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सम्पादकीय

हड़ताल से उपजे प्रश्न

वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    2 सितम्बर की हड़ताल का देश के कई हिस्सों में व्यापक असर रहा। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का दावा है कि इस हड़ताल में भाग लेने वाले मजदूरों की संख्या 15 करोड़ से अधिक थी। पूंजीपतियों के एक संगठन ने अनुमान जताया कि इस हड़ताल से 25 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। 
    हड़ताल का क्योंकि व्यापक प्रभाव पड़ा इसलिए उसे नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया था इसलिए हड़ताल के खिलाफ खूब डटकर दुष्प्रचार किया गया। कहा गया कि हड़ताल की वजह से जनता को भारी परेशानी हुयी मानो हड़ताल में शामिल मजदूर जनता न हो। कई अखबारों में ऐसे सम्पादकीय छापे गये जिनमें कहा गया कि हड़ताल करना गुजरे जमाने की बात (या चाल) हो गयी है। कि वामपंथी विचारधारा अप्रांसगिक हो गयी है कि हड़ताल विकास विरोधी है। कि हड़ताल प्रतिक्रियावादी है। 
    2 सितम्बर की हड़ताल इस मायने में भिन्न थी कि इसमें शामिल मजदूरों ने कई जगह जुझारूपन का परिचय दिया यद्यपि नेतृत्वकारी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का व्यवहार अनुष्ठानिक ही था। नेतृत्व के चरित्र ने इस हड़ताल को कुन्द बनाने का हर चंद प्रयास किया। हिन्दू फासीवादी संगठन से जुड़े भारतीय मजदूर संघ ने सबसे अधिक घृणित व्यवहार करते हुए दो-तीन दिन पहले हड़ताल से अपने को अलग कर लिया। नव उदारवादी नीतियों का विरोध तब तक सार्थक अर्थ और धार पैदा नहीं कर सकता जब तक मजदूर यूनियनें पूरी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने का फैसला न करें। समाजवादी समाज की स्थापना का संकल्प न लें। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का नेतृत्व ऐसा करने का न तो इरादा रखता है और न वे ऐसा करेंगे। व्यवस्था परस्त पार्टियों से संचालित होने के कारण ये अनुष्ठान, औपचारिकता, छल, पाखण्ड, आदि ही कर सकते हैं। और इसमें कोई शक नहीं कि इन्होंने ऐसा ही किया। 
    मजदूर वर्ग यहां तक कि उसके सबसे सुविधा सम्पन्न और अपनी सोच में पूंजीवादी हिस्से अभिजात मजदूरों ने भी अपने नेताओं से ज्यादा जुझारूपन का परिचय इस हड़ताल में दिया। अभिजात मजदूर वर्ग का हिस्सा नवउदारवादी नीतियों के इस युग में लगातार सिकुड़ रहा है और उसके सामने सुविधाओं और हैसियत खोने का भय व्याप्त है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के मजदूर-कर्मचारी इस सच्चाई को अब बहुत दूर की बात नहीं मानते हैं कि किसी दिन उनके उपक्रमों का विनिवेश हो जायेगा कि उनको शेष मजदूरों जैसे दिन देखने पड़ सकते हैं। इन अभिजात मजदूरों का हड़ताल में शामिल होने का एक प्रमुख लक्ष्य अपनी मध्यमवर्गीय हैसियत व जीवनशैली को बचाने का है। और यह सच्चाई है कि केन्द्रीय ट्रेड यूनियन का नेतृत्व शीर्ष से लेकर स्थानीय स्तर तक इन्हीं अभिजात मजदूरों से बना है। मजदूरों के इस अभिजात हिस्से की स्थिति सर्वहाराओं से एकदम भिन्न है। इनके पास खोने को बहुत कुछ है और इस बहुत कुछ को बचाने के लिए उनका संघर्ष देश की व्यापक सर्वहारा आबादी जो औद्योगिक केन्द्रों से लेकर देहात तक फैली है से एकदम भिन्न है। कुछ अर्थों में तो यह प्रतिक्रियावादी तक है। ये किसी भी तरह से यथास्थिति को बनाये रखना चाहते हैं। यथास्थितिवादी होने के कारण ये सचेत-अचेत ढंग से वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के पैरोकार बन जाते हैं। दुर्भाग्य से पूरे देश का संगठित मजदूर आंदोलन ऐसे ही अभिजात मजदूरों से बने नेतृत्व के हाथ में है। कई नेताओं का जीवन मध्यमवर्गीय भी न होकर खालिस अमीरों सा है। वे पूंजीपति वर्ग के राजनीतिज्ञों से किसी मायने में कम नहीं हैं और कई तो करोड़पति-अरबपति तक हैं ऐसे पूंजीकृत नेतृत्व से मजदूर वर्ग को क्या उम्मीद रखनी चाहिए। 
    मजदूरों के बीच में यह बेहद जानी पहचानी बात है कि हड़ताल उनका कोई शौक नहीं होता। हड़ताल पर मजदूर बेहद मजबूर होकर ही जाते हैं। आम तौर पर अपनी गिरती मजदूरी और बुरी होती कार्य व जीवन परिस्थितियां उन्हें मजबूर कर देती हैं कि वे हड़ताल पर जायें। सामूहिक सौदेबाजी पूंजीपति से करे और इतनी मजदूरी तो पा सकें जिससे वे और उनका परिवार किसी तरह जिंदा रह सके। अभिजात मजदूरों से एकदम भिन्न अर्थ आम मजदूरों के लिए हड़ताल रखती है। 
    हड़तालें मजदूर वर्ग के लिए संघर्ष की पाठशालाएं हैं। इस पाठशाला में मजदूर एकजुट होना, संघर्ष करना, अपने हालात का गहराई से विश्लेषण करना, समाज व्यवस्था के विभिन्न अंगों की भूमिका को समझना आदि चीजें सीखते हैं। सही और क्रांतिकारी नेतृत्व का दायित्व बन जाता है कि वह मजदूरों को बतायें कि उनके जीवन में बदलाव या उजरती गुलामी से मुक्ति हड़ताल से नहीं हो सकती है। कि मुक्ति के लिए आवश्यक है वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना। हड़तालें इस निर्णायक बिन्दु इंकलाब के लिए छोटी-बड़ी रिहर्सल हैं। जब हड़ताल इस दृष्टिकोण से लड़ी जायेंगी तब वे वाकई अनुष्ठान या औपचारिक न होकर पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ समर की घोषणा का हिस्सा बन जायेंगी। ऐसी हड़तालें पूंजीपति वर्ग की रूह को कंपा देंगी और वह अपनी पूरी राज्य मशीनरी के साथ मजदूर वर्ग पर हमलावर हो जायेगा। आराम तलब, आलसी, भीरू नेतृत्व ऐसे मौकों पर या तो किनारे लग जायेगा या फिर उसकी छिपी गद्दारी खुलेआम सामने आ जायेगी। आम मजदूर जान जायेंगे कि जिन्हें उन्होंने अपना नेता समझा वे तो पूंजीपति वर्ग के कारिन्दे हैं। वे उनको ऐसी हालत में पहुंचा देंगे कि वे मजदूर वर्ग की पांतों में घुसने की हिम्मत न कर सकें। 
    हड़तालें आज के समय में आम परिघटना बन गयी है। पूरी दुनिया में हाल के वर्षों में कई जुझारू हड़तालें हुयी हैं। दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, कम्बोडिया, बांग्लादेश से लेकर स.राज्य अमेरिका तक में। यूरोप के तो हर देश में हर रोज हड़तालें हो रही हैं। 2007 से शुरू हुए आर्थिक संकट ने दुनिया के हर देश को अपनी जद में लिया और उसने इन देशों के आम मजदूरों का जीवन काफी मुश्किल बना दिया। इन देशों में हाल के वर्षों में कई बार आम हड़तालें करने तक को मजदूर वर्ग मजबूर हुआ है। इन अर्थों में देखा जाए तो हड़तालें फिर एक बार से विश्व व्यापी परिघटना बन गयी है। पूंजीवादी अखबारों के कूपमंडूक सम्पादक हड़तालों को अप्रासंगिक, कालातीत आदि जो कुछ भी कह रहे हों परन्तु यह सच नहीं है। हड़ताल के बारे में यह इस वर्ग की मनोगत इच्छा है सच्चाई नहीं। सच यही है मजदूर वर्ग जब तक शोषित रहेगा तब तक वह हड़ताल करता ही रहेगा।  

आपका नजरिया-  हवाबाजों और हवालाबाजों से सावधान
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    केन्द्र शासित भाजपा की मोदी सरकार के सभी छोटे-बड़े नेता खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा 2014 के आम चुनाव में बुरी तरह पराजित कांग्रेस पार्टी के नेता खासकर सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी इस देश की मजदूर-मेहनतकश जनता को गुमराह कर रहे हैं। इनसे सावधान रहने की जरूरत है। दोनों पार्टियों के नेता ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ की तर्ज पर ही धोखा दे रहे हैं। मौजूदा दौर की खास बात यह है कि नेता जुमलों के सहारे एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं तथा वास्तविक मुद्दों को उठाने से बच रहे हैं। ये सभी जुमलों को गढ़ रहे हैं अथवा खोज रहे हैं। इस समय की मीडिया भी जिस पर जनता का भरोसा बढ़ा था, उपरोक्त कार्य में आड़े तिरछा मदद कर रही है। 
    हम सब जानते हैं कि पिछले आम सभा चुनाव में मोदी तथा इसके माई-बाप भाजपा व आरएसएस ने जनता से जो वादा किया था उसे पूरा करने में नकारा साबित हो रहे हैं। इनके वादों के संदर्भ में विपक्षी दल हल्ला मचा रहे हैं। काला धन का प्रत्येक खाते में 15 लाख रुपया देने के वादे को लेकर विपक्षी दल तथा मीडिया ने मोदी को घेरा तो भाजपा के सबसेे बदनाम और बेशर्म अध्यक्ष ने मोदी का बचाव करते हुए इसे चुनावी जुमला कहा। तबसे विपक्षी दलों ने मोदी सरकार को जुमलों की सरकार कहना शुरू किया। भाजपा की सरकार की सच्चाई को इसके अध्यक्ष अमित शाह ने उजागर कर दिया। 
    नरेन्द्र मोदी ने चुनाव में भ्रष्टाचार, खत्म करने, महंगाई पर ब्रेक लगाने, नौजवानों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने, विदेशों से काला धन लाकर हर परिवार को 15 लाख देने, किसानों को कर्ज से मुक्त करने आदि वादा पूरा करने का जनता को भरोसा दिया मगर पिछले 16 महीने बिताने के बाद भी यह सरकार अपना वादा पूरा करने में नाकाम रही है। कांग्रेस नकारात्मक तरीके से इसी को मुद्दा बनाकर सरकार पर मुहावरों के जरिये हमला कर रही है तो मोदी भी कांग्रेस के हमलों का ऐसे ही तरीकों से बचाव कर रहा है। आप दूसरे तरीके से भी कह सकते हैं कि जिस तरह मोदी ने जुमले के द्वारा जनता को गुमराह किया कांग्रेस भी उन्हीं जुमलों के सहारे जनता को गुमराह कर रही है। 
    एक बार मोदी ने राहुल को पप्पू कहा तो राहुल ने फेंकू कहा। मानसून सत्र में राहुल ने सुषमा से कहा कि भ्रष्टाचारी ललित मोदी ने अपने बचाव के एवज में कितना दिया तो सुषमा ने कहा कि राहुल अपनी मम्मा से पूछो कि बोफोर्स कम्पनी के मुखिया क्वात्रोची तथा भोपाल गैस त्रासदी का दोषी एण्डरसन ने कितना दिया। अभी सोनिया गांधी ने मोदी को हवाबाज कहा तो मोदी ने सोनिया एण्ड कम्पनी को हवालाबाज कह दिया। ऐसे जुमलों को पूंजीवादी मीडिया भी मिर्च-मसाला लगाकर परोस रहा है। 
    आज कांग्रेस और इनके नेता मोदी की नाकामियों पर जुमलों और मुहावरों से क्यों आलोचना कर रहे हैं। हम सब जानते हैं कि हमारा देश संविधान, कानून और नीतियों से चलता है। कांग्रेसी नेता मोदी की अर्थनीति पर क्यों नहीं बात करते हैं। मोदी भी निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण की उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ा रहा है जिन्हें कांग्रेस ने 1991 से देश की मेहनतकश जनता पर थोपा था। इन नीतियों पर चलकर टाटा, अम्बानी, अदाणी आदि पूंजीपतियों के ही अच्छे दिन आ सकते हैं। भाजपा और कांग्रेस में अंतर है तो मीठे जहर और तीखे जहर का, धीमे सुधार और तेजी से सुधार का। कथित धर्म निरपेक्षता की आड़ में चलने का तो धर्मनिरपेक्षता को रौंदकर चलने का। इनमें समानता ही समानता है तथा पूंजीपतियों की झोली भरी है। 
    कांग्रेस ने समाजवाद लाने तथा गरीबी मिटाने के नाम पर किया तो भाजपा ने 15 लाख देने तथा भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर कर रही है। दोनों ही पार्टियों के नेता भ्रष्टाचार में गले तक डूबे हैं। दोनों ने ही साम्प्रदायिकता की आग जलायी है। पूंजीपतियों की चाकरी करने वाली इन दोनों ही पार्टियों को बेनकाब करना होगा। पूंजीपतियों की लूट पर आधारित वर्तमान व्यवस्था को खत्म करके ही मजदूर मेहनतकश जनता के अच्छे दिन आ सकते हैं।           एम. प्रसाद दिल्ली

आपका नजरिया- रेल किसने बिछायी?
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    जब दिनांक 11 अगस्त 2015 को बरेली-कासगंज रूट पर बड़ी लाइन के उदघाटन की घोषणा हुई तो सत्ताधारियों को इस उदघाटन में भी फायदा नजर आने लगा और वे फायदा उठा ले गये। और केन्द्र से लेकर स्थानीय लग्गू-भग्गू तक इस अवसर का फायदा लेने से नहीं चूके। केन्द्र में सुरेश प्रभु ने दिल्ली से ही वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए तो, उद्घाटन स्थल से मनोज सिन्हा, संतोष गंगवार ने भूतपूर्व प्रधानमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री को इसका  श्रेय दिया। 
    लाइन बिछाने, पुल बनाने, सिंगलिंग वर्क, मिट्टी ढोने व अन्य सम्बन्धित काम करने वालों ने, शायद कुछ को धूप में, पानी में, जाड़े में, सारे मौसम की मार झेलनी पड़ी हो और पड़ी होगी। उनका नाम लेने वाला कोई नहीं था। कुछ ने ठेकेदारी में काम भी किया है। ठेके के श्रमिकों के जीवन की दास्तां तो आज किसी से छिपी नहीं कि मालिक को जरूरत पड़े तो काम पर रख लेता है। अन्यथा बेकार वस्तु की तरह कार्यस्थल से बाहर फेंक देता है। इन सबको उदघाटन के समय पूछने वाला कोई नहीं। होना तो यह चाहिए था कि जितने भी श्रमिक उस काम को करने में लगे थे, हर एक के नामों की सूची यादगार धरोहर के रूप में रख देना चाहिए था और जिन्हें आने वाली पीढ़ी इतिहास में याद किया करती। परन्तु यहां तो करे कोई खाए कोई वाली समाज व्यवस्था में श्रमिक को तो हेय दृष्टि से देखा जाता है। 
    हो भी क्यों नहीं, जहां समाज दो हिस्सों में बंटा हो, एक शासक दूसरा शोषित। शासक भी ऐसा कि कंस भी मात खा जाये। शासक के हाथ में सारी शक्ति संगठित हो चुकी है, जनमानस अचेत है। इसका निपटारा तो जनचेतना के विकास में है। हालांकि आम जन में छटपटाहट के बीज अंकुरित हो रहे हैं। केवल खाद पानी देने की जरूरत है।               देवसिंह बरेली 

आपका नजरिया-श्वान की टेड़ी पूंछ कभी सीधी न हो पाए...
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
सुन्दरता जो मन को भाए हुस्न वही कहलाए
फिर भी जिस्म की पैमाइश से मिसवल्र्ड बन जाए
/
शब्दों का अम्बार लगा पर प्रेम न लिक्खा जाए
गूंगे का गुड़ है तो कैसे स्वाद कोई बतलाए
/
सच न सुनना चाहें जो उनको क्या समझाए
श्वान की टेढ़ी पूंछ कभी सीधी न हो पाए
/
दुनिया के भेदों को ढूंढे खुद को ढूंढ न पाए
पार न पाया भेद कोई दर्शन जो भी कहलाए
/
हनी सिंह की औलादें क्यों भगत सिंह बन जाए
बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाए
/
नैनन के मोती से गूंथे दिल में दर्द जगाए
जिसकी हो परवाज गगन तक कवि वही कहलाए
         मरियम उस्मानी बाया ई मेल

सम्पादकीय

समस्यायें और उनके प्रति नजरिया
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    हमारे समाज में बेशुमार समस्यायें हैं। ये समस्यायें आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, आत्मिक सभी तरह की हैं। आम अहसास यही है कि हमारे समाज की समस्यायें हल होने के स्थान पर रोज-ब-रोज गहराती जा रही है। 
    समाज की अधिकांश समस्याओं के बारे में आम लोग अपनी-अपनी राय रखते हैं परन्तु ‘वे कुछ कर नहीं सकते’ का बोध बहुत गहरा है। अधिकांश लोग जब इन समस्याओं के बारे में सोचते हैं तो वे उसी भाषा में उसी तरह से सोचने लगते हैं जैसा उन समस्याओं के बारे में समाज के ‘प्रभु वर्ग’ की समझ और व्याख्या होती है। ऐसा क्यों होता है का जवाब बेहद आसान है। 
    हमारे समाज में प्रभु वर्ग के नजरिये को स्थापित करने के लिए उनका अपना पूरा तंत्र है। प्रभु वर्ग के पास वे सब साधन हैं जिनके जरिये वे अपने नजरिये को पूरे समाज में स्थापित कर सकें। और जैसे-जैसे नये-नये साधनों, उपकरणों का आविष्कार हुआ वैसे-वैसे शासक वर्ग के लिए बहुत आसान हो गया कि वह अपना वैचारिक, सांस्कृतिक, आत्मिक प्रभुत्व पूरे समाज में कायम कर सके। लोकमत को ऐसे संचालित करे कि वह यह समझ ही ना पाये कि किसी समस्या को देखने, समझने, हल करने का नजरिया उसके नजरिये से एकदम भिन्न, वैज्ञानिक और आमूल परिवर्तनवादी भी हो सकता है। 
    हमारे समाज में समस्याओं के बारे में देखने का शासक वर्ग का नजरिया क्या है इसे हाल की कुछ प्रमुख घटनाओं में देखा जा सकता है। ये सब घटनाएं ऐसी हैं कि इसने हमारे समाज को प्रभावित किया और कम या ज्यादा लोगों की चर्चा का विषय बनी हुयी हैं। 
    24 अगस्त को सोमवार के दिन भारत सहित पूरी दुनिया के बाजारों में हाहाकार मच गया। 25 अगस्त की सुबह भारत के अखबारोें ने खबर दी कि अकेले भारत के शेयर बाजार में सात लाख करोड़ रुपये डूब गये। पूरी दुनिया में शेयर बाजार के डूबने से भय और आशंका की लहर फैल गयी। शासकों ने एक से बढ़कर एक आश्वासन दिये। इस घटना के बाद जो कदम उठाये गये, जो इस समस्या के कारण गिनाये गये वे इस बात को साबित करते हैं कि कैसे प्रभु वर्ग और उसमें भी वित्तीय महाप्रभु के ही हितों को आम हितों के रूप में पेश किया जाता है। उनके नुकसान को देश के नुकसान के रूप में पेश किया जाता है। और ऐसे उपायों का देश का हित या विकास बताया जाता है जिनसे प्रभु वर्ग की दौलत में असामान्य और तेज गति से मुनाफा है। भारत के वित्त मंत्री, रिजर्व बैंक के गवर्नर सभी एक साथ कूद पड़ते हैं और घोषणा करते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था के सभी मूल तत्व सशक्त हैं। आगे भविष्य उज्जवल है। 
    इस घटना से क्या नजरिया सामने आता है। यही कि जो प्रभु वर्ग और उसमें भी खासकर वित्तीय महाप्रभु के हित हैं वही देश के हित हैं। उसके साथ जो समस्यायें हैं वे तात्कालिक हैं और आगे सब कुछ सुरक्षित है। क्या यह सच है। क्या भारतीय समाज की मौजूदा आर्थिक समस्याओं का समाधान ऐसे हो सकता है। भारत की गरीबी, बेरोजगारी, असमानता, उत्पादक शक्तियों का निम्न विकास और उसकी परनिर्भरता ऐसे रास्ते से हल हो सकती है जिसका ध्येय वित्तीय महाप्रभुओं की पूंजी और मुनाफे को सुरक्षित करना ही हो। 
     राजनैतिक क्षेत्र में भारत-पाकिस्तान के सम्बन्धों में घटी घटनाओं पर गौर फरमाया जाय तो क्या जिस रास्ते पर भारत और पाकिस्तान के शासक चल रहे हैं उससे क्या कभी ऐसा हो सकता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच स्थायी शांति हो सके। सीमा पर तनाव न हो और आम नागरिक सेना के हमलों या प्रायोजित आतंकवाद में न मारे जायें।
    सामाजिक क्षेत्र में गुजरात में आरक्षण की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन और उससे निपटने के तौर पर गौर करें तो हम पायेंगे कि हमारे शासकों का समाज की समस्याओं को हल करने का नजरिया और तौर-तरीके क्या हैं? और वे ऐसा ही व्यवहार क्यों करते हैं या ऐसा करने को क्यों अभिशप्त हैं। 
    बुनियादी कारण तो यही है कि शासकों व शासितों के हित एकदम विपरीत हैं। अपने हितों को पूरे समाज के हित बताकर शासक वर्ग एक समय तक तो कामयाब हो सकता हैै परन्तु ऐसा वह हमेशा के लिए नहीं कर सकता। इतिहास इस बात का गवाह है कि ऐसा लम्बे समय तक के लिए भी हो सकता परन्तु हमेशा के लिए नहीं हो सकता। 
    समाज की समस्याओं के प्रति शासकों का नजरिया बेहद तात्कालिक, क्षुद्र, तकनीकी या प्रशासनिक, अपने हितों के प्रति आग्रही होने के कारण अंधता का शिकार होता है। वह एकांगी, कटा-फटा, संकीर्ण होने को अभिशप्त है। 
    असल में वह समस्याओं के समाधान के प्रति वैज्ञानिक और ऐसा नजरिया अपना ही नहीं सकता जो समस्याओं का वास्तविक और स्थायी समाधान पेश कर दे। ऐसा करने का अर्थ होगा कि वह वहां तक जाये जहां तक वह यह समझ सके कि वह ही सभी समस्याओं के केन्द्र में है। असल में वही सबसे बड़ी समस्या है। समस्याओं के समाधान पर जैसे ही हम गहराई से विचार करेंगे वैसे ही पायेंगे कि समस्याओं को हल करने के लिए उसे ही पहले रास्ते से हटाना होगा। 
    ऐसे में यह कैसे हो सकता है कि वह अपने आप को सजा दे। अपने हितों को त्याग दे। अपनी व्यवस्था जो कि पूंजी और मुनाफे के तर्क से संचालित है उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दे। या दूसरे शब्दों में एक वर्ग के रूप में अपने अस्तित्व को मिटा दे क्योंकि वह यह नहीं कह सकता है कि वह एक फालतू वर्ग है कि वह समाज पर बोझ है कि वह मानवजाति के लिए अब अभिशाप बन चुका है। तो वह सब कुछ इसका उल्टा साबित करना चाहता है। वह यह साबित करना चाहता है कि उसके बगैर पूरी दुनिया ठप्प हो जायेगी। दुनिया का अंत हो जायेगा। क्योंकि उसको अपना अंत दुनिया का अंत लगता है तो उसका ऐसा कहना, सोचना लाजिमी है। इसलिए वह अपने नजरिये को आम नजरिया बनाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा देता है। अपनी पूरी ताकत, पूरा तंत्र इस काम में झोंक देता है कि पूरा समाज वही और वैसे ही सोचे जैसा वह सोचता है। उन्हीं को अपने हित माने जो उसके हित हैं। 
    समाज के प्रभु वर्ग पूंजीपति वर्ग का ऐसा सब कुछ करने के बावजूद, पूरा ऐसा प्रबंधन करने के बावजूद कि उसकी सोच व हित से अलग कुछ न देखा जाये न कुछ किया जाये समाज और जीवन में घटने वाली घटनाएं इसका उल्लंघन कर देती हैं। समस्याएं इतनी विकराल होेने लगती हैं कि उन पर प्रभु वर्ग का नियंत्रण नहीं रह जाता। उसके काबू से बाहर हो जाती हैं। ऐसे में वह बदहवास हो जाता है और जंगली जानवर की तरह व्यवहार करने लगता है। खून का प्यासा हो जाता है और अंततः ऐसे मुकाम पर पहुंच जाता है जहां उसका अस्तित्व मांग कर रहा होता कि उसे समाप्त कर दिया जाए। 
    पूरी दुनिया सहित भारत में आज वक्त की यही मांग है कि समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक व आमूल चूल परिवर्तनवादी रवैय्या अपनाया जाय। प्रभु वर्ग को हर तरह से हर जगह चुनौती दी जाए। ऐसी परिस्थिति तैयार की जाए जहां वक्त की मांग पूरी की जा सके। उस वर्ग को समाज के पटल से मिटा दिया जाए जो अब हर तरह से समाज पर बोझ है।   
आपका नजरिया-    ‘‘माननीय’’ मुलायम सिंह को बैन किया जाये 
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
       लाल टोपी पहन कर समाजवाद को बदनाम करने वाले, अपने को समाजवादी कहने और लिखने वाले मुलायम सिंह कौन-से समाजवादी हैं और कौन से समाजवाद की बात करते हैं? यह तो आज तक हमारी समझ में नहीं आया। लेकिन आये दिन बलात्कारियों के पक्ष में बयान देने वाले ये समाजवादी रूस या चीन वाले समाजवादी तो कतई नहीं हैं। हां, ये समाजवाद की नेमप्लेट लगाकर, लाल टोपी पहनकर समाजवाद के नाम से रोटी जरूर तोड़ रहे हैं। अरे नहीं-नहीं, ये तो बहुत कम करके आंकना हो जायेगा। वे समाजवाद के नाम से अपने महल बना व भर रहे हैं। उनका यह कहना कि ‘‘गैंग रेप करना संभव नहीं है, यह प्रेक्टिकल नहीं है। अक्सर ऐसा होता है कि अगर एक आदमी रेप करता है, और ...... अगर चार भाई होते हैं तो चारों का नाम लिया जाता है।’’ इससे पहले भी ‘‘माननीय’’ मुलायम सिंह बलात्कार के ही मामले में ‘‘लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाती है’’ जैसा महिला विरोधी बयान दे चुके हैं। जिसकी निन्दा सिर्फ महिलाओं ने नहीं बल्कि विपक्ष व अन्य पार्टियों के नेताओं ने भी की थी। जरा गौर करें कि क्या महिलाओं के संबंध में इस तरह की सोच रखने वाले मुलायम सिंह संसद में बैठे बलात्कारियों व बलात्कार जैसे अपराधों से घिरे नेताओं, सांसदों, विधायकों, मंत्रियों-संत्रियों का पक्ष नहीं ले रहे हैं। ऐसा करके वे बलात्कारियों के हौंसले नहीं बढ़ा रहे हैं, जो पहले से ही बुलंद हैं और महिलाओं के बचाव में आये किसी भी शख्स की हत्या तक कर दे रहें हैं। मुलायम सिंह केवल उन अपराधियों की ओर से प्रवक्ता बन कर नहीं बोल रहे हैं बल्कि उन मंत्रियों-संत्रियों का भी पक्ष-पोषण कर रहे हैं जो संसद और विधान सभाओं में बैठे हैं। क्या इन्हीं विचारों व उनका प्रदर्शन करने के कारण, संविधान द्वारा महिलाओं को दिये गये समानता व सम्मान के अधिकार का उल्लंघन किये जाने के कारण ‘‘माननीय’’ मुलायम सिंह को प्रतिबंधित या बैन नहीं कर दिया जाना चाहिए? क्योंकि बी. बी. सी. द्वारा बनाई गई डाॅक्यूमेन्टरी फिल्म ‘इंडियाज डाॅटर’ को यही कहकर प्रतिबंधित कर दिया गया कि उसमें बलात्कारी का इन्टरव्यू दिखाया गया है जिसमें बलात्कार के अपराधी के विचारों को भी विस्तार से दिखाया गया है, जो कि महिला विरोधी हैं। 
राज्य के तथाकथित बड़े नेताओं द्वारा इस तरह के बयान अपराधियों पर पुलिस की कार्रवाई को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।  एक अपराधी के बयान के कारण भारत सरकार एक फिल्म को बैन कर देती है, जबकि उसी तरह के बयान पर नेताओं को खुला छोड़ देती है, अगले बयान देने के लिए। ‘‘माननीय’’ मुलायम जी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में उसकी आबादी के हिसाब से अन्य राज्यों से कम अपराध होते हैं, जबकि असल में सरकारों द्वारा अपराध कम या ज्यादा कह कर अपराधों पर परदा डाला जाता रहा है। अपराधों पर परदा ड़ालने के बजाय राज्य व केन्द्र सरकारों को अपराधियों व अपराधों पर लगाम लगाने के लिए प्रयास किये जाने चाहिए। महिलाओं यानी आधी आबादी के संबंध में यह विचार राज्य के पूर्व मुखिया व वर्तमान मुख्यमंत्री के पिता हैं, जो कि एक ‘‘राजनीतिक’’ व्यक्ति कहलाये जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनके अन्य नेताओं, मंत्रियों व राज्य की आम जनता किस तरह इन विचारों से लैस होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।  
    इस तरह के अपराधों के संबंध में लगभग सारी ही केन्द्र व राज्य सरकारों ने आज कल एक और तरीका अपनाया हुआ है- मुआवजा। क्या मुआवजा देने से किसी भी अपराध की गंभीरता को कम किया जा सकता है? यह भी एक सवाल है जिस पर सोचा जाना चाहिए। इसके अलावा महिलाओं पर की जाने वाली अभद्र टिप्पणियों व संविधान द्वारा दिये गये अधिकारों को छीनना या उनका अपहरण करना अपराधों की श्रेणी में आना चाहिए। महिलाओं के लिए असम्मानजनक टिप्पणी करने वालों को बैन किया जाना चाहिए। 
लेकिन यह सब करने की उम्मीद उन लोगों से नहीं की जा सकती, जो खुद इन अपराधों के भागी व हामी हों। न ही मुनाफे के इर्द-गिर्द घूमने वाली पूंजीवादी सरकारें इस काम को करने के लिए आगे बढ़ेंगी। महिलाओं समेत देश का हर नागरिक, छोटे से छोटा बच्चा भी अपने अधिकारों को पा सके इसके लिए मेहनतकश, मजदूरों व महिलाओं को आगे आना होगा और इस सत्ताधारी, मुनाफाखोर पूंजीपति वर्ग से संघर्ष कर अपने सम्मानपूर्ण जीवन के अधिकार को छीनना होगा।  
        हेमलता, दिल्ली

आपका नजरिया-  नागरिक में एकरूपता है
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
प्रिय बंधु 
    आप की पाक्षिक ‘‘नागरिक’’ मिल रही है। किन्तु कभी अप्रैल में पहले मिला था फिर अब जुलाई में मिला है। मैं इसलिए ही ग्राहक बना था कि आपकी पत्रिका को मैं स्वाधीनता (सा.) और ‘‘हुंकार’’,  विप्लव(मा.) पत्रिकाओं का विकल्प मानता हूं। लिखना इसलिए बंद है कि हाथों को पार्किन्सन ने इतना कार्य के अयोग्य बना दिया है कि लिखना-पढ़ना बंद है। ऐसा लेखन हो गया है कि दर्जा दो का भी इतना बेकार नहीं लिखता। क्या करूं। कहां जाऊं। 
    आप की ‘‘नागरिक’’ पत्रिका में एकरूपता है। जबकि पाठक पत्रिका में विविधता चाहते हैं। उसमें एक दो कहानी, दो-चार कविताएं, गजल गीत हों फिर भले ही आधी पत्रिका में अपनी अन्य सामग्री छापें। ऐसा नहीं कि प्रारम्भ में तीन समाचार, एक दो इधर-उधर के फिर सम्पादकीय एक दो आलेख ..मित्रों के बिना नाम गरमागरम बाकी पत्रिका के आधे पृष्ठों में मजदूर हड़ताल और विभिन्न फैक्टरियों के मजदूरों के शोषण के विषयों के समाचार विवरण। जबकि आज का मीडिया मात्र उद्योगपतियों एवं समाज का आइना लगता है। टिप्पणी ‘‘आज के मीडिया’’ पर लिख रहा हूं। आज की मीडिया 6 प्रमुख विषयों पर केन्द्रित रहा है। 1. कारपोरेट, 2. क्रिकेट 3. सिनेमा 4. कोमेडी(मजाक, मनोरंजन), 5.क्राइम 6. साहित्य। इन मुद्दों को अपने ...अपना चाहिए। आप एक-एक विषय पर ही दें। 
            आपका मदन मोहन ‘उपेन्द्र’              
          सम्पादक सम्यक, आगरा  
  
आपका नजरिया-   आवाज
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
उसे चुप रहने दो
सकूते-मर्ग1 सी ये खामोशी
होठों पे जमी रहने दो
खाक-ए-जबीं2 से पुररौशन
बिखरी जुल्फों की तीरगी
ठगी आंखों में तैरता
सुनसान दरिया
अधखिली नज्मों से टपकता
सुर्ख लहू पैहम3
यों ही चुपचाप
कागज पे बहने दो
उसे चुप रहने दो
कि ये बेजा4 शोर-ए-ज़ीस्त5
उसकी सोती नींदों को तोड़ देगा
और वो चीख उठेगी
सच जानों फिर
उसकी एक एक आवाज
सूरे इसराफील6 का जहर होगी 
    मरियम उस्मानी बाया ई मेल
1.सकूत-ए-मर्ग=मौत का सन्नाटा
2.खाक-ए-जबीं=मस्तक की धूल
3.पैहम=लगातार
4.बेजा=अनुचित
5.ज़ीस्त=जीवन
6.सूरे इसराफील=इसराफील फरिश्ते द्वारा प्रलय 
उदघोष

सम्पादकीय



दक्षिण पंथियों की जल्लादी मानसिकता
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    याकूब मेमन को फांसी के सिलसिले में एक बार फिर यह देखने में आया कि दक्षिणपंथी सोच के लोग जल्लादी मानसिकता के होते हैं। वे बड़े अपराध के लिए अपराधियों को फांसी चढ़ाने या मौत की सजा देने के पक्षधर होते हैं। वे आमतौर पर ही अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा देने के पक्ष में होते हैं। उनके अनुसार इसी से अपराधों को रोका जा सकता है और समाज को सुरक्षित बनाया जा सकता है।
    दक्षिणपंथी सोच की यह परिघटना वैश्विक है भारत के दक्षिणपंथी कोई अपवाद नहीं हैं। वे एक सामान्य प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं।
    एक राजनीतिक सोच के तौर पर दक्षिणपंथी वे लोग होते है जो समाज में कोई आगे की ओर बदलाव नहीं चाहते। वे या तो यथास्थिति के हामी होते हैं या फिर यदि वे कोई बदलाव चाहते हैं तो पुराने समाज की ओर या पीछे की ओर। खासकर धार्मिक कट्टरतावाले दक्षिणपंथी पुराने सामंती जमाने की ओर जाना चाहते है। जब उनके अनुसार उनके धार्मिक समाज का स्वर्ण युग था। यह भाजपा किस्म के संघी दक्षिण पंथियों के लिए भी सच है जो मध्यकालीन सामंती हिन्दू समाज- सनातन धर्म को अपना आदर्श मानते हैं।
    इन धार्मिक दक्षिणपंथियों के लिए उनके मध्यकालीन सामंती धर्म को छोड़कर समाज केवल बिगड़ा ही है। वे इस परिवर्तन को पानी पी-पीकर कोसते हैं। और जब प्रगतिशील लोग सार्वजनिक जीवन में धर्म की रही-सही भूमिका को भी खत्म करने की मांग करते हैं तब इन्हें लगता है कि प्रलय आ जायेगी। उनकी इच्छा वर्तमान समाज को सामंती युग में वापस ले जाने की होती है।
    सामंती जमाने में न्याय की धारणा एकदम सीधी थी- धन के बदले धन, अंग के बदले अंग और जान के बदले जान। लेकिन इसमें सामंती जमाने के श्रेणीक्रम के अनुसार सजा का पैमाना भी बदलता था। ब्राहमण और शूद्र के लिए एक ही अपराध के लिए सजा के अलग-अलग प्रावधान थे।
    सामंती जमाने के इस न्याय में अपराधी के भविष्य में सुधर जाने की कोई धारणा नहीं थी। इसलिए कैद केवल राजा के शत्रुओं के लिए ही थी। इसीलिए बाकी अपराधी सजा पाकर मुक्त हो जाते थे- कुछ तो दुनिया से ही। स्वभावतः इन सबमें अपराध के लिए व्यक्ति को ही जिम्मेदार माना जाता था।
    इस तरह धार्मिक कट्टरपंथी सोच वाले दक्षिणपंथी अपनी समग्र सामंती सोच के कारण ही अपराध और अपराधियों के मामले में जल्लादी मानसिकता के होते हैं। और जब समाज की प्रगति उनकी सोच पर लगातार प्रहार करती है तो वे बिलबिला उठते हैं। वे और ज्यादा प्रतिशोधी हो जाते हैं।
    इस तरह के धार्मिक कट्टरपंथी दक्षिणपंथी आज के धर्मनिरपेक्ष दक्षिणपंथियों से घुल मिल गये हैं। इसका भी कारण है। दक्षिणपंथी आज के सड़े-गले पूंजीवादी समाज को बचाना चाहते हैं। वे इसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। इसी कारण उन्हें धार्मिक कट्टरपंथ को प्रोत्साहन देने में भी कोई परेशानी नहीं है। साम्राज्यवादी पूूंजीपति जहां सारी दुनिया में धार्मिक कट्टरपंथियों को पाल-पोष रहे हैं और प्रश्रय दे रहे हैं वहीं अपने देशों में भी।
    दक्षिणपंथी अपनी पतित व्यवस्था को बचाना चाहते हैं। वे उसके खिलाफ उठने वाली आवाज को दबाना चाहते हैं। वे इसे वैचारिक तौर पर भी करते हैं और भौतिक तौर पर भी।
    वे व्यवस्था के खिलाफ सीधे खड़े होने वाले लोगों को देशद्रोही, राजद्रोही या आतंकवादी कहकर उसका दमन करते हैं। वे व्यवस्था से परेशान लोगों या व्यवस्था से पैदा हो रही विकृतियों के शिकार लोगों यानी आम अपराधियों का भी दमन करते हैं। हालांकि दोनों प्रकार के अपराधों के लिए वे अलग-अलग बात करते हैं पर अंततः उनका तर्क व्यक्ति पर केन्द्रित हो जाता है। वे बताते हैं कि अपराध के लिए व्यक्ति ही जिम्मेदार है।
    अपराध के लिए ऐसा तर्क दक्षिणपंथियों की मजबूरी है। यदि अपराध के लिए व्यक्ति को जिम्मेदार नहीं ठहराया जो इसका केवल एक मतलब निकलता है- अपराध के लिए समाज या सामाजिक व्यवस्था जिम्मेदार है। और यदि अपराध के लिए सामाजिक व्यवस्था जिम्मेदार है तो अपराध तभी समाप्त हो सकते हैं जब सामाजिक व्यवस्था को बदला जाये। दक्षिणपंथी इसे कभी नहीं स्वीकार कर सकते क्योंकि वे दक्षिणपंथी होते इसलिए है कि यथास्थितिवादी होते हैं। वे व्यवस्था में आगे की ओर बदलाव के विरोधी होते हैं।
    इस तरह जल्लादी मानसिकता दक्षिणपंथियों के खून में होती है जो संगीन मौके पर अपना नंगा नाच करने लगती है।
    दक्षिणपंथियों के ठीक विपरीत वामपंथियों को अपराध के लिए सबसे पहले वर्तमान व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करना चाहिए।
सम्पादकीय


अनिवार्य मतदान का विरोध जरूरी
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    गुजरात सरकार ने स्थानीय निकाय चुनाव में मतदान करना अनिवार्य बनाते हुए मतदान न करने पर 100 रु. जुर्माना भरने का प्रावधान तय कर दिया है। सरकार इस प्रावधान को और कड़ा बनाते हुए मतदान न करने वालों को विभिन्न सरकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित करने पर विचाररत है। हालांकि पहले सरकार का इरादा 500 रुपये जुर्माना तय करने का था पर विरोध की आशंका के मद्देनजर इसे फिलहाल 100 रु. रखा गया है। विकलांग, बीमार, 75 वर्ष से अधिक के वृद्ध, परीक्षा-इंटरव्यू में व्यस्त लोगों, शादी, अंतिम संस्कार या मेडिकल इमरजेंसी में फंसे लोगों, गुजरात में चुनाव वाले दिन नामौजूद लोगों, ट्रांसफर पर दूसरी जगह जा चुके कर्मचारियों आदि को इस प्रावधान से मुक्त रखा गया है।
    अनिवार्य मतदान की मांग तभी से प्रमुखता से उठने लगी थी जब अदालत के आदेश पर नोटा का विकल्प शामिल कर लिया गया था। तब से सत्ताधारी भाजपा के आडवाणी से लेकर अन्य नेता इसकी वकालत करने लगे थे कि अब चूंकि जनता को प्रत्याशियों में से किसी को भी नहीं चुनने का हक मिल गया है अतः जनता के लिए मतदान अनिवार्य कर देना चाहिए।
    अब भाजपा सरकार गुजरात में इस प्रयोग को कर इसे बाकी जगहों पर लागू करने का प्रयास करेगी। इससे पूर्व तक सरकारें दूसरे तौर-तरीकों से मतदान को जरूरी साबित करने का प्रयास करती रही हैं। वे प्रचार माध्यमों, स्कूलों में, रैलियों आदि का इस्तेमाल कर मतदन को देशभक्ति या देशप्रेम का काम साबित करती रही है। हालांकि सरकार के भारी भरकम खर्च के बावजूद कभी आधी तो कभी 30-40 फीसदी जनता वोट डालने नहीं जाती रही है। वोट न डालने वालों में लाइन में खड़ा होने के बजाय छुट्टी मनाने वाले मध्यम वर्ग से लेकर मतदान के दिन भी रोजी कमाते मजदूर, घर की चाहरदीवारी से कभी बाहर न जाने वाली औरतों से लेकर चुनाव नाटक में यकीन न करने वाले सचेत लोग सभी शामिल होते हैं।
    अब गुजरात सरकार सबसे वोट डलवाने पर उतारू है। अब वोट डालना देशभक्ति का प्रचार नहीं, बल्कि वोट न डालना अपराध है, का प्रचार किया जायेगा। इस प्रावधान का खामियाजा गरीब मेहनतकश जनता भुगतेगी जिसके लिए 100 रु. का जुर्माना या किसी सरकारी योजना से नाम कटना बड़ी बात होगी। इस भय से उसे मजबूरन वोट डालने जाना पडे़गा। खाता-पीता मध्यम वर्ग या पूंजीपति वर्ग अभी भी आराम से 100 रु. सरकार के मुंह पर मार छुट्टी मनायेगा।
    यहां यह स्पष्ट रहे कि वोट डालने के अधिकार के साथ हमें अभी तक वोट ना डालने का अधिकार मिला था। अब सरकार इन दोनों अधिकार को रद्द कर वोट डालना मजबूरी बनाने पर तुली है। इस बहाने सरकार मत प्रतिशत बढ़ा कर लोकतंत्र पर जनता के विश्वास का ढिंढोरा पीटना चाहती है। साथ ही भाजपा यह महसूस करती है कि वोट न डालने वाला मध्यम वर्ग अगर वोट डालने आयेगा तो उसको ही वोट डालेगा।
    जनवाद के तमाम अन्य प्रावधानों के अपहरण की तरह फासीवादी सोच से चलने वाली सरकार का यह कदम भी जनवाद को सीमित करता है। इसीलिए जरूरी है कि अपने वोट डालने या ना डालने के हक को वोट डालने की मजबूरी में बदलने से रोका जाय। अनिवार्य मतदान के खिलाफ खड़ा हुआ जाए।

आपका नजरिया-  पुलिस ‘‘ठुल्ला’’ नहीं होती
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल हमेशा कुछ का कुछ बना देते हैं तथा जनता को गुमराह करते हैं। इस कला में वह माहिर हो चुके हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने दिल्ली पुलिस को ‘ठुल्ला’ बता दिया। ठुल्ला का मतलब है- आलसी, अकर्मण्य तथा बेकार। इस कथित शब्द को लेकर दिल्ली पुलिस ने कड़ी प्रतिक्रिया दी तथा इसे गलत करार दिया। ‘ठुल्ला’ कहे जाने से गोविन्दपुरी थाना के एक सिपाही ने केजरीवाल पर मानहानि का मुकदमा कर दिया। सिपाही ने आरोप लगाया कि इस टिप्पणी से पूरे पुलिस महकमे का अपमान हुआ है। मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की टिप्पणी से परिवार, रिश्तेदार और दोस्तों की नजरों में उनकी छवि खराब हुई है। सिपाही ने आरोप लगाया है कि केजरीवाल ने पूरे दिल्ली पुलिस का अपमान किया है। 
    दिल्ली पुलिस के सिपाही द्वारा केजरीवाल पर लगाया गया आरोप कितना सही है या गलत यह तो अदालत ही बतायेगी किन्तु दिल्ली पुलिस ‘ठुल्ला’ है, इससे मैें सहमत नहीं हूं। आप थाने चले जाइये या दिल्ली पुलिस को सड़क पर देखिए अपने हितों के अनुरूप वह हमेशा एक्ट करती हुई मिलेेगी। पुलिस की नौकरी बिना चढ़ावा के तो मिलती नहीं फिर ईमानदारी से काम करना भी कठिन है। वैसे भी पुलिस कानून का पालन भी अपनी मर्जी से नहीं करती उसे अपने आला अधिकारियों के आदेश के मुताबिक काम करना पड़ता है। आला अधिकारी भी अपने विभाग से संबंधित आला मंत्रियों और सरकार के आदेशों-निर्देशों के मुताबिक काम करता है। हां! पुलिस हमेशा व्यस्त रहती है। 
    कभी सी.एम. ड्यूटी तो कभी पी.एम. ड्यूटी, कहीं प्रदर्शन सफल बनाने की ड्यूटी करती है तो कभी प्रदर्शन पर लाठी चार्ज की कार्यवाही पूरी करती है। कहीं बस्ती बनवाती है तो कहीं आदेश का पालन करने के लिए बस्ती गिराती है। थाने में ड्यूटी है तो वह हमेशा कुछ न कुछ करती रहती है। गलत का सही और सही का गलत बनाना उसका मुख्य काम बना हुआ है। नौकरी बचा के रखना है तो उसे हमेशा ऐसा ही करना पड़ेगा। 
    पुलिस मजदूरों, किसानों तथा गरीब लोगों के साथ एक तरह का व्यवहार करती है वहीं अमीर, अधिकारियों और मंत्रियों के साथ एक अलग तरह का व्यवहार करती है। पुलिस हमेशा अमीरों, अधिकारियों, मंत्रियों तथा दबंगों के सामने दुम हिलाती है तथा इनके आदेशों-निर्देशों पर मुंह फाड़ती दौड़ती है। किसी कमजोर, निर्दोष के खिलाफ कार्यवाही करती है। 
    बढ़ते अपराध, बलात्कार, बच्चों की चोरी, वेश्यावृत्ति, कालाबाजारी, गैंगवार आदि दिल्ली के अखबारों की सुर्खियां बनते हैं। अगर अपराधी गरीब व कमजोर हैं तो पुलिस फुल एक्शन करती है। इन्हें कठोर से कठोर सजा दिलाने के लिए  संगीन धाराओं केे तहत मुकदमा चलाती है। अगर अपराधी अमीर हो, दबंग हो, मंत्री का बेटा हो तो भी पुलिस एक्ट करती है। फर्क यही है कि यहां अपराधी को बचाने के लिए एक्ट किया जाता है। 
    दिल्ली में हजारों अपराधी लग्जरी गाडि़यों से बेखौफ और शान से घूमते हैं। ये भांति-भांति के अपराध में नियमित रूप से लगे हैं। प्रापर्टी कब्जा करना, सुपारी लेना, वेश्यावृत्ति करवाना, भीख मंगवाना आदि इनका मुख्य पेशा है। यही लोग असल में बाहुबली हैं। पिछले दिनों आंकड़े आते रहे हैं कि दिल्ली में प्रतिदिन 14 बच्चे गायब होते हैं। वेश्यावृत्ति के काम के लिए नाबालिग लड़कियों को खरीदा-बेचा जा रहा है। अभी हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें बताया गया है कि पिछले 5 सालों में केवल दिल्ली में 39,920 मानवाधिकार उल्लंघन के मामले दर्ज हुए हैं। इन पांच वर्षों में केवल 7 मामलों का ही निपटारा हुआ है। बाकी में टाल मटोल जारी है। मेरा कहना है कि अगर दिल्ली पुलिस वास्तव में ‘ठुल्ला’ होती तो दिल्ली की गरीब, मजदूर, इंसाफ पसंद जनता के साथ उपरोक्त अपराधों को नहीं होने देती। अपराधियों को कुचल देती।    एम. प्रसाद, दिल्ली

आपका नजरिया-  कहते कुछ होता कुछ
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
बेटी बचाओ अभियान चला पर
बंद न होती एम.टी.पी.
/
बढ़ते जाते विकास के चर्चे
घटती जाती जी.डी.पी.
/
चुनावी वादे महज थे जुमले
जीत के कहती बी.जे.पी.
/
पापी, मुजरिम बनें हैं लीडर
अब कहलाते वी.आई.पी.
/
सच्ची-झूठी न्यूज बनाओ
लक्ष्य है अपना टी.आर.पी.
/
ट्रेन लुटे या जहरखुरानी
मस्त है सारी जी.आर.पी.
/
विश्व-हित की करो साधना
तब नाम हो सार्थक वी.एच.पी.
/
पाक बना आतंक का अड्डा
मानो पी.एम.एल.,पी.पी.पी.
/
(एम.टी.पी.-मेडिकल टर्मिनेशन्स आॅफ प्रेग्नेंसी/गर्भपात
जी.डी.पी.-ग्रास डोमेस्टिक प्रोडक्ट
टी.आर.पी.-टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट
जी.आर.पी.-गवर्नमेंट रेलवे पुलिस
पी.एम.एल.,पी.पी.पी.-पकिस्तान मुस्लिम लीग और पकिस्तान पीपुल्स पार्टी)
       मरियम उस्मानी वाया ईमेल


सम्पादकीय



आजादी आज
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    भारत को आजाद हुए कई बरस बीत गये। और बीतते ही जा रहे हैं परन्तु जैसे ही पन्द्रह अगस्त आता है वैसे ही देश की फि़जा में कुछ ऐसी बातें गूंजने लगती हैं कि बस दिल चाहता है कि इस फसाने को कोई न छेड़े। कोई यह न याद दिलाये कि हम क्यों और कैसे आजाद हुए। कोई शहीदों की बातें न करे और न कोई हमें यह बताये कि आज हम क्या करें।         
    ऐसा लगता है भारत के हृदय में कोई गहरा जख्म है जिसे हर पन्द्रह अगस्त को फिर छेड़ दिया जाता है। जख्म में साल भर में जो पपड़ी जम जाती है उसे उतार दिया जाता है। जख्म रिसने लगता है। टीसने लगता है। जब कोई नेता मंच से आजादी के बारे में भाषण झाड़ता है तो मन करता है बस अपना जूता उछाल दें। 
    आजादी का असली जश्न वैसे तो पूरे हिंदोस्ता में कहीं नहीं दिखता है। बस बड़े शहरों में सरकारी-गैर सरकारी इमारतों की सजावट ही कुछ इस बात का बयां करती है कि आज अन्य दिनों से कुछ अलग है। थोड़े- बहुत खाते-पीते लोग जो भारत की आजादी को प्यार करने वाले हैं वे अपनी कारोें-मोटरसाइकिलों पर झण्डा लगाकर ये दिखलाते हैं कि वे बड़े ही देशभक्त हैं। भारत के बड़े पूंजीपति इस दिन क्या करते हैं अंदाज लगाना मुश्किल है पर भारत के मजदूर जरूर इस दिन आराम करते हैं क्योंकि ऐसे ही दो-चार दिन होते हैं जब उन्हें काम से फुरसत मिलती है। 
    इधर पांच-सात सालों से बड़े शहरों में बने बड़े-बड़े शाॅपिंग माॅल्स ने आजादी का जश्न मनाना शुरू कर दिया है। वे महंगाई के इस जमाने में इस दिन कुछ प्रतिशत छूट देकर माल खरीदने की आजादी अता करते हैं। अब आपकी जेब में पैसा है तो आजादी का लुत्फ उठाइये अन्यथा अपने घर में बैठकर अपनी किस्मत को रोइये। 
    बदहाल मजदूर, किसान, बेरोजगार नौजवानों और शून्य में ताकती औरतें इस दिन को भला किस तरह से मनायें। कोई इस बात को समझा सकता है तो अवश्य समझाये। यह दिन तो देश के नेताओं, अफसरों के नैतिक उपदेश देने और देश से भी ज्यादा अपने को महान बताने का है। 
    इस देश की और हमारे जमाने की इससे ज्यादा क्या दुर्गति होगी कि जो उस समय जालिम अंग्रेजों की पीठ खुजा रहे थे वे आज सबसे बड़े देशभक्त हैं। इन कमबख्तों का नाम लेने से देश की हवा में जहर घुलता है और कागज पर लिखने से कलम और कागज दोनों गंदे होते हैं और काम इनके ऐसे हैं कि देश को अंधी सुरंग में धकेल रहे हैं। 
    भारत के मस्तक पर पूंजी नाम की बुढि़या जादूगरनी ने कब्जा कर लिया है। इस जादूगरनी का जो सबसे अच्छा कारिन्दा है वह देश का मुखिया है। जो कोई इस जादूगरनी के जाल को फैलाये वह विकास पुरुष है। देशभक्त है। देश का भला चाहने वाला है। इस बुढि़या जादूगरनी के जादू का ऐसा कमाल है कि पूरा हिंदोस्ता उसके नंगे नाच में शामिल हो गया है। काली टोपी और खाकी नेकर पहने और हाथ में भगवा झण्डा लिये लोग इस जादूगरनी की रिजर्व आर्मी के सिपाही हैं। बुढि़या इनके जरिये अब अपना जादू बिखेर रही है। यह इक्कीसवीं सदी में आगे बढ़ते भारत की तस्वीर है। 
    जालिम अंग्रेजों से हिन्दोस्तां के आजाद होने के बावजूद, पन्द्रह अगस्त को पूरे देश में असली खुशी और जश्न का माहौल में हो तो कैसे हो। कुछ सयानों ने इस बात का एहसास उसी वक्त कर लिया था इसलिए उन्होंने कहा था ‘‘कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी की स्याही छूटी’’ या फिर ‘ये दाग-दाग उजाला..’’। हकीकत तो यही है, गुलामी की स्याही माथे से छूटी नहीं, उजाला जो हिस्से आया वह दागदार ही था। 
    वक्त का ही कमाल है जो उस वक्त जालिम अंग्रेजों की पीठ खुजा रहे थे वे आज ‘उनसे भी ज्यादा धूर्त और जालिम’ को अपने घर में चाय पिलाते हैं तो इसे वे कहते हैं कि पिछली सरकार ने देश को बदनाम कर दिया था अब उन्होंने दुबारा से भारतीयों को अपने देश पर गर्व करना सिखा दिया है और मजे की बात इस बात पर किराये की भीड़ खूब ताली बजाती है।
    कल की गुलामी और आज की आजादी में फर्क क्या है। तब देश ब्रिटिश साम्राज्य का गुलाम था और आज देश एक नये किस्म का उपनिवेश है जो आर्थिक रूप से साम्राज्यवादी पूंजी की गिरफ्त में है। देशी पूंजी और विदेशी पूंजी का यह एक ऐसा मकड़जाल है जिसमें देश के मेहनतकश मजदूर किसान फंसे हुए हैं। पूंजी उनके शरीर से खून की आखिरी बूंद भी चूस लेना चाहती है। यह विशाल मकड़ा संसद, अदालत, पुलिस, सेना और मीडिया नाम की टांगों पर चलता है। संविधान की सौगंध लेकर खून चूसने वाला यह मकड़ा अपना आकार बढ़ाता ही जा रहा है। बुढि़या जादूगरनी ने ही इस मकड़े को हमारी धरती पर छोड़ा है। 
    विशाल भूमि और करोड़ों की आबादी वाला यह देश आज ऐसी जगह पर खड़ा है जहां बर्बरता का बोलबाला है। मजदूरों, किसानों, नौजवानों, उत्पीडि़त स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों आदि का जीवन शोषण-उत्पीड़न से भरा हुआ है। और इस बर्बरता के युग में आजादी का जश्न अश्लील प्रदर्शन ही लगता है। देश के मुखिया का भाषण आशा नहीं जुगुप्सा जगाता है। पुराने देशभक्ति के गीत मानो सपेरे की धुन हैं। आजादी की लड़ाई का स्मरण मानो हाथ-पांवों में पड़ी बेडि़यों को आभूषण बनाने का यत्न हो।
    आजादी, बेशक! भारत के मजदूरों, किसानों, शोषितों-उत्पीडि़तों को आजादी चाहिए। जालिम अंग्रेजों से आजादी के लड़ाई के असली लड़ाके भारत के मजदूर, किसान, शोषित-उत्पीडि़त ही थे। जालिम अंग्रेजों से मिली मुक्ति के साथ ही पूंजी का फंदा उसने गले में डल गया। मुक्ति का जश्न अभी ढंग से भारत के शोषित-उत्पीडि़तों ने मनाया भी नहीं था कि नयी गुलामी उनके गले का फंदा बन गयी। आजादी क्या होती है, कैसी होती है, इसे समझ पाता उससे पहले ही नये शिकारी अपना जाल लेकर बैठ गये थे। एक शिकारी के फंदे से नये शिकारी के फंदे में फंस गये। आजादी एक फंदे से निकलकर दूसरे फंदे में फंसने को नहीं कहते। आज आजादी चाहिए और इस आजादी का मतलब नये शिकारियों के फंदे को काटना है। 
    नये शिकारी के फंदे में फंसे लोग पुराने फंदे से आजाद होने का क्या जश्न मना सकते हैं। नहीं मना सकते। और इस बात को अपने अवचेतन मन से देश का हर शोषित-उत्पीडि़त समझता है। इसलिए वह पन्द्रह अगस्त के दिन क्या करे। 

