Thursday, October 1, 2015

धार्मिक आयोजनों में भगदड़ में मरते लोग: दोषी कौन?

वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
    साऊदी अरब के मक्का में हज करने गये लोगों में एक बार फिर भगदड़ मच गयी जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये। ईद के मौके पर मची इस भगदड़ में मृतकों का आंकड़ा एक हजार से ऊपर पहुंचने की संभावना है। इससे पहले भी मक्का में कई बार भगदड़ मचने से हजारों लोग मारे जा चुके हैं। धार्मिक आयोजनों में भारी भीड़ उमड़ने और फिर भगदड़ मचने का सिलसिला केवल मक्का तक ही सीमित नहीं है। हमारे देश भारत में भी कुंभ मेले में, दुर्गा पूजा, दशहरा मेले में या फिर मंदिरों में किसी पर्व के मौके पर, किसी बाबा के प्रवचन में भगदड़ में सैकड़ों लोग अक्सर ही मारे जाते रहे हैं।
 
    अगर तात्कालिक तौर पर मक्का में हाल में मची भगदड़ के कारणों पर जायें तो यह तथ्य सामने आता है कि ईद के मौके पर वहां भारी भीड़ मौजूद थी। इसी बीच वहां के राजा सलमान का पुत्र मोहम्मद बिन सलमान अल साउद अपने 350 पुलिस व सेना के रक्षकों के साथ वहां पहुंच गया। मोहम्मद बिन सलमान के इस काफिले की सुरक्षा करने के इंतजामों से वहां भगदड़ मच गयी और सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गये। 
    अक्सर ही इन धार्मिक आयोजनों के मौकों पर जो बात सामने आती है वह यह कि बेहद लचर सुरक्षा इंतजामों, बेहद कम स्थान पर भारी भीड़ उमड़ आती रही है जिसमें एक छोटी सी हलचल-अफवाह भी भगदड़ का सबब बन जाती रही है। यहां यह भी सामने आता है कि इन आयोजनों में आने वाली भीड़ लगातार बढ़ती जा रही है। 
    आज से 3-4 सौ वर्ष पूर्व सामंती जमाने में यातायात आदि के साधन अविकसित होने के चलते धार्मिक आयोजनों में स्थानीय पैमाने पर या एक क्षेत्र के लोगों का ही जुटना संभव होता था। अपने विकास की प्रक्रिया में विज्ञान की प्रगति के साथ पूूंजीपति वर्ग ने धर्म को चुनौती प्रदान की। समाज में धर्म का लोगों के जीवन में प्रभाव क्रमशः घटने लगा। लोग वैज्ञानिक सोच-तर्क पर यकीन करने लगे। जनवादी क्रांतियों में तो धर्म के अड्डे चर्च आदि तक पर जनता ने हमला बोल दिया। ऐसा प्रतीत होने लगा कि दुनिया शीघ्र ही धार्मिक कूपमण्डूकता से छुटकारा पा लेगी पर अफसोस  कि ऐसा नहीं हुआ। 
    यूरोप में धर्म को चुनौती देकर कायम हुई पूंजीवादी व्यवस्था शीघ्र ही अपनी प्रगतिशीलता खोने लगी। मजदूरों के श्रम की लूट पर मालामाल हुआ पूंजीपति वर्ग शीघ्र ही प्रतिक्रियावादी होता चला गया। अपनी ही जनता से उसे क्रांति का भय सताता चला गया। ऐसे में उसने धर्म के खिलाफ अपने संघर्ष को समझौते में तब्दील कर डाला। अब वह अपने देश व बाकी दुनिया में धर्म को जनता को कूपमण्डूक बनाये रखने के औजार के बतौर इस्तेमाल करने लगा। साम्राज्यवाद के युग में पूूंजीपति वर्ग पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी हो गया। 
    परिणाम यह निकला कि यूरोप के साथ-साथ एशिया-अरब के उपनिवेशों में धर्म के खिलाफ संघर्ष स्थगित हो गया। एशिया-अरब-अफ्रीका में तो जहां पूंजीवाद ने देर से पैर पसारा, यह संघर्ष कभी मुकम्मल तरीके से खड़ा ही नहीं किया गया। यहां की जनता धार्मिक प्रभाव में जकड़ी ही रही। 
    इससे भी बढ़कर अपने राजनैतिक फायदे के लिए साम्राज्यवादी व पूंजीवादी ताकतें अक्सर ऐसी कट्टरपंथी धार्मिक ताकतों को पालने-पोसने-शह देेने लगीं जो लोगों को धर्म के अंधविश्वासों की ओर ढकेलते चले जायें। अमेरिकी व यूरोपीय साम्राज्यवादियों की शह से तालिबान, अलकायदा, बोको हरम, आईएसआईएस सरीखे संगठनों के साथ बहावी सुन्नी शासकों का प्रभाव बढ़ता गया। अरब में शिया-सुन्नी झगड़ा मजबूती हासिल करता चला गया। खुद हमारे देश भारत में धार्मिक कट्टरपंथियों का प्रभाव बढ़ने लगा। संघ व जमाते इस्लामी सरीखे फासीवादी संगठनों के प्रभाव में जनता धार्मिक कूपमण्डूक बातों की ओर अग्रसर होती चली गयी। 
    इस सबका परिणाम यह निकला कि धार्मिक आयोजनों को भी पूंजीपति वर्ग ने अपने मालों के खरीद-बेच का जरिया बना डाला। अब वह नवरात्र से लेकर दुर्गा पूजा के लिए सामान बना मुनाफा पीटने लगा। इन आयोजनों में जनता की भागीदारी बढ़ने लगी। धार्मिक स्थल अपनी क्षमता से कई गुना अधिक भीड़ से भरने लगे। अक्सर ही ये आयोजन शक्ति प्रदर्शन का भी केन्द्र बनने लगे। उत्तर भारत में कांवड और मोहर्रम के वक्त बढ़ती भागीदारी में इसे देखा जा सकता है। 
    इन आयोजनों में सुरक्षा इंतजामों से कहीं ज्यादा भीड़ कम जगहों पर उमड़ने से भगदड़ सरीखी घटनायें बढ़ने लग गयीं। अब कभी कुम्भ के मेले तो कभी मक्का में, कभी किसी मंदिर में पूजा के दौरान भगदड़ की खबरें आम होने लगीं। 
    इन भगदड़ों में होने वाली मौतों की तात्कालिक वजह भले ही खराब इंतजाम हो, वास्तविक वजह साम्राज्यवादी-पूंजीवादी शासक हैं जो अपनी गद्दी बचाने के लिए, अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए दुनिया को विज्ञान के बजाय धार्मिक कूपमण्डूकता की ओर धकेल रहे हैं।

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