बी.एच.बी. में त्रिपक्षीय वार्ता
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
दिनांक 1 सितम्बर 2015 को रुद्रपुर में बी.एच.बी कम्पनी प्रबंधक और श्रमिक पक्ष की सहायक श्रमायुक्त (ALC) रुद्रपुर की मध्यस्थता में वार्ता हुयी। बहुत देर तक वार्ता चली प्रबंधक ने अपना कड़ा रुख अपनाये रखा तथा वह पांच श्रमिकों को कार्य में वापस लेने को तैयार नहीं हुआ। यह वार्ता बहुत देर तक चली, अंत में सहायक श्रमायुक्त ने दोनों पक्षों को समझने के लिए कहा और 4 सितम्बर 2015 को अगली वार्ता रखवा दी। इसी बीच 2 सितम्बर 2015 को कम्पनी प्रबंधक ने जिला प्रशासन को भी यह अवगत करा दिया कि वह पांच श्रमिकों को नहीं लेगा चाहे उसे कम्पनी बंद करनी पड़े। कम्पनी प्रबंधकों ने अपना कड़ा रुख अपनाये रखा। अंत में दिनांक 4 सितम्बर 2015 को श्रमिक पक्ष कांग्रेस के महासचिव एवं प्रवक्ता के पास अपनी समस्याओं को लेकर गये और श्रमिक पक्ष ने उन्हें अपनी सारी समस्याओं से अवगत कराया। कांग्रेस के महासचिव ने श्रमिकों को भरोसा दिलाया कि आपकी सभी समस्याओं का निदान जल्दी होगा।
दिनांक 4 सितम्बर 2015 को सहायक श्रमायुक्त रुद्रपुर के साथ वार्ता थी। इस वार्ता में कांग्रेस के महासचिव भी आने वाले थे। यह वार्ता सुबह 11ः30 बजे से रखी गयी थी लेकिन कम्पनी प्रबंधक इस वार्ता में नहीं पहुंचे। प्रबंधक ने वार्ता में ना जाने के लिए कई प्रकार के बहाने बनाये तथा 4 सितम्बर को यह वार्ता टल गयी। दिनांक 5 सितम्बर को फिर से यह वार्ता कांग्रेस के महासचिव ने जिला प्रशासन, एसडीएम के समक्ष रखी। इस वार्ता का समय 3 बजे का रहा। जिसमें प्रबंधक पक्ष और श्रमिक पक्ष के दो-दो लोग तथा एसडीएम एवं कांग्रेस के महासचिव थे। बहुत लम्बी वार्ता चलती रही। प्रबंधक मानने को तैयार नहीं था। सभी श्रमिकों की कार्यबहाली को लेकर एसडीएम महोदय तथा कांग्रेस के महासचिव ने प्रबंधक पक्ष को बहुत समझाया और अंत में उन्होंने कहा कि सभी श्रमिकों की कार्यबहाली करें तथा निलम्बित 5 श्रमिकों को 2-3 दिन बाद रख लें। लेकिन प्रबंधक ने यह कहा कि वह 5 श्रमिकों को 30 दिन बाद लेगा। लेकिन श्रमिक पक्ष नहीं माना, श्रमिक पक्ष ने कहा कि हमारे 5 श्रमिक 7 दिन बाद लिये जायें। लेकिन फिर प्रबंधक नहीं माना। और अंत में एसडीएम महोदय ने यह निर्णय निकाला कि सभी श्रमिकों की कार्यबहाली हो और निलम्बित 5 श्रमिकों को 20 दिन बाद रखा जाय जिसमें प्रबंधक पक्ष एवं श्रमिक पक्ष इस समझौते पर तैयार हो गये। समझौता होने के बाद प्रबंधक पक्ष एवं प्रशासन ने सभी श्रमिकों को जूस पिलाकर 5 सितम्बर को धरना तोड़ दिया। दिनांक 8 सितम्बर को निलम्बित 5 श्रमिकों को छोड़कर सभी श्रमिकों ने ड्यूटी ज्वाइन कर ली। एक मजदूर, बी.एच.बी. रुद्रपुर
उजागर होता दलाल ट्रेड यूनियनों का चरित्र
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
आज जब चारों तरफ से मजदूर वर्ग पर हमला तेज हुआ है तो वहीं दूसरी ओर अपने आपको मजदूरों की हितैषी कहलाने वाली दलाल ट्रेड यूनियनें मजदूरों को गुमराह करने का काम कर रही हैं। मजदूर वर्ग जब निर्मम शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ खुद को अपनी चेतना के हिसाब से जिस भी रूप में संघर्ष में उतार रहा है और अपने गुस्से को दिखा रहा है तो इस तरह की ट्रेड यूनियनें मजदूरों की वर्गीय चेतना को कुंद करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है।
इस तरह की ट्रेड यूनियनों के चरित्र को दिखाते हुए एक घटना 2 सितम्बर 2015 को श्रम कानूनों के खिलाफ देश व्यापी हड़ताल के दौरान देखने को मिली।
बात दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्र बादली की है। यहां पर अधिकतर असंगठित क्षेत्र के मजदूर काम करते हैं। हड़ताल में यहां के मजदूरों ने भी भागीदारी की। मजदूरों ने जोश-खरोश के साथ भाग लिया। इस क्षेत्र में सीटू का काम होने के चलते मुख्यतः सीटू के नेतृत्व में यह हड़ताल थी। इंकलाबी मजदूर केन्द्र ने भी हड़ताल को समर्थन दिया तथा वहां पर अपनी पूरी क्षमता के हिसाब से हड़ताल में भाग लिया तथा मजदूरों को नेतृत्व दिया।
हड़ताल की पहले ही रूप-रेखा बना दी गयी थी कि हड़ताल पूरे दिन की होगी तथा जो फैक्टरियां खुली होंगी उनको बंद कराया जायेगा। लेकिन जो पहले से तय था उसके हिसाब से बिल्कुल भी नहीं हुआ और जिसका परिणाम यह हुआ कि मजदूरों को एक बार फिर हताशा और निराशा हाथ लगी।
पहली बात तो यह कि लगातार निर्मम शोषण-उत्पीड़न के चलते मजदूरों के अंदर काफी गुस्सा था जिसके चलते वह अपनी समझ के हिसाब से लड़ने के लिए तैयार दिख रहे थे। लेकिन सीटू जैसी ट्रेड यूनियन की बड़ी बातें यहां पर खोखली साबित हुयीं और पूरे जुलूस के दौरान अराजकता का माहौल बना रहा। मजदूरों की शिकायत थी कि अगर हमें फैक्टरियां बन्द ही नहीं करवानी हैं तो इस हड़ताल का क्या मतलब है। सारे मजदूर चाहते थे कि सारी फैक्टरियों को भी बन्द करवाया जाये। इक्का-दुक्का फैक्टरी को छोड़ दिया जाए तो ऐसा नहीं हुआ। इसके चलते मजदूरों में सीटू नेताओं के खिलाफ काफी गुस्सा दिख रहा था।
दूसरी बात जो देखने में आयी वह मजदूरों को आश्चर्यचकित करने वाली थी। सीटू के 3-4 बड़े नेता जो कि डील-डौल, रहन-सहन, पहनावे आदि में किसी फैक्टरी मालिक से कम नहीं लग रहे थे बल्कि कुछ मजदूरों ने तो उनको फैक्टरी मालिक ही समझा तो उनको बताना पड़ा कि हम आपके साथ ही हैं, सीटू से हैं। हो यह रहा था कि सारे मजदूर कड़ी धूप, धूल-धक्कड़ में जुलूस की शक्ल में फैक्टरी-फैक्टरी जा रहे थे लेकिन सीटू के ये 3-4 नेता अचानक से तभी प्रकट हो रहे थे। जब किसी चौराहे पर सभा हो रही थी। उनको सीटू का स्थानीय नेता फोन कर रहा था कि अब आ जाओ। वे भी तभी 10-15 मिनट के लिए दिख रहे थे। भाषण देकर फिर गायब हो जा रहे थे शायद अपनी एसी गाडि़यों में। काफी दिलचस्प था यह सब कुछ। कुछ मजदूर तो आपस में मजाक भी कर रहे थे कि कितने महान हैं ये मजदूरों के हितेषी ट्रेड यूनियन नेता।
तीसरा जो मजदूरों को सबसे निराश करने वाली बात थी। वह यह कि आधा दिन के बाद सीटू नेताओं ने हड़ताल खत्म करने की घोषणा कर दी। जिसको लेकर मजदूरों में काफी गुस्सा दिखा। वह हड़ताल को पूरा दिन चलाना चाहते थे। लेकिन नेतृत्वकारी नेतागण वहां से हड़ताल खत्म करने की घोषणा करके पहले ही चल दिये थे। कुछ मजदूर इधर-उधर हो गये लेकिन भारी संख्या में मजदूर वहीं पर डटे रहे। और गुस्से में सीटू के नेताओ को गाली देने लगे। कि अब मालिक आधा दिन बाद फैक्टरी शुरू कर देगा बल्कि कुछ मजदूरों के पास फैक्टरी से फोन भी आने लगे कि काम पर आ जाओ।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकर्ता लगातार मजदूरों से बात कर रहे थे और उनको नेतृत्व दे रहे थे। उसके बाद मजदूरों के कहने पर सारे लोग सीटू के आॅफिस के बाहर इकट्टा हो गये। लेकिन वहां भी मजदूरों को निराशा ही हाथ लगी। ट्रेड यूनियन नेताओं के साथ काफी तीखी नोंक-झोंक होने के बाद भी वहां से मजदूरों को खाली वापस लौटना पड़ा।
इस प्रकार मजदूरों ने अपने आपको एक बार फिर छला हुआ महसूस किया तथा आपस में बात करने लगे कि अगली बार से इस तरह की ट्रेड यूनियन नेताओं के चक्कर में नहीं पड़ना है। काफी मजदूरों ने इंकलाबी मजदूर के कार्यकर्ताओं से बातचीत की तथा आगे भी मिलने की इच्छा जाहिर की।
इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि किस तरह से ये दलाल ट्रेड यूनियनें लगातार मजदूरों के साथ विश्वासघात कर रही हैं जिसके चलते मजदूरों के अंदर संगठन बनाने/यूनियन में शामिल होने को लेकर एक अविश्वास बनता चला जा रहा है जोकि पूंजीपति वर्ग चाहता है।
इसलिए आज जरूरत है इस तरह की दलाल ट्रेड यूनियनों का मजदूरों के बीच भण्डाफोड किया जाये तो मजदूरों की असली लड़ाई लड़ने वाले संगठनों को स्थापित किया जाये। विजय दिल्ली
वर्ग के बतौर एकजुट होना होगा
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
जब से देश में संघी सरकार काबिज हुई है तब से मानो कट्टर हिन्दूवादी नेताओं का दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया है। और वे एक से बढ़कर एक फरमान जारी कर देश के अंदर साम्प्रदायिक माहौल खड़ा कर रहे हैं। यही कारण है कि विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष प्रवीण तोगडिया एक लेख में मुस्लिम विरोधी बातें करते हुए मुसलमानों से दो बच्चे से अधिक पैदा नहीं करने का फरमान जारी करते हैं। मुसलमानों पर मुकदमा चलाने की नसीहत दे डालते हैं तथा साथ ही साथ मुसलमानों को सभी तरह की सुख सुविधा मतलब, राशन कार्ड, नौकरी, शैक्षिक डिग्री तथा सरकार की तरफ से मिलने वाली हर तरह की सुविधाओं से वंचित करने का फरमान सुना देते हैं और मुसलमानों की बढ़ती संख्या को हिन्दुओं के लिए खतरे की घंटी बताते हैं। अब सवाल है कि जिस देश के अंदर मुस्लिमों की संख्या 15-16 प्रतिशत हो और जिसे पहले ही दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया हो, जिसे अपने ही देश में शरणार्थी बना दिया गया हो, जहां देशभक्ति साबित करने के लिए हर रोज नया पैमाना बनाया जाता हो उस समुदाय के बारे में ऐसा बयान तोगडि़या की मध्ययुगीन सोच को उजागर करता है। आज तथाकथित जनवाद का भी गला घोंट कर देश के अंदर नाजीवादी (फासीवादी) राज्य कायम करने की आहट को स्पष्ट समझा जा सकता है।
अब सोचने की बात है कि क्या हमारा जो जीवन स्तर लगातार बद से बदतर होता जा रहा है। क्या इसके लिए मुसलमानों को दो से अधिक बच्चा पैदा करना जिम्मेदार है। हम मजदूरों से जो 5000 रुपये, 6000 रुपये में 12, 14 घंटा काम करवाने का छूट, किसानों से जबरन जमीन छीनने के लिए छूट, महिलाओं को 3500रु.-4000 रु. में काम करवाने तथा रात में भी महिलाओं से काम करवाने की छूट, 14 साल के बच्चे से काम करवाने का छूट, मालिक को रजिस्टर रखने व रिटर्न भरने से छूट, जब जी करे रखो जब जी करे निकालो, श्रम कानून को खत्म करके पूंजीपतियों को लूटने की खुली छूट, मजदूर अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ जब आवाज उठाये तो उसका बर्बर दमन, इन सबके लिए कोई मुसलमान जिम्मेदार नहीं है। अगर कोई जिम्मेदार है तो वह है देश की पूंजीवादी व्यवस्था जिसकी नुमांइदगी आज संघी सरकार कर रही है। मोदी, तोगडिया सिंघल जैसे लोग जो डरते हैं इस देश के मजदूर से, किसान से, छात्र नौजवान से और इसीलिए ये लोग लगातार धार्मिक उन्माद फैलाकर हमें आपस में बांट कर, इस देश की पूंजीवादी व्यवस्था को संरक्षण प्राप्त करवाते हैं। ऐसे में जरूरत है कि तोगडिया और संघी सरकार के धार्मिक उन्माद का भण्डाफोड किया जाय और जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा की दीवार को तोड़ते हुए एक वर्ग के बतौर इकट्ठा होकर पूंजीवादी व्यवस्था को बदलकर समाजवादी व्यवस्था, समाजवाद (मजदूर राज्य) के लिए संघर्ष को तेज किया जाये।
एक मजदूर, फरीदाबाद
पूंजीवादी प्रचारतंत्र
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
मानव विकास के इतिहास में जब से वर्ग अस्तित्व में आये तब से हर विचार वर्गीय रहा है। वर्गीय समाजों में जो भी वर्ग प्रभुत्वशाली रहा है उसी के विचार समाज में हावी रहे हैं। मानव विकास के इतिहास में अब तक के वर्गीय समाजों की बात करें तो 20वीं सदी के कुछ अपवादों (समाजवादी समाजों) को छोड़ दिया जाये तो सभी समाजों में कुछ मुट्ठी भर लोगों का बहुसंख्यक आबादी के ऊपर शासन रहा है। वैसे बात की जाय तो बड़ी अजीब सी बात लगती है कि हजारों सालों से कुछ मुट्ठीभर लोग बहुसंख्यक आबादी के ऊपर शासन कैसे चला सकते हैं?
जैसे हम अपने अनुभवों से देखते हैं कि किसी भी समाज में जो भी वर्ग सत्ता में होता है उस समाज के ज्ञान-विज्ञान, उत्पादन के साधन या जितने भी संसाधन होते हैं उन सभी पर उस वर्ग का कब्जा होता है जिससे वह अपने शासन को चलाने में कामयाब होता है। इसी संदर्भ में यहां पर जो बात की जा रही है वह आज के समय में जो प्रचारतंत्र या कहें तो पूंजीवादी प्रचार तंत्र है, वह किस तरह से अपने वर्ग की सेवा करता है। पूंजीवादी समाज में पूंजीपति वर्ग का (भारतीय संदर्भों में) प्रचार तंत्र इसको चौथे स्तम्भ के रूप में स्थापित करता है। यह चौथा स्तम्भ अपने आकाओं के लिए दिन-रात काम करता है तथा शोषित वर्ग को गुमराह करके इनके लूट के तंत्र को सुचारू रूप से चलाने में मदद करता है।
वैसे तो यह इसके अपने चरित्र में चिह्नित है लेकिन इसको समझने के लिए एक छोटे उदाहरण की मदद ली जा सकती है। अभी 2 सितम्बर को पूरे देश में मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव या कहें तो खत्म करने के विरोध में हड़ताल हुई। जिसमें मजदूरों ने देश स्तर पर अच्छी-खासी संख्या में भागीदारी कर पूंजीपति वर्ग के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार किया। खुद एसोचैम ने कहा कि इस हड़ताल में 25 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। ये अलग बात है कि पूंजीपति वर्ग मजदूरों की हड़ताल को इसी रूप में प्रचारित भी करता है कि नुकसान हुआ। तो कहा जा सकता है कि हड़ताल एक हद तक सफल हड़ताल रही।
लेकिन यहां पर गौर करने वाली बात है कि पूंजीपति वर्ग के टुकड़ों पर पलने वाला मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक इस हड़ताल को लेकर कहीं कोई चर्चा नहीं की। हां! अगर चर्चा थी तो हर बार की तरह कि लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ा। यात्रियों को आने जाने में दिक्कत हुयी। जगह-जगह जाम लग गया। टीवी और अखबारों में जो छाया रहा वह था इंद्राणी वाला मामला जो पिछले पन्द्रह दिनों से लगातार 24ट्ट7 घंटे चल रहा है। अगर गौर करें तो पिछले 20-25 सालों में जबसे कई आर्थिक नीतियां तेजी से लागू हुईं तथा मजदूर-मेहनतकशों पर हमले तेज हुये हैं। तब से पूंजीपति वर्ग इस तरह के प्रचार द्वारा इसको और भी सुनियोजित तरीके से अंजाम दे रहा है।
अगर पूंजीवादी मीडिया इंद्राणी या राधे मां जैसों का रिकार्ड 24 घंटे महीनों तक चला सकता है लेकिन मजदूरों के विरोध को थोड़ी सी भी जगह नहीं देता है तो इसी से पता चलता है कि पूंजीपति वर्ग आज कितना भयभीत है कि वह मजदूरों की थोड़ी सी भी आहट से घबरा जा रहा है। और उसके लिए इतना चैकन्ना है कि एक तरफ इसके पालतू मीडिया तथा दूसरी तरफ इसके बहादुर सिपाहियों ने इसमें कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी है।
इसी तरह से शासक वर्ग अपने निजाम को कायम रखने के लिए चाहे मीडिया हो चाहे पुलिस हो, चाहे सेना हो, चाहे कोर्ट हो हर संसाधन का इस्तेमाल करता है। मजदूर वर्ग अगर इस लूट और शोषण पर टिकी व्यवस्था को टक्कर दे सकता है तो केवल अपनी वर्गीय एकता से।
विजय दिल्ली
पूंजीवाद
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
ये पूंजीवाद है दोस्तो, ये मुनाफे की व्यवस्था है,
महंगा है पानी यहां लहू आदमी का सस्ता है।
खून बहता है सड़कों पर पानी दुकानों पे बिकता है,
हर नुक्कड़ पे मिल जायेंगे ठेके शराब के, एक नल पानी का कहीं दिखता है।
ये पूंजीवाद है दोस्तो........
बिकती है बच्चे की मुस्कान, मां का प्यार यहां बिकता है,
मैंने देखा है राखी के धागों में, बहन का प्यार यहां बिकता है।
ये पूंजीवाद है दोस्तो........
मजदूर बिकता है रोज कारखानो में, खेतों में किसान यहां बिकता है,
देश की सरहदों पर खड़ा है जो प्रहरी बनकर, हर वो जवान यहां बिकता है।
ये पूंजीवाद है दोस्तो......
हुस्न बिकता है, जिस्म बिकता है, बिकता यहां हर माल है,
ये दुनिया एक बाजार है दोस्तो, हम सब इसी बाजार का ही तो माल है।
ये पूंजीवाद है दोस्तो......
नेता बिकता है, संसद बिकती है, न्याय को बिकते हुए देखा है,
ईमान बिकता है आत्मा बिकती है, इंसान बिकते हुए देखा है।
ये पूंजीवाद है दोस्तो, ये मुनाफे की व्यवस्था है,
मंहगा है पानी यहां, लहू आदमी का सस्ता है।
भारत सिंह, आंवला बरेली
सामाजिक बंधन
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
लोग समाज में रहते हैं अपने हिसाब से जैसा उन्हें पसंद होता है। पर दिखावा करते हैं सामाजिक बंधन का कि समाज में रह रहे हैं। इस हिसाब से रहें कि कोई कुछ कह न सके। मतलब कहीं मजाक का पात्र न बन जाये। चार आदमी देखेंगे तो क्या सोचेंगे। चार आदमी देखेंगे तो क्या कहेंगे। पर वे चार आदमी कौन से हैं। अभी तक हमें तो कहीं दिखे नहीं। मिलने की बात दूर है। लोग किसी तरह से पाई-पाई जोड़कर अपना मकान बनवा पाते हैं। तो एक कमरा अलग से और बनवाते हैं कि लोग आयेंगे तो कहां बैठेंगे। उनके बैठने का लेटने का खाने-पीने का पूरा प्रबंध करके रखना चाहते हैं। कि हमारे यहां जो भी अतिथि आ जाये तो उसे किसी प्रकार की कोई परेशानी न हो।
वहीं पर यदि केाई आता है तो उसके रहने तक घर में ज्यादातर लोगों को अटपटा सा लगता है। उसमें घुलमिल नहीं पाते। अपनी हैसियत से ज्यादा उनको सुविधाएं देने का प्रयास करते हैं। एवं उनके वापस जाने का इंतजार करते हैं और उनके जाते ही उनके सम्बन्ध में 50 तरह की बुराइयां ढूंढ कर आपस में बातें करते रहते हैं कि उन्हें बैठने की तमीज नहीं है। बात करने की तमीज नहीं है। यहां तक कि सोने तक की तमीज नहीं है। चादर कहां गिर गयी, तकिया कहां थी टेढ़े मेड़े पड़े थे। किसी के यहां ऐसे रहा जाता है क्या? और बाहर निकलेंगे तो कपड़े इसलिए पहनेंगे कि लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे। चलेंगे फिरेंगे तो उसी हिसाब से। यही सोच कर कि लोग क्या कहेंगे। वहीं यदि किसी को थोड़ा भी मौका मिल जाए तो उसे गंवाना नहीं चाहते कि यहां कौन देख रहा है। चाहे जैसे बैठो, उठो, सोओ, जागो, नाचो, कूदो, मतलब वे उस समय उस हिसाब से रहते हैं जैसा उन्हें पसंद हो। स्वयं को। वहीं पर हमारे समाज में कुछ लोग ऐेसे भी हैं जिनके पीछे समाज चलता है। या उसकी नकल करता है। लेकिन अधिकतर लोग ऐसे हैं जो समाज के पीछे चलते हैं। जो थोड़े लोग ऐसे हैं जिनके पीछे समाज चलता है। उनके ऊपर भी सामाजिक बंधन का अच्छा खासा दबाव होता है। वे लोग उनमें से होते हैं। जैसे उद्योगपति, पूंजीपति के परिवार के सदस्य या फिल्मी दुनिया के नायक, नायिकायें। ये लोग भी पूंजी के अधीन होते हैं। एवं डायरेक्टर के हाथ की कठपुतली बने रहते हैं।
इसी प्रकार से उद्योगपति अपनी पूंजी को बढ़ाने के लिए अक्सर प्रचार माध्यम का सहारा लेते हैं वह टेलीविजन में हर प्रोग्राम में हर 10 मिनट में प्रचार के द्वारा आम जनता को बरगलाया जाता है कि ये आटा खाओ, ये दाल खाओ, ये चावल, अचार, पापड़, चिप्स, मसाले आदि-आदि। इस कम्पनी का ही खाओ एवं पहनने के लिए जूते, चप्पल, कपड़े आदि आदि सोने के लिए पलंग, बिस्तर, रजाई, गद्दे, तकिया आदि-आदि बाकी उपयोग की सभी वस्तुएं साबुन, तेल, मंजन, अगरबत्ती, धूपबत्ती इत्यादि इसी प्रकार से जन्म से मृत्यु तक जितना भी सामान प्रयोग का है। वह हर कम्पनियां अपने-अपने ब्रांड की तारीफ करते हुए यह पूरी तरह से दर्शाने की कोशिश करते हैं कि ये सारी चीजें जो उनके द्वारा जबरदस्ती हमारे दिमाग में ठूंसी जा रही हैं उसे किसी भी वजह से न प्रयोग कर सकने वाला व्यक्ति, मूर्ख, बेवकूफ एवं पिछड़ा हुआ है। इसी के साथ हम यह भी देखते हैं कि बहुत से लोग यह चीजें प्रयोग करते हुए उस दौर से गुजर चुके होते हैं। तो अपने बच्चों को नसीहत देते हैं। अरे ये क्यों ले आये ये बेकार है। इसमें इतना पैसा खर्च कर दिया काफी पैसा बर्बाद कर दिया और यहां तक कि अपनी उम्र में चाहे इधर-उधर मुुंह मारते फिरते रहे हों, 70 घाट का पानी पिया हो, कोई मौका छोड़ा न हो और कोई मौका छूट गया तो पछताये भी हों, कि यार मैं इससे वंचित रह गया था। वहीं पर उनके बेटा, बेटी, छोटे, भाई-बहन किसी के साथ घूमने-फिरने या किसी के साथ कुछ समय बिता लिया तो समाज में अपनी इज्जत की दुहाई देते हुए उन्हें जान से मारने से भी नहीं हिचकते, उन्हें तरह-तरह से प्रताडि़त करते हैं। उनकी देखा-देखी ही बच्चे सीखते व करते हैं। बाद में वही लोग कहते हैं। समाज में बदनामी हो रही है, बेइज्जती कराकर रख दिया।नाक कटा दिया मुंह में कालिख पोत दी। ऐसी औलाद से बेऔलाद अच्छा इसे किनारे लगाने में ही भलाई है। एवं कुछ लोग उनका साथ भी देते हैं। और ज्यादातर लोग कहते हैं। अच्छा किया इसके साथ ऐसा ही होना था एवं बाद में पछताते हैं दिल में कभी न कभी यह टीस उठती ही है कि यदि यह सामाजिक बंधन ऐसा न होता तो हम लोग इससे ज्यादा खुशहाल होते। इसलिए एक ऐसा समाज होना चाहिए जिसमें सामाजिक बंधन इतना जटिल न हो। जिसमें चाहते हुए भी बहुत सा काम नहीं कर पाते सक्षम होते हुए भी। और न चाहते हुए बहुत सा काम करना पड़ता है अक्षम होते हुए भी। यह पूंजीवादी समाज में ऐसा ही होता है। इसलिए पूंजीवादी समाज को हटाकर उसकी जगह पर समाजवाद लाना होगा। पूंजीवाद की गतिविधियों को समझना होगा। इसके लिए हम सभी को अभी से जुटने की आवश्यकता है।
अरविन्द, बरेली
छिनते अधिकार, लुटते श्रमिक
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
जो श्रम कानून में संशोधन किये जा रहे हैं और 44 श्रम कानून परिवर्तन कर चार बनाने जा रहे हैं यह बहुत ही चिन्ताजनक बात है। हमारे पूूर्वज मजदूरों ने अंग्रेजों से लड़कर आपस में एकता कायम करके अपने पक्ष में श्रम कानून बनवाये थे व लागू करवाये थे। कितने संघर्ष और कुर्बानी देकर मेहनतकश मजदूरों ने अपना हक हासिल किया था। आज उस कानून को भारतीय शासक तीसरी बार संशोधन करने जा रहा है। यह कितनी शर्म की बात है। आज मजदूर दुनिया के हर संसाधन से कट चुका है। अब उसके पास कोई अधिकार नहीं बचेगा। केवल खाली कटोरा लेकर भारत के शासन के अधीन रहना होगा। जब श्रम कानून हैं तब तो कम्पनी में घोर अत्याचार, दमन, शोषण, उत्पीड़न होता है। पी.एफ., ई.एस.आई. का टोटा होता है, न कोई सुविधा कम्पनी देती है। काम के अधिक बोझ के नीचे मजदूरों से दबा कर काम करवाया जाता है। अपशब्दों का प्रयोग किया जाता है।
जब आप सारे श्रम कानूनों में संशोधन कर देंगे तो मजदूरों के पास क्या अधिकार बचेगा। वह अपना हक किससे मांगेगा। भारतीय शासक आज भारतीय मजदूरों को बलि का बकरा बनाने जा रहे हैं। जिस भारतीय व्यवस्था को आप दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र कहते हैं। उस व्यवस्था में सबसे ज्यादा मेहनतकश ही आत्महत्या कर रहा है। लेकिन यह व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था है। देश में, झूठ के लिए जनता द्वारा चुनी सरकार है। काम तो केवल पूंजीवादी लोगों के लिए होता है। केवल सरकार बहुमत सिद्ध करने के लिए आम जनता का वोट हासिल करती है। फिर चाय के प्लास्टिक कप की तरह जनता को चाय पी कर फेंक देते हैं। मेहनतकश मजदूर सोया हुआ शेर है बस जगाने भर की देर है। फिर तो दुनिया उसकी मुट्ठी में है। उसे तो माक्र्स जैसा नेता चाहिए, जो भारतीय मजदूरों की एकता कायम कर सके। मजदूरों की व्यवस्था के लिए संघर्ष कायम कर सके। उसके पक्ष के लिए आंदोलन चला सके।
रामकुमार वैशाली
तो भैया इसका समाधान क्या है
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
आजकल एक बार फिर से पूंजीवादी मीडिया में मंदी का शोर सुनाई दे रहा है। अभी जो बातें चल रही हैं वह खास तौर से चीन की अर्थव्यवस्था, उसके शेयर बाजार में आयी भारी गिरावट तथा पूरी दुनिया में इसके प्रभाव को लेकर है। वैसे तो यह संकट कम या ज्यादा रूप में 2007-08 के बाद से बना ही हुआ है। और इन दिनों यह और ज्यादा गहराता जा रहा है।
लेकिन दूसरी तरफ देखें तो भारत सरकार तथा उसके अर्थशास्त्री बात कर रहे हैं कि भारत की स्थिति ठीक है। यह अलग बात है कि इनकी घबराहट साफ नजर आ रही है। जो कई रूपों में साफ झलकती है। वैश्वीकरण के दौर में यह बात करना कि हमारी स्थिति ठीक है। यह बात हजम नहीं होती।
दुनिया में इससे पहले बड़ी-बड़ी मंदिया आ चुकी हैं जिसकी कीमत दो विश्व युद्धों के रूप में चुकायी गयी। आज जब मंदी का शोर है तो वही जनमानस के बीच में इसको लेकर अलग-अलग धारणाएं हैं कि आखिर मंदी क्या है? एक तरफ पूंजीपति वर्ग मंदी को अपने हिसाब से परिभाषित तथा प्रचारित करता है, मोटा-मोटी मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग भी इसी रूप में समझता है। इसमें खास बात यह है कि मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग मंदी क्यों आती है। इसके अर्थशास्त्र को सही रूप में समझ ही नहीं पाता है और समझना भी नहीं चाहता है, क्योंकि इसकी समझने में उसके सपनों का तिलिस्म टूट जाता है और वह दुःखी हो जाता है, दूसरी तरफ मजदूर वर्ग जो अपना श्रम बेचता है तथा जिसका इस समाज में निर्मम शोषण होता है, वह यह बात थोड़ी सी बात करने पर अपने व्यवहार से बड़ी आसानी से समझ जाता है।
आइये देखते हैं किस तरह से मजदूर वर्ग अपने साधारण वार्तालाप करते हुए मंदी को अपने साथियों के बीच में बड़ी आसानी से समझ लेते हैं। यहां पर एक मजदूर जो थोड़ा जागरूक है जो अपने दूसरे साथी से मंदी के बारे में बता रहा है।
पहला मजदूरः भैया आजकल मंदी का बड़ा शोर सुनाई दे रहा है, आखिर क्या बला है यह मंदी?
दूसरा मजदूरः अरे भैया देखो न जब हम बाजार में सामान खरीदने जाते हैं तो हर तरफ बाजारों में माल भरा पड़ा है। चाहे जो भी सामान देख लो टी.वी., फ्रिज, रेफ्रिजरेटर, मोटरगाड़ी यहां तक कि बहुमंजिला इमारतें भी, गोदामों में अनाज सड़ रहा है। लेकिन साथी माल तो भरा पड़ा है लेकिन जब हम खरीदने के लिए सोचते हैं तो हमारे पास इस माल को खरीदने के लिए पैसा नहीं है। जब बाजार में जरूरत का सामान भरा पड़ा हो लेकिन अधिकांश जनमान के पास उसके खरीदने के लिए रुपया न हो तथा फैक्टरियों में इसके वजह से उत्पादन बंद करना पड़े तो इसे मंदी कहते हैं।
पहला मजदूरः लेकिन भैया ऐसा क्यों होता है कि एकतरफा जरूरी चीजों से लोग महरूम हैं लेकिन दूसरी तरफ गोदामों में माल भरा पड़ा है बिक नहीं रहा है।
दूसरा मजदूरः साथी जैसे रोज हम अपनी फैक्टरी में देखते हैं कि मालिक रोज-ब-रोज हमसे हमारा खून निचोड़कर अपना मुनाफा कमाने के लिए अधिक से अधिक उत्पादन करवाता है यही काम सारे पूंजीपति करते हैं। मतलब ये उपभोग के हिसाब से नहीं बल्कि मुनाफे के हिसाब से उत्पादन करवाते हैं और चाहते हैं कि उनका सामान बाजार में खूब बिके। या यह समझ लीजिए फैक्टरी के अंदर तो काम सुनियोजित तरीके से होता है लेकिन बाजार में उतना ही अराजक तरीके से। अब सामान तो ये बेचना चाहते हैं। लेकिन मजदूरों को उतनी पगार नहीं देते कि वह सामान खरीद सके। यही वजह है कि सामान गोदामों में भरा पड़ा है। जैसा कि हम जानते हैं कि देश-दुनिया में अधिकतम आबादी मजदूर ही है जिसके पास खरीदने के लिए पैसा नहीं है जिसके चलते पूंजीपति का माल बाजार में खप नहीं पाता और वह उत्पादन कम कर देता है या फैक्टरी में तालाबंदी कर देता है।
पहला मजदूरः अच्छा तो इसका मतलब तो ये हुआ कि मजदूरों की छंटनी होगी और बेरोजगारी बढ़ेगी।
दूसरा मजदूरः हां, बिल्कुल सही समझा आपने, यही होता है। जब पूंजीपति का माल बिक नहीं पाता तो वह छंटनी, तालाबंदी, कम वेतन पर काम इत्यादि करता है जिससे समाज में बेरोजगारी बढ़ती जाती है और इसका परिणाम यह होता है कि जो मजदूर पहले नौकरी होने के चलते कुछ बाजार से खरीद लेते थे, अब वह भी बाजार से बाहर हो जाते हैं और फिर और ज्यादा माल गोदामों में इकट्ठा होने लगता है और फिर मालिक छंटनी, तालांबदी....और अधिक मात्रा में बेरोजगारी यही क्रम चलता रहता है और समाज में अफरा-तफरी का माहौल फैल जाता है।
पहला मजदूरः इसका मतलब मंदी से तो सबसे बुरी दुर्दशा हम मजदूरों की ही होगी?
दूसरा मजदूरः बिल्कुल जो बड़े पूंजीपति हैं वह और बड़े होते जाते हैं। मतलब छोटी मछली को बड़ी मछली निगल जाती है। लेकिन मजदूरों की हालत बद से बदतर होती चली जाती है।
पहला मजदूरः तो भैया इसका समाधान क्या है?
दूसरा मजदूरः इसका एक ही समाधान है। क्योंकि पूंजीवादी समाज की अपनी गति है कि उसमें इस तरह की मंदियां आती हैं जिसमें मजदूर-मेहनतकश तबाह-बरबाद होता है लेकिन दूसरी तरफ संभावनायें भी मौजूद होती हैं कि ऐसे समाज में मजदूर-मेहनतकश जागरूक हों, एकजुट हों तथा इस तरह के निर्मम-अत्याचार के खिलाफ संघर्ष को तेज कर पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म कर मजदूरों के राज समाजवाद के लिए आगे बढ़े। तभी इस तरह की मंदियों से मुक्ति मिल सकती है। अन्य कोई रास्ता नहीं है।
विजय, दिल्ली
‘स्किल डेवलपमेंट अभियान’ का वास्तविक सच
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
मोदी सरकार जब से सत्ता में आयी है तब से श्रम कानूनों में लगातार संशोधन करके मजदूर वर्ग पर हमले हो रहे हैं। ‘स्किल डेवलपमेंट अभियान’ इसी का एक हिस्सा है। सरकार का कहना है कि ‘स्किल डेवलपमेंट’ कार्यक्रम से व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों से निकलने वाले युवाओं को कारखानों आदि में छः महीने का प्रशिक्षण दिया जायेगा जिससे उनका कौशल विकास होगा और उन्हें बेहतर रोजगार ढूंढने में आसानी होगी। सरकार इस अभियान को अपनी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कर रही है। ‘स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रम’ के लोकार्पण के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि आगामी शताब्दी आई.आई.टी. (IIT) की नहीं बल्कि आई.टी.आई.(ITI) की होगी।
पहली नजर में देखने पर यह अभियान श्रमिक वर्ग के हित में लगता है किन्तु व्यवहारिक रूप से ‘स्किल डेवलपमेंट अभियान’ श्रमिकों का खून चूसने का अभियान है। जो पूंजीपतियों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए पढ़े-लिखे सस्ते और अस्थायी श्रमिक उपलब्ध कराने का अभियान है। यह अभियान देशभर के कारखानों में शुरू हो चुका है जिसका एक उदाहरण आगे के विवरण में है।
महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा लिमिटेड, ऊधम सिंह नगर में स्थित देश की एक बड़ी आॅटो मोबाइल कम्पनी है। यह कम्पनी अपने कारखाने के लिए देश भर के पाॅलीटैक्निक काॅलेजों से कैंपस प्लेसमेंट के जरिए डिप्लोमा इंजीनियर्स का चयन करती थी। इनका कार्यकाल तीन चरणों में निर्धारित होता था। प्रथम चरण में एक वर्षीय टेक्नीशियन अप्रैन्टिस, द्वितीय तथा तृतीय चरण में डिप्लोमा ट्रेनिंग होती थी। यदि किसी की कंपनी के अनुसार परफार्मेंस ठीक नहीं है तो उसे एक वर्ष अथवा दो वर्ष बाद बाहर कर दिया जाता था। कंपनी पहले साल में 12,000 रुपये, दूसरे साल में 13,200 रुपये तथा तीसरे साल में 15,200 रुपये वेतन देती थी। इसके अतिरिक्त बोनस और अटेडेंस अलाउन्स, 27 छुट्टियां भी दी जाती थी और 1 लाख रुपये तक मेडिकल इंश्योरेन्स भी दिया जाता था।
‘स्किल डेवलपमेंट अभियान’ आने के बाद कंपनी ने जिन लड़कों के एक वर्ष जिनके दो वर्ष पूरे हो रहे थे, उन्हें बाहर करना शुरू कर दिया। इनके स्थान पर तथाकथित ‘कौशल विकास’ के नाम पर नये लड़के रखने शुरू कर दिया जिनका वेतन 7300 रुपये निर्धारित किया गया। यदि छः महीने के लिए लड़के महीने में 26 ड्यूटी पूरी करते हैं तो इन्हें 5,00 रुपये अटेेंडेस अलाउन्स दिया जायेगा। यदि महीने में एक भी छुट्टी की तो 5,00 रुपये नहीं मिलेंगे और 7,300 में से प्रतिदिन के हिसाब से पैसे काट लिये जायेंगे। इन्हें कंपनी की ड्रेस और बस सुविधा भी नहीं दी जायेगी।
उपरोक्त उदाहरण आने वाले समय में हर उद्योगपति अपने कारखाने में लागू करेगा। इस ‘अभियान’ से यह भी स्पष्ट है कि पूंजीपति अपनी आवश्यकतानुसार छः महीने के लिए रख लेगा और यदि इस दौरान उसके प्रोडक्शन में मंदी के कारण कमी आयी तो वह मजदूर नहीं रखेगा जैसे ही प्रोडक्शन बढ़ेगा अगले छः महीने के लिए मजदूर नियुक्त कर लेगा। ‘स्किल डेवलपमेंट अभियान’ के कारण पूंजीपतियों को एक फायदा यह भी होगा कि उसे पी.एफ.(च्ण्थ्ण्) का पैसा भी नहीं देना होगा। इस प्रकार यह अभियान ठेका मजदूर के रोजगार के लिए भी खतरा बनेगा। एक मजदूर, रुद्रपुर
ढोलक बस्ती के बच्चों की हालत !
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
हल्द्वानी के रेलवे स्टेशन के पास एक ढोलक बस्ती है। यहां के बच्चों की हालत बड़ी खराब है। मैं और मेरे कुछ साथियों के पास वर्ष 2015 के जनवरी माह के तीसरे सप्ताह से एनएसएस एमबीपीजी के बैनर तले इन बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा आया। हम लोग हर रोज वहां अपनी कक्षा पढ़ कर दोपहर में डेढ़ बजे से इन बच्चों को पढ़ाने जाते। पहले पहले तो ऐसा लगा कि इन बच्चों ने दुनिया देखी ही नहीं है। पहनने के लिए कपड़े, जूते-चप्पल तक नहीं थे तो ऐसे में इन बच्चों से व इनके परिवार वालों से पढ़ाई की बात करना मूर्खता की बात होती।
तब हमने एनएसएस, एमबीपीजी की ओर से फेसबुक के जरिये कपड़े जुटाने का कार्य किया जिसमें हमारा मार्गदर्शन शिक्षकों ने किया तो हमें भरपूर सहयोग भी मिला। समाज से पुराने कपड़े हमारे पास आने लगे। कुछ दिन तो ऐसे ही गुजर गए इधर उधर से कपड़े लाना। जब थोड़ा बहुत कपड़े जमा हुए तो हमने इन सभी बच्चों के लिए पुराने कपड़ों की व्यवस्था कराई। फिर जाकर ऐसे ही पुस्तकों व काॅपियों बगैरा के लिए अभियान चलाया। इस बीच हम इन बच्चों को थोड़ा बहुत अक्षर ज्ञान भी दे रहे थे। जिसमें 3-4 वर्ष से 15-16 वर्ष तक के बच्चे थे। इन बच्चों को अक्षर ज्ञान भी नहीं था। यदि ये स्कूलों में जाते तो वहां नाममात्र थोड़ा भोजन के लिए वरना वहां भी पढ़ाई नहीं थी। पता करने पर पता चला कि स्कूल प्रशासन इन्हें स्कूल में नहीं जाने देता, कहता है कि कपड़े, कापी-पेंसिल साफ सुथरी होनी चाहिए। ऐसे में जब इन बच्चों को खाने को नहीं होगा तो शिक्षा में कितना खर्च करेंगे, इनकी इन हालतों को देखकर ही बताया जा सकता है।
इसी प्रकार फरवरी माह में भी पढ़ाया गया। इस बीच पढ़ने वाले बच्चों की संख्या 60-70 पहुंच गयी। रेलवे प्रशासन से बमुश्किल पढ़ाने के लिए थोड़ा जगह मांगनी पड़़ी। लेकिन बच्चों में पढ़ने की ललक बढ़ी थी जो इतने बच्चे दोपहर की धूप में पढ़ने आते।
ये वही बच्चे थे जो स्कूल जाते थे लेकिन स्कूल प्रशासन ने इन्हें कुछ सिखाने से अपने हाथ खड़े कर दिये थे।
हमने अप्रैल माह तक पढ़ाया। इससे इन बच्चों के जीवन में कुछ ज्यादा बदलाव तो नहीं आया लेकिन थोड़ा आपस में मिलजुल कर रहना सीख गए एवं गाली गलौच कम कर दी।
इन बच्चों के परिवार की स्थिति को देखने पर पता चला कि कई लोगों के पास झोंपड़ी नहीं है। यदि किसी के पास है तो किसी की छत ठीक नहीं है। कीचड़, धूप हो या जाड़ा हमेशा बनी रहती है। टाॅयलेट तो इधर है ही नहीं।
ऐसे में इसका दोषी कौन है। क्या ये बच्चे जिन्हें पढ़ना चाहिए लेकिन वे कूड़ा बीनते हैं। अपना पेट बड़ी मुश्किल से पालते हैं।
इनकी इस स्थिति का दोषी सिर्फ और सिर्फ ये सरकारें हैं जो तमाम सारी पार्टियों के उम्मीदवार केवल चुनाव के वक्त इनसे वोट मांगने आते हैं और मतदान के बाद इधर मुड़कर भी नहीं देखते। मुख्यमंत्री महीने के 5 से 10 चक्कर हल्द्वानी के लगाते हैं कभी इनकी सुध नहीं ली। गौलापार में अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम बनाने की बात करते हैं लेकिन क्या इसमें ये बच्चे खेल पायेंगे। बिना इनके उत्थान के क्या समाज आगे बढ़ पायेगा। ऐसे में इन सारे मजदूरों को आगे बढ़कर अपने संगठन बनाने की जरूरत है और इस पूंजीवादी व्यवस्था को हटाकर समाजवाद कायम करना होगा। तभी सबका उत्थान हो सकेगा। विपिन अघरिया, हल्द्वानी
तम्बाकू फैक्टरी में महिला मजदूर
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
बरेली के मोहल्ला जसौली से लगी नबाव दूल्हा खां तम्बाकू की एक फैक्टरी है। इसमें काम करने वाली एक महिला मजदूर रामस्नेही से बात करने पर उन्होंने बताया कि वे यहां पिछले 10 वर्षों से काम कर रही हैं। यहां लगभग 25-30 महिलायें काम करती हैं। सभी महिलाएं ठेके पर काम करती हैं। इस फैक्टरी में कोई श्रम कानून लागू नहीं है। यहां 1000 पैकेट भरने पर 30 रुपये की मजदूरी मिलती है। पुरानी महिलायें पूरे दिन में 3000 या 3500 पैकेट ही भर पाती हैं। ये 90-105 रु. तक की मजदूरी ही बामुश्किल कमा पाती हैं। यह पूछने पर कि वे मालिक से पैसे बढ़ाने की बात करती हैं तब उन्होंने कहा कि शहर में काम नहीं मिलने की वजह से महिलायें कुछ नहीं कह पातीं। फैक्टरी में शहर की विधवा या गरीब महिलायें काम की तलाश में आती जाती हैं और पुरानी महिला से सस्ते में काम करती हैं लेकिन तमाम महिलायें तम्बाकू भरते-भरते नशा होने के कारण दो-तीन घंटे में ही चली जाती हैं। ऐसी कई सारी महिलायें काम करने आती हैं और बीच में ही काम छोड़ कर चली जाती हैं। इससे मालिक को और अधिक मुनाफा होता है और उनको मजदूरी भी नहीं देता है। मालिक इन महिलाओं के नाम रजिस्टर पर नोट भी नहीं करता है। रोज काम कराता है और रोज पैसा देता है। इन्हें वह अपनी फैक्टरी का मजदूर भी नहीं मानता है। इसका कारोबार शहर के अनेक मोहल्लों में घर-घर में फैला हुआ है। उसके लोग घरों में महिलाओं को चूना पन्नी दे देते हैं और शाम को घरों में से ले जाते हैं। ऐसा करने से मालिक को और सस्ते में मजदूर मिल जाते हैं। कानूनी बंधनों से भी मुक्त हो जाता है।
जब इन महिलाओं से इंकलाबी मजदूर केन्द्र से जुड़ने की बात की गयी तो महिलाओं ने बताया कि अगर मालिक को पता चल गया तो वह उन्हें निकाल देगा। महिलाओं में काम से निकालने का डर बहुत ज्यादा व्याप्त है और मालिकों और श्रम विभाग के गठजोड़ से मजदूरों के श्रम की लूट बरकरार है।
साथियो जब तक महिला मजदूर मिलकर इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ कर फेंक नहीं देतीं और समाजवाद का निर्माण नहीं करेंगी तब तक उनका कुछ भी भला नहीं हो सकता है। महिला व पुरुष दोनों मजदूरों को साथ मिलकर संघर्ष करना होगा। तभी हम पूंजीवाद की गुलामी से मुक्त हो सकते हैं।
एक मजदूर, बरेली
निरंतर सुधार के नाम पर मजदूरों का शोषण एवं छंटनी
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
हरिद्वार सिडकुल में स्थित जीनस पावर इनफ्रक्चर लि. सेक्टर-4 प्लाट न. 12 में स्थित है। इस कम्पनी में इलैक्ट्रिक रीडिंग लेने का मीटर बनता है जो घरों एवं उद्योगों की इलैक्ट्रिक रीडिंग लेता है। तीन भागों में यहां उत्पादन होता है। पहला मोल्डिंग जिसमें प्लास्टिक का बेस और टोप तैयार होता है। दूसरा भाग पीसीबी। इसमें मीटर की पीसीबी तैयार की जाती है। तीसरा मीटर में लाइनों पर एसेम्बल होता है जिसके तीन भाग हैं। पहला पीसीबी लाइन जिसमें पीसीबी पर कुछ कम्पोनेन्ट की सोल्डिंग एवं पीसीबी बोर्ड को चेक किया जाता है। दूसरा कैल्लीब्रेसन लाइन जिसमें वेस में पीसीबी एवं अन्य भाग को कसा जाता है। टाॅप लगाकर फिक्स कर दिया जाता है तथा एफजी एरिया में पैकिंग का कार्य होता है तथा मीटर उपयोग के लिए बाहर हो जाता है इस कम्पनी में ठेका मजदूर की संख्या करीब 600 एवं स्थाई मजदूर 200 के लगभग हैं। इस कम्पनी का मालिक ईश्वर चन्द्र अग्रवाल जो जयपुर में रहता है। हरिद्वार के जीनस कम्पनी की देखरेख जीएम राजकुमार सूद करते हैं। जीनस का पहला प्लाण्ट 2006 में स्थापित हुआ। 2010 में दूसरा व तीसरा प्लाण्ट स्थापित हुआ एवं 2015 में एक और प्लाण्ट स्थापित हो गया जो बेग आईपी 4 में स्थित है। यह कम्पनी अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाती है। जिससे मजदूरों का अधिक से अधिक शोषण करके कम्पनी अधिक से अधिक मुनाफा कमा सके। कम्पनी सुधार के नाम पर मजदूरों का शोषण करती रहती है जिसके लिए काइजन करती है जो निरंतर सुधार के नाम पर निरंतर शोषण का कार्य करता है जिससे मजदूरों का अधिक से अधिक शोषण करके लाभ अधिक कमाते हैं। इसके लिए दो तरीके पर ध्यान देते हैं। पहला उत्पादन बढ़ाकर और दूसरा मजदूर घटाकर जिसमें उत्पादन कम न हो। इसके लिए स्किल टाइम चेक होता है जिससे उत्पादन बढ़ाया जा सके। इस प्रकार पांच छः दिन का चरण चलता है जिससे मजदूर सही तरीके से सेट किया जा सके एवं उत्पादन लक्ष्य को पूरा किया जा सके।
इस प्रकार जीनस पावर इनफैक्चर लि. में काइजन का कार्य चलता रहता है। 2008 में एक लाइन पर 52 लड़के काम करके 700 से 800 मीटर बनाते थे। जिसका लक्ष्य 1000 मीटर बनाने का रहता था लेकिन काइजन के द्वारा काम करते-करते प्रत्येक लाइन से 2000 मीटर बन रहा है एवं मजदूर की संख्या घटकर 28 रह गयी है। जुलाई 2015 में काइजन करने की पुनः टीम तैयार की गयी है। टीम में कम्पनी के हर क्षेत्र के लोगों को लिया गया है जिसमें पांच सीनियर स्टाफ एवं पांच सुपरवाइजर और 6 मजदूर शामिल किये गये थे। इस टीम की कम्प्यूटर द्वारा ट्रेनिंग हुयी जिसमें विश्व के पूंजीपति से काइजन के बारे में बताया गया काइजन कैसे आया एवं काइजन से लाभ कैसे मिलता है।
काइजन की टीम को तीन भागों में विभक्त कर मजदूरों को टार्चर करने के लिए छोड़ दिया गया। प्रत्येक टीम में पांच-पांच सदस्य हो गये एवं टीम की एरिया भी निश्चित किया गया। टीम न. 1 पीसीबी लाइन, टीम न. दो कैलीब्रेश लाइन एवं टीम न. तीन एफजी लाइन जो कार्यस्थल का नाम है। तीसरे दिन प्रत्येक टीम को प्रत्येक मजदूर को काम करने का टाइम चेक करने को दिया गया। तीनों टीम ने प्रत्येक मजदूर के काम करने की टाइम नोट की। यह लंच तक चला तथा लंच के बाद जिस मजदूर का काम करने का टाइम ज्यादा लगा उसे कम टाइम वाले लड़के (मजदूर) के स्थान पर बैठाया गया एवं फिर से काम करने का टाइम नोट हुआ इससे कोई भी मजदूर पिछले मजदूर से ज्यादा समय लिया तो उसकी क्लास लगी। इस पर भी स्पीड़ नहीं बढ़ी तो उसे गेट बाहर करने की धमकी दी गयी जिसने पहले से कम समय लिया उसे वहीं पर शिफ्ट कर दिया गया।
चौथे दिन यह पाया गया कि कोई कम्पोनेंट अधिकतम 18 सेकेण्ड में फिट होता है। उसी में कुछ कम्पोनेंट 7 से 8 सेकेण्ड मे फिट हो जाते थे इस प्रकार तीनों टीम को छः सात ऐसे मजदूर मिले जो 7 से 12 सेकेण्ड में कम्पोनेंट लगा देते थे।
पांचवें दिन इन सात मजदूर में से तीन को बाहर कर दिया एवं तीन को दो, दो काम दे दिये। लाइन चली और प्रोडक्शन पूरा आया 2000 मीटर।
छठवें दिन तीन मजदूर कम करके प्रोडक्शन पूरा लिया एवं लाइन की टारगेट भी निश्चित हो गयी 2000 मीटर।
इस प्रकार छंटनी की प्रक्रिया चालू है। 40 से 50 मजदूर बाहर कर दिये गये हैं। इस प्रकार पूंजीपति मजदूरों का शोषण एवं छंटनी कर रहे हैं।
एक मजदूर हरिद्वार
मैंने अपनी नौकरी दांव पर लगा दी
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
मैं कृष्णपाल रुद्रपुर हाल निवासी एक इंजी. कम्पनी में नवम्बर माह 2014 से कार्य पर लगा था जिसमें मेरे अन्य तीन साथी भी कुछ ही समय पहले नवम्बर में ही उसी कम्पनी में कार्य पर लगे थे। अतः मैं उस कम्पनी में साहसपूर्वक कार्य करता रहा। दो अन्य साथी उसी कम्पनी की करामात के कारण एक-दो माह में ही कार्य छोड़ने के बाद अन्य किसी फैक्टरी में काम पर चले गये। कम्पनी की करामात यह थी कि छुट्टी(रविवार) में भी कार्य कराती थी और जो वेतन 26 दिन का तय किया जाता था उसी के लिए 30 दिन अर्थात् एक माह के दिनों में बांटकर प्रतिदिन की मजदूरी में कमी की जाती थी और यदि कोई इसका विरोध करता तब उसे काम छोड़ने के लिए कहा जाता था। ठीक उसी तरह एच.आर. एवं प्रबंधक के लिए भी मैंने यही बात कही थी लेकिन उन्होंने इसको ध्यान में रखते हुए मेरे वेतन में कमी करना शुरू कर दिया गया। मैं सहन करता रहा क्योंकि प्रबंधक वर्ग मुझसे अंदर ही अंदर विरोध की भावना रखने लगे। इतना ही नहीं नवम्बर माह में तो कम्पनी में 2 घंटा प्रतिदिन ओवर टाइम दिन की शिफ्ट में एवं रात की शिफ्ट में भी। 2 घंटा ओवर टाइम दिसम्बर तक चला। सभी मजदूर सीधे-साधे तरीके से कार्य करते रहे। लेकिन मैंने व एक अन्य मजदूर से प्रबंधकों की इस होशियारी के कारण जनवरी में ओवर टाइम करना बंद कर दिया। केवल ड्यूटी ही करते रहे जिसमें कि प्रबंधक वर्ग समस्या बनने लगा यहां तक कि दबावपूर्वक ओवरटाइम करने के लिए कहा गया एवं गेट पर रखे गये सिक्योरिटी को आर्डर दिया गया बिना ओवर टाइम कोई नहीं जायेगा।
इसी तरह कुछ मजदूर भाई अपनी नौकरी छूटने के भय से अतिरिक्त टाईम भी रूकने लगे एवं मैंने भी अपनी नौकरी की बाजी लगा दी। इसकी शिकायत लेबर कोर्ट में माह जून में दर्ज करा दी। शिकायत में प्रबंधक ने मुझे कार्य छोड़ने के लिए कहा गया था क्योंकि एक मजदूर अकेला संघर्ष कहां तक करता। मुझे लेबर कोर्ट में प्रबंधक ने 15,000 रुपया दिया जो कि मेरी वेतन में से ही की गयी कटौती थी। शिकायत अधिकारी ने भी मेरे साथ सौतेला व्यवहार किया। 3500 रु. मुझे कम दिलाये एवं कार्यवाही भी बंद कर दी।
अब मैं बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहा हूं इसलिए मित्रो एकता में बल होने के कारण ही सफलता मिल सकती है एवं उनकी (प्रबंधक) की कमी उजागर करने के बाद भी अधिकारी वर्ग (लेबर कोर्ट) भी उद्योगपति को ही बल देते हैं। अर्थात् उस इंजि. कम्पनी में 26 दिन कार्य किया जाये तब केवल 22 दिन एवं 30 दिन कार्य किया जाये तब 26 दिन की ही मजदूरी मिल पाती थी।
अतः मेरी शिकायत के बाद कम्पनी एच.आर. साहब द्वारा कहा गया था कि सहायक श्रमाधिकारी महोदय के सामने 7 साल में यह नौबत आई जो शिकायकत दर्ज हुई अर्थात् उन्होंने इस कमी का अहसास तो किया।
वहां पर कई वर्षों से जो मजदूर भाई कार्य पर लगे हैं उन्हें भी पी.एफ. आदि या ई.एस.आई. की सुविधा भी नहीं दी जा रही है लेकिन बेरोजगारी के कारण एवं आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण कार्य कर अपनों की पूर्ति कर रहे हैं।
कृष्णपाल, रुद्रपुर
अभी ये हाल हैं आगे क्या होगा
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
मौर्या उद्योग फरीदाबाद में गैस सिलेण्डर बनाने वाला एक बड़ा कारखाना है। इसमें एल.पी.जी. तथा अन्य गैसों के सिलेण्डर बनाये जाते हैं। यह सोहना रोड़ पर सैक्टर 55 (रिहायशी कालोनी) से लगा हुआ है। इसमें लगभग 2000 मजदूर काम करते हैं। मजदूरों की संख्या केे लिहाज से भी यह एक बड़ा उद्योग है।
कभी सिलैण्डर रिपेयिरिंग के काम से शुरू हुए इस उद्योग का सामान्य दिनों में उत्पादन 6000 से 7000 सिलैण्डर प्रतिदिन तथा अधिक मांग होने पर 10,000 से 12,000 सिलैण्डर प्रतिदिन है। उद्योग में काम दो पालियों (प्रत्येक पाली 12 घण्टा) में चलता है। दिन की पाली तथा रात की पाली। पूरे उद्योग का काम लगभग 10 अलग विभागों में बंटा हुआ है। फोर्जिंग, टूल रूम, सिलैण्डर प्लांट, प्रेस शाॅप, पेन्ट शाॅप, मैटलाइजिंग, 3 पीस, रेगुलेटर, बाल्व प्लांट और मेंटीनेंस आदि।
उद्योग का मालिक नवनीत सुरेखा है। उद्योग की शुरूआत नवनीत के पिता विष्णु सुरेखा ने रिपेयरिंग के काम से की थी। उद्योग का एम.डी.(प्रबंध निदेशक) के.एम.वाई. है। उसके नीचे अलग-अलग विभागों के मैनेजर तथा सुपरवाईजर आते हैं। उद्योग का एम.डी. कभी मजदूरों से मुखातिब नहीं होता है। स्टाफ के अलावा कोई कर्मचारी स्थायी नहीं है। बहुत थोड़े मजदूर कम्पनी द्वारा अस्थायी नियुक्त किये गये हैं और ज्यादातर मजदूर ठेका मजदूर हैं। विभिन्न विभागों जैसे बाल्व, रेगुलेटर आदि में महिलाएं भी काम करती हैं।
टूल रूम और मेंटिनेंस को छोड़ कर बाकी सभी विभागों में वेतन बहुत कम है। मेंटिनेंस में 10,000 से 12000 रुपये वेतन पाने वाले कुछ अतिकुशल मजदूर हैं। टूल रूम में भी वेतन 12,000 या 12,000 रुपये से अधिक है। अन्य जगहों पर जहां ज्यादातर मजदूर काम करते हैं, वेतन 5 से 6 हजार के बीच है। वेल्डर आदि कुशल मजदूरों का वेतन लगभग 8000 है। कई महिला मजदूरों को तो 4000 से 4500 वेतन में भी 8 घंटा पर खटाया जाता है। कम उम्र के बच्चों को भी काम पर रख लिया जाता है। अचानक कभी फिर निकाल दिया जाता है। कुछ सेवा निवृत्त(60 वर्ष से अधिक) लोगों को भी काम पर रख लिया जाता है। और वह भी बहुत कम वेतन पर। ठेका मजदूरों को वेतन 12-16 तारीख के बीच दिया जाता है तथा अन्य को 7 तारीख को।
इतने बड़े उद्योग में अनिवार्य कानूनी चीजें भी लागू नहीं की जाती हैं। ठेके पर भर्ती किये जाने वाले मजदूरों को 2-3 सालों तक पीएफ और ईएसआई की सुविधा नहीं दी जाती। बड़ी संख्या में ऐसे मजदूर हैं जिनका ईएसआई कार्ड नहीं है। मजदूर बहुत बुरी परिस्थितियों में फोर्जिंग, मैटलाईजिंग आदि विभागों में काम करते हैं। कुछ विभागों में तो दम घोंटू धुंआ भरा रहता है। फैक्टरी में आये दिन छोटी-बड़ी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। महिलाओं से भी 12-12 घंटे काम कराया जाता है। मजदूरों को सेफ्टी शूज और वर्दी देने का कोई सिस्टम नहीं है। कभी अचानक कुछ मजदूरों को वर्दी दे दी जाती है। फिर कई सालों यह मुद्दा गायब रहता है। मजदूरों के लिए कैंटीन की व्यवस्था नहीं है।
इतने बड़े उद्योग में भी मजदूरों की कोई यूनियन नहीं है। यूनियन का न होना मालिकों को और निरंकुश बना देता है। मजदूरों के ये हालात तब हैं जब औपचारिक तौर पर श्रम कानून मौजूद हैं। श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलावों के बाद तो मजदूरों की हालात और बदतर होंगे। यह हालात उस उद्योग के मजदूरों के हैं जहां ज्यादातर उत्पादन का निर्यात किया जाता है और मोटा मुनाफा कमाया जाता है।एक मजदूर फरीदाबाद
निर्दोष मरा चोर बचा
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
पटना जंक्शन रेलवे कालोनी में आये दिन चोरी-चकारी की घटना घटती रहती थी। पूरी रेलवे कालोनी चोरों से परेशान थी। रेलवे कालोनी वालों ने रेलवे थाना चौकी को इसकी सूचना दी कि कालोनी में आये दिन चोरी चकारी होती रहती है। रेलवे पुलिस रात्रि में गस्त करने लगी। वहीं रेलवे कालोनी में एक छोटा सा पार्क था। उसी पार्क के पास तीन मजदूर आकर सो गये।
दिन भर काम करने के बाद वे तीनों मजदूर उसी पार्क में आकर सो जाते थे। उस दिन भी वे तीनों मजदूर उसी पार्क में सो रहे थे। उन्हें क्या पता था कि गस्ती पुलिस उन्हें मारेगी और उनका एक साथी मारा जायेगा।
रात्रि में गस्ती पुलिस ने उनको पकड़ लिया और बुरी तरह मारना पीटना शुरू कर दिया। तीनों मजदूर पुलिस से विनती करते रहे परन्तु पुलिस वालों ने उनकी एक बात नहीं सुनी। उसमें एक मजदूर निडर था। वह जानता था कि वह चोर नहीं है। उसने जुर्म कबूल नहीं किया। पुलिस ने उसे बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया। उसे बहुत बुरी तरह मारा पीटा गया। जब उसने दम मारना चालू किया तब पुलिस वाले समझ गये कि वह मर जायेगा। उसे उठाकर उन्होंने एक पुलिया के नीचे पटक दिया। यह देख कर दोनों मजदूरों ने शोर मचाना शुरू कर दिया कि पुलिस वालों ने हमारे साथी को मार दिया। फिर लोग जग गये और पुलिस वालों की करतूत समझ गये कि पुलिस ने चोर को नहीं निर्दोष को मार दिया। फिर क्या था पुलिस के खिलाफ मामला दर्ज हुआ और दोनों मजदूरों को इलाज के लिए भेज दिया।
जिस मजदूर को पुलिस वालों ने मार दिया उसके परिवार का भरण पोषण कौन करेगा, उसके बच्चे अनाथ और पत्नी विधवा हो गयी, बूढ़े मां-बाप का सहारा छिन गया। ऐसे ही न जाने कितने निर्दोषों को पुलिस वाला दोषी बना देता है अपने लाठी-डंडे के डर से। आये दिन फर्जी तरीके से आम मेहनतकश लोगों को पुलिस वाले मेडल पाने व शोहरत के लिए बलि का बकरा बना देते हैं। असली कातिल या गुनाहगार तक तो जा ही नहीं पाते हैं। हां! आम मेहनतकश जनता को जरूर गुनाहगार बना देते हैं। पुलिस-फौज जहां कहीं भी डेरा डालते हैं वहीं कानून का दुरूपयोग करते हैं।
भारतीय लोकतंत्र में बैठा शासन सत्ता झूठ-फरेब का जाल है। ‘पुलिस मित्र है आपकी सहायता करेगी’ झूठ है। पूंजीवादी व्यवस्था में पुलिस मित्र नहीं मौत के यमराज है। आम मेहनतकश लोगों को जागना होगा, संघर्ष का रास्ता चुनना होगा। यह व्यवस्था पूंजीवादी है जिसमें पूंजीपतियों की ही सुनी जाती है। उसे ही इंसाफ मिलता है। आम मेहनतकश तो बलि के बकरे की तरह चढ़तेे रहते हैं। पुलिस किसी को माओवादी के नाम पर तो सेना आतंकवादी के नाम पर निर्दोष की बलि चढ़ा रही है। पूंजीवाद लोकतंत्र के नाम पर जहर तंत्र फैलाकर लोगों को मारा जाता है। यह व्यवस्था एक विषैला लोकतंत्र है इसे आम आदमी को संघर्ष द्वारा नाश करना ही पड़ेगा। समाजवाद के लिए संघर्ष करना होगा। मजदूर राज लाना होगा।
रामकुमार वैशाली
उ.प्र. के मजदूर, गरीब किसानों का बुरा हाल
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
हमने सुना था कि जहां पर समाजवाद होता है वहां पर कोई तकलीफ नहीं होती मगर उत्तर प्रदेश की जनता की खराब हालत है। यहां के मजदूर किसान का बहुत बुरा हाल है। सपा की सरकार न तो रोजगार दे पा रही है और न ही शिक्षा दे पा रही है। अगर कोई मजदूर कहीं काम करता है तो उसे श्रम कानूनों द्वारा देय सुविधाओं को भी नहीं दे रही। अगर मजदूर कहीं पर अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन करते हैं तो उनका दमन किया जा रहा है। ये सपा सरकार दमनकारी नीतियों को तेजी से लागू कर रही है।
समाजवादी सत्ता है तो ये पूंजीवादी पार्टियों के समाज विरोधी फैसलों में क्यों शामिल है? पूंजीपतियों के इशारे पर काम कर रहे हैं। इसको हम समाजवादी सरकार नहीं कहेंगे। ये सब पूंजीपतियों की सरकार है। समाजवाद यानी मजदूरों का राज किसानों का राज छात्रों का राज समाजवाद होता है।
एक समय वह था जब रूस में समाजवादी क्रांति हुई थी वहां पर भी मजदूरों ने अपनी सरकार बनाई थी। वहां पर झुग्गी झोंपडि़यों का नामोनिशान मिटा दिया गया। सब लोगों को पक्के मकान बनाकर मजदूर गरीबों को सौंप दिया था। वहां की अर्थव्यवस्था सबसे ज्यादा मजबूत रही है। उदाहरण बतौर रूस और फ्रांस, चीन जैसे देश आज भी अर्थव्यवस्था में भारत से मजबूत माने जाते हैं।
आज सब देशों में पूंजीवादी व्यवस्था कायम है। मगर जो मजदूर किसानों की समाजवादी सत्ता थी उन्होंने समाज से सब बुराईयां व गैर बराबरी को खत्म कर सबको बराबरी का दर्जा दिया। हर हाथ को रोजगार दिया। सबके लिए मुफ्त शिक्षा और मुफ्त स्वास्थ्य सुविधायें दीं। महिलाओं को सम्मानजनक दर्जा दिया और वहां की अर्थव्यवस्था सबसे ज्यादा मजबूत
थी हालांकि भारत में मजदूर राज समाजवाद नहीं कायम हो पाया। भारत को जब अंग्रेजों से आजादी मिली तो पूंजीपतियों की सरकारें बनीं इसीलिए भारत की जनता जैसे अंग्रेजों के शासन में कंगाल थी वैसे ही आज इस झूठे लोकतंत्र देश में भी कंगाल हैं।
कहने को कहते हैं कि हम आजाद भारत में रहते हैं मगर इस पूंजीवादी व्यवस्था में सिर्फ 10 प्रतिशत को ही आजादी मिली बाकी 90 प्रतिशत आज भी गुलाम हैं। और इस 90 प्रतिशत में मजदूर किसान छात्र हैं जो आज भी गुलाम हैं। आजादी मिली तो भारत के चंद पूंजीपतियों को। अंग्रेजों के शासन काल में कोई मजदूर-किसान अगर कहीं पर अपना विरोध करता था तो अंग्रेजों द्वारा उन मजदूर किसानों का दमन किया जाता था। आज भी मजदूरों-किसानों का दमन किया जा रहा है। इससे हम समझ सकते हैं कि भारत पहले भी गुलाम था आज भी गुलाम हैं पहले भारत पर जो राज करते थे वे अंग्रेज थे आज जो राज करते हैं वे चंद पूंजीपति हैं। पूंजीपतियों से कहना चाहते हैं और इन पूंजीपतियों की सरकारों से भी जब कोई महल बुरी तरह जर्जर हो जाता है तो उसको कुछ दिन तक मरम्मत कर थोड़ा समय तक उस महल को रोका जा सकता है। मगर उसको हमेशा के लिए नहीं। इस जर्जर व्यवस्था की मरम्मत कुछ दिन पहले कांग्रेस की सरकार कर रही थीं आज भाजपा की सरकार प्रयास कर रही है मगर आज भी जब शेयर बाजार हिचकोले खाता है तो इन पूंजीपतियों की सरकारों की नींद उड़ जाती है। एक ठेका मजदूर पंतनगर
जनता के पैसे के दुरूपयोग करने वाले को कड़ी सजा हो
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
साथियो! सिकौथा गांव उत्तर प्रदेश जिला सिद्धार्थनगर तहसील इटवा बाजार ब्लाॅक भनवापुर थाना तिलवक पुर पोस्ट बिसकोहर बाजार में आता है। इस गांव का प्रधान ग्रामवासियों पर जुल्म कर रहा है खासकर गरीब किसानों पर। अपने प्रधान होने का इसे बड़ा घमंड है। ये प्रधान जब भी कहीं गांव में कोई समस्या लड़ाई-झगड़ा होता है तब फैसला वोट बैंक या पैसा देखकर सुनाता है। गांव की गरीब कमजोर महिलाओं को सरेआम गंदी-गंदी गालियां बकता है।
गांव के पूर्व ग्राम प्रधान ने कुछ अच्छा काम किया था। कुछ गरीब किसानों का तालाब का पट्टा बना दिया था। उससे उन गरीब किसानों के परिवार का भरणपोषण हो जाता था। वर्तमान ग्राम प्रधान ने उन गरीबों से उनका तालाब छीनकर पैसे वालों को दे दिया है। उन गरीब किसानों में एक ठेका चालक का पूरा परिवार सदमे में है। एक दिन ऐसा लगा कि ये पूरा परिवार आत्मदाह कर लेगा। कुछ न्यायप्रिय साथियों ने ऐसा करने से उनको रोक लिया।
ऐसा ही एक मामला सामने आया है। राजू कहार एक गरीब किसान ठेला चालक है। गांव के पूर्व प्रधान ने इस गरीब किसान की गरीबी को देखते हुए एक छोटे से तालाब का पट्टा बना दिया था। मगर वर्तमान ग्राम प्रधान ने उस गरीब किसान से तालाब को छीन लिया। चोरी चोरी तहसीलदार से मिलकर उस तालाब गजट कराके न्यूज पेपर मंे दो-तीन दिन उस क्षेत्र में प्रकाशित ही नहीं होने दिया। जब गरीब किसान को पता चला तो वह तुरंत इटवा तहसील पहुंचा और तहसीलदार से रो रो कर कहने लगा साहब जी हम बहुत गरीब है और हम से तालाब को मत छीनिये मगर तहसीलदार ने उन्हें वहां से भगा दिया। फिर गरीब किसान ने लगातार अपने क्षेत्र के विधायक के कार्यालय में चक्कर लगाया फिर एक दिन विधायक जी से मुलाकात की तो विधायक जी का रवैया उस ग्राम प्रधान से भी खराब रहा। विधायक जी इटवा विधानसभा क्षेत्र के वर्तमान समय विधायक हैं और उत्तर प्रदेश सपा सरकार में मंत्री हैं। मगर उनका रवैया बिल्कुल अमानवीय रहा। उस गरीब किसान की उन्हें मदद करनी चाहिए थी। उस गरीब किसान का जिसका जीने का सहारा भी छिन गया। उस किसान का इतना कसूर है कि उसके घर में 15-20 वोट नहीं हैं और न ही पैसा है ये तो रही एक गरीब किसान की बात लेकिन अभी बहुत कुछ बाकी है।
इस गांव में विकास कार्य के लिए आया हुआ पैसा भ्रष्टाचार का शिकार हो गया। आखिरकार ग्रामवासी अपनी समस्या को लेकर कहां जायें क्योंकि ग्राम प्रधान ब्राहम्ण है, तहसीलदार भी ब्राहम्ण है, जिले का डीएम भी ब्राहम्ण है, क्षेत्र का विधायक भी ब्राहम्ण है और मंत्री जी भी ब्राहम्ण हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि विकास कार्यों का पैसा कहां गया होगा।
वर्तमान समय का ग्राम प्रधान बहुत बड़ा भ्रष्ट प्रधान है। यह ग्राम प्रधान गांव में होने वाले विकास कार्य के लिए आया हुआ पैसा भी पी गया। गांव की टूटी हुई नाली और धंसे हुए खडंजे और जगह-जगह भर रहे पानी प्रत्यक्ष रूप से इसके उदाहरण हैं। इस ग्राम प्रधान ने इतना जरूर किया है कि अपने सुख सुविधा के हिसाब से आलीशान मकान बना लिया और अपने सुख-सुविधा के हिसाब से बड़ी सी दो गाड़ी खरीद ली हैं। और अपने आने-जाने के लिए घर से बगीचा तक खडन्जा बना लिया है। जब कुछ ग्रामवासियों ने इन सब बातों का और कामों का विरोध किया तो ग्राम प्रधान ने इसका जबाव दिया कि ये गाडि़यां उसके लड़के की शादी में मिली हैं और जिस खडन्जे की बात करते हो क्या इस खडन्जे पर ग्रामवासी नहीं आयेंगे। ये बात करके कुछ लोगों को धमकाया गया और कुछ बेकसूर मजबूर किसानों को पूरी तरह बरबाद करने की ठान ली। कुछ लोग उसी का शिकार भी हो गये हैं।
आज हम पूछना चाहते हैं उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार से, केन्द्र में बैठी मोदी सरकार से भी। क्या ऐसे भ्रष्ट ग्राम प्रधान और गुण्ड़ों के खिलाफ कोई कार्यवाही होगी। कोई पूछेगा कि गांव में होने वाले विकास कार्यों के लिए आया हुआ पैसा कहां लगा कि कितने गलियों में खडन्जे लगे। और कौन-कौन सी नालियां बनीं। और मनरेगा के तहत कहां-कहां पर पुल बने और कहां चकरोड़ बने। क्या ये पूूूंजीपतियों की सरकार इसका हिसाब मागेंगी? क्या इसके खिलाफ कोई जांच करवायेंगे? क्या इसको जेल में भेजेंगे।
अब ग्रामवासी उत्तर प्रदेश की सपा सरकार भन्वापुर ब्लाॅक के वीडीओ और सिद्धार्थनगर जिले के जिला अधिकारी से उम्मीद है कि सिकौथा ग्रामवासी को न्याय मिलेगा। या फिर और मामलों के जैसे लीप पोत कर कुछ ले-देकर मामले को रफा-दफा कर के ग्राम प्रधान को बचाते हैं या फिर ग्राम प्रधान को सजा दिलाते हैं क्योकि ये जो घोटाला हुआ है ये जनता का पैसा है और हम मानते हैं कि अगर कोई आदमी जनता का पैसा का कोई दुरुपयोग करता है तो उसको कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।
एक मजदूर, किसान का बेटा
ग्राम सिकौथा पो. विसकोहर बाजार,तहसील इटवा बाजार जिला सिद्धार्थनगर उ.प्र.
अवैध खनन माफिया राज के लिए सरकार जिम्मेदार
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
आज देश के अन्दर यू.पी., उत्तराखण्ड व अन्य राज्यों में अवैध खनन का कारोबार तेजी से बढ़ रहा है। खनन माफियाओं का आतंक इस कदर बढ़ गया है कि वे अपने खिलाफ किसी भी व्यक्ति को कुचलने में, किसी पर जानलेवा हमले करने-करवाने में, किसी को जिन्दा जलाकर मार डालने तक से भी पीछे नहीं हट रहे हैं। देश और राज्यों के अंदर सरकार-पुलिस-प्रशासन किसी तरह की शासन व्यवस्था कोई न्याय नाम की चीज ही नहीं है। सरकार और पुलिस प्रशासन खनन माफियाओं का गठजोड़ माफियाओं की गुंडागर्दी को बढ़ावा दे रहा है और आम जनता के अधिकारों को कुचला जा रहा है।
आज कोई भी टी.वी. चैनल, अखबार, अवैध खनन की खबरों से अछूता नहीं है। लेकिन हमें कुछ सवालों पर सोचना पड़ेगा कि आखिर क्यों कोई सरकार व पुलिस खनन माफियाओं के खिलाफ कार्यवाही नहीं करती? क्यों उन्हें जेलोें में नहीं डाला जाता? प्रशासन के ऊपर हमले हो जाते हैं। फिर भी वह उन्हीं को पालने-पोसने, संरक्षण देने के लिए विवश हैं। क्या हमारी सरकार और पुलिस प्रशासन माफियाओं के आगे लाचार है जो कुछ नहीं कर सकती है। या फिर जनता खनन माफियाओं के आगे लाचार है?
हमारे देश में लोकतंत्र का और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का ढोल पीटा जाता है। और उसी लोकतंत्र के अंदर तमाम घटनाओं में सिलसिलेवार पत्रकारों की हत्यायें कर दी जाती हैं। अभी हाल ही में वीरपुर लच्छी ग्राम रामनगर (उत्तराखण्ड) में नागरिक समाचार पत्र के पत्रकार मुनीष कुमार व उपपा के प्रभात ध्यानी पर जानलेवा हमला खनन माफिया के द्वारा करवाया गया जोकि ग्रामीणों के खेतों के ऊपर से अवैध सड़क बनाने व डम्पर चलाने के खिलाफ अवैध खनन के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। दूसरी घटना यू.पी. की है जिसमें पत्रकार जोगेन्द्र को खनन माफिया के खिलाफ आवाज उठाने पर जिन्दा जला दिया और अखिलेश सरकार माफियाओं पर लगाम कसने के बजाय 30 लाख का चैक और परिजनों के सदस्यों को 2 लोगों को नौकरी देना तय कर दिया। आये दिन उनके परिवार को जान से मारने की धमकी मिलती रही। तो मैं कहना यह चाहता हूं। कि सरकार का यही न्याय है। रामनगर के अंदर सोहन सिंह व उसके गुंडों को अभी तक गिरफ्तार नही किया गया। मलेथा में स्टोन क्रशरों के परिचालन से खेत बरबाद होने को है। बदले में जनता को पुलिस की लाठियां मिल रही हैं। रामनगर की विधायक को रामनगर में होना चाहिए लेकिन वह रामनगर की जनता का ध्यान देहरादून में बैठकर ही कर रही है। उत्तराखण्ड की सरकार खनन के मामले पर कितनी चिंतित है। इस बात से ही लगता है कि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पांच दिनों तक उत्तराखण्ड के जिलों में घूमते रहे लेकिन एक भी वक्तव्य खनन के मामले में नहीं कहा। क्योंकि खनन पर कोई बात करना उनका एजेण्डा ही नहीं था। ऐसे में सोचना पड़ेगा कि सरकार माफियओं पर कोई कार्यवाही करने की बजाय उन्हें बचाने पर लगी है। वह उन्हें क्यों बचाना चाहती है? क्या पत्रकारों पर हमले करना, हत्या करना इस देश के माफिया गुण्डों का संवैधानिक अधिकार है। जो सरकार उन्हें देती है। क्यों इस देश की किसी अदालत में किसी पत्रकार पर जानलेवा हमला करना, हत्या करने का मामला अदालत में नहीं जा सकता। जब सरकारें खुद भ्रष्ट हैं तो अवैध खनन पर लगाम कैसे लग सकती है।
मैं वीरपुर लच्छी के ग्रामीणों के संघर्ष को सलाम करता हूं कि उन्होंने अपने हक-हकूकों के लिए अपने खेतों को अपनी जानमाल की सुरक्षा के लिए, जनपक्षधर संगठनों के साथ मिलकर अपनी आवाज को दिल्ली तक बुलंद करने का साहस किया। मैं कहना चाहता हूं कि आज उत्तराखण्ड व देश के अन्य राज्यों में अवैध खनन के खिलाफ आवाज उठ रही है। आप कहीं से भी अकेले नहीं हैं। अगर हम अपनी जरूरतों के साथ मजबूती से खड़े हैं तो हमें जीतने से कोई नहीं रोक सकता। हमारी सरकार, हमारी पुलिस प्रशासन माफियाओं के आगे लाचार हो सकती है। मगर जनता नहीं हमें लम्बे संघर्ष का आगाज अपने दिलों में लिये हुए संगठनबद्ध होना पड़ेगा। जनता खनन माफिया को तो क्या अपनी एकता की ताकत से शासन-प्रशासन की जड़ों को भी हिला सकती है। माफिया को भी देश छोड़ कर भागना पड़ेगा।
सूरज, रामनगर
बबाली बाबा
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
पतंजलि हर्बल एण्ड फूड पार्क फैक्टरी में पिछले दिनों जो घटना हुयी है वह बहुत दयनीय है। किस तरह से बाबा रामदेव की कम्पनी के गुण्डे-मवालियों ने ट्रक यूनियन के लोगों के साथ मारपीट की जिसमें एक आदमी की मौत हो गयी, दस आदमी घायल हो गये। दलजीत सिंह जो दो ट्रकों का मालिक था, वह ट्रक यूनियन के साथ अपनी मांगों को लेकर धरना दे रहा था। विवाद माल भाड़े को लेकर था। कम्पनी प्रबंधन ने उसके ट्रक से माल भेजना-मंगाना बंद कर दिया था। वह दूसरी गाड़ी से अपना माल मंगा व भेज रहा था। उसी विवाद में रामभरत जो बाबा रामदेव का भाई है, ने अपनी कम्पनी में ट्रक यूनियन के लोगों की गुण्डे-मवालियों से पिटाई करवाई। खूब लाठी-गोली चलीं। उसने साबित कर दिया कि कम्पनी में किस तरह से गुण्डे-मवालियों का राज चलता है। फिलहाल इस कांड को लेकर रामभरत जेल में है। पुलिस जांच चल रही है।
कम्पनी के अंदर जो गुण्डे-मवाली थे वे हथियारों से पूरी तरह लैस थे और हरियाणा से रामदेव के भाई ने बुलाये थे। बाबा रामदेव दुनिया में संदेश देते हैं कि मैं हिंसा में विश्वास नहीं रखता हूं। भाईचारे, प्रेम, अहिंसा में विश्वास रखता हूं। मैं दुनिया का योग गुरू हूं। योग का ज्ञान जन-जन को देता हूं। धर्म का प्रचार करता हूं। ज्ञान का दीप जलाता हूं। लेकिन खुद रामदेव बाबा के भाई रामभरत ने साबित कर दिया कि वह हिंसा का पुजारी है। आम मेहनतकश लोगों का गोली डण्डे से स्वागत करता है। असलियत यह है कि कम्पनी परिसर में आये दिन कुछ न कुछ बबाल होता रहता है मजदूर-मेहनतकशों के साथ।
रामदेव एक सन्यासी के भेष में एक उद्योगपति है जिसका कारोबार देश-दुनिया में फैला हुआ है। यह अपने रामराज्य के खुद मालिक हैं। दवा से लेकर दैनिक जरूरत का सारा सामान कम्पनी में उत्पादन करता है। करोड़ों-अरबों का मालिक है बाबा रामदेव एक सन्यासी के भेष में। एक पाखण्डी है जो दुनिया में रात-दिन योग की आड़ में धन ठगने का कार्य करता है। 2014 में लोकसभा चुनावों में उसने खुल कर भाजपा के पक्ष में प्रचार-प्रसार किया। आम जनता से अपील की कि भाजपा सरकार ही काला धन वापस ला सकती है। प्रत्येक भारतीय को पन्द्रह लाख मिलेगा। गोल-मोल बातें बनाकर आम जनता को ठगने का ही काम किया।
रामदेव बाबा के ऊपर दर्जनों केस चल रहे हैं न्यायालय में। खुद के गुरू की जांच का केस चल रहा है कि कैसे पतंजलि से गुरू जी गायब हैं। वह आज तक किसी को मिला नहीं। खुद सीबीआई जांच चल रही है। रामदेव बाबा एक आम आदमी था। उसने साइकिल से अपनी जिन्दगी का सफर शुरू किया था और आज अरबों-खरबों के साम्राज्य का मालिक है। वह साम, दाम, दण्ड, भेद से यह सम्पत्ति का मालिक बना। न जाने कितने अनैतिक काम धर्म योग की आड़ में किये होंगे।
पूंजीवादी व्यवस्था में झूठ-फरेबी की ही पूजा होती है। कर्मयोगी लोग ही अंजामों के शिकार होते हैं। उसे ही मोहरा बनाकर जेलों में डाल दिया जाता है। हर गुनाह करने वाला इंसान झूठ की चादर ओढ़ कर बेगुनाह होना साबित करता है। ठीक बाबा रामदेव या उसका भाई रामभरत भी बेगुनाही की चादर ओढ़कर साबित करेगा। जब तब पूंजीवादी व्यवस्थापक और व्यवस्था रहेगी तब तक रामदेव का योग का धंधा चलता रहेगा। इन फरेबी बाबा से आम मेहनतकश जनता का जागना जरूरी है क्योंकि मेहनतकश की लूट पर टिकी व्यवस्था है। रामकुमार, वैशाली
2 सितम्बर देशव्यापी बंद की तैयारी शुरू
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
सरकार की नीतियों के विरोध में 2 सितम्बर को होने वाले देशव्यापी बन्द की तैयारियां शुरू।
26 जुलाई को होगा बरेली ट्रेड यूनियन्स का जिला सम्मेलन।
मोदी सरकार की पूंजीवादी नीतियों से देशभर का कामगार वर्ग असंतुष्ट है और नाराज भी। इसी क्रम में बरेली में बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन ने 23 जून 5 बजे से आयकर कार्यालय में बड़ी बैठक का आयोजन कैलाश चन्द्र सक्सेना की अध्यक्षता मे कर भावी रणनीति तय की। सर्वसम्मति से तय हुआ कि 2 सितम्बर के देशव्यापी बन्द से पूर्व फेडरेशन का जिला सम्मेलन 26 जुलाई को किया जायेगा एवं पर्चे व पोस्टर आदि वितरित कर कर्मचारी/मजदूर /किसान विरोधी नीतियों का खुलासा किया जायेगा।
बैठक को सम्बोधित करते हुए श्रीमती गीता शांत ने कहा कि मोदी सरकार ने यह साबित कर दिया है कि वह पूंजीपतियों के इशारे पर काम कर रही है और उसका बाकी जनता से लेना देना नहीं है। श्रम कानूनों में परिवर्तन व किसानों की जमीनें छीनने के प्रयासों के विरोध में देश का एक बड़ा वर्ग आहत हो रहा है जिसके विरोध मे पूरे देश के सभी श्रमिक संगठनों ने देशव्यापी बन्द का आह्वान किया है। जिसके तहत बरेली में भी आयोजन किया जायेगा।
इस अवसर पर आयकर के जोनल सचिव रवीन्द्र सिंह ने कहा कि बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन से जुडे सभी सहयोगी संगठन विरोध में शामिल होंगे और केन्द्रीय श्रम संगठनों के तय किये गये आन्दोलन को हम बरेली मंे मूर्तरूप दंेगे तथा सरकार की मंशा पूरी नहीं होने देंगे।
संयुक्त परिषद के रवीन्द्र कुमार ने कहा कि देश का कामगार आक्रोशित है और सरकार की इन काली नीतियांे को बर्दाश्त करने की स्थिति में नही है जिसके कारण एकजुट हो कर देशव्यापी आंदोलन मंे शामिल होने जा रहे हैं।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र के ध्यान चन्द्र मौर्या ने कहा कि सरकार हर मोर्चे पर विफल है और बढती महंगाई इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। उन्होंने कहा सरकार की नीयत केवल बडे़ उद्योगपतियों का हित साधना है। यही कारण है कि देश में अरबपतियों की संख्या बढ रही है और जनता बेहाल हो रही है।
बैठक में सर्व श्री अफरोज आलम, सी.पी. सिंह, कुलवन्त सिंह, फैसल, प्रवीन कालरा, पी.के. माहेश्वरी, अरविन्द रस्तोगी, अविनाश चौबे, कमलेश त्रिपाठी, राकेश राजपूत, ए.के.जायसवाल ने सम्बोधित किया।
कार्यक्रम का संचालन महामंत्री संजीव मेहरोत्रा ने किया।
संजीव मेहरोत्रा महामंत्री
बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन, बरेली
‘बैल कोल्हू’ का बुरा हाल
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
‘बैल कोल्हू’ फैक्टरी परसा खेड़ा में स्थित है। परसा खेड़ा में लगभग 208 फैक्टरी हैं। इन 208 फैक्टरियों में बैल कोल्हू सबसे बड़ी फैक्टरी है जिसमें लगभग 1000-1500 मजदूर काम करते हैं। इसके मालिक घनश्यामचन्द खण्डेवाल हैं और साथ में मालिकों की यूनियन आईआईएमए के अध्यक्ष हैं। इस फैक्टरी के अधिकांश मजदूर ठेके पर काम करते हैं। इन मजदूरों का ड्यूटी पर जाने का समय 8ः30 बजे सुबह है लेकिन जाने का समय निश्चित नहीं है। फैक्टरी मालिक उन मजदूरों को 26 ड्यूटी करने पर 3000 का बोनस हर महीने देता है अगर 26 में से एक भी छुट्टी की तो महीने का बोनस नहीं मिलता है। फैक्टरी में मोबाइल, तम्बाकू कुछ नहीं ले जा सकते। अगर आप के घर परिवार में कोई घटना घटती है तो उसकी खबर आपको नहीं मिलेगी। अगर किसी प्रकार से मिले भी तो आपको फैक्टरी से निकलने में 2-3 घण्टे लग जाते हैं। किसी मजदूर के साथ कोई घटना घटती है या कोई मजदूर मर जाता है तो उस मजदूर को मालिक कुछ नहीं देता है। कई मजदूर घायल हो जाते हैं तो मजदूरों को अपना इलाज अपने पैसे से कराना होता है।
दो महीने से मालिक ने एक कानून बनाया है इसके अंतर्गत ठेके और परमानेन्ट सभी मजदूरों की तनख्वाह 260 रु. कर दी है लेकिन लोडिंग के मजदूरों को बोनस 2500 रु. और अन्य सामान्य मजदूरों का बोनस 1800 रु. कर दिया है लेकिन ड्यूटी का समय अनिश्चित है। बेरोजगारी की मार से पीडि़त मजदूर 14-15 घंटे काम करने को मजबूर हैं। इस फैक्टरी में कोई श्रम कानून लागू नहीं हैं। यहां के डरे-सहमे मजदूर बिल्कुल आवाज उठाने को तैयार नहीं है क्योंकि जो मजदूर आठ घंटे की ड्यूटी या दूने ओवरटाइम, सीएल आदि की आवाज उठाते हैं, मालिक के लठैत आफिस में बुलाकर उन मजदूरों को सबक सिखाते हैं। डरे-सहमे मजदूर किसी मजदूर संगठन से बात नहीं करते हैं। इस पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ सभी मजदूरों को संगठित होकर खड़ा होना और संघर्ष करना होगा। मजदूरों को इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़कर एक समाजवादी राज- मजदूर राज की स्थापना करनी होगी तभी उनकी समस्याओं का समाधान हो पायेगा।
राममिलन, बरेली
क्या यही उम्मीद थी
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
प्रधानमंत्री जी आज कल सफाई पर बहुत ध्यान दे रहे हैं। और साथ में मिलकर स्वयं जगह-जगह सफाई कर भी रहे हैं क्या भारत की जनता को प्रधानमंत्री जी से इसी तरह की उम्मीद थी।
एक साल में 365 दिन होते हैं उनमें से एक दिन श्रम दान का होता है। वह दिन दो अक्टूबर राष्ट्रपिता महात्मां गांधी जी के नाम से जाना जाता है। यह मेरे अपने विचार हैं।
आज के समय में पढ़ाई-लिखाई बहुत ही महंगी हो गयी। आईएएस, पीसीएस, एमबीबीएस पढ़ने के बाद भारत के होनहार नागरिक अपने हाथों से सफाई करेंगे तो बाकी की शेष भारत की अनपढ़ जनता का क्या होगा या क्या करेगी।
प्रधानमंत्री या मंत्रीजन झाडू लगाते हैं तो मीडिया उनके फोटो खींचती है और अखबारों में छापती है और भारत की बची जनता धूप बारिश ठंड में धान, गेहूं, सब्जी उगाती है, चाय की खेती करती है। मकान बनाने के लिए ईंट बनाती है, भारत के प्रधानमंत्री जी ने इनके बारे में जरा भी ध्यान दिया होता तो गरीब लोगों के घर के आस-पास गंदगी व कूडों के ढेर नहीं लगे होते। देखना है तो गांवों में घूम कर देख सकते हैं। सब नजारा सामने आ जायेगा।
प्रधानमंत्री जी को डीजल पेट्रोल के दाम कम न करके छोटे मजदूरों की मजदूरी बढ़ा देते तो मजदूर जन बिजली के बिल सही समय पर चुका सकते थे। जो मजदूर लोग बैेंकों से लोन ले लेते हैं उसे सही समय से अदा कर सकते थे। मजदूर लोगों को सरकार से अनाज तो कम कीमत पर मिल जाता है। मजदूर लोगों को काम न मिलने व कम मजदूरी मिलने से सरसों का तेल, नमक, लकड़ी व गैस लाने में बहुत दिक्क्तों का सामना करना पड़ता है। प्रधानमंत्री जी स्वयं सफाई करेंगे तो लगता है कि वह सफाईकर्मियों की नौकरी को समाप्त करेंगे सेना, आईएएस, पीसीएस, एमबीबीएस, अधिक वेतन लेने वाले लोगों से सफाई करवाने की कोशिश में हैं। और इस तरह सफाई का काम सार्वजनिक होकर निजी कर देने का इरादा रखते हैं।
नवल किशोर, ग्राम व पोस्ट- भमोरा, जिला बरेली
संगठन की बहुत जरूरत है
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
मैं सिटी सब्जी मंडी बरेली में एक किराने की दुकान पर काम करता हूं और आज मुझे इस दुकान पर 14 साल हो गये हैं। जब मैं शुरूवात में दुकान पर गया था तब मुझे मात्र 400 रुपये मिलते थे। मौहल्ले में घुमने से अच्छा था और घर वालों का भी कोई दबाव नहीं था। और मैं काम करता रहा। दुकान मालिक 100 रुपये प्रति साल पैसे बढ़ाता था। 8 साल तक पैसे बढाने का सिलसिला चलता रहा। दुकान में 10 घंटे काम करन पड़ता है पर मुझे और लड़कों के हिसाब से अपने पैसे कम लगते थे।
इस दौरान मेरी मुलाकात मार्केट वर्कर्स एसोसिएशन के साथियों से मेरे पड़ोस के साथी ने कराई और मुझे सदस्य बनाया और उसके बाद मेरा विकास होना शुरू हुआ।
जब 2010 में एसोशिएशन से जुड़ा तब मुझे पता चला कि काम के पैसे सरकार तय करती है। उसके बाद मैंने अपने मालिक से बहुत नोंक-झोंक कर 300 रुपये बढ़ाये और 1200 से 1500 किये और 2011 से 1800 रुपये 2012 में 2500 रुपये 2013 में 3000 रुपये और मुझे एसोसिएशन से काफी जोश मिलता है, और काफी जानकारी भी मिलती है। और एसोसिएशन से ही पता चला कि न्यूनतम वेतन क्या होता है पर मालिक इतने पैसे बढाने को तैयार नहीं होता फिर भी मैंने 2014 में धरना प्रदर्शन था डीएलसी पर वहां से मुझे उत्साह मिला और 2014 में ही 4000 रुपये कराये फिर आज 2015 में मुझे 5000 रुपये मिलते हैं।
इतने साल में मैंने यह जाना कि हम अकेले-अकेले कुछ नहीं कर सकते इसीलिए हमें किसी मजदूर संगठन से जुड़ना जरूरी है क्योंकि संगठन अगर सही है तो कभी भी कोई राय आपको गलत नहीं मिलेगी क्योंकि यह मेरा 5 साल का अनुभव है, और आज मैं यह जान गया हूं कि संगठन के दम पर हम अपने हक की लड़ाई लड़ सकते हैं। और जो भी मैने अभी तक पढ़ा है उससे यहां पता चलता है कि मजदूरों ने जो भी लड़ाईयां जीती हैं वे सारी संगठन व यूनियन के दम पर ही जीती हैं और आज संगठन की बहुत जरूरत है।
पप्पू, दुकान मजदूर, बरेली
देवनारायण की आप बीती
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
देवनारायण मजदूर बिहार के जिला पटना के रहने वाले हैं और उसका मालिक विनोद भी पटना का रहने वाला है। मालिक विनोद उ. प्रदेश के जिला बरेली मढीनाथ मोहल्ला में रहते हैं। विनोद गन्ने का रस बेचता है। इसका कोल्हू सिटी सब्जी मंडी में लगा है। विनोद अपने गांव जिला पटना से देवनारायण सहित 5 मजदूरों को झूठ बोलकर बरेली ले आया उसने इन मजदूरों से बोला कि उनको आठ घंटे का काम करना होगा। आपका 8 घंटे का वेतन 5000 रुपये मय खाना-रहना मकान खर्च विनोद मालिक देगा। ये तय करके विनोद पांच मजदूरों को बरेली ले आया। जब मजदूर सुबह को काम पर आये तब पता लगा कि इन पांचों मजदूरों को गन्ने के कोल्हू पर काम करना है। ये कोल्हू सुबह 7 बजे से शाम 10 बजे तक चलते हैं। मजदूर सुबह 7 बजे अपने-अपने काम पर लग जाते हैं और रात 10ः30 बजे कहीं बिस्तर पर जाते हैं। मालिक उन्हें खर्च को कोई पैसे नहीं देता है। मालिक की इस धोखाधड़ी से पांचों मजदूरों में गुस्सा व्याप्त है। मालिक से पैसा मांगने पर वह मजदूरों की पिटाई भी करता है। इनमें से एक मजदूर चुपचाप यहां से बिहार भाग गया।
मजदूर देवनारायण का कहना है कि मालिक का भाई पटना जिले के गांव में रहता है। अगर उसने हम मजदूरों को धोखा दिया है और विनोद ने उनका हिसाब नहीं किया तो उसके भाई से गांव जाकर उससे पैसा वसूलने की बातें कह रहे हैं।
साथियों इस पूंजीवादी व्यवस्था में विनोद जैसे क्रूर मालिकों से मजदूर संगठित होकर ही मुंहतोड जवाब दे सकते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था पैसे पर टिकी व्यवस्था है। जब इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ कर समाजवादी व्यवस्था लायेंगे तभी मजदूर अपने लुटते श्रम की लूट से बच सकते हैं।
देवनारायण का एक मित्र, बरेली
मित्तर फास्टनर्स के श्रमिक संघर्ष के लिए पुनः उठे
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
मित्तर फास्टनर्स के श्रमिक डेढ़ वर्ष से लगातार संघर्ष कर उद्योगपतियों के दमन को झेलते हुए अपने कदम पीछे नहीं हटा रहे हैं। अब श्रम कानूनों में हुए फेरबदल से श्रमिकों पर उद्योगपति हावी हैं। आखिर मजदूरों का कसूर क्या है? क्या न्यूनतम वेतन मांगना अपराध है। यदि नहीं तो निकाले गये श्रमिक मसुलुद्दीन खान जो कि अपने निर्धारित समय पर कार्य पर दिनांक 13 नवम्बर 2014 पर पहुंचा। कम्पनी मालिक मुकेश साहनी कम्पनी में तैयार थे। उन्होंने श्रमिक को केबिन में बुलाया, ढाई घंटे तक त्याग पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए बंधक बना कर रखा लेकिन खान ने सिर्फ एक बात रखी आखिर मेरा कसूर क्या है तो सुपरवाइजर बोला कि न्यूनतम वेतन की लड़ाई लड़ने में तूने भी अहम भूमिका निभाई थी। इसलिए तुझे निकाला जा रहा है। खान 6 माह से लगातार जिला प्रशासनिक अधिकारियों के यहां चक्कर लगा रहा है। लेकिन उद्योगपतियों के सामने आखिर मजदूर की कौन सुनने वाला है। एएससी व डीएलसी के कार्यबहाली के आदेश करने के बावजूद भी मजदूर को कार्य पर बहाल नहीं किया गया आखिर देश की हाईकमान उद्योग रक्षा के लिए बिठाया गया है तो अधिकारियों की क्यों माने।
दिनांक 17 फरवरी 2015 को तीन श्रमिकों को प्रतिशोध का फिर निशाना बनाया गया और श्रमिक जयपाल, प्रतिपाल व धर्मेन्द्र को झूठी जांच में फंसाकर टर्मिनेट कर दिया गया। जिसमें प्रतिपाल श्रमिक प्रतिनिधि था। तो कंपनी आखिर उसे क्यों छोड़ती, कल श्रमिकों की समस्या के लिए कोई आवाज निकालने वाला श्रमिक थोड़ी छोड़ना है। वे भी श्रमिकों की बर्खास्तगी ऐसे समय में की जब वे हाॅस्पीटल में भर्ती है। और कम्पनी ने उसी बीच उनको टर्मिनेट कर दिया इससे ज्यादा दमन और उत्पीड़न क्या होगा।
कम्पनी को तो ऐसे श्रमिक की आवश्यकता है जैसे श्रमिक सत्यपाल का 2010 में प्रेस मशीन से रविवार को दाहिने हाथ की तीन उंगलियां कट गयीं और उसे आज तक प्रबंधन ने इतनी दया दिखाई कि उसे न पेंशन मिली न ही मुआवजा। यह उसे मालिक के प्रति कोई भी कार्यवाही न करने का फल मिला। यदि वह उसी घटना के समय अगर कानूनी कार्यवाही करता तो मुआवजा भी मिलता और पेंशन भी। जब मजदूर सतपाल ने दवा के पैसे मांगे तो उसे एक आरोप पत्र और दे दिया जिससे कि कम्पनी उसे जब मर्जी निकाल सके। उस समय जब उद्योगपति ने अपनी रक्षा के लिए मोदी जी को बिठाने के बाद मजदूर अपने अधिकार की आवाज निकाले तो कैसे सहन होगी।
न्यूनतम वेतन मांगने का दमन यहीं नहीं थमा। 14 मई 2015 को श्रमिक प्रतिनिधि सुदर्शन, लतादेवी को निलम्बित कर दिया। इनका कसूर बस इतना था कि प्रतिपाल की चल रही घरेलू जांच कार्यवाही में सहकर्मी के रूप में उपस्थित हुए थे। जबकि जांच अधिकारी ने श्रमिकों के सहकर्मी बिठाने के लिए खुद ही कहा था। प्रबंधन 2010 से श्रमिकों को मनमाना वेतन दे रहा था। उसका उद्योग मुनाफा कमा के दिन-दूना रात चैगुना बढ़ रहा था। लेकिन मजदूर मुखर होकर श्रम भवन में पहुंच गये और उन्होंने न्यूनतम वेतन पर वार्ता के लिए मांग पत्र दिया। समझौता 14 जून 20104 को हुआ कि श्रमिकों को न्यूनतम वेतन व ज्वाइनिंग लेटर दिनांक 16 जुलाई 2014 तक मुहैय्या कराये। लेकिन क्या फर्क पड़ता है डीएलसी के आदेश से वह समझौता आज तक लागू नहीं हुआ। श्रम कानूनों से तो आखिर मजदूर डरता है। क्योंकि मजदूर अगर श्रम कानूनों का पालन नहीं करता तो उस पर प्रबंधन से लेकर जिला प्रशासन व पुलिस भी लाठी चलाने में पीछे नहीं रहती आखिर ऐसा क्यों कम्पनी प्रबंधन श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाये उस के लिए श्रम अधिकारियों द्वारा चाय और नाश्ता से स्वागत किया जाता है। और एक मजदूर जोकि श्रम अधिकारियों के आदेश का सम्मान करते हुए श्रम कानूनों की मांग करता है। तो उस पर लाठियां भांजी जाती हैं।
मजदूर साथियो आखिर आज हमें उठना होगा, नहीं तो यह दमन और उत्पीड़न घटने की बजाय और बढे़गा। राजनेता और उद्योगपति के इस घोल-मोल रवैय्यै को समझना होगा। साथियो, मित्तर फास्टनर्स के श्रमिकों का दमन कम्पनी का दमन नहीं बल्कि आज के पूंजीवाद की देन है और ऊपर बैठे मजदूरों और किसानों के अच्छे दिन लाने वाले हमारे देश के महान राजा की देन है। न श्रम कानून रहेंगे व मजदूर कोई मांग करने के लिए किसी अधिकारी के यहां जायेंगे। और न ही उनकी कोई समस्या होगी। यही मोदी के अच्छे दिन मजदूर और किसान के लिए होंगे। बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा विदेशी कम्पनी लगेगी। जहां कोई श्रम कानून नहीं होगा। रोजगार कब खत्म हो जायें इसका कोई भरोसा नहीं होगा। जहां महिलायें दिन में सुरक्षित नहीं हैं उन्हें रात की पाली में बुलाकर उनका शोषण व उत्पीड़न किया जायेगा। यही हमारे अच्छे दिन होंगे। इन्हीं अच्छे दिनों से निजात पाने के लिए हमें उठना होगा।
दिनांक 23 मई 2015 से मित्तर फास्टनर्स के मजदूर धरने पर डी.एम. कोर्ट पर बैठे हुए हैं। उनकी समस्या 26 मई 2015 तक पूछने के लिए कोई भी अधिकारी नहीं आया। आखिर तपती धूप में यह मजदूर इस खुले आकाश में नीचे क्यों बैठे हैं। लेकिन मजदूर का तो काम ही धूप और वर्षा में रहने का है तो वह इतनी फिक्र क्यों करे। वह अपनी मांगों को लेकर अडिग हैं। और जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होगीं वह संघर्ष और तीव्र करेंगे और एक बड़ा आंदोलन छेड़ेंगे।
एक संघर्षरत मजदूर मित्तर फास्टनर्स रूद्रपुर
सेल्फी प्रधानमंत्री
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
सेल्फी प्रधानमंत्री जी! देश का विकास तीर धनुष, गाजे-बाजे व ढोल बजाकर नहीं होगा। देश के सेल्फी प्रधानमंत्री ने कुर्सी संभालते ही देश का विकास पूंजी के विकास में तल्लीन हो गये। इन्होंने विकास के जुमले के साथ देशी-विदेशी पूंजी के हवाले देश के प्राकृतिक संसाधनों और श्रम कानूनों को, निजी पूंजी को लूट व गिरवी रखने की छूट की तैयारी करनी शुरू कर दी।
प्रधानमंत्री ने देशी-विदेशी मंचों पर ‘सेल्फी’ लेना, मसखरे जैसे करतब दिखाने शुरू किये और यह क्रम जारी है। इन्होंने किसी देश में ढोल बजाकर तो किसी में बांसुरी व धनुष चलाकर अपने भौंडेपन का प्रदर्शन किया। मोदी ने यह सब ‘संघ’ की शाखाओं में सीख रखा है। और उसी का करतब यह विदेशी मंचों पर दिखाते फिर रहे हैं। मोदी जी ने सोचा होगा कि ये भोली-भाली गरीब जनता मेरी इस कलाकारी और लच्छेदार बातों से खुश होकर इन सब नौटंकी के पीछे छिपे मेहनतकश विरोधी घृणित मंशा को भूल मेरी तारीफ करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ जनता ने अपने अभावग्रस्त जीवन से सीखना शुरू कर दिया कि यह सब मोदी जी की नौटंकी है और इससे हमारा भला नहीं होने वाला।
मोदी की इस पूरी नौटंकी में पालतू मीडिया द्वारा खूब बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार किया गया कि विदेशी जनता ने मोदी जी को बेहद पसंद किया। क्या मीडिया ने यह बताया कि जिस जनता ने मोदी की तारीफ की वह कौन सी जनता थी? वह मजदूर जनता या फिर वह जनता जो मोदी जैसे नौटंकीबाजों को पसंद करती है। जिसके सपनों को साकार करने में मोदी और मोदी जैसे शासक लगे हुए हैं। ऐसे में उच्च वर्ग की जनता या लोग मोदी की तारीफ तो करेंगे ही न कि गरीब जनता।
गरीब जनता कभी भी अपने भाइयों को चाहे वह देशी हो या विदेशी लूटने का न्यौता देने वाले शासक की तारीफ नहीं करेगी। हर देश की मजदूर जनता हर देश के शासकों के पूंजीवादी लुटेरे चरित्र को जान समझ रही है।
मोदी जी ने सोचा होगा कि मैं अपनी पालतू मीडिया के माध्यम से नये-नये करतब दिखाकर जनता का दिल जीत लूंगा। तो प्रधानमंत्री जी ये आपकी भूल है। गरीबों का पेट आपके लच्छेदार भाषणों और बेहूदा करतबों से नहीं भरेगा। गरीबों का पेट तो रोटी से भरेगा और वह आप दे नहीं सकते। क्योंकि आप तो जनता के हिस्से की बची-खुची रोटी छीन कर पूंजीपतियों को देने में लगे हो।
प्रधानमंत्री जी बच्चे को एक समय तक खिलौनों से बहलाया जा सकता है। लेकिन जैसे ही एक समय के बाद बच्चे की भूख का इंतजाम नहीं हो पाता वैसे ही वह रोने लगता है। लेकिन यहां जनता बच्चा नहीं कि वह आपके सामने रोयेगी, गिडगिडायेगी। गरीब जनता सही और गलत में फर्क करना सीख रही है। इसलिए वह रोयेगी नहीं, बल्कि आपके और आपके जैसे पूंजीवादी शासकों से अपने हर एक आंसू का, हर जुल्म का बदला लेगी। और आप जैसों को और आपके घृणित मंसूबों को नंगा करके इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देगी।
प्रवीण कुमार हरिद्वार
प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना का शिगूफा
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
सामाजिक सुरक्षा के नाम पर प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना तथा अटल पेंशन योजना का ढोल पीटकर इस देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसे अपनी सरकार की गरीबों व असंगठित क्षेत्र के असंख्य लोगों के हितकारी योजनाओं के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल में कोलकाता में इन्हीं योजनाओं का उद्घाटन के अवसर पर वे गत वर्ष प्रारम्भ की गयी। प्रधानमंत्री, जन-धन योजना में रिकार्ड संख्या में खोले गये खातों का जिक्र करना नहीं भूलते हैं। प्रधानमंत्री को लगता है कि वे जो भी करते हैं वह ऐतिहासिक है। इससे पूर्व ऐसा कोई भी नहीं कर पाया। वे साधारण जन-जन तक बैंकिंग सेवा को जोड़ने को अपना अद्वितीय प्रयास मानते हैं। बैंक खाते में गैस की सब्सिडी सीधे ट्रांसफर होने वाली योजना को सबसे बड़ी विश्व की योजना बताकर अपनी सरकार की महानतम उपलब्धियां बताया जा रहा है। ठीक इसी तर्ज पर सामाजिक सुरक्षा की ये तीन योजनाओं का प्रचार-प्रसार जोरों पर है।
क्या सचमुच इन योजनाओं में सामाजिक सुरक्षा की इतनी गंभीर चिंता है या फिर असल में कुछ और ही है। काॅरपोरेट जगत तथा उद्योगपतियों का शुभचिंतक प्रधानमंत्री इन योजनाओं की बात करता है तब तो जरूर इसमें कुछ न कुछ होगा।
प्रधानमंत्री जन-धन योजना पर विस्तृत लेख ‘नागरिक’ के पूर्व अंक में प्रकाशित हुआ है जहां एक ओर सामाजिक सुरक्षा की ये बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं वहीं दूसरी ओर श्रम कानूनों को ढीला करने की तैयारी है। मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए भविष्य निधि अधिनियम 1952, पेंशन अधिनियम 1995 तथा प्रत्येक फैक्टरी मजदूर के कर्मचारी बीमा कानून का क्या जिन्हें या तो समाप्त करने या ढीला करने का प्रस्ताव है। ठेकेदारी में मजदूरों का कौन सा बीमा होता है या फिर कैसी उनकी सामाजिक सुरक्षा है जहां उन्हें न्यूनतम मजदूरी से कम पर काम करने को विवश होना पड़ रहा है। जब मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के कानूनी प्रावधानों को समाप्त करना एजेंडे में हो तब सामाजिक सुरक्षा की बड़ी-बड़ी बातें करना पाखण्ड नहीं तो और क्या है?