आपका नजरिया-   संघ के घृणित मंसूबों का जवाब जरूरी
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    संघ-भाजपा के सत्तानशीन होने के बाद से भारतीय समाज का तीव्र सांप्रदायिकरण की प्रक्रिया जोरांे-शोरों पर है। पिछले एक साल से संघ-भाजपा विभाजनकारी सांप्रदायिकता को थोक में समाज में प्रत्यारोपित कर रहे हैं। ‘राष्ट्रवाद’ के झण्डावरदार अपने घृणित एजेण्डे को आगे बढ़ाने के लिए भारतीय समाज को तहस-नहस कर देने पर आमादा हैं। 
    शैक्षिक संस्थानों और शिक्षा का भगवाकरण  कर संघ-भाजपा अपने सांप्रदायिक व फासीवादी एजेण्डे को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। शिक्षा में व्यापक बदलाव व शिक्षा के भारतीयकरण की बात कर वे समग्र शिक्षा को भगवा रंग में रंगने की चाहत रखते हैं और पूरी तरह से इस पर प्रयासरत हैं। संघ सिर्फ शिक्षा का ही ‘भारतीयकरण’ नहीं बल्कि यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन (यूपीएससी) के सिलेबस को भी भारतीय संदर्भों में बदलने की मांग कर रहा है। 
    अपने सांप्रदायिक व फासीवादी एजेण्डे को आगे बढ़ाते हुए ये तमाम संस्थानों को भगवा रंग में रंग चुके हैं और शेष बचे संस्थानों को रंगने की पुरजोर कोशिशें जारी हैं। उनके इस कुकृत्य का जो भी विरोध कर रहा है, उसके खिलाफ संघ-भाजपा आक्रामक रुख अख्तियार करने में जरा भी हिचक नहीं दिखा रहे हैं। 
    भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान के अध्यक्ष पद पर संघ-भाजपा के दुलारे गजेन्द्र चौहान को बिठाये जाने का जब देशभर में तीखा विरोध हुआ तो संघ ने इस विरोध को हिन्दू विरोध करार देकर अपने मंसूबे जाहिर कर दिये थे। अब ताजा मामला यह है कि संघ ने अपने मुखपत्र आर्गनाइजर में एक लेख के जरिये देश के आईआईटी व आईआईएम को हिन्दू विरोधी व राष्ट्र विरोधी बताया है। लेख में यह भी कहा गया है कि पवित्र नगरी हरिद्वार स्थित आईआईटी रूड़की में यूपीए सरकार के दौरान मांसाहारी भोजन परोसा गया। इसके साथ ही एनआईटी राउरकेला में छात्रों को कम्यूनिटी हाल में पूजा करने से रोका गया। आगे कहा गया कि कर दाताओं के पैसे से वित्तपोषित ये संस्थान भारत विरोधी व हिन्दू विरोधी गतिविधियों के केन्द्र बनते जा रहे हैं।
    जहिर है कि संघ अपने फासीवादी मंसूबों के जरिये अपने मूल्यों व खाद्य आदतों को इन संस्थानों के छात्रों पर थोपना चाहता है। अगर मांस खाने के इच्छुक छात्र मांसाहार करते हैं तो संघ उनकेा जबरन शाकाहारी बनाने पर आमादा है। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे भारत विरोधी व हिन्दू विरोधी घोषित किये जायेंगे।
    वैसे संघ की बात तथ्यतः गलत है। लेेकिन हम सब जानते हैं कि संघ का चरित्र झूठ व मिथकों का सहारा लेकर अपनी जहरीली सांप्रदायिक सोच को समाज में फैलाने वाला है। एनआईटी राउरकेला में छात्र संख्या अधिक होने के कारण कम्यूनिटी हाल पूजा करने के लिए छोटा होने के कारण, मैदान में इसकी व्यवस्था की गयी। इसी के अलावा रूड़की में मांसाहार भी यूपीए के शासन में नहीं बल्कि भाजपा के शासन में शुरु किया गया था।  
    यह जान लेना भी दिलचस्प होगा कि इन प्रतिष्ठित संस्थानों को भारत विरोधी व हिन्दू विरोधी घोषित करने का एक मुख्य कारण यह है कि इन संस्थानों के मुखियाओं ने मोदी सरकार की नीतियों का विरोध किया। विख्यात परमाणु वैज्ञानिक और आईआईटी बाम्बे के पूर्व चेयरमैन अनिल काकोडकर ने मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की आईआईटी के डायरेक्टरों की नियुक्ति जैसे अहम सवालों को हल्के में लेने के लिए आलोचना की थी। इसके अलावा आईआईएम के मौजूदा चेयरमैन ए एम नाईक ने भी मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा तैयार किये गये आईआईएम ड्राफ्ट बिल का विरोध किया। इन दोनों लोगों को भी आर्गनाइजर के लेख में निशाना बनाया गया था।
    यह है संघ का विरोध से निपटने का नायाब तरीका! अर्थात जो कोई भी, मौजूदा सरकार की नीतियों या उसके द्वारा लिये गये निर्णयांे का विरोध करेगा उसे हिन्दू विरोधी व देश विरोधी घोषित कर दिया जायेगा। लोकतंत्र की फर्जी दुहाई देने वाले संघ-भाजपा का असली लोकतंत्र यही है। 
    भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार को संघ ‘हिन्दू सरकार’ के रूप में प्रचारित करता है। जब संघ मंडली 2020 तक भारत को हिन्दू राष्ट्र बना देने की बात करती है तो इसका आशय है कि इस सरकार के किसी भी विरोध की संभावनाओं को कुचलना। जब भाजपा सरकार हिन्दू सरकार बतायी जाती है तो इसका विरोध करने वाले स्वतः ही हिन्दू विरोधी घोषित हो जाते हैं और इस प्रकार संघ अपनी घृणित सांप्रदायिक राजनीति से न सिर्फ विरोधियों पर हमला करता है बल्कि जनमानस को भी सांप्रदायिक कट्टरता की ओर ले जाता है।
    विरोध से निपटने का संघ-भाजपा के ये नापाक तौर-तरीके भविष्य के स्याह दिनों के संकेत आप ही बयां कर देते हैं। इसके अलावा ये फासीवादी उभार की ओर भी संकेत कर देते हैं। इसके साथ-साथ ये प्रगतिशील जनवादी व क्रांतिकारी शक्तियों के लिए फासीवाद व संघ-भाजपा के प्रभाव के खिलाफ लामबंदी की जरूरत को भी बयां कर देते हैं। संघ-भाजपा के फासीवादी-सांप्रदायिक राजनीति के बरक्स क्रांतिकारी राजनीति पर मेहनतकश जनता की गोलबंदी ही इस सबका मुकाबला कर सकती है। मजदूर-मेहनतकश जनता को समाजवादी क्रांति के लिए लामबंद करते हुए ही इस फासीवादी राजनीति को पराजित किया जा सकता है।                   मुकेश, हल्द्वानी

आपका नजरिया-  कुछ दोहे  -डा. अशोक ‘गुलशन’ 
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
महंगाई 
कहना है मुश्किल बहुत, अब चूल्हे का हाल।
चावल भी महंगा हुआ, सस्ती रही न दाल।।

उलझे-उलझे केश हैं, सूखे-सूखे गाल।
महंगाई की मार से, जनता है बेहाल।।

सबका जीवन है यहां, सांसों का व्यापार।
सांस-सांस महंगी बहुत, मिलती नहीं उधार।।

नारी
जिस नारी से चल रहा, देखो घर-संसार।
उस नारी के साथ ही, होता अत्याचार।।

नारी की पूजा करो, रखकर हर पल ध्यान।
नारी बिन संभव नहीं, पुरुषों का कल्यान।।

रखकर नर के हाथ पर, अपना कोमल हाथ।
मुश्किल में देती सदा, नारी नर का साथ।।

नारी के छवि-रूप में, छुपा जगत् का सार।
नारी पोषक सृष्टि की, है अमोल उपहार।।

आपका नजरिया-   कम से कम इंसा तो समझो
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
हिन्दू की देवी मुसलमां की रहमत
द्वारे की महिमा कलीसे की रौनक
बचाओ मुझे मैं हूं दुनिया की अज़मत
मुझे कम से कम तुम इंसा तो समझो
/
ज़मी पे कदम ये उतरने से पहले
मुझे मेरी तस्दीक करने से पहले
न मारो मुझे यूं जन्मने से पहले
मुझे कम से कम तुम इंसा तो समझो
/
ये खूंखार सड़कें ये आवारा गलियां
ये वहशी निगाहें हरी रंगरलियां
न कुचलो न कुचलो ये मासूम कलियां
मुझे कम से कम तुम इंसा तो समझो
/
बुजुर्गों को रोको जवानों को रोको
विदुरों को रोको दीवानों को रोको
हां! रोको मेरे पासबानों को रोको
मुझे कम से कम तुम इंसा तो समझो
/
तमद्दुन की रौ से जिगर को न कुचलो
नन्ही सी लख्ते जिगर को न कुचलो
यूं उड़ते परिन्दे के पर को न कुचलो
मुझे कम से कम तुम इंसा तो समझो
/
औरत की मूरत को न मानो देवी
शक्ति की देवी न दौलत की देवी
कहती है तुमसे ये उम्मत की देवी
मुझे कम से कम तुम इंसा तो समझो
-मरियम  उस्मानी- वाया ई-मेल

सम्पादकीय





और गहराता विश्व आर्थिक संकट
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
जून-जुलाई माह में तीन प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं विश्व बैंक, आर्गनाइजेशन फार इकोनोमिक को-आपरेशन एण्ड डेवलपमेंट (ओईसीडी) व अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष(आईएमएफ) की रिपोर्ट जारी हुयी। वर्ष 2007 से जारी आर्थिक संकट के इस दौर में ये रिपोर्ट जो सबसे महत्वपूर्ण काम करती है वह यह कि वे वृद्धि दर में घोषित अपने पूर्वानुमानों को घटा देती हैं। विकसित देशों के समूह ओईसीडी की रिपोर्ट ने अपने समूह के देशों में बेरोजगारी की गम्भीर स्थिति पर चिंता जाहिर की है। 

विश्व आर्थिक संकट की स्थिति में, सारी वैश्विक संस्थाओं जिनका नियंत्रण दुनिया के सबसे ताकतवर देशों के हाथों में, के सारे प्रयासों के बावजूद कोई सुधार नहीं होता दिखायी दे रहा है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके भारतीय रिजर्व बैंक के वर्तमान गर्वनर रघुराम राजन घोषणा कर चुके हैं कि दुनिया पुनः 1929 की तरह की महामंदी के दौर में प्रवेश कर सकती है। ये रिपोर्ट और ये बातें इस बात को बतला रही हैं कि हालात बहुत गम्भीर हैं और दुनिया के शासक बदतर होती स्थिति को संभालने में अक्षम साबित हो रहे हैं। और उल्टे ही वे अपने-अपने देश की जनता के समक्ष हकीकत को न बयां कर झूठी बातें कर रहे हैं। 
जिन देशों को विश्व आर्थिक संकट से बाहर निकालने के इंजन के बतौर 2008 से पेश किया जा रहा था उनकी हालत भी खराब है। विश्व बैंक ग्रुप के अध्यक्ष जिम यांग किम फरमाते हैं,‘‘विकासशील देश वित्तीय संकट के छा जाने के बाद वैश्विक विकास के इंजन थे लेकिन अब वे और अधिक कठिन आर्थिक माहौल का सामना कर रहे हैं।’’ ये बातें चीन, ब्राजील, भारत और रूस जैसे मुल्कों के बारे में थीं। 
चीन की अर्थव्यवस्था गहरे आर्थिक संकट की ओर बढ़ रही है जिसमें वित्तीय संकट भी शामिल है। संकट की एक झलक पिछले दिनों चीन के बाजार के उतार-चढ़ाव में भी दिखी। चीन की अर्थव्यवस्था पिछले वर्ष 7.4 प्रतिशत से बढ़ी। अपने-आप मंे बहुत ऊंची दिखायी देने वाली यह वृद्धि दर पिछले 24 सालों में सबसे निम्न है। चीन में बेरोजगारी के साथ सामाजिक अशांति बढ़ रही है। आगामी वर्षों में चीन की वृद्धि दर के और नीचे गिरने का अनुमान है। और ऐसा अनुमान व्यक्त करने वालों में अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ स्वयं चीन की सरकार भी शामिल है। 
ब्राजील की स्थिति यह है कि उसकी अर्थव्यवस्था में वृद्धि होने के स्थान पर वह सिकुड़ रही है। 2015 में उसकी अर्थव्यवस्था आईएमएफ के अनुसार 1.5 फीसदी सिकुड़ जायेगी। 
रूस भी संकटग्रस्त है। इस वर्ष उसकी अर्थव्यवस्था के भी सिकुड़ने का अनुमान है। तेल की कीमतों में गिरावट और प्रतिबंधों ने उसकी अर्थव्यवस्था के संकट को बढ़ा दिया है। 
भारत के बारे में जब से नई सरकार ने आंकड़ों के संकलन की प्रक्रिया में बदलाव किये हैं तब से एक खुशफहमी फैलायी गयी है कि भारत की अर्थव्यवस्था 7 फीसदी से अधिक की वृद्धि हासिल कर चुकी है व करेगी। 2015 में आईएमएफ के अनुसार इसकी वृद्धि दर 7.5 फीसदी रहेगी। देश के आर्थिक जगत की हालत कुछ और ही बयां कर रही है। औद्योगिक उत्पादन मई माह में पिछले वर्ष की तुलना में गिर गया। भारत का निर्यात लगातार गिर रहा है। तेल की कीमतों के बेहद निम्न स्तर पर रहने के बावजूद व्यापार घाटा बढ़ रहा है। बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। कृषि क्षेत्र संकटग्रस्त है। हकीकत पर पर्दा डालने वाली भारत की विकास दर का भाण्डा फूटने पर आने वाले वर्षों में भारतीय जनता के लिए और मुसीबतें आ सकती हैं तथा शासकों के हाथ-पांव फूल सकते हैं। ऐसी स्थिति में सामाजिक आक्रोश फूट पड़ेगा और शासकों से संभाल के भी कुछ नहीं संभलेगा। 
ये स्थिति उन देशों की है जिनके बारे में माना जा रहा था कि अपने विशाल आंतरिक बाजारों तथा अन्य कारणों से विश्व को आर्थिक संकट की जद से बाहर लायेंगे तो शेष दुनिया की हालत की कल्पना की जा सकती है। विश्व बैंक के अनुसार इस वर्ष उनके पूर्व अनुमान से निम्न दर 2.6 से बढ़ेगी। संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरो जोन, जापान आदि के बारे में जून 2015 में प्रकाशित रिपोर्ट में पूर्वानुमान को बदल दिया गया है। आईएमएफ के अनुसार विश्व की विकास दर 2014 के    3.4 के मुकाबले 2015 में 3.3 फीसदी रहेगी। एक तथ्य यह सामने आया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की अर्थव्यवस्था इस वर्ष की पहली तिमाही में 0.7 फीसदी से सिकुड़ गयी थी। इन आंकड़ों को यद्यपि अमेरिकी सरकार ने तकनीकी आधार पर नकार दिया। 
जुलाई माह के पहले सप्ताह में पहले ग्रीस के ऋण और फिर चीन के शेयर बाजार संकट ने साफ तौर पर इशारा कर दिया कि यह वर्ष अभी काफी उथल-पुथल से भरा रहने वाला है। ग्रीस का संकट हाल-फिलहाल जिस ढंग से संभाला गया उससे साफ जाहिर होता है कि ग्रीस के सत्ताधारी दल ने अपने देश की जनता को जनमत संग्रह के नाम पर मूर्ख बनाने का प्रयास किया है। इस दल को आने वाले समय में इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। चीन ने भारी पैमाने पर पैसा झोंककर अपने डूबते वित्तीय व शेयर बाजार को फिलहाल बचा लिया परन्तु यह उसके दीर्घकालिक आर्थिक संकट के शुरूवात होने का संकेत भी दे गया। 
विश्व आर्थिक संकट एकाधिकारी वित्तपतियों और उनके द्वारा संचालित वैश्विक संस्थाओं की नीतियों के कारण पैदा हुआ है। ये वित्तपति तो संकट से बच गये और इस संकट के दौर में शेयर बाजार में कमोवेश रही तेजी इसे व्यक्त भी करती रही है। परन्तु शेष दुनिया संकट की जद में ही रही है। विश्व आर्थिक संकट जिन लोगों और जिन नीतियों का परिणाम रहा है, हकीकत यह है कि अभी भी संकट के समाधान के रूप में उन्हीं नीतियों को देखा जा रहा है। ग्रीस जिस वजह से दिवालियेपन की ओर बढ़ा अब उसी वजह को उसके संकट के समाधान के रूप में पेश किया जा रहा है। पिछले सात-आठ वर्षों के अनुभव से साफ है कि दुनिया के शासकों के पास इन नीतियों को लागू करने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं है। वे घूम-फिर के वहीं पहुंच जाते हैं। इन नीतियों और उनके प्रोस्ताओं के बार-बार गलत साबित हो जाने के बाद ऐसा क्यों है कि दुनिया के शासक और उनकी संस्थाएं कुछ और क्यों नहीं सोच पा रही हैं। कोई विकल्प क्यों नहीं तलाश पा रही हैं। यह इसलिए भी हो रहा है क्योंकि एक पतनशील वर्ग और उसकी व्यवस्था अब मानव जाति को कुछ देने में समर्थ नहीं रही। 
असल में विश्व पूंजीवादी व्यवस्था उस मुहाने पर पहुंच रही है जहां अब सामाजिक विस्फोट और क्रांतियां अवश्यसम्भावी बन गयी हैं। इनके बगैर आज के विश्व की समस्याओं का वास्तविक समाधान सम्भव नहीं है। सामाजिक विस्फोटों को हाल के वर्षों में, वर्ष 2011 में मिस्र, ट्यूनेशिया आदि देशों में देखा गया था। हालात ऐसे होते जा रहे हैं कि ये सामाजिक विस्फोट आने वाले समय के विस्फोटों के आगे बेहद सामान्य से दीखने लगेंगे। उनकी महज पूर्वपीठिका लगने लगेंगे। सामाजिक क्रांतियों की जमीन तैयार होती जा रही है और इस काम को दुनिया का पूंजीपति वर्ग अपने बौद्धिक दिवालियेपन और अपनी करतूतों के कारण अधिक तेजी से कर रहा है। जी-7, जी-20 जैसी बैठकों में दुनिया के प्रमुख देशों के शासकों की इस आर्थिक संकट से निपटने की समझ और क्षमता का खुला प्रदर्शन हो चुका है। 

किसी समय पूंजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है (टीना- दियर एज नो अलटरनेटिव) कहने वाले असल में पूंजीवादी विद्वानों, सिद्धान्तकारों, विचारकों आदि के चुक जाने की घोषणा कर रहे थे। समय ने और हालिया प्रकाशित वैश्विक संस्थाओं की रिपोर्टों ने साबित कर दिया है कि इस संकट के समाधान के बारे में उनके पास कहने को कुछ नहीं है। रघुराम राजन जैसे उसके अतीत की याद दिलाके महज उसे डरा रहे हैं। और इस डर में छुपी यह हकीकत कि यह पूंजीवाद का अंत हो सकता है परन्तु मानव जाति का नहीं। क्योंकि महामंदी और दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया के एक बड़े हिस्से में समाजवाद कायम हुआ था और साम्राज्यवादी देशों को अपने उपनिवेेशों से हाथ धोना पड़ा था। 


आपका नजरिया-   प्रधानमंत्री के नाम एलपीजी गैस उपभोक्ता का खुला खत
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
प्रिय प्रधानमंत्रीजी
हमने आपके आह्वान को विभिन्न प्रचार माध्यमों में ध्यानपूर्वक सुना जिसमें आप देशवासियों से गैस सब्सिडी छोड़ने की अपील कर रहे हैं। आपका कहना है कि जो लोग बाजार दर पर गैस लेने में सक्षम हैं उन्हें गैस सब्सिडी छोड़ देनी चाहिए। हमने यह भी सुना है कि आप इससे बचे हुए पैसों से गरीब के घर में सब्सिडी वाला गैस सिलेंडर पहुंचाना चाहते हैं। सब्सिडी से बचे पैसों को राष्ट्र निर्माण में खर्च करने का भी आप वादा कर रहे हैं।
आपकी सरकार ने तो 1 करोड़ लोगों का लक्ष्य भी लिया है जिनसे स्वेच्छापूर्वक गैस सब्सिडी छुड़वानी है। आपके इस आह्वान पर सुना है कुछ कारपोरेट घरानों ने सब्सिडी लेना बंद भी कर दिया है। आपके इस अभियान के समर्थन में आपके प्रिय कारपोरेट मित्रों ने जिनमें गौतम अदानी, सज्जन जिंदल, आनंद महिंद्रा आदि शामिल हैं, अपने कर्मचारियों से गैस सब्सिडी छोड़ने की अपील भी कर रहे हैं।
परन्तु माननीय प्रधानमंत्री जी मैं और शायद मेरे जैसे करोड़ों लोग भी सब्सिडी छोड़ देते अगर आपके आह्वानों में जरा भी नैतिकता व सत्यता होती। अगर आपकी अपीलें झूठ और फरेब से मुक्त होतीं। अगर वास्तव में सब्सिडी का बचा हुआ पैसा गरीबों का चूल्हा जलाने व राष्ट्र निर्माण में खर्च होता।
महोदय आप व आपकी सरकार के इस प्रकार के आह्वानों पर अविश्वास यूं ही नहीं है। इसके पीछे ठोस कारण है। पिछले ढाई दशकों में जब से हमारे कानों ने ‘‘उदारीकरण’’ जैसे जुमलों को सुना है तब से ही देश के अवाम के व्यापक हिस्सों से सरकारी सब्सिडी छीनी जाती रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को ही हमने बाजार भाव पर नहीं खरीदा, हमें तो जनवितरण प्रणाली से मिलने वाला मिट्टी का तेल और चीनी व अनाज भी बंद हो गया। पेट्रोलियम पर सब्सिडी तो पिछली सरकार ने ही खत्म कर दी थी, आपकी सरकार ने डीजल को बाजार के हवाले कर दिया। लेकिन हमें बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इस सबके बावजूद भी उपरोक्त सब्सिडी की बचत का कोई भी हिस्सा गरीब का चूल्हा जलाने में इस्तेमाल नहीं किया गया। इसके बजाय इस देश की मेहनतकश आबादी के हालात पहले से भी बदतर हुए हैं। प्रधानमंत्री बता सकते हैं कि इससे समाज के विभिन्न वर्ग के जीवन स्तर में क्या सुधार हुआ है? वे बता सकते हैं कि इससे बचा हुआ पैसा राष्ट्र निर्माण के किस काम में व्यय हुआ है?
आप कह सकते हैं और आप चुनावी सभाओं व प्रधानमंत्री बनने के बाद भी कहते रहे हैं कि देश व देश की जनता के इन हालात के लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने देश पर साठ साल तक शासन किया है और इसके लिए आप कांग्रेस मुक्त भारत का आह्वान भी करते रहे हैं। पर पिछले एक साल का आपका आचरण कांग्रेस सरकार के कदमों से जरा भी भिन्न नहीं रहा है। आपकी सरकार ने तो कारपोरेट घरानों की सेवा में कांग्रेस को भी पीछे छोड़ दिया है। आप भी वही कर रहे हैं जो कांग्रेस व अन्य पूर्ववर्ती सरकारें करती रही हैं जिसमें आपके नेता अटल विहारी वाजपेयी की सरकार भी शामिल है।
सच तो यह है कि प्रधानमंत्री जी आप न सिर्फ इस देश के सबसे बड़े पाखंडी प्रधानमंत्री हैं वरन् जनमत के साथ विश्वासघात करने में भी आप अपने पूर्ववर्तियों से अव्वल रहे हैं। इतने बड़े जन समर्थन के साथ हासिल की गयी सत्ता का इस्तेमाल आपने उसी जन के विरुद्ध जितनी तत्परता से किया है उसमें तो रंग बदलने का उस्ताद गिरगिट भी हार जाये।
मैं आप पर कोई झूठे आरोप नहीं मढ़ रहा हूं वरन् सत्य को सबके सामने रखना चाहता हूं। क्या यह सच नहीं है कि इस देश के उद्योगपतियों, व्यापारियों के निर्यातकों को करोड़ों की सब्सिडी दी जा रही है। क्या यह सच नहीं है कि स्वयं संसद सदस्यों के जिनकी आर्थिक हैसियत समाज के ‘गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों से बहुत ऊपर है, खाने पीने पर संसद कैंटीन में सब्सिडी नहीं दी जा रही है? जिस देश की एक तिहाई आबादी के पास ढंग के कपड़े भी न हों उस देश का प्रधानमंत्री ‘दस लखिया’ सूट पहनता हो उसके मुंह से सब्सिडी छोड़ने की बातें पाखंड नहीं तो और क्या है? जिस देश के मंत्री बिना गाड़ी और सुरक्षा के घर से बाहर भी न निकलते हों, जिस देश के हर छोटे-बड़े अफसरों के पास सरकारी कार व मकान हों उस देश के मुखिया के मुंह से सब्सिडी छोड़ने की बातें छलावा नहीं तो और क्या हैं? क्या इस देश के सक्षम कारपोरेट घराने, राजनीतिज्ञ, अफसर खुद को मिलने वाली सब्सिडियां व सुविधायें छोड़ सकते हैं ताकि वह धन राष्ट्र निर्माण के कार्यों (मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ पानी, बेहतर सड़कें नागरिकों की सुरक्षा, गरीबों के मकान आदि बनाने) में खर्च हो सके। ताकि देश की मेहनतकश जनता द्वारा वसूले गये टैक्सों ने देश की उस एक तिहाई आबादी के जीवन स्तर के उन्नयन में खर्च किया जा सके।
सच तो यह है कि प्रधानमंत्री जी आप देशवासियों के साथ भावनात्मक राजनीति का खेल खेल रहे हो क्योंकि भावनात्मक राजनीति का खेल खेलने के लिए आपका संघ परिवार में प्रशिक्षण हुआ था। अभी तक आप कश्मीर के नाम पर, मंदिर के नाम पर, पाकिस्तान व मुसलमानों के नाम पर देशभक्ति के नाम पर भावनात्मक राजनीति का खेल हमारे साथ खेल रहे हैं फिर चुनावों में आपने ‘चाय वाला’ और ‘पिछड़ा’ का खेल खेला। अब सरकार में आने के बाद आप ‘सब्सिडी छोड़ने’ पर भावनात्मक राजनीति का खेल देश के लोगों के साथ खेल रहे हैं जो सब्सिडी नहीं छोड़ेगा वह राष्ट्रनिर्माण नहीं चाहता, जो सब्सिडी नहीं छोड़ेगा वह गरीब के घर का चूल्हा नहीं जलने देना चाहता। आपने आम लोगों को जिम्मेदार ठहराने का क्या शानदार सूत्र निकाला है।
परन्तु हम जैसे करोड़ों लोग आपके चरित्र को जान गये हैं, हम आपकी चालों को समझ गये हैं। इसलिए इस निकृष्ट कोटि की भावनात्मक राजनीति के झांसे में हम नहीं फंसेगे। इस देश की करोड़ों मेहनतकश जनता आजादी के बाद से ही अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करती आयी है। मेहनतकश जनता विभिन्न प्रकार के करों के बोझ तले दबे हुए होने के बावजूद भी इस देश के राजनीतिज्ञों, अफसरों, धार्मिक मठाधीशों और स्वयं आपके प्रिय कारपोरेट मित्रों का बोझ अपने कंधों पर उठाये हुए है। आप व आपसे पूर्ववर्ती सरकारों ने कारपोरेट घरानों, अफसरों व राजनीतिज्ञों का पेट भरने के लिए ‘देश निर्माण’ के जुमलों का भरपूर दोहन किया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि हम लोग ‘‘देश निर्माण’’ के नाम पर खूब ठगे गये हैं जबकि हमारी स्थितियां पहले से भी बदतर हुई हैं।
इसलिए अब आपकी बारी है, आपके प्रिय कारपोरेट मित्रों की बारी है। आप जैसे कुटिल राजनीतिज्ञों की बारी है। अब उन भ्रष्ट अफसरों की बारी है जिन्होंने ‘‘राष्ट्र निर्माण’’ के नाम पर जनता से लूटे गये पैसों से अपना निर्माण किया है। पहले इस देश के कारपोरेट घराने, राजनीतिज्ञ व अफसर यह घोषणा करें कि वे गरीबों का चूल्हा जलाने के लिए स्वयं को मिलने वाली समस्त प्रकार की सब्सिडी, सुविधाओं, सरकारी छूटों का परित्याग करते हैं। प्रधानमंत्री जी पहले उपरोक्त अपने प्रियजनों को इसके लिए तैयार करें कि वे चमचमाती कारों, चमचमाते होटलों, चमचमाते महलों का परित्याग कर राष्ट्रनिर्माण में भाग लें। प्रधानमंत्री महोदय अब आपकी बारी है कि आप इस देश की मेहनतकश जनता को ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ दें। इस देश की व्यापक मेहनतकश आबादी को साफ पानी, बेहतर शिक्षा व चिकित्सा दें। उन्हें बेहतर यातायात की सुविधाएं मुहैय्या करायें। कुल मिलाकर इस देश की मेहनतकश जनता को पहले सम्मानजनक जीवन जीने योग्य बनायें। इसके बाद उपदेश झाड़ने का काम करें।
आप व आपकी पूर्ववर्ती सरकारों ने अगर कारपोरेट घरानों की सेवा करने के बजाय, कारपोरेट घरानों को राष्ट्र की सम्पत्तियां लुटाने के बजाय, सरकारी अफसरों और राजनीतिज्ञों को लूट की खुली छूट देने के बजाय अगर थोड़ा भी काम गरीबों का चूल्हा जलाने में किया होता तो एक तिहाई आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जीवन जीने को अभिशप्त न होती, तो इस देश के बच्चे दूध के अभाव में दम न तोड़ते, इस देश की महिलायें एनीमिया की कमी से न मरतीं, इस देश के गरीबों की क्षयरोग (टी.बी.) से मौतें न होतीं, इस देश के बच्चे निरक्षर न रह जाते, बेरोजगारी के कारण इस देश के नौजवान आत्महत्या न करते, मजदूर जानवरों जैसा जीवन जीने को अभिशप्त न होते, किसान फसलोें के खराब होने मात्र से आत्महत्या न करते।
इसलिए आप व आपकी सरकार गरीबों की इस हालत के लिए देश के आवाम को जिम्मेदार ठहराने का खेल न खेलें। इसके बजाय वे नीतियां और कार्यक्रम अपनायंे जिससे गरीबों व अन्य मेहनतकश लोगों की जेब में थोड़ा पैसा बच जाये ताकि वे बेहतर जीवन जी सकें। लेकिन महोदय आपकी सरकार तो इतनी बेशर्म है कि वह एक ओर ट्रिपल पी (प्राइवेट-पब्लिक-पार्टनरशिप) के माध्यम से व निजीकरण के रथ पर सवार होकर देश के सारे संसाधन आपके कारपोरेट मित्रों के हवाले कर रही है ऊपर से देश के अवाम से सब्सिडी छोड़ने की अपीलें कर रही है।
सो! महोदय आपसे अपील है कि ‘‘गरीबों’’ व ‘देश निर्माण’’ के नाम पर सब्सिडी बंद करने का नाटक न करें। लोगों से आपकी व पूर्ववर्ती सरकारों  ने वैसे ही सभी प्रकार की सुविधाएं एक-एक कर छीन रखी हैं उस पर अपने कारपोरेट मित्रों के हित में आप गैस सब्सिडी बंद करना चाहते हैं तो उसे कौन रोक सकता है। किन्तु पाखंड न करें।
हमें उम्मीद है कि आप हमारे पत्र पर विचार करेंगे और ‘‘गरीबों’’ व ‘‘देश निर्माण’’ के लिए अपने कारपोरेट मित्रों, अफसरों व संसद व विधानसभाओं में बैठे अपनी जमात के लोगों को समझायेंगे कि वे न सिर्फ सभी प्रकार की सब्सिडी व सुविधायें लेना बंद कर दें वरन् गरीबों व मेहनतकशों के पैसों पर डाकेजनी व देश के संसाधनों की लूट बंद कर दें। अगर आप ऐसा कर पायेंगे तो हम जैसे करोड़ों उपभोक्ता अपनी सब्सिडियां स्वेच्छापूर्वक छोड़ देंगे। और ‘‘गरीबों’’ व ‘‘देश निर्माण’’ के इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपका आभार भी प्रकट करेंगे।
आपका

भारत का एक एलपीजी गैस उपभोक्ता 




सम्पादकीय

ये सब क्या है ?
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)

पिछले दिनों भारतीय पूंजीवादी राजनैतिक दायरे में ललित मोदी प्रकरण के बाद नजारा बहुत दिलचस्प हो गया है। वाचाल एकदम मौन हो गये हैं तो अपनी हार के बाद से मौन धारण किये हुए वाचाल हो गये हैं। चीजें अपने विपरीत में बदल गयीं। जो कल तक आक्रामक मुद्रा में थे वे रक्षात्मक हो गये। इधर-उधर छिपने वाले हमलावर हो गये। भारतीय जनता पार्टी अब कल की कांग्रेस हो गयी और आज की कांग्रेस कल की भाजपा हो गयी। 

‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ का उद्घोष इस बात का इंतजार कर रहा है कब भाजपा अध्यक्ष कहेंगे कि यह तो एक चुनावी जुमला था। ललित मोदी के साथ विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के सम्बन्धों को जायज ठहराकर भारतीय जनता पार्टी ने भ्रष्टाचार की एक किस्म भाई-भतीजावाद को अपनी सरकार का नीति वाक्य बना दिया है। आने वाले दिनों में यह सरकार हर उस व्यक्ति को नजराना भेंट करेगी जिन्होंने इन्हें सत्ता में पहुंचाने के लिए अपने खजाने के मुंह खोले थे। नरेन्द्र मोदी के सत्ता संभालते ही गौतम अडाणी का बढ़ता साम्राज्य और भाजपा नीत राज्य सरकारों से होते उसके व्यापारिक समझौते अपनी कहानी आप कह रहे हैं। ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ का अर्थ है मैं खुद नहीं खाऊंगा। पर मेरे भाई-बंधु खायेंगे और अपनी बारी में वे मुझे अपने आप ही खिला देंगे। गौरतलब है कि अनुमानतः 20,000-30,000 करोड़ रुपये मोदी जी के चुनाव में खर्च हुए थे। 

ललित मोदी प्रकरण जिसे पहले ‘मोदी गेट’ का सम्बोधन दिया गया परन्तु भारत के प्रधानमंत्री के भी मोदी होने से अन्य अर्थ निकलने से घबराकर यकायक उसे ‘ललित गेट’ का सम्बोधन दिया जाने लगा। यह महज गलत संज्ञा चयन का मसला नहीं था बल्कि यह उस व्यक्ति की साख को बचाने की कवायद है जिन्हें अभी एक वर्ष पूर्व ही गाजे-बाजे के साथ भारतीय पूंजीवादी राज व्यवस्था का सिरमौर बनाया गया था। और उन्होंने ऐसी सरकार देने का वायदा किया था जो भ्रष्टाचार से मुक्त होगी। एक वर्ष बीतते-बीतते नरेन्द्र मोदी का तिलिस्म टूटने लगा और उन्होंने मनमोहन सिंह का पथ अपनाते हुए मौन साधना ही श्रेयस्कर समझा। 
आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी रही कांग्रेस को ललित मोदी, स्मृति ईरानी और पंकजा मुंडे से जुड़े भ्रष्ट आचरण के मामलों से सत्ता से च्युत होने के कई माह बाद ऐसे मुद्दे मिल गये जिससे वह मोदी और भाजपा की लानत-मलामत कर सकती थी। और उसने इस मौके का भरपूर इस्तेमाल करना शुरू भी कर दिया। 
शासक वर्ग की इन पार्टियों के बीच चल रही थुक्का-फजीहत से भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था का चरित्र और साफ होता जा रहा है। कोई भी पार्टी ऐसी नहीं है जो सत्ता में आये और भ्रष्टाचार में लिप्त न हो। सत्ता से बाहर हो गयी पार्टी ऐसे मौके पर नैतिकता की महान पैरोकार बन जाती है और सत्ता में आने पर वह सारी नैतिकता त्याग देती है। गौरतलब है कि सुषमा स्वराज, वसुन्धरा राजे ने भारतीय कानूनों को धता बताकर ही ललित मोदी की मदद की है। यही बात स्मृति ईरानी के फर्जी हलफनामों और पंकजा मुंडे के बिना किसी टेण्डर के 206 करोड़ के ठेके देने से जाहिर होती है। सत्ताधारियों के लिए कोई भी कानून, कोई भी संस्था तब माने नहीं रखती है जब वे अपना और अपने वर्ग-बंधुओं का हित साधने लगते हैं। कानून, नियमों और निगरानी करने वाली संस्थाओं का हवाला विपक्षी देते हैं और अक्सर देते रह जाते हैं। 
भारतीय शासक वर्ग की पार्टियों के बीच के संघर्ष को क्या महज नूरा-कुश्ती कहा जा सकता है। नहीं! यह संघर्ष वास्तविक है और विभिन्न पूंजीवादी गुटों के हितों को साधने वाली पार्टियां ये झगड़े, संघर्ष इसलिए करती हैं ताकि अपने गुटों के हितों को साध सकें। इनके झगड़ों के बीच आम जनता के मुद्दों या हितों को दो तरह से इस्तेमाल किया जाता है। पहला अपने खोये हुए जनाधार को वापस प्राप्त करना और फिर उस जनाधार से सत्ता को हासिल करना। राहुल गांधी के नेतृत्व में आजकल कांग्रेस यही सब कुछ कर रही है। ऐसी कोशिशों के बीच ‘ललित गेट’ ने वही भूमिका निभायी है जो कभी उनके शासन के दौरान ‘कोलगेट’ ने निभायी थी। हाशिये में चली गयी कांग्रेस फिर से चर्चा में है। 
शासक वर्ग का राजनीतिक दायरे में जो कुछ चल रहा है उसका भारत के करोड़ों मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकशों से क्या लेना-देना है। यह लेना-देना है कि वे जानें कि कैसे लोग उनके शासक हैं। इनका चरित्र क्या है? 
ललित मोदी जो कि मेरठ के पास मोदीनगर बसाने वाले पूंजीपति का पोता है और जो अमीर और अमीर बनने के लिए ऐसी चालें चलता है कि अपने वर्ग के सब लोगों को हैरत में डाल देता है। वसुन्धरा राजे, सुषमा स्वराज जैसे कई राजनेता उसकी दौलत को बढ़ाने में मददगार बनते हैं और वह अपनी बारी में इन्हें भी दौलतमंद बनाने में अपना पूरा फर्ज निभाता है। मोदी, राजे, स्वराज आदि के बीच चल रहे दौलत बढ़ाने के धंधे के खुलासे से यह बात जाहिर होती है कि ये सब लोग शासन करने का नैतिक प्राधिकार खो चुके हैं। ये जितना अपने को पाक दामन साबित करने की कोशिश करते हैं उतने ही अपने दामन की कालिख अपने मुंह पर पोत लेते हैं। 
असल में भारत के वर्तमान शासक वर्ग का भारत की जनता से अलगाव बढ़ता ही जा रहा है। यह अलगाव की ही एक अभिव्यक्ति है कि भारतीय आम मेहनतकशों के जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दे देश की राजनीति के केन्द्र में नहीं हैं। वे अखबारों की सुर्खियों में नहीं हैं। वे संसद में बहस के मुद्दे नहीं हैं। 
हाल के वर्षों में उद्योग की बुरी हालत के कारण लाखों मजदूर बेरोजगार हो गये किन्तु यह चर्चा का विषय नहीं है। अपनी बुरी हालत से क्षुब्ध होकर अगर गुड़गांव की हाल की घटना जिसमें मजदूरों ने कार व अन्य वाहनों पर आगजनी कर अपना क्षोभ व्यक्त किया वह चर्चा का विषय नहीं है। क्यों भारत के मजदूर लगातार उग्र होने को मजबूर हैं। यह चर्चा का विषय नहीं बनता है। इक्का-दुक्का राष्ट्रीय अखबारों को छोड़कर कोई इस घटना को छापना भी गवारा नहीं समझता। 
पिछले कुछ महीनों में सैकड़ों किसानों ने आत्महत्या कर ली परन्तु न तो अखबारों की सुर्खी बनता है और न ही किसी न्यूज चैनल के ऐसी खबर जिस पर वह समाज को उद्वेलित कर सके। शासक वर्ग को अपनी जनविरोधी नीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर सके। 
भारत के करोड़ों शोषितों-उत्पीडि़तों के जीवन के लिए न तो शासक वर्ग और न ही उसके द्वारा संचालित प्रचार माध्यमों में कोई स्थान है। वहां शासक वर्ग की कुत्सित चालें, उनके घटिया जीवन के किस्से, एक-दूसरे के खिलाफ की जाने वाली तुच्छ बातें, अश्लीलता ही छाये हुए हैं। जनता के बारे में यदि कुछ है तो ऐसे षड्यंत्र जिन्हें जन कल्याण के नाम पर रचा जाता है। धूर्त राजनीतिज्ञ न केवल जन के खिलाफ रात दिन षड्यंत्र रचते हैं बल्कि उसके नाम पर चलने वाली योजनाओं से भी अपने घर भर लेते हैं। 
भारत के शासक शायद इस भ्रम के शिकार हैं कि वे कुछ भी करते रहें भारत की जनता कुछ नहीं कहेगी, कुछ नहीं करेगी। भारत के मजदूर, भारत के किसान, भारत के नौजवान, भारत के शोषित-उत्पीडि़त हर झूठ, हर फरेब, हर धोखे को बर्दाश्त कर लेंगे। वे ये भी बर्दाश्त कर लेंगे कि उनके शासक जितना भी अमीरी का, जितना भी ऐय्याशी का जीवन जीयें उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई शिकायत नहीं है, कोई गुस्सा नहीं, कोई नफरत नहीं है।  

आपका नजरिया-  सत्ता की ताकत तले ढहते संस्थान
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
याद कीजिये तो एक वक्त सीबीआई, सीवीसी और सीएजी सरीखे संवैधानिक संस्थानों की साख को लेकर आवाज उठी थी। वह दौर मनमोहन सिंह का था और आवाज उठाने वाले बीजेपी के वही नेता थे जो आज सत्ता में हैं और अब प्रधानमंत्री मोदी की सत्ता के आगे नतमस्तक होते तमाम संस्थानों की साख को लेकर कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष ही सवाल उठा रहा है। तो क्या आपातकाल के चालीस बरस बाद संस्थानों के ढहने और राजनीतिक सत्ता की आकूत ताकत के आगे लोकतंत्र की परिभाषा भी बदल रही है। यानी आपातकाल के चालीस बरस बाद यह सवाल बड़ा होने लगा है कि देश में राजनीतिक सत्ता की अकूत ताकत के आगे क्यों कोई संस्था काम कर नहीं सकती या फिर राजनीतिक सत्ता में लोकतंत्र के हर पाये को मान लिया जा रहा है। क्योंकि इसी दौर में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर संसद की स्टैंन्डिग कमेटी बेमानी साबित की जाने लगी। राज्य सभा की जरूरत को लेकर सवाल उठने लगे। और ऊपरी सदन को सरकार के कामकाज में बाधा माना जाने लगा। 
न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सत्ता ने सवाल उठाये। कोलेजियम के जरिये न्यायपालिका की पारदर्शिता देखी जाने लगी। कारपोरेट पूंजी के आसरे हर संस्थान को विकास से जोड़कर एक नई परिभाषा तय की जाने लगी। कामगार यूनियनें बेमानी करार दे दी गई या माहौल ही ऐसा बना दिया गया है जहां विकास के रास्ते में यूनियन का कामकाज रोड़ा लगने लगे। किसानो से जुड़े सवाल विकास की योजनाओं के सामने कैसे खारिज हो सकते हैं यह आर्थिक सुधार के नाम पर खुल कर उभरा। सत्ताधारी के सामने नौकरशाही चूहे में बदलती दिखी। और यह सब झटके में हो गया ऐसा भी नहीं है। बल्कि आर्थिक सुधार के बाद देश को जिस रास्ते पर लाने का प्रयास किया गया उसमें ‘पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्रविड, उत्कल बंग’ सरीखी सोच खारिज होने लगी। क्यांेकि भारत की विविधता, भारत के अनेक रंगों को पूंजी के धागे में कुछ इस तरह पिरोने की कोशिश शुरु हुई कि देश के विकास या उसके बौद्धिक होने तक को मुनाफा से जोड़ा जाने लगा। असर इसी का है कि विदेशी पूंजी के बगैर भारत में कोई उत्पाद बन नहीं सकता है यह संदेश जोर-शोर से दी जाने लगी। लेकिन संकट तो इसके भी आगे का है। 
भारत को लेकर जो समझ संविधान या राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान तक में झलकती है उसे सत्ता ने अपने अनुकूल विचारधारा के जरिये हड़पने की समझ भी विकसित कर ली। असर इसी का हुआ कि बाजारवाद की विचारधारा ने विकास के नाम पर संस्थानों के दरवाजे बंद कर दिये। तो एक वक्त सूचना के अधिकार के नाम पर हर संस्थान के दरवाजे थोड़े बहुत खोल कर लोकतंत्र की हवा सत्ता के जरिये बहाने की कोशिश हुई। तो मौजूदा वक्त में जनादेश के आसे सत्ता पाने वालों ने खुद को ही लोकतंत्र मान लिया और हर दरवाजे अपने लिये खोल कर साफ संकेत देने की कोशिश शुरू की पांच बरस तक सत्ता की हर पहल देश के लिये है। तो इस घड़ी में सूचना का अधिकार सत्ता की पंसद नापंसद पर आ टिका। और सत्ता जिस विचारधारा से निकली उसे राष्ट्रीय धारा मान कर राष्ट्रवाद की परिकल्पना भी सियासी विचारधारा के मातहत ही परिभाषित करने की कोशिश शुरु हुई। इसी का असर नये तरीके से शुरू हुआ कि हर क्षेत्र में सत्ता की मातृ विचारधारा को ही राष्ट्र की विचारधारा मानकर संविधान की उस डोर को ही खत्म करने की पहल होने लगी जिसमें नागरिक के अधिकार राजनीतिक सत्ता से जुड़े बगैर मिल नहीं सकते। हर संस्थान के बोर्ड में संघ के पंसदीदा की नियुक्ति होने लगी। गुड गवर्नेंस झटके में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आईने में कैसे उतारा गया यह किसी को पता भी नहीं चला या कहे सबको पता चला लेकिन इसे सत्ता का अधिकार मान लिया गया। बच्चों के मन से लेकर देश के धन तक पर एक ही विचारधारा के लोग कैसे काबिज हो सारे यत्न इसी के लिये किये जाने लगे। नवोदय विद्यालय हो या सीबाएसई बोर्ड। देश के 45 केन्द्रीय विश्वविद्यालय हो या उच्च शिक्षा के संस्थान आईआईटी या आईआईएम हर जगह को भगवा रंग में रंगने की कोशिश शुरू हुई। उच्च शिक्षण संस्थानों की स्वायत्ता को सत्ता अपने अधीन लाने के लिये मशक्कत करने लगी। और विचारधारा के स्तर पर शिमला का इंडियन काउंसिल आफ हिस्टोरिकल रिसर्च सेंटर हो या इंडियन काउंसिल आफ सोशल साइंस रिसर्च या फिर एनसीईआरटी हो या यूजीसी। बोर्ड में ज्ञान की परिभाषा विचारधारा से जोड़कर देखी जाने लगी। यानी पश्चिमी सोच को शिक्षा में क्यांे मान्यता दें जब भारत की सांस्कृतिक विरासत ने दुनिया को रोशनी दी। और राष्ट्रवाद की इस सोच से ओत प्रोत होकर तमाम संस्थानांे में वैसे ही लोग निर्णय लेने वाली जगह पर नियुक्त होने लगे जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बीजेपी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नजदीक रहे। यानी यहां भी यह जरूरी नहीं है कि वाकई जो संघ की समझ हेडगेवार से लेकर गोलवरकर होते हुये देवरस तक बनी उसकी कोई समझ नियुक्त किये गये लोगांे मंें होगी या फिर श्यामाप्रसाद मुखर्जी या दीन दयाल उपाध्याय की राजनीतिक सोच को समझने-जानने वाले लोगो को पदों पर बैठाया गया। 
दरअसल सत्ता के चापलूस या दरबारियांे को ही संस्थानों में नियुक्त कर अधिकार दे दिये गये जो सत्ता या संघ का नाम जपते हुये दिखे। यानी पदों पर बैठे महानुभाव अगर सत्ता या संघ पाठ अविरल करते रहेंगे तो संघ का विस्तार होगा और सत्ता ताकतवर होगी यह सोच नये तरीके से विचारधारा के नाम पर विकसित हुई। जिसने उन संस्थानों की नींव को ही खोखला करना शुरू कर दिया जिन संस्थानों की पहचान दुनिया में रही। आईसीसीआर हो या पुणे का फिल्म इंस्टीटयूट यानी एफटीआईई या फिर सेंसर बोर्ड हो या सीवीसी सरीखे संस्थान, हर जगह दिन हाथों में बागडोर दी गई उनके काम के अनुभव या बौद्धिक विस्तार का दायरा उन्हें संस्थान से ही अभी ज्ञान अर्जित करने को कहता है लेकिन आने वाली पीढि़यों को जब वह ज्ञान बांटेंगे तो निश्चित ही वही समझ सामने होगी जिस समझ की वजह से उन्हें पद मिल गया। तो फिर आने वाला वक्त होगा कैसा या आने वाले वक्त में जिस युवा पीढ़ी के कंधों पर देश का भविष्य है अगर उसे ही लंबे वक्त तक सत्ता अपनी मौजूदगी को श्रेष्ठ बताने वाले शिक्षकों की नियुक्ति हर जगह कर देती है तो फिर बचेगा क्या। यह सवाल अब इसलिये कहीं ज्यादा बड़ा हो चला है कि राजनीतिक सत्ता यह मान कर चल रही है कि उसकी दुनिया के अनुरूप ही देश को ढलना होगा। तो कालेजों में उन छात्रों को लेक्चरर से लेकर प्रोफेसर बनाया जा रहा है, जो छात्र जीवन में सत्ताधारी पार्टी के छात्र संगठन से जुड़े रहे हैं। यानी मौजूदा वक्त बार-बार एक ऐसी लकीर खींच रहा है जिसमें सत्ताधारी राजनीतिक दल या उसके संगठनों के साथ अगर कोई जुड़ाव आपका नहीं रहा तो आप सबसे नाकाबिल हैं। या आप किसी काबिल नहीं है। मुश्किल तो यह है कि समझ का यह आधार अब आईएएस और आईपीएस तक को प्रभावित करने लगा है। बीजेपी शासित राज्यों में कलेक्टर, डीएम एसपी तक संघ के पदाधिकारियों के निर्देश पर चलने लगे हैं। ना चले तो नौकरी मुश्किल और चले तो सारे काम संघ के विस्तार और सत्ता के करीबियों को बचाने के लिये। तो क्या चुनी हुई सत्ता ही लोकतंत्र की सही पहचान है। ध्यान दें तो मौजूदा वक्त में भी मोदी सरकार को सिर्फ 31 फीसदी वोट ही मिले। वहीं जिन संवैधानिक संस्थानों को लेकर मनमोहन सिंह के दौर में सवाल उठे थे तब कांग्रेस को भी 70 करोड़ वोटरों में से महज साढे़ ग्यारह करोड़ ही वोट मिले थे। बावजूद इसके कांग्रेस की सत्ता से जब अन्ना और बाबा रामदेव टकराये तो कांग्रेस ने खुले तौर पर हर किसी को चेतावनी भरे लहजे में वैसे ही तब कहा था कि चुनाव लड़कर जीत लें तभी झुकेंगे। लेकिन मौजूदा वक्त भारतीय राजनीति के लिये इसलिये नायाब है क्योंकि जनादेश के घोड़े पर सवार मोदी सरकार ने अपना कद हर उस साथी को दबा कर बड़ा करने की कवायद से शुरु की जो जनादेश दिलाने में साथ रहा। और जो सवाल कांग्रेस के दौर में बीजेपी ने उठाये उन्हीं सवालों को मौजूदा सत्ता ने दबाने की शुरुआत की। दरअसल पहली बार सवाल यह नहीं है कि कौन गलत है या कौन सही।
सवाल यह चला है कि गलत सही को परिभाषित करने की काबिलियत राजनीतिक सत्ता के पास ही होती है। और हर क्षेत्र के हर संस्थान का कोई मतलब नहीं है क्योंकि विकास की अवधारणा उस पूंजी पर जा टिकी है जो देश में है नहीं और विदेश से लाने के लिये किसान मजदूर से लेकर उद्योगपतियों से लेकर देशी कारपोरेट तक को दरकिनार किया जा सकता है तो मौजूदा वक्त में सत्ता के बदलने से उठते सवाल बदलते नजरिये भर का नहीं है बल्कि सत्ता के अधिक संस्थानों को भी सत्ता की ताकत बनाये रखने के लिये कहीं ढाल तो कहीं हथियार बनाया जा सकता है। और इसे खामोशी से हर किसी को जनादेश की ताकत माननी होगी क्योंकि यह आपातकाल नहीं है।
     पूण्य प्रसून वाजपेयी वाया ई मेल


सम्पादकीय




नैतिक प्राधिकार
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    सामाजिक संघर्षों में नैतिक प्राधिकार का प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण है। किसी भी संघर्ष की जीत या हार सबसे पहले नैतिक क्षेत्र में तय हो जाती है। नैतिक जीत वास्तविक जीत को बेहद आसान बना देती है। नैतिक जीत संघर्ष करने वालों के मनोबल को ऊंचाकर उनकी वास्तविक जीत की पटकथा तैयार कर देती है। 
    नैतिक प्राधिकार का निर्माण मूलतः सिद्धांतों और मूल्यों से होता है। जाहिर है आज की दुनिया जो विभिन्न वर्गों व समुदायों में बंटी है वहां सिद्धांत और मूल्य ऐसे नहीं हो सकते हैं जो वर्गीय चरित्र से मुक्त हों। नैतिक दुनिया में ऐसे सिद्धांत और मूल्य नहीं हो सकते हैं जो सार्वभौमिक हों, सार्वकालिक हों और हर कोई उन्हें माने। इसीलिए हर सामाजिक संघर्ष में संघर्ष के कई युद्धक्षेत्रों की तरह नैतिक क्षेत्र भी एक युद्ध क्षेत्र बन जाता है। 
    नैतिक प्राधिकार को हासिल करने के संघर्ष को राजनैतिक क्षेत्र में बखूबी देखा जा सकता है। हालिया आम चुनाव में मोदी ने चुनाव जीतने के लिए नैतिक प्राधिकार हासिल करने के लिए सत्तारूढ़ संप्रग गठबंधन की खूब लानत-मलानत की। भ्रष्टाचार, निर्णय लेने में अक्षमता, सत्ता के दो केन्द्र, महंगाई, कालाधन आदि कई मुद्दों को उठाते हुए उन्होेंने अच्छे दिनों का वायदा किया। संप्रग सरकार आम चुनाव से कुछ वर्ष पूर्व ही शासन करने का नैतिक प्राधिकार खो चुकी थी। स्थिति यहां तक पहुंच गयी थी कि चिदंबरम जैसे कई प्रमुख मंत्री चुनाव लड़ने तक की हिम्मत गंवा चुके थे। 
    इसी तरह आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी ने भी एक नैतिक प्राधिकार हासिल किया हुआ था। महात्मा गांधी ने इस प्राधिकार को अपनी किसानों जैसी वेशभूषा के साथ बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के धार्मिक विश्वासों, रीति-रिवाजों और मूल्यों के प्रश्य व पक्षपोषण से हासिल किया था।
    नैतिक प्राधिकार समाज के रूढि़गत सिद्धांतों, मूल्यों, रीति-रिवाजों आदि से हासिल करना अपेक्षाकृत आसान है। कारण यह कि प्रचलित सिद्धांत, मूल्य आदि ऐसे होते हैं जिन्हें शासक वर्ग ने अपने हर साधन के जरिये स्थापित किया होता है। और उन्हीं सिद्धांतों और मूल्यों को आधार बनाकर शासक अपने शासन करने की वैधता हासिल करता है। पूंजीवादी लोकतंत्र में शासन करने की वैधता चुनाव द्वारा हासिल करता है। पूंजीवादी लोकतंत्र में शासन करने की वैधता चुनाव द्वारा हासिल की जाती है। और चुनाव जीतने के लिए उन सिद्धांत और मूल्यों का हवाला दिया जाता है जो स्थापित हैं। और यह पूंजीवादी लोकतंत्र में अपने आप में भले ही एक प्रहसन हैं। परंतु इस प्रहसन में भाग लेने वाले सभी पात्र अति गंभीरता से अपने अभिनय को अंजाम देते हैं। पूंजीवादी लोकतंत्र में नैतिक प्राधिकार हासिल करते वक्त की जाने वाली बातें इतनी अल्पजीवी साबित होती हैं कि वे सत्ता में काबिज होने के चंद लम्हों बाद ही भुला दी जाती हैं। शासन करने का प्राधिकार हासिल किया जा चुका होता है और अब सत्ता वही करती है जो उसे करना होता है अर्थात शासक वर्ग के हितों की निर्मम पैरोकारी। 
    नैतिक प्राधिकार सार्वकालिक नहीं होते। समाज व्यवस्था में बदलाव के लिए संघर्षरत शक्तियां पूर्वस्थापित नैतिक प्राधिकार को चुनौती देती हैं और नये नैतिक प्राधिकार स्थापित किये जाते हैं। नई शक्तियां जब नये नैतिक प्राधिकार को बहुसंख्यक आबादी में स्थापित कर देती हैं तब असली संघर्ष सत्ता का संघर्ष शुरू होता है। सत्ताधारी वर्ग सत्ता आसानी से छोड़ता नहीं और नई शक्तियां उसे सत्ता से बेदखल करने के लिए हर कोशिश करती हैं। नई शक्तियों की जीत नैतिक क्षेत्र में जीत हासिल करने के साथ काफी पहले ही सुनिश्चित हो चुकी होती हैं। 
    नैतिक प्राधिकार हासिल करने का संघर्ष सिद्धांत और मूल्य के क्षेत्र में उग्र ढंग से चलता है क्योंकि सिद्धांत और मूल्य किसी वर्ग विशेष के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं या दूसरे शब्दों में सेवा करते हैं इसलिए यह संघर्ष वर्ग संघर्ष का आवश्यक व अनिवार्य हिस्सा होता है। युद्ध के मैदान की तरह ही यह संघर्ष ‘करो या मरो’ की तर्ज पर चलता है। 
    वैचारिक संघर्ष शासकों और शासितों या पुराने और नये के बीच ही नहीं कई दफा खासकर संकट के समय शासकों और शासितों के अपने बीच भी चलते हैं। संकट के समय विचारों की टकराहट संकट पर काबू पाने के लक्ष्य को लेकर चलती है। इस बात की बानगी आधुनिक पूूंजीवादी युग में शासक वर्ग की विभिन्न पार्टियों व मजदूर वर्ग में पूंजीपति वर्ग को सत्ता से बेदखल करने के प्रयास में लगे विभिन्न समूहों-संगठनों की मौजूदगी में देखी जा सकती है।
    गहराते विश्व पूंजीवादी संकट में अतीत में ही नहीं बल्कि इस समय भी दक्षिणपंथी व फासीवादी विचारों की उदार पूंजीवादी विचारों से बढ़ती टकराहट को जन्म दिया है। और यह टकराहट चुनावी क्षेत्र में भी अपने को अभिव्यक्त करती है। पूरी दुनिया में 2007 से शुरू हुए आर्थिक संकट के गहराते जाने के साथ घोर दक्षिणपंथी व नवफासीवादी विचारों का प्रभुत्व बढ़ा है।  
    भारत में हाल के आम चुनाव में घोर दक्षिणपंथी पार्टी की विजय और उसे नेताओं के फासीवादी मंसूबों की आये दिन की बयानबाजी में इसको देखा जा सकता है। 
    भारत के हिन्दू फासीवादी आज जीवन के हर क्षेत्र में अपने सिद्धांतों और मूल्यों को स्थापित करने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। भारतीय पूंजीवादी राज्य की हर संस्था को हिन्दू फासीवादी रंग में रंगने की कोशिश कर रहे हैं। कई संस्थाओं को वे अपने रंग में रंग भी चुके हैं। सिद्धांतों और जीवन मूल्यों के क्षेत्र में चल रहे संघर्ष में वे यदि विजयी होेते हैं तो इसका अर्थ होगा भारत में हिन्दू फासीवादी राज्य का अभ्युदय। 
    हाल के आम चुनाव में जिस ढंग से भारत के एकाधिकारी पूंजी व हिन्दू फासीवादी आंदोलन का गठजोड़ कायम हुआ उसमें भारतीय पूंजीवाद का गहराता संकट एक ऐसे हिन्दू फासीवादी राज्य के लिए सहमत हो जायेगा जो उसके हितों को साधे भले ही वह आज इसके लिए तैयार न हो। मोदी और उनकी संघ मंडली अपने सिद्धांतों और जीवन मूल्यों को स्थापित करने और उन्हें आम बनाने के लिए रात-दिन एक कर रही है। इन सिद्धांतों और मूल्यों के आम और स्थापित होते ही वह नैतिक प्राधिकार हिन्दू फासीवादी तत्वों को हासिल हो चुका होगा जहां वे हिन्दू फासीवादी राज्य कायम करने में सफल हो जायेंगे। हमारे देश के ऊपर खतरा मंडरा रहा है। अस्तु हिन्दू फासीवादी आंदोलन को हर कदम पर चुनौती देना उन सब लोगों का फर्ज है जो फासीवाद के विरोधी हैं। 
    भारत के मजदूर आंदोलन के क्रांतिकारी पक्ष के लिए भी यहां से कई गहरे सबक निकलते हैं। भारत में समाजवाद की स्थापना के लिए बेहद जरूरी है कि वह अपने सिद्धांतों और मूल्यों को लेकर तीव्र सर्वभारतीय संघर्ष करें। उन्हें आम बनायें। मजदूर वर्ग की विचारधारा का व्यापक प्रसार होना चाहिए। इसके लिए हर शब्दों को हर वक्त याद रखना होगा कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है। समाज के सभी वर्गों व तबकों पर मजदूर वर्ग के विचारों का व्यापक प्रभाव होना चाहिए। 
    सिद्धांतों व मूल्यों के क्षेत्र में हासिल वरीयता और जीत उस नैतिक प्राधिकार को जन्म देगी जो समाजवाद की स्थापना की लड़ाई के प्रथम कदम के रूप में अति आवश्यक है। 


