Wednesday, October 15, 2014

शांति का नोबेल एक बार फिर शांति के लिए नहीं

वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)

       इस वर्ष का शांति का नोबेल पुरूस्कार भारत के कैलाश सत्यार्थी व पाकिस्तान की मलाला युसुफजई को दिया गया है। कैलाश सत्यार्थी जहां ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ से जुड़े हैं वहीं मलाला तालिबान हमले का शिकार हुई लड़कियों की शिक्षा की लड़ाई लड़ने वाली कही जाती हैं। दोनों ही शख्सियतें गैरसरकारी संगठनों से जुड़ी हैं। इस तरह शांति का नोबेल इस वर्ष भी पूर्व के कुछ वर्षों की भांति शांति से दूर-दूर तक कोई सरोकार न रखने वाले व्यक्तियों को दिया गया। 

     साम्राज्यवादियों द्वारा नियंत्रित यह पुरूस्कार एक सोची-समझी नीति के तहत शांति के नाम पर उन लोगों को दिया जाता रहा है जो शांति के नाम पर साम्राज्यवादी लूट-अत्याचार के समर्थक रहे हों। पिछले कुछ वर्षों से तो यह उन व्यक्तियों-संस्थाओं तक को दिया गया जिनका रिकार्ड शांति के लिए नहीं बल्कि अशांति व युद्धों के लिए जगजाहिर है। ओबामा, यूरोपीय यूनियन को शांति का नोबेल इसका उदाहरण है। बांग्लादेश के मोहम्मद युनुस की तरह इस वर्ष के सत्यार्थी-मलाला का शांति से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। 