प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के सहमति-सह घोषणा पत्र में यह स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि वार्षिक प्रीमियम जो रुपये 12 है वह कभी भी संशोधित हो सकती है। यानि कि प्रीमियम की यह राशि जरूरी नहीं कि उतनी ही रहे यह बढ़ सकती है। मृत्यु के बाद नामित द्वारा दावे का निस्तारण भी बहुत आसान नहीं होगा। दुनिया भर के प्रमाण पत्र, शपथ पत्र सदस्य से सम्बन्ध का प्रमाण न जाने क्या क्या प्रस्तुत करने होंगे तभी दावे का निस्तारण होगा।
कुल मिलाकर करोड़ों की संख्या में इन योजनाओं से छोटे कारोबारी, मजदूर, साधारण जन जुड़ेंगे। निश्चित तौर पर यह वित्तीय समावेशन के जरिये पूंजी का निर्माण होगा। छोटी-छोटी बचतों से इन योजनाओं से जो पूंजी का निर्माण होगा उसे निश्चित तौर पर पूंजीपतियों को पूंजी निवेश के लिए उपलब्ध करवाया जाना तय है। सामाजिक सुरक्षा के नाम पर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना जनता को गुमराह करने के सिवा और कुछ नहीं है।
खुशाल, पिथौरागढ़(उत्तराखण्ड)
आप ही बतायें कैसे न्याय दिलायें
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
बेल सोनिका आटो कम्पोनेन्ट इण्डिया प्रा.लि. में लम्बे समय से चलते आ रहे मजदूरों के शोषण से परेशान होकर जब श्रमिकों ने यूनियन बनाने का और एकजुट होने का सोचा तो प्रबंधकों के पैरों तले की जमीन सी खिसकती लगी। प्रबंधकों द्वारा कई प्रयास यूनियन न बनने के और श्रमिकों को दबाने के लिए किये गये। लेकिन इन सबके चलते आखिर यूनियन का पंजीकरण 10 अक्टूबर 2014 को आरईजी नम्बर 1983 के रूप में आया। तब से कंपनी प्रबंधकों के यूनियन विरोधी प्रयास और तेज हो गये। और इसी दिन यानि 10 अक्टूबर को ही यूनियन बनाने वाले सभी श्रमिकों को गैर कानूनी तरीके से गेट बंद कर दिया गया और इन्हें कंपनी के अंदर नहीं आने दिया गया। कारण पूछने पर भी कोई उचित कारण नहीं दिया और ना ही लिखित में निलम्बित पत्र आदि दिए गये। आरोप पत्र भी सिविल कोर्ट के माध्यम से 24 दिसम्बर को श्रमिकों द्वारा केस दायर करने पर दिए गए। 10 अक्टूबर से यानि यूनियन बनने से ही कंपनी प्रबंधन सिर्फ इसी फिराक में थी कि किस तरह से यूनियन को रद्द करवाया जा सके। और श्रमिकों को हमेशा के लिए कंपनी से बाहर का रास्ता दिखाया जा सके।
कंपनी प्रबंधकों का साथ देने में प्रदेश का श्रम विभाग, पुलिस विभाग व अन्य कंपनियों के प्रबंधक भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लगे हुए है। यूनियन को रद्द करने के लिए कंपनी प्रबंधक अभी तक कई असफल प्रयास कर चुका है। जैसे नवम्बर 2014 में कंपनी ने चण्डीगढ हाईकोर्ट में केस लगाकर यूनियन रद्द करने का प्रयास किया। लेकिन यहां कंपनी प्रबंधकों को मुंह की खानी पड़ी और वे सफल नहीं हो सके। फिर एक और प्रयास रजिस्ट्रार महोदय चण्डीगढ़ के पास यूनियन के विरोध में याचिका दायर की गई। वहां पर भी अभी तक तो प्रबन्धक सफल न हो सके। इसको सफल बनाने के लिए वे रजिस्ट्रार के साथ मिलकर सांठ-गांठ करके बजाय समझौता करने के यूनियन को रदद करने के दांव-पेंच खेल रही है और इसके साथ ही एक अन्य झूठा केस गुडगांव सिविल कोर्ट में भी प्रबन्धकों ने अन्य श्रमिकों से (जो कम्पनी के अन्दर अभी काम कर रहे हैं) झूठे साईन लेकर व बिना इन श्रमिकों को बताए यूनियन के कई पदाधिकारियों के ऊपर झूठा केस लगाया हुआ है। इन श्रमिकों (जिनसे जबरदस्ती साईन लिए हुए है) से कोर्ट गुडगांव में बयान भी दिलाया है कि कम्पनी प्रबन्धकों ने उनसे कई बार जबरदस्ती अलग-अलग प्रकार के दस्तावेजों पर जैसे कोई कागजातों पर, हल्फनामे पर व त्यागपत्रों पर बिना श्रमिकों को दिखाये इन कागजातों को मोड़कर के साईन दबाव बनाकर करवाए है और यह केस प्रबन्धकों ने हमारे साईन लेकर बिना हमें बताए लगाया है, जिसका हमें नहीं पता। इस तरह प्रबन्धक गैर कानूनी तरीके से निलम्बित किए श्रमिकों को बहाल करने की बजाए उन पर (निलम्बित श्रमिकों पर) लगातार दबाव बनाने व उन्हें झूठे केसों में फंसाने के पूरे प्रयास कर रहा है।
लगातार लम्बे समय से (7 महीने) नौकरी से बाहर रहने के बावजूद भी श्रमिकों ने आज तक भी कम्पनी की गुणवत्ता, उत्पादकता व अनुशासन को कभी भी हानि पहुंचाने की कोशिश नहीं की न ही इस तरह का प्रयास श्रमिकों के द्वारा निलम्बित रहने से पहले किया गया। गुणवत्ता, उत्पादकता व अनुशासन को हानि पहुंचाने के प्रयास के झूठे इलजाम भी निलम्बित श्रमिकों पर लगाये जा रहे हैं। उल्टा प्रबंधक पक्ष ही न जाने क्यूं ऐसी स्थिति स्वयं कई बार पैदा कर चुके हैं जैसे प्रबंधक पक्ष के एचआर हेड ने स्वयं श्रमिकों को उकसाने व भड़काने के लिए श्रमिकों के साथ गाली -गलौच, मार-पिटाई स्वयं की व कई बार बाहरी गुण्ड़ों (बाउंसरों) का सहारा लेकर मार-पिटाई करवाई गयी। जबरदस्ती त्यागपत्रों, चुकता हिसाब के कागजातों व अन्य कई प्रकार के हलफनामों पर भी हस्ताक्षर करवाए गए जिसकी शिकायतें समय-समय पर थाना मानेसर में करवाई गयी। लेकिन पुलिस विभाग की तरफ से इन शिकायतों पर आज तक भी कोई कार्यवाही नहीं की गयीं। पहले तो थाना अधिकारियों ने श्रमिकों की शिकायतें व एफआईआर दर्ज ही नहीं की, उलटा श्रमिकों को ही भला बुरा व गाली गलौच करने लगे। लेकिन बाद में पुलिस कमिश्नर गुड़गांव के कहने पर शिकायतें तो दर्ज कर ली गयीं लेकिन एफआईआर आज तक दर्ज नहीं की गयीं। अब भी इन शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी।
कम्पनी प्रबंधकों ने माह फरवरी 2015 तक गैरकानूनी तरीके से लगभग 68 स्थायी व ट्रेनिंग श्रमिकों को बिना कोई घरेलू जांच की कार्यवाही पूरे किए टर्मिनेट किया जा चुका है। इसके अलावा लगभग 18 स्थायी व ट्रेनिंग श्रमिक निलम्बित चल रहे हैं। और इसके साथ ही कम्पनी लगभग 60 ठेका श्रमिकों को बाहर का रास्ता दिखा चुकी है। इस तरह सभी श्रमिकों को मिलाकर लगभग 150 श्रमिकों को गैर कानूनी तरीके से बाहर किया जा चुका है। और आगे भी यही प्रक्रिया लगातार जारी है जो बंद होने का नाम नहीं ले रही है और श्रमिकों को सिर्फ यूनियन बनाने व इसका साथ देने के कारण बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है और प्रबंधकों के द्वारा श्रमिकों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। सिर्फ एक यूनियन बनाने मात्र से प्रबंधक लगातार श्रम विभाग के अधिकारियों के साथ मिलकर व उन पर कई तरह के राजनैतिक दबाव बनाकर श्रम कानूनों को ताक पर रख रहे हैं। वे श्रम कानूनों को मानने तक को तैयार नहीं होते सिर्फ दिखावा करते हैं।
पिछले माह फरवरी 2015 में भी प्रबंधकों द्वारा ऐसा ही एक और गैर कानूनी कदम उठाया गया। जिसमें 47 श्रमिकों का केस अतिरिक्त श्रमायुक्त गुड़गांव के सम्मुख चल रहा था। इन 47 श्रमिकों में 39 श्रमिकों को घरेलू जांच की कार्यवाही पूरी किये बिना व जांच रिपोर्ट तैयार किये बिना और जांच रिपोर्ट दिए बिना 39 श्रमिकों के बैंक खातों में चुकता हिसाब की राशि 16 फरवरी 2015 को डाल दी गयी। लेकिन कम्पनी प्रबंधकों द्वारा 16 फरवरी को ही श्रमिकों के खाते में हिसाब की राशि डालने के साथ ही अतिरिक्त श्रमायुक्त गुड़गांव में आज्ञा या सहमति लगानी थी जो नहीं लगाई गयी। 18 फरवरी 2015 को रजिस्ट्रार चण्डीगढ़ के माध्यम से अप्रूवल चण्डीगढ़ में दायर की गयी। जो रजिस्ट्रार के माध्यम से डायरी विभाग से सांठ-गांठ करके 16 फरवरी को दर्ज की गयी। और अतिरिक्त श्रमायुक्त गुड़गांव के पास 24 फरवरी 2015 को डाक के माध्यम से पहुंची। प्रबंधकों का अप्रूवल लगाने का यह तरीका गलत व गैर कानूनी है। इसी तरह के गलत व अनुचित कदम कम्पनी प्रबंधकों की और से बार-बार उठाए जा रहे हैं जबकि श्रमिकोें की ओर से आज तक कानून की पूरी-पूरी पालना की जा रही है। फिर भी कानून श्रमिकों को बहाल करने की बजाए कम्पनी व कम्पनी प्रबंधकों के इशारों पर नाच रहा है।
माननीय सहायक श्रमायुक्त सर्कल-VI गुड़गांव में श्रमिकों द्वारा डाला गया सामूहिक मांग पत्र पिछली दिनांक 24 सितम्बर (लगभग 8 महीने) से लम्बित पड़ा है। जिस पर कम्पनी प्रबंधक बात ही करने को तैयार नहीं है और सिर्फ केस को लम्बा करने के लिए आगे से आगे की तारीखें लेकर कम्पनी प्रबंधक चले जाते हैं और श्रमिकों के हाथ लगती है तो सिर्फ तारीख और सिर्फ तारीख।
दूसरी तरफ जिन 8 श्रमिकों को घरेलू जांच कार्यवाही अभी अधूरी है इनमें से 4 को तो कोई घरेलू जांच कार्यवाही की तारीख ही नहीं दी जा रही है जिसकी अपील अतिरिक्त श्रमायुक्त व सहायक श्रमायुक्त सर्कल-6 गुड़गांव में भी की जा चुकी है। और अन्य 4 श्रमिकों को घरेलू जांच कार्यवाही की तारीख जांच अधिकारियों द्वारा दी जा चुकी है तो वे स्वयं जांच स्थल पर नहीं पहुंचते। ऊपर से आने, न आने की सूचना श्रमिकों को नहीं दी जा रही है। अगर श्रमिक फोन के माध्यम से सम्पर्क करने की कोशिश करते हैं तो उन श्रमिकों का फोन भी जांच अधिकारियों द्वारा रिसीव नहीं किया जाता और श्रमिकों को आगामी जांच कार्यवाही की तिथि भी समय पर नहीं बताई जा रही। जबकि जांच कार्यवाही की आगामी तिथि व अपने आप ना आने की सूचना समय पर देना जांच अधिकारी का कर्तव्य बनता है। जांच अधिकारी ही इस तरह से जांच कार्यवाही को लम्बा और एकतरफा करने के प्रयासों में लगे हैं। यानी कानून के रक्षक ही स्वयं कानून के भक्षक बनकर बैठे हैं। जिसको कानून की पालना स्वयं करना चाहिए व दूसरों से भी यही उम्मीद करनी चाहिए वे ही सरेआम, दिन-प्रतिदिन और कानून का ही चोला पहनकर कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं और दूसरों को भी सिखा रहे हैं। यह केवल इन्हीं नीतियों के साथ ही नहीं बल्कि हजारों-लाखों निर्दोष श्रमिकों व निर्दोष लोगों के साथ दिन-प्रतिदिन हो रहा है। मजदूरों का नेतृत्व करने वाले श्रमिकों को लगातार लम्बे समय से दबाया जाता जा रहा है और झूठे केसों में फंसाकर जेलों में भरा जा रहा है जिसकी संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही हैै। इस तरह आप ही बताएं इन हजारों-लाखों निर्दोष व बेबसों को किस प्रकार से न्याय दिलाया जाए।
अतुल कुमार (प्रधान)
बेलसोनिका आॅटो कम्पनी यूनियन
माॅडल टाउन गुडगांव
सरकारः भाजपा किसान-मजदूर विरोधी सरकार
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
मध्य प्रदेश राज्य के खांडवा जिले में घोघला गांव के किसान पिछले 11-12 दिनों से जल सत्याग्रह कर रहे हैं। किसान गांव के नजदीक बने ओंकेश्वर बांध की ऊंचाई बढ़ाये जाने का विरोध कर रहे हैं। बांध की ऊंचाई 189 मी. से 191 मी. किये जाने से खांडवा जिले के 300 गांव व कृषि भूमि डूब क्षेत्र में आ गये हैं।
किसान अपनी कृषि योग्य भूमि के लिए उचित मुआवजे व उचित पुर्नवास की मांग को लेकर संघर्षरत हैं। बांध का जलस्तर 2 मी. बढ़ाये जाने से स्थानीय आबादी के लिए जलस्तर और आवास का संकट खड़ा हो गया है। किसानों के अलावा खेती पर निर्भर मजदूरों के लिए तो संकट और भी गम्भीर है। इसलिए स्थानीय आबादी बांध का जलस्तर 189 मी. से अधिक न बढ़ाये जाने व डूब क्षेत्र में आयी भूमि के लिए उचित मुआवजे के लिए संघर्षरत है। घाघला गांव के लोग 11 दिनों से छाती तक पानी के अंदर खड़े हैं। पानी के अंदर खड़े लोगोें के पैर की खाल गलने लगी है। लोगों के पैरों से खून रिसने लगा है।
राज्य में भाजपा सरकार के मुखिया शिवराज चौहान मौन साधे हैं।
खुद को किसानों का हितैषी कहने वाली भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री मोदी भी इस पर कुछ नहीं बोलते हैं। जबकि भाजपा लोकसभा चुनाव में अच्छे दिनों के नारे के साथ सत्ता पर बैठी।
परन्तु सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों के मन की बात सुनने के बजाय किसानों को मन की बात सुना रहे हैं।
एक ओर जहां किसान अपनी जमीन और रोजगार को लेकर संघर्ष कर रहे हैं और आत्महत्या कर रहे हैं। वहीं मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर खुद को किसानों का सबसे बड़ा हितैषी साबित कर रही है।
भूमि अधिग्रहण बिल राज्य को किसी की भी भूमि जबरन छीन लेने का अधिकार देता है। और प्रधानमंत्री मोदी मन की बात में किसानों को बताते हैं कि यह बिल किसान विरोधी नहीं किसान हितैषी है। यही है भाजपा सरकार का किसान हितैषी चेहरा।
दोस्तों यह सरकार न तो किसान हितैषी है और न मजदूर हितैषी। यह सरकार विकास के नाम पर देश की जमीनें, देश के प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की छूट देशी-विदेशी पूंजीपतियों को दे देना चाहती है।
यह सरकार मजदूरों, किसानों के लूट की छूट पूंजीपतियों को दे देना चाहती है।
‘श्रमेव जयते’ कोरी लफ्फाजी मजदूरों के साथ धोखा है
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के अनुसार करीब पांच करोड़ उनके सक्रिय सदस्य हैं जो प्रोविडेण्ट फण्ड से सम्बद्ध हैं। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे मेहनतकश समाज का कितना छोटा हिस्सा असल में श्रम कानूनों के दायरे में आता है। यानि कि मजदूरों की एक बड़ी आबादी श्रम कानूनों से बाहर है जिन्हें उनके मालिकों को उनके श्रम का निर्मम शोषण करने की खुली छूट मिली है। श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर ऐसे संशोधन प्रस्तावित किये जा रहे हैं जो दूसरे के श्रम पर मुनाफा कमाने वाले परजीवी मालिकों को बहुत सारी छूट प्रदान करते हैं। दुनिया के पैमाने पर मजदूरों के आंदोलनों की कमजोर स्थिति तथा वैश्विक स्तर पर आर्थिक मंदी ने श्रम कानूनों को मजदूर विरोधी बनाने की ओर बढ़ने में मदद पहुंचायी है।
श्रम विभाग से जुड़े नौकरशाह, उद्योगपति समस्त राजनैतिक दल यह अच्छी तरह जानते व समझते हैं कि श्रम कानूनों की औकात क्या है। पहले से ही श्रम कानूनों का कितना पालन होता है। कैसे फर्जीवाड़ा करके श्रम कानूनों को ठेंगा दिखाया जाता है। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। व्यापार एवं अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए परजीवियों को ये लुंज-पुंज श्रम कानून भी अखरने लगे हैं। पूंजी के रास्ते में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए फिर वे श्रम कानून ही क्यों न हों, इस देश के प्रधानमंत्री ‘श्रमेव जयते’ की लफ्फाजी करते हैं वहीं पर श्रम कानूनों को मालिकोन्मुखी बनाने में विश्वास रखते हैं। जब बात कही जाती है कि देश में पूंजी निवेश के लिए लाल फीताशाही बड़ी बाधा है। तब असल में इशारा श्रम कानूनों की ओर होता है। जब कहा जाता है हमारे यहां निवेश के लिए रेड टेप का सामना नहीं करना पड़ेगा। बल्कि हम रेड कार्पेट बिछायेंगे तब इसका मतलब यह है कि हम श्रम कानूनों को या तो समाप्त ही कर देंगे या फिर उन्हें इतना कमजोर बना देंगे कि पूंजी के लिए वे किसी भी तरह से बाधक नहीं होंगे।
नौकरशाही व नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार का बहाना बनाकर असल में श्रम कानूनों को कमजोर बनाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। मजदूरों के संघर्ष के गौरवशाली इतिहास, दुनिया के पैमाने पर मजदूर क्रांतियों ने श्रम कानूनों की मजबूरी को स्थापित किया। श्रम कानून कोई मजदूरों पर दिखाई जाने वाली दरियादिली, सद्भावना या एहसान कतई नहीं है। मजदूरों के पक्ष में श्रम कानून जो भी बनाये वे मजदूरों के दबाव में बनाये गये हैं। मालिकों को एक दौर में झुकना पड़ा। तब श्रम कानून अस्तित्व में आये श्रम कानून एक फौरी समझौता हैं जो मजदूरों को संघर्ष करने से रोकता है।
जब ‘गुड गर्वनेन्स’ या सुशासन की बात की जाती है तब इसका मतलब साफ है मेहनतकशों की जो भी आवाज विद्रोह करेगी उसे सुशासन के जरिये दबाया जायेगा पूंजी के लिए एक अच्छा वातावरण शांति पूर्ण शोषण (Peaceful Exploitation) की एक फिजा तैयार की जायेगी। ‘मिनिमम गवर्नमेण्ट’ का मतलब है मजदूरों के पक्ष में जो थोड़े बहुत श्रम कानून बने भी हैं उन्हें कमजोर बनाकर सरकार की भूमिका को न्यूनतम कर दिया जायेगा। रोजगार देना सरकार का दायित्व बिल्कुल भी नहीं है। मालिक-मजदूरों के मध्य सरकार अपनी भूमिका बिल्कुल नहीं रखना चाहती है। पूंजी को मजदूरों पर हमला करने के लिए बिल्कुल खुला छोड़ देना आर्थिक सुधारों का अहम हिस्सा है। बातें घुमा फिरा कर कही जाती हैं। टुकड़ा खोर बुद्धिजीवी बड़ी शालीनता से इस मुनाफाखोर व्यवस्था पर पर्दा डालने का काम बखूवी करते हैं।
खुशाल सिंह नेगी, पिथौरागढ़
इस बार मनेगा मजदूर-किसान एकता दिवस
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन की एक विस्तारित बैठक का आयोजन पीडब्ल्यूडी गेस्ट हाउस में 7 अप्रैल को किया गया था। इसमें लिए गये निर्णयों के अनुरूप पर्चा एवं पोस्टर वितरित करने एवं विभागवार बैठकें आयोजित करने का सिलसिला शुरू हो गया है। इस बार मई दिवस मजदूर किसान एकता दिवस के रूप में मनाया जायेगा जिसके लिए किसानों के बीच में भी बैठकें कर पोस्टर चिपकाये जाने का काम किया जा रहा है। 10 अप्रैल को राष्ट्रपति को सम्बोधित ज्ञापन भेजने के बाद निरन्तर बैठकें की जा रही हैं। अब तक भारतीय जीवन बीमा निगम, सिंचाई विभाग, संयुक्त परिषद कार्यालय, रोडवेज कार्यालय, भविष्य निधि संगठन, बिजली दफ्तर, विकास भवन, बीएसएनएल कार्यालय, बैेंकों आदि में बैठकों के कई दौर हो चुके हैं। आज सांय आयकर कार्यालय में महासंघ के पदाधिकारियों व सदस्यों के साथ बैठक का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता श्री कैलाश चन्द्र सक्सेना ने की। इस अवसर पर अपने सम्बोधन में महामंत्री संजीव मेहरोत्रा ने कहा कि श्रम कानूनों में किए जा रहे एक तरफा बदलाव एवं भू-अधिग्रहण अध्यादेश एक किसान विरोधी कदम है। आयकर कर्मचारी महासंघ के जोनल सचिव रवीन्द्र सिंह ने कहा है कि वर्तमान दौर में आपसी एकता को मजबूत करके शिकागो शहीदों के बताये रास्ते पर चलने की आवश्यकता है।
इस मौके पर आयकर कर्मचारी संघ के राजेश सक्सेना ने कहा कि मोदी सरकार के काबिज होने के बाद से रोजगार के अवसर घट रहे हैं और श्रम कानूनों में मालिकों के हक में परिवर्तन से श्रमिकों कर्मचारियों की हालत खराब हो रही है। मई दिवस को सफल बनाने के लिए सभी का आह्वान किया गया। इस दौरान फेडरेशन की गतिविधियां तेज करने व आंदोलन को व्यापक बनाने की रणनीति भी तय की गयी। परिचर्चा में अमीर खां, अफरोज आलम अंजनीसिंह, कमलेश त्रिपाठी, सतीश बाबू, ए.के. जायसवाल, सुरेन्द्र कुमार आदि ने सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। संजीव मेहरोत्रा, महामंत्री
बरेली ट्रेड यूनियन फैडरेशन
31 साल बाद झण्डारोहण समारोह
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
फ्रिक इण्डिया लिमिटेड, एन.एच.पी.सी. चौक, मथुरा रोड फरीदाबाद में स्थित है। फ्रिक इण्डिया इम्प्लाइज यूनियन द्वारा 12 फरवरी 2015 को जोशो खरोश के साथ झण्डा रोहण का आयोजन कम्पनी गेट पर शाम 5 बजे से लेकर 6ः30 बजे तक का कार्यक्रम किया गया। यूनियन 1983 में बनी तब उस समय 12 फरवरी 1983 में कम्पनी गेट पर झण्डारोहण किया गया था। अबकी बार 31 साल बाद यूनियन ने अपने जोशोखरोश व उल्लास के साथ झण्डारोहण कार्यक्रम मनाया। इसमें कम्पनी के सारे मजदूर स्थायी मजदूर, ट्रेनिंग व ठेकेदारी के मजदूर शामिल थे। झण्डारोहण शुरू में ‘इंकलाब-जिन्दाबाद!’ ‘फ्रिक इण्डिया इम्प्लाइज यूनियन-जिन्दाबाद’ व ‘ मजदूर एकता-जिन्दाबाद’ के नारे लगाये गये। जिसमें मजदूरों ने जोशो खरोश के साथ नारे लगाये। चुने गये पदाधिकारियों का स्वागत किया गया। प्रधान- रणधीर सिंह, महासचिव- सुरेश वर्मा, कोषाध्यक्ष- राम अवतार सिंह, उपप्रधान- सुदर्शन राम, उपसचिव- सच्चिदानंद सिंह हैं जो 2011, 2013 व 2015 से लगातार तीसरी बार निर्विरोध निर्वाचित हुए हैं।
मजदूरों को सम्बोधित करते हुए प्रधान व महासचिव तथा अन्य पदाधिकारी गणों ने अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहने व एकता बरकरार बनाये रखने के संदेश दिये। जयप्रकाश, फरीदाबाद
रेलवे कायाकल्प कमेटी-किसका कायाकल्प रेलवे या देशी विदेशी पूंजीपतियों का!
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
भारतीय रेलवे के बहादुर साथियो,
आज भारतीय रेल पर खतरे के काले बादल मंडरा रहे हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा (NDA) सरकार बनते ही भारतीय रेलवे पर, सार्वजनिक क्षेत्र पर, मेहनतकश लोगों पर जैसा कि पहले ही अंदेशा था हमले तेज हो चुके हैं। नरेन्द्र मोदी देशी-विदेशी पूंजीपतियों को आश्वासन दे रहा है कि भारत में पूंजी लगाइये, मैं आपकी पूंजी को आंच नहीं आने दूंगा, इससे भी आगे बढ़कर सरकार उनके मुनाफे को बढ़ाने के लिए नियमों/कानूनों में बदलाव भी कर रही है। श्रम कानूनों, पर्यावरण कानूनों में बदलाव इसके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। 5 दिसम्बर 2014 को रेलवे भवन में आयोजित मेक इन इंडिया कार्यक्रम में रेल मंत्री श्री सुरेश प्रभु व अन्य अधिकारियों ने उद्योगपतियों को जो कुछ कहा था उससे पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि सरकार देशी-विदेशी पूंजीपतियों जिनके मोटे फंडों व जिनके मीडिया के प्रचार एवं सहयोग से ये सरकार बनी है के लिए कुछ भी करेगी। परन्तु पूंजीपति वर्ग कोई भी खतरा मोल लेने को तैयार नहीं हुआ। नरेन्द्र मोदी व सरकार के दावों पर उनको यकीन नहीं हुआ और हाई लेवल रेलवे रिस्ट्रकचिरिंग कमेटी (HLRRC) जिसकी अध्यक्षता श्री विवेक देवराय कर रहे हैं व उसके अन्य सदस्य जो कि देशी-विदेशी पूंजीपतियों के प्रतिनिधि हैं व अनेकों अन्य कमेटियां जिन्होंने पूंजीपतियों के पक्ष में सिफारिशें की थीं को लागू करने के लिए भारत सरकार ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों का भरोसा बांधने के लिए टाटा ग्रुप के पूर्व चेयरमेन रतन टाटा की अध्यक्षता में रेलवे कायाकल्प कमेटी का गठन कर दिया और पूंजीपतियों के मन में यह भय कि कर्मचारी यूनियनें विरोध करेंगी को दूर करने के लिए रेलवे की दो मान्यता प्राप्त फैडरेशनों के महामंत्रियों श्री एम. राघवैया व शिवगोपाल मिश्रा को इस कमेटी का मैंबर ले लिया गया है। इससे कुछ-कुछ तो साफ है कि रेलवे कायाकल्प कमेटी के गठन के पीछे सरकार की मंशा क्या है। रेलवे की फैडरेशनों के नेताओं की कायाकल्प कमेटी के मैंम्बर बनने पर क्या दलीलें दीं, हमारा पक्ष क्या है या कहें क्या डर है इसको जानने से पहले आओ जरा विवेक देवराय की अध्यक्षता वाली HLRRC कमेटी को सौंपे गये काम (TASK) व अपनी अंतरिम रिपोर्ट में की गयी सिफारिशों को जरा ध्यान से देखें-
TASK का गठन केन्द्र सरकार ने पत्र संख्या ERB- 1/2014/24/39 दिनांक 22/09-2014 को श्री विवक देवराय Sr. Research Prof. Center for Policy Research की अध्यक्षता में किया व सचिव संजय चड्ढा, EDME, Railway Board को बनाया, इसके लगभग सभी मैंम्बर जैसे गुरूचरन दास, Ex CMD प्रोक्टर एंड गेम्बलर ,श्री रवि नारायण Ex MD नेशनल स्टाॅक एक्सचेंज आदि कारपोरेट जगत के प्रतिनिधि है, उस कमेटी की रेलवे के पुनर्गठन, रेलवे में FDI, PPP निगमीकरण, निजीकरण आदि नीतियां रेलवे में कब, कहां कहां और कैसे लागू करनी हैं का काम सौंपा गया है। 31 मार्च 2015 को रेलमंत्री श्री सुरेश प्रभु को सौंपी अपनी अंतरिम रिपोर्ट में उन्होंने अपना काम बखूवी किया है उनकी रिपोर्ट के कुछ मुख्य बिन्दु हैंः-
-यात्री व मालगाडि़यों का संचालन एक संचालन कंपनी बनाकर निजी क्षेत्र को सौंपा जाये।
-एक रेलवे इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनी बनायी जाए जो नई रेलवे लाइनों का काम देखेगी।
-स्टेशन विकास निगम के नाम से एक कंपनी बनाई जाए जो स्टेशनों के रोजाना के काम देखेगी।
-ग्रुप डी के कर्मचारी जिनकी संख्या 5.64 लाख है के काम को आउटसोर्स करके बाजार के सस्ते दामों पर करवाया जाए।
-रेल इंजन, रेल कोच तथा वैगन आदि के उत्पादन का काम निजी कंपनियों को सौंपा जाए।
-रेलवे एक्ट में संशोधन का सुझाव।
-एक स्वतंत्र रेलवे रेग्युलरिटी अथाॅरिटी बनाने का सुझाव।
-मधेपुरा, मंढोरा, रायबरेली, भीलवाड़ा, सोनीपत, छपरा, जलपाईगुडी, कांचरापाडा व केरल के कारखानों को निजी कम्पनियों को देने का सुझाव।
-रेलवे बोर्ड को भारतीय रेलवे का कारपोरेट बोर्ड बनाने, अध्यक्ष रेलवे बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाने का सुझाव।
-रेलवे की सभी उत्पादन इकाईयों को इण्डियन रेलवे मैन्युफेक्चरिंग कम्पनी (IMRC) बनाकर उसके अधीन करने व IMRC के स्वतंत्र निदेशकों का चयन पब्लिक इन्टरप्राइजेज सलैक्शन बोर्ड (PESB) से किये जाने का सुझाव।
-किसी भी अधिकारी के खिलाफ विजीलैंस का मामला दर्ज करने से पहले मंडल रेल प्रबंधक की पूर्व अनुमति की शर्त।
-स्कूल, अस्पताल व RPF प्रबंधन जैसे कामों को रेलवे से अलग करने का सुझाव।
-निजी कम्पनियों को Special Purpose Vehical [SPV], के तहत निर्माण, विकास व संचालन का काम सौंपने का सुझाव वगैरा-वगैरा (SPV क्या है? हम आगे बतायेंगे।)
विवेक देवराय कमेटी (HLRRC), राकेश मोहन कमेटी, सैम पितरोदा कमेटी, श्रीधरन कमेटी, विजन 2020 व अन्य कमेटियों के सुझावों से स्पष्ट है कि सरकार रेलवे को निजीकरण/निगमीकरण, रेलवे ढांचे में फेरबदल करके इसको निजी हाथों में देना चाहती है जिससे न सिर्फ रेल कर्मचारी व उसके परिवार प्रभावित होंगे, रेलवे का किराये भाड़े में कई गुणा वृद्धि होने के कारण रेल आम आदमी की सवारी भी नहीं रहेगी, देश की आत्म निर्भरता खतरे में पड़ जायेगी।
अब जब रेलवे की दोनों मान्यता प्राप्त फेडरेशनों ने संयुक्त संघर्ष कमेटी बनाकर जिसके चेयरमैन एम राघवैया व संयोजक शिव गोपाल मिश्रा थे, रेलवे में एफडीआई, पीपीपी, निजीकरण, रेलवे ढांचे के साथ छेड़छाड़, एनपीएस आदि के खिलाफ धरने, प्रदर्शन, संसद का घेराव, हड़तालें आदि करने का दावा कर रही थीं कि तब उपरोक्त दोनों नेता रेलवे कायाकल्प कमेटी के सदस्य बन गये हैं। जोकि रेलवे के लिए खतरे की घण्टी हैं। यहां दिलचस्प बात यह है कि AIRF के महामंत्री शिव गोपाल मिश्रा साल भर पहले ये कहते हुए एफडीआई का समर्थन करते रहे हैं कि अगर एफडीआई से रेलवे का विकास होता है तो हमारा एफडीआई से कोई विरोध नहीं है। हमारी शर्त बस इतनी है कि इससे रेलवे का निजीकरण नहीं होना चाहिए व कर्मचारियों के हित प्रभावित नहीं होने चाहिए। और माननीय नरेन्द्र मोदी और सुरेश प्रभु जो भी कहते हैं कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा। विवेक देवराय की सिफारिशों को देखकर उनका दोगला चेहरा पूरी तरह बेपरदा हो गया है। फिर भी हमें एफडीआई, पीपीपी, एसपीवी जैसे टेक्नीकल शब्दों के अर्थ व सरकारी कमेटियों के मनोरथों को भी नजदीक से जानना होगा।
एफडीआई क्या है?- FDI [Foreign Direct Investment], माने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश। साथियो अगर विदेशी पूंजी की बात करें तो अंग्रेजों के देश छोड़ते समय व आजादी के बाद भी यह देश से बाहर नहीं गयी है और बहुत सी कम्पनियां देश में कारोबार करती रही हैं जैसे- मारुति सुजुकी, होंडा, कोलगेट, युनीलीवर आदि बहुत सी कम्पनियां हैं पर एफडीआई का शोर हमने पिछले चार-पांच वर्षों से ही सुना है।
साथियो एफडीआई वित्तीय पूंजी के लिए एक पैकेज होता है जिसमें कम्पनियों के लिए विशेष छूट और प्रावधान होने, यानी बिजली पानी के नाम मात्र मूल्य, टैक्स में छूट, नीति निर्धारण का हक, पैसा लगाने व निकालने के लिए सरकारों का हस्तक्षेप न होना बगैरा बगैरा, संक्षेप में कहें तो पहले कम्पनियों के बीच हुए समझौतों में सरकार की भूमिका व नियंत्रण होता था अब सरकारों की भूमिका खत्म, कंपनियां जाने या लोग, सरकार खामोश! बस साथियो यही है एफडीआई का रोग! श्रम कानूनों, पर्यावरण कानूनों में बदलाव, सिंगल विंडो क्लीयरेन्स, भूमि अधिग्रहण कानून को इसी की रोशनी में देखने की जरूरत है और सबसे अहम कि एफडीआई का पैसा देश में कुछ नया ढांचा नहीं बनायेगा बल्कि बने बनाए ढांचे को नियंत्रण में लेकर मोटा मुनाफा कमायेगा, जब भी पूंजी को कोई खतरा महसूस होगा या उसका मुनाफा कम होगा तो यह पैसा कंपनियों द्वारा बाहर निकाल दिया जायेगा। पैसों की कमी, हुनर के विकास, कीमतों में गिरावट, सरकारी खर्च में बचत आदि वादों और दावों कतई सच्चाई नहीं है।
पीपीपी- सार्वजनिक निजी भागीदारी (Public Private Partnership) सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों और रेलवे में सुस्ती का बहाना बनाकर ढांचे को चुस्त-दुरूस्त करने के नाम पर पीपीपी का वकालत करती है। किन्तु दुनिया भर के बुद्धिजीवियों व अर्थशास्त्रियों का मानना है कि पीपीपी कोई भागीदारी नहीं है बल्कि सीधा-सीधा निजीकरण है। निजी कंपनी द्वारा पीपीपी में लगाया गया पैसा पूर्ण रूप में लोगों का ही होता है क्योंकि यह बैंकों से कर्ज लेकर लगाया जाता है। पीपीपी के तहत किसी भी प्रोजेक्ट में सारा रिस्क पब्लिक क्षेत्र का यानी लोगों का और मुनाफा प्राइवेट कंपनियों का होता है।
SPV- [Special Purpose Vehicle], इसका शब्दार्थ तो आप जानते ही हैं। ये अर्थशास्त्र में कर्ज देने की ऐसी व्यवस्था है जिसमें उद्योगपतियों को कर्ज लेने के लिए अपनी सम्पत्ति गारंटी के रूप में बैंक में देने की जरूरत नहीं होती और न ही बैंक उसको जब्त कर सकते हैं जैसे देश में किसानों-मजदूरों की होती है यानी मुनाफा तो निजी कंपनियों का होता है और घाटा बैंकों का यानि देश के लोगों का। पूंजीपतियों का कोई रिस्क नहीं और तथ्य यह है कि देश की बैंक हर वर्ष लगभग 5 लाख करोड़ रुपये इन औद्योगिक घरानों के लिए गये कर्ज को Non Performing Assets [NPA] में डालती है।
स्पष्ट है कि देश की मौजूदा सरकार भी पूंजीपति देशों व संस्थानों के आगे झुकती हुई न सिर्फ रेल कर्मचारियों व उनके परिवारों और देश के आम जन को बड़े मगरमच्छों के आगे बांध कर डालना चाहती है बल्कि देश की आत्मनिर्भरता, स्वाभिमान, आजादी, सम्प्रभुता को भी खतरे में डाल रही है। और देश को दुबारा गुलामी की तरफ धकेल रही है। ऐसे में रेलवे की दोनों मान्यता प्राप्त फैडरेशनों के महामंत्रियों द्वारा रेलवे कायाकल्प कमेटी के मेंबर बनना, रेल कर्मचारियों के साथ ही नहीं बल्कि देश के आम लोगों के साथ भी गद्दारी है। इनकी दलील और दावा है कि हम कर्मचारियों के पक्ष में कमेटी में बैठे हैं और अगर रेलवे के निजीकरण की बात चली तो हम इसका विरोध करेंगे। पहली बात ये कि भारत सरकार के इरादे पूरी तरह साफ है, क्या इनको 100 प्रतिशत FDI के अर्थ समझ में नहीं आये? ऐसा नहीं है साथियो दरअसल रेलवे का निजीकरण तो बहुत पहले से शुरू हो चुका है ज्यादा पीछे न जायें तो रेलमंत्री सुरेश प्रभु द्वारा 27 फरवरी 2015 को राज्यसभा में यह बताना कि पांच रेलवे स्टेशन जिसमें हबीब गंज, बीजवाशन, शिवाजीनगर, चंढीगढ़, आनंद विहार शामिल हैं, को निजी हाथों में देने का मसौदा पूरी तरह तैयार है। 20 मार्च 2015 को मधेपुरा और मंढीरा में दो रेल इकाईयों में 100 प्रतिशत FDI लागू करना भला क्या है? सो ये फैडरेशनों के नेता संघर्ष कहां, कब और कैसे करेंगे आपको अभी भी कोई शक है? दूसरी बात ऐसे ही फैडरेशनों के नेता नई पेंशन स्कीम (NPS) के समय भी NPS के ट्रस्टी बन कर बैठ गये थे और दलील बिल्कुल यही थी और नतीजे आपके सामने हैं पर ये नेता NPS के नाम पर हमें अभी भी गुमराह कर रहे हैं।
सो अब तो जागो साथियो, हमारे बुजुर्गो हमारे शहीदों ने हमें जो आजादी और हक लेकर दिए थे वो आजादी और हक हमसे छीने जा रहे हैं, हमारी छुटिटयां छीन लीं, हमारी संख्या जो कभी 26 लाख थी जो घटकर 10.5 लाख हो गयी है हमारा काम छीनकर आऊटसोर्स कर दिया, हमारी पेंशन छीन ली, हमारे भाई बच्चों से रोजगार छीन लिया, हम पर काम का बोझ बढ़ाकर हमारा सुख चैन नींद तक छीन ली, क्या हम अभी भी खामोश रहें?
साथियों हमारे समय का इतिहास बस इतना सा रह जाये कि हम धीरे-धीरे मरने को जिन्दगी समझ बैठे थे। आओ उठ खड़े हो, केन्द्र सरकार की इन नीतियों को पस्त कर दें। हम इंडियन रेलवे एम्पलाईज फैडरेशन [IREF] की तरफ से आपका आह्वान करते हैं कि आओ कि हम सब मिलकर ऐसी नीतियों, कमेटियों व दलाल नेताओं का विरोध करें। अपने व अपने देश के आम जन के हितों की लड़ाई साथ मिलकर लड़े और पहली मई के शहीदों को यही हमारा सही और सच्चा नमन होगा, प्रणाम होगा। मान्यता के नशे में चूर हमारे भविष्य, हमारी जिन्दगी के साथ खिलवाड़ करने वाले नेताओं को या तो संघर्ष के लिए मजबूर कर दें या उनको बाहर का रास्ता दिखा कर ये बता दें कि ये अब और नहीं चलेगा कि तुम नेता तो हमारे कहलाओ और काम सरकार और पंूजीपतियों के लिए करोगे। साथियो! अब डरने का नहीं संघर्ष करने का समय है आओ संघर्ष का परचम लहरा दें। क्योंकि
हम लड़ेंगे जब तक, दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है,
हम लड़ेंगे कि लड़ें बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे कि अब तक लड़ें क्यों नहीं
सौजन्य सेः
डीजल रेल इंजन मजदूर यूनियन, वाराणसी (DLWRMU) 09794864358
नार्दन रेलवे एम्पालाईज यूनियन, नार्दन जोन (NREU) 09780642198
डी एम डब्लयू एम्पलाईज यूनियन, पटियाला (DLWEU) 09417875250
आरसीएफ एम्पलाईज यूनियन, कपूरथला (RCFEU) 08437041680
आरसीएफ एम्पलाईज यूनियन, रायबरेली (RCFEU) 07388132000
भारतीय रेलवे मजदूर यूनियन, SWR Zone (BRMU) 08762232750
वेस्ट सेन्ट्रल रेलवे कर्मचारी यूनियन WCR Zone (WCRKU) 0940654561
इण्डियन रेलवे एम्पलाईज यूनियन NWR Zone (IREU) 09462070016
निवेदकः इंडियन रेलवे एम्पलाईज फैडरेशन(WCRKU)
सर्वजीत सिंह, राष्ट्रीय अध्यक्ष
कट्टा रमईया, राष्ट्रीय महासचिव
पेन्टा क्राफ्ट कंपनी में बुरे हाल
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
हरिद्वार स्थित पेन्टा क्राफ्ट कंपनी में 25 मार्च को 14 मजदूरों को ब्रेक दे दिया गया जिनमें 12 महिला मजदूर और 2 पुरुष मजदूर थे। ये मजदूर पिछले डेढ़ से साढ़े तीन साल से कम्पनी में काम कर रहे थे। कम्पनी ने मजदूरों को पहले सूचना दिये बगैर 25 मार्च को कहा कि वे कल से काम पर नहीं आयें। उन्हें आठ दिन के लिए ब्रेक दिया गया है। मैनेजमेण्ट के लोग सभी मजदूरों के बीच काम कम होने की बात करते हैं। बीते 22 मार्च से कम्पनी 8 घण्टे की दो शिफ्टों में चल रही है। इससे पहले भी एक बार और फरवरी माह में 8 घंटे कम्पनी चलायी गयी थी लेकिन उस समय किसी मजदूर को ब्रेक नहीं दिया गया था।
कम्पनी के ब्रेक के आठ दिन पूरे होने पर जब कुछ महिलायें काम पर वापस आईं तो गार्ड ने उन्हें गेट पर रोकर मैनेजर से बात करने को कहा। मैनेजर ने फोन पर बात करके महिलाओं को आठ दिन और इंतजार करने को कहा और यह भी कहा कि वे अपनी नौकरी किसी और कम्पनी में देख लें।
मजदूरों का ब्रेक का समय 1 से 3 तारीख तक था लेकिन 8 तारीख तक सिर्फ एक स्थायी महिला मजदूर और एक पुरुष मजदूर को ही काम पर रखा गया।
पेन्टा क्राफ्ट कम्पनी प्लाॅट न. 10 सेक्टर 3 ए सिडकुल हरिद्वार में है। कम्पनी में एक मैनेजर, एक एकाउटेंट और स्टोर मैनेजर व मेन्टीनेंस मैनेजर सहित दो फोरमैन दूसरी मंजिल के प्लांट में तथा दो फोरमैन पहली मंजिल के प्लाॅट में हैं। पहली मंजिल पर तीन आईबीएम, इन्जेक्शन मोल्डिंग मशीन है जिन में 15-15 हजार से अधिक प्रोडक्शन निकलता है। आईबीएम मशीनों में स्प्रे बाॅटल व आई ड्राप बाॅटल आदि बनती है और दो सीएमपी व ब्लो इंजेक्शन मोल्डिंग भी हैं। सीएमपी में डेस्टिंग पाऊडर व 100 एमएल बाॅटल बनती है और ब्लो मोल्डिंग में केप व आई ड्राप के केप आदि बनते हैं। सीएमपी मोल्डिंग में 7 से 10 हजार प्रोडक्शन 12 घंटे में निकलता है तथा ब्लो मोल्ंिडग में 15 हजार से अधिक केप आदि बनते हैं। कम्पनी में प्रत्येक मशीन पर एक ही व्यक्ति काम करता है। तथा बहुत कम मशीनों पर बैठने के लिए स्टूल की सुविधा है।
प्रथम मंजिल में सारे उत्पाद प्लास्टिक के बनते हैं। जो विभिन्न कम्पनियों को सप्लाई किये जाते हैं। दूसरी मंजिल पर एल्युमिनियम ट्यूब बनता है जहां पर 10 आॅपेन इंजेक्शन मोल्डिंग हैं तथा एक मशीन पर एक मजदूर 12 घंटे में 15 से 20 से अधिक भी प्रोडक्शन देता है। दो एल्युमिनियम साईड सील फाॅमिंग मशीन हैं जिनमें 1 मिनट में 100 से अधिक ट्यूब कटते हैं। और दो आॅटोमेटिक सीलिंग कैपिंग मशीन है। एक मशीन 25 से 28 हजार ट्यूब 12 घंटे में सीलिंग व केपिंग करती है और सात मैनुअल सीलिंग मशीन है जिस पर एक मशीन पर एक मजदूर 10 से 12 हजार ट्यूब सीलिंग करता है।
एक मशीन हाईस्पीड काॅम्बीस है जिसमें फाॅमिंग, सीलिंग, मोल्डिंग व केपिंग आॅटो मैटिक होती है। यह मशीन 12 घंटे में 40 हजार तक प्रोडक्शन निकालती है। यह मशीन अन्य मशीनों के मुकाबले 12 लोगों का काम करती है। बस तीन बंदे ही इस मशीन पर सब कुछ करते हैं। इस मशीन में केप व सोल्डर अलग से डाला जाता है।
पेन्टा क्राफ्ट कम्पनी में कोई भी सुविधा नहीं है। न वर्दी की, न ही कैन्टीन व मेडिकल सुविधा। किसी को चोट लगने पर न ही हाॅस्पीटल लेकर जाने हेतु वाहन है न ही डेªसिंग का सामान है। मजदूर जिस जगह खाना खाते हैं वह टिन सैट से बनी है और बहुत नीची है वहां न कोई पंखा है और न ही दीवारों में कोई खिड़की। हवा तक नहीं आती-जाती है।
और अगर किसी मजदूर से कोई गलती होती है तो उसे मैनेजर काॅलर पकड़ कर खींचकर आॅफिस के अंदर ले जाता है और गालियां व अन्य बातें कहता है।
मैनेजर के चमचे कम्पनी के मजदूरों में महिलाओं के प्रति भौंड़ी विचारधारा को फैलाते हैं। एक मजदूर
एवरेडी के मजदूरों में व्याप्त है असंतोष
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
जहां पूरा उत्तराखण्ड राज्य के नेता-अभिनेता, शाासक/प्रशासक राज्य स्थापना (9 नवम्बर) की कोरी खुशियां मना रहे थे और मजदूरों-मेहनतकशों को शोषण के शिकार की ज्वालामुखी में धकेलना चाह रहे थे वहीं एवरेडी इण्डस्ट्रीज इण्डिया लि. के 122 स्थायी श्रमिक अपनी त्रिवर्षीय मांगों को लेकर कम्पनी प्रबंधन से वार्तालाप कर रहे थे लेकिन कम्पनी के धूर्त प्रबंधकों के द्वारा एवरेडी के श्रमिकों को धोखा दिया गया और बहला फुसला कर मांगों से ध्यान भटकाकर दिनांक 20 नवम्बर 2014 से प्लाण्ट का उत्पादन ही धीमा करवा दिया गया। जिस स्थान पर आपरेटर कार्य करते थे उस स्थान पर प्रबंधक व सुपरवाइजर कार्य करने लगे। ऐसा प्लाण्ट के अंदर 9 वर्ष में पहली बार देखने को मिला। संघ के कार्यकर्ता भी हैरान थे कि जहां आपरेटर का खून-पसीना बहाया जाता था वहां पर प्रबंधक और सुपरवाइजर कार्य कर रहे हैं। जो कारखाना प्रबंधक विगत तीन वर्षों से कम्पनी के गेस्ट हाउस में रह रहा था आज वह अचानक कम्पनी से बाहर कमर लेकर रहने लगा। मजदूर प्रतिनिधियों द्वारा बार-बार पूछने पर यही जबाव दिया जाता था कि महाप्रबंधक के अगले आदेश तक कार्य इस प्रकार चलेगा। अंतत वह हुआ जिसका अंदेशा भोले-भाले मजदूरों को नहीं था। दिनांक 30 नवम्बर 2014 को कम्पनी के प्रबंधकों के द्वारा रविवार के दिन कम्पनी को बन्द (लाॅक आउट) कर दिया गया। जिसकी सूचना न तो श्रमिकों व श्रमिक प्रतिनिधियों को दी गयी और न शासन-प्रशासन व श्रम विभाग को दी गयी।
1 दिसम्बर 2014 को समस्त श्रमिक कम्पनी के मेन गेट पर भारी संख्या में पुलिस बल व कम्पनी के सिक्योरिटी गार्ड को देखकर परेशान थे कि आखिर कम्पनी को बंद क्यों किया गया। पूछने पर यही बताया गया कि महाप्रबंधक का आदेश है और कम्पनी बंद कर दी गयी। कम्पनी के अन्य कोई भी अधिकारी वहां पर मौजूद नहीं था। मजदूर संघ के अध्यक्ष नवीन चंद्रा द्वारा पुलिसकर्मियों से कम्पनी प्रबंधन को बुलाने की मांग की गयी तो उनको कोई संतुष्ट जबाव पुलिस व सिक्योरिटी गार्डों द्वारा नहीं दिया गया जिस पर सभी 122 कर्मचारी कम्पनी के मुख्य गेट पर ही शाम तक बैठ गये। अगले दिन 2 दिसम्बर 2014 को सभी कर्मचारी सहायक श्रमायुक्त कार्यालय में पहुंचे और लगातार 29 जनवरी 2015 तक विरोध करते रहे। उसके बाद 30 जनवरी 2015 से सभी कर्मचारी परिवारजनों सहित व छोटे-छोटे बच्चों को लेकर संघर्ष कर रहे थे, की निर्मम पिटाई 7 फरवरी को की गयी और आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की गयी। इधर अध्यक्ष नवीन चन्द्रा ने प्रदेश के उन तमाम नेताओं पर आरोप लगाया है जो केवल मालिकों के गुलाम हैं और चुनाव के समय मजदूरों व उनके परिजनों के पैरों में गिरकर उनको जिताने की मांग करते हैं और बाद में मजदूरों का शोषण करने की शपथ ग्रहण करते हैं। ऐसे नेताओं, दलालों को सबक सिखाने के लिए सिडकुल हरिद्वार से श्रमिकों में से एक श्रमिक नेता के रूप में 2017 के विधानसभा में उतार जायेगा। नवीन चन्द्रा ने कहा कि जो दलाल नेता आज सिडकुल हरिद्वार में शोषण करा रहे थे उनको अभी ये पता ही नहीं कि हरिद्वार सिडकुल में कार्यरत एक लाख अठाइस हजार श्रमिकों में से 80 प्रतिशत श्रमिकों के वोटरकार्ड हरिद्वार के बन चुके हैं जिनको मत देने का पूर्ण अधिकार है और 2017 में इसका लाभ लेने वाले दलालों व नेताओं को एक सबक के रूप में दिया जायेगा।
इसी क्रम में एवरेडी के धूर्त प्रबंधक ने 108 कर्मचारियों को एचआर कार्यालय में बुलाकर एक-एक कर डरा धमका कर तीन वर्षीय समझौते को बड़ा कर 4 वर्षीय कर दिया। जहां समझौते की सीमा अगस्त 2017 में समाप्त होनी थी वहीं 2018 मार्च में होगी। प्रबंधन ने मजदूरों को कोर्ट कचहरी जाने की धमकी देकर अंग्रेजी के पेपर में हस्ताक्षर करा लिये और 4 वर्षों का 2500 रु. बड़ा दिया पिछले 6 माह का एरियर भी नहीं दिया जिससे श्रमिक अध्यक्ष नवीन चन्द्रा इस समझौते को लेकर आगे की लड़ाई लड़ने की बात कही और कहा है कि इसके खिलाफ लेबर कोर्ट में याचिका दायर की जायेगी। बिना कमेटी सदस्यों व त्रिपक्षीय वार्ता के दौरान बिना एएलसी के समझौता हस्ताक्षर कराया गया है। नवीन चन्द्रा, अध्यक्ष एवरेडी मजदूर संघ हरिद्वार
ये हैं जनता के ‘सेवक’
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
मध्य प्रदेश के एक आर.टी.आई. कार्यकर्ता ने शहरी विकास मंत्रालय भारत सरकार से सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत सांसदों के निवास के बारे में सूचना हासिल की हालांकि उन्हें पूरी व साफ-साफ जानकारी नहीं दी गयी।
लोकसभा चुनाव 2014 में अप्रैल-मई में हुये और 26 मई को नरेन्द्र मोदी सरकार ने शपथ ले ली थी। आरटीआई से पता चला है कि सरकार गठन के 6 महीने बाद भी भाजपा समेत अन्य पार्टियों के लगभग 90 से ज्यादा सांसद पांच सितारा होटल अशोक की सुख-सुविधाओं का लुफ्त उठाकर राजसी ठाठ-बाट से रह रहे हैं।
वैसे दिल्ली में अलग-अलग राज्यों के अतिथि गृह भी हैं जहां पर अच्छी सुख-सुविधायें भी उपलब्ध हंै और वहां पर यह सांसद ठहर सकते थे परन्तु इन सांसदों से पांच सितारा होटल की सुख-सुविधायें व राजसी ठाठ-बाट न छोड़ा गया। सांसदों ने आवंटित किये गये आवासों को रहने लायक न बताकर अशोक होटल में ही डेरा जमाये रखा।
शहरी विकास के संपदा निदेशालय ने माना है कि अशोक होटल में एक कमरे का एक दिन का न्यूनतम किराया 6 हजार रुपये है और टैक्स अलग से है। यानी लगभग 7 हजार रुपये। यदि एक सांसद 6 महीने अशोक होटल में ठहरता है तो उसके कमरे-कमरे का न्यूनतम किराया 7 हजार रुपये रोज के हिसाब से 1 महीने का 2 लाख रुपये से ज्यादा हुआ और 6 महीने का प्रत्येक सांसद के 12 लाख रुपये से ज्यादा हुआ। सूचना के अधिकार में 90 से ज्यादा सांसद अशोक होटल में 6 महीने से अधिक समय के लिए ठहरे हुए थे। यानी 10 करोड़ रुपये से भी ज्यादा सांसदों के अस्थाई आवासीय व्यवस्था पर खर्च किये गये। इसके अलावा होटल की अन्य सुविधाओं का भुगतान अलग है। मजेदार बात यह है कि ‘आम आदमी’ की माला जपने वाली ‘आम आदमी पार्टी’ के पंजाब से चुने सांसद भगवंत मान भी इसमें शामिल हैं।
मुश्किल से अपना जीवन जीने वाली मजदूर-मेहनतकशों को दी जाने वाली राहत के लिए सरकार कहती है कि उसके पास धन की कमी है पर सांसदों के अस्थाई आवासीय व्यवस्था और राजसी ठाठ-बाट व सुख-सुविधाओं पर यह सरकार दसियों करोड़ रुपये खर्च कर देती है।
जनता को कड़वी दवाई पिलाने वाले प्रधानमंत्री मोदी भाजपा समेत अन्य पार्टियों के सांसदों पर कितने मेहरबान हैं।
जय प्रकाश, दिल्ली
झूठे नारे देने वाली सरकार
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
पिछले 20 सालों से केन्द्र सरकार ने उत्तराखण्ड के कई जिलों में महिला समाख्या नाम के एक गैर सरकारी संगठन को संचालित किया था। जिसमें ग्रामीण इलाकों में हजारों महिलाएं बहुत कम मानदेय पर काम कर रही थीं। इसमें महिलाएं सरकार द्वारा नियोजित कार्य शिक्षा, स्वास्थ्य व घरेलू हिंसा जैसे कई मुद्दों पर काम करती थीं। और इसी में केन्द्र सरकार द्वारा गरीब, अनाथ छात्राओं को आवास, भरण-पोषण व सरकारी स्कूल में पढ़ाया जा रहा था।
इस योजना को आज केन्द्र सरकार द्वारा ही उत्तराखण्ड के चार जिलों में बंद (रोल बैक) करा दिया गया है। पौडी, उत्तरकाशी, टिहरी, नैनीताल जहां पर कि ये ग्रामीण महिलायें अपने जीवन में आगे बढ़ना चाहती थीं और उन 135 छात्रायें जिनका जैसे-तैसे जीवन यापन हो रहा था उन सब पर आज केन्द्र सरकार ने लात मारकर उन्हें उसी दलदल में पुनः धकेल दिया है जहां से वे आयी थीं। हजारों महिलायें जो उसी से अपना घर चलाती थीं वे आज बेरोजगार हो गयी हैं।
साथियो यह सब हमारी केन्द्र सरकार व व्यवस्था का असली चेहरा दिखाता है जोकि एक तरफ ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा देती है दूसरी तरफ छात्रायें व हजारों बेरोजगार महिलाएं हैं जो आज इस केन्द्र सरकार के कारण कहीं की भी नहीं रही। जब से केन्द्र सरकार द्वारा इसे बंद कराने की बात आई उस समय से केन्द्र सरकार, राज्य सरकार को कई ज्ञापन दिये गये, उसके बाद भी इसके बारे में कोई भी सरकार द्वारा जवाब नहीं आया। और बंदी के दिन नजदीक आने पर महिला समाख्या की महिलाएं व महिला समाख्या द्वारा बनाया गया सुमंगला महासंघ की महिलाओं व कोटद्वार के कई सामाजिक संगठनों व जनअधिकार संघर्ष समिति द्वारा कोटद्वार तहसील में 9 मार्च से 12 मार्च तक धरना दिया गया व 13 मार्च को जन अधिकार संघर्ष समिति के नेतृत्व में जुलूस प्रदर्शन किया गया। प्रधानमंत्री को ज्ञापन भी भेजा गया।
यह है हमारी सरकार की असलियत और उसके बाद भी खोखले नारे- जो कहते हैं ‘सबका विकास सबका साथ’, ‘महिला सशक्तिकरण’, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘बेटी देश की गौरव’, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ ये सब नारे देने वाली सरकार अब कहां गयी जो 20 सालों से चल रहे महिला समाख्या को बंद कर दिया है। और वे जो बेटियां वहां पढ़ाई जा रही थीं उन्हें पढ़ने-लिखने से वंचित कर दिया गया है। इसी रूप में ऐसे झूठे नारे देने वाली केन्द्र सरकार की निन्दा करते हुए कोटद्वार में परिवर्तनकामी छात्र संगठन, क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन व प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की महिलाओं ने ऐसी झूठी केन्द्र सरकार का भंड़ाफोड़ किया और संगठित होकर संघर्ष करने का उन सभी महिलाओं और छात्राओं को राह दिखाई।
दीपा, कोटद्वार
जस्टिस काटजू जी! महात्मा गांधी ब्रिटिश एजेन्ट नहीं आपकी तरह पूंजीपति वर्ग के एजेण्ट व सेवक थे
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज मार्कण्डेय काटजू ने अपने ब्लाॅग में महात्मा गांधी पर टिप्पणी कर सनसनी फैलाई है तथा शासक वर्ग को नाराज व विचलित कर दिया है। उन्होंने महात्मा गांधी को ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एजेण्ट बताया है तथा लिखा है कि गांधी अंग्रेजों की नीति पर काम करते थे जिसके चलते भारत को काफी नुकसान पहुंचा। गांधी अंग्रेजों की ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति पर काम करते थे। उनके हर भाषण और लेखों में उनका जोर हिन्दू धार्मिक विचारों की ओर था। वह राम राज्य, गौरक्षा, वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक थे। उन्होंने 1921 में लिखा था- ‘मैं सनातनी हिन्दू हूं।’ मैं वर्णाश्रम धर्म में विश्वास करता हूं। मैं गौरक्षा का समर्थक हूं। काटजू के अनुसार गांधी के इस तरह के विचार से रूढिवादी मुसलमान मुस्लिम लीग या इस जैसे संगठन की ओर चले गये।
भारतीय पूंजीवादी राज्य व्यवस्था के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज द्वारा इस तरह की टिप्पणी काफी हद तक सच के करीब है। तथापि महात्मा गांधी ब्रिटिश राज्य व्यवस्था के एजेण्ट नहीं थे। हालांकि गांधी के विचारों व कार्यवाहियों से ब्रिटिश शासकों को कोई ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचता था। महात्मा गांधी सही और सच्चे अर्थों में उस दौर में उदित हो रहे भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि थे। वे भारतीय पूंजीपति वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने हेतु भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से आजाद कराना चाहते थे। गांधी ने धोती लंगोट धारण कर महात्मा गांधी की उपाधि लिए भारतीय आम जन का प्रतिनिधि बनने का रूप तो धारण किया लेकिन वे हमेशा बिरला, बजाज, आदि के मेहमान बनकर ही रहे।
चैरी-चैरा कांड के बाद किसान विद्रोह के क्रांतिकारी दिशा पकड़ लेने से पूंजीपति वर्ग के हाथों से नेतृत्व खिसकने की आशंका के चलते आंदोलन वापस ले लेने का मामला हो अथवा अलग-अलग समयों में आगे बढ़ते आजादी के आंदोलनों को रोकने का मामला हो सभी पूंजीपति वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर उठाये गये कदम थे। गांधी का ‘स्वदेशी अपनाओ’ का नारा हो या ‘नमक सत्याग्रह’ यह सब भारतीय पूंजीपति वर्ग के हित में ही थे। ग्राम स्वराज की विचारधारा भारतीय मजदूर किसानों के समाजवाद की ओर झुकाव को तथा क्रांति से भारतीय मेहनतकशों को रोकने हेतु विचार था। महात्मा गांधी भगत सिंह की विचारधारा के विरोधी थे। भगत सिंह ने कहा था कुछ दिनों में गोरे अंग्रेज देश छोड़कर चले जायेंगे और काले अंग्रेज सत्ता में काबिज हो जायेंगे। भारत के मजदूरों किसानों का शोषण-उत्पीड़न जारी रहेगा। मजदूर मेहनतकशों की मुक्ति समाजवाद में ही होगी। इस विचार के विरोध के कारण ही गांधी ने भगतसिंह को दी गयी फांसी की सजा का विरोध नहीं किया।
काटजू की टिप्पणी से सांसद तथा व्यवस्था के हितैषी आक्रोशित एवं आशंकित हैं। इन्होंने गांधी को राष्ट्रपिता की पदवी देकर उन्हें देश के सर्वोच्च प्रतीक रूप में स्थापित किया था। अगर व्यवस्था के सर्वोच्च नेता की गढ़ी गयी छवि खराब होती है तथा जनमानस में गांधी में आस्था विश्वास दरकता है तो गांधी के स्तर का नेता उनके पास नहीं है जिसकी फोटो के पीछे अपनी असली सूरत छिपा सकें। इसलिए संसद में काटजू के खिलाफ निन्दा प्रस्ताव पास करते हैं। जिस तरह महात्मा गांधी भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि थे, उसी तरह जस्टिस काटजू भी भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि हैं। यह काम उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहकर किया है। अगर वे भारतीय मजदूर मेहनतकशों के हित में काम करते। उनके शोषण उत्पीड़न से मुक्ति चाहते तो भगतसिंह की क्रांतिकारी विचारधारा को आगे बढ़ाते। पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि न बनकर मजदूर वर्ग के प्रतिनिधि बनते। सारी समस्याओं की जड़ पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त कर मजदूर राज समाजवाद के संघर्षों से जुड़ जाते। एक मजदूर काशीपुर
सरकार के बजट एवं नीतियों के विरोध में भारी विरोध प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
मोदी सरकार की नीतियों एवं पूंजीवादी बजट से देश भर का कामगार वर्ग असंतुष्ट है और नाराज भी। इसी क्रम में बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन ने 4 मार्च को सांय 5 बजे अयूब खां चौराहा पर एकत्र होकर बजट के विरोध में मुखर होकर नारे बाजी की। इस दौरान मोदी-जेटली हाय! हाय! के खूब नारे लगाये गये।
प्रदर्शन सभा को सम्बोधित करते हुए इंटक के प्रांतीय महासचिव सतीश मेहता ने कहा कि मोदी सरकार के इस बजट ने यह साबित कर दिया है कि वह पूंजीपतियों के इशारे पर काम कर रही है और उसका बाकी जनता से लेना देना नहीं है।
एटक के हरीश पटेल ने कहा कि यह बजट जन विरोधी है। यह कहना गलत है कि यह दिशाहीन बजट है, यह बजट पूंजीवाद को दिशा देने वाला व हित साधने वाला बजट है क्योंकि सरकारों ने कारपोरेट टैक्स कम कर स्पष्ट किया है कि अब पूंजीपतियों के अच्छे दिन आ गये हैं।
महा संघ के अनिल सिंह ने कहा कि देश का कामगार इस बजट से आहत हुआ है। आयकर की सीमा को न बढ़ाया जाना और 2 प्रतिशत सरचार्ज व 2 प्रतिशत सेस बढाया जाना निन्दाजनक है। इससे कर्मचारियों पर अधिक भार बढे़गा। अतः कर्मचारी वर्ग इसका विरोध करता है।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र के सतीश बाबू ने कहा कि सरकार हर मोर्चे पर विफल है और बढ़ती महंगाई इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। उन्होंने कहा सरकार की नीयत केवल उद्योगपतियों का हित साधना है। यही कारण है कि देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है और जनता बेहाल हो रही है। मजदूर मंडल के लक्ष्मण सिंह राना ने कहा कि असंगठित क्षेत्र की बेहतरी के लिए इस बजट में कुछ नहीं है और मोदी सरकार ने दर्शा दिया है कि वह कर्मचारी एवं श्रमिक विरोधी है।
रोडवेज कर्मचारी संयुक्त परिषद के रवीन्द्र कुमार ने कहा कि अच्छे दिन के सपने दिखा कर सत्ता में काबिज हुई मोदी सरकार जन विरोधी रवैया अपनाये है और जनता इस सरकार का मतलब समझ चुकी है।
प्रदर्शन को अफरोज आलम, वी.के.सक्सेना, प्रेमशंकर, पी.के.माहेश्वरी, जय प्रकाश, ललित चौधरी, फैसल, लईक अहमद, सलीम अहमद, सी.पी.सिंह, यशपाल सिंह, सतीश शर्मा, अनिल सिंह, उमेश त्रिपाठी आदि ने सम्बोधित किया।
कार्यक्रम का संचालन बरेली ट्रेड यूनियन फेडरेशन के महामंत्री संजीव मेहरोत्रा ने किया।
संजीव मेहरोत्रा, बरेली
भूमि अधिग्रहण बिल और किसान
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
भूमि अधिग्रहण बिल के संशोधन को लेकर भारतीय जनता पार्टी कह रही है कि इस बिल में किसानों का हित है। इस बिल में जो भी संशोधन किये जा रहे हैं वे किसानों के लिए हैं। किसानों की जमीन छीनने का कानून किसानों के हित में कैसे हो सकता है?
