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देश में रोजगार की हकीकत

वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
    दुनिया भर में भारत सरकार ही ऐसी सरकार है जो बेरोजगारी के ठीक-ठीक आंकड़े जारी नहीं करती। (भले ही वे आंकड़े वास्तविता से कितनी ही दूर क्यों न हों)। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा जारी बेरोजगारी की तालिकाओं में भारत का स्थान अक्सर रिक्त रहता है। 
    स्वयं भारत सरकार जो भी आधे-अधूरे आंकड़े जारी करती है वे बेरोजगारी दफ्तर में पंजीकृत लोगों की संख्या होती है। यह संख्या एक लम्बे समय से चार करोड़ के आस-पास स्थिर है। इसके अलावा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ओर से समय-समय पर आंकड़े जारी किये जाते हैं जो बेरोजगारी दफ्तर के आंकड़ों से ज्यादा बेहतर तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। फिर भी ये आंकड़े यथार्थ को नहीं प्रस्तुत कर पाते। 
    बेरोजगारी के आंकड़ों की ये बातें एक घटना से ज्यादा मोस-भज्जा ग्रहण कर लेती हैं। उत्तर प्रदेश में सरकार के लिए करीब साढ़े तीन सौ चपरासियों की भर्ती की घोषणा हुई। इसके लिए न्यूनतम योग्यता कक्षा पांच पास होनी रखी गयी थी। इन थोड़े से पदों के लिए जब आवेदन आये तो पता चला कि उनकी संख्या 23 लाख थी। यानी एक पद के पीछे करीब सात हजार आवेदन। 
    आवेदकों की इस भारी-भरकम संख्या के साथ एक ओर चीज भी थी। पता चला कि इन आवेदकों में करीब डेढ़ लाख स्नातक थे जिसमें बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग और प्रबंधन की पढ़ाई किये हुए लोग थे। पी.एच.डी. किये लोगों की संख्या भी सैंकड़ों में थी। 
    चपरासी के पदों के लिए आवेदनों की यह हकीकत भारत सरकार द्वारा बेरोजगारी के बारे में जारी किसी भी आंकड़ें से तारतम्य नहीं बैठा पाती। लेकिन मामला चपरासी के पदों का ही नहीं है। आज पूरे देश में यह सामान्य बात हो गयी है कि सरकारी नौकरियों में आवेदनों की संख्या पदों के मुकाबले सैंकड़ों-हजारों गुना होती है। केवल किसी विशेष योग्यता की मांग ही संख्या को सीमित रख पाती है। 
    आज पुलिस और सेना में भर्ती के समय यह नजारा होता है कि भर्ती के पास वाला शहर उन दिनों में खचाखच भर जाता है। रेलगाडि़यों में जगह मिलनी मुश्किल हो जाती है। अक्सर ये मौके हादसों के समय बन जाते हैं। 
    रेलवे वगैरह में भर्ती के समय भी यही होता है। तब तकनीकी या बाबू की कुछ रिक्तियों के लिए सारे देश से प्रत्याशी पहुंच जाते हैं। कुछ साल पहले पश्चिम रेलवे द्वारा भर्ती के समय तो शिव सेना और मनसे ने इसे उत्तर भारतीयों के खिलाफ मुहिम का मौका बना लिया था। 
    ये सारी घटनाएं एक ओर इस तथ्य को बयां करती हैं कि देश में बेरोजगारी की स्थिति भयानक है। इसमें बड़ी मात्रा में भांति-भांति के पढ़े-लिखे बेरोजगार हैं। सामान्य स्नातकों से लेकर तकनीकी शिक्षा प्राप्त बेरोजगारों की एक लम्बी कतार है। तकनीकी शिक्षा के निजीकरण के इस जमाने में यह और भयानक इसलिए हो जाता है कि मध्यमवर्गीय नौजवान अक्सर कर्ज लेकर या पैत्रिक सम्पत्ति की कीमत पर यह शिक्षा हासिल करते हैं। 
    बेरोजगारी के इस आलम में दूसरी चीज सरकारी नौकरियों की महत्ता है। ये नौकरियां न केवल रोजगार की सुरक्षा प्रदान करती हैं बल्कि भ्रष्टाचार के जरिये और समृद्ध हो जाने का रास्ता भी हैं। निजी क्षेत्र के मुकाबले इन नौकरियों में तनख्वाहें और सुविधाएं भी काफी बेहतर हैं। 
    इसीलिए गरीब और मध्यम वर्गीय आबादी में हर कोई इस तरह की नौकरी पाना चाहता है। इसके लिए जो मारा-मारी है इसके चलते इन नौकरियों की कीमत बहुत बढ़ गयी है यानी भर्ती करने वाले बाबू-अफसरों से लेकर मंत्री तक इसमें खूब उगाही कर रहे हैं। चपरासी-बाबू की नौकरी के लिए भी पांच, दस या बीस लाख रुपये आम हो गये हैं। मध्य प्रदेश का व्यापम घोटाला तो बस इसका एक उदाहरण है। मोदी के भ्रष्टाचार मुक्त गुजरात में पांच हजार रूपये की ठेके वाली नौकरियों की दर भी दस-बीस लाख रुपये हैं। लोग ये नौकरियां इतने महंगे दाम में इसलिए खरीद रहे हैं कि वे सोचते हैं कि भविष्य में ये नौकरियां स्थाई हो जायेंगी।
    इन सबके बीच सरकारें हैं कि अपनी नौकरियों में लगातार कटौती करती जा रही हैं जो पद निहायत जरूरी हैं उन्हें ठेके पर भर रही हैं। 
    देश में आज रोजगार की यही हकीकत है। यह हकीकत इस दिशा में भी संकेत है कि ऐसा बहुत दिनों तक नहीं चलने वाला। 

आरक्षण पर ‘भागवत’ कथा

वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरगना मोहन भागवत ने आरक्षण पर अपना नकाब हटा लिया। खुलेआम आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा की वकालत करके उन्होंने दिखा दिया कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सिर्फ सवर्ण मानसिकता से संचालित और ओतप्रोत है। केवल संघ ही नहीं शिवसेना जैसे दक्षिणपंथी गिरोह भी संघ सरगना की हां में हां मिला रहे हैं। यह पुनः एक उदाहरण है कि संघ हिन्दू ब्राह्मणवादी व्यवस्था का ही प्रशंसक है और उसको स्थापित करना चाहता है। 
    उसका दलितों में खिचड़ी भोज और आदिवासियों में काम उसकी इस हिन्दू ब्राह्मणवादी सोच और मानसिकता को छिपा नहीं सकता। सच तो यही है कि वे जातिवादी व्यवस्था को खत्म नहीं करना चाहते वरन् उसे मजबूत बनाये रखना चाहते हैं। वे ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था के हिसाब से इस देश की सामाजिक संरचना को  पुनर्स्थापित करना चाहते हैं, जो पूंजीवादी विकास और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध होेने वाले सामाजिक आंदोलनों व सामाजिक संघर्षों के परिणामस्वरूप कमजोर हुयी है। 
    संघ यूं ही प्रतिक्रियावादी संगठन नहीं है। वह केवल धार्मिक मामलों में ही इतिहास को पीछे ले जाना नहीं चाहता वरन् जाति और वर्ण के मामले में भी समाज को पीछे ले जाना चाहता है। संघ का ‘रामराज्य’ धार्मिक अल्पसंख्यकों व शूद्र और अस्पृश्य जातियों की गुलामी पर आधारित है। संघ की राजनीतिक पार्टी भाजपा भी ऐसा ही ‘रामराज्य’ लाना चाहती है परन्तु ‘वोट की राजनीति’ और ‘पूंजीवादी जनवाद’ उसके मार्ग में विभिन्न रुकावटों में से एक है। इसलिए भाजपा को जब तब मुखौटा लगाना पड़ता है अन्यथा ‘भागवत कथा’ और ‘मोदी कथा’ में कोई फर्क नहीं है। 
    संघ परिवार (मय उसके सभी आनुषांगिक संगठनों के) में उच्च पदों पर बैठे ज्यादातर लोग सवर्ण व उच्च जातियों से ही आते हैं। भाजपा के बिहार में हाल में ही घोषित प्रत्याशियों में सबसे बड़ी संख्या सवर्ण प्रत्याशियों की है। यह सब यही बताता है कि पूरी संघी जमात का सामाजिक आधार मूलतः सवर्ण जातियां हैं। पिछड़े, दलित व आदिवासी यदि संघी मंडली में हैं भी तो इसलिए कि चुनावी राजनीति में वोट की मजबूरी भाजपा जैसे आनुषांगिक संगठनों को इसके लिए बाध्य करती है या फिर इसके कारण कि वे अपने धर्म को त्याग कर अन्य धर्म न अपना लें। उन्हें ऐसा करने के लिए इसलिए भी मजबूर होना पड़ा कि पिछड़े व दलित समुदाय के उभार ने विभिन्न क्षेत्रों में इन जातियों को प्रभावशाली भी बनाया। ऐसे में संघी गिरोह को अपना फैलाव करने के लिए इन जातियों में काम करना पड़ा। 
    यह बात सच है कि आरक्षण की व्यवस्था ने पिछड़ों व दलितों को सामाजिक रूप से उठाने में मदद की है। पूंजीवादी व्यवस्था में इन समूहों के लोगों ने अवसरों का लाभ भी उठाया। इसका परिणाम यह हुआ कि पिछड़ी व दलित जातियों में विभेदीकरण हुआ। कुछ लोग सामाजिक रूप से ऊपर उठ गये परन्तु बाकी लोग वही जलालत भरी दरिद्रता में रहने को अभिशप्त हैं। पूंजीवादी व्यवस्था ने दूसरी ओर सवर्ण जातियों में भी वर्ग विभेदीकरण को जन्म दिया। सवर्णों का बहुत बड़ा हिस्सा वर्णच्युत होकर मजदूरों की पांतों में आ गया। रुग्ण पूंजीवादी व्यवस्था में अवसरों की कमी के चलते आरक्षण टकराव का विषय बन गया। सवर्णों को अपना हक छिनता हुआ लग रहा है और पिछड़े व दलित आरक्षण को अपना अधिकार मानते हैं। 
    पिछड़े व दलितों की सामाजिक स्थिति के जिस उन्नयन के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी उसने एक हद तक परिणाम भी दिये। परन्तु गांवों व पिछड़े इलाकों और यहां तक कि राज्य सत्ता के विभिन्न अंगों तक में इन जातियों के साथ सामाजिक भेदभाव आज भी जारी है। ऐसे में आरक्षण की समीक्षा के नाम पर आरक्षण खत्म करने की यह साजिश है। भाजपा के सत्ताशीन होने के बाद संघ परिवार हर क्षेत्र में हस्तक्षेप करके अपने मनमुताबिक सामाजिक संरचना का पुनर्गठन करने की कोशिशें कर रहा हैै। संघ परिवार व अन्य दक्षिणपंथी संगठनों की ऐसी साजिशें समाज में पिछड़ों व दलितों को उसी नर्क में बनाये रखने का षडयंत्र है। 
    बिना भारतीय समाज के यथार्थ को बदले ‘भागवत कथा’ आरक्षण को खत्म नहीं कर सकती है। ऐसे वक्तव्य संघी गिरोह की मंशा को जरूर बताते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आरक्षण की व्यवस्था अनन्तकाल तक नहीं चल सकती। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि समाज से उन कारणों को खत्म किया जाये जिसके कारण आरक्षण का अधिकार शूद्रों व अस्प्रश्य जातियों को दिया गया था। अन्यथा की स्थिति में इन संगठनों के मंसूबों का कड़ा प्रतिकार होना ही है।
    गरीब सवर्णों को भी शिक्षा, रोजगार मिलना चाहिए। शिक्षा और रोजगार पाना उनका अधिकार है। परन्तु सवर्ण जातियों के इन गरीब हिस्सों का यह अधिकार किसने छीना है? दलितों, पिछड़ों व आदिवासियों ने या फिर पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति अटूट श्रृद्धा रखने वाली मोदी व उनकी जैसी पूर्ववर्ती सरकारों ने। यह पूंजीवादी व्यवस्था ही है और जिस पर संघी गिरोह का पूरा भरोसा है, जिस के कारण शिक्षा व रोजगार के अवसरों की इतनी कमी है। संघी मण्डली(जो एकाधिकारी पूंजीवादी घरानों व साम्राज्यवादी अमेरिका गिरोह का सच्चा सेवक है) को यह दिखाई नहीं देता कि उसका प्यादा जिन आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ा रहा है उससे किसानों की बहुत बड़ी तादाद और मध्य वर्ग भी अपनी रोजी रोटी से हाथ धो रहा है। निजीकरण के समर्थक इस संघी मण्डली के कारण ही आज गरीब सवर्ण न तो महंगी शिक्षा ले पा रहे हैं और न ही चिकित्सीय सेवायें। संघी गिरोह को गरीब सवर्णों से ज्यादा अडाणियों, अम्बानियों और अपने अमेरिकी आकाओं व इस्राइली मित्रों की चिंता है। 
    संघी गिरोह अपनी तादाद बढ़ाने के लिए ऐसी बकवास करते हैं अन्यथा उन्हें न तो धर्म से मतलब है और न ही जाति से। वे तो धर्म और जाति की राजनीति करते हैं और ऐसा करके एकाधिकारी घरानों व साम्राज्यवादियों की सेवा करते हैं। यहां तक कि उन्हें देश से भी मतलब नहीं है। इन शब्दों का इस्तेमाल वे अपने मंसूबों को छिपाने के लिए करते हैं क्योंकि उन्हें अपने वास्तविक रूप में आने में डर लगता है। संघी मण्डली में लफ्फाजी झूठ, विरोधाभासी बातें करने के माहिर उस्ताद हैं। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से बेलगाम हो गये हैं। 

सुप्रीम कोर्ट का एक और अन्यायपूर्ण फैसला

वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
    सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अपनी पक्षधरता दिखाते हुए एक फैसले में कहा है कि गैर कानूनी तरीके से हटाये गये कर्मचारियों को पिछले वेतन के साथ बहाल करने का स्वतः चालित आदेश नहीं दिया जा सकता। कि बदली हुई परिस्थितियों और समय में ऐसा आदेश उचित भी नहीं है कि ऐसे कर्मचारियों को सिर्फ उचित मुआवजा देकर न्याय की जरूरतों (औपचारिकता) को पूरा किया जा सकता है। 
    लखनऊ विश्वविद्यालय ने 20 लोगों को रुटीन ग्रेड क्लर्क के पद पर 1989 में दिहाडी के आधार पर भर्ती किया था। विश्वविद्यालय ने उन्हें 1991 में बिना नोटिस के हटा दिया। विश्वविद्यालय कर्मचारियों ने इसके खिलाफ लेबर कोर्ट में केस डाला। लेबर कोर्ट ने पाया कि उन्हें गैरकानूनी तरीके से हटाया गया है। लेबर कोर्ट ने वि.वि. को कर्मचारियों को बहाल करने का आदेश दिया। 
    वि.वि. ने लेबर कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट ने लेबर कोर्ट के फैसले की ही पुष्टि की। हाईकोर्ट ने पाया कि वि.वि. ने कर्मचारियों को गैरकानूनी तरीके से हटाया है। हाईकोर्ट ने फैसला दिया कि हटाए गए दिहाड़ी कर्मचारियों को रुटीन ग्रेड क्लर्कों के पद पर पिछले वेतन के साथ बहाल किया जाये। 
    वि.वि. ने हाईकोर्ट के इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने 9 सितम्बर 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के कर्मचारियों के पक्ष में दिये फैसले को रद्द कर दिया।
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 240 दिन कार्य करने के बाद कर्मचारियों को हटाये जाने पर उन्हें पिछले वेतन के साथ नियमित करने का स्वतः आदेश देना अब बदली हुई परिस्थितियों में उचित नहीं है। चाहे कर्मचारियों को औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा-25 एफ की प्रक्रियाओं के विपरीत ही क्यों न निकाला गया हो। यानी सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि कर्मचारियों को गैर कानूनी तरीके से निकाला गया था। 
    वि.वि. कर्मचारी लगभग 25 साल तक न्याय के लिए संघर्ष करते रहे। 25 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने विश्वविद्यालय को चार-चार लाख रुपये मुआवजे के तौर पर देेने का आदेश दिया है। यह है सुप्रीम कोर्ट का न्याय। यानि सुप्रीम कोर्ट ने कर्मचारियों का पिछले 25 वर्ष का वेतन भुगतान करने की जिम्मेदारी से वि.वि. को बचा लिया। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश अब तमाम संस्थानों में मजदूरों-कर्मचारियों को जब-तब निकालते मालिकों-प्रबंधकों के दिलों से यह भय भी खत्म कर देगा कि अगर मजदूर अदालत से मुकदमा जीत गया तो उन्हें निकाले जाने के बाद की अवधि का वेतन भुगतान करना होगा। यानि अब मालिक वर्ग और स्वतंत्रता से किसी भी कर्मचारी को रख-निकाल सकेगा। 
    सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐसे समय में आया है जब देशी-विदेशी पूंजीपतियों को मजदूरों को और अधिक लूटने की छूट देने के लिए मोदी सरकार श्रम कानूनों में अब तक के सबसे बड़े संशोधन करने जा रही है। मोदी सरकार के इस कदम के प्रति मजदूरों के बीच काफी गुस्सा है। और इसे लेकर पूरे देश में 2 सितम्बर को देशव्यापी हड़ताल की जा चुकी है। 
    सुप्रीम कोर्ट के इस तरह के फैसले से जितनी जल्दी लोगों का न्याय व्यवस्था से मोह भंग होगा उतना ही अच्छा होगा।     

सैन्यवादी भाजपा और आम सैनिक

वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    ‘वन रैंक, वन पैंशन’ की मांग को लेकर भूतपूर्व सैनिकों का जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन लम्बे समय से जारी है। अब तो भूख हड़ताल को अर्सा गुजर चुका है पर राष्ट्रवादी भाजपा सरकार इनकी मांगों को मानने के लिए तैयार नहीं है। यह तब कि चुनावों के समय भूतपूर्व सैनिकों से इसके लिए वायदा किया था कि भूतपूर्व सैनिकों ने भी चुनावों में भाजपा का भरपूर समर्थन किया था। 
    यहां बात ‘वन रैंक वन पैंशन’ की मांग पर नहीं की जा रही है जिसका सीधा मतलब है कि अलग-अलग समय पर सेवानिवृत्त होने वाले एक ही पद के भूतपूर्व सैनिकों को एक बराबर पेंशन मिले। यही बात अपने को राष्ट्रवादी कहने वाली पर वास्तव में अंधराष्ट्रवादी पार्टी के लिए सेना के बरक्स सैनिकों का क्या महत्व है, इस पर है। 
    भाजपा एक अंधराष्ट्रवादी पार्टी है और इस तरह की सभी पार्टियों की तरह वह एक जंगजू या सैन्यवादी पार्टी है। वह बाकी देशों के मुकाबले अपने देश को, जिसे वह राष्ट्र कहती है, और श्रेष्ठ मानती है और इस श्रेष्ठता को सैन्य तरीके से भी स्थापित करना चाहती है बाकी कमजोर देशों के मुकाबले सैन्य आक्रामकता और धौंसपट्टी उसके चरित्र की विशेषता है। उसका बस चले तो वह हिटलर की तरह विश्व विजेता अभियान पर निकल पड़े। 
    अपने इस चरित्र के अनुरूप वह सेना पर जोर देती है। सेना और रक्षा उपकरण उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता होते हैं। सबसे पहले राष्ट्र के उसके नारे में सेना की यह वरीयता शामिल है। उसकी नजर में सेना पवित्र गाय है और गाय माता से उसका स्तर बस थोड़ा ही नीचा है। 
    पर सेना की इस वरीयता का मतलब सैनिकों, आम सैनिकों की वरीयता नहीं है। सेना की वरीयता का मतलब उसकी नजर में सेना नामक संस्था और उसे संचालित करने वाले अफसरों की वरीयता है। आम सैनिक तो उसके लिए वैसे ही हैं जो गोला-बारूद जिन्हें खरीदने पर पैसा खर्च करना पड़ता है और जिन्हें जरूरी मात्रा में होना भी चाहिए पर जिनके लिए आंसू बहाने की जरूरत नहीं है। 
    सेना में आम सैनिक गरीब आबादी से भर्ती होते हैं खासकर किसान आबादी से। भारत में कुछ विशेष क्षेत्र (पहले कुछ विशेष जातियां) इसके लिए जाने जाते हैं। लेकिन सबका आधार वही है- एक सम्मानजनक और पैसे व सुरक्षा वाला रोजगार। यहां सेना में भर्ती होते वक्त देशभक्ति की भावना कहीं नहीं होती। वह तो बाद में प्रशिक्षण के दौरान ठोंक-ठोंककर कर भरी जाती है। 
     आज किसानों की बड़ी पैमाने पर बरबादी और भीषण बेरोजगारी के समय में सेना में भर्ती और भी ज्यादा आकर्षक बन गयी है। आये दिन देखने में आ रहा है कि सेना में कुछ जवानों की भर्ती के लिए हजारों नवयुवक पहुंच रहे हैं और वहां दुर्घटनाएं हो रही हैं।
    इसके मुकाबले सेना में भर्ती पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग से होती है जो इसे एक ऊंची अफसरी के अवसर के तौर पर देखता है। हालांकि पिछले सालों में मध्यम वर्ग के लिए निजी देशी-विदेशी संस्थानों में बहुत ऊंची तनख्वाहों वाली नौकरियों के कारण सेना में अफसरी का आकर्षण कम हुआ है। कहा जा रहा है कि सेना योग्य अफसरों की कमी से जूझ रही है। 
    सभी सैन्यवादियों की तरह भाजपाई भी आम सैनिक के प्रति हिकारत का भाव रखते हैं, ठीक जैसे सेना के अफसर अपने जवानों के प्रति रखते हैं। इसीलिए आये दिन अफसरों और जवानों में झड़पों की खबरें भी आती हैं। यदि भाजपाई या उनकी सरकार आम सैनिकों के प्रति कोई सम्मान प्रदर्शित करती हैं, खासकर उनकी सैन्य कार्यवाही में मृत्यु पर, तो यह महज दिखावे की कार्यवाही होती है। यह एक ढोंग होता है अपने सैन्यवाद को आगे बढ़ाने के हित में। 
    इसीलिए सेना के प्रति अपने सारे वक्तव्यों के बावजूद भाजपा या उसकी सरकार कुछ भी ऐसा नहीं करेंगे जो आम सैनिकों को हित में हों। वे मजबूरी में ही कुछ स्वीकार करेंगे।
    आम सैनिक या जवान गरीबों के बेटे हैं, खासकर छोटे-मझोले किसानों के। इनके सुख-दुख उन्हीं के साथ हैं। देश में जब भी क्रांतिकारी संकट गहरायेगा यह साफ-साफ दिखेगा और जब भाजपा जैसों द्वारा फैलाया गया झूठ का अंबार तितर-बितर हो जायेगा। ये आम सैनिक, चाहे वर्तमान हो या भूतपूर्व, अपने भाइयों के साथ आ मिलेंगे। उनकी बंदूकें दूसरी ओर तन जायेंगी।  

सरकारी स्कूलों की हालत सुधारने को न्यायालय का नया फरमान

वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों की हालत सुधारने के लिए एक ऐसा निर्णय दिया है जो चारों ओर बहस का मुद्दा बन गया है। हाई कोर्ट ने एक निर्णय सुनाते हुए कहा कि सभी सरकारी कर्मचारियों व चुने गये जनप्रतिनिधियों को अपने बच्चे अनिवार्य रूप से सरकारी स्कूलों में भेजने चाहिए तभी ये इन स्कूलों की जरूरतों को देखने के लिए पर्याप्त रूप से गंभीर होंगे और ये सुनिश्चित करेंगे कि वे अच्छी अवस्था में चलेंगे। 
    उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूलों खासकर प्राइमरी स्तर के स्कूलों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। न्यायालय के इस फरमान ने इस मुद्दे पर लोगों को दो खेमों में बांट दिया है जहां एक ओर सरकारी कर्मचारी इस निर्णय का विरोध कर रहे हैं वहीं सरकारी स्कूलों की दुर्दशा से चिंतित तमाम प्रबुद्ध लोग इस निर्णय का स्वागत कर इससे बदलाव की उम्मीद पाल रहे हैं। 
    यह आज वास्तविकता है कि उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों से अधिक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले छात्र हो चुके हैं। 2006 में प्राइवेट स्कूलों में 32.2 प्रतिशत छात्र पढ़ते थे जो 2014 में 52.8 प्रतिशत तक पहुंच गये हैं 1991 से जारी निजीकरण की प्रक्रिया की मार से स्कूली शिक्षा भी बची नहीं। 
    हालांकि इस निर्णय का लागू होना बेहद मुश्किल है। बच्चों के बेहतर परवरिश के अधिकार का हवाला दे स्वयं सरकार या अन्य लोग सुप्रीम कोर्ट से इस आदेश को रद्द करवा लेंगे। लेकिन अगर एक बारगी मान भी लिया जाये कि यह आदेश यथावत रहता है तो क्या इससे सरकारी प्राइमरी स्कूल सुधर जायेंगे?
    उत्तर प्रदेश के प्राइमरी स्कूलों से थोड़ा भी परिचित व्यक्ति इसका जवाब ‘नहीं’ में ही देगा। होगा यह कि सभी सरकारी नौकरीशुदा लोगों, विधायकों, सांसदों के बच्चों का नाम सरकारी प्राइमरी स्कूल के रजिस्टरों में दर्ज हो जायेगा पर वे सशरीर वहां साल में एकाध दिन ही जायेंगे और पूर्व की तरह अपनी अलग-अलग हैसियत के अनुरूप खुले प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ते रहेंगे। या फिर निर्णय का पालन इस रूप में होगा कि कुछ बड़े शहरों में प्राइमरी स्कूल माॅडल स्कूलों की तरह विकसित हो जायेंगे जहां सरकारी कर्मचारियों-नेताओं के बच्चे पढ़ेंगे व बाकी गरीब जनता के बच्चे पहले की तरह ही टाट-पट्टी के स्कूलों में पढ़ने को मजबूर होंगे। यानी किसी भी दशा में सरकारी प्राइमरी स्कूलों की दशा नहीं सुधरेगी।  
    न्यायालय के इस निर्णय के पीछे समाज में बहुप्रचारित यह गलत समझ काम करती है कि चूंकि सरकारी कर्मचारी-नेता अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते, इसलिए इन स्कूलों की हालत खस्ता है। पर क्या वास्तव में सरकारी स्कूलों की खस्ता हालत का यही कारण है? नहीं!
    सभी स्तर के सरकारी स्कूल खस्ता हालत में नहीं हैं। ढेरों उच्च शिक्षा के सरकारी संस्थान प्राइवेट संस्थानों से बेहतर स्तर के हैं। इसमें आई.आई.टी., एम्स आदि को रखा जा सकता है तब फिर ऐसा क्यों है कि कुछ सरकारी संस्थान अच्छे से चलते हैं व कुछ खस्ता हालत में। यह बहुत कुछ सरकार की नीति व प्रबंधन पर निर्भर करता है। 
    1990 के दशक के बाद सरकार की आम नीति निजीकरण की रही है। शिक्षा के क्षेत्र में वैसे निजी काॅलेज-स्कूल आजाद भारत में कभी भी प्रतिबंधित नहीं रहे पर 1990 के दशक के बाद इन्हें बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित किया गया। शिक्षा के बाजार पर भारत की निजी पूंजी अपनी गिद्ध दृष्टि जमाये बैठी थी और 1990 के बाद उसे शिक्षा के बाजार से मुनाफा बटोरने की खुली छूट मिल गयी। पर निजी पूंजी से खुले स्कूलों को अभी सरकारी स्कूलों से प्रतियोगिता करनी थी। अपनी फितरत के अनुरूप निजी पूंजी कम निवेश कर भारी मुनाफा चाहती थी। इसलिए उसने सरकार पर दबाव बनाया कि वह सरकारी स्कूलों खासकर प्राथमिक-माध्यमिक स्कूलों के स्तर को गिराये ताकि प्रतियोगिता में निजी स्कूल सरकारी स्कूलों को आसानी से पछाड़ सकें। अपने प्रचार माध्यमों पर वर्चस्व का भी इस्तेमाल कर सरकारी प्राइमरी स्कूलों की खूब लानत-मलानत की गयी। परिणाम यह हुआ कि 2006 आते-आते प्राइवेट स्कूलों में छात्रों की संख्या सरकारी स्कूलों के छात्रों को पार कर गयी। 
    सरकारी प्राइमरी स्कूलों की हालत खस्ताहाल हालांकि पहले भी थी पर अब इस पर और ध्यान कमजोर कर दिया गया। इसके लिए संस्थानों पर खर्चा सीमित कर दिया गया व प्रबंधन को कमजोर कर दिया गया। परिणाम यह हुआ कि थोड़ा भी पैसे वाला शख्स अपने बालकों को प्राइवेट स्कूलों की ओर भेजने लगा। 50-100 रुपया महीना फीस से लेकर हजारों रुपये प्रतिमाह का शुल्क वाले अलग-अलग स्तर के प्राइवेट प्राइमरी स्कूल खुलने लगे। अब सरकारी स्कूलों में केवल गरीब मेहनतकश जनता के बच्चे ही पढ़ने जाते हैं। ऐसे में सरकारी प्राइमरी अध्यापक जिन्हें अपेक्षाकृत बेहतर वेतन मिलता है, उनके जीवन स्तर व प्राइमरी के बच्चों के जीवन स्तर में बड़ा अंतर पैदा हो जाता है। अक्सर ही अध्यापक शहरों में रह गांव के स्कूलों में पढ़ाने जाते हैं और उनमें अपने द्वारा पढ़ाये जाने वाले बच्चों के प्रति हिकारत का भाव पनपने लगता है। वे मानने लग जाते हैं कि ये बच्चे पढ़ने लायक ही नहीं हैं। इससे सरकारी प्राइमरी स्कूलों की दुर्दशा और बढ़ जाती है। सरकार भी वहां कुर्सी-मेज-इमारत-शौचालय से लेकर शिक्षकों की संख्या का इतना बुरा इंतजाम कर देती है कि कोई शिक्षक चाहकर भी बच्चों को कायदे से न पढ़ा पाये। कई दफा तो एक शिक्षक ही विद्यालय में पांचों कक्षाएं पढ़ाते, भोजन बनवाते पाये जाते हैं। 
    ऐसे में स्पष्ट है कि सरकारी स्कूलों की खस्ता हालत प्राइवेट स्कूलों की तरक्की के लिए सचेतन पैदा की गयी है। सरकार अगर चाहे तो इनकी हालत सुधर सकती है पर इसके लिए उसे कम से कम निजीकरण की नीति को छोड़कर दोहरी शिक्षा प्रणाली खत्म करनी होगी। सभी प्राइवेट स्कूलों को राष्ट्रीयकृत करना होगा व संस्थानों पर पर्याप्त खर्च करना होगा। तभी इन स्कूलों की हालत सुधर सकती है। हालांकि एक रूप से देखा जाय तो गरीबों के बच्चों के लिए सरकारी प्राइमरी स्कूल, मध्यम वर्ग के लिए कुछ सौ-हजार रुपये की फीस वाले अलग-अलग स्तर के प्राइवेट स्कूल व अमीरों के लिए आलीशान सुख-सुविधाओं वाले स्कूल वर्गों में बंटे पूंजीवादी समाज की सहज तार्किक परिणति है। 
    पूंजीवादी समाज में पूंजी की प्रवृत्ति हर चीज को माल बना देने की होती है। अपनी स्वाभाविक गति में वह शिक्षा को भी खरीदे-बेचे जाने वाले माल में तब्दील कर डालती है। ऐसे में जिसकी जेब में जितना पैसा होता है उसको वैसी शिक्षा धीरे-धीरे समाज में स्थापित होती चली जाती है। 
    इसीलिए दोहरी शिक्षा पद्धति व गरीबों के बच्चों के स्कूलों की बुरी हालत पूंजी के तर्क का स्वाभाविक परिणाम है। केवल कभी-कभी ही जनदबाव में या कल्याणकारी राज के नाम पर सरकारें पूंजीवादी दायरे में भी दोहरी शिक्षा को खत्म करने को मजबूर हो सकती हैं ताकि समाज में जारी वर्ग विभेदों पर पर्दा डाला जा सके। लेकिन सभी बच्चों को एक सी परवरिश, खान-पान, शिक्षा वर्गों में बंटे पूंजीवादी समाज में संभव नहीं है। इसके लिए पूंजीवादी समाज का अंत जरूरी है।
    इसीलिए सवाल केवल सरकारी प्राइमरी स्कूलों की दुर्दशा का ही नहीं है सवाल 50 रुपया फीस लेकर पढ़ाने वाले स्कूलों की दुर्दशा का भी है। 
    इस दुर्दशा का अंत करने के लिए जरूरी है कि सबसे पहले दोहरी शिक्षा प्रणाली का अंत करने की मांग की जाय। यानी इस मांग को पेश किया जाये कि सारे सरकारी स्कूल हों। और इससे भी आगे बढ़कर सभी बच्चों को वास्तव में बराबरी से शिक्षा मिल सके उसके लिए पूंजीवादी व्यवस्था के नाश के लिए लड़ा जाय।
    इसीलिए केवल सरकारी नौकरीशुदा लोगों को अपने बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का फरमान समस्या को गलत जगह देखना है। इस फरमान का शिकार तीसरे-चौथे दर्जे के सरकारी कर्मचारी, शिक्षक ही होंगे। बड़े अफसर-नेता तो येन केन प्रकारेण इस फरमान में छेद ढूंढ ही निकालेंगे। इसीलिए यह फरमान मध्यम-निम्न मध्यम वर्गीय सरकारी कर्मचारियों के उत्पीड़न का फरमान है। अगर अदालत को कोई फरमान देना ही है तो वह शिक्षा विभाग व अन्य विभाग के अफसरों, देश के पूंजीपतियों-सांसदों-विधायकों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने का फरमान दें और लागू करवायें। हालांकि ऐसा फरमान भी केवल सरकारी स्कूलों में भी दोहरी शिक्षा को पैदा करेगा।
    इसीलिए जरूरत है कि स्कूलों की दुर्दशा दूर करने के लिए ऐसे नीम-हकीमी नुस्खे के बजाय संसाधनों की कमी दूर करने, दोहरी शिक्षा प्रणाली खत्म करने व अंततः पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ा जाये। 

पूंजीपतियों ने लगायी प्रधानमंत्री की क्लास

वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    विश्व की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था के गहराते संकट के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था भी हिचकोले खा रही है। पिछले दिनों जब दुनिया भर के शेयर बाजार नीचे उतरे तो भारत का शेयर बाजार भी एक दिन में 1700 अंक नीचे आ गिरा। सरकार के सारे प्रयासों के बावजूद निर्यात बढ़ने का नाम नहीं ले रहा है तो रुपया डालर के मुकाबले गिरकर 66-67 रुपये तक जा पहुंचा है। ऐसे में जुलाई माह में मैन्युफैक्चरिंग की विकास दर जून के 4.4 प्रतिशत की तुलना में गिरकर 4.2 प्रतिशत हो गयी। चारों ओर छाये इस निराशा के माहौल को दूर करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के उद्योगपतियों को अपने आवास पर निमंत्रण दिया। 
    मोदी ने शायद उद्योगपतियों-वित्तीय धनाढ्यों को भारत की आम जनता की तरह ही समझा और वे अपनी भाषण कला का प्रदर्शन करते हुए उनमें अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का जोश भरने लग गये। मोदी बोले कि पूंजी तो जोखिम लेने से बढ़ती है अतः आप जोखिम लीजिए व निवेश कीजिए। मोदी ने चीन की गिरती हालत को अपने लिए संभावना में बदलने का दंभ भरा। 
    तीन घंटे चली इस बैठक में इंडस्ट्री, अर्थशास्त्री, बैंकर्स, रिजर्व बैंक गर्वनर, शीर्ष अधिकारियों ने हिस्सा लिया। मोदी ने जब अपनी दमदार बातों से पूंजीपतियों में ऊर्जा भरनी चाही तो शायद वे भूल गये थे कि वे देश के असली शासकों से मुखातिब हैं और मोदी को इन असली शासकों को नहीं बताना कि वे क्या करें? असली शासक मोदी को बतायेंगे कि सरकार क्या करे?
    पूंजीपतियों ने जब सरकार के आगे अपने मुद्दे रखे तो मोदी को अपनी असली स्थिति का तुरंत अहसास हो गया। उद्योगपतियों ने देश में डम्पिंग रोकने, जी.एस.टी. पर तत्काल आगे बढ़ने, इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ाने सरीखी मांगों के साथ पूंजी की उपलब्धता के लिए रिजर्व बैंक की ब्याज दरों में कटौती की मांग पेश कर दी। 
    सरकार को पूंजीपतियों की बाकी मांगों से कोई खास परेशानी नहीं हुई पर ब्याज दरों में कटौती से उसे सांप सूंघ गया। स्थिति तब और विकट हो गयी जब रिजर्व बैंक मैनेजर राजन भी ब्याज दर में कटौती के समर्थक बन गये। इस सब पर फैसला 29 सितंबर को होना है। 
    दरअसल देश में खुदरा महंगाई बढ़ती जा रही है। दालें, प्याज की कीमतें सरकार का आधार खिसका रही हैं। ऐसे में सरकार रिजर्व बैंक की ब्याज दर गिराकर इनकी कीमतों को और बढ़ाने से डर रही है। बिहार चुनाव पर भी उसकी नजर टिकी है। 
    सरकार की चिंता जहां खुदरा महंगाई है वहीं रिजर्व बैंक के गर्वनर राजन व पूंजीपतियों की चिंता थोक मूल्य सूचकांक के शून्य के करीब जा पहुंचने को लेकर, अपस्फीति को लेकर है। ऐसे में वे चाहते हैं कि ब्याज दर गिराकर थोक मूल्य सूचकांक को ऊपर उठाया जाय, यानी महंगाई कुछ बढ़ायी जाय। पूंजीपति तो सरकार को सीधे कह रहे हैं कि निवेश तभी बढ़ेगा जब कम ब्याज पर पूंजी मुहैय्या होगी। 
    ऐसे में तात्कालिक तौर पर सरकार व रिजर्व बैंक के गर्वनर आमने-सामने आ गये हैं और पूंजीपति गर्वनर के साथ खड़े हैं। बजाज ने तो दो दिन बाद साफ कह ही दिया कि सरकार से बेहतर ब्याज दर के बारे में गर्वनर जानते हैं। 
    सरकार को आड़े हाथों लेने के अगले दिन शेयर बाजार 400 अंक चढ़ गया और सबने कुछ राहत की सांस ली पर यह बढ़त अगले 2-3 कारोबारी दिनों में फिर नीचे की ओर आ गयी। जाहिर है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत से उबरने के ये सब नुस्खे नीम-हकीमी ही साबित होंगे जो कुछ आशा के अलावा कोई वास्तविक वृद्धि नहीं पैदा कर सकते। 
    वैश्विक अर्थव्यवस्था से अधिकाधिक एकाकार होती भारतीय अर्थव्यवस्था आज उस हालत में है जहां घरेलू स्तर पर भी यह ठहराव की ओर जा रही है और साथ ही कोई वैश्विक हिचकोला इसे एक झटके में डुबा सकता है। 
    पूंजीपति इस बात से चिंतित हैं इसीलिए प्रधानमंत्री की क्लास लगाने सभी बड़े पूंजीपति टाटा, अंबानी, मित्तल, अदानी आदि मौजूद थे।

बिहार को विशेष पैकेज और क्षेत्रीय असमानता

वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    बिहार में कुछ महीनों बाद विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। इसके मद्देनजर सभी पूंजीवादी पार्टियों द्वारा हर तरह के हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। बिहार की जद(एकी) और राजद से लेकर केन्द्र में शासन कर रही भाजपा सभी इसमें लिप्त हैं। 
    भाजपा ने इसी के तहत नई चाल चली। भाजपा के संघी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के लिए एक लाख पच्चीस हजार करोड़ रुपये के विशेष पैकेज की घोषणा की। स्वभावतः ही इसका उद्देश्य भाजपा के पक्ष में मतदाताओं को लुभाना था। खास तौर पर उन्हें संदेश देना था कि यदि प्रदेश में भाजपा सरकार बनती है तो प्रदेश को ऐसे विशेष पैकेज और मिलेंगे क्योंकि केन्द्र में भी भाजपा की सरकार है। 
    जिस मंशा से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के लिए इस पैकेज की घोषणा की ठीक उसी मंशा से बिहार में लालू और नितीश ने इस पैकेज की ओलाचना आरंभ कर दी। उन्होंने बताया कि इस विशेष पैकेज में कुछ भी नया नहीं है। इसमें पुरानी चीजों की ही नई पैकेजिंग कर दी गयी है। उन्होंने यह भी कहा कि वे बिहार के पिछड़ेपन के मद्देनजर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग लम्बे समय से करते रहे हैं मोदी सरकार यह मांग तो मान नहीं रही है पर लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए पुराने अनुदानों की रीपैकेजिंग कर रही है। 
    बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग या बिहार को विशेष पैकेज के पीछे एक यथार्थ है। यह यथार्थ है बिहार का पिछड़ा होना। बिहार देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है। इन्हें पिछड़े राज्यों के नामों को लेकर पहले एक शब्द बनाया गया था ‘बीमारू’ जिसे वर्तमान विवाद में भी मुद्दा बनाया गया। 
    जब भूतपूर्व योजना आयोग ने ग्यारहवीं योजना पेश की थी तो उसने देश में क्षेत्रीय असमानता पर गौर फरमाया था। उसने बताया था कि उदारीकरण के दौर में देश में क्षेत्रीय असमानता बढ़ी है। न केवल सबसे विकसित और सबसे पिछड़े राज्यों के बीच असमानता बढ़ी है बल्कि विकसित प्रदेशों में भी सबसे विकसित और सबसे पिछड़े जिलों के बीच असमानता बढ़ी है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र देश के सबसे विकसित प्रदेशों में है और मंुबई इसी प्रदेश में है पर इसी प्रदेश में विदर्भ भी है जो देश के सबसे पिछड़े हिस्सों में है। 
    असमान विकास पूंजीवाद का सामान्य नियम है और साम्राज्यवाद के दौर में तो यह और भी मुखर हो उठता है। आज पूरी दुनिया के पैमाने पर देशों के बीच भयानक स्तर की असमानता है। यही बात देशों के अंदुरूनी विकास के मामले में भी सही है। 
    भारत के मामले में यही सच है। जब अंगे्रज इस देश से गये तभी इस देश में बड़ी क्षेत्रीय असमानता थी। योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाओं का एक घोषित उद्देश्य यह भी था कि क्षेत्रीय असमानता को कम किया जाये। इसके लिए पूंजीवादी विकास की स्वगति को खास दिशा में उन्मुख किया जाये। 
    पर अनुभव ने दिखाया कि इस दिशा में वास्तव में कोई प्रगति नहीं हुई। वक्त के साथ क्षेत्रीय असमानता कम नहीं हुई बल्कि बढ़ी है। और जब निजीकरण-उदारीकरण का दौर आया तो यह असमानता और तेजी से बढ़ने लगी। 
    इसके अलावा कुछ भी नहीं हो सकता था। भारत में योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाओं की भूमिका सीमित थी। वे देश के पूंजीवादी विकास की गति को इस तरह नहीं मोड़ सकती थीं कि पिछड़े प्रदेशों में तेजी से पूंजीवादी विकास होने लगे। इसीलिए पूंजी ज्यादातर स्वतः स्फूर्त तरीके से वहीं पहुंचती रही जहां पहले से ही पूंजीवादी विकास हो रखा था। इसीलिए छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार के इलाकों से खनिज पदार्थों का खनन होता रहा पर वे पिछड़े बने रहे। 
    इस संदर्भ में एक बात और। अक्सर पूंजीवादी नेता एवं अन्य इस रूप में बात करते हैं कि किसी क्षेत्र की विकास का मतलब है इस क्षेत्र के सभी लोगों का विकास हो जाता है। असल में होता यह है कि किसी क्षेत्र के पूंजीवादी विकास के फलस्वरूप वहां की ज्यादातर आबादी मजदूरों में रूपांतरित हो जाती है। छोटी निजी सम्पत्ति क्रमशः समाप्त हो जाती है। छोटी निजी सम्पत्ति वालों का मजदूरों में रूपांतरण ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील है पर ये पहले के मुकाबले में समृद्ध नहीं हो पाते हैं। 
    लालू, नितीश से लेकर नरेंद्र मोदी तक सभी पूंजीवादी नेता इस दूसरे अर्थ में सब्जबाग दिखाकर अपनी पूंजीवादी राजनीति का उल्लू सीधा करते हैं। इस मायने में उनमें आपस में कोई फर्क और मतभेद नहीं होता। 

जम्मू-कश्मीर में संघ के कुत्सित इरादे

वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    भारत के सर्वोच्च न्यायालय में संघ से जुड़े लोगों ने एक याचिका दायर की है जिसमें भारतीय संविधान की धारा 35 ए की वैधानिकता को चुनौती दी गयी है। इसी धारा के तहत धारा 370 का प्रावधान कर जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया है। संघ व उसके संगठन लम्बे समय से धारा 370 को समाप्त करने की मांग करते रहे हैं। अब उन्होंने न्यायपालिका में इस तथ्य का इस्तेमाल करके कि संविधान 1950 में लागू हुआ और धारा 370 14 मई 1954 को राष्ट्रपति के आदेश से लागू हुई, इसके लागू होने के ही संविधान सम्मत होने पर प्रश्न चिह्न खड़े कर दिये हैं। 
    ऐतिहासिक तौर पर घटनाक्रम पर अगर नजर डाली जाय तो यह स्पष्ट होता है कि जिस तरह बाकी अधिकांश राज्य भारतीय संघ में स्वेच्छा से शामिल हुए उस तरह कश्मीर व पूर्वोत्तर के राज्य शामिल नहीं हुए। खासकर कश्मीर तो भारतीय शासकों के साम, दाम, दण्ड, भेद से भारत में मिलाने में पर्याप्त तिकड़मों के बाद ही भारत का हिस्सा बन पाया। उस समय भी भारतीय शासक जम्मू व कश्मीर को कुछ विशेषाधिकार देने को मजबूर हुए। इन विशेषाधिकारों का समझौता कर उन्होंने येन केन प्रकारेण कश्मीर को भारत में बनाये रखने के मंसूबों को अंजाम दिया। 1954 में घोषित धारा 370 इस राज्य को इन्हीं विशेषाधिकारों की घोषणा है। उस समय इस धारा को अस्थाई धारा माना गया जिसमें निहित था कि जम्मू व कश्मीर का मसला एक विवादित मसला है जिसका निहितार्थ यह था कि जम्मू व कश्मीर भारत के साथ रहेगा या नहीं, अभी यह तय नहीं है। एक बार यह मसला तय हो जाये तब यह धारा समाप्त हो जायेगी। यदि यह भारत के साथ नहीं रहता तब धारा स्वतः समाप्त हो जाती है और अगर भारत के साथ रहना तय करता तब धारा को क्रमशः समाप्त किया जा सकता था। इसीलिए इसे एक अस्थाई धारा को दर्जा दिया गया। जाहिर ही है कि इस मामले में निर्णय लेने का अधिकार जम्मू व कश्मीर की संविधान सभा के हाथ में था। 
    इस धारा के तहत जम्मू व कश्मीर में बाहर के नागरिकों के सम्पत्ति खरीदने, राज्य सरकार की नौकरी पाने, वहां निवास कर मतदाता बनने पर रोक  थी। 
    स्पष्ट है कि पिछले लगभग 6 दशकों में भारतीय शासकों ने तमाम तिकड़मों से जम्मू व कश्मीर को भारत में बनाये रखने के लिए सेना की तैनाती से लेकर, दिल्ली की पिट्ठू सरकार वहां बैठाने, राष्ट्रपति शासन लगाने की ढ़ेरों तिकड़में रचीं। व्यवहारतः भारतीय शासकों ने वहां की जनता या चुनी गयी संविधान सभा व बाद में विधानसभा को विवाद के मसले को हल करने के अधिकार से वंचित कर डाला। इसीलिए मसला आज तक कानूनी तौर पर विवादित बना हुआ है और अस्थाई धारा 370 आज भी लागू है। 
    भारतीय शासकों की घोर दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा व संघ परिवार इस धारा को लम्बे समय से समाप्त करने की मांग करते रहे हैं। अब जबकि मोदी केे नेतृत्व में वे केन्द्र की गद्दी पर काबिज हो चुके हैं तो फिर इस एजेण्डे को आगे बढ़ाने में जुटे हैं। 
    उनके कदम किसी हद तक तब रुक गये जब उन्हें राज्य में सरकार बनाने के लिए पीडीपी से गठबंधन कायम करना पड़ा क्योंकि पीडीपी धारा 370 को हटाने के लिए तैयार नहीं थी। ऐसे में उन्होंने दूसरे तौर तरीके निकाल अपने एजेण्डे को आगे बढ़ाने का प्रयास शुरू कर दिया। 
    इन कदमों में जम्मू में बाहर के लोगों को बसाने से लेकर कश्मीर में सेना के लोगों को भूमि देेने, कश्मीरी पण्डितों की वापसी के नाम पर उनके लिए अलग कालोनी बसाने सरीखे एजेण्डे पर सरकार आगे बढ़ती रही है। 
    जम्मू व कश्मीर का जनसंख्या घनत्व बदल कर संघ उसे किसी तरह हिन्दू बाहुल्य बनाने की सोच रखता है। इसके साथ ही हिन्दू मुस्लिम टकराव को गहरा कर वह कश्मीर अवाम के संघर्ष को साम्प्रदायिक वैमनस्य में बदल डालना चाहता है। यह सब आसानी से हो सके इसके लिए धारा 370 का रद्द होना जरूरी है। संघ के इस मंसूबे से भारत की बाकी पूंजीवादी पार्टियों का भी कोई बड़ा विरोध नहीं है। हां! कश्मीर की जनता व उनके दवाब में नेशनल कांफ्रेंस-पीडीपी सरीखी पार्टियां इसका जरूर विरोध करती रही हैं। 
    अब राजनैतिक मंचों के जरिये मामलों को आगे बढ़ता न पाकर संघ से जुड़े लोगों ने न्यायालय के जरिये मामले को आगे बढ़ाने का रास्ता चुना है और वे दावा कर रहे हैं कि धारा-370 ही असंवैधानिक तरीके से लागू की गयी। राज्य मशीनरी का मौजूदा मोदी सरकार जिस हद तक फासीवादीकरण, हिन्दुत्वकरण कर रही है उसमें इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि कल को कोई संघी मानसिकता का जज धारा-370 को असंवैधानिक करार दे। हालांकि यह बहुत आसान नहीं है। 
    अगर ऐसा होता है तो भारतीय शासक चाहे जितनी खुशियां मनायें यह भारतीय राज्य के साम्प्रदायिक व फासीवादी होते जा रहे चरित्र का ही सबूत होगा। यह भारतीय मेहनतकशों के साथ कश्मीर जनता के हकों-अधिकारों पर बड़ा हमला होगा। यह धारा-370 को अंतिम तौर पर खत्म करने का हक कश्मीरी जनता से छीन हिन्दुत्ववादी न्यायाधीशों के हाथों में पहुंचना होगा। जो अपनी बारी में कश्मीरी जनता के दिलों में भारतीय राज्य के प्रति नफरत और गहरायेगा। 

उपहार अग्निकांडः 18 साल बाद भी नहीं मिला इंसाफ

वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    उपहार अग्निकांड को हुए 18 साल गुजर गये। 18 साल का समय बहुत लम्बा होता है। उन लोगों के लिए तो और भी ज्यादा लम्बा व कष्टदायी, जिन्होंने अग्निकांड में अपने परिजनों को खोया हो और इंसाफ के लिए न्यायालय से आस लगाकर लड़ाई लड़ रहे हों। 18 साल बाद भी न्यायालय से इंसाफ न मिले तो उन लोगों का समूची न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाना सही ही है। 
    13 जून 1997 के दिन दक्षिण दिल्ली के ग्रीन पार्क में स्थित उपहार सिनेमा हाल में फिल्म दिखाने के दौरान हाॅल में आग लग गयी। उपहार सिनेमा हाॅल में न तो सुरक्षा की और न ही आपात स्थिति में हाॅल से बाहर निकलने की पर्याप्त व्यवस्था थी जिस कारण आग लगने के बाद लोग हाॅल में फंस गये। हाॅल में दम घुटने और भगदड़ के कारण 59 लोगों ने अपनी जान गंवाई और 100 से ज्यादा लोग घायल हो गये। इस अग्निकांड ने दिल्ली को हिला कर रख दिया। 
लम्बी न्यायिक प्रक्रिया 
    इतने बड़े हादसे की गम्भीरता को देखते हुए अग्निकांड की जांच सी.बी.आई. को सौंपी गयी। सीबीआई ने 15 नवम्बर 1997 को उपहार सिनेमा के मालिक, रियल स्टेट के दिग्गज गोपाल अंसल और  सुशील अंसल समेत 16 लोगों को आरोपी बनाते हुए चार्जशीट दाखिल की। 
    सीबीआई ने जांच कर तथ्य व सबूत न्यायालय को दिये जिनसे यह साबित होता है कि उपहार सिनेमा हाॅल में न सिर्फ सुरक्षा की व्यवस्था नहीं थी बल्कि ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए नियमों को ताक में रखकर हाॅल में ज्यादा सीटें लगाईं जो आपात स्थिति में दर्शकों के निकलने में बाधा बनीं। 
    10 साल लम्बी चली सुनवाई के बाद 20 नवम्बर 2007 को दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने 12आरोपियों को सजा सुनाई। जिसमें अंसल बंधुओं को लापरवाही से मौत सहित अन्य धाराओं में दोषी पाया और उन्हें दो-दो साल की कैद सुनाई। इसके बाद यह मामला दिल्ली हाई कोर्ट गया। जहां अंसल बंधुओं को राहत देते हुए 2 साल की कैद का आधा कर 1 साल कर दिया। 
    11 साल से इंसाफ के लिए लड़ रहे ‘उपहार हादसा पीडि़त एसोसिएशन’ ने दिल्ली हाईकोई के फैसले के खिलाफ मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गये। सीबीआई ने भी सुप्रीम कोर्ट में सजा को बढ़ाने की अपील की। 
    सुप्रीम कोर्ट ने 19 अगस्त 2015 को जो फैसला सुनाया उसे किसी भी तरह से न्याय नहीं कहा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने अंसल बंधुओं को दोषी तो करार दिया परन्तु दिल्ली हाईकोर्ट के एक साल की कैद के फैसले को अंसल बंधुओं द्वारा अपील के दौरान जेल में बिताये गये वक्त तक सीमित कर दिया जो 6 महीने भी नहीं रही है। गोपाल अंसल ने 4 महीने 22 दिन और सुशील अंसल ने 5 महीने 20 दिन ही जेल में काटे थे। कोर्ट ने सजा के बदले अंसल बंधुओं को 30-30 करोड़ रुपये जुर्माना अदा करने के लिए कहा। 
 न्याय पर उठेे सवाल
    13 जून 1997 को हुए उपहार अग्निकांड में अपने दोनों बच्चों को गंवा चुकी नीलम कृष्णमूर्ति ने अपने बच्चों सहित उपहार अग्निकांड में मारे गये लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए अन्य पीडि़तों के साथ मिलकर ‘उपहार हादसा पीडि़त एसोसिएशन’ का गठन कर उसकी अगुवाई की। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उन्होंने कहा कि ‘‘मुझे बहुत निराशा हुई है। 18 साल पहले मेरा भगवान से विश्वास उठ गया था। और 18 साल बाद मेरा न्यायपालिका से भरोसा उठ गया’’। उन्होंने कहा कि एक चीज जो मैंने महसूस की है कि कानून और अदालत अमीर तथा गरीब के लिए एक समान नहीं होती। पैसे वाले लोग पैसा देकर बच सकते हैं लेकिन आम नागरिकों के लिए न्यायपालिका अलग है। फैसले के तुरंत बाद उन्होंने कहा कि यह नेताओं और जजों के बच्चों की जिंदगी का मामला होता तो एक साल के भीतर न्याय हो जाता। 13 जून 1997 को जिस हादसे में 59 लोगों की जान चली गयी थी। वह थिएटर के मालिकों की जानबूझकर की गयी लापरवाही का नतीजा था जिन्होंने पैसे के लालच में सिनेमा देखने वालों की जिन्दगी को खतरे में डाला। यह जानबूझकर की गयी हत्या थी। यह जनसंहार था। जब एक व्यक्ति मारा जाता है तो आरोपी को उम्रकैद या 10 से 14 साल की सजा होती है लेकिन अरबपति यहां भी पैसा देकर बच निकले। 
    गौरतलब है कि सी.बी.आई. द्वारा जो तथ्य व सबूत निचली अदालत समेत दिल्ली हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट को दिये, उन तथ्यों व सबूतों के आधार पर सभी अदालतों में केस की सुनवाई कर रहे जजों ने अंसल बंधुओं को लापरवाही से मौत के मामले में दोषी करार दिया था। दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने अंसल बंधुओं को 2 साल कैद की सजा सुनाई परन्तु दिल्ली हाई कोर्ट ने उस सजा को आधा कर एक साल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने तो इससे आगे बढ़कर सजा को अंसल बंधुओं का पक्ष लेते हुए, अपील के दौरान जेल में बिताये गये वक्त तक सीमित कर दिया जो 6 महीने भी नहीं थे और सजा के बदले में 30-30 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया। 
    दिल्ली हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के फैसले इन्हें सवालों के घेरे में खड़ा कर देेते हैं। इन फैसलों में न्यायालयों की पक्षधरता साफ दिखाई देती है। 
    अदालतों के फैसले, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले भविष्य के लिए नजीर बनते हैं। यह फैसला भी भविष्य में अमीर वर्ग के व्यक्तियों के लिए मददगार होगा। 

श्रीमान मौनेन्द्र सिंह का मौन

वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    संघी और भाजपाई जुमले गढ़ने में माहिर हैं। पूंजीवादी राजनीति में जुमले बड़े काम की चीज हैं क्योंकि वे आसानी से जुबान पर चढ़ जाते हैं और लोकप्रिय हो जाते हैं। 
    जब मनमोहन सिंह संप्रग सरकार के प्रधानमंत्री थे तब उनके सार्वजनिक तौर पर कम बोलने को निशाना बनाकर भाजपाइयों ने उनका नाम मौन मोहनसिंह रख दिया था। पिछले लोक सभा चुनाव में तब के बड़बोले नरेन्द्र मोदी इस नाम को अक्सर उछाला करते थे। खास तौर पर बड़े-बड़े घोटालों पर मनमोहन सिंह की चुप्पी को वे निशाना बनाते थे। 
    पर आज की पतित पूंजीवादी राजनीति में कुत्ते के शेर बनने और शेर के कुत्ता बनने में देर नहीं लगती। चुनावों के समय दहाड़ने वाले नरेन्द्र मोदी की बोलती बंद होने में बामुश्किल एक वर्ष लगा और उनकी बोलती इस कदर बंद हुई कि कांग्रेसियों ने उन्हीं की तर्ज पर चलते हुए उनका नाम मौनेन्द्र मोदी रख दिया। मजे की बात यह है कि मसला इस बार भी भ्रष्टाचार का ही था। बस टोपी कांग्रेस के बदले भाजपा के सिर पर आ गयी थी। 
    नरेन्द्र मोदी मौन हैं। सारे विपक्षी चीख-चीख कर कह रहे हैं कि वे सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह इत्यादि पर कुछ बोलें, पर नरेन्द्र मोदी मौन हैं। संसद में हर कोई चीख-चीख कर बोल रहा है और इसी कारण संसद नहीं चल रही है पर नरेन्द्र मोदी मौन हैं। नरेन्द्र मोदी तब भी मौन रहते हैं जब वे मन की बात करते हैं यानी वे संबंधित मसले पर चुप्पी साधे रहते हैं। भाजपा प्रवक्ताओं से लेकर सारे नेताओं तक सभी नरेन्द्र मोदी के भोंपू बने हुए हैं पर मोदी मौन हैं। 
    जैसा कि स्पष्ट ही है कि नरेन्द्र मोदी पूर्णतया मौन नहीं हैं। मन की बात तो वे रेडियो पर करते ही हैं, वे सभा-रैलियां भी करते हैं। वे खास तौर पर विदेश यात्राएं करते हैं और वहां बोलते हैं। दरअसल बड़बोले नरेन्द्र मोदी ऐसे हैं ही नहीं कि चुप बैठ सकें। पर वे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर नहीं बोलते। उस पर उन्होंने चुप्पी साध रखी है। 
    वैसे यदि मोदी इस मुद्दे पर बोलें तो क्या बोलें? क्या वे बोलें कि भ्रष्टाचार में जिनका नाम आ रहा है वे सब दोषी हैं? कि भ्रष्टाचार के सारे मामले सच हैं? कि इन सभी दोषियों को जेल जाना चाहिए। 
    मोदी ऐसा नहीं कर सकते। ऐसा करने का मतलब यह स्वीकार करना होगा कि उनकी सरकार भी कांग्रेसी सरकार की तरह भ्रष्ट है। यह स्वीकार करना होगा कि भाजपा के नेता भी कांग्रेसी नेताओं की तरह भ्रष्ट हैं। यह स्वीकार करने से मोदी और भाजपा की लुटिया डूब जायेगी। इसलिए मोदी यह कभी नहीं करेंगे। 
    यह स्वीकार करने से बचने के लिए मोदी ने चुप्पी साध ली है तो भाजपाइयों ने भ्रष्टाचार की परिभाषा ही बदलनी शुरू कर दी है। वे भ्रष्टाचार की रोज नयी-नयी परिभाषा गढ़ रहे हैं। 
    भाजपाई ऐसा करते रह सकते हैं। कांग्रेसियों ने भी ऐसा किया था। यह भी तथ्य है कि भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों में किसी कांग्रेसी को सजा नहीं हुई है। पर सभी जानते हैं कि इन्हीं घोटालों के चलते इन चुनावों में कांग्रेस की बुरी गत हो गयी और भाजपा केन्द्र में तथा आम आदमी पार्टी दिल्ली में सत्ता में आ गयी। 
    नरेन्द्र मोदी ने चुनावों में लोगों को दो सब्ज बाग दिखाये थे- एक भ्रष्टाचार मुक्त भारत का और दूसरा विकास का। खासकर मध्यम वर्ग का एक हिस्सा, जो वैसे साम्प्रदायिक नहीं था, इसी कारण उनका मुरीद हो गया था। उसने मोदी के गुजरात माॅडल को इस रूप में नहीं देखा था। वहां के एकदम भिन्न किस्म के भ्रष्टचार से उसने आंखें मूंद ली थीं जिसने अदाणी को कुछ ही सालों में टाटा-बिड़ला-अंबानी की बराबरी में बैठा दिया था। 
    अब मोदी के प्रधानमंत्री बनने के एक साल बीतते-बीतते भ्रष्टाचार के इन मामलों ने उनके सफेद दाढ़ी वाले चेहरे पर इस तरह कोलतार पोत दिया है कि कोई भी झूठ का साबुन उसे धो नहीं सकता। उनके चेहरे से वह चिपक गया है और इसी वजह से उनकी बड़बोली जुबान बंद हो गयी है। 
    मोदी का एक साल में यह हाल यह दिखाता है कि उनकी आने वाले दिनों में दुर्गति तेजी से बढ़ेगी। और तब शायद अपनी हैसियत बचाने के लिए मोदी-शाह की खूंखार जोड़ी कुछ भी करने पर आमादा हो जायेगी। 

याकूब को फांसी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    1993 के मुंबई बम विस्फोट प्रकरण में याकूब मेमन को फांसी की सजा देने के पश्चात केन्द्र की मोदी सरकार इस फांसी का किसी भी तरह का विरोध करने वालों को सबक सिखाने की तैयारी में है। इस कड़ी में तीन न्यूज चैनलों आज तक, एबीपी न्यूज और एनडीटीवी को न्यायपालिका व राष्ट्रपति का अनादर करने पर केबल टेलीविजन एक्ट का उल्लंघन करने का नोटिस दिया जा चुका है। 
    इन तीन न्यूज चैनलों का गुनाह यह था कि इन्होंने सरकार के सुर में सुर मिलाने वाले टी.वी. चैनलों से अलग प्रसारण करने की हिम्मत दिखाई। जहां अधिकतर टी.वी. चैनल याकूब की फांसी दिये जाने के समर्थन में दिन-रात माहौल बना रहे थे वहीं इन चैनलों ने इस मुद्दे पर पक्ष व विपक्ष दोनों को प्रसारित करने की जुर्रत की। 
    दरअसल न्यायपालिका व राष्ट्रपति का अनादर करने का आरोप उन टी.वी. चैनलों पर ज्यादा सटीक बैठता है जो न्यायालय व राष्ट्रपति के अंतिम निर्णय से पहले ही याकूब को किसी तरह की माफी देने के खिलाफ मुहिम छेड़े थे। एक टी.वी. चैनल तो ‘आतंक को माफी क्यों’ का टैग लगाये राष्ट्रपति के निर्णय से पहले ही उनके निर्णय के अधिकार को ही चुनौती देता लग रहा था। पर सरकार को ऐसे टीवी चैनल न्यायपालिका की अवमानना करते नजर नहीं आते। सरकार को ऐसे चैनलों पर लगाम कसने की बात नहीं सूझती जो किसी आतंकी घटना में पुलिस द्वारा गिरफ्तार पहले व्यक्ति को ही अभियुक्त के बजाय मुजरिम ठहराते हुए आतंकवादी प्रचारित करने लगते हैं जिन्हें मुकदमा शुरू होने से पहले ही निर्णय देने की जल्दबाजी है। जो यह भी नहीं सोचते कि गिरफ्तार व्यक्ति बेकसूर भी हो सकता है। 
    नोटिस पाने वाले तीन चैनलों में से दो ने दाऊद इब्राहिम के भाई शकील का यह इंटरव्यू दिखाया था जिसमें उसने याकूब को बेकसूर बताते हुए न्यायपालिका पर अविश्वास जाहिर किया था। वहीं एक चैनल ने अपने बहस के पैनल में याकूब के पूर्व वकील को शामिल किया था। 
    दरअसल फासीवादी रुझान लिये हुए मोदी सरकार की नीति स्पष्ट है और वह यह है कि जो कोई सरकार के मत के विरुद्ध बातें करे उससे किन्हीं न किन्हीं बहानों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली जाये। इसीलिए यहां सवाल न्यायपालिका व राष्ट्रपति की अवमानना का नहीं है। न्यायपालिका व राष्ट्रपति जब कोई ऐसी बात करते हैं जो खुद सरकार के नुमाइन्दों को नापसंद हो तो वे खुद खुलेआम उसके विरोध में तर्क देते हैं, प्रचार करते हैं। तब उन्हें न्यायपालिका व राष्ट्रपति की इज्जत पर कोई खतरा नहीं दिखता। परन्तु जब कोई सरकार की या सरकार की राय से राष्ट्रपति द्वारा उठाये गये कदम की आलोचना करता है तब सरकार को संविधान की किसी न किसी धारा का उल्लंघन नजर आने लगता है। दरअसल यह दिशा सरकार की आलोचना का ही हक छीन लेने की है। 
    याकूब मेमन की फांसी पर सवाल उठाने वाले लोगों को क्या फांसी पर सवाल उठाने का हक है या नहीं। सरकार का जबाव इस बारे में सम्भवतः यह होगा कि लोगों को सजा पर सवाल उठाने का हक नहीं है क्योंकि सजा न्यायालय ने दी है। पर क्या ये लोकतंत्र है?
    जनवाद का तकाजा है कि हर व्यक्ति को व्यवस्था के किसी भी अंग कार्यपालिका-न्यायपालिका-विधायिका के कदमों की आलोचना का पूर्ण अधिकार हो। उन विषयों पर भी आलोचना का हक हो जिन्हें सरकार सुनना पसंद न करती हो। आज यह हक क्रमशः हमसें छीना जा रहा है। 
    सरकार को त्रिपुरा के राज्यपाल तथागत राय के फांसी के बाद किये गये ट्वीट में देश का कानून टूटता नजर नहीं आता जब वह खुलेआम याकूब की शवयात्रा में जुटी भारी भीड़ पर कमेंट करते हैं कि गुप्तचर एजेंसी को याकूब के करीबी मित्रों व रिश्तेदारों को छोड़ शवयात्रा में जुटे बाकी सारे लोगों की जांच करनी चाहिए उनमें से कई सम्भावित आतंकवादी हैं। एक राज्यपाल के इस बेतुके बयान जो मुस्लिम समुदाय के याकूब से सहानुभूति रखने वालों को आतंकी साबित करता है, जो धार्मिक वैमनस्य गहराता है। इस पर केन्द्र सरकार को कोई कानून टूटता नजर नहीं आता। 
    अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी जनवादी लोकतंत्र का मूलभूत अधिकार है। आज मोदी सरकार इसे छीनने पर उतारू है। एक ओर वह प्रचार माध्यमों का भरपूर इस्तेमाल कर झूठ को सच की तरह पेश करने में जुटी है जनमानस के बड़े हिस्से को अंधराष्ट्रवाद पर खड़ा कर वह जनता के बीच अपने कुकर्मों को सही साबित करने में जुटी है। जनता के पक्ष में बात करने वालों के लिए मुश्किलें खड़ी की जा रही हैं जो कोई हिम्मत कर सरकार के वास्तविक मंसूबों को बेपर्द करना चाहता है उसका मुंह सिलने के लिए कानूनी प्रावधानों में उसे फंसाने से भी वह पीछे नहीं हट रही है। 
    मोदी सरकार ‘हर! हर! मोदी’ पर नृत्य करना चाहती है पर ‘मोदी मुर्दाबाद!’ उसे गंवारा नहीं। यह और कुछ नहीं हिटलर के फासीवाद की आहट है। 

पुष्करन महोत्सव में हुई 27 श्रद्धालुओं की मौतों का दोषी कौन? 

वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    14 जुलाई को आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी के किनारे लगे गोदावरी पुष्करन महोत्सव में पहले ही दिन भगदड़ मचने से 23 महिलाओं समेत 27 श्रद्धालुओं की मौत हो गयी। 
    प्राप्त जानकारी के अनुसार अधिकारी ने बताया कि राजमुंद्री नगर के घाट की क्षमता करीब 15 हजार लोगों की है परन्तु वहां पर क्षमता से अत्यधिक लगभग 50 हजार लोग आ गये। श्रद्धालु जब स्नान करने के लिए तट की ओर जा रहे थे तभी कुछ महिलायें फिसल गयी जिसके कारण वहां भगदड़ मच गयी और इस भगदड़ में दबने व दम घुटने से 23 महिलाओं समेत 27 श्रद्धालुओं की मौत हो गयी और 25 से 30 लोग घायल हो गये। 
    सामान्यतः यह क्षमता से अत्यधिक श्रद्धालुओं के आ जाने के कारण मची भगदड़ से हुई दुर्घटना लगती है जिसमें इतने श्रद्धालु मारे गये और घायल हुए। लेकिन यह अकेली घटना नहीं है। आये दिन धार्मिक आयोजनों/महोत्सवों व तीर्थस्थानों में क्षमता से अत्यधिक संख्या में श्रद्धालुओं के पहुंचने और शासन-प्रशासन के निकम्मेपन के कारण उचित व्यवस्था न होने से भगदड़ मच जाती है और श्रद्धालुओं की मौत हो जाती है जिसमें ज्यादातर महिलायें और बुजुर्ग होते हैं। 
    इन धार्मिक आयोजनों, महोत्सवों व तीर्थस्थानों को अत्यधिक महिमामंडित किया जाता है। विश्वास व आस्था के नाम पर अंधविश्वास व अंधकार फैलाया जाता है। पूंजीपति वर्ग द्वारा सुबह से लेकर रात तक टी.वी. चैनलों व अन्य माध्यमों द्वारा आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर अंधविश्वास फैलाया जा रहा है। इन धार्मिक आयोजनों/महोत्सवों व तीर्थस्थलों पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री और ‘गणमान्य व्यक्ति’ पहुंचकर इस अंधविश्वास को और अधिक फैलाने में मदद कर पूंजीपति वर्ग व पूंजीवादी व्यवस्था को बचाने का काम करते हैं। पूंजीवाद के हर तरफ से संकट में फंसे लोग इस अंधविश्वास और अंधकार को इस विश्वास व आशा के साथ ग्रहण कर लेते हैं कि इन धार्मिक आयोजनों/महोत्सवों व तीर्थस्थानों में डुबकी लगाने और देवी देवताओं के दर्शन करने से उनके संकट दूर हो जायेंगे। 
    गोदावरी पुष्करन महोत्सव को भी बहुत महिमामंडित किया गया। बारह साल में एक बार मनाये जाने वाले गोदावरी पुष्करन को इस बार खगोलीय दृष्टिकोण से अत्यंत शुभ बताया गया। बताया गया कि यह ‘महा-पुष्करलू’ है जो 144 साल बाद पड़ता है। 
    इस महोत्सव में लगभग 3 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं के आने की उम्मीद थी। इतनी बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं के आने की उम्मीद के बावजूद आंध्र प्रदेश सरकार व प्रशासन ने उचित व्यवस्था नहीं की जिस कारण से इस दुर्घटना का होना पहले से ही तय था। 
    आंध्र प्रदेश सरकार को पहले तो जिन्दा लोगों की कोई फिकर नहीं हुई और बाद में दुर्घटना में मारे गये लोगों को 10 लाख रुपये मुआवजा देकर उनकी कीमत लगा दी। यह रुख आज केन्द्र से लेकर सभी राज्य सरकारों का हो गया है। जिन्दा आदमी की कोई कीमत नहीं, और मरने के बाद मुआवजा। 
    गोदावरी पुष्करन महोत्सव में दुर्घटना से हुई मौतें, मौतें नहीं बल्कि व्यवस्था द्वारा फैलाये अंधविश्वास द्वारा की गयी हत्यायें हैं। इन हत्याओं के लिए हमें पूंजीपति वर्ग व पूंजीवादी व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करने की आवश्यकता है। 

किसानों के भांति-भांति के हितैषी

वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    किसानों की जमीनों को छीनकर पूंजीपतियों को देने का हर संभव जतन करने वाले संघी प्रधानमंत्री कभी-कभी किसानों का हितैषी भी दिखने का प्रयास कर रहे हैं। इसी कपटनीति में एक दिन उन्होंने घोषित किया कि वे किसानों के भले के लिए एक किसान चैनल शुरू कर रहे हैं। 
    इस किसान चैनल से किसानों का क्या और कैसे भला होगा यह तो पता नहीं पर एक दिन एक महत्वपूर्ण खबर प्रकाश में आई। यह खबर भी किसी चटपटे अखबार में नहीं बल्कि अपने को गंभीर कहने वाले ‘द हिन्दू’ अखबार में छपी। खबर यह थी कि ‘सदी के महानायक’ यानी अमिताभ बच्चन ने इस किसान चैनल पर किसानों को कुछ बातें बताने के लिए 6.31 करोड़ रुपये की फीस ली है। 
    कुछ दिन बाद अमिताभ बच्चन की ओर से इस खबर का खंडन किया गया। कहा गया कि उन्होंने किसान चैनल के लिए कोई फीस न मांगी है और न ली है। हां, यह जरूर कहा गया कि किसान चैनल के लिए अमिताभ बच्चन वाला कार्यक्रम बनाने वाली कंपनी लिंटास के बारे में वे कुछ नहीं कह सकते। उन्हें लिंटास से भी कोई पैसा नहीं मिला है। 
    खबर और खबर का खंडन दोनों अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। आज चारों ओर किसानों की दुर्दशा और उनके द्वारा की जाने वाली आत्महत्याएं चर्चा का विषय हैं। ऐसे में हर कोई किसानों का हितैषी दीखने का प्रयास कर रहा है। यहां तक कि किसानों की जमीनों को छीनकर पूंजीपतियों को देने का हर संभव प्रयास करने वाला संघी प्रधानमंत्री भी। 
    तब भला ‘सदी के महानायक’ अमिताभ बच्चन यह कैसे गवारा कर सकते हैं कि उनका नाम कुछ इस तरह उछले कि नाम को बट्टा लग जाये? बंबईया सिनेमा के सारे नायकों, महानायकों की तरह वे भी अपनी छवि को लेकर बेहद सचेत रहते हैं। न तो वे, न तो उनके प्रबंधक और न ही ‘जनसंपर्क’ कंपनियां यह होने दे सकती हैं कि किसानों की दुर्दशा वाले खबरों के इस जमाने में वे किसानों के नाम पर पैसा हड़पते दिखें। ऐसे में उनकी ओर से खंडन आना ही था। 
    यह हो सकता है कि अमिताभ बच्चन सच बोल रहे हों और उन्होंने किसान चैनल के लिए एक पैसा न लिया हो। हो सकता है कि खबरनवीस ने गलती की हो। पर ऐसा नहीं भी हो सकता है। अमिताभ बच्चन के ‘बिजनेस सेंस’ को देखते हुए इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसा न हो और बात सार्वजनिक हो जाने से अब वे बातंे बना रहे हों। ‘बिजनेस सेंस’ का उनका पुराना रिकार्ड तो इसी दिशा में संकेत करता है। एक उदाहरण से बात समझ में आ सकती है। 
    कुछ साल पहले एक खबर आई थी। यह खबर अमिताभ बच्चन की पोती के बारे में थी। यह अपने आप में बड़ी बात नहीं थी। ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन जैसे बंबईया फिल्मी सितारों की बेटी ‘सदी के महानायक’ की पोती होने के चलते उसे खबर बनना ही था। खबर में ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि सदी के महानायक ने अपनी पोती की पहली फोटो कुछ करोड़ में प्रचार माध्यमों को बेची है। पूंजीवादी प्रचार माध्यम इतनी प्रसिद्ध बच्ची की फोटो पाने को लालायित थे और उन्होंने इसकी मुंहमांगी कीमत चुकाई। ‘सदी के महानायक’ भी मौका नहीं चूके और उन्होंने कुछ करोड़ रुपये अपनी जेब में डाल लिये। गरीब की बेटी मां-बाप पर असहनीय बोझ बनकर पैदा होती है। ‘सदी के महानायक’ की पोती ने पैदा होते ही उन्हें करोड़ कमा कर दे दिये। वैसे कमाल उस दुधमुंही बच्ची का नहीं ‘सदी के महानायक’ के ‘बिजनेस सेंस’ का था। 
    इस उदाहरण को देखते हुए यह अजूबा ही होगा यदि इस ‘महानायक’ ने किसान चैनल के लिए कोई पैसा न लिया हो।  
    किसानों की दुर्दशा पर टी.वी. चैनलों पर आंसू बहाने वालों में से पुण्य प्रसून वाजपेयी ने एक दिन बताया कि एक ओर किसान आत्महत्या कर रहे हैं और दूसरी ओर आई.पी.एल. ने देश में तीन सौ अरबपति पैदा कर दिये। उनके लिए यह बिडंबना की बात थी। यह भलामानुस यह नहीं समझ सकता कि किसान ठीक इसीलिए आत्महत्या कर रहे हैं कि 6 सालों में आई.पी.एल. से तीन सौ लोग अरबपति बन गये या इसका उल्टा कि ये तीन सौ इसी वजह से अरबपति बने कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं। यदि ये अरबपति नहीं बनते तो किसान आत्महत्या भी नहीं करते। यदि फिल्मों में नाच-गाकर मनोरंजन करने वाले हजारों करोड़ के मालिक और ‘महानायक’ बन जाते हैं तो इसीलिए कि किसान आत्महत्या की ओर धकेले जाते हैं। एक की बढ़ती दौलत और दूसरे की कंगाली में सीधा संबंध है। भलेमानुष इसे नहीं समझते और न समझ सकते हैं। हां, संघी प्रधानमंत्री इसे समझता है इसीलिए वह किसानों के लिए किसान चैनल के साथ लाठी-गोली का भी प्रबंध कर रहा है। 

याकूब को फांसी, मोदासा बम विस्फोट में केस बंद: ऐसा क्यों?

वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    याकूब मेनन को मुंबई बम विस्फोट कांड में 30 जुलाई को फांसी पर लटकाया जाने वाला है। महाराष्ट्र की सरकार ने उनकी फांसी की तैयारियां शुरू कर दी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उसकी याचिका खारिज की है। याकूब को फांसी इसलिए दी जा रही है कि उसका भाई टाइगर मेनन मुंबई कांड का मुख्य मास्टरमाइंड था कि याकूब का कसूर इतना था कि उसने बम लगाने वालों को अनजाने में मदद की थी। 
    टाइगर मेनन देश से बाहर जा चुका था पर याकूब मेनन ने या तो आत्मसमर्पण किया या उसे किसी सौदेबाजी के जरिये काठमांडू से गिरफ्तार कर भारत लाया गया। उसी के जरिये जांच एजेंसियों को बम कांड में टाइगर मेनन व आई.एस.आई. की संलिप्तता, दाऊद का जुड़ाव पता चला। जहां अदालत ने बाकी मुजरिमों की सजा फांसी से उम्रकैद में बदल दी वहीं याकूब की फांसी की सजा बरकरार रखी। 
    निश्चय ही याकूब का मुंबई बम विस्फोट में हाथ है और उसे सजा मिलनी भी चाहिए। पर महज इस बात से कि वह मुख्य मास्टरमाइंड टाइगर मेनन का भाई है, उसे भी मुख्य साजिशकर्ता मानना कहीं से गले नहीं उतरता और इसीलिए उसे फांसी की सजा देना व बम लगाने वालों की सजा फांसी से उम्रकैद में बदलना न्यायपूर्ण नहीं लगता। 
    भारतीय अदालत शायद भाई के जुर्म का बदला दूसरे भाई से लेकर जनता की चलताऊ प्रतिशोध की भावना को शांत करना चाहती है। ऐसे ही पूर्व में संसद हमले में अफजल गुरू को राष्ट्र की राय से संतुष्ट करने के लिए फांसी दी जा चुकी है। 
    पर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। गोधरा कांड से लेकर मुंबई बम विस्फोट के केस चले, अदालतों ने दोषी लोगों को सजा दी। लेकिन कुछ बम कांड ऐसे भी हैं जिनमें जांचकर्ता एजेंसी ही केस को खत्म करने की कवायद कर रही है। 
    मालेगांव, मोदासा, समझौता एक्सप्रेस, अजमेर, मक्का मस्जिद आदि कुछ ऐसे बम विस्फोट थे जिनमें हिन्दू आतंकवादियों का हाथ रहा है। इनकी जांचकर्ता एजंेसी एन.आई.ए. प्रज्ञा ठाकुर, असीमानंद, कर्नल पुरोहित से लेकर संघ से जुड़े कई अन्य लोगों की इस दिशा में जांच करती रही है। पर पिछले एक वर्ष में इन सभी केसों की सुनवाई-जांच की दिशा पलट गयी। इनकी खबरें भी मीडिया से गायब होने लगी। 
    एक वर्ष पूर्व सत्ता में संघ से जुड़ी भाजपा सत्ताशीन हो गयी। अब राष्ट्रीय जांच एजेंसी का भी सुर बदलने लग गया। गुजरात के मोदासा बम विस्फोट में कांग्रेस सरकार के दौरान एन.आई.ए. को हिन्दुत्व आतंकियों की संलिप्तता के महत्वपूर्ण सुराग मिल चुके थे, अब इसी एजेंसी द्वारा सबूतों के अभाव में मामला बंद कर दिया जाता है। मालेगांव विस्फोट में सरकारी वकील रोहिणी सालियान पर खुद जांचकर्ता एजेंसी एन.आई.ए.द्वारा दबाव डाला जाता है कि वे मामले में चुस्ती न बरतें। अजमेर बम धमाके में एक के बाद एक अधिकतर गवाह मुकर जाते हैं और एन.आई.ए. द्वारा इन मामलों से जुड़े संघ प्रचारक सुनील जोशी की हत्या का मामला फिर से मध्य प्रदेश पुलिस को सौंप दिया जाता है। 
    पिछले एक-डेढ़ वर्ष में समाचारों से ये मामले गायब हैं और संघ से जुड़े नेता फिर अपने बयान देते फिर रहे हैं कि हिन्दू आतंकवाद जैसी कोई चीज नहीं है। अब उनके इशारों पर जब अदालतें उपरोक्त सारे मामलों में आरोपियों को बरी कर देंगी तो ये फिर चिल्लायेंगे कि यह तो अदालत का निर्णय है कि अदालत ने उनकी बात ‘हिन्दुत्व आतंक’ के न होने पर मुहर लगा दी है।  
    आज याकूब मेनन की फांसी का वक्त मालेगांव से मोदासा, अजमेर से समझौता एक्सप्रेस को भी उठाने का वक्त है। अगर देश लगातार इस ओर बढ़ता गया कि हिन्दू आतंकी बरी होते गये और मुस्लिम आतंकी सूली पर चढ़ते रहे तो अगर कोई मुस्लिम कट्टरपंथी ओवैसी सरीखा यह सवाल उठाता है कि याकूब को फांसी मुस्लिम होने के नाते दी जा रही है तो उसका जबाव देने वालों पर यह तर्क भी नहीं बचेगा कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता।
    क्योंकि हमारे देश में मोदी शासन में आतंक का धर्म सरकार तय कर रही है। ‘‘पाक = मुस्लिम = आतंक’’ के फार्मूले को वह स्थापित कर रही है। हिन्दू आतंकी-दंगाई तो देशभक्त साबित किये जा रहे हैं। आखिर जब प्रधानमंत्री पद पर मोदी काबिज हों तो इससे अलग भला और क्या हो सकता है। 
    यह सब देश में हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता को और बढ़ायेगा। देश का तथाकथित धर्मनिरपेक्ष चरित्र आज धर्मनिरपेक्षता का लबादा उतारता जा रहा है जिसके नीचे से कट्टर हिन्दुत्व की कीचड़ में सना कमल सामने आ रहा है। यह सब देश को फिर से बड़े पैमाने के दंगों की ओर ले जा रहा है। 

21वीं सदी के भारत में मौत के कुछ आंकड़े

वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
(A) किसानों की आत्महत्या
    वर्ष 2014 में देश में 12,360 किसानों ने आत्महत्या की। यानी प्रतिमाह करीब 1030 किसान या हर रोज करीब 34 किसानों ने हमारे देश में आत्महत्या की। पिछले 5 वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं के सालाना आंकड़े ये हैं-
यानि लगभग 67,877 किसानों ने पिछले 5 वर्षों में आत्महत्यायें कीं। राज्यों में महाराष्ट्र सबसे आगे इस मामले में हैं। इन आत्महत्याओं में 22.8 प्रतिशत आत्महत्यायें कर्ज न चुका पाने व 19 प्रतिशत कृषि अन्य समस्याओं से जुड़ी हैं। यह तस्वीर आज के भारत में कृषि की हालत बताने को काफी है तिस पर हमारे धूर्त मंत्री बयान देते हैं कि किसान प्रेम सम्बन्धों के कारण या नपुसंकता के कारण आत्महत्या करते हैं। 
(B) पुरुषों की अप्राकृतिक मौत
    पुरुषों की अप्राकृतिक मौत का सबसे प्रमुख कारण सड़क दुर्घटना है। वर्ष 2013 में 1 लाख 20 हजार पुरुष सड़क दुर्घटनाओं में मारे गये। यानि प्रतिदिन लगभग 328 लोग सड़क दुर्घटनाओं में मरते हैं। अन्य कारणों से मौतों का आंकड़ा इस प्रकार है-
अगर इन्हीं आंकड़ों को प्रति दिन के हिसाब से बदल लें तो तस्वीर कुछ यूं सामने आती है कि भारत में प्रतिदिन 328 पुरुष सड़क दुर्घटना में मरते हैं, 244 पुरुष आत्महत्या करते हैं, 68 पुरुषों की हत्या होती है, 63 पुरुष डूब कर मर जाते हैं और 58 पुरुष रेल दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं। 
(C) महिलाओं में अप्राकृतिक मौतेंः 
    महिलाओं में आश्चर्यजनक रूप से आत्महत्या मौत का सबसे बड़ा कारण है। वर्ष 2013 में 42,521 महिलायें आत्महत्या करके मरीं। 
    पुरुषों में जहां आत्महत्या करने वालों की उम्र अधिकतम 30 से 45 वर्ष के बीच थी वहीं महिलाओं में आत्महत्या करने वालों की उम्र अधिकतर 18 से 30 वर्ष के बीच थी। 
    आत्महत्या करने वाली आधी से अधिक शादीशुदा थीं और तीन चौथाई गरीब परिवारों से थीं। ज्यादातर आत्महत्या करने वाली महिलायें घरेलू गृहणी थी। करीब 2,222 महिलायें दहेज उत्पीड़न के कारण आत्महत्या करती हैं। 
    महिलाओं में मौत के अन्य कारण ये हैं- 
जाहिर है आजाद भारत की यह तस्वीर कहीं से खुशनुमा नहीं कही जा सकती। इसको बदला जा सकता है। 




बढ़ता फासीवादीकरण व बढ़ती साम्प्रदायिक घटनाएं  

वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    भांति भांति के धार्मिक, सांस्कृतिक  व उग्र राष्ट्रवाद के मुद्दे उठाकर मोदी सरकार व संघ परिवार समाज के फासीवादीकरण की मुहिम में लगे हुए हैं। इनके इस मुहिम में कभी-कभी लोगों को यह भी लग सकता है कि उनकी स्थिति कभी-कभी थूक कर चाटने जैसी हो जाती है। लेकिन मोदी, भाजपा व संघ को इससे फर्क नहीं पड़ता है। दरअसल यह भी फासीवादियों का ही एक लक्षण है।
     फासीवादीकरण की राह में ये मुद्दे दर मुद्दे उठाते हैं। मुद्दा उठाते हैं और फिर उसकी प्रतिक्रिया को देखते हैं। यह देखते हैं कि इसका विरोध किस प्रकार का है कितना विरोध है और विरोध करने वाले कौन हैं। स्थिति प्रतिकूल देखकर बयान से पलटी भी मार जाते हैं या फिर खामोशी बरत लेते हैं। फिर अपने लिए माहौल तैयार करते हैं। मुद्दे को फिर उठा लेते हैं। फासीवादीकरण करते हैं। 
    फासीवादीकरण की मुहिम को और आगे बढ़ाने के लिए शिक्षण संस्थाओं, खुफिया संस्थाओं से लेकर जनवादी संस्थाओं में हर जगह पर फासीवादी तत्वों की भर्ती धीरे-धीरे की जा रही है। फिल्म व टेलीविजन संस्था में छात्रों का विरोध अभी थमा नहीं है। इतने समय तक विरोध के बावजूद साफ्ट पार्न फिल्मों के नायक गजेंद्र चौहान की नियुक्ति रद्द नहीं की गई है।
    अब इन्होंने देश की आई.आई.टी. एवं आई.आई.एम. जैसी शिक्षण संस्थाओं पर भी हमला बोल दिया है। इनके मुताबिक ये संस्थान हिन्दू विरोधी हैं और अब फासीवादी संघ व भाजपा तर्क व बात को वहां पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं जहां कूपमंडूक सोच का, अंधविश्वास व धार्मिक पोंगापंथ का विरोध करने वाला तथा तर्क व तथ्यों पर अडिग रहने वाला हिन्दू विरोधी साबित हो जाये। तब फिर इनकी राह और आसान हो जाती है।
    एक तरफ फासीवादीकरण तो दूसरी ओर दंगों व आतंकी घटनाओं में फंसे आरोपियों को बचाने की कोशिशें अब बहुत आगे बढ़ रही हैं। सी.बी.आई. को पिंजरे का तोता कहने वाले ये लोग आज इसका इस्तेमाल उन लोगों पर खौफ कायम करने में कर रहे हैं जिन्होंने इन फासीवादी ताकतों का विरोध किया था या जो इन्हें बेनकाब करने में लगे हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता शीतलवाड़ जिन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के शिकार अल्पसंख्यकों के पक्ष में न्याय की आवाज उठाई थी। जिसके दम पर कई मुकदमे गुजरात दंगों को अंजाम देने वाले मोदी, भाजपा व संघी लंपटों पर दर्ज हुए थे और वह अभी भी इन मुकदमों में न्याय के लिए सक्रिय हैं। लेकिन अब केंद्र की मोदी सरकार ने विदेशी फंडिंग में हेराफेरी के आरोप में मुकदमे दर्ज कर दिये हैं। गुजरात उच्च न्यायालय के दो जज एम.आर. शाह व के.एस. झावेरी ने दबाव के चलते खुद को सुनवाई से अलग कर लिया है। 
    यही नहीं विशेष लोक अभियोजक रोहिणी सालियां पर मालेगांव ब्लास्ट 2008 में शामिल संघी आतंकियों के प्रति नरम रुख दिखाने का दबाव डालने के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसी का इस्तेमाल मोदी सरकार ने किया है। कोर्ट का रुख तो इस मामले में काफी नरम हो ही चुका है।
    कुल मिलाकर फासीवादी ताकतें अपने घृणित एजेंडे को बिना किसी बड़े विरोध के आगे बढ़ा रही हैं। अन्य पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों के लिए फासीवाद फिलहाल कोई मुद्दा नहीं बनता। सरकारी वामपंथी पार्टियां बस जुबानी जमा खर्च करने में ही व्यस्त हैं। इनसे बहुत उम्मीद पालना भी मूर्खतापूर्ण होगा। यह इनके लिए संभव नहीं है क्योंकि पूंजीवाद, पूंजीपति वर्ग को निशाने पर लिए बिना फासीवाद से नहीं लड़ा जा सकता। 
    फासीवादी ताकतों के इस घृणित एजेंडे का ही यह भी नतीजा है कि सांप्रदायिक घटनाओं की संख्या बढ़ गई हैं। सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ोत्तरी दिखाने वाली यह रिपोर्ट केंद्र की मोदी सरकार के गृह मंत्रालय ने ही जारी की है। इसलिए यह तर्क भी नहीं चल सकता कि यह भाजपा व संघ को बदनाम करने के लिए है। 
    केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल के पहले पांच माह में पिछले साल की तुलना में साम्प्रदायिक हिंसा में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यानी मनमोहन सिंह के कार्य काल के अंतिम 5 माह जनवरी से मई की तुलना में मोदी सरकार के कार्य काल में 24 प्रतिशत ज्यादा सांप्रदायिक घटनाएं हुई हैं। 
    जनवरी-मई 2014 में साम्प्रदायिक हिंसा की 232 घटनाएं हुई थीं जिसमें 32 लोग मारे गए व 701 लोग घायल हुए थे जबकि जनवरी-मई 2015 में सांप्रदायिक हिंसा की 287 घटनाएं हुईं जिसमें 43 लोग मारे गए तथा 961 लोग घायल हुए। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पश्चिम बंगाल व महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुई हैं। 
    पिछले 14 माह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा वाचाल मोदी से मौनेन्द्र मोदी तक पहुंच चुकी है। अच्छे दिनों के ख्वाब अब बुरे दिनों में बदल रहे हैं। बेरोजगारी-महंगाई-भ्रष्टाचार के मुद्दे ने मोदी व मोदी सरकार को एक हद तक बेनकाब किया है। 
    तब इन स्थितियों में इस बात की संभावना बहुत बढ़ जाती है कि मोदी, भाजपा व संघ अपनी बेनकाबी व नाकामी को छुपाने के लिए साम्प्रदायिक हिंसा को और ज्यादा बढ़ाए। 

रसोई गैस सब्सिडी क्यों छोड़ें?

वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)

एक समय था जब संघी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इतनी मिट्टी पलीद नहीं हुई थी। यह लतित मोदी, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, पंकजा मुंडे, व्यापमं घोटाले इत्यादि-इत्यादि के बहुत पहले की बात है तब ‘विकास पुरुष’ मोदी भारतीय मध्यम वर्ग के एक हिस्से की आंखों के तारे थे। 

सुदूर अतीत के इस खुशनुमा समय में मोदी ने अपने चाहने वालों से यानी अमीरों से एक अपील की थी। उन्होंने अपील की थी कि रसोई गैस पर मिलने वाली सब्सिडी को अपनी इच्छा से छोड़ दें। इससे सरकार पर सब्सिडी का बोझ कम होगा और सरकार ‘विकास’ पर ज्यादा खर्च कर सकेगी। मोदी के इस सुर को ताल देते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के तेल-गैस कंपनी इंडियन आयल लिमिटेड ने एक नारा गढ़कर अपने सारे पेट्रोल पंपों पर बड़े-बड़े होर्डिंग पर टांग दिया- ‘चलो किसी गरीब की रसोई में खुशियां जोडें, एल.पी.जी. पर सब्सिडी छोड़ें’।
नरेंद्र मोदी की अपील और उस पर गढ़े गये नारों का परिणाम क्या निकला? कितने लोगों ने रसोई गैस की सब्सिडी छोड़ी?
पिछले महीने खबर आई कि मोदी की अपील पर करीब साढ़े पांच लाख लोगों ने रसोई गैस पर सब्सिडी छोड़ दी। वाकई साढ़े पांच लाख की संख्या गौर करने लायक है। पर इस संख्या का वास्तविक मतलब क्या है यह तब पता चलेगा जब हम इस बात पर ध्यान केंद्रित करेंगे कि देश में रसोई गैस की सब्सिडी पाने वालों की कुल संख्या क्या है? यह संख्या है करीब पंद्रह करोड़। तकनीकी तौर पर ज्यादा सही-सही कहें तो रसोई गैस के कुल करीब पंद्रह करोड़ कनेक्शन में से करीब साढ़े पांच लाख कनेक्शन धारकों ने इस पर मिलने वाली सब्सिडी छोड़ दी। 
पंद्रह करोड़ में साढ़े पांच लाख। यानी करीब दशमलव तीन सात प्रतिशत। दस हजार में केवल सैंतीस! यदि मोदी की अपील पर एक प्रतिशत ने भी गैस सब्सिडी छोड़ी होती तो उनकी संख्या करीब पंद्रह लाख होती। पर यहां तो वास्तविक संख्या उसकी भी एक तिहाई है। 
भाजपा ने दावा किया है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है और उसके करीब आठ करोड़ सदस्य हैं। यह जग जाहिर है कि मोदी के मुरीदों में पूंजीपति वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग की बड़ी संख्या है। सारे चुनावी सर्वेक्षण यह दिखाते हैं कि भाजपा और मोदी को वोट देने वालों में इन वर्गों में प्रतिशत ज्यादा है। 
ऐसे में उम्मीद की जाती थी कि मोदी की अपील पर सारे पूंजीपति वर्ग और उच्चमध्यम वर्गीय रसोई गैस सब्सिडी छोड़ देंगे। यदि ये सारे ऐसा करते तो सब्सिडी छोड़ने वालों की संख्या दो-चार प्रतिशत तो हो ही जाती। देश में कार मालिकों की संख्या करीब तीन प्रतिशत है। ये तो सब्सिडी छोड़ ही सकते थे। भाजपा के मोदीभक्त कार्यकर्ताओं से भी यह उम्मीद की जाती थी कि वे ‘विकास पुरुष’ की खातिर यह बलिदान करेंगे। 
पर ऐसा नहीं हुआ। और होना भी नहीं था। 
पिछले ढाई दशकों में पूंजीवादी विकास का लक्ष्य यही पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग रहा है। उदारीकरण के इस दौर में पूरी बेशर्मी के साथ इसे बार-बार घोषित किया गया है। इसी के चलते सकल घरेलू उत्पाद में 6-8 प्रतिशत की सारी वृद्धि का सारा फायदा इन्हीं की जेब में गया है। 
यह हर तरीके से हुआ है जिसमें एक तरीका सब्सिडी भी है। इन सालों में केवल गरीबों पर सब्सिडी में कटौती की बात होती रही है। अमीरों पर सब्सिडी तो बढ़ती ही गयी है। पिछले सालों में केन्द्र सरकार द्वारा हर साल चार-पांच लाख करोड़ रुपये का कर माफ कर देना इसका एक बड़ा उदाहरण है। 
यह सब इस कदर हुआ है कि इन वर्गों की इसकी आदत पड़ गयी है। वे इसे अपना अधिकार मानते हैं। पूंजीवादी अखबारों में ऐसे लेख धड़ल्ले से छपते हैं जिनमें गरीबों पर सब्सिडी में कटौती तथा अमीरों पर सब्सिडी में बढ़ोत्तरी की मांग एक साथ की गयी होती है। 
ऐसे में अमीर रसोई गैस पर सब्सिडी क्यों छोड़ें? क्या इसी के लिए उन्होंने मोदी को गद्दी पर बैठाया था? क्या इसी के लिए वे अपने आय के आंकड़ों में हेराफेरी करते हैं? क्या उन्होंने धरम-करम का ठेका ले रखा है?
मोदी को अपनी राजनीति चमकानी है तो चमकाएं पर वे अमीरों से बेजा मांग न करें!

व्यापम घोटाले के लपेट में आये पूर्व संघ प्रमुख सुदर्शन

वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)

मध्य प्रदेश के बहुचर्चित व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापम) घोटाले से सम्बन्धित 45 से अधिक लोगों की संदिग्ध परिस्थति में मौत के बाद यह घोटाला चर्चा के केन्द्र में है। 
इस घोटाले की चर्चा मीडिया जगत में तभी जोर पकड़ी जब ‘आज तक’ के एक पत्रकार की इस घटना की छानबीन करने के दौरान ही मौत हो गयी और एक हफ्ते में ही इस घोटाले से सम्बन्धित 4-5 लोगों की मौत हो गयी। 
मध्य प्रदेश की शिवराज चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार इस घोटाले को अंत तक सामान्य बताती रही और सी.बी.आई. जांच से कन्नी काटती रही है। हालांकि सी.बी.आई. भी अंततः गृह मंत्रालय के अधीन होती है। 
बात-बात पर अपने विरोधियों पर सीबीआई जांच बैठाने वाली भाजपाई सरकार इस मामले में कतराती क्यों रही है जबकि विदेशी फंड लेने के आरोप में पर्यावरण व अन्य मुद्दों पर सरकार की आलोचना करने वालों की वह खुफिया एजेंसियों से जांच कराती है और उन्हें ‘देशद्रोही’ घोषित करती रही है। 
हाल ही में गुजरात दंगों के पीडि़तों को सजा दिलाने व दंगे के आरोपियों के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने वाली तीस्ता सीतलवाड पर भाजपा सरकार ने कथित तौर पर फोर्ड फाउंडेशन (अमेरिका) से फंड लेने के मामले में सी.बी.आई. जांच बैठाई है। 
कुछ व्यक्तियों व ‘स्वयंसेवी संस्थाओं’ तक को सी.बी.आई. व खुफिया एजेंसियों के जांच के दायरे में तुरत-फुरत लाने वाली भाजपा सरकार का व्यापम जैसे खूनी घोटाले पर सी.बी.आई. जांच से कतराना संदेह तो प्रकट करता ही है। 
शिवराज चौहान अंत तक इसी तर्क पर अड़े रहे कि वे हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इस घोटाले की जांच विशेष जांच टीम (SIT) से करा रहे हैं और वह अच्छा काम कर रही है। 
गौरतलब है कि शिवराज की यह विशेष जांच टीम (SIT) खुद विवादों के घेरे में थी उसमें खुद दागी व शिवराज के निकटस्थ व विश्वस्त लोगों के शामिल होने की बातें आम थीं। आखिरकार जब एक व्हिसिल ब्लोअर और कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह द्वारा यह मामला सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका के रूप में ले जाया गया और उस पर सुनवाई होने वाली थी तो शिवराज चौहान का अंतःकरण जाग उठा और संदेह को दूर करने व पारदर्शिता की दुहाई देते हुए उन्होंने इस घोटाले की जांच सी.बी.आई. को सौंप दी। शायद उन्हें सुप्रीम कोर्ट के इस मामले में रुख का पूर्वाभास हो गया था। 
यह दीगर बात है कि खुद सुप्रीम कोर्ट द्वारा पिछले कुछ समय पहले सरकारी तोता के विश्लेषण से नवाजी जाने वाली सी.बी.आई. इस मामले में कितना खुलासा कर पायेगी। 
जहां तक शिवराज सिंह चौहान की बैचेनी व सी.बी.आई. जांच से अंत तक कन्नी काटने का सवाल है यह कोई रहस्य नहीं है। यह बात अब आम हो चली है कि इस घोटाले के तार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा के कई नेताओं से जुड़े हैं। 
इस घोटाले के एक आरोपी मिहिर कुमार जो पूर्व संघ प्रमुख के.सुदर्शन का लंबे समय तक सेवादार और स्वयंसेवक रहा था, ने खुद यह बयान दिया है कि पूर्व संघ प्रमुख सुदर्शन ने खाद्य निरीक्षक के बतौर उसकी नौकरी के लिए संघ के एक प्रमुख नेता सुरेश सोनी को निर्देशित किया था जिन्होंने भाजपा सरकार में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उसे व्यापम के तहत नौकरी दिलाई थी। 
मिहिर कुमार ने कहा कि संघ कार्यवाहक सुरेश सोनी की बदौलत विशेष योग्यता में उसने खाद्य निरीक्षक की परीक्षा पास की। उसे निर्देशित किया गया था कि वह उन्हीं प्रश्नों का उत्तर दे जिन्हें वह पूरे आत्मविश्वास से हल कर सकता है बाकी प्रश्नों के लिए रिक्त स्थान छोड़ दे। जाहिर है कि उनके उत्तर अज्ञात शक्तियां भर देंगी। 
मिहिर कुमार के मुताबिक आवदेन पत्र भरने के साथ उसने आवेदन फार्म की एक छाया प्रति (फोटो स्टेट) संघ प्रमुख सुदर्शन को दी थी तथा नौकरी के लिए प्रार्थना की थी। 
आरोप है कि आर.एस.एस. के नेता सुरेश सोनी ने इस सम्बन्ध में भाजपा सरकार के उच्च शिक्षा मंत्री(मध्य प्रदेश) लक्ष्मीकांत वाजपेयी से सम्पर्क साधा जिन्होंने काम हो जाने का आश्वासन दिया। लक्ष्मीकांत वाजपेयी व्यापम घोटाले के एक मुख्य आरोपी हैं और अभी जेल में हैं। 
ऐसे कई और तथ्यों का खुलासा होना अभी और बाकी है। भाजपा तो भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस से कमतर नहीं है यह बात जनता जानती है। अब बारी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की है जिसकी नैतिकता व शुचिता का भांडा फूटना बाकी है। सुदर्शन तो इस दुनिया में नहीं हैं पर उनके शिष्य उनकी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। 
व्यापम घोटाले के आरोपियों व गवाहों की लगातार होती संदिग्ध मौतों ने भी यह साबित कर दिया है कि घोटाले के आरोपी भ्रष्ट होने के साथ कितने बड़े आदमखोर हैं। 

चीन, लखवी और वीटो

वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
भारत 2008 में मुंबई हमलों के पीछे लश्करे तोयबा के एक कमांडर जाकि उर रहमान लखवी का हाथ मानता रहा है। लखवी कुछ समय पूर्व तक पाकिस्तान की जेल में बंद था। पाकिस्तानी सरकार द्वारा लखवी की मुंबई हमलों में संलिप्तता के भारत से प्रमाण मांगे गये थे। भारत द्वारा दिये प्रमाणों को जेल में रखे जाने के लिए पर्याप्त न मानते हुए पाक अदालत ने अप्रैल 2015 को लखवी को जमानत पर रिहा कर दिया। भारत के शासकों ने लखवी की रिहाई का बहुत विरोध किया पर पाकिस्तानी सरकार उसे जेल के सीखचों के पीछे भेजने को तैयार नहीं हुई। 
भारत ने पाक के लखवी को छोड़ देने के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की पारित करने वाली कमेटी में प्रस्ताव 1276 के तहत प्रस्ताव पेश किया। परन्तु इस प्रस्ताव पर स्थायी सदस्य देश चीन ने वीटो कर इसे पारित होने से रोक दिया। चीन का वीटो किये जाने के पीछे मुख्य तर्क यही था कि भारत ने पाकिस्तान को पर्याप्त सबूत मुहैय्या नहीं कराये। 
भारत के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर चीन पूर्व में भी पाकिस्तान का पक्ष लेता रहा है। चीन के इस रुख से भारतीय शासकों का निराश होना तय है पर चीन की बड़ी हैसियत के चलते भारतीय शासक चीन के खिलाफ कुछ खास करने की स्थिति में नहीं हैं। वे चीन को इस मुद्दे पर स्पष्टीकरण देने व अपना पक्ष रखने तक सीमित रहेंगे। 
भारत की अमेरिका-इस्राइल से बढ़ती निकटता को चीनी शासक पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा खुद को घेरे जाने के रूप में लेता रहा है। इस घेरेबंदी से निपटने के एक उपाय के बतौर चीन पाक को अपने पाले में बनाये रखना चाहता है। चीन का यह भी प्रस्ताव रहा है कि दक्षिण एशिया में आतंकवाद व अन्य समस्याओं को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ले जाने के बजाय भारत-पाक-चीन द्वारा परस्पर वार्ता से सुलटाया जाय। चीन इस बात का खतरा देखता रहा है कि भारत-पाक विवाद या अन्य किसी बहाने से पश्चिमी साम्राज्यवादी सेनायें इस इलाके में आ डटें। 
भारतीय शासकों की कार्यवाहियां दिखलाती हैं कि उनकी रुचि आतंकवाद से लड़ने से अधिक इसे अपने राजनैतिक हितों के लिए इस्तेमाल करने की रही है। कश्मीर-उत्तरपूर्व में भारतीय सेना द्वारा की जा रही हिंसा वहां के नवयुवकों को आतंकी तौर-तरीके अपनाने की ओर ठेलती रही है। खुद देश में किसी आतंकी घटना को मुस्लिमों व पाकिस्तान से जोड़ने की प्रवृत्ति मुस्लिम समुदाय के नौजवानों को आतंक की ओर धकेलती है। इस सबसे बढ़कर पूंजीवादी व्यवस्था में सारे प्रयासों के बावजूद बेकारी-मुफलिसी को दूर न कर पाने वाले नवयुवक आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होते रहे हैं। 
भारतीय शासकों की तरह ही पाक शासन में भी लोगों को आतंक की दिशा में ठेला जाता रहा है। भारत में संघ हिन्दू राष्ट्र के नाम पर तो पाक में जेहाद के नाम पर नित नये आतंकी खड़े किये जाते रहे हैं। 
दोनों देशों के शासक अपने देश में आतंकी घटनाओं में निर्दोष लोगों के मारे जाने पर एक दूसरे पर आरोप लगा अंधराष्ट्रवाद फैलाने की पूरी कोशिश करते हैं। कई दफा तो शासक किसी ज्वलंत मुद्दे से ध्यान बंटाने के लिए ऐसी किसी घटना का बेसब्री से इंतजार करते हैं या फिर खुद ही ऐसी घटना को अंजाम दे देते हैं।
ऐसे में आतंकवाद को राजनैतिक समस्या के बतौर देखने के बजाय दोनोेें देशों के शासक इसे कानून-व्यवस्था की समस्या के बतौर देखते हैं। वे कभी ऐसे संगठनों पर प्रतिबंध, व्यक्तियों की गिरफ्तारी पर हल्ला काट खुद को आतंकवाद से लड़ना दिखलाना चाहते हैं। दोनों देश एक दूसरे की जासूसी तक कर एक दूसरे को अस्थिर बनाने में संलग्न रहते हैं। 
लखवी की गिरफ्तारी पर हल्ला मचाने वाले भारतीय शासक देश के भीतर कई विस्फोट कराने वाले संघी कार्यकर्ताओं पर मौन रहते हैं। उन्हें तो देश की सरकार तक में पहुंचा दिया जाता है। स्पष्ट है कि ऐसे कानूनी प्रयासों, अंधराष्ट्रवाद की लहर पैदा करने से आतंकवाद की समस्या बढ़ेगी ही। 
ऐसे में भारत पाक के पूंजीवादी शासक मंझे कलाकारों के अनुरूप संयुक्त राष्ट्र में अभिनय कर रहे हैं। चीन अपने राजनैतिक हितों के मद्देनजर व्यापार तो भारत से बढ़ाता है पर पाकिस्तान को भी शह देना चाहता है। 
आतंकवाद की समस्या पूंजीवाद के खात्मे के बगैर हल नहीं हो सकती। जरूरत है देश की मेहनतकश जनता को शासकों की नौटंकी से अंधराष्ट्रवाद में डूबने से बचाया जाय और पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार किया जाए। 

आपातकाल, मोदी और आडवाणी

वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)

लालकृष्ण आडवाणी इस समय शाब्दिक अर्थों में भाजपा के भीष्म पितामह हो गये हैं। जो शर-शैय्या पर लेटे भीष्म पितामह की तरह जख्मी हालत में मृत्यु शैय्या पर पड़े हुए हैं और पापी अर्जुन व युधिष्ठिर को उपदेश देते रहते हैं। 
लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी इत्यादि को पिछले लोकसभा चुनावों से पहले अपमानित कर किनारे लगाने के बाद मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने उन्हें मार्गदर्शक मंडल के नाम से निर्वासन में भेज दिया। उद्देश्य यह था कि वे वहां पड़े-पड़े हानिरहित उपदेश देते रह सकते हैं। 
पर आडवाणी और जोशी जैसे लोग आसानी से अपना यह निर्वासन स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। इसीलिए वे वहां से भी गाहे-बगाहे नावक के तीर छोड़ते रहते हैं जो देखने में तो छोटे लगते हैं पर घाव गंभीर करते हैं। 
अभी ऐसा ही एक तीर पिछले दिनों आडवाणी ने छोड़ा। आडवाणी ने एक साक्षात्कार में यह कहा कि, आज भी आपातकाल का खतरा मौजूद है। आपातकाल लागू करने वाली शक्तियां मौजूद हैं तथा आज के नेतृत्व के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह इतना परिपक्व है कि वह इस ओर कदम नहीं उठा सकता। 
आडवाणी का इशारा साफ तौर पर नरेंद्र मोदी की ओर था और इसे समझने में राजनीति के बुद्धू से बुद्धू खिलाड़ी को भी परेशानी नहीं हुई। इस पर भाजपा के बाहर और भीतर बावेला मचना ही था और मचा। छोटे मोदी यानी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो इस बात पर आडवाणी का मुंह चूमने के लिए दौड़ ही पड़े थे पर आडवाणी ने उन्हें दुत्कार दिया। 
आडवाणी की बातों में सत्यांश से ज्यादा कुछ था। पर शर-शैय्या पर लेटे इस आधुनिक भीष्म पितामह से उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह जग कल्याण की खातिर बंधुघाती शासकों को कुछ अच्छी बातें बतायेगा। द्वापर युग के उस भीष्म पितामह ने स्वयं ही गद्दी का त्याग कर दिया था पर घोर कलियुग के इस भीष्म पितामह को पूरे छल-बल से गद्दी से वंचित किया गया। और यह किसी दुर्योधन ने नहीं बल्कि अर्जुन ने किया था। ऐसे में आधुनिक भीष्म के इस उपदेश का उद्देश्य जहां एक ओर जन कल्याण था वहीं अपने को अपदस्थ करने वाले को मर्मस्थल पर बेधने को काफी था। 
और कहना न होगा कि तीर निशाने पर लगा था और उसने चोट भी पहुंचाई। ऐसे में दो चार तीर अर्जुन को लड़खड़ाने और पीछे हटने पर मजबूर भी कर सकते हैं। घोर कलियुग के बाकी पांडव उसका स्थान लेनेे को तैयार बैठे हैं। 
अब सत्यांश पर बात करें। यह बात सच है कि आपातकाल की सारी शक्तियां आज भी मौजूद हैं- वैधानिक व भौतिक दोनों। जिन संवैधानिक प्रावधानों के तहत इंदिरा गांधी ने जून, 1975 में देश में आपातकाल लागू किया था वे प्रावधान आज भी मौजूद हैं। संविधान से वे धाराएं हटायी नहीं गयी हैं। जहां तक पूंजीपति वर्ग की बात है वह हमेशा की तरह किसी संकट की अवस्था में लोकतंत्र की बलि देने को तैयार रहता है। लोकतंत्र न तो उसके लिए पवित्र गाय है और न ही अंतरात्मा की आवाज। वह उसके लिए महज एक सुविधाजनक चीज है जो असुविधाजनक होते ही त्याग दी जाती है। 
रही राजनेताओं की बात तो नरेंद्र मोदी का मामला उतना अपरिपक्वता का नहीं है जितना प्रवृत्ति का। संघ का यह भूतपूर्व प्रचारक अपनी जहनियत में ही एक तानाशाह या उससे बढ़कर फासीवादी है। इसने गुजरात का मुख्यमंत्री बनते ही महज चंद सालों में गुजरात में अपने सारे विरोधी भाजपाई नेताओं को किनारे लगा दिया। इतना ही नहीं, उसने वहां संघी कारकूनों की भी ऐसी-तैसी करके उन्हें भीगी बिल्ली बनाकर छोड़ दिया। 
संघ का यह भूतपूर्व प्रचारक जब लोकसभा का चुनाव जीता तो उसने यही कंेद्रीय स्तर पर किया। आडवाणी-जोशी इत्यादि तो पहले ही किनारे लगाये जा चुके थे। अब राजनाथ, सुषमा स्वराज इत्यादि को उनकी औकात बता दी गयी। वे मोदी के दूसरे स्तर के नौकर बनकर रह गये। भाजपा और केन्द्र सरकार में अब मोदी और उनके चेले अमित शाह का एकछत्र राज है। 
मोदी का यह एकछत्र राज इंदिरा गांधी के राज से कम नहीं है। बस यह संघ परिवार की पूरी फासीवादी मशीनरी के साथ मिलकर और भयानक हो उठता है। इसीलिए जब कभी मोदी राज आपातकाल की ओर बढ़ेगा तब यह चालीस साल पहले का आपातकाल नहीं होगा। संघी फासीवाद के साथ मिलकर यह बहुत क्रूर और दमनात्मक होगा। 
यह कहीं ज्यादा बड़ा खतरा है। 
मुजमिल फारुख की रिहाई के लिए कश्मीरी छात्रों का जुझारू संघर्ष
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
मुजमिल फारुख दार कश्मीरी विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के तीसरे सेमेस्टर के छात्र हैं जिन्हें 22 जून को क्लास समाप्त होने के बाद विश्वविद्यालय के गेट से पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस द्वारा मुजमिल की ये गिरफ्तारी 21 जून को विश्वविद्यालय में मनाए जा रहे ‘योग दिवस’ के विरोध में किए गए प्रदर्शन के ठीक एक दिन बाद की गयी। मुजमिल इस विरोध-प्रदर्शन को आयोजित करने वाले नेतृत्वकारी छात्रों में से एक थे। मुजमिल की गिरफ्तारी की सूचना उसके परिवार वालों को भी नहीं दी गयी और न ही गिरफ्तारी का कारण बताया गया। 
अंत में 25 जून को भारी दबाव के चलते पुलिस ने बताया कि मुजमिल को आतंकवादियों से सम्बन्ध होने की जांच के लिए गिरफ्तार किया गया है। पुलिस द्वारा दिया जा रहा यह तर्क कितना खोखला है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गिरफ्तारी के 3 दिन बाद मुजमिल की गिरफ्तारी का कारण बताया जा रहा है। कश्मीरी छात्र व मुजमिल के सहपाठी पुलिस की हकीकत को अच्छी तरह जानते हैं। वे जानते हैं कि किस तरह से हजारों कश्मीरी नौजवानों को गिरफ्तार कर या उनकी हत्या कर देने के बाद उन्हें आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है। कश्मीर का हर एक नौजवान इसी सच्चाई से रूबरू होकर बड़ा हुआ है। इसीलिए उन्होंने पुलिस की झूठी कहानी को मानने से इंकार करते हुए मुजमिल की रिहाई की मांग को लेकर विरोध-प्रदर्शनों को आयोजित किया। गिरफ्तारी के अगले दिन 23 जून को विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रों के प्रदर्शन को नहीं होने दिया। कश्मीरी शासन-प्रशासन निरन्तर ही छात्रों के विरोध को रोकने के लिए चालबाजियां करता रहा। 24 जून को जब मुजमिल की रिहाई की मांग को लेकर उसकी एक सहपाठी छात्रा क.विवि में आमरण-अनशन पर बैठ गयी तो शाम को पुलिस द्वारा थाने से मुजमिल से छात्रा को जबर्दस्ती फोन करवाकर उसका आमरण-अनशन तुड़वा दिया गया। इन सब चालबाजियों से क्रोधित हजारों छात्रों ने अगले दिन 25 जून को वी.सी. खुर्शीद अंदरावी के आॅफिस के बाहर प्रदर्शन कर मुजमिल की गिरफ्तारी का कारण जानना चाहा परन्तु वी.सी. ने छात्रों से मिलने से मना कर दिया। अंत में एस.एस.पी. सजद बुखारी की उपस्थिति में वी.सी. पांच छात्र-छात्राओं के प्रतिनिधि मण्डल से मिलने को तैयार हुए। वार्ता के दौरान जब वी.सी., पुलिस द्वारा बनायी गयी कहानी से छात्रों को संतुष्ट नहीं कर पाए तो एसएसपी बुखारी ने वहां उपस्थित छात्राओं को धमकाते हुए कहा कि ‘अब लाठीचार्ज के लिए तुम ही लोग जिम्मेदार होंगे।’ प्रतिनिधि मण्डल को धक्के मारकर वी.सी. आॅफिस से बाहर निकाल दिया गया तथा पुलिस ने हवाई फायर करते हुए बाहर खड़े हजारों छात्रों पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज शुरू कर दिया। छात्राओं को भी नहीं बख्शा गया। उन्हें भी दौड़ा-दौड़ाकर पुलिस द्वारा पीटा गया। विवि प्रशासन इतने में ही नहीं माना बल्कि शाम को अपने हाॅस्टलों में लौटने पर सभी छात्र-छात्राओं को 26 जून की सुबह 9 बजे तक अनिश्चित काल के लिए हाॅस्टल खाली करने के आदेश प्रशासन द्वारा जारी कर दिया गया। इतना ही नहीं प्रशासन ने छात्रों के न्यायपूर्ण प्रदर्शनों को रोकने के लिए विश्वविद्यालय में 26 व 27 जून को अवकाश घोषित कर दिया। खबर लिखे जाने तक मुजमिल को रिहा नहीं किया गया है तथा छात्रों के विरोध प्रदर्शन अभी भी जारी हैं। 
दरअसल मुजमिल कश्मीर के उन हजारों छात्रों में से हैं, जिन्हें बिना कारण बताए जेलों में डाल दिया गया है। मुजमिल कश्मीर के उन नौजवानों का प्रतिनिधित्व करता है जिनके सपने जाड़ों की डल झील की तरह जमे हुए हैं। जिनका भविष्य भारतीय-पाकिस्तानी हुक्मरानों के हाथों में कैद है। जिनकी आवाज को अफस्पा(AFSPA) के जरिये भारतीय सेना व पुलिस रोज कुचलती रहती है। जिनका सुर्ख लहू हर माह कश्मीर की सड़कों को लाल कर देता है। ऐसे में कश्मीर के छात्रों का ये संघर्ष इसी नाइंसाफी के खिलाफ है। वे मुजमिल के बहाने भारतीय शासकों से पूछ रहे हैं कि कब तक यूं ही कश्मीरी नौजवानों को कैद करके रखा जा सकेगा? कब तक बंदूकों के दम पर उनकी आवाजों को कुचला जायेगा? 
भारतीय शासकों का ये दमनकारी चरित्र केवल कश्मीर ही नहीं पूरे देश में कहर बरपा रहा है। मजदूरों-किसानों-छात्रों-महिलाओं की आवाजों को दबाने के लिए शासक वर्ग अपने दमनचक्र को तेज किए हुए है। इसलिए स्वतः ही कश्मीरी नौजवानों की लड़ाई, भारत के मेहनतकशों की लड़ाई से जुड़ जाती है। मुजमिल फारुख की रिहाई को लेकर कश्मीर सहित पूरे देश के नौजवानों व इंसाफपसंद इंसानों को आगे आना होगा।  

ट्वीट, रिट्वीट और डिलीट
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
आधुनिक संचार माध्यमों, खासकर जिसे सोशल मीडिया कहते हैं, उसकी दुनिया रोचक है। उस दुनिया में विचरण करने वाला खुद को बेताज बादशाह समझता है। क्योंकि उसे लगता है कि वह वहां मनचाहा कर सकता है। कुछ गड़बड़ होने पर वह हाथ झाड़कर या झाडू-पोंछा लगाकर साफ बच निकल सकता है। पर ऐसा होता नहीं और गंदगी अपना निशान छोड़ जाती है। संघियों की भाषा की बात करें तो गंगा नहाने के बाद भी पाप बदन से चिपका रह जाता है।
कुछ ऐसा ही राम माधव के साथ हुआ। राम माधव औपचारिक तौर पर भाजपा के महासचिव हैं पर वे वास्तव में भाजपा में संघ के प्वाइंट मैन हैं यानी वे व्यक्ति जिनके माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भाजपा में अपनी बात पहुंचाता है। खासकर जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गठबंधन के समय वे ज्यादा सुर्खियों में आये। भाजपाई प्रवक्ताओं के अनुसार वे राम माधव से बहुत कुछ सीखते हैं। 
इसी राम माधव ने 21 जून को राजपथ पर मोदी के योगपथ निर्माण के बाद एक ट्वीट किया। यह ट्वीट दो सवालों के रूप में था। पहला सवाल यह था कि उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी योगपथ पर क्यों नहीं नजर आये? दूसरा सवाल यह था कि जनता के कर से चलने वाले राज्यसभा टी.वी. ने क्या योगपथ का बहिष्कार कर रखा है?
दोनों सवाल बहुत मासूम थे पर उनका निहितार्थ मारक। वे दूर तक वार करते थे। 
पर राम माधव की बदकिस्मती से संघी लंपटों के अलावा अन्य लोग भी ट्विटर पर सक्रिय हैं। कुछ ने राज्यसभा टी.वी. के समाचारों का स्क्रीन शाट लगाकर दिखाया कि वहां योगपथ के बहिष्कार जैसा कुछ भी नहीं है। बाकियों ने यह इंगित किया कि जब उपराष्ट्रपति को निमंत्रण नहीं भेजा गया तो वे कैसे आते?
इसके बाद राम माधव ने वही किया जो संघी चरित्र के अनुरूप है। उन्होंने अपना ट्वीट डिलीट कर दिया और साथ ही यह नया ट्वीट किया कि उपराष्ट्रपति बीमार थे इसलिए योगपथ पर नहीं आ सके। उन्होंने पहले ट्वीट के लिए माफी भी मांगी। पर कुछ देर बाद इस ट्वीट को भी डिलीट कर दिया। 
राम माधव द्वारा ट्वीट, रिट्वीट और डिलीट के बाद उपराष्ट्रपति कार्यालय और राज्यसभा टी.वी. की ओर से आधिकारिक बयान आये। जहां राज्यसभा टी.वी. ने योगपथ के समाचार वाले वीडियो यू-ट्यूब पर डाले वहीं उपराष्ट्रपति कार्यालय ने बताया कि प्रोटोकाल के तहत उपराष्ट्रपति को बुलाया नहीं गया। राजपथ पर कार्यक्रम आयुष विभाग की ओर से आयोजित किया गया था जिसमें प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि थे। जिस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि हों वहां राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति नहीं बुलाये जाते। 
भाजपा के महासचिव संघी राम माधव इन चीजों से अंजान हांे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। यदि यह मान भी लिया जाये तो भी उनके कृत्य का निहितार्थ बहुत स्पष्ट था। उनकी मंशा बेहद साफ थी। 
उपराष्ट्रपति मुसलमान हैं और उपराष्ट्रपति होने के नाते वे राज्यसभा के पदेन अध्यक्ष भी हैं। राज्यसभा टी.वी. इसी सदन के द्वारा चलाया जाता है। यह आज एकमात्र टी.वी. है जो मोदी के गुणगान से दूर है और उदारीकरण की नीतियों पर कुछ सवाल उठाता है। यही वे बातें हैं जो एक संघी को खटकती हैं। 
संघियों ने योग को जिस तरह अपनी हिन्दूवादी भावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया वह तब और ज्यादा सफल हो सकता है जब यह दिखाया जाय कि मुसलमान इसके खिलाफ हैं, वे मुसलमान भी जो आधिकारिक पदों पर हैं। और यदि यह बताया जाये कि वे अपने आधिकारिक पदों का इस्तेमाल करते हुए आधिकारिक समाचार माध्यमों को भी अपने हिसाब से चला रहे हैं तो यह और भी प्रभावी हो जाता है।
राम माधव ने अपने ट्वीट में इसे भी हासिल करने की कोशिश की थी। वे मुस्लिम उपराष्ट्रपति और असुविधाजनक राज्यसभा टी.वी. को एक ही वार से धराशाई करना चाहते थे। वे लगभग कामयाब ही हो गये थे पर सफेद झूठ होने के कारण उनका दुष्प्रचार ज्यादा देर तक नहीं चल सका।   
राम माधव ने इस बार तो थूककर चाट लिया पर यह इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि आगे भी वे ऐसा नहीं करेंगे। बल्कि वे ऐसा ही करेंगे!

