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प्रावदा अखबार की रूसी क्रांतिकारी आंदोलन में भूमिका
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)

आपातकाल के चालीस साल
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    जून, 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा के अब चालीस साल हो चुके हैं। हालांकि यह आपातकाल केवल डेढ़ साल ही लागू रहा पर देश की पूंजीवादी राजनीति में एक महत्वपूर्ण मुकाम के नाते यह आज भी चर्चा करने योग्य है। 
    इंदिरा गांधी की कांग्रेसी सरकार द्वारा 1975 में आपातकाल लागू करने का तात्कालिक कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द किया जाना था। इस निर्णय से बौखलाकर इंदिरा गांधी ने वह कदम उठाया था। थोड़ा और व्यापक कारण इंदिरा सरकार के खिलाफ वे विरोध प्रदर्शन थे जो जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहे थे तथा जिसमें भारतीय जनसंघ से लेकर समाजवादी तक सभी गोलबंद थे। इंदिरा गांधी ने इस गठबंधन को प्रतिक्रियावादी करार दिया था और कहा था कि यह गठबंधन उनकी गरीबपरस्त प्रगतिशील नीतियों का विरोधी है। 
    आज चालीस साल बाद आपातकाल को भारत की पूंजीवादी राजनीति और अर्थव्यवस्था के विकास की गतिकी में समझना लाभप्रद होगा। तब पक्ष-विपक्ष को उसको संदर्भ में बेहतर ढंग से अवस्थित किया जा सकता है। 
    1975 का आपातकाल उस संकट की अंतिम परिणति था जो भारत के पूंजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र में 1960 के दशक के मध्य में शुरू हुआ था। खाद्यान्न दंगे, पी.एल.-480 के तहत अमेरिका से गेहूं का आयात तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से अपमानजनक शर्तों पर ऋण इसकी सघन अभिव्यक्ति थे। 
    1960 के मध्य में तीखे ढंग से आया आर्थिक संकट नेहरू सरकार द्वारा अपनाई गयी आर्थिक नीतियों पर पहला बड़ा सवालिया निशान था। तब तक ये नीतियां लगभग सर्वमान्य थीं हालांकि भारत के पूंजीवादी हलकों में एक धड़ा हमेशा ऐसा था जो पश्चिमपरस्त खुली अर्थव्यवस्था वाली नीतियां चाहता था। भारतीय जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी जैसी पार्टियां इसकी नुमाइंदगी करती थीं। 
    तथाकथित समाजवादी पैटर्न वाली जो नीतियां नेहरू सरकार ने लागू की थीं और जो 1944 के टाटा-बिडला प्लान के अनुरूप थीं उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था के ठहराव को खासकर कृषि में ठहराव को तोड़ा था। पर इससे जो वृद्धि हासिल हुई थी, वह बहुत कमजोर थी। के.एन.राज ने इसे ‘हिन्दू विकास दर’ का नाम दिया था जो चल पड़ा। जो थोड़ा बहुत विकास हुआ भी उसका वितरण बेहद असमान था। इन सबके ऊपर थी वह वादाखिलाफी जो कांग्रेस पार्टी ने सत्ता हालिस करने के बाद की थी- खासकर भूमि सुधार के मसले पर। 
    सम्पत्ति संबंधों में बिना बड़े पैमाने के बदलाव के पूंजीवादी विकास का जो माॅडल नेहरू के नेतृत्व ने कांग्रेस पार्टी और तत्कालीन पूंजीपति वर्ग ने चुना था उसमें ‘हिन्दू विकास दर’ से भिन्न परिणाम नहीं निकलना था। केवल इतना ही नहीं, इसे तीखे ढंग से संकटग्रस्त भी हो जाना था। और 1960 के दशक में वह संकटग्रस्त हो गयी। 
    इस संकट का तात्कालिक समाधान निकालने के साथ स्वभावतः ही इस बात पर बहस छिड़नी थी कि आगे का रास्ता क्या हो। जहां स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ जैसे तत्व पहले से ही पश्चिमपरस्त खुली अर्थव्यवस्था की वकालत कर रहे थे वहीं स्वयं कांग्रेस पार्टी के भीतर एक धड़ा मुखर हुआ जो नेहरू की नीतियों को मूलतः जारी रखते हुए भी दूसरी ओर ढुलकना चाहता था। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सिंडिकेट वाला धड़ा न केवल कांगे्रस पार्टी के नेतृत्व के लिए संघर्ष कर रहा था बल्कि देश की नीतियों की खास दिशा में लिए भी। कांग्रेस पार्टी के भीतर इंदिरा गांधी और उनके विरोधियों के बीच नेतृत्व को लेकर जो संघर्ष शुरू हुआ था वह यदि 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण तक पहुुुंचा तो इसलिए कि उसकी पृष्ठभूमि में यह अंतर्वस्तु विद्यमान थी। बात यह नहीं थी कि इंदिरा गांधी की अपनी व्यक्तिगत निष्ठाएं क्या थीं। बात यह है कि खास तरह की नीतियों के लिए उन्होंने संघर्ष किया और उसे अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं के लिए इस्तेमाल किया। 
    भारत के पूंजीपति वर्ग को उम्मीद थी कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों की मदद से शुरू की गयी हरित क्रांति तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण इत्यादि से (जो हरित क्रांति और लघु-मंझोले उद्योगों के लिए जरूरी था, साथ ही ज्यादा संतुलित विकास के लिए भी) भारत की अर्थव्यवस्था का संकट हल हो जायेगा तथा वह गति पकड़ लेगी। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी को मिली बड़ी जीत से उन्हें आश्वस्ति भी मिली कि राजनीतिक स्थिरता रहेगी और इससे अर्थव्यवस्था को तेज गति से वृद्धि करने में मदद मिलेगी। 
    पर पूंजीपति वर्ग की यह इच्छा पूरी न हो सकी। भारत की अर्थव्यवस्था फिर 1973-74 में संकट में फंसी और इस बार इसके साथ एक राजनीतिक संकट भी शुरू हुआ। 1971 में जो राजनीतिक स्थिरता दिख रही थी वह सतही साबित हुई। 
    वैसे तो अस्थिरता की मुखर अभिव्यक्ति 1967 में भारत के देहातों में हुए विद्रोहों में हुई थी जिसे कालांतर में नक्सलवाड़ी आंदोलन का नाम दिया गया तथा जिस कारण हरित क्रांति को ज्यादा शिद्दत से लागू करने के लिए भारत का पूंजीपति वर्ग उद्यत हुआ था पर 1971 तक शासक पूंजीपति वर्ग ने मान लिया था कि इस विद्रोह की असफलता के बाद मामला शांत हो गया है। 
    अंदर ही अंदर पक रही अस्थिरता की एक गहन अभिव्यक्ति 1974 की रेलवे हड़ताल में हुई जिसे सरकार ने बुरी तरह कुचला। रेलवे में सरकारी कर्मचारी देश के सबसे वंचित लोग नहीं थे। लेकिन तब भी यदि उन्होंने इस तरह के संघर्ष का रास्ता चुना तो यह इसी बात की अभिव्यक्ति थी कि भारतीय समाज में असंतोष भारी मात्रा में इकट्ठा हो गया था जो कभी भी और बड़े पैमाने पर फूट सकता था। 
    असल में देखा जाये तो यह उस मोहभंग की देर से हुई अभिव्यक्ति थी जो 1960 के दशक में ही शुरू हो गया था। या शायद यह कहना ज्यादा उचित होगा कि शुरूआती मोहभंग की पीड़ा-निराशा के बाद यह उस क्षोभ का निर्माण और विस्फोट था जिसे होना ही था। इसमें परेशानी की बात यही थी क्रांतिकारी शक्तियों की अनुपस्थिति में इसे नेतृत्व दिया व्यवस्थापरस्त और प्रतिगामी शक्तियों ने और इससे फायदा भी उन्होंने ही सबसे ज्यादा उठाया। 
    यहां यह महत्वपूर्ण है कि उस समय राजनीतिक स्तर पर जितना विभाजन और अस्थिरता थी उतना पूंजीपति वर्ग के स्तर पर नहीं थी। यदि ऐसा होता तो यह अस्थिरता और नये आयाम ग्रहण कर लेती और तब मामला व्यवस्था के गंभीर संकट का रूप ले लेता। सच बात यह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर समूचा पूंजीपति वर्ग तब इंदिरा सरकार के साथ खड़ा था। वह उसी में अपनी मुक्ति देख रहा था। 
    1974-76 का संकट भारत के पूंजीवाद का वह संकट था जो व्यवस्था के गंभीर संकट में रूपांतरित हो सकता था। भारत का पूंजीपति वर्ग इसके प्रति सचेत था। इसीलिए जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित किया तो पूंजीपति वर्ग उसके साथ खड़ा था। पूंजीपति वर्ग ने जनतंत्र की हत्या का रोना नहीं रोया। लेकिन डेढ़ साल बाद जब आपातकाल समाप्त हुआ तो नई बनी जनता पार्टी की सरकार ने उसे कोई परेशानी नहीं थी। एक तरह से यह अच्छा ही हुआ था कि तनाव के साल गुजर चुके थे, तनाव खत्म हो चुका था और सामान्य अवस्था बहाल हो चुकी थी। 
    जो पूंजीवादी पार्टियां संकट के काल में अस्थिरता को हवा दे रही थीं वे अपने व्यक्तिगत हितों के साथ समाज की कुछ शक्तियों को भी अभिव्यक्ति प्रदान कर रही थीं। छात्र-युवा इसमें सबसे आगे थे। लेकिन इसके साथ देहातों के नये धनिक भी अपने हितों के लिए स्वर बुलंद कर रहे थे। समाजवादी इन्हीं का प्रतिनिधित्व करते थे। शहरों के आन्दोलनरत छात्र-युवा की बडी संख्या भी इसी पृष्ठभूमि से आती थी। जहां तक राष्ट्रीय स्वयं संघ और भारतीय जनसंघ का सवाल है वे इंदिरा सरकार की नीतियों के वैचारिक विरोधी होने के साथ समाज के उस हिस्से को भी स्वर दे रहे थे जिसने आरक्षण विरोधी आंदोलन और रामजन्म भूमि आंदोलन में अपना असली मुकाम पाया। लेकिन इस समय इन्हें देश के बड़े एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग का समर्थन हासिल नहीं था। देश का बड़ा पूंजीपति वर्ग इन्हें अभी इस लायक नहीं समझता था कि इन्हें सत्ता सौंप सके हालांकि इनके हौच-पौच गठबंधन यानी जनता पार्टी को उसने स्वीकार कर लिया था। 
    1974-76 का राजनीतिक संघर्ष प्रगतिशील ताकतों और प्रतिक्रियावादियों के बीच का संघर्ष नहीं था जैसाकि इंदिरा गांधी ने इसे रूप देने का प्रयास किया था और जिसे स्वीकार कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इंदिरा गांधी के पीछे चल पड़ी थी। यह संघर्ष भारत की पूंजीवादी व्यवस्था के आंशिक संकट से पैदा हुआ था जिसे क्रांतिकारी शक्तियों के अभाव में प्रतिक्रियावादी और मध्यमार्गी सभी अपने-अपने हितों में इस्तेमाल कर रहे थे। उस समय इंदिरा गांधी देश के बड़े एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के हितों को साधने में लगी थीं। उसमें प्रगतिशीलता का तत्व नारों तक सीमित था जिसे आपातकाल ने एक झटके से बेनकाव कर दिया। 
    जैसा कि हमेशा ही होता है, क्रांतिकारी शक्तियों के अभाव में इस आंशिक संकट का सबसे ज्यादा फायदा संघ परिवार ने उठाया। न केवल वह जनता पार्टी सरकार में सत्तानशीन हो गया बल्कि उसके बाद उसने तेजी से प्रसार किया। 1984 के चुनाव में झटके के बावजूद तब से उसका इतिहास प्रसार और विकास का ही रहा है। 
    उस संकट का क्या हुआ जो 1974-76 में पैदा हुआ था? खासकर उस आर्थिक संकट का क्या हुआ जो 1960 के दशक के मध्य से पैदा होकर 1970 के दशक के मध्य तक जारी रहा था और जिसने अंततः आपातकाल को जन्म दिया था?
    भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट का हल करने के लिए और भारत में पूंजीवादी प्रसार के लिए जो कदम इंदिरा सरकार ने उठाये थे उन्होंने अपना असर दिखाया और आपातकाल के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था ने थोड़ी गति पकड़ी। हालांकि 1980-81 में एक अल्पकालिक संकट आया पर इसने पहले जितना भीषण रूप ग्रहण नहीं किया। वस्तुतः यह 1980 का दशक ही था जब भारतीय अर्थव्यवस्था ने ‘हिन्दू विकास दर’ छोड़ी और करीब साढे़ पांच प्रतिशत सालाना की दर से आगे बढ़ी। 
    भारत की अर्थव्यवस्था की इस विकास के अपने अंतर्विरोध थे जो इसे 1990-91 के संकट तक ले गये और तब भारत के पूंजीपति वर्ग ने तय किया कि नेहरूवादी माडल छोड़कर उदारीकरण-निजीकरण की नीतियां अपना ली जायें। इसकी शुरूआत इंदिरा गांधी ने की थी, जिसे राजीव गांधी ने आगे बढ़ाया तथा जिसे अपनी परिणति तक पहुंचाया नरसिंहराव और मनमोहन सिंह ने। भारत का पूंजीपति वर्ग अब एक नई अवस्था में पहुंच चुका था और उसी के अनुरूप उसे नई नीतियों की दरकार थी। 
    भारत के पूंजीपति वर्ग ने आपातकाल से कुछ न कुछ सीखा और पिछले चार दशकों में फिर वैसी नौबत नहीं आई। लेकिन इसी के साथ यह बात भी है कि भारत की पूंजीवादी व्यवस्था को उतने बड़े संकट का फिर शिकार भी नहीं होना पड़ा। 1988-89 से लेकर 1992-93 तक संकट (मूलतः रामजन्म भूमि और आरक्षण विरोध के इर्द-गिर्द) 1974-76 के मुकाबले बहुत हलका था। इससे भी बड़ी बात यह कि 1980 के दशक से ही हिन्दू फासीवादी जिस तरह मजबूत होते गये हैं उससे पूरे मामले को ही एक भिन्न दिशा मिल गयी है। 1975 में इंदिरा गांधी ने एक व्यक्ति की सत्ता स्थापित करते हुए सत्ता की मशीनरी का इस्तेमाल किया था, हालांकि उन्हें पूंजीपति वर्ग का पूरा समर्थन हासिल था। अब एक पूरा फासीवादी आंदोलन मौजूद है। यह 1974-75 की तरह के संकट को एक बिलकुल भिन्न स्तर पर ले जा सकता है। 
    आज भारत का पूंजीवादी समाज जितने तीखे अंतरविरोधों से ग्रस्त है उसमें 1974-75 की तरह की स्थितियां कभी भी पैदा हो सकती हैं। बल्कि मामला तेजी से आगे बढ़कर ज्यादा विस्फोटक स्थिति तक जा सकता हैं। ऐसे में आपातकाल के बदले हिन्दू फासीवादी ताकतें आगे बढ़कर अपनी तानाशही कायम करने का प्रयास कर सकती हैं। व्यवस्था के संकट की उस घड़ी में तब भारत का पूंजीपति वर्ग उसी तरह इनका समर्थन करेगा। जैसे उसने कभी इंदिरा गांधी के आपातकाल का किया था। लेकिन फर्क यह होगा कि एक बार इस हिन्दू फासीवाद के सफल हो जाने के बाद उसे उतनी आसानी से नहीं समाप्त किया जा सकेगा जितनी आसानी से आपातकाल समाप्त हो गया था। 
    देश की क्रांतिकारी शक्तियां 1974-75 में बहुत कमजोर थीं। इसीलिए वे जन के असंतोष को नेतृत्व नहीं दे सकीं। वे शक्तियां अभी भी बहुत कमजोर हैं। ऐसे में फासीवादी खतरे को सशक्त चुनौती देने के लिए पहला कार्यभार यही बनता है कि शक्ति संचित की जाय। स्वभावतः ही यह मुकाबला करते हुए ही किया जा सकता है। 
 मास्को की लड़ाई हिटलर की पराजय की शुरूआत थी
द्वितीय विश्व 70 वीं वर्षगांठ पर
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
 (प्रस्तुत लेख जैक आर पावेल्स के लेख के अधिकांश हिस्सों को भावानुवाद है। इसे गूगल सर्च डाट काॅम सी.ए. से साभार लिया गया है। उम्मीद है कि फासीवादी विरोधी संघर्ष में समाजवादी सोवियत संघ की निर्णायक भूमिका को समझने में यह मददगार होना-सम्पादक)   द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत 1939 में जर्मनी द्वारा पोलेंण्ड पर कब्जा करने से हुई थी। लगभग 6 माह बाद जर्मनी ने बेल्जियम, नीदरलैण्ड, लक्जमबर्ग और फ्रांस पर कब्जा कर लिया। 1940 की गर्मियों तक जर्मनी अजेय नजर आ रहा था और अनिश्चित काल तक यूरोपीय महाद्वीप पर शासन करने की सोच रहा था। उस समय तक ग्रेट ब्रिटेन के शासक निराश हो चुके थे और वे सोचने लगे थे कि अपने बल पर युद्ध नहीं जीत सकते। उन्हें इस बात का भी डर था कि हिटलर जल्द ही अपना ध्यान मिस्र और ब्रिटिश साम्राज्य के ताज पर लगे अन्य नगों पर केंद्रित करेगा। 5 साल बाद जर्मनी को पूर्ण पराजय की पीड़ा व अपमान झेलना पड़ा। 20 अप्रैल, 1945 को हिटलर ने बर्लिन में उस समय आत्महत्या कर ली जब सोवियत संघ की लाल सेना ने उस शहर पर धावा बोल दिया और शहर को खंडहरों में तब्दील कर दिया। तब 8-9 मई, 1945 को जर्मनी ने बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया। 
    यह स्पष्ट है कि 1940 के उत्तरार्ध व 1944 के बीच किसी समय नाटकीय ढंग से पलड़ा पलट गया था। लेकिन यह सब और कहां पलटा? कुछ लोगों के अनुसार नारमंडी (फ्रांस) में हुआ। लेकिन अधिकांश लोगों का मत है कि 1942-43 के जाड़ों के दौरान यह स्टालिनग्राद में पलटा। वास्तविकता भी यही है कि दिसंबर 1941 में सोवियत संघ में पलटा। विशेष तौर पर मास्को के ठीक पश्चिम की बंजर भूमि में यह पलटा। जैसा कि एक जर्मन इतिहासकार जो सोवियत संघ के विरुद्ध युद्ध का विशेषज्ञ है, ने कहा कि लाल सेना की यह विजय (मास्को के सामने) समूचे विश्वयुद्ध में निस्संदेह रूप से एक बड़ी मोड़ थी। 
    सोवितय संघ में लड़ाई के इस परिदृश्य में द्वितीय विश्व युद्ध के चरित्र को की बदल दिया। यह कोई आश्यर्चजनक बात नहीं थी। सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध ऐसा युद्ध था जिसे हिटलर शुरू से ही चाहता था। इसे उसने 1920 के दशक के मध्य में लिखी अपनी आत्मकथा ‘मीन कैम्फ’ में बहुत स्पष्टतया से जिक्र कर दिया था। इसके साथ ही सोवितय संघ के खिलाफ युद्ध जर्मनी के फौजी जरूरतों व वहां के बड़े उद्योगपतियों और जर्मनी की व्यवस्था में अन्य स्तम्भों की भी ख्वाहिश थी। वस्तुतः द्वितीय विश्व विजय युद्ध सोवियत संघ के विरुद्ध युद्ध था जिसे हिटलर ने 1939 में शुरू किया था। यह न तो पौलेण्ड और फ्रांस के विरुद्ध था और ना ही ब्रिटेन के विरुद्ध। 11 अगस्त, 1939 को हिटलर ने लीग आफ नेशंस के एक अधिकारी से कहा था कि यदि पश्चिम (फ्रांसीसी और ब्रिटिश) इतने मूर्ख और अंधे हैं कि इस बात को नहीं समझते तो वो मजबूर होकर रूसियों के साथ एक समझौता करेगा और मुड़कर पश्चिम देशों को पराजित करेगा और फिर दोबारा मुडे़गा और अपनी पूरी ताकत के साथ सोवियत संघ के विरुद्ध व्यापक प्रहार करेगा। वस्तुतः ऐसा ही हुआ। जैसा कि हिटलर ने मास्को के साथ हिटलर-स्टालिन समझौता किया और तब उसने पौलेण्ड, फ्रांस, ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। लेकिन उसका उद्देश्य हमेशा यही बना रहा कि जितना जल्दी हो सके सोवियत संघ पर हमला करे और उसे नष्ट करे। 
    हिटलर और जर्मनी के जनरल इस बात से मुतमुईन थे कि उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध से एक महत्वपूर्ण सबक यह सीखा था कि आधुनिक युद्ध के विजय के लिए तेल और रबर जैसे कच्चे मालों की कमी होने से जर्मनी एक लम्बे समय तक चलने वाले युद्ध को नहीं झेल सकता। इसलिए आगामी युद्ध जर्मनी को तेजी के साथ, बहुत तेजी के साथ जीतना होगा। इसी से बिल्ट्जक्रीग की अवधारणा पैदा हुई इसका मतलब था कि युद्ध बिजली की गति से होगा। बिल्ट्जक्रीग का मतलब मशीनों से होने वाला युद्ध था। इसलिए जर्मनी ने 30 के दशक के दौरान ऐसे युद्ध की तैयारी के बतौर भारी पैमाने पर टैंकों और हवाई जहाजों के साथ फौजों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिए ट्रकों को हासिल करना शुरू किया। व्यापक मात्रा में तेल और रबर का आयात किया गया और इनका भंडार एकत्र किया गया। तेल की इस मात्रा का अधिकांश अमेरिकी कारपोरेशनों से खरीदा गया। इसमें से कुछ अमेरिका द्वारा कोयला से ईंधन पैदा करने के नाम पर उदारतापूर्वक उपलब्ध कराया गया। 1939-40 में इन हथियारों के मदद से जर्मनी की सेनाओं ने पौलेण्ड, नीदरलैण्ड और फ्रांस की सुरक्षा को कुछ सप्ताहों के भीतर ही हजारों लड़ाकू जहाजों और टैंकों के साथ हमला करके तहस-नहस कर दिया। बिल्ट्जक्रीग में बिल्ट्ज सीज (त्वरित गति से तेज विजय) को जन्म दिया। 
    इन विजयों में जो निःसंदेह बहुत तेज गति से हुई थी लेकिन वे ऐसी नहीं थी कि वे जर्मनी को तेल और रबर के महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में ज्यादा लूट उपलब्ध करा सकें। इसके बजाय इस तेज गति के युद्ध ने उसके इकठ्ठे भंडार को कम कर दिया। हिटलर के लिए सौभाग्यवश 1940-41 जर्मनी ने अभी भी संयुक्त राज्य अमेरिका से तेल का आयात जारी रखा। यह सीधे तौर पर तो नहीं था लेकिन स्पेन के फ्रेंको के शासन के अंतर्गत आने वाले मित्र देशों के द्वारा यह जारी था। ...........
    ये समझ में आने लायक बात है कि फ्रांस की पराजय के बाद हिटलर ने जल्द ही सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध की अपनी पहली योजना पर काम करना शुरू कर दिया। 18 दिसंबर, 1940 को हिटलर ने ऐसे हमले की तैयारी करने के लिए औपचारिक आदेश दे दिया इसका कोड नाम ‘आप्रेशन बार-बरोशा’ दिया गया। हिटलर 1939 से ही सोवियत संघ पर हमले के लिए बहुत व्यग्र था लेकिन अपने पृष्ठ भाग को सुरक्षित रखने के लिए ही उसने पहले पश्चिम की ओर कदम रखा। 1944 तक हिटलर के लिए कुछ भी नहीं बदला था क्योंकि वह अपने असली दुश्मन को पूरब की ओर देखता था। वह अपने जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण आकांक्षा को पूरा करने के लिए यानी कि सोवियत संघ को नष्ट करने के लिए बहुत समय तक इंतजार नहीं कर सकता था। इसके अतिरिक्त वह जानता था कि जर्मन हमले के लिए सोवियत संघ तेजी के साथ अपनी सुरक्षा की तैयारी कर रहा है क्योंकि सोवियत संघ अच्छी तरह से जानता था कि देर-सबेर जर्मनी उस पर हमला करेगा। क्योंकि सोवियत संघ दिन व दिन मजबूत होता जा रहा था इसलिए स्पष्टतया हिटलर के पक्ष में समय नहीं था। वह तब तक इंतजार नहीं कर सकता था कि पहले अवसर की खिड़की उसके लिए बंद हो जाय। 
    इसने भी अधिक सोवियत संघ के विरुद्ध बिल्ट्जक्रीग छेड़ने से उस विशाल देश के अंतहीन संसाधनों पर जर्मनी के कब्जे होने की उम्मीद थी जिसमें जर्मनी की आबादी को पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने के लिए उक्रैनी गेहूं के साथ युद्ध के लिए जरूरी खनिजों के मिलने की गारंटी थी। इससे भी बढ़कर बाकू और ग्रोजनी के समृद्ध तेल भंडारों से उसके टैंक भरे जा सकते थे जो किसी भी समय चारों ओर हमला कर सकते थे। यदि इन खजानों पर कब्जा हो जाता तो हिटलर के लिए ब्रिटेन से निपटना बहुत आसान हो जाता। उदाहरण के लिए जिब्राल्टर पर कब्जा कर शुरू करने से जर्मनी अंततोगत्वा विश्व शक्ति बन जाता जो अटलांटिक से उराल तक फैले यूरोपीय दुर्ग के भीतर अविजेय होता और जिसके पास अनंत संसाधन होते और इसलिए संयुक्त राज्य अमेरिका सहित किसी भी विरोधी के विरुद्ध लम्बे समय तक चलने वाले युद्धों में भी विजय हासिल करने में समर्थ होता। यह हिटलर की पागलपन भरी कल्पना थी जो भविष्य में महाद्वीपों के युद्धों से मिलकर बनी थी। 
    हिटलर और उसके जनरलों को विश्वास था कि सोवियत संघ के विरुद्ध बिल्ट्जक्रीग छोड़ने की उनकी तैयारी उसी तरह सफल हो जायेगी जैसे कि पौलेण्ड और फ्रांस के विरुद्ध बिजली की गति से सफल हो चुकी थी। वे सोवियत संघ को चीनी मिट्टी के पैरों वाला विशाल शरीर के बतौर देखते थे। सोवियत सेना को कमजोर समझते थे। वे जीतने के लिए विशेष तौर पर निर्णायक लड़ाईयों को जीतने के लिए 4-6 सप्ताह तक के अभियान को पर्याप्त समझते थे। वे समझते थे कि इसके बाद कुछ समय और लेकर पिटे हुए कज्जाकों की भीड़ की तरह सोवियत सत्ता के अवशेषों को समूचे देश से खत्म कर देंगे। किसी भी तरह हिटलर उस समय अत्यन्त आत्मविश्वास से भरा हुआ था और हमला होने के ठीक पहले वह अपने को ऐसा प्रदर्शित कर रहा था कि वह अपने जीवन की सबसे महान विजय के कगार पर है। 
    वाशिंगटन और लंदन के सैन्य विशेषज्ञों का यही विश्वास था कि सोवियत संघ नाजी आक्रमण का कोई महत्वपूर्ण प्रतिरोध करने में समर्थ नहीं होगा। 1939-40 की जर्मनी के सैनिक अभियानों की सफलता ने उसे अजेय होने की ख्याति प्रदान कर दी थी। ब्रिटिश गुप्तचर सेवा इस दृढ़ राय की थी कि सोवियत संघ को चकनाचूर होने में 8 से 10 सप्ताह का समय लगेगा। ब्रिटिश सेना के मुखिया फील्ड मार्शल सर जोन डील ने कहा था कि जर्मन सेना लाल सेना को उसी तरह काटकर रख देगी जैसे कि गरम चाकू मक्खन को काटकर रख देता है। उसने यह भी कहा कि लाल सेना को जानवरों की तरह घेर लिया जायेगा। इसी प्रकार अमेरिका के सैन्य विशेषज्ञों की राय थी कि हिटलर रूस को अंडे की तरह मसल देगा।
    जर्मनी का हमला 22 जून, 1941 को सुबह तड़के शुरू हुआ। 30 लाख जर्मन फौजें और लगभग 7 लाख नाजी जर्मनी की सहयोगी फौजें सोवियत सीमा को पारकर गई। उसके हथियार और साजो-सामान इस प्रकार थे- 6 लाख मोटर गाडि़यां, 3648 टैंक और 2700 से ज्यादा हवाई जहाज तथा 7 हजार से अधिक तोपें थी। शुरू में सब कुछ योजना के अनुसार हुआ। सोवियत रक्षा पंक्ति को तोड़कर बड़ी-बड़ी जगहें बना ली गयीं और तेजी के साथ काफी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया गया। लाल सेना के लाखों सैनिक मारे गये, घायल हुए या घेरा डालने वाली लड़ाइयों में बंदी बना लिये गये। जुलाई के अंत में इस्मोलेस्क के आस-पास ऐसी ही एक लड़ाई के बाद ऐसा लगने लगा कि मास्को के लिए रास्ता साफ है। 
    फिर भी यह जल्द ही सबको स्पष्ट हो गया कि पूर्व में बिल्ट्जक्रीग उतना आसान नहीं होगा जितना कि उम्मीद की जा रही थी। पृथ्वी की सबसे शक्तिशाली सैन्य मशीन का मुकाबला करते हुए लाल सेना ने बहुत बहादुरी का परिचय दिया जिसके बारे में जर्मनी के प्रचार मंत्री गोमबल्स ने 2 जुलाई को अपनी डायरी में लिखा कि लाल सेना ने बहुत मजबूत प्रतिरोध किया है और एक से अधिक अवसरों पर उसने तेजी से जवाबी हमला किया। हमले की ‘आप्रेशन बार बरोशा’ योजना के गाॅड फादर जनरल फ्रैंज होल्डर ने स्वीकार किया कि सोवियत प्रतिरोध उन सभी जगहों से ज्यादा बड़ा है जितना कि जर्मनी ने पश्चिमी यूरोप में झेला था। जर्मनी की सेना की एक रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया कि उसे दुदर्श, कठिन और व्यापक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है जिससे जर्मनी के पक्ष में आदमी और हथियारों की दृष्टि से भारी नुकसान उठाना पड़ा। उम्मीद से बहुत अधिक जल्दी ही सोवियत सेनाएं प्रत्याक्रमण करने में लग गयीं जिससे जर्मनी की सेनाओं को आगे बढ़ना धीमा हो गया। सोवियत सेना की कुछ इकाईयां विशाल प्रीपेट के दलदलों और इधर-उधर छिप गयीं और भीषण छापामार युद्ध संगठित करने लगी और जर्मन संचार लाइनों के लिए खतरा बन गयी। यह भी पाया गया कि लाल सेना उम्मीद से बेहतर तैयारी कर चुकी थी। जर्मनी के जनरलों कत्यूशा, राकेट लांचर और टी-34 टैंक जैसे सोवियत हथियारों के गुणों को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। हिटलर इस बात से गुस्से से बौखला गया कि उसकी गुप्तचर सेवाओं को ऐसे हथियारों की मौजूदगी की कोई जानकारी नहीं थी। 
    जर्मनी के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय यह था कि अधिकांश लाल सेना अपेक्षाकृत क्रमबद्ध तरीके से पीछे हटने में सफल हुई थी। और बड़े सैन्य हमले में नष्ट होने से अपने को बचा लिया था। हिटलर और उसके जनरलों ने यह कल्पना की थी कि केन या सैडान की तरह यहां भी पुनरावृत्ति होगी। सोवियतों ने 1939-40 की जर्मनी की बिल्टजक्रीग सफलताओं का सावधानी से निरीक्षण एवं विश्लेषण किया था तथा इससे उपयोगी निष्कर्ष निकाले थे। उन्होंने इस बात पर जरूर ध्यान दिया होगा कि मई, 1940 में फ्रांस ने अपनी सेनाओं को ठीक सीमा पर और उसके साथ ही बेल्जियम में इकट्ठा कर रखा था। इससे जर्मन युद्ध मशीन के लिए यह संभव हो सका कि वह उन्हें व्यापक हमले में घेर सके। सोवियत संघ ने भी अपनी कुछ फौजें सीमा पर लगा रखी थी और बार बरोसा के शुरूआती मंजिलों के दौरान सोवियत संघ की सेनाओं को व्यापक नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन लाल सेना का अधिकांश हिस्सा पृष्ठभूमि में रखा गया था जिससे कि वे हिटलर के जाल में न फंसे। यह भीतर तक सुरक्षा ही थी जिसने समूची लाल सेना को नष्ट करने की जर्मनी की आकांक्षा को ध्वस्त किया। जैसा कि मार्शल जुकोव ने अपनी संस्करणों में लिखा है कि सोवियत संघ नष्ट हो गया होता यदि उसने अपनी सारी फौजों को सीमा पर तैनात किया होता। 
    जुलाई के मध्य तक जब हिटलर का युद्ध पूर्व में अपनी बिजली की गति का गुण खोना शुरू कर चुका था। उस समय कुछ जर्मन नेता गहरी चिंता व्यक्त करने लगे थे। जर्मन खुफिया के एक अधिकारी ने यह कहा था कि मोर्चे पर उसे अंधकार के सिवाय कुछ नहीं दिखाई देता। घरेलू मोर्चे पर भी जर्मनी के कई नेतागण यह महसूस करने लगे थे कि पूरब के युद्ध में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। किसी नेता ने अपनी डायरी में लिखा हमें गंभीर नुकसान पहुंचा है। हमने रूसियों को कम करके आंका था। इसी समय के आस पास हिटलर ने अपनी तुरंत और आसान  विजय के विश्वास को त्याग दिया और अपनी उम्मीदों को नीचे ले आया। अब वह यह उम्मीद जताने लगा कि उसकी फौजें अक्टूबर तक बोल्गा तक पहुंच सकती है और एक महीने या उससे अधिक बाद में काकेशस के तेल भंडारों पर कब्जा कर लेंगे। अगस्त के अंत तक जब ‘बार-बरोसा’ को खत्म किया जा रहा था उस समय जर्मनी के सैन्य नेता यह स्वीकार करने लगे थे कि 1941 में युद्ध को जीतना संभव नहीं हो पायेगा। 
    एक बड़ी समस्या यह थी कि 22 जून को जब ‘बार-बरोसा’ शुरू किया गया था उस समय ईधन, टायर, कलपुर्जे इत्यादि की उपलब्ध आपूर्ति केवल 2 महीने के लिए ही पर्याप्त थी। उसे पर्याप्त इसलिए समझा जा रहा था क्योंकि 2 महीने के भीतर सोवियत संघ अपने घुटने टेक देगा और इसके असीमित संसाधन, औद्योगिक उत्पादन के साथ-साथ कच्चे माल भी जर्मनी के लिए उपलब्ध हो जायेंगे। फिर भी अगस्त के अंत तक जर्मनी सोवियत संघ के उन क्षेत्रों से बहुत दूर था जहां तेल और अन्य महत्वपूर्ण फौजी माल उपलब्ध थे। यदि टैंक दौड़ते रहे भले ही वह रूस और उक्रैन के अंतहीन लगने वाले विस्तार में दौड़ रहे थे तो यह केवल संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा आयतित ईधन एवं रबर के दम पर ही था। जर्मनी में होने वाले महत्वपूर्ण तेल के आयात का अमेरिकी हिस्सा 1941 की गर्मियों के दौरान जो जुलाई में 44 प्रतिशत था वह सितंबर में बढ़कर 94 प्रतिशत हो गया। 
    सितम्बर में आशावाद की लपट फिर से ऊपर उठी जब जर्मनी की फौजों ने कीयेव पर कब्जा कर लिया और साढ़े छः लाख युद्धबंदी बना लिये तथा उत्तर की ओर मास्को की दिशा में आगे बढ़ गये। हिटलर यह विश्वास करने लगा था या कम से कम विश्वास करने का दिखावा करने लगा था कि सोवियतों की समाप्ति अब नजदीक है। 3 अक्टूबर को एक सार्वजनिक भाषण में उसने घोषणा कि कि पूर्वी मोर्चे पर युद्ध वस्तुतया समाप्त हो गया है और मास्को पर कब्जा करके के लक्ष्य को ध्यान में रखकर ‘आप्रेशन टाइफून’ शुरू किया गया। फिर भी सफलता अधिकाधिक कम लगने लगी थी क्योंकि सोवियत फौजें सुदूर पूर्व से अपनी आरक्षित इकाईयों को ला रही थी। जर्मनी के लिए इससे भी खराब बात यह थी कि वह अब सोवितय संघ की तुलना में हवाई बेहतरी की स्थिति में नहीं रह गया था। जर्मनी के लिए एक कठिनाई और भी थी कि मोर्चे पर गोला-बारूद और खाद्यान्न की आपूर्ति अपर्याप्त होती जा रही थी। क्योंकि उसकी लम्बी आपूर्ति लाइन को सोवियत संघ की छापामार गतिविधियां गंभीर नुकसान पहुंचा चुकी थी। और अंत में सोवियत संघ में ठंड बढ़ रही थी। हालांकि यह ठंड उस साल सामान्य से ज्यादा नहीं थी लेकिन जर्मनी का हाईकमान उस विश्वास से भरा हुआ था उसका पूर्वी बिल्ट्जक्रीग गरमी तक समाप्त हो जायेगा। इसलिए जब यह उस समय तक नहीं समाप्त हुआ तो वह बर्षा, कीचड़ व बर्फ तथा जाड़ा आने तक रूस के कंपकंपाते तापमान के लिए आवश्यक साजो-सामान की आपूर्ति कराने में असफल हो गया।
    हिटलर और उसके जनरलों के दिमाग में मास्को पर कब्जा अत्यन्त महत्वपूर्ण लक्ष्य के बतौर छाया हुआ था। वे इस बात पर विश्वास करते थे कि मास्को का पतन सोवियत संघ को बेकार कर देगा और इस तरह उसका पतन ला देगा। हिटलर के मुख्यालय में ये उम्मीद की जा रही थी कि मास्को के पतन के साथ जर्मनी विजयी हो कर निकलेगा। 
    जर्मन सेनाएं धीरे-धीरे ही सही आगे बढ़ रही थी। और नवंबर के मध्य तक कुछ इकाईयां राजधानी मास्को से मात्र 30 किमी. की दूरी तक पहंुच चुकी थी। लेकिन फौजें इस समय तक पूरी तरह थक चुकी थी और उनकी आपूर्ति ठप सी थी। उनके कमांडर जानते थे कि मास्को पर कब्जा करना बिल्कुल असंभव है। भले ही शहर बहुत नजदीक दिखाई दे रहा था। लेकिन वहां तक पहुंचना उनको मुश्किल दिखाई दे रहा था। 3 दिसंबर को अपनी पहलकदमी पर कई इकाईयों ने हमला रोक दिया। कुछ दिनों के भीतर ही मास्को के सामने समूची जर्मन फौज बचाव में जाने के लिए विवश हो गयी। 5 दिसंबर को सुबह 3 बजे ठंड व बर्फीले हालात में लाल सेना ने अचानक बड़ा अच्दी तरह तैयार किया गया प्रत्याक्रमण शुरू कर दिया। कई स्थानों में जर्मन सेना की लाइनें टूट गयी। जर्मनी की सेनाओं को 100 से 280 किमी. के बीच दूर तक धकेल दिया गया उनके सैनिक और हथियारों का भरी नुकसान हुआ। 8 दिसंबर को हिटलर ने अपने सेना को आदेश दिया कि हमला रोक दे और बचाव की स्थिति में चली जायं। उसने इस धक्के को अनपेक्षित रूप से जाड़े के पहले आने को दिया। और ज्यादा पीछे हटने से मना कर दिया। तथा बसंत में दूसरा हमला प्रस्तावित किया। 
    इस प्रकार सोवियत संघ के विरुद्ध हिटलर के बिल्ट्जक्रीग का अंत हुआ। यदि वह इस युद्ध में विजयी होता तो उसके जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा सोवियत संघ का विनाश पूरा हो जाता। यदि हम पश्चदृष्टि से देंखें तो यह विजय नाजी जर्मनी को पर्याप्त तेल व अन्य संसाधन उपलब्ध कराती जो इसे वस्तुतः दुर्भेद विश्व शक्ति बना देती। इससे नाजी जर्मनी ग्रेट ब्रिटेन को भी समाप्त करने में समर्थ हो जाता यहां तक कि यदि संयुक्त राज्य अमेरिका भी उसकी मदद में आता तो भी जर्मनी को नहीं रोक सकता। लेकिन दिसंबर, 1941 में मास्को की लड़ाई में हिटलर की बिल्ट्जक्रीग ने की उम्मीद को पूरा नहीं किया। मास्को के ठीक पश्चिम में नाजी जर्मनी को मिली पराजय ने उसकी विजय को असंभव बना दिया। यह पराजय न सिर्फ सोवियत संघ के विरूद्ध थी बल्कि उसने ग्रेट ब्रिटेन को आम तौर पर युद्ध में उसकी पराजय की शुरूआत थी। 
    इस प्रकार दिसंबर, 1941 का समय युद्ध के लिए मोड़ बिंदु था। सोवियत सेना के प्रत्याक्रमण ने जर्मनी की सेना के अजेयता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। इसमें जर्मनी के दुश्मनों के मनोबल का बढ़ा दिया। मास्को की लड़ाई ने इस बात को भी सुनिश्चित कर दिया था कि जर्मनी की सशस्त्र सेनाएं लगभग 4000 किमी. के पूर्वी मोर्चे पर अनिश्चितकाल के लिए तैनात रहेगी। इससे जर्मनी के लिए ब्रिटेन के खिलाफ कार्यवाही करना मुश्किल हो गया। इसके विपरीत बिल्ट्जक्रीग की असफलता ने फिनलैण्ड और जर्मनी के अन्य सहयोगियों के मनोबल को गिरा दिया। 
    यह मास्को ही था जिसने दिसंबर, 1941 में युद्ध की दिशा बदल दी क्योंकि यहीं पर बिल्ट्जक्रीग असफल हुआ और नाजी जर्मनी को परिणामस्वरूप अपर्याप्त संसाधनों के साथ लड़ने के लिए विवश होना पड़ा। यह ऐसा लम्बा खींचने वाला युद्ध था जिसे जर्मनी नहीं जीत सकता था। 
वियतनाम युद्ध के बारे में अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा  झूठ का जारी सिलसिला
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    2015 में अमरीकी साम्राज्यवादी राष्ट्रपति जानसन द्वारा वियतनाम युद्ध का विस्तार करने की पचासवीं वर्षगांठ मना चुके हैं। वे इसकी तैयारियां 2008 से शुरू कर चुके थे। इसी वर्ष वियतनाम युद्ध में अमेरिका की पराजय के चालीस वर्ष पूरे हो गये हैं। 30 अप्रैल, 1975 के दिन दक्षिण वियतनाम की राजधानी पर राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा का कब्जा होने के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद की वियतनाम युद्ध में पराजय हो गयी थी। आज की, अमरीकी व अन्य देशों की युवा पीढ़ी को भरमाने के लिए अमरीकी साम्राज्यवादी अपने घृणित कुकृत्यों को सही ठहराकर वियतनाम युद्ध के दौरान किये गये नरसंहारों को छिपा रहे हैं या जायज ठहरा रहे हैं। हमारे देश की युवा पीढ़ी भी वियतनामी जनता के शौर्यपूर्ण संघर्षों से लगभग अंजान है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि वियतनामी जनता के शौर्यपूर्ण संघर्षों के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डाल ली जाय। 
    यहां यह जान लेना जरूरी है कि हिन्द-चीन (इंडो-चाइना) द्वीप 1850 के दशक से फ्रांस का उपनिवेश था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इस पर जापान ने कब्जा कर लिया था। युद्ध के बाद फ्रांसीसी दक्षिणपूर्वी एशिया पर अपना साम्राज्य फिर से स्थापित करना चाहते थे। हिन्द-चीन बाद में उत्तरी वियतनाम, दक्षिणी वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया नामक देशों में बंट गया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वियतनामी जनता अपनी स्वाधीनता चाहती थी। फ्रांसीसियों ने उनकी स्वाधीनता की मांग को अस्वीकार करके उस पर कब्जा कर लिया। वियतनामी जनता ने 1940 से लेकर 1954 तक फ्रांसीसियों के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध चलाया और 1954  में फ्रांसीसियों को पराजित करके उन्हें वहां से भगा दिया। 1950 से 1954 तक अमरीकी साम्राज्यवादी जहां एक तरफ कोरिया में सैन्य आक्रमण में लगे हुए थे वहीं दूसरी तरफ उन्होंने फ्रांसीसियों की वियतनाम में सैन्य सहायता की थी। इस तरह, वे दक्षिणपूर्व एशिया और एशिया के अन्य हिस्सों में अमरीकी साम्राज्यवादी कम्युनिज्म को रोकने के नाम पर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों को कुचलने के लिए एक सैन्य गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहे थे। 
    मई, 1954 में जेनेवा सम्मेलन में फ्रांसीसी-हिन्द चीन युद्ध को समाप्त करने के लिए एक समझौता हुआ। जेनेवा समझौते के तहत तीन हिन्द चीन देशों (वियतनाम, लाओस और कंबोडिया) को स्वाधीनता की मान्यता मिल गयी और वियतनाम से सभी बाहरी सैनिकों को वहां से जाने का कहा गया। इसके साथ ही अस्थायी तौर पर 19 वीं समानान्तर से देश को उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम में बांट दिया गया। इस समझौते के तहत दो वर्ष के भीतर सभी वियतनामियों को मतदान करके एक सरकार का चुनाव करना था।। हालांकि यह सही है कि अमरीकी साम्राज्यवादियों ने जेनेवा समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये थे, फिर भी उनकी तरफ से एक बयान जारी किया गया था कि सभी पार्टियों द्वारा माने गये समझौते का वे समर्थन देने का वचन देते हैं। लेकिन अमरीकी साम्राज्यवादियों ने जेनेवा समझौते का उल्लंघन करके दक्षिणी वियतनाम में न्गो दिन्ह दियेम के नेतृत्व में एक नई सरकार को सत्ता में बिठा दिया। दियेम ने घोषणा कर दी कि दक्षिणी वियतनाम होने वाले चुनावों में हिस्सा नहीं लेगा। इस तरह, वियतनाम के अस्थायी प्रशासनिक बंटवारे को अमरीकी साम्राज्यवादियों ने जोर-जबरदस्ती से स्थायी बंटवारा करा दिया। 
    यहां यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर जेराल्ड फोर्ड तक के काल के दौरान प्रत्येक अमरीकी राष्ट्रपति ने वियतनामी अवाम की आकांक्षाओं के विरोध की नीतियां अपनायी थीं। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने हिन्द-चीन में अपना उपनिवेश फिर से कायम करने में फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों की मदद की, इसके बाद दक्षिणी वियतनाम में दियेम परिवार को सत्ता पर काबिज कराया। उत्तरी वियतनाम पर छिपे तौर पर हमला कराया। बाद में दक्षिणी वियतनाम में आक्रमणकारी युद्ध में कूद गया तथा उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम सहित लाओस और कम्बोडिया में बड़े पैमाने पर बमबारी की। 
    अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा वियतनाम में सैन्य अभियान आइजनहावर के राष्ट्रपतित्व काल में उस समय शुरू हुआ जब उसने दक्षिणी वियतनाम में 1000 ‘‘सलाहकारों’’ को भेजा। यह अभियान 1968 तक बढ़कर 5 लाख 40 हजार अमरीकी लड़ाकू सैनिकों तक पहुंच गया। इसके अतिरिक्त अमरीकी साम्राज्यवादियों की सी.आई.ए. सहित कई खुफिया एजेंसियां हत्याएं करने, आबादी को एक जगह से हटाकर दूसरी जगह ले जाने और कई अन्य तरीकों से दक्षिण वियतनाम समाज को पददलित करने की नीतियां अपनाती रही हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा हस्तक्षेप सैनिक के साथ-साथ आर्थिक और सांस्कृतिक रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका के कई बड़े कारपारेशनों ने दूसरे सम्पन्न दक्षिण वियतनामी निवेशकों के साथ मिलकर सैगोन में अपनी परियोजनाएं स्थापित की थीं।
    जानसन और निक्सन के राष्ट्रपतित्व काल के दौरान भयावह बमबारी के अभियान चलाये गये। इन अभियानों में दक्षिणी वियतनाम और बाद में उत्तरी वियतनाम पर भारी पैमाने पर बमबारी की गयी। 1965 की फरवरी में दक्षिण वियतनाम स्थित एक अमरीकी सैन्य अड्डे पर हमले के बाद जानसन के काल में ‘‘आपरेशन रोलिंग थंडर’’ शुरू किया गया। यह तीन वर्ष तक चलने वाली बिना रुके बमबारी थी जिसमें अधिकांश दक्षिणी वियतनाम को और उत्तरी वियतनाम के एक हिस्से को तबाह कर दिया गया। 1965 से 1971 के बीच वियतनाम में 142 पाउंड विस्फोटक प्रति एकड़ गिराये गये, ये प्रति व्यक्ति 584 पाउंड के बराबर होते है। 118 पाउंड विस्फोटक प्रति सेकेंड गिराये गये। यह बमबारी कुल मिलाकर हिरोशिमा पर हुई बमबारी के आकार से 450 गुना थी। ग्रामीण हरियाली जलाकर राख कर दी गयी, रबड़ और लकड़ी उत्पादन जैसे ग्रामीण उद्योग तहस-नहस कर दिये गये। बीमारी और मौतें बढ़ने लगीं। बमबारी से लोग भागकर सैगोन (हो ची मिन्ह शहर) आने लगे। भ्रष्टाचार, वेश्यावृत्ति और नशीले पदार्थों का गैर कानूनी व्यापार इस घने अति आबादी वाले शहर में फैल गये। 1967 के अंत तक वियतनाम में उससे भी अधिक बम गिराये गये जितना कि द्वितीय विश्व युद्ध के समूचे यूरोपीय चरण के दौरान गिराये गये थे। 
    एजेंट ओरेंज नामक जहरीली गैस की भारी मात्रा छोडे़ जाने से वियतनामी और अमरीकी सैनिक इसके शिकार हुए। 1961 से 1971 के बीच 2 करोड़ 10 लाख गैलन जहरीली दवा खेतों में फेंकी गयी। दक्षिणी वियतनाम के एक चौथाई हिस्से में फसलें नष्ट करने के लिए इसे डाला गया। 1974 तक 36 प्रतिशत खेत धान की खेती करने लायक नहीं रह गये थे। मोंनसेंटो और डो केमिकल नामक कंपनियों द्वारा उत्पादित एजेंट ओरेंज में पाया जाने वाला डाइआक्सिन नामक पदार्थ के छिड़काव से 30 हजार गांवों के 50 लाख लोग शिकार हुए। इन लोगों को कैंसर, डाइबिटीज, दिल की बीमारी और परकिंसन बीमारी हो गयी। आज भी वंशानुगत विकृतियां पनप रही हैं। बच्चे भयंकर शारीरिक विकृतियांें से ग्रस्त पैदा हो रहे हैं। दक्षिण और केंद्रीय वियतनाम में कम से कम ऐसे स्थान हैं जहां स्थानीय आबादी के जीवन को खतरा अभी भी मौजूद है। 
    1950 से 1975 तक अमरीकी साम्राज्यवादियों की वियतनाम के प्रति नीति झूठ पर टिकी रही है। वियतनामी अवाम जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी कब्जे के विरुद्ध संघर्ष किया था और युद्ध के बाद एक प्रगतिशील, संप्रभुतासम्पन्न स्वतंत्र राष्ट्रीय सरकार चाहती थी, वह सही मायनों में औपनिवेशिक नियंत्रण से मुक्ति चाहती थी। लेकिन उनकी इस चाहत के बारे में प्रत्येक अमरीकी राष्ट्रपति ने झूठ बोला। वे लगातार यह कहकर अमरीकी व दुनिया की जनता की आंखों में धूल झोंकते रहे कि वियतनामी अवाम जो संयुक्त राज्य अमरीकी व सैगोन की कठपुतली सरकार के विरुद्ध लड़ रही है, वह चीनी या सोवियत कम्युनिज्म की महज कठपुतली है। आइजनहावर ने उस समय झूठ कहा जब वह यह कह रहा था कि यदि वियतनाम गिर गया तो बाकी इलाका भी ताश के पत्ते की तरह भहराकर गिर जायेगा। कैनेडी ने उस समय सरासर झूठ कहा जब उसने यह दावा किया था कि दियेम की सरकार और सेना व पुलिस जनतंत्र को मजबूत कर रही है और कि वह दक्षिणपूर्व एशिया में जनतांत्रिक प्रवृत्ति के वाहक है। राष्ट्रपति जानसन ने उस समय झूठ कहा कि उत्तर वियतनाम की फौजें हांेकिन की खाड़ी में अमरीकी नौसैनिक बेड़े पर बिना किसी उकसावे के हमला कर रही हैं और राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने उस समय झूठ कहा कि जब उनके सलाहकार ने यह घोषणा की कि 1972 के चुनाव के ठीक पहले शांति कायम हो जायेगी। चुनाव के बाद निक्सन ने समूचे उत्तर और दक्षिण वियतनाम में व्यापक और खतरनाक बमबारी अभियान चला दिया जिसे वे तथाकथित ‘‘क्रिसमस बमबारी’’ कहते थे। 
    अमरीकी पूंजीवादी प्रचारतंत्र के विपरीत उन कठिन वर्षों के दौरान अधिकांश अमरीकी नौजवानों व नवयुवतियों को इस अन्यायसंगत और अनैतिक युद्ध में झोंक दिया गया। और युद्ध विरोधियों ने जिन्होंने अपनी सुविधाएं, शिक्षा के अवसर और यहां तक कि अपनी नागरिकता भी खो दी थी महज इसलिए वे इस अन्यायपूर्ण युद्ध का विरोध कर रहे थे। वे नौजवान व नवयुवतियां जो इस अन्यायपूर्ण युद्ध में घसीट लिये गये थे क्योंकि वे आर्थिक तौर पर कमजोर थे। वियतनामी मुक्ति योद्धा तो अपने देश की मुक्ति के लिए न्यायपूर्ण युद्ध लड़ रहे थे लेकिन अमरीकी सैनिक इस अन्यायपूर्ण युद्ध में झोंक दिये गये थे जो हजारों की तादाद में मारे गये और उससे भी बड़ी संख्या में घायल हुए। 
    इस अन्यायपूर्ण युद्ध में घसीटे गये और बेमौत मारे गये नौजवानों/नवयुवतियों के बारे में राष्ट्रपति ओबामा तक झूठ, सरासर झूठ का अंबार खड़ा किये जा रहे हैं। वियतनाम में युद्ध की 50 वीं वर्षगांठ को मनाने के लिए बनी कमेटी को अपने संदेश में खुद ओबामा के ये शब्द हैंः- 
    ‘‘जब हम वियतनाम युद्ध की 50 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तब हम उस पीढ़ी के शौर्य को अति सम्मान के साथ देखते हैं जिन्हांेने सम्मान के साथ सेवा की। वे उन तीस लाख से अधिक पुरुष और महिला सैनिकों के प्रति सम्मान प्रकट करते हैं जिन्होंने अपने परिवार को छोड़कर दूर देश में जाकर बहादुरी के साथ अपनी सेवाएं अर्पित की थीं। डांग से क्हे सान्ह तक, हुए से लेकर सैगोन तक और इनके बीच बसे असंख्य गांवों में, जंगलों और धान के खेतों से गुजरते हुए, गर्मी और बरसात का सामना करते हुए, वे इन आदर्शों की रक्षा के लिए बहादुरी से लड़े जिन्हें हम अमरीकी आदर्श कहते हैं। आकाश, जमीन और समुद्र पर एक दशक से ज्यादा समय तक इन गौरवशाली अमरीकी सैनिकों ने अमरीकी फौजों की सर्वोच्च परम्परा का झंडा ऊंचा उठाये रखा था।’’
    राष्ट्रपति ओबामा की ये बातें शुरू से लेकर आखिर तक झूठ का पुलिंदा हैं। उनके इस वक्तव्य से हम ऊपर बताये गये अमेरिकी सैनिकों द्वारा किये गये अत्याचारों को कभी भी नहीं समझ सकते। 
    इसके अलावा क्या यह सच नहीं है कि सी.आई.ए. ने अपने फीनिक्स कार्यक्रम के तहत दसियों हजार वियतनामियों की विद्रोही या उनके समर्थक कहकर हत्या की।
    क्या यह सच नहीं है कि 50 लाख से ज्यादा वियतनामियों को अपने गांवों से उजाड़कर कंटीले तारों से घिरी जगहों में बसाया गया था जिन्हें ‘‘रणनीतिक गांव’’ कहा जाता था। 
    क्या यह सही नहीं है कि हजारों वियतनामी राजनीतिक बंदियों को जेलों में बंद कर इतनी यातना दी गयी थी कि वे या तो मर जाते थे या शारीरिक या मानसिक बीमारियों के शिकार व अपाहिज हो जाते थे? 
    ये किस तरह के शौर्यपूर्ण प्रयास थे? इन सारे कुकृत्यों में किस तरह के महान आदर्श थे?
    यह अकारण नहीं है कि खुद संयुक्त राज्य अमेरिका के भीतर अमेरिकी साम्राज्यवादियों की इस झूठ-फरेब से भरी 50 वीं वर्षगांठ का विरोध हो रहा है। 
    आज जब वियतनाम को मुक्त हुए 40 वर्ष हो गये हैं उस समय अमेरिकी साम्राज्यवादी अपनी पराजय को ढंकने के लिए नये सिरे से झूठ का अंबार खड़ा कर रहे हैं। यह बात दूसरी है कि खुद वियतनाम की हुकूमत पूंजीवाद के रास्ते चलकर आज साम्राज्यवाद के छुटभैये के रूप में आ गयी है। और अपने देश के मजदूरों-मेहनकशों के विरोध में खड़ी हो गयी है।
    लेकिन आज के सत्ताधारियों की करतूतों से वियतनाम के राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध के उनके गौरवमयी अध्याय को झुठलाया नहीं जा सकता। और न ही उस युद्ध में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के मानवद्रोही अपराधों को भुलाया जा सकता। 
    अमेरिकी साम्राज्यवादियों सहित मौजूदा वियतनाम के लूटेरे शासकों को वियतनाम की मजदूर-मेहनतकश जनता किसी न किसी समय सही जवाब देकर उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देगी। 

लातिन अमरीकी महान साहित्यकार एडुवर्डो गलीनो का निधन
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    दक्षिणी अमरीका के महान साहित्यकार एडुवर्डो गलीनो नहीं रहे। अप्रैल महीने में उनकी मौत हो गयी। वे दक्षिण अमरीकी मानववाद और इसकी क्रांतियों के सबसे शक्तिशाली प्रतीक थे। फिडेल कास्त्रो और चे ग्वेरा सल्वाडोर अलेन्दे द्वारा की गयी क्रांति ने उनके व्यक्तित्व का निर्माण किया। इसके बाद उन्होंने कविताओं-कहानियों और सपनों से न्याय की आवाज बुलंद की जिसने वेनुजुएला अलसल्वाडोर बोलीविया और अन्य दक्षिण अमरीकी देशों में पिछले दो दशकों के दौरान अमरीकी साम्राज्यवाद विरोधी लहर को शक्ल दी। उनके द्वारा लिखित दो पुस्तकें ‘‘लातिन अमरीका की खुली शिराएं’’ और तीन खण्डों वाली ‘‘आग की याद’’ ने अमरीकी साम्राज्यवाद विरोधी लहर पैदा करने में पिछले ढाई दशकों से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी ‘आग की याद’’ की त्रयी पुस्तक को अक्सर दक्षिण अमरीका में उपनिवेशवाद का सबसे शक्तिशाली साहित्यिक आरोप पत्र के बतौर कहा जाता है। उन्होंने एक बार कहा था ‘‘उन बातों के लिए मर जाना सार्थक है जिनके बिना जीवित रहना सार्थक नहीं होता’’।
    गलीनो की रचनाएं दशकों से उत्तर अमरीकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध विद्रोह का शक्तिशाली प्रतीक रही हंै। 17 अप्रैल 2009 को ह्यूगो शावेज ने ‘लातिन अमरीका’ की ‘खुली शिराएं’ पुस्तक ओबामा को भेंट की थी। एक साल पहले ओबामा के चुनाव जीतने के बाद गलीनो ने टिप्पणी की थी ‘‘व्हाईट हाउस कुछ समय के लिए बराक ओबामा का घर होगा लेकिन इस व्हाईट हाउस का निर्माण काले गुलामों ने किया था। और मैं उम्मीद करता हूं कि वे इस बात को कभी नहीं भूलेंगे।’’
    लातिन अमरीका में गलीनो को बहुत बड़े लेखक का सम्मान प्राप्त था। उन्हें विद्रोह का क्रांति का और न्याय के लिए संघर्ष का प्रतीक समझा जाता था। 
    एक बार गलीनो ने लिखा था ‘‘यूटोपिया क्षितिज पर है। मैं दो कदम इसकी तरफ बढ़ाता हूं तो यह दो कदम और दूर चला जाता है। मैं इसके तरफ और दस कदम बढ़ाता हूं तो यह 10 कदम और दूर चला जाता है। मैं जितना भी इसकी तरफ बढूं मैं इस तक नहीं पहुंचूंगा। तब फिर यूटोपिया का क्या मतलब है? इसका मतलब है चलते रहना।’’
    एक बार गलीनो ने एक लेखक से कहा था कि वे दो महिलाओं से प्यार करते हैं। वे दोनों सुन्दर और कमजोर हैं। वे दोनों अत्यधिक आकर्षक हैं। एक का नाम यूटोपिया है और दूसरे का नाम वास्तविकता। 
    ‘‘ये दोनों दुनिया के मालिकों के लिए, साम्राज्यवाद के लिए खतरनाक हैं। क्योंकि पहली वाली बेहतर दुनिया के लिए सपने सहित सपने देखती हैं जबकि दूसरी वाली बहादुरी के साथ सच्चाई का बयान करती है।’’
    उन्होंने एक बार कहा था ‘‘मैं कहानियों का शिकारी हूं मैं कहानियां सुनता हूं और सृजनात्मक प्रक्रिया के जरिए इन कहानियों को बुनकर आवाम को वापस लौटा देता हूं। मेरी हमेशा से ये स्थिति रही है कि गूंगा न होने के लिए बहरा भी नहीं होना चाहिए। बोलने वाले को सूंघने में समर्थ होना चाहिए। मैं एक धैर्यपूर्ण श्रोता हूं। मैं वास्तविकता को सुनता हूं। वास्तविकता एक जादुई महिला है जो कभी-कभी बहुत रहस्यमयी होती है। मेरे लिए वह बहुत धैर्यवान है। वह सिर्फ उसी समय वास्तविकता नहीं होती जब वह जागृत अवस्था में होती है, सड़कों पर चल रही होती है अपितु वह रात के समय भी जब वह सपने देख रही होती है। या वह दुःस्वप्न देखती है। जब मैं लिख रहा हूं तो मैं उसे वास्तविकता कही जाने वाली इस महिला को सम्मान प्रकट करता हूं। मैं उसके प्रति वफादार रहने की कोशिश कर रहा हूं।’’
    यूटोपिया, आदर्शवाद और कविता ये तीन बुनियादी तत्व हैं जिनसे प्रत्येक महान क्रांति बनी होती है। वास्तविकता भी नितांत आवश्यक है। 
    गलीनो अपने महाद्वीप के अतीत में गहरे तक गये और अपनी जनता के लिए उन्होंने महान भविष्य की कल्पना की। वे सपने देखते थे और कल्पना करते थे जिनमें अन्याय को अपमानित किया जाता था और असंभव की मांग की जाती थी। 
    कभी ऐसे भी दिन होते थे जब वे कुछ समय के लिए खुद को वास्तविकता से पूरी तरह अलग कर लेते थे। ‘‘मैं एक किताब पर अपने घनिष्ठ मित्र जो मैक्सिको का पेन्टर था और 150 साल पहले रहता था के साथ मिलकर प्रत्येक रात काम कर रहा हूं। हम बहुत सार्थक संवाद कर रहे हैं.......।’’
    ऐसे भी दिन होते थे जब वे प्रत्येक सवाल का जवाब किसी कहानी से देते थे। एक दिन जब किसी ने उनसे यह पूछा कि क्या लातिन अमरीका की शिराएं अब भी खुली हैं? 
