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एफ.टी.आई.आई. के छात्र आमरण अनशन पर
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    फिल्म व टेलीविजन संस्थान, पुणे के छात्र पिछले तीन माह से अपनी न्यायपूर्ण मांगों के लिए संघर्षरत हैं। वे भाजपा से जुड़े गजेन्द्र चौहान को अपने संस्थान का चेयरमैन बनाने के खिलाफ संघर्षरत हैं। वे अपने संस्थान को भगवाकृत करने के खिलाफ संघर्षरत हैं। तीन माह के अपने संघर्ष की कोई सुनवाई न होते देख अंततः उन्होंने आमरण अनशन पर जाने का निर्णय लिया और संघर्ष के 91वें दिन तीन छात्र आमरण अनशन पर बैठ गये। 
    केन्द्र सरकार ने इस बहुप्रतिष्ठित संस्थान के चेयरमैन पद पर भाजपा से जुडे़ गजेन्द्र चौहान को बैठाने के साथ-साथ 4 अन्य संघी मानसिकता के व्यक्तियों को संस्थान की मैनेजिंग सोसाइटी में बैठा दिया था तभी से वहां के छात्र इन व्यक्तियों को हटाये जाने की मांग को लेकर संघर्षरत हैं। 
    सरकार का यह कदम तमाम शैक्षिक संस्थानों के भगवाकरण की मुहिम का हिस्सा है। इसके तहत सरकार एक के बाद एक पदों पर संघी मानसिकता के व्यक्तियों को बैठा इतिहास-कला-संस्कृति सबको हिन्दुत्व के विचारों से संचालित करने को उतारू है। वह सारी तर्कशीलता-वैज्ञानिकता का गला घोंटने का व कूपमंडूकता, सामंती-ब्राह्मणवादी मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास कर रही है। 
    एफ.टी.आई.आई. के छात्रों ने अपने संघर्ष के जरिये सरकार की इस मुहिम को चुनौती पेश की है। फासीवादी सरकार अपने लिए प्रस्तुत किसी भी चुनौती का गला घोंटने पर उतारू है। इसीलिए इतने लम्बे संघर्ष के बावजूद सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं है पर संस्थान के छात्र भी आखिरी दम तक अपने संघर्ष को चलाना चाहते हैं। 
    इन तीन माह के संघर्ष में छात्रों को ढ़ेरों धमकियों-दमन का सामना करना पड़ा। आधी रात को कई छात्रों की गिरफ्तारी, उनका उत्पीड़न इन्हें झेलना पड़ा। उन्हें संस्थान से निकाले जाने की धमकी झेलनी पड़ी। पर इस सबसे छात्रों की संघर्ष की भावना कमजोर नहीं पड़ी। 
    इस संघर्ष में जहां उन्हें तमाम फिल्मी हस्तियों-बुद्धिजीवियों-वामपंथी संगठनों का समर्थन हासिल हुआ वहीं उन्हें संघी तत्वों का गुस्सा भी झेलना पड़ा। 
    अब छात्रों ने राष्ट्रपति को ज्ञापन भेज अपना आमरण अनशन शुरू कर दिया है। उन्होंने राष्ट्रपति से मांग की है कि संस्थान को स्वायत्त घोषित कर वे खुद इसके चांसलर बनें। संस्थान को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के दायरे से बाहर लाया जाए। मौजूदा विवाद के निपटारे के लिए प्रबुद्ध फिल्म निर्माताओं का एक स्वतंत्र पैनल बनाया जाय। यह पैनल सभी विवादों का निपटारा करे। 
    इस दौरान अब तक के संघर्ष में ढेरों वार्तायें विफल रहीं। सरकार अपने कदम पीछे खींचने को तैयार नहीं है। वह छात्रों के आगे झुकना नहीं चाहती है। पर छात्र भी पुलिस छावनी में तब्दील हो चुके संस्थान में अपनी जायज मांग पर संघर्ष जारी रखने का जुझारूपन प्रदर्शित कर रहे हैं। 
    एफ.टी.आई.आई. के छात्रों ने विपरीत हालातों में संघर्ष के जिस माद्दे का प्रदर्शन किया है वह देश के छात्रों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन रहा है। वे छात्र समुदाय के सामने फासीवादी ताकतों, उनकी नापाक करतूतों के खिलाफ सीना तान कर खड़े होने का उदाहरण पेश कर रहे हैं। वे सभी इंसाफ पसंद लोगों के दिलों में यह विश्वास पैदा कर रहे हैं कि अगर एक छोटे से संस्थान के छात्र सरकार की भगवाकरण की मुहिम को इतनी चुनौती दे सकते हैं तो इसी जज्बे को छात्र समुदाय का- समाज का थोड़ा भी व्यापक हिस्सा अपना ले तो संघी सरकार के मंसूबों को धूल चटायी जा सकती है।  
आदिवासी छात्रों से झूठे मुकदमे वापस लो! 
पानवेल, मुंबई(महाराष्ट्र) के सरकारी जनजाति छात्रावासों के छात्रों की अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल का समर्थन करो!- अजमल खान
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    महाराष्ट्र में सरकारी जनजातीय छात्रावासों की हालत बहुत दयनीय है। दिसम्बर 2014 में पलघर जिले के सरकारी जनजातीय छात्रावास के 200 छात्र अपनी बुनियादी सुविधाओं जैसे- हाॅस्टल में टायलेट, लाइब्रेरी के लिए व कुछ स्थानीय तत्वों द्वारा यौन उत्पीड़न के खिलाफ भूख हड़ताल पर चले गये थे। उनकी भूख हड़ताल कई दिनों तक चली और कई छात्रायें इस दौरान गिर पड़ीं और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। हालांकि उन्हें पुलिस द्वारा आश्वासन दिया गया पर इसके हेतु किसी को निर्देशित नहीं किया गया। 
    एक बार फिर पानवेल, मुंबई के आदिवासी छात्रों ने सरकारी जनजातीय छात्रावास के सामने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू कर दी है। पानवेल में दो आदिवासी छात्रावास हैं एक लड़कों के लिए व एक शुकरपुर में लड़कियों के लिए। केवल लड़कों के छात्रावास के लिए अच्छी इमारत है और लड़कियां शुकरपुर की एक चाल के 5 किराये के कमरों में रह रही हैं। 2010 से विभाग ने कोलावडे में 500 छात्रों के रहने लायक एक नई इमारत को भी किराये पर ले रखा है। छात्रों ने वहां 2012 से रहना शुरू किया हालांकि इस जगह पर पहुंचना बहुत मुश्किल है क्योंकि यहां तक पहुंचने के लिए केवल आॅटो सेवायें हैं जो शाम 7 बजे तक ही मिलती हैं। अपने स्कूल और काॅलेज में पढ़ने के बाद छात्र शाम से पहले तक वापिस नहीं आ पाते हैं। जब कभी स्वास्थ्य इमरजेंसी या कोई अन्य कठिन परिस्थिति पैदा हो जाती है तो यहां से आना-जाना बेहद कठिन हो जाता है और जनजातीय छात्रावास के लिए किसी गाड़ी का भी इंतजाम नहीं है। छात्र अन्य कई समस्याओं का भी सामना कर रहे हैं जैसे उचित खाने का इंतजाम न होना एवं महाराष्ट्र के अन्य जनजातीय हाॅस्टलों की तरह रहने लायक अन्य सुविधाओं का इंतजाम न होना। 
    छात्रों ने इस संदर्भ में कई बार लिखित शिकायतें देकर लगातार अपनी मांगें उठाईं पर वार्डन व अन्य अधिकारियों ने इस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। छात्रों का जीवन पिछली अप्रैल के बाद से बद से बदतर होता चला गया जब कोलबड़े हाॅस्टल के मालिक ने एक नोटिस चिपका कर छात्रों से हाॅस्टल खाली करने को कहा। चूंकि यह 1 अप्रैल को हुआ इसलिए छात्रों ने सोचा कि उन्हें बेवकूफ बनाने के लिए ऐसा किया गया। पर उसी दिन उन्हें यह पता चला कि उनकी इमारत का किराया एक वर्ष से अधिक समय से बकाया है और उन्हें हाॅस्टल खाली करना पड़ेगा और उन सभी को पानवेल के पहले से काफी भरे हुए हाॅस्टल में जाना होगा। इसने छात्रों के लिए पानवेल में रहना असम्भव बना दिया। छात्रों ने अपने वार्डन व अन्य उच्च अधिकारियों को शिकायतें व प्रार्थना पत्र देना जारी रखा। छात्रों का एक प्रतिनिधि मंडल इन सब समस्याओं को लेकर जनजातीय मंत्री, जनजातीय कमिश्नर व अतिरिक्त जनजातीय कमिश्नर से भी मिला। लेकिन वायदों और आश्वासनों के अलावा उनका कोई भी आग्रह या मांग पूरी नहीं हुयी। 
    अंततः दोनों हाॅस्टलों के 309 छात्रों ने पेन में जनजाति विकास कार्यक्रम अधिकारी से 21 अगस्त को मिलना व ये मुद्दे उठाने का निर्णय किया। 
1. उनके हाॅस्टल ऐसी जगहों पर स्थापित किये जाने चाहिए जहां वे आसानी से पहुंच सके। (छात्रों को स्कूल व कालेज जाना व हाॅस्टल लौटना पड़ता है। उन्हें अपनी जेब से पैसा खर्च कर कोलवडे के हाॅस्टल पहुंचना पड़ता था जो कि दूर है और जहां रात में नहीं पहुंचा जा सकता।)
2. वहां 127 छात्र 75 छात्रों के लायक जगह में रह रहे हैं और 200 छात्रायें, 75 छात्राओं के लायक जगह में रह रही हैं। 
3. हाॅस्टलों में भोजन की गुणवत्ता बहुत खराब है। हाॅस्टल में पीने के पानी की कोई उचित व्यवस्था नहीं है और सरकार के नवम्बर 2011, अप्रैल 2013, जून 2013 के प्रस्तावों में वर्णित बुनियादी सुविधाओं का इंतजाम नहीं है। 
4. शुकरपुर हाॅस्टल में एक कमरे में 5 छात्राओं के रहने लायक क्षमता है पर इसे 25 छात्राओं को दिया गया है और इसमें केवल एक बाथरूम है। 
5. महिला वार्डन छात्राओं के साथ ठीक व्यवहार नहीं करती और उनके साथ लगातार गाली-गलौच किया जाता है। 
6. उन्हें कोई यात्रा भत्ता नहीं दिया जाता व भोजन की डाइट के नियमों का पालन नहीं किया जाता। 
7. प्रवेश के कई महीनों बाद तक छात्रों को ड्रेस, किताबों व अन्य स्टेशनरी सामान नहीं दिया गया। 
8. हाॅस्टल में साफ पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। 
9. छात्रों के लिए नियमित स्वास्थ्य चेकअप का इंतजाम नहीं है। 
10. कम्प्यूटर व अन्य सुविधाओं का कोई इंतजाम नहीं है जबकि इसके लिए धनराशि स्वीकृत की जा चुकी है। 
11. उन्हें अपने सांस्कृतिक कार्यक्रम करने की छूट नहीं है और धनराशि स्वीकृति होने के बावजूद उन्हें बाहर घुमाने नहीं ले जाया जाता। 
12. प्रतियोगी परीक्षाओं की ट्रेनिंग व शारीरिक ट्रेनिंग का कोई इंतजाम नहीं है। 
13. छात्रों की जरूरी समस्याओं व मुद्दों को देखने के लिए कोई स्टाफ मौजूद नहीं रहता। 
    अगले दिन स्थानीय जनजाति विकास अधिकारी रंजना दाभडे जो कि पिछले दिन अनुपस्थित थीं, ने छात्रों के खिलाफ पेन पुलिस स्टेशन में एक तहरीर दे दी ताकि उन्हें अपनी मांगें उठाने से रोका जा सके। केस को निर्मित करते हुए पेन पुलिस स्टेशन ने 9 छात्र सुनील टोटावर, विकास नाडेकर, सचिन दीन डे, गुरूनाथ शहरे, अजय थुमडा, विनोद बुधास, राहुल चादर, दामु मंडे और योगेश कडे पर यह आरोप लगाते हुए कि उन्होंने कार्यालय में कम्प्यूटर तोड़ने व अशांति फैलाने का प्रयास किया, एफआईआर दर्ज कर ली। छात्र जिन्होंने शांतिपूर्वक कार्यालय जाकर शिकायत व प्रार्थना पत्र दिया था, जनजाति विकास अधिकारी की इस चाल से अचम्भे में पड़ गये। धारा 341, 141, 147, 149 और 506 के तहत उन पर आरोप कायम किया गया। 
    राज्य जनजाति विभाग और पुलिस के इस उत्पीड़न को देखते हुए लगभग 200 छात्र व छात्राओं ने 31 अगस्त से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू कर दी। कोई भी मीडिया उनकी हड़ताल को रिपोर्ट करने को तैयार नहीं है। वे मांग कर रहे हैं कि उनके मुद्दे निपटाये जायें और छात्रों पर लगाये मुकदमे वापस लिये जायें। 
    आदिवासी छात्र करजाट, नेराल, महाद, पाली, पेन, थाने, उल्हासनगर, कल्याण, भिवंडी, जवजार, टालसारी, वादा, विक्रमगाद, गोरेगांव, पानवेल, शाहपुर, मुरबाद और बोरडी हाॅस्टलों में अपने सामने मौजूद गम्भीर मुद्दों को उठाने के लिए भूख हड़ताल पर हैं। जब भी वे सम्बन्धित अधिकारियों से मिले, उन्हें केवल वायदे मिले पर उनके मुद्दे हल नहीं किये गये। पानवेल की भूख हड़ताल की मीडिया में खासी कम कवरेज की गयी जबकि 200 आदिवासी छात्र 4 दिन से भूख हड़ताल पर हैं। छात्रों पर झूठे केस मढ़े गये और कुछ अन्य छात्रों को पानी की कमी होने के चलते अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। पुलिस व हाॅस्टल के अधिकारी उन्हें भूख हड़ताल तोड़ने के लिए धमका रहे हैं। चूंकि ये छात्र आईआईटी या एफटीआईआई या देश के अन्य अभिजात संस्थानों से नहीं हैं, ये महाराष्ट्र के गरीब आदिवासी छात्र हैं इसलिए इनका संघर्ष प्रचारित व लोकप्रिय नहीं हो रहा है। 
                                        (साभार: काउण्टर करेंट आर्ग, अनुवाद हमारा)
मुद्दा विहीन-संघर्ष विहीन छात्र राजनीति के खिलाफ सभा
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ(डूसू) चुनाव में मुद्दाविहीन-संघर्षविहीन छात्र राजनीति के खिलाफ व छात्रों की समस्याओं पर छात्र संघर्षों को खड़ा करने के उद्देश्य से पछास की दिल्ली इकाई ने 9 सितम्बर डीयू आर्ट फैकल्टी गेट पर सभा की। 
    सभा का संचालन करते हुए शिप्रा ने कहा कि डूसू छात्रों की समस्याओं के खिलाफ लड़ने का एक मंच बनता है लेकिन चुनावबाज पूंजीवादी पार्टियों के छात्र संगठनों ने इसे भी धन-बल की राजनीति का केन्द्र बना दिया है। इन चुनावों में भी करोड़ों रुपये उड़ाकर होर्डिंग्स और कागज उड़ाने की प्रतियोगिता की जा रही है। छात्र-संघ चुनाव में उतरे प्रत्याशी महज नाम व राजनीति में अपना कैरियर चमकाने के लिए उतरे हैं। न तो इन्हें छात्रों से मतलब है और न ही छात्रों की समस्याओं से। इसलिए इनके द्वारा वितरित पर्चों में प्रत्याशी के नाम व बैलेज न. के अलावा, छात्रों की एक मांग तक नहीं है। भाजपा-कांग्रेस-आप जैसी पार्टियों द्वारा जो गंदगी संसद-विधानसभा में फैलायी जाती है उसी का अनुसरण इनके छात्र संगठन डूसू चुनाव में कर रहे हैं। छात्रों को इस मुद्दाविहीन पतित छात्र राजनीति को नकारना होगा। 
    रामब्रस कालेज से पछास सदस्य अजय ने कहा कि आज हम छात्रों के लिए एक बेहतर रोजगार सबसे बड़ी समस्या है। बेहतर काॅलेजों में पढ़ने के बाद भी हमारा भविष्य सुरक्षित नहीं है। बेरोजगारी डीयू के भी डेढ़ लाख छात्रों की समस्या बनती है लेकिन बेहतर रोजगार की मांग पूरे डूसू चुनाव से गायब है। इस वर्ष केन्द्र, सरकार द्वारा शिक्षा के बजट में 16 प्रतिशत की कटौती कर दी गयी है। दूसरी तरफ सरकार हर क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा दे रही है निजीकरण की प्रक्रिया को और तेजी से बढ़ाने के लिए सी.बी.सी.एस. जैसे छात्र विरोधी प्रोग्राम केन्द्र सरकार द्वारा छात्रों पर थोपे जा रहे हैं। इन सबके बावजूद भी शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ आवाज डूसू चुनाव से गायब है। शिक्षा के भगवाकरण के जरिए एक बड़ा हमला छात्रों के दिमागों पर बोला जा रहा है। पाठ्यक्रमों व शिक्षा संस्थानों में संघी विचारधारा को घुसाकर सरकार छात्रों को साम्प्रदायिक रंग में रंगना चाहती है। सरकार द्वारा किये जा रहे हमलों के खिलाफ एक व्यापक छात्र आंदोलन ही सरकार को पीछे धकेल सकता है। इसके लिए जरूरी है कि डूसू जैसे छात्रों के मंच को इन समस्याओं के खिलाफ लड़ने का मंच बनाया जाए। 
    पछास के दीपक ने कहा कि आज छात्रों पर चैतरफा हमला हो रहा है। पतित, साम्राज्यवादी संस्कृति लगातार छात्रों को खुदगर्ज, व्यक्तिवादी बना रही है। ये संस्कृति छात्रों की रचनात्मकता समाज निर्माण में उनकी भूमिका को खत्म कर नशाखोर और मानसिक बीमार बना रही है। महंगी फीसों के जरिये मेहनतकशों के बच्चों को शिक्षा से बाहर धकेला जा रहा है। इन सबके खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबाने की कोशिश की जा रही है। लिंगदोह कमेटी के जरिए छात्र राजनीति को नख-दंत विहीन बनाने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में इस पूंजीवादी छात्र राजनीति के खिलाफ क्रांतिकारी छात्र संघर्षों का विकल्प ही छात्रों को इस भंवर से निकाल सकता है। 
    कार्यक्रम में नए छात्रों ने उत्साहपूर्वक भागीदारी की तथा कई छात्रों ने अपनी आवाज व मांग को कार्यक्रम में उठाया भी। 
    दिल्ली विश्व विद्यालय में इन चुनावों में महज 43 फीसदी छात्रों ने मतदान किया और सभी प्रमुख चार सीटों पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रत्याशी जीत गये। 
          दिल्ली संवाददाता

धार्मिक जनसंख्या के आंकड़ों से धार्मिक ध्रुवीकरण की कवायद
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    2011 की जनगणना के आधार पर धार्मिक जनगणना के आंकड़े 25 अगस्त को जारी कर दिये गये। इन धार्मिक जनसंख्या के आंकड़ों को इस समय जारी करना निश्चित तौर पर उनकी फासीवादी प्रवृत्ति को ही प्रदर्शित करता है जिसका प्रतिनिधित्व मोदी सरकार करती है और जो भारतीय समाज को एक खतरनाक फासीवादी राज्य ‘हिन्दू राष्ट्र’ की ओर धकेलने का प्रयास कर रही है। जाहिर है मोदी सरकार को इन साम्प्रदायिक फासीवादी कार्यवाहियों को एकाधिकारी पूंजीपतियों की ओर से काफी छूट मिली हुई है और कारपोरेट मीडिया का बड़ा हिस्सा उसके इस फासीवादी अभियान का सबसे बड़ा प्रचारक प्रसारक है। 
    जैसा अपेक्षित था आंकड़ों की गहराई में जाये बगैर उसका गंभीरता से अध्ययन किये बगैर कारपोरेट मीडिया के एक बड़े हिस्से ने अपने अखबारों के पहले पन्ने पर रिपोर्ट लगाई- ‘घट रहे हैं हिन्दू, बढ़ रहे हैं मुसलमान’। ‘दि हिन्दू’ जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी, अंग्रेजी या अन्य प्रिंट, इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने एक खतरे की पूर्वसूचना की भांति धार्मिक जनसंख्या के आंकड़ों के बारे में बेहद साम्प्रदायिक व तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत मिथ्या प्रचार को हवा दी। 
    धार्मिक जनसंख्या गणना का वास्तविक सच क्या है? इसे दो धार्मिक सम्प्रदायों के बीच शत्रुता पूर्ण प्रतिद्वन्द्विता के रूप में प्रदर्शित करना कहां तक उचित है और ऐसा करने के पीछे क्या निहित उद्देश्य है? इन सब बातों पर गौर करने से पहले आइए थोड़ा वास्तविक हकीकत को समझने का प्रयास करें।
    2011 के धार्मिक जनगणना के आंकड़ों में बताया गया है कि भारत की कुल जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 121.09 करोड़ थी। इस जनगणना के अनुसार भारत में 96 करोड़ 63 लाख हिन्दू हैं जो कि कुल जनसंख्या का 79.8 प्रतिशत हैं। भारत में मुसलमानों की संख्या 17 करोड़ 22 लाख है जो कि कुल जनसंख्या का 14.23 प्रतिशत है। इसके अलावा अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों में ईसाईयों की संख्या 2.78 करोड़ (2.3 प्रतिशत), सिक्ख 2.08 करोड़(1.77 प्रतिशत), बौद्ध 0.84 करोड़(0.7 प्रतिशत),जैन 0.45 करोड़(0.4 प्रतिशत) अन्य धर्म व मत (ओ.आर.पी.) 0.79 करोड़(0.7 प्रतिशत) हैं। 
    2001 से 2011 के दौरान हिंदू जनसंख्या 16.76 प्रतिशत की दर से बढ़ी जबकि मुसलमानों की जनसंख्या 24.6 प्रतिशत की दर से बढ़ी। दोनों धार्मिक समुदायों की आबादी की वृद्धि दर में गिरावट आयी है। मुसलमानों के मामले में यह गिरावट ज्यादा तीखी है। 1990 से 2001 के बीच हिंदुओं की वृृद्धि दर 19.92 प्रतिशत रही  जबकि इसी दौरान मुसलमानों की वृद्धि दर 29.52 प्रतिशत थी। साफ जाहिर है कि जहां हिन्दुओं की जनसंख्या वृद्धि दर में 3.16 प्रतिशत की गिरावट आयी वहीं मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर में यह गिरावट 4.9 प्रतिशत रही। 2001 से 2011 के बीच मुसलमानों की संख्या में यह गिरावट एक रिकार्ड है। इस दौर में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर अब तक के जनगणना आंकड़ों के हिसाब से सबसे न्यूनतम है। इन्हीं धार्मिक जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से यह आंकड़ा भी उभर कर सामने आया है कि 2050 तक मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि मौजूदा रुझान(ज्तमदक) के हिसाब से स्थिर हो जायेगी यानी जनसंख्या वृद्धि दर शून्य हो जायेगी। दूसरे अर्थों में मरने व पैदा होने वालों की संख्या बराबर हो जायेगी। 
    जनसंख्या आंकड़ों से यह बात भी उजागर हुई कि शिक्षा के प्रचार-प्रसार और बेहतर जीवन की अपेक्षाओं के चलते जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट देखने को मिली है। केरल जहां शिक्षा का स्तर बेहतर रहा है। वहां मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर में अन्य राज्यों की तुलना में जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आयी है। ज्यादातर दक्षिण के राज्यों में, जहां शिक्षा व पूंजीवादी विकास का स्तर उत्तर भारत के राज्यों की अपेक्षा बेहतर है, में जनसंख्या वृद्धि दर में उत्तर भारत की तुलना में कमी आयी है। 
    इसी तरह केरल में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर (हिन्दुओं से अधिक होने के बावजूद) उत्तर भारत के कई राज्यों की जनसंख्या वृद्धि दर से कम है। 
    जनगणना 2001 से 2011 के आंकड़ों से यह बात भी सामने आयी है कि मुसलमानों में कन्या शिशु अनुपात हिंदुओं के मुकाबले बेहतर है। मुसलमानों में लिंग अनुपात प्रति 1000 पुरुषों पर 951 महिलायें हैं। यह अनुपात 2001 में 936 था। 
    इसी तरह हिंदुओं में 2001 से 2011 की जनगणना के मुताबिक 1000 पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 939 रही है जोकि 2001 में 931 थी। 
    इस तरह आंकड़ों से साफ जाहिर है कि महिलाओं के अनुपात में 2001 से 2011 के बीच हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों में ज्यादा सुधार आया है। महिला पुरुष लिंग अनुपात का यह आंकड़ा इस धारणा या मिथक को तोड़ता है कि मुसलमानों में हिंदुओं की तुलना में महिलाओं के प्रति ज्यादा क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया जाता है क्योंकि महिला पुरुष लिंगानुपात के आंकड़ों का सम्बन्ध या महिला-पुरुष में संख्या का अंतर सीधे कन्या भ्रूण हत्या से जुड़ता है। आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कन्या भ्रूण हत्या के मामले में हिंदू मुसलमानों से बहुत आगे हैं। 
    इसके साथ ही जनसंख्याविदों का यह भी मानना रहा है कि हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों में तेज जनसंख्या वृद्धि दर का कारण अधिक उर्वरता(फर्टिलिटी) के साथ-साथ हिन्दुओं की तुलना में कम मृत्यु दर या अधिक जीवन प्रत्याशा रही है जिसको अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। 
    कुल मिलाकर 2001 से 2011 के जनगणना आंकड़ों ने मुसलमानों की तेज वृद्धि दर के मिथक को ध्वस्त कर दिया है लेकिन झूठ को सच बनाने व आंकड़ों की बाजीगरी में माहिर हिन्दू फासीवादियों ने इन जनगणना आंकड़ों को भी मुसलमानों के प्रति घृणा अभियान के हिस्से के बतौर मनमाने तरीके से प्रचारित करना शुरू कर दिया। 
    इसके साथ ही यह भी एक लक्ष्य है कि मौजूदा समय में जनगणना आंकड़ों को प्रकाशित करने के पीछे बिहार विधान सभा चुनाव में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा कर चुनावी लाभ हासिल करना है। बिहार में 2001 से 2011 के बीच हिन्दू आबादी की वृद्धि दर 24.6 प्रतिशत रही जबकि मुसलमानों की वृद्धि दर 27.95 रही। 2001 में जहां हिन्दू आबादी बिहार में 83.3 प्रतिशत थी वहीं 2011 में यह 82.7 प्रतिशत है। भाजपा व संघ मंडली इसी आंकड़े को बढ़ा चढ़ाकर बताकर ‘हिन्दुत्व पर खतरा’ के नाम से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा कर बिहार में चुनावी वैतरिणी पार करना चाहती है। 
    जाहिर है कि हिन्दू फासीवादियों के फासीवादी अभियान में कारपोरेट मीडिया उसका जोड़ीदार बना हुआ है। मोदी राज में मीडिया को मिले हजारों-करोड़ के विज्ञापन ही आज कारपोरेट मीडिया की पक्षधरता तय कर रहे हैं। 
    2001 से 2011 के जनगणना के आंकड़ों का वास्तविक सच उद्घाटित कर हिन्दू फासीवादियों के अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के प्रति मिथ्या प्रचार व घृणा अभियान को ध्वस्त करना आज एक महत्वपूर्ण कार्यभार है। 
गुलामी को न्यौता देने वाली स्मार्ट सिटी परियोजना 
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    (राजग सरकार द्वारा बहुुप्रचारित स्मार्ट सिटी परियोजना पर ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के अगस्त अंक में छपे एक विशेष लेख के चुनिंदा अंश यहां साभार प्रस्तुत कर रहे हैं- सम्पादक)
        दिल्ली का तालकटोरा इंडोर स्टेडियम खचाखच भरा हुआ था। मंच पर जिस नाम की घोषणा हो रही थी वह शख्स चलता हुआ वहां पहुंचता है। मंच संचालक ने उसका स्वागत करते हुये कहा ‘‘इन्होंने कड़ी मेहनत, लगन और निष्ठा से काम करके इतने सदस्यों को इस नेटवर्क से जोड़ा है कि इन्हें ‘डायमण्ड’ के खिताब से नवाजा जा रहा है।’’ इसी बीच एक महिला मेहमान को मंच पर आमंत्रित किया जाता है जो उस शख्स की टाई में एक टाई-पिन लगा देती है और इसके बाद हाॅल तालियों से गूंज उठता है। वह शख्स वापस अपने स्थान की ओर चल देता है और मंच संचालक दूसरे लोगों का नाम पुकारने लगता है। लोग एक-एक करके मंच पर आते हैं और किसी को डायमंड, गोल्ड व किसी को सिल्वर के खिताब प्रदान किये जाते हैं। शायद इस बात को दस साल बीत चुके होंगे जब भारत का मध्यम वर्ग अमेरिका की कंपनी ‘एम-वे’ के जाल में फंसकर उसका दीवाना हो रहा था। स्कूल का मास्टर, दफ्तर का बाबू, अधिकारी, डाक्टर, वकील सभी लोग, सदस्यों की चेन बनाने में लग गये थे। वह लोगों की बाकायदा क्लास लगा कर अपने ही जैसे अन्य लोगों को समझा रहे थे कि वह केवल तीन सदस्य बनायें और इन सदस्यों की सदस्यता राशि का एक हिस्सा उनके खाते में चला जायेगा और वह तीन जब अपने तीन सदस्य बनायेंगे तो उनकी भी सदस्यता राशि का एक हिस्सा आपके खाते में चला जायेगा और इस तरह बिना ज्यादा मेहनत किये हर महीने आपके खाते में रकम जमा होती जायेगी और थोड़े दिनों बाद आपकी आमदनी इतनी हो जायेगी कि आप उसे खर्च नही कर पायेंगे। इस कंपनी ने आदमी के लालच को अपने प्रचार का हिस्सा बनाकर उसे बिना ज्यादा मेहनत के थोड़े से पैसे खर्च करके अमीर बनने का सपना दिखाया था। लेकिन वह सपना कुछ ही दिनों में टूट गया। लोग अपनी-अपनी रकम गंवा कर खामोश बैठ गये। हां, वह कंपनी इससे माला-माल हो गयी।
लोगों को झूठे सपने दिखाने का काम छोटे-मोटे ठग तो करते ही रहते हैं लेकिन यही काम विश्व बैंक और आई.एम.एफ. दुनिया के अल्पविकसित व विकासशील देशों के साथ करते हैं। विभिन्न देशों की ठगी के इस काम में अमेरिका नेतृत्वकारी भूमिका निभाता है। देशों को अपने जाल में फांसने के तरीकों का आविष्कार करने वाले विशेषज्ञों की एक पूरी टीम उसके लिये काम करती है। मुंशी प्रेमचंद की कहानी दो बीघा जमीन का महाजन जिस तरह किसान को कर्ज के जाल में फांसकर उसकी सारी जमीन अपने नाम करा लेता है और बेगार अलग से लेता है बिल्कुल यही तरीका यह अमेरिका इन तथाकथित विकास एजेंसियों के माध्यम से अपनाता है। 
अपने गठन के बाद से विश्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की जोड़ी, अनेकों देशों को अपने कर्ज के जाल में फांसकर बर्बाद कर चुकी हैं। ग्रीक संकट आपके सामने है जिसमें 16 जून को वहां के प्रधानमंत्री एलेक्सिस साइप्रस ने संसद में दिये अपने भाषण में कहा कि ‘‘ग्रीक के इस संकट के लिये आईएमएफ अपराधी है। यह कर्जदाता एजेसियां, ग्रीक को अपमानित करना चाहती हैं।’’ अमेरिका के अधीन वाशिंगटन में स्थित यह कर्जदाता एजेंसियां किस तरह किसी देश को अपने कर्जजाल में फांस कर उसे बर्बाद करती हैं इसे जानने के लिये आपको एडवर्ड स्नोडेन की तरह के ही एक अन्य अमेरिकी जाॅन पार्किन्स की आत्मस्वीकृति उनकी पुस्तक, ‘कन्फेशन आॅफ ऐन इकोनाॅमिक हिटमैन’ में पढ़नी होगी। यह किताब मोदी सरकार की जमीन अधिग्रहण बिल को पास कराने की बेचैनी और इसका स्मार्ट-सिटी प्रोजेक्ट से क्या संबंध है इसको समझने में आपकी मदद करेगी। जाॅन पार्किन्स लिखते हैं, ‘‘इकोनाॅमिक हिटमैन, आर्थिक मामलों के वह विशेषज्ञ होते हैं जो विकासशील व अल्पविकसित देशों द्वारा लिये जाने वाले कर्ज को न्यायिक ठहराते हैं। वे विकास के ऐसे सपने दिखाने वाली परियोजनायें पेश करते हैं जिनके लिये बड़े कर्जे की जरूरत पड़ती है। उनका काम होता है कि गैरजरूरी कर्जों को दिला कर उस देश को दीवालिया करना। इससे कर्ज पाने वाला देश, कर्जदाता एजेंसियों का स्थायी रूप से गुलाम हो जाता है। इसके बाद अमेरिका को जब संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी प्रस्ताव को पास कराने की जरूरत होती है, उस देश में अपना सैनिक अड्डा बनाना होता है या तेल तथा इसी तरह के उस देश के प्राकृतिक स्रोतों पर कब्जे की जरूरत होती है तो वह कर्जदार देशों को इसके लिये मजबूर करता है। इकोनाॅमिक हिटमैन, तथाकथित विकास की ऐसी परियोजनाएं पेश करते हैं जिनको करने की विशेषज्ञता अमेरिकी कंपनियों के पास होती है और उन्हें ही इस काम का ठेका मिलता है। कर्जदाता एजेंसियां, कर्ज की राशि का भुगतान अपने देश में ही अपनी कंपनियों को कर देती हैं और इस तरह दिये गये कर्ज का पैसा उनके अपने पास ही रह जाता है।’’ 
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दिनांक 20 से 22 मई 2015 तक दिल्ली के प्रगति मैदान में स्मार्ट सिटी के संबंध में लगने वाली प्रदर्शनी व कांफ्रेस में 100 स्मार्ट सिटी बनाने में अगले बीस साल में एक लाख बीस हजार करोड़ अमेरिकी डालर खर्च होने का अनुमान लगाया गया है यानी हम 75 लाख 60 हजार करोड़ रुपये जो हमारी सालाना कुल आमदनी (जी.डी.पी.) का लगभग 55 प्रतिशत होता है, उधार लेकर खर्च करने जा रहे हैं। इस परियोजना के लिये हमंे तैयार करने में ‘अमेरिकी हिटमैन’ की बड़ी भूमिका नजर आती है और यह परियोजना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दिमाग की उपज नहीं है बल्कि यह मनमोहन सिंह के कार्यकाल ही में शुरू हो चुकी थी। दिनांक 5 फरवरी 2014 को शहरी विकास मंत्रालय भारत सरकार के परियोजना निदेशक आनंद मोहन द्वारा ‘स्मार्ट सिटी’ परियोजना के लिये ‘कंसल्टेंट सर्विस’ हेतु दिये गये विज्ञापन में साफ-साफ लिखा है कि विश्व बैंक ने कंसल्टेंट हेतु जो गाइड लाइन निर्धरित की है उसके अनुसार ही कंसल्टेंसी फर्मं आवेदन करें। 17 फरवरी 2015 को ‘नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ अर्बन अफेयर’ जो स्मार्ट सिटी परियोजना के लिये जिम्मेदार बनाया गया है उसने कंसल्टेंसी फर्म के लिये अखबारों में टेंडर निकाला लेकिन 9 मार्च 2015 को टेंडर के बंद होने की तारीख से 48 घंटे पहले ही उस टेंडर को मोदी सरकार को निरस्त करना पड़ा क्योंकि उस टेंडर को अमेरिकी कंसल्टेंसी फर्म ‘मैकिन्से ऐण्ड कंपनी’ के अधिकारी अमित गुप्ता ने ड्राफ्ट किया था। इसका मतलब है कि कंसल्टेंसी फर्म को पहले से ही चुन लिया गया था; टेंडर केवल औपचारिकता पूरी करने के लिये प्रकाशित किया गया था क्योंकि आवेदन करने वाली फर्म का अधिकारी ही उसे लिख रहा था। 
विश्व बैंक तो काफी पहले से इसकी तैयारी कर रहा था। स्मार्ट सिटी की अवधारणा का जन्म अमेरिका में 2008 में आयी महामंदी में हुआ। अमेरिकी बैंक और वहां की बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जब अपने वजूद को बचाने के लिये हाथ-पैर मार रही थीं तब अमेरिकी कंपनी इंटरनेशनल बिजनेस मशीन्स(आई.बी.एम.) ने स्मार्ट सिटी का विचार पेश किया। अल्पविकसित व विकासशील देशों को अपने यहां स्मार्ट सिटी बनाने के लिये ‘आर्थिक प्रहारकों’ के जरिये तैयार करना इस योजना का मकसद था ताकि मंदी से जूझ रही अपने देश की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न केवल रोजगार मिल सके बल्कि अपने देश के आर्थिक संकट को इन देशों में स्थानांतरित भी किया जा सके। यहां ध्यान देने की बात यह है कि पहले अंग्रेज भारत को ‘सभ्य’ बनाने आये थे अब अमेरिका के नेतृत्व में बहुराष्ट्रीय निगम हमें ‘स्मार्ट’ बनाने आ रहे हैं। पहले वह मानते थे कि हम सभ्य नहीं हैं और अब ये मान रहे हैं कि हम स्मार्ट नहीं हैं।
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पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों ने इस क्षेत्र पर कब्जा करके यहां के संसाधनों को लूटकर अपना विकास व इन देशों की अर्थव्यवस्था का विनाश किया और उनके स्वाभाविक विकास को रोक दिया। इन देशों के लोगों के जीवन स्तर में अंतर के मूल कारण को प्रोफेसर मिर्डल ने छिपा कर इसका दोष गुलामी तथा लूट का शिकार हुये लोगों पर ही रख दिया है। आज भी वह अपनी लूट की योजना को छिपा कर यह बता रहे हैं कि वह भारत के लोगों को आर्थिक रूप से गु़लाम बनाने नहीं बल्कि उनकी जीवन पद्धति को ‘स्मार्ट’ बनाने आ रहे है। विडंबना यह है कि राष्ट्रवाद का ढिंढोरा पीटने वाला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उदारीकरण के दौर में पैदा मध्यम वर्ग, अमेरिकी साम्राज्यवाद की इस साजिश को समझने में न केवल नाकाम है बल्कि उसमें उनकी मदद भी कर रहा है।
आखिर स्मार्ट सिटी क्या है? इसे जानने के लिये हमे ‘आई.बी.एम.’ द्वारा दी गयी परिभाषा को जानना होगा। स्मार्ट सिटी, ‘यांत्रिक, परस्पर संबंधित व बुद्धिमान सिटी’ को कहते हैं। स्मार्ट सिटी, अपने संसाध्नों में ज्यादा से ज्यादा सूचना व संचार तकनीक का बुद्धिमत्तापूर्ण व कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करती है जिससे लागत व ऊर्जा की बचत होती है। अमेरिका की मार्केट रिसर्च व सलाहदाता कंपनी ‘फ्राॅस्ट ऐंड सल्लीवान’ ने स्मार्ट सिटी की आठ विशेषतायें बतायी हैं। 1. स्मार्ट एनर्जी जिसका मतलब ऊर्जा के समस्त स्रोतों का डिजिटलाईजेशन किया जाना है। इसके लिये स्मार्ट ग्रिड व स्मार्ट मीटर लगाये जायेंगे व ऊर्जा का बुद्धिमत्तापूर्ण इस्तेमाल किया जायेगा। सड़कों, गलियों की बिजली तभी जलेगी जब उस पर आवागमन होगा। नहीं होने की स्थिति में बिजली अपने आप बंद हो जायेगी। 2. स्मार्ट इमारतें होंगी जिनमें चढ़ने-उतरने की स्वचालित व्यवस्था होगी। हर इमारत के चप्पे-चप्पे पर क्लोज सर्किट कैमरे लगे होंगे। 3. स्मार्ट आवागमन होगा। इसके तहत एडवांस ट्रेफि़क एवं पार्किंग मैनेजमेंट सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है। ग्लोबल इंटेलिजेंस ट्रांस्पोर्टेशन सिस्टम जो सेन्सर, सर्विलेंस कैमरे व कंप्यूटर द्वारा चलाये जाने वाली तकनीक है। उसका माल ढुलाई में प्रयोग किया जाता है। 4. स्मार्ट टैक्नालाॅजी के तहत स्मार्ट सिटी में 4-जी कनेक्टिविटी होगी, सुपर ब्राडबैंड होगा, मुफ्त वाई-फाई के साथ ही एक जी.बी.प्रति सेकेंड की इंटरनेट स्पीड होगी। 5. स्मार्ट इंफ्रास्ट्रक्चर में पूरे शहर में सेंसर नेटवर्क, पानी आपूर्ति व ठोस कचरे का डिजिटल प्रबंधन शामिल है। 6. स्मार्ट शिक्षा एवं स्मार्ट गवर्नेन्स में ई शिक्षा व ई गवर्नेंस आता है। इसी में आपदा प्रबंधन शामिल है। 7. स्मार्ट हैल्थकेयर में आधुनिक स्वास्थ्य सेवा उपकरणों और देखभाल की अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जाना है। 8. स्मार्ट सुरक्षा में आधुनिक निगरानी तकनीक, बायोमेट्रिक रिकाॅर्ड का इस्तेमाल आदि शामिल है। इस सारी आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करने के लिये स्मार्ट सिटी में स्मार्ट नागरिक का होना आवश्यक शर्त हैे इसलिये यह चुस्त शहर केवल ऐसे नागरिकों को अपने यहां बसाना पसंद करेगा जो उसकी तरह ही स्मार्ट हों।
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स्मार्ट सिटी परियोजना, मृत्यु की ओर बढ़ रही इन कंपनियों के लिये जीवन-वायु के समान है इसलिये उन्होंने इसे व्यवहार में उतारने के लिये पूरी ताकत झोंक दी है। वे इसे युद्धस्तर पर लागू कराना चाहती हैं। नये उत्पाद को जिस आक्रामक विज्ञापन शैली के माध्यम से बाजार में उतारा जाता है वे इसके लिये वही तरीका अपना रही हैं। पूरी दुनिया में इस परियोजना को लागू कराने के लिये अमेरिका में विद्युत उपकरण बनाने वाली कम्पनी ‘एस एण्ड सी एलेक्ट्रिक‘ ने ‘स्मार्ट ग्रिड न्यूज डाॅट काॅम’ के मुख्य विश्लेषक जेस्सी बस्र्ट की अध्यक्षता में 2013 में ‘स्मार्ट सिटी काउंसिल’ का गठन किया है जिसका लक्ष्य पूरी दुनिया में 5000 स्मार्ट सिटी बनाने का तय किया गया है। इसके संचालन मंडल में अमेरिका की अनेक ऊर्जा-जल तथा मालवाहक कंपनियां शामिल हैं। यह काउंसिल अब तक स्मार्ट सिटी को लेकर अनेक सम्मेलन कर चुकी है तथा दिनांक 15 से 17 सितंबर 2015 तक ‘स्मार्ट सिटी सप्ताह’ का विशाल आयोजन वाशिंगटन डी.सी. में कर रही है। इसने 2013 में पहली ‘स्मार्ट सिटी तैयारी गाइड’ जारी की। भारत में भी इसकी शाखा ‘स्मार्ट सिटी काउंसिल इंडिया’ के नाम से खोल दी गयी है और यहां स्मार्ट सिटी परियोजना इसी के दिशा-निर्देशन में चलेगी। भारत में इसका अध्यक्ष उद्यमी प्रताप पडोडे को बनाया गया है। पडोडे ‘प्रीमाइसिंग सिटीज रिपोर्ट’ को तैयार करने वाले हैं जिसमें बताया गया है कि भारत में निर्मित होने वाले 20 स्मार्ट सिटीज कैसे विकास के केंद्र बनने वाले हैं। यह रिपोर्ट 17-18 फरवरी 2015 को दिल्ली के हेबीटेट सेंटर में आयोजित द्वितीय स्मार्ट सिटीज सम्मेलन में पेश की गयी। इसके पहले सत्र में ही, ‘भारत में स्मार्ट सिटीज विकसित करने में अमेरिकी कंपनियों के लिये अवसर’ नामक विषय पर चर्चा की गयी। भारत में स्मार्ट सिटी को लेकर पहला सम्मेलन 22-23 अगस्त 2014 को मुंबई में संपन्न हुआ। स्मार्ट सिटी काउंसिल इंडिया 6 व 8 अक्तूबर 2015 को दिल्ली तथा मुंबई में स्मार्ट सिटीज इनवेस्टमेंट सम्मेलन करने जा रही है। 25 जून 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 100 स्मार्ट सिटीज मिशन, 500 शहरों का कायाकल्प करने के लिये ‘अटल कायाकल्प मिशन’ (अमरुत) व ‘हाउसिंग फाॅर आॅल’ के तहत शहरी क्षेत्र में सन 2020 तक दो करोड़ मकान बनाने की योजना का विधिवत उदघाटन दिल्ली के विज्ञान भवन में किया। इस वर्ष स्मार्ट सिटी बनाने के लिये 20 शहरों को चुना जायेगा। अगले दो वर्षों में 40 और शहर चुने जायेंगे। शहरों का चुनाव ‘सिटी चैलेंज प्रतियोगिता’ करा कर किया जायेगा। हालांकि 76 शहर जहां स्मार्ट सिटी बनाये जायेंगे उनकी सूची पहले ही जारी की जा चुकी है लेकिन विरोध को समाप्त करने के लिए लोगों को इसमें शामिल किया जायेगा। लोग इसके अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले घातक प्रभाव पर चर्चा न करें, किस तरह हम विदेशी कर्ज के जाल में फंस जायेंगे इस पर सोचने के स्थान पर लोग भेड़ चाल का शिकार हो जायेंगे। इसलिये इस तरह का माहौल मीडिया के द्वारा बनाया जायेगा कि लोग इसकी मांग स्वयं करने लगेंगे। स्मार्ट सिटी के पक्ष में लिखे गये लेखों की अखबारों पत्रिकाओं में बाढ़ सी आ जायेगी, चैनलों पर पैनल डिस्कशन इस तरह कराये जायेंगे कि स्मार्ट सिटी के आलोचकों को विकास विरोधी और खलनायक सिद्ध किया जा सके। इसी तरह का माहौल 2011 में शुरू किये गये भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में बनाया गया था। तब आक्रामक प्रचार शैली ने लोगों के दिमाग में यह बैठा दिया था कि उनकी सब समस्याओं की जड़ लोकपाल नहीं बन पाना है। अगर यह बन गया तो उनकी सारी समस्याओं का समाधन हो जायेगा लेकिन जिस मकसद के लिये यह आंदोलन शुरू करवाया गया था जब वह हासिल कर लिया गया (मोदी सरकार का गठन) तो जनलोकपाल का प्रचार समाप्त हो गया। आंदोलन पूरी तरह प्रायोजित था इसका प्रमाण आज आपके सामने है। भ्रष्टाचार के इतने मामले सामने आने पर भी आज अन्ना व स्वामी रामदेव खामोश हैं। आज सारा का सारा काम विदेशी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है तब स्वामी रामदेव का भारत स्वाभिमान आंदोलन राष्ट्रीय मंच से गायब है।
सिटी चैलेंज प्रतियोगिता का प्रबंधन भी अमेरिका की तथाकथित लोकोपकारी संस्था ब्लूमबर्ग को सौंपा गया है। यह संस्था, अमेरिका के दूसरे सबसे अमीर आदमी, मीडिया मुगल व न्यूयार्क के पूर्व मेयर माईकल ब्लूमबर्ग ने स्थापित की है। ब्लूमबर्ग प्रकट रूप में मार्ग दुर्घटनाओं को रोकने के लिये यातायात के नियम व कानून बदलवा कर उसे सख्ती से लागू कराने के लिये जाने जाते है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि स्मार्ट सिटी को चुनने से लेकर बनाने व उसके लिये कर्ज देने का सभी काम अमेरिकी कंपनियां करेंगी। भारत सरकार के पास कोई अपनी व्यवस्था नहीं है जो वह मामूली सा मामूली काम भी खुद कर सके। स्मार्ट सिटी चुनने की प्रतियोगिता के पहले चरण में चुने जाने वाले शहर की नगरपालिका या निगम को यह ब्यौरा देना पड़ेगा। 1. उसके पास ई गवर्नेन्स यानी इंटरनेट के माध्यम से शिकायत निवारण तंत्र है या नहीं। 2. ई. न्यूज लेटर का प्रकाशन करती है या नहीं  3. समस्त सरकारी खर्च जनता के लिये आॅन लाइन उपलब्ध है या नहीं  4. स्वच्छ भारत के तहत 2011 की जनगणना के बाद इसने क्षेत्र में कम से कम 5 प्रतिशत शौचालयों का निर्माण किया है 5. कर्मचारियों के वेतन भुगतान का पिछला रिकार्ड कैसा है 6. शहरी सुधार तथा नागरिक हिस्सेदारी का पिछला रिकार्ड कैसा है?
इस विवरण के आधार पर स्मार्ट सिटी का चुनाव होने के बाद दूसरे चरण में उन 20 शहरों को चुना जायेगा जिन्हें स्मार्ट सिटी बनाने के लिए फंड दिया जायेगा। फंड देने से पहले उस शहर में एक ‘स्पेशल पर्पज व्हिकल’ या विशेष उद्देश्य वाहन यानी एक ऐसी संस्था बनायी जायेगी जो कंपनी एक्ट के तहत रजिस्टर्ड होगी। इसका प्रकट में काम स्मार्ट सिटी परियोजना के लिये कोष का इंतजाम करना तथा उस शहर की पूरी परियोजना की देखरेख करना होगा लेकिन छिपा हुआ एजेंडा दूसरा ही होगा। इसका मुखिया केंद्र सरकार द्वारा नामित सी.ई.ओ. होगा। इस ‘स्पेशल पर्पज व्हिकल’ में राज्य अथवा केंद्र शासित प्रदेश, शहरी स्थानीय निकाय व निजी क्षेत्र की अनुपातिक हिस्सेदारी होगी। नगर निगम को कर्ज देने के लिये एक और संस्था ‘फाइनडेटर’ नाम से बनायी जायेगी जो विभिन्न स्रोतों से धन हासिल करेगी तथा उस धन को स्थानीय व्यापारिक बैंक को उपलब्ध करायेगी और बैंक उसे नगर निगम को बतौर कर्ज देगा।  
16 मई 2014 में नरेन्द्र मोदी ने प्रधनमंत्री पद की शपथ लेने के एक माह के अंदर ही जो पहली घोषणा की वह भारत में 100 स्मार्ट सिटी बनाने की थी। यह वह दौर था जब देश के किसानों को बारिश से भारी नुकसान हुआ था और वे बड़ी तादाद में आत्महत्या का रास्ता चुन रहे थे लेकिन हमारे प्रधनमंत्री उनकी मदद करने के स्थान पर देश के सामने एक बेहद खर्चीली व बेजरूरत परियोजना पेश कर रहे थे। ऐसा लगता है कि यह परियोजना पहले से बनकर तैयार रखी हुई थी बस इसे लागू करने के लिये सत्ता पाने का इंतजार था। प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी अमेरिका यात्रा पर 30 सितंबर 2014 को जो संयुक्त बयान जारी किया उसमें अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने मोदी की इस बात के लिये प्रशंसा की कि उन्हांेने उन्हें अजमेर, इलाहाबाद व विशाखापटनम में स्मार्ट सिटी बनाने का काम सौंपा है। इसके बाद तो स्मार्ट सिटी बनाने के लिये ‘मेमोरेंडम आॅफ अंडरस्टेन्डिंग’ पर हस्ताक्षर करने वाले देशों की लाइन लग गयी है। आगरा और बनारस जापान की मदद से स्मार्ट सिटी बनेंगे तो हैदराबाद को दुबई स्मार्ट सिटी बनाना चाहता है। सिंगापुर आंध्र की राजधानी और दिल्ली को स्मार्ट सिटी बनाना चाहता है। इजराईल, स्मार्ट सिटी बनाने में महाराष्ट्र की मदद करना चाहता है। फ्रांस, नागपुर को स्मार्ट सिटी में बदलना चाहता है। कतर का सुल्तान स्मार्ट सिटी परियोजना में एक लाख करोड़ रुपये निवेश करने की इच्छा जता चुका है। कनाडा, चीन और रूस भी कमाई के इस मौके को खोना नहीं चाहते हैं। कुल मिलाकर देश पूरी तरह विश्व के कर्जदाता महाजनों से घिर चुका है। इस तरह की गैरजरूरी परियोजनाओं का नतीजा क्या निकलकर सामने आता है वह हम अमेरिकी धोखेबाज बिजली कंपनी एनराॅन के रूप में देख चुके हैं। 13 दिन की सरकार में अटल जी द्वारा इस अमेरिकी कंपनी को फिर से मंज़ूरी दिये जाने की हड़बड़ी ने देश को अरबों रुपये का नुकसान पहुंचाया है। अभी पिछले वर्ष नरेन्द्र मोदी ने जो मुंबई अहमदाबाद बुलेट टेªन की परियोजना को हरी झंडी दिखाई थी उसकी लागत तब 60 हजार करोड़ रुपये आंकी गयी थी जो अब वह बढ़कर 1 लाख करोड़ हो गयी है। कुल 534 किलोमीटर की यात्रा को पांच घंटे कम करने के लिये देश के इतने धन को बर्बाद कर दिया गया है। वैसे भी संचार क्रांति के इस दौर में व्यापार वार्ताओं के लिये जब वीडियो कान्फ्रेसिंग की सुविधा मौजूद है तब व्यापार बढ़ाने के लिये मुंबई से अहमदाबाद रोजाना चक्कर लगाने की बात अक्ल में बैठती नहीं है। विदेशी कर्ज पर आधारित इस खर्चीली परियोजना से व्यापार में कोई अभूतपूर्व वृद्धि होने नहीं जा रही है।
यह परियोजना 2017 में शुरू होकर 2024 में पूरी होगी और तब इसका एक आदमी का एक तरफ का किराया 2800 रुपये बैठने का अनुमान लगाया गया है। कितने लोग इस ट्रेन से इतने मंहगे किराये में सफर करेंगे इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। निश्चय ही प्रीमियर ट्रेनों के घाटे में आने की तरह ही यह बुलेट ट्रेन भी भारत पर आर्थिक बोझ बनने वाली है। जब यह घाटे में जायेगी तो इसे औने-पौने दामों में निजी क्षेत्र को बेच दिया जायेगा। इसी तरह स्वचालित सीढि़यों, लिफ्टों, चप्पे-चप्पे पर लगे सी.सी.टी.वी कैमरों, सैन्सरों और डिजिटल तकनीक से लैस ये मंहगे स्मार्ट शहर, चीन की तरह की ‘घोस्ट सिटी’ या ‘स्मार्ट वीरान शहरों’ में बदलने वाले हैं। स्मार्ट सिटी जैसी परियोजना को चुन कर चीन ने अपना भारी नुकसान किया है हालांकि इन्हें बनाने में चीन की अपनी कंपनियों की भूमिका है। साथ ही उसे इसके लिये बाहर से कर्ज लेने की जरूरत भी नहीं पड़ी है। वहां 6 करोड़ 40 लाख अपार्टमेंट महंगे होने के कारण आज वीरान पड़े हैं। यही हाल अंगोला का है जहां चीन ने स्मार्ट सिटी का निर्माण किया है लेकिन वह भी वीरान पड़ी है। आमतौर पर स्मार्ट सिटी की संपत्ति की कीमतें बाजार भाव से 50 से 70 प्रतिशत ज्यादा होती हैं। इसके अलावा वहां रख-रखाव यानी मेन्टीनेंस पर भारी खर्च आता है जिसे चुकाना हर एक के बस की बात नहीं है। जिस तरह न्यूनतम सरकार के विचार को व्यवहार में उतारकर सड़कें निजी क्षेत्र को दे दी गयी हैं जो टोल प्लाजा के माध्यम से अपनी जमींदारी चला रहे हैं उसी तरह इन ‘चुस्त शहरों’ का स्वामित्व भी निजी क्षेत्र के पास जाने वाला है। वे ही यहां रहने वालों की पात्रता तय करेंगे। 2011 की जातीय जनगणना ने यह बता ही दिया है कि भारत के 75 प्रतिशत परिवार पांच हजार रुपये मासिक की आमदनी से कम पर पहुंच गये हैं और वे तो ऐसी ‘स्मार्ट सिटी’ में दाखिल होने का साहस कर ही नहीं सकते हैं। वैसे भी उन्हें इन स्मार्ट सिटीज से बाहर करने का रास्ता निकाल ही लिया गया है। 29 जनवरी 2015 को मुंबई में वल्र्ड ट्रेड सेंटर, आॅल इंडिया एसोसिएशन आॅपफ इंडस्ट्रीज व इंडो-फ्रेंच चैंबर आॅफ काॅमर्स एंड इंडस्ट्रीज ने मिल कर एक सामूहिक बहस आयोजित की थी जिसका विषय था ‘रियलिटी इन द मेकिंग’। उसमें मुक्त बाजार समर्थक अर्थशास्त्री लवीश भंडारी ने अपने बड़बोलेपन अथवा अतिउत्साह में वह सच्चाई उजागर कर दी जिसे नरेन्द्र मोदी ने छिपा रखा था।
वहां पढ़े गये अपने पेपर में लवीश भंडारी ने कहा कि ‘‘किसी स्थान से लोगों को अलग रखने के दो तरीके होते हैं, एक तो उस स्थान की ऊंची कीमतें दूसरा नीतियां। उपलब्ध सुविधाओं तथा मांग व आपूर्ति के हिसाब से इन स्मार्ट सिटीज की कीमतें अपने आप ज्यादा होंगी। यह कहना पूरी तरह झूठ होगा कि इनकी कीमतें कम रखी जायेंगी। हालांकि उच्च कीमतों की वजह से हमारा वर्तमान कानून हमें इस बात की इजाजत नहीं देता कि हम दसियों लाख गरीब जनता को इस महान ढांचे का आनंद लेने से वंचित कर सकें। तब ऐसी स्थिति में हमें पुलिस की जरूरत होगी जो बलपूर्वक गरीब जनता को इन स्थानों से बाहर कर सके। जो इन स्मार्ट सिटीज की व्यवस्था करेंगे। उन्हें इसके लिये समर्थ बनाने के लिये हमें नये कानूनों की एक पूरी श्रृंखला की जरूरत होगी।’’
लातिन अमेरिकी देश होण्डुरास में बनायी गयी इस तरह की स्माॅर्ट सिटीज़ को ‘चार्टर्ड सिटी’ नाम दिया गया जिसका संचालन उन काॅरपोरेट के हाथ में है जिन्होंने होण्डुरास के किसानों से बलपूर्वक जमीन अधिग्रहण की थी। वहां भी स्थानीय निवासियों तथा किसानों को इन शहरों से बाहर रखने के लिये हिंसा का सहारा लिया जा रहा है। खास बात यह है कि ये शहर उस देश के कानूनों से बाहर एक अलग देश बन गये हैं क्योंकि ‘स्पेशल इकोनाॅमिक जोन’ की तरह ही वहां भी उस देश के कानून लागू नहीं होते। 
गुजरात में भी 2011 से 886 एकड़ में अहमदाबाद के निकट ‘गुजरात इंटरनेशनल फाइनेंस टैक सिटी (गिफ्रट)’ तथा धौलेरा में शंघाई से भी छह गुना बड़ा 903 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रा में फैला ‘स्पेशल इन्वेस्टमेंट जोन’ सिंचित कृषि भूमि में बनाया जा रहा है। जिन किसानों की जमीनें बलपूर्वक अध्ग्रिहण करके यह स्मार्ट सिटी निर्मित की जा रही हैं वे आज भी इसका विरोध कर रहे हैं। यह अलग बात है कि काॅरपोरेट मीडिया उस विरोध को देश की जनता से छुपाये हुये है। 
ब्रिटेन की सलाहदाता फर्म ‘अरुप’ ने अनुमान लगाया है कि सन 2020 तक स्मार्ट सिटी टैक्नोलाॅजी व सेवाओं का विश्व बाजार 408 बिलियन डालर पहुंच जायेगा। इसके अलावा इस परियोजना का जो सबसे खतरनाक पहलू है उस पर तो बिल्कुल चर्चा नही होने दी जायेगी। क्योंकि स्मार्ट सिटी ‘डिजीटल सिटी’ होगी जिसके लिये लगातार इलेक्ट्राॅनिक उपकरणों, कल-पुर्जों की जरूरत होगी जिनकी आपूर्ति के लिए हम केवल विदेशी कंपनियों पर निर्भर होंगे। जब यह कंपनियां इन उपकरणों की आपूर्ति रोक देंगी तब हमारे ये स्मार्ट शहर एकदम ठप्प पड़कर सफेद हाथी में बदल जायेंगे। जिस तरह अमेरिका ने इंदिरा गांधी द्वारा 1974 में परमाणु परीक्षण किये जाने के बाद अपने द्वारा लगाये गये परमाणु संयंत्र के लिये यूरेनियम की आपूर्ति रोक दी थी। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार जो अब तक पेट्रोलियम पदार्थ, रासायनिक खाद, हथियारों तथा अन्य जरूरत की वस्तुओं पर खर्च होता है अब उसका बड़ा भाग स्मार्ट सिटीज के उपकरणों पर खर्च होने लगेगा। ‘यू.एस. इण्डिया बिजनेस कौंसिल’ ने सितंबर 2014 में जारी ‘फाइनेंशियल स्ट्रेटजी फाॅर स्मार्ट सिटीज’ नामक अपने रिसर्च पेपर में बताया है कि स्मार्ट सिटीज एक नयी तरह की ‘इंटरनेट आॅफ थिंग्स (आई.ओ.टी)’ नामक इंडस्ट्रीज पर निर्भर होगी जिसके अंतर्गत अरबों की तादाद में ‘एम्बेडेड सेन्सर’ की जरूरत होगी। रिसर्च पेपर में बताया गया है कि सन 2020 तक 50 अरब करोड़ सेन्सर की जरूरत होगी जिसका अनुमानित व्यापार 14 लाख करोड़ अमेरिकी डालर पहुंच जायेगा। इन उपकरणों पर अमेरिकी तथा अन्य विदेशी कंपनियों की इजारेदारी होने के कारण वह इनकी मनमानी कीमत वसूलेंगी और इस तरह हम स्थायी रुप से उनके गुलाम बन जायेंगे। इस अकूत मुनाफे को बनाये रखने के लिये वह ‘इंटेलेक्चुएल प्रोपर्टी राइट’ कानून को सख्ती से लागू करायेंगे।  
इस बेपनाह आमदनी से उत्साहित होकर ही विश्व पूंजीवाद ने अपने प्रचार के समस्त संसाधनों को ‘स्मार्ट सिटी’ नामक इस नये उत्पाद को बेचने में झोंक दिया है। लेकिन बाजार में उतारे गये इस उत्पाद ने जनपक्षधर लोगों, पार्टियों व संस्थाओं को चिंतित कर दिया है। इसके साथ अनेक अनुत्तरित सवाल खड़े हो गये हैं। लोग कह रहे हैं कि मुक्त बाजार की आर्थिक नीतियों ने पूंजी को बहुत थोड़े से हाथों में केंद्रित कर दिया है इसलिये ये थोड़े से लोग अपने आप को आम जनता से सुरक्षित रखने के लिये इस तरह के बख्तरबंद शहरों का निर्माण करा रहे हैं। यह चर्चा होने लगी है कि इन स्मार्ट सिटीज के माध्यम से विश्व को नियंत्रित करने वाली काली ताकतें ‘मास सर्विलेन्स’ कर रही हैं। इस तरह के शहर ‘इलेक्ट्राॅनिक पुलिस स्टेट’ अथवा ‘निगरानी राज्य’ में बदल गये हैं। प्राइवेसी इंटरनेशनल ने 2007 में सर्वे कराया जिसमें पाया कि दुनिया के 47 देशों में जन निगरानी बढ़ी है तथा लोगों की निजता के सुरक्षा उपायों का क्षरण हुआ है। उसी वर्ष अमेरिकन सिविल लिबर्टी ने बयान दिया कि हम ‘निगरानी समाज’ के खतरों से घिर गये हैं और हमारा भविष्य अंधकार में डूब गया है क्योंकि हमारी हर गति, प्रत्येक लेन-देन, हर एक वार्तालाप रिकाॅर्ड व सुरक्षित किया जा रहा है ताकि भविष्य में शासक उसे हमारे खिलाफ इस्तेमाल कर सकें।
भारत में स्मार्ट सिटीज का जो लाखों-लाख करोड़ रुपये का कारोबार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नजर आ रहा है उसके लिये उसे बड़े पैमाने पर जमीन चाहिये। जमीन अधिग्रहण कानून को बदले जाने की मोदी सरकार की बेचैनी के पीछे की इस हकीकत को हमें समझना होगा। देश भर में किसानों के विरोध के कारण सरकार फिलहाल कमजोर पड़ती नजर आ रही है लेकिन हमें इससे किसी खुशफहमी का शिकार होने से बचना होगा क्योंकि सरकार फिर इसके लिए नये तरीके अपनाकर लगातार अपनी कोशिशें जारी रखेगी। उसके पीछे जो निगमशाही का दबाव है उसे भी हमें समझना होगा। भेडि़ये के शिकार पर झपटने से पहले जो उसकी आंखों में चमक आ जाती है बिल्कुल वैसी ही चमक आज जब स्मार्ट सिटी की चर्चा होती है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों की आंखों में दिखाई पड़ती है। अब देखना यह है कि जनता आपस में लड़ कर उस चमक को बढ़ायेगी या अपने संघर्षों के द्वारा उस चमक को मंद करेगी।