भारत भुखमरी में दुनिया में सबसे अव्वल
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    भारत की मोदी सरकार जब अपने एक वर्ष पूरा होने पर 7.5 प्रतिशत आर्थिक विकास दर का दंभ भर रही थी और दावा कर रही थी कि भारत दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्था है उसी समय विश्व खाद्य व कृषि संगठन द्वारा दुनिया भर में खाद्य असुरक्षा पर रिपोर्ट ने जो तथ्य प्रस्तुत करे उससे यह साबित होता है कि विकास दर के मामले में भारत न.1 हो न हो, भूखे पेट सोने वालोें के मामले में भारत जरूर न.1 है। 
    रिपोर्ट के अनुसार आज भारत में पूरे 19 करोड़ 60 लाख लोग भूख या अपर्याप्त पोषण के चंगुल में हैं। इस रिपोर्ट में भूखे की श्रेणी में ऐसे लोगों को शामिल किया गया है जो इतना भोजन भी हासिल नहीं कर पाते जो एक सक्रिय व स्वस्थ जीवन जीने के लिए पर्याप्त हो। भूखों की यह आबादी भारत में सबसे ज्यादा है। प्रतिशत के लिहाज से भारत की 15.2 प्रतिशत आबादी भुखमरी का शिकार है यानी कि हर 15 में दो लोग भूखे पेट सो रहे हैं। 
    पूरी दुनिया में भूखों की तादाद जनसंख्या का 11 प्रतिशत है। विकासशील देशों में यह जनसंख्या का 12.9 प्रतिशत है। इस तरह इस मामले में भारत की स्थिति विकासशील देशों के औसत से नीचे है। दुनिया का हर चौथा भूखा इंसान भारत में है।                
    भारत आज विकास दर में चीन को पछाड़ना चाहता है पर भुखमरी के मोर्चे पर चीन में 9.3 प्रतिशत आबादी भुखमरी का शिकार है वहीं भारत में 15.2 प्रतिशत। भुखमरी के ये आंकड़े सरकार के ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे पर करारा तमाचा है। आंकड़ों के उलट वास्तविकता कहीं ज्यादा गंभीर है। जब इस तरह के तथ्य सामने आते हैं कि देश की 70-80 प्रतिशत आबादी 2 डालर प्रतिदिन से नीचे निवास करती है। 
    मोदी सरकार का मौजूदा कारपोरेट परस्त विकास माडल इस भुखमरी को और बढ़ाने का ही इंतजाम कर रहा है। सरकार जहां एक ओर खाद्य सब्सिडी, पेट्रोलियम सब्सिडी को घटाने पर उतारू है, वहीं मनरेगा व सामाजिक मदों में भारी कटौती कर रही है। ऐसे में भुखमरी का बढ़ना लाजिमी है। पिछले दो दशक से जारी आर्थिक नीतियों ने रोजगार रहित विकास पैदा किया है यानी विकास का सारा लाभ चंद कारपोरेट घरानों-पूंजीपति वर्ग के हाथों में सिमट गया है। आबादी के निचले हिस्सों के हाथ विकास के नाम पर कुछ नहीं आया है। 
    ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ से विकास के अमीरों से रिसते हुए नीचे गरीबों तक पहुंचने की बात पिछले दो दशकों से फर्जी साबित हो चुकी है। आज पूंजीपति सारा आर्थिक विकास न केवल हड़प जा रहे हैं बल्कि सरकार गरीब मजदूरों के अधिकारों में कटौती कर उनकी थाली से भी रोटी छीन पूंजीपतियों की तिजोरी में पहुंचा रही है। 
    यह सब इस बड़े पैमाने पर हो रहा है कि एक देश के भीतर ही दो देश बन गये हैं। पहला, 15-20 करोड़ का अमीर देश पिज्जा-बर्गर खाता है, कारों-हवाई जहाजों में घूमता है, ए.सी. लगे मकानों में सोता है, स्मार्ट सिटी इसी के लिए बसाये जा रहे हैं, फास्ट स्पीड ट्रेन इसकी ख्वाहिश है। दूसरा, भारत 90 करोड़ आबादी का भूखा गरीब भारत है जो रोज 12-12 घंटे काम करता है पर दिन के अंत में बमुश्किल भरपेट रोटी जुटा पाता है, झुग्गियों में रहता है, यह गांवों में आत्महत्या करता है। पहला भारत दूसरे भारत की मेहनत को लूटकर जिंदा है। मोदी व अन्य पूंजीवादी पार्टियां पहले वाले भारत के लिए काम करती हैं। दूसरा भारत तो उसके लिए महज वोट बैंक है, जिसे चुनावों के वक्त बरगलाया जाता है। 
    पहले भारत व दूसरे भारत के बीच बढ़ती खाई समाज को उस दिशा में ले जा रही है जहां दूसरा भारत पहले भारत की अय्याशी से तंग आ किसी दिन हमला बोल देगा। 

सूट-बूट और सूटकेस

वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    संघी हमेशा से ही जुमले गढ़ने में माहिर रहे हैं। इसीलिए जब राहुल गांधी ने अपने नये राजनीतिक अवतार में मोदी सरकार पर सूट-बूट की सरकार होने का आरोप लगाया तो संघियों ने तुरंत ही यह जुमला गढ़ा कि यह सूटकेस की सरकार नहीं है। बाद में स्वयं मोदी ने अपने एक भाषण में यह बात दोहराई कि उनकी सरकार सूटकेस की सरकार नहीं है। 
    जैसा कि अंग्रेजी का मुहावरा है, थोड़ा देर से आने वालों के लिए (फार लेटकमर्स) सूट-बूट और सूटकेस का थोड़ा खुलासा करना अच्छा रहेगा। सूट-बूट का आशय नरेंद्र मोदी के उस दस लखिया सूट से है जो उन्होंने बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान पहना था। कहा जाता है कि वह सूट उन्हें किसी व्यवसायी मित्र ने भेंट में दिया था। दाम के अलावा उस सूट की खासियत यह थी कि उस पर ऊपर से नीचे की महीन धारी में नरेंद्र मोदी का नाम लिखा हुआ था। 
    जहां तक सूटकेस का सवाल है, मामला थोड़ा पुराना है। 1990 के दशक के शुरूआती दौर में एक बड़ा प्रतिभूति घोटाला हुआ था। उसका एक मुख्य पात्र हर्षद मेहता नामक शेयर बाजार का दलाल था। घोटाले में लपेटे जाने के बाद उसने दावा किया कि उसने नरसिंहराव की कांग्रेस सरकार को बचाने के लिए कुछ सांसदों को करोड़ों रुपये दिये थे और वे रुपये उसने सूटकेस से पहुंचाऐ थे। कांग्रेसियों द्वारा यह सवाल उठाये जाने पर कि एक करोड़ रुपये तक सूटकेस में नहीं आ सकते उसने एक पत्रकार वार्ता कर प्रदर्शित किया था कि कैसे एक करोड़ रुपये एक सूटकेस में समा सकते हैं। (तब 500 और 1000 रुपये के नोट का चलन नहीं था)
    अब एक ओर राहुल गांधी यह दावा कर रहे हैं कि मोदी सरकार ठाठ-बाठ से रहने वाले पूंजीपतियों और मोदी सरीखे उनके मित्रों की सरकार है। यह सूट-बूट की सरकार है। वैसे भारत जैसे गरीब देश में यह लम्बे समय से मान्यता रही है कि सूट-बूट का मतलब सम्पन्न और ठाठ-बाठ है। इसके जवाब में संघी कह रहे हैं कि जो हो, कम से कम यह सूटकेस यानी घोटालों की सरकार तो नहीं है। वे यह मना नहीं कर रहे हैं कि उनकी सरकार सूट-बूट की सरकार नहीं है। वे बस यह कह रहे हैं कि वह घोटालों की सरकार नहीं है। यह वाकई बहुत रोचक है कि देश की दो शासक पूंजीवादी पार्टियां जनता से कहें कि वह सूट-बूट की और सूटकेस में से किसी एक को चुन लें। कम से कम इस समय की सत्ताधारी भाजपा तो यही कह रही है। सूट-बूट की सरकार होने का खंडन करने के बदले वह यह कह रही है कि कम से कम वह सूटकेस की सरकार तो नहीं है। 
    ज्यादा घृणित बात यह है कि मसले पर थोड़ा सा गौर फरमाते ही पता चलेगा कि सूट-बूट और सूटकेस उतने जुदा-जुदा नहीं हैं और दोनों का चोली-दामन का साथ है। 
    पहले पप्पू राहुल को लें। यह भांपकर कि मोदी सरकार पूरी बेशर्मी से सूट-बूट वालों की सेवा में हाजिर है, उन्होंने तय किया कि वे लंगोट के साथ होंगे। ऐसा दिखाने के लिए वे गांव-गांव धूल भी फांक रहे हैं, वह भी भीषण गर्मी में। पर उनकी पार्टी तो आजादी के पहले से ही सूट-बूट वालों की सरकार रही है। टाटा-बिडला के जमाने से अब अंबानी तक सबकी उसने निष्ठापूर्वक सेवा की है। स्वयं राहुल गांधी का भंडाफोड़ तो उनकी पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने किया था कि नियामगिरी की पहाडि़यों में आदिवासियों से एक बात कहने वाले राहुल गांधी पूंजीपतियों की महफिल में उसकी ठीक उलटी बात कहते थे। 
    अब फेंकू की बात करें तो उसने तो सारी हदें तोड़ दी हैं। उसकी कृपा से अदानी का उत्थान अंबानी से भी तेज हुआ है। अब स्वयं मोदी ने अपने प्रधानमंत्री पद का इस्तेमाल करते हुए अदानी को 6 हजार करोड़ रुपये का कर्ज भारतीय स्टेट बैंक से दिलवा दिया। मोदी और उसकी सरकार ने तो काले-सफेद की सीमा ही समाप्त कर दी है। उसके राज में यह तय नहीं किया जा सकता कि क्या घोटाला है और क्या नहीं। जैसे भाजपा में तय नहीं किया जा सकता कि कौन अपराधी है और कौन नहीं। जब ऐसी सीमाएं समाप्त हो जाती हैं तो समस्या अपने आप खत्म हो जाती है। 
    लेकिन यही वह समय भी होता है जब ज्यादा बड़ी समस्याएं पैदा हों और जिनका केवल और केवल एक समाधान होता है- इंकलाब!

डिग्रियां- फर्जी या ‘असली’

वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    अपने प्यारे वतन में पूंजीवादी नेता एक से एक घोटालों में फंसते रहते हैं पर घोटालों का विरोध कर बनी और दिल्ली प्रदेश में सत्तारूढ़ हुई आम आदमी पार्टी के नेतागण फर्जी डिग्री के आरोप में गिरफ्तार किये जायेंगे ऐसा सोचना भी कभी इस पार्टी के सिर आंखों पर बिठाने वाले मध्यम वर्ग के लिए हिमाकत की बात होती। पर समय बदलता और समय के साथ रंगरोगन भी झड़ते-उतरते ही हैं। और तब असली बदसूरत चेहरे को छिपाया नहीं जा सकता। 
    दिल्ली प्रदेश के कानून मंत्री जितेन्द्र तोमर को दिल्ली पुलिस ने 9 जून को फर्जी डिग्री के आरोप में गिरफ्तार किया और अदालत ने उन्हें चार दिन की पुलिस रिमांड पर भेज दिया। तोमर पर दिल्ली बार काउंसिल ने आरोप लगाया है कि उनकी स्नातक और कानून की डिग्री दोनों फर्जी हैं। स्वभावतः ही तोमर अपनी डिग्रियों को असली बता रहे हैं और उनकी पार्टी उनके साथ दृढ़तापूर्वक खड़ी है। कभी अन्य पूंजीवादी पार्टियों के नेताओं पर बात-बात पर आरोप मढ़कर उनका इस्तीफा मांगने वाले आम आदमी पार्टी के नेता आज दूसरे पाले में खड़े हैं और जोर-शोर से कह रहे हैं कि केवल आरोप लगा देने से कोई दोषी नहीं हो जाता। तोमर ही नहीं, आम आदमी पार्टी के एक-दो और नेताओं पर फर्जी डिग्री रखने का आरोप है। 
    दरअसल तोमर और इस तरह के नेता सही हैं। ऐसे नेता आम आदमी पार्टी ही नहीं, अन्य पूंजीवादी पार्टियों में भी हैं। फर्क केवल यह है कि कि वे निचले स्तर पर हैं और उनको कोई पूछता नहीं है। इसीलिए उनकी गहराई से छानबीन नहीं होती। 
    फर्ज कीजिए कि जितेन्द्र तोमर आम आदमी पार्टी के विधायक बनकर मंत्री नहीं बनते तो क्या होता? वे आराम से अपनी वकालत करते रहते। कोई उनकी डिग्री के बारे में सवाल नहीं करता। ऊपर से नीचे तक की अदालतों में ऐसे हजारों लोग होंगे। 
    ऐसे लोग केवल कानून के क्षेत्र में ही नहीं है। ऐसे लोग अन्य क्षेत्रों में भी हैं जिनकी डिग्रियां संदिग्ध हैं और जिनके असली और नकली होने के बारे में तय करने में मुश्किल होने लगता है। 
    असल में इस तरह की डिग्रियों का एक लम्बा-चौड़ा कारोबार इस समय देश में फल-फूल रहा है। बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में यह कारोबार दसवीं और बारहवीं कक्षा से ही शुरू हो जाता है। एक निश्चित रकम के बदले छात्र का प्रवेश हो जाता है, वह परीक्षा में बैठ जाता है और पास हो जाता है। कई बार तो उसे मुंह दिखाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। 
    उपरोक्त प्रक्रिया दोनों तरह की हो सकती है। असली और फर्जी भी। असली में कागज-पत्र सब दुरुस्त रहते हैं और उसके आधार पर फर्जीबाड़े को साबित नहीं किया जा सकता। फर्जी में मामला एक कदम और आगे चला जाता है और कागज-पत्र में भी धोखाधड़ी कर दी जाती है। यह धोखाधड़ी किसी भी स्तर पर की हो सकती है। 
    जब जितेन्द्र तोमर अपनी डिग्री के असली होने का दावा कर रहे हैं तो इस बात की पूरी संभावना है कि वे पहले श्रेणी में आते हों। ऐसे में वे आश्वस्त हो सकते हैं कि वे अंततः बेदाग छूट जायेंगे। पर ऐसा नहीं भी हो सकता। सारे कागज-पत्र असली तैयार करना आसान काम नहीं होता और कहीं न कहीं चोर मात खा ही जाता है। 
    जितेन्द्र तोमर का मामला जितना व्यक्तिगत भ्रष्टाचार से जुड़ा है उतना ही देश की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की हालत से भी। घृणित बात यह है कि पहले पर इतना शोर-शराबा हो रहा है पर दूसरे पर कोई बात नहीं हो रही है। 

एक खिलाड़ी की आत्महत्या से उपजे सवाल

वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    पिछली 7 मई को केरल में भारतीय खेल प्राधिकरण द्वारा चलाये जा रहे ट्रेनिंग सेण्टर में 16 वर्षीया लड़की अपर्णा रामबर्द्धन ने आत्महत्या कर ली। वह पानी के खेलों की ट्रेनिंग ले रही थी। उसने 3 अन्य लड़कियों के साथ जहरीले फल खाकर आत्महत्या का प्रयास किया। हालांकि अन्य 3 खिलाड़ी लड़कियों को बचा लिया गया पर अपर्णा को नहीं बचाया जा सका। इन चारों लड़कियों के घरवालों ने आरोप लगाया है कि इन लड़कियों का वरिष्ठ खिलाडि़यों और कोच द्वारा लम्बे समय से उत्पीड़न किया जा रहा था यहां तक कि इन्हें बर्बरता के साथ पीटा भी जाता था। 
    भारतीय खेल प्राधिकरण द्वारा चलाये जा रहे ट्रेनिंग सेण्टरों में महिला खिलाडि़यों के उत्पीड़पन-यौन शोषण की यह पहली घटना नहीं है। इससे पूर्व भी महिला खिलाडि़यों द्वारा कोचों और खेल अधिकारियों पर इस तरह के आरोप लगते रहे हैं परन्तु इस दिशा में कोई सार्थक कार्यवाही नहीं होती रही है। आरोपी कोच-अधिकारी अपनी राजनैतिक पहुंच का इस्तेमाल करते हुए बचते रहे हैं। 
    भारत में क्रिकेट को छोड़ बाकी सभी खेल पक्षपात का शिकार होते रहे हैं। क्रिकेट के उलट बाकी खेलों में फण्ड की भारी कमी विद्यमान रहती है। उनके ट्रेनिंग सेण्टर खस्ता हालत में चलाये जाते रहे हैं। वहां खिलाडि़यों को कभी भी उचित प्रशिक्षण व अन्य सुविधायें हासिल नहीं होती हैं। इसके साथ ही विभिन्न खेलों की सेलेक्शन कमेटी राजनैतिक हस्तक्षेप से नियुक्त की जाती रही है। ढेरों दफा तो पूंजीवादी पार्टियों के नेता स्वयं कमेटियों के शीर्ष पर काबिज रहते रहे हैं। ये कमेटियां महिला खिलाडि़यों का शोषण व उत्पीड़न करना अपना अधिकार समझती रही हैं। ऐसे उत्पीड़नों की अधिकतर घटनायें तो महिला खिलाड़ी अपना कैरियर बर्बाद होने के भय से कभी सामने ही नहीं लाती हैं। कभी कभार ही जब उनके उत्पीड़न का गोरखधंधा इस तरह की घटनाओं के जरिये बेपर्द होता है तो शीर्ष पर काबिज लोग तरह-तरह की लीपापोती कर सच्चाई को ढंकने का प्रयास करते हैं। यहां तक कि ऐसे मामलों में महिला खिलाडि़यों को लांछित करने के भी प्रयास होते रहे हैं। 
    ऐसी दशाओं में अपने घरों से दूर प्रशिक्षण ले रही महिला खिलाडि़यों की मनोदशा का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। उनके सामने चुपचाप सहते जाने या आत्मघाती कदम उठाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता। इस सबसे खेलों में उनका प्रदर्शन प्रभावित होना स्वाभाविक है। इस तरह भारतीय खेल प्राधिकरण सैकड़ों युवाओं का भविष्य बर्बाद करने के केन्द्र बने हुए हैं। 
    अपर्णा की मौत दर्शाती है कि खेल के नाम पर ट्रेनिंग सेण्टरों में भीतर ही भीतर बहुत कुछ सड़ रहा है। समाज में हावी पुरुष प्रधान मानसिकता महिलाओं को यौन वस्तु की तरह देखने का दृष्टिकोण घर से बाहर निकलने वाली किसी भी महिला का जीवन दुष्कर बना रही है। सरकारी विभागों, फिल्म उद्योगों से लेकर खेलों तक में ढेरों प्रतिभावान महिलायें हर रोज अपना यौन शोषण कराने को मजबूर हैं। कैरियर बर्बाद होने का भय उन्हें इन घटनाओं को उजागर करने या इनके विरोध में खड़े होने से रोकता रहा है। 
    इस तरह की घटनाओं पर समाज का माहौल भी पीडि़ता के साथ खड़े होने के बजाय उसे लांछित करने वाला ही है। ऐसे में एक खिलाड़ी की आत्महत्या सैकड़ों नई प्रतिभाओं के कदम खेल की दिशा में आगे बढ़ने से रोक देती हैं। 
    खेलों में व्याप्त इस सड़े-गले माहौल और पुरुष प्रधान मानसिकता के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी है। इसके साथ ही सभी खेलों पर समान ध्यान देने की भी आवश्यकता है। पूंजीवादी व्यवस्था में खेल मुनाफा कमाने का जरिया बन जाते हैं। ऐसे में कुछ खेलों में खिलाडि़यों पर पैसों की बरसात होती है तो कुछ खेलों में खिलाड़ी कंगाली में जीने को बाध्य होते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था को चुनौती दिये बिना खेलों का समुचित विकास व खिलाडि़यों को बेहतर जीवन हासिल नहीं हो सकता। पूंजीवाद में बाकी संस्थाओं की तरह खेल भी सड़न के अड्डे, मुनाफे का जरिया, खिलाडि़यों के शोषण के केन्द्र बनने को अभिशप्त हैं। 

एक चाहत, एक यथार्थ

वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा के समय भारत के कई टीवी समाचार चैनलों ने चीन की बुलेट ट्रेन को दिखाया। इनके इस कार्यक्रम में इतनी समानता थी कि लगता था कि ये या तो भारत सरकार द्वारा प्रायोजित हैं या फिर चीन सरकार द्वारा- चीन की बुलेट ट्रेन का प्रचार करने के लिए। भारत की मोदी सरकार भारत में बुलेट ट्रेन चलाने की इच्छा रखती है और इसके लिए वह चीन की सरकार से समझौता कर तकनालाजी और पूंजी हासिल कर सकती है। 
    पर इसके साथ यह भी सच है कि टीवी चैनलों के मध्यमवर्गीय दर्शकों के लिए इस बुलेट ट्रेन की अपनी अहमियत है। यह बुलेट ट्रेन एक ओर जहां उनकी उपभोक्तावादी प्रवृत्तियों को तुष्ट करती है वहीं उसका होना उनके लिए राष्ट्रीय गौरव की बात भी है। बुलेट ट्रेन अपने होने मात्र से एक खास तकनीकी विकास को हासिल करने की घोषणा कर देती है। अंतरिक्ष में उपग्रह, मिसाइल तथा परमाणु बम की तरह बुलेट ट्रेन भी एक खास तकनीकी मुकाम है जिसे हासिल करना राष्ट्रीय गर्व की बात हो जाती है। 
    यहीं से भारत के पूंजीवादी विकास का खास चरित्र उजागर होता है। बुलेट ट्रेन की यात्रा अपनी गति और खर्च दोनों में हवाई जहाज से प्रतिद्वन्द्विता करती है। पर विडम्बना यह है कि देश की पिंचानबे प्रतिशत आबादी हवाई जहाज को केवल आसमान में उड़ते देखकर उसे निहार सकती है, उसमें यात्रा नहीं कर सकती। इससे भी बड़ी बात यह है कि देश की एक बड़ी आबादी ने सामान्य ट्रेन की भी यात्रा नहीं की है तथा दो तिहाई आबादी देहात की टूटी-फूटी कच्ची-पक्की सड़कों पर उस रफ्तार से चलती है जो बाबा आदम के जमाने की रफ्तार की बामुश्किल दो या तीन-गुनी है। वैस पूंजीवादी विकास का तर्क ऐसा है कि चमचमाते बड़े शहरों की आबादी भी औसतन इसी गति से यात्रा करने को अभिशप्त है। आज बड़े शहरों में ट्रेफिक की रफ्तार दस-बारह किमी प्रति घंटा से ज्यादा नहीं है। 
    ऐसे में तीन सौ किमी. प्रति घंटा की रफ्तार लुभाती है। और जो इसका खर्च उठा सकते हैं उनकी हसरत है कि यह रफ्तार उन्हें हासिल हो। 
    मसला केवल रफ्तार का नहीं है। जैसे जब टीवी में पंखे या एसी का विज्ञापन दिखाया जाता है तो उसमें मसला केवल हवा या ठंडे-गरम का नहीं होता। मसला इससे ज्यादा उस खास जीवन शैली का होता है जिसमें उस पंखे या ए सी को प्रस्तुत किया जाता है तथा जो दृश्य में उपस्थित चिकने-चुपड़े लोगों तथा अन्य खूबसूरत उपभोक्ता सामानों में अभिव्यक्त होता है। उसके बिना पंखा या एसी अपने आप प्रभाव नहीं डाल सकता। उस खास सेटिंग में पंखे या ए सी का दिखाया जाना जहां एक ओर यह संकेत करता है कि ये उपभोक्ता सामान एक न्यूनतम निश्चित जीवन शैली की अपेक्षा करते हैं तथा दूसरी ओर और भी ऊंची जीवन शैली की आकांक्षा को प्रेरित करते हैं। एसी गांव की किसी झोपड़ी में नहीं लग सकता न ही पंखा उस गांव में कोई मायने रखता है जहां बिजली आती ही न हो। 
    जब टीवी चैनलों ने चीन की बुलेट ट्रेन को दिखाया तो उन्होंने शंघाई और ईयू शहर के बीच चलने वाली एक खास बुलेट ट्रेन को चुना। इसकी वजह थी। ईयू शहर में बना इस बुलेट ट्रेन का स्टेशन विशाल और अति आधुनिक है। चैनलों ने इस बात को बार-बार रेखांकित किया कि यह स्टेशन किसी बड़े एअर पोर्ट की तरह विशाल और आधुनिक है। वस्तुतः उन्होंने बुलेट ट्रेन पर उतना केन्द्रित नहीं किया जितना इस स्टेशन पर। बुलेट ट्रेन के भीतर केवल रफ्तार को छोड़कर कोई खास ग्लैमर नहीं था पर स्टेशन पर यह चारों ओर अभिव्यक्त हो रहा था। यदि भारत जैसे गरीब देश में अति खर्चीली और महंगी बुलेट ट्रेन की स्वीकार्यता बनानी थी तो इसके लिए स्टेशन का ग्लैमर सबसे बड़ा विज्ञापन था। 
    देश का पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग बुलेट ट्रेन चाहता है। पहला पूंजी निवेश के लिए तो दूसरा उपरोक्त कारणांे के लिए। पर देश के पूंजीवादी विकास के अंतरविरोध इसके सामने आ खड़े होते हैं। जहां देश की अधिकांश आबादी छुक-छुक करती छकड़ा पैसेन्जर ट्रेनों में यात्रा करती हो या फिर एक्सप्रेस ट्रेनों के थोड़े से जनरल डिब्बों में मवेशियों की तरह किसी प्रकार ठुंस कर यात्रा करती हो वहां इस तरह की बुलेट ट्रेन का विचार ही अश्लील हो जाता है। यह भूखे मरते लोगों के सामने जश्न मनाने जैसा हो जाता है। हालांकि पूंजीपति वर्ग हमेशा से ऐसे जश्न मनाता रहा है पर वक्त के साथ इस तरह का जश्न उसकी व्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक होता गया है। 
    वक्त के साथ भारत का पूंजीपति वर्ग भी इसका एहसास करेगा। 

छत्रधर महतो को उम्र कैद

वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    लालगढ़ के बहुप्रचारित आंदोलन के नेता छत्रधर महतो और उनके 5 अन्य साथियों को 6 वर्ष मुकदमा चलाने के पश्चात भारतीय अदालत ने उम्रकैद की सजा सुना दी। ‘पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी’ के प्रवक्ता महतो लालगढ़ की आदिवासी जनता की सशक्त आवाज बन कर उभरे थे। सरकार लालगढ़ के इलाके की भूमि वहां की आदिवासी व किसान जनता से छीनना चाहती थी ताकि उसे कारपोरेट पूंजीपतियों पर लुटाया जा सके। तत्कालीन मुख्यमंत्री माकपा के बुद्धदेव भट्टाचार्या के काफिले पर हमले के बाद पुलिस व माकपा की गुण्डावाहिनी के संगठित अत्याचार के प्रतिरोध में लालगढ़ की जनता ने अपना सशक्त संगठन खड़ा करते हुए सरकार का प्रतिरोध शुरू कर दिया था। आज प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तब माकपा के खिलाफ खड़े इन आंदोलन का अपने राजनैतिक स्वार्थों के चलते समर्थन किया था। 
    इस संघर्ष का माओवादी पार्टी व अन्य क्रांतिकारी संगठनों द्वारा समर्थन किया गया। ‘पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी’ के नेतृत्व में मेहनतकश जनता ने पुलिस बलों को अपने इलाके से खदेड़ दिया। अंत में सरकार ने धोखे से एक इंटरव्यू के बहाने से प्रेस वालों की शक्ल में पुलिस को भेज छत्रधर महतो को गिरफ्तार किया। 2009 में उनकी गिरफ्तारी से अब तक उन पर 35 से अधिक केस लाद दिये गये उन पर व उनके साथियों पर काले कानून गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून (UAPA) लादा गया व इसके तहत उम्र कैद की सजा सुना दी गयी। 
    छत्रधर महतो व उनके साथियों को सजा बंगाल में इस कानून के तहत पहली सजा है। लालगढ़ आंदोलन के साथ खड़ी ममता बनर्जी ने सत्ता में आने के बाद पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी के लोगों से मुकदमा हटाने के बजाय उनके और अधिक दमन पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और व्यवहार में यह साबित कर दिया कि वे माकपा से कम नहीं अधिक ही जनविरोधी हैं। 
    जनांदोलनों के दमन, उसके नेताओं का फर्जी मुकदमों में फंसाना, उनसे लाठी गोली से निपटना आज सरकारों की आम नीति बन चुका है। मजदूरों के ट्रेड यूनियन संघर्षों, किसानों के भूमि अधिग्रहण विरोधी संघर्षों, बिजली-पानी के संघर्षों, आदिवासियों के संघर्षों सबसे सरकार क्रूर दमन के साथ निपट रही है। 
    अधिकाधिक दमनात्मक होते जाना, अपने कानूनों को भी धता बता लोगों की गिरफ्तारी करना सरकार व सत्ता की मजबूती नहीं कमजोरी का प्रतीक है। यह दिखलाता है कि सरकार जनता से भयभीत है और उसकी एक भी आवाज को सुनने को तैयार नहीं है यह सब कुछ समाज को उस दिशा में ले जा रहा है जहां एक दिन जनता भी सरकार से डरना बंद कर देगी। वह दिन पूंजीवादी सत्ता के लिए कयामत का दिन होगा। 
    महतो को 6 साल से जेल में डाले रखना और जयललिता से लेकर सलमान खान को चंद मिनटों में जमानत मिलना, व्यवस्था के वर्गीय चरित्र को और न्याय के वर्गीय चरित्र को उजागर करता है। यह दिखलाता है कि पूंजीवादी व्यवस्था में न्याय की देवी न केवल अंधी होती है बल्कि पूंजीपति वर्ग के पक्ष में और मेहनतकश वर्गाें के खिलाफ खड़ी होती है। 
    छत्रधर महतो को सजा का सभी जनवादी-क्रांतिकारी ताकतों व न्यायप्रिय जनता द्वारा पुरजोर विरोध किया जाना जरूरी है।  

सलमान खान, कानून और समानता

वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    सलमान खान भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर हीरो हैं। इसके साथ ही वे इफरात दौलत के भी मालिक हैं। 13 वर्ष पूर्व उन्होंने बम्बई में नशे की हालत में कार चलाते हुए फुटपाथ पर सोते कुछ गरीब मेहनतकशों को कुचल दिया। 13 वर्ष तक चले मुकदमे के बाद अभी कुछ दिन पहले निचली अदालत ने सलमान को दोषी करार देते हुए 5 वर्ष की सजा सुना दी। जब सजा सुनाई गयी तो पूंजीवादी मीडिया ने जहां इस बात का अफसोस जताया कि एक बेहद भले आदमी को सजा दी गयी। अखबारों-चैनलों पर सलमान के भलाई के कामों का विस्तार सेे वर्णन किया गया साथ ही इस बात का रोना रोया गया कि फिल्म निर्माताओं के कितने करोड़ रुपये फंस गये। जहां पूंजीवादी मीडिया का अधिकांश हिस्सा इस सजा का अफसोस मना रहा था कि सलमान को सजा हो गयी। वहीं एक छोटा हिस्सा ऐसा भी था। जो इस सजा के जरिये भारतीय कानून की तारीफों के पुल बांध रहा था कि कानून सबके लिए समान है चाहे कोई कितना ही अमीर क्यों न हो कानून से ऊपर नहीं हो सकता। 
    पर समानता का यह राग थोड़ा तो सजा वाले दिन और बचा खुचा दो दिन बाद ध्वस्त हो गया। सजा के दो घण्टे के भीतर सलमान को 2 दिन की जमानत मिल गयी और दो दिन बाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को निलम्बित कर दिया। भारतीय न्याय प्रणाली ने यह व्यवहारतः दिखला दिया कि कानून केवल दिखावटी रूप में ही अमीरों-गरीबों के साथ समानता प्रदर्शित करता है। वास्तव में वह अमीरों के साथ एक तरह का तो गरीबों के साथ दूसरे तरीके का सलूक करता है कि कानून की ताकत सबसे बड़ी नहीं है बल्कि पूंजीवाद में पूंजी की ताकत ही सबसे बड़ी है। पूंजी के आगे कानून दुम दबाये खड़ा रहता है। सलमान के पास चूंकि पूंजी की ताकत है इसलिए कानून उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। 
    सलमान पर पूंजी के साथ-साथ पहुंच की ताकत भी है। नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में वे विशेष तौर पर आमंत्रित थे। नरेन्द्र मोदी की तारीफें कर वे मोदी के जिगरी बन चुके हैं ऐसे में कानून भला उनका क्या बिगाड़ सकता है। 
    पूंजीवादी मीडिया चूंकि पूंजीवादी कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित होता है इसलिए उसकी वर्गीय पक्षधरता स्पष्ट है। अपने वर्ग के लोगों के कुकर्मों को छुपाना और मेहनतकश वर्ग पर हमले बोलना ही उसका मुख्य काम है। जब भी यदा-कदा पूंजीपति वर्ग के नुमांइदों पर कोई कार्यवाही होती दिखती है तो वह अपने सारे हथियारों के साथ अपने वर्ग के नुमांइदों को बचाने में जुट जाता है।  
    13 साल पहले सलमान की गाड़ी से कुचले जाने वाले गरीब मजदूर थे इसीलिए उनको न्याय दिलाने की परवाह किसी को नहीं थी। कुछ बिगडैल अमीरजादों ने तो यहां तक की बातें कर दी थीं कि सड़क सोने के लिए नहीं गाड़ी चलाने के लिए होती हैं। 
    अमीरजादों के आगे कानून के नतमस्तक होने की यह पहली घटना नहीं है। अभी कुछ दिन पूर्व टीना अम्बानी को जब टू जी घोटाले के संदर्भ में अदालत आना पड़ा तो ऐसा दृश्य अदालत में उपस्थित हो गया मानो टीना कठघरे मे खड़े होने के बजाय किसी फैशन उत्सव के रैम्प पर उतरी हो। वकील-कर्मचारी सभी में उनके आॅटोग्राफ लेेने की होड़ लग गयी। 
    जिन गिने-चुने मामलों में कानून अमीरजादों को सजा देता भी रहा है वहां भी निचली अदालत से ऊपरी अदालत की सीढि़यों में वर्षों मुकदमा लटकाने का हथकंडा दौलतमंदों को सुलभ है। ऐसे में अमीरजादों को उनके जीते जी सजा दिलवाना नामुमकिन हो जाता है। 
    सलमान खान अपनी फिल्मों में हीरो होने के नाते हमेशा कानून के रखवाले नजर आते हैं पर व्यक्तिगत जीवन में वास्तव में वे एक बिगडै़ल विलेन हैं जो दौलत के जोर पर सब कुछ कर सकता है। 
    पूंजीवादी व्यवस्था का चरित्र ही ऐसा होता है कि इसके सभी अंग न्यायपालिका-विधायिका-कार्यपालिका पूंजीपतियों के पक्ष में व मजदूर वर्ग के विरोध में काम करते हैं। इसीलिए नशे में कार चलाते हुए गरीबों को कुचलने वाले सलमान को जेल जाने तक की जरूरत नहीं पड़ती वहीं एक मैनेजर की हत्या के आरोप में मारुति के 150 मजदूर सालों तक जेल में सड़ते रहते हैं, उन्हें जमानत तक नहीं मिलती। 
    सलमान के वर्ग बंधु और उसके प्रशंसक सलमान की सजा रुकने से खुश हैं पर देश का मजदूर वर्ग अमीरजादों की ऐसी हर रिहाई पर क्षोभ व गुस्से से भर उठता है। वह पूंजीवाद की इस दिखावटी समानता को लात मारता है और ऐसी पूंजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने का संकल्प लेता है। नये समाज समाजवाद के निर्माण का प्रयास करने से ही ऐसी स्थिति पैदा होगी कि हर गरीब मेहनतकश को न्याय व सम्मानजनक जीवन हासिल होगा। 

राहुल गांधी 3.0 

वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    राहुल गांधी के गायब होने की लम्बी चर्चा के बाद जब वे आक्रामक मुद्रा में अवतरित हुए तो कुछ लोगों ने इनके इस नये रूप को राहुल गांधी 3.0 का नाम दे दिया। यानी यह राहुल गांधी का तीसरा संस्करण है। अभी तक उनके इस नये संस्करण ने कांग्रेसियों को उत्साहित किया है और वे राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के लिए मन बना रहे हैं। 
    जब राहुल गांधी दो महीने के लिए गायब हुए थे तो ज्यादातर कांग्रेसियों को सांप सूंघ गया था। उन्हें जबाव देते नहीं बन रहा था। पर हकीकत यही है कि पिछले लोकसभा चुनावों में करारी हार के बाद हर कांग्रेसी गायब होना चाहता होगा। ज्यादातर गायब हो गये थे या मेढ़कों की तरह ‘हाइबरनेशन’ में चले गये थे। वे बिरले कांग्रेसी जो एक विरोधी पूंजीवादी प्रचारतंत्र का सामना कर रहे थे वे थे जो युवा थे और संकट की इस घड़ी में अपना चेहरा चमकाकर भविष्य में उज्जवल भविष्य की उम्मीद कर रहे थे। पी. चिदम्बरम जैसे कांग्रेसियों ने तो भविष्य का अंदाजा लगाकर चुनावों से ही किनाराकशी कर ली थी। 
    ऐसा नहीं है कि पूंजीवादी राजनीति में यह कोई अनोखी घटना है। अभी दिल्ली प्रदेश चुनावों में हार के बाद बड़बोले भाजपाई भी कहीं मुंह छुपा कर बैठ गये थे। 2004 के बाद के दस सालों में उनकी स्थिति आज के कांग्रेसियों से कोई बेहतर नहीं थी।
    कांग्रेसियों के लिए हाल-फिलहाल मुश्किल हार का सदमा ही नहीं है। हाल-फिलहाल मुश्किल एक विरोधी पूंजीवादी प्रचारतंत्र का सामना करना भी है। 
    मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाने के लिए अभियान चलाने वाला पूंजीवादी प्रचारतंत्र अभी भी मोदी और भाजपा के साथ है यह इसके बावजूद कि जमीनी स्तर पर मोदी की हालत खस्ता हुई है। पूंजीवादी प्रचारतंत्र मोदी सरकार के कुकर्मों को ढंक रहा है कि मोदी को आसमान चढ़ाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता। 
    ऐसे में कांग्रेसियों की हालत कठिन हो जाती है। वे जब भी मोदी सरकार को घेरने की कोशिश करते हैं, उनका अपना अतीत उनके सामने पेश कर दिया जाता है और वे निरुत्तर हो जाते हैं। 
    बात केवल एक विरोधी पूंजीवादी प्रचारतंत्र का सामना करने की ही नहीं है। बात कांग्रेसियों की अपनी खुद ही जमीन की भी है। पिछले चुनावों में पूंजीपति वर्ग ने उनका साथ नहीं दिया तो इसी कारण कि वे उसके मनमाफिक कदम नहीं उठा रहे थे जबकि मोदी वह सब कुछ कर रहे थे जो पूंजीपति वर्ग चाहता था। कांग्रेसी तब यह जताने का प्रयास कर रहे थे कि वे देश की गरीब मेहनतकश जनता के साथ हैं। 
    उदारीकरण के इस दौर में गरीब मेहनतकश जनता के साथ खड़ा होना वाकई एक कठिन काम है। खासकर उस पार्टी के लिए तो यह और भी कठिन है जिसने इन नीतियों की शुरूआत की हो और इन्हें पन्द्रह सालों तक लागू किया हो। गरीब मेहनतकश जनता के शोषण-उत्पीड़न को बढ़ाकर पूंजीपतियों की तिजोरियां भरने और उनकी मुनाफे की भूख बेतहाशा बढ़ा देने के बाद यह उम्मीद करना कि गरीब मेहनतकश जनता उनको सिर आंखों पर बैठायेगी, कुछ ज्यादा ही था। 
    अब जब राहुल गांधी नये संस्करण में आये हैं तो वे फिर अपने को गरीब मेहनतकश जनता के साथ खड़े होने का दिखावा कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि उनकी नैया यहीं से पार लगेगी। लेकिन यह कितना कठिन है यह एक घटना से पता चलता है। उन्होंने लोकसभा में कहा कि उनके संसदीय क्षेत्र अमेठी में किसान दो रुपये किलो आलू बेचने को मजबूर हैं जबकि एक आलू से बना चिप्स दस रुपये में बिकता है। उन्होंने सरकार से पूछा कि यह किस जादू से होता है। इस पर सरकार की ओर से उन्हें राजनाथ सिंह ने जबाव दिया कि यह जादू आपकी सरकार ने ही किया है। 
    भाजपाइयों ने कांग्रेस के ही जादू को जारी रखा है। इस जादू का परिणाम पिछले साल भर में ही आने लगा है। इसी कारण मोदी ने अपनी पार्टी के लोगों को कहा कि वे जनता को बतायें कि उनकी सरकार गरीब मेहनतकश विरोधी सरकार नहीं है, वह पूूंजीपतियों की सरकार नहीं है। 
    राहुल गांधी और कांग्रेसियों के दिन फिरेंगे तो इसलिए नहीं कि वे गरीब मेहनतकश विरोधी नहीं रह गये हैं। बल्कि इसलिए कि मोदी सरकार के कुकर्म उसी तरह उसे घृणा का पात्र बना देंगे जैसे कांग्रेस सरकार बन गयी थी और तब राहुल गांधी का पप्पूपन ही कांग्रेस के लिए फायदे की चीज बन जायेगी। 
    जब तक मजदूर वर्ग पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ नहीं फेंकता तब तक पूंजीवादी पार्टियों का यह झूमाझूमी खेल चलता रहेगा। 

19 साल बाद परिणाम शून्य

वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    66.65 करोड़ रुपये की बेहिसाब सम्पत्ति रखने के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने जयललिता व अन्य तीन को निर्दोष करार दे दिया है। 19 साल से चल रहे इस मुकदमे पर जस्टिस चिका राचप्पा कुमारस्वामी द्वारा चार मिनट में फैसला सुना दिया। उन्होंने कहा जयललिता की बेनामी सम्पत्ति में अज्ञात स्रोतों से आय 2.82 करोड़ (8 प्रतिशत) ही मिली। कानून के तहत बेहिसाब सम्पत्ति कम से कम दस फीसद होनी चाहिए। 
    जयललिता मामले के विशेष सरकारी वकील बी.वी. आचार्य ने बताया कि जयललिता की ओर से लिए गए कर्ज को 24 करोड़ बताया गया है जबकि ठीक से जोड़ने पर यह 10 करोड़ ही है। उन्होंने बताया कि दिये गये ब्योरों को ठीक से जोड़ा जाए तो आय से अधिक सम्पत्ति लगभग 16 करोड़ रुपये होगी जो उनकी आय का 76 फीसदी से अधिक होगी।
    बी वी आचार्य की बातों से स्पष्ट है कि किस तरह कर्ज को बढ़ा-चढ़ाकर बताकर सम्पत्ति को 10 प्रतिशत से नीचे लाया गया। यह आंकड़ों की जादूगरी का ही परिणाम है कि जयललिता आज ससम्मान दोष मुक्त कर दी गयीं। अब वे मुख्यमंत्री बनने को लालायित हैं। भ्रष्टाचार के इस आरोप व सजा के बाद उनका चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लग गया था। 
    जयललिता के दोष मुक्त करार दे दिये जाने के बाद सबसे अधिक खुशी मोदी खेमे में है। मोदी, सुषमा स्वराज आदि शीर्ष नेताओं द्वारा तुरंत ही जयललिता को बधाई दी गयी। जयललिता और मोदी की पहले से भी नजदीकियां रही हैं। भाजपा का दक्षिण में अपने पैर टिकाने में जयललिता उन्हें एक मजबूत आधार देंगी, भाजपा इस बात से आशान्वित हैं। साथ ही लोकसभा में कांग्रेस के बाद 37 सदस्यों के एक विपक्ष को मोदी सरकार अपने साथ लाकर विपक्ष को और कमजोर कर देना चाहती है। साथ ही राज्य सभा में भारी अल्पमत वाली भाजपा को 11 सदस्य जयललिता के सहयोग से मिल सकते हैं। यह सब चुनावी व अल्पमत-बहुमत का जोड़ गणित पूंजीवादी राजनीति का सार है। 
    इसीलिए जयललिता के बरी होने पर भाजपा बेहद खुश है और सांठ-गांठ को आगे बढ़ा रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी के भाषणों का व्यावहारिक परिणाम ऐसा ही निकलना था। कई कांग्रेसी भ्रष्टाचारी चुनाव के समय दल-बदल कर भाजपा में शामिल हो गये थे। कुछ तो बाकायदा मंत्रीमण्डल की शोभा बढ़ा रहे हैं। कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला यह भी दिखलाता है कि कैसे केन्द्रीय सत्ता अपने पक्ष में फैसला करवाने के लिए अप्रत्यक्ष भूमिका निभाती है। 
    न्यायपालिका की स्वतंत्रता मात्र एक मिथक है यह फैसला इस बात की भी पुष्टि करता है। 

‘परसेप्शन की राजनीति’ की परिणति

वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    आम आदमी पार्टी की 22 अप्रैल की दिल्ली में हुई किसान रैली में राजस्थान के दौसा निवासी गजेंद्र सिंह द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या किये जाने के मामले में तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं और तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। दिल्ली पुलिस ने तो आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला भी दर्ज कर लिया है। शुरूआत में आक्रामक रहने के बाद आम आदमी पार्टी के नेतागण बाद में सफाई देते घूमते रहे। 
    शुरू में यह प्रकरण फसलों की तबाही से दुखी एक साधारण किसान द्वारा हताशा-निराशा और विक्षोभ में उठाया गया कदम लग रहा था पर बाद में खबरें आइं कि वह कोई साधारण किसान नहीं था। दस एकड़ की खेती का मालिक होने के साथ यह साफे का व्यवसायी भी था। और अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर बिल क्लिंटन तक को साफे की आपूर्ति कर चुका था। साथ ही वह राजनीतिक प्राणी भी था। पहले भाजपा में रहने के बाद में दो बार सपा से विधान सभा का चुनाव तक लड़ चुका था और पिछले दो साल से आम आदमी पार्टी में था। यदि गजेंद्र सिंह के बारे में पूंजीवादी प्रचारतंत्र में आई ये सारी खबरें सच हैं तो यह स्पष्ट है कि वह कोई हताश-निराश साधारण किसान नहीं था हालांकि जंतर-मंतर पर उसके द्वारा आत्महत्या से पूंजीवादी हलकों में कृषि संकट पर चर्चा करने से बचना मुश्किल हो गया। 
    सवाल उठता है कि ऐसे गैर मामूली व्यक्ति ने आत्महत्या क्यों की? पुलिस द्वारा आपराधिक कोण से खोजबीन से अलग यह एक राजनीतिक सवाल भी है। किसी साजिश से अलग राजनीतिक तौर पर इसे समझने के लिए पिछले कुछ सालों की पूंजीवादी राजनीति के तौर तरीकों पर निगाह डालना आवश्यक है। 
    पिछले कुछ सालों में पूंजीवादी राजनीति में प्रचारतंत्र की भूमिका बहुत बढ़ गयी है। इसमें भी प्रमुख भूमिका चैबीसों घंटों तक चलने वाले निजी समाचार चैनलों की है जिनकी संख्या आज सैकड़ों में है। दर्जनभर राष्ट्रीय चैनलों के अलावा सभी क्षेत्रीय भाषाओं और प्रदेशों में अनेकों चैनल मौजूद हैं। इसी के साथ यह भी तथ्य है कि एकदम स्थानीय हो चुके समाचार पत्रों की संख्या बहुत बढ़ी है बल्कि इनका प्रचार भी बहुत बढ़ा है। 
    पूंजीवादी प्रचार माध्यमों, खासकर समाचार चैनलों की महज दो चारित्रिक विशेषताएं होती हैं एक तो दर्शक/पाठक खींचने के लिए वे लगातार सनसनीखेज खबरों की ताक में रहते हैं दूसरे वे बेहद बेशर्मी के साथ समाचार देने के बदले प्रचार में जुट जाते हैं। वे समाचार देने के बदले पूंजीवादी राजनीति का एजेंडा सेट करते हैं और इस पर इतराते हैं। 
    पिछले चार सालों में ये दोनों विशेषताएं बहुत बड़े पैमाने पर उजागर हुई हैं। अन्ना-केजरीवाल का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पूंजीवादी प्रचार माध्यमों की बदौलत ही सफल हुआ। इससे हासिल लोकप्रियता को बाद में केजरीवाल एंड कंपनी ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं परवान चढ़ाने में इस्तेमाल किया। 
    इसके बाद पूंजीवादी प्रचार माध्यमों ने मोदी के मामले में भी यही भौंड़े रूप में किया। जहां भ्रष्टाचार विरोध आमजन मानस से जुड़ा हुआ मुद्दा था वहीं नरेंद्र मोदी को एक अभियान के तहत ऊपर उठाकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाया गया। 
    इन दोनों में पूंजीवादी प्रचारतंत्र ने परसेप्शन की राजनीति को स्थापित करने का काम किया। अन्ना हजारे, केजरीवाल और नरेंद्र मोदी की वह छवि गढ़ी गयी जो वे नहीं थे। वक्त के साथ यह उजागर भी हो गया पर तब तक ‘परसेप्सन की राजनीति’ अपना काम कर चुकी थी। 
    केजरीवाल एंड कंपनी की सारी राजनीतिक सट्टेबाजी इसी परसेप्शन की राजनीति के लिए है। वे इन्हें इसी हिसाब से करते रहे हैं कि पूंजीवादी प्रचार माध्यमों में कितना प्रचारित होगा और कितना उनके अनुकूल प्रभाव डालेगा। बिजली के खम्भे पर चढ़कर कनेक्शन जोड़ने से लेकर रामलीला मैदान में भाईचारा का गीत गाने वाले केजरीवाल इसी दिशा में लगातार चलते रहे हैं। 
    दो साल पहले आम आदमी पार्टी में शामिल होने वाले गजेंद्र सिंह ने इस पार्टी की दिशा को अपनाने की कोशिश की। इसके एक भाई के अनुसार उसने उस दिन उनसे कहा था कि मुझे टी.वी. पर देखना। संभवतः इस हरकत के द्वारा वह आम आदमी पार्टी के नेताओं की तरह ही लोकप्रिय होना चाहता था। पर लगता है कि उसकी राजनीतिक स्टंटबाजी उसके लिए भारी पड़ गयी। वह केजरीवाल-मोदी की तरह लोेकप्रिय हुआ नहीं साबित हुआ और उसे इसकी कीमत अपनी जान देने से चुकानी पड़ी। 

नेट न्यूट्रैलिटी पर दो बातें

वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    आजकल हमारे देश के पूंजीवादी मीडिया, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर नेट न्यूट्रैलिटी का खासा हल्ला मचा हुआ है। कहा जा रहा है कि इसके जरिये इण्टरनेट के निजीकरण से बचा जा सकता है। अगर नेट न्यूट्रैलिटी खत्म हो जायेगी तो इण्टरनेट पर भी पूंजीपतियों-कारपोरेट घरानों का प्रभुत्व हो जायेगा। 
    आखिर नेट न्युट्रैलिटी है क्या? इण्टरनेट पर तमाम तरह की वेबसाइट्स मौजूद हैं। कोई भी व्यक्ति एक तय कीमत चुकाकर अपनी वेबसाइट बना सकता है। इन वेबसाइट्स तक पहंुचने के लिए हमें किसी इण्टरनेट सेवा प्रदाता (प्दजमतदमज ैमतअपबम च्तवअपकमत) कम्पनी जैसे आइडिया, वोडाफोन आदि की मदद लेनी पड़ती है। नेट न्यूट्रैलिटी का अर्थ यह है कि यह सेवा प्रदाता कम्पनी सभी वेबसाइट्स के साथ समान व्यवहार करे। अर्थात् यह न हो कि कोई खास साइट तेजी से खुल जाये और कोई बहुत देर से खुले। किसी साइट से डाउनलोडिंग शीघ्र शुरू हो जाये और किसी से बहुत देर में हो। अगर सेवा प्रदाता कम्पनी सभी साइट्स को समान गति से खोल रही है तो कहा जायेगा कि वह नेट न्युट्रैलिटी का पालन कर रही है। 
    परन्तु अगर यही सेवा प्रदाता कम्पनियां किन्हीं चंद वेबाइटों से सांठ-गांठ कर या कोई शुल्क वसूल कर इस बात का इंतजाम कर दें कि वे वेबसाइटें तेज गति से खुलेंगी व बाकी सभी साइटें धीमी गति से। तो इस स्थिति में नेट न्युट्रैलिटी कायम नहीं रह पायेगी। 
    यह सारी बहस मार्च 2015 में तब शुरू हुई जब मार्च 2015 में टेलीकाॅम रेगुलेशन अथाॅरिटी आफ इण्डिया ने नेट न्युट्रैलिटी व इसके साथ कुछ अन्यों विषयों पर एक प्रश्नावली जारी की। अन्य विषयों में इण्टरनेट के बड़े अप्लीकेशन व्हाट्स एप, स्काइप, फेसबुक, वाइबर आदि पर कोई भी नियामक कानून लागू न होने व इसके चलते सुरक्षा सम्बन्धी समस्याओं का पैदा होने का खतरा था। इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समान कानून आदि की भी बातें थीं। 
    दरअसल सरकार के समक्ष आने वाली दिक्कतें इस प्रकार हैं। नेट सेवा प्रदाता कम्पनियां या टेलीकाॅम कम्पनियां अगर बहुराष्ट्रीय हैं तो भी उन्हें अलग-अलग देशों में अपनी सेवा देने के लिए उन देशों की सरकारों के नियम कानूनों का पालन करना पड़ता है। सरकारें इन कम्पनियों पर सीधा नियंत्रण कर सकती हैं, इनके जरिये नागरिकों द्वारा खोली साइटों की निगरानी कर सकती हैं। परन्तु जब बीच में कुछ ऐसे एप्लीकेशन जैसे व्हाट्स एप, फेसबुक आदि आ जाते हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम करते हैं और जिनके मालिक भी भारतीय नहीं हैं तब इन पर की जाने गतिविधियों की निगरानी सरकार टेलीकाॅम कम्पनी के जरिये नहीं कर पाती। चूंकि ये एप्लीकेशन कंपनी किन्हीं कानूनों में बंधी नहीं हैं अतः ये सरकार के प्रति सूचना देने को बाध्य भी नहीं हंै। सरकार की पहली चाहत कैसे भी इन एप्लीकेशनों को किन्हीं नियामक कानूनों के दायरे में लाना है। 
    इसका झगड़ा टेलीकाम कम्पनियों व इन एप्लीकेशन कंपनियों में है। ग्राहक से या उपभोक्ता से ये एप्लीकेशन कंपनियां सीधे पैसा झटकते हैं या फिर अपने एप्लीकेशन पर विज्ञापन से आय कमाती हैं। परन्तु टेलीकाॅम कम्पनी को केवल इतना ही लाभ होता है कि कितना डाटा इस्तेमाल हुआ, उसे भुगतान उतने का ही होता है। ऐसे में टेलीकाम कम्पनियां एप्लीकेशन कम्पनियों की आय के एक हिस्से की चाहत करने लगती हैं जिसका हल नेट न्यूट्रैलिटी खत्म कर निकल सकता है। यानी एप्लीकेशन कम्पनियां अच्छी स्पीड के लिए टेलीकाम कम्पनियों को अपनी आय का एक हिस्सा दे दें। 
    इण्टरनेट का वैश्विक चरित्र व देशों में बंटी दुनिया द्वारा इसको नियंत्रित करने के प्रयासों में स्वयं एक झगड़ा है। तकनीक-सूचनाओं का इतना विकसित रूप वैश्विक स्तर पर ही नियंत्रित हो सकता है। देशीय पैमाने पर इसके नियंत्रण के सभी उपाय जहां अपने नागरिकों की निगरानी, उन्हें कई साईटों से वंचित करने का रूप ले लेता है। वहीं किसी साइट को बनने या न बनने देने का या वैश्विक तौर पर ब्लाक करने का अधिकार कुछ देशों के हाथ में ही केन्द्रित है। 
    इण्टरनेट की दुनिया पर भी बाकी तकनीकों की तरह साम्राज्यवादी ताकतों का प्रभुत्व है। ऐसे में नेट न्यूट्रैलिटी का महत्व केवल सापेक्ष अर्थों में ही है। इण्टरनेट पर 10 में से 9 बार चीजों की जानकारी हमें साम्राज्यवादी कंपनियों की साइटें ही देती हैं यानी हम क्या देखें इसको अधिकतर ये कंपनियां ही तय कर रही हैं।
    नेट न्यूट्रैलिटी की वकालत निश्चय ही की जानी चाहिए। साथ ही सरकार द्वारा नागरिकों की खुफियागिरी बढ़ाने का विरोध भी होना चाहिए। परन्तु इस सबसे बढ़कर समूचे इण्टरनेट तंत्र पर पूंजीपतियों के वर्चस्व के भी अंत की मांग होनी चाहिए जो पूंजीवादी-साम्राज्यवादी दुनिया के खात्मे से ही सम्भव है। तभी नेट न्युट्रैलिटी को वास्तविक तौर पर हासिल करने की ओर बढ़ा जा सकता है। 

पूंजी खाते में रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता की ओर कदम बढ़ाने के खतरे

वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    भारतीय शासकों ने देश में पूंजीवादी विकास के लिए एक दौर में संरक्षणवादी नीतियों को अपनाया था। यह दौर आजादी के बाद 80-90 के दशक तक रहा। लेकिन 90 के दशक में जब भारतीय पूंजीवादी अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त थी। तब भारतीय पूंजीपति वर्ग ने बड़े तौर पर बाजारोन्मुख नीतियों की ओर कदम बढ़ाए थे। 
    पिछले दो ढ़ाई दशक का काल भारतीय शासकों के इस ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए आगे बढ़ते जाने का काल रहा है। इस दौर में विदेशी पूंजी की लूट पर रोक लगाने वाले तथा उस पर लगाम लगाने वाले प्रावधानों को भी ढीला किया गया है। ‘विदेशी मुद्रा अधिनियम कानून’ या ‘विदेशी विनियम अधिनियम कानून’ पूंजी खाते में रुपये की परिवर्तनीयता के संबंध में बने कानूनों को इस दौर में ढीला किया गया। नए आर्थिक सुधारों में यह सब अंतर्निहित था।
    नए आर्थिक सुधारों के नाम पर लागू इन बाजारोन्मुख नीतियों का असर कई मुल्कों में देखा गया था। खासकर 1997-98 में एशियन टाइगर्स कहलाने वाले मुल्क तबाह हो गए थे जिनकी अर्थव्यवस्थाएं संकट से पहले बढ़ती हुई दिखायी दे रही थीं। थाइलैण्ड, दक्षिण कोरिया व इंडोनेशिया जैसे मुल्क जिनकी साम्राज्यवादी मुल्कों व उनकी संस्थाओं द्वारा तारीफ की जा रही थी वे अब एशियाई संकट में तबाह हो गए थे। बदले में साम्राज्यवादी पूंजी मालामाल हो गई थी। इन देशों की मुद्रायें तबाह हो गयी थीं और अर्थव्यवस्थायें सिकुड़ गयी थीं। आईएमएफ के कर्ज से थाइलैण्ड लद गया था। 
    इन मुल्कों की तबाही में एक बढ़ा कारक यह भी था कि विदेशी पूंजी पर लगाम लगाने वाले प्रावधानों को इन मुल्कों में खत्म कर दिया गया था। वित्तीय पूंजी को खुलकर खेलने की छूट मिली थी व बेरोकटोक आवाजाही की छूट मिली हुई थी जबकि इस दौर में भारत, चीन जैसे मुल्क इन संकटों से बचे रहे थे। 
    साल 2007 से जब मंदी की फिर से शुरूवात हुई जिसमें अमेरिका के कई विशाल पूंजी वाले बैंकिंग व बीमा संस्थान दिवालिया हो गए और यह संकट धीरे-धीरे कई मुल्कों तक फैल गया था। बाजार को खुलकर खेलने देने का यह एक परिणाम था। इस दौर में भी भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी में नहीं फंसी। 
    भारतीय शासकों ने तमाम दावे किये कि वैश्विक मंदी का भारत पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर कमजोर होते चले गयी। अर्थव्यवस्था के कमजोर होते जाने का एक परिणाम यह भी निकला कि भारतीय एकाधिकारी पूंजी मंदी के प्रभाव से निजात पाने को नए आर्थिक सुधारों के रथ को द्रुत गति से आगे बढ़ाना चाहता था। 
    इस दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्विक मंदी से बचे रहने की मुख्य वजह थी- बैंकिंग -बीमा पर सरकार का नियंत्रण तथा पूंजी की बेरोकटोक आवाजाही पर अंकुश लगाने वाले कई प्रावधान लेकिन इसके उलट भारतीय शासकों ने अर्थव्यवस्था की मंदी में न फंसने के लिए गोल मोल वजह बताई।  
    नए आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू करवाने के लिए एकाधिकारी पूंजी ने पिछले साल के लोकसभा के चुनावों को प्रायोजित कर डाला। उसने मोदी व फासीवादी ताकतों को सत्ता तक पहुंचा दिया। और अब मोदी सरकार उस दिशा में तेजी से बढ़ रही है। इसके साथ ही और पूंजी खाते में रुपये की परिवर्तनीयता का मसला पिछले 4-5 माह से उछल रहा है। 
    पूंजी खाते में पूर्ण परिवर्तनीयता का अर्थ है विदेशी निवेशक अपनी इच्छा के मुताबिक अपने धन को अपने देश में प्रचलित मुद्रा में वापस भेज सकेंगे यानी विदेशी पूंजी किसी भी नियमन व नियंत्रण के बिना आ जा सकेगी। अभी तक भारत में इस स्थिति पर रोक है। चालू खाते में पूर्ण परिवर्तनीयता तो 1994 से ही हो चुकी है। 
    पूंजी खाते में रुपये की परिवर्तनीयता के संबंध में 1997 में ही तारापोर कमेटी गठित की गयी थी। इसी दौर में एशियाई संकट शुरू हुआ था। एशियन टाइगर्स कहलाने वाले मुल्कों की अर्थव्यवस्थाएं विदेशी पूंजी के मुनाफा बटोर कर चंपत हो जाने से ढह गयी थी। इसका सबक भारतीय शासकों ने भी लिया। 
    1997 के बाद पूंजी खाते परिवर्तनीयता मामले में उदारता बरती गयी। और 2011 में पूंजी खाते में रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता के संबंध में फिर से दूसरी तारापोर कमेटी गठित हुई। इस मामले में पूंजी को लगातार ढील दी गयी। लेकिन इसके बावजूद विदेशी पूंजी पर नियंत्रण व नियमन किया गया। लेकिन अब एक बार फिर से इस मामले ने जोर पकड़ा है। जनवरी माह में रिजर्व बैंक ने कहा था कि केन्द्रीय बैंक कुछ साल में पूंजी खाते में रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता करने पर विचार कर रहा है। लेकिन अब अप्रैल तक आते-आते केन्द्र सरकार व रिजर्व बैंक की एक राय हो चुकी है। केन्द्र सरकार इसे जल्द करने की पक्षधर है। 
    जिस तेजी से बैंक बीमा में सरकार अपना नियंत्रण कमजोर करते हुए इसमें निजी पूंजी के हस्तक्षेप को बढ़ा रही है साथ ही अब यदि पूंजी खाते में रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता मंजूर करती है। तब खतरा इस बात का ही अधिक है कि जिन संकटों से एशियन टाइगर्स ढह चुके हैं। उस ही संकट की जद में भारतीय अर्थव्यवस्था भी आ जाए। 
    निश्चित तौर पर हर आर्थिक संकट या मंदी की कीमत मजदूर मेहनतकश जनता को ही चुकानी पड़ती है, तबाही की असली मार उसी को झेलनी पड़ती है जिस प्रकार इंडोनेशिया, थाइलैण्ड, मलेशिया आदि में हुई आर्थिक तबाही में सबसे ज्यादा तबाही मजदूर मेहनतकश नागरिकों की हुई है वही खतरा यहां भी है। 

सत्ता के संरक्षण में हिन्दू फासिस्टों के बढ़ते हौंसले

वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस वक्त फ्रांस में इस बात का आश्वासन दे रहे थे कि वे देश के हर नागरिक अधिकारों और आजादी की सुरक्षा करेंगे ठीक उसी वक्त मोदी सरकार में शामिल हिन्दू फासिस्ट गिरोह शिवसेना देश के मुसलमानों से मतदान का अधिकार छीनने की वकालत कर रहे थे।
    ठीक इसी समय हिन्दू महासभा की एक महिला संत देवा ठाकुर आपातकाल लगाकर ईसाईयों और मुसलमानों की नसबंदी करने की बात कर रही थी।  कुछ दिन बाद शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना की सम्पादकीय में भी ऐसी बात लिख डाली। 
    शिवसेना जैसे फासिस्ट गिरोह की अपने जन्म से आज तक की राजनीति किसी न किसी समूह या समुदाय के खिलाफ घृणा फैलाने की रही है। और इस सब को वह मराठा अस्मिता से जोड़ता रहा है। दक्षिण भारतियों, पंजाबी, यूपी-बिहार के लोगों को अपने घृणित प्रचार का निशाना बनाने के बाद उसने नब्बे के दशक से मुस्लिमों के खिलाफ जहरीला प्रचार करके हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कर सत्ता में हिस्सेदारी पायी है। अब उन्हीं की तरह की राजनीति वोटों के पाने के लिए आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलीमीन के नेता असद्दीन ओवैसी करते है तो ये उन्हें जहरीला सांप कहते हैं बल्कि पूरे देश के मुसलमानों से मताधिकार छीनने की मांग करते हैं। ये दीगर बात है कि शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे का मताधिकार अपने जहरीले वक्तव्यों के कारण भारत के एक न्यायालय ने ही छीन लिया था।
    नरेद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से पूरे देश में हिन्दू फासिस्टों के हौंसले बुलंदी पर हैं। ‘जब सैंया भये कोतवाल’ की तर्ज पर वे न केवल देश के अल्पसंख्यकों के खिलाफ विषवमन कर रहे हैं बल्कि आये दिन अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों पर हमले बोले जा रहे हैं। मोदी भले ही देश के भीतर व बाहर ये आश्वासन दे रहे हों कि सभी नागरिकों के अधिकारों की हिफाजत करेंगे पर दर हकीकत यह है कि अपनी लम्पटों की फौज को उन्होंने खुला छोड़ रखा है
    प्रधानमंत्री मोदी की कथनी और करनी का यह फर्क कोई नया नहीं है। लोकसभा चुनाव के पूर्व उन्होंने पूरे गुजरात में सद्भावना उपवास का नाटक खेला था। इस दौरान समाज में सद्भावना के स्थान पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज हो गया। उनकी विजय में भारत के अमीर पूंजीवादी घरानों के समर्थन के साथ घृणित साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की अहम भूमिका रही है।
    चुनाव जीतने के बाद साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को बनाये रखने के पीछे सीधा मकसद यह है कि वे तेजी से देशी-विदेशी पूंजी के हितों को साधने वाले आर्थिक व श्रम सुधार कर सकें और जब वे ऐसा करें तब जन प्रतिरोध न हो। आम मजदूर-मेहनतकश जाति, धर्म, इलाके के बंधन को तोड़कर आर्थिक व श्रम सुधारों का विरोध न करे बल्कि वे बंटे रहे। ‘फूट डालो राज करो’ की यह नीति इसलिए ही लागू की जा रही है और यह सब कुछ वैसा ही है जैसा 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार के समय था। एक तरफ नई आर्थिक नीतियां लागू की जा रही थीं और दूसरी ओर हिन्दू फासिस्ट संगठन राममंदिर के नाम पर पूरे देश में ताण्डव कर रहे थे। 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पीछे भारत के वैसी ही घृणित मंसूबे थे जैसे अब नरेन्द्र मोदी के हैं।
    शिवसेना और औवेसी बंधु जैसे फासिस्ट व साम्प्रदायिक तत्व इन मंसूबों को कामयाब बनाने में भूमिका निभाने वाले छोटे-मोटे अभिनेता हैं।

कश्मीर को फिलीस्तीन मत बनाओ

वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)

    केन्द्र सरकार का एक और कदम विवादों के घेरे में है। केन्द्र की भाजपा सरकार कश्मीर से विस्थापित पंडितों को फिर से कश्मीर में बसाने की तैयारी कर रही है। कश्मीर घाटी में कश्मीरी विस्थापित पंडितों को बसाने पर विवाद नहीं है विवाद, घाटी में उनको अलग से भूमि देकर अलग कालोनी बसाने के मसले पर है। मुफ्ती सरकार से लेकर यासीन मलिक तक सबको केन्द्र के अलग कालोनी के प्रस्ताव के विरोध में आगे आना पड़ा है। वहीं केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह हर कीमत पर अलग कालोनी के वायदे को पूरा किये जाने की बात दोहरा रहे हैं। 
    कश्मीरी विस्थापित पंडितों को अलग कालोनी देने का मसला इतना तूल क्यों पकड़ा हुआ है? जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के यासीन मलिक से लेकर मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद हर कोई कश्मीरी पण्डितों की वापसी का स्वागत कर रहे हैं पर वे चाहते हैं कि कश्मीरी पण्डित अपने पुराने घरों में वापसी करें और सम्मान के साथ मुस्लिम पड़ौसियों के साथ रहें जैसे कि ढेरों कश्मीरी पण्डित अभी भी रह रहे हैं। वहीं भाजपा पण्डितों के लिए अलग से भूमि मुहैय्या करा उनकी अलग कालोनी बसाना चाहती है। 
    भाजपा का मंतव्य स्पष्ट है वह पण्डितों की अलग कालोनी बसा कश्मीरी हिंदुओं व कश्मीरी मुस्लिमों की रिहाइश अलग कर उन्हें धर्म के आधार पर बांट देना चाहती है ताकि भविष्य में इनके बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य पैदा कर भाजपा अपना आधार बढ़ा सके। साथ ही इस सबसे आत्मनिर्णय की कश्मीरी मांग को भी कमजोर किया जा सकेगा।
    भाजपा की इस साजिश को कश्मीरी जनता बखूबी समझ रही है। वह कश्मीर में इस्राइल-फिलीस्तीन के हालात नहीं चाहती है। किसी जमाने में फिलीस्तीन की थोड़ी सी भूमि लेकर यहूदियों को इस्राइल देश बसाया गया था। बाद में यहूदी कब्जे का इलाका फैलता चला गया और फिलीस्तीन सिकुड़ता चला गया और आज हालात यह है कि फिलीस्तीनी जनता इस्राइली कैदखाने में जीने को मजबूर है। अधिकांश फिलीस्तीन इस्राइल हड़प कर बैठा हुआ है। उसके टैंक फिलीस्तीनी आवाम को कुचलते रहते हैं। 
    आज अगर कश्मीरी पंडितों को अलग कालोनी में बसाया जाता है तो इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि कल को यह कालोनी इस्राइल सरीखी व शेष कश्मीर फिलीस्तीन में तब्दील हो जाये। दरअसल भाजपा व संघ यही चाहते हैं। वे साम्प्रदायिक वैमनस्य फैला कश्मीरी हिंदुओं को अपने पीछे लामबंद करना चाहते हैं। अलग कालोनी उन्हें इस काम में मदद करेगी। 
    80 के दशक के अंत में जब कश्मीरी मुक्ति संघर्ष में कट्टरपंथी ताकतें हावी हुईं तब जगमोहन के राज्यपाल रहने के दौरान कश्मीरी पंडितों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ। इस पलायन में मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों की भूमिका से कहीं अधिक भूमिका हिन्दुत्व मानसिकता के राज्यपाल जगमोहन की रही। जगमोहन ने कश्मीरी पण्डितों के दिलों में कश्मीरी कट्टरपंथ का भय पैदा कर उन्हें पलायन के लिए उकसाया। उस समय भी जे के एल एफ सरीखी धर्मनिरपेक्ष ताकतें कश्मीरी पण्डितों के पलायन को रोकने का व कश्मीरी संघर्ष को धर्म के आधार पर बांटने की तिकड़मों का विरोध करती रहीं। 
    आज जब कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गठबंधन सत्तासीन हो चुका है तब कश्मीरी आवाम के संघर्ष के लिए प्रतिकूल परिस्थितियां पहले से कहीं अधिक हो गयी हैं। भाजपा का सत्तासीन होना इस संघर्ष में कट्टरपंथ के प्रभाव को और बढ़ाने की ओर ले जायेगा। धर्मनिरपेक्ष ताकतें और हाशिये पर ढकेली जायेंगी। 
    पूर्व की नेशनल कांफ्रेस-कांग्रेस सरकार ने कश्मीरी पण्डितों को रोजगार दे घाटी में बसाने की पहल की थी पर उस समय अलग कालोनी बसाने की कोई चर्चा नहीं थी। अब भाजपा की अलग कालोनी की पहल कश्मीर घाटी को इस्राइल-फिलीस्तीन सरीखे झगड़े में ढकेलने का प्रयास है। 
    कश्मीर की उत्पीडि़त राष्ट्रीयता के अधिकारों के प्रति संवेदनशील हर शख्स को भाजपा की इस अलग कालोनी की साम्प्रदायिक तिकड़म के विरोध में खड़े  होना चाहिए। 

दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी! (?)

वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी ने एक मजेदार दावा किया कि वह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गयी है। भाजपा ने दावा किया कि उसकी सदस्य संख्या 9 करोड़ हो गयी है।
    दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का तमगा भाजपा ने स्वयं अपने सीने पर लगाया क्योंकि इस बात का प्रमाण पत्र किस पार्टी की सदस्य संख्या कितनी है कोई नहीं देता। गिनीज बुक आॅफ रिकार्ड यह प्रमाण पत्र भाजपा को दे तो शायद कोई इस पर ठीक-ठीक विश्वास करे। भारतीय जनता पार्टी ने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का तमगा चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को हरा कर हासिल किया है।
    चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की अधिकारिक संख्या 8.87 करोड़ है। भाजपा में उसके मुकाबले 10 लाख सदस्य अधिक हैं।
    भाजपा ने अपने नये सदस्य जिस ढंग से बनाये उसके कारण उसकी प्रतिद्वंदी पार्टी कांग्रेस ने उसे ‘मिस्ड काॅल’ पार्टी की संज्ञा दी है। पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी ने करोड़ों रुपये फूंक कर बड़े-बड़े होर्डिग्स लगाये और अन्य तरीकों से प्रचार किया। एक टाल फ्री नम्बर इनमें दिया गया और जो कोई उस पर मिस काॅल करे उसे पार्टी की सदस्यता मिल जाती थी। पार्टी सदस्य बनने वाले को एक एसएमएस के जरिये अपना नाम, पता आदि पार्टी सदस्यता प्राप्त करने के बाद भेजना होता था।
    पूरे देश में भाजपा के अनुसार उन्हें 15 करोड़ लोगों ने ‘मिस काॅल’ की जिसमें से जिन्होंने अपना नाम, पता भेजा उन्हें सदस्य बनाया गया।
    भारतीय जनता पार्टी बुरी तरह से हीन भावना से ग्रसित पार्टी है। इसका सदस्यता अभियान उस हीन भावना से  बाहर निकलने का बेहद सतही तरीका है। नरेन्द्र मोदी-अमित शाह के उपजाऊ दिमाग से ऐसी कई योजनाएं उनकी अपनी पार्टी और देश के लिए निकलती हैं और वास्तव में कई निकल भी चुकी है। छल नियोजन की एक बानगी को देश की अर्थव्यवस्था के आंकड़ों में हाल के महीनों में पूरा देश देख चुका है। बिना कुछ-किये धरे आंकड़ों में हेर-फेर करके देश की विकास की दर को 6 फीसदी से ऊपर पहुंचा दिया गया।
    चीन को लेकर भी भाजपा-संघ के नेता बेहद हीन भावना से ग्रसित हैं। चीन की अर्थव्यवस्था (10 खरब डालर) भारत की अर्थव्यवस्था (2 खरब डालर) से पांच गुनी बड़ी है। अमेरिका के बाद वह दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है। हीनता बोध का शिकार मोदी प्रधानमंत्री बनने से पहले कई बार चीन के माॅडल का अध्ययन करने के लिए जा चुके हैं। हीनता बोध से निकलने के लिए मोदी-शाह के उपजाऊ दिमाग में डिजिटल इंडिया के जो हसीन ख्याल पनप रहे थे उनका इस्तेमाल कर इन्होंने पार्टी सदस्यता के लिए ‘मिस्ड काॅल’ का तरीका निकाल दिया। और कमाल की बात विश्व इतिहास का सबसे बड़ा सदस्यता अभियान चलाकर महज पांच माह में पांच करोड सदस्य बना डाले।
    लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत के बाद से भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व अंहकार और जश्न में डूब कर तेजी से सामाजिक यथार्थ से दूर होता जा रहा है। दिल्ली विघानसभा चुनाव में मिली करारी हार के तुरंत बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के होश कुछ ठिकाने आये थे। उस समय हार से शर्मसार होकर उन्होंने अपने पुत्र के विवाह में किये जाने वाले रंगारंग कार्यक्रम रद्द कर दिये थे परंतु अब वे फिर से मदहोश हो चुके हैं।
    भाजपा का यह दावा सच है कि उन्हें लोकसभा चुनाव में 17 करोड़ मत मिले थे। परंतु यह भी सच है कि देश के कुल 85 करोड़ मतदाताओं में से करीब 68 करोड़ मतदाताओं ने उन्हें अपना मत नहीं दिया। और यह सामान्य गणित है कि 68 करोड़ 17 करोड़ से बहुत-बहुत अधिक हैं। भाजपा को मत डालने वाले से यह संख्या चार गुना है।
    भाजपा सत्ता में इसलिए नहीं आयी कि वह और उसके नेता बेहद योग्य हैं। वह भारत के एकाधिकारी घरानों अम्बानी-अदाणी जैसों के खुलकर समर्थन में आने और अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के घृणित साम्प्रदायिक प्रचार को चलाने वाले नेटवर्क के एक साथ काम करने के कारण आयी। भाजपा के नये अध्यक्ष जिन्होंने गुजरात के गृह मंत्री के रूप में फर्जी इनकाउण्टरों का रिकार्ड कायम किया था अब लगता है दुनिया के सबसे फर्जी सदस्यता का रिकार्ड अपने नाम करने जा रहे हैं। इस फर्जी सदस्यता से अमित शाह अपनी पार्टी के नेताओं और समर्थकों को महान गौरव से भर सकते हैं परन्तु देश की जनता उन्हें दिल्ली चुनाव की तरह ठीक याद रखने लायक सबक भी सिखा सकती है। 
    मोदी-शाह की जोड़ी पूरे देश में एक से बढ़कर एक फर्जी कारनामे में व्यस्त है। भारत का सामाजिक यथार्थ तेजी से बदल रहा है। इस बदलते सामाजिक यथार्थ में ऐसे नेताओं, ऐसी पार्टियों का कोई बहुत दूर तक का भविष्य नहीं है। इनका तेजी से उत्थान होना उसकी दूनी तेजी से पतन निश्चित है। 

लापता राहुल

वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    भारतीय पूंजीवादी राजनीति में मजेदार घटनाएं घटती रहती हैं। पिछले दो माह से भारत की सत्ता में दशकों तक राज करने वाली पार्टी कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष गायब हो गया। 
    वे अपनी पार्टी के उपाध्यक्ष हैं और घोषित-अघोषित ढंग से अध्यक्ष बनने वाले हैं। उनकी मां जिस ढंग से सक्रिय और सुकून से दिखायी देती हैं उससे लगता है कि उन्हें पता है कि पूरे देश के लिए लापता कहां हैं। 
    राहुल गांधी भारतीय पूंजीवादी राजनीति के उस दौर की पैदाइश हैं जब बौने, छिछले, फर्जी, मतिमूढ़ नेता ही पैदा हो सकते हैं। बनावटीपन और अभिनेताओं जैसे लटके-झटके से ये नेता सोचते हैं कि पूरे देश को हमेशा के लिए मूर्ख बना लेंगे। 
    पिछले वर्षों में नरेन्द्र मोदी को जिस ढंग से पूंजीपति वर्ग और संघ ने लांच किया था ठीक उसी तरीके से कांग्रेस राहुल गांधी को लांच करना चाहती है। संघ-भाजपा का ब्राण्ड जब हिट हो गया तब कांग्रेस अपने ब्राण्ड को लांच करने के लिए ठीक दिन की तैयारी कर रही है। सारे समीकरणों का उसी तरह से जायजा लिया जा रहा है कि जैसे कोई मार्केटिंग कम्पनी लेती है। अब इसमें दिक्कत यह है कि किसी बड़े बजट की फिल्म की तरह कांग्रेसी इस बात में पक्के हो जाना चाहते हैं कि फिल्म यथोचित बिजनेस तो करे। ‘आइटम सांग’ के बगैर आज की फिल्में चलती नहीं हैं इसलिए पूरी कांग्रेस पार्टी अधोवस्त्रों में राहुल के पीछे नृत्य करने को तैयार है। 
    गुप्त सूत्रों का दावा है कि आजकल राहुल हर चीज का प्रशिक्षण ले रहे हैं। कैसे भाषण देना है, कैसे वस्त्र पहनने हैं, कैसे चलना है और सबसे बड़ी बात कैसे, नरेन्द्र मोदी, केजरीवाल की तरह किसी भी ओछी चीज को राजनैतिक मुद्दा बना देना है। 
    देश की जनता की दिक्कत यह है कि इस ब्राण्ड का वह क्या करे। मेगा बजट वाली नरेन्द्र मोदी की ‘अच्छे दिन’ वाली फिल्म को देखकर वह खार खाकर बैठी है। ‘राहुल रिटन्र्स’ को देखकर कहीं वह सिनेमा हाल के पर्दे ही न फाड़ दे। 

हाशिमपुरा हत्याकांडः न्याय की देवी अंधी है

वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    21 मार्च 2015 को दिल्ली की एक अदालत ने हाशिमपुरा हत्याकांड पर अपने दिये फैसले में सभी 16 आरोपियों को बरी कर दिया। पर्याप्त सबूतों के अभाव में सभी हत्यारे निर्दोष साबित हो गये। इस फैसले ने पूंजीवादी न्याय व्यवस्था को एक बार फिर बेनकाब कर दिया है।
    हाशिमपुरा हत्याकांड पीडि़त परिवारों को छोड़कर लगभग सभी के मानस पटल से विलीन हो चुका था। लंबी कानूनी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप इस निर्णय का वैसे भी आधा मतलब तो खत्म हो ही चुका है। यह हत्याकांड 22 मई 1987 को पीएसी के जवानों ने रचा था। मेरठ में दंगों के दौरान हाशिमपुरा मोहल्ले के 42 मुस्लिम युवकों को पीएसी के 19 जवान ट्रक में भरकर गाजियाबाद जिले के मुरादनगर के पास ले गये। यहां लाकर उन्हें गोली मार दी गई और उनकी लाशों को नहर में फेंक दिया गया। कुछ दिनों बाद लाशें नहर में तैरती मिलीं तब यह हत्याकांड अखबारों की सुर्खियों में आया।
    19 आरोपियों में से 16 ने मई 2000 में समर्पण कर दिया और जमानत पर छूट गये। सबसे आश्चर्यजनक यह था कि सभी आरोपी इतने गंभीर अपराध के बावजूद सेवा में लगे रहे और उनकी वार्षिक गुप्त रिपोर्ट में इस घटना का कोई जिक्र नहीं था।
    हाशिमपुरा हत्याकांड के ये शिकार कौन लोग थे- दैनिक मजदूर और बुनकर। इसी से तय हो गया इस हत्याकांड का मुजरिम कोई नहीं होगा। पूरी सत्ता ने मिलकर अपने कारिन्दों को बचा लिया। यह हैरानी की बात नहीं है कि पीएसी जवान इसके बावजूद छूट गये जबकि इस हत्याकांड में बच निकले एक व्यक्ति ने प्राथमिकी दर्ज कराई थी। यहां तक कि न्यायालय ने भी माना कि इस हत्याकांड में बच गये लोगों के बयानों में सामंजस्य है। उनके द्वारा घटना के ब्यौरे में समानता है। फिर भी न्याय की देवी अंधी निकली, कानून बहरा निकला और आरोपी बाइज्जत बरी हो गये।
    इस फैसले के निहितार्थ बहुत गहरे हंै। राज्य के अंगों द्वारा किए जाने वाले गैर कानूनी हत्याकांड को राज्य के सभी अंग मिलकर हत्यारों को बचा लेते है। हाशिमपुरा से लेकर कश्मीर, पंजाब, पूर्वोत्तर के राज्यों और नंदीग्राम तक सभी जगह पूंजीवादी सत्ता का भयानक रूप हमें देखने को मिल जाता है। परन्तु सभी जगह फैसला एक ही होता है कि सुबूतों के अभाव में आरोपी बरी हो गये। गुजरात के नरसंहार के सभी आरोपियों के बारे में क्या यही जबाव नहीं मिल रहा है।
    पूंजीवादी निजाम के महत्वपूर्ण अंग पुलिस अर्धसैनिक बल और सेना के अपने ही देशवासियों के खून से हाथ रंगे हुए हैं। मगर ‘सुरक्षा’ के जुमले के नाम पर इन सुरक्षाबलों की सभी काली कारतूतों को माफ कर दिया जाता है। अगर किसी भी वजह से ये तथाकथित सुरक्षाबल फंस गये तो राज्य का दूसरा तंत्र उन्हें बाइज्जत बरी कर देता है।
    इस फैसले ने पुनः साबित किया भारतीय राज्य धर्मनिरपेक्ष नहीं साम्प्रदायिक है। भारतीय राज्य के सभी अंग हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों का पक्ष पोषण करते हैं। भारतीय राज्य के अंगों के फैसले केसरिया रंग में रंगे हुए होते हैं। ऐसे में इस देश के शासकीय अंगों के बिना धार्मिक जातीय भेदभाव के व्यवहार की उम्मीद करना बेमानी है। केवल धार्मिक मामलों में ही क्यों जाति के झगड़ों, लैंगिक मामलों व गरीब-अमीर के झगड़ों में भी हमें सत्ता प्रतिष्ठानों का भेदभाव भरा रवैया व फैसले दिखायी देते हैं। हाशिमपुरा के मामले में न्यायालय का निर्णय तो एक नयी बानगी भर हैं। किश्ता-भुमैय्या से लेकर भंवरी देवी तक और गुजरात दंगों पर फैसले से लेकर सिखों के कत्लेआम तक की कहानी भारतीय राज्य के चरित्र को दिखाने के लिए पर्याप्त है। मारुति मजदूरों के प्रति राज्य के अंगों के रवैय्ये ने यह दिखाया है कि राज्य का चरित्र कैसा है?
    पूंजीवादी कानून तर्क वितर्क व तथ्यों के आधार पर फैसले करता है किन्तु राज्य की सेना व पुलिस द्वारा की गयी हिंसा के विरुद्ध तथ्य कौन जुटायेगा? क्या वही पुलिस व खुफिया एजेंसियां जो या तो प्रकारान्तर से नागरिकों के विरुद्ध हिंसा में शामिल रहती है। अपने विभाग व अपनों को बचाने में शामिल रहती है या अपने विभाग व अपनों को बचाने के लिए तथ्यों को मिटा देती हैं। सीबीसीआईडी की जांच का आदेश 1988 में दिया गया ठीक पूरे एक साल बाद। पुलिस और सीबीसीआईडी की जांच एक खाना पूरी भर थी जिसका परिणाम सभी के सामने है। इस फैसले ने एक ओर यह साबित किया कि भारतीय राज्य में मजदूरों को न्याय नहीं मिल सकता और दूसरी ओर यह कि इस देश में अल्पसंख्यकों को न्याय नहीं मिल सकता। वे चाहे आरोपी हों या फिर भुक्तभोगी। इतना ही नहीं पूंजीवादी राज्य न तो गरीब औरतों को न्याय दे सकता है और न ही दलितों के साथ न्याय कर सकता है। भारतीय राज्य में न्याय मात्र अमीरों को मिलता है। अगर एक पुलिसवाले ने रतन टाटा को थप्पड़ भी मार दिया होता तो फैसले के लिए 28 साल का इंतजार नहीं करना होता। फैसला वहीं ‘आन द स्पाॅट’ होता।
    क्या भारतीय राज्य की खुफिया एजेन्सियां व पुलिसबल इतना कमजोर है कि वे सामूहिक हत्याकांड के दोषियों का पता लगाने में नाकाम रही हैं या फिर भारतीय राज्य अपने सांप्रदायिक बल पीएसी को बचाकर अपने चरित्र को छिपाना चाह रही है। पहला कारण नहीं हो सकता। सरकार के विरुद्ध किये जाने वाले जनसंघर्षो में शामिल हर व्यक्ति की खुफिया जानकारी रखने वाली खुफिया एजेन्सियां इतनी नपुंसक नहीं हो सकतीं कि वे 41वीं वाहिनी पीएसी के जवानों में से हत्यारों का पता नहीं लगा पातीं। इसके बावजूद कि लिंक रोड पुलिस स्टेशन के उपाधीक्षक वीरेन्द्र सिंह ने बयान दिया था कि घटना की सूचना पर वे घटनास्थल पर गये और उन्होंने उस ट्रक का पीछा भी किया जो 41वीं वाहिनी पीएसी में घुस गया। सही बात यह थी कि खुफिया एजेंसियां व पुलिस का रवैय्या गुनाहगारों तक पहुंचने का था ही नहीं। तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण राय ने जांच रिपोर्ट के प्रति अपनी नकारात्मक टिप्पणी की थी।
    इस प्रकार रात के अंधेरे में किया गया कोई भी कांड अपराधियों की ढाल बन जाता है क्योंकि न्याय की देवी व जांच एजेन्सियां गरीबों, अल्पसंख्यकों, दलितों, मजदूरों के प्रति किये गये अपराध को रात में देखने से मना कर देती हैं। न्याय की देवी तो न्यायाधीशों की आंखों से देखती है पर न्यायाधीश तो पूंजीवादी राज्य के हितों का संरक्षक होता है इसलिए वह दिन के उजाले में भी देखने से इंकार कर देता है। इसलिए न्यायाधीशों को दिन के उजाले में की गई गुजरात से लेकर नंदीग्राम तक व कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक हिंसा दिखाई नहीं देती है।
    राजनैतिक दल उस समय भी अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने गये थे। यहां तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी गये थे। परन्तु सांप्रदायिक राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों से क्या कोई उम्मीद की जा सकती है। पिछले दो दशकों से लगातार सपा व बसपा प्रदेश पर शासन करती रही हैं फिर भी मुसलमानों की राजनीति करने वाले इन राजनैतिक दलों ने सही जांच क्यों नहीं करवाई? इसका जवाब इनके पास नहीं हो सकता।
    जो लोग पूंजीवादी व्यवस्था के वशीभूत होकर कहते हैं कि न्यायालय आलोचनाओं से परे है, कि न्यायालय का फैसला सबको मान्य होना चाहिए लेकिन इस धृतराष्ट्री फैसले को कोई भी कैसे स्वीकार कर सकता है। जब फैसले जाति, धर्म, रंग, नस्ल, वर्ग के आधार पर न्यायाधीश करते हों उस व्यवस्था की न्यायपालिका के फैसलों को जनअसंतोष का सामना करना ही पड़ेगा और फैसलों पर अंगुली भी उठेगी।
    इस देश के अल्पसंख्यकों को पुलिस व पीएसी पर भरोसा पहले ही नहीं था, अब न्यायपालिका से भी भरोसा उठ जायेगा। राजनैतिक दलों के सांप्रदायिक चरित्र को अल्पसंख्यक समूह पहले से ही देख रहे हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि अल्पसंख्यक समूह इस देश के पूंजीवादी निजाम के विरुद्ध होने वाले संघर्षों में बढ़ चढ़कर हिस्सेदारी करें। भारतीय राज्य केवल सांप्रदायिक ही नहीं है वह मजदूर विरोधी, किसान विरोधी, दलित विरोधी, महिला विरोधी, जनजातीय विरोधी व राष्ट्रीय आजादी के लिए होेने वाले आंदोलनों का भी विरोधी है। न्यायालय, पुलिस व सेना का व्यवहार केवल अल्पसंख्यकों के विरुद्ध ही दमनात्मक व हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों का पक्षपोषण वाला नहीं है वरन् सभी मेहनतकशों के विरुद्ध ही दमनात्मक व उत्पीड़क है। गुजरात से लेकर हाशिमपुरा तक के हत्याकांडों के फैसले यही संदेश दे रहे हैं कि इस देश के अल्पसंख्यक इस निजाम का तख्ता उलटने के संघर्ष में साथ दें। केवल ऐसा करके ही, केवल समाजवाद का संघर्ष ही उन्हें उनके उत्पीड़न से मुक्ति दिला सकता है।

तब भी उन्हें देशभक्त होना चाहिए

वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    28 साल कोई कम नहीं होते। और उन लोगों के लिए तो ये बहुत ज्यादा होते हैं जिन्होंने अपने परिजनों को पुलिसिया नरसंहार में खो दिया हो। 28 साल में दो पीढि़यां निकल जाती हैं पर भारत की न्यायपालिका को 41 लोगों की हत्या के मामले में फैसला सुनाने के लिए काफी कम लगता है।
    बात मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार की हो रही है जिसमें उत्तर प्रदेश की पीएसी ने 27 मई, 1987 को हाशिमपुरा से दिन के उजाले में पचासों लोगों को उठाया और फिर रात के अंधेरे में उन्हें गोली मारकर गंगनहर और हिण्डन नदी में बहा दिया। इस मामले में शुरूआती कार्यवाही किसी और ने नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने की और वह भी उसी रात। यह की गयी हिन्दी के सुख्यात या कुख्यात साहित्यकार पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय के नेतृत्व में जो तब गाजियाबाद में तैनात थे। इससे पांच लोगों को बचाया भी जा सका। 
    लेकिन 28 साल बाद जब अदालत ने फैसला सुनाया तो उसने बताया कि ये पांचों बचे हुए गवाह भरोसेमंद नहीं हो सकते क्योंकि रात के अंधेरे में इन घबराये हुए लोगों द्वारा कनटोप पहने पीएसी जवानों को पहचानना मुश्किल था। बाकी सबूत तो भला पुलिस क्या मुहैया कराती। ऐसे में सभी 19 अभियुक्त बाइज्जत बरी हो गये। 
    दिन के उजाले में पीएसी वालों ने लोगों को उठाया था और बाद में उनकी लाशें नहरों के किनारे या पानी में मिली थीं। यह जानना और निश्चित करना कोई मुश्किल नहीं था कि किन पीएसी जवानों व अफसरों ने यह काम किया था। पर अदालत के लिए यह पर्याप्त नहीं था।
    लेकिन भारत की नीचे से लेकर ऊपर तक सारी अदालतों के लिए कोई भी सबूत पर्याप्त हो जाता है जब मामला विरोधी पक्ष का हो यानी शोषित-उत्पीडि़त का। अफजल गुरू के मामले में सर्वोच्च न्यायालय तक फर्जी सबूतों को सही मान लेता है और इससे भी आगे जाकर कहता है कि ‘जन-भावना’ को संतुष्ट करने के लिए अफजल गुरू को फांसी लटकाया जाना जरूरी है। मारुति के मजदूर सारे फर्जी गवाहों के बावजूद जमानत पर छूट नहीं पाते। इसमें फर्जी गवाह वर्णमाला के क्रम में नाम से अभियुक्तों को पहचानते हैं पर न्यायालय को यह सच लगता है। 
    पिछले तीन दशकों से हजारों मुसलमान आतंकवाद के नाम पर जेलों में बिना मुकदमा चलाये बंद हैं- कोई पांच से तो कोई दस-पन्द्रह साल से। इनमें से कोई फर्जी सबूतों के आधार पर निचली अदालतों द्वारा दोषी करार दिये गये हैं। अक्षरधाम मंदिर का मामला इसमें सर्वोपरि है जिसमें दोषियों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूर्णतया निर्दोष ठहराया गया, किसी तकनीकी आधार पर छोड़ा नहीं गया। 
    1993 के मुंबई विस्फोट मामले में मुस्लिम अभियुक्त सजाएं काट रहे हैं (यह मामला संजय दत्त के कारण ज्यादा सुर्खियों में रहा) पर इसके पहले के 1992 के दिसम्बर के दंगों में किसी को सजा नहीं हुई। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद ये दंगे भाजपा-शिवसेना और पुलिस ने अंजाम दिये थे। इसी तरह गोधरा कांड के बाद ढेरों मुसलमान तुरंत पकड़ कर जेलों में डाल दिये गये पर उसके बाद के गुजरात नरसंहार के दोषियों पर मुकदमा चलाने के लिए मानवाधिकार संगठनों को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। 
    इस सबके बावजूद इस देश के उत्पीडि़त मुसलमानों से मांग की जाती है कि वे अपनी देशभक्ति साबित करें। वे हर समय यह दिखाएं कि वे देश के साथ हैं, कि वे पाकिस्तान के हामी नहीं हैं, कि वे आतंकवादी नहीं हैं। 
    हाशिमपुरा के लोगों ने फैसला आने के बाद कहा कि उन्हें इस देश में न्याय नहीं मिल सकता। उन्हें इस नतीजे पर पहुंचाने के लिए सैकड़ों-हजारों तथ्य मौजूद हैं। इन तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता। 
    फिर भी हाशिमपुरा के लोग गलत हैं। यह सच है कि उन्हें इस देश में न्याय नहीं मिल सकता। पर यह इसलिए कि अभी यह देश टाटा-बिडला-अंबानी का है, यह मोदी-अमित शाह, मुलायम सिंह और आजमखान का है। इसमें केवल हाशिमपुरा के लोगों को ही न्याय से वंचित नहीं रखा जाता, इसमें मारुति के मजदूरों को भी न्याय से वंचित रखा जाता है, इसमें बिहार के उन गरीबों को भी न्याय से वंचित रखा जाता है, जो भूमिसेना व रणवीर सेना इत्यादि के कत्लेआम के शिकार हुए। 
    इस देश में न्याय पाने के लिए पहले देश को शोषकों-उत्पीड़कों के हाथ से छीनना होगा। 

पीडीपी-भाजपा सरकार बनने के साथ ही तकरार

वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    जम्मू-कश्मीर में अंततः लम्बी उठा पटक के बाद पीडीपी-भाजपा गठबंधन सत्ता पर काबिज हो गया। पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बन चुके हैं। पर इस गठबंधन के दोनों पक्षों के बीच तनातनी सईद के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही शुरू हो गयी। शपथ लेने के तुरंत बाद सईद ने शांतिपूर्ण चुनाव का श्रेय अलगाववादी नेताओं व पाकिस्तान को दे डाला। भाजपा को सईद का बयान स्वभाविक तौर पर पसंद नहीं आया पर वह मन-मसोस कर रह गयी। पर जब कुछ रोज बाद सईद ने अलगाववादी नेता मसरत आलम की रिहाई की घोषणा कर दी तब तो भाजपा की केन्द्र सरकार की स्थिति अजीबोगरीब हो गयी। यहां तक कि कांग्रेस ने जम्मू में इस कार्यवाही के खिलाफ प्रदर्शन भी शुरू कर दिये। केन्द्र सरकार इस मसले पर केन्द्र की राय न लिये जाने की दुहाई देकर अपने को पाक साफ साबित करने में जुटी रही। इस तरह सत्ता पर बैठते ही पीडीपी-भाजपा आमने-सामने आ डटे हैं। 
    जब विधानसभा चुनाव हुए तो पीडीपी और भाजपा दोनों एक दूसरे के धुर विरोधी की तरह चुनाव लड़ रहे थे। पीडीपी धारा 370 जारी रखने, कश्मीर की स्वायत्तता, आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट को हटाने के वायदे कर रही थी तो भाजपा जम्मू में साम्प्रदायिक राजनीति भड़काने, कश्मीरी मुसलमानों के प्रति नफरत बोने का काम कर रही थी। परिणाम यह हुआ कि भाजपा जम्मू में अपनी साम्प्रदायिक राजनीति फैलाने में काफी हद तक सफल हुई और जम्मू में उसे खासी सीटें हासिल हो गयीं। 
    पर कश्मीर में कहानी एकदम उलट थी यहां भाजपा के प्रति किसी हद तक नफरत का माहौल कायम हो गया था। कहा तो यह जा रहा है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए ही वहां बड़े पैमाने पर मतदान हुआ। यहां नेशनल कांफ्रेस व पीडीपी भाजपा विरोधी प्रचार में जुटी थीं। 
    चुनाव के नतीजों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला पर पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी बन कर सामने आ गयी। ऐसे में पीडीपी व भाजपा शुरू से ही एकसाथ सरकार बनाने के लिए सौदेबाजी में जुट गये। शुरूआत में भाजपा मुख्यमंत्री पद पर अपनी दावेदारी करती रही पर बाद में नेशनल कांफ्रेस व कांग्रेस के पीडीपी को बिना शर्त समर्थन देने से पलड़ा पीडीपी के पक्ष में झुकने लगा। 
    पीडीपी केन्द्र में सत्ताशीन पार्टी के साथ सरकार बनाने को ज्यादा उत्सुक थी इसलिए उसने भाजपा को वरीयता दी। पर ऊपरी नेताओं के बीच सहमति को कार्यकर्ताओं-जनता में स्वीकार्य बनाना कठिन था। इस सौदेबाजी में 2 माह बीत गये। एक अघोषित समझौते में भाजपा को झुकना पड़ा और मुख्यमंत्री पद पीडीपी को देना पड़ा। पीडीपी को बदले में अफस्पा हटाने सरीखी मांग छोड़नी पड़ी। 
    पीडीपी व नेशनल कांफ्रेस दोनों कश्मीरी पूंजीपति वर्ग की पार्टियां हैं। कश्मीरी पूंजीपति वर्ग का भारतीय पूंजीपति वर्ग से तीखा अन्तरविरोध शेख अब्दुल्ला के आत्मसमर्पण के समय से ही कमजोर पड़ गया था। कश्मीरी पूंजीपति भारतीय पूंजीपति वर्ग के साथ अपने हित देखने लगा था। पर फिर भी वह भारतीय केन्द्र से कुछ ज्यादा पाने के लिए स्वायत्ता की मांग जब तब उठाता रहता है। 
    इसीलिए पीडीपी व भाजपा का गठबंधन कायम होना कश्मीरी व भारतीय पूंजीपति के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। पर यह कश्मीरी जनता जो मुक्ति के लिए संघर्षरत है, को अपने पक्ष में रखने के लिए पीडीपी के लिए कठिनाई जरूर पेश कर देता है। 
    कश्मीर की जनता आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए संघर्षरत है। कश्मीरी पूंजीपति वर्ग के आत्मसमर्पण के बावजूद उसका संघर्ष जारी है। ऐसे में पूंजीपति वर्ग की पार्टियों पीडीपी-नेशनल कांफ्रेस को कश्मीरी जनता को अपने पक्ष में करने के लिए उग्र बयान देने को मजबूर होना पड़ता रहा है। हालांकि उनकी खुद की ख्वाहिश थोड़ी स्वायत्तता से ज्यादा नहीं बची है। 
    इन समीकरणों को बीच जब पीडीपी-भाजपा सत्तासीन हुई तो पीडीपी के सामने कश्मीरी जनता से अलगाव में पड़ने का खतरा मौजूद था इस खतरे की भरपाई के लिए ही मुख्यमंत्री सईद अलगाववादियों को धन्यवाद देने, मसरत आलम की रिहाई देने सरीखे कदम उठा रही है। ताकि कश्मीरी जनता को यह समझाया जा सके कि भाजपा के साथ के बावजूद वह कश्मीरी संघर्ष में शामिल है। उसके खिलाफ नहीं है। 
    पर वास्तविकता यही है कि आज न केवल भाजपा-कांग्रेस बल्कि पीडीपी-नेशनल कांफ्रेस कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग के खिलाफ खड़ी हैं। भाजपा के सत्ता में आने का सीधा असर जनता के दमन-उत्पीड़न में बढ़ोत्तरी के रूप में सामने आना है। बहुत जल्द सरकार जनता पर क्रूर हमले बोलने की ओर बढ़ेगी। कश्मीरी संघर्ष के लिए यह सब निश्चय ही जटिल परिस्थिति पैदा कर देगा।  

छिछोरा प्रधानमंत्री

वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    भारत के पूंजीपति वर्ग को ऐसा प्रधानमंत्री मिल गया है जो अपनी वेशभूषा, बोली-वाणी और रहन-सहन से एकदम छिछोरा है। यही सच है भले ही इस पर पूंजीपति वर्ग इतराये या नाक-भौं सिकोड़े। वैसे एक अन्य मुहावरे को बदलते हुए कहा जा सकता है कि हर पूंजीपति वर्ग को वैसा ही प्रधानमंत्री मिलता है जिसके वह लायक होता है। 
    मोदी द्वारा बराक ओबामा की भारत यात्रा के समय दस लखिया सूट पहना जाना इस छिछोरेपन की सबसे भौंड़ी अभिव्यक्ति थी। यह इतनी छिछोरी हरकत थी कि संघियों को इसका बचाव कर पाना मुश्किल हो गया। अंत में उन्होंने इसका रास्ता यह निकाला कि दस लखिया सूट की निलामी कर दी और एक मोदी भक्त से निलामी में मिली चार करोड़ रूपये से ज्यादा की रकम को गंगा सफाई अभियान में लगाने की घोषणा कर दी। इस बहाने संघियों ने सोचा होगा कि दस लखिया सूट का पाप धुल जायेगा। पर जो गंगा अपनी सफाई के लिए लिए दस लखिया सूट की निलामी पर निर्भर करे वे भला इससे उपजे पाप को कैसे धो सकती हैं। पूंजीपतियों के प्रधानमंत्री का छिछोरापन कोई छोटपाप तो होता नहीं। 
    प्रधानमंत्री का छिछोरापन उनके अधिकाधिक भाषणों में भी प्रचंड उग्रता के साथ अभिव्यक्त होता है, खासकर संसद में। संसद में वे इस तरह बोलते हैं मानो वे गली-मोहल्ले के लंपटों यानी बजरंग दल के लोगों की सभा को सम्बोधित कर रहे हों। भाजपाई सांसद इस छिछोरपन पर लहालोट हो जाते हैं। वे इतने जोर से मेजें थपथपातें हैं कि डर लगता है कि कहीं मेजें टूट न जायें। 
    और सबसे रोचक क्षण होता है चुनावी मंचों पर। चुनावी मंच पर यह भूतपूर्व प्रचारक सारी सीमाएं लांघकर मदारियों के स्तर पर उतर आता है। पर मदारियों के लिए जो चीज स्वाभाविक और जीविका कमाने की एक जी-तोड़ कोशिश होती है, इस शख्स के मामले में यह छिछोरेपन की इंतहा हो जाती है। उसकी भाव भंगिमाओं का एक कोलाज तैयार किया जाये तो वह बेहद जुगुप्तिस होगा जैसाकि दिल्ली चुनावों के समय एक प्रयास आज तक तेज चैनल ने किया था।  
    प्रधानमंत्री की यह छिछोरी शैली उनकी विशिष्ट शैली है- ‘उनका अपना स्टाइल’। कम से कम मोदी के उतने ही छिछोरे मुरीदों का यही कहना है। इन मुरीदों के अनुसार मोदी इसी शैली के बल पर लोगों के दिलों पर राज करते हैं। 
    कहना न होगा कि इन मुरीदों की बात में एक सच्चाई है। यदि यह सच न होता तो मोदी इस शैली की वजह से नकार दिये गये होते। 
    यह छिछोरापन आज के भारतीय पूंजीवाद का एक यथार्थ है। ऐसा न होता तो देश में बनने वाली नब्बे प्रतिशत लोकप्रिय फिल्में इस कदर भदेस नहीं होतीं। 
    लेकिन लोकप्रिय फिल्मों का भदेसपन यदि कुछ क्षण का मनोरंजन है, जनमानस का कुछ क्षण का आवारापन है जो जीवन की निरर्थकता और ऊब में कुछ राहत देता है तो पूंजीवादी राजनीति में इसका अवतरण भिन्न महत्व ग्रहण कर लेता है। तब वह कुछ क्षण के विक्षेप का मामला नहीं रह जाता। तब वह किसी स्थाई चीज को अभिव्यक्त करने लगता है। 
    और यह स्थाई चीज है भारत के पूंजीवादी समाज का किसी हद तक लंपटपन। जब देश के बड़े पूंजीवादी घराने सरकारी दस्तावेजों की चोरी करने में लगे हों तथा इसके लिए एक पूरा नेटवर्क विकसित कर रखा हो तो इस लंपटपन की हदों का अनुमान लगाया जा सकता है। 
    कहने की जरूरत नहीं कि लंपटपन का छिछोरपन से नजदीक का संबंध है। इनके वाहकों से किसी गरिमामय व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती। इनका गरिमामय व्यवहार भी एक आवरण मात्र होता है जिसके उतरते ही वास्तविक वीभत्स चेहरा सामने आ जाता है। 
    मोदी और अंबानी-अदाणी के याराना संबंधों के पीछे दोनों का यह चरित्र है। मुकेश अंबानी अपने लिए अरबों का मकान बनवाते हैं तो मोदी दस लखिया सूट चमकाते हैं। दोनों अपने-अपने तरीके से अपने छिछोरेपन को उजागर करते हैं। 
    रतन टाटा सरीखे पुराने पूंजीपतियों को इससे कोफ्त होती है। पर इससे क्या? नया जमाना नये लोगों का है और पुरानों को उसके हिसाब से चलना ही होगा। 

आम आदमी पार्टी में कलह

वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    आम आदमी पार्टी में अरविंद केजरीवाल ने अपनी पकड़ पक्की कर ली है। अभी तक उनकी तानाशाही के जो आरोप लगातार लगते रहे हैं वे प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के राजनीतिक मामलों की समिति से निष्कासन के साथ हर किसी के लिए प्रमाणित हो गये हैं। 
    आम आदमी पार्टी ज्यादातर उन लोगों को लेकर बनी है जो गैर सरकारी संगठनों के कर्ताधर्ता रहे हैं। खासकर अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया किस्म के लोगों का तो सारा सामाजिक जीवन ही गैर सरकारी संगठनों का रहा है। 
    छोटे गैर सरकारी संगठन अपने मालिकों की व्यक्तिगत जागीर होते हैं। वे उन्हें अपने फायदे के लिए अपने हिसाब से चलाते हैं। कोई उनके सामने बोल नहीं सकता और जो बोलने की हिमाकत करता है उसकी छुट्टी हो जाती है। 
    जब केजरीवाल एंड कंपनी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के साथ देश के राजनीतिक पटल पर अवतरित हुई तो वे अपने साथ गैर सरकारी संगठनों की एक संस्कृति लेकर आये। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में किसी भी विरोधी स्वर को कोई इजाजत नहीं थी। अदना से अदना गैर सरकारी संगठन कार्यकर्ता भी इस आंदोलन को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझता था। 
    जब इन लोगों ने एक राजनीतिक पार्टी बनाई तो यही रुख बरकरार रहा। आम आदमी पार्टी कुछ नेताओं की व्यक्तिगत सम्पति थी। बात बस इतनी थी कि इनमें से कौन इसे अंततः अपनी जेब में डालने में कामयाब होता है। 
    और जब दिल्ली प्रदेश के चुनावों में इस पार्टी को आशातीत सफलता मिली तो इसके लिए जंग तेज हो गयी। अब इस बात की उम्मीद के लिए संभावना पैदा हो गयी इस पार्टी के नेता को भविष्य में प्रधानमंत्री पद मिल सकता है। ऐसे में स्वाभाविक था कि नरेंद्र मोदी का दूसरा संस्करण बनने की होड़ लग गयी। 
    यह होड़ अंततः केजरीवाल बनाम योगेन्द्र यादव के रूप में सामने आई। एक रूप में देखा जाय तो ये दोनों पार्टी के भीतर दो ध्रुव बनते भी हैं। 
    अरविंद केजरीवाल साम्राज्यवादियों द्वारा वित्तपोषित और प्रोत्साहित गैर सरकारी संगठनों की पैदावार है। उनके असली आका विश्व बैंक और फोर्ड फाउंडेशन है। वे इन्हीं की विचारधारा में विश्वास करते हैं। इसीलिए वे एक सांस में यह कहते हैं कि वे किसी विचारधारा में विश्वास नहीं करते तो दूसरी सांस में यह कहते हैं कि व्यवसाय करना सरकार का व्यवसाय नहीं है। यह वस्तुतः छुटे पूंजीवाद की विचारधारा है। यह विचारधारा जब इस देश की गरीब आबादी को लुभाने के लिए झूठे-सच्चे वायदों तक पहुंचती है तो इसे इसके नेता के शब्दों में ‘व्यवहारवादी कल्याणवाद’(प्रैग्मेटिक वेल्फेयरिज्म) कहते हैं। 
    इस विचारधारा के लोग योगेन्द्र यादव को अतिवामपंथी विचारधारा का वाहक बताते हैं। असल में योगेन्द्र यादव भी गैर सरकारी संगठनों की पैदावार हैं लेकिन थोड़ा भिन्न किस्म के। वे किशन पटनायक के समाजवादी जन परिषद से जुड़े रहे हैं। इनकी विचारधारा लोहियावादी समाजवाद का अवशेष है यानी पिछड़ी जातियों के छोटी सम्पति वालों के समाजवाद के अवशेष। यह इस सूत्र में अभिव्यक्त होता है कि वे कम्युनिस्टों की तरह अमीरों से छीनकर गरीबों को देने के बदले अमीरों-गरीबों सबके उत्थान के पक्षधर हैं। असल में यह उदारीकरण के पहले के कांग्रेस की नीति पर चलने की कवायद है। योगेन्द्र यादव ने तो एकाधिक बार कहा भी है कि देश की राजनीति में कांग्रेस ने जो जगह खाली की है आम आदमी पार्टी उस जगह को हथिया सकती है। उनके हिसाब से भयानक गरीबी वाले इस देश में इस पार्टी का भविष्य उज्जवल है। 
    जैसाकि पूंजीवादी राजनीति में होता है, सोच का संघर्ष व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाओं के साथ जुड़ा होता है। दोनों एक साथ परवान चढ़ती हैं या धूल-धूसरित होती हैं। व्यक्ति की पराजय उसकी सोच की भी पराजय होती है। 
    आम आदमी पार्टी में केजरीवाल का गैंग विजयी हुआ है। हो सकता है कि यह विजय अंतिम न हो पर इसी के साथ इसमें ‘व्यवहारवादी कल्याणवादी’ की भी विजय हो गयी है यानी विश्व बैंक की सोच से जनकल्याण की विजय जिसके कुछ नमूने ‘मिड डे मील’, ‘आंगनबाड़ी’, ‘शिक्षा मित्र-शिक्षा बंधु’ इत्यादि हैं यानी सरकारी बेगारी। जब व्यवसाय करना सरकार का व्यवसाय न हो तो सरकार जनकल्याण के नाम पर जन से ऐसे ही बेगारी करायेगी जबकि देश में हर रोज नये अरबपति पैदा होते रहेंगे और पहले के अरबपतियों की दौलत छप्पड़ फाड़कर बढ़ती रहेगी। 
    आम आदमी पार्टी की ‘नये तरह की राजनीति’ में आपका स्वागत है। 

मोदी सरकार की धार्मिक सहिष्णुता

वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
       नरेंद्र मोदी जैसे खूंखार नरसंहारक को यह याद आया है कि देश में धार्मिक सहिष्णुता की जरूरत है और राजनीतिक तौर पर हर किसी को अपना धर्म पालन करने की आजादी है। यही नहीं, कोई चाहे तो अपना धर्म बदल भी सकता है। 
    मोदी ने ये मीठे बोल ईसाई मतावलंबियों की एक सभा में कहे। इसके पहले दिल्ली में एक के बाद एक कई घटनाएं हो चुकी थीं जिसमें चर्चों को निशाना बनाया गया था। मोदी सरकार के नियंत्रण वाली दिल्ली पुलिस हर बार यह कहती रही कि मामला धार्मिक नहीं बल्कि चोरी का है पर हर किसी के लिए यह स्पष्ट था कि ये हिन्दू सांप्रदायिकों द्वारा किये गये हमले हैं जो मोदी सरकार के जमाने में बहुत उत्साहित और उद्धत हो चुके हैं। 
    मोदी के दिल्ली में सत्तानशीन होने के बाद से ही हिन्दू सांप्रदायिकों द्वारा ‘लव जेहाद’, ‘घर वापसी’, ‘लाउडस्पीकर विवाद’ इत्यादि अभियान चलाया जा रहा है उसे लेकर बहुत सारे लोग मोदी से मांग कर रहे थे कि मोदी अपने संघ परिवार के इन सांप्रदायिक तत्वों पर लगाम लगायें। इन तत्वों को इन लोगों ने फ्रिंज एलीमेंट्स’ या ‘किनारे के तत्व’ भी कहा।
    इस मांग में यह भावना नीहित थी कि स्वयं मोदी इस तरह की कार्यवाहियों का समर्थन नहीं करते। कुछ लोगों ने यहां तक कहा कि इनके कारण मोदी का अपना वास्तविक एजेंडा यानी विकास का एजेंडा पटरी से उतर रहा है। 
    मोदी से ऐसी अपेक्षा करने वाले और उनसे ऐसी मांग करने वाले लोग वे दक्षिणपंथी लोग हैं जो सांप्रदायिक नहीं हैं और मोदी के नेतृत्व में भाजपा को एक शास्त्रीय दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में उभरते हुए देखना चाहते हैं। वे भाजपा को थैचर की कंजर्वेटिव पार्टी तथा रीगन की रिपब्लिकन पार्टी के रूप में देखना चाहते हैं। जर्मनी की क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी भी इनका माडल हो सकती है।
    अपनी इन्हीं अपेक्षाओं के कारण इन्हें सांप्रदायिक तत्वों की गतिविधियों से परेशानी होती है और वे मोदी से चाहते हैं कि इन तत्वों पर लगाम कसी जाये। ये लोग मोदी के खूंखार सांप्रदायिक अतीत से अंजान नहीं हैं, पर वे चाहते हैं कि मोदी अपने अतीत को पीछे छोड़कर एक खास दिशा में विकास करें, उस दिशा में जिसकी मोदी खुद भी घोषणा करते हैं। 
    पर मोदी नादान नहीं हैं। उन्होंने यदि चाय वाले से दस लखिया सूट पहनने वाले प्रधानमंत्री की यात्रा सम्पन्न की है तो इसके द्वारा एक लम्बा अनुभव भी हासिल किया है। हिन्दू सांप्रदायिकता उनके लिए एक सांयोगिक चीज नहीं है। हिन्दू सांप्रदायिकता उनके लिए वह दस लखिया सूट नहीं है जिसे उन्होंने केवल एक बार पहना और उसके बाद उतार कर रख दिया। हिन्दू सांप्रदायिकता उनकी राजनीतिक चमड़ी का हिस्सा है, जिसे उतारा नहीं जा सकता। हां, इसे छिपाने के लिए धार्मिक सहिष्णुता के वक्तव्यों का लबादा ओढ़ा जा सकता है। 
    यदि संघ परिवार के हिन्दू सांप्रदायिक तत्व भांति-भांति के तरीके से सक्रिय हैं तो यह मोदी की जानकारी और सहमति से हो रहा है। जो मोदी अपने किसी भी मंत्री को जरा भी स्वायत्तता देने को तैयार नहीं हैं, वह इन हिन्दू सांप्रदायिकों पर लगाम लगाने में मिनट भर नहीं लगायेगा, यदि उसकी मंशा हो पर मोदी की यह मंशा नहीं है। 
    लोकसभा चुनावों के समय से ही मोदी की एक रणनीति रही है। इस रणनीति के तहत मोदी विकास की बात करते हैं और सांप्रदायिक बातों से परहेज करते हैं। पर अमित शाह के नेतृत्व में पूरा संघ परिवार हर तरह का सांप्रदायिक विद्वेष फैलाकर हिन्दू मतों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में लगा रहा है। बिहार और उत्तर प्रदेश में अप्रत्याशित जीत उन्होंने इसी तरह से हासिल की। 
    तब से यह रणनीति जारी है। इसी के तहत सारे ‘फ्रिंज तत्व’ सक्रिय हैं। इसी के तहत संविधान से धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाने पर बहस छेड़ी जाती है। इसी के तहत चर्चों पर हमले होते हैं। 
    भविष्य में यदि दिल्ली चुनावों की तरह भाजपा की हार होती है तो यह सांप्रदायिक एजेंडा खुलकर सामने आ जायेगा और मोदी की सारी धार्मिक सहिष्णुता गायब हो जायेगी। 

बन्जारा जैसों के अच्छे दिन

वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)

    गुजरात के कुख्यात पुलिस अधिकारी जो ‘मुठभेड़ विशेषज्ञ’ माने जाते थे, करीब आठ साल बाद जेल से बाहर आ गये हैं। वे सोहराबुद्दीन और इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ मामले में इतने सालों से जेल में बंद मुकदमों का सामना कर रहे थे। इन मामलों में जमानत मिलने के बाद भी उन्हें गुजरात में रहने की इजाजत नहीं मिली है। 
    जमानत पर रिहा होने के बाद बन्जारा ने कहा कि उनके जैसे लोगों के अच्छे दिन आ गये हैं। ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, मोदी का मुख्य चुनावी नारा था। 
    बन्जारा की तरह कई अन्य पुलिस अधिकारी भी इस तरह के फर्जी मुठभेड़ों के मामलों में तब पकड़े गये जब एक के बाद एक इस तरह के मामलों का खुलासा हुआ। ‘इनकाउंटर आन सैफ्रन एजेंडा’ नामक डाकूमेंटरी फिल्म में इनके पांच फर्जी मुठभेड़ों का वर्णन है। 
    ये सभी फर्जी मुठभेड़ नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद हुई थीं। इन सभी फर्जी मुठभेड़ों के मामले में गुजरात पुलिस का एक ही बयान होता था- ये आतंकवादी मोदी को मारना चाहते थे और गुजरात पुलिस ने कुशलता के साथ इन्हें पहले ही मार गिराया। यहां यह याद रखना होगा कि अक्षरधाम मंदिर पर तथाकथित आतंकी हमले में बाद में जिन लोगों को पकड़ा गया और फांसी की सजा सुनाई गयी उन्हें ठीक 16 मई को यानी मोदी की विजय के दिन सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल दोषमुक्त कर दिया बल्कि गुजरात सरकार को इन्हें फर्जी तरीके से फंसाने के लिए डांट भी सुनाई तब तक ये लोग जेलों में ग्यारह साल काट चुके थे जिसमें से अच्छा-खासा हिस्सा फांसी की सजा के आतंक में कटा था। 
    बन्जारा जैसे लोग तब सलाखों के पीछे हुए जब फर्जी मुठभेड़ों को छिपा पाना मुश्किल हो गया और केंद्र की संप्रग सरकार को इसमें अपना राजनीतिक फायदा दिखा। इसमें व्यवस्था को बचाने में लगे सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक सक्रियता तथा पुलिस अधिकारियों की आपसी खुन्नसें सब शामिल हैं। 
    शुरू में मोदी की गुजरात सरकार ने इन्हें बचाने की सारी कोशिशें कीं लेकिन बाद में उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया। इसी से दुःखी होकर बन्जारा ने 2013 में मोदी को चिट्ठी लिखी थी कि सारी मुठभेड़ंे आपकी और आपके दाहिने हाथ अमित शाह की जानकारी में हुई थीं पर आपने हमेें मझधार में छोड़ दिया। 
    अब केन्द्र में मोदी-शाह की सरकार काबिज हो गयी है तब ये सी.बी.आई. का इस्तेमाल कर बन्जारा जैसे लोगों को बचा सकते हैं। संप्रग सरकार के दौरान सी.बी.आई. ने बन्जारा जैसों को जेल में डाला। अब मोदी-शाह की सरकार के दौरान इन्हें जमानत दी जा रही है। स्वयं बन्जारा ने ही इसे तस्दीक किया। उन्होंने बाहर आ कर कहा कि उनके जैसे लोगों को राजनीतिक साजिश के तहत फंसाया गया था। अब उनके अच्छे दिन आ गये हैं। यानी वे एक राजनीतिक फैसले के तहत जेल गये थे और अब एक राजनीतिक फैसले के तहत बाहर आये हैं।
    बात केवल बन्जारा की नहीं है। उनके जैसे कितने राजनीतिक अपराधी हैं जिनके अच्छे दिन आ गये हैं। इसमें सबसे ऊपर तो स्वयं नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही हैं, जिनके सारे गुनाह चुनाव जीत जाने के कारण छिप गये हैं। गुजरात का 2002 का नरसंहार इतना बड़ा था और उसमें मोदी व उनके प्रशासन की भूमिका इतनी स्पष्ट थी कि उसे किसी भी तरह नहीं छिपाया जा सकता था। जो अमेरिका मोदी को इतना प्रिय था उसने मोदी को अपने यहां आने पर पाबंदी लगा दी। 
    लेकिन लोकसभा चुनावों में विजयी होकर मोदी दोषमुक्त हो गये हैं। उनके अच्छे दिन आ गये हैं। और अब वे अपने सारे साथी गुनाहगारों को दोषमुक्त करने में लग गये हैं। कम से कम अपनी ओर से वे सारा प्रयास करेंगे। बाकी का काम भारत की अदालतें कर डालेंगी जो दोषियों को दोषमुक्त और बेगुनाहों को गुनाहगार घोषित कर देती हैं । 
    नरेंद्र मोदी-अमित शाह और बन्जारा इत्यादि का सारा किस्सा इस बात का खुलासा करता है कि भारत की पूंजीवादी व्यवस्था आज वास्तव में कैसे चल रही है। कैसे इसमें लोग राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाते हैं और कैसे इसे अंजाम देने वाले अपराधी न केवल बच निकलते हैं बल्कि सत्ताशीर्ष पर जा बैठते हैं। शोषित-उत्पीडि़त जनता को कानून का पाठ पढ़ाया जाता है, जबकि वास्तविक अपराधी अपराध कर खुल्लमखुल्ला घूमते हैं और व्यवस्था को चलाते हैं। ऐसी पतित व्यवस्था के दिन कितने लम्बे हो सकते हैं?