    तब उन्होंने मुस्कराते हुए जवाब दिया हां! स्पष्टतया हां! मैं समझता हूं कि वे खुली हुई हैं। कुछ दिनों पहले मैं वीनस ऐरस में काउन्ट ड्राकूला से मिला था वह एक अर्जेन्टाइनावासी मनोविश्लेषक की तलाश में था। अर्जेन्टीना में बहुत सारे मनोचिकित्सक होते हैं। किसी ने ड्राकुला से कहा था कि एक अर्जेन्टीनावासी मनोविश्लेषक अभी भी उसे ठीक कर सकता है। मैंने काउंट ड्राकुला को बहुत बुरी अवस्था में वास्तव में अवसाद ग्रस्त कमजोर और भयावह स्थिति में पाया। किसी ने पूछा कि चारों तरफ बहुत होड़ है क्या नहीं है? उन्होंने जवाब दिया ‘‘ठीक, बिल्कुल ठीक। ड्राकुला भयंकर हीन ग्रंथि से ग्रसित था, वह यह देख रहा था कि आधुनिक दुनिया में बड़ी कारपोरेशन किस तरह का आचरण करती हैं। इसलिए वह अपना इलाज कराने के लिए सड़कों पर चक्कर लगा रहा था।’’
    सामने वाले व्यक्ति से आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा,‘‘लेकिन इस दुनिया में उसके जैसे प्रेत के शायद अनेक दोस्त हों, सिर्फ प्रतिस्पर्धी ही न हो।’’
    गलीनो ने जोर दिया,‘‘वह उन सभी को प्रतिस्पर्धी के बतौर देखता है। और उसके लिए अब इस बात का कोई अर्थ नहीं है। दुनिया के व्यवहार को देखकर उसके लिए अब कोई मतलब नहीं रह जाता।’’
    गलीनो करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत थे, लेकिन उन्होंने कभी नेतृत्व करने की अभिलाषा नहीं रखी। 
    उनका लक्ष्य बहुत साधारण लेकिन साथ ही महत्वपूर्ण था। वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि लातिन अमरीका के नये नेता अपने वायदे पूरे करें और अवाम के साथ विश्वासघात न करें। ?
    हां, इस समय लातिन अमरीका के क्षितिज पर परिवर्तन दिख रहे हैं। लगभग समूचा लातिन अमरीका अपने घुटनों के बल पर ऊपर उठ रहा है। लेकिन ऐतिहासिक, आर्थिक और सामाजिक संदर्भ अभी भी भयावह बना हुआ है। अभी बहुुत काम बाकी हैः
    ‘‘मैं कहना चाहूंगा कि इस समय ऐसी प्रगतिशील सरकारों के पक्ष में प्रवृत्ति है जो चीजों को बदलने की कोशिश कर रही हैं। उनका मतलब व्यापक चुनौती है लेकिन इसका मतलब व्यापक जिम्मेदारी भी है। क्योंकि लातिन अमरीका के कई देशों में बनी नयी प्रगतिशील सरकारें उस सामूहिक उम्मीद के बल पर सत्तासीन हुई हैं जो अभी कहीं नहीं हैं। लेकिन भयावह रूप से घायल है और भयानक शक्ल में हैं। लातिन अमरीका उस दुनिया का हिस्सा है जो बहुत वर्षों से सत्ता की प्रणाली से पीडि़त रहा है, जहां वोट की तुलना में डराने-धमकाने की ज्यादा शक्ति रही है। यह आधी शताब्दी से ज्यादा समय पहले 1954 से शुरू हुआ, जब ग्वाटेमाला की जनतांत्रिक ढंग से चुनी हुई  सरकार ने भूमि सुधार लागू करने की कोशिश की थी। उसने मूलवासी अवाम का सम्मान वापस दिलाने की कोशिश की थी। वह सब बाद में विदेशी हमले से नष्ट कर दिया गया। और यह बाद में भी जारी रहा। किसी भी प्राकृतिक संसाधनों, स्वाधीनता, राष्ट्रीय सम्मान सम्बन्धी प्रगतिशील या राष्ट्रवादी किसी भी सकारात्मक परिवर्तन के विरुद्ध हमले और तख्तापलट होते रहे। वे सरकारें जो परिवर्तन लागू करने का इरादा रखती थीं, नष्ट कर दी गयीं। यह ब्राजील, डोमिनिकन रिपब्लिक बोलीविया में और चिली में हुआ। सल्वाडोर अलेन्दे के कारण चिली का मामला सबसे प्रसिद्ध हुआ और वह अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक बन गया। इनके बाद निकारागुआ में सांदिनिस्ता के साथ वही बात फिर से दोहराई गयी क्योंकि वे एक स्वाधीन देश का निर्माण करना चाहते थे। इसके पहले वह सिर्फ उपनिवेश था। इसलिए इस सबकी एक लम्बी कहानी है। यह कहानी निराशाओं, असफलताओं और खून से नहाई हुयी आशाओं की कहानी हैं। इन सबसे वह परिस्थिति पैदा हुई है जहां हम आज हैं। मैं इसकी व्याख्या कैसे कर सकता हूं? परिवर्तन सम्भव है, लेकिन परिवर्तन को लागू करने के लिए न सिर्फ विगत आधी शताब्दी के पीडादायी और विनाशकारी अनुभवों से लड़ना होगा बल्कि लम्बे विश्वासघात के विरुद्ध लड़ना होगा जिसे मैं ‘‘नपुंसकता की संस्कृति’’ कहता हूं, उसके विरुद्ध भी लड़ना होगा। यह ऐसी संस्कृति है जिसकी जड़ें औपनिवेशिक काल में है, जब इस महाद्वीप पर स्पेन और पुर्तगाल का नियंत्रण था और जिसे बाद में हटा दिया गया लेकिन सैनिक तानाशाहियां और चर्च के भाग्यवादी भाइयों द्वारा जिसे मजबूत बना दिया गया था। इन सबसे नपुंसकता की संस्कृति को निर्मित करने में मदद मिली जो अवाम को डर से भरकर लकवाग्रस्त करने के प्रबंधन का काम करती थी। यह आपको यह बताती है कि वास्तविकता अस्पृश्य है कि वास्तविकता को छुआ नहीं जा सकता और कि इसे बदला नहीं जा सकता। आजकल भय की इस संस्कृति का प्रवक्ता एक सार्वभौमिक देवता है- यह बाजार का देवता, विशाल आकार का देवता है। वह ऊपर से हमारी निगरानी करता है। और हमको बताता है कि हम क्या कर सकते हैं। और क्या नहीं कर सकते।’’
    एक शाम गलीनो उम्मीद के बारे में बोलेः
    ‘‘यहां की अवाम बिल्कुल बुनियादी चीजें चाहती है। वह अब भी सम्मान, शांति और काम जैसी अति साधारण मांगों का जवाब या समाधान नहीं पा सकती है। लोग तलाश कर रहे हैं लेकिन उनको समाधान नहीं मिल रहा है। वे चल रहे हैं और विभिन्न सड़कों पर तलाश कर रहे हैं। उनके साथ विश्वासघात हो रहा है- हमारे यहां विश्वासघात की लम्बी परम्परा रही है। और वे अब एक निश्चित हद तक यह सोच रहे हैं कि दक्षिणी अमरीका के विभिन्न हिस्सों में बाद में आयी नयी सरकारें कमोबेश उस उम्मीद के अनुसार कार्य करेंगी जिसे उन्होंने जगाया है। इसीलिए मैं हमेशा कहता हूं सावधान रहो, लोगों की उम्मीद के साथ खिलवाड़ न करो। उम्मीद बहुत दुर्बल है। यदि लोगों ने उम्मीद को आपके हाथ में सौंप दिया है तो साथियो, सावधान रहो! इस उम्मीद से विश्वासघात न करो! क्योंकि उम्मीद को आसानी से दुबारा नहीं लौटाया जा सकता! जब एक बार यह समाप्त हो जाती है तो इसे फिर से वापस लाने के लिए लम्बा समय लगता है। दक्षिण अमरीका की नयी प्रगतिशील सरकारों के समक्ष व्यापक ऐतिहासिक जिम्मेदारी है। मेरे अंदर का लेखक और पत्रकार यह बार-बार मुझे आगाह कर रहा है कि एक पाप, जिसे माफ नहीं किया जा सकता, वह उम्मीद के विरुद्ध पाप है। प्रत्येक चीज को माफ किया जा सकता है लेकिन इसे नहीं। इसीलिए प्रगतिशील सरकारों को उम्मीद न नष्ट होने देने के मामले में अत्यन्त सावधान रहना चाहिए। 
    यह बहुत कठिन, अत्यन्त कठिन समय था। इस  समूचे काल के दौरान गलीनो अवाम के साथ था न कि राजनीतिज्ञों और नेताओं के साथ। क्योंकि अवाम ही वास्तविक ताकत होती है और क्रांति उसके लिए की जाती है, उसकी सेवा करने के लिए की जाती है। 
    एक समय किसी लेखक ने उनसे पूछा कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध बिना हथियारबंद संघर्ष के सम्भवतया कोई विजय नहीं हासिल की जा सकती। उन्होंने हां या ना में जबाव नहीं दिया। एक क्षण सोचने के बाद अपनी आंखें उक्त लेखक पर गड़ा दी और कहाः
    ‘‘तुम और मैं शिक्षित हैं और हम दुनिया को जानते हैं। कई मामलों में हम वे हैं जिन्हें अवाम नेता कहती है। और नेताओं को जनता की सेवा करनी चाहिए। चाहे हमारा जीवन कितना भी कठिन क्यों न हो लेकिन हम लोग शिकार नहीं हैं। वे लोग जो शिकार हैं उनको लूटा जाता है, वे गरीब हैं, वे अशिक्षित लोग हैं। यह उनको तय करना है कि उनको कब और कहां हथियार उठाना है और चलना है। वे, न कि हम, ही यह तय कर सकते हैं। यदि और जब वे लड़ने का फैसला करते हैं, हमें उनकी आज्ञा मानना होगा और उन्हें नेतृत्व देना होगा। वे लड़ेंगे कि नहीं, यह फैसला करने वाले हम नहीं हैं।’’
    गलीनो मर गये हैं। लेकिन क्रांति समूची दुनिया में फैल रही है। और इसी का महत्व है। उनके और उनके जैसे लोगों के कारण, और कम से कम लोग उद्देश्य के साथ विश्वासघात करेंगे। और ज्यादा से ज्यादा लोग हमारे ग्रह को बचाने के लिए लडेंगे और सपना देखेंगे, अधिकाधिक लोगों को ‘‘कारवां चलता रहेगा’’!
    (आंद्रे विल्चेक के लेख के आधार पर, काउंटरपंच से साभार)
गौहत्या, धार्मिक भावनायें और फासीवाद
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    आज हम एक कठिन दौर में जी रहे हैं। हर रोज हमारे जनवाद का गला घोंटने वाले फतवे अखबारों की सुर्खियोें में होते हैं। पहले ये फतवे सामंती खापों, धर्मगुरूओं की ओर से जारी होते थे। इन फतवों का कानूनी तौर पर कोई मोल नहीं होता था। हां! कानून लागू करने वाली संस्थाओं पुलिस-प्रशासन-न्यायालय के नुमांइदे या सरकार में बैठे नेता इन्हें अपनी आस्था के अनुरूप जब-तब कानून सरीखा दर्जा देते रहते थे। पर मोदी सरकार के केन्द्र में सत्तासीन हो जाने के बाद से सत्ता के गलियारों से ऐसे फतवों की बाढ़ सी आ गयी है। यहां तक कि फतवों को अब कानूनी रूप भी प्रदान किया जाने लगा है। फतवे जारी करने में सरकार के चहेते संघी कारकून आज सबको पीछे छोड़ पहले स्थान पर आ चुके हैं। मोदी सरकार भारतीय कानून को लात लगाते इन फतवों को रोकने के बजाय संरक्षण दे रही है। यहां तक कि फतवों को ही कानून बना डालने की तिकड़म रच रही है। 
    ‘भारत एक हिंदू राष्ट्र है’, ‘गीता राष्ट्रीय ग्रंथ है’, ‘ज्योतिष एक विज्ञान है’, ‘गौहत्या पाप है’, ‘धर्मांतरण नहीं घर वापसी’, ‘हिंदू धर्म बचाने के लिए अधिक बच्चे पैदा करो’, ‘आर्य भारत के मूल निवासी थे’, ‘देश 1000 वर्षों से गुलाम था’, ‘लव जिहाद’ आदि बातें संघी कारकूनों के मुख से फूटती रही हैं। इसमें अगर ‘ये मत खाओ’, ‘ये मत पहनो’, ये फिल्में मत देखो, यहां मत जाओ, इनसे मत बोलो’ सरीखे सामंती फतवे और जोड़ दें तो देश एक ऐसे कैदखाने में तब्दील किया जा रहा है जहां खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, विचारों, कलाओं सबकी स्वतंत्रता को कैद कर लिया जा रहा है। यह सब कुछ फासीवाद की आहटें हैं। 
    हिंदुत्व का फासीवादी आंदोलन आज बेरोकटोक सभी मुद्दों पर बयानबाजी में जुटा है। यहां तक समाज की बड़ी आबादी को इन मुद्दों पर लामबंद भी कर ले रहा है। पूंजीवादी मीडिया का बड़ा हिस्सा इस सबमें उसकी मदद कर रहा है। इसीलिए सरकार जब लोगों के जनवाद को कुचलने के लिए कोई कदम उठाती है तो जनता का एक हिस्सा पहले ही पूर्वाग्रह ग्रस्त हो सरकार के साथ खड़ा हो चुका होता है इसलिए सरकार के जनविरोधी कदमों का प्रतिकार और मुश्किल बना दिया जा रहा है। ढेरों पूर्वाग्रहों को तो धार्मिक भावनाओं के रूप में प्रचारित कर मान्यता दिलाने की साजिशें रची जा रही हैं। गौहत्या पर प्रतिबंध का मसला इस सबका एक प्रतिनिधिक उदाहरण है। 
    केन्द्र की भाजपा सरकार ने हाल में इस आशय के संकेत दिये कि भविष्य में पूरे देश में गौहत्या प्रतिबंधित कर दी जायेगी। हरियाणा व महाराष्ट्र की नवसत्तासीन भाजपा सरकार ने तो कड़े कानून भी पारित कर दिये। जब सुदूर केरल, उत्तर-पूर्व, महाराष्ट्र, बंगाल से गौहत्या पर रोक के खिलाफ जनता के स्वर व संघर्ष फूटने लगे तो पूंजीवादी मीडिया ने इस सबको कुछ इस रूप में प्रचारित किया कि ये सभी अधार्मिक तत्वों की आवाज है। ये धार्मिक भावनाओं का सम्मान तक नहीं करना जानते। हालत तब और बदतर हो जाते हैं जब उत्तर भारत के हिन्दी भाषी राज्यों की जनता भी इस सब पर आश्चर्य व्यक्त करने लगती है कि हमारे देश के कुछ हिस्सों में गौहत्या जारी रखने की मांग हो रही है। कुल मिलाकर गाय संघ की राजनीति को फैलाने का एक रूपक बन जाती है। 
    संघ द्वारा मसले को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है कि गाय को हिंदू धर्म में पवित्र स्थान दिया गया है। उसे माता का दर्जा दिया गया है। इसीलिए देश के सभी हिंदू गाय को खाते नहीं उसकी पूजा करते हैं। हां देश के अल्पसंख्यक मुसलमान व ईसाई गाय का मांस जरूर खाते हैं और इस तरह देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी की भावनाओं को ठेस पहुंचाते हैं। देश के बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इसीलिए गौहत्या पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। 
    संघ के उपरोक्त प्रस्तुतिकरण में सत्य को बड़े पैमाने पर विकृत किया गया है। इसमें हिन्दू धर्म के अनुयाइयों को पूरे देश में समांग, एक संस्कृति का वाहक मान लिया गया है जो कि गलत है। हमारा देश ढेरों अलग-अलग राष्ट्रीयताओं में विभाजित है जिनकी भाषा-वेशभूषा, खान-पान, संस्कृति सब अलग-अलग हैं। इसीलिए हरियाणा व केरल के हिंदुओं का खानपान एक सा नहीं है। 
    साथ ही संघ हिन्दू धर्म के भीतर जातिगत विभाजन को भी समांग हिन्दू संस्कृति के नाम पर नजरअंदाज करता है। वह यह भूल जाता है कि एक ही जगह के सवर्ण हिंदुओं व दलितों के खान-पान में भी खासा अंतर है। दरअसल संघ हिन्दू संस्कृति के नाम पर जो बातें परोसता है वह ब्राहम्णवादी संस्कृति है। आज देश के हर कोने के ब्राहम्ण ही गौमांस खाना पाप मानते हैं। पर बाकी जातियों के साथ यह बात नहीं है। खासतौर पर दलित-आदिवासी व कुछ इलाकों में पिछड़ी जातियां भी गौमांस भक्षण करती रही हैं। मुस्लिम-ईसाई तो गौमांस खाते ही रहे हैं। इसीलिए मसले को इस रूप में प्रस्तुत करना कि देश के समस्त हिंदू गौमांस नहीं खाते, सफेद झूठ के अलावा कुछ नहीं है। यह मसले को मनमाने तरीके से सांप्रदायिक रूप देना भी है। 
    जहां तक हिंदू धर्म में गौ की पवित्रता का सवाल है तो यह बात भी ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खाती कि हिंदू धर्म हमेशा से गौहत्या के खिलाफ रहा है। इस संदर्भ में मौटे तौर पर स्थिति यह रही है कि वैदिक काल में बड़े पैमाने पर गाय का मांस खाया जाता था। वेदों-उपनिषदों में इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि उस समय गौमांस भोजन का महत्वपूर्ण हिस्सा था और ब्राहम्णों से लेकर निचली जाति तक के लोग शौक से गौमांस खाते थे। 
    बौद्ध धर्म ने कृषि में गाय-बैलों की बढ़ती आवश्यकता के चलते शुरूआत में कृषि में उपयोग योग्य गाय-बैलों को मारने का विरोध किया। बाद में हिंदू धर्म के ब्राहम्णों ने गौहत्या को पाप व गौमांस न खाने को अपने धर्म में धीरे-धीरे शामिल कर लिया। और क्रमशः ब्राहम्णों ने गौमांस भक्षण छोड़ दिया परन्तु यही बात बाकी जातियों के साथ सच नहीं थी। वे हाल तक गौमांस भक्षण करते रहे। 
    गौहत्या पर रोक के लिए बड़ा संगठित अभियान 19वीं शताब्दी में दयानंद सरस्वती के आर्य समाज ने चलाना शुरू किया। जिसे बाद में संघ ने लपक लिया। 
    इस तरह से भारत के समूचे इतिहास में गौमांस भक्षण होता रहा। यदि कहीं कुछ प्रतिबंध लगा भी तो महज कृषि में इन जानवरों की जरूरत के मद्देनजर। खुद वैदिक काल में ब्राहम्ण भी बड़े पैमाने पर गौमांस भक्षण करते थे। बाद में जब उन्होंने गौमांस खाना छोड़ा भी तब भी हिंदू धर्म के लिए लम्बे समय तक गौहत्या कोई बड़े विवाद का मसला नहीं रहा। 
    आज जब संघ व उसकी सहयोगी सरकार इतिहास का भगवाकरण करने में जुटे हैं तब वे इस तथ्य को भी इतिहास के पन्नों से मिटा देना चाहते हैं कि हिंदू धर्म में कभी व्यापक तौर पर गौमांस भक्षण प्रचलित था। कि यज्ञों में गायों की आहुति दी जाती थी कि निचली जातियां ही नहीं ब्राहम्ण तक गौमांस खाते थे। 
    बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने प्राचीन काल में गौमांस भक्षण के प्रमाणों का विस्तार से वर्णन किया है। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं।
1. महाभारत में रतिदेव नामक एक राजा का वर्णन है जो गौमांस परोसने के कारण यशस्वी बना। उसकी रसोई में प्रतिदिन दो हजार गायें काटी जाती थीं। (वन पर्व) महाभारत के ही अनुशासन पर्व में लिखा है कि गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों को एक साल के लिए तृप्ति होती है। 
2. मनुस्मृति में लिखा है ऊंट को छोड़कर एक ओर दांवालों में गाय, भेड़, बकरी और मृग भक्ष्य अर्थात् खाने योग्य हैं। 
3. ऋग्वेद में इन्द्र का कथन आता है ‘‘वे पकाते हैं मेरे लिए पन्द्रह बैल, मैं खाता हूं उनका वसा और वे भर देते हैं मेरा पेट खाने से’’।
4. आपस्तम्ब धर्मसूत्र में लिखा है ‘‘गाय और बैल पवित्र है इसलिए खाये जाने चाहिए।’’
           (स्रोतः हाशिया ब्लाॅगस्पाट डाट इन)
    उपरोक्त तथ्य संघ द्वारा प्रचारित बातों को गलत साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। यानी गौ मांस भक्षण हिन्दुओं में पर्याप्त मात्रा में होता था। हां! बाद के काल में ब्राहम्णों ने इसे खाना छोड़ दिया पर दलित जातियां इसे खाती रहीं। 
    आजाद भारत में गौहत्या पर प्रतिबंध की मांग आजादी के वक्त से ही उठायी जाती रही। संघ के उभार के साथ यह मांग जोर पकड़ती गयी। बाद में ढेरों राज्य सरकारों ने इस संदर्भ में कानून बनाये। परन्तु अभी भी ढेरों राज्यों में इस पर प्रतिबंध नहीं लगा है जहां प्रतिबंध लगा भी है वहां भी चोरी-छिपे इसके भक्षण के मामले जब तब पकड़े जाते रहे हैं।            
   मौजूदा समय में देश के 11 राज्यों में गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध है अर्थात् यहां गाय, बछड़ा, बैल और सांड मारने पर पूरी तरह रोक है। ये राज्य हैः जम्मू व कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़। इसके अलावा दो केन्द्र शासित प्रदेशों दिल्ली व चण्डीगढ़ में भी पूर्ण प्रतिबंध लागू है। हाल में हरियाणा में गौहत्या पर एक लाख के जुर्माने व 10 वर्ष की सजा का प्रावधान तो महाराष्ट्र में 10 हजार के जुर्माने व 5 वर्ष की सजा का प्रावधान तय किया गया है। 
    गौहत्या पर कुछ अन्य राज्यों में आंशिक प्रतिबंध है जिसका मायने है गाय व बछड़े की हत्या पर तो प्रतिबंध है पर बैल, सांड को काटने-खाने की इजाजत है। इसके लिए काटे जाने वाले पशु को पहले ‘फिट फार स्लाटर सर्टिफिकेट’ दिखाना जरूरी है। इन राज्यों में गौ हत्या पर सजा का जुर्माना भी कम है जो 6 माह से दो वर्ष व जुर्माना 1000 रुपये का है। ये राज्य हैं बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, तेलगांना, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा और चार केन्द्र शासित प्रदेेश दमन और दीव, दादर और नागर हवेली, पांडिचेरी और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह। 
    तीसरे स्तर पर वे दस राज्य हैं जहां किसी भी तरह की गौ हत्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है। ये राज्य हैंः केरल, पं.बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, त्रिपुरा, सिक्कम व एक केन्द्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप। यहां बाजार में गाय बछड़े का मांस खुले तौर पर बाजार में बिकता व खाया जाता है। इनमें से 8 राज्यों व लक्षद्वीप में गौहत्या पर कोई कानून नहीं है केवल असम व पश्चिम बंगाल में ‘फिट फाॅर स्लाॅटर सर्टिफिकेट’ लेना जरूरी है। विभिन्न राज्यों में कानूनों की मौजूदा स्थिति भी यह दर्शाती है कि देश में अभी आदिवासी दलित जातियां पर्याप्त मात्रा में गौमांस खाती हैं।
    महाराष्ट्र में गौहत्या पर भाजपा सरकार के कड़े कानून को लागू करने से ही इस मसले पर देश व्यापी बहस छिड़ गयी है। संघ व भाजपा इस मुद्दे को अपना आधार फैलाने के मुद्दे के तौर पर भी देखते रहे हैं। झारखण्ड में भी भाजपा सरकार पूर्ण प्रतिबंध लगाने की तैयारी कर रही है तो पं. बंगाल में गौमांस के बांग्लादेश निर्यात को मुद्दा बना कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया जा रहा है।
    भाजपा सरकार गौहत्या को पूरे देश पर अपराध के बतौर थोपने पर उतारू है वहीं वह इसके जरिये लाखों लोगों की रोजी-रोटी भी छीन रही है। अकेले महाराष्ट्र में इससे खासी तादाद में लोगों की रोजी रोटी छिन गयी है। महाराष्ट्र का मीट कारोबार बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
    गौरक्षा का हल्ला काटने वाले संघ के इस अभियान को अगर पूरे देश में कानूनी मान्यता मिल जायेगी तो इसका सीधा असर गौवंशीय जानवरों की वृद्वि में होने के बजाय कमी के रूप में सामने आयेगा। अभी तक आम तौर पर भारतीय गांवों में लोग गाय-बैल कृषि कार्यो व दुग्ध उत्पादन के लिए पालते रहे हैं कृषि कार्य में ट्रैक्टरों के बढ़ते उपयोग से बैलों की उपयोगिता लगातार गिरती जा रही है। लोग इन जानवरों को एक उम्र तक पालने के बाद अनुपयोगी होने पर मीट उत्पादन हेतु बूचड़खानों को बेच देते रहे हैं।
    अब अगर इनकी हत्या अपराध बन जायेगी तो फिर किसानों में इन जानवरों को पालने का रूझान कम होगा साथ ही बेकार हो जाने पर किसान इन जानवरों को आवारा भटकने के लिए छोड़ देंगे। यानि गाय-बैल दुर्दशा में मरने को मजबूर होंगे।
    जहां तक धार्मिक भावनाओं का प्रश्न है तो पहला तथ्य तो यही है कि गौमांस खाना देश के बहुसंख्यकों की धार्मिक भावना को आहत नहीं करता क्योंकि हिन्दू धर्म में शामिल तमाम जातियां स्वयं गौमांस का भक्षण करती हैं। दूसरा यह कि एक धर्म के कुछ व्यक्तियों  की धार्मिक भावना के सम्मान का केवल यही अर्थ धर्मनिरपेक्ष राज्य में होना चाहिए कि उन लोगों को उनकी धार्मिक भावनाओं के विपरीत खान-पान के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। यानि हिन्दू धर्म के लोगों की जिस हद तक गौमांस न खाना धार्मिक भावना है उस हद तक उन्हें गाय का मांस न खाने की स्वतंत्रता हासिल होनी चाहिए।
    पर धार्मिक भावना के सम्मान का कहीं से यह अर्थ नहीं होता कि दूसरे धर्मो के लोगों की खान-पान की स्वतंत्रता छीन ली जाय। दरअसल सरकार गौहत्या पर प्रतिबंध थोप दलितों-आदिवासियों-मुस्लिमों-इसाइयों के साथ ढेरों अन्य हिन्दुओं की खान पान की स्वतंत्रता छीन रही है। इसीलिए सरकार लोगों के जनवाद को संकुचित कर रही है।
    धार्मिक भावनाओं का हवाला संघी फासीवादियों के लिए एक मुफीद औजार है। हिटलर जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता की बातें करता था आज संघ हिन्दू धर्म की भावनाओं का इस्तेमाल कर अपने मंसूबे लागू करवाना चाह रहा है।
    हिंदू धर्म की भावनाओं के आहत होने का तर्क न केवल दूसरे धर्म के अनुनाइयों के जनवाद को संकुचित करता है बल्कि यह खुद हिंदू धर्म के बहुसंख्यकों को हिंदू धर्म की तमाम उन बातों के लिए जिन्हें वे पसन्द नहीं करते अपना जनवाद जबरन कुर्बान करने की ओर भी ढकेलता है। आज यह गौमांस खाना छोड़ने के रूप में प्रस्तुत है तो कल को इसी हिंदू धर्म का सहारा लेकर जाति व्यवस्था व जातीय उत्पीड़न को जायज ठहराया जा सकता है, संस्कृत को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिया जा सकता है, अंतरजातीय विवाहों पर रोक लगायी जा सकती है, गीता को राष्ट्रीय ग्रथ घोषित किया जा सकता है, महिलाओं का कर्तव्य पुरूष की सेवा व बच्चे पैदा करना घोषित हो सकता है, महिलाओं की पढ़ने-लिखने घूमने फिरने की आजादी छीनी जा सकती है, उनके लिए धार्मिक व्रत अनिवार्य घोषित हो सकते हैं, ‘आनर किलिंग’ को अपराध के दायरे से बाहर किया जा सकता है, और अंत में भारत के मौजूदा संविधान को रद्द कर या बदल कर हिंदू धर्म की भावनाओं के तर्क पर मनुस्मृति के बदले संस्करण को भारत का संविधान घोषित किया जा सकता है।
    यह सब भले ही आज तत्काल लागू करना मुश्किल है पर संघ के कदम इसी दिशा में बढ़ रहे हैं वह जनता के एक हिस्से को बरगला उनसे उनका जनवाद कुर्बान करवा रहा है तो बाकि हिस्सों से जनवाद जबरन छीनने की ओर बढ़ रहा है। अतीत में हिटलर भी ऐसे ही आगे बढ़ा था आज मोदी-भागवत उसी का अनुसरण कर रहे हैं।
    जरूरत है कि संघ की इन मंशाओं को विकराल रूप धारण करने से रोका जाय। इसके लिए जरूरी है कि हम अपने छीने जाते जनवाद की कदम व कदम रक्षा करने के लिए आगे बढ़ें। इनके नापाक मंसूबों को उजागर करें। आज देश का शासक पूंजीपति वर्ग का इन फासीवादी तत्वों से गठजोड़ कायम हो चुका है। अपने मुनाफे की रक्षा की खातिर ढेरों मध्ययुगीन कदमों को भी पूंजीपति वर्ग बर्दाश्त करने को तैयार है। इसीलिए मजदूरों के श्रम कानूनों का छीना जाना और लोगों के खानपान पर पाबंदी लगना दोनों एक साथ लागू हो रहे हैं।
    पूंजीपति वर्ग व संघ दोनों के गठजोड़ का मुकाबला क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन ही कर सकता है। इस क्रांतिकारी संघर्ष के विस्तार की प्रक्रिया में ही अपने छीने जाते जनवादी अधिकारों को भी बचाया जा सकता है।   
भूमि अधिग्रहण विधेयक, किसान संघर्ष और सर्वहारा नीति
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    मोदी सरकार का नया भूमि अधिग्रहण विधेयक आज खासा चर्चा का विषय बना हुआ है। अन्ना हजारे से लेकर भारतीय किसान यूनियन और विपक्षी पार्टियां सभी इस विधेयक के खिलाफ झंडा बुलंद कर खुद को किसानों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने में जुटी हैं। कृषि प्रधान देश में किसानों का सबसे बड़ा रहनुमा खुद को साबित करके ये पार्टियां व इसके नेता अपने खोते जा रहे जनाधार को बचाना चाहते हैं। 
    राज्य द्वारा विकास के नाम पर किसानों, आदिवासियों की भूमि छीन लेना या अधिग्रहित करना लम्बे समय से चला आ रहा है। कभी बांध, कभी खान, कभी सड़क और बिजली के नाम पर तो कभी उद्योगों के नाम पर किसानों से जब-तब भूमि छीनी जाती रही है। राज्य अपने को समस्त भूमि का अंतिम मालिक घोषित कर इस बात का अधिकार हासिल करता रहा है कि वह जब चाहे किसानों से उनकी भूमि छीन सकता है। 
    पिछले 50 सालों में एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 5 करोड़ लोग विकास के कार्यक्रमों के नाम पर विस्थापित हो चुके हैं। आई.आई.टी. रूड़की के एक अध्ययन के अनुसार इन 5 करोड़ लोगों में 1.64 करोड़ लोग बांधों के जरिये, 25.5 लाख लोग खानों के जरिये, 12.5 लाख लोग उद्योगों के जरिये और 6 लाख लोग राष्ट्रीय पार्कों के नाम पर विस्थापित किये जा चुके हैं। भारत में 664 जिलों में से 165 जिलों में भूमि अधिग्रहण संबंधी विवाद चल रहे हैं। 
    भारत में ब्रिटिश शासन काल में 1894 में पहली बार भूमि अधिग्रहण के लिए कानून बना था। यही कानून आजादी के बाद में भी चलता रहा हालांकि बीच में कुछेक तकनीकी संशोधन इसमें हुए। 2013 में संप्रग सरकार ने 1894 के कानून को बदलकर नया कानून लागू किया। 31 दिसंबर, 2014 को मोदी सरकार ने 2013 के कानून में तमाम संशोधन करते हुए इस संदर्भ में बगैर संसद की मंजूरी लिए अध्यादेश जारी कर दिया। अब संसद के बजट सत्र में यह एक विधेयक के बतौर प्रस्तुत हुआ। लोकसभा में अपने बहुमत का इस्तेमाल कर सरकार इस विधेयक को कुछेक संशोधनों के साथ पारित कराने में कामयाब रही है। इसके बाद इस विधेयक को राज्य सभा में पेश किया जाना है जहां राजग गठबंधन अल्पमत में है।
    भारत का पूंजीवादी विकास ब्रिटिश शासनकाल में ही शुरू हो गया था। तब सरकार को अपने उद्योग, रेल आदि के विकास के लिए किसानों की भूमि की आवश्यकता पड़नी शुरू हो गयी। 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून इसी उद्देश्य से बनाया गया था। 
    1894 के इस कानून में देश के गुलाम होने की स्पष्ट छाया थी। इस कानून में जहां राज्य को भारी मनमर्जी की छूटें हासिल थीं वहीं किसानों की इच्छा का कोई महत्व नहीं था। एक तरह से यह राज्य को जबरन किसी की भी भूमि छीन लेने का विशेषाधिकार देता था।
    1894 के इस कानून में राज्य को सार्वजनिक उद्देश्य हेतु किसी की भी भूमि अधिग्रहित करने का अधिकार हासिल हो गया। इस कानून में सार्वजनिक उद्देश्य को स्पष्टतया परिभाषित ही नहीं किया गया, यानी राज्य किसी भी प्रयोजन को सार्वजनिक उद्देश्य घोषित कर सकता था। इस कानून में जिनकी भूमि ली जानी थी उनकी इच्छा या रजामंदी की कोई जगह नहीं थी। यानी राज्य जबरन किसी की भी भूमि ले सकता था। जब भूमि के मालिक किसानों की इच्छा या रजामंदी के लिए कोई जगह नहीं थी तो भूमि पर निर्भर अन्य लोगों; खेतिहर मजदूरों, बटाईदारों, मछुआरों, छोटे दुकानदारों; की रजामंदी, का तो कोई सवाल ही नहीं था। भूमि के मालिकों को दिये जाने वाले मुआवजे की राशि तय करने का पूर्ण अधिकार इस कानून में राज्य के पास था। इस संदर्भ में किसानों की न तो कोई भूमिका थी और न ही उन्हें शिकायत का कोई अधिकार था। किसी भी तरह की भूमि चाहे वह कितनी भी उपजाऊ कृषि भूमि क्यों न हो, उसे अधिग्रहित करने का राज्य को पूरा अधिकार था। इसके एवज में सरकार को न तो नई कृषि भूमि विकसित करने को बाध्य किया जा सकता था और न ही उस पर विस्थापित लोगों खासकर दलितों, आदिवासियों के पुनर्वास की कोई जिम्मेदारी थी। किसानों व राज्य के बीच अधिग्रहण के विवाद के निपटारे को लेकर कोई व्यवस्था नहीं थी। यहां राज्य के अधिकारी अगर कानून का पालन न करें तो भी उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो सकती थी। साथ ही राज्य ने जिस काम के लिए भूमि ली है; अगर वह काम या प्रोजेक्ट शुरू नहीं होता तब भी भूमि राज्य के ही अधीन बनी रहती और राज्य किसी अन्य काम के लिए इसे पंूजीपतियों को बेच सकता था यानी किसी भी सूरत में भूमि किसानों के पास वापस नहीं जानी थी। 
    स्पष्ट है कि 1894 का यह कानून राज्य के हाथों में खुलेआम किसानों-आदिवासियों की भूमि पर डाकेजनी का दस्तावेज था। 1947 मंें जब देश ब्रिटिश कब्जे से मुक्त हुआ और सत्ता भारत के पूूंजीपति वर्ग के हाथों में आयी तो उसने ब्रिटिशकाल के ढेरों कानूनों को जस का तस या मामूली सुधारों के साथ अपना लिया। भूमि अधिग्रहण कानून भी कुछ तकनीकी संशोधनों के साथ वही जारी रहा। पूंजीपति वर्ग को पूंजीवादी विकास के लिए आधारभूत ढांचे को विकसित करना था उसे रेलवे, बांध, खदानों, तमाम तरह के उद्योगों, विद्युत परियोजनाओं, सड़कों आदि की जरूरत थी। इस सबके लिए किसानों-आदिवासियों से बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहित की जानी थी। स्वाभाविक ही था कि राज्य सार्वजनिक कामों के लिए पुराने भूमि अधिग्रहण कानून को जस का तस लागू रखता। 
    आजादी के बाद से अब तक बड़े पैमाने पर उपरोक्त कानून का इस्तेमाल कर राज्य द्वारा भूमि अधिग्रहित की गयी। पर किसान भी चुपचाप अपनी भूमि सौंपने के बजाय मुआवजे में अधिक हासिल करने के लिए क्रमशः संघर्ष की ओर बढ़ने लगे। औपचारिक तौर पर पुराना कानून लागू होने के बावजूद राज्य को पुनर्वास के नये उपाय करने पड़े। मुआवजे की राशि बढ़ानी पड़ी। ढेरों जगह अधिग्रहण का मसला विवादों में भी फंसता रहा। ढेरों मौकों पर किसानों का प्रतिरोध इतना तीव्र हुआ कि सरकार को अपने कदम पीछे खींचने की ओर बढ़ना पड़ा। इस दौरान बार-बार भूमि अधिग्रहण के पुराने कानून को बदलने की मांग भी उठती रही।
    फिर भी आजादी के बाद से 90 के दशक की शुरूआत तक भूमि अधिग्रहण सबसे ज्यादा भारतीय राज्य द्वारा किया गया। सबसे ज्यादा लोग बांधों, खदानांे द्वारा विस्थापित हुए। निजी पूंजीपति भी भूमि का अधिग्रहण करते थे पर वे राज्य के अधिकारियों की मदद से किसानों के साथ समझौता करके ऐसा करते थे। अभी उनके लिए राज्य खुलेआम निर्लज्ज तरीके से भूमि अधिग्रहित नहीं करता था बल्कि वह यह काम छुपे रूप में कहीं अधिक करता था। 
    1990 के दशक की शुरूआत में देश ने सार्वजनिक पूंजी की जगह निजी पूंजी को वरीयता देने वाली उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की ओर कदम बढ़ाये। यहां निजी पूंजी (देशी-विदेशी) का राजकीय कामों में दबाव-हस्तक्षेप बढ़ता चला गया। भूमि अधिग्रहण के मामले में भी यही हुआ। अब राज्य अधिकाधिक निजी पूंजी के लिए भूमि अधिग्रहित करने में जुट गया। पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप, औद्योगिक कारीडोर, सेज आदि के लिए भूमि अधिग्रहण होने लगा, यहां तक कि रियल स्टेट के लिए भी भूमि किसानों सेे औने-पौने दामों पर लेकर भारी कीमतों पर बेची जाने लगी। इस दौरान जैसे-जैसे सेवा क्षेत्र का विस्तार होता गया वैसे-वैसे निजी अस्पताल, निजी कालेजों, शाॅपिंग माॅल आदि के लिए भी भूमि अधिग्रहण बढ़ता गया। आदिवासियों के निवास, जंगल, खनिज सम्पदा के दोहन के लिए खाली कराये जाने लगे। इस सबने किसानों-आदिवासियों के जुझारू संघर्षों को पैदा किया। पास्को, सिंगूर, नंदीग्राम, भट्टा परसौल सरीखे मामलों में किसानों पर गोली चलाकर भूमि छीनने के प्रयास किये गये। 
    आज राज्य अधिकाधिक विकास के नाम पर निजी पूंजी के मुनाफे के लिए भूमि अधिग्रहित कर रहा है। किसानों का 1894 के कानून के जरिये जबरन भूमि अधिग्रहण के प्रति आक्रोश बढ़ता जा रहा था। आजादी के बाद से सरकार ने अलग-अलग क्षेत्रों के लिए भूमि अधिग्रहण के अलग-अलग कानून भी बनाये थे जिनमें परमाणु ऊर्जा कानून, पेट्रोलियम कानून, मेट्रो रेलवे एक्ट, रेलवे एक्ट, विद्युत एक्ट प्रमुख था। भूमि अधिग्रहण के मसले पर किसानों को सरकार का पूंजीपरस्त रुख साफ दिखायी दे रहा था परिणामस्वरूप उनके संघर्ष भी तीखे होते चले गये। 
    2013 में सत्ताशीन मनमोहन सरकार ने खुद को किसानों का रहनुमा साबित करने के लिए व अगले चुनावों में उनका वोट हासिल करने की आस में; 1894 के कानून में, व्यापक फेरबदल कर नया भूमि अधिग्रहण कानून लागू किया। जहां इसमें किसानों के अधिकारों-सहूलियतों में नाम मात्र की दिखावटी वृद्धि की गयी वहीं इसके जरिये सरकार ने सार्वजनिक कामों के दायरे में औद्योगिक काॅरीडोर आदि को लाकर निजी पूंजी के हित में अधिग्रहण को कानूनी रूप दे डाला। 
    2013 के इस कानून में पहली बार सार्वजनिक उद्देश्यों को परिभाषित किया गया और सरकार को इस हेतु भूमि अधिग्रहण को जायज ठहराया गया। इसके तहत रणनीतिक प्रोजेक्ट जैसे मिसाइल, सेना के बंकर, हथियार उत्पादन, आधारभूतडेयरी, मत्स्य पालन, औद्योगिक कारीडोर, मैनुफैक्चरिंग क्लस्टर, शिक्षा-रिसर्च-व्यावसायिक शिक्षण संस्थान, खेल-स्वास्थ्य-पर्यटन, कम आय वर्ग के लिए आवास, प्राकृतिक आपदा के शिकार लोगों के लिए आवास आदि क्षेत्र रखे गये। जाहिर है सार्वजनिक उद्देश्यों में अब निजी पूंजी के हितों के सभी क्षेत्र शामिल हो गये। 
    इस कानून में सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अधिग्रहित की जाने वाली भूमि पर निर्भर आबादी की सहमति को पहली बार स्थान दिया गया। जिसके तहत प्राइवेट प्रोजेक्ट के लिए प्रभावित परिवारों को 80 प्रतिशत की सहमति व पी.पी.पी. प्रोजेक्ट के लिए 70 प्रतिशत की सहमति जरूरी बना दी गयी। 
    इस कानून में किसानों के अलावा अधिग्रहित भूमि से प्रभावित अन्य लोगों के आकलन के लिए सामाजिक प्रभाव आंकलन जरूरी कर दिया जिसमें दस्तकारों, मजदूरों, बटाईदारों, मछुआरों, छोटे दुकानकारों आदि को शामिल किया गया। 
    मुआवजे की व्यवस्था में भूमि मालिकों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में बाजार मूल्य के 4 गुने व शहरी क्षेत्र में 2 गुने का प्रावधान किया गया। इसके साथ ही दस्तकारों, छोटे दुकानदारों, मछुआरों को भी मुआवजे की एक निश्चित रकम का भुगतान तय किया गया।
    देश में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान जोड़ा गया कि कृषि भूमि का अधिग्रहण अंतिम प्राथमिकता में किया जाय और ऐसे अधिग्रहण की स्थिति में सरकार उतनी कृषि भूमि का अन्य जगह विकास करे। साथ ही यह भी जोड़ा गया कि अगर सरकार निजी पंूजी के लिए भूमि अधिग्रहित करती है तो लोगों के पुनर्वास व राहत के लिए निजी कंपनी जवाबदेह होगी तथा दलितों-आदिवासियों को अतिरिक्त राहत देनी होगी। 
    इसके साथ ही विवाद की स्थिति में जिला जज या किसी अन्य को चेयरमैन बनाकर विवाद निपटारे के अधिकारी की नियुक्ति की जायेगी। अगर सरकारी अधिकारी कानून का पालन करने में गलती करता है तो विभाग का प्रमुख जिम्मेदार होगा और उसके खिलाफ कार्यवाही की जा सकती है। साथ ही यह भी प्रावधान शामिल किया गया कि अगर प्रोजेक्ट 5 वर्षों में शुरू नहीं होगा तो भूमि पुनः पुराने मालिकों को लौटा दी जायेगी। 
    कुल मिलाकर 2013 का कानून किसानों, खेत मजदूरों, मछुआरों को तमाम राहत दिलाने का दिखावा करता है पर इसका असल उद्देश्य राहत की कुछ रकम बढ़ाकर निजी पूंजी के लिए अधिग्रहण को अधिक सुगम बनाना था। 
    जाहिर ही था देश का पूंजीपति वर्ग इन नये कानून से संतुष्ट नहीं था। वह अपने को मिली सुविधाओं में से कुछ को खोने से नाराज था। वह चाहता था कि भूमि अधिग्रहण के मसले पर सारी जवाबदेही राज्य उठाये और उसकी कोई जवाबदेही तय न हो। पूंजीपति वर्ग ने अपनी नाराजगी इस कानून के लागू होने के साथ ही व्यक्त करनी शुरू कर दी। साथ ही इसके ढेरों प्रावधानों में संशोधन की मांग पेश कर दी। 
    2014 में जब एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के आशीर्वाद से मोदी सत्ता में आये तो उन्होंने निवेश को बढ़ावा देने, विकास के नाम पर एक से बढ़कर एक छूटें पूंजीपतियों को देनी शुरू कर दीं। उन्हीं में एक कदम भूमि अधिग्रहण के कानून को बदलकर नया अध्यादेश लाना था। दिसंबर, 2014 में सरकार नया भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ले आयी।
    नये अध्यादेश के तहत सरकार ने पूंजीपतियों के पक्ष में कई परिवर्तन प्रस्तावित किये। 2013 के कानून में प्रभावित लोगों के 70 प्रतिशत या 80 प्रतिशत रजामंदी का प्रावधान था साथ ही हर अधिग्रहण में सामाजिक प्रभाव आंकलन की व्यवस्था की गयी थी इसमें संशोधन करते हुए 2014 के अध्यादेश में 5 क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण में प्रभावित लोगों की रजामंदी की बाध्यता समाप्त कर दी। ये क्षेत्र थे राष्ट्रीय सुरक्षा व रक्षा उत्पादन, ग्रामीण आधारभूत ढांचा व ग्रामीण विद्युतीकरण, आधारभूत ढांचा व सामाजिक आधारभूत ढांचा, औद्योगिक काॅरीडोर, गरीबों के लिए घर। 
    उपरोक्त पांचों क्षेत्रों के साथ पी.पी.पी. प्रोजेक्ट के लिए सामाजिक प्रभाव आंकलन करने से छूट दे दी गयी। यानी इन क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण होने पर भूमि मालिकों के अलावा अन्य प्रभावित लोगों यथा मजदूरों, दस्तकारों, बटाईदारों आदि का न तो आकलन किया जायेगा न उन्हें कोई राहत दी जायेगी। 
    2013 के कानून में सार्वजनिक उद्देश्यों में प्राइवेट अस्पताल व प्राइवेट शिक्षण संस्थान आदि शामिल नहीं थे। नये अध्यादेश में इन्हें सार्वजनिक उद्देश्यों में शामिल कर लिया गया यानी 80 प्रतिशत लोगों की रजामंदी पर राज्य प्राइवेट अस्पतालों व प्राइवेट शिक्षण संस्थानों के लिए भूमि अधिग्रहित कर सकेगा। 
    नये कानून में मुआवजे व राहत व पुनर्वास के प्रावधान 2013 के कानून सरीखे ही बनाकर रखे गये। 2013 के कानून में केवल प्राइवेट कंपनियों को भूमि अधिग्रहण का सार्वजनिक उद्देश्यों के तहत अधिकार था। नये अध्यादेश में प्राइवेट शब्द का दायरा व्यापक कर इसमें कंपनियां, एन.जी.ओ., फाउंडेशन, चैरिटी निकाय, व्यवसायी सभी शामिल कर दिये गये। यानी ये सभी सार्वजनिक उद्देश्यों के तहत भूमि अधिग्रहण कर सकते हैं। 
    2013 के कानून लागू करने में की गलतियों के लिए विभाग के प्रमुख को जिम्मेदार व दोषी ठहराया जा सकता था। 2014 के अध्यादेश में प्रावधान कर दिया गया कि विभाग के प्रमुख पर पूर्व सरकारी अनुमति के मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। इस तरह नौकरशाहों को एक तरह से खुली मनमानी की छूट दे दी गयी। साथ ही 5 वर्षों में भूमि वापस करने के प्रावधान को हल्का बना दिया गया। 
    इस तरह 2014 का अध्यादेश पूंजीपतियों के हित में किसानों का खुलेआम सम्पत्तिहरण का अध्यादेश था। इस अध्यादेश के लागू होते ही इसका संसद से लेकर सड़कों तक विरोध शुरू हो गया। अंततः जब सरकार ने इसे लोकसभा में पेश किया तो सरकार मंे भाजपा के सहयोगी दल भी इस पर सहमत नहीं थे इसीलिए सरकार को उपरोक्त अध्यादेश में कुछ संशोधन कर उसे लोकसभा में पास कराना पड़ा। हालांकि राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत न होने के चलते वहां से इसका पारित होना कठिन दिख रहा है। 
    लोकसभा में अध्यादेश में जो संशोधन किये गये उसके मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं
-सार्वजनिक उद्देश्यों में प्राइवेट अस्पताल व प्राइवेट शिक्षण संस्थान शामिल करने का नियम हटा लिया गया है। 
-औद्योगिक कारीडोर के तहत सड़क या रेलवे लाइन के दोनों ओर एक किमी. तक की भूमि ही ली जा सकती है। 
-सरकार किसी प्रोजेक्ट के लिए भूमि की उपलब्धता तय करेगी साथ ही अधिग्रहण के लिए सरकार बंजर भूमि का सर्वे भी करेगी। 
-प्रभावित खेतिहर मजदूरोें के परिवार में एक मजदूर को नौकरी दी जायेगी।
-शिकायतों की सुनवाई जिला मुख्यालय पर होगी। 
-लापरवाह व गैर जिम्मेदार या पक्षपाती अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही संभव होगी।
    इस तरह प्रस्तावित संशोधनों के बाद भी 2014 का अध्यादेश 2013 के कानून से काफी ज्यादा किसानांे के खिलाफ व पूंजीपतियोें के पक्ष में खड़ा है। 
    मोदी सरकार की पूंजीपरस्ती आज किसानों से जबरनभूमि छीनने तक जा पहुंची है। किसान अगर सहज ही इस नये अध्यादेश की मुखालफत कर रहे हैं तो उनकी मांग न्यायपूर्ण है और उसका समाधान किया जाना चाहिए। 
किसान संघर्ष और सर्वहारा नीति
    आज देश में भूमि अधिग्रहण के सवाल पर ढेरों पार्टियां व संगठन किसानों को नेतृत्व दे रहे हैं। इनमें से पहले नंबर पर कांग्रेस सरीखी पार्टी है जो भाजपा की तरह ही एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की पार्टी है। जिसे किसानों की दुर्दशा से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि यह महज अपना खोता जा रहा जनाधार बचाने के लिए विरोध का नाटक कर रही है। इसका विरोध बहुत जल्द सरकार के साथ किसी सुलह में पहुंच खत्म हो सकता है। 
    दूसरे नंबर पर देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियां हैं इनमें जनता दल से निकली पार्टियां भी शामिल हैं। ये सभी सपा, राजद, जद(यू), बीजद आदि किसी हद तक क्षेत्रीय पूंजीपति व ग्रामीण पूंजीपति का प्रतिनिधित्व करती हैं। गांव का धनी किसान भी इसमें शामिल है। ऐसे में इनका भी लक्ष्य गरीब किसानों की मदद नहीं बल्कि उसका वोट बैंक हासिल करना है। नहीं तो अपनी बारी में ये यही ग्रामीण बुर्जुआ, ग्रामीण किसानों-खेतिहर मजदूरों का शोषण करता है। जिस हद तक इस विधेयक से ग्रामीण बुर्जुआ के प्रभावित होने की संभावना है उस हद तक इनका इस विधेयक से वास्तविक विरोध है। 
    आप या सरकारी वामपंथी पार्टियां इस विधेयक का विरोध अपने जनाधार को बढ़ाने व बचाने के लिए कर रही हैं। किसी हद तक सरकारी वामपंथी पार्टियों के आधार में भी धनी किसानों की संख्या बढ़ी है। यही हाल धनी किसानों के संगठन भारतीय किसान यूनियन का है। 
    ये सभी भारत के शासक वर्ग की पहली या दूसरी पंक्ति का होने के नाते शासक वर्ग के दोस्ताना अंतरविरोधों को अभिव्यक्त कर रही हैं। हां! देश की विशाल ग्रामीण आबादी का एक वोट बैंक के बतौर आकर्षण भी इसमें भूमिका निभा रहा है। 
    इसके बाहर कई अन्य क्रांतिकारी किसान आदिवासी संगठन हैं जो इस भूमि अधिग्रहण का जुझारू विरोध कर रहे हैं। अपने संघर्ष की जगहों पर वे भारी कुर्बानी दे रहे हैं। इन विरोधों की दिशा मजदूर वर्ग की दृष्टि पर कम किसानों की छोटी सम्पति को येन-केन प्रकारेण बचाने की अधिक है। इसीलिए ये संघर्ष अपने आप में सिमटने को बाध्य हैं। ये संघर्ष चाहे न चाहे किसानों के दृष्टिकोण पर अपने को आधारित करने लगते हैं। 
    जहां तक मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण का सवाल है। पहली बात तो यह कि वह इस ऐतिहासिक वास्तविकता को स्वीकार करता है कि पूंजीवाद का विकास ही किसानों, छोटी सम्पति के मालिकों को तबाह करके होता है। व्यापारिक पंूजीवाद से लेकर आज तक पूंजीपतियों ने येन-केन-प्रकारेण किसानों, छोटी सम्पत्ति वालों को तबाही-बरबादी की ओर ढकेला है। यह तबाही वह जबरन भूमि अधिग्रहण से भी लाता है तो बाजार के जरिये भी छोटे किसानों को तबाह करता है। इसीलिए जब तक पूंजीवाद है, किसानों-छोटी सम्पत्ति की तबाही की प्रक्रिया जारी रहेगी। 
    लेकिन सर्वहारा वर्ग इस तबाही को ऐतिहासिक नियति मानकर शांत नहीं रहता बल्कि वह ऐसी हर तबाही के वक्त गरीब किसानों के साथ मिलकर लड़ता है। लड़ाई में वह पूंजीवाद के इस क्रूर चेहरे की वास्तविकता को छिपाता नहीं; उजागर करता है कि जब तक पूंजीवाद है, तब तक छोटी सम्पत्ति के ऊपर खतरा मंडराता रहेगा। इसीलिए पूंजीवाद में संघर्षों से छोटी सम्पत्ति की तबाही धीमी हो सकती है रोकी नहीं जा सकती। सर्वहारा वर्ग गरीब किसानों की यह तबाही नहीं चाहता इसलिए वह उनके सामने इस वास्तविकता को लाता है कि छोटी सम्पत्ति की तबाही को रोकना केवल व केवल पूूंजीपति वर्ग का तख्तापलट कर समाजवाद की स्थापना के जरिये ही संभव है। वह किसानों को इस संघर्ष में खींच लाने का प्रयास करता है साथ ही पूंजीवाद में जिस हद तक इस तबाही को रोका जा सकता है उसके लिए लड़ता है। 
    साथ ही सर्वहारा वर्ग समूचे किसान समुदाय को एक इकाई मानने के बजाय उनमें विभेदीकरण करता है तथा धनी किसानों और गरीब किसानों के हितों के परस्पर उलट होने की बात सामने लाता है। वह गरीब, मझौले किसानों के साथ एकता कायम करने का प्रयास कर उनके हितों को सामने लाता है। 
    इस तरह आज मोदी सरकार के नये लुटेरे कानून की मुखालफत के लिए भी जरूरी है कि सही सर्वहारा नीति पर खड़े हो गरीब, मझौले किसानों, खेतिहर मजदूरों के संघर्ष खड़े किये जायें। देश में मजदूर वर्ग के आंदोलनों की बढ़ती व गरीब किसानों से उनकी एकता ही वह ताकत है जो सरकार को पीछे धकेल सकती है। 
    सरकार आज विकास के नाम पर ढेरों कुतर्क इस अध्यादेश के पक्ष में दे रही है उसमें किसानों को जमीन छोड़ रोजगार-शिक्षा आदि के स्वप्न परोसे जा रहे हैं। यह वास्तव में किसानों की जमीन छीन उन्हें जबरन मजदूर वर्ग की पांतों में धकेलने का ही रास्ता है। मोदी अपने मन की बात में इसी क्रूर प्रक्रिया को रंगरोगन के साथ आकर्षक बनाकर पेश किसानों को बेवकूफ बनाते हैं।
    आज जब मोदी सरकार किसानों के खिलाफ हमला बोल रही है तब क्रांतिकारी ताकतों का काम बन जाता है कि वे सही जमीन से सरकार के इन कदमों के खिलाफ खड़े हों। 
दक्षिण कोरिया के ‘जनतंत्र’ का असली तानाशाह राक्षसी चेहरा
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