शहीद ऊधम सिंह - ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक समझौताहीन योद्धा
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था का उद्देश्य भारतीय जनसमुदाय का शोषण और यहां के संसाधनों की लूट था। अपने राजनीतिक प्रभुत्व को जारी रखने के लिए वह पुलिस, सशस्त्र बलों, जेलों और न्यायालयों के साथ-साथ औपनिवेशिक शासन सत्ता के पक्ष में विचारों के प्रचार-प्रसार पर निर्भर करती थी। साम्राज्यवादी सत्ता की मदद के लिए विकसित यह मशीनरी उसके प्रभुत्व को स्थापित और सुदृढ़ करती थी। एक समय बाद इस उत्पीड़न में उत्पीड़नकारी व शोषणकारी औपनिवेशिक प्रशासन के उत्पीड़न से पीडि़त लोगों के बीच प्रतिरोध को जन्म दिया। इसने दबे-कुचले समाज को बदलने में भूमिका निभाई और भारतीय जनसमुदाय के बीच विदेशी तानाशाही द्वारा गुलामी और शोषण के प्रति चेतना का संचार किया। ऊधम सिंह इसी चेतना की उपज थे। 
    ब्रिटिश हुकूमत के साथ-साथ भारतीय पूंजीपति वर्ग भी भारत के उत्पादन संसाधनों पर कब्जा करने पर आमादा थे। इसके लिए वे यहां की आबादी को कुचलते थे, साम्प्रदायिक दंगों को बढ़ावा देते थे और ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध किसी भी प्रतिरोध आंदोलन में हिस्सेदारी करने का साहस करने वालों का दमन करते थे। साम्राज्यवादी प्रथम विश्व युद्ध और रूस में अक्टूबर क्रांति की विजय ने विश्व राजनैतिक परिदृश्य को एकदम बदल दिया तथा कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रचार-प्रसार को गति प्रदान की। इसने बीसवीं शताब्दी के बीस और तीस के दशक के राष्ट्रीय क्रांतिकारियों पर अमिट छाप छोड़ी।
    बीसवीं शताब्दी के आगमन के बाद हमारे देश के कृषि क्षेत्र में गम्भीर संकट आये। मुख्यतया कृषि पर आधारित प्रदेश होने के चलते पंजाब का समूचा आर्थिक ढ़ांचा इसी के इर्द-गिर्द था। गरीबी के हालात में पंजाब में उन्नीस सौ सात (1907) का किसान उभार पैदा हुआ, हालांकि इस उभार को निर्ममता के साथ कुचल दिया गया था। तब भी इसने ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध घृणा और विद्रोह की परम्परा को जन्म दिया। इस घृणा व विद्रोह का स्वाभाविक परिणाम ‘गदर पार्टी’ थी। 
    ब्रिटिश सत्ताधारी, ‘गदर पार्टी’ के उद्भव के परिणामों से अच्छी तरह परिचित थे क्योंकि इसका घनिष्ठ सम्बध सेना के एक हिस्से के साथ था। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद ब्रिटिश भारतीय सेना का पंजाबीकरण कर दिया गया था। ऐसी परिस्थिति में किसी भी लोकप्रिय आंदोलन का यदि भारतीय सेना पर प्रभाव पड़ता तो भारत में ब्रिटिश शासन के भाग्य पर खतरा मंडरा जाता। और इसका परिणाम यह होता कि ब्रिटिश शोषकों को यहां के कच्चे मालों के विशाल भण्डार को खोना पड़ता और ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादों की बिक्री के लिए बड़ा बाजार हाथ से निकल जाता, इसके साथ ही ब्रिटिश साम्राज्यी सेना के लिए ‘तोप के चारे’ के तौर पर इस्तेमाल होने वाले लाखों-लाख पंजाबियों की भर्ती रुक जाती, चूंकि राष्ट्रीय क्रांतिकारियों ने सेना के भीतर अपने सम्पर्क कायम कर लिये थे और वे उनके भीतर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ चेतना पैदा कर रहे थे। इसलिए ब्रिटिश हुकूमत सेना और उसमें भर्ती होने वाले क्षेत्र दोनों में शांति कायम रखने के उद्देश्य से काम करती थी। यही कारण है कि ब्रिटिश हुकूमत ने पंजाब के अंदर किसी भी विद्रोह के प्रयास को निर्ममता से कुचला। उस समय पंजाब की परिस्थिति का मुख्य लक्षण शोषण व उत्पीड़न के विरुद्ध लोगों का प्रतिरोध होता जा रहा था। कृषि में संकट और इसके परिणामस्वरूप पैदा होने वाली भूखमरी व गरीबी ने पंजाब में बड़े पैमाने पर लोगों को मौत के मुंह में धकेल दिया था और बचे हुए लोगों को सेना में भर्ती होने के लिए विवश कर दिया था जो विदेशों में जाकर मरने के लिए अभिशप्त थे। इसने सेना के भीतर असंतोष को बढ़ाया और प्रतिरोध को जन्म दिया। इस प्रतिरोध को आजीवन कारावास, यातना और फांसी सहित कठोर दण्ड के साथ निपटा गया। ऊधम सिंह इस सबके बारेे में सचेत थे।
    मई 1921 में तीसरे इण्टरनेशनल के सुझाव पर यूरोपीय देशों में रहने वाले भारत के सभी राष्ट्रीय क्रांतिकारियों की एक संयुक्त बैठक बुलायी गयी जिसमें सेनफ्रांसिसको की गदर पार्टी को भी बुलाया गया था। गदर पार्टी के मजदूर अमेरिका के जुझारू मजदूर संगठनों के प्रभाव में थे। इस मीटिंग के नतीजे के तौर पर पंजाब में ‘कीर्ति पार्टी’ का गठन हुआ। यह पार्टी समाजवादी विचारधारा से लैस और गदर पार्टी का एक हिस्सा थी। गदर पार्टी के संघर्ष का दूसरा चरण कीर्ति पार्टी के रूप में सामने आया। पंजाब में समाजवादी विचारों का प्रचार-प्रसार शुरू हो गया। कीर्ति पार्टी ने गदरी लोगों के पहले बैच को प्रशिक्षण के लिए मास्को भेजा और अपना अखबार ‘कीर्ति’ नाम से निकालना शुरू कर दिया। गदर पार्टी के समर्थन से होने वाला ये विकास ब्रिटिश हुकूमत की आंखों की किरकिरी बन गया क्योंकि किसानों और मजदूरों के बीच इसका प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा था। 
    इसी समय क्रांतिकारी राजनीति के परिदृश्य पर भगत सिंह का उदय हुआ। वे एक ऐसे राष्ट्रीय क्रांतिकारी थे जिनके अंदर न केवल विदेशी शासन के विरुद्ध भारत को आजाद देखने की आग जल रही थी, बल्कि वे एक मानव द्वारा दूसरे मानव के शोषण से मुक्ति की चाहत से भरे हुए थे। वे राष्ट्रीय क्रांतिकारियों में तकरीबन पहले थे जो समाजवाद के स्पष्ट परिभाषित विचारों से परिचित थे। भगत सिंह 1915 के गदर पार्टी के विद्रोह के नायक करतार सिंह सराभा के निडर बलिदान से गहरे रूप से प्रभावित थे। भगत सिंह का भी प्रभाव ऊधम सिंह पर पड़ा था। 
    ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को सुनाम के पीलवाद मौहल्ले में हुआ था। उनके पूर्वज लगभग पांच सौ वर्षों से वहां रह रहे थे। अपने बचपन में ही उन्होंने अपने माता-पिता को खो दिया था और वे अमृतसर के एक अनाथालय में जाने के लिए मजबूर हुए। उन्होंने कुछ प्राथमिक शिक्षा और कुछ पेशागत प्रशिक्षण प्राप्त किये। इसी दौरान उनका एक मात्र भाई भी नहीं रहा। दुख के बाद दुख मिलने से उनका व्यक्तित्व गम्भीर हो गया और वे कठोर श्रम करने वाले मददगार व आत्मनिर्भर बन गये। अपने शुरूआती दिनों में वे अपनी सांस्कृतिक विरासत से गहरे से प्रभावित थे जिसका सिक्ख धर्म और इतिहास सम्बन्धित ज्ञान अनाथालय से मिला था। इसमें उन्हें किसी भी परिस्थिति का सामना करने में निर्भीक बना दिया था। यह विश्वास किया जाता रहा है कि उन्होंने मैट्रिक पढ़ाई की थी। लेकिन हाल के प्रमाण बताते हैं कि उनके पास कोई औपचारिक योग्यता नहीं थी। उन्होंने इलैक्ट्रेशियन के बतौर काम सीखा और कुछ समय अमेरिका में बढ़ईगिरी के साथ-साथ इंजीनियर के बतौर काम किया। वे उर्दू, गुरूमुखी और अंग्रेजी लिख सकते थे और धारा प्रवाह अंग्रेजी में बात कर सकते थे। 
    ऊधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह था। ऐसा कहा जाता है कि धार्मिक कर्मकाण्ड के बाद उनको ऊदे सिंह या ऊधम सिंह नाम दिया गया। 1927 में उनकी गिरफ्तारी के समय वे शेर सिंह, ऊदे सिंह, फ्रेंक ब्राजील और शायद मौहम्मद सिंह आजाद से जाने जाते थे। कुछ लोगों का विश्वास है कि उन्हें ‘‘राम मोहम्मद सिंह आजाद’’ के नाम से जाना जाता था। 1933 में उन्होंने अपने पासपोर्ट में ऊधम सिंह के नाम का इस्तेमाल किया था। अफ्रीका में वे साध नाम से जाने जाते थे। लंदन में उन्होंने हमेशा अपना नाम ऊधमसिंह इस्तेमाल किया लेकिन आम तौर पर बाबा के नाम से जाना जाता था। उन्होंने अपने और जो नाम इस्तेमाल किये उनमें उधन सिंह, शिवदु सिंह, युयश सिधु और हिजनाईनेस, राजकुमार युयुश सिधु शामिल थे। उन्होंने अपने हाथ में मौहम्मद सिंह आजाद के नाम का टैटू गुदवा रखा था। 
    यह तय कर पाना बहुत मुश्किल है कि उन्होंने अनाथालय कब छोड़ा। लेकिन एक बात यह तय है कि उन्होंने 1918 में मुबासा या मैसोपोटेमिया में बढ़ई या मोटर मैकेनिक के बतौर काम किया। इसके बाद उन्होंने युगांडा रेलवे कार्यशालाओं में काम किया। 1922 में वे भारत लौटे और अमृतसर में एक दुकान खोली। ये दुकान क्रांतिकारियों के मिलने-जुलने का अड्डा बन गयी। अफ्रीका जाने से पहले वे डा. शैफुद्दीन किचलू, सरदार अजीत सिंह, सरदार बसंत सिंह और गदर पार्टी के बाबा भाग सिंह और मास्टर मोटा सिंह से मिल चुके थे। वे गदर पार्टी के करतार सिंह सराभा और जलियांवाला बाग काण्ड से परिचित थे। 
    1924 की शुरूआत में वे अमेरिका गये और वहां गदर पार्टी के सक्रिय सदस्य हो गये। यह भी लगता है कि गदर पार्टी की मदद से भगत सिंह के साथ सम्पर्क स्थापित कर लिया था। अमेरिका से वे फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, स्विटजरलैण्ड, पोलेण्ड, लिथुआनिया, हंगरी और इटली गये थे। ईरान, अफगानिस्तान, इटली, जर्मनी, पनामा, मैक्सिको, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, हांगकांग, मलाया, वर्मा और सिंगापुर के गदर पार्टी सदस्यों या सहानुभूति रखने वालों से सम्पर्क रखते थे। 
    भगत सिंह उनकी गतिविधियों से प्रभावित थे। वे गदर पार्टी के समर्थन से भगत सिंह और उनके साथियों की मदद करने के लिए काफी मात्रा में क्रांतिकारी साहित्य व हथियार लेकर जुलाई 1927 में भारत आये और भगत सिंह को हथियार और साहित्य सौंपा तथा इसके साथ ही गदर पार्टी के सदस्यों के बीच भी हथियार बांटे। इसी प्रक्रिया में वे अगस्त 1927 में अमृतसर में गिरफ्तार कर लिये गये। अपनी गिरफ्तारी के समय उन्होंने पुलिस के सामने निर्भीकता से घोषणा की थी कि वे भारत से ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के मकसद से अमेरिका से हथियार और गोला बारूद लेकर आये हैं। 
    अपनी गिरफ्तारी के पांच साल बाद वे 23 अक्टूबर 1931 को रिहा हुए। तब तक भगत सिंह को फांसी हो चुकी थी। 20 मार्च 1933 को उन्होंने लाहौर से ऊधम सिंह के नाम से पासपोर्ट हासिल किया। इसके पहले वे शेर सिंह नाम का इस्तेमाल कर चुके थे। 1933 के अंत तक वे इंग्लैण्ड पहुंचे और इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशों के कम्युनिस्ट ग्रुपों के साथ-साथ विभिन्न क्रांतिकारी ग्र्रुपों, आयरलैण्ड के देशभक्तों और गदर पार्टी के सदस्यों के साथ मीटिंगें करते हुए अपनी गतिविधियां कर रहे थे। 1937 में ब्रिटिश खुफिया विभाग को ये जानकारी मिली कि ऊधम सिंह और शेर सिंह एक ही व्यक्ति है जो भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य में लगा ‘एक आतंकवादी’ है। तब से उनकी गतिविधियों की पुलिस निगरानी होने लगी। 
    ये भी विश्वास किया जाता है कि वे जब पंजाब से बाहर गये तो उन्होंने अपना रास्ता कश्मीर से होते हुए अफगानिस्तान को चुना और बाद में इटली पहुंचे जहां वे सरदार अजीत सिंह के साथ ठहरे थे। इसके बाद वे आस्ट्रिया, स्विटजरलैण्ड, फ्रांस होते हुए इंग्लैण्ड पहुंचे थे। लंदन में वे क्रांतिकारियों के स्थानीय शाखाओं की मदद करने में व्यस्त हो गये। इसके साथ ही इंग्लैण्ड में उन्होंने तरह-तरह के अपनी जीविका के लिए काम किये। 1934-38 तक वे यूरोप के विभिन्न देशों का दौरा कर रहे थे। सोवियत रूस सहित वे विभिन्न देशों से होते हुए दिसम्बर 1938 में इंग्लैण्ड वापस आये। हालांकि वे निरन्तर ब्रिटिश पुलिस व खुफिया विभाग की निगरानी में थे। तब भी इनकी रिपोर्ट में लिखा गया था कि ऊधम सिंह बहुत गोपनीय व्यक्ति है जो लगातार अपना नाम और पता बदलता रहता है और कि इस व्यक्ति का पीछा करना बहुत मुश्किल है। वे आम तौर पर यूरोपीय लोगों के बीच ठहरते थे और कभी भी एक स्थान पर ज्यादा समय के लिए नहीं ठहरते थे। लंदन में भारतीय क्रांतिकारी ग्रुपों की मीटिंगों में वे कभी हिस्सा नहीं लेते थे। 
    1940 की शुरूआत में वे सैनफ्रांसिसकों की गदर पार्टी के सम्पर्क में थे। ब्रिटिश खुफिया विभाग को अक्टूबर 1939 से लेकर 5 मार्च 1940 तक की उनके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जुलाई-अगस्त 1939 तक द्वितीय विश्व युद्ध का खतरा उत्पन्न हो गया था। इससे ऊधम सिंह की समझदारी को यह और बल मिला कि हिंसात्मक तरीकों से हमला करने का अवसर आ गया है और इस तरह स्वतंत्रता संघर्ष को आगे बढ़ाने का समय आ चुका है। 
    वस्तुतः द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा भारतीयों और सोवियत संघ के विरुद्ध की जा रही साजिशों से ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध ऊधम सिंह की भावनाएं और भड़क उठीं। भारत को जबरदस्ती युद्ध में धकेले जाने से वे विशेष तौर पर लार्ड जेटलैण्ड के विरुद्ध घृणा से भर उठे। ओडायर उनकी सूची में पहले से ही थे। ओडायर ने गदर पार्टी के देशभक्तों को मौत के घाट उतारा था। उसने प्रथम विश्व युद्ध में सेना में भर्ती के दौरान पंजाबियों को यातनाएं दी थीं। जलियांवाला बाग का नरसंहार रचा था। अप्रैल 1919 में मार्शल लाॅ के दौरान अत्याचार किये थे। और वह भारत विरोधी प्रचार लगातार और बेरोक-टोक जारी किये हुए थे। लुईसडेन और लार्ड लैमिंगटन ओडायर के इस सिद्धान्त के समर्थक थे कि भारत को लौह हाथों से ही गुलामी की अवस्था में रखा जाना चाहिए। लार्ड लैमिंगटन वह व्यक्ति था जो शहीद भगत सिंह की फांसी के लिए जिम्मेदार था। ऊधमसिंह इन सबके विरुद्ध नफरत से भरे हुए थे और यही नफरत उन्हें कैक्सटन हाॅल तक ले गयी। 
    13 मार्च को वह सुअवसर आया जिसका ऊधम सिंह को लम्बे समय से इंतजार था और वे कैक्सटन हाॅल पहुंच गये। वे निश्चित तौर पर ओडायर, जेटलैण्ड, लैमिंगटन और डेन की उपस्थिति के बारे में जानते थे। वे एक अज्ञात किस्म की महिला के साथ हाॅल में प्रवेश पा गये। उनकी जेब में रिवाल्वर था। हाॅल में वक्ता लोग साम्राज्यवाद के पक्ष में भाषण दे रहे थे। ओडायर का भाषण विशेष रूप से नस्लीय चरित्र लिये हुए था। वह पंजाब में अपने द्वारा किये गये अत्याचारों की शेखी बघार रहा था। जब शायद 4ः30 बजे मीटिंग खत्म हुई उस समय ऊधम सिंह ने ओडायर को मार दिया और लार्ड जैटलेण्ड, लार्ड लेमिंगटन और सर लुईस डेन को घायल कर दिया। ऊधम सिंह को वहीं पर गिरफ्तार कर लिया गया। उसी समय उन्होंने पुलिस के सामने यह कहा कि उन्होंने ओडायर को मारा है वह इसी लायक था और कि वह किसी समाज के लायक नहीं था। उन्होंने घोषणा की कि वह मौत से डरते नहीं हैं और कि वह अपने देश के लिए मर रहे हैं। यह कार्यवाही भारत में भारतीयों पर किये जा रहे अत्याचारों के विरुद्ध प्रतिरोध है। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्गत भारत में लोगों को मरते देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि अवसर मिला तो इस किस्म का विरोध वे बार-बार करेंगे। 
    इस घटना की खबर जंगल की आग की तरह फैल गयी। ऊधम सिंह के रिश्तेदारों के विरुद्ध भारत में दमन शुरू हो गया। ऊधम सिंह के सम्पर्कों की और उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि की भारत और इंग्लैण्ड में खोज शुरू हो गयी। पुलिस और खुफिया विभाग ने यह निष्कर्ष निकाला कि ऊधम सिंह गदर पार्टी की पृष्ठभूमि वाला एक राष्ट्रीय क्रांतिकारी थे। उन्होंने यह काम अकेले अंजाम दिया था इसमें न तो कोई बाहरी प्रभाव था और न ही यह किसी षड्यंत्र का हिस्सा थे। 
    14 मार्च से 7 जून 1940 के बीच ऊधम सिंह ने 12 पत्र लिखे थे। इन पत्रों में उन्होंने अपनी मौत को निश्चित बताया था और कुछ चीजें गुप्त तरीके से भेजने का इशारा किया था। जेल के भीतर उनको नियमित तौर पर नहाने की इजाजत नहीं थी। 26 अप्रैल को वह भूख हड़ताल पर गये। 14 मार्च को इनका वजन 172 पौण्ड था जो 7 जून तक घटकर 148 पौण्ड रह गया। 1 मई से 2 जून के बीच उन्हें 93 बार जबर्दस्ती खिलाया गया। 5 जून को जब उन्हें दूसरी जेल में भेजा गया तो उन्हें अत्यन्त कठिन कैदी घोषित किया गया। 
    4-5 जून 1940 को उनके मुकदमे के दौरान प्रेस पर पहले ही पाबंदी लगायी जा चुकी थी। ऊधम सिंह को इसकी जानकारी नहीं थी। वह कचहरी के मंच का इस्तेमाल भारत की आजादी के मकसद का प्रचार करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। उन्होंने ईश्वर की शपथ नहीं ली। उन्होंने न्यायालय को बताया कि वे 1937 से 1939 के बीच ओडायर से कई बार मिल चुके थे। यदि वह चाहते थे तो उसे और पहले भी मार सकते थे। उन्होंने कहा कि ओडायर की हत्या भारत में ब्रिटिश शासन और युद्ध में भारत को जबरदस्ती झोंके जाने के खिलाफ एक विरोध है। ऊधम सिंह न्यायालय में एक बयान देना चाहते थे लेकिन बयान देते समय जज ने उन्हें कई बार रोका। जब उनको फांसी की सजा सुनाई गयी तब ऊधम सिंह ने कई बार इंकलाब का नारा लगाया। उन्होंने ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’, ‘गंदे कुत्ते मुर्दाबाद’ और ‘भारत अमर रहे’ के नारे भी लगाये और जूरी की तरफ थूक दिया। 
    उनकी इस फांसी की सजा के विरुद्ध अपीलें की गयीं लेकिन 27 जुलाई की अंतिम अपील को भी ब्रिटिश अधिकारियों ने रद्द कर दिया। 31 जुलाई 1940 को सुबह 9 बजे ऊधम सिंह ने मौत को गले लगाया और देश की मुक्ति के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया। उनकी यह कार्यवाही न सिर्फ भारतीयों के लिए बल्कि गुलामी, शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध अपने संघर्ष को जारी रखने वाली समूची मानवता के लिए भी एक प्रतीक बन गयी। 
    ऊधम सिंह की शहादत आज भी गुलामी, अधीनता, अन्याय, आतंक, दमन तथा शोषण व उत्पीड़न की व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष के लिए एक प्रेरणा स्रोत है।  
कानूनी नुक्तों में छिपे हैं पितृसत्तात्मक मूल्य
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
अक्सर ही हमको बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलाते समय, कोई फार्म भरते समय पूछे जाने वाले सवाल एक स्वाभाविक प्रक्रिया लगते हैं उनके पीछे छुपे कानूनी नुक्ते हमारी पकड़ में नहीं आते। पहले ऐसे फार्मों पर व्यक्ति का नाम, उसके पिता का नाम पूछा जाता है। उसके स्कूल प्रमाण-पत्रों पर भी इन्हीं का नाम दर्ज होता था। कुछ सालों पहले इस पर आपत्ति उठाये जाने पर मां का नाम भी पूछा व दर्ज किया जाने लगा।
पिता का नाम पूछे जाने के पीछे समाज में प्रचलित पितृसत्तात्मक यह मूल्य छिपा होता है कि व्यक्ति की पहचान उसके पिता से होती है। उसकी जाति पिता की जाति से निर्धारित होती है। उसका पता पिता के पते से तय होता है। इस सबमें मां की पहचान से व्यक्ति का कुछ भी निर्धारित नहीं होता है। समाज में महिलाओं की बढ़ती भूमिका के साथ यह मांग उठी कि मां को भी व्यक्ति की पहचान में शामिल किया जाय। परिणामस्वरूप कागजों में मां का नाम भी दर्ज होने लगा पर अभी भी पिता का नाम मां के नाम से पर्याप्त भारी था।
हिन्दू अभिभावकत्व कानून के तहत किसी नाबालिग बच्चे का और उसकी सम्पत्ति का प्राकृतिक अभिभावक पहले पिता और फिर माता होती है। इस पितृसत्तात्मक कानून पर उस समय सवाल उठने शुरू हुए जब एक अविवाहित माता ने अपने 5 वर्ष के नाबालिग बच्चे को अपने निवेशों व सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनाना चाहा। इस प्रक्रिया में फार्म भरे जाने के वक्त उसे पता चला कि या तो उसे फार्म में पिता का नाम भरना पड़ेगा या फिर उस बच्चे के अभिभावकत्व का प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना पड़ेगा। दोनों ही प्रक्रियाओं में उसे पिता का नाम उजागर करना पड़ता। चूंकि वह महिला पिता का नाम उजागर नहीं करना चाहती थी इसलिए उसने अदालत की शरण ली। अदालत ने अभिभावक व बच्चा विधेयक 1890 के तहत उसे पिता का नाम जाहिर करने का निर्देश दिया। हाईकोर्ट ने भी निचली अदालत के आदेश को यह कहकर बनाये रखा कि यद्यपि शादी नहीं हुई है पर तब भी प्राकृतिक पिता को बच्चे में कोई रुचि हो सकती है। इसलिए उसे पिता का नाम जाहिर करना होगा। इस पर महिला जब सुप्रीम कोर्ट पहुँची तो सुप्रीम कोर्ट की बेंच जिसके प्रमुख न्यायमूर्ति विक्रमजीत सिंह सेन ने निर्णय दिया कि मामले में बच्चे का हित सर्वोपरि है और इसलिए मां को ही अभिभावक का दर्जा दिया जाना चाहिए। साथ ही महिला का यह बुनियादी अधिकार है कि वह अपनी निजता रखते हुए पिता की पहचान उजागर न करे। चूंकि मां ने बच्चे की जिम्मेदारी ली है और संभवतः पिता जो कहीं और शादी कर चुका हो, उसे अपने पुत्र की जानकारी तक न हो।
इस निर्णय से उन सभी माताओं को अपने बच्चों का अभिभावकत्व मिलने का रास्ता साफ हो गया जो बच्चे के पिता का नाम उजागर न करना चाहती हों। खासकर अविवाहित एकल माताएं, वेश्याएं इस प्रावधान से अपना अधिकार हासिल कर सकेंगी।
इसके साथ ही बच्चों की एक ऐसी संख्या भी सामने आ सकेगी जिसकी समूची पहचान मां के नाम से हो। यह अपने आप में पितृसत्ता को चोट देगा।
इसी तरह के एक अन्य मामले में 1999 में लेखिका गीथा हरिहरन ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी कि उसे अपने बच्चे के नाम अभिभावक होने के नाते निवेश से रोका जा रहा है। उससे जबरन पिता का नाम पूछा जा रहा है जबकि वह बच्चे के पिता से अलग हो चुकी है और बच्चे की देखभाल उसे सुपुर्द हुई है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि पिता और माता दोनों को बच्चे का बराबर अभिभावक माना जाना चाहिए न कि पहले पिता को और फिर माता को। इस तर्क पर लेखिका को बच्चे का नाम बिना पिता का नाम दर्ज कराये निवेश करने की छूट दी गयी।
परंतु समाज में प्रचलित पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताएं खत्म होनी इतनी भी आसान नहीं हैं। इसके लिए लम्बी लड़ाई लड़नी होगी। अभी भी एकल माताओं, अविवाहित माताओं, वेश्याओं, बच्चा गोद लेने वाली स्त्रियों को समाज में तिरस्कार झेलना पड़ेगा। हां, इस कानूनी निर्णय से इतना जरूर हो गया है कि कानूनन उनके हकों को मान्यता मिल गयी है।

भारतीय पूंजीवाद, जिसकी सत्ता पर पितृसत्ता से लैस पार्टी विराजमान हो, जिसकी अफसरशाही, पुलिस, न्यायपालिका पर्याप्त रूप से पितृसत्तात्मक मूल्यों से ग्रसित हो, जहां खाप पंचायतें खुलेआम कानून की धज्जियां उड़ाती हों और संरक्षण पाती हों, ऐसे समाज में नारी मुक्ति व पितृसत्ता के खात्मे की लड़ाई पूंजीवाद को ध्वस्त किये बगैर पूरी नहीं की जा सकती।
सेंट स्टीफंस में यौन उत्पीड़न घटना और सबक
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
यौन छेड़छाड़ एक ऐसी समस्या है जिससे भारत की प्रत्येक लड़की परिचित है। कम उम्र से ही प्रत्येक औरत को किसी न किसी जगह इस तरह के कटु अनुभवों का शिकार होना पड़ता है। यह रिपोर्ट भेदभाव भरी होगी यदि इसमें इस उम्र के पुरुषों को न जोड़ा जाए। बच्चे इस तरह के शिकार बनते हैं और तनाव की हालत में छोड़ दिये जाते हैं। कुछ तो अपने बोलने की क्षमता ही खो देते हैं। टाइम्स आफ इण्डिया द्वारा कराये गये एक सर्वे के अनुसार आईटी क्षेत्र में कार्यस्थलों पर 17 प्रतिशत महिलायें यौन छेड़छाड़ का शिकार होती हैं। नाम न बताने की शर्त पर 88 प्रतिशत महिलाओं ने यह स्वीकार किया कि वे इस तरह की घटनाओं का शिकार होती हैं। यह स्थिति की गम्भीरता को दिखाता है।
1992 में राजस्थान में भंवरी देवी, जो कि सरकार की पहल पर बाल विवाह को रुकवाने में स्वैच्छिक रूप से काम करती थी, के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ। इस संदर्भ में सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह व एनजीओ ने एक पीआईएल लगाई थी। इस केस की पहल करने वाले विशाखा नाम के एनजीओ ने कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए हिंसा मुक्त वातावरण की मांग की थी। 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा केस में निर्णय दिया और संस्थानों को यौन हिंसा सम्बन्धी शिकायतों के निपटारे के लिए उन निर्देशों का पालन करना था। 16 साल बाद भारत में एक कानून बना। कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन छेड़छाड़(रोकथाम, निषेध और क्षतिपूर्ति) अधिनियम 2013 एक ऐसा कानून है जो महिलाओं को कार्यस्थल पर होने वाली यौन छेड़छाड़ से सुरक्षा देता है। यह 3 सितम्बर 2012 को लोकसभा और 26 फरवरी 2013 को राज्यसभा से पास हुआ था। 23 अप्रैल 2013 को इसे राष्ट्रपति की सहमति मिली। 1997 से पहले महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को फौजदारी कानून (इण्डियन पैनल कोड से संचालित) के तहत रखा जाता था जिसमें साथ ही सिविल प्रक्रिया भी होती थी। नये कानून के लागू हो जाने के बाद यौन छेड़छाड़ की परिभाषा का दायरा तो बढ़ गया लेकिन जब इसके निर्देशों के पालन करने का वक्त आया तो कुछ ही निजी व सार्वजनिक संस्थानों ने इसका पालन किया। आज भी 90 प्रतिशत महिलाओं को इस प्रक्रिया में न्याय मिलने की उम्मीद नहीं होती। अधिकांश केस कालीनों के अंदर दबा दिये जाते हैं।
अभी हाल में सेंट स्टीफन्स की पीएचडी छात्रा के साथ उसके सुपरवाइजर के द्वारा यौन छेड़छाड़ का केस सामने आया जिसमंे छात्रों की इस शिकायतों और न्याय प्रणाली के विभिन्न छिद्रों को पुनः उजागर करने के लिए कालेज में एक पुलिंदे का काम किया। पीडि़ता कोमल(बदला हुआ नाम) ने 2012 में पीएचडी के लिए सेंट स्टीफन्स कालेज में अपना नामांकन करवाया था। शुरूवात से ही उसके परामर्शदाता सतीश कुमार ने उसको परेशान करना शुरू कर दिया और जब उसने उसका विरोध किया तो उसने उसको लेब के उपकरणों को प्रयोग करने से रोका और उसके शोध में उसको गलत जानकारी दी। कोमल ने काॅलेज के अधिकारियों से अपने सुपरवाइजर को बदलने की मांग की लेकिन उसे संतोषजनक जबाव नहीं मिला। जब चीजें असहनीय हो गयीं तो उसने रासायनिक विभाग के अध्यक्ष से अपने केस को लेकर शिकायत की। इस केस को आईसीसी (आंतरिक शिकायत कमेटी) में दर्ज करने के बजाय प्रिंसिपल वाल्सन थाम्पू ने अपने हाथों में ले लिया। वह पीडि़ता व परेशान करने वाले के बीच सुलह करवाना चाहते थे ताकि कालेज की बदनामी न हो। वास्तव में उन्होंने कोमल को अप्रत्यक्ष तरीके से चेतावनी दी कि यदि उसने अपने परामर्शदाता के खिलाफ कार्यवाही को आगे बढ़ाया तो उसे अपनी पीएचडी छोड़नी पड़ेगी। लेकिन यह कोमल को रोक नहीं सका और वह अपने निर्णय पर अडिग रही। जबकि सतीश कुमार ने उसका मासिक मानदेय जो कि 18000 रुपये था, को रुकवा दिया। आईसीसी जो कि पीडि़ता को न्याय दिलवाने वाली थी, अपराधी के साथ खड़ी थी और उसने कोमल का ध्यान निर्देशों की उस धारा पर आकर्षित करवाया कि अगर वह अपने लगाये गये आरोपों को सिद्ध न कर पायी तो उसे दण्ड दिया जायेगा। कालेज के अधिकारियों से कोई समर्थन न पाकर कोमल ने सतीश कुमार के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर दी जिसने मामले को प्रकाश में ला दिया।
ऊपर के केस में यह देखा जा सकता है कि सत्ता तंत्र कैसे संचालित होता है। पदों की सोपानीय व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि कर्मचारी अपने बाॅस के अधीन रहे, एक विद्यार्थी अपने अध्यापक के। कोमल के उदाहरण में उसका शैक्षणिक जीवन उसके सुपरवाइजर द्वारा नियंत्रित किया जा रहा था। प्रत्येक को दिल्ली यूनिवर्सिटी के विभिन्न कालेजों में यौन छेड़छाड़ से सम्बन्धित मामलों की जांच करने की जरूरत बनती है। 3 सितम्बर 2003 को यौन छेड़छाड़ के विरुद्ध XV[D] , अध्यादेश पास किया गया लेकिन लेकिन सेंट स्टीफन्स कालेज ने इस अध्यादेश के सकारात्मक पहलुओं को नजरअंदाज कर दिया और एक कमेटी बनायी जो चुनी नहीं जाती बल्कि खुद प्रिंसिपल द्वारा नियुक्त की जाती है। यह दिखाता है कि यह कमेटी पूरी तरह से प्रिंसिपल के नियंत्रण में है और खुदा न खास्ता प्रिंसिपल ही ऐसे केसों में दोषी ठहराया जाता है तो उसे पूरा अधिकार है कि वह इस कमेटी द्वारा पास किये गये निर्णयों को प्रभावित कर सके। कोमल के केस में विद्यार्थियों के समूहों ने विरोध प्रदर्शन किये और सतीश कुमार की गिरफ्तारी की मांग की और प्रिंसिपल वाल्सन थाम्पू से मामले को दबाने के लिए इस्तीफे की मांग की।

पूंजीवादी मीडिया महिलाओं को एक यौन वस्तु के रूप में पेश करता है और सामंती समाज के पितृसत्तात्मक रूप की हिफाजत करता है। हमें महिलाओं के इस तरह के निरूपण के खिलाफ आवाज उठानी होगी जो मुनाफा कमाने का साधन है और महिलाओं के खिलाफ बढ़ते यौन हिंसा के लिए भी जिम्मेवार है।
नारी आंदोलन के इतिहास के बारे में चंद बातें
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
नारी आंदोलन समाज की कार्यसूची में पूंजीवाद के साथ आया। शुरूआती दौर में समाज की पढ़ी और सम्पत्तिवान महिलाओं का उद्देश्य जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के बराबरी करने का था। तब से अब तक नारी आंदोलन लम्बा सफर तय कर चुका है।
प्रबोधन काल में शुरू करके शिक्षित वर्ग की महिलाओं ने शिक्षा, काम और अन्य अधिकारों में बराबरी की मांग की थी। उदाहरण के लिए मेरी वोलसन क्राफ्ट ने अपनी पुस्तक ‘महिलाओं के अधिकारों की सच्चाई’ 1792 में इंग्लैण्ड में प्रकाशित की थी। इसी प्रकार कहा ये जाता है कि हैरियट टेलर ने ‘औरतों की गुलामी’ नाम की पुस्तक लिखी थी जो उनके पति जाॅन स्टुअर्ट मिल के नाम से प्रकाशित हुई थी। ऐसे ही नारी मुक्ति पर हरवर्ट स्पेंसर के लेखों की असली लेखिका जार्ज इलियट थीं। इस काल में नारी मुक्ति की धारणाएं उस समय उभर रहे काल्पनिक समाजवादी आंदोलन के साथ अक्सर जुड़ी होती थीं।
दूसरे इंटरनेशनल में और यूरोप व अमेरिका में मजदूर वर्ग के बढ़ते संगठन के दौर में कई महिलाओं को नेतृत्वकारी भूूमिका निभाने की ओर ले गया। इनमें सबसे प्रसिद्ध क्लारा जेटकिन थीं। वे उस समय अपनी यूनियन की नेता बनी थीं जब जर्मन कानून के अंतर्गत कोई भी महिला यूनियन सदस्य नहीं बन सकती थी। इसके बाद दूसरे इंटरनेशनल ने अपने झंडे पर नारी की समानता को अंकित किया। यह आंदोलन जो माक्र्सवादी आंदोलन के भीतर शुरू हुआ था वह शताब्दी के दो दशकों में उस समय तक अपनी शीर्ष ऊंचाई तक पहुंचा था। इस बात को अगस्त बेवल ने अपनी पुस्तक ‘नारी और समाजवाद’ में विस्तार से चर्चा की है।
19 वीं शताब्दी के अंत तक विभिन्न देशों में काम कर रही अनेक महिलायें सामाजिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभा रही थीं। यह बात विशेष तौर पर नये बसे उपनिवेशों के लिए सही थी, जहां आबादी में लिंग असंतुलन बहुत अधिक था जिसमें महिलाओं को अपनी भूमिका बढ़ाने के केन्द्रीय संस्था के बतौर संसदीय जनतंत्र उभरा और सभी बालिग पुरुषों को मत देने का अधिकार मिल गया वैसे-वैसे महिलाओं का मताधिकार आंदोलन उभरकर आया। 19 वीं सदी के अंत तक न्यूजीलैण्ड और आस्ट्रेलियाई उपनिवेशों में महिलाओं को मताधिकार मिल चुका था। अमेरिका और यूरोप में इस अधिकार को हासिल करने के लिए लेकिन बड़े-बड़े प्रदर्शनों और पुलिस से टकराव का सामना करना पड़ा था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही आम तौर पर महिलाओं को मताधिकार कुछ देशों में मिला था। 1914 और 1939 के बीच 28 देशों में महिलाओं को मतदान का अधिकार मिला था। महिलाओं के मताधिकार की सबसे प्रसिद्ध प्रचारक सिलविया और अडेला पैंक हस्र्ट दोनों माक्र्सवादी थीं। रूस की क्रांति ने महिलाओें को मताधिकार दिया। लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि स्विटजरलैण्ड में महिलाओं को मतदान का अधिकार 1917 तक नहीं मिला था।
रूसी क्रांति ने महिलाओं के आंदोलन में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। रूस की फरवरी क्रांति अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के प्रदर्शन के साथ शुरू हुई थी। रूस में बोल्शेविकों की केंद्रीय कमेटी में कई महिला क्रांतिकारी थीं। रूसी क्रांति ने नारी आंदोलन को नारी मुक्ति आंदोलन की दिशा में एक बड़ी गति दी थी। इसने नारी मुक्ति के सवाल को समाज में पूंजीवादी शोषण से मुक्ति के साथ घनिष्ठता से जोड़ा और यहां से स्पष्ट तौर पर नारी मुक्ति आंदोलन मजदूर आंदोलन के साथ घनिष्ठ रिश्ते से जुड़ गया। यहां से दुनियाभर में पूंजीवादी, नारीवादी आंदोलन और नारी मुक्ति आंदोलन स्पष्टतः दो खेमों में बंट गया।
आज हमारे देश सहित समूची दुनिया में नारी आंदोलन बुनियादी तौर पर इन दो परस्पर विरोधी खेमों में बंटा हुआ है। हमारे देश में पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन भी कई खेमों में बंटा हुआ हैं लेकिन ये सभी खेमे पूंजीवादी शोषण से समाज की मुक्ति नहीं चाहते। यह इनकी बुनियादी एकता है। हालांकि सांप्रदायिकता पर, जाति पर और अन्य मुद्दों पर ये एक-दूसरे के खिलाफ खड़े नजर आते हैं। वहीं दूसरी तरफ नारी मुक्ति आंदोलन में लगे ऐसे लोग या संगठन हैं जो नारी मुक्ति के सवाल को मजदूर आंदोलन के साथ तथा मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के साथ नाभिनालबद्ध मानते हैं। ऐसे संगठन ही नारी मुक्ति को सही अंजाम तक पहुंचा सकते हैं। ऐसे संगठन सांप्रदायिकता, जातिवाद, राष्ट्रीयता, जनजातीय समस्या और साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये एन.जी.ओ. मार्का संगठनों के विरुद्ध दृढ़ सुसंगत नजरिया अपनाते हैं। ये रूसी क्रांति से प्राप्त अनुभवों को आगे बढ़ाना चाहते हैं।

संक्षेप में नारी आंदोलन के इतिहास में हमें यही मिलता है।
मोदी सरकार द्वारा मजदूरों पर भीषण हमला
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
यूं तो मोदी सरकार ने पिछले वर्ष सत्ता ग्रहण करते ही पांच केन्द्रीय श्रम कानूनों में प्रस्तावित संशोधनों के द्वारा अपने घोर पूंजीपरस्त व मजदूर विरोधी चरित्र का खुलासा कर दिया था लेकिन एक वर्ष बीतते-बीतते श्रम कानूनों के पूरे तंत्र को कांट-छांट कर विघटित करने व उन्हें पूरी तरह पूंजी के हित में ढालने की एक नयी योजना के साथ मोदी सरकार ने मजदूरों पर एक बहुत भीषण हमला बोल दिया है।
मोदी सरकार की नयी योजना के अनुसार 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को कांट-छांट कर एवं बेहद संकुचित कर 4 विस्तृत नियमावलियों (कोड) के तहत समेट दिया जायेगा जो क्रमशः औद्योगिक सम्बन्ध, वेतन, सामाजिक सुरक्षा एवं संरक्षा (सेफ्टी) एवं कल्याण के नाम से जानी जायेंगी। इसके अलावा लघु उद्योगों के लिए एक अलग कोड या नियमावली की बात की जा रही है।
औद्योगिक सम्बन्ध श्रम नियमावली विधेयक का मसौदा (ड्राफ्ट लेबर कोड आॅन इंडस्ट्रियल रिलेशन बिल, 2015) श्रम मंत्रालय द्वारा जारी किया गया है जिसे त्रिपक्षीय (सरकार, ‘श्रमिक पक्ष’ एवं उद्योगपति) वार्ता एवं मंत्रीमण्डल की मंजूरी के बाद मानसून सत्र में संसद में रखा जाना तय है। औद्योगिक सम्बन्धी नियमावली संसद में पास होने के बाद यह ‘औद्योगिक सम्बन्ध कानून’ के नाम से जाना जायेगा। गौरतलब है कि मंत्रालय ने इस मसौदे के लिए 26 मई तक सुझाव देने की तिथि निश्चित की थी। ‘श्रमिक पक्ष’ (केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधियों) एवं उद्योगपतियों के संगठनों के साथ श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने 6 मई को एक वार्ता कर औद्योगिक सम्बन्धों से सम्बन्धित नियमावली के मसौदे पर चर्चा की है।
प्रस्तुत औद्योगिक सम्बन्धों से सम्बन्धित नियमावली के मसौदे में ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 और औद्योगिक नियुक्ति अधिनियम अथवा स्टैंडिंग आर्डर्स एक्ट 1946 को समाहित करने की योजना है। जाहिर है कि उक्त नए औद्योगिक सम्बन्ध कानून के अस्तित्व में आने के बाद उपरोक्त तीनों कानूनों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा।
औद्योगिक सम्बन्धों से सम्बन्धित नियमावली के अतिरिक्त सरकार ने मार्च में वेतन सम्बन्धी नियमावली का मसौदा भी जारी कर दिया। इस मसौदे में न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948; वेतन भुगतान अधिनियम 1936, बोनस संदाय अधिनियम 1965 तथा समान वेतन अधिनियम 1976 को एक ही कानून या नियमावली में समाहित करने का प्रस्ताव है। सामाजिक सुरक्षा संरक्षा (सेफ्टी) एवं कल्याण (वेलफेयर) से सम्बन्धित नियमावलियों के मसौदे निकट भविष्य में जारी होने की उम्मीद है। गौरतलब है कि कर्मचारी भविष्य निधि, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम (ईएसआई एक्ट), मातृत्व लाभ अधिनियम, निर्माण मजदूरों से सम्बन्धित कानून एवं कर्मकार मुआवजा अधिनियम सहित लगभग 12 अधिनियमों को एक ही नियमावली- सामाजिक सुरक्षा के अंतर्गत लाने की बात की जा रही है। वेतन व सामाजिक सुरक्षा एवं संरक्षा के अलावा अन्य नियमावलियां इस वर्ष के अंत तक लागू किये जाने की बात की जा रही है।
बहरहाल औद्योगिक सम्बन्धों से सम्बन्धित नियमावली का मसौदा या इसके कुछ अंशों को मानसून सत्र में संसद में रखे जाने की पूरी योजना है।
‘औद्योगिक सम्बन्ध’ नाम से प्रस्तुत यह नियमावली अथवा लेबर कोड का मसौदा मजदूर वर्ग के लिए जहां बहुत घातक प्रावधान लिए है वहीं पूंजीपतियों अथवा उद्योगपतियों को उनके द्वारा बहुप्रतीक्षित छूटें देने का प्रस्ताव करता है। इसकी संस्तुतियां लगभग वही हैं जो दूसरेे श्रम आयोग की रिपोर्ट(2002) में प्रस्तावित की गयी थीं और फिक्की जैसे पूंजीपतियों के संगठन जिसकी लंबे समय से मांग कर रहे थे।
प्रस्तावित ‘औद्योगिक सम्बन्ध’ कानून के अस्तित्व में आने के बाद 300 से कम श्रमिकों को नियोजित करने वाले कारखानों में मालिकों को ले आॅफ, छंटनी एवं बंदी (मिल बंदी) के मामले में सरकार की पूर्व अनुमति लेने से छूट मिल गयी है। प्रस्तावित कानून में मजदूरों को ले आॅफ, छंटनी व मिलबंदी के एक्ट में पहले के 15 दिन के मुकाबले 45 दिन का प्रति वर्ष के हिसाब से मुआवजा देने की बात की गयी है। वर्तमान में सरकार की पूर्व अनुमति के बगैर छंटनी व बंदी की छूट 100 श्रमिकों वाले उद्यमों को ही हासिल है।
इसके साथ प्रावधान यह भी है कि अगर प्रबंधन द्वारा मजदूर को कोई अन्य वैकल्पिक काम उपलब्ध कराने पर मजदूर उसे नहीं करता है तो वह मुआवजे का हकदार नहीं होगा। इसी तरह किसी अन्य जगह स्थानांतरित करने पर भी निश्चित समय पर वह ड्यूटी में हाजिर नहीं होता तो मुआवजे का हकदार नहीं होगा।       ले आॅफ के लिए दो माह की पूर्व सूचना देने का प्रावधान है। ले आॅफ की स्थिति में नियोक्ता को 50 प्रतिशत वेतन (मूल वेतन का) व महंगाई भत्ता देय होगा। यह भत्ता केवल उन्हीं मजदूरों या कर्मचारियों को देय होगा जिन्होंने मस्टर रोल रजिस्टर में 1 वर्ष की अवधि पूरी कर ली हो। 50 मजदूरों से कम तथा मौसमी (सीजनल) उद्यमों या व्यवसाय में नियुक्त श्रमिकों को किसी भी तरीके के मुआवजे से मुक्त कर दिया गया है। अगर नियोक्ता श्रमिकों द्वारा हड़ताल की स्थिति में ले आॅफ करता है, यानी अगर ले आॅफ हड़ताल के परिणाम स्वरूप लागू होता है तो कोई मुआवजा देय नहीं होगा। जाहिर सी बात है कि अब नियोक्ता हड़ताल की अवधि, चाहे भले ही वह कानूनों मानदंडों के अनुरूप पूरी तरह वैध हो, के दौरान ले आॅफ घोषित कर किसी भी तरीके के वेतन या अन्य देय भुगतानों से बरी हो जायेंगे।
औद्योगिक सम्बन्धों वाली नियमावली में सबसे अधिक चोट यूनियन निर्माण पर की गयी है। अब तक किसी भी उद्यम के सात मजदूर यूनियन के लिए आवेदन कर सकते थे तथा यूनियन की कैबिनेट अथवा पदाधिकारियों में फैक्टरी या उद्यम से बाहर के लोग भी शामिल हो सकते थे। यूनियन निर्माण के लिए आवेदन के लिए अब न्यूनतम 10 प्रतिशत या न्यूनतम 100 श्रमिकों का आवेदन जरूरी होगा। 1000 श्रमिकों से अधिक के लिए यह संख्या 100 होगी जबकि जिन उद्यमों में श्रमिकों की संख्या का 10 प्रतिशत 7 से कम होगा वहां न्यूनतम आवेदकों की संख्या 7 रखी गयी है। इस नियमावली के अनुसार ट्रेड यूनियनों में अब कैबिनेट या पदाधिकारी अथवा सदस्य के रूप में किसी भी बाहृय व्यक्ति का प्रवेश निषिद्ध करना प्रस्तावित है। केवल असंगठित क्षेत्र की यूनियनों में दो व्यक्ति बाहरी हो सकते हैं। ट्रेड यूनियनों को राजनीति से मुक्त रखने के प्रावधान भी इस प्रस्तावित नियमावली में किए गए हैं। जाहिर है कि उपरोक्त सारे प्रस्तावों के मूल में ट्रेड यूनियन गठन की प्रक्रिया को बाधित करने व हतोत्साहित करने एवं यूनियनों की मोलतोल(बारगेनिंग) की शक्ति को कमजोर करने एवं मजदूरों की राजनीतिक व वर्गीय चेतना को कुंद करने के प्रयास करना निहित है।
ट्रेड यूनियनों पर नियंत्रण व दबाव के द्वारा उन्हें पूरी तरह पालतू या निष्प्रभावी बनाने के प्रयास भी उक्त प्रस्तावित नियमावली में किए गये हैं। चुनाव कराने या मांगी गयी जानकारियां उपलब्ध कराने, रिटर्न दाखिल करने आदि के सम्बन्ध में भी निश्चित समय सीमा का उल्लंघन करने पर दंड, जुर्माने या यूनियन पंजीकरण रद्द करने की बातें प्रस्तावित नियमावली में की गयी है। यूनियन से मांगी गयी किसी जानकारी में तथ्यात्मक त्रुटि पाये जाने पर भी यूनियन पंजीकरण रद्द किया जा सकता है। किसी ट्राइब्यूनल की सिफारिश पर भी यूनियन पंजीकरण रद्द हो सकता है। यूनियनों को अपना रिकार्ड व अकाउंट हर समय तैयार रखना होगा तथा अनिवार्य तौर पर इसका आॅडिट कराना होगा। ऐसा न होने पर भी यूनियन की मान्यता व पंजीकरण रद्द हो सकता है।
कुछ उद्यमों को रजिस्टर रखने व रिटर्न दाखिल करने सम्बन्धी श्रम कानून, जो कि लघु उद्योगों से सम्बन्धित हैं, में महत्वपूर्ण संशोधन करते हुए लघु उद्योगों/उद्यमों की परिभाषा का दायरा वर्तमान में दस श्रमिक से बढ़ाकर 40 करने की बात नियमावली में है। इसके मुताबिक अब 40 श्रमिकों तक के उद्यमों को रजिस्टर रखने व रिटर्न भरने से छूट देना प्रस्तावित है। गौरतलब है कि ये 40 श्रमिक स्थायी या मस्ट रोल वाले ही होंगे।
स्टैंडिग आर्डर से सम्बन्धित नियमावली के हिस्से में भी मजदूरों का पक्ष कमजोर करने के प्रयास हुए हैं। स्टैण्डिंग आर्डर के प्रावधान को 100 मजदूरों से कम वाले हर उद्यम के लिए अनिवार्य बना दिया गया है। स्टैण्डिंग आर्डर के लिए मजदूर एवं मालिक पक्ष के बीच सहमति बनाने के लिए कार्यवाही (प्रोसीडिंग) के शुरू होने के बाद 12 माह का समय रखा गया है। यदि इस अवधि के दौरान मालिक व मजदूर पक्ष में कोई सहमति नहीं बनती तो मालिक अथवा नियोक्ता खुद इसे तैयार कर प्रमाणन के लिए नियुक्त अधिकारी (सर्टिफाइंग आॅफिसर) के पास भेज सकता है। नियोक्ता स्टैंडिंग आर्डर बनने(श्रमिक पक्ष की सहमति अथवा सर्टिफाइंग आॅफिसर के द्वारा पास करने) के बाद एक वर्ष की अवधि बीतने पर स्टैण्डिग आर्डर में जरूरत के मुताबिक सुधार (मोडिफिकेशन) कर सकता है। इस सम्बन्ध में श्रमिक पक्ष (निगोशिएटिंग एजेण्ट) 60 दिन के भीतर औद्योगिक ट्राइब्यूनल में आपत्ति दायर कर सकता है। ट्राइब्यूनल का फैसला दोनों के लिए बाध्यकारी होगा।
स्टैंडिंग आर्डर सम्बन्धी नियमावली में यौन उत्पीड़न रोकने सम्बन्धी प्रावधानों को कमजोर करने के प्रयास किए गए हैं। कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के रोकने के सम्बन्ध में पहले यौन उत्पीड़न के रोकथाम व निषेधकारी उपचार अधिनियम 2013 (प्रिवेंशन, प्रोहिविशन एण्ड रिड्रेसल एक्ट 2013) के तहत इस सम्बन्ध में एक नियमावली में यौन उत्पीड़न के सम्बन्ध में जांच एक जांच अधिकारी द्वारा कराये जाने की बात कही गयी है। जाहिर बात है कि यौन उत्पीड़न के ज्यादातर मामलों में प्रबंधन व मालिकान शामिल होते हैं। अब जांच अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनके पास होगा या वे अथवा उनका आदमी ही जांच कमेटी में होगा।
औद्योगिक सम्बन्धों की नियमावली में सबसे कठोर प्रावधान हड़ताल करने के सम्बन्ध में है। प्रस्तावित नियमावली में कहा गया है कि हड़ताल करने से पूर्व 6 सप्ताह का पूर्व नोटिस देना अनिवार्य होगा। ऐसा नहीं करने पर हड़ताल को अवैध माना जायेगा। वर्तमान में पूर्व सूचना या नोटिस देने की यह अवधि 2 सप्ताह या 14 दिन है।
इसी तरह हड़ताल की निर्धारित तिथि के बाद व समझौता अथवा संराधन वार्ता (आर्बिट्रेशन प्रोसीडिंग) के दौरान हड़ताल करने पर हड़ताल अवैध मानी जाएगी।
अवैध हड़तालों को रोकने हेतु दंड एवं अन्य दमनात्मक उपायों की सिफारिश भी नियमावली में की गयी है। अवैध हड़ताल को शुरू करने, जारी रखने पर किसी भी मजदूर को 20 हजार से 50 हजार जुर्माना अथवा 1 माह की सजा अथवा दोनों हो सकते हैं। इसके अलावा अवैध हड़तालों को आर्थिक सहयोग देने वाले व्यक्ति को भी 25,000 रुपये जुर्माने का प्रावधान है जिसे 50 हजार तक बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए आर्थिक दण्ड के अलावा एक माह की सजा का प्रावधान प्रस्तावित नियमावली में है। मजदूरों अथवा कर्मचारियों द्वारा एक साथ सामूहिक तौर पर आकस्मिक अवकाश लेना भी अवैध हड़ताल माना जाएगा। 50 प्रतिशत से अधिक कर्मचारियों या मजदूरों द्वारा आकस्मिक अवकाश (सीएल) लेने पर अवैध हड़ताल मानी जायेगी। इसी तरह नियोक्ता द्वारा तालाबंदी से पूर्व 3 माह का नोटिस न देने पर उस तालाबंदी को अवैध माना जाएगा। 50 श्रमिकों से कम उद्यमों के लिए कोई नोटिस या पूर्व सूचना की शर्त से नियोक्ताओं को मुक्त रखा गया है। ले आॅफ व छंटनी के लिए भी नियोक्ता को दो माह का पूर्व नोटिस देना होगा। यहां भी 50 श्रमिकों से कम पर इस बात से नियोक्ता को छूट जारी रहेगी। अवैध तालाबंदी, ले आॅफ व मिलबंदी(क्लोजर) की स्थिति में नियोक्ता को न्यूनतम एक लाख के जुर्माने की बात कही गयी है जिसे अधिकतम 5 लाख तक बढ़ाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में आरोपित होने के बाद भी अगर मालिक तालाबंदी जारी रखता है तो 5 लाख का जुर्माना किया जा सकता है जिसे 10 लाख तक बढ़ाया जा सकता है और न्यूनतम 1 माह की सजा दी जा सकती है। इसी तरह मालिकों द्वारा दूषित या गलत श्रम व्यवहार (अनफेयर लेबर प्रेक्टिस) को अमल में लाने पर उसे 50,000 से 1 लाख का जुर्माना या 1 माह की सजा का प्रावधान है। आरोपित होने पर गलत श्रम व्यवहार जारी रखने पर 1 लाख से 3 लाख का जुर्माना हो सकता है।
इसी तरह किसी समझौते या ट्राइब्यूनल के अवार्ड (फैसले) को न मानने पर 1 लाख से तीन लाख तक का जुर्माना हो सकता है तथा 1 माह की सजा भी हो सकती है। यह शर्त किसी भी व्यक्ति, मजदूर व नियोक्ता पर समान रूप से लागू होगी।
अगर कोई नियोक्ता इस नियमावली के अनुरूप सर्टिफाइड स्टैंडिग आर्डर का उल्लंघन करता है तो उसे 1 लाख का जुर्माना हो सकता है जिसे दो लाख तक बढ़ाया जा सकता है। यह गलती दोबारा करने पर जुर्माना न्यूनतम 2 लाख से 4 लाख तक हो सकता है जिसके साथ एक माह की सजा भी हो सकती है।
ट्रेड यूनियनों के मामले में ट्रेड यूनियन की नियमावली से सम्बन्धित जानकारी, नोटिस या स्टेटमेण्ट या अन्य आवश्यक सूचना में कोई गलती या त्रुटि पाये जाने पर न्यूनतम 10 हजार से 50 हजार तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। गलती जारी रहने पर 100 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना जारी रहेगा।
नियमावली दंडात्मक प्रावधानों से स्पष्ट है कि मालिक/नियोक्ता की आर्थिक हैसियत के अनुपात से ये बिल्कुल जुदा हैं। ये प्रावधान मजदूरों के लिए बेहद कठोर एवं मालिकों के प्रति बेहद नरम हैं। वैसे तो मालिकों पर दंडात्मक प्रावधान लागू व्यवहार में होते ही नहीं हैं और अगर लागू हों भी तो ये दंडात्मक प्रावधान नियोक्ताओं को अभयदान देने और ‘गैरकानूनी’ आचरण के लिए प्रोत्साहित करने वाले ही हैं। औद्योगिक सम्बन्धों की नियमावली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा वाद निपटारा संस्थाओं व प्राधिकरण से है। नयी व्यवस्था के तहत श्रम न्यायालय (लेबर कोर्ट) व संराधन आर्बिट्रेशन को खत्म करने की बात कही गयी है। इसके स्थान पर ट्राईब्यूनल अलग-अलग स्तर पर गठित किये जायेंगे। हरेक ट्राईव्यूनल कुछ मामलों (क्रिमिनल कोड प्रोसीजर 1973 की धारा 345, 348 एवं 1974 की धारा दो) के लिए अंतिम सिविल कोर्ट माने जाएंगे। यानी इन मामलों में ट्राइब्यूनल कोर्ट का फैसला अंतिम होगा। इसी तरह ऊपरी अदालतों या ट्राइब्यूनल कोर्ट में कोई ताजा सबूत या तथ्य नहीं पेश किए जा सकेंगे।
इसके अलावा औद्योगिक सम्बन्धों की नियमावली में यह व्यवस्था दी गयी है कि अगर किसी उद्यम के लिए कुछ नियम, शर्तें, अवार्ड या दंड इस हद तक  कठोर हो जाते हैं कि उन्हें लागू करने से खुद उसके अस्तित्व पर खतरा आ जायेगा तो सरकार खुद हस्तक्षेप करके उस उद्यम या उद्यमियों को ऐसे किसी नियम, फैसले, अवार्ड या दंड से मुक्ति दे सकती है। मजदूरों के जीवन पर संकट की बात नियमावली के निर्माताओं के जेहन में नहीं आती है। खैर यह पूंजीपतियों की जान छुड़ाने का आखिरी हथकंडा है जो उनको पूरी तरह श्रम कानूनों को न लागू करने के मामले मे निर्भयता देगा। इन मुख्य संशोधनों के अलावा सूक्ष्म स्तर पर या अप्रत्यक्ष स्तर पर अनेक ऐसे प्रावधान इस प्रस्तावित नियमावली में हैं जो मालिकों/नियोक्ताओं को मजदूरों का बेरोकटोक शोषण करने व मजदूरों के प्रतिरोध को कुचलने की ताकत देते हैं।
वेतन सम्बन्धी नियमावली में एक महत्वपूर्ण बदलाव राज्य सरकारों द्वारा इस सम्बन्ध में किसी हस्तक्षेप से उद्यमियों को राहत दिलाना है। अब नयी नियमावली के हिसाब से न्यूनतम वेतन राष्ट्रीय स्तर पर घोषित होगा जो पांच साल में ही बढ़ाया जायेगा।

