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एलन कुर्दी की मौत का जिम्मेदार कौन?
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    एलन कुर्दी की मौत ने पूरी दुनिया के संवेदनशील लोगों को झकझोर दिया। एलन कुर्दी एक तीन साल का सीरियाई बच्चा था। सीरियाई युद्ध व गृहयुद्ध के कारण एलन कुर्दी का परिवार देश छोड़कर ‘कोस’ ग्रीस आइसलैंड पर जाना चाहता था। तुर्की से यूरोप जाने के लिए यह सबसे ज्यादा सुरक्षित माना जाने वाला रास्ता है। लहरों की चपेट में आने से एलन कुर्दी का भाई और मां भी मौत के मुंह में समा गयेे। एलन कुर्दी तुर्की के बौडरम तट पर लहरों के द्वारा लाकर फेेंक दिया था। 
    एलन कुर्दी अकेला इन घटनाक्रमों का परिणाम नहीं है। ऐसे हजारों और लाखों की तादाद में मासूम बच्चे और पुरुष-महिलायें हैं जो युद्ध और गृहयुद्ध की अंतहीन स्थिति से तंग आकर शरणार्थी बने घूम रहे हैं। इनमें से कईयों को समुद्र निगल रहा है तो कईयों का जीवन दूध और भूख के कारण समाप्त हो रहा है। इन युद्धरत व गृहयुद्ध में फंसे देशों में जो परिवार भाग नहीं रहे हैं वहां भी महिलायें और बच्चे व मासूम लोग अपनी जान गंवा रहे हैं। 
    पश्चिमी एशिया और अफ्रीका के इन देशों में जो तथाकथित गृहयुद्ध हो रहा है उसे युद्ध कहना ही ज्यादा उचित होगा। इन देशों पर यह युद्ध साम्राज्यवाद द्वारा थोपा गया है। साम्राज्यवाद ही मुख्यतः इस क्षेत्र में मची मारकाट के लिए जिम्मेदार है। इराक, सीरिया, अफगानिस्तान, लीबिया, सूडान आदि देशों के खिलाफ अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में जो युद्ध छेड़ा गया (कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष) उसने ही इस भयावह मानवीय त्रासदी की पटकथा लिखी है। दशकों से युद्ध में फंसे इन देशों की जनता सुरक्षित ठिकानों की तलाश में पारदेशीय यात्राओं पर विवश हो रही है। अपने वतन को छोड़कर वे यूरोप व अन्य देशों में जाने के लिए मानव तस्करों के द्वारा भी लूटे जा रहे हैं जो समुद्र पार कराने की एवज में मोटा रुपया वसूल रहे हैं। 
    पश्चिमी साम्राज्यवादी मीडिया एलन की दुखद मौत के लिए इस्लामिक स्टेट को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं परन्तु इस्लामिक स्टेट जैसे संगठन तो अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवाद के शस्त्रागार का ही एक शस्त्र हैं। वे लगभग उसी तरह अपने शस्त्रागार में ‘इस्लामिक स्टेट’ को भेज सकते हैं जैसे अपने युद्धक विमानों और बमों को। सऊदी अरब और अमेरिका महीने भर के लिए ‘इस्लामिक स्टेट’ के आर्थिक सा्रेतों को बंद कर दे ‘इस्लामिक स्टेट’ का उनका अस्त्र अपनी समस्त ताकत खो देगा।
    पिछले दो दशकों से भी अधिक समय से जारी पश्चिमी साम्राज्यवाद के इन कारनामों ने अफ्रीका और पश्चिमी एशिया व अरब के देशों की जनता को नारकीय जीवन की ओर ढकेल दिया। इतने बड़े शरणार्थी संकट के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो वे यही साम्राज्यवादी देश हैं। साम्राज्यवाद के प्रत्यक्ष व परोक्ष हस्तक्षेप ने ही स्थिति को इतना विकराल बनाया है। यदि वे अपनी लूट के लिए व प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे के लिए अफ्रीका, पश्चिमी एशिया व अरब देशों में ये दखल न देते तो इन देशों की जनता अपने शासकों से ज्यादा बेहतर ढंग से निपट लेती। अतः इन देशों में होने वाली लाखों मौतों का जिम्मेदार इन देशों की शासक सत्तायें व साम्राज्यवाद है। 
    अब जब इन साम्राज्यवादियों के कुकर्मों ने एक और परिणाम शरणार्थी संकट को जन्म दिया है तो उनके द्वारा संचालित कई मानवीय संस्थायें शरणार्थी संकट पर घडियाली आंसू बहाने लगी हैं। वे यूरोप के देशों से अपनी सीमायें न खोलने के लिए उनकी आलोचना कर रही हैं। यूरोप के देश भी सामान्यतः इन शरणार्थियों की फौज को संभालने के लिए तैयार नहीं दिखते। प्रतिबंधों के माध्यम से वे इन शरणार्थियों को अपने देशों में आने से रोक रहे हैं। एलन कुर्दी की मौत के परिणामस्वरूप यूरोप के कुछ देश इसके लिए आंशिक तौर पर तैयार हुए हैं। परन्तु शरणार्थियों के बढ़ते हुजूम को पनाह देना न सिर्फ यूरोप के देशों के लिए मुश्किल काम है वरन् ये स्वयं उनके अपने देशों में भी तनावों को जन्म दे सकते हैं। खासकर तब जबकि आर्थिक संकट के दौर में दक्षिणपंथी राजनीति अपना सिर उठा रही है। 
    इस संकट का समाधान यूरोपीय व अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों के पास है। वे इन देशों में हस्तक्षेप रोक दें तो वे स्वयं शरणार्थी संकट से बच सकते हैं। अन्यथा शरणार्थियों की फौज यूरोप के दरवाजे पर दस्तक देगी ही क्योंकि इन संकटग्रस्त देशों की जनता के लिए सबसे ज्यादा सुरक्षित ठिकाने यूरोप के देश ही हैं और वहां रोजगार की सापेक्षिक संभावनायेें भी। शरणार्थी संकट यूरोप के दरवाजे पर इस कदर दस्तक न देता अगर तुर्की व अरब देशों ने इन शरणार्थियों के लिए अनुकूल माहौल बनाया होता। हालांकि ऐसा नहीं है कि अरब देशों में शरणार्थी नहीं हैं परन्तु उस क्षेत्र के अलग-अलग देशों के इस कदर उलझे होने के कारण यूरोप शरणार्थियों के लिए ज्यादा मुफीद जगह बन जाती है। 
    अतः एलन कुर्दी जैसे हजारों मासूमों की मौत का कोई जिम्मेदार है तो वह अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद। इसलिए शरणार्थी संकट का समाधान तभी हो सकता है जब वे इन देशों में हस्तक्षेप रोक दें। परन्तु साम्राज्यवाद ऐसा नहीं करेगा। वे तीसरी दुनिया के उपरोक्त देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे के प्रयास बंद नहीं करेंगे। अतः ये संकट तात्कालिक नहीं हैं बल्कि लंबा चलने वाला है। 
    इन देशों की जनता का साम्राज्यवाद के विरुद्ध एकजुट प्रतिरोध ही इस संकट का स्थायी समाधान है। इस एकजुट प्रतिरोध के बूते ही वे साम्राज्यवाद द्वारा लड़े जा रहे प्रत्यक्ष व परोक्ष युद्ध से मुक्ति पा सकते हैं और ज्यादा स्थायित्व के साथ अपने देशों में रह सकते हैं। ‘इस्लामिक स्टेट’ जैसे साम्राज्यवादी अस्त्रों के विरुद्ध संघर्ष का रास्ता भी इन साम्राज्यवादियों के विरुद्ध संघर्ष से ही होकर जाता है। ऐसा करके ही एलन कुर्दी जैसे मासूमों की मौत को रोका जा सकता है। अन्यथा एलन कुर्दी की मौत पर मातम मनाने व घडियाली आंसू बहाने से कुछ नहीं होने वाला। 
गहराते संकट के बीच जी-20 की बैठक
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    सितम्बर के शुरूआती हफ्ते में जी-20 देशों के वित्तपतियों व केन्द्रीय बैंकरों की बैठक तुर्की के अंकारा में सम्पन्न हुई। यह एक तरह से भविष्य में जी-20 के राष्ट्राध्यक्षों की बैठक की तैयारी बैठक थी। बैठक में डांवाडोल होती वैश्विक अर्थव्यवस्था का आतंक छाया रहा। वैश्विक मंदी से निपटने के कोई ठोस उपाय निकालने के बजाय यह बैठक महज मंदी से निकलने की सदिच्छा व्यक्त करने का ही काम करती नजर आयी। 
    बैठक के तैयारी नोट जो कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा जारी किया गया था, में कहा गया है कि विश्व अर्थव्यवस्था के बारे में जुलाई में उसके द्वारा किये आंकलन अभी से पुराने पड़ गये हैं। अमेरिका, यूरो जोन, जापान व कई गरीब देशों में विकास दर उसके अनुमान से काफी नीचे रही है। चीन की हालत तो खस्ता है ही। आईएमएफ के अनुसार विकास दर 2008-09 के बाद सबसे निचले स्तर पर रहने की उम्मीद है। और वह अगली अक्टूबर बैठक में इसे पुनः संशोधित करेगा। तेल की कम कीमतों से विकास दरों में कोई बढ़त पैदा नहीं हुई है। 
    वास्तव में इस समय वैश्विक अर्थव्यवस्था 2009 के बाद के सबसे खराब दौर से गुजर रही है। विश्व व्यापार 2009 के बाद निम्नतर स्तर पर आ चुका है। चीन की वृद्धि दर अनुमानित 7 प्रतिशत से गिरकर 4 प्रतिशत तक आने का अनुमान लगाया जा रहा है। 
    बैठक में चीन के अपनी मुद्रा युवान के अवमूल्यन पर भी चर्चा हुई। चीन को मौजूदा उथल-पुथल का दोषी मानते हुए उसकी आलोचना हुई। जापान के वित्तमंत्री ने कहा कि चीनी प्रतिनिधि ने इस विषय में संतोषजनक जवाब नहीं दिया। इसके अलावा विवाद का दूसरा मुद्दा केन्द्रीय बैंकों की ब्याज दर का था जहां अमेरिकी फेडरल रिजर्व अपनी ब्याज दर बढ़ाने पर अड़ा था वहीं यूरोपीय यूनियन व जापान अपने बैंकों की ब्याज दर निचले स्तर पर ही बनाये रखना चाहते हैं। फेडरल रिजर्व की ब्याज दर में थोड़ी भी वृद्धि वैश्विक शेयर बाजारों में फिर से गिरावट की सुनामी ला सकती है। इसी का अंदाजा लगा आईएमएफ ने अमेरिका से अगले वर्ष तक इस दिशा में आगे न बढ़ने का आग्रह किया। 
    अंततः जी-20 की बैठक केवल मंदी से निकलने की सदिच्छाओं, चीन की गिरावट से उबर जायेंगे के संकल्प के साथ खत्म हो गयी।
    आईएमएफ वैश्विक अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत से भयाक्रांत दिख रहा है। उसके मुख्य अर्थशास्त्री ओलीवर ब्लैंचार्ड आईएमएफ से रिटायर होेने जा रहे हैं। उन्होंने 2008 में संकट के शीर्ष समय पर आईएमएफ में मुख्य अर्थशास्त्री का पद संभाला था। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने वैश्विक अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर पेश की वह कहीं ज्यादा गंभीर थी। उनके अनुसार इस संकट से वैश्विक स्तर पर वित्तीय नीति, मौद्रिक नीति, पूंजी प्रवाह के नियंत्रण के उपाय आदि सभी विषयों पर प्रश्न चिह्न खड़े हो गये हैं। 
    ब्लैंचार्ड के अनुसार राजनैतिक तौर पर यह कहना बुद्धिमत्ता नहीं होगी कि संकट ने हमारे सभी विचार कि अर्थव्यवस्था कैसे काम करती है, को नहीं बदला है। नये सिरे से सोचना वक्त की जरूरत है। 
    कुल मिलाकर ब्लैंचार्ड ने केवल अपने मुंह से यह कहने के कि पूंजीवादी दुनिया में आज संकट से निकलने का कोई रास्ता नहीं है बाकी सब कुछ कह दिया। उन्होंने पिछले 6 वर्षों से उठाये कदमों पर, आईएमएफ की भूमिका सब पर जाते-जाते सवाल खड़े कर दिये। 
    आईएमएफ के शीर्ष अर्थशास्त्री की यह स्वीकारोक्ति बतला रही है कि वैश्विक संकट कितना गहरा चुका है। कि इससे निकलने की शासकों के पास फिलवक्त कोई राह नहीं है।    
ब्रिटेन की दादागिरी
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    दूसरे देश के आतंकियों को द्रोण हमले में मार गिराने की घटनायें तो जब तब साम्राज्यवादी करते रहे हैं। अब ब्रिटेन ने अपने ही देश के तीन नागरिकों को सीरिया में द्रोण हमले कर मार गिराने का कारनामा किया है। ब्रिटिश सरकार के अनुसार ये सीरिया में आतंक कायम कर रहे थे। 
    न केवल ब्रिटेन ने अगस्त माह में द्रोण हमलों के जरिये अपने नागरिकों को मार गिराया बल्कि प्रधानमंत्री कैमरून ने निर्लज्जता के साथ संसद में इस बात को स्वीकार भी कर लिया कि उन्होंने सीरिया में ब्रिटिश नागरिकों की गैर न्यायिक हत्या का निर्देश राॅयल आर्मी को दिया था। 
    इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह हुई कि कैमरून की इस स्वीकारोक्ति पर विपक्षी पार्टियों व सत्ता पक्ष की पार्टियों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। शायद कुछ इसलिए भी कि मारे जाने वाले ब्रिटिश नागरिक मुस्लिम थे। इनके नाम रैयाद खान, राहुल अमीन, जुनैद हुसैन थे। 
    यहां तक कि लेबर पार्टी को पुराने दिनों की ओर ले चलने का दावा करने वाले जेरेमी केरोबिन भी इस मसले पर चुप्पी साधे रहे। 
    ब्रिटिश सरकार का यह कारनामा जहां एक ओर उसकी दादागिरी का सूचक है जिसके तहत वह दूसरे देश में द्रोण हमले करता है। वहीं दूसरी ओर यह ब्रिटिश पूंजीवाद के अधिकाधिक प्रतिक्रियावादी व जनवाद विरोधी होते जाने को भी दिखाता है कि कैसे ब्रिटिश सरकार अपने ही नागरिकों की खुलेआम हत्या में भी कोई संकोच नहीं कर रही है। इसके लिए अपने कानून को भी ताक पर रखने से उसे कोई संकोच नहीं है। 
    ब्रिटेन में जनवादी अधिकारों के विकास की लम्बी परम्परा रही है। एक जमाने में पूंजीपति वर्ग खुद इन अधिकारों का समर्थक था। मैग्नाकार्टा के जमाने से लेकर ये अधिकार एक के बाद एक हासिल किये गये। यहां तक कि पिछली सदी में वहां मृत्युदण्ड पर भी प्रतिबंध लग गया। 
    ब्रिटिश साम्राज्यवादी इससे पहले भी अपने नागरिकों की हत्या कर बहुप्रचारित जनवाद के दावों को ठेंगा दिखाते रहे हैं पर अभी तक वे ऐसा लुके-छिपे ढंग से करते थे। अब वे इतने निर्लज्ज हो गये हैं कि प्रधानमंत्री खुलेआम संसद में बिना मुकदमा चलाये अपने नागरिकों की हत्या को जायज ठहरा रहा है और कह रहा है कि आतंक के खिलाफ युद्ध में आगे भी ऐसा किया जायेगा। प्रधानमंत्री की इस निर्लज्जता के साथ वहां की सभी पार्टियां खड़ी हैं। यह सब ब्रिटिश शासकों के जनवाद विरोधी होते जाने को ही दिखलाता है। 
प्रधानमंत्री के इस्तीफे के बाद ग्रीस फिर चुनावों की ओर
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    ग्रीस की सत्ताधारी पार्टी सिरिजा में प्रधानमंत्री त्सिप्रास के कटौती कार्यक्रमों को लेकर उपजा मतभेद अंततः फूट तक जा पहुंचा। सिरिजा का एक धड़ा औपचारिक तौर पर अलग हो गया। इससे सत्ताधारी गठबंधन अल्पमत में आ गया। हालांकि सिरिजा के अल्पमत में आने के बावजूद विपक्षी पार्टियों के समर्थन के कारण कोई खतरा नहीं था, पर प्रधानमंत्री त्सिप्रास ने इस मौके का लाभ उठाते हुए खुद के अल्पमत में आने का बहाना करते हुए प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और 20 सितम्बर को अगले चुनाव की तारीख भी घोषित कर डाली। 
    इस तरह से 8 माह में ग्रीस की जनता को मतदान की ओर धकेल दिया गया है। जनवरी 2015 में सत्ता पर काबिज हुई सीरिजा कटौती कार्यक्रमों का विरोध करते हुए सत्तासीन हुई थी। तरह-तरह की वाम पार्टियों के इस गठबंधन को ग्रीस की जनता ने इस उम्मीद से मत दिया था कि यह पार्टी पूर्व सरकारों की तरह उनका गला और नहीं रेतेगी। पर ग्रीस की जनता की उम्मीदें तब धरी रह गयीं जब जून में ग्रीस अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का कर्ज न चुका पाने के चलते डिफाल्ट घोषित होने के कगार पर आ गया। इस मौके पर यूरोपीय यूनियन के देशों ने नये कर्ज देने के लिए कटौती कार्यक्रमों को लागू करने का ग्रीस पर दबाव बनाना जारी रखा। परिणामतः 5 जुलाई को ग्रीस में सरकार द्वारा कटौती कार्यक्रमों पर जनमत संग्रह कराया गया जिसमें ग्रीस की जनता ने प्रचण्ड बहुमत से कटौती कार्यक्रमों को लागू न किये जाने के पक्ष में वोट दिया। पर इस जनमत संग्रह के तत्काल बाद ही प्रधानमंत्री त्सिप्रास का असली चेहरा जनता के सामने आ गया। जनमत संग्रह के एक हफ्ते के भीतर विपक्षी पूंजीवादी दलों के सहयोग से त्सिप्रास ने यूरोपीय यूनियन के समक्ष आत्मसमर्पण करते हुए नये कटौती कार्यक्रमों पर सहमति बना ली और यूरोपीय यूनियन से नये कर्ज के मसले पर आगे बढ़ चला। 
    त्सिप्रास के जनमत संग्रह को ताक पर रख नये कटौती कार्यक्रमों की घोषणा ने ग्रीस की जनता के समक्ष पूंजीवादी लोकतंत्र की असलियत सामने ला दी। पूंजीवादी लोकतंत्र में पूंजीपति वर्ग ही सर्वेसर्वा होती है। उसकी मर्जी के आगे जनता की राय की कोई अहमियत नहीं होती। कि पूंजीवादी लोकतंत्र में चुनाव व जनमत संग्रह जनता से पूंजीपतियों के पक्ष में मत देने के ढकोसले के अलावा और कुछ नहीं होता और जब कभी जनता पूंजीपतियों के खिलाफ मत दे देती है तो पूंजीपतियों व उसकी सरकार को ऐसे जनमत संग्रह को कूड़ेदान में फेंकते देर नहीं लगती। 
    त्सिप्रास के कटौती कार्यक्रमों पर खड़े हो जाने से न केवल जनता ठगा हुआ महसूस कर रही है बल्कि स्वयं सीरिजा पार्टी का एक धड़ा भी प्रधानमंत्री के खिलाफ उठ खड़ा हुआ। लगभग एक तिहाई सदस्य सीरिजा से अलग हो नई पार्टी बनाने की प्रक्रिया में हैं। हालांकि एक तिहाई सदस्यों के यूरोपीय यूनियन से नये कर्ज के मसले पर सरकार के खिलाफ मत देने के बावजूद विपक्षी दक्षिणपंथी पार्टियों के सहयोग से कर्ज का प्रस्ताव बिना किसी खास मुश्किल के ग्रीस की संसद में पारित हो गया। संसद ने नये कटौती कार्यक्रमों पर भी मुहर लगा दी। विपक्षी न्यू डेमोक्रेसी, पोटामी व पासोक सब की सब प्रधानमंत्री के साथ खड़ी थीं। 
    सीरिजा से अलग हुए सदस्यों ने अपनी पार्टी को फिलहाल पाॅपुलर यूनिटी का नाम दिया है। आगामी चुनावों में यह पार्टी उन्हीं नारों के साथ चुनाव लड़ने को तैयार हो रही है जिन पर 8 माह पूर्व सीरिजा लड़ी थी।  
    सीरिजा में फूट के बाद प्रधानमंत्री त्सिप्रास ने जनता के नाम सम्बोधन में खुद को खासा लोकतांत्रिक प्रदर्शित करते हुए अल्पमत में आने के चलते इस्तीफे का नाटक किया। उसने अपने कटौती कार्यक्रमों व नये कर्ज को ग्रीस की मजबूरी बताया। उसने कहा कि उसने जनता के पक्ष में बेहतर समझौते के भरपूर प्रयास किये पर वह अधिक हासिल नहीं कर पाया। उसने नये चुनावों में जनता से समर्थन मांगते हुए ग्रीस को मौजूदा संकट से निकालने का वायदा किया। उसने अपने कदमों पर जनता से सहमति का वोट देने की अपील की। 
    इस बात की पहले ही उम्मीद जताई जा रही थी कि सरकार अक्टूबर माह से लागू होने वाले कटौती कार्यक्रमों खासतौर पर टैक्स वृद्धि, पेंशन कटौती आदि का असर पड़ने से पहले ही दुबारा चुनाव करा जनता से इन सब पर सहमति मांग जनता के गुस्से से बचने का तरीका निकाल सकती है और सीरिजा से फूट का फायदा उठाते हुए प्रधानमंत्री त्सिप्रास ने एक मंझे कलाकार की तरह अभिनय करते हुए फिर से चुनाव की घोषणा कर डाली। 
    पिछले चुनावों से इस चुनावों में अन्तर यही होगा कि इस बार सीरिजा से भी न्यू डेमोक्रेसी, पोसाक, पोटामी के साथ कटौती कार्यक्रम के पक्ष में वोट मांगेगी। कटौती कार्यक्रमों का विरोध करने वाली ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी व नवगठित पाॅपुलर युनिटी ही होगी। जिनका जनाधार अपेक्षाकृत कम है। ऐसे में त्सिीप्रास को उम्मीद है कि जनता एक बार फिर से सीरिजा को ही सत्ता में पहुंचायेगी क्योंकि सीरिजा से अभी जनता का पूर्णतया मोहभंग नहीं हुआ है। 
    त्सिप्रास के चुनाव कराये जाने की घोषणा पर यूरोपीय यूनियन में कोई विरोध कर उठना दिखलाता है कि यूरोपीय यूनियन के नेता त्सिप्रास की इस चाल में उसके साथ खड़े हैं। जर्मनी की चांसलर मार्केल ने तो साफ कहा है कि चुनाव संकट बढ़ायेगा नहीं बल्कि संकट के समाधान की दिशा में कदम है। 
    ऐसे में यूरोपीय यूनियन, सीरिजा सभी इस बात की उम्मीद लगाये बैठे हैं कि 20 सितम्बर के चुनाव के बाद त्सिप्रास पुनः सत्ता में आ जायेंगे। मौजूदा जनाधार सम्बन्धी सर्वे भी यही दिखलाते हैं कि चुनाव में सीरिजा फिर से आसानी से जीत जायेगी। सीरिजा के बहुलांश की धोखाधड़ी के बीच ग्रीस की आर्थिक स्थिति डांवाडोल बनी हुयी है। बेरोजगारी दर के ऊंचे स्तर के साथ लगातार सिकुड़ती अर्थव्यवस्था इसी बात को दर्शा रहे हैं कि हाल-फिलहाल ग्रीस का संकट कम नहीं होने वाला बल्कि और गहराने वाला है। नये कटौती कार्यक्रम ग्रीस की जनता की सहने की क्षमता को चुक जाने की हद तक पहुंचा देंगे। 
    ऐसे में ग्रीस की मेहनतकश जनता, जिसने पूर्व में सीरिजा की जीत से यूरोपीय यूनियन के साम्राज्यवादियों के समीकरण बिगाड़ दिये थे देर सबेर इस नतीजे पर पहुंचेगी कि चुनावी नाटकों से वह शासकों के जनविरोधी कदमों को नहीं रोक सकती कि इसके लिए पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति ही एकमात्र रास्ता है। 
जेरेमी कोरबिन परिघटना
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    यूनाइटेड किंगडम या भारतीयों की आम भाषा में जिसे इंग्लैण्ड कहते हैं वहां पूंजीवादी राजनीति में एक चीज खासी चर्चा का और पूंजीपतियों के लिए किसी हद तक चिंता का विषय बन गयी है वह है वहां की लेबर पार्टी में जेरेमी कोरबिन नाम के शख्स का उत्थान।
    अभी जब कुछ महीने पहले वहां संसद के चुनाव हुए थे तो वहां लेबर पार्टी की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए कंजर्वेटिव पार्टी चुनाव जीत गयी। वह पिछले चुनाव से अलग इस बार बहुमत में आ गयी। पर पराजय से लेबर पार्टी के नेता एडवर्ड मिलिबैंड ने इस्तीफा दे दिया। 
    एडवर्ड मिलिबैंड पुराने जमाने के घोषित माक्र्सवादी बुद्धिजीवी राल्क मिलिबैंड के बेटे हैं। वे लेबर पार्टी के नेता पांच साल पहले तब बने जब उस समय चुनाव में लेबर पार्टी हार गयी और तब के नेता गार्डन ब्राउन ने इस्तीफा दिया। गार्डन ब्राउन वह शख्स थे जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने टोनी ब्लेयर के साथ मिलकर लेबर पार्टी का कायाकल्प कर दिया था यानी उसे कमोबेश कंजर्वेटिव पार्टी के सांचे में ढाल दिया था। कहा जाता है कि दोनों के बीच समझौता हुआ था कि जीत की सूरत में पहले दस साल टोनी ब्लेयर प्रधानमंत्री रहेगे और फिर गार्डन ब्राउन। टोनी ब्लेयर ने अपना वादा निभाया और उनके इस्तीफा देने पर गार्डन ब्राउन प्रधानमंत्री बन गये। 
    पांच साल पहले एडवर्ड मिलिबैंड इसी टोनी-ब्राउन वाले लेबर पार्टी के नेता बने। उन्होंने अपने माक्र्सवादी पिता के विपरीत टोनी-ब्राउन की विचारधारा स्वीकार कर ली थी। इसीलिए लेबर पार्टी उनके नेतृत्व में उसी रास्ते पर चलती रहीं इसका परिणाम यह हुआ बेहद घटिया प्रदर्शन के बावजूद डेविड कैमरून की कंजर्वेटिव पार्टी फिर चुनाव जीत गयी। धूल-धूसरित एडवर्ड मिलिबैंड को अपना इस्तीफा देना पड़ा।
    उनके इस्तीफे के बाद लेबर पार्टी के नये नेता के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई। नियमों के मुताबिक लेबर पार्टी के नेता का चुनाव सारे सदस्य करते हैं और इस पद के लिए खड़े होने वाले उम्मीदवार को अपने नामाकंन के लिए कुछ सांसदों का अनुमोदन चाहिए। 
    जेरेमी कोरबिन भी लेबर पार्टी के नेता पद के लिए खड़े हुए। वे लेबर पार्टी के सांसद हैं और लम्बे समय से लेबर पार्टी के भीतर वामपंथी माने जाते हैं। उन्हांेने टोनी-ब्राउन द्वारा लेबर पार्टी को कंजर्वेटिव पार्टी के सांचे में ढालने का विरोध किया था। उन्होंने इराक पर हमले का और उसमें इंग्लैण्ड के शामिल होने का विरोध किया था। वे तीन-चार दशकों के निजीकरण के विरोधी हैं। 
    एड मिलिबैंड के इस्तीफा देने के बाद जब उन्होंने लेबर पार्टी का नेता पद के लिए चुनाव लड़ने का फैसला किया तो किसी ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। यहां तक कि उनके नामांकन का अनुमोदन करने वाले सांसदों का भी कहना है कि उन्होंने यह केवल इसलिए किया कि वे चाहते थे कि वाम का भी उम्मीदवार हो जिससे बेहतर बहस और प्रतियोगिता हो। 
    लेकिन नामांकन के बाद कोरबिन देखते ही देखते बाकी चारों उम्मीदवारों से आगे निकलने गये और प्रथम स्थान पर जा पहुंचे (सर्वेक्षणों के मुताबिक)। बहुत सारे लोग जो पहले लेबर पार्टी से निराश होकर उसे छोड़ चुके थे वे वापस लौटने लगे। लेबर पार्टी की नई सदस्यता भी बढ़ने लगी। 
    स्पष्टतः ही कोरबिन ने लेबर पार्टी को एक नई दिशा में ले जाने की उम्मीद जगाई है जो उसकी तीन-चार दशक पहले, इंग्लैण्ड में कंजर्वेटिव पार्टी के नेता माग्र्रेट थैचर के उदय के पहले की दिशा है। जेरेमी कोरबिन न तो माक्र्सवादी हैं और न ही कम्युनिस्ट। वे लेबर पार्टी के 1950-60 के दशक के विचारों के मानने वाले व्यक्ति है यानी पूंजीवाद के ‘कल्याणकारी राज्य’ के विचारों के। 
    लेबर पार्टी में कोरबिन की बढ़त निजीकरण-उदारीकरण और वर्तमान आर्थिक संकट से त्रस्त मजदूर वर्ग की आकांक्षा की द्योतक है। वह मेहनतकशों की पूंजी की मार के खिलाफ प्रतिरोध करने की इच्छा की द्योतक हैं।
    पर सवाल यह है कि यू.के. का पूंजीपति वर्ग, जो दुनिया के सबसे बड़े सट्टेबाजों में है, अपनी एक प्रमुख पार्टी को इधर जाने देगा? सीरिजा का हस्र क्या सबक प्रदान करता है?
    ज्यादा सम्भावना यही है कि अंततः कोरबिन लेबर पार्टी के नेता न बन पाये, यदि वे बन जायें तो उनके नेतृत्व में लेबर पार्टी को चुनाव जीतने न दिया जाये और यदि वे चुनाव जीत भी जायें तो उन्हें सीरिजा और अलेक्सी त्सिप्रास की तरह समर्पण करने के लिए मजबूर किया जायेे। 
    ऐसे में एकमात्र रास्ता है संड़क के संघर्षों को और तेज करना और उन्हें नई ऊंचाई पर ले जाना। पूंजीपतियों की लेबर पार्टी उनका भविष्य नहीं है।  
नेपाल में नये प्रांतों को लेकर  उग्र संघर्ष
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    पिछले कई दिनों से नेपाल के विभिन्न हिस्सों, में नये प्रांतों की गठन खासकर तराई इलाके में थारूहट प्रांत की मांग को लेकर उग्र आंदोलन चल रहा है। 24 अगस्त को नेपाल के पश्चिम क्षेत्र के कलाली जिले में प्रदर्शनकारियों के पुलिस के साथ हुए संघर्ष में 20 से अधिक लोग मारे गये। इनमें 17 पुलिस वाले थे। प्रदर्शनकारी अलग थारूहट प्रांत की मांग कर रहे हैं। इसी तरह मधेसी प्रांत की मांग को लेकर भी नेपाल के तराई क्षेत्र में उग्र प्रदर्शन हो रहे हैं। देश के कई अन्य हिस्सों में भी अलग प्रांत की मांग को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं। 
    नेपाल में वर्तमान प्रदर्शनों व संघर्ष की जड़ में 8  जून को देश की प्रमुख चार पार्टियों नेपाली कांग्रेस, सीपीएन न्यू एमएल, यूपीसीएन(माओवादी), मधेसी जनाधिकार फोरम- लोकतांत्रिक के बीच हुआ 16 सूत्रीय समझौता है। इस समझौते के तहत नेपाल में आठ प्रांत होने हैं। इन प्रांतों की सीमा निर्धारण के लिए एक संघीय आयोग गठित किया गया। 
    नेपाल में 6 या 7 या 8 प्रांत हों इसको लेकर लम्बे समय विवाद रहा है। माओवादी पार्टी जहां राष्ट्रीयता व नृजातिय आधार पर प्रांत की पक्षधर रही है वह थारूहट और मधेसी प्रांत की मांग से कमोवेश सहमत है। दूसरी तरफ नेपाली कांग्रेस और सीपीएन-यूएमएल इसके खिलाफ है। 
    चारों प्रमुख पार्टियों के आपसी बातचीत के आधार पर विभिन्न प्रांतों के गठन के तौर-तरीकों का ऐसी विभिन्न पार्टियां व संगठन विरोध कर रहे हैं। इन समूहों, संगठनों व पार्टियों को इस प्रक्रिया में यथोचित स्थान नहीं मिला है। 
    नेपाल की क्रांति ने देश के विभिन्न उत्पीडि़त समूहों में जनवादी आकांक्षाओं को जन्म दिया था। वे इस बात की उम्मीद पाल रहे थे कि उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप नेपाल का संघीय ढांचा तैयार किया जायेगा। उन आकांक्षाओं को जब हकीकत में बदलते हुए वे नहीं देख रहे हैं तो वे अपने अधिकारों व आकांक्षाओं को लेकर उग्र प्रदर्शन कर रहे हैं। नेपाल का शासक वर्ग इन आकांक्षाओं को अपने लिए एक वास्तविक खतरे के रूप में देखते रहा है। इसलिए वह हर कोशिश कर रहा है कि जन भावनाओं के अनुरूप नेपाल का संघीय ढांचा न तैयार हो। यही वर्तमान संघर्ष के मूल में है। 
आर्थिक-सामाजिक संकट की ओर बढ़ता चीन
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    विश्व आर्थिक संकट ने अभी तक चीन की अर्थव्यवस्था को इतने गहरे रूप में प्रभावित नहीं किया था जितना इस वर्ष करना शुरू कर दिया है। निर्यात मूलक चीन की अर्थव्यवस्था इस वक्त एक ऐसे वित्तीय संकट की ओर बढ़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है जिसका गहरा प्रभाव चीन के साथ पूरी दुनिया पर पड़ने की संभावना है। 
    अगस्त माह में चीन की मुद्रा युआन(आधिकारिक नाम रिनमिनाबी) का चीन की सरकार ने अमेरिकी डाॅलर के मुकाबले दो दिन लगातार अवमूल्यन किया। इस अवमूल्यन को जहां चीन की सरकार ने अपने निर्यात में हो रही कमी को रोकने के लिए आवश्यक कदम के रूप में देखा वहां अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने इसका स्वागत किया क्योंकि उसके हिसाब से चीन ने अपनी मुद्रा को जानबूझकर ऊंचा रखा हुआ है। आईएमएफ ने इसे चीन की मुद्रा को बाजार की शक्तियों के हवाले करने की आवश्यकता की ओर एक सकारात्मक कदम के रूप में भी देखा। वहीं कई साम्राज्यवादी देशों ने इसे संकट की ओर बढ़ाने वाला तथा गलत वक्त पर सही कदम कहा है। 
    चीन का निर्यात हाल के वर्षों में गिरता चला गया है। इसके साथ उसका औद्योगिक उत्पादन तथा आंतरिक मांग भी गिर गयी है। गौरतलब है कि चीन की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर विश्व आर्थिक संकट के 2007 में फूट पड़ने के पहले 10 फीसदी से भी अधिक थी। 2009 के समय को छोड़कर यह 2012 से पहले तक 8 फीसदी से ऊपर बनी रही परन्तु उसके बाद से इसमें ठहराव अथवा गिरावट का रुख रहा है। स्थिति यह है कि हाल में ही विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित ‘ग्लोबल इकानामी प्रास्पेक्ट्स’ में चीन के भावी वृद्धि दर में लगातार गिरावट का अनुमान किया गया है। चीन की अर्थव्यवस्था में गिरावट का व्यापक प्रभाव उन सभी देशों में पड़ना है जिनका चीन की अर्थव्यवस्था से गहरा जुड़ाव है। इन देशों में ऐसे सभी देश शामिल हैं जिनसे चीन व्यापक मात्रा में वस्तुओं व सेवाओं का आयात-निर्यात करता है। एक तरह से ये देश आपस में एक दूसरे के आर्थिक संकट का भी आयात-निर्यात कर रहे हैं। 
    चीन के प्रमुख व्यापारिक साझेदारों जापान, सं.रा.अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, आस्ट्रेलिया आदि की स्थिति भी आर्थिक संकट के गहराने के साथ और बिगड़ती गयी है। इस वक्त स्थिति यह है कि चीन का आयात और निर्यात दोनों गिर गया है। वर्ष 2015 में पूरे वर्ष चीन का निर्यात गिरता गया है। जुलाई माह में तो वह 8.3 प्रतिशत नीचे गिर गया। 
    मुद्रा के अवमूल्यन के जरिये चीन अपने निर्यात को पूर्व स्थिति में बना कर रखना चाहता है। मुद्रा अवमूल्यन, चीन के निर्यात के पुराने स्तर को बनाये रखने में खास कारगर इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि चीन के प्रमुख व्यापारिक साझेदारों की आंतरिक मांग में कोई खास वृद्धि की संभावना फिलहाल मौजूद नहीं है। अधिक से अधिक वह अपने सस्ते निर्यात के जरिये अन्य निर्यात मूलक अर्थव्यवस्थाओं से एक हिस्सा झटक सकता है। परन्तु जैसा कि देखने में आ रहा है कि चीन की मुद्रा में अवमूल्यन के साथ ही भारत, आस्ट्रेलिया सहित कई देशों की मुद्राओं का डालर के मुकाबले अवमूल्यन स्वाभाविक तौर पर हो गया। यूरोपीय यूनियन की आंतरिक मांग बेहद कमजोर है और अभी भी वह 2007 के अपने उत्पादन स्तर को नहीं छू पाया है। 
    हाल के समय में चीन ने अपनी गिरती अर्थव्यवस्था को रोकने और बाजार में पूंजी की तरलता को बनाये रखने के लिए 1.2 खरब युआन (लगभग 200 अरब डालर) बाजार में झोंके परन्तु अभी तक यह कुछ कारगर नहीं हुआ है। 27 जुलाई को चीन के शेयर बाजार में भारी गिरावट देखी गयी। यह गिरावट 2007 के बाद सबसे बड़ी गिरावट थी। इस गिरावट के बाद से ही इस चर्चा ने तेजी से जोर पकड़ा कि चीन ग्रीस की तरह गहरे वित्तीय संकट की ओर बढ़ रहा है। इस गिरावट ने देशी-विदेशी वित्तपतियों को खास नुकसान नहीं पहुंचाया परन्तु छोटे व मध्यम निवेशकों को शेयर बाजार की उथल-पुथल से भारी नुकसान हुआ। कई एकदम बरबाद हो गये। 
    चीन के सामाजिक हालात भी बहुत ठीक नहीं हैं। दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद चीन में भारत के बाद सबसे ज्यादा गरीब रहते हैं। उसकी प्रति व्यक्ति आय दुनिया के ढेरों विकसित पूूंजीवादी देशों से काफी नीचे है। कभी चीन में पूंजीवादी शासकों डेंग श्याओ पिंग, जियांग जेमिन, हू जिंताओ ने चीन की जनता को यह सब्जबाग दिखलाया था कि वे बाजार की शक्तियों का इस्तेमाल चीन में समाजवाद को मजबूत करने के लिए कर रहे हैं परन्तु 2007 के विश्व आर्थिक संकट के बाद से चीन के मजदूरों-किसानों को पूंजीवाद की असलियत से ढंग से रूबरू होना पड़ा है। मजदूरों का बेइंतहा शोषण और किसानों की बदहाली उस जगह पहुंच गयी है जहां वे चीनी शासकों के भारी-भरकम दमनतंत्र के बावजूद सड़कों पर उतर रहे हैं। चीन में मौजूद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के शोषण व उत्पीड़न के खिलाफ पिछले वर्षों में मजदूरों के अनेक संघर्ष फूटे हैं। इन संघर्षों के फलस्वरूप कई फैक्टरियों में मजदूर अपनी गिरती मजदूरी को रोकने में कामयाब रहे हैं। इस घटना को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने नकारात्मक रूप में लिया। इसी तरह किसानों ने अपनी जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ भी संघर्ष छेड़ा है। बड़े पैमाने की सरकारी योजनाओं के लिए जोर-जबरदस्ती से उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं।
    चीन के गिरते निर्यात, गिरते निवेश, घटती घरेलू बिक्री, बढ़ती बेरोजगारी और सामाजिक असमानता चीनी समाज को गहरे आर्थिक-सामाजिक संकट की ओर धकेल रही है। यह सब चीनी जनता को चीनी समाज में मौजूद एकदलीय क्रूर राजनैतिक तंत्र के खिलाफ भी ले जा रहा है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं और सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के खिलाफ उस तरह का जन आक्रोश कभी भी फूट सकता है जैसे वर्ष 2011 में ट्यूनेशिया और मिस्र में फूटा था। दबी-छिपी आलोचना के स्थान पर बढ़ती मुखरता ने कई अफसरों व नेताओं को जेल में पहुंचाने का दबाव भी बनाया है। 
    दुनिया के अन्य देशों के शासकों की तरह चीन के शासक चीन के बुरे होते आर्थिक हालत के समाधान का रास्ता उन्हीं नीतियों में ढूंढ रहे हैं जिसके कारण चीन में ये हालात पैदा हुए हैं। निर्यात बढ़ाने के लिए किये जाने वाले मुद्रा अवमूल्यन का परिणाम देश में महंगाई के बढ़ने और आम चीनियों की क्रय शक्ति के गिरने के रूप में आना लाजिमी है। 
    चीन की जनता में बढ़ते असंतोष को दबाने के लिए चीन अंधराष्ट्रवादी भावनाओं का सहारा लेता रहा है। इसके लिए वह अक्सर ही अपनी सीमाओं पर स्थित देशों खासकर जापान और वियतनाम से छोटे-बड़े विवादों में उलझता रहा है। इसके साथ वह अपने देश के भीतर उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं व धार्मिक समुदायों के दमन के लिए भी अंधराष्ट्रवाद की भावनाओं का सहारा लेता रहा है। 
    किसी समय विश्व आर्थिक संकट से बाहर निकालने वाले इंजन के रूप में चीन, भारत, ब्राजील, रूस की चर्चा होती थी। समय ने साबित किया कि ये बातें झूठे आशावाद पर टिकी थीं। आज ये सभी देश गहरे आर्थिक संकट में फंसते जा रहे हैं। विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का संकट तात्कालिक तौर पर भी हल होेने के स्थान पर बीते लम्हे के साथ और गहरा रहा है। चीन की पूंजीवादी व्यवस्था इसका अपवाद न हो सकती थी और समय ने साबित किया कि वह न हो पायी। 

आस्ट्रेलियाई खान कम्पनियों द्वारा अफ्रीका महाद्वीप में लूट
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)    अफ्रीका में अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, भारत आदि द्वारा वहां प्राकृतिक संसाधनों की लूट की चर्चा तो अक्सर होती रहती है। परन्तु साथ ही आस्ट्रेलिया भी एक ऐसा देश है जो अफ्रीका में अपने खूनी पंजे फैलाये हुए है। आस्ट्रेलिया की खान कम्पनी अन्य किसी भी देश की अपेक्षा यहां के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने में पीछे नहीं है। 
    आस्ट्रेलिया में 2014 के अंत तक 150 से ज्यादा कम्पनियां 1500 लाइसेंसों के साथ दर्जनों खानों पर अपना स्वामित्व बनाये हुए थीं। इनका कारोबार अफ्रीका के 33 देशों में फैला हुआ है। 2004 तक 13 देशों में इनका कारोबार था। इनमें दक्षिण अफ्रीका, बोट्सवाना, तंजानिया, जाम्बिया, मेडागास्कर, मलावी, माली, सेनेगल, कांगो, घाना, कोस्ट डी आइवर आदि हैं। अफ्रीका के सोने, चांदी, प्लेटिनम आदि धातुओं को ये दो दशकों से लूट रही हैं। 
    आस्ट्रेलिया की ये खान कम्पनियां अफ्रीका के मजदूरों के अधिकारों का हनन करने के लिए कुख्यात हैं। इन कम्पनियों के अधिकारियों/मालिकों की यहां के सेना के अधिकारियों व सरकार में मंत्रियों के साथ अच्छी-खासी सांठ-गांठ है और जो कोई विद्रोही ग्रुप इनके रास्ते में बाधा बनता है तथा इनके लूट का विरोध करता है तो उसे सेना द्वारा कुचल दिया जाता है। 15 अक्टूबर, 2004 में हुई एक घटना से इसे साफ समझा जा सकता है। 
    डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आॅफ कांगो के दक्षिणपूर्वी इलाके में एक कस्बा किल्वा है। यहां से 50 किमी दूरी पर डिकुलुशी खान है। यहां अनविल कम्पनी खनन का काम करती है। यहां से तांबा व चांदी निकालकर किल्वा के रास्ते म्वेरू झील तक पहुंचायी जाती है जिसे जहाजों में लादकर बाहर भेज दिया जाता है। इसी किल्वा कस्बे में 15 अक्टूबर 2004 को तथाकथित विद्रोही पहुंचे, उन्होंने यहां स्वतंत्रता की घोषणा की। दोपहर को यहां कर्नल इलुंगा अडेमर पहुंचा और 48 घंटे के खूनी संघर्ष में 73 आदमी, औरतें व बच्चे मार दिये गये। कस्बे के पुलिस मुखिया को विद्रोहियों के साथ मिल जाने की सजा उनको बुरी तरह टार्चर करने व उनकी बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार के रूप में मिली जिसकी बाद में अस्पताल में मृत्यु हो गयी। इस नरसंहार के लिए सेना को जिन वाहनों में लाया गया था वे वाहन एनविल कम्पनी ने ही मुहैया करवाये थे। इन लाशों को इन वाहनों में ही लादकर बाहरी इलाके में फेंक दिया गया। जब घटना के बाद कुछ पत्रकारों ने कम्पनी में जाकर देखा तो इन वाहनों में खून लगा हुआ था। 
    साफ था कि एनविल कम्पनी नहीं चाहती थी कि किल्वा शहर में विद्रोही कब्जा कर लें और उसके माल को भेजने में कोई रुकावट बनें इसलिए उसने सेना के साथ इस नरसंहार को रचा जिसमें मासूम बच्चे भी मारे गये। 
    बाद में जब यह मामला सुर्खियों में आया तब आठ महीने बाद जाकर कम्पनी ने स्वीकार किया कि उसने अपने वाहन भेजे थे और ऐसा करने के लिए उसे सेना के अधिकारियों से आदेश मिला था। उनके पास सिवाय इसके कोई चारा नहीं था। जब सेना व कम्पनी के अधिकारियों पर मुकदमा चला तो उन्हें बिल्कुल बरी कर दिया गया। 
    यह घटना न तो पहली थी और न आखिरी जिससे सेना व खनन कम्पनियों के बीच सांठ-गांठ का पता चलता हो। आस्ट्रेलियाई खनन कम्पनियों ने अफ्रीका के पहाड़, जंगल, नदियों पर कब्जा कर रखा है और यह बिना वहां के स्थानीय निवासियों के दमन के नहीं किया गया है। 
    इसके अलावा इन कम्पनियों में काम करने वाले मजदूरों की मेहनत को लूटने में भी ये कंपनियां कम नहीं हैं। आस्ट्रेलिया में जिस खान मजदूर को 66 हजार डाॅलर सालाना मिलता है वहीं अफ्रीका में यह मात्र 5,500 डाॅलर सालाना है। इसके अलावा आस्ट्रेलियाई खान मजदूर को वार्षिक अवकाश, पेंशन, बीमारी में बीमा, घूमने के लिए छुट्टियां मिलती हैं वहीं अफ्रीका में मजदूर को दुर्घटना बीमा ही मिल जाये यही बहुत है। मजदूरों के अनपढ़ होने व वकील करने के लिए पैसा न होने के कारण कम्पनियां ज्यादातर मामलों में मजदूरों को मुआवजा भी नहीं देती हैं। आस्ट्रेलिया में जहां एक मजदूर के साथ दुर्घटना होने पर उसको 5 लाख डाॅलर के आस पास का मुआवजा देना पड़ता है वहीं अफ्रीका में वह मजदूर को मात्र 2 से ढाई हजार डाॅलर में ही निपटा देती हैं। 
    आस्ट्रेलिया की इन खान कम्पनियों में पिछले वर्षों में ठेकेदारी के मजदूरों को ज्यादा रखने के साथ-साथ दुर्घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। 2004 से 2014 तक इन खान दुर्घटनाओं में 380 से ज्यादा मजदूरों की मौत हो चुकी है जो आस्ट्रेलिया में इन दौरान होने वाली मौतों से पांच गुना ज्यादा है। 
    दक्षिण अफ्रीका की मारिकाना की खान में 2010 में काम के दौरान छत गिर जाने से 14 मजदूरों की मौत हो गयी। यह खान आस्ट्रेलिया की एक्वेरियस कंपनी की थी। यह कम्पनी एक बड़े लाभ वाली कम्पनी है लेकिन साथ ही यह मजदूरों की दुर्घटना के मामले में दूसरी सबसे बड़ी कम्पनी है। कम्पनी इन दुर्घटनाओं के लिए ठेकेदार को जिम्मेदार ठहरा कर बच जाती है। 
    अफ्रीका में आस्ट्रेलियाई कम्पनी मजदूरों को कम वेतन देने, उनको श्रम कानूनों का उल्लंघन करने तथा स्थानीय निवासियों की हत्यायें करवाने के लिए कुख्यात हैं। यह पूंजी के उस चरित्र से भिन्न नहीं है जो उसके अपने जन्म के साथ विकसित होता गया है। इतिहास गवाह है कि दक्षिण अमेरिका में इंका व एजटेक जैसी सभ्यता चांदी की खानों को प्राप्त करने के लिए स्पेन, पुर्तगाल व अन्य औपनिवेशिक देशों द्वारा खत्म कर दी गयी थी। लेकिन तब से पूंजीवाद की उम्र काफी हो चुकी है। आज जरूरत है कि कोढ़ लगे पूंजीवाद को उसकी कब्र में पहुंचाया जाये और मानवता को मुक्त किया जाये।   
इस्लामिक स्टेट के बहाने कुर्दों के दमन पर उतारू तुर्की
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    तुर्की की दक्षिणपंथी अर्दोगान सरकार ने इस्लामिक स्टेट से निपटने के बहाने कुर्दों का दमन करना शुरू कर दिया है।    
    शनिवार 25 जुलाई की रात को तुर्की के लड़ाकू जेट विमानों व जमीनी सुरक्षा बलों ने सीरिया में इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) के ठिकानों एवं इराक स्थित कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी के शिविरों पर भयंकर हमला किया। तुर्की की सरकार ने इस कदम को तुर्की के उत्तरी सीरिया से लगती हुई सीमा को एक सुरक्षित क्षेत्र बनाने की कवायद करार दिया। 
    गौरतलब है कि अब तक तुर्की का इस्लामिक स्टेट के प्रति उपेक्षात्मक रुख दिखाई देता रहा है। लेकिन जुलाई के दूसरे पखवाड़े में सीरिया की सीमा पर संदिग्ध रूप से एक इस्लामिक स्टेट के आत्मघाती (फिदाइन) हमले में 32 लोगों की मौत हो गयी थी। इस हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने भी नहीं कुबूली। लेकिन तुर्की सरकार ने तुरंत सक्रिय होते हुए सीरिया में इस्लामिक स्टेट के ठिकानों व ईराक में कुर्द शिविरों पर हमला कर दिया। तुर्की द्वारा कुर्द इलाकों में किये गये हमलों का मंतव्य सुरक्षा से ज्यादा राजनीतिक था और इस्लामिक स्टेट के ठिकानों पर भी हमले के मूल में कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी के प्रतिरोध को ध्वस्त करने के तुर्की सरकार के इरादों को आवरण प्रदान करना है।
    तुर्की द्वारा कुर्दों पर किए गए इन हमलों को साम्राज्यवादियों की पूरी शह रही है। जर्मनी की चांसलर एंजिला मर्केल ने आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में तुर्की सरकार का पूरा साथ देने की बात कहकर कुर्दों पर तुर्की सरकार के हमले का समर्थन किया है। 
    लेकिन तुर्की के अंदर विपक्षी पार्टियों ने राष्ट्रपति ताइफ अर्दोगन पर आतंकवाद व इस्लामिक स्टेट के  बहाने कुर्दों का दमन करने का आरोप लगाया है। 
    कुर्दों पर तुर्की के इस हमले द्वारा तुर्की सरकार ने कुर्दों के साथ 2013 से चले आ रहे संघर्ष विराम को भी धता बता दिया है। 
    नवउदारवादी नीतियों के चलते अपने देश में लगातार अलोकप्रिय होती जा रही अर्दोगान सरकार द्वारा इस्लामिक कट्टरपंथ के साथ आतंकवाद का हौव्वा खड़ा करके जहां अपने खिलाफ आक्रोश को दबाने की कोशिश की जा रही है वहीं अपनी विस्तारवादी नीतियों को आक्रामक रुख देकर अतामान तुर्क साम्राज्य के दिनों की वापसी का सपना दिखाकर जनता में अंधराष्ट्रवादी उन्माद पैदा किया जा रहा है। कुर्दों पर किये जा रहे इन हमलों के मूल में यही है। लेकिन तुर्की का मजदूर वर्ग भविष्य में अपने शासकों के इस चरित्र की बखूबी शिनाख्त कर उसे उचित जवाब देगा। 
वेनेजुएला और गुयाना के बीच सीमा विवादः अमेरिकी साम्राज्यवादी साजिश
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    वेनेजुएला और इसके पूर्वी पड़ौसी देश गुआना के बीच चल रहा विवाद नक्शे में मनमाने तरीके से खींची गयी रेखा के बारे में कोई सीधी-सीधी असहमति नहीं है। यह वस्तुतः महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक आयाम लिए हुए एक टकराहट है। इस टकराहट का नजदीकी और दूरगामी भू-राजनीति प्रभाव पड़ने की संभावना लिए हुए है। 
    गुआना एसे-क्विबा नाम का ऐसा इलाका है जिस पर सौ वर्ष पहले से विवाद चल रहा है। इस इलाके में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने प्रभुत्व के लिए विवाद पैदा किया था। 1966 में जब गुआना नाममात्र का स्वतंत्र देश हो गया तो इस क्षेत्र पर सम्बन्धित देशों के बीच विवाद खड़ा हो गया। वेनेजुएला ने दावा किया कि यह क्षेत्र 1899 से ही उसकी सम्प्रभुता में रहा है। फिर भी इस क्षेत्र पर गुआना ने अपना दावा नहीं छोड़ा और इस समूचे क्षेत्र पर अपनी सम्प्रभुता को नहीं छोड़ा और इस क्षेत्र में मौजूद तेल और गैस की खोज के लिए अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को रियायतें देकर बेचता रहा। गुआना की इस कार्यवाही से टकराहट तेज होती गयी। इसने वेनेजुएला को कूटनीतिक  और राजनीतिक तरीके से दबाव डालने के लिए मजबूर किया। 
    यह तो महज ऊपर से दिखाई देने वाली बात थी जो अमेरिकी साम्राज्यवादियों की वेनेजुएला के विरुद्ध उनकी नीति का छिपा एजेण्डा थी। वेनेजुएला के राजनीतिक और आर्थिक विकास को रोकने के अपने प्रयास में अमेरिकी साम्राज्यवादी इस क्षेत्र को अस्थिर करने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर रहे हैं। उनके लक्ष्य अलग-अलग देशों में भिन्न-भिन्न हो सकते हैं लेकिन वे घनिष्ठता से आपस में जुड़े हुए हैं। वे हर कीमत पर वेनेजुएला का नुकसान करके अमेरिकी ऊर्जा कम्पनियों को समृद्ध करना चाहते हैं। और इसी के साथ ही वेनेजुएला को हमलावर के बतौर चित्रित करके इस इलाके में अपनी फौजी उपस्थिति को जायज ठहराना चाहते हैं। इस तरीके से अमेरिकी साम्राज्यवादी अपनी फौजी ताकत के बल पर इस पर अपने प्रभुत्व को फिर से कायम करने का प्रयास कर रहे हैं। 
एसेक्विबा क्षेत्र की राजनीति और अर्थनीतिः
    सीमा विवाद के केन्द्र में ऊर्जा और इससे पैदा होने वाला अरबों डालर का मुनाफा है जिसे इस क्षेत्र के समुद्र से निकाला जाना है। एक सर्वेक्षण के अनुसार गुआना, सूरीनाम, वेसिन में दुनिया का संभवतः दूसरा सबसे बड़ा न खोजा गया, न खनन किया गया तेल भंडार है। यह वेसिन पूर्वी वेनेजुएला से लेकर उत्तरी ब्राजील के समुद्र तट तक फैला हुआ है। इस तेल भण्डार पर दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सरकारों की निगाहें टिकी हुई हैं। 
    वस्तुतः एक अनुमान के अनुसार इस वेसिन के भीतर लगभग पन्द्रह अरब बैरल तेल मौजूद है तथा 420 खरब घन फुट गैस का भण्डार है। इतना बड़ा भण्डार देखकर इस क्षेत्र के पानी पर दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लार टपक रही है। अमेरिकी साम्राज्यवादी और उसकी ऊर्जा बहुराष्ट्रीय कम्पनियां गुआना की सरकार पर आसानी से दबाव डाल सकती हैं। वेनेजुएला पहले से ही अमेरिकी साम्राज्यवाद का इस क्षेत्र में विरोध करता रहा है। 
    गुआना की नयी सरकार ने इस वेसिन में अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी इक्साॅन मोबिल को स्टाव्रोक ब्लाॅक में खुदाई का काम दे रखा है। यही इस विवादित क्षेत्र का केन्द्र बिन्दु बन गया है। कहा यह भी जाता है कि गुआना के इस नये राष्ट्रपति के चुनाव जीतने में इक्साॅन मोबिल कम्पनी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस तेल भण्डार की निकासी की वास्तविकता ने अमेरिकी साम्राज्यवादियों को इस विवाद में गुआना के पक्ष में खड़ा कर दिया है। यही कारण है कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने अधिकारिक तौर पर अपने को राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक तौर पर गुआना के संग खड़ा कर दिया। अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने कैरीकाॅम (कैरीबियाई समुदाय) संगठन के प्रभाव को गुआना के पीछे लगा दिया है। कैरीकाॅम इस क्षेत्र में कई तरीकों से अमेरिकी साम्राज्यवादी ताकत के विस्तार का एक हिस्सा है। यह जानी हुई बात है कि वेनेजुएला अन्य दक्षिणी अमेरिकी देशों के साथ मिलकर अल्बा(एएलबीए) और पैट्रो कैरिबे जैसे क्षेत्रीय संगठन बनाकर अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रभुत्व का विरोध करता रहा है। 
    यह अनायास ही नहीं है कि संयुक्त राज्य अमेरिका और कैरीकाॅम ने गुआना के समर्थन में नये राष्ट्रपति के चुने जाने के थोड़े समय ही बाद अपनी पूरी ताकत झोंक दी। यह अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा वेनेजुएला पर दबाव डालने की पूरी कोशिश है जिससे कि वह या तो इस क्षेत्र पर अपना दावा पूरी तौर पर छोड़ दे या इस क्षेत्र की सम्प्रभुता पर अपने दावे को नरम कर दे। यही कारण है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी सैनिक तौर पर तथा प्रचार अभियान के क्षेत्र में वेनेजुएला को गलत सिद्ध करने और उसके खिलाफ गोलबंदी करने में अपनी ताकत लगाये हुए हैं। 
वेनेजुएला को अस्थिर करने का एक नया मोर्चाः
    यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी हृयूगो शावेज के सत्ता में आने के बाद ही वहां की हुकूमत में परिवर्तन करने की साजिश करते रहे हैं। यह 2002 में वेेनेजुएला की कानूनी तौर पर चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट करने के प्रयास के दौरान देखा जा चुका है। हालांकि अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा किये गये इस असफल हुकूमत परिवर्तन की दुनिया भर में व्यापक निंदा की गयी थी। लेकिन इसके बाद भी अमेरिकी साम्राज्यवाद ने वेनेजुएला को अस्थिर करने की अपनी साजिशें बंद नहीं कीं। शावेज की मृत्यु के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने वेनेजुएला की नयी सरकार के विरुद्ध तोड़-फोड़ की गतिविधियां तेज कर दीं। वे वेनेजुएला की विरोधी पार्टियों को आर्थिक और अन्य तरीकों से मदद करके तथा उसके विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगाकर कर रहे हैं। इस संदर्भ के भीतर ही वेनेजुएला, गुआना सीमा विवाद को समझा जाना चाहिए। 
    वेनेजुएला का गुआना के साथ टकराहट आर्थिक तो है ही, लेकिन उसके साथ ही यह सैनिक/रणनीतिक भी है। हालांकि इन दोनों देशों के बीच अभी कोई सीधा युद्ध नहीं है, तब भी अमेरिकी साम्राज्यवादी जिस तरीके से अपनी फौजी गतिविधियां बढ़ा रहे हैं इससे युद्ध की वास्तविक संभावना बन जाती है। 
    हालांकि अमेरिकी साम्राज्यवादी अपनी भूमिका को कम करके दिखा रहे हैं लेकिन तब भी वे वेनेजुएला को साफ-साफ धमकी भी दे रहे हैं। यह धमकी गुआना में अमेरिकी दूतावास के एक शीर्ष अधिकारी ने इन शब्दों में दी,‘‘संयुक्त राज्य अमेरिका का गुआना की फौज के साथ दीर्घकालिक सम्बन्ध रहा है। हम प्रशिक्षण और विशेषज्ञता उपलब्ध कराने तथा व्यापक व विविध क्षेत्रों में अनुभव का आदान-प्रदान करने में वर्षों से सहयोग और विकास कार्यों में प्रयास करते रहे हैं।’’ ऐसे बयान तुलनात्मक रूप से सीधे-साधे लग सकते हैं, लेकिन यह इस क्षेत्र में अमेरिकी साम्राज्यवाद की सैनिक उपस्थिति की स्वीकारोक्ति है। यह गुआना को वस्तुतः अमेरिकी साम्राज्यवाद की कठपुतली बना देती है।
    वस्तुतः इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि 2010 से ही संयुक्त राज्य अमेरिका की नौ सेना इस क्षेत्र में तैनात रही है और कि अमेरिकी रक्षा विभाग की दक्षिण अमेरिका के लिए साउथ काॅम नामक परियोजना में गुआना अमेरिका का महत्वपूर्ण सहयोगी रहा है तथा वेनेजुएला के विरुद्ध अमेरिकी सैनिक शक्ति की उसे बाहरी चैकी के बतौर देखा जाता है। 
    यद्यपि सैनिक सहयोग और हिस्सेदारी पहले से ही जानी जाती रही है तथापि वेनेजुएला के लिए नया खतरा गुआना के नये राष्ट्रपति के चुनाव के साथ और बढ़ गया है। वस्तुतः नया राष्ट्रपति डेविड ग्रैन्गर सीधे अमेरिकी साम्राज्यवाद और उनके सहयोगियों का सैनिक उत्पाद रहा है। वह वेस्टइंडीज के विश्वविद्यालय में पढ़ा। उसने संयुक्त राज्य अमेरिका मैरीलैण्ड विश्व विद्यालय और राष्ट्रीय सुरक्षा विश्वविद्यालय में भी पढ़ा। उसने ब्रिटेन के फौजी स्कूल में सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त किया तथा उसने ब्राजील और नाइजीरिया में जंगल युद्ध के बारे में प्रशिक्षण प्राप्त किया।
    लातिन अमेरिका के आधुनिक इतिहास से परिचित लोग यह जानते हैं कि अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी सैनिक नेताओं को प्रशिक्षण देते हैं ताकि वे रणनीतिक और भू-राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण देश पर नियंत्रण कायम कर सकें। गुआना, वेनेजुएला का पडोसी देश है और वेनेजुएला अमेरिकी साम्राज्यवाद का घोषित विरोधी है इसलिए डेविड ग्रे्रंगर जैसे गुआना के फौजी पृष्ठ भूमि वाले राष्ट्रपति के चुनाव में यह खतरा और बढ़ जाता है। 
    अमेरिकी साम्राज्यवादी वेनेजुएला के विरुद्ध न सिर्फ अपना प्रचार अभियान चला रहे हैं बल्कि ‘‘मानव अधिकार उल्लंघन के लिए’’ उस पर प्रतिबंध भी थोप रहे हैं। इसी के साथ ही वे वेनेजुएला को संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के लिए असाधारण खतरा बता रहे हैं। इसका मतलब साफ है कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने 2015 में तनाव को और तेज करने का फैसला ले लिया है। गुआना के साथ विवाद अमेरिकी साम्राज्यवाद की इस व्यापक अस्थिर करने वाली रणनीति का स्पष्टतः एक नया अध्याय है। 
    इसी परिप्रेक्ष्य में सीमा विवाद को समझा जाना चाहिए। यह पुराने युद्ध का एक नया मोर्चा है इसमें ऊर्जा की बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए अरबों डालर का मुनाफा दांव पर है और इसी के साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका की सैनिक उपस्थिति भी दांव पर है। इसलिए इस विवाद की प्रकृति भू-राजनीतिक है। गुआना एसे क्विबा मुद्दा वस्तुतः संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभुत्व और साम्राज्यवाद का मुद्दा है। 
(एरिक ड्रेट्सर के लेख के आधार पर ग्लोबल रिसर्च 23 जुलाई 2015 से साभार)
अफ्रीकी मूल के बहाने अफ्रीका को निचोड़ने की जुगत
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जुलाई के अंतिम सप्ताह में केन्या की राजधानी नैरोबी में थे। लेकिन ओबामा वहां अपनी मिट्टी की गंध को सूंघने नहीं गये थे बल्कि उनका उद्देश्य अपने अफ्रीकी मूल के बहाने अफ्रीका में अमरीकी पूंजी के लिए शिकारगाह तलाशने था। केन्या में ओबामा ने अफ्रीकी उद्यमियों की एक सभा को संबोधित किया। 
    केन्या ओबामा के पिता की जन्मभूमि है। इसके साथ ही केन्या पूर्वी अफ्रीका की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल की पूर्व संध्या पर ओबामा को केन्या की याद आयी तो भी इसका कारण कोई पूर्वजों की भूमि का जुड़ाव नहीं बल्कि आर्थिक संकट एवं चीन से बढ़ती प्रतिद्वंद्विता है। 
    ओबामा ने केन्या में वैश्विक निवेशक शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए अपने अफ्रीकी मूल का होने का भी प्रदर्शन किया। केन्या की भाषा स्वाहिली में उन्होंने निवेशकों का स्वागत ‘जम्बो’ कहकर किया जिसका अर्थ ‘हैलो’ होता है। 
    केन्या में चीन के बढ़ते दबदबे को रोकना ही ओबामा की यात्रा के मूल में है। 2009 में अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए चीन ने केन्या के सबसे बड़े व्यापारिक साझीदार का दर्जा प्राप्त कर लिया। इस वर्ष केन्या की अर्थव्यवस्था के 6 प्रतिशत की दर से विकसित होने की उम्मीद है। 
    ओबामा ने आतंकवादी संगठन अल सहाब के हमलों से त्रस्त केन्या को आतंकवाद से मुक्ति का रास्ता पूंजी व बाजार में तलाशने की शिक्षा दी। ओबामा ने नैरोबी में वैश्विक निवेशक सम्मेलन’ में कहा ‘‘उद्यमिता का विकास हिंसा और विभाजन की उस विचारधारा का एक सकारात्मक विकल्प प्रस्तुत करता है जो अपने भविष्य के प्रति बेहद निराश युवाओं के बीच अपनी जगह बना लेती है’’। 
    दरअसल ओबामा के ये उपदेश केन्याई जनता को आतंकवाद का हौव्वा दिखाकर पूंजी खासकर अमेरिकी पूंजी के लिए अधिकाधिक रास्ता साफ करना है। 
    ओबामा की यात्रा का अगला पड़ाव इथोपिया है। इथोपिया की अर्थव्यवस्था की विकास दर 10 प्रतिशत रहने की संभावना व्यक्त की जा रही है। यह विकास  दर संसाधनों व श्रम की अंधाधुंध लूट के साथ भुखमरी, गृहयुद्ध के हालातों के साथ निरंकुश तानाशाही के दम पर हासिल की जा रही है। ऐसे में ओबामा का अफ्रीका के प्रति प्यार उमड़ना स्वाभाविक है। 
ग्रीस संकट: जनमत संग्रह को ताक पर रख नये कटौती कार्यक्रमों की घोषणा
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
ग्रीस की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था में यूरोपीय यूनियन, यूरोपियन बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा और कटौती कार्यक्रम लागू करने की शर्त पर ही आगे कर्ज दिये जाने की पेशकश की गयी थी। इससे पूर्व 30 जून को आई.एम.एफ. का कर्ज न चुका पाने के चलते ग्रीस को पहले ही डिफाल्ट घोषित किया जा चुका था। ऐसी परिस्थति में ग्रीस की सीरिजा सरकार ने 5 जुलाई को और कटौती कार्यक्रमों पर जनमत संग्रह की घोषणा कर दी थी। 5 जुलाई के जनमत संग्रह में ग्रीस की जनता ने ‘न’ का बटन दबाकर कटौती कार्यक्रमों को और लागू करने से इंकार कर दिया था।
पर अभी 5 जुलाई के कटौती कार्यक्रमों की ‘न’ के जनता के निर्णय का ग्रीस का जनता जश्न मना ही रही थी कि ग्रीस के शासकों ने जनमत संग्रह को ताक पर रख यूरोपीय यूनियन के सम्मुख नये कटौती कार्यक्रमों को स्वीकृति दे दी। 5 जुलाई के जनमत संग्रह में जनता की ‘न’ ने वामपंथी चोला पहने सीरिजा की असलियत को सबके सामने उजागर कर दिया।
एक घोर दक्षिणपंथी पार्टी के सहयोग से कायम सीरिजा सरकार के पुराने वित्तमंत्री से इस्तीफा दिलवा नये वित्तमंत्री को बैठाया गया। ग्रीस के सभी प्रमुख पूंजीवादी दलों की बैठक में यूरोपीय यूनियन से और ऋण मांगने का प्रस्ताव तैयार किया गया। जब यूरोपीय यूनियन ने बगैर कटौती कार्यक्रमों के और ऋण देने से इंकार कर दिया तो 9 जुलाई को ग्रीस की सीरिजा सरकार ने नये कटौती कार्यक्रमों पर अपनी स्वीकृति दे दी। इस तरह ग्रीस के शासकों ने यूरोपीय यूनियन के आगे घुटने टेक दिये।
नये कटौती कार्यक्रमों में मूल्य संवर्धित कर (वैट) को सकल घरेलू उत्पाद के 1 प्रतिशत तक बढ़ाने का वायदा किया गया है। वैट की दर को उच्चतम 23 प्रतिशत तक पहुंचा दिया जायेगा। ग्रीस वैट की दरों को पर्यटन केन्द्र द्वीपों पर भी बढ़ायेगा। पेंशन सुधारों में दिसम्बर 2019 में गरीब पेंशनधारियों को दी जाने वाली अतिरिक्त सहायता समाप्त कर दी जायेगी। 2022 तक रिटायरमेंट की उम्र 67 वर्ष तक बढ़ा दी जायेगी। कारपोरेशन टैक्स बढ़ाकर 28 प्रतिशत कर दिया जायेगा। ग्रीस सैन्य खर्च में 2015 में 10 करोड़ यूरो व 2016 में 20 करोड़ यूरो की कटौती करेगा। यह निजीकरण को बढ़ावा देते हुए सरकारी सम्पत्तियों जिसमें हवाई अड्डे व बंदरगाह शामिल हैं, का निजीकरण करेगा। ये सभी कटौती कार्यक्रम 13 अरब यूरो की सरकारी बचत पैदा करेंगे।
इस सबके बदले ग्रीस अगले 3 वर्षों तक 53.5 अरब यूरो के ऋण की मांग ऋणदाताओं से कर रहा है। मोटे तौर पर यूरोपीय यूनियन और ग्रीस के नेताओं में इस प्रस्ताव पर सहमति बन चुकी है जिस पर औपचारिक हस्ताक्षर 12 जुलाई को कर दिये जायेंगे। इस सहमति का ही परिणाम था कि डांवाडोल चल रहे यूरोप के शेयर बाजाार 9 जुलाई की दोपहर बाद अचानक चढ़ने लग गये।
हालांकि कटौती कार्यक्रमों पर सीरिजा के बीच एक राय नहीं है। उसके ऊर्जा मंत्री पैन गिओटिस लाफाजनिस ने खुलेआम कटौती कार्यक्रमों के खिलाफ आवाज बुलंद की है। सीरिजा के भीतर इनके 70 सांसद हैं। इस तरह मौजूदा सरकारी कदम से सीरिजा के इस धड़े के टूट कर बाहर आने की संभावना पैदा हो गयी है। हालांकि प्रधानमंत्री अलेक्सिस सिप्रास की सत्ता को फिलहाल इसलिए खतरा नहीं है कि बाकी दक्षिणपंथी पूंजीवादी पार्टियां अपने समर्थन से उन्हें सत्ता में बनाये रखेंगी। दरअसल बाकी पूंजीवादी पार्टियों को सहमत करके ही प्रधानमंत्री ने यह कदम उठाया है।
ग्रीस की संसदीय कम्युनिस्ट पार्टी ने प्रस्तावित कार्यक्रमों का तीव्र विरोध किया है और इसके खिलाफ जनगोलबंदी की शुरूआत कर दी है।
ग्रीस की सीरिजा सरकार के इस कदम ने पूंजीवादी लोकतंत्र की असलियत को एक बार फिर सबके सामने ला दिया। इसने दिखा दिया कि किसी भी संकट काल में पूंजीपतियों के लिए जनता की राय का कोई मतलब नहीं होता और वे अपनी खुली नंगी तानाशाही लागू कर जनता के सामने सत्ता अपने हाथ में होने का मतलब समझाते हैं।
ग्रीस का मौजूदा संकट इन कटौती कार्यक्रमों से हल हो जायेगा इसमें भारी संदेह है।
ग्रीस के मौजूदा संकट का एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है। विकसित देश ग्रीस की अर्थव्यवस्था 90 के दशक से ही संकट में घिरती रही हैै। ग्रीस में लाभदायक निवेश 90 के दशक की शुरूआत से ही मुश्किल होने लगा था। ऐसी परिस्थिति में ग्रीस के पूंजीपतियों ने अपनी सरकार से छूटों, टैक्स की कम दरों के रूप में सब्सिडी की मांग की। इसके लिए ग्रीस के राजनेताओं को बड़े पैमाने पर घूस भी दी गयी। सरकारों ने पूंजीपतियों की इस मांग को बढ़ चढ़कर पूरा किया साथ ही उनके द्वारा आंकड़ों में की गयी हेराफेरी से ग्रीस की अर्थव्यवस्था में छिपा संकट छुपता गया।
इस कमजोर और भ्रष्ट ग्रीस की अर्थव्यवस्था ने जब यूरोपीय यूनियन में शामिल होकर यूरो मुद्रा को अपना लिया तो एक तरह से तभी ग्रीस के वर्तमान संकट की भूमिका तैयार हो गयी थी। यूरो मुद्रा अपनाते ही ग्रीस फ्रांस व जर्मन की मजबूत अर्थव्यवस्थाओं के साथ एक नाव में बैठ गया। ऐसे में ग्रीस के बैंकों से लेकर कम्पनियों तक में फ्रांस-जर्मनी का हस्तक्षेप बढ़ता चला गया। ग्रीस की कमाई का एक हिस्सा इन देशों में चला जाने लगा।
ग्रीस की सरकार यूरोपीय यूनियन से मिले कर्जे से भारी भरकम खर्च करती रही और अपने ऊपर ऋण का बोझ बढ़ाती गयी। बजट घाटा और सरकारी ऋण तेजी से बढ़ता गया। फ्रांस व जर्मनी की पूंजी ने ग्रीस के सरकारी बांडों में निवेश कर सरकार को खर्च के लिए धन की आपूर्ति जारी रखी। इस तरह ग्रीस का पूंजीवाद 2000 के दशक के बूम तक जा पहुंचा जहां इसकी अर्थव्यवस्था का खोखलापन छिपा रहा।
यह सब कुछ इसी तरह कुछ और समय तक जारी रह सकता था यदि 2008 के विश्व आर्थिक संकट ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में न ले लिया होता। अमेरिका से शुरू हुए इस संकट ने शीघ्र की यूरोजोन के बैंकों व कम्पनियों को तुरन्त खतरे में डाल दिया। अचानक सकल घरेलू उत्पाद के 120 प्रतिशत कर्ज वाली व 15 प्रतिशत बजट घाटे वाली ग्रीस की अर्थव्यवस्था अपने सरकारी खर्च निकालने की स्थिति में भी नहीं रह गयी। इस बीच आंकड़ों की हेराफेरी भी उजागर होती गयी और यह तथ्य सबके सामने आ गया कि ग्रीस की स्थिति जितनी दिख रही है उससे कहीं ज्यादा गम्भीर है।
अब ग्रीस के आगे इसके अलावा कोई रास्ता नहीं रह गया कि वह यूरोपीय यूनियन, आई.एम.एफ. से कर्ज ले अपना सरकारी खर्च चलाये। ग्रीस को यह कर्ज जनता की सुविधायें बरकरार रखने के लिए नहीं दिया गया बल्कि यह इसलिए दिया गया कि जर्मन व फ्रेंच बैंक ग्रीस के सरकारी बांडों में लगा अपना पैसा खींच सकें और ग्रीस के उद्योगों में उनका निवेश जारी रहे। पहले बेल आउट कर्ज के समय से ही यूरोपीय यूनियन ने घोषित कर दिया कि सभी विदेशी बैंकों, विदेशी पूंजीपतियों के सभी निवेशों को इससे चुकाया जायेगा और इस सबका बोझ ग्रीस सरकार के खाते में जायेगा। इस तरह दरअसल ग्रीस को बेल आउट के जरिये फ्रांस-जर्मनी के पूंजीपतियों का निवेश उनके पास लौट गया और अब ग्रीस की सरकार पर यूरोपीय यूनियन व आईएमएफ का कर्ज लद गया।
इन कदमों के साथ ग्रीस की सरकार पर कटौती कार्यक्रमों को लेकर दबाव बनाया गया। अगले कुछ वर्षों में ग्रीस का सकल घरेलू उत्पाद 25 प्रतिशत गिर गया। लोगों की आय और पेंशनों में 40 प्रतिशत की गिरावट हो गयी। बेरोजगारी दर 27 प्रतिशत तक जा पहुंची। ग्रीस का बजट घाटा 2009 में 15.6 प्रतिशत से घट कर 2014 में 2.5 प्रतिशत रह गया। लगभग 2.5 लाख सरकारी नौकरियां खत्म हो गयी। रिटायरमेंट की उम्र बढ़ा दी गयी।
पर ये सारे कटौती कार्यक्रम भी ग्रीस की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं ला पाये। सुधरने के बजाय ग्रीस की अर्थव्यवस्था भारी मंदी में फंस गयी। निर्यात सुधर नहीं रहा था और कटौती कार्यक्रमों से घरेलू मांग भी घट गयी।
ग्रीस पर मौजूदा लगभग 200 अरब यूरो का कर्ज ग्रीस सरकार किसी भी स्थिति में चुकाने की हालत में नहीं है। इसका 75 प्रतिशत यूरोजोन की ऋणदाता संस्थाओं, यूरोपीय सेण्ट्रल बैंक व आईएमएफ का है। हालत यहां पहुंच गयी कि पुराने कर्जों को चुकाने के लिए ग्रीस को नये ऋणों की आवश्यकता है। कटौती कार्यक्रमों को अब और तेजी से लागू कर के भी कुछ खास हासिल करने की संभावना कम ही है।
ग्रीस की अर्थव्यवस्था के इस संकट की स्थिति से निकलने के पूंजीवादी दायरे में दो दिशायें हैं। पहली दिशा वह है जिस पर सीरिजा सरकार जनमत संग्रह को धता बताकर चल रही है। वह है कटौती कार्यक्रम लागू करते हुए ग्रीस में पूंजीवादी उत्पादन को लाभदायक स्थिति में लाना। विदेशी निवेश को बढ़ाते हुए अपनी अर्थव्यवस्था में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर का ऋणात्मक से धनात्मक में लाना। तब तक पुराने ऋण चुकाने के लिए नये कर्ज लेना व बजट घाटे को शून्य के स्तर पर लाना। अब तक ग्रीस इसी दिशा में आगे बढ़ा है पर यह तरीका कुछ खास कारगर नहीं हुआ है बल्कि इससे उसका संकट और गहराने की ओर ही गया है।
दूसरा रास्ता है जो कीन्स के सुझायी राह को दिखलाता है। इसके लिए ग्रीस को यूरोपीय यूनियन व यूरो जोन से बाहर आना होेगा और सरकार को अपनी नई मुद्रा जारी कर पुराने कर्जों की अदायगी को स्थगित करना होगा। फिर सरकार को अपने खर्च बढ़ा ग्रीस के उद्योगों को इतनी गति देनी होगी कि वे वैश्विक प्रतियोगिता में टिक सकें। यूरोपीय यूनियन इस हल को अभी तक नकारता रहा है हालांकि आईएमएफ को इस हल से कोई खास एतराज नहीं है। यूरोपीय यूरनियन के इस हल को न अपनाने का कारण यही है कि ग्रीस की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था के साथ फ्रांस-जर्मनी के बैंको-कम्पनियों के हित जुड़े हैं। ऐसे में अगर ग्रीस की स्थिति और बिगड़ेगी तो फ्रांस-जर्मनी अपनी अर्थव्यवस्था पर खतरा मोल लेने की स्थिति में नहीं हैं। इस हल का एक अन्य कोण से भी असफल होने का खतरा है वह यह कि ग्रीस की सरकार को इस सबके लिए अपनी नई मुद्रा का अवमूल्यन करना होगा परन्तु उसे कर्ज यूरो में ही चुकाना होगा। ऐसे में इस कर्ज को चुकाने के लिए उसे भारी मात्रा में यूरो हासिल करना होगा जो कि संरक्षित अर्थव्यवस्था में केवल निर्यात के जरिये हासिल करना नामुमकिन होगा। इस तरह कर्ज चुकाने में यह रास्ता भी खास मददगार नहीं होगा।
ग्रीस का संकट दुनिया भर में जारी विश्व आर्थिक संकट के गहराने के लिए एक खतरनाक घंटी का भी काम कर सकता है। पिछले दिनों चीनी शेयर बाजारों के साथ दुनिया के अन्य शेयर बाजारों ने भारी गोता लगाया है। चीन में तो शेयरों की खरीद बेच तक को रोक देना पड़ा। इसलिए इस खतरे से बचने के लिए ग्रीस को यूरोपीय यूनियन में किसी भी कीमत पर बनाये रखने के लिए दोनों पक्षों के पूंजीवादी शासक प्रयास कर रहे हैं। पर इस सबसे खतरा केवल कुछ समय के लिए स्थगित होगा पर वह दुनिया के शेयर बाजारों में चल रहे बूम को कभी भी तेज झटके से नीचे धकेलने की ही नई तैयारी साबित होगा।
ग्रीस की मेहनतकश जनता के सामने इस स्थिति से निकलने का एक ही रास्ता है। यह रास्ता पूंजीवाद के खात्मे व समाजवाद की स्थापना का है। ग्रीस की मेहनतकश जनता को जनमत संग्रह पर खुशी मनाने के बजाय समाजवादी क्रांति की तैयारी की ओर बढ़ना होगा। ग्रीस की समाजवादी क्रांति ग्रीस को न केवल यूरोपीय यूनियन के चंगुल से बाहर लायेगी बल्कि वह न्यायसंगत ढंग से सभी कर्जों की अदायगी से इंकार कर देगी।