सरकार को न तो खेती करना है और न उद्योग लगाने हैं और न ही बिल्डिगें बनानी हैं। ये सारे काम तो पूंजीपतियों को करना है और पूंजीपतियों को इसके लिए जमीन चाहिए। अगर पूंजीपतियों को मुफ्त के भाव जमीन नहीं मिलेगी तोे पूंजीपति देश का विकास कैसे करेंगे? देश के गरीब किसान की समझ इतनी कहां होती है कि वह देश के विकास के बारे में सोचे और न ही वे इस बात को समझ पा रहे हैं कि चाय वाला प्रधानमंत्री किसानों के लिए जमीन अधिग्रहण बिल में संशोधन पेश कर रहा है। अब ऐसे लोगों से जमीन लेने से पहले 80 प्रतिशत किसानों की सहमति लेने की क्या जरूरत है। क्या बात है नरेन्द्र मोदी सरकार सफाई अभियान चलाते-चलाते किसानों की जमीन पर हाथ साफ करने लगी। चुनावों में मोदी काले धन को देश में लाकर देश के विकास की बात कर रह थे और अब मोदी सरकार कह रही है कि यदि किसानों की जमीनें नहीं ली जायेंगी तो देश का विकास कैसे होगा। देश का विकास काले धन से नहीं किसानों की जमीन छीनने से होगा। जो व्यक्ति या संगठन इस बात से इंकार करता है तो वह विकास विरोधी है। मोदी जी अपने अनुभव से जानते हैं चाय बेचने सेे विकास नहीं होता है बल्कि बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स लगाने से विकास होता है। अडानी-रिलायंस-टाटा का विकास ही आज देश का विकास है। वैसे भी देश में किसानों की आत्महत्यायें एक मुद्दा है और जब किसानों के पास जमीनें होंगी ही नहीं तो वह न तो कर्ज के जाल में फंसेंगे और न आत्महत्या करेंगे। लेकिन यह बात गंवार किसान नहीं समझ सकते।
ऐसा भी नहीं है कि जो पार्टियां आज विरोध कर रहीं हैं वे सचमुच किसान हितैषी हैं। ये सभी पार्टियां आज जो किसानों की पक्षधर बन रहीं हैं, इन सभी ने अपने शासन के समय विभिन्न प्रदेशों में लाठी-गोलियों के दम पर जमीनें छीनीं हैं। कुडनकुलम, भट्टा पारसौल, नंदीग्राम, सिंगूर यूं ही भुलाये नहीं जा सकते। यहां तक कि वामपंथी भी इस काम में पीछे नहीं रहे। अब कोई विदेशी उस तरीके से हमारी जमीन छीनने नहीं आयेगा जैसे पहले आते थे। अब तो देशी-विदेशी पूंजीपतियों के इशारों पर ही किसानों की जमीनें छीनी जायेंगी और इन्हीं के इशारों पर मजदूरों को जेलों में ठूंसा जायेगा। मारुति के मजदूर ढाई साल से अधिक समय से जेलों में बंद हैं। मोदी सरकार को मजदूरों किसानों के लिए ढे़र सारे कानूनों के बदले केवल एक कानून बनाना चाहिए कि जो किसान अपनी जमीन छीने जाने को विरोध करेगा वह देशद्रोही है और जो मजदूर यूनियन बनाने की कोशिश करेंगे वे भी देशद्रोही हैं। देशद्रोह की सजा कर दो फांसी।
जगदीश, दिल्ली
कृपया ध्यान दें
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
यात्रीगण ध्यान दें! ! ! प्लेटफार्म नंबर एक पर आने वाली ‘विकास एक्सप्रेस’, जो काला धन, सस्ती सब्जियां, सस्ते खाने-पीने का सामान, पाकिस्तान की सेना का शव, चाइना से जमीन, एक रुपया एक डालर, भय-भूख-भ्रष्टाचार, अपराध-बलात्कार मुक्त भारत, पानी, बिजली, मकान, रोजगार लेकर 100 दिनों में पहुंचने वाली थी, अब नहीं आएगी। अब इस ट्रेन का मार्ग ‘कड़वे फैसले’ स्टेशन की ओर मोड़ दिया गया है। इस ट्रेन की खबर अब आपको 2019 में दी जायेगी। तब तक कृपया नमो नमो जाप जारी रखें। यात्रियों को होने वाली असुविधा के लिए कोई खेद नहीं है। जो बिगाड़ना हो, बिगाड़ लो! व्हाट्स ऐप संदेश
मजदूरों की बुरी हालात
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
थरमाडाइन प्राइवेट लिमिटेड (प्लांट न. 14/5, मथुरा रोड) फरीदाबाद, हरियाणा में स्थित है। इस कम्पनी में लगभग 180 मजदूर काम करते हैं। इसके उत्पादन में एअर फिल्टर, एअर सावर व डिसपेेन्सिंग, हाउसिंग आदि तैयार होते हैं जो मेडिकल कम्पनी व हाॅस्पिटल के आप्रेशन थियेटर तथा दवाई की रख रखाव में काम आते हैं। ये प्रोडक्ट देश के कोने-कोने में सप्लाई होते हैं।
इसका मालिक गुरूप्रीत सिंह बेटा इन्द्रदीप सिंह के नाम से कम्पनी चलती हैं। इस कम्पनी के डायरेक्टर एक महिला जिसकी उम्र 70 साल की है जिसका नाम रश्मि नागा भूषण है। पूरे प्लांट का प्रोडक्सन मैनेजर बदतमीज, अक्खड, घमंडी एक सरदार जिसका नाम जगजीत सिंह है। ये मैनेजर लगभग एक साल से आया है उसके बाद से ये लगातार कम्पनी के मुनाफे के लिए मजदूरों पर जुल्म शोषण व अपमान करने की रणनीति में लगा रहता है। सूनने में आ रहा है कि वह डाइरेक्टर बनने का ख्वाब देख रहा है। इस कम्पनी में नाममात्र के 15 परमामेन्ट मजदूर हैं। बाकी 165 के करीब मजदूर ठेकेदारी के तहत काम करते हैं। इसमें 100 से ज्यादा महिला मजदूर कार्यरत हैं। इनका शोषण, उत्पीड़न लगातार जारी है।
23 फरवरी के दिन काफी अनुभवी पुराने बुजुर्ग मजदूर जो मेंटीनेन्स विभाग में काम करते हैं, उनको मैनेजर ने कहा कि पंखों पर धूल जमी है, साफ करो। मजदूर का तर्क था एक और व्यक्ति दो, साफ कर देंगे। तो कहने लगा कि साफ करना है तो करो नहीं तो गेट पर जाओ। मजदूर ने मना कर दिया कि नहीं साफ करेंगे। मैनेजर बदतमीजी से पेश आया और उनको गेट पर बैठा दिया। ये मजदूर लगभग 35 साल से काम कर रहे हैं। इनकी उम्र लगभग 65 साल के करीब है। दो घंटे तक गेट पर बैठे रहने के बाद न तो पर्सनल मैनेजर ने बुलाया और न ही कोई मैनेजमेण्ट की तरफ से जबाव दिया गया। बेचारे बुजुर्ग मजदूर घर चले गये। उनको 25 फरवरी तक काम पर नहीं लिया गया था।
ऐसे ही उत्पीड़न की घटना 6 महीने पहले भी चैनल विभाग के एक मजदूर के साथ पानी की टंकी साफ करने को लेकर हुई थी। जब मजदूर ने पानी की टंकी साफ करने से मना किया तो उसे भी गेट पर बैठा दिया गया था लेकिन चैनल विभाग के मजदूर काम बंद कर बैठ गये थे। मैनेजमेण्ट को झुकना पड़ा और मजदूर को वापस काम पर बुलाया गया। ऐसा बर्ताव मजदूरों के साथ रोज हो रहा है। कभी कोई मजदूर 5 मिनट लेट आ गया तो मैनेजर द्वारा धमकी मिलती है। इस तरह छोटी-छोटी गलती पर भी गंदा व्यवहार हो रहा है। जिस विभाग में कार्यरत मजदूर हैं उसे उससे अलग विभाग में भेज दिया जाता है। मना करने पर उसे बाहर कर दिया जाता है। फेब्रिकेशन विभाग में भारी प्रोडक्ट तैयार होता है वहां ठेका मजदूर जो मशीन से लेकर, बेल्डिंग, ग्रेडिंग आदि करता है वहां उनसे लोडिंग अनलोडिंग करवाया जाता है जो गैर कानूनी है। कानून ये है कि कोई रेगुलर काम करने वाले लोडिंग व अनलोडिंग नहीं करते हैं। यहां पर मशीन पर भी काम करो लोडिंग-अनलोडिंग भी करो।
हेपा विभाग से जहां हेपा एअर फिल्टर बनता है जिसमें महिला मजदूर कार्यरत हैं। कुछ पुरुष मजदूर भी हंै। इसमें महिलाओं से मशीन चलवाते हैं। मना करने पर नौकरी छोड़ दो की धमकी मिलती है। ऐसा ही जहां माइक्रोबी फिल्टर बनता है वहां पर भी महिलाओं का शोषण-उत्पीड़न होता है। लगातार प्रोडक्शन बढ़ाना, अगर कोई काम महिला नहीं कर पाती है तो उसे निकाल दिया जाता है। ऐसी घटनाएं लगातार जारी हैं। बार-बार मैनेजर (सरदार) द्वारा अपने केबिन में बुलाकर धमकी दी जाती है, ‘‘काम करना है तो करो नहीं तो घर जाओ’’। टेक्निकल मजदूर भर्ती लेते हैं उसे जो मरजी काम में लगा देते हैं। ये इस कम्पनी की नीति हैः जहां मरजी हो बैल की तरह मजदूर को लगा दो।
यहां करीब 15 मजदूर परमानेन्ट हैं जिनकी उम्र 50 से 55 साल के ऊपर तक है और जिनकी तनख्वाह मात्र 6,000 से 8,000 तक है। तीन महीन पहले काफी मेहनती एक परमानेण्ट मजदूर को परेशान किया गया तो उसे मजबूरन हिसाब लेना पड़ा। महिला डायरेक्टर जिसे मजदूर ‘बड़ी मैडम’ कहते हैं। उसका रवैया परमानेन्ट मजदूरों के प्रति खराब है। जब तब कहती है कि काम नहीं करते हैं। सच्चाई तो यह है कि पूरी उम्र अपनी गुजार देेने के बाद तनख्वाह मात्र 6000 से 8000 तक है। इस पर कोई बात नहीं करती है। 150 मजदूर ठेके पर रखे गये हैं। 100 से ऊपर तो महिला मजदूर हैं। काफी पुराने मजदूर कार्य कर रहे हैं लेकिन कम्पनी ने किसी मजदूर को परमानेन्ट नहीं किया। 12 साल ठेके पर मजदूर रखे जाने लगे थे। ठेका मजदूर को तनख्वाह वही हरियाणा ग्रेड 5700 रुपये है मिलता है। महीने के कोई भी छुट्टी नहीं मिलती है। 2 घंटे का गेट पास दिया जाता है। इस कम्पनी में पीने के लिए साफ पानी उपलब्ध नहीं है। बाथरूम बहुत गंदा रहता है। तीन महीने पर एक बार सिवर साफ किया जाता है। चारों तरफ बदबू फैली रहती है। शिकायत करने पर मैनेजर (सरदार) मोदी का उदाहरण पेश करता है। कहता है कि मोदी जी सफाई कर रहे हैं। तुम लोग भी करो। पूरे प्लांट के आस-पास कचरा, कबाड,़ लोहा-लक्कड भरा पड़ा है। सुरक्षा के नाम पर ये कम्पनी प्रसिद्ध है। अग्नि सिलेण्डर का नामो निशान तक नहीं है। कहीं-कहीं सेफ्टी (सुरक्षा) के लिए कुछ सुझाव या पाइन्ट हैं। मेंटीनेंस विभाग व फेब्रीकेशन विभाग में तो खुले तार फैले हैं। इससे कभी भी शार्ट सर्किट हो सकता है। दुर्घटना हो सकती है।
कुछ स्थायी मजदूरों को छोड़कर ठेका मजदूर को कोई ई.एस.आई. कार्ड, पे स्लिप, न ही साल का पी.एफ. स्लिप, न ही आई कार्ड मिलता है। कानून के हिसाब से 8 घंटे ड्यूटी के बाद मजदूर को ओवर टाइम पर रोका जाता है तो उसे डबल ओवर टाइम मिलना चाहिए। यहां पर सिंगल मिलता है। उसमें से भी ई.एस.आई. काट लिया जाता है। ओवर टाइम मना करने पर उस मजदूर को काम से निकाल दिया जाता है। ठेका मजदूर को तो कोई भी श्रम कानून की सुविधा नहीं मिलती है। 5-6 साल से काम करने के बावजूद भी परमानेन्ट नहीं किया जाता है। लेबर डिपार्ट से लेबर इंसपेक्टर आता है, अपनी झोली भरकर रिश्वत ले जाता है। इस कम्पनी की एक चालाकी और देखें तो पता चलता है कि मजदूरों के ढे़र सारे अधिकार इसी कारण न मिल पाना छिपा लिया जाता है जो इस कम्पनी को हुड्डा सरकार द्वारा स्माल स्केल इण्डस्ट्री का अवार्ड मिला है। मुख्यमंत्री हुड्डा के साथ डायरेक्टर की फोटो लगी है। ये बताते हैं कि इस फैक्टरी में 20 के करीब मजदूर काम करते हैं। बाकी मजदूरों को नहीं दिखाते हैं जो लगभग स्टाफ मिलाकर 200 के करीब कर्मचारी हैं। फैक्टरी एक्ट में कई ऐसे कानून जो 20 मजदूर वाली फैक्टरी के ऊपर लागू नहीं होते हैं। इस तरह गैर कानूनी तरीके से बेतहाशा शोषण मजदूरों का किया जाता है। इस प्रकार शोषण से भारी मुनाफे की कमाई होती है और इसने कई फैक्टरी लगी हुई हंै।
मालिक के बेटे इन्द्रदीप सिंह ने दीपावली के समय कहा था कि ‘खूब मेहनत से काम करो। हमारा प्रोडक्ट अच्छी गुणवत्ता का होना चाहिए तभी तो बाजार में हमारा माल टिकेगा और आप लोगों का काम लगातार चलता रहेगा।’ लेकिन सच्चाई तो ये है कि ठेकेदारी मजदूर पर ही कम्पनी तरक्की कर रही है न इस मजदूर का साल का बोनस न ही तनख्वाह में बढोत्तरी, न ही कोई खास सुविधा मिलती है। वही 5,000-6,000 रुपये महीने मिलते हैं। जिसमें मजदूर पूरे महीने किसी तरह से गुजर-बसर करता है। हर महीने इस कम्पनी को मुनाफा लाखों-करोड़ों का होता है। इस तरह मजदूर के मेहनत की लूट पर अरबपति मालिक तथा मैनेजमेण्ट ऐश कर रहे हैं। मालिक, श्रम विभाग, पुलिस प्रशासन, सरकार ढे़र सारे मजदूरों के श्रम कानून में बदलाव कर रही है। आज इस लूट पर कांग्रेस, नई नवेली आम आदमी पार्टी, इनेलो, सपा, बसपा आदि पार्टियां चुप्पी साधी हुई हैं। ये पूंजीपतियों के चंदों पर पलती हंै। इनके भ्रम जाल में न फंसा जाये। अपने हक अधिकार के लिए स्थायी व ठेका मजदूर मिलकर लडे़ंगे तभी अपना अधिकार हासिल कर पायेंगे। एक मजदूर, फरीदाबाद
बवाल मचा बिहार में
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
आजकल बिहार में जिस तरह के घिनौने खेल सत्ता पक्ष खेल रहा है उससे लगता है कि बिहार में बुरे दिन आने वाले हैं। क्योंकि ‘घर में आग लगी, घर के चिराग से’ जिस तरह नीतिश कुमार और मांझी में उठा-पटक की राजनीति का खेल चल रहा है। यह बिहार के लिए बदनामी का दाग ही है। जिस तरह नीतिश कुमार ने मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। लोकसभा के चुनाव में अपनी पार्टी की हार की जिम्मेदारी नीतिश ने लेकर जनता को संदेश त्याग, बलिदान, कुर्बानी का दिया। जिस विश्वास के साथ नीतिश ने मांझी को सत्ता की कुर्सी सौंपी थी। नीतिश ने सोचा था कि मांझी मेरे इशारों पर नाचेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस बात को लेकर नीतिश परेशान हो गया। सत्ता मेरे हाथ से निकल जायेगी, सोचकर उसने बलपूर्वक मांझी को हटाना चाहा, लेकिन मांझी भी सत्ता के खेल में नीतिश को मात देेने लगे। सत्ता के खेल में मांझी ने अपनी जान-जाने के खतरे की वजह से अपनी हार स्वीकार कर ली। इधर नीतिश ने इस खेल में अपनी पीठ थपथपाते हुए बिहार की जनता को दिखाया कि मैं कितना शक्तिशाली राजनेता हूं।
लेकिन नीतिश शक्तिशाली और बाहुबली के साथ-साथ एक मतलबी फरेबी इंसान हैं। पूंजीवादी राजनीति में टिके रहने के लिए पूंजीवादी राजनीति के गुण आने चाहिए जैसे छल, फरेब, झूठ, मक्कारी, जनता को गुमराह करना जिस राजनेता के अंदर यह सब गुण हैं वहीं सत्ता में बना रह सकता है। और दूसरी बात पूंजीपति का रहमोकरम के साथ-साथ पूंजीपतियों का वह नेता पसंदीदा होना चाहिए। यहां पर यही चीज रही है।
एक जमाने में बिहार में लालू का जंगल राज कायम था। लेकिन अब नीतिश इस जंगल का शेर है। ये जनता को दिखावे के लिए दलित ‘प्रेम’ का ढोंग करते थे। मांझी असलियत में दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले नेता निकले। मांझी भी अन्य नेताओं की भांति कुर्सी का भूखा था न कि दलितों का मसीहा।
मजदूर-मेहनतकश जनता के दुश्मन और पूंजी के सेवक जनता के विश्वास को लूटकर नीति सिद्धान्त और आदर्शवाद सुशासन, विकास का नारा देकर जनता से घोषणा करते हैं। मांझी ने जिस तरह नीतिश सरकार की ढोल की पोल खोल दी कि मुख्यमंत्री तक सरकारी योजना के पैसे का बंदर बांट होता है। इस बात से यह साबित होता है कि यह व्यवस्था कितनी भ्रष्ट, सड़-गल चुकी है। किस तरह जनता का पैसा नौकरशाही से लेकर मंत्री संतरी तक कमीशन चलता है।
लोकतंत्र का नाम देकर लूट तंत्र की व्यवस्था कायम है क्योंकि यह पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। जब तक यह व्यवस्था रहेगी तब तक यह सत्ता का खेल चलता रहेगा। इस सत्ता के खेल में जनता पिसती है। बिहार में अन्य राज्य की तुलना में बेरोजगारी, बाढ़, सूखा, जाति व संघर्ष शिक्षा का अभाव, भूमि को लेकर संघर्ष चलता रहता है। पूरे भारत में बिहार के बेरोजगार अपने प्रदेश को छोड़कर दूसरे प्रदेशों में जाकर मेहनत कर अपना परिवार-बच्चों को पालते हैं। बिहार की जनता मेहनतकश होते हुए वह फरेबी व्यवस्था का शिकार है। जरूरत है कि इस लुुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था का नाश कर मजदूर राज कायम करके बिहार सहित पूरे भारत के मजदूर-मेहनतकशों को सम्मानजनक जीवन मिलेगा। रामकुमार बैशाली बिहार
झाडू का डर
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
आज हर किसी की जुबां पर केजरीवाल का नाम है। दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद के लिए रिकार्ड तोड़ जीत हासिल की है। इसलिए सबकी नजरें उसी ओर टिकी हैं। वह एक बार मुख्यमंत्री की कुर्सी खोकर दुबारा मुख्यमंत्री बने हैं। जिस झाडू से प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छता अभियान चलाया हुआ था उसी झाडू ने एक को मुख्यमंत्री बना दिया वही झाडू एक तरफ सरकारों का सफाया भी कर दिया। निश्चय ही झाडू का बड़ा महत्व है। मोदी अब सफाई के लिए नहीं कहेंगे क्योंकि झाडू से ही डर लगेगा।
हमारा आश्य यह है कि आज के दौर में आजादी से लेकर अब तक जितनी भी राजनैतिक पार्टियां रही हैं उनको राज्य और केन्द्र स्तर पर सरकार चलाने का मौका मिलता रहा है। चाहे वह लम्बे समय से कांग्रेस हो भाजपा या फिर सपा, बसपा या अन्य गठबंधन दलों की सरकारें रही हों, ये लगातार जनमुद्दों से कटी रही हैं। और जनता की आंखों में धूल झोंकती रही हैं। इन राजनैतिक पार्टियों ने जन दिशा और दशा को समझना जरूरी नहीं समझा और उल्टा उनका दमन और तरह-तरह से विभाजन करने में लगी रहीं। देश के अंदर बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, महिलाओं की सुरक्षा व अन्य मुद्दों का कोई एजेण्डा इन पार्टियों के घोषणा पत्र में जगह ही नहीं बना पाया कोई ठोस योजना पर ये काम नहीं कर सकीं- एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ना और अपनी जबावदेही से बचना ही इनका मकसद हो गया था, इनकी जगह कूड़ेदान में ही थी लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आम आदमी पार्टी सही है। केजरीवाल सब बदल कर रख देंगे। कि आम आदमी को अब कोेई संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। दिल्ली की जनता और देश की जनता आज इंकलाब चाहती है। आपस में बंटना नहीं चाहती है। इंकलाब के नारे के साथ देश-दुनिया की जनता आगे बढ़ रही है। आम आदमी पार्टी भी इससे अछूती नहीं है। यह पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बढ़ते हुए असंतोष को एक दिशा उन दोनों वर्गों के बीच में संतुलन का काम कर रही है। मोदी सत्ता की मलाई लपालप गरम-गरम खाना चाहते हैं। और बदले में कुछ नहीं देना चाहते हैं। केजरीवाल कहते हैं यार खाओ मगर ठण्डा करके, मगर बदले में उन्हें कुछ दो भी। नहीं तो कुछ नहीं मिलेगा। सूरज, रामनगर
पूंजीपतियों मालिकों, ठेकेदारों के राज में मजदूरों की बढ़ती दुर्दशा
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
आज देश के अंदर पूंजीपतियों, मालिकों, ठेकेदारी प्रथा के राज में मजदूरों की दुर्दशा दिन पर दिन हो रही है। चाहे वह संगठित क्षेत्र के मजदूर हों चाहे फिर असंगठित क्षेत्र के मजदूर हों और दिहाड़ी मजदूरों की हालत तो और भी बुरी है। जिन्हें कई-कई दिन तक काम ही नहीं मिलता। सुबह टिफिन बांधकर निकलते हैं और ऐसे ही लौट आते हैं। जिनका सुबह को चूल्हा जल गया तो शाम को चूल्हा जलने की गारण्टी नहीं है। नरेगा के मजदूरों का भी बुरा हाल है। आखिर काम करवाकर क्यों मालिक, पूंजीपति, ठेकेदार, मजदूरों का पैसा देना अच्छा नहीं समझता? क्यों मजदूरों को आज गुलामी जैसी जिन्दगी जीनी पड़ती है। क्यों उनकी तरफ कोई भी देखना नहीं चाहता? क्यों सरकारें मजदूरों के पक्ष को नहीं देखती हैं। ये सोचने का विषय है।
धनवान कहते हैं कि मजदूर लोग वे लोग होते हैं जो बोढ़म होते हैं। यानि कि मजदूरी वही करते हैं जिनके पास दिमाग नहीं होता है। और जिनके पास दिमाग होता है। वह अपना व्यवसाय करते हैं। मजदूर वह शख्स है जो आठ-दस घण्टे काम करके 400 से 500 रूपये कमाकर शराब पीकर आराम से सोता है। उन्हें कोई चिन्ता नहीं होती है।
ये बातें वे लोग करते हैं जो ज्यादा रईस होते हैं। जिनकी वजह से मजदूर बुरी तरह की जिन्दगी जीने के लिए विवश होते हैं। आप मेरे साथ एक महीना फैक्टरी में काम करके देखें, पढ़े-लिखे मजदूर भी मिल जायेंगे। जो फैक्टरी में काम करना ही नहीं जानते बल्कि वे देश का शासन भी चला सकते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है। फैक्टरियों में माल पैदा नहीं होगा, मजदूर काम नहीं करेगा तो आपका बिजनिस भी नहीं होगा ये बात आपको समझनी चाहिए- पैसे की कमी के कारण मजदूर ज्यादा पढ़ नहीं पाता, इसका मतलब यह नहीं कि वह बोढ़म है। या वह सिर्फ मजदूरी ही कर सकता है। इस पर वह व्यक्ति चुप्पी साध गया और दूसरी तरफ मुंह करके बैठ गया- हमें अपनी बात को पुरजोर तरीके से रखनी चाहिए।
यहां किसी एक फैक्टरी या अन्य इण्डस्ट्रीज कामों के क्षेत्र में हो रही मजदूरों के प्रति हो रही शोषण की घटनाओं के विस्तार को बताने का सवाल नहीं है क्योंकि काम का कोई भी क्षेत्र है उसमें सिर्फ उत्पादन और मुनाफे से मतलब है। मजदूर काम करते-करते मर भी जाता है तो उसको वहीं भट्टी में झोंक देते हैं। या उसको कहीं अन्यत्र फेंक देते हैं। आये दिन जो कारखानों में मजदूरों के शोषण की घटनायें होती हैं। वह स्पष्ट तौर पर अखबारों, टीवी चैनलों का हिस्सा ही नहीं बन पाती जिनका पता नहीं चलता। किसी तरह से चलता भी है तो मालिक ठेकेदार उसको रफा दफा करने में अपना पल्ला छुड़ाने में कोई कोताही नहीं बरतता और सरकार भी उसे पूरा बचाने का काम करती है।
देश के अन्दर नई आर्थिक नीतियों के कारण ठेकेदारी प्रथा के कारण नयी आर्थिक गुलामी बढ़ रही है जिससे आज का मजदूर गुलामी की ओर बढ़ रहा है। जिसका कहीं कोई निदान पूंजीपतियों, मुनाफाखोरों की व्यवस्था में नहीं दिखता। श्रम कानूनों में परिवर्तन सुधार के नाम पर मोदी सरकार ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों, मालिकों, ठेकेदारों को लाभ पहुंचाने के कारण आजादी में मिले अधिकारों को भी छीन लिया है। हर तरफ सस्ते श्रम की लूट के लिए नियमों को लचीला किया है। आज मोदी जो देश के प्रधानमंत्री हैं एक बड़ी गुलामी को देश के अन्दर बढ़ावा दे रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को देश में बढ़ावा दे रहे हैं। वे कहते हैं कि देश के अन्दर रोजगार के अवसर खुलेेंगे। जब अपने देश के कारखानों में ही मजदूरों को स्थायी रोजगार नहीं दे सकते तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में रोजगार की क्या गारण्टी है। हमारे देश के प्रधानमंत्री जो दुनिया में मुनाफे की लूट मचाने, हत्यायें करवाने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस के मौके पर मुख्य अतिथि बनाते हैं। प्रधानमंत्री को अपने देश के अंदर कोई मुख्य अतिथि बनाने लायक नहीं मिला। बेहद शर्मनाक है। पैसे और मुनाफे पर टिकी इस व्यवस्था में सरकारों से मेहनतकश मजदूरों-किसानों को किसी प्रकार की अभिलाषा करना बेकार है। मजदूरों को संगठित होकर अपने ऊपर हो रहे शोषण के खिलाफ एक वर्ग बतौर देश के अन्दर उठ खड़ा होना होगा और शोषण के खिलाफ हो रहे विरोधों को तेज करना होगा। क्योंकि ठेकेदार मालिक मजदूरों पर दया खाकर शोषण करना बन्द नहीं करेंगे उन्हें मुनाफा चाहिए होता है। मजदूर की जिन्दगी से मतलब नहीं होता है। वह उन्हें दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक देते हैं। शोषण को खत्म करना है तो मजदूरों को ही उनके राज को खत्म कर अपना राज कायम करना पड़ेगा। वह राज जिसमें किसी का शोषण न हो, इसके लिए मेहनतकशों के संगठन और उनकी विचारधारा के साथ जुड़ा होना व कदम बढ़ाना जरूरी है। सूरज, रामनगर
मतदान के बारे में कुछ विचार
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
कहा जाता है कि हिन्दुस्तान में लोकतंत्र है परन्तु चुनाव के दौरान कौन-कौन से हथकंडे अपनाकर लोग सत्ता तक पहुंचते हैं। यह सब जानते हैं। आम जनता को बरगलाकर नेता अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। उससे आगे मैं बताना चाहता हूं कि लोग ऐसा क्यों करते हैं। क्या वे ऐसा जानबूझकर करते हैं। या उससे करवाया जाता है। या उसके पीछे कोई छिपी हुई शक्तियां काम कर रही होती हैं। उसमें दो शक्तियां होती हैं। 1. डर 2. लोभ (लालच)।1. डर- इस मामले में होता है कि बड़े-बड़े नामी डकैत या बदमाश तबके के लोग जिनके ऊपर इनाम घोषित होता है उनका सम्पर्क सीधे नेताओं से होता है एवं उनके आस-पास रहने वाले लोगों को वे डरा-धमकाकर रखते हैं और कहते हैं जिसको हम कहेंगे उसे वोट देना नहीं तो तुम्हारा रहना दूभर कर देंगे और तरह-तरह से परेशान करते हैं। एवं उनसे खाना-पीना कपड़े इत्यादि उपयोग का सामान मंगाते रहते हैं। 2. लोभ- लालच के द्वारा कि तुम्हे पैसा मिलेगा या तुम्हें रोड़ बनाने का या पुल बनाने का या खडंजा लगाने का ठेका मिलेगा जिसके द्वारा तुम्हारी अच्छी कमाई करवा देगें या कन्ट्रोल का कोटा मिलेगा जिसमें गेहूं, चावल, चीनी, तेल इत्यादि बेचने के लिए दिया जायेगा उसमें मनचाही कमाई कर लेना। या गैस (LPG) और पेट्रोल पम्प का लाइसेन्स दे दिया जायेगा उसमें मनचाही कमाई कर लेना। नेता भी वे लोग बनते हैं 99 प्रतिशत लोग सिर्फ कमाई करने के लिए। जिसमें करीब-करीब सभी लोग भ्रष्टाचार के द्वारा लोभ के बस में होकर कमाई करते हैं। लोग इस तरह की कमाई क्यों करते हैं। जबकि सभी जानते हैं कि इस तरह की कमाई करने का मतलब होता है गलत रास्ता चुनना और उसी गलत रास्ते के द्वारा कमाकर पैसा घर में लाना। असल में लोग अपनी निजी सम्पत्ति को बढ़ाने में लगे रहते हैं। जितनी अधिक सम्पत्ति हमारे पास होगी उतनी ताकत हमारी बढ़ेगी। वह ताकत होती है कोई भी इस्तेमाल करने की वस्तु को खरीदने की ताकत। यह सम्पत्ति के द्वारा भी हो सकती है और ख्याति के द्वारा भी हो सकती है जितनी हमारी ख्याति बढ़ेगी उतना हमारा वर्चस्व कायम होगा उतनी हमारी बात माना जायेगी; हमारी हुकूमत चलेगी। उस ताकत के द्वारा हम निर्जीव चीजें जैसे गाड़ी, मोटर तो खरीदेंगे ही सभी तरह के जानवर, जीव-जन्तु भी खरीद सकते हैं। आदमी, औरत, बच्चे के साथ में उनकी शारीरिक व मानसिक श्रम शक्ति भी खरीद लेगें और यहां तक कि सरकारी कर्मचारी, अधिकारी एवं कानून (संविधान) को भी खरीद कर अपने लिए अपने हिसाब से तोड़-मरोड़कर इस्तेमाल कर लेगें।
दोस्तो! ये पूंजीवाद है। पूंजीवाद के रहते ऐसा ही होगा क्योंकि पूंजी का स्वाभाविक गुण ऐसा ही होता है। यदि हमको जरूरत के हिसाब से उपयोग के संसाधन जुटा कर उसका उचित उपयोग करना है। जिसकी जिस चीज के लिए जितनी जरूरत है उतना लें या उसको उतना ही मिले और शारीरिक क्षमता व मानसिक क्षमता भर काम लिया जाए। जैसे जन्म से लेकर मृत्यु तक भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, हवादार मकान की उचित व्यवस्था हो तो उसके लिए हमें पूंजी के स्वभाव को जानना समझना होगा। पूंजी के इतिहास को समझना होगा कि इससे पहले पूंजी ने क्या-क्या, कैसे-कैसे किया। फिर एकता की ताकत बनाकर उसके दम पर। लोकतंत्र के झूठे आडम्बर को सिरे से नकारना होगा। और श्रमिकों का राज समाजवाद की स्थापना करनी होगी। और उसके द्वारा साम्यवाद लाना होगा। अरविन्द बरेली
मजदूरों की आजादी की एक रूपरेखा
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
15 अगस्त को देश का पूंजीवादी शासकवर्ग अपनी आजादी का जश्न मनाता है। मजदूर-मेहनतकशों को भी तरह-तरह से भरमा कर अपनी आजादी में शरीक करता है। इस आजादी को मनाने का मतलब है कि पूंजीपति वर्ग द्वारा मेहनतकशों का शोषण-उत्पीड़न जारी रखा जाये। जिसमें एक तरफ देश का मुट्ठी भर छोटा सा हिस्सा सारी सम्पत्ति का मालिक रहे। बाकी आबादी जो सबसे ज्यादा यानी बहुसंख्यक है, जो सभी चीजों का उत्पादन करती है, वह सभी सुख-सुविधाओं से वंचित रहे। पूंजीवादी शासक वर्ग इसी तरह की आजादी को समस्त जनता की आजादी बताकर 67 वर्षों से गुमराह करता आ रहा है। जबकि यह आजादी वास्तविक आजादी से कोसों दूर है।
20वीं सदी में दुनिया के कई देशों में वास्तविक आजादी के लिए मजदूर-मेहनतकशों ने शानदार संघर्ष किये। मजदूरों ने इन संघर्षों के दम पर निजी सम्पत्ति यानी निजी उत्पादन सम्बन्धों की जगह सामूहिक उत्पादन सम्बन्ध कायम किये। जहां हर प्रकार के भेद-भाव को संघर्ष के दम पर मिटा दिया गया। ये आजादी वास्तव में मेहनतकशों की आजादी थी।
हिन्दुस्तान में भी ऐसी आजादी के लिए संघर्ष की शुरूआत की नींव रखी गयी जिसमें भगतसिंह व कई अन्य क्रांतिवीरों का नाम आया है। लेकिन देशी-विदेशी लुटेरों ने उन क्रांतिवीरों की मेहनतकशों की आजादी की नींव को उखाड़ दिया।
तिरंगे के नेतृत्व में मिली आजादी मजदूरों की आजादी नहीं हो सकती। हमारी आजादी लाल झण्डे के नेतृत्व में ही मिल सकती है। लाल झण्डा जो मजदूरों के खून का प्रतीक है। और इस लाल झण्डे के नेतृत्व में मिली आजादी का मतलब होगा महिलाओं, बच्चियों की यौन हिंसा से मुक्ति। बेरोजगारों को बेरोजगारी से मुक्ति। नये समाज में कोई भी बच्चा भूख, बीमारी से नहीं मर पायेगा। कोई मां-बहन पेट की खातिर अपने शरीर को नहीं बेच पायेगी। महिलाओं को सामाजिक उत्पादन में लगाया जायेगा। कोई भी मां-बाप अपने बच्चों की पढ़ाई, रोजगार के लिए शरीर के अंगों को नहीं बेचेंगे। कोई भी इलाज के अभाव में अल्प आयु में दम नहीं तोड़ पायेगा। वृद्ध स्त्री-पुरुषों की देखभाल की गारण्टी दी जायेगी। उत्पादन के साधनों पर सामूहिक मालिकाना कायम किया जायेगा।
उपरोक्त बातों के आधार पर हमारी वास्तविक आजादी हो सकती है। वरना वर्तमान में जो आजादी है वह पूंजीपति वर्ग की मजदूर वर्ग पर तानाशाही का एक रूप है। यानी बीस प्रतिशत लोगों की 80 प्रतिशत लोगों पर थोपी गयी आजादी है। मजदूर वर्ग को अपनी आजादी क्रांति के दम पर हासिल हो सकती है। एक मजदूर हरिद्वार
झाडू वाले प्रधानमंत्री
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं, तब से एक न एक नए-नए शगूफे और पाखण्ड करते जा रहे हैं। उनमें से एक है झाडू लेकर सफाई करना तथा फोटो खिंचवाना। यह सब ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के नाम पर हो रहा है। इस दृश्य को सभी मीडिया अखबार विज्ञापन की तरह प्रचारित प्रसारित करते रहे हैं। प्रधानमंत्री जहां भी नयी जगह पर जाते हैं। हाथ में झाडू और फावड़ा लेकर फोटो खिंचवाते हैं। प्रधानमंत्री की देखा-देखी इनके कुछ मंत्री भी ऐसा ही कर रहे हैं। ये झाडू भी साफ-सुथरी सड़कों पर लगाते हैं। ये लोग मलिन बस्तियों में पैर भी नहीं रखते हैं। झाडू के साथ फोटो खिंचवाने के चक्कर में इन लोगों ने बेशर्मी की हदें भी पार कर दीं। कुछ मंत्रियों ने दिल्ली के एक वी.आई.पी. इलाके में बोरी में कूड़ा मंगाकर सड़क पर फैलाया तथा झाडू लेकर फोटो खिंचवाएं। खैर! जो भी हो एक बात तो साफ है कि मोदी जी और इनके मंत्री गण इस पाखण्ड के माध्यम से अपनी छवि साफ-सुथरी बनाना चाहते हैं।
सवाल यह है कि क्या मोदी जी को झाडू लगाने का ज्ञान प्रधानमंत्री बनने के बाद हुआ है? क्या देश वासियों को अब तक झाडू लगाने का ज्ञान नहीं था? यह सवाल हमें मोदी से जरूर पूछना चाहिए। हम जानते हैं कि सभी घरों में और उसके आस-पास दिन में कम से कम दो बार झाडू लगती है। मजदूर, मेहनतकश गरीब लोग अपने घरों और उसके आस-पास की सफाई खुद करते हैं। पूंजीपति अमीर लोग अपने घरों की सफाई के लिए नौकर-चाकर रखते हैं। प्रधानमंत्री एवं उनके मंत्रीगण के घरों की साफ-सफाई नौकर-चाकर करते हैं। ये लोग खुद अपने घरों की सफाई नहीं करते। फिर ये लोग साफ सड़कों पर झाडू क्यों चलाते हैं। शहरों और कस्बों में साफ-सफाई के लिए नगर निगम या नगर परिषद नाम से सरकारी अमला बना है।
आज सब जानते हैं कि देश में सबसे अधिक तथा खतरनाक कचरा पैदा करने वाले तथा इसे फैलाने वाले देश के बड़े कल-कारखाने तथा इनके मालिक पूंजीपति हैं। कल-कारखाने का कचरा व गंदा पानी ने देश की जीवनदायी नदियों को जहरीला एवं गंदा नाला बना दिया है। शहरों में गंदे इलाके मजदूर बस्तियां हैं जो औद्योगिक इलाके में और उसके आस-पास बसी हैं। यहां सरकारें सफाई कर्मचारी नहीं लगाती हैं।
दिल्ली में एक मजदूर बस्ती है शाहबाद डेरी। इस बस्ती में जगह-जगह कूड़ा तथा गंदा पानी जमा है। मैंने दिल्ली नगरपालिका रोहिणाी कार्यालय से आर.टी.आई. लगाकर पूछा कि शाहबाद डेरी झुग्गी बस्ती में कितने सफाइकर्मी नियुक्त हैं। जबाव मिला कि यहां कोई सफाईकर्मी नियुक्त नहीं है। यह सच्चाई सरकारों के दोहरे-चरित्र को उजागर करती है। शहरों में पूंजीपतियों की कालोनियां तथा वी.आई.पी. इलाके शीशे की तरह चमकते रहते हैं। सफाई कर्मचारियों की फौज यहां लगी रहती है। प्रधानमंत्री जी एवं उनके मंत्रीगण इन्हीं इलाकों में झाडू लगा रहे हैं। इस नौटंकी से भारत स्वच्छ नहीं बनेगा।
देश को अगर कचरा मुक्त व साफ-सुथरा बनाना है अगर नदियों और पर्यावरण को स्वच्छ-निर्मल बनाना है तो देशी-विदेशी कल-कारखानों पर कचरा फैलाने पर रोक लगानी पड़ेगी। इन कारखानों में कचरा ट्रीटमेंट प्लान्ट लगाने के लिए बाध्य करना पड़ेगा। ये कारखाने अपने मुनाफे की हवस पूरी करने के लिए मजदूरों का निर्मम शोषण करते हैं तथा मनमाने तरीके से जहरीले कचरे को फैलाते रहते हैं। इन कारखानों से निकलने वाले तमाम रसायनिक केमिकल्स से भू-जल नीचे तक दूषित हो चुका है। नदियों का पानी जहरीला होकर काला पड़ गया है। इसी पानी से खेतों की सिंचाई होती है। ऐसे पानी से सिंचित जमीन व इसके कृषि उत्पाद कैसे होंगे? आज नदियों की अधिकतर मछलियां मर चुकी हैं। इन कारखानों से निकलने वाली जहरीली गैसों से हवा दूषित हो चुकी है। आज सांस की तमाम बीमारी दूषित हवा के कारण हो रही हैं। नयी-नवेली सरकार इन कारखानों पर प्रतिबंध लगाने के बजाय भांति-भांति की छूट दे रही हैं। वह भी विकास के नाम पर।
आज जल, जमीन और वायु जितना दूषित हो चुका है क्या वह मोदी के झाडू लगाने से ठीक हो जायेगा? क्या इस बात को मोदी और इसके मंत्रिगण नहीं जानते हैं? मोदी साहब इस बात को भली-भांति जानते हैं कि यह समस्या झाडू लगाने से ठीक नहीं हो सकती। मोदी और इसकी सरकार जो नीति बना रही है उससे देश में दूसरी समस्याओं के साथ यह समस्या भी और बढ़ेगी। मोदी साहब जो कर रहे हैं वह पाखण्ड है, जनता से मक्कारी है, देश की जनता की आंखों में धूल झोंकना है। यह सोलह आना फरेब है।
मोदी का व्यक्तित्व जिस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा आदि संगठनों से निर्मित है वहां ऐसे ही व्यक्ति को कर्मठ, निष्ठावान, ईमानदार माना जाता है। ये संगठन हिटलर जैसों की विचारधारा से प्रेरित हैं। इन संगठनों की पैदाइश पतित साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के गर्भ से हुई है। साम्राज्यवादी पूंजीवाद ने मजदूर वर्ग के संघर्षों एवं राष्ट्रीय मुक्ति जनान्दोलनों को कुचलने के लिए घृणित फासिज्म का रूप धारण कर लिया था। हिटलर, मुसोलिनी, तोजो इसके मूर्त रूप थे जिन्होंने पूरी मानवता एवं इंसानियत को खतरे में डाल दिया था। फासिस्ट विचारधारा वाले संगठनों से संस्कारित औलाद से आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है। आजादी के आंदोलन में भी इन संगठनों और इनके नेताओं का दोगला चरित्र उजागर हुआ था। आज के नामित भारत रत्न अटलबिहारी वाजपेयी ने भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में अंग्रेजों से माफी मांगी थी। और क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करवाने में मुखबिरी की थी। ऐसे ही लोग मोदी के आदर्श पुरुष हैं। जन संघर्षों से गद्दारी और दोगले चरित्र के कारण आर.एस.एस. ने अस्सी के दशक तक जनमानस में स्वीकारोक्ति नहीं पायी। किन्तु भारतीय पूंजीपति वर्ग एवं साम्राज्यवादियों ने कांग्रेस के विकल्प के बतौर भाजपा जैसे फासिस्ट संगठन को बनाये रखा। कांग्रेस के जन विरोधी चरित्र से जब जनता का मोहभंग हुआ तो नब्बे के दशक के शुरू में भाजपा ने ‘राम, रोटी और इंसाफ’ व ‘स्वदेशी’ का नारा दिया तथा पहली बार उ.प्र. की कुर्सी पर सत्तासीन हुई। सत्ता में आते ही भाजपा अपने किए वायदे से चुपके से मुकर गयी। तथा मेहनतकश जनता को बांटने का षड्यंत्र करने लगी। 1992 में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया। मस्जिद के गिरने से सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गये। बड़े पैमाने पर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। भाजपा ने अपने मातृ संगठनों की तरह ही जनता से गद्दारी की। थोड़े दिनों बाद ही भाजपा का सच जनता के बीच उजागर हो गया। जनता ने अगले ही चुनाव में भाजपा को कुर्सी से उतार दिया। तब से आज तक भाजपा उ.प्र. में सत्ताशीन नहीं हुई। 1998 के आम चुनाव में भाजपा ने एक बार फिर भ्रष्टाचार, महंगाई, विकास का नारा दिया तथा एन.डी.ए. की पीठ पर सवार होकर केन्द्र की कुर्सी हथिया ली। आर.एस.एस. की शाखाओं में टंªेड दूध से धुले ईमानदार अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाया गया। आजादी की लड़ाई में पिछले दरवाजे से अंग्रेजों की चाटुकारी करने वाले आर.एस.एस. के मुखौटा थे अटल बिहारी वाजपेयी। अटल ने भी कांग्रेस से आगे बढ़कर पूंजीपतियों की तिजौरी भरने वाली जनविरोधी नीतियो को और तेजी से लागू किया। इस काल में देश भर में बड़ी संख्या में किसानों ने आत्महत्या की। उस समय भी अटल और भाजपा ने जनता को धोखा दिया।
1999 में सीमा पर तनाव पैदा करके कारगिल जैसे युद्ध को जन्म दिया गया। देश के सैकड़ों जवानों को इस युद्ध में झोंक दिया गया। जवानों की लाशों को रखने के लिए अमेरिका से ताबूत मंगवाये गये। इस सौदेबाजी में भी बड़ा घोटाला हुआ था। जनता का हाल बेहाल था दूसरी ओर अटल ने नारा दिया ‘‘इण्डिया शाइनिंग’’ (भारत चमक रहा है)। इस झूठ को प्रचारित करने के लिए करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाया गया।
2002 में अटल के प्रधानमंत्री काल में गुजरात में खून के प्यासे हिन्दू संगठनों ने हजारों मुसलमानों का कत्ल किया। इन भेडि़यों ने दरिन्दगी की सभी हदें पार करते हुए गर्भवती महिलाओं को तथा उनके पेट में पल रहे बच्चों तक का कत्ल किया। उस समय मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। नरेन्द्र मोदी पर तमाम पत्र-पत्रिकाओं-अखबारों, बुद्धिजीवियों ने दंगा भड़काने तथा परोक्ष रूप से हत्यारे दंगाईयों को उकसाने का आरोप लगाया था। किन्तु अटल बिहारी वाजपेयी ने उसके खिलाफ कार्यवाही नहीं की बल्कि ‘राजधर्म का पालन करने’ की नसीहत देने के बहाने नरसंहार को स्वीकृति प्रदान की। जल्द ही जनता ने ईमानदार प्रधानमंत्री के पाखण्ड को समझ लिया तथा 2004 के आम चुनाव में भाजपा और एनडीए को सत्ता से बाहर कर दिया। विकल्प के अभाव में 2004 में पुनः कांग्रेस सत्ता में आ गयी। मनमोहन सिंह ने भी मुलायम हाथों से जनता के खून पसीने का दोहन कर पूंजीपतियों की झोली को भरा। कांग्रेस के खिलाफ जनता का गुस्सा बढ़ता गया। फिर मौका देखकर मोदी एवं भाजपा ने 2014 के आम चुनाव में महंगाई, भ्रष्टाचार, काला धन व विकास का नारा दिया तथा जनता को ‘‘अच्छे दिन आने वाले हैं-- का खूबसूरत सपना दिखाया। 2002 के गुजरात नरसंहार ने मोदी को फासिस्ट चेहरे के रूप में स्थापित कर दिया था। आर.एस.एस. तथा देशी-विदेशी-पूंजीपतियों ने डरावने चेहरे पर विकास पुरुष का मुखौटा लगा दिया। कांग्रेस से निराश नाराज जनता को भाजपा का उक्त नारे तथा मोदी के मुखौटे ने अपनी ओर आकर्षित किया। इस बार जनता ने पूर्ण बहुमत से भाजपा को सत्ता पर बैठा दिया।
मोदी चुनाव से पहले अपनी सभाओं में बोलते थे कि उनका सीना 56 इंच का है तथा वे तीन दिन में ही महंगाई, भ्रष्टाचार, कालेधन की समस्याओं को हल कर देंगे। मोदी को सात महीने से अधिक हो गया है प्रधानमंत्री बने हुए। महंगाई को कम करने का दावा करने वाले के प्रधानमंत्री बनते ही रेल किराया में भारी बढ़ोत्तरी की गयी। चावल, दाल डेढ़ गुने से दो गुने महंगे हो गये। गरीबों की सब्जी, आलू, प्याज 40 रुपये से 60 रुपये तक महंगे हो गये थे। दवाओ के दाम बेतहाशा बढ़ रहे हैं। अपराधियों का सीना 56 इंच से भी अधिक चौड़ा होता जा रहा है। महिलाओं पर हिंसा तथा बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। मोदी इस सच्चाई को झुठलाने के लिए तरह-तरह की कलाबाजी कर रहे हैं। इस समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम के दामों में 60 प्रतिशत तक की भारी गिरावट हुई है किन्तु इस सरकार ने मात्र 10-12 प्रतिशत दाम ही कम किया है। दामों में गिरावट को भी मोदी तथा भाजपा अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर गरजने वाले मोदी की बोलती बंद हो चुकी है। कांग्रेस तथा इनके भ्रष्ट नेताओं और सी.बी.आई. को पानी पी-पी कर गाली देने वाले प्रधानमंत्री से कोई पूछे कि इनके सात महीने के शासन काल में किस नेता और अफसर को भ्रष्टाचार के मामले में गिरफ्तार किया गया है तथा किसको सजा दी गयी है। काला धन के सवाल पर भी मोदी सरकार ने विदेशी संबंधों का हवाला देकर इससे मुंह मोड़ लिया है। विकास के मामले में इस सरकार की लफ्फाजी जारी है। इनका विकास का एजेण्डा भी विदेशी पूंजी के जाल में अटका हुआ है। अपने सात महीने के शासन काल में मोदी अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया सहित 9 विदेशी यात्रा कर चुके हैं लेकिन राह आसान नहीं दीख रही है।
देशी-विदेशी पूंजी के दबाव में मोदी सरकार ने देश के समूचे मेहनतकश आबादी के अधिकारों पर हमला बोल दिया है। श्रम कानूनों में बदलाव करके मजदूरों को अधिकार विहीन बनाया जा रहा है। वह भी ‘‘श्रमेव जयते’’ के नाम पर। कम्पनियों में स्थाई रोजगार की व्यवस्था को खत्म कर दिया गया है। ठेकेदारी के मजदूरों से प्रोडक्शन लाइन पर काम कराया जा रहा है। ऐसा केवल प्राइवेट कम्पनियों में ही नहीं बल्कि सरकारी विभागों, संस्थानों एवं कम्पनियों में भी किया जा रहा है। स्माल फैक्टरी की परिभाषा बदल कर बड़े कारखानों को भी इसकी जद में लाया जा चुका है। यह व्यवस्था दी जा रही है कि यहां कोई भी श्रम कानून लागू नहीं होगा।
मोदी ने चुनाव से पहले देश के नौजवानों को रोजगार देने का वायदा किया था किन्तु आज रोजगार बढ़ने के बजाय बेरोजगारी बढ़ रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्या भस्मासुर की तरह बढ़ रही है। कानून के राज की जगह जंगल राज कायम होता जा रहा है। मोदी ने चुनाव से पहले जिन समस्याओं को हल करने का वादा किया था वे कम होेने की बजाय दैत्य की तरह बढ़ रही हैं। बढें भी क्यों नहीं, पूंजीपति वर्ग के हितों को पूरा करने के लिए श्रम कानूनों में तथा भूमिअधिग्रहण कानूनों में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया जा रहा है। निजीकरण के दरवाजे और अधिक चौड़े किये जा रहे हैं। बैंकों और रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी की जा रही है। समस्याओं के घनीभूत होते जाने से जनता में निराशा और गुस्सा का बढ़ना लाजिमी है। इस बात को मोदी और आर.एस.एस. और इनके बुद्धिजीवी भली-भांति जानते हैं कि इस तनाव और गुस्से को भटकाया या बरगलाया गया नहीं तो तो यह मोदी सहित पूरी पूंजीवादी व्यवस्था को खाक में मिला दिया।
मेहनतकशों की आंखों में धूल झोंकने के लिए ही आर.एस.एस. मण्डली और मोदी भांति-भांति के घृणित हथकण्डा अपना रहे हैं। आर.एस.एस. और इसकी मण्डली के बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन मेहनतकश वर्गों में विभाजन करने के लिए नफरत फैला रहे हैं। ‘‘लव जेहाद’’, ‘‘धर्मान्तरण(घर वापसी)।’’, ‘‘बहू लाओ बेटी बचाओ अभियान’’ गौरक्षा के नाम पर समाज में घृणा फैला रहे हैं। ये कट्टर पंथी ‘लव जेहाद’ और ‘बहू लाओ बेटी बचाओ’ के नाम पर जागरूक हो रही महिलाओं की आजादी को कुचल देना चाहते हैं।
हिन्दू धर्म की कुरीतियों और निम्न जातियों, महिलाओं को प्रताडि़त करने वाले धार्मिक नियमों के खिलाफ बगावत स्वरूप बौद्ध, जैन, सिख धर्मों तथा कबीरपंथ जैसे सम्प्रदायों का उदय हुआ जो तुलनात्मक रूप में अधिक समानता तथा बराबरी पर आधारित थे। देश के अनेक लोगों ने हिन्दू धर्म की बुराईयों के खिलाफ दूसरे धर्मों को अपनाया। आज ये कट्टरपंथी हिन्दू संगठन हिन्दू धर्म की कुरीतियों, कुप्रथाओं व सामाजिक गैर बराबरी पर आधारित नियमों को बदलने के बजाय दूसरे धर्मों के लोगों को डरा धमकाकर, लालच देकर घर वापसी करा रहे हैं। ये वही लोग हैं जो धर्म के नाम पर अपनी विधवाओं को बनारस तथा मथुरा के विधवा आश्रमों में छोड़ आते हैं। ऐसे ही पतित लोग गौरक्षा की बात कर रहे हैं।
जहां आर.एस.एस. मंडली समाज में भांति-भांति की नफरत फैला रही है वहीं प्रधानमंत्रीजी हाथ में झाडू लेकर फोटो खिंचवा रहे हैं वह भी स्वच्छ भारत के नाम पर। इसे प्रचारित करने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी की तरह करोड़ों रुपये बहा रहे हैं। यह सब मेहनतकश जनता और देश के नौजवानों की आंखों में धूल झोंकने के लिए उन्हें गुमराह करने के लिए किया जा रहा है। मोदी जिन मुद्दों पर चुनाव लड़े थे तथा जनता से जो वायदे किये थे उससे मुंह चुरा रहे हैं।
सपने बेचने और पाखण्ड करने से समस्यायें दूर नहीं हो जाती हैं। इसके लिए कुछ ठोस काम करना पड़ेगा। पूंजीपति वर्ग के मुनाफे के घोड़े को लगाम लगानी पड़ेगी तथा यह लगाम जनता के हाथो में सौंपनी होगी। किन्तु इस काम को मोदी और आर.एस.एस. मण्डली नहीं कर सकती। जनता से गद्दारी करने वाले पूूंजीपतियों के चाकर और एजेण्ट ऐसा नहीं कर सकते। देश के पूंजीपतियों ने करोड़ों रुपये मोदी के ऊपर प्रचार में खर्च किया है। इसकी अदायगी करनी है। वह अगले पांच वर्षों तक मेहतनकश जनता (मजदूर-किसान) की खून पसीने की कमाई उनकी झोली में डालते रहेंगे। जनता तड़पती कराहती रहेगी। एक दिन मोदी का भी भांडा फूटेगा, असलियत जनता के बीच खुलेगी। इतिहास को झुठलाया नहीं जा सकता। धूर्त और मक्कार लोगों की जगह इतिहास के कूड़े दान में होती है। हमारे झाडू वाले प्रधानमंत्री जी को यह बात पता होनी चाहिए। हरि प्रसाद, फरीदाबाद
बिना खाना खाये-चाय पिये ओमेक्स मजदूर कम्पनी में काम करेंगे
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
आॅटोमेक्स मजदूरों की प्र्रबंधन से समझौता वार्ता जुलाई माह से बाकी है पर आॅटोमैक्स प्रबंधक यूनियन से किसी भी तरह की बात करने को तैयार नहीं है। लगभग 7 महीने से उनका केस एलओ के पास श्रम विभाग में चल रहा था अब डीएलसी एनसीआर गुड़गांव के पास चल रहा है लेकिन प्रबंधक वहां से हर बार बहाना बनाकर तारीख लेते रहते हैं पर फैसले पर कोई बात नहीं करते। समझौते को लेकर आॅटोमैक्स प्रबंधक जागरूक नहीं है। इस बात को लेकर मजदूरों में काफी रोष बना हुआ है। अगर समय रहते समझौता नहीं हुआ इसके कारण औद्योगिक अशांति फैलती है तो पूर्ण रूप से इसकी जिम्मेदार आॅटोमैक्स प्रबंधक की होगी।
दिनांक 13 जनवरी से सभी मजदूर साथियों ने यूनियन के साथ मिलकर फैसला लिया है कि सभी मजदूर साथी बिना चाय पिये, बिना खाना खाये ही अनिश्चितकालीन तक कम्पनी में कार्य करेंगे जब तक प्रबंधक हमारा समझौता नहीं कर देती।
जनार्दन एन (प्रधान)
आॅटोमैक्स कर्मचारी यूनियन बिनौला(गुड़गांव)
एक बुर्जग मजदूर की दास्तान
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
मैं राम सागर C/O श्री चन्द्र वली मौर्य म.न.57 ईस्ट द्वारिका कालोनी सेक्टर-22 फरीदाबाद का निवासी हूं।
मेरी पेंशन 2005 को ही लागू हो जानी चाहिए थी लेकिन आज तक मुझे गुमराह किया जा रहा है। सन् 2005 में मैं पेशन का फार्म भर कर दिया था। पी.एफ. आफिस से फार्म यह लिखकर वापिस कर दिया गया कि फार्म कम्पनी से भरवाकर दिया जाये। मैंने अधिकारी से जाकर बात की कि कम्पनी के साथ मेरा केस कोर्ट में विचाराधीन है इसलिए फार्म नहीं भर सकती तो डिपार्टमेन्ट अधिकारी ने डांट कर भगा दिया। बाहर की मुहर, दस्तखत नहीं चलेगी। जबकि डीएलसी फरीदाबाद की मुहर-दस्तखत है, जिसकी मुहर-दस्तखत से कानून बनता है, कोर्ट नहीं काट सकती इतनी मान्यता होती है। कंपनियों में कोई समझौता या जिला लेबल पर कोई भी समझौता आर्डर पास होता है डीएलसी के मुहर दस्तखत से कानून बन जाता है।
मैं 7 जुलाई 1992 को राजे टेक्सटाइल प्लाट न. 10 सेक्टर-24 फरीदाबाद कंपनी से डिसमिस कर दिया गया था। 10 जून 1999 को मैं ड्यूटी और पूरे पैसे के साथ फरीदाबाद लेबर कोर्ट ने आर्डर पास कर दिया लेकिन कंपनी गैर कानूनी ढंग से बंद कर दिया गया। जो अभी तक मुझे ड्यूटी नहीं मिली। बाद में उसमें फार्म न.2 के आधार पर कंपनी में दो मालिक बन गये और हाई कोर्ट चले गये। जो फैसला फरीदाबाद लेबर कोर्ट ने दिया वही हाईकोर्ट ने दिया। मालिकों की आपसी मालिकाने की लड़ाई थी।
इनके बीच सन् 1980 में कोई बंटवारे में आपसी समझौता हुआ था जो डायरेक्टर श्री निकुन्ज कुमार लोहिया को बनाया गया। यह कम्पनियां इनके हिस्से में आई। आज तक कंपनियां ईस्ट इंडिया से लेकर पावर लूम की 18 कंपनियां श्री निकुन्ज कुमार लोहिया के ही देख रेख में बेची गयी। जितनी कानूनी कार्यवाही सरकारी हुई। श्री निकुन्ज कुमार लोहिया पर ही सारे आर्डर पास हुये। जो माल, मशीन, जमीन बेची गयी सारा निकुन्ज कुमार लोहिया के बैंक खाते में ही गया। लेकिन फार्म न. 2 पर श्री राजे कुमारी का ही नाम आज तक बदला नहीं गया। इन दोनों की ड्यूटी बनती थी कि फार्म न.2 पर श्री निकुन्ज कुमार लोहिया के नाम पर ट्रांसफर कराया जाये लेकिन इन दोनों ने समझौते पर ध्यान ही नहीं दिया। और कंपनी राम भरोसे चलती रही और फरीदाबाद के सारे अधिकारी भी सन् 1980 से आज तक सोये रहे। किसी को कोई मतलब नहीं कि फरीदाबाद में कौन कंपनी में क्या बदमाशी चल रही है। उनको तो अपनी मंथली पगार से मतलब है। 50 साल से कंपनी का डायरेक्टर कौन है, कंपनी का मुनाफा कौन ले रहा है मालूम नहीं। जमीन बेची जा रही है। मशीन बेची जा रही है। किसकी है किसकी नहीं। इन्हीं दोनों की लड़ाई में आज तक 16-17 साल बाद भी बहुत सारे मजदूर, स्टाफ हिसाब से वंचित रहा। 30 साल नौकरी के बाद भी हिसाब देने वालों का कोई पता नहीं। अपनी छाती पीट-पीट कर कितने फरीदाबाद से चले गये कितने मर भी गये, मालिकों के मजे आ रहे हैं।
मजदूर तबका कितना दिन कोर्ट में लडे़गा 25 साल मुझे लड़ते हो गया है। कहां तक कोई लडे़गा। सारे अफसर कोर्ट कचहरी सब तो इन्हीं की है।
यही हाल भविष्य निधि वाले किये हुए हैं। 2005 के बाद फिर मैंने 9 मार्च 2011 को दूसरी बार फार्म भरा। पेंशन के लिए श्री वेचू गिरी जी को भविष्य निधी ने ही अधिकृत किया हुआ है। श्री वेचू गिरी की मुहर दस्तखत लगवा कर दिया। कंपनी के साथ केस चलने की वजह से कंपनी मेरे फार्म पर मुहर दस्तखत नहीं कर सकती, दुश्मन को कौन गले लगायेगा, वही कहावत है। आ बैल मुझे मार अभी भी भविष्य निधि वाले कंपनी के मुहर के ही लिए मुझे बाध्य कर रहे हैं। और पेंशन नहीं बना रहे हैं। क्योंकि मेरा भविष्य निधि 7 जुलाई 1992 तक ही काटा गया है। 7 जुलाई को कंपनी ने मुझे डिसमिस कर दिया था और कोर्ट का आदेश ड्यूटी और पैसे के साथ 10/6/1999 को हुआ था। इस आधार पर मैं पेंशन का दावा किया हूं। वैसे मैं 2005 में रिटायर हो रहा हूं फिर भी मैं आप के पास वही आर्डर की कापी के हिसाब से ही सेवा लाभ लेने की तिथि दे रखा हूं। क्योंकि इधर का अभी कोई केस नहीं डाल रखा हूं। उसमें भी भविष्य निधि अधिकारी फार्म जमा करने के बाद फार्म 25/7/11 को यह कहकर वापस दिया कि आप की कंपनी ने 93-94 का पैसा नहीं जमा कराया है। भविष्य निधि अधिकारी यहां गौर नहीं कर रहे हैं कि मैं दावा कोर्ट के हिसाब से किया हूं। भविष्य निधि अधिकारी मेरा पैसा कंपनी से ले या 10 डी के तहत या 16 ए के तहत जो भी कानून भविष्य निधि ने बनाये हैं। उसके तहत मैं पेशन का हकदार हूं। जो कि मेरी पेंशन बनाई जाये और भविष्य निधि अधिकारी मुझे परेशान करने के लिए टाल रहे हैं। जबकि मैं कोर्ट से शपथपत्र बनवाकर दिया था वह फाइल से निकाल लिये और कहने लगे शपथपत्र इसमें नहीं है। मैंने कहा आप ने फाइनल में क्या चेक किया जो अब इतने दिन बाद बता रहे हैं। आपने फार्म अधूरा कैसे जमा कर लिया। उनको शपथ पत्र की फोटो कापी दिखाया, फिर बोले दूसरा बनवा कर दे दो। मैं दूसरा बनवा कर दे दिया। इसके बाद से आज तक 7/3/11 से लेकर कंपनी के साथ भविष्य निधि का सिलसिला ही चल रहा है।
और मेरे पर बार-बार यह दवाब बनाया गया कि कंपनी से हिसाब क्यों नहीं लेते और अपना पीएफ पूरा निकलवा लो। बाद में वसूली विभाग में मेरी फाइल गयी गौरी शंकर के पास। जब मैं उनके पास गया तो उन्होंने बताया कंपनी वाले कुछ कागज दे आये थे। जब नरायन सिंह जिनको कंपनी यानि निकुन्ज कुमार लोहिया जी पी.एफ. के फार्म भरकर मुहर लगाने दस्तखत करने का अधिकार दे रखा है। मैं भी गौरी शंकर जी को तमाम आर्डर जो कागज उन्होंने मांगे मैंने दे दिये। कुछ दिन बाद फिर गौरी शंकर से मिला तो कहने लगे आप की फाइल गुम हो गयी और सालों साल मेरी फाइल पर कोई विचार ही नहीं किया गया। जब जाऊं तो अभी फाइल नहीं मिली बार-बार यही बात रिपीट होती रही। अब दूसरी फाइल बनवा लो। मैं गरीब मजबूर मानसिक तनाव लेकर वापस चला आता। चपरासी और किसी अफसर से मिलने नहीं देते थे कि अपनी बात कहूं। फिर मैं श्री वेचू गिरी जी से मिला। वे मेरा केश लोक अदालत में डाल दिये। हर महीने 10 ता. को लोक अदालत लगती है। पी.एफ. अफिस में 10 ता. को फाइल मिल गयी और लोक अदालत में यह तय हुआ आपकी फाइल पर विचार होगा। इसके पहले कुकी भाटिया की तरफ से 26/8/11, 17/10/11, 11/1/12, 28/9/12, और 4/12/12 को टीसी अग्रवाल की तरफ से और 30/6/14 को सतीश चंद्र त्यागी की तरफ से पत्र कंपनी को भेजा गया जिसका कोई लाभ आज तक नहीं मिला। वही ढांक के तीन पात के बराबर रहा। तीन साल से यही विचार पीएफ आफिस वाले कर रहे हैं। कभी श्री निकुंज कुमार लोहिया पर तो कभी श्रीमती राजे भरतिया पर। जब कि मेरा पीएफ पूरा निकाला नहीं गया है। और मेरा फैमली पीएफ पूरा पड़ा है। कंपनी के दोनों मालिक अभी जिन्दा हैं। मैं 70 साल का हो रहा हूं जिन्दा हूं अब ज्यादा चल फिर नहीं सकता पीएफ वालों का मरने के बाद पेंशन बनाने का इरादा है। जबकि मैं न्यू इन्डिया टेक्स टाइल प्लाट नं. 11 सेक्टर 24 फरीदाबाद में 1963 में भर्ती हुआ और 1991 मार्च तक ड्यूटी पर रहा जो निकुंज कुमार लोहिया जी 3 महारानी नई दिल्ली के नाम पर यह कंपनी है और राजे श्री टेक्स टाइल में 1/3/1991 में मुझसे काम लेना शुरू किया गया। 7/7/1992 को डिसमिस कर दिया। 10/6/1999 को लेबर कोर्ट फरीदाबाद ने पूरे पैसे के साथ ड्यूटी पर जाने का आर्डर दे दिया। इसलिए मेरी ड्यूटी 10/6/1992 तक से आगे। रिटायरमेंन्ट 2005 में हो रहा है।
श्रीमती राजे भरतिया पत्नी ओम प्रकाश भरतिया R/O एक दत्त 10 अवेन्यू अशोक ग्रीन राजोफरी, नई दिल्ली 110038, मालिक तो कोई ना कोई है राजे श्री टेक्स टाइल में 52 मजदूर थे। जिनका नाम व बाप का नाम सब रिकार्ड मेरे पास है। और जय नरायन को राजे श्री टेक्सटाइल के मजदूरों को किसने पेेंशन फार्म व पीएफ निकालने के फार्म पर मुहर व दस्तखत किये यदि जय नरायन के हैं तो वह तो सरासर गलत है। क्योंकि यह कंपनी निकुन्ज कुमार लोहिया की नहीं है निकुन्ज कुमार लोहिया खुद कह रहे हैं। इसलिए जय नरायन को राजे भरतिया ने मुहर व दस्तखत के हक नहीं दिये है। जय नरायन को फिर यह हक किसने दिया क्योंकि राजे श्री भरतिया आज भी राजे टेक्सटाइल की मालिक बनने को राजी नहीं उधर निकुन्ज कुमार लोहिया न ही मानने को तैयार तो फिर जय नरायन सिंह किस अधिकार से राजे श्री टेक्सटाइल के मजदूरों के फार्म पर मुहर दस्तखत किये। और पावरलूम के 18 कंपनियां अलग-अगल नाम से हैं अलग-अलग मालिक हैं, तो एक कंपनी का एक ही मैनेजर हो सकता है। एक जगह नौकरी करने वाला दूसरी जगह नहीं कर सकता। तो भी जय नरायन सारी कंपनी के फार्म पर मुहर-दस्तखत नहीं कर सकते और किसी गेजिटेड अफसर में आते नहीं। शायद यदि निकुन्ज कुमार मालिक नहीं तो जो बकाया पीएफ का पैसा आया वह किस के बैंक खाते से आया पीएफ की तरफ से किसको नोटिस भेजा गया। कुछ रिकार्ड तो मेरे पास भी हैं। यदि राजे श्री टेक्सटाइल का कोई मालिक नहीं है तो जो भी पीएफ निकाला गया वह भी गलत ढंग से और पंेशन बनी वह भी गलत ढंग से क्योंकि जय नारायन को अधिकार किसने दिया। जो अधिकार दिया मालिक वही है। मेरा पैसा उसी से लिया जाए और पीएफ वालों ने शायद उनको यह अधिकार तो दिये नहीं क्योंकि वेचू गिरी की तरह से सारी कंपनियों को तो जय नारायन अपनी मुहर-दस्तखत करते नहीं। इस तरह दोनों मालिक मिलकर हम जैसे गरीब अपाहिज मजदूरों को आर्थिक, शारीरिक, सामाजिक व मानसिक क्षति पहुुंचाते रहते हैं। और हम निःसहाय हो जाते हैं। हमारा मनोबल गिर जाता है। इन मालिकों के सैकड़ों हथकंडे होते हैं। और वे बच निकलते हैं, और सब इनके ही खैरख्वाह बन जाते हैं। मेरा पीएफ निकालने के लिए सभी तैयार हैं। लेकिन पेेंशन बनाने के लिए कोई नहीं। जब कि फंड का पैसा तो मैं लेकर चला भी जा सकता हूं लेकिन पेंशन तो हर महीने मेरे खाते में जानी है इकट्ठा देना नहीं है। मैं तो कभी तलब किया जा सकता हूं। विनीत गुप्ता जी उस समय आयुक्त थे उनसे मेरी एक बार श्री वेचूगिरी जी के साथ बात हुयी तो उन्होंने किसी अधिकारी से बात फोन पर हुयी तो बोले कह दो 26-27 हजार की ही तो बात है पैसा जमा करा दे। उन्होंने मुझे फिर दुबारा बुलाया था लेकिन चपरासी ने नहीं मिलने दिया। और यह कहा था जब तक काम नहीं होता मिलते रहना।
मैंने सोचा इनसे शायद काम जल्दी हो जायेगा। और कुछ अधिकारी तो कड़वी भाषा बोल कर भगा देते हैं जैसे उनका यह काम नहीं है। और कुछ तो मीठी भाषा बोल कर गुमराह, टाल मटोल करते रहते हैं। सबके अपने-अपने विचार हैं। मजदूर को कैसे बेवकूफ बनाना है। काम कहीं से कुछ होना नहीं यह बात मुझे भी पता थी। क्योंकि हिन्दुस्तान के अधिकारियों की लेट-लतीफी की जो आदत बनी है। पीएफ पर शायद 1997 से ब्याज पर भी प्रतिबंध लगा दिये हैं। अब जो फार्म 2005 में पेंशन के लिए दिया था उन्होंने गैर कानूनी ढंग से वापस किया हुआ है। फिर मैं 9/23/11 को दूसरा फार्म भर कर अब इसमें किसकी गलती है जो मेरे केस को लम्बा खींचा जा रहा है। एक न एक बहाना बनाया जा रहा है। जिस पैसे पर ब्याज बंद हो रहा है उसका ब्याज का कौन देनदार होगा। पीएफ आफिस या कंपनी से वसूला जायेगा, हाई कोर्ट की कापी में भी जो आर्डर पास हुआ है, आपके फाइल में शामिल है। और कई आर्डर तो पहले ही आपको फाइल में दे चुका हूं। जिसके आधार पर आपने पत्र व्यवहार किया हुआ है। कंपनी के साथ, मुझे भी उसकी प्रति मिली है।
पीएफ वाले ही पीएफ के कानून की धज्जियां उडा रहे हैं।
मैं महामहिम राष्ट्रपति जी से अनुरोध करता हूं कि मेरी पीएफ की पेंशन जो कानूनन बनती है उसे लागू कराने की कृपा करें।
और दोषियों को जो मुझे मानसिक, सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक तौर पर दंड दे रहे हैं उन्हें भी दंड दिया जाये।
आप की अति कृपा होगी। मैं 70 साल का होने जा रहा हूूं। इस पत्र पर क्या कार्यवाही की गयी, उसकी एक प्रति मुझे भी भेजी जाए।
आपका
राम सागर मोर्य, म.न. 57 ईस्ट इंडिया कालोनी
सेक्टर 22 फरीदाबाद(हरियाणा) 121005
गरीब लोगों का जीवन हुआ दूभर
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
बरेली के वार्ड न.24 के मोहल्ला बाकरगंज में नगर निगम की जमीन है जिस पर नगर निगम वर्षों से कूडा डालता चला आ रहा है जैसे-जैसे शहर की आबादी बढ़ी वैसे-वैसे कूडा भी बढ़ा। आज इस डलाव के चारों तरफ गरीब बस्तियां बन गयी हैं और वैसे-वैसे जनता की समस्या भी बढ़ी हैं। बस्ती के कई बच्चों को कूड़े की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ी है। कई बार यहां की जनता ने संगठित होकर कूड़े डालने का पुरजोर विरोध किया और धरना दिये नेताओं ने आश्वासन दिया लेकिन नगर निगम ने कूडा डालना बंद नहीं किया। ज्यादा विरोध बढ़ा तो नगर निगम ने पुलिस प्रशासन को बुलाकर संगठित लोगों पर तमाम केस 307 व अन्य धाराओं में जनता का दमन किया। ऐेसे लोगों पर केस लगाये जो किसी लाइक नहीं थे। दो बूढे़ लोग जो दमा के शिकार थे वे अब मर गये और अनेक लोगों को कई-कई महीने के बाद जमानत मिली है। लेकिन कूडा अब तक नहीं हटा है। इस बस्ती में जब इंकलाबी मजदूर केन्द्र की टीम गयी और लोगों से बात की तो लोगों ने बताया कि कूडे में काफी समय से आग लगी हुई है। उन्होंने सभासद को बताया और नगर निगम को भी बताया। सभासद के कहने से कई दिन के बाद फायरबिग्रेड की गाड़ी आई उसने आग बुझाने का प्रयास किया लेकिन आग नहीं बुझी है। उसमें लगातार धुुंआ निकल रहा है जिसकी वजह से बस्ती के तमाम लोग व बच्चे सांस व अन्य बिमारियों के शिकार हो गये हैं। कुछ लोग तो घर-बार छोड़कर चले गये हैं। सभासद के माध्यम से इंकलाबी मजदूर केन्द्र की टीम ने जानना चाहा कि आग कैसे बुझाई जाए। सभासद ने बताया कि जब मैंने नगर निगम के लोगों से बात की तो बताया कि इस कूडे़ को जेसीबी से कुरेदा जाये और फिर पानी डाला जाये तब आग बुझ जायेगी। लेकिन नगर निगम कहता है कि इसमें बहुत अधिक पैसा लगेगा जो निगम के पास नहीं है।
साथियो! यहीं सवाल उठता है कि अगर ये आग अमीरों के मोहल्ले में लगी होती तो नगर निगम इसे बुझाता। जैसे पिछले महीने से लगातार मुख्यमंत्री के आने की खबरे है। नगर निगम ने उन सड़कों को बनवाया है जो पिछले दो साल पहले बनी हैं और वे ठीक हैं उन पर करोड़ों रूपया बहाया गया है। वहीं गरीब जनता सड़ती व बजबजाती नालियों, गंदगी के ढ़ेर में जीने और मरने को मजबूर है। वहीं वार्ड न. 24 के मोहल्ले बंशी नगला के लोग पिछले एक साल में कई बार मेयर व नगर आयुक्त से मिले लेकिन नगर आयुक्त ने वादों के अलावा कुछ नहीं किया है। आज वाकरगंज की जनता की ये हालत है कि वह किसी संगठन के लोगों या सभासद के कहने से भी कहीं जाने को तैयार नहीं है। लेकिन साथियों हमें ऐसी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होना होगा हमें क्रांतिकारी विचारधारा पर खडे होकर संघर्ष करने होंगे तभी मजदूर अपनी एकता के दम पर अपने काम करवा सकता है। एक मजदूर, बरेली
हड़ताल स्थल से एक महिला मजदूर की चिट्ठी
ऐसा कम्पनी मालिक इसलिए कह रहा है क्योंकि वह जानता है कि पूरी व्यवस्था (श्रम विभाग, शासन-प्रशासन) उसका साथ देगी। अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे सात मजदूरों को आज 9 दिन हो चुके हैं। लेकिन एक भी सरकारी डाॅक्टर चेकअप के लिए नहीं आया। इस सिलसिले में 8वें दिन महिला मजदूरों का एक शिष्टमंडल डी.सी. साहब से मिला तो डी.सी. साहब ने कहा कि भूख हड़ताल का नाम लेकर वे उनको ब्लैकमेल न करें। और बार-बार न आने की ताकीद महिला मजदूरों को की।
ऐसा लग रहा है कि डीसी साहब के लिए हड़ताल करना या अन्याय के खिलाफ संघर्ष करना ब्लैकमेल करना हो गया है। ऐसे में तो गुड़गांव के वर्तमान डी.सी. साहब को हड़ताल, भूख हड़ताल करने को संविधान में भी ब्लेकमेल करना लिख देना चाहिए। -पुष्पा
मेरे कुछ दोहे
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
कैसे जुड़ पाये भला, संबंधों की डोर।
एक पक्ष मजबूत है, एक पक्ष कमजोर।।
खुली रहें आंखें सदा, बन्द नहीं हों कान।
चलो राह पर तो रहे, तुम्हें पथिक का ध्यान।।
नेता ऐसा चाहिए, जो हो सबका खास।
रहे सभी को बीच में, आये सबको रास।।
जो जनता का कर सके, बिना स्वार्थ हर काम।
वह प्रतिनिधि है देश का, नेता उसका नाम।।
अगर हो सके तो करो, धरना-अनशन बंद।
अनशन करके चल बसे, स्वामी निगमानन्द।।
एक अकेला क्या करे, इस जग का दुःख दूर।
जिसे देखिये है वही, जीवन से मजबूर।।
डा. अशोक ‘‘गुलशन’’
उत्तरी कानूनगोपुरा, बहराइच उ.प्र. 271801
भारत में गंदगी फैलाने के लिए क्या महिलाएं जिम्मेदार हैं
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
आज भारत में वर्तमान सत्तासीन सरकार द्वारा व अन्य राजनीतिक दलों द्वारा भारत को स्वच्छ करने के लिए ‘गंदगी’ दूर करने का अभियान चलाया जा रहा है। मीडिया भी सफाई अभियान को बढ़ा चढ़ाकर दिखा रहा है। जैसे भारत में अब गंदगी का कोई नामोनिशां नहीं रहेगा। हमारे देश के शासकों ने इसके लिए कमर कस ली है अजी साहब! अगर विदेशी निवेश को बढ़ावा देना है तो गंदगी तो दूर करनी पड़ेगी।
देश की जनता से कहने का आश्य है कि भारत में जो गंदगी है, उसके जिम्मेदार व्यवस्था को चलाने वाले कभी गंदगी का दोषारोपण सभी गरीबों पर कर देते हैं कि गंदगी के लिए गरीब जिम्मेदार हैं। तो कभी आपस में एक दूसरे को कोसते हैं। गुजरात की मुख्यमंत्री आनन्दी बेन ने तो हद ही कर दी। वह महिला सशक्तिकरण समारोह में कहती हैं कि गंदगी के लिए महिलाएं जिम्मेदार हैं। घर में कूड़ा होता है। महिलाएं बाहर कूड़ा फेंकती हैं। यानी कि महिलाएं ही गंदगी फैलाती हैं। पुरुष गंदगी नहीं फैलाता, इन साहिबानों ने तो गंदगी की परिभाषा ही बदल दी।
जबकि असल बात यह है गंदगी के लिए जिम्मेदार महिला-पुरुष दोनों नहीं बल्कि व्यवस्था है। जब तक पूंजीवादी व्यवस्था और उसकी चाकरी करने वाले लोग रहेंगे भारत से गंदगी दूर नहीं होगी।
गंदगी के नाम पर ‘भारत स्वच्छता अभियान’ एक नाटक है। स्वच्छता अभियान महज ‘फोटो खिंचाने’ तक सीमित है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिन उद्योगपति घरानों, बाॅलीबुड अभिनेताओं और क्रिकेटरों को मनोनीत किया, उन्होंने कभी भी अपने घर में झाडू नहीं लगायी होगी। जिनसे मोदी सफाई के लिए कह रहे हैं उन्हीं के कारखानों-मिलों का गंदा पानी नदियों को प्रदूषित करता है। कूड़ा-कचरा वहीं से आता है। हमारे देश में जब सफाई करने की व्यवस्था नहीं है तो हमें सफाई की क्या जरूरत है। देश में गंदगी फैलाने के लिए उद्योगपति पूंजीपति जिम्मेदार हैं देश की आम जनता नहीं। महिलाओं व आम जनता को शासकों को इसका जबाव देना चाहिए और गंदगी के नाम पर हो रही राजनीति का पर्दाफाश करना चाहिए। सूरज, रामनगर
अस्ती से निकाले गये 310 मजदूरों के संघर्ष में साथ दो।
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
साथियों,
1 नवम्बर को सुबह से काम कर रहे मजदूरों को छुट्टी के समय कंपनी प्रबंधक ने सूचित किया कि कल आप लोग काम पर नहीं आयेंगे। निकाले गये 310 मजदूरों में 250 से ज्यादा महिलाएं मजदूर हैं। ये मजदूर पिछले 3 से 5 साल से कंपनी में काम कर चुके हैं। कंपनी प्रबंधक की बेरहमी यहां तक है कि उसने गर्भवती महिलाओं तक को नहीं बख्शा तथा 8-9 गर्भवती महिलाओं के पेट पर लात मार दी। कंपनी में इस समय 150 के लगभग स्थाई मजदूर कंपनी के अंदर काम कर रहे हैं। स्थाई मजदूर इस लड़ाई में संघर्षरत ठेका मजदूरों का खुलेआम साथ नहीं दे रहे हैं और इसी साल अस्ती में यूनियन बनाने की लड़ाई में हम तथाकथित ठेका मजदूरों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। ना केवल भरपूर चंदा दिया बल्कि दो बार हुई हड़ताल में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
अस्ती प्रबंधन आज कह रहा है कि हमारे पास काम नहीं है। इसलिए हमने ठेका मजदूरों को काम से निकाल दिया। वहीं दूसरी तरफ कंपनी के बाहर धरने पर बैठे मजदूरों को तोड़कर, उनसे इस्तीफा लेकर, उन्हें दोबारा काम पर रखा जा रहा है। इस तरह व हमारी एकता को तोड़ना चाह रहे हैं।
स्थाई मजदूर हमारी लड़ाई में खुलकर साथ नहीं दे रहे। वह केवल अपनी नौकरी को बचाने की सोच रहे हैं। जबकि अस्ती प्रबंधक का षड्यंत्र यह है कि वह पहले हमें तथाकथित ठेका मजदूरों को निपटाना चाह रहा है तथा उसके बाद अस्ती प्रबंधक का निशाना स्थाई मजदूर होंगे। कंपनी प्रबंधक से 2011 तक के ठेका मजदूरों को स्थाई कराने को समझौता अस्ती यूनियन पहले ही कर चुकी है और अब वह त्रिपक्षीय समझौते को भी तोड़ रही है। वह ठेका के सभी मजदूरों को इसलिए निकाल रही है ताकि उन्हें आगे से स्थाई न करना पड़े और वह कम तनख्वाह पर प्रशिक्षु या नये मजदूर रखकर उनसे काम करवा सकें।
साथियो,
यह हाल केवल हमारी फैक्टरी का ही अकेला नहीं है। बाकी फैक्टरियों में भी लगभग यही स्थिति है। मुंजाल कीरू, बेस्टर, बेलसोनिका आदि फैक्टरियों के मजदूरों का भी यही हाल है। केन्द्र सरकार श्रम कानूनों में फेेर बदलाव के लिए जो मजदूर विरोधी प्रस्ताव लेकर आई है। उनके संसद में पास होने से पूर्व कंपनी प्रबंधकों ने लागू करना शुरू कर दिया। अब ठेका मजदूरों की जगह प्रशिक्षु(अप्रेन्टिस) रखना शुरू कर रहे हैं। क्योंकि प्रशिक्षु अधिनियम को सरकार पूंजीपतियों के और अनुकूल बनाकर मजदूरों को बंधुवा मजदूर बना देना चाहता है।
साथियों,
हम लोग 4 नवम्बर 2014 से कंपनी के सामने विषम परिस्थितियों के बावजूद संघर्षरत हैं तथा धरना दे रहे हैं। यदि हमारी कंपनी के 310 मजदूरों को निकालने में अस्ती प्रबंधक सफल रहा तो अन्य कंपनी के प्रबंधक भी यही करेंगे। पूंजीपतियों के साथ कोर्ट, शासन-प्रशासन सब खड़े हैं।
हमारे पास केवल एक ही ताकत है। वह है हमारी एकता। आइये! हम एक होकर पूंजीपतियों के इस हमले का मुंहतोड़ जबाव दें।
अस्ती ठेका मजदूर संघर्ष समिति
मो. 9654553194, 9555671885, 9971735073
अस्ती प्रबंधन द्वारा 310 ठेका मजदूरों की अन्यायपूर्ण बर्खास्तगी के खिलाफ मजदूरों की अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल आज से शुरू
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
अस्ती कंपनी प्रबंधन द्वारा अन्यायपूर्ण बर्खास्तगी के खिलाफ कार्यबहाली की मांग को लेकर अस्ती मजदूरों ने 25 नवम्बर की सुबह 11 बजे से कंपनी गेट के सामने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू कर दी। भूख हड़ताल पर बैठने वाले सात मजदूर निम्न हैं- हनी सक्सेना, स्वागतिका, रसिका, रिंकू, भावना, संजू, और कृष्ण।
इन सभी मजदूरों ने फैसला किया है कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होती हैं तब तक वे खाना नहीं खायेंगे। क्योंकि प्रबंधन वर्ग मजदूरों की हर मांगों को अपनी हठधर्मिता के चलते नहीं मान रहा है। 21 दिन के धरने के बाद ही मजदूर यह कदम उठाने पर मजबूर हुए हैं।
भूख हड़ताल पर बैठने वाले मजदूरों को बैठाने के लिए व हौंसला अफजायी करने के लिए इण्डोरेंस इम्प्लाई यूनियन के सभी पदाधिकारी मौजूद रहे, जिनमें प्रधान हितेश और जय भगवान ने मजदूरों का हौंसला बढ़ाया। मुंजाल कीरू इम्प्लाई यूनियन के सभी पदाधिकारी भी मौजूद थे। जिनमें राकेश यादव व सतीश तनवर और लक्ष्मीकांत ने मजदूरों का हौंसला बढ़ाया।
अस्ती ठेका मजदूर संघर्ष समिति का संघर्ष अब एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जिसकी मिसाल पूरे आईएमटी औद्योगिक क्षेत्र में दी जायेगी। क्योंकि आईएमटी औद्योगिक क्षेत्र में अभी तक जो भी मजदूर संघर्ष हुए हैं उनमें यह कदम नहीं उठाया गया है। उन्होंने लम्बे-लम्बे धरने तो किये हैं। पर आमरण अनशन नहीं किया है। अस्ती के प्रबंधक वर्ग ने अस्ती के ठेका के संघर्षरत मजदूरों को यह कदम उठाने के लिए मजबूर किया है। मजदूरों का कहना है कि जब तक हम सभी मजदूरों को काम पर नहीं लिया जाता है। तब तक हम अपने संघर्ष को ऐसे ही बढ़ाते रहेंगे। हनी सक्सेना,अस्ती ठेका मजदूर संघर्ष समिति
दिनांक- 25 नवम्बर, 2014
छिनते पिछड़ों के अनुदान व ‘‘पिछड़ों’’ की सरकार
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार की ओर से जारी शासनादेश के मुताबिक इस वित्तीय वर्ष में, पिछड़े वर्ग को शादी-बिमारी अनुदान योजना का लाभ नहीं मिल पायेगा। इस योजना से प्रदेश में 1.5 लाख परिवार लाभान्वित होते थे। इस योजना के अंतर्गत पुत्रियों की शादी और बीमारी के इलाज के लिए क्रमशः 10 हजार और 5 हजार रूपये की आर्थिक सहायता दी जाती है। इसका लाभ वही परिवार ले सकते हैं, जिनकी गांव में सालाना आमदनी 19,884 और शहर में 25,554 रुपये से ज्यादा न हो।
कन्या विद्या धन योजना के बाद यह शादी-बीमारी योजना भी बजट की कमी के कारण स्थगित कर दी गयी। कितनी अजीब बात है कि मंत्रियों, दर्जा प्राप्त मंत्रियों से बनी ‘‘समाजवादी व पिछड़ों’’ की भीमकाय सरकार को चंद करोड़ रुपये भी पिछड़ों पर खर्च करना भारी पड़ रहा है। और वहीं सरकार को प्रोग्रामों में(जैसे लैपटाॅप वितरण के आयोजनों में) करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिये गये हैं।
साफ है कि दलित, पिछड़े इत्यादि के नाम पर राजनीति कर वोट बटोरकर सत्ता में पहुंचने वाली पार्टियां भी देश व प्रदेश के अमीरों व दबंगों के लिए काम करती हैं, गरीब जनता के लिए नहीं।
मधु सुदन अरोड़ा
जनता का मसीहा बनने वाले भ्रष्ट सेवक
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
भाजपा की लहर बनाने में देश के पूंजीपति वर्ग ने जी-जान लगा दी और सरकार बन गयी। मोदी प्रधानमंत्री बन गये। केबिनेट के मंत्री व प्रधानमंत्री की सम्पत्ति के ब्यौरा इलैक्शन वाॅच की रिपोर्ट का लेखा जोखा प्रधानमंत्री कार्यालय में पेश किया गया है। हालांकि इलेक्शन वाॅच इन्हीं पूंजीपतियों व सरकार द्वारा गठित की गयी है।
5 महीने में पूर्व रेल मंत्री सदानंद गौडा की सम्पत्ति बढ़कर 20.36 करोड़ हो गयी जो पहले उनकी सम्पत्ति 9.88 करोड़ थी। केन्द्रीय मंत्री राधा कृष्णन हैं जिन्होंने लोक सभा चुनाव में 4 करोड़ 9 लाख संम्पत्ति जाहिर की थी अब 7 करोड़ 7 लाख बढ़कर हो गयी है। अरुण जेटली जो रक्षा व वित्त मंत्री हैं इनकी सम्पत्ति में 1.01 करोड़ की वृद्धि हो गयी है। इस समय वे मोदी के सबसे अमीर मंत्री हैं जिनकी सम्पत्ति बढ़कर 114.03 करोड़ हो गयी है। दूसरे नम्बर पर हरसिमरत कौर बादल की सम्पत्ति 108.31 करोड़ और तीसरे नम्बर पर पीयुष गोयल 94.66 करोड़ की सम्पत्ति है।
सुषमा स्वराज जो विदेश मंत्री है इनकी पहले चुनाव के दौरान 17.55 करोड़ थी। अब 13.65 करोड़ है, जो घटी है। जनरल वी के सिंह 4.11 करोड़ की सम्पत्ति कां ब्यौरा दिया था अब उनके पास 98.27 लाख रुपये की सम्पत्ति है। जिन मंत्रियों की सम्पत्ति में बढ़ोत्तरी हुई इनका स्रोत क्या हैं? इसके अलावा जिनकी कम हुई उन्होंने अपनी सम्पत्ति कहां लगा दी। इसके बारे में इलेक्शन वाॅच ने यह नहीं बताया कि सम्पत्ति में घटोत्तरी-बढ़ोत्तरी कहां से हो रही है।
सच्चाई तो यह है कि भाजपा ही नहीं कांग्रेस जब सत्ता में थी तो इनके मंत्रियों की सम्पत्ति में बहुत इजाफा हुआ। आज हर पार्टी चाहे भाजपा हो, कांग्रेस हो, बसपा, सपा या कोई और हो इन पार्टियों के नेताओं की सम्पत्ति बढ़ती ही जा रही है। अपने अनुभवों से इनके बारे में मजदूर-मेहनतकश लोग जानते हैं कि इनके पास बंगला, कारें, रहन-सहन की चीजों आदि की कोई कमी नहीं है। मेहनत करने वाले लोगों की खून व पसीना की कमाई को पूंजीपति लूटता है। उसका एक हिस्सा इन भ्रष्ट नेताओं व मंत्रियों को देता है।
आज भाजपा सरकार श्रम कानून में फेरबदल कर रही है। जो मजदूर गुलामों की तरह काम करने के लिए विवश होगा उसकी आवाजों व संघर्षों को कुचलने की साजिश रच रहे हैं तो क्यों नहीं इनकी सम्पत्ति में बढ़ोत्तरी होगी। जब देश का संविधान व कानून लूट की सम्पत्ति को जायज ठहराता है। पूंजीपति वर्ग व पूंजीपति वर्ग की तमाम पार्टियां मेहनतकश-मजदूर वर्ग की दुश्मन हैं। इनका भंड़ाफोड़ करना होगा। मजदूर वर्ग के संघर्षों को आगे बढ़ाते हुए लूट पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था व पूंजीपति वर्ग के राज को खत्म करना होगा। ये मजदूर वर्ग के कंधे पर है। जब तक मजदूरों का राज समाजवाद नहीं आयेगा तब तक सत्ता में पूंजीपति व पूंजीवादी पार्टी इस पर कब्जा करके रखेंगे। आइये मजदूर राज समाजवाद के लिए संघर्ष को तेज करेें।
जयप्रकाश, फरीदाबाद
अनू आॅटो के मजदूरों की दुर्दशा
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
अनू आॅटो मानेसर सेक्टर 3 प्लाण्ट न. 52 में स्थित है। इस कम्पनी की गुड़गांव में काफी ब्रांच हैं जैसे कापस हेडा, सोहना रोड़, उद्योग बिहार आदि में। इस कम्पनी में ज्यादातर ठेका मजदूर काम करते हैं। यह कम्पनी ब्रेक शू, क्लच व स्पेयर पाटर््स बनाती है। ज्यादातर मजदूर न्यूनतम वेतन पर काम करते हैं लेकिन उनसे काम कुशल मजदूरों का लिया जाता है। इस कम्पनी के मजदूरों को 12 घंटे शिफ्ट करनी पड़ती है नहीं तो नौकरी से निकाल दिया जाता है। ऐसी ही अन्य तानाशाही मजदूरों पर थोपती हैं। जैसे-
1. 12 घंटे ड्यूटी करो वरना कल से काम पर मत आना।
2. कभी किसी ने छुट्टी कर ली तो गेट से बाहर कर देना, बकाया वेतन के लिए घुमाते रहना।
3. एक डिस्पोजल गिलास चाय का देना और उसे जितने दिन नौकरी करो उतने दिन चलाना, यानी रोज धो कर रख देना और फिर प्रयोग करना।
4. मजदूरों पर आतंक कायम रखना यानी मजदूर हर समय डर कर काम करें वह अपने अधिकारों की बात न करें।
5. आॅपरेटर का काम करवा के हेल्पर का न्यूनतम वेतन देना ताकि उसे गुजारा चलाने के लिए मजबूरी में ओवर टाइम करना पड़े।
21 वीं सदी में भारत में मजदूरों की ये स्थिति है कि एक तरफ पूंजीपति लाखों रुपये एक दिन में खर्च कर देता है और मजदूर से एक डिस्पोजल वह भी रिसाइकिल वाला गिलास को तब तक चलाने को कहता है जब तक नौकरी करनी है। अनु आॅटो के मजदूरों से मिलने से पहले मैं इस बात की उम्मीद नहीं कर सकता था कि ऐसा भी होता है। वास्तव में अनु आॅटो के मजदूरों की हालात गुलामों से भी बदतर है।
इस गुलामी वाली हालात को मजदूर इंकलाबी संगठन बनाकर अपने राज मजदूर राज के लिए लड़कर ही बदल सकते हैं। एक मजदूर, गुड़गांव
मुंजाल कीरू के मजदूरों ने मनाई काली दिवाली
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
मुंजाल कीरू इम्पलाॅइज यूनियन रजि. न. 1953 आई.एम.टी. मानेसर पिछले 24 सितम्बर 2014 से हम मुंजाल कीरू के मजदूर कम्पनी गेट के सामने हड़ताल पर बैठे हुए हैं। श्रमिक यूनियन के प्रधान- राकेश, महासचिव अविशेष, कोषाध्यक्ष, ब्रह्मानन्द व यूनियन के सक्रिय सदस्य रामकुमार, मनोज, विपिन दौलतराम, चन्द्रपाल, सतीश तनवर, सूरज पाल, सतीश, सुरेन्द्र को कम्पनी प्रबंधन यूनियन भंग करने की साजिश के तहत गैर कानूनी रूप से बर्खास्त कर दिया है। इन मजदूर साथियों को काम पर वापस लेने की मांग को लेकर पिछले एक महीने से मजदूर हड़ताल पर डटे हुए हैं। उल्लेखनीय है कि 18 दिसम्बर 2013 से 14 जनवरी 2014 तक मजदूरों का संघर्ष चलने के बाद श्रम विभाग की उपस्थिति में मजदूर और प्रबंधन के बीच 15 जनवरी 2014 को एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ था। उस समझौते में 40 दिन के अंदर जांच कार्यवाही पूरी करनी थी और किसी भी श्रमिक को बर्खास्त नहीं किया जाना था। मगर कम्पनी प्रबंधन ने श्रम विभाग के साथ मिलीभगत करके इस समझौते का खुलेआम उल्लंघन कर रही है। इतना ही नहीं 24 सितम्बर 2014 के बाद 20 मजदूर साथियों को निलम्बित कर दिया और दो साथियों को डिसचार्ज कर दिया जिनके नाम सूरज पाल, सतीश तनवर हैं। कम्पनी प्रबंधन अडि़यल रवैया दिखाते हुए अभी तक श्रमिक यूनियन के साथ बातचीत आगे नहीं बढ़ा रही है। इस स्थिति में जब देश भर में जनता दिवाली की खुशी मनाती है, तब हम मजदूर मुंजाल कीरू कम्पनी गेट के सामने काली दिवाली मनाने का फैसला लिया था। और इस निर्णय के मुताबिक आज 23 अक्टूबर 2014 को सभी मजदूर कम्पनी गेट पर धरने पर बैठे रहे और दिन भर नारेबाजी की। महासचिव आशीष सिंह
मानव द्रोही बनता पूंजीवाद
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
जहां पूंजीवाद अपने आरम्भिक दौर में समाज विकास में अपनी क्रांतिकारी भूमिका निभाता है। वह सामंतवाद जैसी जड़ समाज-व्यवस्था से समाज को आगे लाता है। वह व्यक्तित्व को जन्म देता है, उभारता है व स्थापित करता है। वहीं यही पूंजीवाद अपने पतन के दौर में लोगों में व्यक्तिवाद को कूट-कूट कर भर देता है। लोगों को खुदगर्जी की दलदल में डाल देता है। इसका एक उदाहरण बरेली में रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला जबकि सही समय पर इलाज न मिलने के कारण ऊना हिमाचल एक्सप्रेस (जोकि ऊना से बरेली तक आती है) में एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी और उसकी फिक्र किसी ने नहीं की।
यह अज्ञात, अधेड़ व्यक्ति इस ऊना हिमाचल ट्रेन में सफर कर रहा था। मुरादाबाद से पहले उसकी तबियत खराब हुई। कोच अटेन्डेंट को सूचना भी दी गयी। लेकिन मुरादाबाद में उसको इलाज नहीं मिला। और मुरादाबाद के पास ही उसकी मृत्यु हो गयी। यह व्यक्ति कोच में तड़प-तड़प कर मर गया, लेकिन रेलवे व जो लोग ट्रेन में सहयात्री थे उन्होंने कोई सक्रिय मदद नहीं की। मानवता तब एक दम शर्मसार हो गयी जब स्टेशनों पर लोग उसके शरीर को लांघ-लांघ कर निकलते रहे लेकिन कोई भी उसकी मदद को आगे नहीं आया। यह दुर्घटना पूंजीवादी व्यवस्था के पतन की इंतिहा को दर्शाती है। जिनसे हम मानवों को जानवर जैसा बनाकर रख दिया है। जानवर जो कि अपना ही पेट भरने की जुगत में ताउम्र लगा रहता है और दूसरे जानवरों से जिसका मुख्यतः होड़ का संबंध होता है। एक मजदूर बरेली
महानुभावो हम बाजार नहीं इंसान हैं
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
आज प्रत्येक प्रदेश ही क्या देश के बड़े-बड़े नेता भी पूरी दुनिया को यह बताने या जताने मे लगे हैं कि हम कितने बड़े बाजार हैं। यह समय या इतिहास की बिडम्बना ही कही जायेगी कि पुरातनपंथी विचारों की वाहक पार्टी के प्रधानमंत्री के नेतृत्व में बाजार राग अपने चरम पर पहुंच चुका है। प्रधानमंत्री जी दुनिया के विभिन्न देशों में जाकर सौदे करते हैं। निवेशकों को गारण्टी देते हैं और कहते हैं कि, ‘‘बिना भारत के विकास के दुनिया का विकास नहीं हो सकता क्योंकि हम सबसे बड़े बाजार हैं’’। तो उ.प्र. के युवा ‘समाजवादी’ मुख्यमंत्री कहते हैं, ‘‘भारत दुनिया का तो यू.पी. भारत का सबसे बड़ा बाजार है। यू.पी. के विकास के बिना भारत का विकास सम्भव नहीं है’’।
इन ‘महानुभावों’ को समझना चाहिए कि हम बाजार नहीं इंसान हैं। हम वे इंसान हैं जो पूरेे समाज को चलाते हैं, समाज के लिए जिस भी वस्तु की आवश्यकता होती है उसको हम बनाते हैं। समाज की संस्कृति, सभ्यता, रवायत, परम्पराओं सबके हम ही वाहक हैं। हम जिंदा इंसान हैं इसलिए सपने देखते हैं और हमारे सपने हमारी जिन्दगी के यथार्थ के सपने हैं कि वे हमारी कौम के बेहतरी के सपने हैं कि वे सच्चाई व न्याय के लगातार बढ़ते रहने के इसीलिए वे शोषण व उत्पीड़न को लगातार पीछे हटाने के सपने हैं और यह सपने बाजार में न तो मिल सकते हैं और न ही बिक सकते हैं। और ठीक इसीलिए बाजार हमें नहीं भरमा सकता कि हमारी खुशियां, हमारी कौम की खुशियां आपके बाजार में किसी दुकान पर नहीं बल्कि शोषण, उत्पीड़न से मुक्त समाज के उस प्रत्येक घर में मिलेगी जहां श्रम व सामूहिकता पूर्ण मानवीय गरिमा से बिराजमान होेगी। एक मजदूर बरेली
कोठी छूटे न
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
उत्तराखण्ड एक छोटा सा राज्य है। इसके गठन को अभी 14 वर्ष भी पूरे नहीं हुए लेकिन इतने कम समय में ही उसने सात-सात मुख्यमंत्री देख लिये जो प्रदेश कि जनता की मेहनत के पैसे से मौज मस्ती काट रहे हैं। यह राज्य बनाने के लिए राज्य की जनता ने कितनी कुर्बानी दी थी। उत्तर प्रदेश से अलग होने के लिए आंदोलन, धरना, प्रदर्शन किया था। राज्य की जनता केन्द्र सरकार से अलग राज्य की मांग करने जा रहे थे कि रास्ते में ही मुजफ्फरनगर में उत्तर प्रदेश सरकार ने उनसे प्रशासन द्वारा मारपीट दंगा करवायी गयी। जिसमें उत्तराखण्ड के राज्य की मेहनतकश जनता के कई बेटों को मौत मिली।
वर्षों तक आंदोलन चलने के बाद राज्य अस्तित्व में आया। लेकिन राज्य की जनता के जो सपने थे, जो अरमान थे वह नहीं मिले। मिला क्या! भूख, भय, भ्रष्टाचार, प्राकृतिक मार।
आज राज्य की मेहनतकश जनता बेरोजगारी की मार झेल रही है। उसे कुछ भी सुविधा मुहैया नहीं है। मगर मेहनतकश जनता की कमाई से जनसेवक के नाम पर निःशुल्क गाड़ी, बंगला, सुरक्षा, ऐशोआराम की पूरी जिन्दगी जी रहे हैं। मेहनतकश पहाड़ी जनता के बेटे प्राकृतिक आपदा में मर रहे हैं। हमारे राज्य के नेता निःशुल्क कोठियों में मस्त हैं। राज्य की जनता कर्ज में हैं। मुख्यमंत्रियो की मौज है। राज्य में जितने भी पूर्व मुख्यमंत्री हैं उनकी माली हैसियत करोड़पति की है लेकिन राज्य की जनता को छत तक नसीब नहीं। मेहनतकश जनता ईमानदारी से मेहनत करके भी भूख, भ्रष्टाचार से ग्रस्त है।
हमारे राज्य के नेता झूठ, फरेबी, मक्कारी के जाल फैलाकर निःशुल्क सुविधा में जी रहे हैं। यह दुनिया का कैसा लोकतंत्र है। जनता भूख से ग्रस्त है नेता मालामाल। राज्य की जनता प्राकृतिक आपदा की मार झेल रही है। हमारे देश की या राज्य का पूरा सिस्टम को मौज-मस्ती के नाम पर लूट की पूरी छूट मिली हुयी है। यह पूंजीवाद लोकतंत्र है। पूंजीवाद अमीर लोगों की रक्षा के लिए काम करता है। आम मेहनतकश जनता की कोई सुरक्षा नहीं करता। यह भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। नेतागण अपनी पूरी सुरक्षा व्यवस्था पर ध्यान देते हैं। पूरा जीवन सुख-चैन जनता की मेहनत पर ऐश करते हैं। त्याग, बलिदान, कुर्बानी जैसे सिद्धान्त केवल भाषणबाजी में ही जनता को सुनने मिलते हैं।
पूंजीवादी लोकतंत्र में ‘व्यवस्था’ पूंजीवाद के लिए ही बनती है। उसी व्यवस्था को कायम करना चाहता है। यह पूरे भारतीय राज्यों में फैला हुआ है और देश में भी। किस तरह से कोठी, सुरक्षा गार्ड, गाड़ी, एशोआराम से मेहनतकश जनता के खून पसीने से पूरा तंत्र संचालित होता है। इस व्यवस्था से आप लोगों को निजात पाना होगा। समाजवाद की बुनियादी व्यवस्था को कायम करना होगा। पूंजीवादी लोकतंत्र बुरी तरह से सड़-गल चुका है। संघर्ष के रास्ते पर चल कर इसे नाश करना होगा समाजवाद से ही मेहनतकश जनता को सुख शांति मिलेगी। एक मजदूर हरिद्वार
मोदी जी! हम कम पढ़े जरूर हैं, पर गधे नहीं हैं!
‘श्रमेव जयते’ पर प्रधानमंत्री जी को पाती
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
माननीय मोदी जी
नमस्कार!