आपका नजरिया- दोहरे शोषण की शिकार महिलाएं
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    आज इस पूंजीवादी व्यवस्था में महिलाओं का दुगना शोषण होने लगा है। आज पूरी दुनिया का पूंजीपति वर्ग ने अपने माल को बेचने के लिए महिलाओं को एक बाजारी वस्तु बना दिया है। आज इस पूंजीवादी व्यवस्था में 12-12 घंटे काम और पुरुष की मजदूरी कम होने के कारण आज महिलाओं को भी दो वक्त की रोटी खाने के लिए कुछ न कुछ काम करना पड़ रहा है।
    कुछ महिलाएं चंद मीडिल क्लास लोेगों के घर सुबह-शाम झाडू-पोंछा बर्तन साफ करने व खाना बनाने जैसे काम करके अपनी जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करती हैं पर तीन-चार घरों में काम करने के बाद उनको 1000 से 1500 रुपये मिलते हैं। इससे वह अपने घर में कुछ मदद करने की कोशिश करती हैं।
    काम पर से आने के बाद उनको घर में भी काम करना पढ़ता है। पर, पुरुष व महिलाओं दोनों को इतनी कम मजदूरी मिलती है कि वे अपने बच्चे को पढ़ा भी नहीं पाते और उनको भी कहीं किसी छोटी बड़ी चाय कि दुकान या अन्य किसी काम पर लगा देते हैं। इस पूंजीवादी व्यवस्था में करोड़ों बच्चे अशिक्षित रह जाते हैं और हमारे देश की सरकार भी इसे सही मानती हैं और हमारी सरकार ने पूंजीपति वर्ग के लिए संसद में मजदूर महिला विरोधी व बाल श्रम व भूमि अधिग्रहण बिल जैसे कानूनों को लाकर इस देश के पूंजीपति वर्ग के लिए शोषण की खुली छूट दे दी। 
    आम जनता मजदूर-किसानों से अच्छे दिनों की बात कर हमारे देश की मोदी सरकार पूंजीपति वर्ग के अच्छे दिन लाने में जुटी है। आज अगर हम देखें तो कोई सरकार सत्ता में हो पर वह महिला व पुरुष में अंतर विरोध बना कर रखती है। अगर आज हम देखें कि जैसे छोटी-बड़ी दुकानें, शाॅपिंग माॅल, काॅल सेन्टर, कंपनी प्रतिष्ठानों पर महिलाओं व लड़कियों ने काम करना शुरू कर दिया है पर जो काम पुरुष करता है वही काम महिला करती है पर महिलाओं को दो या तीन हजार रुपये दिये जाते हैं और काम से आने का समय प्रातः 10 बजे से रात्रि 8 बजे होता है। इन महिलाओं को काम पर जाने के पहले अपने भी घरेलू काम करने पड़ते है। ऐसे में एक चीज और भी देखी जा रही है। पहले तो कुछ बड़ी लड़कियां व महिलाएं ही दुकानें माॅल व अन्य प्रतिष्ठानों में काम करती थीं। जैसे-जैसे महंगाई व मजदूर कर्मचारियों की मजदूरी कम होती जा रही है, वैसे-वैसे उनकी छोटी-छोटी 15-16 साल की लड़कियों को भी काम करना पड रहा है और आये दिन उनके साथ छेड़ छाड़ जैसी घटनाएं भी सामने आती हैं। इस पूंजीवाद में महिलाओं को देवी जरूर माना जाता है पर आज हमें उल्टा ही देखने को मिल रहा है। इस पूंजीवादी समाज में दो तरह के लोग हैं एक ‘कमाने वाला’ और एक ‘लूटने वाला’ जो आज पूरी दुनिया में सर्वहारा वर्ग की श्रम की लूट के साथ उसके पूरे परिवार कि श्रम कि लूट में जुटा हुआ है।
    इस लूट में साफ देखा जा सकता है कि सबसे ज्यादा शोषण महिलाओं का हो रहा है क्योंकि आज के दौर में महिलाओं को घर से लेकर बाहर तक का काम करना पड़ रहा है। आज के इस दौर में महिलाओं को एक क्रांतिकारी संगठन बनाकर इस शोषणकारी व्यवस्था से लड़कर अपनी आजादी के लिए लड़ना होगा क्योंकि आज इस पूंजीवादी समाज में महिलाओं के साथ बड़ रहे शोषण छेड़छाड़ बलात्कार छीनती आजादी के खिलाफ एकजुट होकर एक ऐसे समाज जो कि सचमुच महिलाओं-पुरुषों-बच्चों सबके शोषण के खिलाफ हो। ऐसे मजदूर राज समाजवाद की स्थापना करनी होगी जिसमें इस सारी चीजें से निजात मिल सके।               मोहित, बरेली


आपका नजरिया-  कफन और बीमा
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
देश के शीर्ष पर बैठकर
चिल्ला रहा है जोर से
बारह रुपये में कफन मिलता नहीं
बनता है जीवन बीमा यहां
समझ नहीं आया
दुनिया के सामने क्यों देेश की
भद्द पिटा रहा है
और कह रहा है
हम दुनिया की एक बेहतरीन शक्ति है।
जहां लोग कफन नहीं खरीद सकते
वहां बीमा पर्ची कैसे कटवा सकते हैं
जानता है शीर्ष गद्दी पर बैठा।
नंगेपन को छिपाने की कोशिश में 
एक और नंगेपन का खुलासा कर देता है
वह जानता है
बीमा कंपनियां यहां
लूटने के लिए आएंगी
जीवन सुरक्षा के लिए नहीं।
        संदीप कुमार वाया ई-मेल  sandeep@breakthrough.tv


सम्पादकीय




अच्छे दिन
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    दुनिया भर में छाये आर्थिक संकट को लगभग आठ वर्ष का समय हो गया है। स्थिति इन वर्षों में यह हो गयी है कि जितने दावे इसमें सुधार के किये जाते हैं वे एक माह तो क्या एक हफ्ते तक भी नहीं टिक पाते हैं। 
    अच्छे दिन के वायदों के साथ आयी भारत के राॅक स्टार प्रधानमंत्री की सरकार को भी भारी शोर-शराबे के बीच एक साल हो गया है। भारत की अर्थव्यवस्था में अभी तक सुधार के कोई खास चिह्न नहीं दिखाई दिये हैं। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के गफलत से भरे आंकड़ों से इतर जाकर जब औद्योगिक व कृषि उत्पादन, निर्यात, व्यापार संतुलन, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, भारतीय रुपए आदि को देखा जाए तो एक निराशाजनक तस्वीर उभरती है। संकट के जाल में भारतीय अर्थव्यवस्था मछली की तरह छटपटा रही है। 
    अच्छे दिनों का वायदा एक छलावा आम जनता के साथ उस हाल में भी साबित होना था जब अर्थव्यवस्था पूंजीवादी मानकों के हिसाब से सही ढंग से प्रगति कर रही होती परन्तु ऐसी स्थिति जब अर्थव्यवस्था को सही दिखावे के लिए आधार वर्ष बदलने जैसे तकनीकी नुस्खे अपनाये गये हों तब यह जनता के लिए ही नहीं उस पूंजीपति वर्ग के लिए भी भारी मुसीबत का सबब बनना है जिन्होंने उन्हें सत्ता में पहुंचाने के लिए अपने खजाने के मुंह खोले थे। 
    ‘मेक इन इण्डिया’ का नारा हवाई नारा बन कर रह गया है। जब बाजार संतृप्त हो पहले से बना माल खप न रहा हो। तब कौन भारत में आकर माल बनायेगा और फिर उसे कहां खपायेगा?
    भारत के पूंजीपति वर्ग में मोदी के एक वर्ष बीतने के बाद कोई खास आशा का संचार नहीं हुआ है। यह वर्ग मुखर प्रशंसक होने के स्थान पर अब ज्यादा सतर्क हो गया है। एक हिस्सा तो मुखर आलोचक तक हो गया है। विपक्षी पार्टियां हार के सदमे से उबर कर आक्रामक हो गयी हैं। 
    आखिर ऐसे क्या कारण हैं कि मोदी-जेटली की सारी तीन-तिकड़मों के बावजूद अच्छे दिनों का किसी को एहसास नहीं हो रहा है। न पूंजीपति और न जनता को। क्योंकि जिस स्तर पर जाकर मोदी-जेटली ने भारतीय अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप किया है उस स्तर पर अवश्य वह सब हो जाना चाहिए था जिसकी उम्मीद देशी-विदेशी पूंजीपति वर्ग कर रहा था। असल में इन सबको एहसास ही नहीं था कि संकट कितना व्यापक है और उसने भारतीय अर्थव्यवस्था के पुरातन संकट के साथ मिलकर कितना व्यापक असर डाल दिया है।  
    मोदी के अच्छे दिनों के वायदे पर विदेशी संस्थागत निवेशकों का भरोसा एक वर्ष बीतते-बीतते टूटने सा लगा है। मई माह में विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारत के शेयर और बाॅण्ड बाजारों से 2 अरब डालर से अधिक की निकासी की है। शेयर बाजार के हिचकोले इस कहानी को बयां कर रहे हैं। साल भर पहले माना जा रहा था कि मई आते-आते सेंसेक्स 30,000 अंक से पार चला जायेगा। एक बार तो उसने इस स्तर को छू भी लिया था।  
    राष्ट्रीय गौरव से जोड़कर रुपये की डालर से तुलना करने वाले मोदी के राज के एक साल में रुपया लगातार गिर रहा है। सबसे बुरा हाल भारत के निर्यात का है। पिछले पांच महीनों में निर्यात लगातार गिर रहा है। 
    नरेन्द्र मोदी भारत के पूंजीपति वर्ग के लिए अच्छे दिनों के लिए जिस रास्ते पर चल रहे हैं उसका मूल सार यह है कि देश के मजदूरों-किसानों को और निचोड़ो और इससे जो रक्त और पसीना निकलता है उसे सिक्के में ढालकर पूंजीपतियों के खजाने में पहुंचाओ। श्रम कानूनों में फेरबदल से लेकर भूमि अधिग्रहण कानून में परिवर्तन को लागू करने की तत्परता में इसे देखा जा सकता है। रोजगार में वृद्धि न्यून है। ‘मेक इन इण्डिया’ से अभी तक भारत के पूंजीपतियों को कुछ नहीं मिला और मजदूरों को तो किसी भी हाल में गम ही उठाने हैं। 
    मोदी सरकार के मंत्री एक वर्ष बीतने पर ‘एक वर्ष में कोई घोटाला नहीं हुआ’ कहकर अपनी पीठ थपथपा रहे थे। असल में एक घोटाला जोकि 6 हजार करोड़ का है वस्तुतः हो चुका है। इस घोटाले में गौतम अदाणी, प्रधानमंत्री कार्यालय और स्टेट बैंक शामिल है। गौतम अदाणी को जब दुनिया का कोई बैंक कर्ज नहीं दे रहा था तब मोदी जी के हस्तक्षेप के बाद स्टेट बैंक आॅफ इण्डिया ने दिया। कोई इसलिए नहीं दे रहा था क्योंकि अदाणी समूह पर 2002 में 3071 करोड़ का कर्ज 2014 में बढ़कर 75,659 करोड़ हो चुका था। इधर स्टेट बैंक से कर्ज मिला उधर अदाणी शेयर बाजार का बादशाह बन गया। घोटाले खबर न बन सके इसके लिए मोदी सरकार ने अभी तक न तो मुख्य सतर्कता आयुक्त को और न ही लोकपाल को नियुक्त किया गया है।  
    दस लाख का सूट पहनने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री को शायद ही यह याद रहा होगा कि चुनाव के वक्त वे कैसे अपनी गरीबी से भरे बचपन की मार्केटिंग कर रहे थे। चुनाव जीतने के बाद मोदी सरकार ने उन सब मदों में भारी कटौती की है जिनका सम्बन्ध गरीबों से रहा है। स्वास्थ्य, शिक्षा, कुपोषण आदि से जुड़ी योजनाओं में भारी कटौती को इस साल के बजट में देखा जा सकता है। यह है मोदी सरकार आमजनों से अच्छे दिनों का वायदा और उनसे सम्बन्धित मदों में भारी कटौती। 
    नरेन्द्र मोदी भारतीय अर्थव्यवस्था को जिस दिशा में ले जाना चाहते हैं वह अपने पूर्ववर्तियों से कतई भिन्न नहीं है। वे उसे और तेजी से ले जाने चाहते हैं और उसके हर उस अवरोध को खत्म कर देना चाहते हैं जो उसकी तेजी में बाधक हो। यह गति, यह तेजी भारतीय समाज को कहां ले जायेगी।
    अगर वे अपने मंसूबों में सफल हो जायें यानी ऐसी स्थिति पैदा हो जाये जब सब कुछ उनके मनोनुकूल हो तब उस वक्त भारत में वर्गीय असमानता चरम पर होगी। गरीबी, बेरोजगारी तभी तक नीचे रह सकती है जब तक गति में तेजी बनी रहे। ऐसा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कभी-कभी ही होता है और वह भी मात्र कुछ महीनों के लिए। 1940-45 के दौर में स.रा.अमेरिका में बेरोजगारी न्यून थी और एक समय शून्य थी। चालीस के दशक में जब यूरोप, अफ्रीका, एशिया खून में सने हुए थे तब स.रा.अमेरिका रोशनी में नहा रहा था। यानी स.रा. अमेरिका की सम्पन्नता के पीछे रक्त रंजित दुनिया थी। 
    भारत के लिए इस बात की संभावना न्यून है कि वह ऐसे भीषण आर्थिक संकट के दौर में ऐसी पूंजीवादी गति हासिल कर सके जहां उसकी गरीबी, बेरोजगारी का संकट कुछ समय के लिए ही सही, हल हो जाये। चुनौती दो तरफा हैः एक आंतरिक और दूसरी बाहरी।
    आंतरिक चुनौती यह है कि आर्थिक नीतियों को जितनी तेजी से लागू किया जा रहा है उसमें भारत के करोड़ों मजदूर-मेहनतकशों की क्रय शक्ति गिरती चली गयी है। मध्यम वर्ग की क्रय शक्ति का मिथक हाल के वर्षों में काफी टूटा है। आंतरिक बाजार का विस्तार नहीं हो रहा है। या तो वह ठहरा हुआ या फिर सिकुड़ रहा है। 
    बाहृय चुनौती यह है कि भारत को चीन, दक्षिण कोरिया की तरह की निर्यात मूलक अर्थव्यवस्था आज के भीषण संकट के दौर में कमोबेश असम्भव है। मोदी के एक साल के शासन में जिस ढंग से निर्यात गिरा है यह इस चुनौती की ओर ठीक इशारा कर देता है। 
    नरेन्द्र मोदी की सारी सक्रियता, विश्व व्यापी दौरे का नतीजा अभी तक निवेश, व्यापार आदि के क्षेत्र में कुछ खास नहीं निकला है। यह बात भारत के पूंजीपति वर्ग को कुण्ठित भी कर रही है। 
    यदि नरेन्द्र मोदी अपने मंसूबों में देश-विश्व की परिस्थिति में सफल नहीं होते हैं तो वे आने वाले वर्षों में क्या करेंगे। ज्यादा सम्भावना है कि वे 1971 की इंदिरा गांधी अथवा 1999 के अटल बिहारी वाजपेयी की तरह युद्धोन्माद पैदा करेंगे। भारतीय समाज को अंधराष्ट्रवाद की दलदल में धकेल उसके आजादी के बाद के सबसे काले दिनों से रूबरू करायेंगे। यानी भारतीय समाज फासीवाद की दहलीज पर अपने को खड़ा पायेगा। 
    भारतीय अर्थव्यवस्था बेहद कमजोर धरातल पर खड़ी है। कृषि क्षेत्र जिस पर भारतीय आबादी का पचास फीसदी निर्भर है सकल घरेलू उत्पाद की महज 13 फीसदी है। औद्योगिक क्षेत्र की हालात भी ठीक ऐसी ही है कि वह कृषि क्षेत्र के बाद दूसरा बड़ा क्षेत्र है परन्तु वह ऐसी स्थिति में नहीं है कि देहात या शहरी क्षेत्र की बेरोजगार आबादी को खपा सके। ऐसे में मोदी की नीतियों की सफलता संदिग्ध है। आगे कुंआ पीछे खाई की स्थिति है। 
    विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का गहराता संकट इस बात की सम्भावना नहीं पैदा कर रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पूरे विश्व के उलट कारनामे दिखा सके। मोदी जी जो भी करेंगे उससे उनके आगे के कुंए और पीछे की खाई की गहराई और बढ़नी है। 
    अच्छे दिन पूंजीवाद या पूंजीपति वर्ग की किस्मत में नहीं बदे हैं। तात्कालिकता में जीने वाला पूंजीपति वर्ग साल-दर-साल उस दिशा में बढ़ रहा है जहां सामाजिक विस्फोट उसे सामंत वर्ग की तरह अतीत की वस्तु बना दे। ऐसा जब होने लगेगा तब वास्तव में देशी-दुनिया के मजदूरों-मेहनतकशों के अच्छे दिन की शुरूवात होगी। ऐसे सामाजिक विस्फोट जितना पूंजीवाद की गति से आयेंगे उससे तीव्र गति से मजदूरों-मेहनतशों के सचेत प्रयासों से आयेंगे। इन्कलाबी ख्यालों और संगठनों के जोर से आयेंगे। 
आपका नजरिया-   सूरत इंसान की सी
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    मैं इंसान के इतिहास के पन्नों को न उलट कर केवल काल के एक पल के कारनामे अर्थात् आजकल के इंसान के व्यवहार के बारे में देखता और सुनता रहता हूं। ज्योंही कदम दरवाजे से बाहर होते हैं; इंसान मिलना शुरू! (घर के अंदर के वातावरण को छोड़ रहा हूं।)  नाम इंसान का मेरे मस्तिष्क पर कुछ इस तरह उधेड़बुन करता हूं कि मैं किसको इंसान कहूं- या इंसान किसे कहा जाय।
    कोई कहता है मैं एमएससी पढ़ा हूं, कोई कहता है एम ए पढ़ा हूं। कोई कहता है एमसीए हूं। कोई कहता है मैं बीटेक हूं। पर कुछ लोगों से पूछने की जरूरत ही नहीं होती क्योंकि उनके मकान, चेम्बर, आॅफिस के बाहर पहचान शिला लेख पर दर्ज होती है। किसी से तो पूछने की हिम्मत नहीं होती क्योंकि हाथ में हथियार, कमर में पिस्टल रखे घूमते रहते हैं। किसी बारे में पूछने की जरूरत ही नहीं होती क्योंकि वहां पर पढ़ने-लिखने से कोई सरोकार नहीं होता, वहां रसूख काम कर रहा होता है। मान लो कोई मोदी जी से पूछे कि आप कितने पढ़े हैं तो यहां पर सवाल ओहदे और पढ़े-लिखे होने का कोई तारतम्य नहीं होता। 
    आज समाज में पढ़ाई का मनुष्य के जीवन से सम्बन्ध केवल रोजी-रोटी से रह गया है। एक तो व्यवस्था (सरकार) चाहती भी यही है कि विद्यालयों में शिक्षा ऐसी हो जो व्यवस्था चलाने के पुर्जे तैयार हों। 
    तो मैं अभी इंसान के बारे में कह रहा था तो आज अगर किसी की दो जून की रोटी ठीक-ठाक मिल रही है। (शायद पहले नहीं भी मिल रही होगी) तो वह इतना संवेदना शून्य हो गया है कि दूसरे के दर्द को महसूस करना तो दूर शायद अपना दर्द भी उसको महसूस नहीं होता। बस पेट भरे रोटी-दिन भर काम- रात भर- आराम- दूरदर्शन- टेलीविजन सुबह शाम, यह दिनचर्या का इंसान। न उसको आजादी का पता(खुशी) न उसको गुलामी का अहसास (दर्द) - न आज की राजनीति का ज्ञान न जानने की जिज्ञासा। दंभ इतना कि मैं ठीक हूं। मेरे पास जो है बहुत है। इससे ज्यादा शायद किसी के पास हो। अगर यही इंसान कहीं नहीं बस अपने पूर्वजों (पितरों) का लेखा-जोखा ले तो पता चलेगा कि एक हजार में से एक आध उसके पुरखे वास्तविक जीवन जीते रहे होंगे। 
    ऐसे भी आज का यह तबका व बमुश्किल पचास साल पहले की पैदायश है। उससे पहले ऐसा तबका भारत में था भी नहीं। 
    फिर यह इंसान आने वाली पीढ़ी और उसके जीवन जीने की आवश्यक शर्तों से संवेदनाहीन होता है। अगर इस इंसान को भरपूर वेतन पर तैनात कर वास्तविक इनसान पर गोली चलाने को कहा जाय तो उसे यह इंसान ब-खूबी अंजाम देगा। अंजाम ही नहीं देगा बल्कि गौरवान्वित महसूस करेगा- फिर क्या इसे इंसान की परिभाषा की श्रेणी में रखा जा सकता है। समाज का यह ढांचा जहां इन्सान की सोच चंद चांदी के टुकड़ों पर- उपजती, फलती-फूलती-पलती हो- फिर इस सोच पर खड़ा इंसान- इंसान कहलाने के लायक है- कैसे कहा जा सकता है। 
    वास्तव में कहा जाय तो पूरे विश्व भर में सदियों से यह सिलसिला चल रहा है जिससे आज एक फौज का रूप धारण कर लिया है। यह भी इंसानियत के लिए खतरा है। फौज एक मानव समूह का जिन्दा तोप है, रोबोट है। एक हथियार है। अन्यायी क्रूर के हाथ यह हथियार पड़ने पर इसने क्या-क्या तबाही नहीं मचाई। यह इंसान दूसरों की तबाही पर अपनी खुशहाली की खेत लहराना अपना मकसद समझता है। 
    अंत में संदर्भ इनसान का था तो इनसान वही है जिसमें इंसान के गुण हो अन्यथा.... जैसे अगर चीनी में मिठास न हो तो क्या आप उसे चीनी ही कहेंगे या अन्य कोई और चीज। वास्तविक इंसान त्र चेतना पूर्ण इंसानत्र सचेत इंसान। हम शक्ल इंसान के बहुत हैं पर इंसान कम। 
                        देव सिंह, बरेली
सम्पादकीय
सहायता बनाम राजनैतिक मौका
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    सड़ता-गलता पूंजीवादी समाज इससे ज्यादा और क्या वीभत्स दृश्य उत्पन्न कर सकता था जो पिछले दिनों              नेपाल में आये भूकंप के बाद राहत और सहायता के नाम पर पैदा किये गये। 
    भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री अपने अतीत के अनुभवों से अच्छी तरह जानते थे कि इस ‘मौके’ का लाभ कैसे उठाया जा सकता है, कैसे लाशें राजनैतिक सीढ़ी का काम करने लगती हैं। भुज में आया भूकंप रहा हो अथवा गोधरा काण्ड के बाद रचा गया गुजरात नरसंहार, दोनों ही मौकों पर नरेंद्र मोदी ने अपनी अति विशिष्ट राजनैतिक शैली का परिचय दिया था। और अब नेपाल की त्रासदी ने उन्हें ऐसा ‘मौका’ उपलब्ध करा दिया। 
    नेपाल को दी जाने वाली तथाकथित मानवीय सहायता किसी सैन्य अभियान का हिस्सा बन गयी। नेपाल के राजनैतिक नेतृत्व का प्राधिकार तार-तार कर दिया गया। उसकी संप्रभुता को जूते की नोंक पर रख दिया गया। भारतीय शासक ऐसा व्यवहार कर रहे थे मानो नेपाल एक स्वतंत्र संप्रभु देश न होकर उनका कोई प्रांत हो। कमोबेश ऐसा ही अमेरिका जैसे पश्चिमी साम्राज्यवादी देश कर रहे थे। काठमांडू का हवाई अड्डा भारतीय सेना के कब्जे में था। 
    नेपाल पर अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए भारत को चीन से हर समय मिलने वाली चुनौती को कमजोर करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने इस त्रासदी को एक सुनहरे मौके के तौर पर लिया। भारतीय सेना व अर्धसैनिक बलों को राहत के काम में जिस त्वरित गति से लगाया उस गति के दर्शन भारत के भीतर होने वाली आपदा में कभी नहीं होते। भारतीय सेना के इस हस्तक्षेप की न केवल नेपाल में बल्कि चीन में भी प्रतिक्रिया हुई। नेपाल में एक समय तक बर्दाश्त करने के बाद राजनैतिक हलकों में स्वर मुखर हो गये तो चीन ने राहत के नाम पर चीन की सीमाओं में तांक-झांक पर आपत्ति जताई। 
    एक पड़ोसी और गहरे संबंधों में बंधे होने के कारण भारत के द्वारा नेपाल में की जाने वाली राहत कार्यवाही राजनैतिक विवाद का विषय नहीं बनती यदि हमारे शासक नेपाल की संप्रभुता की इज्जत करते और बराबरी का व्यवहार करते हुए नेपाल के राजनैतिक नेतृत्व को विश्वास में लेकर उनकी यथोचित अनुमति व दिशा निर्देश में राहत कार्य चलाते।
    अतीत में अमेरिकी साम्राज्यवादी ऐसी आपदाओं के समय विभिन्न देशों में राजनैतिक नेतृत्व को किनारे लगाकर बिल्कुल अपनी मनमर्जी से तथाकथित राहत कार्य व सहायता करते रहे हैं। हैती का उदाहरण अभी बिल्कुल हाल का ही है। अमेरिकी सेना ऐसे समय में वहां न केवल अपनी निगरानी प्रणाली स्थापित और एजेंट का जाल बिछा देती रही है बल्कि गैर सरकारी संगठन जिनमें से कई शासकों के मुखौटा संगठन ही होते हैं वहां सामाजिक व राजनैतिक हस्तक्षेप के स्थायी उपकरण बना दिये जाते रहे हैं। 
    आज का भारतीय शासक अमेरिकी शासकों को अपना आदर्श मानता है और लगातार हर मामले में उनकी नकल करता है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के तौर-तरीके इन्हें बड़े ही रास आते हैं। और नेपाल में भारत का हस्तक्षेप वर्ष 2010 में हैती में आये भूकंप के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के हस्तक्षेप की याद दिला देत है। जहां एक त्रासदी के समय एक देश की संप्रभुता, स्वतंत्रता, राजनैतिक नेतृत्व व उसके प्राधिकार आदि सभी को धता बता दी जाती है। राहत के नाम पर पूरे हैती को अमेरिकी साम्राज्यवादी अपने कब्जे में ले लेते हैं। हैती के हवाई, समुद्री सीमा सभी कुछ अमेरिकी सेनाओं के हवाले हो जाता है। 
    हैती में 2010 में आये भूकंप और उसके बाद फैली महामारी में हजारों लोग मारे गये थे और पीडि़तों की संख्या लाखों में थी। हैती की मदद दूसरे ढंग से भी की जा सकती थी परंतु अमेरिकी सेना का मकसद तो कुछ और ही था। पूरे लातिन अमेरिका के देशों को राहत व सहायता से दूर रखना ताकि हैती दूसरा क्यूबा या बेनेजुएला न बना दिया जाय। हैती पर अमेरिकी शासकों का प्रभाव व पकड़ और मजबूत हो इसके लिए इस आपदा का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। 
    25 अप्रैल के बाद 12 मई को फिर एक बार नेपाल में लगभग उसी तीव्रता का भूकंप आया परंतु अब भारत के राजनैतिक नेतृत्व ने कहा कि वे तभी सहायता करेंगे जब नेपाल की सरकार मांग करेगी। भारत के सुर में इस परिवर्तन के पीछे नेपाल में उपजा जनाक्रोश था। नेपाल के राजनैतिक नेतृत्व पर बनाया गया दबाव था। मोदी के अति उत्साह समर्थकों की ‘हिन्दू नेपाल’ के सहायता के लिए की गयी घटिया बयानबाजी थी। पूंजीवादी अखबारों को भी देश के नेताओं को चेताना पड़ा। कहना पड़ा कि ‘ऐसी सहायता पर मुग्ध मत होइए’। 
    पतित होता पूंजीवादी समाज जिसमें खूब झूठ-फरेब का धंधा चलता हो, किसी राष्ट्र (इराक) को बिल्कुल झूठे प्रमाणों के आधार पर तहस-नहस कर दिया जाता हो। जिसमें चुनाव जीतने के लिए किसी बंदी को (अफजल गुरू) को फांसी पर चढ़ा दिया जाता हो। जिसमंे आम जनता की हत्याओं को राजनैतिक कैरियर के लिए जायज ठहराया जाता हो वहां नेपाल में आये भूंकप को अपने विस्तारवाद के लिए एक सुनहरा मौके के रूप में इस्तेमाल करने में किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आश्चर्य तब होगा जब कोई पूंजीवादी शासक ऐसे मौके को अपने हाथ से यूं ही जाने दे। 
    क्रूरता और दयालुता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। बहुत समय से क्रूर से क्रूर शासक ऐसे मौकों पर दयालुता का परिचय देते रहे हैं। पश्चिम साम्राज्यवाद द्वारा किये जाने वाले अत्याचार और उन्हीं के द्वारा पोषित मिशनरियों की सेवा से उन्नीसवीं-बीसवीं सदी का इतिहास भरा पड़ा है। चैरिटी उसी समाज में की जा सकती है जहां शासकों की क्रूर व्यवस्था कायम हो। पूंजीवादी समाज में इन दोनों ही चीजों को एक स्वर में, एक ही समय बड़े आराम से जायज ठहराया जाता है। 
    शासकों की क्रूरता और दयालुता दोनों ही उसके अपने प्रभुत्व को बनाये रखने का हथियार हैं। मजदूर-मेहनतकशों को सदा-सर्वदा इन दोनों से सावधान और इनका मुकाबला करने के लिए तैयार रहना होगा। और वह ऐसा तभी कर सकता है जब उसके पास इस पूंजीवादी व्यवस्था के चरित्र की सही समझ और उसे बदलने का संकल्प हो। क्रूरता-दयालुता के खिलाफ उसे आपस में भाईचारा (सालिडिरिटी) कायम कर एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना करनी होगी जहां क्रूरता और दयालुता का कोई स्थान न हो। 

आपका नजरिया-    आसार अच्छे दिनों के.....
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    अच्छे दिन आने वाले हैं, आयेंगे अच्छे दिन! आना भी चाहिए। लेकिन कैसे? किसके भरोसे? किस रास्ते? जो सुसंस्कृत, श्रम साधक नागरिक के प्रयास से माटी पुत्रों के भरोसे, मानवता के रास्ते ही अच्छे दिन आते हैं। संकेतों पर विश्वास हो रहा है तो आयेंगे ही अच्छे दिन। इस कामना और विश्वास से स्पष्ट होता है विगत अच्छे दिन नहीं थे। आजादी की मस्ती के साथ ही अच्छे दिनों की कल्पनाओं, संभावनाओं, योजनाओं में भटकते रहे हैं। बुरे बन-बनकर ही अच्छे परिणाम की आशा में भटकते रहे हैं। चलिए अब तो अधिसंख्यक मतदाता अच्छे दिनों को मनवांछित युगगाथा में पिरोने में तत्पर हैं तो अवश्य लाये जायेंगे। 
    इस समय भारत भूमि पर उपस्थिति लोगों को दो अतुलनीय उपलब्धियों का लाभ है। एक 67 सालों के बुरे दिनों को झेल जाने (विजयी होने) का गौरव तथा अच्छे दिनों का सुख भोग। अब अच्छे और बुरे तो यमज है। एक जहां है, दूसरे की उपस्थिति अनिवार्य है। कहें तो दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है। सरकारी जीवन के बुरे दिन, व्यंग्यकारी, असरकारी के लिए अच्छे होते हैं। चोर लुटेरों असामाजिक तत्वों, कायर कपटियों, हरामखोरों के अच्छे दिन, ईमानदारों, श्रमशीलों, सभ्यशीलों के बुरे दिन ही होंगे। इनके अच्छे दिन तो उनके बुरे। हर व्यक्ति समूह का गिरोह (प्रतिष्ठान) आदि अपने लिए सकारात्मक और सफलता भरे खुशहाली को अच्छे दिन मानता है। सबको जीने का अधिकार है। कई लोग तो दूसरों को पीडि़त और मारकर अच्छे दिन लाते हैं। भारत में भले लोगों की अधिकता मानकर चलें तो साठ साल पहले और अधिक लोग भले रहे होंगे। जिनमें से कुछ लोग अपने लिए अच्छे दिन की तलाश में बुरे बन गये। 
    अब तो सरकारी जीवन में वफादारी, समझदारी, सेवाहारी, आज्ञाकारी, फल-तरकारी सबके लिए आरी-पारी के दिन आने वाले हैं। सृष्टि में परंपराएं, व्यवस्थाएं, स्वभाव, आचरण, वेदना, रिश्ते आदि सभी तो परिवर्तनीय हैं तो बुरे का जुडवां भाई अच्छे की बारी क्यों नहीं? समय बलवान है। नैसर्गिक, शक्तियां, निश्चित सनातन प्रक्रिया के तहत विचार भावना और आचरण को प्रभावित करते हैं। आपके विचार अथवा भावना में अच्छे दिनों की संभावना है तो यथासंभव अच्छा आदमी बनें। अपने कुकर्मों/अपराधों की सजा स्वयं मांगे। या फिर स्वयं को दंडित करें। ऐसा नहीं करने वालों को भारतभूमि से निष्कासित करें या जीवित दफन करें। जो भी आड़े आता है कानून, संविधान या कुछ और तो उन्हें भी दफन करें। अधिकांश बुरी स्थिति संविधान और कानून से पनपे हैं। राजनीतिक बुुरे कर्मों का व्यवहारिक शस्त्र यही है। 
    जबान से मुकरने वाला इंसान नहीं रह जाता। दूसरों का शोषक परजीवी कीट होता है। सामयिक निर्वाह से अधिक खर्च (शान, दबदबा, स्वार्थवश) करने वाला, समाज का आर्थिक अपराधी होता है। करीब से देखें तो गरीबी रेखा के बजाय अमीरी की रेखा की जरूरत है। पर यह किसके समझ में आता है। इसे समझे बिना अच्छे दिन की कल्पना निरर्थक है। 
    किसान दीवान, मु.पो. नर्रा (बागबाहरा)       
   जिला-महासमुंद (छत्तीसगढ़)


आपका नजरिया-  हम तो भारतवासी हैं
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
सुमधुर स्वर भावुक दिल अपना, हम तो भारतवासी हैं,
हर घर मंदिर, हर-घर पूजा, यहां के कण-कण में काशी है।

ऋषियों ने सदियों पहले ही, जीवन का सत्य बताया है,
यही कृष्ण ने मानव बनकर, गीता का ज्ञान सिखाया है। 

आगन्तुक में करते प्रभु के दर्शन, सेवा ही परिपाटी है,
सबको आश्रय देती आई, धन्य यहां की माटी है।

कितने निष्ठुर आक्रमणकारी, हमसे टकराकर हार गये,
एकता हमारी बनी रही, वे फूट डालकर हार गये।

यह जन्मभूमि है, परशुराम, गांधी, गौतम, गंधारी की,
यह देवभूमि है, वेद भूमि, सिय की शिव की शिवधारी की।

हंसते मुसकाते दिन कटते, मुखमण्डल रहा उदास नहीं,
बन दीपक ज्योति जले जग में, कम होने दिया प्रकाश नहीं। 

स्वाभिमान, सम्मान, ज्ञान, धन देता भाग्य विधाता है,
जिस मिट्टी में पले बढ़े हम, यह तो भारत माता है।

ईश्वर भी इसके आंचल में, आने को अभिलाषी है,
धन्य हुआ यह जन्म हमारा, हम तो भारतवासी हैं।  
            मोहन द्विवेदी
डी-180, महेंद्रा इंक्लेव, शास्त्रीनगर, गाजियाबाद


सम्पादकीय

‘भारतीय संस्कृति’
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    ‘भारतीय संस्कृति’ का सबसे दिलचस्प नमूना भारतीय दूल्हा होता है जो अक्सर गर्दन के ऊपर परम्परागत रूप और उसके नीचे पश्चिमी पोशाक से सजा होता है। देश में कई जगह उसे और बड़ा नमूना बनाने के लिए एक घोड़ी में बिठाकर उसके हाथ में तलवार दे दी जाती है। बराती और दूल्हा मिलकर एक जंग में से जाते दिखाई देते हैं और अक्सर बराती असभ्य कबीलों की याद दिला देेते हैं।
    भारत में होने वाली शादियां खासकर हिन्दू शादियां ऐसा दृश्य उत्पन्न करती हैं जिसमें भारत का पूरा ‘सांस्कृतिक इतिहास’ सामने आ जाता है। भारत के इतिहास के चार प्रमुख कालों कबीलाई, सामन्ती, औपनिवेशक और अति आधुनिक उपभोक्तावाद सब कुछ इसमें मौजूद होता है।
    भारतीय संस्कृति के शासक वर्गीय हिस्से को देखा जाय तो उसमें मूलतः यही तत्व पाये जायेंगे। इसी संस्कृति के एक खास रूप के मूल प्रचारक और संरक्षक बनकर हिन्दू फासीवादी आंदोलन चलाने वाला संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनकर उभरा है।
    हाल के वर्षों में इस संगठन का जिस तरह विस्तार और प्रभाव बड़ा है और अपने बीच के सधे और पके हुए व्यक्ति को जब इन्होंने प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचाने में अपेक्षित सफलता हासिल कर ली है तब से ये ‘भारतीय संस्कृति’ में जो कुछ भी अच्छा आजादी के लड़ाई के दिनों में आकर जुड़ा था उसको ये तत्व ढंग से ही नष्ट करने में लगे हुए हैं।
    भारतीय आजादी की लड़ाई के दिनों में जो तत्व इसमें जुड़े थे उन्हें इस रूप में चिह्नित किया जा सकता हैः जनवादी मूल्यों को औपचारिक मान्यता और एक रूप में आदर्श मानना, धर्मनिरेपक्षता के साथ बहुलतावाद तर्क और विज्ञान को एक कसौटी के रूप में लेना और इसके साथ साम्राज्यवाद विरोध को एक स्वर मानना और राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाईयों का समर्थना करना।
    कोई भी कह सकता है कि भारत के शासकों का व्यवहार कभी भी ऐसा नहीं रहा है जो यह बात साबित करे कि वे अपनी संस्कृति में इन तत्वों को वरीयता देते थे और उसके अनुरूप व्यवहार करते थे। यह बात कमोबेश ठीक ही है परन्तु यह बात सच थी कि वे इन मूल्यों को कम से कम एक समय आदर्श और जनता के लिए अनुकरणीय समझते थे।
    अब स्थिति भिन्न है। अब कूपमंडूकता का बोलबाला है और इसको स्थापित करने का बीड़ा माननीय प्रधानमंत्री ने स्वयं उठा लिया है। उनके इसका झंडाबरदार बनने के बाद उनके लगुए-भगुए बेखौफ, बेहिसाब मूर्खता के थोक प्रचारक बन गये हैं। जब देश का प्रधानमंत्री यह कहने की हिम्मत कर सकते हैं कि पौराणिक देवता गणेश जिनका सिर-मुंह हाथी का और शेष शरीर इंसान का है वे भारत की प्लास्टिक सर्जरी में महान उपलब्धि के प्रतीक हैं तो फिर संघी चेले-चपाटे कुछ भी कह सकते हैं। मध्य प्रदेश सरकार के गृहमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री कहने लगे कि गीता पढ़ने से ब्लड़ प्रेशर, मधुमेह आदि बीमारी ठीक हो जाती है। 
    कल तक भारतीय शासक खासकर सत्ता के शीर्ष पर बैठे आदमियों से ऐसी मूर्खतापूर्ण बातों की उम्मीद नहीं की जा सकती थी लेकिन यह आज का सच है कि केन्द्रीय सरकार के मंत्री कुछ भी कह सकते हैं। भारतीय संस्कृति के महिमामण्डन में वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। मिथक, अंधविश्वास का विचित्र घोल तैयार करके वे इसे पूरी भारतीय जनता के गले उतार देना चाहते हैं। 
    हिन्दू फासीवादी आंदोलन भारतीय संस्कृति की जो तस्वीर पेश कर रहा है। उसमें सत्य का कोई अंश नहीं है। उसमें जो कुछ है वह झूठ, फरेब और अतिरंजना है। भारतीय संस्कृति के नाम पर हिन्दू फासीवादी घृणित मंसूबे और अपने मंसूबों को कामयाब बनाने के लिए फासीवादी जिद्द है। 
    भारतीय संस्कृति के गैर संघी शासक वर्गीय प्रस्तुति में तर्क, विज्ञान, तथ्य, बहुलतावाद का कुछ तो स्थान था अब जो प्रस्तुति है उसमें इन सबका कोई स्थान नहीं है। भारत के पहले प्रधानमंत्री की लिखी किताबें खासकर भारतीय इतिहास के संदर्भ में लिखी गयी ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ (डिस्कवरी आफ इण्डिया) पुस्तक इन मूल्यों को स्थान देती है और कई मामलों में आधुनिक दृष्टिकोण रखती है। संघी इतिहासकार या भारतीय संस्कृति के पुरोधा उन्माद पैदा करते हैं और इनके द्वारा तैयार उन्मादी समाज में हिन्दू फासीवादी मंजिल हासिल करने के लिए उत्पात करने लगते हैं। इनका उत्पात इनके अनुसार राष्ट्र की महान सेवा है। देशभक्ति है। 
    ‘भारतीय संस्कृति’ का वर्तमान संघीय संस्करण कांग्रेसी संस्करण से बहुत ही ज्यादा घृणित है। मुखर प्रतिरोध के बिना यह संघी संस्करण समाज में अपना आधार दिनोंदिन बना रहा है। वर्तमान सरकार इसके प्रचार-प्रसार में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। वह सभी उपकरणों का इस्तेमाल कर भारतीय संस्कृति के संघीय प्रस्तुतिकरण को एक सत्य के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। सत्य भी ऐसा जिस पर किसी भी तरह से प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। और जो भी प्रश्न उठायेगा वह देशद्रोही कहलायेगा। 
    भारतीय संस्कृति का कांग्रेसी संस्करण भी शासक वर्ग की सेवा करता था और वर्तमान संघी संस्करण भी इसके एक खास हिस्से की सेवा करता है। संघी संस्करण को अभी शासक वर्ग के सभी हिस्से से मान्यता नहीं मिली है। अंतरविरोध इन दोनों ही संस्करणों में मौजूद है परन्तु यह सच है कि आज संघी संस्करण का वर्चस्व कायम हो रहा है। अम्बानी, अदाणी जैसे तो इस संघी संस्करण के साथ आसानी से तालमेल बिठाते रहे हैं परन्तु अब तो रतन टाटा और अजीम प्रेमजी जैसे गैर हिन्दू एकाधिकारी पूंजीपति भी इस संघी संस्करण को स्थान देने लगे हैं। यह सत्ता में बैठी ताकत के साथ तालमेल बिठाने से ज्यादा अपने हितों की सत्ता से सुरक्षा की गारण्टी के रूप में दीखता है। 
    भारतीय दूल्हे के सिर पर रंग बिरंगी पगड़ी बंधी हो अथवा केसरिया सवाल आधुनिक जीवन में इस दूल्हे की प्रासंगिकता का है। ‘भारतीय संस्कृति के संघी और कांग्रेसी संस्करण दोनों ही भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के खिलाफ हैं। कांग्रेसी संस्करण में जनवादी आदि मूल्यों की औपचारिक घोषणा वहां संघी संस्करण में इन मूल्यों की पूर्ण हत्या है। फर्क इतने भर का है। वास्तविकता में कांग्रेसी संस्करण संघी संस्करण से प्रतियोगिता करता है और पिछड़े मूल्य-मान्यताओं का पक्ष पोषण करता है। 
    ‘भारतीय संस्कृति’ में मजदूर-मेहनतकशों के लिए कुछ खास नहीं है। उनके हिस्से भारत की संस्कृति का वही हिस्सा आता है जिसमें शासक वर्ग से संघर्ष, सामूहिक उत्पादन के गीत-नृत्य आदि जैसे कुछ तत्व शामिल हैं। अन्यथा तो उन्हें नये युग के निर्माण के दौरान नयी संस्कृति को ही जन्म देना होगा और ऐसी संस्कृति पूरी मानवजाति से वही सभी कुछ ग्रहण करेगी जो उसके हितों को बढ़ाने के लिए अच्छा है। ‘भारतीय संस्कृति’ के प्रति घोर आलोचनात्मक रूख रखे बगैर और उसे लड़े बगैर नयी भारतीय संस्कृति का निर्माण नहीं हो सकता है। 

आपका नजरिया-    साम्प्रदायिक उन्माद के गिरफ्त में छत्तीसगढ़
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    छत्तीसगढ़ में जातीय हिंसा और दलित उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं के बीच विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल ने भगवान राम को पांच हजार दलित बस्तियों तक पहुंचाने का लक्ष्य बनाया है। राम का रुख स्पष्ट है, जब राम की सत्ता पर होगा खतरा, जब वर्ण व्यवस्था पर होगा वार तब आयेंगे राम सिद्ध करने अपना ईश्वरत्व। पौराणिक रामराज्य के संस्थापक राम, जिसने ज्ञान के क्षेत्र में एक वर्ग विशेष की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए शंबूक ऋषि का वध किया था। यह बताना लाजिमी होगा कि इस देश में हाल ही के वर्षों में सभी वर्ग के लोगों को आरंभिक स्तर तक के शिक्षा का मौलिक अधिकार मिला है। यह घोर चिंता का विषय है कि वही राम फिर से दलितों के झुग्गियों में पहुंचेंगे।
    प्रदेश में विधान सभा चुनावों के ऐन वक्त पहले और हाल ही में सम्पन्न हुए आम चुनावों के बाद तक धार्मिक अल्पसंख्यकों को डराने धमकाने और प्रताडि़त करने की घटनाओं में घोर इजाफा चिंता का विषय है। धर्म को व्यक्ति के निजी आस्था और आचार मानने वाले संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की संकल्पना आज साम्प्रदायिक राजनीति के काबू में है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दो सौ सालों के हिन्दू राष्ट्र के सपने का जिक्र अल्पसंख्यकों के खिलाफ दहशतगर्दी फैलाकर समाज में हिन्दू बनाम गैर हिन्दू के धार्मिक-साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का मकसद साफ दिखाई दे रहा है।
    एक योजना के मुताबिक अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के राष्ट्र विरोधी और हिंसक होने जैसे दुर्भावनापूर्ण आरोपों की एक लम्बी फेहरिस्त ईजाद की जा रही है। रायपुर में मुसलमानों को विशेष लक्ष्य करते हुए उन्हें आतंकवादी करार देने की साजिश, विगत क्रिसमस में रानी बगीचा के प्रार्थना सभा में मसीहियों की गिरफ्तारी, बालोद, राजनांदगांव, धमतरी, खुर्सीपार-भिलाई, सक्ती-जांजगीर, जगन्नाथपुर-सरगुजा में चर्च और ईसाइयों पर हमले, कोरंगा-कुनकुरी में पाॅस्टर की गिरफ्तारी, बिलासपुर में सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक तनाव की अफवाहें, पत्थलगांव क्षेत्र में निर्दोष आदिवासी किसानों पर गौहत्या के आरोप, कवर्धा धर्म संसद में सांई भक्तों का अपमान की घटनाओं के जरिये सामाजिक सदभाव को नष्ट-भ्रष्ट करते हुए साम्प्रदायिक राजनीति के लिए जरूरी तर्क मुहैया कराने की मुहिम तेज हो रही है।
    इसमें कोई संदेह नहीं कि बस्तर में आदिवासियों के हिन्दूकरण की प्रक्रिया में संघ, प्रशासन और पुलिस के गठजोड़ की पोल खुल चुकी है। सिरिसगुड़ा में पैंतीस से अधिक सामूहिक ग्राम सभाओं के भारी जन समूहों के बीच गैर हिन्दू धर्मों के प्रार्थना सभाओं, उपासना स्थलों के निर्माण, प्रचार एवं उपदेश पर पाबंदी का फरमान इसका ताजा उदाहरण है। जसपुर में उद्योग लगाने के लिए जमीनों का अधिग्रहण शुरू हुआ तो इन तत्वों ने खूब शोर मचाया कि जो आदिवासी हिन्दू हैं उनकी जमीन नहीं जायेगी और जो आदिवासी ईसाई हो गये हैं उनकी जमीनें छीन ली जायेंगी। हिन्दू आदिवासियों और गैर हिन्दू आदिवासियों के बीच वैमनस्यता का वातावरण निर्मित किया जा रहा है। अलबत्ता राज्य सरकार द्वारा किसी भी धर्म को प्रश्रय नहीं देने, व्यक्ति के धार्मिक आजादी पर निर्बाध आचरण, नास्तिक और निरीश्वरवादी होने तक की स्वतंत्रता की संकल्पना खण्डित हो रही है।
यह समझ में आता है कि हिन्दू कट्टरपंथी ताकतों के चिंता की मूल वजह दलितों का हिन्दू धर्म से मोहभंग होना है। घर वापसी और शुद्धिकरण के नारों के सहारे वैमनस्यता बढ़ाने का काम जोरों पर है। असल में यह दलितों के बलपूर्वक धर्मान्तरण का धूर्ततापूर्ण नाम है। जहां एक ओर यह कहना कि कोई किसी का धर्मान्तरण करा रहा है, एक तरह से लोगों की चेतना को कमतर आंकना है वहीं दूसरा पहलू यह कि इस बारे में प्रशासन को पूर्व सूचना की व्यवस्था भी कट्टरपंथी ताकतों को उग्र प्रतिक्रिया करने को उकसाने के लिए पर्याप्त है। जिन लोगों ने घर वापसी की है उन्हें वापस उस गोत्र और जाति का दर्जा दिया जायेगा जहां से वे आये थे। चाहे कुछ भी हो जाति का ढांचा और उसकी कट्टरता मजबूती के साथ बनी रहेगी।
धर्मान्तरित अल्पसंख्यकों पर किये जा रहे दमन और अत्याचार की घटनाओं में प्रशासन और पुलिस मौन है। यह देखने वाली बात है कि इन सारे मामलों में सरकार ने साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने वालों की सहायता की है। न तो दंगाइयों के खिलाफ अब तक कोई कानूनी कार्यवाही की गई है और न ही किसी की गिरफ्तारी हो सकी है। छत्तीसगढ़ में धर्मान्तरण विरोधी कानून के आड़ में अल्पसंख्यकों के खिलाफ मनगढंत और झूठे मामले दर्ज हो रहे हैं। मंशा साफ है, जाति प्रथा बनाए रखो और कानूनी आतंक के जरिये सुनिश्चित करो कि जिन लोगों के साथ कमतर इंसान का दर्जा देकर अमानवीय सलूक किया जाता है वे जाति प्रथा के अभिशाप से बचने के लिए धर्म परिवर्तन का साहस न करें। इससे किसी भी धर्म को चुनने, मानने और इच्छानुसार उपासना करने के व्यक्ति के मौलिक आजादी पर कुठाराघात हुआ है। इस विफलता की जिम्मेदारी के मुद्दे पर गौर करना भी महत्वपूर्ण है, जो आज कहीं भी चर्चा के विषयाधीन नहीं रह गया है। लगता है अब राज्य सरकार साम्प्रदायिक उन्माद के माहौल में वैधानिक पंगुता की ओर अग्रसर हो चुका है।
    आज आम और औसत समाज की बुद्धि लगभग कुंद हो चुकी है। साम्प्रदायिक ताकतें एक उदार गठबंधन की रणनीति लेकर आगे बढ़ रही हैं। आज साम्प्रदायिकता के खिलाफ सीधा मुकाबला करना आसान भी नहीं रह गया है। साम्प्रदायिक, आक्रामक, धर्मान्ध लोगों ने समाज और मीडिया में अपनी स्वीकार्यता का विस्तार किया है। मुश्किल यह है कि साम्प्रदायिकता से लड़ने का जिनका एजेंडा है वे नालायक हैं, बेपरवाह हैं, निकम्मे हैं, उनके अपने निहित स्वार्थ हैं। निसंदेह देश की प्रगति में बाधक जाति प्रथा के समूल नाश के इस लड़ाई को एक गैर राजनीतिक मंच पर ही लड़ना होगा।
   डिग्री प्रसाद चैहान, रायपुर छत्तीसगढ़

धन्यवाद
 बेमौसम बारिश से किसानों की आत्महत्या व बर्बादी पर लेख ‘किसानों के मित्र’ पढ़कर अच्छा लगा। मौजूदा समय में लेख का बहुत महत्व है। उम्मीद है नागरिक अपनी मंजिल तक पहुंचेगा। सत्यनारायण प्रसाद snp67921@gmail.com