ग्रीस ने दुनिया के इतिहाास में एक समय अग्रणी भूमिका अदा की है। इसे लोकतंत्र की जन्मभूमि कहा जाता है। मौजूदा जनमत संग्रह में भी ग्रीस की जनता ने कटौती कार्यक्रमों को ‘न’ कह बाकी दुनिया की जनता को कटौती कार्यक्रमों के खिलाफ खड़े होने की राह दिखायी है। अब ग्रीस की जनता को आगे बढ़ना है और अपने देश में समाजवादी क्रांति कर बाकी दुनिया की जनता को राह दिखलानी है।  
चार्लस्टन नरसंहारः अमरीकी साम्राज्यवाद की जारी रंगभेद नीति का परिणाम
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
17 जून को दक्षिण कैरोलिना प्रांत में चार्लस्टन स्थित अफ्रीकी-अमरीकी चर्च पर हुआ हमला कोई आकस्मिक घटना नहीं है बल्कि यह पूर्वनियोजित नस्लीय हमला है। यह नस्लीय आतंकवाद है। यह नस्लीय नरसंहार है। यह चर्च ऐतिहासिक तौर पर काले लोगों के संघर्ष का प्रतीक है। इस हमले में 9 काले लोगों का हत्यारा डिलम स्टार्म रूफ नाम का 21 वर्षीय एक गौरा नौजवान था जो विचारधारात्मक तौर पर गोरा नस्लवादी था और वह उत्पीडि़त अफ्रीकी-अमरीकी लोगों की संघर्ष की लम्बी परम्परा और अपने उत्पीड़कों के विरुद्ध लड़ने में मदर इमानुएल अफ्रीकी मेथोडिस्ट इपिस्कोपल चर्च (ए.एम.ई.) की शानदार परम्परा से अच्छी तरह से परिचित था। इस गोरे नस्लवादी हत्यारे ने एक जमाने की रंगभेदकारी दक्षिण अफ्रीका और रोडेशिया (आज का जिम्बाम्बे) की हुकूमत के प्रतीकों वाली जैकेट पहनी हुई थी।
उसने इस चर्च को नरसंहार का निशाना इसलिए बनाया क्योंकि इस चर्च का गुलामी के विरुद्ध प्रतिरोध का एक शानदार इतिहास रहा है। दक्षिण कैरोलिना के लोगों की अमरीकी गृहयुद्ध और पुर्ननिर्माण काल से गुलामी प्रथा और अलग-थलग रखने के बावजूद राजनीतिक गतिविधियों में लगे रहने की संघर्षशील परम्परा रही है। इस बात को इमानुएल एएमई चर्च के इतिहास से समझा जा सकता है।
उन्नीसवीं सदी की शुरूवात में ही गुलामी प्रथा के विरुद्ध प्रतिरोध के दौरान इमानुएल चर्च विकसित हुआ था। इसके सह-संस्थापक टेलेमाॅक थे जिनको डेनमार्क वेसे के लोकप्रिय नाम से ज्यादा जाना जाता है।
डेनमार्क वेसे ने 1822 में चार्लस्टन में एक बड़ा गुलाम विद्रोह करने की योजना बनायी थी। उनकी इस योजना ने समूचे दक्षिण में और संयुक्त राज्य अमेरिका के गुलाम रखने वाले अन्य क्षेत्रों में अमरीकी गृहयुद्ध के दौरान गोरे मालिकों के अंदर कंपकंपी पैदा कर दी थी। गुलाम मालिकों ने डेनमार्क वेसे पर बेहद गोपनीय तरीके से मुकदमा चला कर फांसी पर लटका दिया था और उनके द्वारा स्थापित चर्च को तहस-नहस कर दिया था। इसके बाद काफी दिनों तक चर्च भूमिगत होकर काम करता रहा। दुबारा खुलकर यह अमरीकी गृहयुद्ध के बाद ही स्थापित हो पाया।
यह कहा जाता है कि वेसे द्वारा संगठित किये गये अफ्रीकी लोगों ने बड़े-बड़े खेतों की फसलों को जलाने और गुलाम मालिकों की हत्या करने की योजना बनायी थी। यह करने के बाद वे सभी गुलामों को हैती में बसाने की योजना बना चुके थे। हैती ऐसा स्वतंत्र काले लोगों का देश था जो 1822 में अस्तित्व में आ गया था। उनकी इस योजना का पता गुलामी प्रथा चलाने वाले शासकों को चल गया था। इसके परिणामस्वरूप उनकी गिरफ्तारी हो गयी और गुप्त मुकदमा चलाकर पहले उनके सहित 35 लोगों को फांसी दे दी गयी। बाद में कुछ और लोगों को फांसी पर लटका दिया गया।
17 जून को हुई आतंकवाद की यह कार्रवाई डेनमार्क वेसे की उपरोक्त योजना का उस समय के शासक वर्ग के सामने खुलासा होने की 193वीं वर्षगांठ के ठीक एक दिन बाद हुई है। इससे अफ्रीकी-अमरीकी लोगों और आमतौर पर प्रगतिशील शक्तियों के बीच व्यापक गुस्सा फैल गया है। गुलामी का प्रतीक झंडा जिस कनफेडरेट झंडा कहा जाता है, अभी तक वहां की प्रांतीय सरकार के कार्यालय पर लहराता रहा है। इस आतंकवादी कार्रवाई के बाद व्यापक विरोध को देखते हुए वहां के गवर्नर ने गुलामी के प्रतीक कनफेडरेट झंडे को उतारने का आदेश दे दिया है।
इस आतंकवादी कुकृत्य के बाद कारपोरेट मीडिया ने इसे ढंकने और कमतर करने की कोशिश की। पूंजीवादी राजनीतिज्ञों के, गोरे लोगों के बीच उदारपंथियों के ऐसे बयान आने लगे जो यह बताते थे कि चर्च पर हुए हमले से उनको दुख और धक्का लगा है। वे यहां तक आश्चर्य व्यक्त करते हुए दिखाये गये कि दक्षिण कैरोलिना जैसे प्रांत में ऐसी घटना हुई है। कुछ पूंजीवादी अखबारों में इसे एक पागल व सनकी की कार्रवाई करार दिया। दक्षिण कैरोलिना के गवर्नर ने इस प्रांत के लोगों को एक-दूसरे से प्यार करने वाले समुदाय के बतौर चित्रित किया।
जबकि दक्षिणा कैरोलिना प्रांत में गुलामी प्रथा का लम्बा इतिहास रहा है। यहां पर जिम क्रो कानून लागू था। यहां नस्लीय पूंजीवाद रहा है और अफ्रीकी-अमरीकी लोगों के विरुद्ध यहां आतंकवादी हिंसा होती रही है। 17 जून को आतंकवादी हिंसा के शिकार लोग पुलिस और न्यायालयों द्वारा अपनायी गयी व्यवस्थाजन्य नस्लवाद से भले न मरे हों, यह भी हो सकता है कि वे किसी संगठित षड्यंत्र के भी शिकार न हुए हों, तब भी उनकी हत्यायें आकस्मिक नहीं हैं।
यह नरसंहार दक्षिण कैरोलिना के ऐसे माहौल में हुआ है जहां वहां की राज्य सरकार द्वारा अपनी इमारत के सामने मैदान में गुलामी के प्रतीक झंडे को फहराना सामान्य बात रही है। इस राज्य की पुलिस कू क्लक्स क्लान के साथ घुली मिली रहती है और इस गिरोह के सदस्यों से भरती करती रहती है।
यह नरसंहार ऐसे माहौल में हुआ है जहां कारपोरेट मीडिया अफ्रीकी-अमरीकी नौजवानों को अपने नेटवर्क और केबिल टी.वी. पर ‘ठगों और गुण्डों’ के रूप में दिखाता रहता है। इस माहौल में जहां पुलिस बल इस बात का प्रदर्शन करते रहते हैं कि उनको काले और अन्य रंग के लोगों की हत्या करने का अधिकार मिल जाये और इन हत्याओं की जांच न हो। यह नरसंहार ऐसे माहौल में हुआ है जहां गुलामी प्रथा के समाप्त होने की घोषणा होेने के 150 वर्ष बाद भी प्रचारतंत्र (दृश्य और लिखित) नस्लवादी फिकरों से भरा रहता है।
यदि पूंजीवादी मीडिया की यह बात स्वीकार भी कर ली जाय कि हत्यारा मानसिक तौर पर विक्षिप्त व सनकी था तो भी इसका जवाब यही होगा कि उसकी मानसिक विक्षिप्तता या सनकीपन के स्वभाव का निर्माण नस्लवाद के माहौल में हुआ है। इसीलिए इस सनकी ने एक समय की नस्लवादी दक्षिण अफ्रीका और रोडेशिया की सरकारों के प्रतीक वाली जैकेट पहनी हुयी थी। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, वह ऐसी भद्दी-भद्दी नस्लवादी गालियां दे रहा था जिनका इस्तेमाल काले लोगों के विरुद्ध सदियों से होता रहा है।
इसलिए यह महज एक विक्षिप्त व सनकी नौजवान का कुकृत्य नहीं है बल्कि अमरीकी शासक वर्ग के भीतर गहराई तक जड़ जमाये हुए नस्लवादी नीति का परिणाम है। इस नस्लवादी नीति में काले लोगों के बीच से शासक वर्ग में शामिल कुछ काले लोग भी आ जाते हैं। ऐसे लोग अफ्रीकी-अमरीकी लोगों के बीच की काली भेडे़ं हैं और इनका स्वार्थ अमरीकी साम्राज्यवादी शासक वर्ग के साथ नाभिनालबद्ध है।
फरगुसन, मो, बाल्टीमोर, ओकलैण्ड और काफ के उत्पीडि़त समुदाय के काले लोग पुलिस नृशंसता के शिकार हुए हैं। उन्होंने इस पुलिस नृशंसता के विरुद्ध साहस के साथ आवाज बुलंद की है और प्रतिरोध किया है। जब भी वे लोग पुलिस नृशंसता, नस्लवाद और पूंजीवादी व्यवस्था का विरोध करते हैं तो पूंजीवादी प्रचार मीडिया उनको ठग, दंगेबाज और गुण्डे के बतौर सामूहिक तौर पर चित्रित करता है। लेकिन इस गोरे नस्लवादी हत्यारे को वह ‘‘अकेला भेडिया’’ कह रहा है और उसे ‘‘मानसिक तौर पर बीमार’’ बता रहा है।
पूंजीवादी मीडिया का ऐसा चित्रण भी भेदभाव भरा है। नस्लवाद का खात्मा अमरीकी पूंजीवाद के खात्मे के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। अमरीकी पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में सिर्फ अफ्रीकी-अमरीकी लोग ही नहीं आते बल्कि सारे मेहनतकश लोग आते हैं वे चाहे गोरे हों, हिस्पानी हों या अन्य रंग के लोग हों।
    हाल में यह बढ़ती एकजुटता ही नस्लवाद के खात्मे के लिए संघर्ष को ताकत दे सकती है। 
ब्रिटेनः कटौती कार्यक्रमों के खिलाफ हजारों लोगों ने किया प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
ब्रिटेन की कंजरवेटिव सरकार के प्रधानमंत्री डेविड केमरून द्वारा लागू किये जा रहे कटौती कार्यक्रमों के विरोध में 20 जून को ब्रिटेन में हजारों लोगों ने प्रदर्शन किया। कुछ आंकड़ों के अनुसार यह संख्या 70,000 से 1,50,000 के बीच है तो कुछ के अनुसार यह 2,50,000 तक हो सकती है। ब्रिटेन में चुनाव हुए अभी 44 दिन ही बीते हैं जिसमें डेविड केमरून को बहुमत मिला है और चुनाव के तुरन्त बाद ही उन्होंने कटौती कार्यक्रमों की घोषणा कर दी है।
इन कटौती कार्यक्रमों के तहत सार्वजनिक क्षेत्र में कटौती, असहाय लोगों का इलाज व कल्याणकारी मदों में कटौती और शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी सेवाओं का निजीकरण किया जाना है। जाहिर है कि ऐसा होने से एक बड़ी आबादी के लिए संकट पैदा हो जायेगा। हालांकि ऐसा नहीं है कि यह कटौती अभी की जा रही है। यह कटौती लम्बे समय से धीरे-धीरे हो रही है जिसे लोग महसूस भी कर रहे हैं। लेकिन अब इससे आगे बढ़कर लोगों को ये सुविधायें उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी से भी सरकार अपने हाथ खींचना चाहती है तथा इन सेवाओं को निजी हाथों में देकर पूंजीपतियों को भारी मुनाफा कमाने के लिए मौका दे रही है।
कटौती कार्यक्रमों के खिलाफ हुए इस प्रदर्शन में भांति-भांति के लोग, पार्टियां, संगठन शामिल रहे। इनमें विपक्षी पार्टियां भी थीं जो एक समय खुद सत्ता में रह चुकी हैं तथा इन्हीं नीतियों को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार रही हैं। आज इन प्रदर्शनों में शामिल होकर वे अपने खोये हुए जनाधार को प्राप्त करना चाहती हैं तो वहीं इनके जरिये सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर खुद सत्ता प्राप्त करना चाहती हैं। इन प्रदर्शनों में शामिल अभिनेता-अभिनेत्री भी शामिल हैं और यहां भी ये अपना रोल बखूबी निभा रहे हैं तथा पहले के कल्याणकारी राज्य की दुहाई देते हैं और इसे और ज्यादा सही करना चाहते हैं। इन प्रदर्शनों में अराजकतावादी भी शामिल हैं जो केवल ध्वंस चाहते हैं। वे उन जगहों को खत्म करना चाहते हैं जहां धनी लोग रहते हैं। इन प्रदर्शनों का निशाना बैंक आॅफ इंग्लैण्ड भी था जिसके बाहर इन्होंने प्रदर्शन किया। पिछले समय में जिस तरह सरकार ने बैंकों को ‘बेल आउट पैकेज’ देकर बचाया और आम लोगों को दी जा रही सब्सिडी में कटौती की उससे लोगों में बैंकों के प्रति खासा आक्रोश है।
इन प्रदर्शनों में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो मेहनतकश हैं लेकिन इनका नेतृत्व इन प्रदर्शनों में नहीं है। और इसलिए ये लोग अभी नेताओं-अभिनेताओं के पीछे चलने के लिए मजबूर हैं। लेकिन इनकी आबादी इतनी ज्यादा है और दबाव इतना है कि इनकी मांगों को उठाये बिना काम भी नहीं चल सकता। इनकी समस्याओं का हल कल्याणकारी राज्य में नहीं बल्कि समाजवाद में है, इस बात को लेबर पार्टी के नेता ने उठाया। उसने कहा कि ऐसा राज्य जो सभी की जिम्मेदारी उठाये, समाजवाद ही हो सकता है लेकिन इस पार्टी की दिक्कत यह है कि यह खुद मजदूर वर्ग से गद्दारी कर चुकी है और संशोधनवादी हो चुकी है।
पूंजीवाद के एक दौर में दुनिया में कायम हुए कल्याणकारी राज्य आज खात्मे की ओर हैं। ब्रिटेन में भी यह इसी का एक हिस्सा है। इस प्रदर्शन में जो लोग नेतृत्व में हैं वे फिर से उसी कल्याणकारी राज्य की वापसी चाहते हैं। लेकिन आज पूंजी के सामने संकट यह है कि उसके लिए निवेश का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें वह निवेश हो सके। और उसके निवेश व मुनाफे के लिए अब वही क्षेत्र बचते हैं जो कल्याणकारी राज्य का आधार हैं। ऐसे में अब यह संघर्ष चाहे-अनचाहे पूंजी के साथ जाकर टकराता है। आज के समय में अगर नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथों में रहता है जो केवल कल्याणकारी राज्य की वापसी चाहते हैं या फिर येन-केन प्रकारेण इसी व्यवस्था में बदलाव तक सीमित होते हैं तो यह संभव नहीं है। और इस बात को इस प्रदर्शन के एक सप्ताह बाद ही कैमरून की सरकार ने अगले पांच वर्षों में 1 लाख रोजगारों की छंटनी होने की घोषणा कर साबित कर दिया। यह छंटनी शिक्षा, बैंक, बीमा, खुदरा कारोबार, खान आदि में होगी। यह छंटनी कैमरून के इस झूठ कि पिछले सात वर्षों में बेरोजगारी की दर अपने सबसे नीचे स्तर 5.5 तक आ गयी है, की पोल भी खोल देता है।
ऐसे धूर्त नेताओं से तो मजदूर वर्ग का क्रांतिकारी नेतृत्व ही निपट सकता है।
ग्रीस का असमाधेय संकट
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
ग्रीस का आर्थिक संकट गहराता ही जा रहा है। वह एक तरह से अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ), यूरोपीयन सेण्ट्रल बैंक की शर्तों के मकड़जाल में फंस चुका है। ग्रीस के शासक इस मकड़जाल से बाहर निकलने के सही व ठीक उपाय करने के बजाय लगातार ऐसे काम कर रहे हैं कि ग्रीस कभी इससे बाहर न निकल पाये। और शायद उनके बस में कुछ बचा भी नहीं है।
ग्रीस के गहराते संकट के बीच सत्तारूढ़ पार्टी सिरिजा के नेता व प्रधानमंत्री एलेक्सिस सिप्रास ने पांच जुलाई को राहत पैकेज की शर्तों पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा करके एक बेहद घृणित चाल चली। इस जनमत संग्रह में यदि जनता राहत पैकेज के पक्ष में मतदान करती है तो इसकी शर्तों को मानने के लिए खुद जिम्मेवार होगी और यदि वह विरोध में मतदान करती है तो ग्रीस के दिवालिया होने, यूरोजोन से बाहर निकलने आदि परिणामों के लिए भी उसे ही शासक दोषी ठहरायेंगे। ग्रीस को इस असमाधेय संकट में धकेलने वाले शासक अब जब ग्रीस हर तरफ से घिर गया है तब इस हालात की जिम्मेदारी आम जनता के कंधों पर डालकर पाक साफ निकल जाना चाहते हैं।
हालिया संकट यह है कि 30 जून को आईएमएफ के कर्ज की एक किस्त चुकाने के लिए उसे 1.5 अरब यूरो चाहिए। ग्रीस चाहता था कि 30 जून की तारीख को छः माह के लिए आगे बढ़ा दिया जाय जिसके लिए यूरोजोन के वित्तमंत्री तैयार नहीं हुये। वे चाहते हैं कि ग्रीस अपने पेंशनों सहित सामाजिक मदों में कटौती करे और टैक्स की दरों में वृद्धि करे।
ग्रीस की हालत इस समय यह है कि वह भयानक मंदी का शिकार है। बेरोजगारी चरम पर है। आम जनता की क्रय शक्ति एकदम गिरी हुयी है। राहत पैकेज की शर्तें मानने पर इस सब में और वृद्धि होनी है। और यदि वह यूरोजोन से बाहर आता है तब भी उसके हालात ठीक हो जायेंगे इसकी कोई संभावना नहीं है।
बैंक आॅफ ग्रीस के अनुरूप यदि ग्रीस यूरोजोन से बाहर निकलता है तो उसकी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में साख बेहद गिर जायेगी, ग्रीसवासियों की बचत का अवमूल्यन हो जायेगा, मंदी और बेरोजगारी बेहद बढ़ जायेगी व आमदनी में तेज गिरावट होगी।
इस तरह ग्रीस की हालत सांप-छछूंदर सरीखी हो गयी है। वह यूरोजोन में रहे तो और बुरे हालात में फंसेगा और बाहर निकले तो फंसेगा।
कर्ज चुकाने में असफल रहने पर ग्रीस के दिवालिया होने का खतरा मंडरा रहा है। ऐसी स्थिति में ग्रीस का संकट यूरोपीय यूनियन से लेकर पूरी दुनिया में फैल जायेगा। पहले से ही संकटग्रस्त विश्व अर्थव्यवस्था में सबसे तेज व ज्यादा नुकसान वित्तपतियों को होगा। शेयर बाजार लड़खड़ा जायेंगे और संकट से बाहर निकलने की संभावना काफी कम हो जायेगी हालात और निराशाजनक हो जायेंगे।
ग्रीस के संकट का प्रसार न हो इसके लिए यूरोप व दुनिया के वित्तपति वह सब कुछ करेंगे जो वह कर सकते हैं। कम से कम वे इतना तो कर ही सकते हैं कि ग्रीस के कर्ज लौटाने के समय को सामूहिक निर्णय लेकर आगे बढ़ा देें। तात्कालिक रूप से ऐसा करने से वह उस संकट से बच जायेंगे जो सम्मुख खड़ा है, परन्तु यही हालात कुछ समय बाद फिर आ जायेंगे जब कर्ज की किस्त चुकानी होगी। ऐसे में वे अपनी शर्तें फिर थोपेंगे और फिर ग्रीस ऐसा ही कुछ करेगा जैसा अभी कर रहा है।
एक समस्या जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं व वित्तपतियों के माथे पर बल डाल रही है कि यदि ग्रीस यूरोजोन से बाहर चला गया तो वह यूरोपीय यूनियन व यूरोजोन को खतरे में डाल देगा। ग्रीस रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सट सकता है। और इससे भी बढ़कर परम्परागत पार्टियों से क्षुब्ध और निराश होकर ग्रीस की जनता या तो कम्युनिज्म की ओर या फिर धुर दक्षिणपंथी पार्टी गोल्डेन डाॅन की ओर आकर्षित हो सकती है।
ग्रीस का संकट लगातार असमाधेय बना हुआ है। उसकी गुत्थी न तो यूरोजोन के नेताओं और न ही ग्रीस के शासकों से सुलझ रही है। स्थिति दिनों दिन खतरनाक होती जा रही है।

यूरोपीय यूनियन ने रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध बढ़ाया
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
यूरोपीय यूनियन ने रूस के खिलाफ अपने आर्थिक प्रतिबंध को 6 माह के लिए और बढ़ा दिया है। ब्र्रुसेल्स में 28 घटक देशों ने इस बात पर अपनी मुहर लगा दी है। ये प्रतिबंध पिछले वर्ष जुलाई में यूक्रेन में मलेशिया एयरलाइंस के एम-एच-17 विमान को गिराये जाने के बाद रूस पर थोपे गये थे। इनका उद्देश्य रूस के तेल निर्यात को कम करना और यूरोपीय बैंकों से रूस को मिलने वाले ऋण को रोकना था। चूंकि यूरोपीय यूनियन रूस का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है, इसलिए इन प्रतिबंधों ने पिछले वर्ष रूबल के लुढ़कने में बड़ी भूमिका निभाई थी।
अब ये प्रतिबंध नाटो व पश्चिमी साम्राज्यवाद द्वारा समर्थित यूक्रेन की कीव सत्ता व रूस समर्थित अलगाववादियों के बीच जारी संघर्ष में रूस को कमजोर करने की मंशा से लगाये गये हैं। ये प्रतिबंध फिलहाल अगले वर्ष जनवरी तक लगाये गये हैं।
यूक्रेन को पश्चिमी साम्राज्यवादी अपने पाले में लाना चाहते हैं जबकि रूसी साम्राज्यवादी उनकी इस राह में बाधा बन कर खड़े हैं। दोनों साम्राज्यवादी ताकतों के हस्तक्षेप का यूक्रेनी जनता दुष्परिणाम भुगत रही है। यूक्रेन में छिड़ा गृहयुद्ध जनता की मुश्किलें बढ़ाये हुए है। ऐसे में अमेरिका के नेतृत्व में यूक्रेन में जब अमेरिका समर्थित सरकार बैठा दी गयी तब इस मसले ने गम्भीर रूप धारण कर लिया। रूस ने अमेरिकी हरकत का विरोध करते हुए क्रीमिया पर अपना न केवल दावा ठोंक दिया बल्कि उसे अपने में मिला भी लिया और सीमावर्ती इलाके पर अलगाववादी गतिविधियों को बढ़ावा भी देना शुरू कर दिया। यूक्रेन की अमेरिका समर्थित कीव सरकार इन ताकतों को कुचलने के नाम पर देश को गृहयुद्ध की स्थिति में ले गयी। इस संघर्ष में रूस को कमजोर करने के लिए पहले अमेरिका व फिर यूरोपीय यूनियन ने ढेरों प्रतिबंध रूस पर थोप दिये। पश्चिमी व रूसी साम्राज्यवादियों का यूक्रेन पर वर्चस्व को लेकर प्राक्सी युद्ध अभी भी जारी है। इस बीच तेल की गिरती कीमतों व प्रतिबंधों के चलते रूसी अर्थव्यवस्था बड़े संकट में फंस चुकी है।
आज अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी युक्रेनी फौजों को सीधे हथियार मुहैय्या करा रहे हैं। जहां एक ओर अमेरिकी साम्राज्यवादी हवाई हमलों के जरिये युद्ध में उतरने की रूस को खुलेआम धमकी दे रहे हैं वहीं दूसरी ओर वे यूरोपीय यूनियन के जरिये रूस पर प्रतिबंध थोपने का इंतजाम कर रूस की अर्थव्यवस्था को चौपट करने के मंसूबे पाल रहे हैं। उनके अनुमान के मुताबिक रूसी अर्थव्यवस्था 2 वर्ष से अधिक इन प्रतिबंधों को नहीं झेल सकती।
यूरोपीय यूनियन के देश रूस पर प्रतिबंध थोप न केवल रूस को बल्कि अपनी अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। यूरोपीय यूनियन के देशों के पूंजीपति वर्ग का एक हिस्सा इन प्रतिबंधों में अपने नुकसान के मद्देनजर इनकी आलोचना भी कर रहा है। खुद फ्रांस, इटली के नेता इन प्रतिबंधों को खत्म किये जाने की वकालत करते रहे हैं। पर यूरोपीय यूनियन के नेता अमेरिकी साम्राज्यवादियों को भी नाराज नहीं करना चाहते इसीलिए अमेरिकी दबाव में वे प्रतिबंध बढ़ाने पर राजी हुए हैं।