      कोई भी पूंजीवादी जनतंत्र मजदूर वर्ग और मेहनतकश अवाम के ऊपर तानाशाही होता है जबकि पूंजीपति वर्ग और सम्पतिशाली वर्गों के लिए जनतंत्र होता है। इस सच्चाई को हमारे देश में और समूची दुनिया के पूंजीवादी जनतंत्रों में कोई भी सचेत मजदूर व मेहनतकश अपने अनुभव से जानता है। किसी भी पूंजीवादी जनतंत्र की यही बुनियादी सच्चाई है। लेकिन मध्यम वर्ग और खासकर इसका पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी कहा जाने वाला हिस्सा इसके बारे में खुद भ्रम में रहता है और दूसरों को भ्रम में रखने के लिए तर्कों का अंबार खड़ा करता है। दुनिया के सबसे जनतांत्रिक देश होने का दावा करने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में आये दिन जनतंत्र की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। जनतंत्र में नागरिकों की निगरानी की जाती है, अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों के साथ फरगुसन जैसी हत्याओं को अंजाम दिया जाता है, गुवांटानामों जैसी जेलों में दुनियाभर के कैदियों को भरा जाता है और उन पर अत्याचार किये जाते हैं और सर्वोपरि मजदूर वर्ग को निरंतर संगठित होने से रोकने के उपाय किये जाते हैं। इसके लिए ट्रेड यूनियन नौकरशाहों को पालतू बनाने के साथ-साथ मजदूरों को दमन का शिकार बनाया जाता है। 
    लेकिन दक्षिण कोरिया में अमेरिकी साम्राज्यवादी किसी भी तरह के प्रगतिशील आंदोलन को कुचलने के लिए अपनी पिछलग्गू सरकार की हर तरह से मदद करते हैं। वे वहां यह प्रचारित करते हैं कि उत्तरी कोरिया में तानाशाही है और दक्षिण कोरिया में जनतंत्र है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों की पिछलग्गू सरकार दक्षिण कोरिया में किस प्रकार का जनतंत्र स्थापित किये हुए है, उसे 2014 के अंत में वहां के संवैधानिक न्यायालय द्वारा किये गये एक फैसले से समझा जा सकता है। 
    19 दिसंबर, 2014 को दक्षिण कोरिया के संवैधानिक न्यायालय ने एक फैसला दिया जिसमें तात्कालिक प्रभाव से वहां की एक विरोधी पार्टी यूनीफाइड प्रोगेसिव पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया गया। न्यायालय की यह कार्यवाही उस लम्बी प्रक्रिया का चरम बिंदु थी जिसे दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति पार्क जिउन ही इस पार्टी के विरुद्ध एक अभियाान के बतौर चला रहे थे। दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति न सिर्फ राजनैतिक विरोध को कुचल देना चाहते थे बल्कि मजदूर व मेहनतकशों के आंदोलनों को भी रोकना चाहते थे।
    संवैधानिक न्यायालय में यह मुकदमा एक वर्ष पहले उस समय शुरू हुआ था जब न्याय मंत्रालय ने यूनीफाइड प्रोगेसिव पार्टी (यूपीपी) पर प्रतिबंध लगाने को न्यायालय में मुकदमा दायर किया था। न्याय मंत्रालय ने इसके लिए यह बहाना बनाया था कि यू.पी.पी. के 6 प्रमुख नेता सरकर को विद्रोह के जरिये उखाड़ फेंकने के षड्यंत्र में गिरफ्तार किये गये थे। प्रमाण के बतौर सरकार ने खुफिया विभाग के लिए जासूस का काम करने वाले एक रंगे सियार द्वारा रिकार्ड किया गया एक भाषण को पेश किया जिसमें राष्ट्रपति संसद के प्रतिनिधि ली सियोक की द्वारा अपने यू.पी.पी. के साथियों को संबोधित किया गया था। राष्ट्रीय खुफिया सेवा ने इस भाषण में हेराफेरी करके, उसमें ऐसी बातें डालकर जिसे ली ने कभी कही ही नहीं थीं, खूब प्रचारित किया और इस प्रकार, यू.पी.पी. के विरुद्ध माहौल बनाने का काम किया।
    ली सियोक की और उनके पांच सहयोगियों पर अभियोग पक्ष द्वारा तोड़-मरोड़कर काल्पनिक प्रमाण पेश किये गये। सरकार द्वारा विद्रोह संबंधी झूठी गवाहियां पेश की गयीं जिनका कोई वास्तविक आधार नहीं था। लेकिन प्रमाण का अभाव अनुदार न्यायाधीश के रास्ते में कोई रुकावट नहीं बना और उसने सभी 6 लोगों को विद्रोह और षड्यंत्र का दोषी करार कर दिया। इसके बाद मुकदमे की अपील उच्च न्यायालय में की गयी। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि इन प्रमाणों से विद्रोह का षड्यंत्र करने का निष्कर्ष नहीं निकलता। फिर भी इससे राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का उल्लंघन होता है और उन पर ‘भड़काने’ का अपराध सिद्ध होता है। अभी मुकदमा उच्चतम न्यायालय में है। 
    यहां यह बात उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय खुफिया सेवा ने जिस तरह से तोड़-मरोड़कर मुकदमा दायर किया और जिस समय यह तोड़-मरोड़ भरा प्रचार शुरू किया था वह ध्यान देने योग्य है। बाद में एक के बाद दूसरे जो तथ्य सामने आये उससे यह साफ होता गया कि 2012 के चुनाव अभियान में राष्ट्रीय खुफिया सेवा ने लगातार हस्तक्षेप किया था। उसने इंटरनेट के जरिये ऐसी खबरें खूब प्रचारित-प्रसारित की थी जो प्रगतिशील और उदार उम्मीदवारों को बदनाम करने वाली और अनुदारपंथियों की प्रशंसा व तारीफ करने वाली थीं।  
    इसके बाद राष्ट्रीय खुफिया सेवा के विरुद्ध बड़े-बड़े विरोध प्रदर्शनों का तांता लगने लगा था। यू.पी.पी. और उसके सहयोगी इन प्रदर्शनों की अगुवाई कर रहे थे। इन प्रदर्शनों ने शासक पार्टी को आकुलकारी स्थिति में डाल दिया था। तब शासक पार्टी ने यू.पी.पी. के विरुद्ध झूठ-फरेब का अभियान शुरू किया। इससे प्रगतिशील आंदोलनों और उदारवादियों के बीच फूट पड़ गयी और राष्ट्रीय खुफिया सेवा के विरुद्ध प्रदर्शन थम गये। राष्ट्रीय खुफिया सेवा की काली करतूतों से लोगों का ध्यान हटाने में सरकार कामयाब हो गयी। 
    संवैधानिक न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि यू.पी.पी. का ‘‘उत्तरी कोरिया की किस्म के समाजवाद को हासिल करने का गुप्त लक्ष्य है’’। न्यायालय ने घोषित किया कि उक्त पार्टी हिंसा के जरिये प्रगतिशील जनतंत्र स्थापित करने का उद्देश्य रखती है।’’ इसने आगे कहा कि यूपीपी के सदस्य ‘‘ उत्तरी कोरिया के अनुयायी हैं और जिस तरह के प्रगतिशील जनतंत्र की वे हिमाकत करते हैं वह तकरीबन सभी मामलों में दक्षिण कोरिया के विरुद्ध उत्तरी कोरिया की क्रांतिकारी रणनीति जैसी ही है या उससे बहुत कुछ मिलती-जुलती है। 
    न्यायालय के ऐसे दावों का प्रमाण कत्तई समर्थन नहीं करते। इससे न्यायालय में प्रभुत्व अनुदारमना लोगों का तो पता चलता है जो यू.पी.पी. के घोषित उद्देश्यों के प्रति नफरत प्रदर्शित करता है। उक्त पार्टी के इतिहास में ऐसा कुछ नहीं है जो न्यायालय के दावों की पुष्टि करता हो। 
    यू.पी.पी. न तो क्रांतिकारी पार्टी है और न ही वह विद्रोह करने वाली पार्टी है। यह पार्टी कुछ प्रगतिशील कदम उठाने की बात करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था की समर्थक पार्टी है। अधिकांश कोरियावासियों की तरह वह दोनों कोरिया के बीच शांति और उनका पुनःएकीकरण चाहने वाली पार्टी है। इसका पार्टी कार्यक्रम कहता है कि वह जमीनी स्तर पर मजदूर वर्ग के साथ खड़ा होकर जनकेंद्रित दुनिया बनाने का उद्देश्य रखता है। इसके कार्यक्रम के अनुसार, गैर भेदभावभरा समाज का उद्देश्य है जिसमें मजदूरों को अधिकार हों और छात्रों की फीस आधी हो। किसानों के समर्थन में, वह कृषि उत्पादों के लिए सरकार की खरीदने की नीति को लागू करने की हिमाकत करता है। मेहनतकश अवाम के लिए वह युवा रोजगार कोटा के जरिये नौजवानों के रोजगार की मांग करती है और सरकार के उद्यमों के निजीकरण को रोकना चाहती है। इस पार्टी के इन उद्देश्यों को केवल नवउदारवादी प्रभुत्व वाली हुकूमत ही समाज के लिए खतरा समझ सकती है।  
    यू.पी.पी. के लगभग एक लाख सदस्य हैं और बहुत सारे अनुयायी हैं। इस पर लगे प्रतिबंध ने उन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित कर दिया है। यू.पी.पी. की अध्यक्ष ली जुंग ने संवैधानिक न्यायालय के समक्ष अंतिम बयान में कहा कि यू.पी.पी. को भंग करने की सरकार की कोशिश न सिर्फ पार्टी या उसके प्रतिनिधियों के भाग्य को तय कर रही है बल्कि यह मजदूरों, किसानों और आम जनता के भी भाग्य को तय करने की कोशिश कर रही हैं जिन्होंने यू.पी.पी. को अपना मत देकर कोरिया में अपना समान मालिकाना चाहते हैं। वे अपने मत देने के अधिकार और राजनीतिक राय रखने की आजादी चाहते हैं।
    सरकार का मुख्य तर्क यह है कि यू.पी.पी. महासंघ किस्म का एकीकरण हासिल करने के बाद वह उत्तरी कोरिया किस्म का समाजवाद लाना चाहेगी। ली ने इसका खंडन करते हुए न्यायालय के समक्ष कहा यह निराधार अनुमान है। उत्तरी कोरिया का समाजवाद वहां के हिसाब से बना है और यह व्यवस्था दक्षिण कोरिया के लिए नहीं हो सकती। सरकार कहती है कि सर्वशक्तिमान सर्वोच्च नेता का होना उत्तरी कोरियाई समाजवाद के केंद्र में है। दक्षिण कोरिया की उस जनता के लिए कोई कारण नहीं है जिसने पार्क युंग ही की लम्बी यूशिन तानाशाही को और चुन दो ह्वान हुकूमत की अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली को अस्वीकार किया हो और जिसने क्वांगजू जन उभार और जून-उभार को छेड़कर प्रत्यक्ष चुनाव व एक ही काल के लिए राष्ट्रपति चुने जाने को जीता हो, वह इन उपलब्धियों को छोड़ देगी और सर्वशक्तिमान सर्वोच्च नेता के पीछे चलने को चुनेगी। यू.पी.पी. के कारकूनों और सदस्यों के बहुमत ने इन जनतांत्रिक संघर्षाें में हिस्सा लिया है और इनमें अपने को समर्पित किया है और पार्टी यह साफ-साफ घोषणा करती है कि वह इन संघर्षों की परंपरा का अनुसरण करती है। 
    जैसे ही यू.पी.पी. के विरुद्ध संवैधानिक न्यायालय ने अपने फैसले की घोषणा की वैसे ही बचाव पक्ष के वकील ने खड़े होकर कहा ‘‘आज जनतंत्र की हत्या का दिन है। इतिहास इस फैसले पर अपना फैसला सुनायेगा’’। इतना कहने पर सुरक्षा बलों ने उसको घेर लिया और उसका मुंह बंद करके उसे न्यायालय से बाहर खींचकर ले गये। यह प्रगतिशील लोगों की आवाज बंद करने वाले सरकारी नजरिये की बानगी थी। 
    यू.पी.पी. पर प्रतिबंध के निर्णय के बाद प्रगतिशील लोगों की धरपकड़ जारी हो गयी। इस पार्टी को निर्देश दिये गये कि वह सरकार द्वारा प्राप्त सब्सिडी को छोड़ दे और इसकी सभी परिसम्पतियों को जाम कर दिया गया। राष्ट्रीय संसद के इसके सभी 5 सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी गयी। राष्ट्रीय चुनाव आयोग ने स्थानीय परिषदों के यू.पी.पी. के सभी 6 सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी। 
    एक दक्षिणपंथी गुट ने एक न्यायालय में इस पार्टी के सभी एक लाख सदस्यों की गिरफ्तारी के लिए इस आधार पर शिकायत की कि इन लोगों ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का उल्लंघन किया है। और न्यायालय ने इसे स्वीकार भी कर लिया। सार्वजनिक सुरक्षा कार्यालय इस बात की जांच कर रहा है कि यू.पी.पी. ने दुश्मन की मदद की है या नहीं। अलग-अलग सदस्यों की जांच जारी है। हालांकि यह नहीं लगता है कि समूची सदस्यता गिरफ्तार हो, तब भी सबसे सक्रिय लोगों में से अधिकांश की गिरफ्तारी हो जायेगी। चूंकि दक्षिण कोरिया का राष्ट्रीय सुरक्षा कानून दुश्मन के साथ मिलने पत्र व्यवहार करने या उसके साथ तालमेल बैठाने से मना करता है, इसलिए इसको आधार बनाकर बचाव पक्ष के एक वकील को इसलिए तंग किया जा रहा है कि उसने जर्मनी में एक सेमिनार के दौरान उत्तरी कोरिया के एक व्यक्ति से बात की। इसी प्रकार उसी सेमिनार के दौरान उत्तरी कोरिया के एक प्रतिनिधि से बात करने पर एक धर्मगुरू पर भी कार्यवाही की जा रही है।     वास्तविकता यह है कि यू.पी.पी. के भंग होने से महीनों पहले न्याय मंत्रालय ने एक योजना की घोषणा कर दी थी जिसके अनुसार राज्य विरोधी गु्रपों को भंग करने का अधिकार अधिकारियों को देना था। न्याय मंत्रालय के एक अधिकारी ने बाद में कहा कि यू.पी.पी. तो महज बर्फ के शिलाखंड का ऊपर दिखाई पड़ने वाला हिस्सा है। मंत्रालय की निगाह में कई ऐसे व्यक्ति और ग्रुप हैं जिन पर कार्यवाही की जानी है। कुछ प्रगतिशील लोगों के घरों में छापा डालने की कार्यवाही तो महज शुरूआत है। आने वाले महीनों में यह सिलसिला और बढ़ेगा। 
    सरकार मजदूर आंदोलन को कुचलने की दिशा में लगातार आगे बढ़ रही है। उसने अध्यापकों की यूनियन पर प्रतिबंध लगा दिया है और एक वर्ष पहले सरकारी कर्मचारियों की यूनियन को मान्यता देने से उसने इंकार कर दिया था। कोरियाई ट्रेड यूनियनों के महासंघ के मुख्यालयों पर 700 पुलिस वालों ने धावा बोलकर 130 लोगों को हवालात में बंद कर दिया। बाद में 6 लोगों को रेल मजदूरों की हड़ताल का समर्थन करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
    दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति पार्क जेयुन ही ने श्रम बाजार में ‘‘सुधार’’ को अति आवश्यक कार्यभार बताया है। उनकी सरकार समूची श्रम शक्ति में लचीलापन लाना चाहती है। उसने कंपनियों को मजदूरी गिराने के संबंध में खुली छूट दे रखी है। काम का बोझ और बढ़ा दिया है। कोरियाई ट्रेड यूनियनों के संघ ने इसे पूंजीपतियों के लिए उपहार देना कहा है और इस बात की ओर इशारा किया है कि इससे निम्न स्तर के रोजगार सृजित होंगे। 
    शासक पार्टी द्वारा उठाये गये कदम इस बात को सुनिश्चित करने के लिए हैं कि प्रगतिशील लोग दुबारा चुनाव में कभी भी न खड़े हो सकें। यू.पी.पी. सदस्यों पर दूसरी पार्टी गठित करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। वहां की संसद ने एक बिल तैयार किया है जिसके अनुसार आगामी 10 वर्षों तक यू.पी.पी. के सदस्यों पर किसी भी पद के लिए खड़े होने पर रोक होगी। न्याय मंत्रालय ऐसा कानून बनाने की योजना बना रहा है जो यू.पी.पी. जैसे कार्यक्रम वाली किसी भी राजनीतिक पार्टी के गठन पर रोक लगा दे। यदि ऐसा कानून पारित हो जाता है तो मेहनतकश अवाम के पक्ष में प्रगतिशील कार्यक्रम की हिमाकत करने वाली कोई भी राजनीतिक पार्टी गैर कानूनी हो जायेगी। 
    2012 के चुनाव में यू.पी.पी. ने एक अन्य पूंजीवादी पार्टी डेमोक्रेटिक यूनाईटेड पार्टी (जिसका अब नाम न्यू पालिटिक्स एलायंस फाॅर डेमोक्रेसी) हो गया है के साथ गठबंधन किया था। अब ऐसे गठबंधन अतीत की बात हो गयी है। शासक पार्टी ने न्यू पालिटिक्स डेमोक्रेसी से मांग की है कि वह यू.पी.पी. के साथ अपने संबंधों को खत्म करने की घोषणा करे। 
    दुनिया भर में पूंजीवादी शासकों की तरह दक्षिण कोरिया के शासक भी यही सोचते हैं कि वे प्रगतिशील लोगों की भावनाओं और उनकी आवाज को कुचल सकते हैं। इस भ्रम में वे हो सकते हैं और हैं। कोरिया के कार्यकर्ताओं ने बहादुरी के साथ पुलिस की संगीनों, गोलियों, कारगारों और यातनाओं का सामना करते हुए अतीत में तानाशाही और सैनिक शासक को समाप्त किया था। आज दक्षिण कोरिया के शासकों के विरुद्ध संघर्ष समूची दुनिया के न्याय के लिए सघर्ष को गति प्रदान करेगा। 
    अन्य देशों की तरह दक्षिण कोरिया में भी मजदूर वर्ग की एक क्रांतिकारी पार्टी का अभाव है। इसलिए दक्षिण कोरिया के मजदूर वर्ग और मेहनतकश अवाम को एक तरफ तो तानाशाही हुकूमत के विरूद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाना है और दूसरी तरफ, यह संघर्ष करते हुए पूंजीवादी नेताओं के बहकावे में आने से बचना है। फिलहाल, पूंजीवादी नेता ही इस तानाशाह हुकूमत के विरुद्ध मुखर होकर बोल रहे हैं। 
    मजदूर वर्ग और मेहनतकश अवाम के लिए यह लड़ाई महज पूंजीवादी जनतंत्र के लिए नहीं हैं। जनतंत्र की रामनामी चादर जैसे वर्तमान हुकूमत उतारकर फेंकती जा रही हैं और अपना असली दानवी चेहरा तानाशाही का चेहरा सामने ला रही है। यही हर पूंजीवादी जनतंत्र की असलियत होती है। 
    दक्षिण कोरिया की हाल की घटनाएं इसी सच्चाई को उजाकर करती हैं।    
संघ, मदर टेरेसा और ईसाई मिशनरियां
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
    संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हाल में ही बयान दिया है कि मदर टेरेसा का मूल उद्देश्य धर्मांतरण था। दूसरे शब्दों में मदर टेरेसा का सारा सेवाकर्म लोगों को ईसाई बनाने के उद्देश्य से संचालित था। संघ प्रमुख के इस बयान से एक बार फिर धर्मांतरण को लेकर बहस तेज हो गयी जो नरेन्द्र मोदी को अपने प्यारे मित्र बराक ओबामा द्वारा दी गयी नसीहत और इस नसीहत पर अमल करते हुए मोदी द्वारा साम्प्रदायिक हिंसा को बर्दाश्त न करने के बयान के बाद मंद पड़ गयी प्रतीत होती थी। 
    दरअसल संघ प्रमुख के बयान में नया कुछ नहीं  है। उन्होंने जो कुछ कहा है वह लंबे समय से संघ की मान्यता रही है। संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरूगोलवलकर जिन्होंने तीन दशक तक संघ का नेतृत्व किया, ने भारत के तीन आंतरिक दुश्मन बताये थे- मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट। भारतीय ईसाईयों व मुस्लिमों के बारे में उन्होंने लिखा- ‘‘उनकी अपनी वफादारी में बदलाव के साथ देश के प्रति प्रेम व समर्पण की भावना भी खत्म हो जाती है। यह यहीं पर खत्म नहीं होता। वे इस देश के दुश्मनों के साथ अपनी पहचान को जोड़ते हैं। वे कुछ विदेशी स्थानों को अपने पवित्र स्थान के रूप में देखते हैं।’’
    जाहिर है संघ की अपनी विचारधारा के हिसाब से ईसाई व मुस्लिमों की देश के प्रति वफादारी कभी संदेह से परे नहीं हो सकती क्योंकि उनके पवित्र धार्मिक स्थल भारत से बाहर हैं। 
    रोजमर्रा के व्यवहार में मुसलमानों के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैरभाव तो जगजाहिर हैं लेकिन ईसाईयों के प्रति संघ परिवार की सोच से बहुत कम लोग वाकिफ हैं। ईसाई हालांकि 2001 की जनगणना के हिसाब से महज 2.3 प्रतिशत हैं और 80 प्रतिशत हिंदुओं के लिए कोई खतरा कैसे बन सकते हैं? लेकिन ईसाईयों से संघ परिवार को कुछ मामलों में मुसलमानों से ज्यादा खतरा महसूस होता है। हिंदुओं के मुस्लिम बनने की घटनायें अपवाद स्वरूप ही होती हैं। मुस्लिमों के साथ संघ परिवार की शिकायत धर्मांतरण नहीं बल्कि सांस्कृतिक तौर पर हिंदुओं की अधीनता या मातहती स्वीकार नहीं करना है। अगर मुसलमान दिवाली, होली व अन्य हिंदू पर्व मनाने लग जायें और हिंदुओं जैसे नाम रख लें तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें मुहम्मदिया हिंदू के रूप में स्वीकार कर लेगा। यह बात दीनदयाल उपाध्याय से लेकर संघ के तमाम नेता समय-समय पर अलग-अलग रूपों में कहते रहे हैं। ईसाई मिशनरियों से संघ को खतरा इसलिए ज्यादा महसूस हाता है क्योंकि दूरदराज के इलाकों में ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में आदिवासी ईसाई बन रहे हैं। आदिवासी मूलतः प्रकृति पूजक होते हैं। हिंदू धर्म से उनका कोई वास्ता नहीं रहा है। ईसाई मिशनरियों ने इन्हीं आदिवासियों के बीच शिक्षा प्रचार और उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित करना शुरू किया। संघ परिवार की नजर जब इस ओर गई तो उसने ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के माध्यम से आदिवासियों को हिंदू बनाना शुरू किया। वनवासी शब्द का इस्तेमाल आदिवासियों को हिंदू पौराणिक कथाओं या मिथकों के साथ जोड़ने अथवा उनका हिंदू धर्म शास्त्रों से संबंध स्थापित करने के लिए किया गया। वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा हनुमान को आदिवासियों का पूर्वज घोषित करते हुए राम व आर्य संस्कृति के प्रति हनुमान की निष्ठा को प्रचारित किया गया। उड़ीसा व पूर्वोत्तर में वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा बड़ी संख्या में हनुमान के फोटो बांटकर आदिवासियों का हिंदुओं के रूप में संस्कारीकरण की मुहिम चलायी जा रही है। ईसाई बन चुके आदिवासियों को हिंदू बनाना भी इस मुहिम का हिस्सा है। चूंकि आदिवासियों के बीच ईसाई मिशनरियां लंबे समय यानी संघ से बहुत पहले से कार्यरत हैं अतः इस मामले में उन्हें बढ़त मिली थी। संघ परिवार के लिए यही चिंता का विषय रहा है। संघ परिवार का ईसाई मिशनरियों के साथ वैरभाव का यह सबसे अहम बिंदु है। इसी वैरभाव के चलते एक उग्र हिंदू कट्टरपंथी दारा सिंह द्वारा ईसाई धर्म प्रचारक ग्राहम स्टेंस को उसके दो बच्चों सहित जिंदा जला दिया गया था। कुछ वर्ष पूर्व उड़ीसा के कंधमाल जिले में ईसाईयों के खिलाफ व्यापक दंगे इसी नफरत के चलते हुए थे। 
    देश भर में ईसाई चर्चों पर हमले अब कोई अनोखी बात नहीं रह गयी है। दिल्ली में चुनाव से पहले कई जगह चर्चों पर हमले की घटनायें हुईं। चूंकि संख्या में बेहद कम होने के चलते ईसाई समुदाय हिंदू साम्प्रदायिकों का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं होता इसलिए इस तरह की घटनाओं पर वैसी प्रतिक्रिया सामने नहीं आती जैसे कि मुस्लिम समुदाय द्वारा प्रकट होती है अतः ईसाईयों के धार्मिक उत्पीड़न के मामले उतनी मुखरता के साथ सामने नहीं आते हैं फिर भी धर्मांतरण के मुद्दे पर संघ परिवार के निशाने पर ईसाई ही ज्यादा हैं। संघ परिवार के अनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद व हिंदू जागरण मंच द्वारा जिन हजारों धर्मांतरित लोगों को हिंदू धर्म में वापस लाने का दावा किया जाता रहा है उनमें अधिकांश आदिवासी ही हैं जो ईसाई बन चुके थे। आदिवासियों के अलावा ईसाई मिशनरियां शहरों में मलिन बस्तियों व झुग्गी झोंपडि़यों में रहने वाले दलित व बेहद गरीब लोगों के बीच भी काम करती हैं जिन्हें हिंदू धर्म में अछूत कहा जाता रहा है तथा जिनके स्पर्श मात्र से उच्च जाति के हिंदू अपवित्र हो जाते हैं। शिक्षा व जीवन की मूलभूत जरूरतों से वंचित तथा घोर अपमानित जीवन जीने वाले लोगोें के बीच जब ईसाई मिशनरियां शिक्षा व कुछ समाज कल्याण का काम करते हुए ईसाईमत का प्रचार करती हैं तो वे हिंदू साम्प्रदायिक तत्वों व संघियों की नजर में खटकती हैं। जहां दलितों को उच्च जाति के हिंदू सहज रूप से अपने मंदिर में प्रवेश भी न करते देते होें वहां चर्च में कम से कम धार्मिक तौर पर उन्हें बराबरी का अहसास होता है। इसलिए हिंदू समाज के सबसे दबे-कुचले दलित वर्ग के बीच से ईसाई बनने की एक परिघटना बहुत पहले से, अंग्रेजों के शासन के समय से ही मौजूद रही है। हालांकि इसकी रफ्तार बेहद कम रही है। 
    धार्मिक कारणों के अलावा संघ को ईसाई मिशनरियों से एक बड़ी ईष्र्या का कारण शिक्षा के क्षेत्र में उनकी बढ़त रही है। संघ का मानना रहा है कि देश में भारी संख्या में ईसाई मिशनरियों द्वारा जो स्कूल संचालित किये जा रहे हैं उनमें पढ़ने वाले हिंदू खासकर मध्यमवर्गीय परिवारों के हिंदू बालक अपनी धार्मिक पहचान व तथाकथित संस्कारों से विरत हो जाते हैं। वे भले ही ईसाई न बनें लेकिन धर्मनिरपेक्ष या सेकुलर मिजाज के बन जाते हैं और संघ के अनुसार पाश्चात्य संस्कृति में रच-बस जाते हैं। संघ के अनुसार धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, कम्युनिज्म, जनवाद, लैंगिक समानता और इस के अनुरूप आधुनिक वेशभूषा, संगीत, विचार व जीवन मूल्य सब पाश्चात्य संस्कृति का हिस्सा हैं। ‘पाश्चात्य संस्कृति’ और उसके साथ आयी आधुनिकता ने हिंदू धर्म और परम्पराओं का प्रभाव कम किया है। उन्हें अवैज्ञानिक, अतार्किक व अनैतिहासिक घोषित करने की हिमाकत की है। संघियों को यह बात नहीं समझ में आती कि आधुनिकता व जनवादी विचार मूल्यों का किसी धर्मविशेष से लेना देना नहीं है। 
    धर्म निरपेक्षता शब्द पहली बार राज्य को चर्च के प्रभाव से मुक्त रखने के लिए ही हुआ था। लेकिन उनको यह बात समझ में आती है कि उनके हिंदू राष्ट्र के फासीवादी एजेण्डे में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा एक बड़ी बाधा है। साथ ही आधुनिकता, जनवाद, समाजवाद व कम्युनिज्म जैसी अवधारणायें भी इस हिंदू राष्ट्र के एजेण्डे के रास्ते में रुकावट पैदा करते  हैं। अतः ये आधुनिकता व धर्मनिरपेक्षता के दुश्मन हैं। और चर्च संचालित स्कूलों को इन आधुनिक मूल्यों व विचारों जिन्हें पूर्व सर संघचालक के.सुदर्शन ने ‘यूरंडवाद’ कहा था, का वाहक होने के चलते अपना दुश्मन मानते हैं। संघ परिवार ने हालांकि ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों का मुकाबला ‘सरस्वती शिशु मंदिर व बाल विद्या मंदिरों’ के माध्यम से करने की कोशिश की लेकिन मध्यमवर्ग के खाते-पीते लोगों की पसंद ईसाई मिशनरियों के स्कूल ही बन पाये। संघ के द्वारा संचालित स्कूल ईसाई मिशनरियों की तरह प्रतिष्ठा अर्जित नहीं कर पा रहे हैं। यह बात भी संघ परिवार को सालती रही है। भारतीय समाज में मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक भावना जितनी गहरी है ईसाइयों के प्रति यह भावना नहीं है। ऐसा ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित सेवाभाव व मध्यमवर्ग पर शिक्षा के माध्यम से उनके प्रभाव के कारण रहा है। ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित शिक्षा आज की पूंजीवादी आधुनिकता के ज्यादा सुसंगत है बजाय सरस्वती शिशु मंदिरोें की संस्कारवान शिक्षा के। इसलिए ईसाई मिशनरियों के प्रति सामान्यतः मध्यवर्ग में एक सम्मानजनक भाव है। ईसाई समुदाय को इसी भाव के चलते पढ़ा लिखा, सज्जन व सेवा भाव से जुड़ा समझा जाता है। ईसाई समुदाय के पर्व आधुनिक वैश्वीकरण के दौर में वैश्विक पर्व बनते जा रहे हैं। निश्चित तौर पर साम्राज्यवादी उपभोक्तावाद की इसमें बड़ी भूमिका है। ईसाई कैलेण्डर का अंतिम दिन (31 st) व पहला दिन तो वैश्विक त्यौहार बनते जा रहे हैं। कई मध्यम वर्ग के लोग चर्च घूमने जाते हैं। खासकर क्रिसमस व गुड फ्राइडे के दिन। ये सब तथ्य संघ परिवार को भयाक्रांत करते हैं। वह यह समझने में असमर्थ रहता है कि कर्मकांडीय व संस्कारीय हिंदू धर्म सहित किसी भी धर्म के प्रति हर जगह आस्था खत्म होती जा रही है। क्योंकि धर्म अपने आप में एक प्राक पूंजीवादी आचार विचार रहा है जो समाज से लेकर जीवन के हर क्षेत्र व परिवार को नियंत्रित करता रहा है। आधुनिक पूंजीवाद के साथ धर्म का निषेध अधिकाधिक होना लाजिमी है। चूंकि ईसाई धर्म ने अपने को पूंजीवाद के अनुरूप या आधुनिकता के अनुरूप अधिक अनुकूलित किया है अथवा उसको ऐसा करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। अतः आधुनिकता के साथ ईसाई धर्म का वैसा वैरभाव नहीं दिखता जैसा हिंदू धर्म जैसे परम्परावादी धर्म में दिखता है। और कई बार तो ईसाई धर्म खासकर ईसाई धर्म के द्वारा संचालित स्कूल इस पूंजीवादी आधुनिकता के वाहक प्रतीत होते हैं। इस तरह ईसाई समुदाय के एक आधुनिक समाज होने का भाव भी भारतीय मध्यम वर्ग में है।
    कुल मिलाकर संघ परिवार अन्य धर्मों के प्रति जिस तरह विदेशी व विजातीय होने के भाव को प्रचारित करता है उसके विपरीत ईसाई समुदाय के प्रति समाज में एक सभ्य, आधुनिक व पढ़ा लिखा व सेवाभाव से प्रेरित होने का भाव बना हुआ है। इस सबके चलते संघ में शहरी ईष्र्या व कुंठा की भावना पैदा होती है। मदर टेरेसा संघ के लिए इसी कुंठा भावना की एक सशक्त प्रतीक हैं। भारतीय समाज में खासकर मध्यवर्ग में मदर टेरेसा सब कुछ धर्मांतरण के लिए कर रही थीं तब भी वह उनकी सेवा भावना का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। कुष्ठ रोगियों, अनाथों व बीमार गरीबों की जिस भावना के साथ मदर टेरेसा ने सेवा की उसका मुकाबला कोई हिंदू संगठन नहीं कर सकता। मदर टेरेसा की सेवा भावना ईसाई धर्म के मूल में निहित सेवा भाव के अनुरूप थी। ईसाई धर्म करुणा व सेवाभाव व प्रेम का संदेश देता है। यह एक तरीके से अन्याय के खिलाफ विद्रोह की भावना व संघर्ष से पलायन का मार्ग भी प्रकारान्तर में बन जाता था। यह गौरतलब है कि ईसाई धर्म का उदय रोमन साम्राज्य में दास विद्रोह के बर्बर दमन के बाद फैले निराशा के दौरान ही हुआ था। हृदय परिवर्तन का विचार ईसाई धर्म के मूल में रहा है। अपने इन गुणों के कारण यूरोप के शासकों ने ईसाई धर्म को अपनाया और अपने साम्राज्य के विस्तार खासकर उपनिवेशीकरण में ईसाई धर्म को भी एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया। ईसाई धर्म के प्रसार द्वारा पिछड़े व गरीब तीसरी दुनिया के देशों के निवासियों को सभ्य बनाने, उनकी आत्मा को प्रकाशवान करने का तर्क साम्राज्यवादी  उपनिवेशीकरण को औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए यूरोपीय औपनिवेशिक ताकतों द्वारा इस्तेमाल किया गया। 
    मदर टेरेसा को नोबेल पुरूस्कार देना भी इसी साम्राज्यवादी औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतीक था जिसके तहत तीसरी दुनिया के देशों को सभ्यता, ज्ञान व आधुनिकता से वंचित दर्शाते हुए वहां साम्राज्यवादी हस्तक्षेप को जायज ठहराया जाता था। 
    लेकिन साम्राज्यवाद विरोध तो कभी संघ का एजेण्डा नहीं रहा। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में संघ परिवार का एक भी सदस्य का शहीद होना तो क्या जेल तक नहीं गया। सर संघचालक गोलवलकर तो तब भी अंग्रेजों से लड़ने के बजाय मुसलमानों से लड़ने की शिक्षा देते थे। 
    मदर टेरेसा का इस्तेमाल भले ही साम्राज्यवादी शक्तियां अपने स्वार्थों के अनुरूप करती रही हों लेकिन मदर टेरेसा किसी साजिश के तहत सेवाभाव से संचालित थीं यह कहना सरासर गलत है। मदर टेरेसा तो ईसाई धर्म के मूल में निहित सेवा व परोपकार के भाव से अनुप्राणित थीं। समय के साथ उनका सेवाभाव गहराता गया। वह जिन लोगों की सेवा करती थीं ऐसे लोगों को हिंदू समाज खासकर उच्च जाति के हिंदू अपने समाज से बहिष्कृत कर देते थे। कुष्ठ रोगियों को जब उनके अपने भी त्याग देते थे तब हिंदू धर्म के सेवक क्यों नहीं उन्हें अपना लेते थे। 
    खैर धर्मांतरण का मुद्दा इसी बहाने जोर पकड़ रहा है। संघ परिवार धर्मांतरण का विरोधी है। लेकिन अपने द्वारा धर्मांतरण के प्रयासों को वह धर्मांतरण के बजाय घर वापसी कहता है। भारत का संविधान हर किसी को अपने धर्म का प्रचार प्रसार करने व धार्मिक विश्वासों का पालन करने की आजादी देता है। दूसरी तरफ हर व्यक्ति को अपने लिए धर्म चुनने की आजादी है। संघ परिवार अपने घर वापसी अभियान को जारी रखते हुए दूसरों के द्वारा अपने धर्म का प्रचार प्रसार पर रोक लगाना चाहता है। वह भारत में राष्ट्र को धर्म का यानी हिंदू धर्म का पर्याय बना देना चाहता है। 
    दुनिया में प्रत्येक धर्म का विस्तार धर्मांतरण के चलते ही हुआ। पुराने धर्म के मानने वालों ने जब किसी नए धर्म को माना तभी नया धर्म फला फूला। एक समय में भारत में बौद्ध धर्म का बोलबाला था लेकिन बाद में हिंदू धर्म ने ज्यादा प्रभाव बना लिया। हिंदू धर्म ने भी अपने प्रचार प्रसार के लिए उन सभी हथकंडों का इस्तेमाल किया जिसका इस्तेमाल हिंदूवादी कट्टरपंथी दूसरों पर लगाते हैं। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की हिफाजत करना हर जनवादी नागरिक का कर्तव्य है। हालांकि धार्मिक स्वतंत्रता के साथ किसी भी धर्म अथवा ईश्वर को न मानने की स्वतंत्रता भी एक जनवादी अधिकार है। इसी के साथ अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यताओं की हिफाजत करना राज्य की सर्वोपरि जिम्मेदारी है। साथ ही राज्य का धर्म व धार्मिक गतिविधियों से पूर्णतः अलगाव यानी राज्य का धर्मनिरपेक्ष रूप किसी भी समाज में जनवाद के लिए बेहद जरूरी है। 
    जनवाद, धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता और आधुनिकता संघ परिवार के लिए विजातीय शब्द हैं और इनका स्रोत वह ईसाई मिशनरियों व उनके द्वारा संचालित आधुनिक शिक्षा में देखता है। इसलिए ईसाई अल्पसंख्यक व ईसाई मिशनरियां संघ के निशाने पर हैं। ईसाई मिशनरियों की प्रतीक के रूप में मदर टेरेसा इसीलिए संघ की घृणा की पात्र है। इसीलिए मोहन भागवत को मदर टेरेसा पर गुस्सा आता है। 
पूंजीवाद ने प्रेम को सम्मानपूर्ण स्थान दिया
आठ मार्च अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस के अवसर पर
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    कामेच्छा मनुष्य के लिए एक स्वाभाविक चीज है। एक अर्थ में इसकी तुलना भूख और प्यास से की जाती है। सोवियत रूस के जीव-विज्ञानियों, मनोविज्ञानियों और मानव-विज्ञानियों ने ‘‘पानी के गिलास’’ के सिद्धान्त- अर्थात् शुष्क भौतिकवादी सिद्धांत- को अच्छी तरह परखा। वे इस नतीजे पर पहुंचे कि ‘प्यास’ कामेच्छा से मूलतः भिन्न है। जन्म के समय कामेच्छा नहीं होती। कौमार्य-अवस्था प्राप्त होने पर ही वह पूरी तरह विकसित होती है। कामेच्छा जागृत होने के साथ किसी भी लड़के या लड़की के शरीर और मस्तिष्क में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन होते जाते हैं। मनुष्यों में इस इच्छा की आनन्दमयी तृप्ति मस्तिष्क, विचारों, धारणाओं और स्वप्नों के प्रभाव से और अधिक बढ़ती जाती है। भूख और प्यास को लगातार बुझाते रहना शरीर कायम रखने के लिए नितांत जरूरी होता है। किन्तु कामेच्छा की तृप्ति इतनी जरूरी नहीं। दूसरी तरफ मनुष्य के लिए इंद्रियसंभोग का भौतिक उद्देश्य उसके स्वयं जीवित रहने की इच्छा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। यौन-सम्बन्धों के परिणामस्वरूप लोग माता-पिता बनते हैं। वे नये जीव को जन्म देते हैं। वे मानव जाति का सृजन करते हैं। इसी प्रकार यह भी सर्वविदित है कि सम्भोग से परम आनन्द प्राप्त होता है। यह आनन्द इतना जटिल और मस्तिष्क द्वारा रंग-बिरंगा बना दिया जाता है कि सम्भवतः इसकी तुलना ‘‘पानी पी लेने’’ या ‘‘खाना खा लेने’’ से नहीं की जा सकती। इसी बात को लेकर सोवियत वैज्ञानिकों ने पुराने नीति-वेत्ताओं से आगे कदम बढ़ाया। उन्होंने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि मानव-विकास के इतिहास में यौन सम्बन्ध अपरिवर्तित रहे हैं। उन्होंने यह भी मानने से साफ इंकार कर दिया कि यौन समस्या को कभी न हल होने वाली समस्या मान लिया जाये। पुराने विचारों को चुनौती देने वाला उन्होंने एक नया विचार पेश कियाः आज के समाज में मनुष्यों के यौन सम्बन्ध पुरातन के यौन सम्बन्ध से उतने ही भिन्न हैं जितने कि हमारे सहृदयता पूर्ण व्यवहार पशुओं के व्यवहार से भिन्न हैं। 
    उन्होंने ‘‘प्रेम’’ शब्द की एक नयी व्याख्या पेश की। उन्होंने प्रेम को भोग-लालसा के संतोष का साधन कहकर ही इति नहीं कर दी। प्रेम को भोग-लालसा की तृप्ति का सिर्फ साधन मानने की बजाय उन्होंने ऊंचे उठाकर ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे यह घोषणा की कि जिस प्रेेम की आज हम बात करते हैं वह मानव समाज के महान प्रगतिशील व क्रांतिकारी विकास का द्योतक है। उन्होंने कहा कि प्रेम के सम्बन्ध में सही समझदारी और उसका अनवरत विकास ही वह आधार-शिला है जिस पर एक सच्चे नैतिक समाज का निर्माण हो सकता है। 
    यह बात कुछ असंगतपूर्ण लगती है कि वैज्ञानिकगण प्रेम के सम्बन्ध में अपना सिद्धान्त गढ़ें। बात कम मनोरंजक भी नहीं। हमारे लिए सम्भवतः कल्पना करना भी कठिन हो कि एन्थ्रोपोलोजी (मानव-विज्ञान) जैसे जटिल विषय के नीरस प्रोफेसर महोदय इस सम्बन्ध में क्या मत पेश करेंगे। लीजिए, हम सोवियत वैज्ञानिकों की विस्तृत खोजबीनों के बुनियादी सारांशों तक ही अपने को सीमित कर लें...।
    आरम्भ में, आदिकाल के मनुष्यों के जीवन में कामेच्छा का स्थान पशुओं के मुकाबले कुछ ही ऊंचा था। इन्द्रिय भोग की लालसा पुरुष का मुख्य गुण था। स्त्री केवल इस इच्छा को तृप्त करने और बच्चे पैदा करने का साधन थी। उस काल के मनुष्यों को जीव विज्ञान सम्बन्धी बातों का ज्ञान शून्य के बराबर था। तब तक यह मालूम नहीं था कि स्त्री कैसे गर्भ धारण करती है। इसलिए इस बात को मानने की गुंजाइश ही नहीं थी कि सन्तानोत्पत्ति में स्त्री-पुरुष का समान उत्तरदायित्व होता है। इसलिए उस काल के समाज का एक विशेष लक्षण थाः सामूहिक विवाह। इस प्रथा का अर्थ स्वयं ही स्पष्ट है। एक समूह की स्त्रियां समय-समय पर उस समूह के सब या अधिकांश पुरुषों से सम्भोग करती थीं। प्रागैतिहासिक काल का आदि मनुष्य उन रोमानी अनुभूतियों से जरा भी नहीं छू गया था जिनकी कल्पना करके बाद में रोमानी कथाएं रची गयीं। उसकी स्त्री उसके लिए बच्चे पैदा करने वाली थी। वह सिर्फ उसका हुक्म बजा लाने वाली थीं। 
    धीरे-धीरे व्यवस्थाहीन समाज से बर्बर समाज का विकास हुआ था। इस समाज के अभ्युदय के साथ ही जोड़ों के विवाह अर्थात् एक पुरुष और एक स्त्री के यौन सम्बन्ध पर आधारित विवाह शुरू हुए। इस प्रथा की आधारशिला जीव-विज्ञान की प्रारम्भिक जानकारी थी- यह जानकारी कि एक पुरुष और एक स्त्री के सम्भोग से शिशु का जन्म होता है। अस्तु, यह शिशु न केवल स्त्री से बल्कि पुरुष से भी जन्मा था। किन्तु बहुतों की सम्पत्ति के बजाय केवल एक पुरुष की सम्पत्ति बन जाने पर भी स्त्री की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। स्त्री पूर्ण रूप से पुरुष की दासी बनी रही और बहुत सी असभ्य जातियों में उसे कठिन से कठिन काम करना पड़ता था।
    बर्बर समाज के गर्भ से प्रारम्भिक सभ्यताओं का जन्म हुआ। इस बात को न तो सोवियत विद्यार्थी, न ही दूसरे देशों के अधिकारी मानते हैं कि यौन सम्बन्धों में परिवर्तनों के प्रभाववश ही मानव जाति बर्बरता से ऊपर उठ पाई। इस परिवर्तन में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण कारक निहित थे। उन पर विचार करने के लिए यहां स्थान नहीं हैं। हां, यह तो स्पष्ट है कि विकासमान सभ्यता के अमली प्रभाव अत्यन्त सरल थे। बर्बर जातियों की अपेक्षा सभ्य मानव जाति अनाज, मकान, वस्त्रों तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं का अधिक मात्रा में उत्पादन कर सकी। यद्यपि यह बात सही है कि बहुसंख्यक लोग अब भी गरीब और मेहनत-मजदूरी करने वाले थे। फिर भी इन प्रारम्भिक सभ्यताओं से कुछ लोगों को तो जरूर ही आराम से जीवन बिताने का मौका मिला। तरह-तरह की बातें सोची जा सकीं और जीवन के रहस्य के बारे में पता लगाने का इन लोगों को मौका मिला। 
    स्वाभाविक ही था कि पहले-पहल जिन रहस्यों ने मनुष्य के मस्तिष्क को उलझा दिया था उनमें से एक काम रहस्य भी था। नृ-वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि पुरातन मानव ने काम और धर्म को परस्पर सम्बन्धित कर रखा था। कुछ देवताओं और देवियों को -वीनस, सीरीज, एस्टार्य, आइसिस व माइलिन्ता आदि को -कामसूत्र में बंधे पाते हैं। प्राचीनतम धार्मिक रीति-रिवाजों ने पृथ्वी के उपजाऊपन को, सूर्य की जीवनदायक ऊष्मा को और दूसरी सरल संघटनाओं को काम सम्बन्धी जटिल और आनन्दायक तथ्यों से और मातृत्व के भयप्रद अद्भुत रहस्य के साथ सम्बद्ध किया। इन बातों को आज के बहुत से लोग जानते हैं। बिना धर्म की दुहाई दिये वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि आज के और पुरातन के धर्म की रूपरेखा में काफी समानता के बावजूद भी पुरातन धर्म की अनेक आध्यात्मिक बातें और पूजा पाठ के तरीके बहुत भिन्न थे। पुरातन धर्म और वर्तमान धर्म की रूपरेखाओं में कितना भारी अन्तर है यह वेश्यावृत्ति से सम्बन्धित ऐतिहासिक तथ्य स्पष्ट कर देते हैं। महापुरातन काल की वेश्या देव-मन्दिर की गणिका होती थी।
    मानव इतिहास के बर्बर और अर्ध-सभ्य समाजों के धर्मों की मान्यता थी कि तमाम औरतें आत्मार्पण एक बार या अनेक बार पुरोहितों या दूसरों के सामने अवश्य करें। जो औरत इससे इंकार करती उसका दंड यह माना जाता था कि वह आजीवन निस्संतान रहेगी; कि उस पर दैवी प्रकोप होगा। उदाहरण के लिए बेबीलोन में गरीब हो या अमीर हर औरत को एक बार ‘वीनस’ के मंदिर में अवश्य जाना पड़ता था। उसे मंदिर के बगीचे में तब तक खड़ा रहना पड़ता था जब तक उसी की जाति का कोई अजनबी आकर उसके साथ सम्भोग न करे। समकालीन इतिहासकार सबूत छोड़ गये हैं कि कभी-कभी बहुत ही सुशील इच्छारहित महिलाओं को भी बरसों इस बात में लग जाते हैं कि वे किसी पुजारी को रिझायें और वह उनके साथ सम्भोग करके उनके लिए मुक्ति का द्वार खोले। यह भी जानी मानी बात है कि अधिक काल तक यह परम्परा धर्म के आवरण में ढंकी न रह सकी। मंदिरों को कायम रखने और पुरोहितों के खानपान के बंदोबस्त के लिए हर ‘‘भक्त’’ को मंदिर में चांदी का एक सिक्का चमकता हुआ पवित्र सिक्का छोड़ आना पड़ता था। इस प्रथा के परिणामस्वरूप बहुत ही गंदे और कुत्सित विचारों का जन्म हुआ। ऐसे लोगों की कमी न थी जो देवताओं को इस सरल उपाय से प्रसन्न करने के लिए सदा तैयार रहते। दूसरे, कुछ महिलाओं को पता चला कि अपनी दूसरी भाग्यहीन बहनों से भिन्न वे बारम्बार मंदिर में जा सकती हैं। और हर बार कोई न कोई उदार पूजक उन्हें चांदी का सिक्का देने को तैयार रहता है।
    परिणामस्वरूप पतित पुरोहितों ने तय किया कि इस तरह इकट्ठा होने वाले पैसे में हम लोग भी हिस्सा बांटा करें। और धीरे-धीरे मंदिर में देव-पूजा का स्थान व्यभिचार ने ले लिया। लोग मंदिर में केवल इस इरादे से जाते कि अपनी लिप्सा को शांत करें। औरतें और मंदिर के पुरोहित रकमें सीधी करने में लग गये। मंदिर, मंदिर न रहे, व्यभिचार के अड्डे बन गये। 
    एक सामाजिक कुरीति के रूप में व्यभिचार की इस प्रकार स्थापना हुई। आधा व्यवसाय, आधी धर्मपरायणता- सदियों तक इसका यही रूप रहा। भारत में तो इसका यह रूप कहीं-कहीं अब भी पाया जाता है। वहां देवनर्तकियों युगों पुरानी देव-दासियों के समान अब भी मंदिरों में नाचती हैं; और, कोई भी ग्राहक अच्छी रकम देकर उन्हें अपना सकता है। 
    ईसाई मजहब ने जैसा कि सर्वविदित है, तमाम पश्चिमी देशों से इस तरह की प्रथा को समाप्त किया। पर व्यभिचार का अंत इससे भी नहीं हुआ। हुआ यह कि बदचलन औरतों के अड्डे गिरजाघर से हटकर दूर घनी बस्तियों में बन गये। इसका पूर्वाभास यूनान के प्राचीन इतिहास में भी मिलता है। यूनान के प्राचीन इतिहास के प्रति कवियों और विद्वानों की श्रद्धा व भक्ति का मैं आदर करता हूं। पौराणिक हैलिनयकी सभ्यता की प्रशंसा करने के बाद जब हम उस युग के जीवन के तथ्य सामने रखते हैं तो हमें सहम जाना पड़ता है। पर उस काल के वास्तविक तथ्यों को नजदीक से देखने पर हमें पता चलेगा कि उस काल की जैसी प्रशंसा पाई जाती है वह कुछ असंयत भी है। सुप्रसिद्ध दार्शनिक डेमोस्थनीज को प्रेरणा देने वाली महिला ‘‘सैस’ स्वयं एक व्यभिचारिणी थी। इसी प्रकार की व्यभिचारिणी ‘असपार्सिया’ भी थी जिसे पेरीक्लीज हृदय से पूजता था। ये महिलाएं बहुत ही ऊंचे दर्जे की वेश्यायें थीं। पर उनकी सुन्दरता और बुद्धि के बारे में कही गयी तमाम बातें इस सच्चाई पर पर्दा नहीं डाल सकतीं। क्या ‘सैस’ और क्या ‘असपासिया’- सभी ‘‘प्रेम’’ धन से करती थीं। उनके नम्बर सबसे आगे इसलिए है क्योंकि उनमें ज्यादा से ज्यादा पैसा खींचने की चतुराई मौजूद थी। पर जिन लोगों को चतुराई भरी बातों में मजा नहीं आता था यानी जो नाच-गाना ज्यादा पसन्द करते थे उनके लिए मंझले दर्जे की वेश्याएं (एल्यूट्रिडी) थीं। गरीबों के लिए निम्नतम दर्जे की वेश्याएं (विक्टोरियाड) थीं। 
    यह था यूनान में महिलाओं का क्रम-विभाजन। यद्यपि इस व्यभिचार पर धर्म की छाप लेशमात्र भी नहीं थी, तथापि इसे जरा भी बुरा नहीं समझा जाता था। व्यभिचार की ऐसी ही व्यवस्था रोम के प्राचीन गौरवपूर्ण दिनों में भी थी, वहां के सुप्रसिद्ध ‘‘बाथ’’(हरम) आजकल के ‘कुत्सित गृहों’ से ज्यादा भिन्न न थे। थोड़ा सा फर्क यही था कि ‘‘बाथ’’ बहुत ही सजे-धजे होते थे और उनके आस-पास सफाई ज्यादा रहती थी।
    देखा जाए तो ईसाई मजहब ने इस क्षेत्र में जो अमली तब्दीलियां कीं उनसे अच्छाई के बजाय बुराई ज्यादा हुई है। सच है कि वेश्या के घर को गिरिजाघर से सदा के लिए दूर कर देने से एक नैतिक विजय हुई। पर, गंदगी और गरीबी में आकर ये वेश्याएं सामाजिक बीमारियों की जड़ बन गयीं। यदि किसी भी दिशा में उनकी तरक्की हुई तो उनकी संख्या में। समाज में वेश्याओं को बुरी नजर से मध्य युग की कई शताब्दियों तक देखे जाने का उन पर कोई खास असर नहीं पड़ा। सच पूछो तो धर्म युद्धों (क्रूसेड्स) के दिनों में भी व्यभिचार का खूब बोलबाला था। यद्यपि चार्ल्स दि बोल्ड की सेना अधर्मी पूर्वी देशों के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ने निकली थी, कहा यह जाता है कि उसके साथ चार हजार महिलाएं संगिनी के रूप में थीं। बड़े-बड़े खेल-कूदों, त्योहारों और उत्सवों के अवसर पर व्यभिचार इतने व्यापक पैमाने पर फैलता है कि लिख सकना कठिन है। चिकित्सा के इतिहास में हमें उसकी अच्छी खासी झांकी मिल जाती है। 
    अस्तु यह जानना अच्छा ही होगा कि जिस व्यभिचार को इतने बड़े पैमाने पर बर्दाश्त किया जाता था वह सामाजिक समस्या कैसे बन गया। 
    बारहवीं शताब्दी के मध्य में लिस्बन के विरुद्ध धर्मयुद्ध चलाने वाले जर्मन और अंग्रेज राव-राजाओं की चिन्ताओं का ठिकाना न रहा, जब उन्हें मालूम हुआ कि उनकी सेनाएं तो अपनी ‘संगिनियों’ से ही उलझी हुयी हैं। उन्होंने फौरन ही कड़ा नियम जारी कर दिया कि फौज का वेश्याओं से कोई सम्बन्ध न रहे। उदाहरण के लिए, इतिहास प्रसिद्ध फ्रेडरिक प्रथम की घोषणा निम्नलिखित थीः
    ‘‘किसी के क्वार्टर में औरत न पाई जाए। अगर किसी ने औरत रखने की जुर्रत की तो उसके हथियार उससे छीन लिये जायेंगे और उसे अधर्मी करार दे दिया जाएगा। औरत की नाक काट ली जायेगी।’’
    ‘‘संगनियों’’ की इस दुर्गति से व्यभिचार को खत्म करने में उतनी ही सफलता मिली जितनी ‘नाइटों(युद्ध प्रेमी वीरों) की बेइज्जती करके या ईसामसीह के नाराज होने का डर दिखाकर मिली थी; अर्थात् बिल्कुल नहीं। एक बात जरूर हुई। फ्रेडरिक की दंड योजना की बार-बार नकल की गयी पर व्यर्थ। बाद के पांच सौ सालों में योरप के जल्लादों ने न जाने कितनी बदकिस्मत औरतों की नाकें काट डाली होंगी। 
    जो भी हो, इस स्थिति का सामना उन औरतों को नहीं करना पड़ा जो धनिकों की कृपापात्र थीं। शांति-काल में तो इन महिलाओं ने मनमाना ऐश किया। ‘दुविजेवा’ नामक पादरी ने अपनी एक रिपोर्ट में(1180 के लगभग) बताया है कि बहुधा फ्रांस की महारानी और राजघराने की दूसरी महिलाएं खूबसूरत वेश्याओं को ऊंचे घराने की महिलाएं समझ बैठती थीं। बाद में उन्हें पश्चाताप होता था। इसी कारण लुई तेरहवेें ने कानून बना दिया कि वेश्याएं चूनर न ओढ़ें, ताकि लोगों को यह समझने में दिक्कत न हो कि कौन वेश्या है और कौन नहीं। ....
    ...मध्य युग के विकसित होते हुए विशाल नगरों में व्यभिचार का खूब बोलबाला था। स्थानीय सेनाएं और व्यापारी इसके पोषक थे। ...
    ...योरप में मध्य युग के अंतिम चरण में वेश्यावृत्ति के खिलाफ संघर्ष तेज होता हुआ दिखायी पड़ता है। इस काल में वेश्यावृत्ति को कड़े शब्दों में अनैतिक घोषित किया गया। अनेक वैज्ञानिकों ने पता लगाने की कोशिश की है कि ऐसा क्यों कर हुआ। उन्होंने इसके भिन्न-भिन्न कारण बताये हैं। कुछ ने कहा है कि किसी अदृश्य शक्ति ने लोगों के मन में नैतिक भाव जगा दिये। कुछ का कहना है कि इसका कारण शिक्षा का प्रचार, धर्म का प्रसार और इंद्रिय-रोगों को रोकने की आवश्यकता थी, इत्यादि। सोवियत वैज्ञानिकों के अनुसार इसका कारण कुछ और ही था। उनका कथन है कि अनैतिकता के विरुद्ध सामाजिक प्रतिरोध के साथ ‘प्रेम’ भी एक प्रबल शक्ति थी जिसके कारण यह परिवर्तन हुआ। 
    प्रश्न उठता हैः उस अनुभुति के ‘‘शुरू’’ होने की बात विज्ञान क्योंकर कर सकता है जो मानव स्वभाव का एक बुनियादी लक्षण है? क्या अनन्त काल से ही पुरुष और स्त्री एक दूसरे के प्रेम-पाश से जकड़े नहीं रहे हैं?