हम एक कम पढ़े-लिखे मजदूर हैं जो देश के एक छोटे से कारखाने में काम करते हैं। हम रोज सुबह 8 बजे काम पर जाते हैं और शाम को 8 बजे काम से आते हैं। कभी-कभी तो मालिक हमसे 4 घंटे ओवर टाइम लेकर 12 बजे ड्यूटी से छोड़ता है। अब इतना काम करने के बदले हम यही कोई 4-5 हजार कमा पाते हैं। अब ड्यूटी इतनी लम्बी हो जाती है कि घर में टीवी होने के बाद भी ठीक से देख नहीं पाते। ऊपर से मालिक की गाली-गलौच और जब देखो काम से निकालने की धमकी की वजह से हमेशा डर लगा रहता है कि रात को टीवी देखेंगे तो सुबह काम पर 10 मिनट भी लेट हो गये तो आधे दिन की दिहाड़ी कट जायेगी। इसी वजह से देश-दुनिया का इतना हाल कुछ पता नहीं रहता पर इतना जरूर जानते हैं कि कुछ महीने पहले देश का राजा मनमोहन सिंह से बदलकर आप बन गये हो। यह भी जानते हैं कि आप भाषण बहुत अच्छा देते हो। राहुल तो आपके आगे कहीं टिकता ही नहीं था। हम खुद आपको कभी सुने नहीं हैं पर आते-जाते लोग आपके बारे में ऐसा ही कहते हैं।
वह तो गनीमत थी कि अबकी बार 15 अगस्त को हमारी फैक्टरी में नये काम का आर्डर ही नहीं था, इसलिए उस दिन मालिक फैक्टरी बन्द कर दिया पर साथ ही दिहाडी भी काट लिया। वरना हर वर्ष तो क्या 15 अगस्त क्या 26 जनवरी हर दिन काम पर दौड़ना पड़ता था। सो अबकी 15 अगस्त को हम घर पर थे। हमारा बच्चा फिल्म देखने की जिद कर रहा था पर हमने कहा कि हम मोदी जी का लालकिले से भाषण सुनेंगे।
सो हमने पहली बार टीवी पर आपका भाषण सुना जब भाषण में आपने कहा कि कुछ दिनों बाद आप मजदूरों के लिए भी एक योजना शुरू करेंगे तो हम बहुत ही खुश हुए कि चलो किसी राजा को हमारा ख्याल तो आया कि अब हमारे दिन भी सुधरेंगे।
अगली बार जब फैक्टरी में हमारे सुपरवाइजर ने हमको गाली दिया तो हम उसको बोले कि अब और ज्यादा दिन हम गाली नहीं खायेंगे। देश का राजा हमारे लिए सोचता है और हमारे लिए स्कीम लाने वाला है। तो सुपरवाइजर हंसते हुए बोला कि, ‘‘कोई भी स्कीम आ जाये तुम गाली ही खाओेगे’’।
खैर हमने सोच लिया था कि जिस दिन स्कीम शुरू होगी उस दिन हम छुट्टी ले कर आपका भाषण सुनेंगे। सो जब खबर चली कि आप कल मजदूरों की योजना शुरू करेंगे तो हम अपने दो साथियों के साथ छुट्टी ले टीवी के आगे जम गये।
पहले जब टीवी पर बताया गया कि योजना ‘श्रमेव जयते’ होगी तो हम खुशी के मारे फूले नहीं समाये कि अब तो ‘श्रमेव जयते’ यानि मजदूर ही जीतेगा। यानि सुपरवाइजर-मालिक इन दोनों से मजदूर ज्यादा ऊंचा होगा और अब सुपरवाइजर हमको गाली तो नहीं ही दे पायेगा। खैर! जब टीवी पर बताया गया कि योजना किसी दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर चलायी जा रही है तो हम सोचे की ई जरूर कोई मजदूरों का बड़ा नेता होगा। हमारी फैक्टरी में भी दो उपाध्याय काम करते हैं पर तभी हमारे साथ का मजदूर बोला कि ये कोई मजदूरों के नेता नहीं मोदी की पार्टी के पुराने नेता थे। साथी मजदूर चूंकि बी.ए. पास था। इसलिए उसने दीनदयाल उपाध्याय का नाम सुना था। हमें दुख तो हुआ कि मजदूरों की योजना तो मजदूरों के नाम पर चलाते खैर कोई बात नहीं।
जब आप मंच पर आये और बोले कि ‘श्रमेव जयते’ ‘सत्यमेव जयते’ की तरह ही होगा तो हम बड़े खुश हुए कि हिन्दी फिल्मों में जैसे अन्त में सत्य जीतता है वैसे ही अब अपनी जिन्दगी की फिल्म में मजदूर जीतेगा। इससे पहले आपके श्रम मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने कहा कि मजदूरों को प्रशिक्षित किया जायेगा, नये आईटीआई खुलेंगे और अप्रेंटिस एक्ट पास होने पर नये रोजगार पैदा होंगे तो हमें ज्यादा कुछ समझ में नहीं आया पर बुरा भी नहीं लगा कि वह मजदूरों को ट्रेनिंग देने की बात कर रहे हैं।
आपके भाषण के शुरूआती हिस्से में जब कहा गया कि हमें शारीरिक श्रम को नीची निगाहों से देखना बंद करना होगा। सभी समस्याओं को मजदूरों की नजर से देखना होगा तो हम बहुत खुश हुए। इसके बाद आपने एक पीएफ अकाउंट नम्बर देने की बात शुरू की और किसी वेबसाइट पर सारी सूचना मिलने की बात की तो हमने सोचा कि ये पीएफ हमारा तो कटता नहीं पर हमारी फैक्टरी के कुछ परमानेंट मजदूरों का कटता है। चलो उनका कुछ तो भला होगा। हम सोचे कि आप हमारे बारे में आगे बात करोगे।
पर इसके बाद आप जो बोले वह कुछ इस तरह था कि हमारे देश में मजदूर तो हैं पर प्रशिक्षित नहीं हैं। देश में बाहर की कम्पनियां लाकर ‘मेक इन इंडिया’ सफल बनाने के लिए प्रशिक्षित मजदूर जरूरी हैं। साथ ही देश में ढ़ेरों श्रम कानून हैं जो कंपनियों को आने से रोकते हैं इसलिए अब लाइसेंस राज खत्म करना है। अब कंपनी मालिक खुद ही श्रम कानून के पालन का सर्टिफिकेट दे सकते हैं। हम देश के नागरिकों पर भरोसा करते हैं इसलिए अब मालिक खुद ही कानून लागू करेंगे, कोई इंसपेक्टर उन्हें तंग नहीं करेगा। इसके बाद आपका भाषण खत्म हो गया।
अपने फायदे की बात सुनने को बैठे हम तीनों मजदूरों को आपकी ये बातें सुनकर सांप सूंघ गया। हमें लगा कि आपमें हमारे मालिक की आत्मा प्रवेश कर गयी है। वैसे हमारे यहां लेबर इंस्पेक्टर कभी-कभी आता है पर जब आता है मालिक 8 घंटे में ही हमारी छुट्टी कर देता है सो हम ऊपर वाले से मनाते हैं कि ये इंस्पेक्टर रोज आये। पर आप तो इंस्पेक्टर राज खत्म कर मालिकों को खुली छूट दे दिये हो। हम तो इंस्पेक्टर के पास इकट्ठा हो 8 घंटे काम, दुगुने ओवर टाइम, न्यूनतम मजदूरी न मिलने की शिकायत के साथ मालिक की गाली-गलौच की शिकायत करने वाले थे पर आप तो श्रम विभाग ही खत्म करने पर उतारू हो। यह कौन सा समस्या को मजदूरों के पक्ष से देखने का नजरिया है। यह तो खुल्लम-खुल्ला मालिकों के फायदे और मजदूरों के नुकसान की स्कीम है।
आपको देश के नागरिकों पर नहीं देश के मालिकों पर भरोसा है। नागरिक तो हम भी हैं और संख्या में मालिकों से ज्यादा हैं। ईमानदारी की बात तो यह होती कि श्रम कानून लागू करने का सर्टिफिकेट देने का जिम्मा आप मजदूरों को दे देते पर आपने ऐसा नहीं किया। आपने मालिकों पर भरोसा किया और हम समझ गये कि आप भी पहले के राजाओं की तरह पैसे वालों के ही आदमी हो। ‘श्रमेव जयते’ मजदूरों की जीत नहीं मजदूरों की लूट बढ़ाने की स्कीम है।
मोदी जी, हम अनपढ़ जरूर हैं पर गधे नहीं। हम सीधे सादे हैं। जो दिल में होता है वही कहते हैं पर आप तो बड़े फरेबी हो। पहले चिकनी-चुपड़ी बातें कर बाद में छुरा भोंकते हो। आप सीधे कह देते कि मालिकों के लिए नयी स्कीम लागू करेंगे तो हम कम से कम एक दिन की छुट्टी कर दिहाड़ी तो न गंवाते। हम सीधी बात कहते हैं मोदी जी मजदूर गधे नहीं हैं बस थोड़े बंटे हुए हैं और जिस दिन वे एक हो जायेेंगे उस दिन वे मालिक-सुपरवाइजर तो क्या आप जैसे राजा से भी निपट लेंगे और हां वह इसके लिए आपकी तरह फरेब नहीं करेंगे। आप चाय बेचने वाले की दुहाई दे जीतकर मालिकों की सेवा कर मजदूरों से गद्दारी कर सकते हो पर मजदूर वर्ग आपको इस गद्दारी की सजा जरूर देगा।
खैर हमारी बात बुरी लगी हो तो क्षमा करें। हां आपका भाषण सुनने से इतना लाभ तो जरूर हुआ कि आगे से कभी आपका भाषण सुनने को हम दिहाड़ी नहीं खोयेंगे। आपके देश का एक मजदूर
बिन फूटे पटाखे की दीवाली
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
आज दीवाली के अगले दिन की सुबह है। अच्छी कालोनियों में रहने वाले लोग बधाइयां देते और बधाइयां लेते थक गये थे। खूब फोन किये थे और बहुत सारे फोन आये भी थे, मेल पर और व्हाट एप्स पर सुन्दर-सुन्दर इमेजेज और वीडियो भेजे थे और रात मेें बच्चांे के साथ खूब आतिशबाजी की थी। सड़कों पर घरों के आगे आतिशबाजी के बाद का कचरा बिखरा पड़ा है। इस कचरे को हटाना मोदी जी के सफाई अभियान के समर्थक नहीं बल्कि नगर निगम द्वारा ठेके पर रखे गये सफाईकर्मी ही इसे हटायेंगे। और उनके उठने से पहले वे सड़कों की सफाई करेंगे। दीपावली की बचीं खुची मिठाइयां भी उन्हें ही मिलेंगी।
इन टाइलस अैर पेंट किये हुये घरों को कल दिवाली से पहले जिन मांओं के बच्चों ने सफायी की थी, आज दीवाली की सुबह इन कालोनियों में समूह में निकल पड़े हैं। अभी सूरज तो नहीं निकला है लेकिन इतनी रोशनी हो चुकी है कि जो पटाखे नहीं फूटे हैं, उनको ढूंढा जा सके। ये बच्चे मंगलयान मिशन के बारे में कुछ नहीं जानते लेकिन आतिशबाजी के कचरे में कौन सा पटाखा बिन फटे पड़ा है इसकी पहचान इनको है। इन बच्चों में यह नियम है कि जिस बच्चे की नजर जिस पटाखे पर पहले पड़ेगी, वह उसका होगा लेकिन कभी-कभी ये फैसला नहीं हो पाने पर कि किसने पहले उस पटाखे को देखा, उनमें छीना झपटी भी हो जाती है। अगर किसी को सुतली बम मिल जाये तो वह राजा बन जाता है। इन बीने हुए पटाखों को नाले के किनारे, जहां उनके अवैध गंदे घर हैं, वहां नुमाइश की जायेगी और शाम को कुछ पटाखे छोड़े जायेंगे और कुछ कल के लिए रख लिए जायेंगे।
ये बच्चे दीवाली के दिन अपने मां बाप के साथ गेंदे के फूलों की माला बेच रहे थे। मायें फुटपाथ पर बैठकर मालायें बना रही थीं। सभ्य समाज की महिलाएं सजधज कर अपने पति के साथ आतीं और मालायें, मिट्टी के दिये और मूर्तियां खरीदकर ले जातीं। इन फूल मालाओं से लक्ष्मी जी की पूजा की जायेगी और लक्ष्मी जी वहां दर्शन देने पधारेंगी। वैसे आजकल मध्यम वर्ग ‘आम आदमी’ बिना ए.सी. वाली कार के सपने में भी नहीं आती तो लक्ष्मी जी भी ऐसी तिजोरी में जाना पसंद करेंगी जहां ए.सी. तो हो इसलिए लक्ष्मी जी फुटपाथ या रेलवे किनारे की झुग्गियों के बजाय ए.सी. तिजोरियों में ही जाती हैं। राम के अयोध्या लौटने की खुशी में देशी घी के दीये जलाये गये होंगे, उसके लिए मिट्टी के दिये बने होंगे। कुछ लोग अभी तक भी वे मिट्टी के दिये बना रहे हैं और कुछ मंगलयान भेज रहे हैं। मंगल पर ‘जीवन की खोज’ के लिए और यहां बच्चे बिन फूटे हुए पटाखों को ढूंढकर दीवाली मना रहे हैं।
ये बच्चे जो पटाखे ढूंढने निकले हैं, उनमें फर्क तो है लेकिन भेदभाव नहीं है। उनके मन में कम से कम वैसी भावना नहीं है जैसी भावना बड़ी कार वाले को छोटी कार वाले को देखकर आती है। चार बच्चों की टोली में एक बच्चे के पैर में चप्पल नहीं है, लेकिन एक फिर भी उनके साथ है, उनमें एक लड़की है जिसके बाल कुछ ज्यादा ही गन्दे हैं। सुबह उठकर पटाखे ढूंढने की योजना इन्होंने खुद रात में ही बना ली थी। पता नहीं इनको कैसे पता कि मोदी जी ने योजना आयोग को भंग कर दिया है। खाना मिलने की चिन्ता तो रोज ही रहती थी, आज तो बस पटाखे की चिन्ता थी कि अगर देर हो गयी तो दूसरे बच्चे पहले ही पटाखे उठा ले जायेंगे। राम के अयोध्या लौटने की खुशी में देशी घी के दीये न सही बिन फूटे पटाखे ही सही। एक मजदूर दिल्ली
प्रधान सेवक के सफाई अभियान का सच
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
19 अक्टूबर को इंकलाबी मजदूर केन्द्र, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र तथा परिवर्तनकामी छात्र संगठन के कार्यकर्ताओं ने संयुक्त रूप से वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में प्रस्तावित बदलावों के खिलाफ पर्चा अभियान के दौरान महिला कार्यकर्ताओं को शौचालय जाने की जरूरत महसूस हुई। तब हम वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में स्थित सरकारी डिस्पेन्सरी के साथ बने सार्वजनिक शौचालय में में गये। समय सुबह 9 बजे के आस पास का रहा होगा। सार्वजनिक शौचालय के अन्दर जाने के बाद हमने वहां से उल्टे पैर लौटना चाहा लेकिन पूरे दिन का अभियान होने के कारण ऐसा नहीं कर सकते थे। अतः हमने उस शौचालय के अंदर जाने का निर्णय लिया और उसके अन्दर चले गये। उस शौचालय के साथ पुरुष शौचालय भी बना हुआ है। हमने वहां जाकर जो सफाई व्यवस्था व अन्य व्यवस्थायें देखीं, वे इस प्रकार हैः-
1. आमने-सामने लगभग 25-30 पखाने बने हुए हैं। जिसमें से केवल 4 पखानों में दरवाजा लगा है, जो नीचे की ओर से आधे गल कर टूट चुके हैं तथा उनमें से किसी में भी दरवाजा बंद करने के लिए कुन्दी नहीं लगी है।
2. इन 25-30 पखानों के लिये केवल दो नलों में पानी आता है। पानी लेने के लिए शौचालय में कोई डिब्बा या मग उपलब्ध नहीं है। महिलाओं को शौच के लिए अपने घरों से डिब्बे लेकर जाना पड़ता है।
3. 18-20 पखाने ऊपर तक गंदगी से लबालब भरे हुए थे और अन्य भी बहुत गंदे थे।
4. पूरे शौचालय में पानी फैला हुआ था।
5.शौचालय में तथा पखानों में दरवाजे नहीं होने के बावजूद कोई चौकीदार दरवाजे पर नहीं बिठाया गया है।
6. वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में 20,000 से अधिक मजदूरों के परिवारों की महिलाओं के लिए आस-पास में यही एक सार्वजनिक शौचालय उपलब्ध है।
इन परिस्थितियों का वहां रहने वाली मजदूर महिलाओं को रोज-व-रोज सामना करना पड़ता है। महिलायें वहां होने वाली गंदगी के कारण संक्रमण जनित बीमारियों का शिकार होती हैं। महिलाओं के सम्मान व सुरक्षा का सवाल उठाने वालों के लिये यहां रहने वाली मजदूर महिलाओं के सम्मान व सुरक्षा का सवाल नजरों से ओझल हो जाता है। इसके अलावा महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर बजरंग दल जैसे संघी संगठन रैली निकालते हैं लेकिन उनकी महिलाओं में ये महिलायें शामिल ही नहीं हैं।
कोई यह सोच सकता है कि इस सबका वर्णन यहां क्यों किया जा रहा है, तो वह इसलिए कि इस घटना से केवल 17 दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़े जोर-शोर से पूरे देश में सफाई अभियान चालू किया। छोटे-बड़े नेता अरविन्द केजरीवाल से झाड़ू उधार लेकर सड़कों पर खड़े हो गये। अपनी-अपनी फोटो खिंचाने के लिए।
इसके अलावा मजदूर बस्तियों कीे गंदगी के लिए मजदूरों व व्यक्तियों को जिम्मेदार ठहराकर पूंजीपतियों को जो इस गंदगी को पैदा करते हैं हवा-पानी तक को दूषित करते हैं, तथा उनकी सड़ी-गली पूंजीवादी व्यवस्था को बचा ले जाते हैं।
यही है मजदूरों के लिए नरेन्द्र मोदी के सफाई अभियान का सच। हेमलता, दिल्ली
लाईफ ओके चैनल, समाज के भले मानुष और सामाजिक परिवर्तन
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
आजकल टेलीविजन में लाईफ ओके चैनल पर सामाजिक समस्याओं और बुराईयों पर एक लघु कहानी दिखायी जाती है। यह चैनल हर सामाजिक बुराई और समस्याओं पर ‘सावधान इण्डिया’ का स्लोगन देता है। यह चैनल उस समय चलाया गया है जब समस्याओं के कारण समाज में बैचनी बढ़ रही है। इन समस्याओं की जड़ क्या है इस पर समाज में विचार चल रहा है तो शासक वर्ग ने इण्डिया के लोगों को समस्या की जड़ तक न पहुंचने देने के लिए सावधान किया ताकि कोई जड़ तक न पहंुच सके। और शासक वर्ग अपनी इस चाल में कामयाब होता दिख रहा है।
आज समाज के अंदर लूट, अपराध, शोषण, उत्पीड़न और नैतिक पतन चरम पर है। आज समाज में चेतना नगण्य है। समाज में शोषण, उत्पीड़न व नैतिक पतन के कारण सारा समाज मुनाफे की मण्डी बना हुआ है। देश का शासक वर्ग इस लूट और शोषण को छिपाना चाह रहा है। अपराध और नैतिक पतन पर आधारित कहानियां लाईफ ओके पर दिखायी जाती हैं। ये कहानियां देखने में आम आदमी को बड़ी सही लगती हैं क्योंकि समाज में ऐसा कुछ घट रहा होता है। उसमें बताया भी जाता है कि यह सच्चाई पर आधारित सीरियल है। यह चैनल हर सामाजिक समस्या मंे खुद को सावधान रहने की चेतावनी देता है। यह चैनल वास्तव में मध्यम वर्ग व पूंजीपति वर्ग के जीवन को दिखाता है। और उन्हीं को सावधान करता है कि तुम सतर्क रहो।
यह चैनल शासक वर्ग की साजिश है। वह अपनी लूट व शोषण पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को निर्विवाद चलाना चाहता है। यह चैनल सामाजिक बुराई व सामाजिक समस्या में सावधान करता है। वह कभी भी इसे बदलने की बात नहीं करता। वह हर समस्या के पीछे व्यक्ति को दोषी ठहराता है। कभी भी वह पूंजीवादी मुनाफे की टिकी हुयी व्यवस्था पर सवाल खड़ा नहीं करता। इस सीरियल में सुखदेव का रोल करने वाला इस व्यवस्था को बचाने की नौकरी कर रहा है। हमारे समाज में यह समस्या है कि वे पर्दे के हीरो को असल हीरो मान लेते हैं। चाहे बेशक वह वास्तविक जिंदगी में खलनायक हो।
समाज के भलेमानुषों से आग्रह है कि वे अगर चाहते हैं कि समाज में परिवर्तन हो तो उन्हें इस परिवर्तन का भागीदार बनना पड़ेगा। इस समाज की मुख्य समस्या निजी सम्पत्ति है। और निजी सम्पत्ति के कारण भ्रष्टाचार, शोषण, अपराध हो रहे हैं। समाज के नैतिक पतन के लिए जिम्मेदार अश्लील संस्कृति जिम्मेदार है। जो ब्लू फिल्मों, नग्न चित्रों के माध्यम से परोसी जा रही हैं।
सामाजिक परिवर्तन के लिए हमें भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद आदि जैसे क्रांतिकारियों की विरासत को जिन्दा करना पड़ेगा। उनके क्रांति के आदर्शों पर ही चलकर हम समाज में परिवर्तन कर सकते हैं। एक मजदूर गुड़गांव
मजदूरों ने सबक सिखाया
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
फरीदाबाद औद्योगिक क्षेत्र में एक मथुरा रोड़, सराय ख्वाजा, अमर नगर के पास ‘भारत गियर’ के नाम से कम्पनी है जिसमें गाडि़यों के गियर बनते हैं। इस कम्पनी में लगभग 1000 मजदूर काम करते हैं। काम तीन शिफ्टों में होता है। 200 के करीब परमानेन्ट मजदूर जिनकी तनख्वाह 8000 रुपये से लेकर 10,000 तक है। 250 के करीब डिप्लोमा किये हुए मजदूर हैं। नान टेकनिक 300 मजदूर व ठेकेदारी के मजदूर 200 के करीब कार्यरत हैं। इस तरह कम्पनी मैनेजमेण्ट ने मजदूरों को अलग-अलग कैटेगरी में बांट रखा है जिससे एकता में बाधा पहुंचती है। जिस तरह मैनेजमेण्ट यह चाहता है कि मजदूर आपस में बंटे रहे। स्थाई के नाम पर, डिप्लोमा के नाम पर, ठेकेदारी के मजदूर के नाम पर ताकि इनका कोई संगठन या एकता ना बन जाये। हां! यहां अच्छी बात है कि सीटू की यूनियन है जिसमें सिर्फ परमानेन्ट सदस्य हैं लेकिन स्थायी मजदूरों का ठेकेदारी मजदूर व कैजुअल मजदूरों से कोई ताल्लुक नहीं है। ये मैनेजमेण्ट चाहती भी है।
ठेकेदारी के मजदूर व कैजुअल मजदूर को कोई भी अवकाश नहीं मिलता। इनकी दिहाडी के हिसाब से तनख्वाह 6000 से लेकर 7000 रुपये तक महीना मिल जाती है। कोई भी त्यौहार या राष्ट्रीय पर्व की छुट्टी नहीं दी जाती। अगर कम्पनी में छुट्टी रहती है तो पैसे काट लिये जाते हैं। सिंगल ओवर टाइम मिलता है। वहीं पर परमानेन्ट मजदूर को छुट्टी मिलती है डबल ओवर टाइम मिलता है। यूनियन को संघर्ष करने के बजाय मैनेजमेण्ट के एक लालच में फंस गयी है। वह यह कि उत्पादन अच्छे निकलने पर इनाम दिया जाता है तो सिर्फ स्थायी को लेकिन काम का ज्यादा भार कैजुअल व ठेकेदारी के मजदूर पर पड़ता है।
इस तरह अलग-अलग कैटेगरी में बांट कर, छोटा सा लालच देकर आपस में बांट रखा है, जो मैनेजमेण्ट हर समय, हर वक्त चाहती है। एक घटना हमें सोचने को मजबूर करती है कि एक लाइन पर रात की शिफ्ट में सुपरवाइजर आकर यह कहता है कि सात कैजुअल मजदूर जो सात मशीन को चलाते हैं अब तीन मजदूर चलायेंगे। मजदूर अड़ जाते हैं। कहते हैं कि प्रोडक्शन नहीं निकल पायेगा। सुपरवाइजर जिद पर अड़ जाता है। यूनियन के मजदूर सदस्य अपनी बहादुरी के संघर्ष के बदौलत सारे लाइन की मशीनें बंद करने में कामयाब हो जाते हैं। सारे मजदूर साथ देते हैं। इस तरह की एक छोटी घटना ने 2 घंटे के करीब काम बंद कराकर मैनेजमेण्ट को सबक सिखाया गया। प्रधान से लेकर यूनियन के बाकी सदस्यों ने सुपरवाइजर को लताडा व बेइज्जती की। सुपरवाइजर ने दमखम लगाया। फोन पर फोन करके मैनेजर तक से बातें कीं लेकिन रात में यूनियन प्रधान ने आकर मामले को हाथों में लेकर सुपरवाइजर की डांट-फटकार लगाई और कहा कि जितने घंटे मशीनें बंद रही सब इस सुपरवाइजर के नाम डाल दो।
इस बढ़ते प्रोडक्शन व आधुनिक मशीनों की रफ्तार में मजदूर खुद मशीन बन जाता है। काम का बोझ लगातार बढ़ रहा है। पूंजीपति आज मजदूर को कैजुअल व ठेकेदारी में रखना पसंद करता है। क्योंकि मजदूरों का संघर्ष कमजोर पड़ा है। इस कम्पनी में जब यूनियन बनी तो बहुत से मजदूर साथियों ने संघर्ष किया था। आज मजदूर उस संघर्ष को भूल रहे हैं कभी तो ठेके के नाम पर कभी कैजुअल के नाम पर भर्ती होती है। नये सिरे से किसी मजदूर को स्थायी नहीं किया जाता है। छोटी-छोटी लालच देकर स्थायी मजदूरों को बाकी मजदूरों से काटने का काम करती है। मैनेजमेण्ट हर सम्भव यह प्रयास करती रहती है। आज जरूरत है कि स्थायी, ठेका मजदूर व कैजुअल मजदूर के साथ में लेकर एकता बनाकर संघर्ष किया जाये या सबसे बड़ी बात यूनियन को बचाना है तो साथ मिलकर लड़ा जाये। एक मजदूर फरीदाबाद
आजाद देश में गुलाम मजदूर
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
भारत को 15 अगस्त 1947 को आजादी मिली। आजादी मिले हुए 67 वर्ष हो गये। परन्तु मजदूरों की समस्यायें जस की तस हैं। वह आज भी कुपोषण व उत्पीड़न-दमन का शिकार है। न तो शासन-प्रशासन को उसकी चिंता है और न नेताओं को। उसे तो बस इनका वोट लेकर सत्ता सुख भोगना होता है।
मजदूर सदियों से गुलामी की जंजीर में बंधा शोषण-उत्पीड़न की चक्की में पिस रहा है। पहले राजा-महाराजा हुआ करते थे जिनके वहां वह गुलाम था फिर जमींदारों के यहां बधुआ मजदूर रहा और अब पूंजीपति के कारखानों में काम करने वाला मजदूर। कहने को तो वह आजाद है परन्तु वह केवल अपनी मेहनत बेचने के लिए आजाद है। बाकी तो उसका जीवन गुलामों से भी बदतर है।
जब वह फैक्टरी में काम करने जाता है तो उससे हर घंटे, हर मिनट और हर सेकेण्ड का हिसाब किया जाता है। उसे उत्पादन का लक्ष्य इतना बढ़ाकर दिया जाता है कि वह न तो पानी पी सकता है और न पेशाब करने के लिए जा सकता है। और इस पर भी हर जगह सीसीटीवी कैमरे उसकी निगरानी करते रहते हैं। यहां तक कि शौचालय में भी सीसीटीवी कैमरे लगे रहते हैं। उस पर हर समय सख्त पहरा रहता है।
फैक्टरी में महिला मजदूरों के साथ बुरा सलूक किया जाता है। सुपरवाइजर व मैनेजर उन्हें भूखी निगाह से घूरते रहते हैं। उनके साथ अश्लील शब्दों का प्रयोग किया जाता है और अब तो सरकार महिलाओं से रात की पाली में भी काम करवाने की बात कर रही है। ऐसे में ठेकेदारों, सुपरवाइजरों, मैनेजरों से इन महिला मजदूरों को तो भगवान ही बचाये।
पूंजीपति अपने मुनाफे के चक्कर में उनका शोषण-उत्पीड़न तो करते हैं साथ ही वे अकुशल मजदूरों से मशीनें चलाकर उनकी जिंदगी को खतरे में डालते हैं। मजदूरों के द्वारा ऐसे खतरनाक काम न करने पर उन्हें निकाल बाहर किया जाता है। और उनके साथ गाली-गलौज भी की जाती है। मजदूर को जरूरत पड़ने पर रखा जाता है। और जरूरत न होने पर निकाल दिया जाता है।
मजदूर से हर क्षेत्र में चाहे वह फैक्टरी हो या निर्माण क्षेत्र, सभी जगह गुलामों की तरह काम करवाया जा रहा है जो अधिकार मजदूरों ने लड़कर हासिल किये थे उनको पूंजीपति व्यवहार में लागू करना कब का बंद कर चुका है। ये श्रम कानून किताबों से निकलकर जैसे ही धरातल पर आते हैं इनका दम घुट जाता है। और अब तो सरकार इन कानूनों को ही खत्म करने जा रही है ताकि मजदूर की आवाज ही बाहर न निकले। मजदूर वर्ग एक सोया हुआ शेर है। और जिस दिन यह जागेगा तो इसकी दहाड़ से पूंजीपति दहल जायेगा और दुनिया मजदूर की मुट्ठी में होगी।
रामकुमार बैशाली
मेरी आप बीती
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
मेरा नाम कुबेर है। मैं सन् 2001 से कार्बेट पार्क रामनगर(नैनीताल) में काम करता था। मैं यहां आपरेशन लार्ड के रूप में कार्यरत था। जिन्हें जंगलों में पेड़ों आदि की रक्षा तथा शिकारियों से सुरक्षा करनी होती है।
26 जून 2009 में काम पर रहने के दौरान मेरा एक्सीडेंट हो गया। सरकारी बुलेट गाड़ी जिससे मेरा एक्सीडेंट हुआ था उसका तो सरकारी खातों में दर्ज हुआ परन्तु मेरा नहीं। शायद विभाग वालों को मुझसे ज्यादा मोटर साइकिल की चिंता थी। एक्सीडेण्ट में मैं दोनों पैर से विकलांग हो चुका हूं। आज मेरे एक्सीडेण्ट को पांच साल हो चुके हैं। इलाज में 12 लाख रुपये से ज्यादा खर्च हो चुका है। लेकिन विभाग वालों ने न तो मुझे मुआवजा दिया और न ही मुझे नौकरी दी। बस मौखिक आश्वासन देकर ही वे मुझे टालते रहे। कर्ज वाले रोज आकर कर्ज लौटाने की बात करते हैं लेकिन इलाज में मेरी सब जमा पूँजी खर्च हो गयी है। मेरे परिवार में पत्नी व एक छः साल का बच्चा है। मेरे परिवार के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गयी है।
जब विभाग वालों ने कोई कार्यवाही नहीं की तो मैंने आरटीआई में अपने काम पर रहने के पुराने दस्तावेज मांगे। मैंने 2001 से नियमित काम किया था। परन्तु मुझे दिये गये अभिलेखों में मेरी सेवा को ब्रेक करके दिखाया गया। और वह भी केवल मार्च 2014 तक। अप्रैल, मई व जून के रिकार्ड में से मेरा नाम ही गायब कर दिया गया।
मजबूरन मैं 9 अक्टूबर 2014 से कार्बेट पार्क प्रशासन के गेट पर धरने पर बैठा हूं। इन सालोें में पूरी व्यवस्था का पर्दाफाश मेरे सामने हो गया है। मजदूर की यहां कोई सुनने वाला नहीं है।
कुबेर, रामनगर
पन्तनगर विश्वविद्यालय में ठेका मजदूरों पर विश्वविद्यालय प्रशासन का कहर टूटा
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
साथियो! मैं भी एक ठेका मजदूर हूं। मैं अपनी आपबीती बता रहा हूं। पन्तनगर विश्वविद्यालय में लगभग 2500 ठेका मजदूर काम करते हैं। 1 मई सन् 2003 में पन्तनगर में ठेका प्रथा लागू हुयी। तब से लेकर आज तक हमारा ई.पी.एफ. काटा जाता है। जब हमें पता चला कि हमारे खून पसीने की कमाई कुछ भ्रष्ट अधिकारी और ठेकेदारों ने मिलकर बन्दर बांट करके खा ली है, तब हम मजदूरों ने श्रम कल्याण अधिकारी के पास जाने की हिमाकत की तो हमें यह कह कर भगा दिया गया कि ये तो ठेकेदारी प्रथा है इसमें सब ऐसा ही होता है। तभी कुछ कांग्रेस व भाजपा के छुटभैया नेताओं के पीछे दौड़ने वाले तत्वों ने यह फैेसला किया कि अब ठेका मजदूरों को पिटवा कर ही दम लेंगे। तब इन गुर्गों ने बड़ी चालाकी से कि हम पन्तनगर में जिस दिन ठेका का टेंडर खुलेगा, उसी दिन हड़ताल करेंगे। तब कुछ गुर्गों ने बड़ी चालाकी के साथ ठेका मजदूर कल्याण समिति का नाम लेकर ठेका मजदूरों को बरगलाकर पन्तनगर विश्वविद्यालय में हड़ताल कर दिया। तब कुछ घटनाएं ऐसी घटीं कि जब हड़ताल शुरू हुआ तब ठेका मजदूर कल्याण समिति के नेताओं ने जाकर कहा कि ठीक है जब आप ठेका मज़दूरों को ठेकेदारी प्रथा से मुक्त कराना चाहते हैं तो एक सामूहिक टीम बनाइए और टीम बना कर सामूहिक फैसले लेते हुए ठेका प्रथा खत्म करने के नारे देते हुए आगे बढ़ना चाहिए। तब उन अराजक लोगों द्वारा पूरे पन्तनगर में ठेका मजदूरों को घुमाते हुए आवश्यक सेवा बन्द करने का फैसला लिया गया। और निर्दोष मजदूर साथियों को नगला स्थित डेरी के गेट पर बैठा दिया और इन गुर्गों ने कहा कि आप लोग बैठे रहना डरना मत। क्षेत्र के बड़े नेताओं से बात हो गई है और पुलिस सिर्फ डराने के लिए है। और आप लोग हड़ताल जारी रखना। जब मजदूरों को पता चला कि हमारे नेता साथ हैं तो हम किसी भी सूरत में नहीं हटेंगे और जब कुछ समय बाद जब पुलिस ने अपना कड़ा रुख अपनाते हुए लाठी चार्ज कर दिया तब निर्दोष मज़दूरों को पीटा गया और तीन महिला मज़दूरों और इक्कीस पुरुष मजदूरों सहित चैबीस मजदूरांेे को गिरफ्तार कर लिया गया और उनको रुद्रपुर पुलिस लाइन में भेज दिया गया। वहीं बड़ी चालाकी से सारे गुर्गे कालोनी की गली में खड़े होकर तमाशा देख रहे थे और जब मजदूरों ने देखा कि हमारे नेता वहां खड़े हैं। वह नेता इतने चालाक थे कि अपनी-अपनी गाड़ी में बैठ कर भाग गये। अब सवाल यह बनता है कि उन निर्दोष मजदूरों का क्या होगा। क्योंकि वे अपनी रोजी-रोटी खो चुके हैं। अब यह हड़ताल संयुक्त मोर्चा के देखरेख में चल रहा है, जिसमें पन्तनगर की सारी ट्रेड यूनियन शामिल हैं। और अब यह हड़ताल नहीं रहा। अब यह राजनीतिक मंच बन गया है। यहां पर सारी पार्टियों के नेता आते हैं और कुछ जुबानी खर्च करते हैं और फोटो खिंचवाते हैँ और चले जाते हैं। रोज मजदूर सुबह सात बजे विश्वविद्यालय के पिछले गेट पर ठेका मजदूर इकट्ठे हो जाते हैं। और अपने धरना स्थल पर बैठ जाते हैं। और जो लोग अपने आप को शेर के सवा शेर बनते हैं वे लोग ग्यारह बजे आते हैं। और वे भी कुछ जुबानी खर्च करते हैं। हड़ताल के दूसरे या तीसरे दिन ठेका मजदूरों में ठेका मजदूरों की कार्यकारिणी बना दी गयी है। उसमें भी कुछ अच्छे लोग नहीं शाामिल किये गये हैं। जब हम पुलिस की लाठी खा रहे थे तब जो लोग गाड़ी में तमाशा देख रहे थे। और कुछ लोग पानी का पम्प चला रहे थे, अब उन्हीं लोंगो को ठेका मजदूरों की लड़ाई लड़ने की कमान दे दी है। ये सारा काम पन्तनगर की संयुक्त मोर्चा का काम है। कुछ नामची नेता ठेका मजदूरों से कहते हैं कि भगत सिंह बनने की कोशिश मत करो। हम कहना चाहते हैं कि अगर कोई भगत सिंह नहीं बना होता तो क्या देश आजाद हुआ होता? साथियों हम यह नहीं कहना चाहते कि हम भगत सिंह नहीं बनना चाहते हैं। मगर भगत सिंह की विचारधारा पर हम चार कदम चलना चाहते हैं। इस समय विश्वविद्यालय प्रशासन मजदूरों पर दमनात्मक रवैया अपनाये हुए है।
मनोज कुमार, ठेका कर्मी पन्तनगर
संघ मण्डली के प्रमुख का जागा दलित प्रेम
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त रहा संघी कुनबा अब आखिर दलितों के प्रति चिंतित क्यों हो उठा? अब इस कुनबे के प्रमुख को दलितों की दयनीय स्थिति के प्रति क्यों बयानबाजी करनी पड़ी। जबकि हजारों-हजार वर्षों से दलितों का सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त सवर्णों ने शोषण-उत्पीड़न किया। संघियों व इनके प्रमुख को अचानक दलितों को आरक्षण देने के समर्थन में क्यों वकालत करने की आवश्यकता आ पड़ी? इन संघियों का अचानक दलित प्रेम क्यों जाग उठा?
सवर्ण मानसिकता के लोगों ने वर्णों की उत्पत्ति के समय से ही दलितों से घृणा, तिरस्कार व अपमानजनक व्यवहार किया। ये दलितों को मिले आरक्षण के विरोधी रहे हैं। ये हमेशा आरक्षण के नाम पर दलितों को गाली देते रहे हैं। इनका कहना यह है कि सभी सरकारी लाभ (नौकरी संबंधित) दलित ही लेते रहे हैं। और उच्च जातिओं को सरकारी लाभों से वंचित रखा गया है। जबकि हकीकत यह है कि देश के बड़े अफसरों में उच्च जाति के लोग ही विराजमान हैं।
आज भी सवर्ण मानसिकता वाले लोगों/समूहों का दलितों पर प्रत्यक्ष उत्पीड़न किसी न किसी रूप में होता रहता है। सवर्णों द्वारा दलितों पर प्रत्यक्ष अत्याचार के ताजा उदाहरण हरियाणा, राजस्थान, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में मिल जायेंगे। जिसमें मिर्चपुर, गुहाना की घटनाएं दिल दहलाने वाली रही हैं।
इन्हीं वजहों से दलितों में सवर्णों के प्रति नफरत मौजूद रही है और आज भी बनी हुयी है। सवर्णों द्वारा उपेक्षित, दलितों ने अपने आपको इनसे अलग-थलग कर रखा है। इसी वजह से संघ मण्डली की चिंता बनी हुयी है। संघ मण्डली घोर प्रतिक्रियावादी और हिन्दुत्ववादी है। और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति समाज में जहर घोलने का काम कर रही है। अब संघियों को चाहिए कि जो दलित आबादी हिन्दू-मुस्लिम दंगों से अपने आप को अलग करके अपना जीवन यापन कर रही है, उसको भगवा रंग में रंगा जाए। ताकि इस आबादी को भी मुस्लिमों के खिलाफ भड़काया जाए। संघियों द्वारा दलितों को इसी रूप में इस्तेमाल करना चाहता है। संघी मुस्लिमों के प्र्रति नफरत फैलाकर अपने आपको देशभक्त मानती है। और जो मुस्लिम विरोधी नहीं होते हैं वे देश के दुश्मन हैं। ये संघ मण्डली ऐसा ही देशभक्ति का चोला पहनाकर देश के कोने-कोने में साम्प्रदायिक दंगे कराकर अपनी देशभक्ति दिखाते हैं।
संघ परिवार द्वारा संचालित भाजपा पार्टी 16वीं लोकसभा चुनावों में जीतकर सत्तासीन हो गयी। इस जीत के उन्माद के चलते संघ मण्डली द्वारा देश में बेखौफ होकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया जा रहा है। इन्हीं मंसूबों को पूरा करने के लिए संघ परिवार दलितों को अपने साथ लेकर चलने की तैयारी में लगा हुआ है।
संघ मण्डली के प्रमुख मोहन भागवत ने दलितों की दयनीय स्थिति पर चिंता जताते हुए कहा कि उनकी (दलितों) स्थिति ठीक करने के लिए हमें सौ सालों तक मुश्किल झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए। श्रीमान मोहन भागवत जी का ‘दलितों को आरक्षण मिलता रहे’ या इन्होंने (भागवत ने) धोखे से या अहसान के बतौर बात कहने में कौन सी मुश्किल या आफत झेलनी पड़ेगी? सच पूछो तो इनको कोई मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा बल्कि भागवत जी ने जो बयान दिया है वह उसको लेकर परेशानी महसूस कर रहे हैं। क्योंकि ये बयान (आरक्षण संबंधित) इन्होंने मजबूरीवश दिया है।
संघ प्रमुख भागवत द्वारा आरक्षण का समर्थन करने के पीछे यही मंशा है कि यह दलितों को अपने घृणित मसूबों में अपने साथ लेकर इंसानियत को नष्ट करने की मुहिम चलायी जाए। और इसलिए ये दलितों में हिन्दू होने का अहसास पैदा करते फिर रहे हैं। दंगों के समय या दंगों से पूर्व तैयारी के समय ये नारा लगाते हैं ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’। इस तरह से ये संघी शांत समाज की फिजा को बिगाड़ देते हैं।
हमें चाहिए कि तमाम इंसाफपसंद लोग जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, नस्ल आदि मानसिकता से ऊपर उठकर ऐसी साम्प्रदायिक ताकतों के मुंह पर तमाचा मारे कि ‘गर्व से कहो कि हम सब इंसान हैं’। पूर्व में युद्धों में लड़ने का ठेका लेने वाली सवर्ण मानसिकता के संघी प्रतिनिधि को अचानक दलित लडाकू जाति नजर आने लगी। अब जाति का भेदभाव मिटाने की बात कर रहे हैं। संघियों को अपने तुच्छ स्वार्थ सिद्धि के लिए अचानक दलित प्रेम उमड़ पड़ा।
अब वे दिन दूर नहीं जब इंसानियत को प्यार करने वाली मेहनतकश आवाम अपने दुश्मनों को पहचान कर उनका मटियामेट कर डालेगी।
बाबू पठान, हरिद्वार
जानो, सोचो, समझो और देश बचाओ
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
प्रिय साथियों,
जनता ने श्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा को असीम विश्वास व प्रेम के साथ भारत की सत्ता सौंपी। जनता की अपेक्षा थी कि महंगाई घटेगी, स्थायी व सम्मानित रोजगार मिलेंगे, सड़क, बिजली, पानी मिलेगा, किसानों को खुशहाली मिलेगी।, असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले मजदूरों को बेहतर कार्य परिस्थितियां मिलेंगी। मोदी जी ने चुनाव में 60 साल के बनाम 60 महीने मांगे थे। उनके हिसाब से वह तीन वर्ष काम कर चुके हैं। इन दिनों में वह कोई काम नहीं हुआ जिसकी अपेक्षा जनता ने की थी लेकिन गम्भीर बात यह है कि जो काम किये गये हैं वे किस दिशा की ओर हैं।
सदा ही भारतीय संस्कृति एवं स्वदेशी की दुहाई देने वाली भाजपा ने रेल, बैंक, बीमा, कृषि एवं रक्षा जैसे महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील क्षेत्रों में समेत तमाम क्षेत्रों में एफ.डी.आई. (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) की अनुमति देकर ढ़ेरों विदेशी कम्पनियों को भारत में व्यापार करने की छूट दे दी है। व्यापार का उद्देश्य मुनाफा होता है। जब मुनाफा विदेशी कम्पनियों का होगा तो भारत माता का हित कैसे होगा? मोदी जी का कहना है कि विदेशी निवेश से विकास होगा परन्तु अनुभव बता रहा है कि यदि विदेशी पूंजी के 20 रुपये आते हैं तो 8 कमाकर वह 28 बनकर देश से चले जाते हैं। सीधी बात है कि विदेशी पूंजी हमारी पूंजी को खींचकर ले जा रही है।
एक सवाल यह भी उठता है कि क्या हमारे देश में पैसे की कमी है जो विदेशों से लेना पड़ रहा है? फोब्र्स पत्रिका के अनुसार सबसे ज्यादा अरबपति भारत में बढ़ रहे हैं। देश की कुल सम्पत्ति के 70 फीसदी का कालाधन देश में टहल रहा है, अरबों रुपये का काला धन विदेशी बैंकों में जमा हैं, पिछले 10 वर्षों में 365 अरब रुपये का टैक्स पूंजीपतियों पर छोड़ दिया गया और मात्र 50,000 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष की एफडीआई के लिए सैकड़ों व विदेशी कम्पनियां न्यौती जा रही हैं जो अपने देश में दिवालिया हो गयीं या जिन पर उन देशों में धोखाधड़ी के मुकदमे चल रहे हैं।
कुल मिलाकर यह बात समझ में नहीं आती कि भारत माता के साथ ऐसा व्यवहार क्यों? ईस्ट इण्डिया कम्पनी जैसी एक विदेशी कम्पनी के चंगुल से भारत माता को आजाद कराने में 200 वर्ष और लाखों लोगों के प्राण चले गये थे। जो आज बोया जा रहा है इसका परिणाम क्या होगा इसकी चिंता हमें करनी ही चाहिए और सोचना चाहिए कि कहीं साधु वेश में रावण द्वारा सीता हरण जैसा मामला तो जनता के साथ नहीं हो गया है।
साथियो! केवल एफडीआई द्वारा ही देश की अस्मिता पर हमला नहीं हो रहा है बल्कि अथाह कुर्बानियों से हासिल मेहनतकशों के तमाम अधिकार भी छीनकर उनका जीवन नरक बनाने की साजिश हो रही है। पूंजीपतियों के हित में श्रम कानून बदले जा रहे हैं।
केन्द्र सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय द्वारा श्रम कानूनों में प्रस्तावित संशोधनों में- 1. महिलाओं से रात्रि की पाली में काम कराने तथा उनसे खतरनाक काम कराने की छूट प्रदान करना 2. काम के घंटों में बदलाव करके ओवरटाइम प्रति तिमाही 50 घंटे से बढ़ाकर 100 घंटे करना। 3. साप्ताहिक अवकाश का दिन तय करने का अधिकार उद्यमों के मालिकों को देना। 4. अप्रेंटिस एक्ट में बदलाव कर मालिकों को भारी संख्या में एप्रेन्टिस रखने की छूट देना जो सस्ते श्रम के स्रोत होंगे। 5. कारखाना अधिनियम में बदलाव कर छोटी कम्पनियों की परिभाषा में ऐसे संस्थान आ जायेंगे जहां 40 श्रमिक काम करते हों। पहले यह संख्या 20 थी। 6. छोटे उद्यमों को श्रम कानूनों के पालन से संबंधित रिकार्ड रखने में छूट दी जाएगी।
श्रम कानूनों में प्रस्तावित संशोधन पूंजीपति वर्ग द्वारा मजदूर वर्ग पर बड़ा हमला है। सरकार यदि संशोधनों को पास कराने में कामयाब होती है तो सरकार यहीं तक नहीं रुकेगी। सरकार 1998 में गठित द्वितीय श्रम आयोग की सिफारिशों को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसमें श्रम कानूनों को बेअसर करने की तमाम संस्तुतियां दी गयी हैं।
कर्मचारियों के लम्बे संघर्ष से हासिल पेंशन जैसे सुरक्षा प्रबंध को पहले ही निगला जा चुका है। जिसके खिलाफ देश का पूरा ट्रेड यूनियन आंदोलन संघर्षरत है। -
पुरानी व नई पेंशन योजनाओं में फर्क
पूरा वातावरण बता रहा है कि आने वाले दिन हमारे लिए अच्छे नहीं हैं। परन्तु एक शानदार संघर्ष हमारी नियति को बदल सकता है इसलिए संघर्ष हेतु तत्पर होने का समय आ गया है। उठो, स्वयं को लड़ने को तैयार करो।
केन्द्रीय श्रमिक संगठनों द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष की रूपरेखा तैयार की जा रही है उनके द्वारा जो आह्वान दिया जायेगा, उसे बरेली का श्रमिक वर्ग यादगार बनायेगा, इस आशा व अपेक्षा के निवेदन के साथ-
बरेली ट्रेड यूनियन फेडरेशन
‘श्रम कानूनों में सुधार’ या औद्योगिक घरानों को श्रमिकों की लूट का खुला लाइसेंस
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ के नारे के साथ पूरे देश को उल्लू बनाकर सत्ता में आई ‘मोदी सरकार’ का असली चेहरा दिन-प्रतिदिन नंगा होता जा रहा है। मनमोहन सरकार (यूपीए) की नाकामियां, बढ़ती महंगाई व भ्रष्टाचार आदि को मुद्दा बनाकर, कारपोरेट मीडिया द्वारा लोगों को अच्छे दिनों के सपने दिखा कारपोरेट जगत का विश्वास पात्र नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ गया। परन्तु नीतियां वही मनमोहन सरकार वाली लागू की जा रही हैं। रेल भाड़े में ऐतिहासिक बढ़ोत्तरी, पैट्रोल-डीजल की कीमतों में बेरोक-टोक बढ़ोत्तरी, खाद्य पदार्र्थों की कीमतें आसमान छूने लगीं व काले धन की स्वदेश वापसी जैसे मुद्दे हवा में लटक गये। कुछ लोग कहते रहे कि, ‘अच्छे दिन ऐसे नहीं आयेंगे’। परन्तु उनकी आवाज कारपोरेट मीडिया के शोर में अधिकतर लोगों तक पहुँच नहीं पाई। हुआ वही जिसका भय था कारपोरेट फंडों व मीडिया की मदद से सिंहासन पर बैठी मोदी सरकार कारपोरेट-औद्योगिक घरानों की सेवा में नतमस्तक हो गयी।
इसी कड़ी में, अपने आकाओं की ‘मेहरबानियों का प्रतिफल’ लौटाने के लिए मोदी सरकार ‘श्रम कानून में सुधार’ के नाम पर मजदूरों का गला और ज्यादा दबाने जा रही है। ज्ञात हो कि 1991 में मनमोहन-नरसिम्हा सरकार द्वारा ‘गैट समझौते’ पर हस्ताक्षर करके नई साम्राज्यवादी नीतियां जिन्हें उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण आदि नामों से जाना जाता है, लेकर आई थी। तब भी देश के श्रम कानूनों में ‘सुधार’ किये गये थे व दावा किया गया था कि इससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, बेरोजगारी समाप्त होगी, गरीबी का उन्मूलन हो जाएगा, नई टेक्नोलाॅजी से लोग मालामाल हो जायेंगे, सौ दिनों में महंगाई कम हो जाएगी आदि आदि। परन्तु हुआ क्या? मनमोहन सिंह के शब्दों में ‘‘ये नीतियां इच्छानुसार नतीजे नहीं दे सकीं’’ यानी कुल मिलाकर देश के लोगों से जो वायदे किये गये वो वफा नहीं हुए।
26 जुलाई के समाचार पत्रों में छपी खबरें, पहले से ही अपनी मूल-भूत सुविधाओं के लिए जूझ रही, मजदूर श्रेणी के लिए खतरे की घंटी है। रेल समाचार को राजनीतिक पार्टियों व सरकारों की कारपोरेट घरानों के साथ सांठ-गांठ तो समझ में आती है, परन्तु देश में काम कर रही ट्रेड यूनियनों (जिनमें ज्यादातर किसी न किसी राजनीतिक दल की ही विंग हैं) की इन मुद्दों पर खामोशी कई सवाल खड़े कर रही है।
मीडिया में आई खबरों के अनुसार देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों को देश में पूंजी निवेश हेतु उत्साहित करने की आड़ में, श्रम सुधारों के नाम पर, मजदूर श्रेणी को लम्बे संघर्षों से प्राप्त मामूली अधिकारों को भी समाप्त करने की तैयारी चल रही है। जिसमें न्यूनतम मेहनताना, कार्य समयावधि सीमा हटाना तथा औरतों को रात्रि पाली की छूट देना आदि करके कारपोरेट घरानों द्वारा मजदूरों की और अधिक लूट करने का काम आसान किया जा रहा है। दूसरी ओर ट्रेड यूनियन बनाने के लिए 15 प्रतिशत मजदूरों की सहमति की शर्त को बढ़ाकर 30 प्रतिशत किया जा रहा है। पहले कानून के अनुसार जिस कारखाने में 10 से अधिक मजदूर काम करते थे वह फैक्टरी एक्ट के अधीन आता है लेकिन अब इसे भी बढ़ाकर 40 किया जा रहा है। इसी प्रकार जहां पहले कानून अनुसार 300 से ज्यादा मजदूरों की छंटनी करने के लिए सरकार की अनुमति चाहिए थी लेकिन अब इस संख्या को भी बढ़ाकर 1000 किया जा रहा है। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि कार्य समय सीमा, निश्चित उजरत आदि कानून जो सिर्फ अब तक भी केवल सरकारी फाइलों का श्रंगार बने रहे, से भी छुटकारा पाने की साजिश की जा रही है। यूनियन बनाने के अधिकार पर उद्योगपतियों व सरकार द्वारा अघोषित प्रतिबंध तो देश की कथित आजादी का ही मुंह चिढ़ा रहा है। छंटनी रोकने व फैक्टरी एक्ट के अन्य अधिकार पाने के लिए न्यायपालिका भी कोई संतोषजनक काम नहीं कर सकी। पूंजी निवेश के पर्दे के पीछे सरकारें मजदूरों के बचे-खुचे हक छीनकर, उद्योगपतियों को उनका और अधिक शोषण करने की छूट दे रही है। ऐसे समय संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को असंगठित क्षेत्रों के श्रमिकों का हाथ थामते हुए समूचे मजदूर वर्ग की एकता रूपी दुर्ग का निर्माण करना होगा। एक मजदूर
एक संघर्षरत मजदूर की दास्तान
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
हरिद्वार सिडकुल के सेक्टर 12 प्लाट न. 7, 11 व 13 में वी.आई.पी. इण्डस्ट्रीज लिमिटेड कम्पनी है जो सूटकेस बनाने का काम करती है। इसमें लगभग 250 मजदूर काम करते हैं। इनमें ही एक मजदूर संजीव कुमार हैं। वे पिछले लम्बे समय से प्रबंधन द्वारा उत्पीड़न का शिकार हुए हैं। इनका कसूर बस इतना है कि वे हमेशा लगन व मेहनत से काम करते हैं और मजदूर साथियों के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ लड़ते हैं। उन्होेंने हमेशा ही अन्य मजदूर प्रतिनिधियों के साथ मिलकर अन्य मजदूरों की समस्याओं को फैक्टरी प्रबंधन के समक्ष उठाया। जिस कारण कम्पनी प्रबंधन ने उनको जबरन फैक्टरी से बाहर निकाल दिया। जिससे वी.आई.पी. इण्डस्ट्रीज के मजदूरों में काफी आक्रोश व्याप्त हो गया।
प्रबंधन ने पिछले तीन वर्षों में संजीव को प्रताडि़त करने के लिए उनका कई विभागों में स्थानान्तरण किया। उनसे ऐसे काम करवाये गये जो उन्हें करने नहीं आते थे। लेकिन संजीव तीन सालों तक प्रबंधन के अत्याचारों को बर्दाश्त करते रहे और मजदूरों की समस्याओं के लिए संघर्ष करते रहे। कम्पनी ने इस बीच उनको कई बार चेतावनी, कारण बताओ नोटिस, निलंबन तथा बाद में पदच्युति पत्र दिया।
प्रबंधन ने उनको निकालने की प्रक्रिया को अमली जामा तब पहनाया जब उसने संजीव कुमार पर दिनांक 20 मई को उन पर लगे 13 आरोपों की जांच के लिए अपने ही एक निजी अधिवक्ता भास्कर जोशी निवासी देहरादून को उन पर घरेलू जांच के लिए बैठा दिया। उस जांच में संजीव कुमार ने भास्कर जोशी के समक्ष कई गवाह पेश किये जिससे उनकी बेगुुनाही साबित होती थी परन्तु जोशी ने उन सबको नजरअंदाज करते हुए प्रबंधन के पक्ष में फैसला दिया। इस दौरान 5 महीनों की कार्यवाही में सहायक श्रमायुक्त के कार्यालय में भी कार्यवाही चली पर संजीव कुमार को वहां भी न्याय नहीं मिला। प्रबंधन ने अंत में 27 अगस्त को संजीव को नौकरी से निकालने का पत्र थमा दिया। इसके साथ ही कम्पनी ने अन्य मजदूरों पर भी अपना शिकंजा कस दिया।
संजीव कुमार ने इसी बीच अपना केस उपश्रमायुक्त के यहां दायर किया है। देखना यह है कि उन्हें वहां से कब न्याय मिलता है। संजीव कुमार हमेशा ही दूसरे मजदूर साथियों के लिए लड़े और उसका परिणाम उन्हें अपनी नौकरी गंवा कर चुकाना पड़ा। आज पूरे देश में मजदूर आंदोलन कमजोर स्थिति में होने के कारण पूंजीपति वर्ग लगातार मजदूरों पर हमलावर हो रहा है। इसके लिए सभी मजदूरों को एकजुट होकर मालिकों के खिलाफ लड़ाई लड़नी पड़ेगी। एक मजदूर, हरिद्वार
जे.एन.एस. में यौन उत्पीड़न का विरोध
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
जिला हरिद्वार में बेगमपुर, इण्डस्ट्रियल एरिया है जिसमें छोटी-बड़ी लगभग 20 कम्पनी होंगी। लगभग सभी कंपनियों में महिला मजदूर काम करती हैं। उनको पुरुष मजदूरों से कम वेतन देकर काम कराया जाता है। उनका बहुत अधिक मानसिक उत्पीड़न होता है। उनके साथ अश्लील शब्दों के साथ बहुत मजाक किया जाता है। महिला मजदूरों से 8 से दस घंटे काम लिया जाता है। उनसे दिन भर खड़ा होकर काम लिया जाता है। स्टूल पर बैठने भी नहीं दिया जाता। सीनियर स्टाफ मजाक ही मजाक में उनके साथ बहुत अश्लील हरकतें किया करते हैं।
वहीं पर एक जे.एन.एस. कम्पनी है जो इलेक्ट्रोनिक मीटर बनाने का काम करती है। उसमें अधिक महिला मजदूर काम करती हैं। यहां सभी छोटे बड़े वाहनों के मीटर बनाने का काम किया जाता है। पुरुष मजदूर न के बराबर हैं। केवल महिला मजदूर ही काम करती हैं। सुपरवाईजर के रूप में भी महिला ही हैं।
जे एन एस कम्पनी की घटना यह है कि एच आर ने एक महिला मजदूर को केबिन में बुलाकर उसके साथ छेड़छाड़ की। उस लड़की का नाम सरला(बदला हुआ नाम) है। वह घनौरी गांव की रहने वाली है। एच आर अपनी आदत से बाज नहीं आया। किसी काम के बहाने उसने सरला को केबिन में बुलाया और उसका शारीरिक उत्पीड़न करने लगा। सरला ने एच आर का विरोध किया और उसने मोबाइल द्वारा गांव में सूचना दे दी कि कंपनी के एच.आर. ने उसके साथ छेड़छाड़ की है। सरला के मां-बाप और गांव के लोग कम्पनी के गेट पर पहंुंचे और मांग की उस एचआर को उनके हवाले किया जाए। पूरा शोर-शराबा देख कंपनी के महाप्रबंधक ने पुलिस को सूचना दी कि घनौरी गांव के कुछ लोग कंपनी के गेट पर तोड़फोड़ की नीयत से आए हैं। और शोर-शराबा कर रहे हैं। कुछ ही देर में पुलिस की गाड़ी आ गई। पुलिस ने पहले घनौरी गांव के लोगों को शांत रहने के लिए बोला। फिर मामले की पूरी जानकारी लेने की बात करते हुए कंपनी के अंदर गए। कंपनी महाप्रबंधक ने पुलिस को बताया कि एचआर पर सरला नाम की एक लड़की झूठा आरोप लगा रही है कि उसके साथ छेड़छाड़ की गयी है जबकि वैसा कुछ नहीं है। एक आध घंटे बाद पुलिस बाहर आयी तथा पीडि़ता लड़की भी उनके साथ थी। उसने अपने परिजनों के सामने अपनी आपबीती सुनाई। परिजनों के गुस्से को देखते हुए पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया।
पुलिस ने गांव वालों और पीडि़ता के मां-बाप को समझाया कि रिपोर्ट लिख ली गयी है और वे लोग घर जाएं। वे उस एचआर पर पूरी कार्यवाही करेंगे। फिर गांव वाले और पीडि़ता के मां-बाप वापस चले गये कि पुलिस तो कार्रवाई करेगी ही। लेकिन हुआ उसका उल्टा। पुलिस ने कंपनी प्रबंधक से मिलकर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। रिपोर्ट को फर्जी बनाकर रख दिया गया। लड़की के परिजन, मां-बाप इंसाफ के लिए हर दरवाजे पर जा रहे हैं। जे एन एस का एचआर अपनी हरकतों से कई लड़कियों को परेशान किया करता था। लेकिन इस बार उसकी चाल उल्टी पड़ गयी। इस बार उसका पाला सरला जैसी हिम्मती लड़की से पड़ गया। वैसे तो यह मामला अभी पुलिस और कंपनी के प्रबंधक के बीच अटका हुआ है। कंपनी प्रबन्धन अपनी चालबाज नीति से किसी तरह मामले को ठंडा करने की कोशिश कर रही है। वह पैसे खर्च कर इस मामले का निपटारा करना चाह रही है।
अब तब एच आर की गिरफ्तारी न होना दिखाता है कि यह व्यवस्था सड़ गल चुकी है। यहां गरीबों के लिए न्याय मिलना बहुत कठिन होता है। पैसे के लोभी कुछ घिनौने दिमाग वाले लोगों ने अपनी इंसानियत बेच दी है। उन्होंने गरीबों के आंसू को मजाक बना दिया। लेकिन तब भी सरला जैसी हिम्मत सभी मजदूरी मेहनत करने वाली महिलाओं को दिखाना होगी नहीं तो ‘ये भेडि़ये’ और भी खूंखार हो जायेंगे। रामकुमार हरिद्वार
हिन्दुस्तान लीवर में ठेका मजदूरों के बुरे हाल
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
हिन्दुस्तान लीवर बहुत अच्छी कम्पनी मानी जाती है परन्तु इसी कम्पनी में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की स्थिति बहुत ही खराब है। उन्हें कम्पनी में न तो चाय मिलती है और न ही अहमियत। ठेका मजदूरों का जब चाहे जैसा इस्तेमाल किया जाता है। न ही किसी मजदूर के खाने पीने की सही व्यवस्था है। अगर ठेका मजदूर अपना खाना साथ ले जाते हैं तो कहा जाता है कि ये कम्पनी में गंदगी फैलाते हैं। जबकि कम्पनी ठेका मजदूरों को पीने का पानी भी मुहैय्या नहीं कराती है। अब तो एक और नियम आ गया है कि 180 दिन के बाद 60 दिन यानी 2 महीने का ब्रेक दिया जाता है। इन 2 महीनों में मजदूरों को दुबारा काम ढूंढ़ने में काफी मशक्कत करनी होती है। कम्पनी मजदूरों के बीच फूट डालने के लिए एक काम और करती है वह कम्पनी के मजदूर व ठेका मजदूर के बीच फूट डालती है। ताकि मजदूर एकजुट न हो सके। यह सब कम्पनी के मजदूरों की अपेक्षा ठेका मजदूरों से ज्यादा काम लेकर भी किया जाता है। ताकि कम्पनी के मजदूर अपने को मजदूर न मानकर ठेका मजदूरों को मजदूर मानें। इसके अलावा ठेका मजदूरों को यहां कोई भी अच्छी सुविधा नहीं दी जाती है। एक मजदूर हरिद्वार
सी सैट के विरोधियों के नाम मजदूरों की पाती
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
मित्रों,
हम एक कारखाने में काम करने वाले मजदूर हैं। जबसे हमने सुना कि इस देश के अफसर बनने को लालायित नौजवान अफसर बनने की प्रक्रिया को लेकर सड़कों पर उतरे हैं तब से हम लोग काफी चिन्तित हैं और इस बहस में हम अपनी भी कुछ बातें रखना चाहते हैं।
अंग्रेजों ने अफसर बनाने के लिए आई.ए.एस/आई.पी.एस की परीक्षा शुरू की थी शुरूआती काल में यह परीक्षा इंग्लैण्ड में होती थी। जाहिर है तब या तो इंग्लैण्ड के अंग्रेज या भारत के धनी लोग ही यह परीक्षा दे पाते थे। बाद में इस परीक्षा को देश में कराये जाने की मांग उठी। इस मांग का आजादी की लड़ाई लड़ने वाले सभी पक्षों ने समर्थन किया। मजबूरन यह परीक्षा बाद के समय में भारत में करायी जाने लगी। परीक्षा पास करने के लिए अन्य काबलियतों के साथ अंग्रेजी भाषा का आना भी जरूरी था।
अंग्रेजों के शासन में अफसरों की क्या भूमिका थी? अफसरों की भूमिका भारत पर ब्रिटिश शासन को बनाये रखने में सदा तत्पर रहने की थी। अफसरों का काम हड़तालें करने वाले मजदूरों को कुचलने से लेकर आजादी के योद्वाओं को लाठी-गोली से कुचलनें का था। कुल मिलाकर समाज में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा किये जा रहे लूट-अन्याय-अत्याचार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को कुचलना था। फिर भी जब देश के पढ़े लिखे तबकों ने अफसरी की परीक्षा भारत में कराने की मंाग की तो देश के बहुतेरे लोगों ने इसका समर्थन किया। उन्होंने ऐसा इसीलिए किया कि भारत में परीक्षा होने पर अधिक भारतीय अफसर बन पायेंगे। और शायद भारतीय अफसर अंग्रेज अफसरों से कम क्रूर होंगे। पर अंग्रेज भी पर्याप्त चालाक थे और उन्होंने सभी उच्च पदों पर अंग्रेजों को ही बैठाना जारी रखा। फिर भी कहा जा सकता है कि अंग्रेजों के जमाने में बने भारतीय अफसर देश के स्वाधीनता आन्दोलन के खिलाफ और उसको कुचलने में लगे रहे। यही कारण है कि देश को आजाद कराने वाले योद्वा जनता के दिलों में अमर हो गये। वहीं अंग्रेजी हुकमत के भारतीय अफसरों का कोई नाम लेवा नहीं है। हां! कुछ अफसरों का जमीर भी इस दौरान जागा और वे अफसरी को लात मार आजादी की जंग में कूद पड़े। उन्हें भी बड़ी इज्जत से याद किया जाता है।
वक्त बदला ढेरों कुर्बानियों के दम पर देश से अंग्रेज तो चले गये पर शासन इस देश की बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के हाथों में आने के बजाए काले अंग्रेजों, इस देश के पूंजीपतियों के हाथ में आ गया। मेहनतकश मजदूरों-किसानों का जीवन जस का तस ही रहा। भारत के पूंजीपतियों को भी चूंकि देश की जनता को दबाना-कुचलना-दमन करना था इसलिए न केवल मामूली फेरबदल के साथ देश के संविधान में ढेरों कानून अंग्रेजों के बनाये रखे गये बल्कि अफसरशाही भी अंग्रेजों की ही अपना ली गयी। यहां तक कि अफसरों के चलन की प्रक्रिया भी लगभग वैसी ही चलती रही।
आजाद भारत के नये शासकों ने इस बात का ध्यान रखा कि उनकी व्यवस्था को चलाने वाले अफसर भले ही सभी तबकों से आयें पर उनकी शिक्षा-दीक्षा उन्हें मेहनतकशों से नफरत करने वाला बना दे। ताकि आजाद भारत में मजदूरों-किसानों नौजवानों को लाठी गोली से कुचलने में उन्हें देशभक्ति नजर आये। आज भारत के पूंजीवादी राज्य को चलाने वाले अफसर आज जनता के खिलाफ खड़े हैं।
पर चूंकि आप में ढे़रों इस देश के मेहनतकशों-मध्यम वर्ग की औलादें हैं। इसलिए जब आप यह मांग करते हैं कि अफसरी की परीक्षा में अंग्रेजी का पेपर नहीं होना चाहिए तब आपकी मांग जायज है। अंग्रेजों के जाने के बाद भी गुलामी की छाया अंग्रेजी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। हमें उन सभी क्षेत्रीय भाषी लोगों की मांग भी जायज लगती है जो हिन्दी/अंग्रेजी के अलावा अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में परीक्षा कराना चाहते हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व के चलते पिछले 2-3 वर्षों में डाक्टर/इंजीनियर अधिक मात्रा में आईएएस बनने लगे जबकि बीए, एमए वालों की संख्या घट गयी।
आपकी मांग का समर्थन करते हुए भी हम यह जानते हैं कि हमारे शहर का डीएम अंग्रेजी पढ़ा हो या हिन्दी माध्यम का वह हमारे ऊपर डंडा चलाने में कोई रियायत नहीं बरतेगा। वह नौकरी की मांग करने वाले अपने भाईयों, पानी बिजली-खाद की मांग करते किसानों को कुचलने में कोई संकोच नहीं करेगा। पूंजीवादी व्यवस्था के अफसरों का यही काम है। हम आपकी मांग का इसीलिए समर्थन करते है ताकि किसी के दिमाग में अगर कोई इस तरह का भ्रम हो कि अंग्रेजीदा अफसर से हिन्दी भाषी अफसर बेहतर होेंगे तो यह भ्रम समाप्त हो जाये।
जहां तक हमारा सवाल है हम तो चाहते है कि जनता के ऊपर बैठे अफसर जनता के हितों के प्रतिनिधि हो न कि उसके दुश्मन। जाहिर है प्रतियोगी परीक्षा से चुने जाने वाले अफसरों को जनता नहीं पूंजीवादी व्यवस्था के कारिंदे चुनते हैं। उन्हें पालते-पोसते और ट्रेनिंग दे जनता को कुचलने के लिए मैदान में उतार देते हैं। एक अध्यापक-किसान की औलाद को वह अफसर बना मजदूरों किसानों-नौजवानों का दुश्मन बना डालते हैं। इसीलिए हम मांग करते हैं कि अफसरों को भी चुनाव के जरिये जनता द्वारा चुना जाना चाहिए न कि परीक्षा से।
पर यह मांग पूरी करना पूंजीवादी व्यवस्था के शासकों के लिए खासी कठिन है। इसलिए मजदूर वर्ग इसी हकीकत पर विश्वास करता है कि अफसर चाहे जैसे भी छांटे जाये इस व्यवस्था में वह मेहनतकशों के खिलाफ ही रहेंगे। इसलिए मजदूर वर्ग इस पूंजीवादी व्यवस्था के साथ उसकी अफसर शाही-नौकरशाही के खिलाफ लड़ता है। वह पूंजीवाद का नाश कर समाजवादी व्यवस्था को बनाने का लक्ष्य लेकर लड़ता है। समाजवाद में अफसर-जज-नेता सबका चुनाव मेहनतकश जनता करेगी। पहली बार अफसर जनता को कुचलने वाले नही उसके प्रतिनिधि-वास्तविक रक्षक बनेंगें। इतिहास पूंजीवाद से लड़ने वाले योद्धाओं को याद करेगा और पूंजीवाद के रक्षक अफसर अंग्रेजों के दौर के अफसरों की तरह भूला दिये जायेंगें। यह आप नौजवानों पर है कि आप किसकी पात में खड़ा होना चाहते हैं।
-आपके कारखाने में काम करने वाले मजदूर
‘नरेन्द्र मोदी’ पूंजीपतियों के अनमोल हीरे
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी प्राप्त करते ही देशी-विदेशी पूंजीपतियों को खुश कर दिया। उन्होने पूंजीपतियों के कथानानुसार कि ‘सरकार निडर होकर फैसला ले’ के तहत काम करना शुरू कर दिया है। उन्होने पूंजीपतियों के विकास के चश्में को जनता की आंखों पर लगातार चुनावों के वक्त गुजरात का विकास दिखाया था। अब ये दम्भी प्रधानमंत्री उसी चश्में से पूरे देश का विकास दिखाने की कोशिश में लगा हुये है। जिस विकास की ये बात कर रहे हैं उस विकास का मजदूरों की जिंदगी से कोई लेना नही होता। बल्कि उस विकास को हमारे ऊपर थोप दिया जाता है। जबकि यह विकास पंूजीपति वर्ग का विकास होता है। इस विकास का हमें एहसास कराने के लिए तरह-तरह से गुमराह किया जाता है।
ये कैसे सम्भव है कि खाली पेट रहने से भरे पेट होने की अनुभूति हो। ऐसा कभी नही हो सकता कि एक व्यक्ति के खाना खाने से दूसरे व्यक्ति का पेट भर जाए। पूंजीवादी शासकों द्वारा ऐसा ही प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। वह चाहे पूर्व की सरकारे रही हों या वर्तमान की सरकार। और वर्तमान की सरकार के प्रधानमंत्री तो पूंजीपतियों के लिए एक अनमोल हीरा साबित हो रहे हैं।
मोदी सरकार ने जनता व देश के विकास लिए सरकारी उपक्रमों में विदेशी प्रतिपक्ष निवेश का प्रतिशत बढ़ाकर विदेशी पूंजी के लिए रास्ता साफ कर दिया। अब देश का शासन निरंकुश होकर देश की सामाजिक सम्पदा को पूंजीपतियों के लिए बेरोकटोक होकर लूटने की छूट देंगे। ये सब वर्तमान सरकार की कार्यवाही मजदूर वर्ग पर नये हमले बोलने की तैयारी की शुरूआत भर है। आने वाले पांच साल में यह अनमोल हीरा अभी अपनी और चमक से मजदूरों की आंखों में और चुभन पैदा करेगा।
उधर पूंजीवादी प्रचार तंत्र ने मोदी के ‘केन्द्र की सत्ता’ को सम्भालते ही ये बहाना शुरू कर दिया कि कई दशकों बाद देश को सही नेतृत्व मिला है। अब यह देश की विकास की रफ्तार को तेज करेगा। इन पत्रकारों-बुद्धिजीवियों ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि इनके हिसाब से भी पूंजीपतियों को सरकार खुलकर पूर्व की सरकारों ने अपेक्षित सामाजिक धन सम्पदा और मजदूर-मेहनतकशों को लूटने का मौका नही दिया। इसलिए उपरोक्त बातें कही जा रही हैं। शासकवर्गीय और इस व्यवस्था के पक्षधरों व प्रचारकों के हिसाब से ऐसी सरकार या ऐसा शासक होना चाहिए जो मजदूर-मेहनतकशों का खुले आम शोषण-उत्पीड़न करे। क्योंकि इनके हिसाब से जनता जितनी भी बुरी स्थिति में जीवन व्यतीत करे, इन्हीं सब तरीकों के शासन करने वाले शासक को ये पसन्द करते हैं। उसे अपना आदर्श मानते हैं। मजदूर वर्ग को चाहिए कि वे ऐसे भ्रामक प्रचार से बचें। हमें न पूर्व के शासक चाहिए न वर्तमान शासक चाहिए। श्याम बाबू, हरिद्वार
मजदूर का महत्व
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
खेत और खलिहान में, या फिर चाय के बागान में,
उद्योग जगत के हर क्षेत्र में, और हर धातु की खान में,
रोजमर्रा की वस्तु से लेकर, हर वस्तु के निर्माण में।
मजदूर जी-जीन लगाता है, अपना पसीना बहाता है।-2।
खेत में किसान बनकर, मजदूर अन्न उगाता है।,
माली बनकर फूलों से, वह गुलकंद बनाता है,
सुनार, लौहार और चर्मकार की, वह भूमिका निभाता है,
जीवन के हर क्षेत्र में, मजदूर जी-जान लगाता है-2।
चालक बनकर वह परिवहनता को सुगम बनाता हैं,
जनमानस को उनके गन्तव्य तक, सरलता से पहुंचाता है,
कुली बनकर बोझ ढोके, अपना फर्ज निभाता है,
जीवन के हर क्षेत्र में, मजदूर जी-जान लगाता है-2।
उत्पादन के क्षेत्र में देखो, वह गजब भूमिका निभाता है,
आठ घन्टे एक स्थान पर, खड़ा होकर मशीन चलाता है,
उत्पादन देता है पहले, बाद में खाना खाता है,
जीवन के हर क्षेत्र में, मजदूर जी-जान लगाता है-2।
व्यथित होता है मन, जब मजदूर कुछ नही पाता है,
सारा जीवन मेहनत करके, वही खाली हाथ रह जाता है,
सरमायदारों का यह रवैया, हमें बिल्कुल नहीं भाता है,
जीवन के हर क्षेत्र में, मजदूर जी-जान लगाता है-2।
सत्यपाल गिल, सदस्य श्रमिक संघ
ये पूंजीपतियों का स्वर्ग है, ये सेज है
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
विशेष आर्थिक क्षेत्र (स्पेशल इकानाॅमी जोन- सेज) के तहत म.प्र. की औद्योगिक राजधानी इंदौर से करीब 50 किलोमीटर दूर बसा एरिया पीथमपुर, जहां स्थित है विशेष आर्थिक क्षेत्र, और उसके तहत छोटी-बड़ी सैकडों कंपनियां। तो चलिए आपको ऐसी की एक कम्पनी में ले चलते हैं।
प्लेक्सिटफ इण्टरनेशनलल लि. सेक्टर-3, पीथमपुर। इस कम्पनी में मुख्यतः पोलिस्टर बैग जिन्हें जम्बो बैग कहते हैं, बनाये जाते हैं जिन्हें मुख्यतया अमेरिका, रूस, यूरोप के देशों में सप्लाई किया जाता है। कम्पनी में 3 शिफ्टों में काम होता है। इसके अतिरिक्त अलग-अलग विभागों में 12-12 घंटे की शिफ्ट चलती है। 12 घंटे की शिफ्टों में मुख्यतया क्वालिटी और स्टीचिंग विभाग आते हैं। 12 घंटे की शिफ्ट का समय 7 से 7 रहता है। बस का समय 6ः10 से होता है। खास बात यह है कि स्टीचिंग विभाग में महिलाओं से भी 12 घंटे काम करवाया जाता है।
कम्पनी द्वारा शुरू में 8 घंटे के 3600 रुपये में भर्ती की जाती है। 250 रुपये 26ड्यूटी पूरी करने के और 750 रुपये डीए के दिये जाते हैं। जो कुल मिलाकर 4600 रुपये 8 घंटे के होते हैं। यदि मजदूर की इच्छा हो तो इस 4600 रुपये में से वह अपनी पी.एफ. कटवा सकता है। 4 घंटे ओवर टाइम रहता है जिसका सिर्फ सिंगल भुगतान ही किया जाता है। प्रत्येक मजदूर से भर्ती प्रक्रिया में ही एक फार्म पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं जिसमें साफ-साफ लिखा होता है कि मजदूर किसी भी तरह की यूनियन में हिस्सेदारी नहीं करेगा।
जहां एक तरफ कम्पनी 12 घंटे में इतने कम पैसों में मजदूरों से काम करवाती है। वहीं दूसरी तरफ सुविधाओं के मामले नगण्य है, सिवाय बस की सुविधा को छोड़कर मजदूरों को किसी भी तरह की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। वर्दी के नाम पर हाफ कमीज मिलती है जिसकी कीमत बाजार में 50 रुपये से ज्यादा नहीं है। परन्तु इसी कमीज का मजदूरों से 150 रुपये लिया जाता है। सबसे बुरे हाल यहां की कैण्टीन के हैं। जहां 30 रुपये डाइट पर खाना दिया जाता है। जिसमें मरियल सी 6रोटी, थोड़ा सा चावल, एक दाल जिसमें अरहर के दाने ढूंढने पड़ते हैं कुल मिलाकर ऐसा खाना ऐसा कि देखते ही कैण्टीन वाले के लिए गाली निकल जाये, जबकि कम्पनी में काम करने वालों की संख्या 2000 के आस-पास होगी।
आम तौर पर मजदूर घर से खाना लेकर आते हैं। अब यदि ऐसे में देखा जाय तो सुबह 4ः30 बजे से उठकर तैयारी शुरू करनी पड़ती है। परन्तु कम्पनी द्वारा इस विषय पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। कमोबेश यहां की सभी कम्पनियों में कैण्टीन की यही दशा है। स्टीचिंग करनेे के लिए जो मशीनें यहां इस्तेमाल होती हैं हालांकि वह इलैक्ट्रिक मोटर से चलती हैं लेकिन उसे चलाने के लिए पांव पर अत्यधिक जोर पड़ता है। और स्टीचर के पांव में हमेशा दर्द की शिकायत बनी रहती है।
वास्तव में विशेष आर्थिक क्षेत्र पूंजीपतियों की ऐशगाह है। इस पूरे ही क्षेत्र में कभी भी, किसी यूनियन का नामोनिशान नहीं है। भाजपा शासित इस राज्य में कभी भी भारतीय मजदूर संघ(बीएमएस) द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की जाती न ही कांग्रेस की इंटक का कोई नामोनिशान ही यहां दिखाई देता है।
आंदोलन की प्रबल संभावना के बावजूद प्रतिरोध के स्वर को गति देने वाली कोई ताकत फिलहाल यहां मौजूद नहीं है। स्टीचर और क्वालिटी एक ही विभाग होने के बावजूद दोनों में गहरी खाई मौजूद है। क्योंकि स्टीचर को कम्पनी द्वारा 12 घंटे के 400 रुपये दिये जाते हैं और स्टीचर के जहन में क्वालिटी वालों के प्रति एक हीनता का भाव मौजूद रहता है।
मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी विचारधारा और संगठन की क्यों जरूरत है इसे यहां बखूबी समझा जा सकता हैं
ये एक ऐसी दुनिया है जहां बिना अनुमति या मजदूर बने मुख्य प्रवेश द्वार के भीतर नहीं जा सकते। सभा नहीं कर सकते, पर्चे नहीं बांट सकते हैं। यहां पर कोई भी सिक्युरिटी वाला आपको अपमानित कर सकता है। आए दिन मजदूर जानवरों की तरह एक दूसरे पर टूट पड़ते हैं और प्रबंधन तमाशा देखता है।
कम्पनी से बाहर निकलकर बस एक ही चीज आमतौर पर मजदूरों को सुकून देती है। किराये के कमरों के पास ही आपको चाट पकौड़ी या सस्ते रेस्टोरेंट मिल जायेंगे जहां पर शराब आसानी से मुहैया हैं पुलिस का हफ्ता तय है यहां पर कोई रोक टोक नहीं।
ये पूंजीपतियों का स्वर्ग है। ये सेज है।
विमल जोशी, इंदौर म.प्र.
मोदी जी वाले अच्छे दिन
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
मोदी जी के द्वारा भेजे गये ‘अच्छे दिन’ आ गये। लोक सभा के चुनाव के समय अधिकतर टीवी चैनलों में अक्सर यही सुनने को मिलता था अब तो ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’। एवं अधिकतर समाचार पत्र इन्हीं के गुणगान से भरे होते थे। ये सब सुनते-सुनते हम जैसे आम जनता को भी इस बात का भ्रम हो जाता था। क्या सच में अच्छे दिन आने वाले हैं। लेकिन इस बात का अंदाजा नहीं लगा पाये थे कि ये अच्छे दिन किस वर्ग के आने वाले हैं। लेकिन जब केन्द्र में मोदी सरकार आयी और उन्होंने अपने वादे के अनुसार खरे उतरते हुए अच्छे दिन लाने शुरू किये तो यह पता चला कि हम मजदूर के लिए ये वादे नहीं थे। कि ‘अब आयेंगे अच्छे दिन’ हम मजदूर वर्ग को 1947 से हर चुनाव के समय अच्छे दिन आने की घुट्टी हर बार पिलाई जाती है और हम उसे पीकर मस्त हो जाते है। और उसी मस्ती में चूर होकर अपना अमूल्य वोट इनकी झोली में डाल देते हैं और खुद अपने हाथ से अपने को लुटाकर लुटे-पिटे निरीह जुआरी की तरह बैठ जाते हैं फिर से अगले चुनाव तक गुलामों की जिंदगी जीने को मजबूर।
पौराणिक कथाओं के अनुसार महाभारत में दुर्योधन ने पाण्डवों को जुआ(चैसर) खेलने के लिए आमंत्रित किया था। लेकिन ये उनकी चाल थी। अपनी बेइज्जती का बदला लेने के लिए। इसलिए दुर्र्याेधन ने अपने तरफ से मामा शकुनि से खेलने को कहा और पास उनसे फिंकवाया गया। पाण्डवों ने इनकी यह चाल नहीं समझी और उनके साथ खेलने बैठ गये जिसमें उनकी हार हुयी। इस हार में जीतने के चक्कर में अपना घर द्वार राजकाज एवं अपनी प्रिय पत्नी द्रोपदी को और यहां तक कि अपने को भी हार बैठे। यदि वे इस चाल को समझ जाते तो ऐसा कहते कि तुम्हारे तरफ से शकुनी खेलेगे तो हमारे तरफ से भी कृष्ण जी खंेलेंगे। तो वे न हारते या इतनी बुरी तरह से न हारते कुछ देर में ही संभल जाते।
लेकिन यहां तो यह देखने में आ रहा है कि हम आम जनता मजदूर वर्ग हर चुनाव मेें उनके झांसे में आ जाते हैं और अपना सब कुछ हार कर मजदूर वर्ग से मजबूर वर्ग हो जाते हैं। दैनिक जागरण् की खबर है कि ‘श्रम कानूनों में बड़े बदलाव की पहल’। इसके अनुसार महिलाओं की नाइट शिफ्ट में काम करने की मिलेगी ढील। उसका मतलब महिलाओं के भी ‘अच्छे दिन’ आ गये। उन्हें रात की पाली में चोरी-छिपे नहीं आजादी से काम करवाया जा सकता है। वाह रे! अच्छे दिन और कैबिनेट का फैसला ब्यौरा देते हुए लिखा है कि बढेंगे ओवर टाइम के घण्टे
फैक्टरी एक्ट और अप्रेटिंसशिप एक्ट में संशोधन की मंजूरी
इस तरह के ‘अच्छे दिन’ मोदी सरकार ले आयी है। उनके आते ही रेल का किराया 14 प्रतिशत बढ़ा दिया गया। डीजल व पेट्रोल के दाम बढ़ा दिया गया। जिससे सभी खाद्यय पदार्थ की ढुलाई महंगी हो गयी और सभी रोजमर्रा की वस्तुएं लगभग 20 प्रतिशत महंगी हो गयी। फैक्टरी मालिक को अपने यहां के कर्मचारियों के खून के एक-एक बूंद निचोड़ने की पूरी छूट दे दी गयी तो उनके लिए तो अच्छे दिन ही हुये। इससे अच्छे दिन और कौन से हो सकते हैं।
अरविन्द बरेली
वह दिन दूर नहीं
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
जितना हमको तड़पाते हैं उतना इनको तड़पायेंगे
इतना इनको तड़पायेंगे कि चैन से नहीं यह रह पायेंगे
पूंजीवाद का नाश करेंगे हम इनको बतलायेंगे।
असली क्या है, नकली क्या है हम इनको सिखलायेंगे
कर लें जितना जुल्म सितम तनिक नहीं हम घबरायेंगे
भगत सिंह की बात को हम फिर से दोहरायेंगे
आंख खुलेगी उस दिन इनकी जब इनको तारे दिखलायेंगे
लाल किले की चोटी पर जब हम लाल झण्डा फहरायेंगे
साथियो का साथ रहेगा कदम से कदम बढ़ायेंगे
अब वह दिन नहीं है दूर जब हम सब खुशहाली पायेंगे।
रमेश कुमार, सी आर सी पंतनगर
मजदूरों की आजादी की रूप रेखा
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
15 अगस्त को देश का पूंजीवादी शासक वर्ग अपनी आजादी का जश्न मनाता है। मजदूर-मेहनतकशों को भी तरह-तरह से भरमा कर अपनी आजादी में शरीक करता है। इस आजादी को मनाने का मतलब है कि पूंजीपति वर्ग द्वारा मेहनतकशों का शोषण-उत्पीड़न जारी रखा जाये। जिसमें एक तरफ देश का मुट्ठी भर छोटा सा हिस्सा सारी सम्पत्ति का मालिक रहे। बाकी आबादी जो सबसे ज्यादा बहुसंख्यक है जो सभी चीजों का उत्पादन करती है। वह सभी सुख-सुविधाओं से वंचित रहे। पूंजीवादी शासक वर्ग इसी तरह की आजादी को समस्त जनता की आजादी कहकर 67 वर्षों से गुमराह करता आ रहा है। जबकि यह आजादी वास्तविक आजादी से कोसों दूर है।
20वीं सदी में दुनिया के कई देशों में वास्तविक आजादी के लिए मजदूर-मेहनतकशों ने शानदार संघर्ष किया। मजदूरों ने इन संघर्षों से हम पर निजी सम्पत्ति यानी निजी उत्पादन संबंधों की जगह सामूहिक उत्पादन संबंध कायम किये। जहां हर प्रकार के भेद-भाव को संघर्ष के दम पर मिटा दिया गया। ये आजादी वास्तव में मेहनतकशों की आजादी थी।
हिन्दुस्तान में भी ऐसी आजादी के लिए संघर्ष की शुरूआत की नींव रखी गयी। जिसमें भगतसिंह व अन्य वीरों का नाम आता हैं लेकिन देशी-विदेशी लुटेरों ने मेहनतकशों की आजादी की नींव को उखाड़ दिया था।
तिरंगे के नेतृत्च में मिली आजादी मजदूरों की आजादी नहीं हो सकती। हमारी आजादी लाल झण्डे के नेतृत्व में ही मिल सकती। जो मजदूरों के खून के ेप्रतीक है। और इस लाल झण्डे के नेतृत्व में मिली आजादी का मतलब होगा महिलाओं, बच्चियों को यौन हिंसाओं से मुक्ति। बेरोजगारों को बेरोजगारी से मुक्ति। कोई भी बच्चा, भूख, बीमारी से नहीं मरेगा। कोई मां-बहन पेट की खातिर अपने शरीर को नहीं बेचेगी। महिलाओं को सामाजिक उत्पादन में लगाया जायेगा। कोई भी मां-बाप अपने बच्चों की पढ़ाई, रोजगार के लिए शरीर के अंगों को नहीं बेचेगा। कोई भी इलाज के अभाव में अल्प आयु में दम नहीं तोड़ पायेगा। वृद्धि स्त्री पुरुषों की देखभाल की गारण्टी दी जायेगी। उत्पादन के साधनों पर सामूहिक मालिकाना कायम किया जायेगा।
उपरोक्त बातों के आधार पर हमारी वास्तविक आजादी हो सकती है। अस्तु वर्तमान में जो आजादी है। वह पूंजीपति वर्ग की मजदूर वर्ग पर तानाशाही का एक रूप है। यानी बीस प्रतिशत लोगों की 80 प्रतिशत लोगों पर थोपी गयी गुलामी है। मजदूर वर्ग को अपनी आजादी क्रांति के दम पर हासिल हो सकती है। श्यामबाबू हरिद्वार
मीडिया और समाज की चेतना
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
आजकल हम लोग प्रचार में लगे हुए हैं। हम लोगों के अंदर एक भीरू मानसिकता को देख रहे हैं। लोगों के पास टाईम नहीं है। लोग परचा पढ़ना तक मुनासिब नहीं समझते, भगतसिंह के नाम से भी ज्यादातर लोग उत्साहित नहीं होते। मीडिया पर हद से ज्यादा विश्वास आदि ऐसे व्यवहार हैं जो समाज की कुंठित चेतना को परिभाषित करते हैं। आज का युवा ज्यादातर मौज-मस्ती व अय्याशी की तरफ भाग रहा है। ये सब क्यों हो रहा है। इसके पीछे कारण क्या हैं। यह हमें जानना होगा। 1991 की आर्थिक नीतियों के लागू होते ही समाज में नैतिक पतन का ग्राफ तेजी से बढ़ने लगा। पूंजीतियों की मुनाफे की हवस के कारण नेट तथा बाजार में न्यूड फिल्म तथा तस्वीरें परोसी जा रही हैं। मीडिया भी अपने मालिकों के मुनाफे को बढ़ाने में लगा हुआ है। वह समाज की असली तस्वीर जनता के सामने नहीं रखता। मीडिया ही समाज के हीरो और विलेन चुनती है। वह असली संघर्ष को नकली और नकली संघर्ष को असली बनाने पर उतारू है। और एक हद तक कामयाब भी हुई है आज भारत तथा पूरी दुनिया का समाज एक उपभोक्तावादी संस्कृति में डूबा हुआ है। इसमें मीडिया का रोल अहम है। आज भारत में कूपमंडूक शिक्षा का बोलबाला है। प्रगतिशील शिक्षा के अभाव में जनता भीरू तथा खुदगर्ज हो गयी है। समाज की चेनता उत्पादन के तरीकों तथा उत्पादन संबंध पर निर्भर करती है। समाज की चेतना को उन्नत स्तर पर पहंुचाने के लिए मजदूरों को संगठित होकर, आम हड़तालों के द्वारा श्मशान की शांति को तोड़ना होगा। आज जनता भ्रष्टाचार तथा नैतिक पतन के खिलाफ लड़ रही है। उसके संघर्ष को उन्नत चेतना पर पहुंचाने के लिए मजदूरों को लामबंद करते हुए समाजवाद के संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा। और हमें इस मीडिया को समाज के सामने नंगा करना पड़ेगा। प्रगतिशील प्रचार के लिए अपने विकल्प चुनने होंगे।
योगेश गुड़गांव
पंतनगर विश्व विद्यालय में ठेका मजदूरों का शोषण जारी है
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
साथियो पंतनगर विश्व विद्यालय में दो हजार से लेकर पच्चीस सौ रुपये में ठेका मजदूर काम कर रहे हैं। न तो उनको समय से वेतन दिया जाता है और न ही उनको बोनस, ई.एस.आई., आवास भी नहीं दिया जाता है जब कोई मजदूर आवास के लिए कहता है तो यह कह कर मना कर दिया जाता है कि वह ठेकेदार के कर्मचारी है। और जब हम श्रम कल्याण अधिकारी से कहते हैं कि ‘सर जी हमारा ईपीएफ पर्ची और ईएसआई कार्ड बनाया जाये तो एकदम चुपचाप सुन लेते हैं और कोई जबाव नहीं देते हैं। जब हम कहते हैं कि मजदूरों से घरों पर बेगार कराया जाता है। उस पर रोक लगायी जाये तो एकदम चुप हो जाते हैं। चुप इसलिए हो जाते हैं क्योंकि उन मजदूरों से ये भी घरों पर बेगार करवाते हैं और प्रशासनिक अधिकारियों का भी यही रवैय्या है।
मनोज कुमार, सीआरसी, पंतनगर
जब मिल बैठेंगे दो यार मोदी और अमित शाह
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
दिनांक 1 सितम्बर 2015 को रुद्रपुर में बी.एच.बी कम्पनी प्रबंधक और श्रमिक पक्ष की सहायक श्रमायुक्त (ALC) रुद्रपुर की मध्यस्थता में वार्ता हुयी। बहुत देर तक वार्ता चली प्रबंधक ने अपना कड़ा रुख अपनाये रखा तथा वह पांच श्रमिकों को कार्य में वापस लेने को तैयार नहीं हुआ। यह वार्ता बहुत देर तक चली, अंत में सहायक श्रमायुक्त ने दोनों पक्षों को समझने के लिए कहा और 4 सितम्बर 2015 को अगली वार्ता रखवा दी। इसी बीच 2 सितम्बर 2015 को कम्पनी प्रबंधक ने जिला प्रशासन को भी यह अवगत करा दिया कि वह पांच श्रमिकों को नहीं लेगा चाहे उसे कम्पनी बंद करनी पड़े। कम्पनी प्रबंधकों ने अपना कड़ा रुख अपनाये रखा। अंत में दिनांक 4 सितम्बर 2015 को श्रमिक पक्ष कांग्रेस के महासचिव एवं प्रवक्ता के पास अपनी समस्याओं को लेकर गये और श्रमिक पक्ष ने उन्हें अपनी सारी समस्याओं से अवगत कराया। कांग्रेस के महासचिव ने श्रमिकों को भरोसा दिलाया कि आपकी सभी समस्याओं का निदान जल्दी होगा।
दिनांक 4 सितम्बर 2015 को सहायक श्रमायुक्त रुद्रपुर के साथ वार्ता थी। इस वार्ता में कांग्रेस के महासचिव भी आने वाले थे। यह वार्ता सुबह 11ः30 बजे से रखी गयी थी लेकिन कम्पनी प्रबंधक इस वार्ता में नहीं पहुंचे। प्रबंधक ने वार्ता में ना जाने के लिए कई प्रकार के बहाने बनाये तथा 4 सितम्बर को यह वार्ता टल गयी। दिनांक 5 सितम्बर को फिर से यह वार्ता कांग्रेस के महासचिव ने जिला प्रशासन, एसडीएम के समक्ष रखी। इस वार्ता का समय 3 बजे का रहा। जिसमें प्रबंधक पक्ष और श्रमिक पक्ष के दो-दो लोग तथा एसडीएम एवं कांग्रेस के महासचिव थे। बहुत लम्बी वार्ता चलती रही। प्रबंधक मानने को तैयार नहीं था। सभी श्रमिकों की कार्यबहाली को लेकर एसडीएम महोदय तथा कांग्रेस के महासचिव ने प्रबंधक पक्ष को बहुत समझाया और अंत में उन्होंने कहा कि सभी श्रमिकों की कार्यबहाली करें तथा निलम्बित 5 श्रमिकों को 2-3 दिन बाद रख लें। लेकिन प्रबंधक ने यह कहा कि वह 5 श्रमिकों को 30 दिन बाद लेगा। लेकिन श्रमिक पक्ष नहीं माना, श्रमिक पक्ष ने कहा कि हमारे 5 श्रमिक 7 दिन बाद लिये जायें। लेकिन फिर प्रबंधक नहीं माना। और अंत में एसडीएम महोदय ने यह निर्णय निकाला कि सभी श्रमिकों की कार्यबहाली हो और निलम्बित 5 श्रमिकों को 20 दिन बाद रखा जाय जिसमें प्रबंधक पक्ष एवं श्रमिक पक्ष इस समझौते पर तैयार हो गये। समझौता होने के बाद प्रबंधक पक्ष एवं प्रशासन ने सभी श्रमिकों को जूस पिलाकर 5 सितम्बर को धरना तोड़ दिया। दिनांक 8 सितम्बर को निलम्बित 5 श्रमिकों को छोड़कर सभी श्रमिकों ने ड्यूटी ज्वाइन कर ली। एक मजदूर, बी.एच.बी. रुद्रपुर
उजागर होता दलाल ट्रेड यूनियनों का चरित्र
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
आज जब चारों तरफ से मजदूर वर्ग पर हमला तेज हुआ है तो वहीं दूसरी ओर अपने आपको मजदूरों की हितैषी कहलाने वाली दलाल ट्रेड यूनियनें मजदूरों को गुमराह करने का काम कर रही हैं। मजदूर वर्ग जब निर्मम शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ खुद को अपनी चेतना के हिसाब से जिस भी रूप में संघर्ष में उतार रहा है और अपने गुस्से को दिखा रहा है तो इस तरह की ट्रेड यूनियनें मजदूरों की वर्गीय चेतना को कुंद करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है।
इस तरह की ट्रेड यूनियनों के चरित्र को दिखाते हुए एक घटना 2 सितम्बर 2015 को श्रम कानूनों के खिलाफ देश व्यापी हड़ताल के दौरान देखने को मिली।
बात दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्र बादली की है। यहां पर अधिकतर असंगठित क्षेत्र के मजदूर काम करते हैं। हड़ताल में यहां के मजदूरों ने भी भागीदारी की। मजदूरों ने जोश-खरोश के साथ भाग लिया। इस क्षेत्र में सीटू का काम होने के चलते मुख्यतः सीटू के नेतृत्व में यह हड़ताल थी। इंकलाबी मजदूर केन्द्र ने भी हड़ताल को समर्थन दिया तथा वहां पर अपनी पूरी क्षमता के हिसाब से हड़ताल में भाग लिया तथा मजदूरों को नेतृत्व दिया।
हड़ताल की पहले ही रूप-रेखा बना दी गयी थी कि हड़ताल पूरे दिन की होगी तथा जो फैक्टरियां खुली होंगी उनको बंद कराया जायेगा। लेकिन जो पहले से तय था उसके हिसाब से बिल्कुल भी नहीं हुआ और जिसका परिणाम यह हुआ कि मजदूरों को एक बार फिर हताशा और निराशा हाथ लगी।
पहली बात तो यह कि लगातार निर्मम शोषण-उत्पीड़न के चलते मजदूरों के अंदर काफी गुस्सा था जिसके चलते वह अपनी समझ के हिसाब से लड़ने के लिए तैयार दिख रहे थे। लेकिन सीटू जैसी ट्रेड यूनियन की बड़ी बातें यहां पर खोखली साबित हुयीं और पूरे जुलूस के दौरान अराजकता का माहौल बना रहा। मजदूरों की शिकायत थी कि अगर हमें फैक्टरियां बन्द ही नहीं करवानी हैं तो इस हड़ताल का क्या मतलब है। सारे मजदूर चाहते थे कि सारी फैक्टरियों को भी बन्द करवाया जाये। इक्का-दुक्का फैक्टरी को छोड़ दिया जाए तो ऐसा नहीं हुआ। इसके चलते मजदूरों में सीटू नेताओं के खिलाफ काफी गुस्सा दिख रहा था।
दूसरी बात जो देखने में आयी वह मजदूरों को आश्चर्यचकित करने वाली थी। सीटू के 3-4 बड़े नेता जो कि डील-डौल, रहन-सहन, पहनावे आदि में किसी फैक्टरी मालिक से कम नहीं लग रहे थे बल्कि कुछ मजदूरों ने तो उनको फैक्टरी मालिक ही समझा तो उनको बताना पड़ा कि हम आपके साथ ही हैं, सीटू से हैं। हो यह रहा था कि सारे मजदूर कड़ी धूप, धूल-धक्कड़ में जुलूस की शक्ल में फैक्टरी-फैक्टरी जा रहे थे लेकिन सीटू के ये 3-4 नेता अचानक से तभी प्रकट हो रहे थे। जब किसी चौराहे पर सभा हो रही थी। उनको सीटू का स्थानीय नेता फोन कर रहा था कि अब आ जाओ। वे भी तभी 10-15 मिनट के लिए दिख रहे थे। भाषण देकर फिर गायब हो जा रहे थे शायद अपनी एसी गाडि़यों में। काफी दिलचस्प था यह सब कुछ। कुछ मजदूर तो आपस में मजाक भी कर रहे थे कि कितने महान हैं ये मजदूरों के हितेषी ट्रेड यूनियन नेता।
तीसरा जो मजदूरों को सबसे निराश करने वाली बात थी। वह यह कि आधा दिन के बाद सीटू नेताओं ने हड़ताल खत्म करने की घोषणा कर दी। जिसको लेकर मजदूरों में काफी गुस्सा दिखा। वह हड़ताल को पूरा दिन चलाना चाहते थे। लेकिन नेतृत्वकारी नेतागण वहां से हड़ताल खत्म करने की घोषणा करके पहले ही चल दिये थे। कुछ मजदूर इधर-उधर हो गये लेकिन भारी संख्या में मजदूर वहीं पर डटे रहे। और गुस्से में सीटू के नेताओ को गाली देने लगे। कि अब मालिक आधा दिन बाद फैक्टरी शुरू कर देगा बल्कि कुछ मजदूरों के पास फैक्टरी से फोन भी आने लगे कि काम पर आ जाओ।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकर्ता लगातार मजदूरों से बात कर रहे थे और उनको नेतृत्व दे रहे थे। उसके बाद मजदूरों के कहने पर सारे लोग सीटू के आॅफिस के बाहर इकट्टा हो गये। लेकिन वहां भी मजदूरों को निराशा ही हाथ लगी। ट्रेड यूनियन नेताओं के साथ काफी तीखी नोंक-झोंक होने के बाद भी वहां से मजदूरों को खाली वापस लौटना पड़ा।
इस प्रकार मजदूरों ने अपने आपको एक बार फिर छला हुआ महसूस किया तथा आपस में बात करने लगे कि अगली बार से इस तरह की ट्रेड यूनियन नेताओं के चक्कर में नहीं पड़ना है। काफी मजदूरों ने इंकलाबी मजदूर के कार्यकर्ताओं से बातचीत की तथा आगे भी मिलने की इच्छा जाहिर की।
इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि किस तरह से ये दलाल ट्रेड यूनियनें लगातार मजदूरों के साथ विश्वासघात कर रही हैं जिसके चलते मजदूरों के अंदर संगठन बनाने/यूनियन में शामिल होने को लेकर एक अविश्वास बनता चला जा रहा है जोकि पूंजीपति वर्ग चाहता है।
इसलिए आज जरूरत है इस तरह की दलाल ट्रेड यूनियनों का मजदूरों के बीच भण्डाफोड किया जाये तो मजदूरों की असली लड़ाई लड़ने वाले संगठनों को स्थापित किया जाये। विजय दिल्ली
वर्ग के बतौर एकजुट होना होगा
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
जब से देश में संघी सरकार काबिज हुई है तब से मानो कट्टर हिन्दूवादी नेताओं का दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया है। और वे एक से बढ़कर एक फरमान जारी कर देश के अंदर साम्प्रदायिक माहौल खड़ा कर रहे हैं। यही कारण है कि विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष प्रवीण तोगडिया एक लेख में मुस्लिम विरोधी बातें करते हुए मुसलमानों से दो बच्चे से अधिक पैदा नहीं करने का फरमान जारी करते हैं। मुसलमानों पर मुकदमा चलाने की नसीहत दे डालते हैं तथा साथ ही साथ मुसलमानों को सभी तरह की सुख सुविधा मतलब, राशन कार्ड, नौकरी, शैक्षिक डिग्री तथा सरकार की तरफ से मिलने वाली हर तरह की सुविधाओं से वंचित करने का फरमान सुना देते हैं और मुसलमानों की बढ़ती संख्या को हिन्दुओं के लिए खतरे की घंटी बताते हैं। अब सवाल है कि जिस देश के अंदर मुस्लिमों की संख्या 15-16 प्रतिशत हो और जिसे पहले ही दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया हो, जिसे अपने ही देश में शरणार्थी बना दिया गया हो, जहां देशभक्ति साबित करने के लिए हर रोज नया पैमाना बनाया जाता हो उस समुदाय के बारे में ऐसा बयान तोगडि़या की मध्ययुगीन सोच को उजागर करता है। आज तथाकथित जनवाद का भी गला घोंट कर देश के अंदर नाजीवादी (फासीवादी) राज्य कायम करने की आहट को स्पष्ट समझा जा सकता है।
अब सोचने की बात है कि क्या हमारा जो जीवन स्तर लगातार बद से बदतर होता जा रहा है। क्या इसके लिए मुसलमानों को दो से अधिक बच्चा पैदा करना जिम्मेदार है। हम मजदूरों से जो 5000 रुपये, 6000 रुपये में 12, 14 घंटा काम करवाने का छूट, किसानों से जबरन जमीन छीनने के लिए छूट, महिलाओं को 3500रु.-4000 रु. में काम करवाने तथा रात में भी महिलाओं से काम करवाने की छूट, 14 साल के बच्चे से काम करवाने का छूट, मालिक को रजिस्टर रखने व रिटर्न भरने से छूट, जब जी करे रखो जब जी करे निकालो, श्रम कानून को खत्म करके पूंजीपतियों को लूटने की खुली छूट, मजदूर अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ जब आवाज उठाये तो उसका बर्बर दमन, इन सबके लिए कोई मुसलमान जिम्मेदार नहीं है। अगर कोई जिम्मेदार है तो वह है देश की पूंजीवादी व्यवस्था जिसकी नुमांइदगी आज संघी सरकार कर रही है। मोदी, तोगडिया सिंघल जैसे लोग जो डरते हैं इस देश के मजदूर से, किसान से, छात्र नौजवान से और इसीलिए ये लोग लगातार धार्मिक उन्माद फैलाकर हमें आपस में बांट कर, इस देश की पूंजीवादी व्यवस्था को संरक्षण प्राप्त करवाते हैं। ऐसे में जरूरत है कि तोगडिया और संघी सरकार के धार्मिक उन्माद का भण्डाफोड किया जाय और जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा की दीवार को तोड़ते हुए एक वर्ग के बतौर इकट्ठा होकर पूंजीवादी व्यवस्था को बदलकर समाजवादी व्यवस्था, समाजवाद (मजदूर राज्य) के लिए संघर्ष को तेज किया जाये।
एक मजदूर, फरीदाबाद
पूंजीवादी प्रचारतंत्र
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
मानव विकास के इतिहास में जब से वर्ग अस्तित्व में आये तब से हर विचार वर्गीय रहा है। वर्गीय समाजों में जो भी वर्ग प्रभुत्वशाली रहा है उसी के विचार समाज में हावी रहे हैं। मानव विकास के इतिहास में अब तक के वर्गीय समाजों की बात करें तो 20वीं सदी के कुछ अपवादों (समाजवादी समाजों) को छोड़ दिया जाये तो सभी समाजों में कुछ मुट्ठी भर लोगों का बहुसंख्यक आबादी के ऊपर शासन रहा है। वैसे बात की जाय तो बड़ी अजीब सी बात लगती है कि हजारों सालों से कुछ मुट्ठीभर लोग बहुसंख्यक आबादी के ऊपर शासन कैसे चला सकते हैं?