केन्द्र सरकार की नई बाजीगरी: आंकड़ों में हेराफेरी से विकास दर बढ़ायी

वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)

    मोदी सरकार के पिछले 9 महीने देश की अर्थव्यवस्था के लिहाज से कुछ बेहतर नहीं गुजरे हैं। औद्योगिक उत्पादन ठहराव का शिकार बना हुआ है। कृषि व सेवा क्षेत्र के हालात भी कुछ ठीक नहीं हैं। मोदी के बार-बार विदेश में कटोरा ले के जाने के बावजूद विदेशी निवेश में कुछ खास वृद्धि नहीं हुई है। देश की आर्थिक विकास दर 5 प्रतिशत के इर्द-गिर्द ही है। ऐसे वक्त में जब आर्थिक विकास आगे न बढ़ रहा हो, तब मोदी सरकार ने विकास की खुशनुमा तस्वीर पेश करने के लिए आंकड़ों की बाजीगरी करनी शुरू कर दी है। इस बाजीगरी में सकल घरेलू उत्पाद को आंकने का तरीका बदल दिया गया है साथ ही आधार वर्ष के बतौर 2004-05 की जगह 2011-12 का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया गया  है। इसी बाजीगरी का परिणाम यह निकला कि देश की मौजूदा विकास दर 7.4 प्रतिशत तक जा पहुंची और इसके लिए मोदी ने अपना सीना ठोकते हुए भारत को दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित होती हुई अर्थव्यवस्था घोषित कर दिया। 30 जनवरी को राष्ट्रीय सांख्यिकी विभाग ने सकल घरेलू उत्पाद के गणना के नये तरीके की घोषणा की। अभी तक रिजर्व बैंक आफ इंडिया के सैपंल डाटा के जरिये सकल घरेलू उत्पाद का आंकलन किया जाता था। इसकी जगह अब कारपोरेट मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाने लगा है। ये आंकड़े प्राइवेट कंपनियों द्वारा प्रस्तुत किये गये वार्षिक बही खाते पर आधारित होते हैं। आंकड़ों की इस हेराफेरी से विभिन्न क्षेत्रों में सकल मूल्य वृद्धि में खासा परिवर्तन आ गया जिसे तालिका-1 में दिखाया गया है। तालिका-1 से स्पष्ट है कि कुछ एक क्षेत्रों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों में सकल मूल्य वृद्धि की विकास दर छलांग लगाके बढ़ गयी है। कुछ मामलों में तो ये ऋणात्मक से धनात्मक हो गयी है। मैनुफैक्चरिंग और व्यापार में बढ़त बहुत ज्यादा है। 
    इन आंकड़ों की दूसरी विशेषता यह है कि सकल बचत, सकल पूंजी निर्माण व सकल मूल्य वृद्धि में सरकारी क्षेत्र व घरेलू क्षेत्र की भागीदारी कम प्रदर्शित की गयी है व निजी कारपोरेट क्षेत्र की भागीदारी बढ़ गयी है। कारपोरेट क्षेत्र के मंत्रालय के आंकड़ों पर आधारित होने का यह जरूरी खामियाजा होना था। 
    आंकड़ों की तकनीकी गणित में न भी जाया जाये तो भी नये बदलावों से यह स्पष्ट है कि नये आंकड़े वास्तविकता से कहीं अधिक दूर हैं। मौजूदा समय में औद्योगिक उत्पादन विकास दर ठहराव का शिकार है। परंतु सकल मूल्य वृद्धि विकास दर इस क्षेत्र में लगभग 5 प्रतिशत हो रही है। जाहिर है मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को खुशनुमा तो नहीं बना सकती पर आंकड़ों में हेरफेर कर जनता की आंखों में धूल जरूर झोंक सकती है।  7.4 प्रतिशत की विकास दर को प्रस्तुत कर वह देश की भूखी, बेरोजगार जनता को दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के झूठे घमंड में डुबोने का असफल प्रयास कर रही है। 

मोदी और यशोदाबेन

वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)

    बराक ओबामा जब भारत की यात्रा पर आये तो उनके साथ उनकी पत्नी मिशेल ओबामा भी आई। अखबारों में खबरिया चैनलों में उनकी चर्चा भी खूब हुई, खासकर उनके फैशन को लेकर। इस तरह की बातें मिर्च-मसाला वाली खबरें साबित होती हैं और अखबारों-पत्रिकाओं के लिए खुराक साबित होती हैं। 
    लेकिन ठीक जिस समय बराक ओबामा की पत्नी सुर्खियां बन रही थीं, उस समय बराक ओबामा को अपना मित्र कहने वाले नरेंद्र मोदी की पत्नी यशोदाबेन कहां थीं? उनके फैशन की क्या स्थिति थी? क्या बराक और मिशेल ने मोदी से पूछा कि श्रीमान जी आपकी पत्नी कहां हैं?
    उस समय यशोदाबेन गुजरात के एक दूर-दराज कस्बे में गुजरात पुलिस की सुरक्षा में रो-बिसर रही थीं। वे अपनी किस्मत को रो रही थीं कि नरेंद्र मोदी से कभी विवाह हुआ था। 
    यशोदाबेन की व्यथा-कथा सचमुच बेहद मार्मिक है। पर इस समय चौबीस घंटे चलने वाले और मसाला ढूंढने वाले खबरिया चैनलों का विषय नहीं बनती। अखबारों में भी कहीं कोने में कभी कोई खबर आ जाती है। 
    कुछ समय पहले ऐसी ही एक उपेक्षित खबर छपी कि यशोदाबेन ने सूचना अधिकार के तहत गुजरात पुलिस से यह पूछा कि उन्हें पुलिस की सुरक्षा किस वजह से दी गयी है क्योंकि उन्होंने तो सुरक्षा मांगी ही नहीं। उन्होंने शिकायत की कि उन्हें इन सुरक्षाकर्मियों से जान का खतरा है। 
    गुजरात पुलिस को यह मांग रास नहीं आई। उसने गोपनीयता का हवाला देकर जवाब देने से मना कर दिया। यशोदाबेन ने उससे ऊंचे स्तर से जवाब मांगा पर जबाव नदारद है।  
    इस बीच दूरदर्शन के एक छोटे संपादक ने बेवकूफी कर दी। उसने यशोदाबेन से संबंधित यह खबर एक समाचार बुलेटिन में डाल दी। फिर क्या था उसकी शामत आ गयी। खबर है कि उसे अंडमान निकोबार स्थानांतरित कर दिया गया। उसे अंग्रेजों के जमाने के काला पानी भेज दिया गया। सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा निर्धारित प्रसार भारती के तहत चलने वाले दूरदर्शन में यह हिमाकत मोदी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।     
    मोदी की पत्नी की यह व्यथा-कथा से पुराने सामंती जमाने की इस तरह की बहुत सी कथाएं याद आ जाती हैं। फ्रांस में एक राजा द्वारा एक नकाबपोश कैदी रखे जाने पर तो हालीबुड में फिल्म भी बन चुकी है। अमृतलाल नागर के उपन्यास शतरंज के मोहरे में भी एक ऐसे ही कैदी का जिक्र आता है। 
    पर ये सब सामंती जमाने की बातें हैं जब राजा निरंकुश होते थे और चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनल नहीं होते थे। तब वे जो चाहे कर सकते थे और लोग या तो जानते नहीं थे या फिर जानने के बावजूद डर के मारे चुप रहते थे।  
    पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस ज्ञात कैदी पर यह चुप्पी क्यों है? क्यों उसकी चर्चा नहीं होती? क्यों उसकी छोटी सी खबर प्रचारित करने वाला संपादक कालेपानी स्थानांतरण की सजा पाता है। क्यों बराक मोदी को यह नसीहत नहीं देते कि बेटियों की चिंता करने वाले श्रीमान जरा अपनी पत्नी की चिंता कर लेते और उसे अघोषित कैद से मुक्त कर देते। यदि उसे अपने साथ प्रधानमंत्री निवास में रखकर उसे अपनी तरह का दस लाख का सूट नहीं पहना सकते या मिशेल ओबामा की तरह उसे बनारसी साड़ी भेंट नहीं दे सकते तो कम से कम उसे उसके हाल पर तो छोड़ देते। 
    पर ये सारे लोग यह बात नहीं कहेंगे। इनमें से किसी को भी एक जीवित व्यथा-कथा की चिंता नहीं, भले ही वे अमूर्त ढंग से नारी व्यथा पर आंसू गिराते रहें। 
    पूंजीवादी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की यही हद है। इसका स्वप्रतिबंध इतना मजबूत है कि वह मुनाफे और वर्ग स्वार्थ के आगे अंगुली भी नहीं हिला सकता। समूचा पूंजीवादी प्रचारतंत्र आज अपने इन्हीं स्वार्थों के वशीभूत मोदी का गुणगान कर रहा है। ऐसे में वह मोदी को शर्मशार करने वाली इस खबर को कहीं जगह नहीं दे सकता। 
    जहां तक मोदी का सवाल है, स्वपूजा में आपादमस्तकरत यह शख्स यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई उसे उसके अतीत की याद दिलाए। इसीलिए यशोदबेन ताउम्र अघोषित कैद में ही रहेंगी। 

मैं और मेरा दस लखिया सूट

वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    खाकी नेकर, सफेद कमीज और लाठी को अपनी वेशभूषा बनाकर नौजवानों को सादगी और देशभक्ति का पाठ पढ़ाने वाले संघ के नंबर एक स्वयंसेवक, जो गर्व से स्वयं को पूंजीपतियों का प्रधान सेवक कहते हैं, ने सारे देश के सामने अपनी सादगी का एक ऐसा नमूना पेश किया है जो लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। सादगी का यह नमूना है उनका दस लाख रुपये का सूट जो उन्होंने बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान पहना हुआ था। 
    इस सूट के प्रदर्शन के अगले दिन यह खबर फैली कि सूट में दूर से नजर आने वाली सफेद धारी असल में धारी नहीं थी बल्कि वह अंगे्रजी अक्षरों में नरेंद्र मोदी का पूरा नाम था। बारीक अक्षर एक के नीचे एक होने के कारण दूर से सफेद धारी का भ्रम पैदा कर रहे थे। यह भी खबर आई कि इस तरह के कपड़े का निर्माण दुनिया की एक ही कंपनी विशेष आदेश पर करती है और इससे बने सूट की कीमत दस लाख रुपये होगी। 
    अब सवाल यह नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने यह सूट अपने पैसे से बनवाया या सरकारी पैसे से बना। अथवा कि यह उन्हें संघ परिवार ने भेंट किया या अंबानी-अदानी प्रजाति के किसी जीव ने। सवाल यह है कि यह भूतपूर्व संघी स्वयंसेवक, जो अपनी इस उत्पत्ति को लगातार रेखांकित करता रहता है, वह इस सूट में क्या देखता है जो वह इसकी नुमाइश करता है?
    मनोवैज्ञानिक किस्म के लोग इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने में लगे हैं। वे इसे मोदी की भयंकर ‘स्वपूजा’ का परिणाम बता रहे हैं। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि यह उस हीनभावना से उपजता है जो उनकी पृष्ठभूमि के कारण उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है और जिसे वे गा-गाकर सबको सुनाते रहे हैं। यह बराक ओबामा जैसे दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के सामने थोड़ा बराबरी महसूस करने की आकांक्षा के तौर पर देखा जा रहा है। संक्षेप में यह कि यह एक नौदौलतिये की भदेश छटपटाहट है। 
    व्यक्तिगत तौर पर ऐसा कुछ भी हो सकता है। पर व्यक्तिगत मनोगत विज्ञान से अलग इस दस लखिये सूट का क्या राजनीतिक मतलब है? यह मोदी और मोदी सरकार की किस राजनीतिक दिशा की ओर संकेत करता है?
    नरेंद्र मोदी अपनी विशेषताओं को गिनाते हुए यह भी कहते हैं कि वे ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जो आजादी के बाद पैदा हुए हैं। यह सच भी है लेकिन इसका एक ऐसा अर्थ भी है जो मोदी कभी नहीं बताना चाहेंगे। 
    अभी तक के प्रधानमंत्रियों की विशेषता थी कि वे पूंजीपति वर्ग की सेवा करते हुए भी यह जताने में ऐड़ी-चोटी एक कर देते थे कि उनकी सरकार देश के गरीबों की सरकार है। नेहरू ने खुद को समाजवादी बताया तो इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दे दिया। वाजपेयी ने 1980 में भाजपा बनते समय उसके संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को पार्टी का लक्ष्य घोषित करवा दिया जो अभी भी भाजपा संविधान की शोभा बढ़ा रहा है भले ही आज भाजपाई नेता भारत के संविधान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के शब्द को निकलवाने की बहस चला रहे हों। नरसिंहराव और मनमोहन सिंह ने मध्यम वर्ग की बात तो की पर वे उसी सांस में गरीबों की भी बात करते रहे। 
    अब मोदी जैसे नेता स्वयं को इस बंधन से मुक्त मानते हैं। मोदी खुलेआम पूंजीपतियों की संगत में देखे जाते हैं और वे इसे अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित करते हैं। अंबानी-अदानी से सांठ-गांठ के आरोप पर न तो वे पीछे हटते हैं और न ही कोई सफाई देते हैं। बल्कि पूरी बेशर्मी के साथ वे भारतीय स्टेट बैंक के चैयरमैन को सामने बैठाकर अदानी को बासठ सौ करोड़ रुपये का कर्ज भी दिला देते हैं। 
    याराना पूंजीवाद को आगे बढ़ाते हुए पूंजीपतियों का यह यार इस पर शर्मसार नहीं है। बल्कि वह अपनी इस यारी पर इतराता है और पूरी शान के साथ उस मध्यम वर्ग में इसे अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित करता है जो स्वयं भी पूंजीपतियों से इस यारी के सपने देखता है। मध्यम वर्ग के इस सपने को मोदी स्वयं में फलीभूत होते दिखाते हैं और उसमें यह उम्मीद जताते हैं कि उनमें से भी कोई अंबानी-अदानी के बगलगीर हो सकता है। मध्यम वर्ग इस हसीन सपने पर पुलकित होता है और इसीलिए मोदी के दस लखिया सूट पर नाक-भौं सिकोड़ने के बदले वह उसे हसरत भरी नजरों से देखता है। मोदी ने तो उसकी उपभोक्तावादी आकांक्षाओं को ही चरम पर पहुंचाया होता है। 
    रही मजदूर-मेहनतकश जनता तो वह जाये भाड़ में। उसको मिलने वाली सरकरी राहत में हर संभव तरीके से कटौती की जानी चाहिए जिससे अपने आका पूंजीपति वर्ग के मुनाफे को बढ़ाकर उसे और खुश किया जा सके। 

बिहार और झारखण्डः  पूंजीवादी राजनीति के दो नमूने

वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    भारत की पूंजीवादी राजनीति के विद्रूप चेहरे की ताजा मिसाल बनकर बिहार और झारखण्ड उभरे हैं। दोनों ही जगह सत्ता में पकड़ बनाये रखने के लिए वह सब कुछ किया जा रहा है जो भारतीय पूंजीवादी राजनीति में वर्षों से चल रहा है।
    बिहार में जद(यू) की कलह जगजाहिर हो गई। नीतिश कुमार ने लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और एक प्यादे जीतनराम मांझी को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया था। मांझी को जब नीतिश कुमार ने लालू यादव की तर्ज पर (जिन्होंने भ्रष्टाचार में जेल जाने के बाद अपनी बीबी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया था) चलाना चाहा तो उन्होंने अपने आका को आंखें तरेरनी शुरू कर दी। नीतिश ने जब अपने को पुनः मुख्यमंत्री बनाना चाहा तो मांझी ने प्रधानमंत्री से लेकर पटना उच्च न्यायालय सबकी शरण ले ली। भारतीय जनता पार्टी नीतिश कुमार को सबक सिखाने के लिए अपने विश्वस्त पार्टी नेता केसरी नाथ त्रिपाठी जो कि अब बिहार के राज्यपाल हैं का खुलकर इस्तेमाल कर रही है और भाजपा जीतनराम मांझी को एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल कर रही है।
    बिहार की तरह झारखण्ड में भी भाजपा वही घृणित खेल रही है। भाजपा को झारखण्ड में मोदी के आक्रामक प्रचार और अमित शाह के बूथ मैनेजमेंट के बावजूद बहुमत नहीं मिल पाया था। तब इसे आजसू (आल झारखण्ड स्टूडेंट यूनियन) के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनानी पड़ी थी। अब उसने झारखण्ड विकास मोर्चा के 7 विधायक तोड़कर और उन्हें भारतीय जनता पार्टी में शामिल कर आवश्यक बहुमत (81) सदस्यों की विधानसभा में उसकी संख्या 43 हो गई, शामिल कर लिया। झारखण्ड में इस तरह धूर्ततापूर्ण ढंग से भाजपा ने वह हासिल कर लिया जो उसे चाहिये था।
    बिहार और झारखण्ड की ये घटनाएं भारतीय जनता पार्टी के चाल चरित्र को फिर से एक बार उद्घाटित कर देती हैं। दल बदल करवा के झारखण्ड में भाजपा ने सत्ता पर पकड़ तो मजबूत कर ली परन्तु यह भी दिखला दिया कि झारखण्ड जो कि खनिज सम्पदा से भरपूर राज्य है वहां वैसी ही घृणित राजनीति चलती रहेगी जैसी इस राज्य के जन्म के साथ चल रही है। वहीं बिहार में भाजपा राज्यपाल का इस्तेमाल कर वहीं सब कुछ कर रही है जिसके लिए पहले कांग्रेस पार्टी बदनाम रही है। राज्यपाल जीतनराम मांझी को बहुमत साबित करने के लिए जानबूझकर लम्बा समय दे रहे हैं ताकि वह ढंग से खरीद-फरोख्त कर सके। और ऐसे में वे कामयाब न हो पाये तो विधानसभा भंग करने की सिफारिश करे तो राज्यपाल इसे मानकर तुरन्त लागू करवा दे। मजदूर-मेहनतकश पूंजीवादी पार्टियों के तमाशे को लम्बे समय से देख रहे हैं। देखने वाली बात यह है कि वे कब इस तमाशे से उकताते हैं और कब इसे बंद करवाते है। 

सरस्वती वंदना क्यों सीधे शाखा लगाने को कहो!

वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
​    मोदी सरकार के चेले-चपेटों का हिन्दुत्व के एजेंडे को लगातार आगे बढ़ाना जारी हैं। भाजपा शासित राज्यों में इनकी गति काफी तेज है। इसी कड़ी में गुजरात में अहमदाबाद में स्कूल बोर्ड द्वारा बसंत पंचमी के मौके पर सभी स्कूलों में सरस्वती वंदना कराने का फतवा जारी कर दिया गया। 19 जनवरी को जारी अधिसूचना में कहा गया कि बसंत पंचमी के मौके पर विद्या की देवी सरस्वती को याद किया जाता है। छात्रों को शिक्षा का महत्व समझाने के लिए स्कूलों में सरस्वती पूजा आयोजित करने की आवश्यकता है और प्रार्थना के दौरान छात्रों से सरस्वती वंदना करायी जाय।
    अहमदाबाद नगर निगम के स्कूल बोर्ड के तहत अहमदाबाद में 450 प्राथमिक विद्यालय हैं। इनमें से 64 उर्दू माध्यम के स्कूल हैं जो मुस्लिम बहुल इलाकों में हैं। इन सारे स्कूलों के लिए उपरोक्त अधिसूचना जारी की गयी है। इस तरह जबरन मुस्लिम बच्चों से सरस्वती वंदना गुजरात सरकार करवायेगी।
    ध्यान देने योग्य है कि सरस्वती वंदना अब तक संघ द्वारा संचालित शिशु मंदिरों-विद्या मंदिरों में प्रार्थना के रूप में स्थापित रही है। बसंत पंचमी के दौरान सरस्वती पूजन भी इन्हीं स्कूलों में किया जाता रहा है। इन्हीं स्कूलों में 6 दिसम्बर को घी के दिये जलाना सिखाया जाता रहा है। इन्हीं स्कूलों में मांस न खाने की शिक्षा दी जाती रही है। 
    अब मोदी के सत्ताशीन होने पर शिक्षा के क्षेत्र में संघ का स्पष्ट एजेंडा यह है कि सभी सरकारी-निजी स्कूलों कों शिशु मंदिर-विद्या मंदिर में तब्दील कर दिया जाय। इसी के लिए संघ भाजपा सरकारों पर दबाव डाल रहा है और भाजपा सरकारें एक से बढ़कर एक तालिबानी फतवे जारी कर रही हैं। 
    कभी ये फतवे मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति इरानी जारी करती हैं तो कभी इन्हें राज्य सरकारें जारी करती हैं। भारतीय संस्कृति के नाम पर हिन्दू संस्कृति को थोपने का पुरजोर प्रयास किया जा रहा है। इस हिन्दू संस्कृति के भी कूपमंडूक ज्योतिष आदि को हर सरकारी नेता स्थापित कर रहा है। कूपमंडूकता को ही विज्ञान घोषित किया जा रहा है। वेदों में, महाकाव्यों के पुष्पक विमानों की कल्पना को प्राचीन तकनीक करार दिया जा रहा है और अब सबको सरस्वती वंदना कर सरस्वती को हिन्दू देवी से राष्ट्रीय देवी बनाने के प्रयास शुरू हो गये हैं। 
    भगवाकरण की इस संघी मुहिम में अब वह दिन दूर नहीं जब नया फतवा यह आयेगा कि संघ की तरह सभी सरकारी, गैरसरकारी संस्थान, स्कूल, अदालतें, पुलिस, सेना सभी रोज सुबह शाम शाखा लगायेगी। शाखा में प्रवचन हेतु संघ के सदस्यों को नियुक्त किया जाय आदि-आदि।
    हिन्दुत्व की यह बढ़ती देश की गैर हिन्दू आबादी के साथ समूची जनता के लिए घातक है। यह सभी को हिन्दू श्रेष्ठता की हिटलरी दम्भ की ओर ले जाती है। इसका विरोध करना जरूरी है। 
    पूंजीवादी विपक्षी दल हिन्दुत्वकरण के इस एजेंडे पर दिखावटी विरोध से आगे नहीं बढ़ सकते। इससे आगे मेहनतकश जनता को ही बढ़ना होगा और हिटलर के चेलों का हिटलर सरीखा हश्र दोहराना होगा।

केजरी, बेदी, बिन्नी इत्यादि-इत्यादि

वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    दिल्ली विधान सभा चुनावों के ठीक पहले पूंजीवादी पार्टियों के नेताओं के पाला बदलने की घटनाएं जोर-शोर से हो रही हैं। कांग्रेस, भाजपा और आआप के नेता एक-दूसरे में आ-जा रहे हैं। जहां विरोधी पार्टी के नेता के शामिल होने पर तालियां बजायी जा रही हैं वहीं अपनी पार्टी के नेताओं के मामले में मामले को रफा-दफा किया जा रहा है। 
    दूसरी पूंजीवादी पार्टियों को ‘राजनीति कैसे की जाती है’ सिखाने का दंभपूर्ण दावा करने वाली आम आदमी पार्टी के बिन्नी और इल्मी जैसे बड़बोले नेता भाजपा में जा चुके हैं और कभी केजरीवाल के साथ रामलीला मैदान में नाचने वाली किरन बेदी भाजपा में शामिल होकर मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार घोषित हो गयी हैं। भाजपा जैसी पूंजीवादी पार्टियों ने मानो केजरीवाल एण्ड कंपनी को यह दिखाना तय कर लिया है कि पूंजीवादी राजनीति कैसे चलती है।
    वैसे आम आदमी पार्टी के नेता पिछले साल भर में काफी कुछ सीख गये हैं। यही कारण है कि लोकपाल बिल मुद्दे पर अपनी सरकार का इस्तीफा देने वाले आआप के नेतागण इस चुनाव में उसका भूले से भी नाम नहीं ले रहे हैं। वे अपना सारा ध्यान बिजली-पानी के मुद्दे पर लगाये हुए हैं। वे जनता से वादा कर रहे हैं कि सरकार में वापस आने पर वे इस दिशा में पहले से ज्यादा काम करेंगेे।
    बिजली-पानी का मुद्दा दिल्ली में गरीब आदमी से जुड़ा हुआ है, ‘आम आदमी’ या मध्यम वर्ग से नहीं। पिछले चुनावों में सभी लोगों समेत आआप के नेतागण भी आश्चर्यचकित रह गये जब दिल्ली की झुग्गी बस्तियों और गरीब कालोनियों के लोगों ने बिजली-पानी के लिए आआप को वोट दे दिया। केजरीवाल ने तो इसे दैवी चमत्कार ही मान लिया। 
    अब वे एक बार फिर इस आबादी को अपने वायदों से लुभाकर इसका वोट लेना चाहते हैं। उनके लिए यह और भी जरूरी हो गया है क्योंकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उनके साथ आया मध्यम वर्ग इस बीच मोदी का दीवाना हो चुका है। मोदी के भांति-भांति के वायदे उसे आकर्षित कर चुके हैं। 
    लेकिन इस बीच केजरीवाल एण्ड कंपनी इतनी पूंजीवादी राजनीति सीख चुके हैं कि केजरीवाल भूल कर भी मोदी को निशाना नहीं बनाते। वे अभी भी उम्मीद करते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर मोदी को पसंद करने वाला मध्यम वर्ग दिल्ली प्रदेश के स्तर पर उन्हें स्वीकार कर सकता है। उनका बस चलता तो वे मध्यम वर्ग में एक समय प्रचलित धारणा को अपना नारा ही बना लेते-‘मोदी फाॅर पीएम, केजरीवाल फार सी एम’। 
    आम आदमी पार्टी और भाजपा की यह जुगलबंदी अनायास नहीं है और न ही मोदी और केजरीवाल की। हिन्दू साम्प्रदायिकता को छोड़ दें तो दोनों बिल्कुल समान हैं, हमजादे हैं।
    केजरीवाल ने मोदी पर आरोप लगाया है कि वे अंबानी-अदाणी की जेब में हैं। पर इस आरोप के ठीक बाद वे पूंजीपतियों की सभा में पहुंचे थे और कहा था कि व्यवसाय करना सरकार का व्यवसाय नहीं है। उदारीकरण का यह बहुचर्चित नारा ऐसा है जिसे लगाने की हिम्मत मोदी को भी न हुई है। मोदी और केजरीवाल दोनों ही छुट्टे पूंजीवाद के दिली समर्थक हैं। 
    दोनों ही अपनी प्रकृति से फासीवादी हैं और उन्हें किसी भी तरह का विरोध प्रदर्शन बर्दाश्त नहीं है। कभी कार्यकर्ता आधारित पार्टी का दावा करने वाली भाजपा अब मोदी की पार्टी बनकर रह गयी है। भाजपा को मोदी और उनके गुर्गे अमितशाह चला रहे हैं। इनका विरोध करने वालों का तुरंत पत्ता साफ हो जाता है। 
    आम आदमी पार्टी की भी यही हालत है। एक के बाद एक कई नेता यह आरोप लगा चुके हैं कि इस पार्टी में केवल एक व्यक्ति की चलती है। उसका विरोध करने वाले को बाहर का रास्ता देखना पड़ता है। इस पार्टी का यह फासीवादी चरित्र सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं में मुखर है। सोमनाथ भारती ने तो इसे खिड़की गांव में सार्वजनिक तौर पर प्रकट कर दिया था। 
    इन दोनों पार्टियों और नेताओं की इसी समानता के कारण ही मध्यम वर्ग समान रूप से इन दोनों की ओर आकर्षित होता है। जिस हद तक यह मध्यम वर्ग सवर्ण है उस हद तक तो जातिवाद और हिन्दू साम्प्रदायिकता की ओर भी आकर्षित होता है। यह ध्यान रखने की बात है कि ‘अन्ना आंदोलन’ में आरक्षण विरोधी -‘यूथ फार इक्वलिटी’ खूब सक्रिय था और केजरीवाल एण्ड कंपनी दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनावों तक हिन्दू साम्प्रदायिकता पर चुप्पी साधे रही। केवल मुस्लिम वोटों को पाने की संभावना पर ही उन्होंने इस पर अपना मुंह खोला।
    इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बिन्नी और बेदी जैसे लोग भाजपा में जा रहे हैं और बेदी भाजपा की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार बन रही हैं। 

अश्लील प्रदर्शन

मोदी ने पहना अपना नाम जड़ा दस लाख का सूट

वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से एक बातचीत के दौरान नरेन्द्र मोदी ने खुद के नाम का जड़ा हुआ लगभग 10 लाख रुपये का सूट पहनकर अपनी कुंठाओं का प्रदर्शन किया। नीले रंग के इस सूट में सोने की बारीक कढ़ाई से ‘नरेन्द्र दामोदरदास मोदी’ लिखा हुआ था। गले तक बंद यह सूट गले तक चढ़े अहंकार को दिखाता है। भारतीय राजनीति में विरले ही राजनेता अपने अहंकार का इतनी नग्नता से प्रदर्शन करते हैं। उत्तर प्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री मायावती ही उनसे थोड़ा आगे है। मायावती द्वारा अपनी ही मूर्तियां लगवायी गयी थीं। अब नरेन्द्र मोदी अपने अहंकार का भौण्ड़ा प्रदर्शन कर रहे हैं। मोदी दिन भर कई-कई बार कपड़े बदलने के आदी हैं। खबरों के अनुसार ओबामा की यात्रा के पहले दिन 25 जनवरी को मोदी ने तीन अलग-अलग कार्यक्रमों में अलग-अलग तरह के कपड़े पहन रखे थे। 
    लोक सभा चुनाव के समय चाय बेचने वाले की छवि को खूब भुनाया गया तो अब चुनाव के बाद मोदी की फैशनपरस्ती को स्टाइलिस्ट प्रधानमंत्री कहकर महिमामंडित किया जा रहा है। कुछ वर्ष पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल को अपनी फैशनपरस्ती के कारण इस्तीफा देना पड़ा था। किन्तु मोदी की अश्लील अहंकारपूर्ण फैशनपरस्ती को भी देश का आइकन बनाया जा रहा है। जिस देश में 40 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रही हो उस देश के प्रधानमंत्री के ये महंगे शौक, फैशनपरस्ती पूरे देश के साथ भद्दा मजाक है। 10 लाख का यह सूट मोदी के अहंकार के साथ-साथ उसकी वर्गीय स्थिति को भी बयां कर देता है। ये नरेन्द्र मोदी के चाय वालों (देश के मेहनतकश) के जीवन का प्रतिबिम्बन नहीं है। यह तो देश के पूंजीपतियों का जीवन प्रतिबिम्बन है। और अब जल्द ही बाकी नेता या इस वर्ग के लोग अपने नाम वाले वैसे ही वेशभूषा में नजर आ सकते हैं। 
    मोदी जैसे सूट की चर्चा में पता चला कि ऐसा ही नाम जड़ा सूट होस्नी मुबारक ने भी बनवाया था। तानाशाह होस्नी मुबारक का मिस्र की जनता ने तख्तापलट कर उसके अहंकार को मिट्टी में मिला दिया था। होस्नी मुबारक दुनिया के पटल से गायब हो गये। उसका नाम लेवा भी मिस्र में कोई नहीं बचा। अहंकारी राजनेताओं का हमेशा यही हश्र हुआ है। 

प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का निधन

वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    94 वर्ष की आयु में 27 जनवरी 2015 को कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का निधन हो गया। उनके कार्टून में ऐसा कटाक्ष हुआ होता था जो सच्चाई को तीक्ष्ण ढंग से व्यक्त कर देता था। उनके प्रसिद्ध आम आदमी (काॅमन मेन) की छवि आम भारतीय की थी। उन्हें याद करते हुए हम 1991 में नई आर्थिक नीतियों को लागू करते समय का उनका एक प्रसिद्ध कार्टून दे रहे हैं। 




(साभारः टाइम्स आॅफ इण्डिया, अनुवाद हमारा)




बीमा में एफडीआई में वृद्धि राष्ट्र-विरोधी है

वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)

मोदी सरकार ने बीमा में एफडीआई 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने से संबंधित बिल पेश करने का निर्णय लिया है। भूतपूर्व यूपीए सरकार में रही कांग्रेस व अन्य घटक ऊपरी तौर पर इसका विरोध करने की धमकी दे रहे हैं- यह ठीक वैसा ही है जैसा इसका विरोध बीजेपी द्वारा उस समय किया गया था जब कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार ने पहले इसे प्रस्तावित किया था। यह दोनों बड़ी पार्टियों की धूर्तता की पराकाष्ठा है जो आपकी आंखों में धूल झोंक रही हैं। 

1957 में भारत में होने वाले आम चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए 1956 में कांग्रेस ने 250 निजी बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण किया और एक पूर्णतः सरकारी स्वामित्व वाला जीवन बीमा निगम बनाया। और तब के वित्त मंत्री सी.डी.देशमुख ने इसे आम आदमियों के हित में ठीक बताया और कहा कि विकासशील देश में बीमा एक आवश्यक सेवा के रूप में देखी जानी चाहिए जिसे एक कल्याणकारी राज्य को अपने लोगों को प्रदान करनी चाहिए न कि उनको जो व्यापार या निवेश के अतिरिक्त स्रोत के रूप में अपना धन स्टाॅक बाजार में लगाते हैं। एलआईसी में सरकार का पूंजी अंशदान मात्र 5 करोड़ था।

जब 1973 में जनरल इंश्योरेन्स का राष्ट्रीयकरण किया गया तब कांग्रेस के वित्त मंत्री वाई.बी.च्वाहाण ने घोषित कियाः

‘यह कदम समुदाय के बेहतर हितों में जनरल इंश्योरेन्स व्यवसाय का सुरक्षात्मक विकास करते हुए अर्थव्यवस्था की बेहतर सेवा करने के लिए उठाया गया है और यह सुनिश्चित हो सके कि धन के केन्द्रीयकरण के परिणाम से आम हितों का नुकसान न हो।

फिर भी 2002 में बीजेपी सरकार ने बीमा क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी निवेश के साथ निजी कम्पनियों को अनुमति दी। 2011 में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार इस क्षेत्र में एफडीआई की सीमा 49 प्रतिशत तक बढ़ाना चाहती थी लेकिन तब संसदीय स्टैण्डिंग कमेटी के अध्यक्ष यशवंत सिन्हा जो कि बीजेपी के नेता थे, ने इसका विरोध किया और प्रस्ताव गिर गया। 

इसलिए यह ज्यादा हैरत भरा है कि अब बीजेपी सरकार इस क्षेत्र में एफडीआई को क्यों बढ़ाना चाहती है? इसे यह कहकर उचित नहीं ठहराया जा सकता कि एफडीआई में प्रस्तावित वृद्धि से और विदेशी मुद्रा आयेगी जिसका उपयोग भारत में सड़क और भवन निर्माण क्षेत्र में किया जायेगा। बीमा कम्पनियों को जो आय होगी वह स्थानीय होगी, बीमा धारक जो प्रीमियम अदा करेगा- इसका परिणाम होगा कि भारत में बिना किसी सम्पदा के पैदा हुए विदेशी निवेशकों को 26 प्रतिशत के बजाय 49 प्रतिशत लाभ होगा।

ऐसा नहीं है कि मानो एलआईसी ने संभावित परिणाम नहीं दिये। जो लोग एफडीआई के पक्ष में हैं वे झूठा दावा करते हैं कि इससे पिछड़े देहाती क्षेत्रों में बीमा की पैठ हो जायेगी। सरकार ने यह नहीं कहा है कि एफडीआई में 49 प्रतिशत तक वृद्धि करने में यह बात अंतनिर्हित है कि ये कम्पनियां देहाती क्षेत्रों में अपना व्यवसाय संचालित करेंगी ताकि कुल प्रीमियम का 75 प्रतिशत इन देहाती क्षेत्रों से आये और ऐसा  करने में असफल होने पर उन पर पैनल्टी ठोंकी जायेगी। वास्तव में बीमा में निजी क्षेत्र की रूचि जीवन बीमा व्यवसाय में नहीं है क्योंकि इसमें लाभ बहुत कम है। यह हम निजी बीमा कम्पनियों की जब्त होने वाली पाॅलिसियों में देख सकते हैं जहां यह कुछ केसों में 36 प्रतिशत से 51 प्रतिशत तक है जबकि एलआईसी की मात्र 5 प्रतिशत पाॅलिसी जब्त होती हैं। 

भारत में एलआईसी के अधीन जीवन बीमा में पैठ की तुलना सं.रा. अमेरिका (3.6 प्रतिशत) व जर्मनी(3.2 प्रतिशत) से की जा सकती है। यही स्थिति 2012 में थी- भारत(3.2 प्रतिशत) की तुलना में निजी जीवन बीमा कम्पनियों वाले यूएसए(3.7 प्रतिशत) और जर्मनी(3.1 प्रतिशत) में थी।

यह तर्क कि सार्वजनिक क्षेत्र अर्थव्यवस्था पर एक बोझ है यह उसके खिलाफ झूठा अभियोग है। सच यह है कि अमेरिका में प्रति माह एक निजी जीवन बीमा कम्पनी कारोबार बंद कर देती है। 1982 से 2000 की अवधि में 370 जनरल कम्पनियां दिवालिया हो चुकी हैं। यहां तक कि लंदन की ल्याॅड्स, जिसको स्थिरता व सभी कर्ज चुकाने वाली समझा जाता था, 1991 में 38 अरब डालर से ज्यादा के नुकसान में रही। 

स.रा.अमेरिका व यूरोप में आये आर्थिक संकट से यह सबक स्पष्ट है कि भीमकाय वित्तीय संस्थान ही मुख्य रूप से इसके लिए जिम्मेदार थे। सं.रा.अमेरिका में अभी हाल की वित्तीय तबाही जे पी मोर्गन व चेज बैंक से संबंधित थी जो स.रा.अमेरिका मेें संपत्ति के मामले में सबसे बड़े थे, जिन्हें कई जांचों का सामना करना पड़ा और गलत तरीके से डेरिवेटिव्स में सट्टेबाजी करने के कारण 5.8 अरब डालर के नुकसान में थे। यह दुर्भाग्य ही है कि केन्द्र की यूपीए व बीजेपी सरकार फिर भी इन विदेशी बीमा/बैंकों को भारतीय बाजार में प्रवेश की अनुमति देना विकास का मंत्र समझती हैं। 

सरकारी कोष को यह बहुत बड़ा नुकसान होने जा रहा है। 2002 से पहले जब निजी बीमा कम्पनियों को दुबारा अनुमति दी गयी, सरकार को (सरकारी बीमा कम्पनियों द्वारा- अनु.) बड़ी मात्रा में पैसा दिया गया। एलआईसी ने छठीं योजना में 7000 करोड़ का निवेश किया और आठवीं योजना में 56,097 करोड़। नौंवी योजना में बीमा कोष का 30,000 करोड़ रुपया आधारभूत विकास के लिए सुरक्षित रखा गया। 1996-97 में इसने पाॅलिसी धारकों को 3700 करोड़ से ज्यादा बोनस के रूप में बांटा जोकि 1992-93 के 2250 करोड़ से तेजी से बढ़ा था। 

भारत जैसे विकासशील देशों में सामाजिक क्षेत्र में मजबूती के लिए सार्वजनिक क्षेत्र ही एकमात्र उपकरण है। जनरल इंश्योरेन्स में कुल सीधे प्रीमियम के रूप में 2030 तक 13,000 करोड़ रुपये जुटाने की योजना है। यदि निजीकरण होता है तो इस फण्ड का एक भी पैसा सार्वजनिक प्रयोग के लिए उपलब्ध नहीं होगा और यह धन निजी निवेशकों के पास चला जायेगा।

एफडीआई में वृद्धि के बारे में यह झूठ स्थापित किया जा रहा है कि इससे फण्ड वृद्धि की नई तकनीकें आयेंगी। एफडीआई में वृद्धि के पीछे यह तर्क कि इससे प्रतियोगिता बढ़ेगी और ग्राहक को बेहतर सेवा का परिणाम हासिल होगा, यह मुंह में राम कहते हुए पीठ में छुरा घोंपना है। वास्तविकता यह है कि सन् 2000 में अमेरिका में 3500 जनरल इंश्योरेन्स की कम्पनियां थीं लेकिन मात्र 15 कम्पनियां (0.4 प्रतिशत) ही 50 प्रतिशत भाग को नियंत्रित करती थीं। 6 प्रतिशत कम्पनियां मिलकर 95 प्रतिशत को नियंत्रित करती थीं। इसलिए निजी अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता का नारा विश्वास करने योग्य नहीं है। 

नब्बे के दशक में यूएसए में सीनेट की सब कमेटी ने बीमा कम्पनियों के बढ़ते दीवालियापन पर रिपोर्ट पेश की और निजी बीमा कम्पनियों के कमीनेपूर्ण कुप्रबंधन और दुष्टता के बारे में विस्तार से बताया और पिछले पांच सालों में 50 बडे आकार की कम्पनियों के बीच दीवालियेपन और धोखाधड़ी के बुरे प्रभावों के बारे में बताया। 

बीमा एक जटिल उद्योग नहीं है जहां आधुनिक तकनीक प्राप्त करने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को शामिल कराने की जरूरत है। हमें यूएन के इकानाॅमिक एण्ड सोशल अफेयर्स के महासचिव की चेतावनी पर ध्यान देना चाहिए,‘‘कि विश्व की आर्थिक व्यवस्था धनवानों की रक्षा करने के लिए बहुत अधिक सतर्क है परन्तु गरीबों के हितों की रक्षा के लिए अनिच्छुक है और यह लक्ष्य नहीं होना चाहिए कि विश्व अर्थव्यवस्था की पूर्णता अमीरों के कल्याणकारी राज्य के रूप में नहीं होनी चाहिए। इस बात पर पुनर्विचार होना चाहिए कि कैसे व्यवस्था को और समतापूर्ण और दीर्घकालिक सरोकारों के लिए विवेकपूर्ण बनाया जाए।

(साभारः ‘मेनस्ट्रीम’ VOL LIII No. 1 December 27, 2014 ,अनुवाद हमारा)

बिना ‘पीके’ भी सत्ता का नशा

वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
संघ परिवार इस समय सत्ता के नशे में मदहोश है। उनका आदमी दिल्ली की गद्दी पर बैठ चुका है। अब उनके हाथ में सत्ता है और वे कुछ भी कर सकते हैं। इसीलिए वे इतिहास की किताबें बदलवा रहे हैं, पुस्तकें प्रकाशकों से नष्ट करवा रहे हैं और मनोरंजक मसाला फिल्मों पर भी हमला कर रहे हैं। वेलेंटाइन डे पर हुडदंग मचाने से काफी आगे बढ़कर वे अपनी प्रतिबंधों की एक पूरी दुनिया कायम करना चाहते हैं। 
इसी कड़ी में वे आजकल चर्चित मनोरंजक बंबइया मसाला फिल्म ‘पीके’ पर हमला कर रहे हैं। उनका कहना है कि आमिर खान की इस फिल्म में हिन्दू धर्म का मजाक उड़ाया गया है। ऐसा इसलिए किया गया है कि हिन्दू सहिष्णु होते हैं। इस्लाम और ईसाई धर्म का मजाक उड़ाने की किसी की भी हिम्मत नहीं होती। इस हमले का संदेश यह है कि हिन्दुओं को अपनी सहिष्णुता छोड़नी चाहिए। 
 इन उन्मादी धर्म ध्वजियों को नहीं पता कि उन्होंने एक सत्य का उद्घाटन कर दिया। ‘पीके’ मसाला फिल्म में धर्म के धंधेबाजों को निशाना बनाया गया है। इसके बदले सही धर्म और भगवान को स्थापित करने की वकालत की गयी है। ‘सही’ धर्म और भगवान के अस्तित्व के सवाल को छोड़कर इस बात पर ध्यान देना दिलचस्प होगा कि उन्मादी धर्म ध्वजियों की निगाह में हिन्दू धर्म के धंधेबाजों का धंधा ही हिन्दू धर्म है। संत-महंतों और बाबा-साधुओं के रूप में इन धंधेबाजों की जमात आज गली-गली में फैली हुई है। मुहल्ला स्तर से लेकर वैश्विक स्तर के इन धंधेबाजों की आज चांदी ही चांदी है। इनमें से रामपाल और आशाराम टाइप के दो चार धंधेबाज ही सलाखों के पीछे पहुंच पाते हैं बाकी अपना धंधा चमकाते रहते हैं। इसका सीधा सा कारण है कि जनता के दुख-कष्ट और जहालत का फायदा उठाने वाले इन धंधेबाजों की पहुंच पूंजीवादी राजनेताओं, अफसरों और न्यायधीशों सभी तक है। 
संघी भी इसी तरह के धर्म के धंधेबाज हैं। बस इनका धंधा जरा राजनीतिक किस्म का है। जहां बाबाओं-साधुओं, संत-महंतों ने धर्म के धंधे को वहीं तक सीमित कर रखा है वहीं संघियों ने धर्म के धंधे को राजनीति तक खींच लिया है और दोनों धंधों को आपस में मिला दिया है। संघियों ने धर्म के धंधे और राजनीति के धंधे का एक ऐसा मिश्रण तैयार किया है जो उन्हें दिल्ली की गद्दी तक पहुंचा चुका है। स्वाभाविक ही ये और भी ऊंचे स्तर के धंधेबाज छोटे धंधेबाजों की रक्षा करेंगे तथा राजकुमार हिरानी जैसों के हमलों से उनका बचाव करेंगे। 
धर्म के अन्य धंधेबाजों की तरह धर्म और राजनीति का मिश्रण तैयार करने वाले ये संघी धंधेबाज भी पूरी तरह नास्तिक हैं। वे जानते हैं कि किसी भगवान या ईश्वर का अस्तित्व नहीं है अन्यथा वे उसके नाम पर धंधा नहीं करते। इनके मुकाबले राजकुमार हिरानी जैसे धर्मभीरूओं की यह चोट ये नास्तिक धंधे बाज बर्दाश्त नहीं कर सकते। 
धर्म के पहुंचे  हुए धंधेबाज कितने चतुर हैं इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि वे ‘पीके’ फिल्म के लिए इसके लेखक अभिजीत जोशी, निर्देशक राजकुमार हिरानी तथा निर्माता विधू विनोद चोपड़ा इत्यादि को निशाना नहीं बना रहे हैं बल्कि अभिनेता आमिर खान को निशाना बना रहे हैं क्योंकि वे मुसलमान हैं। संदेश यह है कि एक मुसलमान ने हिन्दू धर्म का मजाक बनाया। मजे की बात यह है कि ‘ओ माई गाॅड’ नामक मसाला फिल्म के लिए उसके अभिनेता परेश रावल को निशाना नहीं बनाया गया जो भाजपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़े थे। वह फिल्म और भी ज्यादा धर्म के धंधेबाजों पर चोट करती है और साक्षात ईश्वर को स्थापित करती है। 
संघ परिवार कभी नहीं चाहेगा कि राजनीति में वह जो धर्म का धंधा कर सत्ता हासिल कर रहा है उसमें कोई भी ढील आये। बल्कि वह चाहेगा कि वह और भी ज्यादा पुख्ता हो। इसीलिए वह इस तरह के मुद्दे और उठायेगा। ठीक इसीलिए यह जरूरी हो जाता है कि और भी पुरजोर तरीके से भंडाफोड़ किया जाये। 

इतिहास के साथ विज्ञान के भी भगवाकरण की साजिश
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
‘‘अमरीका के राइट बंधुओं से 8 वर्ष पहले 1895 में शिवकर बापूजी तलवडे ने चैपाटी में दुनिया में सबसे पहले विमान(एअर क्राफ्ट) को उड़ाने का गौरव हासिल कर लिया था। उनकी यह उड़ान वैज्ञानिक ऋषि भारद्वाज के ज्ञान पर आधारित थी। भारद्वाज ऋषि ने न केवल सामान्य विमान बल्कि युद्धक विमान और ऐसे विमानों को भी जिनसे पनडुब्बी के रूप में दोहरा काम लिया जा सकता था, का ज्ञान प्रतिपादित किया था।’’
प्राचीन संस्कृत साहित्य उडनयंत्रोें व विमानों के विवरण से भरे पड़े हैं। बहुत से दस्तावेजों से यह प्रमाणित हुआ है कि वैज्ञानिक ऋषि अगस्त्य व भारद्वाज ने विमान निर्माण की तकनीक का विकास किया था। उक्त पंक्तियां 4 जनवरी 2015 को मुंबई में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की 102वीं वर्षगांठ पर प्रस्तुत किए जाने वाले एक पत्र की हैं। ‘प्राचीन उड्डयन विज्ञान’ के नाम से यह पत्र कैप्टन आनंद बोडास व अमेय जाधव द्वारा प्रस्तुत किया जाना है। 
विज्ञान कांग्रेस में ‘प्राचीन विज्ञान’ के सत्र, जिसमें उपरोक्त पत्र प्रस्तुत किया जायेगा, की अध्यक्षता केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावेड़कर करेंगे। इस सत्र में प्रस्तुत किये जाने वाले पत्रों का संक्षिप्त सार मुंबई विश्व विद्यालय के संस्कृत विभाग की बेवसाइट पर डाल दिया गया है। संस्कृत विभाग की विभागाध्यक्ष गौरी गहुलीकर इस सत्र का संचालन करेंगी। 
इसी तरह प्राचीन विज्ञान सत्र में प्रस्तुत किए जाने वाला एक प्रपत्र घोषित करता है कि भारद्वाज ऋषि ने पायलटों के लिए एक खास वैज्ञानिक पोशाक का भी आविष्कार किया था। पायलटों की यह पोशाक झटके व जीवाणुओं से पूरी तरह सुरक्षा करने वाली (शाॅक प्रूफ व वायरस प्रूफ) थी। इसी पत्र में यह भी दावा किया गया है कि भारद्वाज ऋषि ने शरीर और हड्डियों को हानि पहुंचाने वाले 25 जीवाणुओं (वायरसों) की खोज की थी।
इसी सत्र में प्रस्तुत एक अन्य पत्र जो कि आयुर्वेदिक भौतिक चिकित्सक (फिजीशियन) अश्विन सावंत द्वारा प्रस्तुत किया जाना है, में दावा किया गया है कि भारत में आधुनिक शल्य चिकित्सा(सर्जरी) 6000 ई.पूर्व यानी लगभग 8000 वर्ष पहले भी मौजूद थी जिसका जिक्र ऋग्वेद में किया गया है। ऋग्वेद की रचना का काल इतिहासकार 1500 ई.पू. के लगभग मानते हैं। अपने प्रेस साक्षात्कार में अश्विन सावंत ने कहा कि हम अपनी हर बात ग्रंथों के साक्ष्यों के आधार पर कह रहे हैं। प्राचीन भारत के शल्य चिकित्सा ज्ञान के बारे में बताते हुए अश्विन सावंत द्वारा प्र्रस्तुत पत्र में कहा गया है-
वे ‘‘कपाल शल्य चिकित्सा(क्रेनियल), नेत्र संबंधी (व्चीजींसउपब) और पुनर्निर्माण संबंधी शल्य क्रिया(प्लास्टिक सर्जरी) करते थे। वे नष्ट हुए आंख के गोले (मलमइंसस) को बाहर निकाल सकते थे, गर्भ में से मृत भ्रूणों तथा मृत मां के भीतर से जीवित भ्रूण को निकाल सकते थे।’’
मुंबई विश्व विद्यालय की संस्कृत की विभागाध्यक्ष महुलीकर का कहना है कि बहुतेरे लोग संस्कृत को धर्म व दर्शन की भाषा के रूप में देखते रहे हैं पर यह विज्ञान की भाषा भी है। 
देश के शीर्ष विज्ञानियों समेत कई प्रगतिशील जनवादी संस्थाओं ने राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस को एक धार्मिक पोंगापंथ के प्रचार के मंच में रूपातंरित करने कीे सरकार के इस फैसले की आलोचना की है। मोदी सरकार व संघ परिवार अपने हिन्दू फासीवादी एजेण्डे पर देश व समाज को खड़ा करने के अपने उद्देश्य के लिए कितना व्याकुल हैं यह विज्ञान कांग्रेस के इस विद्रूपीकरण की उसकी कोशिशों में देखा जा सकता है। दुर्भाग्य से यह उसी राज्य में हो रहा है जहां धार्मिक पोंगापंथ व अंधविश्वास के खिलाफ लड़ते हुए दाभोलकर जैसे लोगों ने अपनी कुर्बानी दी। संघ मण्डली देश को जिस अंधकार व अतार्किकता के खड्ड में ढकेलकर हिन्दू राष्ट्र के अपने स्वप्न को साकार करना चाहती है उसका नमूना है भारतीय विज्ञान कांग्रेस का यह प्रहसन।

आर्थिक सुधार बनाम हिन्दुत्वकरण
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    मोदी के प्रशंसकों में इस बात को लेकर बड़ी बैचेनी है कि देश में जिस तरह का माहौल संघियों द्वारा धर्मांतरण आदि मुद्दों पर कायम किया जा रहा है, उससे मोदी के आर्थिक सुधार का कार्यक्रम पटरी से न उतर जाये। वे आर्थिक सुधार बरक्स हिन्दुत्वकरण की बातों को पेश कर रहे हैं। उनका मानना है कि मोदी ऐसी बातें नहीं कर रहे हैं तो फिर उनकी पार्टी और संघ के लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं?
    देश की संसद में धर्मान्तरण के मुद्दे पर खूब हंगामा हुआ। राज्य सभा में कामकाज ठप्प हो गया। कोयला आवंटन और बीमा क्षेत्र में सुधार सम्बन्धी विधेयक राज्य सभा में पास नहीं हो सके और अंत में सरकार को अध्यादेश लाना पड़ा। राज्य सभा में इतने हंगामे के बावजूद मोदी जोकि अपनी वाचालता के कारण जगप्रसिद्ध हुए, एक दम मौन हो गये। मानो उन्हें सांप सूंघ गया हो। न संसद में, न ट्विटर में, न फेसबुक में कहीं कोई टिप्पणी नहीं। इससे मोदी के गैर संघी समर्थक खासे परेशान हो गये। उन्होंने मान लिया था कि सदभाव उपवास रख कर और गाहे-बगाहे धर्मनिरपेक्षता की बातें कर के मोदी अपने अतीत से पिण्ड छुड़ा चुके हैं। वे गंगा में अपने पाप धो चुके हैं। वे अब एक परम पवित्र विकास पुरुष बन चुके हैं। जिसका एक मात्र ध्येय देश का विकास करना है। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारा इन्हें सम्मोहित कर रहा था और उसके सम्मोहन में वे सब कुछ भुला चुके थे। 
    मोदी के गैर संघी प्रशंसक पिछले सात माह में बेहद मायूस हो चुके हैं। मोदी की कथनी और करनी के फर्क से वे आहत हैं। सबसे ज्यादा उन्हें परेशानी इस बात से है कि देश की अर्थव्यवस्था में भारत के शेयर बाजार की तरह कोई छलांग नहीं लगी। और उस पर ज्यादा बुरा उन्हें लग रहा है कि मोदी उन्हीं नीतियों पर चल रहे हैं जो मनमोहन सिंह की बदनाम सरकार ने चलायी थी। बस नाम बदलने से एक-दो माह उन्हें यह भ्रम हुआ कि मोदी कुछ नया कर रहे हैं तो वे चुप रहे। अब वे देख रहे हैं कि मोदी इन गैर संघियों के हाथों में दौलत के नये सूत्र के स्थान पर झाडू पकड़ा रहे हैं तो उन्हें और बुरा लग रहा है। मोदी का करिश्मा टूट रहा है और ये दिन ब दिन और परेशान हो रहे हैं।
    असल समस्या यह है कि ये लोग आर्थिक सुधार और हिन्दुत्वकरण को एक-दूसरे के विपरीत चीजें समझते हैं। वे समझते हैं कि यदि देश में ऐसा ही माहौल रहेगा तो कौन यहां निवेश करेगा। और कैसे देश की अर्थव्यवस्था एक ठीक माहौल के अभाव में बढ़ेगी। उनका यह सोचना सामान्य परिस्थिति में कुछ ठीक हो सकता है। गैर संघी मोदी प्रशंसकों ही नहीं बल्कि एकाधिकारी पूंजीवादी घरानों और उनके टुकड़ों पर पलने वाले नामी-गिरामी बुद्धिजीवियों की भी यही चिंता है परन्तु ये सब लोग भूल जाते हैं कि चुनाव से ठीक पहले कैसे भारत के सबसे बड़े पूंजीवादी घरानों और हिन्दू फासिस्ट संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठजोड़ कायम हुआ था।
    संघ और एकाधिकारी घरानों का यह गठजोड़ कायम ही इसलिए हुआ था कि जो घराने हासिल करेंगे उसमें संघ चुप रहेगा और जो संघ करेगा उसमें ये घराने चुप रहेंगे। दोनों ही अपने-अपने अभीष्ट को प्राप्त करने की कोशिशों में लगे हैं। और मोदी पूरी कुशलता से अपने इन दोनों ही समर्थकों के हितों को साध रहे हैं। और ये दोनों की ताकतें एक-दूसरे को बल और ऊर्जा प्रदान कर रही हैं। जितना समाज का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होगा, जितना सामाजिक तनाव होगा उतना ही समाज का ध्यान आर्थिक सुधारों से दूर रहेगा। देशी-विदेशी पूंजी को वह आवरण हासिल होगा जिसके अंदर उनकी मर्जी के अनुरूप सब कुछ चलता रहेगा। 
    किसी को इन बातों में संदेह हो तो वह 1991 में कांग्रेस सरकार द्वारा किये गये आर्थिक सुधार और 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के आपसी रिश्तों को समझने का प्रयास करें। तब कांग्रेस और संघ-भाजपा दो अलग-अलग तरीकों से देशी-विदेशी पूंजी की सेवा कर रहे थे। आज वही दोनों काम मोदी के नेतृत्व में हो रहे हैं। मोदी कांग्रेस वाला काम आर्थिक सुधार को आगे बढ़ा रहा है और संघ वही धंधा कर रहा है जो उसके जन्म के समय से आज तक रहा है। समाज में उग्र हिन्दुत्व का प्रचार करना और भारतीय समाज में एक हिन्दू फासिस्ट राज्य की स्थापना करना। 
    इसलिए भले मानुषों को मोदी के मौन व संघ के बढ़ते कारनामों को ठीक से समझना चाहिए। मोदी जैसे अम्बानी-अदाणी के हितों को आगे बढ़ाने के लिए ‘नम्बर वन मजदूर’ बने हुए हैं वैसे ही संघ के सच्चे-पक्के ‘स्वयंसेवक’ भी बने हुए है। और जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए वे अपने को ‘प्रधान सेवक’ बताते हैं। 