    सोवियत अधिकारियों का उत्तर है कि प्रेम, जिस रूप में कि हम आज उसे जानते हैं, मनुष्य जीवन में अभी हाल की ही चीज है। इससे भी विचित्र उनका यह दावा है कि सामंतवाद के खिलाफ वर्तमान पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था के विजयी संघर्ष ने ही स्थायी प्रेम को जन्म दिया। व्यभिचार के स्तर से ऊपर उठकर उसने प्रेम को सम्मानपूर्ण स्थान दिया। प्रेम को उसने एक ऐसे नैतिक सम्बन्ध की संज्ञा ही बना दिया जो व्यभिचार से मोर्चा ले सके। 
    इस अनूठे तथ्य को जान लेने से हमें उन तरीकों को समझने में मदद मिलेगी जिनके जरिये सोवियत अधिकारियों ने व्यभिचार पर विजय प्राप्त की। उनके विशेषज्ञों की खोजबीनों को समझना कोई मुश्किल काम नहीं। 
    हम देख चुके हैं कि एक पुरुष और एक स्त्री के विवाह की प्रथा बर्बर समाज में ही शुरू हो चुकी थी। सभ्यता के विकास के साथ-साथ इस विवाह प्रथा में अत्यन्त महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। सोवियत नृ-वैज्ञानिक भी उस तथ्य की पुष्टि करते हैं जिसे इतिहासकार बहुत अरसे से बताते आए हैं कि एक पत्नीव्रत प्रथा के साथ-साथ वेश्यावृत्ति भी सब कहीं चलती रहीं। पर सोवियत विशेषज्ञ इससेे और आगे बढ़ते हैं। यूनानी और रोमन सभ्यताओं का अध्ययन करके वे इस बात का अकाट्य सबूत पेश करते हैं कि एक पत्नीव्रत का आधार साधारणतः आर्थिक उद्देश्य था। कानूनन एक पत्नी-प्रथा की स्थापना इस उद्देश्य से की गयी कि पति का तमाम धन उसकी मृत्यु के बाद कुछ थोड़े से ही लोगों में विभाजित हो- खासतौर से उसकी कानूनी पत्नी की संतानों में हो। यह अमली कदम इसलिए उठाया गया था कि धनी वर्ग के लोगों की सम्पत्ति उनके पुत्र और पुत्रियों के हाथों में ही केन्द्रित रहे, इसलिए कि वह सम्पत्ति उनके गैरकानूनी पुत्र-पुत्रियों के हाथ में पड़कर बारहबांट न हो जाये। 
    एक पत्नीव्रत प्रथा की शुरूआत इसलिए नहीं हुई थी कि पति और पत्नी अपने प्रेम को चिरस्थायी बनाना चाहते थे- जैसा कि कभी-कभी हम विश्वास कर बैठते हैं। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि यूनान और रोम के सभ्य माने जाने वाले पुरुष बहुधा उस स्त्री से विवाह करना पसंद नहीं करते थे जिससे वे प्रेम करते थे। बल्कि उनका प्रेम उच्च वर्ग की उन महिलाओं से होता था जो उनकी रुचि को तृप्त तो करती थीं किन्तु जिनसे विवाह न किया जा सकता था। 
    उस युग के धनी पुरुषों के लिए विवाह एक ऐसी वैध आवश्यकता थी जिसके बल पर उन्होंने अपने बाप-दादाओं की सम्पत्ति और समाज में सम्मान का स्थान प्राप्त किया था। और उसके आधार पर ही वे अपनी कानूनी पत्नी से उत्पन्न संतान के बीच अपनी सम्पत्ति बांट सके थे। गरीबों को विवाह कर लेने से पत्नी के रूप में एक दासी और बच्चे पैदा करने वाली औरत मिल जाती थी। किन्तु ये सभी पुरुष अपनी भोग लालसा की तृप्ति के लिए उन औरतों के पास जाते जिनसे वे विवाहित नहीं थे। इसे जरा भी अनैतिक नहीं समझा जाता था। 
    जैसा कि स्पष्ट है, एक विवाह प्रथा की सीमाओं में केवल औरतें बंधी हुई थीं। पति के लिए कानूनी और नैतिक अधिकार था कि वह विवाह के अलावा सभी तरह के स्त्री सम्बन्धों को बरत सकता था। बशर्ते कि इस तरह के सम्बन्ध के वह खरे दाम चुका सके। पत्नी को ऐसा कोई अधिकार हासिल नहीं था। अपने पति को छोड़ किसी दूसरे पुरुष से सम्भोग करने वाली स्त्री के लिए कड़े से कड़े दण्ड की व्यवस्था थी। अपने पति के अलावा यदि स्त्री किसी और से संबंध करे तो उसे अनैतिक करार दे दिया जाता था। इसका मोटा कारण यह था कि मुमकिन है कि वह किसी दूसरे आदमी से पुत्र को जन्म दे और यह पुत्र उसके पति की जायदाद का हकदार बन बैठे। पर पुरुष के लिए यह अनैतिक न था- न तो चाल्र्स दि बोल्ड और सम्राट सिजिसमंड के लिए, भले ही वे हफ्तों वेश्यागृह में बिता दें। यह ठीक उसी तरह अनैतिक न था जैसे यूनानी कवियों के लिए ‘सैस’ जैसी महिलाओं की प्रशंसा में गीत गाना अनैतिक न था। जो चीज हमें और आश्चर्य में डाल  देती है वह यह कि पुरातनकाल और मध्ययुग में वेश्या के जीवन को समाज जरा भी नीची नजरों से नहीं देखता था इसके विपरीत वेश्यावृत्ति समाज के लिए अत्यन्त आवश्यक मानी जाती थी। 
    सम्पत्ति के कानूनी अधिकार पर आधारित नैतिकता की इस व्यवस्था को लगभग दो हजार वर्ष पहले ईसाई समाज ने ज्यों का त्यों अपना लिया। इस व्यवस्था का सबसे खुलासा रूप वह है जिसे इतिहास की किताबों में ‘सम्राट का दैवी अधिकार’ कहा जाता है। जमीन और धन के उत्तराधिकार की सीमा समूची राजनीतिक सत्ता के उत्तराधिकार तक पहुंच गयी। अंत में इसी उत्तराधिकार पर सामंतवाद का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचा खड़ा किया गया। सम्राट का पुत्र अपने पिता के ताज का हकदार होता। सामंत अपनी गढ़ी को अपने बेटे के सुपुर्द करता। दीवान का बेटा दीवान होता। गरीब किसान को अपने बाप की टूटी-फूटी झोंपड़ी ही मिलती। मध्य युग में औद्योगिक कारीगरों के विवाह सम्बन्धी और जन्म सम्बन्धी कानूनों को कुशल कारीगरों के संगठन- जो ‘गिल्ड’ कहलाते थे-बनाते थे। न सिर्फ बंदिश यह थी कि कोई अपने सामाजिक वर्ग को छोड़कर दूसरे वर्ग में विवाह न करे; बल्कि प्रेम पर आधारित विवाह कर सकना भी कल्पना से परे था। किसी भी लड़की का विवाह उसकी वर्ग स्थिति के अधीन होता था। स्थिति को देखकर आमतौर से ‘‘बिचवानी’’ उसका ब्याह तय करते। कभी-कभी सरकारी ओहदेदार भी इन ब्याहों को तय करते। शायद ही कभी किसी लड़की की इच्छा जानने की कोशिश की जाती। उसकी राय ले लेना केवल ऊपरी तौर की चीज थी, दिखावा था। आम तौर से अपने पति का मुंह वह अपने ब्याह के दिन ही देख पाती। 
    अस्तु, इस काल में उस महत्वपूर्ण अनुभूति को, जिसे हम ‘प्रेम’ कहते हैं, कोई कानूनी मान्यता नहीं दी जाती थी। 
    विवाह के मौके पर पत्नी बनने वाली लड़की को हिदायत दी जाती कि वह बड़ी भक्ति से आजीवन केवल एक पुरुष को- अपने पति को- प्यार करे। विवाह की कानूनी और धार्मिक कार्रवाई को इस बात की गारंटी माना जाता। समाज हालांकि, इस बात को जानता था कि पत्नी अपने पति के अलावा किसी दूसरे मर्द से प्यार कर सकती है। पर इस प्यार को जाहिर न करने की कड़ी ताकीद की जाती थी। उधर उसके पति की बेलगाम लिप्सा को बढ़ाने और तुष्ट करने वाली अनैतिक महिलाओं की फौज ज्यों की त्यों बरकरार रहती। 
    किन्तु मध्य युग में ही स्त्री के प्रेम की शक्ति और स्त्री प्रेम की पवित्रता की उपासना भी बढ़ी। कवियों और सितार बजाकर भीख मांगने वालों ने स्त्री प्रेम की गौरव गाथाएं गानी शुरू कीं। इस तरह उस प्रवृत्ति का जन्म हुआ जिसे हम ‘साहसी वीर भाव’ (अंग्रेजी में ‘शिवेलरी’) कहते हैं। विक्टोरिया-कालीन साहित्य को पढ़कर हमारा युवक वर्ग इस शब्द का जो अर्थ लगाता है उससे वह एकदम भिन्न था। यह ‘दुष्ट पुरुषों के बलात्कार से पवित्र स्त्रियत्व की वीरतापूर्वक रक्षा’’ नहीं था। वास्तव में यह विवाह के बंधन तोड़कर सच्चा प्रेम करने की स्त्री की क्षमता का परिचायक था। खुले शब्दों में यह पुरुषों का उन स्त्रियों से प्रेम था जो सचमुच उन पर जान देती थीं, भले ही वे किसी और की पत्नी क्यों न रही हों। 
    हमारी आज की समझदारी के मुताबिक यह रीति व्यभिचार को न्यायपूर्ण ठहराने वाली अर्थात् अनैतिक मालूम होती है। पर बात ऐसी नहीं है। उसे हम अपने आज के सामाजिक मापदंडों से नहीं तौल सकते। वास्तव में वह एक शक्तिशाली नैतिक जागरण की प्रतीक थी। उसने राज्य अथवा धर्म द्वारा सर पर लादे गये पुरुष के विरुद्ध अपनी रुचि के पुरुष को प्यार करने के स्त्री के अधिकार का प्रश्न सामने ला खड़ा किया। 
    साथ ही साहसी वीर भाव ने पुरुषों में भी एक नयी चेतना का संचार किया। इसने उन्हें प्रेम की आध्यात्मिक शक्ति के प्रति जागरूक बनाया। ‘बिचवानियों’ के जरिये कराये गये ब्याहों का पर्दाफाश तो इसने किया ही, व्यभिचार की कुरूपता को भी इसने उघाड़कर रख दिया। अब अपने सच्चे प्रेमी से प्यार करना स्त्री के लिए ‘‘वीरतापूर्ण’’ कार्य था। इस तरह वह अपने प्रेम करने के अधिकार को व्यक्त करती थी। यह कार्य नैतिक भी था, क्योंकि अब यह भी साबित हो गया था कि सच्चे प्रेम के उपासक पुरुष भी मौजूद हैं। मध्ययुग की यह एक बहुत बड़ी देन थी। कारण कि एक पुरुष और एक स्त्री जो सचमुच एक दूसरे को प्यार करते थे, विवाह के बंधन को तोड़कर एक दूसरे के बन जाते। उनका यह सम्बन्ध इतनी बलवती प्रेम की भावनाओं से प्रेरित होता कि वह आजीवन अटूट बना रहता। प्रेम से बंध जाने पर ये दोनों प्राणी बिना किसी कानूनी या दूसरे बंधन के मृत्यु-पर्यन्त एक दूसरे के प्रति वफादार बने रहते। 
    वीरता की इस भावना का उद्देश्य स्त्रियों को उस कानूनी, किन्तु अनैतिक, विवाह के बंधन से मुक्त करना था जिसमें स्त्री बिना अपनी मरजी के किसी भी पुरुष के साथ बांध दी जाती थी। किन्तु इससे भी अधिक महत्व का एक दूसरा उद्देश्य था। यह उद्देश्य था उन पुरुषों को नैतिकता की शिक्षा देना जो विवाह की खीझ व्यभिचार के दरवाजे पर ठंडी करते थे। 
    मध्य युग का कविता-साहित्य प्रेम की इसी भावना की प्रशंसा से सराबोर है। साथ ही उस काल का इतिहास इन कवियों के राजकीय दमन के उदाहरणों से भरा पड़ा है। एक नयी नैतिक व्यवस्था के रूप में यह साहसी वीरभाव यकायक फूट नहीं पड़ा था। सदियों तक यह भी भोग-लालसा में भीगा रहा। तत्कालीन धर्म के ठेकेदारों को इस पर लगातार हमले बोलते रहने का इसी कारण नैतिक आधार भी मिल गया। 
    परन्तु इस प्रकार के प्रेम के विरोध का वास्तविक कारण कुछ और ही था। नई आर्थिक शक्तियां सामंतवाद की जड़ें हिला रही थीं। पूंजीवाद और पूंजीवाद की जनवादी विचारधारा का विकास होे रहा था। ‘बिचवानियों’ के जरिये तय किये गये विवाह, उत्तराधिकार के नियम और व्यभिचार- ये थे सामंतवाद के पाये। विवाह से परे, प्रेम की भावना ने सामंती समाज-व्यवस्था की नींव को और भी कमजोर करना शुरू कर दिया। यही कारण था कि जो कवि ऐसे प्रेम की गाथा गाते उन्हें हमेशा अपनी जीभ काट लिये जाने या चौरस्ते पर फांसी लगा दिये जाने का भय सताता रहता। 
    किन्तु इस नये नैतिक प्रेम की भावना का दमन व्यर्थ साबित हुआ। समय आया जब शेक्सपियर इस समस्या को निडर होकर लंदन के रंगमंच पर पेश कर सके। हमारे स्कूलों में यद्यपि यह नहीं बताया जाता कि शेक्सपियर के नाटक ‘‘रोमियो एण्ड जूलिएट’’ की पृष्ठभूमि क्या थी। किन्तु यह एक ठोस सत्य है कि यह नाटक एक राजनीतिक नाटक है। नाटक की विषय-वस्तु पुरानी जरूर है किन्तु आज भी वह नाटक अत्यन्त भावपूर्ण दुखान्त नाटक बना हुआ है। इस नाटक ने प्रेम के लिए विवाह करने की नैतिक समस्या को सामने ला खड़ा किया। बड़े ही कलात्मक ढंग से शेक्सपियर ने दिखाया कि रोमियो और जूलियट, दोनों ही प्रेमी, अपने प्रेम की रक्षा के लिए प्राणों की बाजी लगा देते हैं। किन्तु नाटक की नवीनता यह बात नहीं थी। शेक्सपियर के पहले के कवि भी पुरुषों और वेश्याओं के बीच, दूसरे पुरुषों की पत्नियों से प्रेम के गीत गा चुके थे। ‘रोमियो एण्ड जूलिएट’ में नवीनता यह थी कि उसने दो सच्चे प्रेमियों की विवाह-इच्छा को इतनी सहृदयता से चित्रित किया कि दर्शकगण रो पड़ते हैं। 
    इस प्रकार के विवाह के लिए पुरुष और स्त्री के अधिकार को आज हम बिना ज्यादा मीन-मेख मान लेते हैं। किन्तु इतिहासकार सोवियत वैज्ञानिकों के मतानुसार पे्रम के लिए विवाह करना उस काल में एक क्रांतिकारी भावना थी। उनका कहना है कि मध्य युग में विवाह एक राजनीतिक क्रिया थी। विवाह का उद्देश्य नवाबजादों से लेकर सामंतों तक की शक्ति का सिक्का बैठाना था। और इस क्रिया को सरल बनाने वाली थी औरत- चाहे वह किसी सामंत के प्राचीर में कैद शहजादी हो, चाहे झोंपड़ी में तड़पने वाली किसान की गरीब लड़की। उस काल की विवाह-प्रथा एक ओर तो वेश्यावृत्ति को पुरुषों के लिए आवश्यक बताकर व्यभिचार को खुली छूट देती थी, दूसरी ओर वह विवाहित स्त्रियों को अपने सच्चे प्रेमी के प्रति प्रेम प्रकट करने से रोकती थी। सोवियत वैज्ञानिकों की नैतिकता सम्बन्धी खोजबीन का एक अनूठा तथ्य यह है कि प्रेम पर आधारित विवाह-सम्बन्ध समाज में तभी सम्भव हुआ जब पूंजीवाद ने सामंतवाद को उखाड़ फेंका। मुक्त प्रतिद्वन्द्विता (फ्री ऐंटरप्राइज) का नैतिकता पर गहरा असर पड़ा। पहली बार व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न को, एक बुनियादी नैतिक उसूल को, जनवाद ने उठाया। पहली बार यह उसूल सामने आया कि प्रत्येक मनुष्य अपने क्रिया-कलापों में स्वतंत्र है; वह अपनी मर्जी का नौकरी-पेशा चुन सकता है, जैसे चाहे वैसे कपड़े पहन सकता है, समाज में उसका स्थान नीचा हो या ऊंचा वह जितना चाहे उतना पैसा पैदा कर सकता है, जहां चाहे वहां जाकर रह सकता है इत्यादि। ये विचार उन दिनों के लिए बड़े क्रांतिकारी विचार थे। इन विचारों के प्रभाव से ही ईसाई धर्म में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। यद्यपि ऐसे धर्मशास्त्री मौजूद हैं जो कहेंगे कि ईसामसीह के आदेशों में भी स्वतंत्रता का प्रमुख स्थान है, कि कोई भी व्यक्ति ऐसा काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता जिसके लिए उसकी आत्मा गवाही न देती हो, परन्तु मध्य युग में ये विचार निस्संदेह धर्म-विरोधी माने जाते थे। सामंतवाद और गिरिजा दोनों ही इन विचारों के आदि से अंत तक विरोधी थे। कारण यह कि दोनों ही मनुष्य के जन्मकाल से मृत्यु तक जबर्दस्ती काम कराने के सिद्धान्त पर टिके हुए थे। ज्यों-ज्यों पुरानी व्यवस्था ढहती गयी त्यों-त्यों कानून, धर्म और नैतिकता में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते गये। 
    पूंजीवाद के अंतर्गत ही इतिहास में पहली बार यह संभव हुआ कि विवाह सच्ची नैतिकता पर आधारित हुआ, अनैतिक जोर-जबर्दस्ती की बेडि़यों से विवाह प्रथा मुक्त हुई। पहले, विवाह मोल-भाव की चीज थे। बड़े-बड़े राव-राजे जो कहते, वही होता। परन्तु जनवाद ने सीधा प्रश्न उठाया; जब समाज में सभी सम्बन्ध भिन्न-भिन्न दलों की निजी इच्छा पर आधारित होते हैं तो विवाह के सम्बन्ध पर- जिसके द्वारा दो प्राणी एक दूसरे से बंधते हैं- हम कैसे प्रतिबंध लगा सकते हैं? यह अत्यन्त पवित्र सम्बन्ध होता है। इसमें दो शरीर और दो प्रेमी जीवन भर के लिए एक-दूसरे के हो जाते हैं। इसीलिए मनुष्यों का यह नैतिक कर्तव्य है कि वे प्रेम के लिए विवाह करें। और प्रत्येक ऐसा विवाह जो पुरुष और स्त्री के आपसी प्रेम पर आधारति नहीं होता; अनैतिक विवाह होता है। 
    ऊपर कही गयी बात हमें बहुत सीधी-सादी मालूम होती है। हम लोगों को ऐसे पुरुष और ऐसी स्त्री से घृणा करना सिखाया जाता है जिनका विवाह प्रेम के अलावा किसी और लोभ-लालसा पर आधारित हो। इसीलिए हम उन जनवादी नैतिक विचारों के क्रांतिकारी तत्व को यकायक नहीं समझ पाते जिन्होंने पहले के तमाम रूढि़वादी नैतिक विचारों से लोहा लिया।
    सोवियत विशेषज्ञों ने कहाः पूंजीवादी जनवाद ने इंद्रिय सम्बन्धों में जो सुधार किये उनका असर विवाह पर उतना ज्यादा नहीं पड़ा जितना कि स्त्री की सामाजिक स्थिति पर; इस बात की कानूनी और नैतिक मान्यता दी गयी कि स्त्री को भी प्रेम करने का अधिकार है और इससे उसकी इज्जत में बट्टा नहीं लगेगा।  
    यह ऐसा ऐतिहासिक तथ्य है जिसे हमारे नीति शास्त्रियों ने कभी पेश नहीं किया। इस तथ्य को वे समझते हैं, इसमें भी शंका है। 
    सोवियत वैज्ञानिकों ने इसे इतना महत्व दिया कि इसे इन्होंने अपने तमाम नैतिक आदर्शों की आधार शिला बनाया। 
    क्यों?
    इसलिए कि पहले तो यह इस धारणा की धज्जियां उड़ा देता है कि प्रेम विवाह और नैतिकता युग-युग से अपरिवर्तित रहे हैं। इतिहास साबित करता है कि नैतिकता-सम्बन्धी आदर्शों में न सिर्फ समय-समय पर परिवर्तन हुए हैं बल्कि पूंजीवाद और जनवाद के विकास ने उन्हें एकदम बदल दिया है। 
    सामंतवाद के अंतर्गत इस बात की कल्पना कर सकना भी कठिन था कि प्रेम के लिए विवाह करना नैतिक रूप से सही है। आज तो हमारे लिए यह कल्पना कर सकना कठिन हो गया है कि प्रेम के अलावा और किसी इच्छा से विवाह करना नैतिक रूप से सही है। सामंतवाद के दिनों में समाज के बड़े-बड़े ठेकेदार व्यभिचार के स्थानों की खुल्लम-खुल्ला प्रशंसा करते और उन्हें बढ़ावा देते थे। इसे अनुचित भी नहीं समझा जाता था; न तो समाज और न धर्म ही इसे अनुचित ठहराता था। किन्तु जनवाद की जड़ें मजबूत हो जाने के बाद व्यभिचार का संगठित अस्तित्व समाज के लिए असहनीय हो गया। 
    दरअसल किसी भी चीज में इतना परिवर्तन नहीं हुआ है जितना प्रेम, भोग, नैतिक आदर्शों और पाप के सम्बन्ध में मनुष्यों के विचारों और अमल में। इतिहास के तथ्यों से एक दूसरा निष्कर्ष जो निकलता है वह यह कि हम किसी भी दृष्टिकोण से क्यों न सोचे नैतिकता में बहुत बड़ा सुधार हुआ है। इस सम्बन्ध में एक ईमानदार वैज्ञानिक और एक ईमानदार पादरी की एक ही राय होगी- भले ही वैज्ञानिक केवल इस बात की दुहाई दें कि फ्रांसीसी क्रांति के पहले योरप में सिफलिस के मरीजों की संख्या बेशुमार थी और पादरी केवल इस बात पर आंसू बहाये कि मध्य युग में करोड़ों औरतों को नरक की जिन्दगी बितानी पड़ती थी। पर इसमें संदेह नहीं कि मानव जाति में पहले के मुकाबले अनैतिकता की मात्रा अब कम है। 
    हमारा अंतिम निष्कर्ष समाज में स्त्रियों की वर्तमान स्थिति के बारे में है। जैसा कि हम देख चुके हैं पूंजीवादी जनवाद ने ही पहले पहल स्त्रियों को अधिकार दिया कि वे प्रेम कर सकती हैं और उनकी इज्जत में बट्टा नहीं लगेगा। उन्हें इस बात का अधिकार मिला कि वे प्रेम के लिए विवाह करें। सोवियत वैज्ञानिक जब इस ऐतिहासिक तथ्य की जांच पड़ताल कर रहे थे तभी वे इसकी कमजोरी को भी पकड़ सके। प्रेम के लिए विवाह करने का स्त्री का अधिकार ऐसी चीज नहीं है जिसे कानूनी हिदायतों से संभव बनाया जा सके। कानून तो सिर्फ इस बात की रोकथाम कर सकता है कि अपनी मर्जी के खिलाफ किसी भी औरत से विवाह न किया जाए; दरअसल, करीब-करीब सभी सभ्य देशों में यह कानून है भी। किन्तु कोई भी कानून इस बात की गारण्टी नहीं कर सकता कि प्रत्येक स्त्री वास्तव में सच्चे प्रेम के लिए विवाह करने को स्वतंत्र होगी। इस स्वतंत्रता के लिए स्त्री की पूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता की जरूरत होती है। इसके लिए जरूरत होती है इस बात की कि स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अधिकार हासिल हों। 
    क्या यह अधिकार उन्हें हासिल है?
    नवम्बर क्रांति के बाद यह दिखायी देेने लगा था कि सोवियत सरकार के घोषणा पत्रों में तो स्त्रियों के समानाधिकार की बात की ही गयी है, किन्तु यह कोरी कागजी बात है क्योंकि अमल में वे इन अधिकारों को नहीं पा रहीं थीं। अपने अनुभवों के आधार पर इस असमानता के एक पक्ष को तो हम समझ लेते हैं। सन् 1920 के लगभग गोर्की और लेनिन ने जिस ‘बंधनरहित प्रेम’’ पर करारा हामला किया था उसका उद्देश्य महिलाओं को- जो ‘‘पानी का गिलास’’ थीं।- उच्छृंखल इंद्रिय भोग की पुरुषों के ही समान- जो ‘‘पीने वाले’’ थे -पूरी छूट देना था। इस तरह की स्वतंत्रता वास्तव में बड़ी घृणास्पद थी। अपने को कितनी ही बड़ी क्रांतिकारिणी बघारने वाली क्यों न हों, जिन रूसी महिलाओं ने भी उच्छृंखल इंद्रिय भोग का रस लेने की चेष्टा की, जिन्दगी का एक बुनियादी सत्य उनके सामने आ खड़ा हुआ। 
    तमाम कानूनों और नैतिक आदर्शों से बड़ा शरीर-विज्ञान सम्बन्धी यह तथ्य है कि पुरुष और स्त्री समान नहीं हैं। शारीरिक तत्व में स्त्री पुरुष से ज्यादा बढ़ी चढ़ी है। भोग-लालसा को तृप्त करने में पुरुष और स्त्री दोनों को ही क्षणिक इंद्रिय सुख का अनुभव होता है। किन्तु शिशुु को जन्म देने, मानव जाति को आगे बढ़ाने, मनुष्य परिवार के विकास को संभव बनाने का महान कार्य केवल स्त्री कर सकती है। 
    और वास्तविक जीवन में इस महान कार्य के एवज में समाज स्त्री का आदर किस तरह करता है? मातृत्व पर कड़े प्रतिबंध लगाकर। 
    मातृत्व की दशा में स्त्री को नौकरी छोड़नी पड़ती है। उसे ही समूची शारीरिक वेदना बर्दाश्त करनी पड़ती है। शिशु की देख-रेख का उसी पर दारोमदार होता है। सोवियत रूस में अनैतिकता की समस्या के हल होने के पूर्वकाल में जो स्थिति थी वैसी ही हमारे देशों में आज हैः बच्चों की देख-रेख से स्त्री के फुर्सत पाने का एक ही उपाय था कि इस बोझ को वह अपने पति पर झोंक दे। विवाह के बाद स्त्री पराधीन हो जाती है। ऐसी कोई बंदिश पुरुष के लिए नहीं है। 
    ऐसी परिस्थितियों में पुरुष और स्त्री के बीच समानता की बात कोरी गप्प है। यद्यपि यह सच है कि जनवाद और पूंजीवाद ने स्त्री को उस स्थिति से मुक्त किया जिसके अंतर्गत उसे ऐसे पुरुष से विवाह करना पड़ता था जिसके लिए उसके हृदय में प्रेमभाव की मात्रा नाम की भी न होती थी पर जिसे दूसरे लोग सामंती उसूलों के मुताबिक उसके लिए चुन देते थे। किन्तु बहुसंख्यक स्त्रियों के लिए जो अपनी मर्जी का पति चाहती थीं, अनेकों अमली, सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध बने रहे। विवाह के अवसर पर उन्हें अपनी स्वाधीनता की काफी कुर्बानी करनी पड़ती। स्त्रियों का ‘उद्धार’ करने वालों के प्रयत्न विफल रहेे। क्योंकि जिन बेडि़यों में आज स्त्री जकड़ी हुई हैं वे आर्थिक बेडि़यां हैं; शारीरिक तत्व सम्बन्धी तथ्य इन बेडि़यों को और भी मजबूत बना देते हैं। 
    यह बहुत दिलचस्प बात है कि हिटलरी जर्मनी के नीति शास्त्री स्त्री की इस असमानता के गौरवगान गाते नहीं अघाये। हमारे यहां के प्रतिक्रियावादी भी इसी नारे की नकल टीपते हैंः ‘‘औरतों को चाहिए ही क्या?....बच्चे, चूल्हा चक्की और भगवान की पूजा।’’
    हिटलर द्वारा इस सड़े गले सामंती आदर्श की पुनरावृत्ति के बहुत साल पहले ही सोवियत अधिकारी इसके खोखलेपन को दिखा चुके थे। वे दिखा चुके थे कि यह स्त्री को पुरुष के समान अधिकार देने से इंकार करना है। उन्होंने कहाः आज की दुनिया में अनैतिकता की जड़ यही है। 
बिहार में जनसंहार और न्याय का उपहास - अर्जुन प्रसाद सिंह
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
     हमारे देश के बुद्धिजीवियों का एक अच्छा खासा हिस्सा भारतीय न्यायपालिका को ‘लोकतान्त्रिक व्यवस्था’ के एक निष्पक्ष अंग के रूप में मान्यता देता है। उनकी ओर से लगातार प्रचारित किया जाता है कि ‘कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैं’ और ‘न्यायपालिका की देवी के हाथों में इंसाफ का तराजू है’। खासकर, देश की मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई लूटने वाले शासक-शोषक समूह और उनके दल व संगठन न्यायपालिका की निष्पक्षता को साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक किये रहते हैं। ऐसे माहौल में अगर कोई संवेदनशील व जनपक्षधर व्यक्ति न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करता है, तो उन पर ‘कोर्ट की अवमानना’ का मुकदमा चलाया जाता है।
     हालांकि, सच तो आखिरकार सच ही होता है और वह लाख छुपाये नहीं छुपता है। खासतौर पर, उच्चतम न्यायालय और कई उच्च न्यायालयों ने हाल के वर्षों में कई ऐसे जनविरोधी/मजदूर विरोधी फैसले किये हैं, जिनसे उनकी पक्षधरता उजागर हो जाती है। इसी तरह अप्रैल, 2012 से लेकर जनवरी, 2015 के बीच बिहार के न्यायालयों ने कुख्यात रणवीर सेना द्वारा किये गए 5 जनसंहारों से जुड़े मामलों में जिस प्रकार के फैसले दिये हैं, उससे उनकी निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्न खड़ा हो जाता है। उनका सबसे हालिया फैसला 13 जनवरी, 2015 को शंकर बिगहा जनसंहार के मामले में आया है, जिसमें सभी 24 अभियुक्तों को बरी कर दिया गया है। शंकर बिगहा बिहार के जहानाबाद जिला का एक छोटा गांव है, जिसमें मुख्य तौर पर दलित एवं अति पिछड़ी जाति के भूमिहीन-गरीब लोग रहते हैं। वहां के अधिकांश लोग सीपीआई (एम.एल.), पार्टी यूनिटी एवं मजदूर किसान संग्राम समिति (एमकेएसएस) से जुड़े हुए थे और क्रान्तिकारी धारा के उक्त संगठनों के नेतृत्व में जमीन, मजदूरी एवं सामंती दमन जैसे मुद्दों को लेकर संघर्षरत थे। यही कारण था कि ऊंची जाति की रणवीर सेना ने गणतंत्र दिवस की पूर्व वेला में, यानी 25 जनवरी, 1999 की रात में संघर्षशील गरीबों की इस बस्ती पर हमला बोला, जिसमें 5 महिलाएं और 7 बच्चे समेत 23 लोग मारे गये और 14 अन्य जख्मी हुए। रणवीर सेना के दरिन्दों का वहशीपन इतना था कि उसने 10 माह के एक बच्चा एवं उसके 3 साल के भाई को भी नहीं बख्शा। 
      जनसंहार के इस वीभत्स कृत्य से सम्बन्धित एफआईआर (फर्द बयान) उस गांव के निवासी प्रकाश राजबंशी ने स्थानीय पुलिस थाना में दर्ज कराया, जिसमें कुल 21 हमलावरों को नामजद किया गया और अन्य 3 को संदेही अभियुक्त बनाया गया। इस केस में पुलिस ने 2001 में ट्रायल कोर्ट, जहानाबाद में चार्ज शीट (आरोप पत्र) सौंपी और उसी साल सभी अभियुक्तों को जमानत पर रिहा कर दिया गया। इस केस का ट्रायल करीब 15 साल में पूरा किया गया और इस दौरान कुल 49 गवाहों को अभियोग पक्ष (प्राॅसिक्यूशन) की ओर से पेश किया गया। इन गवाहों पर रणवीर सेना व उनके समर्थकों की ओर से काफी दबाव बनाया गया और पुलिस ने उनकी सुरक्षा हेतु कोई कदम नहीं उठाया। एक बार जब ट्रायल कोर्ट में केवल 2 गवाह मौजूद थे, तो सभी 24 अभियुक्तों ने उन्हें धमकाया। उन गवाहों में से एक भैंरो रजवार ने जब पुलिस से अपनी सुरक्षा की मांग की तो उन्होंने सीधे इनकार कर दिया। इसके बाद उक्त गवाह ने जज से कहा कि ‘अगर आप मुझे पटना ले चलें और सुरक्षा का कुछ आश्वासन दें तो मैं अभियुक्तों को पहचानने और उनके खिलाफ गवाही देने में कोई हिचक महसूस नहीं करूंगा।’ इस पर जज महोदय ने कोई आश्वासन नहीं दिया। तब भैरो राजवार को जज महोदय से कहना पड़ा कि उन्होंने ‘घटना की रात किसी को साफ तौर पर नहीं पहचाना। ध्यान देने की बात है कि भैरो राजवार के परिवार के 5 सदस्य इस जनसंहार में मारे गए थे। लगभग भय व असुरक्षा की यही स्थिति सभी गवाहों में व्याप्त थी और ‘साक्ष्य की कमी’ को आधार बनाते हुए सहायक जिला कोर्ट, जहानाबाद के जज राघवेन्द्र कुमार सिंह ने शंकर बिगहा जनसंहार के सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया। आश्चर्य है कि 23 गरीब बेमौत मारे गए और इसका दोष किसी पर साबित नहीं किया जा सका। यहां तक कि सहायक जिला कोर्ट के जज साहब ने पुलिस या अभियोजन पक्ष को फिर से आरोप पत्र दाखिल करने को भी नहीं कहा! हालांकि, बिहार सरकार ने आने वाले विधान सभा चुनाव को देखते हुए इस फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में एक अपील दायर करने की घोषणा की है। ज्ञातव्य है कि शंकर बिगहा जनसंहार से जुड़े मामले में ट्रायल कोर्ट ने ही सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया, जबकि इसके पूर्व न्याय का इस प्रकार का उपहास आमतौर पर पटना हाई कोर्ट द्वारा किया जाता रहा है। 
     इसके पहले 1 मार्च, 2013 को पटना उच्च न्यायालय की एक खंड पीठ (जिसमें न्यायाधीश अमरेश कुमार लाल एवं वी एन सिन्हा शामिल थे) ने नगरी (जिला भोजपुर) जनसंहार के सभी 11 अभियुक्तों को अपराध मुक्त कर रिहा कर दिया था। इस जनसंहार का अंजाम सवर्णों की निजी गुण्डावाहिनी रणवीर सेना ने 11 मई, 1998 को दिया था, जिसमें सीपीआई (एम.एल.) लिबरेशन से जुड़े हुए कुल 10 गरीब व दलित लोगों की मौत हुई थी और 2 लोग घायल हुए थे। इस जघन्य हत्याकांड से जुड़े एफ.आई.आर. में कुल 55 लोगों को नामजद किया गया था। लेकिन पुलिस ने इस केस में इनमें से केवल 16 लोगों के खिलाफ चार्ज शीट दाखिल किया था। शेष 39 नामजद लोगों ने पैसा व पैरवी के बल पर इस केस से अपना नाम कटवा लिया था। आरा में इस केस की सुनवाई के दौरान मुख्य सूचक (मेन इन्फार्मेंट) पर 5 बार जानलेवा हमले भी किये गए और गवाहों को धमकाया भी गया। आरा के अतिरिक्त जिला सह सत्र न्यायाधीश ने इस मुकदमे में 12 अगस्त, 2010 को सजा सुनाई थी, जिसके मुताबिक 3 अभियुक्तों (चन्द्र भूषण सिंह, रविन्द्र सिंह व सुदर्शन पाण्डेय) को मृत्यु दण्ड और 8 अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की गई थी। इस सजा के खिलाफ सभी सजायाफ्ता लोगों ने पटना हाई कोर्ट में अपील की। इस हाई कोर्ट के दो सदस्यीय पीठ ने इस अपील की सुनवाई करते हुए ट्रायल कोर्ट के गवाहों को बुरी तरह लताड़ा और कहा कि ‘उन्होंने अभियुक्तों को झूठी गवाही देकर केस में फंसाने की कोशिश की है।’ गवाह संख्या 3 के बारे में तो यहां तक कहा कि ‘उन्हें झूठी गवाही देने की लत पड़ गई है।’ और अन्ततः जज महोदय ने नगरी जैसे घृणित जनसंहार के सभी अभियुक्तों को सजामुक्त कर दिया। नगरी की पीडि़त जनता और बिहार के अमन पसंद लोग आज सवाल उठा रहे हैं कि अगर नगरी कांड के सभी आरोपी निर्दोष हैं तो फिर किसने इस हत्याकांड को अंजाम दिया है? क्या हाई कोर्ट का यह दायित्व नहीं बनता कि वह इस हत्याकांड की फिर से जांच करने का आदेश दे?
     इसके करीब चार महीने बाद पटना हाई कोर्ट ने 3 जुलाई, 2013 को मियांपुर जनसंहार से जुड़े मामलों में अपना फैसला सुनाया। इस फैसले में 10 में से 9 अभियुक्तों को ‘पर्याप्त साक्ष्य के अभाव’ (Adequate Evidence) में बरी कर दिया गया। रणवीर सेना ने वर्ष 2000 में इस जनसंहार को अंजाम दिया था, जिसमें कुल मिलाकर 32 दलित- गरीब मारे गये थे। इस मामले का ट्रायल औरंगाबाद जिला कोर्ट द्वारा किया गया था और इस कोर्ट ने 2007 में एक फैसला सुनाया था, जिसमें 10 अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा दी गई थी। इसकी अपील पटना हाई कोर्ट में की गई और इस कोर्ट ने 10 में से 1, केवल अविनाश चन्द्र शर्मा को दोषी पाया। इसका अर्थ यह निकाला कि मियापुर में केवल एक व्यक्ति ने 32 गरीबों का कत्लेआम किया। कई अन्य फैसलों की तरह पटना हाई कोर्ट का यह फैसला भी न्याय का उपहास करता नजर आया।
     पटना हाई कोर्ट ने सबसे चैंकाने वाला फैसला लक्ष्मणपुर बाथे जनसंहार से जुड़े मामले में किया। रणवीर सेना द्वारा किया गया लक्ष्मणपुर बाथे (जहानाबाद जिला) जनसंहार बिहार का सबसे बड़ा हत्याकांड था। इसको 1 दिसम्बर, 1997 को अंजाम दिया गया था, जिसमें सीपीआई (एम.एल.), पार्टी यूनिटी एवं सीपीआई (एम.एल.) लिबरेशन से जुड़े हुए कुल 58 लोग मारे गये थे। इस जनसंहार के खिलाफ देश भर में रणवीर सेना एवं बिहार सरकार के खिलाफ व्यापक जनाक्रोश उभरा था। नतीजतन, इस जनसंहार से जुड़े मुकदमों का ‘ट्रायल’ जहानाबाद कोर्ट की बजाय पटना कोर्ट में किया गया था। इस मामले में पटना की अदालत ने 7 अप्रैल, 2010 को अपना फैसला सुनाया, जिसमें 26 अभियुक्तों को संदेह के आधार पर बरी कर दिया गया। इस फैसले के मुताबिक शेष 16 अभियुक्तों को फांसी एवं 10 को आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की गई थी। सभी दोषी अभियुक्तों ने इसके बाद पटना हाई कोर्ट में अपील की। 
     पटना हाई कोर्ट ने 9 अक्टूबर, 2013 को दिये गये अपने फैसले में न केवल फांसी की सजा प्राप्त कैदियों समेत सभी 26 अभियुक्तों को बरी कर दिया, बल्कि अभियोजन पक्ष पर भी गंभीर टिप्पणी की। इस फैसले में यह कहा गया कि अभियोजन पक्ष ने गलत गवाहों को पेश किया, और यहां तक कि एफआईआर भेजने में भी काफी देर की। इसमें यह भी कहा गया कि जनसंहार की घटना के वर्षों बाद कुछ साक्ष्य प्रस्तुत किये गए। पटना हाई कोर्ट ने यह भी नोटिस लिया कि इस जघन्य घटना की जांच पुलिस ने तब शुरू की जब बिहार की तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी 3 दिसम्बर, 1997 को 5 बजे शाम घटना स्थल पर पहुंची। इस मामले में पहली गिरफ्तारी उसी दिन 5 बजकर 25 मिनट शाम में की गई, यानी मुख्यमंत्री के आने के 25 मिनट बाद। 
     यह अलग बात है कि मुख्यमंत्री ने अपने राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए लक्ष्मणपुर बाथे का दौरा किया था। वास्तव में उनकी पार्टी की सरकार के कार्यकाल के दौरान निजी गुण्डा वाहिनियों द्वारा करीब दो दर्जन जनसंहारों को अंजाम दिया गया था, और बिहार पुलिस प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनसंहारी ताकतों को ही मदद करती रही थी। इसी प्रकार, अटल बिहारी वाजपेयी का भी लक्ष्मणपुर बाथे की रक्त-रंजित भूमि का दर्शन करने का कार्यक्रम तय हो गया था। लेकिन, चूंकि कई नक्सलवादी एवं जनवादी समूहों ने उनकी सुरक्षा का घेरा नाकाम कर घटना स्थल पर अपनी संयुक्त विरोध सभा शुरू कर दी थी, इसलिए उन्होंने अपनी यात्रा रद्द कर दी। इसके अलावा राम विलास पासवान समेत कई रंग-बिरंगे दलों के केन्द्रीय नेताओं ने लक्ष्मणपुर बाथे को कुछ समय के लिए अपना तीर्थस्थल बना दिया था। उन्होंने वहां की जनता के समक्ष अपने घडि़याली आंसू बहाये, लेकिन वहां से लौटकर तुरंत ही अपने लूट-खसोट के कारोबार में व्यस्त हो गए। किसी को यह चिंता नहीं रही कि इस जनंसहार से सम्बन्धित मुकदमों को ठीक से लड़ने में सहयोग किया जाये और जनसंहारियों को सख्त से सख्त सजा दिलाने हेतु पुलिस-प्रशासन एवं न्यायपालिका पर लगातार दबाव बनाये रखने की सचेतन कोशिश की जाये। नतीजतन, बिहार के सबसे बड़े और सबसे जघन्य जनसंहार के सारे अभियुक्त दोषमुक्त और रिहा हो गये। 
     ज्ञातव्य है कि लक्ष्मणपुर बाथे जनसंहार की सुनवाई में रणवीर सेना के सरगना ब्रह्मेश्वर सिंह (जिसकी उनके अपने ही लोगों द्वारा हत्या कर दी गई है) को शामिल नहीं किया गया, जबकि वह उस समय आरा जेल में कैद था। आश्चर्य है कि ‘ट्रायल कोर्ट’ ने जेल में कैद ब्रह्मेश्वर सिंह को ‘फरार’ घोषित कर रखा था। 
     इसी तरह नारायणपुर (जिला जहानाबाद) और बथानी टोला जनसंहारों से जुड़े मुकदमों में भी क्रमशः जहानाबाद अतिरिक्त जिला सह सत्र न्यायालय और पटना उच्च न्यायालय ने जो फैसले दिये, उससे उनकी निष्पक्षता का ताना-बाना पूरी तरह तार-तार हो जाता है। ज्ञात हो कि इन दोनों जनसंहारों को कुख्यात रणवीर सेना ने ही अंजाम दिया था। नारायणपुर जनसंहार 10 फरवरी, 1999 को किया गया था, जिसमें 5 महिलाओं समेत 11 दलितों की बर्बर तरीके से हत्या की गई थी। इसके केवल 16 दिन पूर्व 25 जनवरी, 1999 को, जब तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नरायणन गणतंत्र दिवसीय सम्बोधन कर रहे थे, शंकर बिगहा गांव में 23 गरीबों व दलितों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी गई थी। इन दोनों जनसंहारों की जिम्मेवारी रणवीर सेना ने खुलेआम प्रेस बयान के जरिये स्वीकार की थी। बिहार के जहानाबाद जिला में किये गए उक्त दोनों जनसंहार इतने वीभत्स व सुनियोजित थे कि केन्द्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को बिहार में राष्ट्रपति शासन थोपना पड़ा। लेकिन बिहार की ‘निष्पक्ष’ न्यायपालिका (जहानाबाद ट्रायल कोर्ट) ने नारायणपुर जनसंहार के सभी अभियुक्तों को 7 मार्च, 2009 को निर्दोष घोषित कर दिया। इस मामले की सुनवाई कर रहे जहानाबाद कोर्ट के अतिरिक्त जिला सह सेशन जज शंभूनाथ मिश्रा ने अपने फैसले में साफ शब्दों में लिखा कि सरकारी पक्ष बिना किसी सन्देह के अभियुक्तों पर आरोप साबित करने में असफल रहा। इस तरह सरकार, उसकी पुलिस और न्यायालय की सांठ-गांठ उजागर हो जाती है।  रणबीर सेना द्वारा बथानी टोला (भोजपुर जिला) जघन्य जनसंहार को अंजाम 11 जुलाई 1996 को दिया गया था, जिसमें 6 बच्चे एवं 11 महिलायें समेत कुल 21 लोग मारे गए थे। मृतकों में गांवों में घूम-घूम कर चूड़ी बेचने वाले गरीब नइमुद्दीन अंसारी के परिवार के 6 सदस्य भी शामिल थे। उनकी 3 माह की दुधमुंही बच्ची को दरिन्दों ने हवा में उछाल कर तलवार से काट दिया था, जिसकी मीडिया में काफी चर्चा भी हुई थी। इस हत्याकांड से सम्बन्धित एफ.आई.आर. में कुल 33 हमलावरों को नामजद किया गया था। इन अभियुक्तों के खिलाफ सेशन कोर्ट, आरा में करीब 14 सालों तक सुनवाई चलती रही। इसके बाद ट्रायल कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया, जिसमें 3 को फांसी एवं 20 अन्य को आजीवन कारावास की सजा दी गई थी। लेकिन जब सजायाफ्ता लोगों की ओर से पटना हाई कोर्ट में अपील की गई तो सारा मामला पलट गया। अन्ततः 16 अप्रैल, 2012 को इस हाई कोर्ट के एक बेंच (जिसमें जस्टिस नवनीत प्रसाद सिंह एवं जस्टिस अश्विनी कुमार सिंह शामिल थे) ने ‘त्रुटिपूर्ण साक्ष्य’ को आधार बनाते हुए इस जनसंहार के सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया। 
     उपरोक्त विवरण भारतीय न्यायपालिका का कोई नया चेहरा प्रस्तुत नहीं करते हैं। पहले भी सेशन कोर्ट एवं हाई कोर्ट के न्यायाधीश महोदय विभिन्न निजी गुण्डावाहिनियों द्वारा किये गए जनसंहारों के मामलों में आमतौर पर इसी प्रकार के पक्षपातपूर्ण फैसले करते रहे हैं। 1980 एवं 1990 के दशकों में बिहार के विभिन्न जिलों में भूमि सेना, लोरिक सेना, ब्रह्मर्षि सेना, सवर्ण लिबरेशन फ्रंट, सनलाईट सेना और रणवीर सेना द्वारा दर्जनों जनसंहार किये गए, जिनमें सैकड़ों की तादाद में गरीब, दलित एवं अति पिछड़े समुदायों के लोग मारे गए। ब्रह्मेश्वर सिंह के नेतृत्व में अकेले रणवीर सेना ने भोजपुर, जहानाबाद, गया एवं औरंगाबाद में करीब दो़ दर्जन जनसंहारों को अंजाम दिया। उसने अपनी इस हत्यारी भूमिका को मीडिया एवं पुलिस के सामने स्वीकार भी किया। लेकिन इसके बावजूद उसे जुलाई 2011 में जेल से रिहा कर दिया गया। इसी तरह सावन विगहा एवं मेन-बरसिम्हा जैसे जनसंहारों को अंजाम देने वाली निजी सेना ‘सवर्ण लिबरेशन फ्रंट’ के सरगना रामाधार सिंह उर्फ डायमण्ड को भी कोर्ट ने जेल से मुक्त कर दिया था। आज की तारीख में विभिन्न जनसंहारों में शामिल अधिकांश अभियुक्तों को कोर्ट द्वारा या तो जमानत पर रिहा या बरी किया जा चुका है। यहां तक कि बिहार की राज्य सरकारों (चाहे वह किसी भी दल या गठबंधन की हों) ने इन जनसंहारी ताकतों को शह ही दिया है। नीतिश सरकार ने तो रणबीर सेना के राजनैतिक रिश्तों की जांच कर रही अमीर दास आयोग को भी भंग कर दिया, क्योंकि यह आयोग उनकी संयुक्त सरकार के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी समेत कई भाजपाई नेताओं और आला पुलिस अधिकारियों के रणबीर सेना के साथ सांठ-गांठ को उजागर करने जा रहा था। 
     लेकिन सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है, यानी अदालत का एक दूसरा चेहरा भी हमारे सामने है। जब भूस्वामियों व ठेकेदारों की निजी सेनाओं द्वारा किये गए जनसंहारों के प्रतिक्रियास्वरूप बिहार के मगध क्षेत्र में कार्यरत एम.सी.सी. ने दलेलचक बघौरा, बारा एवं सेनारी में ‘जवाबी कार्रवाईयों’ को अंजाम दिया, तो राज्य सरकार एवं उसके पुलिस-प्रशासन के साथ-साथ न्यायपालिका के रूख में भी काफी बदलाव आ गया। चूंकि इन ‘जवाबी कार्रवाइयों’ में उच्च वर्ग एवं सवर्ण जाति के करीब सौ लोग मारे गए, इसलिए बड़े पैमाने पर एम.सी.सी. एवं अन्य नक्सलवादी ग्रुपों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों की गिरफ्तारियां की गईं। इनमें से दर्जनों लोगों पर ‘टाडा’ जैसे कठोर व दमनकारी कानून की धारायें भी लगाई गईं। दललेचक बघौरा कांड के मामले की सुनवाई करने के बाद ‘ट्रायल कोर्ट’ ने 8 निर्दोष किसानों को फांसी की सजा सुना दी। इस पक्षपात पूर्ण सजा का चौतरफा विरोध हुआ। साथ ही, इस बर्बर सजा के खिलाफ उच्च अदालत में एक अपील भी दायर की गई। इसके बाद कोर्ट ने इस मौत की सजा को आजीवन कारावास की सजा में बदल दिया। 
    इसी तरह बारा कांड (1992) से जुड़े मामले में बिहार के विशेष टाडा कोर्ट ने दो चक्र में 7 अभियुक्तों (वीर कुंवर पासवान, कृष्णा मोची, नन्हें लाल मोची, धारू सिंह, व्यास कहार, नरेश पासवान एवं युगल किशोर मोची) को फांसी की सजा सुना दी। इनमें से प्रथम 4 की फांसी की सजा को उच्चतम न्यायालय ने भी अनुमोदित कर दिया है और उनके ‘मर्सी पिटीशन’ वर्षों से राष्ट्रपति महोदय के पास लम्बित हैं। अन्य 3 की फांसी की सजा के खिलाफ पटना हाई कोर्ट में अपील की गई और हाई कोर्ट ने उनमें से 2 की सजा को आजीवन कारावास की सजा में बदल दिया है। 
    गौरतलब है कि पिछले दो दशकों के दौरान करीब 150 दलित एवं अति पिछड़ी जाति के अभियुक्तों को बिहार की अदालतों द्वारा फांसी की सजा सुनाई गई है। उदाहरणस्वरूप, बांका जिला में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने 6 दिसम्बर, 2007 को 5 किसानों को ‘माओवादी’ की संज्ञा देकर फांसी की सजा दे दी। उन पर पुलिसकर्मियों के ऊपर हमला करने का आरोप लगाया गया था। इस हमले की घटना से सम्बन्धित मुकदमा में कुल 12 लोगों को नामजद किया गया था। पुलिस ने इनमें से केवल 5 लोगों को पकड़कर कोर्ट को सुपुर्द किया और कोर्ट ने प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य के अभाव के बावजूद सबों को मौत की सजा सुना दी। इसी तरह 4 जनवरी, 2008 को पटना जिला के एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने लहसुना गांव की एक घटना में आरोपित 3 किसानों को फांसी की सजा सुना दी। इन किसानों पर भी ‘माओवादी’ होने का आरोप मढ़ा गया और इस घटना से जुड़े मामलों में भी कोर्ट के समक्ष उचित साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। इसके दो दिन बाद 8 जनवरी, 2008 को बांका के एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने 3 गरीबों को फांसी की सजा मुकर्रर कर दी। ये तीनों लोग राजौन थाना क्षेत्र के थे, जहां नक्सलवादी व माओवादी समूह लम्बे समय से सक्रिय हैं। विश्वसनीय आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2000 से अब तक बिहार की अदालतों ने करीब 100 लोगों को मौत की सजा सुनाई है। इनमें से अधिकांश दलित, पिछड़े एवं अल्पसंख्यक समूह से आते हैं। पिछले साल 8 फरवरी, 2012 को खगडि़या के अतिरिक्त जिला सह सेशन जज ने अमौसी हत्याकांड से जुड़े गरीब मुसहर जाति के 10 लोगों को फांसी एवं 4 अन्य को आजीवन कारावास की सजा सुना दी। (हालांकि, उच्च अदालत ने इनमें से अधिकांश फांसी की सजा को आजीवन कारावास की सजा में बदल दिया है।) 
     उपर्युक्त तथ्य स्पष्ट करते हैं कि बिहार की अदालतें फांसी की सजा देने में काफी भेद-भाव करती रही हैं। शायद अन्य राज्यों में भी कोर्ट की यही भूमिका प्रदर्शित हुई है। बिहार के गरीबों के ऊपर दर्जनों जनसंहार रचाने वाले निजी सेनाओं और उनके सरगनाओं को कोर्ट द्वारा या तो बरी किया जाता है या मामूली सजायें दी जाती हैं। लेकिन जब अभियुक्त शोषित-उत्पीडि़त वर्गों व जातियों से जुड़े होते हैं तो उन्हें कड़ी से कड़ी सजायें (फांसी तक) दी जाती हैं। 
    वैसे फांसी की सजा एक बर्बर एवं अमानवीय सजा है; यह शासक वर्गों की न्यायिक प्रक्रिया द्वारा ठंडे़ दिमाग से की गई हत्या है। विश्व के 133 देशों ने इस सजा को या तो कानूनन या व्यवहार में खत्म कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी विशाल बहुमत से मौत की सजा को निलम्बित कर देने का फैसला लिया है। आश्चर्य है कि ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ का दावा करने वाली भारत सरकार ने न केवल इस अमानवीय सजा को बरकरार रखा है, बल्कि इस सजा को देने में पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने हेतु अपनी न्यायपालिका को पूरी छूट दे रखी है। यह न्याय का उपहास नहीं तो और क्या है?
प्यूचे: आत्महत्या के बारे में -कार्ल मार्क्स 
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
(कार्ल मार्क्स का यह लेख साथी दानवीर के जाने के बाद एक वस्तुगत व वैज्ञानिक जमीन पर खड़े होने में मदद करेगा, इस उम्मीद से प्रकाशित किया जा रहा है। भारतीय समाज में हर वर्ष एक लाख से अघिक व्यक्ति आत्महत्यायें करते हैं। ये आत्महत्यायें हमारी समाज व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न खड़ा कर देती है
इतिहास में ऐसी घटनाओं की कमी नहीं है जिसमें सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़े लोगों ने किसी कारणवश आत्महत्या की हो। पाल लफार्ग से कानू सन्याल, गोरख पाण्डेय जैसे लोगों को याद किया जा सकता है। मार्क्स ने आत्महत्या को किसी समस्या का समाधान नहीं माना है। अनुवाद ज्ञानेन्द्र, प्रकाशकः गार्गी प्रकाशन से साभार -सम्पादक)
समाज की फ्रांसीसी आलोचना में, आंशिक ही सही कम-से-कम एक बड़ी खूबी यह है कि इसने आधुनिक जीवन के अंतर्विरोधों और अस्वाभाविकताओं को केवल विशेष वर्गों के आपसी सम्बन्धों में ही नहीं बल्कि आधुनिक सामाजिक संसर्ग के तमाम दायरों और रूपों के संदर्भ में भी उद्घाटित किया है। किसी दूसरे राष्ट्र में बेमतलब इन्हें तलाश करने की जगह उसने अपने समाज का लेखा-जोखा लेते हुए यह काम किया और प्रमाण के रूप में खुद जीवन का आवेश, विचारों के खुलेपन, शिष्ट चालाकी और आत्मा की निर्भीक मौलिकता को रखा। उदाहरण के तौर पर, फ्रांसीसी आलोचना की इस श्रेष्ठता का अंदाजा लगाने के लिए फूरिए और ओवेन की उन आलोचनात्मक लेखों की तुलना की जा सकती है जिनमें वे जीवन के रिश्तों से सरोकार रखते हों। सामाजिक परिस्थितियों की आलोचनात्मक प्रस्तुति की बात सिर्फ फ्रांसीसी ‘समाजवादी’ लेखकों की परम्परा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि साहित्य के हर क्षेत्र में, खासतौर से उपन्यासों और संस्मरणों में इसे देखा जा सकता है। आत्महत्या के बारे में जाक प्यूचे की किताब पुलिस के अभिलेख से कुछ जीवन वृत्त इत्यादि से कुछ उद्धरण देते हुए मैं इस फ्रांसीसी आलोचना का एक उदाहरण पेश करूंगा। साथ ही उन आधारों को भी स्पष्ट करने का प्रयास करूंगा जिनके कारण बुर्जुआ मानवतावादी यह सोचता है कि यहां समस्या सिर्फ सर्वहारा के लिए थोड़ी सी रोटी और थोड़ी सी शिक्षा का इंतजाम करने की ही है और समाज की वर्तमान दशाएं सिर्फ मेहनतकश के विकास को ही अवरुद्ध करती हैं अन्यथा वर्तमान दुनिया सभी सम्भव दुनियाओं में सबसे अच्छी है। 
जाक प्यूचे की रचनाओं में, उन बहुत से पुराने फ्रांसीसी पेशेवर लोगों की तरह ही जो अब विलुप्त होते जा रहे हैं, जिन्होंने 1789 के बाद से हुए तमाम विप्लवों को जिया है। और जो बहुत सारी निराशाओं, उत्साहों, संविधानों, शासकों, हारों और जीतों, के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। मौजूदा सम्पत्ति, परिवार और दूसरे व्यक्तिगत सम्बन्धों की आलोचना, एक शब्द में निजी जिन्दगी की आलोचना भी उनके राजनीतिक अनुभवों का अनिवार्य परिणाम प्रतीत होती है। 
जाक प्यूचे (जन्म 1760) ललित साहित्य से शुरू करके आयुर्विज्ञान से कानून तक और फिर कानून सेे प्रशासन और पुलिस तक पहुंच जाते हैं। फ्रांसीसी क्रांति फूटने से पहले तक वह एबे मोरले के साथ वाणिज्य का शब्दकोश पर काम कर रहे थे जिसकी केवल विवरणिका ही किसी तरह छप सकी और उस समय वे मुख्य रूप से राजनीतिक अर्थशास्त्र और प्रशासन के गहन अध्ययन में व्यस्त थे। फ्रांसीसी क्रांति से प्यूचे बहुत थोड़े समय के लिए जुड़े। शीघ्र ही वे राजतंत्रवादी पार्टी में चले गये। कुछ समय फ्रांसीसी गजट के सम्पादक रहे और मैले दू पां से राजतंत्र समर्थक बदनाम मरक्यूरे के सम्पादन का चार्ज लिया। इस सबके बावजूद उन्होंने बड़ी चतुराई से क्रांति के बीच से अपना रास्ता बनाया- कभी सताये गये तो कभी प्रशासन और पुलिस विभाग में भी काम किया। 1800 में छपे वाणिज्य का भूगोल के 5 खण्डों ने प्रथम वाणिज्यिक दूत बोनापार्ट का ध्यान उनकी ओर आकर्षित किया और उन्हें वाणिज्यिक समिति का सदस्य नियुक्त कर दिया गया। बाद में फ्रेंकोइस डी नैफचेट के मंत्रालय में उन्होंने उच्च प्रशासनिक पद पर काम किया। 1814 में हुई राजतंत्र की पुनस्र्थापना में वह सेंसर नियुक्त किये गये। 100 दिनों के दौरान वे सेवानिवृत्त हो गये। बूर्बो राजवंश की पुुनस्र्थापना के बाद उन्हें पेरिस के पुलिस प्रशासक के कार्यालय में अभिलेखागार के रखरखाव का काम मिला जहां वे 1827 तक रहे। एक लेखक के रूप में और सीधे भी उनका प्रभाव- संविधान सभा के स्पीकर्स, कन्वेन्शन, ट्रिब्यूनेट और राजतंत्र की पुनस्र्थापना के बाद सभासदों- सभी पर रहा। उनकी बहुत सारी किताबों में से, पूर्ववर्णित वाणिज्य का भूगोल के अलावा, फ्रांस की सांख्यिकी (1807) प्रमुख है।
प्यूचे ने आंशिक रूप से पेरिस पुलिस के अभिलेखों से और अंशतः पुलिस और प्रशासन के अपने लम्बे व्यवहारिक अनुभवों से एकत्र की गयी सामग्री के आधार पर एक बूढ़े आदमी की तरह अपने संस्मरण लिखे और उन्हें अपनी मृत्युु के बाद ही छपने दिया, ताकि उन्हें उन उतावले समाजवादियों और कम्युनिस्टों में न गिना जा सके जो हमारे लेखकों, अफसरों और पेशेवर नागरिकों की सामान्य परम्परा के बारे में बहुत कम और उथली समझ रखने के लिए जाने जाते थे। 
आइये, हम पेरिस पुलिस प्रशासनिक कार्यालय के अपने उस अभिलेखागार रक्षक की आत्महत्या के बारे में कही गयी बातों पर गौर करें!