सम्पादकीय
                      दलितवाद
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    कोई कह सकता है कि जिस समाज में शोषण-उत्पीड़न होगा उस समाज में उसके खिलाफ प्रतिकार भी होगा। यह बात अपने आप में ठीक लग सकती है परन्तु जैसे ही इसे समाज के विकास के संदर्भ में लागू करेंगे तो भिन्न बातें सामने आने लगेंगी।
    असल में शोषण-उत्पीड़न हो सकता है कि लम्बे समय से मौजूद हो और यह लम्बा समय सदियों का भी हो सकता है परन्तु उस लम्बे समय में अपने शोषण-उत्पीड़न के प्रति जो चेतना होनी चाहिए, नहीं हो सकती है। चेतना होने पर और उसके समाज के शोषित-उत्पीडि़तों की आवाज बनने पर ही सामाजिक प्रतिकार जन्म ले सकता है। और चेतना तभी पैदा हो सकती है जब उसके लिए समाज में आवश्यक परिस्थितियां जन्म ले लें। 
    भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का इतिहास सदियों पुराना है। जाति व्यवस्था के खिलाफ अस्फुट स्वर कई सदी पहले उठने शुरू हो गये थे। इन्हें कबीर, रैदास जैसे संतों की वाणी में सुना जा सकता है। परन्तु जाति व्यवस्था का मुखर विरोध उन्नीसवीं सदी के अंत या खासकर बीसवीं सदी में पैदा होता है। अब वह वक्त आने लगता है जब वह चेतना पैदा हो जाती है जो जाति व्यवस्था के खिलाफ और उससे भी ज्यादा सामन्तवाद-ब्राहम्णवाद, के वर्चस्व को खुली चुनौती देती है। महात्म फुले, डा. भीमराव अम्बेडकर, लोहिया आदि से होते हुए यह कांशीराम तक जाती है। और यह चुनौती दार्शनिक आधार से लेकर सामन्तवाद-ब्राहम्णवाद के राजनैतिक आधार तक को दी जाती है। और यह चुनौती जिस दार्शनिक व राजनैतिक आधार पर दी जाती है वहीं से दलितवाद पैदा होता है। और इस दलितवाद का सामाजिक आधार, मूलरूप से भारतीय समाज का क्रमशः होता पूंजीवादी विकास और राजनैतिक प्रयासों में आरक्षण के कारण पैदा हुआ उच्च-मध्य दलित वर्ग उपलब्ध कराता है। 
    दलितवाद भारतीय समाज में सामंतवाद-ब्राहम्णवाद (मनुवाद, सवर्णवाद आदि अन्य नाम) के प्रतिकार में पैदा हुयी एक ऐसी विचारधारा है जो अपनी सारी प्रेरणा और सोच पूंजीवादी-जनवादी मूल्यों से प्राप्त करती है। पूंजीवादी-जनवादी मूल्यों-विचारों से प्रेरणा प्राप्त करने के कारण उसकी वही सीमाएं बन जाती हैं जो स्वयं पूंजीवादी-जनवाद की सीमाएं हैं। 
    पूंजीवादी जनवाद एक ऐसा जनवाद है जो सम्पत्तिशाली उच्च वर्गों के लिए वास्तविक जनवाद होता है परन्तु समाज के गैर सम्पत्तिशाली वर्गों खासकर मजदूरों के लिए वह महज किताबी होता है। कानूनी, औपचारिक बराबरी की घोषणा पूंजीवादी जनवाद सबके लिए करता है परन्तु इसे हासिल मूलतः पूंजीपति वर्ग ही करता है। 
    शोषित-उत्पीडि़त वर्गों के लिए पूंजीवादी जनवाद एक छुपी हुयी तानाशाही होता हैै। इस बात को हर मजदूर, हर किसान अपने दैनिक जीवन में आम तौर पर और जब वह हड़ताल या संघर्ष करता है तो विशेष तौर पर आसानी से समझ जाता है। हड़ताल करने या सड़क पर उतरने पर उसके संघर्ष को कुचलने के लिए पूंजीवादी जनवाद कई तरह के काले कानूनों से जिसका बंदोबस्त संविधान में पहले से होता है मजदूरों-किसानों या अन्य शोषित-उत्पीडि़तों पर लागू कर देता है। उन्हें जेलों में ही नहीं ठूंसता है बल्कि सरेआम गोली भी मार सकता है। गुलाम भारत में ही नहीं आजाद भारत में इसकी लाखों मिसालें दी जा सकती हैं। 
    दलितवाद एक निम्न पूंजीवादी जनवादी राजनैतिक विचारधारा है जिसके लक्ष्य में जातिवादी व्यवस्था का विनाश नहीं है बल्कि किसी न किसी रूप में जाति व्यवस्था को बनाये रखना है। इस रूप में इसका लक्ष्य और सामंतवादी ब्राहम्णवादी विचारधारा का लक्ष्य एक सा हो जाता है। ‘जाति’ इस पूंजीवादी समाज में एक ऐसा ‘राजनैतिक माल’ बन जाती है जिसकी ठीक और उचित बिक्री सत्ता प्रतिष्ठानों में पहुंचने में मदद करती है।  
    दलितवाद अपने सामाजिक आधार को तभी सुरक्षित रख सकता है जब वह जाति को एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करे। और इस बात को माननीय कांशीराम के विचारों और व्यवहार में आसानी से देखा जा सकता है। सत्ता की कुंजी पाने और उसके लिए किसी भी हद तक जाने को उचित ठहराने के लिए अपनी विचारधारा को ‘अवसरवाद’ कहने में भी माननीय कांशीराम को कोई गुरेज नहीं था। 
    दलितवाद के सबसे उग्र रूप में भी जाति व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का कार्यक्रम नहीं मिलता। जाति व्यवस्था के छिन्न-भिन्न करने का अर्थ होगा ‘जाति’ का समूल नाश। उसके साथ जुड़ी सभी तरह की कुंठाओं, स्मृतियों, रीतियों-रिवाजों, प्रतीकों, कथाओं का नाश। यानी सामंती मूल्य-मान्यताओं, प्रथाओं जिनका पक्षपोषण सामंतवाद-ब्राहम्णवाद करता है, के साथ-साथ उसकी प्रतिक्रिया में पैदा हुए दलितवाद का भी समूल नाश। 
    दलितवाद सामंतवाद-ब्राहम्णवाद पर निशाना तो साधता है परन्तु अपने इस घोषित शत्रु को समाप्त करने का यत्न नहीं करता उल्टे अपने अस्तित्व के लिए उससे नित नई खुराक प्राप्त करता है। असल में वह इसलिए ऐसा नहीं करता क्योंकि जहां वह अपनी विचारधारा निम्न पूंजीवादी जनवादी विचारधारा की सीमाओं से पार नहीं पा सकता वहां उसका सामाजिक आधार भी ऐसा है जो वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के चरित्र को न तो समझता है, न समझना चाहता है और उस से भी बढ़कर उसके भीतर ही अपनी मुक्ति देखता है। आम तौर पर दलित पूंजीपति, निम्न पूंजीपति वर्ग के लोग जब यह बात कहते हैं कि ‘सवाल पहले सामाजिक बराबरी का है’ में इसे अभिव्यक्ति पाते हुए देखा जा सकता है। सरकारी नौकरी पा लेने या छोटा-बड़ा पूंजीपति बनने के बाद इन दलितों को अभी भी जिस चीज को झेलना पड़ता है वह सामाजिक गैर बराबरी ही होती है। अतः यही प्रश्न उनके सामने होता है और यही उन्हें मूल बात लगती है। और यहीं से वह दलितवाद पैदा होता है जो एक तरफ अब जाति के कारण हासिल लाभों को छोड़ना नहीं चाहता उल्टे इसको आधार बनाकर ऊंची सामाजिक सीढ़ी चढ़ना चाहता है। और इसमें ऐसी राजनैतिक गोलबंदी बड़ी काम की चीज साबित होती है जिसमें अपनी जातियों के गरीब, मजदूरों को अपने राजनैतिक कैरियर या सामाजिक हैसियत बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। 
    दलितवाद की सकारात्मकता जो रही वह यह कि इसने दलितों की पीड़ा, व्यथा को एक सशक्त अभिव्यक्ति दी। इसने एक तरफ वंचितों, उत्पीडि़तों को एक आवाज दी दूसरी तरफ सभी इंसाफ पसंद नागरिकों को खासकर उदार सवर्णों को जाति व्यवस्था की कुरूपता, दंश को समझने में मदद की। दलित साहित्यकारों ने जब सामाजिक यथार्थ का वर्णन किया तो कई सवर्ण भी व्यथित और चिंतित हो गये और अपने जातिबोध पर शर्म महसूस करने लगे। 
    दुर्भाग्य से जैसे हर ‘वाद’ के साथ होता है कि वह जब जड़ीभूत हो जाता है, वैज्ञानिक और तार्किक चिंतन से युक्त नहीं होता है तो वह मानव जाति पर बोझ बनने लगता है वैसा ही दलितवाद के साथ अपने पैदा होने के कुछ समय बाद ही होने लगा। आज दलितवाद एक ‘राजनैतिक माल’ में तब्दील हो मानव जाति पर बोझ बन चुका है। 
    भारत के मजदूर आंदोलन को सामंतवाद-ब्राहम्णवाद के साथ-साथ दलितवाद से भी लड़ना पड़ेगा। हालांकि कुछ दशकों से भारत के क्रांतिकारी आंदोलन में एक बुरी प्रवृत्ति यह घर कर गयी है कि वे दलितों की व्यथा-पीड़ा के सही कारणों को उन्हें समझाने और उसके खिलाफ लड़ने के स्थान पर दलितवाद और मार्क्सवाद का विचित्र घोल तैयार करने में लगे हैं। और ऐसा करने में वे वहां तक जा रहे हैं जहां वे येन-केन-प्रकारेण वह कार्य बाबा साहेब के साथ कर देना चाहते हैं जो भारत के शासक वर्ग ने शहीद भगतसिंह के साथ किया। भगतसिंह के विचार भारत के शासक वर्ग और उसकी पूंजीवादी व्यवस्था के पूर्णतः खिलाफ हैं परन्तु उन्होंने भारतीय समाज में उसकी स्थापित छवि का लाभ उठाकर भगतसिंह को अंगीकार कर लिया है। हानि रहित देव प्रतिमा में तब्दील कर दिया है। क्रांतिकारी आंदोलन दलितों में पैठ बनाने के लिए यही काम बाबा साहेब के साथ कर रहा है। बाबा साहेब मजदूर राज के खिलाफ थे वे अधिक से अधिक ऐसी समाज व्यवस्था चाहते थे जिसमें निजी सम्पत्ति को छूट हो परन्तु बड़े उद्योग और भूमि राज्य के अधीन हो। इसे उन्होंने ‘राजकीय समाजवाद’ कहा था। संसदीय लोकतंत्र वाला राजकीय समाजवाद उनका अभीष्ट था। आज के निजीकरण-उदारीकरण के दौर में ‘राजकीय समाजवाद’ की नींव खोद डाली गयी है। यहीं से दलितवाद का नई आर्थिक नीतियों से विरोध बनता रहा है। 
    कोई भी वर्ग सचेत मजदूर आसानी से समझ सकता है निजी सम्पत्ति युक्त राजकीय समाजवाद जहां शासन व्यवस्था का रूप संसदीय लोकतंत्र हो मजदूर राज नहीं होता। असली समाजवाद नहीं होता। वह पूंजीवाद ही होता है। 
आपका नजरिया-  मोदी सरकार के अच्छे दिनों में गरीब-मेहनतकश अपने बच्चों को बेचने को मजबूर
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
मलकानगिरी, ओडिशा के गांव चित्तापल्ली-2 में रहने वाले दम्पत्तिा सुकुरा मुदुली और उसकी पत्नी धुमुसी मुदुली ने अपने 2 महीने के नवजात बेटे को वहां काम करने वाली आशा कार्यकर्ता को मात्र 700 रूपये में बेच दिया। 
    बताया जा रहा है कि सुकुरा और उसकी पत्नी धुमुसी मुदुली ने इलाज के लिए पैसों के अभाव में फरवरी माह में पड़ोसी गांव चित्तापल्ली-3 की आशा कार्यकर्ता को बेच दिया। यह परिवार सरकार द्वारा गरीबों के लिए चलाये जाने वाली किसी भी परियोजना से मिलने वाली राहत से महरूम है। जिला कल्याण समिति के सामने सुकुरा ने कहा कि वह दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पा रहा है और अपनी पत्नी के इलाज के लिए दवाइयां खरीदने में सक्षम नहीं है। बच्चे को बेचने से जो रुपये उसे मिले उससे सुकुरा ने पत्नी के इलाज के लिए दवाइयां और 50 किलो चावल खरीदे। प्रधान के अनुसार इस खबर के प्रचारित-प्रसारित होने के बाद इस परिवार को इंदिरा आवास के तहत मकान, बी.पी.एल. कार्ड  तथा अन्य परियोजनाओं का लाभ पहुंचाने की कवायद शुरु हो चुकी है।  
जिस देश में पुत्र की चाह में प्रति वर्ष लाखों कन्या भ्रूणों को खत्म कर दिया जाता हो, वहां गरीबी, इलाज व पेट भरने के लिए माता-पिता अपने बेटे को बेच कर अपना इलाज करा रहे हैं पेट भरने के लिए राशन ला रहे हैं। यह आसानी से समझ में आने वाली बात है। लेकिन विदेशों में रहने वाले प्रधानमंत्री मोदी व उनके वित्त मंत्री को यह या इस तरह की बातें समझ में नहीं आतीं। शायद यही वजह है कि पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मुम्बई के एक प्राइवेट अस्पताल कोकिलाबेन में अपने भाषण में कहा कि सभी को इलाज की सुविधा मिलनी चाहिए। लेकिन कमाल की बात है मोदी ने यह भाषण उस निजी अस्पताल में दिया, जिसकी मात्र कन्सलटेन्सी फीस ही 1100/- रुपये है। शायद मोदी जी व उनके नेतृत्व वाली सरकार के अनुसार किसी निजी अस्पताल में कन्सलटेन्सी फीस में 1100 रुपये देने वाले गरीब हैं और उसके नीचे के जीवन स्तर पर जीवन जीने वाले लोग तो देश में हैं ही नहीं या फिर मोदी व उनके नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार उन्हें इन्सानों की श्रेणी में ही नहीं गिनती।   हेमलता, दिल्ली

सम्पादकीय

किसानों के मित्र
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    जब से मोदी सरकार भू-अधिग्रहण अध्यादेश लायी तब से पूरे देश में किसानों के हजारों की संख्या में मित्र सामने आ गये हंै। इन मित्रों में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी, कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा सोनिया गांधी से लेकर हजारों चर्चित-अचर्चित चेहरे हैं। कुछ तो इन्हीं दिनों विज्ञापन ग्रस्त खबरिया हिन्दी चैनलों के कारण चर्चित हुये हैं।
    किसानों के इतने मित्र हैं फिर भी किसान परेशान हैं। संसद में सभी पार्टियां अपने को किसानों का हितैषी बता रही हैं फिर भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं। वे अपने को तब असहाय महसूस कर रहे हैं जब हर कोई उनकी सहायता के लिए तत्पर है।
    हाल में उत्तर भारत में बेमौसम हुयी बारिश ने छोटे-मझौले किसानों की कमर तोड़ दी पर देश के प्रधानमंत्री के मन से एक बार भी वह बात नहीं निकली जिसको सुनने की अभिलाषा किसानों के टूटे मन कर रहे थे। मोदी उन्हें समझा रहे थे कि उनके जीवन-यापन के बचे-खुचे साधनों को छीना जाना उन्हीं के हित में है। शायद किसानों के परम मित्र मोदी जी का तरीका यह है क्योंकि किसान भूमि से चिपके रहने की असाध्य बिमारी से ग्रसित हैं। अतः एक सच्चे मित्र का फर्ज है कि वह अपने मित्र को बिमारी से मुक्त कराये। इसलिए उन्होंने अध्यादेश फिर लोकसभा में पारित विधेयक और अब जब उनके मन की बात संसद में पास नहीं हो सकी तो पुनः एक नया अध्यादेश लाने की तैयारी उन्होंने किसानों को उनकी भूमि से चिपके रहने की असाध्य बिमारी से मुक्त करने के लिए हर कोशिश करने की ठान ली है।
    भूमि-अधिग्रहण कानून में पिछली सरकार के समय कुछ ठीक प्रावधान जोड़े गये थे। भारी जनदबाव के साथ उन सैकड़ों किसानों की कुर्बानी की जो उन्होंने इन पूंजी परस्त सरकारों के खिलाफ संघर्ष करते हुए दी थी जिसने मनमोहन सरकार को बाध्य किया था कि वे प्रावधान उसमें जोड़ें जिससे किसानों को और उन लोगों को जिनके पास जमीन का एक भी टुकडा नहीं है, कुछ राहत मिले। अब सोनिया गांधी किसानों की मसीहा बनकर इस बात का श्रेय लेना चाहती हैं कि देखो हमने कितना अच्छा किसान हितैषी कानून बनाया था अब श्रीमान मोदी कैसे पूंजी परस्ती कर रहे हैं।
    वैसे अक्सर मौन रहने वाले प्रधानमंत्री और अब कभी मौन न रहने वाले प्रधानमंत्री दोनों को चलाने वाली ताकत एक ही है। वह ताकत भारत की निजी एकाधिकारी पूंजी है। अम्बानी-अडाणी जैसों ने हजारों करोड़ रुपये मोदी के चुनाव पर इसलिए नहीं खर्च किये हैं। कि वे अब उनके निवेश को डुबोये। निवेश को डुबाने का मोदी जी का कोई इरादा नहीं है। वे तो पूरी शिद्दत से उन्हें भारी मुनाफा दिलाने का इरादा ही नहीं रखते हैं बल्कि उन्होंने अपनी पूरी जान लगायी हुयी है। वे तो किसानों के असली मित्र बनकर उनको समझा रहे हैं कि देखो मेरा इरादा अच्छा है, देशी-विदेशी पूंजीपति अच्छे, उनके काम अच्छे है और जब इतनी सारी अच्छाई एक जगह इकट्ठी हो तो इस अच्छाई के लिए किसानों को भूमि से चिपके रहने की अपनी लाइलाज बिमारी से मुक्ति पाने के लिए सरकार के साथ भरपूर सहयोग करना चाहिए। मोदी जी के इस अच्छे काम में विपक्षी पार्टियों, किसानों सभी को मदद करनी चाहिए।
    मोदी, सोनिया गांधी आदि किसानों के अच्छे मित्रों के बाद ऐसे भी मित्र हैं जो संसद में नहीं विराजमान हैं। वे सड़कों में किसानों के साथ हैं। वे उनकी तरह देहातों में रहते हैं। वे वही भाषा, मुहावरे, कहावतें बोलते हैं जिससे आम किसान अपनी पैदाइश के दिन से समझता-बूझता है। वे देहात में सबसे बड़ी जमीनों के मालिक हैं। शहरी सुविधाओं से युक्त घरों में रहते हैं, बच्चे उनके नामी गिरामी स्कूलों में पढ़ते हैं। वे इस बात से बेहद परेेशान हैं कि खेती से, जमीन से वैसा मुनाफा नहीं होता जैसे बिल्डरों, उद्योगपतियों को होता है। वे जमीन का ऐसा सौदा करना चाहते हैं जो उन्हें भी मालामाल करे। वे जमीन से चिपकने की लाइलाज बिमारी से ग्रसित किसानों को साथ लाकर अफसरों, बिल्डरों, उद्योगपतियों को डराते हैं। वे राजनेताओं को भय दिखाते है कि ये भीड़ उसके हाथ से निकल जायेगी यदि सौदा ढंग से नहीं किया किसानों के ये मित्र ऐसे हैं जैसे वे व्यक्ति होते हैं जो किसी देहाती-कस्बाई भोली-भाली नवयुवती को शहर की चकाचांैध दिखलाकर सीधे वेश्यालय में पहुंचा देता है।
    किसानों के कुछ और मित्र भी हंै। वे सीधे शहरों से और कई बार विदेशों से सीधे किसानों के मंच पर पहुंचते हैं। अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं। उनके झोले तथ्यों, आंकड़ों से भरे रहते हैं। वे किसानों का महिमा मण्डन करते हैं। देहात में जीवन जीने के फायदे बताते हैं। वे घूरे को गांव का मंदिर समझते हैं। गेहूं को धान और धान को गेहूं समझते हैं। परंतु ये किसानों के असली मित्र हैं। सौ फीसदी असली। असल में ये किसानों से बड़े किसान हैं। इनका बस चले तो ये किसानों, आदिवासियों को अजायबघर की वस्तु बना दें। और शहरों से, विदेशों से आये अतिथियों को अपने इन परम मित्रों के दर्शन करवा के ज्ञानवर्द्धन पर्यटन उपलब्ध करवाये।
    नरेन्द्र मोदी, सोनिया गांधी, नरेश-राकेश टिकैत, पीवी राजगोपाल जैसे अच्छे व घनिष्ठ मित्रों के बावजूद किसान दुश्मनों से घिरा है। अपने ही सगे उसे ठगते हैं। ताऊ-चाचा से दुआ सलाम नहीं है। कभी खेत में हाथ बंटाने के लिए मजूर को बुलाओ तो मुंह मांगी मजदूरी देनी पड़ती और नखरे अलग से सहने पड़ते हैं। हारी-बिमारी पीछा छोड़ती नहीं और ऊपर से कभी मौसम में बारिश होती नहीं और कभी बेमौसम बारिश पीछा छोड़ती नहीं। बीज महंगा, खाद महंगी, कीटनाशक महंगे पर जब उपज बेचने जाओ तो वह सबसे सस्ती। इन सब दुश्मनों से निपटे तो चूहे, बंदर, नीलगाय, सूअर हाजिर। रात भर रखवाली करो वरना हाथ में कुछ नहीं आता। दुश्मनों से घिरा किसान करे तो करे क्या और ऊपर से किसानों-किसानोें में भी फर्क है।
    धनी किसान, फार्मर जमीन खरीदने-बेचने से नहीं घबराता। वह तो हमेशा मौके की तलाश में रहता है। अच्छा मौका मिलते ही वह जमीन खरीद और बेच भी सकता है। असली समस्या तो जमीन से चिपके रहने की लाइलाज बिमारी से ग्रसित छोटे-मझौले किसानों की है। वह जमीन के बिक जाने से बहुत घबराता है। खरीदने का तो मौका आजकल की पुश्तों में किसी-किसी काबिल को ही मिलता है। जमीन हाथ से जाने का मलतब किसान की दुनिया का विनाश है। मजदूर बनना जीवन की त्रासदी और इस त्रासदी से बेहतर कई किसान अपने जीवन का त्रासद अंत कर देते हैं। मजदूर बना किसान अपने अतीत को याद करता है। और सारी उम्र वह इस फिराक में रहता है कि मेहनत और मेहनत करके एक दिन वह फिर से किसान बन जायेगा। जमीन पाकर वह गलतियां नहीं करेगा जिसके कारण उसने पहले जमीन खोयी।
    पूंजीवाद में यह ऐसी विडम्बना है कि मजदूर बनना किसानों की नियति है। और किसान इस नियति से छल करने का जीवन भर प्रयास करता है परंतु नियति उसका पीछा नहीं छोड़ती। ढेरों मजदूर जो हाल तक या एक दो पीढ़ी तक किसान थे इस पीड़ा को बहुत अच्छी तरह समझते हैं पर वे कुछ कर नहीं पाते। किसान अपनी मदद आप करने में बहुत सक्षम नहीं है।
    छोटे-मझौले किसानों की पूंजीवाद में तय नियति से टक्कर संगठित ऐसा किसान आंदोलन ही ले सकता है जिसको मजदूरों के संगठित पूंजीवाद विरोधी क्रांतिकारी आंदोलन का साथ मिला हो और यह सब लिखने में जितना आसान है हकीकत में इसको हासिल करना उतना ही मुश्किल। इसे हासिल करने के लिए ऐसे लोग चाहिए जो अपना खून जला सकें।
आपका नजरिया- ‘मेक इन इंडिया’ निजीकरण-उदारीकरण की एक बड़ी छलांग
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    ‘मेक इंन इंडिया’ को मोदी सरकार एक अनोखी, अद्भुत नीति के रूप में पेश कर रही है। ‘मेक इन इंडिया’ का बेसुरा राग छेड़कर यह इसे देश की कायाकल्प कर देने की घोषणा कर रही है। देश का विकास, रोजगार में वृद्धि जैसे झूठ प्रचारित कर रही है। ‘मेक इन इंडिया’ और कुछ नहीं 1990 में शुरू की गयी नयी आर्थिक नीतियों में एक बड़ी व निर्णायक छलांग है। यह वही नीतियां हैं जिसे कांग्रेस सरकार आगे बढ़ा रही थी, अब मोदी सरकार इन नीतियों को ही द्रुत गति से आगे बढ़ा रही है। जिन नीतियों ने देश में बेकारी, गरीबी, किसानों की आत्महत्या आदि समस्याओं को बड़े पैमाने पर बढ़ा दिया है।
    ‘मेक इन इंडिया’ का कुल जमा मतलब पूंजी  निवेश की सारी बाधाओं को खत्म कर बेलगाम शोषण-लूट की छूट कारपोरेट घरानों को देना है। ‘मेक इन इंडिया’ के तहत सरकार लाइसेंस प्रक्रिया को समाप्त कर लाइसेंन्स की पूरी प्रक्रिया को समेट कर सीमित व सरल कर आनलाइन कर देना चाहती है। पुराने तमाम नियमों को बदल कर पूंजी निवेश के हित में नये सिरे से नियम बना रही है। ज्यादा ठीक कहें तो पूंजी निवेश में बाधक सारे नियमों को खत्म कर रही है। पूंजीपतियों को लूट की खुली छूट के नियम बना रही है।
    रक्षा, निर्माण, रेलवे जैसे क्षेत्रों को पूरी तरह पूंजी निवेश के लिए खोलना है। रक्षा क्षेत्र में तो सरकार द्वारा 49 प्रतिशत एफडीआई की छूट देकर शुरूआत भी कर दी है। रेलवे में सरकार ने घोषणा की किन्तु देश व्यापी विरोध को देखकर सरकार दो कदम पीछे हटी और हमले की नयी रणनीति बनाने में जुट गयी। रेलवे से जुडे़ विभिन्न निर्माण कार्यों में सरकार निजी पूंजी निवेश कर रही है। इन सभी क्षेत्रों में सरकार का लक्ष्य 100 प्रतिशत देशी-विदेशी पूंजी निवेश का है।
    ‘मेक इन इंडिया’ में 25 क्षेत्रों को विशेष तौर पर लक्षित कर आगे बढ़ाया जायेगा। इनके विकास के समक्ष सारी बाधाओं को दूर करना बताया गया है। ये क्षेत्र हैं- आॅटो मोबाइल, इनके कल-पुर्जे, उड्डयन, जैव प्रौद्योगिकी, रसायन, रक्षा निर्माण, विद्युत मशीनरी, सूचना प्रौद्योगिकी, दवा, सड़कें, खनन, तेल, गैस आदि। यह सारे ही क्षेत्र बड़ी पूंजी, उच्च तकनीक वाले क्षेत्र हैं। उच्च तकनीक के ये क्षेत्र बेहद कुशल व बेहद कम मजदूरों की मांग पैदा करती है। ‘मेक इन इंडिया’ से बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के मोदी सरकार के दावों को यहां से पूरा नहीं किया जा सकता है। गुजरात में मेट्रो कोच बनाने वाली जर्मन कम्पनी बोम्बार्डियर जो कि एक दिन में एक कोच बनाकर तैयार कर देती है, में महज 600 मजदूर कार्यरत हैं। नयी आर्थिक नीतियों का इतिहास रहा है कि इसमें उजडने वाले हजारों में और बसने वाले दर्जनों में रहे हैं। ‘मेक इन इंडिया’ में भी इससे अलग कुछ नहीं होगा। इन क्षेत्रों को ही केन्द्र में रखकर सरकार ने दक्षता विकास का लक्ष्य ‘मेक इन इंडिया’ में रखा है। पिछले वर्ष दिल्ली विश्व विद्यालय में एफवाईयूपी सरीखा कार्यक्रम जिसे छात्रों के विरोध के कारण अंततः वापस लेना पड़ा था, दक्षता विकसित करने का यंत्र था। मौजूदा सत्र में ‘च्वाइस वेस एजुकेशन’ एफवाईयूपी का बदला हुआ रूप है, जिसका मकसद भी निजीकरण-उदारीकरण के दौर में पूंजीपतियों की जरूरत के मुताबिक छात्रों को एक जीवित मशीन में बदलना है। साथ ही विदेशी विश्वविद्यालय के हिसाब से भारतीय शिक्षा को ढालना है। सरकार पूरे देश में दक्षता विकास करने के नाम पर अभियान चलाने की घोषणा कर रही है। नौकरी पाने के लिए दक्षता का प्रमाण पत्र हासिल करना अनिवार्य करने का लक्ष्य अपने समक्ष रख रही है। दक्षता प्रमाण पत्र के जरिये सरकार एक बेहद बारीक छन्ना बेरोजगारों को छान देने की तैयारी में है।
    ‘मेक इन इंडिया’ में बड़े पैमाने पर औद्योगिक कोरिडोर, स्मार्ट सिटी बनाने का लक्ष्य लिया गया है। इन औद्योगिक कोरिडोर व स्मार्ट सिटी के लिए बिना किसी बाधा के जमीन हासिल करने के लिए सरकार ‘भूमि अधिग्रहण बिल’ पास करवाने में जी-जान से जुटी है जिससे वह किसानों-खेती को बर्बाद कर कारें, हथियार, स्मार्ट सिटी बनाना चाहती है। ‘मेक इन इंडिया’ औद्योगिक कोरिडोर के लिए आवश्यक है कि यहां मजदूरों के निर्मम शोषण की बड़े पैमाने पर छूट दी जाये। देशी-विदेशी पूंजी तभी निर्भीक रहेगी और ‘मेक इन इंडिया’ करेगी जब भारतीय मजदूर काबेू में रहेगा। इसका भी इंतजाम मोदी सरकार कर रही है। श्रम कानूनों में एक के बाद एक सुधार कर रही है। सरकार का पूरा लक्ष्य द्वितीय श्रम आयोग की रिपोर्ट को लागू करना है। जो रिपोर्ट मजदूर को मिले हर प्रकार के कानूनी अधिकार को खत्म कर देना चाहती है।
    मोदी सरकार का ‘मेक इन इंडिया’ बेरोजगारों, छात्रों, किसानों, मजदूरों के पक्ष में नहीं है। यह उनके जीवन को और अधिक बर्बादी की ओर धकेलने का है। मोदी का ‘मेक इन इंडिया’ देशी-विदेशी कारपोरेट पतियों का है। इन्हीं के हितों को परवान चढ़ाने वाला है। झोपड़ी-खेती उजाड़कर उस पर अमीरों के लिए स्मार्ट सिटी बनाने वाला यह ‘मेक इन इंडिया’ गांवों-कस्बों को बर्बाद कर शीशे के शहर बसाने वाला है जिन शहरों की नींव में मजदूर दफन होंगे। ऐसा ही सब कुछ करने के लिए एकाधिकारी घराने मोदी को लेकर आये हैं।
    ‘मेक इन इंडिया’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार बौद्धिक सम्पदा को मजबूत करने का लक्ष्य लिया गया है यानी पेटेन्ट कानून लागू करना। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां तकनीक खोजने के पूरे खर्च को दानवी ढंग से वसूल करना चाहती हंै। इसलिए वे ज्ञान पर अपना अधिकार जताते हुए किसी और के, उसके किसी भी रूप, प्रक्रिया के इस्तेमाल को गैरकानूनी बना देना चाहती है। पेटेन्ट कानून के लागू होने से तमाम चीजों पर गंभीर प्रतिकूल असर के साथ-साथ दवाओं के दामों और उपलब्धता पर भारी असर पड़ेगा। मोदी सरकार पहले से ही दवाओं के दामों पर से सभी तरह के सरकारी प्रतिबंधों को खत्म करने की राह में तेजी से बढ़ रही है। जिसका कुल जमा परिणाम तमाम जीवन रक्षक दवाओं के दामों में तेज वृद्धि के रूप में पिछले दिनों सामने आया है। बौद्धिक सम्पदा की व्यवस्था लागू होने से यह स्थिति और भी खतरनाक स्तर पर पहुंच जायेगी। 
    निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण का यह ‘मेक इन इंडिया’ को परवान चढ़ाने में मोदी सरकार जी जान से जुटी है। विदेशों की दौड़ धूप करने के बावजूद मोदी अभी विदेशी पूंजी को पूरी तरह लुभा नहीं पाये हैं। मोदी सरकार अपने प्रयासों को और तेज कर रही है। मौजूदा बाजार में ‘मेक इन इंडिया’ के लिए आधारभूत ढांचा विकसित करने के लिए 70 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। 
    ‘मेक इन इण्डिया’ की मोदी की खाम-ख्याली से इतर वास्तविक जमीन पर इसके सफल होने को देखें तो इसकी सम्भावना बेहद सीमित है। यह सफल होने और असफल होना दोनों ही स्थितियां मेहनतकशों के लिए बुरी ही होंगी। यदि मोदी का ‘मेक इन इंडिया’ सफल होता है तो वह गांव के किसानों, शहरों के मजदूरों के शोषण को बढ़ायेगा। बेहद सीमित लोगों को रोजगार देकर कईयों को उजाड़ेगा। यदि यह असफल होता है, भारतीय अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में घिरी रहेगी। जिसके कारण मेहनतकश पीडि़त हैं। हालांकि मोदी का प्रस्थान बिंदु कहीं से भी मेहनतकश नहीं पूंजीपतियों के मुनाफे का संकट है। 
    ‘मेक इन इंडिया’ की सफलता की कमजोर जमीन, घरेलू स्तर पर कमजोर मांग का होना है। यह कमजोर मांग पूंजीपतियों का मेहनतकशों का लूटने की वजह से है और बिना इसे ठीक किये मेहनतकश के जीवन को ऊपर उठाये, उसकी क्रय शक्ति बढ़ाये घरेलू मांग बढ़ भी नहीं पायेगी। और जब मांग ही नहीं बढ़ेगी तो ‘मेक इन इंडिया’ में बना सामान बेचेंगे किसे। ‘मेक इन इण्डिया’ में निर्यात पर जोर देने की बातें कही जा रही हैं। परन्तु दुनिया के बाजार में छायी मंदी इस कांच के सपने को भी तोड़ देती है। दुनिया में भारत ही कोई अनोखा देश नहीं जो अपने मजदूरों को लूट-खसोट कर ‘मेक इन इण्डिया’ कर रहा है। चीन आदि देश बहुत पहले से इस राह पर चल पड़े हैं। इन सब के बीच मोदी का ‘मेक इन इंडिया’ की राह बेहद दूभर राह है किन्तु मोदी के इरादे खतरनाक हैं।                     रवि रावत, रामनगर 
सम्पादकीय
भारतीय क्रांति के प्रतीक भगतसिंह
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    जैसे हमारे देश के हालात हैं और जिस ढंग से वे बद से बदतर होते जा रहे हैं। ऐसे मौके पर भगतसिंह की याद आना स्वाभाविक है। उन्हें याद करने का सीधा अर्थ है, ‘‘आओ मुकाबला करें’’।
    भगतसिंह भारतीय क्रांति के प्रतीक हैं। वे ऐसी क्रांति के प्रतीक हैं जो आज तक उस मंजिल को हासिल नहीं कर सकी जिसे हासिल करने के लिए उनके पहले और बाद में हजारों-हजार लोगों ने एक नये भविष्य को भारत में उतारने के लिए अपनी जानें कुर्बान कर दीं। कुर्बानी का यह सिलसिला जारी है, भारतीय क्रांति की मशाल एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुंचती गयी है। 
    भगतसिंह भारतीय क्रांति के आदर्श हैं। वे अपने जज्बे, अपनी दृढ़ता के कारण ही नहीं बल्कि कहीं उससे बढ़कर अपनी वैज्ञानिक समझ और भारत की मुक्ति के स्पष्ट कार्यक्रम की वजह से आदर्श हैं और उनकी कम उम्र को देखते हुए कोई भी सहज ही कह सकता है कि यह व्यक्ति वाकई महान था। 
    भगतसिंह भारत की आजादी की लड़ाई में भारत के शोषित-उत्पीडि़त तबके की आवाज थे। वे भारत के मजदूरों, किसानों की मुक्ति में ही भारत की मुक्ति देखते थे। वे स्पष्ट तौर पर यह कहते थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी पूंजी के हाथ से सत्ता भारतीय पूंजी के हाथ में आ जाने से भारत की मेहनतकश जनता की गुलामी बनी रहेगी बेशक उसका रूप बदल जायेगा। वे घोषणा करते थे कि समाजवाद ही वह रास्ता जहां से होकर भारत की मुक्ति का रास्ता जाता है। 
    वे नास्तिक थे। अल्प आयु में लिखा उनका लेख ‘‘मैं नास्तिक क्यों हूं’’ धार्मिक पाखण्ड और धर्म के नाम पर धंधा करने वालों पर करारी चोट है। वैज्ञानिक व तार्किक चिंतन करने वाले अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि धर्म मानव मुक्ति की राह को आसान नहीं बल्कि स्वयं एक बहुत बड़ी बाधा है। 
    भगतसिंह ने अपने समय में पूरे देश को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलसते देखा था और वे इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इसके पीछे घृणित शासक वर्गीय राजनीति है। उनके जाने के बाद हिन्दुस्तान ने और भी बुरे दिन देखे। देश का धार्मिक आधार पर बंटवारा कर दिया गया। लाखों लोग आज तक इन दंगों की भेंट चढ़ चुके हैं। अब तो देश में हिन्दू फासीवादी मंसूबे पालने वालों की सरकार है जो पूरे देश को मध्ययुगीन धार्मिक कूपमंडूकता में धकेल कर भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती है। देश के प्रधानमंत्री संसद में अपने पहले ही भाषण में भारत की 1200 साल गुलामी की बात कर अपनी घृणित सोच सामने रख देते हैं। 
    हिन्दू फासीवादी आंदोलन आज जब देश में नयी ऊंचाइयों को छू रहा है तब भगतसिंह की याद हर उस शख्स को आना स्वाभाविक है जो इस आंदोलन को निर्णायक शिकस्त देने का इरादा रखता हो। भगतसिंह को केसरिया पगड़ी पहनाने अथवा उनके नाम के आगे सरदार जोड़ देने से वे भगतसिंह के क्रांतिकारी विचारों को भारतीय समाज में फैलने से नहीं रोक सकते है। भगतसिंह की झूठी, नकली छवि को भारतीय समाज में स्थापित करने का षड्यंत्र कामयाब हो नहीं सकता। जो कोई भी भगतसिंह के नाम के बाद उनके सिद्धान्त के करीब जायेगा वह स्वाभाविक तौर पर भगतसिंह की राह को अपना लेगा। और यह राह भारत के मजदूरों, किसानों के साथ अपना भाग्य जोड़ने और भारतीय समाज में समाजवादी क्रांति को सम्भव बनाने की ओर ले जाती है। 
    भारत की आज की समस्याओं का समाधान समाजवाद में ही छुपा हुआ है। समाजवाद का अर्थ वह नहीं है जो मुलायम के गुरू लोहिया अथवा देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू प्रस्तुत करते रहे हैं। समाजवाद का सीधा अर्थ है पूंजी के राज का पूर्ण खात्मा और सत्ता सीधे भारत के मजदूरों-किसानों के हाथ में हो। भारत के मजदूर, किसान वास्तविक शासक हों। भगतसिंह को याद करने का सीधा अर्थ है इस दिशा में काम किया जाये। सारे पूंजीवादी भ्रमों को तोड़कर देश के शोषित-उत्पीडि़तों को संगठित किया जाये और समाजवाद को भारतीय समाज की वास्तविकता में तब्दील कर दिया जाए। 
    भगतसिंह के अंदर क्रांतिकारी आदर्शवाद कूट-कूट कर भरा हुआ था। कदाचित वह क्रांतिकारी आदर्शवाद ही था जिसने भगतसिंह को भारतीय क्रांति का प्रतीक बना दिया। उनका अपने निजी जीवन के संचालन से लेकर उनके पूरी क्रांतिकारी गतिविधियों में बार-बार देखा जा सकता है। आज इस क्रांतिकारी आदर्शवाद की भारत के छात्रों-नौजवानों को बेहद आवश्यकता है। इसके अभाव में जीवन की निस्सारता के अहसास गहराने से भारत के छात्र-नौजवान भयानक ढंग से आत्मिक संकट के शिकार हो रहे हैं। क्रांतिकारी आदर्शवाद का तकाजा है कि हम अपने जीवन को सर्वश्रेष्ठ काम को समर्पित करें। और यह सर्वश्रेष्ठ काम ब्रिटिश गुलामी के दिनों में उस गुलामी से मुक्ति के संघर्ष में था। आज यह सर्वश्रेष्ठ काम पूरी मानव जाति को पूंजी की गुलामी से मुक्ति की लड़ाई में छुपा हुआ है। 
    पूरी मानव जाति रक्तपिपासु वित्तपतियों के चंगुल में फंस गयी है। चंद खरबपति पूरी मानवजाति को अपने इशारों में नचा रहे हैं। वे मनमानी नीतियां ही नहीं सरकारें बनाते और गिराते हैं। हमारे देश के हालिया आम चुनाव को भारत के चंद वित्तपतियों ने पूरी तरह से नियोजित और प्रायोजित कर डाला। देशी-विदेशी पूंजी के आशीर्वाद से एक ऐसा व्यक्ति भारत का प्रधानमंत्री बना दिया गया जिसके ऊपर हजारों तरह के इल्जाम हैं। जैसा भारत में हुआ वैसा ही पूरी दुनिया में देखा जा सकता है। जहां पूंजी अपनी प्रचण्ड ताकत के द्वारा एक ऐसा खेल खेल रही है जिसमें मजदूर-मेहनतकशों का जीवन दिनोंदिन बद से बदतर होता जा रहा है। असल में पूंजीवाद मानव जाति को कुछ भी देने में अक्षम हो जा रहा है। यह व्यवस्था मानव जाति पर बहुत बड़ा बोझ बन चुकी है। इस व्यवस्था को चलाने वाले कितने ही चिकने-चुपड़े हों या कितने ही बड़े भाषणकर्ता पर असल में वे ही हैं जो आज मानव जाति के सबसे बड़े दुश्मन हैं। 
    भगतसिंह को याद करने का अर्थ सिर्फ उनके दिनों, उनके कारनामों या उनके विचारों का जाप करना नहीं है। उनको याद करने का अर्थ है कि हम अपने युग की चुनौतियों को साहसपूर्वक स्वीकारें और उस राह पर अपने आदर्श की तरह बेबाकी से चलें। 

आपका नजरिया-   भीड़ को गुस्सा कब आता है?
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
नागालैंड के दीमापुर में हजारों की भीड़ ने सैय्यद फरीद को जेल में पुलिस की सुरक्षा से बाहर खींच कर निकाला। 7-8 किलोमीटर तक उसे घसीटते-पीटते रही और उसकी मौत हो जाने के बाद उसे फांसी पर लटका दिया गया। न्याय व महिला सुरक्षा के नाम पर। यह कहते हुए उसे मार डाला गया कि सैय्यद फरीद बांग्लादेशी मुसलमान है। यह पूरी घटना पुलिस के सामने हुई और पुलिस ने उसकी सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं किया। प्रशासन ने अपने पैर नहीं हिलाये। 
इसे भीड़ का सामान्य गुस्सा नहीं कहा जा सकता। न ही इसे एक सामान्य दुश्मनी, मार-पीट या बलात्कार की घटना के अपराधी पर भीड़ के गुस्से के रूप में लिया जा सकता है।  
इसमें अभी तक जितने भी कोणों से बयान आये हैं, वे यही बताते हैं कि सैय्यद फरीद को मारने के लिए भीड़ को उकसाकर लाया गया था। यह पूरी योजनाबद्धता व तैयारी के साथ हुआ। 
अभी हाल के इसके कुछ उदाहरण मौजूद हैं जिनमें छोटी-छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार हुए हैं लेकिन इस हद तक जनता का उन्माद व आक्रामकता देखने को नहीं मिली। 
कोई दिन ऐसा नहीं जाता है जब देश में बलात्कार की कोई घटना न हुई हो लेकिन भीड़ को गुस्सा नहीं आता। भीड़ को तब भी गुस्सा नहीं आता जब लड़कियों के साथ गैंग रेप होते हैं। उसे तब भी गुस्सा नहीं आता जब घर परिवार के सदस्य या पड़ौसी द्वारा महिलाओं व छोटी बच्चियों से बलात्कार किया जाता है। फैक्टरियों में मालिकों द्वारा सुरक्षा इंतजामों में लापरवाही के कारण रोज दुर्घटनायें होती हैं लेकिन किसी को गुस्सा नहीं आता। 
इस भीड़ को गुस्सा तब ही आता है जब कोई मुस्लिम आदमी इन घटनाओं में शामिल हो। 
उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले में कशिश, महिमा सेठ व प्रीति के बलात्कार व हत्या के बाद भीड़ को गुस्सा नहीं आया। दिल्ली में 16 दिसम्बर, 2012 के बाद लगातार लगभग महिने भर तक लड़कियों के साथ बलात्कार की खबरें आयीं लेकिन भीड़ को गुस्सा नहीं आया। गुवाहाटी में 100-150 लोगों की भीड़ जब दिन के उजाले में 15-16 साल की लड़की के साथ घंटे भर तक बदतमीजी व छेड़छाड़ करती रही तब भी किसी को गुस्सा नहीं आया। मारुती के 147 मजदूर बिना किसी अपराध व दोष सिद्धि के लगभग ढाई साल से जेल में बंद हैं। उन्हें जमानत तक नहीं मिल रही है। उनके परिजनों की मौत तक पर उन्हें पैरोल पर भी नहीं छोड़ा जा रहा है लेकिन भीड़ को गुस्सा नहीं आता। 
भीड़ को गुस्सा तब ही आता है जब लालकुंआ (उत्तराखण्ड) में 17 साल का एक मुस्लिम लड़का और 16 साल की लड़की प्रेम में पड़कर आपसी सहमति से कहीं चले जाते हैं। जब हल्द्वानी (उत्तराखण्ड) में 7 वर्षीय बच्ची कशिश की बलात्कार व हत्या के मामले में एक मुस्लिम आॅटो वाले का नाम सामने आता है। 
क्या यह भीड़ का सामान्य गुस्सा है या पक्षपातपूर्ण गुस्सा है। इस एक घटना ने कई सारे सवाल एक साथ खड़े कर दिये।         
सबसे पहले यह कि यदि दो-तीन घंटे तक भीड़ उसे पीटते हुए 6-7 किलोमीटर तक ले गई तो इन दो-तीन घंटे में पुलिस ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? दूसरे क्या एक शख्स को केवल इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह बलात्कार का आरोपी था? दीमापुर, नागालैण्ड में जहां यह घटना हुई वहां सुरक्षा बल विशेष अधिकार कानून (AFSPA- आफस्पा) लगा हुआ है। जिसके तहत भारतीय पुलिस व सेना वहां कुछ भी करने को स्वतंत्र है। ऐसे राज्यों की निगरानी केन्द्र सरकार द्वारा की जाती है। भीड़ को यह किसने बताया कि इतने सारे अपराधियों में से यही व्यक्ति आरोपी सैय्यद फरीद है? क्या बलात्कार के सभी आरोपियों के लिए यही भीड़ यही सजा तय करेगी? क्या ऐसा करने से समाज में अपराध और यौन अपराध खत्म हो जायेंगे? क्या किसी व्यक्ति को बिना किसी अपराध साबित हुए इसलिए फांसी पर चढ़ा देना चाहिए क्योंकि वह मुस्लिम है या विदेशी है, जैसा अफजल गुरू को प्रशासन ने और सैय्यद फरीद को भीड़ ने मार डाला? क्या यह भीड़ अपने आप आई थी या इस उन्मादी भीड़ को उसी तरह भड़का कर लाया गया था जैसे बाबरी मस्जिद को शहीद करने के समय, लालकुंआ (नैनीताल) या फिर त्रिलोकपुरी दंगों के समय संघियों द्वारा अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए साम्प्रदायिकता तनाव व दंगे कराने के लिए लाया गया था। क्या मारुति, ग्रेजियानो, श्रीराम पिस्टन, निप्पन फैक्टरी या किसी भी अन्य फैक्टरी के मजदूरों को भी यह हक है कि वे गुस्से में अपना शोषण-उत्पीड़न कर खून चूसने वालों को पीट-पीट कर मार डालें और पुलिस व प्रशासन मूक दर्शक बना रहे। 
भीड़ द्वारा मारे गये व्यक्ति के बारे में यह प्रचारित किया गया था कि वह अवैध बांग्लादेशी था और मुसलमान भी। बाद में जब यह बात सामने आयी कि भीड़ द्वारा मार डाला गया व्यक्ति भारतीय था तो नागा काउंसिल ने यह बयान जारी किया कि 50-50 रुपये देकर कोई भी भारतीय नागरिक बन जाता है इसके साथ ही लड़की की डाॅक्टरी जांच में बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई। 
नागा काउंसिल द्वारा दिया गया यह बयान कि 50-50 रुपये खर्च करने पर भारतीय नागरिकता मिल जाती है तो क्या 50 रुपये खर्च करके नागरिकता प्राप्त करने वाला व्यक्ति भारतीय सेना में भी भर्ती हो सकता है? 
इस तरह से साफ है कि भीड़ को कुत्सा व उन्मादी प्रचार करके, विषवमन करके लाया गया था। इस सारी घटना के मूल में आमतौर पर मुसलमानों और पूर्वोत्तर के विशेष संदर्भों में बांग्लादेशी नागरिकों की अवैध घुसपैठ के नाम पर किया गया फर्जी उन्मादी प्रचार है। 
गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव से पहले नरेन्द्र मोदी ने भी पूर्वोत्तर में अपनी चुनावी सभा में तथाकथित बांग्लादेशी मुसलमानों के सवाल पर वही भड़काऊ भाषण दिया था। महज 1000 या 1500 लोगों की भीड़ इस हत्याकांड की गुनहगार नहीं है। इसकी गुनहगार नस्लीय-धार्मिक व अन्य प्रकार की नफरत फैलाकर सत्ता प्राप्त करने वाली राजनीतिक पार्टियां व इस सबको वैधता व मान्यता देने वाला राजनीतिक तंत्र है।
         हेमलता, दिल्ली

आपका नजरिया-   शिक्षा में सुधार के नाम पर केवल नारे
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    वर्तमान मोदी सरकार ने आम बजट में शिक्षा के बजट में कटौती करके शिक्षा के प्रति अपनी असंवेदनशीलता का परिचय दे दिया है। प्रत्येक सामाजिक शिक्षा से जुड़ी फ्लैगशिप योजनाओं के बजट में जमकर कटौती की गयी है। 
    सर्व शिक्षा अभियान में करीब 2375 करोड़ रुपये की कटौती की गयी है। राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान में करीब 85 करोड़ की कटौती की गयी है। मिड डे मील में जहां पिछले वर्ष लगभग 13,000 करोड़ रुपये का आवंटन था वहां मात्र 8900 करोड़ देकर पल्ला झाड़ लिया है। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कि उपरोक्त योजनाओं के उद्देश्यों को प्राप्त कर लिया गया है। 
    प्राथमिक शिक्षा के सर्वीकरण तथा माध्यमिक शिक्षा के सर्वीकरण, प्रत्येक 5 किमी. के दायरे में सीनियर सैकेण्डरी स्कूल, 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के सभी बच्चों की निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के बगैरह-बगैरह सब बातें बकवास हैं। इस देश की सभी पूंजीवादी सरकारों ने आम जनों को ठगा है। उनके साथ ढकोसला किया है। शिक्षा में उधार के लिए कई शिक्षा आयोग, कई शिक्षा नीतियां कई कमेटियां, कई क्रियान्वयन कार्यक्रम चलाये गये। परिणाम यह है कि सुदूर गांव के विद्यालयों में अध्यापक पूरे नहीं हैं। विद्यालयों के भवन जर्जर अवस्थाओं में हैं। शिक्षा के लिए बुनियादी संसाधनों का अभाव तो आम बात है। 
    राज्यों के शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं में प्रतिभाशाली मैरिट में आने वाले छात्रों को लैपटाॅप देना या छात्रवृत्तियों की योजनाएं चलाना इसे बड़े जोर-शोर से प्रचारित किया जाता है। वाह-वाही लूटी जाती है। सब बकवास, ढकोसला, आडम्बर, पाखण्ड है। आम जनता के पाल्यों की आंखों में धूल झोंकना है। हां! एक बात जरूर देखने में मिलती है। फ्लैगशिप योजनाओं के नाम पर कुछ स्लोगन बड़े जोर-शोर से प्रचारित किये जाते हैं। जैसे ‘सर्व शिक्षा अभियान’, ‘स्कूल चलो’ अभियान’, ‘सबको पढ़ाना है’। इन नारों पर जोर पूंजीपतियों के कई फाउण्डेशन गरीबों की शिक्षा के लिए अनुदान देने वाले बनते हैं। कईयों ने प्रतिभाशाली छात्रों के लिए छात्रवृत्ति योजनाएं बनाई हैं। ऐसा लगता है जैसे इस देश के शासक तथा पूंजीपतियों को आम जनता के पाल्यों की शिक्षा की बड़ी चिन्ता है। जबकि यह सब बकवास है। ये धूर्त तंत्र इस देश की आम जनता को मूर्ख समझता है। अपनी असली मंशा पर पर्दा डालने का प्रयास करता है। असली मंशा तो बजट में दिखाई दे रही है। यही होता रहेगा और कई आयोग बनेंगे, योजनाएं बनेंगी, नारे गढ़े जायेंगे, लैपटाॅप बांटे जायेंगे। शिक्षा के नाम पर ढकोसला पाखण्ड, आडम्बर भौंडा प्रचार का खेल जारी रहेगा। सावधान रहिये।
            खुशाल सिंह नेगी शिक्षक
विवेकानन्द विद्या मंदिर इण्टर काॅलेज पिथौरागढ़


सम्पादकीय
आठ मार्च
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
    इतिहास में प्रतीकों का कभी-कभी बड़ा महत्व हो जाता है। चाहे-अनचाहे सभी को ऐसे प्रतीकों के संदर्भ में कुछ कहना पड़ता, कुछ करना पड़ता है। आठ मार्च का दिन एक ऐसा ही प्रतीक है जिस दिन सभी को औपचारिक या वास्तविक तौर पर महिला मुक्ति के संदर्भ में कुछ कहना पड़ता है। असली या रस्मी तौर पर सभी को कुछ न कुछ करना पड़ता है। 
    आठ मार्च महिला मुक्ति खासकर महिला श्रमिकों की मुक्ति के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। ऐसा किसी कम्युनिस्ट षड्यंत्र के कारण नहीं बल्कि इस दिवस की उत्पत्ति और सबसे पहले दुनिया के क्रांतिकारी समाजवादियों और कम्युनिस्टों द्वारा इस दिवस को मनाये जाने के प्रस्ताव से जुड़ा हुआ है। इन क्रांतिकारियों की महानता इस बात में थी कि उन्होंने महिला मुक्ति के प्रश्न को सही परिप्रेक्ष्य में पेश किया और इस दिवस को विश्व व्यापी महत्व का बना दिया। 
    समाजवादियों, कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों और अनगिनत महिला मुक्ति की लड़ाकों के प्रयास और शहादत से स्थापित इस दिवस को दुनिया के शासक वर्ग ने बहुत बाद में मजबूरी में मनाना शुरू किया। और जब शुरू किया तब इसकी ‘‘क्रांतिकारी आत्मा’’ को निकालकर उसके स्थान पर ‘‘एक मिथ्या पूंजीवादी चेतना’’ को स्थापित कर दिया।
    पूंजीपति वर्ग उत्पीडि़त-शोषित वर्गों के नायकों, प्रतीकों आदि के साथ ऐसा लम्बे समय से कर रहा है। वह शोषित-उत्पीडि़त तबके के नायकों को हानिरहित देव प्रतिमा में स्थापित कर देता है।
    हमारे देश में शहीद भगतसिंह और अन्य क्रांतिकारियों को हानिरहित देव प्रतिमा में तब्दील कर दिया गया है। और ऐसे हजारों-हजार उदाहरण पूरी दुनिया के इतिहास से दिये जा सकते हैं। ईसा मसीह से लेकर चे ग्वेरा तक। बिल्कुल ऐसा ही अंतर्राष्ट्रीय महिला श्रमिक दिवस के साथ भी हुआ और हो रहा है। दुनिया के शासक वर्ग और उसकी संस्थाओं ने इस दिवस में अंतर्निहित मुक्ति और वर्गीय पक्ष को लुप्त कर दिया है। और अब यह दिवस मुक्ति के स्थान पर महिला सशक्तीकरण जैसे जुमलों से लबरेज रहता है। रही-सही कसर बाजार में महिला दिवस के दिन उपभोक्तावादी सामग्रियों में ‘छूट की लूट’ को भुनाने के द्वारा पूरी की जाती है। बाजार में उतरो और मुक्ति का जश्न मनाओ। 
    महिला मुक्ति के नाम पर शासकों और मंदी से परेशान बाजार द्वारा की जाने वाली गतिविधियां इसलिए हैं ताकि कोई गम्भीर और वास्तविक काम महिला मुक्ति की ओर न हो सकें। इतिहास से उत्पीडि़त-शोषित महिलाएं और अन्य जन परिचित हों अथवा नहीं शासक वर्ग के नुमांइदे बखूबी परिचित हैं। इसलिए भी वे चाहते हैं कि वे इतिहास से परिचित न हों। 
    1789 की फ्रांस की क्रांति हो अथवा रूस की 1917 की क्रांति हो दोनों में ही महिलाओं की पहलकदमी और उनके द्वारा सड़कों पर किये गये प्रदर्शन क्रांति की ज्वाला को धधकाने वाली चिनगारियां बन गये थे। अक्टूबर 1789 में जब पेरिस के बाजारों में महिलाओं ने पुरुषों को ‘कायर’ कहकर धिक्कारा और घोषणा की कि वे ‘अब खुद मोर्चा संभालेंगी’ तो फिर क्रांति की ऐसी शुरूवात हुयी कि फ्रांस का समाज हमेशा के लिए बदल गया। हाल के समय में हमारे पड़ौसी देश नेपाल में राजशाही के खात्मे में महिला मुक्ति यौद्धाओं की भूमिका उल्लेखनीय है। उत्पीडि़त-शोषित महिलाएं जब भी गरजेंगी तब वह धमक और चमक तो पैदा होनी ही है जिससे शासक वर्ग का सिंहासन डांवाडोल हो जाये। वैसे तो शोषित-उत्पीडि़त महिलाओं का सड़कों पर उतरना आसान नहीं है परन्तु उनके उतरने के बाद किसी भी शासकवर्ग का सत्ता पर टिके रहना भी आसान नहीं है। 
    ये ऐसी बातें हैं जिन्हें दुनिया का शासक वर्ग बहुत अच्छे ढंग से समझता है। और इसलिए वह सायास ऐसे काम करता है और योजनाएं बनाता है जिससे शोषित-उत्पीडि़त महिलाएं उन संघर्षों से दूर और बेहद दूर रहें जो सामाजिक व्यवस्थाा के बदलाव से जुड़े हों। शासक वर्ग का यथास्थितिवादी तबका जहां इस सिलसिले में वामपंथी शब्दावली या नारों से लबरेज ऐसी बातें व योजनाएं पेश करता है जिससे ये भान होता है कि देर-सबेर सभी महिलाएं पूर्ण बराबरी से सम्मानजनक जीवन जी सकेंगी। इसके उलट फासीवादी रुझान वाला तबका महिलाओं को धार्मिक कूपमंडूकता में डुबोकर अंततः उनके सामाजिक जीवन को पूर्णतः नियंत्रित करके उन्हें हमेशा के लिए गुलामी के अंधेरे में कैद करने के मंसूबे पालता है। भारत में हिन्दू फासीवादियों को ऐसा करते हुए देखा जा सकता है। ऐसे ही और इससे बुरे हालात कई अन्य देशों में देखे जा सकते हैं। ईरान, सऊदी अरब से लेकर तीसरी दुनिया के कई देशों में ऐसे ही हाल हैं। 
    महिला मुक्ति के प्रश्न पर यदि कोई गम्भीर है तो आवश्यक रूप से उसे उन षड्यंत्रों का खुलासा करना पड़ेगा जो शासक वर्ग द्वारा रचे जाते हैं। उसे यह बतलाना पड़ेगा कि महिला मुक्ति शब्द अपने आप में भ्रामक है और यह उन महिलाओं की भी मुक्ति की बात करने लगता है जो पहले से मुक्त हैं या फिर उन महिलाओं के उदाहरण को महिला मुक्ति के रूप में पेश करने लगता है जो स्वयं शासक वर्ग का हिस्सा हैं। स्वयं शोषक-उत्पीड़क हैं। हमारे देश में लोकप्रिय ढंग से पेश की जाने वाली ऐसी कहानियां पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से शुरू होकर कल्पना चावला तक जाती हैं। ऐसी कहानियों के जरिये महिला मुक्ति के प्रश्न को व्यक्तिगत प्रयास, प्रतिभा, साहस आदि से जोड़ दिया जाता है। यह मुक्ति की ऐसी धारणा है जिसमें शोषित-उत्पीडि़त तबके की महिलाएं यदि अपने प्रयास, संयोग आदि से शासक वर्ग की ऊंची-नीची पांतों में शामिल हो जाती हैं तो ये चंद महिलाएं इस तरह ‘मुक्त’ हो जाती हैं। व्यक्तिगत तौर पर उनकी भले ही शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति हो भी जाती हो परन्तु करोड़ों-करोड़ मजदूर, किसान और अन्य मेहनतकश महिलाएं नरक के उसी कुण्ड में पड़ी रहती हैं जिसे शासक वर्ग ने तैयार किया है। 
    इतिहास के इस मोड़ पर अब महिला मुक्ति की वास्तविक लड़ाई में शासक वर्ग या उच्च मध्यम वर्ग की महिलाओं की कोई भूमिका नहीं है। वे इतिहास की गति या दूसरे शब्दों में पूंजीवादी समाज के उत्तरोत्तर विकास के कारण वहां पहुंच चुकी हैं जहां उन्हें अपने वर्ग के पुरुषों के समान ही सब अधिकार और अवसर हासिल हैं। और इसीलिए अतीत के किसी भी समय के मुकाबले नारी मुक्ति का चरित्र सर्ववर्गीय के स्थान पर उत्तरोत्तर मजदूर वर्गीय बन गया है। आज मजदूर वर्ग की महिलाएं ही सर्वाधिक शोषण-उत्पीड़न की शिकार हैं और वे ही इस समाज व्यवस्था में ऐसी ताकत बनती हैं जो महिला मुक्ति के लिए आवश्यक व्यवस्था-समाजवादी व्यवस्था- की स्थापना करने में अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं। 
    समाजवादी समाज महिला मजदूरों के दोनों ही पक्ष महिला और मजदूर के लिए आवश्यक है। बीसवीं सदी में समाजवादी समाजों में ही महिलाओं को सर्वाधिक बराबरी और आत्मसम्मान हासिल हुआ। पूंजीवादी समाज में जहां उसके हिस्से छद्म, औपचारिक आजादी, बराबरी आती है वहां समाजवादी समाज में उसे असली और वास्तविक आजादी, बराबरी मिलती है। समाजवादी समाज में इतिहास में पहली दफा शोषित-उत्पीडि़त जन शासक बन जाते हैं। वे अपने वर्तमान और भविष्य के मालिक बन जाते हैं। वे नये मानव बन जाते हैं जो अपने गलीच अतीत से छुटकारा पाकर नये जीवन, नये भविष्य की ओर निरन्तर उन्मुख होते जाते हैं।  
आपका नजरिया-    पेट्रोल की धार
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
देश में पेट्रोल की कीमत कैसे तय होती है
उसकी पूरी प्रोसेस-
कच्चे तेल की वर्तमान कीमत = 50 डाॅलर प्रति बैरल
(जहां 1 डाॅलर = 63 रु. और 1 बैरल= 159 लीटर)
यानी 50 डाॅलर = 3150 रु.
1 लीटर कच्चा तेल भारत खरीदता है(3150/159=19.80 रु. में)
1 लीटर पेट्रोल बनाने के लिए लगने वाला कच्चा तेल-0.96लीटर  @ 19.80 = 19.00/-
अब कच्चे तेल में से एक लीटर पेट्रोल बनाने की फिक्सड कीमत होती है 6 रुपये (ट्रांसपोर्टेशन मिलाकर)
यानी, 19.00 रुपये+फिक्सड कीमत, 6 रुपये=25रुपये में एक लीटर पेट्रोल बनता है
अब उसमें केन्द्र सरकार का टैक्स लगता है 25 प्रतिशत यानी 6 रुपये। 
यानी 25+6 = 31 रुपये
और ऊपर से फिर राज्य सरकार के टैक्स जैसे VAT जिसे हम एवरेज 15 प्रतिशत गिनें तो होते हैं 5 रु. यानी कुल मिलाकर होते हैं 36 रु.।
और आखिर में पेट्रोल पंप डीलरों को प्रति लीटर 90 पैसे कमीशन दिया जाता है तो होते हैं कुल 37 रुपये।
लेकिन फिर भी आज हमें 59.47 रु. प्रति लीटर में पेट्रोल मिल रहा है। 
कृपया कड़ी मेहनत से प्राप्त हुई ये जानकारी देश के हर एक नागरिक तक पहुंचाने की कोशिश करें।
जानकारी स्रोत वाया नीरज नक्षत्र चैहान
अपीलकर्ता - अश्विनी कुमार (सुकरात) फेसबुक एवं वाट्सएप संपर्क वाया फोन 9210473599 
ashwini.economics@gmail.com
आपका नजरिया- सृष्टि का सृजन करने दे
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
​खेलने दो-कूदने दो
मासूम लड़कियों को
अपने-अपने आंगन में
धूल से भरा-
कोमल सुन्दर सा रूप दिखे
चेहरे की मुस्कान में।
    खुलकर नृत्य करने दो
    लहरों के समान मचलने दो
    उड़ने दो खुले वितान में
    मुक्त पंछियों की तरह
    नापने दो आकाश की ऊंचाई
    और समुद्र की गहराई।
        गर्भ में उसे अहसास होता है-
        वह बाहर आयेगी
        नए आंगन में
        बहार लायेगी
        नई रंगोली से
        घर-द्वार सजाएगी
        खुशियों की गंगा बहाएगी
        तैरेगी नदी-तालाबों में 
        उन्मुक्त मछलियों की तरह
        दौड़ेगी तोड़ने कैरियां
        गांव की अमराई में
        महकाएगी घर-आंगन
        अपनी तरुणाई में।
            किन्तु उसे डर है जमाने का
            कि जन्म के पहले ही
            कोई किसी कसाई की तरह
            उसकी हत्या न कर दे
            अतः मां से कहती है-
            ‘‘मां मुझे बाहर आने दे
            विश्व के आंगन में
            खेलने दे
            सृष्टि का सृजन करने दे
                प्रो. प्रेम सोनवाने
       गोंदिया महाराष्ट्र- 441601