मोहन भागवत जी! देश की जनता आपकी सम्पत्ति नहीं, आप देश की जनता पर बोझ हैं

वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों संघी संगठनों द्वारा कराये जा रहे धर्मांतरण की बहस में कूदते हुए जो बातें कहीं वे इस संगठन की देश की जनता के बारे में घृणित सोच को सामने ला देती हैं। 
    संघ प्रमुख ने अपने कार्यकर्ताओं द्वारा जगह-जगह धर्मांतरण कराने के पक्ष में खड़े होते हुए कहा कि अगर हमारा माल चोरी हो गया और हम उसे वापस लें तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इस तरह से मुस्लिम-ईसाईयों को हिंदू धर्म में वापस लाकर वे अपना चोरी हुआ सामान वापस ले रहे हैं। इसके साथ ही मोहन भागवत ने पाकिस्तान और बांग्लादेश के अपराधों को अब और बर्दाश्त न करने की चेतावनी भी इन देशों को दे डाली। 
    पर इस सीधे-सादे तर्क का शुरूआती बिन्दु ही गलत है। देश के सभी हिन्दू मोहन भागवत के संगठन की सम्पत्ति नहीं हैं। और कुछ नहीं तो सिर्फ इस वजह से ही कि मोहन भागवत और उनके संगठन की पैदाइश से पहले ही हिन्दू धर्म मौजूद है। इसीलिए वे मोहन भागवत की सम्पत्ति नहीं हो सकते। जहां तक अतीत में कुछ हिंदुओं के मुस्लिम व ईसाई धर्म में जाने की बात है तो मोहन भागवत को और अतीत में जाना चाहिए जहां यह मिलता है कि आर्य जाति भारत मेें बाहर से आयी थी और उसने भी देश की कबीलों में रह रही जनता को अपने द्वारा स्थापित ब्राहम्णवादी हिन्दू धर्म में शामिल किया था। इसलिए अगर मोहन भागवत को इतिहास ही दुरूस्त करना है तो उसके लिए सभी लोगों को कबीलों में वापस भेजना होगा और कुछ सिरफिरे ब्राहम्णवादी परम्परा के कट्टर हिंदुओं को देश से बाहर करना होगा। 
    पर खुद को हिंदू धर्म का ठेकेदार मानने वाले मोहन भागवत ऐसा नहीं कर सकते। वे तो हिन्दू धर्म को देश का मूल धर्म घोषित कर देश में हिंदू राष्ट्र कायम करना चाहते हैं। सिक्खों, बौद्धों को तो वे हिन्दू धर्म की शाखा घोषित ही कर चुके हैं। और साम-दाम-दण्ड-भेद से कुछ लोगों का धर्मांतरण करा वे देश में साम्प्रदायिक वैमनस्य को और ज्यादा फैलाना चाहते हैं। वे खुलेआम घोषित करते भी फिर रहे हैं कि मोदी के रूप में बहुत सालों बाद हिंदू शासक की वापसी हुयी है। इसीलिए संघ कार्यकर्ताओं को प्रलोभन से या छल से कैसे भी लोगों को हिंदू धर्म में वापस लाने का अधिकार है। 
    खुद को हिंदू धर्म का ठेकेदार मानने वाले संघ को शायद यह मालूम नहीं कि देश की आबादी का 82 प्रतिशत हिन्दू है और यह आबादी के हिसाब से लगभग 90 करोड़ बैठती है। अगर इसमें 60 करोड़ लोगों को मतदाता मान लेें तो भाजपा पिछले चुनाव में महज 17 करोड़ वोट पा सत्ता पर काबिज हुई। इसमें अन्य धर्मों के लोग भी शामिल रहे हैं। और जिन लोगों ने भी अपना वोट भाजपा को दिया भी उन्होंने यह नहीं कहा कि वे सशरीर अब संघ व मोहन भागवत की सम्पत्ति बन गये हैं। अतः स्पष्ट है कि हिंदुओं ने खुद को संघ की सम्पत्ति घोषित नहीं किया संघ खुद हिंदुओं को अपनी सम्पत्ति मानने पर उतारू है। 
    संघ का हिंदुओं को अपनी सम्पत्ति मानना उसके फासीवादी रुख का नतीजा है साथ ही यह संघ द्वारा स्थापित किये जाने वाले ‘हिन्दू राष्ट्र’ की मंशा भी दिखला देता है इस ‘हिन्दू राष्ट्र’ में मुस्लिम-ईसाई ही नहीं हिंदू मेहनतकश जनता भी संघी लम्पटों के उत्पीड़न का शिकार होगी। ये हिंदू जनता का इस्तेमाल अपनी सम्पत्ति के रूप में करेंगे। 
    मोहन भागवत जी इतिहास को ठीक करने की कोशिश करने वाले महत्वाकांक्षी लोगों के साथ इतिहास ने क्या सलूक किया। हिटलर के हश्र को आप अच्छी तरह जानते होंगे। आप कहते हैं बांग्लादेश-पाक की कारगुजारियां सर के ऊपर से गुजर रही हैं। हम कहते हैं कि आप की और आपके फासीवाद संगठन की कारगुजारियां मेहनतकश जनता के सिर से ऊपर गुजरने लगी हैं। 
    इसीलिए इस देश की मेहनतकश जनता भागवत और उसके संगठनों की सम्पत्ति होने से इंकार करती है। साथ ही यह ऐलान भी करती है कि आप और आपका फासीवादी संघ अब अपनी कारगुजारियों से जनता पर बोझ बनता जा रहा है इसलिए अब नारा लगाने का वक्त आ गया है ‘‘जो हिटलर की चाल चलेगा वो हिटलर की मौत मरेगा’’। 

विरोध से पस्त मोदी

वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    नरेन्द्र मोदी के गुणगान में चौबीसों घंटों लगा अपने देश का पूंजीवादी प्रचारतंत्र एक महत्वपूर्ण खबर को चुपचाप पी गया। यह खबर मोदी के लिए जरा भी सुखद नहीं थी। 
    नवंबर के अंत में नेपाल में सार्क की बैठक हुयी। यह एक नियमित बैठक थी। लेकिन इसमें एक अनियमितता मोदी ने पैदा करने की कोशिश की थी जिसमें वे बुरी तरह असफल रहे। मोदी ने तय किया था कि वे सार्क बैठक स्थल पर हवाई जहाज से पहुंचने के बदले सड़क से जायेंगे और रास्ते में लुंबिनी-जनकपुरी इत्यादि जगहों पर जन समाजों को संबोधित करेंगे। 
    मोदी का यह कदम एकदम अप्रत्याशित था। आखिर एक अधिकारिक कार्यक्रम में आने वाले मोदी इस तरह से निजी जनसभाएं क्यों करेंगे? उन्हें क्या अधिकार होगा?
    इनके इस कार्यक्रम के नेपाल के व्यापक हलकों में विरोध शुरू हो गया। इसे नेपाल के अंदरूनी मामलों में खुला हस्तक्षेप और नेपाल की संप्रभुता के लिए खतरा माना गया। नेपाल के सबसे बड़े अखबार कांतिपुर टाइम्स ने तो बाकायदा सम्पादकीय लिखकर मांग की कि मोदी को नेपाल में साम्प्रदायिक सदभाव बिगाड़ने की इजाजत न दी जाये। 
    नेपाल में इस व्यापक विरोध के कारण मोदी का लुंबिनी, जनकपुरी इत्यादि जगहों पर कार्यक्रम रद्द हो गया। रद्द होने का कारण तकनीकी बताया गया कि इतनी बड़ी सभाओं का आयोजन नहीं संभाला जा सकता था, कि उसी दिन अन्य पार्टियों द्वारा सभाएं आयोजित करने के कारण सबकी व्यवस्था करना मुश्किल हो जाता इत्यादि। पर यह सब नेपाल जैसे एक कमजोर देश की सरकार द्वारा पेश किया कूटनीतिक बहाना था जिससे इस गंभीर मसले को ढंका जा सके। 
    असल मामला यह है कि भारत में संघी नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के साथ ही नेपाल के पुरातनपंथी लोगों में उम्मीद की किरण जग गयी है। ये लोग नेपाल में राजशाही की पुनस्र्थापना चाहते हैं तथा साथ ही पहले की तरह नेपाल को एक ‘हिन्दू राष्ट्र’। नेपाल में क्रांति ने राजशाही का खात्मा कर दिया और नेपाल को एक ‘धर्मनिरपेक्ष संघीय राष्ट्र’ घोषित कर दिया। 
    नेपाल में पुरातनपंथी ताकतें अब भी विद्यमान हैं और राजनीति में किसी हद तक दखल रखती हैं। राजशाही समर्थक पार्टी संविधान सभा में चैथा स्थान रखती है। इतना ही नहीं स्वयं नेपाली कांग्रेस में भी कुछ पुरातनपंथी तत्व मौजूद हैं। गाहे-बगाहे इनकी ओर से भी राजशाही समर्थक बयान आ जाते हैं। इसी तरह सेना और नौकरशाही में भी राजा के समर्थक हैं। 
    भारत के संघियों की हमेशा से ही इनसे सांठ-गांठ रही है। इसीलिए जब राजशाही संकट में पड़ी तो इन्होंने उसे बचाने की हर तरह से कोशिश की। खासकर 2006 के जनांदोलन के समय इनकी सक्रियता देखने की चीज थी। 
    पर संघियों की चाहतों के विपरीत राजशाही उखाड़ फेेंकी गयी और ‘दुनिया का एक मात्र हिन्दू राष्ट्र’ धर्म निरपेक्ष घोषित कर दिया गया। संघियों के लिए यह न पचने वाली बात थी। 
    अब जब संघियों की मोदी सरकार सत्तानशीन हो गयी है तो वे हर चंद कोशिश कर रहे हैं कि इतिहास के पहिये को उल्टा घुमा दें। इसी के लिए मोदी वह कर रहे हैं जो आम तौर पर भारत का कोई दूसरा प्रधानमंत्री नहीं करता। 
    मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद नेपाल की यात्रा की। इसका खास मकसद नेपाल में चीन के बढ़ते दखल को रोकना था। पिछले चार-पांच सालों में चीन का नेपाल में दखल काफी बढ़ा है और भारत का पूंजीपति वर्ग अपने इस संरक्षित राज्य में दखल को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा हैै। इस रूप में मोदी द्वारा नेपाल का आनन-फानन में दौरा भारत के पूंजीपति वर्ग की जरूरतों के अनुरूप था। यह दौरा मोदी के भूटान के दौरे की तरह ही था। 
    लेकिन इसी के साथ नेपाल दौरे में मोदी का अपना खास संघी एजेण्डा भी शामिल था। इसीलिए मोदी ने उस दौरे में धार्मिक स्थलों की यात्राएं कीं। मंदिरों में मत्था टेककर उन्होंने अपनी हिन्दू की छवि को चिह्नित करवाया। 
    अब इस बार सार्क की बैठक के समय वे एक कदम और आगे बढ़ना चाहते थे। वे अब आगे बढ़कर जनमानस को हिन्दुत्व की ओर मोड़ने के लिए अपनी यात्रा का इस्तेमाल करना चाहते थे। यह उसी तरह होता जैसे जापानी प्रधानमंत्री बौद्धों की बड़ी जनसभाओं को संबोधित करते और वह भी अपनी खास बौद्ध छवि के साथ।
    फिलहाल नेपाल में मोदी की योजना परवान नहीं चढ़ सकी है। लेकिन जैसा कि खबर है, मोदी इस तरह की जनसभाओं की कोशिश फिर करेंगे। 
    नेपाल के लोगों को ही नहीं, भारत के लोगों को भी संघी प्रधानमंत्री की इस कोशिश का विरोध करना चाहिए।  

केन्द्र सरकार द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र में अभूतपूर्व कटौती 

वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    यद्यपि देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 4.3 प्रतिशत हिस्सा है। लेकिन इसमें भारत सरकार जीडीपी का मात्र 1.1 के आसपास ही खर्च करती है। शेष हिस्सा निजी क्षेत्र का है। पिछले 20 सालों की तीव्र विकास दर के बावजूद यह खर्च प्रतिशत में लगभग एक ही बना रहा है। चीन का स्वास्थ्य बजट सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत, अमेरिका में 8.3 प्रतिशत है। 
    भारत सरकार का स्वास्थ्य बजट जीडीपी का 1 प्रतिशत यानि कि 300 अरब रूपये और हमारी जनसंख्या लगभग 125 करोड़ यानि कि 1.25 अरब है। मतलब भारत सरकार प्रति व्यक्ति पर पूरे वर्ष में स्वास्थ्य मद में मात्र 240 रुपये यानि कि 20 रुपये प्रतिमाह यानि कि 70 पैसे प्रतिदिन खर्च करती है। 
    कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस कारण व इसके कई अन्य प्रमुख कारणों की वजह से देश में 10 लाख से ज्यादा बच्चे प्रति वर्ष डायरिया व टीके द्वारा बचाव वाली(Vaccine Preventable Disease) बीमारियों से मर रहे हैं। देश में नवजात शिशुओं की मृत्यु दर बांग्लादेश जैसे छोटे व हमसे कम विकसित देश से भी खराब है। देश में आज भी टीवी के कारण लाखों लोग प्रति वर्ष मर रहे हैं। देश में लगभग 3-4 करोड़ लोग सिर्फ स्वास्थ्य में खर्च करने के कारण गरीबी की रेखा से नीचे चले गये हैं।
    ऐसे दर्जनों आंकड़े दिये जा सकते हैं जो भारत के लोगों के स्वास्थ्य की जमीनी हकीकत बयान करते हैं। लेकिन दुख की बात है कि अच्छे दिनों का वादा करने वाली सरकार ने पूरे स्वास्थ्य बजट में ही 20 प्रतिशत की यानि लगभग 60 अरब रुपये कटौती कर दी। साथ ही एचआईवी व एड्स के मद में भी 30 प्रतिशत की कटौती कर दी। चंद हफ्तों पहले अंबानी के हास्पीटल का उदघाटन प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा किया गया व अब स्वास्थ्य बजट में अभूतपूर्व कटौती से साफ है कि यह सरकार भी पुरानी सरकारों की तरह ही नहीं बल्कि उससे ज्यादा तेजी से जनता को मिलने वाली सब्सिडी को कम कर रही है। मूलभूत सुविधाओं को भी जो एक नागरिक का अधिकार है व राज्य का उन्हें देने का कर्तव्य है, को कारपोरेट सेक्टर बाजार के हवाले कर रही है। यह स्थितियां जनता के लिए अच्छे दिनों की नहीं बल्कि बदहाल दिनों की सूचक है।

मुखौटा

वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    वाजपेयी सरकार के जमाने में हमने यह शब्द खूब सुना। उस दौरान मीडिया, पत्रकारों और तथाकथित उदार बुद्धिजीवियों ने यह मिथक गढ़ा था कि वाजपेयी संघ परिवार व भाजपा के कट्टरपंथ के बरक्श उदार छवि वाले हैं। भाजपा में ही तब आडवाणी को कट्टरपंथी छवि वाला व वाजपेयी को उदार धर्म वाला माना जाता था।
    परन्तु वास्तव में वाजपेयी भी संघ के उतने ही कट्टर समर्थक कार्यकर्ता रहे हैं जितने आडवाणी व अन्य। परन्तु साझा सरकार के कारण उस समय वाजपेयी को उदारवादी छवि धारण करने का नाटक करना पड़ा। इस कारण ही कहा गया कि वाजपेयी संघ परिवार का मुखौटा हैं। 
    अब पूंजीपति वर्ग व उसकी जूठन पर पलने वाले पत्रकार व तथाकथित बुद्धिजीवियों का हिस्सा फिर से वही खेल खेल रहे हैं। ये लोग नरेन्द्र मोदी को एक तरफ व सरकार में शामिल मंत्रियों, संघ परिवार और यहां तक कि भाजपा को भी दूसरी तरफ रख रहे हैं। समाचार चैनलों से लेकर अखबारों तक के विमर्श में ये लोग यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि मोदी तो ‘सबका साथ और सबका विकास’ के नारे पर चल रहे हैं, लेकिन उनके मंत्रिमण्डल के कुछ सहयोगी, संघ परिवार के नेता व भाजपा के भीतर के कट्टरपंथी उनके उस उद्देश्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं। ये लोग मोदी की ‘‘विकास पुरुष’’ व उदारवादी छवि पेश करने पर आमादा हैं। 
    परन्तु क्या सच्चाई यही है? सच्चाई इसके ठीक  विपरीत है। मोदी को मुखौटा पहनने की कोई जरूरत नहीं है। उनके पास पूर्ण बहुमत की सरकार है। पूंजीपति वर्ग का एकछत्र समर्थन उन्हें प्राप्त है। ऐसे में, मोदी अपनी सुविधानुसार कट्टरपंथी राजनीति और तथाकथित विकास की राजनीति कर सकते हैं। दरअसल एक स्तर की कट्टरपंथी राजनीति पूंजीवादी विकास के लिए फायदे की ही बात होती है। लोग कट्टरपंथी राजनीति में अपनी वर्गीय एकता खो बैठते हैं। और ऐसे में पूंजीवादी सरकार पूंजीपति वर्ग की नीतियों को बिना किसी जनप्रतिरोध के आगे बढ़ा ले जाती है। मध्यम वर्ग का एक हिस्सा जो पूंजीवादी विकास के लाभों को उठाने में सफल रहता है, वह ‘विकास’ के नारे के साथ खड़ा हो जाता है। पूंजीपति वर्ग अपने प्रचार माध्यमों के सहारे ‘विकास’ की गैरवर्गीय तस्वीर गढ़ने में एक हद तक सफल रहता है और मेहनतकश जनसमुदाय के अच्छे खासे हिस्से को भी इस ‘विकास’ के भ्रामक प्रचार के आगोश में समेट लेता है। 
    जबकि सच्चाई यह है कि मोदी अपने मंत्रिमण्डलीय सहयोगियों के सरदार हैं। सो, मोदी इस कट्टरपंथी राजनीति के भी अगुवा हैं। जबसे उन्होंने खाकी नेकर और काली टोपी पहनी थी तब से लेकर आज तक वे साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथ का ही तो खेल खेलते चले आ रहे हैं। इस खेल के महारथी होने के कारण ही 2014 के लोकसभा चुनावों में वह इतनी बड़ी सफलता हासिल कर सके। गुजरात में होने वाले चुनावों से लेकर लोकसभा चुनाव 2014 और उसके बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में वह और उनकी पार्टी मय संघ परिवार के भड़काऊ भाषणों पर ही निर्भर करते रहे हैं। ‘विकास’ का नाम तो छौंकन लगाने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। हां, जब भी उन्हें सत्ता मिली है वे अन्य पूंजीवादी राजनैतिक दलों से ‘पूंजीवादी विकास’ के लिए व एकाधिकारी पूंजी के हितों के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा करते नजर आये हैं। 
    भाजपा के भीतर के साधु और साध्वी और बाहर के हिन्दू कट्टरपंथी लोगों के बयानों और मोदी की बयानबाजी सब कट्टरपंथ के एक सूत्र में बंधे हैं। अतः उनके बीच किसी भी किस्म का फर्क करना बेवकूफी भरी बात है। दरअसल शासन वर्ग ने जब से मोदी को अपना दत्तक पुत्र बनाया है तब से वह इस कोशिश में लगा है कि मोदी के ‘गुजरात कारनामे’ को व उनके कट्टरपंथ को लोग भूल जायें और पूरे सम्मान के साथ उनके इस दत्तक पुत्र को स्वीकार कर लें। किन्तु जनता 2002 के उस दंश को व उसके बाद की उसकी कार्यवाहियों को कैसे भूल सकती है। 
    वैसे मोदी कभी-कभी उदारवादियों की शैली का प्रयोग अवश्य करने लगे हैं। कभी-कभी वे अपने कट्टरपंथी मित्रों को झिड़क भी देते हैं। इसका कारण यह है कि दोगली राजनीति संघ परिवार व उसके सदस्यों के जीन्स में है। ऐसी सचेत बयानबाजी समाज के अलग-अलग हिस्सों को खुश करने के लिए की जाती है और दूसरी ओर झिड़की का कारण ‘समय का गलत’ चयन होता है। अन्यथा तो अमित शाह से लेकर गिरिराज सिंह और आदित्यनाथ से लेकर निरंजन ज्योति तक सभी उनके द्वारा दिखाये गये रास्ते पर ही तो चल रहे हैं। 
    इसलिए नरेन्द्र मोदी का केवल एक ही चेहरा है- कट्टरपंथ का। उसके बारे में उदारवाद की सारी बातें बकवास हैं। वह विकास का मुखौटा भी तभी तक लगाये घूम रहे हैं जब तक कि अगले लोकसभा चुनावों का बिगुल नहीं बज जाता। तब वह कुर्सी पाने के लिए फिर अपनी जुबान से जहर उगलने लगेेंगे।  

लौह पुरुष प्रथम, द्वितीय और तृतीय

वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    नरेंद्र मोदी ने 31 अक्टूबर को सारे देश को बांटने का प्रयास किया। क्यों? इसलिए कि वे लौह पुरुष तृतीय का खिताब हासिल कर सकें। वैसे यह भी खासा रोचक है कि दौड़े तो सारे देश के लोग और लौह पुरुष तृतीय का खिताब हासिल करें नरेंद्र मोदी। सारे खेलों में खिताब या तमगा वही हासिल कर पाता है जो स्वयं दौड़ता है। 
    मोदी एक लम्बे समय से लौह पुरूष का तृतीय का खिताब हासिल करने में लगे हुए हैं इसीलिए वे लौह पुरुष प्रथम को पिछले दिनों खूब उछालते रहे हैं। मजे की बात यह है कि इस बीच उन्होंने लौह पुरुष द्वितीय को अपनी पार्टी के कूड़ेदान में डाल दिया है, उस शख्स को जो कभी उनका संरक्षक हुआ करता था। 
    बात सरदार बल्लभ भाई पटेल और लालकृष्ण आडवाणी की हो रही है। पटेल को संघी मानसिकता के लोग अपना मानते रहे हैं भले ही पटेल कांग्रेस पार्टी के नेता रहे हों। देशी रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने के लिए सरकारी इतिहासकारों ने पटेल को लौह पुरुष का नाम दिया था। 
    संघी मानसिकता के लोगों द्वारा तथा स्वयं संघ द्वारा पटेल के बारे में किवदंतियां प्रचारित की जाती रही है। कहा जाता रहा है कि वे ही देश के स्वाभाविक प्रधानमंत्री थे। जवाहरलाल नेहरू तो गांधी के उनके प्रति स्नेह के कारण प्रधानमंत्री बन गये थे। देश का एकीकरण पटेल के कारण ही संभव हो सका था। यदि पटेल प्रधानमंत्री होते तो कश्मीर समस्या तभी हल हो गयी होती। उनके प्रधानमंत्री होने पर मुसलमानों की समस्या भी नहीं होती। आज देश के जो हालात हैं तब ऐसे नहीं होते। 
    पटेल की यह मिथकीय छवि, सभी मिथकों की तरह गढ़ी गयी है और प्रचारित की गयी है। इतिहास की कोई जानकारी न रखने वाले लोग भी इन मिथकीय गाथाओं को जानते हैं और उस पर विश्वास करते हैं। और ठीक मिथकों की तरह ही वे इस पर अंधविश्वास करते हैं। यह विश्वास कुछ इसी तरह का है कि राम आयोध्या में और वह भी ठीक बाबरी मस्जिद वाली जगह पर पैदा हुए थे। 
    रयूमर स्प्रेडिंग सोसाइटी (अफवाह फैलाने वाली संस्था) यानी आर.एस.एस. अथवा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन मिथकों को गढ़ने और प्रचारित करने में सबसे आगे रही है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम से पूर्णतया अलग रहने वाला यह संगठन पटेल की मृत्यु के बाद उनको हथियाने में लग गया और उनके बारे में मिथक गढ़ने व प्रचारित करने लगा। यह उसके बावजूद कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद पटेल ने बतौर गृहमंत्री संघ पर प्रतिबंध लगाया था। 
    पटेल को संघ द्वारा हथियाने की कोशिश का आधार स्वयं पटेल का पुरातनपंथी होना तथा किसी हद तक हिन्दू सांप्रदायिक होना था। राजेंद्र प्रसाद से लेकर मदन मोहन मालवीय व के.एम.मुंशी तक ऐसे लोगों की  कांग्रेस में भरमार थी। वस्तुतः नेहरू जैसे आधुनिकतावादी धर्मनिरपेक्ष लोग कांग्रेस में अल्पमत में ही थे। वह तो भारत के पूंजीपति वर्ग की तत्कालीन जरूरत थी जो नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने अन्यथा पटेलों, राजेंद्र प्रसादों का  ही बोलबाला था। ठीक इसी कारण से  कांग्रेस पार्टी हमेशा से ही धर्मनिरपेक्षता के नकाब में हिन्दुओं की ओर झुकी हुई पार्टी थी जो बाद में संघ परिवार के उभार के काल में और ज्यादा खुलकर सामने आ गयी। आज गुजरात में  कांग्रेस पार्टी खुलकर हिन्दू सांप्रदायिकता का विरोध नहीं करती। 
    भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी के जमाने में ही पटेल को हथियाने का एक प्रयास किया था। इसी प्रयास में आडवाणी को लौह पुरूष घोषित किया गया था और प्रकारांतर से जताने की कोशिश की गयी थी कि पटेल के उत्तराधिकारी हैं। लेकिन आडवाणी लौह पुरुष द्वितीय नहीं बने पाये और बाद में उनके पाले-पोसे चेले यानी नरेंद्र मोदी ने उन्हें तांबा पुरुष बनाकर तोड़-मरोड़ कर भाजपा के कूड़ेदान में फेंक दिया। आडवाणी यानी लौह पुरुष द्वितीय अपनी किस्मत को रो रहे हैं और बेहयाई के साथ इस उम्मीद में पड़े हुए हैं कि आज नहीं तो कल उनकी किस्मत फिर जागेगी।
    रही लौह पुरुष तृतीय यानी नरेंद्र मोदी की बात तो उन पर किस्मत नहीं बल्कि देश का पूंजीपति वर्ग मेहरबान है क्योंकि वे पूंजीपति वर्ग के सेवक नंबर-वन हैं। इसमें उन्होंने सारे मनमोहनों, चिदंबरमों, राहुलों को पछाड़ दिया है। जब तक वे पूंजीपति वर्ग के सेवक नंबर-वन हैं तब तक वे लौह पुरुष तृतीय के खिताब को खुद धारण कर सकते हैं। खुद को तमगा देने से किसी को कैसे रोका जा सकता है। जहां तक इतिहास का सवाल है वे मोम पुरुष साबित होंगे जिन्होंने पूंजीपति वर्ग के लिए मोमजामे का काम किया था।

गधे का पोता

व्यंग्य
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    बहुत समय पहले की बात है जिस यायावर गधे की आत्मकथा को लिपिबद्ध करने में कृश्न चंदर ने अपनी सेवायें उपलब्ध करवायीं थी उसकी मृत्यु    कृश्न चंदर से पहले हो गयी। गधे की संतानों ने अपने पिता की जितनी ख्याति तो नहीं पायी परन्तु एक रोज गधे का पोता धर्मनगरी से चुनाव जीतकर संसद में पहुंच गया। कृश्न चंदर आज जिंदा होते तो प्रतापी गधे के प्रतापी पोते की इस सफलता पर अवश्य प्रसन्न होते। 
    गधा अपने दादा जितना ही रूपवान था। उतना ही गुणी। उतना ही बढि़या लेखक। वह लेखन की हर विधा में निपुण था। कविता, कहानियां आदि आदि में उसने गधों के बीच बड़ा लाभ कमाया था। गधे के पोते की एक कहानी हिन्दी की मशहूर पत्रिका गधों का हंस में छप चुकी थी। 
    एक दिन संसद में गधे ने ऐसा बयान दे दिया कि हंगामा हो गया। गधे ने अपनी सुमधुर आवाज में कहा खगोल विज्ञान से बड़ी चीज ज्योतिष है। गधे ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि कुछ रोज पूर्व देश की शिक्षा मंत्री महापंडित गधाचार्य को अपना हाथ दिखा चुकी थी। गधाचार्य ने उसी दिन उनके राष्ट्र प्रमुख बनने की घोषणा कर दी थी। गधाचार्य की इससे पहले सारी भविष्यवाणियां शिक्षा मंत्री के जीवन में सही साबित हो चुकी थीं। 
    कृश्न चंदर के गधे के पोते को उम्मीद जागी कि यदि वे ऐसा बयान देते हैं तो सारे ज्योतिषाचार्य खुश हो जायेंगे और वे समझ लेंगे कोई तो है जो देश की संसद में बेबाकी से मधुर कण्ठ से रेंक सकता है। गधे के इस बेबाकी पर संसद में कोहराम मच गया। 
    गधा हमेशा आंखों में चश्मा चढ़ाये रखता था। आधुनिक जमाने में गधों से बोझ उठाने की प्रथा एक मशहूर पशुप्रेमी के कारण कमजोर पड़ गयी थी। गधे को अपनी पीठ पर वजन न होने से बहुत परेशानी हुयी। उसने बहुत अपने कान हिलाये-डुलाये लेकिन कोई विचार बरसात में हरी घास को देखे बगैर जन्म नहीं ले सकता था। क्योंकि बरसात दूर थी इसलिए वह अपने जन्मस्थान चला गया। 
    गधा पहाड़ों पर जहां सदाबहार थी उन वृक्षों के नीचे भी ध्यान मग्न हुआ परन्तु सब बेकार। ऐसे में किसी शाखा प्रमुख ने उसे दिव्य ज्ञान दिया। बताया अतीत में जो काम और प्रसिद्धि बोझा उठाने से मिलती थी वह अब आंखों में चश्मा चढ़ाने से मिलती है। बस गधे ने आंखों में किसी कुशल नेत्र चिकित्सक की सलाह पर उपयुक्त चश्मा धारण करना शुरू कर दिया। 
    चश्मा धारण करते ही गधे का व्यक्तित्व निखर गया। गधों के बीच में गधा बुद्धिजीवी के रूप में मशहूर हो गया। उसके बाद गधे ने करिश्मा कर दिया और हिन्दी फिल्मों से प्रेरणा लेकर एक से बढ़कर एक कहानी लिख डाली। महमूद की फिल्म कुंआरा बाप से प्रेरणा पाकर उसने रिक्शावाला लिख डाली। इधर रात में वह एक फिल्म देखता उधर सुबह एक कहानी लिख मारता। गधा धीरे-धीरे मशहूर हो गया। और जब यह बात पता चली कि वह कृश्न चंदर के गधे का पोता है तो फिर तो उसकी टीआरपी बढ़ती चली गयी।
    गधे ने अपनी प्रकाण्डता से अपना भविष्य अपने खुरों में खुद ही देख डाला। उसमें उसके एक प्रांत के मुख्यमंत्री बनने की बात दिलचस्प निशानों में लिखी हुयी थी। इधर गधे ने अपने खुरों में छिपी लिपि को पढ़ा उधर वह मुख्यमंत्री बना। मुख्यमंत्री बनना था कि गधे की दौलत में हर महीने करोड़ों का इजाफा होने लगा। उसने हर चीज में पैसा लगाया। माॅल, होटल,  चैनल न जाने कहां-कहां। 
    सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक घोडे ने गधे की चलती दुकान बंद कर दी। इधर चुनाव हुए। गधे-घोड़े अपनी दुश्मनी भुलाने के बाद भी जीतता-जीतता चुनाव हार गये। सत्ता लोमड़ी-सियारों के हाथ लगी। गधे-घोड़े सुस्ताने के अलावा क्या कर सकते थे। वही करने लगे। 
    कहते हैं कि सब दिन न होत एक समाना। बस गधे ने नये मालिक की खोज की। और वह ‘जहां चाह वहां राह’ की तर्ज पर मिल गया। इसके बाद गधा संसद में पहुंच गया। 
    संसद में गधे पर कोई ध्यान नहीं देता था। वहां तो देश भर के सारे छंटे हुए प्राणी मौजूद थे। गधा अपने चश्मे में से झांक-झांक कर देखता। मंत्रिमण्डल में जगह पाने की उम्मीद पालता पर सब बेकार। एक-एक से गधे मंत्री बन गये पर कृश्न चंदर के गधे के पोते का ही नंबर नहीं आया।
    संस्कृतनिष्ठ हिन्दी, वफादारी, कवि-लेखक होना, ब्राह्मण, विद्वान होना कुछ काम न आया। आखिर में तंग आकर गधे ने सब कुछ भाग्य पर छोड़ दिया। तभी किसी ने विज्ञान और ज्योतिष की बहस छेड़ दी। बस गधे ने वही कह दिया जो वह समझता था। इधर गधे ने कहा नहीं उधर संसद में हंगामा हो गया। 
    उधर संसद में हंगामा हुआ इधर गधा खुश हुआ चलो किसी तरह से खबर बनी। रातों-रात अखबार, चैनल में गधा छा गया। देश के सारे गधाचार्य खुश हो गये। कहने लगे कोई तो है जो देश को राह दिखा सकता है। घोर कलयुग में, मंदी के दौर में जब किसी को कुछ नहीं सूझ रहा तब हम ही जो बता सकते हैं कब देश का विकास होगा।
    गुप्त बैठक में गधाचार्यों ने सारी गणना करके अनुमान लगा लिया कि जब तक हमारा प्यारा गधा प्रधानमंत्री नहीं बनता है तब तक कुछ नहीं हो सकेगा। उनकी मंत्रणा का अगला विषय था कि गधा प्रधानमंत्री कैसे बनेगा। जब वे विचार करते तब तक इस विषय पर विचार करने का शुभ मुहूर्त टल गया। सभा विसर्जित हो गयी। गधा उस शुभ मुहूर्त का इंतजार कर रहा है। जब गधाचार्य बैठेंगे और बतायेंगे कि वह कब और कैसे प्रधानमंत्री बनेगा। तब तक गधा अपनी आंखों में चश्मा चढ़ाये संसद की लाइबे्ररी में रखी कभी अपनी किताबें तो कभी ‘ज्योतिष विज्ञान से क्यों श्रेष्ठ है’ नामक वह पुस्तक पढ़ता है जो महापंडित कठियावाडी घोड़े ने लिखी है। 

एन आर आई मोदी

वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)

    भारत की पूंजीवादी राजनीति में लालू प्रसाद यादव अपनी चुटकुलानुमा टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने अभी मोदी की आस्ट्रेलिया यात्रा के संदर्भ में कहा कि मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद से विदेश में ही घूम रहे हैं। वे एन.आर.आई. हो गये हैं। 
    मोदी एन.आर.आई. यानी अप्रवासी भारतीय हुए हैं या नहीं यह जरूर सच है कि भारत का पूंजीवादी प्रचारतंत्र यह लगातार प्रचार कर रहा है कि मोदी की देश के अप्रवासी भारतीयों में अपार लोकप्रियता है। मोदी को हजारों लोगों की भीड़ को संबोधित करते दिखाया जाता है जहां लोग पाॅप संगीत के कार्यक्रमों की तरह मोदी-मोदी के नारे लगाते हुए दीखते हैं। टी.वी. टिप्पणीकारों द्वारा कहा भी जाता है कि मोदी की लोकप्रियता राकस्टार की तरह है। 
    लेकिन क्या मोदी की वास्तव में उतनी लोकप्रियता है जितना दिखाया जा रहा है? क्या वास्तव में सारी दुनिया मोदी की दीवानी है? क्या वास्तव में सारी दुनिया मोदी-मोदी के नारे लगा रही है?
    संघियों-भाजपाइयों की सभी बातों की तरह इस प्रचार में भी दम नहीं है और मोदी को प्रचारित-प्रसारित करने में लगा पूंजीवादी प्रचारतंत्र हर कीमत पर इस झूठ को प्रचारित कर रहा है। असल में यह सारा कुछ पूंजीपतियों की भाषा में, ‘इवेंट मैनजमेंट’ और ‘पी.आर.’ का मामला है। 
    यह खबर अब आम है कि मोदी ने 2002 के दंगों के बाद अपनी बदनाम छवि को धो-पोंछकर चमकाने के लिए उतनी ही बदनाम एक अमेरिकी पी.आर. (पब्लिक रिलेशन यानी जनता से संवाद करने वाली) कंपनी को अपनी सेवा में लगाया। इस बदनाम कंपनी की सेवाएं जार्ज बुश और यूनियन कार्बाइड (भोपाल गैस त्रासदी की जिम्मेदार) ले चुके हैं। इस बदनाम कंपनी ने कुछ ही सालों में मोदी का चेहरा इतना चमका दिया कि लोग उनके खूंखार चेहरे को भूल गये। 
    विदेशों में जो कुछ हो रहा है वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसकी विदेशी शाखा, ‘इवेंट मैनेजमेंट’, कंपनियों तथा ‘पी.आर.’ कंपनियों का कारनामा है। विदेशों में भारतीयों की जो जमात है उसके ऊपरी हिस्सों में एक बड़ी संख्या संघी मानसिकता के लोगों की है। ये लोग अपने जीवन में तरक्की करने के लिए देश छोड़कर भाग गये थे लेकिन इनकी पिछड़ी पुरातन मानसिकता ने इनका साथ नहीं छोड़ा। ये विदेश में भी उसी के साथ जीते रहे। विदेशों में भी उन्होंने अपना एक छोटा हिन्दुस्तान बना लिया है। पिछले सालों में इन्हीं लोगों को केन्द्रित करते हुए कई सारी बम्बइया मसाला फिल्में बनी हैं। 
    संघ परिवार ने इन्हीं लोगों को केन्द्रित करते हुए मोदी के विदेशों में कार्यक्रम आयोजित किये हैं। अमेरिका में बसे बीसियों लाख अप्रवासी भारतीयों में से कुछ हजार को मोदी के कार्यक्रम के लिए इकट्ठा कर लेना कोई मुश्किल काम नहीं है। इसके लिए यदि ‘इवेंट मैनेजमेंट’ और ‘पीर.आर. कंपनियों’ को लगा दिया जाये तो कार्यक्रम भव्य भी हो सकता है। तब वहां मोदी-मोदी के नारे वैसे ही सुनाई दे सकते हैं जैसे ‘लेडी गागा’ के कार्यक्रम में। 
    ऐसा नहीं है कि मोदी के विरोधी विदेशों में नहीं हैं और ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने मोदी के विरोध में वहां कार्यक्रम आयोजित नहीं किये। और ये कार्यक्रम इवेंट मैनेजमेंट तथा पीर.आर. कंपनियों द्वारा आयोजित नहीं किये गये थे। लोग उसमें स्वयं आये थे। अमेरिका में तो इस विरोध कार्यक्रम में शामिल होने वाले लोगों की संख्या दस हजार बताई जाती है। 
    पर भारत का पूंजीवादी प्रचारतंत्र इस विरोध को नहीं दिखाता। इसको दिखाने से मोदी की गढ़ी जा रही छवि ध्वस्त हो जायेगी। अब देखने की बात यह है कि मोदी की बालू की तरह भीमकाय मूर्ति कब तक खड़ी रहती है।

पंजाब सरकार द्वारा विरोध के अधिकार का अपराधीकरण करने की कोशिश 

वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
    अभी कुछ दिन पहले पंजाब की शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकार ने सार्वजनिक व निजी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के बारे में एक कानून पारित किया है, जिसमें वे अपने जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध किसी भी प्रतिरोध को सीमित करना चाहता है इसके पहले ऐसा ही कानून एक अक्टूबर, 2010 को पारित किया गया था। लेकिन उसे अक्टूबर, 2011 में वापस ले लिया गया। उस समय समूचे पंजाब प्रांत में उस बिल का व्यापक विरोध हुआ था। इसके साथ ही 2012 में पंजाब विधाानसभा चुनाव होने वाले थे, इसलिए वोट बटोरने के लिए चुनाव से ठीक पहले इस बिल को वापस ले लिया गया  था। 2010 के बिल को ही कुछ संशोधनों के साथ अब 2014 में फिर से पारित कर दिया गया है। 
    2010 के बिल के उद्देश्य और कारण बताते हुए यह कहा गया है हालिया अतीत में पंजाब राज्य में हिंसक प्रदर्शनों, आंदोलनों की अनेक वारदातें होती रही हैं और सार्वजनिक व निजी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने से रोकने और गड़बड़ी करने वालों से ऐसे नुकसान की भरपाई कराने का कोई व्यापक कानून नहीं है। और भी ऐसी गड़बड़ी करने वालों को दंडित करने का कोई कानून नहीं है। 
    इस नये पारित कानून में नुकसान पहुंचाने की कार्यवाही की परिभाषा ऐसी दी गयी है जिसमें हर तरह का विरोध करना मुश्किल हो जायेगा। नुकसान पहुंचाने वाली कार्यवाही में ऐसी कोई भी कार्यवाही आंदोलन, हड़ताल, धरना, बंद-प्रदर्शन, मार्च, जुलूस या रेल या रोड को जाम करना शामिल है जिसमें ऐसी कार्यवाही करने वाले व्यक्ति, व्यक्तियों का समूह, संगठन या कोई भी सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक पार्टी शामिल है और कार्यवाही के दौरान किसी सार्वजनिक या निजी सम्पत्ति का नुकसान यदि होता है तो ऐसे लोग इसके जिम्मेदार होंगे। 
    इसमें ऐसे कार्यवाही करने में चाहे कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह या किसी संगठन, यूनियन या पार्टी के पदाधिकारी जो ऐसे किसी नुकसान पहुंचाने वाली कार्यवाही का इंतजाम करते हैं, भड़काते हैं, साजिश करते हैं, सलाह देते हैं या पथ प्रदर्शन करते हैं, जिम्मेदार माने जायेंगे। किसी भी असाधारण कानून की तरह यह कानून भी मनमानी व्याख्या के लिए, कई धाराओं को अस्पष्ट रहने देता है और लगभग सभी किस्म के विरोध का अपराधीकरण करने की गुंजाइश छोड़ता है। यदि विरोध करने के दौरान किसी सार्वजनिक या निजी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचता है तो संगठनकर्ताओं और नेताओं को तब भी फंसाया जा सकता है चाहे वह उस समय अपने घर पर हों या अन्य किस्म की गतिविधियों पर लगे हों। 
    यहां तक कि यदि विरोध के दौरान ऐसे समाज विरोधी तत्वों द्वारा हिंसा की जाती है जिनका विरोध से कोई दूर-दूर तक वास्ता नहीं है, तब भी विरोध के नेताओं या संगठनकर्ताओं को जिम्मेदार ठहराया जायेगा। 
    कानून की इन धाराओं का उद्देश्य व्यक्तियों, विभिन्न संगठनों, उनके नेताओं को आतंकित करना है। सरकार की नीतियों के विरोध करने के उनके अधिकार पर अंकुश लगाना है। 
    इस कानून के तहत अधिकारियों को व्यापक अधिकार दिये गये हैं। इस कानून में राज्य सरकार को एक ऐसे अथाॅरिटी गठित करने का अधिकार दिया है जो सम्पत्ति के नुकसान का आंकलन करेगी और सम्पत्ति के हुए नुकसान को संगठनकर्ताओं और हिस्सेदारों से वसूल करेगी। 
    यदि कोई व्यक्ति इस आदेश के खिलाफ अपील करना चाहता है तो वह 30 दिन के भीतर राज्य सरकार से अपील कर सकता है। इसका मतलब बहुत साफ है कि अधिकारी ही दंड देंगे और अधिकारी ही अपील सुनेंगे। 
    यहां सीधे-सीधे कार्यपालिका, न्यायपालिका को अपने हाथ में ले रही है। इसी प्रकार गवाह के रूप में अधिकारियों द्वारा की गयी वीडियोग्राफी को पर्याप्त माना गया है। यह बहुत साफ है कि वीडियोग्राफी के कुछ फुटेज डाले जा सकते हैं या हटाये जा सकते हैं। इस तरह संगठनकर्ताओं और हिस्सेदारों की छवि तथा उनके विरोध के उद्देश्य को बदनाम किया जा सकता है। ऐसी भद्दी जांच से मदद मिलेगी और उनको अपनी ज्यादतियों के लिए कोई सजा नहीं मिलेगी। पिछले दो दशकों से निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के कारण पंजाब में आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक संकट गहरा गया है। इस संकट की गहराई का इसी एक तथ्य से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार पर लगभग 1 लाख 90 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है। राज्य सरकार हर महीने 700 करोड़ रुपये का ब्याज चुकाती है। यह पैसा इकट्ठा करने के लिए वह सार्वजनिक सम्पत्ति बेच रही है और विभिन्न क्षेत्रों में राज्य कर्मचारियों के वाजिब पैसे के भुगतान में असमर्थता व्यक्त कर रही है। 
    राज्य के बेरोजगार नौजवानों की संख्या 50 लाख से भी अधिक है। यह शिक्षा का बहुत तेजी के साथ निजीकरण और व्यापारीकरण करती जा रही है। इससे छात्र समुदाय के बीच गहरा असंतोष व्याप्त है। 
    औद्योगिक मजदूर और कृषि मजदूर मजदूरी में बढ़ोत्तरी की मांग कर रहे हैं। बेहतर काम की परिस्थिति चाहते हैं। लोग महंगाई और व्यापक बिजली कटौती से परेशान हैं। महिलाओं के खिलाफ हिंसा बेहिसाब बढ़ती जा रही है। ऐसी परिस्थिति में सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध संघर्ष करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। लोग यह कह रहे हैं कि पंजाब में प्रदर्शन और सड़क जाम आम बात हो गयी है, ये प्रदर्शन, घेराव और जाम सरकार के जनविरोधी नीतियों के रास्ते में रोड़ा बन रहे हैं। लेकिन सरकार जनता की वाजिब आवाज को सुनने के बजाय पुलिस के जरिये उसे नृसंशता से दबा देना चाहती है। सरकार की निगाह में बंद, हड़ताल, विरोध प्रदर्शन, रेल या सड़क जाम राष्ट्र विरोधी और राष्ट्रद्रोह की कार्यवाहियां हैं। वे आतंकवाद और संगठित अपराध के समान हैं। यह कानून पुलिस को मजबूत करके विरोध करने वालों की आवाज को पहले से कहीं ज्यादा नृसंशता से कुचलने का अधिकार देता है। 
    पंजाब में पारित यह कानून न सिर्फ पंजाब के लिए ही बल्कि समूचे देश के लिए आने वाले ‘बुरे दिनों’ का आगाज है। ये ही मोदी के आने वाले ‘अच्छे दिन’ का पूर्वाभास है। 

मानव संसाधन विकास मंत्री जी! राष्ट्रपति भवन में आपकी जगह हो न हो इतिहास में आपकी जगह पक्की है

वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
    अभिनेत्री से नेत्री और फिर मंत्री बनी बैठी स्मृति ईरानी के सितारे आजकल बुलंदी पर हैं। भविष्य में उनके सितारे उन्हें देश की राष्ट्रपति की गद्दी तक पहुंचायेंगे। उनके मंत्री बनने की घोषणा करने वाले राजस्थान के ज्योतिष नत्थूलाल ने स्मृति ईरानी के हाथ दिखाने पहुंचने पर यह भविष्यवाणी की। 
    स्मृति ईरानी का भविष्य भले ही बुलंदियों तक पहुंचे पर इस देश के बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो चुका है। जहां का शिक्षा मंत्री अपने भविष्य के लिए ज्योतिषों के चक्कर काटे वहां शिक्षा की दुर्दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे शिक्षा मंत्री के राज में पढ़ने वाले बच्चे कितनी वैज्ञानिक सोच पर खड़े होंगे, इसे भी समझा जा सकता है?
    मानव संसाधन विकास मंत्री बनने के बाद से मेडम स्मृति ईरानी ने खासा नाम कमा लिया है। उनके मंत्रालय ने इतिहास के भगवाकरण के लिए इतिहास परिषद पर संघी मानसिकता का व्यक्ति बैठा डाला जो तथ्यों-सबूतों की परवाह किये बिना आर्यों को भारत का मूल निवासी बनाने को तत्पर है। आपके राज में दिल्ली विश्वविद्यालय का संस्कृत विभाग इतिहास का रिसर्च कर उन्हें संघ सम्मत बना रहा है। आपके आदेश से देश के विभिन्न शिक्षण संस्थानों में निरामिष भोजन मिलना बंद हो गया है। आपके आदेश से अब सब केन्द्रीय विद्यालय में जर्मन की जगह भारतीय भाषा और विशेषकर संस्कृत पढ़ाई जाने लगी है। 
    माननीया मंत्री जी आप जिस गति से संघ परिवार के एजेंडे पर काम कर रही हैं उससे देश के नौनिहालों का भविष्य अधिकाधिक अंधकार की ओर बढ़ रहा है। आप कहती हैं कि आपका ज्योतिष को हाथ दिखलाना आपका व्यक्तिगत मामला है पर आपकी सहयोगी मंत्री नजमा हेपतुल्ला दो कदम आगे बढ़कर ज्योतिष को विज्ञान ही घोषित कर डालती हैं। शायद आपका अगला कदम पाठ्यपुस्तकों में विज्ञान की जगह ज्योतिष की पुस्तकें शामिल करना होगा और फिर आप अपने प्रिय ज्योतिष नत्थूलाल को सीधे प्रोफेसर डिग्री से सम्मानित करवा दें। 
    माननीया मंत्री जी जिस राज में हजारों लोगों के कत्लेआम के भागी मोदी प्रधानमंत्री बन सकते हों, जहां एक सीरियल में भूमिका आपको मंत्री बनवा सकती हो वहां नत्थूलाल के प्रोफेसर बनने पर कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। इस राज में आप राष्ट्रपति भी बन जायें तो कोई अजूबा नहीं होगा। और फिर ज्योतिष तो तर्क-विज्ञान को परे रख अजूबा करता ही रहता है। 
    माननीया मंत्री जी आपके नक्शेकदम की तार्किक परिणति इस ओर ले जाती है कि आप सारे स्कूल-कालेजों से सभी विषय हटाकर इकलौता विषय ज्योतिष रखवा दें। बच्चे आयें हाथ दिखलायें और पता लगा लें कि वे मजदूर बनेंगे या पूंजीपति, मंत्री बनेंगे या राष्ट्रपति। और फिर सरकार ज्योतिष की भविष्यवाणी के अनुरूप उन्हें तय काम दिलाने का जिम्मा संभाल ले। इस प्रोजेक्ट से शिक्षा के खर्च में भी भारी कमी होगी और समाज में ज्योतिषों का मान-सम्मान भी काफी बढ़ जायेगा। पक्का संघी रामराज की शिक्षा का खाका तैयार हो जायेगा। 
    पर मंत्री जी हर तुगलक को एक दिन गद्दी छोड़नी पड़ती है। इतिहास उनकी गद्दी के भय से नहीं बल्कि उनके कर्मों से उनकी इतिहास में जगह तय करता है। देश के राष्ट्रपति भवन में आपको जगह मिले न मिले पर इतिहास में आपकी जगह के बारे में पूरी विज्ञानसम्मत भविष्यवाणी की जा सकती है। इतिहास में आपकी जगह इतिहास के कूड़ेदान में होगी। अपने वक्त की पूरी पीढ़ी के भविष्य को चौपट करने वाली शख्सियत के साथ इतिहास और जनता पूरा इंसाफ करेगी। इतना याद रखें कि देश टी.वी. सीरियल नहीं होता जहां डायरेक्टर मोदी के इशारे पर आपके अभिनय को जनता चुपचाप बर्दाश्त कर ले। जनता जब जागेगी तो डायरेक्टर-एक्ट्रेस सबका हिसाब चुकता करेगी।  

भारतीय संस्कृति के स्वघोषित रक्षकों से खतरा

वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    पिछले दिनों भारत के फासीवादी संघी कार्यकर्ताओं का भारतीय संस्कृति के लिए प्रेम अचानक उमड़ पड़ा। फिर क्या था ये लोग भारतीय संस्कृति की अपनी मनगढ़न्त परिभाषा पेश कर उसकी रक्षा के लिए सड़कों पर उतर पड़े। जहां एक ओर सड़कों पर भारतीय संस्कृति की रक्षा की जा रही थी वहीं दूसरी ओर मानव संसाधन विकास मंत्रालय एकदम भिन्न तरीके से भारतीय संस्कृति को बचा रहा था।
    मध्य प्रदेश के एक संघी स्वयं सेवक एस.एस.के. जैन ने मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को एक पत्र लिखा कि भारत के आई.आई.टी. व अन्य शिक्षण संस्थाओं में छात्र मांसाहारी भोजन कर अपनी तामसिक प्रवृत्ति बढ़ा रहे हैं। इसलिए इन संस्थानों में शाकाहारी मेसों का अलग से इंतजाम किया जाए। एस.एस.के. जैन ने पत्र की प्रतिलिपि प्रधानमंत्री मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को भी भेजी। 
    मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इस पत्र के साथ अपना एक पत्र लगाकर सभी आई.आई.टी. निदेशकों को प्रेषित कर दिया कि वे जबाव दें कि उन्होंने इस संदर्भ में क्या कार्यवाही की है। 
    पत्र के लेखक एस.एस.के. जैन का तर्क था कि ‘हम कई परिवारों को मिश्रित हुआ देखते हैं। एक ही परिवार में सिंधी पिता और पंजाबी मां पाई जाती हैं और उनके बच्चे मुसलमान से शादी कर लेते हैं। यह सब तब शुरू होता है जब आप भोजन को मिश्रित कर लेते हैं। गलत भोजन किसी का भी दिमाग खराब कर देता है। इसलिए मैंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सदस्य व भाजपा का समर्थक होने के नाते यह अनुरोध किया है। मैं जानता हूं कि यह सरकार मेरे अनुरोध को समझ लेगी।
    भारतीय संस्कृति की रक्षा का दूसरा अभियान संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं ने केरल के कोचिखोडे में एक रेस्तरां पर हमला बोल कर शुरू किया। इनका आरोप था कि रेस्तरां में प्रेमी जोड़े अश्लील हरकतें करते हैं। इनकी अश्लीलता की परिभाषा में लड़के-लड़कियों का साथ बैठना, हाथ पकड़ना सभी कुछ आता है। ये संघी कार्यकर्ता नैतिक पुलिस का काम कर तथाकथित भारतीय संस्कृति के रक्षक के बतौर खुद को पेश कर रहे हैं। इससे पहले भी भारतीय संस्कृति के ये ठेकेदार पार्कों, सार्वजनिक जगहों पर लड़के-लड़कियों को अपमानित करते नजर आते रहे हैं। 
    इन दोनों ही मामलों में जिस भारतीय संस्कृति की रक्षा की बात की जा रही है वह कहीं से भी हमारी संस्कृति नहीं है, बल्कि ये संघ द्वारा रची गयी पितृसत्तात्मक सामंती ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व की संस्कृति है जिसे संघी कारकून जबरन पूरे देश पर थोपना चाहते हैं। 
    जहां तक भोजन का सवाल है तो देश में अलग-अलग राष्ट्रीयताओं के इलाकों में अलग-अलग भोेजन का चलन रहा है। सभी राष्ट्रीयताओं में मांसाहार बड़े पैमाने पर प्रचलित रहा है। हां! जातीय विभाजन से एक साथ ऊंची व नीची जाति बैठकर भोजन को तैयार नहीं रही थीं। शिक्षण संस्थानों के नौजवानों ने एक लम्बे क्रम में इस जातीय दूरी को लांघ कर मेस में एक साथ सभी जातियों के भोजन करने की स्थिति को हासिल किया। आज न तो किन्हीं आई.आई.टी. व अन्य शिक्षण संस्थानों में ऐसी कोई मांग है कि शाकाहारी, मांसाहारी मेस अलग-अलग हो और न ही छात्र इतने पिछड़े रह गये हैं। 
    ऐसे में संघी लाॅबी शाकाहार को जब भारतीय संस्कृति के बतौर पेश करती है तो वह उत्तर भारतीय ब्राह्मणवादी परम्परा की पोषक बन जाती है। सवाल शाकाहारी या मांसाहारी मेस के अलग-अलग होने का नहीं है। छात्रों की मांग पर ऐसा किया भी जा सकता है जैसा कि मद्रास आई.आई.टी. में वर्षों से चल रहा है। सवाल निरामिष भोजन को भारतीय संस्कृति विरोधी ठहराने का है। इस व्याख्या के जरिये संघी लाॅबी देश की बहुसंख्या पर अपने मनमानी हिंदुत्व की संस्कृति थोपने में जुटी है। 
    इस मुद्दे पर बाद में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि इस सम्बन्ध में निर्णय का अधिकार आई.आई.टी. प्रशासन को है व उन्होंने मेस अलग करने या मांसाहार बन्द करने का कोई निर्देश नहीं दिया है। जबकि वास्तविकता यह है कि कई आई.आई.टी. मेसों में जबरन मांसाहार पहले ही बंद किया जा चुका है। 
    जहां तक प्रेम करने की स्वतंत्रता, स्त्री-पुरुष के साथ-साथ घूमने-फिरने की स्वतंत्रता सम्बन्धी प्रश्न है तो यह भी सामंती जमाने से ही होता आया था, कि स्त्री को घरों की चहारदीवारी में कैद रखा जाता था और उनके जीवन के व्यक्तिगत प्रश्न भी परिवार ही तय करता था। इस तरह संघ सामंती युग के बंधन को आज फिर से नौजवानों पर थोपने को उतारू है। 
    संघी कार्यकर्ताओं की इस नैतिक पुलिसिंग की हरकत का जबाव देश के नौजवानों ने जगह-जगह ‘किस आफ लव’ का आयोजन करके दिया। दिल्ली में संघ के कार्यालय के सम्मुख इसका आयोजन हुआ। अफसोस की बात यह रही कि कानून की दुहाई देने वाली वास्तविक पुलिस हर जगह नौजवानों के खिलाफ खड़ी रही। फिर भी इन आयोजनों ने यह तो दिखला दिया कि आज नौजवान संघी कारकूनों की हर हरकत चुपचाप सहन नहीं करेंगे। 
    आज देश को संघ द्वारा बतलाई जा रही ‘भारतीय संस्कृति’ व इसके हर रखवाले संघी तत्वों से खतरा है। इसलिए जरूरी है कि भारतीय संस्कृति की इनकी व्याख्या के खिलाफ खड़ा हुआ जाये। इस बात के साथ खड़ा हुआ जाए कि प्रेम करना व भोजन करना किसी भी व्यक्ति के व्यक्तिगत मसले हैं। इन्हें किसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दुहाई देकर नहीं छीना जा सकता है। वैसे भी भारतीय पौराणिक ग्रन्थों में राधा-कृष्ण के प्रेम से लेकर वेदों में मांसाहार का पर्याप्त वर्णन है। उन पौराणिक ग्रंथों में, जिनकी दुहाई आज संघी लाॅबी देता है। 

गुजरात निकाय चुनावों में मतदान अनिवार्य
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    गुजरात की भाजपा सरकार ने एक नया कानून बनाकर गुजरात के निकाय चुनावों में मतदान करना अनिवार्य बना दिया है। इस तानाशाही पूर्ण कदम को उठाते हुए नागरिकों से वोट न डालने का अधिकार छीन लिया गया है। वोट न डालने पर व्यक्ति को जुर्माने या सजा का भागी बनना होगा। यह जुर्माना या सजा कितनी होगी यह अभी स्पष्ट नहीं है पर फिर भी गुजरात सरकार फासिस्ट कदम उठाने के मामले में फिर से बाकी राज्यों का नेतृत्व करने वाली जरूर बन गयी है। 
    इसके साथ ही स्वच्छता का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा एक और कानून बनाने का प्रयास कर रही है जिसके तहत निकाय चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को यह शपथ पत्र देना होगा कि उसके घर में शौचालय है। 
    किसी जमाने में दिल्ली सल्तनत के बादशाह मोहम्मद तुगलक ने राजधानी बदलने, चमड़े के सिक्के चलाने, सरीखे फरमान जारी किये थे। आज कुछ ऐसे ही तुगलकी फरमान 21 वीं सदी में लागू करने का काम गुजरात सरकार कर रही है। गुजरात सरकार के दोनों कदम गरीब मेहनतकशों का जनवाद छीनने का इंतजाम है। गरीब आबादी ही वह तबका है जिसे वोट न डालने पर जुर्माना देना भारी पड़ेगा। अमीरजादे तो जुर्माने की रकम सरकार के मुंह पर मार सरकार के कानून को ठेंगा दिखलायेंगे। गरीबों को ही अब जुर्माने के भय से वोट डालने जाना पड़ेगा।
    यही स्थिति शौचालयों के संदर्भ में है स्वाभाविक ही है कि शौचालय गरीब-मेहनतकशों के घरों में नहीं होते। बहुत बार तो उनके पास अपना कहने के लिए घर ही नहीं होता, शौचालय होना तो दूर की बात रही। ऐसे में चुनाव लड़ने से गरीब आबादी ही वंचित की जायेगी। 
    यूरोप में किसी जमाने में जब सबको मत देने का अधिकार नहीं था तब एक नियत सम्पत्ति, भूमि के मालिकों के लिए ही चुनावी प्रक्रिया थी हमारे देश भारत में भी आजादी से पूर्व महज 13 प्रतिशत लोगों को मत देने का अधिकार था। आजादी के बाद यह सभी बालिक लोगों का अधिकार बना। 
    अब मानो गुजरात सरकार ने पुराने जमाने को फिर से लाने की शुरूआत कर दी है। एक ओर उसने मत देने के अधिकार को जबरन मत देने की गुलामी में ढकेल दिया है। वहीं दूसरी ओर गरीबों के चुनाव लड़ने पर रोक का इंतजाम कर दिया है। 
    मोदी की चहेती आनंदी बेन को आजाद भारत के तुगलक की पदवी देने के लिए अब और क्या बाकी रह जाता है। इन तुगलकी फरमानों के खिलाफ खड़े होना जरूरी है। 

देश में इंस्पेक्टर राज की असलियत
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    उदारीकरण के मौजूदा दौर में इंस्पेक्टर राज को खत्म करने की जोरों-शोरों से वकालत की जाती रही है। पहले मालों के बाजार में लागू इंस्पेक्टर राज को खत्म किया गया और अब श्रम बाजार के इंस्पेक्टर राज के खात्मे की बात जोर-शोर से की जा रही है। 
    अक्सर ही मान लिया जाता रहा है कि उदारीकरण के दौर में पूंजी को हर तरह के सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया जाना चाहिए। वास्तविकता यही है कि पूंजी व मालों के चलन में कायम किया गया सरकारी नियंत्रण भी पूंजीपति वर्ग की ही जरूरत से प्रेरित था और अब नियंत्रण समाप्त करना भी इसी वर्ग की जरूरतों से प्रेरित है। हां! इसके वावजूद पूंजी के किसी भी संकट में फंसने पर या मंदी में जाने पर सरकारें पहले भी उन्हें बचाती रही हैं और आगे भी बचायेंगी। 
    दरअसल पूंजीपति वर्ग आज यही चाहता है कि सरकार उसकी पूूंजी-माल व उत्पादन प्रक्रिया के नियमन के लिए बने सारे कानून खत्म कर दे। वह श्रम कानून भी खत्म कर दे। पर पूंजी की इस बेरोकटोक चलन से अगर कभी पूंजीपति वर्ग संकट में फंस जाये तो सरकार उसको बचाने को आगे आ जाये। 3-4 दशकों से वैश्विक स्तर पर और भारत में भी यही हो रहा है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में पूंजीपति ‘बेलआउट पैकेज’ तो चाहते हैं पर कोई नियंत्रण नहीं। 
    अब चूंकि सरकार श्रम बाजार के इंस्पेक्टर राज को पिछले 2 दशकों से क्रमशः खत्म करने में जुटी है तो यहां भी पूंजीपति वर्ग यह नहीं चाहता कि सरकार मालिक-मजदूरों के झगड़ों में हस्तक्षेप बंद कर दे। वह तो केवल यह चाहता है कि मजदूरों के हितों में बने कानून समाप्त हो जायें। 
    पूंजीपति वर्ग के उलट मजदूर वर्ग इस बात की मांग करता है कि अगर सरकार को मालिक, मजदूर के रिश्तों को नियंत्रित नहीं करना है तो वह पूरी तरह हट जाये। तब सरकार को पुलिस-प्रशासन को निर्देश दे देना चाहिए कि मालिक-मजदूर के झगड़े में वह हस्तक्षेप न करें। तब मजदूर वर्ग खुद पूंजीपति वर्ग से निपट लेगा।  पर साथ ही मजदूर वर्ग यह भी जानता है कि पूंजीवादी व्यवस्था में सरकार पूंजीपति वर्ग की ही प्रतिनिधि है इसलिए ऐसा नहीं हो सकता इसीलिए मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के साथ उसकी व्यवस्था के खिलाफ भी लड़ता है।
    इस तरह श्रम बाजार का उदारीकरण दरअसल मजदूरों को मिले कानूनी अधिकार छीनकर उन्हें पूंजी की लूट के आगे असहाय बनाने का सरकारी इंतजाम है इसलिए मजदूर इसके खिलाफ लड़ता है। यहां तक कि व्यवहारतः खत्म होने के बाद भी इनके औपचारिक खात्मे को रोकने के लिए लड़ना जरूरी है। 
    पिछले 2 दशकों में श्रम बाजार के उदारीकरण को नीचे के दो ग्राफ प्रस्तुत करते हैं।
ग्राफ-1: भारत में निरीक्षण का गयी फैक्टरियों का प्रतिशत 1986-2008
 पहला ग्राफ दिखलाता है कि फैक्टरियों के लेबर विभाग द्वारा हुए निरीक्षणों में लगातार कमी आयी है। 1986 में जहां 63.05 प्रतिशत फैक्टरियों का निरीक्षण हुआ वहीं 2008 में केवल 17.88 प्रतिशत फैक्टरियों का। जाहिर है कि कानून लागू करना पहले ही छोड़ा जा चुका है। 
    दूसरा ग्राफ इस कानून के व्यवहार में पालन न होने के दुष्प्रभाव को दिखलाता है। यह प्रति एक लाख श्रम दिवसों पर होने वाली गम्भीर रूप से घायल होने की संख्या में वृद्धि की तस्वीर मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की दिखलाता है। 
   