‘‘आत्महत्या की सामान्य और बार-बार होने वाली घटनाओं को, जिनकी वार्षिक संख्या पहले जैसी ही है, हमारे सामाजिक संगठन के दोषपूर्ण लक्षण के रूप में समझा जाना चाहिए; क्योंकि जिस वक्त उद्योग ठप्प और संकटग्रस्त होते हैं या महंगे भोजन और कड़ाके की ठंड के दिनों में यह लक्षण और भी ज्यादा सुस्पष्ट होकर सामने आता है और महामारी का रूप ग्रहण कर लेता है। तब वेश्यावृत्ति और चोरी भी उसी अनुपात में बढ़ जाते हैं। हालांकि गरीबी, आत्महत्या का प्रमुख स्रोत है, पर हम इसे अन्य सभी वर्गों, निकम्मे धनी लोगों, यहां तक कि कलाकारों और राजनीतिज्ञों में भी देख सकते हैं। आत्महत्या को बढ़ावा देने वाले विभिन्न प्रकार के कारण, नैतिकतावादियों की नीरस और बेजार भर्त्सनाओं का मजाक उड़ाते से प्रतीत होते हैं। 
‘‘ज्यादातर मामलों में दोस्ती में विश्वासघात, छला गया प्रेम, कुण्ठित महत्वाकांक्षाएं, पारिवारिक विपत्तियां, दमित प्रतिद्वन्द्विता, एकरस जीवन की ऊब, दमित उत्साह जैसी विनाशकारी बीमारियां जिनके प्रति आज का विज्ञान उदासीन और निष्फल है, असंदिग्ध रूप से आत्महत्या के कारण हैं और खुद जिंदगी से प्यार, व्यक्तित्व की यही ऊर्जावान प्रेरक शक्ति अक्सर इस गर्हित अस्तित्व के अंत की ओर ले जाती है।
‘‘मैडम दे स्तायेल, जिनकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि उन्होंने सामान्य स्थानों का भी एक विलक्षण अंदाज में वर्णन किया है, उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की है कि आत्महत्या प्रकृति के विरुद्ध कृत्य है और इसे एक साहसिक कार्य के रूप में सम्मान नहीं दिया जा सकता; खासतौर से वे यह दावा करती हैं कि निराशा के सामने हार मान लेने की अपेक्षा उससे संघर्ष करना ज्यादा योग्यता का काम है। इस तरह के तर्क उन आत्माओं को बहुत कम प्रभावित करते हैं जो जबरदस्त दुर्भाग्य की शिकार हैं। यदि वे धार्मिक हैं तो वे मरने के बाद बेहतर दुनिया के बारे में सोचते हैं और इसके विपरीत यदि वे किसी चीज में विश्वास नहीं करते तो वे शून्य में शांति की तलाश करते हैं। दार्शनिकों के लम्बे और उबाऊ भाषण उन्हें अपनी तकलीफों से बचाने के लिए बहुत ही तुच्छ सहारा देते हैं, इसलिए उनकी नजरोें में इनकी कोई कीमत नहीं होती। इस बात पर अड़े रहना सबसे ज्यादा जायका खराब करने वाली बात है कि एक इतना अक्सर होने वाला कृत्य प्रकृति के विरुद्ध है। आत्महत्या किसी भी तरह से प्रकृति के विरुद्ध नहीं है क्योंकि हम रोज ही इसे होते देखते हैं। जो प्रकृति के विरुद्ध होता है वह होता ही नहीं। इसके विपरीत बहुत सारी आत्महत्याओं को जन्म देना हमारे समाज की प्रकृति में है, जबकि तातार अपने को खुद खत्म नहीं करते। इस तरह, सभी समाजों के उत्पाद समान नहीं होते। यह बात हमें खुद को बतानी चाहिए ताकि समाज के सुधार के लिए काम किया जा सके और उसे एक उच्चतर अवस्था तक उठाया जा सके। जहां तक साहस की बात है तो यदि युद्ध के विस्तृत और खुले प्रकाशयुक्त मैदानों में हर तरह की उत्तेजना के प्रभाव में मौत को ललकारना साहस का काम माना जाता है तो ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर अंधेरे-एकान्त में अपने लिए मौत का वरण करने वालों में साहस की कमी सिद्ध की जा सके। यह एक ऐसा विवादास्पद प्रश्न है जिससे मृत व्यक्ति का अपमान करके पिण्ड नहीं छुड़ाया जा सकता। 
‘‘आत्महत्या के खिलाफ कही गयी हर बात विचारों के इसी दायरे में गोल-गोल घूमती है। लोग इसके खिलाफ विधाता के विधान का हवाला देते हैं, लेकिन आत्महत्या का होना स्वयं में ही उस विधाता के दुर्बोध विधानों के खिलाफ एक खुला विरोध है। वे हमसे हमारे समाज के प्रति कर्तव्यों के बारे में बातें करते हैं और समाज से हमारी खुद की जो अपेक्षाएं हैं उनकी व्याख्या करने या उन्हें कार्यान्वित करने से बचते हैं और अंत में वे कष्टों के समक्ष झुक जाने के बजाय उस पर काबू पाने के फायदों को 1000 गुना बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं। हर फायदा, जितनी संभावनाएं उससे खुलती हैं, उतना ही दुखदायी होता है। संक्षेप में, वे आत्महत्या को एक कायरतापूर्ण कृत्य बताते हैं, एक ऐसा अपराध, जो कानून, समाज और मर्यादा के खिलाफ है। 
‘‘ऐसा क्यों होता है कि इतने धर्म-बहिष्कारों के बावजूद लोग खुद को मार डालते हैं? क्योंकि निराशा के क्षणों में आदमी का खून उसकी नसों में उसी तरह से नहीं दौड़ता जैसा कि ठण्डे लोगों में होता है जिसके कारण उन्हें इन निरर्थक वाक्यांशों को खोज निकालने का समय मिल जाता है; उसे सिर्फ दोष दिया जाता है, उसे जाना नहीं जाता। जब हम देखते हैं कि कितने हल्के ढंग से, वे संस्थाएं जिनके अधीन यूरोप रह रहा है, राष्ट्रों के खून और उनकी जिन्दगियों का सौदा कर डालती हैं और सभ्य न्याय अपने सुरक्षित फैसलों का पालन करवाने के लिए कितने फिजूलखर्ची के अंदाज में अपने को जेलों, सुधारगृहों और मौत के उपकरणों से घेर लेता है, जब हम ऐसे वर्गों की अति विशाल संख्या को देखते हैं जिन्हें हर तरफ से दुख भोगने के लिए छोड़ दिया गया है और उन समाज बहिष्कृत लोगों को देखते हैं जो उन निर्दयी अभिधारणाओं द्वारा तोड़ दिये गये हैं जो शायद उन्हें इस दारिद्र्य से बाहर निकालने की परेशानी से बचने के लिए रक्षात्मक इरादे से गढ़ी गयी हैं, जब हम यह सब कुछ देखते हैं तो हम यह समझने में असमर्थ होते हैं कि हमें क्या अधिकार है कि उन व्यक्तियों को अपने उस जीवन का सम्मान करने का आदेश दें जिसे हमारी परम्पराएं, हमारे पूर्वाग्रह, हमारे कानून और हमारी नैतिक मान्यताएं आमतौर पर अपने पैरों तले कुचल रही हैं। 
‘‘यह सोचा गया कि अपमानजनक दण्ड देने और अभियुक्त की स्मृति पर बदनामी का कलंक लगा देने से आत्महत्या को रोकना सम्भव हो सकेगा। उन लोगों पर निकम्मेपन से कलंक लगाने के बारे में कोई क्या कह सकता है जो अब अपना केस लड़ने के लिए हमारे बीच नहीं रहे? संयोगवश, उन अभागों को इसकी कोई परवाह भी नहीं और यदि आत्महत्या किसी को दोषी ठहराती है तो सबसे पहले उन लोगों को जो बचे रह गये, क्योंकि इस भीड़ में एक भी ऐसा नहीं है जो इस लायक हो कि कोई उसके लिए जिन्दा रहे। क्या ईजाद किए गए इन बचकाने और निर्दयी साधनों से निराशा की फुसफुसाहट के खिलाफ जीत हासिल हो चुकी है? जो दुनिया को छोड़कर भागना चाहता है उसको इस बात की भला क्या परवाह कि दुनिया उसकी लाश के साथ किस तरह का अपमानजनक व्यवहार करने को वचनबद्ध है? वह इसे जीने के लिए किये गये एक और कायरतापूर्ण कृत्य के रूप में देखता है। वास्तव में, यह कैसा समाज है जिसमें लाखों लोगों के बीच में रहते हुए भी एक आदमी अपने को गहनतम एकान्त में पाता है, जहां कोई अपने को मार डालने की दुर्दमनीय इच्छा से भर जाता है और किसी को इसके बारे में पता तक नहीं चलता? यह समाज, समाज नहीं है, यह, जैसा कि रूसो कहता है, एक रेगिस्तान है जिसमें जंगली जानवर रहते हैं। पुलिस प्रशासन में इस पद पर रहते हुए आत्महत्याओं के बारे में रिकार्ड रखना मेरी जिम्मेदारी का हिस्सा था। मैं जानना चाहता था कि आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले कारणों में से क्या किसी एक की भी रोकथाम की जा सकती है। मैंने इस पर गहरा अध्ययन किया।’’ मैंने पाया कि समाज की वर्तमान अवस्था में आमूल परिवर्तन से नीचे का कोई भी प्रयास व्यर्थ होगा।(संस्मरणों के लेखक के तर्कों के आधार पर यह निष्कर्ष खुद माक्र्स ने दिया है। इस वाक्य की जगह प्यूचे कहता है- ‘‘बिना किसी सैद्धान्तिक जांच-पड़ताल में उलझे, मैं तथ्यों को सामने रखूंगा।’’)
‘‘निराशा के उन कारणों में जो अधीर, शीघ्र उत्तेजित हो जाने वाले और भावप्रवण लोगों को मौत की तलाश की गहरी भावना से भर देते हैं, मैंने दुर्भावनापूर्ण व्यवहार, अन्याय और उन गोपनीय दण्डों को प्रमुख कारण के रूप में पाया जो सख्त अभिभावक और वरिष्ठ लोग अपने पर निर्भर लोगों को देते हैं। क्रांति ने सभी निरंकुशताओं को उखाड़कर नहीं फेंका है, वे बुराईयां जिनके लिए निरंकुश सत्ता को दोषी ठहराया जाता था, परिवार में अभी भी बनी हुई हैं, जहां वे वैसा ही संकट पैदा कर रही हैं, जैसा उन क्रांतियों के समय पैदा हुआ था।
‘‘पहले हमें रुचियों और मनोभावों के बीच के सम्बन्धों को, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच के सच्चे सम्बन्धों को अपने बीच ठीक उन्हीं बुनियादों पर गढ़ना होगा। आत्महत्या तो उस सार्वभौम सामाजिक संघर्ष के उन एक हजार एक लक्षणों में से सिर्फ एक है जो हमेशा ही नए कामों को प्रेरित करता है और जिससे बहुत सारे लड़ाके सिर्फ इसलिए पीछे हट जाते हैं क्योंकि वे शिकारों में अपनी गिनती करवाते हुए तंग आ चुके होते हैं या फिर इसलिए कि वे जल्लादों में सम्मानित स्थान प्राप्त करने के विचार के खिलाफ बगावत करते हैं। अगर आपको कुछ उदाहरणों की जरूरत है, तो हाजिर हैं, जिन्हें मैंने विश्वसनीय आधिकारिक विवरणों में से छांट कर निकाला है। 
‘‘1816 के जुलाई महीने में एक दर्जी की लड़की की सगाई एक मांस विक्रेता से हुई जो उच्च आदर्शोंवाला, मितव्ययी और परिश्रमी नौजवान था। अपनी सुन्दर वधू के प्रति वह बहुत अधिक समर्पित था और वह खुद भी उसे बहुत प्यार करती थी। नवयुवती एक दर्जिन थी। वह उन सबसे बहुत सम्मान पाती थी जो उसे जानते थे। दूल्हे के मां-बाप भी उसे बहुत चाहते थे। इन अच्छे लोगों ने उसे जल्दी से जल्दी अपनी बहू बनाने का कोई अवसर नहीं गंवाया। उन्होंने दावतें दीं जिनमें वह एक रानी और देवी की तरह प्रतिष्ठित हुआ करती थी। 
‘‘शादी का समय नजदीक आ गया, दोनों परिवार के बीच सारी व्यवस्थाएं कर ली गयीं और अनुबंध को अंतिम रूप दे दिया गया। रजिस्ट्रार के पास जाने के लिए नियत दिन की पूर्व संध्या पर युवती और उसके मां-बाप को दूल्हे के मां-बाप के साथ रात का भोजन करना था। एक महत्वहीन घटना ने अप्रत्याशित तरीके से इसमें बाधा उत्पन्न कर दी। धनी ग्राहकों द्वारा दिये गये आर्डर को समय पर देने की मजबूरी के चलते दर्जी और उसकी पत्नी को घर में रहना पड़ा। उन्होंने अपनी क्षमायाचना भेजी, लेकिन जब लड़के की मां खुद दुल्हन को ले जाने के लिए आयी तो उसे उसके साथ जाने की आज्ञा मिल गयी। 
दो प्रमुख मेहमानों की अनुपस्थिति के बावजूद भोज काफी उल्लासपूर्ण था। कई ऐसे पारिवारिक लतीफे सुनाये गये जो भावी सम्बन्धों और शादी के लिहाज से जायज हों। उन्होंने शराब पी, गाने गाये और भविष्य के बारे में बातें कीं। एक अच्छी शादी के सुखों के बारे में उत्सुकतापूर्वक चर्चा की गयी। वे देर रात तक मेज पर बैठे रहे। एक आसानी से समझ में आने वाले अनुग्रह के चलते लड़के के मां-बाप ने युवा जोड़े के बीच हुई मौन सहमति पर अपनी आंखें मूंद लीं। उनके हाथ एक-दूसरे को खोजने लगे। प्यार और अंतरंग का नशा उनके सिर पर सवार हो गया। शादी पूरी मान ली गयी थी और ये दोनों नौजवान एक-दूसरे से काफी लम्बे समय से मिलजुल रहे थे पर उन्होंने, इसके अलावा कभी भी बदनाम करने का कोई भी मौका नहीं दिया था। उस प्रगतिशील घण्टे में, दूल्हे के मां-बाप की भावनाएं, परस्पर को पाने की तीव्र लालसा जिसे अपने बुद्धिमान अभिभावकों के अनुग्रह के कारण छूट मिल गयी थी, ऐसे मौकों पर प्रायः रहने वाला अप्रतिबन्धित उल्लास और दिमाग में उफान पैदा कर रही शराब, इस मुस्कुराते हुए अवसर पर ये सब मिल गये और हर चीज ने उस नतीजे को निकट लाने में मदद की जिसकी कल्पना की जा सकती है। जब बत्तियां बुझ गयीं, प्रेमी अंधेरे में फिर मिले। हरेक ने दिखावा किया जैसे उसे कुछ पता नहीं, संदेह करने के लिए कुछ नहीं था। यहां उनकी प्रसन्नता से ईष्र्या करने वाला कोई नहीं था, सब दोस्त थे। 
‘‘नवयुवती अगले दिन सुबह ही अपने मां-बाप के पास लौट सकी। वह खुद को कितना कम दोषी समझती थी, यह इसी से साबित होता है कि वह अकेली घर लौटी। वह अपने कमरे में चली गयी और अपनी पोशाक ठीक करने लगी। लेकिन जैसे ही उसके मां-बाप को उसके आने का पता चला, उन्होंने गुस्से में अपनी बेटी पर बेहद शर्मनाक लांछनों और गालियों की बौछार शुरू कर दी। पड़ोसियों ने भी देखा। बदनामी खुलकर सामने आ गयी। उस आघात की कल्पना कीजिए जो इस अपमानजनक तरीके से अपनी मर्यादा का अतिक्रमण किये जाने और अपने राज के सबके बीच खोल दिये जाने के कारण इस छोटी सी बच्ची को लगा होगा। किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी लड़की ने अपने मां-बाप को समझाने की कोशिश की कि वे खुद ही उसे क्यों बदनाम कर रहे हैं, कि वह अपनी गलती, अपनी मूर्खता, अपनी अवज्ञा को स्वीकार करती है, लेकिन वह हर चीज दुबारा ठीक की जा सकती है। पर उसके तर्क और उसका दुख दर्जी मां-बाप को शांत करने में असफल रहे।’’
सबसे कायर और प्रतिरोधहीन लोग अपनी निरंकुश पितृ-सत्ता के उपयोग का मौका मिलते ही कठोर हो जाते हैं। बुर्जुआ समाज में तमाम तरह की निर्भरताओं और दब्बूपने के जिस हद तक वे चाहे-अनचाहे खुद को गिरा लेते हैं, हमेशाा की तरह ही इस अधिकार का दुरूपयोग उसके लिए भौंडे़ मुआवजे का काम करता है।
‘‘दूसरों के मामलों में रुचि लेने वाले औरत-मर्द दौड़ते हुए आये और इस गुल-गपाड़े में शामिल हो गये। इस घृणित दृश्य से पैदा हुई शर्म की भावना ने बच्ची को इस निर्णय पर पहुंचा दिया कि वह खुद अपनी जान लेे ले। निन्दा करती और गालियां बकती पड़ोसियों की भीड़ के बीच से वह सीढि़यों पर नीचे भागी। उसकी आंखें पागलपन से भरी थीं।’’ वह सीधे नदी की ओर दौड़ी। ‘‘और नदी में कूद गयी। नाविकों ने उसे पानी से बाहर निकाला। वह मर चुकी थी। वह अब भी शादी के जोड़े में थी। कहना व्यर्थ है कि वे लोग जो पहले बेटी पर चिल्ला रहे थे एकदम उसके मां-बाप के खिलाफ हो गये, इस विभीषिका ने उनकी खाली रूहों में दशहत भर दी थी। कुछ दिनों के बाद मां-बाप पुलिस के पास उस सोने की चेन की मांग करने के लिए आये जिसे बच्ची अपने गले में पहने हुये थी और जो भावी ससुर की ओर से दिया गया एक उपहार था। इसके अलावा एक चांदी की घड़ी और बहुत सारी दूसरी छोटी-छोटी श्रृंगार की चीजें थीं जो सब पुलिस के पास जमा हो चुकी थीं। उन लोगों की मूर्खता और बर्बरता के लिए मैंने उन्हें खूब फटकारा। उनके अहंकारी पूर्वाग्रहों और विचित्र किस्म की धार्मिकता के कारण, जो छोटे व्यापारिक वर्गों में बहुत अधिक पायी जाती है, उन पागल लोगों से यह कहना कि उन्हें भगवान को हिसाब देना होगा, उन पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ता। 
‘‘दो या तीन निशानियां रखने की इच्छा नहीं बल्कि लालच उन्हें मेरे पास खींच लाया था। मैंने सोचा कि मैं उनकी हवस के लिए उन्हें दण्ड दूंगा। वे अपनी बेटी के गहनों की मांग कर रहे थे, मैंने उन्हें देने से मना कर दिया। मैंने वे सर्टिफिकेट, जिनकी इन सामानों का दावा करने के लिए उनको जरूरत पड़ती, उस आॅफिस से लेकर रख लिए जहां रिवाज के हिसाब से वे जमा किये गये थे। जब तक मैं इस पद पर रहा, उनके दावे व्यर्थ जाते रहे और उनके अपमान को ललकारने में मुझे सुख मिलता था। 
‘‘उसी वर्ष मेरे आॅफिस में मार्टिनिक के एक धनी परिवार का एक आकर्षक क्रिओल नौजवान आया। उसने एक नौजवान औरत, उसकी भाभी की लाश, उसके दावेदार, उसके पति और अपने भाई, को दिये जाने का बहुत ही जोरदार तरीके से विरोध किया। वह खुद डूबी थी। इस तरह की आत्महत्या बहुत आम है। लाश को खोजने में लगे अधिकारियों को उसकी लाश ग्रेव दे अर्जेन्टीला के पास ही मिली थी। अंधी निराशा के समय भी महिलाओं में मर्यादित आचरण की सर्वविदित सहजवृत्ति के कारण डूबने वाली महिला ने स्कर्ट के किनारों को अपने पैरों के चारों ओर लपेट रखा था। यह मर्यादित सावधानी यह साबित करती थी कि उसने आत्महत्या ही की है। लाश बरामद होने के बाद उसे मुर्दाघर में ले जाया गया। उसकी सुन्दरता, उसकी जवानी और उसकी भव्य पोशाक ने इस विभीषिका के कारणों के बारे में हजारों तरह की अटकलबाजी लगाने को प्रेरित किया। उसको पहचानने वाला पहला आदमी उसके पति की निराशा का कोई ओर-छोर नहीं था। मैंने खुद उसे पहले कभी नहीं देखा था। मैंने क्रिओल को बताया कि पति का दावा सबसे ऊपर होता है। वह पहले ही अपनी अभागी पत्नी के लिए एक शानदार संगमरमर की समाधि बनवा चुका है। ‘उसकी हत्या करने के बाद, राक्षस कहीं का!’ कमरे में इधर से उधर दौड़ता हुआ क्रिओल चिल्लाया। 
‘‘इस नौजवान की उत्तेजना और निराशा, प्रार्थना स्वीकार कर लेने के उसके अनुनयपूर्ण आग्रह और उसके आंसुओं से मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि वह उसे प्यार करता था और मैंने यह बात उसे बता दी। उसने अपने प्यार को स्वीकार तो किया, लेकिन इस प्रबल आश्वस्ति के साथ कि उसकी भाभी कभी इस बात को नहीं जान पायी। उसने यह बात कसम खाकर कही। केवल अपनी भाभी की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए जिसकी आत्महत्या के लिए जमाना, हमेशा की तरह, उसके गुप्त प्रेम को जिम्मेदार ठहरा देगा, वह अपने भाई की बर्बरताओं को सामने लाना चाहता था, भले ही इसके लिए उसे खुद कटघरे में खड़े होना पडे़। उसने मुझसे मदद के लिए प्रार्थना की। जो कुछ मैं उसके बिखरे-बिखरे और भाव-प्रवण वक्तव्यों से इकट्ठा कर सका, वह यह था- ‘‘उसके भाई मोंसिए दे एम. ने, जो धनी, कला-पारखी, अय्याश और उच्चवर्गों में दोस्ती रखने वाला था, एक वर्ष पहले इस नौजवान लड़की से, एक-दूसरे के प्रति स्पष्ट झुकाव के कारण शादी की थी। यह उन सब से सुन्दर जोड़ा था जो आप देख सकते हैं। शादी के बाद नौजवान की शरीर रचना में अचानक और तेजी से खून की एक खराबी प्रकट हुई जो शायद आनुवांशिक थी। अपनी मनोहारी शरीर रचना और सुन्दरता पर गर्व करने वाला तथा रूप की एक शानदार और अद्वितीय पूर्णता वाला यह आदमी अचानक एक ऐसी अज्ञात विपत्ति का शिकार हो गया जिसके विध्वंस के सामने विज्ञान भी शक्तिहीन था, सर से पैर तक वह बहुत ही भयानक रूप से विकृत हो गया। उसके सारे बाल गायब हो गये, उसकी रीढ़ झुक गयी। दिन पर दिन बढ़ती दुर्बलता और झुर्रियों ने, कम से कम दूसरों के लिए, उसे बहुत ही चौंकाने वाले तरीके से बदल डाला था, क्योंकि अपने आत्मप्रेम के चलते वह खुद ही सुस्पष्ट चीज को स्वीकारने से इंकार करता रहा। तो भी इस सबके चलते वह बिस्तर पर नहीं पड़ा। एक लौह शक्ति इस अज्ञात विपत्ति के आक्रमणों पर विजय पाती प्रतीत हुई। वह अपनी पूरी जीवनी शक्ति के साथ अपनी बरबादी को झेलता रहा। उसका शरीर बरबाद हो गया पर उसकी आत्मा उल्लसित रही। वह दावतें देता रहा, शिकारी दलों का नेतृत्व करता रहा और जीवन के वैभवपूर्ण और शानदार रास्ते पर चलता रहा, जो उसके चरित्र और उसके स्वभाव का नियम प्रतीत होता था। लेकिन अपमानों, अडि़यलपने, घोड़े को अभ्यास के लिए ले जाते समय स्कूली लड़कों और गली के शैतान बच्चों द्वारा की जाने वाली छींटाकशी, उनकी निर्दयी और मजाक उड़ाती हुई हंसी और दोस्तों की उन अनिगिनत अवसरों पर दी गयी विनम्र चेतावनियों ने, जब रसिक अंदाज से औरतों के पीछे पड़कर वह खुद को मजाक का पात्र बना देता था, इस सबने अंततः उसके भ्रम को दूर कर दिया और उसे अपने बारे में सावधान बना दिया। जैसे ही उसने अपनी कुरूपता और विरूपताओं को खुद भी स्वीकार किया, जैसे ही वह इसके प्रति सचेत हुआ, उसके चरित्र में कटुता आ गयी। उसका दिल टूट गया। अब वह अपनी पत्नी को बाॅल नृत्य, कन्सर्ट्स, संगीत-सभाओं और पार्टियों में ले जाने के बारे में बहुत कम उत्साहित प्रतीत होता। वह अपने गांव वाले घर पर चला गया। उसने सभी निमंत्रणों का अंत कर दिया, हजारों बहाने बनाकर लोगों को टालने लगा। उसके दोस्तों द्वारा की जाने वाली उसकी पत्नी की तारीफों ने, जिन्हें वह तब तक बर्दाश्त करता रहा था जब तक उसके अहंकार ने उसे उसकी श्रेष्ठता का विश्वास दिलाये रखा, उसे इर्ष्यालु, शक्की और हिंसक बना दिया। जिन लोगों ने उससे मिलते रहने पर जोर दिया था उनके मन में उसे अपनी उस पत्नी का दिल जीतने का दृढ़ संकल्प दिखने लगा जो उसका अन्तिम अभिमान और अन्तिम दिलासा थी। इसी समय पर क्रिओल नौजवान अपने उस व्यवसाय के साथ मार्टिनीक से आया जिसकी सफलता बूर्बो के फ्रांस की राजगद्दी पर फिर से बैठने से जुड़ी हुई प्रतीत होती थी। उसकी भाभी ने उसका हार्दिक स्वागत किया और अनगिनत नष्ट हो रहे सम्बन्धों के भग्नपोत में, जिन्हें उसने खुद ही संकुचित कर दिया था, नवागंतुक का स्थान सुरक्षित हो गया क्योंकि मोंसिए दे एम. के साथ भाई के रिश्ते के कारण बिल्कुल सहज तरीके से उसे एक लाभ हुआ था। क्रिओल ने दो तरीकों से, उसके भाई के अपने दोस्तों के साथ होने वाले सीधे झगड़ों से और हजारों अप्रत्यक्ष घटनाओं से जो मिलने वालों को हतोत्साहित करती थीं और उन्हें इससे दूर ले जाती थी, उस अकेलेपन का पूर्वानुमान कर लिया जो उस घर को घेरने वाला था। प्रेम के उन प्रयोजनों के बारे में स्पष्ट रूप से जाने बिना ही जिन्होंने उसे भी ईष्र्यालु बना दिया था, क्रिओल ने अपने को काट लेने के इन प्रयासों का समर्थन किया और अपनी सलाहों से उन्हें और प्रोत्साहित किया। मोंसिए दे एम. ने अपने सामाजिक जीवन का अंत कर लिया और पैसी स्थिति एक सुन्दर मकान में खुद को सबसे पूरी तरह काटकर रहने लगा। थोड़े ही समय में वह घर वीरान हो गया। ईर्ष्या छोटी से छोटी बातों से खुराक ग्रहण करती है। जब उसे इल्जाम लगाने के लिए कोई नहीं मिलता तो यह अपने ही खिलाफ मुड़ जाती और खोजी हो जाती है। हर चीज उसे जिलाये रखने में मदद करती है। शायद नौजवान औरत अपनी उम्र के अनुसार खुशियों की आकांक्षा रखती थी। दीवारों ने पड़ोसी घरों के दृश्यों को भी बाधित कर दिया था, सुबह से शाम तक शटर बंद रहते थे।’’ 
अभागी पत्नी को सबसे असह्य दासता की सजा दी गयी थी, और यह दासता केवल मोंसिए दे एम. द्वारा दीवानी कानून और अपने सम्पत्ति के अधिकार तथा उन सामाजिक दशाओं के आधार पर थोपी गयी थी जो प्यार को प्रेमियों की मुक्त भावनाओं से अलग कर देती है और ईर्ष्यालु पति को इसकी आज्ञा देती है कि वह अपनी पत्नी को तालों में उसी तरह कैद कर दे जैसे कंजूस अपनी तिजोरी बंद कर देता है, क्योंकि वह उसके माल की फेहरिस्त का एक हिस्सा मात्र होती है। 
‘‘रात को मोंसिए दे एम. हथियारबंद होकर और कुत्ते को साथ लेकर घर के चारों ओर शिकार की खोज में घूमता रहता था। एक दिन जब माली एक सीढ़ी को हटा रहा था, उसे लगा कि उसने रेत में पैरों के निशान देखे हैं और विचित्र संदेह से भर गया। निषेध की भावना अपने असंयम की कोई सीमा नहीं जानती, यह वाहियात होने की हद तक जाती है। भाई जो इस सबमें निर्दोष सहअपराधी था अंततः समझ गया कि वह उस नवयौवना के दुर्भाग्य के निर्माण में सहायता कर रहा था जिसे रोज-ब-रोज सुरक्षा में रखा गया था, अपमानित किया जा रहा था और हर चीज से वंचित किया जा रहा था जो एक वैभवशाली और खुशनुमा कल्पना शक्ति को दिशा दे सकती थी। वह उतनी ही उदास और चिड़चिड़ी हो गयी थी जितनी कि कभी उन्मुक्त और प्रसन्न रहा करती थी। वह रोती थी और अपने आंसू छिपाती थी, पर उनके चिह्न दिखायी दे जाते थे। क्रिओल का सद्विवेक उसको सताने लगा। उसने अपनी गलतियों की भरपाई करने और उन्हें खोलकर अपनी भाभी के सामने रखने का दृढ़ निश्चय कर लिया जो निश्चित रूप से उसके प्यार के गुप्त भावों के कारण पैदा हुआ था। एक सुबह चुपचाप वह उस छोटे और वृक्षों से ढंके खुशनुमा बगीचे में दाखिल हो गया जहां कैदी ताजा हवा लेने और अपने फूलों की देखभाल करने के लिए समय-समय पर जाया करती थी। हमें यह पता होना चाहिए कि इस बहुत सीमित आजादी का उपभोग करते समय भी नवयुवती यह जानती थी कि वह अपने पति की ईर्ष्यालु नजरों में ही रहती है, इसलिए पहली बार एकदम अप्रत्याशित तरीके से अपने देवर को सामने देखकर वह बहुत डर गयी। वह अपने हाथ मलने लगी। ‘भगवान के नाम पर यहां से चले जाओ,’ वह डर से उसके ऊपर चिल्लायी,‘चले जाओ यहां से!’
‘‘और वास्तव में, वह अभी मुश्किल से पौधघर में छिपा ही था कि मोंसिए दे एम. अचानक प्रकट हो गया। क्रिओल ने चीखें सुनीं। उसने ध्यान से सुनने का प्रयास किया पर उसके दिल की धड़कनों ने उसे स्पष्टीकरण का एक शब्द भी नहीं सुनने दिया क्योंकि अगर पति उसकी छुपने की जगह खोज लेता तो इसके बहुत खेदजनक परिणाम हो सकते थे। इस घटना ने देवर को प्रेरित कर दिया था, इसलिए उसने एक पीडि़त व्यक्ति का रक्षक बनने की जरूरत महसूस की। उसने अपने प्यार के रास्ते की सभी बाधाओं को हटाने का संकल्प लिया। रक्षा के अपने अधिकार को छोड़कर प्यार बाकी हर चीज कुर्बान कर सकता है। इसके लिए अन्तिम बलिदान एक कायर का ही होना था। वह अपने भाई के पास जाता रहा, उससे खुलकर बात करने, अपने को उसके सामने खोलने और उसे हर बात बताने के लिए तैयार हो गया। मोंसिए दे एम. को अभी तक अपने भाई पर कोई संदेह नहीं था, पर उसके भाई के आग्रह ने इसे जमा दिया। उसकी इस दिलचस्पी के कारणों के बारे में पूरी तरह जाने बिना ही, यह अनुमान लगाते हुए कि यह मामला कहां तक जा सकता है, मोंसिए दे एम. उन पर अविश्वास करने लगा। क्रिओल जल्दी ही जान गया कि उसका भाई हमेशा घर से अनुपस्थित नहीं रहता था, हालांकि बेकार में उसके पैसी के पथ की घण्टी बजाकर लौट जाने वालों को बाद में वह यही बताया करता था। एक ताला बनाने वाले के शार्गिद ने उसके लिए उन नमूनों के आधार पर चाभी बना दी, जिनसे उसके उस्ताद ने मोंसिए दे एम. के लिए बनायी थी। 10 दिन के बाद क्रिओल एक रात को डर से भरा हुआ और पागलपन से भरी कल्पनाओं से उद्वेलित होता हुआ दीवार पर चढ़ा, मुख्य अहाते की एक रेलिंग को तोड़कर एक सीढ़ी की सहायता से छत पर जा पहुंचा और ड्रेन पाइप के सहारे फिसलकर एक स्टोर रूम की खिड़की के नीचे आ गया। तेज चीखों के शोर में वह कांच के एक दरवाजे से बिना किसी का ध्यान आकर्षित किये गुजर गया। उसने जो देखा उससे उसका हृदय विदीर्ण हो उठा। कमरे में एक लैम्प का प्रकाश दिखायी दिया। बिस्तर के पर्दों के पीछे बाल बिखेरे और क्रोध से चेहरा लाल किए हुए मोंसिए दे एम. बिस्तर पर अधनंगा अपनी पत्नी के पास झुका हुआ था। हालांकि वह खुद को उससे अलग करने केे लिए बराबरी से खींचतान कर रही थी, उस बिस्तर को छोड़ने की हिम्मत उसमें नहीं थी। वह उस पर सबसे ज्यादा पीड़ादायी तोहमतें लगा रहा था और एक ऐसे चीते के रूप में लग रहा था जो उसके टुकड़े-टुकड़े करने वाला हो। ‘हां’ उसने उससे कहा,‘मैं बदसूरत हूं, राक्षस हूं और मैं इसे अच्छी तरह से जानता हूं, मैं तुम्हारे भीतर दहशत पैदा कर दूंगा। तुम मुझसे छुटकारा पाना चाहती हो ताकि मेरे दर्शन तुम्हारे ऊपर और अधिक बोझ न बनें। तुम्हें उस क्षण का बेसब्री से इंतजार है जब तुम मुक्त होगी। और मुझे उल्टा मत पढ़ाओ, तुम्हारे डर और प्रतिरोध से मैं तुम्हारे विचारों का अंदाजा लगा सकता हूं। मेरे अयोग्यतापूर्ण ठहाकों पर तुम शर्मसार हो जाती हो। तुम भीतर-भीतर मेरे खिलाफ विद्रोह करती हो, इसमें संदेह नहीं कि तुम एक-एक मिनट गिनकर उस समय का इंतजार कर रही हो जब अपनी कमजोरियों और अपनी उपस्थिति के साथ और लम्बे समय तक तुम्हारा घेरा डालने के लिए मैं नहीं रहूंगा। रुक जाओ! मैं भयानक इच्छाओं का शिकार हूं, तुम्हें अपनी ही तरह का बना देने की, विरूपित कर देने की उन्मत इच्छा ताकि मुझे जानने के अपने दुर्भाग्य के बावजूद अपने प्रेमियों के चलते तुम्हें जो ढांढस मिलता है, उसकी भी आशा तुम और अधिक समय तक न कर सको। मैं इस घर के सारे शीशे तोड़ दूंगा जिससे वे मेरे ऊपर इस विरोधाभास को प्र्रकट न कर सकें और तुम्हारे घमण्ड को और खुराक न मिल सके। शायद मुझे फिर से तुम्हें दुनिया में ले जाना चाहिए, या तुम्हें चले जाने देना चाहिए ताकि यह देख सकूं कि मुझसे घृणा करने के लिए हर कोई तुम्हें कैसे उकसाता है। नहीं, नहीं, तुम इस घर को नहीं छोड़ोगी जब तक तुम मुझे मार नहीं देती। मुझे मार दो, वह करने के लिए पहले से ही तैयार रहो जिसके लिए मैं तुम्हें रोज ललचाता हूं।’ और वह जंगली पशु जोर-जोर से रोता हुआ, दांत पीसते हुए, मंुह से झाग छोड़ते हुए, पागलपन के हजारों लक्षणों के साथ गुस्से में अपने को पीटता हुआ इस अभागी औरत के पास बिस्तर पर लोटने लगा जो उस पर अपनी सबसे करुणा अनुनय-विनय और सबसे सुकुमार चुम्बनों को बरबाद कर रही थी। अंततः उसने उसे शांत कर दिया। कोई शक नहीं है कि प्यार को दया ने स्थानापन्न कर दिया था, लेकिन यह उस आदमी के लिए काफी नहीं था जो देखने में इतना भयानक लग रहा था और जिसके दुव्र्यसनों ने इतनी ऊर्जा को रोका हुआ था। इस दृश्य के बाद निराशा का एक लम्बा दौर आया जिससे क्रिओल सन्न रह गया। वह कांपा और यह नहीं समझ पाया कि इस अभागी महिला को इस घातक प्राणोत्सर्ग से बचाने के लिए किसके पास जाये। यह दृश्य लगभग उसी तरह रोज दुहराया जाता था। बाद में होने वाली ऐंठन को शांत करने के लिए मादाम दे एम. के पास दवा की कुछ बोतलें थीं जो उसको सताने वाले को थोड़ी शांति देने के लिए तैयार की गयी थीं। 
‘‘क्रिओल उस समय मोंसिए दे एम. के परिवार का पेरिस में अकेला प्रतिनिधि था। ऐसे ही मामलों में न्यायिक प्रक्रिया की सुस्त रफ्तार और निष्ठुर कानूनों को कोसने की सबसे ज्यादा इच्छा होती है जिनके रहते कोई भी चीज अपने लिए सूक्ष्मता से निर्धारित की गयी लीक से नहीं हट सकता, खासतौर से तब जबकि यह एक महिला का मामला हो जो ऐसी प्राणी है जिसे कानून न्यूनतम गारण्टी देता है। एक गिरफ्तारी वारण्ट या ऐसा कोई सख्त कदम ही उस बरबादी को रोक सकता था जिसका पागलपन के प्रत्यक्षदर्शी ने बहुत अच्छी तरह अनुमान लगा लिया था। यहां तक कि उसने हर चीज को दांव पर लगाने का निश्चय किया और सारे परिणामों को अपने ऊपर लेने के लिए तैयार हो गया, क्योंकि अपनी सम्पत्ति के कारण वह किसी भी सम्भावित खतरे की जिम्मेदारी से न डरने और बहुत बड़ा त्याग करने में समर्थ था। उसके दोस्तों में से कई डाॅक्टर पहले से ही तैयार थे, वे उसी की तरह दृढ़ निश्चय के साथ मोंसिए दे एम. के घर में घुसने की तैयारी में थे ताकि इस पागलपन के दौरों की जांच की जा सके और दोनों विवाहितों को बलपूर्वक् एक-दूसरे से अलग किया जा सके। तभी घटी आत्महत्या की इस घटना ने जो इन देर से की गयी तैयारियों का नतीजा थी इस समस्या का अंत कर दिया। 
‘‘निश्चित रूप से, हर उस आदमी के लिए जो शब्दों की आत्मा को उसके लिखित अक्षरों तक ही सीमित नहीं समझता, यह आत्महत्या पति द्वारा किया गया एक विश्वासघाती कत्ल था, लेकिन साथ ही यह ईर्ष्या के असामान्य दौरे का परिणाम भी था। ईर्ष्यालु आदमी को एक गुलाम की जरूरत होती है, ईर्ष्यालु आदमी प्यार कर सकता है, पर वह प्यार को ईर्ष्या का केवल एक अय्याशी भरा पूरक समझता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति, आखिर एक निजी सम्पत्ति का मालिक ही तो होता है। (यह वाक्य माक्र्स ने प्यूचे द्वारा दिये गये आत्महत्या के एक अन्य विवरण से लिया है जिसका विवरण आगे दिया गया है।) मैंने क्रिओल को एक व्यर्थ और घातक काण्ड करने से रोका, जो उसकी प्रियतमा की स्मृतियों के लिए ही सबसे ज्यादा घातक होता, क्योंकि तब निष्ठुर जमाने ने उस शिकार हुई महिला को अपने पति के भाई के साथ अवैध सम्बन्ध बनाने का दोषी ठहरा दियाा होता। मैं जनाजे में शामिल हुआ। मेरे और उस भाई के अलावा कोई सच नहीं जानता था। अपने चारों ओर मैंने अपमानित करने वाली फुसफुसाहट सुनी, लेकिन मैंने उसकी उपेक्षा कर दी। लोकनिन्दा सुनकर कोई भी व्यक्ति झेंपता है खासकर जब वह कायरतापूर्ण कटुता और गंदे आक्षेपों के साथ उसे एकदम अपने नजदीक होते देखता है। पर इतने अलगाव में रहने, इतने अज्ञानी बने रहने, इतने भ्रष्ट होने के कारण लोगों की राय बहुत बंटी हुई होती है, क्योंकि हर कोई स्वयं के लिए अजनबी है और सब एक-दूसरे के लिए अजनबी हैं। (मार्क्स ने मुक्त अनुवाद किया और यह वाक्यांश निष्कर्ष के रूप में जोड़ दिया कि हर कोई स्वयं के लिए अजनबी है और सब एक-दूसरे के लिए अजनबी हैं।)
‘‘संयोग से, कुछ हफ्ते गुजर गये और मेरे सामने इसी तरह के और रहस्योद्घाटन नहीं हुए। उसी साल मैंने एक प्रेम-सम्बन्ध रजिस्टर किया जो मां-बाप द्वारा स्वीकृति न दिये जाने के कारण पैदा हुआ था और पिस्तौल के दो फायरों के साथ खत्म। 
‘‘मैंने उन आदमियों की आत्महत्याएं दर्ज कीं जिन्हें आनन्द के दुरूपयोग ने अंतहीन निराशा से भर दिया था, क्योंकि वे अपने खिलने के दिनों में ही नपुंसकता के शिकार हो गए थे। 
‘‘बहुत से लोग, हानिकारक नुस्खों के चलते लम्बी और व्यर्थ की यंत्रणा झेलने के बाद अपने दिनों का अंत कर लेते हैं, क्योंकि उनके ऊपर यह विश्वास हावी हो जाता है कि दवाई उनको कष्टों से मुक्ति दिलाने में असमर्थ है। 
‘‘एक शानदार संकलन तैयार किया जा सकता है जिसमें प्रसिद्ध लेखकों के उद्धरण हों और उन निराश लोगों द्वारा लिखी गयी कविताएं हों जो एक खास तरह के आत्मश्लाघा के साथ अपनी मृत्यु की तैयारी कर रहे हों। मरने का फैसला कर लेेने के बाद आने वाले अद्भुत रूप से निष्ठुर क्षणों में इन रूहों से एक तरह का संक्रामक उत्साह उच्छवसित होता है और कागजों पर बहने लगता है, यहां तक कि उन वर्गों में भी जो हर तरह की शिक्षा से वंचित कर दिये गए हैं। जब वे खुद को बलिदान के लिए प्रकृतिस्थ कर रहे होते हैं और उसकी गहराइयों में विचरण कर रहे होते हैं तो उनकी तमाम शक्ति केन्द्रित होकर आवेशपूर्ण और लाक्षणिक अभिव्यक्ति के रूप में फूट पड़ती है। 
‘‘इनमें से कुछ कविताएं जो अभिलेखागार में दफन हैं, उत्कृष्ट रचनाएं हैं। एक थुलथुल बुर्जुआ जो अपने व्यापार को अपनी आत्मा और अपने वाणिज्य को परमात्मा मानता है। वह इसे बहुत रूमानियत खोज समझ सकता है और इन परेशानियों और कष्टों को अपनी तिरस्कारपूर्ण हंसी में उड़ा सकता है क्योंकि वह इन्हें समझता ही नहीं। उसका यह तिरस्कार हमें आश्चर्यचकित नहीं करता।’’
इन तीन प्रतिशत वालों से कोई और क्या आशा कर सकता है जिन्हें इस बात का जरा सा भी आभास नहीं होता कि वे हर रोज, हर घण्टे, रेशा-रेशा खुद को मार रहे हैं, अपने मानव स्वभाव की हत्या कर रहे हैं! 
‘‘लेकिन उन अच्छे लोगों के बारे में क्या कहा जाए जो खुद को श्रद्धालु और शिक्षित कहते हैं और जो इस अपवित्रता का अनुकरण करते हैं। निस्संदेह यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि दुनिया के सुविधाजीवी वर्गों के स्वार्थ के लिए ही सही, इन बेचारे गरीब लोगों को जिन्दा रहना चाहिए, क्योंकि इन घटिया लोगों की बहुप्रचलित आत्महत्याओं से उनकी सुरक्षा नष्ट हो सकती है। लेकिन क्या अपमानों, तिरस्कारों और तीखे शब्दों से छलनी करने के अलावा इस वर्ग के अस्तित्व को आसान बनाने का कोई और रास्ता नहीं? इसके अतिरिक्त इन कमबख्तों में एक महान आत्मा का निवास भी होना चाहिए जो उस समय, जब वे मरने का पक्का इरादा कर लेें, तो उन्हें भले ही अपना सर्वनाश करने दें लेकिन उन्हें फांसी लगाने का कुमार्ग अपनाते हुए आत्महत्या की ओर जाने से रोके। यह सही है कि जितना ही अधिक हमारे वाणिज्यिक युग का विस्तार होता जाता है दुर्दशा के कारण होने वाली ये उत्तम किस्म की आत्महत्याएं उतनी ही कम होती जाती हैं। एक सचेत शत्रुता उनका स्थान ले लेती है और दुर्दशा का शिकार व्यक्ति बेहिचक चोरी और हत्या करने का खतरा मोल लेने लग जाता है। काम पाने से मृत्युदण्ड पाना कहीं ज्यादा आसान है।
‘‘पुलिस अभिलेखों की छानबीन के दौरान आत्महत्याओं की सूची से मुझे कायरतापूर्ण आत्महत्या का सिर्फ एक केस मिला। वह एक अमरीकी नौजवान विलफ्रिड रामसे का मामला था जिसने द्वन्द्वयुद्ध से बचने के लिए खुद को मारा था।
‘‘आत्महत्या के विभिन्न कारणों का वर्गीकरण दरअसल हमारे समाज के दोषों का ही वर्गीकरण होगा। एक आदमी ने खुद को इसलिए मारा क्योंकि जब लम्बे वैज्ञानिक अनुसंधानों में खुद को समर्पित कर देने के परिणामस्वरूप वह बहुत गरीब हो गया और इस हालात में भी नहीं रहा कि अपनी खोज का पेटेन्ट खरीद सके, जबकि षडयंत्रकारियों ने उसकी खोज को उससे झटक लिया। दूसरे ने उस प्रतिष्ठा गिराने वाली और खर्चीली अदालती कार्यवाही से खुद को बचाने के लिए आत्महत्या की थी जो उन सामान्य सी आर्थिक उलझनों के लिए चलायी जा रही थी जिसके लिए जनसाधारण आमतौर पर कुछ खास चिंता नहीं करते और सामान्य से लाभ के लिए अपना पैसा किसी को भी विश्वासपूर्वक सौंप देते हैं। एक अन्य व्यक्ति ने अपने को इसलिए मार डाला क्योंकि हमारे ही बीच के उन लोगों द्वारा जो नौकरियों के निरंकुश वितरक हैं, लम्बे समय तक अपमानित होता रहा और जिन्होंने अपनी कंजूसी के चलते उस पर अत्याचार किया और उसे काम नहीं दिया।
‘‘एक दिन एक डाक्टर मुझसे एक मौत के बारे में सलाह लेने आया, जिसके लिए वह खुद को ही दोषी ठहरा रहा था। 
‘‘एक शाम अपने घर बेलविले को लौटते हुए, पर्दानशीं औरत ने उसे एक संकरी गली में, जिसके सामने उसका घर था, अंधेरे में रोका। उसने कांपती हुए आवाज में अपनी बात सुनने की प्रार्थना की। कुछ ही दूरी पर एक आदमी जिसके नाकनक्श का वह अंधेरे में अंदाजा नहीं लगा सका, इधर से उधर चहलकदमी कर रहा था। एक आदमी उस पर निगाह रखे हुए था। ‘श्रीमान’ उसने डाक्टर से कहा,‘मैं गर्भवती हूं और जब लोगों को इसका पता चलेगा, मैं बदनाम हो जाऊंगी। मेरा परिवार, जनमत और प्रतिष्ठित लोग मुझे निश्चित रूप से माफ नहीं करेंगे। वह औरत जिसके विश्वास को मैंने धोखा दिया है, अपना विवेक खो देगी और बिलाशक अपने पति को तलाक दे देगी। मैं अपना बचाव नहीं कर रही हूं। मैं एक ऐसे काण्ड का केन्द्र हूं जिसे मेरी मौत ही प्रकट होने से रोक सकती है। मैं खुद को मार डालना चाहती थी, लेकिन लोग चाहते हैं कि मैं जिन्दा रहूं। मुझे बताया गया है कि तुम्हारे भीतर दया है और इसने मुझे विश्वास दिलाया कि तुम एक बच्चे की हत्या के भागी नहीं बनना चाहोगे, इसके बावजूद कि यह बच्चा अभी तक दुनिया में नहीं आया है। आप समझ सकते हैं कि यह एक बच्चा गिराने का मामला है। इस अपराध को, जिसे मैं सबसे धिक्कार्य मानती हूं, इसका महत्व कम करने की अपील करके मैं खुद को और नीचे नहीं गिराऊंगी। मैं दूसरों की दलीलों के सामने झुक गयी तभी मैंने तुम्हें ये सब बातें कही हैं, अन्यथा मैं जानती हूं कि मरते कैसे हैं। मैं खुद ही अपनी मौत का आह्वान करूंगी, मुझे इसके लिए किसी की जरूरत नहीं है। कोई यह बहाना कर सकता है कि बगीचे में पानी देने से सुख मिलता है, वह इसके लिए लकड़ी के खड़ाऊ पहन लेगा और फिर एक फिसलन भरी जगह का चुनाव करेगा जहां रोज पानी निकाला जाता है और इस तरह वह कुंए की गहराइयों को थाहने की व्यवस्था कर लेगा और लोग कहेंगे कि यह महज एक दुर्घटना थी। श्रीमान मैंने हर चीज पहले ही सोच रखी है। मेरी इच्छा है कि बाद में किसी सुबह को मैं अपने पूरे दिल के साथ कूच करूं। हर चीज तैयार है ताकि यह ठीक उसी तरह हो। मुझे यह आपको बताने के लिए कहा गया और मैंने वैसा ही किया है। अब तुम्हें यह तय करना है कि एक मौत होगी या दो मौंतें। अपनी कायरता के कारण मैं शपथ खाती हूं कि मैं बिना किसी असंतोष के तुम्हारे निर्णय का पालन करूंगी। तय कीजिए!
‘‘ ‘इस चुनाव ने’ डाक्टर कहता रहा,‘मुझे भयाक्रान्त कर दिया। इस महिला की आवाज शुद्ध और कर्णप्रिय थी, उसका हाथ जिसे मैंने अपने हाथ में लिया था, बहुत सुन्दर और नाजुक था, उसकी स्पष्ट और दृढ़ निराशाजनित अभिव्यक्ति ने एक शानदार आत्मा का आभास कराया। लेकिन जो मुद्दा विचारणीय था उसने वास्तव में मेरे रोंगटे खड़े कर दिये थे, हालांकि हजारों मामलों में, उदाहरण के लिए प्रसव के मुश्किल केसों में, जबकि सर्जन को ही तय करना होता है कि बच्चे को बचाया जाए या उसकी मां को, तब या तो राजनीति या इंसानियत के आधार पर वह अपनी मर्जी से, बिना झिझके खुद ही तय करता है।’
‘‘ ‘विदेश भाग जाओ,’ मैंने कहा। ‘असम्भव’ उसने उत्तर दिया,‘इस पर विचार नहीं किया जा सकता।’
‘‘ ‘उचित सावधानियां रखो।’
‘‘ ‘मैं नहीं रख सकती। मैं उसी कमरे में सोती हूं जिसमें वह औरत जिसकी दोस्ती के साथ मैंने दगा की है।’ ‘वह तुम्हारी रिश्तेदार है?’ ‘मुझे कुछ और नहीं बताना चाहिए।’
‘‘ ‘इस महिला को अपराध या आत्महत्या से बचाने केे लिए’ डाक्टर कहता रहा,‘मैंने अपने दिल का खून दे दिया होता या कि वह मेरी मदद के बिना ही इस मानसिक अंतर्द्वद्न्द्व से निकल सकती थी। मैंने खुद पर बर्बरता का आरोप लगाया, क्योंकि एक हत्या में सहयोगी बनने से बचने के लिए मैं पीछे हटा था। मेरे भीतर भयानक संघर्ष चल रहा था। तभी शैतान मेरे कान में फुसफुसाया कि कोई खुद को इसीलिए नहीं मार सकता कि वह मरना चाहता है, कि समझौतापरस्त लोगों पर अपने दोषों को त्यागने के लिए तभी दबाव डाला जा सकता है, जब उनकी दुष्कर्म करने की शक्ति को ही छीन लिया जाये। मैंने उस कसीदाकारी को देखकर जिससे उसकी उंगलियां खेल रही थीं, उसकी विलासिता का अंदाजा लगाया और उसके भाषण की परिष्कृत शैली से उसकी आय के स्रोतों का अनुमान किया। निश्चित रूप से, हममें अमीरों के प्रति बहुत कम सहानुभूति होती है। लेकिन मेरे आत्मसम्मान ने सोने के लालच के विचार के खिलाफ विद्रोह किया। हालांकि अब तक इस मामले पर बात नहीं की गयी थी और यह शालीनता का एक और लक्षण होने के साथ इस बात का भी प्रमाण था कि मेेरे चरित्र का सम्मान किया जा रहा था। मैंने ‘इंकार’ कर दिया, महिला जल्दी से दूर हट गयी, एक घोड़ागाड़ी की आवाज ने मुझे विश्वास दिला दिया कि जो हो चुका था उसको मैं अब ठीक नहीं कर सकूंगा। 
‘‘ ‘15 दिन बाद एक अखबार से इस रहस्य का खुलासा हुआ। पेरिस के एक ‘बैंकर’ की जवान भतीजी जो अधिक से अधिक 18 साल की थी, अपनी चाची की प्रिय, जिसने उस लड़की की मां की मौत के बाद से उसे कभी अपनी नजरों से दूर नहीं होने दिया था, अपने अभिभावकों की विलेमोम्बल स्थित जागीर पर फिसलकर नाले में गिर गयी और डूबकर मर गयी। उसके अभिभावकों का दिल टूट गया था। उस कायर शीलभंग करने वाले ने चाचा की हैसियत से ही दुनिया के सामने दुख व्यक्त किया।’
‘‘निष्कर्ष यह है कि निजी जिन्दगी के दुर्भाग्य से बचने और कुछ बेहतर की तलाश में आत्महत्या अन्तिम रास्ता होता है।
‘‘अक्सर मैंने दफ्तर से बर्खास्त किया जाना, काम से हटा दिया जाना, या अचानक तनख्वाहों में कटौती को आत्महत्या के कारणों कें रूप में पाया, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप परिवार अब जीविका के साधन जुटाने में असमर्थ हो जाते हैं और क्योंकि उनमें से ज्यादातर लोग पहले ही बड़ी कठिनाई में गुजारा कर रहे होते हैं। 
‘‘उस समय जब शाही महल के गार्ड कम किये जा रहे थे, औरों की तरह ही बिना किसी हलचल के एक भला आदमी भी बर्खास्त किया गया था। उसकी उम्र और प्रभाव की कमी ने उसके लिए असम्भव बना दिया कि वह फिर फौज में अपने को स्थान दिला सके। उसने प्रशासनिक सेवा में घुसने का प्रयास किया पर हर जगह की तरह यहां भी बहुत अधिक प्रतियोगी उसके रास्ते में खड़े थे। वह गहरी निराशा से भर उठा और खुद को खत्म कर लिया। उसकी जेब में एक चिट्ठी और उसकी परिस्थितियों के बारे में जानकारी मिली। उसकी पत्नी एक गरीब दर्जिन थी, उनकी दो लड़कियां 16 साल व 18 साल की थीं, जो उसके साथ काम करती थीं। हमारे आत्महत्या करने वाले तारनाउ ने अपने पीछे जो कागज छोड़े थे उनमें उसने कहा था कि,‘चूंकि वह अपने परिवार के लिए अब और उपयोगी नहीं रह गया था और इस बात के लिए बाध्य कर दिया गया था कि अपनी पत्नी और बच्चों पर बोझ बने, उसने अपनी जान लेना अपना कर्तव्य समझा ताकि उन लोगों को उस अतिरिक्त बोझ से मुक्त कर सके। उसने एंगाउलेमे की डचेस से अपने बच्चों की सिफारिश की थी, उसे आशा थी कि अपनी अच्छाई के कारण यह राजकुमारी इतने सारे कष्टों से द्रवित हो जाएगी।’ मैंने एंगेलस के पुलिस प्रशासक के यहां रिपोर्ट दर्ज करा दी और जब सब जरूरी औपचारिकताएं पूरी हो गयीं तो डचेस ने तारनाउ के अभागे परिवार को केवल 600 फ्रांक भिजवा दिये थे। 
‘‘इतने बड़े नुकसान के बाद यह वास्तव में बहुत ही तुच्छ सहायता थी। लेकिन एक परिवार भला कैसे सारे के सारे अभागों की सहायता कर सकता था, अगर हर चीज ध्यान में रखा जाये तो पूरा फ्रांस भी अपनी मौजूदा हालत में उन सबका पोषण नहीं कर सकता। धनियों की उदारता से ही काम नहीं चलेगा, भले ही हमारा पूरा राष्ट्र धार्मिक हो जाये जो दूर-दूर तक सम्भव नहीं लगता है। आत्महत्या किसी कठिनाई का बदतरीन समाधान प्रस्तुत करती है, फांसी लगाओ और शांति पाओ। आमदनी और वास्तविक सम्पत्ति के साधनों की केवल तभी उम्मीद की जा सकती है जब हमारी खेती और कारखानों की आम व्यवस्था को एक नये सांचे में ढाला जाए। शिक्षा, काम और सबसे ऊपर जीविकोपार्जन के कुछ न्यूनतम साधन ही हर नागरिक के लिए व्यवस्था जैसी संवैधानिक घोषणाएं कागजों पर करना आसान है। लेकिन उन उदार इच्छाओं को कागज पर लिख देना ही काफी नहीं है, सही काम यह होगा कि इन उदार विचारों को भौतिक साधनों और बुद्धिमान सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से व्यवहार में उतारा जाये। 
‘‘ प्रचण्ड देवपूजक दुनिया, ‘शानदार रचनाओं’ को जमीन पर फेंक चुकी है, क्या आधुनिक आजादी अपने प्रतिद्वंद्वी से पीछे रह जायेगी? शक्ति के इन दो शानदार तत्वों को कौन एक में संयोजित करेगा?’’ 
प्यूचे की बात यहीं तक है। 
प्यूचे द्वारा दी गयी तालिकाओं से हमें पता चलता है कि 1817 से 1824 के बीच 2808 आत्महत्यायें पेरिस में हुईं। दरअसल, वास्तविक संख्या इससे बहुत अधिक थी। खासतौर से डूबे हुए लोगों के बारे में, जिनकी लाशें मुर्दाघर में रखी गयी हैं, यह बहुत ही कम मामलों में पता चल पाता है कि वह आत्महत्या थी या नहीं।
 1845 के उत्तरार्ध में लिखित, कार्ल माक्र्स द्वारा हस्ताक्षरित, 1846 में जेसेल्सचैफ्ट्सस्पीजेल में प्रकाशित

(स्रोतः मार्क्स -एगेंल्स संग्रहित रचनाएं, खण्ड-4, पृष्ठ 597)
सार्क: राजनयिक शतरंज की बिसात पर शह और मात का खेल
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    नवंबर माह के अंत में नेपाल में हुई सार्क की बैठक में भारत के संघी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच किसी तरह की आपसी बातचीत का सचेत अभाव चारों ओर चटखारेदार सुर्खियां बनीं। अंतिम समय में दोनों ने हाथ मिलाये और बाकी देशों के प्रमुखों ने दावा किया कि इसमें उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
    भारत-पाकिस्तान के बीच इस जाहिरा वैमनस्य का क्या मतलब है? इसके साथ यह भी सवाल है कि स्वयं सार्क का क्या मतलब है? इसमें शामिल देश क्या हासिल करना चाहते हैं?