इस परिस्थिति में चीनी शासक व चीनी बैंक ही रूसी अर्थव्यवस्था को बचाने में मदद कर सकते हैं। पिछले समय में चीन का निवेश व व्यापार रूस से बढ़ा भी है। इन आर्थिक प्रतिबंधों से रूसी अर्थव्यवस्था को खतरे में डाल पश्चिमी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अड़ चुके रूस को पीछे धकेलना चाहते हैं। पश्चिमी साम्राज्यवादियों व अमेरिकी शासकों की साम्राज्यवादी इच्छायें रूस, यूक्रेन के साथ यूरोप के तमाम देशों की जनता के दुःख तकलीफों को भी बढ़ा रही हैं।
मुमिया अबू जमालः अमरीकी साम्राज्यवाद के न चाहने के बावजूद जिंदा है
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    मुमिया अबू जमाल शायद दुनिया का सर्वाधिक जाना जाने वाला राजनैतिक बंदी है। वे संयुक्त राज्य अमेरिका के फिलाडेल्फिया स्थित एक पुलिस अधिकारी की हत्या के आरोप में बंदी हैं। वे ऐसे आरोप के कारण जेल में हैं जो सरासर गलत है।
    अमरीकी साम्राज्यवादी अधिकारी उनकी आवाज को हमेशा के लिए चुप कर देना चाहते थे। एक बार उन्होंने कहा था ‘‘राज्य मुझे माइक्रोफोन के बजाय एक बंदूक देना चाहेगा।’’ अबू जमाल की यह टिप्पणी ही बता देती है कि क्यों उन्हें जेल के नरक में इतने लम्बे समय से डाल कर रखा गया है। उनकी फांसी की सजा अब रद्द है तब भी लापरवाही के द्वारा उनकी हत्या की जा रही है।
    एक बार उन्होंने जानना चाहा, ‘‘क्या आप कानून और व्यवस्था देखते हो? फिर खुद ही जवाब दिया ‘‘यहां अव्यवस्था के सिवाए कुछ नहीं है और कानून के स्थान पर यहां सुरक्षा का भ्रम है।’’
    ‘‘यह एक भ्रम है क्योंकि इस अन्यायों, नस्लवाद और अपराधिकता और लाखों-लाख लोगों के नरसंहारों के लम्बे इतिहास के आधार पर निर्मित किया गया है। कई लोग कहते हैं कि व्यवस्था का प्रतिरोध करना एक पागलपन है, लेकिन वास्तविकता यह है कि प्रतिरोध न करना ही पागलपन है।’’
    वे टेलीविजन को ‘‘भ्रम की खिड़की’’ कहते हैं वे कहते हैं कारपोरेट मीडिया अफवाहों, गप्पों, कहावतों और झूठों के आधार पर युद्धों की मूसलाधार बारिश करता रहता है।
    बंदी बनाकर उनके साथ नृशंसता बरती जा रही है। करीब तीन दशक से उन्हें उस समय तक तनहाई में रखा गया है। जब एक संघीय अदालत की अपील में यह निर्णय दिया गया कि उन्हें असंवैधानिक रूप से फांसी की सजा दी गयी है। 
    उन्हें ऐसे अपराध के लिए गैर कानूनी तौर पर जेल में डाला गया है जो उन्होंने किया ही नहीं है। इस बात की सम्भावना है कि उनके जीवन की समाप्ति जेल की चारदीवारी के भीतर ही हो जायेगी। यह इस बात का एक ज्वलंत प्रमाण है कि संयुक्त राज्य अमेरिकी राज्य एक निर्मम पुलिस राज्य है जो जनतंत्र के बतौर दिखावा कर रहा है।
    मुमिया अबू जमाल को रिहा कराने के लिए एक अभियान फ्री मुमिया डाॅट काॅम नामक संस्था चला रही है। इस संस्था ने बताया कि किस तरह उन्हें ‘‘डाक्टरी लापरवाही और गलत इलाज’’ द्वारा धीमे-धीमे मारा जा रहा है।
    उनका इतिहास डायबिटीज का ना होने के बावजूद उन्हें 30 मार्च 2015 को बताया गया कि उन्हें डायबिटीज हो गयी है। यह एक बड़ा धक्का था। उन्हें दो दिन के लिए ही अस्पताल में भर्ती किया गया और बीमारी की हालत में फिर जेल वापस भेज दिया गया।
    ‘‘केवल व्यापक दबाव ही उन्हें मौत से बचा सकता है’’। यह उनकी वेबसाइट में कहा गया है। वे इस समय 61 वर्ष के हैं।
    28 मई को मुमिया को आजाद करो आंदोलन की एक मुख्य संगठनकर्ता सुजान रोस ने कई घंटे तक उनसे मुलाकात की। उन्होंने बताया कि उनकी हालत कैसी हैः
    ‘‘ऐसा लगता है कि मुमिया पहले से थोड़ा बेहतर हैं। वे अब 4 घंटे तक की मुलाकात में बात कर सकते हैं। इससे पहले जब मैं मिली थी, उस समय यह मुश्किल था। इस बार यदि मेरी मुलाकात का समय खत्म नहीं हो गया होता तो यह मुलाकात और लम्बी हो सकती थी।’’
    वे व्हील चेयर से चलते हैं। उनके सूजे हुए पैर और टांगें खड़ा होने में बहुत तकलीफ देती हैं। तब भी वे हर रोज 30 मिनट तक टहलते हैं।
    काफी वजन घट जाने के बावजूद वे उस समय से बेहतर दिखाई पड़े जब पिछली बार सुजान रोस उनसे मिली थीं। उनका कुछ वजन बढ़ा है लेकिन अभी भी वे बहुत कमजोर हैं।
    अप्रैल महीने में उनकी त्वचा का रंग बदल गया है और बहुत तकलीफ देह जलन होती थी। यह अत्यंत तकलीफ कम हो गयी है।
    सूजान रोस ने बताया, ‘‘उन्होंने बहुत उत्साहपूर्वक बात की और उनका मिजाज बहुत सकारात्मक था। उन्होंने बताया कि वे मौत के कितना नजदीक थे। उनका विश्वास है कि अंतर्राष्ट्रीय गुस्से ने उन्हें बचाया है। अभी तक उनको जो समर्थन मिला है इसके प्रति वे लगातार अपना आभार व्यक्त कर रहे हैं।
    उन्हें ऐसे पेशेवर मदद की जरूरत है जिसका जेल में मिलना असम्भव है। विशेष तौर पर ऐसे अधिकारियों द्वारा जो उनकी मौत चाहते हैं।
    उन्होंने सुजान रोस को बताया कि जेल के अन्य कैदी उनके साथ बहुत नर्मी और मृदुता से पेश आते हैं। खासकर खड़ा न हो पाने से नहाने में जो तकलीफ होती है, इसमें वे बहुत मदद करते हैं और साथ ही ऐसी ही गतिविधियों में वे असाधारण रूप से मददगार होते हैं। 
    उनकी त्वचा की समस्या के लिए निदानात्मक स्नान की जरूरत है। उनकी डायविटीज की दवा बंद कर दी गयी है, लेकिन चीनी स्तर बताता है कि खराब डाक्टरी सावधानी के कारण उन्हें डाइविटीज के संकट का शिकार होना पड़ा है। 
    एक बार जब दवा रोक दी गयी है तो ऐसा लगता है कि इस बीमारी की दृष्टि से उनमें काफी सुधार आया है। 
    उनकी बायप्सी की रिपोर्ट नकारात्मक है और उसमें बड़ी चेतावनी लिखी हुयी है। चूंकि सभी रिपोर्टें जेल के डाक्टरों द्वारा मौखिक डायग्नोसिस के आधार पर तैयार की गयी हैं और इन रिपोर्टों पर न तो मुमिया, उनकी पत्नी, उनके वकीलों की पहुंच है और न ही ऐसे डाक्टरों की पहुंच है जिनसे सलाह ली जा सके। 
    इसलिए उनके निजी चिकित्सकों के लिए यह असम्भव है कि वे बता सकें कि उनको किस चीज के इलाज की जरूरत है। 
    सुजान रोस कहती हैं कि यह जेल के कायदे-कानूनों का सीधा उल्लंघन है और निंदनीय है। 
    यह मुमिया के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। उनके वकील इस घोर लापरवाही को न्यायालय में चुनौती दे रहे हैं।
    मुमिया की भयंकर बीमारी की हालत में थोड़ा सुधार हुआ है। लेकिन उनके स्वास्थ्य और जीवन-शक्ति को पुनः हासिल करने के लिए अभी लम्बा सफर बाकी है। 
    सुजान रोस ने बताया कि, ‘‘डाइविटीज के तस्वीर की हमारे पास कोई डायग्नोसिस नहीं है, त्वचा की समस्या की कोई डायग्नोसिस नहीं है और सूजे हुए पैरों और टांगों की कोई डायग्नोसिस नहीं है और हमारे पास अस्पताल के कोई रिकार्ड नहीं हैं। 
    ‘‘सबसे महत्वपूर्ण यह है कि मुमिया जेल में हैं, जहां पर वे पूरी तरह से ठीक नहीं हो सकते और उनकी जरूरत के मुताबिक उनका वहां पर ख्याल भी नहीं रखा जा सकता। सर्वप्रथम उनको जेल में होना ही नहीं चाहिए था, लेकिन उनको अब तो हर हालत में रिहा होना चाहिए।’’ सुजान रोस का यह कहना था। 
    मुमिया अबू-जमाल उन हजारों-हजार राजनैतिक बंदियों में एक हैं जो अमरीकी जेलों की नरक में गलत तरीके से डाल दिये गये हैं। यह अमरीकी पुलिस राज्य की नीचता का एक प्रतीक है। 
(ग्लोबल रिसर्च, 4 जून 2015 के स्टीफेन लैण्डमैन के लेख का भावार्थ साभार)  
तुर्की आम चुनाव में एर्डोगेन की हार
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    तुर्की में राष्ट्रपति एर्डोगेन का एकछत्र शासन खतरे में पड़ना शुरू हो गया है। एर्डोगेन की कंजरवेटिव इस्लामिस्ट जस्टिस एंड डेवलपमेण्ट पार्टी (एकेपी) हाल में हुए संसदीय चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी तो बन कर उभरी पर उसने संसद में पूर्ण बहुमत की स्थिति खो दी है।
    अब एकेपी को गठबंधन सरकार बनाने के लिए बाध्य होना पडे़गा। परिणामों से आश्चर्यचकित एर्डोगेन ने सभी पार्टियों से देश को स्थिरता प्रदान करने व अगले चुनावों में न ढकेलने की अपील की है। इस चुनाव में एकेपी व एर्डोगेन ने चुनाव देश को और तानाशाही की ओर ले जाने वाले कदमों को लेकर लड़ा था। एर्डोगेन संविधान संशोधन कर संसद का महत्व घटाने व राष्ट्रपति के अधिकार बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे।
    तुर्की की जनता ने एर्डोगेन के इस प्रस्ताव के खिलाफ मत दिया। इस प्रस्ताव से देश में सामाजिक-राजनैतिक हालात एकछत्र शासन से और बुरे की ओर जाते।
    चुनाव में कुल 86 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाला। चुनाव परिणामों में 550 सीटों की संसद में एकेपी को 41 प्रतिशत वोटों के साथ 258 सीटें प्राप्त हुईं। मुख्य विपक्षी पार्टी केमलिस्ट रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (सीएचपी) को 25 प्रतिशत वोटों के साथ 132 सीटें मिली। दक्षिणपंथी नेशनलिस्ट मूवमेंट पार्टी (एमएचपी) को 16.5 वोटों के साथ 81 सीटें व कुर्दिश पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (एचडीपी) को 13 फीसदी के साथ 79 सीटें प्राप्त हुई।
    एकेपी को अधिकतर प्रान्तों व शहरों में बढ़त मिली जिनमें इस्तनाबुल व अंकारा भी शामिल है। सीएचपी को थे्रस व तटीय शहरों में बढ़त मिली। एमएचपी को अदाना व ओस्मानिए में ज्यादा वोट मिलें। कुर्दिश एचडीपी को दक्षिण पूर्वी गरीब कुर्दिश इलाके में बढ़त मिली।
    2002 में सत्ता में आने के बाद से एकेपी का मत प्रतिशत पहली बार गिरा है। 2011 के चुनाव में उसे 50 प्रतिशत मत व 327 सीटें मिली थीं। एकेपी की यह हार तुर्की के समाज में बढ़ रही गरीबी, बेकारी, सामाजिक असमानता, भ्रष्टाचार का परिणाम है। साथ ही यह सीरिया में अमेरिका समर्थित आतंकी इस्लामी संगठनों को एकेपी के समर्थन के प्रति जनता का नकार भी है। ये इस्लामी आतंकी संगठन सीरिया में असद की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए खड़े किये गये हैं।
    विपक्षी सीएचपी व एमएचपी दोनों ने न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने व तेल की कीमतें घटाने, गरीबों की मदद की राशि बढ़ाने के वायदों पर चुनाव लड़ा। परंतु सीएचपी के मत प्रतिशत में इस चुनाव में कमी आयी वहीं एमएचपी का वोट 3 प्रतिशत बढ़ गया है।
    कुर्दिश पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी खुद को वाम पार्टी के बतौर प्रस्तुत करती रही है। यह ग्रीस की सीरिजा व स्पेन के पोडेमास की तर्ज पर बड़े बदलाव का ख्वाब दिखाती रही है। जून 2013 में गेजी पार्क में विरोध प्रदर्शनों से इसकी लोकप्रियता पेटी बुर्जआ तबकों में तेजी से बढ़ गयी। इस पार्टी ने महिलाओं को 50 प्रतिशत सीटें दे कर भी अपनी लोकप्रियता बढ़ाई। चुनाव में सबसे आश्चर्यजनक सफलता इसी पार्टी को प्राप्त हुई। पहली बार इस पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव लड़ा। इससे पहले तक यह कुर्दिश इलाके से निर्दलीय उम्मीदवार खड़े करती रही थी। तुर्की के संविधान में संसद में किसी पार्टी के प्रतिनिधित्व के लिए न्यूनतम 10 प्रतिशत मत जरूरी होते हैं। इस चुनाव में 13 प्रतिशत मत हासिल कर एचडीपी ने यह प्रतिनिधित्व प्राप्त कर लिया।
    एर्डोगेन के हमलों का सबसे ज्यादा शिकार भी एचडीपी ही हुई। इस पार्टी के नेताओं को आतंकवादी करार दिया गया। दो माह में इस पार्टी के लोगों पर 60 से अधिक हमले हुए।
    हालांकि चुनाव प्रचार में सीएचपी व एचडीपी ने एकेपी से गठबंधन की संभावना से इंकार किया था। पर अब बदली स्थिति में तीनों पार्टियों को या तो अपना गठबंधन बनाना पडे़गा या किसी एक को एकेपी को समर्थन देना पडे़गा। ज्यादा संभावना दूसरी बात की है यानि एकेपी किसी एक का समर्थन ले कर अपनी सत्ता बनाये रखेगी।
    तुर्की में जनसंघर्षों व कुर्दिश अवाम की अलग कुर्दिस्तान की मांग को कुचलने के लिए एर्डोगेन ने तेजी से इस्लामीकरण के साथ आर्थिक सुधारों की राह अपनायी थी। अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई बढ़ती बेकारी के साथ कुर्द जनता का बढ़ता असंतोष पिछले 13 वर्षों के इसके शासन का अनिवार्य परिणाम थे। एर्डोगेन सारी सत्ता अपने साथ में समेटना चाहता था पर जनता ने उसे चुनाव में पटखनी दे हाल फिलहाल उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया है।
विकसित देशों में बढ़ती असमानता
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    विश्वव्यापी आर्थिक संकट जब दुनिया में शुरू हुआ तो दुनिया भर के पूंजीवादी घरानों ने अपने गिरते मुनाफे की भरपाई के लिए जहां अपनी-अपनी सरकारों पर दबाव डाला वहीं खुद मजदूर वर्ग पर हमला भी तेज किया। इसका परिणाम यह निकला कि 2-3 दशकों से उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का शिकार मजदूर वर्ग और कंगाली की ओर जाने लगा। पूंजीपति अपने गिरते मुनाफे का रोना रोते रहे पर वास्तव में संकट का सारा बोझ मजदूर मेहनतकश जनता पर थोप दिया गया। हाल ही में आर्थिक सहयोग एवं विकास के संगठन (OECD) द्वारा जारी रिपोर्ट में इस तथ्य को प्रदर्शित किया गया है कि कैसे विकसित देशों के भीतर असमानता तेजी से बढ़ रही है। साथ ही रिपोर्ट यह भी प्रदर्शित करती है कि कैसे स्थायी कामों की जगह पार्ट टाइम, अस्थाई कामों की मात्रा तेजी से बढ़ी है। ओईसीडी के ये आंकड़े दुनिया की 34 विकसित अर्थव्यवस्थाओं को शामिल करते हैं जिनमें अमेरिका, यूरोपीय यूनियन के सदस्य देश, जापान, कोरिया, मैक्सिको व कुछ अन्य देश शामिल हैं। इस रिपोर्ट की कुछ प्रमुख बातें इस तरह हैं। 
1. 1980 में इन 34 देशों के सबसे धनी 10 फीसदी आबादी सबसे गरीब 10 फीसदी से 7 गुना आय प्राप्त कर रही थी। वर्ष 2000 में यह आय बढ़कर 9गुना और वर्तमान समय में 9.6 गुना हो गयी है। इस तरह असमानता अब तक के सर्वोच्च स्तर पर है। 
2. वर्ष 2012 मे ओईसीडी के 18 देशों में निचली 40 फीसदी आबादी कुल घरेलू सम्पत्ति के 3 फीसदी की मालिक थी जबकि ऊपरी 10 फीसदी आबादी आधी सम्पत्ति की व शीर्ष 1 प्रतिशत आबादी 18 प्रतिशत सम्पत्ति की मालिक थी। 
3. स.रा. अमेरिका असमानता के मामले में चिली, मैक्सिको व तुर्की के बाद चैथे नम्बर का देश है। 1980 के दशक के मध्य में स.रा.अमेरिका में शीर्ष 10 फीसदी कमाऊ लोगों की आय निचले 20 फीसदी लोगों से 11 गुना थी। 1990 के दशक के मध्य में बढ़कर यह 12.5 गुना हो गयी। 2013 में शीर्ष 10 फीसदी निचले 10 फीसदी आबादी से 19 गुना अधिक आय प्राप्त कर रहे थे। 
4. सम्पत्ति की असमानता अमेरिका में आय की असमानता से कहीं अधिक है। शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी कुल सम्पत्ति की 76 प्रतिशत की मालिक है जबकि नीचे की 60 प्रतिशत आबादी महज 2.5 प्रतिशत सम्पत्ति की मालिक है। शीर्ष 5 प्रतिशत आबादी के घरानों की सम्पत्ति औसत सम्पत्ति से 91 गुना अधिक है। 
5. सभी ओईसीडी देशों में शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी 50 फीसदी सम्पत्ति की मालिक है। मध्य के 50 फीसदी आबादी 47 फीसदी सम्पत्ति की मालिक है और नीचे की 40 फीसदी आबादी महज 3 फीसदी सम्पत्ति की मालिक है। 
6. आय की असमानता आर्थिक संकट के बाद तेजी से बढ़ी है। स.रा.अमेरिका में 2007 से 2013 के बीच कुल सम्पत्ति 2.3 फीसदी की औसत से गिरी है। पर यह आबादी के निचले 20 प्रतिशत हिस्सों में 10 गुना अधिक दर (26 फीसदी) से गिरी है। यानी गरीब 20 प्रतिशत आबादी की सम्पत्ति 26 फीसदी कम हुई है। 
7. आय की असमानता स.रा.अमेरिका में सभी देशों में सबसे अधिक है। स.रा.अमेरिका में कुल घरेलू आय कनाडा से 14 प्रतिशत अधिक और जर्मनी, फ्रांस से 25 प्रतिशत अधिक है पर नीचे के 10 फीसदी आबादी की आय अमेरिका में कनाडा से 42 फीसदी नीचे और जर्मनी, फ्रांस से 50 फीसदी नीचे है।
    अमेरिका में 1985 से नीचे की 10 प्रतिशत आबादी की आय 3.3 गिर गयी है। जबकि पूरे देश में औसत आय तबसे 24 फीसदी बढ़ गयी है। 
8. संकट के सर्वाधिक शिकार स्पेन सरीखे देशों में असमानता और तेजी से बढ़ रही है। स्पेन में निचली  10 फीसदी आबादी की आय 2007 से 2011 के बीच 13 प्रतिशत की दर से नीचे गिरी। 
9. आय व सम्पत्ति में असमानता में वृद्धि के साथ पार्ट टाइम काम, स्वरोजगार, अस्थाई ठेके के काम में पिछले 2 दशकों में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। 1995 से 2013 के बीच इन देशों में पैदा हुए रोजगारों का 50 फीसदी इसी श्रेणी का था। इस श्रेणी के लोगों की आय स्थाई मजदूरों से काफी नीचे है।
10. इन देशों में 18 से 34 वर्ष के आय वर्ग के 40 फीसदी नौजवानों पर कोई स्थाई पूर्णकालिक काम नहीं है।
    इस तरह उपरोक्त रिपोर्ट विकसित देशों के भीतर अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई को दिखाती है साथ ही वर्ग संघर्ष के तीखे होने की जमीन को भी इससे ही समझा जा सकता है। 
युद्धाभ्यास माने युद्ध के लिए रहो हमेशा तत्पर
नाटो और रूसी सेनाएं जुटी युद्धाभ्यास में
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    रूस और पश्चिम साम्राज्यवादियों के बीच तनाव कम होने के स्थान पर बढ़ता जा रहा है। इसकी एक बानगी जून माह के प्रथम सप्ताह में सामने आने वाली है। रूस और पश्चिम साम्राज्यवादियों के सैन्य संगठन नाटो उत्तरी ध्रुव (आर्कटिक) के अलग-अलग इलाके में युद्धाभ्यास करने जा रहे हैं। इस इलाके में इतने बड़े पैमाने पर युद्धाभ्यास का शायद यह पहला मौका है। 
    सोवियत संघ के विघटन के बाद से अमेरिकी साम्राज्यवादी रूस का सैन्य घिराव तेजी से करते रहे हैं। शुरू में उन्होंने रूस को अपने मातहत लाने की कोशिशें भी की थी परन्तु उसमें कामयाब नहीं रहे। नब्बे के दशक के मध्य के बाद से एक-एक करके कई देश जो कि पहले वारसा पैक्ट के सदस्य थे नाटो के सदस्य बनाये। हंगरी, चेक गणराज्य, पोलैण्ड, बुल्गारिया, रोमानिया, लातविया, इस्तोनिया, लिथुआनिया, स्लोवानिया, स्लोवाकिया आदि देश इस सदी के प्रारम्भ में नाटो के सदस्य बनाये गये। नाटो का यह विस्तार और ढेरों पूर्वी यूरोप के देशों को यूरोपीयन यूनियन में शामिल करने ने रूसी साम्राज्यवादियों को बचाव से आक्रामक मुद्रा में आने को मजबूर किया। पिछले समय में जार्जिया, यूक्रेन आदि ऐसे मसले रहे हैं जिनमें रूसी व पश्चिम साम्राज्यवादियों ने अपने हितों के लिए इन देशों का विभाजन तक करवा दिया। 
    यूक्रेन संकट को हल करने के लिए पिछले दिनों रूसी, फ्रांसीसी और जर्मन के राष्ट्र प्रमुखों के बीच लम्बी वार्ता के बाद युद्ध विराम के लिए सहमति बनी परन्तु तनाव बरकरार रहा। अमेरिकी व अन्य पश्चिम साम्राज्यवादियों द्वारा रूस पर लगाये गये विभिन्न किस्म के प्रतिबंध अभी जारी हैं। 
    इस तनाव की पृष्ठभूमि में ही दोनों पक्षों के युद्धाभ्यास को देखा जा सकता है। दोनों ही पक्षों के युद्धाभ्यास किस व्यापक पैमाने पर हो रहे हैं। इसका अनुमान कुछ तथ्यों से लगाया जा सकता है। 
    संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, नार्वे, नीदरलैण्ड सहित तीन गैर नाटो सदस्य स्वीडन, स्विटजरलैण्ड, फिनलैण्ड 1 जून से आर्कटिक में होने वाले सैन्य अभ्यास में हिस्सा लेंगे। यह अभ्यास पांच जून तक चलेगा। 
    पश्चिम साम्राज्यवादियों के इस सैन्य अभ्यास में 100 जेट फाइटर और 4000 सैनिक हिस्सा लेंगे। रूसी साम्राज्यवादियों के चार दिवसीय सैन्य अभ्यास में 12,000 सैनिकों सहित 250 लड़ाकू विमान और अन्य भारी साजो सामान वाले वाहन हिस्सा लेंगे। 
    पश्चिम और रूसी साम्राज्यवादी इस तरह कई सैन्य अभ्यास हाल के दिनों में कर चुके हैं। ये अभ्यास अपनी सैन्य मशीनरी को चुस्त-दुरूस्त बनाये रखने से ज्यादा कूटनीतिक महत्व रखते हैं। सैन्य क्षमता का प्रदर्शन जहां अपने-अपने देशों में शासकों के लिए अंधराष्ट्रवाद भड़काने व सम्भावित शत्रुओं के खिलाफ लामबंदी का जरिया भी बन जाता है। 
    रूसी साम्राज्यवादी भी कम नहीं हैं। इन्होंने चीनी नौ सेना के साथ मिलकर 10 दिन का अभ्यास भूमध्य सागर में मई के तीसरे चौथे हफ्ते में किया। इसी तरह के एक सैन्य अभ्यास रूस की सेनाओं ने किरगिस्तान और ताजिकिस्तान के साथ किया। 
    नाटो और अमेरिका की सेनाओं ने बिल्कुल हाल में ही जार्जिया और यूक्रेन की सेनाओं के साथ मिलकर सैन्य अभ्यास किये हैं। 
    रूसी साम्राज्यवादी नाटो को अपने लिए सबसे बड़ा सैन्य खतरा बताता है और यह ठीक भी है। 
    रूसी साम्राज्यवादी और पश्चिमी साम्राज्यवादियों के बीच सीरिया, यमन, ईरान, यूक्रेन, उत्तरी कोरिया आदि कई मामलों में मतभेद मौजूद हैं। इन मतभेदों के बावजूद अभी इनके बीच सैन्य टकराव की हाल फिलहाल कोई सम्भावना नहीं है। भारी तनाव के बावजूद इनके सम्बन्धों में मोल-तोल के साथ सांठ-गांठ के सम्बन्ध ही प्रमुख बने हुए हैं। सैन्य अभ्यास भावी कलह की स्थिति के लिए पूर्व में की जा रही तैयारियां है इससे भला कौन इंकार कर सकता है। 
बुरूण्डी में असफल तख्ता पलट के बाद राजनैतिक संकट
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    बुरूण्डी में मौजूदा राष्ट्रपति पियरे न्क्रून्जीजा के तीसरी बार राष्ट्रपति के चुनाव में भागीदारी को लेकर चल रहे संघर्ष में हाल-फिलहाल राष्ट्रपति विजयी मुद्रा में है। संकट अभी समाप्त नहीं हुआ और राष्ट्रपति किसी भी कीमत पर तीसरी बार राष्ट्रपति बनना चाहते हैं। 
    पियरे न्क्रून्जीजा के खिलाफ मई माह के शुरू में सेना के एक जरनल गोडीफ्रोड नियोम्बारे के नेतृत्व में तख्तापलट की कोशिश हुयी थी जिसे राष्ट्रपति के वफादार सेनाओं ने भीषण रक्तपात युद्ध में असफल कर दिया। विद्रोही सैन्य अफसरों और सैनिकों को अपनी हार स्वीकार कर आत्मसमर्पण करना पड़ा। इस तख्ता पलट के साथ इस बात की भारी सम्भावना मौजूद थी कि बुरूण्डी पुनः 2006 के पहले के दौर में पहुंच जाये। 2006 में 13 साल लम्बा चला गृहयुद्ध बमुश्किल से समाप्त हुआ था। इस गृहयुद्ध में तीन लाख से अधिक लोग मारे गये थे और लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा था। 
    वर्तमान राजनैतिक संकट राष्ट्रपति के तीसरी बार चुनाव में खड़े होने के फैसले के साथ शुरू हुआ। बुरूण्डी के 2005 संविधान के अनुसार राष्ट्रपति दो बार से अधिक बार चुनाव नहीं लड़ सकता है। वर्तमान राष्ट्रपति अपने चुनाव में खड़े होने को इस आधार पर सही ठहराते हैं कि 2005 में उन्हें सीधे जनता ने नहीं बल्कि संसद ने चुना था। मई माह के अंत में बुरूण्डी के सर्वोच्च न्यायालय ने उनके पक्ष में फैसला भी सुना दिया। हालांकि विरोधी दल इस बात का आरोप लगा रहे हैं कि न्यायालय के ऊपर दबाव बनाया गया। एक न्यायाधीश देश से बाहर चले गये और अन्यों को मौत की धमकी दी गयी थी। 
    राष्ट्रपति के चुनाव में खड़े होने का विपक्षी पार्टियों, सेना के एक हिस्से और पश्चिम साम्राज्यवादियों द्वारा खासा विरोध किया गया। बुरूण्डी पर औपनिवेशिक शासन करने वाले देश बेल्जियम और यूरोपीयन यूनियन का कई तरह से दबाव बनाया। चुनाव के लिए दी जाने वाली 20 लाख डालर की सहायता को रोक दिया गया। राष्ट्रपति को जून माह में संसद और राष्ट्रपति के चुनाव के लिए खर्च होने वाले धन के लिए आम जनता से सहायता की अपील करनी पड़ी। 
    राष्ट्रपति के चुनाव लड़ने के फैसले के बाद बुरूण्डी में विपक्षी पार्टियों के नेतृत्व में व्यापक विरोध शुरू हो गया था। ऐसे ही मौके के फायदा उठाकर सेना के कुछ जरनलों ने तख्ता पलट की कोशिश की थी जो कि राष्ट्रपति द्वारा असफल कर दी गयी। 
    सैन्य तख्तापलट की कोशिशों के नाकाम होने के बावजूद बुरूण्डी की राजधानी बुजुम्बटा में जन प्रदर्शन रुक नहीं रहे हैं। पुलिस प्रदर्शनकारियों का दमन कर रही है। एक माह से चल रहे इन प्रदर्शनों में 30 से अधिक लोग मारे गये हैं और कई हजार देश से पलायन कर गये हैं। बुरूण्डी में 5 जून को संसदीय और 26 जून को राष्ट्रपति के चुनाव होने हैं। 
    बुरूण्डी दुनिया के सबसे गरीब देशों में एक है। दुनिया का यह दूसरे नम्बर का गरीब देश है। करीब एक करोड़ की आबादी वाले देश में 85 फीसदी आबादी हुतु और 14 फीसदी तुत्सी कबीले के लोगों की है। 13 वर्ष लम्बा चला गृहयुद्ध इन्हीं के बीच था जिसमें तीन लाख लोग मारे गये थे। हुतु बहुसंख्यक आबादी वाले देश में गृहयुद्ध के पूर्व के समय से तुत्सी प्रभुत्व वाली सेना। 2006 के बाद से सेना का पुनर्गठन हुआ और हुतु कबीले को भी सेना में पर्याप्त स्थान दिया गया। 
    राष्ट्रपति स्वयं अपने को एक मसीहा के रूप में पेश करते रहे हैं और सत्तारूढ़ पार्टी सीएनडीडी- एफडीडी को ईश्वर के द्वारा बुरूण्डी को दिया गया उपहार बताते हैं। यह उनकी बुरूण्डी में लम्बे समय तक शासन करने की मंशा को उजागर कर देता है। बुरूण्डी में विपक्षी पार्टियां और मानवाधिकार समूह पश्चिम साम्राज्यवादियों के सहयोग व समर्थन से राष्ट्रपति को हटाना चाहते हैं। बुरूण्डी की जनता व सेना में राष्ट्रपति का आधार बना हुआ है इसलिए वह भी अपने फैसले पर कायम है। पड़ौसी देश सत्ता और विपक्ष के बीच का कोई रास्ता निकालने का प्रयास कर रहे हैं। फिलहाल वे इसमें कामयाब नहीं हो पाये हैं। 
ब्रिटेन में कैमरन की जीत
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    ब्रिटेन में हुए आम चुनाव में दक्षिणपंथी पार्टी कंजरवेटिव पार्टी ने अपने नेता और वर्तमान प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया। डेविड कैमरन की इस जीत ने चुनाव पूर्व हुए सर्वेक्षणों को गलत साबित कर दिया। अधिकांश का अनुमान था कि वर्ष 2010 की तरह इस बार भी गठबंधन की सरकार अस्तित्व में आयेगी। 
    डेविड कैमरन की पार्टी को 650 सदस्यीय हाउस आॅफ काॅमंस (भारत की लोकसभा की तरह) में 331 सीटें मिलीं। मुख्य विपक्षी पार्टी लेबर पार्टी को लगातार दूसरे आम चुनाव में पराजय मिली। उसे पिछली बार से भी 26 सीटें कम मिलीं। पर सबसे बुरा हाल लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी का हुआ। उसे मात्र आठ सीटें मिलीं जबकि उसे पिछली बार 54 सीटें मिली थीं। 2010 में वह तीसरी बड़ी पार्टी थी। इस बार अलग स्वतंत्र स्काटलैण्ड की मांग करने वाली स्काटिश नेशनल पार्टी तीसरी बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। 
    स्काटिश नेशनल पार्टी को 56 सीटें मिली हैं। उसे स्काटलैण्ड की 59 सीटों में से 56 सीटें मिलीं। चुनाव  परिणाम ने साफ तौर पर दिखा दिया कि स्काटलैण्ड पूरे ब्रिटेन से अलग ढंग से चुनाव पर प्रतिक्रिया दे रहा था। यद्यपि कुछ समय पूर्व हुए जनमत संग्रह में बहुमत ने ब्रिटेन के साथ ही रहने के पक्ष में मत दिया था। जीत से उत्साहित स्काटिश नेशनल पार्टी फिर एक बार जनमत संग्रह की मांग को उठाना चाहती है। 
    एक तरफ स्काटलैण्ड में ब्रिटेन से अलग होने की चाहत है तो दूसरी तरफ ब्रिटेन में यह मांग प्रबल है कि वह यूरोपीयन यूनियन से अपने आपको अलग कर ले। यूरोपीयन यूनियन से अलग होने के लिए डेविड कैमरन ने जनमत संग्रह कराने का वादा चुनावों के दौरान किया था। चुने जाने के बाद कैमरन अपने वादे को पूरा करने की बात कर रहे हैं। स्काटलैण्ड और वेल्स को और अधिक अधिकार देने की बात कर कैमरन स्काटलैण्डवासियों में अलगाव की भावना को शांत करना चाहते हैं। ब्रिटेन का यूरोपीयन यूनियन से बाहर आना इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि वह ब्रिटेन का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। 
    कैमरन की जीत का असर विपक्षी पार्टियों पर पड़ा कि लेबर पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ऐड मिलिबैंड, लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता निक क्लेग, यूकेआईपी के नेता नाइजेल फराज को मुखिया पद से इस्तीफा देना पड़ा। 
    कैमरन का चुनाव ब्रिटेन में ऐसे समय में हो रहा था जब ब्रिटेन मंदी के दौर से बाहर आने के लिए छटपटा रहा है परन्तु वह सारे प्रयासों के बावजूद निकल नहीं पा रहा है। 2007 से शुरू हुए विश्व आर्थिक संकट के दौर में ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था न केवल निम्न विकास दर की शिकार रही है बल्कि वह इस बीच में कई बार सिकुड़ भी चुकी है। इस वर्ष की पहली तिमाही में उसके सकल घरेलू उत्पाद की दर महज 0.3 फीसदी रही है। ब्रिटेन में इस चुनाव के साथ यह आशा भारत की तरह जोड़ी जा रही है कि गठबंधन सरकार के दबाव से मुक्त होकर स्थायी व पूर्ण बहुमत वाली सरकार तेजी से निर्णय लेकर ब्रिटेन को आर्थिक मंदी के दौर से बाहर निकालेगी। लेकिन लगता है भारत में मोदी की तरह ब्रिटेन के शासकों की यह इच्छा गहराते यूरोपीयन संकट के बीच दिवास्वप्न साबित होगी। 
    ब्रिटेन में बेरोजगारी की दर उच्च है। वह वर्ष 2013 में 7.5 प्रतिशत से ऊपर रही है। गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों की तादाद में वृद्धि हुयी है। बढ़ती सामाजिक असमानता समाज में नित नये तनावों को जन्म दे रही है। इसकी एक अभिव्यक्ति स्काटलैण्ड के अलगाव की मांग के रूप में तो दूसरी धुर दक्षिणपंथी व नव नाजीवादी ताकतों के उभार के रूप में दिखती है जो ब्रिटेन की समस्याओं के लिए अप्रवासियों को जिम्मेदार ठहराते हैं। कैमरन की जीत में ब्रिटेन के समाज में बढ़ते दक्षिणपंथ का एक बड़ा हाथ है। जाहिर है कैमरन की जीत से दक्षिणपंथ के हौंसले बुलंद हुए हैं। 
ब्रिक्स बैंक की स्थापनाः  बहुध्रुवीय दुनिया की कवायद तेज
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    ब्राजील, रूस, भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका जिन्हें संक्षेप में ब्रिक्स (BRICS) देश कहा जाता है, ने संयुक्त तौर पर 100 अरब डालर की पूंजी के साथ ब्रिक्स बैंक की स्थापना की है। इस बैंक का नाम नव विकास बैंक (न्यू डवलपमेंट बैंक- एनडीबी) होगा। 
    ब्रिक्स बैंक के लिए प्रारम्भिक 100 अरब डालर की पूंजी को ब्रिक्स देशों व इनके सहयोगियों द्वारा जुटाया जायेगा। ब्राजील, चीन, रूस, भारत व दक्षिण अफ्रीका सभी 10 अरब का योगदान व्यक्तिगत तौर पर करते हुए कुल 50 अरब डालर की बैंक पूंजी जुटायेंगे। इस बैंक में शामिल होने वाले अन्य देशों के द्वारा शेष 50 अरब डालर की पूंजी जुटाई जायेगी। इसी तरह कुल 100 अरब डालर का मुद्रा कोष (करेंसी फंड) भी जुटाया जायेगा। इस मुद्रा कोष हेतु 41 अरब डालर चीन, 18 अरब डालर भारत, 18 अरब डालर ब्राजील, 18 अरब डालर रूस व 5 अरब डालर दक्षिण अफ्रीका योगदान करेगा। 
    इस प्रकार ब्रिक्स देशों द्वारा विश्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के समानान्तर ब्रिक्स बैंक व ब्रिक्स मुद्रा कोष की स्थापना दरअसल उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं द्वारा पश्चिमी साम्राज्यवादियों के वर्चस्व को चुनौती देते हुए वैश्विक मूल्य विनियोग में अपनी हिस्सेदारी रखने की कवायद के बतौर देखा जा सकता है। 
    विश्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की तुलना में नवजात ब्रिक्स बैंक की हैसियत अभी काफी कमजोर है। विश्व बैंक की कुल परिसम्पत्तियां 490 अरब डालर हैं। इसके 180 सदस्य देश हैं। इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की कुल परिसम्पत्तियां 300 अरब डालर हैं और इसके 182 सदस्य देश हैं। इसी तरह एशियाई विकास बैंक की कुल परिसम्पत्तियां 122 अरब डालर हैं तथा इसके 67 सदस्य देश हैं। जाहिर है कि इन वित्तीय संस्थाओं खासकर विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुकाबले ब्रिक्स बैंक की पंूंजी का आकार छोटा है लेकिन यह बहुत ज्यादा कम भी नहीं है। वैसे भी यह इसकी शुरूआत मात्र है। 
    ब्रिक्स देशों की सम्मिलित रूप में हैसियत अमेरिका व यूरोपीय यूनियन के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में पेश हो रही है। ब्रिक्स देशों में विश्व की कुल जनसंख्या का 42 प्रतिशत निवास करती है। वैश्विक स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 20 प्रतिशत है। वैश्विक पूंजी निवेश में ब्रिक्स देशों की 11 प्रतिशत हिस्सेदारी है। ब्रिक्स देशों के बीच 614 खरब डालर का व्यापार होता है जो कि विश्व के समस्त व्यापार का 17 प्रतिशत है। 
    जुलाई 2014 में ब्रिक्स देशों के बीच एक संयुक्त बैंक की स्थापना पर सहमति बनी थी। इस बैंक की स्थापना घोषित आधारभूत ढांचे के विकास हेतु पूंजी जुटाना था। लेकिन इसका असली उद्देश्य इन उभरते हुए पूंजीवादी देशों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों खासकर एशिया, अफ्रीका व दक्षिण अमेरिकी देशों में पूंजी निर्यात कर यहां से अमेरिकी साम्राज्यवादियों को बेदखल कर अपना वित्तीय प्रभुत्व स्थापित करना है। 
    ब्रिक्स बैंक का कार्यालय शंघाई (चीन) में स्थापित होगा जबकि इसके पहले प्रमुख भारतीय बैंकर के.वी. कामत होंगे। कामत 1996 से 2009 तक भारत के सबसे बड़े निजी क्षेत्र के बैंक आई.सी.आई.सी.आई. के प्रमुख रह चुके हैं। पांच साल बाद ब्रिक्स बैंक के कार्यकारी प्रमुख क्रमशः ब्राजील व रूस होंगे। 
    इस तरह ब्रिक्स बैंक की स्थापना दुनिया में अमेरिकी व यूरोपीय साम्राज्यवादियों के घटते वर्चस्व को तो दिखाता है साथ ही यह वैश्विक स्तर पर नए ध्रुवों के निर्माण की प्रक्रिया को तेज करेगा। 
    उपरोक्त से बढ़कर यह ब्रिक्स देशों की साम्राज्यवादी ताकत बनने की महत्वाकांक्षा का भी प्रतीक है। रूस जोकि स्वयं एक साम्राज्यवादी शक्ति है वह अपनी खोयी हुयी हैसियत के लिए पिछले एक दशक से पुरजोर कोशिश कर रहा है। चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका सशक्त क्षेत्रीय ताकत व साम्राज्यवादी शक्ति बनना चाहते हैं। रूस और चीन सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं। भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका इसके लिए प्रयासरत रहे हैं। ब्रिक्स बैंक की स्थापना कर वह उस परिस्थिति को शामिल कर लेना चाहते हैं जिसके जरिये वे एक तो सामूहिक सौदेबाजी कर सकें और दूसरी तरफ किसी आर्थिक संकट के समय विश्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव से मुक्त रहें।
भारतीय मीडिया को नेपाली जनता का पत्र
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
प्रति 
भारतीय मीडिया
    मैं अपने दिल की गहराइयों से मेरे देश को संकट के वक्त आपके देश द्वारा की गयी मदद के लिए धन्यवाद देना चाहती हूं। सभी नेपाली जो देश के भीतर हैं या बाहर हैं, आपके देश के प्रति शुक्रगुजार हैं। 
    मैं एक ऐसी नेपाली होने के बावजूद जो अपनी मातृभूमि से दूर हूं, जब आपकी खबरें व रिपोर्टें देखती हूं तो मेरा हृदय चीत्कार उठता है और उससे ज्यादा घायल होता है जितना 7.9 रिक्टर स्केल के भूकम्प की तबाही से हुआ था। जैसा कि सभी मेडिकल पर्सनलों को भविष्य की आपदा के लिए सिखाया व प्रशिक्षित किया जाता है मैं सोचती हूं कि एक पत्रकार को भी किसी किस्म का प्रशिक्षण दिया जाता होगा कि  अलग-अलग घटनाओें की कैसी रिपोर्टिंग करनी चाहिए। आपका मीडिया व मीडिया के लोग इस तरह व्यवहार कर रहे हैं मानो वह किसी पारिवारिक सीरियल की शूटिंग कर रहे हों। अगर आपकी मीडिया के लोग ऐसी जगहों तक पहुंच सकते हैं जहां राहत सामग्री नहीं पहुंची है तो इस संकट के समय क्या उन्हें अपने साथ प्राथमिक उपचार किट, कुछ भोजन सामग्री नहीं ले जानी चाहिए। 
    एक खबरिया रिपोर्ट प्रसारित की जाती है जहां एक पत्रकार यह दिखाता है कि कैसे लोग भोजन के लिए लड़ रहे हैं और एक महिला बुरी तरह से घायल हो गयी है। ऐसे पत्रकार का धन्यवाद है जिसके पास पीडि़त महिला को थामने और उसके पास कैमरा लाकर यह दिखलाने का पर्याप्त समय है कि महिला का सिर बुरी तरह घायल है, पर कितना आश्चर्यजनक है कि उसके पास एक मिनट का भी समय नहीं है कि वह एक कपड़ा बांध कर महिला का खून बहना रोक दे। उस पत्रकार के पास एक मिनट का भी समय नहीं है कि वह उस व्यक्ति की कलाई पकड़ ले जो दूसरों को अपने हेलमेट से पीट रहा है। निश्चय ही वहां एक कैमरामैन है जो एक सेकण्ड को भी कैमरे को छोड़ना नहीं चाहता ताकि इस नाटकीय खबर को दिखाया जा सके। मैं सोेचती हूं कि आप एक मीडिया के व्यक्ति होने से पहलेे एक इंसान हैं। एक जिम्मेदार व्यक्ति होने के नाते यह आपका कर्तव्य है कि किसी को बचायें। 
    अगला वहां एक पत्रकार था जिसके पास राहतकर्मियों से तकनीक के बारे में पूछताछ करने का पर्याप्त वक्त था। अगर आप घटना स्थल पर किसी की जिन्दगी बचा नहीं सकते तो क्या आप कृपया दूसरों के काम में रुकावट डालना बन्द नहीं कर सकते? ऐसा लगता है कि वह पत्रकार तकनीक की दुनिया में नया है। एक ऐसा शो जिसमें तकनीक का उद्घाटन किया जा रहा हो उसके लिए वह बेहतर मेजबान हो सकता है। उन ढेरों पत्रकारों का धन्यवाद है जो भारत से बचाव विमान के जरिये आये, आपने एक सीट ली जहां एक पीडि़त अस्पताल/स्वास्थ्य केन्द्र तक पहुंचाया जा सकता था। सभी पत्रकारों का धन्यवाद कि आपने एक सीट ली जहां भोजन का एक बैग और सप्लाई रखी जा सकती थी और बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों में भेजी जा सकती थी। 
    एक इंसान होने के नाते अपनी मानवता दिखाइये। इस टेलीविजन की दुनिया में ऐसे पर्याप्त कार्यक्रम हैं जहां लोग नाटकीय शो, पारिवारिक सीरियल, हारर शो और बकवास रियलिटी शो देख सकते हैं। आपको इस संकट के समय इसमें और नया कुछ नहीं जोड़ना चाहिए। 
उन सभी मीडिया के व्यक्तियों के लिए संदेश जो इस समय नेपाल में हैं- 
    आपका कर्तव्य एक पत्रकार होने के नाते केवल दृश्यों की तस्वीरें खींचना या लोगों का इंटरव्यू लेना नहीं है। अगर आपकी पहुंच भूकम्प से बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों तक है तो कृपया कुछ प्राथमिक उपचार पेटी अपने साथ ले जाइये, कुछ भोजन सप्लाई, टेन्ट और पानी अपने साथ ले जाइये। आपको यह नहीं दिखाना है कि कैसे सरकार वहां सप्लाई भेजने में असमर्थ है। कम से कम जब आप वहां पहुंच सकते हैं तो क्यों नहीं आप एक टीम बन जाते हैं। हम नेपाली लोग पहले ही यह देख चुके हैं और इतने वर्षों में अनुभव कर चुके हैं कि हमारी सरकारें कितनी कमजोर और स्वार्थी हैं। कम से कम हर किसी को अपना इंसान होने का कर्तव्य निभाना चाहिए। 
    मीडिया एक ताकत है अगर उसे सावधानी पूर्वक इस्तेमाल किया जाए। अन्यथा यह एक हथियार की तरह है जो हजारों निर्दोषों लोगों को मारता है। 
    मैं उम्मीद करती हूं कि मेरा संदेश वहां मौजूद सभी पत्रकारों तक पहुंच जायेगा। धन्यवाद
                                सुनीता शाक्य 
                                                 (साभारः www.hastakshep.com अनुवाद हमारा) 
नूरसुल्तान एक बार फिर बने कजाकिस्तान के राष्ट्रपति
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    कजाकिस्तान में हुए राष्ट्रपति चुनाव में वर्तमान राष्ट्रपति नूर सुल्तान नेज्राबेयेव पुनः विजयी हो गये। कजाकिस्तान में 95 फीसदी मतदाताओं ने चुनाव में अपने मत डाले ओैर इसमें से नूरसुल्तान नेज्राबेयेव को 97.7 फीसदी मत प्राप्त हुए। 
    नूरसुल्तान नेज्राबेयेव सोवियत संघ के विघटन के बाद से ही कजाकिस्तान के राष्ट्रपति हैं और हर बार चुनाव में उन्हें ऐसी ही सफलता मिलती रही है। 
    कजाकिस्तान का वर्तमान चुनाव एक मामले में सामान्य चुनाव नहीं था। वर्षों से नहीं बल्कि दशकों (सोवियत संघ के पतन से पहले) से सत्ता संभाल रहे वर्तमान राष्ट्रपति ने यह चुनाव तय समय से एक वर्ण पहले ही करवा दिये। और उन्होंने ऐसा तब किया जबकि उनकी राजनैतिक सत्ता को कहीं से कोई चुनौती नहीं मिल रही थी। कजाकिस्तान में विपक्षी पार्टियां प्रभावहीन और आधारहीन हैं। नूर सुल्तान का शासन ऐसा रहा है जिसमें किसी भी किस्म के विरोधी या अन्य विचार को स्थान नहीं मिलता रहा है। इस चुनाव को समय पूर्व कराने की वजह गहराते आर्थिक संकट को राजनैतिक संकट में रोकने की कवायद है। 
    पूरी दुनिया में ऐसे शासकों के खिलाफ मानवाधिकार, लोकतंत्र का हल्ला मचाने वाले पश्चिमी साम्राज्यवादी देश और उनके पोषित गैर सरकारी संगठन और मीडिया नूरसुल्तान के विरुद्ध कोई विषवमन नहीं करता रहा है। इसके मुकाबले हाल में ही उसके यूक्रेन के चुने गये रूसी समर्थक राष्ट्रपति के खिलाफ वर्ष 2014 में अंधराष्ट्रवादी, फासीवादी तत्वों और गैर सरकारी संगठनों के जरिये एक विद्रोह ही प्रायोजित करवा दिया था। कजाकिस्तान में ऐसा नहीं करने की मुख्य वजह वहां तेल व खनिज सम्पदा पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों की ठीक पहुंच का होना है। 
    नूरसुल्तान का शासन अपने चरित्र में वैसा ही रहा है जैसा मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक का रहा है। 2007 में उन्होंने एक संवैधानिक सुधार के जरिये इस बात का बंदोबस्त करा लिया कि वे जब तक चाहेंगे तब तक देश के राष्ट्रपति का चुनाव लड़ सकते हैं। उन पर राष्ट्रपति बनने के लिए किसी किस्म की पाबंदी नहीं है जबकि उनके बाद बनने वाला राष्ट्रपति सिर्फ एक बार ही पांच साल के लिए राष्ट्रपति बन सकता है। 
    नूरसुल्तान अपने देश में तथाकथित तौर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते रहे हैं। हालांकि उन पर भ्रष्टाचार के आरोप यह कहते हुए लगे हैं कि उन्होंने तेल राजस्व के करीब एक अरब डालर दूसरे देशों में अपने व्यक्तिगत खातों में स्थानांतरित किये हैं। होस्नी मुबारक की तरह ही उनका परिवार देश के प्रमुख संस्थाओं व उद्यमों को नियंत्रित करता है। 
    कजाकिस्तान के पास तेल व प्राकृतिक गैस के साथ-साथ पोटेशियम, यूरेनियम, क्रोमियम, सीसा, जिंक, मैगनीज, तांबा, कोयला, लोहा, सोना और हीरे के भण्डार मौजूद हैं। तेल, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम, यूरेनियम, क्रोमियम, शीशा, जिंक के तो विशाल भंडार मौजूद हैं। नूरसुल्तान ने इस विशाल तेल व खजिन संपदा के दम पर कजाकिस्तान को पूरे मध्य एशिया में अपेक्षाकृत तेज विकास दर के पथ पर वर्षों बनाये रखा। 
    2007 में विश्व आर्थिक संकट के साथ कजाकिस्तान में भी आर्थिक हालात कठिन हुए। विदेशी निवेश में भारी कमी आयी और उस बीमारी से ग्रस्त माना गया जिसे ‘डच बीमारी’ (डच डिजीज) कहा जाता है। इसका अर्थ किसी देश का सिर्फ अपने तेल व खनिज संपदा के दोहन पर निर्भर रहना है। ऐसी स्थिति में किसी भी अन्य देश की तरह कजाकिस्तान का संकट गहरा गया। नूर सुल्तान ने देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने के लिए अर्थव्यवस्था के वैवध्यीकरण और भारी पैमाने पर राज्य द्वारा प्रायोजित निर्माण गतिविधियों को बढ़ावा दिया। इसके साथ ही बेलारूस और रूस के साथ यूरेशियन इकानोमिक यूनियन की संधि की जो जनवरी, 2015 से लागू हो जायेगी। इस यूनियन से रूसी साम्राज्यवादी बेहतर लाभ उठाने में सक्षम होंगे। 
    नूर सुल्तान ने रूसी और पश्चिम साम्राज्यवादियों के हितों को कुशलता से साधा है। यूरोपीय व अमेरिकी प्रमुख तेल कंपनियों ने कजाकिस्तान में भारी निवेश किया हुआ है। कजाकिस्तान में रूस की तेल कंपनियां लुकआयल व रोजनेफ्ट के साथ अमेरिकी व यूरोप की तेल कंपनियां शेवराॅन, एक्शन मोबिल, एनी (इटली), टोटल (फ्रांस), राॅयल डच शेल (जर्मनी), ब्रिटिश गैस आदि तेल व प्राकृतिक गैस के दोहन में लगी हुई है। इनके अलावा चीन और भारत की प्रमुख तेल कंपनियों ने भी यहां भारी निवेश किया हुआ है। 
    नूरसुल्तान के लंबे तानाशाहीपूर्ण शासन से विदेशी कंपनियों को मिली असीमित सुविधाओं और छूटों का ही एक नतीजा है कि कोई भी साम्राज्यवादी देश उनके शासन करने के तरीके से गंभीर प्रश्न नहीं खड़ा करता है। ढाई दशकों से वे राष्ट्रपति के पद पर मनचाहे ढंग से काबिज रहे पर यह किसी के लिए कोई प्रश्न नहीं है। 
भष्टाचार में लिप्त दक्षिण कोरिया के प्रधानमंत्री का इस्तीफा
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    पूंजीवादी राजनीति और भ्रष्टाचार का ऐसा साथ है जो कभी भी नहीं टूटता है। होता बस इतना है कि कभी वह इतना नंगा हो जाता है कि इसको ढंकने के लिए पूरी व्यवस्था एकजुट हो जाती है। यही कुछ दक्षिण कोरिया में हाल में हुआ। 
    दक्षिण कोरिया के प्रधानमंत्री ली बान कू को 27 अप्रैल को भ्रष्टाचार में बुरी तरह फंसे होने के कारण इस्तीफा देना पड़ा। दक्षिण कोरिया के प्रधानमंत्री ली वान कू के इस्तीफे की वजह एक व्यापारी की आत्महत्या बनी। 
    सुंग वान जोंग नाम के एक व्यापारी ने अपै्रल माह के शुरू में रहस्यमय ढंग से अपनी टाई से एक पेड़ में फांसी खा ली थी। मरने के कुछ घंटे पहले एक कोरियाई समाचार पत्र को दिये गये इंटरव्यू में सुंग ने सत्तारूढ़ पार्टी साइनेपूरी पार्टी (ग्रांड नेशनल पार्टी) को बड़े राजनैतिक चंदे की बात कही थी। 
    प्रधानमंत्री ली वान कू पर आरोप है कि उन्होंने सुंग से वर्ष 2013 में संसदीय चुनाव के समय 3 करोड़ वान (28,000 डालर) प्राप्त किये थे। यही बात सुंग के आत्महत्या के नोटिस में भी दर्ज है। 
    दक्षिण कोरिया में वर्ष 2004 के कानून के अनुसार राजनैतिक चंदा एक लाख वान से ज्यादा नहीं लिया जा सकता है। दक्षिण कोरिया की सत्तारूढ़ पार्टी पर पहले भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। 2004 को कानून ऐसी ही स्थिति में लाया गया था जिसके तहत निगमों को राजनैतिक चंदा देने पर रोक लगा दी गयी थी। 
    दक्षिण कोरिया की राष्ट्रपति पार्क ज्यून हाई के पास प्रधानमंत्री के इस्तीफे को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। असल में अगले वर्ष के शुरू में दक्षिण कोरिया की 300 सदस्य वाली संसद के चुनाव होने वाले हैं ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी अपनी घटती लोकप्रियता और खोते हुए जनाधार को किसी तरह से बचाना चाहती है। 
    दक्षिण कोरिया के प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है, उसके पास कोई विशेष शक्ति नहीं होती। राष्ट्रपति ही मुख्य कार्यकारी शक्ति रखता है। इस लिहाज से प्रधानमंत्री का इस्तीफा कोई बड़ी बात नहीं है परंतु दक्षिण कोरिया जिसमें पूंजी और सत्ता का इतना घृणित संबंध रहा है कि आये दिन वहां इसके कारण सत्ताधारी जनाक्रोश का निशाना बनते रहे हैं। 
    दक्षिण कोरिया इस वक्त गहरे आर्थिक व राजनैतिक संकट के दौर से गुजर रहा है। किसी समय ‘एशियन टाइगर’ नाम से जाना जाने वाला कोरिया इस वक्त अपनी नियति मूलक अर्थव्यवस्था के बेहद निम्न विकास दर का सामना कर रहा है। 1997-98 के संकट में ध्वस्त हुए दक्षिण कोरिया की विकास दर फिर कभी अपने अतीत को नहीं दोहरा पाई। इस संकट से पहले उसकी विकास दर 10 फीसदी से अधिक थी और वह विकसित देशों के क्लब ओ.ई.सी.डी.का सदस्य बन गया था। 1997-98 के बाद उसकी विकास दर एक आध वर्षों को छोड़कर वर्तमान आर्थिक संकट के पहले महज 4 फीसदी के आसपास रही है। हाल के वर्षों में तो वह 3 फीसदी से भी नीचे चली गयी है। उसका निर्यात ठहराव का शिकार है। यह ऐसी अर्थव्यवस्था के लिए और भी निराशाजनक है जो निर्यातमूलक हो। 
    दक्षिण कोरिया की प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों सैमसंग, एल जी, हुंडई, पोस्को भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों में भारी मुनाफे अर्जित करती रही है। इन कंपनियों को दक्षिण कोरिया की सत्ता का पूर्ण संरक्षण हासिल रहा है। और ये कंपनियां अपनी बारी में सत्ता के समीकरणों को तय करती रही हैं। यहीं से दक्षिण कोरिया की राजनैतिक सत्ता का ऐसा रूप सामने आता है जहां राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों के बीच कोई औपचारिक भेद भी नहीं रह जाता है। अपनी व्यवस्था की खोती साख को बचाने के लिए 2004 में ऐसा कानून बनाया गया था कि कोई भी निगम राजनैतिक चंदा नहीं देगा। 
    हकीकत में दक्षिण कोरिया की राजनैतिक सत्ता कोरियाई ही नहीं बल्कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों की भी चेरी है। दक्षिण कोरिया एक तरह से संयुक्त राज्य अमेरिका का 51 वां प्रांत ही है। वहां की सेना का सर्वोच्च कमांडर अभी भी सेना का जनरल होता है। दक्षिण कोरिया में द्वितीय विश्व युद्ध से आज तक अमेरिकी सेना बनी हुई है। 
    दक्षिण कोरिया के समाज में संयुक्त राज्य अमेरिका की सेना के खिलाफ गहरी नफरत रही है। वे पूर्ण स्वतंत्रता व संप्रभुता वाले राष्ट्र को चाहते रहे हैं परंतु दक्षिण कोरिया का शासक वर्ग अमेरिकी साम्राज्यवादियों से गहरे सांठ-गांठ किया हुआ है। शासक वर्गं का यह दब्बूपन और उस पर भ्रष्टाचार दक्षिण कोरिया की जनता के आक्रोश और क्षोभ को और बढ़ा देता है। राष्ट्रपति ने अपने एक प्यादे की बलि देकर इस आक्रोश को कम करने की छिछली कोशिश भर की है। 
बाल्टीमोर में पुलिसिया दमन के खिलाफ फूटा जनाक्रोश
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    संयुक्त राज्य अमेरिका के मैरीलैण्ड राज्य के बाल्टीमोर शहर में पिछले दिनों एक अश्वेत युवक की पुलिस कस्टडी में हुई निर्मम हत्या के विरोध में भड़के जनाक्रोश को दबाने के लिए 27 अप्रैल को आपातकाल लगा दिया है। मैरीलैण्ड के गवर्नर लैटी होगन ने आपातकाल लगाने के साथ नेशनल गार्ड को राज्य में तैनात कर दिया है।
    बाल्टीमोर शहर में 19 अप्रैल को 25 वर्षीय अफ्रीकी मूल के एक अमेरिकी अश्वेत युवक फ्रेडी ग्रे की एक सप्ताह तक मृत्यु से जुझते हुए मौत हो गयी। फ्रेडी को अमेरिकी पुलिस ने 12 अप्रैल को उस वक्त गिरफ्तार किया जब वह पुलिस के आक्रामक रुख को देखकर भाग रहा था। गिरफ्तारी के एक घंटे के भीतर ही वह कोमा में चला गया। 
    अमेरिका में पिछले वर्ष फर्ग्युसन की घटना की तरह ही बाल्टीमोर में जनता सड़कों पर उतर आयी। फ्रेड्डी के अंतिम संस्कार के बाद पुलिस और आम जनता के बीच जबर्दस्त भिडंत हो गयी। इस भिडंत में कई पुलिस वाले भी घायल हुए और कई प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया। प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए पुलिस ने भारी इंतजाम किया हुआ था। उनके ऊपर हेलीकाॅप्टरों से लगातार निगरानी रखी जा रही थी। पुलिस के पहरेदारी और फ्रेड्डी जैसे अश्वेत नवयुवकों की मौत से क्षुब्ध लोगों का आक्रोश इस सब से और फूट पड़ा और उन्होंने पुलिस के दमन के बाद वाहनों और बड़ी दुकानों को निशाना बनाया। यह अपने आप में गरीब दरिद्र अश्वेतों और धनी श्वेतों के बीच बढ़ती खाई को भी दिखाता है। श्वेतों और पुलिस का नजरिया अश्वेतों को पहली ही नजर में अपराधी मानने का रहा है। इसी वजह से फ्रेड्डी जैसे नवयुवक की अकारण ही पुलिस द्वारा हत्या कर दी गयी। 
    वल्र्ड सोशलिस्ट बेवसाइट के अनुसार इस वर्ष अभी तक 350 लोगों की हत्या पुलिस द्वारा की गयी है। यह तथ्य न केवल बेहद ही चौंकाने वाला है बल्कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों के घृणित लोकतंत्र की पोल भी खोल देते हैं।     
    अमेरिकी साम्राज्यवादी न केवल पूरी दुनिया बल्कि खुद अमेरिकी समाज में भी जुल्म ढा रहे हैं। अपने घृणित शासन को बनाये रखने के लिए अमेरिकी शासक अपने देश में भारी दमन का सहारा ले रहे हैं। अमेरिकी जेलों में 20 लाख से अधिक लोग कैद हैं। ये कैदी बेहद बुरी परिस्थितियों में रह रहे हैं। कईयों को तो सालों-साल बिना किसी ठोस आरोप के जेल में रखा गया है। उन्हें किसी भी अदालत में आज तक पेश नहीं किया गया। 
    बाल्टीमोर की घटना यह दिखलाती है कि अमेरिकी शासकों ने पिछले वर्ष की फग्र्यूसन की घटना से कोई सबक नहीं सीखा है। 9 अगस्त, 1914 को संयुक्त राज्य अमेरिका के मिसौरी प्रांत के फर्ग्युसन शहर में माइकल ब्राउन जिसकी उम्र महज 18 साल थी, पुलिस द्वारा निर्मम हत्या कर दी गयी। इस घटना के बाद फर्ग्युसन सहित पूरे अमेरिका में व्यापक जन प्रदर्शन हुए थे। बाद में माइकल ब्राउन के हत्यारों को यह कहकर बरी कर दिया गया कि उन्होंने आत्मरक्षा में कार्यवाही की थी। 
    कहने को अमेरिका में पिछले कई वर्षों से एक अफ्रीकी मूल के अश्वेत राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा का शासन है परंतु वहां के अश्वेतों की जिंदगी में इन वर्षो में किंचित भी परिवर्तन नहीं आया है। और उल्टे गहराते विश्व आर्थिक संकट के साथ नस्लवादी व रंगभेदी नवफासीवादी तत्वों के हमले बढ़े हैं। इन हमलों के निशाने में अश्वेत अफ्रीकी व एशियाई रहे हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों पर पिछले वर्षों में नस्लीय हमले बढ़े हैं। और अधिकांश मामलों में या तो हमलावर पकड़े नहीं गये या फिर अदालत द्वारा बरी कर दिये गये। 
    अमेरिकी साम्राज्यवादी अपने कुकृत्यों को छुपाने के लिए जितना भी आवरण ओढ़ें वे पूरी दुनिया के सामने ऐसी घटनाओं के साथ और बेपर्दा होते जाते हैं। वे पूरी दुनिया में लोकतंत्र व मानवाधिकारों का हल्ला करते हैं परंतु इसकी इज्जत न तो पूरी दुनिया में और न ही अपने देश में करते हैं। 
परमाणु समझौते की ओर बढ़ता ईरान
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    वर्षों से ईरान परमाणु शक्ति हासिल करने के लिए प्रयत्नशील रहा है। परमाणु हथियार जिन पर प्रमुख साम्राज्यवादी देशों का ही अधिकांश समय एकाधिकार रहा है। इन्हें दुनिया के कई देश लम्बे समय से हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं। भारत पाकिस्तान जैसे देश आज घोषित तौर परमाणु हथियारों से लैस हैं। अपने इन निकट पड़ोसी देशों की तरह ईरान भी परमाणु ऊर्जा व परमाणु हथियार हासिल करने के लिए प्रयत्नशील रहा है। ईरान ऐसा न कर सके इसके लिए अमेरिकी सहित पश्चिम साम्राज्यवादियों के अलावा क्षेत्रीय ताकतें साऊदी अरब और इजराइल भी इसके लिए लगातार दबाव बनाते रहे हैं। पश्चिम एशिया में इजराइल ऐसा देश है जो, अघोषित तौर पर परमाणु हथियारों से लैस है।
     ईरान और ‘पी 5+1’’ के बीच ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर स्विटजरलैण्ड के शहर लुसाने में मार्च माह के अंतिम दिनों में एक लम्बी वार्ता चली। लगातार लम्बी खिंचती इस वार्ता के बाद 2 अप्रैल को एक समझौता हो गया। ‘‘पी 5+1’’ से आश्य सुरक्षा परिषद के पांच देशों (संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, रूस और चीन) व जर्मनी से है। हालांकि इस वार्ता में यूरोपियन यूनियन भी शामिल रहा है। इस तरह से यह समझौता दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों और ईरान के बीच हुआ है। इस समझौते की अहमियत को इन ताकतों की उपस्थिति से देखा जा सकता है। साथ ही यह ईरान की कूटनीतिक ताकत को भी दिखाता है। ईरान को इस समझौते के लिए आगे लाने में रूस और चीन की विशेष भूमिका रही है।
    इस समझौते का मुख्य लक्ष्य ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकना और उसके परमाणु कार्यक्रम को साम्राज्यवादी देशों की पूर्ण निगरानी में लाना है। इस समझौते के अनुसार ईरान अपने संबंधित यूरेनियम के भण्डार को कम करेगा। सवंर्धित यूरेनियम की एक खास मात्रा के बाद परमाणु हथियार के रूप् में उसे इस्तेमाल किया जा सकता है। साथ ही ईरान को अपने सैट्रिफ्यूज की संख्या में भी दो तिहाई की कमी करनी होगी। ईरान अपने वादे ‘पूरा कर रहा है अथवा नहीं’ इसकी जांच अंतर्राष्ट्रीय परमाणु एजेन्सी (आईआईए) करेगी। इसके एवज में साम्राज्यवादी देश ईरान पर लगाये गये विभिन्न आर्थिक प्रतिबंधों को क्रमशः हटाते चले जायेंगे। शांतिपूर्ण उद्देश्यों के तहत ईरान परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल कर सकेगा। गहरे आर्थिक संकट से जूझते ईरान के लिए यह समझौता कितना अहम था इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब ईरान के विदेश मंत्री मुहम्मद जवाद जरीफ ने ‘समाधान मिल गया!’ का संदेश ट्विटर पर 2 अप्रैल की रात को डाला तो ईरान की सड़कों पर कई लोगों ने जश्न मनाया। हालांकि ईरान के प्रमुख नेताओं की प्रतिक्रिया भिन्न और अधिक सौदेबाजी की थी।
    ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता आयतुल्लाह अली खामनोई ने आशंका जाहिर की कि इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि ‘अंतिम समझौता’ जो कि जून में होना है, हो ही जायेगा। ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा ईरान ‘अंतिम समझौते’ पर तब तक हस्ताक्षर नहीं करेगा जब तक आर्थिक प्रतिबंधों को ‘पहले ही दिन’ से नहीं हटा लिया जाता है। हालांकि 2 अप्रैल की सहमति के दस दिन के भीतर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने 2010 में लगाये गये उस प्रतिबंध को हटा दिया जिसके तहत ईरान को मिसाइल रोधी प्रणाली देने पर रोक लगाई हुयी थी।
    रूस द्वारा ईरान को मिसाइल रोधी प्रणाली देने का संयुक्त राज्य अमेरिका और इजराइल ने तीखा विरोध किया। अमेरिका का विरोध इसलिए है वह चाहता है कि जून में ‘अंतिम समझौता’ होने से पहले ईरान पर लगाये गये प्रतिबंध न हटाये जायें। जहां तक इजराइल का सवाल है वह साम्राज्यवादी ताकतों के द्वारा किये इस समझौते के पहले दिन से खिलाफ है और वह खुले आम ईरान के परमाणु संयंत्रों पर हमले की धमकी देता रहा। रूस द्वारा दी जाने वाली मिसाइल रोधी प्रणाली को अपने मंसूबों पर खासकर हवाई हमलों के लिए एक बाधा के रूप में देख रहा है। जहां तक रूस का सवाल है वह इस कदम से यूक्रेन के मसले पर लगाये गये पश्चिम साम्राज्यवादियों के आर्थिक प्रतिबंधों का एक जवाब दे रहा है।
    ईरान के शासकों को इस समझौते के होने से जहां एक ओर इस बात का नुकसान हुआ है कि वे घोषित तौर पर परमाणु हथियार नहीं विकसित कर सकेंगे वहां आर्थिक प्रतिबंध हटने से उन्हें फौरी लाभ हासिल होगा जिसकी ईरान की पूंजीवादी व्यवस्था को तुरन्त आवश्यकता है। 2011 में पश्चिम साम्राज्यवादियों द्वारा ईरान के बैंकों पर लगाये गये प्रतिबंधों से उसे बहुत नुकसान हुआ था। फिर भी ईरान लम्बी सौदेबाजी से अपनी परमाणु ऊर्जा हासिल करने के अधिकार की हिफाजत कर सका हालांकि उसे अपने परमाणु हथियार हासिल करने के अधिकार से फिलहाल हाथ धोना पड़ा है।
अमेरिकी साम्राज्यवाद और क्यूबा
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    दो देशों के राष्ट्र प्रमुखों का किसी सम्मेलन में आपस में हाथ मिलाना सामान्य शिष्टाचार है और यह ऐसी घटना नहीं है कि इस पर कोई चर्चा करे। परन्तु संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा और क्यूबा के राष्ट्रपति राउल कास्त्रो के अमेरिकी देशों के सम्मेलन में हाथ मिलाने की चर्चा पूरी दुनिया में हुयी। यह इतनी बड़ी घटना बन गयी कि हर ओर इसकी चर्चा होने लगी। 
    असल में इस चर्चा के दो पहलू हैं। पहला अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा एक छोटे से राष्ट्र की दशकों से की गयी घेराबंदी और उस पर तमाम तरह के प्रतिबंध। दूसरा पहलू एक छोटे से राष्ट्र द्वारा दशकों तक दुनिया के सबसे ताकतवर देश के खिलाफ खड़ा होना। 
    अमेरिकी साम्राज्यवाद के द्वारा की गयी घेराबंदी और तमाम तरह के प्रतिबंध के बावजूद क्यूबा का लगातार अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध तीसरी दुनिया के देशों के लिए मिसाल था। क्यूबा से प्रेरणा प्राप्त करने वालों की पूरी दुनिया में कमी नहीं थी। लातिन अमेरिका के अनेकों देश दशकों से क्यूबा से प्रेरणा पाते रहे और अमेरिकी साम्राज्यवाद की विध्वंसकारी नीतियों का ही नहीं बल्कि उसके पिट्ठू शासकों का घोर विरोध करते रहे। 
    फिर ऐसा क्या हुआ कि क्यूबा को अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी मुखर नीति का त्याग करना पड़ा और वह सुलह-समझौते की ओर चल पड़ा। और वह अमेरिकी साम्राज्यवाद की उन मांगों पर विचार करने का आश्वासन देने लगा जिसका अर्थ क्यूबा को एक खुली अर्थव्यवस्था वाली पूंजीवादी व्यवस्था में तब्दील करना है। जबकि पूरी दुनिया सहित हमारे देश में ऐसे लोगों और संगठनों की कमी नहीं है जो आज भी क्यूबा को एक समाजवादी देश मानते हैं। 
    अमेरिकी साम्राज्यवाद से क्यूबा के सामान्य होते रिश्तों से ऐसे लोग सबसे ज्यादा हतप्रभ हैं जो क्यूबा को आज तक समाजवादी देश मानते रहे हैं। उन्हें वस्तुतः सूझ नहीं रहा है कि वे इस घटना पर कहें तो क्या कहें। 
    क्यूबा और अमेरिकी साम्राज्यवाद के बीच रिश्तों को सामान्य बनाने के पीछे दो दशकों से विशेष कोशिशें हो रही थीं। इन कोशिशों को कनाडा और वेनेजुएला की सरकारें अंजाम दे रही थीं। कनाडा और वेनेजुएला के दोनों ही देशों से घनिष्ठ रिश्ते रहे हैं। 
    असल में एक मिथक है कि क्यूबा में समाजवाद है। वहां साठ के दशक से ही एक ऐसी व्यवस्था कायम है जो सिर्फ रूप में ही समाजवादी थी। उसे राजकीय पूंजीवाद कहना ज्यादा उचित है। सोवियत संघ के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े क्यूबा के सामने असल संकट सोवियत संघ के 1990 में विघटन और पतन के बाद शुरू हुआ। नब्बे के दशक से क्यूबा ने राजकीय पूंजीवाद के प्रभुत्व के बीच देशी-विदेशी पूंजी को देश में शोषण और मुनाफे कमाने की छूटें देनी शुरू कर दी। इस छूट का लाभ रूसी, यूरोपीयन और कनाडाई पूंजीपतियों ने उठाना शुरू किया। इक्कीसवीं सदी का एक दशक बीतते-बीतते क्यूबा में विदेशी और देशी पूंजी को पर्याप्त स्थान मिल गया। इसके साथ-साथ 2008 में राउल कास्त्रो के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद की मुखर आलोचना के स्वर धीमे पड़ने लगे। 
    राउल कास्त्रो चीन, वियतनाम की तरह क्यूबा को खुले पूंजीवादी रास्ते पर ले जाना ही क्यूबा की अर्थव्यवस्था के संकट के समाधान के रूप में देख रहे थे। फिदेल कास्त्रो के पूर्ण समर्थन और निर्देशन में वे क्यूबा को उस रास्ते पर ले गये जहां अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए क्यूबा के बहिष्कार और प्रतिबंध का कोई खास अर्थ नहीं रह गया था। क्योंकि जब ऐसी पृष्ठभूमि तैयार होने लगी तो यह समय की बात ही रह गयी थी कि कब क्यूबा और अमेरिका के बीच राजनयिक और अन्य सम्बन्ध कायम होते हैं।
    पनामा सिटी में ओबामा और कास्त्रो की मुलाकात के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद ने क्यूबा को ‘‘शैतानी धुरी’’ के राष्ट्रों (उत्तर कोरिया, सीरिया, ईरान, सूडान) की सूची से बाहर कर दिया। क्यूबा को 2002 में बुश सरकार ने इस सूची में शामिल किया था। अमेरिका के लिए अब क्यूबा उन राष्ट्रों में नहीं है जो ‘‘आतंकवाद’’ को प्रायोजित करते हैं। हालांकि बाकि देशों की तरह क्यूबा के ऊपर यह आरोप सरासर झूठा और उसके ऊपर लगाये प्रतिबंधों और किसी भावी हमले को न्यायोचित ठहराने के लिए लगाया था। ओबामा के इस कदम के बाद दोनों देशों के बीच पूर्ण राजनीतिक सम्बंध कायम करने का रास्ता खुल गया है।
    अमेरिकी साम्राज्यवाद के क्यूबाई पूंजीवाद के साथ वही सम्बन्ध कायम हो रहे हैं जो अधिकांश तीसरी दुनिया के पूंजीवादी देशों के हैं। इन संबंधों को आर्थिक नव औपनिवेशिक सम्बन्ध कहा जा सकता है। 
    क्यूबा पर अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा लगाये गये प्रतिबंध हालांकि अभी भी जारी हैं और इनके पूर्ण रूप से हटने में कुछ माह और लगने हैं परन्तु इस पहल का लाभ मुख्यतः अमेरिकी साम्राज्यवादियों को ही होना है। क्यूबा और ईरान के मामले को बिना सामरिक आक्रमण किये कूूटनीतिक ढंग से हल करने को बराक ओबामा अपनी विशेष उपलब्धि के रूप में दिखाने को लालायित थे। वे अपनी और पार्टी की खोती साख और लोकप्रियता को इन कदमों से पुनः हासिल करना चाहते हैं। इस तात्कालिक उद्देश्य से बड़ी बात यह है कि अब जबकि क्यूबा में पर्याप्त देशी-विदेशी पूंजी का प्रवाह हो चुका है तब अमेरिकी प्रतिबंध अप्रासंगिक और औचित्यविहीन हो गये थे। 
नाइजीरिया के चुनावों में विपक्षी जीते
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    जैसा कि पहले से अनुमान था कि नाइजीरिया के चुनाव में वर्तमान राष्ट्रपति गुडलक जोनाथन की हार होने वाली है वैसा ही हुआ। कई विपक्षी पार्टियों की संयुक्त पहल से बनी आॅल प्रोग्रेसिव कांग्रेस (एपीसी) के नेता मुहम्मदु बुहारी राष्ट्रपति का चुनाव जीत गये। यही नहीं एपीसी को राष्ट्रपति चुनाव के बाद विभिन्न प्रांतों के लिए हुए गवर्नर के चुनावों में भारी सफलता मिली। एपीसी ने 28 गवर्नर पदों में से 19 में विजय हासिल कर ली थी। 
    गुडलक जोनाथन ने चुनाव जीतने के लिए सारे यत्न किये थे। परन्तु वे चुनाव हार गये। यहां तक बोको हराम से निपटने के लिए और चुनाव की परिस्थिति न होने का हवाला देकर चुनाव टाले भी गये परन्तु उन्हें कोई फायदा नहीं मिला। 
    नाइजीरियाई समाज में चुनाव ऐसे वक्त में हो रहे थे जब वह कई तरह के संकट के दौर से गुजर रहा था। बोको हराम के मुस्लिम चरमपंथी जिन्हें एक समय अमेरिकी साम्राज्यवादी और साऊदी अरब के प्रतिक्रियावादी शासकों ने तैयार किया था, आज नाइजीरिया में भारी खून-खराबा कर रहे हैं। पश्चिम किस्म की स्कूली शिक्षा व व्यवस्था का घोर विरोधी यह संगठन स्कूल जाने वाली मासूम छात्राओं का अपहरण करने से भी बाज नहीं आ रहा है। बेरोजगारी नाइजीरिया समाज में चरम पर है। शासक वर्ग भ्रष्टाचार में लिप्त है और सामाजिक असमानता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। धार्मिक व विभिन्न किस्म के कबीलों के बीच तनाव अक्सर फूटता रहता है। ऐसी हालत में नाइजीरिया में हालिया चुनाव सम्पन्न हुए और आॅल प्रोग्रेसिव कांग्रेस को सफलता मिली। 
    आॅल प्रोगेसिव कांग्रेस का गठन लगभग दो वर्ष पूर्व एक्शन कांग्रेस आफ नाइजीरिया (एसीएन), कांग्रेस फाॅर प्रोगेसिव चेंज (सीपीसी), आल नाइजीरिया पीपुल्स पार्टी (एएनपीपी) तथा आॅल प्रोगेसिव ग्रांड एलायंस(एपीजीए) के एक धड़े के इकट्ठे होने से हुआ था। वर्तमान राष्ट्रपति गुडलक जोनाथन की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को इन चुनावों में भारी हार का सामना करना पड़ा। पूर्व सेनाध्यक्ष और एक समय एक वर्ष के लिए राष्ट्रपति रहे मोहम्मद बुहारी को जहां 53.96 प्रतिशत मत मिले वहां गुडलक जोनाथन को 44.96 फीसदी मत मिले। इसी तरह नाइजीरिया के निम्न  सदन हाउस आॅफ रिप्रेजेन्टिव में एपीसी को कुल 360 सीटों में से 214 सीटें प्राप्त हुयीं। उच्च सदन सीनेट में एपीसी को 109 में से 62 सीटें प्राप्त हुयीं। 
    नाइजीरिया के चुनाव में आतंकवाद, भ्रष्टाचार, बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी जैसे प्रमुख मुद्दे छाये हुए थे। गुडलक जोनाथन का शासन निकम्मेपन का प्रतीक बन गया था। गुडलक जोनाथन दिनों दिन अलोकप्रिय होते चले गये। ईसाई और मुस्लिम धार्मिक बंटवारा इस चुनाव में अधिक कारगर नहीं साबित हुआ क्योंकि विजयी बुहारी को ईसाई बहुल इलाकोें से भी अच्छा समर्थन हासिल हुआ है। बुहारी को इस चुनाव में अपनी भ्रष्टाचार विरोधी और बोको हराम से निपटने के लिए सक्षम व्यक्ति की छवि का भी लाभ मिला है। 
    1960 में जब नाइजीरिया एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आया था तब से 1999 तक कमोवेश सैन्य शासन के अधीन ही रहना पड़ा था। 33 वर्षीय सैन्य शासन का 1999 में अंत हुआ था। ओलुसगन ओबसांजो का यह शासन उसके बाद भी चलता रहा। 1999 और 2003 में वे चुने हुए राष्ट्रपति बने थे। वे गैर सैन्य पृष्ठभूमि से पहले राष्ट्रपति थे। बुहारी का सैन्य पृष्ठभूमि का होना और चुन के आने को उनकी बड़ी ताकत नाइजीरियाई शासक वर्ग के द्वारा माना जा रहा है। सैन्य पृष्ठभूमि के होने के कारण बोको हराम से निपटने में भी उन्हें कारगर माना जा रहा है। 
    हर पूंजीवादी देश की तरह नाइजीरिया के आम मेहनतकश इस चुनाव में उसी तरह छले गये जैसे कि पहले के चुनाव में छले गये थे। सैन्य तानाशाही से मुक्ति के बाद 1999 में कायम लोकतंत्र से वे जो उम्मीदें लगाये हुए थे वह गुडलक जोनाथन के समय में भी पूरी नहीं हुईं और अब तय है कि बुहारी उनसे छल करेंगे। 
बोको हरम से राहत दिलाने के नाम पर साम्राज्यवादी हस्तक्षेप की योजना-    जूली लेवेस्के
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    अफ्रीका में सैनिक तौर पर अमेरिका की मौजूदगी के उद्देश्य के बारे में अब तक काफी जानकारी सामने आ चुकी है। अब से तकरीबन 10 साल पूर्व अमेरिकी विदेश विभाग के दस्तावेजों से इस बात की पुष्टि हुई थी कि अमेरिका इस विशाल महाद्वीप में चीन के निरंतर बढ़ रहे प्रभाव को विफल करने और विशाल तेल भंडारों सहित प्राकृतिक संपदा तथा सामरिक स्थलों पर अपना नियंत्रण बनाये रखने के लिए स्थायी मौजूदगी चाहता है। इसके लिए 2008 में ‘अफ्रीकाॅम’ का गठन किया गया और इसके गठन से पूर्व 2007 में अमेरिकी विदेश विभाग के सलाहकार डाॅ. जे पीटर फाॅम ने अपनी टिप्पणी में साफ तौर पर कहा कि अमेरिका का मकसद अफ्रीका के हाइड्रोकार्बन तथा अन्य संपदाओं पर नियंत्रण रखने के साथ इस बात का भी ध्यान रखना है कि चीन, भारत, जापान या रूस यहां किसी भी हालत में महत्वपूर्ण हैसियत न बना सकें। अमेरिका के पाख्ंाड का भंडाफोड़ ‘बोको हरम’ जैसे आतंकवादी संगठनों को बढ़ावा देने और फिर उन संगठनों पर काबू पाने के नाम पर अपनी सैनिक गतिविधियां तेज करने में प्रकट हो जाता है। आज अमेरिका पश्चिमी अफ्रीका के देशों- बेनिन, कैमरून, नाइजर, नाइजीरिया और चाड में बड़े पैमाने पर अपने सैनिक रवाना कर रहा है ताकि वे ‘बोको हरम’ का मुकाबला कर सकें। 
    बोको हरम है क्या? यह एक आतंकवादी संगठन है जिसका केंद्र उत्तर पूर्व नाइजीरिया में है। नाइजीरिया का यह मुस्लिम बहुल इलाका काफी घनी आबादी वाला है और अर्थव्यवस्था की दृष्टि से भी यह बेहद महत्वपूर्ण है। वैसे भी नाइजीरिया अफ्रीका के उन देशों में से है जहां तेल का सबसे बड़ा भंडार है। दुनिया में कुल कच्चे तेल का 3-4 प्रतिशत यहां मौजूद है। 
    मई 2014 में ‘अफ्रीकन रेनासां न्यूज’ ने बोको हरम के बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी और यह आशंका व्यक्त की थी कि यह सीआईए द्वारा प्रायोजित एक संगठन है और इसके गठन के पीछे अमेरिका का मकसद नाइजीरिया पर नियंत्रण स्थापित करना है। अमेरिकी विदेश विभाग और खुफिया एजेंसियों की विभिन्न रपटों को देखने से पता चलता है कि अमेरिका की योजना 2015 तक नाइजीरिया का विभाजन कर देना है। 
    दरअसल जब अफ्रीकी देशों ने ‘इकोमाग’ (इकोनाॅमिक कमिटी आॅफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स माॅनीटरिंग ग्रुप) का गठन किया उस समय से ही नाइजीरिया अमेरिका की आंख की किरकिरी बन गया। इकोमाग में अफ्रीका के विभिन्न देशों के सैनिकों को शामिल किया गया था और ये सारे देश पश्चिम अफ्रीकी देशों के आर्थिक समुदाय ‘इकोवास’ से जुड़े हुए थे। 1990 के दशक में जब लाइबीरिया में गृह युद्ध चल रहा था उस समय इकोमाग ने यहां हस्तक्षेप किया था और महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। पश्चिमी देश इस बात के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे कि अफ्रीकी देशों की कोई ऐसी बहुराष्ट्रीय सेना हो जिसमें उनकी कोई दखल न हो। इकोमाग के प्रभाव को कम करने के लिए अमेरिका ने सन् 2000 में ‘अफ्रीका क्राइसिस रेस्पांस इनीशिएटिव’ (एसीआरआई) नामक संगठन की स्थापना की और इसी संगठन ने आगे चलकर ‘अफ्रीकाम’ का रूप लिया। नाइजीरिया के विभिन्न जातीय और धार्मिक समूहों को मिलाकर बनाये गये संगठन ‘ग्रीन व्हाइट कोलिशन’ की एक रिपोर्ट के अनुसार नाइजीरिया में अमेरिका द्वारा चलायी जा रही गुप्त कार्रवाइयों का मकसद अफ्रीकी महाद्वीप में अमेरिकी प्रभाव को बढ़ाना और सामरिक क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रतिद्वंद्वी होने से नाइजीरिया को रोकना है। यही कारण है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने बोको हरम की स्थापना की और इसमें नाइजीरिया स्थित अमेरिकी दूतावास ने सक्रिय भूमिका दिखायी। अमेरिका ऐसे काम करता रहा है। सीरिया में बशर अल असद की सरकार के खिलाफ उसने भाड़े के सैनिकों की मदद ली और बंगाजी पर हमला किया। यूक्रेन में भी नवंबर 2013 के कुछ ऐसे वीडियो सामने आये हैं जिनसे पता चलता है कि किस तरह वहां जनतांत्रिक तौर पर चुनी गयी सरकार का तख्ता पलटने के लिए इसने गृहयुद्ध की स्थितियां पैदा कीं। 
    ग्रीन व्हाइट कोलिशन की रिपोर्ट में बताया गया है कि ‘नेशनल इंटेलीजेंस काउंसिल आॅफ द यूनाइटेड स्टेट’ ने तीन चरणों में पूरी होने वाली एक योजना तैयार की है। पहले चरण में नाइजीरिया का ‘पाकिस्तानीकरण’ किया जाना है। इसके तहत आने वाले दिनों में सरकारी इमारतों और आबादी वाले इलाकों पर लगातार बमबारी की जायेगी और कुछ ऐसा माहौल तैयार किया जाएगा जिससे विभिन्न समुदायों के बीच हिंसा फैले। दूसरे चरण में इस संकट का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया जाएगा। इसके तहत अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और संयुक्त राष्ट्र इस बात पर जोर देंगे कि हिंसा समाप्त हो। इसके लिए नाइजीरिया संकट के सवाल पर मीडिया में प्रायोजित बहसें करायी जायेंगी और ‘विशेषज्ञों’ से कहलवाया जायेगा कि संकट के समाधन के लिए जल्द से जल्द विदेशी हस्तक्षेप हो। तीसरे चरण में शांति स्थापना के लिए किसी अंतर्राष्ट्रीय सेना की तैनाती का प्रस्ताव होगा जिसे संयुक्त राष्ट्र की स्वीकृति प्राप्त हो। इस योजना की आड़ में अमेरिका और इसके मित्र राष्ट्र आपस में यह तय कर लेंगें कि आर्थिक स्वार्थ की दृष्टि से कौन किस इलाके पर अपना कब्जा बनायेगा। 
    नाइजीरिया के प्रमुख अखबार ‘नाइजीरियन ट्रिब्यून’ ने 2012 में यह रहस्योद्घाटन किया था कि सऊदी अरब और ब्रिटेन के विभिन्न ग्रुप बोको हरम को काफी पैसे दे रहे हैं। इस संदर्भ में इसने लंदन स्थित अलमुंटाडा ट्रस्ट फंड और सऊदी अरब के इस्लामिक वल्र्ड सोसाइटी का उल्लेख किया था। उसने यह भी बताया था कि अल्जीरिया स्थित कुछ संगठनों ने नाइजीरिया के बोको हरम आंदोलन को हथियार मुहैया कराये हैं। यहां उल्लेखनीय है कि अलकायदा और लीबियन इस्लामिक फाइटिंग ग्रुप को 2011 में लीबिया में उत्पन्न संकट के दौरान नाटो देशों ने भरपूर मदद की थी। 
    यह बहुत स्पष्ट है कि ओबामा प्रशासन के अंतर्गत विदेश नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए यह एक पूर्व शर्त होती जा रही है कि आतंकवादी संगठनों को छुपे तौर पर समर्थन दिया जाए। इस दृष्टि से देखें तो बोको हरम अमेरिका के इस तंत्र का एक हिस्सा है जिसका मकसद अफ्रीका की सबसे बड़ी आबादी वाले और बाजार की जबर्दस्त संभावनाओं से समृद्ध देश नाइजीरिया को अस्थिर करना है। इस तरह की रिपोर्ट भी मिली है कि उसके इस काम में नाइजीरिया के कुछ सैनिक कमांडर भी मदद पहुंचा रहे हैं और वे विद्रोह को भड़काने में लगे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार बोर्नो स्टेट के एक सैनिक ने इस बात की पुष्टि की कि बोको हरम के आतंकवादियों ने उनकी मौजूदगी में गंबोरू नगाला पर हमला किया लेकिन उनके कमांडर ने इन सैनिकों को आदेश दिया कि वे हमले का प्रतिरोध न करें। इस सैनिक ने बीबीसी को यह बताया कि जिस समय आतंकवादी हमला चल रहा था आकाश में सेना के हेलीकाप्टर चक्कर लगा रहे थे। इसमें 300 लोग मार दिए गए, अनेक मकानों और दुकानों में आग लगा दी गयी लेकिन सेना के लोग वहां चुपचाप खड़े रहे। इस सैनिक का यह कहना था कि अगर हमारे बड़े अफसर अपना समर्थन बंद कर दें तभी बोको हरम की कार्रवाइयों पर काबू पाया जा सकता है। 
    चिबोक लड़कियों के अपहरण के मामले में एक सैनिक ने अपने इंटरव्यू में कहा कि- ‘हमें आदेश दिया गया था कि लड़कियों को लेकर जा रही गाडि़यों को हम रोक लें लेकिन जैसे ही हमने अपना यह मिशन शुरू किया एक और आॅर्डर जारी हुआ जिसमें कहा गया था कि पीछे हट जाएं।’ कुछ सैनिकों को इस बात का भी संदेह है कि उनके कमांडर भावी सैनिक आॅपरेशंस की जानकारी बोको हरम को पहले ही दे देते हैं। उन्हें इस बात का संदेह है कि उनके कमांडर्स नाइजीरिया स्थित अमेरिकी दूतावास से लाभान्वित होते हैं। ऊपर ग्रीनव्हाइट कोलिशन की जिस खोजपूर्ण रिपोर्ट का जिक्र किया गया है उससे भी इन आरोपों की पुष्टि होती है। 
    इस तथ्य पर सबने गौर किया होगा कि आतंक के खिलाफ तथाकथित युद्ध की घोषणा के बाद से आतंकवाद की घटनाओं में और भी इजाफा हुआ है। अफ्रीका में अमेरिका ने आतंकवाद विरोधी गतिविधियां चलाने के लिए जिबुती में कैंप लेमोनियर सैनिक अड्डा स्थापित किया लेकिन इसके बाद से जो घटनाएं हुईं, उनसे एक अलग ही तस्वीर दिखायी देती है। लीबिया में गद्दाफी की हत्या के बाद की परिस्थिति, माली की अत्यंत खराब हालत, नाइजीरिया में बोको हरम की गतिविधियों का तेज होना, मध्य अफ्रीकी गणराज्य में सैनिक क्रांति और अफ्रीका के ग्रेट लेक क्षेत्र में हिंसा की घटनाएं -इनसे पता चलता है कि अमेरिका के प्रयासों का क्या नतीजा हुआ है। आज समूचा महाद्वीप उस समय की तुलना में सबसे ज्यादा अस्थिर है जब 2001 के आसपास अमेरिका ने आतंकवाद विरोधी मुहिम की शुरुआत की थी। 
    जहां तक विदेशों में हस्तक्षेप का सवाल है, अमेरिकी सेना के पिछले अनेक दशकों का इतिहास देखें तो यही पता चलता है कि उसके असली इरादे कुछ और होते हैं जबकि घोषणाएं कुछ और की जाती हैं। इसका वास्तविक उद्देश्य कभी भी लोगों को बचाना नहीं होता बल्कि इन देशों से मुनाफा कमाना होता है और सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करना होता है। अमेरिका और नाटो के हस्तक्षेपों ने कभी किसी को बचाया नहीं बल्कि लोगों की जानें ही ली हैं। 
    तमाम रपटों को देखने से पता चलता है कि फरवरी 2014 में अफगानिस्तान में युद्ध के फलस्वरूप 21 हजार नागरिक मारे गए। इराक में मई 2014 की एक रिपोर्ट बताती है कि अमेरिकी आक्रमण के बाद से मई 2014 तक कम से कम एक लाख 33 हजार नागरिक प्रत्यक्ष हिंसा के शिकार हुए। लीबिया के मामले में तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया ने इस झूठ को प्रचारित किया कि शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर हमला कर गद्दाफी ने हिंसा की शुरुआत की जबकि मामला कुछ और ही था। इस प्रचार का मकसद गद्दाफी को एक बुरे व्यक्ति के रूप में पेश करना था और अमेरिका तथा नाटो के सैनिक हस्तक्षेप के लिए जनमत तैयार करना था। बेल्फर सेंटर फाॅर साइंस एंड इंटरनेशनल अफेयर्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘दरअसल हिंसा की शुरूआत प्रदर्शनकारियों ने की।’ इसमें आगे कहा गया है कि सरकार ने विद्रोहियों का मुकाबला अपने सैनिकों के जरिए किया लेकिन पश्चिमी मीडिया के प्रचार के प्रतिकूल लीबियाई सैनिकों ने कभी भी नागरिकों को अपना निशाना नहीं बनाया। नाटो के हस्तक्षेप के पक्ष में पश्चिमी देश यही प्रचारित करते रहे हैं कि नाटो सैनिकों ने लीबिया के लोगों की जान बचायी और इससे लीबिया के पड़ोसी देशों को भी काफी राहत मिली। सच्चाई यह है कि मार्च 2011 के मध्य में जब नाटो ने हस्तक्षेप किया उस समय तक लीबिया के अधिकांश इलाकों पर गद्दाफी का दुबारा अधिकार हो गया था और विद्रोही ताकतें पीछे हटते हुए मिस्र की तरफ जा रही थीं। समूचा संघर्ष छह सप्ताह तक चला और अब यह समाप्त होने वाला था। उस समय तक तकरीबन 1000 लोग मारे गए थे जिनमें सैनिक, विद्रोही और नागरिक सभी शामिल थे। नाटो ने हस्तक्षेप करके विद्रोहियों को दुबारा हमला करने के लिए प्रेरित किया और फिर यह लड़ाई अगले 7 महीनों तक चलती रही और इस लड़ाई में कम से कम 7000 लोग मारे गए। इन आंकड़ों के बावजूद मीडिया एक बार फिर सैनिक कार्रवाई पर जोर देते हुए कह रहा है कि बोको हरम के आतंकवादियों से छुटकारा पाने के लिए एकमात्र तरीका यही है कि नाइजीरिया में किसी तरह का सैनिक हस्तक्षेप हो। 
नवंबर 2014 में लंदन के गार्डियन अखबार ने ‘ग्लोबल टेररिज्म इंडेक्स’ का हवाला देते हुए बताया था कि पिछले वर्ष 18 हजार मौतंे हुईं थीं जो इससे पहले की वर्ष की तुलना में 60 प्रतिशत की वृद्धि दिखाते हैं। इन मौतों के लिए मुख्य तौर पर 4 आतंकवादी गिरोह जिम्मेदार थेः इराक और सीरिया में आईएसआईएस, नाइजीरिया में बोको हरम, अफगानिस्तान में तालिबान और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अलकायदा। बेशक गार्डियन ने यह नहीं बताया कि बोको हरम और आईएसआईएस सहित इन सभी गिरोहों को किसी न किसी रूप में अमेरिका और नाटो के गठबंधन ने हथियार प्रदान किए हैं, प्रशिक्षण दिए हैं और पैसों की मदद पहुंचायी है। 
    इन सबसे फायदा किसको हो रहा है? आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का हल्ला मचाकर पश्चिमी देशों के हथियारों के डीलर और बैंकर इस विध्वंस से मुनाफा कमाने में लगे हैं। पश्चिमी देश अनंतकाल तक सैनिक हस्तक्षेप की वकालत करते हैं और ऐसा अभिनय करते हैं जैसे उन्हें इस बात की कोई जानकारी ही न हो कि आतंकवाद का मूल कारण क्या है। क्या वे इस तथ्य को लोगों से छिपाए रह सकते हैं कि वे पहले आतंकवाद को हवा देते हैं ताकि किसी देश विशेष में अस्थिरता पैदा हो और फिर वहां स्थिरता लाने के नाम पर वे सैनिक हस्तक्षेप कर सकें। अफ्रीकी महाद्वीप की अपार संपदा को देखते हुए वे आज फिर इन देशों में आतंक फैलाकर वहां अपनी पैठ मजबूत करने की तैयारी में लगे हैं। 
(सेंटर फाॅर रिसर्च आॅन ग्लोबलाइजेशन द्वारा प्रसारित जूली लेवेस्के के लेखों के आधर पर तैयार की गयी रिपोर्ट)
(साभारः समकालीन तीसरी दुनिया/मार्च 2015)

