प्रतिक्रियावादी ‘स्टेट एक्टर्स’ के खिलाफ न कि ‘नान स्टेट एक्टर्स’ के खिलाफ। प्रगतिशील और क्रांतिकारी ‘नान स्टेट एक्टर्स’ को इस पर स्पष्ट रहना होगा। 
भारत-पाक संबंध: शासकों की धींगा-मुश्ती
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    एक समय था जब भारत की सभी पूंजीवादी पार्टियों में देश की विदेश नीति पर आम सहमति थी। यह आम जुमला था कि देश के बाहर हम सब लोग एक हैं। नेहरू और इंदिरा गांधी के शासनकाल में भाकपा और माकपा जैसी खुद को कम्युनिस्ट कहने वाली पार्टियां भी इस विदेशी नीति की समर्थक थीं। 
    तब से अब कह सकते हैं गंगा-जमुना में काफी पानी गुजर चुका है। अब स्थितियां बदल गयी हैं। अब देश के संघी प्रधानमंत्री बाहर जाकर, और  वह अक्सर बाहर ही रहते हैं, कहते फिरते हैं कि भारत की विदेश नीति ठीक नहीं थी। वह उसे दुरुस्त करेंगे। उसके इस बड़बोलेपन से तिलमिलाकर बाकी पार्टियां कहती हैं कि वे स्थापित परंपरा का उल्लंघन कर रहे हैं। पर उन्हें परंपरा के उल्लंघन की चिंता नहीं। वे केवल अपनी चिंता करते हैं। 
    इन्हीं स्थितियों में इस समय पाकिस्तान के संदर्भ में बवाल मचा हुआ है। पाकिस्तान के साथ सामान्य अधिकारी स्तर की वार्ता को भी एक बड़े विवाद का सा रूप दे दिया गया है। सच्चाई यह है कि दोनों देशों के बीच इस तरह की अनगिनत वार्ताएं होती रही हैं। वे आगे भी होती रहेंगी। पर उन्हें इस तरह के विवाद का मुद्दा बनाना वर्तमान हालात को ही बयां करते हैं।
    इसकी शुरूआत वर्तमान शासक पार्टी यानी भाजपा ने ही की। भाजपा एक लम्बे समय से बाकी पार्टियों की सरकारों पर आरोप लगाती रही है कि वे पाकिस्तान के साथ नरम रुख अपनाती रही हैं। वह सरकारों से सख्त रुख अपनाने की मांग करती रही है। इसमें यह अनकही बात रही है कि सत्ता में आने पर वह पाकिस्तान के साथ सख्ती से पेश आयेगी। 
    अब स्वाभाविक ही था कि उसके सत्ता में आने के बाद बाकी पार्टियां उसे इस मामले में घेरतीं। वे उसे आइना दिखातीं और बतातीं कि उसका स्वयं का रुख कैसे नरम है। भाजपा का इस पर तिलमिलाना भी स्वाभाविक ही है। 
    भारत व पाकिस्तान के संबंधों का एक अतीत है और एक वर्तमान। जहां अतीत में भारत का विभाजन और कश्मीर प्रधान था वहीं वर्तमान में अमेरिकी साम्राज्यवाद की दादागिरी और अफगानिस्तान प्रमुख हैं। आज भारत-पाकिस्तान दोनों देशों के शासक कुछ इस रूप में बात करते हैं मानो वे स्वयं एक-दूसरे से निपट लेंगे। पर सच्चाई यह है कि दोनों की एक नजर अमेेरिकी साम्राज्यवादियों पर रहती है। वहां की एक घुड़की इन्हें शांत करने के लिए काफी होती है। 
    लेकिन वर्तमान पर चर्चा करने से पहले थोड़ी अतीत में चर्चा कर ली जाये। 
    पाकिस्तान भारत के विभाजन के फलस्वरूप 1947 में अस्तित्व में आया। तब वह पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के रूप में था। पूर्वी पाकिस्तान 1971 में अलग होकर बांग्लादेश बन गया। 
    जब 1947 में पाकिस्तान अस्तित्व में आया तब जम्मू-कश्मीर एक रियासत था जिस पर हरी सिंह का डोंगरा खानदान शासन करता था। अंग्रेजों ने जाते-जाते अन्य रियासतों की तरह इसे भी इजाजत दी कि चाहे तो पाकिस्तान में मिल जाये, चाहे तो भारत में या फिर आजाद रहे। 
    स्वाभाविक था कि भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक इसे आपस में मिलाने का प्रयास करते और डोंगरा शासक इसे स्वतंत्र रखने का। इसकी भू-राजनीतिक स्थिति इसे खासा महत्व प्रदान करती थी। 
    कुछ दिन तक ढुलमुल रहने के बाद जब राजा हरि सिंह ने भारत में मिलने का फैसला किया तो पाकिस्तान ने भी इसका एक हिस्सा कब्जा लेना चाहा। अंततः यह हुआ कि कश्मीर के करीब एक तिहाई हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया तो दो तिहाई हिस्से पर भारत का। वस्तुतः भारत-पाकिस्तान के बीच पहला अघोषित युद्ध पहली बार तभी लड़ा गया।
    इस तनातनी की स्थिति में भारत स्वयं जम्मू-कश्मीर के मसले को लेकर संयुक्त राष्ट्र गया इस उम्मीद में कि चूंकि राजा हरि सिंह ने भारत में मिलने के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिये हैं तो जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा घोषित किया जायेगा पर वहां उल्टा हुआ। वहां तय हुआ कि जम्मू-कश्मीर में यथास्थिति बनाये रखी जाय औैर भविष्य में एक जनमत संग्रह कराया जाय कि जम्मू-कश्मीर के लोग क्या चाहते हैं? अंतिम फैसला उसी के हिसाब से किया जाये। 
    लेकिन भारत सरकार ने जनमत संग्रह कभी नहीं कराया। यही नहीं, उसने तब लोकप्रिय नेशनल कांफ्रेंस को समाप्त करने की हर चंद कोशिश की और भारत के संविधान की धारा-370 में जम्मू-कश्मीर को दी गयी स्वायत्तता का हर तरीके से उल्लंघन किया। इन सबका अंतिम परिणाम 1990 में जम्मू-कश्मीर की जनता के विद्रोह, सेना की तैनाती, आतंकवाद, करीब एक लाख लोगों की हत्या इत्यादि में हुआ। कहने की बात नहीं कि इस सबमें पाकिस्तान के शासकों ने अपनी रोटियां सेंकने का हरचंद प्रयास किया। 
    1947 से ही भारत का दो तिहाई कश्मीर पर कब्जा है तथा पाकिस्तान का एक तिहाई पर। दोनों ही एक-दूसरे को अनाधिकृत कब्जे का दोषी बताते हैं। 
    इस तरह पाकिस्तान की पैदाइश से ही जम्मू-कश्मीर का मुद्दा दोनों देशों के बीच एक केंद्रीय मुद्दा रहा है। इसे नकारने का भारत सरकार का प्रयास एकदम बेतुका है और यह समस्या के हल की ओर नहीं ले जाता। 
    लेकिन भारत-पाकिस्तान के संबंधों की जटिलता, जो किसी शत्रुता की हद तक भी जाते हैं, केवल जम्मू-कश्मीर मसले तक सीमित नहीं है इसका दायरा और व्यापक है। 
    पाकिस्तानी शासकों ने भारत के शासकों का मुकाबला करने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों से रिश्ते बनाये। तब भारतीय शासकों के सोवियत संघ के प्रति झुकाव और गुट निरपेक्षता की नीति के मद्देनजर अमेरिकी साम्राज्यवादियों को काफी फायदेमंद लगा। उन्होंने पाकिस्तानी सरकार, खासकर सेना की काफी मदद की। जब पाकिस्तानी जनतंत्र को बीच-बीच में किनारे लगाकर पाकिस्तानी सेना ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ली तो यह अमेरिकी साम्राज्यवादियों की शह पर हुआ। अंततः हालात वहां पहुंच गये जहां पाकिस्तान का भविष्य तीन ‘ए’ यानी अल्लाह, आर्मी और अमेरिका के हाथ में है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इस क्षेत्र में अपने भू-राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए पाकिस्तानी सेना और प्रशासन में अपनी पकड़ का भरपूर प्रयास किया। सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच शीत युद्ध की छाया भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर भी पड़ी। 
    भारत-पाक और सोवियत-अमेरिकी शासकों की चालों के बीच भारत और पाकिस्तान के बीच दो बार युद्ध लड़े गये -1965 और 1971 में। दोनों बार पहलकदमी भारतीय शासकों की थी। 
    1964 में जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे। वे कद में ही नहीं, कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी राजनीति में भी बौने थे। जैसा कि हमेशा होता है अपना कद बढ़ाने का पूंजीवादी राजनीति में एक तरीका देश को युद्ध में झोंकना भी है। नतीजतन भारत-पाकिस्तान युद्ध में उलझ गये। इस युद्ध के परिणामस्वरूप भारत-पाकिस्तान संबंधों में कोई परिवर्तन नहीं आया और युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच ताशकंद में हुआ समझौता केवल कागजों में रह गया। 
    इसके बाद 1971 में एक बार फिर दोनो देशों के बीच युद्ध हुआ। इस बार मसला पूर्वी पाकिस्तान का था और भारत सरकार ने पूरी हेकड़ी के साथ पाकिस्तान के अंदरूनी हिस्से में अपनी सेना उतार दी।। पूर्वी पाकिस्तान का पाकिस्तान से मुक्ति का युद्ध भारतीय शासकों का पाकिस्तानी शासकों से युद्ध हो गया जिसमें पाकिस्तानी शासकों की हार हुई। 
    1971 की इस लड़ाई में भारतीय शासकों ने बड़ी कामयाबी हासिल की। इससे पाकिस्तान का आबादी के हिसाब से आधा हिस्सा अलग हो गया और बांग्लादेश के नाम से अलग देश के रूप में अस्तित्व में आया। तब भारतीय शासकों ने यही सोचा था कि उनकी मदद से अस्तित्व में आने वाला बांग्लादेश उनका पिछलग्गू बना रहेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। समय के साथ भारतीय शासकों के बांग्लादेशी शासकों से रिश्ते तनातनी के हो गये। तो भी भारतीय शासकों के लिए यह खुशी की बात थी कि पाकिस्तान कमजोर हो चुका था।
    1971 की लड़ाई में भारतीय शासकों में पूरी एकता थी। तब जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा की उपाधि दी थी। 
    इसके कुछ साल बाद ही इस इलाके में सोवियत-अमेरिकी दखलंदाजी ने भारत-पाक संबंधों में और जटिलता पैदा कर दी। 1979 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान की सोवियत परस्त सरकार बचाने के लिए अपनी सेना भेज दी। अमेरिकी साम्राज्यवादियों को इसमें अच्छा मौका नजर आया और उन्होंने सोवियत संघ को छकाने के लिए अफगानिस्तान में सोवियत विरोध जिहाद को संगठित करना शुरू कर दिया। इसके लिए धन मुहैय्या कराया सऊदी अरब ने और जमीन तथा अन्य साधन उपलब्ध कराये पाकिस्तान ने। इस तरह अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने अफगानिस्तान में सोवियत संघ से अपनी लड़ाई में पाकिस्तान को मुहरा बना लिया। 
    अफगानिस्तान में साम्राज्यवादियों की इस आपसी लड़ाई में भारत की स्थिति विचित्र थी। वह सोवियत संघ और अफगानिस्तान परस्त सरकार के साथ था। लेकिन साथ ही दुनिया के बदलते समीकरणों के तहत वह अमेरिकी साम्राज्यवादियों से नये रिश्ते भी बनाना चाहता था। 
    अंततः जब 1980 के दशक के अंत में सोवियत संघ का पराभव हो गया और भारतीय शासकों ने स्वयं अपनी पुरानी आर्थिक नीतियां छोड़कर निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां स्वीकार कर लीं तो उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवादियों से भी अपने रिश्तों को पुनर्परिभाषित कर लिया। वे एक झटके से अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बगलगीर हो गये और उनका कृपा पात्र बनने के लिए हर संभव प्रयास करने लगे। अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने भी दक्षिण एशिया में अपने हितों के मद्देनजर इन्हें प्रश्रय दिया। यह बात पाकिस्तानी शासकों को खटकी पर वे कुछ नहीं कर सकतेे थे। इसका तोड़ उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवादियों के और नजदीक सटने में निकाला।
    रही-सही कसर 2001 में तब पूरी हो गयी जब अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया। अब वे केन्द्रीय एशिया की पूरी स्थिति को बदल देना चाहते थे। उनका निशाना दूरगामी तौर पर रूस और चीन थे। इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों पर वे एकछत्र कब्जा चाहते थे। 
    अमेरिकी साम्राज्यवादियों के इस हमले से पाकिस्तानी शासकों की स्थिति विकट हो गयी। अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार को पाकिस्तानी शासकों ने ही सहारा दे रखा था। इसे तब तक अमेरिकी साम्राज्यवादियों का भी समर्थन हासिल था। पर जब पैंतरा पलट करते हुए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया तो पाकिस्तानी शासकों को भी पैंतरेबाजी करना आवश्यक हो गया। उन्होंने अपने हितों के मद्देनजर दोहरी चाल चली। ऊपरी तौर पर उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवादियों का साथ दिया पर भीतरी तौर पर वे तालिबान की मदद करते रहे। तब से आज तक यह जारी है। 
    इस मामले में भारतीय शासकों की स्थिति भिन्न थी। सोवियत परस्त सरकार के खात्मे और सोवियत सेना की वापसी के बाद उन्होंने अफगानिस्तान में उस धड़े पर दांव लगाया जिस पर पाकिस्तान का प्रभाव नहीं था। तालिबान के शासन काल में उन्होंने उत्तरी मोर्चे को समर्थन दिया जिसे रूस और ईरान का भी समर्थन हासिल था। तालिबान को अपदस्थ कर जब अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने करजई के नेतृत्व में इसी उत्तरी मोर्चे के धड़ों को सत्ता में बैठाया तो भारतीय शासकों को लगा कि अफगानिस्तान में उनकी स्थिति बेहतर हो गयी है और वे वहां से पाकिस्तान को घेर सकते हैं। पर अफगानिस्तान की यह सरकार नाम भर की थी और उसे पाकिस्तान समर्थक तालिबान ने राजधानी काबुल से बाहर कभी पांव पसारने नहीं दिया। परिणाम यह निकला कि पाकिस्तानी शासक अफगानिस्तान में असली समीकरण तय करते रहे जबकि भारतीय शासक राजधानी काबुल में कुछ दफ्तर और सड़क बनवाने तक सीमित रहे। 
    अफगानिस्तान की यह लड़ाई सीधे भारत की धरती तक आई। जब भारतीय शासकों ने जेकेएलएफ के नेतृत्व में हथियारबंद कश्मीरी विद्रोह को कुचलने के लिए यहां आतंकवादी समूहों को आगे बढ़ाना शुरू किया तो पाकिस्तान सरकार को मौका मिल गया। अफगानिस्तान के लिए प्रशिक्षित कई सारे जिहादियों को कश्मीर भेजा गया और देखते ही देखते कश्मीर का जन विद्रोह आतंकवादी कार्यवाहियों द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया। पाकिस्तानी शासक कश्मीर में भारतीय शासकों से बांग्लादेश वाला बदला तो नहीं ले सके पर उन्होंने इन्हें खूब छकाया। 
    बदले में भारतीय शासकों ने भी कम नहीं किया। उन्होंने पाकिस्तान में पर्याप्त आतंकवादी गतिविधियों को प्रोत्साहिन दिया। अफगानिस्तान की जिहादी लड़ाई ने पलटकर पाकिस्तान पर वार किया और जब अमेरिकी साम्राज्यवादियों के अफगानिस्तान पर हमले का पाकिस्तानी शासकों ने समर्थन किया तो उन्होंने पाकिस्तान सरकार के खिलाफ ही जिहाद छेड़ दिया। बलूचिस्तान, शिया-सुन्नी और मुहाजिरों के मामले तो पहले से थे। ऐसे में भारतीय शासकों को अपनी कार्रवाइयों के लिए भरपूर जमीन मिली। 
    इसीलिए आज जब भारत और पाकिस्तान दोनों की सरकारें इस बात पर सहमत होती हैं कि आतंकवाद के मुद्दे पर चर्चा की जाये तो समझ में आने वाली बात है। दोनों एक दूसरे के यहां आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देते हैं और दोनों एक-दूसरे पर ऐसा करने का आरोप लगातेे हैं। वे ऐसा अमेरिकी साम्राज्यवादियों की तर्ज पर करते हैं जो सारी दुनिया में आतंकवाद के सबसे बड़े जनक हैं पर जो दूसरों पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं और इसके लिए देशों पर हमला भी करते हैं। 
    दरअसल आतंकवाद का यह मुद्दा दोनों देशों के शासकों द्वारा एक-दूसरे को दबाव में लेने का साधन है। आतंकवाद के मुद्दे पर वे एक-दूसरे से बात नहीं कर रहे होते हैं बल्कि एक-दूसरे के खिलाफ ‘प्वाइंट स्कोर’ कर रहे होते हैं।
    भारत और पाकिस्तान के आपसी सम्बन्धों को दोनों देशों के शासकों ने अपने हितों के मद्देनजर इतना उकसा दिया है कि पूंजीवादी दायरे में इसका समाधान होना बहुत मुश्किल है। कश्मीर की समस्या को ही लें। इसका वास्तविक समाधान जनमत संग्रह द्वारा कश्मीरी लोगों को अपना भविष्य तय करने का अधिकार देना है। पर भारतीय शासक यह नहीं कर सकते। ऐसे में भारत-पाक संबंधों में एक बड़ी उलझन बनी रहेगी। इसे सुलझाने का एक प्रयास वाजपेयी सरकार ने तब के पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुशर्रफ के साथ किया था। इसमें आज की नियंत्रण रेखा को ही सीमा रेखा मान लेने का प्रस्ताव था। इस मामले में वाजपेयी-मुशर्रफ में समझौता हो भी गया था। पर ऐन वक्त में संघ परिवार के दबाव के कारण यह समझौता नहीं हो सका। आगे भी इस तरह के समझौते पर इसी तरह के दबाव बनते रहेंगे। 
    विवाद की दूसरी प्रमुख वजह दक्षिण एशिया में भारतीय शासकों की दादागिरी की आकांक्षा और पाकिस्तानी शासकों द्वारा उसका प्रतिरोध तथा अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। इसीलिए दोनों ‘तू डाल-डाल मैं पात-पात’ चालें चलते रहते हैं। अमेरिकी साम्राज्यवादी बंदर दोनों बिल्लियों की इस लड़ाई का पूरा फायदा उठाते हैं। 
    कुछ भले मानस दोनों देशों के रिश्तों में सुधार का रास्ता दोनों के बीच बढ़ते आर्थिक सम्बन्धों और सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान में देखते हैं। पर इतिहास के पर्याप्त उदाहरण मौजूद हैं कि बड़े पैमाने के व्यावसायिक सम्बन्ध देशों को आपस में युद्ध में उलझने से नहीं रोकते। जहां तक सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान का मामला है तो वे इस दिशा में और भी कम प्रभावी हैं। 
    भारत-पाक सम्बन्धों में आपसी बदलाव दोनों देशों में पूंजीवादी निजाम के खात्मे के जरिये ही संभव हैं। तब बनने वाला समाजवादी संघ इस समस्या का वास्तविक हल प्रदान कर देगा। 
किस्सा दो मुसलमानों का: एक ‘‘अच्छा’’ और एक ‘‘बुरा’’
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    अबुल पकीर जैनुलउद्दीन अब्दुल कलाम और याकूब रज्जाक मेमन भारत के दो मुसलमान नागरिक थे या ऐसे दो भारतीय नागरिक थे जिनका धर्म इस्लाम था। दोनों ही 30 जुलाई को दफन किये गये पहले को तोपों की सलामी के साथ तो दूसरे को भारत सरकार द्वारा प्रतिबंध के साये में। पहले की 27 जुलाई को स्वाभाविक मृत्यु हुई थी चैरासी साल की उम्र में तो दूसरे को तिरपन साल की उम्र में भारत सरकार द्वारा फांसी पर लटकाया गया। पहले को भारत सरकार और पूंजीवादी प्रचारतंत्र ने ‘‘अच्छा’’ नागरिक, इंसान और मुसलमान करार दिया तो दूसरे को ‘‘बुरा’’। पहले को मुसलमानों के लिए आदर्श व्यक्ति घोषित किया गया तो दूसरे को ऐसा घृणित उदाहरण जैसा किसी को नहीं होना चाहिए। 
    ये दोनों मिलकर आज भारतीय समाज में मुसलमानों की स्थिति, उनकी स्थिति की नजाकत और विडम्बना तथा शान के साथ उनके रिश्तों को बयान कर देते हैं। दोनों मिलकर उस संसार की रचना कर देते हैं जिसमें मुस्लिम समुदाय सांस ले रहा है। पर तस्वीर में कुछ रंग भरने के लिए इन दोनों व्यक्तियों का संक्षिप्त जीवन परिचय जरूरी है। 
    अबुल पकीर जैनुलउद्दीन अब्दुल कलाम उर्फ अब्दुल कलाम तमिलनाडु के एक नाविक परिवार में जन्मे थे। कभी उनका परिवार एक समृद्ध परिवार हुआ करता था पर इनके जन्म के समय तक वह गरीबी में पहुंच चुका था। गरीबी के बावजूद कलाम ने पढ़ाई-लिखाई की और मद्रास इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाजी से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। इस डिग्री के साथ उन्होंने भारत सरकार के दो महत्वपूर्ण संस्थानों में नौकरी की। ये संस्थान थे डी.आर.डी.ओ. और इसरो। ये दोनों ही संस्थान भारत सरकार के रक्षा विभाग से संबद्ध थे और इनका काम था भारत के रक्षा हथियारों का शोध और विकास। जल्दी ही कलाम प्रोजेक्ट डाइरेक्टर जैसे पदों पर आसीन हो गये। इसके बाद तो उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे एक के बाद एक सीढि़यां चढ़ते गये और नरसिंहराव के जमाने में वे प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार बन गये। जब 1998 में वाजपेयी सरकार ने परमाणु विस्फोट करने का फैसला किया तो उसकी देखरेख करने वालों में कलाम भी थे। हालांकि इस परमाणु विस्फोट परियोजना के निदेशक कोई और थे और उन्होंने इसे ‘फुस्स’ करार दिया था पर कलाम ने इसके सफल होने की घोषणा की। इसी सेवा और इसके पहले के उनके रिकार्ड को देखते हुए वाजपेयी सरकार ने 2002 में उन्हें राष्ट्रपति पद पर आसीन करने का फैसला किया। इसके लिए कांग्रेस पार्टी का समर्थन मिला और अब्दुल कलाम 2002 में राष्ट्रपति भवन में पहुंच गये। भारत के पंूजीपति वर्ग के प्रति उनकी सेवाओं के लिए उन्हें इसके सर्वोच्च पुरुस्कार यानी ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया। 
    हालांकि भारत का पूंजीपति वर्ग उन्हें शान से मिसाइल मैन कहता था (क्योंकि वे कुछ मिसाइलों को विकसित करने वाली परियोजनाओं के निदेशक थे) पर वे स्वयं को देश के बच्चों के शिक्षक के रूप में याद किया जाना चाहते थे। वे अपनी ‘मैको’ वाली छवि से दूर अध्यात्मिक और शैक्षणिक छवि को स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने अंतिम समय में अध्यात्म पर एक किताब भी लिखी थी जो उनके गुरू को समर्पित थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये गुरू स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रमुख हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि वे कुरान के साथ गीता को भी पढ़ते थे। 
    अब्दुल कलाम के जीवन के विपरीत याकूब मेमन यानी याकूब अब्दुल रज्जाक मेमन का था। गुजरात के कच्छ क्षेत्र से मुंबई आकर बस गया यह मेनन परिवार अपेक्षाकृत सम्पन्न था। याकूब मेनन ने अच्छे स्कूल से पढ़ाई कर वाणिज्य में स्नातक किया और चार्टर्ड एकाउंटेंट बन गया। उसने पहले एक हिन्दू मित्र के साथ चार्टर्ड एकाउंटेंट की कंपनी शुरू की। फिर उसे बंद कर अपनी खुद की कंपनी शुरू की। अभी उसका यह कारोबार चमक ही रहा था कि मार्च, 1993 में मंुबई में बम धमाके हुए जिसमें करीब ढाई सौ लोग मारे गये। उसके पहले 6 दिसंबर को संघियों ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर दिया था और उसके पश्चात दिसंबर व जनवरी में हुए दंगों में मुंबई में करीब हजार लोग मारे गये थे। न्यायमूर्ति बी.श्रीकृष्ण के नेतृत्व वाले आयोग ने इन दंगों के लिए संघ परिवार और शिव सेना को मुख्यतः जिम्मेदार ठहराया था कि मार्च के बम विस्फोट इसकी प्रतिक्रिया में हुए थे। 
    मेमन का समूचा परिवार बम विस्फोट के समय ‘‘दुबई’’ मंे था। बाद में भारतीय खुफिया एजेंसियों के साथ तालमेल करके याकूब मेमन और बाकी परिवार भारत लौट आया। केवल टाइगर मेनन और एक भाई बाहर रह गया। भारत सरकार का कहना है कि दाऊद इब्राहिम के साथ टाइगर मेमन बम विस्फोट का मुख्य षड्यंत्रकारी था। 1994 में भारत लौटने पर याकूब मेमन समूचे परिवार के साथ जेल में डाल दिया गया और उस पर टाडा के तहत मुकदमा चला। 2007 में उसे फांसी की सजा सुनाई गयी। उसके साथ ही ग्यारह और लोगों को भी मौत की सजा सुनाई गयी जिनकी सजा को बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने आजीवन कारावास में बदल दिया हालांकि याकूब मेमन की फांसी की सजा को बरकरार रखा। उसके बाद अपीलों का दौर चला जो सब महाराष्ट्र सरकार, भारत सरकार और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दी गयी और अंत में 30 जुलाई को याकूब मेमन को फांसी पर लटका दिया गया। उसके जनाजे पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया फिर भी करीब आठ हजार लोेग उसके दफन में शामिल हुए। यह कटु सच्चाई है जहां अब्दुल कलाम के जनाजे का भारत सरकार द्वारा स्वयं प्रचार किया जा रहा था वहीं उसके द्वारा सारे पूूंजीवादी प्रचारतंत्र को आदेश दिया गया था कि याकूब के अंतिम संस्कार की कोई तस्वीर प्रकाशित न करें। 
    याकूब मेमन और अब्दुल कलाम दोनों की छवि अंततः हिंसा से जुड़ी। फर्क इतना था कि एक राज्य के विरुद्ध हिंसा से संबद्ध था तो दूसरा राज्य द्वारा हिंसा से संबद्ध। दोनों ही नरसंहार से संबद्ध थे। एक के नरसंहार की भत्र्सना की गयी तो दूसरे को आसमान पर उठाया गया। एक को इसी के लिए फांसी पर चढ़ा दिया गया तो दूसरे को ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया। 
    अब्दुल कलाम की अपनी खुद की इच्छा के बावजूद उनकी छवि मूलतः मिसाइल मैन की है यानी वे भारत की उन मिसाइलों के जनक माने गये जो दूर देशों में  वार कर सकती हैं। इन मिसाइलों का उद्देश्य दूसरे देशों के नागरिकों की हत्या और दूसरे देशों के शासकों से अपने राज्य की रक्षा करना है। बड़े पैमाने पर नरसंहार इन मिसाइलों का लक्ष्य होता है क्योंकि वे बड़े-बड़े बम या यहां तक कि परमाणु बम को दूसरे देशों पर हमले के लिए पहुंचा सकती हैं। 
    जहां मिसाइलेें बनाने में भारतीय शासकों का लक्ष्य अपने जैसे दूसरे शासकों से अपने राज्य की रक्षा करना है वहीं याकूब जैसे लोगों की हत्या भी अपने राज्य की रक्षा के लिए ही है। याकूब जैसे व्यक्ति राज्य के भीतरी शत्रु हैं या कम से कम राज्य ने उन्हें यही घोषित किया। केवल बहुत सारे लोगों की हत्याओं के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से जिम्मेदार होने का मामला होता तो राजीव गांधी, बाल ठाकरे, नरेंद्र मोदी और अमित शाह या यहां तक कि आडवाणी या वाजपेयी भी फांसी पर चढ़ा दिये गये होते। लेकिन ये लोग हिन्दू थे और भारतीय राज्य सत्ता के संचालक। इन्हें फांसी नहीं चढ़ना था बल्कि अन्य लोगों को फांसी पर चढ़ाना था। 
    सारी दुनिया के पैमाने पर साम्राज्यवादियों ने मुसलमानों को हिंसा से जोड़ा है। उनकी ही तर्ज पर भारतीय शासकों ने भी मुसलमानों को हिंसा का पर्याय बना दिया है। यह इस हद तक हुआ है कि एक आम भोला-भाला हिन्दू यह सोचता है कि हर मुसलमान जेब में छुरा या बम लेकर घूम रहा है। विडम्बना यह है कि देश के शासकों द्वारा सबसे लोकप्रिय घोषित किया गया मुसलमान भी हिंसा से संबद्ध है। उसकी लोकप्रियता भी हिंसा से ही संबद्ध है भले ही वह राज्य द्वारा की जा रही हिंसा से संबद्ध हो। 
    अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने बनाया था। यह वही सरकार थी जिसने अपने पहले अवतार में परमाणु बम विस्फोट करवाया था। घोर दक्षिणपंथी भाजपा न केवल अंधराष्ट्रवादी है बल्कि वह बेहद समरवादी पार्टी है। दूसरे देशों के खिलाफ जंगी भाषा उसकी आम संस्कृति है। ऐसे में वह उन सारे लोगों को अपने इर्द गिर्द करती जो उसी की तरह या तो जंगी मानसिकता के थे या जिनकी छवि जंगी थी। चूंकि अब्दुल कलाम सारी जिंदगी जंगी हथियारों के शोध-निर्माण से ही जुड़े रहे। इसलिए भाजपा के लिए वे एक मुफीद इंसान थे। 
    एक अंधराष्ट्रवादी जंगी पार्टी होने के साथ-साथ भाजपा एक हिन्दू सांप्रदायिक पार्टी भी है। हिन्दू सांप्रदायिकता को आगे बढ़ाकर ही वह सत्ता में आई। लेकिन अकेले बहुमत न होने के कारण उसे गठबंधन बनाना पड़ा था जिसमें कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल भी शामिल थे। इनकी खातिर भाजपा ने अपने धुर हिन्दूवादी मुद्दों मसलन राम मंदिर, समान नागरिक संहिता तथा धारा-370 की समाप्ति को किनारे रख दिया था। 
    अपने उदार चेहरे वाले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बने इस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के जरिये भाजपा सरकार को कुछ उदार दीखना था, खासकर मुसलमानों के संदर्भ में। उन्हें कुछ मुस्लिम चेहरों की तलाश थी। अब्दुल कलाम उसके मनमाफिक थे। 
    असल में कलाम न केवल अपने पेशे से बल्कि अपनी जहनियत में ऐसे मुसलमान थे जैसा भाजपा चाहती थी। वे शाकाहारी थे, वे गीता पढ़ते थे, वे एक हिन्दू संप्रदाय के गुरू के शिष्य थे। यानी कि वे मुसलमान होते हुए भी हिन्दू जैसे थे। अब्दुल कलाम इसे मिली जुली सभ्यता का असर मानते थे पर यह हिन्दू सांप्रदायिकों के लिए इच्छित मुसलमान का आचरण है। जब वे कहते हैं कि देश का हर व्यक्ति हिन्दू है तो उसका यही मतलब है। जब वे कहते हैं कि मुसलमानों को अपना धर्म मानते हुए भी भारतीय संस्कृति अपनानी चाहिए तो उसका यही मतलब है। वे एक हिन्दूकृत मुसलमान थे। 
    अब्दुल कलाम यदि सभी भारतीय शासकों द्वारा प्रशंसित थे तो इसी कारण कि वह हर तरह से समाहित कर लिये गये व्यक्ति थे। एक गरीब परिवार में पैदा होकर भी वे शासक वर्ग का हिस्सा बन गये थे और तन-मन से उसकी सेवा कर रहे थे। वे लगातार अलगाव और दबाव झेल रही धार्मिक आधार पर उत्पीडि़त मुस्लिम आबादी में पैदा होकर भी घोर हिन्दू सांप्रदायिकों के अनुरूप हिन्दू संस्कृति में ढल चुके थे। जब भारत का शासक वर्ग, जिसमें हिन्दू सांप्रदायिक भी शामिल हैं, अब्दुल कलाम को बच्चों के लिए रोल माडल के तौर पर पेश करता है तो इन्हीं कारणों से। वह शोषित-उत्पीडि़त जनता से ऐसे ही की उम्मीद करता है। वह इसके बच्चों को इसी तरह व्यवस्था में ढलने देना चाहता है। 
    और ठीक इसी तरह वह याकूब मेमन को इसके विपरीत घृणित खलनायक के तौर पर पेश करता है। चाहे-अनचाहे याकूब मेमन उनका प्रतीक बन जाता है जो व्यवस्था में न केवल समाहित हो पा रहे हैं बल्कि व्यवस्था के खिलाफ खड़े हो जा रहे हैं, भले ही धार्मिक कट्टरपंथी या आतंकवादी के तौर पर ही। 
    हो सकता है कि याकूब मेमन निर्दोष रहा हो उतने बड़े पैमाने का दोषी न रहा हो जितना घोषित कर उसे फांसी पर लटका दिया गया। पर भारत के शासक वर्गों द्वारा उसे जिस रूप में पेश किया गया उसमें वह एक प्रतीक बन गया। देश के असंतुष्ट और नाराज मुसलमानों का जो भारत के खिलाफ पड़ौसी पाकिस्तान सरकार का मुहरा बनने में गुरेज नहीं करते। उसे देशद्रोही के रूप में पेश करने की कोशिश की गयी पर वह उन मुसलमानों का प्रतीक बन गया जो चाहकर भी इस देश का नहीं बन पा रहे हैं क्योंकि हिन्दू सांप्रदायिकता से लवरेज शासक वर्ग उन्हें ऐसा नहीं बनने दे रहा है। 
    हिन्दू सांप्रदायिक भाजपा गाहे-बगाहे इस देश के मुसलमानों से देशभक्ति का सबूत मांगती रहती है और इस तरह उन्हें प्रकारांतर से संभावनाशील गद्दार घोषित कर देती है। जहां बाकी नागरिकों की देशभक्ति मानी हुई बात है और उन्हें देशद्रोही साबित करने के लिए सबूत देना होगा वहीं मुसलमानों के साथ उलटा है। उन्हें खुद को देशभक्त साबित करने के लिए गाहे-बगाहे सामने आना होगा। 
    पर मामला यदि हिन्दू सांप्रदायिक संघ परिवार और उसके लगुओं-भगुओं का होता तो गनीमत होती तब मुसलमान इतने उत्पीडि़त नहीं होते। यहां तो शासक वर्ग के बाकी हिस्से भी इससे कम या ज्यादा ग्रस्त हैं। याकूब मेनन को फांसी पर लटकाने में कांगे्रस पार्टी का भी उतना ही हाथ था जितना भाजपा का। 
    दरअसल भारत विभाजन के बाद भारत के शासकों ने खुद को औपचारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष घोषित तो कर दिया पर वास्तव में हिन्दू लबादे में धर्मनिरपेक्षता थी। यह सर्व धर्म समभाव वाली धर्मनिरपेक्षता थी जिसका मतलब था सबसे ज्यादा प्रभुत्वशाली धर्म के साये में धर्मनिरपेक्षता। इसके बाकी धर्मो के लोग ‘बराबरी’ से चल सकते थे यदि वे हिन्दू धर्म की सर्वव्यापकता को स्वीकार कर लें। स्वभावतः ही यह बात अन्य धर्मों के अनुयाइयों को चुभती थी। 
    लेकिन हिन्दू सांप्रदायिकों को इससे संतोष नहीं था। वे देश को पूरी तरह हिन्दू राष्ट्र घोषित करना चाहते थे जैसे-जैसे उनका उत्थान होता गया वैसे-वैसे मुसलमान और ईसाई और दबते गये। इसमें इस कारक ने भी योगदान किया कि कांग्रेस पार्टी जैसे धर्मनिरपेक्षतावादियों ने इस हिन्दू सांप्रदायिक उत्थान के सामने समर्पण कर नरम हिन्दुत्व को अपना लिया। 
    ऐसे में उत्पीडि़त मुस्लिम आबादी को बाकी जनता से अलगाव में जाना ही था। हिन्दू सांप्रदायिक तो चाहते भी यही थे। इसकी प्रतिक्रिया भी होनी थी। इस उत्पीड़न के विरुद्ध प्रतिक्रिया में मुसलमानों में कट्टरंपथ मजबूत होना था और कुछ युवकों का आतंकवाद की ओर झुकाव भी। शासकों की अपनी प्रतिद्वंदिता के चलते और खुद अपने देश में ऐसी ही मुस्लिम सांप्रदायिक चाल चलने वाले पाकिस्तानी शासकों का इस स्थिति का अपने लिए फायदा उठाना भी उतनी ही स्वाभाविक बात थी। 
    और इस तरह ‘‘बुरे’’ मुसलमान का जन्म हुआ जिसका हौवा खड़ाकर हजारों बेगुनाहों को जेल में ढूंस दिया गया। हर झूठी-सच्ची आतंकवादी घटनाओं पर दस-बीस बेगुनाह मुसलमान युवकों को जेल में डाल दिया जाना आम बात है। स्थिति यहां तक पहुंचा दी गयी कि वकील ऐसे ‘‘बुरे’’ मुसलमानों का मुकदमा लड़ने से इंकार कर रहे हैं। 
    हिन्दू सांप्रदायिकों के वर्तमान शासन में हर मुसलमान संभावित ‘‘बुरा’’ मुसलमान है। उन्होंने याकूब मेमन को फांसी पर चढ़ाकर और अब्दुल कलाम की शान में कसीदे गढकर एक ही संदेश दिया हैः हमारी शर्तों पर जीना होगा। 
    यह स्थिति जहां मुस्लिम आबादी के लिए भयावह है वहीं देश के हर नागरिक के लिए भी बेहद गंभीर खतरा है। यह यहां तक पहुंचता है कि हिटलर का जर्मनी इसे दिखा चुका है। इसीलिए इसका पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए। 
ग्रीस, वित्तीय सट्टेबाज और साम्राज्यवादी
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    जुलाई माह में ग्रीस के साथ साम्राज्यवादियों ने जो किया उससे किसी जमाने में तीसरी दुनिया के संकटग्रस्त देशों के साथ साम्राज्यवादियों द्वारा किये जाने वाले व्यवहार की याद ताजा हो गयी। ग्रीस एक विकसित देश है और यूरोपीय साम्राज्यवादी ताने-बाने का हिस्सा भी (ग्रीस यूरोपीय संघ और यूरो क्षेत्र का सदस्य है)। पर जब वित्तीय पूंजी के हितों की बात आई तो खुद यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने यह सब भुला दिया और उसके साथ वही व्यवहार किया जैसा वे किसी ऐसे देश के साथ करते हैं जो उनके वित्तीय मकड़जाल में फंस चुका हो। 
    पर और आगे से बढ़ने से पहले एक नजर घटनाक्रम पर।
    ग्रीस 30 जून को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की 1.6 अरब डालर की किश्त न चुका पाने के कारण तकनीकी तौर पर दीवालिया हो गया। पर इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ा क्योंकि ग्रीस सरकार एक लम्बे अर्सें से बाजार के बदले अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, यूरोपीय केन्द्रीय बैंक तथा यूरोपीय संघ की यूरोपीय फैसिलिटी पर निर्भर रहा है। इन्होंने घोषणा की कि वे ग्रीस सरकार को आगे तब तक कर्ज नहीं देंगे जब तक ग्रीस सरकार एक नये ‘बेलआउट पैकेज’ के लिए तैयार नहीं हो जाती। यानी कर्ज के बदले कटौती कार्यक्रमों तथा ऐसे आर्थिक सुधारों के लिए जो जनता का जीवन स्तर गिराते हों और निजीकरण को बढ़ाते हों। पहले के ‘बेलआउट पैकेज’ और कटौती कार्यक्रमों का विरोध कर सत्ता में आई सीरिजा सरकार को सांप सूंघ गया। अभी तक वह मामले को टालती आई थी और यह जताने का प्रयास करती रही थी कि वह झुकेगी नहीं। अब उसने अपनी जान बचाने के लिए इस पर जनमत संग्रह का नाटक किया। जनता से कहा गया कि वह 5 जुलाई  को जनमत संग्रह में बताएं कि ‘बेलआउट पैकेज’ को स्वीकार किया जाये या नहीं। उसे उम्मीद थी कि जनता ‘हां’ कर देगी और उसकी जान बच जायेगी। लेकिन करीब तिरसट प्रतिशत मतदान में बासठ प्रतिशत ने ‘ना’ कह दिया। इस ‘ना’ से लैस सीरिजा सरकार यूरोपीय संघ के साथ सौदेबाजी करने पहुंची और वहां उसने समर्पण कर सारी शर्तों को स्वीकार कर लिया- उससे भी कड़ी शर्तें जो पहले प्रस्तावित की जा रही थीं। यह समर्पण कर सीरिजा सरकार देश लौटी और उसने संसद बुलाकर उससे इस समर्पण पर मुहर लगाने को कहा। सीरिजा के करीब बीस प्रतिशत सदस्यों ने इसके विरोध में मतदान किया जबकि विपक्षी न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी और पासोक के सदस्यों ने पक्ष में। ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी और घोर दक्षिणपंथी इसके विरोध में रहे। इस तरह अपने ही सांसदों के विरोध लेकिन विपक्ष के सहयोग से सीरिजा सरकार ने इस समर्पण पर मुहर लगवा दी। इसके एक सप्ताह बाद लगभग इसी विभाजन से करीब 900 पृष्ठों वाला वह कानून कुछ घंटों में संसद में पास कर दिया गया जो इस समर्पण के अनुरूप ग्रीस के कानूनों में बदलाव का प्रावधान करता है या बेलआउट पैकेज के प्रावधानों को लागू करने के लिए उपाय करता है। इस सबके बीच अलेक्सी सिप्रास लगातार यह कहते रहे कि वे अपने चुनावी वादों से पीछे नहीं हटे हैं। 
    इस घटनाक्रम के दौरान ग्रीस के बैंक करीब तीन सप्ताह के लिए बंद रहे जबकि दुनिया भर के शेयर बाजार आशंका में ऊपर-नीचे झूलते रहे। उन्होंने तभी राहत की सांस ली जब ग्रीस सरकार ने समर्पण कर दिया और ग्रीस संसद ने इस समर्पण पर मुहर लगा दी। 
    ऐसा कभी-कभी ही होता है कि किसी सरकार के कदम के विरोध में सरकारी पार्टी के सांसद विद्रोह कर देें लेकिन विपक्ष सरकार के साथ खड़ा हो जाये। ग्रीस में ऐसा ही हुआ। इसी कारण यह बात उठी कि समर्पण का यह समझौता कानूनी तौर पर मुकम्मल हो जाने के बाद राष्ट्रीय एकता की सरकार बन सकती है या नये चुनाव हो सकते हैं। अलेक्सी सिप्रास के लिए यह मजेदार बात होगी कि वे विपक्ष की मदद से सरकार चलाते रहें। 
    ग्रीस के घटनाक्रम ने एक बार फिर पूंजीवादी जनतंत्र की हकीकत, वित्तीय पूंजी और साम्राज्यवादियों के सामने उसकी औकात और साम्राज्यवाद के असली चरित्र का उदघाटन किया है। उसने एक बार फिर रेखांकित किया है कि संकट का असली समाधान क्या हो सकता है?
    पूंजीवादी जनतंत्र के पैराकारों की घोषणा है कि इस जनतंत्र में जनता और जनता का फैसला सर्वोपरि होता है। सरकारें जनता द्वारा चुनी जाती हैं और जनता के लिए काम करती हैं। ऐसा न होने पर जनता फिर अपने लिए नई सरकार चुन लेती है। ग्रीस का अनुभव क्या दिखाता है? जनता ने पासोक को चुना लेकिन उसने ‘बेलआउट पैकेज’ लागू कर जनता के जीवन स्तर को नीचे धकेल दिया। इससे दुःखी होकर जनता ने न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी को चुना लेकिन उसने एक और ‘बेलआउट पैकेज’ लागू कर जनता के जीवन स्तर को और नीचे पहुंचा दिया। अब सीरिजा सामने आई। उसने ‘बेलआउट पैकेजों’ और कटौती कार्यक्रमों को ही अपना निशाना बनाया। इसी वजह से जनता ने उसे चुना और उसने अपने चुनावी वादों कोे ठोकर मारकर तीसरा ‘बेलआउट पैकेज’ सवीकार कर लिया। सरकारें बदलती रहीं, नई सरकारें बनती रहीं और वे एक के बाद एक जनता के खिलाफ जाती रहीं।  
    आम तौर पर पूंजीवादी जनतंत्र में ऐसा चलता ही रहता है और माना जाता है कि ऐसा पूंजीवादी नेताओं और पार्टियों के भ्रष्टाचार के कारण होता है। वे भ्रष्ट होकर अपने को चुनने वाली जनता के खिलाफ चले जाते हैं इसीलिए जनता को लगातार समझाया जाता है कि वह ईमानदार लोगों को चुनेे। ग्रीस में भी पासोक और न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता भ्रष्ट थे। इसीलिए यह स्पष्टीकरण चल जाता था पर सीरिजा के नेता ऐसे नहीं थे। और किसी ने उनके भ्रष्ट होने का आरोप भी नहीं लगाया। किसी ने यह नहीं कहा कि अलेक्सी सिप्रास ने इसीलिए समर्पण किया कि वे भ्रष्ट हो गये थे। इन ईमानदार लोगों ने पूरी ईमानदानी के साथ समर्पण किया और ऐसा करके उन्होंने साबित किया कि पूंजीवादी जनतंत्र पूरी ईमानदारी से चलते हुए भी जनता के खिलाफ ही काम करता है। यानी पूंजीवादी जनतंत्र के जनविरोधी होने का कारण पूंजीवादी नेताओं और पार्टियों का भ्रष्ट होना नहीं है। उसका असली चरित्र ही जनविरोधी है। 
    मानो इस बात को भोले से भोले व्यक्ति के दिमाग में बैठाने के लिए ही अलेक्सी सिप्रास और अंजेला मर्केल ने 5 जुलाई के जनमत संग्रह की ऐसी-तैसी कर डाली। जनमत संग्रह ग्रीस के प्रधानमंत्री अलेक्सी सिप्रास ने खुद ही कराया था पर इसे उन्होंने तुरंत ही रद्दी की टोकरी में डाल दिया जब जनमत संग्रह उनके पक्ष में होने के दिन ही उन्होंने अपने बड़बोले वित्तमंत्री का इस्तीफा ले लिया क्योंकि सौदेबाज साम्राज्यवादी उन्हें पसंद नहीं करते थे। उधर जर्मनी की चांसलर अंजेला मर्केल ने इस जनमत संग्रह में ना कहने की हिमाकत करने वाली ग्रीस की जनता को सबक सिखाने के लिए ‘बेलआउट पैकेज’ की शर्ते पहले से ही कड़ी कर दीं। मानो वे कह रही हों कि तुम्हारे जनमत की ऐसी की तैसी। 
    साम्राज्यवादियों ने न तो सीरिजा के सत्ता में आने वाले चुनाव की चिंता की (जिसमें सीरिजा को लोगों ने केवल इसीलिए वोट दिया कि वह ‘बेलआउट पैकेज’ और कटौती कार्यक्रम का विरोध कर रही थी) और न ही 5 जुलाई के जनमत संग्रह की। यह कोई नई बात नहीं है। पूंजीवादी जनतंत्र हमेशा ही पूंजी के हितों के अधीन रहा है पर साम्राज्यवाद के प्रादुर्भाव के साथ यह पूंजीवादी जनतंत्र और सीमित तथा पूंजी के अधीन हो गया है। साम्राज्यवादियों यानी एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग को जरा भी परेशानी नहीं होती इस पूंजीवादी जनतंत्र की धज्जियां उड़ाने में। यह इसके इस अपनी पूंजी के रास्ते में खड़ी की जाने वाली किसी भी बाधा को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। 
    पिछले चार दशकों के निजीकरण, उदारीकरण के दौर में यह बारंबार हुआ है। यह बारंबार हुआ है कि इन नीतियों को जोर-शोर से लागू न करने वाली सरकारों को कानूनी-गैर कानूनी तरीके से रास्ते से हटा दिया गया है। कई जगह इनके लिए बाकायदा तानाशाहियां स्थापित की गयीं। भले ही उनका रूप चाहे एक पार्टी की तानाशाही हो या फिर तथाकथित टेक्नोक्रेटिक सरकार। यह बारंबार हुआ है कि इन नीतियों का विरोध कर सरकार बनाने वाली पूंजीवादी पार्टियों ने फिर धड़ल्ले से इन्हीं नीतियों को लागू किया है। घृणित बात यह है कि ठीक इसी काल में इन्हीं साम्राज्यवादियों और उनके प्रचारकों ने पूंजीवादी जनतंत्र की श्रेष्ठता को जोर-शोर से प्रचारित किया है। जिस अनुपात में पूंजीवादी जनतंत्र सीमित और खोखला होता गया है उसी अनुपात में इनकी श्रेष्ठता का प्रचार बढ़ता गया है। 
    ग्रीस पर नई शर्तें थोपने और सीरिजा सरकार द्वारा इन्हें स्वीकार करने के बाद स्वयं पूंजीवादी हलकों में भी यह चर्चा आम हो गयी है कि ग्रीस जर्मनी का उपनिवेश बन गया है। एक विकसित देश के संदर्भ में जो स्वयं साम्राज्यवादी ताने-बाने का हिस्सा हो, स्वयं भी छोटा-मोटा साम्राज्यवादी हो, इस तरह की बात उठने के बहुत महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं। यह चीज आज वित्तीय पूंजी की ताकत और साम्राज्यवाद के असली चरित्र को तीखे ढंग से उजागर करता है। 
    साम्राज्यवाद के संबंध में कुछ इस तरह से बात की जाती है मानो यह साम्राज्यवादी देशों और तीसरी दुनिया के पिछड़े देशों के बीच संबंधों का मामला हो। इसके अनुसार साम्राज्यवादी देश इन पिछड़े मुल्कों को, जो सामंती या अर्ध-सांमती होते है, अपना उपनिवेश, अर्ध-उपनिवेश, यहां के कच्चे माल तथा सस्ती श्रमशक्ति के दोहन के माध्यम से लूटते हैं तथा साथ ही इनके बाजारों में अपना माल बेचकर भी। 
    साम्राज्यवाद के बारे में यह धारणा बेहद आधी-अधूरी और गलत है। उपरोक्त तस्वीर साठ-सत्तर साल पहले आधी-अधूरी लागू होती थी पर आज न केवल पुरानी पड़ चुकी है बल्कि और भी ज्यादा गलत हो चुकी है। इसके जरिये ग्रीस के संबंध में फ्रांस, जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका के साम्राज्यवादियों के व्यवहार की व्याख्या नहीं की जा सकती। 
    दरअसल उन्नीसवी सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरूआत में अस्तित्व में आये साम्राज्यवाद का असली चरित्र एकाधिकारी पंूजीवाद में निहित है। यह साम्राज्यवादी पूंजीवाद अपने मूल चरित्र में एकाधिकारी है। यह हर जगह एकाधिकार चाहता है। इसके लिए यह किसी देश या राष्ट्र की सीमा नहीं मानता। इसके लिए सरकारों का कोई भी रूप अनुलंघनीय बाधा नहीं है। इसके लिए पिछड़े और विकसित देशों में से कोई भी फर्क इस दृष्टिकोण से नहीं है कि वह एक जगह अपना कब्जा चाहे और दूसरी जगह नहीं। इसके लिए निर्णायक केवल पूंजी की ताकत है। किस एकाधिकारी घराने की पूंजी कितनी ताकतवर है और कौन साम्राज्यवादी देश कितना ताकतवर है सारा कुछ इस पर निर्भर करता है। 
    दुनिया की सभी सरकारों की वास्तविक मालिक यही एकाधिकारी पूंजी है। सरकारें तभी तक निर्बाध काम कर सकती हैं जब तक वे इस एकाधिकारी पूंजी के हित में काम करती हैं। इसके विरोध में जाने पर या इसके रास्ते में बाधा बनने पर इन्हें हटना पड़ेगा। यह कानूनी तरीके से भी हो सकता है, गैर कानूनी तरीके से भी। यह भ्रष्टाचार से भी हो सकता है, ईमानदारी से भी। पिछले चार दशकों का उदारीकरण-वैश्वीकरण का दौर इसका ज्वलंत प्रमाण है। 
    जर्मनी के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की पूंजी यूरोप में ताकतवर है, वैसे ही जैसे सारी दुनिया के पैमाने पर संयुक्त राज्य अमेरिका की एकाधिकारी पूंजी सबसे ताकतवर है। यूरोपीय एकीकरण की परियोजना असल में जर्मनी और फ्रांसीसी एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की परियोजना है। इस एकीकरण से सबसे ज्यादा फायदा इन्हें ही होता है। यूरोप के बाकी देशों के एकाधिकारी पूंजीपति भी इस परियोजना में इसलिए शामिल हो गये कि इसमें उन्हें अपना फायदा दिखा। चूंकि इस परियोजना का उद्देश्य यूरोप के मजदूर वर्ग सहित सारी दुनिया के मजदूर-मेहनतकशों को और ज्यादा लूटना-खसोटना था इसलिए यह उन्हें भी फायदेमंद लगा। यूरोप के मजदूर वर्ग ने अपने सहजबोध से इसके वास्तविक मकसद को महसूस किया था इसलिए यूरोपीय एकीकरण की परियोजना को सभी देशों में मुश्किल से ही और बहुत कम बहुमत से मंजूरी मिल पायी। ग्रीस के अनुभव ने दिखाया कि मजदूर वर्ग सही था। 
    यूरोप का एकीकरण- यूरोपीय संघ और यूरो क्षेत्र यूरोप के सारे एकाधिकारी पूंजीपतियों की तरह ग्रीस के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग को भी फायदेमंद लगा था। इस सदी के प्रथम दशक में इस पूंजीपति वर्ग ने फ्रांस और जर्मनी के बैंकों से कर्ज लेकर खूब लूट मचाई। इसके लिए उन्होंने ग्रीस सरकार का भी इस्तेमाल किया। बाकी देशों की तरह यहां भी इसमें सट्टेबाजी की भूमिका प्रमुख थी। 
    लेकिन जब सारी दुनिया के पैमाने पर सट्टेबाजी का बुलबुला फूटा तो ग्रीस सरकार समेत ग्रीस का सट्टेबाज एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग भी संकट में पड़ गया। ग्रीस के बैंक और वित्तीय संस्थान दीवालिया होने के कगार पर पहुंच गये। ग्रीस सरकार के लिए कर्ज की किश्तें चुकाना मुश्किल होने लगा क्योंकि संकट से न केवल आमदनी कम हुई बल्कि नये कर्जे भी मिलना मुश्किल हो गया था। मामला केवल ग्रीस तक सीमित नहीं था। ग्रीस के संकट से फ्रांस और जर्मनी के वे बैंक खतरे में पड़ गये जिन्होंने ग्रीस में मुक्त हाथ से कर्ज बांट रखा था। वित्तीय एकीकरण के चलते यह खतरा संयुक्त राज्य अमेरिका के बैंकों तक भी पहुंचता था। 
    स्वतंत्र प्रतियोगिता के पुराने जमाने में मुनाफा निवेश के खतरे का परिणाम माना जाता था। कंपनियों को दीवालिया होने दिया जाता था। पर वित्तीय पूंजी के इस जमाने में एकाधिकारी पूंजी ने नया नियम घोषित कर दिया है। मुनाफा निजी, घाटा सार्वजनिक। इसी नियम के अनुसार फ्रांसीसी व जर्मन साम्राज्यवादियों ने तय किया कि अपने बैंकों को दीवालिया नहीं होने दिया जायेगा और सारा कुछ ग्रीस से वसूला जायेगा। अब फ्रांसीसी व जर्मन बैंक तो यह कर नहीं सकते थे। इसे करने के लिए सामने आई फ्रांसीसी व जर्मन सरकारें तथा उन्होंने यूरोपीय संघ, यूरोपीय केंद्रीय बैंक को अपने हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका सहित बाकी साम्राज्यवादियों तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं का समर्थन हासिल था। 
    फ्रांसीसी व जर्मन साम्राज्यवादियों के नेतृत्व में साम्राज्यवादियों ने तय किया कि ग्रीस से सारे कर्ज की वसूली की जाये और इसके लिए ग्रीस सरकार को माध्यम बनाया जाये। यह वसूली मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता से की जाये, उसका जीवन स्तर गिराकर। इस बीच फ्रांसीसी व जर्मन बैंकों का कर्ज यूरोपीय केंद्रीय बैंक, यूरोपीय फैसिलिटी और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को स्थानांतरित कर दिये जायें। सारे ‘बेल आउट पैकेजों’ और कटौती कार्यक्रमों का यही वास्तविक मतलब था। इसका परिणाम यह निकला कि न केवल फ्रांस व जर्मनी के सट्टेबाज वित्तीय पूंजीपति साफ बच निकले बल्कि वे और भी ज्यादा मुनाफा कमाने लगे जबकि ग्रीस की जनता का जीवन स्तर रसातल में जाने लगा। 
    यह मानने का कोई कारण नहीं है कि ग्रीस का एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग इस घटनाक्रम से कोई दुःखी है। ग्रीस के सकल घरेलू उत्पाद के एक चौथाई गिर जाने के बाद भी यह अपना हित यूरोपीय संघ व यूरो क्षेत्र में ही देखता है। इसीलिए पासोक व न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी दृढ़तापूर्वक ‘बेलआउट पैकेज’ के पक्ष में खड़ी है। सीरिजा का समर्पण भी इसी को दिखाता है।
    एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के हितों की यह एकता आज के पूंजीवाद की एक अन्य विशेषता को प्रदर्शित करता है। एकाधिकारी पूंजीपतियों में लूट के बंटवारे को लेकर आपस में मारा-मारी है पर वे इस बात पर एकमत हैं कि उनकी संकटग्रस्त पूंजी को मजदूर मेहनतकश जनता को और निचोड़कर जीवनदान दिया जाना चाहिए। 
    ग्रीस का संकट और सीरिजा का समर्पण इस बात को एक बार फिर तस्दीक करता है कि संकटग्रस्त पूंजीवाद का समाधान केवल और केवल पूंजीवादी व्यवस्था की समाप्ति में हैं। ग्रीस के खास संदर्भ में इसका मतलब यूरोपीय संघ और यूरो क्षेत्र से बाहर आना भी है, साथ ही नाटो से भी यानी समग्र साम्राज्यवादी ताने-बाने से। सीरिजा को आजमाकर ग्रीस की जनता ने जान लिया है कि वर्तमान ताने-बाने में उसकी समस्या  का समाधान नहीं अब जरूरत अगला कदम उठाने की है। 
गरीबी, भूखमरी और असमानता
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
पिछले दिनों भारत सरकार ने सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के कुछ आंकड़े जारी किये। ये सर्वेक्षण 2011 की जनगणना के साथ-साथ ही करवाये गये थे। इसका घोषित उद्देश्य देश की सारी जनता की वास्तविक सामाजिक-आर्थिक स्थिति को जानना था।
देश में भूखमरी की रेखा के नीचे रहने वाली आबादी के बारे में अक्सर ही विवाद होता रहता है। इसके निर्धारण के लिए न जाने कितनी समितियां और आयोग बन चुके हैं। इसी तरह जातिगत आरक्षण के मामले में विभिन्न जातियों की स्थिति और उनके तहत संख्या के बारे में विवाद रहता है। कहा गया है कि इस सर्वेक्षण के द्वारा इन सबके निपटारे के लिए ठीक-ठीक आंकड़े उपलब्ध होंगे।
उपरोक्त मामलों में कुछ भी कह पाना तभी संभव होगा जब सरकार इस सर्वेक्षण के विस्तृत आंकड़े जारी करेगी। अभी यहां इन आंकड़ों की व्याख्या के संबंध में कुछ बातें करना फायदेमंद होगा।      इस सर्वेक्षण से देश की जनता के जीवन स्तर की जो तस्वीर बनती है उस संबंध में सरकार ने थोड़े से आंकड़े जारी किये।
इन आंकड़ों के आधार पर कुछ लोगों ने यह कहा कि देश में हालांकि गैर बराबरी या असमानता बढ़ी है पर भूखमरी घटी है। गैरबराबरी को अक्सर अमीरों और गरीबों के बीच फर्क तथा भूखमरी को जीवन की बुुनियादी जरूरतों से वंचना के रूप में देखा जाता है। उदारीकरण के दौर में यह आम बात हो गयी है कि अधिकाधिक संस्थानों से लेकर बुद्धिजीवियों तक सभी यह कहते पाये जाते हैं कि हालांकि असमानता बढ़ रही है पर भूखमरी नहीं, बल्कि भूखमरी घट रही है। केवल वर्तमान आर्थिक संकट के दौरान ही कहीं-कहीं भूखमरी बढ़ने की बात की गयी है।
अमीर और गरीब के बीच खाई यानी असमानता तथा भूखमरी के बीच क्या संबंध हैं? क्या यह संभव है कि असमानता तो बढ़े पर भूखमरी घटे? जहां असमानता को निर्धारित करना आसान है वहीं भूखमरी को कैसे निर्धारित किया जाये?
असमानता और भूखमरी के बीच के संबंध पर आने से पहले भूखमरी के निर्धारण करने के कुछ वर्तमान तरीकों पर बात की जाये। विश्व बैंक ने भूखमरी का अपना एक मापदंड घोषित कर रखा है। यह याद रखना होगा कि विश्व बैंक ने भूखमरी के खात्मे के लिए ढेरों परियोजनाएं विभिन्न देशों में चला रखी हैं और सरकारों को वह इसके लिए निर्देश व पैसा देता रहता है- पहला भरपूर तो दूसरा हाथ रोककर। विश्व बैंक के मापदंड के अनुसार भूखमरी की सीमा रेखा प्रति व्यक्ति प्रति दिन दो अमेरिकी डालर तथा अति भूखमरी की रेखा प्रति व्यक्ति प्रतिदिन एक अमेरिकी डालर है।
विश्व बैंक अपने इन स्वर्ण मानकों तक कैसे पहुंचा यह तो नहीं कहा जा सकता पर यह स्पष्ट है कि आय-व्यय की इतनी भिन्नता वाले देशों पर भूखमरी का एक सामान्य मापदंड लागू कर देना अपने आप में संदेहास्पद है। यदि विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष इत्यादि स्वयं ही देशों को निम्न आय वाले, मध्यम आय और उच्च आय की श्रेणियों में बांटते हैं तो फिर भूखमरी का एक सार्विक मापदंड कैसे हो सकता है?
भूखमरी का एक मापदंड भारत सरकार का भी है जिस पर तथा जिससे निर्धारित भूखमरी की आबादी की संख्या पर निरंतर विवाद चलता रहता है। भारत में भूखमरी की रेखा कभी 1970 के दशक की शुरूआत में तय की गयी थी- कैलोरी और प्रोटीन के आधार पर। शहरों में 2100 किलोकैलोरी प्रतिदिन तथा गांवों में 2400 किलो कैलोरी प्रतिदिन और साथ में 40 ग्राम प्रोटीन के आधार पर प्रति दिन प्रति व्यक्ति  खर्च पर यह रेखा तय की गयी थी। तब से लेकर आज तक होता यह रहा है कि इस रेखा में महंगाई के हिसाब से वृद्धि कर दी जाती रही है। जहां तक इस रेखा के हिसाब से आबादी के आंकलन का सवाल है तो राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा समय-समय पर इकट्ठा किये जाने वाले आंकड़ों के आधार पर यह किया जाता रहा है।चूंकि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा जुटाये गये आंकड़ों की व्याख्या यानी उनसे निकलने वाले मतलब पर विवाद चलता रहता है इसलिए भूखमरी की रेखा के नीचे रहने वाली आबादी पर भी विवाद चलता रहता है।
हाल में बहुत सारे लोगों ने यह कहा है कि भूखमरी की रेखा का पुराना आंकलन देश की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में परिवर्तन के कारण अब एकदम अप्रासंगिक हो गया है। अब उपभोग का स्वरूप बिलकुल बदल गया है, इसलिए भूखमरी की रेखा का नये सिरे से निर्धारण किया जाना चाहिए।
इसी बिंदु पर आकर असमानता और भूखमरी के बीच का संबंध ज्यादा मौजूं हो जाता है। क्या ऐसा वास्तव में हो सकता है कि असमानता बढ़ने के साथ भूखमरी घटे?
मामले पर थोड़ा गौर करते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि भूखमरी एक सापेक्षिक चीज है और किसी समाज के सामान्य विकास पर निर्भर करती है। एक ही समाज में समय बदल जाने के साथ भूखमरी का पैमाना बदल जाता है। आदिम कबीलाई समाज में जब इंसान कन्दमूल व थोड़े से शिकार पर निर्भर रहता था तब भूखमरी का एक मतलब था और आज के संयुक्त राज्य अमेरिका की झुग्गी बस्तियोें में दूसरा। भारत में भी साठ-सत्तर साल पहले जब ज्यादातर लोग गेहूं की रोटी कम ही खा पाते थे तब इसका एक मतलब था और आज दूसरा।
किसी भी समाज में उत्पादन का एक स्तर होता है। इसी से तय होता है कि किस चीज का उत्पादन होगा और कितना होगा। वर्गों में बंटे समाज में इसी से यह भी तय हो जाता है कि उपभोग के लिए किसको कितना मिलेगा। जब समाज के उत्पादन का स्तर बदल जाता है तो उपभोग का स्तर भी बदल जाता है।
किसी भी समाज के उत्पादन और उपभोग के इसी स्तर से यह भी तय होता है कि उस समाज में जिंदा रहने के लिए न्यूनतम स्तर क्या है? क्या चीज खाद्य है, क्या अखाद्य है यह भी इसी से तय होता है। इसी से यह भी तय होता है कि उपभोग की जो वस्तुएं पहले पर्याप्त मानी जाती थीं, वे अब अपर्याप्त हो जाती हैं।
ठीक इन्ही कारणों से भूखमरी का कोई न्यूनतम पैमाना तय नहीं किया जा सकता। न्यूनतम शारीरिक जरूरतें भी यह पैमाना नहीं बन सकतीं। एक उदाहरण लें। भारत की भूखमरी की रेखा ऊर्जा की एक न्यूनतम मात्रा पर आधारित है। लेकिन क्या ऊर्जा की यह मात्रा निरपेक्ष है? नहीं। जब भारत में जीवन अपेक्षा पैंतीस साल थी तब यह ऊर्जा अलग थी। अब जबकि जीवन अपेक्षा पैंसठ साल हो गयी है तब यह ऊर्जा अलग है। इसके साथ यह भी है कि जीवन अपेक्षा पैंतीस से पैंसठ साल तभी हुई जब शरीर में केवल न्यूनतम ऊर्जा के अलावा भी अन्य चीजें जाने लगीं। अब भूखमरी के आंकलन में ये अन्य चीजें भी आने लगेंगी। जब ढेरों लोग यह कह रहे हैं कि भारत में भूखमरी की रेखा का पुराना निर्धारण अब अप्रासंगिक हो गया है तो उसका यही मतलब है। यदि पैंतीस से पैंसठ साल जीवन अपेक्षा होने में मांस-मछली, दूध और अंडे का उपभोग आवश्यक है तो जो इनका उपभोग नहीं कर पा रहे हैं वे भूखमरी के शिकार हैं भले ही उन्हें गेंहू और आलू पर्याप्त मिल रहा है। इसी तरह यदि विकसित देशों में जीवन अपेक्षा अस्सी-पिचासी साल होने में फलों-सब्जियों का भरपूर सेवन आवश्यक है तो इससे वंचित लोग भूखमरी के शिकार हैं। इतना ही नहीं यदि विकसित ठंडे देशों में वातानुकूलित घर और गरम पानी की आपूर्ति आम जरूरत है तो इनसे वंचित लोग भूखमरी के शिकार हैं। इसी तरह यदि अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छे अस्पताल जरूरी हैं तो इनसे वंचित लोग भूखमरी के शिकार हैं। पुराने जमाने में राजा-महाराजा हकीम वैद्य से इलाज कराते थे, अब गरीब लोग ही उनसे इलाज कराते हैं।
यह स्पष्ट हो जाने के बाद कि भूखमरी की रेखा एक समाज सापेक्षिक चीज है, अब असमानता और भूखमरी के बीच संबंध को नजदीक से देखा जाये। मामले को सरल ढंग से समझने के लिए मान लिया जाये कि समाज में केवल पूंजीपति और मजदूर दो ही वर्ग हैं। पूंजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के अनुसार मजदूर के पास बेचने के लिए केवल अपनी श्रमशक्ति होती है यानी काम करने की शारीरिक-मानसिक क्षमता। इस श्रमशक्ति का मूल्य यानी मजदूर को मिलने वाली मजदूरी इस बात से तय होती है कि इस श्रमशक्ति को पैदा करने के लिए जिन साधनों की जरूरत होती है उनकी कीमत क्या है? अब श्रमशक्ति को पैदा करने वाले साधनों की संख्या बढ़ती जाती है जबकि उनकी प्रति इकाई कीमत कम होती जाती है।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि समाज के उत्पादन के स्तर के विकास के साथ मजदूर का उपभोग का स्तर बढ़ता चला जाता है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि वह हमेशा एक न्यूनतम स्तर पर बना रहता है। पूंजीवादी समाज में मजदूर की मजदूरी उपभोग के साधनों के न्यूनतम जरूरी उपभोग लायक ही होती है हालांकि स्वयं वह न्यूनतम स्तर लगातार उठता चला जाता है। (उन स्थितियों को छोड़कर जिनका आगे जिक्र किया जायेगा)।
मजदूर के मुकाबले पूंजीपति की क्या स्थिति होती है? पूंजीपति न केवल मजदूर से ज्यादा उपभोग करता है बल्कि उसकी पूंजी भी लगातार बढ़ती जाती है। यह होता है मुनाफे के लगातर निवेश से। इस तरह जहां मजदूर न्यूनतम स्तर पर टिका होता है। (उत्पादन के साधनों से वंचित), वहीं पूंजीपति की पूंजी लगातार बढ़ती जाती है और उसका उपभोग भी। स्पष्ट है कि पूंजीपति की स्थिति मजदूर के मुकाबले और मजबूत होती चली जाती है और ठीक इसी कारण मजदूर की स्थिति पूंजीपति के मुकाबले कमजोर होती जाती हैं। मजदूर पर पूंजी और पूंजीपति वर्ग का शिकंजा और मजबूती से कसता जाता है।
आमतौर पर पूंजीपति और मजदूर के बीच बढ़ती असमानता का आधार यही है। पूंजीपति और मजदूर के बीच खाई इसी वजह से और चौड़ी होती जाती है। कुल आय में पूंजीपति का हिस्सा बढ़ता जाता है और मजदूर का कम होता चला जाता है जबकि धन-सम्पदा तो सारी की सारी ही पूंजीपति वर्ग के हाथों में केंद्रित होती है।
चूंकि मजदूर का उपभोग न्यूनतम स्तर पर बना रहता है जबकि पूंजीपति वर्ग का उपभोग लगातार बढ़ता चला जाता है इसीलिए मजदूर का उपभोग सापेक्षतः गिरता चला जाता है। पर पूंजीपति वर्ग इसे भूखमरी नहीं मानता, यदि मजदूर को न्यूनतम उपभोग का अवसर मिलता रहे।
वास्तव में पूंजीपति वर्ग अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए मजदूर को न्यूनतम से भी नीचे ढकेलता है। यह अपवाद स्वरूप ही नहीं होता यह बड़े पैमाने पर होता है। दूसरी तरफ मजदूर न्यूनतम से ऊपर थोड़ी संख्या में और कुछ समय के लिए ही पहुंचता है मसलन कल्याणकारी राज्य में अभिजात मजदूरों की स्थिति।
इसलिए पूंजीवादी समाज में यदि असमानता तेजी से बढ़ती है तो यह केवल मजदूरों को न्यूनतम से नीचे ढकेलकर ही हो सकता है। यदि मजदूरों को न्यूनतम पर बनाये रखा जाता है या उन्हें न्यूतनम से नीचे के स्तर से न्यूनतम तक लाया जाता है तो असमानता तेजी से नहीं बढ़ सकती। यहां एक बार फिर याद रखना होगा कि यह न्यूनतम इस बात को समाहित किये रहता है कि मजदूर की हालत पूंजीपति वर्ग के मुकाबले लगातार खराब हो रही है।
अब उदारीकरण के पूरे दौर को देखें तो इसका मूल लक्ष्य मजदूर वर्ग के जीवन स्तर को नीचे गिराकर पूंजी का मुनाफा बढ़ाना था। इसमें हमले का निशाना केवल अभिजात मजदूर ही नहीं बल्कि सारे मजदूर थे। बल्कि पहले से असंगठित और असुरक्षित होने के कारण गैर अभिजात मजदूर ही हमले का ज्यादा शिकार हुए। स्वभावतः ही ये न्यूनतम से नीचे ढकेले गये या यदि पहले ही न्यूनतम से नीचे था तो और नीचे गये। यानी गैर अभिजात मजदूरों के लिए इसी बात की संभावना है कि वे भूखमरी में धकेले गये या और ज्यादा भूखमरी में। ग्रीस का उदाहरण तो दिखाता है कि अभिजात मजदूर भी भूखमरी में धकेल दिये गये। इस तरह उदारीकरण के दौर में असमानता में जो तेजी से वृद्धि की भी द्योतक है। व्यवस्थापरस्तों की यह बात नहीं स्वीकार की जा सकती कि असमानता में भले ही बढ़ोत्तरी हो रही हो पर भूखमरी कम हो रही है।
इस बढ़ती असमानता और भूखमरी का एक आयाम और भी है। अभी तक समाज में केवल पूंजीपति और मजदूर को माना गया था पर पूंजीवादी समाज में एक तीसरा वर्ग भी होता है छोटी सम्पति वाला। शहरी नौकरी पेशा मध्यम वर्ग से लेकर इसमें दुकानदार, कि छोटे मझोले किसान, दस्तकार इत्यादि शामिल हैं। पूंजीवाद अपने विकास के साथ किसानों-दस्तकारों इत्यादि को तबाह करता है और उन्हें मजदूर बनाने की ओर ढकेलता है। इन छोटी सम्पति वालों की सम्पति पूंजीपति वर्ग के पास चली जाती है जबकि वे स्वयं मजदूर बन जाते हैं।
तबाही की इस लम्बी प्रक्रिया में छोटी सम्पति वाले अक्सर ही कंगाली और भूखमरी से गुजरते हैं। जब वे मजदूरों की पांतों में शामिल होते हैं तो मजदूरों की रिजर्व सेना में बढ़ोत्तरी के द्वारा मजदूरी को न्यूनतम से भी नीचे गिराने का औजार बनते हैं। और जब मजदूरी पहले ही न्यूनतम से नीचे हो तो स्थिति विकराल हो जाती है। मजदूरों में भूखमरी तेजी से बढ़ जाती है। सारी दुनिया में पिछले तीन-चार दश्कों से, खासकर इस संकट में यही हो रहा है।