    सार्क में इस समय ये देश शामिल हैं: भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान व मालदीव। म्यांमार और चीन इसमें पर्यवेक्षक के तरह आमंत्रित होते हैं। इसके अलावा आठ पर्यवेक्षक और भी हैं। 
    सार्क के गठन में भारत की प्रमुख भूमिका थी। इसका स्वाभाविक सा मतलब है कि भारत का पूंजीपति वर्ग इसमें अपना हित देखता होगा। पर यह भी सच है कि बाकी देश भी सार्क में शामिल होने के लिए राजी हो गये तो वे भी अपना कोई हित देखते होंगे। इनके इन हितों का क्या संगम और क्या टकराव है? भारत को केन्द्र में रखते हुए इस पर बातचीत फायदेमंद रहेगी क्योंकि वास्तव में भारत सार्क के केन्द्र में है। सो, क्या है आज भारत की विभिन्न देशों के संदर्भ में स्थिति। 
    भारत के सबसे तल्ख सम्बन्ध पाकिस्तान से है। भारत की यही एक सीमा है जिस पर आये दिन सैनिकों के बीच झड़पें होती रहती हैं। दोनों देशों की सरकारें एक-दूसरे के ऊपर युद्ध विराम के समझौते का उल्लंघन का आरोप लगाती रहती हैं। अतीत में भारत-पाकिस्तान के बीच तीन युद्ध भी हो चुके हैं। 
    इन दोनों देशों के बीच तल्ख सम्बन्ध 1947 में भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण के समय से ही हैं। उसमें एक अहम मोड़ तब आया जब भारत ने पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश के निर्माण में (1971) महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
    भारत के मुकाबले पाकिस्तान एक छोटा और कमजोर देश है। भारत के साथ प्रतिद्वंदिता में इसीलिए वह पड़ोसी चीन और अमेरिकी साम्राज्यवादियों की मदद लेता रहा है। अमेरिकी साम्राज्यवादी दक्षिण और मध्य एशिया में अपनी उपस्थिति बनाने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल करते रहे हैं। इसके जरिये वे रूस, चीन और भारत तीनों के साथ अपना खेल खेल सकते हैं। अफगानिस्तान पर 2001 में उनके कब्जे के बाद इसमें गुणात्मक इजाफा हो गया।
    पाकिस्तान दक्षिण एशिया में स्वयं को भारत का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता है। वह इस क्षेत्र में भारत की दादागिरी का मुकाबला करना चाहता है। इसके लिए वह न केवल अमेरिका और चीन की मदद लेता है बल्कि इस क्षेत्र के अन्य देशों के साथ गठजोड़ भी करता है। अफगानिस्तान में पिछले साढ़े तीन दशकों से उसका हस्तक्षेप इसी का एक हिस्सा है। यह अलग बात है कि इस हस्तक्षेप ने पलटकर उस पर वार किया है। 
    पाकिस्तान के बाद दूसरा नंबर बांग्लादेश का आता है। जैसा कि पहले कहा गया है कि बांग्लादेश 1971 में अस्तित्व में आया- पाकिस्तान के विभाजन के जरिये। इस विभाजन ने साबित किया कि धर्म राष्ट्रीयता का आधार नहीं हो सकता। इस विभाजन में यदि भारत ने प्रमुख भूमिका निभाई तो इसका कारण भारत के पूंजीवादी शासकों की मानवीयता नहीं थी। अन्यथा तो वे मणिपुर, नागालैंड इत्यादि में वैसा ही जुल्म नहीं ढा रहे होते जैसा पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान पर ढाया था। इसका कारण विभाजन के जरिये पाकिस्तान को कमजोर करना था जिससे दो कमजोर देशों पर अपनी धौंस जमायी जा सके। 
    बांग्लादेश अपने अस्तित्व के शुरूआती वर्षों में भारत के प्रभाव में रहा। पर जल्दी ही वह इस प्रभाव को चुनौती देने लगा। अब हालात ये है कि भारत, बांग्लादेश को अपना मित्र देश नहीं मानता। भारत, बांग्लादेश सीमा पर भी कभी-कभार तनाव की खबरें आती हैं। भारत, बांग्लादेश पर अलगाववादियों को शरण देने का आरोप लगाता है तो बांग्लादेश पलटकर भारत पर। भारत में संघी तो लगातार ही बांग्लादेश से घुसपैठ का मामला उठाते रहते हैं और इस तरह उसे कठघरे में खड़ा करते रहते हैं। 
    पिछले सालों में बांग्लादेश में भी अमेरिकी साम्राज्यवादियों की घुसपैठ काफी बढ़ी है, खासकर गैर सरकारी संगठनों को आर्थिक सहायता के जरिये। इसी तरह चीन ने भी बांग्लादेश के साथ अपनी पींगें बढ़ाई हैं। 
    श्रीलंका का मामला भारत के लिए पेचीदा साबित हुआ है। इस पेचीदगी का कारण श्रीलंका में तमिलों की एक बड़ी आबादी हैं जो तमिलनाडु के तमिलों के साथ भांति-भांति के संबंधों में जुड़ी हुई है और एक वृहत्तर तमिल देश की मांग का खतरा हमेशा सामने रखती है। 
    भारत ने 1970 व 80 के दशकों में श्रीलंकाई तमिलों की अलग देश की मांग का इस्तेमाल श्रीलंका में हस्तक्षेप के लिए किया। यह हस्तक्षेप 1987 में सीधे-सीधे वहां सैनिक हस्तक्षेप तक जा पहुंचा जब भारत ने लिट्टे के लड़ाकों के आत्मसमर्पण के लिए अपनी शांति सेना भेज दी। भारत को श्रीलंका में यह हस्तक्षेप बहुत महंगा पड़ा जब लिट्टे के हाथों पिटकर इस शांति सेना को वापस आना पड़ा। 
    लेकिन इसके बाद भी भारत ने श्रीलंका में अपना हस्तक्षेप बंद नहीं किया और श्रीलंका सरकार द्वारा लिट्टे के दमन के मामले में वह हां-ना का रुख अपनाये रही। 
    श्रीलंका सरकार द्वारा लिट्टे के दमन के दौरान चीन, पाकिस्तान और कई साम्राज्यवादी देशों ने श्रीलंकाई सरकारों की मदद की। ऊपरी तौर पर वे मानवाधिकारों के उल्लंघन का शोर मचाते रहे पर वास्तव में वे दमन का समर्थन करते रहे। भारत सरकार के हां-ना के कारण वहां उसकी स्थिति कमजोर हुई। यह उसके लिए चिंता का सबब बनी। उसके बाद भारत सरकार ने मामले को किसी हद तक सुधारने की कोशिश की है पर तमिल समस्या के कारण मामला पेचीदा बना हुआ है। 
    नेपाल, भूटान और मालदीव तीनों एक तरह से भारत के संरक्षित राज्य हैं। नेपाल और भूटान भू-आवेष्ठित हैं तो मालदीव एक द्वीप समूह। नेपाल पिछले सात दशक से एक बहुत असमान संधि के तहत भारत से बंधा हुआ है। वहां की अर्थव्यवस्था पर भारत के पूंजीपतियों का नियंत्रण है। नेपाल के लोग इसे बहुत शिद्दत से महसूस भी करते हैं। नेपाल की हाल की क्रांति में इस पराधीन रिश्ते के खिलाफ भी विद्रोह था। 
    नेपाल में पिछली क्रांति के फलस्वरूप भारत के लिए स्थितियां पहले की तरह मनोनुकूल नहीं रह गयी हैं। हालांकि भारत ने साथ ही साम्राज्यवादियों ने भी इस क्रांति को निश्चित दायरे में समेटने की पूरी कोशिश की तथा किसी हद तक कामयाब भी रहा पर तब भी स्थिति में परिवर्तन हुआ है। अब नेपाल की सरकार चीन के साथ भी अपने रिश्ते बढ़ाने के लिए पर्याप्त कोशिश कर रही है और चीन भी इसमें उसकी पूरी मदद कर रहा है। भारत सरकार भयभीत है कि नेपाल कहीं उसके प्रभाव क्षेत्र से निकलकर चीन के प्रभाव क्षेत्र में न चला जाय। 
    भूटान एक तरह से भारत के रहमो-करम पर है। नेपाल में क्रांति के प्रभाव में वहां की राजनीति में भी कुछ परिवर्तन हुए हैं। जब राजा को पीछे हटकर एक संवैधानिक राजतंत्र को स्वीकार करना पड़ा। लेकिन चीन भूटान में भी अपना दखल बढ़ा रहा है। वह सड़क के जरिये सीधे भूटान तक संचार करने के लिए प्रयासरत है। 
    मालदीव का हाल भी कोई जुदा नहीं है। एक समय था जब मालदीव की सरकार को एक तमिल लड़ाका गु्रप से बचाने का काम भारत सरकार ने किया था। पर अब हालिया घटनाक्रम में जो सत्ता परिवर्तन हुआ वह भारत के मनोनुकूल नहीं था। इसमें अन्य शक्तियों की भूमिका थी। भारत को यथास्थिति को स्वीकार करना पड़ा। 
    म्यांमार अभी एक दो साल पहले तक साम्राज्यवादियों के लिए अछूत था। उन्होंने वहां की सैनिक तानाशाही के खिलाफ अभियान छेड़ रखा था। इस स्थिति का भारत और चीन दोनों ने फायदा उठाया। भारत व चीन ने उससे कई व्यापारिक और आर्थिक संबंध बनाये। ऐसे में स्वभावतः इनके बीच प्रतियोगिता होती। अपनी नीति का कोई खास फायदा न होते देख साम्राज्यवादियों ने भी अब म्यांमार का बहिष्कार छोड़ दिया है और वहां अपना व्यवसाय बढ़ाने में लग गये हैं। 
    जहां तक अफगानिस्तान का सवाल है वह स्वयं संकटग्रस्त होने के बावजूद बल्कि इसी कारण दक्षिण एशिया व मध्य एशिया की राजनीति को गंभीर तौर पर प्रभावित कर रहा है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इस पर कब्जा इसलिए किया कि वे इसके जरिये एशिया के बाकी हिस्सों पर अपना दखल बढ़ा सकते हैं। पूरब में चीन, पश्चिम में ईरान, उत्तर में रूस तथा दक्षिण में भारत इसका लक्ष्य थे। यह इसके बावजूद कि भारतीय शासक 1980 के दशक से ही इससे सटने का प्रयास कर रहे थे। 
    अफगानिस्तान में अमेरिकी साम्राज्यवादियों की असफलता ने इसमें अन्य शक्तियों की महात्वाकांक्षा को बढ़ाया है। 1989 में सोवियत सेनाओं की वहां से वापसी के बाद अब रूस फिर वहां सक्रिय है। बल्कि वह तालिबान के शासन के समय से ही उत्तरी मोर्चा को मदद के द्वारा वहां सक्रिय है। वहीं उत्तरी मोर्चा अब अमेरिकी गठबंधन के साथ वहां सत्तारूढ़ है। 
    अफगानिस्तान में चीन भी चुपके-चुपके सक्रिय है। वह अफगान सरकार को भारी मदद दे रहा है। चीन साथ ही अपने उत्तरी-पश्चिमी मुस्लिम बहुल प्रांतों में मुस्लिम कट्टरपंथ की बढ़त को लेकर भी चिंतित है। 
    जैसा कि पहले कहा गया है कि पाकिस्तान 1978 से ही अफगानिस्तान में सक्रिय है। सोवियत कब्जे के खिलाफ उसी ने अफगानिस्तान में मोर्चा संभाला। सऊदी पैसा और अमेरिकी खुफिया विभाग व हथियार उसके पीछे थे। बाद में उसी की मदद से तालिबान वहां काबिज हुआ। जब अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने तालिबान को अपदस्थ किया तो पाकिस्तान ऊपरी तौर पर उनके साथ था। उसके बाद से पाकिस्तान लगातार दो तरफा चालें चल रहा है। ऊपरी तौर पर वह अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ है तो वास्तव में वह तालिबान की भी मदद कर रहा है। वह इंतजार में है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी वहां से विदा हों और वह फिर तालिबान को सत्तारूढ़ कराये। हालांकि इस खेल में स्वयं पाकिस्तान बुरी तरह पस्त हो चुका है और उसका राजनीतिक ताना-बाना खतरे में है। 
    भारत भी लंबे समय से अफगानिस्तान में गुप-चुप सक्रिय है। तालिबान के सत्तारूढ़ रहते भारत उत्तरी मोर्चे की मदद कर रहा था। अब इस मोर्चे के सत्ता में आने के बाद भारत ने वहां अपनी गतिविधियां बढ़ाईं। आये दिन भारतीय नागरिकों के वहां फंसने के जो मामले सामने आते हैं वे इसी का परिणाम हैं। 
    और अंत में स्वयं चीन। आज चीन की एशिया और समूचे विश्व में हैसियत को लेकर ज्यादा माथापच्ची करने की जरूरत नहीं। दुनिया में अभी तक अपना एकछत्र राज मानने वाले अमेरिकी साम्राज्यवादी भी उसे ही अब अपना वास्तविक प्रतिद्वंदी मानते हैं। प्रति व्यक्ति आय में काफी पीछे रहने के बावजूद समग्र रूप में चीन अमेरिका को टक्कर देने की स्थिति में पहुंच रहा है। 
    इस चीन को घेरने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादी जो गठबंधन बना रहे हैं उसमें जापान व आस्ट्रेलिया के साथ भारत भी शामिल है। भारत के शासक एशिया में चीन को अपना प्रतिद्वंदी मानते हैं। भारत के शासक अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ अपने गठबंधन को सारी दुनिया में अपने लिए फायदेमंद मानते हैं। उन्हें लगता है कि इसके जरिये वे सारी दुनिया में बांट-बखारे में अपना हिस्सा बंटा सकते हैं।
    सार्क का गठन और आज उसकी गति इन्हीं सारे भांति-भांति के समीकरणों के तहत हैं। इन्हीं के तहत उसे समझा जा सकता है। 
    भारत का उद्देश्य सार्क के माध्यम से दक्षिण एशिया में अपनी वरीयता को स्थापित करना तथा फिर उसके माध्यम से सारी दुनिया में अपनी सौदेबाजी की क्षमता को बढ़ाना है। इस इलाके के देशों के पूंजी व माल-बाजार पर कब्जा भी, इसका एक उद्देश्य है। 
    लेकिन भारत के इस उद्देश्य के रास्ते में विभिन्न देशों के साथ उसके तल्ख या उलझन भरे रिश्ते बाधा बनते हैं। इसका कारण भारत वह नहीं हासिल कर पाता जो वह चाहता है। 
    इसके ठीक उलट सार्क के बाकी देश सार्क में इसलिए शामिल हैं कि इसके जरिये वे सामूहिक तौर पर भारत पर कुछ लगाम लगा सकते हैं। इनमें से कोई भी देश, किन्ही मामलों में अपवादस्वरूप पाकिस्तान को छोड़कर, अकेले भारत के सामने नहीं टिक सकते। लेकिन जब एक सामूहिक मंच पर वे इकठ्ठा होते हैं तो उनका सामूहिक वजन बढ़ जाता है तब वे नरेंद्र मोदी सरीखे घमंडी शख्स को मजबूर कर देते हैं कि वह नवाज शरीफ से हाथ मिलाए।
    लेकिन जैसा कि होता है शक्तिशाली देश ऐसे मंच पर बाकियों से निपटने के लिए अन्य तरीकों का सहारा लेते हैं। वे अलग-अलग देशों पर अलग-अलग तरीके से दबाव बनाते हैं और उनसे मनचाहा हासिल करने का प्रयास करते हैं। इसे वे द्विपक्षीय समझौता कहते है। इस सार्क बैठक में भी भारत की ओर से कहा गया कि यदि सड़क, परिवहन के मामले में कोई सामूहिक समझौता नहीं हो पाता तो कोई बात नहीं, भारत अन्य देशों के साथ द्विपक्षीय समझौतों की ओर बढ़ेगा। 
    सार्क के सभी देश अपनी-अपनी वजहों से चीन को इसमें शामिल करना या नहीं करना चाहते हैं। चीन को लेकर काफी कशमकश है। भारत के लिए यह सांप-छछूंदर का मामला है। भारत स्वयं शंघाई सहकार में शामिल होना चाहता है जो बिना चीन के सहयोग से संभव नहीं होगा। दूसरी ओर चीन के सार्क में आने से भारत की प्रभुत्व वाली हैसियत नहीं रह जायेगी। लेकिन भारत के शासकों के लिए इसमें फायदा यह है कि दक्षिण एशिया के अन्य सारे देशों में चीन के दखल को देखते हुए यह सुभीते की बात ही होगी कि चीन को किसी सामूहिक मंच पर जवाबदेह बनाया जाये। 
    सार्क को अस्तित्व में आये अब एक लंबा समय (करीब तीन दशक) बीत गया है। शुरू में कुछ लोगों ने सोचा था कि यह दक्षिण एशिया के देशों को यूरोपीय संघ की तरह एक सूत्र में पिरोकर एकीकरण को ओर बढ़ेगा। लेकिन समय के साथ पता चला कि ऐसा नहीं है। सार्क में वास्तव में कोई प्रगति नहीं हुई। 
    इस स्थिति का प्रमुख कारण सार्क के देशों के वे रिश्ते हैं जिनका ऊपर जिक्र किया गया है। इन रिश्तों के पीछे एक पूरा अतीत भी है। इनसे मुक्ति पाना इन देशों के शासकों के लिए आसान नहीं है।
    लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है। एक अन्य महत्वपूर्ण कारण इन देशों का संकटग्रस्त होना या ज्यादा सही कहें तो इन देशों के शासकों और उनकी व्यवस्थाओं का संकटग्रस्त होना है। इस संकट से निजात पाने का एक उपाय वे संकट को बाहर की ओर ढकेलने को मानते हैं। अपनी समस्याओं के लिए पड़ोसी देशों को जिम्मेदार ठहराना तथा उन देशों में अस्थिरता पैदा करना इसका हिस्सा है। इन देशों में आतंकवाद की समस्या में एक बड़ा योगदान इस नीति का है। इस तरह राष्ट्रीयता के आंदोलनों में पड़ोसी मुल्कों की दखलंदाजी मामले को जटिल और असमाधेय बनाती है। 
    इन सबका फायदा साम्राज्यवादी भी उठाते हैं और संकट को बढ़ाने में योगदान करते हैं। वे इन मुल्कों के शासकों को आपस में लड़ाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत-पाकिस्तान के शासक तो आपस में लड़ती-झगड़ती बिल्लियों की तरह अमेरिकी साम्राज्यवादी नामक बंदर की तरफ देखते हैं। 
    पूंजीवादी शासकों के इस आपसी प्रतिद्वंदिता और कुटिल चालों से अलग भी सार्क का एक भविष्य है पर यह भविष्य इन शासकों का नहीं बल्कि इन देशों की जनता का है। और यह भविष्य इस बात पर टिका है कि रास्ते में रोड़ा बने शासकों को अपदस्थ कर दिया जाये। यह केवल इंकलाब के जरिये ही संभव है। 
    यदि दक्षिण एशिया के देशों में मजदूर वर्ग इंकलाब के जरिये सत्ता दखल करने में कामयाब होता है तो वह एक समाजवादी कंफेडरेशन के जरिये इन सभी देशों को एक सूत्र में पिरोने में कामयाब हो सकता है। यही इन देशों की राष्ट्रीयता की समस्याओं को भी सही तरीके से हल करेगा। 
    भविष्य इसी का है। सार्क का कोई भविष्य नहीं है।  

धर्मांतरण, घृणा प्रचार व प्रायोजित दंगों की एक सुनियोजित परियोजना
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    भारतीय जनता पार्टी के सत्तासीन होते ही अल्पसंख्यकों के खिलाफ सुनियोजित हमलों, खुलेआम घृणा प्रचार, बलात व प्रलोभन देकर धर्मांतरण और प्रायोजित दंगों की बाढ़ आ गयी है। इन सब घटनाओं में भारतीय जनता पार्टी व संघ परिवार के लोग या तो प्रत्यक्ष रूप से शामिल रहे हैं अथवा उनके इशारों पर यह सब संचालित होता रहा है। 
    दरअसल भाजपा की जीत में ऊपरी तौर पर विकास का मुद्दा रहा हो लेकिन जमीनी स्तर पर उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक प्रचार की इसमें खासी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के 10 हजार प्रचारक जमीनी स्तर पर विगत लोकसभा चुनाव में मोदी को हिन्दुत्व का नया अवतार घोषित कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के दम पर हिन्दू वोटों की साधना कर रहे थे, तो मुसलमानों को भाजपा के हारने के खतरों से आगाह कर मुस्लिमों का भयादोहन कर रहे थे। ऊपरी स्तर पर कारपोरेट जगत का अंधाधुंध पैसा व प्रचार व जमीनी स्तर पर हिन्दुत्व की एक छिपी व मजबूत लहर (अथवा अण्डर करेन्ट) मोदी की जीत का रहस्य थे। 
    मध्य वर्ग के कुछ लोग इस भ्रम में जी रहे है कि मोदी ने विकास के नाम पर चुनाव जीते और अब उनकी मंडली के कुछ लोग सांप्रदायिक तनाव व सांप्रदायिक घृणा की राजनीति कर मोदी की विकास पुरुष की साख को बट्टा लगा रहे हैं। मोदी व भाजपा सरकार के बारे में निश्चित तौर पर तमाम लोग भ्रम में हो सकते हैं लेकिन मोदी सरकार अपने आप में किसी भ्रम या दुविधा में नहीं है। विकास की छवि व साम्प्रदायिक घृणा अभियान उसके लिए दो परस्पर विरोधी पहलू नहीं हैं। मोदी सरकार की उलझन व चुनौती महज इतनी है कि कैसे विपरीत जान पड़ने वाले इन दोनों चीजों का कुशलतापूर्वक संयोजन व नियोजन किया जाए। कैसे पूंजीपति वर्ग को उसके हितों की सबसे बेहतरीन हिफाजत का भरोसा देने के साथ-साथ अपने फासिस्ट एजेंडे को कुशलतापूर्वक विस्तारित किया जाए। पूंजीपति वर्ग भी एक हद तक फासीवादी तत्वों को छूट देने के लिए तैयार दीखता है क्योंकि आज उसके हितों की सबसे बेहतरीन सेवा ये ही तत्व कर रहे हैं। 
    मोदी सरकार के सामने चुनौती महज इतनी है कि ऊपरी तौर पर ‘धर्मनिरपेक्षता’ व संवैधानिक उसूलों का पालन करने का ढोंग करते हुए कैसे संघ के एजेण्डे को आगे बढ़ाया जाये। मोदी सरकार जिस काम को बहुत सूक्ष्मता व बारीकी से करना चाहती है वहीं उसके कुछ महत्वाकांक्षी नेता संघ को खुश करने की नीयत से उसी काम को बहुत फूहड़ और भौंडे़ ढंग से करते हैं। इन कैरियरवादी नेताओं को पता है कि उनकी राजनीतिक जीवन में प्रगति संघ के एजेंडे के प्रति निष्ठा के पुरजोर प्रदर्शन पर निर्भर है। भले ही सरकार के लिए तात्कालिक तौर पर यह कुछ परेशानी का सबब बन जाए। वे जानते हैं सरकार उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती है। 
    संघ के पास भारतीय समाज के फासीवादीकरण की एक पुरानी व सुनियोजित योजना है जिसके अंतर्गत तथाकथित धर्मनिरपेक्ष भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में पुनस्र्थापित करना है तथा भारत के अंदर रहने वाले अल्पसंख्यकों को हिन्दू धर्म के अंतर्गत लाना है या फिर विदेशी करार देकर उनका उन्मूलन करना है। भाजपा के सत्ता में आते ही इस योजना पर संघ ने जोर-शोर से काम करना शुरू किया है। धर्मांतरण या अल्पसंख्यकों खासकर ईसाई व मुस्लिम अल्पसंख्यकों को धर्मांतरित कर या संघ की भाषा में शुद्धिकरण कर उनकी ‘घर वापसी’ का अभियान जोरों पर है। बौद्ध, जैन व सिख धर्म को तो संघ हिन्दू धर्म की शाखा ही मानता है। 
    खबर है कि संघ ने 58 प्रचारकों को पूरी तरह इस काम में लगाया है। इस वर्ष यानी 2014 में संघ द्वारा अब तक 50 हजार लोगों को धर्मांतरित किया गया। इस संख्या को वर्ष 2015 में 1 लाख पहुंचाने का लक्ष्य है। बड़े पैमाने पर देश के अलग-अलग हिस्सों में ये धर्मांतरण अथवा शुद्धिकरण अभियान चलाये जा रहे हैं। अलीगढ़ में निकट भविष्य में बड़े पैमाने पर एक बड़े शुद्धि अभियान चलाये जाने की तैयारी है, जिसमें 10 हजार लोगों को धर्मांतरित करने की योजना है। जिसमें लगभग 3 हजार मुस्लिम व 7 हजार ईसाईयों को हिन्दू बनाने की योजना है। 
    संघ द्वारा धर्मांतरण के लिए अपने शुभ चिंतकों से धन की मांग भी की गयी है। ऐसे ही एक पत्र में कहा गया है कि ईसाई धर्म को धर्मांतरित करने के अभियान में 3 लाख व मुस्लिमों को धर्मांतरित करने के अभियान में औसतन 5 लाख खर्च आता है। आगरा में धर्मांतरित मुस्लिमों ने बताया कि उन्हें आधारकार्ड, बी.पी.एल. कार्ड, प्लाॅट आदि चीजों का प्रलोभन देकर हिंदू बनाया गया। वे वापस अपने मूल धर्म इस्लाम में जाना चाहते हैं। असल में उन्हें बगैर बताये तथाकथित रूप से उनका धर्म बदल दिया गया। 
    धर्मांतरण के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी संसद में कुछ कहने से बचती रही है। कहे भी कैसे खुद उसके नेता प्रकट और गुप्त रूपों में संघ की योजना में शामिल हैं। एक भाजपा नेता तो आदिवासी ईसाईयों के पैर धोकर उन्हें हिन्दू बनाने के एक अभियान में शामिल देखे गये। अलबत्ता सदन में विपक्षी दलों द्वारा संघ पर निशाना साधने पर भाजपाई नेता संघ को राष्ट्रभक्त और महान सांस्कृतिक संगठन बताते रहे खुद वैंकेया नायडू सहित कई भाजपा नेता अपने संघ की पृष्ठभूमि से होने को गर्व के साथ पेश करते रहे। सदन की कार्यवाही में से संघ का नाम हटाने की बात भाजपा नेता करते रहे। कुल मिलाकर मुस्लिम युवाओं द्वारा हिंदू लड़कियों से विवाह करने को धर्मांतरण की साजिश बताने पर पूरे देश में ‘लव जिहाद’ के नाम पर मुस्लिम समुदाय पर संगठित हमला करने वाले भाजपाई संघ मण्डली द्वारा प्रलोभन देकर बड़े पैमाने पर मुसलमानों व ईसाईयों को हिंदू बनाये जाने के अभियानों पर चुप्पी साध लेते हैं अथवा इस मुद्दे पर संघ, विश्व हिंदू परिषद व बजरंग दल आदि का बचाव करते दीखते हैं। 
    विश्व हिंदू परिषद व बजरंग दल के कार्यकर्ताओं द्वारा डरा धमकाकर व मारपीट कर कई लोगों का जबरन धर्मांतरण कराने के समाचार भी आये हैं। 
    भाजपा के शासन काल अथवा राजग सरकार के दौरान जबरन धर्मांतरण व साम्प्रदायिक तनाव की घटनाओं में तेजी आ जाती है। पूर्व भाजपायी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान इस बावत प्रश्न पूछे जाने पर उन्होंने धर्मांतरण के मुद्दे पर कुछ बोलने या संविधान सम्मत बात कहने के बजाय धर्मांतरण पर राष्ट्रीय बहस कराये जाने की बात की थी। खैर संघ मंडली व भाजपा के नेता अपने द्वारा कराये जा रहे बड़े अभियानों को धर्मांतरण न मानकर ‘घर वापसी’ अभियान कहते हैं।
    संघ संचालित साम्प्रदायिक फासीवाद की परियोजना में साम्प्रदायिक घृणा फैलाने वाले व तमाम प्रायोजित दंगों के दागियों को हिन्दू नायकों के रूप में स्थापित करना है। मुजफ्फरनगर के दंगों के साजिशकर्ता के बतौर आरोपी भाजपा विधायक संदीप सोम, प्रदीप राणा, योगी आदित्य नाथ व वरूण गांधी के साथ एक नयी नायिका का नाम जुड़ गया है ‘साध्वी निरंजना ज्योति’। दिल्ली में जनसभा के दौरान हिन्दुओं को ‘रामजादे’(राम की संतान) व अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों को ‘हरामजादे’(अवैध संतान) बताकर हरामजादों के खिलाफ रामजादों को वोट की अपील करने वाली साध्वी निरंजन ज्योति हिंदुत्व की नयी नायिका के रूप में उभरी हैं। निरंजन ज्योति के रामजादों बनाम हरामजादों के बयान पर भले ही संसद में सरकार को परेशानी झेलनी पड़ी हो और प्रधानमंत्री मोदी को संसद में वक्तव्य (सफाई) देना पड़ा हो लेकिन अंदरखाने भाजपा व संघ मंडली में खुशी का ही माहौल था। हिंदुत्व की नयी नायिका का अवतरण हो चुका था। लिहाजा निरंजन ज्योति के खिलाफ कोई कार्रवाई करने के बजाय भाजपा व संघ मंडली ने उसे दिल्ली विधान सभा चुनाव में स्टार प्रचारक की भूमिका सौंप दी। त्रिलोकपुरी जैसे साम्प्रदायिक तनाव वाले इलाके में निरंजन ज्योति को हिन्दुत्व की नायिका के बतौर पेश करके साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का दिल्ली विधानसभा चुनाव में पूरा लाभ उठाने की कोशिश भाजपा कर रही है। 
    उग्र व कट्टरपंथी तत्वों का घृणा प्रचार व प्रायोजित साम्प्रदायिक दंगे भले ही मोदी सरकार के लिए तात्कालिक तौर पर परेशानी पैदा करते मालूम पड़ें लेकिन संघ ने इस सबका बेहतर तरीके से नियोजन संयोजन व इस्तेमाल करना सीख लिया है। 
    संघ के पास अपना कोई ऐसा नायक नहीं है जिसे वे स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा के बतौर पेश कर सकें। आजादी के आंदोलन में संघ की तटस्थता व ब्रिटिश भक्ति जगजाहिर है। जब देश की जनता अंग्रेजों से मुक्ति के लिए लड़ रही थी तो आजादी के आंदोलन से दूर रहकर संघ कार्यकर्ता अपनी व्यायामशालाओं व शाखाओं में मुसलमानों से निपटने की योजना बनाते थे। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार शुरूआती दौरे में थोड़े से समय जेल जाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर पूरे आजादी के आंदोलन से कटे रहे। गोलवलकर ने तो आजादी के आंदोलन से पूरी दूरी बनाये रखी। ले देकर सावरकर का नाम ही संघ के पास गिनाने को बचता है जो कभी संघ के साथ नहीं रहे बल्कि हिन्दू महासभा के संस्थापक थे। सावरकर भी शुरूवाती दौर को छोड़कर बाद में पूरी तरह अंग्रेजों के राजभक्त बन गये थे और आजादी के आंदोलन से दूरी बना लिये थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय हिन्दू महासभा के नेता व बाद में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनीतिक शाखा जनसंघ के संस्थापक सदस्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी मुस्लिम लीगी फजलुल हक की सरकार में मंत्री थे। जाहिर है कि 1942 के आंदोलन में मुस्लिम लीग व हिंदू महासभा जैसे दलों ने भारत छोड़ो आंदोलन से दूरी बनाते हुए अंग्रेजों के प्रति पूरी स्वामिभक्ति दिखाई थी। हिंदू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर तो देश के विभाजन के बड़े पैरोकार थे। 
    आज भाजपा आजादी के आंदोलन के कांग्रेसी नेता बल्लभ भाई पटेल पर इस तरह प्यार जताती है मानो पटेल एक संघी नेता रहे हों। यह जग जाहिर है कि अपने पुरातनपंथी विचारों व कट्टरता के बावजूद बल्लभ भाई पटेल कभी संघ के साम्प्रदायिक विचारों से नहीं जुडे़। महात्मा गांधी की हत्या के संदेह में गृहमंत्री के रूप में संघ को प्रतिबंधित करने का काम पटेल ने ही किया था। इसी तरह अयोध्या में बाबरी मस्जिद के भीतर मूर्तियां रखे जाने के बाद साम्प्रदायिक तत्वों से सख्ती से निपटने के आदेश पटेल ने दिये थे। 
    आजादी के अपने नायकों के अभाव में संघी मंडली आज इस तरह कुंठित है कि वह समाजवाद के विचार से जुड़े क्रांतिकारियों को भी बखूबी इस्तेमाल कर रही है। किसने सोचा होगा कि समाजवाद के प्रति प्रतिबद्ध भगतसिंह को गौरक्षा के अभियान में इस्तेमाल किया जायेगा। दिल्ली में भगतसिंह समिति की ओर से ‘गौ रक्षा-राष्ट्र रक्षा’ के पोस्टर जगह-जगह चिपकाकर साम्प्रदायिक तनाव फैलाने का काम संघी कर रहे हैं। भगतसिंह के जन्म दिन पर दिल्ली के बवाना में कार व मोटरसाइकिल रैली निकालकर अल्पसंख्यकों को डराया जाता है। इसी तरह कुछ समय पहले गुजरात में अपने मुख्यमंत्री काल के दौरान नरेन्द्र मोदी इंग्लैण्ड से क्रांतिकारी कृष्ण वर्मा के अवशेषों को लाकर खूब वाहवाही बटोरने का जतन किये थे। दरअसल यह प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का होमवर्क का हिस्सा भी था। खैर, बाद में जब कृष्ण वर्मा की समाजवाद के प्रति प्रतिबद्धता की बात जाहिर हुई तो नरेन्द्र मोदी समेत संघ मण्डली ने कृष्ण वर्मा का नाम लेना बंद कर दिया।
    राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों को अपने घृणित साम्प्रदायिक अभियान के लिए इस्तेमाल का एक ताजा उदाहरण राजा महेन्द्र प्रताप का है। संघ मण्डली को कहीं से पता चल गया कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय के लिए राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने कुछ योगदान किया है। फौरन संघ मंडली ने घोषित कर दिया कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के भीतर राजा महेन्द्र प्रताप का जन्मदिन मनायेंगे। दरअसल यह सब राजा महेन्द्र प्रताप को जाट नेता के रूप में स्थापित कर, इस इलाके में जाट-मुस्लिम अंतरविरोध पैदा कर साम्प्रदायिक धु्रवीकरण पैदा करके वोट बैंक की राजनीति के मकसद से किया जा रहा है। जहां तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की जमीन की बात है। पहले अलीगढ़ मुस्लिम कालेज 1875 में फिर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय 1920 में अस्तित्व में आया था। जबकि राजा महेन्द्र प्रताप 1 दिसम्बर 1886 में पैदा हुए थे। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सूत्रों के अनुसार राजा महेन्द्र प्रताप ने विश्वविद्यालय का एक कक्ष बनाने के लिए कुछ योगदान दिया था। राजा महेन्द्र प्रताप ने खुद अपनी शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से आंशिक तौर पर पूरी की थी। राजा महेन्द्र प्रताप साम्प्रदायिक विचारधारा से नफरत करते थे व माक्र्सवादी विचारों के थे। काबुल में उन्होंने आजाद भारत की सरकार का गठन किया था जिसके वे राष्ट्रपति थे व मौलवी बरकतुल्लाह प्रधानमंत्री थे। उन्होंने भारत की आजादी के हेतु कई वर्ष विदेश में बिताए। 1940 में वे स्वदेश लौटे। 1957 में उन्होंने लोकसभा का चुनाव भी लड़ा जिसमें उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर जीत हासिल की व जनसंघ के उम्मीदवार अटल बिहारी वाजपेयी को बुरी तरह हराया। वाजपेयी की जमानत जब्त हो गयी थी। 
    संघ मण्डली का राजा महेन्द्र प्रताप के व्यक्तित्व व विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें तो उनके जाट होने का साम्प्रदायिक लाभ हासिल करना है। लेकिन संघ मंडली को दंगा भड़काने के लिए या साम्प्रदायिक धु्रवीकरण के लिए एक मुफीद तथ्य मिल गया। संघ मंडली ने ऐलान कर दिया कि वे राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म दिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अंदर मनायेंगे। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सैय्यद अहमद खां के जन्म दिन ‘‘सर सैय्यद अहमद डे’’ के समान्तर माक्र्सवादी राजा महेन्द्र प्रताप सिंह का जन्म दिन मनाये जाने की योजना साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की राजनीति से प्रेरित है। 
    संघ की साम्प्रदायिक घृणा अभियान योजना के तहत नित नए-नए अनजान संगठनों को खड़ा कर साम्प्रदायिक जहर फैलाने का काम हो रहा है। अभी 6 दिसम्बर को जब तमाम जनवादी व प्रगतिशील संगठन बाबरी मस्जिद के विध्वंस की 23वीं वर्षगांठ पर साम्प्रदायिक फासीवादी शक्तियों के खिलाफ जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रहे थे तो उसी समय वहां पर किसी अनजान हिंदू संगठन के बैनर तले 6दिसम्बर को शौर्य दिवस के रूप में मनाया जा रहा था।
    इसी तरह महाराष्ट्र में संघ मण्डली द्वारा एक कार्यक्रम में गांधी के हत्यारे नाथू राम गोडसे को देशभक्त कहकर उसको याद किया गया। इस संबंध में भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने नाथू राम को राष्ट्रभक्त करार दिया हालांकि बाद में वे अपने बयान  से पलट गए। भाजपा के एक नेता द्वारा हाल ही में कहा गया था कि नाथू राम गोडसे ने गांधी की हत्या करके गलत लक्ष्य चुना था उसे दरअसल नेहरू को चुनना था। 15 नवम्बर को नाथू राम को फांसी की सजा वाले दिन को संघ मण्डली द्वारा ‘‘महाराणा प्रताप बटालियन’’ नाम से नाथू राम गोडसे पर कई कई स्थानों पर कार्यक्रम किए जाने की खबरें हैं। वैसे पहले भी संघ मण्डली द्वारा ‘‘मी नाथूराम बोलतोय’’ नाटक को जगह-जगह मंचित भी किया जा चुका है जिसमें नाथूराम को एक महान देशभक्त के रूप में प्रतिबिम्ब किया गया है। नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे द्वारा लिखित किताब ‘गांधी वध’ संघ की शाखाओं में लंबे समय से पढ़ाई जाती रही है। 
    कुल मिलाकर संघी फासीवाद बहुत तेज गति से देश में अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। आने वाले समय में साम्प्रदायिक तनाव व सुनियोजित दंगों की पटकथायें लिखी जा रही हैं। हिंदू राष्ट्र का सपना मोदी के कार्यकाल में ही पूरा करने की संघ मण्डली की हसरत दिखायी दे रही है लेकिन फासिस्टों की अंतिम शरण स्थली इतिहास का कूड़ेदान होता है। इस बात को वे नहीं समझते हैं। 

गुलशन नंदा, चेतन भगत, चवन्निया उपन्यास और पल्प फिक्शन
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
    इस समय अंग्रेजी जानने-समझने वाले मध्यमवर्गीय हलकों में चेतन भगत का उपन्यास ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ चर्चा में है। इसे कई मध्यमवर्गीय युवकों के हाथों में देखा जा सकता है। यह इसलिए और भी चर्चा में है कि उपन्यास प्रकाशित होने से पहले ही इस पर फिल्म बनाने की घोषणा हो गयी थी। चेतन भगत के उपन्यासों पर पहले भी फिल्में बन चुकी हैं जिनमें ‘थ्री इडियट’ काफी चर्चित रही थी। 
    चेतन भगत की ख्याति केवल उनके उपन्यासों और उन पर बनने वाली फिल्मों के कारण नहीं है। वे अब एक ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ के रूप में स्थापित हो गये हैं। टाइम्स आॅफ इंडिया जैसे अखबार में उनके लिखे लेख अक्सर प्रकाशित होते रहते हैं जिसमें वे देश-दुनिया की ज्वलंत समस्याओं पर अपने विचार रखते हैं और समस्याओं का समाधान पेश करते हैं। उनकी इसी ख्याति के कारण या उनके ‘पब्लिक इंटेलेक्चुएल’ के रूप में अवतार के कारण ही स्वयं वे विचारणीय हो जाते है। 
    मसले को समझने के लिए कल्पना की जाये कि यदि हिन्दी में पुराने जमाने के गुलशन नंदा एक ‘पब्लिक इंटेलेक्चुएल’ के रूप में सामने आते तो हिन्दी जगत के बुद्धिजीवियों की क्या प्रतिक्रिया होती? गुलशन नंदा 1960, 70, 80 के दशक में लोकप्रिय उपन्यासों के लेखक थे। हिन्दी की कुछ बहुत प्रसिद्ध बम्बइया फिल्में (काजल, कटी पतंग, खिलौना, शर्मीली, दाग, नीलकमल, नया जमाना, महबूबा, पत्थर के सनम इत्यादि) उनके उपन्यासों पर ही बनी थीं। उनकी लोकप्रियता अपार थी। कहा जाता है कि उनके आखिरी उपन्यास की 6 लाख प्रतियां एक सप्ताह में बिक गयी थीं। 
    लेकिन हिन्दी साहित्य जगत गुलशन नंदा और उनके जैसे लोकप्रिय उपन्यासों के लेखकों के प्रति बहुत हिकारत का भाव रखता था। अक्सर उनके उपन्यासों को चवन्नियां उपन्यास कहा जाता था क्योंकि कभी वे चवन्नी में बिकते रहे होंगे। हिन्दी साहित्य जगत में तो अक्सर अफवाह भी उड़ती रहती थी कि फंला प्रसिद्ध साहित्यकार छद्म नाम से चवन्निया उपन्यास लिखता है। 
    बहरहाल हिन्दी साहित्य जगत के इस हिकारती भाव का गुलशन नंदा जैसे लेखकों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। उनके उपन्यास खूब बिकते थे और लोग चाव से उन्हें पढ़ते थे। इससे उनकी मोटी कमाई होती थी। जिस जमाने में किसी हिन्दी उपन्यास के एक हजार प्रतियों के संस्करण के बिकने में (सरकारी पुस्तकालयों की खरीददारी सहित) सालों लग जाते थे उस जमाने में भी इनके उपन्यास दसियों-बीसियों हजार और कभी-कभी लाखों में बिकते थे। हिन्दी साहित्य के उपन्यासों की ओर नजर न उठाकर देखने वाले भी इनके दीवाने होते थे। किसी हद तक यह बात आज भी सच है, हालांकि टी.वी. और मोबाइल इंटरनेट ने इस पर काफी प्रभाव डाला है। 
    चवन्निया उपन्यासों और हिन्दी साहित्य के उपन्यासों में मोटा-मोटी वही संबंध है जो बम्बइयां मसाला फिल्मों और कला फिल्मों में होता है। 1970-80 के दशक में बनी कला फिल्में सरकारी सहयोग से ही बन पाती थीं और उनके दर्शकों की संख्या बेहद सीमित थी- गंभीर कला प्रेमी मध्यम और उच्च वर्ग। इस समय तो कला फिल्मों का निर्माण लगभग समाप्त प्रायः ही हो गया है। इनके मुकाबले बम्बइया मसाला फिल्मों की लोकप्रियता अपार होती थी। कुछ तो सालों तक एक ही थियेटर में चलती रहती थीं। 
    बम्बइया मसाला फिल्मों की तरह ही चवन्निया उपन्यासों का कलेवर भी बेहद सतही होता है। यह वास्तविक जीवन की जटिलताओं से ‘अबस्ट्रेक्ट’ करता है यानी इन जटिलताओं को निकाल फेंकता है। वह जीवन को सामने रखता है पर वह जीवन एकरेखीय होता है। उसमें जीवन की समस्याएं होती हैं पर बेहद सरल रूप में और इसीलिए समाधान भी बेहद सरल होता है। लेकिन इस सरलता और एकरेखीयता के कारण ही भावोद्रेक को तीव्रता तक पहुंचाना आसान हो जाता है।  
    लेकिन इस चवन्निया उपन्यास में जो कुछ उथले-सतही रूप में झलकता है वह जीवन से ही निकलता है। इस रूप में इसमें वास्तविक जीवन का एकरेखीय, धुंधला प्रतिबिम्ब होता है। ठीक इसी कारण इनका कथानक भी, बम्बइया मसाला फिल्मों की तरह विविध होता है। लेकिन वास्तविक जीवन के सतही चित्रण के कारण यह विविधता सीमित हो जाती है। बम्बइया मसाला फिल्मों की तरह इनके कथानकों को भी आठ-दस श्रेणियों में बांटा जा सकता है। नाम-जगह बदल कर और घटनाओं को उलट-पुलट कर उसी कथानक को बार-बार प्रस्तुत किया जाता है। एक उदाहरण इसे स्पष्ट कर देगा। वास्तविक जीवन में करोड़ों लोगों में भी दो व्यक्तियों का चेहरा मुश्किल से बिलकुल एक समान होता है। पर यदि इस चेहरे का केवल रेखाचित्र बनाया जाये पचास-सौ से ज्यादा रेखाचित्र बनाना मुश्किल हो जायेगा। कार्टूनिस्ट भी किसी खास चेहरे की किसी खास विशेषता को उभारकर (हाइलाइट कर), मसलन मुलायम सिंह की नाक या लालू के बाल ही अपने पात्रों को अलग-अलग चिह्नित करा पाते हैं। यदि इन रेखाचित्रों की रेखाओं को और सीमित किया जाय तो यह भेद और कम हो जायेगा। 
    जीवन के सतही,  एकरेखीय प्रस्तुतीकरण और तीव्र भावोद्रेक में कार्य-कारण संबंध है और लोकप्रिय धरातल पर लोकप्रियता का आधार भी यही है। एकरेखीय प्रस्तुतीकरण किसी एक भाव पर जोर देता है और उसे तीव्र करता है। इस भाव को सापेक्षिक तौर पर धुंधला करने वाला या इसके प्रभाव के साथ दूसरा प्रभाव पैदा करने वाला वहां कोई नहीं होता। मुंह में खट्टे, मीठे, कड़वे और तीखे का स्वाद अलग-अलग होता है और उनकी स्वाद ग्रंथियों में भी जीभ में अलग-अलग जगह होती है। पर यदि एक साथ इन स्वादों वाली चार चीजों को मुंह में डाल लिया जाय तो हर खास स्वाद का प्रभाव कम हो जायेगा। यही बात भावों के संदर्भ में भी होती है। 
    लेकिन जीवन का यह सतही, एकरेखीय प्रस्तुतीकरण प्रभावी हो उसके लिए जरूरी है कि उसके अनुरूप एक पाठक या दर्शक भी मौजूद हो। यह जरूरी है कि पाठक या दर्शक इस भाव को ग्रहण कर सके। भावोद्रेक एक निरपेक्ष प्रक्रिया नहीं है। यह व्यक्ति के समाज, वर्ग और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से तय होती है। शास्त्रीय संगीत के रसिया को लोकप्रिय संगीत व्यर्थ का शोर-शराबा ही लगेगा और इसका ठीक उल्टा भी। 
    भारत का समाज जिस रूप में विकसित हुआ है उसमें गंभीर कला के लिए बहुत ज्यादा संभावना नहीं है। देश के पूंजीवादी विकास के साथ जन-जीवन पुरानी लोकसंस्कृति से (सामंती समाज की लोकसंस्कृति) लगातार दूर होता गया है। उसका स्थान नई पूंजीवादी संस्कृति ने लिया है जो ज्यादातर पश्चिमी पूंजीवादी देशों की तलछट है। मसलन भारत का बम्बइया मसाला सिनेमा हालीवुड की शैली में विकसित हुआ है। हालांकि इसका भारतीयकरण भी हुआ है। बम्बइया सिनेमा (व इसी की तर्ज पर क्षेत्रीय मसाला सिनेमा) में नाच-गानों की भरमार होती है वह आज भी दुनियाभर के सिनेमा में कौतूहल का विषय है। 
    इस नई पूंजीवादी लोकसंस्कृति की एक खास विशेषता इसका उथलापन है। यह मानो जानबूझकर जीवन के कष्टों से पलायन करती है। यह मानो जानबूझकर जीवन की असलियत से बचती है। पूंजीवादी जीवन इस कदर भीषण है, इस जीवन को जीने वाला इस कदर इससे आक्रांत है कि वह मनोरंजन के क्षणों में जरा भी इसे याद नहीं करना चाहता है। कला की दुनिया के प्रवेश द्वार पर वह वास्तविक जीवन को अलविदा कह आता है। यह केवल इसी तरह से संभव है कि साहित्य और कला में प्रतिबिंबित होने वाला जीवन पूर्णतया सतही हो। लेकिन फिर भी इस सतही प्रतिबिम्ब को भी वास्तविक जीवन का ही प्रतिबिम्ब होना चाहिए अन्यथा इससे सम्बन्ध नहीं बैठाया जा सकेगा। 
    चवन्निया उपन्यासों में जीवन के इस सतही प्रस्तुतीकरण के कारण ही हिन्दी साहित्य के लेखक-कवि इन्हें और गुलशन नंदा जैसे लेखकों को हिकारत की नजर से देखते थे। ठीक इसी कारण यह भी मान लिया जाता था कि इस तरह का लेखन करने वाला कोई व्यक्ति जीवन के बारे में न तो कोई गंभीर समझ रखेगा और न ही जीवन की गंभीर समस्याओं पर कोई ढंग की बात कह सकेगा। इसीलिए गुलशन नंदा जैसा व्यक्ति ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ नहीं हो सकता था भले ही उसके लिखे उपन्यास लाखों में बिकें और उन पर बनी फिल्में सुपरहिट हों। इसीलिए गुलशन नंदा और उनकी श्रेणी के उपन्यासकारों ने कभी किसी अखबार में लेख नहीं लिखे। लिखते तो हिन्दी साहित्य जगत बहुत नैतिक ढंग से स्तब्द्ध रह जाता। 
    लेकिन चेतन भगत व अंग्रेजी भाषा की बात कुछ और है। अंग्रेजी भाषा इस देश में शासक वर्ग की भाषा है और शासक वर्ग की हर बात निराली होती है। जो बात हिन्दी में संभव नहीं है वह अंग्रेजी में संभव हो जाती है। मध्यम वर्ग के लोग कुछ शारीरिक अंगों और शारीरिक क्रियाओं के नाम हिन्दी में नहीं ले सकते लेकिन अंग्रेजी भाषा में उन्हें घड़ल्ले से बोल जाते हैं। शासक वर्गीय भाषा में उनकी ‘गोपनियता’, ‘अपवित्रता’ या ‘भदेसपन’ जाता रहता है। 
    सो, शासक वर्गीय अंग्रेजी भाषा में सब कुछ संभव है। 
    अपने देश का मध्यमवर्ग इस शासक वर्गीय विदेशी भाषा से मोहग्रस्त और भयग्रस्त दोनों हैं। मोहग्रस्त इसलिए कि यह शासक वर्ग की भाषा है और इसे जानते ही वह शासक वर्ग में शामिल हो जाता है (कम से कम उसे ऐसा महसूस होने लगता है)। भयग्रस्त इसलिए कि यह एक पराई, विदेशी भाषा है और इस पर काबू पाना काफी मुश्किल साबित होता है। यह भाषा एक ऐसा बिगडै़ल घोड़ा साबित होता है जिस पर व्यक्ति मुश्किल से चढ़ पाता है और तब भी हमेशा गिरने का भय लगा रहता है। दौड़ाने के बदले व्यक्ति की सारी शक्ति घोड़े से चिपके रहने में खर्च हो जाती है। 
    अंग्रेजी से मोह और भय का यह रिश्ता रखने वाला मध्यम वर्ग पिछले दो-तीन दशकों में खूब फला-फूला है। यह एल.पी.जी.मध्यम वर्ग है (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) के जमाने का मध्यम वर्ग है जो इस बीच लगातार चर्चा में रहा है। राजीव गांधी के इक्कीसवीं सदी के नारे के साथ यह दृश्यपटल पर मुखरता से आया था और अब संघी-मोदी के जमाने में तो इसकी बहार ही बहार है। भारत के पूंजीपति वर्ग ने एल.पी.जी. के पिछले दो-तीन दशक में जो लूटपाट की है उसकी जूठन इसके सामने भी फेंकी है। 
    पूंजीवादी प्रचार माध्यमों के विस्फोटक प्रसार, खासकर टी.वी. के इस जमाने में यह मध्यम वर्ग सबसे मुखर है। राजनीतिक तौर पर यह केजरीवाल-मोदी ब्रांड का ध्वज वाहक है तो सांस्कृतिक तौर पर खबरिया चैनलों और सास-बहू सीरियलों का। 
    सांस्कृतिक तौर पर यह एल.पी.जी. मध्यम वर्ग उतना ही दीन-हीन है जितना गुलशन नंदा का हिन्दी पाठक हुआ करता है। न केवल इसका भौतिक जीवन बेहद भौंड़े उपभोक्तावाद तक सीमित है बल्कि इसका आत्मिक जीवन भी उतना ही ज्यादा कूपमंडूकता से लबरेज भौंड़ा है। बाबाओं-साधुओं से लेकर तीर्थ स्थलों के चक्कर लगाने वाला यह वर्ग अपनी रुचियों में बेहद सस्ता और सतही है। शासकवर्गीय अंग्रेजी भाषा को वह इसे ढंकने के लिए परदे की तरह इस्तेमाल करता है। 
    चेतन भगत इसी वर्ग के पाठक समूह को संबोधित है। यह कोई आश्चर्य नहीं कि वे ‘वन नाइट एट काल सेंटर’ से चर्चा में आये जो इस एल.पी.जी. मध्यम वर्ग के एकदम विशिष्ट पेशे से संबंधित है। दस-पंद्रह साल पहले इस पेशे का कोई अस्तित्व नहीं था। यह भी आश्चर्य नहीं है कि स्वयं चेतन भगत भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान(IIT) की उपज हैं जहां से एल.पी.जी. मध्यम वर्ग का शीर्ष पैदा होता है। 
    चेतन भगत इस वर्ग को सम्बोधित करने वाले अंग्रेजी के चवन्निया उपन्यासकार हैं। वे अंग्रेजी भाषा के गुलशन नंदा हैं। अंग्रेजी भाषा में इस तरह के साहित्य को ‘पल्प फिक्शन’ कहते हैं। अंग्रेजी में होने के कारण एल.पी.जी. मध्यम वर्ग इन उपन्यासों को शान के साथ पढ़ता है। 
    बात इतने तक ही सीमित होती तो गनीमत थी। लेकिन तब और रोचक हो जाती है जब चवन्निया उपन्यासकार चेतन भगत देश-दुनिया की समस्याओं पर अपने विचार व्यक्त करने लगते हैं। कोई कह सकता है कि देश-दुनिया की समस्याओं पर अपने विचार रखना और उन्हें व्यक्त करना हर व्यक्ति का लोकतांत्रिक अधिकार है। जिस जमाने में सूचनाओं की भरमार हो व जिसमें हर ऐरा-गैरा नत्थू खैरा हर चीज का विशेषज्ञ बन बैठता हो उसमें तो यह और भी स्वाभाविक है। पर मामला तब थोड़ा विचारणीय हो जाता है जब चेतन भगत को अपने विचारक होने का गुमान अपने चवन्निया उपन्यासों की लोकप्रियता के कारण होने लगे और उन्हें देश के सबसे बड़े पूंजीवादी अखबारों में जगह मिलने लगे। 
    चेतन भगत के विचारों का स्तर वही है जो उनके चवन्निया उपन्यासों का है। वे उतने ही सतही हैं। देश-दुनिया की गंभीर समस्याओं के प्रति उनका नजरिया उपभोक्तावादी मध्यम वर्ग के अनुरूप है लेकिन जो ठीक इसी कारण से पूंजीपति वर्ग के विचारों से संगति में बैठती है। 
    इन सतही विचारों को यदि पूंजीवादी प्रचार माध्यमों में जगह मिलती है तो इस कारण कि सतही विचारों का ग्राहक एक बड़ा पाठक-दर्शक समूह है। मसलन टाइम्स आॅफ इंडिया का ज्यादातर पाठक समूह ऐसा ही है। लेकिन साथ ही यह बात भी है कि पूंजीपति वर्ग जानबूझकर ऐसे विचारों को समाज में प्रसारित कर रहा है। वह गंभीर समस्याओं के सतही विश्लेषण और समाधान से पाठकों/दर्शकों को बरगलाना चाहता है। 
    पूंजीपति वर्ग के ऐसा करने के भी कारण हैं। आज उसकी पतित पूंजीवादी व्यवस्था के समक्ष जो चुनौतियां पेश हैं उसका समाधान उसके पास नहीं है। ऐसे में वह हर बाबा-साधु, झाड़-फूंक करने वाले के नुस्खे को जनता के सामने परोस रहा है। यदि चेतनभगत जैसे लोकप्रिय व्यक्ति भी अपना ‘झंडू बाम’ लेकर सामने आ जायें तो क्या नुकसान है?
    ‘हाफ गर्लफ्रैंड’ के लेखक को ‘हाफ इंटेलेक्चुअल’ के रूप में प्रसिद्धि उसके लिए कोई कम गौरव की बात नहीं है। गुलशन नंदा इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
फासीवाद के विविध रूप- इतिहास के आइने में
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
(गतांक से आगे)
    यह पहली किस्त में कहा जा चुका है कि यूरोप के देशों में पूंजीवादी राजनीतिज्ञ फासीवाद के प्रति खुशामदी दृष्टिकोण रखते थे। इसके साथ ही फासीवाद का कैथोलिक चर्च के साथ निरंतर गठजोड़ बना हुआ था। हिटलर के यहूदी विरोधी अभियान के प्रति तीव्र घृणा बहुत बाद में उस समय पैदा हुई जब यह अपनी अंतिम मंजिल नरसंहार के पागलपन तक पहुंच गयी थी। हिटलर के भाषणों में ‘‘यहूदी-बोल्शेविज्म’’ के प्रति भड़काई गयी तीखी नफरत उस समय के अनेक पूंजीवादी राजनीतिज्ञों में भी आम बात थी। नाजीवाद की पराजय के बाद ही पूंजीवादी राजनीतिज्ञ यहूदी विरोध की सिद्धांतः निंदा करने लगे थे। ‘‘शोआह के शिकार’’ की उपाधि के स्वघोषित उत्तराधिकारियों ने जब इजरायल में यहूदी नस्लवादी (जियनवादी) हुकूमत कायम कर ली, और वे फिलस्तीनी और अरब जनता के विरुद्ध अमरीकी और यूरोपीय साम्राज्यवादियों के सहयोगी बन गये तो उनका यह काम (यहूदी-विरोध की निंदा करने का काम) आसान हो गया। यहां तक ध्यान देने की बात है कि यहूदी नस्लवादी जिस फिलस्तीनी व अरब जनता पर हमला कर रहे थे वे यूरोप में यहूदी विरोध के अत्याचारों से कभी भी प्रभावित नहीं थे। 
    जर्मनी में नाजियों और इटली में मुसोलिनी फासीवादियों की सत्ता ध्वस्त हो जाने के बाद ही पश्चिमी देशों के पूंजीवादी राजनीतिज्ञ अपने को उन लोगों से अलग करके बताने लगे थे जो फासीवाद के खुले सहयोगी और संश्रयकारी थे। तब ही, फासीवादी आंदोलन वस्तुतः समाप्त होने के बजाय पीछे हटकर पृष्ठभूमि में जाने के लिए विवश हो गये थे। 
    पश्चिमी जर्मनी में ‘‘सुलह-समझौते’’ के नाम पर स्थानीय सरकार और इसके संरक्षकों (संयुक्त राज्य अमेरिका और द्वितीयतः गे्रट ब्रिटेन और फ्रांस) ने युद्ध अपराधों और मानवता के विरुद्ध अपराध करने वाले लगभग सभी लोगों को उनके पदों पर बने रहने दिया। फ्रांस में जब अंतोनी पिनाय जो विचीवादी था, राजनीतिक परिदृश्य पर उभर कर आया तो प्रतिरोध करने वालों के विरुद्ध फासीवाद के साथ गठजोड़ करने वालों के विरुद्ध अतिरिक्त दमन के लिए’’ कानूनी कार्यवाहियां शुरू हो गयी थी। इटली में फासीवाद खामोश हो गया लेकिन तब भी वह क्रिश्चियन डेमोक्रेसी और कैथोलिक चर्च के बीच मौजूद था। स्पेन में, जब यूरोपीय समुदाय (जो बाद में यूरोपीय संघ हो गया) द्वारा 1980 में कराये गये सुलह-समझौते के तहत फ्रांकोवादियों द्वारा किये गये अपराधों पर किसी भी तरह की चर्चा पर साफ तौर पर रोक लगा दी गयी थी। 
    अनुदार दक्षिणपंथियों द्वारा चलाये गये कम्युनिस्ट विरोधी अभियानों का पश्चिमी और केंद्रीय यूरोप की समाजवादी और सामाजिक-जनवादी पार्टियों द्वारा दिया गया समर्थन बाद के समय में फासीवाद की वापसी के लिए जिम्मेदार है। वे इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकतीं। तथाकथित ‘‘नरम’’ वामपंथ की पार्टियां पहले अधिकारिक तौर पर दृढ़ फासीवाद-विरोधी थीं। तब भी यह सब भुला दिया गया था। इन पार्टियों का सामाजिक-उदारवाद में तब्दील हो जाने से, यूरोपीय निर्माण का उनके द्वारा बिना शर्त समर्थन करने से प्रतिक्रियावादी पूंजीवादी प्रणाली के लिए गारंटी सुनिश्चित करने का रास्ता निकाला। इससे भी बढ़कर, उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के अधिपत्य के समक्ष बिना शर्त समर्पण किया (अन्य तरीकों में से एक नाटो के जरिये)। इससे पारंपरिक दक्षिणपंथियों और सामाजिक उदारवादियों के गठजोड़ से प्रतिक्रियावादी ब्लाॅक सुदृढ़ हो गया जो आवश्यकता पड़ने पर नये घोर दक्षिणपंथियों के साथ तालमेल बैठा सकता था। 
    इसके बाद, पूर्वी यूरोपीय फासीवाद का पुनर्वास 1990 की शुरूआत से तेजी के साथ किया गया। संबंधित देशों के सभी फासीवाद आंदोलन हिटलरवाद के साथ भिन्न-भिन्न अंश में आज्ञाकारी, संश्रयकारी और सहयोगी रह चुके थे। हिटलरवाद की परायज के नजदीक आने के समय इन सक्रिय नेताओं की भारी संख्या को पश्चिमी देशों में इसलिए भेज दिया गया कि उन्हें संयुक्त राज्य की फौजों के सामने आत्मसमर्पण कराया जा सके। इनमें से किसी को भी सोवियत संघ, यूगोस्लाविया या अन्य नई जनता की जनवादी सरकारों के पास उनके अपराधों पर मुकदमा चलाने के लिए नहीं भेजा गया (यह मित्र शक्तियों के साथ हुए समझौतों का उल्लंघन था)। उनको संयुक्त राज्य और कनाडा में शरण मिली हुई थी। और इन देशों की सरकारों द्वारा उन सभी के घोर कम्युनिज्म-विरोध को खूब भड़काया। 
    पश्चिमी देशों की तथाकथित जनवादी राज्यों की सरकारों ने यूक्रैन में ‘‘नारंगी क्रांति’’ (यानी कि फासीवादी प्रतिक्रांति) का समर्थन ही नहीं किया बल्कि उसे आर्थिक मदद दी और संगठित भी किया। इसके पहले यूगोस्लाविया में कनाडा ने क्रोशेयियाई उस्ताशी लोगों के लिए रास्ता प्रशस्त किया था। 
    आज का पूंजीवादी मीडिया जिस धूर्तता के साथ इन फासिस्टों का समर्थन कर रहा है, वह भी ध्यान देने योग्य है। वह फासिस्ट की जगह ‘‘राष्ट्रवादी’’ शब्द का इस्तेमाल कर रहा है। यूक्रैन के प्रोफेसर दोन्तस्वोव को वह फासिस्ट न कहकर उक्रेइनी राष्ट्रवादी कह रहा है। ले पेन को वह अब फासिस्ट नहीं कहता बल्कि राष्ट्रवादी कहता है। 
    क्या ये सभी अधिकारिक फासिस्ट वस्तुतः ‘‘राष्ट्रवादी’’ हैं, जैसा कि उनको कहा जाता है? इसमें संदेह है। राष्ट्रवादी बिल्ला उनके लिए तभी सही होता जब वे आज की दुनिया की वस्तुतः प्रभुत्वकारी शक्तियों- यानी संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप की इजारेदारियों पर सवाल खड़ा करतीं। ये तथाकथित ‘‘राष्ट्रवादी’’ संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ और नाटो के दोस्त हैं। उनका ‘‘राष्ट्रवाद’’ मुख्यतः पड़ोसी निर्दोष लोगों के विरुद्ध अंधराष्ट्रवादी नफरत से भरा होता है। ये निर्दोष पड़ोसी कभी भी उनकी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार नहीं रहे हैं। यूक्रैन में रूसी अवाम इनके हमले का निशाना हैं (न कि जार)। क्रोयेशिया में सर्व लोग हैं। फ्रांस, आस्ट्रिया, स्विटजरलैंड, ग्रीस और अन्यत्र के नये अतिवादी दक्षिणपंथियों के हमलों का निशाना ‘‘अप्रवासी’’ हैं। 
    एक तरफ संयुक्त राज्य और यूरोप की बड़ी पूंजीवादी राजनीतिक ताकतों (संयुक्त राज्य में रिपब्लिक और डेमोक्रेट तथा यूरोप में संसदीय दक्षिणपंथी और सामाजिक-उदारवादी) और दूसरी तरफ, पूर्वी यूरोप के फासिस्टों के बीच सांठगांठ से उपजे खतरे को कम करके नहीं आंकना चाहिए। हिलेरी क्लिंटन ने इस सांठगांठ की मुख्य प्रवक्ता के तौर पर अपने को पेश किया है और युद्धोन्माद की सीमा तक पहुंचा दिया है। जार्ज बुश ने भी ज्यादा जोर से रूस के विरूद्ध वे संभव होने पर निरोधक(प्रिवेन्टिव वार) युद्ध का आक्रामकता के साथ बात करती हैं (जो शीत युद्ध का महज दुहराव नहीं होगा) और वे इससे भी बढ़कर यूक्रेन, जार्जिया और अन्य स्थानों में चीन के विरुद्ध और एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिकी विद्रोही लोगों के विरुद्ध खुले हस्तक्षेप की जोर-शोर से वकालत करती हैं। दुर्भाग्यवश, संयुक्त राज्य के तेजी से खिसकते अपने पराभव के समय में हिलेरी क्लिंटन को पर्याप्त समर्थन मिल सकता है और वे ‘‘संयुक्त राज्य अमेरिका की पहली महिला राष्ट्रपति’’ हो सकती हैं। लेकिन इस नकली नारीवादी के पीछे छिपी हकीकत को नहीं भूलना चाहिए। 
    निस्संदेह, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में दिखाई पड़ने वाला फासीवादी खतरा वहां की ‘‘जनतांत्रिक’’ प्रणाली के लिए फिलहाल आसन्न नहीं है। क्लासकीय संसदीय दक्षिणपंथ और सामाजिक उदारवादियों के बीच की सांठगांठ प्रभुत्वशाली पूंजी के लिए यह अनावश्यक बना देती है कि वह ऐतिहासिक फासिस्ट आंदोलनों की पूर्वबेला में अपनाये गये कदमों की तरह अति दक्षिणपंथ की सेवाओं को ले। लेकिन तब पिछले दशक भर में अति दक्षिणपंथ की चुनावी सफलताओं से क्या निष्कर्ष निकाले जाने चाहिए? यूरोपीय लोग भी इजारेदार पूंजीवाद के विस्तार के स्पष्टतया शिकार हैं। तब यह देखा जा सकता है कि जब वे दक्षिणपंथ और तथाकथित समाजवादी वामपंथ के बीच सांठगांठ को देखते हैं तब वे या तो चुनाव से अनुपस्थित हो जाते हैं या अति दक्षिणपंथ को मतदान करते हैं। इस संदर्भ में संभावनाशील क्रांतिकारी वामपंथ की भूमिका बहुत बड़ी हो जाती है। यदि इस वामपंथ में मौजूदा पूंजीवाद से बाहर जाकर वास्तविक तौर पर आगे बढ़ने के लिए प्रस्ताव करने का साहस हो तो इसकी विश्वसनीयता बढ़ जायेगी। इस विश्वसनीयता का आज अभाव है। एक साहसी क्रांतिकारी वामपंथ मौजूदा टुकड़े-टुकड़े में हो रहे विरोध आंदोलनों और रक्षात्मक संघर्षों में अनुपस्थित सुसंगतता और एकजुटता मुहैय्या करने के लिए आवश्यक है। तब ‘‘आंदोलन’’ मेहनतकश वर्गों के पक्ष में सामाजिक शक्ति संतुलन करने में दिशा बदल सकता है और क्रमशः आगे बढ़ना संभव बना सकता है। दक्षिण अमेरिका में लोकप्रिय आंदोलनों की सफलताएं इसका प्रमाण हैं। 
    मौजूदा परिस्थिति में, अति दक्षिणपंथ की चुनावी सफलताएं खुद मौजूदा पूंजीवाद के कारण पैदा होती हैं। ये सफलताएं ‘‘अति दक्षिणपंथ लोक लुभावकों और अति वामपंथ के लोगों को’’ उसी खुशामद के साथ मीडिया में एक साथ पेश करते हैं। वे इस तथ्य को नजरंदाज करते हैं कि अति दक्षिणपंथ पूंजीवाद समर्थक है। (जैसा कि अति दक्षिणपंथ खुद बताता है) और पूंजी का संभावित संश्रयकारी है जबकि अति वामपंथी लोग पूंजी की सत्ता प्रणाली के महज संभावित खतरनाक विरोधी हैं।
    संयुक्त राज्य अमेरिका में ऐसा ही संयोग देखा जा सकता है। हालांकि यहां के अति दक्षिणपंथ को कभी भी फासिस्ट नहीं कहा गया। कल का मैकार्थीवाद आज के ही पार्टी के अति उत्साही और युद्धोन्मादी (उदाहरण के लिए हिलेरी क्लिंटन) खुले तौर पर ‘‘आजादी’’ के पक्ष में बोलते हैं क्योंकि वे इसे अच्छी तरह समझते हैं कि यह ‘‘आजादी’’ ‘‘सरकार’’ के विरुद्ध इजारेदार पूंजी के मालिकों और प्रबंधकों के लिए एकमात्र है। यह व्यवस्था के शिकार लोगों की मांगों को मानने में संदेहास्पद है। 
    फासिस्ट आंदोलनों के बारे में एक अंतिम पहचान यह है कि वे यह जानने में असमर्थ प्रतीत होते हैं कि कब और कैसे अपनी मांगों को रखना रोकें। नेता की व्यक्तिपूजा और अंधी आज्ञाकारिता, उन्माद पैदा करने वाले नकली प्रजातीय या नकली धार्मिक पौराणिक रचना का अनालोचनात्मक व सर्वोच्च गुणगान तथा हिंसात्मक कार्यवाहियों के लिए मिलिशियाओं की भर्ती फासीवाद को ऐसी शक्ति बना देती है जिस पर नियंत्रण रखना मुश्किल होता है। फासिस्टों द्वारा किये जाने वाले सामाजिक हितों की सेवाओं के दृष्टिकोणों में अतार्किक भटकावों से अलग हटकर भी गलतियां अवश्यम्भावी तौर पर होती हैं। हिटलर सही मायने में एक बीमार व्यक्ति था, तब भी उसने उन बड़े पूंजीपतियों को जिन्होंने उसे सत्ता में बैठाया था, अपने पागलपन की हद तक अपना अनुसरण करने के लिए बाध्य कर दिया और इसमें उसने आबादी के बड़े हिस्से का समर्थन भी प्राप्त कर लिया। हालांकि यह महज एक अति का मामला था। मुसोलिनी, फ्रांको, सालाजार और चिटेन मानसिक तौर पर बीमार नहीं थे, तब भी उनके सहयोगियों ओर पिछलग्गुओं की भारी तादाद ने आपराधिक कारगुजारियों को बरपा करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखायी। 
मौजूदा दक्षिण में फासीवाद
    उन्नीसवीं सदी में लातिन अमेरिका का वैश्विक पूंजवाद के साथ एकीकरण किसानों के शोषण पर आधारित था। किसानों को ‘‘चपरासियों’’ की हैसियत में पहुंचा दिया गया था और उन्हें बड़े भू-स्वामियों के जंगली चलनों के अधीन कर दिया गया था। मैक्सिको के पोरफिरो दियाज की व्यवस्था इसका एक अच्छा उदाहरण है। बीसवीं सदी में इसके और एकीकरण ने ‘‘गरीबी का आधुनिकीकरण’’ कर दिया। एशिया और अफ्रीका के मुकाबले लातिन अमेरिका में तेजी से ग्रामीण आबादी का विस्थापन बहुत ज्यादा था और पहले शुरू हो गया था। इसने मौजूदा शहरी झुग्गी-झोपडि़यों में नयी किस्मों की गरीबी को जन्म दिया जो ग्रामीण इलाकों की गरीबी के पुराने रूपों का स्थान ले चुकी थी। इसी के साथ ही तानाशाहियां स्थापित करके, चुनावी जनतंत्र समाप्त करके, पार्टियों और ट्रेड यूनियनों पर प्रतिबंध लगाकर, और अपनी खुफिया तकनीक के जरिये ‘‘आधुनिक’’ खुफिया सेवाओं को गिरफ्तार और यातना देने संबंधी सारे अधिकार देकर जन समुदाय के राजनीतिक नियंत्रण के रूपों को इसने ‘‘आधुनिक’’ बनाया। स्पष्टतया, राजनीतिक प्रबंधन के ये रूप फासीवाद के उन रूपों जैसे ही दिखाई पड़ते हैं जो पूर्वी यूरोप के निर्भर पूंजीवाद के देशों में हैं। लातिन अमेरिका की बीसवीं सदी की तानाशाहियां स्थानीय प्रतिक्रियावादी ब्लाक की सेवा करती थीं। ये प्रतिक्रियावादी ब्लाक बड़े भू-स्वामियों, दलाल पूंजीपतियों और कभी-कभी उन मध्यम वर्गों से लेकर बना था जो इस तरह के अवारा विकास से फायदा उठाते थे। लेकिन सर्वोपरि ये तानाशाहियां प्रभुत्वशाली विदेशी पूंजी, विशेष तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका की पूंजी की सेवा करती थीं। और जो इस कारण से इन तानाशाहियों का तब तक समर्थन करती रही जब तक हाल के फूटे लोकप्रिय आंदोलनों द्वारा उन्हें धकेल नहीं दिया गया। इन आंदोलनों की शक्ति और सामाजिक व जनवादी अग्रगति जो इसने हासिल की, उसने थोड़े समय के लिए ही सही, अर्द्ध फासिस्ट तानाशाहियों की वापसी को बाहर कर दिया। लेकिन भविष्य अनिश्चित है। मेहनतकश वर्गों के आंदोलन और स्थानीय व वैश्विक पूंजीवाद के बीच टकराहट शुरू ही हुई है। सभी किस्म के फासीवाद की तरह ही लातिन अमेरिका की तानाशाहियां भी गलतियों से नहीं बच सकीं और उनमें से कुछ उनके लिए घातक थीं। 
    एशिया और अफ्रीका के देशों में एक तरह का पूंजीवादी विकास बांदुंग काल (1955-80) में हुआ था। उस समय इन देशों में एक हद तक का साम्राज्यवाद-विरोध का रुख अपनाये हुए सत्ताएं थीं। लेकिन 1980 के दशक की शुरूआत से इन देशों में निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों ने स्थान लेना शुरू कर दिया। शासक वर्गो की नीतियों में इस परिवर्तन के साथ-साथ गरीबी का आधुनिकीरण और दमनकारी हिंसा का आधुनिकीकरण भी हुआ। यह लातिन अमरीकी देशों जैसा ही था। नासिर के बाद की मिस्र की हुकूमत के चरित्र में स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ता है। बांदुंग काल की हुकूमतों और उसके बाद की हुकूमतों के चरित्र में स्पष्ट अंतर दिखाई देता है। बांदुंग काल की हुकूमतें, अपने निरंकुश राजनीतिक व्यवहारों के बावजूद एक हद तक लोकप्रिय स्वीकृति हासिल किये हुए थीं। उनकी कुछ वास्तविक उपलद्धियां थीं और उनकी एक हद तक साम्राज्यवाद-विरोधी अवस्थितियां थीं। लेकिन बाद की तानाशाहियों ने जैसे ही वैश्वीकृत नवउदारवादी माॅडल अपना लिया वैसे ही उनकी यह स्वीकार्यता समाप्त हो गयी। इसने विकास का जो माॅडल अपनाया उसने नव उदारवादी, जन विरोधी और राष्ट्र-विरोधी परियोजनाओं की सेवा में पुलिस हिंसा का रास्ता अधिकाधिक अपनाया।
    2011 में शुरू हुए हालिया लोकप्रिय विद्रोहों ने तानाशाहियों पर सवाल खड़े कर दिये। लेकिन सिर्फ तानाशाहियों पर ही सवाल खड़े किये गये। लेकिन स्थायित्व हासिल करने के लिए ऐसा विकल्प पाने के तरीके अपनाये जाते हैं जिसमें विद्रोहों को गोलबंद किये गये तीन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। इसमें है, समाज और राजनीति के जनवादीकरण की निरंतरता, प्रगतिशील सामाजिक अग्रगति और राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा। 
    लेकिन हम इन्हें हासिल करने से बहुत दूर हैं। इसलिए आने वाले थोड़े समय के लिए कई तरह के विकल्प संभव हैं। क्या बांदुंग काल के राष्ट्रीय लोकप्रिय माॅडल, चाहे जनतंत्र का संकेत ही हो, की ओर वापसी संभव है? या जनतांत्रिक, लोकप्रिय और राष्ट्रीय मोर्चे का दृढ़ता से निर्माण संभव है? या पीछे की ओर भ्रम रखने वाले इस संदर्भ में, राजनीति और समाज के ‘‘इस्लामीकरण’’ के रूप में गिरना संभव है? 