कुल मिलाकर आजादी के बाद से या कहें कि भारत में लगभग 50 वर्ष के मजदूर आंदोलन के इतिहास में यह मजदूर वर्ग पर सरकार द्वारा जबर्दस्त हमला है। मजदूर वर्ग को इसका भरपूर जवाब देना होगा। अब संघर्ष के अलावा कोई रास्ता मजदूर वर्ग के पास नहीं है।
अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबंध का लगना व हटना
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    आई.आई.टी. मद्रास में छात्रों के एक समूह ‘अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल’ पर गत दिनों आई.आई.टी. प्रबंधन द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया। यह प्रतिबंध मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना के चलते मानव संसाधन विकास मंत्रालय के निर्देश पर आई.आई.टी. प्रबंधन द्वारा थोपा गया। इस प्रतिबंध के खिलाफ देश भर में छात्रों की तीव्र प्रतिक्रिया देखने को मिली। अंततः आई.आई.टी. प्रबंधन को झुकते हुए प्रतिबंध वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी।
    इस प्रतिबंध ने मोदी सरकार के फासीवादी इरादों को एक बार फिर से जाहिर कर दिया कि सरकार का  विरोध करने वालों के साथ ऐसा ही सलूक किया जायेगा कि प्रतिष्ठित संस्थानों के नौजवानों को भी सरकार के विरोध का हक नही हैं कि कालेज कैम्पसों में सरकार विरोधी बातें बर्दाश्त नही की जायेगी।
    यहां इण्टरनेट पर प्रसारित अम्बेडकर-पेरियार स्टडी  सर्किल के सदस्यों के एक साक्षात्कार व प्रतिबंध हटने पर जारी प्रेस विज्ञप्ति का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया जा रहा है।
साक्षात्कार
प्रश्न-क्या आप अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल के इतिहास के बारे मे कुछ बता सकते है?
उत्तर- अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पिछले वर्ष अप्रैल 2014 में तब स्थापित हुआ जब कृषि व पर्यावरण पर जीन प्रसंस्कृत बीजों के प्रभाव पर सेमीनार आयोजित किया। साथ ही अम्बेडकर की मौजूदा समय में प्रासंगिकता पर भी सेमिनार आयोजित किया गया। हमने आज के समय में भगत सिंह की प्रासंगिकता पर प्रोफेसर चमन लाल की वार्ता आयोजित की और तंजौर जिले में भारी मात्रा में मीथेन पैदा करने वाले कोयले के प्रोजेक्ट पर सेमिनार किया। हमने कैम्पसों में हिन्दी थोपने पर चर्चा आयोजित की और छात्रों को हमारे समाज को शाकाहारी बनाने के प्रयासों के खतरों के प्रति सचेत किया। मुझे शायद यह भी बताना चाहिए कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सभी आई.आई.टी को भेजे पत्र जिसमें मांसाहार पर कार्यवाही का फरमान था। इस हस्तक्षेप का हमने विरोध किया। हमने इस पत्र के खिलाफ पर्चे बांटे। हमारी वार्ताओं मे औसतन 30-40 श्रोता होते थे। हम विश्वास करते थे कि यद्यपि हमारी कैम्पस में उपस्थिति सीमित थी पर हमारी गतिविधियों के प्रति जागरूकता पिछले एक वर्ष में धीरे-धीरे बढ़ रही थी।
प्रश्न- ए.पी.एस.सी के लिए फंडिंग कहां से आती है?
उत्तर- प्रांरभिक स्थिति में ए.पी.एस.सी के सदस्यों ने अपनी जेब से सहयोग से स्टडी सर्किल की शुरूआत की। अब हम कुछ अन्य छात्रों से भी धन प्राप्त कर रहे हैं। किसी भी तरह से हमारी आय के सभी स्रोत पूरी तरह से कैम्पस के भीतर से हैं। हमारे खर्चे भी सीमित हैं। अधिकतर समय हमारी फैकल्टी सलाहकार एक मुफ्त का हाल बुक करते हैं और हमारे वक्ता अक्सर ही चेन्नई के ही होते हैं। इसलिए हमें केवल मामूली खर्च देना पड़ता है। सबसे महंगा आयोजन वह था जिसमें हमने द्रविड विश्व विद्यालय के वक्ता को अम्बेडकर पर बोलने के लिए उनका ट्रेन का किराया देना पड़ा था। इस मौके पर हमने श्रोताओं से कुछ चन्दे के लिए कहा था ताकि खर्च पूरा किया जा सके। 
प्रश्नः क्या मौजूदा मुद्दे से पहले प्रशासन से पहले भी कोई टकराव हुआ था?
उत्तरः इससे पूर्व कोई टकराव नहीं हुआ था सिवाय निरीक्षण के समय, डीन आफ स्टूडेंट वेल्फेयर ने हमें अपना नाम बदलने को कहा था क्योंकि उनके अनुसार अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल ज्यादा रेडिकल लगता है। हमने अपने सदस्यों के बीच व्यापक चर्चा के बाद नाम यही जारी रखने का निर्णय लिया। 
प्रश्नः यही नाम क्यों रखा?
उत्तरः अम्बेडकर और पेरियार भारतीय इतिहास के दो सबसे अग्रणी सुधारक थे। जिन मुद्दों को उन्होंने उठाया और जिन पर वे लड़े वे आज भी मौजूं हैं। आज के मौजूदा मुद्दों के संदर्भ में उनके विचारों की चर्चा करते हुए हमने एक ऐसा प्लेटफार्म बनाने का लक्ष्य लिया जो हिन्दुत्व की विचारधारा का प्रतिरोध कर सके। हमारा मुख्य उद्देश्य कैम्पस में छात्र आबादी की जाति, धर्म व आर्थिक मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाना है। 
प्रश्नः क्या आप हमें ‘‘आई.आई.टी. मद्रास में छात्र संगठनों को किन दिशा निर्देशों का पालन करना पड़ता है’’ उनके बारे में बता सकते हैं?
उत्तरः आई.आई.टी. मद्रास में एपीएससी जैसे हर स्वतंत्र छात्र संगठन के साथ एक फैकल्टी सलाहकार सम्बद्ध होता है। हर बार जब हमें कोई कार्यक्रम आयोजित करना होता है तो हम सलाहकार से बात करते हैं। कई बार हमें बताया जाता है कि हम किस तरीके का पर्चा या नोटिस लिखें। उसके बाद वह हमारे लिए एक हाल या आॅडिटोरियम बुक करते हैं।
प्रश्नः डीन आॅफ स्टूडेंट वेल्फेयर परिदृश्य में कहां आते हैं?
उत्तरः वे कहीं नहीं आते। 
प्रश्नः लेकिन प्रेस में ऐसा रिपोर्ट किया गया कि वे आपके फैकल्टी सलाहकार थे?
उत्तरः नहीं, हमारे फैकल्टी सलाहकार मानविकी विभाग में फैकल्टी मेम्बर थे और अभी भी हैं। हम उन्हें अपनी गतिविधियों की सूचना देते थे और कई मौकों पर वे हमारा मार्गदर्शन करते थे। अक्सर ही वे हमारे अनुरोध को स्वीकार करते थे और हमारे कार्यक्रमों के लिए हाल बुक करते थे। डीन केवल हम पर यह आरोप लगा सकते हैं कि हम उनसे सलाह या पूर्व अनुमति नहीं लेते थे।
प्रश्नः क्या आप उन दिशा निर्देशों के बारे में बता सकते हैं जिन पर मीडिया में इतनी चर्चा हुई?
उत्तरः 28 जनवरी को स्टूडेंट अफेयर कमेटी(SAC) द्वारा दिशानिर्देशों की एक श्रृंखला पारित की गयी। जिसमें डीन आॅफ स्टूडेंट वेल्फेयर द्वारा बोर्ड आॅफ स्टूडेंट के चेयरमैन होेने के नाते परिवर्तन किया गया जो कि उनके अधिकार क्षेत्र में था। ये बदलाव फरवरी में प्रस्तावित किये गये। 
प्रश्नः आईआईटी मद्रास में छात्र संगठन लम्बे समय से है फिर 2015 में दिशा निर्देशों की क्या आवश्यकता आ पड़ी?
उत्तरः 2015 से पहले किसी संगठन को मान्यता देना या प्रतिबंधित करना पूरी तरह डीन के अधिकार में था। यह उन पर था कि वे किसी छात्र संगठन को स्वीकार करें या न करें। यद्यपि 2014 में जब चिंता-बार(जो कि एक मान्यता प्राप्त संगठन नहीं है) ने किस आफ लव कार्यक्रम कैंपस में आयोजित किया तब संस्थान के कुछ दिशा निर्देश बना कर मान्यता प्राप्त संगठनों की निगरानी करना तय किया। 
प्रश्नः तो इन परिवर्तित दिशा निर्देशों में आईआईटी के अनुसार कौन सी मुद्दा बनी?
उत्तरः डीन आफ स्टूडेंट अफेयर ने आरोप लगाया है कि हमने एक पर्चे में संस्थान के नाम का जिक्र किया है जो एक दिशा निर्देश का उल्लंघन करता है।
प्रश्नः और इस आरोप पर आपका जवाब क्या है?
उत्तरः हमने दो आधारों पर आरोप को खारिज किया है। पहला हमने आई.आई.टी. का नाम अपने किसी कार्यक्रम में इस्तेमाल नहीं किया है। जिस कार्यक्रम की चर्चा है(जिसमें हम पर आईआईटी मद्रास का नाम इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया है) हमारे पर्चे में यह लाईन थी कि हम आईआईटी मद्रास के छात्रों की पहल है। यह स्पष्ट नहीं है कि यह कैसे अपने कार्यक्रम को प्रचारित करने में आई.आई.टी. मद्रास का नाम इस्तेमाल करना हुआ। मेरा मतलब है यह मुश्किल से ही सत्य है इससे ज्यादा जरूरी है कि संतुलन सरीखा संगठन अपने एक पर्चे में आईआईटी मद्रास के लोगों का इस्तेमाल करता है (यह पर्चा एक ऐसी चर्चा के बारे में था जो जैव विकास के विरोध में व किसी की बुद्धिमान कृति के विचार को प्रोत्साहित करती थी)। यहां तक कि विवेकानन्द स्टडी सर्किल अपनी साइट आईआईटी मद्रास के डोमेन पर चलाता है और आईआईटी मद्रास का लोगो भी इस्तेमाल करता है। तब भी ये संगठन प्रतिबंधित नहीं किये गये। इसलिए हम सोचते हैं कि आरोपोें का कोई दृढ़ आधार नहीं है। 
    दूसरा जब हमें डीन आॅफ स्टूडेंट वेल्फेयर द्वारा ईमेल मिला कि हमारी मान्यता अस्थाई तौर पर समाप्त कर दी गयी है तब हमारे दो सदस्य रमेश व स्वामीनाथन डीन से मिलने गये। तब डीन ने उन्हें गाइडलाइन के बारे में कुछ नहीं बताया और मानव संसाधन विकास मंत्रालय का पत्र दिखाया जिसमें अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल पर कार्यवाही को कहा गया था क्योंकि इसने मोदी सरकार की आलोचना की थी। इसलिए प्रारंभिक तौर पर हमारी मान्यता मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पत्र के चलते समाप्त की गयी थी। केवल बाद में जब मानव संसाधन मंत्रालय ने इस मुद्दे पर अपने दखल से इनकार किया तब आईआईटी ने हमें दिशा निर्देश पालन न करने का आरोप बताया। 
प्रश्नः इस मान्यता समाप्ति व मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पत्र के प्रति आपकी समझ क्या है?
उत्तरः हमारी राय में आईआईटी मद्रास को उन संगठनों की मौजूदगी जो हिन्दुत्व की विचारधारा का प्रचार करते हैं, स्वीकार्य है। अब हम एक ऐसे संगठन हैं जो लोकतांत्रिक तरीके से संस्कृत की महत्ता आदि का विरोध करते हैं। दक्षिण पंथी संगठन हमसे लगातार असंतुष्ट रहे हैं। जहां तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पत्र का प्रश्न है यह उनके पागलपन को दिखलाता है। हम एक संस्थान के एक छोटे से गुप हैं जिसकी सदस्यता 50 से भी कम है इसलिए यह ध्यान देने योग्य है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय हमारी पूरी तरह लोकतांत्रिक गतिविधियों के प्रति चिन्तित है। 
प्रश्नः क्या यह मान्यता की समाप्ति है या प्रतिबंध है?
उत्तरः सर्वप्रथम मैं यह कहना चाहूंगा कि मान्यता की समाप्ति अन्यायपूर्ण व पक्षपातपूर्ण है। जैसा कि मैंने उपरोक्त प्रश्न के जवाब में बताया था। दूसरा मान्यता समाप्ति का मतलब है कि हम एस मेल सरीखे इण्टरनेट सर्वर का उपयोग अपने कार्यक्रम में छात्रों को बुलाने के लिए नहीं कर सकेंगे। हम नोटिस बोर्ड का उपयोग अपने नोटिस लगाने के लिए नहीं कर सकेंगे। हम किसी कार्यक्रम के लिए आॅडिटोरियम बुक नहीं कर सकेंगे। इसलिए इससे हमारी गतिविधियों पर कई रुकावटें आयेंगी और व्यवहार में यह प्रतिबंध सरीखा होगा। प्रश्नः आपकी मान्यता समाप्ति के विरोध की क्या योजना है?
उत्तरः हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे जैसा कि मैंने कहा यह अन्यायपूर्ण व पक्षपातपूर्ण है और ऐसे आरोपों पर आधारित है जिसका कोई आधार नहीं है। हम जानते हैं कि यह मान्यता समाप्ति केन्द्र सरकार की मौजूदा नीतियों पर किसी आलोचनात्मक चर्चा या असहमति को दबाने के लिए है। हम संस्थान से ये मांग कर रहे हैं तत्काल एपीएससी को दोबारा मान्यता दी जाये, डीन आफ स्टूडेंट वेल्फेयर अपनी आॅफिस पावर के दुरूपयोग के लिए बिना शर्त माफी मांगे, मानव संसाधन विकास मंत्रालय अपने पक्षपातपूर्ण रवैय्ये और अलोतांत्रिक व्यवहार जो संविधान की धारा 19(।) के खिलाफ है बिना शर्त माफी मांगे। हम एक कमीशन की स्थापना की भी मांग कर रहे हैं जो आईआईटी मद्रास के फण्ड का कैम्पस में हिन्दुत्व की गतिविधियों को प्रोत्साहित करने में खर्च हो रहा है की जांच करे। 
प्रश्नः कैम्पस में छात्र समुदास का क्या रूख है?
उत्तरः छात्र समुदाय इस मुद्दे पर विभाजित हैं। जहां एक ओर कई छात्रों ने हमसे सम्पर्क किया और हमसे एकजुटता जाहिर की वहीं दूसरी ओर दक्षिणपंथी संगठन अपने विरोध में इस मुद्दे के उठने के बाद और आक्रामक हो गये हैं।
प्रश्नः क्या आईआईटी कैम्पस में जाति समस्या है?
उत्तरः जब हमने एपीएससी शुरू किया तो हमें अपने फेसबुक पेज पर कई घृणित संदेश मिले जो कि आईआईटी मद्रास के छात्रों ने लिखे थे उनमें से कुछ का कहना था कि दलितों को कैम्पस में नहीं होना चाहिए। इसलिए हां मैं कहूंगा कि कैम्पस में जाति की गम्भीर समस्या है।
    यदि हम संस्थान के विभिन्न स्तरों पर जातीय संघटन को देखें तो हालिया आरटीआई के अनुसार 87 प्रतिशत फैकल्टी सवर्ण जाति से हैं पिछले 7 वर्षों में केवल 3 जनजाति (एसटी) छात्र एसएम कोर्स में प्रवेश कर सके हैं। मैं सोचता हूं कि यह समस्या की गम्भीरता दिखलाता है।
प्रश्नः एपीएससी का भविष्य क्या है?
उत्तरः जब हम इस मान्यता समाप्ति के खिलाफ लड़ लेंगे तब हमारा निकट भविष्य लक्ष्य अपनी गतिविधियां एक सेमेस्टर में बढ़ाना व सदस्यता बढ़ाना है। हम जनता का पक्ष व जाति, सामाजिक आर्थिक मुद्दों, साम्प्रदायिकता पर बहस जारी रखेंगे। 
प्रेस विज्ञप्ति-  हां! प्रतिबंध हट गया
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
हां! प्रतिबंध हट गया है। आई.आई.टी. मद्रास के शब्दों में मान्यता पुनर्बहाल हो गयी है। पूरी दुनिया जानती है कि यह प्रतिबंध क्यों लगा था। तथ्य यह है कि डीन आफ स्टूडेंट्स द्वारा हमें अपने स्टडी सर्किल का नाम बदलने को कहा गया। एक अनजान पत्र पर गैरकानूनी ढंग से कार्यवाही की गयी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने हस्तक्षेप किया, मि.एच.राजा (भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष) द्वारा कैम्पस में सीधे प्रवेश कर मांग की गयी कि आईआईटी मद्रास प्रशासन हम जैसे स्टडी सर्किल को प्रतिबंधित करे।
    इस पर भी मानव संसाधन विकास मंत्री के अनुसार मान्यता समाप्ति की कार्यवाही आईआईटी द्वारा स्वयं उठायी गयी। इसलिए आईआईटी प्रशासन कहता है कि यह उसका फैसला है क्या ऐसा है? मान्यता समाप्ति का कारण उनके अनुसार यह है कि हमने बगैर उनकी अनुमति के संस्थान के नाम का उपयोग कर दिशा निर्देशों का उल्लंघन किया। पर अब उन्होंने ढूंढ लिया है कि दिशा निर्देश 18 तारीख को जारी हुए थे जबकि हमारा कार्यक्रम 14 को सम्पन्न हो गया था। इस आधार पर उन्होंने प्रतिबंध हटाने का निर्णय लिया है। इसलिए हमारी मान्यता बगैर किसी शर्त के बहाल हो गयी है। इस तरह की फिल्मी प्रस्तुती!
    इसलिए प्रतिबंध का उनकी राय में डा. अम्बेडकर, पेरियार, भगत सिंह या हमारी हिन्दुत्व की आलोचना या मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना से कोई लेना देना नहीं है। उनकी तर्कशक्ति खैरलांजी मुद्दे पर हाईकोर्ट के निर्णय के सादृश्य है जो कहना है कि अपराध केवल सामान्य बदले के लिए की हत्या है जिसका जाति से कोई लेना-देना नहीं है। 
    हां! यद्यपि मान्यता पुनर्बहाल हो गयी है तथापि आईआईटी प्रशासन का कहना है कि वे माफी नहीं मांगेेेंगे। हम दोबारा मान्यता पा सकते हैं पर उनसे माफी नहीं हासिल कर सकते। यह केवल गांधी की अम्बेडकर से किये अनुरोध की याद दिलाता है जिसमें उन्होंने हिन्दुओं को बदलने का एक मौका देने की बात की थी भले ही अतीत में उन्होंने अछूतों के साथ कुछ भी किया हो। हमने भी प्रशासन को अपनी गलती उद्घाटित करने का एक मौका दिया था। पर ऐसा लगता है कि उन्होंने इसे एक मौके की तरह नहीं लिया बल्कि एक धमकी की तरह लिया जिसके आगे उन्हें नहीं झुकना चाहिए। हम आश्चर्यचकित नहीं हुए जैसा कि अम्बेडकर ने कहा है कि हिन्दू जाति की मानसिकता ऐसी है कि वे कभी खुद को निचली जाति को दबाने का अपराधी नहीं मानते क्योंकि दूसरों को दबाना वे बिल्कुल न्यायसंगत मानते हैं।
    क्या जो मानसिकता सैकड़ों निर्दोष मुसलमानों को गुजरात में मार डालने का खुद को अपराधी नहीं मानती, जो खैरलांजी और हाशिमपुरा के हत्यारों के पक्ष में निर्णय पर खुशी मनाती है वह भला एक स्टडी सर्किल को प्रतिबंधित करने पर अपराधी कैसे महसूस करेगी। यह उनसे बहुत ज्यादा की मांग करना है। अब जबकि वे गलती मानने को तैयार नहीं हैं और हम इतने मजबूत नहीं हैं कि उनसे माफी मंगवा सकें। 
    कल, करीब 8 घण्टे वार्ता चली, भीतर के लोगों का कहना था कि आईआईटी मद्रास के इतिहास में न छात्रों ने, न फैकल्टी ने डायरेक्टर को इतने समय तक व्यस्त रखा। यह छोटी सी जीत लोकतांत्रिक ताकतों की वजह से हुई है किसी कारण (तर्क) वजह से नहीं। वे सिद्धान्ततः सहमत हो गये हैं कि सभी छात्र संगठनों से समान व्यवहार किया जाये और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कायम रखी जाए। पूर्वाग्रह उनके भीतर इतनी गहराई तक जड़ जमाए हुए है कि वे उन्हें हमें समानता से देखने नहीं देता। इससे ज्यादा इसलिए कि हम समान व्यवहार का अनुरोध नहीं करते, हम कारपोरेट द्वारा संचालित हिन्दुत्व एजेण्डे को चुनौती देते हैं इसलिए हम सोचते हैं कि हिन्दुत्व की ताकतें दोबारा हमला करने के लिए उपयुक्त मौके का इंतजार कर रही है।           
      यहां एक संविधान है, कानून है, अदालते हैं, इसका यह मतलब नहीं कि न्याय हमेशा होता हो। अधिकारों को जीत कर हासिल करना होता है हम कर सकते हैं यदि हम लड़ाई को तैयार हों। ये छोटी सी जीत हमें दमन की ओर नहीं ले जाना चाहिए बल्कि हमारे संघर्ष को जारी रखने में प्रेरणा का काम करनी चाहिए। हम उन सबका धन्यवाद करते हैं जो हमारे साथ खड़े हुए। यह हमारा जनता के प्रति समर्पण और बढ़ायेगा। 
                        सम्मान सहित
                    अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल टीम
8.6.2015


1974 की विशाल रेलवे हड़ताल
चालीस साल बाद
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    भारतीय रेल की मई 1974 की हड़ताल में रेल मजदूरों और कर्मचारियों की व्यापक भागीदारी थी। लगभग 15 लाख मजदूरों ने हड़ताल में भागीदारी की और यह तीन सप्ताह चली। यह 8 मई से एक मांग पत्र जिसमें बोनस, काम के घंटे, कार्य स्थिति की सुरक्षा और अन्य मुद्दे शामिल थे, से शुरू हुई। सरकार ने दसियों हजार मजदूरों को गिरफ्तार और जेल भेजकर, सैकड़ों को बर्खास्त और निष्कासित कर और आखेटीकरण के अन्य रूपों का इस्तेमाल कर हड़ताल का बर्बरता से दमन किया। कुछ मौतें भी हुईं। कन्फेडरेशन आॅफ सेन्ट्रल गवर्मेंट इम्प्लाइज के नेतृत्व में केन्द्र सरकार के कर्मचारियों का एक हिस्सा पांच दिन तक हड़ताल में शामिल रहा। मजदूर वर्ग के कई अन्य हिस्से भी शामिल हुए और विविध रूपों में एकजुटता व्यक्त की। हड़ताल को दबा दिया गया। लेकिन जनता सरकार के 1977 में सत्ता में आने के बाद रेल मजदूरों की बहुत सी मांगें मान ली गयीं। पहले रेल मजदूरों के लिए और फिर सभी केन्द्र सराकर के कर्मचारियों के लिए बोनस की घोषणा हुई। यद्यपि बहुत से बर्खास्त मजदूरों को नौकरी पर वापस नहीं लिया गया। 
    मजदूरों की अवज्ञा और बगावत लंबे समय तक शासक वर्ग के जहन में ताजा रही। 25 साल बाद भी 6 जुलाई 2000 को पी.एन.धर जो कि उस समय के प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खासम खास थे, ने उस समय ही घटना की याद करते हुए कहाः-
    ‘‘सभी राजनीतिक व्यवस्था को उसके अनुरूप राजनीतिक संस्कृति की जरूरत होती है। भारत में हम लोगों ने संसदीय लोकतंत्र के वेस्ट मिनिस्टर पद्धति को अपनाया, लेकिन राजनीतिक संस्कृति जो इसके साथ होनी चाहिए उसको विकसित होने में बहुत समय लग रहा है। इस तरह व्यवस्था और संस्कृति के बीच एक खाई है जो कि आज भी हमारे देश में कायम है। आज, भारत में हम मानते हैं कि लोकतंत्र का मतलब चुनाव के बाद चुनाव होते रहता है। चुनाव लोकतंत्र के लिए एक आवश्यक शर्त है पर पर्याप्त शर्त नहीं है। प्रभावी होने के लिए हमें व्यवस्था में उदारवादी मूल्यों को डालना होगा। परिणाम यह होता है कि, उदाहरणस्वरूप, विपक्षी पार्टियां प्रायः ऐसा व्यवहार करती हैं गोया उनका सामना प्रतिनिधि सरकार से नहीं हो और प्रायः ऐसे तरीके अपनाती हैं जो विद्रोह का कारण बनता है। इसलिए यद्यपि मैं यह नहीं कहा रहा कि इंदिरा गांधी का कोई दोष नहीं था, मैं यह भी कह रहा हूं कि यह परिस्थितियों की वजह से पैदा हुआ था। 1974 की रेलवे हड़ताल को लें और मजदूरों की मांगों पर जोर मानने के तरीके को देखें, मुगलसराय जोकि एशिया का सबसे बड़ा रेलवे यार्ड था, उसको मालगाडि़यों की कब्रगाह में तब्दील कर दिया गया। रेलवे हड़ताल प्रतिनिधि लोकतंत्र को नष्ट करती हुई दिखायी पड़ी। यह उदारवादी व्यवस्था पर एक हमले के रूप में देखी गयी। मजदूरों ने अपनी मांगों को मनवाने के लिए एक  अनिश्चितकालीन देशव्यापी हड़ताल के रूप में बहुत विशाल बल लगाया था। उन्होंने उदारवादी राजनीतिक व्यवस्था के तहत बनाए गए संराधन के नियमों का पालन नहीं किया था’’। 
    रेलवे में संराधन (विवाद के निपटारे- सम्पादक) के नियम मौजूद थे। 1951 में जब लाल बहादुर शास्त्री रेल मंत्री थे उस समय की बनी त्रिस्तरीय स्थायी वार्ता मशीनरी क्रमशः प्रबंधन, रेलवे बोर्ड और एक तदर्थ ट्रिब्यूनल, जिसका अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट का जज होना था, के स्तर पर होती थी। साथ ही रेलवे बोर्ड और आॅल इण्डिया रेलवे मेन्स फेडरेशन (एआईआरएफ) और नेशनल फेडरेशन आॅफ इंडियन रेलवेमेन(एनएफआईआर) के बीच तिमाही बैठकों की व्यवस्था थी। इसके अलावा एक संयुक्त सलाहकर्ता मशीनरी और एक अनिवार्य आर्बिट्रेशन की व्यवस्था भारत सरकार के द्वारा की गयी थी ताकि ‘‘सामान्य सरोकारों के मुद्दों पर कर्मचारियों और नियोक्ता के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध’’ बनाए रखा जा सके। वह व्यवस्था तीन स्तरों पर कार्य करती थीः राष्ट्रीय परिषद, विभागीय परिषद और क्षेत्रीय परिषद। वेतन आयोग की अनुशंसाओं से पैदा हुई विसंगतियों को दूर करने के लिए विसंगति कमिटी भी थी। 
    एक सबसे ज्यादा विवादित मुद्दा ड्यूटी के घंटों का विनियमन था जोकि भारत सरकार के अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) में किए गए अनुबंधों से पैदा हो रहे थे। इस परिस्थिति की वजह 1930 में काम के घंटे, विश्राम की अवधि और ओवरटाइम का भुगतान को विनियमित करने के लिए इंडियन रेलवेज एक्ट 1890 में संशोधन करना पड़ा। इसके अलावा रेलवे की व्यवस्था को बेहतर करने और कार्यकुशल बनाने के लिए प्रबंधन में रेलकर्मियों की व्यवस्थित भागीदारी के लिए 1972 में रेल मंत्रालय में केन्द्रीय स्तर पर कारपोरेट सिस्टम को गठित किया गया। इसका कथित उद्देश्य विचारों का मुक्त प्रवाह था। ये जोनल रेलवे में भी गठित किए गए। इन सभी कदमों का मकसद यह था कि सेवा शर्तों के संबंध में मुद्दों को कर्मचारी लाए और सामान्य हितों से संबंधित मामलों पर विचार-विमर्श हो। साथ ही, विविध कल्याण कमिटियों में कर्मचारी परिषद काम कर सके और कल्याण की गतिविधियों के संबंध में सुझाव दे। 
    इस तरह 1972 में रेल मंत्रालय द्वारा पहला कदम उठाया गया और प्रबंधन के कारपोरेट एण्टरप्राइजेज गु्रप को गठित किया गया ताकि संगठित मजदूरों को भारतीय रेल की कार्यप्रणााली के बारे में विचारों को रखने और रेलवे की कुशलता को बढ़ाने के लिए उठाये जाने वाले कदमों पर राय दे सके। इस मशीनरी को तीन स्तरों पर शुरू किया गयाः रेलवे बोर्ड के स्तर पर, जोन के स्तर पर और डिवीजन के स्तर पर। मान्यता प्राप्त यूनियनों के मनोनीत सदस्य इन बैठकों में भाग ले सकते थे। रेलवे बोर्ड के स्तर पर संबंधित विभागों के सदस्य और यूनियन प्रतिनिधि निवेश से संबंधित मामले, खास तौर पर मजदूरों और कर्मचारियों के आवास और अन्य जरूरतों के संबंध, उठाते थे और ध्यान देने लायक क्षेत्रों को चिह्ननित करते थे और कार्यवाही प्रस्तावित करते थे। नीचे के स्तरों पर सुपरवाइजरों के स्तर को छोड़कर शेष रेल मजदूर भागीदारी करते थे। इस तरह, पश्चिम रेलवे मजदूर संघ, जयपुर वेस्टर्न रेलवेज इम्प्लाॅइज संघ, हुबली सेण्ट्रल रेलवे इम्प्लाॅइज संघ, इलाहाबाद रेलवे मजदूर कांग्रेस, विलासपुर श्रमिक कांग्रेस, भुवनेश्वर सेण्ट्रल रेलवे मजदूर संघ जबलपुर रेलवे मजदूर संघ के सदस्यों को लेकर एडवाइजरी कमिटी और इसके 78 शाखाओं में प्रतिनिधित्व हासिल था। 
    तब भी बोनस और काम के घंटों के मुद्दों पर विरोध हो रहे थे। मजदूरों ने इस मांग कि कुछ कपड़ा मिलों ने अपने मजदूरों को 10 प्रतिशत बोनस दिया है इसलिए उन्हें भी बोनस मिलना चाहिए, के साथ जनरल मैनेजर के कार्यालय पर 26 धरने दिये। वार्ताएं जारी रहीं लेकिन संराधन की सारी प्रक्रियाएं विफल रहीं। काम के घंटे और बोनस का भुगतान उन मुद्दो में से थे जिनने हड़ताल को भड़काया। एक गुप्त हड़ताल ने हड़ताल का समर्थन कर एक बड़ी घटना के लिए जमीन तैयार की। 
    इस हड़ताल में लोको स्टाफ ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। अंग्रेजों के जमाने से लोको स्टाफ की ड्यूटी सतत मानी जाती थी जिसका अर्थ था कि मजदूरों को तब तक काम पर माना जाता था जब तक कि ट्रेन अपना ट्रिप पूरा नहीं कर लेती थी। अक्सर एक साथ कई दिनों तक खास तौर पर माल गाडि़यों में रहना पड़ता था। आजादी के बाद भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया। 1960 में डीजल इंजन के व्यापक इस्तेमाल ने काम की तीक्ष्णता और मजदूरों के असंतोष को बढ़ाया। आठ घंटै के कार्यदिवस का बेरोक-टोक उल्लंघन जारी था। बढ़ते विरोध की लहरों के प्रति बड़ी फेडरेशनें असंवेदनशील बनीं रहीं। 
    लोको रविंग स्टाफ एसोसिएशन (एसआरएसए) के उभार ने मजदूरों को हड़ताल के लिए गोलबंद करने में निर्णायक भूमिका अदा की। कुछ अर्थों में फायरकर्मियों के कतारों में शामिल हो जाने से रेलकर्मी कार्यवाही के लिए सक्षम हो गए क्योंकि उन्हें उनका स्वाभाविक नेतृत्व मिल गया। 1968 में दक्षिणी और दक्षिणी-मध्य रेल के फायरकर्मियों ने आठ घंटे के कार्यदिवस की मांग पर 28 दिनों की हड़ताल की थी। जबकि उप रेलमंत्री के साथ समाधान के लिए वार्ता चल रही थी, दो बड़ी यूनियनों एआईआरएफ और एनएफआईआर के नेताओं ने रेलवे बोर्ड के साथ ड्यूटी पर आने से लेकर ड्यूटी छोड़ने तक का 14 घंटे के समय पर समझौता कर लिया। इस तरह हड़ताल समाप्त हुई जिससे कई मजदूरों का आखेटीकरण हुआ। तथापि, लोको रनिंग स्टाफ ने महत्वपूर्ण सबक हासिल किया। उन्होंने अपने दम पर खड़ा होने का निर्णय लिया। पहले से अस्तित्वमान रनिंग स्टाफ यूनियनों के अलावा पूरे देश में कई सारे फायरकर्मियों की परिषदें गठित की गयी। इन फायरकर्मी परिषदों और रनिंग स्टाफ एसोसिएशनांे ने मिलकर 1970 में विजयवाडा में आॅल इंडिया लोको रनिंग स्टाफ एसोसिएशन की स्थापना की। 1960 के दशक के दौरान रेल मजदूरों में कम मजदूरी, कठिन कार्य स्थिति और काम के लंबे घंटों के मुद्दों पर असंतोष बढ़ा था। दो मान्यता प्राप्त फेडरेशनों(एआईआरएफ और एनएफआईआर) की मजदूरों की मांगों के लिए लड़ने और उनके हितों की रक्षा करने में अयोग्यता ने मजदूरों के बीच निराशा और अलगाव को बढ़ाया। अधिकारियों को आज्ञाकारी और सुधारवादी यूनियन नेतृत्व की जरूरत थी जबकि मजदूरों के बीच एक स्वतः स्फूर्त संघर्ष की भावना विकसित हो रही थी। लोको रनिंग स्टाफ एसोसिएशन का गठन इस पृष्ठभूमि में विशेष महत्व ग्रहण कर रहा था। लोकोकर्मियों के जुझारूपन के कतारों के जुझारूपन के और ज्यादा विकास के लिए आधार मुहैया कराया। उद्वेलित लोकोकर्मियों ने 2 अगस्त 1973 से एक देशव्यापी हड़ताल का आयोजन किया। इस हड़ताल से 10 घंटे के कार्यदिवस का समझौता हासिल हुआ। इस संघर्ष ने रेलकर्मियों के आत्मविश्वास को बढ़ाया और इसका सीधा असर बाद में गठित होने वाले एनसीसीआरएस और मई 1974 की ऐतिहासिक हड़ताल पर पड़ा।
    लोकोकर्मियों के अलावा रेलवे वर्कशाॅपों के मजदूर भी निर्णायक साबित हुए। कुछ वर्कशाॅपोें, मसलन लाहौर और जमालपुर की जुझारू यूनियनवाद का लंबा इतिहास रहा था। काफी पहले 1882 में वर्कशाॅपकर्मियों की संख्या 53,435 थी जो कि 1943 में बढ़कर 1,40,000 हो गयी थी। अकेले जमालपुर में 70 से अधिक वर्कशाॅप काम्प्लेक्स थे और युद्ध के समय 11,000 कर्मचारी थे। ‘‘रेलवे के निर्माण में लगे सचल मजदूरों’’ में भी असंतोष की खबरें आ रही थीं। 1974 की हड़ताल में, वर्कशाॅपों ने जैसे कि खड़गपुर और जमालपुर में, निर्णायक भूमिका अदा की। वर्कशाॅपों के इर्द गिर्द रेलवे की बस्तियों और शहर बस गये थे। पुलिस की रिपोर्ट दिखाती है कि कैसे ये शहर और वर्कशाॅप मजदूरों के मजबूती और गोलबंदी के लिए धुरी का काम करते थे। 
    एन सी सी आर का गठन फरवरी 1974 में एआईआरएफ, एआईएसआरएसए, एआईआरईसी, एआईटीयूसी, बीआईटीयू, बीआरएमएस और लगभग 125 रेलवे की ट्रेड यूनियनों के देश में अब तक के सबसे बड़ी हड़ताल शुरू करने के लिए आपस में हाथ मिलाने से हुआ। लगभग 15 लाख रेलकर्मियों ने हड़ताल में हिस्सेदारी की और पूरा रेल ट्रैफिक पंगु हो गया। लगभग एक लाख कर्मचारियों को 14(पप)/149 के तहत नौकरी से हटा दिया गया और 30 हजार कर्मचारियों को निलंबित रखा गया। 28 मई को हड़ताल समाप्त हुई। बाद में जून 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा की गयी। 
    हड़ताल की महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि वार्ता चलने रहते हुए मुख्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।(फर्नांडीस की 2 मई का लखनऊ रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार किया गया जिसके बाद पूरे देश में हजारों रेल मजदूरों की गिरफ्तारी हुई) इससे हड़ताल की सफलता अब जोनल और स्थानीय यूनियन नेताओं पर और निश्चय ही कतारों पर निर्भर करती थी। अन्य उद्योगों और सेवाओं के मजदूरों ने तत्काल एकजुटता व्यक्त की। यह संभवतः लोको रनिंग स्टाफ के आगे बढ़कर नेतृत्व दिये बगैर असंभव होता। अगर मजदूरों की दृढ़ता जितनी ही सरकार की हड़ताल के दमन का निश्चय था, तब भी सरकार की कार्यवाही मजदूरों को रोक नहीं पाई। सरकार की कार्यवाहियों ने मजदूरों को 8 मई के बजाय तत्काल ही हड़ताल पर जाने के लिए प्रेरित किया। 
    मुंबई में विद्युत और परिवहन के मजदूरों और टैक्सी ड्राइवरों ने विरोध प्रदर्शनों में भागीदारी की। गया में सैकड़ों हड़ताली मजदूर और उनके परिवारीजन रेल पटरियों पर बैठ गये। पेरम्बूर, तमिलनाडु के इन्टिग्रल कोच फैक्टरी के 10,000 से ज्यादा मजदूरों ने हड़ताली मजदूरों के प्रति एकजुटता व्यक्त करने के लिए चेन्नई के दक्षिणी रेलवे के मुख्यालय तक जुलूस निकाला। मुगलसराय हजारों मजदूरों और पुलिस तथा अर्द्धसैनिक बलों के बीच मोर्चाबन्द लड़ाई का गवाह बना। कुछ इलाकों में पटरियां उखाड़ दी गयीं, सिग्नल व्यवस्था पर हमला किया गया और रूट रिले केबिन को तहस नहस कर दिया गया। पूरे देश में विविध रूपों में संघर्ष फूट पड़ा। भारत का कोई भी महत्वपूर्ण रेल का केन्द्र अछूता नहीं था। हड़ताल अधिनायकवादी शासन के खिलाफ राष्ट्रीय विद्रोह का प्रतीक बन गया। 
    1974 की रेल हड़ताल भारत के मजदूर आंदोलन में एक मील का पत्थर है। भारत के शासक वर्ग ने इस हड़ताल से सबक लेते हुए अपनी व्यवस्था की सुरक्षा के लिए कई इंतजाम किए। मजदूर वर्ग के लिए इस हड़ताल से सबक निकालने का काम बचा हुआ है। इसके लिए इस हड़ताल के और भी ज्यादा अध्ययन की जरूरत है।   
चिकित्सकों व रोगी के बीच बढ़ता टकराव
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    दुनिया में सबसे सम्मानित पेशों में एक चिकित्सक का पेशा है। उसे भगवान के तुल्य समझा जाता रहा है। दिन-रात मेहनत से पढ़ाई करके लोगों को शारीरिक तौर पर स्वस्थ रखने के लिए वे उससे भी ज्यादा मेहनत से लगे रहते हैं। गरीब-अमीर हर कोई उसके आगे शीश नवाता है। जनसेवा में लगे रहने वाले डाक्टर दिन-रात दौड़ते-भागते रहते हैं। 
    हमारे देश के लोगों की सेवा में जी-जान से लगे रहने वाले डाक्टरों की आज भी कमी नहीं है और मनुष्यता की इस सेवा के लिए उनको जितना सम्मान दिया जाये, उतना कम है। परंतु आज ये सब बदल रहा है या यूं कहें कि चिकित्सा का पेशा आज काफी बदल चुका है। उदारीकरण के दौर ने चिकित्सा संस्थानों, चिकित्सक और चिकित्सा व्यवस्था तीनों को बुनियादी तौर पर बदल दिया है। कुछ डाक्टरों के लिए यह पेशा आज भी सेवा है पर ज्यादातर के लिए अब इसके मायने बदल गये हैं। निजी चिकित्सक पैसा पहले भी लेते थे अपनी फीस के रूप में परंतु अब यहां फीस से ज्यादा कमाई दूसरे स्रोतों से होने लगी है। 
    उदारीकरण के दौर से पहले चिकित्सक और रोगी का रिश्ता अपेक्षाकृत ज्यादा अपनत्व का था। ज्यादा सम्मान और प्यार रोगी और चिकित्सक को एक मजबूत डोर में बांधे रखते थे। परंतु अब यह ज्यादा व्यवसायिक हो गया है और उसी के अनुरूप रिश्ता भी तनावपूर्ण होने लगा है। चिकित्सा शिक्षा के व्यवसायीकरण ने उस रिश्ते की जड़ ही खोदनी शुरू कर दी। निजी चिकित्सा शैक्षिक संस्थानों से निकले हुए लोग तर्क देने लगे कि जब उन्होंने लाखों खर्च कर डाक्टर की डिग्री हासिल की है तो वे इस पैसे की वापसी भी क्यों न करें? नर्सिंग होम में बड़े पैमाने के निवेश ने और कारपोरेट संस्कृति ने चिकित्सक और रोगी के संबंधों को तार-तार करने में त्वरण का काम किया है। 
    इस प्रकार रोगी के बेहतरीन इलाज से ज्यादा प्राथमिक पैसा कमाना हो गया। रोगी एक अण्डा देने वाली मुर्गी बन गयी। रोगी अब उनकी फीस और नर्सिंग या चिकित्सा संस्थानों में हुए निवेश की प्रतिपूर्ति का माध्यम बन गया। रोगी से ज्यादा अब वह ग्राहक बन गया। इतना ही नहीं पिछले 25 वर्षों में यह पेशा इतना पतित हो चुका है कि इसने सारी हदें पार कर दीं। चिकित्सकों और नर्सिंग होम व अन्य मेडिकल की संस्थाओं मसलन पैथोलोजी, रेडियालाॅजी के मालिकों की बहुत बड़ी संख्या दलाली का धंधा करने वाले गिरोहों में तब्दील हो गये। ये लोग विभिन्न प्रकार की जांचों में कमीशन लेते और देते हैं। दवाई की मार्केटिंग करने वाली कंपनियों से कमीशन खाते हैं। इससे भी बुरी बात वे गांव-गांव तक कमीशन एजेंटों के सहारे मरीजों को बुलवाते हैं और इसके बदले कमीशन एजेंटों को ये लोग मोटी कमीशन (30 प्रतिशत तक) देते हैं। इन चिकित्सकों व चिकित्सा संस्थानों ने अपने जनसंपर्क अधिकारी (पी.आर.ओ.) की भर्ती कर रखी है। ये कहानी केवल यहीं तक नहीं है। मेडिकल की दुकानों से भी इनका कमीशन बंधा होता है। ये ऐसी दवाईयां लिखते हैं या कम से कम अपनी पर्चे में एक ऐसी दवाई जरूर लिखते हैं जो केवल उन्हीं के मेडिकल पर या फिर उसी मेडिकल से मिलेगी। इस प्रकार की दवाइयों को ‘प्रोपेगेन्डा प्रोडक्ट’ कहा जाता है। यह खेल इससे भी बदतर तरीकों से इमरजेंसी या आई.सी.यू. में खेला जाता है जहां जरूरत से ज्यादा दवाएं मंगा ली जाती हैं और अनुप्रयुक्त दवाएं व अन्य सामग्री बाद में मेडिकल पर पहुंचाकर रोगी की जेब पर डाका डाला जाता है। अतिशय जांचों और परीक्षणांे का खेल भी कई बार कमीशन के लालच के वशीभूत होकर खेला जाता है। 
    उपरोक्त बातें यूं ही नहीं हैं। डाक्टरों की बहुत बड़ी संख्या अनावश्यक शल्य चिकित्सा को भी सिर्फ इसलिए अंजाम देती है क्योंकि उसमें कहीं ज्यादा पैसा मिल जाता है। इसमें भी स्वास्थ्य बीमा कंपनियों की बढ़ती आमद ने उपरोक्त धंधे को परवान चढ़ाने में भरपूर मदद की है। बीमा कंपनियों से पैसा लेने के लिए एक ओर वे महंगे बिल बनाते हैं और वे उसी तरह का इलाज भी करते हैं जिससे ज्यादा बिल बन सके। दूसरी ओर इस प्रकार के महंगे इलाज ने जनता को इन स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के जाल में फंसने को मजबूर किया है। उदारीकरण के दौर की सरकारों ने उपरोक्त को बढ़ावा देने के लिए जनस्वास्थ्य केन्द्रों को जानबूझकर अपाहिज बनाया ताकि लोगों को निजी चिकित्सकों, चिकित्सा संस्थानों व बीमा कंपनियों की ओर धकेला जा सके। 
    यहां फिर दोहराना उचित होगा कि सभी डाक्टर उपरोक्त में लिप्त नहीं हैं लेकिन सेवा भाव से चिकित्सा पेशा करने वाले लोग अब बहुत कम हैं। उपरोक्त वर्णन अब चिकित्सा पेशे में सामान्य बात है और इसे हर रोगी या तीमारदार अपने अनुभवों से बखूबी जानता है। नर्सिंग होम व अन्य चिकित्सा संस्थानों (लैब, रेडियालाजी आदि) की प्रतियोगिता में यह संस्थान इतना गिर चुके हैं कि रोगी और तीमारदारों का इस या उस चिकित्सा संस्थान के जाल को तोड़कर निकल पाना नामुमकिन हो जाता है। 
    जब चिकित्सा पेशे में उपरोक्त करतूतें हो रही हों, जब सेवाभाव की जगह किसी भी हद तक जाकर मरीज से पैसा ऐंठना हो जाय, जब रोगी एक ग्राहक बन जाये तब पुराने रिश्ते टूटेंगे ही। रोगी व जनता अब चिकित्सकों को भगवानतुल्य नहीं समझ सकती। अब चिकित्सक सेवाभाव भूल रहे हैं तो जनता भी सम्मान भूल रही है। कल तक जो जनता चिकित्सकों को भगवान तुल्य मानकर उन पर भरोसा करती थी वह कमीशनखोरी की संस्कृति को देखकर अब उनके लापरवाहियों पर या फिर उनके निर्णयों पर सवाल उठाने लगी है। ठीक वैसे ही जैसे न्यायाधीशों के रंग-ढंग को देखकर उनके फैसलों पर सवाल उठने लगे हैं। 
    चिकित्सकों के इस नये अवतार के कारण लोग अब आंख मूंदकर यह नहीं मानने को तैयार होते कि रोगी का इलाज चिकित्सकों ने सही ढंग से किया है खासकर परिजनों की मौत पर। लेकिन जनता के भरोसे को धनलोलुप चिकित्सकों ने ही तो तोड़ा है। उदारीकरण की नीतियों ने अगर चिकित्सा को एक व्यवसाय बनाया है और चिकित्सा को एक माल की तरह बेचा जा रहा है तो फिर उसका परिणाम चिकित्सकों, अस्पताल मालिकों व रोगी व तीमारदारों के टकराव के रूप में दिखेगा ही। 
    इसमें कोई दो राय नहीं कि रोगी व उसके तीमारदारों को डाक्टरों पर भरोसा करना ही होगा। इसमें भी कोई दो राय नहीं हो सकती कि रोगी के लिए जो सबसे अच्छा है उसका मूल्यांकन केवल डाक्टर ही कर सकता है और इसलिए चिकित्सा पेशे से जुड़े लोगों द्वारा गलत तरीकों के इस्तेमाल व वास्तविक जरूरत की चादर बहुत झीनी है। फिर भी उपरोक्त बुरे कर्म इतने व्यापक पैमाने पर हो रहे हैं कि मरीज व तीमारदार का अविश्वास करना भी वाजिब नजर आने लगता है। 
    जब चिकित्सा सेवा एक ‘माल’ बन गयी है तब ‘खराब माल’(सेवा) पर सवाल तो उठेंगे ही। परिजन के इलाज में सब कुछ नर्सिंंग होम में होम कर चुके लोग जब परिजन को खो देते हैं तो वे अपना आक्रोश चिकित्सकों व चिकित्सा संस्थानों पर निकालने लगते हैं। रोगी व तीमारदारों के हंगामे के गैरजरूरी व गलत कारण हो सकते हैं। डाक्टरों पर हमले या अस्पतालों में तोड़-फोड़ इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। और न ही वह समाधान हो सकता  है जो चिकित्सक व नर्सिंग होम संचालक देख रहे हैं। कोई भी कानून इस प्रकार के टकराव को होने से नहीं रोक सकता। बिना कारण खत्म किये अर्थात् चिकित्सा को पुनः सेवाभाव का विषय बनाये बगैर ये टकराव रुकना नामुमकिन है। आई.एम.ए. की यह हड़तालें केवल ऐसे मुद्दों के लिए नहीं होनी चाहिए उन्हें वे हड़ताल अपने सदस्यों के अनुचित आचरण के विरुद्ध भी करनी चाहिए। चिकित्सक डिग्री लेते समय जो शपथ लेते हैं क्या ज्यादातर चिकित्सक उस शपथ के साथ भी वही व्यवहार नहीं करते जो ज्यादातर धर्माचार्य धार्मिक पुस्तकों के साथ करते हैं। 
    उ.प्र. सरकार चिकित्सकों व नर्सिंग होम की सुरक्षा का कानून बना चुकी है। क्योंकि निगम संस्कृति के खुले इन संस्थानों के पास धन है, पहुंच है। पर क्या रोगियों को कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। रोगियों को बेहतर व वाजिब इलाज मिले इसका कानून क्यों नहीं बनना चाहिए। दलाली और कमीशनखोरी के खेल के अड्डे बन चुके नर्सिंग होम के खिलाफ कानून क्यों नहीं बनना चाहिए। चिकित्सकों, लेबों, रेडियोलाॅजिस्टों, नर्सिंग होम को अपनी फीस लेने का इस देश का कानून इजाजत देता है परन्तु कमीशनखोरी व दलाली करके रोगियों की जेब पर डाका डालने का अधिकार उन्हें कौन देता है? पुनः दोहराना चाहते हैं कि उपरोक्त बातें उन सभी चिकित्सकों के लिए नहीं हैं जो ईमानदारीपूर्वक अपनी फीस लेते हुए रोगियों का इलाज व सेवा कर रहे हैं। 
    इसलिए ईमानदार चिकित्सकों व जनता को मिलजुलकर चिकित्सा पेशे में पैठ बनाये इस कमीशनखोरी व दलाली के विरुद्ध लड़ना होगा ताकि चिकित्सकों और रोगियों के प्यार और सम्मान का रिश्ता पुनः स्थापित किया जा सके। खोया हुआ भरोसा पुनः लौट सके। लेकिन पैसे की यह पूंजीवादी व्यवस्था इसके मार्ग में एकमात्र अवरोध है जिसे हटाये बगैर इस पेशे की गरिमा को स्थापित नहीं किया जा सकता है।  
नंदीग्राम की जुझारू महिलाओं की वर्तमान दुर्दशा   -निशा विश्वास
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    नंदीग्राम पूर्वी मिदनापुर (पश्चिम बंगाल) के हल्दिया तहसील का ग्रामीण इलाका है। यह 2007 से 2010 तक संघर्ष का केन्द्र बिंदु रहा है। यह संघर्ष उस समय शुरू हुआ था, जब पश्चिम बंगाल सरकार ने दस हजार एकड़ जमीन किसानों से जबरन अधिग्रहित कर ली थी। पश्चिम बंगाल सरकार उस अधिग्रहित जमीन पर रसायन उद्योग खड़ा करना चाहती थी। तब से नंदीग्राम अनेक कृषि और जमीन अधिग्रहण विरोधी संघर्षों के लिए प्रेरणास्रोत रहा है। यह मुख्यतया नंदीग्राम की वजह से ही था कि उस समय की संप्रग सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र और भूमि अधिग्रहण अधिनियमों में बदलाव लाने के लिए मजबूर हुई थी। इस आंदोलन ने तीन दशक से ज्यादा माकपा (CPM) शासन की हवा निकाल दी और 2011 में राज्य विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को अभूतपूर्व बहुमत दिलाया। 
    इस प्रतिरोध आंदोलन में नंदीग्राम की महिलाओं ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वे संघर्ष की अग्रिम कतारों में थीं। सुप्रिया जना ने पुलिस द्वारा अंधाधुंध गोली चलाने से अपना बहुमूल्य जीवन न्यौछावर कर दिया। उस दौरान सत्रह महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ, बहुतों के साथ बदसलूकी की गयी और लगभग सौ महिलाओं को घायल किया गया। राधा रानी अरी (जिसके साथ दो बार सामूहिक बलात्कार हुआ), तपसी दास, सवर्णमयी दास और बुजुर्ग नर्मदा श्री नंदीग्राम आंदोलन के चेहरे हो गये थे। 
    उनका साहस, ऊर्जा और अनथक प्रयास ने असंख्य लोगों को प्रेरणा दी। यह सपना देखने का समय था, उम्मीद का समय था, सशक्तिकरण का समय था।, यह जीने का समय और मरने का समय था। वे अपनी कहानियां बताने के लिए समूचे देश में गयीं। उस समय की विरोधी पार्टी की मुखिया ममता बनर्जी ने उनका समर्थन किया। और चालाकी के साथ उनकी उपलब्धियों को छीन लिया। आम तौर पर नंदीग्राम की जनता विशेष तौर पर वहां की महिलाओं ने सोचा था कि उन्होंने जो सपना देखने का साहस किया था उसे ममता बनर्जी ले आयेगी। सिंगूर और नंदीग्राम आंदोलनों की लहरों पर सवार होकर ममता बनर्जी ने माकपा से सत्ता छीन ली और 2011 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बन गयी। 
    नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ हुए ऐतिहासिक संघर्ष की याद में प्रत्येक वर्ष 14 मार्च को शहीद दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष शहीद दिवस के चार दिन पहले ‘‘यौन हिंसा और राज्य दमन के खिलाफ महिलाएं’’ नामक संगठन की सात सदस्यीय टीम नंदीग्राम गयी। टीन ने वहां जो कुछ भी देखा वह बहुत दुखदायी और विक्षुब्ध करने वाला है। वे महिलाएं जो एक समय शक्तिशाली नेता थीं आज न सिर्फ अभावग्रस्त हैं बल्कि शक्तिहीन भी हो चुकी है। 
    वे संघर्ष के समय बनायी गयी भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी के नेतृत्व में इस समय कहीं नहीं हैं। चौदह मार्च को मनाये जाने वाले शहीद दिवस में या भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी की मीटिंगों में भी उनको बुलाया नहीं जाता। भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी का नेतृत्व यह भी नहीं जानता कि खुद उसके द्वारा पुलिस और शासक पार्टी गुंडों के खिलाफ दायर किये गये मुकदमों का क्या हुआ? दूसरी तरफ दिसंबर 13 में सी.बी.आई. ने तीस से ज्यादा पुरुषों और महिलाओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज किये इसमें पुलिस पर हमला करने और हिंसा भड़काने के आरोप में वे महिलाएं भी शामिल की गयी हैं, जो गंभीर रूप से घायल हुई थीं या जिनके साथ बलात्कार हुआ था। कुछ पुलिस कर्मचारियों के विरुद्ध आपराधिक प्रक्रिया शुरू करने की अनुमति मांगने की सी.बी.आई. की प्रार्थना अभी भी राज्य सरकार के पास पड़ी हुई है। जिन महिलाओं ने न सिर्फ बलात्कार, गोलियां के घाव और राज्य आतंक को झेला बल्कि जबरन भूमि अधिग्रहण के खिलाफ बहादुराना संघर्ष की अगली कतार में खड़ी रहीं और बाद में वाममोर्चा को सत्ता से हटाने में भूमिका निभाई वे आज राजनैतिक जमीन से पूर्णतया बाहर हो गयी हैं। 
    तपसीदास और सवर्णमयी जैसी महिलाएं जो गालियों के घाव से अपाहिज हो गयी हैं उनको लंबे इलाज व समर्थन की जरूरत है लेकिन उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। महिलाओं में से किसी को भी आंदोलन में उनके योगदान को मानकर न तो कोई पुरूस्कार दिया गया है और न तो कोई काम दिया गया है। अपवादस्वरूप मामलों में परिवार के कुछ पुरुषों को मेट्रो रेल में कुछ अस्थायी नौकरियां दी गयी हैं लेकिन महिलाओं को बिल्कुल ही भुला दिया गया है। तपीसदास जो निरन्तर दर्द से कराहती रहती हैं और अधिकांश समय बिस्तर पर ही रहती हैं, को किसी भी तरह का स्वास्थ्य या भावनात्मक समर्थन नहीं दिया गया है। स्थानीय संसद सदस्य हर महीने उसे 15 सौ रूपये देते हैं, जिसमें से 100 रूपये संदेशवाहक हड़प जाता है। यह पैसा डाक्टर तक पहुंचने की यात्रा के लिए भी पर्याप्त नहीं है। उसके परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे किसी विशेषज्ञ को दिखा सकें। 
    शहीदों की याद में और स्थानीय लोगों की स्वास्थ्य जरूरतों को ध्यान में रखकर बना एक विशालकाय अस्पताल घोर उपेक्षा और बर्बादी की तस्वीर पेश करता है। इसके मुख्य फाटक में ताला पड़ा रहता है और चैकीदार का यह दावा कि डाक्टर महीने में एक या दो बार आते हैं, सवालों के घेरे में हैं। 
    राधारानी अरी जिन्होंने अपने ऊपर हुए बर्बतापूर्ण यौन उत्पीड़न को बताने के लिए ममता बनर्जी के साथ समूचे देश का दौरा किया था, अब याद करती हैं कि विधानसभा चुनाव के पहले मौजूदा शासक पार्टी द्वारा उनकी बहुत मांग थी। अब जबकि ममता बनर्जी की पार्टी सत्ता में है, उसे उपेक्षापूर्ण ढंग से त्याग दिया गया है। वह कहती हैं कि मेरा शरीर सम्पत्ति की तरह है जो वोट दिलायेगा और कि वह अक्सर अब आत्महत्या करने के बारे में सोचती हैं।  अंगूर दास जिसे उसकी दो बेटियों के साथ बलात्कार का शिकार बनाया गया था, जिसमें से एक बेटी दो बच्चों की मां थी और दूसरी बेटी अविवाहित थी। आज वह उपेक्षा की तस्वीर पेश करती हैं। वह इस वादे को याद करती हैं कि उनकी बेटी की शादी कराना पार्टी की जिम्मेदारी है। 
    उसके तीनों बेटे उत्तर प्रदेश में एक कालीन उद्योग में काम करते हैं। बड़ी बेटी कविता को ससुराल वाले वापस नहीं बुलाना चाहते। छोटी बेटी गंगा की खुशी दहेज देने या न देेने के कच्चे धागे पर निर्भर करती है। बलात्कार की शिकार सोलह महिलाओं में से सिर्फ तीन को दो लाख रूपये का मुआवजा मिला है। 
    पुरुष वर्चस्व की प्रचंड शक्ति ने महिलाओं को चुप करा दिया है। बादल, कालिया गारू, रविंद्र दास इत्यादि जैसे बलात्कार के सभी अभियुक्त पब्लिक के गुस्से से बचने के लिए सालों बाहर रहने के बाद अपने घरों को लौट आये हैं। अफवाह तो यह है कि उनका वापस लौटना भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी के नेतृत्व से समझौते के बाद ही संभव हुआ है। गारू परिवार राधारानी के क्षेत्र में रहता है और अंगूरदास का ठीक पड़ोसी है। इससे महिलाएं और भी ज्यादा असुरक्षित महसूस करती हैं तथा यह उनके अवसाद के कारणों को बढ़ाता है। इन पुरुषों को कोई भी पछतावा नहीं है और भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी के समर्थन से, जिसमें नेतृत्व को इन्होंने अच्छा खासा जुर्माना दिया है, वे इन महिलाओं को और ज्यादा भयभीत करते हैं। सामने होने पर भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी के नेता इन महिलाओं से कहते हैं कि तुम्हारी समस्या क्या है? वे यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि उनकी समस्या सिर्फ न्याय का न मिलना ही नहीं है बल्कि उन्हें हर रोज अपमानित किया जाता है। यहां तक कि पड़ोसी भी अब बलात्कार के शिकार लोगों पर उंगुलिया उठाते हैं।         
    यद्यपि पश्चिम बंगाल के राजनैतिक परिदृश्य के बदल जाने से और बड़े नीतिगत परिवर्तनों से युद्ध भूमि बदल गयी है तथापि नंदीग्राम उसी तरह उपेक्षा का शिकार है। सड़कें उसी तरह बदहाल हैं, कृषि अभी भी एक फसली है, तालाबों की सफाई नहीं हुई है और नहरों को अभी भी खोदा जाना है। इस वजह से पुरुषों को काम की तलाश में बाहर जाना पड़ता है। मनरेगा का काम भी जैसे-तैसे ही है। 
    नंदीग्राम आज निराशा की दुख भरी तस्वीर है। महिलाएं जो आंदोलन का अभिन्न अंग थी और अधिग्रहण विरोधी संघर्ष की अंतिम कतारों में थीं उन्होंने अंततः पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को सत्ताशीन कराया वे आज घरों में ही सीमित हो गयी हैं और सभी किस्म के उत्पीड़न का शिकार हैं।          (सन्हति डाॅट काॅम से साभार)
पूंजीवादी समाज में महिलाओं के अतिशोषण के बारे में
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    (दूसरी किस्त)
(मार्लिन डिक्सन का प्रस्तुत लेख पिछले लेख की कड़ी में है। इस लेख में उन्होंने पूंजीवाद के अंतर्गत आणविक परिवार की संस्था द्वारा महिलाओं के अति शोषण की प्रक्रिया को समझाया है। उम्मीद है कि पाठकों को नारी समस्या के पक्ष को समझने में यह मदद करेगा। प्रस्तुत लेख 1977 में लिखा गया था- सम्पादक)
    विभिन्न तरह के नारीवादी एक या दूसरे रूप में महिलाओं की समस्याओं को उनके शारीरिक संरचना और परिवार में देखते हैं। यह सच्चाई स्वतः स्पष्ट है कि सभी पुरुष और महिलाएं इस दुनिया में पीड़ा और तकलीफ के साथ महिलाओं के गर्भ से ही आते हैं। यह भी उतना ही सच है कि पूंजीवाद के अंतर्गत उत्पीड़नकारी, पुरुष और नारी के बीच श्रम विभाजन और परिवार के भीतर नारी की अधीनता की स्थिति का आधार उसका पुनरुत्पादक कार्य है। नारी की अधीनता समूचे गर्भधारण के दौरान और बच्चे के पालन के समय बनी निर्भरता से उपजी होती है, और कि यह निर्भरता, बदले में, वस्तुतः मानव नवजात की निर्भरता होती है। (जो मानव जाति की, मानव समाज की महिलाओं की निर्भरता होती है) जैसाकि एक नृतृत्वविज्ञानी ली काॅक ने एंगेल्स की पुस्तक ‘‘परिवार, निजी सम्पति और राज्य की उत्पत्ति’’ की अपनी भूमिका में इंगित किया हैः 
    ‘‘कुछ तरीकों से यह हमारे समाज का अंततः अलगाव ही है जिसने पैदा करने के गुण को एक बोझ में बदल दिया है। इसका कारण महज यह नहीं है कि औरतें चूंकि बच्चे पालती हैं, इसलिए वे आवागमन और गतिविधियों के लिए ज्यादा सीमित हो जाती है। जैसाकि वैज्ञानिक प्रमाण स्पष्टतया इंगित करते हैं कि शिकार करने और इकट्ठा करने वाले सीमित प्रौद्योगिकी के अंतर्गत भी यह बाधा नहीं थी, यह आज तो निश्चित तौर पर कोई प्रासंगिकता नहीं रखती। न ही महिलाओं की निम्न हैसियत महज इस बात से हुई थी जब पुरुष कृषि की ओर गये तो अन्न उत्पादन में उनका महत्व कम हो गया था’’। 
    नारीवादी अक्सर तर्क देते रहे हैं (जानबूझकर या अन्यथा) कि शारीरिक संरचना-बच्चे पैदा करने की योग्यता- ही महिलाओं की गतिशीलता और गतिविधियों को सीमित करने की कारक रही है। लेकिन हमारे प्रौद्योगिकी के युग में जहां परमाणु राकेट दागने के लिए कम्प्यूटर के प्रोग्राम बनाने के लिए या टाइपराइटर चलाने के लिए उंगली पर थोडे़ से दबाव से ज्यादा की जरूरत नहीं होती, तब यह तो स्पष्ट ही है कि मातृत्व का जीवविज्ञानी तथ्य भूमिका को सीमित करने वाला अपने आप में कारक नहीं है। भूमिका को सीमित करने के कारकों को उत्पादन के सामाजिक संबंधों में और पूंजीवाद के अंतर्गत परिवार के सामाजिक संबंधों में ढूढे जाना चाहिए। एंगेल्स ने तर्क दिया था कि महिलाओं की अधीनता और उनके उत्पीड़न को उन कारकों में ढूंढा जा सकता है जो सामुदायिक कुटुम्ब समूह को तोड़कर अलग-थलग इकाइयों में बतौर वैयक्तिक परिवारों के लिए जिम्मेदार रहे हैं। पहले ये सामुदायिक कुटुम्ब अपने सदस्यों के भरण पोषण और नई पीढि़यों के लालन-पालन के लिए आर्थिक तौर पर जिम्मेदार रहते थे। नारी जाति की अधीनता उनके सामाजिक तौर पर आवश्यक श्रम को पति के लिए निजी सेवा में रूपांतरण पर आधारित थी। और यह उस कुटुम्ब से परिवार में अलगाव के जरिये सम्पन्न हुआ था। यह वह संदर्भ था जब महिलाओं का घरेलू काम वस्तुतः दासता की स्थितियों के अंतर्गत किया जाता था। एंगेल्स ने जब यह कहा था कि अलग-थलग पितृसत्तात्मक परिवार को समाज की आर्थिक इकाई के बतौर (न कि समूचे समुदाय के गठन को) ‘‘नारी जाति की विश्व ऐतिहासिक पराजय’’ के बतौर देखा जाना चाहिए तब वे वस्तुतः इस संस्था को चिह्नित कर रहे थे जिसके जरिये ‘‘नारी जाति की विश्व ऐतिहासिक पराजय’’ सम्पन्न हुई थी। ली काॅक ने इस प्रक्रिया को इस तरह सार संक्षेप में प्रस्तुत किया हैः 
    ‘‘एकनिष्ठ विवाह की महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इसने आणविक परिवार का रूपांतरण समाज की बुनियादी आर्थिक इकाई में कर दिया जिसके भीतर महिला और उसके बच्चे एक पुरुष पर निर्भर हो गये। शोषणकारी वर्ग संबंधों के साथ मिलकर इस रूपांतरण ने महिलाओं के उत्पीड़न को जन्म दिया जो आज तक जारी है’’। 
    हमारे पास कोई टाइम मशीन नहीं है जिसके जरिये हम ‘‘नारी जाति की विश्व ऐतिहासिक पराजय’’ की उत्पत्ति के संबंध में एंगेल्स की परिकल्पना की जांच कर सकें। तब भी, हम नारी जाति के सामाजिक तौर पर आवश्यक श्रम का पति की निजी सेवा में रूपांतरण पर आधारित उनकी अधीनता को और कि पूंजीवाद के अंतर्गत आणविक परिवार, एकनिष्ठता (महिलाओं के लिए), महिलाओं की सामाजिक भूमिकाओं की यौनिक परिभाषा, और उनकी श्रम शक्ति व पुनरुत्पादन शक्ति के निजी हस्तगतकरण को उनकी अधीनता के आधार को प्रदर्शित कर सकते हैं। 
    यदि हम यूरोपीय परिवार पर ऐतिहासिक तौर पर निगाह डालें तो औद्योगिक और एकाधिकारी पूंजीवाद के उभार से पहले हम देखते है कि परिवार एक विस्तारित कुटुम्ब था जो समाज की आर्थिक इकाई था। परिवार उत्पादन इकाई के साथ-साथ उपभोग इकाई भी था। माल उत्पादन की पूर्ण विजय होने के साथ परिवार उत्पादन इकाई से घटकर एक निर्भर उपभोग इकाई के रूप में हो गया। यह विस्तारित कुटुम्ब संगठन से घटकर संविदा वाले विवाह से परिभाषित आणविक परिवार में तब्दील हो गया। परिवार के इस रूपांतरण के साथ-साथ श्रम (परिवार की उत्पादन इकाई में) का श्रम शक्ति काल में (कार्य करने की क्षमता का माल के बतौर बेचना, जिसकी कीमत मजदूरी होती है) रूपांतरित हुई। परिवार के कार्य और संगठन में आये इन बदलावों ने महिलाओं के कार्य और भूमिका में भी बदलाव लाया। चूंकि परिवार माल उत्पादन के किसी दिखाई पड़ने वाले रूप से अधिकाधिक अलग-थलग होते गये, तो देखने में यह समग्र रूप से समाज के केन्द्रीय सामाजिक व आर्थिक संगठन से अधिकाधिक अलग-थलग होते गये। सामाजिक संगठन की आर्थिक इकाई से ‘‘वास्तविक’’ सामाजिक संगठन (माल उत्पादन) के लिए ऊपरी तौर पर दिखाई पड़ने वाले परिधिगत निजी सहायक के बतौर सीमित हो जाने का परिणाम यह निकला कि महिलाओं के काम का ‘‘हासियाकरण’’ हो गया और महिलाओं के घरेलू श्रम का मूल्य कम हो गया (बिना मजदूरी का)। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पूंजी के लिए माल उत्पादन के लिए परिवार हासिये की चीज है। इस प्रकार, इससे ऐसा लगता है कि महिलाओं का घरेलू श्रम और यदि इसे विस्तारित कर दिया जाय तो खुद महिलाएं, जो अपने पति की मजदूरी पर निर्भर हैं, कोई मूल्य नहीं रखतीं। 
    यह प्रतीयमान निर्भरता पुरुष वर्चस्व को, पति को परिवार के निरंकुश शासक के बतौर, पत्नी को पूर्णतया निर्भर और गुलाम के बतौर जिसकी हैसियत विवाह की संविदा के भीतर एक बंधुवा मजदूर की है, जारी रखने को न्यायसंगत ठहराती है। 
    तब भी, ऊपरी तौर पर दिखाई पड़ने वाला परिवार और महिलाओं के घरेलू काम का ‘‘हासियाकरण’’ पूंजीवाद के अंतर्गत परिवार के वास्तविक कार्य को रहस्यमय बना दिया है। वह कार्य है श्रम शक्ति के उत्पादन और पुनरुत्पादन का कार्य। एंगेल्स ने ‘‘परिवार, निजी सम्पति और राज्य की उत्पत्ति’’ में लिखा हैः 
    ‘‘भौतिकवादी धारणा के अनुसार, इतिहास में निर्णायक कारक, अंततोगत्वा तात्कालिक जीवन का उत्पादन और पुनरुत्पादक है। लेकिन इसका खुद दोहरा चरित्र है एक तरफ तो अस्तित्व के साधनों, भोजन, कपड़ा और आवास और इस उत्पादन के लिए आवश्यक औजारों का उत्पादन है और दूसरी तरफ खुद मानवों का उत्पादन, इस प्रजाति का विस्तार है। माक्र्स ने पूंजी में स्वीकार किया कि ‘‘इतिहास में निर्णायक कारक तात्कालिक जीवन का उत्पादन और पुनरुत्पादन है’’ और इंगित किया कि पूंजीवाद के अंतर्गत यह श्रमशक्ति के उत्पादन और पुनरुत्पादन कर रूप ले लेता है। संक्षेप में, माल उत्पादन उस एक अकेले माल के लिए परिवार पर निर्भर होते हैं जिस पर पूरा पूंजीवादी समाज निर्भर है और वह है खुद मानव श्रमशक्ति। 
    माक्र्स ने मूल्य के श्रम सिद्धांत में इन सभी कारकों को, ध्यान में रखा था। श्रमशक्ति नामक माल के मूल्य (इसकी ‘‘कीमत’’ मजदूरी से भिन्न) का निर्धारण श्रमशक्ति के कुल उत्पादन और पुनरुत्पादन के लिए सामाजिक तौर पर आवश्यक श्रम काल की लगने वाली मात्रा से तय होता है। संक्षेप में, समूचे परिवार की एक इकाई के बतौर श्रम, जिसमें नये सर्वहाराओं के पुनरुत्पादन के साथ-साथ पति की श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन (उसका आराम, अगले दिन श्रम करने के लिए खुद को मजबूत करने और शक्ति संचय करना भी है) सहित ये सभी ‘‘घरेलू श्रम’’ मजदूर के श्रमशक्ति के वास्तविक मूल्य को निर्धारित करते हैं। तब मजदूर एक व्यक्ति के बतौर पूंजीपति के लिए जितने घंटे लगाता है, उसका उचित भुगतान नहीं किया जाता। श्रमशक्ति का वास्तविक मूल्य तो परिवार एक इकाई के बतौर जो लगाता है और समूचे परिवार द्वारा श्रमशक्ति माल के उत्पादन और पुनरुत्पादन में सामाजिक तौर पर आवश्यक श्रम के कुल योग की भरपाई देने से निकलता है। मजदूर की मजदूरी, श्रमशक्ति का विनिमय मूल्य, श्रमशक्ति को उत्पादित करने वाली इकाई परिवार को दिया जाता है। यह मूल्य का श्रम सिद्धांत है। यह परिवार के सामाजिक संबंधों का अदृश्य ताना-बाना है। तब भी, महिलाओं के लिए जो वस्तुतः अदृश्य चीज है, वही उन पर लागू होने वाला तथ्य है। 
    संस्थाबद्ध पुरुष वर्चस्व जो मौजूदा पूंजीवाद के अंतर्गत आणविक परिवार के सामाजिक संगठन में गहरी जड़े जमाये हुए है, मजदूरी के वास्तविक चरित्र और श्रमशक्ति के मूल्य के वास्तविक निर्धारक कारकों को रहस्यमयी बनाने में सेवा करता है। वह यह महिलाओं के घरेलू सामाजिक तौर पर आवश्यक श्रम को जो श्रमशक्ति के उत्पादन और पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक होता है, इंकार करके और उसे पति की निजी सेवा कहकर प्रतीयमान को बनाये रखता है। यह चतुराईभरी धोखाधड़ी इसलिए की जाती है क्योंकि पूंजीवाद के अंतर्गत माल उत्पादन की प्रकृति विशिष्ट तौर पर रहस्यमयी है। इसमें ऐसा प्रतीत होता है कि 
-महज पूंजीवादी माल उत्पादन ही अतिरिक्त मूल्य यानी कि उत्पादक श्रम पैदा करता है और
-श्रमिक एक व्यक्ति के बतौर अपनी खुद की निजी श्रमशक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र रूप से समझौता करता है। इसलिए, चूंकि पत्नी का श्रम पति की निजी सेवा दिखाई पड़ती है जो माल उत्पादन से पूर्णतया अलग होती है, इसलिए इससे यह नतीजा निकाला जाता है कि उसका समर्थन, उसके बच्चों और खुद उसका श्रम पति की एकमात्र जिम्मेदारी है, जिसका उसकी श्रमशक्ति के मूल्य और इस तरह उसकी मजदूरी के साथ कोई संबंध नहीं है। इन दो कारकों का मतलब है कि श्रमशक्ति माल के उत्पादन और पुनरुत्पादन में लगा महिला का उत्पादक श्रम परिवार के जरिये लगता है ओर पति के श्रम से हस्तगत किये गये अतिरिक्त मूल्य में उसका योगदान पूंजी की व्यक्तिगत मजदूरी प्रणाली में वह छिप जाता है। जब उसका माल खुद श्रमशक्ति बाजार में जाती है तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह अकेली उसकी है, जबकि वास्तविकता इससे भिन्न होती है। इस तरीके से श्रमशक्ति की बाजार की कीमत को श्रमशक्ति के वास्तविक मूल्य से अलग किया जा सकता है। एक बार ऐसा हो जाने पर महिला का श्रम दोनों गैर मजदूरी वाला और मूल्यहीन दोनों लगता है। जबकि तथ्य यह है कि उसके श्रम के मूल्य को पुरुष की मजदूरी में यानी कि उसकी श्रमशक्ति की कीमत में शामिल किया जाना चाहिए। 
    परिवार को रहस्यमय करने (परिवार, खुद श्रमशक्ति के उत्पादन और इकाई के बतौर परिवार के वास्तविक कार्य को छिपाकर) के परिणामस्वरूप परिवार के भीतर सामाजिक संबंध, पति और पत्नी के बीच, पूंजीवाद के सामाजिक संबंधों का चरित्र ग्रहण कर सकते हैं। जैसाकि एंगेल्स ने बहुत पहले चिह्नित किया था कि पत्नी का पति के समक्ष वही स्थान हैं जो मजदूर का पूंजीपति के समक्ष। यह विरोध, घरेलू श्रम के रहस्यमयी चरित्र के परिणास्वरूप है और गुलामी प्रथा जैसे उन रूपों की गलत आभास कराती है जिनमें श्रम का भुगतान नहीं किया जाता थाः 
    मजदूरी प्रणाली के आधार पर अचुकता श्रम भी चुकता श्रम जैसा ही लगता है। गुलाम के साथ, इसके विपरीत, उसका वह श्रम भी जिसका भुगतान किया जाता है, वह अचुकता ही लगता हैं। वास्तव में, गुलाम को काम करने के लिए उसे जिंदा रहना होगा और उसके काम के दिन का एक हिस्सा उसको खुद को बनाये रखने के मूल्य को स्थानापन्न करता है। लेकिन उसके और उसके मालिक के बीच चूंकि कोई सौदेबाजी नहीं होती और दो पक्षों के बीच खरीदने और बेचने की कोई कार्यवाही नहीं सम्पन्न होती, इस सबसे ऐसा लगता है कि उसके श्रम का कोई भुगतान नहीं होता। 
    चूंकि ‘‘दो पक्षों के बीच बेचने और खरीदने की कोई कार्यवाही नहीं होती, उसका (उसकी) कुल श्रम ऐसा लगता है कि बिना कुछ चुकाये हासिल कर लिया गया हो’’, यानी कि बिना मजदूरी पाये पत्नी अपने जीवनयापन के लिए पति पर ‘‘निर्भर’’ है, परिवार के भीतर उसकी मजदूरी विहीनता की स्थिति उसे पति का गुलाम बनने तक सीमित कर देती है। वस्तुतः वह पति की मजदूरी में हिस्सा पाती है जो रहस्य के आवरण में ढंके परिवार की इकाई में ऐसा प्रतीत होता है कि सामूहिक तौर पर उत्पादित माल श्रमशक्ति में उसका अधिकारपूर्ण हिस्सा नहीं है बल्कि उसके खुद को बनाये रखने की क्षतिपूर्ति है। तब भी, न तो पति और न ही पत्नी श्रमशक्ति के मूल्य के वास्तविक (सैद्धांतिक) निर्धारण के प्रति सचेत होते हैं। 
    परिवार के भीतर (पत्नी) सर्वहारा के (पति) पूंजीपति के साथ संबंधों में विवाह की संविदा गुलाम जैसा चरित्र ग्रहण कर लेती है जो पूंजीवाद के सामाजिक संबंधों को प्रतिबिम्बित करती है। 
    ‘‘मजदूर अपना श्रम नहीं बेचता बल्कि अपने श्रम करने की क्षमता को बेचता है। वह पूंजीपति को ऐसी अपने ताकत अस्थायी तौर पर बेचता है, जिसकी पूर्ति वह कर लेता है। अंगे्रजों के कानून में ऐसा है या नहीं मैं नहीं जानता लेकिन कुछ महाद्वीपीय कानूनों में निश्चित तौर पर किसी व्यक्ति को अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए अधिकतम समय तय किया गया है। यदि इसे अनिश्चित काल के लिए बढ़ाने की इजाजत दे दी जाय तो चाहे जो भी हो, दासप्रथा फिर से स्थापित हो जायेगी। ऐसी बिक्री, यदि जीवनभर के लिए हो जाय जो वह अपने नियोक्ता का एक बार में ही आजीवन दास बन जायेगा। 
    परिवार में पति और पत्नी के बीच विरोध इस रहस्यमयीकरण से होता है जिसका परिणाम यह होता है कि पत्नी अपने नियोक्ता की आजीवन गुलाम हो जाती है क्योंकि न तो कोई नियत या अधिकतम समय होता है बल्कि अनिश्चित काल होता है जिसमें पत्नी से उम्मीद की जाती है कि वह पति के लिए काम करे। यह रहस्यमयीकरण पूंजी की अच्छी सेवा करता है। क्योंकि इससे न सिर्फ सस्ते श्रम सुनिश्चित होता है (क्योंकि पत्नियों के बतौर महिलाओं की श्रमशक्ति को उसके वास्तविक मूल्य पर क्षतिपूर्ति नहीं की जाती।) बल्कि यह महिलाओं का गुस्सा और निराशा पूंजी से हटाकर अपने पति की ओर कर देता है। सर्वहारा वर्ग के पति और पत्नी को पूंजी द्वारा छला जाता है और धोखा दिया जाता है जिसका उद्देश्य पूंजी का फायदा बढ़ाना होता है। यह सर्वोपरि व्यवस्था इतनी क्रूर है क्योंकि इससे औरतों की पराधीनता और शोषण में वह पति को पूंजी का अनचाहा सहयोगी बनाने में मदद करती है।
    परिवार की संस्था पूंजीपतियों की श्रमशक्ति के मूल्य को कम करने में मदद करती है। यानी कि यह श्रमशक्ति काल को उसके वास्तविक मूल्य से काफी कम कीमत पर (मजदूरी) खरीदना संभव बनाती है। इसे सिर्फ महिलाओं के घरेलू श्रम के गैर मान्यता प्राप्त चरित्र के जरिये ही पूरा किया जा सकता है। 
    मजदूर वर्ग की महिलाओं के लिए, उनके द्वारा लगाया गया समय और प्रति सप्ताह उसका मूल्य बहुत ज्यादा होता है। परिवार के भीतर बिना मजदूरी के, निजी और विवाह संविदा का मतलब है कि घरेलू श्रम, श्रम सघन बना हुआ है। घरेलू क्षेत्र में उत्पादन के साधनों का औद्योगिक विकास आदिम बना हुआ है क्योंकि न तो वहां होड़ काम करती है और न ही मजदूरी का दबाव काम करता है। चूंकि कोई मजदूरी नहीं दी जाती, श्रम काल ‘‘अनिश्चित’’ चरित्र लिए रहता है चूंकि पति और पत्नी के बीच किन्ही मालों का विनियम नहीं होता, यहां तक कि पत्नी के श्रम के एक हिस्सों का जो चुकता भी किया जाता है वह भी प्रतीति में अनचुकता रहता है। यह सभी ‘‘घरेलू दासता’’ का आवरण लिये रहता है और पति ‘‘दास मालिक’’ की तरह लगता है। 
    परिवार में महिलाओं के कार्य की वास्तविक प्रकृति उस समय पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है जब हम यह अहसास करते हैं कि विवाहित महिला का श्रम सही मायने में सेवा क्षेत्र में आता है। इस प्रकार यदि कोई महिला घर की देखरेख करने, खाना देने, कपड़ा धोने, सिलाई करने, बच्चों की देखरेख करने, साफ सफाई करने, नौकरानी का काम करने, साथ-साथ रहने का काम मजदूरी पर करती है तो उसे मजदूरी पर काम करने वाली सर्वहारा का हिस्सा गिना जायेगा। यह तो सिर्फ तभी होता है जब महिला का विवाह हो जाता है और उसके ऐसे सभी कामों को ‘‘पूंजीवादी माल उत्पादन के बाहर के उपयोग मूल्यों के उत्पादन के बतौर परिभाषित किया जाता है’’। इसलिए यहां यह नहीं है कि क्या और कैसे पैदा किया जाता है बल्कि वह विवाह संविदा है जो तय करती है कि महिला का श्रम मजदूरी वाला है या बिना मजदूरी वाला। यह पत्नी की हैसियत है जो महिला को बिना मजदूरी के और मूल्यहीन श्रमिक में सीमित कर देता है। यह विवाह संविदा है जो पति को कानूनी अधिकार देता है कि वह महिला की श्रमशक्ति को जीवनयापन की कीमत पर सीधे हड़प ले और उसे पत्नी के बतौर मिले उस पर कानूनी मालिकाने के तहत बिना मजदूरी दिये अपनी निजी सेवा में लगा सके। 
    घर में महिलाओं का बिना मजदूरी के श्रम ही सस्ते श्रम की कीमत की रीढ़ है। क्या इसमें कोई आश्चर्य है कि महिलाओं द्वारा इस प्रणाली को स्वीकार कराने के लिए शिक्षा और उनकी मनःस्थिति बनाने को सुनिश्चित कराने में भारी राशि खर्च की जाती है? शिक्षा और विज्ञापनों में जो यह भारी राशि खर्च की जाती है वह महिलाओं की घरेलू श्रमशक्ति के वास्तविक मूल्य की तुलना में कुछ भी नहीं है। 
    यही कारण है कि शासक वर्ग द्वारा परिवार संस्था को लगातार यह कहकर स्थापित किया जाता है कि परिवार स्वर्ग है और महिलाओं का स्थान घर में है। इस प्रकार के बहुत सारे मजदूर पुरुष शिकार हैं। लेकिन जैसाकि ऊपर बताया जा चुका है कि इससे पंूजीपतियों को प्रत्यक्ष लाभ मिलता है। 
    तब भी पूंजी को इससे मिलने वाले लाभ यहीं नहीं रुकते। महिलाओं के श्रम की रहस्यमयी प्रकृति के चलते, पूंजी निरंतर और बढ़ते स्तर पर मजदूरी के स्तर को गिराकर वहां तक ले जाती है जहां आधुनिक अर्थव्यवस्था में सर्वहारा वर्ग के सिर्फ सुविधा प्राप्त तबके और मध्यम वर्ग ही इतनी मजदूरी अपने घर ले जाने में समर्थ होते हैं जो गरीबी रेखा से ऊपर का स्वीकार्य जीवन स्तर अपनी पत्नी और परिवार को दे सकने में समर्थ हों। अधिकांश लोगों की मजदूरी इतनी कम होती है कि विवाहित महिलाओं को परिवार को चलाने के लिए मजदूरी करने को मजबूर होना पड़ता है। इससे पूंजी द्वारा महिलाओं के श्रम को औद्योगिक रिजर्व सेना में उपयोग में लाना सुगम हो जाता है जिससे कि पुरुषों के गैर मजदूरी वाले घरेलू श्रम का भी भरपूर फायदा उठाया जाता है। संक्षेप में, मजदूर महिलाओं का उस समय अतिशोषण होता है जब वे श्रम के बाजार में प्रवेश करती हैं। पहले तो माल उत्पादन के प्रत्यक्ष तौर पर अतिरिक्त मूल्य के हस्तगतकरण करके और तब दूसरी बार घरेलू श्रम से (परिवार के जरिये) मूल्य का अप्रत्यक्ष हस्तगतकरण करके। 
    इसलिए पूंजीवाद के अंतर्गत अस्तित्वमान आणविक परिवार की संस्था और इसके परिणामस्वरूप सर्वहारा के उत्पादन और पुनरुत्पादन (मातृत्व) महिलाओं के उचित कार्य की सीमाएं ही हैं जो पूंजीवादी माल उत्पादन में पूंजी द्वारा महिलाओं के श्रम का अतिशोषण सुगम बनाते हैं। मूल्य का अतिरिक्त सिद्धांत का मानना है कि वास्तविक मूल्य पर मजदूरी में श्रमशक्ति के उत्पादन और पुनरुत्पादन की लागत भी शामिल रहती है। मुद्रास्फीति, बेरोजगारी और कम मूल्य पर श्रमशक्ति (घटी मजदूरी) महिलाओं पर लगातार दबाव डालती रहती है कि वे घर से बाहर निकलकर श्रमिकों की कतार का हिस्सा बनें। यह हमेशा से पूंजीवाद की चारित्रिक विशेषता रही है, लेकिन आज महिलाओं का रोजगार में आना लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे भी बढ़कर मजदूर महिलाएं मजदूर कतारों में लगातार आ-जा रही हैं। महिलाएं विवाह से पहले और विवाह के बाद शुरूआती दिनों में काम करती हैं। महिलाएं उस समय मजदूर कतारों से बाहर हो जाती हैं जब बच्चे छोटे होते है और शुरूआती बचपन के दौर में होते हैं। और वे फिर श्रम बाजार में आ जाती हैं जब बच्चों का बाद का बचपन आ जाता है या वे बड़े हो जाते हैं। यह क्रम कभी भी भंग हो जाता है क्योंकि रोजगार में और मजदूरी स्तर में संकुचन या विस्तार होता रहता है। मजदूरी के स्तरों में संकुचन या विस्तार होता रहता है। मजदूरी के स्तरों में संकुलन या विस्तार महिलाओं के श्रम को औद्योगिक रिजर्व सेना के हिस्से के बतौर नियंत्रित करने में इस्तेमाल होता है। महिलाओं को श्रम बाजार में लाने की प्रवृत्ति उस समय होती है जब श्रम बाजार  में भारी श्रमशक्ति की जरूरत होती है और/या जब सस्ते श्रमशक्ति की आवश्यकता महिलाओं को कम मजदूरी देकर अंशकालिक काम देकर पूरी की जाती है। महिलाओं को श्रम बाजार से बाहर उस समय धकेल दिया जाता है, जब बाजार में मंदी होती है क्योंकि यह माना जाता है कि वे आणविक परिवार में आसानी से खप जायेंगी। 
    इस तरह, पुरुष और महिलाओं के बीच, पतियों और पत्नियों के बीच टकराहट पूंजीवाद के निर्मम व शोषणकारी सामाजिक संबंधों के वास्तविक उत्पाद होते हैं। वस्तुतः, मजदूर वर्ग की महिलाओं के जीवन का कोई भी क्षेत्र शोषण से मुक्त नहीं होता और इसे संस्थाबद्ध पुरुष वर्चस्व सुगम बनाता रहता है। पूंजीवाद के अंतर्गत महिलाओं की गुलामी
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    प्रस्तुत लेेख मारलिन डिक्सन के लेख का हिन्दी रूपांतर है। यह लेेख 1977 में प्रकाशित हुआ था। 1970 के दशक में नारी मुक्ति आंदोलन और तरह-तरह के नारीवादी आंदोलनों के बीच बहस चल रही थी। उस समय के पूंजीवादी अमेरिका के भीतर नारी मुक्ति आंदोलन का क्या परिप्रेक्ष्य होना चाहिए था। यह लेख इस पर प्रकाश डालता है।
    आज के नारी मुक्ति आंदोलन के परिपे्रक्ष्य और पूंजीवादी समाज में महिलाओं की गुलामी की स्थिति को समझने में यह लेख मददगार हो सकता है। इसी उम्मीद के साथ यह लेख प्रकाशित किया जा रहा है-सम्पादक