ऐसे में यह दावा करना कि दुनिया भर में असमानता भले ही बढ़ रही हो पर भूखमरी नहीं बढ़ रही है या भूखमरी घट रही है, पूंजीपति वर्ग का झूठा प्रचार है। भारत का पूंजीपति वर्ग भी ऐसा ही झूठा प्रचार कर रहा है। आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के साथ फैलाये जा रहे इस झूठ का पर्दाफाश करने की जरूरत है। केवल सही दृष्टिकोण से ही इन आंकड़ों की सही व्याख्या की जा सकती है।
भारतीय संस्कृति, योग और बाबा-मोदी
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
प्राचीन भारतीय संस्कृति के बारे में जो अनेक किवदंतियां प्रचलित हैं उनमें से कुछ योग से भी संबंधित हैं। इनमें जहां अधिकांश भारतीय विश्वास करते हैं वहीं विदेशियों के लिए वे कौतूहल का विषय होती हैं। पहले विदेशियों के लिए यह सांपों और सन्यासियों का देश था और सन्यासियों का संबंध योग से भी था। सन्यासियों की अजीबोगरीब योग क्रियाओं और योग सिद्धियों के बारे में बातें आम थीं।
योग की उत्पत्ति चाहे जिन आदिम शारीरिक क्रियाओं और अनुष्ठानों से हुई हो पर यह बात स्पष्ट है कि गौतम बुद्ध के जमाने तक इसने पर्याप्त स्वीकार्यता हासिल कर ली थी। बाद की गौतम बुद्ध और महावीर जैन की योग मुद्रा में मूर्तियां इसका प्रमाण हैं।
बाद के समय में जब भारतीय दर्शन शाखाओं की चर्चा होती है तो योग इनमें से एक होता है। पर सही मायनों में कोई दर्शन होने के बदले वह एक ऐसी शारीरिक क्रिया विधि था जिसे लगभग सारे परम्परागत दार्शनिक अपनाते थे।
योग के बारे में चमत्कारिक शक्तियों की बातें ज्यादातर इसके तंत्रवाद से जुड़ने के साथ पैदा हुई। तंत्रवाद खुद अपने बारी में प्राचीनकाल से चले आ रहे कबीलाई अनुष्ठानों के साथ सम्बन्ध रखता था, जो किसी देवी-देवता या ईश्वर में विश्वास के बदले निश्चित अनुष्ठानों और क्रियाओं द्वारा सिद्धि की बात करता था। इसीलिए देवी प्रसाद चट्टोपध्याय जैसे दार्शनिकों ने इसका सम्बन्ध आदिम भौतिकवाद से जोड़ा है।
तांत्रिकों का अजीबोगरीब रहन-सहन तथा उनकी अजीबोगरीब क्रियाएं आम जन के लिए हमेशा ही रहस्य और कौतूहल का विषय रही हैं। इसीलिए उनके बारे में बहुत सारी जनश्रुतियां जनसाधारण में फैल गयीं। इसमें हवा में उड़ना, पानी पर चलना तथा अपने शरीर को छोड़कर कहीं और चले जाना सब शामिल हैं। माना जाता था कि इसमें अन्य चीजों के अलावा योग का भी योगदान है। खासकर हठयोग और हठयोगियों के बारे में तो बहुत सारे किस्से प्रचलित थे।
जाति-वर्ण व्यवस्था में जकड़े हुए भारत के पिछड़े सामंती समाज में ज्ञान-विज्ञान बहुत ही कम लोगों तक सीमित था। यहां तक कि शासक वर्गों का बड़ा हिस्सा भी मूढ़ था। मूढ़ता वाले इस समाज में अजीबोगरीब किस्सों के लिए पर्याप्त संभावना थी। इन किस्सों में साधु-सन्यासियों और उनके करतबों के किस्से भी थे। योग इन करतबों में से एक था।
यह किस हद तक था वह इस बात से पता चलता है कि प्रेमचन्द ने एक पूरा उपन्यास ‘कायाकल्प’ इस तरह के करतबों पर ही लिखा। उनके अन्य उपन्यासों मसलन ‘प्रेमाश्रम’ में योग की महिमा मौजूद है।
जब भारत में अंगे्रजों द्वारा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का प्रसार हुआ तो जहां पढ़े-लिखे एक हिस्से में प्राचीन भारत और भारत की अन्य चीजों के लिए हिकारत का भाव पैदा हुआ तो वहीं दूसरे हिस्से में हर भारतीय चीज के लिए अनालोचनात्मक लगाव पैदा हुआ। यह हिस्सा स्वयं को राष्ट्रवादी कहता था। अंगे्रजों के मुकाबले अपने पिछड़ेपन के प्रति सचेत यह हिस्सा जान-बूझकर हर प्राचीन भारतीय चीज का महिमामंडन करता था। जहां तिलक जैसे लोगों और बाद में हिन्दू महासभा तथा संघ परिवार के मामले में यह चीज भौंड़े रूप में मुखर थी वहीं गांधी-नेहरू जैसे नेता भी इससे मुक्त नहीं थे।
माना जा सकता था कि अंगे्रजों के जाने के बाद यह स्थिति बदल जायेगी। एक गुलाम देश को राष्ट्रीय हीन भावना से मुक्ति मिल जायेगी तथा ज्ञान-विज्ञान के प्रसार के बाद मूढ़पन खत्म हो जायेगा और पुराने किस्सों-कहानियों के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। भारत भी यूरोप की तरह आधुनिक युग में प्रवेश कर जायेगा।
पर न ऐसा हो सकता था और न हुआ। भारत में ज्ञान-विज्ञान का प्रसार तो हुआ पर यह स्वयं पोंगापंथ में लिथड़ा हुआ था। यहां विज्ञान के स्नातकों और स्नातकोत्तरों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे विज्ञान और पोंगापंथ में फर्क कर सकें।
और जब इसीलिए एक खास तरह के सामाजिक संकट ने- परंपरागत छोटी सम्पति वालों के जीवन के संकट ने- संघी राजनीति को आगे बढ़ाया तो अचानक ऐसा लगा मानो पूरा भारतीय समाज ही मूढ़ों की जमात में परिवर्तित हो गया है। अचानक ही पूरा भारतीय समाज रामायण और महाभारत का दीवाना हो गया। अब यह नारा हवा में गूंजने लगा कि, ‘गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं’। इसका वास्तविक आशय यह था कि अपनी कूपमंडूकता, जाहिलेपन और दकियानूसीपने के लिए शर्मिंदा नहीं होना चाहिए। हर चीज का झंडा बुलंद करना चाहिए जिससे प्राचीनता की बू आती हो।
योग तो तब भी एक काम की चीज थी। योग के बारे में तमाम किस्से-कहानियों के बावजूद यह सच था कि शरीर और मन को स्वस्थ रखने में इसकी एक सार्थक भूमिका बन सकती है। खासकर आधुनिक जीवन शैली में बहुत सारी चीजें ऐसी थीं जिसमें इसका बेहतर उपयोग हो सकता था। यह आधुनिक चिकित्सा पद्धति यानी ऐलोपेथ का विकल्प नहीं था पर यह अच्छे पूरक का काम कर सकता था।
और वस्तुतः बहुत सारे लोग इस रूप में इसका प्रचार भी कर रहे थे- कुछ वास्तविक आत्मसंतुष्टि के लिए, तो ज्यादातर व्यावसायिक कारणों से। बहुत सारे भारतीय गुरू तो विदेशांे में इसी के लिए जाने जाते थे। इसके चलते विदेशों में भी किसी हद तक योग को मान्यता और लोकप्रियता मिली।
और तब, जिसे कहते हैं, बाबा रामदेव और नरेंद्र मोदी का जन्म हुआ और योग ने एक नया जीवन हासिल कर लिया।
बाबा रामदेव ऐसे सज्जन या दुर्जन हैं जिन्होंने योग को पूंजीपति वर्ग और उच्चमध्यम वर्ग की दुनिया से बाहर मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग तक इसे पहुंचाया। खासकर, इसे बाबुओं, मास्टरों और छोटे दुकानदारों की दुनिया तक पहुंचाया।
आबादी के सारे कूपमंडूक हिस्सों में यह सबसे ज्यादा कूपमंडूक हैं। यह किसी भी कूपमंडूकता के लिए सुग्राही होता है और आसानी से उन्मादी बनाया जा सकता है।
इस कूपमंडूक आबादी में योग के किस्से पहले भी प्रचलित थे पर बाबा रामदेव के पहले वह मानता था कि योग इतनी ऊंची क्रिया है कि वह उसके अनुकूल नहीं है। वह केवल हसरतभरी निगाहों से उसकी ओर देख सकता है।
पर बाबा रामदेव ने यह सब बदल दिया। उन्होंने अपने पेट की अंतडि़यां नचाकर उसे योग की महिमा के प्रति न केवल फिर से आश्वस्त किया बल्कि उसे समझाया कि वह स्वयं भी योग कर सकता है। बाबा रामदेव सरीखी बिना चर्बी की काया का वह भी मालिक बन सकता है। लगातार शारीरिक और मानसिक बीमारियों से जूझते रहने वाले बेढब तोंद के मालिक बाबुओं, मास्टरों और दुकानदारों  के लिए यह दुर्निवार प्रलोभन था। वे इससे बच नहीं सकते थे। वे दनादन बाबा रामदेव के योग शिविर में पहुंचने लगे और बाबा रामदेव का योग का धंधा चमकने लगा।
कुशल व्यवसायी बाबा रामदेव ने अपने योग के धंधे की सफलता के साथ एक और चाल चली। उन्होंने एक और दावा किया कि योग से सारी शारीरिक और मानसिक बीमारियों का इलाज हो सकता है तो साथ ही योग शिविर के बाहर भांति-भांति की आयुर्वेदिक दवाएं बेचने लगा। तर्क यह था कि कुछ लोग इतने आलसी और प्रमादी हो गये हैं कि योग नहीं कर सकते। उनके लिए ये आयुर्वेदिक दवाएं हैं। कहने की बात नहीं कि कूपमंडूकता और मूढ़ता के शिकार लोगों में आयुर्वेद के प्रति भी योग की तरह ही रहस्यमय आकर्षण था। ‘आयुर्वेदिक दवाओं का कोई साइड इफेक्ट नहीं होता’- इसका सबसे बड़ा नारा है।
देखते-देखते रामदेव की दुकान चमक गयी और योग का बड़े स्तर पर प्रसार हो गया। भले ही एक प्रतिशत लोगों की भी तोंद की चर्बी न घटी हो पर स्लिम-ट्रिम दिखने की हसरत उन्हें उधर धकेलती रही। रही-सही कसर शिल्पा शेट्टी और विपाशा बसु ने पूरी कर दी जिनकी छरहरी काया के साथ योग के आसन कई बार बुद्धू बक्से पर दीख जाते थे।
योग और आयुर्वेद की अपनी दुकान चमकने के बाद बाबा रामदेव की हसरतें बहुत बढ़ गयीं। उन्होंने बड़ी राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं पाल लीं। और जब अन्ना हजारे जैसे अनाड़ी जमूरे के नाम पर दिल्ली में लाखों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी तो बाबा रामदेव के लिए यह गुमान पाल लेना स्वाभाविक था कि वे करोड़ों की भीड़ को अपने पीछे इकट्ठा कर सकते हैं और भारत के नीति नियंता बन सकते हैं और तब इस महत्वाकांक्षा के साथ उन्होंने दिल्ली में कई बार छापेमारी की। यह राजनीतिक संेधमारी भी थी क्योंकि यह भाजपा और संघ परिवार के परंपरागत राजनीतिक आधार में संेध लगाने के समान था।
कई बार प्रयास करनेे के बाद, जिसमें एक बार उन्हें महिलाओं के कपड़े पहनकर दिल्ली से छिपकर भागना भी पड़ा था, बाबा रामदेव के सामने स्पष्ट हो गया कि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं परवान नहीं चढ़ सकतीं। वे भाजपा और संघ परिवार को पराजित नहीं कर सकते।
बाबा रामदेव के इस नतीजे तक पहुंचने तक भाजपा में मोदी का सितारा बुलंद हो चुका था। पूंजीपति और संघ ने मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवा दिया था। अब बाबा रामदेव ने टैªक बदला और स्वयं को मोदी का मुरीद घोषित कर दिया। यह कुछ इस भाषा में किया गया कि वे मोदी जैसे राजपुरुष के राजऋषि बनना चाहते हैं।
पर मोदी तो मोदी ठहरे। वे क्यों बाबा रामदेव जैसे उठाईगिरे को अपना अंकुश बनने देते? पर हर किसी की तरह बाबा रामदेव का भी इस्तेमाल करने में कोई दिक्कत नहीं महसूस हुई।
मोदी के चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनने के बाद बाबा रामदेव राजऋषि तो नहीं बन पाये पर उन्हें यह आश्वासन जरूर मिला कि वे अपना योग और आयुर्वेद का धंधा बिना किसी विघ्न के जारी रख सकते हैं। इस बीच उन्हांेने किराने का अपना धंधा भी इसके साथ जोड़ लिया।
चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही मोदी की एक नीति रही है। ऊपरी तौर पर, घोषित तौर पर वे खुद को विकास पुरुष के रूप में पेश करते हैं पर साथ ही वे छिपे तौर पर और जमीनी स्तर पर हिन्दू सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाते रहते हैं। कई बार वे यह दिखाने का भी प्रयास करते हैं कि इस सांप्रदायिक एजेंडे से उन्हें परेशानी है। पर असल में वे इससे न केवल परेशान नहीं हैं बल्कि इसके हामी हैं।
जमीनी स्तर पर बेहद कारगर सांप्रदायिकता की इस धीमी आंच के बारे मंे मोदी के मुरीद यह प्रचार करते हैं कि यह भाजपा और संघ के हाशिये  के तत्वों द्वारा किया जाता है। पर असल में ऐसा है नहीं। ऐसे तत्वों और उनकी गतिविधियों को सीधे मोदी और उनके चेले अमित शाह का समर्थन हासिल होता है। यदि उन्हें यह समर्थन हासिल नहीं होता तो ये तत्व अपनी गतिविधियों के लिए मिनटों में भाजपा से बाहर कर दिये जाते।
सांप्रदायिकता की इस धीमी लौ में जहां छोटे-छोटे सांप्रदायिक दंगे और लव-जेहाद जैसे अभियान आते हैं वहीं सरकारी संस्थाओं का भगवाकरण तथा हर स्तर पर हिन्दू मानसिकता को प्रोत्साहन भी इसके हिस्से हैं। मोदी सरकार द्वारा योग को प्रोत्साहन को भी इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि 21 जून राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक हेडगेवार का जन्म दिन भी है।
यह घोषित करते हुए कि योग का धर्म से संबंध नहीं है और यह सभी के लिए है, संघियों ने जो कुछ किया वह काबिलेतारीफ है। उन्होंने दो मुंहा बातों की एक और नजीर पेश कर दी। ‘जो गौ मांस खाना चाहते हैं वे पाकिस्तान चले जायें’ की तर्ज पर उन्होंने बार-बार घोषित किया कि जो योग नहीं करना चाहते वे पाकिस्तान चले जायें। यानी योग भी एक ऐसी हिन्दू चीज है जिसे हिन्दुस्तान में हर किसी को अपनाना पड़ेगा। यह वही चीज है जिसे संघी ‘भारतीय संस्कृति’ कहते हैं जिसे हर धर्म के अनुयाइयों को अपनाना होगा भले ही वह उनकी धार्मिक आस्थाओं के कितना खिलाफ हो।
इस तरह योेग का एक बड़े तमाशे के रूप में आयोजन जहां नरेंद्र मोदी की अपनी व्यक्तिगत बम-बम कार्यशैली और आत्ममहिमामंडन के अनुरूप था वहीं वह हिन्दू सांप्रदायिकता को आगे बढ़ाने के एक बड़े अभियान का हिस्सा भी था। वैसे भी मोदी में दोनों चीजें अक्सर ही आपस में घुल-मिल जाती हैं। 2002 का गुजरात का नरसंहार जहां एक ओर हिन्दुत्व की प्रयोगशाला का एक बड़ा प्रयोग था वहीं नये-नये मुख्यमंत्री बने मोदी का अपनी गद्दी सुरक्षित करने का संघी रामबाण भी था। हिटलर के जमाने से ही ऐसे मामलों में व्यक्तिगत और सामाजिक का सम्मिलन रहा है। दोनों लक्ष्य एक साथ हासिल किये जाते रहे हैं।
ललित मोदी कांड में चारों ओर से घिर रही मोदी सरकार एवं स्वयं नरेंद्र मोदी के बचाव के लिए पूंजीवादी प्रचार माध्यमों ने योग दिवस का जमकर इस्तेमाल किया। तीन-चार दिनों तक इसी की गूंज रही है और रविवार 21 जून को तो मानो इसके अलावा कुछ था ही नहीं। यह इस कदर था कि इस धारा में राज्य सभा का टी.वी. का न बजना भाजपा के महासचिव राम माधव को खटक गया।
पर सारे संघी आयोजन के तहत इस अयोजन का ‘प्रचार’ कुछ और था तथा ‘यथार्थ’ में कुछ और। योग दिवस का आयोजन सरकार के आयुष विभाग ने किया था जिसे सफल बनाने के लिए भाजपा और संघ ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। इसके साथ बाबा रामदेव सहित सारे योग गुरू भी इसमें शामिल थे। पर इस सबके बावजूद इसमें आई भीड़ से यह नहीं लगता कि मोदी और संघ परिवार को कोई खास सफलता मिली।
सरकारी कर्मचारियों, संघ-भाजपा के कारकूनों तथा अपने जीवन में स्वतः योग करने वालों की कुल संख्या बहुत हो जाती है पर इसके दस प्रतिशत लोग भी योगपथ पर नजर नहीं आये। अपनी पीठ थपथपाने के बावजूद मोदी सरकार इस मामले में सफल नहीं हो पायी।
यहीं संघी परियोजना और मोदी की सीमा नजर आती है लेकिन साथ ही यहीं संघ और मोदी का खतरा भी स्पष्ट होता है। अपने सारे प्रयासों के बावजूद संघ और मोदी बहुत सफल नहीं हो रहे हैं। इसमें चुनाव के समय मोदी के हवाई वादे और इस समय उसकी वास्तविक स्थिति महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। बहुत सारे गैर सांप्रदायिक मोदी समर्थक मोदी से निराश हो रहे हैं। कुछ लोगों ने तो वापस कांगे्रस की ओर झांकना भी शुरू कर दिया है।
ऐसी स्थिति में मोदी और संघ क्या करें? किधर की ओर रुख करें? लव-जेहाद अभियान से लेकर हाल में हरियाणा में अटाली तक दिखाते हैं कि संघ और मोदी की दिशा पहले से तय है। भेडि़ये ने भेड़ की खाल ओढ़कर अपने नाखूनों और बनैले दातों को छिपा लिया है। लेकिन वह कभी भी इस खाल को उतारकर सामने असली रूप में आ सकता है।

आज सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जिंदा होते तो शायद वे अपनी ‘भेडि़ये’ शीषर्क कविता में कुछ और जोड़ते।
‘अच्छे दिनों का जश्न’ या झूठ-फरेब की मार्केटिंग
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    ‘अच्छे दिनों का वायदा करके’ 2014 में सत्तासीन हुई भारतीय जनता पार्टी नीत राजग सरकार या मोदी सरकार का एक वर्ष पूरा हो गया है। इस एक वर्ष में देश की जनता की हालत में कोई तब्दीली आई हो या नहीं आयी हो, वह बेहतर हुई या बदतर, इस सबसे अलग मोदी सरकार अपनी उपलब्धियों का बखान करने के लिए महाअभियान चलाने जा रही है। इस महाअभियान के तहत देशभर में 200 रैलियां, 200 प्रेस कांफ्रेंस एवं 5000 जनसभाएं आयोजित की जायेंगी जिनके द्वारा अब तक अच्छे दिनों की बाट जोह रही जनता को आंकड़ों व जुबान की बाजीगरी द्वारा अच्छे दिनों का अहसास कराया जायेगा। ‘काले धन’ पर मोदी द्वारा चुनाव के दौरान जनता से किये गये वायदों को सत्तासीन होने के कुछ समय बाद उनके मुख्य सिपाहसालार व भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष अमित शाह ने चुनावी जुमला बताकर खारिज कर दिया था कि झूठे वायदे करने में उनका कोई सानी नहीं और अब अपनी उपलब्धियों का बखान कर वे यह साबित करने पर तुले हैं कि झूठ की मार्केटिंग करने में भी वे हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबेल्स के सच्चे अनुयायी हैं। 
    पिछले एक वर्ष में अर्थव्यवस्था एवं समाज कल्याण के मदों का जायजा लेते हुए ‘मोदी के आर्थिक विकास के माॅडल’ को समझने में कोई विशेष प्रयास की जरूरत नहीं है। तथ्य खुद ही सत्य को बयां कर देते हैं। कृषि एवं सिंचाई जो भारत की अर्थव्यवस्था में 17 प्रतिशत का योगदान करते हैं और भारत की आबादी के 62.5 प्रतिशत एवं कामगार आबादी के 49 प्रतिशत को समाहित करते हैं। मोदी के आर्थिक विकास के माडल के तहत बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के फंड में केन्द्र सरकार द्वारा 7,426.50 करोड़ रुपये की कटौती की गयी है। पशुपालन एवं डेयरी विकास योजना में 685 करोड़ की कटौती की गयी है। इसी तरह प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना में 8,156.22 करोड़ की कटौती की गयी है। यह अकारण नहीं है कि कृषि विकास दर 2013-14 में 4.7 प्रतिशत के मुकाबले 2014-15 में 1.1 प्रतिशत पहुंच गयी है। 
    भाजपा के सत्ताशीन होने के एक वर्ष के भीतर जोती जाने वाली जमीन का रकबे में 33.22 लाख हेक्टेअर (3.322 मिलियन हेक्टेयर) की कमी आयी है और खाद्यान्न उत्पादन में 2013-14 के 2650 लाख टन से गिरकर 2014-15 में 2500 लाख टन रहने की उम्मीद है। 
    कपास किसानों को 2013-14 में जहां प्रति क्विंटल कपास पर 4800 से 4900 रुपये मिले थे वहीं 2014-15 में उन्हें मात्र 3900 से 4000 रुपये ही मिले। इसी तरह बासमती उत्पादकों को 2013-14 में प्रति क्विंटल 4100-4200 रुपये के मुकाबले 2500-2600 रुपये प्रति क्विंटल हासिल हुए। इसी तरह रबर उत्पादक किसानों को पिछले वर्ष में प्रति किलो 150-155 के मुकाबले इस वर्ष केवल 115-120 रुपये प्रति किलो मूल्य मिला। उद्योगपतियों का गन्ना किसानों का बकाया 20,000 करोड़ रुपये से ऊपर पहुंच गया है। 
    उत्पादन में गिरावट एवं कृषि उत्पादों के मूल्यों में गिरावट का असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकुचन पर पड़ा है। महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) के बजट में कटौती ने स्थितियों को और विकट बनाया है। 2014-15 में केन्द्र सरकार ने राज्यों को मनरेगा हेतु 6000 करोड़ से अधिक रकम आवंटित नहीं की जिसके चलते नये रोजगार सृजन व नई परियोजनाओं लेने का काम अधर में लटक गया। मनरेगा के तहत सृजित रोजगारों (दिहाड़ी) में पिछले एक वर्ष में 20 प्रतिशत की गिरावट आयी हैं 2014-15 में जहां मनरेगा के तहत मिलने वाले दिहाड़ी रोजगार की संख्या 1.47 अरब थी वहीं अप्रैल से दिसंबर, 2014 में यह 1.117 अरब रह गयी। असम जैसे राज्य मेें तो इसमें 31 प्रतिशत की गिरावट आयी है। 
    मोदी सरकार की नजर गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले करोड़ों लोगों पर भी लगी है जिन्हें ‘खाद्यान्न सुरक्षा कानून’ के तहत प्रति व्यक्ति प्रतिमाह पांच किग्रा खाद्यान्न मिलता है। मोदी सरकार द्वारा गठित शांता कुमार कमेटी ने सिफारिश की है कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ के तहत लाभांवित होने वाले लोगों की संख्या को 67  प्रतिशत से लेकर 40 प्रतिशत तक सीमित कर दिया जाय। 
    दिसंबर, 2014 के खाद्य मंत्रालय के बुलेटिन के अनुसार राज्यों के लिए कुल 388 लाख टन खाद्यान्न का आवंटन किया गया है। यह राशि ‘खाद्य सुरक्षा कानून’ के अस्तित्व में आने से पहले की राशि के बराबर है। जाहिर है कि मोदी सरकार की कोई रुचि ‘खाद्य सुरक्षा कानून’ में नहीं है बल्कि वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली को ही ध्वस्त कर देना चाहती है। मोदी सरकार ने ‘खाद्य सुरक्षा कानून’ की भावना व जरूरत के अनुरूप खाद्यान्न की आपूर्ति न करके गरीबों का पेट काटकर 1,03,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी की बचत की है। 
    कुल मिलाकर सार्वजनिक कल्याण के सामाजिक कार्यक्रमों के मद में मोदी सरकार ने एक वर्ष में पौने दो लाख करोड़ की कटौती की है। 
    गरीबों को थोड़ा बहुत राहत देने वाली योजनाओं के आवंटन में मोदी सरकार ने 66 हजार करोड़ रुपये कम कर दिये। देश के पिछड़े इलाकों को मिलने वाले अनुदान में 6000 करोड़ रुपये इस साल कम कर दिये। 
    राष्ट्रीय जीवन यापन मिशन भी मोदी सरकार को एक फालतू का खर्च लगता है इसलिए इसके बजट में भी मोदी सरकार ने 1632.50 करोड़ रुपये की कटौती कर दी। 
    मोदी सरकार ने पंचायत राज के बजट को भी 98 प्रतिशत घटा दिया है। 3400 करोड़ रुपये के पंचायती राज के बजट को उन्होंने महज 94 करोड़ रुपये में निपटा दिया। 
    बच्चों के साथ फोटो खिंचवाने व सेल्फी बनाने के द्वारा आधुनिक चाचा नेहरू बनने का उपक्रम करने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार ने प्राथमिक शिक्षा का बजट अपने पहले ही साल में दस हजार करोड़ रुपये व माध्यमिक शिक्षा का बजट डेढ़ हजार करोड़ रुपये घटा दिया है। 
    ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन’ का बजट भी 3,650 करोड़ रुपये कम कर दिया गया है। 
    अपने चुनावी भाषणों में मोदी ने 2022 तक सभी को मकान देने का वायदा किया था लेकिन यह वायदा कितना फर्जी था उसका खुलासा पहले साल में ही मिल गया है। गौरतलब है कि इस साल आवास योजनाओं के बजट में चार करोड़ रुपये से ज्यादा की कटौती की गयी है। 
    इसी तरह स्वच्छता अभियान का अनथक हल्ला मचाने वाले मोदी ने वास्तव में पेयजल और सफाई सहित इस अभियान पर होने वाले खर्च में इस साल पहले के मुकाबले नौ हजार करोड़ रुपये की कटौती की है। हां, इस अभियान के विज्ञापन खर्च में जरूर बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। 
    मोदी के राज में जहां बात-बात पर अध्यादेश लाने का चलन कुछ यूं शुरू हुआ कि इस सरकार का नाम अध्यादेश सरकार पड़ गया। अपने प्रधान सचिव की नियुक्ति के लिए भी अध्यादेश लाने वाली मोदी सरकार ने पिछली यूपीए सरकार के एक महत्वपूर्ण अध्यादेश को ठंडे बस्ते में डालकर अपनी मौत मर जाने दिया। यह अध्यादेश अनुसूचित जातियों व जनजातियों पर होने वाले अत्याचारों से निपटने के लिए लाया गया था। निश्चित तौर पर हर पूंजीवादी कानून की तरह इस कानून की अपनी सीमाएं होतीं लेकिन तब भी जाति उत्पीड़न के एजेंडे के प्रति मोदी सरकार कितनी संवेदनशील है यह इस अध्यादेश की अनदेखी व उपेक्षित मौत बयां कर देती है। यह अकारण नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी शासित हरियाणा व राजस्थान में पिछले एक वर्ष में दलित आंदोलन की घटनाओं में काफी वृद्धि हुई है। अनुसूचित जातियों/जनजातियों के प्रति होने वाले अत्याचार को रोकने हेतु पिछली सरकार द्वारा लाये गये अध्यादेश में यह व्यवस्था थी कि जिला स्तर पर विशेष अदालतों का गठन कर मामलों की सुनवाई की जाय और न्याय दिलाने के लिए सरकारी वकीलों की खास तौर पर नियुक्ति की जाय। इस अध्यादेश के तहत गले में जूतों की माला पहनाकर घुमाने जैसे मामलों को भी अपराध की श्रेणी में शामिल किया गया था।
    इसी तरह एक कदम आगे रहकर मोदी सरकार ने इस साल अनुसूचित जाति उप-योजना का बजट तेरह हजार करोड़ रुपये कम कर दिया और अनुसूचित जनजाति उप-योजना का बजट भी साढ़े सात हजार करोड़ रुपये घटा दिया। ‘सबका विकास सबका साथ’ का नारा किस कदर धोखा है इसकी यह महज एक झलक भर है। 
    मोदी सरकार द्वारा सबसे जबरदस्त हमला मजदूर वर्ग पर बोला गया। सत्ता ग्रहण करते ही श्रम कानूनों में संशोधनों की झड़ी लगाकर जहां पूंजीपतियों को मजदूरों के निर्बाध शोषण की छूट दी गयी वहीं मजदूरों के श्रम अधिकारों को खत्म करने अथवा निष्प्रभावी बनाने की कवायद में मोदी सरकार लगी हुई है। मजदूरों के कार्यदिवस, ओवर टाइम बढ़ाने, महिलाओं से रात की पाली में काम करवाने, अपे्रंटिस एक्ट के तहत कुशल श्रम को सस्ते में पूंजीपतियों को उपलब्ध कराने, यूनियन बनाने की प्रक्रिया को और कठिन व जटिल बनाने, पूंजीपतियों को कुछ उद्यमों में रिटर्न भरने व रजिस्टर रखने से छूट, फैक्टरी इंस्पेक्टर के छापों से मुक्ति, श्रम कानूनों के अनुपालन में स्वप्रभावन की सुविधा जैसे अनेक छूटें मिली हैं। श्रम कानूनों में सुधार की प्रक्रिया निरंतर जारी है। पूंजीपति वर्ग की मांग है कि 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को 4 मुख्य कानूनों के तहत समाहित कर श्रम कानूनों के व्यापक ‘जंजाल’ से उन्हें मुक्ति दिलायी जाय। मोदी सरकार इस ओर प्रयासरत है। 
    मोदी सरकार किस कदर पूंजीपतियों पर मेहरबान है इसका मुजाहिरा उसने गौतम अदानी को 6 हजार करोड़ रुपये का कर्ज देकर किया है। गौरतलब है कि दुनिया के प्रमुख बैंक अदानी को आस्ट्रेलिया में कोयले की खदान के लिए कर्ज देने से इंकार चुके हैं। अदानी समूह पर 55,364.94 करोड़ रुपये दीर्घकालिक कर्ज है और तीन सितंबर, 2011 को 17,267.93 करोड़ रुपये का लघु अवधि का कर्ज था। जाहिर है कि दुनिया में बैंक अदानी को कर्ज देने से क्यों इंकार कर रहे थे। लेकिन मोदी ने अपने इस चहेते पूंजीपति, जो गुजरात में भी उनका प्यारा था, को स्टेट बैंक आॅफ इंडिया से 6000 करोड़ का कर्ज दिलाया जो किसी भी विदेशी परियोजना के लिए अब तक का सबसे बड़ा कर्ज है। 
    मोदी सरकार किस बेशर्मी की हद तक पूंजीपतियों का हित साधने में लगी है इसका अंदाजा भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने की उसकी हड़बड़ी में दिखाई देता है। देश भर में भूमि अधिग्रहण आलोचना के बावजूद मोदी सरकार इस अध्यादेश को लाने की जिद पर अड़ी है। 
    इसी तरह खनन के क्षेत्र में कारपोरेट क्षेत्र की राह में एक बड़ी बाधा पर्यावरणीय मानदंडों को शिथिल व निष्प्रभावी बनाकर मोदी सरकार ने देशी-विदेशी पूंजी को लूट की छूट ही दी है। 
    मोदी का ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम का अंतर्य यह है कि विदेशी पूंजीपतियों आओ भारत के सस्ते श्रम व संसाधनों को भरपूर निचोड़ो। पूंजीपतियों को लूट की निर्बाध छूट के हिमायती मोदी को इस मामले में विरोध की हल्की सी आवाज भी बर्दाश्त नहीं इसलिए पर्यावरण के मामले पर हल्ला करने वाले एन.जी.ओ. को वह देशद्रोही करार देती है, उनके खाते व फंड पर रोक लगाती है। किसानों और मजदूरों के साथ इस सरकार का व्यवहार कैसा होगा। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। 
    कुल मिलाकर मोदी ने पिछले एक साल में यह साबित किया कि वे पूंजीपति वर्ग के अब तक के सबसे उत्साही सेवक हैं, प्रधान सेवक हैं। देश के मजदूर-मेहनतकश जनता को वे भ्रमित करने का कितना भी प्रयास करें उनका असली चेहरा एक साल में बेपर्द हो गया। 
मोदी की भाजपा सरकार के एक साल
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के एक साल हो गये हैं। इस एक सल में मोदी ने अपने भाति-भांति के समर्थकों को निराश किया हालांकि पूंजीपति वर्ग ने अभी भी उनसे उम्मीद नहीं छोड़ी है। 
    नरेंद्र मोदी से तीन प्रमुख उम्मीदें थीं। भारत का पूंजीपति वर्ग यह उम्मीद करता था कि मोदी वे नीतिगत फैसले तेजी से करेंगे जिससे पूंजी निवेश तेजी से बढे़गा और साथ ही मुनाफे की दर में भी बढ़ोत्तरी होगी। मध्यम वर्ग यह उम्मीद करता था कि वे देश का विकास करके एक चमचमाता भारत सामने लायेंगे जो उसके समनों का भारत होगा। आर.एस.एस. यह उम्मीद करता था कि मोदी हिन्दू राष्ट्र की दिशा में आगे बढ़ेंगे या कम से कम उस दिशा में बढ़ने में संघ के लिए बाधा नहीं पैदा करेंगे। 
    अब एक साल बाद इन सबकी क्या स्थिति है? मोदी ने अपने समर्थकों की उम्मीद कितनी पूरी की?
    कहना नहीं होगा कि सत्ता में आते ही मोदी ने पूंजीपति वर्ग के मनोनुकूल नीतियां बनाने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाये। उन्होंने एक के बाद एक अध्यादेशों की झड़ी लगा दी। यह इस हद तक हुआ कि कांग्रेसी राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भी इस पर अपनी नाखुशी जाहिर करनी पड़ी। ये सारे ही अध्यादेश पूंजी निवेश को सुगम बनाने से संबंधित थे। मोदी ने इसके द्वारा इतनी सफलता हासिल की कि विश्व बैंक की नजर में भारत व्यवसाय करने की सफलता के सूचकांक ऊंची छलांग लगाकर 122 वें से 54 वें नम्बर पर पहुंच गया। 
    पर इस सबसे क्या पूंजीपति वर्ग खुश हुआ? नहीं। अभी हाल के एक सर्वेक्षण में ज्यादातर पूंजीपतियों ने असंतोष जाहिर किया कि जमीन पर वास्वत में कुछ नहीं बदला है। यहां तक कि पूंजीपतियों के बड़े बुर्जुग रतन टाटा को पूंजीपतियों को यह समझाना पड़ा कि उन्हें धैर्य रखना चाहिए। 
    भारत के पूंजीपति वर्ग का अधैर्य कोई नई चीज नहीं है। जो अबूझ पहेली हो। कांगे्रस के संप्रग शासन के दस सालों में देश के सकल घरेलू उत्पाद में औसत वृद्धि दर सात प्रतिशत रही। इस वृद्धि दर का सारा फायदा पूंजीपतियों की जेब में गया। पर पूंजीपति इतने से संतुष्ट नहीं था। पूंजी का चरित्र ही ऐसा है कि वह संतुष्ट नहीं हो सकती। बीस प्रतिशत का मुनाफा होने पर वह तीस प्रतिशत की तलाश करेगी। 
    मोदी ने अपने गुजरात माडल में दिखाया था कि वे ऐसा करना सुगम बना सकते हैं। दूसरी ओर सोनिया-राहुल पूंजीपतियों के लिए सबकुछ करते हुए भी हिचकिचा रहे थे और मोदी माडल से अपनी दूरी दिखा रहे थे। 
     अब जब पूंजीपतियों ने सफलतापूर्वक मोदी को दिल्ली की गद्दी पर आसीन कर दिया तो वे उम्मीद कर रहे थे कि मोदी तुरंत ही सारे देश के पैमाने पर गुजरात माडल लागू कर देंगे। पर जैसा उदार पूंजीवादी रामचंद्र गुहा ने अपनी एक टिप्पणी में कहा है, सारा देश गुजरात तो नहीं है। जो गुजरात की रियासत में लागू किया जा सकता है वह सारे देश के पैमाने पर लागू किये जाने में बाधा का सामना तो करेगी। 
    ऐसा नहीं है कि मोदी ने ऐसा प्रयास नहीं किया। उनके प्रयासों का ही नतीजा था कि संघ की मजदूर और किसान भुजाएं यानी भारतीय मजदूर संघ और किसान संघ खुलेआम अपनी सरकार के विरोध में आ गयीं। पहला श्रम कानूनों में बड़े फेरबदल के मामले में तो दूसरा भूमि अधिग्रहण बिल के मामले में। 
    पर मोदी सरकार को भी अंततः उसी यथार्थ से टकराना पड़ा जिससे टकराकर संप्रग सरकार पस्त हो गयी थी। वह यथार्थ है बाजार में मालों और सेवाओं की मांग की कमी। यहां तक कि रिजर्व बैंक के गवर्नर और पूंजीपतियों के लाड़ले रघुराम राजन को भी कहना पड़ता है कि, ‘बाजार में मांग के अभाव में ब्याज दर में कटौती से आखिर क्या हासिल होगा’?
    आज आतंरिक और बाह्य दोनों बाजार संतृप्त हैं। भारत के निर्यात की ज्यादातर जगहें मांगों की कमी से जूझ रही हैं। इसके उलट चीन जैसा देश बड़ी मात्रा में माल भारत के बाजार में झोंक रहा है। भारत का आंतरिक बाजार अटा पड़ा है। ऐसे में पूंजी निवेश की गुंजाइश ही कम बचती है। विदेशी पूंजी के लिए रास्ते और खोल देने के बावजूद पाया यह जाता है कि विदेशी पूंजी के आगमन में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई है और यदि हुई भी है तो सट्टेबाज पूंजी में। इस दिशा में यह रेखांकित करना होगा कि मोदी सरकार ने अपने सुधारों के जरिये विदेशी सट्टेबाज और गैर सट्टेबाज पूंजी के फर्क को धुंधला किया है। 
    मांग की इस हालत में पूंजीपति वर्ग के लिए एक ही रास्ता बचता है। वह है निवेश की उतनी ही मात्रा में मुनाफे की मात्रा को बढ़ाना यानी मुनाफे की दर को बढ़ाना। मजदूरों और किसानों से संबंधित दोनों सुधार इसी दिशा में कदम हैं और इसीलिए मोदी सरकार इन पर इतना अडि़यल रूख अपना रही है। श्रम सुधारों में परिवर्तन से मजदूर की मजदूरी घट जायेगी और उससे निचोड़ा जाने वाला मुनाफा बढ़ जायेगा। दूसरी ओर किसानों की जमीन औने-पौने दामांें मे छीनने से उस क्षेत्र की पंूजी पर भी मुनाफा बढ़ जायेगा। जब बिल्डर किसानों को दिये जाने वाले मुआवजे के मुकाबले पचास या सौ गुना दाम पर वह जमीन बेचते हैं तो स्वतः ही मुनाफे में अकूत बढ़ोत्तरी हासिल होती है। 
    यह कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी सरकार का इंडस्ट्रीयल कारीडोर और स्मार्ट सिटी पर इतना जोर है। इंडस्ट्रीयल कारीडोर में उद्योग लगाने की बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी इसके इर्द-गिर्द शाॅपिंग माल और स्मार्ट सिटी। ये बिल्डरों को अकूत मुनाफा देते हैं। और इन बिल्डरों के पीछे आज देश की बड़ी पूंजी है। 
    अवरचना पर पूंजीपतियों का जोर भी इसी का एक पहलू है खासकर सार्वजनिक और निजी साझेदारी वाला। इसमें दो बातें प्रमुख हैं। एक तो भूमि अधिग्रहण से लेकर अन्य बाधाएं दूर करने का काम सरकार करेगी तथा प्राकृतिक संसाधन सस्ती दरों पर सुलभ करायेगी। दूसरे इसमें मुनाफा वसूली का सारा अधिकार निजी कंपनियों के पास होगा। बड़े पैमाने पर गैर मुनाफा निवेश की जिम्मेदारी भी सरकार की होगी। यह अकारण नहीं है कि रेलवे को इसी तरह सार्वजनिक-निजी साझेदारी में लाने की मुहिम शुरू की जा चुकी है और इसके लिए बहाना हासिल करने की खातिर रतन टाटा के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ कमेटी गठित की जा चुकी है। 
    जैसा कि पहले इंगित किया जा चुका है इतना कुछ किये जाने पर या इनके प्रयास पर भी जमीनी स्तर पर पूंजीपतियों को कोई खास बदलाव नहीं दीखता। इसीलिए वे असंतोष महसूस करते हैं। वे तो यह उम्मीद कर रहे थे सालभर में सारा कायापलट हो जायेगा। 
    ऐसे में केंद्रीय सांख्यिकी विभाग द्वारा जारी सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर के नये आंकड़े उन्हें कोई सांत्वना नहीं प्रदान करते। पहले सकल घरेलू उत्पाद में ऊंची वृद्धि दर मजदूर वर्ग को अपनी जिंदगी से असम्बद्ध नजर आती थी अब यह पूंजीपति वर्ग को अपने निवेश से असंबद्ध नजर आती है। वे इस पर बहुत खुश नहीं होते कि आकड़ों की नई पद्धति से सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर में दो प्रतिशत का इजाफा हो गया तथा इस साल यह वृद्धि दर सात प्रतिशत से ऊपर रहेगी। 
    यदि लगातार ऊंचा मुनाफा वसूलने वाला पूंजीपति वर्ग मोदी सरकार से खुश नहीं है तो यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि मध्यम वर्ग उससे बहुत खुश हो जायेगा। मध्यम वर्ग ने ‘विकास पुरूष’ को गले लगाया था। वह भी अहसान-फरामोशी में मनमोहन सिंह और पी.चिदंबरम तथा उनकी पार्टी को भूल गया था जिन्होंने उसे नया उपभोक्तावादी जीवन प्रदान किया था। उसे लगा था कि उसके सपनों के जो पर लगे हैं उन्हें आसमान तक पहुंचाने का काम मोदी नामक ‘विकास पुरुष’ कर सकता था। इसके लिए उसने मोदी के हत्यारे अतीत को भुला दिया था या स्वयं सांप्रदायिक मानसिकता के तहत मान लिया था कि यह सब तो चलता ही रहता है। असल बात है ‘विकास-वह विकास जो कभी जापान ने किया था और आज चीन कर रहा है। वह अपने देश को यूरोप-अमेरिका की तरह उन्नत देखना चाहता है या कम से कम मोदी ने उसे बताया या समझाया था कि उनके गुजरात माडल के तहत भारत वैसा बन जायेगा’। 
    आज साल भर में मोदी मध्यम वर्ग के लिए ऐसे छछूंदर बन गये है जिसे वह न उगल सकता है और न निगल सकता है। मोदी ने जिस ‘विकास’ की बात कही थी वह कहीं नजर नहीं आ रहा है। पूंजीपतियों की तरह वह भी जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं देख पा रहा है। तेल के दामों में कमी से वह थोड़ा खुश था पर अब वह देख रहा है कि मोदी के खुशनसीब से बदनसीब हो जाने के चलते तेल के दाम फिर पुराने स्तर पर पहुंच रहे हैं। किस्मत मोदी के साथ छोड़ रही है और लगे हाथों मध्यम वर्ग का भी। 
    मध्यम वर्ग अत्यन्त व्याकुलता से देख रहा है कि उसका ‘विकास पुरूष’ स्वयं मध्ययुगीनता की वकालत कर रहा है ओर उसके गुर्गे चारों ओर सांप्रदायिक विषवमन कर रहे हैं। वह तय नहीं कर पा रहा है कि स्वयं ‘विकास पुरुष’ की इसमें क्या भूमिका है? वह अपने को तसल्ली दे रहा है कि वह सब विकास पुरुष की इच्छा के विरुद्ध हो रहा है और वह जल्दी ही इन सब पर लगाम लगाकर विकास के अपने मूल एजेंडे पर वापस लौटेगा। 
    ठीक इसी बिंदु पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उल्टी दिशा में सोचता है। मोदी की भाजपा के पूर्ण बहुमत से दिल्ली में सत्तानशीन हो जाने के बाद उसे लगता था कि हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़ने का समय आ गया है। सारे संघी बावले हो गये थे। बाबा रामदेव से लेकर प्रवीण तोगडि़या तक सबने घोषित कर दिया था कि हमारी अपनी सरकार है गुजरात नरसंहार वाले मोदी से अच्छा उनका हिन्दू राष्ट्र का नायक कौन हो सकता है। 
    पर संघ की बदकिस्मती से मोदी की जीत में जितना संघ का हाथ था उतना ही देश के बड़े पूंजीपतियों की पूंजी का भी। मोदी की जीत पर और इसीलिए मोदी की सरकार पर संघियों का इकतरफा दावा नहीं हो सकता था। यह देखते हुए कि भारतीय राज्य भारत के पूंजीपतियों का राज्य है, मोदी सरकार पर संघियों का दावा और कमजोर हो जाता था। मामले की तह में यह था कि संघ की सांप्रदायिकता को बर्दाश्त करते हुए भी भारत के बड़े पूंजीपति यानी इस बिंदु पर यह जरूरत नहीं महसूस करते कि भारतीय राज्य हिंदू फासीवादी चरित्र धारण कर ले। 
    परिणाम यह निकला कि मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही यह घोषित कर दिया कि चुनावों के समय चाहे तो कुछ कहा गया पर देश तो संविधान के हिसाब से चलेगा। इसके जरिये उन्होंने देश के पूूंजीपतियों को आश्वस्त किया कि वे उनके अनुसार ही देश का शासन चलायेंगे। पर इस आश्वासन का यह कतई मतलब नहीं था कि मोदी ने अपना हिंदू सांप्रदायिक चोला पूरी तरह त्याग दिया है। इसका बस इतना मतलब था कि गुजरात का हत्यारा फिलहाल वह रूप नहीं दिखायेगा।
    इसके बाद वह खेल शुरू हुआ जिसने मोदी समर्थकों और विरोधियों दोनों को छकाया। मोदी समर्थक दुःखी थे कि मोदी हिंदू सांप्रदायिक उन्मादियों को रोक क्यों नहीं रहे हैं जबकि मोदी विरोधी समझ नहीं पा रहे थे कि मोदी उन्हें खुली छूट क्यों नहीं दे रहे हैं। 
    दरअसल हिंदू सांप्रदायिक मोर्चे पर पिछले साल भर में जो कुछ हुआ है वह मोदी की सहमति और अनुमति से हुआ है। खासकर भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता जिन मामलों में शामिल रहे हैं उनके बारे में यह बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है। आज भाजपा में मोदी का जो एकछत्र शासन है उसमें तिनका भी मोदी की अनुमति और सहमति के बिना नहीं हिल सकता। यदि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी तब दुबक कर अपने दड़बों में बैठे हुए हैं तो यह नहीं सोचा जा सकता है कि छोटी-छोटी मुर्गियां बिना मोदी की अनुमति और सहमति के कुडकेंगी। 
    स्पष्टतः हिंदू साम्प्रदायिकता की धीमी सुलगती आग मोदी की अपनी रणनीति है। एक तो इससे आज के हालात में पूंजीपति वर्ग को परेशानी नहीं होगी। दूसरे हाल-फिलहाल इससे चुनावी फसल काटते हुए कभी भी जरूरत पड़ने पर तेज आंच में भड़काया जा सकता है। इसी के साथ संघ परिवार के उन तत्वों को भी नियंत्रित या संतुलित किया जा सकता है कि गुजरात नरसंहार किस्म के सारे देश में तत्काल प्रयोग के हामी हैं। 
    ऐसे में स्वभावतः ही संघ परिवार के इस तरह के तत्वों को परेशानी होगी। वे मामले को अपनी ओर खिसकाने के लिए पूरा जोर लगायेंगे। वे हर तरीके से मोदी और भाजपा पर दबाव डालने का प्रयास करेंगे। पर उनकी कमजोरी यह है कि हाल-फिलहाल पूंजीपति वर्ग के समर्थन उसे हासिल नहीं है। 
    संघ परिवार के प्रमुख मोहन भागवत जब यह बयान देते हैं कि कुल मिलाकर भाजपा सरकार का शासन संतोषजनक रहा है तो यह एक औपचारिक बयान होने के साथ मामले को संतुलित करने का भी प्रयास है। वे संघ परिवार के हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य और मोदी सरकार के बीच के तनाव को किसी तरह कम करने के लिए प्रयासरत हैं। मोदी की तरह वे भी व्यावहारिक रणनीति का परिचय दे रहे हैं। 
    कुल मिलाकर यह रहा है कि मोदी सरकार का एक साल। मोदी ने भाजपा के भीतर जो एकछत्र हैसियत हासिल कर ली है तथा भाजपा और राजग को जो बहुमत हासिल है उसे देखते हुए मोदी किसी और के सिर दोष नहीं मढ़ सकते। वे नहीं कह सकते कि उन्हें अपना लक्ष्य हासिल करने में किसी ने रोका। यहां तक कि वे किस्मत को भी नहीं कोस सकते क्योंकि वे स्वयं को खुशनसीब घोषित कर चुके हैं। वे विदेश में भाड़े के टट्टुओं को जुटाकर तथा उनसे अपनी जय-जयकार करवाकर अपनी छवि को बेहतर बनाने का प्रयास कर सकते हैं पर साल भर का अनुभव यह बताता है कि किराये की भीड़ से मिलने वाला सम्मान कोई बहुत कारगर साबिन नहीं होता। 
    मोदी सरकार के आने वाले साल भी ऐसे होंगे और इसी में असल खतरा मौजूद है। हालात ऐसे रहने पर मोदी और भाजपा के लिए स्पष्ट होगा कि अगले चुनावों में उनकी नैया पार नहीं लगेगी। उनका हश्र कांग्रेस जैसा भले न हो पर वापस सत्ता में लौटना मुश्किल होगा। 
    ऐसे में मोदी और भाजपा गुजरात के 2002 माडल की तरफ लौट सकते हैं। विकास का गुजरात माडल के असलफ होने के बाद हिंदू साम्प्रदायिकता का गुजरात माॅडल ही एकमात्र रास्ता बचेगा। यह पूर्णतया संघ के एजेंडे के अनुरूप होगा और मोदी द्वारा सुलगाकर रखी गयी आग बहुत सहायक साबित होगी। अमित शाह और मोदी की जोड़ी पूरे देश को साम्प्रदायिकता की धंधकती आग में झौंक सकती है। 
    इस संभावना को रोकने का एक ही तरीका है। बड़े पैमाने पर इसके खिलाफ अभी से एकजुट संघर्ष। कहने की बात नहीं कि यह केवल मजदूर वर्ग के नेतृत्व में बाकी मेहनतकश आबादी को गोलबंद करके ही संभव है। 
बुद्धू बक्सा: सफल पूंजीवादी प्रचारतंत्र
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    जब 1960 के दशक में विकसित पूंजीवादी देशों में बड़े पैमाने पर टी.वी. का प्रसार हुआ तो विश्लेषकों ने इसे ‘‘इडियट बाक्स अथवा बुद्धू बक्सा’’ का नाम दिया। आशय यह था कि टी.वी. के कार्यक्रम इस तरह से बनाये जाते हैं कि वे अपने दर्शकों की सोचने-समझने की क्षमता को कुंद कर देते हैं। वे उसे बुद्धू बना डालते हैं। इस निष्कर्ष में यह निहित था कि इस माध्यम में दर्शकों को प्रभावित करने की बड़ी क्षमता है। पूंजीवादी राजनीति ने इस क्षमता का इस्तेमाल भी किया। 
    भारत में टी.वी. का बड़े पैमाने का प्रसार 1980 के दशक में हुआ पर शहरों में यह घर-घर तक इस नई शताब्दी में ही पहुंच पाया। देहातों में अभी भी इसकी पहुंच सीमित घरों तक ही है। 
    भारत की पूंजीवादी राजनीति में इस टी.वी. की पहुंच ने महत्वपूर्ण फर्क डाला है। खासकर शहरी मध्यम वर्ग के विचारों को खास दिशा में मोड़ने में इसने निर्णायक भूमिका अदा की है। 
    आज भारत की पूंजीवादी राजनीति में टी.वी. क्या भूमिका अदा कर रहा है और उसका देश के राजनीतिक परिदृश्य से क्या सम्बन्ध है, इसे समझने के लिए हाल के कुछ घटनाओं पर नजर डालना फायदेमंद होगा।
    महीने भर में चार ऐसी घटनाएं हुईं जिन्हें टी.वी. समाचार चैनलों में बडे़ पैमाने पर दिखाया। ये थींः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्रा, दिल्ली में जंतर-मंतर पर आम आदमी पार्टी की रैली में एक किसान द्वारा आत्महत्या, नेपाल में भूकंप तथा बम्बइया फिल्म में अभिनेता सलमान खान को सजा। ये घटनाएं बहुत भिन्न किस्म की हैं पर इन सबके समाचार चैनलों द्वारा प्रसारण में मूल स्वर एक ही था। 
    जब मोदी ने हाल की जर्मनी, फ्रांस और कनाडा की यात्रा की तो देश में उनकी हालत खस्ता हो चुकी थी। उनकी सरकार द्वारा उठाये गये कदमों और न उठाये गये कदमों दोनों से धीमे-धीमे यह स्थापित होने लगा था कि चुनावों में मोदी के द्वारा किये गये वादे फर्जी थे, कि ‘अच्छे दिन’ का यदि कोई मतलब था तो यह केवल देश के पूंजीपतियों के लिए था। स्थिति वहां तक पहुंच गयी कि भाजपा के प्रवक्ताओं की भी बोलती बंद होने लगी। ऐसे में चुनावों से पहले से मोदी गान करने में लगे समाचार चैनलों को मोदी की तारीफ करते रहना मुश्किल होने लगा। 
    पर जैसे ही मोदी विदेश यात्रा पर रवाना हुए वैसे ही स्थिति बदल गयी। लगभग सारे ही चैनलों ने एक स्वर से मोदी का गुणगान करना शुरू कर दिया। एक बार फिर ऐसा दिखाया जाने लगा मानो यह सब अभूतपूर्व हो। दर्शकों को यह संप्रेषित किया जाने लगा कि भारत एक बड़ी ताकत बन गया है और इस ताकत के पीछे मोदी हैं। संघ परिवार द्वारा विदेशों में मोदी का स्वागत करने के लिए जुटाई गयी भीड़ को मोदी की बढ़ती लोकप्रियता का प्रमाण घोषित कर दिया गया। विदेशों में मोदी के विरोध को पूर्णतया नजरंदाज किया गया। यहां तक कि विदेशों में मोदी द्वारा पहले की सरकारों की आलोचना पर भी चुप्पी साध ली गयी जबकि विरोधी पार्टियों ने इस पर ऐतराज जताया कि मोदी ने इस परंपरा का उल्लंघन किया कि ‘विदेश में हम एक होते हैं’।
    मोदी की विदेश यात्रा के गुणगान से मोदी की गिरती साख को रोकने का यह एक भौंड़ा प्रयास था। यह कितना सफल हुआ इसका आंकलन होने से पहले ही एक नई घटना सामने आ गयी जिसने इस दिशा में प्रयास का एक और मौका समाचार चैनलों को दे दिया। 
    आम आदमी पार्टी की दिल्ली रैली में जब एक किसान ने आत्महत्या कर ली तो कांगे्रस और भाजपा दोनों को इसे घेरने का मौका मिल गया। सारे समाचार चैनल इसमें आ डटे। हालत यह हो गयी कि आम आदमी पार्टी के एक नेता को, जो कभी स्वयं इसी माध्यम में व इसी भूमिका में थे, बुक्का फाड़कर रोना पड़ा। यह रोना चाहे जितना फर्जी रहा हो पर यह इस बात का संकेत था कि समाचार चैनलों की कृपा से पैदा हुई यह पार्टी इस समय खुद को असहाय पा रही है। इसके नेता ‘मीडिया’ को कोसते हुए इसे ‘मोदिया’ कह रहे हैं और इसके एकछत्र नेता को एक अन्य प्रकरण में सामने आकर कहना पड़ा कि ‘मीडिया’ के बहुत सारे सवालों का जवाब नहीं देंगे। 
    स्वयं अपनी ही संतान के साथ समाचार चैनलों ने यह व्यवहार क्यों किया? इसलिए कि मोदी की गिरती लोकप्रियता के इस दौर में वे किसी केजरीवाल को फिलहाल सामने नहीं आने देना चाहते। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी उनके लिए राहुल व कांग्रेस के बाद तीसरा विकल्प है। वे नहीं चाहते कि यह तीसरा विकल्प उनकी पहली पसंद की गिरती साख को और गिराये या उसका फायदा उठाये। 
    अभी यह सब चल ही रहा था कि नेपाल में भूकंप आ गया। वहां बड़े पैमाने की तबाही हुई और हजारों लोग मारे गये। भारत की मोदी सरकार ने तुरंत इसका फायदा उठाने की सोची। उसने वहां राहत व बचाव कार्य के लिए सेना भेज दी। भारत सरकार को यह पता था कि चीन नेपाल में पांव पसारने के लिए प्रयासरत है और वह नेपाल में भूकंप सहायता के लिए सामने आयेगा। इसके पास पर्याप्त संसाधन भी हैं। 
    भारत सरकार के सहयोग से समाचार चैनल नेपाल जा डटे। वे सेना के हैलीकाॅप्टरों में बैठकर हर जगह पहुंचने लगे और बताने लगे कि भारतीय सेना वहां क्या शानदार कारनामे कर रही है। इन सबमें अनकहा निहित था कि इस सबके पीछे मोदी सरकार और मोदी की ताकत निहित है। यह सब इतना भौंड़े तरीके से और इतने बड़े पैमाने पर हो रहा था कि अंत में नेपाल के लोगों का धैर्य जवाब दे गया। नेपाल में इन चैनलों के खिलाफ प्रदर्शन होने तथा स्वयं नेपाल सरकार की ओर से नकारात्मक विचार प्रकट किया गया। इस तीखी प्रतिक्रिया से भारतीय समाचार चैनलों को समझ में आया परिणाम अब उल्टा होने लगा है और वे मौन हो गये। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पूरे काल में स्वयं भारत में भूकंप से हुए नुकसान की मुश्किल से कोई खबर दी गयी। देश के लोग अभी भी अनभिज्ञ हैं कि देश में कहां कितना नुकसान हुआ। 
    उपरोक्त तीनों ही घटनाओं के राजनीतिक पहलू के साथ इनका सनसनीखेज समाचार का पहलू महत्वपूर्ण था। जहां किसान द्वारा आत्महत्या और भूकंप में सनसनी का यह पहलू अपने आप अंतर्निहित था और उसे महज मिर्च-मसाला लगाकर परोसने की जरूरत थी वहीं मोदी की विदेश यात्रा के मामले में इसे सचेत तौर पर पैदा किया गया। सनसनी का यह पहलू समाचार चैनलों की वह जरूरत है जिनके बिना वे दर्शक विहीन हो जायेंगे। उनके दर्शक सीरियलों, फिल्मों या संगीत के चैनलों की ओर चले जायेंगे। इसीलिए पूंजीवादी राजनीति को सनसनीखेज खबर बना देने के साथ वे ‘चार-सी’ पर भी विशेष ध्यान देते हैं: क्रिकेट, सिनेमा, सेलिब्रिटी और क्राइम। मोदी जैसा राजनीतिज्ञ इसे पहचानकर सेलिब्रिटी राजनीतिज्ञ बन गया है जिसके ‘दस लखिया सूट’ पर गहन चर्चा होती है। 
    सलमान खान राजनीतिज्ञ नहीं है पर वे सेलिब्रिटी जरूर हैं। इसीलिए जब 2002 के सड़क दुर्घटना मामले में उनको सजा सुनाई गयी तो यह खबर भी दो तीन दिनों तक समाचार चैनलों में छाई रही। सलमान खान बम्बइया सिनेमा के लोकप्रिय अभिनेता हैं। उन्होंने 2002 में शराब के नशे में फुटपाथ पर गाड़ी चढ़ा दी जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गयी और चार अन्य घायल हो गये। सलमान खान अपने पैसे और रसूख के बल पर मामले को अदालत में वर्षों तक खींचते रहे। इस बीच उन्होंने सारे हथकंडे अपनाए। पर अंततः जब उन्हें सजा हो गयी तो समाचार चैनलों ने सारे मामले को कुछ इस तरह पेश किया मानो उनके साथ बहुत अन्याय हो गया हो। असल में गुनाह सलमान खान से नहीं बल्कि मरने और घायल होने वालों ने किया था। इस भावना को अभिजीत भट्टाचार्य नामक गायक ने बकायदा जुबान भी दे दी। 
    इस बीच इनमें से किसी को भी फुरसत नहीं थी कि वह मरने और घायल होने वालों की सुध लेकर यह जानने का प्रयास करे कि उनके परिवार वालों पर क्या बीती? यह जानने और बताने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि उस पुलिस कांस्टेबल की क्यों और कैसे मृत्यु हो गयी जो तब सलमान खान की गाड़ी में उनके साथ था और जिसने थाने में रिपोर्ट लिखाई थी। 
    सलमान खान भाजपा में नहीं हैं (हालांकि वे उन चंद बम्बइया सिनेमा कलाकारों में थे जो मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए थे) पर सलमान खान की सजा के प्रति रुख में मूलतः वही भावना कार्य कर रही है जो मोदी गान के पीछे है। 
    सभी पूंजीवादी प्रचार माध्यमों की तरह टी.वी. समाचार चैनलों (मुख्यतः निजी) के दो मुख्य उद्देश्य हैं। एक हित उनका निजी है तथा दूसरा व्यवस्थाजन्य। निजी तौर पर वे ज्यादा से ज्यादा गुनाफा कमाने का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर वे समग्र पूंजीपति वर्ग के हितों को भी साधते हैं। ये हित दूरगामी भी हो सकते हैं और तात्कालिक भी। 
    इनका निजी हित यानी ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने का हित तभी सध सकता है जब इनके ज्यादा से ज्यादा दर्शक हों। इन्हें कितने विज्ञापन मिलेंगे और कितनी कमाई वाले विज्ञापन मिलेंगे, वह इस बात पर निर्भर करता है कि इनके दर्शकों की संख्या कितनी है। इन्हें अपने दर्शक बनाने पड़ते हैं। इसके लिए इन्हें दर्शकों की रुचियों का ध्यान रखना होता है और इसे निर्मित भी करना होता है। 
    आज निजी समाचार चैनलों का दर्शक वर्ग मूलतः मध्यम वर्ग है। इस वर्ग की निश्चित विशेषताएं हैं। समाचार चैनलों ने न केवल इन विशेषताओं के हिसाब से खुद को ढाला है बल्कि इन विशेषताओं को उभारा भी है। इन दोनों के परिणास्वरूप एक खास तरह के दर्शक का निर्माण हो गया है। 
    यह मध्यमवर्गीय दर्शक किसी भी गंभीर चिन्तन से बहुत दूर है और जीवन की एकरसता को भंग करने के लिए सनसनी की तलाश में रहता है। यह अपने निजी जीवन में बहुत उथल-पुथल नहीं चाहता। यह समस्याओं का सरल और तुरंत समाधान चाहता है। यह स्वयं को ही देश मानता है और चाहता है कि देश उसके हिसाब से चले। अपनी शक्तिहीनता के गहरे अहसास के कारण वह हमेशा किसी मसीहा की तलाश में रहता है। सांस्कृतिक तौर पर वह अपनी पृष्ठभूमि से पैदा हुए पूर्वाग्रहों का शिकार होता है और इस आधार वह बहुत तेजी से उन्मादी बन सकता है। 
    यह वर्ग आपादमस्तक उपभोक्तावादी है और पिछले तीन दशकों की देश की आर्थिक नीतियों ने इसके उपभोक्तावाद को खूब पाला-पोसा है। टी.वी. के सारे उपभोक्ता मालों के विज्ञापन इसी के उपयोग वाले मालों के विज्ञापन होते हैं।
    टाइम्स आॅफ इंडिया (अंग्रेजी का सबसे बड़ा अखबार) के एक प्रबंधक सम्पादक ने कहा था कि उसका अखबार विज्ञापन परोसने का एक तरीका भर है। टी.वी. चैनलों के लिए यह उससे भी ज्यादा सच है। अखबार-पत्रिकाओं में उसका पाठक विज्ञापन को नजरंदाज कर सकता है। इसके लिए उसे बस इतना करना होगा कि उस पर ध्यान न दे। पर टी.वी. में ऐसा नहीं हो सकता। वहां विज्ञापन का अंतराल आयेगा ही जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। 
    टी.वी. चैनलों की प्रतिद्वंदिता के चलते उनके लिए यह अधिकाधिक जरूरी होता जाता है कि वे खबरों को ज्यादा से ज्यादा सतही और ज्यादा से ज्यादा सनसनीखेज बनाएं। उससे दर्शकों की संख्या बढ़ती है। यह इस हद तक होता है कि प्रतिद्वंद्विता में उतरा हुआ कोई चैनल यह दावा करने लगे कि वह सनसनीखेज खबरें नहीं बल्कि गंभीर खबरें देता है। 
    सनसनीखेज खबरों की तलाश में ‘चार-सी’ महत्वपूर्ण हो जाते हैं। देश में क्रिकेट और सिनेमा की लोकप्रियता जगजाहिर है। अपराध की घटना अपने आप में सनसनीखेज होती है। जानी-मानी हस्तियों के बारे में झूठी-सच्ची खबरें बहुत आसानी से सनसनीखेज बनाई जा सकती हैं। चूंकि मध्यम वर्ग उबा हुआ, रसहीन जीवन जीता रहता है इसलिए उसके घर के सुरक्षित वातावरण में यह सनसनी एक ऐसी जरूरत बन जाती है जो उपलब्ध होने पर नशे का रूप धारण कर लेती है। चूंकि कोई भी गंभीर चर्चा उसके ऊब भरे, रसहीन जीवन में और थकान पैदा करती है इसलिए वह सनसनी के साथ खबरों को उनके सबसे सतही रूप में पसंद करता है। सतही और सनसनी का बहुत आसानी से संबंध बैठाया जा सकता है। इसीलिए राजनीतिक खबरें ज्यादा से ज्यादा सतही और सनसनीखेज बनती चली जाती हैं, इसी तरह राजनीतिक चर्चाएं भी। आज टी.वी. सीरियलों और समाचार चैनलों में प्रस्तुतीकरण में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। यह मध्यम वर्ग मूलतः उपभोक्तावादी है। ‘इस्तेमाल करो और फेंको वाला’ इसलिए वह समाचारों को भी उपभोक्ता माल की तरह लेता है और चैनल उसे यह उपभोक्ता माल की तरह प्रदान करते हैं। इसमें उसके सारे पूर्वाग्रहों और इच्छाओं-आकांक्षाओं का ध्यान भी नहीं रखा जाता बल्कि उन्हें बढ़ाया भी जाता है। जानी-मानी हस्तियों के जीवन में रुचि अतृप्त इच्छाओं की अभिव्यक्ति है भले ही वह हस्ती वास्तव में कितनी ही घृणित हो। 
    आज यदि सारे समाचार चैनलों पर चीख-पुकार मची रहती है तो वह इसलिए कि इस वर्ग के अंतःकरण में जो दिखता है वह उसे इस शोर-शराबे से भरना चाहता है। वह अपनी ही चुप्पी से घबराकर चैनलों के शोर में घुस जाता है। यह उसी तरह है जैसे वह अपनी राजनीतिक निष्क्रियता को अन्ना आंदोलन में रामलीला मैदान में जाकर ‘मैं हूं अन्ना’ की टोपी पहनकर सक्रियता में बदला मान लेता है। 
    ऐसा नहीं है कि टी.वी. चैनलों ने किसी योजना के तहत यह सब हासिल किया है। सारे पूंजीवादी उद्यमों की तरह यह भी ‘ट्रायल एण्ड एरर’ के जरिये हासिल हुआ है। अभी कुछ साल पहले तक ये चैनल नाग-नागिन और भूत-प्रेत में व्यस्त थे। राजनीति में उन्हें आकर्षक माल नहीं दीख रहा था। पर धीमे-धीमे उन्होंने लय पकड़ी और अब वे राजनीति को भी उपभोक्ता माल की तरह परोसना सीख गये हैं। इसके अनुरूप उन्होंने दर्शकों का निर्माण कर लिया है। 
    जहां तक इनके दूसरे उद्देश्य का प्रश्न है वह भी हमेशा इनकी नजर में होता है। टी.वी. समाचार चैनलों में भूले से भी ऐसी कोई खबर या चर्चा सामने नहीं आ सकती जो पूंजीवाद विरोधी या पूंजीपति वर्ग विरोधी हो। इस मामले में इनका सेंसर सौ प्रतिशत चैकस रहता है। 
    पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में इनकी अपनी विकल्प की कुछ गुंजाइश है। इस विकल्प के पीछे चैनलों के मालिकांे की राजनीतिक निष्ठा और गुणा-भाग से लेकर दर्शकों के अलग-अलग हिस्सों की पसंदगी का मामला भी रहता है। मसलन कुछ चैनल खुलेआम संघ समर्थक हैं जबकि कुछ नहीं। एकाध चैनल को वाम की ओर झुका हुए देखते हैं। 
    लेकिन इन मामलों में ये बेहद सचेत होते हैं और सावधानीपूर्वक खबरों और चर्चाओं का चयन करते हैं। किस पार्टी और किस नेता को, कितना और किस रोशनी में पेश करना है, इसमें वे कुछ भी स्वतःस्फूर्तता पर नहीं छोड़ते। इसमें एंकरों और खबरनवीसों की नहीं चलती। कईयों के बारे में इस बात के लिखित प्रमाण हैं कि उनके निजी विचारों और चैनलों पर उनके द्वारा प्रस्तुत विचारों में बड़ा फर्क मौजूद हो सकता है। 
    इन्हीं सब का नतीजा था कि केजरीवाल एण्ड कंपनी जैसे छुटभैय्यों द्वारा अन्ना हजारे जैसे जमूरे को सामने कर खड़ा किया भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक देशव्यापी आंदोलन बना दिया गया तथा उससे निकली आम आदमी पार्टी को स्थापित कर दिया गया। इसी का नतीजा था कि नरेंद्र मोदी को एक अभियान चलाकर स्थापित किया गया और दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया। इसी कारण अभी भी उनकी गिरती साख को गिरने से रोकने का प्रयास किया जा रहा है।
    पूंजीवाद के इस दौर में पूंजीवादी प्रचारतंत्र, उसके समग्र ताने-बाने का एक हिस्सा है। स्वयं पूंजीपति वर्ग उसे अपनी व्यवस्था का एक स्तंभ कहता भी है। यह वह स्तंभ है जो अपने प्रचार की शक्ति के द्वारा पूंजीवाद को मजबूती प्रदान करने की कोशिश करता है और इस बीच अपने मालिकों के लिए मुनाफा कमाता है। एक निश्चित सीमा तक वह अपने प्रचार अभियान में सफल भी होता है। 
    पर जब जिंदगी की गति इस प्रचार के सामने खड़ी होती है यह प्रचार धरा का धरा रह जाता है। इसीलिए तात्कालिक तौर पर पूंजीपति वर्ग इन माध्यमों का चाहे जितनी कुशलता से इस्तेमाल कर सफलता हासिल करे पर दूरगामी तौर पर वह धराशाई हो ही जायेगा। 