पश्चिम अफ्रीका में भारी सैनिक अभियान की तैयारी
    जनवरी 2015 में अफ्रीकाॅम के प्रमुख जनरल डेविड रोड्रिगेज ने वाशिंगटन में सेंटर फाॅर स्ट्रेटजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज की एक बैठक में बोलते हुए कहा कि पश्चिम अफ्रीकी देशों में सक्रिय कुछ आतंकवादी गुटों के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व में एक बड़ा अभियान चलाने की जरूरत है। रोड्रिगेज के इस बयान को उस अभियान का एक हिस्सा माना जा रहा है जो काफी दिनों से अफ्रीका के समृद्ध क्षेत्रों पर कब्जा जमाने की अमेरिकी मुहिम से जुड़ा हुआ है। रोड्रिगेज ने कहा कि ‘हमें इस खतरे के खिलाफ काउंटर इमरजेंसी के सभी उपाय करने चाहिए’। इससे पहले अमेरिकी विदेशमंत्री जाॅन कैरी ने नाइजीरिया यात्रा के दौरान लागोस में नाइजीरिया सरकार को इस बात का आश्वासन दिया था कि उनका देश नाइजीरिया में पैदा संकट को दूर करने में ज्यादा से ज्यादा मदद करेगा। जनरल रोड्रिगेज के इस वक्तव्य के एक हफ्ते बाद ही यूएस स्पेशल आॅपरेशंस कमांड (सोकाॅम) के प्रमुख जनरल जोसेफ वोटेल ने अमेरिकी सेना की वेस्ट पाइंट एकेडमी में बोलते हुए कहा कि बोको हरम और इस्लामिक स्टेट के खिलाफ अमेरिका कमांडो टीम्स के नये दस्ते तैनात करने की तैयारी में लगा है। उन्होंने कहा कि ‘बोको हरम अन्य इलाकों में अपने विस्तार की योजना बना रहा है और यद्यपि इससे सीधे तौर पर अमेरिका के लिए कोई खतरा नहीं है लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर यह हमारे हितों के खिलाफ है। जिन इलाकों में हमारे हित जुड़े हुए हैं वहां हम अस्थिरता नहीं पैदा होने देंगे।’ वोटेल ने आगाह किया कि उग्र इस्लामिक समूह हजारों की संख्या में नये लड़ाकुओं को भर्ती कर रहे हैं।
    जनरल वोटेल ने 2002 में फिलीपींस में चलाये गये अपने सैनिक अभियान का उल्लेख करते हुए बताया कि अमेरिकी कमांडो संबद्ध देशों की सेनाओं के साथ सहयोग कर अच्छे काम कर सकते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि वह जल्दी ही नार्वे जा रहे हैं ताकि नाॅटो के इस मित्र देश के साथ अपनी तैयारी के बारे में बातचीत कर सकें। ध्यान देने की बात है कि जनरल रोड्रिगेज और जनरल वोटेल दोनों के बयानों में तथा कुछ ही दिन पहले अफ्रीकन यूनियन की इस घोषणा के बीच एक संबंध दिखायी देता है जिसमें यूनियन ने कहा था कि बोको हरम तथा अन्य उग्रवादी समूहों का मुकाबला करने के लिए जल्दी ही 7500 बहुराष्ट्रीय सैनिकों की टुकड़ी तैनात की जायेगी। अफ्रीकन यूनियन की यह बहुराष्ट्रीय सेना पश्चिमी अफ्रीका में अमेरिकी सैनिकों के अभियान को आसान तो बना ही देगी साथ ही उनकी मौजूदगी को वैधता भी प्रदान करेगी।
    अमेरिकी कांग्रेस के नेता भी इसी तैयारी में हैं कि नाइजीरिया तथा आसपास के देशों में यु़द्ध की स्थिति तैयार की जाय। नाइजीरिया के विभिन्न अखबारों में पिछले कुछ महीनों से लगातार इस बात की आशंका प्रकट की जा रही है। अमेरिका में विदेशी मामलों की संसदीय समिति के अध्यक्ष एड राॅयस ने इस सिलसिले में नाइजीरिया के राजदूत से फरवरी 2015 में मुलाकात भी की थी। समिति के दो प्रतिनिध्यिों पैट्रिक मीहन और पीटर किंग ने जनवरी में विदेशमंत्री जाॅन केरी को एक पत्र लिखकर मांग की थी कि बोको हरम के बढ़ते हुए आतंक पर काबू पाने के लिए अमेरिका कोई ठोस रणनीति तैयार करे। लंदन के ‘गार्डियन’ में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार ओबामा प्रशासन नाइजीरिया को लड़ाकू कोबरा जेट की बिक्री की स्वीकृति देने जा रहा है। इन सारी स्थितियों से आभास मिलता है कि आने वाला समय पश्चिम अफ्रीकी देशों के लिए काफी संकटग्रस्त होगा।    -थाॅमस गेस्ट 

वैश्विक स्तर पर बढ़ रही है कर्जग्रस्तता
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    आर्थिक संकट के खत्म होने की बार-बार की घोषणाओं के बावजूद वैश्विक आर्थिक संकट लगातार गहराता जा रहा है। विश्व आर्थिक संकट हर बार अपने को नए रूप में प्रकट कर रहा है। यह संकट अपने को वैश्विक ऋण अथवा कर्ज संकट के रूप में भी प्रस्तुत कर रहा है। यह संकट कितना गंभीर और सर्वग्रासी है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2007 में वैश्विक आर्थिक संकट के लगातार सात साल के बाद वैश्विक स्तर पर कर्ज राशि कुल 570 खरब डालर पहुंच चुकी है। दुनिया की कुछ ही अर्थव्यवस्थाओं को छोड़कर दुनिया की लगभग सभी अर्थव्यवस्थायें कर्जग्रस्त हैं। थोड़े ही देश जो कर्जसंकट से बचे हैं वे बहुत छोटी हैं और वैश्विक अर्थव्यवस्था में कोई खास हैसियत भी नहीं रखती हैं। मसलन् रोमानिया, सऊदी अरब व इजरायल। दूसरी तरफ दुुनिया की सभी अर्थव्यवस्थायें -तेज गति से प्रगति करने वाले चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसी अर्थव्यवस्थायें - बुरी तरह कर्जग्रस्त हैं। 
    वैश्विक अर्थव्यवस्था के कर्ज संकट का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2007 में जहां वैश्विक स्तर पर ऋण ग्रस्तता सकल अर्थव्यवस्था या सकल वैश्विक उत्पादन का 269 प्रतिशत थी वहीं यह अब बढ़कर 286 प्रतिशत पहुंच गयी है। 
    ऋण ग्रस्तता का आंकलन करते हुए ग्लोबल कंसल्टिंग फर्म मैकिंजी ने उपरोक्त आंकड़े प्रस्तुत किये हैं। ऋण ग्रस्तता का आंकलन सरकारी व कारपोरेट दोनों तरह के कर्जे के अलावा बैंक व घर परिवार (हाउस होल्ड) खर्चों को मद्देनजर रख कर किया गया है। 
    ऋण ग्रस्तता का यह ताजा संकट, जिसे कर्ज संकट भी कह सकते हैं, 2007 के आर्थिक संकट से ज्यादा व्यापक और प्रभावी है। एशियाई अर्थव्यवस्थायें खासकर चीन व भारत 2007 के आर्थिक संकट से उस तरह प्रभावित नहीं हुई थी जिस तरह अमेरिकी व यूरोपीय अर्थव्यवस्थायें प्रभावित हुई थीं। लेकिन वर्तमान कर्जग्रस्तता का संकट इन एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को भी अपनी जद में ले चुका है। चीन की अर्थव्यवस्था जोकि 2007 में अपने सकल घरेलू उत्पाद के 83 प्रतिशत तक कर्जग्रस्त थी आज उसका कर्ज बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद का 217 प्रतिशत तक बढ़ गया है। यह कर्ज सरकारी कारपोरेट व घरेलू कर्ज का सकल योग है। चीन के शासक अपनी अर्थव्यवस्था के संकट को अब तक कुशलतापूर्वक संभालते रहे हैं अथवा छिपाते रहे हैं लेकिन अब यह कर्ज संकट प्रच्छन्न रूप में अपने को प्रकट कर रहा है। चीनी अर्थव्यवस्था का कर्ज जो 2007 में 70 खरब डालर (7 ट्रिलियन डालर) था वह 2014 में बढ़कर 280 खरब (28 ट्रिलियन) डालर पहुंच गया है। 
    चीन की अर्थव्यवस्था की रफ्तार थमने लगी है और तथाकथित हाउसिंग बूम चीन में थम गया है।
    इसी तरह जापानी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी कर्जग्रस्त अर्थव्यवस्था बन चुकी है। जापानी अर्थव्यवस्था 400 प्रतिशत तक कर्जग्रस्त हो चुकी है। यानी कर्ज ग्रस्तता सकल घरेलू उत्पाद का चार गुना हो चुकी है। यह 2007 के स्तर से 64 प्रतिशत अधिक है। जापान का लगभग अधिकांश कर्ज सरकारी है। और सरकार पहले से ही आर्थिक संकट की पूर्व घोषणा कर चुकी है। जापान में उधार के ऋण की दरें बेहद नीची हैं और मुद्रास्फीति भी बेहद कम है। इसके चलते जापानी सरकारी बैंकों की घरेलू मांग बेहद ज्यादा है। इसके बावजूद कुल मिलाकर जापानी अर्थव्यवस्था की हालत बेहद गंभीर है। 
    मैंकिजी रिपोर्ट में अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बारे में आंकड़ों में ज्यादा बुरी तस्वीर पेश नहीं की गयी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था का कर्ज 2007 की तुलना में 16 प्रतिशत बिंदु बढ़कर 233 प्रतिशत हो चुका है। हालांकि घरेलू (हाउस होल्ड) ऋण ग्रस्तता में 18 फीसदी व कारपोरेट ऋण में 2 फीसदी की कमी दर्शायी गयी है। सरकारी कर्जग्रस्तता में वृद्धि हुई है। कुल मिलाकर निजी क्षेत्र की ऋण ग्रस्तता में कमी का कारण सरकारी क्षेत्र की ऋण ग्रस्तता में वृद्धि है। इसके लिए अमेरिकी सरकार द्वारा भारी संख्या में निजी क्षेत्र के ऋणों को अपने ऊपर ओड़ लेने और भारी संख्या में सरकारी खजाना लुटाकर निजी वित्तीय संस्थाओं को राहत अथवा बेल आउट पैकेज देना रहा है। इस तरह अमेरिकी अर्थव्यवस्था वास्तव में गंभीर संकट की तरफ बढ़ रही है। 
2014 में अलग-अलग मुल्कों की ऋण ग्रस्तता की स्थिति निम्नवत हैं- (देखें तालिका)
    उपरोक्त तथ्यों व आंकड़ों की रोशनी में यह स्पष्ट है कि विश्व अर्थव्यवस्था का संकट एक नए रूप में भी सामने आ रहा है और वह है कर्ज संकट। यह संकट कितना सर्वग्रासी व व्यापक प्रभाव वाला होगा इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2007 के वित्तीय संकट से अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को दिवालिया होने से सरकारों ने बचाया था लेकिन अब इस बार कर्ज संकट का शिकार खुद सरकारें होने जा रही हैं तो फिर कौन बचाने वाला होगा? इसका जबाव विश्व पूंजीवाद के पास नहीं है। 
संकटग्रस्त नाइजीरियाई समाज और बोको हराम
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    नाइजीरिया अफ्रीका महाद्वीप का एक ऐसा देश है जो प्राकृतिक सम्पदा खासकर तेल सम्पदा से समृद्ध है परन्तु पिछले कई वर्षों से यह देश कट्टर मुस्लिम संगठन बोका हराम और सरकार के बीच चल रहे जबर्दस्त संघर्ष के बीच गृहयुद्ध में फंसा हुआ। 15 करोड़ की आबादी वाला देश गहरे सामाजिक संकट का शिकार है। 
    बोको हराम को काबू में लाने के नाइजीरियाई सरकार के प्रयास भारी अंतर्राष्ट्रीय सहायता के बावजूद कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। उसने पड़ौसी देशों बेनिन, चाड, कैमरून और नाइजर की सेनाओं के साथ मिलकर बोको हराम पर हमला बोला हुआ है परन्तु अभी तक वांछित सफलता नहीं मिल पायी है। इस बीच बोको हराम ने इराक और सीरिया के एक बड़े भाग में काबिज कुख्यात इस्लामिक संगठन इस्लामिक स्टेट (आईएस) से अपनी सम्बद्धता घोषित कर दी। बोको हराम के नेता अबुबकर शेकाऊ ने, आईएस के नेता अल-बगदादी जिसने अपने को खलीफा घोषित किया हुआ है अपना खलीफा मान लिया है। इस्लामिक स्टेट ने भी बोको हराम की मांग स्वीकार कर अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी ताकतों तथा स्थानीय शासकों के माथे पर चिंता की लकीरें उभार दी हैं। 
    नाइजीरिया में बोको हराम की ताकत को इस बात से भी समझा जा सकता है वहां 7 फरवरी को होने वाले राष्ट्रपति के चुनाव एक माह से अधिक समय के लिए टाल दिये गये हैं। चुनाव आयोग उत्तरी नाइजीरिया जहां बोको हराम का कब्जा है वहां चुनाव सम्भव न होने को इसका प्रमुख कारण बताया है। 
    नाइजीरिया के वर्तमान राष्ट्रपति गुडलक जोनाथन जहां चुनाव को टाले जाने को उचित ठहरा रहे हैं वहां उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी ‘आॅल प्रोग्रेसिव कांग्रेस’ (एपीसी) के नेेता मुहम्मदु बुहारी इसे लोकतंत्र के लिए नुकसान बता रहे हैं। हकीकत यह है कि नाइजीरिया के समाज में नाइजीरिया की सेना का दबदबा कायम है। 1999 में चुनावी लोकतंत्र की स्थापना के पहले वहां दशकों तक सत्ता सेना के हाथ में रही है। और यदि गुडलक जोनाथन चुनाव हारते हैं तो सत्ता मुहम्मदु बुहारी के हाथ में आ जाती है तो यह सेना की ही जीत होगी। मुहम्मदु बुहारी पूर्व में सैनिक शासक रह चुके हैं। और सत्ता में रहने के दौरान उन्होंने काफी सख्ती से शासन चलाया था। उन्होंने बोको हराम के तीन महीने के भीतर खात्मे की बात की है।     
    गुडलक जोनाथन जिन्होंने पिछले चुनाव में बुहारी से बाजी मारी थी इस वक्त अपनी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) में टूट-फूट और असंतोष से भी जूझ रहे हैं। 
    नाइजीरियाई समाज में साम्प्रदायिक विभाजन भी तीखा है। जहां दक्षिण नाइजीरिया ईसाई बहुल है वहां उत्तरी नाइजीरिया में मुस्लिम बहुलता है। गुडलक जोनाथन की अलोकप्रियता भ्रष्टाचार और खास तौर पर राजस्व के करोड़ों डालर के गुम होने, बोको हराम के प्रभाव के बढ़ते विस्तार आदि के कारण बढ़ती चली गयी है। बुहारी अपनी सैन्य व मुस्लिम पृष्ठभूमि के कारण इस वक्त चुनाव जीतने की बेहतर स्थिति में हैं। चुनाव टाले जाने से उन्हें जहां नुकसान होता दीख रहा है वहां गुडलक जोनाथन अपने स्थिति को बेहतर करने के लिए समय चाह रहे थे। इसलिए उनके द्वारा चुनाव टालने के लिए उत्तरी नाइजीरिया खासकर योबो, बोर्नो, अडमावा प्रांतों में बोको हराम के द्वारा पैदा की गयी स्थिति को बहाना माना जा रहा है। एक माह में वहां नाइजीरिया की सेना को बढ़त हासिल हो जायेगी इस पर हर किसी को संदेह है। 
    बोको हराम और नाइजीरिया की सेना के बीच वर्ष 2009 से अब तक तेरह हजार से ज्यादा लोग मारे गये हैं। घायलों की संख्या कई हजारों में है तथा एक अनुमान के मुताबिक 15 लाख से ज्यादा लोग अपना घर-बार छोड़कर विस्थापित होने के लिए मजबूर हुये हैं। 
    बोको हराम पिछले वर्ष तब ज्यादा सुर्खियों में आया था जब 200 स्कूली छात्राओं का अपहरण कर उनकी शादी जबर्दस्ती अपने लड़ाकों से करा दी थी। इन स्कूली छात्राओं की मुक्ति के लिए नाइजीरिया को सरकार और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रयासों का अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है। 
    बोको हराम शब्द का शाब्दिक अर्थ बी.बी.सी. द्वारा ‘पश्चिमी शिक्षा हराम है’ बताया गया है। वैसे इस संगठन का अधिकारिक नाम जमातु अहलिस सुन्ना लिडावती वल-जिहाद’ है  जिसका अर्थ है कि ‘‘पैगम्बर की शिक्षाओं और जिहाद के प्रचार के लिए समर्पित लोग’’ हैं। इस संगठन का मुख्यालय उत्तरी नाइजीरिया के बोर्नो प्रांत के मैदुगुरी शहर में है। इस संगठन की स्थापना वर्ष 2002 में मोहम्मद युसूफ द्वारा की गयी थी। मोहम्मद युसूफ को बाद में नाइजीरिया की सरकार द्वारा 2009 में मुकदमा चलाकर सरे आम फांसी दे दी गयी। इस सबने बोको हराम को उग्र कार्यवाहियों की ओर धकेला। मोहम्मद यूसूफ उत्तरी नाइजीरिया की गरीबी और उपेक्षा झेल रही मुस्लिम आबादी के प्रश्न को उठा रहे थे। 
    नाइजीरिया अफ्रीका महाद्वीप में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में प्रमुख तेल उत्पादक देश है परन्तु यहां व्यापक पैमाने पर गरीबी फैली हुयी है। नाइजीरिया के उत्तरी प्रांतों में गरीबी का आलम यह है कि वहां की तीन चैथाई आबादी गरीबी में जी रही है वहीं यह दक्षिण के प्रांतों में करीब एक चौथाई। एक विश्लेषक ने इस पर टिप्पणी की कि लागोस, नाइजीरियाई की राजधानी जो कि दक्षिण में है, में नीतियां बनती हैं और मैदुगुरी जोकि उत्तर में है, गरीब बसते हैं।
    नाइजीरिया का साम्प्रदायिक बंटवारा उसके अस्तित्व के लिए बेहद खतरनाक है। यहां मुस्लिम आबादी जोकि मूलतः सुन्नी है करीब 50 फीसदी है जबकि ईसाई आबादी करीब 48 फीसदी है। नाइजीरिया के समाज का धार्मिक आधार पर ठीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता। नाइजीरियाई समाज की बहुलता का अनुमान इस बात से लगता है कि यहां 350 से अधिक नृजातीय समूह हैं और 250 से अधिक भाषाएं हैं। 
    नाइजीरिया की अर्थव्यवस्था में तेल की भूमिका प्रमुख है। वहां की अर्थव्यवस्था में इसका हिस्सा जहां चालीस फीसदी वहां सरकार के राजस्व में इसका हिस्सा अस्सी फीसदी है। नाइजीरिया के तेल के प्रमुख खरीददार देश संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत हैं। नाइजीरिया के शासकों में व्याप्त भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण तेल से प्राप्त बेशुमार आय एक है। 
    नाइजीरिया के समाज के हालात बहुत खराब हैं। यह अफ्रीका के सबसे गरीब मुल्कों में एक है। यहां की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा युवा है। परन्तु उनके बीच बेरोजगारी बहुत ज्यादा है। अधिकारिक आंकड़ों में ही वह 23.9 फीसदी है। 
    गरीबी, बेरोजगारी, असमानता और भ्रष्टाचार के कारण नाइजीरिया के समाज में व्यापक बैचेनी और क्षोभ है। कदाचित यही वही जमीन है जिससे बोको हराम जैसे संगठनों का जन्म होता है। नाइजीरिया के शासक ही बोको हराम की पैदायश के लिए जिम्मेदार हैं। अब वे बोको हराम के द्वार पेश की गयी चुनौती का जो समाधान खोज रहे हैं वह एक सैन्य समाधान है। इस सैन्य समाधान में वे वर्षों से लगे हैं परन्तु उन्हें मनवांछित सफलता नहीं मिल पा रही है। हाल के वर्षों में वे अपना विस्तार पड़ौसी देशों नाइजर, चाड़, बेनिन और कैमरून में करने में भी सफल रहे हैं। इन देशों में भी नाइजीरिया की तरह बेहद गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी और शासक वर्गों का भ्रष्टाचार फैला हुआ है। 
    बोको हराम के इस्लामिक कट्टरपंथी विचारों की नाइजीरिया की बहुसंख्यक आबादी में व्यापक स्वीकार्यता नहीं है। परन्तु हालात ऐसे ही बने रहते हैं तो शासक एक बोको हराम को सैन्य तौर पर परास्त भी कर दें तो दूसरे ऐसे किसी संगठन के जन्म लेने व विकसित होने से नहीं रोक सकते हैं। इसका कारण नाइजीरिया का संकटग्रस्त पूंजीवादी समाज है। और समाधान नाइजीरिया के समाज में पूंजीवादी की समाप्ति और समाजवाद की स्थापना में छुपा हुआ है। 
ग्रीस में चुनाव पूर्व सीरिजा की लफ्फाजी और वर्तमान में समर्पण
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
    सीरिजा ने सत्ता में आने के बाद ही मजदूरों-मेहनतकशों से किये अपने वायदों से पीछे हटना शुरू कर दिया है। उसने यूरोपीय आयोग, यूरोपीय केंद्रीय बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के त्रिमूर्ति के निर्देशों के मुताबिक मौजूदा कर्जों और किफायती कार्यक्रम की अवधि को चार महीने के लिए और बढ़ा दिया है। 
    यूरोपीय बैंकों के राजनीतिक प्रतिनिधियों के साथ सीरिजा ने लगभग एक महीने तक समझौता वार्ता की। इस वार्ता के बाद उसने 20 फरवरी को त्रिमूर्ति यूरोपीय आयोग, यूरोपीय केंद्रीय बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों को स्वीकार कर लिया। इस त्रिमूर्ति ने ग्रीस पर यह भी शर्त लगा दी कि 23 फरवरी तक वह अपने सुधार कार्यक्रम की सूची तैयार करके पेश करे। इसके बाद यूरो ग्रुप और त्रिमूर्ति इस बात की निगरानी करेंगे कि क्या सीरिजा की सरकार ने जो पुनरावलोकन पेश किया है वह आगे के पुनरावलोकन के लिए पर्याप्त प्रस्थान बिंदु बन सकता है। त्रिमूर्ति ने ग्रीस की सरकार पर किफायती कदमों की अंतिम सूची तैयार करने के लिए अपै्रल की समय सीमा तय कर दी है। यदि ग्रीस की सीरिजा सरकार त्रिमूर्ति के निर्देर्शों का पूर्णतया पालन नहीं करती तो उसे अरबों यूरो का और कर्ज नहीं मिलेगा। यह ज्ञात हो कि ग्रीस पर 320 अरब यूरो का कर्ज है जिसे वह चुका सकने में असमर्थ है। 
    ग्रीस की सीरिजा सरकार को एक महीने का समय नहीं लगा जब उसने चुनाव पूर्व किये अपने वायदों को त्याग दिया और उसने बड़ी निर्लज्जता के साथ पूर्णतया मजदूरों-मेहनतकशों के साथ विश्वासघात कर दिया। 
    सीरिजा जैसी पार्टियों द्वारा की गयी राजनीति के समूचे इतिहास में ऐसा उदाहरण मिलना काफी कठिन है कि इतने थोड़े से समय के अंदर ही कोई पार्टी अपने किये गये वायदों से पीछे हटी हो। ग्रीस के प्रधानमंत्री ने समझौते के कुछ घंटों के अंदर ही यूरोपीय संघ के समक्ष अपने आत्मसमर्पण को बेशर्मी से ढंकते हुए सफेद झूठ का पुलिंदा अपने टेलीविजन संदेश में पेश किया। प्रधानमंत्री सिप्रास ने टेलीविजन बयान में कहा कि हमने ग्रीस को ससम्मान खड़ा किया। उन्होंने कहा कि वे थोड़े दिनों के भीतर ही बहुत कुछ हासिल कर चुके हैं लेकिन उनको अभी लम्बा सफर तय करना है। उन्होंने आगे कहा कि यूरो जोन के अंदर रहते हुए उन्होंने पटरी बदलने के लिए निर्णायक कदम उठाये हैं। 
    उनकी इस बात में कुछ भी सच नहीं है। यूरो ग्रुप के बयान में जिसमें सीरिजा ने हस्ताक्षर किये हैं, कहा गया है कि सीरिजा सरकार कदमों से पीछे हटने से बचेगी और नीतियों व ढांचागत सुधारों में एकपक्षीय परिवर्तन करने वाले किसी भी कदम को नहीं उठायेगी। दूसरे शब्दों में सीरिजा सरकार अपने पूर्ववर्ती सरकार द्वारा लागू किये गये किफायती कदमों को लागू करती रहेगी। 
    इससे भी बढ़कर उस घृणित मेमोरेण्डा में कहा गया है कि वर्तमान इंतजाम के आधार पर सीरिजा सरकार और आगे सुधार कदमों को उठायेगी। सिप्रास ने चुनाव के दौरान इनको समाप्त करने का वायदा किया था।। सीरिजा ने पहले इस बात पर बहुत जोर दिया था कि वह ग्रीस के आर्थिक कर्ज को समाप्त करेगी लेकिन यूरो जोन के साथ हुए समझौते में कहा गया है कि ग्रीस अपने सभी कर्जदाताओं की वित्तीय देनदारियों का पूर्णतया सम्मान करेगी और समयबद्ध तरीके से उसे पूरा करेगी। 
    इसके पहले सीरिजा त्रिमूर्ति के साथ अपने संबंधों को समाप्त करने की बातें करती थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद त्रिमूर्ति से संबंध समाप्त करना तो दूर की बात है, अब सीरिजा सरकार ने यूरोपीय व अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं तथा हिस्सेदारों के साथ घनिष्ठ सहयोग के साथ काम करने का वायदा किया है। इस तरह ग्रीस सरकार ने त्रिमूर्ति की जकड़बंदी में ग्रीस को रखने का फैसला कर लिया है। 
    सिप्रास और उनके वित्तमंत्री यानिस वारोफाकिस को समझौते की शब्दावली में थोड़े बहुत छोटे परिवर्तन के अलावा यूरोपीय संघ से कोई रियायत नहीं मिली है। इन परिवर्तनों का कुछ भी व्यवहारिक महत्व नहीं है। 
    जहां सिप्रास और सीरिजा के पैरोकार अपने इस घृणित विश्वासघात को शानदार विजय के बतौर पेश करने की कोशिश कर रहे है, वहीं यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका के पूंजीवादी प्रचारतंत्र ग्रीस के प्रधानमंत्री के समर्पण को साफ-साफ शब्दों में बयान कर रहे हैं। 
    लंदन के फाइनेन्सियल टाइम्स ने लिखा कि जहां यह (ग्रीस सरकार) जर्मनी के आर्थिक मूलमंत्र को चुनौती देने की बात करती थी, वहीं सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर जर्मनी की बात लागू हुई। 
    संयुक्त राज्य अमेरिका की वित्तीय पूंजी की मुख्य आवाज वाल स्ट्रीट जनरल ने लिखा कि गत सप्ताह में सिप्रास ने अनेक मुद्दों पर समर्पण किया। लेकिन यदि ग्रीस को बिना किसी संदेह के यूरो जोन में रखना है तो उन्हें काफी और ज्यादा समर्पण करना पड़ेगा। 
    यदि मजदूर वर्ग के दृष्टिकोंण से देखा जाय तो सीरिजा सरकार द्वारा किया गया समझौता एक आपराधिक विश्वासघात से कुछ भी कम नहीं है। लेकिन यदि ग्रीस के पूंजीपति वर्ग और सम्पन्न मध्य वर्ग की दृष्टि से देखा जाय तो यह समझौता मात्र निराशाजनक है। चूंकि सीरिजा पार्टी इन्हीं वर्गों का ग्रीस के पूूंजीपति वर्ग और खुशहाल मध्यम वर्ग का अंततोगत्वा प्रतिनिधित्व करती है तो यह मजदूर-मेहनतकश अवाम की आंख में धूल झोंकने के लिए लफ्फाजी का सहारा ले रही है। 
    ग्रीस का शासक वर्ग और उच्च मध्य वर्ग वित्तीय कर्ज में डूबे अपने ग्रीस के मालिकाने वाले कारोबार के हालात के सुधरने के बारे में कुछ उम्मीदें पाल सकता है। लेकिन ये ऐसे वर्ग हैं जो यूरोपीय संघ के बैंकपतियों से किसी भी किस्म का टकराव नहीं चाहते। यूरोपीय संघ के बैंकपति ऐसे किन्हीं भी कदमों के धुर विरोधी हैं जो यूरोपीय पूंजीवाद को अस्थिर कर सकते हों। इसके साथ ही वे ग्रीस में अपने खुद के निगमीय व वित्तीय स्वार्थों पर कोई खतरा नहीं चाहते। 
    वास्तव में सीरिजा सरकार की असली आर्थिक व सामाजिक कार्यसूची को 11 फरवरी को यूरोजोन की मीटिंग के दौरान ही ग्रीस के वित्तमंत्री ने पूर्णतया स्पष्ट कर दिया था। इस समय उन्होंने कहा था कि हम गंभीर ढांचागत सुधारों के लिए वचनबद्ध हैं। उन्होंने यह कहा कि सीरिजा सरकार ग्रीस के आधुनिक इतिहास में और यूरोप के सबसे उत्साही सुधारकों की तरह सबसे अधिक सुधार चाहने वाली सरकार होगी। 
    सीरिजा सरकार के वित्तमंत्री ने इस बात का कोई संदेह नहीं रहने दिया कि वे पूंजीवादी हितों की रक्षा करने में कुछ भी कोर-कसर नहीं रखेंगे। उन्होंने घोषणा की कि निजीकरण के बारे में और सार्वजनिक परिसम्पतियों के विकास के बारे में सरकार पूर्णतया खुले दिमाग से सोचती है। उनकी सरकार प्रत्येक परियोजना पर उसकी योग्यता व उपादेयता के अनुसार ही मूल्यांकन करने की इच्छा रखती है। उन्होंने पिरोइयास बंदरगाह के आंशिक निजीकरण की प्रक्रिया को उलटने संबंधी मीडिया की खबरों को सच्चाई से बहुत दूर की बात बतायी। उन्होंने ऐसी गलत खबरों की भत्र्सना की जो यह कुत्सा प्रचार कती हैं कि उनकी सरकार पूर्ववर्ती सुधारों से पीछे हट रही है। उनके अनुसार इससे ग्रीस के साझीदारों के बीच गलतफहमी पैदा होती है। 
    वित्तमंत्री ने यूरो जोन से बाहर जाने से भी सोचने की बात को खारिज करते हुए अपने यूरोपीय संघ के सहयोगियों को आश्वासन दिया कि सीरिजा यूरोप को एक समग्र व अविभाज्य समझते हैं और ग्रीस की सरकार यूरोपीय संघ और अपने मौद्रिक संघ का स्थायी और न अलग होने वाला सदस्य है। 
    वित्तमंत्री ने यूरो जोन के वित्तमंत्रियों को आश्वस्त करते हुए कहा कि उनको सीरिजा से बिल्कुल भी डरने की जरूरत नहीं है। उन्होंने इस बात पर दुख व्यक्त किया कि कुछ लोग ऐसे हैं जो सीरिजा की जीत से नाखुश हैं। ऐसे नाखुश लोगों के बारे में उन्होंने कहा कि वे सीरिजा को अपना विरोधी न समझें। 
    दरअसल, 11 फरवरी की बंद दरवाजे की यूरोपीय जोन के वित्तमंत्रियों की बैठक में सीरिजा सरकार के वित्तमंत्री उनको समझाने में पूर्णतया सफल रहे। यूरोजोन के वित्तमंत्री समझ गये कि सीरिजा सरकार त्रिमूर्ति के समक्ष आपादनतमस्तक हो गयी है। उन्हें किसी भी किस्म की कोई रियायत देने की कोई जरूरत नहीं है। इसके बाद यूरोपीय जोन के वित्तमंत्रियों ने सीरिजा सरकार से उसी अवमानना व निष्ठुरता के साथ व्यवहार किया जैसा कि बड़े बैंक, असफल हो रहे छोटे कारोबारियों के साथ निपटने में करते हैं। 
    पिछली एक महीने की घटनाएं ग्रीस के मजदूर वर्ग व मेहनतकश अवाम के बडे़ राजनीतिक अनुभव का हिस्सा बनती हैं। सीरिजा का व्यवहार वामपंथी लफ्फाजी भरे उच्च मध्यम वर्ग की राजनीति के असली पूंजीवादी चरित्र को दर्शाती है। जहां अतीत में सुधारवादी ट्रेड यूनियनों और सामाजिक-जनवादी पार्टियों के साथ-साथ मजदूर वर्ग के विश्वासघाती संशोधनवादियों द्वारा मजदूर वर्ग को एक के बाद दूसरी पराजयों का सामना करना पड़ा है, वहीं थैचर और रीगन के सत्ता में आने के बाद वैश्विक सट्टा बाजारों में भारी उछाल से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से मध्यम वर्ग का एक हिस्सा सम्पन्न हुआ है। वैश्विक पैमाने पर नवउदारवादी नीतियों से इसे लाभ पहुंचा है। जैसे-जैसे यह हिस्सा समृद्ध होता गया है वैसे-वैसे इसका मजदूर वर्ग के प्रति रुख बदलता गया है। पहले यह उनके प्रति उदासीनता का रुख रखता था और अब इसका एक रुख विरोध करने का हो गया है। इस समृद्ध होते जा रहे मध्य वर्ग के छोटे से हिस्से की सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया अपने साथ-साथ वैचारिक प्रक्रिया को भी जन्म देती है जिसका प्रतिबिम्बन मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी राजनीति करने की विचारधारा को रद्द करने में व्यक्त होता है। इस समृद्ध होते जा रहे मध्यम वर्ग के छोटे से हिस्से की पूंजीवादी समाज में समाहित होने की प्रवृत्ति मुख्य हो गयी है। यह पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में मजूदर वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका को नहीं स्वीकार करता। 
    मजदूर वर्ग की वर्ग संघर्ष की राजनीति के स्थान पर यह समृद्ध होता जा रहा मध्य वर्ग पहचान की राजनीति, नस्ल, प्रजाति, लिंग और यौनिक दिशा वाली राजनीति की छतरी को अपनाने की ओर गया है। इसी आधार पर यह अपना राजनीतिक कार्यक्रम अपनाता है और इससे वह अपने हितों की पूर्ति करना चाहता है। यह पूंजीवादी वर्ग-संबंधों को खत्म करने की कोई इच्छा नहीं रखता, इसके बजाय यह समृद्ध सामाजिक तबका और इसकी राजनीतिक पार्टियां समाज के ऊपरी 10 प्रतिशत सबसे धनी लोगों के बीच सम्पदा का ज्यादा सम्मानपूर्ण बंटवारा चाहता है। यह समृद्ध सामाजिक तबका जहां अति धनी लोगों से ईष्र्या करता है वहीं यह मजदूर वर्ग को नीची निगाह से देखता है और उससे डरता है। 
    सीरिजा ऐसी ही पार्टी है जो इस सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया से अलग-अलग देशों में कुकरमुत्तों की तरह अस्तित्व में आ रहे राजनीतिक संगठनों की तरह ही है। 
    सीरिजा ऐसी पूंजीवादी पार्टी है जो समृद्ध मध्य वर्ग के हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है। यह मजदूर वर्ग की सहयोगी पार्टी नहीं है। यह धुर मजदूर वर्ग विरोधी है। मजूदर वर्ग का यह कार्यभार बनता है कि वह अपने बीच इसके राजनीतिक प्रभाव को समाप्त करने के लिए संघर्ष करे।
    सीरिजा के दुनियाभर में पैरोकार हैं। अपने को क्रांतिकारी कहने वाले लोगों ने सीरिजा की जीत को ग्रीस की जनता के लिए नई सुबह कहा। किसी ने इसे एक आगे का कदम बताया। ऐसे लोग सीरिजा के असली मजदूर विरोधी पूंजीवादी चरित्र को नहीं समझना चाहते थे। यह ऐसे लोगों की वर्ग धूमिल दृष्टि है। 
    जहां तक सीरिजा का संबंध है, उसने किफायती कार्यक्रमों और प्रतिक्रियावाद को अंगीकार करके यह स्पष्ट कर दिया है कि वह मजदूर वर्ग के साथ सीधे टकराव में आ गयी है। चूंकि सिप्रास ने ग्रीस में यूरोप के बैंकों के निर्देशों को स्वीकार कर लिया है, इसलिए इस सरकार को मजदूर वर्ग के विरोध को कुचलने के लिए अधिकाधिक दमनकारी कदमों का सहारा लेना होगा। 
    सीरिजा के वर्ग चरित्र के मुताबिक उसके पास अब वामपंथी लफ्फाजी के लिए भी बहुत कुछ नहीं बचा है। 
युक्रेन को लेकर साम्राज्यवादियों के बीच सांठगांठ
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    युक्रेन के संकट को खत्म करने और उसके भविष्य को लेकर बेलारूस की राजधानी मिंस्क में पश्चिमी और रूसी साम्राज्यवादियों के बीच यूक्रेन के राष्ट्रपति की उपस्थिति के बीच सुलह-समझौते को लेकर 11 फरवरी से वार्ता चल रही है जो इस समाचार के लिखे जाने तक जारी थी। 
    इस वार्ता में जर्मनी की चांसलर एंगेला मार्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलांद जहां पश्चिमी साम्राज्यवादियों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं वहां रूसी साम्राज्यवाद का प्रतिनिधित्व स्वयं रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन कर रहे हैं। अमेरिकी साम्राज्यवादी इस वार्ता के दौरान एक तरफ एंगेला मार्केल और फ्रांसुआ ओलांद से लगातार सम्पर्क बनाये हुए हैं और दूसरी तरफ रूसी राष्ट्रपति पर शीघ्र समझौता करने के लिए हर तरह के दबाव का इस्तेमाल कर रहे हैं। बेलारूस की राजधानी में हो रही इस शीर्ष स्तरीय वार्ता में ये चारों राष्ट्राध्यक्ष बिना किन्हीं सहायकों के वार्ता कर रहे हैं। यूरोपीय संघ ने इस वार्ता का आधार पहले ही तैयार किया हुआ है।   जिस स्तर पर यह वार्ता चल रही है और पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने जितना दबाव रूसी साम्राज्यवादियों पर बनाया हुआ है उससे यह सम्भव है कि यूक्रेन का संकट हाल-फिलहाल साम्राज्यवादियों के बीच आपसी सौदेबाजी के बीच हल हो जाये। 
    यूक्रेन के आज के हालात के लिए मुख्य तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवादी ही दोषी हैं। उन्होंने सोवियत संघ के विघटन के बाद से अपने प्रभाव के विस्तार के लिए आक्रामक नीति अपनायी। कई देशों को सैनिक संगठन नाटो में शामिल कर सैन्य ढंग से रूस को घेर डाला। कई देशों को यूरोपीयन यूनियन में पिछले एक दशक में शामिल कर लिया। यूक्रेन को यूरोपीयन यूनियन और नाटो का साझेदार बनाने को लेकर ही लगभग दो वर्ष यूक्रेन का वर्तमान संकट शुरू हुआ। 
    यूक्रेन में रूसी भाषा बोलने वाली आबादी ठीक-ठाक मात्रा में है और वे रूस के साथ परम्परागत रूप से निकटता महसूस करते रहे हैं। रूसी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपने प्रभाव को बनाये रखना चाहते थे। उन्होंने पश्चिमी साम्राज्यवादियों की नीतियों का तीव्र विरोध शुरू किया। उन्हें यूक्रेन में रूसी भाषियों का सहयोग हासिल था। रूसी समर्थक राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को पश्चिम साम्राज्यवादियों ने उग्र राष्ट्रवादी, नव फासीवादी और गैर सरकारी संगठनों के दुष्प्रचार और तथाकथित जन विप्लव के द्वारा वर्ष 2014 में हटा दिया। उसके बाद से रूसी भाषी आबादी के खिलाफ नव फासीवादी तत्वों के साथ यूक्रेन की सेना के हमले बढ़ गये। रूस ने अपने हितों की रक्षा के लिए यूक्रेन में अपना हस्तक्षेप जारी रखा। क्रीमिया को उसने वहां की स्थानीय जनता के सहयोग से अपने में मिला लिया। इसी प्रक्रिया में यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में जहां रूसी भाषी बहुसंख्यक हैं अलगाववादी आंदोलन को प्रश्य दिया। यूक्रेन इस क्षेत्र को पश्चिमी साम्राज्यवादियों के सहयोग से अपना कब्जा बनाये रखने को प्रयासरत है। दोनेत्स्क और लुहांस्क नामक इन क्षेत्रों पर मुख्य तौर पर विद्रोहियों का कब्जा है और उन्होंने इसे स्वतंत्र देश के रूप में घोषित किया हुआ है। 
    यूक्रेन में चल रहे इस संकट में अप्रैल 2014 से अब तक पांच हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। घायलों की संख्या करीब तेरह हजार है और एक लाख से भी अधिक लोग विभिन्न स्थानों को पलायन कर चुके हैं। वास्तव में यूक्रेन में रूसी और पश्चिमी साम्राज्यवादी छद्म युद्ध लड़ रहे हैं। यूक्रेन के वर्तमान शासक इन दोनों ही साम्राज्यवादी ताकतों के बीच बंटे हुए हैं। और वे इस वक्त बेलारूस की राजधानी में बैठकर अपने-अपने हितों को साधने के लिए कठोर सौदेबाजी कर रहे हैं। इस कठोर सौदेबाजी का अंदाजा इस बात से भी लग सकता है कि चारों देशों के प्रमुखों को बातचीत करते हुए दो दिन से भी अधिक का समय हो चुका है। 
    यूक्रेन के बांट-बखरे को लेकर चल रही इस वार्ता में होने वाले समझौते के अनुसार 15 फरवरी से युद्ध विराम लागू होगा। 16 फरवरी से दो हफ्ते के भीतर सभी भारी भरकम युद्ध सामान हटा लिये जायेंगे। सभी कैदियों को आम माफी देकर रिहा कर दिया जायेगा। यूक्रेन की सीमा से सभी विदेशी सेनाओं को हटा दिया जायेगा। विवादित क्षेत्र में आम जनता को सामान्य बनाने के लिए सभी प्रतिबंध हटा दिये जायेंगे। विद्रोहियों के कब्जे वाले क्षेत्र को और अधिक स्वायत्तता के लिए वर्ष 2015 के अंत तक संवैधानिक सुधार कर लिये जायेेंगे और यदि सभी शर्तें यूक्रेन पूरी कर देता है तो रूस से लगने वाली सीमाओं पर यूक्रेन का कब्जा हो जायेगा। 
    बेलारूस की राजधानी में चल रही इस वार्ता के दौरान यूक्रेन में अपने-अपने प्रभाव के विस्तार और कब्जा करने के लिए यूक्रेन की सेनाओं और विद्रोहियों के बीच तीखी लड़ाई चल रही है। दर्जनों लोग इस बीच मारे जा चुके हैं और हर पक्ष अधिक से अधिक बड़े कब्जे करने के लिए प्रयासरत है। 
    तेल की गिरती कीमतों और पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा लगाये गये प्रतिबंधों के बीच रूस की डांवाडोल होती अर्थव्यवस्था ने उसे जहां पश्चिमी साम्राज्यवादियों से सुलह-समझौते के लिए मजबूर किया। वहां पश्चिमी साम्राज्यवादियों खासकर जर्मनी के रूस में किये गये भारी निवेश ने उसे रूसी साम्राज्यवादियों से वार्ता के लिए पहलकदमी लेने को मजबूर किया। और जहां तक यूक्रेन के शासकों की बात है वे पश्चिम साम्राज्यवादियों से हर तरह की सहायता के बाद भी क्रीमिया को रूस द्वारा हड़पे जाने से नहीं रोक सके और अभी भी सारा जोर लगाने के बाद वे दोनेत्स्क और लुहांस्क में अपना कब्जा नहीं पा सके। विद्रोही लगातार आगे ही बढ़ते गये हैं। वहीं अमेरिकी साम्राज्यवादी रूस पर कई तरह के प्रतिबंध लगाने के बावजूद मनमुताबिक परिणाम हासिल न कर पाने के कारण इस वार्ता को संभव बनाने के लिए तैयार हुए हैं। अपनी-अपनी वजह और गरज से पश्चिम व रूसी साम्राज्यवादी तथा यूक्रेन के शासक इस वार्ता के लिए मजबूर हुए हैं। जहां तक विद्रोहियों का प्रश्न है वे इस वार्ता में प्रत्यक्षतः मौजूद नहीं हैं। रूसी साम्राज्यवादी ही उनके हितों की रक्षा कर रहे हैं। 
    यूक्रेन की मजदूर मेहनतकश जनता अपने शासकों और साम्राज्यवादियों के षडयंत्रों के जाल में फंसी हुयी है। यूक्रेन में बढ़ता आर्थिक व राजनैतिक संकट ने उसके जीवन को पहले से मुहाल किया हुआ है। यूक्रेन में चल रहे युद्ध की भारी कीमत उसे चुकानी पड़ रही है। बेलारूस में जहां उनके शासकों और साम्राज्यवादियों के बीच वार्ता चल रही है। वहां नये षडयंत्र रचे जा रहे हैं। परन्तु अभी वह इतनी असंगठित और नेतृत्व विहीन है कि वह इस सबके खिलाफ मुखर विरोध भी नहीं कर पा रही है।   
ग्रीस में सीरिजा की जीत और मजदूर वर्ग के लिए इसका अर्थ
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    ग्रीस (यूनान) में सीरिजा पार्टी की चुनावों में जीत हो गयी। हालांकि यह बहुमत से दो सीटें कम पायी। 300 सीटों वाली संसद में इसे 149 सीटें हासिल हुई।
    पिछले पांच से ज्यादा वर्षों से ग्रीस गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। ग्रीस की सरकार यूरोपीय संघ और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के निर्देशों के मुताबिक खर्चों में कटौती करके देश को आर्थिक तौर पर तबाही की ओर ले गयी है और इसने सामाजिक तौर पर भारी बेचैनी, असंतोष और गुस्से को जन्म दिया है। इसी का फायदा उठाते हुए वामपंथी लफ्फाजी का सहारा लेकर सीरिजा विजयी हुई है। इसने दक्षिणपंथी और अति राष्ट्रवादी पार्टियों को पराजित किया है। सीरिजा पार्टी शासक वर्ग की वामपंथी पार्टी के बतौर है। यह शासक वर्ग की ही दूसरी सुरक्षा पंक्ति है। 
    आखिर यह कहने का क्या आधार है कि सीरिजा शासक वर्ग की ही दूसरी सुरक्षा पंक्ति है? यह खुलेआम निजी सम्पत्ति की हिमायत करती है। यह पूंजीवादी राज्यसत्ता और उसके अंगों को, पुलिस और सेना को जस का तस बनाये रखने की पक्षधर है। यह यूरो, यूरोपीय संघ और नाटो की समर्थक है। यह सामाजिक विद्रोह के खतरे से पूंजीवाद और उसकी संस्थाओं को बचाने के लिए कार्यरत पार्टी है। 
    यह पार्टी पूंजीवादी समाज के विशेषाधिकार प्राप्त हिस्सों के विशेषाधिकारों को बनाये रखने वाली पार्टी है। चुनाव प्रचार के दौरान यह मतदाताओं से वायदा कर रही थी कि खर्चों में कटौती के भयावह परिणामों को वह कम करेगी। लेकिन यह बैंकों, सरकारों की ओर ज्यादा आश्वस्त कर रही थी कि सत्ता में इसके आने पर उनके मुनाफे में कोई आंच नहीं आने देगी। 
    सीरिजा समाजवाद की बातें करती रही है। लेकिन इसके समाजवाद का अर्थ सिर्फ यह वायदा करना है कि सत्ता में आने पर धनी लोगों पर और ज्यादा कर लगायेगी तथा गरीबों के सामने कुछ टुकड़े फेंककर उन्हें संतुष्ट करेगी। लेकिन अब जब वह जीत गयी है तो हर शोषक वर्गीय पार्टी की तरह वह इससे भी पीछे हट जायेगी। 
    सीरिजा के नेता अलेक्सी सिप्रास ने दुनिया के साम्राज्यवादियों को अपनी विश्वसनीयता और उनके प्रति वफादारी का इजहार करने के लिए वाशिंगटन, बर्लिन, ब्रसेल्स और अन्य कई राजधानियों की तीर्थयात्रा की थी। चुनाव के ही दिन उन्होंने एक समाचार पत्र को बताया कि वे यूरोपीय संघ का बिना शर्त समर्थन करने के लिए वचनवद्ध हैं। यह जानी हुई बात है कि इसी यूरोपीय संघ ने ग्रीस पर खर्चों में कटौती करने की योजना थोपी थी जो वहां की समाजिक तबाही लाने के लिए जिम्मेदार थी।
    वे और उनकी पार्टी सीरिजा यूरोजोन को मजबूत करने तथा ग्रीस के नागरिकों के लिए उसे आकर्षक बनाने के लिए काम करने का वचन लगातार देते रहे है। उन्होंने एक समाचार पत्र में यह भी कहा कि वे यूरोपीय संघ की राजकोषीय शर्तों को पूरी तौर पर मानेंगे और ग्रीस द्वारा लिये गये कर्ज का पुनर्भुगतान करेंगे। उनके अनुसार, उनकी सरकार ग्रीस की पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा किये गये करारों को पूर्ण समर्थन देगी और यूरोजोन के एक सदस्य के बतौर एक संतुलित बजट पेश करेगी और अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वचनबद्ध रहेगी। 
    सीरिजा पार्टी और उनके नेता सिप्रास वामपंथी लफ्फाजी करके कुछ व्यवस्थाधर्मी वामपंथी पार्टियों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर यूरोपीय संघ, यूरोपीय केंद्रीय बैंक और साम्राज्यवादियों को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं। यह पाखंडपूर्ण कृत्य कोई शोषक वर्ग का प्रतिनिधि ही कर सकता है। यह ऐसा संयुक्त मोर्चा नहीं है जो ग्रीस के मजदूर वर्ग को संगठित करके वहां से पूंजीवाद को समाप्त करने की ओर लक्षित हो। यही कारण है कि फ्रांस के धुर दक्षिणपंथी भी उनसे असहमत होते हुए भी उनकी जीत पर खुशी प्रदर्शित करते हैं। 
    जैसे सीरिजा पार्टी ने अपने सत्ताशीन होने के समय किया था वैसे ही वह इस बार भी करेगी। अतीत में उसने वामपंथी लफ्फाजी के साथ-साथ मजदूर वर्ग पर हमला बोला था। अभी भी वह मूलतया उन्हीं पूंजीवादी नीतियों को लागू करने के लिए कृतसंकल्प है। इससे समाज में असंतोष बढ़ेगा और इसका फायदा उठाकर दक्षिणपंथी और फासिस्ट ताकतें और मजबूत होंगी।
    ऐसी हालत में, मजदूर वर्ग और मेहनतकश अवाम के सामने सीरिजा के सत्ताशीन होने से चुनौती बुनियादी तौर पर वही बनी हुई है। यानी पूंजीवाद-साम्राज्यवाद से लड़ने की चुनौती से उसे टकराना है। उसे मजदूर वर्ग को यूरोपीय संघ, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोपीय केंद्रीय बैंक की त्रिमूर्ति के शिकंजे से ग्रीस को मुक्त करने की लड़ाई लड़नी है। उसे ग्रीस को नाटो से बाहर लाने की लड़ाई लड़नी है। 
    यह लड़ाई मजदूर वर्ग ही सुसंगत तरीके से लड़ सकता है। सीरिजा ऐसी लड़ाई के विरोध में खड़ी होगी। ग्रीस के मजदूर वर्ग की अग्रिम कतारें इस सच्चाई को समझकर ही वहां पूंजीवाद विरोध एक सशक्त मजदूर आंदोलन खड़ा करने की ओर आगे बढ़ेगी। 
    जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक लुटेरे वर्ग की एक पार्टी का स्थान दूसरी पार्टी लेती रहेगी और वह मजदूर वर्ग व मेहनतकश अवाम की आखों में धूल झोंककर उनको बेवकूफ बनाने में सफल होती रहेगी जैसा कि इस बार सीरिजा पार्टी हुई है। 
    सीरिजा पार्टी की जीत का मजदूर वर्ग के लिए यही मतलब है। 
‘‘शार्ली हैब्दो प्रकरण’’ और फ्रांसीसी समाज में बढ़ता संकट
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    शार्ली हैब्दो पत्रिका के दफ्तर पर हमला कर 10 पत्रकारों व कार्टूनिस्टों की हत्या से पूरे फ्रांस में भय व आतंक की लहर छायी हुई है। शार्ली हैब्दो पर आक्रमण डेनमार्क के एक कार्टूनिस्ट द्वारा बनाये गये कार्टून को पुनप्र्र्रकाशित करने का बदला लेने के उद्देश्य से यह हमला किया गया। हमलावर दो भाई बताये जाते हैं जिन्हें बाद में एक माॅल में सुरक्षा बलों ने मार गिराने का दावा किया है। यह गौरतलब है कि उक्त हमलावर फर्राटे से फ्रांसीसी बाले रहे थे। बाद में पता चला कि वे कोई बाहरी या विदेशी नहीं बल्कि फ्रांस के ही नागरिक थे। 
    फ्रांसीसी समाज की पहचान एक बहुलतावादी, जनवादी, धर्मनिरपेक्ष समाज की रही हैै। फ्रांसीसी समाज में वैचारिक मतभेदों, मतांतरों पर स्वस्थ बहस की भी एक परम्परा रही है। मोलियेट, वाल्तेयर सात्र और आल्बेयर कामू जैसे लेखकों ने सत्ता प्रतिष्ठानों व प्रचलित मान्यताओं के खिलाफ जाकर लिखा और जनवादी परम्परा को आगे बढ़ाया। लेकिन यह जनवादी, धर्मनिरपेक्ष परम्परा अब अपनी पहचान खो रही है। फ्रांसीसी समाज का बहुलतावादी व सौहार्दवादी स्वरूप अब धीरे-धीरे नष्ट हो रहा है। फ्रांसीसी समाज में दक्षिणपंथी रुझान बढ़ रहे हैं। सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों में पतन व संकट से फ्रांसीसी समाज गुजर रहा है। शार्ली हैब्दो की घटना इसी चीज की एक परिणति है। 
    फ्रांसीसी समाज का संकट वर्तमान पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था द्वारा जनित संकट है। सितम्बर 2001 में अमेरिका द्वारा ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ व इस्लाम को आतंकवाद का पर्याय बनाने का जो अभियान शुरू हुआ उसकी आंच फ्रांसीसी समाज में भी पड़ी। फ्रांसीसी शासक आतंकवाद के नाम पर या अन्य बहानों के साथ शुरू किये गये कब्जाकारी युद्ध अभियानों में अमेरिका के सहयोगी रहे हैं। कई मामलों में तो वे अमेरिका के प्रतिद्वंद्वी रहे हैं। लीबिया पर हमला करने में वे अमेरिका से भी ज्यादा मुस्तैद रहे हैं। मध्य अफ्रीकी गणराज्य, माली में तो उसने हमलों का न केवल नेतृत्व किया बल्कि अपने इस पूर्व उपनिवेशों के साथ आज भी उनका शासक जैसा व्यवहार किया। 
    इस दौरान फ्रांसीसी समाज में दक्षिणपंथी शक्तियों की पैठ व पकड़ भी मजबूत हुई है। ‘इस्लाम’ के नाम पर भयदोहन की राजनीति को फ्रांसीसी साम्राज्यवादी शासकों ने भी खूब हवा दी। परिणाम स्वरूप फ्रांसीसी समाज भी तथाकथित ‘इस्लामोफोबिया’ की गिरफ्त में आता गया है। मुसलमान, दाढ़ी व बुर्के को आतंकी पहचान के साथ जोड़ने की प्रवृत्ति फ्रांसीसी समाज में मजबूत हुई है। इस सबके चलते फ्रांस में रहने वाले मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग होते गये हैं। उनके बीच असुरक्षा की भावना बढ़ती गयी है। 
    फ्रांस में मुस्लिमों की एक बड़ी तादाद -लगभग 60 लाख रहती है। फ्रांस में मुस्लिमों की तादाद किसी भी यूरोपीय मुल्क से अधिक है। इन मुस्लिमों में बड़ी तादाद उत्तरी अफ्रीका से है जिनमें अल्जीरिया के मगरिब क्षेत्र, ट्यूनीशिया व मोरक्को प्रमुख हैं। ये अफ्रीकी मुस्लिम बहुत विपन्नता व गरीबी की स्थिति में राजधानी के बाहरी इलाकों में झुग्गी बस्तियों (घेट्टो) में रहते हैं। इन लोगों के प्रति फ्रांस के सभ्य व देशी समाज में एक हिकारत व नफरत का भाव पाया जाता है। इन्हें आतंकी, नशेबाज, चोर-उचक्के आदि के रूप में सभ्य समाज जो मूलतः ईसाई हैं, देखते आये हैं। इन घेट्टो में रहने वाले नौजवानों के साथ शिक्षा व रोजगार में भी भेदभाव बरता जाता है। कुछ समय पहले फ्रांस के स्कूलों में मुंह पर हिजाब लगाकर आने वाली लड़कियों को प्रवेश न देने की खबरें चर्चा का विषय बनी थीं। 
    इसी तरह फ्रांस में इन अफ्रीकी मूल के मुस्लिम नौजवानों के साथ रोजगार देने में कितना भेदभाव होता है इसका खुलासा एक स्वयंसेवी संगठन (एन.जी.ओ.) की रिपोर्ट से होता है। इस एन.जी.ओ. ने 100 अफ्रीकी मूल के मुसलिम नौजवानों के नौकरी हेतु आवेदन पत्र(करिकुलम वाइटी या बायोडाटा) सेवायोजकों के पास भेजे। राजधानी के उपनगरों के ये नौजवान बेहद  योग्य व मेधावी थे लेकिन इनमें से किसी के पास भी इंटरव्यू के लिए बुलावा नहीं आया। लेकिन मजे की बात है कि उसी एन.जी.ओ. द्वारा जब ईसाई नामों व शहर के अंदरूनी भाग के पतों के साथ आवेदन भेजे गए तो काफी सकारात्मक परिणाम निकला। जाहिर है कि फ्रांसीसी समाज में अपने ही देश की आबादी के एक हिस्से के प्रति कितना उपेक्षापूर्ण व पूर्वाग्रह युक्त नजरिया व्याप्त है। 
    शहरों के बाहरी इलाके में उपनगरीय क्षेत्रों में रहने वाले अफ्रीकी मुसलिम नौजवानों में भारी संख्या स्कूली पढ़ाई छोड़ चुके नौजवानों की होती है। ये नौजवान बहुतेरे कम वेतन पर कड़ी मेहनत वाले कामों में खपते हैं। काफी संख्या में ये नौजवान ड्रग बेचने व अन्य छोटे-मोटे अपराधों की ओर मुड़ जाते हैं। आत्मसम्मान से वंचित ये नौजवान जब जेहादी विचारधारा के सम्पर्कों में आते हैं तो उन्हें आत्मसम्मान की अनुभूति होती है। कुछ नौजवान व अर्द्धशिक्षित मुस्लिम जेलों में भी जेहादी विचारधारा के प्रभाव में आ जाते हैं क्योंकि उपनगरीय क्षेत्रों की इन घेट्टों बस्तियों में पुलिस छापे व यहां के नौजवानों के लिए पुलिस यातना व जेल एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया बन गयी है। इसी तरह ये नौजवान इंटरनेट या स्थानीय मस्जिदों के कट्टरपंथी इमामों के द्वारा भी जिहादी बना दिये जाते हैं। शार्ली हैब्दो नरसंहार को अंजाम देने वाले कोउआची बंधु इसका एक उदाहरण मात्र हैं। 
    गौरतलब बात यह है कि इनके जिहादी बनने में जिहादी विचारधारा का सम्पर्क या प्रभाव बाह्य कारण है। वास्तविक और प्रभावी कारण तो फ्रांसीसी समाज में आबादी के एक हिस्से के प्रति उपेक्षित व्यवहार और उसे एक तरीके से नागरिक सामाजिक जीवन में पराई चीज समझकर बहिष्कृत करने वाला व्यवहार ही जिहादी बनने व जिहादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार की जमीन उपलब्ध कराता है। 
    बहुत से यूरोपीय देशों की भांति फ्रांस भी एक अपूर्व आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। बेरोजगारी भी फ्रांसीसी समाज में लगातार बढ़ रही है। ऐसे में प्रवासी लोगों के प्रति वैमनस्य व ईष्र्या नफरत का भाव तेजी से फैल रहा है। घोर दक्षिणपंथी व नस्लीय नफरत फैलाने वाले मैरीन ली पेन जैसे नेता व उनकी नेशनल फ्रंट पार्टी को हाल ही में म्युनिसिपल व यूरोपीय चुनावों में भारी बहुमत मिला है। यह फ्रांसीसी समाज में बढ़ते नस्लीय नफरत, फासीवादी रुझान व इस्लामोफोबिया का द्योतक है। 
    शार्ली हैब्दो ने हाल ही में अपना नया संस्करण निकाला और दुर्भाग्य से उन्होंने उसके कवर पृष्ठ पर फिर हजरत मुहम्मद साहब का कार्टून यह कहते हुए छापा कि खुदा उन्हें माफ करे, शायद वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। हजरत मुहम्मद साहब का कार्टून छापना महज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात नहीं रह गयी है। उससे आगे यह नस्लीय नफरत व ‘इस्लामोफोबिया’ का एक प्रतीक भी बन गया है।  
सऊदी राजा के जाने का अफसोस किसको है?
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    सऊदी अरब के 90 वर्षीय राजा अब्दुल्लाह बिन अब्दुल अजीज मर गये। उसके जाने पर पश्चिमी साम्राज्यवादी व उनके लगुवे-भगुवे अफसोस जताने में जुट गये। अमेरिकी साम्राज्यवादी सरगना ओबामा अपनी भारत यात्रा छोटी कर सऊदी अरब जाने को तैयार हो गये। भारत ने भी एक दिन के राजकीय शोक की घोषणा की और राष्ट्रीय ध्वज आधा झुका दिया। 
    अब्दुल्लाह वैसे तो 1995 से अपने चचेरे भाई व उस समय के राज फहद को दिल का दौरा पड़ने के बाद से ही वास्तविक सत्ता संभाल चुके थे पर औपचारिक तौर पर राजा वे 2005 में फहद की मौत के बाद ही बन पाये। अपने 20 वर्षों के शासन में उसने जो कुछ किया उससे उसके जाने से अमेरिकी साम्राज्यवादियों का दुखी होना स्वाभाविक है। 
    20 वर्षों में उसने पश्चिमी एशिया में अमेरिकी तेल कंपनियों, अमेरिकी साम्राज्यवादियों के हित साधने में जी-जान लगा दी। उन्होंने तेल से प्राप्त डालर को अमेरिकी बैंकों में जमा करवाया। उन्होंने प्रवासी मजदूरों के शोषण में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवाद की मदद से बहाबी कट्टरपंथ को प्रचारित करने, पालने-पोसने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। अरब जगत में कुछ देशों में पल-बढ़ रही धर्मनिरपेक्षता को इस्लामिक कट्टरंपथ से पीछे धकेलने में सऊदी राजा सबसे आगे थे। उन्होंने सऊदी अरब को दुनिया के चौथे नंबर का सैन्य बजट वाला देश बनाया।
    जन विद्रोहों की आंधी सऊदी अरब, बहरीन तक पहुंचने पर राजा ने अपनी सेनाओं के दम पर जनविद्रोहों को बर्बरता से कुचला। उसने इस्लामिक स्टेट से लेकर अलकायदा को खड़ा करने में मुख्य भूमिका निभाई। उसने सीरिया में असद सरकार को अस्थिर करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। 
    घरेलू मोर्चे पर अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों का सर कटवाना उनकी सामान्य आदत थी। अपने देश की विद्रोही आबादी को कुचलने में उन्हें मजा आता था। सारी आधुनिकता और सुधार के लबादे के नीचे उन्होंने राजघराने के लिए अय्याशी भरा पतित बेशर्म जीवन स्थापित किया। 
    अमेरिकी साम्राज्यवादी अपने विश्वस्त के जाने से दुखी हैं पर दुनियाभर के मेहनतकशों, सऊदी मजदूरों को इस राजा के जाने से दुखी होने की एक भी वजह नहीं दिखती। उसके कर्मों में एक भी कर्म ऐसा नहीं मिलता जिससे जनता का कोई भला होता हो। 
फिर नहीं बन सका नेपाल का संविधान
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    एक बार नेपाल में फिर वही हुआ जो पिछले कई वर्षों से होता आ रहा है। संविधान बनाने की एक और अंतिम तारीख को फिर आगे खिसका दिया गया। 22 जनवरी, 2015 को पहले से तय तारीख तक नेपाल का संविधान नहीं बन सका। 
    नेपाल की भारत परस्त पूंजीवादी पार्टियों ने संविधान न बनने देने का आरोप प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी सहित मधेशी पार्टियों पर लगाया। संविधान सभा में जिस तरीके से संविधान के सबसे विवादास्पद मुद्दों को निपटाया जा रहा था, उससे आक्रोशित होकर विपक्षी पार्टियों ने उग्रता का रास्ता अपनाया और संविधान सभा में सत्तारूढ़ पार्टियों की मनमर्जी नहीं चलने दी। संविधान सभा में प्रश्नावली तैयार कर उसमें एक-एक कर प्रश्नों को स्कूली ढंग से हां या ना के तरीके से हल किया जा रहा था। 
    नेपाल में 2008 से स्थितियां अभी तक ऐसी बनी हुई हैं कि जिसमें संविधान निर्माण की कार्यवाही सुचारू ढंग से सम्पन्न नहीं हो सकती है। शासक वर्ग नेपाल की जनता द्वारा लम्बे जनयुद्ध और 2006 के जनउभार के बाद हासिल की गयी उपलब्धियों व चेतना को छीन व कुंद कर देना चाहता है। मेहनतकश व शोषित-उत्पीडि़त जनता की सक्रियता व सजगता बनी हुई है और वह शासक वर्गीय पार्टियों को अपने मनमुताबिक संविधान बनाने में बाधा खड़ी कर रही है। संविधान सभा के भीतर माओवादी पार्टी अपने वैचारिक कमजोरी व भटकाव के बावजूद कुछ मुद्दों पर पीछे हटने को तैयार नहीं है। शासक वर्ग पर आज भी 2006 तक की जनता की क्रांति का भय छाया हुआ है। 
    फिलहाल संविधान सभा में विवाद के प्रमुख मुद्दे क्रमशः इस प्रकार हैं। नेपाली कांगे्रस और सी.पी.एन. (यू.एमाले) जहां कम संख्या में बहुराष्ट्रीय, बहुजातीय राज्य गठित करना चाहती है जिनके पास नाममात्र के अधिकार हों जबकि माओवादी व मधेशी पार्टियां राष्ट्रीयता व नृजातियता के आधार पर अधिक अधिकार वाले राज्य चाहती हैं। इसके अलावा चुनाव प्रणाली प्रश्न बना हुआ है। वह भारत की तरह हो अथवा अनुपातिक हो अथवा इन दोनों का मेल। वैसी हो जैसी कि नेपाल के हाल के चुनावों में रही है। प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के बीच शक्तियों के बंटवारे व न्याय प्रणाली का चरित्र कैसा हो, आदि कई मुद्दे हैं।  
    नेपाल के संविधान के बीच के सभी मुद्दे अपने चरित्र में पूंजीवादी जनवाद के दायरे के मुद्दे हैं। विभिन्न पार्टियों के बीच मतभेद का मूल बिंदु यह है कि नेपाल में शासक वर्ग खासकर पूंजीपति वर्ग की चाहत केंद्रीयकृत राज व्यवस्था है कि जबकि जनपक्षधर पार्टियां संघीय व्यवस्था चाहती हैं। अधिक से अधिक लोकतांत्रिक अधिकार पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर शोषित-उत्पीडि़तों को बिना क्रांति का रास्ता अपनाये दिलवाना चाहती हैं। इस कवायद में वह जनाधार बनाकर रखना चाहती हैं ताकि आगे ठीक चुनावी लाभ हो। 
    संविधान सभा में 22 जनवरी को हुआ संघर्ष संड़कों तक फैल चुका है। माओवादी, मधेशी पार्टियों व अन्य विरोधी पार्टियां के द्वारा बुलाई गयी देशव्यापी हड़ताल काफी सफल रही हैं। संविधान सभा वस्तुतः निलंबित है। शासक वर्गीय पार्टियों को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। नेपाल पुनः राजनीतिक अस्थिरता के हवाले है। 
कुंठित तत्वों द्वारा ‘नागरिक’ की वेबसाइट हैक की गयी
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    कुछ शरारती तत्वों द्वारा पिछले दिनों ‘नागरिक’ अखबार की वेबसाइट हैक की गयी थी। वेबसाइट हैक कर 16-31 जनवरी 2015  के अंक के मुख्य पृष्ठ से ‘वे हमारा साथ छोड़कर चले गये....’’ हटा दिया गया। पृष्ठ संख्या 12 में लेख ‘‘कामरेड दानवीर एक भावभीनी श्रद्धांजलि......’’ से कुछ पैरा हटा दिये गये व एक पैरा जोड़ दिया गया था। कुछ दिनों बाद पुनः मुख्य पृष्ठ पर एक फिल्मी हस्ती की शादी की फोटो भी चस्पा कर दी गयी। इन कुंठित शरारती तत्वों द्वारा इससे पूूर्व भी एक-दो बार अन्य मौकों पर बेवसाइट को हैक कर छेड़छाड़ की गयी थी। 
    ‘नागरिक’ अखबार एक जनपक्षधर अखबार है जो कि पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न को उजागर करता है। पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष में ‘नागरिक’ अखबार की हमेशा ही सकारात्मक भूमिका रही है। 
    कुंठाग्रस्त शरारती तत्वों द्वारा की गयी वेबसाइट से छेड़खानी ‘नागरिक’ अखबार के उद्देश्य में बाधा पैदा करना है। घृणित पूंजीवादी व्यवस्था के सहचर ये कुंठित तत्व अपने इन कृत्यों से ‘नागरिक’ के लक्ष्यों को कमजोर करने की सोचते हैं। पूंजीवाद की चकाचौंध से चुंधियाये ये लम्पट तत्व सामान्य जनवाद को भी नहीं समझ पाते। अपनी बात के लिए अपने साधन विकसित करने के स्थान पर उठाईगिरों के जैसों तरीकों पर निर्भर हो गये हैं। 
    ‘नागरिक’ के उद्देश्यों में बाधा पहुंचाने, प्रेस की स्वतंत्रता में बाधा पहुंचाने वाले इन कुंठित शरारती तत्वों की शरारत को ‘नागरिक’ अखबार गंभीरता से लेता है। समाचार पत्र द्वारा इन शरारती तत्वों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करते हुए एफ.आई.आर. दर्ज करवायी गयी है। पाठकों को नागरिक की बेवसाइट में आपत्तिजनक सामग्री के बारे में सावधान किया जाता है।           -सम्पादक 
जमीन हड़पो अभियान: एक भारतीय अरबपति की दास्तान
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
2008 में जब से वैश्विक खाद्य संकट शुरू हुआ है। तब से दुनिया भर में अरबपतियों द्वारा जमीनों पर कब्जा करने का अभियान चल रहा है। इस जमीन हड़पने के अभियान में छोटे किसानों को उजाड़ा जा रहा है। उनकी जमीनों को अरबपति यह कहकर हड़प रहे हैं कि इससे कृषि उत्पादन में नयी तकनीक लगाकर वृद्धि करेंगे। लेकिन क्या ऐसा हो रहा है?
इसे समझने के लिए एक भारतीय अरबपति द्वारा दुनिया के अलग-अलग देशों में जमीनों पर किये गये कब्जों को देखा जा सकता है। इस अरबपति का नाम चिन्नाकन्नान शिवशंकरन है। यह व्यक्ति दुनिया भर में कृषि योग्य जमीनों पर कब्जा करने वालों में सबसे सक्रिय अरबपति है। कृषि उत्पादन में सट्टा पूंजी तेजी से ले जाने वाला भी यह पूंजीपति है। 
इस अरबपति ने शिवा ग्रुप की कम्पनियां बनाई हैं  और इसकी विविध सहायक कम्पनियां हैं। इसने इन कम्पनियों के जरिए अमरीकी महाद्वीप के देशों सहित अफ्रीका और एशिया के देशों में करीब 10 लाख हेक्टेयर जमीन पर दावा हासिल कर लिया है। वह इन जमीनों को पाॅम तेल के वृक्षारोपण के लिए मुख्यतौर पर हासिल कर रहा है। इस समय शिवशंकरन दुनिया का सबसे बड़ा कृषि जमीनों का मालिक है। कम से कम कागजों में तो यही स्थिति है। 
शिवशंकरन इतनी जमीनों का मालिक कैसे बना? वह दूसरे पराराष्ट्रीय कृषि निवेशकों की तरह ही अपने निवेश को विदेशों में उन जगहों पर कम्पनियों को रजिस्टर्ड कराये हुए है जो कर बचाने के स्वर्ग कहे जाते हैं। जिन कम्पनियों के शेयर वह नियंत्रित करता है वे संदेहास्पद जमीन सौदों और घोटालों में लगी हुई हैं और वे खाद्यान्न पैदा करने की तुलना में अपने निदेशकों को मालामाल करने में ज्यादा व्यस्त हैं।
इस तरीके के निवेश से छोटे किसान और वे समुदाय जिनकी जीविका खेती पर निर्भर है, और कंगाल हो रहे हैं। शिवा ग्रुप और उसके जैसे लोग जो कर रहे हैं वे अक्सर प्रभावित समुदायों की मर्जी के विरुद्ध जमीनों के बड़े हिस्सों पर मालिकाना हक हासिल कर लेते हैं। इसके बाद वे नकद और कर्ज की ऐसी प्रणाली स्थापित करते हैं जिसके जरिये और ज्यादा जमीनों के सौदों में दबाव के बतौर उसे इस्तेमाल करते हैं। 
इन देशों की सरकारें अपने लोगों की मदद करने के बजाय इन कम्पनियों को जमीन की इस लूट में मदद करती हैं। ये सरकारें इन कम्पनियों को सुरक्षा ्रप्रदान करती है और उन्हें प्रोत्साहन देती हैं। वे उनकी स्वघोषित कारपोरेट जिम्मेदारी निभाने के लिए भी नहीं जोर देतीं। इस तरह, शिवशंकरन जैसे वित्तीय खिलाडि़यों के लिए जमीनों को हड़पने का रास्ता आसान हो जाता है। वे इससे तुरंत मुनाफा बटोरते हैं। इस प्रक्रिया में छोटे किसान जीविका से वंचित हो जाते हैं और खाद्यान्न प्रणाली बाधित करते हैं। 
शिवशंकरन कौन है? 
शिवशंकरन ने मोबाइल फोन नेटवर्क, ब्राडबैण्ड, इण्टरनेट सेवाओं और भारत में छूट पर निजी कम्प्यूटर की बिक्री के जरिये लगभग 4 अरब अमरीकी डाॅलर की सम्पदा इकट्ठी की है। लेकिन इसके बाद वह मालों की सट्टेबाजी में ज्यादा हिस्सेदारी करने लगा। इसके लिए उसने प्राकृतिक संसाधनों और  कृषिगत मालों की सट्टेबाजी की ओर रुख किया। इस दिशा में जाने के लिए उसने अफ्रीका के देशों के कच्चे व तैयार मालों की सट्टेबाजी में निवेश किया। 2008 के बाद उसने शिपिंग लाइनों, तेल और गैस भण्डारों, खदानों और वृक्षारोपण (प्लांटेशन) में अधिकाधिक निवेश किया।
शिवशंकरन ने अर्जेण्टीना में जैतून के फर्म खरीदे और भारत में ककड़ी के अचार के ठेके का उत्पादन शुरू किया लेकिन उसका मुख्य जोर पाॅम तेल में था। चूंकि पाॅम तेल दुनिया का सबसे सस्ता खाने का तेल है। इस तेल की मांग तैयार भोजन, सौन्दर्य प्रसाधन की सामग्री और बायो ईंधन में बहुत ज्यादा है। भारत में इस तेल की मांग बहुत अधिक है। आज हमारे देश में इस तेल का बाजार दुनिया में सबसे बड़ा है। 
शिवशंकरन ने पाॅम तेल के लिए वृक्षारोपण में निवेश 2007-08 के खाद्यान्न कीमत संकट के ठीक बाद शुरू किया था। उसने रूचि सोया और के.एस.आयल जैसी अनेक भारतीय तेल प्रसंस्करण करने वाली कम्पनियों के शेयर खरीदना शुरू कर दिया। इसके बाद उसने खुद की पाॅम तेल कम्पनी स्थापित कर ली। 
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि शिवशंकरन ने कृषि में निवेश विदेशों में कर बचाने के स्वर्ग कहे जाने वाले देशों में कम्पनियों के जटिल जाल के जरिये किया। शिवा ग्रुप नाम से उसने सिंगापुर में होल्डिंग कम्पनी बनायी और ब्रिटिश विरजिन द्वीपों में उसने अपनी आवरण कम्पनी ब्राडकोर्ट इनवेस्टमेण्ट नाम से स्थापित की। ये कम्पनियां पाॅम तेल वृक्षारोपण के क्षेत्र में शिवा ग्रुप के निवेश का केन्द्र बनी। इन दो कम्पनियों का पैसा और ज्यादा दूसरे देशों में पाॅम तेल के वृक्षारोपण और जमीनें खरीदने में जाने लगा। 
अनेक देशों में मौजूद पाॅम तेल वृक्षारोपण कम्पनियों को या तो शिवशंकरन खरीदने लगा या उनके महत्वपूर्ण दावों को हासिल करने लगा। लाइबेरिया, सियरा लियोन, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आॅफ कांगो और कोटे द वोयर जैसे देशों में उसने ऐसी ही किया। इन अधिकांश मामलों में उसने ऐसी कम्पनियां उन लोगों से खरीदीं जिनकी कृषि सम्बन्धी कोई पृष्ठभूमि नहीं थी। लेकिन जमीन के बड़े इलाके पर अधिकार हासिल करने के लिए जिनके पास राजनीतिक सम्बन्ध थे। शिवशंकरन ने इन कम्पनियों को पैसे से मदद देकर वहां जमीनों पर बड़े पैमाने पर कब्जा किया।
कैमरून में शिवशंकरन ने अपनी खुद की पाॅम तेल वृक्षारोपण कम्पनी स्थापित की व यहां जमीन हासिल करने और उसको संचालित करने में अपना पूरा नियंत्रण स्थापित किया। वह पापुआ न्यू गिनी और इंडोनेशिया में अपनी सहायक कम्पनियों के पूर्ण नियंत्रण में इसी दिशा में बढ़ रहा है, सियरा लियोन में  उसने खुद की दो कम्पनियां स्थापित कीं और एक अन्य में 95 प्रतिशत अपना नियंत्रण स्थापित किया। बेलिज में उसने एक और सहायक कम्पनी बनायी है जिस पर वह वहां पाॅम तेल की सम्भवानायें तलाश रहा है। 
शिवा ग्रुप के एक मैनेजर के अनुसार, चार अफ्रीकी देशों के प्रत्येक में उसने वृक्षारोपण लायक 2 लाख हैक्टेयर जमीन हासिल कर ली है और पापुआ न्यू गिनी में वह 2 लाख हैक्टेयर जमीन हथिया चुका है। इस प्रकार वह दुनिया के सबसे बड़े जमीन कब्जाने वालों में हो गया है। यह सब आसानी से नहीं हुआ है। उसने इसमें धोखाधड़ी, स्थानीय राजनीतिक सम्बन्धों को इस्तेमाल करने और करों की चोरी करने जैसे तमाम जालसाजी के तरीके इस्तेमाल किये हैं। 
शिवशंकरन के जमीन हड़पने के इस व्यापार में दुनियाभर के ठगों की एक साझेदारी की श्रृंखला है। इसमें सियेरा लियोन में केविन गालिंगटन नामक व्यक्ति है जो ब्रिटिश फौजी अफसर रहा चुका है। इसी तरह सियेरा लियोन में ही लार्ड स्वराज पाल(ब्रिटिश सांसद) का बेटा अंगद पाल है। सियेरा लियोन का सांसद, संसद का उपाध्यक्ष, वहां की संसदीय लेखा समिति का अध्यक्ष और खनन व खनिज मंत्रालय का अध्यक्ष चेरनोर आर.एम. बाह है। सियेरा लियोन और लाइबेरिया का विल्लेम तिजस्सेन नामक व्यक्ति है जो वहां का बड़ा व्यापारी है। वह अपने को कई अफ्रीकी देशों की सरकारों का सलाहकार बताता है। इसी प्रकार, लाइबेरिया का लिंकन फ्रेजर नामक व्यक्ति है जो बड़ी धोखाधड़ी व जालसाजी में माहिर है। जाॅन बेस्टमैन नामक लाइबेरियावासी है जो लाइबेरिया के केन्द्रीय बैंक का गवर्नर रह चुका है और दो बार वहां का वित्त मंत्री रह चुका है। इसी प्रकार उसके दुनिया के अलग-अलग देशों के सहयोगी बने हुए हैं। 
इस तरह, हम देख सकते हैं कि शिवशंकरन जैसे जमीन हड़पने वाले दुनिया भर में अपना जाल बिछाकर लाखों-लाख हैक्टेयर जमीन हड़पने के धंधे में लगे हुए हैं। यह प्रक्रिया हमारे देश में भी चल रही है। अब जमीनों से छोटे किसानों और आदिवासी समूहों को उजाड़ा जा रहा है। 
वैश्वीकरण के दौर में यह प्रक्रिया और तेज हो गयी है। 
इस प्रक्रिया को इस एक व्यक्ति के जमीन हड़पो अभियान से बखूबी समझा जा सकता है। इससे यह भी समझ में आता है कि जमीन हड़पने के पूंजीपतियों के इस अभियान में दुनिया भर की पूंजीवादी सरकारें इन सट्टेबाजों की मदद कर रही हैं।
छोटे किसानों और आदिवासी समूहों के कंगालीकरण की इस प्रक्रिया को पूंजीवाद बेरहमी से अंजाम दे रहा है। 