जैसे हम अपने अनुभवों से देखते हैं कि किसी भी समाज में जो भी वर्ग सत्ता में होता है उस समाज के ज्ञान-विज्ञान, उत्पादन के साधन या जितने भी संसाधन होते हैं उन सभी पर उस वर्ग का कब्जा होता है जिससे वह अपने शासन को चलाने में कामयाब होता है। इसी संदर्भ में यहां पर जो बात की जा रही है वह आज के समय में जो प्रचारतंत्र या कहें तो पूंजीवादी प्रचार तंत्र है, वह किस तरह से अपने वर्ग की सेवा करता है। पूंजीवादी समाज में पूंजीपति वर्ग का (भारतीय संदर्भों में) प्रचार तंत्र इसको चौथे स्तम्भ के रूप में स्थापित करता है। यह चौथा स्तम्भ अपने आकाओं के लिए दिन-रात काम करता है तथा शोषित वर्ग को गुमराह करके इनके लूट के तंत्र को सुचारू रूप से चलाने में मदद करता है।
वैसे तो यह इसके अपने चरित्र में चिह्नित है लेकिन इसको समझने के लिए एक छोटे उदाहरण की मदद ली जा सकती है। अभी 2 सितम्बर को पूरे देश में मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव या कहें तो खत्म करने के विरोध में हड़ताल हुई। जिसमें मजदूरों ने देश स्तर पर अच्छी-खासी संख्या में भागीदारी कर पूंजीपति वर्ग के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार किया। खुद एसोचैम ने कहा कि इस हड़ताल में 25 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। ये अलग बात है कि पूंजीपति वर्ग मजदूरों की हड़ताल को इसी रूप में प्रचारित भी करता है कि नुकसान हुआ। तो कहा जा सकता है कि हड़ताल एक हद तक सफल हड़ताल रही।
लेकिन यहां पर गौर करने वाली बात है कि पूंजीपति वर्ग के टुकड़ों पर पलने वाला मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक इस हड़ताल को लेकर कहीं कोई चर्चा नहीं की। हां! अगर चर्चा थी तो हर बार की तरह कि लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ा। यात्रियों को आने जाने में दिक्कत हुयी। जगह-जगह जाम लग गया। टीवी और अखबारों में जो छाया रहा वह था इंद्राणी वाला मामला जो पिछले पन्द्रह दिनों से लगातार 24ट्ट7 घंटे चल रहा है। अगर गौर करें तो पिछले 20-25 सालों में जबसे कई आर्थिक नीतियां तेजी से लागू हुईं तथा मजदूर-मेहनतकशों पर हमले तेज हुये हैं। तब से पूंजीपति वर्ग इस तरह के प्रचार द्वारा इसको और भी सुनियोजित तरीके से अंजाम दे रहा है।
अगर पूंजीवादी मीडिया इंद्राणी या राधे मां जैसों का रिकार्ड 24 घंटे महीनों तक चला सकता है लेकिन मजदूरों के विरोध को थोड़ी सी भी जगह नहीं देता है तो इसी से पता चलता है कि पूंजीपति वर्ग आज कितना भयभीत है कि वह मजदूरों की थोड़ी सी भी आहट से घबरा जा रहा है। और उसके लिए इतना चैकन्ना है कि एक तरफ इसके पालतू मीडिया तथा दूसरी तरफ इसके बहादुर सिपाहियों ने इसमें कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी है।
इसी तरह से शासक वर्ग अपने निजाम को कायम रखने के लिए चाहे मीडिया हो चाहे पुलिस हो, चाहे सेना हो, चाहे कोर्ट हो हर संसाधन का इस्तेमाल करता है। मजदूर वर्ग अगर इस लूट और शोषण पर टिकी व्यवस्था को टक्कर दे सकता है तो केवल अपनी वर्गीय एकता से।
विजय दिल्ली
पूंजीवाद
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
ये पूंजीवाद है दोस्तो, ये मुनाफे की व्यवस्था है,
महंगा है पानी यहां लहू आदमी का सस्ता है।
खून बहता है सड़कों पर पानी दुकानों पे बिकता है,
हर नुक्कड़ पे मिल जायेंगे ठेके शराब के, एक नल पानी का कहीं दिखता है।
ये पूंजीवाद है दोस्तो........
बिकती है बच्चे की मुस्कान, मां का प्यार यहां बिकता है,
मैंने देखा है राखी के धागों में, बहन का प्यार यहां बिकता है।
ये पूंजीवाद है दोस्तो........
मजदूर बिकता है रोज कारखानो में, खेतों में किसान यहां बिकता है,
देश की सरहदों पर खड़ा है जो प्रहरी बनकर, हर वो जवान यहां बिकता है।
ये पूंजीवाद है दोस्तो......
हुस्न बिकता है, जिस्म बिकता है, बिकता यहां हर माल है,
ये दुनिया एक बाजार है दोस्तो, हम सब इसी बाजार का ही तो माल है।
ये पूंजीवाद है दोस्तो......
नेता बिकता है, संसद बिकती है, न्याय को बिकते हुए देखा है,
ईमान बिकता है आत्मा बिकती है, इंसान बिकते हुए देखा है।
ये पूंजीवाद है दोस्तो, ये मुनाफे की व्यवस्था है,
मंहगा है पानी यहां, लहू आदमी का सस्ता है।
भारत सिंह, आंवला बरेली
सामाजिक बंधन
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
लोग समाज में रहते हैं अपने हिसाब से जैसा उन्हें पसंद होता है। पर दिखावा करते हैं सामाजिक बंधन का कि समाज में रह रहे हैं। इस हिसाब से रहें कि कोई कुछ कह न सके। मतलब कहीं मजाक का पात्र न बन जाये। चार आदमी देखेंगे तो क्या सोचेंगे। चार आदमी देखेंगे तो क्या कहेंगे। पर वे चार आदमी कौन से हैं। अभी तक हमें तो कहीं दिखे नहीं। मिलने की बात दूर है। लोग किसी तरह से पाई-पाई जोड़कर अपना मकान बनवा पाते हैं। तो एक कमरा अलग से और बनवाते हैं कि लोग आयेंगे तो कहां बैठेंगे। उनके बैठने का लेटने का खाने-पीने का पूरा प्रबंध करके रखना चाहते हैं। कि हमारे यहां जो भी अतिथि आ जाये तो उसे किसी प्रकार की कोई परेशानी न हो।
वहीं पर यदि केाई आता है तो उसके रहने तक घर में ज्यादातर लोगों को अटपटा सा लगता है। उसमें घुलमिल नहीं पाते। अपनी हैसियत से ज्यादा उनको सुविधाएं देने का प्रयास करते हैं। एवं उनके वापस जाने का इंतजार करते हैं और उनके जाते ही उनके सम्बन्ध में 50 तरह की बुराइयां ढूंढ कर आपस में बातें करते रहते हैं कि उन्हें बैठने की तमीज नहीं है। बात करने की तमीज नहीं है। यहां तक कि सोने तक की तमीज नहीं है। चादर कहां गिर गयी, तकिया कहां थी टेढ़े मेड़े पड़े थे। किसी के यहां ऐसे रहा जाता है क्या? और बाहर निकलेंगे तो कपड़े इसलिए पहनेंगे कि लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे। चलेंगे फिरेंगे तो उसी हिसाब से। यही सोच कर कि लोग क्या कहेंगे। वहीं यदि किसी को थोड़ा भी मौका मिल जाए तो उसे गंवाना नहीं चाहते कि यहां कौन देख रहा है। चाहे जैसे बैठो, उठो, सोओ, जागो, नाचो, कूदो, मतलब वे उस समय उस हिसाब से रहते हैं जैसा उन्हें पसंद हो। स्वयं को। वहीं पर हमारे समाज में कुछ लोग ऐेसे भी हैं जिनके पीछे समाज चलता है। या उसकी नकल करता है। लेकिन अधिकतर लोग ऐसे हैं जो समाज के पीछे चलते हैं। जो थोड़े लोग ऐसे हैं जिनके पीछे समाज चलता है। उनके ऊपर भी सामाजिक बंधन का अच्छा खासा दबाव होता है। वे लोग उनमें से होते हैं। जैसे उद्योगपति, पूंजीपति के परिवार के सदस्य या फिल्मी दुनिया के नायक, नायिकायें। ये लोग भी पूंजी के अधीन होते हैं। एवं डायरेक्टर के हाथ की कठपुतली बने रहते हैं।
इसी प्रकार से उद्योगपति अपनी पूंजी को बढ़ाने के लिए अक्सर प्रचार माध्यम का सहारा लेते हैं वह टेलीविजन में हर प्रोग्राम में हर 10 मिनट में प्रचार के द्वारा आम जनता को बरगलाया जाता है कि ये आटा खाओ, ये दाल खाओ, ये चावल, अचार, पापड़, चिप्स, मसाले आदि-आदि। इस कम्पनी का ही खाओ एवं पहनने के लिए जूते, चप्पल, कपड़े आदि आदि सोने के लिए पलंग, बिस्तर, रजाई, गद्दे, तकिया आदि-आदि बाकी उपयोग की सभी वस्तुएं साबुन, तेल, मंजन, अगरबत्ती, धूपबत्ती इत्यादि इसी प्रकार से जन्म से मृत्यु तक जितना भी सामान प्रयोग का है। वह हर कम्पनियां अपने-अपने ब्रांड की तारीफ करते हुए यह पूरी तरह से दर्शाने की कोशिश करते हैं कि ये सारी चीजें जो उनके द्वारा जबरदस्ती हमारे दिमाग में ठूंसी जा रही हैं उसे किसी भी वजह से न प्रयोग कर सकने वाला व्यक्ति, मूर्ख, बेवकूफ एवं पिछड़ा हुआ है। इसी के साथ हम यह भी देखते हैं कि बहुत से लोग यह चीजें प्रयोग करते हुए उस दौर से गुजर चुके होते हैं। तो अपने बच्चों को नसीहत देते हैं। अरे ये क्यों ले आये ये बेकार है। इसमें इतना पैसा खर्च कर दिया काफी पैसा बर्बाद कर दिया और यहां तक कि अपनी उम्र में चाहे इधर-उधर मुुंह मारते फिरते रहे हों, 70 घाट का पानी पिया हो, कोई मौका छोड़ा न हो और कोई मौका छूट गया तो पछताये भी हों, कि यार मैं इससे वंचित रह गया था। वहीं पर उनके बेटा, बेटी, छोटे, भाई-बहन किसी के साथ घूमने-फिरने या किसी के साथ कुछ समय बिता लिया तो समाज में अपनी इज्जत की दुहाई देते हुए उन्हें जान से मारने से भी नहीं हिचकते, उन्हें तरह-तरह से प्रताडि़त करते हैं। उनकी देखा-देखी ही बच्चे सीखते व करते हैं। बाद में वही लोग कहते हैं। समाज में बदनामी हो रही है, बेइज्जती कराकर रख दिया।नाक कटा दिया मुंह में कालिख पोत दी। ऐसी औलाद से बेऔलाद अच्छा इसे किनारे लगाने में ही भलाई है। एवं कुछ लोग उनका साथ भी देते हैं। और ज्यादातर लोग कहते हैं। अच्छा किया इसके साथ ऐसा ही होना था एवं बाद में पछताते हैं दिल में कभी न कभी यह टीस उठती ही है कि यदि यह सामाजिक बंधन ऐसा न होता तो हम लोग इससे ज्यादा खुशहाल होते। इसलिए एक ऐसा समाज होना चाहिए जिसमें सामाजिक बंधन इतना जटिल न हो। जिसमें चाहते हुए भी बहुत सा काम नहीं कर पाते सक्षम होते हुए भी। और न चाहते हुए बहुत सा काम करना पड़ता है अक्षम होते हुए भी। यह पूंजीवादी समाज में ऐसा ही होता है। इसलिए पूंजीवादी समाज को हटाकर उसकी जगह पर समाजवाद लाना होगा। पूंजीवाद की गतिविधियों को समझना होगा। इसके लिए हम सभी को अभी से जुटने की आवश्यकता है।
अरविन्द, बरेली
छिनते अधिकार, लुटते श्रमिक
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
जो श्रम कानून में संशोधन किये जा रहे हैं और 44 श्रम कानून परिवर्तन कर चार बनाने जा रहे हैं यह बहुत ही चिन्ताजनक बात है। हमारे पूूर्वज मजदूरों ने अंग्रेजों से लड़कर आपस में एकता कायम करके अपने पक्ष में श्रम कानून बनवाये थे व लागू करवाये थे। कितने संघर्ष और कुर्बानी देकर मेहनतकश मजदूरों ने अपना हक हासिल किया था। आज उस कानून को भारतीय शासक तीसरी बार संशोधन करने जा रहा है। यह कितनी शर्म की बात है। आज मजदूर दुनिया के हर संसाधन से कट चुका है। अब उसके पास कोई अधिकार नहीं बचेगा। केवल खाली कटोरा लेकर भारत के शासन के अधीन रहना होगा। जब श्रम कानून हैं तब तो कम्पनी में घोर अत्याचार, दमन, शोषण, उत्पीड़न होता है। पी.एफ., ई.एस.आई. का टोटा होता है, न कोई सुविधा कम्पनी देती है। काम के अधिक बोझ के नीचे मजदूरों से दबा कर काम करवाया जाता है। अपशब्दों का प्रयोग किया जाता है।
जब आप सारे श्रम कानूनों में संशोधन कर देंगे तो मजदूरों के पास क्या अधिकार बचेगा। वह अपना हक किससे मांगेगा। भारतीय शासक आज भारतीय मजदूरों को बलि का बकरा बनाने जा रहे हैं। जिस भारतीय व्यवस्था को आप दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र कहते हैं। उस व्यवस्था में सबसे ज्यादा मेहनतकश ही आत्महत्या कर रहा है। लेकिन यह व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था है। देश में, झूठ के लिए जनता द्वारा चुनी सरकार है। काम तो केवल पूंजीवादी लोगों के लिए होता है। केवल सरकार बहुमत सिद्ध करने के लिए आम जनता का वोट हासिल करती है। फिर चाय के प्लास्टिक कप की तरह जनता को चाय पी कर फेंक देते हैं। मेहनतकश मजदूर सोया हुआ शेर है बस जगाने भर की देर है। फिर तो दुनिया उसकी मुट्ठी में है। उसे तो माक्र्स जैसा नेता चाहिए, जो भारतीय मजदूरों की एकता कायम कर सके। मजदूरों की व्यवस्था के लिए संघर्ष कायम कर सके। उसके पक्ष के लिए आंदोलन चला सके।
रामकुमार वैशाली
तो भैया इसका समाधान क्या है
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
आजकल एक बार फिर से पूंजीवादी मीडिया में मंदी का शोर सुनाई दे रहा है। अभी जो बातें चल रही हैं वह खास तौर से चीन की अर्थव्यवस्था, उसके शेयर बाजार में आयी भारी गिरावट तथा पूरी दुनिया में इसके प्रभाव को लेकर है। वैसे तो यह संकट कम या ज्यादा रूप में 2007-08 के बाद से बना ही हुआ है। और इन दिनों यह और ज्यादा गहराता जा रहा है।
लेकिन दूसरी तरफ देखें तो भारत सरकार तथा उसके अर्थशास्त्री बात कर रहे हैं कि भारत की स्थिति ठीक है। यह अलग बात है कि इनकी घबराहट साफ नजर आ रही है। जो कई रूपों में साफ झलकती है। वैश्वीकरण के दौर में यह बात करना कि हमारी स्थिति ठीक है। यह बात हजम नहीं होती।
दुनिया में इससे पहले बड़ी-बड़ी मंदिया आ चुकी हैं जिसकी कीमत दो विश्व युद्धों के रूप में चुकायी गयी। आज जब मंदी का शोर है तो वही जनमानस के बीच में इसको लेकर अलग-अलग धारणाएं हैं कि आखिर मंदी क्या है? एक तरफ पूंजीपति वर्ग मंदी को अपने हिसाब से परिभाषित तथा प्रचारित करता है, मोटा-मोटी मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग भी इसी रूप में समझता है। इसमें खास बात यह है कि मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग मंदी क्यों आती है। इसके अर्थशास्त्र को सही रूप में समझ ही नहीं पाता है और समझना भी नहीं चाहता है, क्योंकि इसकी समझने में उसके सपनों का तिलिस्म टूट जाता है और वह दुःखी हो जाता है, दूसरी तरफ मजदूर वर्ग जो अपना श्रम बेचता है तथा जिसका इस समाज में निर्मम शोषण होता है, वह यह बात थोड़ी सी बात करने पर अपने व्यवहार से बड़ी आसानी से समझ जाता है।
आइये देखते हैं किस तरह से मजदूर वर्ग अपने साधारण वार्तालाप करते हुए मंदी को अपने साथियों के बीच में बड़ी आसानी से समझ लेते हैं। यहां पर एक मजदूर जो थोड़ा जागरूक है जो अपने दूसरे साथी से मंदी के बारे में बता रहा है।
पहला मजदूरः भैया आजकल मंदी का बड़ा शोर सुनाई दे रहा है, आखिर क्या बला है यह मंदी?
दूसरा मजदूरः अरे भैया देखो न जब हम बाजार में सामान खरीदने जाते हैं तो हर तरफ बाजारों में माल भरा पड़ा है। चाहे जो भी सामान देख लो टी.वी., फ्रिज, रेफ्रिजरेटर, मोटरगाड़ी यहां तक कि बहुमंजिला इमारतें भी, गोदामों में अनाज सड़ रहा है। लेकिन साथी माल तो भरा पड़ा है लेकिन जब हम खरीदने के लिए सोचते हैं तो हमारे पास इस माल को खरीदने के लिए पैसा नहीं है। जब बाजार में जरूरत का सामान भरा पड़ा हो लेकिन अधिकांश जनमान के पास उसके खरीदने के लिए रुपया न हो तथा फैक्टरियों में इसके वजह से उत्पादन बंद करना पड़े तो इसे मंदी कहते हैं।
पहला मजदूरः लेकिन भैया ऐसा क्यों होता है कि एकतरफा जरूरी चीजों से लोग महरूम हैं लेकिन दूसरी तरफ गोदामों में माल भरा पड़ा है बिक नहीं रहा है।
दूसरा मजदूरः साथी जैसे रोज हम अपनी फैक्टरी में देखते हैं कि मालिक रोज-ब-रोज हमसे हमारा खून निचोड़कर अपना मुनाफा कमाने के लिए अधिक से अधिक उत्पादन करवाता है यही काम सारे पूंजीपति करते हैं। मतलब ये उपभोग के हिसाब से नहीं बल्कि मुनाफे के हिसाब से उत्पादन करवाते हैं और चाहते हैं कि उनका सामान बाजार में खूब बिके। या यह समझ लीजिए फैक्टरी के अंदर तो काम सुनियोजित तरीके से होता है लेकिन बाजार में उतना ही अराजक तरीके से। अब सामान तो ये बेचना चाहते हैं। लेकिन मजदूरों को उतनी पगार नहीं देते कि वह सामान खरीद सके। यही वजह है कि सामान गोदामों में भरा पड़ा है। जैसा कि हम जानते हैं कि देश-दुनिया में अधिकतम आबादी मजदूर ही है जिसके पास खरीदने के लिए पैसा नहीं है जिसके चलते पूंजीपति का माल बाजार में खप नहीं पाता और वह उत्पादन कम कर देता है या फैक्टरी में तालाबंदी कर देता है।
पहला मजदूरः अच्छा तो इसका मतलब तो ये हुआ कि मजदूरों की छंटनी होगी और बेरोजगारी बढ़ेगी।
दूसरा मजदूरः हां, बिल्कुल सही समझा आपने, यही होता है। जब पूंजीपति का माल बिक नहीं पाता तो वह छंटनी, तालाबंदी, कम वेतन पर काम इत्यादि करता है जिससे समाज में बेरोजगारी बढ़ती जाती है और इसका परिणाम यह होता है कि जो मजदूर पहले नौकरी होने के चलते कुछ बाजार से खरीद लेते थे, अब वह भी बाजार से बाहर हो जाते हैं और फिर और ज्यादा माल गोदामों में इकट्ठा होने लगता है और फिर मालिक छंटनी, तालांबदी....और अधिक मात्रा में बेरोजगारी यही क्रम चलता रहता है और समाज में अफरा-तफरी का माहौल फैल जाता है।
पहला मजदूरः इसका मतलब मंदी से तो सबसे बुरी दुर्दशा हम मजदूरों की ही होगी?
दूसरा मजदूरः बिल्कुल जो बड़े पूंजीपति हैं वह और बड़े होते जाते हैं। मतलब छोटी मछली को बड़ी मछली निगल जाती है। लेकिन मजदूरों की हालत बद से बदतर होती चली जाती है।
पहला मजदूरः तो भैया इसका समाधान क्या है?
दूसरा मजदूरः इसका एक ही समाधान है। क्योंकि पूंजीवादी समाज की अपनी गति है कि उसमें इस तरह की मंदियां आती हैं जिसमें मजदूर-मेहनतकश तबाह-बरबाद होता है लेकिन दूसरी तरफ संभावनायें भी मौजूद होती हैं कि ऐसे समाज में मजदूर-मेहनतकश जागरूक हों, एकजुट हों तथा इस तरह के निर्मम-अत्याचार के खिलाफ संघर्ष को तेज कर पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म कर मजदूरों के राज समाजवाद के लिए आगे बढ़े। तभी इस तरह की मंदियों से मुक्ति मिल सकती है। अन्य कोई रास्ता नहीं है।
विजय, दिल्ली
‘स्किल डेवलपमेंट अभियान’ का वास्तविक सच
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
मोदी सरकार जब से सत्ता में आयी है तब से श्रम कानूनों में लगातार संशोधन करके मजदूर वर्ग पर हमले हो रहे हैं। ‘स्किल डेवलपमेंट अभियान’ इसी का एक हिस्सा है। सरकार का कहना है कि ‘स्किल डेवलपमेंट’ कार्यक्रम से व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों से निकलने वाले युवाओं को कारखानों आदि में छः महीने का प्रशिक्षण दिया जायेगा जिससे उनका कौशल विकास होगा और उन्हें बेहतर रोजगार ढूंढने में आसानी होगी। सरकार इस अभियान को अपनी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कर रही है। ‘स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रम’ के लोकार्पण के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि आगामी शताब्दी आई.आई.टी. (IIT) की नहीं बल्कि आई.टी.आई.(ITI) की होगी।
पहली नजर में देखने पर यह अभियान श्रमिक वर्ग के हित में लगता है किन्तु व्यवहारिक रूप से ‘स्किल डेवलपमेंट अभियान’ श्रमिकों का खून चूसने का अभियान है। जो पूंजीपतियों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए पढ़े-लिखे सस्ते और अस्थायी श्रमिक उपलब्ध कराने का अभियान है। यह अभियान देशभर के कारखानों में शुरू हो चुका है जिसका एक उदाहरण आगे के विवरण में है।
महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा लिमिटेड, ऊधम सिंह नगर में स्थित देश की एक बड़ी आॅटो मोबाइल कम्पनी है। यह कम्पनी अपने कारखाने के लिए देश भर के पाॅलीटैक्निक काॅलेजों से कैंपस प्लेसमेंट के जरिए डिप्लोमा इंजीनियर्स का चयन करती थी। इनका कार्यकाल तीन चरणों में निर्धारित होता था। प्रथम चरण में एक वर्षीय टेक्नीशियन अप्रैन्टिस, द्वितीय तथा तृतीय चरण में डिप्लोमा ट्रेनिंग होती थी। यदि किसी की कंपनी के अनुसार परफार्मेंस ठीक नहीं है तो उसे एक वर्ष अथवा दो वर्ष बाद बाहर कर दिया जाता था। कंपनी पहले साल में 12,000 रुपये, दूसरे साल में 13,200 रुपये तथा तीसरे साल में 15,200 रुपये वेतन देती थी। इसके अतिरिक्त बोनस और अटेडेंस अलाउन्स, 27 छुट्टियां भी दी जाती थी और 1 लाख रुपये तक मेडिकल इंश्योरेन्स भी दिया जाता था।
‘स्किल डेवलपमेंट अभियान’ आने के बाद कंपनी ने जिन लड़कों के एक वर्ष जिनके दो वर्ष पूरे हो रहे थे, उन्हें बाहर करना शुरू कर दिया। इनके स्थान पर तथाकथित ‘कौशल विकास’ के नाम पर नये लड़के रखने शुरू कर दिया जिनका वेतन 7300 रुपये निर्धारित किया गया। यदि छः महीने के लिए लड़के महीने में 26 ड्यूटी पूरी करते हैं तो इन्हें 5,00 रुपये अटेेंडेस अलाउन्स दिया जायेगा। यदि महीने में एक भी छुट्टी की तो 5,00 रुपये नहीं मिलेंगे और 7,300 में से प्रतिदिन के हिसाब से पैसे काट लिये जायेंगे। इन्हें कंपनी की ड्रेस और बस सुविधा भी नहीं दी जायेगी।
उपरोक्त उदाहरण आने वाले समय में हर उद्योगपति अपने कारखाने में लागू करेगा। इस ‘अभियान’ से यह भी स्पष्ट है कि पूंजीपति अपनी आवश्यकतानुसार छः महीने के लिए रख लेगा और यदि इस दौरान उसके प्रोडक्शन में मंदी के कारण कमी आयी तो वह मजदूर नहीं रखेगा जैसे ही प्रोडक्शन बढ़ेगा अगले छः महीने के लिए मजदूर नियुक्त कर लेगा। ‘स्किल डेवलपमेंट अभियान’ के कारण पूंजीपतियों को एक फायदा यह भी होगा कि उसे पी.एफ.(च्ण्थ्ण्) का पैसा भी नहीं देना होगा। इस प्रकार यह अभियान ठेका मजदूर के रोजगार के लिए भी खतरा बनेगा। एक मजदूर, रुद्रपुर
ढोलक बस्ती के बच्चों की हालत !
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
हल्द्वानी के रेलवे स्टेशन के पास एक ढोलक बस्ती है। यहां के बच्चों की हालत बड़ी खराब है। मैं और मेरे कुछ साथियों के पास वर्ष 2015 के जनवरी माह के तीसरे सप्ताह से एनएसएस एमबीपीजी के बैनर तले इन बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा आया। हम लोग हर रोज वहां अपनी कक्षा पढ़ कर दोपहर में डेढ़ बजे से इन बच्चों को पढ़ाने जाते। पहले पहले तो ऐसा लगा कि इन बच्चों ने दुनिया देखी ही नहीं है। पहनने के लिए कपड़े, जूते-चप्पल तक नहीं थे तो ऐसे में इन बच्चों से व इनके परिवार वालों से पढ़ाई की बात करना मूर्खता की बात होती।
तब हमने एनएसएस, एमबीपीजी की ओर से फेसबुक के जरिये कपड़े जुटाने का कार्य किया जिसमें हमारा मार्गदर्शन शिक्षकों ने किया तो हमें भरपूर सहयोग भी मिला। समाज से पुराने कपड़े हमारे पास आने लगे। कुछ दिन तो ऐसे ही गुजर गए इधर उधर से कपड़े लाना। जब थोड़ा बहुत कपड़े जमा हुए तो हमने इन सभी बच्चों के लिए पुराने कपड़ों की व्यवस्था कराई। फिर जाकर ऐसे ही पुस्तकों व काॅपियों बगैरा के लिए अभियान चलाया। इस बीच हम इन बच्चों को थोड़ा बहुत अक्षर ज्ञान भी दे रहे थे। जिसमें 3-4 वर्ष से 15-16 वर्ष तक के बच्चे थे। इन बच्चों को अक्षर ज्ञान भी नहीं था। यदि ये स्कूलों में जाते तो वहां नाममात्र थोड़ा भोजन के लिए वरना वहां भी पढ़ाई नहीं थी। पता करने पर पता चला कि स्कूल प्रशासन इन्हें स्कूल में नहीं जाने देता, कहता है कि कपड़े, कापी-पेंसिल साफ सुथरी होनी चाहिए। ऐसे में जब इन बच्चों को खाने को नहीं होगा तो शिक्षा में कितना खर्च करेंगे, इनकी इन हालतों को देखकर ही बताया जा सकता है।
इसी प्रकार फरवरी माह में भी पढ़ाया गया। इस बीच पढ़ने वाले बच्चों की संख्या 60-70 पहुंच गयी। रेलवे प्रशासन से बमुश्किल पढ़ाने के लिए थोड़ा जगह मांगनी पड़़ी। लेकिन बच्चों में पढ़ने की ललक बढ़ी थी जो इतने बच्चे दोपहर की धूप में पढ़ने आते।
ये वही बच्चे थे जो स्कूल जाते थे लेकिन स्कूल प्रशासन ने इन्हें कुछ सिखाने से अपने हाथ खड़े कर दिये थे।
हमने अप्रैल माह तक पढ़ाया। इससे इन बच्चों के जीवन में कुछ ज्यादा बदलाव तो नहीं आया लेकिन थोड़ा आपस में मिलजुल कर रहना सीख गए एवं गाली गलौच कम कर दी।
इन बच्चों के परिवार की स्थिति को देखने पर पता चला कि कई लोगों के पास झोंपड़ी नहीं है। यदि किसी के पास है तो किसी की छत ठीक नहीं है। कीचड़, धूप हो या जाड़ा हमेशा बनी रहती है। टाॅयलेट तो इधर है ही नहीं।
ऐसे में इसका दोषी कौन है। क्या ये बच्चे जिन्हें पढ़ना चाहिए लेकिन वे कूड़ा बीनते हैं। अपना पेट बड़ी मुश्किल से पालते हैं।
इनकी इस स्थिति का दोषी सिर्फ और सिर्फ ये सरकारें हैं जो तमाम सारी पार्टियों के उम्मीदवार केवल चुनाव के वक्त इनसे वोट मांगने आते हैं और मतदान के बाद इधर मुड़कर भी नहीं देखते। मुख्यमंत्री महीने के 5 से 10 चक्कर हल्द्वानी के लगाते हैं कभी इनकी सुध नहीं ली। गौलापार में अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम बनाने की बात करते हैं लेकिन क्या इसमें ये बच्चे खेल पायेंगे। बिना इनके उत्थान के क्या समाज आगे बढ़ पायेगा। ऐसे में इन सारे मजदूरों को आगे बढ़कर अपने संगठन बनाने की जरूरत है और इस पूंजीवादी व्यवस्था को हटाकर समाजवाद कायम करना होगा। तभी सबका उत्थान हो सकेगा। विपिन अघरिया, हल्द्वानी
तम्बाकू फैक्टरी में महिला मजदूर
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
बरेली के मोहल्ला जसौली से लगी नबाव दूल्हा खां तम्बाकू की एक फैक्टरी है। इसमें काम करने वाली एक महिला मजदूर रामस्नेही से बात करने पर उन्होंने बताया कि वे यहां पिछले 10 वर्षों से काम कर रही हैं। यहां लगभग 25-30 महिलायें काम करती हैं। सभी महिलाएं ठेके पर काम करती हैं। इस फैक्टरी में कोई श्रम कानून लागू नहीं है। यहां 1000 पैकेट भरने पर 30 रुपये की मजदूरी मिलती है। पुरानी महिलायें पूरे दिन में 3000 या 3500 पैकेट ही भर पाती हैं। ये 90-105 रु. तक की मजदूरी ही बामुश्किल कमा पाती हैं। यह पूछने पर कि वे मालिक से पैसे बढ़ाने की बात करती हैं तब उन्होंने कहा कि शहर में काम नहीं मिलने की वजह से महिलायें कुछ नहीं कह पातीं। फैक्टरी में शहर की विधवा या गरीब महिलायें काम की तलाश में आती जाती हैं और पुरानी महिला से सस्ते में काम करती हैं लेकिन तमाम महिलायें तम्बाकू भरते-भरते नशा होने के कारण दो-तीन घंटे में ही चली जाती हैं। ऐसी कई सारी महिलायें काम करने आती हैं और बीच में ही काम छोड़ कर चली जाती हैं। इससे मालिक को और अधिक मुनाफा होता है और उनको मजदूरी भी नहीं देता है। मालिक इन महिलाओं के नाम रजिस्टर पर नोट भी नहीं करता है। रोज काम कराता है और रोज पैसा देता है। इन्हें वह अपनी फैक्टरी का मजदूर भी नहीं मानता है। इसका कारोबार शहर के अनेक मोहल्लों में घर-घर में फैला हुआ है। उसके लोग घरों में महिलाओं को चूना पन्नी दे देते हैं और शाम को घरों में से ले जाते हैं। ऐसा करने से मालिक को और सस्ते में मजदूर मिल जाते हैं। कानूनी बंधनों से भी मुक्त हो जाता है।
जब इन महिलाओं से इंकलाबी मजदूर केन्द्र से जुड़ने की बात की गयी तो महिलाओं ने बताया कि अगर मालिक को पता चल गया तो वह उन्हें निकाल देगा। महिलाओं में काम से निकालने का डर बहुत ज्यादा व्याप्त है और मालिकों और श्रम विभाग के गठजोड़ से मजदूरों के श्रम की लूट बरकरार है।
साथियो जब तक महिला मजदूर मिलकर इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ कर फेंक नहीं देतीं और समाजवाद का निर्माण नहीं करेंगी तब तक उनका कुछ भी भला नहीं हो सकता है। महिला व पुरुष दोनों मजदूरों को साथ मिलकर संघर्ष करना होगा। तभी हम पूंजीवाद की गुलामी से मुक्त हो सकते हैं।
एक मजदूर, बरेली
निरंतर सुधार के नाम पर मजदूरों का शोषण एवं छंटनी
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
हरिद्वार सिडकुल में स्थित जीनस पावर इनफ्रक्चर लि. सेक्टर-4 प्लाट न. 12 में स्थित है। इस कम्पनी में इलैक्ट्रिक रीडिंग लेने का मीटर बनता है जो घरों एवं उद्योगों की इलैक्ट्रिक रीडिंग लेता है। तीन भागों में यहां उत्पादन होता है। पहला मोल्डिंग जिसमें प्लास्टिक का बेस और टोप तैयार होता है। दूसरा भाग पीसीबी। इसमें मीटर की पीसीबी तैयार की जाती है। तीसरा मीटर में लाइनों पर एसेम्बल होता है जिसके तीन भाग हैं। पहला पीसीबी लाइन जिसमें पीसीबी पर कुछ कम्पोनेन्ट की सोल्डिंग एवं पीसीबी बोर्ड को चेक किया जाता है। दूसरा कैल्लीब्रेसन लाइन जिसमें वेस में पीसीबी एवं अन्य भाग को कसा जाता है। टाॅप लगाकर फिक्स कर दिया जाता है तथा एफजी एरिया में पैकिंग का कार्य होता है तथा मीटर उपयोग के लिए बाहर हो जाता है इस कम्पनी में ठेका मजदूर की संख्या करीब 600 एवं स्थाई मजदूर 200 के लगभग हैं। इस कम्पनी का मालिक ईश्वर चन्द्र अग्रवाल जो जयपुर में रहता है। हरिद्वार के जीनस कम्पनी की देखरेख जीएम राजकुमार सूद करते हैं। जीनस का पहला प्लाण्ट 2006 में स्थापित हुआ। 2010 में दूसरा व तीसरा प्लाण्ट स्थापित हुआ एवं 2015 में एक और प्लाण्ट स्थापित हो गया जो बेग आईपी 4 में स्थित है। यह कम्पनी अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाती है। जिससे मजदूरों का अधिक से अधिक शोषण करके कम्पनी अधिक से अधिक मुनाफा कमा सके। कम्पनी सुधार के नाम पर मजदूरों का शोषण करती रहती है जिसके लिए काइजन करती है जो निरंतर सुधार के नाम पर निरंतर शोषण का कार्य करता है जिससे मजदूरों का अधिक से अधिक शोषण करके लाभ अधिक कमाते हैं। इसके लिए दो तरीके पर ध्यान देते हैं। पहला उत्पादन बढ़ाकर और दूसरा मजदूर घटाकर जिसमें उत्पादन कम न हो। इसके लिए स्किल टाइम चेक होता है जिससे उत्पादन बढ़ाया जा सके। इस प्रकार पांच छः दिन का चरण चलता है जिससे मजदूर सही तरीके से सेट किया जा सके एवं उत्पादन लक्ष्य को पूरा किया जा सके।
इस प्रकार जीनस पावर इनफैक्चर लि. में काइजन का कार्य चलता रहता है। 2008 में एक लाइन पर 52 लड़के काम करके 700 से 800 मीटर बनाते थे। जिसका लक्ष्य 1000 मीटर बनाने का रहता था लेकिन काइजन के द्वारा काम करते-करते प्रत्येक लाइन से 2000 मीटर बन रहा है एवं मजदूर की संख्या घटकर 28 रह गयी है। जुलाई 2015 में काइजन करने की पुनः टीम तैयार की गयी है। टीम में कम्पनी के हर क्षेत्र के लोगों को लिया गया है जिसमें पांच सीनियर स्टाफ एवं पांच सुपरवाइजर और 6 मजदूर शामिल किये गये थे। इस टीम की कम्प्यूटर द्वारा ट्रेनिंग हुयी जिसमें विश्व के पूंजीपति से काइजन के बारे में बताया गया काइजन कैसे आया एवं काइजन से लाभ कैसे मिलता है।
काइजन की टीम को तीन भागों में विभक्त कर मजदूरों को टार्चर करने के लिए छोड़ दिया गया। प्रत्येक टीम में पांच-पांच सदस्य हो गये एवं टीम की एरिया भी निश्चित किया गया। टीम न. 1 पीसीबी लाइन, टीम न. दो कैलीब्रेश लाइन एवं टीम न. तीन एफजी लाइन जो कार्यस्थल का नाम है। तीसरे दिन प्रत्येक टीम को प्रत्येक मजदूर को काम करने का टाइम चेक करने को दिया गया। तीनों टीम ने प्रत्येक मजदूर के काम करने की टाइम नोट की। यह लंच तक चला तथा लंच के बाद जिस मजदूर का काम करने का टाइम ज्यादा लगा उसे कम टाइम वाले लड़के (मजदूर) के स्थान पर बैठाया गया एवं फिर से काम करने का टाइम नोट हुआ इससे कोई भी मजदूर पिछले मजदूर से ज्यादा समय लिया तो उसकी क्लास लगी। इस पर भी स्पीड़ नहीं बढ़ी तो उसे गेट बाहर करने की धमकी दी गयी जिसने पहले से कम समय लिया उसे वहीं पर शिफ्ट कर दिया गया।
चौथे दिन यह पाया गया कि कोई कम्पोनेंट अधिकतम 18 सेकेण्ड में फिट होता है। उसी में कुछ कम्पोनेंट 7 से 8 सेकेण्ड मे फिट हो जाते थे इस प्रकार तीनों टीम को छः सात ऐसे मजदूर मिले जो 7 से 12 सेकेण्ड में कम्पोनेंट लगा देते थे।
पांचवें दिन इन सात मजदूर में से तीन को बाहर कर दिया एवं तीन को दो, दो काम दे दिये। लाइन चली और प्रोडक्शन पूरा आया 2000 मीटर।
छठवें दिन तीन मजदूर कम करके प्रोडक्शन पूरा लिया एवं लाइन की टारगेट भी निश्चित हो गयी 2000 मीटर।
इस प्रकार छंटनी की प्रक्रिया चालू है। 40 से 50 मजदूर बाहर कर दिये गये हैं। इस प्रकार पूंजीपति मजदूरों का शोषण एवं छंटनी कर रहे हैं।
एक मजदूर हरिद्वार
मैंने अपनी नौकरी दांव पर लगा दी
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
मैं कृष्णपाल रुद्रपुर हाल निवासी एक इंजी. कम्पनी में नवम्बर माह 2014 से कार्य पर लगा था जिसमें मेरे अन्य तीन साथी भी कुछ ही समय पहले नवम्बर में ही उसी कम्पनी में कार्य पर लगे थे। अतः मैं उस कम्पनी में साहसपूर्वक कार्य करता रहा। दो अन्य साथी उसी कम्पनी की करामात के कारण एक-दो माह में ही कार्य छोड़ने के बाद अन्य किसी फैक्टरी में काम पर चले गये। कम्पनी की करामात यह थी कि छुट्टी(रविवार) में भी कार्य कराती थी और जो वेतन 26 दिन का तय किया जाता था उसी के लिए 30 दिन अर्थात् एक माह के दिनों में बांटकर प्रतिदिन की मजदूरी में कमी की जाती थी और यदि कोई इसका विरोध करता तब उसे काम छोड़ने के लिए कहा जाता था। ठीक उसी तरह एच.आर. एवं प्रबंधक के लिए भी मैंने यही बात कही थी लेकिन उन्होंने इसको ध्यान में रखते हुए मेरे वेतन में कमी करना शुरू कर दिया गया। मैं सहन करता रहा क्योंकि प्रबंधक वर्ग मुझसे अंदर ही अंदर विरोध की भावना रखने लगे। इतना ही नहीं नवम्बर माह में तो कम्पनी में 2 घंटा प्रतिदिन ओवर टाइम दिन की शिफ्ट में एवं रात की शिफ्ट में भी। 2 घंटा ओवर टाइम दिसम्बर तक चला। सभी मजदूर सीधे-साधे तरीके से कार्य करते रहे। लेकिन मैंने व एक अन्य मजदूर से प्रबंधकों की इस होशियारी के कारण जनवरी में ओवर टाइम करना बंद कर दिया। केवल ड्यूटी ही करते रहे जिसमें कि प्रबंधक वर्ग समस्या बनने लगा यहां तक कि दबावपूर्वक ओवरटाइम करने के लिए कहा गया एवं गेट पर रखे गये सिक्योरिटी को आर्डर दिया गया बिना ओवर टाइम कोई नहीं जायेगा।
इसी तरह कुछ मजदूर भाई अपनी नौकरी छूटने के भय से अतिरिक्त टाईम भी रूकने लगे एवं मैंने भी अपनी नौकरी की बाजी लगा दी। इसकी शिकायत लेबर कोर्ट में माह जून में दर्ज करा दी। शिकायत में प्रबंधक ने मुझे कार्य छोड़ने के लिए कहा गया था क्योंकि एक मजदूर अकेला संघर्ष कहां तक करता। मुझे लेबर कोर्ट में प्रबंधक ने 15,000 रुपया दिया जो कि मेरी वेतन में से ही की गयी कटौती थी। शिकायत अधिकारी ने भी मेरे साथ सौतेला व्यवहार किया। 3500 रु. मुझे कम दिलाये एवं कार्यवाही भी बंद कर दी।
अब मैं बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहा हूं इसलिए मित्रो एकता में बल होने के कारण ही सफलता मिल सकती है एवं उनकी (प्रबंधक) की कमी उजागर करने के बाद भी अधिकारी वर्ग (लेबर कोर्ट) भी उद्योगपति को ही बल देते हैं। अर्थात् उस इंजि. कम्पनी में 26 दिन कार्य किया जाये तब केवल 22 दिन एवं 30 दिन कार्य किया जाये तब 26 दिन की ही मजदूरी मिल पाती थी।
अतः मेरी शिकायत के बाद कम्पनी एच.आर. साहब द्वारा कहा गया था कि सहायक श्रमाधिकारी महोदय के सामने 7 साल में यह नौबत आई जो शिकायकत दर्ज हुई अर्थात् उन्होंने इस कमी का अहसास तो किया।
वहां पर कई वर्षों से जो मजदूर भाई कार्य पर लगे हैं उन्हें भी पी.एफ. आदि या ई.एस.आई. की सुविधा भी नहीं दी जा रही है लेकिन बेरोजगारी के कारण एवं आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण कार्य कर अपनों की पूर्ति कर रहे हैं।
कृष्णपाल, रुद्रपुर
अभी ये हाल हैं आगे क्या होगा
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
मौर्या उद्योग फरीदाबाद में गैस सिलेण्डर बनाने वाला एक बड़ा कारखाना है। इसमें एल.पी.जी. तथा अन्य गैसों के सिलेण्डर बनाये जाते हैं। यह सोहना रोड़ पर सैक्टर 55 (रिहायशी कालोनी) से लगा हुआ है। इसमें लगभग 2000 मजदूर काम करते हैं। मजदूरों की संख्या केे लिहाज से भी यह एक बड़ा उद्योग है।
कभी सिलैण्डर रिपेयिरिंग के काम से शुरू हुए इस उद्योग का सामान्य दिनों में उत्पादन 6000 से 7000 सिलैण्डर प्रतिदिन तथा अधिक मांग होने पर 10,000 से 12,000 सिलैण्डर प्रतिदिन है। उद्योग में काम दो पालियों (प्रत्येक पाली 12 घण्टा) में चलता है। दिन की पाली तथा रात की पाली। पूरे उद्योग का काम लगभग 10 अलग विभागों में बंटा हुआ है। फोर्जिंग, टूल रूम, सिलैण्डर प्लांट, प्रेस शाॅप, पेन्ट शाॅप, मैटलाइजिंग, 3 पीस, रेगुलेटर, बाल्व प्लांट और मेंटीनेंस आदि।
उद्योग का मालिक नवनीत सुरेखा है। उद्योग की शुरूआत नवनीत के पिता विष्णु सुरेखा ने रिपेयरिंग के काम से की थी। उद्योग का एम.डी.(प्रबंध निदेशक) के.एम.वाई. है। उसके नीचे अलग-अलग विभागों के मैनेजर तथा सुपरवाईजर आते हैं। उद्योग का एम.डी. कभी मजदूरों से मुखातिब नहीं होता है। स्टाफ के अलावा कोई कर्मचारी स्थायी नहीं है। बहुत थोड़े मजदूर कम्पनी द्वारा अस्थायी नियुक्त किये गये हैं और ज्यादातर मजदूर ठेका मजदूर हैं। विभिन्न विभागों जैसे बाल्व, रेगुलेटर आदि में महिलाएं भी काम करती हैं।
टूल रूम और मेंटिनेंस को छोड़ कर बाकी सभी विभागों में वेतन बहुत कम है। मेंटिनेंस में 10,000 से 12000 रुपये वेतन पाने वाले कुछ अतिकुशल मजदूर हैं। टूल रूम में भी वेतन 12,000 या 12,000 रुपये से अधिक है। अन्य जगहों पर जहां ज्यादातर मजदूर काम करते हैं, वेतन 5 से 6 हजार के बीच है। वेल्डर आदि कुशल मजदूरों का वेतन लगभग 8000 है। कई महिला मजदूरों को तो 4000 से 4500 वेतन में भी 8 घंटा पर खटाया जाता है। कम उम्र के बच्चों को भी काम पर रख लिया जाता है। अचानक कभी फिर निकाल दिया जाता है। कुछ सेवा निवृत्त(60 वर्ष से अधिक) लोगों को भी काम पर रख लिया जाता है। और वह भी बहुत कम वेतन पर। ठेका मजदूरों को वेतन 12-16 तारीख के बीच दिया जाता है तथा अन्य को 7 तारीख को।
इतने बड़े उद्योग में अनिवार्य कानूनी चीजें भी लागू नहीं की जाती हैं। ठेके पर भर्ती किये जाने वाले मजदूरों को 2-3 सालों तक पीएफ और ईएसआई की सुविधा नहीं दी जाती। बड़ी संख्या में ऐसे मजदूर हैं जिनका ईएसआई कार्ड नहीं है। मजदूर बहुत बुरी परिस्थितियों में फोर्जिंग, मैटलाईजिंग आदि विभागों में काम करते हैं। कुछ विभागों में तो दम घोंटू धुंआ भरा रहता है। फैक्टरी में आये दिन छोटी-बड़ी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। महिलाओं से भी 12-12 घंटे काम कराया जाता है। मजदूरों को सेफ्टी शूज और वर्दी देने का कोई सिस्टम नहीं है। कभी अचानक कुछ मजदूरों को वर्दी दे दी जाती है। फिर कई सालों यह मुद्दा गायब रहता है। मजदूरों के लिए कैंटीन की व्यवस्था नहीं है।
इतने बड़े उद्योग में भी मजदूरों की कोई यूनियन नहीं है। यूनियन का न होना मालिकों को और निरंकुश बना देता है। मजदूरों के ये हालात तब हैं जब औपचारिक तौर पर श्रम कानून मौजूद हैं। श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलावों के बाद तो मजदूरों की हालात और बदतर होंगे। यह हालात उस उद्योग के मजदूरों के हैं जहां ज्यादातर उत्पादन का निर्यात किया जाता है और मोटा मुनाफा कमाया जाता है।एक मजदूर फरीदाबाद
निर्दोष मरा चोर बचा
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
पटना जंक्शन रेलवे कालोनी में आये दिन चोरी-चकारी की घटना घटती रहती थी। पूरी रेलवे कालोनी चोरों से परेशान थी। रेलवे कालोनी वालों ने रेलवे थाना चौकी को इसकी सूचना दी कि कालोनी में आये दिन चोरी चकारी होती रहती है। रेलवे पुलिस रात्रि में गस्त करने लगी। वहीं रेलवे कालोनी में एक छोटा सा पार्क था। उसी पार्क के पास तीन मजदूर आकर सो गये।
दिन भर काम करने के बाद वे तीनों मजदूर उसी पार्क में आकर सो जाते थे। उस दिन भी वे तीनों मजदूर उसी पार्क में सो रहे थे। उन्हें क्या पता था कि गस्ती पुलिस उन्हें मारेगी और उनका एक साथी मारा जायेगा।
रात्रि में गस्ती पुलिस ने उनको पकड़ लिया और बुरी तरह मारना पीटना शुरू कर दिया। तीनों मजदूर पुलिस से विनती करते रहे परन्तु पुलिस वालों ने उनकी एक बात नहीं सुनी। उसमें एक मजदूर निडर था। वह जानता था कि वह चोर नहीं है। उसने जुर्म कबूल नहीं किया। पुलिस ने उसे बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया। उसे बहुत बुरी तरह मारा पीटा गया। जब उसने दम मारना चालू किया तब पुलिस वाले समझ गये कि वह मर जायेगा। उसे उठाकर उन्होंने एक पुलिया के नीचे पटक दिया। यह देख कर दोनों मजदूरों ने शोर मचाना शुरू कर दिया कि पुलिस वालों ने हमारे साथी को मार दिया। फिर लोग जग गये और पुलिस वालों की करतूत समझ गये कि पुलिस ने चोर को नहीं निर्दोष को मार दिया। फिर क्या था पुलिस के खिलाफ मामला दर्ज हुआ और दोनों मजदूरों को इलाज के लिए भेज दिया।
जिस मजदूर को पुलिस वालों ने मार दिया उसके परिवार का भरण पोषण कौन करेगा, उसके बच्चे अनाथ और पत्नी विधवा हो गयी, बूढ़े मां-बाप का सहारा छिन गया। ऐसे ही न जाने कितने निर्दोषों को पुलिस वाला दोषी बना देता है अपने लाठी-डंडे के डर से। आये दिन फर्जी तरीके से आम मेहनतकश लोगों को पुलिस वाले मेडल पाने व शोहरत के लिए बलि का बकरा बना देते हैं। असली कातिल या गुनाहगार तक तो जा ही नहीं पाते हैं। हां! आम मेहनतकश जनता को जरूर गुनाहगार बना देते हैं। पुलिस-फौज जहां कहीं भी डेरा डालते हैं वहीं कानून का दुरूपयोग करते हैं।
भारतीय लोकतंत्र में बैठा शासन सत्ता झूठ-फरेब का जाल है। ‘पुलिस मित्र है आपकी सहायता करेगी’ झूठ है। पूंजीवादी व्यवस्था में पुलिस मित्र नहीं मौत के यमराज है। आम मेहनतकश लोगों को जागना होगा, संघर्ष का रास्ता चुनना होगा। यह व्यवस्था पूंजीवादी है जिसमें पूंजीपतियों की ही सुनी जाती है। उसे ही इंसाफ मिलता है। आम मेहनतकश तो बलि के बकरे की तरह चढ़तेे रहते हैं। पुलिस किसी को माओवादी के नाम पर तो सेना आतंकवादी के नाम पर निर्दोष की बलि चढ़ा रही है। पूंजीवाद लोकतंत्र के नाम पर जहर तंत्र फैलाकर लोगों को मारा जाता है। यह व्यवस्था एक विषैला लोकतंत्र है इसे आम आदमी को संघर्ष द्वारा नाश करना ही पड़ेगा। समाजवाद के लिए संघर्ष करना होगा। मजदूर राज लाना होगा।
रामकुमार वैशाली
उ.प्र. के मजदूर, गरीब किसानों का बुरा हाल
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
हमने सुना था कि जहां पर समाजवाद होता है वहां पर कोई तकलीफ नहीं होती मगर उत्तर प्रदेश की जनता की खराब हालत है। यहां के मजदूर किसान का बहुत बुरा हाल है। सपा की सरकार न तो रोजगार दे पा रही है और न ही शिक्षा दे पा रही है। अगर कोई मजदूर कहीं काम करता है तो उसे श्रम कानूनों द्वारा देय सुविधाओं को भी नहीं दे रही। अगर मजदूर कहीं पर अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन करते हैं तो उनका दमन किया जा रहा है। ये सपा सरकार दमनकारी नीतियों को तेजी से लागू कर रही है।
समाजवादी सत्ता है तो ये पूंजीवादी पार्टियों के समाज विरोधी फैसलों में क्यों शामिल है? पूंजीपतियों के इशारे पर काम कर रहे हैं। इसको हम समाजवादी सरकार नहीं कहेंगे। ये सब पूंजीपतियों की सरकार है। समाजवाद यानी मजदूरों का राज किसानों का राज छात्रों का राज समाजवाद होता है।
एक समय वह था जब रूस में समाजवादी क्रांति हुई थी वहां पर भी मजदूरों ने अपनी सरकार बनाई थी। वहां पर झुग्गी झोंपडि़यों का नामोनिशान मिटा दिया गया। सब लोगों को पक्के मकान बनाकर मजदूर गरीबों को सौंप दिया था। वहां की अर्थव्यवस्था सबसे ज्यादा मजबूत रही है। उदाहरण बतौर रूस और फ्रांस, चीन जैसे देश आज भी अर्थव्यवस्था में भारत से मजबूत माने जाते हैं।
आज सब देशों में पूंजीवादी व्यवस्था कायम है। मगर जो मजदूर किसानों की समाजवादी सत्ता थी उन्होंने समाज से सब बुराईयां व गैर बराबरी को खत्म कर सबको बराबरी का दर्जा दिया। हर हाथ को रोजगार दिया। सबके लिए मुफ्त शिक्षा और मुफ्त स्वास्थ्य सुविधायें दीं। महिलाओं को सम्मानजनक दर्जा दिया और वहां की अर्थव्यवस्था सबसे ज्यादा मजबूत
थी हालांकि भारत में मजदूर राज समाजवाद नहीं कायम हो पाया। भारत को जब अंग्रेजों से आजादी मिली तो पूंजीपतियों की सरकारें बनीं इसीलिए भारत की जनता जैसे अंग्रेजों के शासन में कंगाल थी वैसे ही आज इस झूठे लोकतंत्र देश में भी कंगाल हैं।
कहने को कहते हैं कि हम आजाद भारत में रहते हैं मगर इस पूंजीवादी व्यवस्था में सिर्फ 10 प्रतिशत को ही आजादी मिली बाकी 90 प्रतिशत आज भी गुलाम हैं। और इस 90 प्रतिशत में मजदूर किसान छात्र हैं जो आज भी गुलाम हैं। आजादी मिली तो भारत के चंद पूंजीपतियों को। अंग्रेजों के शासन काल में कोई मजदूर-किसान अगर कहीं पर अपना विरोध करता था तो अंग्रेजों द्वारा उन मजदूर किसानों का दमन किया जाता था। आज भी मजदूरों-किसानों का दमन किया जा रहा है। इससे हम समझ सकते हैं कि भारत पहले भी गुलाम था आज भी गुलाम हैं पहले भारत पर जो राज करते थे वे अंग्रेज थे आज जो राज करते हैं वे चंद पूंजीपति हैं। पूंजीपतियों से कहना चाहते हैं और इन पूंजीपतियों की सरकारों से भी जब कोई महल बुरी तरह जर्जर हो जाता है तो उसको कुछ दिन तक मरम्मत कर थोड़ा समय तक उस महल को रोका जा सकता है। मगर उसको हमेशा के लिए नहीं। इस जर्जर व्यवस्था की मरम्मत कुछ दिन पहले कांग्रेस की सरकार कर रही थीं आज भाजपा की सरकार प्रयास कर रही है मगर आज भी जब शेयर बाजार हिचकोले खाता है तो इन पूंजीपतियों की सरकारों की नींद उड़ जाती है। एक ठेका मजदूर पंतनगर
जनता के पैसे के दुरूपयोग करने वाले को कड़ी सजा हो
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
साथियो! सिकौथा गांव उत्तर प्रदेश जिला सिद्धार्थनगर तहसील इटवा बाजार ब्लाॅक भनवापुर थाना तिलवक पुर पोस्ट बिसकोहर बाजार में आता है। इस गांव का प्रधान ग्रामवासियों पर जुल्म कर रहा है खासकर गरीब किसानों पर। अपने प्रधान होने का इसे बड़ा घमंड है। ये प्रधान जब भी कहीं गांव में कोई समस्या लड़ाई-झगड़ा होता है तब फैसला वोट बैंक या पैसा देखकर सुनाता है। गांव की गरीब कमजोर महिलाओं को सरेआम गंदी-गंदी गालियां बकता है।
गांव के पूर्व ग्राम प्रधान ने कुछ अच्छा काम किया था। कुछ गरीब किसानों का तालाब का पट्टा बना दिया था। उससे उन गरीब किसानों के परिवार का भरणपोषण हो जाता था। वर्तमान ग्राम प्रधान ने उन गरीबों से उनका तालाब छीनकर पैसे वालों को दे दिया है। उन गरीब किसानों में एक ठेका चालक का पूरा परिवार सदमे में है। एक दिन ऐसा लगा कि ये पूरा परिवार आत्मदाह कर लेगा। कुछ न्यायप्रिय साथियों ने ऐसा करने से उनको रोक लिया।
ऐसा ही एक मामला सामने आया है। राजू कहार एक गरीब किसान ठेला चालक है। गांव के पूर्व प्रधान ने इस गरीब किसान की गरीबी को देखते हुए एक छोटे से तालाब का पट्टा बना दिया था। मगर वर्तमान ग्राम प्रधान ने उस गरीब किसान से तालाब को छीन लिया। चोरी चोरी तहसीलदार से मिलकर उस तालाब गजट कराके न्यूज पेपर मंे दो-तीन दिन उस क्षेत्र में प्रकाशित ही नहीं होने दिया। जब गरीब किसान को पता चला तो वह तुरंत इटवा तहसील पहुंचा और तहसीलदार से रो रो कर कहने लगा साहब जी हम बहुत गरीब है और हम से तालाब को मत छीनिये मगर तहसीलदार ने उन्हें वहां से भगा दिया। फिर गरीब किसान ने लगातार अपने क्षेत्र के विधायक के कार्यालय में चक्कर लगाया फिर एक दिन विधायक जी से मुलाकात की तो विधायक जी का रवैया उस ग्राम प्रधान से भी खराब रहा। विधायक जी इटवा विधानसभा क्षेत्र के वर्तमान समय विधायक हैं और उत्तर प्रदेश सपा सरकार में मंत्री हैं। मगर उनका रवैया बिल्कुल अमानवीय रहा। उस गरीब किसान की उन्हें मदद करनी चाहिए थी। उस गरीब किसान का जिसका जीने का सहारा भी छिन गया। उस किसान का इतना कसूर है कि उसके घर में 15-20 वोट नहीं हैं और न ही पैसा है ये तो रही एक गरीब किसान की बात लेकिन अभी बहुत कुछ बाकी है।
इस गांव में विकास कार्य के लिए आया हुआ पैसा भ्रष्टाचार का शिकार हो गया। आखिरकार ग्रामवासी अपनी समस्या को लेकर कहां जायें क्योंकि ग्राम प्रधान ब्राहम्ण है, तहसीलदार भी ब्राहम्ण है, जिले का डीएम भी ब्राहम्ण है, क्षेत्र का विधायक भी ब्राहम्ण है और मंत्री जी भी ब्राहम्ण हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि विकास कार्यों का पैसा कहां गया होगा।
वर्तमान समय का ग्राम प्रधान बहुत बड़ा भ्रष्ट प्रधान है। यह ग्राम प्रधान गांव में होने वाले विकास कार्य के लिए आया हुआ पैसा भी पी गया। गांव की टूटी हुई नाली और धंसे हुए खडंजे और जगह-जगह भर रहे पानी प्रत्यक्ष रूप से इसके उदाहरण हैं। इस ग्राम प्रधान ने इतना जरूर किया है कि अपने सुख सुविधा के हिसाब से आलीशान मकान बना लिया और अपने सुख-सुविधा के हिसाब से बड़ी सी दो गाड़ी खरीद ली हैं। और अपने आने-जाने के लिए घर से बगीचा तक खडन्जा बना लिया है। जब कुछ ग्रामवासियों ने इन सब बातों का और कामों का विरोध किया तो ग्राम प्रधान ने इसका जबाव दिया कि ये गाडि़यां उसके लड़के की शादी में मिली हैं और जिस खडन्जे की बात करते हो क्या इस खडन्जे पर ग्रामवासी नहीं आयेंगे। ये बात करके कुछ लोगों को धमकाया गया और कुछ बेकसूर मजबूर किसानों को पूरी तरह बरबाद करने की ठान ली। कुछ लोग उसी का शिकार भी हो गये हैं।
आज हम पूछना चाहते हैं उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार से, केन्द्र में बैठी मोदी सरकार से भी। क्या ऐसे भ्रष्ट ग्राम प्रधान और गुण्ड़ों के खिलाफ कोई कार्यवाही होगी। कोई पूछेगा कि गांव में होने वाले विकास कार्यों के लिए आया हुआ पैसा कहां लगा कि कितने गलियों में खडन्जे लगे। और कौन-कौन सी नालियां बनीं। और मनरेगा के तहत कहां-कहां पर पुल बने और कहां चकरोड़ बने। क्या ये पूूूंजीपतियों की सरकार इसका हिसाब मागेंगी? क्या इसके खिलाफ कोई जांच करवायेंगे? क्या इसको जेल में भेजेंगे।
अब ग्रामवासी उत्तर प्रदेश की सपा सरकार भन्वापुर ब्लाॅक के वीडीओ और सिद्धार्थनगर जिले के जिला अधिकारी से उम्मीद है कि सिकौथा ग्रामवासी को न्याय मिलेगा। या फिर और मामलों के जैसे लीप पोत कर कुछ ले-देकर मामले को रफा-दफा कर के ग्राम प्रधान को बचाते हैं या फिर ग्राम प्रधान को सजा दिलाते हैं क्योकि ये जो घोटाला हुआ है ये जनता का पैसा है और हम मानते हैं कि अगर कोई आदमी जनता का पैसा का कोई दुरुपयोग करता है तो उसको कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।
एक मजदूर, किसान का बेटा
ग्राम सिकौथा पो. विसकोहर बाजार,तहसील इटवा बाजार जिला सिद्धार्थनगर उ.प्र.
अवैध खनन माफिया राज के लिए सरकार जिम्मेदार
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
आज देश के अन्दर यू.पी., उत्तराखण्ड व अन्य राज्यों में अवैध खनन का कारोबार तेजी से बढ़ रहा है। खनन माफियाओं का आतंक इस कदर बढ़ गया है कि वे अपने खिलाफ किसी भी व्यक्ति को कुचलने में, किसी पर जानलेवा हमले करने-करवाने में, किसी को जिन्दा जलाकर मार डालने तक से भी पीछे नहीं हट रहे हैं। देश और राज्यों के अंदर सरकार-पुलिस-प्रशासन किसी तरह की शासन व्यवस्था कोई न्याय नाम की चीज ही नहीं है। सरकार और पुलिस प्रशासन खनन माफियाओं का गठजोड़ माफियाओं की गुंडागर्दी को बढ़ावा दे रहा है और आम जनता के अधिकारों को कुचला जा रहा है।
आज कोई भी टी.वी. चैनल, अखबार, अवैध खनन की खबरों से अछूता नहीं है। लेकिन हमें कुछ सवालों पर सोचना पड़ेगा कि आखिर क्यों कोई सरकार व पुलिस खनन माफियाओं के खिलाफ कार्यवाही नहीं करती? क्यों उन्हें जेलोें में नहीं डाला जाता? प्रशासन के ऊपर हमले हो जाते हैं। फिर भी वह उन्हीं को पालने-पोसने, संरक्षण देने के लिए विवश हैं। क्या हमारी सरकार और पुलिस प्रशासन माफियाओं के आगे लाचार है जो कुछ नहीं कर सकती है। या फिर जनता खनन माफियाओं के आगे लाचार है?
हमारे देश में लोकतंत्र का और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का ढोल पीटा जाता है। और उसी लोकतंत्र के अंदर तमाम घटनाओं में सिलसिलेवार पत्रकारों की हत्यायें कर दी जाती हैं। अभी हाल ही में वीरपुर लच्छी ग्राम रामनगर (उत्तराखण्ड) में नागरिक समाचार पत्र के पत्रकार मुनीष कुमार व उपपा के प्रभात ध्यानी पर जानलेवा हमला खनन माफिया के द्वारा करवाया गया जोकि ग्रामीणों के खेतों के ऊपर से अवैध सड़क बनाने व डम्पर चलाने के खिलाफ अवैध खनन के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। दूसरी घटना यू.पी. की है जिसमें पत्रकार जोगेन्द्र को खनन माफिया के खिलाफ आवाज उठाने पर जिन्दा जला दिया और अखिलेश सरकार माफियाओं पर लगाम कसने के बजाय 30 लाख का चैक और परिजनों के सदस्यों को 2 लोगों को नौकरी देना तय कर दिया। आये दिन उनके परिवार को जान से मारने की धमकी मिलती रही। तो मैं कहना यह चाहता हूं। कि सरकार का यही न्याय है। रामनगर के अंदर सोहन सिंह व उसके गुंडों को अभी तक गिरफ्तार नही किया गया। मलेथा में स्टोन क्रशरों के परिचालन से खेत बरबाद होने को है। बदले में जनता को पुलिस की लाठियां मिल रही हैं। रामनगर की विधायक को रामनगर में होना चाहिए लेकिन वह रामनगर की जनता का ध्यान देहरादून में बैठकर ही कर रही है। उत्तराखण्ड की सरकार खनन के मामले पर कितनी चिंतित है। इस बात से ही लगता है कि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पांच दिनों तक उत्तराखण्ड के जिलों में घूमते रहे लेकिन एक भी वक्तव्य खनन के मामले में नहीं कहा। क्योंकि खनन पर कोई बात करना उनका एजेण्डा ही नहीं था। ऐसे में सोचना पड़ेगा कि सरकार माफियओं पर कोई कार्यवाही करने की बजाय उन्हें बचाने पर लगी है। वह उन्हें क्यों बचाना चाहती है? क्या पत्रकारों पर हमले करना, हत्या करना इस देश के माफिया गुण्डों का संवैधानिक अधिकार है। जो सरकार उन्हें देती है। क्यों इस देश की किसी अदालत में किसी पत्रकार पर जानलेवा हमला करना, हत्या करने का मामला अदालत में नहीं जा सकता। जब सरकारें खुद भ्रष्ट हैं तो अवैध खनन पर लगाम कैसे लग सकती है।
मैं वीरपुर लच्छी के ग्रामीणों के संघर्ष को सलाम करता हूं कि उन्होंने अपने हक-हकूकों के लिए अपने खेतों को अपनी जानमाल की सुरक्षा के लिए, जनपक्षधर संगठनों के साथ मिलकर अपनी आवाज को दिल्ली तक बुलंद करने का साहस किया। मैं कहना चाहता हूं कि आज उत्तराखण्ड व देश के अन्य राज्यों में अवैध खनन के खिलाफ आवाज उठ रही है। आप कहीं से भी अकेले नहीं हैं। अगर हम अपनी जरूरतों के साथ मजबूती से खड़े हैं तो हमें जीतने से कोई नहीं रोक सकता। हमारी सरकार, हमारी पुलिस प्रशासन माफियाओं के आगे लाचार हो सकती है। मगर जनता नहीं हमें लम्बे संघर्ष का आगाज अपने दिलों में लिये हुए संगठनबद्ध होना पड़ेगा। जनता खनन माफिया को तो क्या अपनी एकता की ताकत से शासन-प्रशासन की जड़ों को भी हिला सकती है। माफिया को भी देश छोड़ कर भागना पड़ेगा।
सूरज, रामनगर
बबाली बाबा
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
पतंजलि हर्बल एण्ड फूड पार्क फैक्टरी में पिछले दिनों जो घटना हुयी है वह बहुत दयनीय है। किस तरह से बाबा रामदेव की कम्पनी के गुण्डे-मवालियों ने ट्रक यूनियन के लोगों के साथ मारपीट की जिसमें एक आदमी की मौत हो गयी, दस आदमी घायल हो गये। दलजीत सिंह जो दो ट्रकों का मालिक था, वह ट्रक यूनियन के साथ अपनी मांगों को लेकर धरना दे रहा था। विवाद माल भाड़े को लेकर था। कम्पनी प्रबंधन ने उसके ट्रक से माल भेजना-मंगाना बंद कर दिया था। वह दूसरी गाड़ी से अपना माल मंगा व भेज रहा था। उसी विवाद में रामभरत जो बाबा रामदेव का भाई है, ने अपनी कम्पनी में ट्रक यूनियन के लोगों की गुण्डे-मवालियों से पिटाई करवाई। खूब लाठी-गोली चलीं। उसने साबित कर दिया कि कम्पनी में किस तरह से गुण्डे-मवालियों का राज चलता है। फिलहाल इस कांड को लेकर रामभरत जेल में है। पुलिस जांच चल रही है।
कम्पनी के अंदर जो गुण्डे-मवाली थे वे हथियारों से पूरी तरह लैस थे और हरियाणा से रामदेव के भाई ने बुलाये थे। बाबा रामदेव दुनिया में संदेश देते हैं कि मैं हिंसा में विश्वास नहीं रखता हूं। भाईचारे, प्रेम, अहिंसा में विश्वास रखता हूं। मैं दुनिया का योग गुरू हूं। योग का ज्ञान जन-जन को देता हूं। धर्म का प्रचार करता हूं। ज्ञान का दीप जलाता हूं। लेकिन खुद रामदेव बाबा के भाई रामभरत ने साबित कर दिया कि वह हिंसा का पुजारी है। आम मेहनतकश लोगों का गोली डण्डे से स्वागत करता है। असलियत यह है कि कम्पनी परिसर में आये दिन कुछ न कुछ बबाल होता रहता है मजदूर-मेहनतकशों के साथ।
रामदेव एक सन्यासी के भेष में एक उद्योगपति है जिसका कारोबार देश-दुनिया में फैला हुआ है। यह अपने रामराज्य के खुद मालिक हैं। दवा से लेकर दैनिक जरूरत का सारा सामान कम्पनी में उत्पादन करता है। करोड़ों-अरबों का मालिक है बाबा रामदेव एक सन्यासी के भेष में। एक पाखण्डी है जो दुनिया में रात-दिन योग की आड़ में धन ठगने का कार्य करता है। 2014 में लोकसभा चुनावों में उसने खुल कर भाजपा के पक्ष में प्रचार-प्रसार किया। आम जनता से अपील की कि भाजपा सरकार ही काला धन वापस ला सकती है। प्रत्येक भारतीय को पन्द्रह लाख मिलेगा। गोल-मोल बातें बनाकर आम जनता को ठगने का ही काम किया।
रामदेव बाबा के ऊपर दर्जनों केस चल रहे हैं न्यायालय में। खुद के गुरू की जांच का केस चल रहा है कि कैसे पतंजलि से गुरू जी गायब हैं। वह आज तक किसी को मिला नहीं। खुद सीबीआई जांच चल रही है। रामदेव बाबा एक आम आदमी था। उसने साइकिल से अपनी जिन्दगी का सफर शुरू किया था और आज अरबों-खरबों के साम्राज्य का मालिक है। वह साम, दाम, दण्ड, भेद से यह सम्पत्ति का मालिक बना। न जाने कितने अनैतिक काम धर्म योग की आड़ में किये होंगे।
पूंजीवादी व्यवस्था में झूठ-फरेबी की ही पूजा होती है। कर्मयोगी लोग ही अंजामों के शिकार होते हैं। उसे ही मोहरा बनाकर जेलों में डाल दिया जाता है। हर गुनाह करने वाला इंसान झूठ की चादर ओढ़ कर बेगुनाह होना साबित करता है। ठीक बाबा रामदेव या उसका भाई रामभरत भी बेगुनाही की चादर ओढ़कर साबित करेगा। जब तब पूंजीवादी व्यवस्थापक और व्यवस्था रहेगी तब तक रामदेव का योग का धंधा चलता रहेगा। इन फरेबी बाबा से आम मेहनतकश जनता का जागना जरूरी है क्योंकि मेहनतकश की लूट पर टिकी व्यवस्था है। रामकुमार, वैशाली
2 सितम्बर देशव्यापी बंद की तैयारी शुरू
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
सरकार की नीतियों के विरोध में 2 सितम्बर को होने वाले देशव्यापी बन्द की तैयारियां शुरू।
26 जुलाई को होगा बरेली ट्रेड यूनियन्स का जिला सम्मेलन।
मोदी सरकार की पूंजीवादी नीतियों से देशभर का कामगार वर्ग असंतुष्ट है और नाराज भी। इसी क्रम में बरेली में बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन ने 23 जून 5 बजे से आयकर कार्यालय में बड़ी बैठक का आयोजन कैलाश चन्द्र सक्सेना की अध्यक्षता मे कर भावी रणनीति तय की। सर्वसम्मति से तय हुआ कि 2 सितम्बर के देशव्यापी बन्द से पूर्व फेडरेशन का जिला सम्मेलन 26 जुलाई को किया जायेगा एवं पर्चे व पोस्टर आदि वितरित कर कर्मचारी/मजदूर /किसान विरोधी नीतियों का खुलासा किया जायेगा।
बैठक को सम्बोधित करते हुए श्रीमती गीता शांत ने कहा कि मोदी सरकार ने यह साबित कर दिया है कि वह पूंजीपतियों के इशारे पर काम कर रही है और उसका बाकी जनता से लेना देना नहीं है। श्रम कानूनों में परिवर्तन व किसानों की जमीनें छीनने के प्रयासों के विरोध में देश का एक बड़ा वर्ग आहत हो रहा है जिसके विरोध मे पूरे देश के सभी श्रमिक संगठनों ने देशव्यापी बन्द का आह्वान किया है। जिसके तहत बरेली में भी आयोजन किया जायेगा।
इस अवसर पर आयकर के जोनल सचिव रवीन्द्र सिंह ने कहा कि बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन से जुडे सभी सहयोगी संगठन विरोध में शामिल होंगे और केन्द्रीय श्रम संगठनों के तय किये गये आन्दोलन को हम बरेली मंे मूर्तरूप दंेगे तथा सरकार की मंशा पूरी नहीं होने देंगे।
संयुक्त परिषद के रवीन्द्र कुमार ने कहा कि देश का कामगार आक्रोशित है और सरकार की इन काली नीतियांे को बर्दाश्त करने की स्थिति में नही है जिसके कारण एकजुट हो कर देशव्यापी आंदोलन मंे शामिल होने जा रहे हैं।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र के ध्यान चन्द्र मौर्या ने कहा कि सरकार हर मोर्चे पर विफल है और बढती महंगाई इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। उन्होंने कहा सरकार की नीयत केवल बडे़ उद्योगपतियों का हित साधना है। यही कारण है कि देश में अरबपतियों की संख्या बढ रही है और जनता बेहाल हो रही है।
बैठक में सर्व श्री अफरोज आलम, सी.पी. सिंह, कुलवन्त सिंह, फैसल, प्रवीन कालरा, पी.के. माहेश्वरी, अरविन्द रस्तोगी, अविनाश चौबे, कमलेश त्रिपाठी, राकेश राजपूत, ए.के.जायसवाल ने सम्बोधित किया।
कार्यक्रम का संचालन महामंत्री संजीव मेहरोत्रा ने किया।
संजीव मेहरोत्रा महामंत्री
बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन, बरेली
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
‘बैल कोल्हू’ फैक्टरी परसा खेड़ा में स्थित है। परसा खेड़ा में लगभग 208 फैक्टरी हैं। इन 208 फैक्टरियों में बैल कोल्हू सबसे बड़ी फैक्टरी है जिसमें लगभग 1000-1500 मजदूर काम करते हैं। इसके मालिक घनश्यामचन्द खण्डेवाल हैं और साथ में मालिकों की यूनियन आईआईएमए के अध्यक्ष हैं। इस फैक्टरी के अधिकांश मजदूर ठेके पर काम करते हैं। इन मजदूरों का ड्यूटी पर जाने का समय 8ः30 बजे सुबह है लेकिन जाने का समय निश्चित नहीं है। फैक्टरी मालिक उन मजदूरों को 26 ड्यूटी करने पर 3000 का बोनस हर महीने देता है अगर 26 में से एक भी छुट्टी की तो महीने का बोनस नहीं मिलता है। फैक्टरी में मोबाइल, तम्बाकू कुछ नहीं ले जा सकते। अगर आप के घर परिवार में कोई घटना घटती है तो उसकी खबर आपको नहीं मिलेगी। अगर किसी प्रकार से मिले भी तो आपको फैक्टरी से निकलने में 2-3 घण्टे लग जाते हैं। किसी मजदूर के साथ कोई घटना घटती है या कोई मजदूर मर जाता है तो उस मजदूर को मालिक कुछ नहीं देता है। कई मजदूर घायल हो जाते हैं तो मजदूरों को अपना इलाज अपने पैसे से कराना होता है।
दो महीने से मालिक ने एक कानून बनाया है इसके अंतर्गत ठेके और परमानेन्ट सभी मजदूरों की तनख्वाह 260 रु. कर दी है लेकिन लोडिंग के मजदूरों को बोनस 2500 रु. और अन्य सामान्य मजदूरों का बोनस 1800 रु. कर दिया है लेकिन ड्यूटी का समय अनिश्चित है। बेरोजगारी की मार से पीडि़त मजदूर 14-15 घंटे काम करने को मजबूर हैं। इस फैक्टरी में कोई श्रम कानून लागू नहीं हैं। यहां के डरे-सहमे मजदूर बिल्कुल आवाज उठाने को तैयार नहीं है क्योंकि जो मजदूर आठ घंटे की ड्यूटी या दूने ओवरटाइम, सीएल आदि की आवाज उठाते हैं, मालिक के लठैत आफिस में बुलाकर उन मजदूरों को सबक सिखाते हैं। डरे-सहमे मजदूर किसी मजदूर संगठन से बात नहीं करते हैं। इस पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ सभी मजदूरों को संगठित होकर खड़ा होना और संघर्ष करना होगा। मजदूरों को इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़कर एक समाजवादी राज- मजदूर राज की स्थापना करनी होगी तभी उनकी समस्याओं का समाधान हो पायेगा।
राममिलन, बरेली
क्या यही उम्मीद थी
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
प्रधानमंत्री जी आज कल सफाई पर बहुत ध्यान दे रहे हैं। और साथ में मिलकर स्वयं जगह-जगह सफाई कर भी रहे हैं क्या भारत की जनता को प्रधानमंत्री जी से इसी तरह की उम्मीद थी।
एक साल में 365 दिन होते हैं उनमें से एक दिन श्रम दान का होता है। वह दिन दो अक्टूबर राष्ट्रपिता महात्मां गांधी जी के नाम से जाना जाता है। यह मेरे अपने विचार हैं।
आज के समय में पढ़ाई-लिखाई बहुत ही महंगी हो गयी। आईएएस, पीसीएस, एमबीबीएस पढ़ने के बाद भारत के होनहार नागरिक अपने हाथों से सफाई करेंगे तो बाकी की शेष भारत की अनपढ़ जनता का क्या होगा या क्या करेगी।
प्रधानमंत्री या मंत्रीजन झाडू लगाते हैं तो मीडिया उनके फोटो खींचती है और अखबारों में छापती है और भारत की बची जनता धूप बारिश ठंड में धान, गेहूं, सब्जी उगाती है, चाय की खेती करती है। मकान बनाने के लिए ईंट बनाती है, भारत के प्रधानमंत्री जी ने इनके बारे में जरा भी ध्यान दिया होता तो गरीब लोगों के घर के आस-पास गंदगी व कूडों के ढेर नहीं लगे होते। देखना है तो गांवों में घूम कर देख सकते हैं। सब नजारा सामने आ जायेगा।
प्रधानमंत्री जी को डीजल पेट्रोल के दाम कम न करके छोटे मजदूरों की मजदूरी बढ़ा देते तो मजदूर जन बिजली के बिल सही समय पर चुका सकते थे। जो मजदूर लोग बैेंकों से लोन ले लेते हैं उसे सही समय से अदा कर सकते थे। मजदूर लोगों को सरकार से अनाज तो कम कीमत पर मिल जाता है। मजदूर लोगों को काम न मिलने व कम मजदूरी मिलने से सरसों का तेल, नमक, लकड़ी व गैस लाने में बहुत दिक्क्तों का सामना करना पड़ता है। प्रधानमंत्री जी स्वयं सफाई करेंगे तो लगता है कि वह सफाईकर्मियों की नौकरी को समाप्त करेंगे सेना, आईएएस, पीसीएस, एमबीबीएस, अधिक वेतन लेने वाले लोगों से सफाई करवाने की कोशिश में हैं। और इस तरह सफाई का काम सार्वजनिक होकर निजी कर देने का इरादा रखते हैं।
नवल किशोर, ग्राम व पोस्ट- भमोरा, जिला बरेली
संगठन की बहुत जरूरत है
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
मैं सिटी सब्जी मंडी बरेली में एक किराने की दुकान पर काम करता हूं और आज मुझे इस दुकान पर 14 साल हो गये हैं। जब मैं शुरूवात में दुकान पर गया था तब मुझे मात्र 400 रुपये मिलते थे। मौहल्ले में घुमने से अच्छा था और घर वालों का भी कोई दबाव नहीं था। और मैं काम करता रहा। दुकान मालिक 100 रुपये प्रति साल पैसे बढ़ाता था। 8 साल तक पैसे बढाने का सिलसिला चलता रहा। दुकान में 10 घंटे काम करन पड़ता है पर मुझे और लड़कों के हिसाब से अपने पैसे कम लगते थे।
इस दौरान मेरी मुलाकात मार्केट वर्कर्स एसोसिएशन के साथियों से मेरे पड़ोस के साथी ने कराई और मुझे सदस्य बनाया और उसके बाद मेरा विकास होना शुरू हुआ।
जब 2010 में एसोशिएशन से जुड़ा तब मुझे पता चला कि काम के पैसे सरकार तय करती है। उसके बाद मैंने अपने मालिक से बहुत नोंक-झोंक कर 300 रुपये बढ़ाये और 1200 से 1500 किये और 2011 से 1800 रुपये 2012 में 2500 रुपये 2013 में 3000 रुपये और मुझे एसोसिएशन से काफी जोश मिलता है, और काफी जानकारी भी मिलती है। और एसोसिएशन से ही पता चला कि न्यूनतम वेतन क्या होता है पर मालिक इतने पैसे बढाने को तैयार नहीं होता फिर भी मैंने 2014 में धरना प्रदर्शन था डीएलसी पर वहां से मुझे उत्साह मिला और 2014 में ही 4000 रुपये कराये फिर आज 2015 में मुझे 5000 रुपये मिलते हैं।
इतने साल में मैंने यह जाना कि हम अकेले-अकेले कुछ नहीं कर सकते इसीलिए हमें किसी मजदूर संगठन से जुड़ना जरूरी है क्योंकि संगठन अगर सही है तो कभी भी कोई राय आपको गलत नहीं मिलेगी क्योंकि यह मेरा 5 साल का अनुभव है, और आज मैं यह जान गया हूं कि संगठन के दम पर हम अपने हक की लड़ाई लड़ सकते हैं। और जो भी मैने अभी तक पढ़ा है उससे यहां पता चलता है कि मजदूरों ने जो भी लड़ाईयां जीती हैं वे सारी संगठन व यूनियन के दम पर ही जीती हैं और आज संगठन की बहुत जरूरत है।
पप्पू, दुकान मजदूर, बरेली
देवनारायण की आप बीती
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
देवनारायण मजदूर बिहार के जिला पटना के रहने वाले हैं और उसका मालिक विनोद भी पटना का रहने वाला है। मालिक विनोद उ. प्रदेश के जिला बरेली मढीनाथ मोहल्ला में रहते हैं। विनोद गन्ने का रस बेचता है। इसका कोल्हू सिटी सब्जी मंडी में लगा है। विनोद अपने गांव जिला पटना से देवनारायण सहित 5 मजदूरों को झूठ बोलकर बरेली ले आया उसने इन मजदूरों से बोला कि उनको आठ घंटे का काम करना होगा। आपका 8 घंटे का वेतन 5000 रुपये मय खाना-रहना मकान खर्च विनोद मालिक देगा। ये तय करके विनोद पांच मजदूरों को बरेली ले आया। जब मजदूर सुबह को काम पर आये तब पता लगा कि इन पांचों मजदूरों को गन्ने के कोल्हू पर काम करना है। ये कोल्हू सुबह 7 बजे से शाम 10 बजे तक चलते हैं। मजदूर सुबह 7 बजे अपने-अपने काम पर लग जाते हैं और रात 10ः30 बजे कहीं बिस्तर पर जाते हैं। मालिक उन्हें खर्च को कोई पैसे नहीं देता है। मालिक की इस धोखाधड़ी से पांचों मजदूरों में गुस्सा व्याप्त है। मालिक से पैसा मांगने पर वह मजदूरों की पिटाई भी करता है। इनमें से एक मजदूर चुपचाप यहां से बिहार भाग गया।
मजदूर देवनारायण का कहना है कि मालिक का भाई पटना जिले के गांव में रहता है। अगर उसने हम मजदूरों को धोखा दिया है और विनोद ने उनका हिसाब नहीं किया तो उसके भाई से गांव जाकर उससे पैसा वसूलने की बातें कह रहे हैं।
साथियों इस पूंजीवादी व्यवस्था में विनोद जैसे क्रूर मालिकों से मजदूर संगठित होकर ही मुंहतोड जवाब दे सकते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था पैसे पर टिकी व्यवस्था है। जब इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ कर समाजवादी व्यवस्था लायेंगे तभी मजदूर अपने लुटते श्रम की लूट से बच सकते हैं।
देवनारायण का एक मित्र, बरेली
मित्तर फास्टनर्स के श्रमिक संघर्ष के लिए पुनः उठे
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
मित्तर फास्टनर्स के श्रमिक डेढ़ वर्ष से लगातार संघर्ष कर उद्योगपतियों के दमन को झेलते हुए अपने कदम पीछे नहीं हटा रहे हैं। अब श्रम कानूनों में हुए फेरबदल से श्रमिकों पर उद्योगपति हावी हैं। आखिर मजदूरों का कसूर क्या है? क्या न्यूनतम वेतन मांगना अपराध है। यदि नहीं तो निकाले गये श्रमिक मसुलुद्दीन खान जो कि अपने निर्धारित समय पर कार्य पर दिनांक 13 नवम्बर 2014 पर पहुंचा। कम्पनी मालिक मुकेश साहनी कम्पनी में तैयार थे। उन्होंने श्रमिक को केबिन में बुलाया, ढाई घंटे तक त्याग पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए बंधक बना कर रखा लेकिन खान ने सिर्फ एक बात रखी आखिर मेरा कसूर क्या है तो सुपरवाइजर बोला कि न्यूनतम वेतन की लड़ाई लड़ने में तूने भी अहम भूमिका निभाई थी। इसलिए तुझे निकाला जा रहा है। खान 6 माह से लगातार जिला प्रशासनिक अधिकारियों के यहां चक्कर लगा रहा है। लेकिन उद्योगपतियों के सामने आखिर मजदूर की कौन सुनने वाला है। एएससी व डीएलसी के कार्यबहाली के आदेश करने के बावजूद भी मजदूर को कार्य पर बहाल नहीं किया गया आखिर देश की हाईकमान उद्योग रक्षा के लिए बिठाया गया है तो अधिकारियों की क्यों माने।
दिनांक 17 फरवरी 2015 को तीन श्रमिकों को प्रतिशोध का फिर निशाना बनाया गया और श्रमिक जयपाल, प्रतिपाल व धर्मेन्द्र को झूठी जांच में फंसाकर टर्मिनेट कर दिया गया। जिसमें प्रतिपाल श्रमिक प्रतिनिधि था। तो कंपनी आखिर उसे क्यों छोड़ती, कल श्रमिकों की समस्या के लिए कोई आवाज निकालने वाला श्रमिक थोड़ी छोड़ना है। वे भी श्रमिकों की बर्खास्तगी ऐसे समय में की जब वे हाॅस्पीटल में भर्ती है। और कम्पनी ने उसी बीच उनको टर्मिनेट कर दिया इससे ज्यादा दमन और उत्पीड़न क्या होगा।
कम्पनी को तो ऐसे श्रमिक की आवश्यकता है जैसे श्रमिक सत्यपाल का 2010 में प्रेस मशीन से रविवार को दाहिने हाथ की तीन उंगलियां कट गयीं और उसे आज तक प्रबंधन ने इतनी दया दिखाई कि उसे न पेंशन मिली न ही मुआवजा। यह उसे मालिक के प्रति कोई भी कार्यवाही न करने का फल मिला। यदि वह उसी घटना के समय अगर कानूनी कार्यवाही करता तो मुआवजा भी मिलता और पेंशन भी। जब मजदूर सतपाल ने दवा के पैसे मांगे तो उसे एक आरोप पत्र और दे दिया जिससे कि कम्पनी उसे जब मर्जी निकाल सके। उस समय जब उद्योगपति ने अपनी रक्षा के लिए मोदी जी को बिठाने के बाद मजदूर अपने अधिकार की आवाज निकाले तो कैसे सहन होगी।
न्यूनतम वेतन मांगने का दमन यहीं नहीं थमा। 14 मई 2015 को श्रमिक प्रतिनिधि सुदर्शन, लतादेवी को निलम्बित कर दिया। इनका कसूर बस इतना था कि प्रतिपाल की चल रही घरेलू जांच कार्यवाही में सहकर्मी के रूप में उपस्थित हुए थे। जबकि जांच अधिकारी ने श्रमिकों के सहकर्मी बिठाने के लिए खुद ही कहा था। प्रबंधन 2010 से श्रमिकों को मनमाना वेतन दे रहा था। उसका उद्योग मुनाफा कमा के दिन-दूना रात चैगुना बढ़ रहा था। लेकिन मजदूर मुखर होकर श्रम भवन में पहुंच गये और उन्होंने न्यूनतम वेतन पर वार्ता के लिए मांग पत्र दिया। समझौता 14 जून 20104 को हुआ कि श्रमिकों को न्यूनतम वेतन व ज्वाइनिंग लेटर दिनांक 16 जुलाई 2014 तक मुहैय्या कराये। लेकिन क्या फर्क पड़ता है डीएलसी के आदेश से वह समझौता आज तक लागू नहीं हुआ। श्रम कानूनों से तो आखिर मजदूर डरता है। क्योंकि मजदूर अगर श्रम कानूनों का पालन नहीं करता तो उस पर प्रबंधन से लेकर जिला प्रशासन व पुलिस भी लाठी चलाने में पीछे नहीं रहती आखिर ऐसा क्यों कम्पनी प्रबंधन श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाये उस के लिए श्रम अधिकारियों द्वारा चाय और नाश्ता से स्वागत किया जाता है। और एक मजदूर जोकि श्रम अधिकारियों के आदेश का सम्मान करते हुए श्रम कानूनों की मांग करता है। तो उस पर लाठियां भांजी जाती हैं।
मजदूर साथियो आखिर आज हमें उठना होगा, नहीं तो यह दमन और उत्पीड़न घटने की बजाय और बढे़गा। राजनेता और उद्योगपति के इस घोल-मोल रवैय्यै को समझना होगा। साथियो, मित्तर फास्टनर्स के श्रमिकों का दमन कम्पनी का दमन नहीं बल्कि आज के पूंजीवाद की देन है और ऊपर बैठे मजदूरों और किसानों के अच्छे दिन लाने वाले हमारे देश के महान राजा की देन है। न श्रम कानून रहेंगे व मजदूर कोई मांग करने के लिए किसी अधिकारी के यहां जायेंगे। और न ही उनकी कोई समस्या होगी। यही मोदी के अच्छे दिन मजदूर और किसान के लिए होंगे। बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा विदेशी कम्पनी लगेगी। जहां कोई श्रम कानून नहीं होगा। रोजगार कब खत्म हो जायें इसका कोई भरोसा नहीं होगा। जहां महिलायें दिन में सुरक्षित नहीं हैं उन्हें रात की पाली में बुलाकर उनका शोषण व उत्पीड़न किया जायेगा। यही हमारे अच्छे दिन होंगे। इन्हीं अच्छे दिनों से निजात पाने के लिए हमें उठना होगा।
दिनांक 23 मई 2015 से मित्तर फास्टनर्स के मजदूर धरने पर डी.एम. कोर्ट पर बैठे हुए हैं। उनकी समस्या 26 मई 2015 तक पूछने के लिए कोई भी अधिकारी नहीं आया। आखिर तपती धूप में यह मजदूर इस खुले आकाश में नीचे क्यों बैठे हैं। लेकिन मजदूर का तो काम ही धूप और वर्षा में रहने का है तो वह इतनी फिक्र क्यों करे। वह अपनी मांगों को लेकर अडिग हैं। और जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होगीं वह संघर्ष और तीव्र करेंगे और एक बड़ा आंदोलन छेड़ेंगे।
एक संघर्षरत मजदूर मित्तर फास्टनर्स रूद्रपुर
सेल्फी प्रधानमंत्री
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
सेल्फी प्रधानमंत्री जी! देश का विकास तीर धनुष, गाजे-बाजे व ढोल बजाकर नहीं होगा। देश के सेल्फी प्रधानमंत्री ने कुर्सी संभालते ही देश का विकास पूंजी के विकास में तल्लीन हो गये। इन्होंने विकास के जुमले के साथ देशी-विदेशी पूंजी के हवाले देश के प्राकृतिक संसाधनों और श्रम कानूनों को, निजी पूंजी को लूट व गिरवी रखने की छूट की तैयारी करनी शुरू कर दी।
प्रधानमंत्री ने देशी-विदेशी मंचों पर ‘सेल्फी’ लेना, मसखरे जैसे करतब दिखाने शुरू किये और यह क्रम जारी है। इन्होंने किसी देश में ढोल बजाकर तो किसी में बांसुरी व धनुष चलाकर अपने भौंडेपन का प्रदर्शन किया। मोदी ने यह सब ‘संघ’ की शाखाओं में सीख रखा है। और उसी का करतब यह विदेशी मंचों पर दिखाते फिर रहे हैं। मोदी जी ने सोचा होगा कि ये भोली-भाली गरीब जनता मेरी इस कलाकारी और लच्छेदार बातों से खुश होकर इन सब नौटंकी के पीछे छिपे मेहनतकश विरोधी घृणित मंशा को भूल मेरी तारीफ करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ जनता ने अपने अभावग्रस्त जीवन से सीखना शुरू कर दिया कि यह सब मोदी जी की नौटंकी है और इससे हमारा भला नहीं होने वाला।
मोदी की इस पूरी नौटंकी में पालतू मीडिया द्वारा खूब बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार किया गया कि विदेशी जनता ने मोदी जी को बेहद पसंद किया। क्या मीडिया ने यह बताया कि जिस जनता ने मोदी की तारीफ की वह कौन सी जनता थी? वह मजदूर जनता या फिर वह जनता जो मोदी जैसे नौटंकीबाजों को पसंद करती है। जिसके सपनों को साकार करने में मोदी और मोदी जैसे शासक लगे हुए हैं। ऐसे में उच्च वर्ग की जनता या लोग मोदी की तारीफ तो करेंगे ही न कि गरीब जनता।
गरीब जनता कभी भी अपने भाइयों को चाहे वह देशी हो या विदेशी लूटने का न्यौता देने वाले शासक की तारीफ नहीं करेगी। हर देश की मजदूर जनता हर देश के शासकों के पूंजीवादी लुटेरे चरित्र को जान समझ रही है।
मोदी जी ने सोचा होगा कि मैं अपनी पालतू मीडिया के माध्यम से नये-नये करतब दिखाकर जनता का दिल जीत लूंगा। तो प्रधानमंत्री जी ये आपकी भूल है। गरीबों का पेट आपके लच्छेदार भाषणों और बेहूदा करतबों से नहीं भरेगा। गरीबों का पेट तो रोटी से भरेगा और वह आप दे नहीं सकते। क्योंकि आप तो जनता के हिस्से की बची-खुची रोटी छीन कर पूंजीपतियों को देने में लगे हो।
प्रधानमंत्री जी बच्चे को एक समय तक खिलौनों से बहलाया जा सकता है। लेकिन जैसे ही एक समय के बाद बच्चे की भूख का इंतजाम नहीं हो पाता वैसे ही वह रोने लगता है। लेकिन यहां जनता बच्चा नहीं कि वह आपके सामने रोयेगी, गिडगिडायेगी। गरीब जनता सही और गलत में फर्क करना सीख रही है। इसलिए वह रोयेगी नहीं, बल्कि आपके और आपके जैसे पूंजीवादी शासकों से अपने हर एक आंसू का, हर जुल्म का बदला लेगी। और आप जैसों को और आपके घृणित मंसूबों को नंगा करके इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देगी।
प्रवीण कुमार हरिद्वार
प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना का शिगूफा
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
सामाजिक सुरक्षा के नाम पर प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना तथा अटल पेंशन योजना का ढोल पीटकर इस देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसे अपनी सरकार की गरीबों व असंगठित क्षेत्र के असंख्य लोगों के हितकारी योजनाओं के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल में कोलकाता में इन्हीं योजनाओं का उद्घाटन के अवसर पर वे गत वर्ष प्रारम्भ की गयी। प्रधानमंत्री, जन-धन योजना में रिकार्ड संख्या में खोले गये खातों का जिक्र करना नहीं भूलते हैं। प्रधानमंत्री को लगता है कि वे जो भी करते हैं वह ऐतिहासिक है। इससे पूर्व ऐसा कोई भी नहीं कर पाया। वे साधारण जन-जन तक बैंकिंग सेवा को जोड़ने को अपना अद्वितीय प्रयास मानते हैं। बैंक खाते में गैस की सब्सिडी सीधे ट्रांसफर होने वाली योजना को सबसे बड़ी विश्व की योजना बताकर अपनी सरकार की महानतम उपलब्धियां बताया जा रहा है। ठीक इसी तर्ज पर सामाजिक सुरक्षा की ये तीन योजनाओं का प्रचार-प्रसार जोरों पर है।
क्या सचमुच इन योजनाओं में सामाजिक सुरक्षा की इतनी गंभीर चिंता है या फिर असल में कुछ और ही है। काॅरपोरेट जगत तथा उद्योगपतियों का शुभचिंतक प्रधानमंत्री इन योजनाओं की बात करता है तब तो जरूर इसमें कुछ न कुछ होगा।
प्रधानमंत्री जन-धन योजना पर विस्तृत लेख ‘नागरिक’ के पूर्व अंक में प्रकाशित हुआ है जहां एक ओर सामाजिक सुरक्षा की ये बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं वहीं दूसरी ओर श्रम कानूनों को ढीला करने की तैयारी है। मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए भविष्य निधि अधिनियम 1952, पेंशन अधिनियम 1995 तथा प्रत्येक फैक्टरी मजदूर के कर्मचारी बीमा कानून का क्या जिन्हें या तो समाप्त करने या ढीला करने का प्रस्ताव है। ठेकेदारी में मजदूरों का कौन सा बीमा होता है या फिर कैसी उनकी सामाजिक सुरक्षा है जहां उन्हें न्यूनतम मजदूरी से कम पर काम करने को विवश होना पड़ रहा है। जब मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के कानूनी प्रावधानों को समाप्त करना एजेंडे में हो तब सामाजिक सुरक्षा की बड़ी-बड़ी बातें करना पाखण्ड नहीं तो और क्या है?