भारत का वर्तमान कृषि संकट
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    आम आदमी पार्टी की 22 अप्रैल को हुई जंतर-मंतर (दिल्ली) पर किसान रैली में एक किसान द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या करने के मामले ने कृषि संकट को चर्चा में ला दिया है। इस सनसनीखेज घटना ने पूंजीवादी प्रचार माध्यमों से लेकर संसद तक हर जगह किसान और उसकी समस्याओं पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू कर दिया है। पूंजीपति वर्ग के इस गुल-गपाडे से कृषि संकट पर रोशनी पड़ने के बदले इस पर रहस्य की और भी मोटी चादर पड़ गयी है। 
    भारत का कृषि संकट नया नहीं है। कम से कम दो दशकों से इस पर बुद्धिजीवी हलकों में चर्चा चल रही है। जब 1990 व 2000 के दशक में कृषि में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि पर एक-दो प्रतिशत के आस-पास सिमटने लगी तो यह इस पर नजर रखने वालों के लिए गंभीर चिंता का कारण बन गया। यहां तक कि सरकार द्वारा एम.एस.स्वामीनाथन की सदारत में इस कृषि संकट से निजात पाने के लिए एक आयोग का भी गठन किया गया। 
    और भी पहले जायें तो 1960 के दशक के मध्य में कृषि संकट का सवाल जब जोरों से उठ खड़ा हुआ था जब देश में गंभीर खाद्यान्न संकट पैदा हो गया। तब अमेरिकी साम्राज्यवादियों से बेहद अपमानजनक शर्तों पर खाद्यान्न का आयात करना पड़ा था। उसके तुरंत बाद ही देश में हरित क्रांति की शुरूआत की गयी। 
    इस संकट की एक स्वीकारोक्ति संघी प्रधानमंत्री मोदी ने 23 अप्रैल को लोकसभा में की जब उन्होंने कहा कि किसानों की हालत के लिए पिछली सरकारें और वर्तमान दस महीने की सरकार सभी दोषी हैं। इस बड़बोले ने यह स्वीकारोक्ति इसलिए की कि चारों ओर से घिरी मोदी सरकार के लिए कोई और रास्ता नहीं बचा था। 
    वर्तमान कृषि संकट की अनेक अभिव्यक्तियां हैं। किसानों द्वारा आत्महत्याएं इनमें से एक हैं। पर इस संकट को सही परिपे्रक्ष्य में समझने के लिए यह जरूरी है कि पूंजीवादी समाज में कृषि की सामान्य गति को ध्यान में रखा जाये। 
    मानव सभ्यता की शुरूआत से लेकर पूंजीवादी समाज की पैदाइश तक खेती प्रमुख पेशा रही है। इसी के समानान्तर लगातार आबादी भी देहाती रही है। यहां तक कि रोम साम्राज्य का रोम जैसा शहर विशाल देहाती आबादी पर निर्भर था। 
    पर पूंजीवाद के विकास के साथ यह सब बदल जाता है। पहले तो पूंजीवाद का विकास ही बड़े पैमाने पर किसानों को उनकी जमीनों से उजाड़ने से शुरू होता है। (खासकर इंग्लैण्ड में ऐसा हुआ था) जिससे एक ओर मैनुफैक्चरिंग उद्योग में काम करने के लिए मुक्त आबादी पैदा होती है तो दूसरी ओर इसके लिए कच्चा माल मुहैय्या करने के लिए पूंजीवादी फार्म पैदा होते हैं। लेकिन एक बार पूंजीवादी उत्पादन शुरू हो जाने के बाद किसानों की तबाही दूसरी तरफ से होने लगती है। खेती में पूंजीवादी उत्पादन की प्रतियोगिता में बड़ी खेती के सामने छोटी-मझोली खेती टिक नहीं पाती। छोटे-मझोले किसान बर्बाद होने लगते हैं और वे बर्बाद होकर मजदूरों की पातों में शामिल होने लगते हैं। 
    छोटे-मझोले किसानों की बर्बादी और खेती का केन्द्रीयकरण खेती में मशीनों के आगमन के साथ बहुत तेज गति से होने लगता है। यूरोप-अमेरिका में खेती में स्वचालित मशीनों का इस्तेमाल प्रमुखतः बीसवीं सदी की शुरूआत से हुआ और इस सदी के मध्य से यह विशाल पैमाने पर जा पहुंचा। संयुक्त राज्य अमेरिका में बीसवीं सदी की शुरूआत में देहाती आबादी पचास प्रतिशत से ज्यादा थी जो सदी का अंत होते-होते लगभग शून्य हो गयी। आज वहां खेती में महज दो प्रतिशत आबादी काम करती है। यूरोप-अमेरिका के ज्यादातर देशों में शहरी आबादी 75 प्रतिशत से लेकर 90 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा है। 
    खेती के इस हस्र में उद्योग और खेती के सम्बन्ध को भी याद रखना होगा। पूंजीवादी विकास का यह सामान्य नियम है कि इसमें उद्योग के मुकाबले कृषि पिछड़ती जाती है तथा उद्योग कृषि का दोहन करता है। पूंजीवादी व्यवस्था में बड़े औद्योगिक या वित्तीय पूंजीपति ही व्यवस्था के नियामक होते हैं। उद्योग में लगी पूंजी भी ज्यादा उत्पादक होती है क्योंकि उसकी उत्पादकता विज्ञान और तकनीकी के विकास से लगातार बढ़ाई जा सकती है। जबकि कृषि की उत्पादकता प्रकृति पर निर्भरता के कारण सीमित गति से बढ़ती है। कुल जमीन का रकवा तो सीमित है ही। पूंजीवाद में ज्यादा उत्पादकता वाली पूंजी बाजार के माध्यम से कम उत्पादकता वाली पूंजी से मुनाफा खींच लेती है। इस दोहन का सबसे बुरा असर छोटी-मझोली खेती पर पड़ता है। 
    यूरोप और अमेरिका में जब खेती के पूंजीवादीकरण के बाद उसमें केन्द्रीयकरण हुआ तथा छोटे-मझोले किसान बर्बाद हुए तो उस वेशी आबादी को दो तरह से खपाया गया एक तो लगातार फैलते उद्योग और सेवा क्षेत्र में इस वेशी आबादी को रोजगार मिला। दूसरे, एक बड़ी आबादी उन देशों में चली गयी जो बेहद कम आबादी वाले आदिवासी समूहों से बसे हुए थे। उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका तथा आस्टेªलिया और न्यूजीलैण्ड ऐसी ही जगहें हैं। यदि यूरोप की वेशी आबादी को जाने के लिए ये जगहें न होतीं तो आज यह कहना मुश्किल है कि यूरोप और फिर दुनिया का इतिहास क्या होता। 
    भारत समेत तीसरी दुनिया के देशों में जो साम्राज्यवादियों के, अतीत में गुलाम थे उपरोक्त प्रक्रिया बदले हुए रूप में तथा बाद में घटी और उसके एक परिणाम को हम आज कृषि संकट के रूप में देख रहे हैं। 
    जब अंग्रेज भारत आये तो भारत की खेती सामंती जमाने के ठहराव की शिकार थी। अंग्रेजों ने कुछ कच्चे मालों के उत्पादन के लिए इसमें जो पूंजीवादी विकास के बीज डाले वे भी इसके ठहराव को नहीं तोड़ सके। इसका मूल कारण जमीन का गैर उत्पादक लोगों के हाथों में होना तथा किसान की उन पर निर्भरता थी। 
    जब आजादी की लड़ाई में कांग्रेस पार्टी ने किसानों का साथ लिया तो उसने किसानों से सबसे बड़ा वादा ही यह किया कि किसानों को इन जोंकों से मुक्ति दिलाई जायेगी। एक वर्ग के तौर पर किसान देश की सबसे बड़ी आबादी थे और कांग्रेस पार्टी के मुख्य आधार। 
    लेकिन जब 1947 में कांग्रेस पार्टी ने देश की बागडोर संभाली तो वह किसानों से किये गये अपने वादे से मुकर गयी, उसने जमीन और खेती का मसला प्रदेश सरकारों के जिम्मे डाल दिया। देश में जो जमींदारी उन्मूलन और मध्यस्थता उन्मूलन कानून बनाये गये तथा लागू किये गये उनका सबका यह परिणाम निकला कि ज्यादातर किसान पहले की तरह ही जमीनों से वंचित रहे। जमीनों का जमीन जोतने वालों के बीच वितरण नहीं के बराबर हुआ। पूंजीपति वर्ग की सरकार ने तय किया कि खेती में जमीन के पुनर्वितरण के बदले पुराने भूस्वामियों को ही आधार बनाकर खेती का पूंजीवादीकरण किया जाये। इस नीति को अपनाने का मूल कारण वह जो किसी भी तरह के क्रांतिकारी भूमि सुधार के समूची व्यवस्था के खिलाफ चले जाने की आशंका से पैदा होता था। बिना क्रांतिकारी भूमि सुधार के खेती का पूंजीवादीकरण एक समस्याग्रस्त चीज थी और इसने जल्दी ही दस तरीके से स्वयं को अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया। इसकी सबसे विस्फोटक अभिव्यक्ति 1960 के दशक के मध्य में खाद्यान्न संकट में हुई जिसने एक राजनीतिक संकट का रूप ले लिया। 
    इस संकट से उबरने के लिए भारत के पूंजीपति वर्ग ने अमेरिकी साम्राज्यवादियों की शरण ली। तात्कालिक तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने बेहद अपमानजनक शर्तों पर भारत को गेहूं का निर्यात किया तथा दूरगामी तौर पर उन्होंने भारत की खेती में हरित क्रांति की शुरूआत करवाई। 
    हरित क्रांति का मतलब था बड़े भूस्वामियों को आधार बनाकर खेती का आधुनिकीकरण करना। खेती में बड़े पैमाने पर मशीनों, रसायनिक खादों तथा कीटनाशकों और संवर्धित बीजों का इस्तेमाल इसमें प्रमुख था। इसी के साथ इनके कृषि उत्पादों की बिक्री का प्रबंध करना था तथा किसी हद तक विदेशी प्रतियोगिता से इनकी रक्षा भी। इसमें आने वाली लागत के लिए सरकारी निवेश व सब्सिडी से लेकर सार्वजनिक बैंकों के द्वारा इस क्षेत्र को पर्याप्त ऋण उपलब्ध कराना भी शामिल था।
    इस सबमें अमेरिकी साम्राज्यवादियों के हित दो थे। एक तो उनकी कृषि आगतों वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इससे भारत का कृषि आगत बाजार हासिल होना था। दूसरे इससे भारत के विस्फोटक कृषि संकट के परिणामस्वरूप समाजवाद की ओर जाने का खतरा भी टल जाता था। 
    हरित क्रांति का भारत की कृषि पर दूरगामी प्रभाव पड़ा- सकारात्मक और नकारात्मक दोनों। इसके जरिये कृषि में उत्पादकता शुरूआत में तेजी से बढ़ी। इसके परिणास्वरूप कुछ साल बाद खाद्यान्न आयात की समस्या से निजात मिल गयी। इसके जरिये खेती में पूंजीवादी संबंधों का भी तेजी से प्रसार हुआ तथा हरित क्रांति के क्षेत्रों में कुछ समय बाद देशी आबादी की समस्या पैदा होनी शुरू हुई। हरित क्रांति के एक प्रमुख क्षेत्र पंजाब में इसने एक विकृत अभिव्यक्ति खालिस्तानी आंदोलन में पायी। आज भी पंजाब से लगातार बड़ी आबादी का विदेशों में पलायन हो रहा है।               
    हरित क्रांति का प्रसार पूरे देश में एक साथ नहीं हुआ। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा देश के तटीय क्षेत्रों से शुरू कर यह देश के अन्य क्षेत्रों में क्रमशः फैलती गई। अलग-अलग क्षेत्रों के कृषि उत्पादकता में बदलती वृद्धि दर या कृषि की वृद्धि दर में इसे देखा जा सकता है। यदि हाल के सालों में बिहार या मध्य प्रदेश में कृषि वृद्धि दर पर ज्यादा रही है तो इसे इसी से समझा जा सकता है। 
    लेकिन समग्र भारत के तौर पर देखें तो हरित क्रांति का जीवनकाल डेढ़-दो दशक से ज्यादा नहीं रहा है। यानी पंद्रह-बीस साल बाद हरित क्रांति से होने वाले लाभ के बदले इससे पैदा होने वाली समस्याएं प्रमुख बनने लगती रही हैं। इसीलिए समग्र तौर पर 1990 के दशक में चारों ओर इन समस्याओं पर चर्चा आम होने लगती है। 
    हरित क्रांति की सबसे पहली समस्या तो उत्पादकता वृद्धि में ठहराव है। कुछ समय बाद ही उत्पादकता में वृद्धि दर बहुत धीमी हो जाती है और खाद व कीटनाशकों के लगातार बढ़ते पैमाने पर उपयोग के बावजूद धीमी बनी रहती है। वह किसानों द्वारा लगातार बढ़ते पूंजी निवेश पर घटती आय के रूप में प्रकट होती है। और यह सब वैश्विक पैमाने पर उत्पादकता के मुकाबले बहुत नीची दर पर होता है जबकि देश की जमीन और मौसम विश्व में श्रेष्ठता में से एक है। 
    घटती उत्पादकता वृद्धि दर को बढ़ाने के लिए और बड़े पैमाने के रसायनिक खादों और कीटनाशकों ने खेती की जमीन की उर्वरता को बहुत बुरी तरह प्रभावित किया है। ज्यादातर जमीन की प्राकृतिक उर्वरता नष्ट हो गयी है। उसमें सैलेनिटी काफी बढ़ गयी है। इसमें एक बड़ा कारक खेती में बड़े पैमाने पर नहरों के पानी का इस्तेमाल भी है। 
    खेती में बड़े पैमाने पर पानी के इस्तेमाल ने हरित क्रांति के इलाकों में भूगर्भ के जलस्तर को बहुत नीचे कर दिया है। एक ओर जहां यह खेती की लागत को बहुत बढ़ाता है वहीं यह पानी के जहरीले होने की समस्या भी पैदा करता है। 
    हरित क्रांति का यह हश्र वर्तमान कृषि संकट का एक पहलू हैं यह मूलतः तकनीकी पहलू है। भारत के पूंजीपति वर्ग ने हरित क्रांति के रूप में खेती के अपनी संकट का एक तकनीकी हल ढूंढा था। यह तकनीकी समाधान वक्त के साथ अपनी तार्किक परिणति तक पहुुंच गया और अब समाधान के बदलते समस्या बन गया है। 
    कृषि संकट का दूसरा पहलू राजनीतिक है। हरित क्रांति देहातों के बड़े भूस्वामियों को केंद्रित कर शुरू की गयी थी। इसका उन्हें काम भी मिला। वे पूंजीवादी फार्मरों में रूपांतरित हो गये। इसी के साथ वक्त के साथ पिछड़ी जातियों के भूमिधर किसानों से धनी किसानों और कुलकों का एक नया वर्ग भी पैदा हुआ। हरित क्रांति के ठहराव का शिकार हो जाने पर देहातों के इस धनिक वर्ग ने खेती से बाहर भी अपना विस्तार किया। यातायात से लेकर कृषि आगतों के भंडारण और व्यापार तथा सूदखोरी से लेकर ठेकेदारी तक इसने अपने व्यवसाय का विस्तार किया। आज सारी क्षेत्रीय पार्टियों का प्रमुख आधार यही देहाती धनिक वर्ग है जो देहातों में शासक और शोषक वर्ग भी है। 
    दूसरी ओर खेती में लगी छोटी-मझोली किसान आबादी को इस तरह की कोई न केवल संभावना हासिल नहीं है बल्कि वह इस देहाती शोषण वर्ग की शिकार भी है। आज छोटी-मझोली किसानी जिस कर्ज संकट की शिकार भी है वह पुराने सूदखोरों का कारनामा नहीं है। इसी तरह कृषि आगतों और कृषि विक्रय केंद्रों पर भी इसी शोषक आबादी का कब्जा है। सारी सरकारी राहतें यही देहाती धनिक वर्ग हड़प जाता है। 
    इस तरह छोटी-मझोली किसानी केवल बाजार की प्रतियोगिता की शिकार नहीं हो रही है। बल्कि सीधे इस शोषण का शिकार भी हो रही है। उसकी तबाही में बाजार की अदृश्य शक्तियों के साथ इसका भी बड़ा हाथ है। 
    हरित क्रांति के हस्र तथा देहाती वर्गीय संरचना के साथ-साथ वर्तमान कृषि संकट का एक बाहरी आयाम भी है। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के समय से ही भारतीय कृषि को क्रमशः विश्व बाजार के लिए खोला गया। बाहर खासकर साम्राज्यवादी देशों द्वारा बड़ी सरकारी सब्सिडी प्राप्त कृषि उत्पादों को देश में आने की छूट दी गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि छोटी-मझोली किसानी और भी तबाही की ओर बढ़ी। जहां पूंजीवादी फार्मरों और धनी किसानों ने इससे कुछ फायदा उठाया वहीं इसका देश के भीतर सबसे ज्यादा फायदा कृषि उत्पादों के आयातकों और निर्यातकों ने उठाया। सरकारों ने खेती पर सब्सिडी कम की पर इन निर्यातकों पर सब्सिडी बढ़ा दी। 
    विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के तहत खेती पर दबाव खेती के लिए सरकारी सब्सिडी में कटौती के जरिये भी बढ़ा। इसी के साथ खेती में सरकारी पूंजी निवेश तथा सार्वजनिक बैंकों द्वारा इस क्षेत्र को ऋण देने से आनाकानी से भी इस पर दबाव बढ़ा। स्वभावतः ही इसका सबसे बुरा परिणाम छोटे-मझोले किसानों को ही झेलना पड़ा। 
    यह स्पष्ट है कि वर्तमान कृषि संकट के लिए देश की सारी पूंजीवादी पार्टियां जिम्मेदार रही हैं क्योंकि उन्होंने मूलतः एक ही नीति का पालन किया है। क्षेत्रीय पार्टियां भी इसकी जिम्मेदार हैं क्योंकि पूंजीवादी फार्मरों और कुलकों, धनी किसानों के हितों की रक्षा के अलावा इन्होंने जो कुछ भी किया वह छोटी-मझोली किसानी के हितों के खिलाफ ही था। 
    उपरोक्त से स्पष्ट होता है कि भारत के कृषि संकट का आम चरित्र जहां एक ओर समूची कृषि से संबंधित है वहीं वह विशेषकर छोटी-मझोली किसानी से संबंधित है। वर्तमान कृषि संकट मूलतः छोटी-मझोली किसानी का ही संकट है। 
    भारत के पूंजीपति वर्ग ने वर्तमान कृषि संकट से उबरने के लिए दूसरी हरित क्रांति का शिगूफा उछाला है। पहली हरित क्रांति की तरह यह भी तकनीक आधारित है और मूलतः पूंजीवादी फार्मरों और कुलकों-धनी किसानों को अपना लक्ष्य लगती है। इसमें सिंचाई से लेकर परंपरागत फसलों के बदले सब्जी, फल तथा फूलों के उत्पादन पर प्रमुख जोर है। इसी के साथ कृषि उत्पादों के वितरण के लिए निजी कंपनियों की श्रृंखला भी है। यह खेती के कारपोरेटीकरण की दिशा में कदम है। 
    भारत के पूंजीपति वर्ग की यह दूसरी हरित क्रांति कारपोरेटीकरण द्वारा कृषि संकट का समाधान है। यह कितनी कारगर होती है यह तो भविष्य ही बतायेगा पर इतना तय है कि यह छोटी मझोली किसानी की तबाही पर निर्भर है। यानी इसके द्वारा छोटे-मझोले किसानों की तबाही और भी बड़े पैमाने पर होगी।   
    भारत के वर्तमान हालत में इस समाधान की भयावहता का अंदाज लगाया जा सकता है। जब उद्योग में रोजगार में वृद्धि दर अत्यन्त धीमी हो और सेवा क्षेत्र में हालत कोई बेहतर न हो इस विशाल आबादी की तबाही से पैदा होते हालात बेहद संगीन होंगे। यह एक ओर देहातों में कंगाली को तेजी से बढ़ायेगी तो दूसरी ओर शहरों में मजदूरों पर बेरोजगारों का दबाव बनाकर उनकी मजदूरी भी कम करेगी। यानी शहर और देहात दोनों जगह कंगाली तेजी से बढ़ेगी। तब शायद आज की आत्महत्याएं बेहद मामूली घटनाएं लगने लगे। 
    भारत के वर्तमान कृषि संकट का, खासकर छोटी-मझोली किसानी की तबाही का पूंजीवाद के भीतर कोई हल नहीं है। वह तो इस संकट को बढ़ायेगा। इस संकट का एकमात्र समाधान पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे में है। इसके लिए मजदूर वर्ग के नेतृत्व में छोटे-मझोले किसानों की गोलबंदी जरूरी है। छोटी खेती से चिपटे छोटे-मझोले किसानों को निजी सम्पत्ति के उन्मूलन की बात आज चाहे जितनी अटपटी लगे पर उन्हें यह समझना ही होगा कि उनकी मुक्ति इसी में है। हां, तब तक इस पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर उनकी बेहतरी के लिए या हालत और ज्यादा बदतर हो जाने को रोकने के लिए उनके द्वारा किये जाने वाले संघर्ष में मजदूर वर्ग उनका साथ देगा। 
किसान आत्महत्यायें: रास्ता इधर है
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    बेमौसमी बारिश और ओलावृष्टि ने उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्सों में कहर बरपाया हुआ है। गेहूं, सरसों आदि फसलों की बरबादी देख या तो किसान आत्महत्या कर रहे हैं या फिर सदमे में दम तोड़ रहे हैं। निराश किसानों का एक ओर जीवन समाप्त करने का सिलसिला थम नहीं रहा है तो दूसरी ओर शेष किसान आबादी का जीवन बहुत मुश्किल होता जा रहा है। 
    आखिर आत्महत्या या सदमें में दम तोड़ते ये किसान कौन हैं? क्या ये धनी किसान या फार्मर है? नहीं पूंजीवादी फार्मर व धनी किसान इस प्राकृतिक आपदा से परेशान तो है पर लाभ कम होने के कारण। इस कारण से आत्महत्या नहीं करते और न ही इन्हें इसकी जरूरत है। उनके पास पुरानी बचत व इतने संसाधन होते हैं कि वे उसी पुराने पैमाने पर अपनी खेती कर सकें। उन्हें इसके लिए किसी सूदखोर के पास जाने की जरूरत नहीं है और न ही इसकी ऐसी स्थिति होती है कि वे अपनी देनदारियां न अदा कर सके। उन्हें न केवल बैंकों से कर्ज उपलब्ध है बल्कि फसल बीमा का लाभ लेने में भी सक्षम हैं। 
    आत्महत्या करते या सदमे में दम तोड़ने वाले आमतौर पर गरीब किसान व मंझौले किसान है। पिछला साल इनके लिए बड़ी त्रासदी लेकर आया है। जून-जुलाई में मानसूनी बारिश न होने के कारण धान की रोपाई व अन्य फसलों की बुवाई या तो कम हुई थी और जिन्होंने कर भी दी थी उन्हें भी फसल कटने तक इसमें काफी लागत लगानी पड़ी। और अब बेमौसमी बारिश व ओलावृष्टि ने सब कुछ साफ कर दिया। इस प्रकार अगली फसल अमूमन, 6 महीने बाद काटी जा सकेगी। वह भी तब जब प्रकृति मेहरबान रही तो। जाहिर है गरीब व मझौले किसान परिवारों के लिए सामान्य तौर पर इस संकट को झेल पाना मुश्किल हो रहा है। बिना आमदनी के सूदखोरों व अन्य वित्तीय संस्थानों का कर्ज वापसी का दबाव इसमें कोढ़ में खाज का काम कर रहा है। 
    गरीब व मझौले किसानों के संकट को बढ़ाने वाले ये तात्कालिक कारण भर हैं। प्रकृति की मार भी सब पर एक सी नहीं पड़ती। फार्मर व धनी किसान न सिर्फ इन प्राकृतिक आपदाओं से ज्यादा प्रभावित नहीं होते वरन् वे इसका फायदा भी उठाते हैं। खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतें एक ओर इनकी जेब में ज्यादा पैसा पहुंचाती है तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक व राजनीतिक पहुंच का इस्तेमाल कर वे सरकारी इमदाद का भी मुख्य हिस्सा डकार जाते हैं। कृषि के अतिरिक्त अन्य सहयोगी आर्थिक गतिविधियां इनको वह आर्थिक लचीलापन प्रदान करती हैं कि गरीब व मझौले किसानों की बुरी हालत का वे भरपूर फायदा उठा सकें।
    परन्तु सामान्य तौर पर मझौले किसानों और विशेष तौर पर गरीब किसानों के साथ प्रकृति का व्यवहार ज्यादा खतरनाक हो जाता है। या यूं कहें कि पूंजीवादी व्यवस्था में गरीब किसानों व मझौले किसानों की अर्थव्यवस्था में इतना दम नहीं रह जाता कि वे प्रकृति की मार का सामना कर सकें। पूंजीवादी व्यवस्था में छोटी व मझौली खेती पर दबाव इतना ज्यादा होता है कि अन्य कोई भी कारक जो खेती को नुकसान पहुंचाता हो, छोटी व मझौली खेती के मालिकों को तबाह-बरबाद कर जाता है। 
    गरीब व मझौला किसान अपनी तबाही-बरबादी का कारण प्रकृति को समझ बैठता है। प्रचार माध्यम, सरकारें व राजनीतिक दल किसानों की इन श्रेणियों की बरबादी तबाही को इन परिस्थितियों मे मसलन बाढ़, सूखा, ओलावृष्टि आदि को ही प्रचारित करते हैं। इस प्रकार किसानों की ये श्रेणियां अपनी तबाही-बरबादी के पीछे छिपे असली कारणों को कभी नहीं पहचान पातीं। 
    दरअसल गरीब व मझौले-किसानों की इन मौतों का तात्कालिक कारण भले ही बेमौसमी बारिश व ओलावृष्टि हो परन्तु इसके वास्तविक कारण ये नहीं हैं और आज के इस पूंजीवादी वैभव के युग में ये हो भी नहीं सकते। अगर छोटी किसानी की लढि़या/बुग्गी पहले ही हिचकोले नहीं खा रही होती तो वे निराशा में भरे नहीं रहे होते। इस देश का किसान और विशेषरूप से गरीब व मझौला किसान इतना कमजोर तो न था कि उसे मौत को गले लगाना पड़े। दुःख, अभाव, वंचना, मुश्किलें, यंत्रणा, तकलीफें ये ऐसे शब्द नहीं थे जो हमारे किसानों को मौत की नींद सुला देते। ये तो उसे अपने अतीत से विरासत में मिलते रहे थे। सदियों से इन खेतिहर समूहों की परवरिश तो इन्हीं परिस्थितियों में हुई थी। सदियों से इस देश का किसान बहुत ही बहादुरी के साथ इन हालात का सामना करता आया था। प्रेमचंद के हलकुओं को जब ब्रितानिया हुकूमत और जमींदारों का जुल्म न डिगा सका तो वे आज इतने कमजोर कैसे हो सकते हैं?
    शायद वे इतने निराश पहले कभी भी न थे, तब भी नहीं जब जमींदारों और अंग्रेजों के दोहरे जुए के तले वे पिस रहे थे। शायद तब उन्हें अपनी गरीबी, वंचना, अभाव और पीड़ा के कारण के तौर पर अपना जमींदार या सूदखोर नजर आता था। परन्तु इस पूंजीवादी व्यवस्था में किसान अपनी बर्बादी व तबाही का कारण किसे माने? यहां न तो जमींदार है और न ही ब्रितानिया हुकूमत। हां, सूदखोर जरूर हैं परन्तु वे भी पहले जैसे नहीं। 
    बदलते जमाने के साथ किसान समुदाय भी बदल गया। गरीब और मझौले किसान की जमीन अदृश्य शक्तियों द्वारा छीनी जाने लगी। जिस जमीन से उसकी पहचान व उसका अस्तित्व जुड़ा था, जो उसकी आजीविका का मुख्य जरिया थी, वह जमीन ही अब उसकी बेबसी, लाचारी, अंतहीन गरीबी, भूख व वंचना का कारण बन रही थी। हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी जमीन उसकी बुनियादी जरूरत भी पूरी न कर पा रही थी। खेती के पुराने तरीके अब अतीत की बात थी। नये तरीकों ने खेती में भारी निवेश को जरूरी बना दिया। बीज, खाद, पानी, श्रम, मशीनरी, कीटनाशकों के भारी प्रयोग ने खेती की उत्पादकता को जितना बढ़ाया उससे कहीं ज्यादा उसमें लगने वाली लागत बढ़ गयी। खेती अब आजीविका का जरिया मात्र न थी। वह एक व्यवसाय बन गयी। और इस व्यवसाय में जो भारी निवेश करेगा वह फायदा उठायेगा और जो खेती में लगने वाली लागत का बोझ नहीं उठायेगा, जमीन उसे धरती से अलविदा करवाने की तरफ ले जायेगी। 
    जमीन में जो भी लागत लगायी जाती है वह व्यक्तिगत है इसलिए व्यक्तिगत तौर पर किसान की क्षमता पर यह निर्भर करता है वह हर नये साल में खेती पर निवेश कर पायेगा या नहीं। जाहिरा तौर पर गरीब व मझौले किसान में यह क्षमता धनी व कुलकों की तुलना में बहुत कम होती है। इसलिए इस निवेश को करने के लिए गरीब व मझौले किसान को सूदखोर या अन्य वित्तीय संस्थाओ के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। गरीब लोग पहले भी अपनी पारिवारिक व अन्य जरूरतों के लिए समय-समय पर ऋण लेते रहे थे और वे संकट में फंसकर या तो जमीन से बेदखल हो जाते थे या फिर मजदूर बनकर शेष जीवन गुजारते थे। परन्तु गरीब व मझौले किसानों की वर्तमान तबाही-बरबादी में ‘‘पूंजी निवेश’’ एक ऐसा तत्व जुड़ गया है जो उसे हर बार जुताई-बुवाई के समय सरकारी व गैर सरकारी वित्तीय संस्थाओं तथा सूदखोरों के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर देती है और फसल तैयार होने पर वह ऋण अदायगी भी करता है और नयी फसल की तैयारी के लिए फिर वही प्रक्रिया दोहराता है। हालांकि इस प्रक्रिया में भी दलाल व सरकारी कर्मचारी अपना कमीशन लेते रहते हैं।
        इस प्रकार ऋणग्रस्तता के इस चक्रव्यूह में फंसे किसान पर जब भी प्राकृतिक या पारिवारिक मुश्किल आती है तब उसके पास जिंदा रहने के अपने साधन जमीन को बेचने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह जाता है। ये गरीब व मझौले किसान इस प्रकार अपनी जमीन से हाथ धो बैठते हैं और मजदूर बन जाते हैं। किसान से मजदूर में रूपांतरण की यह प्रक्रिया लंबी, दुरूह और बहुत ज्यादा मुश्किलों से भरी होती है। केवल इतना ही नहीं आमतौर पर बढ़ती महंगाई व अन्य आर्थिक कारक भी उसे उसकी जमीन से बेदखली की ओर ले जाते हैं। जमीन का बंटवारा और पुनः बंटवारा भी गरीब और मझौले किसानों को उपरोक्त की ओर ही धकेलती है।
    छोटी किसानी के मालिकों की इस तबाही-बर्बादी की दासता इसलिए और भी भयानक त्रासदी का रूप धारण कर लेती है क्योंकि अपनी जमीन से पूंजी की शक्तियों द्वारा बेदखल कर दिये गये ये लोग कहां जायें। उद्योग में श्रमिकों की मांग में बढ़ोतरी न होने के कारण शहरों में इन्हें रोजगार भी नहीं मिलता और मिलता भी है तो रोज अक्सर नहीं। अक्सर ही टिफिन, श्रम बिक्री अड्डों पर ही खाली कर पुनः घर वापसी करनी पड़ती है। 
    इतना ही नहीं पूंजीवादी सरकारें जैसे-जैसे डीजल, खाद पर सब्सिडी कम करती आ रही है वह गरीब व मझौले किसानों को ओर भी मुश्किल में डाल रहीे है। इन गांव के गरीबों के लिए पहले सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत भी सुविधाएं विशेष प्राप्त थीं वे भी क्रमशः छीनी जा रही है। शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ते निजीकरण ने भी बर्बादी में अपनी भूमिका अदा की है। निर्बाध रूप से बढ़ते इलाज के खर्चे ने इस आबादी की कमरतोड़ कर रख दी है। 
    यहां गौरतलब यह भी है कि किसानों के नाम पर जो मदद केन्द्र व राज्य सरकारें करती हैं उसका भी फायदा इन गरीब व मझौले किसानों को कोई खास नहीं मिलता। वे न तो भारतीय खाद्य निगम में अपना अनाज बेचने में खास सफल होते हैं और न ही सरकारी गन्ना मिलों तक अमूमन उनके खेत का गन्ना पहुंचता है। गांव-गांव तक बिचैलियों व सरकारी अधिकारियों का ऐसा जाल बिछ चुका है कि आमतौर पर इनके जाल को तोड़कर अपना उत्पाद बेच पाना इन गरीब व मझौले किसानों के लिए काफी मुश्किल भरा होता है। इस प्रकार समर्थन मूल्य से लेकर अन्य सरकारी मदद के वास्तविक लाभांशी फार्मर, कुलक व धनी किसान ही होते हैं। थोड़ा बहुत ही लाभ मझौले किसान तक पहुंचता है। 
    वर्तमान प्राकृतिक आपदा व उसके प्रति राज्यों व केन्द्र सरकार का रवैया अपनी कहानी स्वयं बयां कर रहा है। किसानों की राजनीति करने वाले संगठन, पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां अपने घडि़याली आंसू बहायेंगे, कुछ नेता इधर-उधर बंदरकूदी करेंगे और फिर मुआवजे का धंधा शुरू हो जायेगा। किंतु मजेदार यह है कि जब सर्वे के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति हो रही हो तो इमदाद जरूरतमंदों तक कैसे पहुंचेगी। लेखपाल खेतों तक जा नहीं रहे हैं और यदि दबाव पड़ने पर जाते हैं भी तो सिर्फ रस्मअदायगी पूरी करने के लिए। जाहिर है कि इस खेल में सरकारी कर्मचारियों के साथ मिलकर धनी, कुलक व फार्मर बाजी मार ले जायेंगे और हमेशा की तरह गरीब व मझौले किसानों को या तो सिर्फ इमदाद के नाम पर वायदे मिलेंगे या फिर इमदाद के बचे हुए चेक के टुकड़े। पूंजीवादी व्यवस्था किसानों में फर्क नहीं करती है इसलिए वह सभी को बराबर मानकर मदद करती है परंतु इस मदद का लगभग पूरा हिस्सा ग्रामीण पूंजीपति वर्ग ही डकार जाता है। साथ ही लेखपाल से लेकर सत्ता प्रतिष्ठानों तक के लोग मालामाल हो जायेंगे। और गरीब व एक हद तक मझौले किसान कुदरत व खुद की तकदीर को कोसते रह जायेंगे। 
    जो गरीब व मझौले किसान इस बार संपतिहरण से बच जायेंगे वे पुनः नई आपदा में संपतिहरण की भेंट नहीं चढ़ेंगे। कुछ बड़े अंतरालों पर सरकारें कर्ज माफी का खेल भी खेलती है। हालांकि इस खेल में भी गरीब किसानों को थोड़ी राहत मिलती है पर वह बहुत अधिक क्षणिक होती हैं हालांकि ऐसे समय औद्योगिक पूंजीपति छाती पीटने लग जाता है जबकि वह उससे कई हजार गुना रियायतें सरकारों से प्रतिवर्ष पाते हैं। 
    क्या इन गरीब व मझौले किसानों की तबाही-बर्बादी की वर्तमान प्रक्रिया को रोका जा सकता है? क्या इन गरीब व मझौले किसानों की तबाही ही इनकी नियति है? क्या गरीब और मझौले किसानों की उनकी इन तकलीफों से मुक्ति नहीं मिल सकती है? क्या गरीब किसानों व मध्यम किसानों की तकलीफों के समाधान का कोई वैकल्पिक रास्ता है। 
    इन गरीब व मझौले किसानों की इस तबाही-बर्बादी का मुख्य कारण इस सामाजिक व्यवस्था में है जिसमें छोटी सम्पति के मालिकों का सम्पतिहरण नहीं रोका जा सकता है। ज्यादा से ज्यादा कुछ रियायतों व संघर्षो के मार्फत इस प्रक्रिया को धीमा भर किया सकता है। इस प्रकार वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में छोटी पूंजी के मालिकों की तबाही-बर्बादी और इस प्रकार उनका मजदूर वर्ग की पांतों में शामिल होना अनिवार्य है। इस व्यवस्था के दायरे में इसे रोका नहीं जा सकता है। पिछले तीन दशकों में जारी नीतियों ने इस सम्पतिहरण की प्रक्रिया को काफी गति प्रदान की है। वर्तमान मोदी सरकार इसे और भी तेज गति से आगे ले जाना चाहती है। मोदी के ‘‘मन की बात’’ यही है। 
    किंतु गरीब व मझौले किसानों के सम्पतिहरण व उनकी मजदूर में भर्ती  का केवल यही तरीका नहीं है। गरीब व मझौले सिकानों के सम्पतिहरण का यह तरीका बहुत पीड़ादायी, निर्मम, लंबा व निरंकुश है। गरीब व मझौले किसानों की उनकी जमीन से अलगाव की प्रक्रिया कई पीढि़यों को दुखः, तकलीफों और मौतों से होते हुए गुजारती है। इसके बजाय एक वैकल्पिक रास्ता है जो किसानों की इन श्रेणियों की मजदूर वर्ग में भर्ती की प्रक्रिया ज्यादा सरल, सहज बना देती है। जब सारे दुःख, तकलीफों, वंचना, गरीबी की अंतहीन कहानी का अंत हो जाता है और वे खुद अपने सम्पतिहरण के वाहक बन जाते हैं। वे स्वयं सम्पतिहरण की प्रक्रिया में शामिल हो जाते हैं। यह वैकल्पिक रास्ता है समाजवाद का। मजदूर वर्ग की अगुवाई में मजदूर वर्ग अपने स्वाभाविक मित्रों किसानों के कष्टों के ताबूत में अंतिम कील ठोकने में उसका मार्गदर्शन करता है। उसका साथ देता है। वह इन गरीब किसानों को सरकारी व सामूहिक खेती के रास्ते पर चलने में उनका मार्गदर्शन करते हुए प्राकृतिक व सामाजिक आपदाओं से होने वाली तकलीफों पर विजय का उद्घोष करता हैं अब भाग्य उनके जीवन का निर्धारण नहीं करेगा वरन् वे स्वयं अपने भाग्य को निर्धारित करने लगेंगे। 
    कृषि में व्यक्तिगत निवेश और बाजार की अदृश्य शक्तियों की मार गरीब व मझौले किसान की इस व्यवस्था में सबसे बडी समस्या रहती है। गरीब व मझौले किसान की व्यक्तिगत निवेश की क्षमताओं की कमी पर सरकारी व सामूहिक खेती के हथियारों के बल पर काबू पा लिया जाता है और समाजवादी राज्य अदृश्य बाजार की शक्तियों को काबू में करके इन गरीब व मझौले किसानों के भविष्य को संरक्षण प्रदान करता है। गरीब और मझौले किसानों को इस प्रकार छोटी पूंजी के मालिक की बदनसीबी से निजात दिलाते हुए समाजवाद उन्हें बेहतर जीवन दशाओं की ओर उन्मुख करता है। और ऐसा करते हुए समाजवादी राज्य में ये गरीब व मझौले किसान मजदूर वर्ग की अगुवाई में स्वयं उस वर्ग का हिस्सा बनने की ओर उन्मुख होने लगते हैं। पूंजीवादी हुकूमत के बरक्स फर्क यह है कि पूंजीवादी निजाम इस काम को जोरजबरदस्ती, धोखाधड़ी, निरंकुशता, दर्दनाक पीड़ा व नृशंस मौतों व हत्याओं के साथ करता है तो समाजवादी राजय एक ऐसी दाई के रूप में जिससे इन गरीब व मझौले किसान को किसी भी किस्म की पीड़ा होना तो दूर वरन् वे उत्साह, सहयोग, जीवन बेहतरी के नये कीर्तिमानों को रचते हुए उत्पादन के नये कीर्तिमानों को रचते हुए इस काम को अंजाम देने में स्वयं शामिल हो जाते हैं। 
    ऐसा इसलिए होता है क्योंकि समाजवादी राज्य इन गरीब व मझौले किसानों के सदियों से मौजूद पिछड़ेपन को न सिर्फ खत्म करता है वरन् शिक्षा, चिकित्सा, बेरोजगारी, मकान आदि की समस्याओं का मुकम्मल समाधान प्रस्तुत कर उन्हें एक बेहतर जीवन प्रदान करता है। काम, आराम और मनोरंजन पहली बार उनके दरवाजे पर दस्तक देती है। यहां पर ‘लोहे की दीवारों के दोनों ओर’ नामक पुस्तक के एक अंश का सार देना मौजूं रहेगा। 1948 में यशपाल सहित तीन लोग नव समाजवादी सोवियत संघ के एक गांव में पहुंचते हैं तो किसान उनके नाश्ते में विभिन्न प्रकार की पौष्टिक खाद्य वस्तुएं रखते हैं। इतना अच्छा नाश्ता देखकर वे हैरान रह जाते हैं और वहां उपस्थिति किसानों से पूछते हैं कि ऐसा नाश्ता हम लोगों की वजह से हैं या फिर वे रोज ही ऐसा नाश्ता करते हैं। किसानों ने जवाब दिया कि वे रोज ऐसा पौष्टिक आहार करते हैं। फिर टीम के सदस्यों ने उनकी दिनचर्या जाननी चाही तो वे बोले कि सुबह उठकर नाश्ता करके खेतों में चले जाते हैं। दोपहर में तैराकी का लुत्फ उठाते हैं फिर थोड़ा आराम करके फिर खेतों में चले जाते हैं और शाम को विभिन्न प्रकार का मनोरंजन करते हैं। जिसमें खेलकूद से लेकर फिल्में तक शामिल होती हैं। 
    क्या किसी पूंजीवादी समाज व्यवस्था का किसान ऐसी बात सपने में भी सोच सकता है? इतनी बेहतरीन जिंदगी को तो वह स्वर्ग समझता रहा है। परंतु समाजवादी राज्य में ऐसे स्वर्ग का निर्माण स्वयं वे किसान ही कर रहे होते हैं। अतः देश के गरीब व मझौले किसानों के लिए अब पूंजीवादी राजनीतिक दलों से या किसान संगठनों से जिनका नेतृत्व धनी किसानों व कुलकों के पास है, से किसी भी प्रकार की उम्मीद करना बेमानी है। यह स्वयं को अंधेरे में रखने की बात है। इस निजाम को बदलकर ही वे अपनी बेहतरी हासिल कर सकते हैं। केवल समाजवाद का रास्ता ही उन्हें सारी समस्याओं से अंतिम तौर पर निजात दिला सकता है।  
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2015: अमेरिकी माडल चुपके-चुपके
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    संघी नरेंद्र मोदी की सरकार ने देश के लिए एक नई स्वास्थ्य नीति का मसौदा जारी किया है। यह नीति देश में सभी लोगों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने का लक्ष्य सामने रखती है और वह भी मुफ्त। इस मुफ्त सार्विक स्वास्थ्य सेवा के वादे से हर किसी को खुश होना चाहिए। पर जैसे ही मसौदे को बारीकी से पढ़ते हैं, तो पाते हैं कि इसमें खुश होने वाली बात नहीं, बल्कि चिंतित होने वाली बात है। 
    नई स्वास्थ्य नीति का यह मसौदा शुरू में देश की चिकित्सा व्यवस्था की जो तस्वीर खींचता है, वह किसी को भी इसकी गंभीर हालत का कायल बना देगा। देश की 60 प्रतिशत बाह्य मरीज सेवा और 80 प्रतिशत आंतरिक मरीज सेवा आज निजी चिकित्सा के हिस्से में आती है। इस निजी में से करीब 40 प्रतिशत अनौपचारिक और अप्रशिक्षित चिकित्सकों के हिस्से में है। भारत में सकल घरेलू उत्पाद का कुल 4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवा पर खर्च होता है, जिसमें से 1.3 प्रतिशत सरकारी है। इस 1.3 प्रतिशत में से करीब एक तिहाई केन्द्र सरकार के बजट से आता है जबकि दो तिहाई प्रदेश सरकारों के बजट से। देश की गरीब आबादी सालाना अपनी आय का करीब 6 प्रतिशत चिकित्सा पर खर्च करती है और हर साल करीब 6 करोड़ लोग बीमारी पर खर्च के चलते भुखमरी की रेखा के नीचे चले जाते हैं। निजी स्वास्थ्य सेवा आज देश की अर्थव्यवस्था में सबसे तेजी से बढ़ता हुआ क्षेत्र है। इसकी सालाना विकास दर समग्र सेवा क्षेत्र के विकास दर से दुगुनी है। जबकि स्वयं सेवा क्षेत्र उद्योग से दो गुना और कृषि से चार गुना रफ्तार से बढ़ रहा है। वर्तमान संकट के दौर में भी निजी स्वास्थ्य सेवा की विकास दर में कोई कमी  नहीं आई है। दूसरी ओर सरकार बार-बार यह घोषित करती रही है कि वह स्वास्थ्य खर्च में सरकारी खर्च को बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पाद के चार प्रतिशत तक ले जायेगी। अभी हाल की 2002 की नीति ने भी यही लक्ष्य घोषित किया था पर सरकारी खर्च जहां का तहां ठहरा हुआ है और सारा विकास निजी क्षेत्र में हो रहा है। 
    भारत की चिकित्सा व्यवस्था के बारे में ये आंकड़े अमूर्त हैं पर हम अपने दैनंदिन के अनुभव पर जरा गौर फरमाएं तो इनका मतलब स्पष्ट होने लगता है। आज प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से लेकर जिला अस्पताल तक सबकी हालत बेहद खस्ता है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर बुनियादी दवाएं भी गायब हंै। अक्सर वहां डाक्टर गायब होता है। जिला अस्पतालों में बेतहाशा भीड़ होती है जबकि दवाएं वहां भी गायब होती हैं। ज्यादातर जांच बाहर से कराई जाती हैं और अस्पताल के आस-पास कुकरमुत्तों की तरह दवाई की दुकानें और जांच केन्द्र नजर आते हैं। चंद सरकारी मेडिकल काॅलेजों में स्थिति थोड़ी बेहतर है पर दवाईयां और जांच वहां भी ज्यादातर बाहर से ही होती है। 
    इनके मुकाबले यदि निजी क्षेत्र की बात करें तो गरीब बस्तियों के आर.एम.पी. से लेकर मध्यमवर्गीय बस्तियों की डाक्टर क्लीनिक तथा फिर छोटे-बड़े अस्पताल और नर्सिंग होम की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। खासकर कुछ जगहें मसलन बरेली और मेरठ तो अस्पतालों के केन्द्र के रूप में विकसित हो रहे हैं। छोटे-मोटे अस्पतालों के साथ बड़े कारपोरेट अस्पतालों और उनकी श्रृंखला की भी प्रवृत्ति है। इन कारपोरेट अस्पतालों की प्रवृत्ति और मांग दोनों हैं कि वे डाक्टरों के क्लीनिक और छोटे-मोटे अस्पतालों को स्वयं में समेट लें। 
    ये क्लीनिक और अस्पताल लूट के अड्डे हैं। इनमें लगभग सारे कर्मचारी ठेके पर होते हैं और ज्यादातर न्यूनतम मजदूरी से लेकर अन्य बुनियादी सुविधाओं से वंचित होते हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र में बीमा बढ़ने के साथ स्वास्थ्य बीमा कंपनियों, अस्पतालों और दवा-यंत्र कंपनियों का जाल सघन होता जा रहा है। डाक्टर, अस्पताल, दवा-यंत्र कपंनियों का ताना-बाना तो पहले से था। 
    आज प्राथमिक चिकित्सा जहां ज्यादातर सरकार या आर.एम.पी. के जिम्मे है वहां द्वितीय और तृतीय स्तर की सेवा ज्यादातर निजी क्षेत्र में है। यहां कमाई असीमित है। जहां गरीब आबादी यह असीम खर्च अपनी जेब से अदा करती है वहीं मध्यम वर्ग और पूंजीपति वर्ग यह स्वास्थ्य बीमा के जरिये कर रहा है। 
    सरकार ने स्वयं भी अपने नीचे की स्वास्थ्य सेवा का पूर्णतया निजीकरण कर दिया है। आज देश में करीब नौ लाख आशा वर्कर हैं। आज पल्स पोलियो आदि पर से लेकर टीकाकरण और जननी सुरक्षा इत्यादि सरकार द्वारा प्र्रचारित सारी योजनाएं इन्हीं के जिम्मे हंै। प्रशिक्षित कर्मचारियों की बात करें तो ये आज विभिन्न स्तरों पर जरूरत की संख्या की महज एक तिहाई ही हैं। सरकार ने जो नई स्वास्थ्य नीति प्रस्तावित की है उसे समझने के लिए आज की कुछ व्यावहारिक कार्यवाहियों को समझना फायदेमंद होगा। 
    प्राथमिक स्वास्थ्य में एक बड़ा हिस्सा उन स्वास्थ्य गतिविधियों का है जो संभावित बीमारी को रोकने के लिए की जाती हैं। यह सारा का सारा सरकार करती है हालांकि आज विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे ढेरों विदेशी संस्थान इसमें मदद कर रहे हैं। भांति-भांति के टीकाकरण इसी दायरे में आते हैं। इसी के साथ जज्जा-बच्चा की सामान्य देखभाल और गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य से लेकर बच्चा पैदा होने तक भी एक बड़ा काम बनता है। पिछले सालों में सरकार ने इन सारी गतिविधियों के लिए प्रशिक्षित लोगों की भर्ती करने के बदले अप्रशिक्षित और अर्ध प्रशिक्षित लोगों को अपनी सेवा में लगाया है। आंगनबाड़ी से लेकर आशा तक इनकी बड़ी संख्या है। यानी इस स्तर के प्राथमिक स्वास्थ्य को पूर्णतया अप्रशिक्षित या अर्ध प्रशिक्षित लोगों के हवाले कर दिया है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की मौजूदा हालत के साथ इसे मिला देने से एक मुकम्मल तस्वीर बन जाती है। 
    दूसरा मसला द्वितीय और तृतीय स्तर की स्वास्थ्य सेवा से संबंधित है। सरकार मजदूरों-कर्मचारियों के लिए एक सरकारी बीमा योजना चलाती रही है। इसके लिए बाकायदा एक कानून भी है- ई.एस.आई. एक्ट यानी कर्मचारी राज्य बीमा योजना। इसके तहत कर्मचारी की तनख्वाह से एक छोटा हिस्सा कटकर एक कोष में जमा होता है। इस कोष से कुछ क्लीनिक और अस्पताल, कर्मचारियों के लिए चलाये जाते हैं। यही नहीं, कुछ निजी अस्पतालों को भी विशेष बीमारियों के लिए पैनल पर रखा जाता है और इलाज के खर्च का भुगतान इस कोष से किया जाता है। 
    यह कर्मचारी बीमा योजना उन लोगों पर लागू नहीं होती जो गरीब तो हंै पर कर्मचारी या मजदूर नहीं हैं। असंगठित क्षेत्र के इन लोगों के लिए सरकार ने पिछले दिनों एक नई स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की- राजीव स्वास्थ्य योजना। इसके तहत कोई भी व्यक्ति सालभर के लिए एक बेहद मामूली रकम जमा करता है। कुछ पैसा सरकार जमा करती है। इससे पूरे परिवार के लिए एक निश्चित राशि का स्वास्थ्य बीमा हो जाता था। संप्रग शासन में यह तीनों राशियां क्रमशः 27 रुपये, 100 रुपये और 30,000 रुपये थी। 
    इस बीमा से पैनल पर रखे गये निजी अस्पतालों में इलाज कराया जा सकता है। अस्पतालों को भुगतान सीधे बीमा योजनाओं से हो जायेगा। जिन प्रदेशों में खासकर आंध्र प्रदेश में इस योजना को बड़े पैमाने पर लागू किया गया, वहां पाया गया कि निजी अस्पतालों में बहुत छोटी बीमारियों के लिए लोगों को भर्ती कर बीमे की राशि झटक ली। यहां गौर करने की बात है कि जन-धन योजना के तहत खाता खुलवाने पर सरकार ने अपनी ओर से तीस हजार रुपये के स्वास्थ्य बीमा कराने की बात की है। यह बीमा भी राजीव स्वास्थ्य योजना का ही दूसरा रूप है। 
    जैसाकि पहले बताया गया है कि मध्यम और उच्च वर्ग के लोग अपने इलाज के लिए स्वास्थ्य बीमा कराने लगे हैं। यह बीमा कारोबार एक बड़ा क्षेत्र बन गया है और इनका तथा निजी अस्पतालों का एक बड़ा गठजोड़ कायम हो गया है। 
    इन सबके साथ सरकार की दवा नीति को भी ध्यान मंे रखना होगा। आज कुछ थोड़ी सी दवाओं को छोड़कर बाकी सारी दवाएं मूल्य नियंत्रण से बाहर हैं। ये दवाएं लगभग मूल्य से दस, बीस या पचास गुने दाम पर बेची जा रही हैं। यहां तक कि जेनेरिक दवाएं भी बड़ी कंपनियों द्वारा विभिन्न ब्रांडों के तहत मनमाने दामों पर बेची जा रही हैं। निजी अस्पताल जेनेरिक दवाओं के ब्रांडेड रूप को ही मरीजों को खिलाते हैं और मुनाफे की बेतहाशा लूट में अपना हिस्सा बंटाते हैं। सरकार की घोषणा के बावजूद ज्यादातर जीवन रक्षक दवाएं बेहद महंगी हैं।
    उपरोक्त व्यवहार के मद्देनजर सरकार की नई स्वास्थ्य नीति को कुछ इस तरह समझा जा सकता है या यह नीति व्यवहार में इस तरह लागू होगी। 
    नई स्वास्थ्य नीति का कहना है कि स्वास्थ्य को हर किसी के लिए सुलभ, मुफ्त, गैर नकदी और कर आधारित बनाया जायेगा। इसके लिए स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को हाल-फिलहाल सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात की गयी है। स्वास्थ्य नीति के अनुसार इस खर्च को चार-साढ़े चार प्रतिशत तक बढ़ाने की बात अभी तक महत्वाकांक्षी साबित हुई है। इसीलिए इसे हाल-फिलहाल 2.5 प्रतिशत व्यावहारिक लक्ष्य तक सीमित रखा गया है। 
    यह नीति बहुत साफ है कि हालांकि प्राथमिक स्वास्थ्य सरकार के जिम्मे और कर आधारित होगी पर इसका मतलब यही नहीं होगा कि सरकारी अस्पताल पहले की तरह चलते रहेंगे यानी सरकार इन्हें अपने सरकारी खजाने से पैसा देगी और ये मरीजों का इलाज करेंगे। नीति की ऊपरी घोषणा-मुफ्त, गैर नकदी, सार्विक और कर आधारित से यही मतलब निकलता है। पर यह मतलब गलत है। असल में होगा यह। 
    सरकार समाज के हर व्यक्ति का अपनी ओर से स्वास्थ्य बीमा करायेगी। यह सरकारी कोष से होगा। यदि कोई व्यक्ति चाहे तो निजी अस्पतालों में अपना इलाज कराने के लिए अपना अलग से बीमा करा सकता है। हर व्यक्ति के पास सरकारी बीमे का कार्ड होगा। सरकारी अस्पतालों में अवरचना यानी भवन, यंत्र इत्यादि का तथा कर्मचारियों के वेतन भत्ते का भुगतान सरकार सीधे अपने कोष से करेगी। पर इलाज के खर्चे का भुगतान अस्पताल को बीमा कोष से होगा। यह बीमा यदि निजी या सरकारी बीमा कंपनियों के द्वारा होता है तो फिर सरकारी अस्पताल को भुगतान ये कंपनियां करेंगी हालांकि नीति इस बारे में स्पष्ट कुछ नहीं कहती। इन सरकारी अस्पतालों में ढेरों गैर इलाज कामों को निजी कंपनियों से आउटसोर्स किया जायेगा। यही नहीं, प्राथमिक स्वास्थ्य के लिए भी निजी अस्पतालों, खासकर गैर मुनाफा ट्रस्ट अस्पतालों में ही अपनी सेवाएं मुहैय्या करायेंगे और उन्हें बीमे से भुगतान कराना पड़ेगा। 
    ऐसे सरकारी बीमा कार्ड धारक व्यक्ति को करना बस यह होगा कि वह सरकारी अस्पताल में अपना कार्ड लेकर चला जाये और इलाज कराकर लौट आये। उसे कहीं भी, कुछ भी भुगतान नहीं करना पड़ेगा। 
    द्वितीय और तृतीय स्तर की स्वास्थ्य सेवा भी इसी तरह सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध होगी हालांकि इसके लिए निजी अस्पतालों और गैर मुनाफा ट्रस्ट अस्पतालों को भी पैनल पर रखा जायेगा। यहां भी सारा भुगतान बीमा कार्ड से होगा। जहां तक पैसे वालों का सवाल है, वे अपने निजी स्वास्थ्य बीमा से निजी अस्पतालों में इलाज करा सकते हैं। 
    सरकारी अस्पतालों को इलाज का भुगतान बीमा से होगा। इसके लिए उन्हें सरकार द्वारा निर्धारित मापदंडों को पूरा करना होगा अपनी गुणवत्ता पर खरा उतरना होगा। जहां तक निजी अस्पतालों का सवाल है यदि वे सरकारी पैनल पर आना चाहते हैं तो उन्हें कुछ निश्चित संस्थानों से स्वयं गुणवत्ता का प्रमाण हासिल करना होगा। 
    सरकार का पूरा जोर प्राथमिक स्वास्थ्य पर होगा क्योंकि द्वितीय और तृतीय स्तर की योजनाओं को वह निजी अस्पतालों से खरीद सकती है। तो क्या सरकार इस स्तर पर बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित लोगों को भर्ती कर प्राथमिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करेगी? नहीं। 
    यह नीति स्पष्ट कहती है कि प्राथमिक स्वास्थ्य का जिम्मा प्रशिक्षित डाक्टरों और नर्सों का नहीं बल्कि अर्ध प्रशिक्षित लोगों और आशा वर्कर जैसे अप्रशिक्षित लोगों का होगा। नीति कहती है कि देर तक बनी रहने वाली बीमारियों के मामले में प्रशिक्षित डाक्टरों को दिखाया जा सकता है, पर तब भी मूल जिम्मेदारी अर्ध प्रशिक्षित या अप्रशिक्षित लोगों की होगी। इन लोगों को भुगतान की स्थिति को देखते हुए इनसे मिलने वाली स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता की सहज कल्पना की जा सकती है। 
    प्राथमिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने वाले ये लोग क्यूबा के पड़ोसी डाक्टर जैसे बिल्कुल नहीं होंगे क्योंकि क्यूबा के हर मुहल्ले में रहने वाले डाक्टर भलीभांति प्रशिक्षित डाॅक्टर होते हैं। यहां इस तरह के डाॅक्टर केवल अस्पतालों में मिलेंगे। 
    ऊपर से प्रगतिशील दिखने वाली यह नीति निजीकरण और कारपोरेटीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम है और अमेरिकी माडल को चुपके-चुपके लागू करने की साजिश है। यह नीति सारी स्वास्थ्य सेवा को बीमा कंपनियों के नियंत्रण में ला देगी क्योंकि इलाज के सारे खर्चों का भुगतान वे ही करेंगी। यह कुछ और नहीं सरकारी राजीव स्वास्थ्य बीमा योजना को सारे देश के स्तर पर लागू कर देना है। इससे आंध्र प्रदेश में नजर आ रहा बीमा कंपनियों, निजी अस्पतालों और दवा कंपनियों का गठजोड़ सारे देश के पैमाने पर लागू हो जायेगा। इस बात की पूरी संभावना है कि सरकारी अस्पतालों में केवल भवन ही सरकारी हो, बाकी सारी स्वास्थ्य सेवाएं डाक्टर से लेकर नर्स तक, दवा से लेकर यंत्र तक सब निजी अस्पतालों को आउटसोर्स कर दिया गया हो। नीति; निजी अस्पतालों से स्वास्थ्य सेवा खरीदने की बात करती हैं पर कोई सीमा निर्धारित नहीं करती। ऐसे में इसे सौ प्रतिशत होने से नहीं रोका जा सकता। 
    यह कारपोरेटीकरण की दिशा में भी बढ़ा कदम है। यदि सरकार स्वास्थ्य सेवाओं को निजी अस्पतालों से खरीदेगी तो डाक्टरों के क्लीनिक अपने आप संकट में पड़ जायेंगे। उनका व्यवसाय ठप हो जायेगा और वे बड़े अस्पतालों में कर्मचारी डाक्टर बनने को बाध्य होंगे। यही हाल छोटे-छोटे जांच केन्द्रों और दवा दुकानों का होगा। वे बंद हो जायेंगे और उनका व्यवसाय बड़े जांच केन्द्रों और दवा आपूर्तिकर्ताओं को स्थानांतरित हो जायेगा। 
    अपोलो, फोर्टिस और मेदांता जैसे अस्पतालों की चमकदमक को देखते हुए यह भ्रम पैदा हो सकता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र के कारपोरेटीकरण से लोगों को बेहतर इलाज मिलने लगेगा। पर अमेरिका के उदाहरण को देखते हुए ऐसा नहीं लगता। वहां स्वास्थ्य सेवा पर दुनिया में सबसे ज्यादा खर्च होता है। सकल घरेलू उत्पाद का करीब 17 प्रतिशत। पर वहां की स्वास्थ्य सेवा गरीबों के प्रति उपेक्षा और क्रूरता के लिए मशहूर है। ऊपर से तुर्रा यह कि गरीब लोगों के इलाज के लिए जब ओबामा सरकार ने अपनी ओर से बीमा खरीदने का कानून बनाया तो स्वास्थ्य उद्योग द्वारा इसका चैतरफा विरोध हुआ क्योंकि यह बीमा कंपनियों की लूट में थोड़ा बाधा बनता था। इसके मुकाबले इंग्लैण्ड की सरकारी स्वास्थ्य सेवा अमेरिका के आधे खर्च में ही ज्यादा बेहतर स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराती है। 
    इंग्लैण्ड और अमेरिका विकसित देश हैं। वहां के नागरिक अपने अधिकारों के प्रति कुछ सचेत भी हैं। लेकिन भारत के भुखमरी भरे हालात में स्वास्थ्य सेवा के इस निजीकरण का जो दुष्परिणाम निकलेगा वह भयानक होगा। वर्तमान नीति से लोगों के स्वास्थ्य में कोई बेहतरी होगी इसकी कोई उम्मीद नहीं है। अलबत्ता इससे स्वास्थ्य के नाम पर लूटपाट और मच जायेगी। यह वर्तमान कोढ़ में खाज ही साबित होगा। इसीलिए स्वास्थ्य क्षेत्र में इस अमेरिकी माडल को लागू करने का विरोध किया जाना चाहिए। 
आम बजट 2015-16: छुट्टे पूंजीवाद को और छूट
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    जब पिछले साल अरूण जेटली ने केन्द्र सरकार का बजट पेश किया था तो कहा गया था कि यह भाजपा की नई सरकार की असली सोच को अभिव्यक्त नहीं करता। यह तो संप्रग सरकार का अंतरिम बजट ही है जिसे झाड़-पोंछकर पेश कर दिया गया है। भाजपा की असली सोच का बजट अगले साल ही पेश हो सकता है। 
    अब इस साल भाजपा सरकार के वित्तमंत्री ने अपना असली वाला बजट पेश किया है और कहा जा सकता है कि यह भाजपा की सोच के अनुरूप है। वास्तविकता भी यही है। यह इस हद तक है कि विपक्षी दलों ने इसे धनवापसी बजट का नाम दे दिया है यानी इस बजट के जरिये भाजपा द्वारा पूंजीपतियों का वह कर्ज चुकाया गया है जो चुनावों के समय पूंजीपतियों ने मोदी का समर्थन कर भाजपा पर लादा था। यहां तक कि पूंजीपतियों के एक समय दुलारे रहे पी.चिदंबरम ने भी इसे कारपोरेट को खुश करने वाला बजट करार दिया। 
    सत्ता में आने के समय से भाजपा देश की आर्थिक नीतियों के मामले में कुछ बातें लगातार करती रही है। इसमें से एक प्रमुख बात यह रही है कि जनता के लिए राहत योजनाएं पैसे की बर्बादी हैं क्योंकि राहत का बड़ा हिस्सा उन लोगों की जेबों में चला जाता है जो इसके हकदार नहीं हैं। इसलिए राहत योजनाओं में आमूल-चूल फेरबदल की आवश्यकता है। 
    इसी के साथ यह भी कहा जाता रहा है कि देश में पूंजी निवेश के लिए माहौल नहीं है। पूंजी निवेश पर ढे़र सारे बंधन हैं। इसी के साथ निवेश के लिए अवरचनागत सुविधाओं का अभाव है। 
    करों के बोझ का जिक्र भी इस सिलसिले में लगातार होता रहा है। खासकर पूंजीपति वर्ग की ओर से ‘कर आतंकवाद’ की चर्चा होती रही है। 
    इस बजट में इन सारे ही मामलों में भाजपा की सोच को व्यवहार में रूपांतरित करने की दिशा में कदम बढ़ाये गये हैं। 
    राहत योजनाओं की बात करें तो इस साल बजट में कुल राहत बजट में करीब तीस हजार करोड़ रूपये की कटौती की गयी है। यह कटौती कुल राहत बजट के दस प्रतिशत से ज्यादा है। इस कटौती का वास्तविक आशय तब स्पष्ट होगा जब यह ध्यान में रखा जाये कि महंगाई के कारण मुद्रास्फीति की दर के बराबर वैसे ही कटौती हो जाती है। यानी यदि रुपये में राशि पिछले साल के बराबर भी हो तब भी वास्तव में यह मुद्रास्फीति की दर के बराबर कम हो जायेगी। मनरेगा पर खर्च को ही लें। इस साल मनरेगा पर कुल प्रस्तावित खर्च पिछले साल के बराबर लगभग चौंतीस हजार ही है। पर महंगाई को देखते हुए यह वास्तव में कम हो गया है। मनरेगा का बजट कभी चालीस हजार करोड़ रूपये हुआ करता था। अब हालत यह है कि यह पहले कभी सकल घरेलू उत्पाद के 0.84 प्रतिशत से नीचे गिरकर लगभग 0.2 प्रतिशत तक रह गया है।
    महत्वपूर्ण बात यह है कि यह राहत कटौती मिड-डे मील जैसी योजनाओं में भी की गयी है जिसके लिए स्वयं पूंजीपति वर्ग अपनी पीठ थपथपाता रहा है कि उसने इसके जरिये न केवल बच्चों को विद्यालयों में खींचा है बल्कि उनका स्वास्थ्य भी बेहतर बनाया है। इसी तरह शिक्षा-स्वास्थ्य पर योजनागत व्यय में भारी कटौती की गयी है। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब स्वयं अरूण जेटली ने सबके लिए स्वास्थ्य की बात की थी। पर स्वास्थ्य पर पहले से अत्यन्त निम्न खर्च को और घटा दिया गया है। वित्तमंत्री द्वारा तर्क दिया गया है कि तेरहवें वित्त आयोग द्वारा प्रदेशों को करों का हिस्सा बढ़ाया गया है। इसलिए वे स्वयं स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे चीजों पर ज्यादा खर्च कर सकते हैं।
    राहतों की मद में कटौती के साथ एक और काम किया गया है। सरकार ने जन धन योजना, आधार तथा मोबाइल को एक साथ मिलाकर राहतों के नकदी हस्तांतरण की योजना को चौतरफा लागू करने की घोषणा की है। भारत सरकार राहत के नकद हस्तांतरण की विश्व बैंक योजना को लागू करने की एक लंबे समय से कोशिश करती रही है पर अभी तक यह इसमें कामयाब नहीं हो सकी है। इसकी गुप-चुप कोशिशों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है और वहां सरकार ने हलफनामा दाखिल कर कहा है कि सरकार नकदी हस्तांतरण को अनिवार्य नहीं करेगी। लेकिन हकीकत यही है कि गैस सिलेंडर जैसी चीजों में यह वास्तव मेें अनिवार्य कर दी गयी है। 
    अब भाजपा सरकार इसे चौतरफा लागू करने के लिए कदम बढ़ा चुकी है। इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए असल में निशाना राहत राशियां ही हैं। भाजपा इसके खिलाफ है। इसलिए यदि यह योजना लागू कर दी गयी तो राहत पर राशियों को बड़े पैमाने पर कम करना आसान हो जायेगा। 
    लेकिन जन राहत योजनाओं पर कटौती से ज्यादा महत्वपूर्ण है पूंजीपति वर्ग को प्रोत्साहित करने वाले प्रावधान। इन्होंने पूंजीपति वर्ग को गद्गद् कर दिया। 
    इस दिशा में वित्तमंत्री का सबसे महत्वपूर्ण कदम था सम्पति कर को समाप्त करना तथा कारपोरेट करों में पांच प्रतिशत की कटौती कर इसे तीस से पच्चीस प्रतिशत करना। कारपोरेट करों में कटौती का वित्तमंत्री का तर्क यह था कि तीस प्रतिशत दर होने के बावजूद वास्तव में वसूली तेइस प्रतिशत ही हो पा रही थी। इसीलिए इसे घटाकर पच्चीस प्रतिशत कर दिया गया। यदि वित्त मंत्री का यह तर्क काम करता रहा तो कारपोरेट कर कभी शून्य तक भी जा सकता है क्योंकि कर की दर घटाने के लिए पूंजीपति कर अदायगी और कम कर देंगे। 
    भारत में कारपोरेट कर की दर पहले से कम रही है। आय करों की वसूली की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है। ऐसे में भारत के कुल करों में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा कम तथा अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा ज्यादा रहा है। यानी करों का ज्यादा हिस्सा मजदूर-मेहनतकश जनता के जिम्मे जाता रहा है। इस स्थिति को पलटने के बदले अप्रत्यक्ष करों के हिस्से को और ज्यादा बढ़ाया जा रहा है। 
    यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि न वसूले गये कर की राशि साल दर साल बढ़ती गयी है और इस साल यह और भी बढ़ गयी है। इस साल यह राशि बढ़कर करीब पौने छः लाख करोड़ रुपये हो गयी है। यह राशि कुल बजट घाटे से ज्यादा है। बजट घाटे को घटाया जा रहा है पर करों की वसूली नहीं की जा रही है। 
    करों के मामले में पूंजीपतियों को और भी कई तरह की छूटें दी गयी हैं जिसे पूंजीपति ‘कर आतंकवाद’ कहते रहे हैं। इससे मुक्ति के प्रावधान किये गये हैं। कहा गया है कि अब वोडाफोन जैसी घटना दोबारा नहीं होगी जिसमें कंपनी पर पीछे की तारीख से कर थोपा गया था। वैसे सरकार की योजना समूचे कर ढांचे को ही बदल डालने की है। 
    जहां तक अवरचनागत ढांचे के विकास की बात है तो इस दिशा में इस बजट की दिशा वी.वी.वी. माडल की है। इसका एक ही मतलब है सरकारी खर्चे पर पूंजीपतियों को बेहिसाब मुनाफा। चौतरफा विरोध के बावजूद भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन का यही मकसद है। इसके जरिये जमीन इसके छोटे मालिकों से छीनकर पूंजीपतियों को सौंप दी जायेगी। 
    सरकार का इस बजट में स्पष्ट इरादा देशी-विदेशी पूंजी के फर्क को मिटाना है। अवरचनागत क्षेत्रों में विदेशी पूंजी निवेश को इजाजत तो दी गयी है साथ ही प्रत्यक्ष पूंजी निवेश और पोर्टफोलियो निवेश के फर्क को इस बजट में समाप्त कर दिया गया है। 
    अभी तक प्रत्यक्ष पूंजी निवेश और पोर्टफोलियो निवेश में फर्क किया जाता था। विदेशी पूंजी के देश में निवेश के इन क्षेत्रों में अलग-अलग नियम थे। इसके जरिये सट्टेबाज पूंजी पर कुछ अंकुश था। लेकिन अब यह अंकुश खत्म कर दिया गया है। यह देश में विदेशी पूंजी के आवागमन को लगभग मुक्त कर देता है। देशभक्ति के स्वयंभू ठेकेदार का विदेशी पूंजी के सामने यह समर्पण खासा रोचक है। 
    विदेशी पूंजी को इस छूट के जरिये मोदी सरकार अपने ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को सफल बनाना चाहती है। उसे लगता है कि उसकी इन छूटों से विदेशी पूंजी चीन की ओर से अपना मुंह मोड़कर भारत की ओर कर लेगी। इस तरह चीन को पछाड़ने का भारत का सपना पूरा हो जायेगा। 
    कुल मिलाकर मोदी सरकार के इस बजट में पूंजीपति वर्ग की सभी इच्छाओं को पूरा करने का प्रयास किया गया है इसके बावजूद कि इसमें कोई ‘बिग टिकट’ सुधार नहीं है यानी पूंजीपतियों की भाषा में कोई बड़े सुधार नहीं किये गये हैं।
    इस बजट का क्या प्रभाव पड़ेगा? भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर क्या नई ऊंचाइयों को प्राप्त करेगी। 
    इस मामले में यह गौरतलब है कि मोदी सरकार पहले से ही यह कह रही है कि वह अगले एक-दो साल में दस प्रतिशत की विकास दर तक पहुंच जायेगी। वह दुनिया की सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन जायेगी। इस साल ही वह आठ-साढे़ आठ प्रतिशत विकास की बात कर रही है। 
    यदि देश-दुनिया के वास्तविक हालात को देखें तो इस उम्मीद का कोई ठोस आधार नहीं दिखता। साम्राज्यवादियों और उनकी संस्थाओं को विकास दरें लगातार घटानी पड़ रही हैं। वैश्विक आयात-निर्यात भी बेहद नीचा है। दुनिया भर के वित्तीय संस्थान संकटग्रस्त हैं और पूंजी को एकमात्र रास्ता सट्टेबाजी में नजर आ रहा है। इस बाहरी हालत में देश के विकास को क्या गति मिल सकती है। यदि मोदी का ‘मेक इन इंडिया’ अभियान सफल भी हो जाये तो इस अभियान के उत्पाद को खरीदेगा कौन?
    देश के अंदरूनी हालत की बात करें तो औद्योगिक क्षेत्र लगातार बेहद नीची विकास दर का शिकार है। इस साल कृषि क्षेत्र की भी हालत खस्ता रहेगी। ऐसे में कुल विकास दर आठ-साढ़े आठ प्रतिशत तक कैसे पहुंचेगी यह रहस्य है? यह रहस्य इतना गहरा है कि भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियम को भी इसका थाह-पता नहीं लग रहा है। 
    राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग ने सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर के जो आंकड़े जारी किये हैं उनका असर बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकता। इस तरह की चीज, यदि बाजीगरी न भी हो तो भी, केवल एक बार ही अपना असर दिखा सकती है। 
    इसलिए सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर के हिसाब से भी देखें तो मोदी-जेटली का हसीन सपना पूरा होगा इसकी उम्मीद कम ही है। ज्यादा संभावना यही है कि सारी दुनिया के कदमों में कदम मिलाते हुए भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर भी नीचे की ओर प्रस्थान कर जाये।
    रही बात ‘मेक इन इंडिया’ के लिए विदेशी पूंजी निवेश की तो पिछले चार दशकों का सट्टेबाज वित्तीय पूंजी का रिकार्ड यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यह देश की अर्थव्यवस्था के हित में कतई नहीं होगा। पिछलें सालों में यह सट्टेबाज पूंजी पहले ही भारत के शेयर बाजार में हलचल मचाती रही है। यदि सेनसेक्स तीस हजार के पार जा रहा है तो वह इसी सट्टेबाज पूंजी की कृपा से ही। अब जबकि प्रत्यक्ष पूंजी निवेश और पोर्टफोलियो निवेश के बीच का फर्क समाप्त कर दिया गया है तो इस सट्टेबाज पूंजी की गति और तेज हो जायेगी। शेयर बाजार और कुलांचे भरेगा लेकिन वह उतनी ही तेजी से नीचे भी जायेगा। यानी कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था में हलचल बढ़ेगी। छोटी सम्पति वालों की जेब पर और ज्यादा तेजी से हाथ साफ होगा। 
    रही बात मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता की तो पूंजीपतियों ने मोदी को दिल्ली की गद्दी पर इसलिए तो नहीं बैठाया था कि वे जनता का भला करें। मोदी सरकार लगातार यह कह रही है कि उसका सारा जोर विकास पर है क्योंकि इससे ही रोजगार बढ़ेगा और इससे ही भूखमरी कम होगी। पर क्या वास्तव में ऐसा होगा?
    2003-04 से बाद का सारा रिकार्ड यह दिखाता है कि सकल घरेलू उत्पाद में 8-9 प्रतिशत की वृद्धि के बावजूद रोजगार में बामुश्किल प्रतिवर्ष एक प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि श्रमशक्ति में वृद्धि की रफ्तार इसकी दो गुनी थी। इसे ही रोजगारविहीन वृद्धि का नाम दिया गया है। रही भुखमरी की बात तो सारे ही गंभीर विश्लेषक इस बात को बार-बार रेखांकित करते रहे हैं कि सारी तेज वृद्धि के बावजूद या तो देश में भुखमरी कम नहीं हुई है या फिर वह बढ़ी ही है। छोटी सम्पति वालों का सम्पतिहरण इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कारक है। 
    मोदी-जेटली का यह बजट इन सारी ही प्रवृत्तियों को बढ़ायेगा। और ऐसा होना ही चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो पूंजीपतियों की दौलत में इजाफा कैसे होगा? और यदि पूंजीपतियों की दौलत में तेजी  से इजाफा नहीं होगा तो वे मोदी-जेटली से वैसे ही नाराज हो जायेंगे जैसे सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह से नाराज हुए थे। मोदी-जेटली भला यह नौबत क्यों आने देना चाहेंगे? इनके पास अभी तीन बजट बाकी हैं और वे इनमें पूंजीपतियों पर और ज्यादा लुटाकर उन्हें खुश करने का प्रयास करेंगे। 
आम आदमी पार्टी की नियति
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
    पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों को राजनीति करना सिखाने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी अब बहुमत के साथ दिल्ली में सत्ताशीन हो चुकी है। वह अपनी चुनावी जीत से तो खुश है ही, उसके समर्थक बुद्धिजीवी आगे बढ़-चढ़कर उसके बारे में एक से एक दावे कर रहे हैं। वे बाकी सारी पार्टियों को एक रंग में रंगते हुए यह कह रहे हैं कि यह देश में एक नई राजनीति की शुरूआत है। 
    आम आदमी पार्टी के घमंडी मजमेबाजों और उनके उतने ही अडि़यल व मगरूर समर्थकों के दावों से इतर सच्चाई क्या है? भारत के पतित पूंजीवाद के इस दौर में आम आदमी पार्टी की राजनीति कितनी नई है और इसका भविष्य क्या है?
    आम आदमी पार्टी के छुटभैये नेता बहुत घृणा के साथ कांग्रेस पार्टी ही नहीं, जनता दल परिवार के सभी धड़ों तथा बहुजन समाज पार्टी को नकार देते हैं। वे हिकारत के साथ कहते हैं कि वे मायावती, मुलायम और लालू जैसों के साथ कोई गठबंधन नहीं बना सकते। 
    भारत की पूंजीवादी राजनीति में इन पार्टियों की क्या भूमिका रही है? आज चौतरफा पतित इन पार्टियों ने इतिहास में क्या भूमिका अदा की है?
    आम आदमी पार्टी के छुटभैये नेताओं और उनके हेकड़ीबाज समर्थकों के दावों के बावजूद सच्चाई यह है कि इन पार्टियों ने भारतीय समाज के संरचनागत परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है- वह परिवर्तन जो भारत जैसे पहले के गुलाम देश में सुधारवादी तरीकें से हुआ। कांग्रेस पार्टी की बात करें तो यह भारत के पूंजीवादी रूपांतरण की मुख्य निर्देशक पार्टी रही है। इसके नेहरूवादी माॅडल के तहत नेहरू और इंदिरा गांधी के शासनकाल में भारत एक अर्धसामंती देश से पिछड़े पूंजीवादी देश में रूपांतरित हो गया। भारत की खेती बाबा आदम के जमाने से चली आ रही प्रणाली को पीछे छोड़कर आधुनिक मशीनों, संकर बीजों और रसायनिक खादों-कीटनाशकों से होने वाली खेती में रूपांतरित हो गयी। इस तरह देश औद्योगिक तौर पर काफी आगे निकल गया। समाज में पुराने राजा-नवाब, जमींदार समाप्त हो गये तथा आधुनिक वर्गों की प्रधानता हो गयी। 
    यदि  कांग्रेस  पार्टी भारत के आम पूंजीवादी रूपांतरण की निर्देशक पार्टी थी तो समाजवादी धारा से निकली पार्टियां या अंबेडकर व जातिवाद विरोध से निकली पार्टियां कुछ खास रूपांतरण की। समाजवादी धारा व जनता परिवार की पार्टियां भारत के पिछड़ी, खेतिहर जातियों के उभरते पूंजीवादी समाज में राजनीतिक अभ्युत्थान को प्रतिबिंबित करती हैं। जो खेतिहर, पिछड़ी जातियां आर्थिक तौर पर आगे बढ़ीं तथा जिनमें से कुछ धनी किसानों और कुलकों में विकसित हुए उन्होंने पूंजीवादी राजनीति में अपने लिए जगह की मांग की तथा जनता परिवार की पार्टियों के सत्तारोहण के साथ इसे हासिल किया। सत्ता में अपनी इस भागेदारी का इस्तेमाल फिर उन्होंने अपनी और आर्थिक बेहतरी तथा खासकर जाति व्यवस्था को ढीला करने में किया। उनकी आज की पूंजीवादी राजनीति में भी जातिगत जोड़-तोड़ इतनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है तो इनकी जड़ें इनके अतीत में हैं। ये जातिगत पार्टियां इसलिए हैं कि ये भारतीय समाज के जातिगत विभाजन और उत्पीड़न से पैदा हुई थीं और आज वे उसी का इस्तेमाल कर अपनी सत्ता की आकांक्षा को पूरा करती हैं। जब तक भारतीय समाज में जातिगत विभाजन और उसी कारण जातिगत चेतना मौजूद है तब तक ये पार्टियां खाद-पानी हासिल करती रहेंगी और अस्तित्व में बनी रहेंगी। 
    बसपा जैसी पार्टी के बारे में यह बात और भी सच है। बसपा दलित जातियों के उत्पीड़न के खिलाफ दलितों की जातिगत गोलबंदी से पैदा हुई थी। बसपा के उत्तर प्रदेश में सत्तारोहण ने इस उत्पीड़न में काफी कमी की। कुल मिलाकर इससे समाज में जातिगत जकड़बंदी कम हुई। दलित जातियों का यह उत्थान उसी आम संरचनागत रूपांतरण का हिस्सा था जो आजादी के बाद भारत में आम पूंजीवादी रूपांतरण के तहत पूरा हुआ था। इस तरह इन पार्टियों ने उसी काम को अंजाम दिया जिसे कांग्रेस पार्टी ने शुरू किया था हालांकि अक्सर ही इन पार्टियों के सत्तारोहण का रास्ता कांग्रेस विरोध से होकर जाता था। जिस हद तक कांग्रेस पार्टी सवर्ण प्रधानता वाली पार्टी थी और उनकी प्रधानता में ही सरंचनागत रूपांतरण चाहती थी उस हद तक यह स्वाभाविक था। इस रूप में कहें तो कांग्रेस पार्टी ने अपनी कब्र खोदने वालों को पैदा किया। 
    इस सारे पूंजीवादी रूपांतरण में स्वभावतया पूंजीवादी वर्ग का हित सर्वोपरि था। वही अब समाज का शासक और शोषक वर्ग था। यदि कांग्रेस पार्टी आम तौर पर सारे पूंजीपति का प्रतिनिधित्व करती थी तो जनता परिवार की पार्टियां देहातों के धनी किसानों और कुलकों का तथा बसपा दलित जातियों से पैदा हुए पूंजीपति वर्ग का। पिछड़ी और दलित जातियों के गरीब इन पार्टियों के लिए केवल चुनावी वोट बैंक थे हालांकि जिस हद तक ये पार्टियां इन गरीबों में जातिगत भेदभाव के खिलाफ आत्मसम्मान और लड़ने का हौंसला पैदा करती थीं उस हद तक इनमें उनका वस्तुगत आधार भी था। बड़े शहरों के मध्यम वर्ग में लालू की वेशभूषा और अंदाज भले ही बेहद भौंड़ा और मजाकिया लगे पर बिहार के हालातों में इनकी अपनी सार्थकता है। 
    इस संरचनागत रूपांतरण के कमोबेश पूरा हो जाने के बाद इन पार्टियों की भूमिका अब पहले वाली नहीं रह गयी है। अब संरचनागत रूपांतरण के बदले पतित पूंजीवादी व्यवस्था का संचालन तथा स्वयं अपने हितों की पूर्ति इन सबका काम बन गया है। ऐसे में समूची व्यवस्था के चौतरफा पतन के साथ इनका पतन भी लाजिमी है। भ्रष्टाचार से लेकर हर तरह का अवसरवादी गठजोड़ इसी का नतीजा है। इसीलिए आज इनको देखकर इतनी वितृष्णा पैदा होती है जिसका इस्तेमाल आम आदमी पार्टी के छुटभैये कर रहे हैं। 
    यहां यह बात गौर करने की है कि भारतीय जनता पार्टी की अपने पूर्व अवतार भारतीय जनंसघ सहित इस संरचनागत परिवर्तन में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रही है। यही नहीं, यह जिस हद तक वर्ण जाति व्यवस्था की समर्थक थी उस हद तक वह भारतीय समाज के इस खास सामाजिक संरचनागत रूपांतरण की विरोधी भी थी। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि एक लम्बे समय तक इस पार्टी को भारतीय समाज में जगह नहीं मिली क्योंकि यह न तो तब पूंजीवादी वर्ग के हितों के अनुकूल थी और न ही देश की गरीब आबादी के, खासकर पिछड़ी और दलित जातियों के गरीब आबादी के। इसे भारतीय समाज में जगह तभी मिली जब भारतीय सजाज का संरचनागत परिवर्तन पूरा हो गया। इस मायने में यह उसी तरह बदले जमाने की उत्पाद है जैसे आम आदमी पार्टी। अन्य मामलों के अलावा अपनी उत्पत्ति में भी इन दोनों पार्टियों की समानता है। यह अत्यन्त रोचक तथ्य है कि जिस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से आम आदमी पार्टी पैदा हुई उस आंदोलन के लोग या तो आम आदमी पार्टी में गये या फिर भाजपा में। किसी अन्य पार्टी में वे नहीं गये। यह इन दोनों पार्टियों की सामूहिक जमीन को दिखाता है। 
    इतिहास के इस संक्षिप्त अवलोकन से यह स्पष्ट है कि आम आदमी पार्टी के छुटभैये नेता भले कुछ भी कहें, वे इन पूंजीवादी पार्टियों की बराबरी नहीं कर सकते जो अतीत में भारतीय समाज के संरचनागत रूपांतरण के निर्देशक थे भले ही आज वे कितने पतित क्यों न हों। यहां तक कि ये छुटभैये उस भूमिका को समझ भी नहीं सकते। 
    भारत के पूंजीवादी समाज की इस अवस्था में क्या आम आदमी पार्टी किसी तरह का संरचनागत परिवर्तन कर सकती है? क्या वह भारत की पूंजीवादी व्यवस्था को नई जमीन पर ले जा सकती है? नई राजनीति की बात करने वाली आम आदमी पार्टी क्या वास्तव में कुछ नया कर सकती है? 
    जब आज से चार साल पहले आम आदमी पार्टी के इन छुटभैयों ने पूंजीपति वर्ग के सहयोग-समर्थन से भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था तो कुछ लोगों को यही लगा था कि यह आंदोलन भारत की पूंजीवादी राजनीति को बदल डालेगा। यह भारत की पूंजीवादी व्यवस्था को एक नये धरातल पर ले जायेगा। भारत, यूरोप और अमेरिका जैसा बनने की ओर बढ़ चलेगा। बड़े शहरों के मध्यम वर्ग ने तथा विदेशों में जा बसे मध्यम वर्ग ने इसीलिए इस आंदोलन को जी खोलकर समर्थन दिया। वे भारत को एक विकसित पूंजीवादी देश के रूप में देखना चाहते थे। 
    लेकिन यह एक ऐसा सपना था जिसकी अपनी वस्तुगत जमीन नहीं थी। यह आज की साम्राज्यवादी दुनिया की हकीकत के नकार पर टिकी हुई खुशफहमी थी। साम्राज्यवादी मुल्क आज जो सारी दुनिया में लूटपाट मचाये हुए हैं उसमें भारत जैसे एक विशाल आबादी वाले पिछड़े मुल्क के लिए अपने पिछड़ेपन को छोड़कर विकसित मुल्कों की श्रेणी में पहुंचा पाना नामुमकिन है। यहां बड़े शहरों में उच्च व मध्यम वर्ग के कुछ समृद्धि के टापू तो खड़े हो सकते हैं पर समूचे देश का वैसा रूपांतरण नहीं हो सकता। इस तरह ऐसा कोई सरंचनागत परिवर्तन इस साम्राज्यवादी दुनिया में संभव नहीं है। 
    दूसरी बात यह कि जब स्वयं साम्राज्यवादी मुल्क ही चौतरफा पतन के शिकार हों तो फिर भारत जैसे पिछड़े मुल्क इस पतन को छोड़कर आगे कैसे निकल सकते हैं। भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे को ही लें तो आज साम्राज्यवादी दुनिया में इसका जो स्तर है उसकी भारत जैसे देशों में कल्पना नहीं की जा सकती। हां, वहां इस थोक भ्रष्टाचार के मुकाबले फुटकर भ्रष्टाचार पर कुछ नियंत्रण है पर क्या भारत जैसे अति भुखमरी वाले देश में फुटकर भ्रष्टाचार से मुक्ति संभव है? जैसा कि अरूंधती राय ने इंगित किया था, भारत जैसे देश में फुटकर भ्रष्टाचार गरीबों के लिए जिंदा रहने के तरीकों में से एक है।
    भारत जैसे देश में इस तरह का संरचनागत परिवर्तन संभव नहीं है यह बहुत जल्दी ही आम आदमी पार्टी के छुटभैयों की समझ में आ गयी। जनलोकपाल बिल को बहाना बनाकर दिल्ली सरकार से इस्तीफा देने वाले इन छुटभैयों ने बाद में इस मुद्दे को ही छोड़ दिया। इस बार के चुनाव प्रचार में यह उनकी ओर से कोई प्रमुख मुद्दा नहीं था। इसके बदले उन्होंने मुफ्त पानी, सस्ती बिजली तथा झुग्गी झोपडि़यों और अनिधिकृत कालोनियों को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया। प्रकारांतर से उन्होंने स्वयं अपने मूल एजेंडे को छोड़ दिया। 
    तो क्या अब भारत की पूंजीवादी व्यवस्था में किसी तरह का संरचनागत परिवर्तन संभव नहीं है। ऐसा नहीं है। ऐसा परिवर्तन संभव है और यह कई पिछड़े देशों में हुआ भी है। भारत के पूंजीवादी रूपांतरण के बावजूद इसकी विशाल आबादी देहातों में रहती है और करीब आधी आबादी खेती पर निर्भर है। यह रूपांतरण संभव है कि देहातों की यह आबादी सिमटकर केवल दस-बीस प्रतिशत रह जाये और बाकी आबादी शहरों में रहने लगे। लैटिन अमेरिकी देशों में यह रूपांतरण हो चुका है। भारत का पूंजीपति वर्ग यह रूपांतरण चाहता है। भूतपूर्व वित्तमंत्री तो अपना यह सपना जगजाहिर कर चुके हैं कि देश की नब्बे प्रतिशत आबादी शहरों में रहे। भारत में निजीकरण, उदारीकरण के सारे समर्थक यही चाहते हैं। इसीलिए वे किसानों और आदिवासियों के प्रति इतने कठोर हैं। 
    आम आदमी पार्टी के छुटभैये भारतीय समाज के इस संरचनागत परिवर्तन में अपनी भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन वे उसी तरीके से यह कर सकते हैं जैसे मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम ने किया था या जैसे कि मोदी कर रहे हैं। वैसे इन छुटभैयों ने औपचारिक तौर पर घोषित कर रखा है कि वे निजीकरण, उदारीकरण के सबसे बड़े समर्थक हैं। इनका नारा है- व्यवसाय करना सरकार का व्यवसाय नहीं है। बहुत सारी अन्य चीजों की तरह इन्होंने यह नारा भी साम्राज्यवादियों से उधार लिया है। तब फिर भारतीय पूंजीवाद के इन हालात में आम आदमी पार्टी के इन छुटभैयों की क्या नियति है? 
    आम आदमी पार्टी के योगेन्द्र यादव जैसे लोग एक लम्बे समय से यह कहते रहे हैं कि आम आदमी पार्टी को उस जगह को भरने के लिए बढ़ना चाहिए जो कांग्रेस पार्टी और समाजवादियों ने खाली की है। यानी उन्हें कल्याणकारी राज्य के नुमाइंदा पार्टी बनने की ओर बढ़ना चाहिए। व्यवहारतः उन्होंने दिल्ली की गरीब आबादी की मूलभूत समस्याओं को उठाकर इस ओर कदम बढ़ाये हैं। पर क्या निजीकरण, उदारीकरण के इस वैश्विक दौर में कल्याणकारी राज्य की वापसी इस तरह संभव है? व्यवहारिक उदाहरण क्या कहते हैं?
    लैटिन अमेरिका के तमाम देशों का उदाहरण, जिसमें ह्यूगो चावेज का वेनेजुएला भी शामिल है यह संभव नहीं है। होता केवल यही है कि कुछ रंग-रोगन कर गरीब जनता को खुशफहमी में रखने का प्रयास किया जाता है जो जल्दी ही असफल हो जाता है। इसी कारण एक-दो चुनावों के बाद दूसरी पार्टियां सत्ता में आ जाती हैं। 
    भारत में भी कल्याणकारी राज्य की ओर वापसी इतनी आसान होती तो भाकपा-माकपा की इतनी दुर्गति नहीं होती। इनकी समूची राजनीति ही यही है और इनका सामाजिक आधार इनसे यह मांग करता है। इसके बावजूद ये हाशिये पर जा खड़ी हुई हैं। 
    ऐसे में होगा यही कि गरीब आबादी की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के बदले ये छुटभैये मजमेबाजों के अपने चरित्र कि इस आबादी का उनसे मोहभंग न हो। पर जिंदगी की मूलभूत जरूरतों को यूं ही अनदेखा नहीं किया जा सकता। ऐसे में बहुत जल्दी ही गरीब आबादी का इनसे मोहभंग होगा। जितनी तेजी से गरीब आबादी इनकी ओर खिंची है, उतनी तेजी से उनसे दूर होगी। 
    आज नौ महीने बाद ही मोदी की बोलती बंद है। इन छुटभैयों और मजमेबाजों की भी बोलती बंद होने में बहुत देर नहीं लगेगी। 
    लेकिन इनकी चार सालों की गति ने जिन जनआकांक्षाओं को खासकर गरीब आबादी की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित किया है वे क्रांतिकारी आंदोलन के तेज उभार के वस्तुगत जमीन की ओर इंगित करती हैं। क्रांतिकारियों को इस दिशा में अपने प्रयास सौ-हजार गुना बढ़ा देना होगा।
सीरिजा, पोडेमास एवं अन्य
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    ग्रीस में सीरिजा (उग्र वाम का गठबंधन) ने हालिया चुनाव जीतकर वहां सरकार बना ली है। उसके नेता अलेक्स सिपारा प्रधानमंत्री बन चुके हैं। सीरिजा ने यह जीत ग्रीस पर बाहर से लादे जा रहे किफायत कदमों के अपने सर्वप्रमुख एजेंडे से हासिल की। 
    ग्रीस पर ये किफायत कदम यूरोपीय केंद्रीय बैंक, यूरोपीय संघ तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा लादे गये हैं। ये ग्रीस सरकार को दिये जाने वाले कर्जों की शर्तों के रूप में लादे गये जिससे कि इन कर्जों की वापसी हो सके। कम से कम घोषित उद्देश्य यही था।
    इसके फलस्वरूप ग्रीस की समग्र अर्थव्यवस्था और वहां की जनता के हालात में तेजी से गिरावट आई। ग्रीस का सकल घरेलू उत्पाद पिछले पांच सालों में पच्चीस-तीस प्रतिशत सिकुड़ गया है। वहां तनख्वाहों और पेंशनों में भारी कटौती की गयी है तथा बेरोजगारी आसमान छूने लगी है। जहां कुल आबादी की एक चौथाई बेरोजगार है वहां नौजवानों में आधे बेरोजगार हैं। 
    इस भयंकर हालत की प्रतिक्रिया होनी थी और हुई। 2004 में गठित हुई सीरिजा जो 2009 में केवल 4.5 प्रतिशत वोट पा सकी थी।, वह तेजी से बढ़ी और अब वह सत्ता में है। 
    इस बीच स्पेन में भी पोडेमास नाम के गठबंधन का तेजी से उभार हुआ है और कहा जा रहा है कि अगले चुनावों में यह सत्ता में आ सकता है। सीरिजा की तरह इसका भी गठन कुछ उग्र संगठनों द्वारा किया गया है। 
    इटली में पिछले चुनावों में फाइव स्टार मूवमेंट का उभार पिछले चुनाव की एक महत्वपूर्ण घटना थी। 
    इन मिलती-जुलती प्रवृत्तियों का एक खास निहितार्थ है। ये एक खास दिशाा में संकेत करती हैं। इनकी पहचान जरूरी है। 
    पिछले तीन दशकों में उदारीकरण-वैश्वीकरण की जो नीतियां लागू होती रही हैं उनका मतलब था मजदूर वर्ग के जीवन स्तर को गिराकर पूंजी का मुनाफा बढ़ाना। इसी के साथ अन्य मेहनतकश जनता के जीवन स्तर में गिरावट तथा उसकी छोटी सम्पत्ति का छीना जाना भी इसका हिस्सा था। 
    इसके परिणामस्वरूप मजदूर वर्ग एवं अन्य मेहनतकश जनता की जिंदगी बहदाल हुई तथा समाज में गैर बराबरी तेजी से बढ़ी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जो तथाकथित कल्याणकारी राज्य कायम हुए थे वे जर्जर कर दिये गये। पूंजीपति वर्ग ने बाकी आबादी पर हमला बोल दिया था। 
    इस हमले में उसकी सफलता का कारण यह भी था कि राजनीतिक संघर्ष में मजदूर वर्ग का पक्ष कमजोर हो चुका था। उसके समाजवादी राज्य खत्म हो गये थे, उसकी कम्युनिस्ट पार्टियां पतित होकर सुधारवादी बन चुकी थीं तथा सामाजिक जनवादी पार्टियां तो इस हद तक पतित हो गयी थीं कि उनमें और आम पूूंजीवादी पार्टियों में कोई फर्क नहीं रह गया था। यदि मजदूर वर्ग की मजबूती ने पूंजीपति वर्ग को कल्याणकारी राज्य तक पीछे हटने को मजबूर किया था तो अब उसकी कमजोरी ने इस कल्याणकारी राज्य का खात्मा कर दिया। 
    लेकिन यदि पूंजीपति वर्ग के हमले ने उसका मुनाफा बढ़ाया तो साथ ही समस्या भी पैदा की। मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता की जिंदगी में गिरावट के साथ उसकी पूंजी की संचय की समस्या दूसरे सिरे से संकट में फंस गयी। वह माल पैदा कर सकता था पर बेच नहीं सकता था। मजदूर-मेहनतकश आबादी की क्रय शक्ति गिराकर वह बाजार के फैलाव की उम्मीद नहीं कर सकता था। इसीलिए उदारीकरण-वैश्वीकरण का यह दौर एक आम ठहराव का दौर साबित हुआ। विकसित पूंजीवादी देशों में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर पहले के औसतन बहुत कम हो गयी और ऐसा होने लगा कि हर आर्थिक संकट के बाद अर्थव्यवस्था पूरी तरह उबरने के बदले फिर मंदी में फंसने लगी। 
    अर्थव्यवस्था की इस हालत से निजात पूंजीपति वर्ग ने अधिकाधिक वित्तीय सट्टेबाजी में पाई। इस तरह वे एक-दूसरे की और खासकर छोटे सम्पत्ति धारकों की जेबों पर हाथ साफ कर सकते थे। इस वित्तीय सट्टेबाजी ने पूंजी के और भी बड़े पैमाने पर पूंजी को कुछ ही हाथों में केन्द्रित करने की प्रवृत्ति को बढ़ाया। इससे गैर बराबरी और बढ़ी। 
    वित्तीय सट्टेबाजी का एक और परिणाम समूची वित्तीय व्यवस्था के ध्वंस होने और परिणामस्वरूप समूची अर्थव्यवस्था के भयंकर संकटग्रस्त होने में आता था। और वह आया। 2007 में वैश्विक वित्तीय व्यवस्था का जो ध्वंस शुरू हुआ वह सभी सरकारों के सारे प्रयासों के बावजूद आज भी जारी है। इसी के साथ आम तौर पर अर्थव्यवस्थाएं अभी भी संकट का शिकार हैं। 
    अपने भीषण शोषण और उतनी ही घृणित वित्तीय सट्टेबाजी के कारण पूंजीपति वर्ग ने जिस गहरे संकट को जन्म दिया था उससे उम्मीद की जाती थी कि वह पीछे हटेगा और कल्याणकारी राज्य की कुछ राहतों को बहाल करेगा। पाल क्रुगमैन और जोसेफ स्टिगलिच जैसे कुछ पूंजीवादी विचारकों ने इसकी वकालत भी की। पर व्यवहारतः पूंजीपति वर्ग उसी दिशा में और आगे बढ़ा जिस पर वह पिछले तीन दशकों से चल रहा था। उसने संकट का सारा बोझ मजदूर वर्ग एवं अन्य मेहनतकश जनता पर डाल दिया। इतना ही नहीं, उसने हमला और तेज कर दिया। इसी के परिणाम स्वरूप यह आश्चर्यजनक परिघटना देखने में आई कि संकट के समय में भी वित्तीय अधिपतियों की पूंजी में तेजी से वृद्धि हुई। स्थिति इतनी भयावह हो गयी कि जार्ज सोरोस जैसे वित्तीय सट्टेबाज स्वयं यह शिकायत करने लगे। वे सरकारों से अमीरों पर और कर लगाने की मांग करने लगे। आक्सफैम जैसी दान-दक्षिणा वाली संस्था बहुत चिंताजनक रिपोर्ट प्रकाशित करने लगी और टाम पिकेटी की गैर बराबरी पर केंद्रित किताब बेहद लोकप्रिय हो गयी। 
    पूंजीपति वर्ग (विकसित पूूंजीवादी देशों में साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग) की इस लूट पाट के खिलाफ संघर्ष फूटना ही था और वह फूटा। 2011 में यह संघर्ष चरम पर जा पहुंचा जब ग्रीस, स्पेन इत्यादि देशों में लाखों लोग चौक पर जम गये। संयुक्त राज्य अमेरिका में आकूपाई आंदोलन सैकड़ों शहरों में फैल गया। 
    पर यह स्वतः संघर्ष जितना व्यापक था उतना ही अप्रभावी साबित हुआ। वक्त के साथ स्वतः संघर्ष हल्के पड़ गये। शासक पूंजीपति वर्ग का हमला बदस्तूर जारी रहा। 
    इन स्वतः संघर्षों की यह विशेषता थी कि वे पहले की स्थापित पार्टियों के खिलाफ थे। इन पार्टियों में पतित कम्युनिस्ट पार्टियां और सामाजिक जनवादी पार्टियां भी शामिल थीं। इन पार्टियों के पिछले चार-पांच दशकों के रिकार्ड को देखते हुए यह एकदम स्वाभाविक था। इन पार्टियों की विचारधारा और व्यवहार दोनों ऐसे नहीं थे जो नये उभरते आंदोलनों और उनमें शिरकत करने वाले नौजवानों को प्रेरित कर सकें। इसीलिए ये संघर्ष न केवल स्थापित पार्टियोें के खिलाफ थे बल्कि गैर राजनीतिक भी। यह इनकी बहुत बड़ी कमजोरी थी और शासक वर्ग ने इसका पूरा फायदा उठाया। उसने बस स्वतः स्फूर्तता के खत्म होने का इंतजार किया और फिर हमला नये सिरे से बोल दिया। 
    पूंजीपति वर्ग के हमले और जनता की भयावह स्थिति को देखते हुए यह स्वाभाविक उम्मीद की जाती थी कि जब स्वतः स्फूर्त जनउभार हो तो उन पार्टियों का उत्थान हो जो स्वयं को मजदूर वर्ग एवं अन्य मेहनतकश जनता का नुमाइंदा कहती थीं। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उनकी हालत जस की तस बनी रही या उनमें गिरावट आई। यह इसलिए हुआ कि वे मजदूर-मेहनतकश जनता की निगाहों में बेहद गिर चुकी थीं। 
    ऐसे में इस बात की संभावना पैदा हुई कि ऐसी पार्टियां या जमावड़े अस्तित्व में आयें जो अतीत के कलंक से ग्रस्त न हों और जो स्वतः स्फूर्त उभार के मनोभाव को स्वर दे सकें। ग्रीस में सीरिजा एक ऐसा ही जमाबड़ा था जो बाद में पार्टी में तब्दील हो गया। स्पेन का पोडेमास तथा इटली का फाइव स्टार मूवमेंट इससे मिलते-जुलते हैं। गौरतलब है कि जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन में भी इस तरह के प्रयास हुए हैं जिनमें से कुछ पुरानी पार्टियों के नेतृत्व में हैं तो कुछ छोटे-छोटे संगठनों के नेतृत्व में।
    ग्रीस और सीरिजा के ठोस उदाहरण से यह परिघटना और ज्यादा समझ में आयेगी। 
    जब 2008 में विश्व आर्थिक संकट गहराया तो इसका ग्रीस की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा। लेकिन इससे भी ज्यादा बड़ी एक दूसरी बात हुई। ग्रीस के बैंक और वित्तीय संस्थान उसी तरह दीवालिया होने के कगार पर पहुंच गये जिस तरह संयुक्त राज्य अमेरिका के। पर इन्हें बचाने के लिए ग्रीस सरकार के पास वह सुविधा नहीं थी जो अमेरिकी सरकार के पास है यानी डालर छापने की। इसके विपरीत यूरोपीय संघ और यूरो क्षेत्र का हिस्सा होने के कारण ग्रीस सरकार की न केवल अपनी कोई मुद्रा नहीं थी बल्कि वह मनचाहे ढंग से अपना बजट भी नहीं बना सकती थी। 
    दूसरी ओर ग्रीस के जो बैंक और वित्तीय संस्थान संकटग्रस्त थे उनमें बड़ी मात्रा में पूंजी फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका के वित्तीय सट्टेबाजों की लगी हुई थी। यदि ग्रीस के बैंक डूबते तो इसका परिणाम इन सट्टेबाजों को भुगतना पड़ता। इतना ही नहीं, इस कारण फ्रांस, जर्मनी इत्यादि की वित्तीय व्यवस्था भी गहरे संकट में पड़ती।
    ऐेसे में इन वित्तीय सट्टेबाजों और इनकी सरकारों ने एक रास्ता निकाला। इन्होंने ग्रीस सरकार को कर्ज दिया और बदले में मांग की कि ग्रीस सरकार किफायत कदम लागू कर बजट संतुलित करे और कर्ज चुकाये। व्यवहार में इसका मतलब था मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता के जीवन स्तर को गिराकर वित्तीय सट्टेबाजों की जेबें भरना। यूरोपीय संघ, यूरोपीय केंद्रीय बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की तिकड़ी के जरिये इसे अंजाम दिया गया।
    इस लूट को अंजाम देने के लिए फ्रांसीसी व जर्मन साम्राज्यवादियों द्वारा भयंकर दुष्प्रचार भी किया गया। वित्तीय सट्टेबाजों की कारगुजारियों को आंखों से ओझल कर यह स्थापित करने का प्रयास किया गया कि ग्रीस की यह हालत वहां के आलसी लोगों की वजह से है। ग्रीस के आलसी लोग काम नहीं करते और ग्रीस सरकार कर्ज लेकर अपने आलसी लोगों को पालती रहती है। वक्त आ गया है कि ग्रीस सरकार और ग्रीसवासी अपनी आदत बदलें। इसकी शुरूआत किफायत कदमों से हो सकती है। 
    इस तरह के प्रचार ने ग्रीस के लोगों को आहत किया और उनके अंदर अंधराष्ट्रवादी तत्वों को प्रोत्साहित किया। गोल्डेन डान जैसी पार्टी का उत्थान एक ओर गरीब मुल्कों से आने वाले प्रवासियों के प्रति नफरत से हुआ तो दूसरी ओर फ्रांसीसी-जर्मन साम्राज्यवादियों के ग्रीस के लोगों के प्रति अपमानजनक व्यवहार से भी। 
    ग्रीस की मजदूर-मेहनतकश जनता की इस सबके प्रति शुरूआती प्रतिक्रिया एक ओर सत्ताधारी पार्टियों के अदला-बदली में अभिव्यक्त हुई तो दूसरी ओर स्वत-स्फूर्त आंदोलनों में। वर्षों से सत्तारूढ़ पासोक को हटाकर न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में आ गयी। लेकिन इससे ग्रीस के हालात में न तो कोई परिवर्तन होना था और न हुआ। स्वतःस्फूर्त आंदोलन भी एक समय बाद हल्के पड़ गये। 
    ग्रीस में भांति-भांति के छोटे-छोटे संगठनों ने 2004 में सीरिजा का गठन किया था। इसमें अपने को ट्राटस्कीपंथी, माओवादी कहने वाले संगठन थे तो पर्यावरणवादी संगठन भी। इन्होंने अपने गठबंधन को उग्र वाम का गठबंधन या सीरिजा कहा। शुरू में इस गठबंधन को कोई खास सफलता नहीं मिली। 2009 के चुनावों में इसे 4.5 प्रतिशत वोट मिले। 
    लेकिन जब हालत बद से बदतर होने लगे तो इस गठबंधन का भाग्य पलटा। 2012 के पहले चुनावों में इसका वोट तेजी से बढ़ा और वह सत्रह प्रतिशत वोट पाने में कामयाब रहा। इन चुनावों में ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी का भी वोट प्रतिशत दोगुना होकर 8 प्रतिशत तक पहुंच गया था। जब सरकार न बन पाने के कारण दो महीने बाद फिर चुनाव हुऐ तो इस बात की संभावना पैदा हुई कि सीरिजा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरे। यह वित्तीय सट्टेबाजों और साम्राज्यवादियों के लिए चिंता का विषय था। उन्होंने पूरा जोर लगा दिया कि सीरिजा चुनाव न जीत सके। फिर भी सीरिजा 27 प्रतिशत वोट पाने में सफल रहा जो डेमोक्रेटिक पार्टी से 2 प्रतिशत ही कम था। 
    न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के शासनकाल में किफायत कदम और कठोर हुए और इसी कारण जनमानस का झुकाव सीरिजा की ओर बढ़ा। वह धीमे-धीमे सत्ताधारी पार्टी बनने की ओर बढ़ी। और जब नया राष्ट्रपति न चुने जाने के कारण नये चुनाव हुए तो सीरिजा ने 36 प्रतिशत वोट हासिल कर नंबर एक पार्टी की स्थिति हासिल कर ली। नंबर एक पार्टी होने के कारण उसे ग्रीस संसद की 300 सीटों में से 50 प्रतिशत अतिरिक्त मिल गयी और वह 151 के बहुमत से केवल दो सीट पीछे रह गयी। ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी ने इसे सरकार बनाने के लिए समर्थन देने से इंकार कर दिया। फलतः सीरिजा में एक अन्य छोटी पार्टी के सहयोग से सरकार बना ली जो किफायत कदमों की विरोधी है। 
    सीरिजा का चरित्र स्पष्ट करने के लिए यह तथ्य ही पर्याप्त है कि ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी इसे समर्थन देने के लिए तैयार नहीं है हालांकि वह स्वयं सुधारवादी है। ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी की मांग है कि ग्रीस यूरोपीय संघ, यूरो क्षेत्र तथा नाटो से बाहर आये और ग्रीस अपने सारे कर्जों की अदायगी से इंकार करे। इसके विपरीत सीरिजा यूरोपीय संघ, यूरो क्षेत्र और नाटो में बने रहने की पक्षधर है। वह कर्जों में केवल कटौती की मांग कर रही है। वह किफायत कदमों को हल्का करने की बात करती है। 
    उदारीकरण के जमाने की समूची राजनीति इस कदर दक्षिण की ओर खिसक चुकी है कि जो सीरिजा किसी जमाने में मध्यमार्गी कहा जाता था वह आज उग्र वाम कहा जाता है। वास्तव में सीरिजा वाम जैसा कुछ नहीं है, उग्र वाम की तो बात ही क्या। वक्त के साथ वह पासोक का सुधरा हुआ संस्करण बन जाने के लिए अभिशप्त है। 
    पर ग्रीस और सीरिजा का उदाहरण यह दिखाता है कि मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता अपने जिंदगी के अनुभवों से सीखकर जिंदगी में बदलाव की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में उनके सामने सही क्रांतिकारी विकल्प प्रस्तुत करना फौरी कार्यभार बन जाता है। दुनिया के सभी देशों में क्रांतिकारी संगठनों के सामने आज यही सबसे बड़ी चुनौती है कि वे बदलाव की चाहत लिये हुए उठ खड़ी होती जनता के सामने एक सही विकल्प प्रस्तुत करें। ऐसा न होने पर कहीं सीरिजा, कहीं पोडेमास, कहीं फाइव स्टार मूवमेंट और कहीं आम आदमी पार्टी जनता की बदलाव की आकांक्षा का इस्तेमाल कर उसे छल रही होगी। 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और साम्राज्यवाद
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    फ्रांस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दों पर मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा हमला कर इसके सम्पादकों की हत्या किये जाने के बाद साम्राज्यवादी हलकों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बड़ी लम्बी-चौड़ी डींगें हांकी जा रही हैं। सबसे अदभुत नजारा वह था जिसमें फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैण्ड जैसे कई साम्राज्यवादी देशों के नेता इजरायल के बेंजामिन नेतन्याहू के साथ पेरिस में ‘एकता मार्च’ कर रहे थे। फिलिस्तीन पर इस आतंकी के हमले को अभी चार महीने भी नहीं गुजरे थे। 
    साम्राज्यवादियों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में यह व्यापक प्रचार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता है। इस प्रचार के जरिये यह स्थापित किया जाता है कि साम्राज्यवादी आजादी व जनवाद के पक्षधर हैं। (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जिसका हिस्सा है) जबकि उनके विरोधी इसके विरोधी। उनके विरोधी मुस्लिम कट्टरपंथी भी हो सकते हैं और राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट भी। यह भी स्थापित किया जाता है कि साम्राज्यवादी देशों में तो जनवाद है पर बाकी दुनिया में नहीं। इसी के साथ बुश से लेकर बराक ओबामा तक सभी यह प्रचार करते रहे हैं कि अफगानिस्तान, इराक, लीबिया इत्यादि पर हमला और कब्जा उन्होंने वहां जनवाद स्थापित करने के लिए किया था। 
    इस मामले में सच्चाई को जानने के लिए साम्राज्यवादियों के सरगना देश संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके शासकों को लिया जाये। उनके यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्या हाल हैं?
    एडवर्ड स्नोडेन, जुलियन असांज तथा फिलिप मैनिंग के नाम से सारी दुनिया के लोग परिचित हैं। उनमें से पहला रूस में शरण लिये हुए है, दूसरा लंदन में इक्वेडोर के दूतावास में तथा तीसरा जेल में है। इन तीनों का गुनाह क्या है? यही कि इन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा सारी दुनिया में जनवाद फैलाने की योजनाओं का खुलासा कर दिया। पर इस खुलासे से जो अमेरिकी साम्राज्यवादियों को खुशी होनी चाहिए थी कि उनकी नेक योजनाएं सारी दुनिया के सामने आ रही हैं पर वे नाराज हो गये। कारण बहुत सीधा था। उजागर हुई सूचनाओं से यह पता चला कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों की योजनाएं बिल्कुल भी नेक नहीं हैं। उनका एक सामान्य चरित्र है- दुनिया में अपने प्रभुत्व को मजबूत करने का। 
    अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सीधा सा मतलब है: आप उन बातों को कहने के लिए आजाद हैं जो दूसरों को खासकर जो सरकारों को नापंसद है। यदि केवल पसंद की बात कहने की आजादी हो तो इसका कोई मतलब नहीं होगा क्योकि अपनी पसंद की बात तो हर कोई सुनना चाहेगा और उसे कहने वाले को न केवल छूट देगा बल्कि प्रोत्साहित भी करेगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई मतलब केवल विरोध की अवस्था में ही बनता है। 
    स्नोडेन, असांज, मैनिंग इत्यादि अमेरिकी साम्राज्यवादियों की सारी दुनिया में कब्जाकारी गतिविधियों से सहमत नहीं थे। इसीलिए उन्होंने इसका विरोध करने की ठानी और इसके लिए उन्होंने यह रास्ता चुना कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों की असली योजनाओं से सारी दुनिया को परिचित करा दें। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हामी अमेरिकी साम्राज्यवादियों को यह बर्दाश्त से बाहर लगा और उन्होंने इनका जीना हराम कर दिया।         
    अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हामी साम्राज्यवादियों-पूंजीवादी हलकों में यह मान्यता प्राप्त है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो ठीक है पर जहां राष्ट्रीय हितों का मामला आता है वहां इस पर अंकुश लगाया जायेगा। स्नोडेन इत्यादि इसी अंकुश की वजह से ही जेलों में या निर्वासन में हैं। अब यह समझना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं हैं कि राष्ट्रीय हितों का मतलब साम्राज्यवादियों-पूंजीवादी हलकों के हित हैं क्योंकि वे ही राष्ट्र पर काबिज होते हैं। वे अपने हितों को ही सारे राष्ट्र का हित घोषित कर देते हैं। 
    पूंजीवाद-साम्राज्यवाद में राष्ट्रीय हितों का यह मामला इतना संगीन हो जाता है कि इसे संसद से भी छिपाया जाता है। सभी देशों में यह आम चलन है कि राष्ट्रीय हित के संवेदनशील मसलों को संसद के सामने पेश नहीं किया जायेगा। यह सरकार के केवल गिने-चुने लोगों को ही पता होगा। यहां पहुंचते-पहुंचते अभिव्यक्ति की पूंजीवादी-साम्राज्यवादी आजादी शून्य हो जाती है। यानी इस आजादी का मतलब केवल तभी तक है जब तक मसला गंभीर और संवेदनशील न हो। ठीक जब यह आजादी सबसे ज्यादा चाहिए तभी यह एकदम छीन ली जाती है। 
    अमेरिकी साम्राज्यवादियों का ही एक दूसरा मामला लें। अमेरिकी सरकार ने सारी दुनिया से तथाकथित आतंकवादियों को गैर-कानूनी तरीके से पकड़कर ग्वांतानामो में कैद कर रखा है। अब उनको यहां तेरह-चौदह साल हो गये, उतने साल जितने में भारत में उम्र कैद की सजा पूरी मानी जाती है। बराक ओबामा जब पहली बार अपना चुनाव प्रचार कर रहे थे तो उन्होंने चुनावी वादा किया था कि वे इस गैर-कानूनी जेल को बंद कर देंगे पर उनके राष्ट्रपति बनने के छः साल बाद भी वह जेल जस की तस है। 
    ग्वातानामों में कैद लोगों के सभी नागरिक अधिकारों का क्या हुआ जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी शामिल है? वे बिना किसी मुुकदमे के सजा क्यों काट रहे हैं? उन पर अमेरिकी अदालतों में मुकदमा क्यों नहीं चलाया जा रहा है? बिना किसी मुकदमे के उन्हें अपराधी कैसे मान लिया गया? क्या इसलिए कि सी.आई.ए. के खूनी अफसर उन्हें अपराधी घोषित करते हैं।
    साम्राज्यवादियों के चाटुकार-पैरोकार कह सकते है कि उपरोक्त सब सच है पर यह अपवाद है। सामान्य प्रचार माध्यमों यानी पत्र-पत्रिकाओं तथा टी.वी.-रेडियो की बात करें तो वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। वहां जो चाहे कह सकता है। 
    यह बड़ी अच्छी बात है पर अपनी बात कह सकने के लिए और उससे भी ज्यादा उसे प्रचारित करने के लिए संसाधन चाहिए और इन सारे संसाधनों पर बड़े एकाधिकारी पूंजीपतियों का कब्जा है। यहां सरकारी प्रतिबंध मौजूद नहीं हैं पर पूंजी का प्रतिबंध यहां और भी बड़े पैमाने पर मौजूद है। यहां प्रतिबंध इतना सख्त है कि इसे भेद पाना असंभव है। 
    2005 में इराक पर अमेरिकी हमले के पहले अमेरिका के लाखों लोगों को पता था कि सद्दाम हुसैन के पास मानव संहार के हथियार नहीं हैं और जार्ज बुश और अमेरिकी सरकार इस मामले में सफेद झूठ बोल रहे हैं। पर वे अपनी बात कितने लोगों तक पहुंचा पाये। जार्ज बुश समेत अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रचारतंत्र पर अपनी एकाधिकारी पकड़ के कारण इस बात में सफल हो गये कि दो-तिहाई से ज्यादा अमेरिकी जनता उनके झूठ पर विश्वास करने लगी। सच के ऊपर झूठ की यह विजय क्यों हुई? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बावजूद लाखों सच्चे लोग क्यों नहीं सफल हो पाये जबकि झूठे सफल हो गये? इसीलिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पूंजी की गुलाम है और सारे प्रचार माध्यमों पर एकाधिकारी पूंजीपतियों का कब्जा है। वे सच को झूठ और झूठ को सच साबित कर सकते हैं। वे कब्जे को स्वतंत्रता और स्वतंत्रता को गुलामी साबित कर सकते हैं। 
    कहा जाता है कि एकाधिकारी पूंजीवाद आम तौर पर जनवाद का दुश्मन है। वह जनवाद का विस्तार नहीं करता बल्कि उसे सीमित करता है। प्रचार माध्यमों के बारे में उपरोक्त बातें उसका केवल एक उदाहरण हैं। एकाधिकारी पूंजी हर जगह, हर क्षेत्र में अपने चरित्र के कारण ही कब्जा करती है। वह एकछत्र प्रभुत्व चाहती है। प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे से लेकर देशों पर कब्जा तक सब इसमें शामिल है। 
    ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या बचता है। एकाधिकारी पूंजी इस आजादी को क्यों बर्दाश्त करेगी? क्यों वह अपनी हर खूनी गतिविधि पर सवाल उठता सहन करेगी?
    एकाधिकारी पूंजी दोनों तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचल देती है- पूंजी की ताकत से भी और राज्य सत्ता की ताकत से भी। प्रचार के सारे माध्यम एकाधिकारी पूंजी के कब्जे में आ जाते हैं, लेेखक, पत्रकार, संपादक इत्यादि खरीद लिये जाते हैं, विरोधियों को चौपट कर दिया जाता है इत्यादि-इत्यादि। लेकिन यदि मामला इससे भी न संभले तो प्रत्यक्ष-परोक्ष तरीके से राज्य सत्ता का बल प्रयोग लाजिमी हो जाता है। अमेरिका में 1950-60 के दशक में मेकार्थी आतंक से लेकर मार्टिन लूथर किंग तथा मैलकम एक्स तक की हत्या का एक लम्बा सिलसिला है। 
    आज साम्राज्यवादियों के विरोधियों की एक लम्बी कतार मौजूद है। इसमें प्रतिक्रियावादियों से लेकर क्रांतिकारियों तक सभी मौजूद हैं। साम्राज्यवादी इन्हें कुचलने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। इनमें बल प्रयोग से लेकर वैचारिक हमले तक सब शामिल हैं।
    इस्लामी आतंकवादियों के मामले को ही लें। आज इस्लामी आतंकवादियों के जितने समूह मौजूद हैं वे सभी बिना किसी अपवाद के साम्राज्यवादियों द्वारा या उनके गुर्गों द्वारा पाले-पोसे गये हैं। उन्हें सैनिक तौर पर प्रशिक्षित करने से लेकर पैसा और हथियार मुहैय्या कराने तक का सारा काम साम्राज्यवादियों या उनके गुर्गों ने किया है। उन्होंने ही इनके प्रचार के लिए प्रगतिशील और क्रांतिकारी ताकतों को कमजोर किया।
    लेकिन एक बार जब वे आतंकवादी भस्मासुर बन गये तो साम्राज्यवादियों ने इन्हें शैतान की श्रेणी में रख दिया। उनके खिलाफ धुंआधार प्रचार किया गया और इस तथ्य को हर तरीके से झुठला दिया कि इन समूहों को पहले साम्राज्यवादियों ने ही खड़ा किया और पाला-पोसा था। इस तरह साम्राज्यवादी चित और पट दोनों तरीकों से खेलते हैं तथा इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पूरी तरह से उनका साथ देती है क्योंकि वह स्वयं इन्हीं साम्राज्यवादियों की गुलाम है। 
    शार्ली एब्दो के विशिष्ट मामले को लें। इस पर हमले का विरोध करने वालों ने इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भी थे। क्या इस खूनी को किसी भी जनवादी प्रदर्शन में बर्दाश्त किया जाना चाहिए। इजरायल आज फिलस्तीन को पूरी तरह से हड़प चुका है और अपनी आजादी की मांग करने वालों को उसने आतंकवादी घोषित कर रखा है। वह गाहे-बगाहे दावा करता है कि फिलिस्तीनी राष्ट्रवादियों के विरुद्ध उसे वैसे ही कार्यवाही का अधिकार है जैसे अमेरिका को अलकायदा के विरुद्ध। नेतन्याहू इजरायल के घृणित शासकों में सबसे आगे है। 
    यह नेतन्याहू, डेविड कैमरून, फ्रासुआं ओलां तथा अंजेला मर्केल की बाहों में बाहें डालकर बड़ी शान के साथ एकता मार्च में शामिल होता है और पेरिस के इस प्रदर्शन में अपनी उपस्थिति मात्र से ही यह साबित करता है कि शार्ली एब्दों पर हमला करने वाले इस्लामी आतंकवादी और फिलिस्तीन की आजादी के लिए लड़ने वाले भांति-भांति के राष्ट्रवादी एक ही जमात के हैं। साम्राज्यवादी उसे यह करने की आजादी देते हैं क्योंकि उनके समर्थन के बल पर मार्च में नेतन्याहू की यह उपस्थिति फ्रांस सहित सारी दुनिया के मुसलमानों में यह संदेश देती है कि यह एकता मार्च सभी धर्मों के अनुयाइयों की एकता को प्रदर्शित करने के लिए नहीं किया गया था बल्कि यह मुसलमानों के खिलाफ एकता मार्च था। अभिव्यक्ति की यह ऐसी स्वतंत्रता थी जो साफ तौर पर मुसलमानों के खिलाफ थी। शार्ली एब्दो पर हमला करने वालों के प्रति भले ही आम मुसलमानों की कोई सहानुभूति न रही हो पर इस एकता मार्च ने जरूर यह सहानुभूति पैदा की होगी। यदि नेतन्याहू किसी चीज के विरोध में हैं तो जरूर वह ठीक होगी। 
    शार्ली एब्दो के मामले में साम्राज्यवादियों ने तुरंत उस भावना का फायदा उठाया जो इस हमले के कारण स्वतः ही जनमानस में पैदा हुई थी, भले ही वह जन किसी भी धर्म का अनुयाई हो। डेविड कैमरून, फ्रांसुआ ओलां और अंजेल मर्केल ने तुरंत इसे अपनी साम्राज्यवादी कार्यवाही के लिए इस्तेमाल कर लिया। इसी कारण बेंजामिन नेतन्याहू तुरंत वहां पहुंच गया। वह एक ऐसा प्रतीक था जो सैकड़ों लेखों और हजारों भाषणों से ज्यादा प्रभावी था। एक लम्बे समय में साम्राज्यवादियों ने अपनी इन गतिविधियों के कारण धीरे-धीरे मामले को वहां पहुंचा दिया है जहां साम्राज्यवादी देशों की जनता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी को जायज मानने लगी है। ट्विन टावर पर हमले के तुरंत बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने अपने यहां पेट्रियट नाम का कानून लागू किया जो अमेरिकी सरकार को बड़े पैमाने पर निगरानी का अधिकार देता है। इसी तरह सूचनाओं के आदान-प्रदान पर बड़े पैमाने पर पाबंदी लगाता है। इसी तर्ज पर कई कानून इंग्लैण्ड वगैरह में भी बने। सामान्य नागरिक अधिकारों में यह कटौती साम्राज्यवादी उस भय के वातावरण के कारण करने में सफल हो रहे हैं जिस वातावरण को उन्होंने खुद ही तैयार किया होता है।
    साम्राज्यवादी मुल्कों से इतर भारत जैसे पिछड़े पूंजीवादी देशों की बात करें तो यहां हालात कोई कम संगीन नहीं हैं। यहां नागरिक अधिकार और भी सीमित हैं और अभिव्यक्ति का आजादी पर पहले ही काफी अंकुश रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी पर थानेदार की मूंछे अंग्रेेजों के जमाने से ही हावी हैं। पिछले दो-तीन दशकों में हालात बद से बदतर हुए हैं। कश्मीर, पूर्वोत्तर और मध्य भारत में क्या हो रहा है यह कोई नहीं जानता क्योंकि वहां राज्य सत्ता का डंडा ही चलता है और पूंजीवादी प्रचारतंत्र अपनी व्यक्ति की रक्षा की खातिर खुद ही अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेता है। पूंजीवादी प्रचारतंत्रों का शोर जितना बढ़ता जाता है सही सूचनाओं का अभाव बढ़ता जाता है। 
    भारत में अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता का आलम यह है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे नरसंहार के दोषी देश के तारनहार बने हुए हैं। जिन्हें घोर अपराधी घोषित कर दंड दिया जाना चाहिए था वे देश की तकदीर तय कर रहे हैं। और ऐसा इसलिए हो रहा है कि देश के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की यही चाहत है और उसका प्रचार माध्यम यह कर रहा है। विरोधी आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हो रही है। 
    साम्राज्यवाद-पूंजीवाद के इस दौर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की यही हकीकत है। इसे पहचान कर ही इस हालत को बदलने की ओर बढ़ा जा सकता है।   
विज्ञान, विज्ञान का इतिहास और पोंगापंथ
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
इस समय संघी पोंगापंथी बहुत सक्रिय हैं। वे ज्ञान के हर क्षेत्र में अपने पोंगापंथ का प्रसार करना चाहते हैं। इतिहास से लेकर विज्ञान तक वे सब चीजों को उलट-पुलट कर अपने पोंगापंथ के हिसाब से ढाल देना चाहते हैं। 
एक लम्बे समय से संघी पोंगापंथियों ने यह प्रचारित कर रखा है कि प्राचीन भारत में विज्ञान इतना विकसित था कि आज का विज्ञान उसके सामने कुछ भी नहीं है। आज का विज्ञान, मुख्यतः पश्चिमी देशों में विकसित हुआ, उसी को चुराकर विकसित किया गया है। खासकर आज की हर विकसित तकनीक पर वे अपना दावा करते हैं। 
जो चीज पहले महज संघी किवदंतियों का हिस्सा थी, अब वह संघियों के दिल्ली में सत्तानशीन हो जाने के बाद अधिकारिक तौर पर घोषित की जा रही है। स्वयं स्वनामधन्य मोदी देश-दुनिया के सामने बिना पलक झपकाये यह घोषित करते हैं कि महाभारत काल में जेनेटिक साइंस और प्लास्टिक सर्जरी थी। ऐसा न होता तो न तो कर्ण पैदा होते और न ही गणेश। उसी को आगे बढ़ाते हुए जनवरी के शुरू में मुंबई में आयोजित इंडियन साइंस कांग्रेस में बकायदा ऐसे पर्चें पढ़े गये जिसमें प्राचीन काल में एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर जाने वाले विमानों की बात की गयी। ऐसे एक नहीं बल्कि कई पर्चे इस कांग्रेस में पेश हुए। 
इन सबका असल आशय क्या है, इस सबके पीछे असल प्रेरक शक्तियां क्या हैं? इसे जानना जरूरी है। संघी पोंगापंथ का मुकाबला केवल इसी तरह किया जा सकता है।
मामले को समझने की शुरूआत विज्ञान और तकनालाजी के फर्क से करना फायदेमंद होगा। विज्ञान या सटीक भाषा में बात करें तो प्रकृति विज्ञान प्रकृति में कार्यरत अलग-अलग स्तर के नियमों का उद्घाटन करता है। इन अलग-अलग स्तरों के कारण ही अलग-अलग तरह के विज्ञान हैं मसलन भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान इत्यादि। प्राकृतिक नियमों की खोज करने वाले वैज्ञानिक इस मायने में ज्ञान-पिपासु होते हैं कि उन्हें इस बात से ज्यादा मतलब नहीं रहता कि इन नियमों का मानव समाज के लिए क्या परिणाम निकलेगा। 
लेकिन सच कहें तो केवल प्रकृति विज्ञानी ही अपने बारे में और अपने पेशे के बारे में ऐसा सोचते हैं और वह भी तब जब वे अपने बारे में बहुत भावुक और आदर्शवादी हो रहे होते हैं। सच तो यह है कि विज्ञान और वैज्ञानिकों का हमेशा ही समाज से ताल्लुक रहा है और समाज की जरूरतें ही उनकी वैज्ञानिक खोज की अंततः मूल प्रेरक शक्ति रही हैं। समाज की ये जरूरतें दो रूपों में सामने आती हैं। एक तो मानव के आस-पास की दुनिया की व्याख्या के रूप में तथा दूसरा मानव जीवन के लिए जरूरी तकनीक के रूप में। स्वयं इन दोनों में घनिष्ठ संबंध रहा है। 
मानव मानव इसलिए है कि वह तकनीक का आविष्कार करता है। फैंकलिन के शब्दों में वह ‘टूल मेकिंग एनिमल’ है यानी ‘औजार बनाने वाला जानवर’। पिछले बीस लाख सालों में इंसान जानवरों से आगे बढ़कर इंसान इसलिए बन गया कि उसने औजार बनाये और उनका इस्तेमाल कर अपने लिए जीवन निर्वाह के साधन पैदा किये। उसने बाकी जानवरों की तरह प्रकृति प्रदत्त चीजों का केवल इस्तेमाल करने से आगे बढ़कर उन्हें अपनी जरूरतों के हिसाब से ढालना शुरू किया और इसी प्रक्रिया में नई-नई जरूरतें पैदा कीं। इस चीज ने शुरूआती मानव, मानवभ वानर (ऐप) की शारीरिक और मानसिक संरचना को बदल डाला और एक लम्बी प्रक्रिया में आधुनिक मानव का जन्म हुआ। उपरोक्त निश्चित अर्थ में मानव अपनी तकनीक की पैदाइश है। यानी तकनीक मानव के साथ प्राकृतिक तौर पर सम्बद्ध है। 
इस तकनीक के साथ विज्ञान आवश्यक रूप से संबद्ध होता है और एक के विकास के साथ दूसरे का विकास होता चला जाता है। जब इंसान पहली बार पत्थर का हथियार बनाता है तो साथ ही इस प्रक्रिया में वह यह भी जानता जाता है कि किन पत्थरों से हथियार बनाये जा सकते हैं और किनसे नहीं। यानी आज की ‘जियोलाॅजी’ के हिसाब से बात करें तो वह पत्थर की कठोरता और भंगुरता के बारे में कुछ ज्ञान हासिल करता है। इसी तरह जब इंसान आग पैदा करना सीखता है तो संबंधित पत्थरों और फूस के बारे में भी कुछ जानकारी हासिल करता है। इस तरह टुकड़ों-टुकड़ों में हासिल ज्ञान से अपने आस-पास की प्रकृति के बारे में एक समग्र तस्वीर बनाने का प्रयास करता है। तकनीक और उसके साथ विज्ञान के विकास के साथ यह तस्वीर और बेहतर होती जाती है। हम एक ज्यादा बकवास परिकल्पना से कम बकवास परिकल्पना की ओर बढ़ते चले जाते हैं। 
विज्ञान और तकनीक के संबंधों के बारे में ये सामान्य बातें संघी पोंगापंथियों के सारे हवा महल को चुटकियों में धराशाई कर देती हैं। आज विज्ञान इतनी प्रगति कर गया है कि उसके जटिल सिद्धांत सामान्य लोगों के समझ से परे जा चुके हैं। खासकर बीसवीं सदी की शुरूआत में जो सापेक्षिकता का सिद्धांत और क्वांटम मेकेनिक्स का सिद्धांत सामने आया वह बेहद दुरूह साबित हुआ। वह इतना दुरूह और अमूर्त था कि आम लोगों द्वारा उस पर किसी भी तरह की पकड़ बना पाना लगभग असंभव हो गया इसके ठीक उलटे इन पर आधारित तकनीक एक से एक चमत्कारिक होती थी और विज्ञान कथा की कल्पनाओं से भी आगे निकल जाती थी। रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट, परमाणु बम, क्लोनिंग इत्यादि ऐसी चीजें हैं क्या तो आम क्या तो खास हर किसी को चमत्कृत कर देती हैं। इन सबके जरिये विज्ञान ने वह प्राधिकार हासिल कर लिया जो पहले धर्म को हासिल था। विज्ञान सच का पर्याय बन गया। ‘विज्ञान भी यह कहता है’ ऐसा वाक्य हो गया जो तर्क के रूप में सारी बात का अंत कर देता है। यह इस कदर मान्यता प्राप्त हो गया कि धर्म को भी अपनी धार्मिक मान्यताओं की पुष्टि के लिए विज्ञान की शरण लेना जरूरी हो गया। 
मजे की बात यह है कि विज्ञान को यह प्राधिकार प्रकारांतर से हासिल हुआ यानी तकनीक के जरिये। लोग वैज्ञानिक सिद्धांतों को नहीं बल्कि उन पर आधारित तकनीक को सलाम करते हैं और उसके जरिये सिद्धांत प्रतिष्ठित हो जाते हैं। हालांकि उन सिद्धांतों को ज्यादातर लोग नहीं जानते और जो जानते हैं भी उनमें से बहुत थोड़े से ही उसे समझते हैं। 
संघी पोंगापंथियों ने प्राचीन भारत की जब अपनी गौरव गाथा गढ़नी शुरू की तो उन्होंने खुद को इसी तकनीक पर आधारित किया। उन्होंने  दावा किया कि प्राचीन भारत में अमुक-अमुक तकनीक मौजूद थी (विमान, मिसाइल, परमाणु बम, टेलीविजन इत्यादि)। उन्होंने बाकायदा बताया कि किन धर्म ग्रन्थों में, किन महाकाव्यों में और यहां तक कि किन विज्ञान व चिकित्सा की किताबों में इस तकनीक का जिक्र है। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि किन किताबों में इन तकनीकों के पीछे के विज्ञान के बारे में बात की गयी थी। सापेक्षिकता के सिद्धांतों और क्वांटम मेकेनिक्स के सिद्धांतों की कहां पर चर्चा है। 
यह स्वाभाविक था। प्राचीन काल में विभिन्न तरह की तकनीकों के बारे में कल्पना की उड़ानें भरी जा सकती थीं या उनमें वर्णित चीजों की आज की तकनीकों के संदर्भ में व्याख्या की जा सकती है। पर वैज्ञानिक सिद्धांतों की बात कुछ और है। उनमें कल्पना की उड़ान बहुत दूर तक नहीं ले जा सकती है और अन्य की सिद्धांतों के रूप में व्याख्या बहुत उलझन भरी साबित होती है। 
इसीलिए ऐसा होता है कि आज की हर आधुनिक तकनीक पर तो संघी दावा करते हैं पर आज के प्रकृति विज्ञान के सिद्धांतों पर दावा करना उनके लिए मुश्किल साबित होता है। वे प्राचीन काल में जेनेटिक इंजीनियरिंग के होने की बात करते हैं पर नहीं बता पाते कि जीन की आणविक संरचना के बारे में उनके ग्रंथों में कहां क्या लिखा है। परमाणु बम का दावा करने वाले परमाणु की आतंरिक संरचना पर कोई बात नहीं कर पाते। किसी ने ठीक ही टिप्पणी की है कि प्राचीन भारत में इस सबका दावा करने वालों को उनकी संघी सरकार को चाहिए कि सारे साधन मुहैय्या कर उनके ग्रंथों के साथ बैठा दिया जाये और देखा जाये कि वे दस-बीस सालों में इन प्राचीन ग्रन्थों से किस नई तकनीक का आविष्कार करते हैं।
असल में प्राचीन काल में उपलब्ध वैज्ञानिक ग्रंथ मौजूद हैं। इनमें चरक संहिता से लेकर आर्यभट्ट तक के ग्रंथ हैं। ये वैज्ञानिक ग्रंथ प्राचीन काल की परंपरा में हैं और इनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें नहीं पता कि वेदों-पुराणों में क्या लिखा है।
इन प्राचीन वैज्ञानिक ग्रन्थों में हम क्या पाते हैं? आज के हिसाब से बेहद निम्न स्तर का विज्ञान पर अपने जमाने के हिसाब से बेहद उच्च स्तर का। प्राचीन काल में भारत में मौजूद विज्ञान की बराबरी केवल चीन या यूनान में ही हो सकती थी और कई विशिष्ट मामले में भारतीय विज्ञान इनमें अग्रणी था। अंक की दाशमिक से तो आज हर कोई वाकिफ है और शून्य के प्रयोग से भी। 
इस साइंस कांग्रेस में एक पर्चे में दावा किया गया कि प्राचीन भारत में बीजगणित मौजूद था। अवकलन गणित भी था। ऐसा भी हो सकता है और नहीं भी। यह तथ्य का मामला है। पर क्या आज का गणित इन तक सीमित है? यदि बीजगणित और अवकलन गणित प्राचीन भारत की उपलब्धियां हों भी तो वे आज की गणित के सामने कहीं नहीं ठहरतीं।
निःसंदेह प्राचीन भारत में विज्ञान अपने जमाने के हिसाब से बहुत विकसित थां वह अपने जमाने में सबसे विकसित विज्ञानों के समकक्ष या उससे आगे था। इसी तरह उस जमाने के हिसाब से भारत में तकनीक भी बहुत विकसित थी। भारत की जलवायु, उपजाऊ जमीन और तकनीक के कारण ही भारत सोने की चिडि़या कहा जाता था।। 
लेकिन गौतमबुद्ध से लेकर गुप्त वंश तक भारत में ज्ञान-विज्ञान का जो विकास हुआ वह उसी रूप में जारी नहीं रह सका। समय के साथ धार्मिक पोंगापंथ और सामाजिक रूढि़वादिता विज्ञान पर हावी होने लगी और विज्ञान का गला घुटने लगा। हालात यहां पहुंच गये कि वराहमिहिर का काल आते-आते सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण के कारणों की सही जानकारी होने के बावजूद वैज्ञानिक गं्रथों में राहु-केतू की कथा को जगह देनी पड़ी। 
यह धार्मिक और सामाजिक रूढि़वादिता वही थी जो आज संधी पोंगांपथियों की है। यह आश्चर्यजनक किंतु सत्य है कि जिस पांेगापंथ ने भारत में विज्ञान का गला घोंटा उसके आधुनिक झंडाबरदार ही आज प्राचीन भारत के गौरवशाली विज्ञान के झंडाबरदार बन रहे हैं। असल में आज भी विज्ञान के उतने ही दुश्मन थे जितने पुराने जमाने में। 
भारत की वर्ण, जाति व्यवस्था और मध्यकालीन हिन्दू धर्म ने न केवल वैज्ञानिक विचारों के विरूद्ध चौतरफा माहौल बना दिया बल्कि वह संरचनागत ढांचा तैयार कर दिया कि वैज्ञानिक विचारों का विकास असंभव हो गया। ज्ञान-विज्ञान केवल थोड़े से पोगापंथी ब्राह्मणों, पुरोहितों तक सीमित हो गया। इनमें दार्शनिकों और वैज्ञानिकों को भी धर्मशास्त्रों से अपनी संगति बैठानी पड़ती थी। वे ऐसी कोई बात नहीं कर सकते थे जो धर्मशास्त्रों के विरूद्ध हो।
मध्यकालीन यूरोप में भी विज्ञान की गति कोई बहुत अच्छी नहीं थी। लेकिन वहां पुनर्जागरण काल से अरबों के जरिये हासिल यूनानी, रोमनी ज्ञान-विज्ञान को लेकर नया ज्ञान-विज्ञान विकसित होने लगा। यह नये उभरते पूंजीपति वर्ग की जरूरतों के अनुरूप था जिसने कुछ समय बाद इतनी तेजी पकड़ ली कि धर्म से टकराने लगे। धर्म का विज्ञान से यह टकराव लम्बे समय तक जारी रहा। अंततः विज्ञान विजयी रहा। वह इस सीधे से तथ्य के कारण हुआ कि धर्म पुरानी सामंती व्यवस्था का आधार था जबकि विज्ञान नये पूंजीपति वर्ग की जरूरत। इस तरह पूंजीवाद के साथ नये ज्ञान-विज्ञान के युग का, आधुनिकता का भी उदय हुआ। 
भारत में यह प्रक्रिया नहीं घटित हो पायी। यूरोप के पुनर्जागरण काल का समकालीन भारत का भक्ति आंदोलन भारतीय समाज की जड़ता नहीं तोड़ पाया और एक नये धर्म तथा कुछ नये संप्रदायों को जन्म देकर विलीन हो गया। राजनीतिक तौर पर मुगलकालीन भारतीय सामंती समाज छोटे-छोटे सामंती राज्यों में बिखर गया जबकि आर्थिक तौर पर विकसित दस्तकारी और माल व्यवस्था आगे नहीं बढ़ पायी। 
दूसरी ओर यूरोपीय पूंजीपति ठीक अपनी विकसित होती विज्ञान और तकनीक के बल पर भारत आ पहुंचे और यहां पर कब्जा कर लिया। इसके बाद यहां ज्ञान-विज्ञान अंगे्रजों के जरिये आयातित होकर पहुंचा। प्राचीन काल की अपनी उपलब्धियों को कब का भूल चुके भारतीय नई आयातित तकनीक से चमत्कृत होने लगे और तब से लेकर आज तक का काल चमत्कृत होने का ही काल है। इसका एक परिणाम देवकीनंदन खत्री का चंद्रकांता उपन्यास की कल्पना थी तो दूसरा परिणाम प्राचीन भारत में आज की हर संभव तकनीक की खोज। पिछले सौ साल ऐसे ही निकले हैं। पश्चिमी देश अपनी विकसित विज्ञान तकनीक के बल पर नई-नई तकनीक का आविष्कार करते गये हैं और राष्ट्रीय हीन भावना का शिकार पोंगापंथी हर नई तकनीक को वेदों-पुराणों में पहले से मौजूद होना साबित करते रहे हैं। 
वास्तव में एक देश या ‘राष्ट्र’ के तौर पर देखें तो भारतवासियों को प्राचीन काल में अपनी सभ्यता-संस्कृति पर गर्व करने के लिए बहुत कुछ है। विज्ञान, दर्शन, कला हर स्तर पर प्राचीन भारत (‘वेदों-पुराणों’ वाला नहीं) अपने जमाने के हिसाब से बहुत विकसित था। प्राचीन काल में दर्शन तो केवल तीन सभ्यताओं में ही मौजूद था। चीनी, यूनानी, और भारतीय सभ्यता में। भारत में विज्ञान-तकनीक उस जमाने के हिसाब से बहुत उन्नत थी। इनमें से कुछ तभी यूनानी-रोमनी सभ्यता को ज्ञात थीं। बाद में अरबों के जरिये यूनानी-रोमनी सभ्यता का ज्ञान-विज्ञान तथा भारत का ज्ञान-विज्ञान पुनर्जागरण काल में यूरोप को सम्प्रेषित हुआ जो अपनी बारी में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का आधार बना। इस तरह चीनीयों की तरह भारतीय भी दावा कर सकते हैं कि बिना उनके योगदान के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की वह प्रगति नहीं हुई जो वास्तव में हुई। 
लेकिन भारत के आधुनिक संघी पोंगापंथियों को इससे संतोष नहीं है। वे इस कदर राष्ट्रीय हीन भावना से ग्रसित हैं कि हर कीमत पर भारत को सबसे ऊपर रखना चाहते हैं भले ही उन्हें कितना ही झूठ बोलना पड़े, कितना झूठा इतिहास लिखना पड़े। आज उनके भारत को तो दुनिया में कोई भाव दे नहीं रहा है। इसलिए एक ही रास्ता बचता है- अपनी महानता को प्राचीन काल में खोजना और उसे प्रचारित करना। यह उस उजड़े छोटे सामंत की तरकीब है जो अपने खानदान के अतीत का झूठा गुणगान करता रहता है। यह नेहरू की तरह एक राष्ट्र की खोज नहीं है बल्कि एक राष्ट्र का आविष्कार है जो इतिहास में कभी था ही नहीं। 
संघी प्राचीन भारत के वास्तविक गौरव तक खुद को सीमित नहीं कर सकते। यह केवल इसी कारण नहीं कि तब उनकी हीनभावना का कोई समाधान नहीं होगा बल्कि इस कारण भी कि यह सवाल उनके ऊपर ब्रह्म राक्षस की तरह सवार हो जायेगा कि प्राचीन भारत में ज्ञान-विज्ञान का गला किसने घोंटा? आधुनिक पोगापंथी अपने पूर्वजों के कुकर्मों की जबावदेही से बच नहीं सकते। इसीलिए वे चाहते हैं कि झूठे प्रचार के प्रभाव में यह सवाल गायब हो जाये।