 सम्पादकीय
    

वक्त बड़ा बलवान
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
  दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम सब को चौंकाने वाले रहे। जीतने वाला अच्छी जीत से डर गया और हारने वालों की बोलती बंद हो गयी। भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया और उसे लोकसभा में इस लायक भी नहीं समझा कि उसे विपक्षी पार्टी का दर्जा मिल सके। कदाचित यही स्थिति भाजपा की दिल्ली विधानसभा में हो गयी। देशी कहावत है वक्त बड़ा बलवान।
    वैसे तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा भी नहीं प्राप्त है तो ऐसी स्थिति में उसके विधानसभा के चुनाव देशव्यापी मायने नहीं रखने चाहिए थे। परन्तु दिल्ली एक तो देश की राजधानी और दूसरा इन चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी पूरी सरकार झोंक दी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने जो आज तक सीखा इस सबके साथ-साथ अपने पूरे तंत्र का इस्तेमाल इन चुनावों में किया। संघ ने दंगे भड़काये, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए खूब उग्र बयान दिलवाये परन्तु सब बेसूद। न सरकार का दांव चला और न संघ का। 
    भाजपा के अध्यक्ष जिन्हें अतीत के कारनामों के लिए आजकल सीबीआई क्लीन चिट दे रही है इतने हतोत्साहित हुए कि उन्होंने अपने पुत्र के विवाह के लिए जो कार्यक्रम तय किये हुए थे उन्हें ही रद्द कर दिया। राजनैतिक हार नितांत व्यक्तिगत बन गयी। उनके निजी जीवन की खुशियों के पलों को दिल्ली में मिली हार निगल गयी। 
    यही नहीं दिल्ली की भाजपा की हार की गूंज पूरी दुनिया में सुनी गयी। दिल्ली के चुनाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के नौ महीने के कामकाज पर तीखी टिप्पणी कर गये। अब बेचारे अपने दस लाख के उस सूट को नीलाम करने जा रहे हैं जो एक चायवाले का पहनना किसी को रास नहीं आया।
    दिल्ली में भाजपा की हार का चुनावी विश्लेषण तो यह है कि उसके मत प्रतिशत में पिछले विधानसभा चुनाव से महज 1 फीसदी ही कमी आयी पर जो भारतीय चुनाव प्रणाली लोकसभा में उसके लिए लाभकारी हुयी थी वह मात्र एक प्रतिशत वोट के कम होने से विनाशकारी हो गयी। हालांकि लोकसभा चुनाव में दिल्ली में मिले मतों के मुकाबले 14 फीसदी की कमी आयी। 
    दिल्ली चुनाव ने कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ जनता की आम नफरत को भी व्यक्त किया। हां! दोनों ही पार्टियां एक दूसरे की हुयी दुर्गति से मन ही मन खुश भी हो सकती हैं। वैसे नरेन्द्र मोदी और भाजपा के नौ महीने के शासन ने देश भर में जो माहौल बनाया उससे कई विपक्षी पूंजीवादी दल भी आजिज आ गये हैं और दिल्ली के चुनाव परिणाम ने इन सबको मोदी और भाजपा को खरी-खोटी सुनाने का पूरा मौका दे दिया। एक राजनेता ने दिल्ली चुनाव परिणामों की तुलना अमेरिका के 2001 के 9 सितम्बर में ट्विन टावर पर हुये हमले से ही कर डाली। 
    पिछले नौ महीने में मोदी के शासन पर यह चुनाव परिणाम तीखी टिप्पणी हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में भारी गिरावट के बावजूद देश की आम जनता को महंगाई से तनिक भी राहत नहीं मिली है। तेल की कीमतों की गिरावट का लाभ केन्द्र सरकार और उसके लिए भारी मुनाफे जुटाने वाली तेल कम्पनियों को ही मिला। उच्च-मध्यम वर्ग को पेट्रोल-डीजल की कीमत से राहत मिली पर भारत के मजदूरों-किसानों के हाथ कुछ नहीं आया।  
    मोदी सरकार जब देश की विकास दर में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं करवा पाई तो उसने एक सस्ती तिकड़म निकाली। इस सस्ती तिकड़म के जन्मदाता धूर्त वकील जो कि देश के वित्तमंत्री हैं, रहे। सकल घरेलू उत्पाद के आकलन का आधार वर्ष और तरीका बदलकर उन्होंने बताया कि देश की विकास दर पिछले वर्ष 6 प्रतिशत से ऊपर रही है और इस वर्ष तो वह चीन को भी पीछे छोड़ देगी। मोदी-जेटली के इस कारनामे से मनमोहन-चिदम्बरम के गरीबी रेखा से यकायक करोड़ों लोगों को बाहर निकाल देने वाले कारनामे की यादें ताजा हो गयीं। क्या तरीका ईजाद किया है। ‘आंकड़े की बाजीगरी दिखाओ और पूरी जनता को यह बता दो कि वह अब गरीब नहीं है’ या ‘फिर बताओ कि देखो भारत चीन को पछाड़ रहा है’। मनमोहन का बंटाधार करने में उनके वकील मंत्रियों की अहम भूमिका थी। लगता है अब मोदी के वकील मंत्री भी वही कारनामा करने की ओर बढ़ रहे हैं। 
    दिल्ली के चुनाव परिणाम के बाद मोदी जी की उस मूर्ति का ध्वंस हो गया जो उनके समर्थकों और उनके पूंजीवादी प्रस्तोताओं ने खड़ी की हुयी थी। यह प्रतीकात्मक तौर के साथ-साथ वास्तविक तौर पर भी हुआ। पहली मूर्ति का ध्वंस दिल्ली के चुनाव परिणाम ने किया तो दूसरी मूर्ति के ध्वंस के लिए स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को आगे आना पड़ा। मोदी की दोनों ही मूर्तियां खण्डित हो चुकी हैं। पहली मूर्ति का बनना अब बहुत मुश्किल है हालांकि, दूसरी मूर्ति पुनः बहुत आसानी से बनायी जा सकती है। 
    आम आदमी पार्टी की जीत की एक पूंजीवादी व्याख्या यह की जा रही है कि मोदी जी को उनके अहंकार की सजा मिली है। ममता बनर्जी, नीतिश कुमार आदि ने भी इस हार की यही व्याख्या की और स्वयं केजरीवाल ने अपनी जीत के बाद अपने आपको और अपने कार्यकर्ताओं को अहंकार न करने की शिक्षा दी। यह सब हास्यास्पद है। अहंकार पर आधारित ये व्याख्यायें सतही, उथली और निरर्थक हैं। और वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था के जन विरोध चरित्र पर सचेत ढंग से पर्दा डालने की कार्यवाही है। अगले चुनाव में केजरीवाल की सम्भावित हार की पहले से ही की गयी व्याख्या है। 
    सच्चाई यह है कि भारत सहित पूरी दुनिया में जमाना करवट ले रहा है। स्थापित राजनैतिक पार्टियां कुछ देशों कोे छोड़कर पूरी दुनिया में ही अपना जनाधार और साख खो रही हैं। नयी-नयी पार्टियां, राजनैतिक समूह अस्तित्व में आ रहे हैं। पुरानी राजनैतिक ताकतों का इस कदर भण्डाफोड़ होता जा रहा है कि उन्हें बचाना किसी के भी बस में नहीं हो पा रहा है। इसका कारण पिछले दशकों से जारी आर्थिक नीतियां और मौजूदा आर्थिक संकट है। मजदूर, किसानों, निम्न मध्यम वर्ग के लोगों का जीना मुश्किल से बहुत मुश्किल होता जा रहा है। एक तरफ इस संकट के दौर में बिल गेट्स, अम्बानी जैसों की दौलत बेहिसाब बढ़ती जा रही है और दूसरी तरफ मजदूरों का जीवन स्तर अभूतपूर्व ढंग से नीचे गिर रहा है। ऐसे वक्त में पूंजीवादी व्यवस्था अपने को बचाने के लिए नये-नये नायक व पार्टियां पेश कर रही है। ये बेचारे इतने बौने हैं कि इनकी पोल खुलने में वर्षों का नहीं महज कुछ महीनों का ही वक्त लग रहा है। मोदी की पोल खुलने में नौ महीने लगे तो केजरीवाल की पोल खुलने में इतने महीने भी नहीं लगेंगे। 
    इतिहास के रंगमंच में जब तक मजदूर वर्ग अवतरित नहीं होता है तब तक ऐसे ही बौने नायक, हंसोड़, मजमेबाज आते रहेंगे। मजदूर वर्ग की अपनी ऐतिहासिक भूमिका से पहले हर वर्ग के नमूनों का आना और बहुत जल्द ही उनसे आम जनता का ऊब जाना लाजिमी है। यह वक्त इन सबसे उकताने और इनकी पोल खुलने का है। मजदूर वर्ग इस पूंजीवादी दुनिया में लगातार उस ओर बढ़ रहा है जहां उसे अपनी क्रांतिकारी भूमिका निभानी पड़ेगी। उसे इस सड़ती-गलती पूंजीवादी व्यवस्था को उसके अंतिम परिणाम तक पहुंचाना ही होगा। 


आपका नजरिया-     ‘सुधर जाओ नहीं तो मुश्किल होगी’
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    गुजरात के सीएम मोदी बदले तो लोकसभा की जीत ने इतिहास रच दिया और प्रधानमंत्री मोदी बदले तो दिल्ली ने बीजेपी को अर्श से फर्श पर ला दिया। दिल्ली की हार से कहीं ज्यादा हार की वजहों ने संघ परिवार को अंदर से हिला दिया है। संघ उग्र हिन्दुत्व पर नकेल ना कस पाने से भी परेशान है और प्रधानमंत्री के दस लाख के कोट के पहनने से भी हैरान है। संघ के भीतर चुनाव के दौर में बीजेपी कार्यकर्ता और कैडर को अनदेखा कर लीडरशिप के अहंकार को भी सवाल उठ रहे हैं और नकारात्मक प्रचार के जरिये केजरीवाल को निशाना बनाने के तौर तरीके भी संघ बीजेपी के अनुकूल नहीं मान रहा है। वैसे असल क्लास तो मार्च में नागपुर में होने वाली संघ की प्रतिनिधिसभा में लगेगी जब डेढ़ हजार स्वयंसेवक खुले सत्र में बीजेपी को निशाने पर लेंगे। लेकिन उससे पहले ही बीजेपी को पटरी पर लाने की संघ की कवायद का असर यह हो चला है कि पहली बार संघ अपनी राजनीतिक सक्रियता को भी बीजेपी और सरकार के नकारात्मक रवैये से कमजोर मान रहा है। आलम यह हो चला है कि संघ के भीतर गुरुगोलवरकर के दौर का ‘एकचालक अनुवर्तित्व’ को याद किया जा रहा है और मौजूदा बीजेपी लीडरशिप को कटघरे में यह कहकर खड़ा किया जा रहा है कि वह भी 1973 के दौर तक के ‘एकचालक अनुवर्तित्व’ के रास्ते आ खडी हुई। जबकि देवरस के दौर से ही सामूहिक नेतृत्व का रास्ता संघ परिवार ने अपना लिया। यानी एक व्यक्ति ही सब कुछ की धारणा जब संघ ने तोड़ दी तो फिर मौजूदा लीडरशिप को कौन सा गुमान हो चला है कि वह खुद को ही सब कुछ मान कर निर्णय ले लें। संघ के भीतर बीजेपी को लेकर जो सवाल अब तेजी से घुमड रहे हैं उसमें सबसे बड़ा सवाल बीजेपी के उस कैनवास को सिमटते हुये देखना है जो 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त बीजेपी को विस्तार दे रहा था। संघ के भीतर यह सवाल बड़ा हो चुका है कि बीजेपी नेताओं की पहचान सादगी से हटी है। मिस्टर क्लीन के तौर पर अन्ना और केजरीवाल की पहचान अभी भी है तो इनसे दूरी का मतलब इन पर नकारात्मक चोट करने का मतलब क्या है। 
    संघ का मानना है कि दिल्ली में ही अन्ना और केजरीवाल का आंदोलन और आंदोलन के वक्त संघ के स्वयसेवक भी साथ खडे हुये थे लेकिन आज संघ इनसे दूर है लेकिन मौजूदा राजनीति में किसे किस तरह घेरना है क्या इसे भी बीजेपी समझ नहीं पा रही है। संघ विचारक दिलीप देवधर की मानें तो संघ के भीतर यह सवाल जरूर है कि उग्र हिन्दुत्व के नाम पर जो ऊट-पटांग बोला जा रहा है उस पर लगाम कैसे लगे। और कैसे उन्हें बांधा जा सके। प्रधानमंत्री मोदी की मुश्किल यह है कि वह सीधे हिन्दुत्व के उग्र बोल बोलने वालों के खिलाफ सीधे कुछ बोल नहीं सकते क्योंकि संघ की ट्रेनिंग या कहे अनुशासन इसकी इजाजत नहीं देता है। अगर प्रधानमंत्री मोदी कुछ बोलेंगे तो विहिप के तोगडिया भी कल कुछ बोल सकते हैं। यानी नकेल सरसंघचालक को लगानी है और संघ उन पर नकेल कसने में इस दौर में असफल रहा है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन दिल्ली को लेकर संघ का यह आंकलन दिलचस्प है कि दिल्ली चुनाव में संघ की सक्रियता ना होती तो बीजेपी के वोट और कम हो जाते। यानी 2013 के दिल्ली चुनाव हो या 2014 के लोकसभा चुनाव या फिर 2015 के दिल्ली चुनाव। संघ यह मानता है कि तीनों चुनाव के वक्त संघ के स्वयंसेवक राजनीतिक तौर पर सक्रिय थे। और दिल्ली में 32-33 फीसदी वोट जो बीजेपी को मिले हैं वह स्वयंसेवकों की सक्रियता की वजह से ही मिले हैं और उसके उलट केजरीवाल के हक में वोट इसलिये ज्यादा पड़ते चले गये क्योंकि हिन्दुत्व को लेकर बिखराव नजर आया। साथ ही बीजेपी लीडरशिप हर निर्णय थोपती नजर आयी। यानी सामूहिक निर्णय लेना तो दूर सामूहिकता का अहसास चुनाव प्रचार के वक्त भी नहीं था। जाहिर है संघ की निगाहों में अर्से बाद वाजपेयी, आडवाणी, कुशाभाउ ठाकरे, गोविन्दाचार्य की सामूहिकता का बोध है तो दूसरी तरफ बीजेपी अध्यक्ष के मौजूदा कार्यकर्ताओं पर थोपे जाने वाले निर्णय हैं। खास बात यह है कि केजरीवाल की जीत से संघ परिवार दुखी भी नहीं है। उल्टे वह खुश है कि कांग्रेस का सूपडा साफ हो गया और दिल्ली के जनादेश ने मौजूदा राजनीति में ममता, मुलायम, लालू सरीखे नेताओं से आगे की राजनीतिक लकीर खींच दी। 
    और चूंकि नरेन्द्र मोदी भी केजरीवाल की तर्ज पर सूचना क्रांति के युग से राजनीतिक तौर पर जोडे़ हुये हैं और केजरीवाल की पहुंच या पकड़ राष्ट्रीय तौर पर नही है तो बीजेपी के पास मौका है कि वह अपनी गलती सुधार ले। संघ की नजर दिल्ली चुनाव के बाद केजरीवाल को लेकर इतनी पैनी हो चली है कि वह बीजेपी को यह भी सीख देने को तैयार है कि मनीष सिसोदिया को उप-मुख्यमंत्री बनाकर अगर केजरीवाल आम आदमी पार्टी के विस्तार में लगते हैं तो फिर दिल्ली को लेकर केजरीवाल को घेरा भी जा सकता है। यानी केजरीवाल को दिल्ली में बांध कर बीजेपी को राष्ट्रीय विस्तार में कैसे आना है और दिल्ली वाली गलती नहीं करनी है यह पाठ भी संघ पढ़ाने को तैयार है। यानी बीजेपी को राजनीतिक पाठ पढाने का सिलसिला गुरुवार से जो झंडेवालान में शुरु हुआ है वह रविवार और सोमवार को सरसंघचालक मोहन भागवत और दूसरे नंबर के स्वयसेवक भैयाजी जोशी समेत उस पूरी टीम के साथ पढ़ाया जायेगा जो मार्च के बाद कमान हाथ में लेगा। यानी अभी तक यह माना जा रहा था कि मोदी सरकार के बाद संघ हिन्दू राष्ट्र को सामाजिक तौर पर विस्तार देने में लगेगी लेकिन दिल्ली की हार ने बीजेपी और सरकार को संभालने में ही अब संघ को अपनी ऊर्जा लगाने को मजबूर कर दिया है। और बीजेपी लीडरशिप को साफ बोलने को तैयार है कि सुधर जाओ नहीं तो मुश्किल होगी।    पुण्य प्रसून बाजपेयी वाया ईमेल

आपका नजरिया-  हाइकु
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    (1)
दिल का हाल
खुलकर लिखना
सारे खत में।
    (2)
    भगदड़ में 
    निकालना समय
    अपने लिये।
        (3)
तु न दौड़ना
कभी भूलकर भी
अंधी दौड़ में।?
        (4)
    इस भीड़ में
    बचाना खुद का तू
    राह तलाश।
        (5)
सद मार्ग से
सदा भटकाता है
धन का नशा।
        (6)
    नहीं छूटता
    मोह-माया का जाल
    बड़ा विचित्र।
        (7)
धन का मोह
त्यागे नहीं त्यगता
निराश मन।
        (8)
    नहीं जानते
    करना भेद-भाव 
    वे ही इंसान।
        (9)
हमने देखे
निष्ठुरों की आंखों में
आंसू भी झूठे।
        (10)
    सारे प्रहार
    निर्बलों पर ही क्यों?
    सदा से यहां।
        (11)
भूला देता है
जीव को सब-कुछ
समय चक्र।
        (12)
    मुसीबत में
    टूट बिखरते हैं।
    रिश्ते-नाते भी
        (13)
झोंके हवा के
ठहर दे जाते हैं
खुशियां सारी।
        (14)
    घोलती मिट्टी
    घर के आंगन में
    बच्चों की हंसी।
        (15)
कह रही है
नींदें कई रातों की
सफलता को।
डा. जयसिंह अलवरी   
सम्पादक-
साहित्य सरोवर
दिल्ली स्वीट, सिरुगुप्पा- 583121
जिला-बेल्लारी कर्नाटक


सम्पादकीय
                                                  

जुगुप्सा जगाते सम्बन्ध
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा का बहु प्रचारित तीन दिवसीय भारतीय दौरा भारत के शासकों को उनकी हैसियत बताते हुए समाप्त हो गया। इन तीन दिनों में यह नहीं लगा कि कोई विदेशी राष्ट्राध्यक्ष भारतीय गणतंत्र दिवस समारोह में शरीक होने आया हुआ बल्कि ऐसा महसूस हुआ कि पूरा ही गणतंत्र जैसे उसके सामने बंधक हो गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति की चमक-धमक में भारतीय गणतंत्र समारोह की गरिमा कहीं लुप्त हो गयी। 
    देश की सम्प्रभुता, स्वतंत्रता और हितों को अमेरिकी साम्राज्यवाद को भेंट चढ़ाने वाले भारतीय शासकों खासकर अपने को महान राष्ट्रवादी घोषित करने वाले देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी का व्यवहार बेहद खुशामदी और छिछला था। ओबामा की बाहों में वे जिस ढंग से समर्पित थे वह तो जुगुप्सा पैदा करने वाला था। रही-सही कसर भारत के प्रधानमंत्री के दिन में कई-कई बार अपनी ड्रेस बदलने से पूरी हो गयी। अश्लील प्रदर्शन की हद यह थी कि देश का प्रधानमंत्री अपने ही नाम वाले सूट जिसे सोने के धागों से उकेरा गया था, पहने हुए, बेहद ही खुशामद करने वाले अंदाज में बराक ओबामा को चाय पेश कर रहे थे। 
    दिक्कततलब बात यह है कि ओबामा की इस यात्रा के दौरान न केवल देश की राजधानी को अमेरिकी सुरक्षा बलों के हवाले कर दिया गया बल्कि पूरे देश की चेतना को शून्य कर अमेरिकी साम्राज्यवाद व उसके सरगना की प्रशंसा में डुबो दिया गया। बराक ओबामा का भारत आने को महान हिन्दू राष्ट्रवादियों ने ऐसे पेश किया मानो भगवान राम अपने चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे हों। और बेचारा भरत जो कि उनकी खड़ाऊ को सिंहासन में रखकर शासन चला रहा था भगवान राम के आते ही मानो नतमस्तक होकर क्षमायाचना सी कर रहा हो। कह रहा हो ‘प्रभु! मुझसे क्या गलती हो गयी जो इतना विलम्ब कर दिया।’
    भारत के शासकों का यह व्यवहार किसी स्वतंत्र, आत्मसम्मान से भरे, तथाकथित उभरते हुए व क्रमशः शक्तिशाली देश का प्रतिनिधित्व नहीं करता। यह तो एक क्लान्त, थके हुए, पूंजी और तकनीक के लिए गिड़गिड़ाने वाले देश के व्यवहार को दिखलाता है। यह एक ऐसे देश के व्यवहार को दिखलाता है जिसे कोई सरपरस्त चाहिए। बिना सरपरस्त के वह अपने शक्तिशाली पड़ौसी देशों से घबराता है। बिना सरपरस्त के वह न तो अपनी अंदरूनी और न ही बाहरी समस्याओं को हल कर सकता है। 
    भारतीय शासकों का व्यवहार ऐसा था कि आज किसी भी कीमत पर इन्हें अमेरिकी साम्राज्यवाद की सरपरस्ती चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति और वहां की खूंखार कम्पनियां अपनी मांगें और शर्तें रखती गयीं और ये क्रमशः उसे स्वीकारते गये।
    मोदी सरकार जिस परमाणु समझौते को अपनी उपलब्धि बता रही है उसका अर्थ क्या है। साधारण शब्दों में कल को भोपाल के यूनियन कार्बाइड (ध्यान रहे यह एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी ही थी) की तरह की कोई घटना जिसमें हजारों लोग मारे गयेे, अमेरिकी कम्पनियों द्वारा लगाये गये परमाणु संयंत्रों में घटती है तो उन्हें न तो दोषी ठहराया जा सकता है और न ही उन्हें कोई मुआवजा भारत की जनता को देना होगा। अब कोई समझाये कि महान मोदी ने यह कैसी सौगात देश को दी है जिस पर देश इतराये। कोई हमारे देशवासियों के लिए मौत का सामान तैयार करे और हम उस पर गर्व कर अपना सीना फुलाये। वाह! क्या बात है।
    अमेरिकी साम्राज्यवाद भारत को अपनी भावी रणनीतियों में एक शातिर ढंग से क्रमशः शामिल करता जा रहा है और भारतीय शासक अपनी महान उपलब्धि बताकर उसमें शामिल होते जा रहे हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद हमारे पड़ौसी देश चीन को अपने भावी शत्रु के रूप में देखता है जो आज उसे हर तरह से चुनौती दे सकता है। चीन को सैन्य ढंग से घेरने के लिए वह जापानी व आस्ट्रेलियाई साम्राज्यवादियों के साथ भारतीय विस्तारवादियों को शामिल कर एक मजबूत सैन्य घेरा बनाना चाहता हैै। चीन के शासक इस सैन्य घेराबंदी को समझते हैं और इसके लिए वह भी अपनी ओर से इसकी काट तैयार करने में लगे हैं। आखिर अमेरिकी साम्राज्यादियों की इस तरह की घृणित योजनाओं से भारत के मजदूरों, किसानों व अन्य मेहनतकशों को क्या लाभ होगा। ये तो भावी युद्ध की तैयारी के लिए भारत की शांति व सामर्थ्य को अमेरिकी साम्राज्यवाद की सेवा में लगाना है। यह तो कुछ वैसे ही है जैसे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने लाखों भारतीयों को पहले व दूसरे विश्वयुद्ध में अपने हितों की खातिर यूरोप, अफ्रीका व एशिया में अनजान जगहों में युद्ध में झोंककर कत्ल करवाया था। यह अब भारत की जनता पर है कि वह अमेरिकी साम्राज्यवाद की कत्ल मशीन में अपने को झोंकती है या इससे इनकार कर देती है। 
    भारत के शासकों की चीन के शासकों से होड़, प्रतिद्वन्द्विता हो सकती है। उन्हें 1962 के युद्ध की हार का अभी भी मलाल हो सकता है परन्तु भारत की जनता की चीन की जनता से भला क्या दुश्मनी हो सकती है। यही बात पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि देशों पर लागू होती है। ये हमारे पड़ौसी देश है। और सर्वविदित तथ्य है कि कोई भी अपने पड़ौस को नहीं बदल सकता है। जैसे पूरे दुनिया के मजदूर मेहनतकश हमारे भाई हैं। वैसे ही चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश के मजदूर मेहनतकश हमारे भाई हैं। 
    अमेरिकी साम्राज्यवाद की भारत को क्या जरूरत है। यदि भारत के शासकों के तर्क पर विचार करें तो उनके अनुसार उन्हें अमेरिकी साम्राज्यवाद से नई-नई तकनीक हासिल होगी। इस तकनीक में अति आधुनिक हथियारों की तकनीक भी शामिल है। भारत को विशाल पूंजी की देश के विकास के लिए अत्यधिक जरूरत है। वह पूंजी अमेरिकी साम्राज्यवाद की कम्पनियों के निवेश से हासिल होगी। अमेरिकी साम्राज्यवाद से निकटता से इनकी हैसियत में अभूतपूर्व वृद्धि होगी और वह इन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में वीटो पावर वाला स्थायी सदस्य बनवा सकता है। उसके साथ सैन्य लामबंदी से इनकी तरफ पाकिस्तान तो क्या चीन भी आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं कर सकेगा। इत्यादि, इत्यादि। 
    लगभग इन्हीं तर्कों के दूसरे सिरे को पकड़े तो अमेरिकी साम्राज्यवाद को भारत जैसे विशाल देश की आवश्यकता समझ में आती है। भरपूर प्राकृतिक सम्पदाओं वाला हमारा देश ऐसा है जहां श्रम शक्ति बेहद सस्ती है। पूर्व में मजदूरों के संघर्षों से बने कानूनों को उनके भक्त एक-एक करके खत्म कर रहे हों तो निवेश और उससे अमेरिकी कम्पनियों को होने वाला विशाल लाभ सुरक्षित है। भावी शत्रुओं चीन, रूस, ईरान आदि-आदि से भारत जैसा भू-राजनैतिक व सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण देश यदि उनकी मातहती स्वीकार लेता है तो फिर उनकी शक्ति, सामर्थ्य में काफी इजाफा हो जायेगा।
    भारतीय शासक अमेरिकी साम्राज्यवाद की मातहती स्वीकार करने का मन बना चुके हैं। ये एक से बढ़कर एक घटिया समझौते उनके साथ कर रहे हैं। साझा सैन्य अभ्यासों के नाम पर आज हमारे देश का एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है जहां अमेरिकी सेनाएं न छा चुकी हों। इराक, लीबिया जैसे एक समय के ठीक-ठाक देशों की हालिया बर्बादी का भारतीय शासकों ने शायद यही सबक निकाला है कि दुनिया की सबसे बड़ी हत्यारी हुकूमत की कृपा दृष्टि में ही लाभ है। 
    बराक हुसैन ओबामा की यात्रा से नरेन्द्र दामोदरदास मोदी का राजनैतिक कद भले ही ऊंचा होता हो परन्तु भारत की महान मेहनतकश जनता जिनके पूर्वजों ने इसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चंगुल से मुक्त कराया था उनका हृदय आज क्षोभ व आशंकाओं से भरा हुआ है। 
    भारत के प्रधानमंत्री सस्ती तुकबंदियों और कुछ अनूठे शब्दों के प्रयोग के आदी हैं परन्तु शायद इस तरह की तुलना से वे तब नहीं बच पायेंगे जब कोई उनके साथ भी यही सब कुछ करने लगेगा। बराक हुसैन ओबामा के नाम में एक शब्द का अर्थ आशीर्वाद प्राप्त है तो नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के नाम में एक शब्द का अर्थ गुलाम है।  


आपका नजरिया-  सैफई का समाजवाद

वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    सैफई महोत्सव की शुरूआत 1997 में स्व. रणवीर सिंह यादव ने की थी। 2002 में उनकी मृत्यु के पश्चात् उनको याद करते हुए हर वर्ष 26 दिसम्बर से 8 जनवरी तक सैफई महोत्सव का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन पिछले साल सुर्खियों में रहा जब उ.प्र. में दंगे प्रभावित लोग ठंड में मर रहे थे और सैफई का आयोजन चल रहा था। इस साल यह राष्ट्रीय मीडिया में मुख्य खबर नहीं बन पाई। यह महोत्सव सरकारी आयोजन नहीं माना जाता है लेकिन इस आयोजन में जिस तरह से 14 दिन पूरा शासन-प्रशासन लगा रहता है उससे तो यही लगता है कि यह सरकारी आयोजन ही है। 2013-14 के आयोजन में मीडिया में 300 करोड़ रु. खर्च होने की बात बताई गई थी जबकि मुख्यमंत्री ने 1 करोड़ रु. खर्च होने की बात कही थी। सैफई में उ.प्र. के मुख्यमंत्री सहित दर्जनों मंत्री डेरा जमाये रहते हैं। प्रदेश में ठंड से सैकड़ों लोगों की जानें जा चुकी हैं। इटावा जनपद में जिस दिन सैफई आयोजन की शुरूआत हुई उसी दिन इसी जनपद के महेन्द्र कुमार की ठंड लगने से मौत हो गई। महेन्द्र खेत में पानी लगाने गए थे जहां पर वह ठंड की चपेट में आ गये। अपने को मजदूर-किसानों की हितैषी कहने वाली सपा सरकार, जिनकी पार्टी का नाम समाजवाद पार्टी है और लाल-हरा रंग के झंडा उठाई हुई सत्ता में काबिज है, उनको इस मौत से कुछ लेना देना नहीं रहा। सैफई महोत्सव को सफल बनाने के लिए जया बच्चन व आजम खां बालीवुड के कलाकारों को सैफई भेजने में दिन-रात लगे हुए थे।
    सैफई महोत्सव के उद्घाटन में मुलायम सिंह यादव ने कहाः ‘‘आयोजन से ग्रामीण क्षेत्रों की सभ्यता, संस्कृति बढ़ती है। लोक कला व संस्कृति के प्रोत्साहन के लिये ही सैफई महोत्सव किया जाता है। बड़े कलाकार मुंबई व लखनऊ के लोगों को ही देखने को मिलते हैं। सैफई महोत्सव में किसान-मजदूर व ग्रामीण छात्र-छात्राओं को भी बड़े कलाकारों को देखने का मौका मिलता है। सैफई के नाच-गाने की आलोचना की जाती है। क्या ग्रामीण क्षेत्रों के किसान-मजदूर नाच-गाना नहीं देख सकते हैं? महोत्सव में लोक गीतों के माध्यम से लोगों में मेल-मिलाप बढ़ेगा।’’ मुलायम सिंह ने उपस्थित छात्रों से अपील की कि वे ‘‘शिक्षा पर ध्यान दें और आगे चलकर जया बच्चन जैसा अपना नाम देश में रोशन करें।’’
    मुलायम सिंह जी, यह बात सही है कि मनोरंजन करने का अधिकार ग्रामीण क्षेत्र के लोगों का उतना ही है जितना शहरी क्षेत्र के लोगों का। लोक गीतों की जगह बालीवुड, हालीवुड के गानों का बोल बाला है। सैफई महोत्सव में मोनिका बेदी, मल्लिका सेरावत से लेकर चारू लता तक के शो होते हैं। इसमें ‘मुन्नी बदनाम हुई’ से लेकर ‘तेरी चिकनी कमर पर मेरा दिल फिसल गया’ जैसे गाने गाये जाते हैं। यह किस लोकगीत के अन्दर आता है? इससे आप युवाओं में किस तरह की संस्कृति को पैदा कर रहे हैं? आप के महोत्सव में अन्तिम दिन बालीवुड नाइट मानाया जाता है जिसमें मुम्बई से दर्जनों अभिनेता, अभिनेत्री बुलाये जाते हैं। इनको देखने के लिए भीड़ इतना बेकाबू हो जाती है कि पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ता है। सैफई में चार्टड प्लेनों का तांता लगा रहता है। इन 14 दिनों में लगता है कि उ.प्र. सरकार सैफई से ही चल रही है। जिस जया बच्चन का उदाहरण आप छात्रों के सामने दे रहे हैं वैसे ही लोग बालीवुड को बढ़ावा दे रहे हैं। इससे लोकगीतों या लोककला को प्रोत्साहन कैसे मिलेगा? क्या आपके पास भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल के उदहारण नहीं मिले? आप जयप्रकाश, लोहिया के विचारधारा को मानने वाले हैं! क्या उनका उदाहरण आप छात्रों को नहीं दे सकते थे? आप जया बच्चन का उदाहरण इसलिए दिये ताकि आप उसी बालीवुड की पश्चिमी संस्कृति को अपना चुके हैं। यही कारण है कि आप अपने जन्म दिन पर ब्रिटेन से मंगाई हुई बग्घी पर बैठेते हैं, 75 फीट और 400 किलो वजन का केक काटते हैं। क्या यही विचारधारा जयप्रकाश और लोहिया की थी? उ.प्र. में सबसे योग्य आपका ही परिवार है जिससे 5 सांसद, मुख्यमंत्री और मंत्री हैं? यह तो अधिकार प्रदेश की जनता को भी है लेकिन उ.प्र. की राजनीति पर तो अपके परिवार का पैतृक अधिकार बन गया है जिसके कारण भाई, भतीजा, बहु, नाती-पोते ही लोकसभा, विधानसभा में आ रहे हैं।
    डी.एम., एस.पी. सहित तामम अधिकारी व हजारों संख्या में पुलिस बल की तैनाती सैफई में रहती है और प्रदेश की सुरक्षा..! इटावा सैफई का जिला हेडक्वार्टर है। वहां पर दो रिपोर्टर, जो कि सैफई महोत्सव कवरेज करने गये थे, उनको चाणक्य होटल के पास मारपीट कर लूट लिया जाता है तो बाकी जगहों की बात ही छोड़ दीजिये। सैफई में पुलिस हथियारों की प्रदर्शनी लगाई गई थी, जिसको देख मुख्यमंत्री ने सराहना की और निर्देशित किया कि इस तरह की प्रदर्शनी भविष्य में और जगहों पर लगायी जाये। मुख्यमंत्री ने पुलिस को आधुनिक बनाने के लिए किसी भी संसाधन की कमी नहीं आने का आश्वासन भी दिया। मुख्यमंत्री जी, पुलिस को आधुनिक बनाना अच्छी बात है। लेकिन यह आधुनिकीकरण किसके लिये किया जायेगा? क्या पुलिस आधुनिक होकर और तेजी के साथ अपराधियों का साथ देगी और महिलाओं के साथ बलात्कार करेगी? अच्छा होता कि आप हथियार प्रर्दशनी की जगह पुलिस को मानवीय दृष्टिकोण से काम करने के लिए कैम्प लगाते जिसमें वे अपने कर्तव्य का पालन करना सीखते। 
    जैकलीन को 3 मिनट के परफार्मेंस देने के लिए 75 लाख रु. देने के बजाय सड़कों पर अलाव जलाते, रैन बसेरा बनाते तो कुछ लोगों की जिन्दगी ठंड से बचायी जा सकती थी। पुलिस, अधिकारी, मंत्री जिस तेजी से ड्यूटी बजा रहे थे अगर वे इतनी तत्परता अपने कामों में दिखलाते तो लोगों की समस्याएं कुछ कम होती, अपराध कम होते। लेकिन आप का उ.प्र. बालिवुड का प्रदेश और आपका समाजवाद आपके वंशवाद के लिए मौजवाद बन चुका है।         
        सुनील कुमार, दिल्ली

सम्पादकीय

उनका गणतंत्र, उनका अतिथि
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
किसी भी देश के इतिहास में कई घटनाएं ऐसी घटती हैं जो अपने चरित्र में निर्णायक साबित होती हैं। इन घटनाओं के बाद देश पहले जैसा नहीं रह जाता है और वह एक नई जमीन पर खड़ा हो जाता है। इस नई जमीन पर खड़े देश के कर्ता-धर्ता यह तय कर देते हैं कि अब भविष्य क्या होगा?
भारत के आधुनिक इतिहास में पहले ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के प्रत्यक्ष शासन से मुक्ति और फिर एक गणतंत्र की घोषणा ऐसी घटनाओं में शुमार की जा सकती है। 26 जनवरी, 1950 को जब भारत को एक संप्रभुता सम्पन्न, स्वतंत्र राष्ट्र का एक संविधान स्वीकार किया गया तो यह क्षण ऐसा था जिसके बाद भारत के इतिहास को एक नये भविष्य की ओर उन्मुख हो जाना था और वह हुआ।
1950 में जो हमारा भविष्य था वह आज हमारा अतीत है। तब भविष्य में झांकना संभव न भी रहा हो परंतु आज हम अपने अतीत में ढंग से झांक सकते हैं और मूल्यांकन कर सकते हैं कि ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से मुक्ति के बाद भारत के मजदूरों, किसानों व अन्य मेहनतकशों को क्या मिला। भारत एक देश के रूप में आगे बढ़ा अथवा पीछे गया। इन सवालों के जबाव में जैसे ही कोई उतरेगा तो वह तुरंत सामाजिक व्यवस्था और उसमें मौजूद राजनैतिक तंत्र के चरित्र पर आ जायेगा।
इस संदर्भ में देखें तो जो भारत हमारे देश की आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ स्वाहा करने वाले शहीदों के आंखों में बसा था वह यह नहीं है। उनके लिए यह अकल्पनीय होता है कि एक ऐसा देश बने जिसमें चंद दौलतमंद पूरे देश को अपनी मनमर्जी से चलाएं। बाकी चुपचाप अपनी खुली-छिपी गुलामी को स्वीकार कर वह सब हो जानें दें जो अमीर, ऐय्याश दूसरों का खून चूसने वाले चाहे।
आजादी के बाद से भारत जिस राह पर चल रहा है वह राह चुनने वाला कौन है? कौन हैं वे जो इस विशाल और महान देश को उस दिशा में धकेल रहे हैं जहां सिवाय अंधकार के कुछ नहीं। कौन हैं वे जो करोड़ों लोगों के हितों, इच्छाओं, आकांक्षाओं को अपने जूतों में चिपकी धूल सरीखा समझते हैं। कौन हैं जो एक आतातायी, खूंखार, निर्लज्ज और वाचाल को गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाते हैं और इसे अपनी महान कामयाबी समझते हैं। कौन हैं जो यह समझते हैं कि वे ऐसा करेंगे और पूरे देश की मेहनतकश जनता यह समझ लेगी कि हमारे महान नेताओं ने कितनी बड़ी सफलता अर्जित की है। उनकी राजनीति, उनकी कूटनीति इतनी शानदार है कि सब ओर सब चकित हैं। और फिर कौन हैं वे जो समझ लेते हैं कि उनके जो हित हैं वे ही देश के हित हैं।
भारत के चंद सबसे बड़े अमीर ही वे लोग हैं जो यह समझते हैं कि उनके हित, उनकी इच्छाएं, उनकी योजनाएं ही देश के लिए ठीक हैं। उनके पैसों में पलने-पोसने वाले राजनेता उनके हितों को झूठ और फरेब की भाषा में लपेटकर यह घोषणा करते हैं कि देश के चंद पूंजीपतियों के हित में ही पूरे देश का हित है। उनके हित में बनायी गयी नीतियां ही देश का भविष्य संवार सकती हैं। उनको देश की प्राकृतिक संपदा कोडि़यों के दाम में लुटाना ही देश की आर्थिक प्रगति को तय करेगा। भारत के मजदूरों की बेरोकटोक शोषण की छूट ही देश में व्यवसाय का माहौल बनायेगी। देश की जनता पर खर्च की जाने वाली राशि पूंजीपतियों को भेंट चढ़ाकर ही देश की गरीबी, कुस्वास्थ्य, कुपोषण जैसी समस्याओं को हल किया जा सकता है।
असल में आजादी की जिस भारत, जिस गणतंत्र की नींव पड़ी उसमंे यही सब कुछ होना था। हुआ और होता गया। और अफसोस की बात होता ही जा रहा है।
भारत को गणतंत्र बनाने की प्रक्रिया में भारत की जनता की भूमिका महज दर्शकों की रही है। वे वहां नहीं थे जहां भारत का सविधान लिखा जा रहा था और नीतियां बनायी जा रही थीं। वे भारत के पहले प्रधानमंत्री, पहले राष्ट्रपति के साथी, भाई-मित्र नहीं थे। वे महान पुरूष उन महान आत्माओं के साथ ही देश का संविधान, देश की नीतियां, देश के लिए योजनाएं बना रहे थे जो भारत की जनता के आताताई ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के जाने के बाद भारत के शासक बन रहे थे। वे ऐसे भारत की नींव डाल रहे थे जिसकी आत्मा में पूंजी का निवास होना था। पूंजी ही उसका मस्तिष्क बननी थी और वही उसकी दृष्टि बननी थी। अतः पूंजीपतियों के हित में पूंजीपतियों की हितों-जरूरतों-आकांक्षाओं को केन्द्र में रखकर भारत का संविधान और गणतंत्र निर्मित हुआ। इस गणतंत्र में आमजन हमेशा परिधि में रहते थे और रहे। वे पूंजी के गुलाम बना दिये गये और तब से आज तक उनका जीवन पूंजी की गुलामी में बीत रहा है। समय बदल रहा है। पीढि़यां बदल रही परंतु गुलामी हम सबके आंखों पर अदृश्य स्याही से लिखी हुई। गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, कुपोषण आदि तो महज इस गुलामी की अभिव्यक्तियां हैं।
अब ऐसे गणतंत्र में जिसकी पहली इबारत से आखिरी तक के लिखने में मजदूर-मेहनतकशों की कोई भूमिका नहीं है तो वे करें तो क्या करें। क्या कहें कि यह गणतंत्र हमारा है। क्या कहें कि इस देश में जो नीति-रीति चल रही है वह उनके हितों को साधती हैं। क्या कहें कि महामहिम बराक ओबामा जो इस गणतंत्र दिवस पर भारत के मुख्य अतिथि हैं वे हमारे अतिथि हैं।
किसी भी देश भक्त, स्वाभिमानी, अपने महान शहीदों की शहादत को याद रखने वालों के लिए यह कहना असंभव है। जो अमेरिकी राष्ट्रपति के काले कारनामां से परिचित है। उसके लिए कहना एकदम नामुमकिन है। जो अमेरिकी साम्राज्यवाद के द्वारा पूरी दुनिया में की गयी खून की बारिश को देखता हो उसके लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रति घृणा व उसके खिलाफ संघर्ष के अलावा अन्य भाव आ ही कैसे सकते हैं? अमेरिकी साम्राज्यवाद, इराक, लीबिया, अफगानिस्तान, सूडान, सोमालिया आदि देशों में की गयी कार्यवाहियों अपने देश के हित के नाम पर जायज ठहरा सकता है परंतु दुनिया की मुक्तिकामी जनता कैसे इसे सच मान लेगी। ओबामा के स्वागत में जो पलकें बिछा रहे हैं वे भारत के पूंजी के सिरमौर और उनकी चाकरी करने वाले हो सकते हैं परंतु भारत की उस महान जनता के प्रतिनिधि नहीं हो सकते जिनके दिल में आज भी आजादी के शहीदों की शहादत बसी हुई है।

ये पूंजीपतियों का गणतंत्र हैं और बराक ओबामा उन्हीं का मुख्य अतिथि।

आपका नजरिया-  लव जेहाद के नाम पर आम जनता का ध्यान भटकाना
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
आजकल लव जेहाद का काफी शोर शराबा मचा है। इसके पीछे कट्टर हिन्दूवादी पूंजीपति एवं सरकार का हाथ है। वे आम जनता का ध्यान भटकाकर अपने मन पसन्द नीतियां लागू करवाकर अपनी तिजोरियां भरने का पूरा इंतजाम कर रहे हैं। ज्यादातर ये बताया जाता है कि मुस्लिम समुदाय के लड़के ने, हिन्दू समुदाय की लड़की को बरगलाकर या जोर जबर्दस्ती का कोई भी हथकंडा अपनाकर शादी कर ली है और उसे बंधक बना लिया है।
यह बात हिन्दुस्तान में इसलिए हो रही है क्योंकि वे अपनी संख्या बढ़ाकर पूरी ताकत में आना चाहते हैं। जिससे वे हिन्दुस्तान में फिर से राज कर सकें। इतना सुनते ही हर कट्टरपंथी हिन्दू गुस्से से उबल जायेगा। और मुस्लिम समुदाय का हर व्यक्ति उसे दुश्मन नजर आयेगा। और वह उससे भिड़ने की पुरजोर कोशिश करेगा। इससे अपने अधिकार भूल जायेगा। अपनी रोटी-रोजी को छोड़कर उससे भिड़ने पर आमादा हो जायेेगा। और यह कहेगा कि रोटी-रोजी, स्वास्थ्य, शिक्षा, मकान, बिजली-पानी इत्यादि को छोड़ो यह तो बाद में देख लेंगे। यदि हमारे समुदाय की बेटी दूसरे समुदाय में गयी तो समझो हमारी इज्जत गयी। यदि इज्जत गयी तो सब कुछ गया। यह सोच कर उनका ध्यान भटका। इधर वे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का बुलावा, श्रम कानूनों में अपने फायदे के हिसाब से बदलाव का कानून पास करवा लेंगे। बिजली, पानी, खाद्यान्न की कीमतों में बढ़ोत्तरी एवं टैक्स इत्यादि, अपने हिसाब से लागू करते जायेंगे।
यदि एक बार को यह मान भी लिया जाये कि कुछ हिन्दू लड़कियों ने मुस्लिम लड़कों से शादी कर ली। लेकिन वहीं पर यह भी देखने को मिलता है। कि मुस्लिम लड़की ने हिन्दू लड़के से शादी की है और दोनों समुदाय में लड़कियां अपने को सुखी व सुरक्षित महसूस कर रही हैं। बल्कि अपने-अपने समुदाय में अधिकतर लड़कियां अपने को सुखी व सुरक्षित महसूस नहीं कर पातीं, उन्हें रोज-रोज प्रताडि़त किया जाता है। कहीं कम दहेज लाने के लिए, कहीं फूहड़पन के लिए, कहीं लड़की जनने के लिए, कहीं बांझ भी कहा जाता है। भले ही शादी के मात्र 2-3 साल हुए हैं। जबकि कहावत है।
भूख न जाने जूठा भात, प्यास न जाने धोबी घाट
नींद न जाने टूटी खाट, इश्क न जाने जात कुजात
लेकिन जो धर्म के ठेकेदार हैं उनका यह भी कहना है कि लड़की की कोई जाति नहीं होती। जिस जाति में उनकी शादी कर दी जाय, उसी जाति की हो जाती हैं। फिर भी यदि कोई अपनी इच्छा से दूसरे समुदाय में शादी कर ले तो इन्हें आफत आ जाती है। मतलब लड़कियों का अपना कोई वजूद नहीं होता। उनकी कोई इच्छा नहीं होती। जो भी हो इनकी इच्छा होनी चाहिए। यहीं पर यह भी देखने में आता हैं कि हिन्दू धर्म में ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य को छोड़कर अन्य जातियां जिन्हें धर्म के ठेकेदार नीची जातियां कहते हैं जैसे चमार, पासी, मेहतर, भंगी, चमकटिया इत्यादि के लोग मंदिर में नहीं जा सकते। साथ खड़े नहीं हो सकते, साथ बैठ नहीं सकते, साथ खा नहीं सकते लेकिन कहेंगे अपने को हिन्दू। फिर ये काहे के हिन्दू हुए। हां, वहीं पर उनसे कोई काम लेना है जैसे खेती करना, उत्पादन करवाना, बोझा ढोना और उन तक पहुंचाना चाहे जितनी दिक्कत हो उसे तो कोई परेशानी नहीं होती। यदि उन्हीं जातियों में से कोई लड़की उन्हें पसन्द आ जाये तो उसके व उसके परिवार की इच्छा के विरुद्ध भी उससे सम्बन्ध बनाने में उसके साथ दरिदंगी की हद तक बलात्कार करने में भी कोई गुरेज नहीं करते। यदि उसे अपनी बदनामी के डर से मार भी देते हैं तो भी धर्म के ठेकेदारों को कोई दिक्कत नहीं क्योंकि उनका कहना है कि ब्राहमण को तो सात खून माफ हैं। और तुलसीदास कहते हैं कि ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ यानी सामथ्र्यवान को कोई दोष नहीं होता वे कुछ भी करें। और मुझसे एक व्यक्ति ने बताया कि पहले जो राजा होते थे तो स्वयं राजा व उनका परिवार कुछ भी करे कोई जांच नहीं होती थी। वह उसके अधिकार में आता था।

अरविन्द बरेली
आपका नजरिया- आज भी गुलाम हैं
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
साथियों पन्तनगर विवि में ठेका मजदूरों का शोषण जारी है और साथ ही उनका दमन भी किया जा रहा है। और हमारे क्षेत्र के बड़े नेता मुंह छिपा लिए हैं। पन्तनगर विवि के बड़े अधिकारी हम ठेका मजदूरों को गुलाम बना कर घरों पर बेगारी कराते हैं। और जब कोई ठेका मजदूर विरोध करता है तो उसे या तो काम से हटा दिया जाता है या उनके ऊपर फर्जी मुकदमे चलाये जा रहे हैं। साथियों पन्तनगर विवि में पढ़ाई-लिखाई और शोध कार्य होता है। यहां पर छात्र पढ़ते हैं और डाक्टर बनते हैं। वहीं पर वे नौजवान भी हैं जो अपने खून और पसीना बहा कर विवि की सेवा करते हैं। मगर विवि प्रशासन कभी उन ठेका मजदूरों का जरा भी ख्याल नहीं रखता है। न तो उन मजदूरों का रहने का कोई ठिकाना है न ही उन्हें कोई चिकित्सा सुविधा है। और न ही कभी बोनस दिया है। बोनस की बात तो दूर रही यहां तक उनके खून पसीने की कमाई ईपीएफ जो कि मई 2003 से काटा जा रहा है, ठेका मजदूरों को आज तक नहीं पता है कि उनका ईपीएफ का पैसा कहां है। ऐसे में जब हम ठेका मजदूरों ने श्रम कल्याण अधिकारी से पूछा कि यहां पर ईपीएफ का पास बुक बना दिया जाय ताकि ठेका मजदूरों का अपने बचत का ब्यौरा पता रहे कि उनका पैसा ठीक जगह जमा हो रहा है। यह भी नही किया गया। और साथ में यह भी कहा गया कि आॅफिसर लोग अपने घरों पर बेगार कराते हैं उस पर रोक लगाया जाय। ठेका मजदूरों की नौकरी पूरी गुलामी प्रथा के जैेसे ही है। क्योंकि विवि पन्तनगर में ड्यूटी करने का समय देखते ही समझ जायेंगे। प्रातः छः बजे से लेकर नौ बजे तक अधिकारियों के घर पर और फिर नौ बजे से लेकर सायं पांच बजे तक कार्यस्थल पर फिर पांच बजे से लेकर सायं सात से आठ बजे तक घरों पर बेगार कराया जा रहा है। यह सब कार्य कोई और नहीं ले रहा है। ये वही प्रशासन है जो ठेका मज़दूरों पर फर्जी मुकदमे में फसाया है। साथियों हम मजदूरों को समझ लेना चाहिए कि जिस आजादी की और लोक तंत्र की बातें की जाती हैं वह आजादी मात्र सौ लोगों में सिर्फ 10 लोगों की ही आजादी है। बाकी आम आवाम मेहनतकश मजदूर अपनी मेहनत कर खाते हैं, आज भी गुलाम हैं।

     एक मजदूर पंतनगर 

सम्पादकीय

शर्म! शर्म!! शर्म!!!
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    26 जनवरी को भारत के गणतंत्र दिवस पर संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को मुख्य अतिथि के बतौर बुलाकर नरेन्द्र मोदी ने भारत के इतिहास की सबसे बड़ी शर्मनाक घटना को अंजाम दे दिया। यह घटना ऐेसी ही है कि इसकी जितनी निंदा की जाये उतनी कम है। जितना इसका विरोध किया जाये उतना कम है। 
    बराक ओबामा एक ऐसे देश के राष्ट्रपति हैं जिसने पिछली एक सदी से भी ज्यादा समय से एक से बढ़कर एक अपराध किये हैं। जबसे वह एक साम्राज्यवादी देश बना उसने अपने हितों की रक्षा करने व उन्हें आगे बढ़ाने के लिए अनगिनत घृणित काम किये। पूरी बीसवीं सदी इसकी गवाह है। उसने एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका में जबरन युद्ध थोपे। देशों की स्वतंत्रता को कुचला। उनकी सम्प्रभुता की कभी कोई इज्जत नहीं की। मनमाने ढंग से देशों की सरकारों को बदला। ये बातें अब कोई ढंकी-छुपी बातें नहीं हैं। स्वयं स.रा. अमेरिका की बदनाम गुप्तचर संस्था ने कुछ वर्ष पहले स्वीकार किया कि उसने क्या-क्या कुकर्म साठ-सत्तर के दशक में किये और अभी चंद रोज पहले आतंकवाद से लड़ने के नाम पर गिरफ्तार किये गये कैदियों को दी गयी यातनाओं का खुलासा हुआ है। मानवाधिकार के नाम पर कई देशों पर हमला करने वाले बराक ओबामा इन्हें उचित ही ठहरा रहे थे। 
    बराक ओबामा ने अपने राष्ट्रपति काल में अफगानिस्तान, इराक, पाकिस्तान, लीबिया, सीरिया, सूडान, सोमालिया जैसे कई राष्ट्रों में हजारों-हजार निर्दोष लोगों की हत्यायेें की हैं। उन्होंने यूक्रेन सहित पूर्वी यूरोप के कई देशों में ऐसे हालात पैदा करवाये कि वे युद्ध की भूमि बन गये। यही बात अफ्रीका के देशों सूडान, कांगो, माली, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, नाइजीरिया, सोमालिया आदि के लिए भी सही है। 
    बराक ओबामा कहने को अश्वेत राष्ट्रपति हैं परन्तु हाल के महीनों में अमेरिका के कई निर्दोष अश्वेत युवकों की खासकर पुलिस द्वारा की गयी हत्यायें इस बात की गवाह हैं कि उन्होेंने अमेरिकी समाज में क्या योगदान दिया है। अपने नागरिकों की गहन निगरानी जिससे स्नोडेन विचलित होकर बागी बन गये यह बतलाने को पर्याप्त है कि ओबामा स्वतंत्रता के कितने घोर विरोधी हैं। वे आम नागरिकों की निजता की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते हैं। और इससे बढ़कर वे जर्मनी, फ्रांस जैसे अपने मित्र देशों की न केवल जनता बल्कि राष्ट्राध्यक्षों की भी निगरानी करते हैं। ऐसे व्यक्ति पर भारत की जनता कैसे भरोसा कर सकती है। 
    बराक ओबामा ने इजरायली शासकों की फिलीस्तीनी जनता के क्रूर दमन पर चुप्पी साधे रखी। ओबामा के शासन काल में इजरायली शासकों ने गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक के कई हिस्सों पर और कब्जा किया। कब्जे का विरोध करने वाले फिलिस्तीनियों के कत्लेआम की बराक ओबामा ने कभी कोई निंदा नहीं की। और तो और संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका ने ऐसी स्थिति पैदा की कि इजरायल पर किसी भी तरह की कार्यवाही न हो सके। इजरायल का मौत का तांडव जारी है और उसे अमेरिका से पूरा समर्थन हासिल है।
    अपनी गरीबी के दिनों की खूब मार्केटिंग करने वाले ओबामा ने अपने शासन काल में अमेरिका के सट्टेबाजों और वित्त कंपनियों को बचाने के लिए अपने खजाने से खूब दौलत लुटायी। ‘आक्यूपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन ओबामा की इसी कार्यवाही का एक लोकप्रिय प्रतिरोध था। 
    ऐसा व्यक्ति जिसके ऊपर देशों की स्वतंत्रता को कुचलने, हजारों-हजार निर्दोष व्यक्तियों की हत्यायें करवाने, अरबपतियों के हितों की सुरक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने, अपने ही देश के नागरिकों की हत्या, निगरानी व जेल में ठूंसने आदि ढ़ेरों अपराध सुस्पष्ट हैं उसे भारत के गणतंत्र दिवस के अवसर पर बुलाने का क्या औचित्य है। क्यों उसे भारत की जनता सलामी दे? 
    असल में भारत के शासक खासकर नये शासक अमेरिकी साम्राज्यवाद से अपने सभी तरह के रिश्तों को और अधिक प्रगाढ़ बनाना चाहते हैं। वे पहले ही कई तरह के समझौते खुले और गुप्त रूप में अमेरिकी साम्राज्यवाद से कर चुके हैं। कई मामलों में वे इसके घनिष्ठ साझेदार बन चुके हैं। नरेन्द्र मोदी जिन्हें 2002 गुजरात के नरसंहार के बाद अमेरिका का वीजा वर्षों तक नहीं दिया गया अब ओबामा के खास यार हो गये हैं। वे आये दिन नरेन्द्र मोदी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। और मोदी और उनके समर्थक इसे महान उपलब्धि के रूप में प्रसारित करते हैं। वे मोदी की प्रशंसा में लहालोट हो जाते हैं। इस मामले में वे ओबामा की ईसाई-मुस्लिम पृष्ठभूमि को कभी याद नहीं करते। यद्यपि देश के भीतर ‘लव-जिहाद’, ‘धर्मांतरण’ आदि के आधार पर मुस्लिम व ईसाईयों को उन्होंने निशाना बनाया हुआ है। 
    बराक ओबामा का भारत के गणतंत्र दिवस के दिन आना भारत के पूंजीपति वर्ग जोकि भारत का शासक वर्ग है, के राष्ट्रवाद की अन्त्येष्टि भी है। इस राष्ट्रवाद में जो कुछ प्रगतिशीलता थी वह तो दशकों पहले ही चुकने लगी थी अब तो यह घोर प्रतिक्रियावादी चीज बन गयी है। यह राष्ट्रवाद अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने नतमस्तक होता है और पड़ौसी पाकिस्तान-बांग्लादेश को आंखें दिखाता है। और देश के भीतर इनके राष्ट्रवाद का मतलब शोषितों-उत्पीडि़तों का दमन है, अल्पसंख्यकों को आतंकित करना है। और उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं को भारतीय राज्य में बनाये रखने के लिए सेना और अर्द्धसैनिक बलों के दम पर किसी भी हद तक जाता है। 
    भारत के नये प्रधानमंत्री, उनकी पार्टी, और उनको शिक्षित-दीक्षित करने वाली संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राष्ट्रवाद अपने जन्म के दिन से प्रतिक्रियावादी और देश को अंधकार में धकेलने वाला है। आजादी की लड़ाई के दिनों में इस हिन्दू राष्ट्रवाद के सूत्रधार, प्रवक्ता ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की सेवा कर रहे थे। आजादी के बाद इनका सारा राष्ट्रवाद मुस्लिम-ईसाई, अल्पसंख्यकों, उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं, स्त्रियों-दलितों और मजदूर वर्ग के खिलाफ रहा है। कदाचित ओबामा को भारत के गणतंत्र दिवस पर आमंत्रित करके इन्होंने अपने राष्ट्रवाद का असली चरित्र दिखला दिया है। इस राष्ट्रवाद का अर्थ है साम्राज्यवाद और सामंतवाद की सेवा करना। ब्रिटिश उपनिवेशवाद से लेकर अमेरिकी साम्राज्यवाद की सेवा करने का इनका इतिहास इन्हें ऐसा करने को बाध्य करता है और इन्होंने ऐसा ही किया। 
    प्रधानमंत्री मोदी के ओबामा को गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि बनाये जाने का शासक वर्ग के किसी भी कोने से कोई विरोध न होना और भी खतरनाक बात है। असल में देश को यह सब स्वीकार हो और इसकी आदत पड़ जाये इसकी शुरूआत काफी समय पहले हो चुकी थी। कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में हुये आर्थिक सुधारों के साथ भारत ने साम्राज्यवाद विरोध व दबे-कुचले राष्ट्रों को समर्थन की औपचारिक नीति को तब से त्यागना शुरू कर दिया था। अब जो हो रहा है वह इसका जारी रूप है। 
    कुछ वर्ष पहले अमेरिका का कुख्यात राष्ट्रपति जार्ज बुश भारत आया था तब उन्हें लाल किले की प्राचीर से भारत की जनता को सम्बोधित करवाने की कवायद की गयी थी परन्तु भारी विरोध की सम्भावना को देखते हुये फिर दिल्ली के चिडि़याघर से सटे पुराने किले में देश के तथाकथित गणमान्यों को उन्होंने सम्बोधित किया था। तब एक प्रसिद्ध लेखिका ने गणमान्यों और चिडि़याघर के जानवरों की तुलना कर एक हंगामाखेज लेख लिखा था। ओबामा को तो जार्ज बुश से ज्यादा सम्मान भारत के नये प्रधानमंत्री द्वारा किया जा रहा है। अब बात यह है कि भारत की जनता जिसने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को भारत की जमीन से खदेड़ा था वह इस सबको चुपचाप देखती है अथवा कोई इतिहास में दर्ज होने लायक प्रतिक्रिया भी देती है।
    बराक ओबामा और मोदी का यह गठजोड़ वास्तव में साम्राज्यवादी पूंजी और भारत की पूंजी का गठजोड़ है। ऐसा आज के दौर में सम्भव नहीं है कि एक के खिलाफ मजदूर वर्ग का आन्दोलन दूसरे के खिलाफ लक्षित न हो। अथवा भारत का शासक वर्ग भारत के मजदूरों-मेहनतकशों पर हमला बोले तो उसे अमेरिकी साम्राज्यवाद का समर्थन न हो। 
    वक्त आ गया है जिसमें आज भारत में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष आपस में जुड़ गये हैं। भारत की आजादी के लड़ाई के दिनों में यह सम्भव था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई नवोदित भारतीय पूंजीपति वर्ग के खिलाफ न बने परन्तु आज ऐसा नहीं है। 
    गणतंत्र दिवस पर ओबामा का भारत आना हमारी आजादी का अपमान है। हमारे लाखों शहीदों की शहादत का अपमान है। और इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात क्या होगी इस सबको करने में भारत के शासकों का पूरा हाथ है। भारत के महान हिन्दू राष्ट्रवादी अभी देश को न जाने क्या-क्या दुर्दिन दिखायेंगे। 