इसके विरुद्ध उठने वाली संगठित आवाज के अभाव में यह प्रक्रिया और बेलगाम, निर्मम और गरीबों के लिए तबाही भरी होती गयी है।  
यूक्रेन सरकार ने की कटौती कार्यक्रमों की तैयारी
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
यूक्रेन के प्रधानमंत्री अर्सेनिप यात्सेन्युक ने 22 दिसम्बर को 2015-2020 के लिए नये आर्थिक कार्यक्रम संसद में पेश किये। कानून निर्माताओं ने इन कार्यक्रमों को उसी दिन स्वीकार कर लिया। प्रधानमंत्री ने जिन कार्यक्रमों को पेश किया है वे आम जनता के लिए अत्यन्त कठोर हैं और इनको बनाने वाले अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष व दूसरी अंतर्राष्ट्रीय कर्जदाता संस्थाएं हैं। 
प्रधानमंत्री यात्सेन्युक ने कटौती कार्यक्रमों को पेश करते हुए अपने वक्तव्य में कहा,‘‘अगर हम कुछ नहीं करेंगे तो कोई हमें सहायता नहीं करेगा। इसे प्राप्त करने के लिए उन कठोर सुधारों को लागू करना होगा, जिसके लिए हम चुनावों में बात कर रहे थे’’। प्रधानमंत्री के अनुसार वर्ष 2014 में यूक्रेन में आईएमएफ, वल्र्ड बैंक व दूसरे अन्य वित्तीय संस्थानों से 9 अरब डालर आर्थिक सहायता के रूप में प्राप्त किये जबकि पूरा खर्च 14 अरब डालर हुआ। और अगले साल के लिए 15 अरब डालर चाहिए।
इस कर्ज को प्राप्त करने के लिए कठोर कदमों को उठाने की बात प्रधानमंत्री कर रहे हैं। इन कदमों में राजकीय स्वामित्व वाली तेल और गैस कम्पनी नाफ्टोगेज का वित्तीय सुदृढ़ीकरण मतलब निजीकरण, बड़े स्तर पर राजकीय सम्पत्तियों का निजीकरण, न्यायिक व्यवस्था में सुधार आदि है। इसके अलावा इन कार्यक्रमों में देश के सरकारी कर्मचारियों में 10 प्रतिशत की कमी करना व स्वास्थ्य व शिक्षा का आंशिक रूप से निजीकरण करना शामिल है। दवा बाजार को नियंत्रण मुक्त किया जायेगा। गैस व बिजली ऊर्जा पर मिलने वाली सब्सिडी खत्म हो जायेगी। और सामाजिक लाभ व स्पेशल पेंशन खत्म की जायेगी। नाफ्टोगेज के अध्यक्ष का कहना है कि गैस नियंत्रण हट जाने के बाद गैस की कीमतें तीन से पांच गुना बढ़ जायेंगी। इसके साथ ही कोयला खान उद्योग में सुधार लागू किये जायेंगे। इससे लाभ न देने वाली 32 खानें पूर्ण रूप से, 24 खान आंशिक रूप से बंद हो जायेंगी तथा 37 खानों का निजीकरण 2015-19 तक हो जायेगा। 
संविधान में दर्ज स्कूली बच्चों को दी जाने वाली फ्री शिक्षा को 11 साल से 9 साल करने, बच्चों को दी जाने वाली निःशुल्क स्वास्थ्य सुविधा व शिक्षा देने को खत्म किया जा रहा है। वहीं सरकार सांसदों की संख्या 450 से 150 कर रही है। इसके अलावा रिटायरमेंट की उम्र पुरुषों व महिलाओं के लिए 65 वर्ष करने, शैक्षिक संस्थानों व लाइब्रेरी को बंद करना, स्कूली बच्चोें को मुफ्त भोजन देने, दवाओं पर नियंत्रण खत्म कर मरीजों के लिए स्वास्थ्य सुविधा महंगी करने का काम सरकार कर रही है। इसके अलावा बहुत सारे छोटे-मोटे कई सुधार हैं जिनकी चौतरफा मार अब मजदूर-मेहनतकश जनता पर पड़ने वाली है और इन सभी के पीछे साम्राज्यवादी हैं जो अपना शिकंजा यूक्रेन पर कसते जा रहे हैं।

जहां सरकार इन सब कामों को करने के लिए बजट में 10 प्रतिशत की कमी कर रही है वहीं वह अमीरों पर लगने वाले टैक्सों में कमी कर रही है और सैनिक खर्चों को बढ़ा रही है। कीव प्रशासन जीडीपी का पांच प्रतिशत सैन्य व कानून व्यवस्था के लिए बढ़ा रही है और नाटो से जुड़ने के बारे में सोच रही है। और राज्य का सैन्यीकरण तेजी से कर रही है ताकि जनता के विरोधों को कुचला जा सके। 
शातिर साम्राज्यवादी मुल्कों ने फिर कायम रखा वर्चस्च
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
​    जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान व इससे जुड़ी कार्बन उत्सर्जन की समस्या पर सर्वसम्मति से एक आचार संहिता तक पहुंचने के उद्देश्य से पेरू की राजधानी लीमा में एक दिसंबर से बारह दिसंबर के बीच आहूत जलवायु सम्मेलन बिना किसी ठोस उपलब्धि के समाप्त हो गया।  
    लीमा जलवायु सम्मेलन पर पूरी दुनिया की नजर व उम्मीद टिकी थी। अगले वर्ष पेरिस में होने वाली बैठक को पूर्व पीठिका के बतौर इस सम्मेलन को देखा जा रहा था। उम्मीद की जा रही थी कि पेरिस सम्मेलन के लिए आवश्यक प्रगति इस सम्मेलन में हासिल कर ली जायेगी। 
    पेरिस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन को लेकर जो नया प्रारूप तैयार होगा उसके अनेक बिंदुओं पर सहमतियां इस सम्मेलन में हासिल कर ली जायेंगी। मगर अफसोस एक बार फिर विकसित पूंजीवादी मुल्कों अथवा साम्राज्यवादियों ने पेरिस सम्मेलन में किसी बड़े सार्थक परिणाम की उम्मीदों को पहले ही नष्ट कर दिया। भारत और चीन जैसे मुल्कों ने भी पर्यावरण की चिंताओं को अपने देश के पूंजीवादी विकास के मातहत रखकर ही सम्मेलन में भागीदारी की। 
    पर्यावरण की इनकी चिंताएं नकली थीं। एक बार फिर जलवायु सम्मेलन बिना किसी ठोस उपलब्धि के समाप्त हो गया। लीमा सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन घटाने को लेकर लक्ष्य, उपाय और जवाबदेही के कार्यभार अगले साल पेरिस सम्मेलन के लिए छोड़ दिये गये। 
    लीमा सम्मेलन से दो अपेक्षाएं थीं। पहली कि सभी देश यह बतायेंगे कि जलवायु संकट से निपटने के लिए वे खुद क्या करेंगे जो कि अगले वर्ष पेरिस में होने वाले अंतिम वैश्विक समझौते का आधार बनेगा। पेरिस घोषणा पत्र अगले साल तय होगा पर वह 2020 से लागू होगा। सम्मेलन से दूसरी अपेक्षा यह थी कि यह उस आचार संहिता अथवा वैधानिक ढांचे का अंतिम रूप सुझायेगा जिसके आधार पर पेरिस सम्मेलन को अंतिम रूप दिया जायेगा। लेकिन इन दोनों मामलों में यह सम्मेलन किसी उपलब्धि तक नहीं पहुंच सका। ले-देकर अंतिम क्षणों में 190 राष्ट्रों के बीच एक समझौता हुआ जिसमें यह तय हुआ कि सभी देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए अपनी-अपनी राष्ट्रीय योजना 31 मार्च, 2015 तक प्रस्तुत कर देंगे जिसके आधार पर पेरिस में अगले वर्ष होने वाले वार्षिक सम्मेलन में एक नया वैश्विक समझौता हो सके। 
    लीमा सम्मेलन को लेकर एक विशेष बात यह रही कि क्योटो करार के समय से विकसित पूंजीवादी देशों द्वारा वायुमंडल में ऐतिहासिक तौर पर अधिक गैस उत्सर्जन करने के मद्देनजर विकसित पूंजीवादी देशों की अधिक जिम्मेदारी व पिछड़े पूंजीवादी देशों (‘विकासशील’ देशों) के लिए तकनीकी और वित्तीय मदद का जो सिद्धांत चला आ रहा था, उसे काफी कमजोर कर दिया गया है। क्योटो करार 1997 में हुआ था इसके तहत विकसित पूंजीवादी देशों (अधिक औद्योगीकृत व मध्य यूरोपीय देशों जिन्हें अनुसूची बी के मुल्क कहा गया) को बाध्यकारी रूप से 2008 से 2012 के बीच अपने यहां ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर पर 6 से 8 प्रतिशत की कटौती करनी थी। अमेरिका के लिए 1990 के स्तर पर 7 प्रतिशत उत्सर्जन में कमी लाने का प्रस्ताव था। लेकिन राष्ट्रपति क्लिंटन के हस्ताक्षर होने के बाद अमेरिकी कांग्रेस ने इसे पास नहीं किया और बुश सरकार ने 2001 में इस करार को पूरी तरह खारिज कर दिया। इस तरह संयुक्त राज्य अमेरिका क्योटो प्रोटोकाॅल से भी नहीं संबद्ध है। 
    विकसित पूंजीवादी मुल्क नहीं चाहते कि पर्यावरण को लेकर वे किसी बाध्यकारी समझौते में फंसे बल्कि वे पर्यावरण क्षति के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए अधिकाधिक तीसरी दुनिया के देशों को जिम्मेदार ठहराकर उन्हीं को पर्यावरण मानदंडों पर अनुशासित करना चाहते हैं। दूसरी तरफ भारत, चीन जैसे मुल्क पर्यावरण के किसी भी बाध्यकारी समझौते को लागू करने से इस बिला पर छूट चाहते हैं कि ऐतिहासिक तौर पर वे गैस उत्सर्जन के मामले में विकसित पूंजीवादी मुल्कों से काफी पीछे हैं। अतः जलवायु परिवर्तन हेतु किसी भी बाध्यकारी नियम व जवाबदेही सिर्फ विकसित पूंजीवादी मुल्कों पर लागू होने चाहिए। 
    कुल मिलाकर जलवायु परिवर्तन को लेकर सभी पूंजीवादी मुल्कों में कोई चिंता या जिम्मेदारी का बोध नहीं है। हर कोई ऊपरी स्तर पर बयानबाजी कर अपने लिए किसी बाध्यकारी नियम से छूट चाहता है। पूंजीवादी विश्व व्यवस्था में पर्यावरण को लेकर कोई सार्थक व गंभीर पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती है। जो कुछ वहां हो सकता है वह 1915 में बर्लिन से लेकर 2014 में लीमा तक सम्मेलनों में केवल बहसें व दोषारोपण के रूप में दिखाई दे रहा है। 

स.रा.अमेरिका-क्यूबा के संबंधों की बहाली
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    पिछले दिनों लगभग 5 दशक तक एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे अमेरिका व क्यूबा ने आपस में संबंधों को बहाल करने का निर्णय लिया है। पूंजीवादी मीडिया इस खबर को इस रूप में प्रचारित कर रहा है कि एक कम्युनिस्ट देश और एक पूंजीवादी देश एक-दूसरे के करीब आ गये हैं। क्यूबा के राष्ट्रपति राउल कास्त्रो भी बात को इसी रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं कि क्यूबा समाजवादी देश है और वह समाजवाद की राह नहीं छोड़ेगा, अमेरिका से सम्बन्ध बहाली तो शांतिपूर्ण विदेश नीति का हिस्सा मात्र है। 
    क्यूबा को समाजवादी घोषित करने वाले लोगों के साथ लैटिन अमेरिकी वेनेजुएला सरीखे तथाकथित समाजवादी इस घोषणा से चिन्तित हो रहे हैं। उन्हें क्यूबा के अमेरिका से सटने में क्यूबा में ‘समाजवाद’ के ढह जाने का खतरा दिखाई देने लगा है। 
    वास्तव में क्यूबा 70 के दशक में ही समाजवाद की राह त्याग पूंजीवादी रास्ते पर चलना शुरू कर चुका था। तब सोवियत साम्राज्यवाद से उसकी निकटता अमेरिका को आंखें दिखाने की हिम्मत देती थी। 70 के दशक में ही वहां निजी पूंजी को छूटें दी जाने लगी थीं। तब से अगले 40 वर्षों की उसकी यात्रा पूंजीवाद को ही अधिकाधिक मुकम्मल बनाने की यात्रा थी। सरकारी विभागों के डायरेक्टर, अफसरशाही, पार्टी नेताओं से वहां पूंजीपति वर्ग निर्मित हुआ है। पहले फिदेल और अब राउल कास्त्रो इस पूंजीपति वर्ग के ही प्रतिनिधि हैं। 
    चीन की तरह क्यूबा में भी अभी भी ऊपरी तौर पर रूप के स्तर पर समाजवादी रूप कायम है पर इसकी अंतर्वस्तु पूंजीवादी हो चुकी है। जब तक सोवियत साम्राज्यवादी ताकतवर थे तब तक क्यूबा उनके भरोसे अमेरिका को आंखें दिखला सकता था पर सोवियत संघ के विघटन से उसके लिए परिस्थितियां खराब होने लगीं। नये सत्तासीन हुए राउल कास्त्रो ने यूरोपीय साम्राज्यवादियों से सम्बन्ध कायम करने शुरू किये। अमेरिका के प्रति रुख में भी क्रमशः सुधार होता चला गया। इसी का परिणाम मौजूदा सम्बन्ध बहाली के रूप में सामने आया।
    इस तरह यह सम्बन्ध बहाली क्यूबा के पूंजीपति वर्ग की अमेरिकी साम्राज्यवादियों से सम्बन्ध बहाली है। इसका असर क्यूबा की जनता पर बुरा ही पड़ेगा। अमेरिकी साम्राज्यवादी क्यूबा की ओर लम्बे समय से लार टपकाते रहे हैं। अमेरिकी कम्पनियां क्यूबा के बाजार को जहां एक ओर अपने मालों से भरना चाहती हैं वहीं क्यूबा के सस्ते श्रम का दोहन भी उन्हें आकर्षित करता रहा है। खासकर क्यूबा में इण्टरनेट, दूरसंचार के साधनों का कम इस्तेमाल अमेरिकी कम्पनियों को बड़े बाजार के रूप में नजर आता रहा है। 
    अमेरिकी शासक वर्ग अपनी कम्पनियों की चाहत के बावजूद पिछले एक-डेढ़ दशक से केवल इसीलिए क्यूबा से सम्बन्ध बहाल नहीं कर रहे थे क्योंकि वे पुरानी रंजिश के चलते चाहते थे कि क्यूबा तबाह हो उनके कदमों में झुक जाये। पर ऐसा नहीं हुआ और अब ओबामा ने वाहवाही लूटने की खातिर क्यूबा से सम्बन्ध बहाली का समझौता कर लिया है।  
    खुद क्यूबा के शासक वर्ग को भी इस सम्बन्ध बहाली से तमाम आर्थिक प्रतिबंधों से मुक्ति के साथ अपनी पूंजी की वृद्धि की राह सुगम होती दिखलाई पड़ रही है। अब क्यूबा के शासक धीरे-धीरे ‘समाजवाद’ के बचे-खुचे तत्वों को भी तेजी से खत्म कर छुट्टे पूंजीवाद की ओर बढ़ेेंगे। 
    दोनों देशों के शासकों के उलट क्यूबा की मेहनतकश जनता के लिए यह समझौता क्यूबा के उदारवादी नीतियों पर कदम बढ़ाने के रूप में सामने आयेगा जिसका बोझ मेहनतकश जनता की लूट के बढ़ने के रूप में सामने आयेगा। साथ ही यह कदम क्यूबा की जनता के सामने अपने शासकों के छिपे चरित्र को भी उजागर करेगा। 
    इसलिए क्यूबा अमेरिका सम्बन्ध बहाली को दो देशों के पूंजीपतियों के समझौतों से इतर कुछ और देखना गलत होगा। 

शिंजो आबे दुबारा जीते
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    हाल में सम्पन्न हुए चुनाव में शिंजो आबे दुबारा से चुनाव जीत गये। शिंजो आबे ने अपनी नीतियों पर मोहर लगवाने के लिए समय से पहले ही आम चुनाव करा दिये थे। 
    शिंजो आबे की लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को इन आम चुनावों में अच्छी सफलता मिली। उन्हें 475 सदस्य संख्या वाले निचले सदन में 290 सीटें प्राप्त हुयीं। इस चुनाव में शिंजो आबे की पार्टी ने घोर दक्षिणपंथी बौद्ध कोमेश्टो पार्टी से गठबंधन किया हुआ था। इस गठबंधन को कुल मिलाकर 325 सीटें प्राप्त हुयीं। जापान की मुख्य विपक्षी पार्टी डेमोक्रेटिक पार्टी आॅफ जापान को काफी नुकसान उठाना पड़ा। 
    निचले सदन में प्रधानमंत्री के चुनाव में शिंजो आबे को जहां 328 वहां उनकी प्रतिद्वंद्वी कात्युसा को 73 मत ही मिले। 
    शिंजो आबे 2012 से प्रधानमंत्री थे। उनके प्रधानमंत्री काल में जापान की अर्थव्यवस्था जो कि वर्ष दर वर्ष सिकुड रही है, में शुरूवाती अल्पकाल के अलावा कुछ खास सुधार नहीं हुआ। उन्होंने जापान को मंदी से उबारने के लिए जहां एक ओर अर्थव्यवस्था में नकद राशि बढ़ायी तो दूसरी तरफ सरकारी खर्चों में भी खासी बढ़ोत्तरी की। चुनाव जीतने के बाद वे मंदी से जूझती कम्पनियों से अपने मजदूरों की तनख्वाहें बढ़ाने की अपील कर रहे हैं ताकि घरेलू मांग में बढोत्तरी हो। इस तरह की नीतियों को ही उन्होंने आबेनोमिक्स का नाम दिया हुआ है। 
    इस समय जापान मंदी के साथ मुद्रा अपस्फीति (डिफ्लेशन) की समस्या से जूझ रहा है। महंगाई को जहां अर्थशास्त्र की भाषा में मुद्रास्फीति वहां वस्तुओं के दाम में आने वाली कमी को मुद्रा अफस्फीति कहा जाता है। जापान में माल गोदामों मंे पटे पड़े हैं, वस्तुएं सस्ती से सस्ती हो रही हैं। परन्तु आम जनता की क्रय शक्ति इतनी गिर चुकी है कि वे वस्तुएं खरीदने की स्थिति में ही नहीं हैं। जापान की इस खस्ता हालात से उससे जुड़ी अर्थव्यवस्थाएं भी प्रभावित हो रही हॅैं। चीन, स.रा. अमेरिका को पछाड़कर कई वर्ष पहले उसका पहला व्यापारिक साझेदार बन चुका है। जापान की अर्थव्यवस्था में आयी मंदी और उसका सस्ता माल बाकी अर्थव्यवस्थाओं को संकट में डाल रहा है। 
    शिंजो आबे ने अपनी नीतियों के समर्थन के लिए समय से पहले चुनाव कराये परन्तु इस बार मतदान प्रतिशत गिर गया। जापानी समाज में व्यापक तौर पर निराशा फैली हुयी है। सुजुकी जैसी आॅटो मोबाइल विशालकाय निगम घाटे से जूझ रहे हैं। कमोवेश यही हालात जापान की अन्य मशहूर कम्पनियों और यहां तक प्रसिद्ध जापानी बैंकों व अन्य वित्तीय कम्पनियों के हैं। 
    शिंजो आबे ने अपने पहले कार्यकाल में दक्षिणपंथी व अंधराष्ट्रवादी नीतियों को बढ़ावा दिया। जापानी सेना की आत्मरक्षक स्थिति से नाता तोड़ते हुए उसे अन्य साम्राज्यवादी देशों की तरह ऐसी सेना बनाने का फैसला लिया जो पूरी दुनिया में स.रा. अमेरिका की तरह आक्रामक भूमिका निभाये। चीन, उत्तरी कोरिया, दक्षिण कोरिया से उसके सम्बन्धों में पहले से ज्यादा तनाव इन नीतियों के कारण बढ़ा। 
    जापान जो कि दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है और जिसका एक जमाने में वित्तीय क्षेत्र में दबदबा रहा है वह जिस आबेनोमिक्स की राह पर चल रहा है उसकी सफलता संदिग्ध है। क्योंकि शिंजो आबे के पहले कार्यकाल में इन नीतियों से जापान की अर्थव्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ बल्कि उल्टे ये नीतियां फिजूल के नुस्खे साबित हुयीं।   
क्या संयुक्त राज्य अमेरिका रूस के विरुद्ध युद्ध करने जा रहा है?
यूक्रैन की फासिस्ट हुकूमत और अमेरिकी साम्राज्यवाद
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रतिनिधि सभा में एक प्रस्ताव पारित किया गया है जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वह जब चाहे तब रूस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर सकते हैं। इस प्रस्ताव में यूक्रैन में रूस की दखलंदाजी की निंदा की गयी है। मलेशिया के हवाई जहाज को मार गिराने में रूस को जिम्मेदार बताया गया है। सीरिया में अल असद सरकार की मदद करने के लिए उसे अपराधी करार दिया गया है। सर्वोपरि यह प्रस्ताव उस सारे कदमों की निंदा कर रहा है जो खुद संयुक्त राज्य अमेरिका की हुकूमत दुनिया भर में लंबे समय से लागू कर रही है। 
    यूक्रैन में तो संयुक्त राज्य अमेरिका हुकूमत परिवर्तन के लिए 5 अरब डालर खर्च कर डींग हांक रहा है। वहां पर उसने चुनी हुई सरकार को हटाकर फासिस्ट गिरोह को खड़ा किया है। वहां अभी नया मंत्रिमण्डल गठित किया गया है जिसमें कई ऐसे मंत्री शामिल किये गये हैं जो मंत्री होने के दिन तक उस देश के नागरिक भी नहीं थे। पूर्वी यूक्रैन में उक्रइनी फासिस्ट हुकूमत कहर बरपा कर रही है। वहां के मकानों को धूल-धूसरित किया जा चुका है और उसके लिए अमेरिकी हुकूमत उसको शाबासी दे रही है। 
    द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार घोषित तौर पर फासिस्ट यूक्रैन में सत्ता में हैं। ये घृणा फैलाने वाले अति उग्रराष्ट्रवादी और नस्लवादी हैं। ये हत्यारे हैं। अपने अपराधों पर पर्दा डालने वाले हैं। ये अमेरिकी सामा्रज्यवाद की कठपुतली हैं। ये जनतांत्रिक मूल्यों का मजाक उड़ाते हैं। ये कानूनी सिद्धान्तों के बुनियादी नियमों का उल्लंघन करने वाले हैं। ये महज अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए जिम्मेदार हैं, अपनी अवाम के प्रति कतई गैर जिम्मेदार हैं। 
    अमेरिकी साम्राज्यवादी तथा उनके यूरोपीय सहयोगी इसको जायज ठहराने की कितनी भी कोशिश करें उसे जायज नहीं ठहरा सकते। कारपोरेट मीडिया चाहे इस पर कितना भी झूठ बोले वह इस सच्चाई को नहीं दफना सकता। 
    यूक्रैन की मौजूदा सरकार ने ताकत के जरिये सत्ता पर कब्जा किया है ऐसी ताकत के जरिये गैर कानूनी तौर पर सत्तासीन होने वाली हुकूमत को कानून सम्मत स्वीकृति नहीं मिल सकती। विशेष तौर पर ऐसी हुकूमत जो अपनी ही जनता के विरुद्ध युद्ध छेड़े हुए है, बड़े पैमाने पर उनकी हत्याएं कर रही है। मानवाधिकारों का भयंकर तरीके से उल्लंघन कर रही है। 
    यूक्रैन की हुकूमत किसी विरोध को बर्दाश्त नहीं कर रही है। वह डरा-धमका कर शासन कर रही है। अपनी द्ररिद्र जनता पर बलात नवउदारवादी कठोर कदम थोप रही है। यह उनके जीवन को और ज्यादा असहनीय बना रहा है। 
    अभी हाल ही में सम्पन्न हुए राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव पूर्णतया प्रहसन थे। वे किसी भी मानक पर कानूनी व न्यायसंगत नहीं ठहराये जा सकते। पूरे के पूरे परिवार संसदीय चुनाव जीत गये। 
    यूक्रैन की फासिस्ट हुकूमत के चरित्र के बारे में निम्न तथ्य उसकी सच्चाई का बयान कर देते हैं। 
1-नवउदारवादियों ने कियेव के निवासियों और पुलिसकर्मियों की हत्याएं कीं। 
2-अपदस्थ राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया। 
3-फासिस्ट गिरोहों ने स्वचालित हथियारों का इस्तेमाल किया। ऊंची इमारतों की छतों और खिड़कियों से सरकार समर्थकों पर गोलियां चलाई और उस समय के राष्ट्रपति विरोधियों को जो मैदान में इकट्ठा थे, उनको नजरंदाज किया ताकि वे सरकारी भवनों पर कब्जा कर सकें। 
4-इस जबरन गैर कानूनी सत्तादखल का अमेरिकी दूतावास से संचालन होता रहा। यह सदर मुकाम पर गैर कानूनी सत्तादखल था। 
    ये ऐसे तथ्य हैं जो यूक्रैन में फासिस्ट गिरोह को सत्ता में ले आये। यह प्रदर्शित करता है कि मौजूदा पोरोशेंको की हुकूमत गड़बड़ी फैलाने वाली एक विकृत हुकूमत है। यह सुधार की हुकूमत नहीं है। पोरोशेंकों का यह कथन कि वे यूक्रैन को एक मजबूत राज्य बनायेंगे, तथ्यों के एकदम विपरीत है। इसी तरह मास्को के खतरे के बारे में दावा भी झूठा है। ऐसा कोई खतरा नहीं है। इसका कोई प्रमाण नहीं मिला। 
    पोरोशेंको ने कहा कि बाहरी मोर्चे पर वे अपनी आजादी के लिए और स्वाधीन राष्ट्र के बतौर अपने भविष्य के लिए लड़ रहे हैं। उनके अनुसार यह लड़ाई समूचे यूरोप और वैश्विक सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। यह सरासर झूठ है। फासिस्ट आजादी की निंदा करते हैं। वे अपने नियंत्रण को बिना चुनौती के रखने के लिए हर आजादी को कुचलते हैं। यूक्रैन ने अपनी स्वाधीनता खो दी है। उस पर अब अमेरिकी साम्राज्यवादियों का नियंत्रण है। पोरोशेंको उसका कठपुतली नेता है और पुलिस राज्य मशीनरी के शीर्ष पर है। वह अमेरिका की इच्छा पर शासन कर रहा है। वह तभी तक राष्ट्रपति है, जब तक वह यह याद रखेगा कि मालिक कौन है। 
    उसके इस सफेद झूठ के पूर्ण विरोध में सच्चाई है। उसने अभी जो कदम उठाये हैं उसमें गंभीर मानवाधिकारों का उल्लंघन बहुत स्पष्ट है। वह ये हैं। 
1-मानवाधिकारों का उल्लंघन
2-यूरोपीय संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका का हस्तक्षेप।
3-उनके द्वारा आयोजित विरोध में हथियारों व हिंसक तरीके का इस्तेमाल। 
4-बुनियादी स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध तथा विरोधियों की धरपकड़।
5-नस्लीय पृष्ठभूमि के आधार पर भेदभाव।
6-धार्मिक आधार पर दंड।
    इस सबके साथ सभी क्षेत्रों में पोटोशेंको की फासिस्ट हुकूमत का दमनचक्र जारी है जिसमें उसका गैर कानूनी फासिस्ट शासन दबाव तथा हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है। प्रेस की आजादी को कुचला जा रहा है। नृशंसता की कोई सीमा नहीं यह बिल्कुल नाजी जर्मनी जैसा है। इतिहास भयावह तरीके से अपने को दोहरा रहा है। इसके बुनियादी तत्व बदले नहीं हैं। यूक्रैन के लोगों के साथ विश्वासघात किया जा रहा है। आगे और खराब दिन आने वाले हैं। यूक्रैन की हुकूमत का गंदा युद्ध जारी है। वह दोनवास निवासियों के विरुद्ध निर्मम होकर जारी है। दोनवास के निवासी फासिस्ट शासन को अस्वीकार करके जनवाद चाहते हैं। वे आजादी के लिए अपने जीवन को खतरे में डाल रहे हैं। उनका मुक्ति संघर्ष जारी है। मुख्यतः वे अपने बल पर लड़ रहे हैं। रूस ही एकमात्र देश है जो अति आवश्यक मानवीय सहायता दे रहा है। 
    यूक्रैन की फासिस्ट हुकूमत लाखों-लाख दोनवास के निवासियों को अलग-थलग करना चाहती है। वह उन पर बाहरी हथियारों से हमला कर रही है। 
    मानवाधिकारों के लिए रूसी विदेशी मंत्रालय के कमिश्नर के अनुसार पहली बार ह्यूमन राइट्स वाॅच ने स्पष्टतया स्वीकार किया है कि यूक्रैन की सेना बहुप्रक्षेपित मिसाइल प्रणाली और नागरिकों के विरुद्ध प्रतिबंधित हथियारों का दोनवास क्षेत्र में इस्तेमाल कर रहा है। दोनवास के निवासियों को कुचलने केे लिए सामाजिक और आर्थिक तौर पर परेशान किया जा रहा है। जो कुछ वहां हो रहा है वह समूचे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए एक बड़ा खतरा है। मानवाधिकारों के लिए रूसी विदेश मंत्रालय के कमिश्नर ने कहा कि ‘‘भारी हथियारों और लड़ाकू हवाई जहाजों के साथ-साथ वे (यूक्रैनी सेना) फास्फोरस और कलस्टर बमों तथा 240 मिलीमीटर के हावेडजर मोर्टार गोलों का इस्तेमाल कर रही है।’’ उन्होंने आगे कहा कि, ‘‘निश्चित तौर पर यह युद्ध अपराधों के सिवाय और कुछ नहीं है जो नागरिकों के खिलाफ इस्तेमाल किये गये हैं और किये जा रहे हैं’’। 
    यूक्रैन की फासिस्ट हुकूमत ने दोनवास क्षेत्र में तबाही की परिस्थितियां पैदा की हैं। वहां के 60 प्रतिशत मकान या तो नष्ट हो गये हैं या गंभीर तौर पर क्षतिग्रस्त हो गये हैं। बड़े पैमाने पर ताकत का इस्तेमाल करके नागरिकों की हत्या की जा रही है। बच्चों को निशाना बनाया जा रहा है। मलेशिया के डभ्-17 विमान को उसी इलाके में गिराया गया है। बडे़ पैमाने पर लाशें मिली हैं। प्रतिबंधित हथियारों का इस्तेमाल किया गया है। अन्य ऐसे गंभीर युद्ध अपराध किये गये हैं जिनको नजरंदाज करना असंभव है। यह युद्ध अभी भी जारी है लेकिन यूक्रैन की फासिस्ट हुकूमत अपनी जनता के प्रति कतई भी जबावदेह नहीं है। इसका सीमा से बाहर फैल जाने का खतरा मौजूद है। रूस के विरुद्ध खुली टकराहट का खतरा मौजूद है। इसमें अमेरिका के साथ आणविक युद्ध भी शामिल है। मानवता के अस्तित्व को खतरा बना हुआ है। लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवादी लगातार इस तरफ आगे बढ़ रहे हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की कांग्रेस द्वारा हाल में पारित प्रस्ताव इसी का संकेत दे रहा है। 

बढ़ती उत्पादकता घटती मजदूरी
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    हाल में विश्व श्रम संगठन द्वारा वैश्विक स्तर पर वेतन रिपोर्ट जारी की गयी। इस रिपोर्ट में प्रदर्शित किया गया है कि जिस गति से उत्पादकता बढ़ रही है उससे बेहद कम दर से वेतन वृद्धि हो रही है। साथ ही यह रिपोर्ट विश्व स्तर पर 2007 से जुड़ी मंदी के आगे भी जारी रहने व इसके प्रभाव के बतौर वेतन में बढ़ोतरी न होने को दिखलाती है। चूंकि यह रिपोर्ट केवल वेतनभोगी मजदूरों के वेतन ही नहीं पूंजीपतियों, प्रबंधन, स्वरोजगार वाले सबके वेतन के औसत को प्रदर्शित करती है इसलिए इससे मजदूरों की स्थिति में वास्तविक गिरावट की सही तस्वीर सामने नहीं आती। फिर भी यह मानकर कि अगर औसत मजदूरी में वृद्धि दर कम हो रही है तो इसका खामियाजा अधिकतर मजदूर वर्ग को ही उठाना पड़ा होगा, हम मजदूरों के वैश्विक स्तर पर गिरते जीवन स्तर को समझ सकते हैं। रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं।
1-विकसित देशों में वेतन वृद्धि दर 2008 से बुरी तरह प्रभावित हुई है। औसत वेतन लगभग 2008 के स्तर पर ठहरा हुआ है। 2008 से 2013 के बीच औसत वेतन वृद्धि दर इस प्रकार थीः -0.3, 0.8,   0.6, .0.5, 0.1, 0.2। इसी को दूसरी तरह से अलग-अलग देशों के तौर पर देखें तो अगर 2007 में विकसित देशों की औसत मजदूरी 100 मान ली जाय तो 2013 में यह ग्रीस में 75.8, इंग्लैण्ड में    92.9, इटली में 94.3, स्पेन में 96.8, आयरलैण्ड में   98.1, जापान में 98.7, अमेरिका में 101.4, फ्रांस में 102.3, जर्मनी में 102.7, पुर्तगाल में 103.4, कनाडा में 105 व आस्ट्रेलिया में 108.9 है। यानी ग्रीस, इंग्लैण्ड, इटली, स्पेन, आयरलैण्ड, जापान में औसत मजदूरी बढ़ने के बजाय गिरी है और अन्य देशों में भी बेहद मामूली बढ़ी है। 
2-विकसित देशों में उत्पादकता की तुलना में औसत वेतन बढ़ने की दर बेहद कम है। अगर 1999 में उत्पादकता और औसत वेतन को 100 के स्तर पर मान लिया जाय तो 2013 में उत्पादकता 117 के स्तर पर वहीं औसत वेतन 107 के स्तर तक पहंुचा है। इसी तरह राष्ट्रीय आय में श्रम के हिस्से में सभी देशों में गिरावट दर्ज की गयी है। 
3- विकसित देशों में औसत वेतन वृद्धि दर 2013 में अफ्रीका में 0.9, एशिया में 6.0, पूर्वी यूरोप व मध्य एशिया में 5.8, लैटिन अमेरिका व कैरिबियाई देशों में 0.8, मध्य पूर्व में 3.9 रही। यहां भी एशिया के चीन-भारत को छोड़ बाकी जगह हालत बुरी है। भारत में अपने अनुभव से वेतन वृद्धि की हालात मजदूरों को अच्छी तरह समझ में आती है। 
4-सभी विकासशील देशों में औसत वेतन वृद्धि दर 2012 की तुलना में 2013 में गिरावट दर्ज की गयी। चीन में यह 9.0 से घटकर 7.3, ब्राजील में 4.1 से 1.8, मैक्सिको में -0.5 से -0.6, रूसी फाउडेशन में यह 8.5 से गिरकर 5.4, यूक्रेन में 14.4 से गिरकर 8.2, दक्षिण अफ्रीका में 3.1 से गिरकर -0.1 पर आ गयी। केवल सऊदी अरब में यह 5.0 से बढ़कर 5.6 पहुंची। 
5-अगर सभी वेतन पाने वालों में शीर्ष 10 प्रतिशत व निचले 10 के वेतनों की तुलना की जाय तो पाया गया कि 2006 से 2010 के बीच सभी विकसित देशों में गैर बराबरी तेजी से बढ़ी है। यह अंतर सामान्यतया 5 गुने से 11 गुने तक है। सबसे अधिक गैरबराबरी अमेरिका में 11 गुने स्तर पर है। वहीं विकासशील देशों में यह 10 गुने से बढ़कर 12 गुना हो गयी है। अफ्रीका में यह 25 गुने तक है। यानी रिपोर्ट दिखलाती है कि वेतन पाने वालों में भी अमीरी-गरीबी की खाई तेजी से चौड़ी हो रही है। इसे ध्यान में रखकर वेतन गिरावट के ऊपर के आंकड़े देखें तो हम पायेंगे कि दरअसल मजदूर वर्ग का जीवन स्तर बहुत तेजी से पूरी दुनिया में गिरा है। 
6- स्त्री-पुरुषों के वेतन के अंतर रिपोर्ट के अनुसार सभी जगह कम हुआ है। हालांकि यह बराबर होने के अभी दूर है। केवल कुछ देशों में आस्ट्रिया, आइसलैण्ड, इटली में यह बराबरी के स्तर पर पहुंचा है वही लिथुआनिया, स्लोवेनिया व स्वीडन में स्त्रियों का वेतन अधिक तक पहुंच गया है पर शेष दुनिया में स्त्रियां कम वेतन पर ही कार्यरत है। 
7-वैश्विक अर्थव्यवस्था की सेहत और औसत वैश्विक वेतन वृद्धि दर में सीधा संबंध दिखलाई पड़ता है। 2007 व 2008 में आर्थिक वृद्धि दर के नीचे जाने से वेतन वृद्धि दर भी नीचे गयी 2010 में दोनों ऊपर, 2011 में नीचे, 2012 में ऊपर चढ़े, अब 2013-14  में फिर नीचे जाने के संकेत दिख रहे हैं। 2013 में औसत वेतन वृद्धि दर 2.2 से गिरकर 2.0 प्रतिशत आ गयी है। 
8- क्रय शक्ति समतुल्यता के आधार पर विकसित देशों का औसत मासिक प्रति व्यक्ति वेतन 3000 डालर है जबकि विकासशील व गरीब देशों का 1000 डालर है। विश्व का औसत प्रति व्यक्ति मासिक वेतन 1600 डालर है। 
    उपरोक्त रिपोर्ट में दिखलाई तस्वीर से कहीं ज्यादा बुरी तस्वीर दुनिया के मजदूर वर्ग की है। आर्थिक संकट का अधिकाधिक बोझ मजदूर वर्ग पर स्थानांतरित करने की शासकों की नीति जारी है।