‘वेदों-पुराणों’ के ‘विज्ञान’ का यही निहितार्थ है।  
संस्कृत और संस्कृति
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    केन्द्र की संघी सरकार ने अपनी संघी परियोजनाओं को परवान चढ़ाने के लिए जो कदम उठाये हैं उनमें एक है संस्कृत भाषा को स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में अनिवार्य करना। यह आदेश जारी किया गया है कि स्कूलों में तीसरी भाषा के तौर पर संस्कृत को पढ़ाया जाये और अंग्रेजी के अलावा अन्य किसी भाषा को अतिरिक्त भाषा के तौर पर ही जगह दिया जाये। 
    संघियों का कहना है कि संस्कृत भारत की संस्कृति से जुड़ी हुई है तथा इसे बढ़ावा मिलने से भारतीय संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं से प्रदूषित भारतीय संस्कृति इस प्रदूषण से मुक्त होगी। इसी के साथ ही उनके हमले का निशाना वह संस्कृति भी है जो भारत में इस्लाम के प्रभाव में पिछले सात-साठ सौ साल में इस देश में विकसित हुई है जिसे आम तौर पर गंगा-जमुनी तहजीब कहा जाता है तथा हिन्दी और उर्दू जिसके अहम हिस्से हैं। 
    संस्कृत के पक्ष में संघियों का कहना है कि यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है, यह सबसे ज्यादा विकसित है तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल है। कुछ और भी प्रतिबद्ध संघी कहते हैं कि यह देववाणी या देव भाषा है यानी इसका आविष्कार इंसानों ने नहीं बल्कि देवताओं ने किया था। 
    वास्तव में क्या है संस्कृत का इतिहास और क्या है इसका संस्कृति से संबंध? आज संस्कृत की उपयोगिता क्या है? संघियों के सारे प्रयास के बावजूद इसका भविष्य क्या है?
    इतिहासकारों और भाषाशास्त्रियों के अनुसार संस्कृत प्रोटो इंडो-यूरोपियन भाषाओं की इंडो-इरानियन उप शाखा की इंडो-आर्यन उप शाखा है। उपरोक्त का आशय यह है यूरोप, ईरान से लेकर भारत तक में प्राचीन काल में जिन भाषाओं का प्रचलन हुआ वे मूलतः किसी एक स्रोत से पैदा हुई थीं। इस स्रोत से एक शाखा भारत-ईरान की ओर चली गयी और बाद में इनमें भी अलगाव हो गया। इस तरह संस्कृत, अवेस्ताकाल की ईरानी और प्राचीन काल की ग्रीक और लैटिन भाषाओं में उपरोक्त तरीके का संबंध था।          
   भारत में जब आर्य आये (1800-1200 ईसा पूर्व) तब उनमें एक तरह की संस्कृत भाषा प्रचलित थी। यह बोलचाल की भी भाषा थी और धार्मिक अनुष्ठानों व कर्मकाण्डों की भी। तब वह एक जीवन्त भाषा थी। उस समय ऋगवेद की जो वैदिक रचनाएं गढ़ी गयीं वे इसी भाषा में थीं। 
    वैदिक काल की यह संस्कृत उत्तर वैदिक काल में भी चलती रही। लेकिन महाकाव्यों यानी महाभारत और रामायण की रचना होते-होते (तीसरी और चौथी ईसा पूर्व) इस संस्कृत के बदले एक अन्य संस्कृत अस्तित्व में आ गई जिसे शास्त्रीय संस्कृत कहते हैं। पाणिनी ने इसके व्याकरण को सूत्रबद्ध किया और इसे मानक रूप प्रदान किया। तब से संस्कृत का शास्त्रीय संस्कृत के रूप में एक मानक रूप तय हो गया और वह आगे सदियों तक इसी रूप में चलती रही। इसी के साथ यह जीवंत भाषा नहीं रह गयी हालांकि ज्ञान-विज्ञान और धार्मिक कर्मकांड की यही प्रमुख भाषा थी। 
    संस्कृत भाषा के आगे के इतिहास की चर्चा बिना इसके समांतर मौजूद भाषा की चर्चा के नहीं की जा सकती। यह भाषा थी प्राकृत।
    जैसा कि प्राकृत के नाम से ही स्पष्ट है इसे मूल या आदिम, अपरिष्कृत भाषा माना जाता था। इसके बदले संस्कृत शब्द का अर्थ ही है परिष्कृत। इस तरह प्राकृत अपरिष्कृत भाषा मानी जाती थी और संस्कृत परिष्कृत।
    प्राकृत भाषा की पैदाइश को लेकर भाषाशास्त्रियों में मतभेद हैं। संस्कृत और भारतीय संस्कृत की ओर झुकाव रखने वाले लोगों का मानना है कि प्राकृत का जन्म संस्कृत के अपभ्रंश से हुआ। इसके ठीक विपरीत कुछ अन्य लोगों का मानना है कि प्राकृत ही मूल भाषा थी, जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, इसके परिष्कार से संस्कृत भाषा का जन्म हुआ। एक तीसरी राय है संस्कृत भाषा बोलने वाले आर्यों के भारत में आगमन के बाद यहीं के स्थानीय निवासियों से उनके संपर्क के द्वारा, खासकर आर्यों द्वारा दास बनाये गये लोगों के द्वारा इस भाषा का जन्म हुआ। इस तरह यह संस्कृत भाषा का स्थानीयकरण था जो बाद में आर्यों द्वारा अपना लिया गया। छोटे से शासकवर्गीय लोगों को छोड़कर। 
    जो भी हो, प्राचीन काल से ही खासकर उत्तर वैदिक काल से ही प्राकृत आम जन की भाषा बन गयी। इसीलिए भाषाशास्त्री आम तौर पर इसे मिड इंडो आर्यन भाषा की श्रेणी में रखते हैं। संस्कृत के मुकाबले प्राकृत आमजन में इस कदर प्रचलित थी कि बौद्ध और जैन धर्म दोनों धर्मों ने अपने प्रवर्तकों के समय प्राकृत को ही अपनी भाषा बनाया। अशोक ने जब अपने शिलालेख लिखवाये तो उसमें संस्कृत के बदले प्राकृत के ही एक साहित्यिक रूप पाली का इस्तेमाल किया। 
    इस तरह जब पाणिनी द्वारा मानक रूप पाकर संस्कृत एक शास्त्रीय भाषा के रूप में सामने आयी तब तक यह आमजन की भाषा नहीं रह गयी थी। इन अर्थों में यह एक जीवंत से मृत भाषा में तब्दील हो चुकी थी। यह थोड़े से शासकवर्गीय लोगों तक सिमट गयी थी। 
    लेकिन वैदिक और उत्तर वैदिक काल से ही ज्ञान-विज्ञान और धार्मिक अनुष्ठान व कर्मकांड की भाषा होने के चलते शासकवर्गीय हलकों में और विद्धानों में, जो तब शासक वर्ग के ही उपांग होते थे।, इसकी प्रतिष्ठा अपार थी। इसीलिए बाद में भी यह ज्ञान-विज्ञान व धार्मिक अनुष्ठानों की भाषा बनी रही। इसी कारण यह हुआ कि जब बौद्ध धर्म में महायान शाखा प्रधान हुई, जो बुद्धकालीन सादगी को त्यागकर शासकवर्गीय तड़क-भड़क अपना चुकी थी, तो उसने प्राकृत व पाली के बदले संस्कृत को अपना लिया।
    ईसा की शुरूआती सदियों में, गुप्तकाल तक शासक वर्गीय हलकों में संस्कृत का थोड़ा प्रसार हुआ पर वह आमजन से दूर बनी रही। वहां प्राकृत या उससे उत्पन्न पाली और बाद में अपभ्रंश का ही राज था। हालत यहां तक पहुंच चुकी थी शासक वर्गों में भी स्त्रियां प्राकृत ही बोलती थीं और उनसे तथा अन्य सेवकों से संवाद करने के लिए राजपुरुषों को भी प्राकृत पर उतरना पड़ता था। कालिदास के नाटकों में विभिन्न श्रेणी के पात्रों द्वारा बोली जाने वाली भाषा के रूप में यह स्पष्ट है। यहां तक कि जब भरत मुनि ने अपना नाट्य शास्त्र लिखा तो उसमें यह मानक ही तय कर दिया कि किस श्रेणी के पात्र कौन सी भाषा बोलेंगे। 
    बाद के समय में संस्कृत का दायरा और ज्यादा सिमटता गया। जब मुस्लिम शासक भारत आये तो संस्कृत भाषा बोलने-समझने वालों की संख्या कुछ एक प्रतिशत तक सिमट चुकी थी। इसके मुकाबले इस बीच प्राकृत पहले अपभ्रंश और फिर अन्य रूपों में आगे विकसित हुई। दसवीं सदी आते-आते आज की विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं (हिन्दी समेत) का आधार इससे तैयार हो गया था। इस तरह आज संघियों द्वारा बहुप्रचारित मिथक के विपरीत आज की भारतीय भाषााओं का जन्म संस्कृत से नहीं बल्कि प्राकृत और उसके बाद के रूप अपभ्रंश से हुआ था। हां? जब ये भाषाएं अपने साहित्यिक रूप की ओर बढ़ीं तो इन्होंने बहुत से शब्द संस्कृत से लिये। यहां तक देवनागरी लिपि का जन्म भी इसी प्रक्रिया में हुआ। संस्कृत वैसे तो काफी बाद में लिखी जाने की ओर बढ़ी क्योंकि संस्कृत के विद्वान इस श्रुत देव भाषा को शुरू से लिखने को तैयार नहीं थे।
    संस्कृत भाषा का यह विकास देश की संस्कृति के विकास के साथ संबद्ध था लेकिन उस रूप में बिल्कुल भी नहीं जैसा कि संघी बताना चाहते हैं। जैसाकि पहले कहा गया है, वक्त के साथ यह संस्कृत शासक वर्गों की और उनमें भी राजपुरुषों व विद्वानों की भाषा बनकर रह गयी। और यह शासक वर्ग भारत की वर्ण-जाति व्यवस्था के हिसाब से ब्राह्मण-क्षत्रीय वर्ग के राजपुरूषों, पुरोहितों व उनसे सम्बद्ध विद्धानों की भाषा बनकर रह गयी। इनसे अलग जीवन प्राकृत में चलता रहा यहां तक कि ज्ञान-विज्ञान व धार्मिक अनुष्ठान भी (बौद्ध व जैन)।
    इस तरह संस्कृत जिस संस्कृति से संबद्ध थी वह सवर्ण शासकों की संस्कृति थी। यह लोक संस्कृति से संबद्ध नहीं थी। लोक संस्कृति तो प्राकृत से संबद्ध थी। हां, यहां यह जरूर याद रखना होगा कि किसी भी वर्गीय समाज में शासकवर्ग की संस्कृति आम तौर पर सारे समाज की संस्कृति हो जाती है तथा शासित-शोषित वर्ग की लोक संस्कृति इस आम दायरे में इससे संघर्ष करते हुए चलती रहती है। तब भी इस आम दायरे में शोषित-शासित वर्ग की एक वैकल्पिक संस्कृति मौजूद होती है। 
    पिछली ढाई-तीन सहस्त्राब्दियों से इस सवर्ण शासक वर्गीय संस्कृति से सम्बद्ध होने के कारण इस संस्कृति की उपस्थिति इसके पोर-पोर में मौजूद है। इसलिए आज संस्कृत के परंपरागत विद्धान सहज ही पोगापंथ के नमूने प्रतीत होते हैं क्योंकि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से लैस पूूंजीवाद के इस जमाने में वह संस्कृति पोगापंथ की श्रेणी में पहुंच गयी है। 
    भाषा किसी भी समाज में संचार, ज्ञान-विज्ञान और चिंतन की जरूरत का उत्पाद होती है। इसलिए जिन समाजों में इन तीनों का स्तर ऊंचा होता है उनकी भाषा भी समृद्ध होती है। इसी वजह से यह देखने में आता है कि प्राचीन काल की सारी महान सभ्यताएं अपने साथ एक समृद्ध भाषा भी लिये होती थीं। 
    पूरे समाज की छाप किसी भी भाषा पर मौजूद होती है। लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि भाषा की संरचना कुछ इस तरह की होती है, विकसित भाषाओं की, कि वे समाजों के एक लंबे वर्णक्रम में अपनी भूमिका अदा कर सकती हैं। इसीलिए समाजों के परिवर्तन का तुरंत असर भाषा पर नहीं पड़ता।  ऐसा नहीं होता कि समाज बदलने के साथ तुरंत भाषा भी बदल जाती है। इसलिए ऐसा हो सका कि संस्कृत तीन-चार हजार सालों तक ज्ञान-विज्ञान व धार्मिक अनुष्ठानों की भाषा बनी रही हालांकि लोकभाषा के तौर पर प्राकृत ने इसे बहुत पहले ही प्रतिस्थापित कर दिया था। लोक और विशिष्ट का यह विभाजन इसलिए संभव हो सका कि इस दौरान ज्ञान-विज्ञान एवं धार्मिक पुरोहिताई स्वयं एक छोटे हिस्से तक सिमट गयी थी। 
    संस्कृत के समांतर लैटिन और अंग्रेजी को रखने से मामले को समझने में मदद मिलेगी। लैटिन रोम में विकसित हुई। यह भी प्रोटो-इंडो-यूरोपियन भाषा समूह का ही हिस्सा थी। इसने ग्रीक भाषा से वर्णमाला ली। दूसरी-पहली ईसा पूर्व में इस लैटिन का मानकीकरण हुआ और अपने इस मानक रूप में यह पूरे रोमन समाज की भाषा बन गयी। बाद के समय में यूरोप के देशों में लैटिन के प्रभाव में या फिर जर्मनिक भाषाओं से वे भाषाएं पैदा हुईं जो आज यूरोप के विभिन्न देशों की भाषाएं हैं। पर पूरे मध्य काल में लैटिन ही इन देशों में कैथोलिक चर्च की तथा ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनी रही। केवल सुधार आंदोलन में ही जाकर लैटिन के बदले आमजन की भाषा ज्ञान-विज्ञान व धर्म की भाषा बनने लगी। मार्टिन लूथर द्वारा बाइबिल का लैटिन से जर्मन में अनुवाद इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम था। 
    अंगे्रजी भाषा का हाल का इतिहास दिलचस्प है। अंगे्रजी स्वयं एग्लो-सैक्सन भाषा समूह का हिस्सा है जो अपनी बारी में जर्मनिक और प्रोटो इंडो-यूरोपियन मूल की ओर जाती है। जब अंगे्रजों ने सारी दुनिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया तो उन्होंने वहां ज्ञान-विज्ञान और शासन की भाषा के तौर पर अंग्रेजी को इस्तेमाल किया। स्थानीय लोगों में से भी जो लोग इस स्तर तक उठते थे वे अंग्रेजी भाषा का ही इस्तेमाल करते थे या अंग्रेजी का इस्तेमाल कर ही यहां तक उठ पाते थे। इसलिए जब अंग्रेज इन देशों से चले गये तब भी इन देशों के शासन, शासक वर्ग एवं ज्ञान-विज्ञान की भाषा अंग्रेजी बनी रही। भारत में यही हाल है। भारत में आमजन की भाषा क्षेत्रीय भाषाएं हैं पर शासक वर्ग की भाषा अंग्रेजी है। 
    लैटिन की यूरोप में व अंग्रेजी भाषा को एशिया-अफ्रीका के देशों में यह हैसियत इनके औपनिवेशिक अतीत की वजह से है। पर अपने देश में संस्कृत की यह स्थिति किसी गुलामी के कारण नहीं हुई। यह एक खास तरह के सामाजिक विकास के चलते उत्तरोतर होती गयीं। हालांकि अंबेडकरवाद के इस जमाने में कुछ लोग यह दावा कर सकते हैं कि यह आंतरिक औपनिवेशिकरण का परिणाम थी जिसमें आर्यों ने गैर आर्यों को या सवर्णों ने शूद्रों-अन्त्यजों को अपना गुलाम बना लिया पर असल में ऐसा नही था। यह शासक और शासित वर्गों में लम्बी दूरी और ज्ञान-विज्ञान पर एक बेहद छोटे हिस्से द्वारा सचेत एकाधिकार का परिणाम था। जब यहां अंग्रेज आये तो ज्ञान-विज्ञान पर संस्कृत के इस एकाधिकार का स्थान अंग्रेजी के एकाधिकार ने ले लिया। 
    संस्कृत भाषा के इस ऐतिहासिक यथार्थ को देखते हुए संघी लोगों द्वारा संस्कृत को बढ़ावा देने का क्या अर्थ हो सकता है? साथ ही, इसमें उन्हें कितनी सफलता मिल सकती है।?
    संघी एक तो अपनी आम राष्ट्रवादी सोच के तहत संस्कृत के हामी हैं। उन्हें लगता है कि संस्कृत चूंकि प्राचीन काल से भारत की संस्कृति से जुड़ी हुई है इसलिए इसको बढ़ावा उनकी राष्ट्रवादी भावना को बढ़ावा देगा। 
    लेकिन इससे भी ज्यादा उनकी पोगापंथी सोच उन्हें संस्कृत का हामी बनाती है। संघी लोग उसी मध्ययुगीन सवर्ण मानसिकता से ओतप्रोत हैं जिसे वे हिन्दू संस्कृति कहते हैं। यह मूलतः मध्य काल की सामंती हिन्दू सोच है जो हिन्दू शासक वर्ग के अनुकूल थी। यह शासक वर्ग सवर्ण था। इसका पूरी भारतीय संस्कृति से एक खास तरह का नाता था। अब संघी  इसी नाते को अपना मानते हैं और यहीं से पूरे भारत के इतिहास को देखते हैं। 
    इसीलिए जब संघी संस्कृत और इसके जरिये भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने की बात करते हैं तो मूलतः इसी पोंगापंथी संस्कृति को बढ़ावा देने की बात करते हैं। यही उनका उद्देश्य है। वे प्राचीन भारत में मौजूद वैज्ञानिक तत्वों को निकालकर इस पोगापंथ को बढ़ावा देने चाहते हैं। जिसके लिए महाभारत में स्टेम सेल टेक्नालाॅजी मौजूद थी। 
    संघी अपने इस अभियान में किस हद तक सफल होंगे? क्या संस्कृत सदियों की अपनी मृत अवस्था को छोड़कर जीवित हो जायेगी और ढाई हजार साल बाद जन-जन की भाषा बन जायेगी? क्या संस्कृत अपने पिछले ढाई हजार साल के इतिहास को धो-पौंछकर अपनी नई यात्रा शुरू करेगी?
    ऐसा नहीं हो सकता। यदि ऐसा हो सकता है तो पहले ही संस्कृत का यह हाल नहीं हुआ होता। सरकारी स्तरों पर हर तरीके से प्रोत्साहन के बाद भी यही नतीजा निकलेगा कि संस्कृत स्कूल में एक विषय की भाषा बनी रहेगी। बच्चे इसके मानक व्याकरण को रटकर परीक्षाएं पास करते रहेंगे। इससे शिक्षा में केवल तोता रंटती को ही बढ़ावा मिलेगा।
    इसका एक दुष्परिणाम और होगा। हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं में संस्कृत के शब्दों को ठूंसकर उन्हें दूरूह बनाया जायेगा और इस तरह उनके स्वाभाविक विकास को बाधित किया जायेगा। मानक हिन्दी का अभी ही बहुत बुरा हाल हो चुका है और आगे यह और होगा। 
    इस तरह संस्कृत पर यह जोर संघियों के पोगापंथ को बढ़ावा देने के अलावा केवल यही परिणाम पैदा करेगा कि भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान और कठिन हो जायेगा। इसका स्वाभाविक फायदा अंग्रेजी को होगा जिसका विदेशी भाषा के नाम पर विरोध करने का दावा संघी करते हैं। 