    पूंजीपति वर्ग का इस बात से कोई मतलब नहीं रहता कि मजदूरों का पारिवारिक जीवन कैसा है या कि उनका यौन आचरण कैसा है? पूंजी का हित अपनी आवश्यकताओं के अनुपात में मानव श्रम शक्ति के उत्पादन की आबादी में होता है। शासक पूंजीपति वर्ग इस बात से अच्छी तरह परिचित होता है कि पूंजीवाद बिना मानव श्रम शक्ति के अस्तित्व में नहीं रह सकता। यह मानव श्रम शक्ति पूंजीवाद की असली उत्पादक और सर्वाधिक बुनियादी माल होती है। इसलिए पूंजी की आवश्यकता आबादी को नियंत्रण करने में और मानव पुनरुत्थान की देखरेख करने में होती है। इससे पैदा होने वाले अंतरर्विरोध न सिर्फ गरीब व विकासशील देशों में पुनरुत्पादन की दर में बल्कि उत्तरी अमेरिका में गर्भपात, जन्म नियंत्रण, नसबंदी और सामाजिक सहायता कानूनों में भी इसकी दिलचस्पी में प्रदर्शित होते हैं। 
    पूंजी के लिए परिवार वह आर्थिक इकाई होती है जो श्रमशक्ति के उत्पादन और पुनरुत्पादन के लिए जिम्मेदार होती है। महिलाओं की श्रमशक्ति और पुनरुत्पादन शक्ति- बच्चों का लालन-पालन- पूंजी के बुनियादी माल के आवश्यक उत्पादन में आर्थिक मतलब रखती है। यह स्पष्ट है कि पूंजी मातृत्व को माल उत्पादन के शुद्व रूप में ही, भविष्य के श्रम उपलब्द्धता के स्रोत के रूप में ही देखती है। महिलाओं की पुनरुत्पादन क्षमता की राज्य द्वारा इसलिए देखरेख की जाती है क्योंकि पूंजी को आबादी के नियमन की, उत्पाद के उत्पादन, बच्चों के नियंत्रण की आवश्यकता होती है। ये भविष्य के सर्वहारा सिर्फ शोषित होने के लिए ही, पूंजी संचय की वृद्धि के लिए अपने समूचे उत्पादक जीवन के समूचे काल में श्रम करने के खातिर ही होते हैं और जब उनका इस्तेमाल कर लिया जाता है तब दरिद्रता के बुढ़ापे में किनारे लगा देनेे के लिए होते हैं। 
    इस प्रकार, कानून इसको स्पष्ट कर देते हैं कि पूंजी के दृष्टिकोण से महिलाओं का अपने शरीर पर नियंत्रण, यानी कि महिलाओं द्वारा पुनरुत्पादन के साधन पर नियंत्रण वांछनीय नहीं है। यह भी उतना ही स्पष्ट है कि पूंजी आणविक परिवार का और महिलाओं की पत्नी-मां के बतौर द्वितीय दर्जे की स्थिति का इस्तेमाल मजदूरों की कीमत पर भविष्य के शोषण के लिए श्रमशक्ति की पर्याप्त आपूर्ति के पुनरुत्पादन को सुनिश्चित करने के मुख्य साधन के बतौर करती है। एक समय था जब बच्चे एक आर्थिक परिसम्पत्ति होते थे, (जैसाकि इस समय किसान परिवारों में होते हैं लेकिन आज मजदूर वर्ग के लिए बच्चे आर्थिक बोझ होते हैं)। इसलिए पूंजी को नये सर्वहाराओं के उत्पादन को वांछित स्तर तक ही रखना होता है। इसमें मातृत्व को महिलाओं का एकमात्र सामाजिक प्रकार्य की और विवाह की महिलाओं की एकमात्र ‘‘सामान्य’’ स्थिति की कही जाने वाली परिभाषा नये सर्वहाराओं की आवश्यक वार्षिक फसल सुनिश्चित करने में मदद करती है। तब भी, पूंजी इन नये मजदूरों के उत्पादन (स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, प्रशिक्षण आदि) के लिए भुगतान करने को अनिच्छुक रहती है। वह इन पर आने वाली लागत को मजदूर वर्ग के परिवार पर स्थानांतरित कर देती है। पूंजी बच्चों को माता-पिताओं की सम्पति के बतौर नहीं देखती बल्कि वह उनको श्रमशक्ति की भविष्य के आपूर्ति के बतौर देखती है। बच्चे अब उसी प्रकार अपने माताओं-पिताओं की ‘‘निजी सम्पति’’ नहीं रह जाते जैसे पत्नी की श्रमशक्ति और पुनरुत्पादन शक्ति उसके पति के निजी संसाधन नहीं रह जाते। ये सभी प्रत्यक्षतः या परोक्षतः पूंजी के पास वापस आ जाते हैं। 
    पूंजी के दृष्टिकोण से आणविक परिवार कायम रखने और इसके भीतर महिलाओं के शोषण व अधीनता को कायम रखने के मकसद की पूंजीवादी नैतिकता सेवा करती है। जैसाकि ऊपर बताया जा चुका है कि आणविक परिवार के वास्तविक कार्य श्रमशक्ति को उत्पादित व पुनरुत्पादन करना, महिलाओं की बेरोजगारी को खपाना, महिलाओं की श्रम आपूर्ति का नियमन करना, पुरुष श्रमशक्ति को अनुशासित करना और आबादी का नियंत्रण करना होता है। तब भी पूंजीवादी नैतिकता आणविक परिवार के आदर्श को चिरस्थायी बनाने की सेवा करने के बावजूद पूंजी खुद परिवार को तहस-नहस करती है। व्यवस्थित सर्वहारा पुनरुत्पादन में खलल डालती है और पूंजीवादी समाज के ताने-बाने के भीतर अनेकानेक अंतरर्विरोधों को पैदा करती है। 
    जहां ‘‘आदर्श’’ आणविक परिवार को नई श्रमशक्ति के लिए उत्पादक इकाई के बतौर प्राथमिकता दी जाती है वहीं पूंजी खुद परिवार की अवमानना करती है। जैसाकि बिना शादी के किसी तरह के समझौते के दूसरी, तीसरी और यहां तक कि चौथी पीढ़ी के कल्याणकारी परिवारों के उद्भव से स्पष्ट है। यह परिस्थिति स्पष्टतया बताती है कि परंपरागत आणविक परिवार पूंजीवाद के लिए पूर्णतया आवश्यक नहीं है। वास्तव में आणविक परिवार श्रमशक्ति के कुछ क्षेत्रों में उपयोगी है। जबकि अन्य क्षेत्रों में या तो अनुपयोगी है या वस्तुतः नदारद है। 
    उदाहरण के लिए पूंजी के दृष्टिकोण से संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्लीय व श्रमशक्ति के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विशेष तौर पर काले लोगों की वर्तमान और भविष्य के बाजार में बहुतायत है। यह बिना इस्तेमाल की गई और अवांछित अल्पसंख्यक श्रम आपूर्ति शहरी झोंपड़ पट्टियों और दलित ग्रामीण इलाकों में फेंक दी गयी है। 
    यह तथ्य ही कि पूंजी लाखों-लाख लोगों को बिना इस्तेमाल की गयी और बर्बाद उत्पाद के बतौर व्यवहार करती है, दिखाता है कि पूंजीवाद के लिए मानवीय अन्याय जैसी कोई चीज कोई सरोकार नहीं रखती। इसकी चिंता सिर्फ यह होती है कि इसके उत्पादन की आवश्यकताएं पूरी होती रहें। 
    इस तथ्य से परिस्थिति और जटिल हो जाती है कि शहरी काले और लैटिन सर्वहारा के बीच कम मजदूरी और चिरकालिक बेरोजगारी आणविक परिवार को कमजोर करने के बतौर काम करती है, क्योंकि बहुत सारे पति आर्थिक तौर पर पत्नियों और बच्चों का ख्याल नहीं रख सकते। 
    कल्याणकारी भुगतान का विस्तार और संकुचन आबादी नियंत्रण और श्रमशक्ति की जरूरत से ज्यादा आपूर्ति के साथ जुड़ा हुआ है। स्वयं कल्याणकारी कानून इस बात के सूचक हैं कि नये सर्वहाराओं (नये मालों) के निश्चित उम्र तक पालन के लिए किसी अन्य के श्रमशक्ति की आवश्यकता है और कि राज्य महिलाओं के बच्चों के पालन के लिए ही 6 वर्ष तक की उम्र तक मजदूरी के भुगतान की आवश्यकता को स्वीकार करता है फिर भी कल्याणकारी और सामाजिक सहायता के कदम रोजगारशुदा सर्वहारा के ऊपर कर लगाकर ही उठाये जाते हैं। इससे कल्याणकारी कदमों को कम करने का राजनीतिक दबाव बनता है जो पूंजी की इस इच्छा से मेल खाता है कि वह राष्ट्रीय अल्पसंख्यक और गरीब गोरी आबादी की मजदूरी कम करे। यह उसका बार-बार इस्तेमाल किया गया तरीका है जो लोगों को अर्धभुखमरी वाली खुराक और सीमित स्वास्थ्य सुविधा की तरफ ले जाता है। 
    परिवार को अंतरर्विरोधों में जकड़े हुए हालात उस समय और खतरनाक हो जाते हैं जब यह देखा जाता है कि ‘माताएं’ संभावित बेरोजगार मजदूर मानी जाती हैं, बच्चों के लालन-पालन में लगी हुई हैं। अधिकांश महिलाओं को जब आर्थिक तौर पर मजबूर करके श्रमशक्ति की ओर धकेला जाता है तब रोजगार के बाजार में और दबाव बढ़ जाता है। इससे वास्तविक बेरोजगारी दरों में वृद्धि होती है और अत्यन्त कम मजदूरी में जो पुरुष काम नहीं करना चाहते या नहीं कर सकते, उनको हटा दिया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि भयावह गरीबी निरंतर अस्तित्व में आती है और जिसके मुख्य शिकार दुनिया भर में बच्चे-बूढे़ और औरतें होते हैं। 
    यह समझदारी कि पूंजीवाद को श्रम बाजार में आपूर्ति और मांग की अपनी समस्याओं से ही सरोकार रहता है। (मुनाफे के अलावा किसी नैतिकता या मानवता या अन्य किसी मूल्य से कोई सरोकार नहीं होता) हम यह भी समझ सकते हैं कि नृशंसता और पाखंड का स्रोत क्या है जो हमारे नैतिक और सांस्कृतिक जीवन का सारतत्व है। यह पाखंड और नृशंसता के संदर्भ में एकाधिकारिक पूंजीवाद के जमाने में हम पूंजीवादी नैतिकता के असली कार्य और प्रकृति को समझ सकते हैं।  
    पूंजीवादी यौनिक नैतिकता महिला के शरीर को सम्पति संबंधों में परिभाषित करने को प्रतिबिंबित करती है। उसके शरीर से पैदा हुए बच्चे और उसकी श्रमशक्ति पति या रक्षक की निजी सम्पति समझे जाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि पूंजीवादी नैतिकता शादी समझौते को बुनियादी तौर पर न्यायसंगत ठहराती है जो ऐसे कानूनी समझौते से ज्यादा कुछ नहीं होता जिसमें पतियों को यह अधिकार दिया जाता है कि वे पत्नियों के उत्पादक और पुनरुत्पादक शक्तियों पर कब्जा करने का अधिकार देता है। 
    पूंजीवादी नैतिकता के जाल के अतर्गत कमजोर निर्भर असहाय पत्नी, रूमानी प्रेम के पाखंडों में और खुशहाल गृहलक्ष्मी के काल्पनिक तस्वीरों में उलझी महिलाएं ऐसी व्यवस्था में फंस जाती हैं जो महिलाओं की अधीनता को न्यायसंगत और तर्कसंगत ठहराती हैं। यह शादीशुदा महिलाओं के श्रम के वास्तविक अर्थ को रहस्यमयी बनाकर इस तरह किया जाता है कि पत्नी को इस बात के लिए तैयार किया जा सके कि उसका श्रम मूल्यहीन है कि उसके पति के मूल्यवान श्रमशक्ति पर उसकी निर्भरता के लिए महज एक सेवा है। इसी तरह पूंजीवादी नैतिकता, एकनिष्ठता, पवित्रता, विनम्रता और आज्ञापालन पर जोर देती है। यह महिलाओं को अधीनता की गारंटी करने की सेवा करता है। यह उसे यह समझाकर कहा जाता है कि यह ‘‘भगवान का नियम’’ है या ‘‘प्रकृति की जरूरत’’ है। कि उसकी श्रमशक्ति मूल्यहीन है और उसके बच्चे अधिकार के बतौर उसके पति के हैं। कि उसके कर्तव्य सर्वोपरि सेवा करना और आज्ञापालन है कि अपने पति की छत्रछाया को उसके द्वारा स्वीकार करना उसके अस्तित्व के लिए आवश्यक है क्योंकि वह और उसके बच्चे पति की आमदनी पर निर्भर हैं। 
    महिला के ऊपर बलात थोपी गई निर्भरता और परिणामस्वरूप उसी अधीनता को और ज्यादा न्यायसंगत यह कहकर ठहराया जाता है कि महिला बुनियादी तौर पर एक यौन वस्तु होती है। उसके अस्तित्व का प्रधान कारण पुरुष को यौन संतुष्टि देना और उसके बच्चों का लालन-पालन करना है। परपुरुष गमन के खिलाफ कानून पति के एकमात्र अधिकार की सेवा करते हैं। पवित्रता और एकनिष्ठता हमेशा कड़ाई से महिलाआंे पर ही थोपे गये हैं जबकि पुरुषों को इन मानदंडों को तोड़ने की अनुमति रही है। पवित्रता और एकनिष्ठता का थोपा जाना हमेशा नैतिक तौर पर इस बात को न्यायसंगत ठहराता रहा है कि पति को महिला के बच्चों के नहीं पिता की जानकारी हो। एकनिष्ठ विवाह का वास्तविक कार्य किसी खास पति का उसकी अपनी पत्नी की श्रमशक्ति और पुनरुत्पादक शक्ति पर कब्जा करने के उसके अधिकार को सुनिश्चित करना और स्वामित्व प्रदान करना होता है। समूचे मानव इतिहास के दौर में बच्चे बहुमूल्य सम्पति समझे जाते रहे हैं, संभावित या वास्तविक श्रमशक्ति समझे जाते रहे हैं और पति को अपने इस दावे को स्थापित करने के लिए कि उसके बच्चों की श्रमशक्ति पर उसका अधिकार है। उसे पितृत्व की आवश्यकता है। एकनिष्ठ विवाह ने हमेशा महिला को एक आदमी की विशिष्ट सम्पति के बतौर काम किया है, जिससे कि पत्नी के चुराने के विरुद्ध और उसको अपनी सम्पति घोषित करने के लिए रक्षा की जा सके। चूंकि महिलाएं जैसाकि गुलामी के अंदर रहने वाले सभी मानव भी इस बात से बंधे हुए हैं कि वे अपनी श्रमशक्ति से अपने पति को वंचित नहीं कर सकतीं। 
    सामाजिक नियंत्रण के सभी तरीकों, नैतिक, धार्मिक, सरकारी को महिलाओं को शादी और परिवार में जकड़ने के लिए इस्तेमाल किया है। इस कारण से पूूंजीवादी नैतिकता ने एक ऐसा मनोविज्ञान पैदा किया है जो यह दावा करता है कि महिला जब तक अपने जीवन साथी का चुनाव नहीं कर लेती तब तक मनोवैज्ञानिक तौर पर वह पूर्ण नहीं है। कि उसका मानवीय स्वभाव ही बच्चा पैदा करने के बिना नहीं कायम किया जा सकता। कि उसका जीवन यदि वह पत्नी और मां नहीं है तो खोखला व अर्थहीन है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसने जीवन में क्या हासिल किया है। एक औरत जो शादी नहीं करती उसे असामान्य के बतौर, अपूर्ण के बतौर या अपर्याप्त मानव के बतौर पेश किया जाता है। इनमें से कोई भी सीमा पुरुषों पर लागू नहीं होती जिनकी उपलब्धि परिवार से बाहर उनके जीवन के संदर्भ में और उनके काम के संदर्भ में परिभाषित की जाती है। वास्तव में पुरुष की शक्ति इन दोहरे मानदंडों में प्रस्तुत की जाती है जिसमें पुरुषों को अपने पुरुषत्व स्थापित करने के लिए कई औरतों की जरूरत समझा जाता है जबकि किसी महिला के लिए इसकी प्राप्ति अपने को पूर्णतया एक व्यक्ति के और वह भी पति के पूर्ण समर्पण के जरिये ही होता है। 
    महिलाओं ने हमेशा नौकरों के दृष्टिकोण में कैद करने की मानवीय भावना को कुचलने का विरोध और प्रतिरोध किया है। यही कारण है कि महिलाओं को लोकप्रिय और पूंजीवादी संस्कृति में या तो शुद्ध के रूप में पेश किया जाता है या पतित के रूप में पेश किया जाता है जिसमें बुराई हमेशा वेश्या के बतौर देखी जाती है। 
    विवाह अपनी निर्भर पत्नी और बच्चों के साथ का महत्वपूर्ण साधन रहा है जिसके जरिये पूंजी एक विश्वसनीय, निर्भर और अनुशासित पुरुष श्रमशक्ति हासिल करती है। पति शादी और प्रथम बच्चे के बाद काम के जीवन में बंध जाता है। यदि उसे ‘‘अच्छा पति और पिता’’ होना है यानी कि एक ‘‘अच्छा पालनकर्ता’’ होना है। एक बार यदि रहस्य के पर्दे को हटा दिया जाता है तो दुनिया की तस्वीर जिसमें महिलाओं को कभी स्वप्न देखने की इजाजत नहीं होती और पुरुष यदि वह सपना देखते हैं तो उन्हें अपने सपनों को किनारे रखना होता है। यानी कि पुरुष और महिलाएं शाश्वत दंड को अभिशप्त होते हैं जो अपनी पीठ पर पीढ़ी दर पीढ़ी पूंजी के समूचे परजीवी बोझ को ढोते हैं। यह जाल न तो पति द्वारा और न ही पत्नी द्वारा तैयार किया जाता है। पत्नी अपनी निर्भरता के लिए पति को दोष देती है। उसके द्वारा किये गये गुस्से और दुव्र्यहार के लिए महिलाओं के सम्मान पर किये गये अन्याय में उसकी सहभागिता के लिए वह पति को दोष देती है। और पुरुष महिला को एक बोझ के बतौर देखता है। उन मांगों और शिकायतों के लिए दोषी ठहराता है जो वह समय-समय पर करती रहती है। पत्नी पति के लिए एक घूस है लेकिन वह उसकी जंजीर भी है। पति पत्नी के लिए सुरक्षा है लेकिन उसकी जेल भी है। इस प्रकार प्रत्येक कम या ज्यादा अंशों में एक दूसरे के खिलाफ बंटे हुए हैं। इस सबके ऊपर पूंजी का भारी बोझ है जिसका होड़ का ताना-बाना और उत्पादन की मशीनरी का ऐसा जहरीला विश्वास है जो पुरुषों को महिलाओं के खिलाफ खड़ा करता है। गोरों को कालों के खिलाफ खड़ा करता है और राष्ट्र को राष्ट्र के खिलाफ खड़ा करता है। 
    पूंजीवादी नैतिकता महिलाओं के भीतर मुख्यतया पत्नियों और माताओं के बतौर आत्मपहचान को प्रोत्साहित करती हैं वह मजदूर के बतौर नहीं करती। यहां तक कि जब वह सक्रिय श्रमशक्ति होती है और इसी तरह पुरुष महिला मजदूरों के अपने से अलग प्रजाति समझते हैं। वे इन्हें अपने हिस्से के बतौर मजदूर की तरह नहीं देखते। इससे भी बढ़कर उद्योग के भीतर पुरुष और महिला काम के भी परंपरागत अलगाव के साथ-साथ काम पाने की प्रतिस्पर्धा भी पुरुष और महिला मजदूरों के बीच बंटवारे का निरंतर स्रोत रहती है। इससे यह विचार भी मजबूत है अपनी प्रजाति है जिसका स्थान अपने बच्चों के साथ घर में है हालांकि बच्चा पैदा करने की क्षमता की उम्र किसी भी औरत के जीवन की अधिकतम 25 वर्ष की है तब भी महिला को समूचे जीवन में बच्चा पैदा करने के कार्य से भी परिभाषित किया जाता है। एकल औरतें, बिना बच्चे की औरतें, लड़कियां, बूढ़ी औरतें इनमें से कोई भी बच्चा पैदा करने वाली नहीं होती तब भी इन्हें बच्चा पैदा करने वाले कार्य से ही परिभाषित किया जाता है। इसका मतलब है कि श्रमशक्ति में लगी महिलाओं की भारी संख्या वस्तुतः मजदूर हैं लेकिन उनको भेदभाव का शिकार बनाया जाता है और उसे पत्नी व मां की भूमिका के संदर्भ में न्यायसंगत ठहराया जाता है।    -क्रमशः 
भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के भगवा कायाकल्प की कोशिशें
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    भारतीय इतिहास लेखन के इतिहास में एक नया दौर शुरू होने जा रहा है। मार्च माह के पहले सप्ताह में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आई.सी.एच.आर.) की कमान भाजपा सरकार द्वारा नियुक्त ऐसे विद्वानों की टीम संभालने जा रही है जिन्होंने इतिहास के वैज्ञानिक शोध के बजाय राम, अयोध्या, हिंदू देवी-देवताओं एवं हिंदुओं के पवित्र कहलाने वाले पशु जैसे विषयों पर काम किया है और संघ की कृपादृष्टि प्राप्त की है। 
    इस नई टीम में बहुत से ऐसे इतिहासकार हैं जिनकी भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नजदीकी छिपी नहीं है। मौलिक व नए शोध के रूप में इनमें से कुछ ने संघ व भाजपा की प्रशंसा अर्जित की है। ये मौलिक व नए शोध के विषय हैं- बांग्लादेश, कश्मीर व केरल में हिंदुओं की दशा, रामायण में वर्णित स्थानों की ऐतिहासिकता, हिंदू धर्म ग्रंथों में वर्णित प्राचीन काल में (संघ के हिसाब से हिंदू शासनकाल में) अतुलनीय व महान वैज्ञानिक आविष्कार आदि। इस मामले में नई टीम प्रगतिशील कहलाने वाले वामपंथी इतिहासकारों से दो-दो हाथ करने को तैयार है। 
    सबसे बड़ा झगड़ा मध्यकाल को लेकर है। प्रगतिशील व वामपंथी कहलाने वाले इतिहासकार मध्यकाल को भारतीय इतिहास में एक मिली जुली साझा संस्कृति अथवा गंगा-जमुनी तहजीब के निर्माण का काल व भारतीय सभ्यता व संस्कृति के विकास के चरम शिखर पर पहुंचने के काल के रूप में मानते हैं। कला, साहित्य, संगीत, स्थापत्य के साथ दस्तकारी के विकास व व्यापार के उत्कर्ष काल के रूप में प्रगतिशील इतिहासकार इस काल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग मानते हैं। और यह सच भी है। 16वीं-17वीं सदी में भारत का व्यापार दुनिया के कुल व्यापार का 23 फीसदी तक था और दुनिया भर से व्यापार के चलते स्वर्ण मुद्राओं के रूप में सोना हिंदुस्तान पहुंच रहा था। इसी दौर में ताजमहल से लेकर तमाम स्थापत्य के चमत्कारिक रूप अस्तित्व में आये। इसी दौर में कबीर, रैदास, नानक, दादू आदि का उद्भव हुआ जिन्होंने तार्किक चिंतन की धारा, जातिवाद व धार्मिक पाखंड के विरोध की धारा को आगे बढ़ाया। तुलसी से लेकर दारा शिकोह की साहित्यिक परंपरा इस दौर में आगे बढ़ी। कुल मिलाकर यह काल भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण काल रहा है। 
    लेकिन संघ के लिए यही सबसे बड़ी त्रासदी का काल है। हिंदू शासकों की पराजय व पराभव का काल है। ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों सहित उच्च जातियों के पराभूत होने का दौर है। यह गुलामी का दौर है। ‘हिंदुओं पर इस्लामी शासन की गुलामी’। 
    इसलिए संघ परिवार की लंबे समय से हसरत रही है कि ‘गुलामी’ के प्रतीकों व चिह्ननों को खत्म कर दिया जाए। झाड़-पोंछकर मिटा दिया जाए। जिनको हटाया या मिटाया न जा सके और जो शानदार व जानदार चीज के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके हैं उन्हें हिंदू शासन से जोड़ दिया जाए, उनका नामांतरण कर दिया जाए जैसे ताजमहल को प्राचीन शिव मंदिर या ‘तेजोमय महल’ बना दिया जाए। लेकिन गुलामी के प्रतीकों के रूप में संघ परिवार ने कभी ब्रिटिश औपनिवेशिक गुलामी के प्रतीकों को निशाना नहीं बनाया। जैसे इंडिया गेट व लुटियन निर्मित दिल्ली के तमाम भवन, गेट वे आॅफ इंडिया आदि। खैर संघ परिवार का अंग्रेजों से कभी कोई बैर नहीं रहा। उसने आजादी की लड़ाई से अपने को अलग रखा था। खैर संघ की मध्यकाल के इस्लामी शासन के लिए गहरी नफरत को स्वर देते भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के नवनियुक्त पैनल सदस्य शरद इन्दु मुखर्जी फरमाते हैं- ‘हिन्दुओं को इस्लामी विजेताओं के हाथों बहुत अत्याचार सहने पड़े। ‘प्रचारात्मक किताबों’ को मत देखिये। रिकार्ड को देखिये। आप पायेंगे कि किस तरह मंदिरों के विध्वंस धर्म के आधार पर भेदभाव, बलात धर्मांतरण जैसे तथ्यों के ऊपर या तो पर्दा डाला गया है या फिर इन्हें न्यायोचित न भी माना गया हो तो भी इन तथ्यों को तार्किक औचित्य प्रदान किया गया है।’’
    इतिहास के भगवाकरण की कोशिशें राजग सरकार के पिछले कार्यकाल यानी अटल जी के प्रधानमंत्रीय काल में भी हुई थी। लेकिन तब भी इतने बड़े पैमाने पर भगवाकरण की मुहिम आगे नहीं बढ़ पायी थी। भाजपा या संघ की मजबूरी गठबंधन सरकार बन गयी थी। लेकिन इस बार पूरी तरह भारतीय जनता पार्टी अपने बूते पूर्ण बहुमत प्राप्त कर संतानसीन हुई है। संघ परिवार के लोगों ने मोदी की सत्तानसीनी को 1200 वर्ष बाद हिंदू शासक के रूप में प्रचारित किया है। यानी पृथ्वीराज चौहान के बाद के हिंदू शासक। 1200 साल बाद विदेशी गुलामी से मुक्ति की बात संघ परिवार के खेमे में गूंजती रही है। अब समय आ गया है कि गुलामी के सारे प्रतीकों व इतिहास को नष्ट कर दिया जाए व झाड़ पोंछ दिया जाए। 
    सत्ता में आते ही राजग सरकार ने जब इस दिशा में कदम बढ़ाये तो विरोध होना स्वाभाविक था। सबसे पहले यह विरोध वाई.एस.राव को पिछले साल के अंत में इतिहास परिषद का अध्यक्ष बनाने के साथ शुरू हुआ। 
    इसके बाद यह विवाद और गहरा हुआ जब भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह व प्रधानमंत्री मोदी ने प्राचीन भारत में आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों व खोजों के पहले से मौजूद होने की बातें कीं। इनमें हाइजनवर्ग का अनिश्चितता का नियम, आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी के प्राचीन भारत में उच्चतम शिखर पर होेने व गणेश को उसके प्रमाण के रूप में व्याख्यायित किया गया। इसी के साथ भारतीय विज्ञान कांग्रेस में एक विशेष सत्र में प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों के बारे में प्रस्तुत प्रपत्रों में भारत में प्राचीन काल से ही आधुनिक वायुयान व प्लास्टिक सर्जरी, कपाल सर्जरी सहित आधुनिक शरीर विज्ञान (मेडिकल साइंस) की जानकारी होने का दावा किया गया। अनेक वैज्ञानिकों व विद्वानों ने तब भी वैज्ञानिक शोध संस्थानों में कई प्रकार के पौराणिक व पोंगापंथी विचारों व धार्मिक व नस्लीय श्रेष्ठताबोध के भाव से प्रेरित ऐसे अवैज्ञानिक-अतार्किक व पाखंडी चिंतन को प्रचारित करने पर अपना रोष व विरोध प्रकट किया था। 
    भारतीय इतिहास परिषद पर भगवा झंडा गाड़कर संघ ने इतिहास के पुनर्पाठ की शुरूआत कर दी है जो उसके लिए हिन्दू गौरव की पुनर्स्थापना की मुहिम है। 
    विभिन्न नामचीन इतिहासकारों व विद्वानों ने इतिहास परिषद के भगवाकरण की इस कोशिश का विरोध किया है। प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीव व द्विजेन्द्र नारायण झा ने इतिहास अनुसंधान परिषद की नई नियुक्तियों की आलोचना करते हुए कहा कि पेशेवर योग्यता के बजाय यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति झुकाव को वरीयता दी गयी है। 
    इरफान हबीव कहते हैं- ‘‘यह स्वाभाविक है जहां तक इतिहास के अकादमिक पेशेवर योग्यता का सवाल है नए पैनल सदस्यों में कुछ ही हैं जिनके प्रपत्र शीर्ष जर्नल या शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। नए नियुक्त सदस्यों की सूची बेहद औसत दर्जे के लोगों को लेकर बनाई गयी है। 
    उन्होंने इतिहास परिषद के नए सदस्यों में कुछ तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ संबंधों को लेकर पहले से जाने माने रहे हैं। इनमें से एक चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार भी रह चुके हैं। कुछ तो इतने भी योग्य नहीं हैं कि वे विश्वविद्यालयों में विभागीय स्तर पर भी चुने जा सकें। कुछ ने तो इतिहासकार का प्रशिक्षण भी प्राप्त नहीं है। केवल कैम्ब्रिज के वरिष्ठ पुरात्वविद दिलीप चक्रवर्ती एक मात्र अपवाद हैं’’। 
    इसी तरह वरिष्ठ इतिहासकार के.एन. पाणिक्कर ने भी कहा है कि नया पैनल विविधता से विहीन है और इसके चयन में संघ के प्रति झुकाव को वरीयता दी गयी है। 
    वरिष्ठ इतिहासकार पाणिक्कर की बात पर चिढ़कर शरद इन्दु मुखर्जी ने जो जवाब दिया उसने पाणिक्कर की बात को सत्यापित किया है। 
    श्री मुखर्जी ने कहा,‘‘जो लोग इतना सामान्य तथ्य भी नहीं स्वीकारते हैं कि अयोध्या में राम का मंदिर था जिसे इस्लामी जेहादियों द्वारा नष्ट किया गया उनसे कोई संवाद करना ही व्यर्थ है। आर.एस.एस. एक देशभक्त संगठन है जिसकी जड़ें इस धरती में गहराई तक जमी हैं। फिर भी सर सैय्यद अहमद खां की विरासत के कई वाहक हैं।’’
    जाहिर है कि प्रो. मुखर्जी की नजर में इतिहास की धर्मनिरपेक्ष व वैज्ञानिक व्याख्या करने वाले लोग सर सैय्यद अहमद खां के वारिस हैं।
    नए इतिहास अनुसंधान परिषद में संघ व भाजपा के निर्देशन से जो पैनल नया लाया गया उसमें मध्यकाल को खासा उपेक्षित रखा गया। यह आरोप प्रो. इरफान हबीब ने भी लगाया है। वैसे भी संघ परिवार मध्यकाल को गुलामी का काल मानता रहा है। मध्य काल को संघ के चश्मे से देखने वाले थोड़े सी भी प्रतिष्ठा रखने वाले इतिहासकार भाजपा सरकार को नहीं मिले। पैनल में मध्यकाल का प्रतिनिधित्व केवल एक इतिहासकार मीनाक्षी जैन कर रही हैं जिनकी योग्यता के बारे में प्रो.इरफान हबीब कहते हैं कि अटल सरकार के दौर में उन्होंने एन.सी.ई.आर.टी. के लिए एक किताब लिखी थी जो कि गलतियों से भरी हुई थी। वैसे मीनाक्षी जैन अपनी विशेष योग्यता का हवाला देते हुए बताती हैं कि उनके उल्लेखनीय कामों में ‘राम और अयोध्या’ पर लिखी एक किताब शामिल है। 
    इतिहास परिषद के नए कर्ताधर्ताओं में एक माइकल डैनितो हैं जिनकी योग्यता महज इतनी है कि उन्होंने मोदी के गृहराज्य गुजरात के आई.आई.टी. गांधीनगर में अतिथि शिक्षक के रूप में पढ़ाया है। वे किसी विश्वविद्यालय से कभी नहीं संबंधित रहे। 
    इसी तरह मद्रास विश्व विद्यालय में 1996 तक थ्योरोटिकल फिजिक्स पढ़ाने वाले एम.डी. श्रीनिवास का इतिहास से कोई लेना-देना नहीं रहा है। उन्होंने क्वांटम मैकेनिक्स से पी.एच.डी. की है। इतिहास परिषद में इतिहास से कोई जुड़ाव न होने के बावजूद अपने चुने जाने को जायज व औचित्यपूर्ण ठहराते हुए कहते हैं कि उनकी रुचि भारत में विज्ञान व वैज्ञानिक तकनीक की परंपरा में है। उनकी भौतिक विज्ञान की पृष्ठभूमि उन्हें प्राचीन भारत में विज्ञान को समझने में मदद देती है। स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय इतिहास में वायुयान, प्लास्टिक सर्जरी व चिकित्सा विज्ञान सहित आधुनिक वैज्ञानिक खोज व तकनीक को खोज निकालने अथवा हिंदू पौराणिक मिथकों को महान वैज्ञानिक खोजों व उपलब्धियों का रूप देने के लिए ही उनकी नियुक्ति हुई है। 
    इसी तरह एक अन्य पैनल सदस्य नंदिता कृष्णा हैं जिन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय संस्कृति पर पी.एच.डी. की है। वह किसी विश्वविद्यालय या शैक्षणिक संस्थान से नहीं जुड़ी हैं बल्कि सी.पी. रामास्वामी अय्यर फाउंडेशन नामक ट्रस्ट की निदेशक हैं। इतिहास से संबंधित उनकी योग्यताओं में उनके द्वारा लिखित कुछ पुस्तकें हैं जिनमें -‘भारत के पवित्र पौधे, भारत के पवित्र पशु’ व ‘भूत-पिशाचों पर एक पुस्तक’ तथा ‘भगवान विष्णु पर एक पुस्तक’ शामिल है। 
    इसी तरह एक अन्य पैनल सदस्य पुरावी राय भी इतिहास से कोई संबंध नहीं रखती हैं। वे कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में ‘अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध’ का अध्यापन करती थीं। इतिहास की विशेष उपलब्धि के नाम पर उनकी पहचान उनके एक शोध से है जिसमें यह दावा किया गया है कि सुभाष चंद्र बोस विमान दुर्घटना के बाद भी जीवित रहे हैं। वैसे इस तरह के दावे करने वाले तमाम लोग समय-समय पर सामने आते रहे हैं जो सुभाष चंद्र बोस के जीवित होने का दावा करते रहे व कुछ ऐसे सबूत पेश करते रहे जिनकी ऐतिहासिकता कभी प्रमाणित नहीं हुई। कुछ साधु-संत, फकीर भी खुद को सुभाष चंद्र बोस के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करते रहे हैं जिनमें बाबा जयगुरूदेव भी शामिल रहे हैं। जयगुरूदेव के चेले तो उन्हें सुभाष चंद्र बोस ही मानते रहे हैं। सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रियता को भुनाकर कांग्रेस व नेहरू के खिलाफ सुभाषचंद्र बोस का इस्तेमाल करते हुए जहां संघ परिवार एक ओर अपनी राष्ट्रवादी छवि बनाना चाहता है वहीं आजादी के आंदोलन में अपनी अनुपस्थिति व अपने नायक न होने के तथ्य को छिपाने की कोशिश करता है। इतिहास परिषद में नई नियुक्तियों के बाद हो सकता है संघ परिवार भले ही अपने नायक न तलाश पाये लेकिन कांग्रेस को आजादी के आंदोलन की विरासत से बेदखल करने की कोशिश करता है जिसको अभी तक कांग्रेस ने अपनी बपौती समझ रखा है लेकिन संघ परिवार जिन भी क्रांतिकारियों को अपना घोषित करने की कोशिश करता है वे धार्मिक व साम्प्रदायिक राजनीति के घोर विरोधी व समाजवादी चिंतन या इसके नजदीक साबित होते हैं चाहे वह कृष्ण वर्मा हों, राजा महेन्द्र प्रताप हों या फिर सुभाष चंद्र बोस हों।
         बहरहाल संघ मंडली कुछ भी करे इतिहास को वे नहीं बदल सकते। आजादी के आंदोलन से संघ की दूरी व अंग्रेजों के कृपापात्र बने रहने के तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता। इतिहास को छिपाया जा सकता है, तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है, विकृत तौर पर पेश किया जा सकता है पर इतिहास को बदला नहीं जा सकता है। अपने नस्लीय व धार्मिक अहंकार के मुताबिक इतिहास की व्याख्या करने या इतिहास के प्रस्तुतिकरण की कोशिश हिटलर ने भी की थी। हिटलर द्वारा प्रचारित आर्य जाति के मिथक का इसके जीते जी अंत हुआ। हिटलर के नक्शे कदम पर चलने वालों को हिटलर की नियति से सीखना चाहिए। लेकिन अफसोस प्रतिक्रियावादी कभी इतिहास से नहीं सीखते हैं। उनकी जगह इतिहास के कूड़ेदान में होती है। भविष्य में मजदूर वर्ग निश्चित तौर पर उन्हें उनकी सही जगह पर पहुंचायेगा। 
दस्तावेजी चोर
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
अभी तक आपने सुल्ताना डाकू, मलखान सिंह, फूलन देवी जैसे डकैतों के नाम सुने होगें जो अलग-अलग वजहों से डकैत बने। पर ये तो डकैतों की पुरानी किस्म थी। डकैतों की यह किस्म फिल्मों में खूब दिखायी गयी। उनके चर्चे भी आमजनमानस में खूब प्रचलित हुये।
    परन्तु डकैतों की यह नई किस्म न तो चंबल घाटी में रहती है और न ही यह घोड़ों से चलती है। यह बंदूक भी नहीं चलाती। यह डकैतों की नई किस्म तो सूट-बूट में रहती है। महंगी व लग्जरी कारों से चलती है और महलों जैसे घरों में रहती है जो बिजली से चकाचैंध रहते हैं। यह नई किस्म पुराने डकैतों के बरक्स हथियार के तौर पर रुपयों का इस्तेमाल करती है। पुराने डकैतों की आम तौर पर यह खूबी थी वे आम तौर पर सम्पत्तिवालों को निशाना बनाते थे परन्तु ये आधुनिक डकैत मेहनतकशों की मेहनत को निशाना बनाते हैं। उन डकैतों की सामाजिक स्वीकार्यता नहीं होती थी परन्तु इन आधुनिक डकैतों के पास न सिर्फ सामाजिक स्वीकार्यता है वरन् वे आधुनिक समाज के मुकुट समझे जाते हैं। नई किस्म में इस देश के कारपोरेट घराने व ऐसे ही अन्य लोग आते हैं।
    कारपोरेट घरानों द्वारा की जाने वाली डकैती कोई नई बात नहीं है। सही मायनों में कारपोरेट घरानों का जन्म भी डकैती के परिणामस्वरूप ही होता है। अन्यथा तो मेहनत की कमाई से अमूमन दो वक्त की रोटी का गुजारा और ज्यादा से ज्यादा इंसान परिवार की अन्य मूलभूत आवश्यकताओं की ही पूर्ति कर पाता है। दुनियाभर की कामगार मेहनतकश आबादी इसे अपने व्यक्तिगत अनुभव से बखूबी जानती है। मंत्रालयों में इस प्रकार की चोरी की प्रथा भारत में 1980 से ही खूब प्रचलन में रही है। पूंजीपतियों की आपसी प्रतिद्वन्दिता में एक दूसरे को पटखनी देने के लिए एकाधिकारी घराने इस प्रकार की जासूसी व चोरी में खूब मशगूल रहते हैं। अपने विरोधियों को पटखनी देने का एक अन्य प्रचलित तरीका ‘नीरा राडिया प्रकरण’ था जिसमें एकाधिकारी घराने अपने पक्ष में नीतियां बनाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त करते हैं। इस प्रकार एकाधिकारी घराने अपने फायदे के लिए व अपने विरोधियों को पटखनी देने के लिए आम तौर पर ही घटिया व निकृष्ट तरीके अपनाते रहे हैं।
एकाधिकारी घरानों की सरकारों के साथ रिश्तों की कहानी यहीं पर खत्म नहीं होती। देश की सरकारें प्रत्यक्ष तौर पर भी एकाधिकारी घरानों की इच्छाओं का अनुपालन करती रही हैं। सरकारों और एकाधिकारी घरानों की रिश्तों की मिठास का एक उदाहरण आज खूब प्रचलित है मोदी का अम्बानी-अडाणी के साथ गठजोड़। कई सारे उद्योगपति तो सीधे संसद में विराजमान रहे हैं। इस गठजोड़ का ही परिणाम रहा है कि मुकेश अंबानी को बाजार दर से भी सस्ती दरों पर एनटीपीसी बिजली मुहैय्या करा देती है और कावेरी बेसिन उन्हें कौडि़यों के मोल मिल जाता है।
दरअसल अमेरिका में एकाधिकारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अमेरिकी सरकार के अन्र्तसंबंधों में कोई खास विभाजन नहीं है। सरकार के मंत्री बाद में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनते रहे हैं तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सरकार के मंत्री पदों को संभालते रहे हैं और इस प्रकार यहां सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच विभाजक रेखा अत्यंत धुंधली है। परन्तु हमारे यहां एकाधिकारी घरानों व सरकारों के बीच अभी भी एक विभाजक रेखा मौजूद रही है। हालांकि उदारीकरण के विगत दो दशकों में यह विभाजक रेखा धुंधली पड़ती जा रही है। आने वाले दिनों में हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर मुकेश अंबानी प्रधानमंत्री हों और अनिल अंबानी वित्त मंत्री। जैसा कि कुछ वर्ष पहले इटली में हुआ। वहां देश का सबसे अमीर पूंजीपति बर्लुस्कोनी देश का प्रधानमंत्री भी बन गया था।
ऐसा नहीं है कि मौजूदा जासूसी कांड में फंसे लोग मसलन एस्सार समूह, रिलायंस, केयन्र्स जैसे समूह ही इसमें शामिल हैं। सही बात तो यह है कि सभी औद्योगिक व व्यापारिक घराने अपनी हैसियत के साथ इन जासूसियों और चोरियों में लगे हुए हैं। जो पकड़े गये हैं वे इन गुनाहों के असली गुनहगार नहीं हैं। असली गुनहगारों के साथ तो मोदी व अन्य प्रधानमंत्री दावतें उड़ाते रहे हैं और इसकी एवज में ये घराने राजनैतिक दलों को ‘चंदा’ देते रहे हैं।
सरकारें यह सब जानती हैं और यह सब चलता भी रहता है। समस्या केवल तब खड़ी होती है जब यह जगजाहिर हो जाता है। सरकार और उद्योगों के बीच गठजोड़ के इस प्रकार बेनकाब होने पर ही सरकारों के लिए मुश्किल खड़ी होती है। क्योकि इससे सरकार का तथाकथित निष्पक्षता का आवरण उतरने लगता है। इससे जनता में संदेश पहुंचता है कि सरकार के मालिक पूरी तरह एकािधकारी घराने हैं न कि वह।
पेट्रोलियम मंत्रालय में जासूसी तो एक बानगी भर है। जासूसी और चोरी का नजारा और जाल बहुत व्यापक और गहरा है। इस तंत्र को न तो तोड़ा जा सकता है और न ही इसके वास्तविक गुनहगारों को सजा दी सकती है। क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था ऐसे ही रिश्तों की डोर से चल रही है। एकाधिकारी घराने ही इस देश की सरकार के वास्तविक नियंता हैं और इस देश के भी वास्तविक मालिक। संसद और सरकार इस वास्तविक सच्चाई पर पर्दा डालने के उपकरण भर हैं। संसद आम जनमानस में इस भ्रम को मजबूत करने का काम करती है कि वे ही सरकार बनाते हैं और इस प्रकार चुनी हुई सरकार उनके लिए काम करती है। जनता एक राजनैतिक दल के काम न करने पर दूसरे को चुनती है और इस चुनाव प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप हर बार इस या उस दल की सरकार बन जाती है। परन्तु वास्तविकता इसके उलट होती है। राजनैतिक दल तो पूंजीपति वर्ग के नुमाइन्दे भर होते हैं और जब वे सत्तासीन होते हैं तो वे उन्हीं (अपने मालिकों) के लिए काम करते हैं। इस प्रकार जनता का भ्रम भी बना रहता है और पूंजीपति वास्तविक मालिक बने रहते हैं।
पूंजीवादी व्यवस्था इस बात से सबसे ज्यादा भयभीत रहती है कि पूंजीवादी सरकारों, संसद और पूंजीपतियों के अन्तर्सबंधों की सच्चाई को कहीं आमजनमानस न जान जाये। क्योंकि ऐसा होने पर जनता और पूंजी के मालिक सीधे आमने-सामने आ जायेंगे। परदा तार-तार हो जायेगा और तब पूंजीपति वर्ग के लिए वह सब कर पाना नामुमकिन हो जायेगा जो वह डाकाजनी आज कर रहा है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक डाकाजनी जारी रहेगी और दस्तावेजी चोरी भी।
मोदी और संघ
    पिछले कुछ समय से प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर को इस रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, कि जैसे मोदी के विकास की राह में संघ रोडे लगा रहा हो। मोदी की छवि साम्प्रदायिक फासीवादी नहीं बल्कि विकास के नायक के रूप में गढ़ी जा रही है।
    जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा भारत में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ने पर लफ्फाजी की गयी उसके तुरन्त बाद ही मोदी ने भी अपने नायक की तरह इस पर लफ्फाजी की। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि धार्मिक असहिष्णुता को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। लेकिन वास्तव में क्या यह वक्तव्य उनके इतिहास व चरित्र से मेल खाता है। निश्चित तौर पर नहीं।
    मोदी और संघ के बीच अन्तरविरोध दिखाकर उन सभी लोगों को साधा जा रहा है जो विकास के एजेण्डे के नाम पर मोदी के पीछे लामबन्द हैं लेकिन साम्प्रदायिक नहीं हैं तथा दूसरी ओर उनको जो कि संघ के साम्प्रदायिकरण के मुद्दे के इर्द-गिर्द उसके पीछे या साथ हैं।
    यह अन्तरविरोध केवल साम्प्रदायिक/धार्मिक मामले तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह आर्थिक मामलों पर भी है। मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार द्वारा तेजी से जनविरोधी फैसले लिये जा रहे हैं। खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सवाल हो, श्रम कानूनों में संशोधन हो या फिर भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन कर अध्यादेश लाने का मामला हो। मोदी सरकार द्वारा लिये जा रहे इन ताबड़तोड़ जनविरोधी फैसलों के चलते जनता का मोहभंग होने के साथ-साथ संघ व उसके संगठनों के भीतर इनके कई कार्यकताओं के समर्थकों के बीच ‘अच्छे दिनों के ख्बाब’ धूल-धूसरित होते जा रहे हैं। संघ के लिए इसने प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है। इन स्थितियों में संघ ने अपनी लफ्फाजी, धूर्तता व अवसरवादी चरित्र का ही परिचय फिर दिया है। संघ संचालक ने कहा कि उनका काम सरकार को सलाह देना है। यह सरकार की मर्जी है व इसे माने या न माने। लेकिन दूसरी ओर संघी संगठन अपना नफरत फैलाने वाला जहर लगातर समाज को देते जा रहे हैं। साथ ही साथ उसने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, श्रम कानूनों आदि में संशोधन का दिखावटी विरोध भी किया है।
    लोकसभा चुनाव से पहले ‘विकास’ व ‘साम्प्रदायिक उन्माद व ध्रुवीकरण’ साथ-साथ चले थे। इनके दम पर सत्ता हासिल हो जाने के बाद भी यह साथ-साथ चल रहे हैं और आगे भी उन्हें चलना है। बस बदलती परिस्थितियों में इनके वक्तव्य इस ढंग से प्रस्तुत किये जाते हैं मानो एक दूसरे के खिलाफ खड़े हों जबकि वास्तविकता में दोनों एक दूसरे को मजबूत करते जाते हैं।
    लेकिन इनके अनवरत आगे बढ़ने का या इनके अपने मन मुताबिक करते जाने का रास्ता इतना आसान भी नहीं है। भारतीय समाज की जटिलता इनके राह में रुकावट भी है। यह संघ व उसके आनुषांगिक संगठन पिछले 7-8 माह में देख भी चुके हैं जिसके चलते वह ‘धर्मांतरण’ को ‘प्रेम परीक्षा’ कहने को मजबूर हो गये।
    ये यह भी जानते हैं कि पूर्ण बहुमत की सरकार होने के बावजूद मोदी की सरकार अल्पमत की सरकार है। यह मात्र 31.1 प्रतिशत लोगों के मत से बनी सरकार है। इसलिए राह में रुकावटें कम करने की कोशिशें जारी हैं।  इसलिए ‘झुकने’, ‘रुकने’ व ‘वक्तव्य बदलते रहने’ का खेल जारी है।
    मोदी व संघ मात्र अपनी चाहत के दम पर आज सत्ता के शीर्ष पर नहीं है बल्कि देश के अम्बानी-अदानी आदि जैसे बड़े कारपोरेट घरानों की इच्छा व चाहत के चलते ही यहां पहुंचे हैं। गुजरात में नरेन्द्र मोदी-अमित शाह को जोड़ी ने इजारेदार पूंजीवादी घरानों की राह में आ रही रुकावटों को खत्म कर दिया व गुजरात की सम्पदा व श्रम इन पर लुटा दी थी। पूंजीवादी घरानों की यही चाहत इस जोड़ी को दिल्ली के तख्त ताज पर बिठा गई। संघ ने इस दौरान महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। 
    यही स्थिति आज देश के स्तर पर है। पूंजीपति वर्ग नये आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू करवाना चाहता है इसलिए मनमोहन को हटाकर मोदी को लाया गया है। मोदी सरकार  अध्यादेश पर अध्यादेश लाकर नये आर्थिक सुधार लागू करने की ओर बढ़ी है। जबकि दूसरी ओर इस सबसे पैदा हो रहे सामजिक असन्तोष व आक्रोश को वर्ग संघर्ष बनने से रोकने के लिए पूंजीपति वर्ग अपनी लम्पट फौज ‘संघी संगठनों’ की बदौलत नियंत्रित ढंग से अन्धराष्ट्रवादी व साम्प्रदायिक उन्माद पैदा कर रहा है। इसके बरक्स ‘मोदी’ की ‘विकासपुरुष’ के रूप में नायकत्व की तरह छवि गढ़ी जा रही है। इस प्रकार साम्प्रदायिक फासीवाद के लिए जमीन मजबूत की जा रही है।
भारतीय नारी मुक्ति आंदोलन के समक्ष प्रमुख चुनौतियां
आठ मार्च अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस के अवसर पर विशेष लेख
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
                                                                                                       I
    भारतीय समाज में पहले के मुकाबले भारत की नारियों में मुखरता बढ़ती जा रही है। खासकर नौजवान महिलाएं अपने साथ होने वाले भेदभावों की मुखालफत आज ज्यादा तेजी से कर रही हैं। यह बात इस सच्चाई के बीच है कि भारतीय समाज में सरकारी दस्तावेजों तक में महिलाओं के खिलाफ होेने वाली यौन हिंसा व अन्य अपराधों में दिनोंदिन वृद्धि दर्ज हो रही है। साथ ही यह मुखरता किसी सुगठित नारी मुक्ति के अभाव के बीच भी बढ़ रही है। अधिकांश मामलों में नारियों के मुक्ति के प्रयास व्यक्तिगत संघर्ष के रूप में सामने आते हैं। हालांकि पिछले वर्षों में पूरे देश में ऐसे संघर्ष फूटे हैं जिसमें हजारों की संख्या में नर-नारी शामिल रहे हैं। ऐसे संघर्ष मूलतः जघन्य किस्म के यौन अपराधों के बाद ही फूटे हैं। और स्वतःस्फूर्त संघर्ष भारतीय समाज में एक ऐसी गति पैदा करने में अवश्य सफल रहे जिसने घृणित किस्म के अपराधों के प्रति पूरे भारत में जनमानस को झकझोरा है। 
    स्वतःस्फूर्त संघर्ष जनाक्रोश की अभिव्यक्ति रहे हैं। परंतु ये एक समय बाद किसी जुझारू महिला संगठन और नेतृत्व के अभाव में शीघ्र ही वह आवेग और ऊर्जा खो देते हैं जो एक समय वह पैदा करते हैं। और इस तरह से पूरे देश में समय-समय पर फूटने वाले आंदोलनों का आपस में कोई संबंध संगठन और नेतृत्व के अभाव में नहीं बन पाता है। इन स्वतःस्फूर्त  आंदोलनों की बढ़ती संख्या इस बात का द्योतक है कि पूरे भारतीय समाज में नारियों के खिलाफ होने वाले जघन्य अपराधों के प्रति तीव्र आक्रोश मौजूद है। तीव्र आक्रोश मौजूद होने के बावजूद ये आंदोलन अपने चरित्र और तत्कालिकता के कारण उन सामाजिक कारणों की तलाश ही नहीं कर पाते हैं जिनमें जघन्य अपराध करने वाले क्रूर अपराधी जन्म लेते हैं। और इसीलिए वे उस जमीन को खत्म करने की दिशा में भी नहीं बढ़ पाते हैं। ये इन अपराधों की जननी सामाजिक व्यवस्था को बदलने की मांग अपने आप उठाने में अक्षम हैं। उनकी अक्षमता स्वतःस्फूर्तता, तात्कालिकता के साथ-साथ उस दृष्टिकोण में छिपी हुई है जो सामाजिक व्यवस्था के सम्पूर्ण चरित्र की वैज्ञानिक समझ न होने के कारण पैदा होती है। 
                                                                                                          II
    भारतीय समाज में आज के हालात को देखें तो हाल के दशकों में हिन्दू फासीवादी तत्वों का तेजी से उभार हुआ है। उनका सामाजिक आधार भी बढ़ा है। नरेंद्र मोदी के भारत के प्रधानमंत्री बनने के साथ हिन्दू फासीवादी तत्वों के हौंसले दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं। आये दिन भारतीय जनता पार्टी के सांसद ऐसे बयान देते हैं जो जितने मुस्लिम व ईसाई धर्म को मानने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ लक्षित होते हैं उतने ही वह पूरे भारतीय समाज की महिलाओं के खिलाफ भी लक्षित होते हैं। ऐसे बयानों की फेहरिस्त बनायी जाय तो काफी लंबी होगी। योगी आदित्यनाथ, साध्वी प्राची, साक्षी महाराज जैसे आयेदिन कहते हैं कि हिन्दू महिलाओं को चार या दस बच्चे पैदा करने चाहिए। 
    हिन्दू फासीवादी जर्मनी के फासीवादियों की तरह महिलाओं की जगह चूल्हे-चौकी और धर्म के भीतर ही देखते हैं। हिटलर के अनुयाइयों ने जर्मनी की महिलाओं के दो काम बताये। पहला वे बच्चों के जन्म दें परिवार को देखें और वे घर पर ही रहें। दूसरा चर्च के अनुसार चलें। बच्चे, घर और चर्च यहां तक उन्होंने महिलाओं के जीवन को सीमित कर दिया था। साक्षी महाराज या साध्वी प्राची की तरह वे जर्मन महिलाओं के चार या उससे अधिक बच्चे पैदा की हिमाकत करते थे। उनके अनुसार जर्मन राष्ट्र तभी शक्तिशाली बन सकता है जब जर्मन महिलाएं शुद्ध नस्ल के अधिक से अधिक बच्चे पैदा करें। वे एक तरफ जर्मन महिलाओं से अधिक से अधिक बच्चे चाहते थे तथा दूसरी तरफ गैर जर्मन महिलाओं की नसबंदी और गर्भपात की नीति को बढ़ाते थे। एक समय तो उन्होंने लाखों यहूदियों की वीभत्स ढंग से हत्याएं ही शुरू कर दी थीं। 
    अल्पसंख्यकों से भारी बढ़त लेने वाली यह हिन्दू फासीवादी जनसंख्या मानसिकता महिलाओं को बच्चा जनने की मशीन में तब्दील करने वाली है। इसी हिन्दू फासीवादी मानसिकता के जवाब में एक कट्टर अल्पसंख्यक नेता ने भी अल्पसंख्यकों से अधिक से अधिक विवाह करने और बच्चे पैदा करने की बातें कहीं। 
    इसी तरह विश्व हिन्दू परिषद के ‘बेटी बचाओ और बहू लाओ’ के घृणित नारे का भी चरित्र स्त्री विरोधी है। ‘लव जेहाद’, ‘बेटी बचाओ, बहू लाओ’, जैसे घृणित नारों के जरिये ये आजादी की ओर उन्मुख महिलाओं के नितांत व्यक्तिगत फैसलों को भी हिन्दू धर्म और परिवार की आन-बान का प्रश्न बना देते हैं।
    कौन किससे प्रेम करेगा या विवाह करेगा यह उसका नितांत व्यक्तिगत मामला है। भारत का पूंजीवादी संविधान इस मामले में हर वयस्क व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि वह अपने जीवनसाथी को चुनने के मामले में स्वतंत्र है। परंतु हिन्दू फासीवादी और अल्पसंख्यक कटटरपंथी इस नितांत व्यक्तिगत अधिकार को विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल जैसे संगठनों व मध्ययुगीन मानसिकता में जीने वाले धर्म गुरूओं के हाथों में रखना चाहते हैं। ये सामंती मानसिकता के लोग पिछले वर्षों में सैकड़ों की संख्या में नवयुवक-नवयुवतियों की अपनी पंचायतों द्वारा हत्या कर चुके हैं और कई युगलों के लिए इन्होंने ऐसी मुश्किलें पैदा की कि उन बेचारों ने खुद ही मौत को गले लगा लिया। 
   हिन्दू फासीवादी व अल्पसंख्यक धार्मिक कट्टरपंथियों की सोच व घृणित कारनामे एक दूसरे को मजबूत करते हैं। और ये दोनों ही तरह की ताकतें महिलाओं के सिर्फ प्रेम, वैवाहिक जीवन को ही नहीं संचालित करना चाहती हैं बल्कि उनके जीवन के एक-एक पल को तय व नियंत्रित कर देना चाहती हैं। पर्दाप्रथा जैसे घृणित रीति-रिवाजों, जैसी तमाम चीजों से हर मुक्तिकामी स्त्री को रोज ही टकराना पड़ता है। विधवा विवाह व परित्यक्ता स्त्रियों की व्यथा आधुनिक पूंजीवादी समाज में भी नहीं मिटी है। 
                                                                                                                 III
    भारतीय समाज में नारी मुक्ति के प्रश्न को पश्चिमी साम्राज्यवादी दुनिया के चश्मे से देखने वालों की भी कमी नहीं है। इस तरह के नारीवाद का यद्यपि भारतीय समाज में बहुत असर नहीं है परंतु मध्यमवर्गीय नारियों में खासकर महानगरों की स्त्रियों के बीच इसका एक प्रभाव मौजूद है। यह नारीवाद नारीमुक्ति के प्रश्न को यौन स्वतंत्रता तक सीमित कर देता है। पश्चिमी देशों में उच्च व मध्यम वर्ग की स्त्रियों में प्रचलित इस नारीवाद की अभिव्यक्तियां ‘स्लट वाक’, ‘टाप फ्रीडम’, ‘टाप लेसनेस’ आदि से होती है। इस नारीवाद के निशाने पर यौन अपराध, पुरुषों के द्वारा निर्धारित वेशभूषा, शब्दावली आदि में प्रचलित तथाकथित स्त्री विरोधी सामाजिक आचार-व्यवहार को निशाने पर लेकर यौन बराबरी को स्थापित करने की मांग की जाती है। इस तरह का नारीवाद नारी स्वतंत्रता को यौन स्वतंत्रता का स्थानापन्न बना देता है और इस तरह पूंजीवाद और साम्राज्यवादी व्यवस्था की सेवा करता है और उसे जायज ठहरा देता है। भारत में इसकी नकल के रूप में ‘बेशर्मी मोर्चा’ अस्तित्व में आया। वर्ष 2011 में पश्चिम के ‘स्लट वाक’ की तर्ज पर पहले भोपाल, फिर नई दिल्ली, कोलकाता शहरों में ‘स्लटवाक अर्थात बेशर्मी मोर्चा’ के बैनर के तहत कुछ आयोजन किये। इन आयोजनों में कुछ दर्जन महिलाओं ने महिलाओं के मनमर्जी के वस्त्र पहनने आदि सवालों को उठाया। यौन अपराधों के प्रति स्त्रियों की नफरत को व्यक्त करने के बावजूद यह उस जमीन को निशाने पर नहीं ला पाता है जहां से यौन अपराधी पैदा होते हैं। 
    भारतीय समाज सहित पूरी दुनिया में यौन अपराधों को नारियों के वस्त्र पहनने के ढंग व सामाजिक व आचार व्यवहार के खिलाफ पैदा हुआ यह आंदोलन पुरुषों की तरह की बराबरी को अपना अभीष्ट मानता है। इसके सामाजिक व्यवस्था में छुपे कारणों को नहीं खोजता है और इसीलिए वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे को अपना लक्ष्य नहीं बनाता है। 
    एक दूसरे रूप में यह पूंजीवादी विज्ञापन, फैशन व यौन उद्योग से विशेष रूप से जुड़ी स्त्री छवि को ही स्थापित करता है। नारियों को समूची मानवीय गरिमा से नीचे गिराकर एक यौन वस्तु में तब्दील कर देने की पूंजीवादी विज्ञापन जगत की करतूतों का आदर्शीकरण इस तरह का नारीवाद चाहे अनचाहे कर देता है। इस तरह से यौन स्वतंत्रता पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था में अपने मर्जी से यौन वस्तु बनने की स्वतंत्रता में तब्दील कर दी जाती है। 
    यौन स्वतंत्रता, नारी स्वतंत्रता का एक हिस्सा है। और इसका अर्थ किसी भी स्त्री के वैवाहिक व यौन संबंध बनाने में स्वेच्छा व स्वतंत्रता से संबंधित है। और मानव जीवन के व्यवहार का यह पहलू आज वैज्ञानिक व मानवीय जीवन के उच्च आदर्शों से संचालित होना चाहिए। एक समाजवादी समाज ही वह धरातल प्रदान करता है जहां नारी और पुरुष उच्च आत्मीय संबंधों व श्रेष्ठ मानवीय आदर्शों से प्रेरित होकर इन संबंधों में नई ऊंचाई प्रदान कर सकते हैं। 
                                                                                                          IV
    पूंजीवादी समाज में आम महिलाओं के प्रति बढ़ते अत्याचार और उनकी शोषण-उत्पीड़न की व्यवस्था के साथ शासक वर्ग ने हालिया वर्षों में महिला सशक्तीकरण का नया जुमला उछाला है। भारतीय समाज में महिला सशक्तीकरण के नाम पर कुछ बहुत ही सामान्य स्तर के कदम उठाये गये। इसमें ग्राम पंचायतों में आरक्षण से लेकर भारतीय महिला बैंक की स्थापना जैसे कदम शामिल हैं। हालांकि वर्षों से भारत की संसद में महिला आरक्षण विधेयक पास होने की बाट जोह रहा है। पुरुष राजनीतिज्ञों की अपने घृणित हितों के कारण यह विधेयक लगभग दो दशक से भारत की संसद में पास नहीं हो सका। महिला सशक्तीकरण का कुल जमा परिणाम यह निकला है कि पूंजीवादी शासक वर्ग भारतीय समाज के इस उत्पीडि़त तबके के बीच अपने आधार का विस्तार करता है और उनकी पूंजीवादी गुलामी को सुनिश्चित करता है। महिला सशक्तीकरण पूंजीवादी समाज में उसके नारी मुक्ति विरोधी चरित्र के ऊपर लीपापोती करने की कवायद के अलावा और कुछ खास नहीं है। इसके लिए भी उसे महिलाओं की जागृति और विश्व मजदूर आंदोलन ने मजबूर किया। 
    यह एक स्थापित तथ्य है कि 1917 में रूस में बोल्शेविकों के नेतृत्व में हुयी समाजवादी क्रांति के पहले तक दुनिया के सबसे महान पूंजीवादी लोकतंत्रों में भी स्त्रियों को मत देने का अधिकार नहीं था। ऐसे देशों में फ्रांस भी शामिल था जहां पूंजीवादी लोकतंत्र की नींव रखी गयी। आजादी, बराबरी, भाई चारा के नारे लगाने वाले फ्रांस के समाज में नारियों को मत देने का अधिकार 1789 की महान फ्रांसीसी क्रांति के करीब डेढ़ सदी बाद ही (1944) में मिल पायी थी। स्विटजरलैण्ड जैसे विकसित देश में यह अधिकार 1971 में जाकर मिला था। महिला सशक्तीकरण की पूंजीवाद में ऐसी ही मंथर गति ओर परिणाम रहा है। 
                                                                                                              V
    विकसित पूंजीवादी देशों से लेकर भारत जैसे कम विकसित पूंजीवादी देश में महिला मुक्ति का प्रश्न मूलतः समाज के उत्पीडि़त-शोषित महिला आजादी के लिए शेष रह गया है। पूंजीपति वर्ग की महिलाएं अधिकांश पूंजीवादी समाजों में पुरुषों के समान ही जीवन जीती हैं। वे ‘मुक्त’ हो चुकी हैं। वे शासक वर्ग की हिस्सा हैं। वे उद्योगों की मालिकिनें हैं। बड़े-बड़े व्यापारिक संस्थान, होटल, बैंकों की मालिक हैं। वे राजनीतिज्ञ हैं। वे फिल्मी हस्तियां हैं। भारतीय समाज में ऐसी महिलाओं में सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज, जयललिता, मायावती, ममता बनर्जी से लेकर चंद्रा कोचर, करीना कपूर से लेकर लाखों महिलाएं हैं। ये महिलाएं किसी भी तरह से शोषित उत्पीडि़त नहीं हैं। ये अपने वर्ग के पुरूषों की तरह ही जीवन जीती हैं। एक ऐसी पूंजीवादी व्यवस्था के संचालन में मदद करती हैं जो गरीब, सर्वहारा, मजदूर आबादी के स्त्री-पुरूषों दोनों के खिलाफ हैं। मध्यम वर्ग की महिलाएं भी पूंजीवादी मकड़जाल में फंसी हुई हैं। वे उच्च वर्ग की महिलाओं के जीवन को देखकर लालायित होती हैं। कई व्यक्तिगत प्रयासों के दम पर वहां पहुंचने का स्वप्न देखती हैं। यदा-कदा कुछ मध्यम महिलाएं उच्च वर्ग की पांतों में शामिल हो जाती हैं। ऐसी महिलाओं की तस्वीर हर वर्ष महिला दिवस के समय अखबारों में साया होती हैं। टी.वी. चैनल में इनकी कथा प्रचारित की जाती है और आम महिलाओं के रोल माॅडल के रूप में पेश किया जाता है। जाहिर सी बात है कि नारी मुक्ति आंदोलन के समक्ष ऐसे रोल माॅडल एक चुनौती हैं। इससे जिस किस्म का भ्रम निर्माण करते हैं उससे यह साबित करने का प्रयास किया जाता है कि यदि कोई नारी मेहनत करे, उसमें प्रतिभा हो तो वह भी उन शिखरों को छू सकती है जो इन रोल माॅडलों ने छुआ है। 
    नारी मुक्ति आंदोलन आज ऐसी अवस्था में पहुंच गया है जहां उसका सर्ववर्गीय चरित्र नहीं हो सकता है। नारी मुक्ति आंदोलन में शासक वर्ग की महिलाओं का कोई स्थान नहीं है। वे अपने वर्ग को त्यागकर मजदूर वर्ग की उत्पीडि़त-शोषित महिलाओं के जीवन को और उनके मुक्ति के लक्ष्य को अंगीकार नहीं कर सकती हैं। भूले-बिसरे कोई शासक वर्ग की महिला नारी मुक्ति आंदोलन की वास्तविक लड़ाई में आ गयी तो आ जाय। परंतु एक वर्ग के बतौर इस वर्ग की महिलाएं नारी मुक्ति आंदोलन के दुश्मनों की कतार में शामिल हैं। वे वैसे ही सामाजिक श्रेणियों से ऊपर और मुक्त हैं। उनकी चमड़ी का रंग, उनकी जात, उनका धर्म, उनकी भाषा, उनके रिति-रिवाज आदि की वजह से उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होता है। रतन टाटा, अजीम प्रेमजी, हामिद अंसारी, मुकेश अंबानी, राहुल बजाज, नरेंद्र मोदी आदि के लिए उपरोक्त सामाजिक श्रेणियों का क्या मतलब है? वे पूंजीपति वर्ग के सदस्य हैं यही उनकी सबसे बड़ी पहचान है। यही बात शासक वर्ग के लिए भी सही है। 
    नारी मुक्ति आंदोलन की पुरोधा, बीसवीं सदी में समाजवादी विचारधारा से ओतप्रेत महिलाएं रही हैं। क्लारा जेटकिन, रोजा लक्जमबर्ग, कोलनताई, हेलेन केलनर जैसी महिलाएं महिला मुक्ति आंदोलन को दिशा देने वाली थी। उनकी शिक्षा और उनके द्वारा पेश आदर्श आज भी नारी मुक्ति आंदोलन के लिए प्रेरणा और दिशा का काम करते हैं। 
सांस्कृतिक समस्यायें -फैज अहमद फैज
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
(शीमा माजिद द्वारा संपादित फैज अहमद फैज के चुनिंदा अंग्रेजी लेखों का संग्रह ‘कल्चर एंड आइडेंटिटी सिलेक्टेड इंग्लिश राइटिंग्स आॅफ फैज’ (आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2005) अपनी तरह का पहला संकलन है। इस संकलन में फैज के संस्कृति, कला, साहित्य, सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेख इसी शीर्षक से पांच खण्डों में विभाजित हैं। इनके अलावा एक और ‘आत्म-कथ्यात्मक’ खंड है, जिनमें प्रमुख है फैज द्वारा 7 मार्च 1984  (अपने इंतकाल से महज आठ महीने पहले) को इस्लामाबाद में एशिया स्टडी ग्रुप के सामने कही बातों को ट्रांसक्रिप्ट करके संकलित किया गया है। इस महत्वपूर्ण पुस्तक की भूमिका पाकिस्तान में उर्दू साहित्य के मशहूर आलोचक मुहम्मद रजा काजिमी ने लिखी है। शायरी के अलावा फैज साहब ने उर्दू और अंगे्रजी दोनों भाषाओं में साहित्यिक आलोचना और संस्कृति के बारे में विपुल लेखन किया है। साहित्य की प्रगतिशील धारा के प्रति उनका जगजाहिर झुकाव इस संकलन के कई लेखों में झलकता है। इस संकलन में शामिल खुसरा, गालिब, तोलस्तोय, इकबाल और सादिकैन जैसे हस्तियों पर केंद्रित उनके लेेख उनकी व्यवहारिक आलोचना की मिसाल है। यह संकलन केवल फैज के साहित्यिक रूझानों पर ही रोशनी नहीं डालता बल्कि यह पाकिस्तान और समूचे दक्षिण एशिया की संस्कृति और विचार की बेहद साफ दिल और मौलिक व्याख्या के तौर पर भी महत्वपूर्ण है। इसी पुस्तक के एक लेख में ‘कल्चरल प्राबल्मस इन इंडरडिवेलप्ट कंट्रीज’ का तर्जुमा हम पेश कर रहे हैं।)
    इंसानी समाजों में संस्कृति के दो मुख्य पहलू होते हैं- एक बाहरी, औपचारिक; और दूसरा आंतरिक वैचारिक संस्कृति के बाह्य स्वरूप, जैसे सामाजिक और कला संबंधी, संस्कृति के आंतरिक वैचारिक पहलू की संगठित अभिव्यक्ति मात्र होते हैं और दोनों ही किसी भी सामाजिक संरचना के स्वाभाविक घटक होते हैं। जब यह संरचना परिवर्तित होती है या बदलती है तब वे भी परिवर्तित होते हैं या बदलते हैं। और इस जैविक कड़ी के कारण वे अपनी मूल जनक जीव में भी ऐसे बदलाव लाने में असर रखते हैं या उसमें सहायता कर सकते हैं। इसलिए सांस्कृतिक समस्याओं से पृथक करके नहीं किया जा सकता। इसलिए अविकसित देशों की सांस्कृतिक समस्याओं को व्यापक परिपे्रक्ष्य में यानी सामाजिक समस्याओं के संदर्भ में रखकर समझना और सुलझाना होगा। 
    फिर अविकसित देशों की मूलभूत सांस्कृतिक समस्याएं क्या हैं? उनके उदगम क्या हैं और उनके समाधान के रास्ते में कौन से अवरोध हैं?
    मोटे तौर पर तो ये समस्याएं मुख्यतः कुंठित विकास की समस्याएं हैं; वे मुख्यतः लम्बे समय के साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी शासन और पिछड़ी, कालबाह्य सामाजिक संरचना के अवशेषों से उपजी  हुई हैं। इस बात का और अधिक विस्तार से वर्णन करना जरूरी नहीं। सोलहवीं और उन्नीसवीं सदी के बीच एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के देश यूरोपीय साम्राज्यवाद से ग्रस्त हुए। उनमें से कुछ अच्छे-खासे विकसित सामंती समाज थे जिनमें विकसित सामंती संस्कृति की पुरातन परंपराएं प्रचलित थीं। औरों को अभी प्रारंभिक ग्रामीण कबीलाइवाद से परे जाकर विकास करना था। राजनीतिक पराधीनता के दौरान उन देशों का सामाजिक और सांस्कृतिक विकास रुक सा गया और यह राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त होने तक रुका ही रहा। तकनीकी और बौद्धिक श्रेष्ठता के बावजूद इन प्राचीन सामंतवादी समाजों की संस्कृति एक छोटे से सुविधासम्पन्न वर्ग तक ही सीमित थी और उसका अंतर्मिश्रण जन साधारण की समानांतर सीधी सहज लोक संस्कृति से कदाचित ही होता। अपनी बाल सुलभ सुंदरता के बावजूद आदिम कबीलाई संस्कृति में बौद्धिक तत्व कम ही थे। एक ही वतन में पास-पास रहने वाले कबीलाई और सामंतवादी समाज दोनों ही अपने प्रतिद्वंदियों के साथ लगातार कबीलाई, नस्ली और धार्मिक या दीगर झगड़ों में लगे रहते। अलग-अलग कबीलाई या राष्ट्रीय समूहों के बीच का खड़ा विभाजन(Vertical Division) और एक ही कबीलाई राष्ट्रीय समूह के अतंर्गत विविध वर्गों के बीच क्षैतिज विभाजन(Horizontal Division) इस दोहरे विखंडन को उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी प्रभुत्व से और बल मिला। यही वह सामाजिक और सांस्कृतिक मूलभूत जमीनी संरचना है जो नव स्वाधीन देशों को अपने भूतपूर्व मालिकों से विरासत में मिली है।    
    एक बुनियादी सांस्कृतिक समस्या जो इनमें से बहुत से देशों के आगे मुंह बाये खड़ी है, वह है सांस्कृतिक एकीकरण की समस्या, नीचे से ऊपर तक एकीकरण जिसका अर्थ है विविध राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रतिरूपों को साझा वैचारिक और राष्ट्रीय आधार प्रदान करना और क्षैतिज एकीकरण जिसका अर्थ है अपने समूचे जन समूह को एक से सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर तक ऊपर उठाना और शिक्षित करना। इसका मतलब यह कि उपनिवेशवाद से आजादी तक के लिए गुणात्मक राजनीतिक परिवर्तन के पीछे-पीछे वैसा ही गुणात्मक परिवर्तन उस सामाजिक संरचना में होना चाहिए जिसे उपनिवेशवाद अपनी पीछे छोड़ गया है। 
    एशियाई, अफ्रीकी और लातिन अमेरिकी देशों पर जमाया गया साम्राज्यवादी प्रभुत्व विशुद्ध राजनीतिक आधिपत्य की निष्क्रिय प्रक्रिया मात्र नहीं था और वह ऐसा हो भी नहीं सकता था। इसे सामाजिक और सांस्कृतिक वंचना(Deprivation) की क्रियाशील प्रक्रिया ही होना था और ऐसा था भी। पुराने सामंती या प्राक सामंती समाजों में कलाओं, कौशलों, प्रथाओं, रीतियों, प्रतिष्ठा, मानवीय मूल्यों और बौद्धिक प्रबोधन के माध्यम से जो कुछ भी अच्छा, प्रगतिशील और अग्रगामी था उसे साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने कमजोर करने और नष्ट करने की कोशिश की। और अज्ञान, अंधविश्वास, जी-हुजूरी और वर्ग शोषण अर्थात जो कुछ भी उनमें बुरा, प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी था उसे बचाने और बनाये रखने की कोशिश की। इसलिए साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने नवस्वाधीन देशों को वह सामाजिक संरचना नहीं लौटाई जो उसे शुरूआत में मिली थी बल्कि उस संरचना के विकृत और बरबाद कर दिये गये अवशेष उन्हें प्राप्त हुए। साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने भाषा, प्रथा, रीतियों, कला की विधाओं और वैचारिक मूल्यों के माध्यम से इन अवशेषों पर अपने पूंजीवादी सांस्कृतिक प्रतिरूपों की घटिया, बनावटी, नकलें अध्यारोपित की। 
     अविकसित देशों के सामने इस वजह से बहुत सी सांस्कृतिक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। पहली समस्या है अपनी विध्वस्त राष्ट्रीय संस्कृतियों के मलबे से उन तत्वों को बचाकर निकालने की जो उनकी राष्ट्रीय पहचान का मूलाधार है, जिनका अधिक विकसित सामाजिक संरचनाओं की आवश्यकताओं के अनुसार समायोजन और अनुकूलन किया जा सके, और जो प्रगतिशील सामाजिक मूल्यों और प्रवृत्तियों को मजबूत बनाने और उन्हें बढ़ावा देने में मदद करे। दूसरी समस्या है उन तत्वों को नकारने और तजने की जो पिछड़ी और पुरातन सामाजिक संरचना का मूलाधार है। जो या तो सामाजिक संबंधों की और विकसित व्यवस्था से असंगत हैं या उसके विरुद्ध हैं और जो अधिक विवेकवान, बुद्धिपूर्ण और मानवीय मूल्यों और प्रवृत्तियों की प्रगति में बाधा बनते हैं। तीसरी समस्या है, आयातित विदेशी और पश्चिमी संस्कृतियों से उन तत्वों को स्वीकार और आत्मसात करने की जो राष्ट्रीय संस्कृति को उच्चतर तकनीकी, सौंदर्यशास्त्रीय और वैज्ञानिक मानकों तक ले जाने में सहायक हों और चौथी समस्या है उन तत्वों का परित्याग करने की जो अधःपतन, अवनति और सामाजिक प्रतिक्रिया को सोद्देश्य बढ़ावा देने का काम करते हैं। 
    तो ये सभी समस्याएं नवीन सांस्कृतिक अनुकूलन, सम्मिलन और मुक्ति की हैं। और इन समस्याओं का समाधान आमूल सामाजिक (अर्थात राजनीतिक, आर्थिक और वैचारिक) पुनर्विन्यास के बिना केवल सांस्कृतिक माध्यम से नहीं हो सकता। इन सभी बातों के अलावा, अविकसित देशों में राजनीतिक स्वतंत्रता के आने से कुछ नई समस्याएं भी आयी हैं। पहली समस्या है उग्र-राष्ट्रवादी पुनरुत्थानवाद और दूसरी है नव-साम्राज्यवादी सांस्कृतिक पैठ की। 
    इन देशों के प्रतिक्रियावादी सामाजिक हिस्से पूंजीवादी, सामंती, प्राक सामंती और उनके अभिज्ञ और अनभिज्ञ मित्रगण जोर देते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा के अच्छे और मूल्यवान तत्वों का ही पुनः प्रवर्तन और पुनरुज्जीवन नहीं किया जाना चाहिए बल्कि बुरे और बेकार मूल्यों का भी पुनः प्रवर्तन और स्थायीकरण किया जाना चाहिए। आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति के बुरे और बेकार तत्वों का ही नहीं बल्कि उपयोगी और प्रगतिशील तत्वों का भी अस्वीकार और परित्याग किया जाना चाहिए। इस प्रवृत्ति के कारण एशियाई और अफ्रीकी देशोें में कई आंदोलन उभरे हैं और इन सारे आंदोलनों का उद्देश्य मुख्यतः राजनीतिक है, अर्थात बुद्धि सम्पन्न सामाजिक जागरूकता के उभार में बाधा डालना और इस तरह शोषक वर्गो के हितों और विशेषाधिकारों की पुष्टि करना। 
    उसी समय नव-उपनिवेशवादी शक्तियां, मुख्यतः संयुक्त राज्य अमेरिका, अपराध, हिंसा, सिनिसिज्म, विकार और लम्पटता का महिमामंडन और गुणगान करने वाली दूषित फिल्मों, पुस्तकों, संगीत, नृत्यों, फैशनों के रूप में सांस्कृतिक कचरे, या ठीक-ठीक कहें तो असांस्कृतिक कचरे के आप्लावन से प्रत्येक अविकसित देश के समक्ष खड़े सांस्कृतिक शून्य को भरने की कोशिश कर रही है। ये सभी निर्यात अनिवार्यतः अमरीकी सहायता के माध्यम से होने वाले वित्तीय और माल के निर्यात के साथ-साथ आते हैं और उनका उद्देश्य भी मुख्यतः राजनीतिक है अर्थात अविकसित देशों में राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ने से रोकना और इस तरह उनके राजनीतिक और बौद्धिक परालंबन का स्थायीकरण करना। इसलिए इन दोनों समस्याओं का समाधान भी मुख्यतः राजनीतिक है। अर्थात देशज और विदेशी प्रतिक्रियावादी प्रभावों की जगह प्रगतिशील प्रभावों को स्थानापन्न करना। और इस काम में समाज के अधिक प्रबुद्ध और जागरूक हलकों जैसे लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों की प्रमुख भूमिका होगी। संक्षेप में कुंठित विकास, आर्थिक विषमता, आंतरिक विसंगतियां, नकलचीपन आदि अविकसित देशों की प्रमुख सांस्कृतिक समस्याएं मुख्यतः सामाजिक समस्याएं हैं। वे एक पिछड़ी हुई सामाजिक संरचना के संगठन, मूल्यों और प्रथाओं से जुड़ी हुई समस्याएं हैं। इन समस्याओं का कारगर समाधान तभी होगा जब राष्ट्रीय मुक्ति के लिए सम्पन्न हो चुकी राजनैतिक क्रांति के पश्चात राष्ट्रीय स्वाधीनता को पूर्ण करने के लिए सामाजिक क्रांति होगी। 
(अंग्रेजी सेे अनुवाद: भारत भूषण तिवारी साभार-गद्यकोश)
मध्यमवर्गीय आंदोलन की परिणति
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    अन्ना आंदोलन चार साल के छोटे अंतराल में ही अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गया। उस आंदोलन के कुछ नेताओं ने स्वयं अज्ञातवास की शरण ली जिसमें अन्ना स्वयं भी शामिल हैं। कुछ नेता अपनी गैर सरकारी संगठनों की धंधेबाजी में मशगूल हो गये जिन्हें 2011 में भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने व लोकपाल का दौरा पड़ा था। कुछ नेताओं ने उसी राजनीतिक गंदगी में लोट लगाने की ठानी जिसके बारे में रामलीला मैदान में बड़ी-बड़ी क्रांति की बातें की गयीं थीं। आज वे ही लोग खुद उस ‘राजनीति वर्ग’ का हिस्सा बन गये जिस ‘राजनीतिक वर्ग’ को रामलीला मैदान से गाली दे रहे थे। राजनीति में बदलाव के लिए उठने वाले कदम उसी राजनीति द्वारा जंजीरों से बांध दिये गये। और आज आम आदमी पार्टी के सरगना मुख्यमंत्री पद से दिये गये इस्तीफे को अपनी राजनीतिक गलती मानते हुए दिल्ली के लोगों से माफी मांगते घूम रहे हैं। 
    सबसे मजेदार कारनामा तो किरन बेदी ने किया। उन्होंने तो अपना हीरो ही बदल लिया। आम आदमी की तरह दिखने वाला रालेगण सिद्धि का वह संत उनका नायक नहीं वरन गुजरात में मुसलमानों का कातिल और कारपोरेट घरानों का नायक उनका नया नायक बन गया। संघ जैसा फासिस्ट संगठन अब इस महिला अफसर और शाजिया इल्मी जैसों का नया व सुरक्षित घर बन गया। भाजपा जैसी सांप्रदायिक पार्टी का पट्टा पहनने वाली इस पहली महिला अफसर ने ऐसा दांव खेला कि दिल्ली भाजपा के सभी नेता चारों खाने चित्त हो गये। 
    इस प्रकार चार सालों के भीतर ही अन्ना के दांयें और बांयें हाथों ने अन्ना आंदोलन की साख का फायदा उठाकर अपना भविष्य सुरक्षित कर लिया और इस बेचारे बूढ़े को रालेगण सिद्धि में मरने के लिए छोड़ दिया। 
    इस आंदोलन के नेताओं ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन विकसित करने के लिए न सिर्फ लोकलुभावन नारों का इस्तेमाल किया था वरन् जनता के असंतोष का इस्तेमाल करने के लिए ‘राजनीतिक वर्ग, संसद को गालियां दीं। यहां तक कि उन्होंने क्रांति तक की लफ्फाजी की। जाहिर है मध्यम वर्ग का यह आंदोलन अपने मध्यमवर्गीय चरित्र के ही अनुरूप व्यवहार कर सकता था। इस आंदोलन को यह नहीं पता था कि उसका लक्ष्य क्या था। और जब उन्होंने अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहा तो वे उसी पूूंजीपति की गोद में जा बैठे जहां उनका ‘राजनीतिक वर्ग’ पहले से ही उनके स्वागत में अलग-अलग टोपियों और झंडों के साथ खड़ा था। 
    इस मध्यवर्गीय आंदोलन ने पुनः साबित किया कि मध्यमवर्गीय आंदोलनों की कोई अलग मंजिल नहीं हो सकती है या तो वे पूंजीवादी व्यवस्था में आत्मसात हो जायेंगे या फिर वे मजदूर संघर्षों के साथ खुद को पायेंगे। अन्ना आंदोलन तो इतिहास में इतना बौना साबित हुआ कि कुछ वर्षों बाद जो उसकी जगह इतिहास के अभिलेखगार में होगी। देशव्यापी आंदोलन होने के बाद भी यह एक ऐसा आंदोलन था जिसका राजनीतिक प्रभाव बहुत ही गौण साबित हुआ। वह एक गुब्बारे की तरह फूला और फूट गया। 
    इस आंदोलन के आधार वर्ग मध्यम वर्ग ने भी 2014 के लोकसभा चुनाव में अपना नायक बदल लिया। इस वर्ग ने अपनी आकांक्षाओं व इच्छाओं के लिए केजरीवाल से ज्यादा मोदी को मुफीद समझा। जिस वर्ग ने केजरीवाल को नायक बनाया उसके नायक बदलते ही केजरीवाल व आप उसके लिए जीरो बनने की ओर अग्रसर हो चले। मध्यम वर्ग ने नायक बदलने में भी अपना वही ढुलमुलपन प्रदर्शित किया जैसा कि वह अपनी चरित्र के अनुरूप सभी मामलों में करता है। 
    केजरीवाल की आम आदमी पार्टी जो अन्ना आंदोलन की उत्पाद रही है इस पार्टी ने वही काम शुरू कर दिये जो वर्तमान के पूंजीवादी राजनीति की चारित्रिक विशेषताएं हैं। उदाहरण के लिए आम आदमी पार्टी ने भी चुनाव जीतने के लिए ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देना शुरू कर दिया जिसका चरित्र आपराधिक था व जो धन-बल रखता है आदि। बिना किसी विचारधारात्मक मतभेद के पूंजीवादी राजनीति में अलग मुकाम नहीं बनाया जा सकता है। ईमानदारी का झंडा उठाकर केजरीवाल एंड कंपनी भारतीय मेहनतकश अवाम की तकलीफों का रत्तीभर समाधान नहीं कर सकते हैं। लोकलुभावन नारों से सुधारात्मक कदमों के नाम पर वे लोगों को बरगला तो सकते हैं परंतु आज की पूंजीवादी राजनीति में वे लोगों के लिए वह भी राहत नहीं दिला सकते हैं जिसकी वे बातें करते हैं। इसलिए अन्ना आंदोलन के उत्पाद या तो भारतीय पूंजीपति की प्रत्यक्ष सेना में लग गये जैसाकि किरन बेदी जैसों ने किया है या फिर वे पूंजीपति वर्ग की टीम बनकर अपने मौके का इंतजार कर रहे हैं। आज के पूंजीवादी युग में मध्यमवर्गीय राजनीति का कोई और भविष्य हो भी नहीं सकता है। 
मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति  -स्वतंत्र मिश्र
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति के बीच के संबंधों पर बात करने से पहले हमें यह समझ लेना होगा कि हम किस मीडिया के बारे में बात कर रहे हैं। मीडिया के बारे में चिंतन शुरू करते ही हमारे दिमाग में बड़े समाचार और मनोरंजन चैनल, हिंदी, अंग्रेजी या फिर दूसरे किसी भी क्षेत्रीय भाषा में छपने वाले अखबारों का ख्याल जेहन में आने लगता है। यह वह मीडिया है जो मुनाफे के सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर ही अपनी परवरिश करता है और मालिकों के लिए यह एक धंधा भर है। आमतौर पर इसे मुख्यधारा का मीडिया भी कहते हैं।
पूंजीवादी व्यवस्था में गुणवत्ता से ज्यादा पूंजी का आकार यानी बड़ी पूंजी और छोटी पूंजी मायने रखती है क्योंकि इस समय कोई भी अखबार या मनोरंजन चैनल खड़ा करने के लिए सैकड़ों करोड़ रुपये की पूंजी की जरूरत होती है। जाहिर सी बात है कि जिस मीडिया संस्थान के पास जितनी बड़ी पूंजी होगी, वह अपने मीडिया संस्थान या ब्रांड को स्थापित करने के लिए तमाम जोखिम को सहने की क्षमता भी उतनी ज्यादा रखेगा। वह अपने साम्राज्य का विस्तार भी छोटी पूंजी के वेंचर की तुलना में ज्यादा कर सकेगा और जाहिर सी बात है कि वह अपनी पूँजी को भी ज्यादा कुशलता से विस्तार दे सकेगा। वह अखबार और टीवी चैनल के संस्करण के माध्यम से अपने उपभोक्ता और विज्ञापन के जरिये पूंजी का हर संभव दोहन करने में कामयाबी हासिल कर सकेगा। ऐसे में जाहिर है कि अखबार और चैनलों के लिए खबर नहीं बल्कि खबर के तौर पर उत्पाद या सीधी भाषा में कहें तो बिक्री के लिहाज वाली खबरें ही महत्व पाएंगी। उनके लिए भुखमरी, कुपोषण, खेती-किसानी और आम जनता जिसकी क्रय क्षमता नहीं है, उसकी खबर कोई खास मायने नहीं रखती है। अपवाद के तौर पर अगर कोई जन सरोकार वाली खबरें चैनल या अखबार में दिखती हैं तो उसे दिखाने या प्रकाशित करने के पीछे सम्बद्ध चैनल की कोई न कोई मजबूरी ही होती है। एक बड़ी मजबूरी उनकी अपने पाठकों या दर्शकों के बीच अपनी साख जमाने या बचाने की भी होती है जिसके चलते जन सरोकारी किस्म की खबरें जगह पा लेती हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण पृष्ठभूमि की सबसे ज्यादा खबरें ३ फीसदी अंग्रेजी अखबार ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित होती हैं।
अखबारों या चैनलों में प्रकाशित या प्रसारित होने वाली खबरों से आसानी से उनकी पक्षधरता समझी जा सकती है। इस बात को समझने के लिए कुछ बड़े मनोरंजन चैनलों की पूंजी पर भी गौर फरमाया जा सकता है। सहारा समय, एबीपी, आज तक और एनडीटीवी का सालाना टर्नओवर 300 करोड़ रुपये के आसपास या इससे भी ज्यादा का है। ज्यादातार बड़े अखबारों के भी टर्नओवर कई सौ करोड़ रुपये सालाना का है। अब सवाल है कि यह कारोबार या मुनाफा चैनलों और अखबारों को कहां से आता है? उनकी कमाई दर्शकों और पाठकों से कतई पूरी नहीं हो सकती है। इसकी वजह साफ है कि आज की तारीख में 10 पन्ने का एक अखबार छापने की लागत प्रति कापी 10 रूपये के आस-पास आती है। सवाल उठता है कि फिर मीडिया संस्थान इस घाटे की क्षतिपूर्ति कहां से करते हैं और मुनाफा कहां से कूटते हैं? मीडिया संस्थान अपनी कमाई विज्ञापन से होने वाली आय से जुटा पाते हैं। यही वजह है कि विज्ञापन और मीडिया संस्था के बीच मुनाफे को लेकर एक किस्म का दबाव काम करता है जो विज्ञापन और संपादकीय सामग्री दोनों के स्तर को बुरी तरह से प्रभावित करते हैं और निश्चित तौर पर इससे उपभोक्तावादी संस्कृति को भी बढ़ावा मिलता है।
संपादकीय सामग्री पर विज्ञापन का दबदबा
विज्ञापनदाता कंपनियों का दबाव मीडिया संस्थाओं पर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। यह दबाव अब खतरनाक स्थिति में पहुंच चुका है क्योंकि अब विज्ञापन को संपादकीय सामग्री की शक्ल में प्रकाशित और प्रचारित किया जाने लगा है। यह काम सभी बड़े चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं में धड़ल्ले से हो रहा है। निश्चित तौर पर यह भ्रामक और खतरनाक भी है। एक हिंदी पाक्षिक ने 2013 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर एक आवरण कथा प्रकाशित की थी। छह पृष्ठों की आवरण कथा में अखिलेश यादव के नकारापन पर बहुत उम्दा रिपोर्ट लिखी गयी थी लेकिन बिना किसी अंतराल के उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से छह पृष्ठों की सामग्री प्रकाशित की। तहलका (समाचार-प्रचार) पर अतिप्रशंसा वाले विज्ञापन नाम से हर अंक में प्रकाशित करता है। अखिलेश यादव वाले इस अंक को लेकर सोशलसाइट पर एक बहस भी चली और पत्रिका के संपादकीय विवेक पर सवाल भी उठाया गया था। निश्चित तौर पर यह संपादकीय विवेक पर विज्ञापन के दबाव को दर्शाता है। इतना ही नहीं बीते एक दशक से यह देखा यह जा रहा है कि पत्र-पत्रिकाएं और न्यूज चैनल विज्ञापन की संपादकीय सामग्री को खुद ही अपने यहां कार्यरत मीडिया कर्मचारियों यानी पत्रकारों से तैयार करवाता है। कई संस्थानों में इस काम के लिए पत्रकारों को अलग से पारिश्रमिक भी दिया जाता था। अलग से पारिश्रमिक देने की व्यवस्था भी धीरे-धीरे खत्म सी हो गई है। अब पत्रकारों ने और मीडिया संस्थानों में बैठे संपादकों और कुछ अधिकारियों ने इसे संपादकीय सहयोग के तौर पर स्वीकार कर लिया है। मतलब यह है कि अखबार में नौकरी करनी है तो विज्ञापनदाताओं और मालिकों के हितों को सबसे ऊपर रखना होगा। पत्रकारिता तो बीते जमाने की बात हो ही चली है। पत्रकार भाड़े के टट्टू की तरह हैं। उन्हें जहां चाहे जोत लो, वे न नहीं कर सकते हैं। अगर यह कहा जाए कि नौकरी बनाए रखने के नाम पर पत्रकारों की रीढ़ तोड़ दी गई है या तोड़ी जा रही है तो शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह कोशिश ‘हिंदुस्तान’ और ‘आइबीएन 7’ से निकाले गए सैकड़ों पत्रकारों के संदर्भ में ही नहीं बल्कि ‘द हिंदू’ के सिद्धार्थ वरदराजन से संपादक की कुर्सी छीनकर कस्तूरी परिवार के अपने परिवार के सदस्यों को सौंप देने के संदर्भ में समझा जा सकता है। सिद्धार्थ वरदराजन से संपादक की कुर्सी लेकर मालिकों द्वारा अपने बेटे और बेटियों को दिया जाना ‘संपादक’ नाम की संस्था को खत्म करने जैसा है। युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने अपने फेसबुक वाॅल पर यह भी लिखा है कि सिद्धार्थ ने नरेंद्र मोदी की खबर को पहले पन्ने पर जगह देने से अपने संपादकीय टीम को मना किया था। ‘द हिंदू’ को एक लोकतांत्रिक अखबार की तरह देखा जाता रहा है, हालांकि यहां भी सिद्धार्थ के संपादक पद पर रहते हुए ही ‘द टाइम्स आॅफ इंडिया’ के नक्शेकदम पर चलते हुए जैकेटनुमा विज्ञापन प्रकाशित किया जाने लगा था। विज्ञापन को तवज्जो मिलने से खबरों की जगह यहां भी मरने लगी थी। अंतर यह है कि यह काम यहां बहुत देरी से हो रहा है, जो अन्य अखबारों के मालिकों ने मुनाफा लूटने के लिए एक सुनहरे अवसर की तरह दो-तीन दशक पहले ही लपक लिया था। लाजिमी है कि कोई भी संस्थान या पेशा अपने मूल से भटकने लगता है और उसकी पहली और अंतिम इच्छा केवल मुनाफा बटोरने की रह जाती है तो उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा मिलने से कोई कैसे रोक सकता है?
मीडिया उद्योग में कई संस्थान बस इसलिए शुरू किये जाते हैं ताकि उनकी आड़ में अपने काले या गैर-कानूनी धंधों को फलने-फूलने का हरसंभव अवसर उपलब्ध कराया जा सके। कारोबारी और उनसे गठजोड़ कर चुके संपादक अपने मीडिया संस्थान (अखबार या चैनल) के पत्रकारों की नेता, मंत्री और अफसरशाहों के संपर्कों का दोहन करके अपने धंधे को आगे बढ़ाते हैं और जब यह मकसद पूरा नहीं होता हुआ दीखता तब वे बड़े स्तरों पर पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखाते हैं। पर्ल न्यूज नेटवर्क की चार पत्रिकाओं (शुक्रवार, बिंदिया, मनी मन्त्र हिंदी व अंग्रेजी) और टीवी चैनल का बंद होना इसकी बड़ी मिसाल है। पर्ल न्यूज नेटवर्क ने छह साल तक अपने यहां काम करने वाले कर्मचारियों को 15-25 फीसदी का सालाना ग्रोथ दिया। हर त्यौहार पर काजू, किसमिस और रेवडि़यां बांटी। होली और दिवाली पर 1500-2500 रूपये के लिफाफे भी पकड़ाए। लेकिन इस ग्रुप की दूसरे चिटफण्ड के कारोबार में निवेशकों के 45 हजार करोड़ की देनदारी के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस रेवड़ी बांटने वाली संस्था ने अपने कर्मचारियों को 2014 के अगस्त-सितम्बर से ही सैलरी नहीं दी है। पी 7 चैनल और पत्रिकाओं के कर्मचारी अपने बकाये को लेकर संघर्षरत हैं। कंपनी के मैनेजर कर्मचारियों से हर संभव बुरा व्यवहार कर रहे हैं। संपादकों से मालिकों के एजेंट द्वारा पत्रिका बंद करने से पहले हर महीने 5 लाख विज्ञापन लाने को कहा गया था। एक-दो ने इसे स्वीकार भी किया और उनके लिए कार्यालय के दरवाजे पत्रिका बंद होने के बाद भी कई महीने तक खुले रहे। वह ऐसा व्यवहार इसलिए कर रही हैं क्योंकि उनके चिटफण्ड के कारोबार के काले पक्ष को मीडिया के मजदूर धोने में कामयाब नहीं हो पाए। सहारा की 31 कंपनी में से सिर्फ एक कंपनी ही फायदे में थी। सहारा कंपनी के मालिक सुब्रतो राय को बचाने के लिए मीडिया मजदूरों से चंदा इकट्ठा करने की बात सुनी गयी थी। पर्ल ग्रुप की भी लगभग 42 कंपनी में से सिर्फ एक-दो ही मुनाफे में थी। दरअसल, उपभोक्तावाद का मूल सिद्धांत ही किसी भी सूरत में मुनाफा कमाना भर होता है। मुनाफा कमाने के लिए तमाम किस्म की अमानवीयता और श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। दुखद तो यह है कि मीडिया के इस बाजारू खेल में बड़े-बड़े और नामचीन पत्रकार-संपादक शामिल हैं। इन पत्रकार-संपादकों की नजरें सालाना करोड़ों के सैलरी पैकेज और अम्बानी के अंतिला में आलिशान फ्लैट खरीदने और इडियन माल में शेयर जुगाड़ने की है। एक अंग्रेजी पत्रिका कारवां के अनुसार इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक शेखर गुप्ता को संस्थान नया गुल खिलने को सालाना 10 करोड़ रूपये देता रहा?
पत्रिकारिता एक मिशन और जज्बा है- देश के अलग-अलग पत्रिकारिता स्कूल में पढ़कर निकले हर साल 60 हजार युवाओें को इसके तहखाने की बातें जब पता चलती हैं तब वह इससे ज्यादा भली पीआर की नौकरी में ही अपनी ऊर्जा खपाना उचित समझते हैं। वैसे भी पत्रकारिता भी तो मिशन को छोड़ मालिकों और उनके गोरखधंधों के लिए पीआर का ही काम कर रही है..