ग्राफ-2: प्रति 1 लाख कार्य दिवस पर गम्भीर दुर्घटनाओं की संख्या (मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र)
यानि श्रम कानूनों के खत्म होने से मालिक लगातार सुरक्षा उपायों को ताक पर रख मजदूरों को मौत के मुंह में धकेल रहे हैं। तमाम राज्यों की सरकारों ने फैक्टरियों के निरीक्षण में तमाम रुकावटें पहले ही खड़ी कर दी हैं पर मालिक पूंजीपति इससे खुश नहीं हैं। वे मोदी के जरिये पूरी मनमर्जी चाहते हैं।  



कोयले की दलाली में सफेद हाथ की कोशिश

वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
    केन्द्र सरकार ने कोयला खदानों के आवंटन के लिए एक अध्यादेश जारी किया है। इस अध्यादेश के तहत कोयले का स्वयं उपभोग करने वाली सीमेण्ट, इस्पात या विद्युत की कंपनियों को, जो चाहे सार्वजनिक क्षेत्र की हो या निजी, कोयला खदानें नीलाम की जायेंगी। यह नीलामी इंटरनेट के जरिये होगी। इसके साथ ही चुपके से यह प्रावधान भी किया गया है कि कोयला खदानें उन कंपनियों को भी नीलाम की जायेंगी जो कोयले का इस्तेमाल नहीं करतीं यानी जो कोयला निकालकर इसका व्यापार करेंगी।
    सरकार ने यह अध्यादेश सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1993 के बाद आवंटित 218 खदानों में से 214 को गैर कानूनी घोषित कर उसे रद्द करने के बाद जारी किया है। सरकार द्वारा कहा गया कि यह अध्यादेश इसलिए लाया गया है कि इससे सीमेण्ट, इस्पात और विनिर्माण क्षेत्र प्रभावित न हों। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कोयला खदानों का आवंटन रद्द होने के बाद कोयले की उपलब्धता प्रभावित हो सकती है।
    कोयला क्षेत्र की ट्रेड यूनियनों ने इस अध्यादेश का विरोध किया है और इसके विरोध में संघर्ष में उतरने की घोषणा की है। उनके अनुसार यह प्रकारान्तर से कोयले का राष्ट्रीयकरण खत्म करने की साजिश है।
    कोयले की खदानों का अंधाधुंध आवंटन सरकार की निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का हिस्सा रहा है। यह 1993 से ही शुरू किया गया था और तब से सभी पार्टियों की सरकारें इसे लागू करती रही हैं। यह पूंजीपति वर्ग को लूट की खुली छूट देने की नीति का ही एक हिस्सा था।
    लूट की इस खुली छूट के दो व्यावहारिक नतीजे देखने को मिले। एक तो कोयला खदानों को हासिल करने वाली कंपनियों में से ज्यादातर ने उत्पादन ही नहीं शुरू किया। यानी वे कोयले के उत्पादन में कोई दिलचस्पी नहीं रखती थीं। उन्होंने तो खदानों का आवंटन इसलिए हासिल किया था कि उसे ऊंचे दामों में किसी और कोे बेचकर तुरत-फुरत ऊंचा मुनाफा कमा सकें। यही काम 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में स्पेक्ट्रम हासिल करने वाली कंपनियों ने किया था।
    कोयला खदानों के इस तरह गैर-उत्पादक कंपनियों के हाथों में पड़े रहने से कोयले का उत्पादन गिरना ही था। इसी कारण इसके साथ कोयले का आयात बड़ी मात्रा में बढ़ा। वैसे निजीकरण के इस जमाने की यह विशेषता रही है कि सभी मालों का आयात और निर्यात बड़ी मात्रा में बढ़े हैं।
    इस संदर्भ में प्रमुख बात यह नहीं है कि सरकार ने बिना किसी नीलामी की प्रक्रिया के ही कोयला खदानों का आवंटन कर दिया। इसमें प्रमुख बात यह है कि सरकार ने पूंजीपतियों को छूट दी कि वे इन प्राकृतिक संसाधनों के साथ जो चाहे करें। स्वाभाविक है कि तब ये कम्पनियां मुनाफे के लिए कुछ भी कर सकती हैं। वे कोयला निकाल भी सकती हैं और नहीं भी। वे खदानों की सट्टेबाजी कर सकती हैं।
    सर्वोच्च न्यायालय से लेकर पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थकों तक सबने यह जतलाने का प्रयास किया कि इस मामले में समस्या नीलामी न करने की रही है। यदि नीलामी की गई होती तो सरकार को ज्यादा आय होती। इस आय का न होना ही यानी सरकारी राजस्व में कमी ही घोटाला है।
    तकनीकी तौर पर यह बात सही है। पर निजीकरण-उदारीकरण के इस दौर में इस बात का क्या महत्व हो सकता है जब सारी अर्थनीति ही इस ओर निर्देशित हो कि पूंजीपतियों का मुनाफा कैसे बढ़ाया जाये। यदि सरकार नीलामी के जरिये राजस्व हासिल कर भी लेती तो क्या होता? वह करों में छूट के जरिये फिर उसी पूंजीपति वर्ग की जेब में पहुंच जाता। बस ज्यादा से ज्यादा यह होता है कि किन्हीं खास पूंजीपतियों को फायदे के बदले यह समूचे वर्ग को होता।
    इस आम अर्थनीति के कारण ही इस या उस तरीके से वहीं नीतियां जारी रहेंगी। नीलामी हो या न हो, घूम-फिर कर परिणाम वही निकलेगा- पूंजीपति वर्ग की पूंजी में बेतहाशा वृद्धि और मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता की बढ़ती बदहाली।

निकृष्ट पहलकदमी

वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
    20 अक्टूबर को उत्तराखण्ड के मंत्रिमण्डल की बैठक हिन्दुओं के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल केदारनाथ में आयोजित की गयी। मंत्रिमण्डल की बैठक के पहले मुख्यमंत्री हरीश रावत सहित उनके मंत्रिमण्डल के सदस्यों ने मंदिर में पूजा अर्चना की और इसके बाद मंत्रिमण्डल की बैठक में जो निर्णय लिये गये वे धार्मिक रंग में सराबोर थे। 
    किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा किसी धार्मिक स्थल पर मंत्रिमण्डल की बैठक का शायद यह अनोखा मामला है। यह घटना बेहद शर्मनाक है। राज्य के मुख्यमंत्री का यह कदम घोर हिन्दू तुष्टीकरण का मामला है। राज्य की विपक्षी पार्टियों ने इस बैठक में की गयी फिजूलखर्ची का ही मुद्दा उठाया। जबकि वे इस बैठक के किसी धार्मिक स्थल में आयोजन के औचित्य के सवाल पर मौन साधे रहे। असल में भारतीय जनता पार्टी को यह नागवार गुजरा होगा कि एक कांग्रेसी उनसे ज्यादा हिन्दुओं का तुष्टीकरण करे। असल में उनकी महफिल को एक धूर्त कांग्रेसी ने लूट लिया। 
    एक क्षण के लिए इस बात पर विचार किया जाए कि यदि किसी राज्य के मुख्यमंत्री के द्वारा ऐसी ही बैठक किसी मस्जिद या चर्च में की गयी होती तो पूरे देश में कितना बखेड़ा खड़ा हो जाता। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आसमान सर पर उठा लेते और देश भर में ऐसे मुख्यमंत्री के पुतले फूंके जाते। 
    धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का तकाजा है कि राज्य सत्ता अपने आपको धर्म से अलग रखे। हर किसी को धार्मिक स्वतंत्रता हो परन्तु किसी भी स्तर पर राज्य सत्ता को धार्मिक आयोजन से दूर रहना चाहिए। और किसी राज्य की केबिनेट बैठक धार्मिक स्थल पर होना तो हद ही है। धर्मनिरपेक्षता के मूल्य मांग करते हैं कि धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई विशेष व्यवहार न किया जाए। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के द्वारा सुप्रशिक्षित पूर्व मुख्यमंत्री और यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री को भी पीछे छोड़ दिया है। 
    भारतीय समाज में बढ़ते हिन्दू फासीवादी खतरे के साथ एक राज्य के मुख्यमंत्री का ऐसा कदम बतलाता है कि भारतीय समाज के हर अंग को हिन्दू धर्म की पुरातनपंथी मान्यताओं के रंग में रंगा जा रहा है। और इस मामले में कांग्रेस और भाजपा में कोई खास फर्क नहीं है। दोनों ही मध्ययुगीन कूपमंडूकतापूर्ण धार्मिक मूल्य-मान्यताओं का एक से बढ़कर एक पक्षपोषण करते हैं। 
    अखबारों में छपी खबरों के अनुसार केदारनाथ में मंत्रिमण्डल की बैठक के बाद सर्वदलीय बैठक में भाकपा और माकपा के प्रतिनिधि भी शामिल होकर केदारनाथ धाम की सुरक्षा और पुनर्निर्माण पर नये-नये सुझाव दे रहे थे। इन दोनों दलों का पतन कहां तक होगा यह कहना मुश्किल है परन्तु इनके ऐसे ही कर्मों ने भारतीय समाज में हिन्दू फासीवाद को एक से बढ़कर एक नयी जमीन मुहैय्या करायी। इनके धर्मनिरपेक्षता की आलोचना यदि कोई ‘छदम धर्मनिरपेक्षता’ कहकर करता है तो क्या गलत करता है।   

दवा कीमतों के संबंध में दुर्भाग्यपूर्ण फैसला

वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)

    भारत सरकार का ‘राष्ट्रीय औषधीय मूल्य निर्धारक प्राधिकरण’(एन.पी.पी.ए.) से उन दवाओं के मूल्य को नियंत्रित करने के अधिकार को वापस लेने का फैसला जो कि ‘आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एन.एल.ई.एम.) में शामिल नहीं है, नरेंद्र मोदी के हुकूमत की लोगों के कल्याण के वायदे पर सवाल खड़े करता है। इस पर यह सवाल अवश्य ही उठाना चाहिए कि यह सरकार उद्योग और विदेशी सरकारों की आवश्यकताओं के प्रति क्यों अधिक सरोकार रखती है।  
    दवा मूल्य नियंत्रण आदेश(डी.पी.सी.ओ.) 2013, 348 दवाओं को एन.एल.ई.एम. 2011 के मूल्य नियंत्रण के अंतर्गत रखता है। हालांकि समस्या यह है कि यह आदेश 80,000 करोड़ के घरेलू औषधीय बाजार के 15प्रतिशत हिस्से पर ही लागू होता है और अनेक जीवन रक्षक दवाओं को (बाजार के हवाले: अनु.) छोड़ देता है क्योंकि ये एन.एल.ई.एम. 2011, में सूचीबद्ध नहीं है। हृदय व रक्त वाहिनियों से सम्बन्धित(कार्डियो वेसकुलर) बीमारी भारत की जनसंख्या के 10 प्रतिशत हिस्से को प्रभावित करती है और 25-69 आयु वर्ग के 25 प्रतिशत हिस्से की मौत का कारण बनती है तथा 20 में से एक भारतीय मधुमेह(डायबिटीज) का मरीज है। फिर भी जुलाई 2014 तक हृदय व रक्त वाहिनियों की बीमारी से सम्बन्धित दवाओं के बाजार का 29 प्रतिशत हिस्सा तथा मधुमेह में इस्तेमाल होने वाली दवाओं के बाजार का 15 प्रतिशत हिस्सा ही मूल्य नियंत्रण के अधीन था। यह किसी भी मुल्क के लिए असाधारण स्थिति है वास्तविकता में सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है। डी.पी.सी.ओ. 2013, असाधारण परिस्थिति में कारगर तरीके से निपटने में सरकार को सामर्थ्य प्रदान करता है। औषध विभाग(डी.ओ.पी.) के अधीन मूल्य निर्धारक विशेषज्ञों के निकाय एन.पी.पी.ए. को ऐसी स्थितियों में जांच पड़ताल करने का अधिकार है। डी.पी.सी.ओ. का पैरा 19 कहता है...‘‘असाधारण परिस्थितियों के मामले में यदि सरकार सार्वजनिक हित में ऐसा करना जरूरी समझती हो तो ऐसे वक्त के दौरान किसी भी दवा का अधिकतम मूल्य या खुदरा मूल्य तय कर सकती है या जैसा उपयुक्त वह पाती है।’’ जुलाई 2014 में सही तर्कों वाले 50 आदेशों की श्रेणी में एन.पी.पी.ए. ने 108 दवाओं को मूल्य नियंत्रण के अधीन रखा जिनमें अधिकांशतः मधुमेह तथा हृदय व रक्त वाहिनियों से सम्बन्धित थीं। ये आदेश मई 2014 में आंतरिक दिशानिर्देशों के जरिये पहले से आ गए थे जिसने असाधारण परिस्थितियों को भी तभी स्पष्ट कर दिया था। 
    दवा उद्योग ने इन 108 दवाओं पर हुए फैसले पर तत्काल अपनी प्रतिक्रिया दी थी। बहुराष्ट्रीय व भारतीय दोनों ही दवा कंपनियों ने तब आसमान सर पर उठा लिया था और कहा कि भारत की निवेश छवि खराब हो चुकी है और यह रुझान जारी रहा तो उद्योगों को बंद करना पड़ेगा। दवा उद्योग से जुड़ी लाॅबी ने दिल्ली व बाम्बे के उच्च न्यायालयों में इसके खिलाफ केस भी दायर किया तथा स्टे आर्डर(स्थगनादेश) की मांग भी की थी जो कि इन्हें नहीं मिल पाया। लेकिन इन्होंने भारत सरकार के विशेषकर औषध विभाग को कायल करने कि एन.पी.पी.ए. के फैसले में वैधानिकता का अभाव था, के सारे प्रबंध किए। औषध विभाग के सचिव ने सालिसिटर जनरल से परामर्श किया तथा  इसकी सलाह से सुसज्जित होकर इसने एन.पी.पी.ए. को उसके 29 मई 2014 के दिशानिर्देशों को वापस लेने का निर्देश दिया लेकिन पहले ही 108 दवाओं की जगह मूल्य अधिसूचना को वापस लेने से रोक दिया। यद्यपि फार्मा लाॅबी के हाथों विजयश्री सौंपकर नुकसान पहुंचाया जा चुका था। पैरा 19 की संकीर्ण व्याख्या करके सरकार ने एन.पी.पी.ए. पर अंकुश लगा दिया था। एन.पी.पी.ए. ने अस्थमा, मलेरिया, प्रतिरोधात्मक (सीरम/वैक्सीन), टी.वी., एच.आई.वी. कैंसर आदि की बहुत सारी दवाइयों को मूल्य नियंत्रण के अधीन करने की योजना बनाई थी। लेकिन यह इनकी राह में बाधा खड़ी करती है। (108 दवाइयों पर पूर्व में नियंत्रण इसकी जगह पर बरकरार रहता है। कांग्रेस पार्टी व कुछ सिविल सोसायटी समूह ने बना बनाया खेल यह दावा करके बिगाड़ दिया कि इन दवाइयों की कीमत तब से अचानक बढ़ गई है)
    पैरा 19 में सालिसीटर जनरल द्वारा दी गई कानूनी सलाह पर सरकार का खुल्लमखुल्ला यू टर्न अंतर्निहित तौर पर था जिसमें पैरा 19 की संकीर्ण व्याख्या प्रस्तुत की गई थीः ‘‘एन.पी.पी.ए. का 10/07/2014 का आदेश व (आंतरिक) दिशा निर्देश( 29/5/2014) डी.पी.सी.ओ., 2013 के पैरा 19 के प्रावधान के अनुरूप नहीं था। a: अधिकतम मूल्य व खुदरा मूल्य को पैरा 19 के अंतर्गत तय करने की शक्ति केवल अवशिष्ट थी तथा आपातकालीन शक्ति थी जिसे एक आम वितरण के तरीके के रूप में इसतेमाल नहीं किया जाना है b: डी पी सी ओ 2013 के अंतर्गत मूल्य निर्धारण प्रक्रिया विभिन्न वाक्यांशों में विभिन्न सूत्रों व बुनियाद के आधार पर बनायी गयी है इसलिए मूल्य नियंत्रण सिवाय असाधारण परिस्थितियों व सार्वजनिक हित के जिसमें वह परिभाषित समय जिस दौरान असाधारण परिस्थिति होती है, केवल उन सूत्रों व बुनियाद के आधार पर ही हो सकता है,।’’ 
    साधारण भाषा में इसका अर्थ है मधुमेह की दवाइयों सहित अन्य दवाओं की साथ-साथ मूल्य नियंत्रित करने की कोशिश करने की कारवाई पैरा 19 के अंतर्गत असाधारण परिस्थिति व सार्वजनिक हित की आवश्यकताओं को पूरी नहीं करता है।
    सालिसीटर जनरल की यह व्याख्या पूरी तरह से असाधारण हैं। ‘‘असाधारण परिस्थितियों’’ पर ज्यादा केन्द्रित है न कि उतना ज्यादा ‘‘सार्वजनिक हित’’ पर जैसा कि पैरा 19 में सूचित है। असाधारण परिस्थिति जिसकी 50 आदेशों में से प्रत्येक में व्याख्या की गई है। मधुमेह, हृदय व रक्त वाहिनियों से सबंधित बीमारी में बाजार की असफलता, मरीज के लिए सही चयन का अभाव तथा इंटर ब्रांड दवाओं में अधिक अंतर के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है। लेकिन इन सभी पर सालिसीटर जनरल ने नजरअंदाज करने का रास्ता चुना। इन्होंने यह राय भी दी है कि एन.पी.पी.ए. ने भारत सरकार के प्रतिनिधि के बतौर मूल्य निर्धारित करने की अपनी प्रतिनिधिक शक्ति को बढ़ाया है तथा इसकी कारवाई इसलिए ‘‘अधिकार का कानूनी इस्तेमाल’’ नहीं था। 
    कुल मिलाकर एन.पी.पी.ए. के अधिकार पर अंकुश लगाया जा चुका है और दवा कंपनियों को भरोसा दिलाया गया है कि पैरा 19 के अंतर्गत मूल्य नियंत्रण से उन्हें और अधिक परेशान नहीं किया जाएगा। लेकिन जब तक न्यायालय दूसरे प्रकार इससे सम्बन्धित सार्वजनिक हित याचिकाओं पर कोई फैसला नहीं सुनाता, सार्वजनिक हित व सार्वजनिक स्वास्थ्य  बुरी तरह से प्रभावित हो चुका है। 
    हमारे लिए इन कार्रवाइयों का दूसरा परिणाम दुर्भावनापूर्ण, प्रायोजित व सभी पात्रों द्वारा सत्ता का अंधा इस्तेमाल है लेकिन इस कड़ी में केवल एन.पी.पी.ए. ही साफ सुथरी निकली है। सरकार का फैसला भारत में कार्यरत बहुत सी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालय अमेरिका में प्रधानमंत्री की मुलाकात के साथ-साथ हुआ था, अवश्य ही यह संयोग होना चाहिए। 
    यह घटनाक्रम दिखाता है कि जीवन रक्षक दवाओं के बहुत बड़े हिस्से को छोड़कर 348 दवाओं की सूची तक ही मूल्य नियंत्रण को यांत्रिक तरीके से सीमित कर देना अदूरदर्शिता है। आवश्यक और जीवन रक्षक दवाओं की लंबी चैड़ी सूची को मूल्य नियंत्रण के लिए स्वतः पहचाना जाता है ----जैसा कि भारत संघ और अन्य बनाम के. गोपीनाथ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2003 में निर्देशित किया था ,--- डी पी सी ओ 2013  ने  दुर्बलता व आपातकालीन बचाव के साथ उन्मूलन में किया था। 
(साभारः सम्पादकीय ईपीडब्ल्यू 18 अक्टूबर 2014, अनुवाद हमारा)

दलितों को भरमाने के लिए इतिहास के विकृतिकरण की मुहिम

भाजपा का दलित कार्ड
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
राष्ट्रीय स्वयं संघ ने दलितों की व्यापक आबादी को भगवा झंडे के नीचे लाने तथा उन्हें हिन्दुत्व के रंग में पूरी तरह रंगने के लिए एक नयी महत्वाकांक्षी योजना पर काम करना शुरू कर दिया है। इस नयी मुहिम के तहत संघ यह स्थापित करने की कोशिश में लगा है कि हिंदू धर्म में अस्पृश्यता का स्रोत हिन्दू धर्म के भीतर नहीं है बल्कि अस्पृश्यता या छूआछूत मुस्लिम शासकों के दौर में पैदा हुई थी। 
दरअसल संघ परिवार को अपने सारे साम्प्रदायिक प्रचार के बाद दलितों को न समेट पाने का मलाल बना रहता है। हिन्दू धर्म की सर्वश्रेष्ठता का बखान करके दूसरे धर्मों के खिलाफ घृणा का प्रचार करने व उन्हें हीनतर समझने वाले संघ के प्रचार के बावजूद हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था और उसमें निहित गैरबराबरी अपमान के चलते निचली जातियां खासकर अछूत समझे जाने वाली जातियों के लोग सवर्ण मानसिकता व ब्राह्मणवादी मूल्यों से ग्रस्त संघ के साथ कभी व्यापक रूप से नहीं जुड़े। जुड़े भी क्यों संघ खुद जिस हिंदुत्व का पैरोकार है वह वर्णाश्रम अथवा चातुर्वण्र्य व्यवस्था पर आधारित एक गैरबराबरी पूर्ण सोपान क्रम पर आधारित है। और अंत्यज अथवा अस्पृश्य या अछूत तो इस चातुर्वणय व्यवस्था से भी बाहर थे। उन्हें ब्राह्मणवाद ने सामान्य नागरिक जीवन व समाज से लगभग 3000 वर्षों से बहिष्कृत रखा। अब ऐसे में हिंदुत्व के प्रति ‘अछूतों’ के मन में सम्मान क्यों हो। वे इस जन्माना गुलामी की ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर आधारित हिंदुत्व के झंडे तले क्यों गोलबंद हों। 
अब संघ परिवार की समझ में आ गया है कि अस्पृश्यता की सीधी पैरोकारी करने का मतलब दलितों से बढ़ती दूरी और हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक गोलबंदी का ध्वस्त होना। इसलिए अब संघ परिवार ने इतिहास के पुनर्लेखन का बीड़ा उठाया है। इसके लिए 200 संघ समर्थक विभिन्न स्तर के इतिहास के अध्यापकों को उन्होंने एक सम्मेलन कर डाला है। उनको ‘शोध अभियान’ में लगाया जायेगा जो यह सिद्ध करेगा कि अस्पृश्यता मुस्लिम काल की देन है कि हिन्दू धर्म के भीतर अस्पृश्यता गोमांस भक्षण से जुड़ी है जो मुस्लिम शासकों के साथ भारत में आयी। गौरतलब है कि वे अपने इस तर्क में अंबेडकर का सहारा ले रहे हैं जो कि इस भ्रांति का शिकार हैं कि अस्पृश्यता गौमांस भक्षण से शुरू हुई। लेकिन अंबेडकर  गौमांस भक्षण को कभी भी मुस्लिम शासकों के साथ नहीं जोड़ते थे। 
संघ अपने इस अभियान को लेकर कितना महत्वाकांक्षी है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी कमान संघ में दूसरे सबसे बड़े पदाधिकारी भैय्या जी जोशी संभाल रहे हैं। 
वैसे संघ अपने प्रचारतंत्र के द्वारा पहले भी कई ऐतिहासिक खासकर हिंदू धर्म की बुराईयों का स्रोत मुस्लिम शासकों के तथाकथित अत्याचारों को मानते रहे हैं जिसमें सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह व दहेज प्रथा शामिल है। 
लेकिन संघ परिवार मनुस्मृति से लेकर तमाम ग्रंथों का क्या करेंगे जिनमें जाति व वर्ण व्यवस्था को हिंदू धर्म का मूल माना जाता है, जिनमें अस्पृश्यता का महिमामंडन किया गया है। 
वैसे खुद गुरू गोलवलकर, जो हेडगेवार के बाद दूसरे सरसंघचालक बने, ने मनु को दुनिया का सबसे महान विधिवेत्ता घोषित किया था। 
खैर! इतिहास के विकृतिकरण करने की संघ की योजना सफल नहीं हो सकती क्योंकि इतिहास बदला नहीं जा सकता। और इतिहास छिपाया नहीं जा सकता। इतिहास को गौरव व हीनताबोध का वायस नहीं बनाना चाहिए। इतिहास अतीत से सबक लेकर भविष्य से प्रेरणा लेने का विषय है। लेकिन संघ परिवार इसे कभी नहीं समझ सकता।  

रंगीला प्रधानमंत्री
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
   प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हालिया अमेरिकी यात्रा के दौरान खबर आई कि वे एक दिन में छः छः बार कपड़े बदलते थे। अखबारों के चिकने पन्नों ने बताया कि मोदी वहां ‘फैशन स्टेटमेंट’ बन गये थे और उन्होंने ओबामा दंपत्ति को बहुत पीछे छोड़ दिया। 
महत्वपूर्ण और गौर करने लायक बात यह है कि मोदी की इस विशेषता के लिए पूंजीवादी हलकों में आलोचना का कोई स्वर नहीं उभरा, भत्र्सना की तो बात ही क्या? किसी ने यह नहीं पूछा कि जिस देश की एक तिहाई आबादी, सरकारी आंकड़ों के हिसाब से भी, भुखमरी में जी रही हो (वास्तव में दो-तिहाई से ज्यादा) उसमें यह आचरण क्या अश्लील नहीं माना जाना चाहिए। अमेरिका से लौटकर अपने  ‘सफाई अभियान’ में महात्मा गांधी का नाम जपने वाले इस फैशनपरस्त से किसी ने नहीं पूछा कि उसके इस अश्लील आचरण में गांधी की सादगी कहां है। 
मजे की बात यह है कि अभी कुछ महीने पहले चुनावों के दौरान इस व्यक्ति के बारे में प्रचारित किया जा रहा था कि संघ का प्रचारक होने के दौरान मोदी के पास दो जोड़ी कपड़े होते थे। मोदी की उस समय की सादगी और आज की फैशनपरस्ती का एक साथ गुणगान किया जा रहा है। 
मोदी का यह आचरण और उसका यह प्रचार भारत के पाखंडी मध्यम वर्ग के चरित्र के अनुरूप है। यह वर्ग सादगी की बात करते हुए ऐश करने के सपने देखता है। सादगी इसके लिए वह आदर्श है जो ऐश की पहली संभावना पैदा होते ही चुपचाप रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाता है। 
नरेन्द्र मोदी की अमेरिका यात्रा को बड़ी मात्रा में उस मध्यम वर्ग ने कंधा दिया जो एक ऐशो-आराम की जिन्दगी के लिए भारत नाम के गरीब मुल्क को छोड़कर अमेरिका पलायन कर चुका है। उसे पलायन करने लायक इस गरीब मुल्क ने ही बनाया था क्योंकि उसकी शिक्षा-दीक्षा का खर्च इस गरीब मुल्क ने ही उठाया था। लेकिन पढ़-लिखकर काबिल बनने के बाद उसे लगा कि यह मुल्क उसके लायक नहीं है और पहला मौका मिलते ही वह अमेरिका पलायन कर गया।
मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान इसने (इसके एक हिस्से ने) वहां उनका खूब स्वागत किया और ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां’ के गीत गाये। किसी ने इस पर ठीक ही टिप्पणी की कि यदि हिन्दोस्तां इतना ही अच्छा है तो वापस आ जाओ ना! लेकिन इसे तो वापस नहीं आना है। उसे अमेरिका में रहते हुए ही उस हिन्दोस्तां के गीत गाना है जहां से वह पलायन कर गया था। 
ऐशो-आराम के लिए अपना मुल्क छोड़कर पलायन कर जाने वाले इस वर्ग के लिए मोदी का दिन में छः बार कपड़े बदलना अश्लील नहीं बल्कि अनुकरणीय है। यह उसी ऐश की अभिव्यक्ति है जिसके लिए यह वर्ग भारत से अमेरिका गया था। भारत में रह जाने वाले उसके बंधु भी इसी लालसा से ग्रस्त हैं इसलिए वे भी मोदी को ईष्र्या भरी प्रशंसा की नजर से देखते हैं। 
ऐसे में मोदी को अपना अश्लील आचरण अश्लील क्यों लगने लगा? वे इसे घटिया मानने के बदले अपना ‘स्टाइल’ क्यों नहीं मानेंगे?
मोदी के ‘स्टाइल’ का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर दूरगामी असर होगा। संघ का हर अदना प्रचारक भी इस समय मोदी में अपना भविष्य देख रहा होगा जैसे नेपोलियन के जमाने में हर मध्यम वर्गीय युवक नैपोलियन में अपना भविष्य देखता था। संघ के प्रचारक मोदी के ‘स्टाइल’ को अपनाने के लिए स्वतः ही प्रेरित होंगे। ऐसे में भागवत जैसे बूढ़े प्रचारक भले ही सादगी की बात करते रहें पर वे नौजवान प्रचारकों को मोदी का फैशन अपनाने से नहीं रोक सकते। भाजपा तो पहले ही ऊपर से नीचे तक भ्रष्ट हो चुकी है अब संघ भी अछूता नहीं रहेगा। हिन्दू साम्प्रदायिक संघ के लिए यह कोढ़ में खाज साबित होगा।  

पूंजीपतियों को उपहार, श्रम पर भरपूर वार
मध्य प्रदेश सरकार का वैश्विक निवेशक सम्मेलन
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
      मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 8 से 10 अक्टूबर के बीच इंदौर में वैश्विक निवेशक सम्मेलन (ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट) आयोजित किया गया। यह सम्मेलन 2007 से हर दो वर्ष बाद प्रदेश सरकार द्वारा पूंजीपतियों व देशी-विदेशी निवेशकों को प्रदेश में निवेश के लिए आकर्षित करने के लिए आयोजित किया जाता है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि मोदी ‘वाइव्रेंट गुजरात’ के नाम से गुजरात में पूंजीपतियों व निवेशकों के लिए भव्य जलसा आयोजित करते आये हैं।
इसमें भारी संख्या में देशी-विदेशी निवेशकों को आमंत्रित किया गया था और हजारों की संख्या में निवेशकों की भीड़ जुटाने में यह जलसा कामयाब भी रहा। इस जलसे में मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, साइरस मिस्त्री, गौतम अदानी, आदि गोदरेज, वाई-सी देवेश्वर राव सहित पूंजीपति वर्ग की नामचीन हस्तियां व मुख्य कार्यकारी अधिकारी मौजूद थे। आस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका सहित छः देश इस जलसे के सहआयोजक थे। 21 देशों के राजदूत भी इस जलसे में मौजूद थे और चुनाव प्रचार के व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद 8 घंटे के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी 8 अक्टूबर को इसमें शामिल हुए जिन्होंने इस बात पर बेहद अफसोस जताया कि उन्हें तीनों दिन आयोजन को देने थे लेकिन वे मात्र आठ घंटे ही अपनी मौजूदगी दर्ज करा पा रहे हैं। सभी प्रमुख टीवी चैनलों पर इस कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह का सीधा प्रसारण किया गया।
सम्मेलन में मुख्यमंत्री शिवराज ने आंकड़ों की बाजीगरी के द्वारा खुद अपनी पीठ ठोंकते हुए बताया कि कैसे अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल के दौरान उन्होंने मध्य प्रदेश को सबसे पिछड़े व बीमारू (बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र जैसे अल्प विकास दर वाले राज्यों के लिए प्रयुक्त शब्द) राज्यों की श्रेणी से देश के सबसे तेज गति से विकास करने वाले राज्य में बदल दिया। अजीब बात यह है कि ऐसा दावा गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र व बिहार जैसे राज्य भी करते रहे हैं। वैसे मार्के की बात यह है कि शिवराज सिंह भले ही आंकड़े की बाजीगरी के आधार पर बड़े-बड़े दावे कर रहे हों लेकिन मध्य प्रदेश सरकार की खुद की वित्तीय स्थिति बेहद नाजुक है। और सरकार वित्तीय संकट की कगार पर है। सरकार द्वारा रख-रखाव पर होने वाले खर्चों पर रोक लगा दी गयी है। निर्माण विभाग के अफसरों को हिदायत मिल चुकी है कि बेहद जरूरी होने पर ही वे कोई काम करवायें। सरकार को पिछले महीने कर्ज भी लेना पड़ा। सरकार द्वारा अपने अधिकारियों को सशर्त वित्तीय प्रतिबंध के आदेश मौखिक जारी किये गये हैं ताकि सरकार की साख पर कोई सवाल न आयें। 
खैर! सम्मेलन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने पूंजीपतियों की भरपूर चरण वंदना करते हुए पूंजी के पक्ष में राज्य सरकार द्वारा नई बंपर छूट व रियायतों की घोषणा की। इसके साथ ही उन्होंने घोषणा की कि प्रदेश को श्रमकानूनों के रेड टेप से मुक्त कराकर पूंजीपतियों के लिए रेड कार्पेट बिछाना ही उनकी प्राथमिकता है। 
पूंजीपतियों के लिए उपहारों का पिटारा खोलते हुए शिवराज सिंह ने घोषणा की कि उन्होंन पूंजीपतियों के लिए 25,600 एकड़ जमीन के साथ एक लैंड बैंक स्थापित किया है जिसके लिए ‘आन लाइन अलाॅटमेण्ट’ की सुविधा प्रदान की गयी है। पूंजीपतियों को बस  अपनी उंगली रखनी होगी और मनमाफिक जमीन उन्हें मिल जायेगी। भविष्य में सरकार इस ‘लैंड बैंक’ का रकबा बढ़ायेगी। जाहिर है इसके लिए बड़े पैमाने पर किसानों से जमीन जबर्दस्ती अधिगृहित की जायेगी। पूंजीपतियों को अपनी फाइल पास कराने के लिए इंतजार नहीं करना पड़ेगा। सिंगल विंडो क्लीयरेन्स के साथ एक सरकारी अफसर की जिम्मेदारी होगी कि निश्चित समय सीमा के भीतर फाइल पास करवाये। विलंब की स्थिति में संबंधित अधिकारियों को आर्थिक दंड भुगतना होगा। 
इसके साथ ही शिवराज सिंह ने श्रम कानूनों में प्रदेश सरकार द्वारा किये गये महत्वपूर्ण बदलावों को भी जोर-शोर से रखा। उन्होंने गर्वपूर्वक घोषणा की कि राज्य मंत्रिमण्डल ने 17 केन्द्रीय व 3 राज्य स्तर के श्रम कानूनों को खत्म कर दिया है। उद्योगपतियों के लिए अब तक जरूरी 16 रजिस्टरों को घटाकर कर एक रजिस्टर तक सीमित कर दिया गया है। पूंजीपतियों को रिटर्न भरने में भारी छूट देते हुए 16 रिटर्न भरने के बजाय केवल दो रिटर्न भरने होंगे। निवेशकों को इंस्पेक्टर राज से मुक्त करने के क्रम में लेबर इंस्पेक्टरों से जांच का दायित्व छीनकर इसे केवल श्रम आयुक्त तक सीमित कर दिया है। महिलाओं को रात की पाली में काम कराने पर प्रतिबंध को खत्म कर महिलाओं के लिए तीन पालियों में काम कराने पर प्रतिबंध को खत्म कर महिलाओं के लिए तीन पालियों में काम कराने को अनुमति प्रदान की गयी है। श्रम कानूनों के परिपालन के संबंध में अब श्रम विभाग द्वारा जांच करने के स्थान पर इस संबंध में पूंजीपतियों को इस बात की छूट दी गयी है कि वे श्रम कानूनों के परिपालन के संबंध में खुद घोषणा कर दें अथवा अपने को खुद सर्टिफिकेट जारी करें। 
उपरोक्त सुधारों के साथ शिवराज सिंह ने यह घोषणा की कि वे श्रम सुधारों में और भी बहुत से बदलाव निकट भविष्य में करेंगे। गौरतलब है कि श्रम सुधारों के संबंध में केन्द्र सरकार द्वारा संसद में प्रस्ताव अभी लंबित पड़े हैं लेकिन भाजपा शासित राज्यों की सरकारें कई कदम आगे बढ़ाकर श्रम सुधारों को लागू करने में तत्परता दिखा रही हैं। केन्द्र सरकार से बहुत पहले ही राजस्थान सरकार तीन महत्वपूर्ण केन्द्रीय श्रम कानूनों- औद्योगिक विवाद अधिनियम, कारखाना अधिनियम व ठेका श्रम उन्मूलन व विनियमन अधिनियम - में ढ़ेरों बदलाव कर चुकी है। शिवराज सिंह भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं। 
शिवराज सरकार के इन कदमों ने साबित किया है कि भाजपा ने पूंजीपरस्ती में सारी हदों को पार करते हुए भाजपा सरकारें मजदूर वर्ग पर एक से बढ़कर एक हमले कर रहे हैं। इनका एक ही मूलमंत्र है- पूंजीपतियों को उपहार, श्रम पर भरपूर वार। मजदूर वर्ग देर-सबेर भरपूर जबाव तो देगा ही। 

पहचान की राजनीति के नये झंडाबरदार

वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)
माकपा यानी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) 2009 के लोकसभा चुनावों में अपनी बुरी गत के बाद से ही पहचान की राजनीति को कमतर आंकने की गलती करने तथा इस मामले में अपने को दुरूस्त करने की बात करती रही है। 2012 में पश्चिम बंगाल के चुनावों में तथा 2014 के लोकसभा चुनावों में और भी बुरी गत के बाद तो यह और भी तेज हो गयी है। अभी ताजा खबर आयी है कि भाकपा पूरे देश के पैमाने पर एक दलित मोर्चा गठित करेगी। 
माकपा के सुधारवादी सरकारी कम्युनिस्ट अब इतने पतित हो गये हैं कि वे अपने सामने हाथी की तरह खड़ी सच्चाई को भी नहीं देख पाते। 2009 से 2014 तक चुनावों में इनकी दुर्गति पश्चिम बंगाल में इनकी दुर्गति के कारण हुई है। पश्चिम बंगाल में इनकी दुर्गति किसने की? ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने? इस तृणमूल कांग्रेस की मूल राजनीति क्या है? क्या यह बसपा की तरह मूलतः दलित पहचान की राजनीति करती है? क्या यह जनता दल के विभिन्न धड़ों की तरह पिछड़ों के पहचान की राजनीति करती है? क्या यह सपा की तरह मुसलमानों की सुरक्षा की राजनीति करती है?
नहीं, तृणमूल कांग्रेस इनमें से कुछ नहीं करती। इसके बावजूद इसने पश्चिम बंगाल में चार दशक से जमे हुए माकपा के पांव उखाड़ दिये और उसे धूल-धूसरित कर दिया। उसने अपना एकमात्र कार्यक्रम माकपा या वाम मोर्चा के कुशासन तथा उसके कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी को समाप्त करना घोषित किया। इस कार्यक्रम के इर्द-गिर्द इसकी गोलबंदी ने तब गति पकड़ी जब 2007-08 में नंदीग्राम-सिंगूर में माकपा सरकार और उसके गुंडों ने सारी हदें तोड़ दीं। 
नंदीग्राम-सिंगूर में माकपा ने जो किया उसका पहचान की राजनीति से कोई संबंध नहीं था। उसका संबंध था देशी-विदेशी पूंजीपतियों को लूट की खुली छूट देने से तथा इसके लिए किसानों की जमीन भी छीन लेने से। शहरी मजदूरों से इसके अलगाव का कारण था उन्हें पूर्णतया पूंजीपतियों के रहमोकरम पर छोड़ देना। 2005 में अपनी जीत के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्या सरकार ने पूंजीपतियों की सेवा में जिस तरह से सौ प्रतिशत अपने आपको समर्पित कर दिया उसके बाद वह उम्मीद नहीं कर सकती थी कि लेन-देन, संरक्षण तथा गुंडागर्दी की उसकी राजनीति उसके आधार को बचा पायेगी। अपने खिसकते जनाधार को बचाने के लिए माकपा अधिकाधिक गुंडागर्दी पर उतरती गई और उसने उसकी बची-खुची संभावना को भी खत्म कर दिया। पश्चिम बंगाल के ढेरों वाम बुद्धिजीवियों का माकपा का साथ छोड़कर ममता बनर्जी जैसी लंपटों के नेता के साथ जा खड़ा होना इसकी चरम अभिव्यक्ति थी।
लेकिन माकपा न तो इस सच्चाई को देखना चाहती है और न ही स्वीकारना चाहती है। इसके बदले वह किसी और दिशा में अपना निर्वाण देख रही है।  
पूरे देश में पहचान की राजनीति की वकालत माकपा उस समय कर रही है जब इस राजनीति का दीवालियापन हर किसी के लिए स्पष्ट हो गया है। पिछले सालों में पहचान की राजनीति का गढ़ उत्तर प्रदेश रहा है। इस लोकसभा चुनावों में यह दिखा कि भाजपा जैसी हिन्दू सांप्रदायिक पार्टी दलितों-पिछड़ों को अपने सांप्रदायिक एजेंडे पर खींचने में कामयाब रही। यानी जाति की पहचान की राजनीति को उसने कमजोर कर धर्म की पहचान की राजनीति को प्रमुखता प्रदान करने में किसी हद तक सफलता पाई। 
अब ऐसे में माकपा क्या करेगी? क्या वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए भाजपा से प्रतियोगिता करेगी? क्या वह स्थानीयता की राजनीति के लिए शिवसेना से प्रतियोगिता करेगी? क्या वह दलितों-पिछड़ों की राजनीति के लिए सपा-बसपा से उस समय प्रतियोगिता करेगी जब ये पार्टियां स्वयं ‘सर्वजन’ की राजनीति कर रही हों?
सच तो यह है कि आज मजदूर वर्ग, अर्द्ध सर्वहारा तथा गरीब-छोटे किसानों की वर्गीय लामबंदी की संभावना पिछले कई दशकों के मुकाबले कहीं ज्यादा है और दिनोंदिन बढ़ रही है। देश की इस विशाल बहुमत वाली आबादी की रोटी-रोजी की समस्या अधिकाधिक विकराल होती जा रही है। छुट्टा पूंजीवाद उन पर अधिकाधिक मार कर रहा है। 
ऐसे में जीवन की इन बुनियादी समस्याओं पर लामबंदी तात्कालिक जरूरत बन जाती है। परंतु माकपा जैसी पतित पार्टियों से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती है। वे तो उल्टा पूंजीपतियों की सेवा में ही जायेंगे। 
इसके लिए क्रांतिकारी संगठनों को आगे आना होगा। 

रोजगार

आंकड़े बोलते हैं.....

सरकारी क्षेत्र में बढ़ रही ठेकेदारी प्रथा

वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)

आमतौर पर यह धारणा प्रचलित है कि अधिकांश अनियंत्रित व अस्थायी नौकरियां निजी क्षेत्र में होती हैं  लेकिन वास्तविक स्थिति इसके बिल्कुल अलग है। समूचे औपचारिक क्षेत्र में रोजगार का लगभग 58 प्रतिशत हिस्सा सरकारी क्षेत्र में है। लेकिन इसके साथ ही सरकारी क्षेत्र में अस्थायी रोजगार की निरपेक्ष संख्या भी बहुत बड़ी है, हालांकि सरकारी क्षेत्र में निजी क्षेत्र की तुलना में हिस्सा छोटा है। निजी क्षेत्र के औपचारिक क्षेत्र में 1.5 करोड़ से ज्यादा अस्थायी रोजगार हैं। 
‘स्टाफिंग फेडरेशन’ की एक रिपोर्ट के अनुसार सरकारी रोजगार में कम से कम 44 प्रतिशत लोग अस्थायी तौर पर काम कर रहे हैं। इन मजदूरों को कोई सामाजिक सुरक्षा लाभ मिलना तो दूर की बात है, इनमें से कईयों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। सरकारी कार्यशक्ति लगातार कम होती जा रही है और इसी के साथ स्थायी मजदूरों की संख्या घटती जा रही है। 
देश के औपचारिक क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों की संख्या 4 करोड़ 97 लाख है। इनमें से 2 करोड़ 78 लाख लोग जीविका के लिए सरकार पर निर्भर करते हैं। इन सरकारी क्षेत्र के मजदूरों में एक करोड़ 23 लाख लोग अस्थायी मजदूर हैं। उक्त रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़े 2013 के अंत के हैं। इन आकस्मिक मजदूरों को काम या आमदनी की कोई सुरक्षा नहीं है। कम समय के लिए ठेके के मजदूरों को मुख्यतया एकमुश्त मजदूरी दे दी जाती है। उनको ई.पी.एफ., ई.एस.आई., ग्रेच्युटी, नई पेंशन योजना इत्यादि की कोई सुविधा तक नहीं मिली हुई है। 
जहां 1995 में औपचारिक क्षेत्र में कुल सरकारी मजदूरों की संख्या एक करोड़ 94 लाख 70 हजार थी वहीं 2011 में यह घटकर एक करोड़ 75 लाख 50 हजार रह गयी। यानी इन 16 वर्षों  में सरकारी संगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या में करीब 10 प्रतिशत गिरावट हो गयी। यह गिरावट केन्द्र सरकार के स्तर पर सबसे अधिक हुई है जहां कुल सरकारी क्षेत्र में रोजगार की औसत सालाना गिरावट 0.65 प्रतिशत थी, वहीं केन्द्र सरकार के रोजगार में यह सालाना गिरावट 1.99 प्रतिशत की थी। यहां पर कुल सरकारी क्षेत्र में राज्यों और स्थानीय निकायों के कार्मिक शामिल हैं। 
उक्त रिपोर्ट यह बताती है कि सरकारी कर्मचारियों में समूह-ग और समूह-घ (निचले स्तर के कर्मचारी) के कर्मचारियों में सबसे खराब असर हुआ है। इन दो समूहों में रोजगार में गिरावट 8.4 प्रतिशत दर्ज की गयी है। दूसरी तरफ समूह-क और समूह-ख में रोजगारों की संख्या बढ़ी है। 2001-02 और 2011-12 के बीच समूह-ख के रोजगारों में 27 प्रतिशत की वृद्धि और समूह-क के रोजगारों में 24.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पिछले दशक में निचले स्तर के कर्मचारियोें के कामों को बड़े पैमाने पर आउटसोर्स किया गया है। 
सरकार द्वारा लागू की गयी सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में काम करने वाले मजदूरों की बड़ी तादाद लगी हुई है। इन बहुप्रचारित योजनाओं मंे काम करने वाले मजदूरों को न तो पर्याप्त वेतन मिलता है और न ही पी.एफ. और ई.एस.आई. जैसी सामाजिक सुरक्षा सुविधाएं मिलती हैं। उक्त रिपोर्ट के अनुसार देश में लगभग 25 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका हैं तथा 9 लाख आशा कार्यकर्ता हैं। इन सभी को अवैतनिक कार्यकर्ता कहा जाता है और अधिकांश मामलों में इनको विभिन्न राज्यों में तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। इन कर्मियों को 1500 रुपये से लेकर 4500 रुपये तक मासिक वेतन दिया जाता है। 
अभी हाल ही में राष्ट्रीय सेंपल सर्वे आर्गनाइजेशन ने 2011-2012 का अनौपचारिक क्षेत्र और भारत में रोजगार की स्थिति पर 68 वें चक्र का सर्वेक्षण जारी किया है। इस सर्वे के अनुसार, भारत में प्रत्येक 4 व्यक्ति में 3 व्यक्ति गैर कृषि क्षेत्र में काम करते हैं। इन अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों में 80 प्रतिशत लोग बिना किसी लिखित संविदा के काम करते हैं और 72 प्रतिशत लोगों को कोई सामाजिक सुरक्षा सुविधा भी नहीं मिली हुई है। इनमें से 80 प्रतिशत मजदूर किसी यूनियन या एसोसियेशन के सदस्य भी नहीं हैं। अनौपचारिक मजदूरों को रोजगार देने वाले मुख्य क्षेत्र विनिर्माण, निर्माण, थोक व खुदरा व्यापार, परिवहन और स्टोरेज हैं। अनौपचारिक मजदूरों का सबसे अधिक हिस्सा पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में है।



मोदी को सम्बोधि
वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)

गृह त्याग के पश्चात सिद्धार्थ (बुद्ध) ने मगध की राजधानी राजगृह में अलार और उद्रक नामक दो ब्राहमणों से ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया किन्तु सिद्धार्थ को संतुष्टि नहीं हुयी। तद्पश्चात वे निरंजना नदी के किनारे उरवले नामक वन में पहुंचे, जहां उनकी भेंट पांच ब्राहमण तपस्वियों से हुई। इन तपस्वियों के साथ कठोर तप करने के बाद भी उन्हें कोई लाभ न मिल सका। इसके बाद सिद्धार्थ गया पहुंचे वहां एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगायी और प्रतिज्ञा की कि जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं होगा, यहां से नहीं हटूंगा। सात दिन व सात रात समाधिस्थ रहने के उपरान्त आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें सच्चे ज्ञान की अनुभूति हुई। इस घटना को सम्बोधि कहा गया। 

मोदी को भी ‘सम्बोधि’ की प्राप्ति हुई है। अपनी अमेरिकी यात्रा से पहले मोदी ने सी.एन.एन. को दिये  एक साक्षात्कार में कहा कि,‘‘भारतीय मुस्लिम देशभक्त हैं। उनकी देशभक्ति पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। भारतीय मुसलमान देश के लिए जियेंगे और देश के लिए ही मरेंगे। अगर अलकायदा को लगता है कि भारत के मुसलमान उसके इशारों पर नाचेंगे तो यह उनकी गलतफहमी है। मोदी को यह ‘सम्बोधि’ 63-64 वर्षों बाद प्राप्त हुई। जब से यह व्यक्ति संघी फासिस्टों के साथ शामिल हुआ तब से अब तक वह लगातार इस देश के मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलता रहा है। तब से आज तक वह मुसलमानों के खिलाफ हिंसा भड़काता रहा है। उसकी मुसलमानों के प्रति नफरत को 2002 में पूरी दुनिया ने देखा था। जिसने मुख्यमंत्री रहते गुजरात में मुसलमानों का हाल फिलिस्तीनियों की तरह कर दिया। जिसने भारत की संसद में दिये अपने पहले संबोधन में भारत की 1200 वर्षों तक की गुलामी की बात कही। ऐसा व्यक्ति जब मुसलमानों को देशभक्त कहे तो यह पाखण्ड के सिवा और क्या है। यह एक उदाहरण है कि फासिस्ट गिरोह के लोग कैसे गिरगिट की तरह रंग बदल लेते हैं। वे लफ्फाजी और झूूठ के कितने बड़े उस्ताद हैं। 

मोदी ने 5 सितम्बर, शिक्षक दिवस पर बच्चों से कहा कि वे भी बचपन में बहुत शरारतें करते थे। किंतु बच्चों को यह नहीं बताया कि वे बुढ़ापे में भी खूब ‘शरारतें’ करते हैं और वह भी मासूमियत भरी नहीं वरन् कुटिल व घृणित। युवावस्था से लेकर बुढ़ापे तक वे ऐसी ही घृणित ‘शरारतें’ करते रहे हैं। बच्चों की शरारतों में तो ज्यादा से ज्यादा चोटें लगती हैं किन्तु इनकी ‘शरारत’ में खून की नदियां बहती हैं। सी.एन.एन. को दिया गया साक्षात्कार भी एक कुटिल ‘शरारत’ ही है। अपनी ‘शरारतों’ में गिरगिट की तरह इतनी तेेजी से रंग बदलते हैं कि बेचारा गिरगिट...। चुनाव के दौरान ‘पिंक क्रांति’ पर तकरीर करते हैं और चुनाव बाद ‘मुस्लिम क्रांति’ पर। 

2002 में ‘खूनी क्रांति’ करने वाला जब मदरसों के आधुनिकीकरण की बातें करता है, जब वह ऊपर उल्लिखित साक्षात्कार वाली बातें कहता है तो वह मुस्लिम समुदाय के साथ भद्दा मजाक कर रहा होता है। इस देश के मुसलमान और जनवादी लोग उनकी ऐसी बातों पर सिर्फ हंस सकते हैं। 

संघी फासिस्टों की इतिहास की संप्रदायवादी सोच के विपरीत जो मुस्लिम शासक यहीं रच बस गये वे विदेशी शासक कैसे हो गये? मुसलमानों को क्या किसी फासिस्ट से देशभक्ति के प्रमाणपत्र की जरूरत है? इस देश के मुसलमानों ने ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष में जितने सिर कटाये उतने संघी तो आजादी की लड़ाई में शामिल तक नहीं हुए। देशभक्ति पर प्रश्न चिह्न तो हेडगेवार से लेकर मोहन भागवत तक पर है जिन्हें आजादी के नायक दूसरे संगठनों से चुराने पड़ते हैं। 

परन्तु होमो सैपियन्स सैपियन्स प्रगति के इस गिरगिट की कला पर इस देश का पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी मीडिया फिदा है। उसे सावन के अंधों की तरह इस गिरगिट में सब अच्छाई नजर आ रही है। ऐसा हो भी क्यों नहीं? इस गिरगिट की यह कला उसके मुनाफे में वृद्धि जो करवा रही है। वह देश में अपने सहोदरों से नफरत फैलवाता है और खुद टाटाओं-बिडलाओं और अदानियों की सेल्समैनी पूरी दुनिया में करता घूम रहा है। उसके इशारे पर उसका सहोदर नफरत की फसल काटने की योजनायें लागू करता है और वह इस देश के पैसे वालों के लिए मजदूरों के बचे-खुचे अधिकारों को भी खत्म कर रहा है। 

दंगों और नफरत की फसल जितनी लहलायेगी निजीकरण और तीन पी(पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) का रथ देश में उतनी तेजी से दौड़ाया जायेगा और इसलिए एक ओर अमितशाह संघ परिवार मय अपने बाल-बच्चों के मुसलमानों पर हर तरीके से हमला कर रहा है वहीं दूसरी तरफ इस नये सेल्समैन के मालिक और उनका मीडिया उसको एक नया मुखौटा पहना रहा है। टीवी चैनलों से लेकर अखबारों तक में धन्ना सेठों के टुकड़ों पर पलने वाले टीवी एंकर व पत्रकार बहसें किये जा रहे हैं कि गिरगिट ने अब पंथनिरपेक्षता का मुखौटा लगा लिया है। ठीक वैसे ही जैसे इनके भीष्म पितामह ने 1998 में मुखौटा लगाया था। इतिहास अपने को पुनः दोहरा रहा है क्योंकि इस  देश की विविधता और विशिष्टता के चलते, मुखौटा के बिना अडानियों व अंबानियों की लंबे समय तक सेवा नहीं की जा सकती है।

अल्पसंख्यक समुदायों के आम जन और जनपक्षधर लोग भारतीय राजनीति के इन बहरूपियों को असली चेहरों से पहचानते हैं। इसलिए अल्पसंख्यक समुदायों के मुट्ठीभर लोगों को छोड़कर- जिनके हित इस नये मुखौटे के साथ हैं या भय के कारण वे इस मुखौटे के असली चरित्र पर कुछ बोलने से बचना चाह रहे हैं- कोई भी इस लफ्फाजी पर विश्वास नहीं करेगा। लोग इस तमाशे को देख रहे हैं। प्रधानमंत्री को ‘सम्बोधि’ के तात्कालिक कारण चाहे जो भी हों लेकिन गिरगिट को रंग बदलते कितनी देर लगती है। 

पंतनगर में साम्प्रदायिक तनाव में झांकता षड्यंत्र

(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
11 सितम्बर को वि.वि. अपने रोज के दिनचर्या की तरह ही चल रहा था कि करीब 11ः30 बजे वि.वि. परिसर में 40 साल पुराने शिवालिक मंदिर झा कालौनी पन्तनगर में एक इमामुल हक नाम का मुस्लिम समुदाय का व्यक्ति जो कि दिमागी रूप से बीमार बताया जाता है, अचानक मंदिर परिसर में स्थापित मूर्तियों को तोड़ ही रहा था कि अखिलेश सिंह ने देखा और शोर पुकार करते हुए मूर्ति तोड़ने वाले इमामुल हक को पकड़ लिया। इनके अनुसार दो व्यक्ति और थे जो मंदिर परिसर के बाहर सड़क पर एक मोटर साइकिल पर सवार थे, मौके से भाग गये। और भगवानों की मूर्तियों को टूटा देख लोगों ने इमामुल हक की पिटाई चालू कर दी। घटना की खबर मिलते ही स्थानीय पुलिस ने मौके पर पहुंच कर इमामुल हक को अपने कब्जे में ले लिया और ‘मंदिर पर हमला हो गया है’ इसकी खबर पंतनगर के साथ बाहर तक फैलने में तनिक भी समय नहीं लगा। और यह बात ऐसे फैली कि मानो किसी गांव में आग लग गयी हो और गांव वाले घर में लगी आग को बुझाने के लिए बाल्टी में पानी लेकर दौड़ते हैं ताकि आग पर काबू पाया जा सके। यहां पर भी दौड़ वैसी ही थी मगर बाल्टी के स्थान पर हल्के-भारी हथियार लाठी-डण्डे हाथों में लेकर भागते लोगों को ‘मंदिर चलो के नारों’ को पंतनगर में पहली बार सुना गया। और महज 30 मिनट की देरी से रुद्रपुर से पंतनगर आने वाले अग्रणी बीजेपी विधायक माननीय राजकुमार ठुकराल रुद्रपुर से पंतनगर आ गये। वहीं पन्तनगर में सारी मार्केट भी बन्द करायी गयी। एवं पंतनगर वि.वि. में कार्यरत कर्मचारियों तक यही बात पूरी तरह पहुँचने  में तीन बज गये। इसके बाद हिन्दू समुदाय के लोगों को मंदिर व मुस्लिम समुदाय के लोगों को घर की ओर बदहवास होकर भागते हुए भी पहली बार देखा गया। 
इसी बीच वि.वि. में पहले से मुस्तैद पुलिस फोर्स की वजह से इस घटना को कुछ हद तक शुरूआती तनाव फैलने से रोकने में मदद मिली। मगर जनता और भक्तों द्वारा अपने क्षेत्रीय व गैर क्षेत्रीय जन प्रतिनिधियों को देखते ही मस्जिद पर पथराव व तोड़-फोड़ करने व सम्प्रदायवाद को हवा देने हेतु मस्जिद की ओर पथराव करती भीड़ को रोकने के लिए पुलिस व पीएसी की मदद से दंगे को रोकने में कामयाब रहा। इधर मस्जिद पर हिन्दू समर्थकों से नांेक-झोक के दौरान ही करीब 2ः30 बजे मुस्लिम समुदाय के एक टेलर की दुकान को आग लगा दी गई। व दूसरी दुकान में आग लगाने गये लोगों को पुलिस ने दुबारा भगाया और दूसरी दुकान को आग से बचाने में पुलिस कामयाब रही। परन्तु पहली दुकान को जलाकर खत्म कर दिया गया। जिसको देखते हुए पुलिस को और फोर्स मंगा कर पूरे वि.वि. को पुलिस छावनी में तब्दील करना पड़ा। इस बीच सभी तरफ से मात खाते देख मंदिर समर्थकों द्वारा नेशनल हाईवे व पुलिस थाने को बन्द कर आरोपी के घर में तोड़-फोड़ की गयी। इस दौरान घर में परिवार का कोई सदस्य नहीं था वरना मारा जाता। इस दुर्घटना के बाद आरोपी के घर को पुलिस द्वारा सीज कर अपने कब्जे में ले लिया गया। और पंतनगर मे कफ्र्यू जैसा माहौल बन गया। इसी बीच मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति श्री बदरे आलम द्वारा जो कि वि.वि. के पीसीटी में कार्यरत हैं, ने मंदिर में खण्डित मूर्तियों को देखने की हिमाकत कर दी। वहां पर गुस्साई भीड़ ने पहचान लिया कि वे मुसलमान हैं और सैकड़ों पुलिसकर्मियों के रहते हुए भीड़ ने मिनटांे में उसकी पिटाई कर अधमरा बना दिया। बाद में पुलिस उसे उपचार हेतु अस्पताल ले गई। 
इसके बाद करीब 4.00 बजे स्थिति अत्यन्त तनावपूर्ण देख पुलिस ने परिसर में फ्लैग मार्च कर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। उधर कार्यवाही पर अड़े विधायकगण व उनके सभी सहयोगी/समर्थक रोड़ पर बैठे रहे कि आरोपी के परिवार सहित दो भागे उनके सहयोगियों को भी पकड़ा जाय और उसके भाई को नौकरी से तुरन्त बर्खास्त किया जाय वरना माहौल खराब होने की पूरी जिम्मेदारी जिला प्रशासन की होगी। अन्त में पुलिस ने रास्ता खुलवाने का प्रयास किया व आरोपी के परिवार सहित दो अन्य लोगों के खिलाफ दफा 153 ए बी सी, 147, 120बी, 295, 7 क्रिमिनल एक्ट में मुकदमा दर्ज कर लिया गया और बाकी बचे चार लोगों को जल्दी से पकड़ने का भरोसा दिलाया तब जाकर देर सांयकाल तक सड़क जाम खत्म किया गया। पंतनगर में शांति की ना उम्मीद में मुस्लिम समुदाय के अनेक परिवार घर में ताला मार कर किसी सुरक्षित स्थान की ओर भागने लगे। करीब देर रात तक पुलिस की वजह से आम शांतिप्रिय जनमानस तो बाहर नहीं निकला परन्तु धर्म के ठेकेदारों को रात भर नींद नही आई। और देर रात में एक और टेलर की दुकान को चिह्नित कर फूंक  दिया गया। इसके बाद 12 सितम्बर को सुबह आठ बजे से मंदिर परिसर में भक्तों की भीड़ लग गई व मंदिर परिसर में क्षतिग्रस्त मूर्तियों को गंगा में विसर्जित करने हेतु पंतनगर में ही माॅडल कालोनी के सामने बहने वाले एक बड़े नाले (चकफेरी नदी) में विसर्जित करने हेतु सैकड़ों की तादाद में भक्तों की भीड़ के बीच शांतिपूर्वक विसर्जित कर दिया गया। 

इस पूरे घटनाक्रम में हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों की भूमिका बेहद संदेहास्पद और आक्रामक है। इस बात का अभिलेष सिंह की तथाकथित बातों के अलावा कोई प्रमाण नहीं कि मूर्ति विक्षिप्त इमामुल हक ने तोड़ी थी। यह एक सुनियोजित व प्रायोजित षड्यंत्र भी हो सकता है, खासकर यह देखते हुए कि रुद्रपुर के दंगे के आरोपी बीजेपी विधायक राजकुमार ठुकराल के तुरंत घटनास्थल पर पहुंच जाते हैं। पुलिस की कार्यवाही इस मामले में भी दोषपूर्ण है कि उन्होंने बिना किसी ठोस प्रमाण पंतनगर में कार्यरत इमामुल हक के भाई और उसकी निर्दोष मां को भी जेल में डाल दिया है।                                                         

दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश ने छीना हजारों ई-रिक्शा चालकों का रोजगार
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
दिल्ली हाईकोर्ट ने 31 जुलाई को यह कहते हुए ई-रिक्शा (बैटरी चालित रिक्शा) के परिचालन पर रोक लगा दी है कि प्रथम दृष्टया वे यातायात और नागरिकों के लिए खतरनाक हैं। 
1 अगस्त से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ई-रिक्शा  चलाने पर प्रतिबंध है। दिल्ली पुलिस ने भी पूरी मुस्तैदी से इस आदेश का पालन किया और आदेश के तीन-चार दिन के अंदर ही 800-900 रिक्शों को जब्त कर लिया।
लगभग एक महीने तक सुनवाई के बाद 9 सितम्बर को हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ई-रिक्शा के परिचालन पर प्रतिबंध जारी रहेगा। क्योंकि मौजूदा कानून के मुताबिक ये अवैध हैं। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने केन्द्र सरकार के उस अनुरोध को ठुकरा दिया कि, ई-रिक्शा के विनियमन संबंधी नियमों के बनने तक, प्रतिबंध पर रोक हटाने और केन्द्र सरकार द्वारा तैयार किये गये अंतरिम दिशा-निर्देशों के आधार पर ई-रिक्शा के परिचालन की अनुमति दी जाये। 
न्यायमूर्ति बीडी अहमद और न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल की पीठ ने यह कहते हुए दिल्ली सरकार और सम्बन्धित अधिकारियों को कानून के मुताबिक काम करने और गैर पंजीकृत ई-रिक्शा को चलने से रोकने का निर्देश दिया कि ‘कानून के अंतर्गत जो चीज प्रतिबंधित है, उसको चलाने के लिए इजाजत नहीं दी जा सकती’। 
ई-रिक्शों के चलाने पर पहले भी सवाल उठते रहे। परन्तु 29 जुलाई को हुई दुखद दुर्घटना ने इस मामले पर तूल पकड़ लिया। एक ई-रिक्शा से एक महिला को टक्कर लग गयी। महिला की गोद में तीन साल का बच्चा था जो मिठाई की दुकान में गर्म चाशनी की कडाही में गिर गया और उसकी मौत हो गयी। 
इस दुर्घटना के बाद एक ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ शाहनवाज खान ने एक याचिका हाईकोर्ट में दायर की। हाईकोर्ट ने ई-रिक्शा पर प्रतिबंध का फैसला शाहनबाज की याचिका पर सुनाया। जिन्होंने ई-रिक्शा पर प्रतिबंध लगाने का अनुरोध किया था। याचिका में उन्होंने कहा कि किसी व्यक्ति को बिना बैध लाइसेन्स के बगैर ई-रिक्शा चलाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। ई-रिक्शा का पंजीकरण नंबर नहीं है। ये यात्रियों की जान जोखिम में डालते हैं, तीन महीने में करीब दौ सौ दुर्घटनायेें हुयी हैं आदि आदि। 29 जुलाई की दुर्घटना और उसमें तीन साल के बच्चे की मौत, बहुत ही दुखद है। पर इस दुर्घटना के बाद एक ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ की याचिका पर हाईकोर्ट का ई-रिक्शा पर प्रतिबंध लगा देना कहां तक न्यायसंगत है। 
एक साल से ज्यादा समय से ई-रिक्शा वाले दिल्ली की जनता को अपनी सेवायें दे रहे हैं। शुरूआत में जब ई-रिक्शा आये थे तो लगा कि अब रिक्शा वालों को रिक्शे में लोगों को बैठाकर उन्हें खींचना नहीं पड़ेगा। जोकि देश के विकसित व आधुनिक होने पर सवाल खड़ा करता है। वैसे ई-रिक्शा आने के बाद भी दिल्ली में लाखों लोग अभी भी सवारी व माल ढ़ोने वाले रिक्शे चलाते हैं। 
ई-रिक्शा आने के बाद जिनके पास अधिक पूंजी थी उन्होंने किराये पर चलवाने के लिए रिक्शे खरीद लिये। फाइनेंसरों ने 50,000 रुपये जमा करें, बाकी आसान किस्तों पर ई-रिक्शा अपने घर ले जायें जैसी स्कीम चलाईं। कई रिक्शा चलाने वालों व अन्य मेहनत का काम करने वालों ने बचत कर-कर इकट्ठा किये गये रुपयों से ई-रिक्शा किस्तों में ले लिया। कईयों ने ब्याज पर पैसा लेेकर ई-रिक्शे किस्तों में लिये। और बाकी ज्यादातर लोग रिक्शे किराये पर लेकर चलाने लगे। ई-रिक्शे का किराया 200 रुपये प्रतिदिन व बैटरी चार्ज करने के लिए बिजली का खर्च अलग से था। 
जब ई-रिक्शा शुरू हुए तो सरकार की तरफ से इनके लिए कार्ड पंजीकरण, लाइसेंस, इंश्योरेन्स आदि शर्तें नहीं थीं। रिक्शे चलाने वालों के लिए यह सुविधाजनक था। इसलिए भी इनकी खूब बिक्री हुई। और ई-रिक्शा बनाने वाली कम्पनियों व बेचने वालों ने खूब मुनाफा कमाया। 
अब यदि साल भर से भी ज्यादा समय तक चलने के बाद इनके परिचालन में यदि कोई नियम-कानूनों की समस्या है तो इसकी जिम्मेदारी सरकार व इसकी अन्य संस्थाओं की बनती है। फिर इसका खामियाजा रिक्शे चलाने वाले और उनके परिवार वाले क्यों भुगतें। हाईकोर्ट ने भी बिना इस पक्ष को ध्यान में रखे अपना आदेश दे दिया। यदि हाईकोर्ट न्याय का पक्ष लेता तो सरकार को यह भी आदेश देता कि जब तक इनके चलाने के संबंध में उचित प्रबंध नहीं होता तब तक सरकार इससे प्रभावित होने वालों को उचित मुआवजा या इनके रोजगार की वैकल्पिक व्यवस्था करेगी। आज 45 दिनों से हजारों-लाखों लोग इससे प्रभावित हो रहे हैं। इनके रोजी-रोजी का सवाल खड़ा हो गया है। 
रही बात दुर्घटनाओं की तो देश की बात तो छोडि़ये रोज राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सैकड़ों दुर्घटनायें होती हैं। और इसमें लोग मारे जाते हैं। रोज हाईस्पीड वाली मोटर साइकिल व कारों के विज्ञापन आते हैं। यह गाडि़यां जब सड़कों पर उतरती हैं तो कितनी दुर्घटनायें करती हैं। और कितने लोग मारे जाते हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है। तब उन कम्पनियों के खिलाफ ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ द्वारा याचिका दायर नहीं की जाती है। कोर्ट इन मामलों में कार्रवाही क्यों नहीं करता? 
आये दिन देश में रईसजादे अपनी आलीशान गाड़ी द्वारा सड़कों पर व रात को फुटपाथ के किनारे सो रहे लोगों के ऊपर अपनी गाडि़यां चढ़ा देते हैं। बाॅलीबुड के हीरो सलमान खान के ऊपर दस साल से भी ज्यादा समय से एक ऐसा ही केस चल रहा है। जिसमें कई लोग घायल हुए और कई की मृत्यु हो गयी थी। परन्तु आज वह ‘स्टार’ बने हुए हैं। इन सब दुर्घटनाओं पर व इसे रोकने के लिए ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ याचिका दायर क्यों नहीं करते व न्यायालय इन पर तुरंत कार्यवाही क्यों नहीं करते। 
राजनीतिक पार्टियां भी इन ई-रिक्शा चालक व इनके परिवार को मात्र चुनाव जीतने के लिए वोटरों के रूप में देखती हैं। क्या केन्द्र में पूर्ण बहुमत से बनी मोदी सरकार इन लाखों लोगों को राहत देने के लिए अध्यादेश जारी नहीं कर सकती? लोकसभा चुनाव से पहले व बाद में भी बीजेपी ने ई-रिक्शा वालों को वादा किया था कि वह ई-रिक्शा के चलने में कोई बाधा नहीं आने देंगे। इसके लिए कानूनों में भी बदलाव किया जायेगा। कहां गया वह वादा? आम आदमी पार्टी व कांग्रेस दिल्ली में चुनाव की सम्भावनाओं को देखते हुए, चुनाव में अपनी नाव पार लगाने के लिए इनके साथ खड़े होने का दिखावा कर रही है। 

क्या हाईकोर्ट द्वारा ई-रिक्शा के परिचालन पर प्रतिबंध ई-रिक्शा चालकों व उनके परिवार के लिए उचित वैकल्पिक व्यवस्था किये बिना लगाना न्याय संगत है।  
मोदी की पाठशाला
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
इस पांच सितंबर को भूतपूर्व संघी प्रचारक और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिक्षक दिवस को ‘गुरू दिवस’ में रूपांतरित करते हुए बच्चों के लिए एक कक्षा आयोजित की। यह कक्षा पूरे देश में थी और सारे देश के बच्चे इसमें बैठे थे। आधुनिक संचार तकनीक प्रेमी मोदी ने इसके लिए इसका इस्तेमाल किया।
पर मोदी के लिए परेशानी की बात यह रही कि वे इसमें वह बात नहीं कह पाये जो वे कहना चाहते थे। वे बच्चों को वह शिक्षा नहीं दे पाये जो वे देना चाहते थे और जिस शिक्षा पर वे जीवनभर खुद चले थे।
      मोदी की वह अनकही शिक्षा इस प्रकार हैः-
पहला सबक: हमेशा स्वयं को सर्वोपरि रखो। याद रखो कि तुम्हें सबसे ऊपर पहुंचना है भले ही तुम चाय वाले के बच्चे ही क्यों न हो। इसके लिए सब कुछ जायज है- हजारों लोगों का कत्ल भी। इसके रास्ते में ईमानदारी, निष्ठा, नियम-कानून किसी को मत आने दो। इसके लिए हर किसी का इस्तेमाल करो और फिर उसे रास्ते से हटा दो। जो विरोध करे उससे किसी भी हद तक जाकर निपटो- उसका कत्ल करने या करवाने तक भी।
दूसरा सबक: नैतिकता की सारी बातें सीढि़यों की तरह होती हैं जिन पर चलकर व्यक्ति ऊपर पहुंचता है। नैतिकता को व्यक्ति को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। याद रखो कि नैतिकता व्यक्ति के लिए होती है, व्यक्ति नैतिकता के लिए नहीं होता। आर.एस.एस. की यह शिक्षा मानवता को अमूल्य योगदान है। दुनिया के सारे दार्शनिक इस पर बहस करते रहे पर इसका मर्म नहीं समझ पाये। संघ के प्रचारक ही इसे अच्छी तरह समझते हैं। वे समझते हैं कि नैतिकता की सारे बातें दूसरों के लिए होती हैं, खुद के लिए नहीं। यदि ऐसा नहीं होता तो चाय वाले का बेटा नरेन्द्र मोदी आज भी चाय ही बेच रहा होता, अपनी पार्टी के सारे लोगों को पछाड़कर प्रधानमंत्री नहीं बनता।
तीसरा सबक: नैतिकता की तरह धर्म भी इस्तेमाल करने की चीज है। जो धर्म का जितना अच्छी तरह इस्तेमाल करता है वही तरक्की की सीढि़यां चढ़ता है। स्वयं धर्म के धंधे में और पूंजीवादी राजनीति में तो यह और भी जरूरी है। याद रखो कि धर्म आत्मिक या रूहानी चीज नहीं है और न ही इसका किसी ईश्वर या अल्लाह से लेना देना है। ध्यान से देखोंगे तो पाओगे कि ईश्वर या अल्लाह है ही नहीं या है भी तो वे धर्म के धंधेबाजों पर पूरी तरह निर्भर हैं। इसलिए निर्भय होकर धर्म का हर तरह से इस्तेमाल करो।
चैथा सबक: याद रखों कि अभी तक मुसोलिनी और हिटलर के बारे में जो बताया जाता रहा है वह सब गलत है। वह सब कम्युनिस्टों का झूठा प्रचार है। मुसोलिनी और हिटलर महान लोग थे। वे अनुकरणीय थे। पहले सबक को याद करोगे तो पाओगे कि उसका निष्कर्ष ही है मुसोलिनी या हिटलर जैसा बनना। उन्हांेने अपने जीवन में अपना लक्ष्य हासिल कर लिया था। उनकी मौत पर ध्यान मत दो क्योंकि वह तो उनके दुश्मनों द्वारा अंजाम दी गयी थी।
पांचवा सबक: यह याद रखो कि वेदांत में कहा गया है कि यह दुनिया माया है। यहां कुछ भी यथार्थ नहीं है। सब भ्रम मात्र है। एकमात्र सत्य तुम स्वयं हो। इसीलिए स्वयं को किसी भी बात से परेशान मत होने दो। धर्म, नैतिकता इत्यादि के तुम्हारे पुराने संस्कार तुम्हें परेशान करेंगे जैसे उन्होंने महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन को किया था। इन पुराने संस्कारों से मुक्ति पा लो। जब तुम इनसे मुक्त हो जाओगे तो पाओगे कि तुम कुछ भी निर्मल मन से कर सकते हो। तुम्हें इस धरती पर ही मोक्ष मिल जायेगा।
प्यारे बच्चों! याज्ञवल्क्य के समय से भारतीय मनीषियों की शिक्षा का असली सार यही रहा है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसी पर चलता है। पर लोगों के कुसंस्कारों के चलते उसे जो ऊपरी बातें करनी पड़ती हैं लोग उसे ही असली शिक्षा मान लेते हैं। यह गलत है। मैंने तुम्हें असली मंत्र से परिचित करा दिया है। मुझे पूरा विश्वास है कि तुम इस पर चलकर अपना जीवन सफल बनाओगे। तुममें से कोई एक मुसोलिनी, हिटलर या नरेन्द्र मोदी बनेगा।        

कप्तान, मैन आॅव द मैच और मालिक 
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
देश के वर्तमान प्रधानमंत्री और संघ के भूतपूर्व प्रचारक नरेन्द्र मोदी ने भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की उस बैठक में जिसमें उनके सारथी अमित शाह की भाजपा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी की गयी कहा था कि पिछले लोकसभा चुनाव में राजनाथ सिंह टीम के कैप्टन थे और अमित शाह मैन आॅव द मैच। क्रिकेट प्रेमी इस देश के सभी लोगों को यह जुमला बहुत पसंद भी आया।
लेकिन इस जुमले ने कुछ सवालों को जन्म भी दिया। पहला सवाल यही था कि राजनाथ सिंह टीम के कैप्टन कब से हो गये क्योंकि चुनावों के दौरान तो विज्ञापनों के जरिये भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को ही कैप्टन घोषित कर रखा था। दूसरा, यदि कैप्टन और मैन आॅव दि मैच राजनाथ सिंह और अमित शाह थे तो जीत का सेहरा मोदी के सिर क्यों बंधा तथा प्रधानमंत्री पद पर वे कैसे विराजमान हो गये? राजनाथ सिंह तो अब अपना सचिव भी नहीं चुन सकते। तीसरा, फटाफट क्रिकेट और आईपीएल के इस जमाने में हर टीम का कोई मालिक होता है। तब इस टीम का मालिक कौन है?
असल में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि इस टीम यानी भाजपा का मालिक कौन है? किसी जमाने में सब लोग माना करते थे और यही बात सच भी थी कि भाजपा की मालिक राष्ट्रीय स्वयंसेेवक संघ है। आजादी के बाद जब पहले चुनाव हुए तो संघ ने चुनाव लड़ने के लिए जनसंघ नाम केे राजनीतिक दल का गठन किया। इसके लिए संघ ने इसमें अपने प्रचारक भेजे। भाजपा के आज के जबर्दस्ती अवकाश दिये गये नेता आडवाणी का हमेशा कहना रहा कि वे पहले संघ के स्वयं सेवक हैं भाजपा के नेता बाद में। जब 1977 में जनता पार्टी बनी तो संघ का उसमें विलय हो गया। लेकिन 1980 में जनता पार्टी के विघटन के बाद संघ ने फिर से भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा का गठन किया।
इसलिए भाजपा के मालिक होने का पहला दावा तो संघ का ही बनता है। मोेहन भागवत यानी संघ के मुखिया इसे जब तब बताते भी रहते हैं। इसी को और ज्यादा सुनिश्चित करने के लिए संघ ने भाजपा की वर्तमान कार्यकारिणी में अपने पांच प्रचारक भेेजे। संघ को डर था कि भाजपा की इस टीम में कहीं उसके शेयर कम न हो जायें। कंपनियों की तरह चलने वाली टीम के इस जमाने में जिसके पास नियंत्रणकारी शेयर होते हैं वही टीम का मालिक होता है।
भाजपा नामक टीम के मालिकाने केे लिए संघ को जबर्दस्त टक्कर नरेन्द्र मोदी से मिल रही है जो स्वयं कभी संघ के प्रचारक थे। संघ तो एक ट्रस्ट है। उसमें हजारों नहीं लाखों लोग हैं जिनके वर्तमान मुखिया मोहन भागवात हैं। पर नरेन्द्र मोदी एक व्यक्ति हैं पर उनकी हसरत इतनी बड़ी हो चुकी है कि संघ के मालिकाने को हड़प लेना चाहते हैं। भाजपा की गुजरात इकाई को तो उन्होंने हड़प ही लिया था।
जैसा कि पहले ही कई लोगों ने इंगित किया है भाजपा आज तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं के होते हुए भी अब एक व्यक्ति की पार्टी हो गयी है। बाकी सारे नेता आज अस्तित्वविहीन हो चुके हैं। चाहे वे आडवाणी और जोशी जैसे बुजुर्ग हों या राजनाथ और जेटली जैसे मोदी के हमउम्र। इन लोगों ने दिल्ली की गद्दी की खातिर मोदी को आगे बढ़ाया और मोदी आज इन सबके लिए भस्मासुर साबित हो चुके हैं। किसी भी सरकारी या पार्टी के कार्यक्रम में इन सारे नेताओं के चेहरे से गमगीनियत टपक रही होती है। जैसे बच्चे पिट कर और सुबक कर चुप हो चुके हों।
सो भाजपा के मालिकाने की असली टक्कर संघ और मोदी के बीच है। दोनों एक-दूसरे को पटखनी देने में लगे हैं। दोनों एक-दूसरे के खिलाफ शतरंजी चालें चल रहे हैं। संघ के पास हजारों-लाखों कार्यकर्ताओं और पचासों आनुषंगिक संगठनों की ताकत है तो मोदी के पाास वह व्यक्तिगत लोकप्रियता जो संघ की बदौलत ही मिली है तथा भारत के पूंजीपति वर्ग के पैसे व प्रचार माध्यमों का समर्थन। धींगामुश्ती जारी है। हो सकता है दोनों किसी समझौते तक पहुंच जायें या यह भी हो सकता है कि मोदी संघ को पटखनी दे दें।
फिलहाल तो मोदी की अग्रगति जारी है और अमित शाह नामक उनका सारथी तेजी के साथ साम्प्रदायिकता का रथ दौड़ाते हुए उन्हें आगे ले जा रहा है।         
न खाऊंगा और न खाने दूंगा 
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
यदि कोई सामान्य हिन्दी भाषा में यह बात कहे तो इसका अर्थ यह निकलेगा कि वह स्वयं को एवं दूसरे को भूखा मारना चाहता हैै। ऐसे में यह अचरज भरी बात हो जाती है कि देश का प्रधानमंत्री खुद को और बाकी लोगों को क्यों भूखा मारना चाहेगा। वह क्यों लाल किले से घोषणा करता है कि न तो खाऊंगा और न खाने दूंगा।

असल में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के भूतपूर्व प्रचारक का इरादा स्वयं को और दूसरों को भूखा मारने का नहीं है। वे तो कम से कम एक बार और प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। वैसे उनकी दबी इच्छा तो यही होगी कि वे प्रधानमंत्री निवास से ही श्मशान घाट जायें।
असल में नरेन्द्र मोदी देश में उस चलते हुए मुहावरे का इस्तेमाल कर रहे थे जिसका मतलब होता है घूसखोरी और आर्थिक भ्रष्टाचार। वे देश को बताना चाहते थे कि वे न तो स्वयं भ्रष्टाचार से पैसा कमायेंगे और न किसी को कमाने देंगे।
पर क्या वास्तव में ऐसा होगा?
यदि वास्तव में ऐसा होने की संभावना हो तो भाजपा के सौ में से निन्यानवे या हजार में से नौ सौ निन्यानवे नेता और कार्यकर्ता राजनीति से सन्यास ले लेंगे। आखिर तब वे राजनीति में क्यों रहना चाहेंगे? सही बात तो यह है कि लाल किले से यह बात सुनते हुए भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी हंसी छिपाना मुश्किल हो गया होगा।
उनके इस तरह हंसने के वाजिब कारण हैं। अभी जो लोकसभा चुनाव हुए उसमें विभिन्न आंकलनों के अनुसार भाजपा ने तीस-चालीस हजार करोड़ रुपये खर्च किये। ये रुपये कहां से आये भाजपा के पास? क्या इन रुपयों की वसूली को खाना माना जायेगा? पूंजीपतियों ने ये रुपये भाजपा को जिताने और मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए दिये। इस तरह देखा जाये तो ये रुपये मोदी को दिये गये। इस हिसाब से तो नरेन्द्र मोदी भारतीय राजनीतिज्ञों में सबसे ज्यादा खाने वाले व्यक्ति हुए।
पर जैसा कि मोदी के हिन्दूधर्म की सनातनी परम्परा में कहा गया है, ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, उसी तरह मोदी का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार नही है। उसे कानूनी या नैतिक रूप से संज्ञान में नहीं लिया जाना चाहिए।
पर भाजपा में सारे लोग मोदी की तरह खुशकिस्मत नहीं हैं और न ही वे मोदी की तरह दावा कर सकते हैं कि उनका कोई परिवार नहीं है यानी उन्हें भ्रष्टाचार करने की जरूरत नहीं है। भाजपा के नेता और कार्यकर्ता दुनियावी लोग हैं और माया से वे दूर नहीं रह सकते। वैसे माया इतनी ठगिनी है कि वह किसी को भी ठग लेती है। मोदी की सम्पत्ति का तो पता नहीं पर उनका रहन-सहन का तरीका यह दिखाता है कि माया ने उन्हें पूरी तरह ग्रस रखा है।
भाजपा में यदुरप्पा से लेकर नितिन गडकरी तक लोगों की एक लम्बी कतार है जिन पर यदि न खाने देने का सूत्र लागू किया जाये तो उन्हें काफी परेशानी हो जायेगी। ये तो केवल बहुचर्चित नाम हैं असल में भाजपा में कोई भी भुखमरी से नहीं मरना चाहेगा।
नरेन्द्र मोदी द्वारा लाल किले से न खाने और न खाने देने की घोषणा असल में देश में सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े पैमाने पर आक्रोश को भुनाने की कोशिश थी। इस आक्रोश को ही भुनाकर केजरीवाल एण्ड कम्पनी दिल्ली में सत्ता तक हासिल कर चुके हैं।
पूंजीपति  वर्ग की कृपा से मोदी ने अपनी छवि एक भ्रष्टाचार मुक्त व्यक्ति की गढ़ रखी है। वैसे यह भी कम मजेदार बात नहीं है कि भ्रष्टाचार मुक्त राजनेता की यह छवि पूंजीपति वर्ग के पैसे से और उसके प्रचार माध्यमों के द्वारा गढ़ी जाये।
इस छवि का मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाने में अहं योगदान था। अब मोदी इसे और ज्यादा भुनाना चाहते हैं। साथ ही पूंजीपति वर्ग भी इसे इस्तेमाल करना चाहता है। एक ओर तो वह भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश को थोड़ा कम करना चाहता है, दूसरी ओर वह ‘ईमानदार’ नेता के द्वारा अपनी लूट की छूट को और बढ़ाना चाहता है। मोदी के मामले में कोई यह नहीं कहेगा कि उन्होंने अपने फायदे के लिए पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाया।

पूंजीपति वर्ग के लिए क्या यह कम फायदे की बात है। 

 सोनिया और नटवर 
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
      पिछले दिनों सोनिया और नटवर यानी सोनिया गांधी और नटवर सिंह का प्रकरण काफी चर्चा में रहा। चुनावों के बाद बुरी स्थिति से गुजर रही कांग्रेस पर पूंजीवादी प्रचार माध्यमों ने इस बहाने खूब चुटकी ली और प्रकारान्तर से मोदी और भाजपा के पक्ष में और प्रचार किया।
सोनिया गांधी किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं पर नटवर सिंह एक भूली-बिसरी शख्सियत बन गये हैं। नटवर सिंह दशकों से कांग्रेसी रहे हैं। वे पहले एक राजनयिक थे और बाद में मंत्री भी। सप्रंग के पहले कार्यकाल में वे विदेश मंत्री थे।
लेकिन विदेश मंत्री के पद से उन्हें तब इस्तीफा देना पड़ा जब पश्चिमी समाचार माध्यमों ने यह खुलासा किया कि नटवर सिंह के बेटे ने इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन की इराक पर लगे प्रतिबंधों का उल्लंघन करने में मदद की थी। सद्दाम हुसैन ने प्रतिबंधों के बावजूद हथियार खरीदने की कोशिश की थी और इसके लिए ‘आॅयल फार फूड’ छूट का इस्तेमाल किया था। प्रतिबंधों के तहत इराक को यह छूट थी कि वह तेल बेचकर अनाज आयात कर ले। लेकिन इस तेल निर्यात का किसी और मद में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था। तब पश्चिमी प्रचारतंत्र ने नटवर सिंह के बेटे के साथ तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव कोफी अन्नान को भी इसमें घसीटा था। कोफी अन्नान ने 2003 में इराक पर अमेरिकी आक्रमण का विरोध किया था।
जब इस मसले का खुलासा हुआ तो इसके बाद नटवर सिंह को विदेश मंत्री के पद से हटा दिया गया। यह तभी आशंका जाहिर की गयी थी कि यह खुलासा नटवर सिंह से छुट्टी पाने का तरीका था क्योंकि नटवर सिंह अमेरिकी साम्राज्यवादियों के हिसाब से नहीं चल रहे थे।
अब नटवर सिंह ने इसी बात का खुलासा किया है कि बात वास्तव में ऐसी ही थी। उन्हें विदेश मंत्री पद से अमेरिकी साम्राज्यवादियों के कहने पर हटाया गया था। इसके लिए उनके बेटे के गोरखधंधे का इस्तेमाल किया गया था।
वास्तव में नटवर सिंह संप्रग सरकार के दूसरे ऐसे मंत्री थे जिन्हें अमेरिकी साम्राज्यवादियों की इच्छानुसार हटाया गया था। पहले मंत्री थे मणि शंकर अय्यर। वे तेल-गैस मंत्री थे और ईरान-भारत गैस पाइप लाइन सहित भारत के लिए स्वतंत्र ऊर्जा नीति की वकालत कर रहे थे।
अमेरिकी साम्राज्यवादियों के इशारे पर नटवर सिंह को विदेश मंत्री के पद से हटाया जाना कोई अजूबा नहीं था। गाहे-बगाहे ऐसा होता रहता है। अजूबा नटवर सिंह की ओर से था जो तब मामले की असली वजह पर चुप्पी साध गये थे। तब उन्होंने किताब तो ेक्या एक लेख लिखकर भी यह नहीं बताया कि असल में उनके बेटे का उनके खिलाफ इस्तेमाल किया गया है।
इस चुप्पी की वजह थी। इतने सालों से राजनयिक सेवा में रहने के कारण नटवर सिंह यह बात अच्छी तरह जानते थे कि जो कुछ उनके साथ हुआ है वह अजूबा नहीं है। ऐसा होता ही रहता है। इसलिए इस पर बखेड़ा खड़ा करने के बदले बेहतर है कि इस पर चुप ही रहा जाये। वक्त गुजर जायेगा तथा नटवर सिंह के दिन लौट आयेंगे। बखेड़ा खड़ा करने पर ये दिन हमेशा के लिए चले जायेंगे।
लेकिन नटवर सिंह के दिन वापस नहीं लौटे और अब तो कांग्रेस की सरकार भी चली गयी। कांग्रेस की सरकार फिर से आने तक पता नहीं नटवर सिंह रहें या न रहें। ऐसे में कम से कम अपने दिल की भडांस तो निकाल ही लेनी चाहिए।
साथ ही इसमें एक संभावना भी निहित है। क्या पता कांग्रेस और सोनिया की ऐसी फजीहत होने से नरेन्द्र मोदी और भाजपा खुश हो जायें। यदि वे खुश हो गये तो नटवर सिंह और उनके वारिसों को कोई तोहफा मिल सकता है।
रही सोनिया गांधी की बात तो अपनी इस तरह से किरकिरी किये जाने से उनका रंज स्वाभाविक है। लेकिन उनके द्वारा अपनी किताब लिखने की घोषणा इतनी स्वाभाविक नहीं है। यदि वे कोई किताब लिखती हैं तो उन्हें यह जरूर खुलासा करना चाहिए कि उन्होंने क्या-क्या काले कारनामे किए।
उनकी ऐसी किताब का देश की जनता को इंतजार रहेगा।

गंगा जागरण अभियान के बहाने
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014) 
गंगा नदी ही नहीं देश की सभी नदियां अविरल और निर्मल हो, ऐसा हर देशवासी चाहता है। नदियों और मानव समाज का रिश्ता भी अविरल और निर्मल हो, यह भी हर देशवासी चाहता है। नदियों और नदियों पर आश्रित जनों का रिश्ता मानव सभ्यता जितना ही पुराना है। परन्तु अतीत में नदियों और इंसानों के रिश्ते पर राजनीति हावी नहीं थी। अफसोस की बात यह है कि हमारी जीवनदायिनी नदियां भी धार्मिक राजनीति की भेंट चढ़ रही हैं।
भाजपा सरकार व संघ परिवार के लोगों ने मिलकर जिस तरह गंगा जागरण अभियान का साम्प्रदायिकीकरण किया है, वह शर्मनाक है। गंगा को लेकर धार्मिक गोलबंदी की कोशिशें पिछले सालों में भी केसरिया ब्रिगेड की तरफ से हुयी थीं परन्तु इस बार यह गोलबंदी सरकारी संरक्षण में हो रही है। साधु संतों से लेकर संघ के आनुषांगिक संगठन इस धार्मिक गोलबंदी को सफल बनाने में लगे हुए हैं। मजेदार बात यह है कि इस यात्रा का स्वागत वह भी कर रहे हैं जिन्होंने गंगा या गंगा जैसी नदियों के जल को विषैला बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। हालांकि गंगा के धार्मिक राजनीति व केसरिया एजेण्डे पर आने की आहट तभी होने लगी जब मोदी ने बनारस में कहा था कि,‘‘मुझे गंगा मैय्या ने बुलाया है’’। पहले तो केसरिया वाहिनी ने राम को कैश कराया था अब मां को कैश कराने की बारी आयी है।
मोदी और संघी झूठ के उस्ताद हैं और कारपोरेट जगत मोदी और संघ के हर झूठ के सबसे बड़े प्रचारक हैं। गंगा की सफाई पर भी मीडिया कारपोरेट मोदी व उनकी सरकार की झूठी तस्वीर गढ़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि जैसे भगवाधारी ही गंगा व नदियों के पर्यावरण पर चिन्तित हैं और बाकी सब देशवासी गंगा को मैली करने वाले हैं।
गंगा नदी की सफाई का अभियान 1786 से ही किसी न किसी रूप में चलता रहा है। और अब तक इस पर अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं। किन्तु मोदी सरकार अपने कार्य को ऐसे प्रस्तुत कर रही है। जैसे वह एकमात्र ‘भगीरथ’ हैं। गंगा सहित सभी नदियों में प्रदूषण की समस्या है और उसका बेशक निराकरण होना चाहिए। किन्तु कारपोरेट जगत के ये ‘भगीरथ’ नदियों में प्रदूषण खत्म नहीं कर सकते। नदियों में प्रदूषण की समस्या के तीन ज्यादा अहम कारण हैं और इनमें से किसी भी कारण का समाधान कारपोरेट की इस ‘नयी बोतल’ को पास नहीं है। हम यहां पर बता दें कि नदियों में प्रदूषण का कारण मुख्यतः अकार्बनिक अपशिष्ट हैं न कि कार्बनिक अपशिष्ट।
पहला, दुनिया में हर जगह आबादी व शहरों का संकेन्द्रण नदियों के आस-पास ज्यादा है। पूंजीवाद में शहरों का विकास नियोजित तरीके से न होता है और न हो सकता है। इसीलिए अगर सीवर प्लांट सभी शहरों व कस्बों में लगा भी दिये जायें तो भी बेतरतीब तरीके से होने वाला शहरीकरण इस मार्ग में एक बड़ा अवरोध है जिसका इस व्यवस्था के पास कोई समाधान नहीं है।
दूसरा, औद्योगिक अपशिष्ट का सवाल। जिन्होंने मोदी को प्रधानमंत्री बनाया और उनको प्रधानमंत्री बनाने के लिए जिस कारपोरेट क्षेत्र ने अरबों रुपये पानी की तरह बहाये, क्या मोदी उसी कारपोरेट को गंगा में रासायनिक अपशिष्टों को न बहाने के लिए बाध्य कर सकेंगे? प्रदूषण नियंत्रण तकनीक पर खर्च को कारपोरेट जगत फिजूलखर्ची समझता है। मोदी सरकार के पर्यावरण मंत्री ने करीब एक साल पहले कहा था कि ‘‘पर्यावरण अनुमोदन की जरूरत एक तरह का ‘लाइसेंस राज’ है’’। ऐेसे में मंत्री से क्या उम्मीद की जा सकती है कि वे नदियों के किनारे स्थित व नयी खुलने वाली औद्योगिक इकाइयों पर कोई नियंत्रण लगायेंगे। यह मोदी सरकार के मंत्रियों का पाखण्ड भी इस मुद्दे पर उजागर करता है।
तीसरा कारण कृषि का बदलता तरीका है। कृषि में जिस तरह रासायनिक खादों और कीटनाशकों का चलन बढ़ा है उसने भी देश की नदियों के पर्यावरण को चुनौती पेश की है। वर्षा के दौरान कृषि में उपयोग किये गये ये घातक रसायन नदियों में पहुंचते हैं। क्या उद्योग व कृषि से निकले रासायनिक अपशिष्टों के निवारण की तकनीकों का आम इस्तेमाल इस मुनाफाखोर व्यवस्था में संभव है। नहीं! क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था के राजनीतिक नेतृत्व में इस समस्या के समाधान को लागू करवा पाने की इच्छा नहीं है।

बेशक देश की गंगा सहित सभी नदियों को प्रदूषण मुक्त करने की जरूरत है ताकि इंसान और नदियों का प्राचीन रिश्ता उसी तरह से आगे बढ़ता रहे। परन्तु कारपोरेट क्षेत्र के प्रधानमंत्री की असली मंशा इस गंगा अभियान व इसकी सफाई पर एक ओर खतरनाक ध्रुवीकरण की है तो दूूसरी ओर कारपोरेट क्षेत्र को गंगा के तट व्यवसाय के लिए सौंपने की तैयारी भी चल रही है। जाहिर है पर्यटन के नाम पर व व्यवसायिक उपयोग के लिए अब गंगा किनारे बसे लोगों को परेशान किये जाने व विस्थापित करने की सरकारी मंशा है। नितिन गड़करी से लेकर उमा भारती तक के बयान इसी ओर इशारा कर रहे हैं। गंगा शुद्धीकरण तो बहाना मात्र है। असली मकसद गंगा की बेशकीमी जमीनों को कारपोरेट डेवलपरों को सौंपना है। और यह सारा खेल धार्मिकता को उभारकर खेला जा रहा है। ऐसे में सरकारी मंसूबों के खिलाफ उठने वाली किसी भी जुबान को हिन्दू धर्म के खिलाफ घोषित करने में सरकारी भगवाधारी पीछे नहीं रहेंगे और इसे यहां तक कि देशद्रोह तक माना जायेगा। लोगों को गंगा को कारपोरेट क्षेत्र के हवाले करने की हर कोशिश का जबाव देने की आवश्यकता है।

गुणवत्ता नहीं निजीकरण करने की साजिश है सीमित प्रवेश नीति
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के 8 अगस्त 2014 के फैसले के बाद अब उत्तराखण्ड के दोनों विश्वविद्यालयों से संबंधित सभी सरकारी कालेजोें में सीमित प्रवेश नीति लागू हो जायेगी। हालांकि इसके लिए माहौल महीने भर पहले से बनाया गया। सीमित प्रवेश नीति को लागू करने का सबसे ‘‘मजबूत व सुन्दर’’ तर्क गुणवत्ता को बनाया जा रहा है। उच्च न्यायालय ने यह फैसला उस जनहित याचिका के दायर होने पर दिया है, जिसमें यह अपील की गयी थी कि डीएवी देहरादून के कालेज में मानकों के अनुसार छात्रों को प्रवेश देने के बजाय बहुत ज्यादा संख्या में प्रवेश दिया जा रहा है जिससे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता गिर गयी है।
इसके अलावा इसमें कुछ लोक लुभावन या मध्यम वर्ग को आकर्षित करने वाली बातें जैसे- पूरे शैक्षिक सत्र में 180 दिन पढ़ाई सुनिश्चित करना, सभी शिक्षकों को प्रतिदिन 5 घंटे पढ़ाने, उनकी बायोमेट्रिक उपस्थिति दर्ज कराने सरीखी बातें भी इसके साथ कही जा रही हैं। लेकिन यह समझना बिल्कुल भी कठिन नहीं है कि ये बातें तो मात्र उस बड़े हमले के घाव पर बैन्डेज लगाना है जो छात्र-छात्राओं की बड़ी संख्या को उच्च शिक्षा से बाहर फेंक देगा। स्नातकोत्तर में तो पहले ही सेमेस्टर सिस्टम के बहाने सीमित संख्या में प्रवेश का बंदोबस्त किया जा चुका है। अब स्नातक के सभी वर्गों में छात्र संख्या सीमित कर दी गयी है। प्रवेश अब मैरिट के आधार पर दिये जायेंगे। जितने सरकारी कालेजों में प्रवेश पा जायेंगे उससे ज्यादा संख्या प्रवेश न पाने वाले छात्रों की होगी। सीमित संख्या में प्रवेश होने के चलते एक तरफ जहां एक छात्रों के मध्य तीखी प्रतियोगिता होगी वहीं आरक्षण के लिए भी मारामारी होगी जिससे छात्रों की एकजुटता भी कमजोर होगी। हजारों की संख्या में प्रवेश के लिए इच्छुक छात्र-छात्राओं को प्रवेश न मिल पाने के कारण उच्च शिक्षा से महरूम होना पड़ेगा। इनके प्रवेश की कोई वैकल्पिक व्यवस्था न कर सीधे यह फैसला लागू करना न सिर्फ छात्र-विरोधी है बल्कि घोर अमानवीय है।
जैसा कि सभी जानते हैं कि जन सरोकारों से संबंध रखने वाली अनेक जनहित याचिकाएं न्यायालयों में दाखिल की जाती हैं। उन पर जनहित में फैसला आना तो दूर, उन पर समय से सुनवाई भी नहीं होती है। लेकिन यह फैसला जो आम छात्र के खिलाफ है; न सिर्फ तत्काल सुनवाई के बाद फैसला होता है बल्कि सरकार उससे भी ज्यादा तेजी से इसको लागू करने को तत्पर होकर कदम भी उठाने लगती है।
यह बात गौर करने की है कि देश की मजदूर-मेेहनत कश जनता के बच्चों का बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा हासिल करने के प्रथम द्वार तक भी नहीं पहुंच पाता। जो वहां पहुंच पाते हैं उनके लिए भी ये दरवाजे बंद करने का षड्यंत्र किया जा रहा है। और यह इस खूबसूरत तर्क के जरिये किया जा रहा है जिसे पूंजीवादी सरकार और न्यायालय ‘‘गुणवत्ता’’ कह रहे हैं। हजारों की संख्या में छात्रों को उच्च शिक्षा से बाहर कर उनकी ‘‘गुणवत्ता’’ को आसानी से समझा जा सकता है।
इस फैसले से सरकारी कालेजों से बाहर फेंक दिये गये छात्र-छात्राओं को मजबूर होकर उन प्राइवेट कालेजों में प्रवेश लेना पड़ेगा जो शिक्षा की दुकानें सजाकर इससे भी मुनाफा कमाने का धंधा चला रहे हैं, यही इस फैसले का सार और लक्ष्य है। यह शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया का ही एक और कदम है। सर्वविदित है कि 1991 में जारी निजीकरण की नीति ने शिक्षा को विशुद्ध तौर पर मुनाफा कमाने का एक जरिया बना दिया। इन्हीं नीतियों के परिणामस्वरूप ही व्यवसायिक शिक्षा का लगभग 80 प्रतिशत आज निजी हाथों में जा चुका है। जहां भारी पैमाने पर लूट जारी है। उच्च शिक्षा हासिल कर रहे कुल छात्रों का आधे से ज्यादा छात्र इन निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ रहे हैं। इस फैसले के जरिये पारम्परिक उच्च शिक्षा को भी पूंजीपतियों के हाथों में सौंपने का प्रबंध किया जा चुका है।
पूंजीवादी सरकारें, पूंजीपति वर्ग और न्यायपालिका की मिलीभगत से यह फैसला लिया गया। इसको अचानक लिया गया फैसला या न्यायालय के फैसले के रूप में न देखकर निजीकरण की प्रक्रिया के रूप में देखना ही सही नजरिया है। जिस तरह देश का पूंजीपति वर्ग और सरकारें आर्थिक सुधारों को परवान चढ़ा रही हैं, सामाजिक मदों में कटौती कर रही हैं, सरकारी उपक्रमों को पूंजीपतियों के हाथों में सौंप रही हैं, ठीक उसी तरह का व्यवहार वह शिक्षा के साथ भी कर रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उदारीकृत पूंजीवाद यह काम अलग-अगल तरह से कर रहा है।
पूंजीवाद में हर चीज की तरह शिक्षा भी खरीद और बेच की वस्तु है। 1986 में नई शिक्षा नीति, 1991 में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नई आर्थिक नीतियों ने शिक्षा को मुनाफा कमाने के जरिये की खुली घोषणा कर दी थी। 12वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में और भी नंगे रूप में यह कहा गया कि अब शिक्षा के संबंध में ‘नाम के लिए नहीं’’ वाली सोच को छोड़ना होगा। हालांकि यह सोच पूंजीपति वर्ग और सरकारें काफी पहले ही त्याग चुकी हैं। शिक्षा को मुनाफा हासिल करने का सुरक्षित और लाभकारी क्षेत्र मानकर देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने इसमें अपना पूंजी निवेश किया और उसको लगातार बढ़ाया। देशी-विदेशी पूंजीपति शिक्षा से अकूत मुनाफा कमायंे इसके लिए जरूरी था कि सरकार तेजी से शिक्षा का निजीकरण करे और उसने ऐसा किया भी। एक तरफ शिक्षा में होने वाले खर्च को लगातार कम किया गया जिसके चलते कालेज शिक्षकों, बिल्डिंग, पुस्तकालयों, स्टाफ लेब, आदि के अभाव से जर्जर हो गये। नये कालेज/संस्थान नाम मात्र के खुले लेकिन प्राइवेट संस्थानों की बाढ़ आ गई। निजी पूंजी ने शिक्षा के क्षेत्र में धांधली और अराजकता को भी जन्म दिया। एक तरफ छात्रों की जेबों में डाका डाला गया और दूसरी तरफ मान्यता न होने के बाद भी कोर्स चलाकर फर्जी डिग्री देकर छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड करने की घटनाएं आम होती गयीं। सरकार ने भी सरकारी कालेजों में यही काम किया उसने स्ववित्त पोषीकरण के तहत जो कोर्स चलाए उसकी फीसें भी निजी संस्थानों के बराबर हैं।

यह पूंजीवादी व्यवस्था का क्रूर और अमानवीय चरित्र ही है कि वह ज्ञान-विज्ञान(शिक्षा) जैसी सामाजिक धरोहर को भी अपने चंगुल में फांस लेता है। समस्त ज्ञान, तकनीक, आविष्कार, मशीनें आदि पूरे मानवजाति की, पूरे समाज की धरोहर है, उस पर पूरे समाज का अधिकार बिना किसी रुकावट और अवरोध के होना चाहिए। लेकिन पूंजीवादी वर्गीय समाज में उत्पादन के साधनों, सम्पत्ति के साथ-साथ ज्ञान पर भी एकाधिकार कायम है। वहीं करोड़ों-करोड़ मेहनतकश मजदूर ज्ञान-विज्ञान से भी वंचित हैं। ज्ञान-विज्ञान पर पूंजीपति वर्ग के एकाधिकार का खात्मा उस सामाजिक क्रांति के जरिये ही संभव है जो मजदूर-मेहनतकश वर्गों के नेतृत्व में चलकर संपत्ति और उत्पादन के साधनों को सामाजिक मालिकाने के तहत कर देगी। तब मजदूर-मेहनतकश जनता को ज्ञान-विज्ञान से सुसज्जित करने का रास्ता साफ हो जायेगा। और मेहनतकश आवाम तेजी से समाज को आगे ले जाने में सक्षम होंगी। इसलिए शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने या आम छात्रों-नौजवानों से शिक्षा दूर करने की किसी भी साजिश के खिलाफ पुरजोर संघर्ष करने के साथ-साथ समस्त ज्ञान को पूंजीपति वर्ग के चंगुल से मुक्त कराने का संघर्ष ही आज की जरूरत है।

राजसत्ता के फासीवादीकरण की मुहिम शुरु
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
     भाजपा और नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आते ही राज्य के विभिन्न हिस्सों व संस्थाओं के भगवाकरण की मुहिम शुरु हो गयी है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष पद पर प्रोफेसर सुदर्शन राव की नियुक्ति। 
प्रोफेसर राव की अकादमिक उपलब्धियों के बारे में शायद ही कोई जानता होगा लेकिन इस संबंध में कहा जा रहा है कि चूंकि वे कई प्रोजेक्ट पर एक साथ काम कर रहे हैं इसलिए उन्हें पहचान या ख्याति दिलाने वाला कोई काम अभी सामने नहीं आया है। वैसे वे जिन प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे हैं उनका जायजा लेने पर पता चलता है कि ये विषय अध्यात्म, योग, भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच आध्यात्मिक संघर्ष और इसी तरह के मुद्दों से जुड़े हैं। स्पष्ट है कि प्रोफेसर राव संघ से औपचारिक तौर पर जुड़े हों या न हों लेकिन उनका काम संघ के एजेंडे से जुड़ता है। वह है भारतीय इतिहास सहित विश्व इतिहास की हिन्दुत्ववादी नजरिये से व्याख्या करना और हिन्दुत्व की श्रेष्ठता को स्थापित करना। 
बतौर अध्यक्ष प्रेस को दिये अपने वक्तव्य में प्रोफेसर राव ने जिन दो एजेन्डों को उठाया है वे भारतीय इतिहास की हिंदूवादी विचारधारा में भी खास स्थान रखती हैं। इनमें एक है महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों की एतिहासिकता को साबित करना व उनसे जुड़ी हुई घटनाओं व तारीखों को प्रमाणित करना। 
गौरतलब है कि इन विषयों की ऐतिहासिकता का विवाद 200 वर्षों से भी अधिक पुराना है। अनेक इतिहासकारों व इंडो लोजिस्टों (प्राच्य विद्याविदों) ने भाषा, मानविकी तथा अन्य शोधों के आधार पर इन ग्रंथों की तारीख तय करने की कोशिश की लेकिन सब व्यर्थ रहा। दरअसल ये महाकाव्य एक दिन में रचे भी नहीं गये। भंडारकर इंस्टीट्यूट आॅफ ओरियंटल रिसर्च के विद्वानों ने काफी शोध के बाद 1957 में महाभारत के समेकित ग्रंथ का सम्पादन करते हुए कहा था कि रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों की वास्तविक तिथि की गणना संभव नहीं है। उन्होंने इसकी रचना का काल ईसा पूर्व चैथी शताब्दी से चैथी शताब्दी के बीच माना। इसी बात को ज्यादातर इतिहासकार मानते आये हैं। भाषा विज्ञानी महाभारत व रामायण के अलग-अलग कालखण्ड में रचा बताते हैं। उनके अनुसार मूल काव्य को ‘जय काव्य’ के नाम से जाना जाता है जिसमें कुछ हजार श्लोक थे। फिर श्लोकों की संख्या 50 हजार तक पहुंच गयी तब इसे ‘भारत’ कहा गया। बढ़ते-बढ़ते इन श्लोकों की संख्या एक लाख पहुंच गई तब इसे महाभारत कहा गया। महाभारत में कबीलाई समाज से, पशुपालक समाज से लेकर वैदिक और वर्णाश्रम व्यवस्था और सामंती समाज के चिन्ह तक पाये जाते हैं। इसमें सबसे आधुनिक हिस्सा भगवत गीता वाला अध्याय है जो बहुत बाद में जोड़ा गया। 
ऐसे में एक बार फिर इन धर्मग्रंथों के रचनाकाल का निर्धारण करने की नयी जिद का क्या निहितार्थ है? दरअसल इतिहासविदों द्वारा वैज्ञानिक विधियों का हवाला देकर रामायण और महाभारत जैसे ग्रथों को सबसे प्राचीन होने व आर्य सभ्यता के सबसे प्राचीन, इसलिए सबसे श्रेष्ठ होने के मिथक को खत्म कर हिन्दू संस्कृति की सर्वश्रेष्ठता के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों’ के तर्क को खारिज कर दिया गया है। उन मूल ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी’ अपने उस प्राचीन गौरवमयी आर्य (हिन्दू) सर्वश्रेष्ठता के अतीत की  पुनस्र्थापना चाहते हैं। 
आर्य जाति अथवा हिन्दू धर्मावलम्बियों के भीतर नस्लीय श्रेष्ठता का बोध कराये बगैर अन्य नस्लों व धर्मावलम्बियों के खिलाफ वह नफरत व घृणा पैदा नहीं की जा सकती जिससे पूरे समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा हो। फासिस्टों का समाज में धु्रवीकरण पैदा करने के लिए नस्लीय श्रेष्ठता के मिथक का इस्तेमाल एक पुराना कारगर तरीका है। हिटलर ने जर्मन आर्य नस्ल की श्रेष्ठता के मिथक को स्थापित कर वह नफरत यहूदियों के खिलाफ नस्लीय उन्माद पैदा कर अपनी तानाशाही हुकूमत (नाजीवादी शासन) को कायम किया था। बाद में यहूदी विरोध को कम्युनिस्ट विरोध व ट्रेड यूनियन विरोध तक विस्तारित कर उसने पूंजी की सबसे नंगी व निर्मम तानाशाही स्थापित की थी। 
आज केन्द्र में सत्तासीन होने के बाद हिन्दुत्ववादियों के हौंसले काफी बढ़ गये हैं। अब वे राजसत्ता के विभिन्न अंगों में हिन्दुत्ववादी ताकतों को स्थापित करने तथा धर्मनिरपेक्ष तत्वों को हटाने के अभियान में जुट गये हैं। 
गौरतलब है कि पुणे के भंडारकर संस्थान पर हमला कर बहुमूल्य ऐतिहासिक शोध पत्रों को नष्ट करने का काम हिन्दुत्ववादी पहले भी कर चुके हैं। 
मानव संसाधन विकास मंत्रालय में एक स्कूली स्तर तक प्रमाणिक शिक्षा प्राप्त तथा लोक सभा चुनाव में पराजित स्मृति ईरानी जैसे व्यक्ति को मंत्री के बतौर प्रतिष्ठित कर मोदी एवं संघ परिवार ने संकेत दे दिये थे कि उनके लिए मंत्रालय व पदों के महत्व के बजाय सब कुछ मोदी व संघ है। जाहिर है स्मृति ईरानी शिक्षा के क्षेत्र मंे वही सब कुछ लागू करेंगी जिसके लिए उन्हें नियुक्त किया गया है। 
इससे पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के जज की नियुक्ति के लिए बने कोलोजियम में से पूर्व न्यायमित्र गोपाल सुब्रह्मण्यम को मनमाने तरीके से हटाकर मोदी सरकार ने न्यायपालिका को भी अपने शिकंजे में लेने के प्रयास शुरु कर दिये हैं। गोपाल सुब्रह्मण्यम का दोष यह था कि गुजरात सरकार द्वारा बरी करने के बावजूद उन्होंने न्यायामित्र के बतौर सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले में भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष व गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री व पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहराया था। गोपाल सुब्रह्मणयम को कोलोजियम से बाहर करने के लिए उनके खिलाफ ब्यूरो (प्ठ) की जांच बैठायी गई लेकिन आई बी के हाथ कुछ न लगने पर मनमाने तरीके से उनका नाम हटा दिया गया। बाद में इस अपमान के चलते गोपाल सुब्रह्मणयम ने खुद अपना नाम वापस ले लिया। वर्तमान मुख्य न्यायधीश लोढ़ा ने भी सरकार के इस कृत्य की निन्दा की। 
पूर्वोत्तर के मामलों की जिम्मेदारी पूर्व जनरल वी. के. सिंह को देकर मोदी सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि पूर्वोत्तर की समस्या का सैनिक समाधान के अलावा कोई विकल्प नहीं देखती। 
इसी तरह विभिन्न गैर भाजपा शासित राज्यों में तनाव से लेकर तरह-तरह के सामाजिक अंतर्विरोधों को हवा देकर उन सरकारों को अस्थिर करने तथा वहां राज्यपाल के बतौर भाजपा के विश्वस्त सिपहसालारों को नियुक्त करने का काम तेजी से किया जा रहा है। 
हर स्तर पर प्रतिरोध के स्वर को कुचलने के लिए एन.जी.ओ. तक को बख्सने के लिए सरकार तैयार नहीं है। सरकार के इशारे पर आई.बी. (खुफिया ब्यूरो) द्वारा लाखों एन.जी.ओ. को विदेशी एजेन्ट घोषित किया जा चुका है। दरअसल इनमें से कई एन.जी.ओ. पर्यावरण से लेकर कई अन्य मुद्दों को उठाकर देशी विदेशी पूंजीपतियों के लिये समस्यायें खड़ी करते हैं सरकार सहित विभिन्न साम्राज्यवादी व देशी पूंजीपतियों के गुट एन.जी.ओ. को अपने हित के लिये इस्तेमाल करते रहे हैं। एन.जी.ओ. का पूरा ताना बाना सरकार और देशी विदेशी पूंजीपतियों के रहमोकरम पर ही पला बढ़ा है। लेकिन आज इन्हें अपने द्वारा पालित-पोषित ये एन.जी.ओ. भी सपोले नजर आ रहे हैं। मजदूर वर्ग पर बड़े हमले की तैयारी तो हो चुकी है। न्यूनतम वेतन अधिनियम, कारखाना वेतन तथा कई अन्य श्रम कानूनों में परिवर्तन कर मजदूरों के संगठित प्रतिरोध को खत्म करने की तैयारी पूंजीपति वर्ग कर चुका है। 
कुल मिलाकर स्थितियां दिखा रही हैं कि आज भारत के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग ने संघी फासीवाद का वरण कर निमर्म लूट व नंगी तानाशाही की ओर बढ़ रहा है।

इस्राइली जियनवादी शासक और संघी सरकार
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने राज्य सभा में 21 जुलाई को यह बयान दिया कि जहां तक इस्राइल-फिलीस्तीन का संबंध है, भारत की विदेश नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। यह बयान उन्होंने राज्य सभा में इस विषय पर बहस के जवाब में कहा।
यहां यह गौरतलब है कि मोदी सरकार नहीं चाहती थी कि इस्राइली शासकों द्वारा फिलीस्तीन पर ताजा हमले के मामले में संसद में कोई बहस हो। उसने इसका विरोध किया और लोकसभा में कोई बहस नहीं होने दी। राज्य सभा में स्थिति कमजोर होने के कारण वे बहस को नहीं रोक पाये।
जिस मसले को लेकर सारी दुनिया में गुस्सा और नाराजगी हो, यहां तक की अमेरिकी पिट्ठू बान की मून भी जिस पर अपना क्षोभ व्यक्त कर चुके हों, उस मसले पर सरकार द्वारा बहस से इस तरह इंकार अपने आप में ही बहुत कुछ कह जाता है। यह संघियों के इस्राइली शासकों के प्रति रुख को बहुत अच्छी तरह बयां कर देता है।
लेकिन तब भी सुषमा स्वराज का यह कहना सही है कि इस्राइल-फिलीस्तीन के संबंध में भारत की विदेश नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। इसका सीधा सा कारण यह है कि इस संबंध में परिवर्तन करीब दो दशक पहले ही हो चुका था जब तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने इस्राइल के साथ सामान्य राजनयिक संबंध स्थापित किये।
1990 के दशक की शुरुआत में भारत के पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार ने न केवल अपनी आर्थिक नीतियां बदलीं बल्कि उसी के साथ अपनी विदेश नीति भी बदल ली। वैसे इसकी शुरुआत 1980 के दशक में ही हो चुकी थी। उसके ऐसा करने का कारण बदलती वैश्विक परिस्थितियां और उसके अपने हित थे।
1980 के दशक में सोवियत खेमे का पतन हो गया तो दो साम्राज्यवादी खेमे (सोवियत व अमेरिकी या पश्चिमी साम्राज्यवादी) की आपसी प्रतिद्वन्द्विता पर टिका गुट निरपेक्ष आंदोलन निरर्थक हो गया। ऐेसे में भारत के पूंजीपति वर्ग को यही लगा कि इसके हित अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ सटने में हैं। और वह तेजी से इस दिशा में बढ़ा।
अब इस्राइल पश्चिम एशिया में अमेरिकी साम्राज्यवादियों का लठैत है तथा इस्राइली जियनवादी शासक अमेरिकी साम्राज्यवादियों के पूर्ण समर्थन से ही उस क्षेत्र में दादागिरी कर रहे हैं। उसी बल पर उन्होंने फिलीस्तीन को पूरा हड़प लिया है।
भारतीय शासकों ने भी इस्राइल के जियनवादी शासकों के प्रति अपनी पुरानी नीति छोड़ दी और इस्राइल के साथ सामान्य संबंध बहाल कर लिये। इसका सीधा सा मतलब था फिलीस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष को धता बताना और वक्त के साथ यह ज्यादा से ज्यादा मुखर होता गया।
गुट निरपेक्ष आंदोलन के दिनों में भारत औपचारिक तौर पर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का समर्थक था हालांकि भारतीय शासक इसमें अपना सारा गुणा-भाग करते रहते थे। लेकिन जब गुट निरपेक्षता निरर्थक हो गयी तो भारतीय शासकों ने एकदम बेशर्मी के साथ साम्राज्यवादियों के घृणित कारनामों पर चुप्पी साधनी शुरु कर दी।
इस्राइल में मामले में संघियों का रुख हमेशा से ही उनकी आम विचारधारा के अनुरूप रहा है। चूंकि इस्राइली, फिलीस्तीन और अरब देशों की जनता से संघर्षरत है जो अधिकांशतः मुस्लिम हैं, तो संघियों का रुख उसके प्रति स्वभावतः बिरादराना हो जाता है। वे फिलीस्तीनी जनता के जियनवादी शासकों द्वारा बर्बर दमन पर खुशियां मनाते हैं और इस बात पर रंज जाहिर करते हैं कि वे कश्मीर में यही काम नहीं कर पाते।  
  जब वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार कायम हुयी तो उसने इस्राइल के साथ अपने संबंधों को और गहरा बनाया। इस्राइली खुफिया एजेन्सी मोसाद के साथ भीतरी साठ-गांठ इसमें प्रमुख थी। इसी के साथ रक्षा सौदों में इस्राइल की बढ़ती भूमिका भी।
अब जब भाजपा की अपनी बहुमत की सरकार बनी है तो संघी इस दिशा में और भी आगे जाना चाहेंगे। वे इस्राइल के जियनवादी शासकों के साथ साठ-गांठ को और ज्यादा गहन बनाना चाहेंगे।
ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि वे इस्राइली जियनवादी शासकों की इस घृणित कार्रवाई पर कोई बहस नहीं चाहते क्योंकि बहस में अपने राजनीतिक हितों की खातिर ही सही अन्य पूंजीवादी पार्टियां इस्राइली शासकों की आलोचना या निंदा कर सकती है। संघियों को यह अस्वीकार्य है।

गुजरात पुलिस फिर एक बार हुई बेनकाब
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
1993 के सूरत बम काण्ड में जिन 11 लोगों को गुजरात की टाडा अदालत ने 10 से 20 वर्ष की सजा दी थी उन सभी लोगों को उच्चतम न्यायालय ने बरी कर दिया। 1993 में सूरत में हुए बम विस्फोट में एक स्कूली छात्रा की मौत हो गयी थी और कुछ अन्य लोग घायल हो गये थे।
इस घटना के होने के बाद हमेशा की तरह पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर गुजरात पुलिस ने कुछ मुस्लिमों को गिरफ्तार कर लिया। घटना की जांच करने के बजाय अपना सारा ध्यान गिरफ्तार लोगों को दोषी ठहराने में लगा दिया। 2008 में टाडा अदालत ने आरोपियों को दोषी करार देकर सजा की घोषणा की थी। परन्तु बाद में उच्चतम न्यायाल ने सभी 11 आरोपियों को बरी कर दिया। पुलिस ने आरोपियों को दोषी ठहराने के लिए एक कहानी भी गढ़ ली थी कि 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश भर में दंगे फैल गये थे जिसमें बढ़े पैमाने में मुसलमान लोग मारे गये। हिन्दुओं की एक छोटी संख्या भी इसमें हताहत हुई। सरकार की अल्पसंख्यक को सुरक्षित न कर पाने के चलते आरोपियों का सरकार में विश्वास होने लगा और आरोपियों ने षड्यंत्र का रास्ता अपनाकर बम विस्फोट को अंजाम दिया।
पुलिस की इस कहानी को सर्वोच्च अदालत ने मानने से इंकार कर दिया और हत्यारों की बरामदगी से लेकर अन्य सबूतों को खासा लचर बताया। किसी भी आतंकी घटना में मुस्लिम समुदाय के लोगों को दोषी ठहराना। गुजरात पुलिस के साथ-साथ पूरे देश की शासन व्यवस्था की आम नीति बन चुकी है। अभी कुछ दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट में अक्षरधाम बम विस्फोट से आरोपियों को बरी किया था। जिन्हें निचली अदालत ने मौत की सजा सुना दी। पोटा और टाडा जैसे कानून समाप्त हो चुके हैं परन्तु अब भी ढ़ेरों लोग इन मामलों में जेल में सड़ रहे हैं। ऐसे सभी मामलों में जिन निर्दोष मुस्लिमों को आरोपी बनाया जाता है उन्हें बगैर गुनाह किये 10 से 20 साल तक जेलों में रहना पड़ता है। अदालत की लंबी प्रक्रिया में बरी होते-होते ढ़ेरों नौजवान अधेड़ उम्र तक पहुंच जाते हैं। परन्तु अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित राज्य मशीनरी को इस सब की कोई परवाह नहीं है और अब मोदी सरकार बनने के बाद तो पूरे देश की पुलिस गुजरात पुलिस का अनुसरण ही करेगी। जिसके शिकार देश भर के निर्दोष अल्पसंख्यक बनेंगे। 

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