साहित्य और राजनीति -रैल्फ फाॅक्स
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    (रैल्फ फाॅक्स ने प्रसिद्ध रूसी क्रांतिकारी साहित्यकार मैक्सिम गोर्की को याद करते हुए साहित्य और राजनीति के अंतरसम्बन्धों पर ऐसे विचार व्यक्त किये हैं जो आज भी पथ प्रदर्शन करने वाले हैं। यह रैल्फ फाॅक्स का जून 1936 में कौनवेहाल, लंदन में मैक्सिम गोर्की की स्मृति में हुई एक सभा में दिया गया उनका भाषण है। यह रैल्फ फाॅक्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘उपन्यास और लोकजीवन’ में संग्रहित है- सम्पादक)
    मैक्सिम गोर्की का निधन- जो कि, मैं समझता हूं इस बात से सभी सहमत होंगे, हमारे युग के महानतम कहानी-उपन्यास लेखकों में से थे- इतनी गहरी क्षति है कि उसे उनके अपने देश सोवियत संघ की सीमाओं से बाहर दूर-दूर तक अनुभव किया गया है। गोर्की स्वयं इतने साहस, इतनी गहरी सादगी और इतनी सच्ची ईमानदारी के आदमी थे कि उन्हें न केवल उनके अपने देश के लोगों का ही, बल्कि दुनिया भर के सभी देशों के लोगों का- उन सभी लोगों का जो गोर्की की भांति मानवता के लिए समान संघर्ष में जुटे हुए हैं- प्यार प्राप्त हुआ। 
    पिछले महीनों के भीतर इंग्लैण्ड में हमारे तीन या चार लेखकों का- और शायद एक या दो महान लेखकों का- निधन हुआ है। उनके सम्मान में सभाओं का कोई आयोजन नहीं किया गया। किन्तु आज रात हम एक ऐसे आदमी को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं जो दूसरे देश में पैदा हुआ है और हमारे लिए विदेशी है। स्वयं अपने देश की सीमाओं से बाहर यह इतना प्यारा बन सका, इसका कारण यह था कि उसने अपनी कृतियों में भारी सच्चाई के साथ, दुनिया के सभी हिस्सों की शोषित जनता की वेदना को, उनकी आशा-आकांक्षाओं और विजय पाने की उनकी इच्छा-शक्ति को व्यक्त किया था। ऐसे कम ही लोग हैं जिन्होंने मानवीय नीचता के विरुद्ध उतनी लगन और उतने साहस से संघर्ष किया, जितना गोर्की ने। ऐसे लोग कठिनाई से ही ढूंढे मिलेंगे जिन्होंने गोर्की की भांति, इतनी स्पष्टता से इस सत्य को देखा कि मानवीय नीचता की जड़ें हमारी सभ्यता के साम्पत्तिक ढांचे में जमी हैं। 
    अपने अन्तिम सार्वजनिक भाषण में, जिसकी सर्वश्री हयुबर्ट ग्रिफिथ और रैल्फ बेट्स ने आज की सभा में अभी चर्चा भी की है, सोवियत लेखक संघ की पहली कांग्रेस का उदघाटन करते हुए गोर्की ने कहा थाः 
    ‘‘न्यायाधीश की हैसियत से हम फैसला देते हैं इस दुनिया के बारे में जिसे नष्ट होना ही होना है, और मानव की हैसियत से हम ऊंचा उठाते हैं असली मानवता को, क्रांतिकारी मजदूर वर्ग की मानवता को, उन लोगों की मानवता को जिन्हें इतिहास ने समूची दुनिया को उन सबसे मुक्त करने के लिए आमंत्रित किया है जो ईष्र्या, धनलिप्सा तथा उन सब बुराइयों में फंसे हैं जो सदियों से अपने श्रम पर जीने वाले लोगों को विकृत करती आ रही है।
    ‘‘हम शत्रु हैं सम्पत्ति के- जो कि पूंजीवादी दुनिया की नीच और भयानक अधिष्ठात्री है! हम शत्रु हैं- समूचे पाशविक व्यक्तिवाद के, जो कि उसका घोषित धर्म है’’।
    गोर्की का जीवन आज हमें महान और महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। कारण कि उनका जीवन इस अधिष्ठात्री को देवत्व के पद से हटाने के प्रयास के साथ घने रूप में सम्बद्ध था। गोर्की का जीवन, रूस के मजदूर वर्ग के एक वर्ग के अतीत के साथ बहुत घनिष्ठ रूप में सम्बद्ध था- उस काल के साथ जो विश्व के इतिहास में अनूठा था, जिस काल में उस वर्ग ने ऊपर उठकर आजादी प्राप्त की, उत्पादन के साधनों में व्यक्तिगत सम्पत्ति को खत्म करने के आधार पर एक नये समाज की रचना की, एक ऐसे समाज की जो वर्गहीन था और जिसमें पहली बार मानव के रूप में मानव ने अपनी कीमत पहचानी। 
    गोर्की का जीवन रूस की तीन क्रांतियों के साथ सम्बद्ध थाः 1905 की क्रांति, 1917 की फरवरी क्रांति और 1917 की अक्टूबर क्रांति के साथ। आज की सभा में कई वक्ताओं ने इस बात का जिक्र किया है कि गोर्की, लेनिन और स्तालिन के सच्चे और घनिष्ठ मित्र थे। उनकी ही भांति उन्होंने भी जेल और जलावतनी की यातनाएं भोगीं। अपने राजनीतिक जीवन के प्रारम्भ से ही गोर्की बोल्शेविकों के समर्थक थे। गोर्की स्वयं एक आवारा, फैक्टरी मजदूर और रेल-मजदूर का जीवन बिता चुके थे और रूसी मजदूर वर्ग के जीवन में भाग ले चुके थे। अराजकता से भरे एक दौर के बाद गोर्की को बोल्शेविकों में और लेनिन के व्यक्तित्व में एक ऐसी दृढ़ता, सादगी और अजेय विश्वास की झांकी मिली जिससे उन्हें विश्वास हुआ कि वे जार के साम्राज्य का तख्ता पलटने जा रहे हैं। और लेनिन संबंधी अपने संस्मरणों में गोर्की ने इन गुणों का सार-तत्व प्रस्तुत किया है और उनका वर्णन किया है। गोर्की सदा यह अनुभव करते थे कि ये ही वे गुण हैं जो रूसी राष्ट्र की काया पलट करेंगे। 
    अब आइये एक ऐसी समस्या को लें जिसमें हम सबकी गहरी दिलचस्पी है। समस्या है यहः यह कैसे हुआ कि गोर्की, जो रूसी समाज के निम्नतम स्तर से आये थे, रूसी साहित्य क्षेत्र में एकाएक इतने प्रसिद्ध हो गये? मेरी समझ में इस रहस्य का पता लगाया जा सकता है- यदि हम उस काल के रूसी समाज तथा साहित्य पर दृष्टि डालने का प्रयत्न करें। चेखव को लीजिए। उन दिनों रूस के वह महानतम लेखक थे। वह 1880 के काल की भयानक निराशा में से उभरे थे। यह वह समय था जब बुद्धिजीवियों को अपना कोई भविष्य नहीं दिखायी देता था; जब यह मालूम होता था मानो रूसी समाज की श्रेष्ठतम शक्तियां जारशाही के विरुद्ध व्यर्थ संघर्ष की वेदी पर चढ़ा दी गयी हैं- और चेखव का साहित्य इसी भावना से सराबोर है। तोलस्तोय भी- गोर्की के प्रसिद्धि प्राप्त करते-करते- ईसाई मत के पूर्ण नकारवाद को अपना चुके थे। किन्तु निराशा के इस वातावरण में गोर्की ने एक नयी ताजगी का संचार किया, समूची रूसी जनता के लिए वह आशा का एक नया संदेश लाये। और इसी कारण- रूसी राष्ट्र के जीवन में एक नयी शक्ति के रूप में प्रकट होने के कारण- वह रूस के एक कोने से दूसरे कोने तक एकाएक प्रसिद्ध हो गये। उनकी समूची शैली में आप इसका अनुभव कर सकते हैं। 
    लेखक की कला और टेकनीक की दृष्टि से गोर्की के बारे में यहां किसी ने कुछ नहीं कहा। अंग्रेजी अनुवादों में गोर्की का बहुत कुछ खो गया है, किन्तु रूसी लेखक के रूप में गोर्की शक्ति के पुंज नजर आते हैं- और यह शक्ति उन लोगों की थी जिनके बीच वह रहते थे। वह हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि आम लोगों की बोलचाल, लोक-साहित्य और जनता में प्रचलित कहानियों में भाषा का सबसे समृद्धतम खजाना मौजूद है, उसमें भाषा और साहित्य की महानतम निधियां निहित हैं। उनका समूचा साहित्य इस बात का प्रमाण है। 
    गोर्की ने बहुत तेजी से प्रसिद्धि प्राप्त की और रूसी साम्राज्य की साहित्य अकादमी के सदस्य चुने गये, लेकिन उतनी ही तेजी से, जार के सीधे फरमान पर, वह सदस्यता से हटा भी दिये गये। एक लेखक के दमन के इस लज्जास्पद कृत्य के विरोध में, अपने आप को सदा के लिए गौरवान्वित करते हुए, रूस के दो अन्य महानतम लेखकों ने भी सदस्यता से त्याग पत्र दे दिया। ये लेखक थे- चेखव और कोरोलैन्को। किन्तु इससे हमारी इस शताब्दी के प्रारम्भिक दिनों के साहित्य जगत का कैसा दयनीय चित्र आंखों के सामने आता है! रूसी साहित्य के तीन महानतम प्रतिनिधियों को त्याग-पत्र देने पर बाध्य होना पड़ा(उनमें से एक को तो जबर्दस्ती हटाया गया) और इन्हीं दिनों तोल्स्तोय को पुरातनपंथी गिरजे का कोप-भाजन बनना पड़ा, उन्हें धर्मच्युत किया गया और रूसी साम्राज्य के हर प्रार्थना-घर में उनके खिलाफ घिनौने फतवे पढ़े जाने लगे! इसी पृष्ठभूमि में गोर्की ने रूसी लेखकों को दिखाया कि निरंकुशता कितनी ही क्रूर और हिंसक क्यों न हो, उससे लड़ने के उपायों और साधनों का अभाव नहीं है, कि 1905 की भयानक पराजय के बाद भी निराशा की आवश्यकता नहीं है। इसके बाद, कई वर्षों तक, गोर्की ने प्रवासी जीवन बिताया। किन्तु इस काल में भी, जबकि वह अमरीका तथा अन्य देशों में थे, वह सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए ही काम करते रहे! जब वह कैप्री (इटली) में रहने गये तब भी वह निरंकुशता को उखाड़ फेंकने तथा रूसी क्रांति का मार्ग प्रशस्त करने में लगे रहे।
    आपको याद होगा कि कैप्री में उन्होंने क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के लिए एक स्कूल चलाया था। पिछले सप्ताह के अंत में लंदन में लेखकों की एक कांफ्रेस में एच.जी.वैल्स ने अपने भाषण में टूले स्ट्रीट के तीन दर्जियों के बारे में कुछ ऐसी बातें कहीं जो अशोभनीय थीं। उन्होंने कहा कि वे ब्रिटिश साम्राज्य के भाग्य के निर्णायक बन गये हैं। उनकी इस बात का इल्या इहरेनबुर्ग ने करारा जबाव दिया। उन्होंने बताया कि उन दिनों जब गोर्की कैप्री में थे तो वह अपने पास एक धातु-मजदूर, एक दर्जी और एक बढ़ई को इकट्ठा करना अपनी शान के खिलाफ नहीं समझते थे, और उन्हें इस बात का विश्वास था कि ये लोग रूसी साम्राज्य को, जो कि उन दिनों आज के ब्रिटिश साम्राज्य जैसा ही सुदृढ़ मालूम होता था, उखाड़ फेंक सकते हैं। 
    स्कूल चलाने के अलावा इस काल में गोर्की और भी बहुत कुछ करते थे। वह सक्रिय क्रांतिकारी काम भी करते थे। गोर्की के साथ लेनिन के पत्र-व्यवहार में केवल दार्शनिक समस्याओं का ही नहीं, बल्कि ऐसी व्यावहारिक समस्याओं का भी भरपूर उल्लेख मिलता है कि किस-किस प्रकार गोर्की रूस में उनका अखबार पहुंचाने में बोल्शेविकों की मदद करते हैं। बोल्शेविक साहित्य को ओदेस्ता पहुंचाने में गोर्की ने इटली के जहाजी मजदूर संघ से संपर्क स्थापित किया। 
    स्पैक्टेटर समाचार पत्र में श्री.ई.एच.कार का लिखा गोर्की के कामों का विवरण छपा है। मैंने उसे पढ़ा है। इसमें श्री कार ने इस बात का खेद प्रकट किया है कि कैप्री निवास के काल में दुर्भाग्य से गोर्की ने ऐसे राजनीतिक उपन्यास लिखने शुरू किये जिनके नाम भी अब किसी को याद नहीं हैं। आज की सभा में मौजूद लोगों में जो मजदूर भाई हैं, उनसे मैं पूछता हूं - क्या आप लोग मां उपन्यास का नाम भूल गये हैं? खुद रूस से बाहर ऐसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी है जो इस पुस्तक को कभी नहीं भूल सकते। दुनिया के हर कोने में ऐेसे लोग मौजूद हैं जिनकी राजनीतिक दीक्षा ‘मां’ उपन्यास से ही आरम्भ हुई है। इस पुस्तक की एक और अनूठी विशेषता यह है कि इसने एक अन्य कलाकृति को- ‘मां’ नामक फिल्म को- जन्म दिया है। 
    राजनीति का मसला गोर्की के नाम से अलग नहीं किया जा सकता। मंगलवार के टाइम्स पत्र में ब्रिटिश लेखकों के प्रश्न पर एक अग्रलेख छपा था। टाइम्स पत्र बहुधा हमारा सम्मान नहीं करता है। इस बार का अग्रलेख भी ब्रिटिश लेखकों के एक हिस्से को झिड़कने के लिए लिखा गया था। इन लोगों को धिक्कारा गया है कि इन्होंने लेखकों की सोसाइटी को ट्रेड यूनियन कांग्रेस से सम्बद्ध करने का प्रस्ताव पेश करने की भद्दी हिमाकत करके अपनी निकृष्ट रूचि का परिचय दिया है। इस प्रस्ताव का, दुर्भाग्यवश जो पास नहीं हो सका, तात्पर्य क्या था? ब्रिटिश लेखकों की काफी बड़ी संख्या आज यह अनुभव करती है कि लेखकों और मजदूर वर्ग के बीच अधिक घनिष्ठ सहयोग के बिना अंग्रेजी साहित्य का कोई भविष्य नहीं है। उनका विचार है कि ब्रिटेन की सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा की यही सबसे बड़ी गारण्टी है। उनका कहना है कि इसी में भविष्य की महानतम आशा है। इस सप्ताह फिर टाइम्स ने साहित्य सम्बन्धी चर्चा शुरू की है। बृहस्पतिवार के अंक में साहित्य के सम्बन्ध में एक दृष्टिकोण प्रतिपादित किया गया है। इसे प्रतिपादित करने वाले सज्जन हैं श्री चाल्र्स मार्गन, जिनका ‘टाइम्स’ से घनिष्ठ सम्बन्ध है और जो प्रत्यक्षतः इस मत के हैं कि हमारा लेखक समुदाय मौजूदा समाज के संपूर्ण ढांचे द्वारा सह मानवों से सुरक्षित तथा दूर रखा जाए। श्री एवलिन वौद्य को वह एक पुरूस्कार भेंट कर रहे थे। उन्होंने कहाः ‘उन्होंने ऐसे पुरूस्कारों पर कीचड़ उछाला जाते देखा है, किन्तु हौथौर्नडन के प्रति इस खीज का आधार सदा वही एक शिकायत होती हैः कोई साहित्यिक या राजनीतिक गुट इसका संचालन नहीं करता है। यदि उनका विश्वास है- कि कला, यदि वह राजनीति का यंत्र नहीं बनती, तो समय का अपव्यय है- तो निश्चय ही वे हौथोर्नडन कमिटी का समर्थन नहीं करेंगे। किन्तु आज के दिन जबकि सच्चाई के साथ कहा जा सकता है कि यूरोप की बड़ी-बड़ी ताकतों में केवल इंग्लैण्ड और फ्रांस ही ऐसे देश हैं जहां विचार और भाषण की स्वतंत्रता उपलब्ध है, तो यह, उनके विचार में, एक मूल्यवान बात होगी कि साल में एक बार उन्हें किसी पुस्तक को पुस्तक के रूप में उसके गुणों के आधार पर, न कि इस बात पर कि वह किसी मौजूदा या आकांक्षित डिक्टेटरशिप के आदेशानुसार लिखी गयी है- भले ही वह पुस्तक ऐसी हो जिसमें व्यक्त किये गये विचारों से, स्वयं उनका, और संभवतः कमिटी के कुछ अन्य सदस्यों का भी यदाकदा मतभेद हो- सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया जाए। यही वांछनीय था और ऐसा ही होना भी चाहिए।
    हो सकता है कि श्री चार्ल्स मौर्गन अज्ञान के कारण ही यह दृष्टिकोण प्रस्तुत कर गये हों। उन्होंने इस तथ्य को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है कि साहित्य, बहुत कम राजनीतिक होता है- खुले रूप में और सुचिंतित राजनीतिक कला। किसी एक देश के इतिहास पर नजर डालिए। हम तुर्की को ले लेें। 19वीं शती के आठवें दशक (1870-1880) के प्रारम्भ तक तुर्की में नाट्य-साहित्य था ही नहीं। उन्नीसवीं शती के महानतम तुर्की कवि ने राजनीतिक उद्देश्य से अनुप्राणित होकर एक नाटक लिखा। यह नाटक उन्होंने तुर्की की निरंकुशशाही के खिलाफ अपढ़ जनता में लड़ने की चेतना पैदा करने के लिए लिखा था। इस नाटक ने देश के जीवन में कला का एक संपूर्ण नया क्षेत्र खोल दिया। अन्य देशों में भी, समय-समय पर आप ऐसा ही होता देखेंगे। हमारे देश में उपन्यास-कला का आविष्कार करने का श्रेय एक ऐसे व्यक्ति को है जो अपने सभी कामों में अत्यधिक राजनीति था। इस व्यक्ति का नाम है डेफो। और अठारहवीं शती में पूंजीवादी प्रणाली के समर्थकों ने उसकी सर्वप्रसिद्ध कृति रौबिंसन क्रूसो को राजनीतिक अर्थशास्त्र के एक थीसिस के रूप में इस्तेमाल किया था। 
    मैं जो कहना चाहता हूं वह यह है कि आज अधिकाधिक लेखकों को यह विश्वास होता जाता है कि उनकी एकमात्र आशा उस पथ का अनुसरण करने में है जिसे सबसे पहले मैक्सिम गोर्की ने दिखाया था। इस पथ पर चलकर ही हम अपनी श्रेष्ठतम विरासत की रक्षा कर सकेंगे तथा एक नये और सुंदरतर राष्ट्र के लिए संघर्ष कर सकेंगे। हमारे अपने देश में ही ऐसे कई श्रेष्ठ लेखक हैं जो मजदूर वर्ग में पैदा हुए हैं- एच.जी. वैल्स, मिडल्टन मुरी और डी.एच. लारेंस। ये तीनों मजदूर परिवारों में पैदा हुए थे। किन्तु तीनों ने ही उस वर्ग को त्याग दिया है जिसमें कि उन्होंने जन्म लिया था। तीनों ने ‘सोसाइटी’ में अपना स्थान बनाने का रास्ता अपनाया। और आज हमारे देश में कोई लेखक समझौतापरस्ती को गले लगाकर और अपने-आप को संस्कृति के उन अभिजात वर्गीय और धनी-मानी व्यापारियों के गुट के हाथों में- जो समझते हैं कि हमारे बौद्धिक जीवन की इजारेदारी उन्हीं के हाथों मे है- सौंप कर ही ऐसा कर सकता है। अगर आप इन तीनों के आत्म-चरित्र पढ़ें तो आप देखेंगे कि इन्होंने गरीबी के खिलाफ और दम्भ के खिलाफ भयानक संघर्ष किया है, और आप यह दुर्भाग्य भी देखेंगे कि दम्भ ने इन तीनों पर विजय प्राप्त की। यहां आप पिछली दो पीढि़यों में हमारे बौद्धिक जीवन की अत्यंत दयनीय दशा का- शासक वर्ग द्वारा हमारे देश में सांस्कृतिक जीवन के ध्वंस का- चित्र देख सकते हैं। 
    मैं समझता हूं कि यह एक बहुत बड़ी और शानदार चीज है कि हमारे युवक लेखक वैल्स, लारेंस और मिडल्टन मुरी द्वारा अपनाये मार्ग को त्याग रहे हैं। वे हमारे देश के बौद्धिक जीवन पर इस पतित सामाजिक गुट की इजारेदारी कायम नहीं होने देंगे। 
    आलोचकों का कहना है कि राजनीति ने ही गोर्की को नष्ट कर दिया। वे कहते हैं- देखो न, 1917 के बाद गोर्की ने क्या किया। तात्पर्य यह है कि उन्होंने कोई सृजनात्मक कार्य नहीं किया। किन्तु 1917 के बाद गोर्की का सृजनात्मक कार्य, गुणात्मक और परिणामात्मक दोनों की दृष्टि से, किसी भी यूरोपीय लेखक के उस काल के कार्य से कम नहीं है। सामाजिक अर्थ में उनका कार्य पहले से ही अमरतत्व के हकदार उनके नाम को अपूर्व गौरव प्रदान करता हैं पहले के कामों की उनके इस काम से कोई तुलना नहीं की जा सकती। गोर्की ने एक नयी संस्कृति के लिए रास्ता तैयार किया। समाजवाद की स्थापना के बाद इस संस्कृति का आगमन अवश्यम्भावी था। उनका सामाजिक कार्य केवल सुरक्षात्मक नहीं, बल्कि तत्वतः सृजनात्मक था। फिर, उनका यह काम जो उन्होंने 1928 में अन्तिम रूप से सोवियत संघ लौट आने के बाद किया, समूचे रूसी साहित्य के पुनर्गठन तथा सोवियत लेखकों को एक महान लेखक संघ में गूंथने का वृहत कार्य था। यह ऐसा कार्य था जिसके लिए देश का प्रत्येक लेखक उनके नाम का कृतज्ञता के साथ स्मरण किये बिना नहीं रह सकता। 
    रैल्फ बेट्स ने अपने भाषण में गोर्की के एक मौलिक कार्य का, गोर्की के सुझाव से प्रेरित और उनके ही निर्देशन में श्वेत सागर नहर के सामूहिक लेखन का उल्लेख किया है। लेकिन वह तो उस महान कार्य का एक अंश मात्र ही है जो गोर्की की पहलकदमी पर उठाया गया था। इस काम के पूरा होने पर सभी फैक्टरियों तथा कल-कारखानों का, सोवियत संघ के सभी बड़े फार्मों का, समाजवाद के सजीव निर्माण का इतिहास बन जायेगा। इसका मकसद कोई एक महान साहित्यिक कृति तैयार करना नहीं, बल्कि समाजवाद के निर्माण का इतिहास तैयार करना है, और इस सामूहिक इतिहास को तैयार करने के लिए पहली बार देश की श्रेष्ठतम रचनात्मक ताकतों को हाथ बंटाने के लिए आगे लाया गया है। इस भीमाकार कार्य का श्रेय गोर्की को ही प्राप्त है। फिर, गृहयुद्ध का- रूसी क्रांति के वीरतापूर्ण काल का- इतिहास लिखने और उसका संयोजन करने में भी गोर्की ने ही सबसे पहले कदम उठाया था। और इस इतिहास के प्रथम खंड को पढ़ने से साफ पता चल जाता है कि कई परिच्छेदों को लिखने में गोर्की और स्तालिन ने मिलकर काम किया है।
    अंत में मैं गोर्की के निधन पर दो प्रकार की प्रतिक्रियाओं का उल्लेख करना चाहूंगा। पहली प्रतिक्रिया जार्ज बर्नार्ड शाॅ की प्रतिक्रिया है। सोवियत सरकार को भेजा गया शाॅ का संदेश निराशावाद और पराजय का संदेश है। शाॅ ने लिखा- बूढ़े लोग सब मरते जा रहे हैं; उनके जीने का अब कोई उपयोग भी तो न था। सोवियत संघ में अतीत के बड़े नामों को लेकर चिंता करने की जरूरत क्या- उन्हें भविष्य को संभालना है। लेकिन अतीत के बिना भविष्य के बारे में नहीं सोचा जा सकता, और गोर्की का अतीत मजदूर वर्ग का अतीत था, उस मजदूर वर्ग का अतीत जिसने क्रांति को संभव बनाया। सोवियत संघ आज एक ऐसे मनुष्य की मृत्यु का शोक मना रहा है। जिसे वे, इस बात को इतनी गहराई से अनुभव करने के कारण ही, प्यार करते थे। 
    दूसरी प्रतिक्रिया, जिसका मैं उल्लेख करना चाहता हूं, लंदन की एक मजदूरनी की है- फैक्टरी में काम करने वाली एक लड़की की। समाचार-पत्रों में उसने गोर्की के मातम का विवरण पढ़ा था। उसने कहाः ‘‘उस आदमी की मृत्यु कितनी दुखद है जिससे इतने लोग प्यार करते हों।’’ कितनी सच बात कही उसने। जो आदमी जनता का इतना प्यारा हो, उसका मरना कितना दुःखद है। 
    मनुष्य को जीवित रहना चाहिए इसलिए कि वह उन चीजों को मूर्त होता हुआ देख सके जिनके लिए वह जिया; इसलिए कि वह जनता, जिसके साथ कि वह संम्बद्ध था, हर क्षण उसके जीवन की पुनर्रचना करती रहती है। 
    साथ ही यह बात भी ध्यान रखिए कि गोर्की के लिए प्रदर्शित यह प्रेम सोवियत संघ के भविष्य के लिए अत्यन्त उपजाऊ होगा। प्रथम समाजवादी राज्य के लिए वह अनेकानेक तथा और भी महान गोर्कियों को मानव आत्मा के कुशल अभियंताओं को जन्म देगा। 