गेट्स फाउंडेशन का वास्तविक एजेंडा  -जैकब लेविच
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
 (पिछले अंक से जारी)
   IV-एक व्यापक एजेंडा
   गेट्स फाउंडेशन के दवा उद्योग, कृषि, जनसंख्या नियंत्रण और अन्य लोकोपकारी कहे जाने वाले मुद्दों पर समन्वयित हस्तक्षेप के पीछे एक व्यापक एजेंडा छिपा हुआ है। यह हालिया साक्षात्कार में बिल गेट्स ने संक्षेप में ‘‘उन स्थानों, यमन, पाकिस्तान और अफ्रीका के हिस्सों जैसे पर बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि जो कि हम नहीं चाहते’’ के बारे में चेतावनी जैसी बातें बोल गये। उनके द्वारा यहां बहुवचन का प्रयोग रहस्योद्घाटन हैः ‘‘गरीब लोगों के सशक्तिकरण’’ के तमाम शब्दाडम्बर के बावजूद फाउंडेशन बुनियादी तौर पर शासक वर्ग के जरूरतों के संदर्भ में समाज को नये आकार देने से संबंधित है। (जोर मूल में)
    वर्तमान साम्राज्यवादी रणनीति का केंद्रीय जोर विकासशील देशों/तीसरी दुनिया में अधिकाधिक सीधा हस्तक्षेप करने से संबंधित है, जो कि सत्ता परिवर्तन के लिए आंतरिक अस्थिरता पैदा करने से लेकर सीधा सैन्य कब्जा तक होता है। यह इराक और लीबिया के हालिया युद्धों, पूरे मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में अस्थिरता और परोक्ष युद्ध के कई कार्यक्रम चलाने और अफ्रीकी यूनियन सैन्य शक्तियों को अफ्रीकाॅम में एकीकृत करने में साबित होता है। सैन्य आक्रामकता विकासशील देशों में, खासतौर पर अफ्रीकी महादेश में, तेल और रणनीतिक खनिज संसाधनों पर नियंत्रण हासिल करने के पहले की अपेक्षा कई गुना अधिक प्रयासों को दिखाता है। तीसरी दुनिया के जन स्वास्थ्य व्यवस्था में बड़े लोकोपकारिता के और अधिक आक्रामक हस्तक्षेप इसी रणनीति को प्रतिबिंबित करती है और उसका पूरक है।
    इस दौरान पूंजीवादी केन्द्र (कोर) एक ताकतवर कार्यक्रम को आगे बढ़ा रहा है जिसे डेविड हार्वे ने ‘‘सम्पत्तिहरण के द्वारा संचय’’ कहा है और जिसमें विदेशी पूंजी अपने तेज और बड़े स्थानांतरण से जमीनों के बड़े क्षेत्रफलों को नियंत्रण में ले रही है- मुख्यतया अफ्रीका, दक्षिणपूर्व एशिया और लैटिन अमेरिका में। यह या तो सीधी खरीद या लंबे समय के लीज द्वारा हो रहा है और जमीन से किसानों को हटाया जा रहा है। इस प्रक्रिया को कई तरीके से गेट्स फाउंडेशन द्वारा सुसाध्य बनाया जाता है। आगे कुछ झलकियों के माध्यम से गेट्स के एजेंडे का सार प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। 
भूमि सुधार नहीं, ‘‘भूमि गतिशीलता’’
    गेट्स फाउंडेशन के वेबसाइट का कहना है कि भोजन अभाव का कारण ‘‘जनसंख्या वृद्धि, बढ़ती आय, घटते प्राकृतिक संसाधन और जलवायु परिवर्तन’’ हैं और इसका सर्वोत्तम समाधान कृषि उत्पादकता में वृद्धि है। इस तथ्य का कोई जिक्र नहीं है कि प्रति व्यक्ति खाद्य उत्पादन दशकों से लगातार बढ़ रहा है और आज अपने ऐतिहासिक उच्च स्तर पर है। इसका अर्थ है कि भोजन का अभाव असमान वितरण से पैदा होता है न कि अपर्याप्त उत्पादकता से। विस्तृत अध्ययन भी यही दिखाते हैं कि छोटे किसानों के भारी सम्पतिहरण की वजह से जिससे कि करोड़ों लोगों की जीविका चैपट हो गयी, हाल के दशकों में खाद्य असुरक्षा काफी बढ़ी है। गेट्स के उलट, खाद्य संकट ‘‘बढ़ती आय’’ की वजह से नहीं बल्कि गायब होती आय की वजह से है। 
    यद्यपि फाउंडेशन का प्रचार छोटी किसानी के टिकाऊपन के विचार के पक्ष में जबानी जमा खर्च करता है। वस्तुतः इसकी पहल उच्च तकनीकी-उच्च उपज वाली खेती के तरीके की तरफ निर्देशित है- ‘‘हरित क्रांति’’ तकनीकों के जैसी ही जो कि अंततोगत्वा ग्रामीण किसानों के लिए 1960 के बाद विनाशकारी साबित हुई। गेट्स एलाइंस फार ए ग्रीन रिवोल्यूशन इन अफ्रीका जैसे संगठनों के माध्यम से ऐग्रीबिजनेस दैत्य मोनसेंटो के साथ नजदीकी से जुड़ा हुआ है जो कि बायोटेक  और जैविक परिवर्तित जीव शोध पर अरबों रुपये की दान राशि देता है। फाउंडेशन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल ग्रामीण शैली के सूक्ष्म बैंकिंग योजनाओं को पुनर्जीवित करने के लिए भी किया जो कि 2000 के दौरान एक कर्ज जाल का रूप लेेकर ग्रामीण परिवारों का सम्पत्तिहरण किया। 
    छोटे किसानों के सशक्तिकरण से बिल्कुल हटकर बी.एम.जी.एफ. के प्रयासों की दृष्टि ‘‘अदक्ष’’ छोटे किसानों का उनके जमीन से निष्कासन है- एक प्रक्रिया जिसको कि ‘‘जमीन गतिशीलता’’ का सुंदर सा नाम दिया गया है- जैसा कि 2008 में अखबारों में लीक हुए एक अंदरूनी विज्ञप्ति से प्रकट हुआ है।
    कृषि को निम्न निवेश, निम्न उत्पादकता और निम्न आय के अपने वर्तमान स्थिति से बाजार निर्देशित-उच्च उत्पादकता व्यवस्था में संक्रमण के लिए जरूरी है कि आपूर्ति (उत्पादकता) और मांग (बाजार तक पहुंच) साथ-साथ बढ़े।.... इसके लिए जरूरी है कि बाजार निर्देशित किसान ऐसे मुनाफा देने वाली खेती का संचालन कर रहा हो जो कि इतनी आय पैदा करती हो कि गरीबी से बाहर आना संभव हो सके। एक समयांतराल में इसके लिए कुछ भूमि गतिशीलता की जरूरत होगी और सीधे कृषि उत्पादन में लगे रोजगार  कुल रोजगारों का पहले से छोटा हिस्सा होगा। 
    इन नीतियों का छोटे किसानों और उनके परिवारों पर पड़ने वाले प्रभाव आपदाकारी हैं। जैसा कि फ्रेड मैगडाॅफ ने हाल में व्याख्यायित किया, ‘‘दुनिया की पूंजीवादी व्यवस्था अब जमीन खोने वाली विशाल आबादी को उत्पादक रोजगार देने में अक्षम है। इस तरह शहर या दूसरे देशों में पलायन करने वालों का भाग्य सामान्यतया यह होता है कि वे झुग्गी बस्तियों में रहें और ‘‘अनौपचारिक’’ अर्थव्यवस्था के भीतर अनिश्चितता का जीवन जीयें।  
    वास्तविकता में, फाउंडेशन की कृषि नीति समीर अमीन के द्वारा बताये गये कृषि को उत्पादन के अन्य शाखाओं के समान बाजार के अधीन करने पर पैदा होने वाले तार्किक नतीजों से अद्भुत साम्यता रखते हैंः आज के तीन अरब किसानों का स्थान वैश्विक खाद्य आपूर्ति करने वाले दो करोड़ औद्योगिक कुलक ले लेंगे। जैसा कि समीर अमीन कहते हैं। 
    ऐसे विकल्प की सफलता के शर्ताें में शामिल हैः 1. अच्छी भूमि के महत्वपूर्ण हिस्सों का नये औद्योगिक कुलकों को स्थानांतरण (और इन जमीनों को आज के किसान आबादी के कब्जे से निकालना होगा)। 2. पूंजी (आपूर्ति और उपकरणों को खरीदने के लिए) 3. उपभोक्ता बाजारों तक पहुंच। ऐसे कुलक ही आज के अरबों किसानों से प्रतियोगिता कर पायेंगे। लेकिन उन अरबों लोगों का क्या होगा?
    अमीन का विश्लेषण ऊपर उद्धृत किये गये गेट्स फाउंडेशन की विज्ञप्ति से मेल खाता है और इस बात को मानने का आधार है कि संचय और सम्पतिहरण की प्रक्रियाओं से पैदा होने वाली ‘‘अतिरिक्त’’ आबादी का सामना करने की रणनीति पर बी.एम.जी.एफ. ने विचार करना शुरू कर दिया है। 
पुनर्वितरण नहीं जनसंख्या नियंत्रण
    2012 के न्यूजवीक के एक लेख में मेलिंडा गेट्स ने ‘‘परिवार नियोजन’’ को वैश्विक एजेंडा पर वापस लाने के अपने इरादे की घोषणा की और एक संदिग्ध दावा किया कि अफ्रीकी महिलाएं अपने ‘‘असहयोगी पतियों’’ से गर्भनिरोध के इस्तेमाल को छिपाने के लिए डिपो-प्रोवेरा के लिए अक्षरशः व्याकुल है। इस बात की डींग हांकते हुए कि वह फैसला जो कि ‘‘पूरी दुनिया के जीवन को बदलने वाला है’’ उनका अपना है और उन्हांेने घोषणा की कि फाउंडेशन 4 अरब डालर 2020 तक 12 करोड़ महिलाओं- जो कि अनुमानतः अश्वेत होंगी, को सुई सेे लिये जाने वाले गर्भनिरोधक की आपूर्ति के लिए निवेश करेगा। यह एक ऐसा महत्वाकांक्षी कार्यक्रम था कि कुछ आलोचकों ने सुजननिकी(यूजेनिक्स) और जबरन बंध्याकरण के युग की वापसी की घोषणा की। 
    बिल गेट्स जो कि एक समय ‘‘कम से कम विकासशील देशों के लिए’’ एक स्वयंस्वीकृत माल्थसवादी था, अब ज्यादा सावधान है और सार्वजनिक तौर पर मालथस का खंडन करता है। तब भी यह ध्यानाकर्षण है कि फाउंडेशन का प्रचार न केवल गर्भनिरोध की वकालत करता है बल्कि अपने सभी प्रमुख पहलकदमियों, टीकाकरण (जब ज्यादा बच्चे जिंदा रहेंगे तो माता-पिता छोटा परिवार रखने का निर्णय करेंगे) से लेकर प्राथमिक शिक्षा (बालिकाएं जो सात साल की विद्यालयी शिक्षा हासिल करेंगी वे चार साल देरी से विवाह करेंगी और उन बालिकाओं की तुलना में जो प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं करतीं, दो-दो बच्चे कम पैदा करेंगी) तब सब कुछ जनसंख्या नियंत्रण के लिए न्यायोचित ठहराता है। 
    2010 में एक व्याख्यान में पृथ्वी का तापमान बढ़ने के लिए ‘‘जनसंख्या विस्फोट’’ को जिम्मेदार ठहराया और शून्य जनसंख्या वृद्धि को एक संभव समाधान के बतौर पेश किया। यह तर्क कपटपूर्ण है। जैसाकि गेट्स निश्चित तौर पर जानता है कि गरीब लोग जो कि उसके अभियानों के लक्ष्य हैं। जलवायु परिवर्तन के पीछे के पर्यावरण नुकसान के अल्पमत प्रतिशत से अधिक के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने दिखाया कि जब जनसंख्या के आंकड़े को वास्तविक प्रति व्यक्ति संसाधनों जैसे कि जीवाश्म ईंधन और भोजन की मांग के लिए जिम्मेदारी के बतौर व्यवस्थित किया गया तो पाया गया कि ‘‘वास्तविक जनसंख्या दबाव’’ भारत या अफ्रीका से पैदा नहीं होता बल्कि विकसित देशों से पैदा होता है। गेट्स फाउंडेशन इस असंतुलन से भली-भांति परिचित है और इसको समाप्त करने के लिए नहीं बल्कि इसको बनाये रखने के लिए काम करता है- गरीबी के लिए साम्राज्यवाद को नहीं बल्कि ‘‘ऐसे स्थानों पर जहां हम ऐसा नहीं चाहते’’ में अनियंत्रित यौन प्रजनन को जिम्मेदार ठहराकर। 
    मालथस से लेकर आज तक जनसंख्या विस्फोट के मिथक ने शासक वर्ग को एक विश्वसनीय विचारधारात्मक आड़ प्रदान की है जब वह जनता के श्रम और धरती के दौलत का अधिकांश हिस्सा हड़प रहा होता है। जैसा कि आस्पेक्टस के अंक-55 में बताया गया है मालथस के उत्तराधिकारी आज भी हमें समझाना चाहते हैं कि जनता अपनी कंगाली के लिए खुद जिम्मेदार है; कि उपलब्ध संसाधन पर्याप्त नहीं हैं; कि दयनीयता की इस अवस्था को सुधारने के लिए हमें सामाजिक धन के मालिकाने को बदलने और सामाजिक उत्पाद के पुनर्वितरण का प्रयास नहीं करना चाहिए, बल्कि लोगों की संख्या कम करने का प्रयास करना चाहिए। हाल के वर्षों में बी.एम.जी.एफ. के प्रचार साधनों ने जलवायु परिवर्तन के बारे में पश्चिम की चेतावनी का इस्तेमाल करते हुए 1970 के दौरान पाल एरलिक की अत्यधिक बिकने वाली किताब ‘‘दि पापुलेशन बम’’ के जमाने में महसूस किये गये जनसंख्या विस्फोट के हिस्टीरिया को फिर से पैदा करने का काम किया है। 
    तब भी ‘‘परिवार नियोजन’’ पर बी.एम.जी.एफ. के निवेश के पैमाने से ही स्पष्ट हो जाता है कि इसकी महत्वाकांक्षा प्रचार से ज्यादा आगे की है। पीछे वर्णित किया गया कई अरब डालर के गर्भनिरोधक वितरण कार्यक्रम के अतिरिक्त बी.एम.जी.एफ. नये उच्च तकनीकी लंबे समय तक काम करने वाले गर्भनिरोधकों (जैसे कि पुरुषों के लिए अल्ट्रासाउंड नसबंदी कार्यविधि और शल्यरहित महिला बंध्याकरण) के विकास के लिए शोध सहायता उपलब्ध कराता है। इस दौरान फाउंडेशन आक्रामक तरीके से तीसरी दुनिया की सरकारों को प्रेरित करता है कि वे जन्म दर नियंत्रण और अवरचना निर्माण पर अधिक खर्च करें तथा त्वचा के नीचे लगने वाले गर्भनिरोधक के मूल्य को कम करने के लिए सब्सिडी दें। 
    ये पहलकदमियां बड़े लोकोपकारिकता की परंपराओं का हिस्सा हैं। राकफेलर फाउंडेशन ने 1953 में विकासशील देशों में ‘‘मालथसीय संकट’’ की भविष्यवाणी करते हुए पाॅपुलेशन काउंसिल को संगठित किया और जनसंख्या नियंत्रण के लिए विस्तृत प्रयोगों को धन उपलब्ध कराया। इन हस्तक्षेपों को अमेरिकी सरकार के नीति निर्माताओं ने उत्साहजनक तरीके से गले लगाया जो कि मानते थे कि ‘‘विकासशील देशों खासतौर पर गैर पश्चिमी संस्कृति वाले क्षेत्रों में, की जनसांख्यकीय समस्याओं की वजह से ये देश कम्युनिज्म के लिए ज्यादा भेद्य हो जाते हैं’’। फाउंडेशन का शोध 1970 के दौरान ‘‘सरकार प्रायोजित परिवार नियोजन के लिए अनियंत्रित उत्साह’’ के युग में चरम पर पहुंचा। इस बात पर चर्चा कम हुई है लेकिन पर्याप्त दस्तावेज हैं कि अमेरिका आधारित फाउंडेशनों ने सुजननिकी (यूजेनिक्स) शोध को सतत समर्थन दिया। 1920 के दशक से लेकर राकफेलर ने जर्मन सुजननिकी कार्यक्रम को स्थापित करने में मदद पहुंचाई जिसने कि नाजी नस्लीय सिद्धांतों को प्रस्तुत किया। 1970 के दौरान तक जब फोर्ड फाउंडेशन के शोध ने भारत में चलाये गये जबरन नसबंदी कार्यक्रम के लिए बौद्धिक जमीन तैयार की। 
    फाउंडेशन ने जनंसख्या कम करने के तकनीक और अभियानों पर लगातार निवेश क्यों किया? एक निश्चित व्याख्या के अभाव में दो संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है। 
    गेट्स और उसके अरबपति सहयोगी डीन एचसन के दृष्टिकोण को साझा करते होंगे- जिसका माओ त्से तुंग द्वारा किया गया उपहास सभी जानते हैं- कि जनसंख्या वृद्धि भूमि पर असहनीय दबाव पैदा कर क्रांतियों का खतरा पैदा करते हैं। इस विचार की एक हालिया अभिव्यक्ति अमेरिकी उपराष्ट्रपति के आतंकवाद से निपटने के लिए टास्क फोर्स की रिपोर्ट में था कि ‘‘जनसंख्या दबाव युवा महत्वाकांक्षाओं का एक अस्थिर मिश्रण तैयार करता है जो कि आर्थिक और राजनीतिक निराशाओं से मिलकर संभावित आतंकवादियों की एक बड़ी खेप पैदा करता है’’। इस तरह बी.एम.जी.एफ. जनसंख्या नियंत्रण पर संभवतः सुरक्षा कारणों से जोर देता है, जो कि इसके ‘‘कम स्थिर’’ दुनिया के डर से मेल खाती है और वैश्विक स्वास्थ्य शासन के दर्शन में अभिव्यक्त होती है।   
    जनसंख्या नियंत्रण, एक दूसरे अर्थ में, सामाजिक नियंत्रण के उपकरणों में से एक है। यह शासक वर्ग के अधिकार क्षेत्र को निजी मामले तक विस्तृत कर देता है। विकासशील देशों के ऊपर ‘पूर्ण वर्णक्रम प्रभुत्व’ कायम करने के मकसद से। विवाह और यौन व्यवहार को नियमित करने वाले कानूनों की तरह श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन के ऐसे हस्तक्षेप पूंजीपतियों के लिए आवश्यक नहीं हैं लेकिन मेहनतकश अवाम के जीवन के हर पक्ष पर शासक वर्गीय वर्चस्व कायम करने के लिए साधन के बतौर  इसकी जरूरत पड़ती है। जहां जनसंख्या नियंत्रण दर्शन का मकसद होता है वर्तमान ‘‘धन और आय’’ के वितरण, जो कि सर्वव्यापी अभाव पैदा करता है, से ध्यान हटाना; जनसंख्या नियंत्रण अपने आप में सीधे ही गरीब लोगों के शरीर और सम्मान को लक्षित करता है, उन्हें यह मानने के लिए अनुकूलित करते हुए कि जीवन के सबसे अधिक अंतरंग फैसले उनकी क्षमता और नियंत्रण के बाहर हैं। 
    बुर्जुआ विचारधारा और साम्राज्यवादी आचरण के बीच का संबंध गतिशील और एक दूसरे के प्रति सहयोगी है। जैसा कि डेविड हार्वे ने कहा है ‘‘जब भी अभिजातों के प्रभुत्व वाले समाज में जनसंख्या विस्फोट के सिद्धांत हावी होते हैं तब गैर अभिजात प्रायः किसी न किसी तरह के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दमन का सामना करते हैं। इस रोशनी में देखने पर बी.एम.जी.एफ. के द्वारा जनंसख्या नियंत्रण का प्रचार दोगुना हानिकारक है क्योंकि यह पर्यावरणवाद, आम सशक्तिकरण और नारीवाद के आवरण से लिपटा हुआ है। मेंलिडा गेट्स अपने परिवार नियोजन कार्यक्रम के समर्थन में ‘‘चयन’’ का शिगूफा छेड़ सकती हैं, लेकिन वास्तविकता में गरीब महिलाएं नहीं बल्कि दुनिया के कुछ चुनिंदा सबसे अमीर लोग हैं जिन्होंने गर्भनिरोधक के कौन से तरीके और किसे वितरित किये जायेंगे, इसके चयन की जिम्मेदारी उठा ली है। ’’
लोकतंत्र नहीं निर्भरता
    अनाधिकारिक तौर पर बात करते हुए जन स्वास्थ्य अधिकारी गेट्स फाउंडेशन की निरंकुशता के प्रति बहुत कटु होते हैं। इसके बारे में कहा जाता है कि यह ‘‘तानाशाही वाला’’ और ‘‘नियंत्रणकारी’’ है। विशेषज्ञों के सलाह के प्रति तिरस्कारी है, वैश्विक स्वास्थ्य की संस्था को ‘‘बांटना और राज करना’’ चाहता है जिसके लिए संचार और अधिवक्तृता के रडाररोधी जैसे एकाधिकार को इस्तेमाल करता है। लेकिन फाउंडेशन का अभिमान पूर्ण व्यवहार जेनेवा के इसके कार्यालय राजनीति से काफी आगे जाता है। आम तौर पर यह ‘‘स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने में रुचि नहीं लेता और बल्कि वर्तमान स्वास्थ्य सेवाओं से प्रतियोगिता करता है’’। यह नियमित तौर पर संप्रभु राष्ट्रों के स्वास्थ्य मंत्रालयों की ताकत को या तो दबाव के द्वारा उनका सहयोग हासिल कर या अस्तित्वमान अवरचना और कर्मियों को किनारे रखने वाले गैर सरकारी संगठनों के द्वारा प्रायोजित अभियानों के द्वारा उन्हें चालबाज तरीके से नीचा दिखाकर धता बताता है। 
    खासतौर पर फाउंडेशन के एक ही मुद्दा के लिए उध्र्वाधर संगठित हस्तक्षेप पर जोर से समुदाय आधारित प्राथमिक स्वास्थ्य, जो कि 1978 के अलमा अटा उद्घोषणा के द्वारा तीसरी दुनिया के स्वास्थ्य कार्यक्रम के माडल के रूप में अनुमोदित है, को कमजोर करता है। अंतर्निहित रूप से ‘‘बेयरफुट डाक्टर’’ (नंगे पांव वाला डाॅक्टर) कार्यक्रम पर आधारित जिसने कि चीनी लोक गणराज्य के जनस्वास्थ्य कार्यक्रम का क्रांतिकारीकरण किया, प्राथमिक स्वास्थ्य के दर्शन ने प्रस्तावित किया कि जनता का अधिकार और कर्तव्य है कि अपनी स्वास्थ्य सेवा के योजना और कार्यान्वयन में व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर भागीदारी करें। सैद्धांतिक तौर पर, लक्ष्य सिर्फ स्वास्थ्य सुधार नहीं था बल्कि आम सशक्तिकरण और स्थानीय स्तर पर वास्तविक जनतंत्र का निर्माण था। लोगों को यह मानने के लिए प्रोत्साहित किया जाना था कि स्वास्थ्य पश्चिमी दानदाताओं द्वारा दिया जाने वाला कोई तोहफा नहीं है बल्कि उनका अधिकार है। 
    यद्यपि चीनी माॅडल कभी भी गैर समाजवादी देश में सही ढंग से लागू नहीं किया जा सका, अलमा अटा ने विकासशील देशों में कई समुदाय आधारित स्वास्थ्य पहलकदमियों को प्रेरित किया जिससे शिशु मृत्यु दर में कमी आई और औसत आयु में वृद्धि हुई। आज विश्वव्यापी तौर पर प्राथमिक चिकित्सा कार्यक्रम ढांचागत सुधार कार्यक्रम के निर्देशों और अमेरिकी फाउंडेशनों के हस्तक्षेप दोनों की वजह से बुरी हालत में है। गेट्स फाउंडेशन समुदाय आधारित समग्र चिकित्सा से संसाधनों को खींचने में प्रायः अपनी भूमिका निभाता है और पश्चिमी गैर सरकारी संगठनों के स्वास्थ्य संबंधी बहुराष्ट्रीय निगमों के संश्रय में नियंत्रित एक रोग धमाकेदार कार्यक्रम की तरफ उनको पहुंचाता है। डायरिया जो हर वर्ष 10 लाख से अधिक शिशुओं की जान लेता है, के प्रति इसकी पहुंच एक उदाहरण है। 
    डायरिया को नियंत्रित करने की कार्यविधि रहस्यमयी नहीं हैैः साफ पानी और पर्याप्त साफ-सफाई रोकथाम के लिए जरूरी है जबकि इलाज के लिए प्रभावित शिशु को ओआरएस और जिंक सम्पूरण दिया जाता है। चीनी ‘‘बेयरफूट डाॅक्टरों’’ ने 1950 से लेकर 1980 के बीच गांव के स्तर पर ओआरएस की आपूर्ति से और परिवारों को इसकी महत्ता और सही इस्तेमाल के बारे में शिक्षित कर डायरिया से होने वाली मौतों में तेजी से कमी की। तब भी सरकारों को जानों को बचाने वाली साफ-सफाई अवरचना और प्राथमिक चिकित्सा में निवेश करने से दूर कर बीएमजीएफ टीका शोध को पैसा देता और बढ़ावा देता है, गैर सरकारी संगठनों के कार्यक्रम की मार्केटिंग करता है और ‘‘विनिर्माताओं और वितरकों के साथ मिलकर ओआरएस और जिंक उत्पाद को उपभोक्ता के लिए ज्यादा आकर्षक बनाने का काम करता है। इसके लिए वह उत्पाद को सुगंधित बनाता है और आकर्षक पैकेजिंग करता है’’। 
    शायद बिल गेट्स जो कि घटिया सोफ्टवेयर को कुशलता से बेचकर अमीर बना है, वास्तव में सोचता है कि बच्चों की जान बचाने के लिए उनकी मांओं पर तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता जब तक कि दवाओं का कोकाकोला की तरह विज्ञापन न किया जाए। लेकिन बी.एम.जी.एफ. डायरिया के प्रति समग्र रुख, जन स्वास्थ्य के प्रति सामान्य रुख की तरह, हमें ध्यान दिलाता है कि तीसरी दुनिया के लोकतंत्र का कमजोर होना शासकों के लिए कोई अस्वागतयोग्य चीज नहीं है। जैसा कि शिक्षा शास्त्री रावर्ट आर्नोव ने कहा, फाउण्डेशन अपने मूल में लोकतांत्रिक समाजों के लिए कोढ़ हैं, वे तुलनात्मक तौर पर अनियंत्रित और गैर जबावदेह सत्ता और धन का संकेन्द्रण का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कि प्रतिभा को खरीदता है, हितों को आगे बढ़ाता है और वास्तव में ऐसे एजेंडा को स्थापित करता है जिस पर समाज को ध्यान देना चाहिए। वे एक ‘‘ठंडा करने वाले’’ माध्यम (‘कूलिंग आउट’ एजेन्सीज) का काम करते हैं जो कि ज्यादा मूलगामी ढ़ांचागत बदलाव को विलंबित करता और रोकता है। वे एक ऐसे आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाए रखने में मदद करते हैं, जोकि लोकोपकारियों के शासक वर्गीय हितों को साधता है। 
    दान गतिविधियां जो कि लोकतंत्र और राज्य संप्रभुता को कमजोर करता है शासक वर्ग के लिए बहुत उपयोगी है। विकासशील देशों में एक संतुलित, प्रभावी सामाजिक कार्यक्रम विश्वव्यापी लूट के वर्तमान साम्राज्यी एजेंडा के लिए बाधा हैः स्वस्थ लोग जिनके हाथ में उनके भाग्यों का नियंत्रण हो और अपने समुदायों के सामाजिक बेहतरी के लिए खुद प्रयासरत हों, वे अपने अधीन और पैदा किये गये धन पर दावे की रक्षा करने में ज्यादा सक्षम होते हैं। गुड क्लब लोकोपकारियों की दृष्टि से बहुत बढि़या होगा अगर दुनिया के अरबों गरीब लोग ऐसे दान पर पूरी तरह निर्भर बने रहे जिसको जब मर्जी दिया जाए और जब मर्जी ले लिया जाए।
शासकों के द्वारा अपनी छवि चमकाना
    2007-08 के वित्तीय संकट और उसके बाद विश्व व्यापी तौर पर ‘कटौती’’ कार्यक्रमों के लागू होने के मद्देनजर, महामंदी के बाद से पहली बार अति-अमीरों ने प्रत्यक्ष तौर पर आम लोगों के आक्रोश को महसूस किया। पूरी दुनिया के स्तर पर जनता सड़कों पर उतरी, अपने आप को खुलकर पूंजीवाद विरोधी कहने वाले ‘‘आकुपाई वाल स्ट्रीट’’ आंदोलन को अखबारों में विस्तृत और प्रायः अनुकूल स्थान मिला हैः अखबारों के स्तंभकारों ने खुलकर सवाल उठाया कि क्या पूंजीवाद को अपने आप से बचाने के लिए सुधार की जरूरत है; ‘पूंजी’ और ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ फिर से सबसे अधिक बिकने वाली किताबों की सूची में आ गए। अति अमीर लोगों के लिए खास तौर पर चिंता की बात यह थी कि ‘‘व्यवस्था’’ के बारे में किसी अस्पष्ट शिकायत की जगह वे स्वयं जिस हद तक असंतोष के निशाने पर आ गए थे। यहां तक कि तुलनात्मक तौर पर संपन्न अमरीकियों ने भी अभिजातों जिनको कि आम तौर पर ‘‘1प्रतिशत’’ या ‘‘1प्रतिशत का 1 प्रतिशत’’ कहा जाता है, के द्वारा नियंत्रित सत्ता और बेहिसाब धन पर सवाल उठाए। व्यापक पैमाने पर दुश्मनाना’ परख का सामना करते हुए शासक वर्ग को अपनी छवि चमकाने की जरूरत थी। 
    बीएमजीएफ के प्रचार संभाग ने तेजी से जबाव दिया। फाउंडेशन ने ‘‘जनता के आख्यान को प्रभावित करने के लिए कई संदेशवाही तरीकों’’ का इस्तेमाल किया जिसमें ‘‘रणनीतिक मीडिया सहयोगी’’ -तथाकथित स्वतंत्र समाचार संगठन जिनका कि सहयोग 2.5 करोड़ डाॅलर के वार्षिक दान के वितरण द्वारा हासिल किया गया। बिल गेट्स जिनके बारे में कहा जाता था कि सामाजिक तौर पर बेढंग हैं और मीडिया से संकोची हैं वे अचानक से मुख्यधारा के अखबारों में सर्वव्याप्त हो गए। सभी साक्षात्कारों में समान बातों को ही दोहराते थेः उन्होंने तय किया है कि ‘‘वे अपना शेष जीवन’’ गरीब लोगों की मदद करने में लगायेंगे; इस मकसद के लिए वह अपना सारा धन दे देने की सोचते हैं; उनका असाधारण बुद्धिमत्ता और व्यापारिक हुनर उन्हें अद्वितीय तौर पर योग्य बनाता है कि लोकोपकारी प्रयत्नों से ‘‘ज्यादा चमत्कारिक नतीजे’’ हासिल करेंः वह सहृदय हैं और बीमार और गरीब बच्चों से व्यक्तिगत मुलाकातों से अत्यन्त विचलित हुए हैं, इत्यादि। हमेशा वे अपनी मां के मृत्युशैय्या पर किये गये उनकी कसम खिलाकर किए गए अनुनय की कहानी सुनाते हैंः ‘‘उनकी जिन्हें बहुत ज्यादा मिलता है, उनसे बहुत ज्यादा करने की अपेक्षा है।’’ इसके साथ बीएमजीएफ ने अपने इण्टरनेट गतिविधियों को ट्वीट और फेसबुक का इस्तेमाल कर पूरे विश्वभर में फैले अनुयायियों को वैज्ञानिक भ्रमों और भावनात्मक चित्रों को फैलाकर विस्तारित किया।
    गेट्स की दुनिया के अरबपतियों की मशाल को थामने की तत्परता एक ऐसी समझ को प्रतिबिंबित करता है जिसके अनुसार उनका फाउंडेशन दुनिया की पूंजीवादी व्यवस्था में महत्वपूर्ण विचारधारात्मक भूमिका अदा करता है। विशिष्ट कारपोरेट की कुशलता से प्रचारित की गयी गतिविधियां कुछ अत्यधिक ताकतवर अल्पतंत्र के हाथों में विशाल धन के संकेन्द्रण को बढ़ाने का काम करती है। गेट्स के लोकोपकारिता के किस्सों के द्वारा हमें आश्वस्त किया जाता है कि हमारे शासक परोपकारी, संवेदनशील और कम भाग्यशाली लोगों के लिए ‘‘वापस देने’’ को उत्सुक हैं; इसके अलावा अपने बेहतर बुद्धिमत्ता और तकनीकी विशेषज्ञता की वजह से लोकतंत्र की विकृति से पैदा होने वाली समस्याओं के ‘‘रणनीतिक, बाजार आधारित समाधान ढूंढकर राज्य की संस्थाओं के नौकरशहाना गड़बडि़यों को पार पाने में सक्षम हैं। गरीब राष्ट्रों की संप्रभुता और सामथ्र्य के प्रति एक अव्यक्त हिकारत के साथ आक्रामक साम्राज्यवादी हस्तक्षेपों को और ज्यादा उचित ठहराते हुए पश्चिमी धनपतियों के मसीहा और ज्ञानी लोग मिलजुल कर काम करते हैं’’। 
    इस तरह गेट्स फाउंडेशन, बहुराष्ट्रीय निगमों की तरह जिनसे यह काफी मिलता जुलता है, लोकमत को अपने अनुसार ढ़ाल कर अपनी गतिविधियों के लिए सहमति को गढ़ना चाहता है। खुशी की बात है कि सभी लोग मूर्ख नहीं बनते: बड़े लोकोपकारिता के इरादों के प्रति लोकप्रिय प्रतिरोध पैदा हो रहे हैं। यह संघर्ष व्यापक आधार वाला है जिसमें भारत में पीएटीएच की आपराधिक गतिविधियों का पर्दाफाश करने वाली महिला कार्यकर्ताओं से लेकर रेबेका प्रोजेक्ट जैसे अफ्रीकी-अमेरिकन ग्रुपों की बंध्याकरण विरोधी गतिविधियों से लेकर सीआईए के द्वारा टीका कार्यक्रमों की आड़ में डीएनए संग्रह करने का भेद खुलने के बाद पाकिस्तान में टीकाकरण विरोधी अभियान शामिल है। निश्चित ही गेट्स फाउंडेशन के जहरीले लोकोपकारिता और संक्रामक प्रचारों का उन्मूलन करने के लिए एक विश्व व्यापी अभियान जन स्वास्थ्य की सर्वोत्तम परंपराओं में होगा। 

गेट्स फाउंडेशन का वास्तविक एजेंडा -जैकब लेविच 
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
(गतांक से आगे)
III-गेट्स और बड़ी दवा कंपनियां
‘‘दवा निर्माताओं के लिए गिनी पिग’
’ 
    वार्षिक आय 10 खरब डाॅलर तक पहुंचने के बावजूद वैश्विक दवा उद्योग में हाल में मुनाफे की दर में तीखी गिरावट आयी है जिसके लिए वे नियामक आवश्यकताओं को जिम्मेदार मानते हैं। एक अमेरिकी थिंक टैंक ने नई दवाई के विकास में 5.8 अरब डालर खर्च का आंकलन लगाया है जिसमें से 90 प्रतिशत हिस्सा यू एस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन और ऐसी ही यूरोपीय एजेंसियों द्वारा निर्धारित तृतीय चरण के क्लिनिकल परीक्षण में लगते हैं। (ये परीक्षण बड़ी संख्या में इंसानों के ऊपर किये जाते हैं ताकि नये टीकों और दवाओं की कारगरता स्थापित की जा सके और इसके दुष्प्रभावों को प्रेक्षण किया जा सके) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सलाहदाता फर्म ने स्थिति को ‘‘नाटकीय’’ बताया और बड़ी दवा कंपनियों के अधिकारियों ने जोरदार आग्रह किया कि वे ‘ऐसे उपाय को जो कि खर्चों में छोटे-मोटे बदलाव से आगे जाते हों- प्राथमिक तौर पर क्लिनिकल परीक्षण को उभरते हुए बाजारों में स्थानांतरित करें जहां दवाओं की सुरक्षा जांच तुलनात्मक तौर पर सस्ती, तेज और ढीली है। 
    इस विशिष्ट संदर्भ में बी.एम.जी.एफ. के कुछ टीकों और गर्भनिरोधकों के वितरण में हस्तक्षेप को देखा जाना चाहिए। बड़ी दवा कंपनियों में भारी निवेश की वजह से बी.एम.जी.एफ. इस स्थिति में होता है कि दवाइयों के शोध और विकास रणनीतियों को विकासशील दुनिया की वास्तविकताओं के अनुरूप बुन सके, ‘‘जहां वैज्ञानिक खोज को इस्तेमाल लायक समाधान बदलाव को त्वरित करने के लिए वह मूल्यांकन और संभावित हस्तक्षेप के परिष्करण के बेहतर रास्ते ढूंढता है- जैसे कि टीका के लिए उम्मीदवार इससे पहले कि वह महंगे और समय नष्ट करने वाले क्लिनिकल परीक्षण से गुजरे। सीधी भाषा में, बी.एम.जी.एफ. बड़ी दवा कंपनियों को पश्चिमी नियामक प्रणाली से बचने के प्रयास में परिधि के सस्ते दवा परीक्षणों के माध्यम से मदद करती है। 
    इस सहायता के उपकरणों गेट्स द्वारा नियंत्रित संस्था जैसे कि जी.ए.वी.आई. गठबंधन, दि ग्लोबल हेल्थ इनोवेटिव टेक्नोलाॅजी फंड और दि प्रोग्राम फाॅर एप्रोप्रियट टेक्नोलाॅजी इन हेल्थ- तीसरी दुनिया के लोगों की जिन्दगियों को बचाने के मकसद से बने पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप है। आभासी तौर पर स्वतंत्र लेकिन गेट्स के द्वारा इतने अधिक वित्तपोषित कि फाउंडेशन वे वस्तुतः पुर्जा हो, ऐसे संगठनों के मध्य 2000 में अफ्रीका और दक्षिण एशिया में बड़े पैमाने के क्लिनिकल परीक्षण चलाने शुरू किये। 
    अफ्रीका में बड़ी जल्द ‘‘इंसानों’’ पर होने वाले स्वास्थ्य शोधों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है और ये इंसान प्रायः ‘‘गरीबी के मारे हुए और अशिक्षित थे’’; नतीजे जैसा कि अनुमान लगाया जा सकता है, घातक थे। 2010 में गेट्स फाउंडेशन ने सात अफ्रीकी देशों में हजारों एक वर्ष से छोटे शिशुओं पर प्रायोगिक इलाज करते हुए ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन (जीएसके) द्वारा विकसित एक मलेरिया के टीके का तृतीय चरण के परीक्षण में पैसा लगाया। डब्ल्यू.एच.ओ. के अनुमोदन जो कि टीके के वैश्विक वितरण के लाइसेंस के लिए जरूरी है, को हासिल करने की व्यग्रता में जी.एस.के. और बी.एम.जी.एफ. ने परीक्षण को अत्यन्त सफल बताया, और लोकप्रिय अखबारों ने इस प्रचार के अनालोचात्मक प्रचार का काम किया। किसी ने भी तफसील में जाने की जहमत नहीं उठाई जो कि दिखाता था कि इन परीक्षणों से 151 मौतें हुईं। 15-17 माह के 5949 बच्चों में से 1048 बच्चों में गंभीर दुष्प्रभाव (लकवा, मिर्गी, बुखार के साथ मिर्गी) पैदा हुई। ऐसे ही किस्से चाड में गेट्स द्वारा वित्तपोषित मेन अंफ्री बैंक कैंपेन के बारे में सुनने में आये, जहां से अपुष्ट रिपोर्ट के अनुसार 500 बच्चों जिनको जबरदस्ती मेनेजाइटिस (मस्तिष्क ज्वर) का टीका दिया गया था, में से 50 बच्चों को बाद में लकवा मार गया। वैसे ही अन्य गलत परीक्षणों का उदाहरण देते हुए एक दक्षिण अफ्रीकी अखबार ने आक्रोश जतायाः ‘‘हम दवा कंपनियों के लिए गिनी पिग (प्रयोगशाला में इस्तेमाल होने वाले जानवर) हैं।’’ 
    फिर भी बी.एम.जी.एफ. के बड़ी दवा कंपनियों से संश्रय के निहितार्थ पर बडे़ पैमाने पर लोगों का ध्यान पहली बार भारत की घटना से गया। 2010 में गुजरात और आंध्र प्रदेश की सात किशोर आदिवासी बालिकाएं गेट्स फाउंडेशन के पैसे से चल रहे और बी.एम.जी.एफ. द्वारा संचालित एक बड़े पैमाने के ‘‘प्रादर्शनिक अध्ययन’’ के दौरान लगाये गये ह्यूमन पैपीलोमा वाइरस के टीकों के लगने के बाद मर गयी। ये टीक जी.एस.के. और मर्क के द्वारा विकसित किये गये थे और 10 से 14 साल के बीच की 23,000 लड़कियों को यह कहते हुए लगाये गये थे कि वृद्धावस्था में होने वाले गर्भाशय के कैंसर से यह टीके रक्षा करेंगे। 
    परीक्षण के आंकड़ों के बहिर्वेशन द्वारा भारतीय चिकित्सकों ने बाद में आंकलन किया कि टीकों के नतीजे के बतौर कम से कम 12,00 बालिकाओं में गंभीर दुष्प्रभाव या आॅटो इम्यून डिसार्डर पैदा हुए। पीडि़तों के लिए बाद की चिकित्सा जांच या इलाज का कोई इंतजाम नहीं किया गया। आगे की जांच ने दिखाया कि नैतिक मानदंडों का व्यापक उल्लंघन हुआ था। परीक्षणों में सीधी-सादी गांव की बालिकाओं को लगभग जबरन ही शामिल किया गया, उनके माता-पिता से पी.ए.टी.एच. के प्र्रतिनिधियों ने धमकाकर उन सहमति पत्र पर हस्ताक्षर लिए जिनको वे पढ़ नहीं सकते थे, प्रतिनिधियों ने दवा की सुरक्षा और कारगरता के बारे में झूठे दावे किये। कई मामलों में तो हस्ताक्षर जाली थे। 
बाजार का निर्माण
    भारत के ऊपर एच.पी.वी.टीके को थोपते हुए गेट्स फाउंडेशन ने न सिर्फ सस्ते क्लिनिकल परीक्षण को मदद पहुंचाई बल्कि एक संदिग्ध और कम कारगर उत्पाद का नया बाजार पैदा करने में सहयोेग दिया। टीके का मर्क संस्करण गार्डासिल 2006 में एक उच्च ताकत वाले अभियान के साथ लाया गया जिसने1.5 अरब डालर की वार्षिक बिक्री की। इस टीके को फार्मास्युटिकल इक्जक्यूटिव द्वारा ‘‘साल का ब्रांड’’ कहा गया क्योंकि इसने ‘‘हवा में बाजार पैदा कर दिया।’’ चिकित्सा संस्थाओं के उत्साहजनक अनुमोदन के सहयोग से मर्क ने पहले अमेरिकियों को मनवाया कि गार्डासिल उनकी बच्चियों को गर्भाशय कैंसर से बचायेगा। वस्तुतः टीके की कारगरता सवालिया है। 
    कम उम्र में (एच.पी.वी.) संक्रमण और 20 से 40 साल के बाद कैंसर हो जाने का संबंध स्पष्ट नहीं है। वाइरस बहुत नुकसानदेह नहीं लगता क्योंकि प्रायः सभी एच.पी.वी. संक्रमण शरीर के प्रतिरोधी तंत्र द्वारा साफ कर दिया जाता है। कुछ महिलाओं को कैंसर पूर्व के गर्भाशय के घाव और फिर गर्भाशय का कैंसर होता है। फिलहाल इस बात की भविष्यवाणी करना असंभव है कि किन महिलाओं को गर्भाशय का कैंसर होगा और क्यों होगा। 
    प्रतिष्ठित जर्नल आफ दि अमेरिकन मेडिकल एसोसियेशन ने 2009 में खुले आम आशंका जताई कि टीके के संभावित फायदे की तुलना में इसके खतरे ज्यादा हैं। जैसे-जैसे गार्डासिल की कमियां उजागर हुईं, अमेरिकी और यूरोपियन महिलाओं ने टीके को छोड़ना शुरू किया और 2010 तक फाच्र्यून पत्रिका ने गार्डासिल को खोटा सिक्का करार दिया क्योंकि इसकी साल दर साल बिक्री में 18 प्रतिशत की गिरावट आई। जी.एस.के. का प्रतिलिपि टीका, सर्वारिक्स ने भी ऐसी ही गिरावट पाई। 
    अरबों का मुनाफा और पूंजी निवेश दांव पर लगा था। इस स्थिति में गेट्स फाउंडेशन अवतरित हुआ। इसका मुख्य औजार जी.ए.वी.आई. गठबंधन था जो कि 2000 में बी.एम.जी.एफ. के द्वारा टीका बाजार को आकार देने के स्पष्ट लक्ष्य के साथ शुरू किया गया था। जी.ए.वी.आई. को जिम्मेदारी दी गयी कि तीसरी दुनिया के देशों के स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ मिलकर टीके की खरीद में पैसा लगाये। साथ ही लंबे समय तक टीका कार्यक्रम को चलाये रखने के लिए बड़े पैमाने के धन स्रोत ढूंढे और ‘‘ऐसी नींव तैयार करे ताकि सरकार जी.ए.वी.आई. का समर्थन समाप्त होने के बाद भी टीका कार्यक्रम जारी रखे।’’ सारतः, बी.एम.जी.एफ. जमा हुई दवाइयां जो कि पश्चिम में मांग नहीं पैदा कर पाई को खरीदती, उसको छूट के साथ परिधि पर थोपती और तीसरी दुनिया के देशों की सरकार को लंबे समय के खरीद करार में बांधती। 
    2011 में जी.ए.वी.आई. संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून के अनुमोदन के साथ ढाका में एक बहुप्रचारित बोर्ड बैठक की। इसने विकासशील देशों में एच.पी.वी. टीकों को प्रविष्ट कराने के विश्वव्यापी अभियान की घोषणा कीः ‘‘अगर (विकासशील) देश टीकाकरण की अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करे तो 2015 तक नौ देशों की 20 लाख महिलाओं और बालिकाओं को गर्भाशय के कैंसर से बचाया जा सकता है। जी.एस. के ने ‘‘ग्लोबल वैक्सीन अमेलिबिलिटी माॅडल’’ अपनाया जो कि विभिन्न कीमतों वाला था ताकि ‘‘यूनिसेफ, संयुक्त राष्ट्र संघ और ग्लोबल एलायंस फार वैक्सीन एंड इम्यूनाइजेशन जैसे ‘सहयोगियों’ की मदद से गरीब देशों में घुसा जा सके।’’ इस दौरान पी.ए.टी.एच. बड़े पैमाने का भारत, युगांडा, पेरू और वियतनाम में ‘‘एच.पी.वी. टीके की सरकार द्वारा शुरूआत के लिए सबूतों को पैदा करने और प्रसारित करने के’’ पंचवर्षीय अभियान को जल्द से जल्द पूरा कर रहा था। भारत की एक संसदीय रिपोर्ट के अनुसारः ‘‘इन सभी देशों में राज्य पोषित राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम है जिसमें कि अगर गार्डासिल को शामिल कर लिया गया तो इसके..... निर्माताओं को बहुत अधिक आर्थिक लाभ होगा’’। 
    वित्त वर्ष 2012 तक मर्क द्वारा गार्डासिल की विश्वव्यापी बिक्री में 35 प्रतिशत वृद्धि रिपोर्ट कर पाना संभव हुआ जो कि ‘‘जापान और उभरते बाजारों में अनुकूल प्रदर्शन’’ जहां कि बिक्री में वृद्धि टीकों की वजह से हुई’’ का परिणाम था। स्पष्टतः एक दवा जो कि बिल्कुल ठीक ही अमेरिकीयों द्वारा संदिग्ध मानी गयी, वही विकासशील देशों की महिलाओं के लिए काफी उपयोगी है। 
    अन्य हानिकारक दवाईयां जो कि पश्चिमी बाजारों में जड़ नहीं पकड़ पाई, उनको भी गेट्स फाउंडेशन की ऐसे ही रूचि हासिल हुई। नाॅट प्लांट, त्वचा के नीचे लगाये जाने वाला एक गर्भ निरोधक आरोपण जो कि पांच साल तक प्रभावी तौर पर महिलाओं के गर्भधारण को रोकती है, को अमेरिकी बाजार से तब हटा लिया गया जब 36,000 महिलाओं ने निर्माता दर घोषित नहीं किये गंभीर दुष्प्रभावों जैसे कि अत्यधिक मासिक रक्तस्राव, सिरदर्द, मिचली, चक्कर और अवसाद के लिए मुकदमा कायम कर दिया। थोड़ा सा बदलाव कर और जैडेल के रूप में नाम बदलकर उसी दवा को अफ्रीका में यू.एस.ए.आई.डी., गेट्स फाउंडेशन और इसके सहयोगियों के द्वारा अब भारी पैमाने पर प्रोत्साहित किया जा रहा है। गेट्स प्रायोजित वेबसाइट इमपेशेंट आप्टीमिस्ट इसके खतरे को छिपाता है और कहता है कि यह दवा अमेरिका में ‘‘कभी आकर्षण नहीं पा सका।’’ क्योंकि यंत्र को शरीर में डालना और निकालना ‘‘दुवर्हनीय’’ था। गेट्स फाउंडेशन के समर्थन से जेडल ने ‘‘विकासशील देशों में आरोपण को लाये जाने में महती भूमिका निभाई है’’ और एक दूसरा नाट प्लांट का क्लोन, मर्क का इम्प्लानन के द्वारा जल्द ही पूरित किया जायगा।
    ऐसा ही एक खतरनाक गर्भ निरोधक, फाइजर की डिपो प्रोवेटा ने विश्वव्यापी तौर पर गरीब महिलाओं में वितरण के लिए गेट्स फाउंडेशन की सहमति हाल में हासिल की। अमेरिका और भारत में नारीवादियों ने दशकों तक सुई द्वारा ली जाने वाली दवाओं के अनुमोदन के विरुद्ध संघर्ष किया क्योंकि इसके दुष्प्रभावों जैसे बांझपन, अनिश्चित रक्तस्राव, स्तन में दर्द, योनि संक्रमण, गंजापन, पेट दर्द, धुंधलापन, जोड़ों में दर्द, चेहरे के बालों में वृद्धि, मुंहासे, मांसपेशी में ऐंठन, दस्त, त्वचा पर दाने, थकावट और हाथ-पैरों में सूजन के साथ ही संभावित सही न होने वाला आस्टियोपोरोसिस (हड्डी का ठोसपन कम हो जाना।) की लंबी डरावनी सूची है। 
    जब यू.एस. फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन उद्योग के दबाव में आ गया और 1992 में मान्यता प्रदान कर दिया, उसके बाद के अध्ययनों ने पाया कि श्वेत और अफ्रीकी अमेरिकी महिलाओं के डिपो प्रोवेश पर्ची लिखे जाने में साफ-साफ नस्लीय भेदभाव है जिससे यह आरोप लगा कि ‘‘इस तरह के लंबे समय के उपलब्धकर्ता द्वारा नियंत्रित गर्भनिरोध अश्वेत महिलाओं को नियमित तौर पर दिया जाता है ताकि वे अपनी प्रजनन क्षमता को स्वयं न नियंत्रित कर सकें’’। श्वेत अमेरिकी और यूरोपियन महिलाओं को इसके विपरीत यह दवा अपवादस्वरूप ही और एंडोमेट्रियोसिस के इलाज के बतौर दी जाती है जिससे पश्चिम में इसकी व्यवसायिक संभावना काफी सीमित हो जाती है। 
    इस तरह फाइजर को गेट्स प्रायोजित कार्यक्रम, जिसकी घोषणा 2012 में परिवार नियोजन पर लंदन शिखर सम्मेलन में काफी धूम-धड़ाके से की गयी, जिसके अनुसार इस दवा को दक्षिण एशिया और उप सहारा अफ्रीका की महिलाओं में 2016 तक वितरित किया जायेगा, से काफी फायदा पहुंचेगा। 
    आप आंकड़ा देखें: अगर दो करोड़ नई महिला उपयोगकर्ता डिपो प्रोवेश चुनती है; जिसका कि प्रति महिला प्रति वर्ष अनुमानित खर्च 120 से 300 डालर पड़ता है तो प्रति वर्ष नई बिक्री से 15 अरब डालर से 36 अरब डालर आयेगा जो कि शोध के रूप में खर्च किये गये 4 अरब डालर पर शानदार उगाही है। 
    फांउडेशन का प्रचार कहता है कि एक बदनाम दवा को इसका आक्रामक समर्थन की वजह ने सिर्फ गरीब महिलाओं की इसके लिए की गयी मांग से है। पी.ए.टी.एच. के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी स्टीव डेविस ने दावा किया, ‘‘कई (अफ्रीकी) गरीब महिलाएं सुई द्वारा ली जाने वाली गर्भनिरोधक इस्तेमाल करना चाहती हैं लेकिन उनकी पहुंच उस तक नहीं है’’। प्रजनन अधिकार कार्यकर्ता क्वागे फासू असहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘‘कोई अफ्रीकी महिला सुई नहीं लगवाना चाहेगी अगर उसे गर्भनिरोधक के खतरनाक दुष्प्रभावों की जानकारी हो’’।
        (अगले अंक में जारी)

अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इराक में अपनी और सैन्य ताकत लगाई

वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    अमेरिकी सीनेट के मध्यावधि चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के हाथों हार के बाद अमेरिका के डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपनी घटती लोकप्रियता को सैन्य आक्रामकता बढ़ाकर वापस पाने की चाल चली है। इस कड़ी में अमेरिका ने ईराक में इस्लामिक स्टेट (ISIS) के लड़ाकों से लड़ने के लिए 1500 अमेरिकी सैनिक और भेजने की घोषणा की है। अमेरिका के 1400 सैनिक व ढ़ेरों लड़ाकू विमान पहले से ही ईराक में मौजूद हैं। 
    मध्यावधि चुनाव के पश्चात अमेरिकी संसद के दोनों सदनों में रिपब्लिकन पार्टी बहुमत में आ चुकी है। रिपब्लिकन पार्टी सामान्यतया कहीं अधिक आक्रामक सैन्य नीति के लिए जानी जाती है हालांकि बड़े पूंजीवादी घरानों द्वारा नियंत्रित दोनों पार्टियों में कोई मूलभूत नीतिगत मतभेद नहीं है। दोनों ही अमेरिकी साम्राज्यवादी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाने को तत्पर पार्टियां हैं। ऐसे में अब बराक ओबामा खुद आक्रामक सैन्य नीति अपना कर रिपब्लिकन सांसदों की वाहवाही लूटना चाहते हैं। 
    जहां तक इराक में नये भेजे जाने वाले सैनिकों का सम्बन्ध है तो उनके बारे में कहा यह जा रहा है कि ये सैनिक लड़ाई के लिए नहीं बल्कि इराकी व कुर्दिश सेना को जमीनी लड़ाई का प्रशिक्षण देने के लिए भेजे जा रहे हैं। जाहिर है जमीनी लड़ाई में मारे जाने का जिम्मा कुर्दिश व इराकी सेना के सैनिक उठायेंगे और अमेरिकी सैनिक मुख्यतः कमाण्डर की भूमिका अदा  करेंगे। ये लड़ाई इराक व सीरिया में ईस्लामिक स्टेट के लड़ाकों के खिलाफ छेड़ी जायेगी व जिसके लिए समय 2015 की शुरूआत का निर्धारित किया गया है। 
    भेजे जाने वाले 1500 सैनिकों में से 630 ईस्लामिक स्टेट द्वारा नियंत्रित पश्चिमी अनवार प्रांत में भेजे जायेंगेे। चूंकि यह जगह आज सीधी लड़ाई का मैदान बनी हुयी है। इसलिए ये सैनिक सीधी लड़ाई में झोंके जायेंगे। शेष 870 सैनिक इराक की अलग-अलग जगहों पर तैनात किये जायेंगे। इनका लक्ष्य 9 इराकी व 3 कुर्दिश टुकडि़यों को प्रशिक्षण देना बतलाया जा रहा है। इस सबके लिए 5.6 अरब डालर के फण्ड की स्वीकृति व्हाइट हाउस दे चुका है और यह आसानी से कांग्रेस से पास होने की सम्भावना है। 
    अमेरिका के अलावा डेनमार्क, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, कनाडा व हालैण्ड भी इराक में सैन्य ट्रेनर, हवाई लड़ाकू विमान व हवाई हमले का सहयोगी स्टाफ आदि भेजने की तैयारी में है। 
    कुल मिलाकर बराक ओबामा इराक-अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के चुनावी वायदे को पूरी तरह भूल कर एक नये युद्ध की तैयारी में जुट गये हैं। इराक में अब तक 4500 अमेरिकी सैनिकों की बलि चढ़ाने के बाद भी साम्राज्यवादी कोई सबक लेने को तैयार नहीं हैं। दुनिया को अपनी उंगली के इशारे पर नचाने की चाहत उन्हें बार-बार नये युद्धों की ओर धकेल रही है जो इराकी जनता के साथ-साथ और अमेरिकी सैनिकों को मौतों की ओर ले जायेगी।
    मध्य एशिया में साम्राज्यवादियों की सैन्य विंग सेन्टकाम के कमाण्डर आस्टिन के अनुसार यदि जरूरत पड़ी तो वे घटक राष्ट्रों से और सैन्य बल की मांग करेंगे। 
    ईस्लामिक स्टेट के नाम पर मध्य एशिया में बढ़ती साम्राज्यवादी दखलंदाजी एक बार फिर से पूरे क्षेत्र को नये युद्ध की ओर बढ़ा रही है। 2003 से जारी अमेरिकी कब्जा बचाने में भले ही अमेरिकी साम्राज्यवादी इस नये युद्ध से तात्कालिक तौर पर सफल हो जायें पर फिर कोई शक्ति इस कब्जे को चुनौती देने के लिए उठ खड़ी होंगी। इराक से लेकर मध्य एशिया में अमेरिकी मनमानी अनन्त काल तक जारी नहीं रह सकती। जनता का आक्रोश उसे रुखसती का रास्ता देर-सबेर जरूर दिखलायेगा। 
    ईराक में साम्राज्यवादियों की बढ़ती दखलंदाजी और नये युद्ध अभियान की मुखालफत जरूरी है। 