प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के सहमति-सह घोषणा पत्र में यह स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि वार्षिक प्रीमियम जो रुपये 12 है वह कभी भी संशोधित हो सकती है। यानि कि प्रीमियम की यह राशि जरूरी नहीं कि उतनी ही रहे यह बढ़ सकती है। मृत्यु के बाद नामित द्वारा दावे का निस्तारण भी बहुत आसान नहीं होगा। दुनिया भर के प्रमाण पत्र, शपथ पत्र सदस्य से सम्बन्ध का प्रमाण न जाने क्या क्या प्रस्तुत करने होंगे तभी दावे का निस्तारण होगा।
कुल मिलाकर करोड़ों की संख्या में इन योजनाओं से छोटे कारोबारी, मजदूर, साधारण जन जुड़ेंगे। निश्चित तौर पर यह वित्तीय समावेशन के जरिये पूंजी का निर्माण होगा। छोटी-छोटी बचतों से इन योजनाओं से जो पूंजी का निर्माण होगा उसे निश्चित तौर पर पूंजीपतियों को पूंजी निवेश के लिए उपलब्ध करवाया जाना तय है। सामाजिक सुरक्षा के नाम पर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना जनता को गुमराह करने के सिवा और कुछ नहीं है।
खुशाल, पिथौरागढ़(उत्तराखण्ड)
आप ही बतायें कैसे न्याय दिलायें
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
बेल सोनिका आटो कम्पोनेन्ट इण्डिया प्रा.लि. में लम्बे समय से चलते आ रहे मजदूरों के शोषण से परेशान होकर जब श्रमिकों ने यूनियन बनाने का और एकजुट होने का सोचा तो प्रबंधकों के पैरों तले की जमीन सी खिसकती लगी। प्रबंधकों द्वारा कई प्रयास यूनियन न बनने के और श्रमिकों को दबाने के लिए किये गये। लेकिन इन सबके चलते आखिर यूनियन का पंजीकरण 10 अक्टूबर 2014 को आरईजी नम्बर 1983 के रूप में आया। तब से कंपनी प्रबंधकों के यूनियन विरोधी प्रयास और तेज हो गये। और इसी दिन यानि 10 अक्टूबर को ही यूनियन बनाने वाले सभी श्रमिकों को गैर कानूनी तरीके से गेट बंद कर दिया गया और इन्हें कंपनी के अंदर नहीं आने दिया गया। कारण पूछने पर भी कोई उचित कारण नहीं दिया और ना ही लिखित में निलम्बित पत्र आदि दिए गये। आरोप पत्र भी सिविल कोर्ट के माध्यम से 24 दिसम्बर को श्रमिकों द्वारा केस दायर करने पर दिए गए। 10 अक्टूबर से यानि यूनियन बनने से ही कंपनी प्रबंधन सिर्फ इसी फिराक में थी कि किस तरह से यूनियन को रद्द करवाया जा सके। और श्रमिकों को हमेशा के लिए कंपनी से बाहर का रास्ता दिखाया जा सके।
कंपनी प्रबंधकों का साथ देने में प्रदेश का श्रम विभाग, पुलिस विभाग व अन्य कंपनियों के प्रबंधक भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लगे हुए है। यूनियन को रद्द करने के लिए कंपनी प्रबंधक अभी तक कई असफल प्रयास कर चुका है। जैसे नवम्बर 2014 में कंपनी ने चण्डीगढ हाईकोर्ट में केस लगाकर यूनियन रद्द करने का प्रयास किया। लेकिन यहां कंपनी प्रबंधकों को मुंह की खानी पड़ी और वे सफल नहीं हो सके। फिर एक और प्रयास रजिस्ट्रार महोदय चण्डीगढ़ के पास यूनियन के विरोध में याचिका दायर की गई। वहां पर भी अभी तक तो प्रबन्धक सफल न हो सके। इसको सफल बनाने के लिए वे रजिस्ट्रार के साथ मिलकर सांठ-गांठ करके बजाय समझौता करने के यूनियन को रदद करने के दांव-पेंच खेल रही है और इसके साथ ही एक अन्य झूठा केस गुडगांव सिविल कोर्ट में भी प्रबन्धकों ने अन्य श्रमिकों से (जो कम्पनी के अन्दर अभी काम कर रहे हैं) झूठे साईन लेकर व बिना इन श्रमिकों को बताए यूनियन के कई पदाधिकारियों के ऊपर झूठा केस लगाया हुआ है। इन श्रमिकों (जिनसे जबरदस्ती साईन लिए हुए है) से कोर्ट गुडगांव में बयान भी दिलाया है कि कम्पनी प्रबन्धकों ने उनसे कई बार जबरदस्ती अलग-अलग प्रकार के दस्तावेजों पर जैसे कोई कागजातों पर, हल्फनामे पर व त्यागपत्रों पर बिना श्रमिकों को दिखाये इन कागजातों को मोड़कर के साईन दबाव बनाकर करवाए है और यह केस प्रबन्धकों ने हमारे साईन लेकर बिना हमें बताए लगाया है, जिसका हमें नहीं पता। इस तरह प्रबन्धक गैर कानूनी तरीके से निलम्बित किए श्रमिकों को बहाल करने की बजाए उन पर (निलम्बित श्रमिकों पर) लगातार दबाव बनाने व उन्हें झूठे केसों में फंसाने के पूरे प्रयास कर रहा है।
लगातार लम्बे समय से (7 महीने) नौकरी से बाहर रहने के बावजूद भी श्रमिकों ने आज तक भी कम्पनी की गुणवत्ता, उत्पादकता व अनुशासन को कभी भी हानि पहुंचाने की कोशिश नहीं की न ही इस तरह का प्रयास श्रमिकों के द्वारा निलम्बित रहने से पहले किया गया। गुणवत्ता, उत्पादकता व अनुशासन को हानि पहुंचाने के प्रयास के झूठे इलजाम भी निलम्बित श्रमिकों पर लगाये जा रहे हैं। उल्टा प्रबंधक पक्ष ही न जाने क्यूं ऐसी स्थिति स्वयं कई बार पैदा कर चुके हैं जैसे प्रबंधक पक्ष के एचआर हेड ने स्वयं श्रमिकों को उकसाने व भड़काने के लिए श्रमिकों के साथ गाली -गलौच, मार-पिटाई स्वयं की व कई बार बाहरी गुण्ड़ों (बाउंसरों) का सहारा लेकर मार-पिटाई करवाई गयी। जबरदस्ती त्यागपत्रों, चुकता हिसाब के कागजातों व अन्य कई प्रकार के हलफनामों पर भी हस्ताक्षर करवाए गए जिसकी शिकायतें समय-समय पर थाना मानेसर में करवाई गयी। लेकिन पुलिस विभाग की तरफ से इन शिकायतों पर आज तक भी कोई कार्यवाही नहीं की गयीं। पहले तो थाना अधिकारियों ने श्रमिकों की शिकायतें व एफआईआर दर्ज ही नहीं की, उलटा श्रमिकों को ही भला बुरा व गाली गलौच करने लगे। लेकिन बाद में पुलिस कमिश्नर गुड़गांव के कहने पर शिकायतें तो दर्ज कर ली गयीं लेकिन एफआईआर आज तक दर्ज नहीं की गयीं। अब भी इन शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी।
कम्पनी प्रबंधकों ने माह फरवरी 2015 तक गैरकानूनी तरीके से लगभग 68 स्थायी व ट्रेनिंग श्रमिकों को बिना कोई घरेलू जांच की कार्यवाही पूरे किए टर्मिनेट किया जा चुका है। इसके अलावा लगभग 18 स्थायी व ट्रेनिंग श्रमिक निलम्बित चल रहे हैं। और इसके साथ ही कम्पनी लगभग 60 ठेका श्रमिकों को बाहर का रास्ता दिखा चुकी है। इस तरह सभी श्रमिकों को मिलाकर लगभग 150 श्रमिकों को गैर कानूनी तरीके से बाहर किया जा चुका है। और आगे भी यही प्रक्रिया लगातार जारी है जो बंद होने का नाम नहीं ले रही है और श्रमिकों को सिर्फ यूनियन बनाने व इसका साथ देने के कारण बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है और प्रबंधकों के द्वारा श्रमिकों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। सिर्फ एक यूनियन बनाने मात्र से प्रबंधक लगातार श्रम विभाग के अधिकारियों के साथ मिलकर व उन पर कई तरह के राजनैतिक दबाव बनाकर श्रम कानूनों को ताक पर रख रहे हैं। वे श्रम कानूनों को मानने तक को तैयार नहीं होते सिर्फ दिखावा करते हैं।
पिछले माह फरवरी 2015 में भी प्रबंधकों द्वारा ऐसा ही एक और गैर कानूनी कदम उठाया गया। जिसमें 47 श्रमिकों का केस अतिरिक्त श्रमायुक्त गुड़गांव के सम्मुख चल रहा था। इन 47 श्रमिकों में 39 श्रमिकों को घरेलू जांच की कार्यवाही पूरी किये बिना व जांच रिपोर्ट तैयार किये बिना और जांच रिपोर्ट दिए बिना 39 श्रमिकों के बैंक खातों में चुकता हिसाब की राशि 16 फरवरी 2015 को डाल दी गयी। लेकिन कम्पनी प्रबंधकों द्वारा 16 फरवरी को ही श्रमिकों के खाते में हिसाब की राशि डालने के साथ ही अतिरिक्त श्रमायुक्त गुड़गांव में आज्ञा या सहमति लगानी थी जो नहीं लगाई गयी। 18 फरवरी 2015 को रजिस्ट्रार चण्डीगढ़ के माध्यम से अप्रूवल चण्डीगढ़ में दायर की गयी। जो रजिस्ट्रार के माध्यम से डायरी विभाग से सांठ-गांठ करके 16 फरवरी को दर्ज की गयी। और अतिरिक्त श्रमायुक्त गुड़गांव के पास 24 फरवरी 2015 को डाक के माध्यम से पहुंची। प्रबंधकों का अप्रूवल लगाने का यह तरीका गलत व गैर कानूनी है। इसी तरह के गलत व अनुचित कदम कम्पनी प्रबंधकों की और से बार-बार उठाए जा रहे हैं जबकि श्रमिकोें की ओर से आज तक कानून की पूरी-पूरी पालना की जा रही है। फिर भी कानून श्रमिकों को बहाल करने की बजाए कम्पनी व कम्पनी प्रबंधकों के इशारों पर नाच रहा है।
माननीय सहायक श्रमायुक्त सर्कल-VI गुड़गांव में श्रमिकों द्वारा डाला गया सामूहिक मांग पत्र पिछली दिनांक 24 सितम्बर (लगभग 8 महीने) से लम्बित पड़ा है। जिस पर कम्पनी प्रबंधक बात ही करने को तैयार नहीं है और सिर्फ केस को लम्बा करने के लिए आगे से आगे की तारीखें लेकर कम्पनी प्रबंधक चले जाते हैं और श्रमिकों के हाथ लगती है तो सिर्फ तारीख और सिर्फ तारीख।
दूसरी तरफ जिन 8 श्रमिकों को घरेलू जांच कार्यवाही अभी अधूरी है इनमें से 4 को तो कोई घरेलू जांच कार्यवाही की तारीख ही नहीं दी जा रही है जिसकी अपील अतिरिक्त श्रमायुक्त व सहायक श्रमायुक्त सर्कल-6 गुड़गांव में भी की जा चुकी है। और अन्य 4 श्रमिकों को घरेलू जांच कार्यवाही की तारीख जांच अधिकारियों द्वारा दी जा चुकी है तो वे स्वयं जांच स्थल पर नहीं पहुंचते। ऊपर से आने, न आने की सूचना श्रमिकों को नहीं दी जा रही है। अगर श्रमिक फोन के माध्यम से सम्पर्क करने की कोशिश करते हैं तो उन श्रमिकों का फोन भी जांच अधिकारियों द्वारा रिसीव नहीं किया जाता और श्रमिकों को आगामी जांच कार्यवाही की तिथि भी समय पर नहीं बताई जा रही। जबकि जांच कार्यवाही की आगामी तिथि व अपने आप ना आने की सूचना समय पर देना जांच अधिकारी का कर्तव्य बनता है। जांच अधिकारी ही इस तरह से जांच कार्यवाही को लम्बा और एकतरफा करने के प्रयासों में लगे हैं। यानी कानून के रक्षक ही स्वयं कानून के भक्षक बनकर बैठे हैं। जिसको कानून की पालना स्वयं करना चाहिए व दूसरों से भी यही उम्मीद करनी चाहिए वे ही सरेआम, दिन-प्रतिदिन और कानून का ही चोला पहनकर कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं और दूसरों को भी सिखा रहे हैं। यह केवल इन्हीं नीतियों के साथ ही नहीं बल्कि हजारों-लाखों निर्दोष श्रमिकों व निर्दोष लोगों के साथ दिन-प्रतिदिन हो रहा है। मजदूरों का नेतृत्व करने वाले श्रमिकों को लगातार लम्बे समय से दबाया जाता जा रहा है और झूठे केसों में फंसाकर जेलों में भरा जा रहा है जिसकी संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही हैै। इस तरह आप ही बताएं इन हजारों-लाखों निर्दोष व बेबसों को किस प्रकार से न्याय दिलाया जाए।
अतुल कुमार (प्रधान)
बेलसोनिका आॅटो कम्पनी यूनियन
माॅडल टाउन गुडगांव
सरकारः भाजपा किसान-मजदूर विरोधी सरकार
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
मध्य प्रदेश राज्य के खांडवा जिले में घोघला गांव के किसान पिछले 11-12 दिनों से जल सत्याग्रह कर रहे हैं। किसान गांव के नजदीक बने ओंकेश्वर बांध की ऊंचाई बढ़ाये जाने का विरोध कर रहे हैं। बांध की ऊंचाई 189 मी. से 191 मी. किये जाने से खांडवा जिले के 300 गांव व कृषि भूमि डूब क्षेत्र में आ गये हैं।
किसान अपनी कृषि योग्य भूमि के लिए उचित मुआवजे व उचित पुर्नवास की मांग को लेकर संघर्षरत हैं। बांध का जलस्तर 2 मी. बढ़ाये जाने से स्थानीय आबादी के लिए जलस्तर और आवास का संकट खड़ा हो गया है। किसानों के अलावा खेती पर निर्भर मजदूरों के लिए तो संकट और भी गम्भीर है। इसलिए स्थानीय आबादी बांध का जलस्तर 189 मी. से अधिक न बढ़ाये जाने व डूब क्षेत्र में आयी भूमि के लिए उचित मुआवजे के लिए संघर्षरत है। घाघला गांव के लोग 11 दिनों से छाती तक पानी के अंदर खड़े हैं। पानी के अंदर खड़े लोगोें के पैर की खाल गलने लगी है। लोगों के पैरों से खून रिसने लगा है।
राज्य में भाजपा सरकार के मुखिया शिवराज चौहान मौन साधे हैं।
खुद को किसानों का हितैषी कहने वाली भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री मोदी भी इस पर कुछ नहीं बोलते हैं। जबकि भाजपा लोकसभा चुनाव में अच्छे दिनों के नारे के साथ सत्ता पर बैठी।
परन्तु सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों के मन की बात सुनने के बजाय किसानों को मन की बात सुना रहे हैं।
एक ओर जहां किसान अपनी जमीन और रोजगार को लेकर संघर्ष कर रहे हैं और आत्महत्या कर रहे हैं। वहीं मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर खुद को किसानों का सबसे बड़ा हितैषी साबित कर रही है।
भूमि अधिग्रहण बिल राज्य को किसी की भी भूमि जबरन छीन लेने का अधिकार देता है। और प्रधानमंत्री मोदी मन की बात में किसानों को बताते हैं कि यह बिल किसान विरोधी नहीं किसान हितैषी है। यही है भाजपा सरकार का किसान हितैषी चेहरा।
दोस्तों यह सरकार न तो किसान हितैषी है और न मजदूर हितैषी। यह सरकार विकास के नाम पर देश की जमीनें, देश के प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट की छूट देशी-विदेशी पूंजीपतियों को दे देना चाहती है।
यह सरकार मजदूरों, किसानों के लूट की छूट पूंजीपतियों को दे देना चाहती है।
‘श्रमेव जयते’ कोरी लफ्फाजी मजदूरों के साथ धोखा है
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के अनुसार करीब पांच करोड़ उनके सक्रिय सदस्य हैं जो प्रोविडेण्ट फण्ड से सम्बद्ध हैं। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे मेहनतकश समाज का कितना छोटा हिस्सा असल में श्रम कानूनों के दायरे में आता है। यानि कि मजदूरों की एक बड़ी आबादी श्रम कानूनों से बाहर है जिन्हें उनके मालिकों को उनके श्रम का निर्मम शोषण करने की खुली छूट मिली है। श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर ऐसे संशोधन प्रस्तावित किये जा रहे हैं जो दूसरे के श्रम पर मुनाफा कमाने वाले परजीवी मालिकों को बहुत सारी छूट प्रदान करते हैं। दुनिया के पैमाने पर मजदूरों के आंदोलनों की कमजोर स्थिति तथा वैश्विक स्तर पर आर्थिक मंदी ने श्रम कानूनों को मजदूर विरोधी बनाने की ओर बढ़ने में मदद पहुंचायी है।
श्रम विभाग से जुड़े नौकरशाह, उद्योगपति समस्त राजनैतिक दल यह अच्छी तरह जानते व समझते हैं कि श्रम कानूनों की औकात क्या है। पहले से ही श्रम कानूनों का कितना पालन होता है। कैसे फर्जीवाड़ा करके श्रम कानूनों को ठेंगा दिखाया जाता है। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। व्यापार एवं अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए परजीवियों को ये लुंज-पुंज श्रम कानून भी अखरने लगे हैं। पूंजी के रास्ते में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए फिर वे श्रम कानून ही क्यों न हों, इस देश के प्रधानमंत्री ‘श्रमेव जयते’ की लफ्फाजी करते हैं वहीं पर श्रम कानूनों को मालिकोन्मुखी बनाने में विश्वास रखते हैं। जब बात कही जाती है कि देश में पूंजी निवेश के लिए लाल फीताशाही बड़ी बाधा है। तब असल में इशारा श्रम कानूनों की ओर होता है। जब कहा जाता है हमारे यहां निवेश के लिए रेड टेप का सामना नहीं करना पड़ेगा। बल्कि हम रेड कार्पेट बिछायेंगे तब इसका मतलब यह है कि हम श्रम कानूनों को या तो समाप्त ही कर देंगे या फिर उन्हें इतना कमजोर बना देंगे कि पूंजी के लिए वे किसी भी तरह से बाधक नहीं होंगे।
नौकरशाही व नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार का बहाना बनाकर असल में श्रम कानूनों को कमजोर बनाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। मजदूरों के संघर्ष के गौरवशाली इतिहास, दुनिया के पैमाने पर मजदूर क्रांतियों ने श्रम कानूनों की मजबूरी को स्थापित किया। श्रम कानून कोई मजदूरों पर दिखाई जाने वाली दरियादिली, सद्भावना या एहसान कतई नहीं है। मजदूरों के पक्ष में श्रम कानून जो भी बनाये वे मजदूरों के दबाव में बनाये गये हैं। मालिकों को एक दौर में झुकना पड़ा। तब श्रम कानून अस्तित्व में आये श्रम कानून एक फौरी समझौता हैं जो मजदूरों को संघर्ष करने से रोकता है।
जब ‘गुड गर्वनेन्स’ या सुशासन की बात की जाती है तब इसका मतलब साफ है मेहनतकशों की जो भी आवाज विद्रोह करेगी उसे सुशासन के जरिये दबाया जायेगा पूंजी के लिए एक अच्छा वातावरण शांति पूर्ण शोषण (Peaceful Exploitation) की एक फिजा तैयार की जायेगी। ‘मिनिमम गवर्नमेण्ट’ का मतलब है मजदूरों के पक्ष में जो थोड़े बहुत श्रम कानून बने भी हैं उन्हें कमजोर बनाकर सरकार की भूमिका को न्यूनतम कर दिया जायेगा। रोजगार देना सरकार का दायित्व बिल्कुल भी नहीं है। मालिक-मजदूरों के मध्य सरकार अपनी भूमिका बिल्कुल नहीं रखना चाहती है। पूंजी को मजदूरों पर हमला करने के लिए बिल्कुल खुला छोड़ देना आर्थिक सुधारों का अहम हिस्सा है। बातें घुमा फिरा कर कही जाती हैं। टुकड़ा खोर बुद्धिजीवी बड़ी शालीनता से इस मुनाफाखोर व्यवस्था पर पर्दा डालने का काम बखूवी करते हैं।
खुशाल सिंह नेगी, पिथौरागढ़
इस बार मनेगा मजदूर-किसान एकता दिवस
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन की एक विस्तारित बैठक का आयोजन पीडब्ल्यूडी गेस्ट हाउस में 7 अप्रैल को किया गया था। इसमें लिए गये निर्णयों के अनुरूप पर्चा एवं पोस्टर वितरित करने एवं विभागवार बैठकें आयोजित करने का सिलसिला शुरू हो गया है। इस बार मई दिवस मजदूर किसान एकता दिवस के रूप में मनाया जायेगा जिसके लिए किसानों के बीच में भी बैठकें कर पोस्टर चिपकाये जाने का काम किया जा रहा है। 10 अप्रैल को राष्ट्रपति को सम्बोधित ज्ञापन भेजने के बाद निरन्तर बैठकें की जा रही हैं। अब तक भारतीय जीवन बीमा निगम, सिंचाई विभाग, संयुक्त परिषद कार्यालय, रोडवेज कार्यालय, भविष्य निधि संगठन, बिजली दफ्तर, विकास भवन, बीएसएनएल कार्यालय, बैेंकों आदि में बैठकों के कई दौर हो चुके हैं। आज सांय आयकर कार्यालय में महासंघ के पदाधिकारियों व सदस्यों के साथ बैठक का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता श्री कैलाश चन्द्र सक्सेना ने की। इस अवसर पर अपने सम्बोधन में महामंत्री संजीव मेहरोत्रा ने कहा कि श्रम कानूनों में किए जा रहे एक तरफा बदलाव एवं भू-अधिग्रहण अध्यादेश एक किसान विरोधी कदम है। आयकर कर्मचारी महासंघ के जोनल सचिव रवीन्द्र सिंह ने कहा है कि वर्तमान दौर में आपसी एकता को मजबूत करके शिकागो शहीदों के बताये रास्ते पर चलने की आवश्यकता है।
इस मौके पर आयकर कर्मचारी संघ के राजेश सक्सेना ने कहा कि मोदी सरकार के काबिज होने के बाद से रोजगार के अवसर घट रहे हैं और श्रम कानूनों में मालिकों के हक में परिवर्तन से श्रमिकों कर्मचारियों की हालत खराब हो रही है। मई दिवस को सफल बनाने के लिए सभी का आह्वान किया गया। इस दौरान फेडरेशन की गतिविधियां तेज करने व आंदोलन को व्यापक बनाने की रणनीति भी तय की गयी। परिचर्चा में अमीर खां, अफरोज आलम अंजनीसिंह, कमलेश त्रिपाठी, सतीश बाबू, ए.के. जायसवाल, सुरेन्द्र कुमार आदि ने सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। संजीव मेहरोत्रा, महामंत्री
बरेली ट्रेड यूनियन फैडरेशन
31 साल बाद झण्डारोहण समारोह
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
फ्रिक इण्डिया लिमिटेड, एन.एच.पी.सी. चौक, मथुरा रोड फरीदाबाद में स्थित है। फ्रिक इण्डिया इम्प्लाइज यूनियन द्वारा 12 फरवरी 2015 को जोशो खरोश के साथ झण्डा रोहण का आयोजन कम्पनी गेट पर शाम 5 बजे से लेकर 6ः30 बजे तक का कार्यक्रम किया गया। यूनियन 1983 में बनी तब उस समय 12 फरवरी 1983 में कम्पनी गेट पर झण्डारोहण किया गया था। अबकी बार 31 साल बाद यूनियन ने अपने जोशोखरोश व उल्लास के साथ झण्डारोहण कार्यक्रम मनाया। इसमें कम्पनी के सारे मजदूर स्थायी मजदूर, ट्रेनिंग व ठेकेदारी के मजदूर शामिल थे। झण्डारोहण शुरू में ‘इंकलाब-जिन्दाबाद!’ ‘फ्रिक इण्डिया इम्प्लाइज यूनियन-जिन्दाबाद’ व ‘ मजदूर एकता-जिन्दाबाद’ के नारे लगाये गये। जिसमें मजदूरों ने जोशो खरोश के साथ नारे लगाये। चुने गये पदाधिकारियों का स्वागत किया गया। प्रधान- रणधीर सिंह, महासचिव- सुरेश वर्मा, कोषाध्यक्ष- राम अवतार सिंह, उपप्रधान- सुदर्शन राम, उपसचिव- सच्चिदानंद सिंह हैं जो 2011, 2013 व 2015 से लगातार तीसरी बार निर्विरोध निर्वाचित हुए हैं।
मजदूरों को सम्बोधित करते हुए प्रधान व महासचिव तथा अन्य पदाधिकारी गणों ने अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहने व एकता बरकरार बनाये रखने के संदेश दिये। जयप्रकाश, फरीदाबाद
रेलवे कायाकल्प कमेटी-किसका कायाकल्प रेलवे या देशी विदेशी पूंजीपतियों का!
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
भारतीय रेलवे के बहादुर साथियो,
आज भारतीय रेल पर खतरे के काले बादल मंडरा रहे हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा (NDA) सरकार बनते ही भारतीय रेलवे पर, सार्वजनिक क्षेत्र पर, मेहनतकश लोगों पर जैसा कि पहले ही अंदेशा था हमले तेज हो चुके हैं। नरेन्द्र मोदी देशी-विदेशी पूंजीपतियों को आश्वासन दे रहा है कि भारत में पूंजी लगाइये, मैं आपकी पूंजी को आंच नहीं आने दूंगा, इससे भी आगे बढ़कर सरकार उनके मुनाफे को बढ़ाने के लिए नियमों/कानूनों में बदलाव भी कर रही है। श्रम कानूनों, पर्यावरण कानूनों में बदलाव इसके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। 5 दिसम्बर 2014 को रेलवे भवन में आयोजित मेक इन इंडिया कार्यक्रम में रेल मंत्री श्री सुरेश प्रभु व अन्य अधिकारियों ने उद्योगपतियों को जो कुछ कहा था उससे पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि सरकार देशी-विदेशी पूंजीपतियों जिनके मोटे फंडों व जिनके मीडिया के प्रचार एवं सहयोग से ये सरकार बनी है के लिए कुछ भी करेगी। परन्तु पूंजीपति वर्ग कोई भी खतरा मोल लेने को तैयार नहीं हुआ। नरेन्द्र मोदी व सरकार के दावों पर उनको यकीन नहीं हुआ और हाई लेवल रेलवे रिस्ट्रकचिरिंग कमेटी (HLRRC) जिसकी अध्यक्षता श्री विवेक देवराय कर रहे हैं व उसके अन्य सदस्य जो कि देशी-विदेशी पूंजीपतियों के प्रतिनिधि हैं व अनेकों अन्य कमेटियां जिन्होंने पूंजीपतियों के पक्ष में सिफारिशें की थीं को लागू करने के लिए भारत सरकार ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों का भरोसा बांधने के लिए टाटा ग्रुप के पूर्व चेयरमेन रतन टाटा की अध्यक्षता में रेलवे कायाकल्प कमेटी का गठन कर दिया और पूंजीपतियों के मन में यह भय कि कर्मचारी यूनियनें विरोध करेंगी को दूर करने के लिए रेलवे की दो मान्यता प्राप्त फैडरेशनों के महामंत्रियों श्री एम. राघवैया व शिवगोपाल मिश्रा को इस कमेटी का मैंबर ले लिया गया है। इससे कुछ-कुछ तो साफ है कि रेलवे कायाकल्प कमेटी के गठन के पीछे सरकार की मंशा क्या है। रेलवे की फैडरेशनों के नेताओं की कायाकल्प कमेटी के मैंम्बर बनने पर क्या दलीलें दीं, हमारा पक्ष क्या है या कहें क्या डर है इसको जानने से पहले आओ जरा विवेक देवराय की अध्यक्षता वाली HLRRC कमेटी को सौंपे गये काम (TASK) व अपनी अंतरिम रिपोर्ट में की गयी सिफारिशों को जरा ध्यान से देखें-
TASK का गठन केन्द्र सरकार ने पत्र संख्या ERB- 1/2014/24/39 दिनांक 22/09-2014 को श्री विवक देवराय Sr. Research Prof. Center for Policy Research की अध्यक्षता में किया व सचिव संजय चड्ढा, EDME, Railway Board को बनाया, इसके लगभग सभी मैंम्बर जैसे गुरूचरन दास, Ex CMD प्रोक्टर एंड गेम्बलर ,श्री रवि नारायण Ex MD नेशनल स्टाॅक एक्सचेंज आदि कारपोरेट जगत के प्रतिनिधि है, उस कमेटी की रेलवे के पुनर्गठन, रेलवे में FDI, PPP निगमीकरण, निजीकरण आदि नीतियां रेलवे में कब, कहां कहां और कैसे लागू करनी हैं का काम सौंपा गया है। 31 मार्च 2015 को रेलमंत्री श्री सुरेश प्रभु को सौंपी अपनी अंतरिम रिपोर्ट में उन्होंने अपना काम बखूवी किया है उनकी रिपोर्ट के कुछ मुख्य बिन्दु हैंः-
-यात्री व मालगाडि़यों का संचालन एक संचालन कंपनी बनाकर निजी क्षेत्र को सौंपा जाये।
-एक रेलवे इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनी बनायी जाए जो नई रेलवे लाइनों का काम देखेगी।
-स्टेशन विकास निगम के नाम से एक कंपनी बनाई जाए जो स्टेशनों के रोजाना के काम देखेगी।
-ग्रुप डी के कर्मचारी जिनकी संख्या 5.64 लाख है के काम को आउटसोर्स करके बाजार के सस्ते दामों पर करवाया जाए।
-रेल इंजन, रेल कोच तथा वैगन आदि के उत्पादन का काम निजी कंपनियों को सौंपा जाए।
-रेलवे एक्ट में संशोधन का सुझाव।
-एक स्वतंत्र रेलवे रेग्युलरिटी अथाॅरिटी बनाने का सुझाव।
-मधेपुरा, मंढोरा, रायबरेली, भीलवाड़ा, सोनीपत, छपरा, जलपाईगुडी, कांचरापाडा व केरल के कारखानों को निजी कम्पनियों को देने का सुझाव।
-रेलवे बोर्ड को भारतीय रेलवे का कारपोरेट बोर्ड बनाने, अध्यक्ष रेलवे बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाने का सुझाव।
-रेलवे की सभी उत्पादन इकाईयों को इण्डियन रेलवे मैन्युफेक्चरिंग कम्पनी (IMRC) बनाकर उसके अधीन करने व IMRC के स्वतंत्र निदेशकों का चयन पब्लिक इन्टरप्राइजेज सलैक्शन बोर्ड (PESB) से किये जाने का सुझाव।
-किसी भी अधिकारी के खिलाफ विजीलैंस का मामला दर्ज करने से पहले मंडल रेल प्रबंधक की पूर्व अनुमति की शर्त।
-स्कूल, अस्पताल व RPF प्रबंधन जैसे कामों को रेलवे से अलग करने का सुझाव।
-निजी कम्पनियों को Special Purpose Vehical [SPV], के तहत निर्माण, विकास व संचालन का काम सौंपने का सुझाव वगैरा-वगैरा (SPV क्या है? हम आगे बतायेंगे।)
विवेक देवराय कमेटी (HLRRC), राकेश मोहन कमेटी, सैम पितरोदा कमेटी, श्रीधरन कमेटी, विजन 2020 व अन्य कमेटियों के सुझावों से स्पष्ट है कि सरकार रेलवे को निजीकरण/निगमीकरण, रेलवे ढांचे में फेरबदल करके इसको निजी हाथों में देना चाहती है जिससे न सिर्फ रेल कर्मचारी व उसके परिवार प्रभावित होंगे, रेलवे का किराये भाड़े में कई गुणा वृद्धि होने के कारण रेल आम आदमी की सवारी भी नहीं रहेगी, देश की आत्म निर्भरता खतरे में पड़ जायेगी।
अब जब रेलवे की दोनों मान्यता प्राप्त फेडरेशनों ने संयुक्त संघर्ष कमेटी बनाकर जिसके चेयरमैन एम राघवैया व संयोजक शिव गोपाल मिश्रा थे, रेलवे में एफडीआई, पीपीपी, निजीकरण, रेलवे ढांचे के साथ छेड़छाड़, एनपीएस आदि के खिलाफ धरने, प्रदर्शन, संसद का घेराव, हड़तालें आदि करने का दावा कर रही थीं कि तब उपरोक्त दोनों नेता रेलवे कायाकल्प कमेटी के सदस्य बन गये हैं। जोकि रेलवे के लिए खतरे की घण्टी हैं। यहां दिलचस्प बात यह है कि AIRF के महामंत्री शिव गोपाल मिश्रा साल भर पहले ये कहते हुए एफडीआई का समर्थन करते रहे हैं कि अगर एफडीआई से रेलवे का विकास होता है तो हमारा एफडीआई से कोई विरोध नहीं है। हमारी शर्त बस इतनी है कि इससे रेलवे का निजीकरण नहीं होना चाहिए व कर्मचारियों के हित प्रभावित नहीं होने चाहिए। और माननीय नरेन्द्र मोदी और सुरेश प्रभु जो भी कहते हैं कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा। विवेक देवराय की सिफारिशों को देखकर उनका दोगला चेहरा पूरी तरह बेपरदा हो गया है। फिर भी हमें एफडीआई, पीपीपी, एसपीवी जैसे टेक्नीकल शब्दों के अर्थ व सरकारी कमेटियों के मनोरथों को भी नजदीक से जानना होगा।
एफडीआई क्या है?- FDI [Foreign Direct Investment], माने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश। साथियो अगर विदेशी पूंजी की बात करें तो अंग्रेजों के देश छोड़ते समय व आजादी के बाद भी यह देश से बाहर नहीं गयी है और बहुत सी कम्पनियां देश में कारोबार करती रही हैं जैसे- मारुति सुजुकी, होंडा, कोलगेट, युनीलीवर आदि बहुत सी कम्पनियां हैं पर एफडीआई का शोर हमने पिछले चार-पांच वर्षों से ही सुना है।
साथियो एफडीआई वित्तीय पूंजी के लिए एक पैकेज होता है जिसमें कम्पनियों के लिए विशेष छूट और प्रावधान होने, यानी बिजली पानी के नाम मात्र मूल्य, टैक्स में छूट, नीति निर्धारण का हक, पैसा लगाने व निकालने के लिए सरकारों का हस्तक्षेप न होना बगैरा बगैरा, संक्षेप में कहें तो पहले कम्पनियों के बीच हुए समझौतों में सरकार की भूमिका व नियंत्रण होता था अब सरकारों की भूमिका खत्म, कंपनियां जाने या लोग, सरकार खामोश! बस साथियो यही है एफडीआई का रोग! श्रम कानूनों, पर्यावरण कानूनों में बदलाव, सिंगल विंडो क्लीयरेन्स, भूमि अधिग्रहण कानून को इसी की रोशनी में देखने की जरूरत है और सबसे अहम कि एफडीआई का पैसा देश में कुछ नया ढांचा नहीं बनायेगा बल्कि बने बनाए ढांचे को नियंत्रण में लेकर मोटा मुनाफा कमायेगा, जब भी पूंजी को कोई खतरा महसूस होगा या उसका मुनाफा कम होगा तो यह पैसा कंपनियों द्वारा बाहर निकाल दिया जायेगा। पैसों की कमी, हुनर के विकास, कीमतों में गिरावट, सरकारी खर्च में बचत आदि वादों और दावों कतई सच्चाई नहीं है।
पीपीपी- सार्वजनिक निजी भागीदारी (Public Private Partnership) सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों और रेलवे में सुस्ती का बहाना बनाकर ढांचे को चुस्त-दुरूस्त करने के नाम पर पीपीपी का वकालत करती है। किन्तु दुनिया भर के बुद्धिजीवियों व अर्थशास्त्रियों का मानना है कि पीपीपी कोई भागीदारी नहीं है बल्कि सीधा-सीधा निजीकरण है। निजी कंपनी द्वारा पीपीपी में लगाया गया पैसा पूर्ण रूप में लोगों का ही होता है क्योंकि यह बैंकों से कर्ज लेकर लगाया जाता है। पीपीपी के तहत किसी भी प्रोजेक्ट में सारा रिस्क पब्लिक क्षेत्र का यानी लोगों का और मुनाफा प्राइवेट कंपनियों का होता है।
SPV- [Special Purpose Vehicle], इसका शब्दार्थ तो आप जानते ही हैं। ये अर्थशास्त्र में कर्ज देने की ऐसी व्यवस्था है जिसमें उद्योगपतियों को कर्ज लेने के लिए अपनी सम्पत्ति गारंटी के रूप में बैंक में देने की जरूरत नहीं होती और न ही बैंक उसको जब्त कर सकते हैं जैसे देश में किसानों-मजदूरों की होती है यानी मुनाफा तो निजी कंपनियों का होता है और घाटा बैंकों का यानि देश के लोगों का। पूंजीपतियों का कोई रिस्क नहीं और तथ्य यह है कि देश की बैंक हर वर्ष लगभग 5 लाख करोड़ रुपये इन औद्योगिक घरानों के लिए गये कर्ज को Non Performing Assets [NPA] में डालती है।
स्पष्ट है कि देश की मौजूदा सरकार भी पूंजीपति देशों व संस्थानों के आगे झुकती हुई न सिर्फ रेल कर्मचारियों व उनके परिवारों और देश के आम जन को बड़े मगरमच्छों के आगे बांध कर डालना चाहती है बल्कि देश की आत्मनिर्भरता, स्वाभिमान, आजादी, सम्प्रभुता को भी खतरे में डाल रही है। और देश को दुबारा गुलामी की तरफ धकेल रही है। ऐसे में रेलवे की दोनों मान्यता प्राप्त फैडरेशनों के महामंत्रियों द्वारा रेलवे कायाकल्प कमेटी के मेंबर बनना, रेल कर्मचारियों के साथ ही नहीं बल्कि देश के आम लोगों के साथ भी गद्दारी है। इनकी दलील और दावा है कि हम कर्मचारियों के पक्ष में कमेटी में बैठे हैं और अगर रेलवे के निजीकरण की बात चली तो हम इसका विरोध करेंगे। पहली बात ये कि भारत सरकार के इरादे पूरी तरह साफ है, क्या इनको 100 प्रतिशत FDI के अर्थ समझ में नहीं आये? ऐसा नहीं है साथियो दरअसल रेलवे का निजीकरण तो बहुत पहले से शुरू हो चुका है ज्यादा पीछे न जायें तो रेलमंत्री सुरेश प्रभु द्वारा 27 फरवरी 2015 को राज्यसभा में यह बताना कि पांच रेलवे स्टेशन जिसमें हबीब गंज, बीजवाशन, शिवाजीनगर, चंढीगढ़, आनंद विहार शामिल हैं, को निजी हाथों में देने का मसौदा पूरी तरह तैयार है। 20 मार्च 2015 को मधेपुरा और मंढीरा में दो रेल इकाईयों में 100 प्रतिशत FDI लागू करना भला क्या है? सो ये फैडरेशनों के नेता संघर्ष कहां, कब और कैसे करेंगे आपको अभी भी कोई शक है? दूसरी बात ऐसे ही फैडरेशनों के नेता नई पेंशन स्कीम (NPS) के समय भी NPS के ट्रस्टी बन कर बैठ गये थे और दलील बिल्कुल यही थी और नतीजे आपके सामने हैं पर ये नेता NPS के नाम पर हमें अभी भी गुमराह कर रहे हैं।
सो अब तो जागो साथियो, हमारे बुजुर्गो हमारे शहीदों ने हमें जो आजादी और हक लेकर दिए थे वो आजादी और हक हमसे छीने जा रहे हैं, हमारी छुटिटयां छीन लीं, हमारी संख्या जो कभी 26 लाख थी जो घटकर 10.5 लाख हो गयी है हमारा काम छीनकर आऊटसोर्स कर दिया, हमारी पेंशन छीन ली, हमारे भाई बच्चों से रोजगार छीन लिया, हम पर काम का बोझ बढ़ाकर हमारा सुख चैन नींद तक छीन ली, क्या हम अभी भी खामोश रहें?
साथियों हमारे समय का इतिहास बस इतना सा रह जाये कि हम धीरे-धीरे मरने को जिन्दगी समझ बैठे थे। आओ उठ खड़े हो, केन्द्र सरकार की इन नीतियों को पस्त कर दें। हम इंडियन रेलवे एम्पलाईज फैडरेशन [IREF] की तरफ से आपका आह्वान करते हैं कि आओ कि हम सब मिलकर ऐसी नीतियों, कमेटियों व दलाल नेताओं का विरोध करें। अपने व अपने देश के आम जन के हितों की लड़ाई साथ मिलकर लड़े और पहली मई के शहीदों को यही हमारा सही और सच्चा नमन होगा, प्रणाम होगा। मान्यता के नशे में चूर हमारे भविष्य, हमारी जिन्दगी के साथ खिलवाड़ करने वाले नेताओं को या तो संघर्ष के लिए मजबूर कर दें या उनको बाहर का रास्ता दिखा कर ये बता दें कि ये अब और नहीं चलेगा कि तुम नेता तो हमारे कहलाओ और काम सरकार और पंूजीपतियों के लिए करोगे। साथियो! अब डरने का नहीं संघर्ष करने का समय है आओ संघर्ष का परचम लहरा दें। क्योंकि
हम लड़ेंगे जब तक, दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है,
हम लड़ेंगे कि लड़ें बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे कि अब तक लड़ें क्यों नहीं
सौजन्य सेः
डीजल रेल इंजन मजदूर यूनियन, वाराणसी (DLWRMU) 09794864358
नार्दन रेलवे एम्पालाईज यूनियन, नार्दन जोन (NREU) 09780642198
डी एम डब्लयू एम्पलाईज यूनियन, पटियाला (DLWEU) 09417875250
आरसीएफ एम्पलाईज यूनियन, कपूरथला (RCFEU) 08437041680
आरसीएफ एम्पलाईज यूनियन, रायबरेली (RCFEU) 07388132000
भारतीय रेलवे मजदूर यूनियन, SWR Zone (BRMU) 08762232750
वेस्ट सेन्ट्रल रेलवे कर्मचारी यूनियन WCR Zone (WCRKU) 0940654561
इण्डियन रेलवे एम्पलाईज यूनियन NWR Zone (IREU) 09462070016
निवेदकः इंडियन रेलवे एम्पलाईज फैडरेशन(WCRKU)
सर्वजीत सिंह, राष्ट्रीय अध्यक्ष
कट्टा रमईया, राष्ट्रीय महासचिव
पेन्टा क्राफ्ट कंपनी में बुरे हाल
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
हरिद्वार स्थित पेन्टा क्राफ्ट कंपनी में 25 मार्च को 14 मजदूरों को ब्रेक दे दिया गया जिनमें 12 महिला मजदूर और 2 पुरुष मजदूर थे। ये मजदूर पिछले डेढ़ से साढ़े तीन साल से कम्पनी में काम कर रहे थे। कम्पनी ने मजदूरों को पहले सूचना दिये बगैर 25 मार्च को कहा कि वे कल से काम पर नहीं आयें। उन्हें आठ दिन के लिए ब्रेक दिया गया है। मैनेजमेण्ट के लोग सभी मजदूरों के बीच काम कम होने की बात करते हैं। बीते 22 मार्च से कम्पनी 8 घण्टे की दो शिफ्टों में चल रही है। इससे पहले भी एक बार और फरवरी माह में 8 घंटे कम्पनी चलायी गयी थी लेकिन उस समय किसी मजदूर को ब्रेक नहीं दिया गया था।
कम्पनी के ब्रेक के आठ दिन पूरे होने पर जब कुछ महिलायें काम पर वापस आईं तो गार्ड ने उन्हें गेट पर रोकर मैनेजर से बात करने को कहा। मैनेजर ने फोन पर बात करके महिलाओं को आठ दिन और इंतजार करने को कहा और यह भी कहा कि वे अपनी नौकरी किसी और कम्पनी में देख लें।
मजदूरों का ब्रेक का समय 1 से 3 तारीख तक था लेकिन 8 तारीख तक सिर्फ एक स्थायी महिला मजदूर और एक पुरुष मजदूर को ही काम पर रखा गया।
पेन्टा क्राफ्ट कम्पनी प्लाॅट न. 10 सेक्टर 3 ए सिडकुल हरिद्वार में है। कम्पनी में एक मैनेजर, एक एकाउटेंट और स्टोर मैनेजर व मेन्टीनेंस मैनेजर सहित दो फोरमैन दूसरी मंजिल के प्लांट में तथा दो फोरमैन पहली मंजिल के प्लाॅट में हैं। पहली मंजिल पर तीन आईबीएम, इन्जेक्शन मोल्डिंग मशीन है जिन में 15-15 हजार से अधिक प्रोडक्शन निकलता है। आईबीएम मशीनों में स्प्रे बाॅटल व आई ड्राप बाॅटल आदि बनती है और दो सीएमपी व ब्लो इंजेक्शन मोल्डिंग भी हैं। सीएमपी में डेस्टिंग पाऊडर व 100 एमएल बाॅटल बनती है और ब्लो मोल्डिंग में केप व आई ड्राप के केप आदि बनते हैं। सीएमपी मोल्डिंग में 7 से 10 हजार प्रोडक्शन 12 घंटे में निकलता है तथा ब्लो मोल्ंिडग में 15 हजार से अधिक केप आदि बनते हैं। कम्पनी में प्रत्येक मशीन पर एक ही व्यक्ति काम करता है। तथा बहुत कम मशीनों पर बैठने के लिए स्टूल की सुविधा है।
प्रथम मंजिल में सारे उत्पाद प्लास्टिक के बनते हैं। जो विभिन्न कम्पनियों को सप्लाई किये जाते हैं। दूसरी मंजिल पर एल्युमिनियम ट्यूब बनता है जहां पर 10 आॅपेन इंजेक्शन मोल्डिंग हैं तथा एक मशीन पर एक मजदूर 12 घंटे में 15 से 20 से अधिक भी प्रोडक्शन देता है। दो एल्युमिनियम साईड सील फाॅमिंग मशीन हैं जिनमें 1 मिनट में 100 से अधिक ट्यूब कटते हैं। और दो आॅटोमेटिक सीलिंग कैपिंग मशीन है। एक मशीन 25 से 28 हजार ट्यूब 12 घंटे में सीलिंग व केपिंग करती है और सात मैनुअल सीलिंग मशीन है जिस पर एक मशीन पर एक मजदूर 10 से 12 हजार ट्यूब सीलिंग करता है।
एक मशीन हाईस्पीड काॅम्बीस है जिसमें फाॅमिंग, सीलिंग, मोल्डिंग व केपिंग आॅटो मैटिक होती है। यह मशीन 12 घंटे में 40 हजार तक प्रोडक्शन निकालती है। यह मशीन अन्य मशीनों के मुकाबले 12 लोगों का काम करती है। बस तीन बंदे ही इस मशीन पर सब कुछ करते हैं। इस मशीन में केप व सोल्डर अलग से डाला जाता है।
पेन्टा क्राफ्ट कम्पनी में कोई भी सुविधा नहीं है। न वर्दी की, न ही कैन्टीन व मेडिकल सुविधा। किसी को चोट लगने पर न ही हाॅस्पीटल लेकर जाने हेतु वाहन है न ही डेªसिंग का सामान है। मजदूर जिस जगह खाना खाते हैं वह टिन सैट से बनी है और बहुत नीची है वहां न कोई पंखा है और न ही दीवारों में कोई खिड़की। हवा तक नहीं आती-जाती है।
और अगर किसी मजदूर से कोई गलती होती है तो उसे मैनेजर काॅलर पकड़ कर खींचकर आॅफिस के अंदर ले जाता है और गालियां व अन्य बातें कहता है।
मैनेजर के चमचे कम्पनी के मजदूरों में महिलाओं के प्रति भौंड़ी विचारधारा को फैलाते हैं। एक मजदूर
एवरेडी के मजदूरों में व्याप्त है असंतोष
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
जहां पूरा उत्तराखण्ड राज्य के नेता-अभिनेता, शाासक/प्रशासक राज्य स्थापना (9 नवम्बर) की कोरी खुशियां मना रहे थे और मजदूरों-मेहनतकशों को शोषण के शिकार की ज्वालामुखी में धकेलना चाह रहे थे वहीं एवरेडी इण्डस्ट्रीज इण्डिया लि. के 122 स्थायी श्रमिक अपनी त्रिवर्षीय मांगों को लेकर कम्पनी प्रबंधन से वार्तालाप कर रहे थे लेकिन कम्पनी के धूर्त प्रबंधकों के द्वारा एवरेडी के श्रमिकों को धोखा दिया गया और बहला फुसला कर मांगों से ध्यान भटकाकर दिनांक 20 नवम्बर 2014 से प्लाण्ट का उत्पादन ही धीमा करवा दिया गया। जिस स्थान पर आपरेटर कार्य करते थे उस स्थान पर प्रबंधक व सुपरवाइजर कार्य करने लगे। ऐसा प्लाण्ट के अंदर 9 वर्ष में पहली बार देखने को मिला। संघ के कार्यकर्ता भी हैरान थे कि जहां आपरेटर का खून-पसीना बहाया जाता था वहां पर प्रबंधक और सुपरवाइजर कार्य कर रहे हैं। जो कारखाना प्रबंधक विगत तीन वर्षों से कम्पनी के गेस्ट हाउस में रह रहा था आज वह अचानक कम्पनी से बाहर कमर लेकर रहने लगा। मजदूर प्रतिनिधियों द्वारा बार-बार पूछने पर यही जबाव दिया जाता था कि महाप्रबंधक के अगले आदेश तक कार्य इस प्रकार चलेगा। अंतत वह हुआ जिसका अंदेशा भोले-भाले मजदूरों को नहीं था। दिनांक 30 नवम्बर 2014 को कम्पनी के प्रबंधकों के द्वारा रविवार के दिन कम्पनी को बन्द (लाॅक आउट) कर दिया गया। जिसकी सूचना न तो श्रमिकों व श्रमिक प्रतिनिधियों को दी गयी और न शासन-प्रशासन व श्रम विभाग को दी गयी।
1 दिसम्बर 2014 को समस्त श्रमिक कम्पनी के मेन गेट पर भारी संख्या में पुलिस बल व कम्पनी के सिक्योरिटी गार्ड को देखकर परेशान थे कि आखिर कम्पनी को बंद क्यों किया गया। पूछने पर यही बताया गया कि महाप्रबंधक का आदेश है और कम्पनी बंद कर दी गयी। कम्पनी के अन्य कोई भी अधिकारी वहां पर मौजूद नहीं था। मजदूर संघ के अध्यक्ष नवीन चंद्रा द्वारा पुलिसकर्मियों से कम्पनी प्रबंधन को बुलाने की मांग की गयी तो उनको कोई संतुष्ट जबाव पुलिस व सिक्योरिटी गार्डों द्वारा नहीं दिया गया जिस पर सभी 122 कर्मचारी कम्पनी के मुख्य गेट पर ही शाम तक बैठ गये। अगले दिन 2 दिसम्बर 2014 को सभी कर्मचारी सहायक श्रमायुक्त कार्यालय में पहुंचे और लगातार 29 जनवरी 2015 तक विरोध करते रहे। उसके बाद 30 जनवरी 2015 से सभी कर्मचारी परिवारजनों सहित व छोटे-छोटे बच्चों को लेकर संघर्ष कर रहे थे, की निर्मम पिटाई 7 फरवरी को की गयी और आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की गयी। इधर अध्यक्ष नवीन चन्द्रा ने प्रदेश के उन तमाम नेताओं पर आरोप लगाया है जो केवल मालिकों के गुलाम हैं और चुनाव के समय मजदूरों व उनके परिजनों के पैरों में गिरकर उनको जिताने की मांग करते हैं और बाद में मजदूरों का शोषण करने की शपथ ग्रहण करते हैं। ऐसे नेताओं, दलालों को सबक सिखाने के लिए सिडकुल हरिद्वार से श्रमिकों में से एक श्रमिक नेता के रूप में 2017 के विधानसभा में उतार जायेगा। नवीन चन्द्रा ने कहा कि जो दलाल नेता आज सिडकुल हरिद्वार में शोषण करा रहे थे उनको अभी ये पता ही नहीं कि हरिद्वार सिडकुल में कार्यरत एक लाख अठाइस हजार श्रमिकों में से 80 प्रतिशत श्रमिकों के वोटरकार्ड हरिद्वार के बन चुके हैं जिनको मत देने का पूर्ण अधिकार है और 2017 में इसका लाभ लेने वाले दलालों व नेताओं को एक सबक के रूप में दिया जायेगा।
इसी क्रम में एवरेडी के धूर्त प्रबंधक ने 108 कर्मचारियों को एचआर कार्यालय में बुलाकर एक-एक कर डरा धमका कर तीन वर्षीय समझौते को बड़ा कर 4 वर्षीय कर दिया। जहां समझौते की सीमा अगस्त 2017 में समाप्त होनी थी वहीं 2018 मार्च में होगी। प्रबंधन ने मजदूरों को कोर्ट कचहरी जाने की धमकी देकर अंग्रेजी के पेपर में हस्ताक्षर करा लिये और 4 वर्षों का 2500 रु. बड़ा दिया पिछले 6 माह का एरियर भी नहीं दिया जिससे श्रमिक अध्यक्ष नवीन चन्द्रा इस समझौते को लेकर आगे की लड़ाई लड़ने की बात कही और कहा है कि इसके खिलाफ लेबर कोर्ट में याचिका दायर की जायेगी। बिना कमेटी सदस्यों व त्रिपक्षीय वार्ता के दौरान बिना एएलसी के समझौता हस्ताक्षर कराया गया है। नवीन चन्द्रा, अध्यक्ष एवरेडी मजदूर संघ हरिद्वार
ये हैं जनता के ‘सेवक’
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
मध्य प्रदेश के एक आर.टी.आई. कार्यकर्ता ने शहरी विकास मंत्रालय भारत सरकार से सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत सांसदों के निवास के बारे में सूचना हासिल की हालांकि उन्हें पूरी व साफ-साफ जानकारी नहीं दी गयी।
लोकसभा चुनाव 2014 में अप्रैल-मई में हुये और 26 मई को नरेन्द्र मोदी सरकार ने शपथ ले ली थी। आरटीआई से पता चला है कि सरकार गठन के 6 महीने बाद भी भाजपा समेत अन्य पार्टियों के लगभग 90 से ज्यादा सांसद पांच सितारा होटल अशोक की सुख-सुविधाओं का लुफ्त उठाकर राजसी ठाठ-बाट से रह रहे हैं।
वैसे दिल्ली में अलग-अलग राज्यों के अतिथि गृह भी हैं जहां पर अच्छी सुख-सुविधायें भी उपलब्ध हंै और वहां पर यह सांसद ठहर सकते थे परन्तु इन सांसदों से पांच सितारा होटल की सुख-सुविधायें व राजसी ठाठ-बाट न छोड़ा गया। सांसदों ने आवंटित किये गये आवासों को रहने लायक न बताकर अशोक होटल में ही डेरा जमाये रखा।
शहरी विकास के संपदा निदेशालय ने माना है कि अशोक होटल में एक कमरे का एक दिन का न्यूनतम किराया 6 हजार रुपये है और टैक्स अलग से है। यानी लगभग 7 हजार रुपये। यदि एक सांसद 6 महीने अशोक होटल में ठहरता है तो उसके कमरे-कमरे का न्यूनतम किराया 7 हजार रुपये रोज के हिसाब से 1 महीने का 2 लाख रुपये से ज्यादा हुआ और 6 महीने का प्रत्येक सांसद के 12 लाख रुपये से ज्यादा हुआ। सूचना के अधिकार में 90 से ज्यादा सांसद अशोक होटल में 6 महीने से अधिक समय के लिए ठहरे हुए थे। यानी 10 करोड़ रुपये से भी ज्यादा सांसदों के अस्थाई आवासीय व्यवस्था पर खर्च किये गये। इसके अलावा होटल की अन्य सुविधाओं का भुगतान अलग है। मजेदार बात यह है कि ‘आम आदमी’ की माला जपने वाली ‘आम आदमी पार्टी’ के पंजाब से चुने सांसद भगवंत मान भी इसमें शामिल हैं।
मुश्किल से अपना जीवन जीने वाली मजदूर-मेहनतकशों को दी जाने वाली राहत के लिए सरकार कहती है कि उसके पास धन की कमी है पर सांसदों के अस्थाई आवासीय व्यवस्था और राजसी ठाठ-बाट व सुख-सुविधाओं पर यह सरकार दसियों करोड़ रुपये खर्च कर देती है।
जनता को कड़वी दवाई पिलाने वाले प्रधानमंत्री मोदी भाजपा समेत अन्य पार्टियों के सांसदों पर कितने मेहरबान हैं।
जय प्रकाश, दिल्ली
झूठे नारे देने वाली सरकार
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
पिछले 20 सालों से केन्द्र सरकार ने उत्तराखण्ड के कई जिलों में महिला समाख्या नाम के एक गैर सरकारी संगठन को संचालित किया था। जिसमें ग्रामीण इलाकों में हजारों महिलाएं बहुत कम मानदेय पर काम कर रही थीं। इसमें महिलाएं सरकार द्वारा नियोजित कार्य शिक्षा, स्वास्थ्य व घरेलू हिंसा जैसे कई मुद्दों पर काम करती थीं। और इसी में केन्द्र सरकार द्वारा गरीब, अनाथ छात्राओं को आवास, भरण-पोषण व सरकारी स्कूल में पढ़ाया जा रहा था।
इस योजना को आज केन्द्र सरकार द्वारा ही उत्तराखण्ड के चार जिलों में बंद (रोल बैक) करा दिया गया है। पौडी, उत्तरकाशी, टिहरी, नैनीताल जहां पर कि ये ग्रामीण महिलायें अपने जीवन में आगे बढ़ना चाहती थीं और उन 135 छात्रायें जिनका जैसे-तैसे जीवन यापन हो रहा था उन सब पर आज केन्द्र सरकार ने लात मारकर उन्हें उसी दलदल में पुनः धकेल दिया है जहां से वे आयी थीं। हजारों महिलायें जो उसी से अपना घर चलाती थीं वे आज बेरोजगार हो गयी हैं।
साथियो यह सब हमारी केन्द्र सरकार व व्यवस्था का असली चेहरा दिखाता है जोकि एक तरफ ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा देती है दूसरी तरफ छात्रायें व हजारों बेरोजगार महिलाएं हैं जो आज इस केन्द्र सरकार के कारण कहीं की भी नहीं रही। जब से केन्द्र सरकार द्वारा इसे बंद कराने की बात आई उस समय से केन्द्र सरकार, राज्य सरकार को कई ज्ञापन दिये गये, उसके बाद भी इसके बारे में कोई भी सरकार द्वारा जवाब नहीं आया। और बंदी के दिन नजदीक आने पर महिला समाख्या की महिलाएं व महिला समाख्या द्वारा बनाया गया सुमंगला महासंघ की महिलाओं व कोटद्वार के कई सामाजिक संगठनों व जनअधिकार संघर्ष समिति द्वारा कोटद्वार तहसील में 9 मार्च से 12 मार्च तक धरना दिया गया व 13 मार्च को जन अधिकार संघर्ष समिति के नेतृत्व में जुलूस प्रदर्शन किया गया। प्रधानमंत्री को ज्ञापन भी भेजा गया।
यह है हमारी सरकार की असलियत और उसके बाद भी खोखले नारे- जो कहते हैं ‘सबका विकास सबका साथ’, ‘महिला सशक्तिकरण’, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘बेटी देश की गौरव’, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ ये सब नारे देने वाली सरकार अब कहां गयी जो 20 सालों से चल रहे महिला समाख्या को बंद कर दिया है। और वे जो बेटियां वहां पढ़ाई जा रही थीं उन्हें पढ़ने-लिखने से वंचित कर दिया गया है। इसी रूप में ऐसे झूठे नारे देने वाली केन्द्र सरकार की निन्दा करते हुए कोटद्वार में परिवर्तनकामी छात्र संगठन, क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन व प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की महिलाओं ने ऐसी झूठी केन्द्र सरकार का भंड़ाफोड़ किया और संगठित होकर संघर्ष करने का उन सभी महिलाओं और छात्राओं को राह दिखाई।
दीपा, कोटद्वार
जस्टिस काटजू जी! महात्मा गांधी ब्रिटिश एजेन्ट नहीं आपकी तरह पूंजीपति वर्ग के एजेण्ट व सेवक थे
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज मार्कण्डेय काटजू ने अपने ब्लाॅग में महात्मा गांधी पर टिप्पणी कर सनसनी फैलाई है तथा शासक वर्ग को नाराज व विचलित कर दिया है। उन्होंने महात्मा गांधी को ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एजेण्ट बताया है तथा लिखा है कि गांधी अंग्रेजों की नीति पर काम करते थे जिसके चलते भारत को काफी नुकसान पहुंचा। गांधी अंग्रेजों की ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति पर काम करते थे। उनके हर भाषण और लेखों में उनका जोर हिन्दू धार्मिक विचारों की ओर था। वह राम राज्य, गौरक्षा, वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक थे। उन्होंने 1921 में लिखा था- ‘मैं सनातनी हिन्दू हूं।’ मैं वर्णाश्रम धर्म में विश्वास करता हूं। मैं गौरक्षा का समर्थक हूं। काटजू के अनुसार गांधी के इस तरह के विचार से रूढिवादी मुसलमान मुस्लिम लीग या इस जैसे संगठन की ओर चले गये।
भारतीय पूंजीवादी राज्य व्यवस्था के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज द्वारा इस तरह की टिप्पणी काफी हद तक सच के करीब है। तथापि महात्मा गांधी ब्रिटिश राज्य व्यवस्था के एजेण्ट नहीं थे। हालांकि गांधी के विचारों व कार्यवाहियों से ब्रिटिश शासकों को कोई ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचता था। महात्मा गांधी सही और सच्चे अर्थों में उस दौर में उदित हो रहे भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि थे। वे भारतीय पूंजीपति वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने हेतु भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से आजाद कराना चाहते थे। गांधी ने धोती लंगोट धारण कर महात्मा गांधी की उपाधि लिए भारतीय आम जन का प्रतिनिधि बनने का रूप तो धारण किया लेकिन वे हमेशा बिरला, बजाज, आदि के मेहमान बनकर ही रहे।
चैरी-चैरा कांड के बाद किसान विद्रोह के क्रांतिकारी दिशा पकड़ लेने से पूंजीपति वर्ग के हाथों से नेतृत्व खिसकने की आशंका के चलते आंदोलन वापस ले लेने का मामला हो अथवा अलग-अलग समयों में आगे बढ़ते आजादी के आंदोलनों को रोकने का मामला हो सभी पूंजीपति वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर उठाये गये कदम थे। गांधी का ‘स्वदेशी अपनाओ’ का नारा हो या ‘नमक सत्याग्रह’ यह सब भारतीय पूंजीपति वर्ग के हित में ही थे। ग्राम स्वराज की विचारधारा भारतीय मजदूर किसानों के समाजवाद की ओर झुकाव को तथा क्रांति से भारतीय मेहनतकशों को रोकने हेतु विचार था। महात्मा गांधी भगत सिंह की विचारधारा के विरोधी थे। भगत सिंह ने कहा था कुछ दिनों में गोरे अंग्रेज देश छोड़कर चले जायेंगे और काले अंग्रेज सत्ता में काबिज हो जायेंगे। भारत के मजदूरों किसानों का शोषण-उत्पीड़न जारी रहेगा। मजदूर मेहनतकशों की मुक्ति समाजवाद में ही होगी। इस विचार के विरोध के कारण ही गांधी ने भगतसिंह को दी गयी फांसी की सजा का विरोध नहीं किया।
काटजू की टिप्पणी से सांसद तथा व्यवस्था के हितैषी आक्रोशित एवं आशंकित हैं। इन्होंने गांधी को राष्ट्रपिता की पदवी देकर उन्हें देश के सर्वोच्च प्रतीक रूप में स्थापित किया था। अगर व्यवस्था के सर्वोच्च नेता की गढ़ी गयी छवि खराब होती है तथा जनमानस में गांधी में आस्था विश्वास दरकता है तो गांधी के स्तर का नेता उनके पास नहीं है जिसकी फोटो के पीछे अपनी असली सूरत छिपा सकें। इसलिए संसद में काटजू के खिलाफ निन्दा प्रस्ताव पास करते हैं। जिस तरह महात्मा गांधी भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि थे, उसी तरह जस्टिस काटजू भी भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि हैं। यह काम उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहकर किया है। अगर वे भारतीय मजदूर मेहनतकशों के हित में काम करते। उनके शोषण उत्पीड़न से मुक्ति चाहते तो भगतसिंह की क्रांतिकारी विचारधारा को आगे बढ़ाते। पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि न बनकर मजदूर वर्ग के प्रतिनिधि बनते। सारी समस्याओं की जड़ पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त कर मजदूर राज समाजवाद के संघर्षों से जुड़ जाते। एक मजदूर काशीपुर
सरकार के बजट एवं नीतियों के विरोध में भारी विरोध प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
मोदी सरकार की नीतियों एवं पूंजीवादी बजट से देश भर का कामगार वर्ग असंतुष्ट है और नाराज भी। इसी क्रम में बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन ने 4 मार्च को सांय 5 बजे अयूब खां चौराहा पर एकत्र होकर बजट के विरोध में मुखर होकर नारे बाजी की। इस दौरान मोदी-जेटली हाय! हाय! के खूब नारे लगाये गये।
प्रदर्शन सभा को सम्बोधित करते हुए इंटक के प्रांतीय महासचिव सतीश मेहता ने कहा कि मोदी सरकार के इस बजट ने यह साबित कर दिया है कि वह पूंजीपतियों के इशारे पर काम कर रही है और उसका बाकी जनता से लेना देना नहीं है।
एटक के हरीश पटेल ने कहा कि यह बजट जन विरोधी है। यह कहना गलत है कि यह दिशाहीन बजट है, यह बजट पूंजीवाद को दिशा देने वाला व हित साधने वाला बजट है क्योंकि सरकारों ने कारपोरेट टैक्स कम कर स्पष्ट किया है कि अब पूंजीपतियों के अच्छे दिन आ गये हैं।
महा संघ के अनिल सिंह ने कहा कि देश का कामगार इस बजट से आहत हुआ है। आयकर की सीमा को न बढ़ाया जाना और 2 प्रतिशत सरचार्ज व 2 प्रतिशत सेस बढाया जाना निन्दाजनक है। इससे कर्मचारियों पर अधिक भार बढे़गा। अतः कर्मचारी वर्ग इसका विरोध करता है।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र के सतीश बाबू ने कहा कि सरकार हर मोर्चे पर विफल है और बढ़ती महंगाई इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। उन्होंने कहा सरकार की नीयत केवल उद्योगपतियों का हित साधना है। यही कारण है कि देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है और जनता बेहाल हो रही है। मजदूर मंडल के लक्ष्मण सिंह राना ने कहा कि असंगठित क्षेत्र की बेहतरी के लिए इस बजट में कुछ नहीं है और मोदी सरकार ने दर्शा दिया है कि वह कर्मचारी एवं श्रमिक विरोधी है।
रोडवेज कर्मचारी संयुक्त परिषद के रवीन्द्र कुमार ने कहा कि अच्छे दिन के सपने दिखा कर सत्ता में काबिज हुई मोदी सरकार जन विरोधी रवैया अपनाये है और जनता इस सरकार का मतलब समझ चुकी है।
प्रदर्शन को अफरोज आलम, वी.के.सक्सेना, प्रेमशंकर, पी.के.माहेश्वरी, जय प्रकाश, ललित चौधरी, फैसल, लईक अहमद, सलीम अहमद, सी.पी.सिंह, यशपाल सिंह, सतीश शर्मा, अनिल सिंह, उमेश त्रिपाठी आदि ने सम्बोधित किया।
कार्यक्रम का संचालन बरेली ट्रेड यूनियन फेडरेशन के महामंत्री संजीव मेहरोत्रा ने किया।
संजीव मेहरोत्रा, बरेली
भूमि अधिग्रहण बिल और किसान
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
भूमि अधिग्रहण बिल के संशोधन को लेकर भारतीय जनता पार्टी कह रही है कि इस बिल में किसानों का हित है। इस बिल में जो भी संशोधन किये जा रहे हैं वे किसानों के लिए हैं। किसानों की जमीन छीनने का कानून किसानों के हित में कैसे हो सकता है?