लेखक सरोकारी पत्रकार हैं। मीडिया संस्थानों में पढ़ाते हैं। इन दिनों उनकी लेखों की किताब ‘जल, जंगल और जमीन: उलट, पुलट, पर्यावरण’ चर्चा में है।
पन्तनगर विवि में ठेका मजदूरों का बेइन्तहा शोषण जारी है
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
पंतनगर विश्वविद्यालय में श्रम कानूनों की खुले आम धज्जियां उड़ाई जा रही हंै। साथियों पन्तनगर विवि में 2000 ठेका मजदूर शोषण के शिकार हैं। मई 2003 से ठेका मजदूरों से लगातार ईपीएफ काटा जा रहा है। मजदूरों की खून पसीने की कमाई के पैसे की कोई जानकारी मजदूरों को नहीं है। और लगातार ईपीएफ के पैसे का ट्रांसफर करने का फार्म भर के जमा कर चुके हैं लेकिन पैसे आज तक नहीं पता चला। पन्तनगर विवि एक सरकारी प्रतिष्ठान है और आज यहां मजदूरों के शोषण और दमन की प्रक्रिया को और तेजी से चलाया जा रहा है। 
साथियों पन्तनगर विवि में एक ठेकेदार आया है और इस ठेकेदार ने विवि के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों से मिल कर ठेका मजदूरों की खून पसीने की कमाई का एक बड़ा हिस्सा रिश्वत के रूप में डकार लिया है। एक मजदूर से रू. 2000 से रू. 3000 तक पैसा ठेकेदार द्वारा लिया जा रहा है। ठेकेदार यह पैसा ईपीएफ को निकलवाने अथवा ट्रांसफर कराने के एवज में ले रहा है। जबकि साथियों ठेका प्रथा उन्मूलन कानून 1970 के अधिनियम कहता है कि यदि कोई ठेका मजदूर किसी ठेकेदार के तहत कार्य करता है और जब ठेकेदार का ठेका खत्म हो जाता है तो ठेकेदार की जिम्मेदारी है कि सब ठेका मजदूरों का एक-एक पैसे का भुगतान ठीक प्रकार से कराये और निःशुल्क ट्रांसफर कराये लेकिन यहां पर तो बन्दर बांट चल रही है। ऐसा भी नहीं है कि विवि के श्रमकल्याण अधिकारी की जानकारी में यह घटना नहीं रही है। इनको सारी बातें मालूम हैं परन्तु यह महकमा चुप इसलिए है कि इनका हिस्सा समय से मिल रहा है। 
साथियों ये तो रही एक प्वाइन्ट की बात लेकिन दूसरे प्वाइन्ट को भी जान जाइए। पन्तनगर में ठेका मज़दूरों को कहीं भी रहने के लिए आवास नहीं दिया जा रहा है। ऐसा भी नहीं है कि पन्तनगर में रहने के लिए जगह नहीं है। ढे़र सारे खाली पड़े आवासों में मुद्दत से ताले लटके हुए हैं। और कुछ चमचों और चाटुकारों को कमरे/आवास पता नहीं किस नियम के आधार पर आवंटित भी कर रखा है परन्तु कुछ मजदूरों को इस सुविधा से महरूम रखा जा रहा है। आवास नहीं देने का मतलब है कि इन मजदूरों को आवास नहीं दोगे तो ये मजबूर होकर अफसरों के मकान में बने सर्वेन्ट रूम में रहने को मजबूर होंगे और इन्हें जरखरीद गुलाम मिला रहेगा। और इन मजदूरों का हर प्रकार का शोषण बदस्तूर जारी रहेगा। दिखावे के लिए ये अधिकारी लोग मजदूरों पर दया भाव दिखाते हैं। मगर साथियों सच्चाई कुछ और ही बयां करती है। अगर कोई मजदूर इन सर्वेन्ट आवासों में रहता है तो उसका बहुत ज्यादा शोषण होता है। जैसे कि पति से क्यारी में बेगारी कराते हैं और पत्नी से घरों का पूरा कार्य कराया जाता है जिसमें झाड़ू-पोंछा, बर्तन-कपड़े धुलवाने से लेकर अन्य सारे कार्य कराये जाते हैं और अगर घर में दस या आठ साल का बच्चा है तो उससे मसाले का डब्बा या घर के सजावटी सामानों की सफाई का कार्य लिया जाता है अर्थात बाल मजदूरी पन्तनगर के घरों में बदस्तूर जारी है। और तीसरे प्वाइन्ट की बात करें तो ठेका मजदूरों से घरों पर बेगारी कराई जाती है। जो मजदूर ठेका का है तो उसका बहुत ज्यादा शोषण हो रहा है। क्योकि उस बेचारे को आठ घण्टा तो सरकारी दफ्तर में काम करना है और फिर दो घण्टा सुबह और शाम अधिकारियों के घर पर काम करना है। कुछ तो ऐसे भी अधिकारी हैं जो पूरी ड्यूटी के दौरान ठेका मजदूरों से अपने घर पर ही काम कराते हैं। 
तीन ठेका मजदूर और पांच ठेका मजदूर के तादात में बेगारी कराई जाती है। सरकारी पैसे का दुरुपयोग हो रहा है जो जनता की सम्पत्ति है। ठेका मजदूर यदि कहीं किसी प्रकार की शिकायत करता पाया जाता है तो उसकी स्वीकृति खत्म हो जाता है, प्रोजेक्ट खत्म हो जाता है। यदि कोई अधिकारी छान बीन करता भी है तो ये अधिकरी सफाई में कहते हैं कि हमने तो बराबर पैसा दिया है या फिर बंटाई पर कार्य करता हैं या फिर मेरे सर्वेन्ट रूम में रहने के एवज में काम कर रहा है। और खास बात यह है कि ये अधिकारी लोग आपस में मिले रहते हैं। कोई किसी के प्रति जबाबदेह नहीं है। 
एक मजदूर पंतनगर
इस्लामी कट्टरपंथी और जिहादी आतंकवाद
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    इस्लामी कट्टरपंथ और जिहादी आतंकवाद पूरी दुनिया के स्तर पर आज एक बड़ी चर्चा का विषय है। जहां पिछले एक दशक से अधिक समय से इस्लामी जिहादियों के खिलाफ ‘‘आतंकवाद के विरुद्ध’’ युद्ध के नाम पर इसे अपने कब्जाकारी युद्ध अभियानों का बहाना बनाया है तो वहीं बोस्निया से लेकर चेचन्या, सीरिया व लीबिया आदि में अपने विरोधियों को अस्थिर करने व ठिकाने लगाने के लिए इस्लामी जिहादियों का इस्तेमाल भी किया है। अपने मतलब व स्वार्थ सिद्धि के लिए उसने अफगानिस्तान व पाकिस्तान में ‘अच्छे तालिबान’ व ‘बुरे तालिबान’ की नई परिभाषा भी गढ़ी है। कुल मिलाकर इस्लामी कट्टरपंथी आंदोलन व जिहादी आतंकवाद आज के दौर में एक बड़ी परिघटना के रूप में सामने आया है। 
    इस्लामी कट्टरपंथी आंदोलन या इस्लामी जिहाद के घोर बर्बर व प्रतिक्रियावादी स्वरूप को अफगानिस्तान में तालिबानी शासन, एवं हाल ही में इस्लामिक स्टेट(आईएसआईएस) की कार्यवाहियों, नाइजीरिया में बोको हराम व पिछले दिनों पाकिस्तान में तहरीके तालिबान द्वारा 132 बच्चों सहित लगभग 150 नागरिकों की हत्याओं आदि प्रमुख घटनाओं ने बखूबी उजागर किया है। लेकिन इसके बावजूद इस्लामी कट्टरपंथी आंदोलन के बारे में अनेक गलत धारणायें  व पहुुंच प्रगतिशील व वामपंथी आंदोलन में मौजूद है। 
    अक्सर इस्लामी आंतकवाद को साम्राज्यवाद विरोधी मुहिम या उत्पीडि़तों के प्रतिशोध के रूप में देखा जाता रहा है। इस्लामी जिहादी आंदोलन के बारे में एक उदार व सकारात्मक रुख तथा इस्लामी कट्टरपंथ को उत्पीडि़तों का आंदोलन एवं साम्राज्यवाद विरोधी मानते हुए इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों के साथ साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चा या साम्प्रदायिकता विरोधी मोर्चा बनाने का एक रुझान प्रगतिशील व वामपंथी आंदोलन के कुछ हिस्सों में देखा जाता है।
    यह बात सही है कि किसी भी देश में बहुसंख्यक सम्प्रदाय का कट्टरपंथ सबसे अधिक खतरनाक व विनाशकारी होता है। इसलिए भारत में हिन्दुवादी कट्टरपंथ के खिलाफ संघर्ष सर्वोपरि प्राथमिकता ग्रहण करता है। बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता न केवल अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता से गुणात्मक रूप से अधिक खतरनाक होती है बल्कि राज्य मशीनरी भी अक्सर बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के साथ खड़ी होती है। ऐसे में अल्पसंख्यकों खासकर भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा काफी सुनियोजित व भयावह होती है। अक्सर अल्पसंख्यकों के सामने आत्मरक्षा व जीवन रक्षा के सवाल ही महत्वपूर्ण होते हैं। अल्पसंख्यकों को उत्पीडि़त सम्प्रदाय मानते हुए भारत में हिंदू कट्टरपंथ का विरोध हमारे मुख्य निशाने पर होना चाहिए। लेकिन क्या इस्लामी कट्टरपंथ का विरोध नहीं होना चाहिए? क्या मुस्लिम मजदूर-मेहनतकश जनता को इस्लामी कट्टरपंथियों के खेमे में छोड़ देना चाहिए? निश्चित तौर पर नहीं। हमें इस्लामिक कट्टरपंथ व उत्पीडि़त अल्पसंख्यकों के बतौर सामान्य मुस्लिम जनता में विभेद करना चाहिए। मुस्लिम कट्टरपंथ के प्रतिक्रियावादी स्वरूप का खुलासा करते हुए मजदूर मेहनत जनता को वर्गीय आधार पर गोलबंद करना होगा तभी वास्तव में मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी गोलबंदी संभव हो सकती है। 
    इस्लामी कट्टरपंथी आंदोलन एक आधुनिक परिघटना है जो बेहद प्रतिक्रियावादी, गैर वैज्ञानिक होने के साथ समाज की तमाम ऐतिहासिक व भौतिक प्रगति को नकारकर समाज को सदियों पूर्व की सामाजिक व्यवस्था में वापस ले जाना चाहती है जहां उसके मुताबिक कुरान व शरिया के आधार पर इस्लामी शासन या ‘निजामे मुस्तफा’ कायम हो। इस मामले में हिन्दू कट्टरपंथियों व इस्लामी कट्टरपंथियों में समानता है कि दोनों इतिहास को सदियों पूर्व की अवस्थाओं में ले जाना चाहते हैं जो उनके ‘विश्वासों’ के मुताबिक ‘स्वर्ण युग’ अथवा ‘सच्चाई का राज’ रहा है। 
    अन्य सभी कट्टरपंथी मतों व तानाशाही फासीवादी विचारधाराओं की तरह इस्लामिक कट्टरपंथ की जड़ें पिछड़े व अल्प विकसित समाजों में व्याप्त गरीबी, वंचना, अशिक्षा व उपेक्षित जीवन स्थितियों में निहित है। फासीवाद व अंधराष्ट्रवाद की तरह इसका वर्गीय सामाजिक आधार निम्न पूंजीपति वर्ग में है। निम्न पूंजीपति वर्ग की स्थिति से फिसलकर सर्वहारा या अर्द्धसर्वहारा की स्थिति में पहुंचे लोग या नए सर्वहारा तत्व जिनमें मजदूर वर्ग की चेतना नहीं होती फासीवाद व धार्मिक कट्टरपंथ के प्रभाव में आते हैं। इसके साथ ही पूंजीवाद की मार से नष्ट हुए पुराने शासक वर्ग खासकर जमींदार-भूस्वामी व पहले सामाजिक सोपान क्रम में प्रभुत्वशाली रहे लोग भी अपने पहले जैसी हैसियत को पाने की अदम्य इच्छा के चलते फासीवाद व धार्मिक कट्टरपंथ के सामाजिक आधार बनते हैं। इस्लामिक कट्टरपंथ के उभार में इन सभी कारणों की भूमिका रही है। 
    आधुनिक इस्लामी कट्टरपंथी आंदोलन की जड़ें 19वीं व 20वीं सदी में हैं। यह वह दौर था जब एक के बाद एक इस्लामिक मुल्क यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा गुलाम बनाये गये। अनेक एशियाई मुल्कों में इस्लामी शासन सदियों से कायम था। आतोमान तुर्की ने पूर्वी रोमन साम्राज्य को पराजित करके कुस्तुनतुनिया पर कब्जा किया था तथा विराट तुर्क साम्राज्य की नींव डाली थी। सत्ता से बाहर होते ही इस्लामी हुकूमतों के प्रभुत्वशाली रहे वर्गों के बीच गहरी निराशा व कुंठा पैदा हुई। अपने पुराने गौरव व ऐश्वर्य को वापस पाने की इच्छा उनके भीतर काफी बलवती थी। नए साम्राज्यवादी शासकों के साथ आई आधुनिक पूंजीवादी आधुनिकता को भी पराजित व पराभूत हुए समाज नहीं पचा पाए। इस सबके चलते जहां साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ प्रतिरोध की धारा पूर्व इस्लामी राज्यों में मजबूत हुई। इसके साथ ही ‘अतीत की ओर वापसी’ धार्मिक पुनरूत्थान के नारे के साथ धार्मिक कट्टरपंथी मतों का भी उदय हुआ। 
    औपनिवेशिक दौर में ‘धार्मिक पुनरुत्थानवाद’ के चलते अनेक धार्मिक कट्टरपंथी मत व सम्प्रदाय मुसलमानों के बीच पैदा हुए। मुख्यतः सुन्नी धारा में। इन कट्टरपंथी सम्प्रदायों में प्रमुखतया इब्ने तयमिया (Ibne Taymiyya) द्वारा प्रतिपादित सलफी सम्प्रदाय। इस सम्प्रदाय या मत के अन्य सहयोगियों में जमाल अल दीन अफगानी, मुहम्मद अब्दुर्र और राशिद रिदा प्रमुख थे। सलफ़ी (Salafi) मत मुहम्मद (सलाफ़) द्वारा प्रतिपादित पुरानी इस्लामी परंपराओं की ओर लौटने की बात करता था। इसका मानना था कि इस्लाम की शिक्षाओं को सूफियों, कुरान की अलग-अलग व्याख्या करने वाले लोगों ने विकृत किया है। इसलिए इस्लाम में कमजोरी आयी है और इस्लामी सत्ताओं का पतन हुआ है। यह सलफी इस्लाम की ही एक शाखा से बहावी मत निकला जो कहीं अधिक कट्टर था और पैगम्बर व कुरान के अलावा किसी अन्य चीज के प्रति आस्था या विश्वास का घोर विरोधी था। इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक अब्दुल बहाव थे। इस मत का प्रभाव सऊदी अरब के कबीलों पर काफी अधिक हुआ। बाद में इस सम्प्रदायों व सऊदी शासकों (सुल्तानों) के बीच एक समझौता हो गया। सऊदी शासक इस सम्प्रदाय के प्रमुख संरक्षक बन गये। आधुनिक इस्लाम की यह सबसे कट्टरपंथी धारा है। सऊदी अरब, कतर, यमन व बहरीन में इस सम्प्रदाय का प्रभाव है। सामान्यतः सलाफ़ी व बहावी मत को एक ही मान लिया जाता है। आधुनिक इस्लामी जिहादी आंदोलन पर इस मत का प्रभाव सबसे ज्यादा है। इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) के जिहादी इसी सम्प्रदाय से हैं। 
    बीसवीं सदी में सलफी सम्प्रदाय के एक प्रमुख हस्ती राशिद रिदा के लेखन से प्रभावित होकर हसन अल बन्ना ने मिस्र में इख्वान अल मुसलमीन की स्थापना की जो कि ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के नाम से सामान्यतः जाना जाता है। 1987 में मुस्लिम ब्रदरहुड की एक शाखा के रूप में हमास अस्तित्व में आया।
    भारतीय उपमहाद्वीप में सूफी इस्लाम की धारा ज्यादा बलवती रही है। सुन्नी सम्प्रदाय की बरेलवी व देवबंदी शाखायें इस्लामी पुनरुत्थानवादी आंदोलन में प्रमुख रहीं। थोड़ा प्रभाव अहले हदीस या अहले हदीस का भी रहा है। 
    हनाफी सुन्नी सम्प्रदाय के बरेलवी मत या स्कूल के संस्थापक अहमद रजा खां बरेलवी थे जिन्हें ‘आला हजरत’ के नाम से जाना जाता है। इसी तरह देवबंदी मत के प्रवर्तक शाह वली उल्लाह थे। देवबंद मत की स्थापना 1867 में हुई। बरेलवी सम्प्रदाय का केन्द्र बरेली है तो देवबंदी सम्प्रदाय का केन्द्र देवबंद (सहारनपुर) में है। 
  भारतीय उपमहाद्वीप में एक अन्य राजनीतिक धार्मिक संगठन जमात-ए-इस्लामी की स्थापना 1941 में मौलाना मौदीदी ने की। मौलाना मौदीदी इस्लामिक ब्रदरहुड के संस्थापक हसन अल बन्ना के विचारों से प्रभावित थे। मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय बनी राजनीतिक पार्टी मुस्लिम लीग की स्थापना अंग्रेजों के वफादार कुछ नवाबों व जमींदारों ने उन्हीं के इशारे पर 1906 में की जिसका तात्कालिक लक्ष्य राष्ट्रीय आंदोलन से मुसलमानों से बाहर रखना था। भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में देवबंदी मत की भूमिका प्रमुख रही है। आजादी के समय देवबंदी मत के अनेक हिस्सों ने देश विभाजन का विरोध किया था। आजादी के बाद देवबंदी सम्प्रदाय का वह हिस्सा जो पाकिस्तान में रह गया वह अधिकाधिक कट्टरपंथी होता गया व जिहादी आंदोलन का प्रमुख आधार बना। वर्तमान में पाकिस्तानी तालिबान या तहरीके तालिबान में मुख्यतः देवबंदी सम्प्रदाय के ही अनुयायी हैं। 
    औपनिवेशिक देशों में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के दौरान बहुधा राष्ट्रवाद के साथ धर्म का इस्तेमाल भी प्रतिरोध के लिए किया गया। इण्डोनेशिया व मलेशिया जैसे देशों में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन शुरू से ही धर्म के नाम पर शुरू हुआ। भारत में खिलाफत आंदोलन जो तुर्की के खलीफा को पुनः गद्दी पर बैठाने को लेकर शुरू किया गया राष्ट्रीय आन्दोलन में धर्म के घालमेल का उदाहरण है। अधिकांश औपनिवेशिक देशों में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व जो स्वाभाविक रूप से नवोदित पूंजीपति वर्ग के हाथों में था अक्सर व्यापक पिछड़ी व धर्मपरायण जनता को राष्ट्रीय आन्दोलन में खींच लाने के लिए धर्म व धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करता था। इस सबके चलते राष्ट्रीय राजनीति में धार्मिक कट्टरपंथी तत्वों को जगह मिली। कुछ मुल्कों में तो वे नेतृृत्वकारी भूमिका में आ गये मसलन अल्जीरिया में। जिन देशों में धार्मिक तत्व राष्ट्रीय आंदोलन के केन्द्र में नहीं थे वहां साम्राज्यवादी औपनिवेशिक शासकों ने राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिए कट्टरपंथी धार्मिक तत्वों को परिश्रय व प्रोत्साहन दिया। भारत में मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा दोनों को अंग्रेजों ने राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व कर रही राष्ट्रीय कांग्रेस के खिलाफ इस्तेमाल किया। 
    रूस में अक्टूबर क्रांति के बाद समाजवादी सत्ता की स्थापना ने पूरी दुनिया में राष्ट्रीय आंदोलनों व मुक्ति युद्धों पर गहरा प्रभाव डाला। राष्ट्रीय आंदोलनों में समाजवाद व धर्म निरपेक्षता के विचारों का प्रभाव काफी बढ़ गया। अब साम्राज्यवाद ने समाजवाद के विचारों व उग्र राष्ट्रवादी विचारों व आंदोलनों को फैलाने से रोकने के लिए सचेत तौर पर कट्टरपंथी धार्मिक संगठनों को पालन-पोसना शुरू किया। 
    द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जहां सोवियत संघ एक विजेता और महाशक्ति के रूप में उभरा वहीं पूर्वी यूरोप व एशिया सहित कई मुल्कों में मजदूर वर्ग की पार्टियों (कम्युनिस्ट पार्टियों) के नेतृत्व में समाजवाद व लोक गणराज्य अस्तित्व में आ गये। चीन की नवजनवादी क्रांति ने समाजवाद की ताकत में काफी इजाफा कर दिया। कई मुल्कों में कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में मुक्ति युद्ध सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहे थे। पूरी दुनिया के स्तर पर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष उफान पर थे। पूरी दुनिया दो खेमों में स्पष्टतः विभाजित हो गयी। एक ओर ढहता, पीछे हटता साम्राज्यवाद व उसके पिछलग्गू पूंजीवादी मुल्क दूसरी तरफ मजदूर वर्ग के समाजवादी राज्य। इन परिस्थितियों में साम्राज्यवाद का नया वैश्विक नेता बने अमेरिका ने ‘कम्युनिज्म’ के खात्मे से तथाकथित ‘लोकतंत्र’ की रक्षा के लिए नाटो नामक सामरिक गठबंधन बनाकर शीत युद्ध की शुरूआत की। शीतयुद्ध वैसे तो मुख्यतः सोवियत संघ के खिलाफ संचालित था लेकिन इसके निशाने पर पूरी दुनिया के स्तर पर मजदूर वर्ग की सत्तायें व मुक्ति संघर्ष थे। कुल मिलाकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कम्युनिज्म और उग्र राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष साम्राज्यवाद के निशाने पर थे। इसी के मद्देनजर संयुक्त राज्य अमेरिका व ब्रिटेन आदि ने कट्टरपंथी साम्प्रदायिक संगठनों व इस्लामी कट्टरपंथियों को आगे बढ़ाया। 
    साम्राज्यवाद द्वारा कम्युनिज्म के खिलाफ कुत्सा प्रचार के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलनों के दमन राष्ट्रवादी तीसरी दुनिया के शासकों के तख्ता पलट हत्यायें आदि कारनामों को अंजाम दिया। खासकर मध्य एशिया में साम्राज्यवादी दखलंदाजी व हस्तक्षेप की घटनायें बढ़ गयीं। 
    1951 में ईरान में चुनावों में जीत हासिल करके मोसद्दक सत्ता में आये। मोसद्दक ने सत्ता में आते ही ईरान के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इससे ब्रिटेन की तेल कंपनी ब्रिटिश पेट्रोलियम को करारा झटका लगा। शुरूवात में अमेरिका ने इसे ईरानी तेल उद्योग पर ब्रिटिश प्रभुत्व की जगह अपना प्रभुत्व स्थापित होने के मौके के तौर पर देखा। लेकिन जब मोसद्दक सरकार ने अमेरिकी कंपनियों की देश में घुसपैठ की योजना को ध्वस्त कर दिया तो अमेरिका ने इस्लामी कट्टरपंथियों के सहयोग से ‘आपरेशन अजेक्स’ के माध्यम से मोसद्दक का तख्तापलट करवा दिया। जिन कट्टरपंथियों की मदद से अमेरिका ने यह कारनामा किया उनमें अयातुल्ला अबोल कासिम कासनी प्रमुख थे। जोकि 1979 की इस्लामिक क्रांति के नेता अयातुल्लाह खुमैनी के गुरू थे। गौरतलब है कि 1979 की इस्लामिक क्रांति में अमेरिकी कठपुतली शाह रजा पहलवी का तख्ता उलट दिया गया था। मोसद्दक का तख्ता पलटने के लिए कासनी को जो मदद अमेरिकी खुफिया एजेन्सी सीआईए द्वारा मिली उसी के दम पर अयोतुल्ला खुमैनी को 1979 में ‘इस्लामी क्रांति’ के लिए आधार मिला। 
    इसी तरह मिस्र में नासिर ने सत्तासीन होने के बाद जब स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया और ‘अरब राष्ट्रवाद’ का नारा दिया तो साम्राज्यवादी खासकर ब्रिटिश व अमेरिकी शासकों ने ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ को आगे बढ़ाया। नासिर के नेतृत्व में मिस्र को अरब जगत में नेता के रूप में स्थापित होने से रोकने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर ने सऊदी अरब को अपना संश्रयकारी बनाया। सऊदी अरब ने भारी मात्रा में अमेरिकी मदद से ‘बहावी सम्प्रदाय’ को एक ताकत के रूप में खड़ा किया। इस परियोजना के तहत सऊदी अरब ने भारी मात्रा में धन दीन के वास्ते मदद(चैरिटी) के लिए उपलब्ध कराया, 1962 में विश्व मुस्लिम लीग की स्थापना की। जिसका उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता का विरोध करना था। इसके साथ ही ‘आर्गनाइजेशन आॅफ इस्लामिक कान्फ्रेंस’ और ‘इस्लामी वित्तीय तंत्र’ की स्थापना के साथ सऊदी शासकों ने अपने प्रभुत्व को बढ़ाया व बहावी आंदोलन के आधार को मजबूत व विस्तारित किया। यह सब साम्राज्यवादियों के तात्कालिक व दूरगामी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया। अनेक इतिहासकारों ने इस बात को बयां किया है कि 60 के दशक में अरब जगत में युवाओं में कम्युनिज्म व उग्र राष्ट्रवाद ही दो प्रमुख विचारधारायें प्रभावी थीं। इनके मुकाबले में साम्राज्यवाद ने इस्लामी कट्टरपंथ को ही चुना व आगे बढ़ाया। 
    अरब जगत को कम्युनिज्म के प्रभाव से बचाने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने भारी संख्या में फिल्म, कार्टून, पत्रिकायें, मैगजीन व रेडिया व्राडकास्ट का प्रयोग अपने कुत्सा प्रचार के लिये किया। यह कुत्सा प्रचार किस हद तक था इसका अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि सी.आई.ए. (अमेरिकी खुफिया एजेंसी) ने एक पोस्टर भारी संख्या में छापा जिसमें एक कार्टून में ‘एक लाल सुअर’ जिसके पूंछ के स्थान पर हंसिया हथौड़ा था’। 
    सी.आई.ए. ने इराक में बाथ पार्टी जो कि अमेरिकी सहयोग से सत्ता हासिल करने के लिए संघर्षरत थी, को इराकी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं की सूची उपलब्ध कराई, ताकि उनकी हत्या कराई जा सके। 
    मध्य पूर्व में इजरायली कब्जे के खिलाफ फिलीस्तीनी मुक्ति संघर्ष को कमजोर करने के लिए पहले इंतिफादा (प्रतिरोध युद्ध) के दौरान अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने हमास को एक प्रतिद्वंद्वी संगठन के रूप में खड़ा किया। 
    अरब जगत व मध्यपूर्व के अलावा उन देशों में जहां पूंजीवादी शासन सफलतापूर्वक नहीं कायम रहा या पूंजीवादी जनवाद स्थापित नहीं हो सका, ऐसे असफल पूंजीवादी राज्यों को अपने प्रभुत्व में रखने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने अपने कठपुतली शासकों, सैनिक तानाशाही के साथ इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया। सऊदी अरब इसमें इसका सहयोगी था। पाकिस्तान एक ऐसा ही असफल पूंजीवादी राज्य रहा है। 
    इस्लामी कट्टरपंथी आंदोलन में एक बड़ा पड़ाव  अफगानिस्तान में सोवियत फौजों के आने के बाद आया। गौरतलब है कि सोवियत साम्राज्यवादियों की मदद से अफगानिस्तान में नजीबुल्लाह के नेतृत्व में  सोवियत सरकार सत्ता पर काबिज हुई जिसके खिलाफ कट्टरपंथियों ने मोर्चा खोल दिया। नजीब सरकार ने अफगानिस्तान में कुछ प्रगतिशील कदम उठाये जिनमें महिलाओं की शिक्षा व रोजगार आदि थे। कट्टरपंथियों ने इन कदमों का विरोध करते हुए नजीब सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इन कट्टरपंथियों को अमेरिका की शह प्राप्त थी। 1979 में नजीब सरकार की मदद व अफगानिस्तान को अपने प्रभाव में रखने के लिए जब सोवियत फौजें अफगानिस्तान में उतरीं तो शीतयुद्ध नए स्तर पर जा पहुंचा। अमेरिकी साम्राज्यवाद व उसके सहयोग पर पलने वाले कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों ने इसे एक इस्लामी राज्य पर काबिज कम्युनिस्टों के कब्जे के रूप में प्रचारित किया। भारी संख्या में अफगान युद्ध में भाग लेने के लिए स्वयंसेवक या मुजाहिदीन अफगानिस्तान पहुंचने लगे। ओसामा बिन लादेन व शेख अज्म की मदद से अमेरिका ने विभिन्न देशों में मुजाहिदीन भर्ती किये। अब्दुल्ला शेख अज्म ने ही हमास की स्थापना की। भर्ती होने वाले मुजाहिदीनों में सऊदी अरब, यूएई, मिस्र, जार्डन, पाकिस्तान, लेबनान, कतर से लेकर तमाम मुस्लिम देशों के इस्लामी कट्टरपंथियों से जुड़े समूह थे। इस तरह अफगानिस्तान युद्ध ने दुनिया भर के इस्लामी कट्टरपंथियों को एक साथ ला खड़ा किया। भारी मात्रा में हथियार व वित्तीय मदद इन्हें अमेरिका व सऊदी अरब से मिली। अफगान युद्ध ने भारी मात्रा में शरणार्थी समस्या भी पैदा की। लगभग 30 लाख अफगानी निर्वासित होकर पाकिस्तान में शरण लिए हुए थे। इन शरणार्थी अफगानों के बच्चों को पढ़ाने के लिए पाकिस्तान में मदरसों की बाढ़ आ गयी। अमेरिका ने लैटिन अमेरिका में अपने अवैध नशे के कारोबार (Narcotics) का पैसा इन मदरसों में लगाया। सऊदी अरब के रास्ते साईफन विधि से यह पैसा पाकिस्तानी मदरसों में पहंुचने लगा। इन मदरसों में जिहाद की शिक्षा दी जाती थी। यहां से जो पीढ़ी तैयार हुई उसे तालिबान कहा गया। 
    1989 में अफगानिस्तान से सोवियत फौजों की वापसी के बाद कुछ समय तक अफगानिस्तान विभिन्न युद्ध सरदारों के बीच बंटा रहा फिर पाकिस्तान की मदद से 1996 में तालिबान सत्ता पर काबिज हो गया। एक बार सत्ता में काबिज होने के बाद तालिबान ने अपने देवबंदी मत की शिक्षाओं को न केवल अपने समुदाय बल्कि समूचे अफगानिस्तान पर लागू कर दिया। महिलाओं के बुर्का पहनने व पुरुषों को दाढ़ी व खास पोशाक पहनना जरूरी हो गया। फिल्म, संगीत, टीवी, रेडियो सभी वर्जित चीज हो गए। महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में भागीदारी बिल्कुल बंद कर दी गयी। और इस तरह पूरा अफगानिस्तान ही एक विशाल मदरसा बन गया। 
    अफगानिस्तान युद्ध के बाद इस्लामी कट्टरपंथी आंदोलन नये सिरे से संगठित हुआ। सीआईए अफगान युद्ध के सहयोगी ओसामा बिन लादेन ने मिस्र के अयमान अल जवाहिरी के साथ मिलकर अलकायदा का गठन किया जो आगे चलकर विभिन्न इस्लामी कट्टरपंथी व जिहादी संगठनों का छाता संगठन (Umbrella Organigation) बन गया। इसी अलकायदा के अलग-अलग गुट विभिन्न  देशों में सक्रिय हैं जिनमें नाइजीरिया का बोको हराम, सोमालिया में अल सबाव, माली में अन्सार दीने जैसे गुट प्रमुख हैं। 
    हाल ही में सबसे बड़े जेहादी ग्रुप के बतौर चर्चा में आये इस्लामिक स्टेट(आईएसआईएस) का संस्थापक अब वक अल बगदादी भी अल कायदा से जुड़ा रहा है। चरम कट्टरपंथी इस्लामिक स्टेट के मुजाहिदीन कट्टरपंथ बहावी मत से जुड़े हैं और सऊदी अरब व कतर की सरकारों से वित्तीय व सैन्य मदद पाते रहे हैं। सीरिया की असद सरकार का तख्ता पलट करने के लिए अमरीका ने इनका इस्तेमाल किया था। 
    अफगान युद्ध के खत्म होने के बाद अनेक इस्लामी जेहादी गुट लक्ष्य व ठिकानों की तलाश में बोस्निया से लेकर चेचन्या व कश्मीर तक में सक्रिय हैं। साम्राज्यवादी इनका आज भी अपनी जरूरतों के मुताबिक इस्तेमाल करते हैं। कुछ देशों में ये प्रभावी शक्ति के रूप में मौजूद हैं तो कुछ देशों में ये अपनी जड़ें जमाने की कोशिश कर रहे हैं। पाकिस्तान में तो कुछ खास इलाकों में इन्होंने अपना प्रभाव काफी बढ़ा लिया और पाकिस्तानी सेना को इन्हें वहां से खदेड़ने के लिए गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर दी है। 
    साम्राज्यवाद के लिए इस्लामी कट्टरपंथ कोई बड़ी व दीर्घकालिक चुनौती नहीं है न हो सकती है। वह तो इनको पालता-पोसता, इस्तेमाल करता व बाद में मतलब निकल जाने पर खरपतवार की तरह नष्ट करता रहा है। पालतू बने रहने व एक हद तक नियंत्रित रहने की शर्त पर वह उनको भविष्य के लिए संरक्षित भी रखता है। इसलिए वह ‘अच्छे तालिबान’ व ‘बुरे तालिबान’ की परिभाषा गढ़ता है। इस्लामी कट्टरपंथ को एक सीमा के भीतर संरक्षण देने का साम्राज्यवाद का दीर्घकालिक मकसद है। साम्राज्यवाद तो अपने चिरंतन व जन्मजात शत्रु मजदूर वर्ग व कम्युनिज्म के खिलाफ उनका इस्तेमाल बार-बार करता है। जब तक साम्राज्यवाद कायम है, वह ‘प्रतिक्रियावाद’ के हर स्वरूप को जिंदा रखेगा। उसके खुद अपने जीवन के लिए यह आवश्यक है। 
    जहां तक मजदूर वर्ग का प्रश्न है उसे किसी भी कट्टरपंथ व प्रतिक्रियावाद की तरह इस्लामी कट्टरपंथ का विरोध करना होगा। इस्लामी कट्टरपंथ को साम्राज्यवाद विरोधी ताकत मानने की गलती मजदूर वर्ग को नहीं करनी चाहिए। इतिहास में इसका कड़वा अनुभव है। ईरान में अयातुल्लाह खुमैनी की इस्लामी क्रांति का एक बड़ा आधार मजदूर वर्ग था। ईरान की कम्युनिस्ट पार्टी जो कि हालांकि सुधारवादी थी, ने ‘इस्लामी क्रांति’ का समर्थन किया। अयातुल्लाह खुमैनी के शासन के बाद ईरान में किसी भी रूप के कम्युनिस्टों का सफाया कर दिया गया। पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथियों ने मजदूर वर्ग के एक हिस्से के बीच भी पैठ बनाकर उसे प्रतिक्रियावाद के दलदल में खींच लिया। वहां भी कम्युनिस्ट आंदोलन कट्टरपंथ की समाज में जकड़बंदी के चलते कभी पनप नहीं पाया। इसी तरह अनेक उदाहरण मौजूद हैं जो यह साबित करते हैं कि इस्लामी कट्टरपंथ के प्रति नरम रुख मजदूर वर्ग व कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए घातक साबित हुआ। अतः मजदूर वर्ग को जनवाद को पूर्णतः नष्ट करने वाली इस प्रतिक्रियावादी धारा का विरोध करना ही होगा।  