गेट्स फाउंडेशन का वास्तविक एजेंडा -जैकब लेविच 
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
(प्रस्तुत लेख आस्पेक्टस आॅफ इण्डियाज इकानामी  के 57 वें अंक में छपे लेख ‘The Real Agenda of the Gates Foundation’ का हिन्दी अनुवाद है- सम्पादक)
    ‘‘आप ऐसी जगहों को ढूंढना चाहते हैं जहां पैसे के लिए सबसे ज्यादा उत्तोलक क्षमता हो, जहां आप डालर के दम पर अधिक से अधिक जानें बचा सके’’ वेली ने कहा। गेट्स ने जबाव दिया,‘‘बिल्कुल ठीक और साथ ही समाजों को रूपान्तरित कर सके।’’
    2009 में स्वयंभू ‘‘गुड क्लब’’, जो कि दुनिया के सबसे अमीर लोगों का जमावाडा है। और जिनकी सामूहिक कुल संपत्ति उस समय 125 अरब डालर के आसपास थी, ने न्यूयार्क सिटी में बंद दरवाजों के भीतर वैश्विक वित्तीय संकट से पैदा हुए खतरों पर एक तालमेल कायम करते हुए उसके जबाव पर बहस करने के मकसद से बैठक की। बिल गेट्स, वारेन बफेट और डेविड राॅकफेलर के नेतृत्व में समूह ने विकासशील देशों में असंतोष के स्रोतों को संबोधित करने के लिए नये तरीके तलाशने का निश्चय किया, खास तौर पर ‘‘जनसंख्या विस्फोट’’ और संक्रामक रोगों का। उपस्थित अरबपतियों ने अपने दिलचस्पी के क्षेत्रों में व्यापक व्यय की जिम्मेदारी ली, इस बात से स्वतंत्र कि राष्ट्रीय सरकारों और मौजूदा सहायता संगठनों की प्राथमिकता क्या है। 
    इस गोपनीय शिखर सम्मेलन की तफसीलें प्रेस को लीक की गयीं और इसे बड़े परोपकारिता के लिए मील का पत्थर घोषित किया गया। यह कहा गया कि फोर्ड, राॅकफेलर और कार्नेगी जैसी नौकरशाह फाउंडेशन ‘‘परोपकार-पूंजीवाद’’ (फिलैंथ्रोकैपिटलिज्म) जो कि दान की एक नई दबंग पहुंच है जिसमें अरबपतियों की अक्खड़ उद्यम कुशलताओं को सीधे दुनिया की सबसे ज्वलंत चुनौतियों से निबटने में लगाया जायेगा, के लिए रास्ता साफ कर रही है। 
    आज के परोपकार-पूंजीपति बड़ी-बड़ी समस्याओं के अंबार को देख रहे हैं जिसे कि वे और सिर्फ वे ठीक कर सकते हैं और उन्हें ठीक करना चाहिए। उनकी परोपकारिता ‘‘रणनीतिक’’, ‘‘बाजार संवेदी’’ ‘‘प्रभाव निर्देशित’’, ‘‘ज्ञान आधारित’’, प्रायः ‘‘उच्च भागीदारी’’ और हमेशा दानदाता के पैसे के ‘‘उत्तोलक क्षमता’’ को अधिक से अधिक बढ़ाने के मकसद से संचालित होती है। परोपकार-पूंजीपति अधिकाधिक ऐसे तरीके ढूंढ रहे हैं ताकि सामाजिक भरपाई के लिए मुनाफे की प्रवृत्ति का इस्तेमाल किया जा सके। 
    ‘‘विशाल ताकत जो कि राष्ट्रों को उनकी इच्छा के अनुरूप बदल दे’’ का इस्तेमाल कर वे खुल कर न केवल बाजार आधारित सिद्धान्तों को गले लगाते हैं बल्कि कारपोरेट पूंजीवाद की शैली और सांगठनिक तौर-तरीकों को भी स्वीकार करते हैं। तब भी उनका समग्र जोर बड़े परोपकारिता के लंबे समय से स्थापित परंपराओं से सुसंगत ही होगा, जैसा कि आगे वर्णित है। 
I. दुनिया का सबसे बड़ा निजी फाउंडेशन
बहुपक्षीय संगठन का एक नया रूप
    परोपकार-पूंजीपतियों में सबसे प्रमुख माइक्रोसाॅफ्ट कोर्प के सह संस्थापक और इस समय के दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेट्स हैं। (बहुत होशियारी से पैदा किए गये इस छवि कि गेट्स अपनी अधिकांश सम्पत्ति दान में लुटा रहे हैं, के बावजूद उनकी कुल संपत्ति 2009 से प्रति वर्ष बढ़ती रही है और आज 72 अरब डालर है।) गेट्स ने अपना धन हेरवर्थ तकनीकी योगदानों के दम पर हासिल नहीं किया है बल्कि कम्प्यूटर आपरेटिंग सिस्टम के बाजार में एक विस्मयकारी लाभप्रद एकाधिकार कायम और लागू कर हासिल किया है। 
    माइक्रोसाफ्ट की सबसे बड़ी ताकत निजी कम्प्यूटर श्रृंखला में इसकी एकाधिकार की स्थिति रही है। निजी कम्प्यूटरों के निर्माता से इसका बहिष्कारी लाइसेंस समझौता इसको एमएस-डाॅस लाइसेंस के लिए निश्चित भुगतान दिलवाता है भले ही माइक्रोसाॅफ्ट के आपरेटिंग सिस्टम का इस्तेमाल नहीं किया गया हो। जब तक इस अवैधानिक करार के लिए 1994 में न्याय विभाग से कंपनी निपटी, तब तक माइक्रोसाफ्ट सभी बिके आपरेटिंग सिस्टम पर प्रभुत्वकारी बाजार हिस्सेदारी हासिल कर चुकी थी। 
    माइक्रोसाफ्ट अपने एकाधिकारी स्थिति की सुरक्षा के लिए व्यवसाय रणनीतियों के मानक तौर तरीकों-तरजीही मूल्य निर्धारण, मुकदमों, प्रतियोगियों का अधिग्रहण, पेंटेट सुरक्षा के लिए लाॅबिंग- का इस्तेमाल करती है। लेकिन अन्य अमेरिकी एकाधिकारी की तरह दुनिया में अमेरिका की प्रभुत्वशाली स्थिति पर अंततः निर्भर करती है। 
    गेट्स माइक्रोसाफ्ट के अध्यक्ष बने हुए हैं लेकिन अपने समय का अधिकांश हिस्सा दुनिया के सबसे बड़े निजी फाउंडेशन बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (बीएमजीएफ) जो कि स्वतः सबसे ताकतवार भी है, को चलाने में लगाते हैं। 38 अरब डालर की दान क्षमता के साथ बीएमजीएफ ने एक समय के प्रभुत्वशाली खिलाडि़यों फोर्ड (10 अरब डालर), राॅकफेलर (3 अरब डालर) और कार्नेगी (2.7 अरब डालर) को बौना साबित कर दिया है। ये अभिजात खैरात फंड अति अमीरों के लिए नीतियों को प्रभावित करने के लिए ही आकर्षित नहीं करता बल्कि कर देने से बचने का कानूनी रास्ता प्रदान करता है। अमरीकी कानून में खैराती फाउंडेशनोें में निवेश ‘कर मुक्त’ है; साथ ही निवेशकों को अपनी स्टाॅक स्थितियों को बेचने की जरूरत नहीं पड़ती और वे बिना किसी बाधा के अपनी हिस्सेदारी का वोट डालते रह सकते हैं। फाउंडेशनों को सुरक्षा प्रदान कर अमेरिकी कोषागार बीएमजीएफ की गतिविधियों को प्रभावी रूप से पोषित करती है और ऊपर बताए गये उत्तोलक क्षमता के अच्छे खासे हिस्से के लिए जिम्मेदार है। 
    दुनिया के सबसे अमीर लोगों से भरे क्षेत्र में भी गेट्स फाउंडेशन ने अपवादजनक वर्चस्वकारी स्थिति की प्रतिष्ठा हासिल कर ली है। यह ‘‘गेट्स परिवार की रुचियों और भावनाओं द्वारा संचालित होता है’’ जोकि अपनी वित्तीय जानकारियों को छिपाता है और अपने संस्थापक के अलावा और किसी के प्रति जबावदेह नहीं है। इसका संस्थापक ही ‘‘फाउंडेशन की रणनीतियों को गढ़ता और पारित करता है, फाउंडेशन के मुद्दों की वकालत करता है और फाउंडेशन की समग्र दिशा का निर्धारण करता है।
    गेट्स की दान के प्रति पहुंच अनुमानतः लोकतंत्र के प्रति उसके रवैये से पैदा होती हैः
    जितना ज्यादा आप सरकार के करीब जायेंगे और यह देखेंगे कि यह कैसे चलती है उतना ही ज्यादा आप कहेंगे, हे भगवान! ये लोग वस्तुतः बजट को भी नहीं समझते। यह चीज कि सभी लोगों के पास मताधिकार और उन चीजों के बारे में राय बनाने का अधिकार है जो कि जटिलतर होती जा रही है, वहां क्या लगता है कि आप क्या सोचेंगे- आसान जबाव सही जबाव नहीं होता है। यह एक बहुत ही रोचक समस्या है। क्या लोकतंत्र इन वर्तमान समस्याओं से जूझते हुए सही हल दे पायेगा?
    गेट्स का खैरात साम्राज्य विशाल है और यह बढ़ता जा रहा है। अमरीका में बीएमजीएफ मुख्यतया ‘‘शिक्षा सुधार’’ पर ध्यान केन्द्रित करती है जिसके द्वारा यह सार्वजनिक स्कूलों के निजीकरण के प्रयासों को समर्थन प्रदान करती है तथा शिक्षकों की यूनियनों को अपने मातहत लाती है। इसका और बड़ा अंतर्राष्ट्रीय विभाग विकासशील देशों को लक्षित करता है और संक्रामक रोगों, कृषि नीति, प्रजनन स्वास्थ्य और जनसंख्या नियंत्रण के लिए काम करता है। सिर्फ 2009 में बीएमजीएफ ने 1.8 अरब डालर से ज्यादा वैश्विक स्वास्थ्य प्रोजेक्टों पर खर्च किया। 
    गेट्स फाउंडेशन अपने द्वारा किये खर्चों के दम पर ही ताकत अर्जित नहीं करता बल्कि ‘‘सहयोगी संगठनों’’ के विस्तृत जाल जिसमें स्वयंसेवी संगठन, सरकारी एजेंसियां और निजी निगम शामिल हैं के द्वारा और व्यापक ताकत हासिल करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व स्वास्थ्य संगठन के तीसरे बड़े दानदाता के रूप में यह वैश्विक स्वास्थ्य नीति बनाने में प्रभुत्वकारी भूमिका अदा करता है। यह बहुत व्यापक निजी-सार्वजनिक संश्रय (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) कायम करता है जो कि खैरात खिचड़ी होती है। और राज्य, जो कि कम से कम सैद्धान्तिक तौर पर अपने नागरिकों के प्रति जबावदेह होती है तथा मुनाफाखोर व्यवसाय जोकि सिर्फ अपने शेयर धारकों के प्रति जबावदेह होते हैं, के बीच के अंतर को धूमिल करने का काम करती है। उदाहरणस्वरूप 2012 के एक प्रयास जो कि उष्णकटिबंधीय रोगों से लड़ने के लक्ष्य से बनी थी, ने अपने संबंद्ध संगठनों में यू.एस. एड., विश्व बैंक, ब्राजील, बांग्लादेश, संयुक्त अरब अमीरात इत्यादि की सरकारों और 13 दवा कंपनियों जिसमें बड़ी दवा कंपनियों में कुख्यात मर्क, ग्लैक्सो, स्मिथ क्लाईन और फाइजर शामिल है, के कंसोर्टियम का नाम शामिल है। 
    बीएमजीएफ प्रमुख ‘‘बहुपक्षीय पहलों जैसे कि एड्स, टीवी और मलेरिया से लड़ाई और जीएवीआई गठजोड़(विश्व स्वास्थ्य संगठन और टीका उद्योग के बीच पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) में मुख्य प्रेरक है। इस तरह के प्रबंध बीएमजीएफ को उसी तरह से सहयोग उद्यमों में इसके लाभ को बढ़ाता है जैसे कि निजी व्यवसाय रणनीतिक निवेश योजनाओं के माध्यम से अपनी ताकत और मुनाफे को बढ़ाते हैं। फाउंडेशन प्रत्यक्षतया ही राष्ट्रीय सरकारों के एजेंडा और गतिविधियों जो कि युगांडा में नगर निगम के अवरचना विकास में निवेश से लेकर भारत सरकार के विज्ञान मंत्रालय के ‘‘शौचालय का पुनर्विष्कार’’(Reinvented the toilet) कार्यक्रम में हालिया घोषित संश्रय तक है, में हस्तक्षेप करता है। साथ ही फाउंडेशन उन स्वयंसेवी संगठनों का समर्थन करता है जो कि सरकार को अपने द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों का समर्थन के लिए लाॅबिंग करती है। 
    बीएमजीएफ अद्वितीय तौर पर एक विशाल ऊध्र्वाधर एकीकृत बहुराष्ट्रीय निगम जैसा है जो कि एक आपूर्ति श्रृंखला जो कि सिएटल में इसके बोर्ड रूम से शुरू होता है और प्राप्ति, उत्पादन और वितरण के विविध चरणों से गुजरता हुआ अफ्रीका और दक्षिण एशिया के गांवों में लाखों अनाथ कंगाल ‘‘अंतिम उपयोगकर्ता’’ तक पहुंचता है, को नियंत्रित करता है। साॅफ्टवेयर बाजार पर कब्जे की अपनी ही रणनीति का अनुसरण करते हुए गेट्स ने जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक एकाधिकार जैसी चीज ही हासिल कर ली है। एक स्वयंसेवी संगठन के अधिकारी के अनुसार, ‘‘आप गेट्स फाउंडेशन के पास आए बगैर न तो खांस सकते हैं, न सिर खुजला सकते हैं और न ही छींक सकते हैं। फाउंडेशन का वैश्विक प्रभाव अब इतना विशाल है कि पूर्व सीईओ जेफ टेक्स यह कहने को बाध्य हुआ,‘‘हम संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थानापन्न नहीं हैं लेकिन कुछ लोग कहेंगे कि हम बहुपक्षीय संगठन का एक नया रूप हैं।’’
II- फाउंडेशन और साम्राज्यवाद
    जब ऐसे लोग जिन्होंने आक्रामक तरीके से एकाधिकार स्थापित एवं जारी रखा है, वे दान दक्षिणा की तरफ बढ़ते हैं तो हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि उनका मकसद मानवतावादी है। वास्तव में कुछ मौके पर ये ‘‘लोकोपकारी’’ नग्न रूप में कहते हैं कि उनका मकसद अपने जैसे लोगों के लिए दुनिया को सुरक्षित बनाना है। फाउंडेशन की बेवसाइट पर प्रकाशित एक पत्र में बिल गेट्स ‘‘अमीर दुनिया को प्रबोधित स्व हित’’ का आह्वान करते हैं और चेतावनी देते हैं कि ‘‘अगर समाज जनता को बुनियादी स्वास्थ्य उपलब्ध नहीं कराता है, अगर वह लोगों को भोजन और शिक्षा नहीं देता है, तो उनकी आबादी और समस्याएं बढेंगी और दुनिया कम स्थायी जगह बन जायेगी।’’
    ‘‘लोकोपकारी’’ गतिविधियों का ऐसा प्रचलन एक सदी पहले अमरीका में शुरू हुआ जब औद्योगिक खलीफा जैसे कि राॅकफेलर और कार्नेगी ने अपने नाम पर फाउंडेशनों की शुरूआत की तथा जिसका अनुसरण फोर्ड ने 1936 में किया। जैसा कि जाॅन रोलोफ ने कहा है, पिछली सदी में बड़े पैमाने के निजी लोकोपकार ने पूरी दुनिया के स्तर पर पश्चिमी शासक वर्ग की विचारधारा को स्थापित करते हुए नवउदारवादी संस्थाओं के वर्चस्व को सुनिश्चित करने में महती भूमिका निभाई है। और फाउंडेशनों, फाउंडेशन प्रायोजित गैर सरकारी संगठनों और अमरीकी सरकार की संस्थाओं जैसे कि ‘नेशनल एंडोमेंट फाॅर डेमोक्रेसी’ -जोकि सीआईए द्वारा वित्त पोषित रूप में कुख्यात है- के अंतर्गुफिंत जाल साम्राज्यवाद के साथ मिलकर काम करते हैं और अमरीकी वैश्विक रणनीति में सहयोगी बन सकने वाले संगठनों को आत्मसात करते हुए जनपक्षधर सरकारों और सामाजिक आंदोलनों को छिन्न-भिन्न करने का काम करती है। ऐसे मामले भी काफी है जिसमें फाउंडेशन अमरीकी खुफिया विभाग द्वारा सत्ता पलटने के अभियान में खुलकर सहयोग करने की हद तक गयी हैं।
    बड़े लोकोपकार की भूमिका व्यापक है। फाउंडेशन के शाकाहारी लगने वाले कार्यक्रमों, जैसे कि संक्रामक रोगों के खिलाफ लड़ाई को भी सही तरीके से तभी समझा जा सकता है जब कि हम उनके विशिष्ट ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ में देखें। याद करें कि अमरीका में उष्ण कटिबंधीय चिकित्सा के संस्थान 19वीं सदी के अंत में स्थापित किये गये जिनका कि घोषित लक्ष्य था उपनिवेशों के मजदूरों की उत्पादकता को बढ़ाने के साथ उनके गोरे निरीक्षकों की सुरक्षा। जैसा कि एक पत्रकार ने 1907 में लिखा-
    रोग अभी भी देशी आबादी के बड़े हिस्सों को खा जा रही है और उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों से लोगों को समय से पूर्व बूढ़ा और बीमार बन कर लौटने को बाध्य करती है। जब तक गोरे लोगों के पास इसका समाधान नहीं होगा, यह धब्बा बना रहेगा। दुनिया के बड़े हिस्से को गोरे लोगों के शासन के अधीन लाना एक दैवीय काम है, लेकिन जब तक निवासियों की स्थिति को सुधारने के साधन हमारे पास नहीं होंगे, यह बड़ेबोलेपन से अधिक नहीं होगा। 
    अक्षरक्षः ये तर्क राॅकफेलर फाउंडेशन की स्थापना के पीछे हैं जो कि 1913 में हुकवर्म, मलेरिया और येलोफीवर का उन्मूलन के शुरूआती लक्ष्य से बना था। उपनिवेशों में राॅकफेलर के इंटरनेशनल हेल्थ कमीशन के जन स्वास्थ्य उपायों ने मुनाफे में वृद्धि की, क्योंकि अब हर मजदूर को प्रति इकाई काम के बदले कम भुगतान करना पड़ता था,‘‘लेकिन बढ़ी हुई शक्ति की वजह से वह और कड़ी तथा देर तक मेहनत कर सकता था और उसके हिस्से में ज्यादा मजदूरी आती थी।’’ बढ़ी हुयी श्रम निपुणता के अलावा जो कि उन क्षेत्रों के लिए बड़ी चुनौती नहीं थी जहां कि अल्परोजगार में लगे लोगों की भारी संख्या शोषण के लिए उपलब्ध थी- राॅकफेलर के शोध कार्यक्रमों ने दक्षिण में जहां कि उष्णकटिबंधीय रोग कब्जाकारी सेनाओं की कमर तोड़ देती थी, अमरीकी सैन्य अभियानों के लिए भविष्य में और ज्यादा संभावना पैदा कर दी। 
    जैसे-जैसे राॅकफेलर ने अमरीकी एजेंसियों और अन्य संगठनों के साथ तालमेल में अपने अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम को विस्तारित किया, साम्राज्यवाद के लिए इसके और फायदे सामने आए। आधुनिक चिकित्सा  ने ‘‘पिछड़े’’ लोगों तक पूंजीवाद के फायदों का प्रचार किया, जिससे साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ उनके प्रतिरोध की जड़ काटी गयी तथा देशी पेशेवर वर्ग नवउपनिवेश के प्रति अधिकाधिक ग्रहणशील हुए और उनके विदेशी दयालुता पर निर्भर हो गए। राॅकफेलर के अध्यक्ष ने 1916 में कहा,‘‘आदिम और शंकालु लोगों को शांत करने के लिए दवाइयां मशीनगन से कुछ ज्यादा लाभकारी हैं’’।
    द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के काल में जन स्वास्थ्य लोकोपकारिता अमेरिकी विदेश नीति से करीब से जुड़ गयीं और नवउपनिवेशवाद ने ‘‘विकास’’ का शब्दाडंबर, अगर हमेशा इसका निहितार्थ नहीं तो भी, अपना लिया। फाउंडेशनों ने यूएस एजेंसी ‘फाॅर दि इंटरनेशनल डेवलपमेंट’ के पश्चिमी विनिर्मित वस्तुओं के लिए नए बाजार पैदा करते हुए कच्चे मालों के उत्पादन को बढ़ाने के मकसद से किये जाने वाले हस्तक्षेपों के समर्थन में संश्रय किया। अमरीकी शासक वर्ग के एक हिस्से जिसका विदेश मंत्री जार्ज मार्शल ने प्रमुखता से प्रतिनिधित्व किया, ने तर्क दिया ‘‘उष्ण कटिबंधीय श्रम की उत्पादकता बढ़ाने के लिए, सामाजिक और आर्थिक अवरचना में निवेश जिसमें कि जन स्वास्थ्य में और ज्यादा निवेश शामिल हैं की जरूरत है’’।         
    इस दौरान फोर्ड फाउंडेशन द्वारा 1949 में गठित गेथर रिपोर्ट ने बड़े लोकोपकारिता पर ‘‘एशिया और यूरोप में.... कम्युनिज्म की लहर’’ को रोकने के लिए ‘‘मानव कल्याण’’ को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी बतायी। 1956 तक इंटरनेशनल डेवलपमेंट एडमिनिस्ट्रेशन बोर्ड ने अमेरिकी राष्ट्रपति को सौंपे एक रिपोर्ट में खुलकर सूत्रित किया कि हिन्द चीन में पश्चिमी सैन्य आक्रमण की मदद में जनस्वास्थ्य सहायता एक कार्यनीति हैः
    रात में जो इलाके वियत मिन्ह गतिविधियों की वजह से अगम्य हो जाते हैं वही इलाके दिन में मलेरिया रोधी टीमों का डी.डी.टी. के छिड़काव के लिए स्वागत करती है।....फिलीपीन्स में, ऐसे ही कार्यक्रम पहले के निर्जन इलाकों में औपनिवेशीकरण को संभव बनाते हैं और हुक आतंकवादियों के शांतिपूर्ण भूस्वामी में रूपातंरण में बड़ी भूमिका निभाते हैं। 
    कुछ समय के लिए, इस तरह, पश्चिमी लोकोपकारिता ने गरीब देशों में जन स्वास्थ्य को स्वरूप देने का काम किया, कभी-कभी इतनी दयालुता दिखाते हुए कि अवरचना और प्रशिक्षितकर्मियों का नियंत्रण राष्ट्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के हाथों में भी सौंप दिया। यद्यपि तीसरी दुनिया के देशों में स्वास्थ्य पर किया गया वास्तविक खर्च शीत युद्ध शब्दाडंम्बर के विशाल खर्चों के वादे की तुलना में अत्यल्प था, गरीब देशों में स्वास्थ्य संकटों पर कुछ न कुछ प्रतिक्रिया युद्धोत्तर काल के ‘‘दिल और दिमाग’’ जीतने की लड़ाई के संदर्भ में जरूरी था। 
    सोवियत संघ के पतन ने जन स्वास्थ्य लोकोपकारिकता के वर्तमान चरण की शुरूआत की, जिसकी विशेषता है ‘‘वैश्विक स्वास्थ्य शासन’’ की पश्चिमी मांग- यह कहते हुए कि वैश्वीकरण के द्वारा तेज किए गए संक्रामक रोगों के फैलाव से बचने के लिए ऐसा करना होगा। स्वास्थ्य को सुरक्षा चिंता के रूप में पुनर्परिभाषित किया गया; विकासशील देशों को सार्स, एड्स और उष्ण कटिबंधीय संक्रमणों से बजबजाती तश्तरी के रूप में चित्रित किया जाता है जो कि ‘‘बीमारी और मौत’’ पूरी दुनिया में फैलाता है और पश्चिमी ताकत को बाध्य करता है कि ‘‘राज्य संप्रभुता से पैदा हुई बाधाओं पर पार पाने के लिए’’ केन्द्रीकृत स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थापना करे। स्वास्थ्य क्षेत्र में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप उसी तरह जायज ठहराये जाते हैं जैसे कि हालिया ‘‘मानवतावादी’’ सैन्य हस्तक्षेप ‘‘राष्ट्रीय हित अब आह्वान करता है कि देश आयातित स्वास्थ्य खतरों को रोकने की जिम्मेदारी या विदेशों में हो रहे टकरावों को हल करने में मदद करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तालमेल करे ताकि इनसे वैश्विक सुरक्षा या व्यापार खतरे में न पड़े। 
    वैश्विक स्वास्थ्य शासन के युग में लोकोपकारिकता का आदर्श उदाहरण गेट्स फाउंडेशन है। विशाल दानराशि संपन्न, अनिवार्य रूप से गैर जबावदेह, जनतंत्र या राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए किसी तरह के सम्मान से उत्पन्न होने वाली बाधाओं से मुक्त, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच मुक्त विचरण करने वाली यह जिनका प्रतिनिधित्व करती है उनके पक्ष में तेजी से और निर्णायक तौर पर हस्तक्षेप करने के लिए आदर्श स्थिति में है। जैसा कि बिल गेट्स ने टिप्पणी की थी,‘‘मुझेे चुनाव में हार कर कुर्सी नहीं छोड़नी पड़ सकती’’। संयुक्त राष्ट्र संघ अमरीकी और यूरोपीय यूनियन की संस्थाओं और शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ नजदीकी कार्यकारी संबंधों की वजह से बीएमजीएफ के पास जटिल परस्पर व्यापित एजेडों में मेल बिठाने की असामान्य क्षमता हासिल हो जाती है जिससे सुनिश्चित होता है कि कारपोरेट और अमेरिकी महत्वाकांक्षा साथ-साथ आगे बढ़ाये जाते हैं। बीएमजीएफ कैसे और किनके हित में काम करता है। इसको समझने के लिए बेहतर होगा कि फाउंडेशन के वैश्विक टीका कार्यक्रम का नजदीकी से परीक्षण किया जाए जहां कि हाल तक इसका अधिकांश पैसा और ताकत लगा हुआ था।   (अगले अंक में जारी)


अपनी बारी में 
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
    विश्व बैंक के कर्मचारी इस समय अपने प्रबंधन के खिलाफ संघर्ष की मुद्रा में हैं। वजह? विश्व बैंक प्रबंधन ने अपने कर्मचारियों के ऊपर वही नुस्खा लागू कर दिया जो वह दुनिया भर के देशों पर लागू करता रहता है। ये कर्मचारी भी कोई शारीरिक श्रम करने वाले मजदूर न होकर ‘प्रोफेशनल’ हैं। 
    विश्व बैंक का प्रबंधन अपने बैंक का ‘ढांचागत समायोजन’ कर रहा है। इसके लिए वह कर्मचारियों की छंटनी से लेकर उनकी तनख्वाहें घटाने तक का काम करना चाहता है। उसने अपनी कई रिपोर्ट तैयार करने के काम की ‘आउट सोर्सिंग’ कर दी है। उसने अपने सीईओ की तनख्वाह बड़े पैमाने पर बढ़ा दी है। मजे की बात यह है कि इस ‘ढांचागत समायोजन’ में क्या-क्या किया जाये इसे बताने के लिए एक कम्पनी की सेवाएं ली गयीं जैसे सरकारें किसी ‘आर्थिक सुधार’ को लागू करने के लिए विशेषज्ञों की कमेटियां नियुक्त करती हैं या विशेषज्ञों की सहायता लेती हैं। 
    विश्व बैंक के कर्मचारियों को ये सारी चीजें बहुत नागवार गुजर रही हैं। उनको लगता है कि उनका प्रबंधन बहुत गलत कर रहा है और वे उसके खिलाफ संघर्ष की मुद्रा में हैं। 
    विश्व बैंक के ‘प्रोफेशनल’ कर्मचारी एक लम्बे समय से सारी दुनिया में विश्व बैंक की ‘ढांचागत समायोजन’ की नीतियां लागू करते रहे हैं। ऐसा करते समय वे जरा भी इस बात की चिन्ता नहीं करते रहे हैं कि इस सबका उस देश की गरीब आबादी पर क्या प्रभाव पड़ेगा। वे अर्थव्यवस्था में सुधार के नाम पर ये करते रहे हैं। वे विश्व बैंक प्रबंधन और उसके पीछे के साम्राज्यवादियों का यह मंत्र दुहराते रहे हैं कि इस सबका अंतिम परिणाम अच्छा होगा। देश की अर्थव्यवस्था की हालत अंततः सुधरेगी और फिर हर किसी की हालत बेहतर होगी। 
    ऐसा करते समय ये ‘प्रोफेशनल’ कर्मचारी ऐसे लोगों की तरह व्यवहार करते रहे हैं जो देशों के मालिक होते हैं। छोटे-छोटे देशों के मामले में तो ये बेहद उद्यत ढंग से पेश आते रहे हैं। इनकी तनख्वाहें और भत्ते इन छोटे और गरीब मुल्कों की प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से विशाल रही हैं। ये ‘प्रोफेशनल’ लोग सर्वज्ञ विशेषता के भाव में इन देशों पर अपनी नीतियां थोपते रहे हैं। ऐसा करते समय ये आश्वस्त रहे हैं कि वे विशाल साम्राज्य के हिस्से हैं और साम्राज्य के संचालकों की ताकत उनके साथ है। 
    अब यह साम्राज्य पलट कर इनके ऊपर ही हमला कर रहा है क्योंकि साम्राज्यवादियों के लिए उनकी पूंजी और मुनाफे के सिवा कोई भी सगा नहीं होता। विश्व बैंक के ये ‘प्रोफेशनल’ कर्मचारी भी साम्राज्यवादियों के लिए उन गोले-बारूद से ज्यादा हैसियत नहीं रखते जो वे देशों पर दागते रहते हैं। 
    विश्व बैंक का प्रबंधन बहुत मजे से इन कर्मचारियों के सामने ढांचागत समायोजन के लिए उन्हीं तर्कों को दोहरा सकता है जो वह देशों में इसके लिए दोहराता रहता है और जो ये कर्मचारी इन देशों में जाकर दोहराते रहे हैं। अब वे रातों-रात पाला बदल कर यह नहीं कह सकते कि ये सारे तर्क गलत हैं। यदि वे तर्क सार्विक सत्य हैं, जैसा कि ये कर्मचारी तोते की तरह रटते रहे हैं, तो ये स्वयं विश्व बैंक के मामले में गलत नहीं हो सकते। ये विश्व बैंक पर भी लागू हो सकते हैं और विश्व बैंक का प्रबंधन यही कर रहा है। 
    अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की तरह विश्व बैंक भी साम्राज्यवादियों की संस्था है जो पिछले चार दशकों से पिछड़े पूंजीवादी देशों में निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां लागू करने का काम करती रही है, हालांकि उसका घोषित लक्ष्य ‘विकास’ के लिए योजनाएं व पूंजी उपलब्ध कराना है। पिछले तीन-चार दशकों में इन दशकों की तबाही में विश्व बैंक की प्रमुख भूमिका रही है। विश्व बैंक की यह गति अब पलट कर स्वयं इसके उन कर्मचारियों को भी अपने आगोश में ले रही है। जो इसके औजार बने हुए थे। और अब ये कर्मचारी अपनी बारी आने पर हाय-तौबा मचा रहे हैं।     


इवो मोरालेस फिर जीते
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
बोलीविया में हुए राष्ट्रपति चुनाव में इवो मोरालेस ने फिर विजय हासिल की है। वे लगातार तीसरी बार राष्ट्रपति चुने गये हैं। उन्हें कुल मतों में से 59.8 फीसदी मत हासिल हुए हैं। 
मोरालेस की जीत बोलिविया में राजकीय हस्तक्षेप वाले उस इक्कीसवीं सदी के समाजवाद की जीत के रूप में प्रचारित है जिसकी एक समय वेनेजुएला के दिवंगत राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज ने पैरवी की थी। यह समाजवाद वेनेजुएला के ‘पेट्रो समाजवाद’ का ही एक जारी रूप है। 
ह्यूगो चावेज ने वेेनेजुएला में अपने शासन काल में तेल व गैस उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर दिया था और इस तरह से प्राप्त आय के दम पर उन्होंने कई कल्याणकारी कार्य किये थे। राज्य के हस्तक्षेप के जरिये किये जाने वाले पूंजीवादी कल्याणकारी कार्यों को उन्होंने इक्कीसवीं सदी के समाजवाद की संज्ञा दी थी। साम्राज्यवाद (आम तौर पर इससे मतलब सिर्फ अमेरिकी साम्राज्यवाद होता था।) और पूंजीवाद की आलोचना करने वाले ह्यूगो शावेज के समाजवाद और उनकी लैटिन अमेरिका की एकता की बातों ने उन्हें एक हीरो का दर्जा प्रदान कर दिया था। 2013 में उनकी मृत्यु के बाद दुनिया में इस ‘पेट्रो समाजवाद’ की चर्चा कम हो गयी। 
ईवा मोरालेस ने शावेज के इस समाजवाद की तर्ज पर ही बोलिविया की आर्थिक नीतियों का पुनर्निर्माण किया और इन नीतियों की बदौलत 2006 से बोलिविया की विकास दर लैटिन अमेरिका में उच्च रही है। 2008 से जारी वैश्विक आर्थिक मंदी के बावजूद बोलिविया की विकास दर पिछले वर्षों में पांच फीसदी के करीब रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार बोलिविया में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की आबादी में 2000 से 2012 के बीच में एक तिहाई के करीब कमी आयी है। रोजगार और मजदूरी में वृद्धि भी दर्ज की गयी है। राज्य के प्रयासों से आम लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि हुयी। 
ईवा मोरालेस ने बोलिविया के तेल, गैस, टैलीकम्युनिकेशन्स, खनिज उद्योग आदि क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसी तरह से जल क्षेत्र का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया। राष्ट्रीयकरण के इन कार्यों से मुक्त पूंजीवाद के समर्थकों के हितों का भारी नुकसान हुआ। अमेरिकी साम्राज्यवाद सहित देशी पूंजीपतियों ने भी इन नीतियों का विरोध किया। मोरालेस के द्वारा किये गये राष्ट्रीकृत इन उद्योगों से होने वाले मुनाफे का प्रयोग लोेक कल्याणकारी कार्यों में किया जाता रहा है। बोलिविया के पास लैटिन अमेरिका में प्राकृतिक गैस का दूसरा बड़ा भण्डार है। यह निजी हाथों के स्थान पर राज्य के हाथों में है। यह मोरालेस के लोक कल्याण कार्यों में बेहद मददगार हुआ है। 
बोलिविया में मोरालेस की लगातार तीसरी बार की विजय में लोककल्याणकारी कदमों, अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध व मुक्त पूंजीवाद की आलोचना की प्रमुख भूमिका है। इस जीत ने साबित किया है कि मोरालेस शावेज की तरह बोलिविया में लोकप्रिय बने हुए हैं। 
राजकीय हस्तक्षेप व लोककल्याणकारी रूप धारण किये हुए मोरालेस के शासन को समाजवाद समझना एक भारी भूल होगी। यह समाजवाद अपने नाम में ही है। असल में यह राजकीय हस्तक्षेप वाला लोकरंजक रूप धारण किया हुआ पूंजीवाद है। कुछ प्रमुख क्षेत्रों के राष्ट्रीयकरण करने के बावजूद निजी पूंजी को पूरी छूट हासिल है। निजी पूंजी को महत्तम लाभ देने के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) का भी निर्माण मोरालेस ने किया हुआ है। 

बोलिविया के समाज में मजदूरों व किसानों की स्थिति शासकों की नहीं है। वे शोषित हैं परन्तु वे बगावत करने की ओर न बढ़ें इसलिए एक ऐसी प्रणाली को अपनाया गया है। जहां राजकीय हस्तक्षेप के जरिये लोककल्याणकारी कार्यों को अंजाम दिया जाता है। स्पेन से आकर बसे और बोलिविया के अमीर तबके का मूल निवासियों और गरीबों के अंतरविरोध का लाभ उठाकर मोरालेस और उनकी पार्टी ‘मूवमेंट टूवार्डस सोशलिज्म (एमएएस) शासन की बागडोर को संभाले हुए हैं। 

आर्थिक संकट से उबरने के कोई संकेत नहीं
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
विश्व आर्थिक संकट का काल लम्बा खिंचता चला आ रहा है। वर्ष 2010 के मामूली सुधार के बाद पिछले चार वर्षों में इससे उबरने के जितने भी प्रयास विश्व पूंजीवाद द्वारा किये गये हैं वे नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष बार-बार अपने अनुमान में फेरबदल कर रहा है। 
6 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) के द्वारा अर्द्धवार्षिक वल्र्ड इकानामिक आउटलुक की रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष वैश्विक अर्थव्यवस्था 3.4 प्रतिशत के स्थान पर 3.3 प्रतिशत से ही वृद्धि करेगी। इसी तरह पूर्व में अनुमान लगाया गया था कि वर्ष 2015 में वैश्विक वृद्धि दर 4 प्रतिशत रहेगी। अब इसे घटाकर 3.8 फीसदी कर दिया गया है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के धीमे होने की वजह मुद्राकोष के अनुसार रूस-यूक्रेन व पश्चिम एशिया का संकट है। 
मुद्राकोष के अनुसार 2008 में विश्व अर्थव्यवस्था को जो झटके लगे थे उनसे उभरना मुश्किल साबित हो रहा है। 
मुद्राकोष ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की गति के धीमा पड़ने की इस भविष्यवाणी के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोजोन, जापान, चीन सभी के लिए कमोवेश ऐसी ही भविष्यवाणी की है। 
मुद्राकोष का अनुमान है कि यूरोजोन व जापान की हालात ज्यादा खस्ता होनी है। यूरोजोन की वृद्धिदर इस वर्ष 1.1 फीसदी से घटकर 0.8 फीसदी व 2015 में 1.8 फीसदी से घटकर 1.3 फीसदी ही रहेगी।
जापान जो कि दशकों से धीमी विकास दर का शिकार रहा है तथा 2008 के बाद उसकी विकास दर ऋणात्मक रही है, के बारे में अनुमान व्यक्त किया गया है कि वह 1.6 फीसदी के पूर्व अनुमान के बजाय 0.9 फीसदी ही रहेगी। और 2015 के एक फीसदी के अनुमान को घटाकर 0.8 फीसदी कर दिया गया है। 
चीन की विकास दर का जो पूर्व अनुमान 7.4 फीसदी और अगले वर्ष के लिए 7.1 फीसदी में कोई बदलाव नहीं किया गया। 
संयुक्त राज्य अमेरिका जो कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के बारे में अगले वर्ष के लगाये गये पूर्व अनुमान 3.1 फीसदी को भी बरकरार रखा गया है। 
लैटिन अमेरिका, पश्चिम एशिया और अफ्रीका के बारे में अनुमान व्यक्त किया गया है कि इनकी स्थिति पूर्व से और खराब होगी। 
मुद्राकोष की यह अर्द्धवार्षिक समीक्षा विश्व पूंजीवाद के सामने कोई आशावाद नहीं पैदा करती है बल्कि हर समीक्षा के बाद वृद्धि दर के अपने पूर्व अनुमान को और नीचे गिरा देती है। 
हकीकत तो यही है कि विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का संकट गहराता जा रहा है। बेरोजगारी और महंगाई की उच्च दर जारी है। सरकारें गहरे ऋण जाल में फंसी हुयी हैं। अर्थव्यवस्था में सुधार की बातें किन्तु परन्तु में उलझी हुयी हैं परन्तु शेयर बाजार कुलाचें भर रहा है। वित्त पूंजी का आकार बढ़ता जा रहा है। और पुनः 2007 जैसे संकट के फूट पड़ने की आशंकायें एक के बाद दूसरा अर्थशास्त्री व्यक्त कर रहा है। 
मजदूर-मेहनतकशों की क्रयशक्ति लगातार घट रही है। अपने मुनाफे और अपने संकट को उनके ऊपर डालने के लिए पूंजीपति वर्ग हर हथकंडा अपना रहा है। 

मुद्राकोष की इस बात के लिए आलोचना होती रही है कि वह 2009-08 में यह अनुमान नहीं लगा पाया था कि इतना बड़ा संकट फूट पड़ेगा। अब वह एक के बाद एक चेतावनी तो दे रहा है परन्तु यह अंधेरे में तीर मारना सरीखा ही साबित हो रहा है। मुद्राकोष सहित वैश्विक पूंजीवाद के नियंता व चिंतक घबराये हुए हैं और अपने वैचारिक दिवालियेपन का एक से बढ़कर एक उदाहरण पेश कर रहे हैं। 

यमन में अस्थिरता
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
यमन उन देशों में रहा है जहां 2011 में ‘अरब बसंत’ फूटा। जनाक्रोश के कारण वर्षों से सत्ता पर काबिज अली अब्देल्लाह सालेह को देश छोड़कर भागने को मजबूर होना पड़ा था। तब से लेकर आज तक यमन में उथल-पुथल जारी है। 
वर्ष 2011 में जनाक्रोश भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और दिनों-दिन बुरी होती आर्थिक स्थितियों के कारण फूटा था। यह जनाक्रोश तब और बढ़ गया था जब सालेह ने अपने बाद अपने पुत्र को सत्ता में काबिज करने के लिए संविधान में संशोधन करने का प्रस्ताव किया था। सालेह को सत्ता से हटाने के लिए हुए जन प्रदर्शनों में सैकड़ों लोग मारे गये और हजारों घायल हुए थे। नवम्बर 2011 को सालेह को देश छोड़कर भागना पड़ा और उन्होंने अरब क्षेत्र के सबसे प्रतिक्रियावादी व शक्तिशाली देश सऊदी अरब में शरण ले ली। सालेह ने जाते-जाते ऐसा बंदोवस्त किया कि सत्ता अप्रत्यक्ष तौर पर उसके हाथ में बनी रही। उसने अपने उपराष्ट्रपति मंसूर हैदी को सत्ता सौंप दी। हेदी ने अपनी बारी में सालेह को पूरी कानूनी सुरक्षा संसद के द्वारा प्रदान करायी ताकि उन पर कोई मुकदमा न चल सके। 
सालेह के पुत्र अहमद अली अब्दुल्लाह सालेह का सेना पर प्रभाव बना हुआ है। मंसूर हेदी फरवरी 2012 में ऐसे चुनाव में राष्ट्रपति चुने गये जिसमें उनके खिलाफ कोई खड़ा ही नहीं हुआ था।
2011 से अब तक वहां शांति व स्थिरता कायम नहीं हो सकी। एक तरफ कट्टर सुन्नी पंथी संगठनों खास तौर पर अलकायदा ने आतंकवादी कार्यवाहियां जारी रखीं तो दूसरी तरफ शिया होउथी समूह ने क्रमशः अपनी ताकत व प्रभाव बढ़ाते हुए देश की राजधानी साना पर भी कब्जा कर लिया। सुन्नी बहुल देश (करीब साठ फीसदी) में शिया(करीब चालीस फीसदी) समूहों की सत्ता पर भागीदारी पूर्व में नाम मात्र की रही है। 2011 के जनविद्रोह के बाद देश का साम्प्रदायिक विभाजन काफी बढ़ा। सऊदी अरब के यमन में लगातार दखलंदाजी ने स्थिति को और बिगाड़ा। होऊथी शिया समूह को ईरान का सहयोग बना रहा है। 
आतंकवादी कार्यवाहियों, सरकार की सेना की जबावी कार्यवाहियों में सैकड़ों निर्दोष नागरिक तब से मारे जा चुके हैं। होऊथी शियाओं का देश के उत्तरी हिस्से में सैनिक प्रभाव बना हुआ है। 
यमन में सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए यमन के राष्ट्रपति मंसूर हेदी ने एक गैर राजनैतिक टेक्नोक्रेट खालिद बहाह को देश का प्रधानमंत्री होऊथी शियाओं और अन्य राजनैतिक दलों के साथ एक समझौते के तहत बनाया है। भारत में पढ़े-लिखे खालिद बहाह को देश की अर्थव्यवस्था व राजनैतिक स्थिति को सुधारने की जिम्मेदारी दी गयी है। यह सब कितना कामयाबी हासिल करता हैै यह समय के गर्भ में है। इसी बीच अलकायदा के द्वारा किये गये आत्मघाती हमलों में 67 से ज्यादा लोेग मारे गये हैं। अलकायदा का यह हमला होऊथी व सेना के खिलाफ लक्षित था। 

यमन की जनता महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से 2011 की तरह त्रस्त है परन्तु सत्ता में साम्प्रदायिक भागीदारी और पड़ोस के प्रमुख ताकतों सऊदी अरब व ईरान के छद्म युद्ध के बीच उसका जीवन कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। 

अमेरिका: मंदी के दौर में पूंजीपतियों की दौलत में भारी वृद्धि
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
अभी हाल में अमेरिका की फाॅब्र्स पत्रिका ने वहां के 400 सबसे अमीर व्यक्तियों की सूची प्रकाशित की है। इस सूची के अनुसार पिछले साल की तुलना में 13 प्रतिशत वृद्धि के साथ इनकी कुल संपत्ति 2.29 ट्रिलियन डालर पहुंच चुकी है। 400 व्यक्तियों की यह सम्पत्ति 20 करोड़ जनसंख्या वाले ब्राजील की जीडीपी के बराबर है। यह सम्पत्ति 2009 की 1.27 ट्रिलियन डालर से दुगुनी है। एक तरफ जहां सरकारें आम आदमी की बात आते ही सुविधायें व धन का रोना रोती हैं वहीं इन पूंजीपतियों की दौलत में वृद्धि करने की नीतियां बनाती है। वहीं दूसरी सामान्य परिवारों की आय 5 प्रतिशत तक गिर चुकी है। 
2008 में जब अमेरिका मंदी का शिकार हुआ तो सरकार ने ‘इमरजेंसी इकोनोमिक स्टेबलाइजेशन एक्ट 2008’ के तहत 700 अरब डालर का ‘ट्रबल असेट रिलीफ प्रोग्राम’ यानी बैँकों  को बेल आउट पैकेज देने की रणनीति अपनायी। उस समय इनको बेल आउट पैकेज देते समय यह बताया गया कि इससे इनको दिवालिया होने से बचाया जायेगा। और उसमें काम कर रहे कर्मचारियों की छंटनी नहीं होगी तथा बैंकों को अपने ग्राहकों का पैसा भुगतान नहीं रोकना पड़ेगा।
लेकिन यह पैकेज दरअसल पूंजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए था। इन बैंकों के सीईओ, मैनेजरों ने भारी भरकम राशि अपने बोनस व अन्य मदों के रूप में हड़प ली। वहीं दूसरी तरफ अमेरिकी सरकार आज डेट्रोइट शहर जो नीलामी के कगार पर खड़ा है, बेल आउट पैकेज नहीं दे रही है। जबकि बिल गेट्स जो इस साल अमेरिका के सबसे धनी व्यक्ति हैं की आय 2009 से डेट्रोइट शहर के वार्षिक बजट से 30 गुनी बढ़ चुकी है। 
इन पूंजीपतियों की दौलत अमेरिका में मंदी के दिनों में किस कदर बढ़ी है यह इससे पता चलता है कि 2009 में जहां इस सूची में कुछ लोग अरबपति नहीं थे वहीं 2014 में इस सूची में शामिल होेने की शर्त ही अरबपति होना है जबकि अभी भी इस सूची से 113 अरबपति बाहर हैं। आज इन 400 अरबपतियों की औसत आय 500 मिलियन से 700 मिलियन डालर पहुंच चुकी है। 
इस सूची से एक बात और निकलकर सामने आती है जो ज्यादा खतरनाक है। वह यह है कि 1982 में फोब्र्स की इस सूची में शामिल होने वाले लोगों में वित्त व रीयल स्टेट से जुड़े लोगों की संख्या मात्र 4.4 प्रतिशत थी। जबकि आज इनकी प्रतिशतता 21 हो चुकी है। जिसमें हेज फण्ड चलाने वाले 7.8 प्रतिशत, प्राइवेट इक्विटी वाले 6.3 प्रतिशत व धन प्रबंधन वाले 5.3 प्रतिशत हैं। यह दिखाता है कि दरअसल समाज में उत्पादन में वृद्धि के कारण नहीं बल्कि सट्टेबाजी के कारण पूंजीपतियों की दौलत बढ़ी है और इससे आगे हालात बिगड़ने के और ज्यादा आसार हैं क्योंकि 2008 में मंदी में फंसने के जिम्मेदार मुख्यतः यही लोग थे। 

आज अमेरिका में गरीब व अमीर की खाई काफी ज्यादा बढ़ चुकी है। और इसी कारण जब फोब्र्स पत्रिका ने यह सूची प्रकाशित की है तो मीडिया ने इसे  दबाने का ही काम किया। तथा किसी भी अखबार ने इस पर कोई लेख नहीं लिखा। भले ही इस पर वे बातचीत न करें लेकिन असलियत को अमेरिकी शासक वर्ग कब तक दबायेगा। रिसते हुये घाव की पीव निकलकर सामने आ ही जाती है और वह घृणा के सिवाय कोई और भाव पैदा नहीं करती है।   

भारत में गेट्स फाउंडेशनः एक प्रारंभिक अध्ययन -संध्या श्रीनिवासन
वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)
‘‘भारत जैसा असर छोड़ने लायक स्थान कोई अन्य नहीं है।-बिल गेट्स।
भारत में बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (बी.एम.जी.एफ.) कितना पैसा खर्च करता है?
बी.एम.जी.एफ. की भारत में मजबूत उपस्थिति है। इसने 2003 में अपने प्रवेश के समय से 2012 तक एक अरब डाॅलर के प्रोजेक्ट में सीधे पैसा लगाया। स्पष्ट है कि इसमें वह धन शामिल नहीं है जो भारत में प्रोजेक्ट चला रहे अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठनों को दिए गए हैं। (उदाहरणस्वरूप बी.एम.जी.एफ. ने लगभग एक अरब डाॅलर एक अकेली अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन, प्रोग्राम फाॅर एप्रोप्रिएट टेक्नोलाॅजी इन हेल्थ (पी.ए.टी.एच.) को कई प्रोजेक्ट को चलाने और फंड करने के लिए दिया। वस्तुतः पीएटीएच फाउंडेशन के लिए अनुदानग्राही से ज्यादा एक एजेंट है।) भारत में बी.एम.जी.एफ. की गतिविधियां ज्यादातर स्वास्थ्य और पोषण के क्षेत्र में हैं। जहां यह सरकार के कार्यक्रमों और गैर सरकारी संगठनों की गतिविधियों और दवा कंपनियों के प्रयत्नों के वित्त पोषण में भागीदारी करती है। 
तथापि, बी.एम.जी.एफ. द्वारा लगाया गया धन भारत के जन स्वास्थ्य खर्चों की तुलना में कम है। बाद वाले की राशि 2010-11 में मात्र 18.3 अरब डाॅलर थी। इस तरह बी.एम.जी.एफ. का धन भारत की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने में मुख्य हिस्सा नहीं उठा सकता। बल्कि अगर बी.एम.जी.एफ. का पैसा वापस चला जाता है तब भी केन्द्र और राज्य सरकारों के खर्च में मामूली वृद्धि (प्रतिशत के रूप में) नुकसान की भरपाई कर देगी।
बी.एम.जी.एफ. के उद्देश्य क्या हैं?
बी.एम.जी.एफ. की रणनीति के मुख्य बिन्दु- फाउंडेशन के बेवसाइट के अनुसार निम्न हैं-
1. सरकारी और निजी संसाधनों की मदद से नीतियों को प्रभावित करने के लिए संश्रय का उपयोग करना।
2. राज्य के प्रोजेक्टों को ‘इनक्यूबेटर आॅफ इन्नोवेशन’ (नई चीजों की प्रयोगशाला) के रूप में इस्तेमाल करना।
3. तकनीक की भूमिका को रेखांकित करना।
बी.एम.जी.एफ. की रणनीति (जैसा कि एक बेवसाइट पेज पर बनाया गया है और जोकि अब बदल चुका है किन्तु एक आर्काइव किए हुए पेज के रूप में उपलब्ध है।) के अनुसार ‘‘फाउंडेशन स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं देेने के लिए निवेश नहीं करता। इसके बदले हम व्यवस्था का स्तर उन्नत करने और नये रूप में ढालने के लिए रास्ते तलाशते हैं जिससे कि ये सेवाएं लोगों के लिए बेहतर नतीजे दे सकें।’’
सभी रणनीति प्रभाव छोड़ने के वास्ते हमारे संश्रय को उन्नत स्तर पर पहुंचाते हैं। सभी रणनीति तकनीक की भूमिका को रेखांकित करते हैं। (जोर लेखिका का) 
दूसरे शब्दों में बी.एफ.जी.एफ. का उद्देश्य सरकार की नीति को प्रभावित करना है। बिहार सरकार के साथ फाउंडेशन का एमओयू (फाउंडेशन की बेवसाइट के अनुसार बिहार और यूपी दो ऐसे राज्य हैं जहां फाउंडेशन का काम संकेन्द्रित है।) इस रणनीति को व्याख्यायित करता हैः फाउंडेशन के संसाधनों को इसके उद्देश्य के लिए ‘‘सरकारी और निजी संसाधनों के स्तर को उन्नत करने’’ के लिए इस्तेमाल करना और राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम और नीति को प्रभावित करने के लिए राज्य को इनक्यूवेटर आफ इनोवेशन(नयी चीजों की प्रयोगशाला) की तरह इस्तेमाल करना। 
उत्पाद विकास संश्रय (प्रोडक्ट डेवलपमेंट पार्टनरशिप, पीडीपी) क्या है और बी.एम.जी.एफ. अपने उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए इसका कैसे इस्तेमाल करते हैं?
गेट्स फाउंडेशन ने सार्वजनिक-निजी भागीदारी के एक रूप ‘उत्पाद विकास संश्रय’ (प्रोडक्ट डेवलपमेंट पार्टनरशिप, पीडीपी) को विकसित करने में मुख्य भूमिका निभाई है। पीडीपी सरकार और उद्योग को स्वास्थ्य के लिए तकनीक को विकसित करने के लिए मुनाफा विहीन उपक्रम कहे जाने वाले कार्यक्रम के माध्यम से एक साथ लाते हैं।
इंटरनेशनल एड्स वैक्सीन इनिशिएटिव (एक गेट्स अनुदानग्राही) के वेबसाइट के अनुसार पीडीपी का मकसद ‘‘अकादमिक क्षेत्र, बड़ी दवा कंपनियों, बायोटेक्नोलाॅजी उद्योग और विकासशील देशों की सरकारों’’ के सहयोग से काम करते हुए ‘‘उत्पाद विकास को त्वरित करना है।’’ उत्पाद वैक्सीन, दवाइयां, जांच के साधन, कीटनाशक इत्यादि हैं। उदाहरण स्वरूप पीडीपी इनोवेटिव वेक्टर कंट्रोल कंसोर्टियम (यह भी एक गेट्स अनुदानग्राही) एक ‘‘मुनाफा के लिए नहीं कंपनी है और जनस्वास्थ्य रोगवाहक नियंत्रण के लिए कीटनाशकों के विकास में नए चीजों के राह में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए पंजीकृत दानकर्ता है।
इसके मुख्य कार्यकारी अधिकारी की अंतिम नौकरी बेचर क्राप साइंस में थी। पीडीपी के काम में उत्पाद की क्लिनिकल ट्रायल और रेगेलेटरी एप्रूवल कराना- और सरकार के कार्यक्रमों में इनको शामिल करना है। यद्यपि पीडीपी के प्रस्तोता इसको इस आधार पर न्यायोचित ठहराते हैं कि ये उन रोगों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जिसका कोई व्यवसायिक बाजार नहीं है। वस्तुतः पीडीपी की जांच दिखाता है कि इसका एक काम बाजार को ढूंढना है। पीएटीएच के मलेरिया वैक्सीन इनिशिएटिव (यूएसएआईडी और बीएमजीएफ) विभिन्न दामों पर मलेरिया वैक्सीन के सार्वजनिक और निजी बाजार, दानकर्ताओं के दान की संभावना, बाजार के रूप में अमेरिकी सेना और ऐसे ही अन्य चीजों पर ध्यान देता है। पीडीपी असलियत में उद्योगों के लिए नीति निर्धारक प्रक्रियाओं को प्रभावित करने और विकासशील देशों के सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के बड़े और अक्षत बाजारों तक पहुंच बनाने के रास्ते हैं। ग्लोबल एलायंस फार टीवी ड्रग डेवलपमेंट और पीएटीएच की मलेरिया वैक्सीन इनिशिएटिव के प्रतिनिधि की एक प्रस्तुति इस बात का वर्णन करते हैं जिसे वे ‘‘देश का नीति निर्माण’’ कहते हैं। वैश्विक तौर पर पीडीपी बहुपक्षीय एजेंसियों के साथ काम करते हैं। स्थानीय तौर पर ‘‘पीडीपी, विश्व स्वास्थ्य संगठन, दवा क्षेत्र और अन्य घटक सार्वजनिक स्वास्थ्य मामले को स्वीकारे जाने या निरस्त किए जाने के पक्ष में काम करते हैं’’। उन्हें अन्य जिन चीजों में सहयोग देने की जरूरत पड़ सकती है, वे हैं ‘‘बीमारी के बोझ को परिभाषित करना, नए निर्णय प्रक्रिया के निकायों की स्थापना, स्थानीय पक्षधर समूहों की स्थापना और चतुर्थ फेज के अध्ययन’’। 
न केवल उत्पाद को विकसित करना और बाजार में लाना होता है, इन वैक्सीन या दवाओं के लिए मांग को पैदा करना होता है। संगठनों- पक्षधर समूहों और मीडिया समेत- को इनके देश के कार्यक्रम में शामिल करने के लिए लाॅबिंग करनी होती है। चतुर्थ फेज जिसको कि प्रदर्शन प्रोजेक्ट भी कहा जाता है, को चलाया जाता है ताकि यह स्थापित किया जा सके कि उत्पाद को सरकार के कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है।’’ नए निर्णय लेने वाले निकायों’’ की स्थापना में सहयोग देने के लिए पीडीपी को कहा जाता है। यह स्पष्ट नहीं है कि ये नए निर्णय लेने वाले निकाय क्या होंगे, ये किनका प्रतिनिधित्व करेेंगे और इनकी स्थापना कैसे होगी।
बीएमजीएफ की गतिविधियों में करार शोध संगठनों (कांट्रेक्ट रिसर्च आर्गेनाइजेशन सीआरओ) की क्या भूमिका है?
गेट्स फाउंडेशन की रणनीति में सार्वजनिक और निजी के फर्क को धुँधला करने का काम पीडीपी के द्वारा विकसित उत्पादों के परीक्षण में निजी और ‘मुनाफा रहित’ करार शोध संगठनों को दिये जाने वाले समर्थन में भी दिखाई पड़ता है। फैमिली हेल्थ इंटरनेशनल अपने आप को ‘‘मुनाफा रहित मानव विकास संगठन बताता है जो कि एकीकृत स्थानीय समाधानों को आगे बढ़ाकर जीवन को लंबे समय के लिए बेहतर बनाता है।’’ यह आंशिक तौर पर करार शोध के द्वारा कारपोरेट, सरकारों और गैर सरकारी संगठनों के लिए ‘‘तकनीकी सहायता’’ प्रदान करता है। इसके दानकर्ता आधार में बीएमजीएफ, यूएसएआईडी, सेन्टर्स फाॅर डिजीज कंट्रोल एण्ड प्रिवेंशन (सीडीसी, यूएस डिपार्टमेंट फाॅर इंटरनेशनल डेवलपमेंट डीएफआईडी,यूके)- और वेयर फार्मास्यूटिकल, ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन और फाइजर शामिल हैं। 2011 में एफएचआई, क्विन्ताइल्स, फार्मास्यूटिकल प्रोडक्ट डेवलपमेंट और जीवीके बायोसाइंसेज चैदह वैश्विक स्वास्थ्य उत्पाद विकास संश्रयों के कंसोर्टियम जो कि बीएमजीएफ, सरकारी एजेंसियां, निजी कंपनियों और ‘‘अन्य स्त्रोतों से वित्तपोषित हैं, जिसे कि 2011-13 में वैक्सीन और दवाइयों के 128 क्लिनिकल परीक्षण करने हैं, के लिए करार शोध के ‘‘अधिमान्य प्रदाता थे। दवा कंपनियों के लिए भारत में सभी चार सीआरओ द्वारा चलाए जाने वाले परीक्षण अपने सार में व्यावसायिक गतिविधि हैं जिसे कि एक प्रकार का मुनाफा रहित क्षेत्र बताया जाता है। 
एक अन्य उदाहरण लें, ऐराज टीवी का टीका विकसित करने वाली एक ‘‘वैश्विक मुनाफा-रहित’’ बायोटेक कंपनी है। ऐराज टीवी वैक्सीन फाउंडेशन ने पहले चरण का परीक्षण चलाया (इसने केन्या और दक्षिण अफ्रीका में 2बी चरण का परीक्षण भी शुरू कर दिया है।) 2012 में कंपनी ने जीएस के द्वारा विकसित एक और अन्य टीवी के टीके का भारत में परीक्षण करने की योजना की घोषणा की। 
भारत में बी.एम.जी.एफ. किन प्रोजेक्टों को पैसा देता है?
परिशिष्ट में हमने भारत में बी.एम.जी.एफ. द्वारा वित्त पोषित प्रोजेक्टों की एक आंशिक सूची तैयार की है। इस सूची से देखा जा सकता है कि बीएमजीएफ का पैसा संयोजनों के एक विशाल जाल में घूमता है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, केन्द्र और राज्य सरकारें, गैर सरकारी संगठन, शैक्षिक और शोध संस्थान, सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थान, निजी कारपोरेट क्षेत्र की फर्में और ऐसे ही अन्य शामिल हैं। यह विशाल जाल इसे असलियत में बेजोड़ पहुंच प्रदान करता है जिसे कि प्रभाव के रूप में बदला जा सकता है।
बीएमजीएफ के सरकार के साथ सहयोग के क्या निहितार्थ हैं?
हम कुछ उदाहरणों से बीएमजीएफ के काम करने के तरीकों और इसके प्रभाव को समझ सकते हैं। सरकार पर बीएमजीएफ के प्रभाव का एक उदाहरण अप्रैल 2013 में शुरू किये गये विशाल अभियान हैं। यह बीएमजीएफ, भारत के जैव प्रौद्योगिकी विभाग और इसके बायोटैक्नोलाॅजी इंडस्ट्री रिसर्च असिस्टेन्स काउंसिल के बीच संश्रय है। बीएमजीएफ के प्रेेस विज्ञप्ति के अनुसार, 
पिछले साल हस्ताक्षरित मेमोेरेंडम आफ अंडरस्टैडिंग के तहत, जैव प्रौद्योगिकी विभाग और गेट्स फाउंडेशन टीकों, दवाओं, कृषि उत्पादों और कुपोषण, परिवार एवं बाल स्वास्थ्य में हस्तक्षेप पर पांच साल के दौरान ढ़ाई लाख डाॅलर निवेश करने में सफल हुए हैं। 
‘‘विशाल अभियानों’’ में शामिल हैंः नए टीकों को विकसित करना और पुराने को बेहतर बनाना; रोगवाहकों द्वारा फैलाए जाने वाली बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए आनुवांशिक और रसायनिक रणनीति विकसित करना; और ‘‘पोषक तत्वों से समृद्ध पादप जातियों’’ को विकसित कर पोषण को उन्नत करना।
जैव प्रौद्योगिकी विभाग के एक निदेशक का कहना है कि संश्रय इस बात को सुनिश्चित करेगा कि भारत की पहुंच इस फंडिंग से विकसित दवाओं तक हो। यह तथ्य कि एक सरकारी विभाग निजी संस्था से पैसा लेना उचित मानता है। यह बीएमजीएफ के प्रभाव को दिखाता है। ऐसा नहीं है कि सरकार को इस तरह के दान कार्यक्रम को चलाने के लिए पांच करोड़ डाॅलर की जरूरत है। न ही सरकार को दवाओं के निर्माण के लिए पेटेंट तक पहुंच बनाने के लिए ऐसे संश्रयों की जरूरत है- सरकार अति आवश्यक दवाओं के निर्माण के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग लागू करने के लिए कानूनी तौर पर अधिकृत है। 
बीएमजीएफ के लिए, तब भी, विशाल अभियान  भारत संश्रय, जिसके कि सलाहकार बोर्ड में इसके बोर्ड सदस्य शाामिल हैं, भारत के जन स्वास्थ्य शोध के निर्णय लेने की प्रक्रिया में पैठ बनाने का माध्यम है जिससे कि शोध के विषय और प्राथमिकता को तय कर सकें। 
निश्चय ही ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि कोई दवा या टीका- और यहां ‘‘पोषक तत्वों से समृद्ध पादप जातियां भी’’ जोकि इन विशाल अभियानों के द्वारा विकसित की जाएंगी, उनसे जनता के स्वास्थ्य को कोई लाभ होगा। 
बीएमजीएफ के प्रभाव का एक अन्य उदाहरण पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन आफ इण्डिया में सरकार के साथ धन लगाना है। बीएमजीएफ के द्वारा लगाये जाने वाले पैसे में देश में पब्लिक हेल्थ स्कूलों को खोलने के लिए दिया गया डेढ़ करोड़ डाॅलर शामिल है। यह गेट्स को इन संस्थानों को चलाने और निर्देशन में- जिस तरह का शोध ये करेंगे या जो अकादमिक कार्यक्रम ये चलायेंगे -दखल प्रदान करता है।
भारत के टीका कार्यक्रम पर बी.एम.जी.एफ. का क्या असर है?
गेट्स जन स्वास्थ्य के सवालों को संबोधित करने में तकनीक को एक केन्द्रीय भूमिका प्रदान करता है; ऐसे तकनीक का टीकाकरण प्रधान उदाहरण है। 
भारत के जन स्वास्थ्य प्राथमिकताओं, जिसमें यह शामिल है कि किन बीमारियों पर ध्यान केंद्रित किया जाए, को विदेशी और निजी हितों से स्वतंत्र तौर पर निर्धारित किए जाने की जरूरत है। इन प्राथमिकताओं को समग्र तौर पर पोषण, साफ-सफाई, पेयजल और बचाव उपायोें तथा इलाज के साथ सम्बोधित किए जाने की जरूरत है। लेकिन, वस्तुतः प्राथमिकताएं बड़ी मात्रा में अंतर्राष्ट्रीय और निजी दबावों के जो कि इन प्राथमिकताओं का मुकाबला करने के तरीकों को भी निर्देशित करने की कोशिश करती है, के द्वारा प्रभावित होती है। 
इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम है जिसे कि गेट्स फाउंडेशन, रोटरी इंटरनेशनल, विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य के द्वारा बहुत ही प्रचारित किया गया है। वास्तव में बिल गेट्स इसको जन स्वास्थ्य में इस प्रकृति के हस्तक्षेपों की प्रभावकारिता के लिए प्रयोग के रूप में देखता है। बाहरी दबाव में भारत सरकार ने इस बात की अनदेखी कि पोलियो उन्मूलन भारत की जनस्वास्थ्य की प्राथमिकता नहीं है। इसने पोलियो को जनस्वास्थ्य के सभी सवालों पर वरीयता दी, अपने कर्मचारियों की भारी संख्या (जिसमें 23 लाख टीकाकर्मी शामिल हैं) को गतिशील किया ताकि 17 करोड़ बच्चों का टीकाकरण हो। इसमें इसने एक उत्साह, अधीरता और पैसा खर्च करने की दयालुता दिखायी जो कि इसके समस्त जनस्वास्थ्य प्रयासों या जीवन परिस्थिति, जोकि बीमारियां पैदा करती है, को बेहतर करने के प्रयासों में दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से गायब रहता है। (बिल गेट्स गर्वपूर्वक घोषणा करता है कि कैसे टीकाकर्मियों ने ‘‘उत्तर प्रदेश के सबसे गरीब इलाकों में और बिहार के दूरस्थ कोसी नदी क्षेत्र में बच्चों को ढूंढा - ऐसे क्षेत्र जहां बिजली नहीं है, जो अकसर जलमग्न रहता है और जहां सड़क से पहुंचना संभव नहीं है’’।) एक रोग पर ध्यान केन्द्रित कर और अन्य सभी को अनदेखा कर- पोलियो का टीका एकमात्र टीका है जिसके बारे में पूरे भारत के लोग जानते हैं- और साथ ही उन परिस्थितियों को अनदेखा कर जो बीमारियां पैदा करते हैं, पोलियों अभियान अन्य तात्कालिक व जरूरतों से मानव और भौतिक संसाधनों को विस्थापित करता है। और वस्तुतः वर्तमान सार्विक टीकाकरण कार्यक्रम को कमजोर करने में भूमिका अदा करता है। साथ ही, बार-बार दिये जाने वाले लाइव एटन्यूइटेड वैक्सीन से वैक्सीन जनित पोलियो लकवा होता है जिसके बारे में अभियान ने पहले इंकार किया पर अंततः स्वीकार किया। इससे उन बच्चों जिनको कि टीकाकरण के बावजूद पोलियो हुआ के नुकसान का सवाल पैदा होता है- ऐसे बच्चे जिनको कि कार्यक्रम में जबरन शमिल किया लेकिन उनके नुकसान का उनको कोई मुआवजा नहीं दिया गया। 
अंततः पोलियो उन्मूलन पर इस जोर ने जल जनित संक्रमणों की अनदेखी की जिनको कि रोका जा सकता था अगर लोगांे को साफ पानी और साफ सुथरा परिवेश मुहैया कराया जाए। एक आलोचक चिह्ननित करते हैं कि भारत ने पोलियो कार्यक्रम के लिए 0.02 अरब डाॅलर का सांकेतिक अनुदान प्राप्त किया जबकि इसने इस पर 2.5 अरब डालर खर्च कियाः ‘‘इस बात की कल्पना करना सुखद है कि क्या हुआ होता अगर 2.5 अरब डालर जो कि पोलियो के उन्मूलन पर खर्च किए गये उसे पानी, साफ-सफाई और नियमित टीकाकरण पर खर्च किया गया होता। शायद पोलियो का नियंत्रण मुक्ति के हद तक हासिल हो चुका होता जैसा कि विकसित देशों में है।’’ गेट्स का दृष्टिकोण है कि अन्य बीमारियां अन्य टीकों द्वारा निपटाई जाएंगी।
जैसा कि बीएमजीएफ सरकार पर हेपटाइटिस बी टीका और पेंटावेलेंट टीका (डिप्थीरिया, काली खांसी, हेपेटाइटिस बी और हीमोफीलस इनफ्लूएंजा बी के खिलाफ) को अपनाने के लिए दबाव डाल रही है। इसने ह्यूमन पैपीलोमा वाइरस टीकों के परीक्षण को धन मुहैय्या कराया है। और यह रोटावायरस टीकों के विकास और प्रचार को धन दे रहा है। इन सभी प्रयासों में बी.एम.जी.एफ. ने लगातार इन टीकों की सार्थकता, जन स्वास्थ्य महता और भारत के खर्च/सहन क्षमता के साथ-साथ इन परीक्षणों के नैतिकता पर वरिष्ठ जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा खड़े किये गये गंभीर चिंताओं की अवहेलना की। किसी भी मामले में बीएमजीएफ और इसके साझीदार आलोचनाओं को तार्किक तौर पर परास्त करने में सफल नहीं हो सके। इसके बावजूद सरकार बीएमजीएफ द्वारा दिखाए रास्ते पर बढ़ती दिखाई पड़ती है। 
बीएमजीएफ का कुल परिणाम क्या है? क्या कोई लाभ नहीं है?
कोई यह दावा नहीं करता कि हर चीज जिसमें बीएमजीएफ का पैसा लगता है, गलत है। कई चीजें अतुलनीय हैं। लेकिन इनको सार्वजनिक क्षेत्र के द्वारा भी चलाया जा सकता है। तथ्य यह है कि बीएमजीएफ के द्वारा लगाया गया पैसा इसे साख प्रदान करता है और व्यापक एजेंडे को प्रस्तुत करने की क्षमता प्रदान करता है। 
जैसा कि हमने शुरू में कहा था कि बीएमजीएफ द्वारा लगाया जाने वाला धन भारत के कुल जन स्वास्थ्य खर्चों की तुलना में ज्यादा नहीं है। बीएमजीएफ का वास्तविक असर पिछले दो दशकों के दौरान स्वास्थ्य नीति में हुए बड़े बदलाव को बढ़ाने में है। पहले, जन स्वास्थ्य के प्रति समग्र पहुंच जिसमें कि पोषण, सफाई, बचाव और इलाज की समुचित और सर्वसुलभ व्यवस्था शामिल है, के प्रति कम से कम औपचारिक सहमति थी। 1990 के बाद से इसे क्रमशः विश्व बैंक प्रायोजित माॅडल के द्वारा विस्थापित किया जाने लगा जो कि सार्वजनिक क्षेत्र को कमतर मानता है और स्वास्थ्य सेवा में निजी क्षेत्र को शमिल करने का प्रस्ताव करता है; सार्वजनिक सेवाओं के लिए उपयोग शुल्क थोपता है; और समग्र पहुंच की बजाय विशिष्ट हस्तक्षेप पर जोर देता है। 
यह पहुंच गेट्स और इसके फाउंडेशन के प्रवेश के बाद अपने चरम पर पहुंच गया। इनका उद्देश्य निजी निगमों द्वारा संचालित, निजी स्वामित्ववाली तकनीकी हस्तक्षेपों के गिर्द घूमती और हर बीमारी के लिए ‘जादुई छड़ी’ वाले माॅडल को स्थापित करता है। यद्यपि ऐसा माॅडल जन स्वास्थ्य के लिए बेकार है, लेकिन निजी मुनाफे को फलीभूत करने के लिए इसे बढ़ाया जा रहा है। ?
(‘आस्पेक्ट्स आफ इण्डियाज इकोनोमी’ के अंक 57 के लेख The Gates Foundation in India : A Primer का हमारे द्वारा किया गया अनुवाद है। लेख मेें गेट्स फाउण्डेशन के कामों का अच्छा खुलासा किया है। हालांकि कई जगह हमारे विचार उनसे मेल नहीं खाते हैं।- सम्पादक)

स्काटलैण्ड में जनमत संग्रह
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
18 सितम्बर 2014 को स्काटलैण्ड में जनमत संग्रह होने जा रहा है। इस जनमत संग्रह में यहां के मतदाता तय करेंगे कि वे ग्रेट ब्रिटेन के साथ ही बने रहेंगे अथवा स्काटलैण्ड एक नया स्वतंत्र देश बनेगा।
यह जनमत संग्रह स्काटलैण्ड में ऐसे वक्त में हो रहा है जबकि यूरोप के कई देशों में प्रथकतावादी आंदोलन चल रहा है। ब्रिटेन, स्पेन, बेल्जियम, इटली और फ्रांस उन प्रमुख देशों में है जहां लम्बे समय से अलग राष्ट्र की मांग को लेकर जुझारू आंदोलन रहे हैं। स्पेन के उत्तर में स्थित दो प्रांतों बास्क और कतालोनिया, बेल्जियम के उत्तर के डच भाषी फ्लांडर्स और दक्षिण के फ्रेंच भाषी बालोनिया, फ्रांस के दक्षिण पूर्व हिस्से के बास्क और कतालान तथा इटली के उत्तरी हिस्से मे स्थित पदानिया और दक्षिणी टिशेल में स्वतंत्र राष्ट्र की मांग को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। स्काटलैण्ड में होने वाले जनमत संग्रह का परिणाम यदि स्वतंत्र होने के पक्ष में आता है तो इन सभी में पृथक होने की मांग जोर पकड़ने लगेगी।
इंग्लैण्ड और स्काटलैण्ड 1706-07 के एक कानून के तहत एक हुए थे। इंग्लैण्ड, वेल्स और स्काटलैण्ड को ग्रेट ब्रिटेन के नाम से जाना जाता रहा है। 1801 में उत्तरी आयरलैण्ड को इसमें जब शामिल कर लिया गया तब इसका नाम यूनाइटेड किंगडम (यूके) पड़ा।
स्काटलैण्ड के स्वतंत्र होने की स्थिति में उत्तरी आयरलैण्ड और आयरलैण्ड के एकीकरण की मांग भी जोर पकड़ सकती है।
स्काटलैण्ड के अलग न होने देने और यूनाइटेड किंगडम को बनाये रखने के लिए कैमरून की सरकार सारे प्रयास कर रही है। इसमें आजाद स्काटलैण्ड को होने वाले नुकसान जैसे यूरोपीयन यूनियन की सदस्यता और नयी मुद्रा क्या हो के जैसे खतरे गिनाये जा रहे हैं।
स्काटलैण्ड की आजादी किसी उत्पीडि़त राष्ट्रीयता की आजादी की लड़ाई की तरह नहीं है बल्कि यह एक ऐसी राष्ट्रीयता की लड़ाई है जो सक्षम और कई मामलों में शेष ब्रिटेन से अधिक सम्पन्न है। इंग्लैण्ड और स्काटलैण्ड के एक होने से पहले स्थिति भिन्न थी तब इंग्लैण्ड शक्तिशाली था। आज का स्काटलैण्ड इंग्लैण्ड से प्रति व्यक्ति आय के मामले में आगे है। स्काटलैण्ड के पास ब्रिटेन के कुल क्षेत्रफल का एक तिहाई है। स्काटलैण्ड में ब्रिटेन की केवल  साढे आठ प्रतिशत आबादी रहती है जोकि करीब 58 लाख बनती है। स्काटलैण्ड को उत्तरी सागर के तेल से होने वाली आय से उसका सकल घरेलू उत्पाद 44,378 डालर प्रति व्यक्ति है।

