Wednesday, October 15, 2014

‘हाई-फाई, वाई-फाई और सफाई’

वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
        भूतपूर्व संघी प्रचारक और वर्तमान प्रधानमंत्री के इस जुमले को पूंजीवादी प्रचारतंत्र ने हाथों-हाथ लिया। जुमले गढ़ने में माहिर संघियों के इस जुमले पर सवाल उठाने के बदले इस पर लहा-लोट हो जाने वाले असल में कुछ और ही मंशा रखते हैं।
यह जुमला सुनने के बाद यह सीधा सा सवाल उठता है कि हाई-फाई कौन हैं, वाई-फाई किसके लिए है और सफाई किसके जिम्मे आएगी? उत्तर उतना मुश्किल नहीं है। हाई-फाई में देश के पूंजीपति, नरेन्द्र मोदी जैसा पंूजीवादी नेता, बड़े नौकरशाह तथा ‘जानी-मानी’ हस्तियां आती हैं। यही देश का शासक वर्ग भी है। वाई-फाई देश के मध्यम वर्ग के लिए है और इस तरह आधुनिक मध्यम वर्ग का प्रतीक है। वाई-फाई यानी इंटरनेट और इंटरनेट आधुनिक मध्यम वर्ग की जान है। रही सफाई की बात तो हमेशा से ही सफाई मजदूर वर्ग या समाज के सबसे निचले हिस्से आती रही है। भारत की जाति-वर्ग व्यवस्था में सफाई करने वाली जातियां सबसे नीचे की श्रेणी में आती थीं।
सफाई को इस तरह से मुद्दा बनाकर देश के वर्तमान प्रधानमंत्री ने एक खास तरह की सफलता हासिल की है। वैसे यह कहना पड़ेगा कि यह शासकों का पुराना हथकंडा रहा है।
सफाई अभियान चलाकर मोदी एण्ड कंपनी ने यह स्थापित करने की कोशिश की है कि गंदगी जनता की, खासकर गरीब जनता की आदतों का परिणाम है। यदि गरीब जनता अपनी आदतें ठीक कर ले तो सफाई की समस्या हल हो जायेगी।
ऐसा करते ही गंदगी के लिए जिम्मेदार असली लोग पटल से गायब हो जाते हैं। असली कारक हवा हो जाते हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि फिर गंदगी की समस्या के लिए गरीब आबादी को जिम्मेदार ठहरा कर पूरी व्यवस्था मुक्त हो जाती है।
आज गंदगी की समस्या सबसे भीषण रूप में शहरों में मौजूद है। इस समस्या के कुछ निश्चित आयाम हैं। यह मुख्यतः शहरों की नदियों और नालों, गली-मुहल्लों की सड़कों-नालियों-सीवर लाइनों तथा झुग्गी बस्ती से संबंधित है। और इनमें से एक के लिए भी गरीब आबादी जिम्मेदार नहीं है।
शहरों के बीच से और आस-पास से गुजरने वाले नदी-नाले आज बुरी तरह प्रदूषित हो चुके हैं। सूखे मौसम में तो ये बस बहती गंदगी के नमूने बन जाते हैं। यह मुख्यतः फैक्टरियों के कचड़े और सीवर लाइन के कारण होता है। नदी-नालों के प्रदूषण की यह भीषण समस्या किसी झाडू से हल नहीं हो सकती क्योंकि इसका झाडू से कोई लेना-देना नहीं है। इस समस्या का समाधान सरकार के स्तर पर बड़े स्तर के हस्तक्षेप की मांग करता है। इसमें पूंजीपतियों के मुनाफे पर अंकुश भी शामिल है।
शहरों में निम्न मध्यम वर्गीय बस्तियों से लेकर झुग्गी बस्तियों तो गलियों में नालियों तथा आम तौर पर सीवर लाइन की गंभीर समस्या होती है। इस कारण अक्सर ही गंदा पानी या सीवर गलियों में फैलता रहता है। ऐसे में यह उम्मीद करना बेवकूफी होगी कि लोग झाडू लेकर गलियों की सफाई करें।
रही झुग्गी बस्तियों की बात तो शहरों की ये सबसे गरीब बस्तियां जीता-जागता नरक कुण्ड हंै। यहां सफाई की बात करना ही बेमानी है। यहां रहने वाली गरीब-मजदूर आबादी अपने घर को यथासम्भव साफ-सुथरा रखती है पर घर के बाहर कुछ भी साफ रखना संभव नहीं हो पाता। इसके लिए वहां रहने वाली आबादी को दोष देना परले दर्जे की धूर्तता होगी।
इन स्थितियों को देखते हुए झाडू हाथ में लेकर फोटो खिंचवाने का केवल एक ही मतलब है- लोगों को धोखा देना। इससे वास्तविक समस्या का न केवल रत्ती भर भी समाधान नहीं होता बल्कि वास्तविक समाधान से ध्यान हटाया जाता है।
भारत का शासक वर्ग पिछले सात दशकों से यह करता आया है। वह समस्याओं का समाधान करने के बदले शिगूफे छोड़ता रहा है। मोदी एण्ड कंपनी इसकी ताजा कड़ी है। जहां नेहरू और उनके उत्तराधिकारी इसे नफासत से करते थे वहीं संघी अपने चरित्र के अनुरूप इसे भौंडे तरीके से कर रहे हैं।
बहुत जल्दी ही सफाई का उनका यह शिगूफा अपना आकर्षण खोेने लगेगा और तब तक वे किसी अन्य शिगूफे की ओर बढ़ चुुके होंगे। 

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