साम्राज्यवादियों की शह पर खड़ा इस्लामी आतंकवाद
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    इस्लामी कट्टरपंथ और आम तौर पर अरब व मुस्लिम लोगों के बारे में धारणायें दुनिया के पैमाने पर जोर-शोर से फैलाई गयी है। इस्लामी कट्टरपंथ को पैदा करने वाले और बढ़ाने वाले साम्राज्यवादी ताकतें हैं और अरबों और मुसलमानों को सनकी कहकर पुकारने का काम भी साम्राज्यवादी मीडिया कर रहा है। फाॅक्स न्यूज जैसे चैनल लगातार यह काम कर रहे हैं। आई.एस.आई.एस. जैसे कट्टरपंथी संगठनों का इस्लाम धर्म को इस्तेमाल करने के अलावा धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। आई.एस.आई.एस. न सिर्फ अल्पसंख्यकों पर हमला कर रहा है बल्कि वह सुन्नियों सहित बाकी मुसलमानों पर भी हमला कर रहा है। इसके हमले के शिकार सीरिया में ईसाई और याजिदी अल्पसंख्यक हैं जो साम्राज्यवादियों और विशेष तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा पश्चिम एशिया को छोटे-छोटे देशों में बांटने की साजिश है। 
    सीरिया और इराक में आई.एस.आई.एस. द्वारा की गयी व्यापक हिंसा का कोई बुनियादी धार्मिक मुद्दा नहीं है वहां आई.एस.आई.एस. और कट्टरपंथ के विरुद्ध सुन्नी और शिया दोनों एकजुट हो रहे हैं इसलिए समस्या प्रभुत्ववाद और नाटो सरकारों की साम्राज्यवादी साजिशों की है। ये नाटो सरकारें सऊदी अरब और कतर की सरकारों के साथ मिलकर समूचे पश्चिम एशिया में इस्लामी उग्रवादियों का इस्तेमाल करके वहां पर इसलिए अस्थिरता पैदा कर रही हैं ताकि अपने स्वार्थ साधन कर सकें। उनके स्वार्थ सिद्धि के रास्ते में ईरान और इस क्षेत्र में उनके प्रतिद्वंदी रूस और चीन हैं। अमेरिकी सेना के एक रिटायर्ड जनरल वेस्ली क्लार्क ने 11 सितंबर के बाद कई बार कहा है कि अमेरिका का उद्देश्य पश्चिम एशिया में अस्थिरता पैदा करना है। वहां उथल-पुथल पैदा करना है और उसे अपने नियंत्रण में लाना है। अस्थिरता पैदा करने की सूची में उसने जिन देशों का नाम गिनाया उनमें लीबिया, सीरिया, इराक और लेबनान शामिल हैं। 
    अमेरिकी साम्राज्यवाद की एक और प्रतिनिधि बेजिजिन्सकी ने अपनी पुस्तक ‘ग्रांड चेसवार्ड’ में इस इलाके को भूरणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण बताया था और अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व के लिए इस इलाके पर नियंत्रण की गारंटी करने की बातें कहीं थीं। एक और अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रतिनिधि ने 1904 में यह कहा था कि जो मध्य एशिया पर नियंत्रण रखता है वह पूर्वी यूरोप पर शासन करता है। यूरेशिया पर नियंत्रण करने वाला मध्य एशिया पर शासन करता है। जो यूरेशिया पर शासन करता है वही समूची दुनिया पर नियंत्रण रखता है। इसलिए मध्य एशिया पर अमेरिकी प्रभुत्व, उसके वैश्विक नियंत्रण के लिए केन्द्रीय भूमिका रखता है और पश्चिम एशिया व ईरान, पूर्वी यूरोप के साथ मिलकर मध्य एशिया तक जाने की एक खिड़की है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा लीबिया में गद्दाफी के खिलाफ हुकूमत परिवर्तन और सीरिया में अस्थिरता पैदा करना इसके उदाहरण हैं। 
    इस समय सीरिया में अमेरिकी साम्राज्यवादी सऊदी अरब की हुकूमत के साथ मिलकर गड़बड़ी फैला रहे हैं। और लेबनान में हरीरी राजनीतिक गुट के साथ मिलकर वहां अस्थिरता पैदा कर रहे हैं। लेबनान में वे हिजबुल्ला को कमजोर करने के लिए सुन्नी अतिवादियों की मदद कर रहे हैं। एक तरफ सुन्नी अतिवादी अमेरिका के विरोधी होने का दावा करते हैं और दूसरी तरफ अमेरिकी साम्राज्यवादी उनका इस्तेमाल कर रहे हैं। सऊदी अरब के शासकों ने अमेरिकी साम्राज्यवादियों को आश्वस्त किया है कि वे धार्मिक अतिवादियों पर गहरी निगाह रखेंगे। अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए संदेश स्पष्ट है कि सऊदी अरब ने इस आंदोलन को खड़ा किया है तो इस पर नियंत्रण भी रखेंगे। 
आतंकवाद साम्राज्यवादियों के हाथ का हथियार है
    सऊदी अरब एक तरफ वैश्विक इस्लामिक अतिवाद का पोषक है और दूसरी तरफ अमेरिकी साम्राज्यवादियों का घनिष्ठ सहयोगी है तथा पश्चिमी यूरोप के शासकों के साथ घनिष्ठता से जुड़ा है। 2011 में अमेरिका ने अपने इतिहास में सबसे बड़े पैमाने पर बिक्री सऊदी अरब को की थी। यह आम तौर पर स्वीकृत बात है कि सऊदी अरब का आतंकवाद से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सऊदी अरब उन मदरसों को फंड देता है जो लोगों को कट्टरपंथ के लिए तैयार करते हैं और यह लोग कतर, सऊदी और उनके पश्चिमी सहयोगियों के भूराजनीतिक स्वार्थों के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। पाकिस्तान के भीतर गड़बड़ी फैलाकर अमेरिकी साम्राज्यवादियों के प्रतिद्वंदी चीन के निवेश को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं। सीरिया में अस्थिरता पैदा करके, पश्चिमी एशिया में चीन और रूस के प्रभाव को रोकना चाहते हैं। अरब देशों के टुकडे़ करके तथा उनके एकताबद्ध प्रतिरोध को रोककर पश्चिम एशिया में इजरायली और अमेरिकी प्रभुत्व को कायम रखना चाहते हैं। 
    अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का मुस्लिम ब्रदरहुड और दूसरे इस्लामिक आतंकवादी ग्रुपों के साथ गुप्त संबंधों का लंबा इतिहास रहा है। वे धर्म निरपेक्ष राष्ट्रवादियों और अरब देशों के वामपंथी ग्रुपों के खिलाफ इनका इस्तेमाल करते रहे हैं। वस्तुतः इस्लामी दक्षिणपंथी साम्राज्यवाद विरोधी और राष्ट्रवादी अरब वामपंथियों के विरुद्ध वे साम्राज्यवादियों के हाथ का शिकार रहे हैं। आज भी सीरिया में हुकूमत के खिलाफ लड़ने वाले इन गुटों को अमेरिकी साम्राज्यवादियों की शह प्राप्त है। 
    अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी ये दावा करते रहे हैं कि वे सीरिया में नरम विद्रोहियों का समर्थन करते हैं। लेकिन इससे वे अपने ‘आतंकवाद को समर्थन’ को छिपाने की कोशिश करते हैं। क्योंकि ये नरमपंथी ही हैं जिन्होंने सीरिया में विदेशी जेहादियों का भारी संख्या में आने का समर्थन किया था। ये ही वे जेहादी थे जिन्होंने बाद में आई.एस.आई.एस. के रूप में अपने को संगठित किया। नरमपंथी कहे जाने वाली फ्री सीरियन आर्मी की कमान इस्लामपंथियों से भरी हुई है। फ्री सीरियन आर्मी के नेता ने कहा कि उनका संगठन इस्लामी ग्रुपों के प्रभुत्व में है और सीरियाई अलकायदा के साथ घनिष्ठ तालमेल रखता है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों की एक संस्था ‘कौंसिल आन फाॅरेन रिलेशन’ ने स्वीकार किया कि आज उनकी कतारों में अलकायदा के बगैर सीरियाई विद्रोही अत्यन्त कमजोर होते हैं। मोटे तौर पर फ्री सीरियन आर्मी की बटालियनें थकी हुई हैं, बंटी हुई हैं और अप्रभावकारी हैं। अलकायदा के लड़ाकुओं की मदद से उनका मनोबल बढ़ सकता है। इन जेहादियों से अनुशासन, धार्मिक उन्माद, इराक में लड़ाइयों का अनुभव और खाड़ी के देशों के सुन्नी सहानुभूतिकर्ताओं से फंड और सबसे महत्वपूर्ण घातक परिणाम मिलते हैं। संक्षेप में फ्री सीरियन आर्मी को इस समय अलकायदा की जरूरत है।
    ब्रेजजिन्सकी ने भी यह स्वीकार किया, ‘‘आप जानते हैं कि हमने विद्रोहियों की मदद करने से शुरू किया था और वे चाहे जो भी हों, वे निश्चित तौर पर जनतंत्र के लिए नहीं लड़ रहे हैं।.....’’
    अगर इन सभी बिंदुओं को एक साथ रखा जाये तो समस्या धर्म की नहीं है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा सीरियाई विद्रोहियों की प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मदद इस क्षेत्र की स्थिरता के लिए स्पष्टतया बड़ा खतरा है। असद की हुकूमत को गिराकर अमेरिका इस क्षेत्र में और ज्यादा अस्थिरता पैदा करेगा इसके लिए वह झूठे अरोप गढ़ी हुई बातें विशेष तौर पर रसायनिक हथियारों के इस्तेमाल के झूठे दावे कर रहा है ताकि वह सीरिया में सैनिक हस्तक्षेप कर सके। ऐसा वह लीबिया में पहले ही कर चुका है। वह अब सीरिया से होते हुए रूस, चीन और दूसरे स्वतंत्र  देशों को अपने हमले का निशाना बनाना चाहता है जिससे वह अपनी गिरती हुई आर्थिक स्थिति के बावजूद अपने विश्व प्रभुत्व को कायम रख सके। इसके लिए वह इस्लामी आतंकवाद का सहारा लेता है और अपने कारपोरेट मीडिया के जरिये दुनियाभर में यह प्रचारित करता है कि मुस्लिम कट्टरंपथी होते हैं और कि वे अन्य धर्मावलम्बियों के विरुद्ध हमेशा संघर्षरत रहते हैं। यह ऐसा झूठा प्रचार है जो समूची दुनिया में कारपोरेट मीडिया पिछले दो दशकों से अधिक समय से चला रहा है। 
    इसका प्रभाव हमारे देश में भी है। यहां पर हिंदुत्वादी ताकतें अतिरिक्त जोर देकर यह प्रचार कर रही हैं। इस्लामी कट्टरंपथ के स्रोत को बगैर समझे बिना समूचे मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है। यह खतरनाक है। 
नारी आंदोलन का विकास
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    नारी आंदोलन की शुरूआत किसी भी जनवादी आंदोलन की तरह पूंजीवाद के विकास के साथ जुड़ी हुई है। सबसे पहले ये मध्यम वर्गीय नारियों के बीच से शुरू हुआ। इसने नारी समुदाय के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। और जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ समानता की मांग की। इसलिए यह पुरुष विरोधी पितृसत्ता के विरुद्ध शुरू हुआ। लेकिन जब मजदूर महिलाएं इसमें शामिल र्हुइं और तब सही अर्थों में नारी मुक्ति आंदोलन की नींव पड़ी। और तभी से नारी आंदोलन दो बड़ी धाराओं में बंट गया। एक नारीवादी आंदोलन की धारा थी और दूसरी नारी मुक्ति आंदोलन की धारा थी। पहली धारा के विद्रोह से पूंजीवादी समाज के भीतर महिलाओं को कई अधिकार मिले लेकिन तब भी महिलाओं को भेदभाव, अधीनता और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता था। 
    न सिर्फ पिछडे़ देशों में बल्कि विकसित पूंजीवादी देशों में भी अभी तक नारी उत्पीड़न न सिर्फ बरकरार है बल्कि पिछले कुछ दशकों से जब एकाधिकारी पूंजीवाद का सामाजिक और आर्थिक संकट गहराता जा रहा है तब महिलाओं पर हमले बढ़ते जा रहे हैं। 
    विकसित पूंजीवादी देशों में 1970 के दशक में नारी आंदोलन की विभिन्न धाराएं एक आंदोलन के बतौर एकजुट हुई थीं। और ट्रेड यूनियनों तथा अन्य प्रगतिशील आंदोलनों के साथ मिलकर जन कार्यवाहियों में उतरी थीं। और देश व दुनिया के पैमाने पर कुछ महिलाओं के अधिकार हासिल किये थे। ऐसे कुछ सफलताओं ने इस तरह की गतिविधियों को भी धीमा कर दिया।
    इसी दौरान मजदूर आंदोलन के परम्परागत नेतृत्व अधिकाधिक दक्षिण पंथ की ओर गया। और वह पूंजीपति वर्ग के खर्चा कम करने के अभियान के साथ तालमेल बैठाने लगा। मजदूर नौकरशाहों द्वारा पूंजीपति वर्ग की खर्चा कम करने की मुहिम को स्वीकार कर लेने से मजदूर आंदोलन कमजोर पड़े और साथ ही साथ नारी आंदोलन भी कमजोर पड़े। 
    1980 के दशक की शुरूआत से विकसित पूंजीवादी देशों में नारीवादी आंदोलन में महत्वपूर्ण गिरावट बिखराव दिखाई पड़ा। इसके कुछ कारण निम्न हैं-
1. कई नारीवादी कार्यकर्ता सरकारी संस्थाओं और/या सामाजिक सेवा गतिविधियों में जुड़ गये और उनमें अपना कैरिया बनाने लगे। 
2. कम्पनियों की मजदूर नौकरशाही और प्रबंध तंत्र में महिलाओं के लिए अधिकाधिक दरवाजे खुलते गये। 
3. कई नारीवादियों ने अपनी ऊर्जा को ऐसे आंदोलन के इर्द-गिर्द लगाना शुरू कर दिया, जैसे शांतिवादी आंदोलन और पर्यावरण की रक्षा करने के लिए आंदोलन में लग गये। 
    इससे 80 के दशक में संगठित नारीवादी आंदोलन में कुछ गिरावट आयी। लेकिन महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष जारी रखे हुए थी। उदाहरण के लिए मीडिया और शिक्षा में प्रस्तुत महिलाओं की छवि के विरुद्ध सांस्कृतिक संघर्ष, धार्मिक स्थानों पर समानता के लिए धार्मिक संघर्ष, घरेलू हिंसा के विरुद्ध महिलाओं के संघर्ष, आर्थिक स्वाधीनता के लिए संघर्ष, समान वेतन के लिए संघर्ष, रोजगार पर पहुंच और प्रशिक्षण के लिए संघर्ष और बच्चों के लालन-पालन के लिए अधिक सुविधाओं के लिए संघर्ष। 
    नारी मुक्ति आंदोलन हमेशा से कई धाराओं में चलने वाला आंदोलन रहा है। इसमें अलग-अलग राजनैतिक दृष्टिकोण और सिद्धान्त रहे हैं जो नारी उत्पीड़न के प्रकृति और उत्पत्ति के बारे में मत भिन्नता रखते हैं। ये वर्ग, नस्ल, उम्र और प्रजाति इत्यादि के आधार पर बंटे हुए हैं। इन सब को एक सशक्त नारी आंदोलन के बतौर खड़ा करना एक बड़ी चुनौती है। 
    हमारे जैसे गरीब देशों में जहां अब तब अधिकांश महिलाएं घर की चारदिवारी में कैद रही हैं। अब व्यापक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों में घर से बाहर निकलने को बाध्य हुई हैं। मजदूर संघर्षों और ट्रेड यूनियनों में महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे नये उद्योग खड़े हो रहे हैं जो मुख्यतः महिला श्रम पर आधारित हैं। सार्वजनिक जीवन में उनके प्रवेश ने एक विरोधाभासी गति पैदा की है। अधिकांश महिलाएं सार्वजनिक जीवन में पत्नी और मां के बतौर जानी जाती हैं। जब वे काम पर जाती हैं तो वे अपना घर और मौहल्ला छोड़कर जाती हैं और आंदोलनों के दौरान सरकार की दमनकारी पुलिस बल के खिलाफ खड़ी होती है। ऐसे में उनके बच्चों और घर को अभाव का सामना करना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में नारी मुक्ति आंदोलन को व्यापक सामाजिक मुक्ति के आंदोलन के साथ एकजुट होकर और उसके हिस्से के बतौर खड़े होने की जरूरत है। यही आज के समय की मांग है। 
मैक्सिको में 43 छात्रों की बर्बरतापूर्वक हत्याः विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
    20 सितम्बर को मैक्सिको शहर के जोकालो चौराहे पर हजारों मजदूरों व युवाओं ने प्रदर्शन किया। ज्ञात हो कि 26-27 सितम्बर को मैक्सिको के ग्यूरेरो राज्य के इगुआला शहर में 43 छात्रों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी गयी थी। ये छात्र सरकार की शिक्षा में सुधार की नीतियों के खिलाफ मैक्सिको में आयोजित रैली में भाग लेने जा रहे थे। ये छात्र एयोटजिनापा टीचर्स काॅलेज में पढ़ते थे। इन छात्रों के अलावा 26 सितम्बर को 6 अन्य लोगों (3 छात्र व 3 अन्य लोग) की भी हत्या कर दी गयी और 25 छात्र घायल हो गये थे। पूरे देश में छात्रों की नृशंसतापूर्वक की गयी हत्याओं के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं। 20 नवम्बर को केवल मैक्सिको ही नहीं बल्कि पूरे देश के 30 शहरों में प्रदर्शन हुए। ये प्रदर्शन अब तक हो रहे प्रदर्शनों में सबसे बड़े थे। स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि सेना ने इसमें हस्तक्षेप करने की धमकी दी है।  
घटना की पृष्ठभूमि- फरवरी 2013 में मैक्सिको के राष्ट्रपति एनरिक पेना न्येटो ने एक शिक्षा सुधार बिल आॅफिस जनरल आॅफ द फेडरेशन में प्रकाशित किया था। इस पर तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियों पीआरआई, पीएएन और पीआरडी ने हस्ताक्षर किये और इसे पैक्ट फाॅर मैक्सिको नाम दिया गया। इस सुधार के जरिये शिक्षा को उच्च गुणवत्ता, उच्च स्तर, उच्चतम प्राप्ति और छात्रों के लिए अधिक केन्द्रित बनाना था। लेकिन इसका वास्तविक उद्देश्य देहातों में चलने वाले टीचर्स ट्रेनिंग काॅलेज के लिए अनुदान कम करना और देहातों के इन कालेजों से टीचर्स की भर्ती कम करना था। देहातों के स्थान पर शहरों को अधिक वरीयता देना था। अध्यापकों, प्रधानाचार्य आदि  की भर्ती को ज्यादा प्रतियोगी बनाना था। मतलब शिक्षा के क्षेत्र में हायर एंड फायर नीति को लागू करना था। उसी समय से एयोट्जिनापा काॅलेज के ये टीचर्स ट्रेनी छात्र इसका विरोध कर रहे थे। 
    जैसा कि मैक्सिको में छात्र अपने आंदोलन के दौरान करते हैं कि वे बसों को एक तरह से हाइजैक करते हैं और अपने प्रदर्शन खत्म होने के बाद बस व ड्राइवर को बिना नुकसान पहुंचाये बस कम्पनी को वापस लौटा देते हैं। इसी प्रक्रिया में 26 सितम्बर को इस कालेज के लगभग 100 छात्र तीन बसों को लेकर मैक्सिको प्रदर्शन करने जा रहे थे। उसी समय शाम को इगुआला शहर के मेयर(पीआरडी पार्टी के नेता) व उनकी पत्नी ने एक पार्टी रखी थी इसमें मेयर की पत्नी अपने सामाजिक कामों (मेयर की पत्नी एक एनजीओ चलाती है) के बारे में लोगों को बताने वाली थी। इसमें शहर व बाहर के कई गणमान्य व्यक्ति मौजूद थे। यह एक तरह से अगले मेयर के चुनाव की तैयारी भी थी। मेयर व उसकी पत्नी को लगा कि पिछले साल जून की तरह इस बार भी उसकी इस तरह के आयोजन में प्रदर्शनकारी बाधा डालेंगे और इसलिए उसने पुलिस को इन छात्रों को सबक सिखाने को कहा। 
    इगुआला व पास के शहर कोकुला की पुलिस ने इन छात्रोें की बसों को रोका और बिना कोई चेतावनी दिये उन पर फायरिंग करनी शुरू कर दी। इस फायरिंग में दो छात्र मारे गये। इसी समय पुलिस ने एक और बस जिसमें फुटबाॅल खिलाड़ी लौट रहे थे उस पर भी फायरिंग की और ड्राइवर को मार दिया। बस के असंतुलन होते ही वह टैक्सी से जा भिड़ी और एक महिला इसमें मारी गयी। एक फुटबाल खिलाडी भी इस दौरान मारा गया। इस दौरान 25 अन्य छात्र घायल हो गये। तभी पुलिस ने बाकी छात्रों को घेर लिया और उनको अपने साथ पुलिस स्टेशन ले गयी। इसके बाद इन छात्रों को एक स्थानीय नशा माफिया गिरोह ‘यूनाइटेड वैरियर’ को सौंप दिया गया। इस गिरोह के लोगोें ने 43 छात्रों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी। और उनके शवों को कचरे के गड्ढों डालकर गेसोलीन, पेट्रोल, डीजल, प्लास्टिक, लकड़ी डालकर आग लगा दी। 14 घंटों तक शवों को जलाने के बाद उनके बचे अंगों को काटकर प्लास्टिक के बोरोें में भरकर सेन जुआन नदी के किनारे फेंक दिया गया। 
प्रदर्शनों की लहर- गायब हुए छात्रों की सामूहिक कब्र मिलने के बाद छात्रों की इस तरह की गयी बर्बरतापूर्वक हत्याओं के विरोेध में पूरे मैक्सिको में शोक व गुस्से की लहर दौड़ गयी। छात्रों व अध्यापकोें के अलावा सामान्य जन व मजदूर वर्ग सड़कों पर उतर आया। बड़े-बड़े प्रदर्शन मैक्सिको व तमाम राज्यों के अंदर होने लगे। 
1. ग्यूरेरो की राजधानी चिलपानसिगो में 50 हजार अध्यापकों, छात्रों व मजदूरों ने मार्च निकाला। ग्यूरेरो राज्य के अन्य शहरों में प्रदर्शन हुए।
2. ओक्साका के अध्यापकों ने 15 अक्टूबर को एयोजटिपाना काॅलेज तक एक वाहन रैली निकाली।
3. सांता मारिया ईल में अध्यापकों ने सरकारी तेल कम्पनी पेमेक्स द्वारा संचालित ईंधन वितरण केन्द्र को बंद कर दिया। ओक्साका के सेलिन में 5000 अध्यापकों ने मार्च किया और तेल शोधक कारखाने व सेलिनास बंदरगाह तक का रास्ता बंद कर दिया। 
4. चिपास के सेन क्रिस्टोवल में जेपाटिसटा नेशनल लिबरेशन आर्मी के 20,000 समर्थकों ने मौन जुलूस निकाला।
    मैक्सिको के अलावा अर्जेन्टिना, इंग्लैण्ड, जर्मनी, स्पेन व यूनाइटेड स्टेट में भी प्रदर्शन हुए।
    सरकार की तरफ से इस घटना के प्रति बरती जा रही उदासीनता ने इन प्रदर्शनों को हिंसक भी बना दिया। नवम्बर के प्रथम सप्ताह में ग्यूरेरो में स्टेट काॅर्डिनेशन कमिटी आॅफ द एजुकेशन वर्कर्स ने राजधानी चिलपानसिंगो में गवर्नमेंट पैलेस व पीआरडी के हेडक्वार्टर व इगुआला शहर में प्रदर्शनकारियों ने सिटी हाॅल में आग लगा दी। इसके अलावा 25 राज्यों में छात्रों द्वारा मार्च किया गया। नेशनल आॅटोनोमस यूनिवर्सिटी व आॅटोनोमस मेट्रोपालिटिकल यूनिवर्सिटी के हजारों छात्रों ने 24 घंटे की हड़ताल की। इसके अलावा देश की 40 अन्य यूनिवर्सिटीज में भी हड़ताल हुयी। 
गिरफ्तारियां- बढ़ते जनाक्रोश को देखते हुए जांच संघीय सेना व एजेंसियों को सौंपी गयी और पुलिस के 22 अधिकारियों व यूनाइटेड वैरियर गिरोह के लोगों को गिरफ्तार किया गया। इस घटना के मुख्य आरोपी मेयर, उसकी पत्नी और पुलिस चीफ कमिश्नर शहर से फरार हो गये। गिरफ्तार लोगों ने पूछताछ में जो बताया वह रोंगटे खड़े करने वाला था। उन्होंने बताया कि जब पुलिस ने छात्रों को गिरफ्तार किया गया उसके बाद उन्हें यूनाइटेड वैरियर गिरोह को सौंप दिया गया। इस गिरोह के लोग उन्हें पिकअप ट्रक में भरकर शहर के बाहर ले गये। रास्ते में दम घुटने से ही 15 छात्र मर गये। बाकी छात्रों को पहले यातनायें दी गयीं और बाद में उन पर पेट्रोल, गैसोलीन, लकड़ी व प्लास्टिक डालकर आग लगा दी गयी। बाद में बचे अवशेषों को काटकर बोरे में भरकर सेन जुआन नदी किनारे पर फेंक दिया गया। उनकी निशान देही पर कई सामूहिक कब्रों का पता भी चला है। बाद में मेयर व उसकी पत्नी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। 
ग्यूरेरो राज्य की पृष्ठभूमि- ग्यूरेरो राज्य पर्यटन के दृष्टि से समृद्ध राज्य है। यहां पर समुद्र किनारे काफी सुन्दर बीच हैं। इसके अलावा सोना जैसा प्राकृतिक संसाधन यहां पाया जाता है। इसके बावजूद यहां 70 प्रतिशत आबादी बेहद गरीबी की अवस्था में रहती है। ग्यूरेरो राज्य में वामपंथी आंदोलन काफी मजबूत रहा है। तथा एयोजटिनापा का यह कालेज वामपंथी विचारधारा का गढ़ रहा है। लेकिन इसके साथ ही 1970 के बाद से यहां की राजनीति में नशा माफियाओं का प्रभुत्व बढ़ता रहा है। यहां सबसे ज्यादा मारिजुआना की खेती होती है। और मैक्सिको की 98 प्रतिशत हेरोइन यहां बनायी जाती है। इगुआला शहर में तो पुलिस को नशा माफियाओं के गिरोह संचालित करते हैं। और स्थिति यह है कि इगुआला शहर के मेयर की पत्नी के भाई भी इन ड्रग्स माफियाओं के गिरोह में रहे थे जिनकी 2009 में हत्या हो गयी थी। इसका एक भाई अभी भी यूनाइटेड वैरियर में है। मेयर की पत्नी हर माह 1.5 लाख डालर से 2.5 लाख डालर इस गिरोह को देती है जिसमें एक हिस्सा पुलिस का भी होता है। और फिर क्यों न इगुआला शहर की पुलिस उसके इशारे पर नाचेगी? इस शहर में माफियाओं का कितना बड़ा आतंक है यह इस बात से भी पता चलता है कि मेयर अबार्का के बाद बनने वाले मेयर ने मात्र 7 घंटे के भीतर ही इस्तीफा दे दिया और कहा कि उसे अपनी जिन्दगी शांतिपूर्वक बितानी है। 
कुछ तथ्य छात्रों की जुबानी- जब काॅलेज के छात्रों से इस घटना के बारे में बात की गयी तो इस घटना के पीछे के कारणों पर कुछ रोशनी पड़ी। छात्रों का कहना है कि सरकार देहाती क्षेत्रों में चलने वाले टीचर्स ट्रेनिंग काॅलेजों को बंद करना चाहती है। वह इनके लिए अनुदानों को कम कर रही है। यहां प्रवेश लेने वाले छात्रों को पहले साल में गद्दे व अपनी अलमारी तक नहीं मिल पाती है। छात्र जमीन पर ही सोते हैं। शौचालय व बाथरूम की हालत काफी खराब है। यहां पढ़ने वाले छात्र गरीब किसान पृष्ठभूमि से आते हैं। वे यहां पर आकर काॅलेज की जमीन पर मेहनत कर फूलों व अन्य की खेती करते हैं जिससे काॅलेज को कुछ आमदनी हो जाती है। सरकार शिक्षा में सुधार के जरिये बिल पेश कर इन काॅलेजों को मिल रहा बचा-खुचा अनुदान भी बंद करना चाहती है। छात्रों का कहना है इस काॅलेज के छात्र हमेशा सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं। सरकार नहीं चाहती है कि इस तरह के काॅलेज में से अध्यापक बनें और वे छात्रों को सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक होना सिखायें। उन्होंने पत्रकारों को कुछ वीडियो भी दिखाये जिसमें सभी छात्र खेतों में काम करते दिखायी दे रहे हैं। 
छात्रों के समर्थन में मजदूर यूनियनों की हड़ताल- इस घटनाक्रम के बाद मुख्यतः छात्र व अध्यापकों ने प्रदर्शनों में हिस्सा लिया। लेकिन इस घटना के विरोध में मजदूर वर्ग भी पीछे नहीं रहा। कार्लोस स्लिम की टेलीकाम कम्पनी अमेरिका मोविल सेव की टेलीमेक्स लेंड लाइन यूनिट की यूनियन ने अपने सदस्यों से 24 घंटे के लिए वाकआउट करने के लिए कहा है। यह 20 नवम्बर को था। यूनियन के अध्यक्ष का कहना है,‘‘हम इस घटना से आंखें नहीं चुरा सकते और न ही यह बहाना कर सकते हैं कि इसने हमें चिंतित नहीं किया है। हम केवल गायब जवान लोगों के लिए ही हल नहीं चाहते बल्कि यह भी चाहते हैं कि ऐसी घटना दुबारा न हो और साथ ही देश न्याय के रास्ते पर आगे बढ़े और भ्रष्टाचार व अनैतिकता से दूर हो। 
    अगर देखा जाये तो यह घटना मैक्सिको के अंदर पहली घटना नहीं है जिसमें निर्दोष छात्रों को इस तरह बर्बरतापूर्वक निशाना बनाया गया हो। 1968 में अक्टूबर माह में ओलम्पिक खेलों के शुरूआत होने से दस दिन पहले सेना ने 30 से 300 छात्रों को गोलियों से भून दिया था। उस समय भी छात्र केवल इस बात की मांग कर रहे थे कि ओलम्पिक खेलों में जिस तरह भारी-भरकम राशि खर्च की जा रही थी उसके बजाय उसे जनता की आम जरूरतों पर खर्च किया जाए। अभी कुछ साल पहले 2011 में पीआरडी के गवर्नर से मिलने की मांग कर रहे 150 छात्रों में से तीन छात्रों को हाइवे पर ही गोली मार दी गयी। दो छात्रों के कनपटी पर पिस्तौल रख कर गोली मारी गयी। सेना, पुलिस व नशा माफिया गिरोहों के गठजोड़ का परिणाम यह है कि पिछले छः सात सालों के दौरान 1 लाख लोग गायब हो चुके हैं। 
    यह गठजोड़ तब और खतरनाक हो जाता है जब पीआरआई पार्टी के नेता व राष्ट्रपति पियेन न्योटा देश के अंदर उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू कर रहे हैं। उनकी इन नीतियों को सभी पार्टियों का समर्थन प्राप्त है। यहां तक कि मैक्सिको के बगल में संयुक्त राज्य अमेरिका जो पूरी दुनिया में जनवाद व मानव अधिकारों का ढिंढोरा पीटता रहता है और बम बरसाता है, इस घटना पर मौन धारण किये हुए है। फरवरी 2014 में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने मैक्सिको के तोलुका में एक प्रेस कांफ्रेस में कहा था कि हमारे साझा कमिटमेंट जनवादी मूल्यों व मानव अधिकारों को लेकर हैं तथा उसने मैक्सिको के सुरक्षा बलोें की ड्रग्स माफियाओं के खिलाफ संघर्ष में दिये गये बलिदानों की प्रशंसा की थी। परन्तु आज उसे मैक्सिको के अंदर न तो 43 छात्रों के जनवादी अधिकारों को कुचलकर नृशंसतापूर्वक की गयी हत्या दिखायी देती है और न ही सुरक्षा बलों, नेताओं व ड्रग्स माफियाओं का गठजोड़ दिखायी देता है। यह अमेरिका ही है जो मैक्सिको को अपराधों से लड़ने के नाम पर 2 अरब डालर के हथियार देता है। 
  आज अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी को चिन्ता इस बात की है कि मजदूर इन प्रदर्शनों में शामिल होते जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय रेकिंग संस्था मूडी ने ऐसी स्थिति को मैक्सिको के लिए खतरनाक बताया है और निवेश के लिए प्रतिकूल माहौल करार दिया है। 
    आज मैक्सिको के अंदर निजीकरण उदारीकरण की नीतियों के कारण मजदूर-मेहनतकश वर्ग व उनके बच्चों की जिन्दगी बद से बदतर होती जा रही है। शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी चीजें उनकी पहुंच से दूर होती जा रही हैं। उन्हें पाने के लिए उसे रोज ब रोज संघर्ष करना पड़ रहा है। इन संघर्षों को कुचलने के लिए राज्य को ज्यादा दमनकारी नीति अपनानी पड़ रही है। हो सकता है कि इस नरसंहार के पीछे जैसा कि मीडिया भी प्रचारित कर रहा है कि मेयर व उसकी पत्नी की सनक हो परन्तु इसके वास्तविक कारण मैक्सिको की पूंजीवादी व्यवस्था में छिपे हुए हैं। यह देश के अंदर खराब होती अर्थव्यवस्था तथा उसके परिणामस्वरूप बिगड़ती राजनैतिक स्थिति को दिखाती है। राष्ट्रपति न्येटो तेजी से आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को लागू करना चाहते हैं। और इन सुधार कार्यक्रमों के विरोध में उठने वाली हर आवाज को कुचलना चाहते हैं। और इसके लिए दमन का सहारा लेना राज्य की एक आम नीति है। इस आम नीति के तहत ही उसके अंग काम करते हैं। और इस तरह के नरसंहार अंजाम दिये जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि इसी व्यवस्था के अंदर इस तरह के और भी नरसंहार आयोजित किये जायें। 
हिन्दुस्तान यहां से फौजें हटाए और लोगों को आत्मनिर्णय का अधिकार देः गिलानी 
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
(सम्पादित अंश)
नागरिकः भारत की हुकूमत यह मानती है कि कश्मीर हमारा हिस्सा है। परन्तु कश्मीरी कहते हैं कि हम आजाद हैं और पहले से भी आजाद हैं। हम आजादी चाहते हैं। कश्मीर की आजादी का मसला क्या है?
जवाबः यह बड़ी लम्बी तारीख है। कश्मीर की आजादी का मसला। देखिए हिन्दुस्तान जब तक्सीम(बंटवारा) हुआ है यह हिन्दुस्तान टू नेशन थ्योरी की बुनियाद पर तक्सीम हुआ है। 25 जुलाई 1947 को उस वक्त यहां मुतहिदा हिन्दुस्तान के गवर्नर जनरल लार्ड माउण्ट बेटन थे। उन्होंने 25 जुलाई को गाईड लाइन फराहम की थी जो पौने 6 सौ स्टेट्स यहां जो डायरेक्टली (सीधे) ब्रिटिश कण्ट्रोल में नहीं थीं। अलग-अलग रजवाडे थे, नवाब बगैरह थे। उनको डाइरेक्टेड किया लार्ड माउण्टबेटन ने कि आप चाहें तो पाकिस्तान से मिलें या हिन्दुस्तान से मिलें। यह आपका इख्तियार है। चाहे आप इंडिपेन्डेंट रहें लेकिन आप को तीन चीजों का ख्याल रखना है- एक, ये कि आप की बाउण्ड्रीज(सीमाएं) किस के साथ मिलती हैं। पाकिस्तान के साथ मिलती हैं या इंडिया के साथ मिलती हैं? दूसरा आपने ये देखना होगा कि आपकी पाॅपुलेशन का रेशियो(अनुपात) क्या है। मुस्लिम बहुसंख्यक हैं या हिन्दू बहुसंख्यक और तीसरा ये कि आपके लोगों की जो कल्चर है, धर्म-संस्कृति है उस बारे में वह किस मुल्क के साथ आप काम कर सकते हैं। ये तीन बेसिक बुनियादें थीं। इन बुनियादों के आधार पर सवाल ही पैदा नहीं होता था कि हिन्दुस्तान की फौज यहां आ जाए और यह हिन्दुस्तान के कब्जे में चला जाये क्योंकि यहां की साढ़े सात सौ मील सरहदें पाकिस्तान के साथ मिलती हैं। और 1947 में यहां 85 फीसदी आबादी मुसलमानों की आबादी थी। और फिर धार्मिक और सांस्कृतिक रिश्ते जो हैं, वह हमारे उसी मुल्क के साथ हैं जिसे पाकिस्तान कहते हैं। वह करीबी हमसाया है। वहां चांद देखते हैं तो यहां ईद मनाई जाती है। वहां जो कुछ भी होता है उसका असर यहां पड़ता है। जम्मू और कश्मीर नेचुरल पार्ट आॅफ पाकिस्तान रहा है। लेकिन दुर्भाग्यवश अवार्ड में हमसे धोखा हुआ। गुरदासपुर के एक बहुसंख्यक मुस्लिम हिस्से को इन्होंने हिन्दुस्तान के नक्शे में डाला गया तो उस तरह हिन्दुस्तान को यहां आने के लिए जमीनी रास्ता मिला और फिर यहां हरी सिंह जो था वह हिन्दू था। उसने भी धोखा दिया। उसकी हमदर्दियां हिन्दुस्तान के साथ थीं और उस वक्त हमारा जो लीडर था उसने 1938 से ही कांग्रेस के साथ गठजोड़ किया था। उसने भी यहां के लोगों को धोखा दिया हालांकि वह स्टेज पर कुरआन पढ़ता था लेकिन लोगों को उसने धोखा दिया। इस तरह यहां 27 अक्टूबर 1947 को भारत की फौज आ गयी। फौज आने के बाद यहां लाल चौक में जिसे आप यहां बर्बादी की हालत में देख रहे हैं, वहां प.नेहरू ने ऐलान किया कि हमारी फौज यहां हमेशा नहीं रहेगी। हम अपनी फौज को वापस बुलायेंगे और आपको अपने मुस्तकबिल (Future) का फैसला करने का मौका देंगे। भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर यह उनकी पहली कमिटमेंट थी। और  उसके बाद जनवरी 1948 में खुद हिन्दुस्तान ये कजिया (विवाद) संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गया। हिन्दुस्तान का कलीम(Statement) ये था कि जम्मू कश्मीर इज ए पार्ट आॅफ इंडिया एण्ड Pakistan should be directed they should worked Jammu and Kashmir लेकिन उनका ये कलीम तसलीम नहीं किया गया। और वहां 18 करादातें (Agreement) पास हो चुकी हैं जिन पर हिन्दुस्तान ने दस्तखत किये हैं उनमें कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर विवादित क्षेत्र है। यानी तब तक न तो यह हिन्दुस्तान का हिस्सा है और न पाकिस्तान का। जब तक कि जम्मू-कश्मीर के लोग अपने भविष्य का फैसला जनमत संग्रह के जरिये नहीं ले लेते। ये 18 करादातें पास हो चुकी हैं। इन पर उन्होंने दस्तखत किये हैं हिन्दुस्तान ने भी पाकिस्तान ने भी। विश्व समुदाय गवाह हैं। यह हमारी डिमाण्ड हैं कि हमसे तुमने जो वायदे किये हैं उनको पूरा करो और ये फौजें हटाओ और हमको अपने भविष्य, अपने मुस्तकबिल के फैसले करने का मौका दे दो। जम्मू कश्मीर के लोग चाहें वह मुसलिम हैं चाहे वह हिन्दू हैं, सिख हैं, डोगरा हैं, बौद्ध हैं, जो भी यहां रहता है चाहे वह आजाद कश्मीर में रहता है, जम्मू में रहता है या कश्मीर घाटी में रहता है उनको आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए। हम पुनः घोषणा कर रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर के बहुमत के लोग यदि भारत के साथ जाना चाहते हैं चाहे ये हमें पसंद हो या नहीं हो हम इसे स्वीकार करेंगे। यदि जम्मू-कश्मीर के लोग यह निर्णय लेते हैं कि वे पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं तो भारत को इस निर्णय को स्वीकार करना चाहिए। 
नागरिकः कश्मीरी नौजवानों का ये कहना है कि वह आजाद होना चाहते हैं। वह न भारत चाहते हैं न पाकिस्तान चाहते हैं। वह चाहते हैं कि तीन विकल्पों के साथ जनमत संग्रह होना चाहिए।
जवाबः हम लोगों पर कोई भी बात थोपना नहीं चाहते। लोग यही पसन्द करेंगे कि हम आजाद रहेंगे तो हम इसको भी स्वीकार करेंगे। जहां तक Resolution(प्रस्ताव) का सवाल है। उसमें केवल दो ही विकल्प हैं इंडिया और पाकिस्तान। हम कहते हैं  प्रस्ताव को लागू किया जाना चाहिए। लोगों को लोकतांत्रिक तरीके से निर्णय लेने दिया जाए कि वह किसके साथ जाना चाहते हैं। उनका जो भी निर्णय है उसको स्वीकार किया जाना चाहिए। 
नागरिकः 1987 के चुनावों को लेकर कश्मीरी जनता में बहुत ज्यादा रोष है। उसमें ऐसा क्या हुआ था? 
जवाबः उसमें बहुत ज्यादा धांधलियां हुईं थीं। जो लोग जीत रहे थे उन्हें गिरफ्तार करके हीरानगर जेल पहुंचा दिया गया और जो लोग हार रहे थे उन्हें असेम्बली में पहुंचा दिया गया। उस वक्त के बाद से यह हमने निर्णय लिया है कि हम कभी भी चुनाव में भागीदारी नहीं करेंगे। 
नागरिकः इस समय जो कश्मीर का आजादी का आंदोलन हैः उसमें जेकेएलएफ है, आप भी उसके अंदर हैं और मीरवाईज साहब हैं, उसके और भी अलग धड़े हैं। उनके बीच में क्या वैचारिक मतभेद हैं?
जवाबः मतभेद कुछ भी नहीं हैं। तरीके में कुछ मतभेद हैं। जहां तक बुनियादी मकसद का ताल्लुक है वह एक है। हम मिलकर एक ही मांग उठा रहे हैं कि हिन्दुस्तान अपनी फौजें यहां से हटाए और जम्मू-कश्मीर के लोगों को उनका बुनियादी अधिकार दिया जाए। जम्मू-कश्मीर के लोगों को उनके भविष्य के निर्णय का अधिकार दिया जाए। ये उनका (सभी का) संयुक्त कार्यक्रम है। 
नागरिकः 1947 में कबीलाइयों के भेष में पाकिस्तान की फौज ने कश्मीर में जो घुसपैठ की उसे आप कैसे देखते हैं?
जवाबः उसके बारे में हमने लिखा है उनकी तरफ से जो गलतियां हुई हैं उनकी हम निन्दा करते हैं लेकिन भारत की फौज की तरफ से जो मानव अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है उसकी कोई मिसाल ही नहीं है।
नागरिकः भारत की फौज किस तरीके से मानव अधिकारों का उल्लंघन कर रही है? किस तरीके का नुकसान पहुंचा रही है?
जवाबः हिन्दुस्तान की फौजों के हाथों से हमारे 6 लाख लोग शहीद हो चुके हैं। अक्टूबर-नवम्बर 1947 में सिर्फ जम्मू में 5 लाख लोग कत्ल किये गये। जम्मू में मुसलमानों की मेजोरिटी थी 61 प्रतिशत। उसको कम करने के लिए वहां एक साजिश के तहत मुसलमानों को कत्ल किया गया। उनको कहा गया जम्मू में जमा हो जाओ सारे मुसलमान। हम तुमको पाकिस्तान भेंजेंगे लेकिन उनको कत्ल किया गया, पाकिस्तान भेजने के बजाय। उस समय पटियाला फौज थी हरीसिंह की फौज थी, भारतीय फौज थी, पुलिस थी और साम्प्रदायिक ताकतें थीं, जनसंघ बगैरह थे। प्रशासन ने भी उन्हीं को सपोर्ट किया। यहां पिछले 20-25 सालों में भारतीय फौज का जो रवैय्या है उन्होंने यहां एक लाख के करीब लोगों को कत्ल किया। उसमें मिलिटेन्ट बहुत कम हैं। सिविलियन(आम नागरिक) उसमें ज्यादा मारे गये हैं। हमारी अस्मतें लूटी जा रही हैं हमारे मां, बहनें, बेटियों का दिन दहाडे रेप किया जा रहा है। और मकानात जलाए व गिराए जा रहे हैं। अगर एक मकान में मुजाहिद बैठा होता है तो सारी बस्ती को खाके स्तर बना देते हैं। हमारे जवानों को गिरफ्तार करने के बाद इन्टेरोगेशन सेंटरों में सर के बल लटकाया जाता है। उनके जिस्मों पर रोलर फेरे जाते हैं। उनको जलते हुए स्टोव पर जलाया जाता है उनके जिस्म में लोहे की सलाखें दागीं जाती हैं। अनन्तनाग मुजफराबाद में जायेंगे आप ....एक टीचर थे उनके शरीर में लोहे की सलाख दाखिल कर दी। तड़फते-तड़फते उन्होंने जान  दी है एचएमएस हाॅस्पीटल में। इसी तरह 1991 में कुनन पोशपोरा कुपवाडा में 53 महिलाओं की अस्मत लूटी गयी। आज तक न किसी को गिरफ्तार किया गया न किसी की एफआईआर काटी गयी। इसी तरह बहुत से हजारों केसेज हैं यहां पर। जहां पर हमारी मांओं, बहन बेटियों की इज्जत लूटी गयी। मेरे ऊपर 14-15 बार कातिलाना हमले किये और मैं 14-15 साल भारतीय जेलों में रहा, इसके बाद 2010 से मुसलसल जब भी मैं श्रीनगर में होता हूं हाउस अरेस्ट रहता हूं। पुलिस की गाड़ी बाहर खड़ी रहती है। मुझे चाहरदीवारी से बाहर आने की इजाजत नहीं है। सात सितम्बर, जब से सैलाब आया है तब वह चले गये थे। 
नागरिकः आप भारत की कौन-कौन सी जेलों में रहे हैं? 
जवाबः श्रीनगर सेण्ट्रल जेल मेें रहा हूं। भारत की तिहाड़ में रहा हूं। जोधपुर जेल में रहा हूं। आगरा जेल में रहा। इलाहाबाद, रांची, जम्मू जेल में भी रहा हूं।  
नागरिकः जगमोहन का गवर्नर के तौर पर जो कार्यकाल रहा है वह कैसा रहा है। 
जवाबः उसने यहां बड़ी बेपरवाही के साथ गोलियां चलवाईं। उसी ने यहां पंडितों से कहा कि आप लोग यहां से चले जाएं। हम दो तीन महीने में यहां जो मिलिटेन्सी पैदा हुयी है उसे क्रश करेंगे और हिन्दुस्तान इल्जाम दे रहा है कि हम लोगों ने उनको (पंडितों) हटाया। हम लोग तो उस समय जेलों में थे। 
नागरिकः यदि कश्मीर आजाद होता है तो वह कैसा शासन बनेगा, लोगों को उसमें कैसी आजादी मिलेगी?
जवाबः लोगों को अदल-ईंसाफ मिलेगा, हमारा जो बेसिक प्रिसिपल है वह यह है कि हर इंसान को अदब मिलना चाहिए। इंसाफ मिलना चाहिए। जान का तहाफुज (सुरक्षा) मिलना चाहिए। मजहबी, इबादतगाहों, का तहाफुज मिलना चाहिए। यही निजाम है हमारे सामने। जब हम भारत की गुलामी से आजाद हो जायेंगे। 
नागरिकः इसमें अल्पसंख्यकों के साथ कैसा सलूक होगा? 
जवाबः अल्पसंख्यकों के साथ वही सलूक होगा जो आम लोगों के साथ होगा। उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा। 
नागरिकः जो नया राज्य बनेगा वह क्या इस्लामिक राज्य होगा या वह कोई लोकतांत्रिक राज्य होगा या समाजवादी गणतंत्र होगा। उसका क्या कोई खाका आपने सोचा है?
जवाबः इसलाम बजाऐ खुद एक डेमोक्रेटिक सिस्टम है। इसलाम लोगों से यही राय हासिल करके उस आदिलाना निजाम (इंसाफपसंद निजाम) के लिए माहौल तैयार करेगा जिसमें अद्ल(इंसाफ) होगा, इस्लाम का जो विचार है बदकिस्मती से उसे समझा नहीं जा रहा है और न आज का मुसलमान इस्लाम का सही रंग में प्रतिनिधित्व कर रहा है। दुनिया में 57 मुस्लिम मुल्क हैं लेकिन मैं बिना किसी हिचक के कहूंगा कि कहीं भी वास्तव में इस्लामिक सिस्टम नहीं है। मुसलमानों की हुकूमतें हैं लेकिन वह सिस्टम नहीं है जो इस्लाम दे रहा है। इसलाम कहता है कि हर एक के साथ अदल होना चाहिए। यहां मुसलमान मुल्कों में एक दूसरे को मारा जा रहा है। शिया-सुन्नी फसादात हो रहे हैं। इसलाम इसकी इजाजत नहीं देता, इसलाम कहता है कि एक इंसान का कत्ल करना पूरी इंसानियत का कत्ल है। एक इंसान को बचाना पूरी इंसानियत को बचाने के बराबर है। इसलिए इस्लाम सबसे ज्यादा इंसान का ऐहतराम करता है। चाहे कोई हिन्दू हो, मुस्लिम, सिख, ईसाई हो, जो कुछ भी हो इस्लामिक सिस्टम में सबको पूरा हक मिलेगा। पूरा तहाफुज मिलेगा (हिफाजत, सुरक्षा) जान का, माल का, इज्जत का, आबरू का, मजहब का अकीदा (विचार का), भेदभाव नहीं बरता जायेगा। 
नागरिकः कश्मीर की आजादी का आंदोलन अब कैसे आगे बढ़ेगा?
जवाबः जितना हिन्दुस्तान यहां जुल्म करेगा उतना ही आजादी का संघर्ष आगे बढ़ेगा।
नागरिकः इसके लिए (आजादी के आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए) आपकी कार्य योजना क्या है?
जवाबः हम लोगों को शिक्षित करते हैं। हमारा संघर्ष शान्तिपूर्ण है। बन्दूक का कोई इस्तेमाल नहीं होगा। बंदूक वाले भी हैं वह भी अपने तरीके से लड़ते हैं। उनका भी यही उद्देश्य है कि हम भी हिन्दुस्तान की गुलामी से आजाद हो जाएं। हिन्दुस्तान यहां से फौजें हटाये और लोगों को आत्मनिर्णय का अधिकार दें लेकिन उनका तरीका अलग है। 2013 में मुझे कुछ दिनों के लिए रिहा किया गया था। तब हमने बड़े-बड़े जलसे किये। लाखों की तादात में लोग जलसों में आते थे। हम उसी तरह लोगोें को मोबलाईज करना चाह रहे हैं। ताकि हम अपना मकसद हासिल कर सकें। 
नागरिकः राष्ट्रीयता के प्रश्न को लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में भी संघर्ष है उनसे आप का क्या जुड़ाव है। 
जवाबः हम उनके जलसों में जाते हैं। हैदराबाद में वामपंथियों का जलसा था, उसमें हम शरीक हुए थे। जहां-जहां भी आजादी की आवाज उठती है हम उनका समर्थन करते हैं। और उनका भी नैतिक समर्थन हमको मिलता है। 
नागरिकः भारतीय राजसत्ता को आप किस रूप में देखते हैं? इसे आप कैसे व्याख्यायित करेंगे?
जवाबः भारत का जो सिस्टम है वह न्याय पर आधारित नहीं है। इंसाफ पर उसकी बुनियाद नहीं है। वह नेशनालिज्म(राष्ट्रवाद) है। नेशनेलिज्म यानी हिन्दुस्तान के लोग जो हैं वह अपने वतन के पुजारी बने हुए हैं। वह कहते हैं कि अपने वतन के खिलाफ कोई आवाज हमें बर्दाश्त नहीं है। नेशनलिज्म इंसानियत के लिए कोई काबिले-कुबूल ईजम नहीं है कि आप किसी खास नेशन को अपना समझ रहे हैं। राईट और रांग इट इज माई नेशन। चाहे सही है चाहे गलत है यह हमारा राष्ट्र है। गवर्नमेंट चाहे सही है या गलत है यह हमारी सरकार है। यह सही तरीका नहीं है। हर सिस्टम की बुनियाद इंसानियत पर होनी चाहिए। और जास्टिस पर होनी चाहिए। वही सिस्टम इंसान को अमन दे सकता है। 