काला धन, सफेद धन और छुट्टा पूंजीवाद
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
    छुट्टे पूंजीवाद के इस दौर के पिछले कुछ सालों में खासकर 2007 में विश्व आर्थिक संकट के फूटने के बाद काले धन की बहुत जोर-शोर से चर्चा होती रही है। जब 2008 में जी-20 की पहली बैठक हुई तो उसके औपचारिक वक्तव्य में कहा गया कि, ‘‘इस संकट में ‘आॅफशोर बैंकिंग’ की गुमनाम पूंजी ने बड़ी भूमिका निभाई है। इस पर नियंत्रण के लिए ‘नेम एण्ड शेम’ यानी ‘नाम बताओ और ‘शर्मिन्दा करो’ की नीति की वकालत की गयी’’। 
    इसके कुछ समय बाद ही भारत में भी काले धन की चर्चा बड़े जोर-शोर से शुरू हो गयी, भाजपा ने इसे उछाला तो उसके सहयोगी बाबा रामदेव ने भी। खासकर विदेशों में जमा काले धन की खूब चर्चा होने लगी। इसका एक से एक अनुमान सामने आने लगा जो कुछ लाख करोड़ रुपये से लेकर पांच सौ लाख करोड़ रुपये था। हालांकि 2 नवंबर को अपनी रेडियो वार्ता में मोदी ने बताया कि, ‘‘उनके और उनकी सरकार सहित किसी को यह नहीं पता है कि विदेशों में भारतीयों का कितना काला धन जमा है।’’ पर चुनावों में उन्होंने पांच सौ लाख करोड़ रुपये की ही बात की थी और कहा था कि वे अपनी सरकार आने पर तीन महीने में सारा काला धन वापस लायेंगे। 
    अब तीन क्या पांच महीने बीत जाने पर एक बार फिर बड़े पैमाने पर काले धन की चर्चा होने लगी है। खासकर सर्वोच्च न्यायालय की इस मुद्दे पर सक्रियता और भाजपा सरकार द्वारा इस मुद्दे पर ठीक कांग्रेसी सरकार की तरह की बात करने के कारण। भाजपा सरकार सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामे में वही बातें दुहरा रही है जो कभी कांग्रेस सरकार कहा करती थी। 
    काले धन के मसले पर सत्ता परिवर्तन के साथ भाजपा और कांग्रेस की भूमिका परिवर्तन पर ज्यादा बात न करते हुए स्वयं काले धन और छुट्टे पूंजीवाद के साथ इसके संबंध को देखना ज्यादा सार्थक होगा। इसी के साथ सरकारों और पूंजीवादी पार्टियों की इसकी भूमिका का अवलोकन मामले को और स्पष्ट करेगा। 
    काले धन से आम तौर पर आशय उस धन से या आय से लगाया जाता है जो औपचारिक खाते-बही में दर्ज न हो और जिस पर सरकार को कर अदा न किया जाता हो। यह काला धन सफेद धन से केवल इसी मायने में भिन्न होता है। इस आम धारणा के विपरीत कि काला धन किन्हीं तिजोरियों में बंद होता है, यह काला धन भी उसी तरह कारोबार में लगा होता है जैसे सफेद धन। वह उसी तरह मजदूरों का शोषण करता है और पूंजीपतियों के लिए मुनाफा कमाता है। आज देश में सबसे ज्यादा फलने-फूलने वाले व्यवसाय यानी जमीनों-मकानों के व्यवसाय में बड़े पैमाने का काला धन लगा हुआ है। 
    आम पूंजीवादी कारोबार के अतिरिक्त काले धन के दो स्रोत और भी हैं। एक है भ्रष्टाचार और दूसरा अपराध। सरकार से लेकर निजी क्षेत्र तक भ्रष्टाचार से एक अच्छी खासी रकम कमाई जा रही है। पर रकम अपनी बारी में काले धन के रूप में व्यवसाय में लगती है और फलती-फूलती है। अपराधों में, वेश्यावृत्ति, नशीली दवाओं का कारोबार, अवैध हथियारों का कारोबार तथा माफिया वसूली इत्यादि प्रमुख हैं। चोरी-डकैती की भी इसमें छोटी-मोटी भूमिका है, खासकर वाहनों की चोरी की। इसमें भांति-भांति के सामानों की तस्करी को भी जोड़ा जाना चाहिए। हालांकि वह वास्तव में अवैध आयात-निर्यात है। अपराध से पैदा हुआ यह काला धन भी व्यवसाय में लगता है और फलता-फूलता है। सिनेमा जैसे चमकने-दमकने वाले उद्योग के बारे में तो यह कहा जाता है कि यह अपराध के पैसे पर ही खड़ा है। उसमें लगने वाली औपचारिक और वास्तविक राशि में दसियों-बीसियों गुना का फर्क होता है। 
    काले धन के बारे में शोध करने वाले प्रोफेसर अरूण कुमार का कहना है कि देश में सकल घरेलू उत्पाद का आधा काले धन के रूप में पैदा होता है और उसका दस प्रतिशत देश के बाहर चला जाता है। यानी काले धन का नब्बे प्रतिशत हिस्सा देश में ही रहता है और कारोबार करता रहता है। 
    देश में काले धन को बाहर ले जाने के कई तरीके हैं। तस्करी या अवैध आयात-निर्यात तथा हवाला यानी अवैध तरीके से मुद्रा का देश के बाहर-भीतर आदान-प्रदान इसमें से एक है। हवाला में देश के भीतर किसी एजेंट को रुपया देकर विदेश में उसके सहयोगी एजेंट से विदेशी मुद्रा हासिल कर ली जाती है या उसका उलटा। काले धन को विदेश ले जाने का एक तरीका वैध आयात-निर्यात का भी है जिसे ‘‘अंडरइनवायसिंग या ओवरइनवायसिंग’’ कहते हैं। निर्यात की जाने वाले किसी वस्तु का दाम उसके वास्तविक दाम से कम दिखाया जाता है। इन दोनों के बीच की राशि निर्यातक को विदेश में अलग से अदा कर दी जाती है। इसी तरह आयात की जाने वाली वस्तु का दाम वास्तविक दाम से ज्यादा दिखाया जाता है। अदा की विदेशी मुद्रा में से अतिरिक्त हिस्सा (दिखाये गये दाम व वास्तविक दाम में अंतर) आयातक को विदेश में वापस कर दिया जाता है। 
    सवाल उठता है कि जब देश के भीतर ही काला धन कारोबार में लगा रहता है तो उसे विदेश भेजने का खतरा क्यों मोल लिया जाता है? यह एक तो इसलिए किया जाता है कि विदेश में वह देशी कानूनों से सुरक्षित रहेगा। इसके लिए उन देशों के बैंकों की शरण ली जाती है जहां बैंकों के गोपनीयता कानून खाताधारकों की रक्षा करते हैं। (स्विटरजलैण्ड इसके लिए भारत में सुख्यात या कुख्यात है। हाल के वर्षों में ‘आफशोर बैंकिंग’ ने इसमें महारत हासिल की है। ‘आफशोर बैंकिंग’ से आशय छोटे-छोटे द्वीपीय देशों में रजिस्टर्ड बैंक या बैंकों की स्वायत्त शाखाओं के कारोबार से है। ये मूलतः काले धन को इधर से उधर करने के केन्द्र हैं। 
    काले धन को विदेश भेजने की दूसरी वजह उसे सफेद धन के रूप में वापस देश में लाने की है। इसमें ‘आफशोर बैंकिंग’ ने काफी मदद की है। भारत के संदर्भ में दो उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जायेगा। भारत में होने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में दूसरा-तीसरा नंबर मारीशस का है। मारीशस हिन्द महासागर में छोटा सा द्वीप है। इस छोटे से द्वीपीय देश में इतने बड़े पूंजीपति कहां से पैदा हो गये? असल में इस द्वीप पर दुनिया भर के बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने अपनी स्वायत्त शाखाओं का पंजीकरण करा रखा है। इनमें भांति-भांति की जगहों से काला धन जमा होता है और फिर भारत जैसे देश में निवेश किया जाता है। भारत की कोई कंपनी इसके जरिये अपने काले धन को वापस ला सकती है और अपने काले धन को सफेद बना सकती है। इसी तरह भारत के शेयर बाजार में विदेशी निवेश का एक खास तरीका है-‘पार्टिसिपेटरी नोट’ का। इसमें निवेशक को यह बताने की जरूरत नहीं कि उसके ‘पर्टिसिपेटरी नोट’ में कौन-कौन से लोग पार्टिसिपेट कर रहे हैं या उसमें हिस्सेदार हैं। यानी वास्तविक निवेशक गुमनाम रहते हैं। स्पष्ट है कि इसके जरिये कोई अंबानी या कोई अदानी अपने काले धन को शेयर बाजार में लगा सकता है। 
    छुट्टे पूंजीवाद के पिछले तीन दशकों में इन सबमें भारी वृद्धि हुई है। बाकायदा ऐसे कानून बनाये गये हैं जो इनकी रक्षा करते हैं या ऐसे कानूनों को बदला गया है जो इसके रास्ते में बाधा बनते हैं। एक उदाहरण लें। 
    भारत में पिछले दिनों काले धन के संदर्भ में एक संधि का बार-बार जिक्र आया। यह जिक्र कांग्रेस सरकार ने भी किया और भाजपा सरकार ने भी। यह है ‘‘डबल टैक्स अवायडेंस ट्रीटी’’ यानी दोहरा कर बचाने की संधि। कहा गया है कि यह संधि भारत ने कई देशों से कर रखी है और इस संधि की शर्तों के कारण विदेशों में भारतीय खाताधारकों का नाम उजागर नहीं किया जा सकता। अब इस पर सबको हैरत हुई कि करदाताओं का नाम उजागर करने से सरकारों को क्यों आपत्ति होगी क्योंकि कर तो हमेशा सफेद धन पर ही दिया जाता है। उपरोक्त संधि तो इसलिए की गयी है कि कारोबारी एक ही कारोबार के लिए दो सरकारों को कर न दे। इसका काले धन से क्या संबंध? और ऐसा कर देने वालों के नाम या खाते क्यों छिपाये जायें? 
    असल में इस संधि का एक उद्देश्य यह है कि काले धन को छिपाया जाय। इसके जरिये काले धन को सफेद किया जाये। ऐसे में सरकारें इन लोगों के नाम छिपायेंगी ही। 
    उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में पूंजी की यह मांग रही है कि उसे लूटपाट करने की पूरी छूट दी जाये। इस छूट में कानूनी और गैर कानूनी दोनों छूट शामिल थीं। वैसे भी पूंजी के लिए हमेशा से ही कानूनी व गैर कानूनी के बीच सीमारेखा बहुत धुंधली रही है। 
    भारत में 2-जी स्पेक्ट्रम या कोयले के जो घोटाले हुए वे इसी का परिणाम हैं। सरकार ने एकदम कानूनी तरीके से इन्हें बेहद सस्ती दरों पर पूंजीपतियों को लुटा दिया। यह उसी जैसा था जैसे मोदी ने लाखों एकड़ जमीन कोडि़यों के दाम पर अंबानी, अदानी और टाटा को सौंप दी। 
    काले धन का आज का विशाल कारोबार आम तौर पर पूंजीवाद का और खासतौर पर उदारीकरण के जमाने के छुट्टे पूंजीवाद का अनिवार्य परिणाम है। इसे उससे अलग नहीं किया जा सकता है। 
    पूंजीवादी सरकारें और पूंजीवादी पार्टियां अपने चरित्र से पूंजी और पूंजीपति वर्ग की सेवक हैं। इसीलिए वे पूंजी और पूंजीपति वर्ग की मांग को पूरा करेगी ही। मजदूर-मेहनतकश जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए वे चाहे जो कुछ करें पर असल में वे वही करेंगी जो पूंजीपति वर्ग चाहता है। भाजपा और नरेन्द्र मोदी की सरकार इसका नवीनतम उदाहरण हैं। 
    काले धन के बारे में नरेन्द्र मोदी इत्यादि का भंड़ाफोड़ करने के लिए बहुत माथापच्ची की जरूरत नहीं है। कुछ सीधे सवाल ही इसके लिए पर्याप्त हैं। विदेशों में जमा काले धन पर इतना शोर मचाने वालों से यह पूछा जाना चाहिए कि वे देश में मौजूद काले धन के बारे में क्या कर रहे हैं? उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि देश का सारा सफेद धन अंबानियों, अदानियों, टाटाओं-बिडलाओं के पास ही क्यों है, आम जनता के पास क्यों नहीं? यह पूछा जाना चाहिए कि यदि विदेशों से काला धन आकर सफेद हो भी जाये तो यह फिर ऐसे लोगों के पास ही क्यों नहीं पहुंचेगा? यह पूछा जाना चाहिए कि जब सरकार हर साल कर माफी के रूप में पांच लाख करोड़ रुपया पूंजीपतियों पर लुटा दे रही हो तो यह धन भी उन पर क्यों नहीं लुटा देगी? यदि इस तरह की कर माफी के द्वारा पूंजीपतियों पर धन लुटाने के बाद सरकार जनता की राहतों में कटौती जब यह रोना रोते हुए करती रही है कि बजट घाटे में है तो वह यह आगे भी क्यों नहीं करेगी?
    असल में पूंजीपतियों की यह सरकार ऐसा करेगी ही। कांग्रेस सरकार ने भी यही किया और भाजपा सरकार भी यही करेगी। बल्कि मोदी की भाजपा सरकार तो यह इसलिए भी और ज्यादा करेगी कि पूंजीपतियों ने इसीलिए उसे खासतौर पर दिल्ली की गद्दी पर बैठाया है। 
    पूंजीवाद में दो चीजें तय हैं। एक तो मजदूर वर्ग केवल जिंदा रहने के स्तर पर रहेगा। दूसरा पूंजीपति वर्ग की पूंजी लगातार बढ़ती जायेगी। इसीलिए पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच खाई लगातार बढ़ती जायेगी। पूंजीपति वर्ग के मुकाबले मजदूर वर्ग की हालत और खस्ता होती जायेगी यानी उसकी सापेक्षिक बदहाली में लगातार बढ़ती होगी। यह पूंजीवाद का अनिवार्य नियम है।
    यह तब भी होता है जब मजदूर वर्ग संगठित होकर और संघर्ष कर अपनी हालत में कुछ सुधार कर ले यानी पहले से बेहतर खाने-पीने लगे। ऐसा इसलिए होगा कि पूंजीपति वर्ग की पूंजी और भी तेज गति से बढ़ती है तथा मजदूर कुछ संचय नहीं कर सकता। 
    उदारीकरण-वैश्वीकरण के जमाने में तो मजदूर वर्ग की यह बदहाली भयंकर हो गयी है। अब तो आक्सफैम से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक तथा टामस पिकेटी जैसे अर्थशास्त्री से लेकर पोप फ्रांसिस तक सभी तेजी से बढ़ती असमानता की बात करने लगे हैं। अब यह ऐसी सच्चाई बन गयी है जिससे कोई भी आंख नहीं चुरा सकता।
    उदारीकरण-वैश्वीकरण के पिछले तीन दशकों में पूंजीपति वर्ग ने मजदूर वर्ग की मजदूरी को गिराकर और छोटे उत्पादकों (किसानों-दस्तकारी इत्यादि) की सम्पत्ति को छीनकर अपना मुनाफा बढ़ाया है। ज्यादातर मजदूरों की मजदूरी तो अब उनके न्यूनतम से भी नीचे चली गयी है जबकि उनके काम के घंटे अधिकतम की सीमा पार कर रहे हैं। ऊपर से बेरोजगारी का भयंकर बोझ इस मजदूर वर्ग पर लदा हुआ है जो मजदूरी को और गिरा रहा है। सारा काला धन, सफेद धन और भ्रष्टाचार इत्यादि अंततः इसी मूल शोषण पर टिका हुआ है। काला धन, सफेद धन, भ्रष्टाचार इत्यादि इस मूल शोषण से पैदा होने वाले सम्पत्ति के बांट-बखरे का मामला है। 
    विश्व आर्थिक संकट के बीते सात सालों में मजदूर वर्ग और छोटी सम्पत्तिधारकों की लूट में और इजाफा हुआ है। पूंजीपति वर्ग ने संकट का सारा बोझ इसी पर डाला है। यह गौरतलब है कि ठीक संकट के इस काल में बड़े पूंजीपतियों की संख्या और उनकी पूंजी में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। मजदूर वर्ग एवं अन्य मेहनतकश जनता जितना कराह रही है उतना ही बड़ा पूंजीपति वर्ग फलता-फूलता जा रहा है। 
    ऐसे में मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता की जिंदगी में कोई सुधार किसी काले धन की वापसी से नहीं होगा। यह एक सपना है जिसे पूंजीपति वर्ग और उसके राजनीतिक सेवक आम जनता को बेवकूफ बनाने के लिए दिखाते रहते हैं। यह मृगमरीचिका है जिसकी दौड़ में जनता को लगाया जाता है। यह बहुत घृणित ढंग का छलावा है। 
    मजदूर वर्ग एवं अन्य मेहतनकश जनता की जिंदगी में कोई भी सुधार केवल पूंजीपति वर्ग को संगठित चुनौती देकर ही हासिल किया जा सकता है। हाल-फिलहाल छुट्टे पूंजीवाद को पीछे धकेलना तात्कालिक लक्ष्य है। लेकिन यह भी तभी हो सकता है जब समूची पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने का दूरगामी लक्ष्य सामने रखा जाये तथा उसके लिए संघर्ष किया जाये। केवल अपनी समूची व्यवस्था के सामने अस्तित्व का खतरा देखकर ही छुट्टा पूंजीपति वर्ग पीछे हटने को तैयार होगा। इसके अलावा मजदूर-मेहनतकश जनता के सामने कोई रास्ता नहीं है। 
जिहाद की जरूरत -गणेश शंकर विद्यार्थी 
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    अब हालत इतनी नाजुक हो गई है कि बिना जिहाद के काम चलता नहीं दिखाई देता। धर्म का नाम लेकर घृणित पाप के गड्ढे खोदने वालों की संख्घ्या घृणित रक्त-बीज की तरह बढ़ रही है। पहले भी समाज में धर्मढोंगी रहे हैं। हमेशा से वे रहते आये हैं। मनुष्य न तो कभी पूर्ण निभ्र्रांत था और न अभी शायद बहुत दिनों तक वह इस अवस्था को प्राप्त होगा ही, लेकिन समाज में कुछ ऐसे युग आते हैं, जिनमें मिथ्या धर्म और परिपाटी की भावना बहुत बलवती और देशव्यापिनी हो जाती है। ऐसे ही अवसरों पर हाथ में तलवार लेकर निकल पड़ने की जरूरत होती है। जब तक लोग धर्म की दुहाई दे-दे कर पाप की खड्ड-खाई जीवन की, व्यक्तिगत जीवन की, संकरी गलियों में खोदते रहते हैं, तब तक तो समाज के विचारशील पुरुष विशेष चिंता नहीं करते, परंतु जब सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के राजमार्ग पर धर्म की कुदाली, पाप और पामरता के गर्त खोदने लगती है, तब देश के कुछ हृदय अधिक व्याकुल और चिंतित हो जाते हैं।
    जीवन अनमिल एवं विच्छिन्न भेदभावों की पिटारी नहीं है, जो बात आज व्यक्तिगत जीवन में घटित होती है, वही कल समाज के तरल वक्षस्थल पर उतराने लगती है। भारतवर्ष का विशाल इतिहास इसका साक्षी है। वैदिकी हिंसा की भावना पहले व्यक्तिगत यज्ञ-यागादिक क्रियाओं में सन्निविष्ट थी, धीरे-धीरे वह समाज-व्यापिनी हो गयी। गंगा, यमुना, सरस्वती और पंचनद की भूमि एक विशाल हत्यागृह में परिणत हो गयी, जिसे कुछ व्यक्ति परसों तक अपनी वैयक्तिक हैसियत से करते रहे, उसे कल सारा का सारा समाज करने लग गया। इस समय जिहाद की जरूरत महसूस हुई। समाज की आत्मा कांपी। पाखंड का विच्छेद करने के लिये एक खड्ग-हस्त महात्मा की मांग हुई और न जाने किस उदारदानी ने देश की वह मुंहमांगी मुराद पूरी की, भगवान बुद्धदेव का अवतार हुआ। मानो हत्या और हिंसा की ज्वाला को बुझाने के लिये नील जलद का हृदय फट पड़ा। फिर इसी प्रकार सदियां गुजरीं। आत्मा के मंथन की जो क्रिया भगवान बुद्धदेव ने बतलाई थी, वह मंद हो चली। खांड़े की धार कुंद हो गयी। उस पर जंग चढ़ गया। और खड्ग को कुंद होता देख पाप ने अपने बीज बोये और उसका पौधा उगा और उसकी बेल फैली और फिर जिहाद की जरूरत महसूस हुई। वही क्रिया। कैसा अद्भुत चक्र! फिर-फिर कर उसकी परिधि में पैर पड़ने लगता है। कुछ बौद्ध भिक्षु, पहले चोरी-चुपके वासना-तृप्ति का साधन ढूंढने लगे। व्याधि फैली। एक संघ से दूसरे संघ में और दूसरे से तीसरे में और फिर सारे देश भर में धर्म के नाम पर पाप के गड्ढे खोदे जाने लगे। फिर समाज कुनमुनाया। जिहाद हुआ। स्वामी शंकराचार्य पधारे। वेदांत धर्म का रूप स्थापित किया गया। पर, समाज स्थिर नहीं रहता। जीवेश्वरेक्य के सिद्धांत की छीछालेदार की गयी। ‘अहंब्रह्मास्मि’ का दुरुपयोग होने लगा। उच्चतम आध्यात्मिक सत्यता और साधना का व्यवहार में ऐसा निकृष्ट उपयोग हुआ कि समाज फिर तिलमिलाया।। तब, विशिष्टद्वैत, द्वैत आदि मन का प्रतिपादन हुआ। सूखा ज्ञान भक्ति के रंग में रंगा। उदाहरण कहां तक दें? भारतवर्ष के इतिहास का यह अत्यंत विस्तृत पृष्ठ जो चाहे खोल के देख ले। प्राणांत की बेला में जिस तरह प्राणों का पुनः संचार हमारे समाज के अस्थिपंजर में किया गया है, वह प्रत्येक अन्वेषक की निगाह में पड़ जायेगा। नानकदेव, कबीर, गुरू गोविंदसिंह और इनके पहले रामानुज, मध्वाचार्य, वल्लभ आदि आचार्यों का आविर्भाव इसी एक आवश्यकता की पूर्ति के लिये हुआ। इस युग में राममोहन और दयानंद अपने खांड़ों की धार का प्राबल्य आज तक हमें दिखा रहे हैं। यह सच है। पर, इस समय हमारी आवश्यकताएं एक विशेष प्रकार की हैं। हम अपनी धार्मिक चहारदीवारी में बंधे हुए अपने आस-पास के तमाम संसार को भुलाये बैठे हैं।
    आज हमें जिहाद करना है- इस धर्म के ढोंग के खिलाफ, इस धार्मिक तुनुकमिजाजी के खिलाफ। जातिगत झगड़े बढ़ रहे हैं। खून की प्यास लग रही है। एक-दूसरे को फूटी आंखों भी हम देखना नहीं चाहते। अविश्वास, भयातुरता और धर्माडंबर के कीचड़ में फंसे हुए हम नारकीय जीव यह समझ रहे हैं कि हमारी सिर-फुड़ौवल की लीला से धर्म की रक्षा हो रही है। हमें आज शंख उठाना है उस धर्म के विरुद्ध जो तर्क, बुद्धि और अनुभव की कसौटी पर ठीक नहीं उतर सकता। सहारनपुर में झगड़े का आसन्न कारण क्या था? यही न कि पीपल की एक डाली अलम के झंडे में अड़ती थी। पामर! ढोंगी! पशु! किस धर्म के किस तर्क और बुद्धि के बल पर हम पीपल की डाली को अकाट्य और अछेद्य समझें? क्या किसी धर्म में ऐसा लिखा है? और यह परिपाटी, यह बाबा वाक्य ही क्या धर्म है? ऐसे धर्म का नाश, सर्वनाश, होना चाहिये। मूर्ख जाहिल मुसलमान अलम के झंडे को जब तक एक हजार फीट का-इतना ऊंचा कि वह सातवें आसमान की छत से जाकर टकराए- न बनायेंगे, तब तक उनका धर्म नहीं निभेगा, क्यों? इस बेहूदगी का, इस नीचता का भी कुछ ठिकाना है? और इन्हीं बातों में सिर फूटें! हमें क्या हो गया है? हिंदू लोग अपनी छाती पर दकियानूसी रस्मो-रिवाज का पत्थर रखे बैठे हैं। वे समझते हैं कि हम धर्म की रक्षा कर रहे हैं। यदि आज साक्षात् भगवान श्रीकृष्घ्ण भी आकर हम धर्मढोंगियों को समझायें कि जो कुछ हम कर रहे हैं - विधवाओं, अछूतों, विवाहादि संस्कारों, जाति-पांति के पाशविक अस्वाभाविक बंधनों आदि को अलंध्य संस्थाओं का रूप देकर हम जिस धर्म की रक्षा का पाखंड रचते रहे हैं- वह वास्तव में धर्म नहीं, अधर्म और महान अधर्म है, तो भी हमें विश्घ्वास है कि हम उनकी बात न मानेंगे। उसके प्रतिकूल हम अपनी छाती पर रखे हुए पत्थर को इस रूढि़-पूजा की शिला को और अधिक दुलार से चिकाएंगे और शायद रोकर कहेंगे, ‘अरे, मेरे अच्छे शिलाधर्म! मैं तुझे न छोडूंगा।’ जब अवस्था ऐसी हो रही है तब भला धर्म के ढोंग के विरुद्ध जिहाद न छेड़ा जाये तो और क्या हो! मस्जिदों के सामने बाजा न बजाओ, क्योंकि इबादत में खलल पड़ता है। बंगाल में ऐसा कभी नहीं हुआ। मस्जिदों के सामने न तो कोई ‘हरि बोल’ की ध्वनि कर सकता है और न ‘रामनाम’ की। वहां यह रिवाज है। मिस्टर गजनवी अब यह एक नया शिगूफा छोड़ रहे हैं। हम पूछना चाहते हैं कि यह सब जो हो रहा है, अथवा बंगाल में, यह मानकर भी कि उनका कथन सत्य है, जो कुछ होता रहा है, क्या वह धर्म की रू से जायज है? क्या इस बाजे-गाजे और हरि बोल रोकने-रुकवाने ही में धर्म? हम इस धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध जिहाद छेड़ना चाहते हैं। हम न तो ऐसे धर्म को धर्म कहते हैं और न ऐसी मूर्खता को धर्म-स्नेह के नाम से पुकारने को तैयार हैं। चाहे हिंदू हों या मुसलमान, यदि वे अपने वाक्यों को तर्क, बुद्धि और अनुभव-ज्ञान के बल पर पुष्ट नहीं कर सकते तो हम उन कार्यों को ढकोसला कहेंगे।
    भारतवासियों! एक बात सदा ध्यान में रखो। धार्मिक कट्टरता का युग चला गया। आज से 500 वर्ष पूर्व यूरोप जिस अंधविश्वास, दम्भ और धार्मिक बर्बरता के युग में था, उस युग में भारतवर्ष को घसीट कर मत ले जाओ। जो मूर्खताएं अब तक हमारे व्यक्तिगत जीवन का नाश कर रही थीं, वे अब राष्ट्रीय प्रांगण में फैल कर हमारे बचे-खुचे मानव-भावों का लोप कर रही हैं। जिनके कारण हमारा व्घ्यक्तित्व पतित होता गया, अब उन्हीं के कारण हमारा देश तबाह हो रहा है। हिंदू-मुसलमानों के झगड़ों और हमारी कमजोरियों को दूर करने का केवल एक यही तरीका है कि समाज के कुछ सत्यनिष्ठ और सीधे दृढ़ विश्वासी पुरुष धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध जिहाद शुरू कर दें। जब तक यह मूर्खता नष्ट न होगी, तब तक देश का कल्याण न होगा। समझौते कर लेने, नौकरियों का बंटवारा कर लेने और अस्थायी सुलहनामों को लिखकर हाथ काले करने से देश को स्वतंत्रता न मिलेगी। हाथ में खड्ग लेकर, तर्क और ज्ञान की प्रखर करवाल लेकर, आगे बढ़ने की जरूरत है। जिन हाथों में शक्ति है, उनसे हम यह पुण्य कार्य आरंभ करने का अनुरोध करते हैं। एक ऐसे संघ के बनने की आवश्यकता है जो किसी की लगी-लिपटी न कहे, जो सदा सत्य पर अटल रहे। मुक्ति का मार्ग यही है। पाप के गड्ढे राष्ट्र के राजमार्ग पर खोदना चाहिये, क्योंकि भारत की राष्ट्रीयता का रथ उस पर होकर गुजर रहा है। हम चाहते हैं कि कुछ आदमी ऐसे निकल आवें जिनमें हिंदू भी हों और मुसलमान भी जो कि इन सब मूर्खताओं को, जिनके हिंदू और मुसलमान दोनों शिकार हो रहे हैं, तीव्र निंदा करें। यह निश्चय है कि पहले-पहल इनकी कोई न सुनेगा। इन पर पत्थर फेंके जायेंगे। ये प्रताडि़त और निंदा-भाजन होंगे। पर, अपने सिर पर सारी निंदा और सारी कटुता को लेकर जो आगे आना चाहते हैं, उन्हीं को राष्ट्र यह निमंत्रण दे रहा है। सीस उतारै भुइं, ता पर राखै पांव, ऐसे जो हों, वे ही आवें।

हैमलेट, हैदर और कश्मीर: हों कि न हों?

वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
    शेक्सपीयर का एक नाटक है हैमलेट। हैमलेट डेनमार्क का राजकुमार है। उसके पिता की हत्या उसके चाचा ने उनके कान में जहर डालकर उस समय की होती है जब वे बाग में सो रहे होते हैं। चाचा यह प्रचारित कर कि सम्राट हैमलेट की मौत सांप के काटने से हुई थी डेनमार्क का राजा बन बैठता है तथा हैमलेट की मां से विवाह कर लेता है। यह दो महीने के भीतर हो जाता है। अपने भाई के इस कुकृत्य से दुःखी सम्राट हैमलेट का प्रेत राजकुमार हैमलेट के पास आता है और उसे सम्राट की मौत का असली कारण बताता है। प्रेत हैमलेट चाचा से बदला लेने के लिए कहता है लेकिन साथ ही यह भी कहता है कि वह अपनी मां पर हाथ नहीं उठाये क्योंकि वह चाचा द्वारा बहकायी गयी है। इसके बाद चाचा से बदला लेने की फिराक में लगा हैमलेट भांति-भांति के द्वन्द्व में फंस जाता है और बहादुर होते हुए भी खुद को कायर मानने लगता है। इसी दौरान वह बहुप्रचलित वाक्य बोलता है- ‘टू बी आर नाॅट टू बी’ यानी हों कि न हों (जिंदा रहें या मर जायें)।
    चाचा को मारने की फिराक में लगे हैमलेट के व्यवहार से चाचा को शक हो जाता है और वह भेद  जानने के लिए हैमलेट के दो बचपन के मित्रों को साथ लगा देता है। इस सारे प्रयास में चाचा का साथ देता है एक दरबारी, जिसकी लड़की से हैमलेट प्यार करता है। हैमलेट पागल हो जाने का नाटक करता है। हैमलेट के पागलपन की असलियत जानने के चक्कर में यह दरबारी मारा जाता है। प्रसंगवश यह दरबारी अपनी बेटी के हैमलेट से प्यार का विरोधी भी होता है। हैमलेट की स्थिति और पिता की मृत्यु से बेटी पागल हो जाती है और झील में डूबकर मर जाती है। उसकी मृत्यु के बाद उसका भाई फ्रांस के अपने व्यवसाय से लौट आता है और हैमलेट को पिता व बहन की मृत्यु का जिम्मेदार मानते हुए उससे बदला लेने में उद्यत हो जाता है। यह भाई भी अपनी बहन के हैमलेट से प्यार का विरोधी होता है। चाचा इस भाई का हैमलेट की हत्या के लिए इस्तेमाल करता है। इसके पहले हैमलेट को इंग्लैण्ड भेजकर वहां के राजा से उसकी हत्या करवाने की उसकी योजना असफल हो चुकी होती है। इस चक्कर में उसके दोनों नकली दोस्त इंग्लैण्ड के राजा के हाथों मारे जाते हैं। अंत में चाचा हैमलेट और उसकी प्रेमिका के भाई के बीच तलवार का द्वन्द्व युद्ध करवाने में सफल हो जाता है। द्वन्द्व युद्ध के दौरान जहर भरी शराब हैमलेट को पिलाने के चक्कर में राजा जो शराब का प्याला पेश करता है वह हैमलेट की मां पी जाती है और मर जाती है। द्वन्द्व युद्ध में हैमलेट और भाई दोनों एक दूसरे को जहर बुझी तलवार से घायल करते हैं। मरने से पहले भाई भी असलियत जान जाता है। हैमलेट भी मरने से पहले चाचा की उसी तलवार से हत्या कर देता है। 
    संक्षेप में हैमलेट की नाटक की यही कथा है। इसमें भाई का विश्वासघात और नीचता, पत्नी-मां की कमजोर मनोवृत्ति, बेटे का द्वन्द्व, प्रेमिका की अस्थिरता तथा दरबारियों की चापलूसी इत्यादि प्रमुख चीजें हैं। 
    शेक्सपीयर के हैमलेट की इस मूलकथा को लेकर विशाल भारद्वाज ने एक बम्बइया फिल्म बनाई है- हैदर। इसके पहले वे शेक्सपीयर के दो नाटकों पर फिल्में बना चुके हैंः मैकबेथ पर मकबूल तथा ओथेलो पर ओंकारा। 
    हैमलेट के समांतर हैदर की कथा इस प्रकार हैः 
    हैदर अलीगढ़ विश्वविद्यालय का छात्र है। कश्मीर के उसके डाक्टर पिता और उसकी मां ने उसे अलीगढ़ इसलिए भेजा होता है कि वह कहीं कश्मीर के आतंकवादी आंदोलन में शामिल न हो जाय। हैदर के पिता की कश्मीर के आजादी के आंदोलन से सहानुभूति होती है और वे चोरी-छिपे आतंकवादियों का इलाज करते हैं। ऐसे ही एक इलाज की मुखबिरी उनका भाई कर देता है। भाई वकालत के पेशे की आड़ में वस्तुतः सेना का मुखबिर होता है। सेना डाॅक्टर के मकान को घेर लेती हैै। डाॅक्टर को पकड़ कर ले जाया जाता है और उनका मकान उड़ा दिया जाता है जिसमें वहां मरीज व तीमारदार आतंकवादी मारे जाते हैं। 
    खबर पाकर जब हैदर घर लौटता है तो पाता है कि उसकी मां उसके चाचा के साथ हंसी-ठिठोली कर रही है। इससे हैदर दुःख और क्षोभ से स्तब्ध रह जाता है। हैदर अपनी प्रेमिका की मदद से अपने पिता को ढूंढने का प्रयास करता है। प्रेमिका का पिता पुलिस में होता है, भाई बंगलौर में नौकरी करता है। ये दोनों अब हैदर की अपनी बेटी-बहन से प्रेम के विरोधी होते हैं। 
    हैदर के लौटने के बाद उस पर नजर रखने के लिए पुलिस उसे उसके दो पुराने दोस्तों के घर रहने का इंतजाम करा देती है। ये दोनों पक्की नौकरी के लालच में पुलिस के मुखबिर होते हैं। इधर-उधर भटकते हैदर को उसके पिता के साथ रहा एक आतंकवादी, जो बच गया होता है, सारी बातें बताता है। वह उसके पिता की इच्छा बताता है कि हैदर अपने चाचा की उन दोनों आंखों को निकाल दे जो चाचा ने हैदर की मां पर डाली थीं। तब से हैदर इंतकाम की फिराक में लग जाता है। हैदर से अपने पिता की मृत्यु की खबर मिलने के बाद हैदर की मां चाचा से विवाह कर लेती है जिसके साथ पहले वह ‘आधी बेवा, आधी दुल्हन; के तौर पर रह रही होती है। 
    हैदर अपने चाचा की हत्या का इरादा प्रेमिका को बता देता है जो वह अपने पुलिस अफसर पिता को बता देती है। यह अफसर और चाचा हैदर की फर्जी मुठभेड़ में हत्या की साजिश करते हैं जिसमें हैदर बच निकलता है जबकि वह दोनों नकली दोस्तों को मार देता है। अपनी मां से मुलाकात के समय यह पुलिस अफसर वहां पहुंचता है तो हैदर उसे मार देता है। अपने पिता की मृत्यु और हैदर की स्थिति से प्रेमिका विक्षिप्त हो जाती है और मर जाती है। उसके कब्र में दफनाये जाते समय हैदर वहां जा पहुंचता है जहां प्रेमिका के भाई से लड़ाई में भाई मारा जाता है। 
    इस जगह हैदर की मौजूदगी की सूचना पा चाचा मय सुरक्षाबलों के वहां जा पहुंचता है। हैदर की मां चाचा से हैदर को आत्मसमर्पण के लिए राजी कराने की बात करती है। हैदर राजी नहीं होता। तब बाहर निकलकर मां स्वयं को बारूद से उड़ा देती है जिसे वह डाक्टर के साथ आतंकवादी की मदद से अपने पेट पर बांध कर आई होती है। चाचा इसमें बुरी तरह घायल हो जाता है। सुरक्षा बलों की गोलियों से स्वयं भी घायल हैदर चाचा की आंखों में पिस्तौल दागने पहुंचता है पर दाग नहीं पाता। उसे अहसास होता है कि आजादी इंतकाम से नहीं मिलती। वह चाचा को उसी हालत में छोड़ देता है। चाचा उससे मौत की भीख मांगता रह जाता है। 
    विशाल भारद्वाज का हैमलेट का यह हैदर संस्करण ओंकारा की तरह एक बम्बइया फिल्म की तरह ही दिलचस्पी की चीज होता यदि यह साथ ही अपनी पृष्ठभूमि में एक बेहद संवेदनशील चीज को न लिए होता। यह है कश्मीर की आजादी और उसके लिए संघर्ष का मामला। 
    शेक्सपीयर का हैमलेट सामंतकालीन है। नाटक लिखा गया था सत्रहवीं सदी की शुरूआत में जब पूंजीवाद का जन्म हो रहा था तथा पिता-पुत्र और पति-पत्नी इत्यादि संबंधों के बारे में धारणाएं अभी ज्यादातर पुरानी ही हैं। कथानक तो स्वयं और भी पुराना है और ठेठ सामंतकाल का है। इसीलिए इस नाटक में नये उभरते पूंजीवाद की सारी अनुगूंज के बावजूद ढे़रों मूल्य-मान्यताएं पुरानी हैं। कथानक की पृष्ठभूमि को देखते हुए वे बहुत परेशान भी नहीं करती। सामंती काल में राजमहलों में षड्यंत्र-प्रतिषड्यंत्र चलते ही रहते थे। निष्ठायें इनका शिकार होती थीं। हैमलेट में राजघरानों की इस पृष्ठभूमि को स्वीकार करने के बाद उसके बारे में बहुत सोचे बिना भी नाटक पर ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है। क्योंकि इस पृष्ठभूमि के साथ सारा नाटक व्यक्तियों के षड्यंत्र-प्रतिषड्यंत्र पर केन्द्रित हो जाता है जिसमें हैमलेट द्वारा पागल होने का स्वांग भी शामिल है। हां! उभरते पूंजीवाद की अनुगूंज हैमेलट के आत्मसंघर्ष और अंतद्र्वन्द्व में मौजूद है। इसीलिए बाद के पूंजीवादी साहित्य में हैमलेट एक विशिष्ट चरित्र के तौर पर याद किया जाता रहा है। यह आज के पूंजीवादी मानव का आदि रूप है। 
    विशाल भारद्वाज के हैदर में कश्मीर की पृष्ठभूमि केवल इसी रूप में पृष्ठभूमि नहीं बनी रहती। वह पृष्ठभूमि कथानक में लगातार दखल देती रहती है। इसीलिए हैदर व्यक्तियों के षड्यंत्र-प्रतिषड्यंत्र से आगे बढ़कर समूची उत्पीड़क व्यवस्था के व्यक्तियों के साथ षड्यंत्र-प्रतिषड्यंत्र में अंतर्गुफन का कथानक बन जाता है। और यहीं से फिर हैदर एक बम्बइया फिल्म नहीं रह जाती। यह एक समस्या (कश्मीर समस्या) फिल्म बन जाती है और चाहे-अनचाहे इस फिल्म के  बारे में कोई भी बात वहां से निर्देशित होने लगती है। अब इसे ‘ओंकारा’ की तरह केवल इस दिलचस्पी से नहीं देखा जा सकता कि यह कितनी मसाला फिल्म है, कितनी गंभीर और कि इसमें शेक्सपीयर का कितना तत्व है। अब चाहे-अनचाहे बात इस पर होने ही लगती है कि कश्मीर की आजादी के क्या मायने हैं, इस आजादी के लिए संघर्षरत धाराओं का क्या चरित्र है, इसका रास्ता क्या है और क्या होना चाहिए तथा इस सबका भारतीय राज्य सत्ता से क्या सम्बन्ध है। यह अजीबोगरीब है लेकिन यह सच है कि एक बम्बइया मसाला फिल्म के सम्बन्ध में ये सारे सवाल उठ खड़े होते हैं अन्यथा तो फिल्म के बारे में केवल यही कहा जाता कि यह शेक्सपीयर के हैमलेट के एक बेहद लंबा और फिल्म की दृष्टि से उबाऊ संस्करण है। कश्मीर समस्या में दिलचस्पी न रखने वाले दर्शकों के लिए फिल्म वास्तव में बेहद उबाऊ होगी।
    लेकिन दुर्भाग्यवश यह पृष्ठभूमि इस तरह प्रमुखता हासिल कर भी बेहद धुंधली बनी रहती है। कश्मीर के संदर्भ में ऊपर इंगित किये गये किसी भी सवाल के बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं होता। बल्कि एक तरह से देखा जाये तो यह धुंधलका और बढ़ ही जाता है। आखिर इस उपदेश का क्या मतलब है कि जिस देश से तुम आजादी चाहते हो उसको आजादी इंतकाम से नहीं मिली, एक लाठी वाले बूढे़ ने दिलाई या फिर कि आजादी इंतकाम से नहीं मिलती, इंतकाम से सिर्फ इंतकाम मिलता है। पिछले पचीस सालों में कश्मीर में सत्तर-अस्सी हजार लोग मारे गये हैं और पूरा कश्मीर संगीनों के साये में है। समूचा भारत अंग्रेजों के राज में इस तरह संगीनों के साये में नहीं था। इस पर बहस हो सकती है कि भारत की आजादी में हिंसा की कितनी भूमिका थी पर साथ ही यह भी सच है कि अंग्रेजों ने पूरे भारत को उस तरह नहीं रखा जैसा भारत सरकार कश्मीर को रखे हुए है। 
    हैमलेट की तरह आज कश्मीर के लिए द्वन्द्व नहीं है कि हो कि न हों। जहां तक कश्मीर के अवाम का सवाल है वे होना चाहते हैं जो कि वे नहीं हैं। यानी वे आजाद होकर एक राष्ट्र के रूप में संगठित होना चाहते हैं। लेकिन भारतीय राज्य सत्ता ऐसा नहीं होने देना चाहती। वह पिछले सात दशकों से, खासकर पिछले पच्चीस सालों से घोर दमन कर इसका रास्ता रोके हुए है। इस दमन के फलस्वरूप लाखों-लाख नौजवान होने से न होने में तब्दील हो चुके हैं। पचासों हजार तो बेहद शाब्दिक अर्थों में। 
    कश्मीर के इन हैदरों का द्वन्द्व होने या न होने का नहीं है। ऐसे हैदर कश्मीर में बहुत कम हैं जो कश्मीर से बाहर जाकर या भारतीय राजसत्ता के साथ तालमेल बैठाकर स्वयं के होने को सुदृढ़ आधार देना चाहते हैं या न होने से बचना चाहते हैं। ऐसे हैदर तो और भी कम हैं। जो होने- न होने का द्वन्द्व अपने नजदीकी लोगों के विश्वासघात में पायें। और यहीं से हैमलेट और हैदर के कथानक में एक बुनियादी फर्क आ जाता है। हैमलेट की तरह की घटनाएं सामंती काल में आम थीं। हम अपने भारत में भी प्रसेनजित-बिम्बसार के जमाने से मुगल शासन के पतन तक ऐसी तमाम घटनाओं से वाकिफ हैं हालांकि भारत में भी सामंती काल गुप्त वंश से ही आरंभ होता है। 
    पर क्या हैदर कथा कश्मीर की आम कथा है? इसमें कोई शक नहीं कि कश्मीर में भी मुखबिरों, फर्जी आतंकवादियों, इख्वानों इत्यादि की कोई कमी नहीं है। इसके बिना भारत सरकार का दमन वहां इस कदर कारगर नहीं हो पाता। पर यह हैदर कथा कश्मीर के युवकों की आम कथा नहीं है। यदि हैदर कथा में कश्मीर समस्या इतनी प्रमुखता से विद्यमान नहीं होती तो कोई समस्या नहीं थी। तब एक सामान्य पृष्ठभूमि को लिए हुए कथा व्यक्ति की त्रासदी पर केन्द्रित रहती। पर यहां कथा व्यक्ति से फिसल कर कहीं और पहुंच जाती है और यहीं से हर संवेदनशील दर्शक असहज महसूस करने लगता है। वह हैदर की व्यक्तिगत त्रासदी पर केन्द्रित नहीं कर पाता। वह कश्मीर के आम युवकों के बारे में सोचने लगता है। और तब मामला निराशाजनक मोड़ ले लेता है। 
    अखबारों में खबरें आई हैं कि हैदर के कश्मीर में प्रदर्शित नहीं किये जाने के बावजूद वह वहां काफी लोकप्रिय है। लोग उसे अपने घरों में देख रहे हैं। ऐसा हो भी सकता है। जब पूरा कश्मीर ही इतनी भयानक त्रासदी का शिकार हो और जब भारतीय राजसत्ता उसके बारे में हर सच्चाई को छिपाने या विकृत करने में लगी हो तब उसकी कोई भी झलक लोगों को उसकी ओर आकर्षित करती है। टेढ़ा या टूटा आइना भी कई बार विकल्पहीनता में इस्तेमाल करते हैं। हालांकि यह विकृत तस्वीर अक्सर ही न केवल समस्याग्रस्त बल्कि कई बार घातक भी साबित होती है। 
    भारतीय राज्य सत्ता तो क्या जनतंत्र का प्रचार करने वाली साम्राज्यवादी राज्य सत्ताएं भी कश्मीर जैसी सच्चाईयों का कभी सामना नहीं कर सकतीं। आज भी अमेरिका में वियतनाम युद्ध के बारे में झूठ ही झूठ प्रचलित है। राज्य सत्ता के प्रत्यक्ष सेन्सर से लेकर कलाकारों-फिल्मकारों द्वारा स्वसेंसर सच्चाई को सामने नहीं आने देता। आम अमेरिकी आज भी वियतनाम के बारे में उस सामान्य सच्चाई को नहीं जानते जिसे सारी दुनिया के लोग जानते हैं। 
    भारत जैसे देश के फिल्मकारों से इस बात की अपेक्षा तो और भी नहीं करनी चाहिए कि वे कश्मीर समस्या जैसी चीज पर सच्चाई का साथ देंगे। यहां राज्य सत्ता का सेंसर तो है ही, कलाकार-फिल्मकार का स्वसेंसर उससे भी बड़ा है। आखिर देशभक्ति के उबाल में जब-तब गोते लगाने वाले इस माहौल में कौन देशद्रोही साबित होना चाहेगा? कौन एम एफ हुसैन की तरह देश छोड़ने को मजबूर होना चाहेगा? ऐसे में यही सुरक्षित है कि एक पूरी कौम की त्रासदी को एक व्यक्ति की त्रासदी में रूपान्तरित कर दिया जाये। यहां एक पूरी कौम की त्रासदी एक व्यक्ति की त्रासदी में अभिव्यक्त नहीं है बल्कि एक पूरी कौम की त्रासदी एक व्यक्ति की त्रासदी की कथा से एकदम धुंधला जाती है। इसीलिए भारतीय सेंसर बोर्ड को इस बम्बइया फिल्म से कोई परेशानी नहीं है।  

सप्लाई साइड इकनामिक्स अथवा आपूर्ति वाला अर्थशास्त्र
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
भूतपूर्व संघी प्रचारक और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी अमेरिकी यात्रा के दौरान माइकल जैक्सन स्टाइल में जो तमाशा किया उससे इस दौरे का एक गंभीर पहलू आंखों से ओझल हो गया। यह पहलू उनके अपने ‘मेक इन इण्डिया’ नारे में भी है। यह पहलू है ‘सप्लाई साइड इकनामिक्स’ का जो उदारीकरण के दौर में पंूंजीवादी अर्थशास्त्रियों का मूल मंत्र रहा है।
बहुत सामान्य अर्थ में बात कहें तो ‘सप्लाई साइड इकनामिक्स’ यानी आपूर्ति पक्ष वाला अर्थशास्त्र यह कहता है कि बाजार में आपूर्ति स्वयं अपनी मांग पैदा कर लेती है। ज्यादा विशिष्ट तौर पर कहें तो यह कहता है कि संकट के समयों में समस्या पूंजी या मुद्रा के अभाव की होती है। यदि पूंजी या मुद्रा उपलब्ध करा दी जाये तो उत्पादन और क्रय-विक्रय होने लगेगा, भुगतान होने लगेंगे तथा इस तरह अर्थव्यवस्था में गति आ जायेगी और वह चल पड़ेगी। अर्थव्यवस्था मंदी से बाहर आ जायेगी।
बहुत समय हुए जब जार्ज मीनार्ड कीन्स ने 1930 के दशक की महामंदी का सबक निकालते हुए कहा था कि यदि पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को महामंदी से बाहर आना है तो बाजार में मांग पैदा करनी पड़ेगी। तब तक मुक्त अर्थव्यवस्था के सभी पुजारी पुरानी ज्ञान परम्परा के हिसाब से यही कहते रहे थे कि समस्या का कारण बाजार में पूंजी का और मुद्रा का अभाव है। कीन्स ने इस परम्परागत ज्ञान को नकार दिया और संकटों से उबरने के लिए मांग पैदा करने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि संकटों के समय पूंजीवादी सरकारों को हर तरीके से मांग पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए यूं ही गड्ढे खुदवाने और भरवाने का काम भी किया जा सकता है। इसके लिए सरकारों को बजट घाटे की चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि एक बार अर्थव्यवस्था में गति आ जाये तो फिर ज्यादा कर लगाकर या पुराने कर दरों पर भी बढ़े हुए व्यवसाय के कारण बजट घाटे की भरपाई हो जायेगी। 
कीन्स का यह सिद्धान्त बाद में कायम होने वाले ‘कल्याणकारी राज्यों’ की आम नीति बन गया हालांकि व्यवहार में यह अलग-अलग देशों में अलग-अलग लागू होता रहा। यह नीति अर्थव्यवस्था में सरकार के बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप तथा इसलिए उस पर बड़े पैमाने पर नियंत्रण की अपेक्षा करती थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तीन दशकों तक साम्राज्यवादी देशों में ऐसा था भी। 
लेकिन जब 1970 के दशक में ‘कल्याणकारी राज्य’ का माॅडल संकट में पड़ा तो आपूर्ति वाला अर्थशास्त्र फिर वापस आ गया। एक बार फिर यह कहा जाने लगा कि समस्या की जड़ में मांग नहीं बल्कि आपूर्ति है और इसलिए इसे ठीक किया जाना चाहिए। इसके लिए पूंजी और मालों (सेवाओं) के प्रवाह पर लगे प्रतिबंध समाप्त होने चाहिए। उदारीकरण-वैश्वीकरण के जो सिद्धान्त पेश किये गये उनकी जड़ में यही था। निजीकरण इसका स्वाभाविक सहगामी था। 
तब से बीते चार दशकों में पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के संचालन में यही सोच हावी रही है। इस सोच ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को एक के बाद दूसरे गंभीर संकटों में ढकेला है। पर इस सोच में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। 
वर्तमान विश्व आर्थिक संकट को ही लें। जब यह संकट 2007 में शुरू हुआ तभी से पूंजीवादी सरकारों ने अपने यहां ब्याज दरें घटानी शुरू कर दीं और साल भर के अंदर यह शून्य के आस-पास पहंुच गयी। अब पिछले छः सालों से साम्राज्यवादी देशों में ब्याज दरें (रिजर्व बैंक द्वारा अन्य बैंकों को कर्ज पर ब्याज दरें जो उस देश में बेंचमार्क यानी निर्धारक का काम करती हैं) शून्य के आस-पास बनी हुयी है। 
मानो इतना ही काफी न हो, बाजार में पूंजी की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए सरकारों ने अमेरिकी सरकार की ‘क्वांटिटेटिव इजिंग’ किस्म की योजनाएं भी लागू की हैं। इस योजना के तहत अमेरिकी सरकार ने बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से परिसम्पत्तियां खरीद लीं और उन्हें पैसा दे दिया। 
परिणाम क्या निकला? बाजार में पैसे की बहुलता हो गयी और यह पैसा भारी मात्रा में सट्टा बाजार में लगने लगा। उत्पादन और वितरण में कोई सुधार हुए बिना शेयर बाजार रोज-रोज नये रिकार्ड बनाने लगा। यही नहीं, यह पैसा(डालर) भारत जैसे देशों के शेयर बाजार में भी आने लगा और ये शेयर बाजार भी कुलांचे भरने लगे। पिछले दो सालों में देश के सकल घरेलू उत्पादन की वृद्धि दर पांच प्रतिशत से नीचे रही है लेकिन शेयर बाजार रिकार्ड तोड़ते हुए 27,000 (सेंसेक्स) से ऊपर निकल गया है। इस दौरान औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि दर तो शून्य के आस-पास ही रही है। 
वास्तव में साम्राज्यवादी देशों में यही प्रक्रिया पिछले तीन दशकों में बढ़ते पैमाने पर जारी रही है और इसने लगातार बढ़ते पैमाने पर संकटों को जन्म दिया है। वर्तमान विश्व आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि को ही लें। 
जब 2000 में डाॅट काम बुलबुला फूटा (जो अपनी बारी में आपूर्ति वाली अर्थव्यवस्था का ही परिणाम था) तो उससे पैदा संकट से उबरने के लिए अमेरिकी सरकार ने ब्याज दरें घटाकर एक प्रतिशत से नीचे ला दीं। अन्य साम्राज्यवादी सरकारों ने भी यही किया। इससे हासिल वित्तीय तरलता यानी पूंजी की आसान उपलब्धता का इस्तेमाल वास्तविक उत्पादन और वितरण में नहीं हो सकता था क्योंकि वहां तो मांग ही नहीं थी। इसलिए इसका इस्तेमाल भांति-भांति की सट्टेबाजी, खासकर मकान आधारित गिरवी परिसम्पत्तियों की सट्टेबाजी में किया गया। सट्टेबाजी का यह बुलबुला बढ़ता गया। और अंततः 2007 में फूट गया। तब से एक बार फिर वही प्रक्रिया दुहरायी जा रही है। अर्थव्यवस्था में कोई वास्तविक सुधार हुए बिना सट्टेबाजी का बुलबुला फिर फूल रहा है। यहां तक कि उदारीकरण की नीतियों के दृढ़ समर्थक रघुराम राजन (भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर) ने चेतावनी दी है कि दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं 2008 के संकट से भी ज्यादा बड़े वित्तीय संकट की ओर बढ़ रही हैं। रघुराम राजन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने 2007-08 के वित्तीय संकट की भविष्यवाणी की थी। 
किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि जब आपूर्ति वाले अर्थशास्त्र पर चलने के कारण दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं एक के बाद दूसरे और भी गंभीर संकटों का शिकार हो रही हैं तो इस अर्थशास्त्र का दम क्यों नहीं निकल रहा है। सरकार आपूर्ति वाली नीतियों से पीछे क्यों हट रही है? पूंजीपति वर्ग मांग वाली अर्थव्यवस्था की ओर क्यों नहीं बढ़ रहे है?
इसका सीधा सा जबाव यह है कि पूंजीपति वर्ग को मतलब अपने मुनाफे से होता है चाहे अर्थव्यवस्था में गति हो या न हो। और पिछले तीन दशकों में अर्थव्यवस्था में संकट के बावजूद पूंजीपति वर्ग का मुनाफा लगातार बढ़ता गया है। यह हुआ है मजदूर वर्ग का जीवन स्तर गिराकर और छोटी सम्पत्ति वालों की सम्पत्ति छीनकर। यह वैश्विक पैमाने पर हुआ है। भारत के टू जी स्पेक्ट्रम या कोल घोटाले तो उसकी कुछ छोटी बानगियां हैं। इस लूट-पाट के कारण असमानता तेजी से बढ़ी है और अधिकाधिक आबादी बदहाली में गयी है। इसे छिपाने के लिए शासक वर्गों द्वारा लगातार बाजीगरी की जा रही है पर वे छिपा नहीं पा रहे हैं यह बाजीगरी भारत सरकार से लेकर विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ तक सभी कर रहे हैं। जब दुनिया भर के हालात ऐसे हों तो भारत का पूंजीपति वर्ग भी आपूर्ति वाले अर्थशास्त्र में क्यों विश्वास नहीं करेगा? क्यों वह मांग वाली अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ना चाहेगा। 
जगजाहिर है कि भारत की एक बहुत बड़ी आबादी भुखमरी की रेखा के नीचे जी रही है। यानी वह किसी तरह जिंदा है। भारत सरकार इस आबादी की संख्या लगातार कम कर बताने का प्रयास करती रहती है। पिछले साल तो वह इसे घटाते-घटाते 21.5 प्रतिशत तक ले आयी थी। (गांवों में 26 रुपया प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तथा शहरों में 32 रुपया प्रति व्यक्ति प्रति दिन)। इस पर काफी हंगामा मचा। सरकार ने एक नयी कमेटी गठित की। इस कमेटी ने रिपोर्ट दी कि 2011-12 की कीमतों पर भुखमरी की रेखा देहातों में 1095 रुपया प्रति व्यक्ति प्रति माह तथा शहरों में 1407 रुपया प्रति व्यक्ति प्रति माह होनी चाहिए। और इस आधार पर 2011-12 में 38.5 प्रतिशत आबादी भुखमरी की रेखा के नीचे थी। गौरतलब है कि भारत सरकार 1996 में ही यह संख्या 25 प्रतिशत से नीचे ले आई थी।
किसी तरह जिन्दा रहने वाली यह आबादी पूंजीपति वर्ग के लिए कोई बड़ा बाजार नहीं हो सकती खासकर तब जब इसका एक बड़ा हिस्सा ‘स्वरोजगार’ के तहत जिन्दा हो। इसी तरह जिस मजदूर वर्ग को और निचोड़कर मुनाफा बढ़ाया जा रहा है। उसकी क्रय शक्ति बढ़ नहीं रही है। बल्कि अक्सर ही मजदूरी में गिरावट के कारण यह घट रही है। तबाह होती छोटी सम्पत्ति के मालिकों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे पूंजीपति वर्ग के लिए बाजार को खूब बढायेंगे। यदि वे उजड़ कर असंगठित क्षेत्र के मजदूर बन जाते हैं तो बस उसी स्तर का बाजार पैदा करेंगे। 
यह बाजार लगभग संतृप्त है। यह सबसे ज्यादा औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों में दिख रहा है। पिछले दो सालों में सबसे ज्यादा गिरावट औद्योगिक क्षेत्रों में हो रही है। यहां तक कि मध्यम वर्ग को लुभाकर (मकान और कार के लिए उधार पर ब्याज दरें कम करना इत्यादि) बाजार को फैलाने की सभी कवायदें बेअसर साबित हुयी हैं। कारों की फैक्टरियां बंद पड़ी हैं और नयी मकान कालोनियां अनबिकी खाली पड़ी हैं। 
बाजार में मांग के ठहराव की इस हालत में कोई भी यही सोचेगा कि आबादी के विभिन्न हिस्सों की क्रय शक्ति को बढ़ाना ही समस्या का समाधान है। पर नहीं। आपूर्ति वाले अर्थशास्त्र के इस दौर में नहीं। इसमें बिना क्रय शक्ति को बढ़ाये ही आपूर्ति बढ़ाकर पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ाया जायेगा।
यह सोचकर किसी का भी दिमाग चकरा सकता है कि जब बाजार में मांग बढ़ेगी ही नहीं तो बढ़ी आपूर्ति की खपत कैसे होगी? आपूर्ति वाला अर्थशास्त्र यह समझायेगा कि जब नयी-नयी फैक्टरियां लगेंगी, रुकी पड़ी योजनाएं लागू हो जायेंगी तो इससे बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन होगा। जब लोगों को रोजगार मिलेगा तो उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी और आपूर्ति के जरिये मांग पैदा हो जायेगी। 
इस सुहाने सपने के प्रस्तोता बस यह नहीं बताते कि जब पिछले दो दशकों का विकास रोजगार विहीन विकास रहा है, जब देशी-विदेशी कंपनियां श्रम सघन के बदले तकनीकी सघन उद्यम लगा रही हैं तब नये रोजगार कहां से पैदा होंगे। यदि कुछ रोजगार पैदा भी होंगे तो असंगठित क्षेत्र के अत्यंत बुरे रोजगार क्यों नहीं होंगे क्योंकि सरकार तो श्रम कानूनों में परिवर्तन कर संगठित क्षेत्र के बेहतर रोजगार को भी असंगठित क्षेत्र के रोजगार के स्तर पर लाने पर तुली हुयी है। 
पिछले तीन दशकों की पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं की आम गति ने और भारत जैसे पिछड़े पूंजीवादी देशों की विशिष्ट स्थिति ने दिखाया है कि आज एक बड़ी आबादी को रोजगार मिल ही नहीं सकता तथा एक और बड़ी आबादी बेहद निम्न स्तर का रोजगार ही पा सकती है। दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के एक दीर्घकालीन संकट का यह भी एक परिणााम है जो अपनी बारी में कारण की भी भूमिका निभाता है।
अब जब रोजगार सृजन की बातें फर्जी हों तो आपूर्ति वाली अर्थव्यवस्था के लिए केवल एक ही रास्ता बचता है। वह है आबादी के बड़े हिस्सों को कर्ज में धकेलकर मांग पैदा करना। पिछले दो-तीन दशकों में साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्थाओं में यह बड़े पैमाने पर हुआ है। वर्तमान विश्व आर्थिक संकट में तो इस कर्ज के व्यवसाय ने एक बड़ी भूमिका निभाई थी। 
जब सरकार ‘मेक इन इण्डिया’ के समय ही ‘प्रधानमंत्री जन-धन’ योजना लागू करती है दोनों का आपसी सम्बन्ध छिपा नहीं रह जाता। यह छोटे पैमाने का अमेरिकी माॅडल है जो अपनी बारी में वैसी ही गतियां पैदा करेगा। 

मोदी के नेतृत्व में भारत ‘ब्रेव न्यू वल्र्ड’ में प्रवेश कर रहा है। यह ‘वल्र्ड’ है बढ़ती सट्टेबाजी और कर्जखोरी का ‘वल्र्ड’। आपूर्ति वाले अर्थशास्त्र की यह स्वाभाविक और अनिवार्य गति है। आने वाले समय में भारतीय अर्थव्यवस्था एक बड़े विस्फोट की ओर बढ़ेगी- यदि मोदी की इच्छायें पूरी हुईं तो। 

प्रधानमंत्री जन-धन योजना: जन से धन खींचने की योजना
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
वित्तीय समावेशन या गरीब आबादी तक औपचारिक बैंकिंग या वित्तीय व्यवस्था पहुंचाने की बात एक लम्बे समय से चलती रही है। संप्रग सरकार के जमाने में तो गाहे-बगाहे उछाला जाने वाला एक प्रिय जुमला बन गया था। खासकर भुखमरी की रेखा के नीचे रहने वाली आबादी के लिए तो यह कहा जाने लगा था कि उन्हें भुखमरी से बचाने का एक प्रमुख उपाय वित्तीय समावेशन या ‘फाइनेंसियल इन्क्लूजन’ हो सकता है। इस समावेशन यह प्रमुख बात थी कि यह गरीब आबादी औपचारिक वित्तीय संस्थाओं से ऋण ले सके। 
संप्रग सरकार तो चली गयी। अब उसके बाद आने वाली सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी ने बड़े जोर से घोषणा की कि देश के हर व्यक्ति का बैंक में खाता होना चाहिए और इसके लिए बैंकों को यथोचित  निर्देश दिये गये हैं। अब देश के उच्च वर्ग से लेकर निम्न मध्यम वर्ग तक की आबादी के तो पहले से बैंक खाते हैं। ऐसे में जो आबादी इस नारे का लक्ष्य बनती है वह मजदूर और अन्य गरीब आबादी ही बनती है, खासकर देहातों के मजदूर और अर्ध सर्वहारा तथा गरीब किसान। मोदी ने घोषणा की कि बैंकों में खाता खुलवाने वालों को एक लाख रुपये का जीवन बीमा तथा तीस हजार रुपये का स्वास्थ्य बीमा मुफ्त मिलेगा। खबर आयी कि पहले दो दिनों में ही एक करोड़ से ज्यादा लोगों ने बैंक खाते खुलवाये। चिढ़े हुए कांगे्रसियों ने कहा कि यह तो उनकी पुरानी योजना है जिसे मोदी सरकार ने नाम बदलकर लागू कर दिया है। 
इस वित्तीय समावेशन का वास्तविक मतलब क्या है? इससे किसको लाभ होने वाला है? जो सरकार लगातार जन राहत की योजनाओं और मदों में कटौती कर रही हो वह गरीब आबादी के भले के लिए कोई योजना कैसे लागू कर सकती है? जो सरकार देश में गरीबों की संख्या कम दिखाने के लिए (जिससे उन पर होने वाले राहत खर्चो में कटौती की जा सके) लगातार आंकड़ों की बाजीगरी करती हो, वह गरीबों के प्रति मेहरबान कैसे हो सकती है? भेडि़ये मेमनों का भला क्यों चाहने लगे हैं?
इन सवालों का उत्तर जानने के लिए पिछले सालों की तीन प्रमुख परिघटनाओं पर नजर डालना फायदेमंद होगा। 
पहली परिघटना शारदा चिट फंड और सहारा इंडिया की है। ये दोनों पिछले दिनों खबरों की सुर्खियों में रहे हैं। शारदा के कई अधिकारी, जिसमें तृणमूल कांगे्रस से जुड़े सांसद भी हैं, इस समय जेलों में या जांच के दायरे में हैं। सहारा इंडिया के प्रमुख पिछले करीब पांच महीने से जेल में हैं। देश भक्ति का पाठ पढ़ाने वाले सुब्रत राय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से बिना किसी सजा के जेल में हैं क्योंकि वे न्यायालय के फैसले के बावजूद छोटे निवेशकों का दसियों हजार करोड़ रुपया वापस नहीं कर रहे हैं। 
शारदा और सहारा के घोटाले हजारों करोड़ रुपये के हैं। इन कंपनियों ने कुछ ही सालों में दसियों-बीसियों हजार करोड़ रुपये का व्यवसाय खड़ा किया है। कैसे? देश की उस गरीब आबादी की थोड़ी-थोड़ी बचत का इस्तेमाल करके जिसे इन्होंने कुछ ही सालों में दो गुना-तीन गुना पैसा वापस करने का लालच दिया। इन्होंने अपना सारा कारोबार औपचारिक बैंकिंग-वित्तीय व्यवस्था, जो रिजर्व बैंक और सेबी (सिक्योरिटी एण्ड एक्सचेंज बोर्ड आॅॅफ इंडिया) के नियमों-कानूनों से नियमित-संचालित है, के दायरे से बाहर खड़ा किया। इसके लिए उन्होंने कानूनों में छेदों का इस्तेमाल किया। 
यह आश्चर्यजनक किंतु सत्य है कि इस-बीस हजार करोड़ रुपये का व्यवसाय करने वाला कोई वित्तीय संस्थान औपचारिक वित्तीय व्यवस्था के नियमों-कानूनों से बाहर है। इसे ही किसी हद तक नियंत्रण में लाने के लिए रिजर्व बैंक ने पीयरलेस कंपनी को अपना व्यवसाय बंद करने के लिए मजबूर किया और अब इसी कारण सुब्रत राय जेल में हैं। लेकिन पीयरलेस व सहारा को रिजर्व बैंक और सेबी द्वारा नियंत्रित करने के प्रयास के इसी दौर में शारदा का सामने आना और फलना-फूलना इस बात को दिखाता है कि कानूनों में छेद काफी ज्यादा हैं और रिजर्व बैंक द्वारा नियंत्रण के छिटपुट प्रयास नाकाफी हैं। यह इस बात को भी रेखांकित करता है कि आबादी के निचले हिस्सों में औपचारिक वित्तीय व्यवस्था के प्रति कोई आकर्षण नहीं है। दूसरे वह आज के लुटेरे पूंजीवाद द्वारा दिखाये जा रहे भांति-भांति के लालच का शिकार हो जा रही है। असल में औपचारिक वित्तीय तंत्र इसी लालच को बढ़ाना और इसका इस्तेमाल करना चाहता है भले ही वित्तीय समावेशन की वकालत करने वाले बुद्धिजीवी यह सोचें कि इसके द्वारा गरीब लोगों को सुरक्षा मिलेगी और वे भांति-भांति के धोखेबाज शासकों के चुंगल से बच जायंेगे। 
लालच का एक अन्य रूप एक दूसरी परिघटना से जुड़ा हुआ है और यह भी पिछले कुछ सालों में सुर्खियों में रहा है। यह परिघटना है सूक्ष्म वित्त खासकर देहातों में। सूक्ष्म वित्त यानी माइक्रो फाइनेंस काफी पुरानी चीज है पर इसे अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर शोहरत मिली बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक से जो मोहम्मद युनुस द्वारा स्थापित किया गया था। इस शताब्दी की शुरूआत में मोहम्मद युनुस और ग्रामीण बैंक को नोबेल पुरूस्कार मिलने के बाद तो हर भलामानस सूक्ष्म वित्त का मुरीद हो गया। यह चर्चा धार्मिक मत का रूप धारण कर गयी कि यदि गरीब लोगों को कुछ हजार के छोटे-छोटे ऋण उपलब्ध करा दिये जायें तो वे अपनी उद्यमिता का परिचय देकर खुद ही गरीबी की रेखा से बाहर निकल जायेंगे। कुछ तो ठीक-ठाक उद्यमी भी बन सकते हैं। उदारीकरण या छुट्टे पूंजीवाद के इस जमाने में इस धार्मिक मत का उपमत यह था कि गरीब लोगों को सरकारी राहत या खैरात की नहीं बल्कि उनकी उद्यमिता की पहलकदमी खोलने की जरूरत है। हर गरीब व्यक्ति संभावित उद्यमी है, खासकर औरतें। 
व्यवहारतः सूक्ष्म वित्त या माइक्रो फाइनेंस में यह होता है कि खुद को गैर मुनाफा संस्थान के रूप में पंजीकृत कराने वाली वित्तीय संस्थाएं व्यक्तियों खासकर औरतों, क्योंकि उनसे वसूली आसान होती है, के समूहों को छोटे-छोटे ऋण देती हैं जिससे समूह के व्यक्ति अपना कोई उद्यम चला सकें ऋण व्यक्ति को दिया जाता है, समूह को नहीं और वसूली भी व्यक्ति से ही होती है पर ऋण वापसी की गारंटी समूह करता है। समूह इसलिए बनाया जाता है कि एक व्यक्ति द्वारा ऋण वापस न करने पर समूह उसे वापस करता है। समूह या तो व्यक्ति पर दबाव डालता है या फिर उसके बदले ऋण चुकाकर उससे बाद में वसूल करता है। भुखमरी की रेखा के नीचे रहने वाली गरीब आबादी से ऋण वसूली का यह शानदार तरीका है। इस पर भद्रता का मुलम्मा चढ़ाने के लिए इस समूह को स्वयं सहायता समूह या ‘सेल्फ हेल्प ग्रुप’ कहा जाता है। 
जैसा कि दुनिया के कई देशों की तरह भारत के आंध्र प्रदेश में तीखेपन से उजागर हुआ, जब कई लड़कियों व औरतों ने सूक्ष्म वित्त ऋण के बोझ के कारण आत्महत्या की, सूक्ष्म वित्त का पूरा जाल गरीब आबादी को ऋण जाल में फंसाने और फिर उनसे भारी ब्याज वसूलने के लिए है। सूक्ष्म वित्त की ब्याज दरें पच्चीस-तीस प्रतिशत सालाना से लेकर एक सौ बीच-तीस प्रतिशत तक चली जाती हैं। सूक्ष्म वित्त संस्थान, जो स्वयं इसके लिए वित्त दान दाताओं संस्थानों या औपचारिक वित्तीय संस्थानों से जुटाते हैं, इस लूट-खसोट से खूब मोटे हो जाते हैं और इनमें से कई बाद में स्वयं को गैर मुनाफा वाले औपचारिक वित्तीय संस्थानों में रूपांतरित कर लेते हैं। सूक्ष्म वित्तीय संस्थान खड़े करने वाले लोग खटमलों और जोंकों की तरह गरीब आबादी का खून चूसकर ऐश करते हैं। हालात वहां पहुंच जाते हैं जहां कोई गरीब औरत एक ही साथ कई सूक्ष्म वित्त संस्थानों से ऋण ले रही होती है और अक्सर वह इसलिए करती है कि एक से उधार लेकर दूसरे का उधार चुका सके। वह शास्त्रीय अर्थों में ऋण जाल में फंस चुकी होती है। कई बार यह स्थिति कुछ औरतों को आत्महत्या करने की ओर ले जाती है क्योंकि ऋण जाल से निकलने का और कोई रास्ता नहीं बचा होता। 
तीसरी परिघटना पुरानी है पर वह कुछ नये रूप में और बड़े पैमाने पर प्रकट हो रही है। खासकर पंजाब जैसे विकसित इलाकों में, जहां औपचारिक वित्तीय तंत्र का सघन जाल है, इसने भयावह रूप धारण कर लिया है। यह परिघटना है सूदखोरी। गांवों में (शहरों में भी) सूदखोरी का धंधा खूब फल-फूल रहा है। खासकर गरीब आबादी अपनी आपातकालीन जरूरतों के लिए सूदखोरों के पास ही जाती है। सूदखोर बहुत ऊंची ब्याज दर पर ऋण देकर उन्हें अपने चंगुल में फंसाते हैं और अक्सर ही उनकी किसी छोटी सम्पत्ति से वंचित होने की शुरूआत होती है। छोटी सम्पत्ति वाले गरीब लोगों के सर्वहाराकरण की यह एक कष्टदायी प्रक्रिया होती है। 
सदियों पुरानी इस सूदखोरी में छूट्टे पूंजीवाद के इस दौर में परिवर्तन यह हुआ है कि अब सूदखोर पुराने साहूकार नहीं हैं। अब अक्सर ही सूदखोरी का काम धनी किसान और आढ़तिये इत्यादि करते हैं। यानी सूदखोरों की बिरादरी बदल गयी है। इसी के साथ यह भी हुआ है कि ऋण अब हारी-बिमारी या शादी-ब्याह के लिए ही नहीं बल्कि उत्पादक कामों के लिए भी लिये जाते हैं। खासकर फसल चौपट होने पर बाजार भाव न मिलने पर यह ऋण अक्सर ही खेती की आगतों को उधार में लेने के रूप में होते हैं और इस तरह यह कृषि आगतों के विक्रेताओं से जुड़ जाती है।
स्थानीय सूदखोरों के चंगुल से गरीब आबादी को बचाने के लिए अक्सर ही यह कहा जाता रहा है कि उनकी पहुंच औपचारिक वित्तीय तंत्र होनी चाहिए यानी उन्हें अपनी जरूरतों के लिए ऋण बैंकों से मिल जाना चाहिए। पर यह अभी तक नीति वचन ही रहा है। अभी हाल में इससे बिल्कुल अलग हटते हुए शासक वर्गीय हलकों से यह प्रस्ताव आया कि स्थानीय सूदखोरी से निपटने का यह तरीका बेहतर होगा कि इसे नियमित कर दिया जाय। सूदखोरों के लिए नियम कानून बना दिये जायें और उन्हें औपचारिक वित्तीय तंत्र से ऋण लेने की सुविधा प्रदान कर दी जाय।          
रिजर्व बैंक की एक समिति द्वारा प्रस्तुत किया गया यह प्रस्ताव अनोखा था। यह मर्ज को ही दवा बनाना चाहता था। पर इसके पीछे एक उद्देश्य छिपा हुआ था। वह था गरीब आबादी की औपचारिक वित्तीय तंत्र तक पहंुच को सुनिश्चित करना। सरकार और भलेमानस बुद्धिजीवी समस्या को इस रूप में पेश करते हैं कि गरीब लोगों की औपचारिक वित्तीय तंत्र तक पहुंच नहीं है। इसलिए वे उत्पादक गतिविधियों के लिए सस्ते ऋण से वंचित रह जाते हैं इसलिए वे सूदखोरों के चंगुल में फंस जाते हैं। पर इसका तो बहुत सरल समाधान है। ज्यादातर बैंक अभी भी सरकारी हैं और उन्हें आदेश दिया जा सकता है कि वे गरीब लोगों को ऋण दें। तब बैंकों के बाहर गरीब लोगों की लम्बी कतारें लग जायेंगी। लेकिन छुटटे पूंजीवाद के इस जमाने में जब सरकार सरकारी बैंकों को यह आदेश दे रही हो कि वे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाएं तो वह ऐसा आदेश नहीं दे सकती। गरीब लोगों को ऋण देने में इस बात का खतरा है कि वे ऋण वापस न करें। बैंक तब इस वसूली को सुनिश्चित कर सकते हैं? इसका कोई उपाय नहीं है क्योंकि अक्सर गरीब व्यक्ति के पास कुर्की करने के लिए सम्पत्ति नहीं होती। ऐसे में बैंकों के लिए सुरक्षित रास्ता यही होता है कि वे गरीब आबादी से दूर रहें। लेकिन यह फिर उन्हें इस गरीब आबादी के ऋण बाजार से वंचित भी कर देती हैं। यह बाजार ज्यादातर स्थानीय सूदखोरों के हाथ में चला जाता है। 
रिजर्व बैंक का सूदखोरी को नियमित करने का सुझाव असल में इस बात का भी सुझाव था कि इस बाजार तक औपचारिक वित्तीय तंत्र की पहुंच सुनिश्चित हो। यह पहुंच अप्रत्यक्ष तौर पर होनी थी सूदखोरी के जरिये। लेकिन सूदखोरों के बीच में होने के कारण बैंकों के ऋणों को डूबने का खतरा भी नहीं था। वे सूदखोरों से अपना ऋण वसूल सकते थे। बैंक सूदखोरों को पंद्रह-बीस प्रतिशत सालाना की दर से ऋण देते और फिर सूदखोर गरीब आबादी को चालीस-पचास या सौ प्रतिशत की दर से। सूदखोरों को ऋण देने के लिए ज्यादा पैसा मिल जाता और बैंकों को एक नया बाजार जिससे अभी तक वे ऋण वसूली न हो पाने के भय से दूर रहे हैं। 
विभिन्न कारणों से सरकार की हिम्मत इस सुझाव पर अमल करने की नहीं हुई। इसमें सबसे बड़ी बात तो सूदखोरी से जुड़ी हुई बदनामी थी। यह सीधा संदेश जाता कि सरकार बदनाम सूदखोरी को प्रोत्साहन दे रही है। 
उपरोक्त तीनों परिघटनाएं यह दिखाती है कि देश की गरीब आबादी से जुड़ा हुआ एक बड़ा वित्तीय बाजार है जो सीधे औपचारिक वित्तीय तंत्र (सरकारी और निजी बैंकों या वित्तीय संस्थानों) की पहुंच से बाहर है। इस बाजार का दोहन दूसरे लोग कर रहे हैं और देश के बड़े पूंजीपति या तो इससे जरा भी लाभान्वित नहीं हो रहे हैं या केवल अप्रत्यक्ष तौर पर ही। बड़े पूंजीपति  चाहते हैं कि यह बाजार सीधे इनकी पहुंच में हो। यह चाहत तब और बढ़ जाती है जब सरकार ने कारपोरेट घरानों को बैंक खोलने की अनुमति दे दी हो। इन बड़े पूंजीपतियों के बैंकों को बाजार चाहिए और गरीब आबादी का यह बड़ा वित्त बाजार उनकी पहुंच से बाहर क्यों रहे। ये बैंक औपचारिक संस्थान हैं इसलिए वे औपचारिक तरीके से ही काम कर सकते हैं। इसके लिए पहला चरण यही होगा कि संभावित बाजार वाले व्यक्ति बैंक तंत्र से जुड़ें यानी उनका बैंकों में खाता हो। इसके बाद ही उधार-बाढ़ी की कोई कार्यवाही हो सकती है। 
इस तरह प्रधानमंत्री जन-धन योजना के तहत हर व्यक्ति के बैंक खाते का मतलब इस पहले चरण को पूरा करना है। जब हर व्यक्ति औपचारिक वित्तीय तंत्र से जुड़ जायेगा तो आगे की अन्य कार्यवाहियां की जा सकती हैं। यहां यह बात गौर करने लायक है कि खाता खुलने के साथ ही प्रति व्यक्ति एक लाख तीस हजार रुपये का बीमा व्यवसाय बीमा कंपनियों के हाथ आ गया। यदि दस करोड़ लोग भी नया खाता खोलते हैं, जैसाकि सरकार का तात्कालिक लक्ष्य है, तो बीमा का यह कुल नया व्यवसाय ही तेरह लाख करोड़ रुपये का हो जाता है। तेरह लाख करोड़ रुपये। 
गरीब आबादी के इस नये वित्त बाजार को बड़े पूंजीपति किस तरह इस्तेमाल कर सकते हैं इसका एक उदाहरण पिछले सात साल से जारी विश्व आर्थिक संकट की शुरूआत ने दिखाया था। इस संकट की शुरूआत 2007-08 में संयुक्त राज्य अमेरिका के सब प्राइम ऋण बाजार से हुई है। आम भाषा में इसका मतलब यह है कि बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने गरीब आबादी को मकान खरीदने के लिए ऋण दिये जिनकी ऋण चुकाने की क्षमता संदिग्ध थी। कई बार तो ऐसे लोगों को भी ऋण दिये गये जिनके पास न तो कोई सम्पत्ति थी और न ही आय के कोई स्रोत। यह इस उम्मीद में किया गया कि मकान की कीमतें बढ़ने से ऋण की आसानी से भरपाई हो जायेगी या फिर संबंधित मकान पर ही कब्जा कर उसे बेच दिया जायेगा। पर जैसा कि घटनाओं ने दिखाया, मामला इतना आसान नहीं था और उसने गरीब ऋण धारकों को बेहद बदहाली में ढकेलने के साथ-साथ सारी दुनिया की वित्तीय व्यवस्था के लिए भी संकट खड़ा कर दिया। 

भारत का बड़ा पूंजीपति वर्ग भी देश की गरीब आबादी को अपने वित्तीय जाल में खींचकर ऐसा ही कुछ करने का सपना पाले है। यदि उसकी करतूतों से गरीब आबादी और ज्यादा बदहाली में जाती है तो उसकी बला से। उसने इसकी चिंता कब की है? यदि इससे उनकी वित्तीय व्यवस्था संकट में फंसती है तो फंसे। वह आश्वस्त है कि सरकार हर कीमत पर उसे बचायेगी जैसा कि दुनिया भर की सरकारों ने वर्तमान आर्थिक संकट के दौरान किया है। पूंजीपति वर्ग के दोनों हाथों में लड्डू हैं और सिर कढ़ाई में। बस उसे खतरा इन सबके परिणामस्वरूप होने वाले विद्रोहों से है। पर तब की तब देखी जायेगी। अभी तो मोदी के विकास रथ पर सवार होकर मौज करने का समय है। मोदी जिंदाबाद! समावेशी विकास, जिंदाबाद!!

‘लव जेहाद’: हिन्दू साम्प्रदायिकों की स्त्री विरोधी मुहिम
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
उत्तर प्रदेश में विधान सभा के उपचुनावों के ठीक पहले भाजपा और संघ परिवार द्वारा ‘लव जेहाद’ का मामला खूब उछाला जा रहा है। इसके द्वारा हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति एक खास किस्म की नफरत पैदा की जा रही है। 
संघियों द्वारा यह प्रचारित किया जा रहा है कि मुस्लिम युवक जान-बूझकर षड्यंत्रकारी तरीके से हिन्दू युवतियों को अपने प्रेम जाल में फंसाकर उनसे विवाह कर रहे हैं और फिर उनका धर्मांतरण कर उन्हें मुस्लिम बना ले रहे हैं। इसके जरिये वे मुसलमानों की की संख्या में वृद्धि कर रहे हैं।
संघियों के सघन प्रचार से यह स्थापित किया जा रहा है कि कोई भी हिन्दू युवती इसका शिकार हो सकती है और इसलिए हर हिन्दू पुरुष को अपनी बेटियों और बहनों के प्रति सचेत रहना चाहिए। इसी के साथ इससे उपजी नफरत और असुरक्षा की भावना को चुनावों में हिन्दू मतों के धु्रवीकरण के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। असल में इसे भाजपा और संघ परिवार द्वारा जोर-शोर से उठाने का उद्देश्य आगामी चुनावों में हिन्दू मतों का भाजपा के पक्ष में धु्रवीकरण ही है। 
सवाल उठता है कि मुस्लिम युवकों द्वारा हिन्दू युवतियों से प्रेम और विवाह की इक्का-दुक्का घटनाओं से संघी व्यापक हिन्दू जनमानस में एक खास किस्म का भाव पैदा करने में क्यों कामयाब हो जा रहे हैं? क्यों उनकी बातें असर कर जा रही हैं?
इस सम्बन्ध में सबसे पहली बात तो यही गौर करने की है कि इस समय संघियों द्वारा जिस क्षेत्र में सबसे ज्यादा इसे उछाला जा रहा है वह अभी हाल में ही एक अन्य वजह से चर्चा में था। यह चर्चा भी हिन्दू युवतियों से सम्बन्धित थी। 
पिछले तीन-चार सालों से हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश लड़कियों की ‘आॅनर किलिंग’, ‘खाप पंचायतों’ के शादी विवाह संबंधी फैसलों तथा लड़कियों पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाने के लिए चर्चा में था। इस जाट समुदाय बहुल क्षेत्र में कई लड़के-लड़कियों की इसलिए हत्याएं की गयी थी कि उन्होंने अपनी मर्जी से और स्थानीय परंपराओं का उल्लंघन करते हुए विवाह किया था। इसके बाद जातियों की पंचायतों ने इस संबंध में कई फरमान जारी किये। यह सोचकर आधुनिक जीवन शैली लड़कों-लड़कियों को इधर की ओर ले जा रही है। उन्होंने लड़कियों के पहनावे, उनके मोबाइल रखने इत्यादि पर प्रतिबंध लगाने का फरमान सुनाया। 
परंपराओं का उल्लंघन कर शादी-ब्याह रचाने के प्रति यह बौखलाहट न तो सांयोगिक है और न ही अकारण। चीजें तब स्पष्ट हो जायेंगी जब यह ध्यान रखा जाय कि इस क्षेत्र में पिछले समय से दलित उत्पीड़न की भी कुछ बड़ी घटनाएं हुई थीं।
मामले की तह में जायें तो यह सारा मामला हिन्दू समाज की वर्ण-जाति व्यवस्था से और औरतों की यौनिकता से जुड़ा हुआ है। देश के पूंजीवादी विकास के चलते इसमें जो तीव्र उथल-पुथल हो रही है वह उपरोक्त किस्म की बौखलाहट को जन्म दे रही है। 
हजारों सालों से हिन्दू समाज की विशेषता इसकी वर्ण जाति व्यवस्था रही है। वर्ण और जाति जन्म से तय होती रही है तथा हिन्दू शास्त्र व सामाजिक परम्पराएं जाति व्यवस्था की दृढ़ता से रक्षा करती रही है। हिन्दू समाज में किसी को भी अपनी वर्ण-जाति का अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं था। 
लेकिन यह सारा कुछ सुनिश्चित हो सके इसके लिए जरूरी था कि स्त्री की यौनिकता पर, उसके पुरुष से शारीरिक संबंध बनाने पर सख्ती से निगरानी रखी जाये और उसे निश्चित दायरे में बांधा जाय। यदि वर्ण-जाति जन्म से ही तय होने हैं तो इस बात का मुकम्मल इंतजाम होना चाहिए किसी वर्ण-जाति की स्त्री केवल उसी वर्ण-जाति के पुरुष से शारीरिक संबंध बनाए। यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि स्त्री विवाह के दायरे के बाहर किसी पुरूष से संबंध न बनाये। इन दोनों चीजों को सुनिश्चित करने के लिए मां-बाप या परिवार द्वारा लड़के-लड़कियों के विवाह तय किये जाने की प्रथा (आज की भाषा में अरेन्जड मैरिज) और विवाह संबंधों के बाहर यौन संबंध पर कठोर दंड की व्यवस्था कायम की गयी। मनुस्मृति तो इस सिलसिले में शूद्र पुरुषों के मृत्युदंड की व्यवस्था करती है यदि वे ऊपर की तीन वर्णों की स्त्रियों से यौन संबंध कायम करते हैं।
हिन्दुओं की पौराणिक कथाओं में प्रेम के वर्णनों (खासकर राधा-कृष्ण प्रेम) के बावजूद इसीलिए मध्यकालीन हिन्दू समाज में विवाह से पहले प्रेम और प्रेम विवाह व्यवहारतः प्रतिबंधित हो गये। यह इस कदर हुआ कि आज भारत में पूंजीवाद के इतने विकास और फिल्मों-टी.वी द्वारा प्रेम के इतने प्रचार के बावजूद अभी भी ज्यादातर हिन्दू समाज में यह मान्यता प्राप्त करने से कोसों दूर है। राधा-कृष्ण प्रेम का सविस्तार वर्णन सुनने वाला हिन्दू समाज युवकों-युवतियों के प्रेम का दुश्मन हो गया। 
जैसाकि पहले कहा गया है, इसकी जड़ में वर्ण-जाति व्यवस्था की जरूरतों के चलते स्त्री की यौनिकता को नियंत्रित करने की रणनीति थी। यदि विवाह से पहले युवकों-युवतियों को प्रेम की और फिर इसके द्वारा विवाह की अनुमति होती तो इस बात की संभावना थी कि अनेक युवक-युवतियां वर्ण-जाति की सीमाओं का अतिक्रमण करते (जैसाकि आज हो रहा है और जिस कारण बौखलाहट पैदा हो रही है) ऐसा होने पर वर्ण जाति व्यवस्था ढीली पड़ जाती क्योंकि इस विवाह से उत्पन्न संतानें वर्ण संकर होतीं। चूंकि वर्ण-जाति का आधार ही जन्म के आधार पर सुचिता है इसलिए इस तरह का खतरा मोल नहीं लिया जा सकता था। 
इसी तरह यदि वैवाहिक संबंधों से बाहर यौन संबंध बनाने के प्रति जरा भी ढील करती जाती तो यह भी वर्ण संकर संतानों के जन्म का खतरा पैदा करता। इसीलिए इसे पूर्णतया प्रतिबंधित किया गया। वक्त के साथ हिन्दू समाज के लिए नैतिकता का मतलब ही यौन शुचिता की नैतिकता हो गया। आज भी यदि किसी व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि वह नैतिक तौर पर पतित या ढीला है तो इसका आशय उसकी लैंगिक नैतिकता से होता है। 
यहां यह गौर करने की बात है कि अवैध संबंधों के बारे में बाइविल की सारी भत्र्सना के बावजूद मध्ययुगीन यूरोपीय ईसाई समुदाय यौन शुचिता के बारे में उस तरह आग्रही या कठोर नहीं था जैसा कि हिन्दू समाज। मध्यकाल के उत्तरार्ध में तो ‘अवैध बच्चे’ समाज में आम मान्य प्राप्त थे और उन्हें पिता की सम्पत्ति में अधिकार भी मिलता था। रूस के हर्जेन जैसे लेखक अपने पिता की ‘अवैध संतान’ थे। टालस्टाय के ‘युद्ध और शांति’ उपन्यास का नायक पियरे अवैध संतान है। इसी तरह यूरोप के ईसाई समाज में मध्यकाल में भी प्रेम विवाह मान्यता प्राप्त था। एक तरह से इसी का चलन था। यूरोप में ऐसा इसलिए था कि यूरोपीय सामंतवाद वर्ण-जाति आधारित नहीं था। वहां के सामंतवाद में जन्म आधारित विशेषाधिकार थे पर वहां वर्ण-जाति को सुनिश्चित करने की जरूरत नहीं थी इसीलिए न तो वहां प्रेम विवाह पर प्रतिबंध था और न ही यौन शुचिता का घनघोर आग्रह। 
हिन्दू समाज में स्त्री की यौनिकता पर यह नियंत्रण उसकी आम गुलामी का हिस्सा थी। स्त्री घर के काम-काज, बच्चे पैदा करने (खासकर उत्तराधिकारी पुत्र पैदा करने) तथा पुरूष की यौन संतुष्टि का साधन मात्र थी। न तो उसकी अपनी हैसियत थी और न ही उसकी इच्छा। जैसा कि मनुस्मृति में कहा गया था स्त्री को बाल्यावस्था में पिता की, युवावस्था में पति की और वृद्धावस्था में पुत्र की अधीनता में रहना चाहिए। 
स्त्री की यौनिकता पर पुरुष का नियंत्रण और उसकी यौन शुचिता को बनाये रखने का हर संभव प्रयास स्त्री की गुलामी को और कठोर बनाता था। इस मामले में कोई भी उल्लंघन और ज्यादा कठोर प्रतिबंधों को आमंत्रित करता था। यह मान लिया गया और घोषित कर दिया गया कि स्त्री की यौन भूख कभी तृत्प नहीं होती और वह हमेशा दूसरे पुरुष से सम्बन्ध बनाने की ताक में रहती है। सच्चाई यह थी कि स्त्री की उपरोक्त स्थिति में स्त्री की यौन संतुष्टि का कोई मतलब ही नहीं था। इस मामले में केवल पुरुष की इच्छा ही सर्वोपरि थी। स्थिति कितनी भयावह थी वह इस बात से समझा जा सकता है कि आज भी स्त्री की यौन इच्छा परंपरागत वैवाहिक संबंधों में उसके पतित चरित्र का सूचक मानी जाती है और उसके उलट भारतीय दंड संहिता में यह आज भी मौजूद है कि पुरुष जब चाहे तब उसकी पत्नी को उसके सामने समर्पण करना पड़ेगा। उसकी इच्छा-अनिच्छा का कोई मतलब नहीं है। अभी बलात्कार संबंधी कानूनों में संशोधन के समय स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत सभी लोगों द्वारा मांग किये जाने के बावजूद वैवाहिक संबंधों के भीतर बलात्कार को स्वीकार करने से मना कर दिया गया। यानी पुरुष द्वारा पत्नी की इच्छा के विरुद्ध उससे यौन सम्बन्ध बनाने को अपराध नहीं माना गया क्योंकि इस मामले में स्त्री की कोई इच्छा-अनिच्छा मायने नहीं रखती। 
कहा जा सकता है कि वर्ण-जाति व्यवस्था से ग्रस्त न होने के बावजूद मुस्लिम समाज में भी शुरू से स्त्री की यौनिकता और यौन शुचिता को लेकर हिन्दू समाज जैसी ही कठोरता रही है। बात सही है पर इसकी जड़ें उस बद्दू कबीलाई समाज में है जिनसे इस्लाम पैदा हुआ था तथा इसकी जड़ें मक्का के उस समाज में भी हैं जिसमें लैंगिक मामलों में अराजकता बड़े पैमाने पर विद्यमान थी। स्थिति से निपटने के लिए उसी तरह कठोर प्रावधान कर दिये गये जैसे शराब और कर्जखोरी के मामले में कर दिये गये। लेकिन साथ ही यह बात भी है कि सम्पत्ति में स्त्री की रजामंदी व तलाक की छूट देने के बावजूद स्त्री के प्रति वहां भी स्त्री की गुलामी को मान्यता प्रदान की गयी है। उसकी भूमिका भी घरेलू काम-काज, बच्चे पैदा करने व पालने तथा पुरुष की यौन संतुष्टि के साधन तक सीमित है। 
सारे मध्यकालीन समाजों की तरह भारत के हिन्दू समाज की स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन पूूंजीवाद के विकास के साथ ही प्रारंभ हुआ। जहां यूरोप में उन्नीसवीं सदी में स्त्री-पुरूष समानता की बातें शुरू हुई और बीसवी सदी में मुखर हुईं वहीं भारत में ये बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में मुखर हुईं। हालांकि भारतीय संविधान ने 1950 में ही स्त्रियों को पुरुषों के बराबर घोषित कर दिया था पर वे बातें केवल औपचारिक बातें बनकर रह गयीं। समाज की उच्च वर्ग की थोड़ी सी औरतें ही इस बराबरी का उपभोग कर सकती थीं। 
यूरोप व अमेरिका के अति विकसित पूंजीवादी समाजों में बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में सांस्कृतिक तौर पर जो परिवर्तन हुए उन्होंने वहां यौन संबंधों को लगभग पूर्णतया वर्जना मुक्त कर दिया। विवाह के पहले  यौन संबंध और विवाह के बाहर यौन संबंध अब नैतिकता के दायरे से बाहर चले गये। यहां तक कि बच्चों के पैदा होने का भी विवाह से संबंध समाप्त हो गया।
यूरोपीय व अमेरिकी समाज में हुए इन परिवर्तनों का असर भारत में तब तेजी से पड़ना शुरू हुआ जब 1980 व 90 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था का तेजी से वैश्विक अर्थव्यवस्था में एकीकरण शुरू हुआ। इस आर्थिक एकीकरण के समानान्तर एक सांस्कृतिक एकीकरण होना ही था। परंपरागत लैंगिक नैतिकता वाले भारतीय समाज में इससे बहुत उथल-पुथल मचनी थी। सोच व व्यवहार तेजी से बदलने वाले थे। 
यदि इस सांस्कृतिक एकीकरण का इतना तीखा असर हुआ तो इसीलिए एक लम्बे समय सेे पूंजीवादी विकास के चलते इसका एक आधार तैयार हो चुका था। लड़कियों की शिक्षा और विभिन्न तरह की नौकरियों में उनका बड़े पैमाने पर शामिल होना इसके प्रमुख परिणाम थे। इन दोनों चीजों के चलते लड़कियों-औरतों को परम्परागत बंधनों में बांधना मुश्किल होने लगा था और ठीक इसी कारण परम्परागत लैंगिक संबंध और उनसे संबंधित नैतिकताएं भी खतरे में पड़ने की ओर बढ़ चुकी थीं। 
इस मामले में परिवर्तन धीरे-धीरे भी हो सकता था पर 1990 व 2000 के दशक ने इसे बहुत तेजी से कर डाला। विदेशी फिल्में, विदेशी फिल्मों से प्रभावित देशी फिल्में, टी.वी. तथा इंटरनेट ने वह ‘आडो विजुअल’ माहौल पैदा किया जिससे कोई भी बच्चा अछूता नहीं रह सकता था। न केवल शहर और कस्बे बल्कि गांव तक इसके प्रभाव के दायरे में आ गये। शहरों में तो अब पूरी एक पीढ़ी नये माहौल में पल-बढ़कर जवान हो चुकी है जिसकी लैंगिक मामलों में अब कोई पुरानी नैतिकता नहीं है। यह ‘एम.टी.वी’ पीढ़ी है हालांकि अब समूचा टी.वी. ही ‘एम.टी.वी.’ बन चुका है। 
शहरों की खास संरचनाओं के चलते इस सांस्कृतिक परिवर्तन को जज्ब कर जाना वहां आसान था और यह क्रमशः होता गया हालांकि महिलाओं-लड़कियों के प्रति बढ़ती हिंसा (जिसमें यौन हिंसा भी है) के बढ़ते जाने ने यह दिखाया है कि इसने समानान्तर तौर पर अन्य प्रवृत्तियों को भी जन्म दिया है। जहां इसने परम्परागत यौन नैतिकता को ध्वस्त किया है वहीं स्त्री शरीर को प्रचलित शब्दों में माल में रूपांतरित कर उसके प्रति एक खास तरह का उपभोक्तावादी-उपयोगितावादी दृष्टिकोण को भी पैदा किया है। 
कस्बों और गांवों में इस तीव्र परिवर्तन को जज्ब करना ज्यादा कठिन साबित हुआ है। वहां पीढि़यों के बीच खाई ज्यादा मुखर होकर सामने आई है। जहां नई पीढ़ी तेजी के साथ पुरानी नैतिकता को छोड़कर आगे बढ़ रही है, वहीं पुरानी पीढ़ी नये के साथ जरा भी कदम नहीं मिला पा रही है। यौन संबंधों के मामले में यह बहुत तीखे रूप में उभर रहा है क्योंकि जैसा कि पहले कहा गया है, अक्सर ही परम्परागत नैतिकता में लैंगिक नैतिकता सबसे ऊपर होती है। स्त्री की यौनिकता परिवार की ‘इज्जत’ होती है। 
चूंकि यह यौनिकता पहले से ही वर्ण-जाति व्यवस्था से जुड़ी रही है और पिछड़े परम्परागत हिन्दू समाज में वर्ण-जाति भेद अभी मुखर हैं इसलिए मामला और पेचीदा हो जाता है पर परंपरागत सवर्ण हिन्दू (या जाट) पुरुष के लिए यह कल्पना से परे की बात हो जाती है कि उसकी बेटी या बहन किसी तथाकथित नीची जाति के लड़के से प्यार कर उससे विवाह कर ले। और हद तब हो जाती है जब लड़का किसी अन्य धर्म का खासकर मुसलमान हो। नई पीढ़ी के लड़के-लड़कियों के लिए जो एकदम सहज-स्वाभाविक है वह इनके लिए घोर अपराध बन जाता है। ऊपरी तौर पर चूंकि इन्हें यह लगता है कि यह ‘बाहर’ से आने वाली संस्कृति का दुष्परिणाम है जो वे इस संस्कृति के प्रसार पर प्रतिबंध लगाने के लिए कटिबद्ध हो उठते हैं। संघियों और शिव सेना का ‘वेलेंटाइन डे’ के खिलाफ तांडव तथा जाटों की खाप पंचायतों द्वारा लड़कियों के कपड़ों और मोबाइल पर प्रतिबंध मूलतः एक ही बातें हैं। एक के लिए प्रदूषण फैलाने वाली संस्कृति विदेश से आती है तो दूसरों के लिए शहर से। 
उपरोक्त से स्पष्ट है कि परम्परागत हिन्दू समाज की, खासकर सवर्ण हिन्दू समाज की बौखलाहट परंपरागत नैतिकताओं के टूटने से पैदा हो रही है, वे नैतिकताएं जो स्त्री की गुलामी को सुनिश्चित करती थीं और वर्ण-जाति व्यवस्था को बनाये रखती थीं इसलिए ‘लव जिहाद’ की बातें अपने सारतत्व में लड़कियों-औरतों की पुरानी गुलामी की अवस्था को बनाये रखने की कोशिशों का एक रूप है। ये जितना मुसलमानों के खिलाफ लक्षित है उतना ही औरतों के खिलाफ। इस तरह की बातें करने का मतलब ही है कि एक लड़की को अपने जीवन का फैसला लेने का कोई विवेक नहीं है और इसीलिए उसे इसका अधिकार भी नहीं है, लड़कियां बेवकूफ होती हैं और वे धूर्त मुस्लिम युवकों द्वारा बहकाई जा सकती हैं। इस मामले में घृणित बात यह है कि देश के कानून भी लड़कियों के संबंध में इस तरह की बातों को कुछ हद तक मान्यता देते हैं और हिन्दू साम्प्रदायिक उनका बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। 