अल्फ्रेड नोबेल ने अपनी वसीयत में शांति का नोबेल उन लोगों को देने की बात कही थी जो देशों के बीच भाई चारा बढ़ाने, उनके बीच शांति प्रक्रिया बढ़ाने, सैन्य ताकत को घटाने या खत्म करने के लिए सक्रिय रहे हों। इस वसीयत को साम्राज्यवादी या तो भूल चुके हैं या वसीयत की इन बातों का अपने स्वार्थ में मतलब बदल चुके हैं। 
वैश्विक शांति का आज सबसे बड़ा दुश्मन पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था है। जब तक दुनिया में साम्राज्यवाद है तब तक युद्धों का खतरा मौजूद है। इसलिए शांति के लिए संघर्ष करने वाले व्यक्ति के लिए पूंजीवाद साम्राज्यवाद विरोधी होना जरूरी है। परन्तु हास्यास्पद बात यह है कि जो ताकतें दुनिया में भयानक गर्म-ठण्डी मौतों की जिम्मेदार हैं वही ताकतें शांति का नोबेल भी तय करती हैं। इसीलिए या तो वे अपने चहेतों को शांति का पुरूस्कार दे उनके चेहरों पर लगे गरीबों के कत्लेआम के खून को पोंछने का प्रयास करती हैं या फिर इसी व्यवस्था के भीतर कुछ सुधारों का झण्डा उठाये लोगों, जो इन सुधारों से लुटेरी व्यवस्था को कुछ आकर्षक बनाना चाहते हैं को शांति का तमगा दे अपनी लूट की दुनिया को कायम रखना चाहती हैं। पहली कड़ी में ओबामा-यूरोपीय यूनियन आते हैं तो दूसरी कड़ी में मो. युनुस-सत्यार्थी-मलाला आते हैं। 
जहां तक भारत के कैलाश सत्यार्थी का सवाल है  वे इंजीनियर का पेशा छोड़ ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ में सक्रिय हुए। वे बाल श्रम व बच्चों की तस्करी के खिलाफ सक्रिय एनजीओ नेटवर्क के कर्ता-धर्ता हैं। 80 हजार बच्चों की मुक्ति का इन्हें श्रेय दिया जाता है। पुरूस्कार कमेटी ने इनकी तुलना गांधी से की है। यह एनजीओ नेटवर्क उन साम्राज्यवादी दान दाताओं के पैसों पर चलता है जो अपने मुनाफे के लिए खुले-छिपे रूप से दुनिया भर के बच्चों के लिए जीवन को नारकीय बनाने के दोषी हैं जो सस्ते श्रम के स्रोत, देह व्यापार के लिए बच्चों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में या तो खुद लगे हैं या अपने मजदूरों को बेहद कम मजदूरी दे उनकी औलादों को इस दलदल की ओर ढकेलने के मुख्य दोषी हैं। हां! अपने कुकर्मों को ढंकने  के लिए वे ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ सरीखे एनजीओ को दान दे अपने को बाल अधिकारों का समर्थक दिखाते हैं। 
क्या कैलाश सत्यार्थी मजदूरों को बेहतर मजदूरी के लिए पूंजीपतियों से लड़ते हैं ताकि वे बच्चों को काम पर भेजने के बजाय बेहतर परवरिश दे सकें-नहीं। क्या सत्यार्थी बच्चों की जिम्मेदारी लेने के लिए सरकार से लड़ते हैं- नहीं। क्या सत्यार्थी बाल श्रम कराने वाले पूंजीपतियों या बाल तस्करी में लगी कम्पनियों से लड़ते हैं-नहीं। कैलाश सत्यार्थी का एनजीओ पूंजीवादी व्यवस्था के शिकार कुछ बच्चों को एक-एक कर इन दलदलों से निकालता है व साम्राज्यवादी दाताओं व सरकार के सहयोग से इनकी बेहद काम चलाऊ परवरिश का इतजाम करता है। इस तरह ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ बचपन छीनने वाले साम्राज्यवादी पूंजीवादी पेड़ को नहीं काटता बल्कि उसकी बदनुमा टहनियों को काट कर पेड़ की सेवा करता है। इसीलिए साम्राज्यवादी सत्यार्थी के कामों से खुश हैं इसीलिए उन्हें शांति के तमगे से नवाजा जाता है।
वहीं दूसरी ओर मलाला युसुफजई की काबलियत महज इस बात में है कि वो तालिबान हमले का शिकार हुई और उसके बावजूद उन्होंने तालिबान के खिलाफ लड़कियों की शिक्षा की वकालत की। उन्हें स्थापित करने का काम पूंजीवाद-साम्राज्यवादी मीडिया ने किया। आज ये तमाम साम्राज्यवादी संस्थाओं की ब्रांड एम्बेसडर बन चुकी है। अगर मलाला इराक में अमेरिकी बमबारी की शिकार बच्ची होती या फिर इस्राइली हमले की शिकार कोई फिलीस्तीनी लड़की होती तो शायद हममें से कोई मलाला को नहीं जानता और वह इलाज के अभाव में मौत का शिकार हो चुकी होती। परंतु मलाला तालिबानी हमले का शिकार बनी न कि अमेरिकी ड्रोन हमले का इसलिए साम्राज्यवादियों ने केवल उसका इलाज कराया बल्कि तालिबानी आतंक के खिलाफ युद्ध मंे मलाला का भी एक हथियार के बतौर इस्तेमाल कर डाला। मलाला शायद आज अच्छी तरह जानती होगी कि अगर तालिकान 3 दशक पूर्व उस पर हमला कर रहा होता तो तालिबान को पैदा करने वाला अमेरिका हमला करने में तालिबान का सहयोगी रहा होता न कि आज की तरह उसका इलाज करवाने में मददगार। इस तरह मलाला महज साम्राज्यवादियों के हाथ की एक औजार है जिसे उन लाखों मलालाओं से कोई सरोकार नहीं है जिनके बचपन को इराक अफगानिस्तान से लेकर लीबिया-सीरिया पाकिस्तान  तक में साम्राज्यवादी हमलावर छीन रहे हैं। उसे केवल तालिबानी अलकायदा के हमलों की शिकार मलालाओं से सरोकार है। इसीलिए वह साम्राज्यवादियों की चहेती है। इसीलिए उसे शांति का तमगा दिया गया है।
सत्यार्थी-मलाला अमेरिकी जासूसी का रहस्योद्घाटन करने वाले एडवर्ड स्नोडेन और अमेरिकी युद्ध अपराधों का खुलासा करने वाले चेलेसा मैगिंग को पछाड़कर शांति के नोबेल तक इसीलिए पहुंचे कि स्नोडेन-मैनिंग अमेरिकी साम्राज्यवादियों के लिए दिक्कत पैदा करने वाले थे जबकि स्त्यार्थी-मलाला साम्राज्यवाद को खूबसूरत बनाने के प्रयास करते थे।
सत्यार्थी मलाला को नोबल दे ‘पुरूस्कार कमेटी’ भारत-पाक तनावों को भी कम करना चाहती है अब आने वाला वक्त बतायेगा कि भारत-पाक तनाव को कम करने में, कश्मीर मुद्दा सुलटाने में ये कितनी भूमिका निभायेंगे।

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