आपका नजरिया- गणेश शंकर विद्यार्थी का लेख कबीर की याद दिला गया
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    ‘नागरिक’ पाक्षिक 16-30 नवम्बर 2014 पढ़ गया। पृष्ठ 5 पर गणेश शंकर विद्यार्थी का आलेख-‘जिहाद की जरूरत’ एक बार फिर कबीर की याद दिला गया। कबीरोक्ति है कि- 
कंकड-पत्थर जोरि के मस्जिद लेय बनाय।
ता चढि़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।
तथा
हिन्दू अपनी करै बडाई, गागरि छुअन न देई।
वेश्या के पायन तरू सोवे, यह देखो हिन्दुआई।।
    ठीक उसी प्रकार से गणेश शंकर विद्यार्थी जी मुस्लिमों और हिन्दुओं दोनों के ढोंगो-पाखण्डों का पर्दाफाश करते हैं। यथा- ‘‘पामर! ढोंगी! पशु! किस धर्म के किस धर्म और बुद्धि के बल पर हम पीपल को अकाट्य और अछेद्य समझते हैं? क्या किसी धर्म में ऐसा लिखा है? और वह परिपाटी, यह बाबा वाक्य ही क्या धर्म है? ऐसे धर्म का नाश, सर्वनाश होना चाहिए। मूर्ख, जाहिल मुसलमान अलम के झंडे की जब तक एक-एक हजार फीट का इतना ऊंचा कि वह सातवें आसमान की छत से जाकर टकराये- न बनायेंगे, तब तक उनका धर्म नहीं निभेगा, क्यों? इस बेहूदगी का, इस नीचता का भी कुछ ठिकाना है? और इन्हीं बातों में सिर फूटें! हमें क्या हो गया है? हिन्दू लोग अपनी छाती पर दकियानूसी रस्मो-रिवाज का पत्थर रखे बैठे हैं। (नागरिक 16-30 नवम्बर 2014 पृष्ठ 5)                           आपका
            सूर्यदीन यादव, 3, पुनीत कालोनी पवन चक्की रोड   नादियाड-2 खेडा(गुजरात)



सम्पादकीय
भारत के मजदूर और चुनौतियां
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    भारत का मजदूर आंदोलन इस समय एक दिलचस्प मोड़ पर खड़ा है। यह मोड़ मजदूर आंदोलन में मजदूर वर्ग की नयी सक्रियता के वजह से आ गया है। पूरे भारत में मजदूर वर्ग में हाल के वर्षोंं में खासकर गहराते आर्थिक संकट के साथ पुराने जमाने की ट्रेड यूनियनें अपने चरित्र के कारण सक्षम नहीं हो पा रही हैं। वे पीछे छूट रही हैं। वे अक्सर ही अपने चरित्र के कारण मजदूर आंदोलन में जो भूमिका निभा रही हैं वह उन्हें मजदूर वर्ग की नजरों में और गिरा रहा है। मजदूर वर्ग आगे जाना चाहता है परन्तु ये यूनियनें उसकी पांव में बेडि़यां बन रही हैं। 
    भारत के मजदूर वर्ग की सक्रियता को पंजाब से लेकर तमिलनाडु और गुजरात से लेकर असम तक देखा जा सकता हैै। आॅटो क्षेत्र की कम्पनियों से लेकर चाय बागान के मजदूर सभी तरफ बैचेनी है, असंतोष है। और इसके साथ है स्वतः स्फूर्त ढंग से फूट पड़ने वाले आंदोलन। स्वतः स्फूर्तता के इस आवेग में मजदूर अक्सर ही अपने ही कारखानों के भीतर अघोषित ढंग का कब्जा कर के बैठ जा रहे हैं। वे इतना ही नहीं अपने संघर्षों को एक लम्बे काल तक अपने जोश और दम पर खींचे ले जा रहे हैं। उन्हें अपने संघर्षों में यदि बहुत ज्यादा नहीं तो कम से कम कई दफा आस-पास के कारखानों के मजदूरों का साथ मिल जा रहा है। कई दफा स्थानीय मेहनतकश आबादी भी उनके साथ आकर खड़ी हो जा रही है। 
    भारत का आज मजदूर यद्यपि राजनैतिक तौर पर बहुत सक्रिय नहीं है परन्तु वह बहुत चौकन्ना है। अपने वर्गीय सहजबोध से वह देश-दुनिया की राजनैतिक घटनाओं पर सही वर्गीय अवस्थिति ही नहीं ले रहा है बल्कि पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों व राजनीति का अपने ही ढंग से विरोध भी कर रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अन्ना आंदोलन के दौरान देखने में आया। जब लगभग सारा मध्य वर्ग अन्ना आंदोलन के समय भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उद्वेलित था। टीवी चैनल के जरिये जब पूरा माहौल बनाया जा रहा था तब भी भारत का मजदूर वर्ग संतुलित बना रहा। और इस सबकी विद्रूपता को समझ रहा था और इसे बरसाती मेढ़कों का राग ही समझ रहा था। क्योंकि भ्रष्टाचार का यह प्रायोजित आंदोलन मध्य वर्ग की चेतना व भाव जगत को बांध सकने में सक्षम था परन्तु भारत के मजदूर वर्ग को अपने पीछे लामबंद करने में तनिक भी सफल नहीं हो पाया। मजदूरों ने इस तमाशे को कोई तवज्जोह नहीं दी। 
    भारत के मजदूर वर्ग में राजनैतिक सजगता भारत के किसी भी वर्ग से बहुत ज्यादा है। परन्तु राजनैतिक सजगता के साथ जिस चीज की आवश्यकता होती है वह होता है वर्गीय संगठन। वर्गीय संगठन में उसके सबसे बड़ी, ठोस व निर्णायक अभिव्यक्ति के रूप में उस वर्ग की पार्टी होती है। एक ऐसी पार्टी ही वह नेतृत्व दे सकती है जो राजनीतिक सजगता को धार देकर एक ताकत का निर्माण कर सकती है। एक ऐसी ताकत जो उसके वर्गीय हितों के अनुरूप ठोस कार्यवाहियों को अंजाम दे सके। ऐसी कार्यवाहियां जो उस वर्ग की इच्छा, आकांक्षा को ठोस जमीन में उतार सके। 
    यही आज भारत के मजदूर वर्ग की सबसे बड़ी कमी है कि उसको नेतृत्व देने वाली कोई पार्टी नहीं है। ऐसी पार्टी नहीं है जो उसके आधार पर खड़ी हो और उसके आधार से लेकर शीर्ष में नेतृत्व करने वाले ऐसे मजदूर हों जो देश-दुनिया के इतिहास से लेकर क्रांति के विज्ञान से न केवल परिचित हों बल्कि उसमें दक्ष भी हों। 
    एक ऐसी पार्टी के साथ उसे देशव्यापी स्तर पर उसके आर्थिक व राजनैतिक लड़ाईयों को संगठित करने के लिए व्यापक आधार वाला वर्गीय संगठन भी चाहिए। सामान्य प्रचलित शब्दों में उसे इंकलाबी सोच व तेवर वाला केन्द्रीय ट्रेड यूनियन केन्द्र चाहिए। ऐसा ट्रेड यूनियन केन्द्र जो पूरे देश में चलने वाले मजदूरों की सक्रियता, सजगता, वर्गीय सहजबोध को ऐसे ढंग से एक सूत्र में जोड़े कि एक ताकत बन जाये। स्वतः स्फूर्तता से कहीं आगे जाकर मजदूरों के संघर्षों में पूर्ण तैयारी, योजना, एकजुटता, सही वक्त पर सही फैसले, उचित सार-संकलन जैसे तत्वों को पैदा कर सके। ऐसे व्यक्ति तैयार कर सके जो मजदूर आंदोलन में एकजुटता, अनुभवों के आदान-प्रदान, संगठन व नेतृत्व देने में पूरी ऊर्जा लगा सके। उस धन का भी इंतजाम कर सके जो किसी भी आंदोलन को चलाने व आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक होता है। 
    इन बातों की कसौटी में यदि आज भारत के मजदूर वर्ग में सक्रिय ट्रेड यूनियनों, राजनैतिक पार्टियों को देखें तो एक ऐसी तस्वीर उभर कर सामने आती है जिससे यह बात सामने आती है कि भारत का मजदूर वर्ग तो आगे जा रहा है परन्तु ये सब या तो उसके पिछलग्गू साबित हो रहे हैं अथवा अप्रासंगिक साबित होने की ओर बढ़ रहे हैं। भारत का मजदूर आंदोलन तो आगे जा रहे हैं परन्तु उसके बीच काम करने वाले विभिन्न पंथ पीछे जा रहे हैं। 
    पंथों की बहुतायात भारत में इतनी ज्यादा है कि भारत का आम मजदूर अक्सर ही भ्रमित हो जाता है। परन्तु ये पंथ तभी तक हैं जब तक भारत में सच्चा मजदूर आंदोलन जन्म लेकर विकसित नहीं हो जाता है। 
    भारत के मजदूर वर्ग के बीच आज इस बात की सबसे बड़ी आवश्यकता शासक वर्ग की राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध निर्णायक अभियान छेड़ने की है। परन्तु आज मजदूर वर्ग का ऐसा संगठन विकसित नहीं हुआ है जो यह अभियान छेड़ सके। अतः आज वक्त का तकाजा है कि मजदूर वर्ग के बीच काम करने वाले उसके असली लोग और छोटे-बड़े संगठन शासक वर्ग के विरुद्ध निरन्तर प्रचार करें। उसकी मजदूर व जन विरोधी नीतियों का पर्दाफाश करें। ऐसा करते हुए वे मजदूर वर्ग को लगातार प्रशिक्षित करें। ऐसी कोशिश करें कि मजदूर वर्ग आगे आये और ऐसे संगठन को विकसित करे जो निर्णायक अभियान को छेड़ सकें। 
    भारत में कार्यरत विभिन्न पंथों अथवा संगठनों को यह समझ लेना होगा कि वक्त करवट बदल रहा है। मजदूर वर्ग की सक्रियता नई गति व ऊंचाईयों को छू रही है। उनके सामने दो ही रास्ते हैं या तो वे मजदूर वर्ग की सक्रियता के अनुरूप कदम उठाये, उसे व अपने को एकजुट करेें व नेतृत्व दें अथवा अतीतग्रस्तता के शिकार खुद अतीत बन जायें। 
    मजदूर वर्ग की इस सक्रियता को भौतिक आधार वर्तमान पूंजीवादी समाज के उस संकट ने प्रदान किया है जो वर्ष 2008 से अब तक जारी है और उससे उबरने के फिलहाल कोई संकेत नहीं है। साम्राज्यवादी देश और उनकी संस्थाएं संकट से उबरने के लिए अंधेरे में तीर चला रही हैं। वे उन्हीं तरीकों को अपना रहे हैं जिसने इस संकट को जन्म दिया है। वे अपनी सोच, दर्शन, नीतियों या वर्गीय अंधबोध के शिकार हैं। अतः एक ऐसा काल आ रहा है जो अपने साथ गहन अंधकार को लेकर आ रहा है यद्यपि जिसमें कहीं दूर क्षितिज में सूरज भी छुपा हुआ है। यह सूर्य अपने आप नहीं चमकेगा। इसे क्षितिज से खींचकर लाकर मानवीय समाज के आकाश में स्थापित करना पड़ेगा। ऐसा करने की क्षमता सिर्फ मजदूर वर्ग में है। और उसे अन्य मेहनतकशों के सहयोग से इसे अवश्य ही करना होगा। 

आपका नजरिया-           जब सत्ता ही देश को ठगने लगे तो...!!!
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    एक तरफ विकास और दूसरी तरफ हिन्दुत्व। एक तरफ नरेन्द्र मोदी दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। एक तरफ संवैधानिक संसदीय राजनीति तो दूसरी तरफ हिन्दू राष्ट्र का ऐलान कर खड़ा हुआ संघ परिवार। और इन सबके लिये दाना-पानी बनता हाशिये पर पड़ा वह तबका, जिसकी पूरी जिन्दगी दो जून की रोटी के लिये खप जाती है। तो अरसे बाद देश की धारा उस मुहाने पर आकर थमी है जहां विकास का विजन और हिन्दुत्व की दृष्टि में कोई अंतर नजर नहीं आता है। विकास आवारा पूंजी पर टिका है तो हिन्दुत्व भगवा धारण करने पर जा टिका है। इन परिस्थितियों को सिलसिलेवार तरीके से खोलें तो सत्ताधारी होने के मायने भी समझ में आ सकते हैं और जो सवाल संसदीय राजनीति के दायरे में पहली बार जनादेश के साथ उठे हैं, उसकी शून्यता भी नजर आती है। मसलन मोदी, विकास और पूंजी के दायरे में पहले देश के सच को समझें। यह रास्ता मनमोहन सिंह की अर्थनीति से आगे जाता है। 
    मनमोहन की मुश्किल सब कुछ बेचने से पहले बाजार को ही इतना खुला बनाने की थी, जिसमें पूंजीपतियों की व्यवस्था ही चले लेकिन कांग्रेसी राजनीति साधने के लिये मनरेगा और खाद्य सुरक्षा सरीखी योजनाओं के जरिए एनजीओ सरीखी सरकार दिखानी थी। नरेन्द्र मोदी के लिये बाजार का खुलापन बनाना जरुरी नहीं है बल्कि पूंजी को ही बाजार में तब्दील कर विकास की ऐसी चकाचौंध तले सरकार को खड़ा करना है, जिसे देखने वाला इस हद तक लालायित हो जहां उसका अपना वजूद, अपना देश ही बेमानी लगने लगे। यानी ऊर्जा से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर और हेल्थ, इंश्योरेंस, शिक्षा, रक्षा से लेकर स्वच्छ गंगा तक की किसी भी योजना का आधार देश की जनता नहीं है बल्कि सरकार के करीब खड़े उद्योगपति या काॅरपोरेट के अलावा वह विदेशी पूंजी है जो यह एलान करती है कि उसकी ताकत भारत के भविष्य को बदल सकती है। और बदलते भारत का सपना जगाये विकास की यह व्यवस्था सौ करोड़ जनता को ना तो भागीदार बनाती है और ना ही भागेदारी की कोई व्यवस्था खड़ा करती है। यानी हालात बदलेंगे या बदलने चाहिये, उसमें जनता की भागीदारी वोट देने के साथ ही खत्म हो गयी और अब सरकार की नीतियां भारत को विकसित बनाने की दिशा में देश से बाहर समर्थन चाहती हैं। 
    बाहरी समर्थन का मतलब है विदेशी निवेश। और विदेशी निवेश का मतलब है देशवासियों तक यह संदेश पहुंचाना कि आगे बढ़ने के लिये सिर्फ सरकार कुछ नहीं कर सकती बल्कि जमीन से लेकर खनिज संपदा और जीने के तरीकों से लेकर रोजगार पाने के उपायों में भी परिवर्तन करना होगा। क्योंकि सरकार तब तक कुछ नहीं कर सकती जब तक देश नहीं बदले। बदलने की इस प्रक्रिया का मतलब है खनिज संपदा की जो लूट मनमोहन सिंह के दौर में नजर आती थी वह नरेन्द्र मोदी के दौर में नजर नहीं आयेगी क्योंकि लूट शब्द नीति में बदल दिया जाये तो यह सरकारी मुहर तले विकास की लकीर मानी जाती है। मसलन जमीन अधिग्रहण में बदलाव, मजदूरों के कामकाज और उनकी नौकरी के नियमों में सुधार, पावर सेक्टर के लिये लाइसेंस में बदलाव, खदान देने के तरीकों में बदलाव, सरकारी योजनाओं को पाने वाले कारपोरेट और उद्योगपतियों के नियमों में बदलाव। यहां यह कहा जा सकता है कि बीते दस बरस के दौर में विकास के नाम पर जितने घोटाले, जितनी लूट हुई और राजनीतिक सत्ता का चेहरा जिस तरह जनता को खूंखार लगने लगा उसमें परिवर्तन जरुरी था। लेकिन परिवर्तन के बाद पहला सवाल यही है कि जिस जनता में जो आस बदलाव को लेकर जगी क्या उस बदलाव के तौर तरीकों में जनता को साथ जोड़ना चाहिये या नहीं। या फिर जनादेश के दबाव में जनता पहली बार इतनी अलग-थलग हो गयी कि सरकार के हर निर्णय के सामने खड़े होने की औकात ही उसकी नहीं रही और सरकार बिना बंदिश तीस बरस बाद देश की नीतियों को इस अंदाज से चलाने, बदलने लगी कि वह जो भी कर रही है वह सही होगा या सही होना चाहिये तो यहीं से एक दूसरा सवाल उसी सत्ता को लेकर खड़ा होता है जिसमें पूर्ण बहुमत की हर सरकार के सामने यह सवाल हमेशा से रहा है कि देश का वोटिंग पैटर्न उसके पक्ष में रहे जिससे कभी किसी चुनाव में सत्ता उसके हाथ से ना निकले या सत्ता हमेशा हर राज्य में आती रहे। कांग्रेस का नजरिया हमेशा से ही यही रहा है। इसलिये राजीव गांधी तक कांग्रेस की तूती अगर देश में बोलती रही और राज्यों में कांग्रेस की सत्ता बरकार रही तो उस दौर के विकास को आज के दौर में उठते सवालों तले तौल कर देख लें। यह बेहद साफ लगेगा कि कांग्रेस ने हमेशा अपना विकास किया। 
    यानी विकास का ऐसा पैमाना नीतियों के तहत विकसित किया, जिससे उसका वोट बैंक बना रहे। चाहे वह आदिवासी हो या मुसलमान। किसान हो या शहरी मध्यवर्ग। अब इस आईने में बीजेपी या मोदी सरकार को फिट करके देख लें। जो नारे या जो सपना राजीव गांधी के वक्त देश के युवाओं ने देखा उसे नरेन्द्र मोदी चाहे ना जगा पाये हों लेकिन सरकार चलाते हुये जिस वोट बैंक और हमेशा सत्ता में बने रहने के वोट बैंक को बनाने का सवाल है तो बीजेपी के पास हिन्दुत्व का ऐसा मंत्र है जो राष्ट्रीयता के पैमाने से भी आगे निकल कर जनता की आस्था, उसके भरोसे और जीने के तरीके को प्रभावित करता है। लेकिन यह पैमाना कांग्रेस के एनजीओ चेहरे से कहीं ज्यादा धारदार है। धारदार इसलिये क्योंकि कांग्रेस के सपने पेट-भूख, दो जून की रोजी रोटी के सवाल के सामने नतमस्तक हो जाते हैं लेकिन हिन्दुत्व का नजरिया मरने-मारने वाले हालात में जीने से कतराता नहीं है। 
    इसकी बारीकी को समझें तो दो धर्म के लोगों के बीच का प्रेम कैसे ‘लव जेहाद’ में बदलता है और मोदी सरकार की एक मंत्री ‘रामजादा’ और ‘हरामजादा’ कहकर समाज को कुरेदती है। फिर ताजमहल और गीता का सवाल रोमानियत और आस्था के जरिये संवैधानिक तौर तरीकों पर अंगुली उठाने से नहीं कतराता। और झटके में सत्ता का असल चेहरा वोट बैंक के दायरे को बढाने के लिये या फिर अपनी आस्थाओं को ही राष्ट्रीयता के भाव में बदलने के लिये या कहें राज्य नीति को ही अपनी वैचारिकता तले ढालने का खुला खेल करने से नहीं कतराता। और यह खेल खेला तभी जाता है जब कानून के रखवाले भी खेलने वाले ही हों। यानी सत्ता बदलेगी तो खेल बदलेगा। और इस तरह के सियासी खेल को संविधान या कानून का खौफ भी नहीं हो सकता है क्योंकि सत्ता उसी की है। यानी अपने-अपने दायरे में अपराधी कोई तभी होगा जब वह सत्ता में नहीं होगा। याद कीजिये तो कंधमाल में धर्मातरण के सवाल पर ही ग्राहम स्टेन्स की हत्या और बजरंग दल से जुड़े दारा सिंह का दोषी होना। 2008 में उड़ीसा में ही धर्मांतरण के सवाल पर स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या। ऐसी ही हालत यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड, कर्नाटक, केरल, गुजरात में धर्मांतरण के कितने मामले बीते एक दशक के दौर में सामने आये और कितने कानून के दायरे में लाये गये जिनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई हुई हो। ध्यान दें तो बेहद बारीकी से धर्म और उसके विस्तार में दंगों की राजनीति ने सियासत पर हमला भी बोला है और सियासत को साधा भी है। चाहे 1984 का सिख दंगा हो या 1989 का भागलपुर दंगा। या फिर 2002 में गुजरात हो या 2013 में मुजफ्फरनगर के दंगे। असर समाज के टूटन पर पड़ा और आम लोगों की रोजी-रोटी पर पड़ा लेकिन साधी सियासत ही गयी। तो फिर 2014 में सियासत की कौन सी परिभाषा बदली है। दरअसल पहली बार गुस्से ने सियासत को पलटा है। और विकास को अगर चंद हथेलियों तले गुलाम बनाने की सोच या मजहबी दायरे में समेटने की सोच जगायी जा रही हो तो यह खतरे की घंटी तो है ही। क्योंकि राष्ट्रवाद की चाशनी में कभी आत्मनिर्भर होने का सपना जगाने की बात हो या कभी हिन्दुत्व को जीने का पैमाना बताकर सत्ता की राहत देने की सौदेबाजी का सवाल, हालात और बिगडेंगे, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। और यह हालात आने वाले वक्त में सत्ता की परिभाषा को भी बदल सकते हैं इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता।                    पुण्य प्रसून वाजपेयी बाया ई-मेल

आपका नजरिया-    नरेन्द्र मोदी का ‘स्वच्छ भारत अभियान’
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथाकथित मीडिया व अन्य प्रचार माध्यमों की कृपा से और उनके अनुसार लोगों के दिलों में छा गये हैं। सब जगह मोदी छाये हुए हैं। इनके अनुसार मोदी के पास देश की सभी समस्याओं का रामबाण इलाज है। मोदी कुछ कह या कर देते हैं तो उसे जोर-शोर से दिखाया या प्रचारित किया जाता है। यह बात अन्ना आंदोलन के समय की याद ताजा कर देती है। जब सब जगह अन्ना हजारे व केजरीवाल छाये हुए थे। इनके पास भी देश की समस्याओं का राम बाण इलाज था। अब सब उल्टा हो गया है। अन्ना के स्थान पर मोदी छा गये हैं।
    नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त के दिन अपने ‘ऐतिहासिक भाषण’ में भारत में स्वच्छता पर चंद बातें कहीं। और फिर 2 अक्टूबर को गांधी जयन्ती के दिन बड़े जोर-शोर से भारत को स्वच्छ बनाने के लिए ‘स्वच्छ भारत अभियान’ लांच किया। 
    तब से ‘स्वच्छ भारत अभियान’ जोर-शोर से चल रहा है। मोदी सरकार के सभी मंत्री, भाजपा के सभी सांसद समेत अन्य नेताओं, बड़े-बड़े सरकारी अधिकारियों को भी टी.वी. व अखबारों में हाथ में झाडू पकड़े हुए दिखाया गया है। 
    नेता, अभिनेता व खिलाडि़यों की तो बातें छोड़ें सदी के ‘महानायक’ अमिताभ बच्चन भी इस अभियान से जुड़ गये। एक दिन देश के बड़े पूंजीपति मुकेश अम्बानी की पत्नी की फोटो अखबार में छपी हुयी थी। वह किसी बड़े होटल के बाहर हाथ में झाडू लिये हुए थी। और उसके आगे-पीछे दसियों अफसर व कर्मचारी थे। फोटो के नीचे लिखा था कि वह भी ‘स्वच्छ भारत अभियान’ से जुड़ गयी हैं। यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। 
    क्या वास्तव में इस सभी ‘महानुभावों’ ने भारत में गंदगी को साफ करने के लिए हाथ में झाडू पकड़ी है? यदि हां तो बताइये इन ‘महानुभावों’ में से किसी ने भी अपने घरों में झाडू लगाई है? जिस शहर की बड़ी-बड़ी इमारतों/बंगलों में ये ‘महानुभाव’ रहते हैं। उसी शहर में बसी मजदूर-मेहनतकशों की बस्तियों से इनके यहां साफ-सफाई के लिए घरेलू कामगार आते हैं। जहां इन्हें ‘महानुभाव’ बनाने वाले मजदूर मेहनतकश रहते हैं। जहां नालियों से बाहर बहता पानी, जगह-जगह लगे कूढ़े के ढे़र, उनमें भिनभिनाती मक्खियां। जहां गंदे पानी व कूढ़़े की सडांध चारों तरफ फैली रहती है। जहां वास्तव में स्वच्छता-अभियान की जरूरत है। क्या इन महानुभावों में से कोई इन बस्तियों में गया हो तो बतायें। ऐसा नहीं हुआ है। यदि ऐसा हुआ होता तो इन ‘महानुभावों’ को स्वच्छ भारत अभियान भूलकर अपनी नानी याद आ जाती। असल में इन ‘महानुभावों’ ने अपने चमकते हुए चेहरों के पीछे छिपी कालिख को चमकाने के लिए हाथ में झाडू पकड़ा है। 
    रही बात मजदूर-मेहनतकशों के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ से जुड़ने की तो जिस दिन उन्हें यह समझ आ गया कि देश को गंदा करने के पीछे इन्हीं ‘महानुभावों’ का हाथ है तो वह हाथों में झाडू उठाकर इन्हें ही देश से साफ कर देंगे। और वह दिन जरूर आयेगा। 
                 हरीश दिल्ली


सम्पादकीय
ओबामा, मोदी और गणतंत्र दिवस
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
    अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के मौके पर भारत आ रहे हैं। पूंजीवादी मीडिया, भारत सरकार सभी बहुत खुश हैं। उनकी खुशी कुछ उसी तरह की है जैसी किसी सड़क छाप गुंडे को शहर के डाॅन के अपने घर आने पर होती है। खुशी दो गुनी तब हो गयी जब डाॅन ने पड़ोसी पाकिस्तान के आमंत्रण को ठुकरा दिया। 
    ओबामा अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रतिनिधि हैं। वह शांति नोबेल के विजेता हैं। इससे किसी को भी सहज उम्मीद होनी चाहिए कि उन्होंने शांति के लिए कुछ विशेष किया होगा। पर अफसोस ओबामा ने अपने जीवन में शांति लाने नहीं शांति छीनने का एक भी मौका नहीं गंवाया। बंदूकों के दम पर तो उन्होंने दुनिया के गरीबों को कुचला ही साथ ही पूंजी के दम पर भी गरीबों का निवाला छीनने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इराक, अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया, अफ्रीका, पाकिस्तान तक को इनके टैंकरों, जहाजों, द्रोणों ने कत्लगाह में तब्दील कर डाला। ओबामा की शांति का मतलब शायद मौत के बाद छाने वाले सन्नाटे से है तो इस लिहाज से ओबामा शांति का सबसे बड़े ‘पुजारी’ है। 
    ओबामा की काबलियत हथियारों के दम पर मौतें देने में ही नहीं, बल्कि अपने देश के थैलीशाहों की पूंजी के दम पर भी दुनिया के मेहनतकशांें को ठंड़ी मौतों की ओर धकेलने में है। रीगन, थैचर के जमाने से शुरू हुई नवउदारवादी नीतियों को अमेरिका के साथ-साथ पूरी दुनिया के शासकों से लागू करवानेे के लिए ओबामा ने दिन-रात एक कर दिया। इसके लिए अपने देश के मजदूरों को मिल रही सुविधाओं को मजदूरों से छीन पूंजीपतियों पर लुटाना शुरू करने में वे नंबर एक हैं। दुनिया के शासकों को भी वे मजदूरों-मेहनतकशों को मिल रही सुविधाएं छीनने को मजबूर करते हैं। जितने लोग गोलियों-बमों से मारे, उससे ज्यादा इसने अपनी पूंजी की ताकत से मार डाले। 
    ओबामा ने ‘लोकतंत्र और आतंकवाद’ को ऐसा जुमला बना दिया कि सब आश्चर्यचकित हो गये। अमेरिका जब चुनी गयी लोकतांत्रिक सरकार गिराता है तब वह आतंकवाद से लड़ रहा होता है जब वह आतंकवाद के संगठन रोप रहा होता है तो वह लोकतंत्र की पौध रोपने की तैयारी करता है। कुल मिलाकर संक्षेप में जो अमेरिका के हिसाब से चले वह लोकतांत्रिक और जो न चले वह आतंकवादी।
    ओबामा का पेट दुनियाभर के मेहनतकशों के खून से नहीं भरता बल्कि वे अपने देश के मजदूरों का खून चूसने में नंबर एक हैं। उसके चंद वर्षो के शासन में मजदूरों ने वेतन कटौती, छंटनी, बेकारी, सरकारी सुविधाएं छीनने का जो तांडव देखा वे अभूतपूर्व हैं। 
    उपरोक्त गुण सम्पन्न ओबामा अगर अगले वर्ष भारत आयेंगे तो भारत के प्रधानमंत्री मोदी की खुशी छिपाये नहीं छिपेगी। आखिर महत्वाकांक्षी मोदी भी अपने कर्मों से ओबामा से थोड़ा ही तो पीछे हैं। ओबामा से आगे निकलने की उनकी इच्छा भी लगातार जोर मार रही है। हालांकि अभी दूर-दूर तक इसकी संभावना नहीं है फिर भी दोनों की खून की प्यास बड़ी तगड़ी है। 
    मोदी ने दो ही मुलाकातों में आखिर क्या ऐसा कर डाला कि ओबामा उन पर इतने मेहरबान हो उठे? इसका जवाब मोदी के 6 माह के कार्यकाल में पूंजीपतियों के पक्ष में लिए गये निर्णयों में है। साम्राज्यवादी पूंजी को देश में खुली छूट, सस्ती जमीन, बिजली का भरोसा, खनिज संसाधनों तक बेरोकटोक पहुंच का वायदा, मजदूरों के साथ मनमर्जी करने की छूट आदि कुछ कारण हैं जिससे देशी के साथ-साथ विदेशी पूंजी भी मंत्रमुग्ध है।
    पर इसके साथ-साथ खाद्य सब्सिडी के मसले पर डब्ल्यू.टी.ओ. में फंसे विवाद पर मोदी-ओबामा के बीच बनी सहमति ने ओबामा का दिल जीत लिया। मोदी ने ओबामा से यह समझौता कर लिया कि 2017 तक विकासशील देशों को खाद्य सब्सिडी की छूट रहेगी। इस समय तक वे इस समस्या का हल निकाल लेंगे। इसके साथ ही व्यापार से जुड़े ट्रेड फैसिलेशन एग्रीमेंट (TFA) पर भारत सहमत हो गया है। इसके तहत सीमा कर की दरें अब डब्ल्यू.टी.ओ. की सहमति से तय होंगी। 
    ये दोनों ही मसले वर्षों से डब्ल्यू.टी.ओ. में अटके थे। खाद्य सब्सिडी व व्यापार दोनों मसलों पर विकासशील देश भारत, दक्षिण अफ्रीका, क्यूबा, बोलिविया, बेनेजुएला, जिम्बाम्बे आदि अड़ गये थे परिणामस्वरूप विश्व व्यापार संगठन का एजेंडा आगे नहीं बढ़ पा रहा था। विकसित साम्राज्यवादी देश चाहते थे कि गरीब मुल्क अपने यहां खाद्यान्न सब्सिडी को विश्व व्यापार संगठन के मानकों के अनुरूप नीचे ले आयें ताकि साम्राज्यवादी खाद्यान्न कम्पनियां अपना अनाज इन देशों में पाट सकें। साथ ही साम्राज्यवादी चाहते थे कि गरीब देश सीमा कर नीचे लाकर साम्राज्यवादी मालों की पहुंच को गरीब मुल्कों के बाजारों तक आसान बना दें। परंतु गरीब मुल्कों के शासक वर्ग इस सबके लिए अपनी जनता के दबाव व देशी पूंजीपतियों को मिलने वाली प्रतियोगिता के मद्देनजर तैयार नहीं थे। 
    पर अब मोदी को दोनों मसलों पर राजी कर साम्राज्यवादी एक बड़ा दांव जीतने में सफल हो चुके हैं। फिलहाल तीन वर्षों के लिए खाद्य सब्सिडी के लिए मिली छूट को भारत सरकार अपनी जीत के बतौर प्रचारित कर रही है पर वे यह बात छिपा रहे हैं कि ये समझौता अगले तीन वर्षों में खाद्य सब्सिडी बेहद कम करने व अंततः विश्व व्यापार संगठन के मानदंडों के अधीन करने की ओर ले जायेगा। 
    इस तरह मोदी ने न केवल देश की गरीब जनता को मिल रही खाद्य सब्सिडी को छीनने का सौदा किया बल्कि अब तक सहयोगी रहे अन्य विकासशील देशों से भी अपने साथ से पल्ला झाड़ दिया। जाहिर है ओबामा का खुश होना जरूरी था और इस खुशी को वे भारत यात्रा के द्वारा खुलेआम एलान भी कर रहे हैं।
    ओबामा की यात्रा भारतीय राष्ट्रवाद की समापन कथा भी है। भारत के पूंजीपति वर्ग के राष्ट्रवाद में वैसे भी कोई प्रगतिशीलता दशकों पहले ही नहीं बची थी, अब तो यह घोर प्रतिक्रियावाद में तब्दील हो चुका है। भारतीय राष्ट्रवाद ने साम्राज्यवाद या सामन्तवाद विरोध में कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं निभायी। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंत में भारतीय मजदूरों, किसानों, सैनिकों, नौजवानों और अन्य शोषित-उत्पीडि़त लोगों के संघर्ष ही थे। भारत का पूंजीपति व भूस्वामी वर्ग तो जी-हुजूरी को ही अपना मूलमंत्र समझता था। वह आज भी वही कर रहा है। 
    ओबामा को गणतंत्र दिवस का मुख्य अतिथि बनाना भारत की जनता का अपमान है। यह भारत के महान शहीदों का भी घोर अपमान है। भारत के पूंजीपति वर्ग को मोदी की कूटनीति पसंद आ सकती है परन्तु भारत की जनता को मोदी की रणनीति क्षुब्ध और क्रोधित ही कर सकती है। 
    ओबामा-मोदी की ये गलबहियां भारत के मेहनतकशों के लिए खतरनाक हैं। दो आतताइयों का यह मिलन पूंजीपतियों-साम्राज्यवादियों के चेहरों पर रौनक लायेगा पर इस मिलन के जरिये करोड़ों मजदूर-मेहनतकशों के जीवन में अंधेरा और गहरा जायेगा। इसीलिए ओेबामा-मोदी के मिलन पर देशी-विदेशी पूंजीपति ताली पीटेंगे पर मेहनतकश जनता मुटिठ्यां ताने नारे लगायेगी ‘ओबामा वापस जाओ’। 
सम्पादकीय
संघ और मोदी का विज्ञान
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
    राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक लम्बे समय से यह प्रचारित करता रहा है कि प्राचीन भारत में विज्ञान और तकनालाजी बहुत उन्नत थी, इतनी कि आज भी उसका कोई मुकाबला नहीं है। आज की हर नयी तकनालाजी को वे अपने वेद-पुराणों में खोज निकालते हैं।
    जब तक विज्ञान और तकनालाजी के बारे में यह धारण केवल संघ से जुड़े हुए अर्धशिक्षित कस्बाई कूपमंडूकों तक सीमित थी तब तक इसे मजे से नजरअंदाज किया जा सकता था। माना जा सकता था कि यह राष्ट्रीय हीन भावना का शिकार अंधराष्ट्रवादी कूपमंडूकों की विक्षिप्त चीत्कार है। 
    लेकिन इसी तरह की बातें जब देश का प्रधानमंत्री करना शुरू करे तो मामला गंभीर हो जाता है, वह भी तब जब वह एक अति आधुनिक अस्पताल का उद्घाटन कर रहा हो। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल में सर एस एन रिलायंस अस्पताल का उद्घाटन करते हुए कहा कि महाभारत की कर्ण की कथा से पता चलता है कि उस समय जेनेटिक्स विज्ञान था क्योंकि कर्ण अपनी मां के कोख से पैदा नहीं हुआ था। इसी तरह गणेश की कथा बताती है कि उस समय प्लास्टिक सर्जरी कितनी उन्नत थी क्योंकि गणेश के धड़ पर हाथी का सिर लगाकर उसकी प्लास्टिक सर्जरी कर दी गयी थी। 
    जिस अस्पताल का मोदी उदघाटन करने गये थे वह देश के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी का है और उसके उदघाटन के अवसर पर वहां फिल्मों-खेलों इत्यादि की कई नामचीन हस्तियां मौजूद थीं। वे सब मोदी के साथ फोटो खिंचाने को उत्सुक थे।
    ऐसे अवसर पर मोदी ने इस तरह की कूपमंडूक बातें कहने का साहस कैसे किया? उन्होंने इसकी जरूरत क्यों महसूस की? इससे वे क्या हासिल करना चाहते थे?
    असल में मोदी संघ की कूपमंडूकता को राज्यसत्ता और बड़े पूंजीपति वर्ग के स्तर पर मान्यता दिलाने का प्रयास कर रहे थे। इसके द्वारा वे संघ के लिए मान्यता हासिल करना चाहते थे। यदि संघ की कूपमंडूक विचारधारा को मान्यता मिल जाती है तो संघ को अपने आप मान्यता मिल जायेगी। तब संघ भाजपा की आड़ से बाहर निकलकर खुले प्रकाश में आ जायेगा। 
    नेहरू के जमाने में बना हुआ भारत के पूंजीपतियों का संविधान न केवल धर्मनिरपेक्षता की बात करता है बल्कि वह वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात करता है। स्वभावतः ही उसके वैज्ञानिक सोच से आशय आधुनिक विज्ञान से था न कि प्राचीन भारत के ‘वेदों-पुराणों के विज्ञान’ से। भारतीय राजसत्ता औपचारिक तौर पर इसी के प्रति प्रतिबद्ध है। यह अलग बात है कि वास्तविकता में यह इस वैज्ञानिक सोच से बहुत दूर रही है। इसका एक उदाहरण सरकारी भवनों इत्यादि के लिए भूमि पूजन, शिला पूजन इत्यादि में दीखता है। 
    मोदी अब इससे आगे बढ़कर इसे खुलेआम प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। गुजरात मेें तो उन्होंने इसे बहुत पहले कर दिया था जहां उन्होंने दीनानाथ बत्रा की ‘वैज्ञानिक’ पुस्तकों की भूमिका लिखकर उसे विद्यालयों के पाठ्य पुस्तक के तौर पर लगवा दिया था। जो गुजरात के स्तर पर उन्होंने किया उसे वे पूरे देश के स्तर पर करना चाहते हैं।
    यह साहस वे इसलिए कर रहे हैं कि भारत के बड़े पूंजीपतियों से लेकर नौकरशाहों और नामचीन हस्तियों में ऐसे लोगों की भरमार है जो धार्मिक पोंगापंथ से ग्रस्त हैं। देश में चन्द्रास्वामी, सत्य साईंबाबा, आशाराम जी बापू इत्यादि का कारोबार यूं ही नहीं चलता रहा है। जो व्यक्ति सत्यसांई बाबा की कृपा से राख में उनकी मूर्ति हासिल कर सकता है वह यह भी विश्वास कर सकता है कि कुंती को कर्ण जैनेटिक टेक्नालाॅजी से मिला था। यहां से वहां छलांग बहुत मुश्किल नहीं है। 
    पतित पूंजीवाद के इस दौर में जब छिछोरे लोग भारत में प्रधानमंत्री और अमेरिका में राष्ट्रपति बन रहे हैं तो इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भारत में ‘वेदों-पुराणों के विज्ञान’ की बात हो रही है। और अमेरिका में डार्विन के विकासवाद के साथ ईसाई धर्म की पुस्तकों में उल्लिखित उत्पत्ति कथा पढ़ाई जा रही हो। इस पर भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मोदी अमेरिका में जाकर शीश नवाते फूले नहीं समाते। 

आपका नजरिया-  नेता बेचारे प्रचार के मारे
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
जहां मोदी सरकार पूंजीपतियों पर मेहरबान है, वहीं मेहनतकश जनता को भरमाने के लिए उसकी नौटंकी है ‘स्वच्छ भारत अभियान’। भाजपा का यह स्वच्छ भारत अभियान कितना स्वच्छ है यह भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय की झाडू देखकर लग जाता है। सतीश उपाध्याय ने स्वच्छ भारत अभियान का हिस्सा बनने के लिए झाडू तो हाथ में ली लेकिन सफाई के लिए उन्होंने पहले कूड़े के नाम पर पेड़ों की सूखी पत्तियों का कूड़ा मंगाकर फैलाया गया उसके बाद जब मीडिया और प्रचार का सारा ताम-झाम इकट्ठा हो गया तो सतीश उपाध्याय ने उस कूड़े को साफ किया। बड़े-बड़े नालों व सीवर की सफाई के लिए कोई राजनेता नालों या गटर में नहीं उतरे। वे भी प्रचार पाने के लिए इसी तरह की कार्रवाइयों में लगे रहे। सतीश उपाध्याय व उनके जैसों द्वारा इस तरह की कार्रवाइयां सफाई कर्मियों का मजाक उड़ाना है। वे ऐसा करके हर साल सफाई करते हुए गम्भीर बीमारियों के शिकार होकर मरने वालों तथा महानगरों के गटर साफ करने के दौरान मारे जाने वाले हजारों सफाई कर्मियों की मौत का मजाक उड़ाते हैं।      
इसके अलावा इस अभियान के तहत मैला ढ़ोने वालों के पक्ष में किसी प्रकार की सुरक्षा की कोई घोषणा तक सरकार द्वारा नहीं की गई है। बड़े नालों व सीवर की सफाई के लिए किसी प्रकार की नई तकनीक के इस्तेमाल के लिए कोई धन आवंटित नहीं किया गया, जिससे इन सफाई कर्मियों को कुछ राहत मिलती। और तो और लाखों की संख्या में ठेके पर काम कर रहे सफाई कर्मियों को स्थायी करने की घोषण भी नहीं की गई। सफाईकर्मियों की नई भर्तियों की कोई योजना तक नहीं लाई गई। इस तरह से स्वच्छ भारत अभियान, वास्तव में सफाई में लगे सफाई कर्मियों से अपनी दूरी बनाये रखा।  
इसके अलावा स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा के तुरन्त बाद 20 नवम्बर को हरियाणा के हिसार जिले के गांव रावलवास खुर्द में गर्ल्स हाई स्कूल की हेड टीचर ने अनुसूचित जाति की छात्राओं को शौचालय साफ करने का फरमान सुनाया। स्कूल की हेड टीचर ने तर्क दिया कि क्योंकि ये सभी छात्रायें मुफ्त में छात्रवृत्ति लेती हैं और पूरे भारत में स्वच्छ भारत अभियान चल रहा है। इसलिए अनुसूचित जाति की छात्रायें स्कूल के शौचालय साफ करेंगीं। जब छात्राओं और परिजनों ने स्कूल पहुंच कर इसका विरोध किया तो उन्हें यह कह कर स्कूल से बाहर निकाल दिया कि स्कूल के मामले में दखलंदाजी करने की उन्हें कोई जरूरत नहीं है, जिसके विरोध में छात्रायें हिसार के लघु सचिवालय पहुंची और अपना विरोध दर्ज कराया। 
केन्द्र की तरह हरियाणा में भी भाजपा सत्ता पर काबिज है, जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राजनीतिक संगठन है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) देश में वही आचार संहिता लागू करना चाहता है, जिसकी वकालत मनुस्मृृति करती है। आखिर संघ के मुख्य सिद्धांतकार व दूसरे प्रमुख नेता सदाशिव गोवलकर ने मनुस्मृति को दुनिया का सबसे महान आचार संहिता घोषित किया था। 
        हेमलता, दिल्ली 

सम्पादकीय
सफलता में छुपी असफलता
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों के बाद मीडिया द्वारा नरेन्द्र मोदी का सितारा और बुलंद घोषित किया गया। इस वक्त पूंजीवादी मीडिया में नरेन्द्र मोदी के नाम का डंका बज रहा है। हद तो यह है कि अब निजी पूंजीवादी मीडिया सरकारी मीडिया की भौंडी नकल बन चुका है। सत्य कहने का साहस इस मीडिया में पहले भी नहीं था। अब तो लगता है कि हम एक ऐेसे जमाने में प्रवेश कर चुके हैं जहां जुमले, फिकरे, सनसनी, फूहड़ता और निकृष्ट किस्म की बहसें ही आम लोगों के हिस्से में हैं। 
    हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भारतीय चुनाव प्रणाली का वही दिलचस्प खेल रहा  जो आम चुनावों के समय रहा था। यानी जो भी सरकार इस समय देश या प्रदेश में बन रही है उन्हें कुल मतदाताओं का तो क्या कुल पड़े गये मतों का भी बहुमत नहीं मिलता है। इस तरह से देखा जाए तो हमारे देश में कमोवेश सभी सरकारें अल्पमत की सरकारें हैं। कई स्थानों पर कई स्थापित पार्टियों से भी ज्यादा मत नोटा को मिल रहे हैं। 
    आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 282 सीटें मिलीं वह अपने दम पर ही केन्द्र में सरकार बनाने की स्थिति में आ गयी। परन्तु उसे पड़े मतों का सिर्फ 31 फीसदी ही प्राप्त हुआ। यदि इसे कुल पंजीकृत मतदाताओं की संख्या के सापेक्ष देखा जाए तो यह महज 20 फीसदी है। हिन्दुस्तान में कुल पंजीकृत मतदाता करीब 83 करोड़ हैं, जिसमें से करीब 55 करोड़ ने मतदान किया और भाजपा को करीब 17 करोड़ मत मिले। यानी भाजपा को समर्थन नहीं करने वालों की संख्या बहुत-बहुत अधिक है। 
    ऐसे ही हरियाणा और महाराष्ट्र में लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के आधार पर तुलना की जाये तो भारतीय चुनाव प्रणाली की दिलचस्प स्थिति फिर सामने आती है। हरियाणा में भाजपा को 10 में से 7 सीटें लोकसभा चुनाव में प्राप्त हुयीं। उसका मत प्रतिशत 34.07 था जबकि विधानसभा में उसे 90 में से 47 सीटें प्राप्त हुयीं तब उसका मत प्रतिशत 33.2 था। ऐसे ही महाराष्ट्र में भाजपा को लोकसभा चुनाव में 48 में से 23 सीटें मिलीं, मत प्रतिशत 27.30 था और विधानसभा चुनाव में उसे 288 में से 122 सीटें मिलीं और मत प्रतिशत 27.8 था। कांग्रेस को हरियाणा व महाराष्ट्र में इन दोनों चुनावों में करारी हार मिली परन्तु उसे कुल डाले गये मतों का करीब-करीब 20 फीसदी प्राप्त हुआ। 
    इस तरह देखा जाए तो मोदी की चुनावी सफलता में आम जन मानस में ऐसी कोई विशिष्ट या मार्के लायक लहर नहीं है। यह भारतीय चुनाव प्रणाली के गहराई से की गयी छानबीन और उसके आधार पर कुशलता से किये गये मीडिया और मत प्रबंधन का नतीजा है। और उससे आगे जाकर कहा जाये तो हमारे देश के मतदाताओं की निष्क्रियता ही पूंजीवादी चुनाव प्रणाली की सफलता है। और इससे बढ़कर उनकी सरकार बनाने में भूमिका शून्य है। नरेन्द्र मोदी की सफलता का सारा राज इन मतदाताओं की एक अन्य संख्या को सक्रिय करने में छुपा है। जाहिर सी बात है इस सब में पूंजीवादी मीडिया और प्रचार तंत्र की प्रभावी भूमिका है। 
    नरेन्द्र मोदी भारत के आम मतदाताओं की पसंद न तो चुनाव के पहले थे और न ही आज हैं। उन्हें भारत के अम्बानी-अदाणी नीत पूंजीपतियों के समूह ने भारत में प्रोजेक्ट किया और उसके लिए पिछले दो-तीन वर्षों से सटीक रणनीति बनायी और वे कामयाब रहे। नरेन्द्र मोदी का चुनाव ही उन्होंने क्यों किया। इसका जबाव मोदी के गुजरात में अम्बानी-अदाणी समूह के पूंजीपतियों के हितों को साधने और सबसे बढ़कर पूरे पूंजीपति वर्ग में नेतृत्व के लिए योग्य व्यक्तियों का अभाव है। ‘अंधों में काना राजा’ की तर्ज पर जो उन्हें सबसे उपयुक्त लगा वह उन्होंने चुना और उसे प्रोजेक्ट किया। मोदी का प्रभा मण्डल तैयार करवाया गया और इस सबके लिए उस प्रसिद्ध मशीनरी का भी प्रयोग किया गया जिसका नाम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ है। इस दूसरी सुरक्षा पंक्ति को लगभग आधी सदी से भारत के पूंजीपति वर्ग ने खूब देखभाल की है। भारत की एकाधिकारी पूंजी और संघ के नापाक गठजोड़ से वह चुनावी सफलता निकली जिसका सेहरा मोदी के सिर बंधा। 
    अब ठीक इसी सफलता के बीच इसमें वह असफलता छुपी हुयी है जो अभी प्रकट और प्रवाहमान नहीं है। भारत का पूंजीपति वर्ग बहुत कमजोर जमीन से पैदा हुआ और आज जहां वह खड़ा है वह असल में एक गहरा दलदल है। भारतीय अर्थव्यवस्था एक भीषण मुहाने पर आकर खड़ी हो चुकी है। यहां इसका इंतजार एक ऐसा वित्तीय संकट कर रहा है जो कभी भी फूट सकता है। भारत का शेयर बाजार जो नये-नये कीर्तिमान कायम कर रहा है वह लगातार उस बिन्दु की ओर बढ़ रहा है जहां उसे धड़ाम से गिरना है। कृषि, उद्योग की खस्ता हालत के बीच शेयर मार्केट की बढ़ती अर्थव्यवस्था की खुशहाली या सेहतमंदी का प्रतीक न होकर आसन्न संकट की ओर इशारा है। 
    सच तो यह है समाज में विभिन्न वर्ग और तबकों में अपने-अपने कारणों से असंतोष गहराता जा रहा है। भारत के मजदूर खास तौर से औद्योगिक क्षेत्र में मजदूर वर्ग काफी विचलित है। विश्व व्यापी पैमाने पर आॅटो सेक्टर की खस्ता हालत के बीच भारत का आॅटो सेक्टर का मजदूर काफी सक्रिय है। देश के कभी इस कारखाने में कभी उस कारखाने में मजदूर सड़कों पर उतरने को बाध्य हैं। यही कमोवेश हालत अन्य मजदूरों की भी है। 
    किसानों की खास तौर पर मंझोले और छोटे किसान खेती में घाटे से परेशान हैं। लागत बढ़ती जा रही है और फसल का उचित ढंग से मूल्य न मिलने के कारण व्यापक पैमाने पर क्षुब्धता है। छोटे दुकानदार व छोटे उत्पादकों को वर्तमान व्यवस्था और उसका संकट दरिद्र सर्वहाराओं में तब्दील कर रहा है। 
    अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं और अन्य उत्पीडि़तों के व्यक्तिगत प्रतिकार और सामूहिक संघर्ष उस संकट से पैदा हो रहे हैं जो भारत का शासक वर्ग उनके जीवन में पहले से ज्यादा तीव्रता से पैदा कर रहा है। 
    मोदी की सफलता को इस पूरे परिदृश्य में देखा जाए तो वे उसी हस्र का हकदार बनेंगे जो कि उसके पूर्ववर्तियों का रहा है। असल में मोदी शासक वर्ग के ऐसे नुमाइंदों में हैं जिन्हें जब पेश किया जाता है तो एक उन्माद सा उत्पन्न किया जाता है। और इस उन्माद को वर्तमान समस्याओं का जवाब माना जाता है। परन्तु देर-सबेर उन्माद थम जाता है। और फिर निराशा छा जाती है। पूंजीवादी समाज की समस्याओं का चरित्र ऐसा है जिसका समाधान एक सामाजिक क्रांति में छुपा है, परन्तु शासक वर्ग को नित नये प्रकट होने वाले नमूने उद्धारक बनाकर पेश किये जाते हैं परन्तु चंद समय बीतते ही वे बेहद फूहड़ और तुच्छ साबित होने लगते हैं। बराक ओबामा का उत्थान और पतन इसकी गवाही देता है। और आज ओबामा कमोबेश ऐसी स्थिति में पहुंच चुके हैं जहां वे न केवल जनता बल्कि अपने सहोदर भाइयों की आंख की भी किरकिरी बन चुके हैं। 
    मोदी की ताकत उनके लच्छेदार भाषण और जुमले नहीं हैं बल्कि वह एकाधिकारी पूंजी का हाथ है जो उनकी पीठ पर है। अगर वे उसके हित साधने में कामयाब रहते हैं तो वे सत्ता में रहेंगे अन्यथा शीघ्र ही ओबामा की नियति पा सकते हैं। यहां सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के वर्तमान संकट का काल लम्बा खींचता जा रहा है। भविष्य में ऐसे कोई संकेत नहीं हैं कि वह संकट के दौर से निकल जायेगी और तेजी का दौर आ जायेगा। इस लिहाज से मोदी के भाग्य में तात्कालिक सफलता के सूत्र भी बहुत कम हैं उलट इसके उनके ‘‘आर्थिक व श्रम सुधार’’ समाज में गहरे असंतोष व प्रतिकार को जन्म देने वाले हैं। हड़ताल, उथल-पुथल, क्षोभ, सामाजिक यथार्थ के प्रचलित स्वर बनने वाले हैं। अपनी तरफ से संघ जैसे-जैसे अपने घृणित हिन्दुत्व के एजेण्डे को आगे बढ़ायेगा वैसे-वैसे समाज उस ओर जायेगा जहां ये काली शक्तियां अपने उस आधार को भी खोने लगेंगीं जिस पर वे आज खड़ी हैं। इनकी सफलता तात्कालिक हैै और असफलता आसन्न है। 