मोदी के स्वागत में कश्मीर में पसरा सन्नाटा
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
   
दीपावली से दो-तीन रोज पहले देश के प्रधानमंत्री एकाएक कश्मीर के बाढ़ पीडि़तों के बीच रहकर दीवाली मनाने को लेकर सुर्खियों में आ गये। हिन्दुस्तान के मीडिया ने दिन-रात मोदी गान करके बताना शुरू किया कि मोदी इस बार दीवाली अपने घर पर नहीं बल्कि जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में बाढ़ पीडि़तों के बीच दीया जलाकर मनाएंगें। मोदी ने ट्वीट करके संदेश दिया कि वे दीवाली का दिन आपदा प्रभावित अपने भाई बहनों के साथ श्रीनगर में व्यतीत करेंगे। कश्मीर के नेताओं ने इसे ‘सांस्कृतिक आक्रमण’ की संज्ञा दी।
    मोदी अपनी बात के पक्के निकले। वे दीवाली के दिन श्रीनगर पहुंचे परन्तु मोदी ने अपना दिन बाढ़ पीडि़तों के लिए खर्च नहीं किया। बाढ़ पीडि़तों की मदद करना व उनके साथ दिन बिताना तो मोदी का मात्र राजनैतिक स्टंट था। मोदी तो बाढ़ पीडि़तों की आड़ लेकर कुछ और ही साधने गये थे। श्रीनगर जाने से पहले वे सियाचिन पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने सेना के जवानों की शान में कसीदे गढ़े। उसके बाद वे उड़कर श्रीनगर पहुंचे। श्रीनगर पहुंचकर वे बाढ़ पीडि़तों के बीच नहीं गये बल्कि वे राजभवन से बाहर ही नहीं निकले। वहीं पर बैठकर उन्होंने कुछ व्यावसायिक, कृषि संगठनों व गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि मंडलों से मुलाकात की। तथा जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री व कुछ अन्य राजनैतिक लोगों से मुलाकात की। परन्तु मदद की आस में पैदल चलकर राजभवन पहुंचे बाढ़ पीडि़तों को बाहर ही रोक दिया गया। मोदी ने उनसे मिलना तो दूर, उनको ज्ञापन व दीपावली के अवसर पर लक्ष्मीजी की फोटो भेंट करने पहुंचे हिन्दुओं से भी नहीं मिले। 
    मोदी की इस यात्रा का आजादी के लिए संघर्ष कर रहे नेताओं ने कड़ा विरोध करते हुए 23 अक्टूबर को कश्मीर बंद का आह्वान किया। बंद के आह्वान के मद्देनजर पुलिस व सेना सक्रिय कर दी गयी थी। हुर्रियत नेता सैयद अली गिलानी, यासीन मलिक, शब्बीर शाह, मीरवाइज उमर फारूख को प्रशासन ने उनके घरों में ही नजरबंद करके रखा था। कश्मीर बंद पूर्ण सफल रहा। हुर्रियत नेता सैयद अली गिलानी ने मोदी की श्रीनगर यात्रा को आपदा पीडि़तों के जख्मों पर नमक छिड़क देने वाला करार दिया। 
    मोदी ने जम्मू कश्मीर के भवनों के पुनर्निर्माण के लिए 570 करोड़ व अस्पतालों के नवीनीकरण के लिए 175 करोड़ रुपये देेने की घोषणा की। राज्य के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला के पुनर्निर्माण के 44 हजार करोड़ रुपये के प्रस्ताव को भी मोदी ने कोई खास तवज्जो नहीं दी। तेजी से बढ़ रही सर्दी में वे 6 लाख लोग जो बेघर हो चुके हैं उनके घरों का निर्माण 570 करोड़ में कैसे हो पायेगा? मोदी की श्रीनगर यात्रा आपदा पीडि़तों को राहत देने की जगह जनता के गुस्से को बढ़ाने वाली ही रही। 
    दरअसल मोदी बाढ़ पीडि़तों की मदद के लिए कश्मीर गये ही नहीं थे। उनका उद्देश्य साफ था। वे आगामी दिसम्बर माह में होने वाले विधानसभा चुनाव को साधने के लिए श्रीनगर गये थे। वे ‘मिशन 44’ के तहत जम्मू कश्मीर में भाजपा की सरकार बनवाने की सम्भावना तलाशने गये थे। जम्मू व लद्दाख क्षेत्र में लोकसभा चुनाव में मिली सफलता के बाद मोदी कश्मीर को साधना चाहते हैं। उन्हें पता है कि कश्मीरी जनमानस इस समय गुस्से में है और कश्मीर की अधिकांश जनता आगामी विधानसभा चुनावों में वोट नहीं करेगी। जो थोड़ा बहुत मतदान कश्मीर में होगा उसमें कुछ सीटें भाजपा के हाथ जरूर लग सकती हैं। इसी संभावना को तलाशने के लिए मोदी श्रीनगर दीपावली बाढ़ पीडि़तों के बीच में मनाने का ढोंग करने के लिए गयेे थे। 
    कश्मीर में कच्चे-पक्के मिलाकर आंशिक व पूर्णतः क्षतिग्रस्त हुये भवनों की संख्या 3 लाख से भी अधिक है। राज्य सरकार के अनुमान के मुताबिक इसके लिए 30 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक की जरूरत इसके पुनर्निर्माण के लिए पड़ेगी। बम-बम मोदी ने इसके लिए मात्र 570 करोड़ रुपये ही देने की घोषणा की है। यह 570 करोड़ रुपये थी। सरकारी भवनों के पुनर्निर्माण सहित उन लोगों में ही सिमटकर रह जायेगा जिनके नेताओं व अधिकारियों से अच्छे सम्बन्ध हैं या जो इनके नाते रिश्तेदार हैं। 
    ऐसा नहीं है कि सरकार के पास पैसा व संसाधन नहीं है। सरकार ने पाकिस्तान से सीमा विवाद को लेकर सियाचिन ग्लेशियर पर सेना तैनात की हुयी है जिसका एक दिन का खर्च 10 करोड़ रुपये का है। हिन्दुस्तान की सरकार ने कश्मीर पर कब्जा बरकरार रखने के लिए 7 लाख सैनिक लगाए हुए हैं। जिसके लिए प्रति वर्ष हजारों करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं। इसके लिए सरकार पर कभी भी संसाधनों की कमी नहीं होती परन्तु जब भी देश के वंचित, गरीब, परेशान लोगों की मदद का सवाल सामने आता है शासक वर्ग अपनी जेब झाड़ने लग जाते हैं। मोदी ने भी आपदा के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर का दौरा कर कहा था कि हम अभी 1 हजार करोड़ रुपये दे रहे हैं। आगे राहत व बचाव कार्य में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जायेगी। परन्तु अब जब वास्तविक चुनौती सामने है तो प्रधानमंत्री चुनौती व जिम्मेदारियों से मुंह चुरा रहे हैं। यही कारण है कि जम्मू-कश्मीर की जनता भारत सरकार को अपना दुश्मन समझती है।

साक्षात्कारः हुकूमत का रवैया बहुत ही अफसोसजनक है -सैयद अली गिलानी
जम्मू-कश्मीर आपदा 
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
नागरिक- जम्मू-कश्मीर में बाढ़ से नुकसान बहुत ज्यादा है। सरकारी एजेसियों के बारे में दावा किया जा रहा है कि बहुत अच्छा काम कर रही है। चूंकि आप अवाम से जुड़े हैं, आप क्या कहना चाहेंगे कि भारत सरकार किस तरह की मदद लोगों को पहुंचा रही है।
गिलानी- यहां की जो सैलाव से पैदा हुयी सूरते हाल है वह आपने देखी है। 11-12 लाख के करीब लोग पानी में फंसे हुए थे। आजाद सर्वे करने वाले लोगों का कहना है कि दो लाख के करीब मकान गिर चुके हैं। बहुत ज्याद गम्भीर सूरते हाल है। 6 लाख लोग खुले आसमान तले रह रहे हैं। सर्दी का जमाना आने वाला है। उस सर्दी में लोग कैसे जिन्दा रहेंगे। क्या करेंगे? इस बारे में बहुत परेशानी है सबको, हमें भी है। 
    जहां तक हुकूमत का ताल्लुक है चाहे वह स्टेट की हो या देहली वालों की हो, वह बहुत ही अनकनर्सन(लापरवाह) है। इस बारे में कोई सीरियसनेस(गम्भीरता) नहीं पायी जा रही है। आप लोगों से भी पूछ सकते हैं कि यहां की हुकूमत का क्या हाल रहा है यहां हुकूमत का कोई वजूद ही नहीं दिखाई दे रहा था सारे पीरियड में। यहां जो आजादी पसन्द तंजीम हैं उन्होंने रिलीफ व रेस्क्यू का काम शुरू किया, बचाने का काम किया। खासतौर से सारे जवानों ने जो हिन्दुस्तान के मुखतलिफ कालेजों में पढ़ रहे हैं, वे सब यहां इस मौके पर आ गये और उन्होंने जो उनके पास जराया थे। उनके पास रसीद थे इनके पास जो भी सिस्टम था उसका इस्तेमाल करके लोगों को बचाया जो गैर मुस्लिम भाई थे उनको भी बचाया। हमारा जो बेसिक प्रसिंपल है वह इंसानियत का है। हर इंसान के साथ अच्छा सलूक बरतना चाहिए। हर इंसान को इंसानी रिश्ते का भाई समझना चाहिए। कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। रंग की बुनियाद पर, मजहब, नस्ल, जुबान, पेशे की किसी भी बुनियाद पे इंसान के साथ  इंतियाज नहीं बरता जाना चाहिए। इस तरह यहां के लोगों ने बगैर किसी डिस्क्रीमिनेशन के उन्हें रेस्क्यू किया, बचाया। हुकूमत की वेतबज्जुब की वजह से हुकूमत का जो अनकर्सन एट्टीट्यूड है वह बहुत ही तकलीफ देह रहे हैं। उससे हमें बहुत परेशानी है। 6 लाख लोग हैं जो आसमान तले रह रहे हैं। इनका क्या होगा!
नागरिक- यह 6 लाख लोगों के पुनर्वास का सवाल है? जब हिन्दुस्तान की हुकूमत इनके प्रति गम्भीर नहीं है तो यह लोग कैसे सरवाइव करेंगे?
गिलानी- यहां की आबादी है, उन सबको परेशानी है कि ये लोग कैसे रहेंगे? हमारे पास इतने बसायल नहीं हैं। हम लोगों ने काफी मदद की, चावल के लिहाज से, कपड़ों के लिहाज से, बाकी जरूरतों के लिहाज से, लेकिन रिहेबलिटेशन के लिए तो हमारे पास जराया नहीं है कि हम लाखों लोगों को मकान बनाकर दे सकें। यह हमारे बस ही बात नहीं है। हमने कहा था कि इंटरनेशनल लेबल पर यहां रिलीफ आने दिया जाए तो उससे काफी सहूलियत हो सकती थी। लेकिन हिन्दुस्तान वाले उस पर भी पाबंदी लगा रहे हैं। कहते हैं कि अगर बाहर की कोई रिलीफ आ जाए तो उसको भारत के वजीर-ए-आजम के फंड में डालना चाहिए। उनकी बसादत से वह तकसीम होगा। उसमें तो धांधलियां होंगी। उसमें तो कोई इंसाफ की बात नहीं होगी। और न सब तस्लीम तक वे चीजें पहुंच सकती है इसलिए हमने कहा कि इंटरनेशनल लेबल पर यहां रिलीफ आ जाए तो उन लोगों के हाथों से लोगों तक तकसीम की जाए जो यहां हुकूमत में नहीं हैं बल्कि जो आम लेबल पर लोगों की हमदर्दी के जज्बे से काम कर रहे हैं उनके हाथों से रिलीव लोगों तक पहुंच जानी चाहिए। 
    हुकूमत बहुत ही गैर जिम्मेदार है और कोई सीरियसनेस नहीं दिखाई दे रही है, इस बारे मेें यहां के पंडित भाई हैं उन्हें यहां बसाने के लिए हिन्दुस्तान के पास प्रोग्राम है। इसके लिए 5 अरब रुपये मुकर्रर किये हैं। वे कहते हैं कि अलग-अलग शहर बसाऐंगे। साउथ में एक शहर बनेगा। श्रीनगर क्षेत्र में एक शहर बनेगा। नार्थ कश्मीर में एक शहर बनेगा। और 5 अरब खर्च होंगे, फिर जमीन मांगते हैं उसके लिए। उनको अलग रखा जाएगा। मकान के लिए हुकूमत उनको 20 लाख दे रही है। हमें उस पर ऐतराज नहीं है, उनको 40 लाख भी दे सकती है। लेकिन सवाल यह है कि यहां के जो 6 लाख लोग हैं उनको मकान बनाने के लिए क्यों कुछ नहीं दिया जा रहा है। अखबार वाला बता रहा था कि ऐसी कैलेमटी के समय, जो रिलीफ दिया जाता है उसमें मकान के लिए वे 75 हजार रुपये देते हैं। 75 हजार में कौन सा मकान बनेगा। इससे ज्यादा से ज्यादा 2-3 ईंटों की गाडि़यां आ जायेंगीं। इससे कुछ भी नहीं होगा। हुकूमत का रवैया बहुत ही अफसोसजनक है। लोगों के साथ किसी भी तरह की हमदर्दी का वो मुजाहिरा नहीं करती। 
नागरिक- भारत की जनता को आप कोई संदेश देना  चाहेंगे।
गिलानी- हम कहना चाहेंगे हिन्दुस्तान का मीडिया है वह गलत तस्वीर पेश करता है बहुत गलत तस्वीर। एक मिसाल मैं आपको दूंगा। सैलाब आया। तकरीबन 2 दिन 3 दिन मुसलसल भारतीय मीडिया ने कहा, ‘‘देखो गिलानी जो टीचर है.... उसे हमारी आर्मी ने बचाया’’। हकीकत क्या थी? हम कहां सैलाब में फंसे थे जो आर्मी ने हमें बचा लिया। इतना झूठ बोलते हैं यहां की गलत तस्वीर पेश करते हैं आर्मी के बारे में कहते हैं कि उन्होंने लाखों लोगों को सिक्योर किया है। ऐसी बात नहीं है। यहां 95 प्रतिशत लोगों को रेस्क्यू किया है यहां के जवानों ने। हजारों ने जिन्दगी खतरे में डालकर रेस्क्यू किया। आर्मी नेे सबसे पहले अपने फौजियों को बचाया। विजिटर्स को बचाया। और उसके बाद विजिटर्स को, उनको घरों से एडरेस मिलते थे वे उस निशाने पर पहुंचकर उन्हें बचाते थे। यदि कोई कश्मीरी मिलता था तो उसे नहीं बचाते थे। वे कहते थे फिर आयेंगे। 


जम्मू-कश्मीर आपदा
शोषक कभी भी जनता का दिल नहीं जीत सकते!
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
सितम्बर में जम्मू-कश्मीर में आयी आपदा के बाद आम्र्स फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट (आफसा) के तहत तैनात की गयी सेना के 20 हजार से भी अधिक जवान रेस्क्यू व रिलीफ में लगाए गये। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सेना द्वारा 2 लाख से अधिक लोगों को नावों व हैलीकाॅप्टरों के जरिये बाढ़ग्रस्त इलाकों से सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया। आपदा प्रभावित लोगों को भोजन, आवास व दवाएं इत्यादि से भी सहयोग किया गया।
भारतीय सेना द्वारा चलाए गये आपरेशन के बाद शासकीय हलकों से यह बात निकलकर सामने आने लगी कि सेना की यह कार्यवाही कश्मीरियों का दिल जीत लेगी और इससे कश्मीरी आवाम आजादी की राह छोड़कर भारत के नजदीक आएगी।
सितम्बर माह के प्रथम सप्ताह में जम्मू-कश्मीर में बदरा जमकर बरसे। इंडिया मेट्रोलोजिकल डिपार्टमेंट के डायरेक्टर वीपी यादव के अनुसार कश्मीर घाटी में 20 सेमी व जम्मू क्षेत्र में 8 सेमी से अधिक बारिश दर्ज की गयी जो कि पिछले 50 वर्षों में सर्वाधिक है। जम्मू कश्मीर राज्य के मुख्य सचिव मो. इकबाल खंडे के अनुसार 7 सितम्बर को झेलम नदी जो कि उत्तरी भारत से पाकिस्तान की तरफ बहती है, में पानी का स्तर 1.40 लाख क्यूसेक को पार कर गया जो कि 112 वर्ष पहले 1902 में रिकार्ड किया गया था। झेलम ही नहीं राज्य की अन्य नदियां चिनाव, सिन्धु इत्यादि का भी जल स्तर बढ़ गया। श्रीनगर के एक बड़े हिस्से समेत राज्य के लगभग 800 गांव दो सप्ताह तक पानी में डूबे रहे। श्रीनगर के लोग बताते हैं कि श्रीनगर में डल झील, झेलम नदी व शहर के बीच के फासले का पता ही नहीं चल रहा था। सचिवालय, उच्च न्यायालय, पुलिस मुख्यालय, पुलिस कंट्रोल रूम, जिला पुलिस लाईन, विधानसभा, अस्पताल सब कुछ पानी में डूब गया। सेना का श्रीनगर स्थित बादामी बाग बेस भी 19 फुट पानी में डूब गया। श्रीनगर के गाजी बाग कैंप के 400 सैनिकों द्वारा सुरक्षित स्थानों पर शरण लेने की भी खबर है।
जम्मू के ऊधमपुर जिले के सद्दल गांव में हुए भारी भू-स्खलन से 40 लोग जिन्दा दफन हो गये। जम्मू-कश्मीर में मृतक व लापता लोगों की संख्या 300 को पार कर गयी। राहत व बचाव की जिम्मेदारी जिस उमर अब्दुल्ला सरकार पर थी वह स्वयं पानी में डूब गयी, उसके मंत्री जनता के बीच राहत व बचाव कार्य करने की जगह स्वयं अपने व अपने परिवारेां के लिए लग्जरी सुरक्षित आवास जुटाने की जुगत में लगे थे।
राज्य के मुख्य सचिव ने इस आपदा में हुए नुकसान का आंकलन 1 लाख करोड़ रु. का किया है। जेकेएलएफ के चेयरमेन यासीन मालिक इस नुकसान को दो लााख करोड़ से भी अधिक का मानते हैं।
दिल्ली की मोदी सरकार ने 11 सौ करोड़ रु. के राहत पैकेज की घोषणा की है। इतना ही नहीं राहत व बचाव कार्य पर इतराते हुये पाकिस्तान को भी मदद देने का प्रस्ताव प्रधानमंत्री ने दिया है। गुलाब नबी आजाद व दिगविजय सिंह सरीखे कांग्रेसी नेताओं ने जनता की भयावह वास्तविक स्थिति से इतर जाकर मोदी सरकार की राहत व बचाव कार्य के लिए पीठ ठांेकी है।
परंतु जनता के बीच सरकार व सेना द्वारा चलाए गये राहत कार्यों को लेकर गुस्सा सातवें आसमान पर है। हिन्दू अखबार के अनुसार श्रीनगर के बाढ़ में डूबे सरकारी जीवी पंत अस्पताल में 14 नवजात बच्चे इसलिए मारे गये क्योंकि अस्पताल में बिजली आपूर्ति ठप हो गयी थी। तथा आॅक्सीजन भी समाप्त हो गयी थी। उन्हें तुरंत दूसरी जगह इलाज के लिए शिफ्ट किया जाना था परंतु नहीं किया गया और नवजात बच्चों ने इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया। स्थानीय लोगों के अनुसार यह संख्या और भी ज्यादा है।
लोग कहते हैं कि सेना वीआईपी व टूरिस्टों को ही निकाल रही थी। जवाहर बाग निवासी एक पुलिसकर्मी की पत्नी का कहना है कि हम छत पर बैठे थे, सेना का चैपर देखकर मदद के लिए हमने दुपट्टा लहराया परंतु हमें किसी भी प्रकार की मदद नहीं मिली। राजबाग में सेना के चैपर पर पत्थर मारने की घटना सामने आयी थी। लोगों का कहना है कि सेना के चैपर से बहुत सारे घर हिल रहे थे। एक लड़के ने घर हिलने के कारण गुस्से से चैपर पर पत्थर मारा। सरकार द्वारा राहत व बचाव कार्य में बरती गयी लापरवाही के कारण मुख्यमंत्री ऊमर अब्दुल्ला के चैपर पर पत्थर मारने की घटना सामने आयी।
सेना के प्रति जनता का रोष अकारण नहीं था। लोग सड़कों पर थे। खाने, पीने का पानी, दवाओं इत्यादि की आपूर्ति बेहद कम थी। छोटे-छोटे नवजात बच्चे अपनी जान से हाथ धो रहे थे। सेना के चैपर व नावों में मीडियाकर्मी आकर रिपोर्टिंग करते थे जिसमें बताया जाता था कि राहत व बचाव कार्य बहुत अच्छे तरीके से चल रहे हैं। इससे जनता में गुस्सा पैदा हो रहा था। फिलहाल सेना के अधिकारी पत्थर बरसाने की घटना के पीछे आईएसआईएस की जड़ें तलाश रहे हैं। यही पूजीवादी शासकों की खासियत होती है वह कभी भी अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करते वे हमेशा जनता में ही कमियां ढूंढते हैं। कश्मीर में भी ऐसा ही हो रहा है। यदि राज्य सरकार के नुकसान के 1 लाख करोड़ रु. के आंकलन को ही सही मान लिया जाए तो सवाल उठता है कि मोदी सरकार द्वारा दी जा रही 11 सौ करोड़ रु. की राशि जो कि वास्तविक नुकसान का मात्र 1 प्रतिशत है, से किसका भला होगा। 6 लाख लोग जो अपना इस आपदा में सब कुछ गंवा चुके हैं क्या उनके आंखों के आंसू इन 11 सौ करोड़ रु. की धनराशि से पोंछे जा सकते हैं। दिन-रात जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के अधिकारों को अपने बूूटों तले रौंदने वाली भारत सरकार क्या चंद राहत के टुकड़ों से जनता का दिल जीत पाएगी? श्रीनगर निवासी अमान भाई कहते हैं कि जिस मां के तीन बेटे हैं। दो मार दिये गये हों तो क्या स्वीकार करोगे कोई जख्म देकर हलवा दे तो क्या उसे स्वीकार करोगे। देश का उत्तराखंड राज्य जहां आपदा को 15 माह से भी अधिक समय बीत चुका है, क्या भारत की सरकार ने आपदा के बाद हुए राहत व बचाव कार्य के द्वारा उत्तराखंड की जनता का दिल जीत लिया है जो कि अब कश्मीर की जनता का दिल जीत लेगी। 
इन सारे सवालों का जबाव लिये बगैर हम आगे नहीं बढ़ सकते। उत्तराखंड हो या कश्मीर भारत के शासक वर्ग का चरित्र एक जैसा है। कि मजदूर, किसानों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों व राष्ट्रीयताओं को दबाकर रखो। यदि देश की मेहनतकश जनता यह सोचती है कि गद्दी पर बैठे शासक जनता का दिल जीतने की कोशिश करेंगे तो यह गलत है। जो काम पिछले 67 वर्षों में नहीं हो पाया अब कैसे सम्भव है।

जम्मू-कश्मीर आपदा से जनता का ध्यान हटाने के लिए भारत व पाकिस्तान दोनों ही देशों के शासकों ने सीमा पर बंदूक-बंदूक खेलना शुरू कर दिया। देश के मीडिया में अब मुद्दा जम्मू-कश्मीर की आपदा नहीं है बल्कि सीमा पर तनाव है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भी आपदा पीडि़तों की हालात भारत के जम्मू-कश्मीर जितनी ही खराब है। सीमा पर होने वाले इन हाथियों की लड़ाई में जम्मू-कश्मीर की आपदा प्रभावित जनता उनके पैरों तले कुचली जा रही है। दोनों ही देशों के शासक आपदा प्रभावित जनता के आंसू पोंछने व जनता को आवास, रोटी, शिक्षा, इलाज का इंतजाम करने की जगह सीमा पर जंग जैसे हालात पैदा कर रहे हैं। देश व दुनिया का ध्यान आपदा राहत, बचाव व पुनर्वास से हटाकर सीमा विवाद पर केन्द्रित कर रहे हैं। परेशान हाल जनता कब तक चुप बैठेगी, यह बात आने वाला भविष्य ही बतायेगा। -कश्मीर से विशेष संवाददाता

सरकार के अनुसार जम्मू-कश्मीर आपदा में हुए नुकसान का ब्यौरा
1. कुल प्रभावित परिवार     12.50 लाख
2. कुल नुकसान का आंकलन   1 लाख करोड़
3. कुल इमारतों का नुकसान      3,53,864
- पक्के मकान पूर्णतः ध्वस्त          83,044
- पक्के मकान आंशिक रूप 
से ध्वस्त           96,089
- कच्चे मकान पूर्णतः ध्वस्त           21,162
- कच्चे मकान आंशिक रूप 
से ध्वस्त           54,264
- झोंपडि़यों व जानवरों के 
तबेले ध्वस्त           99,305
4. कुल मौतें           281
- जम्मू क्षेत्र में             196
- कश्मीर क्षेत्र में              85
5. लापता            29
6. कुल प्रभावित गांव          5642
- कश्मीर क्षेत्र में            2489
- जम्मू क्षेत्र में            3153
7.  800 गांव दो सप्ताह तक पानी में डूबे रहे।
8.  550 पुल व पुलिया नष्ट।
9.  6,000 किमी सड़क नेटवर्क नष्ट।
10. 10,050 दुधारू पशु पानी मे बहे।
11. 33,000 भेड़-बकरियां पानी में बहे।
12. 4043 करोड़ रुपये की कृषि उपज नष्ट।
13. 1586 करोड़ रुपये की बागवानी नष्ट।
14. 6.51 लाख हेक्टे. भूमि बाढ़ से प्रभावित।

15. 300 करोड़ बबिजली-पानी आपूर्ति व सड़क इत्यादि का नुकसान 

‘जम्मू-कश्मीर आपदा राहत मंच’ द्वारा चिकित्सा शिविरों का आयोजन
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
‘नागरिक’ व विभिन्न जन संगठनों के सहयोग से गठित ‘जम्मू-कश्मीर आपदा राहत मंच’ द्वारा 28 सितम्बर से 4 अक्टूबर तक कश्मीर के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में चिकित्सा शिविरों का आयोजन किया गया। धरनूमांटी पोरा, स्थल, आरिगत्नू, नवोतु, सम्सीपोरा, नई बस्ती अनन्तनाग, खुरसु, राजबाग, मंदरबाग समेत एक दर्जन से भी अधिक स्थानों पर आयोजित किये गये चिकित्सा शिविरों में बड़ी संख्या में मरीजों को उपचार प्रदान किया गया।
इन चिकित्सा शिविरों के आयोजन हेतु दिल्ली, हरियाणा, उ.प्रदेश व उत्तराखंड से आम जनमानस से धन व दवाएं एकत्रित की गयीं। आम लोगों ने अपनी सामथ्र्यानुसार आर्थिक योगदान दिया व जम्मू-कश्मीर के आपदा पीडि़त लोगों के साथ सहानुभूति दिखायी व एकजुटता प्रकट की। जम्मू-कश्मीर के आपदा पीडि़त लोगों ने जम्मू-कश्मीर आपदा राहत मंच के चिकित्सा शिविरों के कार्य को सराहा और कई कश्मीरी युवाओं ने इन चिकित्सा शिविरों के आयोजन को सफल बनाने में बढ़-चढ़ कर भागीदारी की। चिकित्सा शिविर आयोजित करने वाली टीम के रहन-सहन का इंतजाम स्थानीय लोगों ने बहुत ही अच्छे ढंग से किया।
चिकित्सा शिविरों में डा.आशुतोष सिंह, डा. दुर्गेश कुमार, डा.प्रमोद धारीवाल, डा. चन्द्रगुप्त, इंकलाबी मजदूर केन्द्र के मुन्ना प्रसाद, दिनेश भट्ट व मंच के संयोजक मुनीष कुमार ने भागीदारी की। मंच ने दवाएं एवं आर्थिक सहयोग के लिए जनता का आभार व्यक्त किया है।  मुनीष कुमार (संयोजक)

जम्मू-कश्मीर आपदा राहत मंच
एक दुःख भरी जिन्दगी की दास्तान
वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)
मैं एक लड़की थी। लेकिन लड़की होने के नाते मेरी क्या ख्वाहिशें थीं, क्या अरमान थे उसे जाने बगैर मेरे मम्मी-पापा, मेरे परिवार, सभी ने मिलकर मेरे अरमानों का गला घोंट दिया। इसलिए मैं अब एक औरत हूं। शादी के बाद मैंने सोचा था कि मेरा पति मुझसे बहुत प्यार करेगा, मुझे खुश रखेगा। मेरी सारी जरूरतों को पूरा करेगा। मेरे ख्याल से सारी लड़कियां शादी के बाद ऐसा ही सोचती हैं। मैंने भी यही सोचा था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मेरा पति बहुत पहले से ही शराब पीता था और शादी से पहले उसके नाजायज संबंध भी थे। लेकिन शादी के बाद शायद पति ने उसको छोड़ दिया। लेकिन मुझे लगता है कि मेरे पति ने उसको नहीं छोड़ा बल्कि उसने ही मेरे पति को छोड़ दिया। मैंने ये सारी बातें अपनी सास, जेठानी, जेठ के द्वारा सुनी थी। लेकिन मेरा पति मेरे साथ ही रहता था, पर वह मुझसे न कभी खुलकर बात करता न मेरे दर्द को समझता और न ही परिवार के साथ घुलमिल कर रहता था। मैं देखती रहती थी, हंसी-मजाक तो दूर की बात वह अपनी मां के पास भी उठता-बैठता नहीं था। बस अपने मतलब से मतलब रखता था। 
मेरे साथ शारीरिक संबंध बनाता और फिर निकल लेता। मैं क्या सोचती हूं, मैं क्या चाहती हूं उससे उसका कोई मतलब नहीं होता था। इसी तरह कई साल बीत गये। इसी बीच दो बेटे भी हुए फिर भी वह नहीं बदला। वह उसी तरह पीता रहता और घूमता रहता। मुझे लगता था उसका कहीं न कहीं नाजायज सम्बन्ध होगा, लेकिन मैं कुछ कर नहीं पाती थी। अपने बच्चों में ही लगी रहती थी और गुस्सा भी होती तो जाहिर किस पर करती? और तेज बोलने पर थोडा गुस्सा जाहिर करने पर और ज्यादा शराब पीकर आता था और मुझसे लड़ाई, गाली, मारपीट भी कर लेता था। इसलिए चुप रहा करती थी। और मेरे पति की दुकान भाइयों के साझे में होने के कारण मुझे घर में भी दस बातें सुननी पड़ती थी। कहते थे कि तेरा पति तुझसे कुछ बताके नहीं जाता है? कि वह कहां जा रहा है? फिर मैं कहती मुझे नहीं पता तो कहते कैसी बीबी है कि इसे बताके नहीं जाता? जोकि उसकी आदतों का सबको पता होता था फिर भी मेरे से सवाल-जबाव करते थे। और मुझे परेशान करते थे। फिर मैंने सोचा यह इसी तरह रहेगा तो मेरा और मेरे  बच्चों का क्या होगा?
वह बीच-बीच में ऐसे लड़ता जैसे मैं कहां भाग जाऊं। मेरे ऊपर एक बार पैट्रोल फेंक दिया था जिसके कारण पूरे शरीर में जलन मचने लगी थी। माचिस जलाने ही वाला था, तब तक मैं चीखी तो अगल-बगल वालों ने बचा लिया। एक बार मेरे सारे बक्से के कपड़े, सारा बिस्तर, बेड, सारा मेरे मायके का सामान तितर-बितर कर दिया था, और उसमें पेट्रोल डाल दिया थां मुझसे लड़ता रहता था और कहता कि तेरे जैसे तो मेरे आगे पीछे रोज 50 लड़कियां घूमतीं हैं। तू चली जा यहां से। मैं रोती रहती थी अपने बच्चों का चेहरा देख-देख कर चुप हो जाया करती थी। मैके के बारे में सोचती तो लगता था कि मैं अपने मम्मी-पापा के ऊपर बोझ बन जाऊंगी। इसलिए मैके में रहने के बारे में कभी नहीं सोचा। 
इसी तरह मेरे पति का अत्याचार कभी-कभी मेरे ऊपर होता रहता था। कभी-कभी ऐसा करता था मैं खाना पकाती थी तो कभी खाता था कभी नहीं खाता था। अपनी मर्जी का मालिक था। फिर मैंने सोचा कि मुझे भी कुछ करना चाहिए फिर मैंने अपना दिमाग दौड़ाना शुरू किया। मैंने सोचा स्कूल में छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाऊंगी। फिर सोचा पता नहीं पैसा कितना मिलेगा? शायद हजार, बारह सौ या उससे भी कम। फिर सोचा कि बड़े-बड़े स्कूल में जाकर झाडू-पोंछा , साफ-सफाई किया करूंगी। लेकिन बस सोच ही रही थी तब तक याद आया कि मेरा पति तो कहीं जाने नहीं देगा। क्योंकि वह गंदी-गंदी बातें करता है और वही सोचता भी है। कहता है जो औरत बाहर काम करती है, वह गंदी होती है। फिर मैं परेशान हो गयी कि मैं क्या करूं?
मेरे पास थोड़े गहने पड़े थे। सोचा कि उसे बेचकर एक छोटी सी दुकान कर लूंगी। दुकान मेेरे पति के इर्द-गिर्द ही रहेगी तो शायद दुकान करने देगा। मैंने उससे पूछा तो बहुत दिनों के बाद राजी हुआ। फिर थोड़ा बहुत उसने हाथ भी बढ़ाया। फिर मेरी छोटी सी कास्मेटिक की दुकान तैयार हो गयी। धीरे-धीरे दुकान आती-जाती रही। वह भी दुकान आता रहता था। लेकिन धीरे-धीरे मुझे पक्का पता चला कि वह एक औरत के पास लगातार आता-जाता रहता है। वह दुकान होने के दो साल पहले से वहां जाता रहता था। वह मेरी दुकान से भी बहुत सारा सामान लेकर उसे देता था। पर मुझे पता नहीं चलता था। मेरेे से बहुत लोग पास-पडौस वाले कहते रहते थे फिर वह आता तो मैं उससे लड़ती रहती और कहती रहती थी। मैं रोती भी थी। फिर जब मैं ज्यादा लड़ती थी तो वह चाकू, प्लास, पेचकश, हथौडी, दरांती जो उसको मिलता था वह मारने के लिए जरूर उठाता था फिर मैं डर जाती और चुप हो जाती। इसी तरह बारम्बार लड़ाई होती रहती थी। एक बार मैंने अपने पति को उस औरत के पास बैठा हुआ देख लिया। अब तक कानों से सुनती थी अब आंखों से भी देख लिया। फिर मैंने वहां पर ही गाली दी, लड़ाई की। उस औरत ने भी मुझे मारा, बाल भी पकड़ा। मुझे गाली भी दी। मेरा पति थोडी देर बाद मुझे वहां से खींचकर ले गया फिर मुझे गाली-गलौज करने लगा। इतनी देर में बहुत भीड़ लग गयी। फिर घर आकर लड़ाई करने लगा, उसी तरह जैसे पहले किया करता था। और यह भी कह रहा था। मैंने उसकी इज्जत मिट्टी में मिला दी। लेकिन उस औरत के पास जाना कम नहीं किया। और बढ़ा दिया। वह कहता था मेरा क्या कर लेगी मेरा कुछ उखाड़ लेगी क्या? अब दुकान पर उसने आना-जाना बंद कर दिया। कहता था, साली अकेले दुकान चलायेगी तो पता चलेगा। वह दुकान आना इसलिए बंद कर दिया क्योंकि उसकी इज्जत मिट्टी में मिल गयी थी उस औरत का घर दुकान की साइड ही था। वह दूसरे रास्ते घर से उसके घर चले जाता था। मैं दुकान अकेले खोलती, बंद करती थी। शुरू-शुरू में तो मैं रोती थी, एक घर का भी काम निपटाती हूं। बच्चों को भी देखना है फिर दुकान भी देखना है जैसे लग रहा था, मेरे ऊपर आसमान टूट पड़ा था। क्योंकि मैंने घर से बाहर कोई काम नहीं किया था। घर के अंदर ही रहती थी। 
धीरे-धीरे मैंने अपने आप को संभाला, लेकिन मेरा पति देखता था तो मुझसे चिढ़ता था। मतलब ये कि अकेले दुकान देख रही है, मेरे आगे आकर रो नहीं रही है। अब उसकी चिढ़न-जलन बढ़ती जा रही थी। अब वह मुझसे लड़ने का एक-एक बहाना ढूंढता रहता था। मेरा पूरा कपड़ा फेंकता, सारे बक्से-अटैची फेंकता सारा सामान फेंकता। मेरे बच्चों को भी गाली देता मारता। जैसे लगता था उसके बच्चे ही नहीं हैं। शराब इतना ज्यादा पीता था उसका शरीर झूमता रहता था। चाकू चलाता, हमारे ऊपर। हम बचते-भागते। इधर-उधर छुपते-फिरते रहते थे। मेरे साथ क्लेश और बढ़ गया। खाना बनाके आती थी तो कभी पूरे खाने में पानी डाल देता था। कभी-कभी पूरे डब्बे में कच्चे चावल में पानी डाल देता था। शाम का खाना बनाती तो उसमें भी पानी डाल देता था। कहता था क्या खाएगी? खा और इतनी गंदी-गंदी गालियां और बातें बोलता था जैसे लगता उसके मुंह पर तेजाब ही डाल दूं। लेकिन मैं लड़ती, बच्चों को पालती, सामान सारा इकट्ठा करके इधर-उधर रखती उससे बचती रहती थी। रात को भी सोनेे नहीं देता था। कभी बिजली का तार काट देता था कभी पंखे का तार निकाल देता था। मतलब पूरी रात चैन की नींद भी नहीं सोने देता था। कमरा बंद करके भी सोती थी तो दरवाजे पर कई लातें मारता जैसे लगता दरवाजा तोड़ देगा। कई-कई रात हो जाती मेरी नींद पूरी नहीं हो पाती थी। और मैं परेशान ही रहती थी। मेरा लड़का अपने पापा की हरकत देखकर गहराई से सोचता और परेशान रहता था। उसके संग के बच्चे उसे कभी-कभी चिढ़ाते थे तेरे पापा ऐसे हैं, वैसे हैं। मेरा पति बहुत ही कमीना था। जब मैं उसके पास नहीं सोती थी तो लांछन भी लगाता था। कहता था कि कहीं जाती होगी। इसलिए मेरे पास नहीं आ रही है। दो, चार-दस दिन नहीं जाऊंगी तो और ज्यादा शराब पीकर लड़ता रहता था। शराब में नशे में धुत रहता और जबरदस्ती अपने आप मुझे खींचता रहता और उसके शरीर में से खूब ज्यादा बदबू भी आती रहती। जबरदस्ती खींच के ले भी जाता तो दरवाजा बंद कर लेता। मुझे डर लगता कि कहीं मुझे मार न दे फिर मैं कैसे भी दरवाजा खुलवा लेती फिर लगता कि कुछ करेगा तो मैं भाग जाऊंगी। मुझे धमकियां भी देता, गाली भी देता, गंदी-गंदी बातें बोलता कहता था। गाली देता कहता तुझ पर तेजाब डालकर मार दूंगा। उसने एक डब्बे में बहुत सारे ब्लेड रखे थे। दाढ़ी बनाकर सारे ब्लेड इकट्ठा करता रहता था। मुझे कहता तेरा चेहरा ब्लेड से काट दूंगा। तेजाब डाल दूंगा। तेरे अंदर के शरीर को भी ब्लेड से काट दूंगा और तेजाब डाल दूंगा। तुझे कहीं का नहीं छोडूंगा। और रात को अपने पास ब्लेड, चाकू, कई हथियार रख कर सोता था। तब मुझे और ज्यादा डर लगता था। अपने बिस्तर पर जबरदस्ती लेके जायेगा और अपनी कोहनी से मेेरे सीने पर दबाएगा, मेरा हाथ मरोडेगा, मेरे साथ जबर्दस्ती करेगा, मुझे ब्लेड दिखाएगा चाकू दिखाएगा कहता था तू भागेगी तो तुझे काट दूंगा। मैं चुपचाप हो जाती थी फिर मौका मिलते ही भाग लेती थी। दूसरे कमरे में दरवाजा बंद करके सोती तो दरवाजा भी तोड़ने को तैयार हो जाता था। फिर सोचती थी मैं यहां नहीं सोऊंगी दूसरे किसी के घर में सोऊंगी। 
एक या दो दिन तक अगर सोई तो जहां सोती थी वह उनको भी अनाप-सनाप बकने लग जाता था। फिर मुझे लगता मेरी वजह से सभी लोगों को सुनना पड़ता है। लगता मेरी वजह से ही इनको भी दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। फिर सोची कुछ भी करेगा अब बिल्कुल हां या ना कुछ नहीं बोलूंगी। जितना सह सकूूंगी उतना सहूंगी। लगता था कि मेरी जिन्दगी इसी तरह कटेगी। फिर मुझे एक रोशनी की किरण दिखाई दी। हिम्मत तो पहले से ही थी तभी तो इतना झेल रही थी। लेकिन जब मुझे प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र के लोगों से बातचीत करने का मौका मिला और उन लोगों ने मुझे हौंसला दिया मेरे दर्द को समझे और मुझे समझाया। फिर मैंने सोचा कि इतना दर्द झेलती हूं क्या इसी तरह से मैं झेलती रहूगी। मैंने अपने लिए कुछ नहीं सोचा। 
मुझे लगता है कि ऐसी कई औरतें होंगी जो अपने पति द्वारा पिटती हैं। गालियां सुनती हैं। क्या हमें इसी तरह अपने पतियों की गालियां, मार-पिटाई इसी तरह सब कुछ सहना पड़ेगा? मुझे लगता है हमें अब नहीं सहना होगा। हम औरतों में इतनी सहनशक्ति है, इतनी हिम्मत है, इतनी ताकत है कि हम बहुत कुछ कर सकते हैं। जिस दिन हम सारी मेहनतकश महिलाएं इकट्ठा हो जायेंगी और हमारा एक संगठन होगा। हम सब मिलकर बहुत कुछ कर सकते हैं। 
क्या हमें अपने आप को पहचानने की जरूरत है। अपनी ताकत को पहचानने की जरूरत है। हम अकेले-अकेले कुछ नहीं कर पायेंगे। हमें एकजुट होने की जरूरत है। तब जाकर हम मुंहतोड़ जबाव दे पायेंगे। हमें अधिकांशतः पुरुष क्या समझते हैं। पैरों की जूती। हम पैरों की जूती नहीं है। हमें चीख-चीखकर कहना होगा कि हम तुम्हारे गुलाम नहीं है। हम भी इंसान हैं। हमारे सीने में भी दर्द होता है। हमारे अंदर भी कोई अरमान हैं, कोई ख्वाहिश है। 
ऐसा हम तभी कर पायेंगे जब हम सारे लोग इकट्ठे होंगे। हमें हाथ पर हाथ रखकर कुछ नहीं मिलने वाला। इसके लिए हम सब को आगे आना चािहए। अपनी बहनों से मिलना चाहिए और उनका साथ देना चाहिए तभी कुछ होगा और निश्चित ही होगा। 

हमारे बच्चों का भी भविष्य खराब हो रहा है। उन्हें भी हमें सुधारना है। मेरी यह ख्वाहिश है कि हम सब आगे आकर दयनीय जिन्दगी के विरुद्ध एक साथ मिलकर आवाज उठायें।         एक पाठक  

यौन उत्पीड़न के खिलाफ जादवपुर वि.वि. के छात्र आंदोलनरत
वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)
        पं.बंगाल के जादवपुर वि.वि. के विद्यार्थी अपनी छात्रा साथी के साथ हुई यौन हिंसा के खिलाफ आंदोलनरत हैं। गुण्ड़ों की गिरफ्तारी की मांग अब कुलपति के इस्तीफे तक जा पहुंची है। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस व कुलपति गुण्ड़ों को बचाने में जुटा है। प्रदर्शनरत छात्रों पर बड़े पैमाने पर लाठी चार्ज किया गया। करीब 36 छात्र घायल हुये हैं और 40 गिरफ्तार किये जा चुके हैं।
28 अगस्त को इतिहास विभाग की द्वितीय वर्ष की छात्रा एवं उसके पुरुष मित्र को विश्वविद्यालय के भीतर कुछ लड़कों द्वारा पीटा गया और उससे छेड़खानी की गयी। 29 अगस्त को छात्रा ने इसकी शिकायत विश्वविद्यालय के उच्चाधिकारियों व कुलपति से की। कुलपति ने छात्रा को 15 दिन के भीतर कार्यवाही का आश्वासन दिया साथ ही छात्रा को सुरक्षा कारणों से 15 दिन इस दौरान विश्व विद्यालय से दूर रहने की सलाह दी। यह पूछे जाने पर कि छात्रों की सुरक्षा करना कुलपति की जिम्मेदारी है। कुलपति ने मामले को टाल दिया। छात्रा को मजबूरन 1 सितम्बर को जादवपुर पुलिस स्टेशन में एफआईआर लिखानी पडी।
घटना के विरोध में 3 सितम्बर को छात्रों द्वारा एक आम सभा बुलाई गयी जिसमें तय किया गया कि छात्रों का एक प्रतिनिधि मण्डल डीन के पास जायेगा और एक स्वतंत्र जांच कमेटी के गठन की मांग करेगा। जिसमें सेवा निवृत्त जज, मनोवैज्ञानिक, महिला अधिकारों की कार्यकर्ता, महिला आयोग व मानवाधिकार आयोग के सदस्य शामिल हों, 7 दिन के भीतर जांच पूरी की जाए व हर छात्र को इसकी प्रगति से अवगत कराया जाये। 
पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज कराये जाने के बावजूद कोई कार्यवाही न किये जाने के विरोध में 5 सितम्बर को छात्रों ने जादवपुर पुलिस स्टेशन पर प्रदर्शन किया गया। पुलिस ने छात्रों से कुछ समय की मांग की। यह स्थिति तब थी जब छात्रा ने एक अपराधी को पहचान तक लिया था परन्तु पुलिस ने दोषी को पकड़ने के बजाए मामले को टालने का काम किया। 5 सितम्बर को ही विश्वविद्यालय के दो अधिकारियों ने विशाखा गाईड लाइन का उल्लंघन करते हुए छात्रा से 28 अगस्त की घटना के बारे में सवाल जबाव किये जो उस रात के पहनावे से जुड़े हुए थे। अधिकारियों ने अपनी पहचान उजागर नहीं की। 
8 सितम्बर को छात्रों द्वारा कुलपति के दफ्तर पर प्रदर्शन किया गया। 10 सितम्बर से छात्रों ने अरविन्द भवन के आगे अनिश्चितकालीन धरना शुरू कर दिया। 16 सितम्बर को कुलपति का घेराव कर रहे छात्रों पर पुलिसिया कहर टूट पड़ा। और छात्रों पर बर्बर लाठीचार्ज किया गया। 40 छात्र गिरफ्तार कर लिये गये व 36 अस्पताल में घायल हालत में भर्ती हुए। कुलपति को पुलिस सामने लेटी हुयी छात्राओं के ऊपर चढ़कर घेरे से निकाल कर ले गयी। 
दमन की इस घटना के विरोध में अगले दिन कलकत्ता की सड़कों पर हजारों छात्रों का हुजूम उमड़ पड़ा। दिल्ली, बैंगलौर व अन्य शहरों में भी छात्रों ने दमन की इस घटना का विरोध किया।

तृणमूल की मुखिया राज्य की मुख्यमंत्री ने वि.वि. की इस घटना को छोटी घटना कहकर टाल दिया तो कुलपति व शिक्षा मंत्री छात्रों को अपराधिक तत्व करार दे चेतावनी दे रहे हैं। जाहिर है कि कुलपति व पूरी शासन व्यवस्था तृणमूल कांग्रेस से जुड़े लम्पट लड़की को बचाने में जुटे हैं हालांकि छात्रों ने भी अन्तिम दम तक लड़ने की ठान रखी है। 

वर्षों से संघर्षरत सफाईकर्मी
दिल्ली नगर निगम के अनियमित सफाई कर्मचारियों के जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन का एक वर्ष पूरा 
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
दिल्ली नगर निगम (एम.सी.डी.) में कार्यरत अनिमित सफाई कर्मचारियों व चौकीदारों का नियमितीकरण की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर धरना एक वर्ष से ऊपर हो गया है। लेकिन अभी तक उनकी मांगोें पर ध्यान किसी ने नहीं दिया। इस बीच कांग्रेस से लेकर आम आदमी पार्टी सरकार बनी लेकिन इन सफाई कर्मचारियों की नियमितीकरण की मांग पर किसी ने विचार नहीं किया। दिल्ली नगर निगम में काम करते हुए इन कर्मचारियों को 25 वर्ष तक भी हो चुके हैं। ज्यादातर कर्मचारी 10 या 15 वर्ष से अधिक समय से नगर निगम द्वारा संचालित विभिन्नि स्कूलों में सेवा दे रहे हैं।
नगर निगम के इन सफाई कर्मचारियों व चौकीदारों ने नियमितीकरण के लिए आंदोलन 5 अप्रैल 2013 से शुरू किया था। लेकिन आज तक इनकी मांग पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
नगर निगम को कई वर्षों से लगातार सेवा देने वाले इन सफाई कर्मचारियों व चौकीदारों का नगर निगम भयंकर शोषण करता है। धरना स्थल पर बैठे कर्मचारियों के मुताबिक एक दिहाडी वाले कर्मचारी से नियमित कर्मचारी की तुलना में चार गुना ज्यादा काम लिया जाता है। एक दैनिक वेतन भोगी सफाई कर्मचारी से चार कर्मचारियों का काम लिया जाता है। एक दैनिक वेतन भोगी सफाई कर्मचारी को स्कूल के 40 कमरों में डेढ़ घंटे के अंदर साफ करने को कहा जाता है। इसमें भी कमरों में झाडू लगाने के साथ-साथ बच्चों को बैठने वाली डेस्क व बड़ी बड़ी पानी की टंकियां भी साफ करना होता है। यानी अगर बच्चों का स्कूल साढ़े सात बजे का है तो इन्हें 7 बजे से साढ़े सात बजे के बीच आधे घंटे में यह सारा काम करना होगा। शाम में 2 बजे की शिफ्ट के पहले भी। इस बीच इन्हें स्कूल में ही रहना होता है। छिटपुट काम लगातार रहते हैं। इसी तरह स्कूल में नियुक्त चौकीदारों का कार्यदिवस तो 20 घंटे तक चला जाता है। सफाई कर्मचारी की औपचारिक कार्य दिवस सुबह 7 बजे से सांय 3 बजे तक होता है। लेकिन यह कभी-कभी 10 घंटे तक भी हो जाता है। इतना सब करने के बाद उसे इतना वेतन आज दिल्ली जैसे महानगर में मात्र 8000 रुपये है। दिल्ली नगर निगम के इन सफाइकर्मचारियों ने यह वेतन भी लगातार आंदोलन कर हासिल किया है।
1990 में इनका वेतन मात्र 185 रुपये था। आंदोलन के पश्चात 1993 में यह 240 रुपये हुआ। 1996 में पुनः आंदोलन के पश्चात 560 रुपये व 1997 में 900 रुपये हुआ। 2006 तक इनका वेतन 900 रुपये मासिक ही था। 2006 में संघर्ष के बाद इन्हें दैनिक वेतन भोगी (Daily Wage Worker) का दर्जा मिला।
इतने लंबे समय से कार्यरत होने के बावजूद इन दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों को कोई सरकारी सुविधा यहां तक कि पी.एफ. व ई.एस.आई. तक उपलब्ध नहीं है। जबकि सफाई कर्मियों खासकर झाडू लगाने वालों को सांस की बीमारी हो जाती है।
ओमवीर सिंह पिछले 23 साल से नगर निगम में सफाई कर्मचारी का काम कर रहे हैं। इन्हें दमा की बीमारी हो गयी है। लेकिन इन्हें विभाग से कोई राहत नहीं मिलती। ई.एस.आई. तक की सुविधा इन्हें नहीं है। सीमित वेतन में ही किसी तरह ईलाज करा पाते हैं और लगातार झाडू लगाने का काम करना पेट की मजबूरी है।
दिल्ली नगर निगम में विभिन्न स्कूलों में तैनात इन डेलीवेज सफाई कर्मचारियों की संख्या 1200 है। इनमें से 90 प्रतिशत महिलायें हैं। सभी दलित हैं। इसी तरह एम.सी.डी. के स्कूलों में दैनिक वेतन भोगी के बतौर सेवा दे रहे चौकीदारों की संख्या 400 से 450 है। स्कूलों में कोई भी अप्रिय घटना होने पर प्रशासन द्वारा इन्हें ही प्रताडि़त व परेशान किया जाता है।