    इन चुनौतियों के तीन संभव जवाबों में भ्रमों के साथ टकराहट है। पश्चिमी ताकतों (संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके छुटभैय्ये यूरोपीय सहयोगी) ने अपना चुनाव कर लिया है। उन्होंने मुस्लिम ब्रदरहुड या राजनीतिक इस्लाम के अन्य ‘‘सलाफीवादी’’ संगठनों को प्राथमिकता में समर्थन दे दिया है। इसका सीधा कारण है और वह स्पष्ट है। ये प्रतिक्रियावादी राजनीतिक शक्तियां वैश्वीकृत नवउदारवाद (और इस प्रकार सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय स्वाधीनता के किसी संभावना का परित्याग करके) के अंतर्गत अपनी सत्ता को संचालित करने को स्वीकार करती हैं। यह साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा अपनाया गया एकमात्र लक्ष्य है। 
    परिणामस्वरूप, राजनीतिक इस्लाम का कार्यक्रम उस किस्म के फासीवाद में आता है जो निर्भरशील समाजों में पाया गया है। (वस्तुतः यह सभी किस्म के फासीवाद के दो बुनियादी विशिष्टताओें को अपनाता है। इसमें पहला, पूंजीवादी व्यवस्था के बुनियादी पहलुओं को किसी चुनौती की अनुपस्थिति और दूसरा राजनीतिक प्रबंधन के पुलिस राज्य व जनतंत्र विरोधी रूपों का चुनाव है (जैसे कि पार्टियों और संगठनों पर पाबंदी, और नैतिकता का बलात् इस्लामीकरण)।
    साम्राज्यवादी शक्तियों का जनतंत्र-विरोधी विकल्प, तब इस्लामी हुकूमतों की संभावित ज्यादतियों को स्वीकार कर लेता है। यह जनतंत्र समर्थक झूठ की लफ्फाजी खड़ी करता है जैसाकि आज प्रचार की आंधी चलाकर किया जा रहा है। दूसरे किस्म के फासीवाद की तरह और उन्हीं कारणोें से इन ज्यादतियों को उनके चिंतन पद्धति की जीन में ही अंकित कर दिया गया है। वे ये हैंः नेताओं के सामने बिना सवाल किये समर्पण, राज्य धर्म को मानने के लिए उन्मादी गुणगान और समर्पण आरोपित करने के लिए सशस्त्र शक्तियों का गठन। वस्तुतः इसको देखा भी जा सकता है। ‘‘इस्लामवादी’’ कार्यक्रम केवल गृहयुद्ध के संदर्भ में ही प्रगति करता है और इसका परिणाम स्थायी गड़बड़ी के सिवाय और कुछ नहीं होता। तब, इस किस्म की इस्लामवादी सत्ता इस बात की गारंटी करती है कि ऐसा समाज विश्व परिदृश्य पर अपने आप को स्थापित करने में पूर्णतया असमर्थ बना रहेगा।
    अरब-मुस्लिम दुनिया के बाहर भी इसी तरह के विकासक्रम और चुनाव पाये जाते हैं। उदाहरण के लिए, हिंदू बहुमत वाले भारत में भी ऐसा विकासक्रम हुआ है। भारत में हाल के चुनावों में विजयी भारतीय जनता पार्टी एक प्रतिक्रियावादी हिंदू धार्मिक पार्टी है जो अपनी सरकार का वैश्वीकृत नवउदारवाद को स्वीकार करती है। ऐसा नहीं है कि इसकी पूर्ववर्ती हुकूमत इस नवउदारवाद की पैरवी करने के साथ-साथ, सांप्रदायिक धु्रवीकरण का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देती। यहां फासीवाद का खतरा आसन्न न भी हो, तो भी भाजपा और इसकी मातृ संस्था आर.एस.एस. एक फासीवादी आंदोलन है और इसके सत्ता में आने के बाद यह खतरा बढ़ता जा रहा है। फासीवाद के विभिन्न रूपों में समान बातें यहां पर भी लागू होती हैं। 
    अंत में, पश्चिम, पूर्व और दक्षिण में फासीवाद की वापसी हो गयी है और यह वापसी स्वाभाविक तौर पर आम, वित्तीयकृत व वैश्वीकृत इजारेदार पूंजीवाद के व्यवस्थाजन्य संकट के विस्तार से जुड़ी हुई है। इस संकटग्रस्त व्यवस्था के वर्चस्वकारी केंद्रों द्वारा फासिस्ट आंदोलनों की सेवाआंे का वास्तविक या संभावित इस्तेमाल जनपक्षधर ताकतों से अत्यधिक सतर्कता की मांग करता है। संकट और ज्यादा गहराने को अभिशप्त है और परिणामस्वरूप फासिस्ट समाधानों को अपनाने का खतरा वास्तविक हो जायेगा। हिलेरी क्लिंटन द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के युद्धोन्माद का समर्थन तात्कालिक भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। 
(प्रस्तुत लेख Monthly Review.org में प्रकाशित समीर असीन के लेख का किंचित परिवर्तन के साथ हिन्दी अनुवाद है)

फासीवाद के विविध रूप- इतिहास के आइने में
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
    (हमारे देश में नरेन्द्र मोदी सरकार आने के बाद फासीवाद पर बहस तेज हो गयी है। कुछ लोग इसे फासीवादी सरकर कहना शुरू कर चुके हैं। कुछ हैं कि फासीवाद का खतरा आसन्न बता रहे हैं। ऐसे लोग आसन्न फांसीवादी खतरे से निपटने के लिए तमाम पूंजीवादी शक्तियों के साथ फासीवाद विरोधी व्यापक संयुक्त मोर्चे की हिमायत कर रहे हैं।
    ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि फासीवाद के चरित्र को समझा जाए। अतीत में अलग-अलग देशों में इसका उदय कैसे हुआ और इसकी चारित्रिक विशिष्टतायें
 क्या रही हैं, इसको समझा जाए। इसी समझ को बनाने में प्रस्तुत लेख की भूमिका हो सकती है। यह लेख समीर अमीन के लेख 'The Return of Fascism in Contemporary Capitalism' का भावानुवाद है जो मंथली रिव्यू में सितम्बर, 2014 में छपा था। - सम्पादक)
    फासीवाद के नाम से जाने, जाने वाले राजनीतिक आंदोलनों ने 1930 से 1945 के बीच कई यूरोपीय देशों में सत्ता हासिल की थी। इसमें इटली के बेनितो मुसोलिनी, जर्मनी के एडोल्फ हिटलर, स्पेन के फ्रांसिस्को फ्रांको, पुर्तगाल के एतांनियो डे ओलीविरा सालाजार, फ्रांस के फिलिप पेटेन, हंगरी के मिकलोस होर्थी, रोमानिया के लोन एन्तोनेस्कू और क्रोएशिया के एन्ते पावेलिक शामिल हैं। फासीवाद के शिकार इन देशों में विविधतायें थीं। इनमें से कुछ विकसित पूंजीवादी देश थे तो कुछ अन्य शक्तियों के अधीन छोटे पूंजीवादी देश थे। कुछ प्रथम विश्वयुद्ध में जीतनेवाली शक्तियों के साथ थे तो अन्य कुछ पराजित शक्तियों में थे। इसलिए सबको एक साथ रखना ठीक नहीं होगा।
    फिर भी, इस विविधता के बावजूद इन सभी फासिस्ट हुकूमतों की दो समान चारित्रिक विशिष्टतायें थींः
1. जिन परिस्थितियों में इन सभी ने सरकार और समाज का प्रबंधन करना चाहा, उनमें इनमें से किसी ने भी पूंजीवाद के बुनियादी नियमों पर विशेषतौर पर आधुनिक एकाधिकारी पूंजीवाद सहित निजी पूंजीवादी सम्पत्ति पर सवाल नहीं उठाया। इसलिए फासीवाद के इन विभिन्न रूपों को पूंजीवाद के प्रबंधन के विशिष्ट तरीके कहा जा सकता है। फासिस्ट भाषणों में ‘‘पूंजीवाद’’ और ‘‘धनिकतंत्र’’ पर तीखे घृणा करने वाले लफ्फाजी के बावजूद ये कभी भी पूंजीवाद के न्यायसंगत होने को चुनौती देने वाले राजनीतिक रूप नहीं अपनाते। यदि फासीवाद के इन विभिन्न रूपों द्वारा प्रस्तावित ‘‘विकल्प’’ की पड़ताल की जाए तो इन भाषणों में छिपे झूठ को आसानी से समझा जा सकता है, जो निजी पूंजीवादी सम्पत्ति के मुख्य मुद्दे पर हमेशा चुप थे। इससे यह मामला बनता है कि पूंजीवादी समाज के राजनीतिक प्रबंधन के समक्ष चुनौतियों से निपटने के लिए एकमात्र फासिस्ट चुनाव ही नहीं है बल्कि यह ऐसे हिंसक और गहरे संकट के समय का चुनाव है जिससे प्रभुत्वशील पूंजी ग्रस्त है और वह इससे पार पाने के लिए कभी-कभी एकमात्र सम्भव समाधान देखती है। तब, विश्लेषण इन संकटों पर केन्द्रित करना चाहिए।
2. पूंजीवादी समाज के संकट के प्रबंध के लिए फासिस्ट चुनाव हमेशा ‘‘जनवाद’’ के स्पष्ट परित्याग पर आधारित होता है। यह परिभाषा के बतौर भी उसका परित्याग करता है। फासीवाद, आधुनिक पूंजीवादी जनवाद जिन आम सिद्धांतों पर अपने उसूल और व्यवहार पर टिका होता है उनको हमेशा हटा देता है। आधुनिक पूंजीवाद के आम सिद्धांत मत वैभिन्य की स्वीकृति देते हैं, बहुमत को तय करने के लिए चुनावी प्रक्रिया को अपनाते हैं, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की गारण्टी देते हैं इत्यादि। जब कि फासीवाद सामूहिक अनुशासन की जरूरतों के सामने झुकने और सर्वोच्च नेता व उसके मुख्य एजेण्टों के प्राधिकार जैसे विरोधी मूल्यों का वाहक होता है। मूल्यों में ये बदलाव हमेशा पिछडे़ विचारों की वापसी के साथ जुडे़ रहते हैं। मूल्यों में ये बदलाव समर्पण की प्रक्रियाओं को स्पष्टतया न्यायसंगत करार करने में समर्थ होते हैं। फासिस्ट सत्ताओं द्वारा अपनाये जाने वाले विचारधारात्मक विमर्श के शस्त्रागार के बतौर अतीत (‘‘मध्ययुगीन’’) की कथित वापसी की घोषणा, राज्य धर्म या ‘‘नस्ल’’ या ‘‘राष्ट्र’’ की किसी कथित लक्षणों के सामने समर्पण करने की मांग का इस्तेमाल होता है।
    आधुनिक यूरोपीय इतिहास में आये फासीवाद के विविध रूपों ने इन दो चारित्रिक विशिष्टताओं को अपनाया था। इनको निम्न चार श्रेणियों में से एक में रखा जा सकता है।
1. ऐसे बड़े ‘‘विकसित’’ पूंजीवादी शक्तियों के फासीवाद जो दुनिया में या कम से कम क्षेत्र की पूंजीवादी व्यवस्था में प्रभुत्वशाली शक्ति होने की आकांक्षा रखते थे। 
    इस किस्म के फासीवाद का माॅडल नाजीवाद है। 1870 के दशक की शुरूआत से जर्मनी बड़ी औद्योगिक शक्ति हो गया था और उस काल की प्रभुत्वशाली शक्तियों (ग्रेट ब्रिटेन, और द्वितीयतः फ्रांस) तथा उस देश का जो प्रभुत्वशाली होने की (संयुक्त राज्य अमेरिका) आकांक्षा रखता था, का प्रतिस्पर्धी था। 1918 की पराजय के बाद, उसे अपनी प्रभुत्वशाली आकांक्षाओं को मिली अपनी असफलता के परिणामों से निपटना था। हिटलर ने स्पष्ट तौर पर अपनी योजना को सूत्रबद्ध किया। उसने रूस सहित समूचे यूरोप पर और उससे बाहर ‘‘जर्मनी’ का यानी कि नाजीवाद के उभार का समर्थन करने वाले एकाधिकारियों के पूंजीवाद का प्रभुत्वशाली वर्चस्व की स्थापना करने की योजना बनायी। वह अपने बड़े विरोधियों के साथ समझौता स्वीकार करने को तैयार था। वह सोचता था कि यूरोप और रूस उसे मिल जायेगा। जापान को चीन, बाकी एशिया और अफ्रीका ग्रेट ब्रिटेन को और अमरीकी महाद्वीप के देश संयुक्त राज्य अमेरिका को मिल जायेंगे। उसकी यह सोच ही गलत थी कि ऐसा समझौता सम्भव था। ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य ने इसे स्वीकार नहीं किया, जबकि इसके विपरीत जापान ने इसका समर्थन किया।
    जापानी फासीवाद इसी श्रेणी में आता है। 1895 से ही आधुनिक पूंजीवादी जापान समूचे पूर्वी एशिया पर अपने वर्चस्व को थोपने की आकांक्षा रखता था। यहां पर उभरते राष्ट्रीय पूंजीवाद का प्रबंधन करने के लिए ‘‘साम्राज्यी’’ स्वरूप से वह ‘‘नरमी के साथ’’ खिसका। वह ऊपरी तौर पर ‘‘उदार’’ संस्थाओं (एक चुनी हुई संसद) पर आधारित, लेकिन नियंत्रित सैन्य उच्च कमान द्वारा प्रत्यक्षतः प्रबन्धित दमनकारी रूप में खिसक गया। नाजी जर्मनी ने साम्राज्यी/फासिस्ट जापान के साथ संश्रय कायम किया जबकि ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका (1941 में पर्ल हार्बर के बाद) जापान के विरोध में गये।....
2. दूसरी कतार की पूंजीवादी शक्तियों का फासीवाद
    इटली के मुसोलिनी का फासीवाद (फासीवाद नाम सहित इसका खोजकर्ता) इसका मुख्य उदाहरण है। मुसोलिनीवाद इटली के दक्षिणपंथ द्वारा 1920 के दशक के संकट और बढ़ते कम्युनिस्ट खतरे के विरुद्ध दिया गया जबाव था। इस दक्षिणपंथ में पुराना अभिजाततंत्र, नये पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्गों के लोग शामिल थे। लेकिन न तो इटली का पूंजीवाद और न ही इसका राजनीतिक उपकरण मुसोलिनी के फासीवाद की दुनिया को तो दूर की बात है यूरोप में भी वर्चस्व कायम करने की आकांक्षा पूरी नहीं हुई। ड्यूस द्वारा रोमन साम्राज्य को पुनर्गठित करने की तमाम बात-बहादुरी के बावजूद मुसोलिनी समझता था कि उसकी व्यवस्था का स्थायित्व या तो ग्रेट ब्रिटेन (भूमध्य सागर का मालिक) या नाजी जर्मनी के साथ उसके संश्रय पर टिका हुआ है। इन दो सम्भव गठबंधनों के बीच उसकी हिचकिचाहट दूसरे विश्व युद्ध की पूर्वबेला तक बनी रही। 
    पुर्तगाल के सालाजार और स्पेन के फ्रांको के फासीवाद इसी किस्म की श्रेणी में आते हैं। ये दोनों तानाशाह उदार व समाजवाद गणतंत्रवादियों से खतरों के जबाव में दक्षिणपंथियों और कैथोलिक चर्च द्वारा बैठाये गये थे। इस कारण से, बड़ी साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा इसकी जनवाद-विरोधी हिंसा की(कम्युनिज्म-विरोधी बहाने के अंतर्गत) कभी भी निंदा नहीं की गयी। संयुक्त राज्य अमेरिका ने 1945 के बाद उनको पुनर्स्थापित किया। (सालाजार नाटो का संस्थापक सदस्य था और स्पेन ने अपने यहां संयुक्त राज्य के फौजी अड्डों को स्वीकृति दी थी)। यूरोपीय समुदाय जो अपनी प्रकृति से ही प्रतिक्रियावादी पूंजीवादी व्यवस्था की गारण्टी देने वाला था, ने भी संयुक्त राज्य अमरीका का अनुसरण किया। 1974 में सालाजार को हटाने और 1980 में फ्रांको की मौत के बाद ये दोनों व्यवस्थायें हमारे काल की नये कम तीव्रता वाले ‘‘जनतंत्र’’ के खेमे में शामिल हो गये। 
3. पराजित शक्तियों का फासीवाद
    इनमें फ्रांस की विची सरकार के साथ-साथ बेल्जियम की लिओन डेग्रेले और अन्य नाजियों के समर्थन से टिकी सरकारें शामिल थीं। फ्रांस में उच्च वर्ग ने लोकप्रिय मोर्चे (पोपुलर फ्रंट) के बजाय हिटलर को चुना। इस किस्म का फासीवाद, जो ‘‘जर्मन यूरोप’’ के समक्ष पराजय और समर्पण से जुड़ा है, नाजीवाद की पराजय के बाद पीछे हटकर पृष्ठभूमि में चला गया। फ्रांस में कुछ समय के लिए इसने प्रतिरोध परिषदों को सत्ता सौंप दी जो कम्युनिस्टों और प्रतिरोध लड़ाकुओं (विशेषतौर पर चाल्र्स दे गाल) से मिलकर बनी थी। इसका और आगे विकास क्रम आने वाला था (यूरोपीय निर्माण की शुरूआत से और फ्रांस द्वारा मार्शल योजना तथा नाटो में शामिल होने यानी कि अमरीकी प्रभुत्व के सामने अपनी इच्छा से झुकने) जिसमें फासिस्टवाद विरोधी व संभावनाशील पूंजीवाद-विरोधी प्रतिरोध जो वामपंथियों के साथ बना था, वह स्थायी तौर पर टूटकर अनुदार दक्षिणपंथियों का कम्युनिस्ट विरोधी, सामाजिक-जनवादियों के दक्षिणपंथ का एक मोर्चा बन गया। 
4. पूर्वी यूरोप के निर्भर समाजों में फासीवाद
    पूर्वी यूरोप के पूंजीवादी समाजों में बहुत विविधता है। इन देशों में पोलेण्ड, बाल्टिक राज्य, रोमानिया, हंगरी, यूगोस्लाविया, ग्रीस और पोलेण्ड काल के दौरान पश्चिमी यूक्रेन आते हैं। इनको पिछड़े पूंजीवादी देश कहा जा सकता है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इन देशों के प्रतिक्रियावादी शासक वर्गों ने नाजी जर्मनी का समर्थन किया था। 
    यदि पोलैण्ड को देखा जाय तो जारशाही रूस के जमाने से रूसी वर्चस्व के विरुद्ध विरोध जो बाद में सोवियत संघ से भी विरोध बना रहा, इस देश में मौजूद कैथोलिक पोपशाही की लोकप्रियता ने यहां पर विची माॅडल के बतौर जर्मनी के अधीन राज्य बनाने में मदद मिली। लेकिन हिटलर इस मामले को ऐसे नहीं समझता था। उसकी समझ के अनुसार, यहूदियों के साथ-साथ पोल, रूसी, यूक्रेनी और सर्ब वासी सभी ऐसे लोग हैं जिनका खात्मा होना चाहिए।
    तब, फिर जर्मनी के साथ गठजोड़ वाले पोलैण्ड के फासीवाद के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता था।
    हंगरी में होर्थी और रोमानिया के एन्तोनेस्क्यू, पोलैण्ड के विपरीत नाजी जर्मनी के छुटभैय्यै सहयोगी के बतौर देखे जाते थे। इन दोनों देशों में फासीवाद खुद इनमें से प्रत्येक के अपने विशिष्ट सामाजिक संकटों का परिणाम था। हंगरी में बेला कुन काल के बाद कम्युनिज्म का भय और रोमानिया में हंगरीवासियों के विरुद्ध राष्ट्रीय अहंकारवादी लामबंदी की इसको लाने में भूमिका थी।
    यूगोस्लाविया में हिटलर की जर्मनी (और इसी के साथ ही मुसोलिनी की इटली) ने ‘‘स्वाधीन’’ क्रोएशिया का समर्थन किया और सर्ब विरोधी उश्ताशी लोगों से निपटने के लिए कैथोलिक चर्च के समर्थन से उसे यह जिम्मेदारी दी कि सर्वों का सफाया करे।
    रूसी क्रांति ने मजदूर वर्ग के संघर्षों की संभावनाओं के संदर्भ में परिस्थिति को स्पष्टतया बदल दिया था। इसलिए 1939 के पूर्व के सोवियत संघ के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि बाल्टिक राज्यों और पोलैण्ड के खोये गये क्षेत्रों में भी प्रतिक्रियावादी शासक वर्गों का जबाव व व्यवहार इससे तय होता था। 1921 में रीगा की संधि के बाद पोलैण्ड ने बेलारूस के पश्चिमी हिस्सों तक विस्तार कर लिया और इसी प्रकार यूक्रेन पर अपना अधिकार कर लिया। 
    इस समूचे क्षेत्र में, 1917 के बाद (यहां तक कि 1905 की पहली रूसी क्रांति के समय से ही) दो खेमे, एक समाजवाद समर्थक (जो बोल्शेविक समर्थक हो गया), जो किसान समुदाय के बीच और बुद्धिजीवी दायरों में (विशेष तौर पर यहूदियों के बीच) लोकप्रिय था और दूसरे समाजवाद-विरोधी (और परिणामस्वरूप फासिस्ट प्रभाव के अंतर्गत जनतंत्र विरोधी सरकारों के संबंध में उदासीन) जिसका सभी भू-स्वामी समर्थन करते थे। बाल्टिक राज्यों, बेलारूस और पश्चिमी यूक्रेन का 1939 में सोवियत संघ के साथ पुनर्एकीकरण ने इस विरोधाभास को प्रदर्शित कर दिया। 
    पूर्वी यूरोप के इस हिस्से में फाॅसीवाद समर्थक और फासीवाद-विरोधी शक्तियों के बीच टकराहटों का राजनीतिक मानचित्र धुंधला था। एक तरफ, पोलैण्ड के राष्ट्रीय अहंकारवाद(जो बेलारूस और यूक्रेन के क्षेत्रों को पोलैण्ड के लोगों को बसाकर पोलैण्डीकरण करने पर तुला हुआ था।) और शिकार लोगों के बीच टकराहट और दूसरी तरफ ‘उक्रेइनी राष्ट्रवादियों’ जो पोलैण्ड विरोधी और रूस-विरोधी (कम्युनिज्म विरोध के कारण) थे और हिटलर की परियोजना के बीच टकराहट थी। हिटलर की परियोजना अपने अधीनस्थ सहयोगी के बतौर भी किसी युक्रेइनी राज्य की गुंजाइश नहीं देखती थी क्योंकि उक्रेइनी अवाम उसकी निगाह में खात्मे के लिए थी। 
    दो विश्वयुद्धों के बीच यूरोपीय संसदों का दक्षिणपंथ हमेशा फासीवाद के प्रति और यहां तक कि ज्यादा आक्रामक नाजीवाद के प्रति हमेशा उदासीन रहा। खुद चर्चिल ने अपने अतीव ‘‘ब्रिटिशपने’’ के बावजूद कभी भी मुसोलिनी के प्रति अपनी सहानुभूति को नहीं छिपाया। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपतियों ने, जिनमें दोनोें डेमोक्रेट और रिपब्लिकन शामिल हैं बहुत बाद में हिटलर की जर्मनी को खतरा बताना शुरू किया, तब भी वे जापान को सर्वोपरि खतरा बताते  रहे। ट्रूमैन ने जो दूसरे सोचते थे, उसे साफ-साफ कह दिया था कि जर्मनी और सोवियत रूस एक-दूसरे से लड़कर नष्ट हो जायें और अन्य यूरोपीय शक्तियां जब कमजोर पड़ जाय तब फायदा बटोरने के लिए संयुक्त राज्य अमरीका युद्ध में देर से उतरे। यह फासिस्टवाद-विरोधी सिद्धान्तनिष्ठ अवस्थिति नहीं थी। 
     इस संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि दुनिया के किसी भी देश के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग ने फासीवाद के विरुद्ध सिद्धान्तनिष्ठ अवस्थिति नहीं अपनायी थी।                  (क्रमशः)

हांगकांग का ‘आक्यूपाई सेन्ट्रल’ आंदोलन, चीन और अमरीकी साम्राज्यवाद
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
हांगकांग में ‘‘आक्यूपाई सेन्ट्रल’’ आंदोलन 22 सितम्बर के प्रदर्शनों से शुरू हुआ और जब पुलिस ने सड़कें और सरकारी इमारतों को खाली कराने के लिए आंसू गैस के गोलों का इस्तेमाल किया तो यह आंदोलन और तेज हो गया। इस आंदोलन की मुख्य मांग है कि 2017 में होने वाले चुनाव के नियमों में परिवर्तन किया जाए।
‘‘आक्यूपाई सेन्ट्रल’’ कहे जाने वाले आंदोलन को संयुक्त राज्य अमेरिका की मीडिया में जोर-शोर से समर्थन मिला और अभी भी मिल रहा है। अमरीकी मीडिया में इस आंदोलन सम्बन्धी प्रत्येक खबर को बड़े जोश-खरोश के साथ ‘‘जनतंत्र समर्थक’’ आंदोलन कहकर प्रचारित किया जा रहा है। 
इसके साथ ही, संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटिश हुकूमत ने प्रदर्शनों के समर्थन में बयान जारी किये हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश मंत्री जाॅन केरी ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी से प्रदर्शनकारियों की मांगों को स्वीकार करने की मांग की है। चीन के विदेशमंत्री ने अमेरिकी विदेश मंत्री द्वारा चीन की संप्रभुता की इज्जत करने की मांग करके उनका प्रत्युत्तर दिया है। ब्रिटेन, जिसने 1842 में हांगकांग को चीन से छीन लिया था और उसे 155 वर्ष तक उपनिवेश बनाये हुए था, हांगकांग में ‘‘जनतंत्र’’ की मांग करने वाले आंदोलन का समर्थन कर रहा है। ब्रिटेन के उपप्रधानमंत्री ने लंदन स्थित चीनी राजदूत को बुलाकर ब्रिटिश सरकार की इस संबंध में चिंता से अवगत करा दिया है। 
हालांकि अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी फिलहाल चीन पर शासन करने की चीन की तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय भूमिका को समाप्त करने की उम्मीद नहीं कर रहे हैं लेकिन वे हांगकांग के ‘‘आक्यूपाई सेंट्रल’’ आंदोलन के जरिये चीन की अर्थव्यवस्था में चीनी राज्य की भूमिका को कमजोर होने की उम्मीद कर रहे हैं। इसके साथ ही वे हांगकांग के अलावा अन्य प्रदेशों में भी पूंजीवादी अलगाववादी आंदोलनों को बढ़ने का सपना पाल रहे हैं। 
इस आंदोलन के जरिए ये साम्राज्यवादी ताकतें चीन में खुले पूंजीवाद के आने का रास्ता संजोये हुए हैं। ऐसे पूंजीवाद का जो इन साम्राज्यवादियों के इशारे पर नाचने के लिए तैयार हो। 
पुलिस दमन के प्रति साम्राज्यवादियों का अलग-अलग देशों के प्रति परस्पर विरोधी दृष्टिकोण
मैंक्सिकों में दसियों हजार छात्र पाठ्यक्रमों में बदलाव और फीस में बढ़ोत्तरी के विरुद्ध विरोध करते रहे हैं। मैक्सिको शहर में तीसरी बार 50 हजार से ज्यादा छात्रों ने प्रदर्शन किया। पश्चिमी मैक्सिको के एक टीचिंग काॅलेज के 57 छात्र उस समय से गायब हैं। जब प्रदर्शनों के दौरान गोलीबारी की गयी थी। उस प्रदर्शन में 3 छात्र मारे गये थे और अन्य तीन घायल हुए थे। पुलिस और गुण्डा गिरोहों द्वारा आतंकित किये गये इलाके से इस समय सामूहिक कब्रों का पता चला है। 
इसी प्रकार, इटली के नेपल्स में 2 अक्टूबर को खर्चों में कटौती करने और यूरोपीय केन्द्रीय बैंक की एक मीटिंग का विरोध करने वाले प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने आंसू गैस के गोले और पानी की बौछार करके हमला किया।
पिछले वर्ष अप्रैल के महीने में फिलीपीन्स में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की यात्रा के दौरान प्रदर्शनकारियों पर पानी की बौछारों, आंसू गैस और बड़े पैमाने की गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा था। वे अमेरिका द्वारा फिलीपीन्स में अमेरिकी फौजों, जहाजों और हवार्ह जहाजों की उपस्थिति की समयावधि को बढ़ाये जाने का और उनके द्वारा लगाई जाने वाली गश्त का विरोध कर रहे थे। 
इन तीनों देशों के शासनाध्यक्षों से क्या अमेरिकी या ब्रिटिश शासकों ने मिलकर किसी भी तरह का अपना विरोध दर्ज कराया था? क्या अमेरिकी या ब्रिटिश कारपोरेट मीडिया ने इन देशों में हुए पुलिस दमन की निंदा की थी?
तब यह बहुत स्पष्ट है कि हांगकांग के प्रदर्शनकारियों के ऊपर आंसू गैस के गोले छोड़ने पर इन साम्राज्यवादियों और उनके कारपोरेट मीडिया द्वारा इतना तीखा और आक्रामक अभियान क्यों हैं? इतना ही नहीं, हांगकांग की पुलिस द्वारा आंसू गैस छोडे जाने का जो अधिकारी इतना विरोध कर रहे हैं, वहीं अधिकारी खुद अमेरिका के अंदर न सिर्फ आंसू गैस के गोलों का इस्तेमाल करते हैं बल्कि टैंक, हथियारबंद वाहन, जिंदा गोला-बारूद, बिजली का झटका देने वाले यंत्र, रबर की गोलियां, स्टनगन, कुत्ते और मानवरहित यानों द्वारा नियमित पुलिसिया कार्यवाहियां भी करते रहे हैं। 
अमेरिकी साम्राज्यवादी जब हांगकांग में चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाते हैं तो यह हास्यास्पद लगता है। खुद संयुक्त राज्य अमेरिका में करोड़ों डाॅलर चुनाव अभियान में खर्च किये जाते हैं और कारपोरेट घरानों से पैसा इकट्ठा करने का अभियान चलाया जाता है। 
चीन के अखबार और अधिकारी ‘‘आक्यूपाई सेंट्रल’’ आंदोलन को संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा धन मुहैय्या कराये गये ‘‘रंगीन क्रांति’’ की संज्ञा देते हैं और इसकी तुलना यूक्रेन मेें हुए ‘‘मैदान आंदोलन’’ से करते हैं। 
हांगकांग के विरोध आंदोलन और उसके नेताओं को फण्ड और समर्थन जुटाने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की संस्था नेशनल इंडोवमेण्ट फाॅर डेमोक्रेसी और डेमोक्रेटिक नेशनल इंस्टीट्यूट के साथ कई कारपोरेट घरानों के फाउण्डेशनों की भूमिका की चर्चा कई लेखों में आयी है। 
हजारों एन.जी.ओ. हांगकांग को अपना आधार बनाये हुए हैं। वे जनतंत्र को स्थापित करने की बातें करते हैं। लेकिन उनका असली मकसद चीनी समाज की राजनीति में चीन की तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय भूमिका को कमजोर करना है। हांगकांग में, बाकी चीन से अलग, दशकों से अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा धन मुहैय्या कराये जाने वाले एनजीओ और राजनीतिक एसोसिएशनों की भरमार है। 
हांगकांग का महत्व इसके आकार की वजह से नहीं है। इसकी आबादी महज 75 लाख है जो चीन की आबादी के एक प्रतिशत की आधी है। लेकिन हांगकांग वित्तीय पूंजी का बड़ा केन्द्र है। विश्व आर्थिक मंच 2011 के अनुसार, वित्तीय पहुंच, कारोबारी माहौल, बैंक व वित्तीय सेवाओं, संस्थागत माहौल, गैर बैकिंग वित्तीय सेवाओं व वित्तीय बाजारों के मामलों में हांगकांग बहुत पहले ही लंदन, न्यूयार्क और सिंगापुर को पीछे छोड़ चुका है। 
हांगकांग चीन के लिए वित्तीय दरवाजे के बतौर काम करता है। एक गारण्टी युक्त और बैकिंग के लिए दोस्ताना, इसकी विशिष्ट हैसियत है। यह बीमा के साथ अपनी वित्तीय सेवाओं, कानून, हिसाब-किताब और सैकड़ों सुस्थापित पेशेवर सेवा फर्मों के लिए जाना जाता है। हांगकांग में बैठे पूंजीपति इस समय चीन में सबसे बड़े विदेशी निवेशक हैं। हांगकांग दुनिया में समृद्धि और गरीबी के सबसे बड़े अतिरेकों का शहर है। यह शहर चमक-दमक वाली गगनचुम्बी इमारतों और माॅल के लिए प्रसिद्ध है। और दुनिया के कुछ सबसे धनी लोगों का घर है। लेकिन इसकी आधी आबादी अत्यधिक भीड़ भरे और चरमराते सार्वजनिक घरों में रहती है। इसकी 20 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है। 
1 लाख 70 हजार से ज्यादा कामगार गरीब पिंजरों जैसे फ्लैटों में रहते हैं। शहर में कोई न्यूनतम मजदूरी निर्धारित नहीं है। 
‘आक्यूपाई सेन्ट्रल’ ने तो अपना नाम ‘आक्यूपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन की तर्ज पर रखा है और उसकी ही तरह दावपेंच और अपील अपनायी है लेकिन उसने हांगकांग के बैंकों से संबंधित एक भी मांग नहीं रखी है। 
इसके विपरीत ‘आक्यूपाई वाल स्ट्रीट’ ऐसा आंदोलन था जो वाल स्ट्रीट बैेंकों की आपराधिक भूमिका के विरुद्ध लाखों-लाख युवकों के गुस्से की भूमिका पर केन्द्रित था। विशेषतौर पर सबसे बड़े बैंकों को बचाने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार द्वारा खबरों डाॅलर लगा दिये गये थे जबकि दसियों लाख कामकाजी लोगों के घर मिलने का रास्ता बंद हो गया था और दसियों लाख लोग बेरोजगार हो गये थे। 
हांगकांग में बैंकों की भूमिका अगले 50 वर्षों के लिए कानून में दर्ज है। इसको अनदेखा कौन करेगा?  चीन के अंतर्गत पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश हांगकांग की विशिष्ट हैसियत को समझकर ही ‘‘आक्यूपाई सेन्ट्रल’’ किसका प्रतिनिधित्व करता है, इसे समझा जा सकता है। 
हांगकांग 1842 से 1997 तक ब्रिटिश उपनिवेश रहा है, जहां कोई चुनाव नहीं होते थे और किसी भी तरह का जनतंत्र नहीं था। 155 वर्षों तक इसके राज्यपाल की नियुक्ति ब्रिटेन करता था। 
हांगकांग ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा थोपी गयी कई असमान संधियों द्वारा एक उपनिवेश के बतौर अस्तित्व में आया था। चांदी में भुगतान करने के बजाय ब्रिटेन ने चीन की चाय, मसाले, सिल्क और पोर्सलीन के बदले उन पर अफीम की बिक्री थोप दी थी। अफीम की बिक्री की वृद्धि का किंग साम्राज्य ने प्रतिरोध किया था जिसने 1838 में 20 लाख पौण्ड से अधिक अफीम जब्त कर ली थी। 
1842 में नानकिंग की संधि में चीन से भारी क्षतिपूर्ति की मांग की गयी। ब्रिटिश और अन्य विदेशी नागरिकों को चीन में विशेष सुविधा प्राप्त स्थिति दी गयी। तथा इसके साथ ही हांगकांग द्वीप पर अधिकार कर लिया गया। हांगकांग में चीनी जनता पर नस्लवादी अलगाव आम प्रचलन में आ गया। इसी प्रकार विदेशी लोगों पर रियायतें भी आम बात हो गयीं। 
15 वर्ष बाद दूसरे अफीम युद्ध में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, अमरीकी, जापानी और रूसी साम्राज्य के व्यापारियों ने और मांग की तथा हजारों सैनिकों और हथियारबंद नावों की वहां तैनाती की गयी। चीन पर दबाव डालकर अतिरिक्त क्षेत्रों को पट्टे पर देने और अन्य शहरों को खोलने के लिए बाध्य किया गया। उनकी मांगेें बढ़ती रहीं 1898 में हांगकांग के इर्दगिर्द टापुओं को ‘नये क्षेत्र’ का नाम देकर 99 वर्ष के पट्टे पर देने को बाध्य किया गया। 
चीनी क्रांति 1949 में पूरी हुई। माओत्सेतुंग के नेतृत्व में चीनी समाज का समाजवादी आधार पर पुनर्गठन की प्रक्रिया शुरू हुई। तमाम असमान संधियों की समाप्ति की गयी। 
लेकिन हांगकांग ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हाथ में बना रहा। मकाऊ पुर्तगाली उपनिवेशवादियों के हाथ में था और ताइवान में कोमितांग प्रतिक्रियावादी चियांग काई शेक, जो चीन से पराजित होकर भाग गया था, अमरीकी साम्राज्यवादियों की शह पर बना रहा। पश्चिम की साम्राज्यवादी ताकतों और जापान ने चीन के तकनीकी और औद्योगिक विकास को बाधित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। 
1976 के बाद चीन में पूंजीवाद की पुनस्र्थापना हो गयी। 1980 के दशक में चीन ने पश्चिमी पूंजीवादी निवेश के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को खोल दिया। चीन में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों की पुनस्र्थापना हो गयी लेकिन सत्ता चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में बनी रही। स्वाभाविक है कि पूंजीवादी ताकतें एकदलीय शासन व्यवस्था के विरोध में खड़ी होंगी ही। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी सारतः पूंजीवादी पार्टी में तब्दील हो गयी है लेकिन स्वरूप में वह पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी की तरह चल रही है। यह ऐसा अंतरविरोध है जिसे देर-सबेर हल होना है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था रहेगी तो उसी के अनुरूप राजनीति को भी होना पड़ेगा। अन्यथा समाज में उथल-पुथल को कुचलने के लिए तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टी को दमनकारी तरीका अधिकाधिक अपनाना पड़ेगा और वह एक फासिस्ट पार्टी में तब्दील होने के लिए अभिशप्त है। 
1997 में हांगकांग पर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का पट्टा समाप्त हो गया। इसके पहले 1984 में हांगकांग के भविष्य की स्थिति पर चीन ने ब्रिटेन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था। इसी को हांगकांग का बुनियादी कानून कहा जाता है। 
चीन की सरकार ने ‘एक देश, दो व्यवस्थायें’ के तहत 50 वर्षों तक हांगकांग में पूंजीवादी संबंधों की गारण्टी करने का एक समझौता किया था। अब हांगकांग जनलोकतंत्र चीन का हांगकांग विशेष प्रशासनिक क्षेत्र (एच.के.एस.ए.आर.) के नाम से जाना जाने लगा। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ समझौते के तहत एच.के.एस.ए.आर. पूंजी की स्वतंत्र आवाजाही के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय केन्द्र की हैसियत में बना रहेगा। हांगकांग की मुद्रा डाॅलर स्वतंत्र तौर पर परिवर्तनीय बनी रही।
     सम्पत्ति अधिकारों, संविदाओं, उद्यमों के मालिकाने, उत्तराधिकार और विदेशी निवेश सभी की गारण्टी बनी रही। समझौते में दर्ज किया गया कि 2047 तक हांगकांग की पूंजीवादी व्यवस्था एक जीवन शैली के बतौर बनी रहेगी। प्राइवेट स्कूलों, विश्वविद्यालयों और बड़े कारपोरेट मीडिया का तानाबाना वैसे ही काम करता रहेगा। हांगकांग बुनियादी कानून में कहा गया कि समाजवादी व्यवस्था और समाजवादी नीतियों को हांगकांग में नहीं लागू किया जायेगा।
हांगकांग के बैंकपतियों, वित्तपतियों और उद्योगपतियों को सुनिश्चित स्वायत्तता मिली हुयी है। विदेश और रक्षा मामलों में चीन सरकार की चलती है। ‘आक्यूपाई सेन्ट्रल’ के नेता इससे भी मुक्ति चाहते हैं। 
संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त एन.जी.ओ.
हांगकांग में इस समय तीस हजार से अधिक एनजीओ हैं। वे जीवन के सभी क्षेत्रों में हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका एनजीओ को आर्थिक मदद राजनीतिक तोड़फोड़ के लिए देता है। वह यह संयुक्त राज्य के विदेश विभाग की यू.एस. एजेन्सी फाॅर इण्टरनेंशनल डेवलपमेंट के जरिए करता है। यह एजेन्सी नेशनल इण्डोवमेण्ट फाॅर डेमोक्रेसी (एनईडी), नेशनल डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूट (एनडीआई), नेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट, फोर्ड फाउण्डेशन, कार्टर सेण्टर, एशिया फाउण्डेशन, फ्रीडम हाउस, सोरोस की ‘ओपन सोसाइटी’ और अन्यों के अतिरिक्त ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ को अनुदान देती है। 
ये सभी ग्रुप और कई अन्य आर्थिक मदद पाने वाली परियोजनायें मानव अधिकारों, जनतंत्र, स्वतंत्र प्रेस और चुनाव सुधार का समर्थन और प्रोत्साहित करने का दावा करते हैं। सामाजिक नेटवर्क की यह आर्थिक मदद लातिन अमरीका और कैरिबियाई देशों, समूचे पश्चिम एशिया और अफ्रीका और पूर्वी यूरोप तथा पूर्व सोवियत गणराज्यों पर उसी उद्देश्य से काम करती है।
अमरीकी साम्राज्यवाद ने अपने सैकड़ों हस्तक्षेपों, युद्धों, ड्रोन हमलों, बलात् सत्तापरिवर्तनों या वैश्विक निगरानी रखकर कहीं भी जनतंत्र की स्थापना नहीं की है। लेकिन ‘जनतंत्र को बढ़ावा देना’ समूची दुुनिया में देशों की सम्प्रभुता पर हमला करने का बहाना है। 
एक खबर के अनुसार, आक्यूपाई सेन्ट्रल का प्रत्येक नेता या तो सीधे संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश विभाग, एनईडी और एनडीआई से जुड़े हुए हैं या वे एनडीआई की कई योजनाओं में से किसी एक से सम्बद्ध हैं। 
‘आक्यूपाई सेन्ट्रल’ के स्वघोषित नेता बेन्नी ताई कानून का प्रोफेसर है जिसने एन.डी.आई. और एन.ई.डी. से अनुदान प्राप्त किया है। उसने एन.डी.आई. से आर्थिक मदद प्राप्त कई सम्मेलनों में भागीदारी की है। यही बात ‘आक्यूपाई सेण्ट्रल’ के दूसरे महत्वपूर्ण नेता आंडे यू पर भी लागू होती है। 
कई प्रकाशनों ने अमरीकी साम्राज्यवादियों की इस साजिश का पर्दाफाश किया है। 
हांगकांग का एक सर्वेक्षण यह दिखाता है कि जो लोग 10,000 डालर या उससे कम कमाते हैं वे इस आंदोलन का विरोध करते हैं। समर्थन उनका ज्यादा है जो एक लाख डालर सालाना से अधिक कमाते हैं। वाल स्ट्रीट चीन में पूंजीवाद से संतुष्ट नहीं है। वह विश्व बाजार में चीन से मिलने वाली प्रतिस्पर्धा से अधिकाधिक डरा हुआ है। चीन में राजनीतिक उदारीकरण पर अमरीकी साम्राज्यवादियों का दबाव एक तरफ तो इस प्रतिस्पर्धा के कारण है और दूसरी तरफ चीन को अपनी छत्रछाया में लाने की कोशिश है। 
यही कारण है कि अमरीकी साम्राज्यवादी, अब पूंजीवादी रूस और पूंजीवादी चीन के प्रति ज्यादा टकराने वाली मुद्रा अख्तियार कर रहे हैं। 
हांगकांग का ‘आक्यूपाई सेण्ट्रल’ आंदोलन अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा चीन को राजनीतिक व आर्थिक तौर पर कमजोर करने की चैमुखी कोशिश का एक हिस्सा है। 
लेकिन चीन के शासक भी हांगकांग की मेहनतकश अवाम के उसी तरह विरुद्ध हैं जिस तरह वे खुद चीन के मजदूर-मेहनतकश अवाम के विरुद्ध हैं। 
अमरीकी साजिशों का मुकाबला सही जमीन से तभी हो सकता है जब चीन और हांगकांग की मजदूर-मेहनतकश आबादी एकजुट होकर खड़ी हो जाये। 

लेकिन यह अभी भविष्य की बात है।

भाजपा-संघ द्वारा फैलाये जा रहे हिन्दुत्व के मिथक
वर्ष-17,अंक-19  (01-15 अक्टूबर, 2014)
नरेन्द्र मोदी के गद्दी पर आसीन होते ही संघ ने अपने हिन्दुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है। अमित शाह-मोहन भागवत से लेकर योगी आदित्यनाथ ने एक-एक कर साम्प्रदायिक बयानबाजी करने में होड़ शुरू कर दी है। ‘लव जिहाद’ से लेकर ‘हिन्दू राष्ट्र’ संदर्भी बयान एक-एक कर भाजपा व संघ की ओर से उछाले जा रहे हैं। वहीं सरकार भी शिक्षा-पाठ्यक्रम-इतिहास के साम्प्रदायीकरण की पुरजोर कोशिश कर रही है। विभिन्न पदों पर संघी मानसिकता के व्यक्ति बैठाये जा रहे हैं। 
हिन्दुत्व की हमलावर राजनीति जहां एक ओर मुस्लिम व अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ है वहीं यह हिन्दू धर्म के मेहनतकशों के भी खिलाफ है। समाज को धर्मो के आधार पर बांटने वाली इस राजनीति से मेहनतकश समुदाय को आपस में लड़वाया जाता है और उनके बुनियादी मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। जाहिर ही है कि इससे जहां एक ओर भाजपा-संघ के वोट बैंक को लाभ मिलता है, वहीं पूंजीवादी व्यवस्था व पूंजीपति वर्ग जनता के आक्रोश का शिकार होने से बच जाता है। इसीलिए हिन्दुत्व की राजनीति का मुकाबला मेहनतकशों की वर्गीय राजनीति को मजबूत करके ही किया जा सकता है। मेहनतकशों की एकता को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक नेताओं द्वारा धर्म-इतिहास-राष्ट्र को लेकर अन्य मसलों पर फैलाये जा रहे मिथकों का वैचारिक स्तर पर जवाब दिया जाये। यहां उन चंद मिथकों को जो आजकल प्रचारित किये जा रहे हैं, को प्रस्तुत किया जा रहा है। 
मिथक 1: दंगों के लिए मुस्लिम जिम्मेदार होते हैं। मुस्लिमों की अधिक जनसंख्या वाले इलाकों में दंगे अधिक होते हैं। 
यथार्थ: पिछले दिनों भाजपा के सांसद योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रभारी बनने के बाद इस तरह की बातें करनी शुरू की। इन बातों में सत्यता का जरा भी अंश नहीं है। वास्तव मेें दंगों के लिए हिन्दू व मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन व इनके नेता जिम्मेदार होते हैं। ये नेता ही किसी विवाद को हवा देकर हिन्दू व मुस्लिम समुदाय को आमने-सामने खड़ा कर देते हैं और दंगे शुरू हो जाते हैं। इसी तरह इस बात में भी जरा भी सच्चाई नहीं है कि दंगे मुस्लिम बाहुल इलाकों में ही होते हैं। भारत में मुस्लिम बाहुल प्रांत, जम्मू व कश्मीर (67 प्रतिशत मुस्लिम आबादी) व लक्षद्वीप (9.5 प्रतिशत मुस्लिम आबादी) है। पर यहां दंगों का कोई बड़ा इतिहास नहीं है। इसकी तुलना में गुजरात (9 प्रतिशत मुस्लिम आबादी), उत्तर प्रदेश (18.5 प्रतिशत मुस्लिम आबादी), असम (30 प्रतिशत मुस्लिम आबादी), में दंगे कहीं अधिक हुए हैं जबकि प. बंगाल (25 प्रतिशत मुस्लिम आबादी), केरल (25 प्रतिशत मुस्लिम आबादी) में दंगे अपेक्षाकृत खासे कम रहे हैं। अर्थात मुस्लिम आबादी का दंगे होने या न होने से कोई लेना-देना नहीं है। इस मिथक को फैलाकर योगी आदित्यनाथ सरीखे सांप्रदायिक नेता दंगों के लिए मुस्लिमों को जिम्मेदार ठहराना चाहते हैं। वास्तविकता यही है कि वैसे तो दोनों धर्मों के साम्प्रदायिक तत्व दंगों को भड़काते रहे हैं पर पिछले कुछ समय से भाजपा संघ मंडली इस हेतु अधिक सक्रिय रही है। उत्तर प्रदेश में पिछले एक वर्ष से कायम किये जा रहे माहौल के जरिये भाजपा लोकसभा चुनाव में जीत के बाद राज्य की गद्दी भी हासिल करने के फिराक में है इसलिए अमित शाह के बाद दूसरे घोर साम्प्रदायिक योगी आदित्यनाथ को भाजपा ने यहां आगे किया है। 
मिथक 2: लव जिहाद मुस्लिमों/मुस्लिम संगठनों की ओर से सोची-समझी रणनीति है जिसके तहत मुस्लिम युवक हिन्दू लड़कियों को बहला-फुसलाकर इनका धर्मांतरण कर अपनी आबादी बढ़ाना चाहते हैं। 
यथार्थ: संघी प्रचारक लम्बे समय से मुस्लिमों के बारे में तरह-तरह के कुत्सा प्रचार करते रहे हैं। पहले मुस्लिमों के गंदे होने, अधिक बच्चे पैदाकर आबादी बढ़ाने सरीखी बातें समाज में इसके द्वारा स्थापित की जाती रही हैं। इन बातों ने किसी हद तक हिन्दू धर्म के लोगों में मुस्लिमों के प्रति एक तरीके का पूर्वाग्रह पहले से कायम कर दिया है। पर इस सारे प्रचार से संघी कारकूनों को एक हद से अधिक सफलता नहीं मिली। राम मंदिर मुद्दे ने उन्हें कुछ समय तक अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने का मौका दिया पर अब यह मुद्दा भी पहले सरीखा कारगर नहीं रहा। ऐसे में भाजपा व संघ को किसी अन्य मुद्दे की तलाश थी जिसका असर उनके एजेंडे को तेजी से आगे बढ़ाये, ‘लव जिहाद’ के रूप में उन्होंने वैसे ही मुद्दे को इजाद कर लिया। 
भारतीय समाज के पूंजीवादीकरण और पुरानी बेडि़यों के टूटने के चलते भारतीय समाज में भी प्रेम विवाह का चलन तेजी से बढ़ रहा है। ये विवाह जाति-धर्म की दीवारें भी लांघ रहे हैं। भारतीय समाज में प्रेम विवाहों में बढ़ोत्तरी के बावजूद स्त्रियों के प्रति सामंती सोच लड़कियों को परिवार की इज्जत के रूप में देखे जाने की सोच भी अभी पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। ऐसे में अक्सर ही प्रेम विवाह परिवार की इज्जत के चले जाने के रूप में देखे जाते हैं खासकर यदि ये जाति या धर्म से बाहर हो तो परिवार इसका खासा विरोध करता है। 
स्त्रियों के प्रति इसी सामंती सोच, उन्हें इज्जत से जोड़कर देखे जाने की स्त्री विरोधी सोच का इस्तेमाल करते हुए संघी लाॅबी ने इसे हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष भड़काने का जरिया बना डाला और प्रचारित किया जाने लगा कि मुस्लिम युवक हिन्दू लड़कियों को बहला-फुसलाकर, उनका धर्मातंरण कर उन्हें बर्बाद कर छोड़ देते हैं या शादी कर बच्चे पैदा कर अपनी आबादी बढ़ाते हैं। ऐसा वे एक साजिश के तहत करते हैं। अतः हिन्दुओं को अपनी लड़कियों को मुस्लिमों से सुरक्षित रखना होगा। इसके उदाहरण के तौर पर इतिहास में वे जोधा-अकबर व आधुनिक युग में हीरो सैफ अली खान द्वारा अमृता सिंह को छोड़ा जाना प्रचारित करने लगे। 
‘लव जिहाद’ के उपयोग के द्वारा संघ परिवार को मुजफ्फरनगर दंगे कराने में सफलता हासिल हुई। अभी हाल में ही रक्षाबंधन के मौके पर संघ कार्यकर्ताओं द्वारा बड़े पैमाने पर राखी बंधवाकर हिन्दू लड़कियों की मुस्लिमों से रक्षा कराने की शपथ दिलायी गयी। 
मुद्दे को निरंतर हवा देने के लिए मेरठ और कानपुर के दो मामले भी सामने लाये गये जिसमें हिन्दू महिलाओं ने मुस्लिम युवकों पर धोखाधड़ी के आरोप लगाये। ये महिलाएं शादी कर वर्षों अपने पति के साथ रहने के बाद जिस तरह के आरोप लगा रही हैं उससे इतना तो स्पष्ट ही है कि पति के दूसरे धर्म का होने से उन्हें विशेष आपत्ति नहीं थी हालांकि संभव है कि उनका अन्य तरह का उत्पीड़न होता रहा हो। पर संघी लाॅबी इन मामलों में पतियों के मुस्लिम धर्म का होने को ही प्रमुखता से उछालकर इस ‘लव जिहाद’ का उदाहरण साबित करने में तुली है। 
संघी लाॅबी भले ही ‘लव जिहाद’ को जोधा-अकबर के काल से प्रचारित करे पर वास्तविकता यही है कि यह शब्द दो तीन वर्ष पूर्व कर्नाटक व फिर केरल में प्रचारित हुआ। ‘जिहाद’ शब्द सितंबर 2001 की घटना के बाद ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ अभियान के तहत नकारात्मक रूप में स्थापित किया गया। कर्नाटक में श्रीराम सेना के नेता प्रमोद मुथालिक ने हिन्दू-मुस्लिम जोड़ों-प्रेमियों पर हमला बोलना शुरू किया और इसे ‘लव जिहाद’ के रूप में प्रचारित किया जिसके तहत यह प्रचारित किया गया कि हिन्दू लड़कियों को मुस्लिम युवक शादी व धर्मांतरण को मजबूर करते हैं। श्रीराम सेना ने कुछ लड़कियों के परिवार वालों को अदालत पर पहुंचाने में भी मदद की। अदालत ने ‘लव जिहाद’ के एक केस में पुलिस के शीर्ष अधिकारियों को जांच के आदेश दिये। लड़की को जबरन पिता के साथ जेल भेज दिया गया। पर लड़की ने झुकने से इंकार कर दिया और अंत में उसे उसके मुस्लिम पति के पास जाने दिया गया।
इसी तरह केरल हाई कोर्ट ने भी हिन्दू मुस्लिम शादी के मामले में इस परिघटना की जांच के आदेश दिये। यहां ‘लव जिहाद’ के संघी प्रवक्ताओं ने 4,000 हिन्दू लड़कियों को पूरे राज्य में फुसलाये जाने का दावा किया था पर जांच में पाया गया कि यह संख्या वास्तविकता में कहीं नहीं है। और जिन लड़कियों ने मुस्लिमों से शादी की भी है तो अपनी मर्जी से। 
इस तरह से ‘लव जिहाद’ को किसी मुस्लिम संगठन ने नहीं बल्कि संघी कारकूनों ने पैदा किया और वे इसको निरंतर प्रचारित करने में जुटे हैं। कुछेक मामलों में जहां लड़कियां शादी के बाद परिवार के दबाव में आ जाती हैं और बयान से पलट जाती है वहां संघी तत्व अपने एजेंडे को प्रचारित करने का जरिया बना लेते हैं। 
‘लव जिहाद’ की अवधारणा न केवल घोर स्त्री विरोधी है जो मानती है कि हिन्दू लड़कियों को कोई भी बहला-फुसला सकता है बल्कि सामंती सोच जिसके तहत स्त्री एक सम्पत्ति, इज्जत का स्रोत है, की भी समर्थक है। यह संघ के स्त्री विरोधी चरित्र को भी दर्शाता है। 
‘लव जिहाद’ आज इस कदर सफल प्रयोग बन चुका है कि सहारनपुर में एक बाबा ही पैदा हो गये हैं जो मुस्लिम युवकों के प्रेम जाल में फंसी हिन्दू लड़कियों का इलाज करते हैं। भाजपा-संघ आज ‘लव जिहाद’ का अधिकाधिक प्रयोग कर साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने में जुटी है। इसी कड़ी में वह बिहार के भागलपुर में बंद का आयोजन भी कर चुकी है।
इस दुष्प्रचार का परिणाम ही है कि अब हिन्दू-मुस्लिम प्रेम होना अधिकाधिक असहज होता चला गया है। ‘लव जिहाद’ न केवल अंतर्जातीय-अंतर्धार्मिक विवाहों को हतोत्साहित करता है बल्कि महिलाओं को सामंती पितृसत्ता की कैद में भी ढकेलता है। इस तरह यह न केवल मुस्लिमों के प्रति दुष्प्रचार है बल्कि सभी महिलाओं के हितों के भी खिलाफ है। संघ भारत का तालिबान बन चुका है। 
समाज में एक साथ रहते हुए अंतर्जातीय-अंतर्धार्मिक प्रेम व विवाह होने एकदम स्वाभाविक बात है। साथ ही ये विवाह जाति-धर्म की दीवारों को कमजोर करते हैं। इसीलिए इसका समर्थन किया जाना चाहिए। पर साम्प्रदायिक संगठन यह नहीं चाहते कि हिन्दू मुस्लिम परस्पर करीब आयें, आपस में रिश्तेदारी कायम करें इसीलिए वे बांटने वाले मुद्दे के बतौर ‘लव जिहाद’ का इस्तेमाल करने में जुटे हैं। 
भारत के संघी कारकून इस मामले में भी हिटलर के सुयोग्य चेले साबित हुए हैं। कुछ इसी तरह के आरोप जर्मनी में हिटलर ने यहूदी युवकों के खिलाफ लगाये थे कि वे जर्मन नस्ल को अशुद्ध कर रहे हैं। ‘मेन काम्फ’ नामक पुस्तक में हिटलर ने लिखा था। 
‘‘काले बालों वाले यहूदी लड़के अपने चेहरे पर शैतानी खुशी लिए हुए घंटों घात लगाकर खड़े रहते हैं ताकि वे किसी निर्दोष लड़की को अपने खून से दूषित कर उसकी नस्ल से उसे चुरा लें। हर तरह से वह राष्ट्र के नस्लीय आधार को क्षतिग्रस्त करना चाहते हैं। व्यक्तिगत तौर पर वे औरतों और लड़कियों को दूषित करते हैं और वे नस्ल द्वारा विदेशी तत्वों पर लगाये गये प्रतिबंधों को तोड़ने से नहीं हिचकते। ये यहूदी ही थे और हैं जो राइन तक नीग्रो को इसी उद्देश्य से लेकर आये ताकि उस सफेद नस्ल को जिससे ये घृणा करते थे, बर्बाद किया जा सके और उस सांस्कृतिक-राजनैतिक ऊंचाई जो इसने हासिल की है, से धक्का दिया जा सके ताकि वे खुद मालिक बन सकें। वह व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के जरिये नस्ल का स्तर धीरे-धीरे नीचे लाना चाहते हैं।’’ हिटलर  
मिथक 3: जैसे जर्मनी में जर्मन रहते हैं वैसे ही हिन्दुस्तान में हिन्दू रहते हैं। भारत एक हिन्दू राष्ट्र है। हिन्दू एक संस्कृत जीवन शैली है। 
यथार्थ: उपरोक्त बातें संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अभी हाल में ही की हैं। इससे पूर्व भी अलग-अलग समय पर संघ व भाजपा के नेता इसी तरह के बयान देते रहे हैं। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने एक बार कहा था कि हम सभी हिन्दू हैं। मुस्लिम अहमदी हिन्दू हैं, ईसाई क्रिस्ती हिन्दू व जैन, बौद्ध, सिख ये सभी भी हिन्दू धर्म के ही पंथ है। संघ के भूतपूर्व सरसंचालक सुदर्शन ने जब एक बार फिर यह घोषित कर दिया था कि सिक्ख कोई धर्म नहीं है बल्कि हिन्दू धर्म का ही एक पंथ है तो पंजाब में इस बयान के विरोध में कई प्रदर्शन हुए थेे। 
मोदी के सत्तासीन होने के बाद से संघ-भाजपा द्वारा सभी भारतीयों को हिंदू करार देने वाले बयानों में तेजी आयी है। गोवा के उपमुख्यमंत्री फ्रांसिस डिसूजा तो कह ही चुके हैं कि वे ईसाई हिंदू हैं। हिंदू, हिंदुत्व को आपस में गड्डमड्ड कर घोषित किया जा रहा है कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिंदू है और हिंदुत्व उनकी सांस्कृतिक पहचान है व इस तरह भारत एक हिन्दू राष्ट्र है।
हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दू राष्ट्र के अर्थों को परस्पर गड्डमगड्ड कर संघ परिवार अपने राजनीतिक ऐजेण्डे को आगे बढ़ा रहा है। ये तीनों ही शब्द अलग-अलग अर्थ रखते हैं और उन्हें इनके ऐतिहासिक संदर्भों में ही देखा जाना चाहिए। 
हिन्दू शब्द की उत्पत्ति काफी समय पहले हो चुकी थी। समय के साथ इस शब्द को भिन्न अर्थों में इस्तेमाल किया जाने लगा। हिन्दू शब्द का अरब व मध्य पूर्व से आने वाले मुस्लिमों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों के लिए प्रयोग किया। इस तरह शुरूआत में यह एक भौगोलिक श्रेणी था। आज भी दुनिया में केवल छोटे हिस्से सऊदी अरब व द. एशिया में भारत हिन्दुस्तान के रूप में पहचाना जाता है। बाद में हिन्दू शब्द भौगोलिक श्रेणी से अलग इस इलाके के प्रमुखता से माने जाने वाले धर्म का पर्याय बन गया। इस तरह अब हिन्दू का अर्थ हिन्दू धर्म को मानने वाले के रूप में होने लगा।
यह बात कि हिन्दू का अर्थ भारत में रहने वालों की संस्कृति है न केवल झूठ है बल्कि केवल संघ के प्रचारकों के मस्तिष्क में ही पायी जाती है। भारत में रहने वालों की संस्कृति कभी एक सी नहीं रही बल्कि वो विविधताओं से भरी रही है। आर्यों की अलग संस्कृति थी तो आदिवासियों की अलग। बाद में ब्राह्मण धर्म व बौद्धों की परंपराएं भी एक दूसरे से बहुत अलग-अलग थी। इस तरह यह घोषित करना कि भारत में कोई एक सी एक सब संस्कृति थी, सफेद झूठ है। हमेशा संस्कृतियों में स्थानांतरण व गतिशीलता के चलते नये तत्व जुड़ते रहे। आज भी देश के अलग-अलग हिस्सों की संस्कृति खासी अलग है। इस तरह हिन्दू शब्द का प्रयोग पहले एक भौगोलिक श्रेणी व बाद में हिन्दू धर्म को मानने वालों के रूप में होने लगा। स्पष्ट है कि बौद्ध, ईसाई, सिक्ख सब अलग धर्म के होने के नाते हिन्दू नहीं थे। 
हिन्दुत्व शब्द 19 वीं सदी के अंत में साम्प्रदायिक राजनीति के उदभव के साथ सामने आया। हिन्दू व मुस्लिम सामंती तत्वों ने भारत के स्वाधीनता संग्राम का विरोध किया और अपनी-अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा विकसित करी। हिन्दू साम्प्रदायिक धारा की विचारधारा राजनीति को हिन्दुत्व कहा गया। 1923-24 में इसे सावरकर द्वारा सुत्रित किया गया। सावरकर ने अपनी हिन्दू की परिभाषा में ईसाईयों व मुस्लिमों को इससे बाहर रखा। सावरकर के अनुसार हिन्दू एक समान नस्ल के ब्राह्मणवादी संस्कृति को मानने वाले सिंधु नदी से समुद्र तक फैले लोग हैं। सावरकर ने ही हिन्दुत्व के लक्ष्य के बतौर हिन्दू ब्रांड को सृजित किया। बाद में 1925 में बनी आर.एस.एस. ने हिन्दू राष्ट्र को अपने लक्ष्य के बतौर स्वीकार किया। हिन्दू राष्ट्र का यह लक्ष्य भारत के स्वाधीनता संग्राम के विरुद्ध था जो देश को धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश बनाना चाहता था। इस तरह हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्र सांप्रदायिक राजनीति कापरिणाम थे। 
आज बड़ी चालाकी से हिन्दू धर्म को ‘जीवन पद्धति’ के बतौर प्रस्तुत करके भारत में रहने वाले सभी लोगों को हिन्दू के बतौर संघ परिभाषित करने पर जुटा है। इसी तरह मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्व भी इस्लाम को जीवन पद्धति के बतौर पेश करते रहे हैं। इस तरह कई राष्ट्रीयताओं वाले भारत में एक जीवन पद्धति नहीं वरन अलग-अलग कई जीवन पद्धतियां मौजूद हैं। आज हिन्दू कहीं से भी क्षेत्रीय राष्ट्रीय पहचान नहीं बल्कि एक धार्मिक पहचान है। संघ का यह दावा झूठ का पुलिंदा है कि देश के सभी वासी हिन्दू हैं इसलिए हिन्दू धार्मिक ग्रंथ गीता, मनुस्मृति राष्ट्रीय ग्रंथ हैं, गाय राष्ट्रीय पशु है कि सभी को राम की पूजा करनी चाहिए। 
इस तरह से संघ भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का खुलेआम उल्लंघन करता है। संघ ‘भारतीय’ को ‘हिन्दू’ से स्थानांतरित करना चाहता है। वह पूरे देश पर हिन्दू पहचान थोप इसे ही राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद के तत्व के रूप में सूत्रित करना चाहता है। 
आज से कई दशक पूर्व संघ के  कार्यकर्ता यदुराव जोशी ने एक प्रश्न के जवाब में कहा था कि आज चूंकि संघ कमजोर स्थिति में है इसलिए हम कहते हैं कि संघ हिन्दू संगठन है हम हिन्दू राष्ट्र हैं। हम मुस्लिमों और ईसाईयों को अपनी आस्था मानते हुए, तब तक देश में रहने का स्वागत करते हैं जब तक वे देश से प्रेम करते हैं। लेकिन जब हम मजबूत स्थिति में हो जायेंगे तो हम मुस्लिमों व ईसाईयों से कहेंगे कि वे या तो हिन्दू में तब्दील हो जायें या नष्ट हो जाये यदि वे भारत में रहना चाहते हैं। तुम कुछ पीढ़ी पहले हिन्दू थे इसलिए हिन्दू धर्म में वापस आ जाओ। 
अब मोदी सरकार के आने के बाद संघ अपने को इसी मजबूत स्थिति में देख रहा है। अब खुलेआम संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए देश के हिन्दू राष्ट्र होने सरीखे बयान दिये जा रहे हैं। 
संघ के इस हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दू राष्ट्र के मनगढंत तर्कों को खंडित करने के लिए जरूरी है कि इनकी मनमानी परिभाषाओं का खंडन कर इनके वास्तविक निहितार्थों को सामने लाया जाय। स्थापित किया जाय कि हिन्दू एक धर्म है जैसे मुस्लिम, ईसाई या बौद्ध धर्म। हिन्दू शब्द का जीवन पद्धति से कोई लेना-देना नहीं है। देश में आज भी कोई एक समान संस्कृति या जीवन पद्धति नहीं है। हिन्दुत्व साम्प्रदायिक विचारधारा है जिसका लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र कायम करना है। इसीलिए हिन्दुत्व की राजनीति का प्रतिरोध जरूरी है। यह अल्पसंख्यकों के साथ देश के मेहनतकशों की दुश्मन है। उनकी वर्गीय एकजुटता की राह में बाधा है। 
संघ द्वारा प्रचारित मिथकों का आज विचारधारा के स्तर पर खंडन जरूरी है क्योंकि राज्य मशीनरी व पूंजीवादी मीडिया अधिकाधिक संघी चरित्र ग्रहण कर इन्हीं मिथकों को प्रचारित करने में लगी है। 

(उपरोक्त लेख Countercurrent.org में राम पुनियानी के दो लेखों पर आधरित है)

नारी आंदोलन के समक्ष चुनौतियां
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
(24 अगस्त, 2014 को दिल्ली में ‘महिला आंदोलन की चुनौतियां’ विषय पर आयोजित सेमिनार में प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र द्वारा प्रस्तुत पत्र। स्थानाभाव के कारण चुनिन्दा अंश ही दे रहे हैं- सम्पादक)
        साथियो! आजादी के 67 वर्ष गुजर जाने के बाद भी आज महिलायें अत्याचार, उत्पीड़न, दमन, भेदभाव और शोषण की शिकार हैं। आये दिन समाचार पत्र बलात्कार और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की खबरों से भरे रहते हैं। दिल दहला देने वाली सामूहिक बलात्कार और हत्याओं की घटनायें हमें परेशान और उद्वेलित करती रहती हैं।
          महिलायें न तो परिवार के अन्दर सुरक्षित हैं और न ही काम करने के स्थान पर सुरक्षित हैं। सड़क पर चलते समय, बस या टेªन में सफर करते समय वह हमेशा आतंक के साये में रहने के लिए अभिशप्त हैं। ........