स्काटलैण्ड के लोकतांत्रिक ढंग से अलग होने की प्रक्रिया का महिमा मण्डन करने वाले भूल जा रहे हैं कि आज का स्काटलैण्ड कहीं से भी उत्पीडि़त नहीं बल्कि उल्टा है कि उसे लगता है कि उसे अपनी समृद्धि क्योंकि शेष ब्रिटेन से बांटनी पड़ रही है इसलिए उसे अलग हो जाना चाहिए। स्काटलैण्ड को मिलने वाला जनवाद अमीरों को उपलब्ध जनवाद है।

वैश्विक रोजगार संकट की ओर बढ़ रही है दुनिया
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
अभी हाल में विश्व बैंक ने जी-20 देशों में रोजगार के बढ़ते संकट के संदर्भ में एक रिपोर्ट जारी की है। यह रिपोर्ट मेलबोर्न में इन देशों के श्रम व रोजगार मंत्रियों की बैठक के लिए तैयार की गयी। यह बैठक 10-11 सितम्बर 2014 को सम्पन्न हो गयी।
यह रिपोर्ट जी-20 देशों में रोजगार की बुरी स्थिति को प्रदर्शित करती है। 2007 की आर्थिक मंदी से 2014 के आंकड़ों पर आधारित यह रिपोर्ट बतलाती है कि कमजोर आर्थिक विकास दर के साथ अधिकतर देशों में बेरोजगारी भयावह स्तर पर बनी हुयी है। भविष्य में इस दिशा में अगर प्रयास नहीं किये जाते तो यह बड़े संकट को पैदा करेगी। रिपोर्ट की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं।
(1) जी-20 के अधिकतर देशों में पिछले एक वर्ष में रोजगारों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है। आस्ट्रेलिया, इटली, द.कोरिया और तुर्की में स्थिति पूर्व की तुलना में खराब ही हुई है। जबकि बाकी देशों में दिखाई देने वाला सुधार नये रोजगार पैदा होने से नहीं बल्कि आंकड़ों में काम करने योग्य आबादी (स्ंइवनत थ्वतबम च्ंतजपबपचंजपवद त्ंजम) को गिराकर हासिल किया गया। अर्जेंटिना, ब्राजील, स्पेन, अमेरिका में ऐसा किया गया है। कुल मिलाकर बेरोजगारी दर अभी भी ऐतिहासिक रूप से ऊंची बनी हुयी है। अधिकतर देशों में आर्थिक संकट के बाद जो विकास हुआ है वह रोजगार विहीन है। खासकर युवा बेरोजगारी की दर खासी ज्यादा है।
उपरोक्त तालिका-1 में श्रम शक्ति की भागीदारी 15-16 वर्षों से अधिक आयु से ऊपर काम को इच्छुक लोगों के प्रतिशत के रूप में प्रदर्शित की गयी है। जबकि बेरोजगारी दर इस काम की इच्छुक आबादी के प्रतिशत के रूप में बेरोजगारों की संख्या के रूप में प्रदर्शित है।
अधिकतर ही देशों में स्त्रियों की काम की इच्छुक आबादी को पुरुषों की तुलना में खासा नीचे रखकर बेरोजगारी दर को वास्तविकता से नीचे प्रदर्शित किया जाता है। सऊदी अरब, भारत व तुर्की में स्त्रियों की काम की इच्छुक आबादी तो महज 20-30 प्रतिशत प्रदर्शित की गयी है। फिर भी यदि तालिका के आंकड़ों पर ही गौर करें तो युवा बेरोजगारी अधिकतर देशों में खासी ऊंची है और एक वर्ष में इसमें कोई विशेष सुधार नहीं दिखता।
(2) एक वर्ष से अधिक बेरोजगार रहने वाले लोगों की संख्या में 2007 की तुलना में 2014 में अधिकतर देशो में खासी वृद्धि दिखलायी देती है। अमेरिका, स्पेन, इटली, द. अफ्रीका में यह वृद्धि बहुत अधिक है।
(3) वैश्विक मंदी के बाद से न केवल बेरोजगारी दर में तीव्र वृद्धि हुयी है बल्कि वास्तविक मजदूरी की वृद्धि दर में भी खासी गिरावट आयी है विकसित देशों में वेतन वृद्धि दर या तो शून्य के स्तर पर नकारात्मक (स्पेन) में है। औसत वेतन वृद्धि दर विकासशील देशों में 2007 के 9.1 प्रतिशत से गिरकर 2013 में 4.9 प्रतिशत रह गयी है। जबकि विकसित देशों में यह 2007 के 0.8 प्रतिशत से गिरकर 2011 में -0.4 प्रतिशत व 2013 में 0.3 प्रतिशत रह गयी है।
इसी तरह उत्पादकता व वेतन के इंडेक्स का अंतर लगातार चौड़ा होता जा रहा है। 1999 में यदि उत्पादकता व वेतन दोनों का सूचकांक 100 माना जाए तो 2013 में  उत्पादकता सूचकांक 117 पहुंच चुका था जबकि वेतन सूचकांक महज 105 पर पर था। यानी उत्पादकता में निरन्तर वृद्धि के बावजूद मजदूरी नहीं बढ़ रही है।
इसी के साथ अधिकतर देशों में उच्च वेतन वालों व निम्न वेतन वालों के बीच की खाई लगातार चैड़ी हो रही है।
(4) जी-20 के अधिकतर देशों खासकर उभरती अर्थव्यवस्थाओं में गरीबी की दर और अनौपचारिक रोजगार की मात्रा बहुत ज्यादा है। अति गरीबी दर (1.25 डालर की गरीबी रेखा के नीचे) व सामान्य गरीबी दर (1.25 डालर से 2 डालर प्रतिदिन के बीच आय वाले) के तहत अभी भी इन देशों में 44.7 करोड़ लोग रह रहे हैं। परन्तु 83.7 आबादी जी-20 देशों में या तो गरीब है या गरीबी रेखा के जरा सा ऊपर है।
अनौपचारिक रोजगार तुर्की भारत सरीखे देशों में बहुत ज्यादा है। भारत में हर 3 में से 2 रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में है। साथ ही संगठित क्षेत्र में भी बड़ी मात्रा में अनौपचारिक (ठेके के) मजदूर रखे जा रहे हैं। इस तरह से अधिकतर ही नये पैदा हो रहे रोजगारों में जीवन दशायें बेहद बुरी हैं। अनौपचारिक रोजगारों में अधिकतर जगह महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है। भारत में 84.7 प्रतिशत महिलायें, व 83.7 पुरुष अनौपचारिक रोजगार में है। अनौपचारिक रोजगारों में आमतौर पर वेतन कम होता है। रोजगार सुरक्षा नहीं होती व काम की दशायें बुरी होती हैं।
इसके बाद रिपोर्ट रोजगारों पर अधिक धन खर्च करने, सामाजिक सुरक्षा मद में खर्च बढ़ोत्तरी की मांग के बहाने के तरीके के रूप में प्रस्तुत करते हुए विभिन्न देशों से इस दिशा में बेहतर नीतियां अपनाने की मांग करती है। घरेलू उपभोग में वृद्धि कर बाजार में मांग का संकट हल करने वाले विरोधाभासी ढंग से कीन्स वादी उपाय रिपोर्ट सुझाती है। साथ ही इस दिशा में सरकारी व निजी निवेश बढ़ा संकट को हल करने के उपाय दिखलाती है।
कुल मिलाकर रिपोर्ट बेरोजगारी से निपटने के नाम पर वैश्विक स्तर पर जारी नवउदारवादी नीतियों को ही आगे बढ़ाने की बात करती है। जबकि इन्हीं नीतियों ने दुनिया को आर्थिक संकट व उससे पैदा हुए रोजगार संकट की ओर धकेला था। इसीलिए साम्राज्यवादी संस्थाओं के इन नुस्खों से रोजगार की समस्या जरा भी हल होने की ओर नहीं बढ़ेगी। 2030 तक रिपोर्ट 60 करोड़ नये रोजगार जी-20 देशों में पैदा करने की मांग करती है पर ये कैसे पैदा होंगे यह नहीं बतलाती।

बेरोजगारी की यह बढ़ती फौज वैश्विक तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था के लिए औद्योगिक चुनौती पेश करने की ओर बढ़ रही है। व्यवस्था के बुद्धिजीवियों के इस फौज से निपटने के सभी उपाय विफल हो रहे हैं।


ओबामा यूरोप की अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर रहा है वर्ष 
प्रतिबंध   मंदी को सघन कर रहे हैं -जेम्स पेत्रास
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
(प्रस्तुत लेख जेम्स पेत्रास के लेख का भावानुवाद है। यदा कदा कुछ परिवर्तन हैं- सम्पादक)
अमरीकी साम्राज्यवादी रूस के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने के लिए लगातार पश्चिमी यूरोप के शासकों पर दबाव बनाये हुए हैं। यूक्रेन में हिंसा के जरिए हुकूमत परिवर्तन करने के बाद भड़के गृहयुद्ध में वे रूसी शासकों को दोषी ठहराने में लगातार प्रचार अभियान चलाये हुए हैं। वे अपने इस अभियान में रूस के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने के लिए यूरोपीय हुकूमतों को दबाव में लाने में सफल भी हो गये हैं। इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी और बाकी यूरोपीय हुकूमतें अमरीकी साम्राज्यवादियों के दबाव में आकर रूस पर प्रतिबंध लगा चुकी हैं। रूसी शासकों ने भी जबावी कार्रवाई करके प्रतिबंध लगाये हैं। रूसी शासकों ने विशेष तौर पर कृषिगत मालों के आयात पर प्रतिबंध लगाये हैं। इसके अतिरिक्त रूसी शासकों ने अन्य व्यापारिक साझेदार बनाये हैं और चीन, ईरान, लातिन अमेरिका और अफ्रीका के देशों के साथ अपना व्यापार बढ़ाया है।
ये प्रतिबंध लगाने की नीतियां ऐसे समय में अपनायी जा रही हैं जब यूरोप की अर्थव्यवस्थायें गहरे आर्थिक संकट में हैं। यह संकट और गहराकर दीर्घकालिक  ठहराव और चिरकालिक मंदी में तब्दील हो रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों के नेतृत्व में लागू की गयी प्रतिबंध नीति ने यूरोपीय संघ में दरार पैदा कर दी है। अमरीकी साम्राज्यवादियों की सैन्यवादी साम्राज्यवादी नीतियों ने यूरोप को आर्थिक तौर पर कमजोर किया है और बाकी दुनिया में सैनिक तौर पर अस्थिरता पैदा की है। अमरीकी साम्राज्यवादियों के समक्ष यूरोपीय शासकों ने अपनी आर्थिक सम्प्रभुता का आत्मसमर्पण कर दिया है। यूक्रेन में अमरीकी परियोजना को लागू करने के मामले में यूरोपीय शासकों का यह आत्मसमर्पण खुद उनके दीर्घकालिक गिरावट और पतन की ओर ले जाने वाला है। सर्वोपरि इसका प्रभाव यह पड़ने वाला है कि सैनिक टकराहटों से बड़े पैमाने के परिवर्तन हो सकते हैं और विश्व अर्थव्यवस्था के पुनर्गठबंधनों के दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्यों की संभावना बन सकती है।
बिना किसी अपवाद के समूची यूरोपीय अर्थव्यवस्थायें मंदी की शिकार हैं। इनमें प्रभुत्वशाली देश- जर्मनी, फ्रांस, और इटली की अर्थव्यवस्थायें मंदी में फंसी हुयी हैं। यह मंदी अब और तीखे रूप में घनीभूत हो गयी है। जब अमरीकी साम्राज्यवादियों के निदेशन में रूस के विरुद्ध प्रतिबंध लगा दिये गये हैं, फिनलैण्ड से लेकर बाल्टिक राज्यों से गुजर कर केन्द्रीय और दक्षिणी यूरोप तक यूरोक्षेत्र को आर्थिक तौर पर उबरना एक दिवास्वप्न जैसा लगता है। पूंजीवादी विनिवेश, आर्थिक प्रतिबंधों और युद्धों की तिहरी मार ने गहराते आर्थिक संकट को और गहरा कर दिया है।
जर्मनी
जर्मनी के वित्तीय बाजार का आत्मविश्वास गहरा कर गिर रहा है। इसका कारण, रूस के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगाने में जर्मनी की सरकार का समर्थन है और बदले में रूसी प्रदेशों द्वारा जर्मनी पर लगाये गये प्रतिबंध हैं। लाखों-लाख जर्मनी के औद्योगिक रोजगार खतरे में हैं। रूसी तेल और गैस का आयात खतरे में है। बड़े पैमाने पर, दीर्घकालीन जर्मनी के निवेश और आकर्षक निर्यात बाजार दांव पर लगा है। ये डर और अनिश्चितताओं ने निवेश में गिरावट को बढाया है और 2014 की दूसरी तिमाही में जर्मनी की अर्थव्यवस्था में 0.2 प्रतिशत की अभूतपूर्व नकारात्मक वृद्धि दर्ज की है। जर्मनी की मंदी की अनुगूंज समूचे यूरोप में विशेष तौर पर पोलेण्ड, चेक गणराज्य, हंगरी और दक्षिणी यूरोप को प्रभावित करते हुए सुनायी पड़ेगी।
अमरीकी राष्ट्रपति के प्रतिबंध संबंधी कमान के समक्ष जर्मनी की चांसलर मर्केल के दासवत आत्मसमर्पण ने जर्मनी के एक बड़े व्यापारिक साझीदार रूस को खो दिया है। इससे जर्मनी के आर्थिक भविष्य को गम्भीर नुकसान हो सकता है। जर्मनी द्वारा रूस को औद्योगिक निर्यात 36 अरब यूरो का है। रूस में इसका वार्षिक निवेश 20 अरब यूरो का है और 4 लाख से ज्यादा जर्मन मजदूर उन कम्पनियों में काम करते हैं जो रूस को निर्यात करती हैं। सीमेन्स के सीईओ जो कैसर ने यह कहा कि ‘‘राजनीतिक तनाव इस व अगले वर्ष में यूरोप की वृद्धि के लिए गम्भीर खतरा पैदा करते हैं।’’ जून, 2014 के बाद कुछ क्षेत्रों में बिक्री की 15 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गयी है। कीव में तख्तापलट से पहले ही जर्मनी की अर्थव्यवस्था ठहराव का सामना कर रही थी। लेकिन मशीनरी के निर्यातक रूसी बाजार खो देने से विशेष तौर पर चिंतित हैं क्योंकि दूसरे बाजार में पहले से ही गिरावट आ गयी है। उदाहरण के लिए, ब्राजील में जर्मनी की बिक्री में लगभग 20 प्रतिशत गिरावट आयी है।
इसके अतिरिक्त जर्मनी के किसान नुकसान में हैं। रूस को जर्मन गोश्त और गोश्त उत्पादों का निर्यात 27.6 करोड़ यूरो का होता है। यह गैर-यूरोपीय संघ निर्यात का 21 प्रतिशत है। जर्मनी के डेयरी किसान रूस के साथ व्यापार से 16 करोड़ यूरो कमाते हैं। यह भी गैर-यूरोपीय संघ देशों के कुल निर्यात का 14 प्रतिशत है।
मर्केल जान बूझकर जर्मनी के उद्योग, कृषि और रोजगार का बलिदान कर रही हैं। वे ओबामा की ‘‘उसके यूरोपीय सहयोगियों को परेशानी में डालने’’ की नीति के सामने झुककर ऐसा कर रही हैं। दूसरी तरफ, रूस के विरुद्ध ओबामा के प्रतिबंधों से अमरीकी आर्थिक हितों पर वस्तुतः कोई प्रभाव नहीं पड़ता। केवल यूरोपीय लोग ही इसकी पीड़ा को महसूस करेंगे। कीव में अमरीकी नाटो तख्तापलट का और पूर्वी यूक्रेन में तख्तापलट विरोधी जनवादियों के विरुद्ध चल रहे सैनिक हमले का मर्केल द्वारा दिये जाने वाले समर्थन से रूस के प्रति शीत युद्ध के दौर की टकराने वाली नीतियों की वापसी हो रही है। इसने जर्मनी के उत्पादकों व निर्यातकों के साथ-साथ व्यापक जर्मनी आबादी से अपने को अलग-थलग कर लिया है।
इटलीः पूंजीवादी संकट और प्रतिबंध
इटली आधे दशक से गम्भीर मंदी का शिकार रहा है और समूचे 2014 में यह जारी है। इस वर्ष दूसरी तिमाही में इसके सकल घरेलू उत्पाद में 0.2 प्रतिशत की गिरावट आयी है। इससे इसका सकल घरेलू उत्पाद सन् 2000 के स्तर से नीचे चला गया है। रूस के विरुद्ध प्रतिबंधों से इटली ने 1 अरब डालर से अधिक का निर्यात खो दिया है। इससे उत्तरी इटली पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है और इसने दकियानूसी नार्दन लीग पार्टी के गुस्से को भड़का दिया है। इटली की बड़ी ऊर्जा कम्पनियां जिनका रूस में बड़ा निवेश है और बड़े नुकसान का सामना कर रही हैं। इटली के किसान, टस्केनी से सिसली तक, कृषिगत निर्यातों में बड़े नुकसान को भोग रहे हैं। दूसरे शब्दों में, प्रतिबंधों से इटली की चिरकालिक बीमार अर्थव्यवस्था ने उबरने के किसी भी अवसर को खो दिया है और सम्भवतः यह मंदी से संकुचन (डिप्रेशन) की ओर जायेगी।
फ्रांसः शून्य वृद्धि से मंदी की ओर
फ्रांस चिरंतन गिरावट के काल में प्रवेश कर गया है। बेरोजगारी 11 प्रतिशत से ऊपर है। अर्द्ध बेरोजगारी और कुछ काम पाने वाले 20 प्रतिशत से ऊपर हैं। सकल घरेलू उत्पाद शून्य से 0.5 प्रतिशत के बीच मंदी के स्तर पर झूल रहा है। खर्चों में कटौती, जिसमें सामाजिक कार्यक्रमों में कटौती और कारोबारियों के टैक्स में माफी बड़े पैमाने में शामिल है, ने उपभोक्ताओं के खर्चों में कमी को जन्म दिया है। इसने किसी भी तरह के पूंजी निवेश को भी नहीं बढ़ाया है। रूस के विरुद्ध ओबामा के प्रतिबंधों से फ्रांस के निर्यात विशेषतौर पर इसके कृषि क्षेत्र और हथियार निर्माताओं को और ज्यादा नुकसान उठाना होगा। और ‘अति सैन्यवादी समाजवादी’ राष्ट्रपति होलण्डे ने तीन महाद्वीपों में हस्तक्षेप करने के लिए वायु सेना और जमीनी फौजों को भेजकर भुगतान संतुलन और बजट की समस्याओं को और बढ़ा दिया है। इसने 82 प्रतिशत से ज्यादा फ्रांसीसी मतदाताओं को वैकल्पिक पार्टियों को चुनने, राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी पार्टी, राष्ट्रीय मोर्चे को नेतृत्व देने को बढ़ावा दिया है।
‘‘यूरोप का पृष्ठभाग’’: स्पेन, ग्रीस, पुर्तगाल
लगभग एक दशक से गहरे संकुचन में दफन ये देश, जहां ग्रीस और स्पेन में बेरोजगारी 26 प्रतिशत है और पुर्तगाल में 16 प्रतिशत है, कृषिगत निर्यातों पर बदले में लगे रूसी प्रतिबंधों से इनके कृषि-निर्यातक क्षेत्रों को सबसे ज्यादा धक्का लगा है। इससे अंगूर, टमाटर और अन्य नष्ट होने वाले उत्पादों के पहाड़ खेतों में सड़ रहे हैं। दक्षिणी यूरोप के टनों उत्पाद कम्पोस्ट के बतौर इस्तेमाल होने के लिए अभिशप्त हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों के निर्देश के कारण दसियों हजार किसान और बड़ी समस्याओं को झेल रहे हैं और वे अधिकाधिक दिवालियेपन की ओर धकेल दिये जायेंगे।
स्पेन के किसान प्रतिबंधों से 15.8 करोड़ यूरो का नुकसान ताजे फलों और फलियों से उठायेंगे जो गैर-यूरोपीय संघ देशों के कुल निर्यात का 22 प्रतिशत है। ग्रीस के किसान 10.7 यूरो का नुकसान उठायेंगे जो गैर-यूरोपीय संघ देशों के निर्यात का 41 प्रतिशत है। स्पेन के गोश्त निर्यातकों का 11.1 करोड़ यूरो का नुकसान होगा जो गैर-यूरोपीय संघ देशों के निर्यात का 13 प्रतिशत है।
ओबामा की मांगों के सामने समर्पण करते हुए यूरोपीय संघ ने अपनी तरफ से हजारों तंगहाल किसानों के लिए कुछ तुच्छ रियायतें दी हैं। इसी दौरान, चूंकि रूस ने लातिन अमरीका में वैकल्पिक बाजार बना लिए हैं इसलिए यूरोपीय संघ ने अपने दूत विदेशों में इस आशय से भेजे हैं कि वे रूस के साथ कृषि कारोबार संबंधी अरबों डालर के समझौतों को रद्द करने की और ये देश अमरीकी-यूरोपीय संघ प्रतिबंधों का पालन करने की मांग करें। अभी तक, लातिन अमरीका के प्रत्येक देश ने यूरोपीय संघ के ‘आकर्षक’ हमले को रद्द कर दिया है। इक्वाडोर के राष्ट्रपति कोर्रिया ने यूरोपीय संघ पर घृणा व्यक्त करते हुए कहा,‘‘हमें दोस्ताना राष्ट्रों को निर्यात करने के लिए किसी की अनुमति नहीं मांगनी है। जहां तक मैं जानता हूं लातिन अमरीका यूरोपीय संघ का हिस्सा नहीं है।’’ रूस में कृषि उत्पादों के निर्यात के लिए यूरोप और संयुक्त राज्य अमरीका के किसानों का स्थान मिस्र और तुर्की ले रहे हैं।
हंगरी, बुल्गारिया, पौलेण्ड, फिनलैण्ड, लिथुआनिया, डेनमार्क और नीदरलैण्डस हंगरी के राष्ट्रपति विक्टर ओर्बान प्रतिबंधों पर गुस्सा हैं और अपने को अलग करने की धमकी देते हैं। बुडापेस्ट के निर्यात से हुआ घाटा जैसे-जैसे बढ़ता जा रहा है, ओर्बान की स्थिति खराब हो रही है क्योंकि हंगरी ऊर्जा आश्रित देश है और उसे इस पर खतरा नजर आ रहा है। बुल्गारिया के आज्ञाकारी राष्ट्रपति ने बू्रसेल्स के दबाव में आकर रूस और स्थानीय कारोबारी नेताओं के बीच हस्ताक्षरित 40 अरब डालर के पाइपलाइन समझौते से पीछे हटने का फैसला लिया है। इसने बड़े बैंक संकट को तेज कर दिया है और बुल्गारिया के दूसरे सबसे बड़े बैंक कोरबैंक को खतरे में डाल दिया है। लाखों बुल्गारियावासियों की जमाराशि या तो रोक दी गयी है या छूमंतर हो गयी है। जब ब्रूसेल्स बुल्गारियावासियों पर दबाव डालते हैं तो वे अपने खुद के बैंकों को दीवालिया करते हैं।
फिनलैण्ड ‘तीसरे रास्ते’ के सिद्धांतकारों का एक समय का आदर्श नमूना, लम्बे समय से संकुचन में है। रूस की अर्थव्यवस्था लगातार पिछले चार वर्षों से सिकुडती जा रही है और इस हुकूमत के आशावादी भी अंदाज लगाते हैं कि उबरने के लिए कम से कम 10 वर्ष चाहिए। वहां के प्रधानमंत्री एलेक्स स्टब्स, जो खुले बाजार के सिद्धान्तकार हैं, रूस के विरुद्ध प्रतिबंधों के कट्टर समर्थक हैं, हालांकि इससे कृषिगत निर्यातों में व्यापक पैमाने पर कटौती होगी। वे कीव में नाटो द्वारा सत्ता दखल के सामने अपने विनाशकारी आत्मसमर्पण की यह कहकर रक्षा करते हैं कि ‘‘हमारे सिद्धान्त! बिक्री के लिए नहीं हैं। हम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में विश्वास करते हैं। हम कानून के शासन में विश्वास करते हैं।’’ अपने ‘‘कानून पालक’’ राष्ट्रपति के अंतर्गत फिनलैण्ड इस वर्ष 25.3 करोड़ यूरो का अथवा गैर-यूरोपीय देशों के इसके निर्यात का 68 प्रतिशत का नुकसान उठायेगा। दूसरे शब्दों में, इस राजनीतिक कठपुतली ने लाखों-लाख फिनलंैड के डेयरी व कृषि उत्पादकों के कल्याण को इसलिए न्यौछावर कर दिया है ताकि कीव में नाटो द्वारा थोपी गयी हुकूमत का समर्थन किया जा सके। यह वह हुकूमत है जो यूक्रेनी प्रतिरोध लड़ाकुओं और नागरिकों का वध करने के लिए नव-नाजीवादी इकाइयों को भेज रही है।
पोलेण्ड का रूस के साथ अरबों डालर का कृषि निर्यात व्यापार ढह गया है। इससे वह वाशिंगटन और ब्रूसेल्स से आयात सब्सिडी मांगने के लिए विवश हो गया है और सेब निर्यातक अमरीकियों से ‘पौलेण्ड के सेब’ खाने की गुंजाइश कर रहा है। पोलेण्ड के फल उत्पादक 31.7 करोड़ यूरो का नुकसान बिक्री में करेंगे या कुल गैर यूरोपीय संघ के देशों के उनके निर्यात का 61 प्रतिशत नुकसान करेंगे। उनके गोश्त निर्यातक 16.2 करोड़ यूरो का नुकसान उठायेंगे। यह गैर-यूरोपीय संघ के निर्यात का 20 प्रतिशत है। डेयरी के किसान 14.2 करोड़ यूरो का नुकसान उठायेंगे जो गैर यूरोपीय संघ के निर्यात का 32 प्रतिशत है।
पोलेण्ड के शासक प्रत्येक मोड़ में सबसे प्रतिक्रियावादी रूस विरोधी कदम अपनाते रहे हैं और वे चुनी गयी यूक्रेनी सरकार को उखाड़ फेंकने में नव-फासीवादी गिराहों को संगठित करने और प्रशिक्षित करने में घनिष्ठता से जुड़े रहे हैं। अब वहां के किसानों को वे वारसा की सड़कों पर सेब और साॅसेज बेचने के लिए बैलगाडी में रखने के लिए विवश कर रहे हैं। अन्यथा, वे रूस के सुपरमार्केट की अलमारियों में इकट्ठा रखे होते। इस समय वे न्यूयार्कवासियों से उम्मीद कर रहे हैं कि वे अपने ताजे व अच्छे सेबों को छोड़कर उनके खराब सेबों को लें।
लिथुआनिया रूस के ताजे फलों के निर्यात से 30.8 करोड़ यूरो यानी कि कुल गैर-यूरोपीय संघ देशों के अपने निर्यात का 81 प्रतिशत का नुकसान उठायेगा। इसके डेयरी किसान 16.1 करोड़ यूरो का यानी गैर यूरोपीय संघ के निर्यात का 74 प्रतिशत नुकसान उठायेगा।
डेनमार्क और हालैण्ड रूस को होने वाले कृषि निर्यात में 80 करोड़ यूरो का नुकसान उठायेंगे जो उनकी मंदी को और बढ़ायेगा।
निष्कर्ष
वाशिंगटन में अनुदार व्यक्ति राष्ट्रपति ओबामा ने यूरोपीय संघ के नेताओं को ऐसी स्थिति में डाल दिया है जिससे वे अपनी अर्थव्यवस्थाओं को और ज्यादा मंदी की ओर धकेल चुके हैं। इसी तरह वह रूस के साथ नया शीत युद्ध शुरू कर सकता है। अमरीकी साम्राज्यवादी इराक, यूक्रेन और सीरिया में और व्यापक सैनिक टकराहटों की ओर जा रहे हैं। अमरीकी  साम्राज्यवादी ऐसा लगता है कि सैनिक सहायता कार्यक्रमों पर नियंत्रण खो चुके हैं और वह गड़बड़ा गया है। यहूदी नस्लवादी नेतान्याहू के अमरीकी कांग्रेस में सहयोगी व्हाइट हाउस और विदेश विभाग को किनारे करने में सफल हुए हैं और इजरायल के लिए पेण्टागन से हथियारों की आंतरिक आपूर्ति की स्वीकृति लेे चुके हैं। इससे गाजा पर बरपाये जा रहे इजरायली नरसंहार पर अमरीकी प्रशासन की वरीयता को कम करने का काम किया है।
अमरीकी-यूरोपीय संघ का रूस के विरुद्ध प्रतिबंध में जापान साथ में शामिल हुआ है। इससे खुद जापान का आर्थिक संकट बढ़ा है। 2014 में जापान ने 2009 के बाद अपना सबसे खराब संकुचन देखा है जो इस वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.1 प्रतिशत गिरा है। अधिकाधिक अलोकप्रिय जापानी प्रधानमंत्री अबे सेना को मजबूत करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। अधिकाधिक जापानी राजनीतिज्ञ याशुकुनी मंदिर जा रहे हैं। यह वह सैन्यवादी मंदिर है जो जापान के युद्ध अपराधियों के सम्मान में बना है। इससे साम्राज्यवादी जापान के शिकार लोगों की भयावह यादें फिर से ताजा हो जाती हैं। जापान चीन के विरुद्ध दक्षिण चीन सागर में विवादास्पद टापुओं के मसले पर अधिकाधिक आक्रामक टकराहट का रुख अपनाता जा रहा है। जैसे-जैसे एशिया में ओबामा सैनिक केन्द्र बढ़ाता जा रहा है, वैेसे-वैसे जापान की अर्थव्यवस्था डूब रही है।
कीव की असफल हुकूमत को गले लगाकर किसी भी यूरोपीय देश का कोई फायदा नहीं है। यूक्रेन की मुद्रा बुरी तरह लड़खड़ा रही है। यह सडे़ टायलेट पेपर से भी नीचे की हद तक कमजोर है। इसके बड़े उद्योग, जो रूस के साथ व्यापार पर पूर्णतया निर्भर हैं या तो दिवालिया हैं या उन्हें नाटो द्वारा बैठाई गयी कीव की हुकूमत द्वारा बमबारी में ध्वस्त कर दिया गया है। इसका कृषि निर्यात पूर्णतया बर्बाद है। इस दौरान यूक्रेनी परिवारों को सलाह दी जा रही है कि वे अपने लिए लकडि़यां काटें या अपने लिए खुद कोयला निकालें क्योंकि जाड़े के समय कीव के धनिक तंत्रों की वजह से जब रूसी गैस पूर्णतया कट जायेगी क्योंकि यह धनिकतंत्र भारी ऊर्जा कर्ज को चुका सकने में असमर्थ होगा या चुकाना नहीं चाहेगा। कीव के अरबपति धनिकतंत्र द्वारा शासित हुकूमत के फिनलैण्ड के राष्ट्रपति स्टब्सपुवल समर्थक हैं, उनका ‘सिद्धांतों’ के आधार पर बहुप्रचारित समर्थन कुछ नहीं कर सकता। दस लाख यूरोपीय किसान अपने खुद के सेबों को दफना देंगे, अपने दूध को सड़कों पर गिरा देंगे। और अपने अंगूर, संतरे और टमाटरों को सड़ते हुए ढे़र में छोड़ देंगे। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि उनके नेता, ओबामा, केमरून, मर्केल और होलण्डे अपने क्षेत्रीय विस्तार के अपने वास्तविक सिद्धान्तों पर कायम रहे, रूस की सीमाओं तक अपने सैनिक कार्यवाइयों का विस्तार करें और यौद्धाओं के बतौर दिखावा कर सके जबकि वास्तविकता यह है कि वे अपने देशों की उत्पादक अर्थव्यवस्थाओं का विनाश कर रहे हैं। अपने किसानों और विनिर्माताओं को दीवालिया बना रहे हैं। लाखों-लाख लोगों को बेरोजगारी में धकेल रहे हैं। और मंदी की पीड़ा को गहन बना रहे हैं।
लीबिया, मिस्र, सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सोमालिया और यमन जैसे देशों की बढ़ती हुयी सूची में यूक्रेन भी शामिल हो जायेगा जिन्हें वाशिंगटन और नाटो ने इनका विनाश करके ‘‘बचाया’’(एक अमरीकी जनरल द्वारा कहा गया शब्द) है।
एक बार फिर अमरीकी साम्राज्यवादियों की सैन्यबल द्वारा साम्राज्य बढ़ाने की नीति आर्थिक विकास को कुचल रही है। विनाशकारी युद्ध और प्रतिबंध सम्भावित बाजारों को नष्ट करते हैं और अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को दरिद्र बना देते हैं। दूसरे देशों पर प्रतिबंध थोपने से बदले की कार्रवाई को न्यौता देना है। इसका पलट कर पड़ने वाला प्रभाव घरेलू उत्पादकों को बर्बाद कर देता हे। जब विश्व व्यापार और निवेश सिकुड़ता है तब आंतरिक ठहराव सर्वग्राही हो जाता है। वाल स्ट्रीट जनरल, फाइनेंन्सियल टाइम्स जैसे वित्तीय अखबार जो पश्चिमी युद्ध सरदारों के भोंपू हो चुके हैं, अब खुले बाजार के रामबाण औषधि के गुणगान नहीं करते बल्कि युद्ध और प्रतिबंधों की चीखपुकार करने वाले तीक्ष्ण लेखों से भरे रहते हैं। ऐसी बातों से भरे रहते हैं जो बाजारों को बंद करती हैं और निवेशकों के विश्वास को नष्ट करती हैं।
एक शब्द में, वाशिंगटन के स्थायी युद्धों के सिद्धांत को स्वीकार करके यूरोप स्थायी संकट से निकलने के एकमात्र रास्ते-शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व से बच रहा है। वाशिंगटन के बड़े पीड़क और यूरोप के उनके पिछलग्गूओं ने व्यापार की तुलना में प्रतिबंध को चुना है और समृद्धि की जगह विनाश को चुना है। वे इसकी कीमत अदा कर रहे हैं। घरेलू बैचेनी, उभर रही अर्थव्यवस्थाओं द्वारा बाजारों से विस्थापन और उथल-पुथल में बढ़ोत्तरी पश्चिमी यूरोप के जीवन का तरीका हो गया है।

  (साभारः गलोबल रिसर्च से, 23 अगस्त, 2014) 

चीनः मुनाफे की हवस में छिनता बचपन
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
पूंजीवादी व्यवस्था का क्रूर सच यह है कि वह अपने मुनाफे की हवस में सदा सस्ते श्रम की तलाश में रहता है और इसके लिए वह पहले महिलाओं और फिर बच्चों को भी श्रम की मंडी में खींच लाता है। ये मजबूर गरीबी और भुखमरी के शिकार होते हैं।
यह वाकया आज किसी भी देश के औद्योगिक इलाके के लिए सच है। ऐसी ही आश्य की एक रिपोर्ट चाइना लेबर वाॅच ने सैमसंग के लिए माल सप्लाई करने वाली वैण्डर कंपनियों पर तैयार की है तथा वहां काम करने वाले बच्चों की काम की परिस्थितियों से लेकर खाना, रहने की परिस्थितियों का वर्णन किया है। उसने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि किस तरह कम उम्र के बच्चों की उम्र ज्यादा दिखाने के लिए फर्जी आईडी का इस्तेमाल किया जाता है और सैमसंग के अधिकारी वैण्डर कंपनियों में चेकिंग करके चले आते हैं और बड़े गर्व के साथ मीडिया में घोषणा करते हैं कि उनकी किसी भी फैक्टरी में बच्चों से काम नहीं लिया जाता है।
सन् 2012 अगस्त में पहली बार चाइना लेबर वाॅच ने सैमसंग की वैण्डर कम्पनी में बच्चों द्वारा काम करवाने के बारे में खुलासा किया। सैमसंग की एक वैण्डर कंपनी एचटीएनएस में गुप्त तरीके से सर्व करने पर पता चला कि वहां नाबालिग बच्चों से भी काम करवाया जा रहा है। उसने पहले सैमसंग के अधिकारियों को इस बारे में सूचित किया। सैमसंग ने अपने इंस्पेक्टर फैक्टरी में भेजे तो पता चला उन तीन बच्चों मेें से दो बच्चे तो उस दिन फैक्टरी ही नहीं आये और तीसरी लड़की एक फर्जी आईडी पर काम पर रखी गयी थी। सैमसंग के उन इंस्पेक्टरों ने उसकी शक्ल उस आईडी वाली लड़की से भी नहीं मिलाई और खानापूर्ति करके चले आये। वह आईडी ली तिआनलिअन की थी। बाद में आईडी के पते पर पूछताछ करने पर पता चला कि जिस लड़की की वह आईडी थी, उस लड़की ने तो उस फैक्टरी में कभी काम ही नहीं किया और उसकी आईडी खो गयी थी जिसके बाद वह घर देहात में लौट गयी थी।
इसी तरह जब जून 2014 में सैमसंग की वैण्डर कम्पनी शियांग इलैक्ट्रोनिक फैक्टरी में इस बात का खुलासा किया गया कि पांच बच्चे जिनकी उम्र 16 वर्ष से कम है, भी यहां काम कर रहे हैं उसी वक्त सैमसंग ने ‘ग्लोबल हारमोनी’ के नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें बताया कि 2013 में उसकी 200 सप्लाइयर कम्पनियों में से किसी में भी कोई बाल श्रमिक नहीं था।
शियांग इलैक्ट्रोनिक कम्पनी में जांच करने पर पाया गया कि यहां बच्चों से 11 घंटे काम करवाया जाता है और वेतन मात्र 10 घंटे का ही दिया जाता है। इन बच्चों में से जिसकी उम्र कम होती है, उनकी फर्जी आईडी बनाकर उनको भर्ती कर उनसे काम लिया जाता है। इनके ठेकेदार उनकी इस काम में मदद करते हैं। चीन में मौजूद श्रम कानूनों की किस तरह धज्जियां उड़ायी जा रही हैं इसे वहां कुछेक उदाहरणों से समझा जा सकता है-
1. चीन के श्रम कानूनों के मुताबिक बच्चों( 16 से कम उम्र के) से काम लेना जुर्म है। लेकिन यहां उनसे  काम लिया जाता है वह भी बिना किसी लेबर कांट्रेक्ट के।
2. अस्थायी श्रमिकों के तहत काम पर रखकर इन्हें प्रति घंटे के हिसाब से मजदूरी दी जाती है। ओवरटाइम के मामले में कानूनों का उल्लंघन किया जाता है।
3. अस्थायी श्रमिकों के लिए किसी प्रकार की कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं खरीदी जाती है।
4. श्रमिकों को काम करने के लिए आवश्यक सुरक्षा उपकरण नहीं दिये जाते हैं जबकि फैक्टरी के अंदर खतरनाक रसायनों का प्रयोग किया जाता है।
5. खतरनाक रसायन बच्चों के नाजुक शरीर को खासा नुकसान पहुंचाते हैं इस बात की कोई परवाह नहीं की जाती है।
6. छात्रों को काम पर रखने से पहले एक खाली लेबर कांट्रेक्ट पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं और उन्हें काम पर रखने की शर्तों व समयावधि की कोई जानकारी नहीं दी जाती है। एक महीने के बाद ही उनको लेबर कांटेªक्ट दिया जाता है।
7. ओवरटाइम 120 घंटे से ज्यादा करवाया जाता है जो तय 36 घंटे से तीन गुना ज्यादा है।
8. फैक्टरी में मजदूरों के प्रतिनिधित्व के लिए कोई यूनियन नहीं है।
9. उनके निवास स्थान अत्यन्त गर्म, गंदगी से भरे तथा पानी की कमी वाले हैं।
फैक्टरी में भर्ती और नौकरी छोड़ने की प्रक्रिया- फैक्टरी में ज्यादातर बच्चों व महिलाओं को ही भर्ती किया जाता है। पुरुष मजदूरों को बहुत ज्यादा काम होने पर ही भर्ती किया जाता है। जब मजदूरों भर्ती किया जाता है तो उन्हें स्वास्थ्य से संबंधित एक परीक्षण करवाना पड़ता है जिसकी फीस 9.5 डालर (59.5 रेनमिबो) मजदूर को ही देनी पड़ती है। अगर कोई मजदूर नौकरी छोड़ता है तो श्रम कानूनों के मुताबिक तीन दिन पहले और स्थायी मजदूर को एक महीने पहले इस्तीफा देना पड़ता है और उस समयावधि के बीत जाने के बाद वह इस्तीफा स्वयं ही मंजूर ही हो जाता है लेकिन यहां 7 दिन पहले अस्थायी मजदूरों को नोटिस देना पड़ता है और जब तक मैनेजमेण्ट उस पर स्वीकृति नहीं दे देता तब तक वह काम नहीं छोड़ सकता है। अगर कोई मजदूर नौकरी छोड़ना ही चाहता है तो उसका दूसरा तरीका यह है कि वह तीन दिन तक ड्यूटी से अनुपस्थित रहे तो वह स्वयं ही निकाला हुआ मान लिया जाता है। लेकिन इस प्रक्रिया में मजदूरों को नौकरी छोड़ने के बाकी लाभ नहीं मिलते हैं और अस्थायी मजदूर को तो बाकी वेतन तक नहीं मिलता है।
मजदूरी- बसंत के मौसम में छात्र अपनी फीस चुकाने के लिए फैक्टरी में काम करने आते हैं। इन छात्रों को प्रति घंटे की एक समान दर (1.4 डालर या 9 रेनमिबो) से मजदूरी दी जाती है। चाहे बेशक ओवरटाइम ही क्यों न हो। जबकि साप्ताहिक व छुट्टी वाले दिन ओवरटाइम करने पर सामान्य मजदूरी से 1.5 गुना और 2 गुना तक ओवरटाइम दिया जाता है। सामान्य मजदूर जहां सप्ताह में काम करके 670 रेनिमिबो कमाता है वहीं ये छात्र सप्ताह में 450 रेनमिबो तक ही कमा पाते हैं। जबकि काम में कोई अंतर नहीं होता है। यहां तक कि वे रात्रि कालीन ड्यूटी भी करते हैं।
खाने व रहने की व्यवस्था- रिपोर्ट में बताया गया है कि इतनी कठिन मेहनत करने के बावजूद जब खाने की बात आती है तो इन्हें बहुत ही घटिया खाना ही दिया जाता है जो पौष्टिक तो कतई ही नहीं होता है और रात्रि कालीन ड्यूटी करने वाले मजदूरों की तो और बुरी भी स्थिति है। जब वे रात्रि में काम करके आते हैं तब तक कैण्टीन वाले नाश्ता देना बंद कर चुके होते हैं। और वे नूडल्स खाकर सो जाते हैं और जब वे शाम को सोकर उठते हैं तब तक शाम का खाना बंटना खत्म हो चुका होता है क्योंकि इसकी अवधि शाम 6 बजे तक ही रहती है और मजदूर स्नैक्स खाकर काम पर चले जाते हैं। इस तरह वे केवल रात्रि में ठीक ढंग से खाना खा पाते हैं।
और रहने की परिस्थितियां तो और भी खराब हैं। एक डारमेटरी में 10 लोग तक रहते हैं। और उसमें केवल दो पंखे होते हैं जो भयंकर गर्मी में मजदूरों को राहत नहीं दे पाते हैं और उन्हें अपना एक निजी पंखा रखना पड़ता है। सर्दी के दिनों में वे ठण्डे पानी का ही इस्तेमाल करने पर मजबूर होते हैं।
और इस सबके बाद रही-सही कसर मजदूरों के लिए फैक्टरी मैनेजमेण्ट द्वारा बनाये गये नियम कानून पूरी कर देते हैं। इन मजदूरों को काम के दौरान एक दूसरे से बात करने पर सख्त पाबंदी होती है। और जो कोई मजदूर ऐसा करता है उसे सुपरवाइजर की गंदी गालियां और डांट-फटकार सुननी पड़ती है। इसके अलावा छोटी-छोटी बातों पर चेतावनी दी जाती है और जब कई चेतावनी हो जाती हैं या कोई बड़ी गलती हो जाती है तो मजदूर को बर्खास्त कर दिया जाता है। और उसको बाकी वेतन या नौकरी से हटाने का हरजाना भी नहीं मिलता है।
यह सर्वे मात्र एक कंपनी शियांग का है। और ऐसी ही हजारों कंपनियां हैं जिनमें बच्चों से काम करवाया जाता है और उनके सस्ते श्रम का दोहन करके देशी-विदेशी पूंजीपति मुनाफा कमा रहे हैं।  और जिन बच्चों को पढ़ना चाहिए, जिनको खेलना कूदना चाहिए उनके बचपन के साथ यह पूंजीवादी व्यवस्था खिलवाड़ कर रही है।
पूंजीवादी व्यवस्था की यह सडांध इतनी ज्यादा है कि वह उसको रोकने में असमर्थ साबित हो रहा है। यह सडांध कहीं लोगों का जीना मुश्किल न कर दे, वे कहीं इस सडांध को दूर करने के लिए आगे न आयंे इसके लिए उसने स्वयं अपना विरोध करने के लिए एनजीओ की एक श्रंखला खड़ी की है। इनमें चाइना लेबर वाच जैसे संगठन भी हैं जो पूंजीवादी व्यवस्था के कारण मजदूर वर्ग पर पड़ रहे प्रभावों को किसी एक मालिक को जिम्मेदार ठहराते हैं। इसके अलावा ये संगठन पूंजीपति वर्ग के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा में मोहरों का भी काम करते हैं और विरोधी गुट को परास्त करने के लिए खड़े किये जाते हैं। मजदूर वर्ग की समस्याओं को ये संगठन न तो समग्रता में उठा सकते हैं और न ही उन्हें हल कर सकते हैं। इनको हल करने का काम तो केवल मजदूरों के क्रांतिकारी संगठन ही खड़े कर सकते हैं।

(तथ्य चाइन लेबर वाच की रिपोर्ट पर आधारित)
एर्डोगन का तुर्की राष्ट्रपति बनना
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
तुर्की में पहले सीधे राष्ट्रपति चुनाव में वर्तमान प्रधानमंत्री रेसेप तेयेप एर्डोगन नये राष्ट्रपति के रूप में चुने गये हैं। तुर्की के इस चुनाव को नजरअंदाज किया जा सकता था। परन्तु एर्डोगन के घोषित उद्देश्य कि वह तुर्की का नया संविधान तैयार करना चाहते हैं के साथ इस चुनाव में उनकी सफलता के कई मायने निकलते हैं।
एर्डोगन तुर्की के सन् 2003 से प्रधानमंत्री रहे हैं। हर चार साल में होने वाले आम चुनावों में उनकी पार्टी जस्टिस एण्ड डवलेपमेंट पार्टी (एके) को भारी सफलता मिलती रही है। यह पार्टी तुर्की के धर्मनिरपेक्ष संविधान को अपने इस्लामिक एजेण्डे के खिलाफ समझती रही है।
एर्डोगन ने तुर्की में सन् 2003 से ही तेजी से आर्थिक सुधार व समाज के इस्लामीकरण की नीति अपनायी हुयी है। तुर्की की एर्डोगन की सरकार की इन दोनों नीतियों की तुर्की के मजदूर-मेहनतकशों को भारी कीमत चुकानी पड़ी है। उन्होंने सरकार की इन नीतियों के खिलाफ 2003 से ही लगातार संघर्ष किया है। परिणामस्वरूप एर्डोगन अपनी नीतियों में खासकर तुर्की के संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बदलने में कामयाब नहीं हो पाये। इस चुनाव में उन्हें महज 52 फीसदी मत मिले हैं। 
एर्डोगन तुर्की के संविधान में एक बड़ा परिवर्तन यह भी चाहते हैं। वे राष्ट्रपति को कार्यकारी शक्तियां सौंपना चाहते हैं। इस समय तुर्की के राष्ट्रपति का पद भारत की तरह अलंकारिक है। प्रधानमंत्री के पास ही असल शक्तियां हैं। एर्डोगन क्योंकि तीन बार से अधिक बार प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे अतः उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव (तुर्की में राष्ट्रपति का कार्यकाल 7 साल का होता है।) में लड़ने का फैसला लिया। तुर्की की संसद में उनकी पार्टी का बहुमत है और जब वे स्वयं राष्ट्रपति बन गये हैं तो उनका इरादा संविधान में परिवर्तन कराने का है। एक ऐसा संविधान जिसमें राष्ट्रपति को व्यापक अधिकार हासिल हैं और इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म की मान्यता हो।

एर्डोगन अपने इरादे में कितना सफल हो पाते हैं। यह वक्त ही बतलायेगा।

अमेरिका में फिर एक अश्वेत नौजवान की हत्या
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
संयुक्त राज्य अमेरिका में रंगभेद की घटनाएं आये दिन घटती रहती हैं। इन घटनाओं में अश्वेत बराक हुसैन ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद कोई कमी नहीं आयी है। ऐसे ही एक घटना में अमेरिका के मिस्सौरी प्रांत के सेंट लुइस शहर के एक उपनगर फर्गुसन में एक 18 साल के अश्वेत नौजवान मिशेल ब्राउन की पुलिस अधिकारी द्वारा 9 अगस्त को निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गयी।
मिशेल ब्राउन की हत्या जब की गयी तब वह निहत्था था। पुलिस अधिकारियों से सामान्य नोंक-झोंक के बाद उस पर कई राउण्ड गोलियां चलायी गयीं। ये गोलियां उस पर तब तक चलायी गयीं जब तक वह मर नहीं गया।
मिशेल ब्राउन की इस निर्मम हत्या के बाद फर्गुसन में अश्वेत प्रदर्शनकारी आक्रोश में सड़क पर उतर आये। उनके आक्रोश के निशाने पर पुलिस की गाडि़यां, कारें, चमकदार माॅल और बड़ी दुकानें थीं। आक्रोश से भरे प्रदर्शनकारियों ने कारों के सीसों को तोड़ डाला और कई जगह आगजनी भी की। अश्वेत आबादी का यह आक्रोश और प्रदर्शन इस घटना के तीन दिन बाद भी जारी थे। पुलिस दर्जनों लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है परन्तु प्रदर्शन रुक नहीं रहे हैं।
अश्वेत आबादी गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक असमानता की शिकार है। पुलिस लगातार उन्हें अपमानित और उत्पीडि़त करती है। फर्गुसन की पुलिस में एक-दो अश्वेत को छोड़कर बाकी सारे गोरे हैं। 53 में से 50 पुलिस अधिकारी श्वेत है। यही कारण है कि एक सामान्य सी लगने वाली घटना ने भीषण रूप ले लिया। फर्गुसन की 70 फीसदी आबादी अश्वेत है।
रंगभेद की मानसिकता से ओतप्रोत लोगों ने इस घटना के लिए 18 वर्षीय किशोर को ही जिम्मेवार ठहराना शुरू कर दिया। वे उस पर पुलिस के हथियार छीनने का आरोप लगा रहे हैं और अश्वेत आबादी के गुस्से के इजहार को लूटपाट की घटना का रूप देने में लगे हैं।
अश्वेत आबादी और ब्राउन के माता-पिता इस घटना में न्याय की और पुलिस अधिकारी की गिरफ्तारी की मांग कर रहे हैं। हालांकि ज्यादातर अश्वेत आबादी को किसी किस्म के न्याय की उम्मीद नहीं है। वर्ष 2012 में ऐसे ही एक घटना में 17 वर्षीय किशोर ट्रेयोन मार्टिन की हत्या पुलिस द्वारा कर दी गयी थी। इस हत्याकाण्ड में किसी भी पुलिस अधिकारी को सजा नहीं हुयी। रंगभेद की भावना से भरे पुलिस व न्यायधीशों ने मार्टिन की मौत के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहरा दिया। अश्वेतों को लगता है फर्गुसन की घटना में भी ऐसा ही होगा। इसीलिए प्रदर्शनकारी ‘‘न्याय नहीं तो शांति नहीं’’ (नो जस्टिस, नो पीस) के नारे लगा रहे थे।
अमेरिकी साम्राज्यवादी पूरी दुनिया में मानवाधिकार का खूब हल्ला मचाते हैं और किसी देश में कोई घटना होने पर पूरे जोर-शोर से आवाज उठाते हैं परन्तु अपने देश की इस वीभत्स घटना पर वे चुप्पी साध गये हैं। रंगभेद की जारी नीति का ही परिणाम है कि अमेरिका की जेलों में लाखों लोग जेल में बंद हैं जिनमें से अधिकांश अश्वेत हैं।

साम्राज्यवादी शक्तियों की प्रतियोगिता की भेंट चढ़ा मलेशियाई विमान
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014) 
रूसी और पश्चिमी साम्राज्यवादी यूक्रैन में छद्म युद्ध लड़ रहे हैं बिल्कुल शीत युद्ध के जमाने की तरह। जैसे शीत युद्ध के काल में इन शक्तियों ने कई अफ्रीकी व अन्य देशों को बरबाद किया था ठीक वैसा ही नजारा अब हमें यूक्रैन में दिखायी दे रहा है। मलेशियाई विमान पर तो इस संघर्ष का निशाना बन गया है। इस नागरिक विमान पर हमले के लिए ये सभी साम्राज्यवादी शक्तियां जिम्मेदार हैं।
दरअसल अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद पहले समाजवादी सोवियत संघ में तोड़-फोड़ की कार्यवाहियां संचालित करता रहा और 1956 में सोवियत समाजवाद के खत्म हो जाने के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद, रूसी साम्राज्यवाद के साथ संघर्ष में लग गये। अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद और रूसी साम्राज्यवाद अपने प्रभाव क्षेत्रों को बनाये रखने व बढ़ाने के लिए निरंतर छद्म युद्ध लड़ते रहे। यह संघर्ष 1990 में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही तात्कालिक तौर पर समाप्त हुआ था।
इस साम्राज्यवादी प्रतियोगिता ने अफ्रीका के कई मुल्कों व अन्य मुल्कों को एक तरफ तबाह-बरबाद किया था तो दूसरी ओर स्वयं सोवियत साम्राज्यवाद भी काफी हद तक कमजोर हो चुका था। इस प्रतियोगिता में सोवियत साम्राज्यवादियों की आर्थिक हालात काफी खराब हो गयी थी। जिसके परिणामस्वरूप अपेक्षाकृत बंद अर्थव्यवस्था को गोर्वाच्योव के पेरेस्तोइका व ग्लासनोस्त से प्रतिस्थापित करना पड़ा था। रूसी साम्राज्यवादियों को अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवादियों के सामने अपनी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए हाथ फैलाना पड़ा था।
इसके साथ ही, सोवियत संघ के विघटन के बाद अलग हुए देशों में अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवादियों का प्रभाव बढ़ता रहा था। ओरेंज क्रांति इन देशों में बढ़ती पश्चिमी व अमेरिकी साम्राज्यवाद के हस्तक्षेप का परिणाम थी। अपनी खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के कारण रूसी साम्राज्यवाद उस समय बहुत कुछ करने की अवस्था में नहीं था। यूक्रेन में 2004 में हुई ओरंेज क्रांति इसी का परिणाम थी।
किंतु धीरे-धीरे रूसी साम्राज्यवादी आर्थिक तौर पर पुनः उठ खड़े होने लगे और अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा की पुनस्र्थापना की कोशिश करने लगे। पुतिन के नेतृत्व में रूसी साम्राज्यवाद की पुनस्र्थापना का अभियान शुरू हुआ और रूसी गौरव को पुनस्र्थापित करने की कोशिश शुरू हो गयी। पुतिन ने तेल और गैस को इसके लिए अपना हथियार बनाया। रूसी साम्राज्यवाद की एक हद तक की आर्थिक पुनस्र्थापना के साथ ही वह दुनिया में अपनी राजनीतिक पुनस्र्थापना भी चाहने लगा। पहले युगोस्लाव संकट और फिर इराक युद्ध के दौरान रूसी साम्राज्यवाद की यह बढ़ती राजनीतिक भूमिका दिखायी देने लगती है।
अब रूसी साम्राज्यवाद नहीं चाहता कि अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद पूर्व सोवियत संघ के देशों में हस्तक्षेप करे। इसके बजाय वह पुनः अब इतिहास की सुई को अपनी ओर मोड़ देना चाहता था। जो देश ओरेंज क्रांति के परिणामस्वरूप अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र में चले गये थे अब वहां ‘‘रूसी तरह की क्रांति’’ को अंजाम दिया जाने लगा ताकि ये सारे देश पुनः रूसी साम्राज्यवाद के प्रभाव क्षेत्र में आ सके। वर्तमान यूक्रेन संकट इसी साम्राज्यवादी प्रभाव क्षेत्र के लिए होने वाली आजमाइस का परिणाम है।
वास्तव में तत्कालीन यूक्रेनी संकट की शुरूआत 2004 में हुई, जब तत्कालीन यूक्रेनी राष्ट्रपति लियोनिद क्योचया ने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। इसके बाद 2004 के चुनावों में दो मुख्य प्रत्याशी क्रमशः विक्टर याकुनोविच जिन्हें रूसी व तत्कालीन राष्ट्रपति का समर्थन प्राप्त था और विक्टर यूशुचेन्को, जो यूरोपीय संघ से जुड़ना चाहता था, उभरकर सामने आये। इस चुनाव में पहले वाले की जीत हुई किंतु विक्टर यूशुचेन्को व उसके समर्थकों ने इस फैसले को स्वीकार नहीं किया और वे सड़कों पर उतर पड़े। परिणामस्वरूप विक्टर याकुनोविच को अपना पद छोड़ना पड़ा। पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने इस ओरेंज क्रांति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
इस दौरान युशूचेन्को ने यूरोपीय यूनियन के साथ प्यार की खूब पींगें बढ़ाई। विभिन्न प्रकार की राजनीतिक सैन्य व आर्थिक संधियां सम्पन्न की गयी। 2004 के दौरान की ‘‘ओरेंज क्रांति’’ में भी पूर्वी और दक्षिणी यूक्रैन के लोगों में नाराजगी थी। 2004 की इस गुलाबी क्रांति के परिणास्वरूप यूक्रेन और रूस के रिश्ते तल्ख रहे।
2010 के चुनावों में याकुनोविच राष्ट्रपति चुने गये। यह यूरोपीय साम्राज्यवादियों के बजाय रूसी साम्राज्यवादियों का पक्षधर था। यूक्रेन का तात्कालिक संकट राष्ट्रपति की इस घोषणा के साथ 2013 में सम्पन्न हुआ जब याकुनोविच ने यूक्रेन-यूरोपीय सहकार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये। वह रूस के साथ संधि करना चाहता था। इसके परिणामस्वरूप पश्चिमी साम्राज्यवाद समर्थित लोगों ने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। दिसम्बर, 2013 व जनवरी, 2014 में उन्होंने पहले राजधानी कीव और फिर पश्चिमी यूक्रेन में सरकारी प्रतिष्ठानों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। फरवरी में हिंसक झड़पों में 80 लोग मारे गये।
22 फरवरी को यूक्रेनी संसद ने याकुनोविच को सत्ताच्युत कर दिया और अलेक्जेंडर तूरिच्योनोव को अंतरिम राष्ट्रपति बना दिया। एक बार पुनः गुलाबी क्रांति सम्पन्न कर दी गयी। रूस समर्थित पूर्वी और दक्षिणी यूक्रेन में इसी तीखी प्रतिक्रिया हुई। क्रीमिया में रूसी समर्थकों ने सरकारी भवनों और संसद पर कब्जा कर लिया। क्रीमिया में रूस के प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप के कारण रूसी व पश्चिमी साम्राज्यवादियों के बीच तनाव बढ़ चुका है। अमेरिकी साम्राज्यवाद व यूरोपीय यूनियन ने सीमित प्रतिबंध भी रूस पर लगा दिया। क्रीमिया में हुए जनमतसंग्रह में उसने रूसी संघ का हिस्सा बनना स्वीकार किया जिसे रूस ने तुरंत मान्यता प्रदान कर दी। हालांकि अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों ने इस पूरी कार्यवाही को गैरकानूनी करार दिया।
फरवरी, 2914 के बाद से ही यूक्रैन के दक्षिणी पूर्वी क्षेत्रों रूसी समर्थित समूह यूक्रैनी सरकार से हथियारबंद संघर्ष कर रहे हैं। रूसी साम्राज्यवादियों द्वारा क्रीमिया को हड़पने के बाद वे दोनेत्सक और ल्यूहांसक ओवलेटस में विद्रोहियों को बढ़ावा दे रहे हैं जिसके खिलाफ यूक्रैन की सेना लड़ रही है। इसी क्षेत्र में मलेशियाई विमान मार गिराया गया है। एक सप्ताह का संघर्ष विराम चल रहा है जो फिर से शुरू होने की आशंका जताई जा रही है।
इस तरह से यूक्रेन दो हिस्सों में विभाजित किया जा रहा है। रूसी और यूरोपीय साम्राज्यवादियों की प्रभाव क्षेत्र को लेकर हो रही इस होड़ ने यूक्रेन का बेड़ा गर्क कर रखा है। आर्थिक सुधारों के नाम पर एक ओर यूरोपीय साम्राज्यवादी यूक्रेन के प्राकृतिक संशाधनों पर कब्जा करना चाहते हैं तो दूसरी ओर वे यूक्रेन को नाटों का हिस्सा बनाकर रूसी साम्राज्यवादियों को घेरना चाहते हैं। ठीक उसी तरह रूसी साम्राज्यवादी भी तेल व गैस का लालच देकर व आर्थिक सहायता प्रदान कर यूक्रैन में ‘‘गुलाबी क्रांति’’ को खत्म कर यूक्रेनी प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण करना चाहते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह विभाजन स्वयं यूक्रेनी पूंजीपति वर्ग में मौजूद हैं जिसका रूसी और यूरोपीय साम्राज्यवादी लाभ उठा रहे हैं। यूक्रेनी पूंजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्सों की साम्राज्यवादियों के साथ की गयी इस खेमेबंदी की कीमत सबसे ज्यादा यूक्रैनी मेहनतकश जनता चुका रही है।
रूसी और यूरोपीय साम्राज्यवादियों के हस्तक्षेप के खात्मे के बिना यूक्रेन संकट का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। अगर इन ताकतों ने अपना हस्तक्षेप बंद नहीं किया तो यूक्रेन का बंटना तय है लेकिन यह बंटवारा बहुत बुरे संघर्ष का परिणाम होगा जो यूक्रेनी मजदूर वर्ग व अन्य मेहनतकशों के लिए एक बुरे सपने के समान होगा।

ब्रिक्स और बैंक
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
पांच देशों के समूह ब्रिक्स ने अपनी छठी बैठक में एक नया बैंक गठित करने का फैसला किया। ये पांच देश हैं- रूस, चीन, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका। इसमें रूस यूरो एशियाई देश हैं, भारत व चीन एशियाई, ब्राजील दक्षिण अमेरिका तथा दक्षिण अफ्रीका अफ्रीकी।
जिस बैंक की स्थापना करने का फैसला किया उसकी शुरुआती पूंजी पचास अरब डालर रखना तय हुआ जिसमें पंाचों देश बराबर योगदान करेंगे तथा जिसमें सभी के पास बराबर के मताधिकार होंगे। यह विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से अलग है जिनमें पंूजी के मालिकाने के हिसाब से मतदान में भी फर्क है। इस पचास अरब डालर के अलावा पचास अरब डालर इसमें और डाले जायेंगे जिसमें चीन का 41 प्रतिशत, रूस, भारत व ब्राजील का अठारह-अठारह प्रतिशत तथा दक्षिण अफ्रीका का पांच प्रतिशत हिस्सा होगा। इस पूंजी का मतदान पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
इस बैंक का मुख्यालय शंघाई मंे होगा इसके पहले मुख्य अधिकारी गैर चीनी होंगे। घोषणा में कहा गया है कि इसका उद्देश्य मुद्राओं को स्थिरता प्रदान करने में सहायता देना तथा अवरचनागत परियोजनाओं के लिये कर्ज देना होगा। इससे पिछड़े देशों को एक और विकल्प मिलेगा।
ब्रिक्स द्वारा इस बैंक की स्थापना के फैसले को एक बड़े कदम के रूप में देखा जा रहा है। कुछ लोग इसे बहु धुव्रीय दुनिया या पश्चिमी प्रभुत्व के खात्मे की और संकेत के रूप में देख रहे हैं।
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है?
1997-98 के दक्षिण-पूर्व एशिया के आर्थिक संकट के समय से ही विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से अलग मुद्राओं के संकट से निपटने के लिए व अवरचनागत परियोजनाओं में पूंजी निवेश के लिये विकल्प तलाशे जाते रहे हैं। ऐसा इसलिये हुआ कि उपरोक्त संकट के समय इन संस्थाओं ने न केवल संकटग्रस्त देशों की मदद नहीं की बल्कि स्वयं इस संकट को इनकी नीतियों ने ही जन्म दिया और फिर संकट के समय इनकी और लूट में मदद की।
इस तरह के प्रयासों में एक बड़ा प्रयास वेनेज्युएला के नेतृत्व मंे दक्षिण अमेरिका में हुआ। यह स्वर्गीय ह्यूगो चावेज के बोलीवार क्रांति का एक हिस्सा था।
इसी के साथ सभी देशों ने अपने यहां विदेशी मुद्रा भण्डार को बढ़ाने का प्रयास किया जिससे वे भविष्य में इस तरह के संकट से निपट सकें। इसी वजह से इनके पास विदेशी मुद्राओं का बड़ा भण्डार जमा हो गया।
यदि ब्रिक्स देशों का बैंक खड़ा करने का यह प्रयास यहीं तक सीमित हो जाता है तो यह कोई प्रभाव नहीं डाल पायेगा। कोई प्रभाव डालने के लिये इस बैंक को वास्तव में विेश्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रतिद्वंद्वी बनना चाहिये। पर क्या यह हो सकेगा?
इसमें सबसे बड़ी बाधा तो इन देशों की औकात है। सारे कुछ के बावजूद ये देश अभी भी अमेरिकी साम्राज्यवादियों या उनकी तिकड़ा (सं.रा. अमेरिका, यूरोपीय संघ व जापान) का मुकाबला नहीं कर सकते। आर्थिक विकास के मामले में ये उनसे बहुत पीछे हैं, भले ही आंकड़ों में उनका सकल घरेलू उत्पाद (पी.पी.पी. पर) खूब दिखता हो।
दूसरा, इन देशों के बीच स्वयं तीखी प्रतिस्पर्धा है। यह रूस-चीन के बीच भी और भारत-चीन के बीच भी। यह प्रतिस्पर्धा इस बैंक की स्थापना के मामले में भी खुलकर सामने आई।
तीसरे, इन देशों के स्वयं साम्राज्यवादियों की तिकड़ी से जो वर्तमान संबंध हैं वे इनकी अपनी एकता के रास्ते में बाधा हैं। खासकर भारत और दक्षिण अफ्रीका का हाल बहुत बुरा है।
ऐसे में ब्रिक्स के बैंक का हसीन सपना अभी बहुत संभावनाशील नहीं दिखता। 

1 comment:

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