इन लोगों को तो नगर निगम व सरकार दोनों के बीच पिसना पड़ता है। सरकार इनके नियमितीकरण की मांग को नगर निगम की जिम्मेदारी कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं तो नगर निगम सरकार से पर्याप्त फंड न मिलने का बहाना बनाकर इन्हें न नियमित करता है और न सम्मानजनक न्यूनतम वेतन ही देता है। इन सफाईकर्मियों व चौकीदारों में ज्यादातर लोग हाईस्कूल व इंटर पास हैं। कुछ तो स्नातक भी हैं। पिछले वर्ष केजरीवाल भी इनके धरने पर आये थे। उन्होंने भी बड़े-बड़े आश्वासन दिये। उनके झाडू चुनाव चिह्नन के चलते सफाई कर्मचारियों को उनकी सरकार से बड़ी उम्मीदें थीं। उन्होंने केजरीवाल के पक्ष में समर्थन व प्रचार भी किया। लेकिन केजरीवाल भी सत्ता में आते ही सब भूल गये। आज भी ये दैनिक भोगी सफाई कर्मचारी व चौकीदार संघर्षरत हैं। दिल्ली नगर निगम के स्कूलों में तैनात इन दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों का आंदोलन ‘भारतीय लोकहित मोर्चा’ के बैनर तले अभी भी जारी है। बारी-बारी से ये कर्मचारी अपनी रोजी-रोटी चलाते हुए इस आंदोलन को चला रहे हैं। बहरहाल कोई राजनीतिक दल न इनकी बातों पर ध्यान देता है और न ही दिल्ली नगर निगम की कान पर जूं रेंग रही है।       दिल्ली संवाददाता

फिर एक झुग्गी बस्ती उजड़ने की कगार पर
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
देश की राजधानी दिल्ली के दिल कनाॅट प्लेस के पास जनपथ पर डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद मार्ग, ली-मेरिडियन होटल के पीछे एक झुग्गी बस्ती है, जो लगभग 40-50 साल पुरानी है। इस बस्ती में मजदूरों की यह तीसरी पीढ़ी है। सभी झुग्गी बस्तियों की तरह इस बस्ती के भी ज्यादातर पुरुष दिहाड़ी मजदूर हैं, कुछ लोगों ने किराये पर ई-रिक्शा चलाना शुरु किया था, जो दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के कारण फिलहाल बंद है। महिलायें दूसरों के घरों में जाकर झाडू-पोंछे का काम करती हैं, कुछ महिलायें जो थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना जानती हैं वे कुछ प्राइवेट आॅफिसों में महिला गार्ड, गेट पर एन्ट्री आदि की नौकरी करती हैं। इस बस्ती में सबसे अधिक घर वाल्मीकि और उसके बाद दलितों के हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब है। लड़कियों को लोग पढ़ाते हैं तथा उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने की बात कहते हैं। बस्ती में दो तीन लड़कियों से मुलाकात हुई, जो बी.ए. की पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय से कर रही हैं।  
गत 22 अगस्त को सहायक निदेशक, प्लानिंग, समाज शास्त्र शाखा द्वारा हस्ताक्षरित एक सूचना पत्र बस्ती में चस्पा किया गया। जिसमें 26 अगस्त को परिवार के मुखियाओं को सभी मूल दस्तावेजों व फोटो तथा परिजनों के साथ उपस्थित रहने को कहा गया था। एक सर्वेक्षण दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड व भू-अधिपति संस्था टछब्ब् के द्वारा संयुक्त तौर पर किया गया। यहां पर एक म्यूजियम बनाये जाने की योजना बतायी जा रही है।
26 अगस्त को कुछ लोग आये और एक फार्म जो कि अंग्रेजी में था उस पर सबके फोटो चिपका कर और हस्ताक्षर कराकर ले गये। एक तो यह फार्म अंग्रेजी में था, दूसरे यह काम इतनी जल्दबाजी में किया गया कि बस्ती के लोग उसे पढ़ भी नहीं पाये। जिससे लोगों में भय व्याप्त हो गया।
सूचना चस्पा होने के बाद से कुछ लोग जो अपने को दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड का बताते हुए झुग्गीवासियों से झुग्गियां खाली करने को कहने लगे। खाली न करने पर उन्हें तोड़ डालने की धमकी दी गई है। जिससे बस्ती में रहने वाले लोगों को बरसात और आने वाली सर्दियों में बेघर होने का डर सता रहा है। अपने घरों को बचाने के लिए लोगों ने  जिससे भी उन्हें अपनी समस्याओं को सुलझाने व बेघर होने से बचाने की उम्मीद लगी- स्थानीय विधायक, आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल और शीला दीक्षित- उनके घरों तक समूहों में गये लेकिन किसी ने कोई आश्वासन नहीं दिया। विधायक व प्लानिंग विभाग के अधिकारियों ने कहा कि इस मामले में हम कुछ नहीं कर सकते। वहीं अरविन्द केजरीवाल व शीला दीक्षित ने कहा कि क्योंकि वे सत्ता में नहीं हैं इसलिए वे कुछ नहीं कर सकते। गौरतलब है कि पिछले 15 सालों से शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं लेकिन इन 15 सालों में कभी शीला दीक्षित ने इन झुग्गीवासियों के पुनर्वास की कोई योजना नहीं ली और आज वे स्वयं को सत्ता में न होने की बात कहकर इस समस्या से अपना पल्ला झाड़ रही हैं।
इसके बाद 5 सितम्बर की शाम को कुछ लोग आये, उन्होंने लोगों को एक फार्म भरने को दिया। फार्म के आखिर में बहुत छोटे अक्षरों में यह लिखा गया था कि- मैं यह सत्यापित करता हूं कि उपरोक्त दिया गया ब्यौरा बिल्कुल सही है और मुझे मालूम है कि गलत सूचना देना अपराध है।’ इस फार्म को भर कर 8 सितम्बर तक दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड के कार्यालय में जमा कराना था। इसके साथ ही एक एफिडेविट बनाने के लिए दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड द्वारा टाइप किया हुआ कागज दिया, जिसमें कुछ शर्तें लिखीं थीं जो सभी झुग्गीवासियों को अपने फार्म के साथ दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड के आॅफिस में जमा कराना था। जिनमें से मुख्य शर्तें हैं-
1. हम आवंटित परिसर का उपयोग सिर्फ आवासीय उद्देश्य के लिए ही करेंगे।
2. यह कि हम वैवाहिक दम्पत्ति हैं और आवेदन पत्र पर फोटो में प्रदर्शित व्यक्ति हमारे ही परिवार का सदस्य है। 3. हमारा नाम मुख्य निर्वाचन अधिकारी द्वारा तैयार मतदाता सूची में सम्मिलित है।
4. ना तो हमारे और न ही हमारे परिवार के किसी भी सदस्य का अपना कोई भू-खण्ड/घर पूर्ण अथवा आंशिक रूप से दिल्ली में है।
5. ना तो हमारे और न ही हमारे परिवार के किसी भी सदस्य का अपना कोई भू-खण्ड या मकान किसी योजना में आवंटित किया गया है।
6. जमा किये गये सभी दस्तावेज सत्य हैं। भविष्य में कभी भी यदि ये दस्तावेज गलत पाये जाते हैं तो हम कोई भी दुष्परिणाम या अभियोजना/दण्डात्मक कार्रवाई के उत्तरदायी होंगे।
7. आवंटन/पट्टे के सभी नियम व शर्तों को मानेंगे तथा जो भी भू-तल किराया दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड द्वारा तय किया जायेगा समयानुसार उसका भुगतान करेंगे।
8. आवंटन से संबंधित नियमों व शर्तों का उल्लंघन पाये जाने की स्थिति में दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड को फ्लेट का आवंटन रद्द करने व फ्लैट वापस लेने का अधिकार होगा। जिसकी हम कोई भी क्षतिपूर्ति नहीं मांगेंगे तथा फ्लैट का कब्जा शांतिपूर्ण तरीके से दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड को समर्पित कर देंगे।
9. यदि यह पाया जाता है कि हमने (शपथकर्ता ने) सच्चाई को छिपाकर गलत दस्तावेज दिखाकर या गलत तरीके से आवंटन प्राप्त किया है तो फ्लैट का आवंटन स्वतः रद्द हो जायेगा। फ्लैट का कब्जा दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड द्वारा ले लिया जायेगा, जिसकी कोई भी क्षतिपूर्ति की मांग हम नहीं करेंगे।

ऊपर लिखी गई शर्तों में से आखिर की तीन शर्तों से झुग्गीवासी परेशान हैं, इसके जरिये उन्हें अपनी झुग्गी के मालिक के स्थान पर किरायेदार बनाया जा रहा है। किरायेदार बनने पर उन पर किराये का बोझ और बढ़ जायेगा, नई जगह किराये के घर में रहने पर अधिकतर लोगों का लगा लगाया काम भी छूट जायेगा। उन्हें नई जगह काम कब मिलेगा, मिलेगा या नहीं मिलेगा, कब तक उन्हें खाली बैठना पड़ेगा यह भी एक चिन्ता है जो उनके मुंह बायें खड़ी है। इस सबकी वजह से दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड उनके जीवन को सुधारने के स्थान पर और बुरी परिस्थितियों में धकेल देगा।  दिल्ली संवाददाता

सहारनपुर दंगा
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
सहारनपुर में पिछले लंबे समय से साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की कोशिश हो रही थी। पिछले वर्ष जिस वक्त मुजफ्फरनगर दंगों की आग में झुलस रहा था, उस वक्त मंदिरों और मस्जिदों में अलग-अलग तरह के मांस के टुकड़े फेंक कर जहर फैलाने की कोशिश की गयी थी। लेकिन साम्प्रदायिक ताकतों को उस वक्त विफलता ही हाथ लगी थी। सहारनपुर की जनता ने साम्प्रदायिक सौहार्द कायम रख हिन्दू-मुस्लिम दोनों तरह की साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों के इरादों पर पानी फेरने का काम किया। लेकिन तब भी मुजफ्फरनगर दंगों से पूरे उत्तर प्रदेश के वोटों के धु्रवीकरण के दम पर भाजपा ने जो चुनावी सफलता हासिल की, इसने सभी चुनावी पार्टियों के बीच साम्प्रदायिक कार्ड का होशियारी से इस्तेमाल करने के लालच को बढ़ाया।
लोकसभा चुनावों के बाद भी साम्प्रदायिकता का जहर कम होने का नाम नहीं ले रहा। खास तौर पर उत्तर प्रदेश में थोड़े-थोड़े अंतराल पर विभिन्न स्थानों पर साम्प्रदायिक तनाव की घटनाएं घट रही हैं। उत्तर प्रदेश में सितम्बर माह में 12 विधानसभा सीटों पर और एक लोकसभा सीट पर उप-चुनाव होने हैं। पांच विधानसभा सीट बिजनौर, सहारनपुर, नोएडा, ठाकुरद्वारा, कैराना पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक राजनीति की भेंट चढ़ रहा है।
मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नजीबाबाद, कांठ, सहारनपुर, मेरठ, बुलंदशहर, हापुड इत्यादि में साम्प्रदायिक तनाव की चर्चित घटनाएं हुई हैं। इसके अलावा अनेक घटनाएं हुई हैं जो अखबारों की सुर्खियां तो नहीं बनीं लेकिन जिनमें कुछ गांवों के दायरे में तनाव एवं दहशत कायम किया। इन सभी घटनाओं में छेड़छाड़, दूसरे समुदाय में शादी का विवाद, जमीन का विवाद, धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर लगाने का विवाद, धार्मिक स्थलों के जमीन का विवाद जैसे मुद्दों को साम्प्रदायिक ताकतों ने समुदायों के बीच जहर फैलाने के लिए इस्तेमाल किया।
सहारनपुर अपने साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए जाना जाता है। यहां के लोग शाह हारून चिश्ती (जिनके नाम पर शहर का नाम होेना बताया जाता है) और बाबा लालदास के दोस्ती के कसीदे गढ़ते हैं। इस शहर ने 1984 व 1992 के साम्प्रदायिक तनाव को झेला लेकिन तब भी तनाव छंटने के बाद शहर में समुदायों के आपसी रिश्ते नहीं बिगड़े। मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान और उसके बाद यह शहर बदअमनी फैलाने वाली ताकतों के हमलों को जाया करता रहा।
लेकिन 26 जुलाई को साम्प्रदायिक ताकतें अपनी मनोकामना पूरी करने में सफल रही। इस दिन हिन्दु-मुस्लिम-सिक्ख तीनों ही धार्मिक समूहों के नाम पर राजनीति करने वाले लोगों ने आम लोगों को बरगलाकर एक दूसरे के खून से हाथ रंगवाने में कामयाबी पाई। इस दिन तीन लोगों की जानें गईं और दर्जनों लोग घायल हुए। सड़क पर कोई पत्थर बरसा रहा था तो कहीं से गोलियां चल रही थीं। पहले से तैयार रखे 100 लीटर गैसोलीन के दम पर दसियों दुकानों में आग लगा दी गयी।
26 जुलाई को सहारनपुर को दंगे की आग में झोंकने के लिए वोटों की राजनीति करने वाले लोगों ने गुरूद्वारा और मस्जिद का विवाद खड़ा किया। धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले गुरूद्वारा और मस्जिद के पक्ष में लोगों की गोलबंदी करते रहे और प्रशासन उनके सामने बौना बना रहा। जब साम्प्रदायिक भेडि़यों ने शहर के सौहार्द को जख्मी कर दिया तब पुलिस और प्रशासन का डंडा चला और वह भी आम और निर्दोष लोगों पर। अगर दंगे के घटनाक्रम की बात करें तो जिस भूखंड को लेकर गुरूद्वारा-मस्जिद विवाद था वह अंबाला रोड पर स्थित गुरूद्वारे के पड़ौस में है। गुरूद्वारे की कमेटी ने इस भूखंड को 2001 में खरीद लिया। 2010 में उक्त भूखंड पर गुरूद्वारे का विस्तार करने के लिए गुरूद्वारे की कमेटी गुरूसिंह सभा ने सहारनपुर विकास प्राधिकरण में नक्शा जमा कराया। लेकिन प्राधिकरण ने नक्शा स्वीकृत नहीं किया। कुछ लोगों के द्वारा इस दौरान दावा किया गया कि उक्त भू खंड पर कभी मस्जिद रही है, इसलिए वहां मस्जिद ही बनाई जानी चाहिए। इस पर 16 दिसम्बर 2013 को नगर मजिस्ट्रेट ने थानाध्यक्ष कुतुबशेर को गुरूद्वारे का निर्माण रोकने के आदेश दिये। नगर मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ गुरूसिंह सभा ने जिलाधिकारी से अपील की तो उन्होंने एडीएम प्रशासन से जांच कराने के बाद मामला एडीएम वित्त एवं राजस्व को सौंपा। वहां से अभी तक कोई फैसला नहीं आया है।
इस दौरान 25 जुलाई के आस-पास गुरू सिंह सभा ने निर्माण कार्य पुनः शुरू करा दिया। 25-26 जुलाई की रात निर्माण कार्य रुकवाने के लिए कांग्रेस नेता इमरान मसूद, सपा नेता उमर अली, शहर काजी नदीम अपने समर्थकों के साथ थाना कुतुबशेर पर इकट्ठा हुए। इन लोगों के साथ पूर्व सभासद मोहर्रम अली पप्पू भी था, जिसे कि पुलिस दंगे का मुख्य साजिशकर्ता बता रही है। थाने पर जिले के आला अधिकारियों के साथ इनकी बातचीत होती रही। इसी दौरान अफवाह उड़ाई गयी कि सिखों ने कुतुबशेर मस्जिद को नष्ट कर दिया है। इसके बाद सुबह 8 बजे तक सैकड़ों की संख्या में अनियंत्रित भीड़ ने अंबाला रोड़ पर पत्थरबाजी, आगजनी, लूटपाट, तोड़-फोड़ दुकानों और वाहनों में आग लगाना शुरू कर दिया। दोपहर बारह बजे तक कफ्र्यू लगने से पहले दंगा अंबाला रोड़ के आस-पास के अन्य इलाकों में भी फैल चुका था। इस दौरान इमरान मसूद, उमर अली, आदि नेता भले ही भीड़ को समझाने-शांत करने के कितने ही दावे क्यों न करे, लेकिन मामले को इस स्तर तक पहुंचाने में अपनी भूमिका से वे वरी नहीं हो सकते।
शहर में ऐसी स्थिति पैदा हो जाने के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा को तो नफरत की तैयार फसल मिल गयी जिसे उन्हें अब सिर्फ काटना था। भाजपा सांसद राघव लखन पाल तो कफ्र्यू के दौरान भी घूम-घूम कर हिन्दू बहुल इलाकों में मुसलमानों की दुकानों में आग लगवा रहे थे।
इस दंगे के दौरान भावनायें भड़काने के लिए इंटरनेट का भी खूब इस्तेमाल किया गया। एस.एम.एस., फेसबुक, व्हाट्स एप्प के माध्यम से दंगे की खबरें और तस्वीरें एकतरफा तौर पर प्रसारित किए गये।
शहर में सबसे ज्यादा दंगा प्रभावित इलाके अंबाला रोड़, गुरुद्वारा रोड़, रायवाला, नेहरू रोड, कोर्ट रोड, नुमाइश कैंप रहे।
दंगे के दौरान हुई आगजनी और उसके बाद से कारोबारों के ठप्प पड़ जाने की वजह से शहर की अर्थव्यवस्था चैपट हो गयी। अब तक 200 करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान है। सबसे बुरी हालत मजदूरी करने वाले, ठेला-रेहडी़-खोमचों-रिक्शा चलाने वाले, छोटे-मोटे धंधों में लगे लोगों की है। एक माह बीत जाने और कफ्र्यू पूरी तरह से हटा लेने के बावजूद शहर में काम धंधे बहुत कम चल रहे हैं। वैसे तो शहर में रोजगार के मामले में किसी हद तक धार्मिक विभाजन है। कार रिपेयरिंग, मोटर रिपेयरिंग, लकड़ी के काम तथा छोेटे-मोटे हाथ के काम में मुस्लिमों की संख्या ज्यादा है। तो ट्रांसपोर्ट, होटल, उद्योग, थोक व्यापार में सिख तथा हिन्दू व्यवसायी ज्यादा संख्या में हैं। दर्जी, नाई तथा धोबी का काम तो पूरे शहर में मुस्लिमों के हाथ में है। इस विभाजन के बावजूद दंगे ने सभी धर्म के लोगों को आर्थिक तौर पर काफी नुकसान पहुंचाया है।
दंगे ने सभी धर्म के लोगों के दिलों में एक टीस पैदा कर दी है। दंगे का लाभ उठाकर साम्प्रदायिक ताकतों ने किसी हद तक लोगों के दिलों मे ‘हम’ और ‘वे’ की भावना भरने में सफलता पाई है। अब अलग-अलग धर्म के लोगों की भाषा में ‘हमारा’ का आशय उनके धर्म के लोगों से होता है।
अंबाला रोड़ पर किराने की दुकान चलाने वाले सुरेश खुराना बताते हैं कि जब दंगाई उनकी दुकान जला रहे थे तो उन्हें इसकी खबर लग गयी थी। लेकिन दुकान बचाने के लिए वे चाहकर भी नहीं आ सके। ईद की वजह से वे काफी सारा सामान खरीद कर लाए थे। लेकिन सब दंगे की भेंट चढ़ गया। उनका गुस्सा सपा सरकार पर है। वे कहते हैं कि सपा के शासन में उत्तर प्रदेश पाकिस्तान बनता जा रहा है और उनकी जान-माल की कोई सुरक्षा नहीं है।
अंबाला रोड पर डीजल पंप की दुकान चलाने वाले राजकुमार बताते हैं कि उनके पिता विभाजन के बाद भारत आए थे। 1975 में उनका परिवार सहारनपुर आ गया था। 1947 में एक बार लुटने के बाद इतने सालों में जो संपत्ति उनके परिवार ने इकट्ठा की, वह पुनः स्वाहा हो गयी। अभी तक सरकार से कोई मुआवजा नहीं मिला है। सेल्स टैक्स वाले आकर सर्वे कर गये थे। लेकिन उन्हें उम्मीद नहीं है कि सरकार उनके लाखों रुपये के नुकसान की भरपाई करेगी। गुरूसिंह सभा ने उन्हें एक लाख रुपये का चेक राहत के बतौर दिया है।
अंबाला रोड पर मोटर पार्ट्स की दुकान चलाने वाले ओम प्रकाश की दुकान भी दंगाइयों ने जला दी। उनका कहना है कि 25 लाख रुपये की संपत्ति जल गयी। दुकान के पुनर्निर्माण में जो खर्चा लगेगा वह अलग है। दंगाईयों ने सुनियोजित तरीके से दुकानें जलाईं। पहले फायर ब्रिगेड की गाडि़यां फूंकी ताकि दुकानों की आग न बुझाई जा सके। वे आगे कहते हैं कि दंगाइयों के पास एक खास किस्म का केमिकल था। दंगाई ये केमिकल कश्मीर से लेकर आये थे जिसको दुकानों के भीतर फेंकते ही खुद ही आग पकड़ लेता था। वे भी गुरूसिंह सभा के प्रति आभारी हैं कि उन्हें एक लाख रुपये का चेक दिया। साथ ही दिल्ली की एक संस्था ने दंगों में जले दुकानों के पेंट करवाने की जिम्मेदारी ली है। वे कहते हैं कि गुरू सिंह सभा ने 40 लाख रुपये के चेक दंगा पीडि़तों में बांटे हैं।
गुरूद्वारा रोड पर मौलाना सईद अहमद की बैटरी की दुकान है। इन्होंने बताया कि दंगाइयों ने पहले सामान लूटा फिर उनकी दुकान को आग लगा दी। इसके अलावा उनकी सहारनपुर कार एजेन्सीज, मौलाना कार एसी नामक दुकान मेें भी आग लगा दी।
गुरूद्वारे के ठीक सामने सड़क के दूसरी ओर कब्रिस्तान की जमीन पर 5-6 मुस्लिम परिवार और एक हिन्दू रहता था। उन्हीं में से एक इब्राहिम, जो बढ़ई का काम करता है, ने बताया कि 26 जुलाई को तीन बजे कफ्र्यू के दौरान दंगाइयों की भीड़ ने उनके घरों पर हमला बोला। उस वक्त वे लोग घर में ही थे। दंगाइयों में से कुछ लोगों ने उन्हें भागने का मौका दिया और उनके घरों में आग लगा दी। सारे लोग तब से अपने किसी रिश्तेदार या ऐसे ही अन्य जगहों पर आसरा लिए हुए हैं। एक माह बाद इब्राहिम अपने घर की मरम्मत का काम खुद कर रहा है।
सोहराव रोड़ के गुलजार अहमद ने बताया कि दंगा प्रशासन की लापरवाही की वजह से हुआ। जब अफवाह फैली कि कुतुबशेर मस्जिद शहीद हो गयी है तो इस बात से उद्वेलित लोगों को भरोसे में लेने में प्रशासन विफल रहा। राजनीतिक दल तो चाहते ही थे कि फसाद हो। उनके चुनावी स्वार्थ की वजह से आम लोग पिस गए। उन्होंने बताया कि दंगे के बाद सुरक्षा बलों ने मुसलमानों का काफी उत्पीड़न किया। उनके लड़के को जो घोड़ा बुग्गी चलाता है, कफ्र्यू में ढील का समय समाप्त होने से आधा घंटे पहले पुलिस ने लाठियों से मार-मार कर हाथ तोड़ दिया। बात करते हुए गुलजार अहमद भावुक हो गए और कहने लगे कि हमें आर्थिक नुकसान का उतना दुख नहीं है, हमें इस बात का दुख है कि हमसे कहा जा रहा है यहां से चले जाओ। हम कहां जाएं?
लुहानी सराय में हार्डवेयर की दुकान चलाने वाले शमीम ने बताया कि सभी पार्टियां मुसलमानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती हैं। मुसलमानों के रहनुमा बनने के चक्कर में वे जान-बूझकर झगड़े करवाती हैं। भाजपा को तो अपना काम करना ही है। ऐसे में हमें जानते-समझते हुए भी किसी न किसी पार्टी का सहारा लेना पड़ता है। इसके अलावा हमारे पास विकल्प क्या है?
लुहानी सराय में कबाड़ी की दुकान करने वाले अमजद का कहना है कि दंगा ऊपर के लोगों की साजिश थी। अगर आम मुसलमान दंगे में शामिल होता तो लुहानी सराय, रायवाला में आग क्यों नहीं लगायी गई जबकि यहां मुस्लिम आबादी बहुसंख्या में है और मुख्य सड़क के दूर होने की वजह से यहां सुरक्षा बलों का खौफ भी नहीं है। उन्होंने कहा कि सुरक्षा बलों ने कफ्र्यू के दौरान घरों के आगे खड़ी गाडि़यों के शीशे तोड़ दिये और उनमें आग लगा दी। राघड़ों के पुल पर एक मिठाई की दुकान में आग लगा दी। दुकान की ऊपर की मंजिल पर रह रहे लोगों की बड़ी मुश्किल से जान बची। ऐसे ही सुरक्षा बलों ने एक मकान की ऊपरी मंजिल से झांक रहे लड़के को सीढ़ी लगाकर उतार लिया और फर्जी मुकदमे लगा दिये।
नुमाईश कैंप में एक मुस्लिम नाई की दुकान को आग लगा दी गयी। उसके पड़ौस में रहने वाले लोगों का कहना है कि इस आगजनी से उनका कोई संबंध नहीं है। बाहर से दर्जनों लोग आए और दुकान से सामान बाहर निकालकर उन्होंने आग लगा दी। उनका कहना है कि अंबाला रोड़ पर सिखों और हिन्दुओं का जितना नुकसान हुआ है उनके सामने यह कुछ भी नहीं है। उन्होंने बताया कि दंगों के दौरान स्थानीय सांसद राघव लखन पाल आए थे। और उन्होंने कहा कि अपनी सुरक्षा खुद करो।
दंगे के बाद प्रशासन ने मुआवजे के पात्रों की सूची जारी की है। उसमें 266 लोगों के नाम है। इस सूची में 218 दुकानें, 69 वाहन तथा 8 आवास की क्षति स्वीकार की गयी है।
अब तक 38.70 लाख रुपया क्षतिपूर्ति के बतौर वितरित हो चुका बताया गया है। मुआवजे और राहत को लेकर भी साम्प्रदायिक राजनीति की जा रही है। दंगे के दौरान होने वाली तीन मौतों में से भाजपा सिर्फ एक मृृतक के लिए मुआवजा की राशि 10 लाख से बढ़ाकर 20 लाख करने की बात कर रही है जबकि आर्थिक तौर पर शेष दो मृतक ज्यादा गरीब परिवारों से है। गुरू सिंह सभा ने जो राहत वितरित की है उसमें किसी मुसलमान का नाम नहीं है जबकि गुरूद्वारों के ठीक सामने काफी गरीब मुसलमानों के घर जले हैं।
दंगों की अखबारों की रिपोर्टिंग हिन्दू साम्प्रदायिक रंग लिए हुए थी। दंगाइयों की तस्वीरें इस तरह से छापी गयीं कि मुसलमानों को दंगाई के तौर पर चित्रित किया जा सके। पूरे उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक धु्रवीकरण के प्रयास से दंगे का कनेक्शन जोड़ने के बजाय अखबार कश्मीर और लश्करे तैयबा से कनेक्शन जोड़ते रहे। स्थानीय सांसद राघव लखन पाल की धमकी कि मातम के माहौल में वे ईद नहीं मनाने देंगे, को अखबार वालों ने ऐेसे छापा मानो यह कोई सामान्य एवं तार्किक बात हो। दंगे के बाद सुरक्षा बलों के द्वारा मुस्लिम बस्तियों में किए गए तोड़-फोड़ एवं अभद्र भाषा की मीडिया ने कोई जांच नहीं की।

सहारनपुर में साम्प्रदायिक ताकतों ने भले ही समुदायों के बीच दरार पैदा कर दी हो लेकिन दंगे में आम लोगों की बहुत ज्यादा भागीदारी बनाने में वे सफल नहीं हुए। उलट दंगे के दौरान ऐसे कई उदाहरण दिखाई दिए जब एक धर्म के व्यक्ति ने दूसरे धर्म के पीडि़त को मदद पहुंचाने का ही काम किया। एक सिख लड़के ने घायल मुस्लिम युवक को जान का खतरा उठाते हुए अस्पताल पहुंचाया तो एक मुस्लिम व्यक्ति ने एक हिन्दू व्यापारी के दुकान को दंगाइयों से बचाया। आज जब आरएसएस के मोहन भागवत भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर अपने खूंखार इरादे की झलक दे रहे हैं तो मेहनतकश जनता के बीच संवेदनशील लोगों की मौजूदगी इस बात की उम्मीद जगाती है कि उनके नापाक इरादे कभी पूरे नहीं होंगे।----------------------------

सहारनपुर दंगे के बाद भेजे गए घृणित एस.एम.एस.
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
मुस्लिमों को आर्थिक बहिष्कार करें.......
1. जब सब्जी मंडी जायें तो किसी मुस्लिम से सब्जी न खरीदें।
2. यदि रिक्शा/टैक्सी आदि का इस्तेमाल करते हैं तो इंटीरियर पर ध्यान दें, यदि उसमें मक्का या किसी नमाजी औरत/बालक की तस्वीर हो तो उसे छोड़ दें।
3. कपड़े की दुकान, विशेषकर दर्जी आदि मुस्लिम हो तो कभी इनकी सेवाएं न लें, महिलाओं से विशेष अनुरोध।
4. किसी होटल/ढ़ाबे आदि में कोई मुस्लिम वेटर हो तो मालिक से ऐतराज दर्ज कराएं, उसके हाथों खाना लेनेे से स्पष्ट इंकार करें।
5. सलाम का जबाव राम-राम से दें।
6. किसी भी मुस्लिम को नौकरी देना अपनी अपने वाली संतति के अस्तित्व को खतरे में डालना है, ये हमेशा विश्वासघात करते हैं।
7. घरेलू नौकर/ड्राइवर कभी भी मुस्लिम को न रखें। आसाम के एक छोटे से जिले में वहां के विद्यार्थी वर्ग ने मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की मुहिम चलाई, नतीजा-आज बिना किसी बाहरी या सेना की मदद के वह इलाका बांग्लादेशियों से खाली हो चुका है। याद रखिए ये कौम हम पर ही पल रही है। ये लोग अपनी कमाई का दस प्रतिशत हर हालत में जकात करते हैं, जो इनकी आबादी के फैलाव में बहुत बड़ा योगदान देती है। एक बार आपने किसी मुस्लिम को अपने पैरों पर खड़ा होेने में मदद की तो वे आपका पैसा जेहाद में लगाएगा और अपने पूरे खानदान को आपके आस-पास लाकर बसा देगा।


दंगे से निपटने के सुरक्षा बलों के तरीके
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
दंगे का राजनीतिक इस्तेमाल करने वाले तत्वों पर पुलिस अभी तक हाथ नहीं डाल पाई है। पुलिस ने दंगे के मुख्य साजिशकर्ता के रूप में मोहर्रम अली पप्पू को उसके कई अन्य रिश्तेदारों के साथ भा.द.सं. की धारा 147, 149, 307, 332, 353, 836, 427, 504, 436, 153, 314 व 7 क्रिमिनल लाॅ एक्ट के तहत गिरफ्तार किया है। इन पर रासुका भी लगाई गयी है।
मोहर्रम अली पप्पू नगरपालिका का सभासद रह चुका है और प्रोपर्टी डीलिंग का काम करता है। कुछ ही सालों में इसकी सम्पत्ति में कई गुणा इजाफा हुआ है। पुलिस का कहना है कि पप्पू ने गुरू सिंह सभा गुरूद्वारे की कमेटी के साथ 30 लाख रुपये की डील हुई थी जिसमें से कुछ रकम उसे मिल भी चुकी है। लेकिन इस दौरान न्यायालय से गुरूद्वारे के पक्ष में फैसला आ जाने के बाद गुरूद्वारे की कमेटी उसे शेष पैसा नहीं दे रही थी। पप्पू ने गुरूद्वारे की कमेटी को सबक सिखाने के मकसद से पूरी तैयारी कर कुतुबशेर मस्जिद के सिखों के द्वारा नष्ट किये जाने की अफवाह फैलाई। पप्पू ने ज्वलनशील पदार्थों का पहले ही इंतजाम कर और अपने दर्जनों लोगों को हिदायत देकर अंबाला रोड़ पर दंगाइयों का नेतृत्व करने का काम सौंपा।
पुलिस जो कहानी बता रही है, वह सही भी हो सकती है। लेकिन दंगे का सूत्रधार वह अकेला नहीं था। भाजपा, कांग्रेस और सपा के नेताओं के ऊपर पुलिस न तो मुकदमा कर रही है, न उनकी भूमिका की छानबीन। हम लोगों के देश में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म को राजनीति से अलग रखना और धर्म को निजी मामला नहीं होना है, बल्कि सर्वधर्म समभाव होता है। ऐसे में पुलिस जो कर रही है उससे अलग कुछ कर भी नहीं सकती है।
कफ्र्यू के दौरान पुलिस और रेपिड एक्शन फोर्स का भी साम्प्रदायिक चेहरा सामने आया। मुस्लिम बस्तियों में इनका व्यवहार दंगाईयों जैसा रहा। कफ्र्यू के दौरान कई स्थानों पर सुरक्षा बलों ने कारों और दुकानों में आग लगाई। सड़क पर गश्त लगाते हुए मुसलमानों को ललकारा कि वे या हो होश में आ जाएं या पाकिस्तान चले जाएं। वे मुसलमानों को धार्मिक आधार पर गालियां दे रहे थे।
कफ्र्यू के दौरान गरीब हिन्दू बस्तियों में भी सुरक्षाबलों का व्यवहार निर्मम ही रहा। न्यू शारद कालोनी में एक ही गली में पांच लोगों को सुरक्षा बलों ने गिरफ्तार कर लिया। इनके नाम हैं- गौरव, राजेश, सुमित सोढ़ी, हनी गंभीर और अनुज। इनका दोष सिर्फ इतना था कि वे अपनी संकरी गली में घर के सामने खड़े थे। इस मामूली अपराध के लिए ये एक माह से जेल में बंद हैं और जिला अदालत से भी इनकी जमानत खारिज हो चुकी है। इनके परिवार के लोगों ने अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जमानत की अर्जी लगाई है। लेबर कालोनी से गिरफ्तार किये गये एक लड़के की विधवा मां के पास तो इतनी सामथ्र्य भी नहीं है कि इलाहाबाद जाकर जमानत के लिए भाग दौड़ कर सकें।
दंगे से निपटने का पुलिस और सुरक्षा बलों का तरीका एक जैसा रहा है उसके कारणों को समझने में शासन स्तर के अधिकारी का यह बयान मदद करता है। शासन की ओर से भेजे गए विशेष प्रेक्षक ए.डी.जी. टेलीकाॅम देवेन्द्र कुमार चैहान का मानना है कि दंगे इसलिए होते हैं क्योंकि आम जनता पुलिस से डरना बंद कर देती है। इस तरह की छोटी-बड़ी घटनाओं को रोकने के लिए उनके अनुसार जनता में खाकी का खौफ पैदा करना जरूरी है।


छोटी व वेंडर कम्पनियों में मजदूरों के शोषण की इंतिहा
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
आज लगभग हर कम्पनी में श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही है। और सरकार मालिकों के इशारे पर काम कर रही है। छोटी और वेंडर कम्पनियों में तो मैनेजमेण्ट ही कानून की निर्माता हैं। वही कानून को लागू करवाने वाली हैं और वही न्यायाधीश का काम कर रही हैं। यह काम लगभग हर कम्पनी में हो रहा है। श्रम विभाग और सरकार इन कानून निर्माताओं का अनुसरण कर रहे हैं। उच्चतम न्यायालय तक मालिकों की सेवा के लिए संविधान की व्याख्या बदल दे रहे हैं। भारत के संविधान में दर्ज है कि स्थायी काम के लिए स्थायी रोजगार। उच्चतम न्यायालय एक फैसले में संविधान की इस धारा का अर्थ ही बदल देता है। उच्चतम न्यायालय ‘‘स्थायी काम के लिए स्थायी रोजगार’’ की जगह पर  कहता है कि अगर आप को स्थायी काम पर ठेका की शर्तें बता कर रखा जाता है तो आप को ठेका मजदूर रखा जा सकता है। इससे पता चलता है कि उच्चतम न्यायालय भी मालिकों की सेवा बड़ी सफाई से कर रहा है। सरकार तो अपनी पूरी मर्यादा ही मालिकों के कदमों में रख चुकी है। आईएमटी मानेसर में मेटाफर कम्पनी सेक्टर 4 में स्थित है। यहां मजदूरों से न्यूनतम वेतन पर काम करवाया जाता है और काम आपरेटर का करवाया जाता है। आज सभी छोटी और वेंडर कम्पनियों के असेम्बली लाइन पर काम करने वालों को हेल्पर की श्रेणी में रखा जाता है। श्रम विभाग इस काम में मालिकों का साथ दे रहा है। कोई मजदूर शिकायत करता है तो मालिक और मैनेजमेण्ट के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होती। मेटाफर में मजदूरों को तनख्वाह समय पर नहीं दी जाती। और अन्य सुविधाएं भी नहीं मिलतीं। इस कारण 31 जनवरी को 50 मजदूरों ने नौकरी छोड़ दी। मजदूर पहले भी तनख्वाह समय से न मिलने के कारण नौकरी छोड़ते रहते थे परन्तु इस बार 50 मजदूरों ने एक साथ नौकरी छोड़ी तो मैनेजमेण्ट व ठेकेदार के पसीने छूटे। मैनेजमेण्ट ने तनख्वाह ने देने की सोची। और जनवरी की तनख्वाह मार्च में नहीं मिली है। कुछ मजदूर इनकी शिकायत श्रम विभाग में भी करने की धमकी दे रहे थे। तो ज्यादातर मजदूरों का श्रम विभाग पर भरोसा न होने के कारण इस संघर्ष से दूर भाग रहे थे। 25 मार्च को ये मजदूर कम्पनी के गेट पर इकट्ठा होकर तनख्वाह ने देने का विरोध कर रहे थे। मालिक ने 5 अप्रैल को तनख्वाह देने की बात कही। ठेकेदार मजदूरों को 5 तारीख तक इंतजार करने की बात कह रहा था। मजदूरों में नेतृत्व की कमी के कारण मजदूर 5 तारीख तक इंतजार करने की बात के विरोध के बावजूद रुके हुए हैं। कुछ मजदूर इस घटना को मजदूरों के साथ होेने वाले शोषण से जोड़ कर देख रहे हैं। मजदूरों को संगठित होकर संघर्ष के रास्ते को चुनना होगा।

बावल में मजदूरों का शांतिपूर्ण प्रतिरोध सम्मेलन व पुलिस की तानाशाही
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014) 
1 अगस्त को बावल औद्योगिक क्षेत्र में श्रमिक संयुक्त कमेटी के बैनर तले प्रतिरोध सम्मेलन किया गया। इस सम्मेलन में बावल औद्योगिक क्षेत्र की यूनियनें शामिल हुईं। बावल जयपुर दिल्ली हाई-वे पर मानेसर से 30 किमी जयपुर की तरफ एक औद्योगिक क्षेत्र है। बावल औद्योगिक क्षेत्र में ज्यादातर वेंडर कंपनियां है। इसलिए यह क्षेत्र मजदूरोें के भयंकर शोषण के लिए जाना जाता है। श्रमिक संयुक्त कमेटी ने बावल के मजदूरों और मालिकों के अंदर चल रहे संघर्ष को हल करने के लिए इस सम्मेलन का आयोजन किया। यह सम्मेलन मजदूरों के अंदर जोश व उत्साह भरता हुआ दिखायी दिया। मजदूर जोर-शोर से नारे लगा रहे थे।
आज बावल औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों का शोषण चरम पर है जैसे न्यूनतम वेतन न मिलना, सिंगल ओवर टाइम, नारकीय कार्यपरिस्थितियां, ज्यादातर ठेके पर काम। आज इस शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद होने लगी है। प्रतिरोध सम्मेलन के दौरान पुलिस की तानाशाही भी देखने को मिली। पुलिस ने मिण्डा फुरुकवा को चारों ओर से घेर रखा था। मिण्डा फुरुकवा के सामने धारा-144 चला रखी थी। पुलिस को सख्त निर्देश था कि अगर मजदूर रैली निकालते हैं तो उनका दमन करना है। अगर कार्यक्रम एक ही जगह पर हो तो होने दिया जाये। संयुक्त कमेटी ने भी प्रशासन और मालिकों की इच्छा के विरुद्ध काम नहीं किया। अगर रैली निकाली जाती तो इसका मजदूरों के बीच एक अच्छा संदेश जाता। और मजदूरों के बीच संगठन बनाने की प्रेरणा मिलती। इसलिए प्रशासन और मालिक नहीं चाहते थे कि मजदूर रैली निकाले। और इसी कारण प्रशासन ने मजदूरों के अंदर भय पैदा करने का काम किया। भारी मात्रा में पुलिस लगा रखी थी। घुडसवार पुलिस द्वारा मजदूरों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटने का भय पैदा किया जा रहा था।
ऐसे समय में मजदूरों का नेतृत्व अपनी जड़ता को नहीं तोड़ पाया। ज्यादातर बड़े नेता चुनाव लड़ने और चुनाव जीतने में समाधान तलाश रहे थे। ज्यादातर यूनियन नेता साझा संघर्ष करने के अपने पूर्व के वायदों को दोहरा रहे थे। कुछ मजदूर नेता गद्दार लोगों को बारह करने की सलाह दे रहे थे। इस तरह यह सम्मेलन भविष्य में संघर्ष करने के वायदे के साथ समापन हो गया।
पिछले दो सालों में लगातार संघर्ष करने की बात दोहरायी जा रही है। लेकिन ठोस कदम एक भी नहीं बढ़ाया जा रहा है। होण्डा की यूनियन 25 जुलाई को मजदूर एकता सम्मेलन करती है। परन्तु कोई भी वक्ता ठेका मजदूरों को यूनियन की सदस्यता देने की बात नहीं करता। मारुति के जेल में बंद मजदूरों को निकालने के लिए गुड़गांव, मानेसर, धारूहेड़ा बंद करने की बात पिछले एक साल से हो रही है। ये नेतृत्व के सुविधा परस्त होने, आंदोलन के ट्रेड यूनियन दायरे में सिमटे होने की वजह से आज मजदूर आंदोलन ठहराव का शिकार है। मजदूरों का नया नेतृत्व उत्साह से भर हुआ है, इसमें जोश है। परन्तु इसकी कमान में राजनीति नहीं है। यह राजनीति भी टेªड यूनियन की चेतना में ही बदल जाती है क्योंकि इसमें कुछ लेने-देने की बात है। कुछ तनख्वाह बढ़ेगी। कुछ अधिकार मिलेंगे। इस चेतना पर आज संघर्ष हो रहे हैं। इसी कारण ये सुधारवादी आज नेतृत्व में हैं। आज जरूरत है कि मजदूर आंदोलन को वर्गीय चेतना और वर्ग संघर्ष तक विकसित किया जाये। आज मजदूरों को समाज में चल रहे वर्ग संघर्ष को पहचानने की जरूरत है जो पूंजीपति वर्ग और मजदूर के बीच चल रहा है। आज पूंजीपति हावी है वह अपने प्रचार माध्यमों को मजदूर वर्ग की चेतना को कुंद करने में लगा हुआ है। पूंजीपति वर्ग आज मोदी को सत्ता पर आसीन करने में सफल हुआ है। आज मजदूरों से दशकों तक चले मजदूर संघर्ष की बदौलत मिले अधिकारों को छीनने की कोशिश हो रही है। आज यूनियन बनाना, अधिकार व वेतन की लड़ाई अपराध हो गये हैं चाहे संविधान में कुछ भी लिखा हुआ हो।    गुड़गांव संवाददाता



मारुति के मजदूरों का रोहतक में प्रदर्शन
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
मारुति के मजदूरों का आंदोलन 4 जून 2011 से शुरू होकर आज तक जिंदा है। देश व दुनिया के सचेत व संघर्षशील मजदूर इस आंदोलन से परिचित हैं। मारुति के मजदूरों ने सरकार का व्यापक दमन झेला है। और आज भी झेल रहे हैं। अप्रैल-मई में मारुति के दोनों प्लांटों में यूनियन का चुनाव हुआ। और एक नया नेतृत्व सामने आया है। इस दौरान मारुति के चारों प्लांटों ने मिलकर एक साझा मंच बनाया है जो ‘मारुति सुजुकी मजदूर संघ’ के नाम से जाना गया। इसमें मारुति गुडगांव, मारुति मानेसर, सुजुकी बाईक और सुजुकी पावर ट्रेन शामिल है। आपको ज्ञात हो कि 18 जुलाई 2012 के बाद मारुति मानेसर के 147 मजदूर जेल में है। 546 बर्खास्त हैं और लगभग 1800 अस्थायी मजदूर बारह किये गये थे। आज चारों प्लांट की एकता ने अपना मुख्य कार्यभार जेल में बंद साथियों को बाहर निकालना व बर्खास्त मजदूरों को काम पर वापस लेना तय किया हुआ है। इसी कड़ी में 18 जुलाई को बरसी मनाने के बाद 3 अगस्त को मुख्यमंत्री के शहर में प्रदर्शन किया गया। इस प्रदर्शन को मुख्यमंत्री के आवास तक तय किया गया था। परन्तु पूरे हरियाणा से पुलिस बुलाकर जुलूस को कुछ कदम चलने के बाद रोक दिया गया। और मुख्यमंत्री ने फिर मजदूरों को मिलने का समय दिया। 6 अगस्त को मुख्यमंत्री के दिल्ली के आवास पर मिलना तय हुआ। इसी सभा के दौरान काफी वक्ताओं ने अपना वक्तव्य रखा।
प्रोविजनल कमेटी के एक साथी ने अपने भाषण के दौरान कहा कि, ‘‘मारुति के मजदूरों के साथ सामान्य नागरिक जैसा भी व्यवहार नहीं किया जा रहा है। हत्या कि आरोपियों को जमानत मिल जाती है परन्तु मारुति के मजदूर 2 साल से जेल के अंदर बंद हैं और उनमें से किसी को भी जमानत नहीं मिली है। जबकि मारुति के मजदूरों ने किसी की हत्या तक नहीं की है।
सीटू के नेताओं ने वही वोट की राजनीति के इर्दगिर्द बात की। वे उन्हीं आर्थिक नीतियों के खिलाफ बोल रहे थे जिनका वे उनकी पार्टी 1991 में लागू होने पर हाथ पर हाथ धर कर तमाशा देख रहे थे यानी छिपे तौर पर समर्थन कर रहे थे। और आज फिर इन नीतियों के खिलाफ कोई व्यापक आंदोलन खड़ा न होने में देश में इनका बड़ा योगदान है।
हिन्द मजदूर सभा भी मजदूरों के एकजुट होने की बात करते हैं परन्तु व्यवहार में वह एक साजिश के तहत ठेका व स्थायी मजदूरों को अलग रखने का काम कर रही है। हिन्द मजदूर सभा की सभी कम्पनियोें में लगभग ब्रेक सिस्टम लागू है। और 3 या 4 साल का समझौता हो रहा है। और ज्यादातर हड़तालें हार पर खत्म हो रही हैं।
मारुति गुड़गांव के प्रधान ने सरकार के साथ संघर्ष का ऐलान किया है उन्होंने कहा है कि अगर कुछ समाधान नहीं हुआ तो रोहतक में जुझारू संघर्ष की चेतावनी  दी है उन्होंने न्याय न मिलने तक संघर्ष करने की बात कही।
मारुति मानेसर के प्रधान ने भी अपने साथियों को न्याय दिलाने और संघर्ष को जारी रखने की बात कही।

                    गुड़गांव संवाददाता

रिको आॅटो में मजदूरों के शोषण की दास्तां और संघर्ष करता एक मजदूर
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
रिको आॅटो के मजदूरों को गुड़गांव में 2009 में हुए संघर्ष से जाना जाता है। यह संघर्ष काफी जुझारू रहा। एक मजदूर अजीत को इस आंदोलन में शहीद होना पड़ा। मालिक के गुण्ड़ों ने अजीत की हत्या की और इल्जाम मजदूर नेताओं पर डाल दिया गया। अजीत की हत्या के बाद एक लाख मजदूर सड़क पर आ गये थे। दहशत के माहौल में कम्पनी और सरकार ने आंदोलन के नेताओं से समझौता करके दूर भेज दिया गया। और मजदूर नेतृत्वविहीन हो गये। ट्रेड यूनियन के नेताओं को अजीत की हत्या के जुर्म में 3 महीने जेल में रहना पड़ा। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि समझौतावादी ट्रेड यूनियन समझौता करने में भी सक्षम नहीं रही। इतने बड़े मजदूर आंदोलन को मालिकों की भेंट चढ़ने दिया गया। इस आंदोलन की खामी रही थी कि रिको के मजदूर नेताओं के समझौतापरस्त व्यवहार के खिलाफ नहीं जा पाये और इन नेताओं के पीछे चलते रहे। गुड़गांव में सन्नाटा छा गया। मजदूर यूनियन के नाम से डरने लगे। मालिक और सरकार कुछ दिन ही अपने इस दहशत के माहौल को कायम रख पायी। जून 2011 में मारुति के मजदूरों ने संघर्ष की कमान संभाली। और तब से अब तक मारुति के मजदूर लगातार संघर्ष में हैं। रिको गुड़गांव के मजदूरों को कम्पनी ने फरवरी 2012 में निकालना शुरू किया। यह उसने स्थानान्तरण करने के साथ किया। कम्पनी ने यह चाल मजदूरों को दुबारा एकजुट न होने देने के लिए चली। मजदूर दुबारा संगठित हो रहे थे और मालिक को इसकी भनक लग गयी। कम्पनी में मालिक की जेबी यूनियन है। मैनेजमेण्ट ने 20 फरवरी 20102 को 125 मजदूरों को स्थानान्तरण का पत्र दिया। मजदूरों को स्थानान्तरण तमिलनाडु की इकाई में करने की बात कही। और मजदूरों को हिसाब देना शुरू कर दिया गया। इससे पता चलता है कि मालिक ने मजदूरों की एकता को तोड़ने के लिए यह खेल खेला। कुलदीप की 20 मार्च 2014 को तारीख थी। मेरी उससे मुलाकात हुई। यह मजदूर आज भी संघर्ष के मैदान में है। लगभग मजदूर हिसाब लेकर चले गये। सरकार और श्रम विभाग इस घटना पर खामोश हैं क्योंकि ये उसी की नीति का परिणाम है। सरकार मालिकों को शह दे रही है। मजदूरों को मालिक और सरकार के खिलाफ संघर्ष की तरफ बढ़ना होगा।               एक मजदूर गुड़गांव 

प्रचार माध्यम व इस पर कायम होता इजारेदाराना
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
पूंजीवादी व्यवस्था की शासन पद्धति का एक रूप पूंजीवादी जनतंत्र है। इस पूंजीवादी जनतंत्र में प्रचार माध्यमों पर पूंजीपति वर्ग का ही मालिकाना होता है। आज के दौर में प्रचार के मुख्य साधन टेलीविजन, अखबार, रेडियो व इंटरनेट हैं। 
यह प्रचार माध्यम समाज में आमतौर पर पूंजीवादी विचारों को प्रचारित करते हैं। पूंजीवादी विचारों व सोच पर आम जनमानस को भी खड़ा करने का काम करते हैं। यह समाज में लोगों के मत को बनाने, नजरिये को बनाने व अपने पक्ष में माहौल बनाने का काम करते हैं। इस प्रकार शासक वर्ग आर्थिक, सामाजिक समस्या के समाधान के अपने नजरिये को आम जनमानस का नजरिया बनाने को सारे जतन करता  है। 
एक दौर में पूंजीपति वर्ग जिस नजरिये व जिन तर्कों पर आम अवाम को अपने पीछे खड़ा करता है या इसकी कोशिश करता है वहीं दूसरे दौर में यह ठीक इन्हीं तर्कों व नजरिये को खारिज करते हुए इसके बरक्स दूसरे तर्क व नजरिये पर समाज को खड़ा करता है। वस्तुतः यह सब कुछ पूंजीपति वर्ग की तत्कालीन जरूरतों पर निर्भर करता है। उसकी यह जरूरतें अपनी पूंजी के विस्तार यानी ‘मुनाफे’ के अलावा और कुछ नहीं होती। 
पूंजीवाद की यह सच्चाई हमारे देश के पूंजीवाद के लिए भी सच है। राज्य नियंत्रित पूंजीवाद के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करने के बाद अब राज्य के हस्तक्षेप को व उसकी कल्याणकारी भूमिका के विरोध में तर्क प्रस्तुत किये जा रहे हैं। साथ ही प्रचार माध्यमों को लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ के रूप में प्रचारित करके ‘प्रचार माध्यमों’ व ‘लोकतंत्र’ के वर्गीय स्वरूप पर पर्दा डाल कर, गायब कर दिया जाता है। इसी सोच पर व तर्क पर आम लोगों को खड़ा करने की सारी कोशिशें होती हैं। 
मसलन आजादी के बाद से 3-4 दशकों तक इन प्रचार माध्यमों की मदद से आज की तुलना में एक भिन्न विदेश नीति के पक्ष में तर्क दिये जाते थे व इस पक्ष में माहौल तैयार किया जाता था। इस दौर में इरान, इराक व फिलीस्तीन के पक्ष भारतीय शासकों के सुर दिखाई देते थे यह अमेरिकी शासकों के विरोध में भी होता था। 
लेकिन धीरे-धीरे वक्त बदलता गया, वैश्विक परिस्थितियां बदलती गयीं। भारतीय पूंजीवादी शासकों की जरूरतें भी बदलते गयीं। इन्हीं के अनुरूप उसके तर्क भी बदलते गये। इसी तर्कों के अनुरूप उसने समाज में माहौल भी बनाया। यह माहौल उसने अपने प्रचार साधनों के दम पर ही बनाया। 
इन्हीं प्रचार  साधनों के दम पर आज के संकटग्रस्त दौर के भारतीय पूंजीपति वर्ग में अपनी आज की जरूरत के अनुसार फासिस्ट ताकतों को सत्ता पर बिठा दिया। प्रचार साधनों ने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में पूरी फिजा बनायी। इसी पक्ष में तर्क प्रस्तुत किये गये। आज की स्थिति में भारतीय पूंजीपति वर्ग फिलीस्तीन में हो रहे नरसंहार के विरोध करने व इजरायल का विरोध करने की ओर नहीं जाता दिख रहा। भले ही यह दिखावटी हो। 
आज भी यदि फिलीस्तीन के पक्ष में प्रचार माध्यमों के कुछ हिस्सों में आवाज सुनाई दे रही है तो इसलिए कि यह पूंजीपति वर्ग समांग नहीं हैं। इसमें अलग-अलग श्रेणियां हैं। इसमें एकाधिकारी पूंजीपति हैं, नौकरशाह पूंजीपति हंै व अन्य हिस्से भी हैं। चुनावी दलों में धर्म व जाति के आधार के बंटवारे भी हैं। प्रचार माध्यमों में इनकी स्थिति व फिर इनके तर्क भी अपनी स्थिति के अनुरूप हैं। 
भारतीय पूंजीवाद में भी जैसे-जैसे इजारेदार पूंजी की वर्चस्व की स्थिति ग्रहण करता जा रहा है उसी अनुरूप मीडिया में उसका नियंत्रण बढ़ता जा रहा है। इस इजारेदार पूंजीपति में बदनाम अंबानी बंधु भी शुमार हैं। कुख्यात ‘मोदी-शाह’ के पक्ष में माहौल बनाने में अंबानी की भी काफी भूमिका है। इस अंबानी बंधु ने मीडिया पर भी इजारेदाराना कायम किया है। 14 जुलाई 2014 के आउटलुक के मुताबिक अंबानी ने 11 भाषाओं के न्यूज चैनलों, 22 मनोरंजन चैनलों व 18 बैवसाइट पर वर्चस्व कायम कर लिया था। प्रचार माध्यमों में एकाधिकार की इस दिशा को इंग्लैण्ड व अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी मुल्कों से समझा जा सकता है। अमेरिका में तो कम्पोस्ट, वाल डिजनी, बाॅक्स/न्यू कारपोरेशन व टाइम ने मीडिया के 90 प्रतिशत पर वर्चस्व कायम किया हुआ है। 
भारत में मीडिया पर एकाधिकार की, ‘अंबानी’ की स्थिति पर कुछ पूंजीवादी पत्रिकाओं में चिंता व्यक्त की गयी है। यह चिंता इस तरह व्यक्त की जा रही है जैसे इस एकाधिकार से पहले प्रचार माध्यम जनपक्षधर रहे हों। वास्तविकता यही है कि यह प्रचार माध्यम उनके अन्य अंगों की ही तरह पूंजीपति वर्ग की सेवा में मुस्तैद था। एकाधिकार की स्थिति में यह एकाधिकारी पूंजी की सेवा में रहेगा। फर्क इतना ही पड़ेगा कि अभी तक जो थोड़ी बहुत जगह जनता के अलग-अलग हिस्सों को प्रचार माध्यमों में मिलती थी वह भी खत्म होती जायेगी।   

इस समाज में अबोध बच्चियां भी सुरक्षित नहीं
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014) 
पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिले के राजनगर गांव में कक्षा एक में पढ़ने वाली छोटी बच्ची के साथ गैंगरेप कर उसकी लाश को पेड़ पर लटका दिया। बच्ची की लाश पेड़ पर टंगी देखकर गांव वाले आक्रोश से भर गये। आक्रोशित गांव वालों ने तीन संदिग्ध लड़कों पर हमला कर दिया। जिसमें एक लड़के को तो पीट-पीट कर मार दिया। दो लड़कों को काफी मशक्कत के बाद पुलिस छुड़ाकर ले गयी और अस्पताल में भर्ती करवाया।
गांव वालों का कहना है कि ये तीन लड़के ही आते-जाते महिलाओं, लड़कियों पर छींटाकशी किया करते थे। लम्बे समय से गांव की महिलाएं, लड़कियां इनसे काफी परेशान थी।
कक्षा एक में पढ़ने वाली 4-5 साल की लड़की के साथ की गयी बर्बरता किसी भी व्यक्ति को झकझोर देती है। एक व्यक्ति को ग्रामिणों ने सजा दे दी अन्य दो को हो सकता है भारतीय कानून व्यवस्था सजा दे दे। फिर भी सवाल अपनी जगह मौजूद है, कि क्यों इस समाज के भीतर इतने बहशी लोग पैदा हो रहे हैं? अगर हम इस सवाल पर गंभीरता से नहीं सोचते हैं तो उस जमीन का कुछ नहीं कर सकते जो ऐसे अपराधियों को पैदा करती है।
नुक्कड पर खड़े होकर महिलाओं, लड़कियों को छेड़ने वाले मनचलों की मानसिकता, कुंठाएं स्वतः ही पता चल जाती हैं। 2 जुलाई को बैंगलौर में 6 वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार के अरोप में पकड़ा गया व्यक्ति स्कूल का टीचर था। जब इसे पकड़ा गया तो इसके महंगे मोबाइल और लेपटाप में भारी मात्रा में पोर्न फिल्में मिली इसमें तमाम किलिपिंग छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार या शारीरिक सम्बंधों की थी। इस तरह की किलिपिंग देखने वाला टीचर स्वाभाविक है कि अपने स्कूल, पड़ोस की बच्चियों को भी इसी नजर से देखेगा।
पूंजीवादी व्यवस्था व इसकी उपभोक्तावादी संस्कृति महिलाओं को एक यौन वस्तु के तौर पर दिखाती है। इसकी फिल्में, विज्ञापन, इंटरनेट महिला को उपभोग करने वाली ‘यौन वस्तु’ के तौर पर प्रचारित करती है। इस तरह की संस्कृति में पूंजीवाद का ‘सौन्दर्य बाजार’ से लेकर ‘पोर्न बाजार’ तक टिका है। यह संस्कृति जमीनी स्तर पर विकृत मानसिकता के लोगों को पैदा कर रही है। ये लोग हमें मेदिनीपुर बंगाल, दिल्ली, उत्तर प्रदेश हर जगह दिख जाते हंै।
महिला विरोधी उपभोक्तावादी संस्कृति की जड़ इस पूंजीवादी व्यवस्था में है। यह पूंजीवादी व्यवस्था अपने मुनाफे के लिए मजदूरों का अमानवीय शोषण करती है। अपने निजी फायदे के लिए यह मानव जाति को अंधेरे में रखती है। यह उत्पादन व्यवस्था जब संस्कृति देती है तो वह अमानवीय ही होती है। अपने ‘सुख’ के लिए किसी भी महिला, बच्ची को उत्पीडि़त करो, उसका व्यक्तित्व कुचल दो, ‘इस सोच के व्यक्ति’ यह संस्कृति पैदा करती है।
महिलाओं की सुरक्षा के लिए नितांत आवश्यक है कि उसे समाज में बराबरी सम्मान मिले यह आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हो, महिला विरोधी उपभोक्तावादी संस्कृति का अंत हो। यह सब होने में एक मात्र बाधा यह पूंजीवादी समाज है। इस अन्यायपूर्ण पूंजीवादी समाज को बदलने पर ही महिलाएं पूर्ण सम्मान, आत्मनिर्भरता व सुरक्षा पा सकती हैं।

फिर एक बड़ा हादसा
ट्रेन की चपेट में स्कूली बस आने से 15 बच्चों की मौत
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
तेलंगाना में मेडल जिले के मासयिपेट गांव में 24 जुलाई को मानव रहित फाटक में एक स्कूली बस के टेªन की चपेट में आ जाने से चालक सहचालक सहित 15 बच्चों की मौत हो गयी। पुलिस के अनुसार मरने वालों बच्चों की यह संख्या और अधिक हो सकती है, क्योंकि 20 बच्चे गंभीर रूप से घायल है।
हर बड़ा हादसा हो जाने के बाद की तरह ही इस बार भी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने इस हादसे पर ‘गहरा शोक’ जताया है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव ने हादसे में मरे सभी बच्चों के परिवार जनों को अनुग्रह राशि के रूप में 5-5 लाख रूपये देने की घोषणा की है। साथ ही उन्होंने कहा कि सभी घायल स्कूली बच्चों के इलाज का सारा खर्च राज्य सरकार उठायेगी। वैसे परिवार वालों को मुआबजे में से वास्तव में कितना मिलेगा और घायल बच्चों का कितना इलाज होगा यह सभी जानते हैं।
यह हादसा होने का मुख्य कारण मानवरहित फाटक होना है, यानी जिस मार्ग से टेªन गुजरती है वहां पर न तो कोई कर्मचारी है और न ही फाटक। तेलंगाना सरकार के गृहमंत्री एन.नरसिम्हा रेड्डी के अनुसार यह दक्षिण मध्य रेल के अधिकारियों की लापरवाही रही है। ग्रामीणों ने रेलवे विभाग से कहा फाटक लगाने और एक व्यक्ति को रखने का अनुरोध पहले से ही कर रहे थे। कई बार ज्ञापन भी दिये गये, पर इस सिलसिले में कोई कार्यवाही नहीं की गयी।
परंतु यह भी बड़ी अजीब बात है कि किसी राज्य की सरकार या गृहमंत्री यदि वास्तव में चाहते तो कुछ मामूली खर्चे से एक फाटक व कर्मचारी की नियुक्ति नहीं करवा सकते थे?
हादसे के बाद रेलवे के अधिकारियों के जवाब भी लाजवाब हैं। दक्षिण मध्य रेलवे के अधिकारियों ने बताया कि मोटर वाहन अधिनियम और भारतीय रेल अधिनियम के तहत सड़क से गुजरने वालों को फाटक रहित रेलवे क्रासिंग पार करते हुए सावधान रहना चाहिए। उन्होंने अपनी लापरवाही से पल्ला झाड़ते हुये बड़ी बेशर्मी से बताया है कि दक्षिण मध्य रेलवे के तहत आने वाले क्षेत्र में सभी फाटक मुक्त और फाटक रहित रेल क्रासिंग पर चेतावनी बोर्ड, सड़क संकेत चिह्न और गति अवरोधक लगाए गये हैं। देश में हजारों की संख्या में फाटक रहित रेल क्रासिंग हैं जो कि बहुत ही खतरनाक हंै और कभी भी बड़ा हादसा हो सकता है।
यह हादसा एक बार फिर रेलवे कि खस्ता होती हालत और सरकार व रेलवे के बड़े अधिकारियों की आम लोगों समेत रेल यात्रियों की सुविधा व सुरक्षा के प्रति सोच को भी बेनकाब कर देती है।
एक तरफ तो करोड़ों मेहनतकश जनता रोज जानवरों की तरह टेªनों में ठूंस-ठूंस कर अपनी जान का खतरा उठा कर यात्रा करती है। पर इन करोड़ों लोगों की सुविधा व सुरक्षा के लिए सरकार कुछ नहीं करती तो दूसरी तरफ सरकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सपने ‘‘बुलेट टेªन’’ को सच करने के लिए (एक बुलेट टेªन चलाने की कीमत लगभग 60 हजार करोड़ रुपये) रेलवे बजट के प्रस्ताव रखती है। इस ‘‘सपने’’ बुलेट टेªन के लिए जमीन अधिग्रहण के नाम पर रेलवे के किनारे बसी मजदूर बस्तियों को उजाड़ा जायेगा। और पता नहीं क्या-क्या किया जायेगा।
सरकार रेलवे की खस्ता हालत के लिए धन की कमी का रोना रोती रहती है। धन की कमी को पूरा करने के लिए वह पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) और पूंजी निवेश का प्रस्ताव व निवेश की लगातार योजनायें बनाती रहती है। यह योजनायें भी देश के पूंजीपतियों के लिये रेलवे को भी मुनाफे की टेªन बनाने की योजनायें है। जिसे प्रधानमंत्री के सपने ‘बुलेट टेªन’ की तरह ही और तेज दौड़ाने की योजनायें हैं। इन योजनाओं में बढ़ते हुए हादसों और रेलवे यात्रियों व आम मेहनकशों की सुविधा और सुरक्षा के लिये कोई जगह नहीं है। उल्टा इन योजनाओं से इनमें बढ़ोत्तरी ही होगी।
इस हादसे में 15 बच्चे मरे नहीं बल्कि यह मुनाफे को केेन्द्र में रखने वाली पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा की गई हत्यायें हैं। इसलिए जितना जल्दी हो, इस व्यवस्था को बदल देना चाहिए।

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    (6) वैवाहिक स्थिति:
    (7) काम:
    (8) मोबाइल फोन नंबर:
    (9) मासिक आय:
    (10) ऋण राशि की आवश्यकता:
    (11) ऋण की अवधि:
    (12) ऋण उद्देश्य:

    हम तुम से जल्द सुनवाई के लिए तत्पर हैं के रूप में अपनी समझ के लिए धन्यवाद।

    ई-मेल: jenniferdawsonloanfirm20@gmail.com

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