सरकार को न तो खेती करना है और न उद्योग लगाने हैं और न ही बिल्डिगें बनानी हैं। ये सारे काम तो पूंजीपतियों को करना है और पूंजीपतियों को इसके लिए जमीन चाहिए। अगर पूंजीपतियों को मुफ्त के भाव जमीन नहीं मिलेगी तोे पूंजीपति देश का विकास कैसे करेंगे? देश के गरीब किसान की समझ इतनी कहां होती है कि वह देश के विकास के बारे में सोचे और न ही वे इस बात को समझ पा रहे हैं कि चाय वाला प्रधानमंत्री किसानों के लिए जमीन अधिग्रहण बिल में संशोधन पेश कर रहा है। अब ऐसे लोगों से जमीन लेने से पहले 80 प्रतिशत किसानों की सहमति लेने की क्या जरूरत है। क्या बात है नरेन्द्र मोदी सरकार सफाई अभियान चलाते-चलाते किसानों की जमीन पर हाथ साफ करने लगी। चुनावों में मोदी काले धन को देश में लाकर देश के विकास की बात कर रह थे और अब मोदी सरकार कह रही है कि यदि किसानों की जमीनें नहीं ली जायेंगी तो देश का विकास कैसे होगा। देश का विकास काले धन से नहीं किसानों की जमीन छीनने से होगा। जो व्यक्ति या संगठन इस बात से इंकार करता है तो वह विकास विरोधी है। मोदी जी अपने अनुभव से जानते हैं चाय बेचने सेे विकास नहीं होता है बल्कि बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स लगाने से विकास होता है। अडानी-रिलायंस-टाटा का विकास ही आज देश का विकास है। वैसे भी देश में किसानों की आत्महत्यायें एक मुद्दा है और जब किसानों के पास जमीनें होंगी ही नहीं तो वह न तो कर्ज के जाल में फंसेंगे और न आत्महत्या करेंगे। लेकिन यह बात गंवार किसान नहीं समझ सकते।
ऐसा भी नहीं है कि जो पार्टियां आज विरोध कर रहीं हैं वे सचमुच किसान हितैषी हैं। ये सभी पार्टियां आज जो किसानों की पक्षधर बन रहीं हैं, इन सभी ने अपने शासन के समय विभिन्न प्रदेशों में लाठी-गोलियों के दम पर जमीनें छीनीं हैं। कुडनकुलम, भट्टा पारसौल, नंदीग्राम, सिंगूर यूं ही भुलाये नहीं जा सकते। यहां तक कि वामपंथी भी इस काम में पीछे नहीं रहे। अब कोई विदेशी उस तरीके से हमारी जमीन छीनने नहीं आयेगा जैसे पहले आते थे। अब तो देशी-विदेशी पूंजीपतियों के इशारों पर ही किसानों की जमीनें छीनी जायेंगी और इन्हीं के इशारों पर मजदूरों को जेलों में ठूंसा जायेगा। मारुति के मजदूर ढाई साल से अधिक समय से जेलों में बंद हैं। मोदी सरकार को मजदूरों किसानों के लिए ढे़र सारे कानूनों के बदले केवल एक कानून बनाना चाहिए कि जो किसान अपनी जमीन छीने जाने को विरोध करेगा वह देशद्रोही है और जो मजदूर यूनियन बनाने की कोशिश करेंगे वे भी देशद्रोही हैं। देशद्रोह की सजा कर दो फांसी।
जगदीश, दिल्ली
कृपया ध्यान दें
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
यात्रीगण ध्यान दें! ! ! प्लेटफार्म नंबर एक पर आने वाली ‘विकास एक्सप्रेस’, जो काला धन, सस्ती सब्जियां, सस्ते खाने-पीने का सामान, पाकिस्तान की सेना का शव, चाइना से जमीन, एक रुपया एक डालर, भय-भूख-भ्रष्टाचार, अपराध-बलात्कार मुक्त भारत, पानी, बिजली, मकान, रोजगार लेकर 100 दिनों में पहुंचने वाली थी, अब नहीं आएगी। अब इस ट्रेन का मार्ग ‘कड़वे फैसले’ स्टेशन की ओर मोड़ दिया गया है। इस ट्रेन की खबर अब आपको 2019 में दी जायेगी। तब तक कृपया नमो नमो जाप जारी रखें। यात्रियों को होने वाली असुविधा के लिए कोई खेद नहीं है। जो बिगाड़ना हो, बिगाड़ लो! व्हाट्स ऐप संदेश
मजदूरों की बुरी हालात
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
थरमाडाइन प्राइवेट लिमिटेड (प्लांट न. 14/5, मथुरा रोड) फरीदाबाद, हरियाणा में स्थित है। इस कम्पनी में लगभग 180 मजदूर काम करते हैं। इसके उत्पादन में एअर फिल्टर, एअर सावर व डिसपेेन्सिंग, हाउसिंग आदि तैयार होते हैं जो मेडिकल कम्पनी व हाॅस्पिटल के आप्रेशन थियेटर तथा दवाई की रख रखाव में काम आते हैं। ये प्रोडक्ट देश के कोने-कोने में सप्लाई होते हैं।
इसका मालिक गुरूप्रीत सिंह बेटा इन्द्रदीप सिंह के नाम से कम्पनी चलती हैं। इस कम्पनी के डायरेक्टर एक महिला जिसकी उम्र 70 साल की है जिसका नाम रश्मि नागा भूषण है। पूरे प्लांट का प्रोडक्सन मैनेजर बदतमीज, अक्खड, घमंडी एक सरदार जिसका नाम जगजीत सिंह है। ये मैनेजर लगभग एक साल से आया है उसके बाद से ये लगातार कम्पनी के मुनाफे के लिए मजदूरों पर जुल्म शोषण व अपमान करने की रणनीति में लगा रहता है। सूनने में आ रहा है कि वह डाइरेक्टर बनने का ख्वाब देख रहा है। इस कम्पनी में नाममात्र के 15 परमामेन्ट मजदूर हैं। बाकी 165 के करीब मजदूर ठेकेदारी के तहत काम करते हैं। इसमें 100 से ज्यादा महिला मजदूर कार्यरत हैं। इनका शोषण, उत्पीड़न लगातार जारी है।
23 फरवरी के दिन काफी अनुभवी पुराने बुजुर्ग मजदूर जो मेंटीनेन्स विभाग में काम करते हैं, उनको मैनेजर ने कहा कि पंखों पर धूल जमी है, साफ करो। मजदूर का तर्क था एक और व्यक्ति दो, साफ कर देंगे। तो कहने लगा कि साफ करना है तो करो नहीं तो गेट पर जाओ। मजदूर ने मना कर दिया कि नहीं साफ करेंगे। मैनेजर बदतमीजी से पेश आया और उनको गेट पर बैठा दिया। ये मजदूर लगभग 35 साल से काम कर रहे हैं। इनकी उम्र लगभग 65 साल के करीब है। दो घंटे तक गेट पर बैठे रहने के बाद न तो पर्सनल मैनेजर ने बुलाया और न ही कोई मैनेजमेण्ट की तरफ से जबाव दिया गया। बेचारे बुजुर्ग मजदूर घर चले गये। उनको 25 फरवरी तक काम पर नहीं लिया गया था।
ऐसे ही उत्पीड़न की घटना 6 महीने पहले भी चैनल विभाग के एक मजदूर के साथ पानी की टंकी साफ करने को लेकर हुई थी। जब मजदूर ने पानी की टंकी साफ करने से मना किया तो उसे भी गेट पर बैठा दिया गया था लेकिन चैनल विभाग के मजदूर काम बंद कर बैठ गये थे। मैनेजमेण्ट को झुकना पड़ा और मजदूर को वापस काम पर बुलाया गया। ऐसा बर्ताव मजदूरों के साथ रोज हो रहा है। कभी कोई मजदूर 5 मिनट लेट आ गया तो मैनेजर द्वारा धमकी मिलती है। इस तरह छोटी-छोटी गलती पर भी गंदा व्यवहार हो रहा है। जिस विभाग में कार्यरत मजदूर हैं उसे उससे अलग विभाग में भेज दिया जाता है। मना करने पर उसे बाहर कर दिया जाता है। फेब्रिकेशन विभाग में भारी प्रोडक्ट तैयार होता है वहां ठेका मजदूर जो मशीन से लेकर, बेल्डिंग, ग्रेडिंग आदि करता है वहां उनसे लोडिंग अनलोडिंग करवाया जाता है जो गैर कानूनी है। कानून ये है कि कोई रेगुलर काम करने वाले लोडिंग व अनलोडिंग नहीं करते हैं। यहां पर मशीन पर भी काम करो लोडिंग-अनलोडिंग भी करो।
हेपा विभाग से जहां हेपा एअर फिल्टर बनता है जिसमें महिला मजदूर कार्यरत हैं। कुछ पुरुष मजदूर भी हंै। इसमें महिलाओं से मशीन चलवाते हैं। मना करने पर नौकरी छोड़ दो की धमकी मिलती है। ऐसा ही जहां माइक्रोबी फिल्टर बनता है वहां पर भी महिलाओं का शोषण-उत्पीड़न होता है। लगातार प्रोडक्शन बढ़ाना, अगर कोई काम महिला नहीं कर पाती है तो उसे निकाल दिया जाता है। ऐसी घटनाएं लगातार जारी हैं। बार-बार मैनेजर (सरदार) द्वारा अपने केबिन में बुलाकर धमकी दी जाती है, ‘‘काम करना है तो करो नहीं तो घर जाओ’’। टेक्निकल मजदूर भर्ती लेते हैं उसे जो मरजी काम में लगा देते हैं। ये इस कम्पनी की नीति हैः जहां मरजी हो बैल की तरह मजदूर को लगा दो।
यहां करीब 15 मजदूर परमानेन्ट हैं जिनकी उम्र 50 से 55 साल के ऊपर तक है और जिनकी तनख्वाह मात्र 6,000 से 8,000 तक है। तीन महीन पहले काफी मेहनती एक परमानेण्ट मजदूर को परेशान किया गया तो उसे मजबूरन हिसाब लेना पड़ा। महिला डायरेक्टर जिसे मजदूर ‘बड़ी मैडम’ कहते हैं। उसका रवैया परमानेन्ट मजदूरों के प्रति खराब है। जब तब कहती है कि काम नहीं करते हैं। सच्चाई तो यह है कि पूरी उम्र अपनी गुजार देेने के बाद तनख्वाह मात्र 6000 से 8000 तक है। इस पर कोई बात नहीं करती है। 150 मजदूर ठेके पर रखे गये हैं। 100 से ऊपर तो महिला मजदूर हैं। काफी पुराने मजदूर कार्य कर रहे हैं लेकिन कम्पनी ने किसी मजदूर को परमानेन्ट नहीं किया। 12 साल ठेके पर मजदूर रखे जाने लगे थे। ठेका मजदूर को तनख्वाह वही हरियाणा ग्रेड 5700 रुपये है मिलता है। महीने के कोई भी छुट्टी नहीं मिलती है। 2 घंटे का गेट पास दिया जाता है। इस कम्पनी में पीने के लिए साफ पानी उपलब्ध नहीं है। बाथरूम बहुत गंदा रहता है। तीन महीने पर एक बार सिवर साफ किया जाता है। चारों तरफ बदबू फैली रहती है। शिकायत करने पर मैनेजर (सरदार) मोदी का उदाहरण पेश करता है। कहता है कि मोदी जी सफाई कर रहे हैं। तुम लोग भी करो। पूरे प्लांट के आस-पास कचरा, कबाड,़ लोहा-लक्कड भरा पड़ा है। सुरक्षा के नाम पर ये कम्पनी प्रसिद्ध है। अग्नि सिलेण्डर का नामो निशान तक नहीं है। कहीं-कहीं सेफ्टी (सुरक्षा) के लिए कुछ सुझाव या पाइन्ट हैं। मेंटीनेंस विभाग व फेब्रीकेशन विभाग में तो खुले तार फैले हैं। इससे कभी भी शार्ट सर्किट हो सकता है। दुर्घटना हो सकती है।
कुछ स्थायी मजदूरों को छोड़कर ठेका मजदूर को कोई ई.एस.आई. कार्ड, पे स्लिप, न ही साल का पी.एफ. स्लिप, न ही आई कार्ड मिलता है। कानून के हिसाब से 8 घंटे ड्यूटी के बाद मजदूर को ओवर टाइम पर रोका जाता है तो उसे डबल ओवर टाइम मिलना चाहिए। यहां पर सिंगल मिलता है। उसमें से भी ई.एस.आई. काट लिया जाता है। ओवर टाइम मना करने पर उस मजदूर को काम से निकाल दिया जाता है। ठेका मजदूर को तो कोई भी श्रम कानून की सुविधा नहीं मिलती है। 5-6 साल से काम करने के बावजूद भी परमानेन्ट नहीं किया जाता है। लेबर डिपार्ट से लेबर इंसपेक्टर आता है, अपनी झोली भरकर रिश्वत ले जाता है। इस कम्पनी की एक चालाकी और देखें तो पता चलता है कि मजदूरों के ढे़र सारे अधिकार इसी कारण न मिल पाना छिपा लिया जाता है जो इस कम्पनी को हुड्डा सरकार द्वारा स्माल स्केल इण्डस्ट्री का अवार्ड मिला है। मुख्यमंत्री हुड्डा के साथ डायरेक्टर की फोटो लगी है। ये बताते हैं कि इस फैक्टरी में 20 के करीब मजदूर काम करते हैं। बाकी मजदूरों को नहीं दिखाते हैं जो लगभग स्टाफ मिलाकर 200 के करीब कर्मचारी हैं। फैक्टरी एक्ट में कई ऐसे कानून जो 20 मजदूर वाली फैक्टरी के ऊपर लागू नहीं होते हैं। इस तरह गैर कानूनी तरीके से बेतहाशा शोषण मजदूरों का किया जाता है। इस प्रकार शोषण से भारी मुनाफे की कमाई होती है और इसने कई फैक्टरी लगी हुई हंै।
मालिक के बेटे इन्द्रदीप सिंह ने दीपावली के समय कहा था कि ‘खूब मेहनत से काम करो। हमारा प्रोडक्ट अच्छी गुणवत्ता का होना चाहिए तभी तो बाजार में हमारा माल टिकेगा और आप लोगों का काम लगातार चलता रहेगा।’ लेकिन सच्चाई तो ये है कि ठेकेदारी मजदूर पर ही कम्पनी तरक्की कर रही है न इस मजदूर का साल का बोनस न ही तनख्वाह में बढोत्तरी, न ही कोई खास सुविधा मिलती है। वही 5,000-6,000 रुपये महीने मिलते हैं। जिसमें मजदूर पूरे महीने किसी तरह से गुजर-बसर करता है। हर महीने इस कम्पनी को मुनाफा लाखों-करोड़ों का होता है। इस तरह मजदूर के मेहनत की लूट पर अरबपति मालिक तथा मैनेजमेण्ट ऐश कर रहे हैं। मालिक, श्रम विभाग, पुलिस प्रशासन, सरकार ढे़र सारे मजदूरों के श्रम कानून में बदलाव कर रही है। आज इस लूट पर कांग्रेस, नई नवेली आम आदमी पार्टी, इनेलो, सपा, बसपा आदि पार्टियां चुप्पी साधी हुई हैं। ये पूंजीपतियों के चंदों पर पलती हंै। इनके भ्रम जाल में न फंसा जाये। अपने हक अधिकार के लिए स्थायी व ठेका मजदूर मिलकर लडे़ंगे तभी अपना अधिकार हासिल कर पायेंगे। एक मजदूर, फरीदाबाद
बवाल मचा बिहार में
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
आजकल बिहार में जिस तरह के घिनौने खेल सत्ता पक्ष खेल रहा है उससे लगता है कि बिहार में बुरे दिन आने वाले हैं। क्योंकि ‘घर में आग लगी, घर के चिराग से’ जिस तरह नीतिश कुमार और मांझी में उठा-पटक की राजनीति का खेल चल रहा है। यह बिहार के लिए बदनामी का दाग ही है। जिस तरह नीतिश कुमार ने मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। लोकसभा के चुनाव में अपनी पार्टी की हार की जिम्मेदारी नीतिश ने लेकर जनता को संदेश त्याग, बलिदान, कुर्बानी का दिया। जिस विश्वास के साथ नीतिश ने मांझी को सत्ता की कुर्सी सौंपी थी। नीतिश ने सोचा था कि मांझी मेरे इशारों पर नाचेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस बात को लेकर नीतिश परेशान हो गया। सत्ता मेरे हाथ से निकल जायेगी, सोचकर उसने बलपूर्वक मांझी को हटाना चाहा, लेकिन मांझी भी सत्ता के खेल में नीतिश को मात देेने लगे। सत्ता के खेल में मांझी ने अपनी जान-जाने के खतरे की वजह से अपनी हार स्वीकार कर ली। इधर नीतिश ने इस खेल में अपनी पीठ थपथपाते हुए बिहार की जनता को दिखाया कि मैं कितना शक्तिशाली राजनेता हूं।
लेकिन नीतिश शक्तिशाली और बाहुबली के साथ-साथ एक मतलबी फरेबी इंसान हैं। पूंजीवादी राजनीति में टिके रहने के लिए पूंजीवादी राजनीति के गुण आने चाहिए जैसे छल, फरेब, झूठ, मक्कारी, जनता को गुमराह करना जिस राजनेता के अंदर यह सब गुण हैं वहीं सत्ता में बना रह सकता है। और दूसरी बात पूंजीपति का रहमोकरम के साथ-साथ पूंजीपतियों का वह नेता पसंदीदा होना चाहिए। यहां पर यही चीज रही है।
एक जमाने में बिहार में लालू का जंगल राज कायम था। लेकिन अब नीतिश इस जंगल का शेर है। ये जनता को दिखावे के लिए दलित ‘प्रेम’ का ढोंग करते थे। मांझी असलियत में दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले नेता निकले। मांझी भी अन्य नेताओं की भांति कुर्सी का भूखा था न कि दलितों का मसीहा।
मजदूर-मेहनतकश जनता के दुश्मन और पूंजी के सेवक जनता के विश्वास को लूटकर नीति सिद्धान्त और आदर्शवाद सुशासन, विकास का नारा देकर जनता से घोषणा करते हैं। मांझी ने जिस तरह नीतिश सरकार की ढोल की पोल खोल दी कि मुख्यमंत्री तक सरकारी योजना के पैसे का बंदर बांट होता है। इस बात से यह साबित होता है कि यह व्यवस्था कितनी भ्रष्ट, सड़-गल चुकी है। किस तरह जनता का पैसा नौकरशाही से लेकर मंत्री संतरी तक कमीशन चलता है।
लोकतंत्र का नाम देकर लूट तंत्र की व्यवस्था कायम है क्योंकि यह पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। जब तक यह व्यवस्था रहेगी तब तक यह सत्ता का खेल चलता रहेगा। इस सत्ता के खेल में जनता पिसती है। बिहार में अन्य राज्य की तुलना में बेरोजगारी, बाढ़, सूखा, जाति व संघर्ष शिक्षा का अभाव, भूमि को लेकर संघर्ष चलता रहता है। पूरे भारत में बिहार के बेरोजगार अपने प्रदेश को छोड़कर दूसरे प्रदेशों में जाकर मेहनत कर अपना परिवार-बच्चों को पालते हैं। बिहार की जनता मेहनतकश होते हुए वह फरेबी व्यवस्था का शिकार है। जरूरत है कि इस लुुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था का नाश कर मजदूर राज कायम करके बिहार सहित पूरे भारत के मजदूर-मेहनतकशों को सम्मानजनक जीवन मिलेगा। रामकुमार बैशाली बिहार
झाडू का डर
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
आज हर किसी की जुबां पर केजरीवाल का नाम है। दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद के लिए रिकार्ड तोड़ जीत हासिल की है। इसलिए सबकी नजरें उसी ओर टिकी हैं। वह एक बार मुख्यमंत्री की कुर्सी खोकर दुबारा मुख्यमंत्री बने हैं। जिस झाडू से प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छता अभियान चलाया हुआ था उसी झाडू ने एक को मुख्यमंत्री बना दिया वही झाडू एक तरफ सरकारों का सफाया भी कर दिया। निश्चय ही झाडू का बड़ा महत्व है। मोदी अब सफाई के लिए नहीं कहेंगे क्योंकि झाडू से ही डर लगेगा।
हमारा आश्य यह है कि आज के दौर में आजादी से लेकर अब तक जितनी भी राजनैतिक पार्टियां रही हैं उनको राज्य और केन्द्र स्तर पर सरकार चलाने का मौका मिलता रहा है। चाहे वह लम्बे समय से कांग्रेस हो भाजपा या फिर सपा, बसपा या अन्य गठबंधन दलों की सरकारें रही हों, ये लगातार जनमुद्दों से कटी रही हैं। और जनता की आंखों में धूल झोंकती रही हैं। इन राजनैतिक पार्टियों ने जन दिशा और दशा को समझना जरूरी नहीं समझा और उल्टा उनका दमन और तरह-तरह से विभाजन करने में लगी रहीं। देश के अंदर बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, महिलाओं की सुरक्षा व अन्य मुद्दों का कोई एजेण्डा इन पार्टियों के घोषणा पत्र में जगह ही नहीं बना पाया कोई ठोस योजना पर ये काम नहीं कर सकीं- एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ना और अपनी जबावदेही से बचना ही इनका मकसद हो गया था, इनकी जगह कूड़ेदान में ही थी लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आम आदमी पार्टी सही है। केजरीवाल सब बदल कर रख देंगे। कि आम आदमी को अब कोेई संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। दिल्ली की जनता और देश की जनता आज इंकलाब चाहती है। आपस में बंटना नहीं चाहती है। इंकलाब के नारे के साथ देश-दुनिया की जनता आगे बढ़ रही है। आम आदमी पार्टी भी इससे अछूती नहीं है। यह पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बढ़ते हुए असंतोष को एक दिशा उन दोनों वर्गों के बीच में संतुलन का काम कर रही है। मोदी सत्ता की मलाई लपालप गरम-गरम खाना चाहते हैं। और बदले में कुछ नहीं देना चाहते हैं। केजरीवाल कहते हैं यार खाओ मगर ठण्डा करके, मगर बदले में उन्हें कुछ दो भी। नहीं तो कुछ नहीं मिलेगा। सूरज, रामनगर
पूंजीपतियों मालिकों, ठेकेदारों के राज में मजदूरों की बढ़ती दुर्दशा
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
आज देश के अंदर पूंजीपतियों, मालिकों, ठेकेदारी प्रथा के राज में मजदूरों की दुर्दशा दिन पर दिन हो रही है। चाहे वह संगठित क्षेत्र के मजदूर हों चाहे फिर असंगठित क्षेत्र के मजदूर हों और दिहाड़ी मजदूरों की हालत तो और भी बुरी है। जिन्हें कई-कई दिन तक काम ही नहीं मिलता। सुबह टिफिन बांधकर निकलते हैं और ऐसे ही लौट आते हैं। जिनका सुबह को चूल्हा जल गया तो शाम को चूल्हा जलने की गारण्टी नहीं है। नरेगा के मजदूरों का भी बुरा हाल है। आखिर काम करवाकर क्यों मालिक, पूंजीपति, ठेकेदार, मजदूरों का पैसा देना अच्छा नहीं समझता? क्यों मजदूरों को आज गुलामी जैसी जिन्दगी जीनी पड़ती है। क्यों उनकी तरफ कोई भी देखना नहीं चाहता? क्यों सरकारें मजदूरों के पक्ष को नहीं देखती हैं। ये सोचने का विषय है।
धनवान कहते हैं कि मजदूर लोग वे लोग होते हैं जो बोढ़म होते हैं। यानि कि मजदूरी वही करते हैं जिनके पास दिमाग नहीं होता है। और जिनके पास दिमाग होता है। वह अपना व्यवसाय करते हैं। मजदूर वह शख्स है जो आठ-दस घण्टे काम करके 400 से 500 रूपये कमाकर शराब पीकर आराम से सोता है। उन्हें कोई चिन्ता नहीं होती है।
ये बातें वे लोग करते हैं जो ज्यादा रईस होते हैं। जिनकी वजह से मजदूर बुरी तरह की जिन्दगी जीने के लिए विवश होते हैं। आप मेरे साथ एक महीना फैक्टरी में काम करके देखें, पढ़े-लिखे मजदूर भी मिल जायेंगे। जो फैक्टरी में काम करना ही नहीं जानते बल्कि वे देश का शासन भी चला सकते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है। फैक्टरियों में माल पैदा नहीं होगा, मजदूर काम नहीं करेगा तो आपका बिजनिस भी नहीं होगा ये बात आपको समझनी चाहिए- पैसे की कमी के कारण मजदूर ज्यादा पढ़ नहीं पाता, इसका मतलब यह नहीं कि वह बोढ़म है। या वह सिर्फ मजदूरी ही कर सकता है। इस पर वह व्यक्ति चुप्पी साध गया और दूसरी तरफ मुंह करके बैठ गया- हमें अपनी बात को पुरजोर तरीके से रखनी चाहिए।
यहां किसी एक फैक्टरी या अन्य इण्डस्ट्रीज कामों के क्षेत्र में हो रही मजदूरों के प्रति हो रही शोषण की घटनाओं के विस्तार को बताने का सवाल नहीं है क्योंकि काम का कोई भी क्षेत्र है उसमें सिर्फ उत्पादन और मुनाफे से मतलब है। मजदूर काम करते-करते मर भी जाता है तो उसको वहीं भट्टी में झोंक देते हैं। या उसको कहीं अन्यत्र फेंक देते हैं। आये दिन जो कारखानों में मजदूरों के शोषण की घटनायें होती हैं। वह स्पष्ट तौर पर अखबारों, टीवी चैनलों का हिस्सा ही नहीं बन पाती जिनका पता नहीं चलता। किसी तरह से चलता भी है तो मालिक ठेकेदार उसको रफा दफा करने में अपना पल्ला छुड़ाने में कोई कोताही नहीं बरतता और सरकार भी उसे पूरा बचाने का काम करती है।
देश के अन्दर नई आर्थिक नीतियों के कारण ठेकेदारी प्रथा के कारण नयी आर्थिक गुलामी बढ़ रही है जिससे आज का मजदूर गुलामी की ओर बढ़ रहा है। जिसका कहीं कोई निदान पूंजीपतियों, मुनाफाखोरों की व्यवस्था में नहीं दिखता। श्रम कानूनों में परिवर्तन सुधार के नाम पर मोदी सरकार ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों, मालिकों, ठेकेदारों को लाभ पहुंचाने के कारण आजादी में मिले अधिकारों को भी छीन लिया है। हर तरफ सस्ते श्रम की लूट के लिए नियमों को लचीला किया है। आज मोदी जो देश के प्रधानमंत्री हैं एक बड़ी गुलामी को देश के अन्दर बढ़ावा दे रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को देश में बढ़ावा दे रहे हैं। वे कहते हैं कि देश के अन्दर रोजगार के अवसर खुलेेंगे। जब अपने देश के कारखानों में ही मजदूरों को स्थायी रोजगार नहीं दे सकते तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में रोजगार की क्या गारण्टी है। हमारे देश के प्रधानमंत्री जो दुनिया में मुनाफे की लूट मचाने, हत्यायें करवाने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस के मौके पर मुख्य अतिथि बनाते हैं। प्रधानमंत्री को अपने देश के अंदर कोई मुख्य अतिथि बनाने लायक नहीं मिला। बेहद शर्मनाक है। पैसे और मुनाफे पर टिकी इस व्यवस्था में सरकारों से मेहनतकश मजदूरों-किसानों को किसी प्रकार की अभिलाषा करना बेकार है। मजदूरों को संगठित होकर अपने ऊपर हो रहे शोषण के खिलाफ एक वर्ग बतौर देश के अन्दर उठ खड़ा होना होगा और शोषण के खिलाफ हो रहे विरोधों को तेज करना होगा। क्योंकि ठेकेदार मालिक मजदूरों पर दया खाकर शोषण करना बन्द नहीं करेंगे उन्हें मुनाफा चाहिए होता है। मजदूर की जिन्दगी से मतलब नहीं होता है। वह उन्हें दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक देते हैं। शोषण को खत्म करना है तो मजदूरों को ही उनके राज को खत्म कर अपना राज कायम करना पड़ेगा। वह राज जिसमें किसी का शोषण न हो, इसके लिए मेहनतकशों के संगठन और उनकी विचारधारा के साथ जुड़ा होना व कदम बढ़ाना जरूरी है। सूरज, रामनगर
मतदान के बारे में कुछ विचार
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
कहा जाता है कि हिन्दुस्तान में लोकतंत्र है परन्तु चुनाव के दौरान कौन-कौन से हथकंडे अपनाकर लोग सत्ता तक पहुंचते हैं। यह सब जानते हैं। आम जनता को बरगलाकर नेता अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। उससे आगे मैं बताना चाहता हूं कि लोग ऐसा क्यों करते हैं। क्या वे ऐसा जानबूझकर करते हैं। या उससे करवाया जाता है। या उसके पीछे कोई छिपी हुई शक्तियां काम कर रही होती हैं। उसमें दो शक्तियां होती हैं। 1. डर 2. लोभ (लालच)।1. डर- इस मामले में होता है कि बड़े-बड़े नामी डकैत या बदमाश तबके के लोग जिनके ऊपर इनाम घोषित होता है उनका सम्पर्क सीधे नेताओं से होता है एवं उनके आस-पास रहने वाले लोगों को वे डरा-धमकाकर रखते हैं और कहते हैं जिसको हम कहेंगे उसे वोट देना नहीं तो तुम्हारा रहना दूभर कर देंगे और तरह-तरह से परेशान करते हैं। एवं उनसे खाना-पीना कपड़े इत्यादि उपयोग का सामान मंगाते रहते हैं। 2. लोभ- लालच के द्वारा कि तुम्हे पैसा मिलेगा या तुम्हें रोड़ बनाने का या पुल बनाने का या खडंजा लगाने का ठेका मिलेगा जिसके द्वारा तुम्हारी अच्छी कमाई करवा देगें या कन्ट्रोल का कोटा मिलेगा जिसमें गेहूं, चावल, चीनी, तेल इत्यादि बेचने के लिए दिया जायेगा उसमें मनचाही कमाई कर लेना। या गैस (LPG) और पेट्रोल पम्प का लाइसेन्स दे दिया जायेगा उसमें मनचाही कमाई कर लेना। नेता भी वे लोग बनते हैं 99 प्रतिशत लोग सिर्फ कमाई करने के लिए। जिसमें करीब-करीब सभी लोग भ्रष्टाचार के द्वारा लोभ के बस में होकर कमाई करते हैं। लोग इस तरह की कमाई क्यों करते हैं। जबकि सभी जानते हैं कि इस तरह की कमाई करने का मतलब होता है गलत रास्ता चुनना और उसी गलत रास्ते के द्वारा कमाकर पैसा घर में लाना। असल में लोग अपनी निजी सम्पत्ति को बढ़ाने में लगे रहते हैं। जितनी अधिक सम्पत्ति हमारे पास होगी उतनी ताकत हमारी बढ़ेगी। वह ताकत होती है कोई भी इस्तेमाल करने की वस्तु को खरीदने की ताकत। यह सम्पत्ति के द्वारा भी हो सकती है और ख्याति के द्वारा भी हो सकती है जितनी हमारी ख्याति बढ़ेगी उतना हमारा वर्चस्व कायम होगा उतनी हमारी बात माना जायेगी; हमारी हुकूमत चलेगी। उस ताकत के द्वारा हम निर्जीव चीजें जैसे गाड़ी, मोटर तो खरीदेंगे ही सभी तरह के जानवर, जीव-जन्तु भी खरीद सकते हैं। आदमी, औरत, बच्चे के साथ में उनकी शारीरिक व मानसिक श्रम शक्ति भी खरीद लेगें और यहां तक कि सरकारी कर्मचारी, अधिकारी एवं कानून (संविधान) को भी खरीद कर अपने लिए अपने हिसाब से तोड़-मरोड़कर इस्तेमाल कर लेगें।
दोस्तो! ये पूंजीवाद है। पूंजीवाद के रहते ऐसा ही होगा क्योंकि पूंजी का स्वाभाविक गुण ऐसा ही होता है। यदि हमको जरूरत के हिसाब से उपयोग के संसाधन जुटा कर उसका उचित उपयोग करना है। जिसकी जिस चीज के लिए जितनी जरूरत है उतना लें या उसको उतना ही मिले और शारीरिक क्षमता व मानसिक क्षमता भर काम लिया जाए। जैसे जन्म से लेकर मृत्यु तक भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, हवादार मकान की उचित व्यवस्था हो तो उसके लिए हमें पूंजी के स्वभाव को जानना समझना होगा। पूंजी के इतिहास को समझना होगा कि इससे पहले पूंजी ने क्या-क्या, कैसे-कैसे किया। फिर एकता की ताकत बनाकर उसके दम पर। लोकतंत्र के झूठे आडम्बर को सिरे से नकारना होगा। और श्रमिकों का राज समाजवाद की स्थापना करनी होगी। और उसके द्वारा साम्यवाद लाना होगा। अरविन्द बरेली
मजदूरों की आजादी की एक रूपरेखा
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
15 अगस्त को देश का पूंजीवादी शासकवर्ग अपनी आजादी का जश्न मनाता है। मजदूर-मेहनतकशों को भी तरह-तरह से भरमा कर अपनी आजादी में शरीक करता है। इस आजादी को मनाने का मतलब है कि पूंजीपति वर्ग द्वारा मेहनतकशों का शोषण-उत्पीड़न जारी रखा जाये। जिसमें एक तरफ देश का मुट्ठी भर छोटा सा हिस्सा सारी सम्पत्ति का मालिक रहे। बाकी आबादी जो सबसे ज्यादा यानी बहुसंख्यक है, जो सभी चीजों का उत्पादन करती है, वह सभी सुख-सुविधाओं से वंचित रहे। पूंजीवादी शासक वर्ग इसी तरह की आजादी को समस्त जनता की आजादी बताकर 67 वर्षों से गुमराह करता आ रहा है। जबकि यह आजादी वास्तविक आजादी से कोसों दूर है।
20वीं सदी में दुनिया के कई देशों में वास्तविक आजादी के लिए मजदूर-मेहनतकशों ने शानदार संघर्ष किये। मजदूरों ने इन संघर्षों के दम पर निजी सम्पत्ति यानी निजी उत्पादन सम्बन्धों की जगह सामूहिक उत्पादन सम्बन्ध कायम किये। जहां हर प्रकार के भेद-भाव को संघर्ष के दम पर मिटा दिया गया। ये आजादी वास्तव में मेहनतकशों की आजादी थी।
हिन्दुस्तान में भी ऐसी आजादी के लिए संघर्ष की शुरूआत की नींव रखी गयी जिसमें भगतसिंह व कई अन्य क्रांतिवीरों का नाम आया है। लेकिन देशी-विदेशी लुटेरों ने उन क्रांतिवीरों की मेहनतकशों की आजादी की नींव को उखाड़ दिया।
तिरंगे के नेतृत्व में मिली आजादी मजदूरों की आजादी नहीं हो सकती। हमारी आजादी लाल झण्डे के नेतृत्व में ही मिल सकती है। लाल झण्डा जो मजदूरों के खून का प्रतीक है। और इस लाल झण्डे के नेतृत्व में मिली आजादी का मतलब होगा महिलाओं, बच्चियों की यौन हिंसा से मुक्ति। बेरोजगारों को बेरोजगारी से मुक्ति। नये समाज में कोई भी बच्चा भूख, बीमारी से नहीं मर पायेगा। कोई मां-बहन पेट की खातिर अपने शरीर को नहीं बेच पायेगी। महिलाओं को सामाजिक उत्पादन में लगाया जायेगा। कोई भी मां-बाप अपने बच्चों की पढ़ाई, रोजगार के लिए शरीर के अंगों को नहीं बेचेंगे। कोई भी इलाज के अभाव में अल्प आयु में दम नहीं तोड़ पायेगा। वृद्ध स्त्री-पुरुषों की देखभाल की गारण्टी दी जायेगी। उत्पादन के साधनों पर सामूहिक मालिकाना कायम किया जायेगा।
उपरोक्त बातों के आधार पर हमारी वास्तविक आजादी हो सकती है। वरना वर्तमान में जो आजादी है वह पूंजीपति वर्ग की मजदूर वर्ग पर तानाशाही का एक रूप है। यानी बीस प्रतिशत लोगों की 80 प्रतिशत लोगों पर थोपी गयी आजादी है। मजदूर वर्ग को अपनी आजादी क्रांति के दम पर हासिल हो सकती है। एक मजदूर हरिद्वार
झाडू वाले प्रधानमंत्री
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं, तब से एक न एक नए-नए शगूफे और पाखण्ड करते जा रहे हैं। उनमें से एक है झाडू लेकर सफाई करना तथा फोटो खिंचवाना। यह सब ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के नाम पर हो रहा है। इस दृश्य को सभी मीडिया अखबार विज्ञापन की तरह प्रचारित प्रसारित करते रहे हैं। प्रधानमंत्री जहां भी नयी जगह पर जाते हैं। हाथ में झाडू और फावड़ा लेकर फोटो खिंचवाते हैं। प्रधानमंत्री की देखा-देखी इनके कुछ मंत्री भी ऐसा ही कर रहे हैं। ये झाडू भी साफ-सुथरी सड़कों पर लगाते हैं। ये लोग मलिन बस्तियों में पैर भी नहीं रखते हैं। झाडू के साथ फोटो खिंचवाने के चक्कर में इन लोगों ने बेशर्मी की हदें भी पार कर दीं। कुछ मंत्रियों ने दिल्ली के एक वी.आई.पी. इलाके में बोरी में कूड़ा मंगाकर सड़क पर फैलाया तथा झाडू लेकर फोटो खिंचवाएं। खैर! जो भी हो एक बात तो साफ है कि मोदी जी और इनके मंत्री गण इस पाखण्ड के माध्यम से अपनी छवि साफ-सुथरी बनाना चाहते हैं।
सवाल यह है कि क्या मोदी जी को झाडू लगाने का ज्ञान प्रधानमंत्री बनने के बाद हुआ है? क्या देश वासियों को अब तक झाडू लगाने का ज्ञान नहीं था? यह सवाल हमें मोदी से जरूर पूछना चाहिए। हम जानते हैं कि सभी घरों में और उसके आस-पास दिन में कम से कम दो बार झाडू लगती है। मजदूर, मेहनतकश गरीब लोग अपने घरों और उसके आस-पास की सफाई खुद करते हैं। पूंजीपति अमीर लोग अपने घरों की सफाई के लिए नौकर-चाकर रखते हैं। प्रधानमंत्री एवं उनके मंत्रीगण के घरों की साफ-सफाई नौकर-चाकर करते हैं। ये लोग खुद अपने घरों की सफाई नहीं करते। फिर ये लोग साफ सड़कों पर झाडू क्यों चलाते हैं। शहरों और कस्बों में साफ-सफाई के लिए नगर निगम या नगर परिषद नाम से सरकारी अमला बना है।
आज सब जानते हैं कि देश में सबसे अधिक तथा खतरनाक कचरा पैदा करने वाले तथा इसे फैलाने वाले देश के बड़े कल-कारखाने तथा इनके मालिक पूंजीपति हैं। कल-कारखाने का कचरा व गंदा पानी ने देश की जीवनदायी नदियों को जहरीला एवं गंदा नाला बना दिया है। शहरों में गंदे इलाके मजदूर बस्तियां हैं जो औद्योगिक इलाके में और उसके आस-पास बसी हैं। यहां सरकारें सफाई कर्मचारी नहीं लगाती हैं।
दिल्ली में एक मजदूर बस्ती है शाहबाद डेरी। इस बस्ती में जगह-जगह कूड़ा तथा गंदा पानी जमा है। मैंने दिल्ली नगरपालिका रोहिणाी कार्यालय से आर.टी.आई. लगाकर पूछा कि शाहबाद डेरी झुग्गी बस्ती में कितने सफाइकर्मी नियुक्त हैं। जबाव मिला कि यहां कोई सफाईकर्मी नियुक्त नहीं है। यह सच्चाई सरकारों के दोहरे-चरित्र को उजागर करती है। शहरों में पूंजीपतियों की कालोनियां तथा वी.आई.पी. इलाके शीशे की तरह चमकते रहते हैं। सफाई कर्मचारियों की फौज यहां लगी रहती है। प्रधानमंत्री जी एवं उनके मंत्रीगण इन्हीं इलाकों में झाडू लगा रहे हैं। इस नौटंकी से भारत स्वच्छ नहीं बनेगा।
देश को अगर कचरा मुक्त व साफ-सुथरा बनाना है अगर नदियों और पर्यावरण को स्वच्छ-निर्मल बनाना है तो देशी-विदेशी कल-कारखानों पर कचरा फैलाने पर रोक लगानी पड़ेगी। इन कारखानों में कचरा ट्रीटमेंट प्लान्ट लगाने के लिए बाध्य करना पड़ेगा। ये कारखाने अपने मुनाफे की हवस पूरी करने के लिए मजदूरों का निर्मम शोषण करते हैं तथा मनमाने तरीके से जहरीले कचरे को फैलाते रहते हैं। इन कारखानों से निकलने वाले तमाम रसायनिक केमिकल्स से भू-जल नीचे तक दूषित हो चुका है। नदियों का पानी जहरीला होकर काला पड़ गया है। इसी पानी से खेतों की सिंचाई होती है। ऐसे पानी से सिंचित जमीन व इसके कृषि उत्पाद कैसे होंगे? आज नदियों की अधिकतर मछलियां मर चुकी हैं। इन कारखानों से निकलने वाली जहरीली गैसों से हवा दूषित हो चुकी है। आज सांस की तमाम बीमारी दूषित हवा के कारण हो रही हैं। नयी-नवेली सरकार इन कारखानों पर प्रतिबंध लगाने के बजाय भांति-भांति की छूट दे रही हैं। वह भी विकास के नाम पर।
आज जल, जमीन और वायु जितना दूषित हो चुका है क्या वह मोदी के झाडू लगाने से ठीक हो जायेगा? क्या इस बात को मोदी और इसके मंत्रिगण नहीं जानते हैं? मोदी साहब इस बात को भली-भांति जानते हैं कि यह समस्या झाडू लगाने से ठीक नहीं हो सकती। मोदी और इसकी सरकार जो नीति बना रही है उससे देश में दूसरी समस्याओं के साथ यह समस्या भी और बढ़ेगी। मोदी साहब जो कर रहे हैं वह पाखण्ड है, जनता से मक्कारी है, देश की जनता की आंखों में धूल झोंकना है। यह सोलह आना फरेब है।
मोदी का व्यक्तित्व जिस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा आदि संगठनों से निर्मित है वहां ऐसे ही व्यक्ति को कर्मठ, निष्ठावान, ईमानदार माना जाता है। ये संगठन हिटलर जैसों की विचारधारा से प्रेरित हैं। इन संगठनों की पैदाइश पतित साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के गर्भ से हुई है। साम्राज्यवादी पूंजीवाद ने मजदूर वर्ग के संघर्षों एवं राष्ट्रीय मुक्ति जनान्दोलनों को कुचलने के लिए घृणित फासिज्म का रूप धारण कर लिया था। हिटलर, मुसोलिनी, तोजो इसके मूर्त रूप थे जिन्होंने पूरी मानवता एवं इंसानियत को खतरे में डाल दिया था। फासिस्ट विचारधारा वाले संगठनों से संस्कारित औलाद से आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है। आजादी के आंदोलन में भी इन संगठनों और इनके नेताओं का दोगला चरित्र उजागर हुआ था। आज के नामित भारत रत्न अटलबिहारी वाजपेयी ने भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में अंग्रेजों से माफी मांगी थी। और क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करवाने में मुखबिरी की थी। ऐसे ही लोग मोदी के आदर्श पुरुष हैं। जन संघर्षों से गद्दारी और दोगले चरित्र के कारण आर.एस.एस. ने अस्सी के दशक तक जनमानस में स्वीकारोक्ति नहीं पायी। किन्तु भारतीय पूंजीपति वर्ग एवं साम्राज्यवादियों ने कांग्रेस के विकल्प के बतौर भाजपा जैसे फासिस्ट संगठन को बनाये रखा। कांग्रेस के जन विरोधी चरित्र से जब जनता का मोहभंग हुआ तो नब्बे के दशक के शुरू में भाजपा ने ‘राम, रोटी और इंसाफ’ व ‘स्वदेशी’ का नारा दिया तथा पहली बार उ.प्र. की कुर्सी पर सत्तासीन हुई। सत्ता में आते ही भाजपा अपने किए वायदे से चुपके से मुकर गयी। तथा मेहनतकश जनता को बांटने का षड्यंत्र करने लगी। 1992 में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया। मस्जिद के गिरने से सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गये। बड़े पैमाने पर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। भाजपा ने अपने मातृ संगठनों की तरह ही जनता से गद्दारी की। थोड़े दिनों बाद ही भाजपा का सच जनता के बीच उजागर हो गया। जनता ने अगले ही चुनाव में भाजपा को कुर्सी से उतार दिया। तब से आज तक भाजपा उ.प्र. में सत्ताशीन नहीं हुई। 1998 के आम चुनाव में भाजपा ने एक बार फिर भ्रष्टाचार, महंगाई, विकास का नारा दिया तथा एन.डी.ए. की पीठ पर सवार होकर केन्द्र की कुर्सी हथिया ली। आर.एस.एस. की शाखाओं में टंªेड दूध से धुले ईमानदार अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाया गया। आजादी की लड़ाई में पिछले दरवाजे से अंग्रेजों की चाटुकारी करने वाले आर.एस.एस. के मुखौटा थे अटल बिहारी वाजपेयी। अटल ने भी कांग्रेस से आगे बढ़कर पूंजीपतियों की तिजौरी भरने वाली जनविरोधी नीतियो को और तेजी से लागू किया। इस काल में देश भर में बड़ी संख्या में किसानों ने आत्महत्या की। उस समय भी अटल और भाजपा ने जनता को धोखा दिया।
1999 में सीमा पर तनाव पैदा करके कारगिल जैसे युद्ध को जन्म दिया गया। देश के सैकड़ों जवानों को इस युद्ध में झोंक दिया गया। जवानों की लाशों को रखने के लिए अमेरिका से ताबूत मंगवाये गये। इस सौदेबाजी में भी बड़ा घोटाला हुआ था। जनता का हाल बेहाल था दूसरी ओर अटल ने नारा दिया ‘‘इण्डिया शाइनिंग’’ (भारत चमक रहा है)। इस झूठ को प्रचारित करने के लिए करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाया गया।
2002 में अटल के प्रधानमंत्री काल में गुजरात में खून के प्यासे हिन्दू संगठनों ने हजारों मुसलमानों का कत्ल किया। इन भेडि़यों ने दरिन्दगी की सभी हदें पार करते हुए गर्भवती महिलाओं को तथा उनके पेट में पल रहे बच्चों तक का कत्ल किया। उस समय मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। नरेन्द्र मोदी पर तमाम पत्र-पत्रिकाओं-अखबारों, बुद्धिजीवियों ने दंगा भड़काने तथा परोक्ष रूप से हत्यारे दंगाईयों को उकसाने का आरोप लगाया था। किन्तु अटल बिहारी वाजपेयी ने उसके खिलाफ कार्यवाही नहीं की बल्कि ‘राजधर्म का पालन करने’ की नसीहत देने के बहाने नरसंहार को स्वीकृति प्रदान की। जल्द ही जनता ने ईमानदार प्रधानमंत्री के पाखण्ड को समझ लिया तथा 2004 के आम चुनाव में भाजपा और एनडीए को सत्ता से बाहर कर दिया। विकल्प के अभाव में 2004 में पुनः कांग्रेस सत्ता में आ गयी। मनमोहन सिंह ने भी मुलायम हाथों से जनता के खून पसीने का दोहन कर पूंजीपतियों की झोली को भरा। कांग्रेस के खिलाफ जनता का गुस्सा बढ़ता गया। फिर मौका देखकर मोदी एवं भाजपा ने 2014 के आम चुनाव में महंगाई, भ्रष्टाचार, काला धन व विकास का नारा दिया तथा जनता को ‘‘अच्छे दिन आने वाले हैं-- का खूबसूरत सपना दिखाया। 2002 के गुजरात नरसंहार ने मोदी को फासिस्ट चेहरे के रूप में स्थापित कर दिया था। आर.एस.एस. तथा देशी-विदेशी-पूंजीपतियों ने डरावने चेहरे पर विकास पुरुष का मुखौटा लगा दिया। कांग्रेस से निराश नाराज जनता को भाजपा का उक्त नारे तथा मोदी के मुखौटे ने अपनी ओर आकर्षित किया। इस बार जनता ने पूर्ण बहुमत से भाजपा को सत्ता पर बैठा दिया।
मोदी चुनाव से पहले अपनी सभाओं में बोलते थे कि उनका सीना 56 इंच का है तथा वे तीन दिन में ही महंगाई, भ्रष्टाचार, कालेधन की समस्याओं को हल कर देंगे। मोदी को सात महीने से अधिक हो गया है प्रधानमंत्री बने हुए। महंगाई को कम करने का दावा करने वाले के प्रधानमंत्री बनते ही रेल किराया में भारी बढ़ोत्तरी की गयी। चावल, दाल डेढ़ गुने से दो गुने महंगे हो गये। गरीबों की सब्जी, आलू, प्याज 40 रुपये से 60 रुपये तक महंगे हो गये थे। दवाओ के दाम बेतहाशा बढ़ रहे हैं। अपराधियों का सीना 56 इंच से भी अधिक चौड़ा होता जा रहा है। महिलाओं पर हिंसा तथा बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं। मोदी इस सच्चाई को झुठलाने के लिए तरह-तरह की कलाबाजी कर रहे हैं। इस समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम के दामों में 60 प्रतिशत तक की भारी गिरावट हुई है किन्तु इस सरकार ने मात्र 10-12 प्रतिशत दाम ही कम किया है। दामों में गिरावट को भी मोदी तथा भाजपा अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर गरजने वाले मोदी की बोलती बंद हो चुकी है। कांग्रेस तथा इनके भ्रष्ट नेताओं और सी.बी.आई. को पानी पी-पी कर गाली देने वाले प्रधानमंत्री से कोई पूछे कि इनके सात महीने के शासन काल में किस नेता और अफसर को भ्रष्टाचार के मामले में गिरफ्तार किया गया है तथा किसको सजा दी गयी है। काला धन के सवाल पर भी मोदी सरकार ने विदेशी संबंधों का हवाला देकर इससे मुंह मोड़ लिया है। विकास के मामले में इस सरकार की लफ्फाजी जारी है। इनका विकास का एजेण्डा भी विदेशी पूंजी के जाल में अटका हुआ है। अपने सात महीने के शासन काल में मोदी अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया सहित 9 विदेशी यात्रा कर चुके हैं लेकिन राह आसान नहीं दीख रही है।
देशी-विदेशी पूंजी के दबाव में मोदी सरकार ने देश के समूचे मेहनतकश आबादी के अधिकारों पर हमला बोल दिया है। श्रम कानूनों में बदलाव करके मजदूरों को अधिकार विहीन बनाया जा रहा है। वह भी ‘‘श्रमेव जयते’’ के नाम पर। कम्पनियों में स्थाई रोजगार की व्यवस्था को खत्म कर दिया गया है। ठेकेदारी के मजदूरों से प्रोडक्शन लाइन पर काम कराया जा रहा है। ऐसा केवल प्राइवेट कम्पनियों में ही नहीं बल्कि सरकारी विभागों, संस्थानों एवं कम्पनियों में भी किया जा रहा है। स्माल फैक्टरी की परिभाषा बदल कर बड़े कारखानों को भी इसकी जद में लाया जा चुका है। यह व्यवस्था दी जा रही है कि यहां कोई भी श्रम कानून लागू नहीं होगा।
मोदी ने चुनाव से पहले देश के नौजवानों को रोजगार देने का वायदा किया था किन्तु आज रोजगार बढ़ने के बजाय बेरोजगारी बढ़ रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्या भस्मासुर की तरह बढ़ रही है। कानून के राज की जगह जंगल राज कायम होता जा रहा है। मोदी ने चुनाव से पहले जिन समस्याओं को हल करने का वादा किया था वे कम होेने की बजाय दैत्य की तरह बढ़ रही हैं। बढें भी क्यों नहीं, पूंजीपति वर्ग के हितों को पूरा करने के लिए श्रम कानूनों में तथा भूमिअधिग्रहण कानूनों में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया जा रहा है। निजीकरण के दरवाजे और अधिक चौड़े किये जा रहे हैं। बैंकों और रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी की जा रही है। समस्याओं के घनीभूत होते जाने से जनता में निराशा और गुस्सा का बढ़ना लाजिमी है। इस बात को मोदी और आर.एस.एस. और इनके बुद्धिजीवी भली-भांति जानते हैं कि इस तनाव और गुस्से को भटकाया या बरगलाया गया नहीं तो तो यह मोदी सहित पूरी पूंजीवादी व्यवस्था को खाक में मिला दिया।
मेहनतकशों की आंखों में धूल झोंकने के लिए ही आर.एस.एस. मण्डली और मोदी भांति-भांति के घृणित हथकण्डा अपना रहे हैं। आर.एस.एस. और इसकी मण्डली के बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन मेहनतकश वर्गों में विभाजन करने के लिए नफरत फैला रहे हैं। ‘‘लव जेहाद’’, ‘‘धर्मान्तरण(घर वापसी)।’’, ‘‘बहू लाओ बेटी बचाओ अभियान’’ गौरक्षा के नाम पर समाज में घृणा फैला रहे हैं। ये कट्टर पंथी ‘लव जेहाद’ और ‘बहू लाओ बेटी बचाओ’ के नाम पर जागरूक हो रही महिलाओं की आजादी को कुचल देना चाहते हैं।
हिन्दू धर्म की कुरीतियों और निम्न जातियों, महिलाओं को प्रताडि़त करने वाले धार्मिक नियमों के खिलाफ बगावत स्वरूप बौद्ध, जैन, सिख धर्मों तथा कबीरपंथ जैसे सम्प्रदायों का उदय हुआ जो तुलनात्मक रूप में अधिक समानता तथा बराबरी पर आधारित थे। देश के अनेक लोगों ने हिन्दू धर्म की बुराईयों के खिलाफ दूसरे धर्मों को अपनाया। आज ये कट्टरपंथी हिन्दू संगठन हिन्दू धर्म की कुरीतियों, कुप्रथाओं व सामाजिक गैर बराबरी पर आधारित नियमों को बदलने के बजाय दूसरे धर्मों के लोगों को डरा धमकाकर, लालच देकर घर वापसी करा रहे हैं। ये वही लोग हैं जो धर्म के नाम पर अपनी विधवाओं को बनारस तथा मथुरा के विधवा आश्रमों में छोड़ आते हैं। ऐसे ही पतित लोग गौरक्षा की बात कर रहे हैं।
जहां आर.एस.एस. मंडली समाज में भांति-भांति की नफरत फैला रही है वहीं प्रधानमंत्रीजी हाथ में झाडू लेकर फोटो खिंचवा रहे हैं वह भी स्वच्छ भारत के नाम पर। इसे प्रचारित करने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी की तरह करोड़ों रुपये बहा रहे हैं। यह सब मेहनतकश जनता और देश के नौजवानों की आंखों में धूल झोंकने के लिए उन्हें गुमराह करने के लिए किया जा रहा है। मोदी जिन मुद्दों पर चुनाव लड़े थे तथा जनता से जो वायदे किये थे उससे मुंह चुरा रहे हैं।
सपने बेचने और पाखण्ड करने से समस्यायें दूर नहीं हो जाती हैं। इसके लिए कुछ ठोस काम करना पड़ेगा। पूंजीपति वर्ग के मुनाफे के घोड़े को लगाम लगानी पड़ेगी तथा यह लगाम जनता के हाथो में सौंपनी होगी। किन्तु इस काम को मोदी और आर.एस.एस. मण्डली नहीं कर सकती। जनता से गद्दारी करने वाले पूूंजीपतियों के चाकर और एजेण्ट ऐसा नहीं कर सकते। देश के पूंजीपतियों ने करोड़ों रुपये मोदी के ऊपर प्रचार में खर्च किया है। इसकी अदायगी करनी है। वह अगले पांच वर्षों तक मेहतनकश जनता (मजदूर-किसान) की खून पसीने की कमाई उनकी झोली में डालते रहेंगे। जनता तड़पती कराहती रहेगी। एक दिन मोदी का भी भांडा फूटेगा, असलियत जनता के बीच खुलेगी। इतिहास को झुठलाया नहीं जा सकता। धूर्त और मक्कार लोगों की जगह इतिहास के कूड़े दान में होती है। हमारे झाडू वाले प्रधानमंत्री जी को यह बात पता होनी चाहिए। हरि प्रसाद, फरीदाबाद
बिना खाना खाये-चाय पिये ओमेक्स मजदूर कम्पनी में काम करेंगे
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
आॅटोमेक्स मजदूरों की प्र्रबंधन से समझौता वार्ता जुलाई माह से बाकी है पर आॅटोमैक्स प्रबंधक यूनियन से किसी भी तरह की बात करने को तैयार नहीं है। लगभग 7 महीने से उनका केस एलओ के पास श्रम विभाग में चल रहा था अब डीएलसी एनसीआर गुड़गांव के पास चल रहा है लेकिन प्रबंधक वहां से हर बार बहाना बनाकर तारीख लेते रहते हैं पर फैसले पर कोई बात नहीं करते। समझौते को लेकर आॅटोमैक्स प्रबंधक जागरूक नहीं है। इस बात को लेकर मजदूरों में काफी रोष बना हुआ है। अगर समय रहते समझौता नहीं हुआ इसके कारण औद्योगिक अशांति फैलती है तो पूर्ण रूप से इसकी जिम्मेदार आॅटोमैक्स प्रबंधक की होगी।
दिनांक 13 जनवरी से सभी मजदूर साथियों ने यूनियन के साथ मिलकर फैसला लिया है कि सभी मजदूर साथी बिना चाय पिये, बिना खाना खाये ही अनिश्चितकालीन तक कम्पनी में कार्य करेंगे जब तक प्रबंधक हमारा समझौता नहीं कर देती।
जनार्दन एन (प्रधान)
आॅटोमैक्स कर्मचारी यूनियन बिनौला(गुड़गांव)
एक बुर्जग मजदूर की दास्तान
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
मैं राम सागर C/O श्री चन्द्र वली मौर्य म.न.57 ईस्ट द्वारिका कालोनी सेक्टर-22 फरीदाबाद का निवासी हूं।
मेरी पेंशन 2005 को ही लागू हो जानी चाहिए थी लेकिन आज तक मुझे गुमराह किया जा रहा है। सन् 2005 में मैं पेशन का फार्म भर कर दिया था। पी.एफ. आफिस से फार्म यह लिखकर वापिस कर दिया गया कि फार्म कम्पनी से भरवाकर दिया जाये। मैंने अधिकारी से जाकर बात की कि कम्पनी के साथ मेरा केस कोर्ट में विचाराधीन है इसलिए फार्म नहीं भर सकती तो डिपार्टमेन्ट अधिकारी ने डांट कर भगा दिया। बाहर की मुहर, दस्तखत नहीं चलेगी। जबकि डीएलसी फरीदाबाद की मुहर-दस्तखत है, जिसकी मुहर-दस्तखत से कानून बनता है, कोर्ट नहीं काट सकती इतनी मान्यता होती है। कंपनियों में कोई समझौता या जिला लेबल पर कोई भी समझौता आर्डर पास होता है डीएलसी के मुहर दस्तखत से कानून बन जाता है।
मैं 7 जुलाई 1992 को राजे टेक्सटाइल प्लाट न. 10 सेक्टर-24 फरीदाबाद कंपनी से डिसमिस कर दिया गया था। 10 जून 1999 को मैं ड्यूटी और पूरे पैसे के साथ फरीदाबाद लेबर कोर्ट ने आर्डर पास कर दिया लेकिन कंपनी गैर कानूनी ढंग से बंद कर दिया गया। जो अभी तक मुझे ड्यूटी नहीं मिली। बाद में उसमें फार्म न.2 के आधार पर कंपनी में दो मालिक बन गये और हाई कोर्ट चले गये। जो फैसला फरीदाबाद लेबर कोर्ट ने दिया वही हाईकोर्ट ने दिया। मालिकों की आपसी मालिकाने की लड़ाई थी।
इनके बीच सन् 1980 में कोई बंटवारे में आपसी समझौता हुआ था जो डायरेक्टर श्री निकुन्ज कुमार लोहिया को बनाया गया। यह कम्पनियां इनके हिस्से में आई। आज तक कंपनियां ईस्ट इंडिया से लेकर पावर लूम की 18 कंपनियां श्री निकुन्ज कुमार लोहिया के ही देख रेख में बेची गयी। जितनी कानूनी कार्यवाही सरकारी हुई। श्री निकुन्ज कुमार लोहिया पर ही सारे आर्डर पास हुये। जो माल, मशीन, जमीन बेची गयी सारा निकुन्ज कुमार लोहिया के बैंक खाते में ही गया। लेकिन फार्म न. 2 पर श्री राजे कुमारी का ही नाम आज तक बदला नहीं गया। इन दोनों की ड्यूटी बनती थी कि फार्म न.2 पर श्री निकुन्ज कुमार लोहिया के नाम पर ट्रांसफर कराया जाये लेकिन इन दोनों ने समझौते पर ध्यान ही नहीं दिया। और कंपनी राम भरोसे चलती रही और फरीदाबाद के सारे अधिकारी भी सन् 1980 से आज तक सोये रहे। किसी को कोई मतलब नहीं कि फरीदाबाद में कौन कंपनी में क्या बदमाशी चल रही है। उनको तो अपनी मंथली पगार से मतलब है। 50 साल से कंपनी का डायरेक्टर कौन है, कंपनी का मुनाफा कौन ले रहा है मालूम नहीं। जमीन बेची जा रही है। मशीन बेची जा रही है। किसकी है किसकी नहीं। इन्हीं दोनों की लड़ाई में आज तक 16-17 साल बाद भी बहुत सारे मजदूर, स्टाफ हिसाब से वंचित रहा। 30 साल नौकरी के बाद भी हिसाब देने वालों का कोई पता नहीं। अपनी छाती पीट-पीट कर कितने फरीदाबाद से चले गये कितने मर भी गये, मालिकों के मजे आ रहे हैं।
मजदूर तबका कितना दिन कोर्ट में लडे़गा 25 साल मुझे लड़ते हो गया है। कहां तक कोई लडे़गा। सारे अफसर कोर्ट कचहरी सब तो इन्हीं की है।
यही हाल भविष्य निधि वाले किये हुए हैं। 2005 के बाद फिर मैंने 9 मार्च 2011 को दूसरी बार फार्म भरा। पेंशन के लिए श्री वेचू गिरी जी को भविष्य निधी ने ही अधिकृत किया हुआ है। श्री वेचू गिरी की मुहर दस्तखत लगवा कर दिया। कंपनी के साथ केस चलने की वजह से कंपनी मेरे फार्म पर मुहर दस्तखत नहीं कर सकती, दुश्मन को कौन गले लगायेगा, वही कहावत है। आ बैल मुझे मार अभी भी भविष्य निधि वाले कंपनी के मुहर के ही लिए मुझे बाध्य कर रहे हैं। और पेंशन नहीं बना रहे हैं। क्योंकि मेरा भविष्य निधि 7 जुलाई 1992 तक ही काटा गया है। 7 जुलाई को कंपनी ने मुझे डिसमिस कर दिया था और कोर्ट का आदेश ड्यूटी और पैसे के साथ 10/6/1999 को हुआ था। इस आधार पर मैं पेंशन का दावा किया हूं। वैसे मैं 2005 में रिटायर हो रहा हूं फिर भी मैं आप के पास वही आर्डर की कापी के हिसाब से ही सेवा लाभ लेने की तिथि दे रखा हूं। क्योंकि इधर का अभी कोई केस नहीं डाल रखा हूं। उसमें भी भविष्य निधि अधिकारी फार्म जमा करने के बाद फार्म 25/7/11 को यह कहकर वापस दिया कि आप की कंपनी ने 93-94 का पैसा नहीं जमा कराया है। भविष्य निधि अधिकारी यहां गौर नहीं कर रहे हैं कि मैं दावा कोर्ट के हिसाब से किया हूं। भविष्य निधि अधिकारी मेरा पैसा कंपनी से ले या 10 डी के तहत या 16 ए के तहत जो भी कानून भविष्य निधि ने बनाये हैं। उसके तहत मैं पेशन का हकदार हूं। जो कि मेरी पेंशन बनाई जाये और भविष्य निधि अधिकारी मुझे परेशान करने के लिए टाल रहे हैं। जबकि मैं कोर्ट से शपथपत्र बनवाकर दिया था वह फाइल से निकाल लिये और कहने लगे शपथपत्र इसमें नहीं है। मैंने कहा आप ने फाइनल में क्या चेक किया जो अब इतने दिन बाद बता रहे हैं। आपने फार्म अधूरा कैसे जमा कर लिया। उनको शपथ पत्र की फोटो कापी दिखाया, फिर बोले दूसरा बनवा कर दे दो। मैं दूसरा बनवा कर दे दिया। इसके बाद से आज तक 7/3/11 से लेकर कंपनी के साथ भविष्य निधि का सिलसिला ही चल रहा है।
और मेरे पर बार-बार यह दवाब बनाया गया कि कंपनी से हिसाब क्यों नहीं लेते और अपना पीएफ पूरा निकलवा लो। बाद में वसूली विभाग में मेरी फाइल गयी गौरी शंकर के पास। जब मैं उनके पास गया तो उन्होंने बताया कंपनी वाले कुछ कागज दे आये थे। जब नरायन सिंह जिनको कंपनी यानि निकुन्ज कुमार लोहिया जी पी.एफ. के फार्म भरकर मुहर लगाने दस्तखत करने का अधिकार दे रखा है। मैं भी गौरी शंकर जी को तमाम आर्डर जो कागज उन्होंने मांगे मैंने दे दिये। कुछ दिन बाद फिर गौरी शंकर से मिला तो कहने लगे आप की फाइल गुम हो गयी और सालों साल मेरी फाइल पर कोई विचार ही नहीं किया गया। जब जाऊं तो अभी फाइल नहीं मिली बार-बार यही बात रिपीट होती रही। अब दूसरी फाइल बनवा लो। मैं गरीब मजबूर मानसिक तनाव लेकर वापस चला आता। चपरासी और किसी अफसर से मिलने नहीं देते थे कि अपनी बात कहूं। फिर मैं श्री वेचू गिरी जी से मिला। वे मेरा केश लोक अदालत में डाल दिये। हर महीने 10 ता. को लोक अदालत लगती है। पी.एफ. अफिस में 10 ता. को फाइल मिल गयी और लोक अदालत में यह तय हुआ आपकी फाइल पर विचार होगा। इसके पहले कुकी भाटिया की तरफ से 26/8/11, 17/10/11, 11/1/12, 28/9/12, और 4/12/12 को टीसी अग्रवाल की तरफ से और 30/6/14 को सतीश चंद्र त्यागी की तरफ से पत्र कंपनी को भेजा गया जिसका कोई लाभ आज तक नहीं मिला। वही ढांक के तीन पात के बराबर रहा। तीन साल से यही विचार पीएफ आफिस वाले कर रहे हैं। कभी श्री निकुंज कुमार लोहिया पर तो कभी श्रीमती राजे भरतिया पर। जब कि मेरा पीएफ पूरा निकाला नहीं गया है। और मेरा फैमली पीएफ पूरा पड़ा है। कंपनी के दोनों मालिक अभी जिन्दा हैं। मैं 70 साल का हो रहा हूं जिन्दा हूं अब ज्यादा चल फिर नहीं सकता पीएफ वालों का मरने के बाद पेंशन बनाने का इरादा है। जबकि मैं न्यू इन्डिया टेक्स टाइल प्लाट नं. 11 सेक्टर 24 फरीदाबाद में 1963 में भर्ती हुआ और 1991 मार्च तक ड्यूटी पर रहा जो निकुंज कुमार लोहिया जी 3 महारानी नई दिल्ली के नाम पर यह कंपनी है और राजे श्री टेक्स टाइल में 1/3/1991 में मुझसे काम लेना शुरू किया गया। 7/7/1992 को डिसमिस कर दिया। 10/6/1999 को लेबर कोर्ट फरीदाबाद ने पूरे पैसे के साथ ड्यूटी पर जाने का आर्डर दे दिया। इसलिए मेरी ड्यूटी 10/6/1992 तक से आगे। रिटायरमेंन्ट 2005 में हो रहा है।
श्रीमती राजे भरतिया पत्नी ओम प्रकाश भरतिया R/O एक दत्त 10 अवेन्यू अशोक ग्रीन राजोफरी, नई दिल्ली 110038, मालिक तो कोई ना कोई है राजे श्री टेक्स टाइल में 52 मजदूर थे। जिनका नाम व बाप का नाम सब रिकार्ड मेरे पास है। और जय नरायन को राजे श्री टेक्सटाइल के मजदूरों को किसने पेेंशन फार्म व पीएफ निकालने के फार्म पर मुहर व दस्तखत किये यदि जय नरायन के हैं तो वह तो सरासर गलत है। क्योंकि यह कंपनी निकुन्ज कुमार लोहिया की नहीं है निकुन्ज कुमार लोहिया खुद कह रहे हैं। इसलिए जय नरायन को राजे भरतिया ने मुहर व दस्तखत के हक नहीं दिये है। जय नरायन को फिर यह हक किसने दिया क्योंकि राजे श्री भरतिया आज भी राजे टेक्सटाइल की मालिक बनने को राजी नहीं उधर निकुन्ज कुमार लोहिया न ही मानने को तैयार तो फिर जय नरायन सिंह किस अधिकार से राजे श्री टेक्सटाइल के मजदूरों के फार्म पर मुहर दस्तखत किये। और पावरलूम के 18 कंपनियां अलग-अगल नाम से हैं अलग-अलग मालिक हैं, तो एक कंपनी का एक ही मैनेजर हो सकता है। एक जगह नौकरी करने वाला दूसरी जगह नहीं कर सकता। तो भी जय नरायन सारी कंपनी के फार्म पर मुहर-दस्तखत नहीं कर सकते और किसी गेजिटेड अफसर में आते नहीं। शायद यदि निकुन्ज कुमार मालिक नहीं तो जो बकाया पीएफ का पैसा आया वह किस के बैंक खाते से आया पीएफ की तरफ से किसको नोटिस भेजा गया। कुछ रिकार्ड तो मेरे पास भी हैं। यदि राजे श्री टेक्सटाइल का कोई मालिक नहीं है तो जो भी पीएफ निकाला गया वह भी गलत ढंग से और पंेशन बनी वह भी गलत ढंग से क्योंकि जय नारायन को अधिकार किसने दिया। जो अधिकार दिया मालिक वही है। मेरा पैसा उसी से लिया जाए और पीएफ वालों ने शायद उनको यह अधिकार तो दिये नहीं क्योंकि वेचू गिरी की तरह से सारी कंपनियों को तो जय नारायन अपनी मुहर-दस्तखत करते नहीं। इस तरह दोनों मालिक मिलकर हम जैसे गरीब अपाहिज मजदूरों को आर्थिक, शारीरिक, सामाजिक व मानसिक क्षति पहुुंचाते रहते हैं। और हम निःसहाय हो जाते हैं। हमारा मनोबल गिर जाता है। इन मालिकों के सैकड़ों हथकंडे होते हैं। और वे बच निकलते हैं, और सब इनके ही खैरख्वाह बन जाते हैं। मेरा पीएफ निकालने के लिए सभी तैयार हैं। लेकिन पेेंशन बनाने के लिए कोई नहीं। जब कि फंड का पैसा तो मैं लेकर चला भी जा सकता हूं लेकिन पेंशन तो हर महीने मेरे खाते में जानी है इकट्ठा देना नहीं है। मैं तो कभी तलब किया जा सकता हूं। विनीत गुप्ता जी उस समय आयुक्त थे उनसे मेरी एक बार श्री वेचूगिरी जी के साथ बात हुयी तो उन्होंने किसी अधिकारी से बात फोन पर हुयी तो बोले कह दो 26-27 हजार की ही तो बात है पैसा जमा करा दे। उन्होंने मुझे फिर दुबारा बुलाया था लेकिन चपरासी ने नहीं मिलने दिया। और यह कहा था जब तक काम नहीं होता मिलते रहना।
मैंने सोचा इनसे शायद काम जल्दी हो जायेगा। और कुछ अधिकारी तो कड़वी भाषा बोल कर भगा देते हैं जैसे उनका यह काम नहीं है। और कुछ तो मीठी भाषा बोल कर गुमराह, टाल मटोल करते रहते हैं। सबके अपने-अपने विचार हैं। मजदूर को कैसे बेवकूफ बनाना है। काम कहीं से कुछ होना नहीं यह बात मुझे भी पता थी। क्योंकि हिन्दुस्तान के अधिकारियों की लेट-लतीफी की जो आदत बनी है। पीएफ पर शायद 1997 से ब्याज पर भी प्रतिबंध लगा दिये हैं। अब जो फार्म 2005 में पेंशन के लिए दिया था उन्होंने गैर कानूनी ढंग से वापस किया हुआ है। फिर मैं 9/23/11 को दूसरा फार्म भर कर अब इसमें किसकी गलती है जो मेरे केस को लम्बा खींचा जा रहा है। एक न एक बहाना बनाया जा रहा है। जिस पैसे पर ब्याज बंद हो रहा है उसका ब्याज का कौन देनदार होगा। पीएफ आफिस या कंपनी से वसूला जायेगा, हाई कोर्ट की कापी में भी जो आर्डर पास हुआ है, आपके फाइल में शामिल है। और कई आर्डर तो पहले ही आपको फाइल में दे चुका हूं। जिसके आधार पर आपने पत्र व्यवहार किया हुआ है। कंपनी के साथ, मुझे भी उसकी प्रति मिली है।
पीएफ वाले ही पीएफ के कानून की धज्जियां उडा रहे हैं।
मैं महामहिम राष्ट्रपति जी से अनुरोध करता हूं कि मेरी पीएफ की पेंशन जो कानूनन बनती है उसे लागू कराने की कृपा करें।
और दोषियों को जो मुझे मानसिक, सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक तौर पर दंड दे रहे हैं उन्हें भी दंड दिया जाये।
आप की अति कृपा होगी। मैं 70 साल का होने जा रहा हूूं। इस पत्र पर क्या कार्यवाही की गयी, उसकी एक प्रति मुझे भी भेजी जाए।
आपका
राम सागर मोर्य, म.न. 57 ईस्ट इंडिया कालोनी
सेक्टर 22 फरीदाबाद(हरियाणा) 121005
गरीब लोगों का जीवन हुआ दूभर
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
बरेली के वार्ड न.24 के मोहल्ला बाकरगंज में नगर निगम की जमीन है जिस पर नगर निगम वर्षों से कूडा डालता चला आ रहा है जैसे-जैसे शहर की आबादी बढ़ी वैसे-वैसे कूडा भी बढ़ा। आज इस डलाव के चारों तरफ गरीब बस्तियां बन गयी हैं और वैसे-वैसे जनता की समस्या भी बढ़ी हैं। बस्ती के कई बच्चों को कूड़े की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ी है। कई बार यहां की जनता ने संगठित होकर कूड़े डालने का पुरजोर विरोध किया और धरना दिये नेताओं ने आश्वासन दिया लेकिन नगर निगम ने कूडा डालना बंद नहीं किया। ज्यादा विरोध बढ़ा तो नगर निगम ने पुलिस प्रशासन को बुलाकर संगठित लोगों पर तमाम केस 307 व अन्य धाराओं में जनता का दमन किया। ऐेसे लोगों पर केस लगाये जो किसी लाइक नहीं थे। दो बूढे़ लोग जो दमा के शिकार थे वे अब मर गये और अनेक लोगों को कई-कई महीने के बाद जमानत मिली है। लेकिन कूडा अब तक नहीं हटा है। इस बस्ती में जब इंकलाबी मजदूर केन्द्र की टीम गयी और लोगों से बात की तो लोगों ने बताया कि कूडे में काफी समय से आग लगी हुई है। उन्होंने सभासद को बताया और नगर निगम को भी बताया। सभासद के कहने से कई दिन के बाद फायरबिग्रेड की गाड़ी आई उसने आग बुझाने का प्रयास किया लेकिन आग नहीं बुझी है। उसमें लगातार धुुंआ निकल रहा है जिसकी वजह से बस्ती के तमाम लोग व बच्चे सांस व अन्य बिमारियों के शिकार हो गये हैं। कुछ लोग तो घर-बार छोड़कर चले गये हैं। सभासद के माध्यम से इंकलाबी मजदूर केन्द्र की टीम ने जानना चाहा कि आग कैसे बुझाई जाए। सभासद ने बताया कि जब मैंने नगर निगम के लोगों से बात की तो बताया कि इस कूडे़ को जेसीबी से कुरेदा जाये और फिर पानी डाला जाये तब आग बुझ जायेगी। लेकिन नगर निगम कहता है कि इसमें बहुत अधिक पैसा लगेगा जो निगम के पास नहीं है।
साथियो! यहीं सवाल उठता है कि अगर ये आग अमीरों के मोहल्ले में लगी होती तो नगर निगम इसे बुझाता। जैसे पिछले महीने से लगातार मुख्यमंत्री के आने की खबरे है। नगर निगम ने उन सड़कों को बनवाया है जो पिछले दो साल पहले बनी हैं और वे ठीक हैं उन पर करोड़ों रूपया बहाया गया है। वहीं गरीब जनता सड़ती व बजबजाती नालियों, गंदगी के ढ़ेर में जीने और मरने को मजबूर है। वहीं वार्ड न. 24 के मोहल्ले बंशी नगला के लोग पिछले एक साल में कई बार मेयर व नगर आयुक्त से मिले लेकिन नगर आयुक्त ने वादों के अलावा कुछ नहीं किया है। आज वाकरगंज की जनता की ये हालत है कि वह किसी संगठन के लोगों या सभासद के कहने से भी कहीं जाने को तैयार नहीं है। लेकिन साथियों हमें ऐसी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होना होगा हमें क्रांतिकारी विचारधारा पर खडे होकर संघर्ष करने होंगे तभी मजदूर अपनी एकता के दम पर अपने काम करवा सकता है। एक मजदूर, बरेली
हड़ताल स्थल से एक महिला मजदूर की चिट्ठी
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
आज अस्ती कम्पनी से मजदूरों को निकाले हुए एक महीना हो चुका है। परन्तु आज तक कोई हल नहीं निकला। ये मालिकों की हठधर्मिता तो दिखती है साथ ही साथ पूरी पूंजीवादी व्यवस्था की नाकामी को भी सामने लाती है। 310 मजदूरों को काम से निकाल दिया जाता है और कम्पनी की तरफ से तर्क आता है कि, ‘हमारे पास काम नहीं है’। मालिक की इस गैरकानूनी कार्यवाही के खिलाफ श्रम विभाग भी कुछ नहीं कर पा रहा है। बल्कि उल्टा मालिकों की तरफ से ये तर्क दिया जा रहा है कि आप चाहें जो कर लो, होना वही है जो हम चाहते हैं।ऐसा कम्पनी मालिक इसलिए कह रहा है क्योंकि वह जानता है कि पूरी व्यवस्था (श्रम विभाग, शासन-प्रशासन) उसका साथ देगी। अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे सात मजदूरों को आज 9 दिन हो चुके हैं। लेकिन एक भी सरकारी डाॅक्टर चेकअप के लिए नहीं आया। इस सिलसिले में 8वें दिन महिला मजदूरों का एक शिष्टमंडल डी.सी. साहब से मिला तो डी.सी. साहब ने कहा कि भूख हड़ताल का नाम लेकर वे उनको ब्लैकमेल न करें। और बार-बार न आने की ताकीद महिला मजदूरों को की।
ऐसा लग रहा है कि डीसी साहब के लिए हड़ताल करना या अन्याय के खिलाफ संघर्ष करना ब्लैकमेल करना हो गया है। ऐसे में तो गुड़गांव के वर्तमान डी.सी. साहब को हड़ताल, भूख हड़ताल करने को संविधान में भी ब्लेकमेल करना लिख देना चाहिए। -पुष्पा
मेरे कुछ दोहे
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
कैसे जुड़ पाये भला, संबंधों की डोर।
एक पक्ष मजबूत है, एक पक्ष कमजोर।।
खुली रहें आंखें सदा, बन्द नहीं हों कान।
चलो राह पर तो रहे, तुम्हें पथिक का ध्यान।।
नेता ऐसा चाहिए, जो हो सबका खास।
रहे सभी को बीच में, आये सबको रास।।
जो जनता का कर सके, बिना स्वार्थ हर काम।
वह प्रतिनिधि है देश का, नेता उसका नाम।।
अगर हो सके तो करो, धरना-अनशन बंद।
अनशन करके चल बसे, स्वामी निगमानन्द।।
एक अकेला क्या करे, इस जग का दुःख दूर।
जिसे देखिये है वही, जीवन से मजबूर।।
डा. अशोक ‘‘गुलशन’’
उत्तरी कानूनगोपुरा, बहराइच उ.प्र. 271801
भारत में गंदगी फैलाने के लिए क्या महिलाएं जिम्मेदार हैं
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
आज भारत में वर्तमान सत्तासीन सरकार द्वारा व अन्य राजनीतिक दलों द्वारा भारत को स्वच्छ करने के लिए ‘गंदगी’ दूर करने का अभियान चलाया जा रहा है। मीडिया भी सफाई अभियान को बढ़ा चढ़ाकर दिखा रहा है। जैसे भारत में अब गंदगी का कोई नामोनिशां नहीं रहेगा। हमारे देश के शासकों ने इसके लिए कमर कस ली है अजी साहब! अगर विदेशी निवेश को बढ़ावा देना है तो गंदगी तो दूर करनी पड़ेगी।
देश की जनता से कहने का आश्य है कि भारत में जो गंदगी है, उसके जिम्मेदार व्यवस्था को चलाने वाले कभी गंदगी का दोषारोपण सभी गरीबों पर कर देते हैं कि गंदगी के लिए गरीब जिम्मेदार हैं। तो कभी आपस में एक दूसरे को कोसते हैं। गुजरात की मुख्यमंत्री आनन्दी बेन ने तो हद ही कर दी। वह महिला सशक्तिकरण समारोह में कहती हैं कि गंदगी के लिए महिलाएं जिम्मेदार हैं। घर में कूड़ा होता है। महिलाएं बाहर कूड़ा फेंकती हैं। यानी कि महिलाएं ही गंदगी फैलाती हैं। पुरुष गंदगी नहीं फैलाता, इन साहिबानों ने तो गंदगी की परिभाषा ही बदल दी।
जबकि असल बात यह है गंदगी के लिए जिम्मेदार महिला-पुरुष दोनों नहीं बल्कि व्यवस्था है। जब तक पूंजीवादी व्यवस्था और उसकी चाकरी करने वाले लोग रहेंगे भारत से गंदगी दूर नहीं होगी।
गंदगी के नाम पर ‘भारत स्वच्छता अभियान’ एक नाटक है। स्वच्छता अभियान महज ‘फोटो खिंचाने’ तक सीमित है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिन उद्योगपति घरानों, बाॅलीबुड अभिनेताओं और क्रिकेटरों को मनोनीत किया, उन्होंने कभी भी अपने घर में झाडू नहीं लगायी होगी। जिनसे मोदी सफाई के लिए कह रहे हैं उन्हीं के कारखानों-मिलों का गंदा पानी नदियों को प्रदूषित करता है। कूड़ा-कचरा वहीं से आता है। हमारे देश में जब सफाई करने की व्यवस्था नहीं है तो हमें सफाई की क्या जरूरत है। देश में गंदगी फैलाने के लिए उद्योगपति पूंजीपति जिम्मेदार हैं देश की आम जनता नहीं। महिलाओं व आम जनता को शासकों को इसका जबाव देना चाहिए और गंदगी के नाम पर हो रही राजनीति का पर्दाफाश करना चाहिए। सूरज, रामनगर
अस्ती से निकाले गये 310 मजदूरों के संघर्ष में साथ दो।
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
साथियों,
1 नवम्बर को सुबह से काम कर रहे मजदूरों को छुट्टी के समय कंपनी प्रबंधक ने सूचित किया कि कल आप लोग काम पर नहीं आयेंगे। निकाले गये 310 मजदूरों में 250 से ज्यादा महिलाएं मजदूर हैं। ये मजदूर पिछले 3 से 5 साल से कंपनी में काम कर चुके हैं। कंपनी प्रबंधक की बेरहमी यहां तक है कि उसने गर्भवती महिलाओं तक को नहीं बख्शा तथा 8-9 गर्भवती महिलाओं के पेट पर लात मार दी। कंपनी में इस समय 150 के लगभग स्थाई मजदूर कंपनी के अंदर काम कर रहे हैं। स्थाई मजदूर इस लड़ाई में संघर्षरत ठेका मजदूरों का खुलेआम साथ नहीं दे रहे हैं और इसी साल अस्ती में यूनियन बनाने की लड़ाई में हम तथाकथित ठेका मजदूरों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। ना केवल भरपूर चंदा दिया बल्कि दो बार हुई हड़ताल में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
अस्ती प्रबंधन आज कह रहा है कि हमारे पास काम नहीं है। इसलिए हमने ठेका मजदूरों को काम से निकाल दिया। वहीं दूसरी तरफ कंपनी के बाहर धरने पर बैठे मजदूरों को तोड़कर, उनसे इस्तीफा लेकर, उन्हें दोबारा काम पर रखा जा रहा है। इस तरह व हमारी एकता को तोड़ना चाह रहे हैं।
स्थाई मजदूर हमारी लड़ाई में खुलकर साथ नहीं दे रहे। वह केवल अपनी नौकरी को बचाने की सोच रहे हैं। जबकि अस्ती प्रबंधक का षड्यंत्र यह है कि वह पहले हमें तथाकथित ठेका मजदूरों को निपटाना चाह रहा है तथा उसके बाद अस्ती प्रबंधक का निशाना स्थाई मजदूर होंगे। कंपनी प्रबंधक से 2011 तक के ठेका मजदूरों को स्थाई कराने को समझौता अस्ती यूनियन पहले ही कर चुकी है और अब वह त्रिपक्षीय समझौते को भी तोड़ रही है। वह ठेका के सभी मजदूरों को इसलिए निकाल रही है ताकि उन्हें आगे से स्थाई न करना पड़े और वह कम तनख्वाह पर प्रशिक्षु या नये मजदूर रखकर उनसे काम करवा सकें।
साथियो,
यह हाल केवल हमारी फैक्टरी का ही अकेला नहीं है। बाकी फैक्टरियों में भी लगभग यही स्थिति है। मुंजाल कीरू, बेस्टर, बेलसोनिका आदि फैक्टरियों के मजदूरों का भी यही हाल है। केन्द्र सरकार श्रम कानूनों में फेेर बदलाव के लिए जो मजदूर विरोधी प्रस्ताव लेकर आई है। उनके संसद में पास होने से पूर्व कंपनी प्रबंधकों ने लागू करना शुरू कर दिया। अब ठेका मजदूरों की जगह प्रशिक्षु(अप्रेन्टिस) रखना शुरू कर रहे हैं। क्योंकि प्रशिक्षु अधिनियम को सरकार पूंजीपतियों के और अनुकूल बनाकर मजदूरों को बंधुवा मजदूर बना देना चाहता है।
साथियों,
हम लोग 4 नवम्बर 2014 से कंपनी के सामने विषम परिस्थितियों के बावजूद संघर्षरत हैं तथा धरना दे रहे हैं। यदि हमारी कंपनी के 310 मजदूरों को निकालने में अस्ती प्रबंधक सफल रहा तो अन्य कंपनी के प्रबंधक भी यही करेंगे। पूंजीपतियों के साथ कोर्ट, शासन-प्रशासन सब खड़े हैं।
हमारे पास केवल एक ही ताकत है। वह है हमारी एकता। आइये! हम एक होकर पूंजीपतियों के इस हमले का मुंहतोड़ जबाव दें।
अस्ती ठेका मजदूर संघर्ष समिति
मो. 9654553194, 9555671885, 9971735073
अस्ती प्रबंधन द्वारा 310 ठेका मजदूरों की अन्यायपूर्ण बर्खास्तगी के खिलाफ मजदूरों की अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल आज से शुरू
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
अस्ती कंपनी प्रबंधन द्वारा अन्यायपूर्ण बर्खास्तगी के खिलाफ कार्यबहाली की मांग को लेकर अस्ती मजदूरों ने 25 नवम्बर की सुबह 11 बजे से कंपनी गेट के सामने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू कर दी। भूख हड़ताल पर बैठने वाले सात मजदूर निम्न हैं- हनी सक्सेना, स्वागतिका, रसिका, रिंकू, भावना, संजू, और कृष्ण।
इन सभी मजदूरों ने फैसला किया है कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होती हैं तब तक वे खाना नहीं खायेंगे। क्योंकि प्रबंधन वर्ग मजदूरों की हर मांगों को अपनी हठधर्मिता के चलते नहीं मान रहा है। 21 दिन के धरने के बाद ही मजदूर यह कदम उठाने पर मजबूर हुए हैं।
भूख हड़ताल पर बैठने वाले मजदूरों को बैठाने के लिए व हौंसला अफजायी करने के लिए इण्डोरेंस इम्प्लाई यूनियन के सभी पदाधिकारी मौजूद रहे, जिनमें प्रधान हितेश और जय भगवान ने मजदूरों का हौंसला बढ़ाया। मुंजाल कीरू इम्प्लाई यूनियन के सभी पदाधिकारी भी मौजूद थे। जिनमें राकेश यादव व सतीश तनवर और लक्ष्मीकांत ने मजदूरों का हौंसला बढ़ाया।
अस्ती ठेका मजदूर संघर्ष समिति का संघर्ष अब एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जिसकी मिसाल पूरे आईएमटी औद्योगिक क्षेत्र में दी जायेगी। क्योंकि आईएमटी औद्योगिक क्षेत्र में अभी तक जो भी मजदूर संघर्ष हुए हैं उनमें यह कदम नहीं उठाया गया है। उन्होंने लम्बे-लम्बे धरने तो किये हैं। पर आमरण अनशन नहीं किया है। अस्ती के प्रबंधक वर्ग ने अस्ती के ठेका के संघर्षरत मजदूरों को यह कदम उठाने के लिए मजबूर किया है। मजदूरों का कहना है कि जब तक हम सभी मजदूरों को काम पर नहीं लिया जाता है। तब तक हम अपने संघर्ष को ऐसे ही बढ़ाते रहेंगे। हनी सक्सेना,अस्ती ठेका मजदूर संघर्ष समिति
दिनांक- 25 नवम्बर, 2014
छिनते पिछड़ों के अनुदान व ‘‘पिछड़ों’’ की सरकार
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार की ओर से जारी शासनादेश के मुताबिक इस वित्तीय वर्ष में, पिछड़े वर्ग को शादी-बिमारी अनुदान योजना का लाभ नहीं मिल पायेगा। इस योजना से प्रदेश में 1.5 लाख परिवार लाभान्वित होते थे। इस योजना के अंतर्गत पुत्रियों की शादी और बीमारी के इलाज के लिए क्रमशः 10 हजार और 5 हजार रूपये की आर्थिक सहायता दी जाती है। इसका लाभ वही परिवार ले सकते हैं, जिनकी गांव में सालाना आमदनी 19,884 और शहर में 25,554 रुपये से ज्यादा न हो।
कन्या विद्या धन योजना के बाद यह शादी-बीमारी योजना भी बजट की कमी के कारण स्थगित कर दी गयी। कितनी अजीब बात है कि मंत्रियों, दर्जा प्राप्त मंत्रियों से बनी ‘‘समाजवादी व पिछड़ों’’ की भीमकाय सरकार को चंद करोड़ रुपये भी पिछड़ों पर खर्च करना भारी पड़ रहा है। और वहीं सरकार को प्रोग्रामों में(जैसे लैपटाॅप वितरण के आयोजनों में) करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिये गये हैं।
साफ है कि दलित, पिछड़े इत्यादि के नाम पर राजनीति कर वोट बटोरकर सत्ता में पहुंचने वाली पार्टियां भी देश व प्रदेश के अमीरों व दबंगों के लिए काम करती हैं, गरीब जनता के लिए नहीं।
मधु सुदन अरोड़ा
जनता का मसीहा बनने वाले भ्रष्ट सेवक
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
भाजपा की लहर बनाने में देश के पूंजीपति वर्ग ने जी-जान लगा दी और सरकार बन गयी। मोदी प्रधानमंत्री बन गये। केबिनेट के मंत्री व प्रधानमंत्री की सम्पत्ति के ब्यौरा इलैक्शन वाॅच की रिपोर्ट का लेखा जोखा प्रधानमंत्री कार्यालय में पेश किया गया है। हालांकि इलेक्शन वाॅच इन्हीं पूंजीपतियों व सरकार द्वारा गठित की गयी है।
5 महीने में पूर्व रेल मंत्री सदानंद गौडा की सम्पत्ति बढ़कर 20.36 करोड़ हो गयी जो पहले उनकी सम्पत्ति 9.88 करोड़ थी। केन्द्रीय मंत्री राधा कृष्णन हैं जिन्होंने लोक सभा चुनाव में 4 करोड़ 9 लाख संम्पत्ति जाहिर की थी अब 7 करोड़ 7 लाख बढ़कर हो गयी है। अरुण जेटली जो रक्षा व वित्त मंत्री हैं इनकी सम्पत्ति में 1.01 करोड़ की वृद्धि हो गयी है। इस समय वे मोदी के सबसे अमीर मंत्री हैं जिनकी सम्पत्ति बढ़कर 114.03 करोड़ हो गयी है। दूसरे नम्बर पर हरसिमरत कौर बादल की सम्पत्ति 108.31 करोड़ और तीसरे नम्बर पर पीयुष गोयल 94.66 करोड़ की सम्पत्ति है।
सुषमा स्वराज जो विदेश मंत्री है इनकी पहले चुनाव के दौरान 17.55 करोड़ थी। अब 13.65 करोड़ है, जो घटी है। जनरल वी के सिंह 4.11 करोड़ की सम्पत्ति कां ब्यौरा दिया था अब उनके पास 98.27 लाख रुपये की सम्पत्ति है। जिन मंत्रियों की सम्पत्ति में बढ़ोत्तरी हुई इनका स्रोत क्या हैं? इसके अलावा जिनकी कम हुई उन्होंने अपनी सम्पत्ति कहां लगा दी। इसके बारे में इलेक्शन वाॅच ने यह नहीं बताया कि सम्पत्ति में घटोत्तरी-बढ़ोत्तरी कहां से हो रही है।
सच्चाई तो यह है कि भाजपा ही नहीं कांग्रेस जब सत्ता में थी तो इनके मंत्रियों की सम्पत्ति में बहुत इजाफा हुआ। आज हर पार्टी चाहे भाजपा हो, कांग्रेस हो, बसपा, सपा या कोई और हो इन पार्टियों के नेताओं की सम्पत्ति बढ़ती ही जा रही है। अपने अनुभवों से इनके बारे में मजदूर-मेहनतकश लोग जानते हैं कि इनके पास बंगला, कारें, रहन-सहन की चीजों आदि की कोई कमी नहीं है। मेहनत करने वाले लोगों की खून व पसीना की कमाई को पूंजीपति लूटता है। उसका एक हिस्सा इन भ्रष्ट नेताओं व मंत्रियों को देता है।
आज भाजपा सरकार श्रम कानून में फेरबदल कर रही है। जो मजदूर गुलामों की तरह काम करने के लिए विवश होगा उसकी आवाजों व संघर्षों को कुचलने की साजिश रच रहे हैं तो क्यों नहीं इनकी सम्पत्ति में बढ़ोत्तरी होगी। जब देश का संविधान व कानून लूट की सम्पत्ति को जायज ठहराता है। पूंजीपति वर्ग व पूंजीपति वर्ग की तमाम पार्टियां मेहनतकश-मजदूर वर्ग की दुश्मन हैं। इनका भंड़ाफोड़ करना होगा। मजदूर वर्ग के संघर्षों को आगे बढ़ाते हुए लूट पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था व पूंजीपति वर्ग के राज को खत्म करना होगा। ये मजदूर वर्ग के कंधे पर है। जब तक मजदूरों का राज समाजवाद नहीं आयेगा तब तक सत्ता में पूंजीपति व पूंजीवादी पार्टी इस पर कब्जा करके रखेंगे। आइये मजदूर राज समाजवाद के लिए संघर्ष को तेज करेें।
जयप्रकाश, फरीदाबाद
अनू आॅटो के मजदूरों की दुर्दशा
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
अनू आॅटो मानेसर सेक्टर 3 प्लाण्ट न. 52 में स्थित है। इस कम्पनी की गुड़गांव में काफी ब्रांच हैं जैसे कापस हेडा, सोहना रोड़, उद्योग बिहार आदि में। इस कम्पनी में ज्यादातर ठेका मजदूर काम करते हैं। यह कम्पनी ब्रेक शू, क्लच व स्पेयर पाटर््स बनाती है। ज्यादातर मजदूर न्यूनतम वेतन पर काम करते हैं लेकिन उनसे काम कुशल मजदूरों का लिया जाता है। इस कम्पनी के मजदूरों को 12 घंटे शिफ्ट करनी पड़ती है नहीं तो नौकरी से निकाल दिया जाता है। ऐसी ही अन्य तानाशाही मजदूरों पर थोपती हैं। जैसे-
1. 12 घंटे ड्यूटी करो वरना कल से काम पर मत आना।
2. कभी किसी ने छुट्टी कर ली तो गेट से बाहर कर देना, बकाया वेतन के लिए घुमाते रहना।
3. एक डिस्पोजल गिलास चाय का देना और उसे जितने दिन नौकरी करो उतने दिन चलाना, यानी रोज धो कर रख देना और फिर प्रयोग करना।
4. मजदूरों पर आतंक कायम रखना यानी मजदूर हर समय डर कर काम करें वह अपने अधिकारों की बात न करें।
5. आॅपरेटर का काम करवा के हेल्पर का न्यूनतम वेतन देना ताकि उसे गुजारा चलाने के लिए मजबूरी में ओवर टाइम करना पड़े।
21 वीं सदी में भारत में मजदूरों की ये स्थिति है कि एक तरफ पूंजीपति लाखों रुपये एक दिन में खर्च कर देता है और मजदूर से एक डिस्पोजल वह भी रिसाइकिल वाला गिलास को तब तक चलाने को कहता है जब तक नौकरी करनी है। अनु आॅटो के मजदूरों से मिलने से पहले मैं इस बात की उम्मीद नहीं कर सकता था कि ऐसा भी होता है। वास्तव में अनु आॅटो के मजदूरों की हालात गुलामों से भी बदतर है।
इस गुलामी वाली हालात को मजदूर इंकलाबी संगठन बनाकर अपने राज मजदूर राज के लिए लड़कर ही बदल सकते हैं। एक मजदूर, गुड़गांव
मुंजाल कीरू के मजदूरों ने मनाई काली दिवाली
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
मुंजाल कीरू इम्पलाॅइज यूनियन रजि. न. 1953 आई.एम.टी. मानेसर पिछले 24 सितम्बर 2014 से हम मुंजाल कीरू के मजदूर कम्पनी गेट के सामने हड़ताल पर बैठे हुए हैं। श्रमिक यूनियन के प्रधान- राकेश, महासचिव अविशेष, कोषाध्यक्ष, ब्रह्मानन्द व यूनियन के सक्रिय सदस्य रामकुमार, मनोज, विपिन दौलतराम, चन्द्रपाल, सतीश तनवर, सूरज पाल, सतीश, सुरेन्द्र को कम्पनी प्रबंधन यूनियन भंग करने की साजिश के तहत गैर कानूनी रूप से बर्खास्त कर दिया है। इन मजदूर साथियों को काम पर वापस लेने की मांग को लेकर पिछले एक महीने से मजदूर हड़ताल पर डटे हुए हैं। उल्लेखनीय है कि 18 दिसम्बर 2013 से 14 जनवरी 2014 तक मजदूरों का संघर्ष चलने के बाद श्रम विभाग की उपस्थिति में मजदूर और प्रबंधन के बीच 15 जनवरी 2014 को एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ था। उस समझौते में 40 दिन के अंदर जांच कार्यवाही पूरी करनी थी और किसी भी श्रमिक को बर्खास्त नहीं किया जाना था। मगर कम्पनी प्रबंधन ने श्रम विभाग के साथ मिलीभगत करके इस समझौते का खुलेआम उल्लंघन कर रही है। इतना ही नहीं 24 सितम्बर 2014 के बाद 20 मजदूर साथियों को निलम्बित कर दिया और दो साथियों को डिसचार्ज कर दिया जिनके नाम सूरज पाल, सतीश तनवर हैं। कम्पनी प्रबंधन अडि़यल रवैया दिखाते हुए अभी तक श्रमिक यूनियन के साथ बातचीत आगे नहीं बढ़ा रही है। इस स्थिति में जब देश भर में जनता दिवाली की खुशी मनाती है, तब हम मजदूर मुंजाल कीरू कम्पनी गेट के सामने काली दिवाली मनाने का फैसला लिया था। और इस निर्णय के मुताबिक आज 23 अक्टूबर 2014 को सभी मजदूर कम्पनी गेट पर धरने पर बैठे रहे और दिन भर नारेबाजी की। महासचिव आशीष सिंह
मानव द्रोही बनता पूंजीवाद
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
जहां पूंजीवाद अपने आरम्भिक दौर में समाज विकास में अपनी क्रांतिकारी भूमिका निभाता है। वह सामंतवाद जैसी जड़ समाज-व्यवस्था से समाज को आगे लाता है। वह व्यक्तित्व को जन्म देता है, उभारता है व स्थापित करता है। वहीं यही पूंजीवाद अपने पतन के दौर में लोगों में व्यक्तिवाद को कूट-कूट कर भर देता है। लोगों को खुदगर्जी की दलदल में डाल देता है। इसका एक उदाहरण बरेली में रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला जबकि सही समय पर इलाज न मिलने के कारण ऊना हिमाचल एक्सप्रेस (जोकि ऊना से बरेली तक आती है) में एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी और उसकी फिक्र किसी ने नहीं की।
यह अज्ञात, अधेड़ व्यक्ति इस ऊना हिमाचल ट्रेन में सफर कर रहा था। मुरादाबाद से पहले उसकी तबियत खराब हुई। कोच अटेन्डेंट को सूचना भी दी गयी। लेकिन मुरादाबाद में उसको इलाज नहीं मिला। और मुरादाबाद के पास ही उसकी मृत्यु हो गयी। यह व्यक्ति कोच में तड़प-तड़प कर मर गया, लेकिन रेलवे व जो लोग ट्रेन में सहयात्री थे उन्होंने कोई सक्रिय मदद नहीं की। मानवता तब एक दम शर्मसार हो गयी जब स्टेशनों पर लोग उसके शरीर को लांघ-लांघ कर निकलते रहे लेकिन कोई भी उसकी मदद को आगे नहीं आया। यह दुर्घटना पूंजीवादी व्यवस्था के पतन की इंतिहा को दर्शाती है। जिनसे हम मानवों को जानवर जैसा बनाकर रख दिया है। जानवर जो कि अपना ही पेट भरने की जुगत में ताउम्र लगा रहता है और दूसरे जानवरों से जिसका मुख्यतः होड़ का संबंध होता है। एक मजदूर बरेली
महानुभावो हम बाजार नहीं इंसान हैं
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
आज प्रत्येक प्रदेश ही क्या देश के बड़े-बड़े नेता भी पूरी दुनिया को यह बताने या जताने मे लगे हैं कि हम कितने बड़े बाजार हैं। यह समय या इतिहास की बिडम्बना ही कही जायेगी कि पुरातनपंथी विचारों की वाहक पार्टी के प्रधानमंत्री के नेतृत्व में बाजार राग अपने चरम पर पहुंच चुका है। प्रधानमंत्री जी दुनिया के विभिन्न देशों में जाकर सौदे करते हैं। निवेशकों को गारण्टी देते हैं और कहते हैं कि, ‘‘बिना भारत के विकास के दुनिया का विकास नहीं हो सकता क्योंकि हम सबसे बड़े बाजार हैं’’। तो उ.प्र. के युवा ‘समाजवादी’ मुख्यमंत्री कहते हैं, ‘‘भारत दुनिया का तो यू.पी. भारत का सबसे बड़ा बाजार है। यू.पी. के विकास के बिना भारत का विकास सम्भव नहीं है’’।
इन ‘महानुभावों’ को समझना चाहिए कि हम बाजार नहीं इंसान हैं। हम वे इंसान हैं जो पूरेे समाज को चलाते हैं, समाज के लिए जिस भी वस्तु की आवश्यकता होती है उसको हम बनाते हैं। समाज की संस्कृति, सभ्यता, रवायत, परम्पराओं सबके हम ही वाहक हैं। हम जिंदा इंसान हैं इसलिए सपने देखते हैं और हमारे सपने हमारी जिन्दगी के यथार्थ के सपने हैं कि वे हमारी कौम के बेहतरी के सपने हैं कि वे सच्चाई व न्याय के लगातार बढ़ते रहने के इसीलिए वे शोषण व उत्पीड़न को लगातार पीछे हटाने के सपने हैं और यह सपने बाजार में न तो मिल सकते हैं और न ही बिक सकते हैं। और ठीक इसीलिए बाजार हमें नहीं भरमा सकता कि हमारी खुशियां, हमारी कौम की खुशियां आपके बाजार में किसी दुकान पर नहीं बल्कि शोषण, उत्पीड़न से मुक्त समाज के उस प्रत्येक घर में मिलेगी जहां श्रम व सामूहिकता पूर्ण मानवीय गरिमा से बिराजमान होेगी। एक मजदूर बरेली
कोठी छूटे न
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
उत्तराखण्ड एक छोटा सा राज्य है। इसके गठन को अभी 14 वर्ष भी पूरे नहीं हुए लेकिन इतने कम समय में ही उसने सात-सात मुख्यमंत्री देख लिये जो प्रदेश कि जनता की मेहनत के पैसे से मौज मस्ती काट रहे हैं। यह राज्य बनाने के लिए राज्य की जनता ने कितनी कुर्बानी दी थी। उत्तर प्रदेश से अलग होने के लिए आंदोलन, धरना, प्रदर्शन किया था। राज्य की जनता केन्द्र सरकार से अलग राज्य की मांग करने जा रहे थे कि रास्ते में ही मुजफ्फरनगर में उत्तर प्रदेश सरकार ने उनसे प्रशासन द्वारा मारपीट दंगा करवायी गयी। जिसमें उत्तराखण्ड के राज्य की मेहनतकश जनता के कई बेटों को मौत मिली।
वर्षों तक आंदोलन चलने के बाद राज्य अस्तित्व में आया। लेकिन राज्य की जनता के जो सपने थे, जो अरमान थे वह नहीं मिले। मिला क्या! भूख, भय, भ्रष्टाचार, प्राकृतिक मार।
आज राज्य की मेहनतकश जनता बेरोजगारी की मार झेल रही है। उसे कुछ भी सुविधा मुहैया नहीं है। मगर मेहनतकश जनता की कमाई से जनसेवक के नाम पर निःशुल्क गाड़ी, बंगला, सुरक्षा, ऐशोआराम की पूरी जिन्दगी जी रहे हैं। मेहनतकश पहाड़ी जनता के बेटे प्राकृतिक आपदा में मर रहे हैं। हमारे राज्य के नेता निःशुल्क कोठियों में मस्त हैं। राज्य की जनता कर्ज में हैं। मुख्यमंत्रियो की मौज है। राज्य में जितने भी पूर्व मुख्यमंत्री हैं उनकी माली हैसियत करोड़पति की है लेकिन राज्य की जनता को छत तक नसीब नहीं। मेहनतकश जनता ईमानदारी से मेहनत करके भी भूख, भ्रष्टाचार से ग्रस्त है।
हमारे राज्य के नेता झूठ, फरेबी, मक्कारी के जाल फैलाकर निःशुल्क सुविधा में जी रहे हैं। यह दुनिया का कैसा लोकतंत्र है। जनता भूख से ग्रस्त है नेता मालामाल। राज्य की जनता प्राकृतिक आपदा की मार झेल रही है। हमारे देश की या राज्य का पूरा सिस्टम को मौज-मस्ती के नाम पर लूट की पूरी छूट मिली हुयी है। यह पूंजीवाद लोकतंत्र है। पूंजीवाद अमीर लोगों की रक्षा के लिए काम करता है। आम मेहनतकश जनता की कोई सुरक्षा नहीं करता। यह भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। नेतागण अपनी पूरी सुरक्षा व्यवस्था पर ध्यान देते हैं। पूरा जीवन सुख-चैन जनता की मेहनत पर ऐश करते हैं। त्याग, बलिदान, कुर्बानी जैसे सिद्धान्त केवल भाषणबाजी में ही जनता को सुनने मिलते हैं।
पूंजीवादी लोकतंत्र में ‘व्यवस्था’ पूंजीवाद के लिए ही बनती है। उसी व्यवस्था को कायम करना चाहता है। यह पूरे भारतीय राज्यों में फैला हुआ है और देश में भी। किस तरह से कोठी, सुरक्षा गार्ड, गाड़ी, एशोआराम से मेहनतकश जनता के खून पसीने से पूरा तंत्र संचालित होता है। इस व्यवस्था से आप लोगों को निजात पाना होगा। समाजवाद की बुनियादी व्यवस्था को कायम करना होगा। पूंजीवादी लोकतंत्र बुरी तरह से सड़-गल चुका है। संघर्ष के रास्ते पर चल कर इसे नाश करना होगा समाजवाद से ही मेहनतकश जनता को सुख शांति मिलेगी। एक मजदूर हरिद्वार
मोदी जी! हम कम पढ़े जरूर हैं, पर गधे नहीं हैं!
‘श्रमेव जयते’ पर प्रधानमंत्री जी को पाती
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
माननीय मोदी जी
नमस्कार!