आपका नजरिया-   लोग से दूर होता ‘लोकतंत्र’
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    15 अगस्त 1947 के बाद कुछ लोग इसको सत्ता हस्तांतरण मानते हैं तो कुछ राजनीतिक स्वतंत्रता तथा कुछ लोगों को यह पूर्ण स्वतंत्रता लगती है। स्वतंत्र भारत मानने वाले लोगों की तरफ से भारतीय लोकतंत्र को दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। वह यह कहते नहीं थकते हैं कि यहां करोड़ों लोगों द्वारा चुनी गई सरकार होती है। कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका है जो बिना किसी दबाव व भेद-भाव के काम करती है। न्यायपालिका, मीडिया स्वतंत्र हैं। देश धर्मनिरपेक्ष है, सबको अपनी मर्जी से धर्म चुनने का, विचार प्रकट करने का अधिकार है इत्यादि-इत्यादि। इन सभी तर्कों से ‘महान लोकतंत्र’ को जिन्दा रखने की कोशिश की जाती है। ‘स्वतंत्र भारत’ के विचारों को कुछ समय के लिए सही भी मान लें तो मन में कुछ प्रश्न उठते हैं। कोई भी विचारधारा अपने उम्र के हिसाब से परिपक्व होती है। भारतीय ‘लोकतंत्र’ जो कि 67 वर्ष पूरे कर चुका है वहां पर लिंग, धर्म, जाति, नस्ल का भेद भाव अभी तक जिन्दा क्यों है और यह दिनों-दिन बढ़ता क्यों जा रहा है? शोषित-पीडि़त, वंचितों की बात करने वाली विचारधाराओं पर दमन क्यों हो रहा है? क्यों लोगों को फर्जी मुठभेड़ों में मारा जा रहा है, क्यों हजारों आदिवासी जेलों में ठूस दिये गये हैं? क्या इसी को लोकतंत्र कहा जाता है?
  जन और ‘जनसेवक’ में बढ़ती दूरी 
    अर्जुन सेन गुप्ता रिपोर्ट के अनुसार भारत के 77 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं वहीं भारत के 82 प्रतिशत सांसद करोड़पति-अरबपति हैं। 15 वीं लोकसभा में 300 सांसद करोड़पति-अरबपति थे, 16 वीं लोकसभा में इनकी संख्या बढ़कर 442 हो गई है। सांसद ही नहीं विधानसभाओं में भी करोड़पति-अरबपति विधायकों की संख्या बढ़ी है। हरियाणा, महाराष्ट्र के हालिया विधानसभाओं में करोड़पति-अरबपति विधायकों की संख्या ने सांसदों को भी पीछे छोड़ दिया है। हरियाणा के 83 प्रतिशत (90 में से 75) वहीं महराष्ट्र के 88 प्रतिशत (288 में से 253) विधायक करोड़पति-अरबपति हैं।
    आम-आदमी से खाद, पानी, बिजली से सब्सिडी छीनी जा रही हैं, वहीं इन करोड़पति-अरबपति सांसदों के कैन्टीन में भारी सब्सिडी दी जाती है। आम आदमी के लिए फुटपाथ पर 8-10 रु. में चाय मिल रही है वहीं इन सेहतमंद सांसदों को वातानुकूलित कैन्टीन में दाल 1.5 रु., डोसा 4 रु. और चाय व सूप 1 रु. व 5.50 रुपये में मिल जाता है।
    ‘चुने हुए जनप्रतिनिधियों’ के लिए वाशिंगटन, पेरिस, लंदन नजदीक हैं जहां आये दिन यह जाते रहते हैं लेकिन इनका अपना संसदीय क्षेत्र दूर हो जाता है जहां साल या पांच साल में एक दो बार चले जाते हैं। ‘लोकतंत्र का गुण’ सीखने के लिए ब्रिटेन और अमेरिका जाते हैं लेकिन ‘जनप्रतिनिधि’ के नाते जनता को सुनने और समझने के लिए उनके पास जाना मुनासिब नहीं समझते। भाषणों में गरीबों के लिए घडि़याली आंसू बहाते हैं, योजनायें बनाते हैं उसके लिए जनता पर टैक्स बढ़ाते हैं और साल में करीब 5.5 लाख करोड़ रु. की छूट पूंजीपतियों को देते हैं। वोट मांगने के लिए अपने को मजदूर-किसान का आम बेटा या बेटी बताते हैं लेकिन इनका शपथ ग्रहण हो या पार्टी व परिवारिक समारोह उसमें सभी खास (नेता, अभिनेता, पूंजीपति, खिलाड़ी) लोग ही नजर आते हैं यानी ‘मुंह में राम और बगल में छुरी’।
अपराध का खेल
    समाज में बढ़ते हुए अपराध पर संसद चिंतित हैं इसलिए बाल अपराधियों की उम्र (18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष) को कम करने के लिए कानून में बदलाव किये जा रहे हैं जिससे कि ‘अपराध’ पर लगाम लगाया जा सके। संसद में अपराधिक मामले वाले सांसदों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। 14 वीं लोकसभा में 128, 15वीं लोकसभा में 162 तथा 16वीं लोकसभा में इनकी संख्या 186 हो गई है। आज हर तीसरे सांसद पर आपराधिक केस दर्ज हैं। भारत के प्रधानमंत्री मोदी चुनाव प्रचार के समय व प्रधानमंत्री बनने के बाद संसद और विधानसभाओं को अपराध मुक्त करने के लिए बेचैन दिखे लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद हुए महाराष्ट्र के चुनाव में 288 विधायक में से 165 पर केस दर्ज हैं। भाजपा के 122 विधायक में से 74 (60 प्रतिशत) पर केस दर्ज है। महाराष्ट्र के नव निर्वाचित मुख्यमंत्री पर 22 केस दर्ज हैं। क्या देश की आम जनता 33 प्रतिशत अपराधी छवि की है?
    अपराधियों के साथ-साथ व्यापारियों की संख्या संसद में बढ़ रही है। राजनीतिक काम सामाजिक काम होता है यानी यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस सामाजिक काम पर व्यापारिक वर्ग का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है पहले वह पर्दे के पीछे होते थे अब वह सीधे मंच पर आसीन होने लगे हैं। इस बार संसद में 20 प्रतिशत व्यापार से जुड़े लोग पहुंचे हैं। ‘खाप पंचायत’ भारतीय संविधान की धज्जियां उड़ाने वाला, सामंती बर्बरता के लिए जाना जाता है। संविधान की रक्षा की कसम खा कर हरियाणा के मुख्यमंत्री, मंत्री बने खाप पंचायत और उसके फरमानों को सही मानते हैं।
स्वतंत्र मीडिया
    भारत में प्रचार किया जाता है कि मीडिया स्वतंत्र है और वह हमेशा ही निष्पक्ष होकर खबरों को छापती या दिखाती है। नीरा राडिया केस में जिस तरह से मीडिया की भूमिका सामने आई उससे काफी कुछ साफ हो गया। मीडिया वही दिखाती है जो एक खास वर्ग को पसंद आता है। मीडिया के लिए मेहनतकश जनता की समस्या या आन्दोलन कोई खबर नहीं बन पाती है। आरूषि हत्या कांड, खिलाडि़यों, अभिनेता-अभिनेत्रियों की प्रेम जैसी खबर सालों साल सुर्खियों में रहती हैं लेकिन मारूति के 147 मजदूरों को 29 माह से जेल की काल कोठरियों में बिताना एक दिन के लिए भी सुर्खी नहीं बन पाती है। गुजरात माॅडल लगातार सुर्खियों में रहता है जब तक उसे मंजिल नहीं मिल जाती लेकिन उसी गुजरात के किसानों के आन्दोलन के लिए मीडिया के पास एक घंटा नहीं होता है। 
    25 अक्टूबर, 2014 को मोदी द्वारा मीडिया वालों की चाय पर मुलाकात और मोदी के साथ मीडियाकर्मियों द्वारा सेल्फी लेने की होड़ ‘स्वतंत्र व निष्पक्ष’ मीडिया पर कई सवाल खड़े करते हैं। आम जनता की बात करने वाले व ‘सादगी’ पसंद मोदी दिल्ली में एक ड्रेस तो दो घंटे बाद मुम्बई में दूसरे ड्रेस में नजर आते हैं। अमेरिका में दिन में कई-कई ड्रेस बदलना मोदीमय मीडिया के लिए खबर नहीं बनती है।
    क्या जिस ‘लोकतंत्र’ मंे साम्प्रदायिक शक्तियों का वर्चस्व हो, धर्म, जाति के नाम पर आवाम को लड़ाया जाये, मेहनतकश आवाम की बात करने वालों को देशद्रोही कहना लोकतंत्र है? जिस देश में बहुसंख्यक आवाम दो जून की रोटी जुटाने में हैरान-परेशान हैं, उस देश के ‘जनप्रतिनिधि’ करोड़पति-अरबपति की संख्या बढ़ती जाये क्या इससे गरीबी दूर होगी? जिस देश की आवाम अपराधियों से डर कर चुप रहना ही मुनासिब समझती हो उस देश के ‘जनप्रतिनिधि’ ही अपराधी हो तो क्या जनता उससे अपनी बात कह सकती है? जहां पर मीडिया कर्मी प्रभावशाली लोगों के साथ सांठ-गांठ बना कर रखने और उनके साथ सेल्फी लेने में मशगूल हो वहां पर मीडिया से निष्पक्षता की उम्मीद की जा सकती है? क्या ‘लोकतांत्रिक’ देश मानने वालों के लिए यह ‘लोकतंत्र’ पर खतरा नहीं लगता है? क्या ऐसे ‘लोकतंत्र को अब भी बचा कर रखने की जरूरत हैं?
सुनील कुमार

सम्पादकीय
जवाहर लाल नेहरू
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
    भारत का शासक वर्ग जवाहर लाल नेहरू की 125 वीं जन्मशती मना रहा है। नेहरू के जन्मशती के समय केन्द्र में यदि कांग्रेस की सरकार रही होती तो शायद ज्यादा तड़क-भड़क होती, परंतु मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जन्मशती के जलवों में तो कमी आ जायेगी परंतु उनके लिए कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के बीच भी नेहरू की जन्मशती को मनाना वर्गीय मजबूरी और दायित्व है।
    जवाहर लाल नेहरू की आधुनिक पूंजीवादी भारत के निर्माण में केंद्रीय व निर्णायक भूमिका रही है। नेहरू ने अपने समाजवादी वाकजाल में ऐसा माहौल बनाया कि वे वर्षों तक भारतीय समाज में लोेकप्रिय बने रहे। मुंह में समाजवाद और काम में पूंजीवाद की विलक्षण व धूर्त कार्यशैली से नेहरू ने न केवल आम मेहनतकश भारतीयों को बल्कि तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर भी भ्रमों को जन्म दे दिया था। कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर कांग्रेस पार्टी के चरित्र को लेकर लम्बे समय से बहस रही और अंततः कम्युनिस्ट पार्टी के 1964 में विभाजन में यह बहस एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरी। 
    जवाहर लाल नेहरू ने आजादी की लड़ाई के दिनों में कई रेडिकल बातें की थीं जिसके कारण उनकी छवि गांधीजी की ‘महात्मा’ छवि के विपरीत आधुनिक, वैज्ञानिक और उद्दात डेमोक्रेट के रूप में बनी जो अपने वामपंथी विचारों को लगातार व्यक्त करता रहता था। नेहरू के अपने चिंतन और व्यक्तित्व के द्वंद्व जो भी रहे हों परंतु वे निर्विवाद रूप से अपने समय में भारतीय पूंजीपति वर्ग के राष्ट्रनायक थे।
    जवाहर लाल नेहरू ने भारतीय पूंजीपति वर्ग की सेवा एकदम विषम परिस्थितियों में की थी। पूरी दुनिया में उस समय समाजवाद की तूती बोल रही थी। मजदूर वर्ग की फतह का सिलसिला जारी था। पड़ोसी देश चीन में माओ के नेतृत्व में नवजनवादी क्रांति सम्पन्न हो रही थी और वह तेजी से समाजवाद की ओर बढ़ रहा था। एक समय ऐसा आया कि तेरह देशों का समाजवादी खेमा अस्तित्व में आ गया था। भारत सहित पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद खास तौर पर औपनिवेशिक शासन के खिलाफ तीव्र आक्रोश था। एक के बाद दूसरे देश साम्राज्यवाद के प्रत्यक्ष शासन से मुक्त होकर नया रास्ता तलाश रहे थे। और स्वयं भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में क्रांति की संभावना अभी मौजूद थी। 
    जवाहर लाल नेहरू ऐसे समय में अपने छद्म समाजवादी विचारों और साम्राज्यवाद के औपनिवेशिक शासन प्रणाली के मुखर विरोधी के रूप में भारत सहित तीसरी दुनिया के कई देशों में राष्ट्रवाद के ऐसे प्रतीक बने हुए थे जिसका चरित्र, विचार व कर्म अभी सभी ढंके हुए थे, वे बेपर्दा नहीं हुए थे। 
    जवाहर लाल नेहरू ने जो नीति देश के भीतर सामंतवाद के प्रति अपनायी थी वही नीति एक दूसरे और भिन्न संदर्भ में साम्राज्यवाद के साथ भी अपनायी हुई थी। वे सुलह-समझौते और परस्पर एक दूसरे के हितों का ख्याल रखते हुए चलते थे जिसमें समय-समय पर जन आकांक्षाओं व जनविद्रोह के हवाले का इस्तेमाल अपने वर्ग के लिए विशेष सुविधाएं हासिल करने के रूप में होता था।
    देश के भीतर उन्होंने एक तरफ राजे-रजवाड़ों, जमींदारों आदि को प्रिवीपर्स जैसे सुविधाएं दीं और दूसरी तरफ उनकी पुरानी जमीन को खोखला कर नई जमीन उपलब्ध करायी। भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था में वे अपना नया स्थान बना सकें इसके लिए भूमि सुधार के कार्य को इस तरह से अंजाम दिया कि उनका कोई खास नुकसान न हो। खुद ईश्वर के बारे में संशय में रहने वाले नेहरू ने भारत के जनमानस की धार्मिक कूपमंडूकता और मध्ययुगीन सामंती मूल्य-मान्यताओं को प्रश्रय दिया। उनका इससे बड़ा पाखंड क्या हो सकता था कि अपने शासन काल के समय कदम-कदम पर समझौते करने वाले नेहरू की बातें आजादी की लड़ाई के दिनों में एकदम ही भिन्न होती थीं। 
    देश के बाद उन्होंने समाजवादी खेमे और साम्राज्यवादी खेमे के बीच के अंतरर्विरोध से लाभ उठाकर भारत के पूंजीवाद को मजबूत करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाये। गुट निरपेक्षता का पूरा शगूफा ऐसे लोगों की ओर से उठाया गया था जो किसी भी कीमत में अपने देश में समाजवाद को कायम नहीं होने देना चाहते थे। 
    नेहरू के नेतृत्व में भारतीय सेना ने 1948-50 में क्रूरतापूर्वक तेलंगाना आंदोलन का दमन किया था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दमन में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी और यहां तक कि 1959 में केरल में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। मार्शल टीटो जो कि गुट निरपेक्ष आंदोलन का एक और सिरमौर था, उसका इतिहास भी ऐसा ही है। यूगोस्लाविया दुनिया का एक तरह से पहला समाजवादी देश था जहां पूंजीवाद की पुनर्स्थापना सबसे पहले हुई। मार्शल टीटो ने अपने देश के मजदूरों-किसानों से गद्दारी करके अमेरिकी साम्राज्यवाद से समाजवादी खेमे के खिलाफ घृणित सांठगांठ की थी। नेहरू के 1962 में समाजवादी चीन के ऊपर आक्रमण के पीछे भी अमेरिकी साम्राज्यवाद का खुला हाथ था। 
    जवाहर लाल नेहरू ने भारतीय पूंजीवाद की दीर्घ आयु के लिए कई प्रयास किये। उन्होंने ऐसी तमाम संस्थाएं खड़ी कीं जिनकी आज के पूंजीवादी भारत की गौरव संस्थाएं कहकर बड़ा मान किया जाता है। परमाणु तकनीक, अंतरिक्ष कार्यक्रम से लेकर तमाम किस्म के महत्वपूर्ण पूंजीवादी संस्थानों की नींव नेहरू के नेतृत्व में ही डाली गयी। हालांकि एक ऐसी महत्वपूर्ण संस्था योजना आयोग भी था जिसको मृत्यु शैय्या पर मनमोहन सिंह ने पहुंचाया और जिसकी अंत्येष्टि पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी ने कर दी। असल में योजना आयोग ऐसे जमाने की संस्था थी जब भारत के पूंजीवादी विकास के लिए विशिष्ट व दीर्घकालिक योजनाओं की आवश्यकता थी। नई आर्थिक नीतियों के दौर में जबकि देश की नीतियां अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक से निर्देशित होती हों तब ऐसी संस्था की आवश्यकता भारतीय पूंजीपति वर्ग को क्यों कर हो। 
    ‘नेहरूवाद’ जैसा कुछ लोगों ने नेहरू की नीतियों को नाम दिया है, उसकी आवश्यकता आज के भारत में कुछ नहीं रह गयी है। वह आज के भारत के पूंजीपति वर्ग की किन्हीं भी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करता। वह अतीत की वस्तु है। और उसका स्थान अब पूंजीवादी भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय में ही है। 
    भारत के मजदूर वर्ग के लिए नेहरू को याद रखना इस रूप में बेहद जरूरी है कि वह ऐसे व्यक्ति थे जिनके हाथ भारत के मजदूरों-किसानों के खून से रंगे हुए थे। वे ऐसे व्यक्ति थे जो समाजवाद के नाम पर मजदूरों की पीठ पर खंजर घोंप रहे थे। वे ऐसे व्यक्ति थे जो अमेरिकी साम्राज्यवाद से सांठगांठ करके मजदूरों के राज के खिलाफ हमलावर थे। वे ऐसे व्यक्ति थे जो मजदूर, किसानों के दुश्मन राजे-रजवाड़ों, जमींदारों को संरक्षण प्रदान करते थे। वे ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने भारत के विभाजन में ब्रिटिश साम्राज्यवाद और पाकिस्तान की मांग करने वाले सामंतों-जमींदारों और पूंजीपतियों से सांठगांठ की थी और कई लाख लोगों की मृत्यु व विस्थापन के कारण बने थे। 
    जवाहर लाल नेहरू को भले ही भारत का पूंजीपति वर्ग भुला दे परंतु भारत का मजदूर वर्ग हमेशा याद रखेगा। वैसे ही जैसे एक दुश्मन दूसरे दुश्मन को याद रखता है और जहां तक सवाल है मध्यम वर्ग का वह पहले नेहरू की प्रशंसा में गीता गाता था तब निन्दा का आनन्द लेगा। 

आपका नजरिया: नर्सरी टीचर ट्रेनिंग के नाम पर फर्जीवाड़ा
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
    पौड़ी जिले के कोटद्वार क्षेत्र में एनटीटी (नर्सरी टीचर ट्रेनिंग) के नाम पर एक महिला द्वारा फर्जीवाड़े करने का मामला प्रकाश में आया जिसमें कि महिला द्वारा कई छात्राओं व महिलाओं को एनटीटी का कोर्स करवाया जा रहा है और एनटीटी के फर्जी सर्टिफिकेट दिए जा रहे हैं, साथ ही कई छात्राओं से फीस लेकर बिना पेपर दिलाए ही प्रमाणपत्र बांटे जा रहे थे।
    कोटद्वार में लगभग 15 साल पहले अखिल भारतीय प्रेमदेवी शिक्षण प्रशिक्षण संस्थान कानपुर द्वारा एनटीटी कोर्स शुरू किया गया था लेकिन 2011-12 के बाद लगभग दो साल पहले संस्थान ने कोटद्वार में कोर्स करवाना बन्द कर दिया था। लेकन इसके बाद भी इसी संस्थान की पूर्व शिक्षिका अर्चना कण्डारी द्वारा फर्जी तरीके से व संस्थान की बन्द होने की बात को छुपाकर छात्राओं को प्रवेश दिलाया जाता रहा। बड़े ही चालाकी से पैसे देकर महिला ने क्लासें चलाने के लिए स्थानीय आर्य कन्या इण्टर कालेज के चैकीदार को अपने साथ कर लिया जो महिला के कहने पर कालेज का गेट व क्लास रूम खोल देता जिससे कि छात्राओं को उसका फर्जी होने का अंदेशा तक नहीं हुआ, महिला द्वारा छात्राओं से 10-15 हजार तक की फीस ली जाती थी साथ ही प्रेक्टिकल का सामान व अन्य खर्चे अलग होते थे, महिला द्वारा अब तक लगभग 70 के करीब छात्राओं को फर्जी एनटीटी के प्रमाणपत्र बांटे जा चुके हैं। हद तो तब हो गई जब महिला द्वारा बिना पेपर सिर्फ फीस जमा करने पर ही प्रमाणपत्र बांटे जाने लगे। मामला तब प्रकाश में आया जब महिला द्वारा ऐसे ही दो छात्राओं अभिलाषा और श्वेता से कोर्स की फीस तो ले ली मगर जब भी इनके द्वारा क्लासों व पेपरों के बारे में पूछा जाता तो महिला बहाना बना कर टाल जाती जिससे कि छात्राओं का एक साल ऐसे ही बीत गया व प्रेक्टिकल के सामान में हजारों रुपये बर्बाद हुए। संस्था के हेड आफिस फोन करने पर पता चला कि संस्था दो वर्ष पूर्व ही बन्द हो चुकी है जिससे कि इस बात का खुलासा हुआ। परिवर्तनकामी छात्र संगठन के लगातार प्रयासों से छात्राएं-महिलाएं आगे आकर शिकायत करने को तैयार हुईं जिससे कि कोतवाली में लिखित शिकायत दर्ज की गई व पेपर में खबर पढ़कर अन्य छात्राओं द्वारा भी फर्जीवाड़े का शिकार होने की बात को लेकर पछास व प्रमएके के साथ मिलकर मामले की जांच को लेकर थाने व तहसील में शिकायत दर्ज की गई।  
             रंजना कोटद्वार

आपका नजरिया:  मोदी सरकार मजदूर विरोधी है।
श्रम कानूनों में पूंजी के हित में संशोधन की तैयारी
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
    केन्द्र सरकार श्रम कानूनों को पूंजीपतियों के हित में संशोधन करने की तैयारी में जुटी है। प्रधानमंत्री ने पीएमओ एवं श्रम मंत्रालय को श्रम कानूनों में संशोधन करने के लिए एक खाका खींचने को कहा है। वर्तमान में उद्योग क्षेत्र में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र काफी संकट के दौर से गुजर रहा है। इस संकट को दूर करने के लिए मजदूरों के अधिकारों एवं सुविधाओं में कटौती करने की योजना बनायी जा रही है। वर्तमान में श्रम कानून संविधान की समवर्ती सूची के अन्तर्गत आते हैं। समवर्ती सूची उन विषयों से सम्बन्धित है, जिन विषयों पर राज्य एवं केन्द्र दोनों को कानून बनाने का अधिकार होता है। जून के प्रथम सप्ताह में केन्द्रीय श्रम मंत्री ने फैक्टरीज एक्ट, 1948 की धारा 61 में प्रस्तावित 54 संशोधनों पर आम लोगों से टिप्पणियां आमंत्रित की थीं। फैक्टरीज एक्ट केन्द्रीय कानून है लेकिन इसे राज्य सरकारें लागू करती हैं। इन संशोधनों के मुताबिक फैक्टरी के मालिक को किसी भी विस्तार के लिए राज्य सरकार से अनुमति लेनी होगी। एक नए प्रावधान के तहत केन्द्र के पास कामगारों एवं कार्यस्थल पर सुरक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े अहम पहलुओं पर कानून बनाने का अधिकार होगा।
    राजस्थान की भाजपा सरकार ने श्रम कानूनों में सुधारों की शुरूआत कर दी है। भाजपा सरकार ने श्रम कानूनों को मजदूर विरोधी बनाने के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, कारखाना अधि. 1948 और ठेका मजदूर कानून, 1971 में व्यापक संशोधन का फैसला लिया है। दिल्ली मुम्बई फ्रेट एंड इंडिस्ट्रयल कोरिडोर का 39 फीसदी राजस्थान में पड़ता है। दरअसल विदेशी पूंजीपति निवेश करने में हिचकिचा रहे हैं। उनका मानना है कि मौजूदा कानून मजदूरों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं न कि निवेशकों का। औद्योगिक विवाद अधि. के नए संशोधनों के मुताबिक अब तीन सौ कर्मचारियों तक की छंटनी के लिए सरकार की अनुमति की जरूरत नहीं होगी। मौजूदा कानून में 100 कर्मचारियों तक की छंटनी के लिए सरकार की अनुमति नहीं लेनी पड़ती है। अब ठेका मजदूर कानून मौजूदा 20 श्रमिकों की तुलना में 50 श्रमिकों पर ही लागू होगा। संविधान के अनुच्छेद 254(2) के तहत राज्य को इस संबंध में कानून बनाने को केन्द्र की अनुमति लेनी होगी।
    वर्तमान में केन्द्र में भाजपा सरकार पूंजीपतियों के विकास के पहिये की रफ्तार को तेजी से आगे बढ़ाना चाहती है इसीलिए पिछले पांच-छः माह में रेल किराए में वृद्वि, रेल को पीपीपी के रास्ते पर ले जाना, चीनी के मूल्यों में वृद्वि श्रम कानूनों को लचीला बनाने जैसे फैसले लिए है जो गरीब मजदूर विरोधी हैं अतः इसका मुकाबला करने का समय आ चुका है।
              श्रीनिवास काशीपुर

सम्पादकीय
भारत और अमेरिका
 वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
      पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा बेहद फूहड़ ढंग से भारतीय मीडिया में चर्चा का विषय बनी। हालांकि इसके लिए मीडिया से ज्यादा स्वयं मोदी के तौर-तरीके और भाषा-शैली जिम्मेदार है।
नरेन्द्र मोदी का हालिया वर्षों का राजनैतिक उत्थान भारतीय किस्म का नहीं खालिस अमेरिकी किस्म का है। एकाधिकारी पूंजी के द्वारा अपने घृणित हितों के लिए पूर्ण धूर्त ढंग से की गयी योजनाबद्धता और प्रचार। इस पूंजी के तौर-तरीकों का विकास वैसे तो अमेरिका में पिछली सदी के शुरू से होेने लगा था। परन्तु भारत में यह एकदम हालिया परिघटना है और इसका जन्म और विकास नरेन्द्र मोदी के राजनैतिक उत्थान से एकदम गहराई से जुड़ा हुआ है।
यह आज एकदम जगजाहिर बात है कि गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव और हाल के आम चुनाव में नरेन्द्र मोदी के प्रचार को एक अमेरिकी कम्पनी के द्वारा संचालित किया गया। नरेन्द्र मोदी की पोशाक से लेकर उनके सारे लटकों-झटकों की पटकथा के पीछे एक ऐसी कम्पनी रही है जिसका सारा कारोबार ही यही है। इस बहुराष्ट्रीय कम्पनी के साथ दूसरी एक विशाल कम्पनी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ था। इस दूसरी कम्पनी ने अपना पूंजी निवेश एक हिन्दू राष्ट्र के लिए किया हुआ है।
नरेन्द्र मोदी के चुनाव को जिस ढंग से प्रायोजित व नियोजित किया था ठीक उसी ढंग से उनकी अमेरिकी यात्रा की हर चीज प्रायोजित-नियोजित और ‘बड़े परिणाम’ हासिल करने के लक्ष्य से संचालित थी। मेडिसन स्क्वायर का पूरा ड्रामा इतना ज्यादा प्रायोजित-नियोजित था कि मानो वह किसी देश के प्रधानमंत्री की सभा न होकर किसी राकस्टार का जलसा हो। उन्मादी भीड़ जिस ढंग से उत्तेजक डांस पर अपना आपा खो बैठती है वैसी ही स्थिति मोदी के जुमलों पर अमेरिका में बसे इन अमीर भारतीयों की थी।
नरेन्द्र मोदी और साथ ही उनके प्रशंसकों की यह कुण्ठा रही है कि उन्हें अमेरिका में लम्बे समय तक नहीं आने दिया गया है। अमेरिकी साम्राज्यवादी जो आकण्ठ मानवविरोधी अपराधों में लिप्त रहे हैं वे मोदी को अमेरिका नहीं आने दे रहे थे। 2002 के गुजरात नरसंहार के आरोपी को ऐसे लोग रोक रहे थे जिनके द्वारा अब तक अनगिनत नरसंहार किये जा चुके हैं। रोज ही इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, फिलीस्तीन में वे निर्दोष लोगों की हत्या कर रहे हैं। मोदी जी के प्रधानमंत्री बनते ही अमेरिका के कानूनों से उन्हें वैसे ही संरक्षण प्राप्त हो गया जैसे जार्ज बुश, क्लिंटन व ओबामा को प्राप्त है। रोज नरसंहार आयोजित करने वालों ने गुजरात के नरसंहार के आरोपी को अभयदान प्रदान कर दिया। वैसे भी दुनिया के तमाम तानाशाह उसके संरक्षण में पले-बढ़े हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिकी यात्रा का मकसद जितना बाहरी था उससे अधिक आंतरिक था। अन्यथा मोदी की यात्रा का इतना लाइव प्रसारण न हुआ होता। मोदी जी जानते थे कि वे संयुक्त राष्ट्र संघ में जो सम्बोधन कर रहे हैं वह वहां के लिए नहीं बल्कि हिंदोस्तां में अपनी छवि चमकाने के लिए है। असल में मोदी अमेरिका में वह उपलब्धि हासिल नहीं कर सके जो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमेरिका-भारत परमाणु समझौते के बाद अमेरिका में हासिल की थी। उन्होंने अमेरिकी संसद के संयुक्त अधिवेशन को सम्बोधित किया था। हां! एक अमेरिकी अखबार की बेवसाइट में छपे ओबामा-मोदी के संयुक्त लेख को भारत में बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया गया। आजकल ऐसे लेखों का चलन आम हो गया है।
स.रा. अमेरिका और भारत के संबंधों में नई आर्थिक नीतियों के अपनाये जाने के बाद से ‘प्रगाढ़ता’ आयी है। और इसका जो भी अर्थ भारतीय मीडिया में लगाया जाता हो सही शब्दों में इसका अर्थ है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद की भारत में जकड़बंदी पहले से कई गुना बढ़ गयी है। सम्पूर्ण भारतीय व्यवस्था आज अमेरिकी साम्राज्यवाद के हितों को अपने हितों के रूप में खुले-छिपे तौर पर स्थापित करने की आदी हो चुकी है। गूगल, माइक्रोसाॅफ्ट, पेप्सी, कोक जैसी सैैकड़ों अमेरिकी कम्पनियां भारतीय समाज में अंदर तक पैठ चुकी हैं। भारतीय सेना के अमेरिकी सेना के साथ आये दिन होने वाले सैन्य अभ्यास के जरिये भारत की सेना को अमेरिकी सेना के तौर-तरीकों के अनुरूप ढाला जा रहा है। अमेरिकी सेना आज भारत के सैन्य ठिकानों, हथियारों, क्षमता से गहराई से परिचित हो चुकी है।
भारतीय शासकों के प्रयासों से अमेरिकी साम्राज्यवाद के बारे में भारतीय जनमानस में वैसी घृणा भी नहीं बची है जैसी कभी सत्तर-अस्सी के दशक में होती थी। मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों के लिए अमेरिका उनके सपनों का देश है यद्यपि वहां जाने पर इन्हें भले ही नस्लभेद, रंगभेद का शिकार होना पड़ता हो। भारत का शासक वर्ग जितना पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन जैसे पड़ौसी देशों के खिलाफ विष घोलता है अमेरिका की बात आने पर प्रशंसा के भाव में डूब जाता है। भले ही भारत के रक्षामंत्री की जामा-तलाशी वहां के अदने से अधिकारी ले लें।

भारतीय पूंजीवादी शासकों की ऐसी ही नियति है कि वे अब साम्राज्यवाद के सामने वह ढंग व तेवर अपना ही नहीं सकते जो एक आत्मनिर्भर, स्वाभिमान देश को अपनाने चाहिए। ये तो निवेश, तकनीक, पूंजी की जरूरत के लिए ‘मेक इन इण्डिया’ जैसे जुमले ही उछाल सकते हैं। ये अपने दम पर अपने देश का विकास करने का माद्दा रख ही नहीं सकते क्योंकि इनका जितना ज्यादा जुड़ाव अमेरिका, जापान से है उससे कहीं ज्यादा अलगाव भारत के मजदूरों-किसानों से है। ये अपने देश की प्राकृतिक संपदा, बाजार और श्रम शक्ति की नीलामी ही कभी जापान, कभी अमेरिका और कभी जर्मनी में कर सकते हैं। इनके वश का नहीं है कि ये एक आत्मनिर्भर, स्वतंत्र, ‘श्रेष्ठ’ भारत का निर्माण कर सकें। यह सारा काम भारत के मजदूरों का है वही कर सकता है। अपनी बारी आने पर वह ऐसा करेगा भी। परन्तु तब भारत में पूंजीवाद नहीं समाजवाद होगा। पूंजी का नहीं मजदूरों का राज होगा।

आपका नजरिया
मोदी जी पब्लिक है सब जानती है 
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
नरेन्द्र मोदी ने सी.एन.एन. के लिये फरिद जकारिया को दिये गये साक्षात्कार में कहा है कि ‘‘भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति पर सवाल उठाये नहीं जा सकते। भारतीय मुस्लिम भारत के लिए जीते हैं और भारत के लिए ही मरते हैं’’। मोदी का यह शब्द सुनने में काफी अच्छा लगता है और मोदी के असली चेहरे को नहीं जानने वाला उनका युवा मतदाता उन्हें एक धर्मनिरपेक्ष नेता भी मानने लगता है। इस युवा वर्ग का जिक्र मोदी हमेशा पूंजीपति वर्ग को लुभाने के लिए करते रहे हैं। मोदी 2002 के गुजरात जनसंहार में साम्प्रदायिकता के लगे धब्बे को लगातार छुड़ाने की कोशिश करते रहे हैं। 2014 के चुनाव अभियान हो या लाल किले के प्राचीर से मोदी का साम्प्रदायिकता के खिलाफ की गई अपील या सी.एन.एन. को दिया गया साक्षात्कार मोदी को अपने ऊपर लगे धब्बे को छुपाने का असफल प्रयास है।
मोदी के मुख्यमंत्री काल में 2002 के जनसंहार को एक बार भुला भी दिया जाये (जिसके कारण ही उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी मिली) और मोदी जी को एक नया मोदी मान कर भी सोचा जाये तो यह हमारे दिल में कहां तक उतरता है कि वे एक धर्म विशेष के साथ भेद-भाव नहीं करते। चुनावी भाषणों को छोड़ भी दिया जाये (जहां वोट लेने के लिए वादे झूठे ही किये जाते हैं) तो प्रधानमंत्री के रूप में लाल किले के प्राचीर से दिये गये भाषण की ‘हम बहुत लड़-कट लिये, मार दिया और किसी को कुछ नहीं मिला। जातिवाद, सम्प्रदायवाद देश के विकास में रुकावट है।’ प्रधानमंत्री के रूप में मोदी का देश से जातिवाद, साम्प्रदायिकता के खिलाफ 10 साल के लिए स्थगित तय करने की अपील के चार दिन बाद ही उन्हीं के सरकार का गृह मंत्रालय मुजफ्फरनगर दंगे के जिम्मेदार भाजपा विधायक को जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा मुहैय्या कराने की बात कहती है। क्या इससे सम्प्रदायिक शक्तियों को बढ़ावा नहीं मिलता है?
चुनाव प्रचार के समय भाजपा सांसद गिरिराज सिंह के पाकिस्तान भेजने वाली बात को अगर छोड़ भी दिया जाये तो मोदी सरकार के भाजपा सांसद साक्षी महाराज का वह बयान कि ‘‘मदरसों में आतंकवाद की शिक्षा दी जाती है’’ को कैसे भुलाया जा सकता है। सांसद योगी आदित्यनाथ जो कि मोदी सरकार में उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी थे चुनाव प्रचार के दौरान कहा कि जहां 10 प्रतिशत से अधिक मुसलमान हैं वहीं सम्प्रदायिक झगड़े हो रहे हैं इसके साथ ही उन्होंने प्रचार के दौरान ‘लव जेहाद’ के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया और कहा कि ‘लव जेहाद’ के लिए आई.एस.आई. पैसा दे रहा है। क्या यह साम्प्रदायिकता नहीं है?
बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने आतंकवाद और बम बनाने में धन जुटाने के लिये ‘पिंक रेवल्युशन’ (गौ हत्या) की बात कर एक सम्प्रदाय विशेष पर निशाना साधा। इन्दौर की भाजपा विधायक उषा ठाकुर द्वारा यह कहना कि प्रति वर्ष 4.5 लाख हिन्दू लड़कियों का धर्म परिवर्तन किया जाता है और पर्चे-पोस्टर के माध्यम से हिन्दूवादी संगठनों को आगाह करना कि दशहरे के दौरान गरबा नृत्य में गैर हिन्दू लोगों को नहीं आने दिया जाये। आने वाले लोगों की पहचान पत्र देख करके ही पंडाल के अन्दर प्रवेश दिया जाये। क्या इससे देश में साम्प्रदायिकता का जहर नहीं फैलता है?
उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रो. जवाहरलाल कौल के बयान वापसी को लेकर बजरंग दल व विश्व हिन्दू परिषद (जो आपके सहयोगी हैं) के 35-40 कार्यकर्ताओं (गुण्डे) द्वारा पुलिस की मौजूदगी में उपकुलपति पर हमले किये गये और विश्वविद्यालय में तोड़-फोड़ किया गया। इस घटनाक्रम को बीजेपी शासित प्रदेश की पुलिस मूक दर्शक बन कर देखती रही। प्रो. कौल का मात्र यह ‘दोष’ था कि उन्होंने कश्मीर में आई विपदा के लिए मकान मालिकों से अनुरोध किया था कि कश्मीरी छात्रों के साथ मकान मालिक कुछ महीनों के लिए किराये में रियायत दें और इस विपदा में सहयोग करते हुए तत्काल किराये देने के लिए बाध्य न करें। अपने स्टाफों से बाढ़ पीडि़तों के लिए राहत सामग्री जुटाने के लिए अपील की। इस तरह का दोष मोदी जी आपने भी कश्मीर जाकर किया लेकिन आपको तो इसके लिए वाह-वाही मिली। यह आपका कैसा शासन है जहां एक ही तरह के काम के लिए एक को दफनाने के लिए ‘लोग’ उतारू हो जाते हैं तो दूसरो को ‘दिलों’ में बसाया जाता है।

यह सभी घटनाएं मोदी जी आपके द्वारा लाल किले के प्राचीर से किये गये अपील के बाद हुई हैं लेकिन आपने इस किसी भी घटना पर अपना मुंह खोलना वाजिब नहीं समझा। आप तो इस देश के ‘प्रधान सेवक’ हैं और जब आप इन सारी घटनाओं पर चुप रहते हैं तो यह कैसे मान लिया जाये कि आप 2002 वाले मोदी नहीं हैं? आप के मौन व्रत से साम्प्रदायिक शक्तियों के द्वारा समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष को बढ़ावा देने का मौका नहीं मिल रहा है? यह कैसे मान लिया जाये कि आप के मन में एक विशेष समुदाय के प्रति नफरत नहीं रह गई है? अगर आप दिल से भी ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात करें तो आप नहीं कर सकते हैं। आप की पितामह संस्थाएं इसलिए आपको ‘प्रधान सेवक’ बनाया है कि आप एक विशेष समुदाय व विशेष वर्ग की ही सेवा कर सकें। यही कारण है कि आप के मातहत नेता आपके अपीलों का नजरअंदाज करते हुए जो चाहते हैं वह कहते हैं और आप उसको मौन स्वीकृति के रूप में स्वीकार करते हैं। मोदी जी आपके वायदे, अपील व साक्षात्कार को जनता आत्मसात कर पायेगी? यह पब्लिक है सब जानती है। सुनील कुमार, दिल्ली

ग़ज़ल
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)

वो हंसी है कहां, वो खुशी है कहां।
पहले जीते थे जो जिंदगी है कहां।।

अपने हालात से सब ही मजबूर हैं
अब किसी आदमी में भी खुदी है कहां।

वो जो सीता में, राधा में, मरियम में थी
नारियों में वो अब सादगी है कहां।

जो भी है, वो खिलौना तेरे हाथा का
तेरी महफिल में अब आदमी है कहां।

तेरी जुल्फों ने चेहरा तेरा ढंक लिया
चांद जब छुप गया, चांदनी है कहां।

यूं संवरने को सब कुछ संवर जायेगा
सोचिये जिंदगी में कमी है कहां।

 देखिये खुद ही ‘कैलाश’ इस दौर में
 दुश्मनी हर जगह, दोस्ती है कहां।
डा. कैलाश निगम 
4/522, विवेेक खण्ड

गोमती नगर, लखनऊ 226010


सम्पादकीय
‘मेक इन इण्डिया’
वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)
भारत के नये प्रधानमंत्री की कई खूबियां हैं परन्तु एक खूबी यह है कि वे एक से बढ़कर एक जुमले उछालते हैं। साथ ही प्रचलित शब्दों या वाक्यों के नये अर्थ भरने के लिए सस्ती तुकबंदी करते हैं। वह ऐसा क्यों करते हैं ऐसा तो वे ही जानें। परन्तु इस बात का एक गहरा अर्थ यह है कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का यह स्कूली किताबी तरीका अपने आप में हमारे प्रधानमंत्री और शासक वर्ग की ज्ञान और विचार की सीमा को उजागर कर देता है।
‘मेक इन इण्डिया’ का उनका नया नारा अपने आप में एक ऐसा जुमला है जिससे किंचित यह भाव पैदा होता है मानो भारत का प्रधानमंत्री राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता और गौरव को बढ़ाना चाहता है। परन्तु थोड़ा सा गौर करने पर ही कोई भी समझ सकता है कि यह ‘मेड इन इण्डिया’ नहीं ‘मेक इन इण्डिया’ है। यानी यह साम्राज्यवाद से शोषित-उत्पीडि़त देश के छोटे-बड़े उत्पादकों को राज्य द्वारा संरक्षण, प्रोत्साहन नहीं है। यह परनिर्भरता के स्थान पर स्वदेश का अपने बलबूते बढ़ाने का नारा नहीं है। यह किसी नये स्वाधीन तीसरे देश का नारा नहीं है। यह लगभग दो दशकों से आर्थिक सुधार करने वाले घोर जनविरोधी सरकार का नारा है। यह शब्दों को छलपूर्ण ढंग से ऐसा गढ़ता है कि भाव तो कुछ और निकले परन्तु काम कुछ और हो। भाव तो आत्मनिर्भरता का निकले परन्तु काम विदेशी पूंजी की आवश्यकताओं की पूर्ति का करे।
‘मेक इन इण्डिया’ जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी आदि, आदि साम्राज्यवादी देशों के पूंजीपतियों का आह्वान है कि वे भारत में आकर निवेश करें और कारखाने लगाये। और यदि वे भारत में आकर निवेश और वस्तुओं का निर्माण करते हैं तो भारत की नयी सरकार उनकी हर तरह से मदद करेगी। साम्राज्यवादी देशों की पूंजी की हर तरह से सहायता करेगी। संरक्षण देगी और उसके मुनाफे की गारण्टी करेगी। और इसमें कोई भी बाधा बनकर खड़ा होगा उसे मिटा देगी।
‘मेक इन इण्डिया’ के नारे के जरिये मोदी सरकार साम्राज्यवादी देशों को यह संदेश देना चाहती है कि अब उसने भारत में उनके पूंजी निवेश और मुनाफे के रास्ते में जितनी भी अड़चनें भारतीय कानून, नौकरशाही आदि के जरिये थीं उन्हें हटा डाला है। और यदि विदेशी निवेशक ‘भारत आयेंगे तो उन्हें सारा माहौल बदला हुआ’ मिलेगा। उन्हें ऐसी किन्हीं बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ेगा जो पूर्व सरकार के समय थी। चुस्त-दुरूस्त प्रधानमंत्री जो पूरी सरकार को नियंत्रण में रखकर हर उस बाधा को जो साम्राज्यवादी पूंजी के मुनाफे कमाने में आड़े आये स्वयं हटाने के लिए कृत संकल्प है।
‘मेक इन इण्डिया’ का अर्थ है तेज गति से आर्थिक सुधार। बीमा, बैंक, रक्षा क्षेत्र आदि में पूंजी निवेश के लिए सरकार ने कई कदम अपने पहले सौ दिन के दौरान उठा भी दिये हैं। ऐसे ही कदम और तेजी से वह आने वाले दिन में उठायेगी। सरकार ने ऐसे कई नये संशोधन संसद में पेश कर दिये हैं जो आर्थिक सुधार को तीव्र गति से आगे बढ़ायें।
‘मेक इन इण्डिया’ का अर्थ है भारत के प्राकृतिक संसाधनों का पूंजी अपने हिसाब से दोहन करे। सरकार का वायदा है कि वह इस रास्ते में जो भी आयेगा उसे निर्ममतापूर्वक रास्ते से हटा देगी।
‘मेक इन इण्डिया’ का जो अर्थ सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और गहराई तक चोट करने वाला है, वह हैः ‘भारत में आओ, भारत में आकर भारत के सस्ते और कुशल मजदूरों के शोषण से अकूत मुनाफा कमाओ’। इस दिशा में भारत की नयी सरकार श्रम कानूनों में संशोधनों की एक लम्बी सूची बना चुकी है। भारत के मजदूरों के निर्मम शोषण के इस नारे को भारतीय समाज में स्थापित करने के लिए मोदी सरकार ने करोड़ों रुपये मात्र विज्ञापनों पर ही फूंक डाले हैं।
‘मेक इन इण्डिया’ नारे को लेकर भाजपायी और कांग्रेसियों के बीच झगड़ा भी चल रहा है। कांग्रेसियों का आरोप है कि यह नारा उनका दिया हुआ है जिसे मोदी ने चुरा लिया है और मोदी ऐसे इस बात को पेश कर रहे हैं मानो यह उनकी कोई नायाब खोज हो। इसमें सच्चाई का अंश हो या न हो यह पिछले बीस वर्षों में एकदम स्थापित हो चुका है कि मूल आर्थिक नीतियों में भारत की संसद में बैठी पार्टियों में कोई मूलभूत अंतर नहीं है। कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, भाकपा-माकपा वस्तुतः सब भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के खिलाफ देशी-विदेशी पूंजी के साथ खड़े हैं। ऐसे में इससे क्या फर्क पड़ता है कि नारा किसने दिया और उसे कौन लगा रहा है।
‘मेक इन इण्डिया’ नारा सिर्फ विदेशी पूंजीपतियों के लिए नहीं भारत के महान पूंजीपतियों के लिए भी है। ये महान पूंजीपति वे हैं जो भारत के मजदूरों और प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर भीमकाय हो गये हैं। वे भारत ही नहीं यूरोप और अफ्रीका तक में अपनी पूंजी का निवेश इस कारण से कर रहे हैं कि वहां उन्हें भारत से ज्यादा और तेजी से मुनाफा हासिल होता है और इसमें वहां की सरकारें उनकी भरपूर मदद करती हैं। परन्तु स्वदेश में उन्हें कानूनों, लालफीताशाही, गठबंधन के दबाव में अड़ी-जकड़ी सरकार आदि का सामना करना पड़ता है। नरेन्द्र मोदी की सरकार ‘मेक इन इण्डिया’ के बहाने उन्हें संदेश देना चाहती है कि ‘वह सब कुछ उन्हें मिलेगा जो उन्हें चाहिए’। सरकार उनकी हर मांग को पूरा करेगी। और वास्तव में मोदी सरकार अपनी पूर्व सरकार से कहीं ज्यादा तत्परता और तीव्रता से इस काम को पूरा कर रही है। वे चाहते हैं कि ये महान पूंजीपति भारत में अपना निवेश और बढ़ायें और स्वदेश के पुण्य के भागीदार बनें।
‘मेक इन इण्डिया’ का नारा स्वदेशी के नारे लगाने वाले की आत्मा को भी तुष्ट करता है। और बाबा रामदेव जैसे ठग इस नारे के साथ खूब ताल मिला सकते हैं। महान राष्ट्रवादी सरकार के कायम हो जाने से अब उन्हें अपने स्वदेशीकरण और काले धन को वापस लाने जैसी मांगों को उठाने की अब जरूरत बची भी नहीं है। विदेशी कम्पनी के खिलाफ अपने प्यारे मोदी के राज में इस जैसे ठग को बोलने की कोई आवश्यकता भी नहीं है।
        ‘मेक इन इण्डिया’ की तरह नरेन्द्र मोदी ने एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) के शब्दों में नया अर्थ भरने की आंखों में धूल झोंकने वाली कोशिश की है। उनके अनुसार फारेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट के साथ इसका अर्थ ‘फस्र्ट डेवलपमेंट आफ इण्डिया’ भी होना चाहिए। यह भारत की जनता को यह पाठ पढ़ाना है कि विदेशी पूंजी भारत का विकास करेगी। ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ ने भारत का विकास कैसे और कितना किया था यह भारत की जनता अभी नहीं भूली है। अपने शासन के दौरान इस कम्पनी ने भारत की उत्पादन प्रणाली को पूरी तरह से नष्ट करके भयानक युद्धों व अकाल को जन्म दिया था। और इस दुष्ट कम्पनी के शासन का जबाव भारत की जनता ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के जरिये दिया था। 1947 में भारत को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति महान कुर्बानियों के बाद ही मिली थी। अफसोस बात कि इस आजाद की लड़ाई में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भूमिका नकारात्मक थी। वे आतताई अंग्रेजों के तलुवे सहला रहे थे। और आज ‘मेक इन इण्डिया’ जैसे जुमले उछालकर मोदी जी उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं।

आपका नजरिया
साफ सुथरा कानून-डा. कौशल किशोर श्रीवास्तव
वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)
मेरी लड़की ने पुणे से बहुत उत्तेजना में पूछा कि पापा आपने आज दूरदर्शन देखा कि नहीं? मैंने जवाब दिया कि हां, आज अकबर की जोधा के प्रति गलतफहमी दूर हो गई, सास बहू से नाराज हो रही थी, भगवान कृष्ण ने द्रोपदी का चीर इतना बढ़ाया कि दुस्साशन चीरहरण करते-करते थक गया, भगवान गणेश चूहों के साथ खेल रहे थे, सब टी.वी. में चन्द्रमुखी चौटाला पुरुष कान्सटेबलों को मारती रहती है तब भी वे उसकी शिकायत आई.जी. से नहीं करते और बीच में ढे़रों विज्ञापन। मैंने सोचा कि इतनी सूचना पाकर मेरी लड़की कहेगी शाबास डैडी आप इक्यावन इंच टी.वी. को खूब निचोड़ रहे हैं। पर वह नाराज हो गई बोली ‘‘समाचार देखा कि नहीं’’?
मैंने कहा ‘‘कल अखबार में पढ़ लेंगे’’। तो वह उत्साह से बोली, ‘‘अरे! नहीं सरकार ने कानून बनाया है कि सड़क पर गंदगी करने वालों पर रु. 100 जुर्माना होगा’’। ‘‘और जो जुर्माना नहीं देगा तो’’? मैंने पूछा। लड़की बोली, ‘‘तब उसे एक महीने की जेल हो जायेगी। ये तो जनकल्याणकारी कानून है?’’ मैंनेे कहा। वह बोली ‘‘हां है ही। अब नगर साफ सुथरे रहेंगे’’। मैंने कहा, ‘‘नहीं, अब लोग भूखे नहीं रहेंगे। कहीं-कहीं तो पूरा परिवार ही गंदगी करेगा जिससे कि जेल भेज दिया जाये। फिर अपने कानूनों के क्या कहने? लोग कहेंगे मैंने आधा गंदा किया है अतः पचास रुपये दूंगा।’’
लड़की ने उसकी तरफ लगता है कि मुंह बिचकाया होगा बोली ‘‘छिः छिः आप हमेशा गंदी बातें करते हो। ‘‘मैंने कहा ‘‘अच्छा गंदी बातें नहीं करता। कुछ लोग कहेंगे कि हुजूर मैं गंदगी करने वाला ही था कि पकड़ लिया गया। जहां मैं गंदगी करने बैठा वहां पहले से गंदगी पड़ी हुई थी। मैं जैसे ही कुछ करने को हुआ कि धर लिया गया। मैं फिर आगे बोला लो मैंने गंदगी तो नहीं की, करने ही वाला था।’’
वह सम्भवतः रूठ कर बोली ‘‘प्लीज पापा ठीक है’’। मैं अब दूसरा पहलू बतलाता हूँ। मैं बोला थाने में फोन आयेंगे कि दरोगा तुमने जिसे गंदगी के झूठे अपराध में पकड़ा है वह सफाई मंत्री का साला है उसे छोड़ देवें मंत्री के रिश्तेदार कानून से ऊपर रहते हैं उन पर कानून लागू नहीं होते। दरोगा धेबिया कर कहेगा, ‘‘सर, हूजूर वह पहले भी इसी अपराध से पकड़ा गया है। उसे छोड़ने पर कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ जायेगी। साफ आदमी पार्टी वैसे भी आपके साले की वजह से नगर बंद करने वाली है।’’
बिटिया की आँखें सम्भवतः आतंक से फैल गई होंगी। उसने पूछा ‘‘अब कानून लागू कैसे होगा’’? मैंने जवाब दिया, ‘‘हमारा स्वच्छ नगर इस कानून के लागू होने के बाद भी वैसा ही गंदा रहेगा जैसा कि वह पहले था। हमारी जिंदगी में खुशी आती नहीं है उसका आभास भर आता है। वहीं दूसरी तरफ पुलिस निरपराध लोगों को यह कह कर जेल में डालती रहेगी कि वे गंदगी करने का षड्यंत्र रच रहे थे और जो शहर का माहौल गंदा करेंगे वे कानून की पकड़ से बाहर ही रहेंगे और माहौल गंदा करते रहेंगे।’’

मेरी बिटिया ने फोन पर कहा ‘‘पापा आप कुछ करते क्यों नहीं? मैंने जवाब दिया ‘‘मैं कुछ करूंगा तो धर लिया जाऊंगा। आज कल कुछ करने से कुछ न करना सबसे अच्छा है।”

गजल
पसीना भाल का चंदन बनाना है,
श्रमिक के वास्ते नंदन सजाना है।

दहकती आग मन की कम नहीं होगी,
ठिठुरती हड्डियों का गन बनाना है।

भीगी आंख में अंगार सुलगाकर,
नया इतिहास शोले से रचाना है।

समय के ठहरने का युग नहीं आता,
सटकते मोर को कुन्दन बनाना है।

दमन के काफिले बढ़ते चले जाते,
चमन में आदमीयत को उगाना है।

किसी भी जंग में पीछे न लौटेंगे,
हमें जल्दी नया सूरज उगाना है।

खोने को हमारी सिर्फ झुग्गी है,
पाने को जमीं भर का जमाना हैः
मदन मोहन उपेन्द्र, सम्पादक सम्यक,
आवास विकास कालोनी
सिकन्दरा, आगरा



सम्पादकीय
कांग्रेस का संकट 
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
  आम चुनाव के परिणामों के बाद अगर देश में किसी संकट की सबसे ज्यादा चर्चा है तो वह है कांग्रेस का संकट। कांग्रेस का संकट वस्तुतः क्या है?
कांग्रेस पार्टी की इन चुनावों में इतनी दुर्गति होगी इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। जिस प्रकार भारतीय जनता पार्टी की बड़ी सफलता की कल्पना नहीं की गयी थी। कांग्रेस की दुर्गति और भाजपा की सफलता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और यह सिक्का भारत के बड़े एकाधिकारी पूंजीपति का है। इस लिहाज से कांग्रेस का संकट वस्तुतः उतना कांग्रेस का नहीं है जितना भारत के एकाधिकारी पूंजीपति का है कि वह अपनी इस अति विश्वस्त पार्टी का क्या भविष्य देखता है? वह इस पार्टी का पूर्णतः परित्याग करना चाहता है या फिर ऐसी कोई व्यवस्था करना चाहता है कि जब जरूरत पड़े तब इसका इस्तेमाल कर सके।
भारत के एकाधिकारी पूंजीपति सहित पूरे पूंजीपति वर्ग के दृष्टिकोण से देखा जाए तो जाहिर है कि पहली नहीं दूसरी बात ठीक है। वह कभी नहीं चाहेगा कि कांगे्रस का त्रासद अंत हो। यह बात कांग्रेस पार्टी के संचालकों के हितों से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है।
कांग्रेस पार्टी को भारत का पूंजीपति वर्ग अपने आम हितों के मद्देनजर भारत की राजनैतिक व्यवस्था का वैसा ही अभिन्न अंग बनाये रखना चाहेगा जैसा संयुक्त राज्य अमेरिका में रिपब्लिकन या ब्रिटेन में कंजरवेटिव पार्टी का है। पूंजीवादी चिंतकों द्वारा भारत में दो पार्टी व्यवस्था की मांग दशकों से की जाती रही है। पूंजीपति वर्ग के इस दो पार्टी व्यवस्था की योजना में कांग्रेस का स्थान केन्द्रीय रहा है। और ऐसी केन्द्रीय भूमिका वाली पार्टी की स्थिति अपनी आवश्यकतानुसार पहली और दूसरी रखी जा सकती है परन्तु समाप्त नहीं की जा सकती है।
इस लिहाज से देखा जाए तो कांग्रेस पार्टी का ‘रेस्क्यू’ सिर्फ कांग्रेस का कार्यभार नहीं है बल्कि वह भारत के पूरे पूंजीपति वर्ग का कार्य है। उसकी वर्तमान और भविष्य की जरूरत है। और ऐसे में मोदी, भाजपा व संघ का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का लक्ष्य स्वयं भारत के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के वर्तमान और भविष्य के हितों से मेल नहीं खाता है। दूसरे शब्दों में स्वयं भाजपा, संघ आदि के लिए यह एक राजनैतिक जुमलेबाजी है बगैर विरोधी के वह राजनैतिक अखाड़े में नूराकुश्ती भला किससे करेगी। कुश्ती असली हो अथवा नकली उसमें विरोधी तो चाहिए ही।
यह बात ठीक है कि भाजपा व संघ की असली चाहत भारत को अपनी हिंदुत्व विचारधारा के आधार पर एक हिन्दू फासिस्ट देश बनाने की है। इस  देश की उसकी योजना को जब तक भारत के एकाधिकारी पूंजीवादी घरानों का पूर्ण वरदहस्त नहीं प्राप्त होगा तब तक यह फलीभूत नहीं हो सकती है। इस बार के चुनाव में संघ और एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के गठजोड़ की शुरूवात हुयी है। और भविष्य में हो सकता है कि भारत के पंूजीवादी समाज के गहरे संकट में फंसने की स्थिति में संघ के फासिस्ट हिन्दू राज्य को वह वैसे ही स्वीकार कर ले जैसे जर्मनी में तीस के दशक में जर्मनी के एकाधिकारी घरानों ने नाजी पार्टी और हिटलर को स्वीकार कर लिया था। ऐसी स्थिति में, वास्तव में कांग्रेस पार्टी का अस्तित्व हमेशा के लिए समाप्त हो सकता है। तब कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं बचेगा।
हालांकि यह कोई आवश्यक नहीं है कि भारत का एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग गहरे संकट के समय धार्मिक फासीवादी राज्य को ही अपनाये। वह गैर धार्मिक फासीवादी राज्यों के इतिहास से भी भली-भांति परिचित है। सैन्य तानाशाही, यह एक विकल्प है जिसका बंदोबस्त स्वयं भारतीय संविधान में ‘मार्शल लाॅ’ के रूप में मौजूद है। इंदिरा गांधी का आपातकाल फासीवादी राज्य का एक ऐसा नमूना रहा है जो संकट के समय कभी भी अपनाया जा सकता है। सिविल तानाशाही का अनुभव देश इंदिरा गांधी के शासनकाल में कर ही चुका है। संकटपूर्ण स्थिति में सीमित संयम वाली सिविल तानाशाही भारतीय समाज के ताने-बाने को देखते हुए एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के लिए ज्यादा फायदेमंद होगी। तो तब वह कांग्रेस पार्टी का उपयोग कर सकता है। और किसी अन्य इंदिरा का इस्तेमाल कर सकता है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो कांग्रेस पार्टी का अतीत ही नहीं बल्कि भविष्य भी भारत के पूंजीपति वर्ग खासकर एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के हितों के साथ नाभिनालबद्ध है। इन अर्थोें में देखा जाए तो पूंजीपति वर्ग कांग्रेस को अपने कोल्ड स्टोरेज में तो रख सकता है परन्तु कूड़े में नहीं फेंक सकता है।
कांग्रेस के संकट का प्रधान पहलू यह है कि उसे अपने नेतृत्व व संगठन के द्वारा जनता के बीच पुनः ऐसी साख हासिल करनी होगी कि वह भारत के पूंजीपति वर्ग के हितों की सुरक्षा कर सके। ऐसी साख कांग्रेस एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के आशीर्वाद के बगैर हासिल नहीं कर सकती है। और सच यह है कि जिस तरह से पूंजीवादी मीडिया व थिंक टैंकों में विचार-विमर्श चल रहा है उसका निहितार्थ है कि नूराकुश्ती के इस माहिर पहलवान को पुनः रिंग में प्रवेश कराया जाये। अब तक उसकी जो पिटाई की गयी, उसकी लानत-मलामत की गयी उसकी भरपाई की जाये, उसकी साख पुनः बनायी जाए। उसके द्वारा पूंजीपति वर्ग की, की गयी महती सेवा को न भुलाया जाये। अस्तु कांग्रेस का तथाकथित संकट शीघ्र हल किया जाए। परन्तु साख को हासिल करने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व व कार्यकर्ताओं को मेहनत करनी पड़ेगी। यह मेहनत पूंजीपति वर्ग तो करेगा नहीं। इसका ही आह्वान आजकल किया जा रहा है।
कांग्रेस का संकट नेतृत्व का संकट नहीं है। नेतृत्व तो वहां पीढ़ी दर पीढ़ी स्थापित ही है। कांग्रेसियों में चुनावी हार से उपजी निराशा-हताशा वस्तुतः तब ही दूर होगी जब वह पुनः सत्ता में वापस आ जाये। ऐसा तो कम से कम 2019 या 2024 में ही हो सकता है। क्योंकि जब ठीक दस साल के लिए उसे शासन सौंपा जा चुका है तो अब कम से कम दस साल उसे इंतजार भी करना चाहिए। नरेन्द्र मोदी पूंजीपतियों की मंशा को यह कहकर व्यक्त करते हैं जब वह 2024 की बातें बच्चों अथवा बड़ों से करते हैं। ऐसी सूरत में कांग्रेस पार्टी को दस साल प्रतीक्षा करनी होगी। दस साल का लम्बा वक्त कांग्रेसियों का तब कैसा कटेगा। वह वैसा ही कटेगा जैसा भाजपाइयों का कटा था। यानी कुछ राज्यों में सरकारें और पूंजीवादी राजनैतिक पार्टी होने के अन्य फायदे। एक दूसरे के टांग खींचते हुए गाली-गलौच, रूठने-मनाने आदि में दस साल कब बीत जायेंगे यह पता ही नहीं लगेगा।

भारत के मजदूर और अन्य मेहनतकशों को यह ध्यान रखना होगा कि चुनाव भारत के पूंजीपति वर्ग के द्वारा समय-समय पर आयोजित होने वाली नूराकुश्ती ही है। इस अखाडे़ में पेश होने वाले पहलवान पूंजीपति वर्ग के द्वारा पाले-पोसे हैं। यह बात जितनी भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, भाकपा, आदि-आदि पर लागू होती है उतनी ही उसके द्वारा पेश की जाने वाली महान विभूतियों गांधी, अम्बेडकर, जय प्रकाश नारायण आदि पर लागू होती है। रही बात अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल जैसे व्यक्तियों की तो वह इस नूराकुश्ती में मनोरंजन करने के लिए समय-समय पर पेश किये जाते रहेंगे। वैसे भी जोकरों की उम्र लम्बी नहीं होती।  

आपका नजरिया
योजना आयोग के 17.5 लाख के दो पैखानों का क्या होगा ? 
बहुत कम समय पहले की बात है भारत देश में एक प्रधानमंत्री हुआ करता था। उसका नाम था मनमोहन सिंह। उससे पहले वह वित्तमंत्री भी रह चुका था। उसके पास डिग्रियों का अंबार था। प्रधानमंत्री होने के बावजूद उसमें घमंड बिल्कुल नहीं था। ज्ञानी और अक्लमंद लोगों की तरह वह भी अक्सर शांत रहता था। भ्रष्टाचार को लेकर कितना भी हल्ला मचता रहे, वह कभी विचलित नहीं होता था। लोग उन्हें मौनी बाबा कहकर भी बुलाते थे। महंगाई कितनी भी बढ़ जाय, वह कभी डगमगाते नहीं थे। मौनी बाबा सिंह योजना आयोग के अध्यक्ष भी थे। लगभग इन्हीं के समान काबिल एक और मसीहा थे जिनका नाम था मोंटेक सिंह आहलुवालिया। ये योजना आयोग कमीशन के उपाध्यक्ष थे। इन दोनों ने मिलकर देश की कई समस्याओं का समाधान किया। इन्होंने ही देश को बताया कि शहर में गरीब कौन है और गांव में कौन गरीब है। इससे पहले तो अधिकांश लोग अपने को गरीब समझते थे। इन्होंने उनको गरीबी की रेखा से ऊपर उठाया। इन्होंने ही बताया कि गांवों में 28 और शहर में 32 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है।
इसके बावजूद भी इनके शासन काल में बहुत सारी कमियां थीं। इनके मंत्री हमेशा कुछ न कुछ बयान देते रहते थे। जनता दूसरे देशों में सुरक्षित रखा हुआ काला धन मांगती रहती थी। मंत्री हमेशा कुछ न कुछ बयान देते रहते थे। भ्रष्टाचार को लेकर खूब हल्ला मचता रहता था।
इसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का शासन आया। उसने इस सारी समस्याओं को हल कर दिया। अर्थशास्त्र की जिन पेचीदगियों को एक अर्थशास्त्री नहीं सुलझा सका उसको एक चाय बेचने वाले प्रधानमंत्री ने हल कर दिया। वह खुद एक बहुत ज्यादा काबिल आदमी था इसलिए उसने अपने मंत्रियों को निर्देश दिया कि कोई भी मीडिया में अपनी जबान नहीं चलायेगा। सबसे महान काम तो उसने यह किया कि मोंटेक सिंह आहलुवालिया वाले विभाग को ही बंद कर दिया और कहा कि देश को इसकी जरूरत नहीं। कालेधन की मार्केटिंग पर मीडिया में बैन लगा दिया। भ्रष्टाचार तो चुपचाप कहीं भाग गया था।
मोंटेक सिंह आहुलवालिया ने पिछले दस पन्द्रह सालों तक योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहते हुए देश के विकास के लिए क्या योजनाएं बनायी थीं, यह तो मुझे भी पता नहीं है। लाल किले की प्राचीर से योजना आयोग के भंग किये जाने की खबर सुनी तो एक सवाल अनसुलझा रह गया कि मोंटेक सिंह आहलुवालिया ने करीब दो साल पहले योजना भवन में 17.5-17.5 लाख रुपये के दो पैखाने बनवाये थे, उनका क्या होगा? 6.19 लाख रुपये उस पैखाने में 60 विशिष्ट लोगों के घुसने के लिए स्मार्ट कार्ड पर खर्च किये। मोंटेक सिंह आहलुवालिया और योजना आयोग काम के नहीं हो सकते थे लेकिन मोदी को उन पैखानों के बारे में तो सोचना चाहिए वह तो काम के हैं!