संघियों के ‘लव जिहाद’ के साम्प्रदायिक शिगूफे से प्रभावी ढंग से निपटने का यही तरीका है कि इसके मर्म पर प्रहार किया जाये। दिखाया जाये कि यह स्त्रियों के प्रति मध्ययुगीन मानसिकता से पैदा होता है और अपने सारतत्व में औरतों की गुलामी तथा वर्ण-जाति व्यवस्था का पक्षधर है। 

श्रम कानून, पूंजीपति वर्ग, मोदी सरकार और मजदूर वर्ग
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
केन्द्र में सत्तासीन मोदी सरकार श्रम कानूनों में बदलाव की ओर कदम बढ़ा चुकी है। देश का पूंजीपति वर्ग लम्बे समय से श्रम कानूनों में बदलाव की मांग करता रहा है। वह श्रम कानूनों के जरिये मजदूरों को मिली हर किस्म की सुरक्षा को छीन लेना चाहता है। 90 के दशक से जब देश ने उदारीकृत अर्थव्यवस्था की ओर कदम बढ़ा लिया तब से पूंजीपति वर्ग की श्रम कानूनों में परिवर्तन की मांग लगातार मुखर होती चली गयी। 
पिछले 2 दशकों में देश की केन्द्र में काबिज सरकारों ने भी पूंजीपति वर्ग के एजेण्डे को आगे बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने दूसरा श्रम आयोग गठित किया उसकी रिपोर्ट में पूंजीपतियों की ख्वाहिशों को सूत्रित किया। इसके पश्चात मजदूर आंदोलन के कमजोर होने का लाभ उठाकर ढे़रों श्रम कानूनों को धीरे-धीरे व्यवहार में मानना बंद कर दिया, कुछेक कानूनों में संशोधन भी किये। फिर भी वे श्रम कानूनों में एक झटके में बदलाव की हिम्मत नहीं जुटा पाये। इसकी वजह प्रमुख रूप से यह थी कि मजदूर आंदोलन भले ही कमजोर पड़ गया था पर वह लुप्त नहीं हुआ था। भले ही मजदूर आंदोलन पर क्रांति का रास्ता छोड़ चुके संसदीय वामपंथियों के साथ भाजपा-कांगे्रस की पकड़ मजबूत हो चुकी थी फिर भी सरकारें इस पतित नेतृत्व वाले संगठित केन्द्रीय फेडरेशनों से दो-दो हाथ करने को तैयार नहीं थी। 
इसी वजह से पूंजीपतियों के सारे दबावों के बावजूद वाजपेयी व मनमोहन सरकार इस दिशा में बहुत कुछ न कर सकी। पर साथ ही यह बात भी थी कि उदारीकरण के शुरूआती डेढ़ दशकों में पूंजीपति वर्ग देश की ऊंची आर्थिक विकास दर के साथ औपचारिक तौर पर पुराने श्रम कानूनों (जिनका व्यवहार में माना जाना लगातार कम होता चला गया) के साथ अपनी दौलत में तेजी से इजाफा करने में सफल हो रहा था। इसीलिए वह खुश था और श्रम कानूनों में बदलाव न होने के बावजूद वह सरकार के बाकी कदमों से संपन्न होता जा रहा था। 
पर यह स्थिति लंबे समय तक बनी नहीं रह सकती थी खासकर 2007 से वैैश्विक आर्थिक संकट के साथ जब भारत की अर्थव्यवस्था ने भी गोते लगाना शुरू किया तो पूंजीपति वर्ग अपने मुनाफे को कायम रखने के लिए चिंतित हो उठा। जहां एक ओर उसने सरकारी बेल आउट के जरिये अपना मुनाफा कायम रखने की कोशिश की वहीं उसने सरकारों पर निजीकरण-उदारीकरण की नीति और तेजी से लागू करने का दबाव बनाया। इसी के एक हिस्से के बतौर उसने पुराने श्रम कानूनों में तब्दीली की मांग को ज्यादा मजबूती से आगे बढ़ाया। मनमोहन सरकार के सारे प्रयासों के बावजूद जब पूंजीपतियों को अपना मुनाफा पटरी पर आते नहीं दिखा तो पूंजीपति वर्ग ने मनमोहन सरकार को बदनाम कर मोदी को सत्ता तक पहुंचा दिया और अपनी सारी उम्मीदें मोदी सरकार पर लगा दी। 
सत्तासीन मोदी सरकार के सामने इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं था कि वह पूंजीपति वर्ग का आशीर्वाद कायम रखने के लिए निजीकरण-उदारीकरण के रथ को पिछली मनमोहन सरकार से तेजी से दौड़ाये। पिछले लगभग 2 माह में मोदी सरकार ने यही काम अलग-अलग मोर्चों पर किया भी। इसी के एक हिस्से के बतौर उसने झटपट कई श्रम कानूनों में तब्दीली को भी अपने एजेण्डे में ले लिया। निश्चित ही पूंजीपति वर्ग मोदी सरकार की मौजूदा रफ्तार से खुश है। पर साथ ही इस रफ्तार को और तेज करने के लिए अपना मुंह और चैड़ा कर दिया है। पूंजीपतियों की संस्था फिक्की ने सरकार के सम्मुख श्रम कानूनों में आमूल बदलाव का मांग पत्र ही पेश कर डाला है।
लेकिन साथ ही यह भी है कि मोदी सरकार ने श्रम कानूनों में बदलाव के जरिये मजदूर वर्ग को चुनौती भी दे डाली है। सरकार के इस हमले ने मजदूर वर्ग को आर्थिक संघर्षों से आगे बढ़कर अपने कानूनी हकों को बचाने के राजनैतिक संघर्ष की ओर ढकेल दिया है। निश्चित ही आज संगठित मजदूर आंदोलन पर पूंजीवादी संशोधनवादी तत्वों का वर्चस्व है पर यह भी उतना ही सच है कि आम मजदूर समुदाय अब देश के हर कोने-कारखाने में अपनी मांगों को लेकर लड़ने को कमर कस रहा है। इसीलिए पतित नेतृत्व को भी सरकार के विरोध की ओर बढ़ना पड़ रहा है। आने वाले दिनों में मोदी सरकार और मजदूर वर्ग आमने-सामने खडे़ होने वाले हैं। मोदी सरकार की राह एकदम आसान भी नहीं है। मजदूर वर्ग भले ही शुरूआती हमलों को न रोक सके पर आने वाले हर हमले उसे अधिकाधिक संघर्ष की राह पर ले जाने के साथ क्रांतिकारी तेवरों की ओर ले जाने की पर्याप्त संभावना लिये हुए होंगे।
अभी मोदी सरकार ने न्यूनतम मजदूरी अधि.1948, फैक्टरी एक्ट 1948, अप्रेन्टिस एक्ट 1961, श्रम कानून (रजिस्टर रखने व रिर्टन देने से छूट)1988, बाल श्रम कानून 1986 में परिवर्तन की दिशा में कदम आगे बढ़ाये हैं। फैक्टरी एक्ट में प्रस्तावित संशोधन फैक्टरी मालिकों को मनमाफिक दिन साप्ताहिक छूट्टी घोषित करने का अधिकार दे देगा। अभी तक सामान्यतया एक इलाके की फैक्टरियों में एक निश्चित दिन ही साप्ताहिक छुट्टी का प्रावधान था पर अब हर फैक्टरी मालिक अलग-अलग दिन साप्ताहिक छुट्टी कर सकेंगे। इससे किसी इलाके में लेबर इंस्पेक्टर द्वारा फैक्टरियों पर छापा मार साप्ताहिक छुट्टी की जांच करना कठिन हो जायेगा और मालिक मनमर्जी से सातों दिन कारखाना चलाने की छूट पा जायेंगे। इसी एक्ट के तहत महिलाओं से रात की पाली में काम लेने की छूट देने, ओवरटाइम की सीमा 75 घंटे से बढ़ाकर 100 घंटे तक करने आदि प्रावधान किये गये हैं।
रजिस्टर रखने संदर्भी कानून के तहत पहले 10 से 19 मजदूरों वाले संस्थानों को 9 श्रम कानूनों से संदर्भित रजिस्टर रखने से छूट दी गयी थी अब प्रस्तावित संशोधन के तहत 10 से 40 मजदूरों तक के संस्थानों को 16 श्रम कानूनों से संदर्भित रजिस्टर रखने की छूट मिल जायेगी। अप्रेन्टिस एक्ट के तहत मालिकों को अप्रेंटिस की अधिक संख्या में भर्ती, उनका अधिक शोषण करने के अधिकार दे दिये गये हैं। इससे कम मजदूरी पर काम करने वाले सस्ते श्रमिक पाने का मालिकों को रास्ता दे दिया गया है। न्यूनतम व बाल श्रम सम्बंधी कानून में कुछेक तकनीकी स्तर पर संशोधन प्रस्तावित हैं। अप्रेन्टिस एक्ट में संशोधन को लोकसभा में पारित कर चुकी है। बाकी को सरकार का मंत्रिमण्डल आगे बढ़ाने की मंजूरी दे चुका है। 
श्रम कानूनों में बदलाव के जरिये मोदी सरकार पूंजीपतियों की ओर से मजदूरों पर बड़ा हमला बोलने की पहल कर चुकी है। पूंजीपति वर्ग बेहद खुश है पर वह अभी से और ज्यादा के लिए लार टपकाना शुरू कर चुका है। फिक्की ने अभी श्रम कानूनों से संदर्भित बदलावों का लम्बा चैड़ा पुलिंदा जारी किया है। 
प्रस्तावित श्रम सुधारों के इस दस्तावेज में फिक्की ने पहले भारत में बढ़ती बेरोजगारी का रोना रोया है और कहा है कि पिछले दो दशकों में जहां अर्थव्यवस्था औसतन 8 प्रतिशत की विकास दर से आगे बढ़ी है वहीं रोजगार वृद्धि दर महज 1-2 प्रतिशत है। परिणामतः भारत में बेरोजगारी दर 7-8 प्रतिशत है। रोजगार  वृद्धि न होेने के कारणाों के लिए फिक्की ने कारण कठोर श्रम कानूनों का होना बताया है। फिक्की के अनुसार कड़े श्रम कानूनों के चलते मैन्युफैक्चरिंग इकाइयां भारत नहीं आ रही हैं या यहां से विदेशों का रुख कर रही हैं या पूंजी सघन कम श्रम आवश्यकता वाले उत्पादन की ओर बढ़ रही हैं। साथ ही यह भी कहा गया है कि देश के 150 श्रम कानूनों में अधिकतर 40-70 वर्ष पुराने हैं। ये मुख्यतया मैन्युफैक्चरिंग के लिए बने थे और मौजूदा समय में तेजी से बढ़ते सेवा क्षेत्र की जरूरत के ये अनुरूप नहीं है। इसलिए इनमें बड़े पैमाने पर बदलाव की आवश्यकता है। 
उपरोक्त बातों के जरिये फिक्की बड़ी चालाकी से इस वास्तविकता को छिपा ले गयी है कि भारत के एकाधिकारी उद्योग अपने मुनाफा बढ़ाने के लिए अधिकांश पूंजी सघन हो रहे हैं। इसीलिए अगर श्रम कानून बदल भी गये तो वे श्रम केन्द्रित नहीं बनेंगे बल्कि श्रम को दी जाने वाली मजदूरी सुविधायें घटने से उनका मुनाफा और बढ़ेगा व बेकारी की समस्या रत्ती भर हल नहीं होगी। इसके उलट मजदूर हाड़-तोड़ मेहनत के बाद और कंगाली की स्थिति में पहुंच जायेंगे।
फिक्की द्वारा प्रस्तावित संशोधनों की सूची इस प्रकार हैः
1. संविधान में श्रम का मुद्दा सहवर्ती सूची में है अर्थात केन्द्र व राज्य सरकारें दोनों इससे संदर्भित कानून बना सकती हैं पर चूंकि राज्य को अपने विकास निवेश बढ़ाने के लिए बेहद कम छूटें हासिल हैं इसलिए श्रम को सहवर्ती सूची से हटा राज्य के अधिकार क्षेत्र में ले आना चाहिए ताकि राज्य सरकारें मनमाफिक कानून बना सकें।
2. मौजूदा समय में 44 केन्द्रीय व 100 से अधिक राज्य के श्रम कानून लागू हैं। इन सबको सरलीकृत कर मुख्य कानूनोें में सीमित कर देना चाहिए
क. रोजगार की शर्तों व परिस्थितियों से संदर्भित कानून- इसके तहत औद्योगिक विवाद अधि.1947, स्टेण्डिग आर्डर अधि.1946, टेªड यूनियन एक्ट 1926 की बातें आयें।
ख. मजदूरी से संदर्भित कानून- इसके तहत न्यूनतम मजदूरी अधि., मजदूरी भुगतान अधि. व बोनस अधि. की बातें आयें।
ग. कल्याण संदर्भी कानून- इसके तहत फैक्टरी एक्ट, दुकान संस्थान अधि., मातृत्व लाभ अधि., मुआवजा अधि., ठेका प्रथा निरोधक अधि. की बातेें आयें।
घ. सामाजिक सुरक्षा संदर्भी कानून- इसके तहत प्रोविडेंट फंड, ईएसआई व ग्रेच्युटी कानून की बातें आयें।
3. कई श्रम कानूनों के अलग-अलग निरीक्षण प्रक्रिया समाप्त कर एक श्रम अथारिटी सभी कानूनों का निरीक्षण करे, कारखानों को स्व प्रमाणन की छूट हो।
4. मजदूरों व मालिकों के विवाद निपटारे की 4 से अधिक स्तरों वाली मौजूदा व्यवस्था बदल कर एक या दो स्तर की व्यवस्था की जाय।
5. 50 से कम मजदूरों वाले छोटे उद्योगों के लिए अलग से श्रम कानून घोषित हों और इन्हें औद्यो.विवाद अधि. व स्टेण्डिग आर्डर एक्ट से छूट हासिल हों।
6. औद्योगिक विवाद अधि. 1947 में केवल मजदूर मालिक विवाद की बात की गयी है इसमें मालिक मजदूर सम्बंधों की बात भी करने के लिए इसका नाम बदलकर रोजगार सम्बन्ध कानून (म्उचसवलउमदज त्मसंजपवदे ।बज ) कर देना चाहिए। एक्ट के तहत मजदूर केवल 20,000 रु. प्रतिमाह तक पाने वाले मजदूरों कोे माना जाए और ऊंचा वेतन पाने वाले संगठित क्षेत्र जैसे- एयरलाइंस -बैंक-इंश्योरंेस के कर्मचारी इसके तहत न शामिल किये जायें। इसके साथ नियोजक को शिफ्टों में बदलाव, स्टाफ घटाने बढ़ाने सरीखे काम के लिए यूनियन को 21 दिन पूर्व में नोटिस देने का प्रावधान है। बाजार में बढ़ती प्रतियोगिता के मद्देनजर यह प्रावधान समाप्त कर दिया जाए।
हड़ताल करने के लिए यूनियन द्वारा 14 दिन पूर्व में सूचना देना अनिवार्य कर दिया जाए। साथ ही ‘गो स्लो’ व ‘वर्क टू रूल’ को प्रतिबंधित कर दिया जाए व इसे भी हड़ताल की श्रेणी में माना जाए।
राष्ट्रीय इन्वेस्टमेंट व मैनुफैक्चरिंग जोन (छप्र्ड) के तहत मालिकों को बंदी का अधिकार, श्रमिकों को इस जोन या दूसरे जोन में रोजगार की छूट, बंदी की पूर्व अनुमति लेने से छूट सरीखे प्रावधान डाले जाये।
100 मजदूरों से अधिक की छंटनी तालाबंदी की पूर्व अनुमति को बढ़ाकर 1000 मजदूरों वाले संस्थान में पूर्व अनुमति किया जाए। प्रारम्भिक तौर पर इसे प्रस्तावित 100 से 300 किया जा सकता है जिसे बाद में और बढ़ाया जाए।
मजदूरी आदि के भुगतान आदि के वादों को दायर करने की अधिकतम समय सीमा एक वर्ष नियत की जाए। विवादों के निपटारे को अलग विवाद निपटारे की मशीनरी बनायी जाए।
कानूनी विवादों के वक्त मजदूरी के नियमित भुगतान के प्रावधान को समाप्त कर इसको द्वितीय श्रम आयोग की सिफारिश के तहत सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के विवेक पर छोड़ दिया जाए।
7. ठेका प्रथा निरोधक कानून 50 मजदूरों तक वाले छोटे संस्थानों पर लागू न हो। ठेका श्रमिक से अलग-अलग तरह के काम कराने की छूट हो। मजदूरी भुगतान नगद न हो बैंक के जरिये हो। ठेकेदार को एक अलग संस्थान माना जाय व मुख्य संस्थान पर ठेका श्रमिक की कोई जिम्मेदारी न हो।
8. फैक्ट्री एक्ट मौजूदा पावर के साथ 10 व बगैर पावर के 20 मजदूरों के मौजूदा प्रावधान की जगह पावर के साथ 20 व बगैर पावर के 40 मजदूरों से अधिक वाले संस्थानों पर लागू किया जाय। कानून में आम्यूपावर की परिभाषा में डायरेक्टर की जगह मैनेजर समझा जाय। सर्वतन अवकाश पूर्ववत 240 दिन के नियमित काम के बाद ही दिया जाय।
9. दुकान व संस्थान अधिनियम 10 मजदूरों से कम वाले संस्थानों पर लागू न हो। एक संस्थान जिसकी कई राज्यों में शाखायें हो उसे अलग-2 राज्य के कानून मानने की जगह किसी एक राज्य (जहां उसका हेड आफिस हो) के दायरे में न आये या 15000 रू.से अधिक पाने वाले इस कानून के दायरे में न आये। दुकानों पर साप्ताहिक बंदी का प्रावधान समाप्त हो उन्हें लगातार खुलने की छूट हो। होटल, अस्पताल, आई.टी. एयरपोर्ट सरीखे सेवा क्षेत्र में महिलाओं को रात्रि शिफ्ट में भी काम करने की छूट होें।
10. बोनस को सीधे उत्पादकता व लाभ से जोड़ा जाय, इसलिए बोनस भुगतान अधि. में बोनस की अधिकतम या न्यूनतम सीमा समाप्त की जाय।
11. स्टैण्डिग आर्डर एक्ट के तहत 2003 में वाजपेयी सरकार ने ‘फिक्स्ड टर्म इम्पलायमेंट’ का प्रावधान शुरू किया था जिसे 2007 में सरकार ने समाप्त कर दिया। इसे पुनः शुरू किया जाय अर्थात एक निश्चित अवधि के रोजगार पर मजदूर रखने की छूट दी जाय।
12. ई.एस.आई. एक्ट को सरकार ने 2013 में 15000 रू0  वेतन तक के मजदूरों से बढ़ा 25000 वेतन तक के मजदूरों पर लागू करने का प्रस्ताव किया था। इस परिवर्तन को संस्थानों पर पड़ने वाले अतिरिक्त बोझ के मद्देनजर लागू न किया जाय।
13. एक फैक्ट्री में एक टेªड युनियन बनाने की कोशिश की जाय। इसके लिए यूनियन बनाने के लिए 25 प्रतिशत मजदूरों का सदस्य होना अनिवार्य किया जाय। मुख्य बारगेनिंग एजेंट के लिए 51 प्रतिशत सदस्यता जरूरी हो। 25 प्रतिशत से कम मजदूरों की यूनियन को समझौते को चुनौती देने का अधिकार न हो। टेªड यूनियन कार्यकारिणी में 2 से ज्यादा बाहरी व्यक्ति न हों व मुख्य दो पदों अध्यक्ष व सचिव में से कम से कम एक पद संस्थान के मजदूर पर हो। यूनियन का हर वर्ष चुनाव अनिवार्य हो व चुनाव न कराने या रिटर्न न भरने की दशा में यूनियन का पंजीकरण स्वतः रदद हो जाये। एक विशेष प्रावधान के तहत टेªड यूनियन को राजनीति से अलग रखा जाय।
14. 50 मजदूरों तक के संस्थानों को श्रम कानूनों के संदर्भ में रजिस्टर रखने से छूट दी जाय। कुछ राज्यों जैसे तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रा, महाराष्ट्र, उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान ने कई कानूनों के एक रजिस्टर व रिटर्न भरने की छूट दी है इसे देशव्यापी किया जाय।
फिक्की की उपरोक्त भारी भरकम बदलावों की मांग के लागू होने का सीधा अर्थ होगा कि मजदूरों को  दी गयी सारी सुविधाओं को छीन लेना। यह आने वाले वक्त में सामने आयेगा कि मोदी सरकार पूंजीपतियों की इन मांगो में से कितनी मांगे पूरी कर पाती है।
पूंजीपतियों की हमलों की इस सूची से निपटने को निश्चित तौर पर मजदूर वर्ग आज तैयार नहीं है। उसकी बड़ी आबादी ‘संगठित क्षेत्र’ में भी असंगठित है। जो आबादी संगठित है भी तो वह एटक, एक्टू, सीटू, बी.एम.एस, इंटक सरीखे पूंजीवादी-संशोधनवादी सेण्टरों के पीछे खड़ी है। ये फेडरेशनें मजदूर वर्ग में अपना आधार बचाने के लिए तो श्रम कानूनों में बदलाव के विरोध में खड़ी हैं पर संघर्ष का क्रांतिकारी परिपेक्ष्य न होने के चलते ये मजदूरों के आक्रोश को व्यवस्था की चैहद्दी में कैद करने को तत्पर हैं।

आने वाले वक्त मजदूर वर्ग व उसको संगठित करने में जुटी क्रांतिकारी ताकतों के लिए खासा चुनौतीपूर्ण है। मजदूर वर्ग के सामने जहां शासकों के हमलेे को नाकाम करने का कार्यभार है वहीं क्रांतिकारी ताकतों के सम्मुख चुनौती मजदूर वर्ग को पूंजीवाद विरोधी क्रांतिकारी परिपेक्ष्य पर खड़ा करने व उनके संघर्ष को पूंजीवादी-संशोधनवादियों के चंगुल-सीमाओं से आगे बढ़ाने की है। हर नया हमला मजदूर वर्ग को क्रान्तिकारी राजनीति की ओर आकर्षित होने की ओर ले जायेगा। ऐसे में मजदूर मोदी सरकार द्वारा पेश चुनौती को स्वीकार करें। मजदूर वर्ग के पलटवार की तैयारी करें। शासकों की हार व मजदूर वर्ग की जीत दोनों ऐतिहासिक तौर पर निश्चित हैं।


सिविल सेवा, अंगे्रजी, भारतीय भाषाएं और शासक वर्ग
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
इस समय भारत की केंद्रीय सिविल सेवा की परीक्षाओं में अंगे्रजी के वर्चस्व को लेकर इसके विरोधी छात्रों का आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन में हिन्दी भाषी छात्र प्रमुख हैं। ये छात्र इन परीक्षाओं में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। केंद्रीय कार्मिक मंत्री के अनुसार 24 अगस्त को होने वाली सी सेट (सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूट टेस्ट) में करीब नौ लाख छात्र बैठेंगे। हर साल सिविल सेवा के लिए करीब एक हजार लोग चुने जाते हैं।
हिन्दी भाषी छात्रों का कहना है कि इस परीक्षा में अंग्रेजी भाषा को वरीयता दिये जाने केे कारण ऐसे छात्र वंचित हो जाते हैं जिनकी पृष्ठभूमि अंगे्रजी नहीं है इसलिए परीक्षा से अंगे्रजी को पूरी तरह से हटाया जाना चाहिए। साथ ही उनकी यह मांग भी है कि 2011 से शुरू किये गये सी सेट को भी समाप्त कर पहले की तरह द्वि चरणीय परीक्षा होनी चाहिए। 
मजे की बात यह है कि हिन्दी भाषी छात्रों का यह आंदोलन एक ऐसी पार्टी की सरकार के खिलाफ चल रहा है जो हमेशा से ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ का नारा लगाती रही है। भाजपा और उसकी सरकार की हालत सांप-छछंूदर की हो गयी है। वह हिन्दी छात्रों की इस मांग को न तो स्वीकार कर पा रही है और न ही अस्वीकार। 
भारत की सिविल सेवा अन्य बहुत सी चीजों की तरह अंगे्रजों की देन है। इसे आजादी के बाद भारत के शासक पूंजीपति वर्ग ने जस का तस अपना लिया। इस सिविल सेवा को भारतीय प्रशासन का इस्पाती फ्रेम भी कहा जाता है। इस सिविल सेवा में डी.एम. से लेकर विभिन्न भागों के आयुक्त या कमिश्नर आते हैं। ऊपरी स्तर की नौकरशाही इन्हीं से बनी होती हैं ये वे ही लोग हैं जो विभिन्न मंत्रियों के पीछे खड़े होकर उन्हें आवश्यक जानकारी और सलाह देते रहते हैं। सरकारें बदलती रहती हैं पर ये नहीं बदलते। 
भारत में इस सिविल सेवा की शुरूआत ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान हुई थी। कंपनी जिन भारतीय इलाकों पर कब्जा करती गयी उन इलाकों पर प्रशासन के लिए उसने एक प्रशासनिक तंत्र खड़ा किया। इस तंत्र के शीर्ष पर इस सिविल सेवा के अधिकारी होते थे। 
इन अधिकारियों का चयन तब इंग्लैण्ड में एक परीक्षा के जरिये होता था। इन परीक्षाओं में उस जमाने में इंग्लैण्ड के अभिजात वर्ग के निचले हिस्सों के लोग भागेदारी करते थे। अभिजातों के इन निचले हिस्सों की उस समाज में कोई पूछ नहीं थी। नये उभरते पूंजीपति वर्ग और उसके व्यवसाय को ये हिकारत की नजर से देखते थे जबकि स्वयं अभिजातों के ऊंचे स्तर के लोग इन्हें हिकारत की नजर से देखते थे। भारत की सिविल सेवा इस हिस्से के नवयुवकों को एक नई हैसियत देती थी। वे भारत में आकर यहां के शासक बन जाते थे और नौकरी से अवकाश पाने के बाद वापस इंग्लैण्ड आकर एक आराम की जिंदगी व्यतीत करते थे। और भारत में राज के अपनी यादों में डूबे रहते थे। 
भारतीय प्रशासन की यह सिविल सेवा एक लंबे समय तक केवल अंगे्रजों के लिए सुरक्षित थी। वास्तव में शुरूआती भारतीय संस्थाओं की प्रमुख मांगों में से एक यह भी होती थी कि इन सेवाओं में भारतीयों को भी प्रवेश मिले। एक लंबे समय बाद अंगे्रजी शासन ने इसमें सीमित मात्रा में भारतीयों को प्रवेश दिया। तब इन सेवाओं में भारत के भी अभिजात लोगों के निचले हिस्सों यानी जमींदारों से ही लोग जाते थे। 
अंग्रजों के शासन काल में शासन की आम भाषा अंगे्रजी थी। ऐसे में यह स्वाभाविक ही था कि सिविल सेवा की यह नौकरशाही भी अंग्रेजी भाषा और संस्कृति में ही रची-बसी थी। भारतीय भाषाओं मसलन हिन्दी, उर्दू को अंगे्रजों ने निचली अदालतों तक सीमित कर रखा था।
ऐसे में जब 1949 में भारत के पूंजीपति वर्ग ने सत्ता संभाली तो स्वभावतः यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि भारत की शासकीय भाषा क्या हो? तब तक भारत की विभिन्न राष्ट्रीयताएं काफी विकसित और मुखर हो चुकी थीं तथा उनकी मांग थी कि भारत का भावी ढांचा अंगे्रजी राज की तरह कंेद्रीयकृत न होकर संघीय हो। राष्ट्रीयताओं का एक आधार भाषा भी थी और ज्यादातर भाषाएं विकसित थीं। 
लेकिन भारत का शासक वर्ग तो अंगे्रजों के जमाने की पैदाइश था और स्वयं भी अंगे्रजी भाषा में तथा अंगे्रजियत में रचा-बसा था। दूसरे यह वस्तुगत सच्चाई भी थी कि भारत की कोई एक भाषा सर्वमान्य संपर्क भाषा नहीं थी। ऐसे में केंद्रीयता के पक्षधर शासक पूंजीपति वर्ग ने यही तय किया कि देश के पैमाने पर शासन की (साथ ही उच्च ज्ञान-विज्ञान की) भाषा अंगे्रजी हो। राष्ट्रीयता की भाषाओं को स्थानीय प्रशासन की भाषा सीमित कर दिया गया। औपचारिक तौर पर संविधान में इन भाषाओं को एक सूची में रखकर मान्यता तो दी गयी पर घोषित किया गया कि अगले दस सालों तक पूरे देश के संपर्क और प्रशासन की भाषा अंगे्रजी ही रहेगी। अब दस के बदले साठ साल से ज्यादा साल गुजर चुके हैं पर पुरानी स्थिति बनी हुई है। 
यदि देश का वास्तव में संघीय ढांचा बना होता तो सभी भाषाओं को बराबर का अधिकार देते हुए पूरे देश के लिए संपर्क की भाषा विकसित करने का प्रयास किया जा सकता था। वर्तमान हिन्दी से अलग हिन्दुस्तानी भाषा में इसकी संभावनाएं भी थीं जिसमंे विभिन्न भाषाओं के शब्दों-मुहावरों का इस्तेमाल कर इसे और विकसित किया जा सकता था। यह गौरतलब है कि मुगल शासन के दिनों से ही दक्षिण में दखिनी उर्दू का चलन था। इस तरह कश्मीर से कन्याकुमारी तक और पंजाब से लेकर असम तक एक संपर्क भाषा विकसित हो सकती थी। 
पर यदि शासक पूंजीपति वर्ग अंगे्रजी को प्रोत्साहित कर रहा था कि हिन्दी भाषी पोगापंथी ‘शुद्ध’ हिन्दी यानी संस्कृत के वर्चस्व वाली हिन्दी को सारे देश पर थोपना चाहते थे। यह स्वभावतः ही बाकी भाषा भाषी लोगों को स्वीकार नहीं हो सकता था। इसलिए इसके विरूद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई। जब 1960 के दशक में केन्द्र सरकार ने दूसरी भाषा के रूप में हिन्दी को थोपना चाहा तो दक्षिण के प्रदेश इसके विरोध में खड़े हो गये। तमिलनाडु में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। मजे की बात यह है कि ठीक इसी समय हिन्दी भाषी क्षेत्रों में लोहिया के नेतृत्व में एक अंगे्रजी भाषा विरोधी आंदोलन खड़ा हो गया। लोहिया के वारिस मुलायम सिंह यादव अभी भी जब-तब अंगे्रजी विरोध की बात करते रहते हैं। 
तब से स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। केंद्रीय स्तर पर शासन-प्रशासन की भाषा अंगे्रजी बनी हुई है। देशज भाषाएं प्रदेशों तक सीमित हैं। उच्च ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा अंगे्रजी भाषा में है। हां इस बीच अंगे्रजी ने और मजबूती हासिल की है। उसकी पहुंच का विस्तार हुआ है। गांव-गांव तक अंगे्रजी स्कूल खुल गये हैं। ज्यादातर बच्चे अब नर्सरी से ही अंगे्रजी भाषा पढ़ रहे हैं। 
पर देश की ज्यादातर आबादी के लिए नब्बे प्रतिशत से ज्यादा अंगे्रजी रोजमर्रा की भाषा नहीं हैं यह उनकी अपनी बोलचाल की भाषा नहीं है। यह उनके लिए पराई भाषा है। इसीलिए आबादी के इस हिस्से के बच्चे जब स्कूलों में अंगे्रजी पढ़ते भी हैं तो वे उस पर वह अधिकार हासिल नहीं कर पाते जो अपनी मातृभाषा में कर लेते हैं। खासकर अपने विचारों को अभिव्यक्ति करना उनके लिए कठिन काम बना रहता है। 
अंगे्रजों के जमाने में भी अंगे्रजी शासक वर्ग की भाषा थी, आज भी है। इसीलिए इसका केवल ज्ञान-विज्ञान की भाषा होने से ज्यादा महत्व है। यहां अंग्रेजी जानना ही शासक वर्गीय विशेषाधिकार हासिल कर लेना हो जाता है। ठीक इसी कारण अंगे्रजी न जानना एक ऐसी कमी जिसकी किसी और तरीके से भरपाई नहीं की जा सकती है।
इस शासक वर्गीय विशेषाधिकार की कई तरह से रक्षा करने की कोशिश की जाती है। अंगे्रजी के वर्चस्व को कई तरीके से स्थापित करने के प्रयास किये जाते हंै। 
अंगे्रजी के इस वर्चस्व के चलते अन्य भाषाओं का विकास अवरूद्ध होता है। अन्य भाषाओं  का साहित्य समृद्ध है और इनमें प्रयुक्त भाषा भी उच्च कोटि की होती है। लेकिन जब उसी भाषा का इस्तेमाल ज्ञान-विज्ञान के लिए किया जाता है तब पाया जाता है कि वे जरा भी उपयुक्त नहीं है। हिन्दी में विज्ञान की पुस्तकों पर एक नजर डालने से यह स्पष्ट हो जाता है जबकि हिन्दी अपेक्षाकृत ज्यादा विकसित और समृद्ध भाषाओं में है। 
उपरोक्त सबसे स्पष्ट है कि भाषा के सवाल पूरे देश के संघीय ढांचे और अंततः शासक वर्ग और जनता के रिश्तों से जुड़ा हुआ है। उसका सही समाधान केवल यहीं से हो सकता है। 
पर संघीय कंेद्रीयता के पक्षधर संघी तो हमेशा से ही एक देश, एक भाषा को पूरे देश पर थोपना चाहते हैं। इसीलिए इनके नेता जरूरत से ज्यादा आगे जाकर अपना हिन्दी पे्रम प्रदर्शित करते हैं। मसलन नरंेद्र मोदी ने ब्रिक्स देशों की बैठक में अपना भाषण हिन्दी में दिया। इस हिन्दी प्रेम का नतीजा यह होता है कि इस ‘हिन्दी साम्राज्यवाद’ के कारण देश में भाषा की समस्या और ज्यादा जटिल होती है। संघी जिस समरसता के पे्रमी हैं और उनकी जो अधिनायकवादी प्रवृत्ति है उसमें उन्हें इससे कोई परेशानी नहीं है। वे तो हर चीज डंडे से हल करने की सोचते हैं। वक्त आयेगा तो वे अम्मा और दीदी को भी समझा देंगे कि वे तमिल और बंगाली को अपने रसोईघर तक सीमित कर हिन्दी का सम्मान करना सीखें। कम से कम वे इसी खुशफहमी में जीते हैं। 
जहां तक छात्रों के वर्तमान आंदोलन की बात है वह उनकी आकांक्षा और कुंठा की अभिव्यक्ति है। किसी जमाने में सिविल सेवा इंग्लैण्ड और भारत के अभिजात वर्ग के निचले हिस्सों की चीज थी। लेकिन आजादी के बाद यह सेवा अधिकाधिक मध्यम वर्ग की चीज बनती गयी। भारत में पुराने अभिजात वक्त के साथ तिरोहित हो गये। इसी के साथ देश में पूंजीवादी विकास के चलते पूंजीवादी समाज का मध्यम वर्ग नौकरी पेशे वाला मध्यम वर्ग विकसित हुआ। इस वर्ग की पूंजीवाद में तरक्की करने की तीव्र इच्छा थी दूसरे इस वर्ग के प्रतिभाशाली लोगों को पूंजीवादी व्यवस्था में समाहित करना और उनका इस्तेमाल करना पूंजीपति वर्ग के लिए हर तरह से फायदेमंद था। इसके उलटे इस समाहन की अनुपस्थिति में इसके भीतर तीव्र असंतोष के पैदा होने की संभावना भी थी जो फिर इसे निचले वर्गों की ओर मुखातिब करती।  तब इस वर्ग के तत्व निचले वर्गों को पूूंजीवादी व्यवस्था के लिए गोलबंद करते।
मध्यमवर्गीय प्रतिभाशाली लोगों का समाहन इस पूंजीवादी व्यवस्था में भांति-भांति के तरीकों से होता है। राजनेता, तकनीकी विशेषज्ञ, नौकरशाही, खेलकूद और कला के ऊपरी पायदान सब इसके उदाहरण हैं। नौकरी पेशा मध्यम वर्ग के लिए या उसकी मानसिकता वाले देहाती मध्यम-उच्च वर्गों के लिए भी सिविल सेवा की नौकरशाही इसका सर्वोच्च रूप है। अपनी एक दबी आकांक्षा के तौर पर हर नौकरी पेशा व्यक्ति अपने बेटे-बेटी को सिविल सेवा में जाते देखना चाहता है। लड़कों का सिविल सेवा में चुनाव होते ही  उसका दहेज के बाजार में भाव करोड़ों तक पहुंच जाता है। 
इस तरह सिविल सेवा के आकांक्षी लड़के-लड़कियां वास्तव में शासक वर्गों में शामिल होने के आकांक्षी लोग हैं। यदि उनके मां-बाप पहले से ही उसी स्तर की सेवा में नहीं हैं तो यह उनके लिए बहुत लम्बी छलांग होती है। इसीलिए वे पांच-दस साल तक इसके लिए भीषण तैयारी में जुटे होते हैं और उनके मां-बाप भी इसके लिए जरूरी बलिदान करते हैं। 
चूंकि आकांक्षी उम्मीदवारों के मुकाबले चुने जाने वालों की संख्या अति सीमित होती है इसीलिए ज्यादातर के लिए यह प्रक्रिया अत्यन्त दुःखदाई और निराशाजनक होती है। पांच-दस साल कठिन परिश्रम के बाद हताशा की स्थिति उन्हें कहीं का नहीं छोड़ती। ज्यादातर के बहुमूल्य वर्ष नष्ट हो चुके होते हैं। 
इनकी इस आकांक्षा का दोहन करने के लिए भांति-भांति के धंधेबाज बाजार में आ डटते हैं। कोचिंग चलाने वालों से लेकर उसके आस-पास ऐसे छात्रों के लिए छात्रावास तक का धंधा खूब फलता-फूलता है। 
इसमें सबसे बुरी स्थिति उन छात्रों की होती है जो छोटे शहरों-कस्बों या देहातों से आते हैं। शासक वर्ग में शामिल होने की, उनकी भाषा में ‘लालबत्ती’ पाने की उनकी हिमालय जैसी महत्वाकांक्षा ही बस उनका संसाधन होती है। अन्यथा वे हर तरह से इन सेवा के लिए बड़े शहरों के अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत पीछे छूट जाते हैं। उनकी भाषा, संस्कृति, लहजा, व्यक्तित्व सब इस सिविल सेवा के लिए उनकी सीमा बन जाते हैं। इसे वे अपने अनुभव से महसूस करते हैं पर स्वीकार नहीं कर पाते। उनकी असफलता की कुंठा बढ़ती जाती है। 
इसीलिए जब अंगे्रजी भाषा बनाम हिन्दी भाषा का कोई सरल वैसम्य उन्हें दिखता है तो वे उस पर उद्वेलित हो जाते है। उन्हें लगता है कि उनकी असफलता का कारण यह है। अंगे्रजी भाषा को लेकर इन उम्मीदवारों के इस आंदोलन की तह में यही चीज है। यह उनकी महत्वाकांक्षाओं से पैदा हुई हताशा की अभिव्यक्ति है। सच्चाई तो यह है कि सीसेट के समाप्त हो जाने के बाद भी इस पृष्ठभूमि के छात्रों की सफलता में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं होगी।
इस बीच इस आंदोलन को लेकर जहां भाजपा और उसकी सरकार सांसत में दिखी वहां विपक्षी दलों ने सरकार को घेरने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। पूंजीवादी राजनीति में ऐसा मौका भला कौन छोड़ता है। 

रही मजदूर वर्ग की बात तो वह इस मुद्दे में निहित शासक वर्ग के अंतर्विरोधों को उजागर करता है और देश की भाषा, साहित्य को बिल्कुल भिन्न नजरिये से हल करने की बात करता है। शासक वर्ग के पातों में शामिल होने के आकांक्षी युवकों/युवतियों से और उनकी इससे उपजी समस्याओं से उसकी कोई सहानुभूति नहीं है। हां, वह यह जरूर कहेगा ज्यादातर के लिए इसकी परिणति भयंकर हताशा और अवसाद है। ये यदि अपनी मृग मरीचिका वाली आकांक्षा छोड़ सकें तो अन्य मध्यम वर्गीय लोगों की तरह इनकी मुक्ति भी मजदूर वर्ग के नेतृत्व वाली पूंजीवाद विरोधी क्रांति में है। 

प्रथम विश्व युद्ध और उसके बाद
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
       प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत के अब पूरे सौ वर्ष बीत चुके हैं। यह पहला ऐसा बड़ा युद्ध था जो सही मायनों में विश्व युद्ध था। यह युद्ध दुनिया के एक बड़े हिस्से में लड़ा गया और दुनिया की सारी बड़ी शक्तियों ने इसमें भाग लिया। 
यह युद्ध अपनी नृशंसता और तबाही में अप्रतिम था। ऐसा दुनिया ने अभी तक नहीं देखा था। इसमें नये-नये हथियार और यंत्र इस्तेमाल किये गये। टैंक, हवाई जहाज, रासायनिक गैस इत्यादि इसमें आते हैं। बहुत बड़े पैमाने के विध्वंस के साथ इसमें मानव क्षति भी पहले के मुकाबले अकल्पनीय थी। इसमें करीब एक करोड़ लोग मारे गये और पांच करोड़ लोग घायल हुए। 
यह यु़द्ध हर मायने में इतना नया और विध्वंसक था कि लोगों को इसे सही मायने में समझ पाने में ही सालों लग गये। भौतिक विध्वंस के साथ इसने एक आत्मिक विध्वंस को भी जन्म दिया था।
जुलाई 1914 में विश्व युद्ध शुरु होने के पहले का करीब चालीस-पैंतालीस सालों का काल यूरोप में शान्ति का काल था। 1870-71 के फ्रांस-प्रशा युद्ध के बाद यूरोप में शान्ति थी। ऐसा लग रहा था कि यूरोप अब अंततः अपने पुराने युद्ध काल को पीछे छोड़ आया है। कम से कम गैर राजनीतिक हलकों में यही भावना थी और राजनीतिक हलके इसी को प्रचारित कर रहे थे। 1870-80 के दशक की लम्बी मंदी के बाद व्यवसाय भी अब अच्छा चल रहा था। सब कुछ मंगलमय था। 
पर राजनीतिक हलकों में सबको पता था कि स्थिति वास्तव में ऐसी नहीं है। वहां हालात एकदम इतर थे और गठजोड़ कराने के प्रयास जोर-शोर से जारी थे। 
उस समय इंग्लैण्ड और फ्रांस सबसे बड़ी औपनिवेशिक शक्तियां थीं और यूरोप की बड़ी ताकत भी। स्पेन, पुर्तगाल और नीदरलैण्ड हालांकि पुरानी औपनिवेशिक ताकत नहीं रह गये थे पर तब भी उनके पास कुछ उपनिवेश थे। दूसरी ओर तुर्की का आतोमन साम्राज्य, आस्ट्रो-हंगेरियाई तथा रूसी साम्राज्य पुरानी ताकत थे। इनका पुराने समय से अलग-अलग क्षेत्रों पर कब्जा था। इसके साथ दुनिया के पैमाने पर सं. रा. अमेरिका, जर्मनी, इटली और जापान नई ताकत के तौर पर उभर रहे थे। खासकर जर्मनी बिस्मार्क के नेतृत्व में ऊपर से एकीकरण के बाद तेजी से मजबूत हो रहा था। सं. रा. अमेरिका भी एक संभावित बड़ी ताकत था। 
उस समय यूरोप ही बाकी सारी दुनिया पर राज कर रहा था। इंग्लैण्ड (या यूनाइटेड किंगडम) का सातों समुन्दर पार और उसके राज में कभी सूरज नहीं डूबता था। यूरोप की इन शक्तियों के लिए लगातार मजबूत होता जर्मनी एक बड़ा खतरा था। चूंकि अमेरिका समुद्र पार था इसलिए वह उनकी चिंता का विषय नहीं था हालांकि जैसा कि इतिहास ने दिखाया अंततः वही दुनिया की सबसे बड़ी ताकत के तौर पर सामने आया। 
प्रथम विश्व युद्ध शुरु के पहले के सालों में, जबकि भद्र जन ‘मंगल समय’ में जी रहे थे, राजनीतिक हलकों में इसी के मद्देनजर जोड़-तोड़ चल रही थी। प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत होने पर अंततः जो गठजोड़ उभर कर सामने आया वह अनिवार्य नहीं था। यहां तक कि इंग्लैण्ड व जर्मनी का भी गठबंधन हो सकता था।   
अंत में जब युद्ध शुरु हुआ तो इंग्लैण्ड, फ्रांस और रूस एक तरफ थे तथा तुर्की, आस्ट्रो-हंगरी और जर्मनी दूसरी तरफ। बाद में सं. रा. अमेरिका भी पहले वाले गठबंधन में शामिल हो गया।
न केवल राजनीतिक हलकों में बल्कि जानकार हलकों में भी युद्ध की फिजां मौजूद थी। खासकर तब का संगठित मजदूर आंदोलन इसके प्रति सजग था और इस पर गहरी नजर रखे हुए था। युद्ध शुरु होने के 7 साल पहले ही इस मजदूर आंदोलन द्वारा स्टूगर्ट मंे एक प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमें शासकों को इस साम्राज्यवादी आत्मघाती युद्ध से बाज आने की चेतावनी दी गई थी और साथ ही उन्हें चेतावनी दी गई थी कि यदि उन्होंने फिर भी युद्ध छेड़ने की जुर्रत की तो मजदूर वर्ग युद्ध में अपने-अपने शासकों के पीछे लड़ने के बदले उनके खिलाफ उठ खड़ा होगा और क्रांति कर पूंजीवाद-साम्राज्यवाद को ही खत्म कर देगा। युद्ध शुरु होने के दो साल पहले 1912 में बैसेल में इस प्रस्ताव को फिर दोहराया गया। 
ऊपरी, औपचारिक तौर पर तब मजदूर आंदोलन की यह हैसिल थी कि वह ऐसी धमकी दे सके। तब जर्मनी, आस्ट्रीया, इटली, फ्रांस इत्यादि में बड़ी मजबूत मजदूर पार्टियां थीं। कहा जाता है कि तब जर्मनी की सेना में हर तीसरा सैनिक किसी न किसी रूप में जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी से जुड़ा हुआ था। 
लेकिन जब वास्तव में युद्ध शुरु हुआ तो पाया गया कि मजदूर पार्टियों की यह धमकी फर्जी थी। वास्तव में उनके अन्दर क्रांतिकारी दम नहीं था और युद्ध के सामने आने पर उन्होंने आत्म समपर्ण कर दिया तथा अपने-अपने देशों के शासकों के पीछे लामबंद होकर अपने मजदूर भाइयों का कत्ल करने लगीं। अब तक मौजूद मजदूर आंदोलन का पतन हो गया। 
जुलाई 1914 में शुरु होकर यह युद्ध 1919 मंे वर्साई संधि तक चलता रहा। युद्ध की शुरुआत एक बेहद मामूली सी घटना से हुई जिसने, जैसा कि कहा जाता है, फूस ने चिंगारी का काम किया। आस्ट्रीया के राजकुमार की सर्बिया के सरजेवा में एक यात्रा के दौरान हत्या हो गयी। आस्ट्रीया का जर्मनी से गठबंधन था और सर्बिया रूस का संरक्षित। आस्ट्रीया ने सर्बिया से आत्म समर्पण की मांग की और ऐसा न करने पर युद्ध की चेतावनी। और अंततः युद्ध शुरु हो गया तथा कुछ ही दिनों में विश्व युद्ध बन गया। 
इस युद्ध का कारण न तो आस्ट्रीया के राजकुमार की हत्या थी और न ही राजाओं-राजनेताओं की हठधर्मिता या उनके अहं की टकराहट। इसका और कुछ नहीं तो वे दो युद्ध विरोध प्रस्ताव ही प्रमाण हैं जो संगठित मजदूर आंदोलन ने पारित किये थे। 
युद्ध का कारण पूंजीवादी साम्राज्यवाद का उदय और साम्राज्यवादी देशों के बीच दुनिया के बाजारों, कच्चे माल तथा उपनिवेशों पर कब्जे की प्रतिद्वन्द्विता थी।    
पुराने तरह के साम्राज्यवादों से अलग यह नया साम्राज्यवाद एकाधिकारी पूंजी की उपज था। कुुछ विकसित पूंजीवादी देशों में औद्योगिक और बैंकिंग पूंजी बड़ी होकर एकाधिकारी पूंजी में बदल गयी थी और इनके सम्मिलन से वित्तीय पूंजी पैदा हुई थी। इस वित्त पूंजी के निर्यात ने अब बड़ा महत्व धारण कर लिया था। यह निर्यात सुगम और सुनिश्चित हो इसका सबसे मुकम्मल तरीका था उपनिवेश बना लेना। विकसित पंूजीवादी देश के नियंत्रण वाला उपनिवेश उसकी वित्तीय पूंजी की पैदाइश के साथ उपनिवेशों के लिए मार-काट बहुत तेज हो गई। 
20वीं सदी की शुरुआत में जर्मनी, इटली, जापान, सं. रा. अमेरिका जैसी उभरती हुई नयी साम्राज्यवादी ताकतों ने पाया कि लगभग सारी दुनिया पर पहले ही कब्जा हो चुका है। ऐसे में एक तो बची-खुची जगहों जैसे चीन पर कब्जे के लिये आपसी प्रतियोगिता बहुत तेज हो गई, दूसरे नयी ताकतों ने पुरानी औपनिवेशिक ताकतों से उपनिवेश छीनने का मन बना लिया। 
पुरानी औपनिवेशिक ताकतें तीन तरह की थीं। पहली किस्म थी- इंग्लैण्ड व फ्रांस की (किसी हद तक नीदरलैण्ड भी) इन्होंने उपनिवेश बनाने की शुरुआत व्यापारिक पूंजीवाद के जमाने में ही की थी लेकिन उनके द्वारा ज्यादातर उपनिवेश कायम किये गये औद्योगिक पूंजीवाद के काल में या फिर एकाधिकारी पूंजीवाद की पैदाइश के काल में। ये अब एकाधिकारी पूंजी वाले साम्राज्यवादी देश थे। दूसरी श्रेणी थी- स्पेन और पुर्तगाल जैसे देशों की जो व्यापारिक पूंजीवाद के जमाने में अग्रणी थे और जिनके ज्यादातर उपनिवेश भी उसी जमाने के थे। एकाधिकारी पूंजीवादी जमाने में वे पिछड़ गये थे। तीसरी श्रेणी थी- रूस व आस्ट्रीया की जिनके साम्राज्य सामन्ती जमाने के थे और उनके अधीन देश उनके आस-पास थे। 
नये उभरते साम्राज्यवादी देश एकाधिकारी पंूजीवाद के साम्राज्यवादी देश थे और वे भी अपने लिए उपनिवेश चाहते थे। नये और पुराने दोनों एकाधिकारी पंूजीवादी देशों के लिये सबसे आसान लक्ष्य थे सामंती साम्राज्योंधीन देश। लेकिन साथ ही साम्राज्यवादी देश स्पेन-पुर्तगाल व इंग्लैण्ड-फ्रांस से भी उपनिवेश छीनना चाहते थे। सं. रा. अमेरिका ने 1898 मंे स्पेन से फिलीपीन्स और क्यूबा छीन लिया था। जैसा कि कहा गया है, उपनिवेशों का बंटवारा पूरा हो गया था और अब केवल फिर से ही बंटवारा हो सकता था। और युद्ध के अलावा इसका ओई अन्य तरीका नहीं था। इस तरह युद्ध और वह विश्व युद्ध एक तरह से अनिवार्य हो गया था। यह अकारण नहीं था कि संगठित मजदूर आंदोलन ने आसन्न विश्व युद्ध की बार-बार चेतावनी दी। 
युद्ध में गठबंधन बहुत सारी चीजों पर निर्भर था। ऐसा नहीं था कि नयी और पुरानी साम्राज्यवादी ताकतें आमने-सामने खड़ी थीं। ऐतिहासिक, राजनीतिक और भौगोलिक सभी कारक इसमें अपनी भूमिका निभा रहे थे। इसीलिए रूस जैसी पुरानी ताकत इंग्लैण्ड-फ्रांस के साथ गई तो जर्मनी जैसी नयी ताकत ने पुराने आस्ट्रो-हंगरी साम्राज्य से गठबंधन कायम किया। 
पांच साल की भयंकर तबाही के बाद जब युद्ध समाप्त हुआ तो पाया यह गया कि मसले का अभी आधा-अधूरा ही निपटारा हुआ है। तीनों पुराने सामंती साम्राज्य नष्ट हो गये थे। उनके साम्राज्य को नई ताकतों ने आपस में बांट लिया था। रूस में तो क्रांति ही हो गई थी और वहां मजदूर वर्ग सत्ता पर काबिज हो चुका था। 
पर युद्ध का फायदा उठाया था इंग्लैण्ड व फ्रांस जैसी पहले से मजबूत साम्राज्यवादी ताकतों ने। उन्होंने नये क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया खासकर अरब दुनिया में। सं. रा. अमेरिका को भी कुछ हासिल हुआ। लेकिन नयी ताकतों में सबसे आक्रामक जर्मनी को न केवल कुछ नहीं मिला बल्कि पराजय के कारण उससे बहुत कुछ छीन लिया गया था। फ्रांस से सटा जर्मनी का एक बहुत बड़ा औद्योगिक इलाक फ्रांस को दे दिया गया था जबकि युद्ध की सारी जिम्मेदारी जर्मनी पर डालते हुए उससे भारी हर्जाने की मांग की गई। इसने जर्मनी को ने केवल मुसीबत में ढकेला बल्कि वहां हिटलर के नाजीवाद के पैदा होने की जमीन तैयार की।  
प्रथम विश्व युद्ध का खात्मा एक तरह से अस्थाई शान्ति थी। सभी के लिए स्पष्ट था कि मामले का अंतिम तौर पर निपटारा नहीं हुआ है। युद्ध में माल आपूर्ति कर और ऋण देकर तथा युद्ध की तबाही से बचकर सं. रा. अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बन चुका था। इंग्लैण्ड व फ्रांस उसके सामने पिछड़ गये थे। अमेरिका को अपनी जगह मिलनी थी। दूसरी और जर्मनी जैसी ताकत को इस तरह दबा कर नहीं रखा जा सकता था। यह विस्फोटक था। इटली और जापान को भी अपनी हैसियत के अनुरूप हिस्सा चाहिये था। 
और जब 1929 में महामंदी शुरु हुई तो उसने इस सबमें और तेजी ला दी। महामंदी के कारण साम्राज्यवादी ताकतों की आपसी कलह बहुत तेज हो गई क्योंकि सभी एक दूसरे पर उसका बोझ डालने की कोशिश करने लगे। अर्थव्यवस्था का पुराना ढांचा पूरी तरह से ध्वस्त हो गया, वह ढांचा जो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भी बचा रह गया था।     
रही सही कसर युद्ध की तबाही और महामंदी से पैदा हुए फासीवाद और नाजीवाद ने पूरी कर दी। इसने इटली व जर्मनी सहित कई देशों को अपनी चपेट में ले लिया। इटली और जर्मनी तो सीधे-सीधे युद्धोन्मादी हो गये। जापान भी इनके साथ हो गया। 
द्वितीय विश्व युद्ध के शुरुआत मंे वैसे तो 1939 में मानी जाती है असल में यह 1931 में जापान के चीन पर हमले से ही शुरु हो गया था। 1936 का स्पेनी गृह युद्ध, 1937 में चेकोस्लोवाकिया पर जर्मनी का कब्जा इत्यादि इसके अन्य पड़ाव थे। 
1941 से द्वितीय विश्व युद्ध चरम पर जा पहुंचा जब सोवियत संघ और सं. रा. अमेरिका भी इसमें शामिल हो गये। इसके एक ओर थे इंग्लैण्ड, फ्रांस, सोवियत संघ और सं. रा. अमेरिका तो दूसरी ओर थे जर्मनी, इटली और जापान। समाजवादी सोवियत संघ के लिए यह आत्म रक्षा का गृह युद्ध था और उसके युद्ध में शामिल होने के साथ अब यह युद्ध मूलतः साम्राज्यवादियों के दो धड़ों के बीच युद्ध के बदले फासीवाद-नाजीवाद के विरूद्ध जनवाद का युद्ध हो गया। इंग्लैण्ड और सं. रा. अमेरिका के साम्राज्यवादी शासकों के सारे कुचक्रों के बावजूद अंततः यह युद्ध सोवियत संघ ने जीत लिया। नाजीवाद-फासीवाद की पराजय हुयी। 
द्वितीय विश्व युद्ध ने पहले के मुकाबले भी बहुत ज्यादा तबाही मचाई। मरने वालों की संख्या पांच करोड़ थी जिसमें अकेले सोवियत संघ के दो करोड़ लोग थे। इसके मुकाबले सं. रा. अमेरिका के कुछ ही सैनिक मारे गये थे। 
इस युद्ध ने अंततः साम्राज्यवाद बांट-बखरे का निपटारा कर दिया। दोनों पुरानी साम्राज्यवादी ताकतें इंग्लैण्ड व फ्रांस बहुत कमजोर हो गयीं और उनके उपनिवेश आजाद होने लगे। तीनों नयी साम्राज्यवादी ताकतें जर्मनी, इटली व जापान तबाह हो गयीं और फिलहाल कोई चुनौति पेश करने लायक नहीं रह गयीं। इन सबके मुकाबले सं. रा. अमेरिका सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत के रूप में सामने आया और साम्राज्यवादी दुनिया का नेता बन गया। उसका यह दबदबा आज भी कायम है हालांकि जापान और जर्मनी कालांतर में संभलने के बाद इसमें काफी गिरावट आ गई है। 
  द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर एक नयी ताकत दुनिया के दृश्य पटल पर आई। यह थी समाजवादी खेमे की मौजूदगी। यदि प्रथम विश्व युद्ध ने रूस में क्रांति को जन्म दिया था तो द्वितीय विश्व युद्ध ने पूर्वी यूरोप के कई देशों समेत वियतनाम, कोरिया व चीन में समाजवाद कायम किया। इस समाजवादी खेमे और अन्य देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों ने इतनी ताकत हासिल की कि 1950 के दशक में वास्तव में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी अपनी व्यवस्था के खात्मे को लेकर भयभीत हो गये। 
पर ऐसा नहीं हो सका। एक दशक बाद ही सोवियत संघ व पूर्वी यूरोप में समाजवाद भीतरघातियों के कारण खत्म हो गया। बाद में चीन में भी माओ के मरने के बाद वहां समाजवाद नहीं रहा। 1960-70-80 के दशक में सोवियत संघ व सं. रा. अमेरिका की प्रतिद्वन्द्विता वस्तुतः दो साम्राज्यवादी खेमों की प्रतिद्वन्द्विता थी। 
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का समय कोई शान्ति का समय नहीं रहा है। यह साम्राज्यवादी देशों द्वारा उपनिवेशों, उपनिवेशों और पिछड़े आजाद मुल्कों पर थोपे गये युद्धों का तथा इन गुलाम-अधीन देशों द्वारा राष्ट्रीय मुक्ति युद्धों का काल रहा है। इसमें दो-ढ़ाई करोड़ से ज्यादा लोग मारे गये हैं।
तब भी पिछले सत्तर सालों में साम्राज्यवादियों के बीच सीधे आपस में युद्ध नहीं हुआ है जो केवल तीसरा विश्व युद्ध ही हो सकता था। यह न होने के कारण साम्राज्यवादियों की समझदारी या परमाणु युद्ध का भय नहीं है जैसा कि साम्राज्यवाद के चाकर कहते हैं। इसका असल कारण साम्राज्यवादी देशों की ताकत में कोई मूलभूत बदलाव का न होना है। सबसे बड़ी ताकत आर्थिक व सामरिक ताकत के तौर पर सं. रा. अमेरिका का अभी भी दबदबा है। विश्व युद्ध की संभावना तभी पैदा होगी जब कोई नयी ताकत वास्तव में इसे प्रतिस्थापित करने की स्थिति में आ जाये। बहु चर्चित चीन अभी भी इस बिन्दु से काफी दूर है।  
लेकिन एक बात तय है। यदि साम्राज्यवादी कभी बड़े पैमाने का आपसी युद्ध या तीसरा विश्व युद्ध शुरु करते हैं तो उसका केवल एक परिणाम निकलेगा- वैश्विक क्रांति और सारी दुनिया से पूंजीवाद, साम्राज्यवाद का सफाया। इसलिए किसी नये विश्व युद्ध का हर स्तर पर तत्परता से विरोध करते हुए भी मजदूर वर्ग को इससे भयभीत होने की जरूरत नहीं है। यह पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की कब्र साबित होगा। 

1 comment:

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