हम एक कम पढ़े-लिखे मजदूर हैं जो देश के एक छोटे से कारखाने में काम करते हैं। हम रोज सुबह 8 बजे काम पर जाते हैं और शाम को 8 बजे काम से आते हैं। कभी-कभी तो मालिक हमसे 4 घंटे ओवर टाइम लेकर 12 बजे ड्यूटी से छोड़ता है। अब इतना काम करने के बदले हम यही कोई 4-5 हजार कमा पाते हैं। अब ड्यूटी इतनी लम्बी हो जाती है कि घर में टीवी होने के बाद भी ठीक से देख नहीं पाते। ऊपर से मालिक की गाली-गलौच और जब देखो काम से निकालने की धमकी की वजह से हमेशा डर लगा रहता है कि रात को टीवी देखेंगे तो सुबह काम पर 10 मिनट भी लेट हो गये तो आधे दिन की दिहाड़ी कट जायेगी। इसी वजह से देश-दुनिया का इतना हाल कुछ पता नहीं रहता पर इतना जरूर जानते हैं कि कुछ महीने पहले देश का राजा मनमोहन सिंह से बदलकर आप बन गये हो। यह भी जानते हैं कि आप भाषण बहुत अच्छा देते हो। राहुल तो आपके आगे कहीं टिकता ही नहीं था। हम खुद आपको कभी सुने नहीं हैं पर आते-जाते लोग आपके बारे में ऐसा ही कहते हैं।
वह तो गनीमत थी कि अबकी बार 15 अगस्त को हमारी फैक्टरी में नये काम का आर्डर ही नहीं था, इसलिए उस दिन मालिक फैक्टरी बन्द कर दिया पर साथ ही दिहाडी भी काट लिया। वरना हर वर्ष तो क्या 15 अगस्त क्या 26 जनवरी हर दिन काम पर दौड़ना पड़ता था। सो अबकी 15 अगस्त को हम घर पर थे। हमारा बच्चा फिल्म देखने की जिद कर रहा था पर हमने कहा कि हम मोदी जी का लालकिले से भाषण सुनेंगे।
सो हमने पहली बार टीवी पर आपका भाषण सुना जब भाषण में आपने कहा कि कुछ दिनों बाद आप मजदूरों के लिए भी एक योजना शुरू करेंगे तो हम बहुत ही खुश हुए कि चलो किसी राजा को हमारा ख्याल तो आया कि अब हमारे दिन भी सुधरेंगे।
अगली बार जब फैक्टरी में हमारे सुपरवाइजर ने हमको गाली दिया तो हम उसको बोले कि अब और ज्यादा दिन हम गाली नहीं खायेंगे। देश का राजा हमारे लिए सोचता है और हमारे लिए स्कीम लाने वाला है। तो सुपरवाइजर हंसते हुए बोला कि, ‘‘कोई भी स्कीम आ जाये तुम गाली ही खाओेगे’’।
खैर हमने सोच लिया था कि जिस दिन स्कीम शुरू होगी उस दिन हम छुट्टी ले कर आपका भाषण सुनेंगे। सो जब खबर चली कि आप कल मजदूरों की योजना शुरू करेंगे तो हम अपने दो साथियों के साथ छुट्टी ले टीवी के आगे जम गये।
पहले जब टीवी पर बताया गया कि योजना ‘श्रमेव जयते’ होगी तो हम खुशी के मारे फूले नहीं समाये कि अब तो ‘श्रमेव जयते’ यानि मजदूर ही जीतेगा। यानि सुपरवाइजर-मालिक इन दोनों से मजदूर ज्यादा ऊंचा होगा और अब सुपरवाइजर हमको गाली तो नहीं ही दे पायेगा। खैर! जब टीवी पर बताया गया कि योजना किसी दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर चलायी जा रही है तो हम सोचे की ई जरूर कोई मजदूरों का बड़ा नेता होगा। हमारी फैक्टरी में भी दो उपाध्याय काम करते हैं पर तभी हमारे साथ का मजदूर बोला कि ये कोई मजदूरों के नेता नहीं मोदी की पार्टी के पुराने नेता थे। साथी मजदूर चूंकि बी.ए. पास था। इसलिए उसने दीनदयाल उपाध्याय का नाम सुना था। हमें दुख तो हुआ कि मजदूरों की योजना तो मजदूरों के नाम पर चलाते खैर कोई बात नहीं।
जब आप मंच पर आये और बोले कि ‘श्रमेव जयते’ ‘सत्यमेव जयते’ की तरह ही होगा तो हम बड़े खुश हुए कि हिन्दी फिल्मों में जैसे अन्त में सत्य जीतता है वैसे ही अब अपनी जिन्दगी की फिल्म में मजदूर जीतेगा। इससे पहले आपके श्रम मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने कहा कि मजदूरों को प्रशिक्षित किया जायेगा, नये आईटीआई खुलेंगे और अप्रेंटिस एक्ट पास होने पर नये रोजगार पैदा होंगे तो हमें ज्यादा कुछ समझ में नहीं आया पर बुरा भी नहीं लगा कि वह मजदूरों को ट्रेनिंग देने की बात कर रहे हैं।
आपके भाषण के शुरूआती हिस्से में जब कहा गया कि हमें शारीरिक श्रम को नीची निगाहों से देखना बंद करना होगा। सभी समस्याओं को मजदूरों की नजर से देखना होगा तो हम बहुत खुश हुए। इसके बाद आपने एक पीएफ अकाउंट नम्बर देने की बात शुरू की और किसी वेबसाइट पर सारी सूचना मिलने की बात की तो हमने सोचा कि ये पीएफ हमारा तो कटता नहीं पर हमारी फैक्टरी के कुछ परमानेंट मजदूरों का कटता है। चलो उनका कुछ तो भला होगा। हम सोचे कि आप हमारे बारे में आगे बात करोगे।
पर इसके बाद आप जो बोले वह कुछ इस तरह था कि हमारे देश में मजदूर तो हैं पर प्रशिक्षित नहीं हैं। देश में बाहर की कम्पनियां लाकर ‘मेक इन इंडिया’ सफल बनाने के लिए प्रशिक्षित मजदूर जरूरी हैं। साथ ही देश में ढ़ेरों श्रम कानून हैं जो कंपनियों को आने से रोकते हैं इसलिए अब लाइसेंस राज खत्म करना है। अब कंपनी मालिक खुद ही श्रम कानून के पालन का सर्टिफिकेट दे सकते हैं। हम देश के नागरिकों पर भरोसा करते हैं इसलिए अब मालिक खुद ही कानून लागू करेंगे, कोई इंसपेक्टर उन्हें तंग नहीं करेगा। इसके बाद आपका भाषण खत्म हो गया।
अपने फायदे की बात सुनने को बैठे हम तीनों मजदूरों को आपकी ये बातें सुनकर सांप सूंघ गया। हमें लगा कि आपमें हमारे मालिक की आत्मा प्रवेश कर गयी है। वैसे हमारे यहां लेबर इंस्पेक्टर कभी-कभी आता है पर जब आता है मालिक 8 घंटे में ही हमारी छुट्टी कर देता है सो हम ऊपर वाले से मनाते हैं कि ये इंस्पेक्टर रोज आये। पर आप तो इंस्पेक्टर राज खत्म कर मालिकों को खुली छूट दे दिये हो। हम तो इंस्पेक्टर के पास इकट्ठा हो 8 घंटे काम, दुगुने ओवर टाइम, न्यूनतम मजदूरी न मिलने की शिकायत के साथ मालिक की गाली-गलौच की शिकायत करने वाले थे पर आप तो श्रम विभाग ही खत्म करने पर उतारू हो। यह कौन सा समस्या को मजदूरों के पक्ष से देखने का नजरिया है। यह तो खुल्लम-खुल्ला मालिकों के फायदे और मजदूरों के नुकसान की स्कीम है।
आपको देश के नागरिकों पर नहीं देश के मालिकों पर भरोसा है। नागरिक तो हम भी हैं और संख्या में मालिकों से ज्यादा हैं। ईमानदारी की बात तो यह होती कि श्रम कानून लागू करने का सर्टिफिकेट देने का जिम्मा आप मजदूरों को दे देते पर आपने ऐसा नहीं किया। आपने मालिकों पर भरोसा किया और हम समझ गये कि आप भी पहले के राजाओं की तरह पैसे वालों के ही आदमी हो। ‘श्रमेव जयते’ मजदूरों की जीत नहीं मजदूरों की लूट बढ़ाने की स्कीम है।
मोदी जी, हम अनपढ़ जरूर हैं पर गधे नहीं। हम सीधे सादे हैं। जो दिल में होता है वही कहते हैं पर आप तो बड़े फरेबी हो। पहले चिकनी-चुपड़ी बातें कर बाद में छुरा भोंकते हो। आप सीधे कह देते कि मालिकों के लिए नयी स्कीम लागू करेंगे तो हम कम से कम एक दिन की छुट्टी कर दिहाड़ी तो न गंवाते। हम सीधी बात कहते हैं मोदी जी मजदूर गधे नहीं हैं बस थोड़े बंटे हुए हैं और जिस दिन वे एक हो जायेेंगे उस दिन वे मालिक-सुपरवाइजर तो क्या आप जैसे राजा से भी निपट लेंगे और हां वह इसके लिए आपकी तरह फरेब नहीं करेंगे। आप चाय बेचने वाले की दुहाई दे जीतकर मालिकों की सेवा कर मजदूरों से गद्दारी कर सकते हो पर मजदूर वर्ग आपको इस गद्दारी की सजा जरूर देगा।
खैर हमारी बात बुरी लगी हो तो क्षमा करें। हां आपका भाषण सुनने से इतना लाभ तो जरूर हुआ कि आगे से कभी आपका भाषण सुनने को हम दिहाड़ी नहीं खोयेंगे। आपके देश का एक मजदूर
बिन फूटे पटाखे की दीवाली
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
आज दीवाली के अगले दिन की सुबह है। अच्छी कालोनियों में रहने वाले लोग बधाइयां देते और बधाइयां लेते थक गये थे। खूब फोन किये थे और बहुत सारे फोन आये भी थे, मेल पर और व्हाट एप्स पर सुन्दर-सुन्दर इमेजेज और वीडियो भेजे थे और रात मेें बच्चांे के साथ खूब आतिशबाजी की थी। सड़कों पर घरों के आगे आतिशबाजी के बाद का कचरा बिखरा पड़ा है। इस कचरे को हटाना मोदी जी के सफाई अभियान के समर्थक नहीं बल्कि नगर निगम द्वारा ठेके पर रखे गये सफाईकर्मी ही इसे हटायेंगे। और उनके उठने से पहले वे सड़कों की सफाई करेंगे। दीपावली की बचीं खुची मिठाइयां भी उन्हें ही मिलेंगी।
इन टाइलस अैर पेंट किये हुये घरों को कल दिवाली से पहले जिन मांओं के बच्चों ने सफायी की थी, आज दीवाली की सुबह इन कालोनियों में समूह में निकल पड़े हैं। अभी सूरज तो नहीं निकला है लेकिन इतनी रोशनी हो चुकी है कि जो पटाखे नहीं फूटे हैं, उनको ढूंढा जा सके। ये बच्चे मंगलयान मिशन के बारे में कुछ नहीं जानते लेकिन आतिशबाजी के कचरे में कौन सा पटाखा बिन फटे पड़ा है इसकी पहचान इनको है। इन बच्चों में यह नियम है कि जिस बच्चे की नजर जिस पटाखे पर पहले पड़ेगी, वह उसका होगा लेकिन कभी-कभी ये फैसला नहीं हो पाने पर कि किसने पहले उस पटाखे को देखा, उनमें छीना झपटी भी हो जाती है। अगर किसी को सुतली बम मिल जाये तो वह राजा बन जाता है। इन बीने हुए पटाखों को नाले के किनारे, जहां उनके अवैध गंदे घर हैं, वहां नुमाइश की जायेगी और शाम को कुछ पटाखे छोड़े जायेंगे और कुछ कल के लिए रख लिए जायेंगे।
ये बच्चे दीवाली के दिन अपने मां बाप के साथ गेंदे के फूलों की माला बेच रहे थे। मायें फुटपाथ पर बैठकर मालायें बना रही थीं। सभ्य समाज की महिलाएं सजधज कर अपने पति के साथ आतीं और मालायें, मिट्टी के दिये और मूर्तियां खरीदकर ले जातीं। इन फूल मालाओं से लक्ष्मी जी की पूजा की जायेगी और लक्ष्मी जी वहां दर्शन देने पधारेंगी। वैसे आजकल मध्यम वर्ग ‘आम आदमी’ बिना ए.सी. वाली कार के सपने में भी नहीं आती तो लक्ष्मी जी भी ऐसी तिजोरी में जाना पसंद करेंगी जहां ए.सी. तो हो इसलिए लक्ष्मी जी फुटपाथ या रेलवे किनारे की झुग्गियों के बजाय ए.सी. तिजोरियों में ही जाती हैं। राम के अयोध्या लौटने की खुशी में देशी घी के दीये जलाये गये होंगे, उसके लिए मिट्टी के दिये बने होंगे। कुछ लोग अभी तक भी वे मिट्टी के दिये बना रहे हैं और कुछ मंगलयान भेज रहे हैं। मंगल पर ‘जीवन की खोज’ के लिए और यहां बच्चे बिन फूटे हुए पटाखों को ढूंढकर दीवाली मना रहे हैं।
ये बच्चे जो पटाखे ढूंढने निकले हैं, उनमें फर्क तो है लेकिन भेदभाव नहीं है। उनके मन में कम से कम वैसी भावना नहीं है जैसी भावना बड़ी कार वाले को छोटी कार वाले को देखकर आती है। चार बच्चों की टोली में एक बच्चे के पैर में चप्पल नहीं है, लेकिन एक फिर भी उनके साथ है, उनमें एक लड़की है जिसके बाल कुछ ज्यादा ही गन्दे हैं। सुबह उठकर पटाखे ढूंढने की योजना इन्होंने खुद रात में ही बना ली थी। पता नहीं इनको कैसे पता कि मोदी जी ने योजना आयोग को भंग कर दिया है। खाना मिलने की चिन्ता तो रोज ही रहती थी, आज तो बस पटाखे की चिन्ता थी कि अगर देर हो गयी तो दूसरे बच्चे पहले ही पटाखे उठा ले जायेंगे। राम के अयोध्या लौटने की खुशी में देशी घी के दीये न सही बिन फूटे पटाखे ही सही। एक मजदूर दिल्ली
प्रधान सेवक के सफाई अभियान का सच
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
19 अक्टूबर को इंकलाबी मजदूर केन्द्र, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र तथा परिवर्तनकामी छात्र संगठन के कार्यकर्ताओं ने संयुक्त रूप से वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में प्रस्तावित बदलावों के खिलाफ पर्चा अभियान के दौरान महिला कार्यकर्ताओं को शौचालय जाने की जरूरत महसूस हुई। तब हम वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में स्थित सरकारी डिस्पेन्सरी के साथ बने सार्वजनिक शौचालय में में गये। समय सुबह 9 बजे के आस पास का रहा होगा। सार्वजनिक शौचालय के अन्दर जाने के बाद हमने वहां से उल्टे पैर लौटना चाहा लेकिन पूरे दिन का अभियान होने के कारण ऐसा नहीं कर सकते थे। अतः हमने उस शौचालय के अंदर जाने का निर्णय लिया और उसके अन्दर चले गये। उस शौचालय के साथ पुरुष शौचालय भी बना हुआ है। हमने वहां जाकर जो सफाई व्यवस्था व अन्य व्यवस्थायें देखीं, वे इस प्रकार हैः-
1. आमने-सामने लगभग 25-30 पखाने बने हुए हैं। जिसमें से केवल 4 पखानों में दरवाजा लगा है, जो नीचे की ओर से आधे गल कर टूट चुके हैं तथा उनमें से किसी में भी दरवाजा बंद करने के लिए कुन्दी नहीं लगी है।
2. इन 25-30 पखानों के लिये केवल दो नलों में पानी आता है। पानी लेने के लिए शौचालय में कोई डिब्बा या मग उपलब्ध नहीं है। महिलाओं को शौच के लिए अपने घरों से डिब्बे लेकर जाना पड़ता है।
3. 18-20 पखाने ऊपर तक गंदगी से लबालब भरे हुए थे और अन्य भी बहुत गंदे थे।
4. पूरे शौचालय में पानी फैला हुआ था।
5.शौचालय में तथा पखानों में दरवाजे नहीं होने के बावजूद कोई चौकीदार दरवाजे पर नहीं बिठाया गया है।
6. वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में 20,000 से अधिक मजदूरों के परिवारों की महिलाओं के लिए आस-पास में यही एक सार्वजनिक शौचालय उपलब्ध है।
इन परिस्थितियों का वहां रहने वाली मजदूर महिलाओं को रोज-व-रोज सामना करना पड़ता है। महिलायें वहां होने वाली गंदगी के कारण संक्रमण जनित बीमारियों का शिकार होती हैं। महिलाओं के सम्मान व सुरक्षा का सवाल उठाने वालों के लिये यहां रहने वाली मजदूर महिलाओं के सम्मान व सुरक्षा का सवाल नजरों से ओझल हो जाता है। इसके अलावा महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर बजरंग दल जैसे संघी संगठन रैली निकालते हैं लेकिन उनकी महिलाओं में ये महिलायें शामिल ही नहीं हैं।
कोई यह सोच सकता है कि इस सबका वर्णन यहां क्यों किया जा रहा है, तो वह इसलिए कि इस घटना से केवल 17 दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़े जोर-शोर से पूरे देश में सफाई अभियान चालू किया। छोटे-बड़े नेता अरविन्द केजरीवाल से झाड़ू उधार लेकर सड़कों पर खड़े हो गये। अपनी-अपनी फोटो खिंचाने के लिए।
इसके अलावा मजदूर बस्तियों कीे गंदगी के लिए मजदूरों व व्यक्तियों को जिम्मेदार ठहराकर पूंजीपतियों को जो इस गंदगी को पैदा करते हैं हवा-पानी तक को दूषित करते हैं, तथा उनकी सड़ी-गली पूंजीवादी व्यवस्था को बचा ले जाते हैं।
यही है मजदूरों के लिए नरेन्द्र मोदी के सफाई अभियान का सच। हेमलता, दिल्ली
लाईफ ओके चैनल, समाज के भले मानुष और सामाजिक परिवर्तन
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
आजकल टेलीविजन में लाईफ ओके चैनल पर सामाजिक समस्याओं और बुराईयों पर एक लघु कहानी दिखायी जाती है। यह चैनल हर सामाजिक बुराई और समस्याओं पर ‘सावधान इण्डिया’ का स्लोगन देता है। यह चैनल उस समय चलाया गया है जब समस्याओं के कारण समाज में बैचनी बढ़ रही है। इन समस्याओं की जड़ क्या है इस पर समाज में विचार चल रहा है तो शासक वर्ग ने इण्डिया के लोगों को समस्या की जड़ तक न पहुंचने देने के लिए सावधान किया ताकि कोई जड़ तक न पहंुच सके। और शासक वर्ग अपनी इस चाल में कामयाब होता दिख रहा है।
आज समाज के अंदर लूट, अपराध, शोषण, उत्पीड़न और नैतिक पतन चरम पर है। आज समाज में चेतना नगण्य है। समाज में शोषण, उत्पीड़न व नैतिक पतन के कारण सारा समाज मुनाफे की मण्डी बना हुआ है। देश का शासक वर्ग इस लूट और शोषण को छिपाना चाह रहा है। अपराध और नैतिक पतन पर आधारित कहानियां लाईफ ओके पर दिखायी जाती हैं। ये कहानियां देखने में आम आदमी को बड़ी सही लगती हैं क्योंकि समाज में ऐसा कुछ घट रहा होता है। उसमें बताया भी जाता है कि यह सच्चाई पर आधारित सीरियल है। यह चैनल हर सामाजिक समस्या मंे खुद को सावधान रहने की चेतावनी देता है। यह चैनल वास्तव में मध्यम वर्ग व पूंजीपति वर्ग के जीवन को दिखाता है। और उन्हीं को सावधान करता है कि तुम सतर्क रहो।
यह चैनल शासक वर्ग की साजिश है। वह अपनी लूट व शोषण पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को निर्विवाद चलाना चाहता है। यह चैनल सामाजिक बुराई व सामाजिक समस्या में सावधान करता है। वह कभी भी इसे बदलने की बात नहीं करता। वह हर समस्या के पीछे व्यक्ति को दोषी ठहराता है। कभी भी वह पूंजीवादी मुनाफे की टिकी हुयी व्यवस्था पर सवाल खड़ा नहीं करता। इस सीरियल में सुखदेव का रोल करने वाला इस व्यवस्था को बचाने की नौकरी कर रहा है। हमारे समाज में यह समस्या है कि वे पर्दे के हीरो को असल हीरो मान लेते हैं। चाहे बेशक वह वास्तविक जिंदगी में खलनायक हो।
समाज के भलेमानुषों से आग्रह है कि वे अगर चाहते हैं कि समाज में परिवर्तन हो तो उन्हें इस परिवर्तन का भागीदार बनना पड़ेगा। इस समाज की मुख्य समस्या निजी सम्पत्ति है। और निजी सम्पत्ति के कारण भ्रष्टाचार, शोषण, अपराध हो रहे हैं। समाज के नैतिक पतन के लिए जिम्मेदार अश्लील संस्कृति जिम्मेदार है। जो ब्लू फिल्मों, नग्न चित्रों के माध्यम से परोसी जा रही हैं।
सामाजिक परिवर्तन के लिए हमें भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद आदि जैसे क्रांतिकारियों की विरासत को जिन्दा करना पड़ेगा। उनके क्रांति के आदर्शों पर ही चलकर हम समाज में परिवर्तन कर सकते हैं। एक मजदूर गुड़गांव
मजदूरों ने सबक सिखाया
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
फरीदाबाद औद्योगिक क्षेत्र में एक मथुरा रोड़, सराय ख्वाजा, अमर नगर के पास ‘भारत गियर’ के नाम से कम्पनी है जिसमें गाडि़यों के गियर बनते हैं। इस कम्पनी में लगभग 1000 मजदूर काम करते हैं। काम तीन शिफ्टों में होता है। 200 के करीब परमानेन्ट मजदूर जिनकी तनख्वाह 8000 रुपये से लेकर 10,000 तक है। 250 के करीब डिप्लोमा किये हुए मजदूर हैं। नान टेकनिक 300 मजदूर व ठेकेदारी के मजदूर 200 के करीब कार्यरत हैं। इस तरह कम्पनी मैनेजमेण्ट ने मजदूरों को अलग-अलग कैटेगरी में बांट रखा है जिससे एकता में बाधा पहुंचती है। जिस तरह मैनेजमेण्ट यह चाहता है कि मजदूर आपस में बंटे रहे। स्थाई के नाम पर, डिप्लोमा के नाम पर, ठेकेदारी के मजदूर के नाम पर ताकि इनका कोई संगठन या एकता ना बन जाये। हां! यहां अच्छी बात है कि सीटू की यूनियन है जिसमें सिर्फ परमानेन्ट सदस्य हैं लेकिन स्थायी मजदूरों का ठेकेदारी मजदूर व कैजुअल मजदूरों से कोई ताल्लुक नहीं है। ये मैनेजमेण्ट चाहती भी है।
ठेकेदारी के मजदूर व कैजुअल मजदूर को कोई भी अवकाश नहीं मिलता। इनकी दिहाडी के हिसाब से तनख्वाह 6000 से लेकर 7000 रुपये तक महीना मिल जाती है। कोई भी त्यौहार या राष्ट्रीय पर्व की छुट्टी नहीं दी जाती। अगर कम्पनी में छुट्टी रहती है तो पैसे काट लिये जाते हैं। सिंगल ओवर टाइम मिलता है। वहीं पर परमानेन्ट मजदूर को छुट्टी मिलती है डबल ओवर टाइम मिलता है। यूनियन को संघर्ष करने के बजाय मैनेजमेण्ट के एक लालच में फंस गयी है। वह यह कि उत्पादन अच्छे निकलने पर इनाम दिया जाता है तो सिर्फ स्थायी को लेकिन काम का ज्यादा भार कैजुअल व ठेकेदारी के मजदूर पर पड़ता है।
इस तरह अलग-अलग कैटेगरी में बांट कर, छोटा सा लालच देकर आपस में बांट रखा है, जो मैनेजमेण्ट हर समय, हर वक्त चाहती है। एक घटना हमें सोचने को मजबूर करती है कि एक लाइन पर रात की शिफ्ट में सुपरवाइजर आकर यह कहता है कि सात कैजुअल मजदूर जो सात मशीन को चलाते हैं अब तीन मजदूर चलायेंगे। मजदूर अड़ जाते हैं। कहते हैं कि प्रोडक्शन नहीं निकल पायेगा। सुपरवाइजर जिद पर अड़ जाता है। यूनियन के मजदूर सदस्य अपनी बहादुरी के संघर्ष के बदौलत सारे लाइन की मशीनें बंद करने में कामयाब हो जाते हैं। सारे मजदूर साथ देते हैं। इस तरह की एक छोटी घटना ने 2 घंटे के करीब काम बंद कराकर मैनेजमेण्ट को सबक सिखाया गया। प्रधान से लेकर यूनियन के बाकी सदस्यों ने सुपरवाइजर को लताडा व बेइज्जती की। सुपरवाइजर ने दमखम लगाया। फोन पर फोन करके मैनेजर तक से बातें कीं लेकिन रात में यूनियन प्रधान ने आकर मामले को हाथों में लेकर सुपरवाइजर की डांट-फटकार लगाई और कहा कि जितने घंटे मशीनें बंद रही सब इस सुपरवाइजर के नाम डाल दो।
इस बढ़ते प्रोडक्शन व आधुनिक मशीनों की रफ्तार में मजदूर खुद मशीन बन जाता है। काम का बोझ लगातार बढ़ रहा है। पूंजीपति आज मजदूर को कैजुअल व ठेकेदारी में रखना पसंद करता है। क्योंकि मजदूरों का संघर्ष कमजोर पड़ा है। इस कम्पनी में जब यूनियन बनी तो बहुत से मजदूर साथियों ने संघर्ष किया था। आज मजदूर उस संघर्ष को भूल रहे हैं कभी तो ठेके के नाम पर कभी कैजुअल के नाम पर भर्ती होती है। नये सिरे से किसी मजदूर को स्थायी नहीं किया जाता है। छोटी-छोटी लालच देकर स्थायी मजदूरों को बाकी मजदूरों से काटने का काम करती है। मैनेजमेण्ट हर सम्भव यह प्रयास करती रहती है। आज जरूरत है कि स्थायी, ठेका मजदूर व कैजुअल मजदूर के साथ में लेकर एकता बनाकर संघर्ष किया जाये या सबसे बड़ी बात यूनियन को बचाना है तो साथ मिलकर लड़ा जाये। एक मजदूर फरीदाबाद
आजाद देश में गुलाम मजदूर
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
भारत को 15 अगस्त 1947 को आजादी मिली। आजादी मिले हुए 67 वर्ष हो गये। परन्तु मजदूरों की समस्यायें जस की तस हैं। वह आज भी कुपोषण व उत्पीड़न-दमन का शिकार है। न तो शासन-प्रशासन को उसकी चिंता है और न नेताओं को। उसे तो बस इनका वोट लेकर सत्ता सुख भोगना होता है।
मजदूर सदियों से गुलामी की जंजीर में बंधा शोषण-उत्पीड़न की चक्की में पिस रहा है। पहले राजा-महाराजा हुआ करते थे जिनके वहां वह गुलाम था फिर जमींदारों के यहां बधुआ मजदूर रहा और अब पूंजीपति के कारखानों में काम करने वाला मजदूर। कहने को तो वह आजाद है परन्तु वह केवल अपनी मेहनत बेचने के लिए आजाद है। बाकी तो उसका जीवन गुलामों से भी बदतर है।
जब वह फैक्टरी में काम करने जाता है तो उससे हर घंटे, हर मिनट और हर सेकेण्ड का हिसाब किया जाता है। उसे उत्पादन का लक्ष्य इतना बढ़ाकर दिया जाता है कि वह न तो पानी पी सकता है और न पेशाब करने के लिए जा सकता है। और इस पर भी हर जगह सीसीटीवी कैमरे उसकी निगरानी करते रहते हैं। यहां तक कि शौचालय में भी सीसीटीवी कैमरे लगे रहते हैं। उस पर हर समय सख्त पहरा रहता है।
फैक्टरी में महिला मजदूरों के साथ बुरा सलूक किया जाता है। सुपरवाइजर व मैनेजर उन्हें भूखी निगाह से घूरते रहते हैं। उनके साथ अश्लील शब्दों का प्रयोग किया जाता है और अब तो सरकार महिलाओं से रात की पाली में भी काम करवाने की बात कर रही है। ऐसे में ठेकेदारों, सुपरवाइजरों, मैनेजरों से इन महिला मजदूरों को तो भगवान ही बचाये।
पूंजीपति अपने मुनाफे के चक्कर में उनका शोषण-उत्पीड़न तो करते हैं साथ ही वे अकुशल मजदूरों से मशीनें चलाकर उनकी जिंदगी को खतरे में डालते हैं। मजदूरों के द्वारा ऐसे खतरनाक काम न करने पर उन्हें निकाल बाहर किया जाता है। और उनके साथ गाली-गलौज भी की जाती है। मजदूर को जरूरत पड़ने पर रखा जाता है। और जरूरत न होने पर निकाल दिया जाता है।
मजदूर से हर क्षेत्र में चाहे वह फैक्टरी हो या निर्माण क्षेत्र, सभी जगह गुलामों की तरह काम करवाया जा रहा है जो अधिकार मजदूरों ने लड़कर हासिल किये थे उनको पूंजीपति व्यवहार में लागू करना कब का बंद कर चुका है। ये श्रम कानून किताबों से निकलकर जैसे ही धरातल पर आते हैं इनका दम घुट जाता है। और अब तो सरकार इन कानूनों को ही खत्म करने जा रही है ताकि मजदूर की आवाज ही बाहर न निकले। मजदूर वर्ग एक सोया हुआ शेर है। और जिस दिन यह जागेगा तो इसकी दहाड़ से पूंजीपति दहल जायेगा और दुनिया मजदूर की मुट्ठी में होगी।
रामकुमार बैशाली
मेरी आप बीती
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
मेरा नाम कुबेर है। मैं सन् 2001 से कार्बेट पार्क रामनगर(नैनीताल) में काम करता था। मैं यहां आपरेशन लार्ड के रूप में कार्यरत था। जिन्हें जंगलों में पेड़ों आदि की रक्षा तथा शिकारियों से सुरक्षा करनी होती है।
26 जून 2009 में काम पर रहने के दौरान मेरा एक्सीडेंट हो गया। सरकारी बुलेट गाड़ी जिससे मेरा एक्सीडेंट हुआ था उसका तो सरकारी खातों में दर्ज हुआ परन्तु मेरा नहीं। शायद विभाग वालों को मुझसे ज्यादा मोटर साइकिल की चिंता थी। एक्सीडेण्ट में मैं दोनों पैर से विकलांग हो चुका हूं। आज मेरे एक्सीडेण्ट को पांच साल हो चुके हैं। इलाज में 12 लाख रुपये से ज्यादा खर्च हो चुका है। लेकिन विभाग वालों ने न तो मुझे मुआवजा दिया और न ही मुझे नौकरी दी। बस मौखिक आश्वासन देकर ही वे मुझे टालते रहे। कर्ज वाले रोज आकर कर्ज लौटाने की बात करते हैं लेकिन इलाज में मेरी सब जमा पूँजी खर्च हो गयी है। मेरे परिवार में पत्नी व एक छः साल का बच्चा है। मेरे परिवार के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गयी है।
जब विभाग वालों ने कोई कार्यवाही नहीं की तो मैंने आरटीआई में अपने काम पर रहने के पुराने दस्तावेज मांगे। मैंने 2001 से नियमित काम किया था। परन्तु मुझे दिये गये अभिलेखों में मेरी सेवा को ब्रेक करके दिखाया गया। और वह भी केवल मार्च 2014 तक। अप्रैल, मई व जून के रिकार्ड में से मेरा नाम ही गायब कर दिया गया।
मजबूरन मैं 9 अक्टूबर 2014 से कार्बेट पार्क प्रशासन के गेट पर धरने पर बैठा हूं। इन सालोें में पूरी व्यवस्था का पर्दाफाश मेरे सामने हो गया है। मजदूर की यहां कोई सुनने वाला नहीं है।
कुबेर, रामनगर
पन्तनगर विश्वविद्यालय में ठेका मजदूरों पर विश्वविद्यालय प्रशासन का कहर टूटा
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
साथियो! मैं भी एक ठेका मजदूर हूं। मैं अपनी आपबीती बता रहा हूं। पन्तनगर विश्वविद्यालय में लगभग 2500 ठेका मजदूर काम करते हैं। 1 मई सन् 2003 में पन्तनगर में ठेका प्रथा लागू हुयी। तब से लेकर आज तक हमारा ई.पी.एफ. काटा जाता है। जब हमें पता चला कि हमारे खून पसीने की कमाई कुछ भ्रष्ट अधिकारी और ठेकेदारों ने मिलकर बन्दर बांट करके खा ली है, तब हम मजदूरों ने श्रम कल्याण अधिकारी के पास जाने की हिमाकत की तो हमें यह कह कर भगा दिया गया कि ये तो ठेकेदारी प्रथा है इसमें सब ऐसा ही होता है। तभी कुछ कांग्रेस व भाजपा के छुटभैया नेताओं के पीछे दौड़ने वाले तत्वों ने यह फैेसला किया कि अब ठेका मजदूरों को पिटवा कर ही दम लेंगे। तब इन गुर्गों ने बड़ी चालाकी से कि हम पन्तनगर में जिस दिन ठेका का टेंडर खुलेगा, उसी दिन हड़ताल करेंगे। तब कुछ गुर्गों ने बड़ी चालाकी के साथ ठेका मजदूर कल्याण समिति का नाम लेकर ठेका मजदूरों को बरगलाकर पन्तनगर विश्वविद्यालय में हड़ताल कर दिया। तब कुछ घटनाएं ऐसी घटीं कि जब हड़ताल शुरू हुआ तब ठेका मजदूर कल्याण समिति के नेताओं ने जाकर कहा कि ठीक है जब आप ठेका मज़दूरों को ठेकेदारी प्रथा से मुक्त कराना चाहते हैं तो एक सामूहिक टीम बनाइए और टीम बना कर सामूहिक फैसले लेते हुए ठेका प्रथा खत्म करने के नारे देते हुए आगे बढ़ना चाहिए। तब उन अराजक लोगों द्वारा पूरे पन्तनगर में ठेका मजदूरों को घुमाते हुए आवश्यक सेवा बन्द करने का फैसला लिया गया। और निर्दोष मजदूर साथियों को नगला स्थित डेरी के गेट पर बैठा दिया और इन गुर्गों ने कहा कि आप लोग बैठे रहना डरना मत। क्षेत्र के बड़े नेताओं से बात हो गई है और पुलिस सिर्फ डराने के लिए है। और आप लोग हड़ताल जारी रखना। जब मजदूरों को पता चला कि हमारे नेता साथ हैं तो हम किसी भी सूरत में नहीं हटेंगे और जब कुछ समय बाद जब पुलिस ने अपना कड़ा रुख अपनाते हुए लाठी चार्ज कर दिया तब निर्दोष मज़दूरों को पीटा गया और तीन महिला मज़दूरों और इक्कीस पुरुष मजदूरों सहित चैबीस मजदूरांेे को गिरफ्तार कर लिया गया और उनको रुद्रपुर पुलिस लाइन में भेज दिया गया। वहीं बड़ी चालाकी से सारे गुर्गे कालोनी की गली में खड़े होकर तमाशा देख रहे थे और जब मजदूरों ने देखा कि हमारे नेता वहां खड़े हैं। वह नेता इतने चालाक थे कि अपनी-अपनी गाड़ी में बैठ कर भाग गये। अब सवाल यह बनता है कि उन निर्दोष मजदूरों का क्या होगा। क्योंकि वे अपनी रोजी-रोटी खो चुके हैं। अब यह हड़ताल संयुक्त मोर्चा के देखरेख में चल रहा है, जिसमें पन्तनगर की सारी ट्रेड यूनियन शामिल हैं। और अब यह हड़ताल नहीं रहा। अब यह राजनीतिक मंच बन गया है। यहां पर सारी पार्टियों के नेता आते हैं और कुछ जुबानी खर्च करते हैं और फोटो खिंचवाते हैँ और चले जाते हैं। रोज मजदूर सुबह सात बजे विश्वविद्यालय के पिछले गेट पर ठेका मजदूर इकट्ठे हो जाते हैं। और अपने धरना स्थल पर बैठ जाते हैं। और जो लोग अपने आप को शेर के सवा शेर बनते हैं वे लोग ग्यारह बजे आते हैं। और वे भी कुछ जुबानी खर्च करते हैं। हड़ताल के दूसरे या तीसरे दिन ठेका मजदूरों में ठेका मजदूरों की कार्यकारिणी बना दी गयी है। उसमें भी कुछ अच्छे लोग नहीं शाामिल किये गये हैं। जब हम पुलिस की लाठी खा रहे थे तब जो लोग गाड़ी में तमाशा देख रहे थे। और कुछ लोग पानी का पम्प चला रहे थे, अब उन्हीं लोंगो को ठेका मजदूरों की लड़ाई लड़ने की कमान दे दी है। ये सारा काम पन्तनगर की संयुक्त मोर्चा का काम है। कुछ नामची नेता ठेका मजदूरों से कहते हैं कि भगत सिंह बनने की कोशिश मत करो। हम कहना चाहते हैं कि अगर कोई भगत सिंह नहीं बना होता तो क्या देश आजाद हुआ होता? साथियों हम यह नहीं कहना चाहते कि हम भगत सिंह नहीं बनना चाहते हैं। मगर भगत सिंह की विचारधारा पर हम चार कदम चलना चाहते हैं। इस समय विश्वविद्यालय प्रशासन मजदूरों पर दमनात्मक रवैया अपनाये हुए है।
मनोज कुमार, ठेका कर्मी पन्तनगर
संघ मण्डली के प्रमुख का जागा दलित प्रेम
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त रहा संघी कुनबा अब आखिर दलितों के प्रति चिंतित क्यों हो उठा? अब इस कुनबे के प्रमुख को दलितों की दयनीय स्थिति के प्रति क्यों बयानबाजी करनी पड़ी। जबकि हजारों-हजार वर्षों से दलितों का सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त सवर्णों ने शोषण-उत्पीड़न किया। संघियों व इनके प्रमुख को अचानक दलितों को आरक्षण देने के समर्थन में क्यों वकालत करने की आवश्यकता आ पड़ी? इन संघियों का अचानक दलित प्रेम क्यों जाग उठा?
सवर्ण मानसिकता के लोगों ने वर्णों की उत्पत्ति के समय से ही दलितों से घृणा, तिरस्कार व अपमानजनक व्यवहार किया। ये दलितों को मिले आरक्षण के विरोधी रहे हैं। ये हमेशा आरक्षण के नाम पर दलितों को गाली देते रहे हैं। इनका कहना यह है कि सभी सरकारी लाभ (नौकरी संबंधित) दलित ही लेते रहे हैं। और उच्च जातिओं को सरकारी लाभों से वंचित रखा गया है। जबकि हकीकत यह है कि देश के बड़े अफसरों में उच्च जाति के लोग ही विराजमान हैं।
आज भी सवर्ण मानसिकता वाले लोगों/समूहों का दलितों पर प्रत्यक्ष उत्पीड़न किसी न किसी रूप में होता रहता है। सवर्णों द्वारा दलितों पर प्रत्यक्ष अत्याचार के ताजा उदाहरण हरियाणा, राजस्थान, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में मिल जायेंगे। जिसमें मिर्चपुर, गुहाना की घटनाएं दिल दहलाने वाली रही हैं।
इन्हीं वजहों से दलितों में सवर्णों के प्रति नफरत मौजूद रही है और आज भी बनी हुयी है। सवर्णों द्वारा उपेक्षित, दलितों ने अपने आपको इनसे अलग-थलग कर रखा है। इसी वजह से संघ मण्डली की चिंता बनी हुयी है। संघ मण्डली घोर प्रतिक्रियावादी और हिन्दुत्ववादी है। और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति समाज में जहर घोलने का काम कर रही है। अब संघियों को चाहिए कि जो दलित आबादी हिन्दू-मुस्लिम दंगों से अपने आप को अलग करके अपना जीवन यापन कर रही है, उसको भगवा रंग में रंगा जाए। ताकि इस आबादी को भी मुस्लिमों के खिलाफ भड़काया जाए। संघियों द्वारा दलितों को इसी रूप में इस्तेमाल करना चाहता है। संघी मुस्लिमों के प्र्रति नफरत फैलाकर अपने आपको देशभक्त मानती है। और जो मुस्लिम विरोधी नहीं होते हैं वे देश के दुश्मन हैं। ये संघ मण्डली ऐसा ही देशभक्ति का चोला पहनाकर देश के कोने-कोने में साम्प्रदायिक दंगे कराकर अपनी देशभक्ति दिखाते हैं।
संघ परिवार द्वारा संचालित भाजपा पार्टी 16वीं लोकसभा चुनावों में जीतकर सत्तासीन हो गयी। इस जीत के उन्माद के चलते संघ मण्डली द्वारा देश में बेखौफ होकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया जा रहा है। इन्हीं मंसूबों को पूरा करने के लिए संघ परिवार दलितों को अपने साथ लेकर चलने की तैयारी में लगा हुआ है।
संघ मण्डली के प्रमुख मोहन भागवत ने दलितों की दयनीय स्थिति पर चिंता जताते हुए कहा कि उनकी (दलितों) स्थिति ठीक करने के लिए हमें सौ सालों तक मुश्किल झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए। श्रीमान मोहन भागवत जी का ‘दलितों को आरक्षण मिलता रहे’ या इन्होंने (भागवत ने) धोखे से या अहसान के बतौर बात कहने में कौन सी मुश्किल या आफत झेलनी पड़ेगी? सच पूछो तो इनको कोई मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा बल्कि भागवत जी ने जो बयान दिया है वह उसको लेकर परेशानी महसूस कर रहे हैं। क्योंकि ये बयान (आरक्षण संबंधित) इन्होंने मजबूरीवश दिया है।
संघ प्रमुख भागवत द्वारा आरक्षण का समर्थन करने के पीछे यही मंशा है कि यह दलितों को अपने घृणित मसूबों में अपने साथ लेकर इंसानियत को नष्ट करने की मुहिम चलायी जाए। और इसलिए ये दलितों में हिन्दू होने का अहसास पैदा करते फिर रहे हैं। दंगों के समय या दंगों से पूर्व तैयारी के समय ये नारा लगाते हैं ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’। इस तरह से ये संघी शांत समाज की फिजा को बिगाड़ देते हैं।
हमें चाहिए कि तमाम इंसाफपसंद लोग जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, नस्ल आदि मानसिकता से ऊपर उठकर ऐसी साम्प्रदायिक ताकतों के मुंह पर तमाचा मारे कि ‘गर्व से कहो कि हम सब इंसान हैं’। पूर्व में युद्धों में लड़ने का ठेका लेने वाली सवर्ण मानसिकता के संघी प्रतिनिधि को अचानक दलित लडाकू जाति नजर आने लगी। अब जाति का भेदभाव मिटाने की बात कर रहे हैं। संघियों को अपने तुच्छ स्वार्थ सिद्धि के लिए अचानक दलित प्रेम उमड़ पड़ा।
अब वे दिन दूर नहीं जब इंसानियत को प्यार करने वाली मेहनतकश आवाम अपने दुश्मनों को पहचान कर उनका मटियामेट कर डालेगी।
बाबू पठान, हरिद्वार
जानो, सोचो, समझो और देश बचाओ
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
प्रिय साथियों,
जनता ने श्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा को असीम विश्वास व प्रेम के साथ भारत की सत्ता सौंपी। जनता की अपेक्षा थी कि महंगाई घटेगी, स्थायी व सम्मानित रोजगार मिलेंगे, सड़क, बिजली, पानी मिलेगा, किसानों को खुशहाली मिलेगी।, असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले मजदूरों को बेहतर कार्य परिस्थितियां मिलेंगी। मोदी जी ने चुनाव में 60 साल के बनाम 60 महीने मांगे थे। उनके हिसाब से वह तीन वर्ष काम कर चुके हैं। इन दिनों में वह कोई काम नहीं हुआ जिसकी अपेक्षा जनता ने की थी लेकिन गम्भीर बात यह है कि जो काम किये गये हैं वे किस दिशा की ओर हैं।
सदा ही भारतीय संस्कृति एवं स्वदेशी की दुहाई देने वाली भाजपा ने रेल, बैंक, बीमा, कृषि एवं रक्षा जैसे महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील क्षेत्रों में समेत तमाम क्षेत्रों में एफ.डी.आई. (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) की अनुमति देकर ढ़ेरों विदेशी कम्पनियों को भारत में व्यापार करने की छूट दे दी है। व्यापार का उद्देश्य मुनाफा होता है। जब मुनाफा विदेशी कम्पनियों का होगा तो भारत माता का हित कैसे होगा? मोदी जी का कहना है कि विदेशी निवेश से विकास होगा परन्तु अनुभव बता रहा है कि यदि विदेशी पूंजी के 20 रुपये आते हैं तो 8 कमाकर वह 28 बनकर देश से चले जाते हैं। सीधी बात है कि विदेशी पूंजी हमारी पूंजी को खींचकर ले जा रही है।
एक सवाल यह भी उठता है कि क्या हमारे देश में पैसे की कमी है जो विदेशों से लेना पड़ रहा है? फोब्र्स पत्रिका के अनुसार सबसे ज्यादा अरबपति भारत में बढ़ रहे हैं। देश की कुल सम्पत्ति के 70 फीसदी का कालाधन देश में टहल रहा है, अरबों रुपये का काला धन विदेशी बैंकों में जमा हैं, पिछले 10 वर्षों में 365 अरब रुपये का टैक्स पूंजीपतियों पर छोड़ दिया गया और मात्र 50,000 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष की एफडीआई के लिए सैकड़ों व विदेशी कम्पनियां न्यौती जा रही हैं जो अपने देश में दिवालिया हो गयीं या जिन पर उन देशों में धोखाधड़ी के मुकदमे चल रहे हैं।
कुल मिलाकर यह बात समझ में नहीं आती कि भारत माता के साथ ऐसा व्यवहार क्यों? ईस्ट इण्डिया कम्पनी जैसी एक विदेशी कम्पनी के चंगुल से भारत माता को आजाद कराने में 200 वर्ष और लाखों लोगों के प्राण चले गये थे। जो आज बोया जा रहा है इसका परिणाम क्या होगा इसकी चिंता हमें करनी ही चाहिए और सोचना चाहिए कि कहीं साधु वेश में रावण द्वारा सीता हरण जैसा मामला तो जनता के साथ नहीं हो गया है।
साथियो! केवल एफडीआई द्वारा ही देश की अस्मिता पर हमला नहीं हो रहा है बल्कि अथाह कुर्बानियों से हासिल मेहनतकशों के तमाम अधिकार भी छीनकर उनका जीवन नरक बनाने की साजिश हो रही है। पूंजीपतियों के हित में श्रम कानून बदले जा रहे हैं।
केन्द्र सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय द्वारा श्रम कानूनों में प्रस्तावित संशोधनों में- 1. महिलाओं से रात्रि की पाली में काम कराने तथा उनसे खतरनाक काम कराने की छूट प्रदान करना 2. काम के घंटों में बदलाव करके ओवरटाइम प्रति तिमाही 50 घंटे से बढ़ाकर 100 घंटे करना। 3. साप्ताहिक अवकाश का दिन तय करने का अधिकार उद्यमों के मालिकों को देना। 4. अप्रेंटिस एक्ट में बदलाव कर मालिकों को भारी संख्या में एप्रेन्टिस रखने की छूट देना जो सस्ते श्रम के स्रोत होंगे। 5. कारखाना अधिनियम में बदलाव कर छोटी कम्पनियों की परिभाषा में ऐसे संस्थान आ जायेंगे जहां 40 श्रमिक काम करते हों। पहले यह संख्या 20 थी। 6. छोटे उद्यमों को श्रम कानूनों के पालन से संबंधित रिकार्ड रखने में छूट दी जाएगी।
श्रम कानूनों में प्रस्तावित संशोधन पूंजीपति वर्ग द्वारा मजदूर वर्ग पर बड़ा हमला है। सरकार यदि संशोधनों को पास कराने में कामयाब होती है तो सरकार यहीं तक नहीं रुकेगी। सरकार 1998 में गठित द्वितीय श्रम आयोग की सिफारिशों को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसमें श्रम कानूनों को बेअसर करने की तमाम संस्तुतियां दी गयी हैं।
कर्मचारियों के लम्बे संघर्ष से हासिल पेंशन जैसे सुरक्षा प्रबंध को पहले ही निगला जा चुका है। जिसके खिलाफ देश का पूरा ट्रेड यूनियन आंदोलन संघर्षरत है। -
पुरानी व नई पेंशन योजनाओं में फर्क
पूरा वातावरण बता रहा है कि आने वाले दिन हमारे लिए अच्छे नहीं हैं। परन्तु एक शानदार संघर्ष हमारी नियति को बदल सकता है इसलिए संघर्ष हेतु तत्पर होने का समय आ गया है। उठो, स्वयं को लड़ने को तैयार करो।
केन्द्रीय श्रमिक संगठनों द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष की रूपरेखा तैयार की जा रही है उनके द्वारा जो आह्वान दिया जायेगा, उसे बरेली का श्रमिक वर्ग यादगार बनायेगा, इस आशा व अपेक्षा के निवेदन के साथ-
बरेली ट्रेड यूनियन फेडरेशन
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ के नारे के साथ पूरे देश को उल्लू बनाकर सत्ता में आई ‘मोदी सरकार’ का असली चेहरा दिन-प्रतिदिन नंगा होता जा रहा है। मनमोहन सरकार (यूपीए) की नाकामियां, बढ़ती महंगाई व भ्रष्टाचार आदि को मुद्दा बनाकर, कारपोरेट मीडिया द्वारा लोगों को अच्छे दिनों के सपने दिखा कारपोरेट जगत का विश्वास पात्र नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ गया। परन्तु नीतियां वही मनमोहन सरकार वाली लागू की जा रही हैं। रेल भाड़े में ऐतिहासिक बढ़ोत्तरी, पैट्रोल-डीजल की कीमतों में बेरोक-टोक बढ़ोत्तरी, खाद्य पदार्र्थों की कीमतें आसमान छूने लगीं व काले धन की स्वदेश वापसी जैसे मुद्दे हवा में लटक गये। कुछ लोग कहते रहे कि, ‘अच्छे दिन ऐसे नहीं आयेंगे’। परन्तु उनकी आवाज कारपोरेट मीडिया के शोर में अधिकतर लोगों तक पहुँच नहीं पाई। हुआ वही जिसका भय था कारपोरेट फंडों व मीडिया की मदद से सिंहासन पर बैठी मोदी सरकार कारपोरेट-औद्योगिक घरानों की सेवा में नतमस्तक हो गयी।
इसी कड़ी में, अपने आकाओं की ‘मेहरबानियों का प्रतिफल’ लौटाने के लिए मोदी सरकार ‘श्रम कानून में सुधार’ के नाम पर मजदूरों का गला और ज्यादा दबाने जा रही है। ज्ञात हो कि 1991 में मनमोहन-नरसिम्हा सरकार द्वारा ‘गैट समझौते’ पर हस्ताक्षर करके नई साम्राज्यवादी नीतियां जिन्हें उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण आदि नामों से जाना जाता है, लेकर आई थी। तब भी देश के श्रम कानूनों में ‘सुधार’ किये गये थे व दावा किया गया था कि इससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, बेरोजगारी समाप्त होगी, गरीबी का उन्मूलन हो जाएगा, नई टेक्नोलाॅजी से लोग मालामाल हो जायेंगे, सौ दिनों में महंगाई कम हो जाएगी आदि आदि। परन्तु हुआ क्या? मनमोहन सिंह के शब्दों में ‘‘ये नीतियां इच्छानुसार नतीजे नहीं दे सकीं’’ यानी कुल मिलाकर देश के लोगों से जो वायदे किये गये वो वफा नहीं हुए।
26 जुलाई के समाचार पत्रों में छपी खबरें, पहले से ही अपनी मूल-भूत सुविधाओं के लिए जूझ रही, मजदूर श्रेणी के लिए खतरे की घंटी है। रेल समाचार को राजनीतिक पार्टियों व सरकारों की कारपोरेट घरानों के साथ सांठ-गांठ तो समझ में आती है, परन्तु देश में काम कर रही ट्रेड यूनियनों (जिनमें ज्यादातर किसी न किसी राजनीतिक दल की ही विंग हैं) की इन मुद्दों पर खामोशी कई सवाल खड़े कर रही है।
मीडिया में आई खबरों के अनुसार देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों को देश में पूंजी निवेश हेतु उत्साहित करने की आड़ में, श्रम सुधारों के नाम पर, मजदूर श्रेणी को लम्बे संघर्षों से प्राप्त मामूली अधिकारों को भी समाप्त करने की तैयारी चल रही है। जिसमें न्यूनतम मेहनताना, कार्य समयावधि सीमा हटाना तथा औरतों को रात्रि पाली की छूट देना आदि करके कारपोरेट घरानों द्वारा मजदूरों की और अधिक लूट करने का काम आसान किया जा रहा है। दूसरी ओर ट्रेड यूनियन बनाने के लिए 15 प्रतिशत मजदूरों की सहमति की शर्त को बढ़ाकर 30 प्रतिशत किया जा रहा है। पहले कानून के अनुसार जिस कारखाने में 10 से अधिक मजदूर काम करते थे वह फैक्टरी एक्ट के अधीन आता है लेकिन अब इसे भी बढ़ाकर 40 किया जा रहा है। इसी प्रकार जहां पहले कानून अनुसार 300 से ज्यादा मजदूरों की छंटनी करने के लिए सरकार की अनुमति चाहिए थी लेकिन अब इस संख्या को भी बढ़ाकर 1000 किया जा रहा है। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि कार्य समय सीमा, निश्चित उजरत आदि कानून जो सिर्फ अब तक भी केवल सरकारी फाइलों का श्रंगार बने रहे, से भी छुटकारा पाने की साजिश की जा रही है। यूनियन बनाने के अधिकार पर उद्योगपतियों व सरकार द्वारा अघोषित प्रतिबंध तो देश की कथित आजादी का ही मुंह चिढ़ा रहा है। छंटनी रोकने व फैक्टरी एक्ट के अन्य अधिकार पाने के लिए न्यायपालिका भी कोई संतोषजनक काम नहीं कर सकी। पूंजी निवेश के पर्दे के पीछे सरकारें मजदूरों के बचे-खुचे हक छीनकर, उद्योगपतियों को उनका और अधिक शोषण करने की छूट दे रही है। ऐसे समय संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को असंगठित क्षेत्रों के श्रमिकों का हाथ थामते हुए समूचे मजदूर वर्ग की एकता रूपी दुर्ग का निर्माण करना होगा। एक मजदूर
एक संघर्षरत मजदूर की दास्तान
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
हरिद्वार सिडकुल के सेक्टर 12 प्लाट न. 7, 11 व 13 में वी.आई.पी. इण्डस्ट्रीज लिमिटेड कम्पनी है जो सूटकेस बनाने का काम करती है। इसमें लगभग 250 मजदूर काम करते हैं। इनमें ही एक मजदूर संजीव कुमार हैं। वे पिछले लम्बे समय से प्रबंधन द्वारा उत्पीड़न का शिकार हुए हैं। इनका कसूर बस इतना है कि वे हमेशा लगन व मेहनत से काम करते हैं और मजदूर साथियों के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ लड़ते हैं। उन्होेंने हमेशा ही अन्य मजदूर प्रतिनिधियों के साथ मिलकर अन्य मजदूरों की समस्याओं को फैक्टरी प्रबंधन के समक्ष उठाया। जिस कारण कम्पनी प्रबंधन ने उनको जबरन फैक्टरी से बाहर निकाल दिया। जिससे वी.आई.पी. इण्डस्ट्रीज के मजदूरों में काफी आक्रोश व्याप्त हो गया।
प्रबंधन ने पिछले तीन वर्षों में संजीव को प्रताडि़त करने के लिए उनका कई विभागों में स्थानान्तरण किया। उनसे ऐसे काम करवाये गये जो उन्हें करने नहीं आते थे। लेकिन संजीव तीन सालों तक प्रबंधन के अत्याचारों को बर्दाश्त करते रहे और मजदूरों की समस्याओं के लिए संघर्ष करते रहे। कम्पनी ने इस बीच उनको कई बार चेतावनी, कारण बताओ नोटिस, निलंबन तथा बाद में पदच्युति पत्र दिया।
प्रबंधन ने उनको निकालने की प्रक्रिया को अमली जामा तब पहनाया जब उसने संजीव कुमार पर दिनांक 20 मई को उन पर लगे 13 आरोपों की जांच के लिए अपने ही एक निजी अधिवक्ता भास्कर जोशी निवासी देहरादून को उन पर घरेलू जांच के लिए बैठा दिया। उस जांच में संजीव कुमार ने भास्कर जोशी के समक्ष कई गवाह पेश किये जिससे उनकी बेगुुनाही साबित होती थी परन्तु जोशी ने उन सबको नजरअंदाज करते हुए प्रबंधन के पक्ष में फैसला दिया। इस दौरान 5 महीनों की कार्यवाही में सहायक श्रमायुक्त के कार्यालय में भी कार्यवाही चली पर संजीव कुमार को वहां भी न्याय नहीं मिला। प्रबंधन ने अंत में 27 अगस्त को संजीव को नौकरी से निकालने का पत्र थमा दिया। इसके साथ ही कम्पनी ने अन्य मजदूरों पर भी अपना शिकंजा कस दिया।
संजीव कुमार ने इसी बीच अपना केस उपश्रमायुक्त के यहां दायर किया है। देखना यह है कि उन्हें वहां से कब न्याय मिलता है। संजीव कुमार हमेशा ही दूसरे मजदूर साथियों के लिए लड़े और उसका परिणाम उन्हें अपनी नौकरी गंवा कर चुकाना पड़ा। आज पूरे देश में मजदूर आंदोलन कमजोर स्थिति में होने के कारण पूंजीपति वर्ग लगातार मजदूरों पर हमलावर हो रहा है। इसके लिए सभी मजदूरों को एकजुट होकर मालिकों के खिलाफ लड़ाई लड़नी पड़ेगी। एक मजदूर, हरिद्वार
जे.एन.एस. में यौन उत्पीड़न का विरोध
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
जिला हरिद्वार में बेगमपुर, इण्डस्ट्रियल एरिया है जिसमें छोटी-बड़ी लगभग 20 कम्पनी होंगी। लगभग सभी कंपनियों में महिला मजदूर काम करती हैं। उनको पुरुष मजदूरों से कम वेतन देकर काम कराया जाता है। उनका बहुत अधिक मानसिक उत्पीड़न होता है। उनके साथ अश्लील शब्दों के साथ बहुत मजाक किया जाता है। महिला मजदूरों से 8 से दस घंटे काम लिया जाता है। उनसे दिन भर खड़ा होकर काम लिया जाता है। स्टूल पर बैठने भी नहीं दिया जाता। सीनियर स्टाफ मजाक ही मजाक में उनके साथ बहुत अश्लील हरकतें किया करते हैं।
वहीं पर एक जे.एन.एस. कम्पनी है जो इलेक्ट्रोनिक मीटर बनाने का काम करती है। उसमें अधिक महिला मजदूर काम करती हैं। यहां सभी छोटे बड़े वाहनों के मीटर बनाने का काम किया जाता है। पुरुष मजदूर न के बराबर हैं। केवल महिला मजदूर ही काम करती हैं। सुपरवाईजर के रूप में भी महिला ही हैं।
जे एन एस कम्पनी की घटना यह है कि एच आर ने एक महिला मजदूर को केबिन में बुलाकर उसके साथ छेड़छाड़ की। उस लड़की का नाम सरला(बदला हुआ नाम) है। वह घनौरी गांव की रहने वाली है। एच आर अपनी आदत से बाज नहीं आया। किसी काम के बहाने उसने सरला को केबिन में बुलाया और उसका शारीरिक उत्पीड़न करने लगा। सरला ने एच आर का विरोध किया और उसने मोबाइल द्वारा गांव में सूचना दे दी कि कंपनी के एच.आर. ने उसके साथ छेड़छाड़ की है। सरला के मां-बाप और गांव के लोग कम्पनी के गेट पर पहंुंचे और मांग की उस एचआर को उनके हवाले किया जाए। पूरा शोर-शराबा देख कंपनी के महाप्रबंधक ने पुलिस को सूचना दी कि घनौरी गांव के कुछ लोग कंपनी के गेट पर तोड़फोड़ की नीयत से आए हैं। और शोर-शराबा कर रहे हैं। कुछ ही देर में पुलिस की गाड़ी आ गई। पुलिस ने पहले घनौरी गांव के लोगों को शांत रहने के लिए बोला। फिर मामले की पूरी जानकारी लेने की बात करते हुए कंपनी के अंदर गए। कंपनी महाप्रबंधक ने पुलिस को बताया कि एचआर पर सरला नाम की एक लड़की झूठा आरोप लगा रही है कि उसके साथ छेड़छाड़ की गयी है जबकि वैसा कुछ नहीं है। एक आध घंटे बाद पुलिस बाहर आयी तथा पीडि़ता लड़की भी उनके साथ थी। उसने अपने परिजनों के सामने अपनी आपबीती सुनाई। परिजनों के गुस्से को देखते हुए पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया।
पुलिस ने गांव वालों और पीडि़ता के मां-बाप को समझाया कि रिपोर्ट लिख ली गयी है और वे लोग घर जाएं। वे उस एचआर पर पूरी कार्यवाही करेंगे। फिर गांव वाले और पीडि़ता के मां-बाप वापस चले गये कि पुलिस तो कार्रवाई करेगी ही। लेकिन हुआ उसका उल्टा। पुलिस ने कंपनी प्रबंधक से मिलकर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। रिपोर्ट को फर्जी बनाकर रख दिया गया। लड़की के परिजन, मां-बाप इंसाफ के लिए हर दरवाजे पर जा रहे हैं। जे एन एस का एचआर अपनी हरकतों से कई लड़कियों को परेशान किया करता था। लेकिन इस बार उसकी चाल उल्टी पड़ गयी। इस बार उसका पाला सरला जैसी हिम्मती लड़की से पड़ गया। वैसे तो यह मामला अभी पुलिस और कंपनी के प्रबंधक के बीच अटका हुआ है। कंपनी प्रबन्धन अपनी चालबाज नीति से किसी तरह मामले को ठंडा करने की कोशिश कर रही है। वह पैसे खर्च कर इस मामले का निपटारा करना चाह रही है।
अब तब एच आर की गिरफ्तारी न होना दिखाता है कि यह व्यवस्था सड़ गल चुकी है। यहां गरीबों के लिए न्याय मिलना बहुत कठिन होता है। पैसे के लोभी कुछ घिनौने दिमाग वाले लोगों ने अपनी इंसानियत बेच दी है। उन्होंने गरीबों के आंसू को मजाक बना दिया। लेकिन तब भी सरला जैसी हिम्मत सभी मजदूरी मेहनत करने वाली महिलाओं को दिखाना होगी नहीं तो ‘ये भेडि़ये’ और भी खूंखार हो जायेंगे। रामकुमार हरिद्वार
हिन्दुस्तान लीवर में ठेका मजदूरों के बुरे हाल
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
हिन्दुस्तान लीवर बहुत अच्छी कम्पनी मानी जाती है परन्तु इसी कम्पनी में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की स्थिति बहुत ही खराब है। उन्हें कम्पनी में न तो चाय मिलती है और न ही अहमियत। ठेका मजदूरों का जब चाहे जैसा इस्तेमाल किया जाता है। न ही किसी मजदूर के खाने पीने की सही व्यवस्था है। अगर ठेका मजदूर अपना खाना साथ ले जाते हैं तो कहा जाता है कि ये कम्पनी में गंदगी फैलाते हैं। जबकि कम्पनी ठेका मजदूरों को पीने का पानी भी मुहैय्या नहीं कराती है। अब तो एक और नियम आ गया है कि 180 दिन के बाद 60 दिन यानी 2 महीने का ब्रेक दिया जाता है। इन 2 महीनों में मजदूरों को दुबारा काम ढूंढ़ने में काफी मशक्कत करनी होती है। कम्पनी मजदूरों के बीच फूट डालने के लिए एक काम और करती है वह कम्पनी के मजदूर व ठेका मजदूर के बीच फूट डालती है। ताकि मजदूर एकजुट न हो सके। यह सब कम्पनी के मजदूरों की अपेक्षा ठेका मजदूरों से ज्यादा काम लेकर भी किया जाता है। ताकि कम्पनी के मजदूर अपने को मजदूर न मानकर ठेका मजदूरों को मजदूर मानें। इसके अलावा ठेका मजदूरों को यहां कोई भी अच्छी सुविधा नहीं दी जाती है। एक मजदूर हरिद्वार
सी सैट के विरोधियों के नाम मजदूरों की पाती
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
मित्रों,
हम एक कारखाने में काम करने वाले मजदूर हैं। जबसे हमने सुना कि इस देश के अफसर बनने को लालायित नौजवान अफसर बनने की प्रक्रिया को लेकर सड़कों पर उतरे हैं तब से हम लोग काफी चिन्तित हैं और इस बहस में हम अपनी भी कुछ बातें रखना चाहते हैं।
अंग्रेजों ने अफसर बनाने के लिए आई.ए.एस/आई.पी.एस की परीक्षा शुरू की थी शुरूआती काल में यह परीक्षा इंग्लैण्ड में होती थी। जाहिर है तब या तो इंग्लैण्ड के अंग्रेज या भारत के धनी लोग ही यह परीक्षा दे पाते थे। बाद में इस परीक्षा को देश में कराये जाने की मांग उठी। इस मांग का आजादी की लड़ाई लड़ने वाले सभी पक्षों ने समर्थन किया। मजबूरन यह परीक्षा बाद के समय में भारत में करायी जाने लगी। परीक्षा पास करने के लिए अन्य काबलियतों के साथ अंग्रेजी भाषा का आना भी जरूरी था।
अंग्रेजों के शासन में अफसरों की क्या भूमिका थी? अफसरों की भूमिका भारत पर ब्रिटिश शासन को बनाये रखने में सदा तत्पर रहने की थी। अफसरों का काम हड़तालें करने वाले मजदूरों को कुचलने से लेकर आजादी के योद्वाओं को लाठी-गोली से कुचलनें का था। कुल मिलाकर समाज में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा किये जा रहे लूट-अन्याय-अत्याचार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को कुचलना था। फिर भी जब देश के पढ़े लिखे तबकों ने अफसरी की परीक्षा भारत में कराने की मंाग की तो देश के बहुतेरे लोगों ने इसका समर्थन किया। उन्होंने ऐसा इसीलिए किया कि भारत में परीक्षा होने पर अधिक भारतीय अफसर बन पायेंगे। और शायद भारतीय अफसर अंग्रेज अफसरों से कम क्रूर होंगे। पर अंग्रेज भी पर्याप्त चालाक थे और उन्होंने सभी उच्च पदों पर अंग्रेजों को ही बैठाना जारी रखा। फिर भी कहा जा सकता है कि अंग्रेजों के जमाने में बने भारतीय अफसर देश के स्वाधीनता आन्दोलन के खिलाफ और उसको कुचलने में लगे रहे। यही कारण है कि देश को आजाद कराने वाले योद्वा जनता के दिलों में अमर हो गये। वहीं अंग्रेजी हुकमत के भारतीय अफसरों का कोई नाम लेवा नहीं है। हां! कुछ अफसरों का जमीर भी इस दौरान जागा और वे अफसरी को लात मार आजादी की जंग में कूद पड़े। उन्हें भी बड़ी इज्जत से याद किया जाता है।
वक्त बदला ढेरों कुर्बानियों के दम पर देश से अंग्रेज तो चले गये पर शासन इस देश की बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के हाथों में आने के बजाए काले अंग्रेजों, इस देश के पूंजीपतियों के हाथ में आ गया। मेहनतकश मजदूरों-किसानों का जीवन जस का तस ही रहा। भारत के पूंजीपतियों को भी चूंकि देश की जनता को दबाना-कुचलना-दमन करना था इसलिए न केवल मामूली फेरबदल के साथ देश के संविधान में ढेरों कानून अंग्रेजों के बनाये रखे गये बल्कि अफसरशाही भी अंग्रेजों की ही अपना ली गयी। यहां तक कि अफसरों के चलन की प्रक्रिया भी लगभग वैसी ही चलती रही।
आजाद भारत के नये शासकों ने इस बात का ध्यान रखा कि उनकी व्यवस्था को चलाने वाले अफसर भले ही सभी तबकों से आयें पर उनकी शिक्षा-दीक्षा उन्हें मेहनतकशों से नफरत करने वाला बना दे। ताकि आजाद भारत में मजदूरों-किसानों नौजवानों को लाठी गोली से कुचलने में उन्हें देशभक्ति नजर आये। आज भारत के पूंजीवादी राज्य को चलाने वाले अफसर आज जनता के खिलाफ खड़े हैं।
पर चूंकि आप में ढे़रों इस देश के मेहनतकशों-मध्यम वर्ग की औलादें हैं। इसलिए जब आप यह मांग करते हैं कि अफसरी की परीक्षा में अंग्रेजी का पेपर नहीं होना चाहिए तब आपकी मांग जायज है। अंग्रेजों के जाने के बाद भी गुलामी की छाया अंग्रेजी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। हमें उन सभी क्षेत्रीय भाषी लोगों की मांग भी जायज लगती है जो हिन्दी/अंग्रेजी के अलावा अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में परीक्षा कराना चाहते हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व के चलते पिछले 2-3 वर्षों में डाक्टर/इंजीनियर अधिक मात्रा में आईएएस बनने लगे जबकि बीए, एमए वालों की संख्या घट गयी।
आपकी मांग का समर्थन करते हुए भी हम यह जानते हैं कि हमारे शहर का डीएम अंग्रेजी पढ़ा हो या हिन्दी माध्यम का वह हमारे ऊपर डंडा चलाने में कोई रियायत नहीं बरतेगा। वह नौकरी की मांग करने वाले अपने भाईयों, पानी बिजली-खाद की मांग करते किसानों को कुचलने में कोई संकोच नहीं करेगा। पूंजीवादी व्यवस्था के अफसरों का यही काम है। हम आपकी मांग का इसीलिए समर्थन करते है ताकि किसी के दिमाग में अगर कोई इस तरह का भ्रम हो कि अंग्रेजीदा अफसर से हिन्दी भाषी अफसर बेहतर होेंगे तो यह भ्रम समाप्त हो जाये।
जहां तक हमारा सवाल है हम तो चाहते है कि जनता के ऊपर बैठे अफसर जनता के हितों के प्रतिनिधि हो न कि उसके दुश्मन। जाहिर है प्रतियोगी परीक्षा से चुने जाने वाले अफसरों को जनता नहीं पूंजीवादी व्यवस्था के कारिंदे चुनते हैं। उन्हें पालते-पोसते और ट्रेनिंग दे जनता को कुचलने के लिए मैदान में उतार देते हैं। एक अध्यापक-किसान की औलाद को वह अफसर बना मजदूरों किसानों-नौजवानों का दुश्मन बना डालते हैं। इसीलिए हम मांग करते हैं कि अफसरों को भी चुनाव के जरिये जनता द्वारा चुना जाना चाहिए न कि परीक्षा से।
पर यह मांग पूरी करना पूंजीवादी व्यवस्था के शासकों के लिए खासी कठिन है। इसलिए मजदूर वर्ग इसी हकीकत पर विश्वास करता है कि अफसर चाहे जैसे भी छांटे जाये इस व्यवस्था में वह मेहनतकशों के खिलाफ ही रहेंगे। इसलिए मजदूर वर्ग इस पूंजीवादी व्यवस्था के साथ उसकी अफसर शाही-नौकरशाही के खिलाफ लड़ता है। वह पूंजीवाद का नाश कर समाजवादी व्यवस्था को बनाने का लक्ष्य लेकर लड़ता है। समाजवाद में अफसर-जज-नेता सबका चुनाव मेहनतकश जनता करेगी। पहली बार अफसर जनता को कुचलने वाले नही उसके प्रतिनिधि-वास्तविक रक्षक बनेंगें। इतिहास पूंजीवाद से लड़ने वाले योद्धाओं को याद करेगा और पूंजीवाद के रक्षक अफसर अंग्रेजों के दौर के अफसरों की तरह भूला दिये जायेंगें। यह आप नौजवानों पर है कि आप किसकी पात में खड़ा होना चाहते हैं।
-आपके कारखाने में काम करने वाले मजदूर
‘नरेन्द्र मोदी’ पूंजीपतियों के अनमोल हीरे
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी प्राप्त करते ही देशी-विदेशी पूंजीपतियों को खुश कर दिया। उन्होने पूंजीपतियों के कथानानुसार कि ‘सरकार निडर होकर फैसला ले’ के तहत काम करना शुरू कर दिया है। उन्होने पूंजीपतियों के विकास के चश्में को जनता की आंखों पर लगातार चुनावों के वक्त गुजरात का विकास दिखाया था। अब ये दम्भी प्रधानमंत्री उसी चश्में से पूरे देश का विकास दिखाने की कोशिश में लगा हुये है। जिस विकास की ये बात कर रहे हैं उस विकास का मजदूरों की जिंदगी से कोई लेना नही होता। बल्कि उस विकास को हमारे ऊपर थोप दिया जाता है। जबकि यह विकास पंूजीपति वर्ग का विकास होता है। इस विकास का हमें एहसास कराने के लिए तरह-तरह से गुमराह किया जाता है।
ये कैसे सम्भव है कि खाली पेट रहने से भरे पेट होने की अनुभूति हो। ऐसा कभी नही हो सकता कि एक व्यक्ति के खाना खाने से दूसरे व्यक्ति का पेट भर जाए। पूंजीवादी शासकों द्वारा ऐसा ही प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। वह चाहे पूर्व की सरकारे रही हों या वर्तमान की सरकार। और वर्तमान की सरकार के प्रधानमंत्री तो पूंजीपतियों के लिए एक अनमोल हीरा साबित हो रहे हैं।
मोदी सरकार ने जनता व देश के विकास लिए सरकारी उपक्रमों में विदेशी प्रतिपक्ष निवेश का प्रतिशत बढ़ाकर विदेशी पूंजी के लिए रास्ता साफ कर दिया। अब देश का शासन निरंकुश होकर देश की सामाजिक सम्पदा को पूंजीपतियों के लिए बेरोकटोक होकर लूटने की छूट देंगे। ये सब वर्तमान सरकार की कार्यवाही मजदूर वर्ग पर नये हमले बोलने की तैयारी की शुरूआत भर है। आने वाले पांच साल में यह अनमोल हीरा अभी अपनी और चमक से मजदूरों की आंखों में और चुभन पैदा करेगा।
उधर पूंजीवादी प्रचार तंत्र ने मोदी के ‘केन्द्र की सत्ता’ को सम्भालते ही ये बहाना शुरू कर दिया कि कई दशकों बाद देश को सही नेतृत्व मिला है। अब यह देश की विकास की रफ्तार को तेज करेगा। इन पत्रकारों-बुद्धिजीवियों ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि इनके हिसाब से भी पूंजीपतियों को सरकार खुलकर पूर्व की सरकारों ने अपेक्षित सामाजिक धन सम्पदा और मजदूर-मेहनतकशों को लूटने का मौका नही दिया। इसलिए उपरोक्त बातें कही जा रही हैं। शासकवर्गीय और इस व्यवस्था के पक्षधरों व प्रचारकों के हिसाब से ऐसी सरकार या ऐसा शासक होना चाहिए जो मजदूर-मेहनतकशों का खुले आम शोषण-उत्पीड़न करे। क्योंकि इनके हिसाब से जनता जितनी भी बुरी स्थिति में जीवन व्यतीत करे, इन्हीं सब तरीकों के शासन करने वाले शासक को ये पसन्द करते हैं। उसे अपना आदर्श मानते हैं। मजदूर वर्ग को चाहिए कि वे ऐसे भ्रामक प्रचार से बचें। हमें न पूर्व के शासक चाहिए न वर्तमान शासक चाहिए। श्याम बाबू, हरिद्वार
मजदूर का महत्व
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
खेत और खलिहान में, या फिर चाय के बागान में,
उद्योग जगत के हर क्षेत्र में, और हर धातु की खान में,
रोजमर्रा की वस्तु से लेकर, हर वस्तु के निर्माण में।
मजदूर जी-जीन लगाता है, अपना पसीना बहाता है।-2।
खेत में किसान बनकर, मजदूर अन्न उगाता है।,
माली बनकर फूलों से, वह गुलकंद बनाता है,
सुनार, लौहार और चर्मकार की, वह भूमिका निभाता है,
जीवन के हर क्षेत्र में, मजदूर जी-जान लगाता है-2।
चालक बनकर वह परिवहनता को सुगम बनाता हैं,
जनमानस को उनके गन्तव्य तक, सरलता से पहुंचाता है,
कुली बनकर बोझ ढोके, अपना फर्ज निभाता है,
जीवन के हर क्षेत्र में, मजदूर जी-जान लगाता है-2।
उत्पादन के क्षेत्र में देखो, वह गजब भूमिका निभाता है,
आठ घन्टे एक स्थान पर, खड़ा होकर मशीन चलाता है,
उत्पादन देता है पहले, बाद में खाना खाता है,
जीवन के हर क्षेत्र में, मजदूर जी-जान लगाता है-2।
व्यथित होता है मन, जब मजदूर कुछ नही पाता है,
सारा जीवन मेहनत करके, वही खाली हाथ रह जाता है,
सरमायदारों का यह रवैया, हमें बिल्कुल नहीं भाता है,
जीवन के हर क्षेत्र में, मजदूर जी-जान लगाता है-2।
सत्यपाल गिल, सदस्य श्रमिक संघ
ये पूंजीपतियों का स्वर्ग है, ये सेज है
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
विशेष आर्थिक क्षेत्र (स्पेशल इकानाॅमी जोन- सेज) के तहत म.प्र. की औद्योगिक राजधानी इंदौर से करीब 50 किलोमीटर दूर बसा एरिया पीथमपुर, जहां स्थित है विशेष आर्थिक क्षेत्र, और उसके तहत छोटी-बड़ी सैकडों कंपनियां। तो चलिए आपको ऐसी की एक कम्पनी में ले चलते हैं।
प्लेक्सिटफ इण्टरनेशनलल लि. सेक्टर-3, पीथमपुर। इस कम्पनी में मुख्यतः पोलिस्टर बैग जिन्हें जम्बो बैग कहते हैं, बनाये जाते हैं जिन्हें मुख्यतया अमेरिका, रूस, यूरोप के देशों में सप्लाई किया जाता है। कम्पनी में 3 शिफ्टों में काम होता है। इसके अतिरिक्त अलग-अलग विभागों में 12-12 घंटे की शिफ्ट चलती है। 12 घंटे की शिफ्टों में मुख्यतया क्वालिटी और स्टीचिंग विभाग आते हैं। 12 घंटे की शिफ्ट का समय 7 से 7 रहता है। बस का समय 6ः10 से होता है। खास बात यह है कि स्टीचिंग विभाग में महिलाओं से भी 12 घंटे काम करवाया जाता है।
कम्पनी द्वारा शुरू में 8 घंटे के 3600 रुपये में भर्ती की जाती है। 250 रुपये 26ड्यूटी पूरी करने के और 750 रुपये डीए के दिये जाते हैं। जो कुल मिलाकर 4600 रुपये 8 घंटे के होते हैं। यदि मजदूर की इच्छा हो तो इस 4600 रुपये में से वह अपनी पी.एफ. कटवा सकता है। 4 घंटे ओवर टाइम रहता है जिसका सिर्फ सिंगल भुगतान ही किया जाता है। प्रत्येक मजदूर से भर्ती प्रक्रिया में ही एक फार्म पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं जिसमें साफ-साफ लिखा होता है कि मजदूर किसी भी तरह की यूनियन में हिस्सेदारी नहीं करेगा।
जहां एक तरफ कम्पनी 12 घंटे में इतने कम पैसों में मजदूरों से काम करवाती है। वहीं दूसरी तरफ सुविधाओं के मामले नगण्य है, सिवाय बस की सुविधा को छोड़कर मजदूरों को किसी भी तरह की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। वर्दी के नाम पर हाफ कमीज मिलती है जिसकी कीमत बाजार में 50 रुपये से ज्यादा नहीं है। परन्तु इसी कमीज का मजदूरों से 150 रुपये लिया जाता है। सबसे बुरे हाल यहां की कैण्टीन के हैं। जहां 30 रुपये डाइट पर खाना दिया जाता है। जिसमें मरियल सी 6रोटी, थोड़ा सा चावल, एक दाल जिसमें अरहर के दाने ढूंढने पड़ते हैं कुल मिलाकर ऐसा खाना ऐसा कि देखते ही कैण्टीन वाले के लिए गाली निकल जाये, जबकि कम्पनी में काम करने वालों की संख्या 2000 के आस-पास होगी।
आम तौर पर मजदूर घर से खाना लेकर आते हैं। अब यदि ऐसे में देखा जाय तो सुबह 4ः30 बजे से उठकर तैयारी शुरू करनी पड़ती है। परन्तु कम्पनी द्वारा इस विषय पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। कमोबेश यहां की सभी कम्पनियों में कैण्टीन की यही दशा है। स्टीचिंग करनेे के लिए जो मशीनें यहां इस्तेमाल होती हैं हालांकि वह इलैक्ट्रिक मोटर से चलती हैं लेकिन उसे चलाने के लिए पांव पर अत्यधिक जोर पड़ता है। और स्टीचर के पांव में हमेशा दर्द की शिकायत बनी रहती है।
वास्तव में विशेष आर्थिक क्षेत्र पूंजीपतियों की ऐशगाह है। इस पूरे ही क्षेत्र में कभी भी, किसी यूनियन का नामोनिशान नहीं है। भाजपा शासित इस राज्य में कभी भी भारतीय मजदूर संघ(बीएमएस) द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की जाती न ही कांग्रेस की इंटक का कोई नामोनिशान ही यहां दिखाई देता है।
आंदोलन की प्रबल संभावना के बावजूद प्रतिरोध के स्वर को गति देने वाली कोई ताकत फिलहाल यहां मौजूद नहीं है। स्टीचर और क्वालिटी एक ही विभाग होने के बावजूद दोनों में गहरी खाई मौजूद है। क्योंकि स्टीचर को कम्पनी द्वारा 12 घंटे के 400 रुपये दिये जाते हैं और स्टीचर के जहन में क्वालिटी वालों के प्रति एक हीनता का भाव मौजूद रहता है।
मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी विचारधारा और संगठन की क्यों जरूरत है इसे यहां बखूबी समझा जा सकता हैं
ये एक ऐसी दुनिया है जहां बिना अनुमति या मजदूर बने मुख्य प्रवेश द्वार के भीतर नहीं जा सकते। सभा नहीं कर सकते, पर्चे नहीं बांट सकते हैं। यहां पर कोई भी सिक्युरिटी वाला आपको अपमानित कर सकता है। आए दिन मजदूर जानवरों की तरह एक दूसरे पर टूट पड़ते हैं और प्रबंधन तमाशा देखता है।
कम्पनी से बाहर निकलकर बस एक ही चीज आमतौर पर मजदूरों को सुकून देती है। किराये के कमरों के पास ही आपको चाट पकौड़ी या सस्ते रेस्टोरेंट मिल जायेंगे जहां पर शराब आसानी से मुहैया हैं पुलिस का हफ्ता तय है यहां पर कोई रोक टोक नहीं।
ये पूंजीपतियों का स्वर्ग है। ये सेज है।
विमल जोशी, इंदौर म.प्र.
मोदी जी वाले अच्छे दिन
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
मोदी जी के द्वारा भेजे गये ‘अच्छे दिन’ आ गये। लोक सभा के चुनाव के समय अधिकतर टीवी चैनलों में अक्सर यही सुनने को मिलता था अब तो ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’। एवं अधिकतर समाचार पत्र इन्हीं के गुणगान से भरे होते थे। ये सब सुनते-सुनते हम जैसे आम जनता को भी इस बात का भ्रम हो जाता था। क्या सच में अच्छे दिन आने वाले हैं। लेकिन इस बात का अंदाजा नहीं लगा पाये थे कि ये अच्छे दिन किस वर्ग के आने वाले हैं। लेकिन जब केन्द्र में मोदी सरकार आयी और उन्होंने अपने वादे के अनुसार खरे उतरते हुए अच्छे दिन लाने शुरू किये तो यह पता चला कि हम मजदूर के लिए ये वादे नहीं थे। कि ‘अब आयेंगे अच्छे दिन’ हम मजदूर वर्ग को 1947 से हर चुनाव के समय अच्छे दिन आने की घुट्टी हर बार पिलाई जाती है और हम उसे पीकर मस्त हो जाते है। और उसी मस्ती में चूर होकर अपना अमूल्य वोट इनकी झोली में डाल देते हैं और खुद अपने हाथ से अपने को लुटाकर लुटे-पिटे निरीह जुआरी की तरह बैठ जाते हैं फिर से अगले चुनाव तक गुलामों की जिंदगी जीने को मजबूर।
पौराणिक कथाओं के अनुसार महाभारत में दुर्योधन ने पाण्डवों को जुआ(चैसर) खेलने के लिए आमंत्रित किया था। लेकिन ये उनकी चाल थी। अपनी बेइज्जती का बदला लेने के लिए। इसलिए दुर्र्याेधन ने अपने तरफ से मामा शकुनि से खेलने को कहा और पास उनसे फिंकवाया गया। पाण्डवों ने इनकी यह चाल नहीं समझी और उनके साथ खेलने बैठ गये जिसमें उनकी हार हुयी। इस हार में जीतने के चक्कर में अपना घर द्वार राजकाज एवं अपनी प्रिय पत्नी द्रोपदी को और यहां तक कि अपने को भी हार बैठे। यदि वे इस चाल को समझ जाते तो ऐसा कहते कि तुम्हारे तरफ से शकुनी खेलेगे तो हमारे तरफ से भी कृष्ण जी खंेलेंगे। तो वे न हारते या इतनी बुरी तरह से न हारते कुछ देर में ही संभल जाते।
लेकिन यहां तो यह देखने में आ रहा है कि हम आम जनता मजदूर वर्ग हर चुनाव मेें उनके झांसे में आ जाते हैं और अपना सब कुछ हार कर मजदूर वर्ग से मजबूर वर्ग हो जाते हैं। दैनिक जागरण् की खबर है कि ‘श्रम कानूनों में बड़े बदलाव की पहल’। इसके अनुसार महिलाओं की नाइट शिफ्ट में काम करने की मिलेगी ढील। उसका मतलब महिलाओं के भी ‘अच्छे दिन’ आ गये। उन्हें रात की पाली में चोरी-छिपे नहीं आजादी से काम करवाया जा सकता है। वाह रे! अच्छे दिन और कैबिनेट का फैसला ब्यौरा देते हुए लिखा है कि बढेंगे ओवर टाइम के घण्टे
फैक्टरी एक्ट और अप्रेटिंसशिप एक्ट में संशोधन की मंजूरी
इस तरह के ‘अच्छे दिन’ मोदी सरकार ले आयी है। उनके आते ही रेल का किराया 14 प्रतिशत बढ़ा दिया गया। डीजल व पेट्रोल के दाम बढ़ा दिया गया। जिससे सभी खाद्यय पदार्थ की ढुलाई महंगी हो गयी और सभी रोजमर्रा की वस्तुएं लगभग 20 प्रतिशत महंगी हो गयी। फैक्टरी मालिक को अपने यहां के कर्मचारियों के खून के एक-एक बूंद निचोड़ने की पूरी छूट दे दी गयी तो उनके लिए तो अच्छे दिन ही हुये। इससे अच्छे दिन और कौन से हो सकते हैं।
अरविन्द बरेली
वह दिन दूर नहीं
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
जितना हमको तड़पाते हैं उतना इनको तड़पायेंगे
इतना इनको तड़पायेंगे कि चैन से नहीं यह रह पायेंगे
पूंजीवाद का नाश करेंगे हम इनको बतलायेंगे।
असली क्या है, नकली क्या है हम इनको सिखलायेंगे
कर लें जितना जुल्म सितम तनिक नहीं हम घबरायेंगे
भगत सिंह की बात को हम फिर से दोहरायेंगे
आंख खुलेगी उस दिन इनकी जब इनको तारे दिखलायेंगे
लाल किले की चोटी पर जब हम लाल झण्डा फहरायेंगे
साथियो का साथ रहेगा कदम से कदम बढ़ायेंगे
अब वह दिन नहीं है दूर जब हम सब खुशहाली पायेंगे।
रमेश कुमार, सी आर सी पंतनगर
मजदूरों की आजादी की रूप रेखा
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
15 अगस्त को देश का पूंजीवादी शासक वर्ग अपनी आजादी का जश्न मनाता है। मजदूर-मेहनतकशों को भी तरह-तरह से भरमा कर अपनी आजादी में शरीक करता है। इस आजादी को मनाने का मतलब है कि पूंजीपति वर्ग द्वारा मेहनतकशों का शोषण-उत्पीड़न जारी रखा जाये। जिसमें एक तरफ देश का मुट्ठी भर छोटा सा हिस्सा सारी सम्पत्ति का मालिक रहे। बाकी आबादी जो सबसे ज्यादा बहुसंख्यक है जो सभी चीजों का उत्पादन करती है। वह सभी सुख-सुविधाओं से वंचित रहे। पूंजीवादी शासक वर्ग इसी तरह की आजादी को समस्त जनता की आजादी कहकर 67 वर्षों से गुमराह करता आ रहा है। जबकि यह आजादी वास्तविक आजादी से कोसों दूर है।
20वीं सदी में दुनिया के कई देशों में वास्तविक आजादी के लिए मजदूर-मेहनतकशों ने शानदार संघर्ष किया। मजदूरों ने इन संघर्षों से हम पर निजी सम्पत्ति यानी निजी उत्पादन संबंधों की जगह सामूहिक उत्पादन संबंध कायम किये। जहां हर प्रकार के भेद-भाव को संघर्ष के दम पर मिटा दिया गया। ये आजादी वास्तव में मेहनतकशों की आजादी थी।
हिन्दुस्तान में भी ऐसी आजादी के लिए संघर्ष की शुरूआत की नींव रखी गयी। जिसमें भगतसिंह व अन्य वीरों का नाम आता हैं लेकिन देशी-विदेशी लुटेरों ने मेहनतकशों की आजादी की नींव को उखाड़ दिया था।
तिरंगे के नेतृत्च में मिली आजादी मजदूरों की आजादी नहीं हो सकती। हमारी आजादी लाल झण्डे के नेतृत्व में ही मिल सकती। जो मजदूरों के खून के ेप्रतीक है। और इस लाल झण्डे के नेतृत्व में मिली आजादी का मतलब होगा महिलाओं, बच्चियों को यौन हिंसाओं से मुक्ति। बेरोजगारों को बेरोजगारी से मुक्ति। कोई भी बच्चा, भूख, बीमारी से नहीं मरेगा। कोई मां-बहन पेट की खातिर अपने शरीर को नहीं बेचेगी। महिलाओं को सामाजिक उत्पादन में लगाया जायेगा। कोई भी मां-बाप अपने बच्चों की पढ़ाई, रोजगार के लिए शरीर के अंगों को नहीं बेचेगा। कोई भी इलाज के अभाव में अल्प आयु में दम नहीं तोड़ पायेगा। वृद्धि स्त्री पुरुषों की देखभाल की गारण्टी दी जायेगी। उत्पादन के साधनों पर सामूहिक मालिकाना कायम किया जायेगा।
उपरोक्त बातों के आधार पर हमारी वास्तविक आजादी हो सकती है। अस्तु वर्तमान में जो आजादी है। वह पूंजीपति वर्ग की मजदूर वर्ग पर तानाशाही का एक रूप है। यानी बीस प्रतिशत लोगों की 80 प्रतिशत लोगों पर थोपी गयी गुलामी है। मजदूर वर्ग को अपनी आजादी क्रांति के दम पर हासिल हो सकती है। श्यामबाबू हरिद्वार
मीडिया और समाज की चेतना
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
आजकल हम लोग प्रचार में लगे हुए हैं। हम लोगों के अंदर एक भीरू मानसिकता को देख रहे हैं। लोगों के पास टाईम नहीं है। लोग परचा पढ़ना तक मुनासिब नहीं समझते, भगतसिंह के नाम से भी ज्यादातर लोग उत्साहित नहीं होते। मीडिया पर हद से ज्यादा विश्वास आदि ऐसे व्यवहार हैं जो समाज की कुंठित चेतना को परिभाषित करते हैं। आज का युवा ज्यादातर मौज-मस्ती व अय्याशी की तरफ भाग रहा है। ये सब क्यों हो रहा है। इसके पीछे कारण क्या हैं। यह हमें जानना होगा। 1991 की आर्थिक नीतियों के लागू होते ही समाज में नैतिक पतन का ग्राफ तेजी से बढ़ने लगा। पूंजीतियों की मुनाफे की हवस के कारण नेट तथा बाजार में न्यूड फिल्म तथा तस्वीरें परोसी जा रही हैं। मीडिया भी अपने मालिकों के मुनाफे को बढ़ाने में लगा हुआ है। वह समाज की असली तस्वीर जनता के सामने नहीं रखता। मीडिया ही समाज के हीरो और विलेन चुनती है। वह असली संघर्ष को नकली और नकली संघर्ष को असली बनाने पर उतारू है। और एक हद तक कामयाब भी हुई है आज भारत तथा पूरी दुनिया का समाज एक उपभोक्तावादी संस्कृति में डूबा हुआ है। इसमें मीडिया का रोल अहम है। आज भारत में कूपमंडूक शिक्षा का बोलबाला है। प्रगतिशील शिक्षा के अभाव में जनता भीरू तथा खुदगर्ज हो गयी है। समाज की चेनता उत्पादन के तरीकों तथा उत्पादन संबंध पर निर्भर करती है। समाज की चेतना को उन्नत स्तर पर पहंुचाने के लिए मजदूरों को संगठित होकर, आम हड़तालों के द्वारा श्मशान की शांति को तोड़ना होगा। आज जनता भ्रष्टाचार तथा नैतिक पतन के खिलाफ लड़ रही है। उसके संघर्ष को उन्नत चेतना पर पहुंचाने के लिए मजदूरों को लामबंद करते हुए समाजवाद के संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा। और हमें इस मीडिया को समाज के सामने नंगा करना पड़ेगा। प्रगतिशील प्रचार के लिए अपने विकल्प चुनने होंगे।
योगेश गुड़गांव
पंतनगर विश्व विद्यालय में ठेका मजदूरों का शोषण जारी है
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
साथियो पंतनगर विश्व विद्यालय में दो हजार से लेकर पच्चीस सौ रुपये में ठेका मजदूर काम कर रहे हैं। न तो उनको समय से वेतन दिया जाता है और न ही उनको बोनस, ई.एस.आई., आवास भी नहीं दिया जाता है जब कोई मजदूर आवास के लिए कहता है तो यह कह कर मना कर दिया जाता है कि वह ठेकेदार के कर्मचारी है। और जब हम श्रम कल्याण अधिकारी से कहते हैं कि ‘सर जी हमारा ईपीएफ पर्ची और ईएसआई कार्ड बनाया जाये तो एकदम चुपचाप सुन लेते हैं और कोई जबाव नहीं देते हैं। जब हम कहते हैं कि मजदूरों से घरों पर बेगार कराया जाता है। उस पर रोक लगायी जाये तो एकदम चुप हो जाते हैं। चुप इसलिए हो जाते हैं क्योंकि उन मजदूरों से ये भी घरों पर बेगार करवाते हैं और प्रशासनिक अधिकारियों का भी यही रवैय्या है।
मनोज कुमार, सीआरसी, पंतनगर
जब मिल बैठेंगे दो यार मोदी और अमित शाह
खूब बोए-काटेंगें साम्प्रदायिकता की फसल
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
देश में सांप्रदायिकता का इतिहास काफी पुराना है। जब हिन्दुस्तान अंग्रेजों का गुलाम था। तब देश की जनता ने अंग्रेजों के जुल्मों-सितम से तंग आकर विरोध करना शुरू किया। लेकिन जैसे-जैसे जनता का विरोध बढ़ता गया वैसे-वैसे अंग्रेजों ने जनता को जाति धर्मों में बांटना शुरू कर दिया। ऐसा अंग्रेजों ने इसलिए किया ताकि हिन्दुस्तान की ध्न सम्पदा की लूट सुचारू रूप से जारी रखी जा सके। उस समय भी विदेशी लुटेरों का मकसद जनता की मेहनत को लूटना था न की विकास था। अंग्रेजों ने लूट को जारी रखने के लिए एक दूसरे के धर्म पर प्रहार करने के लिए धार्मिक ताकतों को पालने-पोसने का काम किया। लेकिन अंग्रेजों की कुटिल चालों के बावजूद मेहनतकश जनता ने अपने आपसी मतभेदों और अंग्रेजों की चाल को समझते हुए एक होकर अपने आपको विदेशी गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराया।
वर्तमान समय में देशी शासकों ने भी अंग्रेजों जैसी नीतियों व कानूनों को लागू रखा। इन जनविरोधी नीतियों का मेहनतकश जनता ने विरोध किया तो उसका पूरी बेरहमी से दमन किया गया। आजादी से लेकर आज तक का इतिहास हमें ये ही बताता है कमोवेशी सभी पूंजीवादी पार्टियों ने देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज किया। खास कर संघ द्वारा संचालित भाजपा पार्टी शुरू से मुस्लिम विरोधी पार्टी रही है। यह पार्टी हिन्दुत्व के मुद्दे पर राजनीति करती आई है। हाल ही में देश का प्रधानमंत्री बना मोदी पूंजीपतियों के लिए मजदूर-मेहनतकशों की मेहनत को लूटने के रास्ते को और सुगम बनाने का काम कर रहा है। और इसने जनता को लूटने की नीतियोें की शुरूआत कर दी है। मोदी का दाया हाथ जिगरी यार अमित शाह भी राष्ट्र नेता की श्रेणी में शामिल हो गया है। अमित शाह और मोदी की जोड़ी मिलकर देश में साम्प्रदायिक उन्माद को जन्म पहले से ज्यादा देगें शाह ने संघ कार्यकर्ताओं व नेताओं की बैठक शुरूकर दी है। पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए जिस तरह से नीतियां बनाई जा रही है। इसका परिणाम मजदूरों के संघर्षों को और बड़े पैमाने पर जन्म देगा। मजदूर-मेहनतकशों के संघर्षों को दबाने के लिए साम्प्रदायिकता को अपना हथियार बनाकर जनता को आपस में लड़ायेंगे। पूंजीवादी लोकतंत्र ऐसे साम्प्रदायिक माहौल बनाकर रखता है। पूजीपति वर्ग अपनी लूट खसोट को जारी रखने के लिए ऐसे नेताओं को तैयार करता है जो कट्टर घोर साम्प्रदायिक जहर उगलते हो। मेहनतकशों को एक दूसरे धर्म के खिलाफ भड़काकर लड़ाई को सही दिशा से भटकाकर रखना होता है। खूब बोए-काटेंगें साम्प्रदायिकता की फसल
जरूरत हमें इस बात की है कि मजदूर वर्ग को जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि हमें आपस में बांटने वाली राजनीति से बचायें। क्योंकि ऐसी राजनीति पूंजीपतियों की हमें लूटने के लिए होती है। हमें अपने आपको, मजदूर वर्ग को एकजुट होकर सम्भावित साम्प्रदायिक हमलों को फैलाने वाली ताकतों के खिलाफ पूरी मजबूती से लड़ने की जरूरत है। मजदूर वर्ग की मुक्ति का रास्ता दिखाने वाली विचारधारा माक्र्सवाद है। हमें इस विचारधारा को ग्रहण करने की जरूरत है। श्याम बाबू, हरिद्वार
फटा पोस्टर निकला जीरो
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
‘अच्छे दिन’ के नारे के साथ सत्ता पर काबिज हुई मोदी सरकार का पहला आम बजट कसौटियों पर खरा उतरने में नाकाम रहा। सत्ता में आने से पहले तमाम तरह-तरह के भाषण द्वारा लोगों की लुभाया गया। कि ‘अब की बार मोदी सरकार’, ‘सबके साथ सब का विकास’, ‘नई सोच नई दिशा’ तमाम तरह के वातावरण बनाकर मीडिया द्वारा रात-दिन प्रचारित-प्रसारित किया गया। करोड़ों रूपया पानी की तरह प्रचार-प्रसार में खर्च कर के आम सभा रैली कर के लोगों के दिलों और दिमागों में बसा दिया कि ‘अब की बार मोदी सरकार’ और ‘अच्छे दिन आयेंगे बुरे दिन जायेंगे, यह वातावरण फैला कर मोदी सरकार जनता को भ्रम में डाल कर रखे हुई है, महंगाई रोज बढ़ रही है, खाने के सामानों पर मूल्य वृद्धि रोज हो रही है। यह सरकार के नियत्रण के बाहर है। इस विषय पर किसी को चिंता नहीं है। सरकार आम जनता को गुमराह कर रही है। सरकार ने दो बजट संसद में पेश किये पहला बजट रेलवे का किया गया, दूसरा आम बजट ये मध्यम वर्ग और पूंजीवाद के लिए शुभ है अशुभ तो गरीब आम जनता के लिए है जो मेहनत मजदूरी कर के अपना गुजारा करता है उसे कुछ सुविधा नहीं मिली। टीवी, एलईडी, डेस्कटाप, लैपटाप इत्र और लाईफ माइक्रो पाॅलिसी चीजें सस्ती हुई लेकिन सस्ती रोटी का कहीं जिक्र नहीं हुआ बजट में देश को आम जनता केे फायदा पहुंचाने के बजाए पंूजीपतियों की भरपूर सहुलियत पर खास ख्याल रखा गया। खाद्य सामाग्री को सस्ता करने के लिए कोई उपाय नजर नहीं आया।
मगर पूंजीपतियों के लिए रास्ता जरूर आसान हो गया, सरकार ने कुछ क्षेत्रों में निजी काज करने का जो फैसला लिया है उससे वह पूंजीपतियों के लिए मुनाफे का भंडार खोल दिये हैं।
रेलवे के बजट में भी गरीब, मजदूर मेहनतकश लोगों के लिए खास कोई सहुलियत नहीं दी गयी। रेल मंत्री ने केवल गरीब और मेहनतकश जनता को केवल सपना दिखाया। वर्तमान रेल व्यवस्था है वह तो कम ही सुचारू ढंग से चलती है आए दिन दुर्घनाएं होते ही रहती है। कभी कर्मचारियों पर काम के दबाव की वजह से या कभी सिगनल के वजह से। आए दिन रेल गाड़ी में लूट-पाट, मार-पीट आम जनता के साथ होती रहती है। टिकट खिडकियों पर दलालों का कब्जा रहता है। यहां गरीब मेहनतकश लोगों को शिकार बनाया जाता है। माननीय रेल मंत्री जी आज जो बुलेट रेल गाड़ी का सपना दिखाये है वह लोगों के साथ मजाक करना जैसा है। वर्तमान व्यवस्था में तो आप कहते हैं कि रेलवे घाटे में चल रही है तो आप बुलेट टेªन का सपना कैसे साकार कर सकते हैं। संप्रग सरकार में एक बिहार के रेल मंत्री भी गरीब जनता के साथ मजाक खूब किया था। उसने एक ‘‘गरीब रथ’’ नाम से रेल गाड़ी चलाई, मगर उसमें चढ़ते थे अमीर लोग क्योंकि उसका भाड़ा ज्यादा है। गरीब आम मेहनतकश लागों के बस में नहीं है फिर वह गाड़ी का नाम रखा गया था गरीब रथ। यह गरीब जनता के साथ कैसा मजाक किया था रेल मंत्री ने। उसी तरह से आप की सरकार का अभियान जागरण चलाया जा रहा है जबकि यह कार्य वर्षों से चल रहा है। सब सरकार ने पैसे का बंदर-बांट मिल कर किया, लेकिन गंगा सफाई नहीं हुई और न होगी क्योंकि मौजूदा व्यवस्था पूरी भ्रष्ट है। इसमें आशा करना व्यर्थ है। सरकार आम जनता की महंगाई, बेरोगारी, भ्रष्टाचार से ध्यान भटकाकर अंधेरे में रखना चाहती है। रामकुमार, वैशाली
फटा पोस्टर निकला जीरो
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31 अगस्त, 2014)
‘अच्छे दिन’ के नारे के साथ सत्ता पर काबिज हुई मोदी सरकार का पहला आम बजट कसौटियों पर खरा उतरने में नाकाम रहा। सत्ता में आने से पहले तमाम तरह-तरह के भाषण द्वारा लोगों की लुभाया गया। कि ‘अब की बार मोदी सरकार’, ‘सबके साथ सब का विकास’, ‘नई सोच नई दिशा’ तमाम तरह के वातावरण बनाकर मीडिया द्वारा रात-दिन प्रचारित-प्रसारित किया गया। करोड़ों रूपया पानी की तरह प्रचार-प्रसार में खर्च कर के आम सभा रैली कर के लोगों के दिलों और दिमागों में बसा दिया कि ‘अब की बार मोदी सरकार’ और ‘अच्छे दिन आयेंगे बुरे दिन जायेंगे, यह वातावरण फैला कर मोदी सरकार जनता को भ्रम में डाल कर रखे हुई है, महंगाई रोज बढ़ रही है, खाने के सामानों पर मूल्य वृद्धि रोज हो रही है। यह सरकार के नियत्रण के बाहर है। इस विषय पर किसी को चिंता नहीं है। सरकार आम जनता को गुमराह कर रही है। सरकार ने दो बजट संसद में पेश किये पहला बजट रेलवे का किया गया, दूसरा आम बजट ये मध्यम वर्ग और पूंजीवाद के लिए शुभ है अशुभ तो गरीब आम जनता के लिए है जो मेहनत मजदूरी कर के अपना गुजारा करता है उसे कुछ सुविधा नहीं मिली। टीवी, एलईडी, डेस्कटाप, लैपटाप इत्र और लाईफ माइक्रो पाॅलिसी चीजें सस्ती हुई लेकिन सस्ती रोटी का कहीं जिक्र नहीं हुआ बजट में देश को आम जनता केे फायदा पहुंचाने के बजाए पंूजीपतियों की भरपूर सहुलियत पर खास ख्याल रखा गया। खाद्य सामाग्री को सस्ता करने के लिए कोई उपाय नजर नहीं आया।
मगर पूंजीपतियों के लिए रास्ता जरूर आसान हो गया, सरकार ने कुछ क्षेत्रों में निजी काज करने का जो फैसला लिया है उससे वह पूंजीपतियों के लिए मुनाफे का भंडार खोल दिये हैं।
रेलवे के बजट में भी गरीब, मजदूर मेहनतकश लोगों के लिए खास कोई सहुलियत नहीं दी गयी। रेल मंत्री ने केवल गरीब और मेहनतकश जनता को केवल सपना दिखाया। वर्तमान रेल व्यवस्था है वह तो कम ही सुचारू ढंग से चलती है आए दिन दुर्घनाएं होते ही रहती है। कभी कर्मचारियों पर काम के दबाव की वजह से या कभी सिगनल के वजह से। आए दिन रेल गाड़ी में लूट-पाट, मार-पीट आम जनता के साथ होती रहती है। टिकट खिडकियों पर दलालों का कब्जा रहता है। यहां गरीब मेहनतकश लोगों को शिकार बनाया जाता है। माननीय रेल मंत्री जी आज जो बुलेट रेल गाड़ी का सपना दिखाये है वह लोगों के साथ मजाक करना जैसा है। वर्तमान व्यवस्था में तो आप कहते हैं कि रेलवे घाटे में चल रही है तो आप बुलेट टेªन का सपना कैसे साकार कर सकते हैं। संप्रग सरकार में एक बिहार के रेल मंत्री भी गरीब जनता के साथ मजाक खूब किया था। उसने एक ‘‘गरीब रथ’’ नाम से रेल गाड़ी चलाई, मगर उसमें चढ़ते थे अमीर लोग क्योंकि उसका भाड़ा ज्यादा है। गरीब आम मेहनतकश लागों के बस में नहीं है फिर वह गाड़ी का नाम रखा गया था गरीब रथ। यह गरीब जनता के साथ कैसा मजाक किया था रेल मंत्री ने। उसी तरह से आप की सरकार का अभियान जागरण चलाया जा रहा है जबकि यह कार्य वर्षों से चल रहा है। सब सरकार ने पैसे का बंदर-बांट मिल कर किया, लेकिन गंगा सफाई नहीं हुई और न होगी क्योंकि मौजूदा व्यवस्था पूरी भ्रष्ट है। इसमें आशा करना व्यर्थ है। सरकार आम जनता की महंगाई, बेरोगारी, भ्रष्टाचार से ध्यान भटकाकर अंधेरे में रखना चाहती है। रामकुमार, वैशाली
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