कोशिश
एक चिडियां
उड़ती हुयी कहीं से आएगी
पता नहीं साथ में क्या लाएगी
एक काम करना
खिड़कियों से परदे हटा देना

सफर में दिख जाएं कहीं
नरगिस या मधुबाला
रूमाल हवा में हिला देना

न सही
तुम्हारी जिंदगी
किसी इतिहास का हिस्सा न सही
जितना याद हो
उतना सुना देना

भूले से मिल जाए तुम्हें उसकी
अंगूठी शकुन्तला की
शराफत से उसको लौटा देना

ये माना
कि तुमने नहीं उजाड़े हैं जंगल
अपने हाथों से
वहां एक पेड़ उगा देना

सम्पर्कः    अक्षय जैन, ए/64, हिम्मत अपार्टमेंट
         राजेन्द्र प्रसाद रोड़ मुलुंड (पश्चिम) मुंबई- 400008


राज्य के भीतर कितने राज्य
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
भारतीय राज्य (इण्डियन स्टेट) के भीतर राज्यों(स्टेट्स) की संख्या अनगिनत है और इनमें विभिन्न तरीकों से निरन्तर इजाफा हो रहा है। भारतीय राज्य की तरह ये राज्य भी अपनी सीमाओं में सम्प्रभु हैं और इन्हें भारतीय संविधान से कानूनी संरक्षण प्राप्त है। इन राज्यों के भीतर कम और ज्यादा वे सभी चीजें दृष्टिगोचर होती है जो एक राज्य की निशानी मानी जाती है।
एक शासक, उसका मंत्रिमण्डल और प्रभामण्डल, कानून और नियम-उपनियमों की लम्बी फेहरिस्त, कानून-नियमों को लागू करने के लिए हथियार बंद फौज, सही और गलत निर्णय करने के लिए अधिकारी और इत्यादि, इत्यादि। हां! इस तरह के राज्यों के भीतर जो भी हैं उनके पास या तो कोई जनवादी अधिकार नहीं है। और अगर कुछ हैं भी तो वे या तो नाममात्र के या फिर जिनका प्रयोग भारी मुश्किलों के बीच ही किया जा सकता है।
भारतीय राज्य के भीतर सबसे बड़ा राज्य भारतीय सेना है। भारतीय सेना का पूरा ढांचा औपनिवेशिक और गैर जनवादी है। सेना के जनरल और अन्य अफसर अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों में पूरे तानाशाह होते हैं। परमपराओं और अनुशासन के नाम पर एक से बढ़कर एक बेहूदे कार्य और यहां तक कि भ्रष्ट आचरण भी किया जाता है। देश के जिन क्षेत्रों में आम्र्स फोर्सेस स्पेशल पाउर एक्ट लगा हुआ है वहां सेना के पास असीमित अधिकार हैं। इन क्षेत्रों के आम नागरिकों को एक तरह से सैन्य तानाशाही के भीतर ही रहना होता है।
सेना के बाद अर्द्धसैनिक बलों और पुलिस का नम्बर आता है। ये सभी संस्थाएं भी अपने चरित्र में निरंकुश और गैर-जनवादी हैं। इनके अफसर अपने क्षेत्रों में बादशाह हैं।
राज्य के भीतर राज्य के उदाहरण के रूप में विभिन्न सरकारी विभाग हैं। रेल, वन, जैसों विभागों में भी एक राज्य का पूरा नेटवर्क देखा जा सकता है।
स्वायत्त या अर्द्ध स्वायत्त संस्थाओं जैसे विश्वविद्यालय आदि में भी इस स्थिति को देखा जा सकता है। विश्वविद्यालय का कुलपति अपने कैम्पस के भीतर एक शासक की तरह ही व्यवहार करता है। वह अपनी हर मनमर्जी और यहां तक कि सनक को भी एक नियम बना देता है।
इस दायरे से बाहर निकलकर जैसे ही कल-कारखानों में प्रवेश करते हैं वहां फैक्टरी मालिक अथवा मैनेजर एक राज्य के स्वामी का ही व्यवहार करते हैं। फैक्टरी मालिक का अपने मजदूरों के साथ व्यवहार सामंती शासकों की याद दिलाता है। निरंकुश, धूर्त और क्रूर। आज इन शासकों की मांग उन सभी कानूनों को खत्म करने की है जो एक समय मजदूरों ने संघर्ष करके हासिल किये थे। ये कानून पूंजीपतियों को किन्हीं सीमाओं में बांधते थे। परन्तु श्रम शक्ति के लचीलेपन के नाम पर ये आज असीमित अधिकार चाहते हैं। स्पेशल इकानोमी जोन (सेज) जैसे क्षेत्र बनाकर पूंजीपतियों की सरकार ने मजदूरों की गुलामी को मध्ययुगीन रूप देकर संस्थागत कर दिया है। मजदूरों के पास सामान्य नागरिक अधिकार भी इन क्षेत्रों में नहीं है। कहने को वह महान भारतीय लोकतंत्र का महान मतदाता है।
भारत के मजदूरों और अन्य मेहनतकशों के ऊपर एक राज्य नहीं बल्कि कई-कई राज्यों का प्रभुत्व है। भारतीय राज्य तो इन राज्यों के ऊपर एक राज्य है। भारतीय राज्य के मातहत इन राज्यों में कानून और अनुशासन के नाम पर क्रूरता भरी तानाशाही का राज्य है। भारत के मजदूरों व मेहनतकशों का दमन इस पूरे तंत्र में बुरी तरह से घुट रहा है। कभी क्षोभ, कभी आक्रोश तो कभी मानसिक अवसाद के रूप में यह फूट पड़ता है। दम घुटने से एक तरफ विद्रोह, हड़ताल जैसी स्थिति पैदा होती है तो दूसरी तरफ आत्महत्या जैसी घटनाएं घटती हैं। फौज व अर्द्धसैनिक बलों में मानसिक अवसाद से ग्रस्त कई दफा आत्महत्या तो कई दफा अपने अफसरों की हत्या का रास्ता तक चुन ले रहे हैं।
भारत के मजदूर-मेहनतकशों की पूरे भारतीय राज्य या इन राज्य के भीतर के राज्यों में क्या भूमिका है। वे महज श्रम करने के यंत्र अथवा अपने मालिकों की आज्ञा का पालन करने वाले नौकर हैं। उन्हें अपने लिए निर्णयों को लागू करना होता है परन्तु निर्णय लेने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। वे न तो नीतियों का निर्धारण करते हैं और न उनकी समीक्षा कर सकते हैं।
ऐसी ही स्थिति का अनुभव धार्मिक संस्थाओं और यहां तक कि परिवारों में भी देखा जा सकता है। धार्मिक संस्थाओं के प्रभुत्व सामंती महाप्रभुओं की तरह है। मठों, चर्चों, मस्जिद, मन्दिर आदि में धार्मिक गुरूओं का आचरण तानाशाहों के सरीखा ही होता है।
इसी तरह परिवार नामक संस्था के भीतर पुरुष खासकर परिवार प्रमुख छोटा-मोटा तानाशाह ही होता है। स्त्रियां, बच्चे और वृद्ध या अशक्त जन इस तानाशाह से उत्पीडि़त होते हैं।
भारतीय राज्य अपने मातहत इन सभी राज्यों को कानूनी व नैतिक मान्यता, प्राधिकार और संरक्षण प्र्रदान करता है। भारतीय संविधान इन मानव व जनवाद विरोधी संस्थाओं के प्राधिकार को स्थापित करता है और अपने फैसलों में वह इन्हें पावन-पवित्र घोषित करता रहता है।

आज भारत के मजदूर-मेहनतकश इस राज्य के भीतर राज्यों वाली क्रूर व्यवस्था में जी रहे हैं। उसके ऊपर कई जाल हैं। कई किस्म की बेडि़यों में उसका जीवन जकड़ा हुआ है। जरूरत इस मकड़जाल को समझने और इसके मुक्त होने की है। सवाल ये उठता है यह कैसे और किस तरीके से होगा। जबाव तो ढाई अक्षर का है परन्तु ये ढाई अक्षर फलीभूत होने में पूरी एक पीढ़ी की परीक्षा ले लेंगे। 

विवेक पर हमला
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
क्या आप दीनानाथ बत्रा को जानते हैं? क्या नहीं जानते? अरे भाई ये तो अपने आपको बहुत बड़ा शिक्षाशास्त्री, इतिहासकार, लेखक, भारतीय संस्कृति का रक्षक बताते हैं। ये महानुभाव चर्चा में तब आए जब इन्होंने इस वर्ष के प्रारंभ में अमेरिकी लेखिका वेंडी डोनिगर की पुस्तक ‘द हिंदू-एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ पर प्रतिबंध लगा दिया। और बीजेपी के सत्ता में आते ही इनके ‘कु’कर्मों की चर्चा जोर-शोर से होने लगी है। इन्होंने स्कूलों में सैक्स शिक्षा का विरोध किया जिसके फलस्वरूप मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार ने अपने राज्य में इस पद पर रोक लगा दी। इन्होंने दिल्ली हाइकोर्ट में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विषय के पाठ्यक्रम से ए.के.रामानुज के प्रसिद्ध निबंध- ‘‘तीन सौ(300) रामायण’’ को हटाने के लिए याचिका दायर की। जिस कारण दिल्ली विश्वविद्यालय को अपने पाठ्यक्रम से यह निबंध हटाना पड़ा। दीनानाथ बत्रा का भारतीय शिक्षा के प्रति यह समर्पण देखकर गुजरात सरकार ने उनकी छः पुस्तकों को अपने स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय लिया है।
दीनानाथ बत्रा कहते हैं कि मैं दस साल की उम्र से आरएसएस से जुड़ा हूं। ये आरएसएस के स्कूली संगठन-विद्या भारती के महासचिव भी रहे हैं। इनकी किताबें बताती हैं कि हमारे वेदों में दुनिया का सारा ज्ञान पहले से ही मौजूद है। दुनिया के पहले विमान-पुष्पक विमान से लेकर स्टेम सेल टैक्नोलाॅजी तक का ज्ञान वेदों और रामायण-महाभारत में मौजूद है। हमारे प्राचीन वेद-पुराण, रामायण-महाभारत ऐतिहासिक गं्रथ है जिनकी प्रमाणिकता और वैज्ञानिक तथ्यता को चुनौती देेने वाले लोग मैकाले और माक्र्स की संतानें हैं जो भारतीय शिक्षा का ‘पश्चिमीकरण’ कर रही हैं। दीनानाथ बत्रा का लक्ष्य भारतीय शिक्षा का ‘स्वदेशीकरण’ करना है। वह इसे गर्व से भगवाकरण कहने में भी संकोच नहीं करते हैं। उनकी पुस्तकों में ‘अद्भुत अखण्ड भारत’ की कल्पना की गई है जिसमें भारत के सभी पड़ौसी मुल्कों- नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका को शामिल किया गया है। इस तरह की कल्पना बिल्कुल वैसी है जैसे कि इस्लामिक कट्टरपंथी पाॅन इस्लामिक स्टेट(एकीकृत इस्लामिक राज्य) की बात करते हैं। वस्तुतः आरएसएस और इस्लामिक कट्टरपंथियों की विचारधारा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों ही समाज में अपने-अपने समुदायों के मध्य प्रतिक्रियावादी, कट्टरपंथी विचारों और कुतर्कों का इस्तेमाल कर अपने समुदाय आधारित राज्यों के निर्माण की बात करते हैं जिसमें दूसरे समुदायों, अल्पसंख्यकों को अधिकार विहीन करने की बात होती है।
दीनानाथ बत्रा शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति के प्रमुख और एक एनजीओ शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के मुखिया बन कर भारतीय शिक्षा को ‘पश्चिमी ज्ञान’ से मुक्त कर उसका ‘स्वदेशीकरण’ करना चाहते हैं। उनका कहना है- कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में हमारी संस्कृति के प्रति तिरस्कार है। हमारे शहीदों को उचित सम्मान नहीं है। दीनानाथ बत्रा जिस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ(त्ैै) का निक्कर पहने हैं। उसके मुताबिक संस्कृति है जिसने सदियों से मनुष्य जाति के एक बड़े वर्ग (शूद्र और अछूत जातियां) को पशुता का जीवन जीने पर मजबूर किया है। आरएसएस को आज देश की आजादी की लड़ाई में अपना नाम शहीदों में लिखवाने के लिए बड़ी तड़प हो रही है। इसके लिए ये बड़े जतन कर रहे हैं। कभी भगत सिंह को अपना घोषित करते हैं कभी और किसी क्रांतिकारी को पकड़ते हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि आरएसएस ने देश की आजादी के आंदोलन में ‘जयचंद’ की भूमिका निभाई। इन्होंने जनता की एकता को तोड़ने के लिए खूब साम्प्रदायिक दंगे करवाए। इनके एक निक्करधारी पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी ने क्रांतिकारियों को पकड़वाने के लिए अंग्रेजोें को गवाही भी दी।
दीनानाथ बत्रा भारतीय शिक्षा में जिस ‘स्वदेशीकरण’ की बात कर रहे हैं आज इनकी मातृसंस्था आरएसएस की लंगोट पहने दिल्ली के तख्त पर बैठा कारिन्दा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूरी दुनिया से विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश (लूट) करने का न्यौता दे रहा है। दीनानाथ बत्रा में दम है तो देश के अंदर खुले विदेशी शैक्षिक संस्थानों और निजी देशी संस्थानों में ताले लटकवाकर दिखाएं।
बीजेपी को सत्ता में आए हुए अभी तीन माह ही हुए हैं लेकिन बहुत तेजी से इसने इतिहास, साहित्य और शिक्षा से जुड़े हुए सार्वजनिक संस्थानों में अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा के लोगों को नियुक्त करना शुरू कर दिया है। इससे यह पता चलता है कि बीजेपी अपनी साम्प्रदायिक फासीवादी विचारधारा को समाज में बौद्धिक वर्ग के मध्य स्वीकृती दिलाने के लिए कितना आतुर है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद(प्ब्भ्त्) के अध्यक्ष पद पर वाई सुदर्शन राव की नियुक्ति ऐसा ही कदम है। इससे पूर्व एनडीए के नेतृत्व में बीजेपी सरकार यह प्रयास कर चुकी है। उसने एनसीईआरटी के इतिहास के पाठ्यक्रम में उस समय खूब बदलाव किया था। आर्यों को भारत का ही घोषित करेन के लिए उसने बैल को घोड़ा बना दिया था और गुमनाम ‘इतिहासकारों’ को खोजकर लाकर एनसीईआरटी में बिठा दिया था। दीनानाथ बत्रा भी ऐसे ही पैदा हुए लेखक हैं। ये उस जमात के हैं जो विज्ञान पर आस्था को, तर्क पर कुतर्क को, तरजीह देते हैं। यह एक साजिश है बौद्धिक विमर्श को खत्म करने की। यह हमला है हमारे विवेक पर और हमें इसका जबाव वैज्ञानिक तर्कों का इस्तेमाल करके देना ही होगा। ललित, बरेली
गंगाजी का अमृत कलश
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
आजकल इन दिनों में गंगाजी की कलश यात्रा निकाली गयी एवं जगह-जगह उसके स्वागत में हार, फूल, माला, धूपबत्ती, अगरबत्ती, घी के दिये से आरती, पूजा इत्यादि हो रही है।
ये सारे कार्यक्रम नेता, मंत्री एवं गणमान्य व्यक्ति एवं महिलाएं कर रहे हैं। लेकिन मुख्य उद्देश्य जो इसका है। मां गंगाजी का जल शुद्ध करने के संबंध में। शायद ही किसी का ध्यान इधर जाता हो। जबकि लोगों का यह मानना है कि गंगाजी अशुद्धों को भी शुद्ध बनाने की क्षमता रखती हैं। लेकिन मेरे समझ में गंगाजी अशुद्धों को शुद्ध बनाते-बनाते अब उनको शुद्ध बनाने की क्षमता खत्म हो गयी है। क्योंकि इसी सोच के आधार पर लोग अपनी अशुद्ध वस्तुएं गंगाजी में आज से नहीं पहले से ही प्रवाहित करने में लगे हैं। जैसे लोगों के घरों का गंदा पानी उसके साथ सारी गंदगी नाले-नाली गटर के द्वारा गंगाजी में जाता है। एवं आस-पास का निकला गंदा पानी व बेकार केमिकल्स आस-पास की जो भी नदियां हैं, उसमें जाता है। एवं लोग अपने घरों व मन्दिरों में जो भी पूजा आरती हवन इत्यादि करते हैं। उसका पान, फूल, माला, हवन-सामग्री सभी गंगाजी या आस-पास की नदियों में डालते हैं। यदि घर की सफाई रंगाई, पुताई हुयी है तो फटे पुराने कैलेण्डर फोटो टूटी हुयी मूर्तियां भी गंगाजी में डालते हैं। और यह सोचते हैं कि इससे सभी नदियों की शुद्धता बनी रहेगी। एवं उसी को शुद्ध समझते हुए हमारे बहुत से हिन्दू भाई सपरिवार हर पर्व पर आस-पास की नदियों खासकर गंगाजी में स्नान करके अपने को शुद्ध, पवित्र एवं धन्य समझे हैं। इसमें धोबी कपड़े धोता है व मोची चमड़ा धोता है व चमड़े की फैक्टरियों का गंदा जल जाकर गंगाजल में मिलता है।
हमारे बहुत से हिन्दू भाई किसी की मृत्यु हो जाने पर उसकी लाश को सीधे गंगाजी में प्रवाहित करके अपने को धन्य समझते हैं। एवं जिसकी मृत्यु हुई थी उसके पाप से उसे मुक्त समझा जाता है।
हिन्दू भाई के यहां किसी की मृत्यु हो जाने पर उसका दाह संस्कार करके उसकी राख जली हुई हड्डियां सीधे गंगाजी में प्रवाहित करते हैं एवं अपने को धन्य समझते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा भगीरथ बहुत लम्बी तपस्या करके गंगाजी को स्वर्ग से शंकर जी के द्वारा पृथ्वी पर लाये थे। क्योंकि उनके साठ हजार पुरखे कपिल मुनि के श्राप से जल गये थे। उनकी राख वहीं पडी थी एवं आत्मा भटक रही थी जोकि गंगाजी के आने से उनकी आत्मा तृप्त हो गयी उसीको सुन  व पढ़कर शायद हिन्दू भाई ऐसा करते हैं। अब गंगाजी को शुद्ध करने का जो मुहिम छेड़ा गया है। उससे गंगाजी शुद्ध नहीं और अशुद्ध ही होंगी। क्योंकि जो भाई लोेग उसमें गंदगी डालने के जिम्मेदार हैं। उन्हें कोई रोक नहीं रहा न वे स्वयं रुक रहे हैं। बल्कि पंडेे लोग तरह-तरह की बातें बनाकर स्वर्ग-नर्क की बातें समझा कर लोगों को लूट रहे हैं। एवं अपना धंधा चमकाने में लगे हैं व गंगाजी के सफाई अभियान के नाम पर हमारे सभी धर्मों के भाई-बहन एवं गणमान्य लोग अपने लोगों के बीच अच्छे बने रहने में लगे हुए हैं। लोगों की आस्था एवं भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं जैसे गंगाजी में फूल, माला चढ़ा रहे हैं। अगरबत्ती धूपबत्ती व दीपक से पूजा आरती कर रहे हैं। ये सभी चीजें गंगाजी में जायेगा और पानी में सड़ेगा तो क्या शुद्ध करेगा और गंदा ही करेगा। ये सभी लोग जानते हैं। लेकिन फिर भी नहीं मानते एवं गंदा ही करते हैं।

यदि गंगाजी में आस्था है और इसे सही मायने में शुद्ध करना चाहते हैं। और आम जनता को धोखा नहीं ेदेना चाहते तो सभी जाति धर्म के सभी आयुवर्ग के लोग स्त्री-पुरूष, बूढे़ जवान बच्चे इस चीज का संकल्प लें। और इस काम में लग जायें कि आज से नहीं अभी से गंगाजी में किसी प्रकार की गंदगी नहीं जाने देंगे। एवं अपने कोशिश भर गंगाजी को साफ करने का पूरा प्रयास करेंगे।                 अरविन्द बरेली

प्रतिक्रियावाद की आंधी
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
भारत की एकाधिकारी पूंजी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठजोड़ के जो नतीजे निकलने थे, वे सामने आने लगे हैं। केन्द्र में काबिज सरकार जहां तेजी से आर्थिक व श्रम सुधार के कार्यक्रम में लगी है वहां संघ और उसके अनुषंगी संगठन पूरे देश के हिन्दुत्वकरण में। सरकार और संघ की इस जुगलबंदी की चपेट में देश की हर संस्था आती जा रही है। संघ की पाठशाला में दोहराये जाने वाली बातें और कुतर्क आज टेलीविजन और अखबारों से प्रसारित हो रहे हैं। उन्हें युग सत्य के रूप में स्थापित किया जा रहा है।
संघ प्रमुख मोहन भागवत का स्थान अनौपचारिक तौर पर राष्ट्र प्रमुख का बनता जा रहा है। और अपनी इस हैसियत व प्रभाव का इस्तेमाल वे पूरे देश में कर रहे हैं। कुतर्क की इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है कि वे कहते हैं कि हिन्दुस्तान में रहने वाला वैसे ही हिन्दू है जैसे जर्मन में रहने वाला जर्मनी। वह हिन्दोस्तानी नहीं है वह हिन्दू है।
भारत यूरोप के अधिकांश देशों की तरह एक राष्ट्र न होकर बहुराष्ट्रीय देश है। यहां विविध भाषा, बोली, नस्ल व राष्ट्रीयता व विभिन्न किस्म के धार्मिक विश्वास मानने वाले लोग रहते हैं। भारतीय समाज में जितनी विविधता है वह इसे एक महाद्वीपीय देश बना देती है। भारतीय समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों को हिन्दू कहना संघ व भाजपा के फासिस्ट एजेंडे को आगे बढ़ाना है। और यह बहुत स्वाभाविक है कि केन्द्र में सत्ता हासिल करने के बाद संघ के लोगों को यही करना था। इससे पहले भी 1998 में वाजपेयी की सरकार में भी ऐसा हो रहा था। उस समय देश की सभी प्रमुख संस्थाओं का संघीकरण किया गया और गुप्तचर ब्यूरो (आई.बी.) तो एक तरह से संघ का ही एजेंडा लागू करने में लगा था।
नरंेद्र मोदी की सरकार ने 60 दिनों में जो कामकाज किया है, उसके दो हिस्से हैं। पहला एकाधिकारी पूंजी के हितों को साधने के लिए तेजी से आर्थिक सुधार करना और दूसरा इन सुधारांे के विरूद्ध उठने वाली आवाजों की जमीन को कुंद करने के लिए समाज का तेजी से हिन्दुत्वकरण करना।
आर्थिक सुधार के विस्तृत एजेंडे में तमाम किस्म के सुधार शामिल हैं। इसके तहत तेजी से निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण की नीतियों को लागू करना, श्रम कानूनों में तेजी से सुधार, टैक्स व्यवस्था में परिवर्तन (जी.एस.टी. लागू करना), प्रशासनिक व्यवस्था को पूंजीपतियों के हितों के अनुरूप करना आदि शामिल हैं। ये सुधार भारत की वर्तमान राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था में ऐसे सुधार हैं जिनकी मांग लंबे समय से देशी व विदेशी एकाधिकारी पूंजी के पैरोकार करते रहे हैं। 1991 से जारी आर्थिक सुधार बीस साल बाद इस पूंजी की चाहत के अनुरूप पूर्ण रूप से लागू नहीं हो सके। इसमें जहां एक ओर शासक वर्ग की हिचकिचाहट, आपसी अंतरविरोध भूमिका निभा रहे थे वहीं दूसरी ओर उससे कहीं अधिक विरोध की संभावना शासित वर्ग से थी। शासित वर्ग ने पिछले बीस वर्षों में कदम-कदम पर इन नीतियों को विरोध किया। मजदूरों, किसानों, आदिवासियों के संघर्ष पूरे देश में समय-समय पर फूटते रहे हैं और इसने शासक वर्ग की योजनाओं के लागू होने में गतिरोध का काम किया।
यू.पी.ए. सरकार के दस साल के अंतिम वर्षों में एकाधिकारी पूंजी की मुख्य शिकायत ही यह थी कि सरकार काम ही नहीं करती। उलझी रहती है। फंसी रहती है। इसके कारण सत्ता के दो केन्द्र गठबंधन सरकार, राजनीतिक निर्णय लेने में अक्षमता आदि को गिनाया गया। मोरी सरकार अब उन सब दुर्गुणों से मुक्त मानी जा रही है। अतः वह कम से कम अपने शुरूआती दिनों में वह सब कुछ करती दिखना चाहती है जो देशी-विदेशी एकाधिकारी पूंजी चाहती है। वह यू.पी.ए. सरकार की कमियों-गलतियों आदि से सीखकर एक ऐसा शासन करना चाहती है जो कम से कम डेढ-दो दशक चले।
मजदूरों, किसानों, आदिवासियों आदि शोषित-उत्पीडि़तों के संघर्ष जन्म न ले सकें। उनकी धार कुंद पड़ जाये। कोई आवाज प्रतिरोध-अवरोध की न उठे, इसके लिए वह भारतीय समाज में हिन्दुत्वकरण के एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। मंत्री आये दिन विवादास्पद बयान देते हैं और संघ भारतीय समाज के यथार्थ और इतिहास की मनमाफिक व्याख्या करता है। अपने घृणित हिन्दू फासिस्ट एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए हर संस्था, हर संसाधन का इस्तेमाल कर रहा है।
एकाधिकारी पूंजी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घृणित गठजोड़ भारत में क्या-क्या गुल खिलायेगा इसका सहज अनुमान पिछले समय से लगाया जा सकता है। नरेंद मोदी का चुनाव लड़ने का ढंग व सरकार बनाने के बाद के तेवर अपनी कहानी आप कह रहे हैं।
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में एकाधिकारी पूंजी के हितों के अनुसार राजनैतिक व्यवस्था के होने व समाज से बहुत मजबूत प्रतिकार के न होने के बावजूद वह आशंकित व भयभीत है। वह अपने किलों की सुरक्षा के लिए हर वह कदम उठा रही है जो वह उठा सकती है। पूंजीवादी राज्य इन किलों की सुरक्षा के लिए अभूतपूर्व ढंग से हस्तक्षेप कर रहे हैं और आम मजदूरों व मेहनतकशों पर अपना शिकंजा हर जायज-नाजायज ढंग से कस रहे हैं। परंतु यह सब कुछ काम नही आ रहा है। विश्व आर्थिक संकट बडे़ पैमाने के राजकीय हस्तक्षेप के बावजूद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। मंदी का काल खिंचता ही चला जा रहा है। साम्राज्यवादी देशों के बीच संदेह, तनाव व तनातनी का माहौल बढ़ रहा है। और सबसे बढ़कर पूरी विश्व की जनता शासकों के भारी दमन व विभाजनकारी प्रयासों के बीच उठ खड़ी हो रही है। वह मुखर है। वह शासकों की मनमर्जी होने नहीं दे रही है। मोदी सरकार का सामना इक्कीसवीं सदी की भारत की जनता से होने जा रहा है। भारत की महान जनता को संघ की फासिस्ट धुन पर नचाना चाहता है परंतु उसे मुंह की खानी पड़ेगी। पर प्रतिक्रियावाद की इस आंधी का मुकाबला शासक वर्ग की अन्य पार्टियों व संगठनों के बस की बात नहीं है। इसका मुकाबला करने की क्षमता व संभावनाशीलता स्वयं जनता में ही है। भारत के मजदूर, किसान, उत्पीडि़त-शोषित जनों के उठ खड़े होते ही यह आंधी छू-मंतर हो जायेगी।

वैसे नरेंद्र मोदी सरकार के साथ दुर्भाग्य भी जुड़ा हुआ है। वह जिन वायदों के साथ आयी थी उसका अंश भी पूरा करना उसके बस की बात नहीं है। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी लगातार बढ़ रही है। भ्रष्टाचार का पहला मामला आते ही उसकी बहुत फजीहत होनी है। ‘अच्छे दिन’ का वायदा करने वाला बिसूरने लगा है कि 60 साल का राज करने वाले 60 दिन में हिसाब मांग रहे हैं, कोई हिसाब न मांग सके, कोई प्रतिरोध न कर सके। कोई एकजुट न हो सके इसके लिए वह हिन्दुत्वकरण के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं परंतु यह सब बीसवीं सदी की चालें हैं जो इक्कीसवी सदी में खास काम नही कर पायेंगी। आंधी में बहुत आवेग होता है, बहुत विनाश की क्षमता होती है परंतु अंत में वह बिखर जाती है, नष्ट हो जाती है।

कांवडिये बरेली में
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
मानव विकास की यात्रा में मानव किन-किन युगांतकारी पड़ावों से गुुजरा यह कोई पहेली नहीं सच्चाई है। हर अगले पड़ाव में नये रंग रूपों पर ढलते मानव ने विकास यात्रा के दौरान कई दंश भी झेले, कई नई चीजांे का सामना भी करना पड़ा। मानव सभ्यता के आरम्भिक काल में जब प्रकृति की घटनाओं अर्थात् डरावने या आनन्ददायक परिघटनाओं से मानव का साबका पड़ा तो भयंकर आंधी, तूफान, बाढ़, यहां तक कि बड़ी-बडी नदियों, तेज धूप से डरने लगा। तब मानव प्राकृतिक भयंकरता से निजात पाने के लिए उपाय सोचने लगा। उसके पास उस समय जो उपाय था वह केवल क्षमा, याचना या हाथ जोड़कर उससे बचने का साधन समझने लगा। यह बाद के समय में एक प्रवृत्ति बनकर संस्कृति में तब्दील हो गयी।
जब समाज में उत्पादन के साधन कुछ विकसित हुए तब उत्पादन अधिक होने लगा। अधिशेष की अवस्था शुरू हो गयी। इसी अधिशेष पर कबीले के प्रधान की नजर टेड़ी हो गयी। उसी समय वह प्रवृत्ति जो संस्कृति में तब्दील हो गयी थी, समाज का मुखिया अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगा कि यह प्रकृति की डरावने परिघटनाओं में कोई शक्ति परोक्ष में काम करती है जिसे उसने दैवीय शक्ति का नाम दिया। और अपने अधीनों कोे इससे डराने लगा कि जो गलत काम करेगा यह शक्ति उसे नष्ट कर देगी। वह गलत क्या था- वह था कबीला प्रधान की खिलाफत करना।
वक्त गुजरा, जमाना बीता, समाज का विकास हुआ जो लाजिमी है। जांगल अवस्था से कबीलाई अवस्था इसके बाद बर्बर अवस्था, इसके बाद दास व सामन्ती काल आया। आज हम जिस काल में जी रहे हैं उसे पूंजीवादी काल कहा जाता है। तब फिर जैसे ही समाज वर्गों में बंटा तब एक वर्ग शासक वर्ग के रूप में उभरा दूसरा शासित में। अब समाज का शासक वर्ग के पास हर हथियार हो गया। भौतिक हथियार से वह आश्वस्त नहीं था। डर था उसे, शासित से कि कहीं चाल समझ न जायंे तब उसने उस संस्कृति जो शुरू में प्रवृत्ति से उपजी थी, उसको सबसे आसान तरीका समझ कर उसको विकसित करते हुए उसके हर हथकंडे अपनाने शुरू किये। आज शासक के पास ऐसी आधुनिक साधन प्रणालियां हैं जिससे वह चंद मिनटों, चंद सेकण्डों में समाज में कोई भी अपने हित के विचार प्रसार कर सकता है और करता है। यह कहीं कुछ हद तक सत्य भी है कि कोई बात बार-बार दुहराई जाये तो मनुष्य उसको कुछ दिनों में सही समझने लगता है।
यही सिद्धान्त खुदा के लिए, भगवान के लिए, गाॅड के लिए भी होने चाहिए।
आज समाज का अधिकांश हिस्सा बेरोजगारी, तंगहाली, महंगाई, शारीरिक बीमारियों से आजिज आ चुका है। समाज में तडफन है, अकुलाहट है, घबराहट है, भय है, शंका है, दर्द है, अकिंचनपन है, किंकर्तव्यविमूढ़पना है, दिशाहीनता है। अंत में एक बहुत बड़ी महामारी है अंधविश्वास। जिस संस्कृति को अपना हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है, उसे बढ़ावा दे रहा है। उसमें अपनी पूंजी की बढ़ोत्तरी का रास्ता निकाल रहा है वह है अंधविश्वास।
ऐसा विश्वास जिसका कहीं कोई तथ्यात्मक आधार का पता नहीं है, उसे आस्था भी कहा गया है। इसमें लोग ऐसे डूब गये हैं कि अपने खुद के शरीर की बलि देने पर भी कोई विचार नहीं करते।
बरेली में हिन्दी महिना सावन जो जुलाई-अगस्त के मिलान अवधि में पड़ता है, एक बड़ी आपाधापी रही। शहर का अधिकांश भाग केसरिया रंग के कपड़ों में पुरुष हुडदंगों के कब्जे में नजर आया। अभी महिलाओं की हिस्सा भागीदारी कम रही। हालत शहर के ऐसे थे कि प्रशासन भी उनको सहूलियतों का अम्बार लगाता नजर आ रहा था। केसरिया रंग के कपड़े पहने हुए लोेगों को कांवडिये कहा जाता है। केवल सावन के महीने तक के लिए यह लागू होती है। तो भाईजान! सारा का सार शहर कांवडियों के लिए प्रशासन ने आवंटित कर दिया था। किसी-किसी दिन तो स्कूल भी शहर के बंद करा दिये गये। वाहनों के लिए सड़क भी बंद करा दिये गये। कई रूट डाइवर्ट करा दिये गये। कहीं-कहीं तो सड़कों में बारह घंटों तक जाम से छुटकारा नहीं पा सका।
इतना भर से कुछ लोगों को अपने इरादे पूरा न होते देख पूरे शहर को दंगों की आग में झोंकने की पुरजोर कोशिश रही। यहां तक कि दंगों के लिए डेढ़ करोड़ का सट्टा भी लगा चुके थे लोग। पर षड्यंत्र सफल नहीं हुआ। अभी प्रगतिशील लोग तो कहीं नजर नहीं आये। हां! इक्का दुक्का प्रबुद्ध लोग अवश्य बचाव पक्ष में नजर आ रहे थे।
खैर! खैर रही अभी पर प्रकृति को संस्कृति में बदलने से लेकर आज शासक वर्ग कई देशों में भी फासिज्म के रंग में रंग रहा है। अब रंग निखरेगा या बिखेरगा। यह समाज के चेतन वर्ग मजदूर के कार्यवाहियों पर निर्भर करता है। क्योंकि यही वर्ग है जिसने  समाज को गति दी, देता रहेगा और देना ही होना वरना समाज की गति थम जायेगी।
तो आइए इस गति को जारी रखने के लिए विचारों से कार्यवाहियों से एकताबद्ध कतार की श्रंृखला मजबूत बनायें।

देवसिंह बरेली

गीता पढ़ो, ‘स्वधर्म’ का पालन करो
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश अनिल दवे ने पिछले दिनों एक बयान दिया जिसमें उन्होेंने कहा ‘‘यदि मैं देश का तानाशाह होता तो कक्षा एक से ही श्रीमदभागवत गीता की पढ़ाई करवाता’’। वे कहते हैं कि श्रीमदभागवत गीता जीवन को सही ढंग से जीने का रास्ता सिखाती है। इससे समाज में अपराध कम होंगे।
यदि न्यायाधीश यह बात कह रहे हैं तो यह समझना जरूरी हो जाता है कि भगवदगीता जीवन जीने का क्या ढंग सिखाती है? इसे सीखकर क्या और किसका लाभ होगा? भारत जैसे बहुधर्म देश में फिर क्या केवल गीता पढ़ाना ही भारतीय धर्मनिरपेक्षता (धर्मनिरपेक्षता का भारत में अर्थ सभी धर्मों को समान रूप से प्रचारित या मदद करना है, जो कि यूरोप के राज्य का धर्म से कोई संबंध नहीं होगा की प्रस्थापना से भिन्न है) होगा?
सबसे पहले यही कि न्यायालय का मुख्य काम संविधान की रक्षा तथा संविधान के अनुसार व्यवहार करना व उसे लागू करवाना है। भारतीय ‘धर्मनिरपेक्षता’ के अनुसार क्या भारत में ‘तानाशाह’ बनकर फिर बाइबिल, कुरान, गुरूग्रंथ साहिब या अन्य धार्मिक गं्रथ भी पढ़वाए जायेगे।? यदि नहीं तो फिर संविधान का पालन तो इससे नहीं होगा।
आगे गीता क्या शिक्षा देती है। वह कैसे समाज से अपराध को कम कर देगी? गीता में व्यवहार संबंधी शिक्षा के बारे में मुख्य बात क्या है? जब अर्जुन अपने बंधु-बांधवों, मित्र, गुरू आदि को अपने सामने पाते हैं तो श्रीकृष्ण उन्हें शिक्षा देते हैं कि तुम्हें स्वधर्म का पालन करना चाहिए। स्वधर्म का पालन करते हुए लड़ना चाहिए। स्वधर्म, अपने बारे में सोचने के अलावा और क्या है? यदि प्रत्येक व्यक्ति स्वधर्म का अर्जुन की ही तरह पालन करने लगे तो क्या अंतर पड़ेगा? बल्कि उल्टा आज लगभग सभी प्रकार के अपराधों में स्वधर्म ही प्रेरणा स्रोत है। इसके अलावा स्वधर्म का पालने करते हुए आप धरती पर राज करेंगे और मरने पर स्वर्ग मिलेगा। मतलब कि स्वधर्म का पालन करते हुए मरने में भी अच्छा ही है।
मुख्य न्यायाधीश की यह मंशा है कि गीता पढ़ाई जाये जबकि उसकी शिक्षाओं से समाज में कुछ भला नहीं होना है? बल्कि समाज में और बुरी स्थिति ही हो सकती है। शासक वर्ग के और ज्यादा निरंकुश होने को ही यह सही बताएगा। शासक पूंजीपति वर्ग का ‘स्वधर्म’ भी तो यही कहता है कि अपना खजाना बढ़ाओ भले ही जनता को भूखों मरना पड़े। खुद न्यायाधीश महोदय भी इसकी तसदीक करते हैं कि तानाशाह बनकर ऐसा किया जा सकता है। उनकी इच्छा है कि देश में तानाशाह पैदा हों और स्वधर्म का पालन हो।
क्या पूंजीपति वर्ग आज इससे अलग कुछ सोचता है, वह अपनी पूंजी को कहीं भी बिना रुकावट के जाने का रास्ता खोज रहा है। वह इसके लिए ठोस कदम उठाने वाले तानाशाहों को भी चाहता है ताकि जरूरत पड़ने पर उन्हें इस्तेमाल किया जाए। वह श्रम कानूनों में ढील, जनता को उसकी जगह से बेदखल करने, कठोर फैसले लेने के लिए, भगवदगीता के स्वधर्म को लागू करना चाहता है। न्यायाधीश महोदय भी पूंजीपति वर्ग के स्वधर्म के साथ है।
लेकिन मेहनतकश जनता का ‘स्वधर्म’ भी उसे वर्गीय स्वधर्म (यानि कि मजदूर वर्ग के समग्र हितों) का पालन करने को कहता है जिसकी मूल शिक्षा है कि शोषणकारी पूंजी के रथ को रोक दो और इसे समाजवादी व्यवस्था में बदल दो।

                  चन्दन हल्द्वानी

पन्द्रह अगस्त
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
      15 अगस्त के आते ही पूरे देश में भारत की आजादी के बारे में कई किस्म की बातें एक साथ सुनाई देने लगती हैं। शासक वर्ग का जश्न जहां विक्षुब्ध करता है वहां प्रधानमंत्री का भाषण ऊब। देश के मजदूर-किसान सहित करोड़ों शोषित-उत्पीडि़तों का जीवन आजादी पर स्वाभाविक प्रश्न खड़ा कर देता है। 
1947 से अब तक भारत की यात्रा के दौरान भारत के मजदूर-मेहनतकशों, शोषित-उत्पीडि़तों ने गुलाम भारत से कम पीड़ा को नहीं सहा है। शासकों की गोलियों ने उसके सीने को छलनी करना बंद नहीं किया है। पूरे देश में एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता जब शासकों की फौज-पुलिस कहीं न कहीं अपने चरित्र को उजागर न करती हो, आम मेहनतकशों पर अत्याचार न करती हो। गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, असमानता, आदि-आदि बातों को स्मरण करते ही कोई भी कह उठेगा कि इस आजादी के, भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के लिए कोई मायने भी हैं।
आज का भारत क्या है? एक तरफ अंबानी जैसों के पास हर क्षण इकट्ठा होती बेशुमार दौलत और दूसरी तरफ भुखमरी, गरीबी का जीवन जीते करोड़ों लोग। एक तरफ पूंजीपति वर्ग को हर वस्तु, हर चीज हासिल दूसरी तरफ हर कदम पर मोहताजी, हर तरफ अभाव। एक तरफ पुलिस, सेना, अदालत, मीडिया, हर ओर पैसे का जोर और दूसरी तरफ नारकीय जीवन जीते करोड़ों लोग के लिए नहीं कोई ठौर।
यह बात ठीक है कि भारत ने 1947 में, औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति पायी परंतु उसके बाद के भारत में पूंजी की गुलामी कायम हो गयी। पूंजीपतियों का राज कायम हो गया। और किसी भी राज की तरह इसमें भी दमन, शोषण, उत्पीड़न, अपमान ही शोषितों के हाथ लगा। 
भारत की आजादी का अर्थ भारत की पूंजी की आजादी ही था। और सच यही है ब्रिटिश पंूजी के उपनिवेश से भारत में पूंजी का राज कायम हो गया और यह पूंजी दुनिया में किसी भी अन्य देश की तरह शोषण और रक्त से सनी हुई है। इसके हर सिक्के में भले ही बाहरी तौर पर ‘अशोक की लाट’ का चिह्न हो, पर आंतरिक तौर पर वह मजदूर-मेहनतकशों के खून व पसीने से निर्मित है। 
भारत आज जिस मुहाने पर खड़ा है उसके आगे साफ तौर पर गहरा संकट लिखा हुआ है। और यह संकट पूंजीवादी व्यवस्था का गहराता संकट है। यह संकट भारतीय समाज में हर ओर से फूट रहा है। और इस संकट का भारत के शासकों के पास वास्तव में कोई समाधान नहीं है। वे जो भी करेंगे वह इस संकट को और गहरा और व्यापक बनायेंगे। वे यदि कुछ नहीं करेंगे तो संकट शीघ्र पूरे समाज में छा जायेगा। 
इतिहास की सच्चाई यही है कि पूंजीवादी व्यवस्था का चरित्र ही ऐसा है इसमें संकट और बड़े संकट आने लाजिमी हैं। इसका चरित्र ही ऐसा है कि यहां शासक वर्ग का जो नायक इस संकट को हल करने का दावा करेगा उसे इतिहास विदूषक साबित करेगा। उसे तुच्छ साबित करेगा। भारत ही नहीं पूरी पूंजीवादी दुनिया उस कगार पर खड़ी है जहां शासक वर्ग नायक नहीं क्षुद्रों को ही पैदा कर सकता है। वह चाहे ओबामा हो या फिर ‘अच्छे दिन का दावा’ करने वाले मोदी। 
भारत का समाज यद्यपि फिलवक्त क्रांतिकारी संकट के दौर में नहीं है। परंतु हालात उसे उस ओर ही धकेल रहे हैं। किसी समाज में क्रांतिकारी संकट का वैज्ञानिक अर्थ है कि ऐसी अवस्था आ जाना जब आम मजदूर-मेहनतकशों  की गरीबी और बदहाली सामान्य से बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंच जाये। जब उसके लिए सामान्य ढंग और अपने सारे प्रयासों के बावजूद जीना मुश्किल हो जाये। इसके साथ जनता शासकों के शासन को स्वीकार करने को किसी भी तरह तैयार न हो। वे विद्रोह की मानसिकता में आ चुके हों। शासक वर्ग के बीच इसके साथ अंतर्विरोध अत्यन्त तीखे हो चुके हों और वे भी पुराने ढंग से शासन न कर पा रहे हों। उपरोक्त स्थिति जब किसी समाज की बनती जा रही हो तब कहा जा सकता है कि वह क्रांतिकारी संकट के मुहाने पर खड़ा है। 
यह कोई आवश्यक नहीं है कि ऐसे संकट की अवस्था होने के बाद भी समाज में इंकलाब हो जाये। इंकलाब के लिए जनता के पास न केवल सही संगठन व नेतृत्व होना चाहिए बल्कि उसे बदलाव के संकल्प से, विनाश और सृष्टि की भावना से ओत-प्रोत होना चाहिए। पूंजीवाद का विनाश और समाजवाद का निर्माण यही मानव इतिहास की वर्तमान वस्तुगत सच्चाई है। यह एक वैज्ञानिक नियम है कि पूंजीवादी व्यवस्था का स्थान सिर्फ और सिर्फ समाजवादी व्यवस्था ही ले सकती है। पूंजीवादी कुप्रचार और समाजवादी समाज के पहली कड़ी के गुजर जाने के बाद भी यह नियम अपने जगह कायम है। समाजवाद इतिहास की कार्यसूची में है और इसे पूंजीवादी शासक लाख प्रयत्न के बावजूद इतिहास की कार्यसूची से नहीं हटा सकते हैं। ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा करने वाले, ‘पूंजीवाद को अंतिम व्यवस्था घोषित करने वाले’ नमूनों के मुंह पर वर्तमान विश्व आर्थिक संकट ने अच्छे ढंग से कालिख पोत दी है। 
भारतीय समाज में कायम पूंजीवादी व्यवस्था शनैः शनैः उस ओर ही बढ़ रही है जहां वर्तमान संकट क्रांतिकारी संकट बन जाये। जाहिर सी बात है कि ऐसे संकट के लिए भारत के मजदूर-मेहनतकशों को आपसी तैयारियां करनी होंगी। उसे अपने सही संगठन व नेतृत्व को विकसित करना होगा। उसे वह क्षमता पैदा करनी होगी जिससे वह विनाश और सृष्टि के महान नृत्य से भारतीय भूमि को शोभायमान कर सके। भारत की जनता की सदियांे से कायम मुक्ति की आकांक्षा को स्वर दे सके। उसे हकीकत में बदल सके। पूंजीवाद का विनाश व समाजवाद का सृजन कर सके। 
15 अगस्त की हकीकत यही है कि इस दिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद का झंडा उतरा था और तिरंगा लहराया था। और इस तिरंगे में लाल रंग कहीं न था। प्रचलित शब्दों में गोरे अंगे्रज चले गये और काले अंगे्रज काबिज हो गये। अब इस दिन जो जश्न मनाया जाता है वह पूंजी का जश्न है। शोकग्रस्त श्रम इस दिन अपने को छला और ठगा महसूस करता है। उसके नुमाइंदे यदि कहते हैं, ‘‘सौ में सत्तर आदमी जब नाशाद हैं, दिल पर हाथ रखकर कहिये क्या देश आजाद है’’ तो क्या गलत कहते हैं। वे इस पूंजीवादी भारत में खुली, आजादी महसूस ही नहीं कर सकते हैं। उन्हें एक समाजवादी भारत चाहिए। उन्हंे पूंजी का नहीं श्रम का राज चाहिए। मजदूर-मेहनतकशों का भारत ही हर शोषित-उत्पीडि़त के जीवन में नया सबेरा ला सकता है।

मंच पर आने की छटपटाहट
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
दिनांक 23 जून 2014 को किन्हीं राजनैतिक स्वयंभू शंकराचार्य ने सांई भक्तों पर प्रहार करते हुये कहा कि सांई बाबा के भक्तों को राम या ऊँ का प्रयोग नहीं करना चाहिये और हिन्दुओं को सांई की आराधना नहीं करना चाहिए। भगवान राम को द्वारका के शंकराचार्य एवं राजनैतिक पार्टियांे ने पिंजरे में कैद कर रखा है। ये वे लोग हैं जो राम का मतलब नहीं जानते। राम का मतलब होता है आनंद दायक। इसी से आराम शब्द बना है जैसा कि राम रक्षा स्त्रोत में कहा है
आरामः सकला पदं
यानि सारी आपदाओं को हरने वाले। आगे है अभि रामस्त्रिलोकानां रामः श्री मान्स नः प्रभो।
जैन धर्म का पद्मापुराण श्री राम एवं श्री हनुमान जी की कीर्ति गाथा है।
राम शब्द का उपयोग कबीर दास जी ने बहुत किया है तो क्या कबीर पंथियों से राम शब्द के उपयोग का अधिकार छिन जाना चाहिये। इसी तरह श्री गुरू ग्रन्थ साहिब में भी राम शब्द का उपयोग किया गया है।
‘‘राम’’ तथाकथित शंकराचार्य के बंधक नहीं हैं। राम पर उनका एकाधिकार नहीं हैं। राम तो आत्मा है जो हर प्राणी में है। तथाकथित राजनीतिज्ञों एवं स्वयंभू शंकराचार्य ने उन्हें गुलाम बना दिया। नाम होने से राम एक संज्ञा एवं आनंददायक होने से क्रिया विशेषण है। राम शब्द का उपयोग भगवान राम के पहले परशुराम के नाम के साथ एवं बाद में बलराम के साथ भी हुआ है।
क्या दया राम, सिया राम या राम दयाल इत्यादि नाम ही नहीं रखे जाने चाहिये। इसी तर्ज पर सांई राम कहते हैं। उन शंकराचार्य को तो खुश होना चाहिये कि वे किसी तरह राम का नाम तो लेते हैं। तुलसीदास जी ने कहा भी है कि भाव कुभाव अनख आलस नाम जपत मंगल दिसि दय है।
राम एक वैदिक देवता नहीं हैं अतः तुलसीदास जी का यह कहना कि नति नेति इति निगम कह समझ में नहीं आता। किसी भी वेद में भगवान राम का गुणगान नहीं किया गया हैं। जिन भगवान विष्णु के वे अवतार माने जाते है उन्हें उपेन्द्र कहा गया है। यानि इन्द्र से छोटे। इस तरह विष्णु अनादि नहीं हैं दिति के लड़के हैं। श्रीमद्देवी भागवत महापुराण के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश का निर्माण पराम्बा मूल प्रकृति करती है और वे सब प्रलय में उन्हीं में मिल जाते हैं अतः वे अनन्त भी नहीं हैं।
भगवान कृष्ण ने राम को गीता के दसवें अध्याय में ‘‘राम: शस्त्र भृतामध्दम कह कर उन्हें हाथी घोड़ा, पक्षियों, मगर इत्यादि के समकक्ष रख दिया है। उन शंकराचार्य ने कहा है कि सांई भक्तों को ‘‘ऊँ’’ शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिये क्योंकि ‘‘ऊँ’’ शब्द हिन्दुओं की ही धरोहर हैं, उन शंकराचार्य को जैनों का वणोकार मंत्र रटना चाहिये। ‘‘ऊँ’’ शब्द का प्रयोग सिख लोग भी करते है। मगर शंकराचार्य नाम के व्यक्ति को उन्हें ऊँ के प्रयोग की वर्जना करने की हिम्मत नहीं है। वरन श्रीमदभगवतगीता के सत्रहवें अध्याय के चैबीसवें श्लोक के अनुसार ‘‘तस्मादोभित्यु दा ह्नदय होस्त्र यज्ञ तपः क्रिया’’। प्रचर्तन्ते विद्योनोक्ता सततः ब्रह्ननवादिदनाम यानि इसलिये वेदमंत्रों का उच्चारण करने वालों की शस्त्र विधि से नियत यज्ञ दान और तप क्रियायें सदा ‘‘ऊँ’’ इस उच्चारण से प्रारम्भ होती हैं। इसलिये सांई भक्त ओम् शब्द राम का उच्चारण करते हैं।
माण्डूक्य उपनिषद में कहा गया है सोअयमात्मा अध्यक्षर ओंकार अधिमात्र पादा मात्रा। मात्राश्च पादा इकार उकारो मकार इति। जागरितस्थानो वैश्वानरः। अकारः प्रथम मात्रा। आप्रेरादि मत्वाद वा। आप्रोनिहवै सर्वान कामान आदिष्च भवति य एवं वेद (8 वां एवं 9 वां श्लोक) यह वह अधि अक्षर से ओंकार है। अधिमात्रा पद है और पद ही मात्रा है वह अकार उकार और मकार है जागृत स्थान। वैश्नावर अकार प्रथम मात्रा है आप और आदि होने से इसकी सारी इच्छाऐं पूरी हो जाती है। (10 वां श्लोक) स्वप्न स्थानस तैजसः। उकारो द्वितीया मात्रा। उत्कर्षाद उभयत्वाद वा। उत्कर्षति ह व ज्ञान संततित समानश्च भवति न अस्य अब्रहन विद मुकुल कुले भवति। य एवं वेद (11 रहवां श्लोक) सुषप्रस्थानः प्राज्ञः मकारस तृतीया या मात्रा मितरपतिरवां। मिनोति ह वा इदं सर्वः। अपीतिश्च भवति। य एवं वेद।
यानि स्वप्न की तेजस यह उकार रूपी द्वितीय मात्रा हैं उत्कर्ष के कारण या उभयत्व के कारण। यह ज्ञान संतति का उत्कर्ष करती है। समान होती हैं उसके कुल में कोई अह्नावहनविद नहीं रहता हैं। जो यह जानता है (10 वां श्लोक) सुषप्रि की ‘‘प्राज्ञ’’ यह मकार रूपी तृतीय मात्रा है। मिति या लय के कारण। जो ऐसा जानता है वह इस सारे जगत को नाप लेता है या अपने में लय कर लेता है। इस तरह माण्डूक्स उपनिषद के अनुसार ऊँ का मतलब जागृत, स्वप्न या सुषुप्ति, वैश्नावर तेजस और प्राज्ञ, आदि मध्य और अंत प्राप्ति समान और नाप या कामना, ब्रहमविद लय, आदि है।
शंकराचार्य को जानना चाहिये कि मात्र बारह श्लोकों वाले इस उपनिषद का भाव्ेय आदिगुरू शंकराचार्य एवं उनके गुरू आचार्य गौडपाद जी ने एक साथ किया था। कहीं पढ़ा था कि ओम् के अर्थ शताधिक होते है।
अतः द्वारिका के बलात् शंकराचार्य को सलाह दी जाती है कि वे पहले उदार हिन्दू धर्म की समृद्ध साहित्यिक विरासत का गहन अध्ययन करें फिर कुछ बोलें। उनमें यह कहने की भी हिम्मत होनी चाहिये कि हिन्दू लोग अजमेर शरीफ भी न जायें। उनके वक्तव्य उदार हिन्दू धर्म को विकृत करने की कुचेष्टा है। उन शंकराचार्य के मात्र कुछ सैकड़ा ही अनुयायी है और करोड़ों हिन्दुओं के लिये फतवा जारी कर रहे हैं। यह धार्मिक साहिष्णुता को और भारतीय संस्कृति को विकृत करने की कुचेष्टा है। उन शंकराचार्य की सांई बाबा के खजाने पर भी नजर है।
    मंच पर कहीं से पत्थर की सनसनाहट है,
    किसी के मंच पर आने की छटपटाहट है।।

फिलिस्तीन मामले पर तमाम देशों द्वारा चुप्पी साधना
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
फिलिस्तीन के मौजूदा हालात वहां जनता के लिए दहशत से भरे हुए हैं। क्योंकि वहां पर इजरायली सरकार द्वारा फिलस्तीन पर हमला पिछले 15-20 दिनों से लगातार जारी हैं। इस हमले में 1000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। उपरोक्त आंकड़ों से पता लगाया जा सकता है कि फिलिस्तीन की जनता, मजदूर-किसान, कर्मचारी, छात्रों, की जिंदगी किन हालातों में गुजर रही है। ऐसे संवेदनशील मामले के बारे में भारत में भी भारत की अधिकतर जनता को पता तक नहीं है कि फिलिस्तीन में क्या चल रहा है। यह किसका प्रतीक है?
हमारे देश की सरकार का इसके प्रति उदासीनता का रुख अपनाना, यह भी किसका प्रतीक है? यदि हम गौर करें कि जब इजरायल, फिलिस्तीन देश से छोटे से भू-भाग के रूप में अलग हुआ और उसके बाद में तमाम साम्राज्यवादी देशों की शह में फिलिस्तीन पर हमला करके इजरायल अपना भू-भाग बढ़ाता गया। आगे भी यही क्रम संचालित है, अब बात आती है वर्तमान सरकार का इसके प्रति उदासीन होना यह बताता है कि भारत उसी देश के प्रति सक्रिय होगा जहां से इसके आर्थिक हित सधेंगे। इससे समझ में आता है कि भारत किस तरह से किसी भी देश की संप्रभुता का फिलिस्तीन की जनता के मानवाधिर के हनन पर भी चुप्पी साधे हुए है। उपरोक्त बातों से पता चलता है कि मौजूदा सरकार या पूर्व में सरकार फिलिस्तीन की आम मेहनतकश जनता के साथ न तो रही है और न है। लेकिन इसके साथ विज्ञान का नियम भी है कि समाज में सब कुछ गतिशील है इसी रूप में गतिशीलता का यही प्रमाण है कि फिलिस्तीन की आम जनता के साथ तमाम देशों के मजदूर, किसान छात्र बड़ी संख्या में रहे हैं और रहेंगे भी, मौजूदा मुनाफे पर आधारित समाज व्यवस्था में ऐसी समस्याओं को दूर नहीं किया जा सकता है। ऐसी समस्याओं को दूर करने के लिए सभी देशों की जनता को एकदेशीय स्तर पर, फिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट होकर पूंजीवादी व्यवस्था को बदलकर मजदूरों का समाजवाद लाने के लिए संघर्षरत होना होगा। तभी आज जनता की अकारण मौतें रोकी जा सकती हैं।                 सूर्यप्रकाश, बरेली

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