        शासक वर्गों का हाल तो यह है कि राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के तमाम दावों के बावजूद संसद और विधान सभाओं में इनका प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ा है। हालांकि प्रतिनिधित्व बढ़ जाने से भी व्यापक मजदूर-मेहनतकश महिला आबादी की जिंदगी में कोई बुनियादी तब्दीली नहीं आयेगी। इसी प्रकार, हम ग्राम पंचायतों, ब्लाॅक पंचायतों और जिला पंचायतों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की असलियत जान सकते हैं। प्रधान-पति परिघटना की आम चर्चा वाली ये महिलायें शासक वर्ग के सत्ता आधार के विस्तार का उपकरण होती हैं। ये व्यापक मजदूर-मेहनतकश महिलाओं की प्रतिनिधि नहीं होती बल्कि उनके शोषण-उत्पीड़न का उपकरण होती हैं।
पूंजीवादी राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति और उनकी भूमिका सतही व नाममात्र की है लेकिन वह जो भी है वह पूंजीवादी शोषण, दमन-उत्पीड़न का हिस्सा है। वह मजदूर-मेहनतकश महिला आबादी के हितों का प्रतिनिधित्व कतई नहीं करती।
अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी और भी नगण्य है। हमारे देश की परम्परायें महिलाओं को सम्पत्ति में उत्तराधिकार का हिस्सा नहीं देतीं। परम्पराएं कानूनी अधिकारों के रास्ते में बाधा बनकर खड़ी हो जाती है। लेकिन यह मामला तो सिर्फ सम्पत्तिशाली वर्गाें तक सीमित है। अधिकांश सम्पत्तिहीन आबादी के लिए रोजगार का मामला ज्यादा व्यापक है। रोजगार के मामले में महिलाओं की स्थिति बेहद भेदभाव भरी है। यह सही है कि उद्योगों और सेवा क्षेत्र के विस्तार साथ महिलाओं की भारी संख्या घरेलू जीवन की चैहद्दी से बाहर आयी हैं। लेकिन यहां भी उनको सस्ते श्रम के रूप में देखा जाता है। अधिकांश महिलायें असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं। कठिन श्रमसाध्य काम उनके हिस्से में आते हैं। वहां भी मजदूरी में उनके साथ भेदभाव होता है।
शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति और ज्यादा खराब है। 2006 में जारी की गई विश्व बैंक की रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में 15 वर्ष से ऊपर की 50 प्रतिशत लड़कियां निरक्षर हैं। यहां यह ध्यान रखने की बात है कि भारत सरकार उसको साक्षर मान लेती है जो अपने हस्ताक्षर कर सकती है। यह स्थिति सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाओं के बावजूद है।
सामाजिक क्षेत्र में स्थिति यह है कि कन्या भू्रण हत्या, नवजात शिशु हत्या, जानबूझकर देखभाल न करने के कारण 5 वर्ष से कम की लड़कियों की मौत, दहेज हत्या, सम्मान में नाम पर की गई हत्यायें, जबरन व खतरनाक गर्भपात के जरिये होने वाली मौतों की संख्या प्रति वर्ष लाखों में है। बच्चे के जन्म लेने के समय की जानी वाली हत्याओं के मामले में हमारा देश दुनिया में सबसे आगे है। दहेज के कारण होने वाली हत्याओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। पूंजीवादी मीडिया में, फिल्मों और टी. वी. कार्यक्रमों में नारी शरीर को उपभोग सामग्री के बतौर पेश किया जाता है। विज्ञापनों में नारी को एक यौन वस्तु के रूप में पेश करके उसकी गरिमा को गिराया जाता है। इसका सबसे वीभत्स रूप पोर्नोग्राफी के रूप में सामने आता है। इसमें न सिर्फ नारी को अवमानित किया जाता है बल्कि उसकी सारी संवेदनओं को कुचलकर एक पशु के बतौर पेश किया जाता है। उसकी निजता का सार्वजनिक प्रदर्शन करके उसका प्रचार किया जाता है। इन प्रदर्शनों के जरिये करोड़ों-अरबों रुपयों के मुनाफे का उद्योग फल-फूल रहा है और नारी शरीर को अकूत मुनाफे का जरिया बनाया जा रहा है। पोर्नोग्राफी और वेश्यावृत्ति, पूंजीवाद को ऐसा अमानवीय बना देती है जो नारी गरिमा को पूर्णतया कुचलकर रख देता है। इसी के साथ ही, सौन्दर्य प्रदर्शनियों और प्रतियोगिताओं में नारी शरीर को अपमानित किया जाता है। इसमें अंतराष्ट्रीय पूंजीपतियों और देशी पूंजीपतियों की पूरी मिलीभगत रहती है। ये दोनों उससे मुनाफा कमाते हैं। चरम पतनशील पूंजीवादी संस्कृति पूर्णतया नारी-विरोधी हैं। पूंजीवादी पतनशील संस्कृति की शिकार देश की व्यापक युवा आबादी हो रही है। वे इसको बिना किसी आलोचना के उसे हू-ब-हू स्वीकार कर लेते हैं। इसमें लड़के और लड़कियां दोनों शामिल हैं।

जहां एक तरफ पूंजीवादी मीडिया व फिल्मों में नारी के शरीर को दिखाया व बेचा जाता है, वहीं दूसरी तरफ सती-सावित्री, सीता और अन्य परम्परागत सामंती मूल्यों और देवियों को भी स्थापित किया जाता है। प्राचीन भारतीय परिवार, संस्कृति और सभ्यता को भी प्रचारित-प्रसारित किया जाता है जो और कुछ नहीं बल्कि मध्ययुगीन सामंती मूल्यों को स्थापित किया जाना है।
आखिर यह सब आज इक्कीसवीं सदी में क्यों हो रहा है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है? आज नारी की दोयम दर्जे की स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है?
यह हम जानते हैं कि महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की तभी हो गयी थी जब समाज में वर्गों का उदय हुआ और समाज थोड़े से शोषकों और अधिकांश शोषितों में तब्दील हो गया। इसके पहले समानता की स्थिति थी। नारी और पुरुषों के बीच श्रम विभाजन तो था लेकिन इसकी वजह से कोई गैर बराबरी नहीं थी। वर्गों के उदय के साथ, समाज के शोषकों और शोषितों में बंटने के साथ परिवार नामक संस्था का भी उदय हुआ और उसमें पुरुषों का आधिपत्य हो गया। यह आधिपत्य अलग-अलग रूपों में हजारों वर्षों से जारी रहा है और हर पूर्ववर्ती समाज में नारी की अधीनता की स्थति रही है।
पूंजीवाद के उदय के साथ समाज में समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे के नारे के आने के बाद जीवन के हर क्षेत्र में नारी समानता का मामला भी आया। लेकिन पूंजीवाद ने जैसे ही अपने को स्थापित कर लिया, वैसे ही उसने अपने जनतांत्रिक चोगे को उतार फेंका और अन्य जनवादी मांगों की तरह ही नारी समानता की जनवादी मांग से पल्ला झाड़ लिया। उसने पल्ला ही नहीं झाड़ा बल्कि वह इसका विरोधी हो गया। सामंती विशेषाधिकार से लड़ने के लिए उसे जनवाद की जरूरत थी। जैसे ही यह विशेषाधिकार समाप्त हो गया, वह जनवाद का, नारी समानता का विरोधी हो गया। यह प्रक्रिया कमोबेश रूप में विश्व व्यापी रही। इसके बाद तो शोषित-उत्पीडि़त वर्गों तबकों ने ही पूंजीपति वर्ग से लड़-भिड़ कर अपने लिए जनवादी अधिकार हासिल किये हैं। बीते समय में जनवाद का जो भी विस्तार हुआ है। वह शोषित-उत्पीडि़तों के संघर्षों के कारण ही।
लेकिन पूंजीवाद ने वह जमीन दे दी जिससे नारी समानता के लिए आंदोलन खड़ा हो सके। पूंजीवाद के पहले के वर्ग समाजों में नारी समानता या किसी भी तरह की समानता या स्वतंत्रता के लिए आंदोलन करने की भौतिक जमीन ही नहीं थी। इसलिए पूंजीवाद के उदय के बाद नारी आंदोलन खड़े होने शुरु हो गये। पहले मध्यम वर्गीय महिलाओं के आंदोलन शुरु हुए। वे शिक्षा में, रोजगार के हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ समानता के सवाल पर आंदोलन में आयीं। लेकिन व्यापक आंदोलन तभी शुरु हुआ जब मताधिकार के सवाल पर और राजनीतिक पदों पर महिलाओं को चुने जाने के सवाल पर महिलायें खड़ी होने लगीं। यह वह समय था जब महिलायें बड़े पैमाने पर कल-कारखानों में मजदूरों के बतौर काम करने जाने लगीं। वे समान काम के लिए समान वेतन और उचित काम के दिन के लिए उचित मजदूरी के सवाल पर मजदूर आंदोलन में सक्रिय होने लगीं थीं। मताधिकार आंदोलन को व्यापकता महिला मजदूरों के इसमें शामिल होने के बाद ही मिली थी। बल्कि ट्रेड यूनियन आंदोलन के साथ जुड़ कर महिला मजदूरों ने मताधिकार आंदोलन को निर्णायक गति दी।
यहीं से नारी आंदोलन की दो अलग-अलग धारायें हो गयीं। एक, मध्यम वर्गीय नारी आंदोलन था जो सिर्फ अपने को पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही मताधिकार आंदोलन और अन्य नारी अधिकारों के सवालों तक सीमित रखता था। दूसरा इससे बहुत आगे जाकर सोचने व करने वाली महिला मजदूरों की धारा थी जो मताधिकार आंदोलन व अन्य नारी समानता की मांगों को पूंजीवाद के खात्मे और समाजवाद की स्थापना के साथ देखती थी। इन दोनों धाराओं के बीच एक मोर्चा भी था और वे बुनियादी दष्ष्टिकोण के मामले में एक-दूसरे के विरुद्ध भी थीं। पहली धारा पुरुषों के विरूद्ध हर क्षेत्र में समानता पर अपने को केन्द्रित करती थी जबकि दूसरी धारा पूंजीवाद के विरुद्ध पुरुषों और महिला मजदूरों की सामूहिक लड़ाई के साथ नारी समानता के लिए संघर्ष को अपना परिप्रेक्ष्य बनाती थीं।
इन दो परिप्रेक्ष्यों के आधार पर नारीवादी और नारी मुक्ति आंदोलन की दो धारायें बनीं और विकसित हुईं।        हमारे देश में नारी आंदोलन की शुरुआत राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई के दौरान हुई थी। ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध लड़ते हुए महिलाओं ने नारी अधिकारों की बात करना शुरु किया था। पहले उच्च व मध्यमवर्गीय महिलाओं ने नारी शिक्षा और अन्य कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष करना शुरु किया। इसके बाद जब व्यापक मजदूर और किसान आंदोलन हुए तो इसमें बढ़-चढ़ कर भागीदारी करने वाली महिलाओं ने आगे चलकर नारी मुक्ति आंदोलन की आधारशिला रखी।
आजादी मिलने के बाद, भारतीय पूंजीपति वर्ग ने जो संविधान बनाया उसमें नारी को समान अधिकार देने की बात की। उसने सार्विक बालिग मताधिकार दिया। लेकिन इसी के साथ ही उसने राजनीतिक अर्थव्यवस्था और समाज में सामंती शक्तियों के साथ गठजोड़ कायम किया। क्रमिक विकास के जरिये सामंती शक्तियों को पूंजीवादी शक्तियों में रूपांतरित होने का मौका दिया। इन सब ने पिछड़े मूल्यों-मान्यताओं और चलनों को जारी रहने दिया। इसने सामंती तौर-तरीकों, मूल्य-मान्यताओं और चलनों को उसी हद तक तोड़ने में भूमिका निभाई, जिस हद तक पूंजीवादी शासनों को चलाने के लिए उसकी जरूरत थी। इसी प्रकार, इसने साम्राज्यवाद के साथ समझौता करके, भारत में पूंजीवादी विकास का जो रास्ता चुना था, उसमें इसने अनौपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को भी धीरे-धीरे करके पूरा किया और इसमें साम्राज्यवादियों के कनिष्ठ साझेदार के बतौर अपनी भूमिका बनाई। इस तरह से भारतीय शासक वर्ग ने पूंजीवादी विकास व अपने सत्ता आधार को विकसित करने के लिए अपनी विकास योजनाओं और तमाम नीतियों को लागू किया।
  विश्व परिस्थितियों में आये बदलाव और अपनी जरूरत के चलते इसने 1980 व 90 के दशक में निजीकरण, उदारीकरण और वैश्विकरण की नीतियां लागू की। इसने जहां पहले के तमाम सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र से अपने हाथ खींचे वहीं इसने सरकारी कारखानों का निजीकरण किया। विदेशी पूंजी को यहां आने की खुली छूट दी गयी। पुरानी तमाम रोकों और अवरोधों को खत्म कर दिया गया। वैश्विक बाजार में भारत का पूंजीपति वर्ग एक छोटे प्रतिस्पर्धी के तौर पर खड़ा हो गया। यहां जंगलों की जमीनों से आदिवासियों को उजाड़कर विदेशी व देशी पूंजीपतियों के हवाले किया गया। किसानों की जमीनों से उन्हें बेदखल किया गया और बड़े-बड़े विशेष आर्थिक क्षेत्रों और निर्यात निदेशित क्षेत्रों में उद्योग खड़े किये गये। इन क्षेत्रों में खड़े उद्योगों में संगठित होने के अधिकार से भी मजदूरों व कर्मचारियों को वंचित किया गया। इन जगहों में भारी मात्रा में महिलायें कार्यरत हैं।
भारतीय पूंजीवाद ने परम्परागत पिछड़े सामंती तौर-तरीके व मूल्यों व संस्थाओं का इस्तेमाल करने के साथ ही साथ आधुनिक पतनशील पूंजीवादी संस्थाओं, मूल्यों व तौर-तरीकों का इस्तेमाल करके व्यापक नारी आबादी के भयंकर शोषण व उत्पीड़न को न सिर्फ जारी रखा बल्कि उसको बढ़ाया।
मौजूदा आणविक परिवार उनके इस उत्पीड़न को बनाये रखने और उनकी अधीनता की स्थिति को बरकरार रखने की एक बहुत बड़ी संस्था है। वैसे तो निजी सम्पत्ति के उदय के साथ परिवार नाम की संस्था हर शोषणकारी व्यवस्था के लिए आधार का काम करती है। यह मूलतः यथास्थितिवादी संस्था रही है। जैसे-जैसे उत्पादन प्रणाली बदलती गई वैसे-वैसे परिवार का स्वरूप भी बदला। लेकिन इसके द्वारा हर व्यवस्था की आधारभूत इकाई की भूमिका निभाई जाती रही। पूंजीवाद के पहले के परिवार उत्पादन की मूलभूत इकाई थे। इसीलिए उनकी सामाजिक उत्पादन में भूमिका थी। उस समय के परिवार के भीतर महिलाओं द्वारा किये गये कार्य सामाजिक तौर पर आवश्यक कार्य थे। लेकिन आज के पूंजीवादी परिवार नामक इकाई उत्पादन के क्षेत्र में कोई सामाजिक भूमिका नहीं निभाता व अभी भी उपभोग के मामले में बुनियादी इकाई बनी हुई है। यह मुख्यतः व्यापक मजदूर व मेहनतकश आबादी के लिये स्थिति आधुनिक पूंजीवादी उद्योगों में बनी हुई है जहां पुरुष और महिला अलग-अलग उद्योगों में एक-दूसरे से अलग-अलग विभागों में काम करती हैं। लेकिन घर आकर घरेलू काम- खाना बनाना, कपड़े धोना, मकान या कमरे की सफाई रखने की जिम्मेदारी के साथ बच्चों के लालन-पालन- की जिम्मेदारी भी महिलाओं के जिम्मे होती है। जो महिलायें बाहर काम नहीं करती, उनके घरेलू काम की कीमत सिर्फ उनके खाना खाने और कपड़ा पहनने तक ही सीमित होती है। इसके बावजूद पति यह समझता है कि वह पत्नी और बच्चों की देखभाल व जीवनयापन कर रहा है। पति अपने को स्वामी समझता है और पत्नी को अपने मनोरंजन और बच्चे पैदा करने और उनकी देखभाल करने के साधन के बतौर देखता है। वह पत्नी को अपनी सम्पत्ति समझता है।........
परिवार नामक इकाई पूंजीपति वर्ग के लिए लाभप्रद है क्योंकि वह मजदरू के परिवार के जीवन-यापन की जिम्मेदारी से सीधे बच जाता है। वह यह जिम्मेदारी आणविक परिवार के मत्थे डाल देता है। बच्चों के लालन-पालन, घरेलू काम की जिम्मेदारी पत्नी के ऊपर डाल कर मजदूर भी अपने को परिवार के भीतर मालिक के बतौर स्थापित कर लेता है।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि परिवार नामक आणविक इकाई के जरिये पूंजीपति वर्ग अपना मुनाफा बढ़ाता है। जब वह श्रम के बाजार में मजदूर की पत्नी को भी उतारता है तो वह इसका इस्तेमाल मजदूरी कम करने के लिए करता है। पुरुष मजदूर सोचते हैं कि महिला मजदूरों की वजह से उनकी मजदूरी कम हुई है या वे काम से बाहर किये गये हैं। पूंजीपति वर्ग एक तरफ तो मजदूरी कम करने में महिला मजदूरों का इस्तेमाल करता है और दूसरी तरफ मजदूर आंदोलन में फूट डालने, उसको कमजोर करने में इस प्रक्रिया का इस्तेमाल करता है।
पूंजीपति वर्ग और उसकी संस्थायें इसीलिए परिवार नामक उत्पीड़नकारी संस्था का गुणगान करते हैं और नारी को दोयम दर्जे पर रखने वाली इस संस्था के बने परम्परागत मूल्यों, चलनों और तौर-तरीकों को बनाये रखने के लिए तरह-तरह से प्रचार-प्रसार करती है।
परिवार नामक इस मौजूदा उत्पीड़नकारी संस्था के खात्मे के बगैर वास्तविक अर्थाें में नारी मुक्ति नहीं हो सकती और परिवार नामक यह उत्पीड़नकारी संस्था बगैर पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे के समाप्त नहीं हो सकती। इसलिए वास्तविक नारी मुक्ति आंदोलन पूंजीवाद के खात्मे और समाजवाद की स्थापना के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। नारी आंदोलन के वास्तविक अर्थाें में मुक्तिदायी कार्यभार स्वभावतः समाज के तमाम मेहनतकश वर्गों विशेष तौर पर मजदूर वर्ग के संघर्षों के साथ एकजुट होकर पूंजीवाद के खात्मे से जुड़े हुए हैं।
यहीं नारी आंदोलन के समक्ष तरह-तरह की चुनौतियां सामने दिखाई पड़ती हैं।
एक तरफ, नारी आंदोलन के भीतर नारीवादी आंदोलन की धारा है। इस धारा में कई शाखायें और उप-शाखायें हैं। इस धारा के अनुसार, नारी समुदाय का असली दुश्मन समूचा पुरुष समुदाय है। इस प्रकार, ये भारतीय समाज के सभी पुरुषों का नारी समुदाय का दुश्मन और समूचे नारी समुदाय को अपना मित्र समझते हैं। यह धारा पूंजीवादी व्यवस्था को दुश्मन न मानकर समूचे पुरुष समुदाय और पितृसत्ता को दुश्मन मानती है। पितृसत्ता को यह उत्पादन से इतर मानती हैं या कभी-कभी उन्हें पितृसत्तात्मक उत्पादन संबंध कहती हैं। इस धारा के अनुसार, सारी नारी उत्पीडि़त हैं। वे पूंजीपति वर्ग की महिलाओं को उसी तरह उत्पीडि़त मानती हैं जिस प्रकार मजदूर व अन्य मेहनतकश वर्ग की महिलाओं को उत्पीडि़त मानती हैं। यह धारा वस्तुतः चंद पुरुष विरोधी नारीवादी महिलाओं की धारा है, जिसका समाज में न तो आधार है और न इनके पास नये समाज का प्रारूप है। यह धारा एक पंथ में सिमट जाने के लिए अभिशप्त है।
एन. जी. ओ. (गैर-सरकारी संगठन) से संचालित नारी संगठन
हमारे देश में साम्राज्यवादी संस्थाओं और देशी पूंजीपतियों व सरकारों से निदेशित व अनुदान प्राप्त गैर-सरकारी संगठनों की भरमार है। ये तरह-तरह के नारी संगठन भी बनाये हुए हैं। इन संगठनों का मकसद देश के अलग-अलग हिस्सों में महिलाओं के विशिष्ट मुद्दों के इर्द-गिर्द उनको संगठित करके एक हद तक आंदोलनों में उतारकर उसे इस पूंजीवादी व्यवस्था की चैहद्दी में बांधकर रखना है और वास्तविक अर्थों में नारी मुक्ति आंदोलन के रास्ते में बाधायें खड़ी करना है।
विभिन्न पूंजीवादी पार्टियों से जुड़े नारी संगठन
विभिन्न पूंजीवादी पार्टियों से जुड़े नारी संगठन वस्तुतः महिलाओं के बीच इन पार्टियों के आधार को बनाने का उपकरण हैं और उन पूंजीवादी महिलाओं को सत्ता या राजनीतिक दायरे में लाने के प्रयास हैं जो पूंजीवादी व्यवस्था के शोषणकारी-दमनकारी और नारी विरोधी चरित्र को न्यायसंगत ठहराने की और उनको औचित्य प्रदान करने में लगी हुई हैं तथा सत्ता प्रतिष्ठानों के किसी हिस्से तक पहुंचने के लिए लालायित हैं। इनका नारी मुक्ति आंदोलन से पूर्णतः विरोध रहता है।
साम्प्रदायिक हिन्दुत्ववादी नारी संगठन
सत्ताधारी भाजपा के भारतीय महिला मोर्चा के अलावा आर. एस. एस. से और विभिन्न हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुड़े तहर-तरह के साम्प्रदायिक नारी संगठन हैं जो समाज में हिन्दुत्ववादी शासन लाना चाहते हैं। ये संगठन घोर प्रतिक्रियावादी हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध जहर उगलते रहते हैं। ये महिलाओं के लिए ड्रेस कोड लागू कराने की मुहिम में आगे रहते हैं। ये कभी ‘लव जेहाद’ के खिलाफ जेहाद छेड़ने में तो कभी ‘वैलेन्टाइन डे’ के विरोध में हिन्दुत्ववादी ब्रिगेड के घनिष्ठ सहयोगी होते हैं। साम्प्रदायिक उन्माद फैलाकर ये अपना आधार विस्तृत करते हैं और नारी आंदोलन के किसी भी आधुनिक मुक्तिकामी मुहिम के विरोधी हैं।
दलितवादी नारी संगठन
दलित नारी संगठन दलित नारियों की विशेष उत्पीडि़त-शोषित स्थिति को आधार बनाकर बनाये गये हैं। लेकिन इन संगठनों के अनुसार दलितों के भीतर हुए वर्गीय धु्रवीकरण की प्रक्रिया का कोई अर्थ नहीं है। वे दलित नारियों में शासक वर्ग की दलित नारियों सहित व्यापक मध्यम वर्ग की सभी नारियों को इसमें शामिल करती हैं। इस तरीके से गैर दलित नारियों में मजदूर-मेहनतकश वर्ग से आने वाली नारियों विरोध में खड़ी हो जाती हैं। इन संगठनों की जहां तक दलित नारियों के उत्पीड़न व दमन के विरुद्ध संघर्ष करने की दिशा है, वहां तक ये ठीक हैं, लेकिन जैसे ही इस संघर्ष में दुश्मन चिह्नित करके उसके विरुद्ध संयुक्त मोर्चे बनाने और मुख्य दुश्मन पर प्रहार करने की बात आती है, ये पूंजीपति वर्ग के साथ जा खड़े होते हैं। ये संगठन ब्राह्मणवाद को मुख्य निशाना मानते हैं और यह दृष्टिकोण उन्हें पूंजीवाद को और मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था का पक्षपोषक बना देता है।
संसदवादी वामपंथियों के नारी संगठन
संसदवादी वामपंथियों के नारी संगठन व्यापक मजदूरों, किसानों खेत मजदूरों और अन्य उत्पीडि़त हिस्सों की नारियों के बीच व्यापक आधार रखते हैं। इनके व्यापक आधार के कारण मजदूर मेहनतकश महिलाओं के संघर्षों में उनकी भूमिका होती है। लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़कर समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के परिप्रेक्ष्य को सचेत तौर पर छोड़ने के बाद इन नारी संगठनों का नेतृत्व महिलाओं के अन्दर मुक्ति की चेतना पैदा करने की कोशिश नहीं करता। ये संगठन आम तौर पर उनकी रोज-ब-रोज संघर्षों और कुछ अनुष्ठानिक राजनीतिक कार्यक्रमांे तक अपने को सीमित रखते हैं। इस तरह से ये संगठन मजदूर-मेहनतकश महिलाओं के संघर्षों को पूंजीवाद विरोधी व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष में तब्दील करने या इस शक्ति का इस्तेमाल क्रांतिकारी कदमों तक पहुंचाने के लिए नहीं करते। ये पूंजीवादी व्यवस्था में अपने नेतृत्वकारी समूहों को एक विशेषाधिकार प्राप्त हिस्सा बनाने के लिए अपने जनाधार का इस्तेमाल करते हैं।
नारी मुक्ति के लिए संघर्षरत क्रांतिकारी संगठन
क्रांतिकारी नारी संगठनों की भूमिका समाज में वास्तविक नारी मुक्ति आंदोलन खड़ा करने की हो सकती है। लेकिन भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था के बारे में ज्यादातर की गलत समझ के कारण ऐसे संगठन नारी मुक्ति का सही परिप्रेक्ष्य पेश नहीं कर पाते। व्यापक मजदूर महिलाओं के बीच न तो इनका कोई काम है और न वे इसकी दृष्टि ही रखते हैं। ये भारतीय समाज के बारे में अपने गलत विश्लेषण के कारण नारी आंदोलन को समाज के आदिवासी इलाकों और पिछड़ी आबादी में केन्द्रित करते हैं। नारी मुक्ति आंदोलन के भीतर ये पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से की प्रगतिशील भूमिका देखते हैं। ये उसे अपना सहयोगी मानते हैं। इसलिए गलत परिप्रेक्ष्य के कारण ये अपनी भावना में क्रांतिकारी होने के बावजूद सही अर्थों में नारी आंदोलन खड़ा करने में असमर्थ हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि नारी आंदोलन के समक्ष चुनौतियां कितनी व्यापक हैं।
सर्वोपरि चुनौती यह है कि जब तक पूंजीवाद को निशाना नहीं बनाया जाता, तब तक वास्तविक अर्थों में नारी मुक्ति आंदोलन नहीं विकसित किया जा सकता। यह हम अच्छी तरह जानते हैं कि मौजूदा समाज का सबसे बुनियादी अंतरविरोध यह है कि उत्पादन तो सामाजिक तौर पर होता है लेकिन हस्तगतकरण निजी होता है। यह पूंजीवाद का बुनियादी अंतरविरोध है। यहां एक तरफ उत्पादन के साधनों का मालिक पूंजीपति वर्ग है और दूसरी तरफ उत्पादन के साधनों से वंचित व्यापक मजदूर आबादी है। जब तक यह बुनियादी अंतरविरोध हल नहीं होता तब तक नारी मुक्ति वास्तविक अर्थों में नहीं हो सकती।
हमारी सभी पहचानें और संघर्ष इसी बुनियादी अंतरविरोध के हल होने से जुड़ी हुई हैं। इसलिए यदि कोई नारी संगठन इस बुनियादी अंतरविरोध को हल करने का परिप्रेक्ष्य सामने नहीं रखता तो देर-सवेर वह इसी पूंजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने का उपकरण के बतौर बन कर रह जायेगा।
लेकिन इस दीर्घकालिक चुनौती से हमें वैचारिक-राजनीतिक धरातल पर संघर्ष करना है। इस वैचारिक राजनीतिक संघर्ष के दौरान हमें व्यापक नारी आबादी के दैनंदिन संघर्षों में उतरना है। उनको रोज-ब-रोज के संघर्षों में उतारने के लिए विभिन्न नारी संगठनों के साथ हमें एकता भी कायम करनी होगी। यह एकता संयुक्त मोर्चे के बतौर हो सकती है और उसको होना होगा। स्वाभाविक है कि इस संयुक्त मार्चे के भीतर एकता भी होगी और संघर्ष भी होगा। संयुक्त मोर्चा बनाते समय हम अपनी पहलकदमी और स्वतंत्रता अपने पास रखेंगे। जैसा कि सभी पुराने संगठन कराना चाहेंगे। यह हमारे समक्ष दूसरी चुनौती है।
आज हम देख रहे हैं कि साम्राज्यवादी, विशेषतौर पर अमेरिकी साम्राज्यवादी व उसके यूरोपीय सहयोगी दुनिया के कोने-कोने में प्रतिक्रियावादी सत्ताओं से मिलकर दखल दे रहे हैं। जनता पर युद्ध थोप रहे हैं। वे पश्चिम एशिया में, उक्रेन में, अफ्रीका में, लातिन अमेरिका में सैनिक हमलों से लेकर तख्तापलट करने की साजिशों, देश विशेष के अंदरूनी प्रतिक्रियावादी तत्वों को हथियारबंद करके विद्रोह भड़काने की साजिशों में लगे हुए हैं। इन युद्धों में साम्राज्यवादी अपनी लूट को बढ़ाने और अपने प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए लोगों का कत्लेआम कर रहे हैं। इजरायल फिलीस्तीन के गाजा पट्टी में महिलाओं व बच्चों की हत्या कर रहा है। यह सब अमेरिकी साम्राज्यवाद की शह पर हो रहा है। विश्व पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था जब से आर्थिक संकट में गई है उसका वित्तपतियों, सटोररियों को रियायत देने और उन्हें कर्ज के बोझ से उबारने में जनता के करों का पैसा लुटाने का अभियान जारी है और उसका सारा बोझ दुनियाभर के मेहनतकशों पर डाला जा रहा है। इन युद्धों और आर्थिक संकट के बोझ से व्यापक मेहनतकश आबादी का जीवन दूभर हो रहा है। हमारे देश की महंगाई, बेरोजगारी और सामाजिक तनावों का इससे घनिष्ठ संबंध है। यदि हमारे परिप्रेक्ष्य में साम्राज्यवादियों की दुनियाभर में लूटपाट और युद्ध की विभीषिका में लोगों को झोंकने के विरुद्ध संघर्ष नहीं आता और हम महज अपनी मांगों तक सीमित रखते हैं, ये मांगे और इनके लिए संघर्ष हमारे दृष्टिकोण का हिस्सा नहीं बनते तो हम वास्तविक अर्थों में नारी मुक्ति आंदोलन को खड़ा नहीं कर सकते। यह वास्तविक नारी मुक्ति आंदोलन के समक्ष तीसरी चुनौती है।
यदि हमारा नारी मुक्ति आंदोलन आधुनिक पूंजीवादी परिवार के उत्पीड़नकारी स्वरूप के बारे में सही समझ नहीं स्थापित करता और नारी के घर के भीतर हो रहे उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष नहीं करता, उसे किसी खास परिवार का निजी मामला मानता है तो यह सही मायने में नारी मुक्ति आंदोलन बनने की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकता। हजारों साल की पुरानी उत्पीड़नकारी व्यवस्था के मूल्यों से व्यापक नारी आबादी भी ग्रस्त है। यहां तक की नारी आंदोलन में सक्रिय महिलायें भी परिवार के उत्पीड़नकारी चरित्र के बारे में भ्रम में रहती हैं। मौजूदा परिवार नामक संस्था के उत्पीड़नकारी चरित्र के बारे में हम ऊपर कह चुके हैं और यह भी बता चुके हैं कि जब तक मौजूदा परिवार (के उत्पीड़नकारी चरित्र) से मुक्ति नहीं मिलती तब तक समाज में नारी मुक्ति वास्तविक अर्थों में नहीं हो सकती। मौजूदा परिवार नामक संस्था से मुक्ति का पहला कदम महिलाओं का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना है। आर्थिक तौर पर आत्म निर्भर होते हुए भी परम्पराओं, रीतिरिवाजों और चलनों की ताकत महिलाओं को इस घेरे में बांधे रखती है। इसलिए मौजूदा उत्पीड़नकारी परिवार से मुक्ति का सवाल वास्तविक नारी मुक्ति आंदोलन का महत्वपूर्ण सवाल बन जाता है। उत्पीड़नकारी परिवार के खात्मे के लिए यह आवश्यक है कि पुरुष और महिला के बीच संबंध को बनाये रखने में प्रेम के अलावा और कोई अन्य कारक काम न करते हों। इसके साथ यह भी आवश्यक है कि दोनों में से कोई भी एक-दूसरे पर आर्थिक तौर पर निर्भर न हो और किसी भी स्त्री को कभी भी अपना जीवन यापन करने के लिए किसी पुरुष के साथ रहने की मजबूरी न हो। अगर दोनों, स्त्री और पुरुष सामाजिक उत्पादन में हिस्सा लेते हैं तो फिर उत्पीड़नकारी परिवार का आधार कमजोर हो जाता है और उत्पीड़नकारी परिवार तो तभी समाप्त हो सकता है जब तमाम घरेलू काम- खाना बनाने, साफ-सफाई व बच्चों के लालन-पालन के काम- सार्वजनिक बना दिये जायें। नारी मुक्ति आंदोलन में लगे साथियों के समक्ष यह सवाल एक बड़ी चुनौती है। जब खुद अपने परिवार के भीतर इस उत्पीड़नकारी संस्था से मुक्ति के लिए संघर्ष नहीं करते तो व्यापक समाज में मौजूद उत्पीड़नकारी परिवार को समाप्त करने की लड़ाई को आगे नहीं बढ़ा सकते। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि पूंजीवाद के अंतर्गत यह समस्या कतई हल नहीं हो सकती। इसीलिए नारी मुक्ति आंदोलन और समाजवाद के लिए संघर्ष घनिष्ठता के साथ जुड़ा हुआ है। यह आंदोलन की चैथी बड़ी चुनौती है।
नारी मुक्ति आंदोलन को जहां नारी उत्पीड़न के रोज-ब-रोज के मुद्दों पर संघर्ष करना है वहीं उसे नारी मुक्ति के लिए संघर्षरत क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं की कतार खड़ी करनी है। एक तरफ, वह व्यापक नारी आबादी को संगठित करने का प्रयास तो दूसरी तरफ आगे बढ़ी हुई नारियों को सचेत करने की और विकसित कर नारी आंदोलन की कार्यकर्ता व नेता बनाने की कोशिश। ये दोनों काम एक साथ करने हैं। यदि पहले पर ही जोर रहेगा तो यह वास्तविक अर्थों में नारी मुक्ति आंदोलन नहीं बन सकेगा। यह महज सुधारों के लिए लड़ने वाले संगठन में तब्दील हो जायेगा। यदि सिर्फ दूसरे पर जोर दिया जायेगा तो यह एक संकीर्ण पंथ मंे तब्दील हो जायेगा। इन दोहरे कार्यभारों को एक साथ पूरा करना नारी मुक्ति आंदोलन के समक्ष पांचवी बड़ी चुनौती है।
नारी मुक्ति आंदोलन वैसे तोे महिलाओं के व्यापक हिस्सों को संगठित करने के लिए संघर्ष करेगा, लेकिन यदि उसे वास्तविक अर्थों में नारी मुक्ति आंदोलन को संगठित करना है तो उसे मजदूर महिलाओं के बीच अपने काम को केन्द्रित करना होगा। मजदूर महिलायें अतीत में भी समूचे नारी आंदोलन की रीढ़ रही हैं और आज भी ये महिलाओं का सबसे जुझारू, संगठित और अग्रगामी केन्द्रक बनेगा। मजदूर महिलायें ही पूंजी के साथ रिश्तों में सीधे जुड़ी होती है और पूंजी व श्रम के बीच के अंतरविरोध में सीधे खड़ी हैं। आज चाहे मजदूर महिलाओं के बीच काम करना कितना भी जटिल और दुरूह हो, लेकिन वास्तविक नारी मुक्ति आंदोलन इन्हीं के बीच से सशक्त होकर उभरेगा। इसी के साथ ही मजदूर आंदोलन के साथ नारी आंदोलन को घनिष्ठता के साथ एकजुट होकर संघर्ष करना होगा। नारी मुक्ति आंदोलन को सभी मेहनतकश लोगों के न्यायसंगत संघर्षों के साथ अपनी एकजुटता कायम करनी होगी। यह नारी आंदोलन के समक्ष छठी बड़ी चुनौती है।
आज जब साम्प्रदायिक शक्तियां उभार पर हैं और हिन्दुत्ववादी शक्तियां देश को साम्प्रदायिक फासीवाद की ओर ले जाना चाहती हैं तब ऐसी स्थिति में साम्प्रदायिक फासीवाद के बढ़ते खतरे के विरुद्ध संघर्ष करना और उसके लिए फासीवाद विरोधी शक्तियों के साथ संयुक्त मोर्चे की ओर बढ़ना, वास्तविक नारी मुक्ति आंदोलन के समक्ष सातवीं बड़ी चुनौती है।

संक्षेप में ये कुछ प्रमुख चुनौतियां हैं जिनसे लड़कर ही वास्तविक नारी मुक्ति आंदोलन खड़ा किया जा सकता है।

योजना आयोग का विसर्जनः एक पूर्व घोषित मौत
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
भारतीय पूंजीपतियों के दुलारे और भूतपूर्व संघी प्रचारक नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री की हैसियत से लाल किले से 15 अगस्त को अपने संबोधन में एक महत्वपूर्ण घोषणा यह की कि योजना आयोग को भंग कर दिया जायेगा और उसकी जगह एक नयी संस्था का गठन किया जायेगा। उनकी घोषणा के चंद दिनों बाद ही योजना आयोग के विसर्जन की प्रक्रिया शुरू हो गयी। इसके सदस्यों को इस्तीफा देने के लिए कह दिया गया और स्वयं मोदी ने एक ट्वीट करके यह कहा कि लोग योजना आयोग के बदले गठित की जाने वाली नयी संस्था के बारे में राय दें।
भारत की अर्थव्यवस्था के संचालन में योजना आयोग के बारे में यह फैसला एक निर्णायक मोड़ बिन्दु है हालांकि इसकी वास्तविक भूमिका में परिवर्तन 1991 की नयी आर्थिक नीतियों (निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण की नीतियों) के साथ ही आ गया था। इस बिन्दु के आगे क्या होगा इसे समझने के लिए योजना आयोग के इतिहास और अर्थशास्त्र में जाना होगा।
निजी प्रतियोगिता वाले पूंजीवाद के जमाने में यह माना जाता था और यही बात सच भी थी कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का संचालन बाजार करेगा। पूंजीवाद में किसी भी माल को बहुत सारे पूंजीपति बनवाते हैं और उन्हें बाजार में लेकर पहुंचते हैं। कोई भी माल पूरे समाज में कितनी मात्रा में बनेगा और उस माल की प्रति इकाई की बाजार में कीमत क्या होगी यानी माल कितने में बिकेगा यह बाजार ही तय करता हैं और यह होता है बाजार में माल की मांग और पूर्ति के संतुलन-असंतुलन के जरिये।
पूंजीवाद में ऐसा इसलिए होता है कि इसमें मालों की संपूर्ण मात्रा और प्रति इकाई कीमत को तय करने का कोई तरीका नहीं होता। चूंकि हर पूंजीपति अपनी गणना के हिसाब से माल तैयार करता है। इसलिए समाज के पैमाने पर पूर्ण अराजकता का माहौल होता है। पूरे समाज को हर किस्म के माल की कितनी जरूरत है और माल की प्रत्येक इकाई में कितना जरूरी श्रम लगना चाहिए यह तय करने वाला कोई नहीं होता। इसीलिए कभी माल मांग से ज्यादा हो जाता है तो कभी कम। इसी तरह किसी पूंजीपति का माल औसत से सस्ता हो जाता है तो किसी का औसत से महंगा। ऐसा होने पर इसकी उल्टी प्रतिक्रिया होती है और मांग व पूर्ति को संतुलित करने की प्रवृत्ति चलती है। इसी तरह के ऊपर-नीचे की गति से पंूजीपति समाज में उत्पादन का नियंत्रण होता रहता है।
एडम स्मिथ के जमाने से ही बाजार द्वारा पूंजीवादी उत्पादन के नियंत्रित होने की बात मानी हुई बात थी। इसे स्मिथ ने बाजार की अदृश्य शक्तियों का नाम दिया था। यानी सरकार या इसी तरह की किसी अन्य दृश्यमान सत्ता से भिन्न बाजार में मांग और आपूर्ति की अदृश्य शक्ति पूंजीवादी उत्पादन को नियंत्रित करती रहती है।
एडम स्मिथ और उनकी तरह के पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना था कि यदि बाजार की अदृश्य शक्तियों से अलग पूंजीवादी उत्पादन को नियंत्रित करने की कोशिश की गयी तो इससे केवल विकृति ही पैदा होगी और कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था की गति बुरी दिशा में प्रभावित होगी। मूल्य के नियम को (मांग और आपूर्ति के जरिये) सही तरह से लागू न होने देने के बुरे परिणाम ही आयेंगे। मूल्य के नियम का मतलब था प्रत्येक माल का कुल मूल्य और उस माल की प्रत्येक इकाई का मूल्य जो बाजार द्वारा नियंत्रित होता है।
जब बीसवीं सदी में मुक्त प्रतियोगिता वाले पूंजीवाद का अन्त हो गया तथा पूंजीवाद एकाधिकारी पूंजीवाद में बदल गया तो बाजार द्वारा पूंजीवादी उत्पादन को नियंत्रित करने की स्थिति दिक्कत तलब हो गयी। बाजार अभी भी था पर अब वह बड़े-बड़े पूंजीवादी निगमों द्वारा प्रभावित होने लगा। बाजार की अदृश्य शक्ति को निगमों का एकाधिकारी स्वामित्व प्रभावित करने लगा। यह देश के पैमाने पर भी होने लगा तथा दुनिया के पैमाने पर। परिणाम यह निकला कि बाजार स्वयं संकटग्रस्त हो गया और इसने महामंदी के जरिये इसे तीखे ढंग से अभिव्यक्त किया। इसने व्यवहार में प्रमाणित किया कि पूंजीवादी व्यवस्था अब बाजार के जरिये, मूल्य के नियम के जरिये नियंत्रित नहीं हो सकती। इसे सचेत तौर पर नियंत्रित करना होगा। अराजक पूंजीवादी व्यवस्था को नियोजित करना होगा।
महामंदी का संकट यदि नकारात्मक ढंग से इसे रेखांकित कर रहा था तो तत्कालीन सोवियत संघ का नियोजित विकास सकारात्मक ढंग से। ठीक जिस समय दुनिया की सारी पंूजीवादी अर्थव्यवस्था तीखी मंदी में जा रही थीं उसी समय सोवियत संघ में पहली पंचवर्षीय योजना के तहत तेजी से अर्थव्यवस्था विकसित हो रही थी। अगली पंचवर्षीय योजना ने इसे और आगे बढ़ाया और केवल एक दशक के भीतर सोवियत संघ एक पिछड़े खेतिहर समाज से औद्योगिक देश में रूपांतरित हो गया।
माक्र्स के जमाने से ही यह बात स्थापित थी कि पूंजीवाद अर्थव्यवस्था के विपरीत समाजवादी अर्थव्यवस्था को एक नियोजित अर्थव्यवस्था होना होगा। इससे पूरे समाज में उत्पादन और वितरण को एक योजना के तहत नियंत्रित किया जायेगा। बाजार समाजवाद में रहेगा पर उत्पादन को नियंत्रित करने में इसकी भूमिका अत्यंत सीमित होगी तथा लगातार और ज्यादा सीमित होती चली जायेगी। बाजार मुख्यतः उपभोग के क्षेत्र में काम करेगा और उसमें भी उसकी भूमिका क्रमशः सीमित होती चली जायेगी। माल और सेवायें क्रमशः मुफ्त उपलब्ध होती चली जायेंगी। कम्युनिज्म के द्वार पर पहुंचकर बाजार पूर्णतः समाप्त हो जायेगा।
इसी सिद्धांत के अनुरूप सोवियत संघ में एक योजना के तहत समस्त अर्थव्यवस्था का संचालन होता था तथा बाजार की सीमित उपस्थिति को भी अंकुश में रखा जाता था।
सोवियत संघ के योजनाबद्ध विकास के अनुभव ने संकटग्रस्त पूंजीवादी समाजों के अर्थशास्त्रियों के सामने अपने संकट से उबरने का रास्ता दिखाया और उसे जार्ज मीनार्ड कीन्स ने अपनी किताब में सूत्रबद्ध किया। ये सिद्धांत ही बाद में बे्रटन वुड्स व्यवस्था के तहत पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के संचालन के मार्ग निर्देशक बने। ‘कल्याणकारी राज्य’ के तहत इन्हें ही अपनाया गया। योजना की बातें पंूजीवादी देशों में भी आम हो र्गइं।
यदि सोवियत समाजवादी समाज के नियोजित विकास की सफलता पूंजीवादी देशों के शासकों को भी प्रभावित कर रही थी तब इससे भला भारत की आजादी के नेता कैसे अप्रभावित रहते। 1936 के दशक से ही इस आंदोलन पर सोवियत समाजवाद का असर साफ दीखने लगा था। नेहरू जैसे नेता खुद को समाजवादी कहने लगे थे। इससे टाटा-बिडला जैसे पूंजीपति आशंकित होने लगे थे। महात्मा गांधी जैसे चतुर सुजान इन पूंजीपतियों को आश्वस्त कर रहे थे।
इन्हीं स्थितियों में 1938 में कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के बाद सुभाष चन्द्र बोस ने देश के नियोजित विकास की बात उठाई। इसके लिए उन्हें प्रेरित करने वाले व्यक्ति थे मेघनाद साहा। गौर करने की बात है कि सुभाष नेहरू की तरह खुद को समाजवादी नहीं कहते थे।
उसके बाद जब कांग्रेस ने आजादी के बाद देश के आर्थिक विकास का खाका तैयार करने के लिए एक कमेटी का गठन किया तो उसने भी देश के योजनाबद्ध विकास की बात की। ऐतिहासिक तौर पर इस योजना को ‘बाम्बे प्लान’ या टाटा-बिडला योजना के नाम से जाना जाता है। इस तरह देखा जाये तो आम तौर पर नेहरू - महालोनबीस माॅडल माना जाता है असल में वह काफी पहले अन्य लोगों द्वारा प्रस्तावित किया गया था। यह अलग बात है कि नेहरू की इन सबसे पूर्ण सहमति थी।
आजादी के बाद के भारत के पूंजीवादी विकास को नेहरू - महालोनबीस माॅडल कहे जाने के निश्चित कारण हैं। वस्तुतः इन्हीं दोनों व्यक्तियों ने इस योजनाबद्ध विकास का व्यावहारिक रूप निर्धारित किया।
अभी तक गुलाम रहे भारत के आजादी के बाद विकास की निश्चित जरूरतें थीं। भारत में निजी पूंजी बहुत कमजोर थी और केवल कुछ ही उद्योगों में कार्यरत थी। आधारभूत उद्योग और बाकी आधारभूत ढांचा न के बराबर थे। जो भी उद्योग थे वे केवल कुछ ही क्षेत्रों में सिमटे हुए थे। कृषि बेहद पिछड़ी थी और उद्योग से उसका संबंध बहुत कमजोर था। देश की बहुलांश आबादी पिछडे़ हालात में भुखमरी में जी रही थी। और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि साम्राज्यवाद के इस युग में विदेशी साम्राज्यवादी पूंजी इतनी ताकतवर थी कि इससे रक्षा का उपाय किये बिना देश का कोई पूंजीवादी आत्मनिर्भर विकास हो ही नहीं सकता था।
इन स्थितियों में यदि देश के पूंजीवादी विकास को बाजार की शक्तियों के सहारे छोड़ दिया जाता तो इसका केवल यही परिणाम निकलता कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी भारत की अर्थव्यवस्था उसी दिशा में चलती रहती जैसे वह 1947 के पहले थी। वह साम्राज्यवादी देशों को कच्चा माल मुहैय्या कराने वाली एक गैर औद्योगिक पिछड़ी अर्थव्यवस्था बनी रहती।
इसके मुकाबले भारत के पूंजीपति वर्ग ने नेहरू-महालोनबीस माॅडल के तहत सरकार द्वारा नियंत्रित योजनाबद्ध विकास का जो रास्ता चुना उसमें सरकार और सरकारी क्षेत्र की प्रमुख भूमिका होनी थी। यह तय किया गया कि पूंजीवादी विकास की आम दिशा सरकार तय करेगी- योजना आयोग के जरिये। सरकार यह प्रभावी ढंग से कर सके इसके लिए नियमों कानूनों का न केवल एक पूरा तंत्र खड़ा किया गया (आज के पूंजीपतियों की भाषा में ‘लाइसेन्स परमिट राज’ या ‘इंसपेक्टर राज) बल्कि सरकारी उद्यमों का एक बड़ा क्षेत्र भी। बल्कि देश में औद्योगिक विकास के लिए आधारभूत ढांचा खड़ा करने की जिम्मेदारी इसे ही सौंपी गई। निजी क्षेत्र को ज्यादातर उपभोग क्षेत्र उपलब्ध थे हालांकि अन्य क्षेत्रों में भी इसे मनाही नहीं थी।
योजना आयोग जिसका मुखिया स्वयं प्रधानमंत्री होता था, के द्वारा तैयार पंचवर्षीय योजना निर्देशक के तौर पर समूचे पूंजीवादी विकास की दिशा तय करती थी। यहां तक कि देश के समस्त संसाधनों के इस्तेमाल का निर्देशन भी यही आयोग करता था।
फिर भी भारत जैसे पिछड़े देश में योजनाबद्ध विकास की भयंकर सीमाएं थीं। इसका सबसे बड़ा कारण तो यही था कि यह योजनाबद्ध विकास देश में पूंजीवाद का विकास करने के लिए था जबकि योजनाबद्ध विकास मूलतः समाजवाद की चीज है। यानी एक समाजवादी उपकरण से पूंजीवादी समाज का काम कराया जा रहा था। यह अपने आप में दिक्कततलब था। दूसरे, ऐसा करने के लिए भी जिन आमूलगामी कदमों (मसलन क्रांतिकारी भूमि सुधार, सामंती तत्वों का नाश तथा उनकी सम्पत्ति की जब्ती इत्यादि) की जरूरत थी, नेहरू सरकार ने उसे भी नहीं उठाया था।
लेकिन तब भी इस योजनाबद्ध विकास ने लस्टम-पस्टम तरीके से ही सही, अपना लक्ष्य हासिल किया और तीन-चार दशकों में भारत का अच्छा खासा पूंजीवादी विकास हो गया। भारत के मरगिल्ले पूंजीपति अब अच्छे-खासे मोटे-ताजे हो गये। कृषि के पूंजीवादीकरण से देश का एक एकीकृत बाजार पैदा हो गया।
यहां पहुंचकर भारत के पूंजीपति वर्ग की जरूरतें बदल गईं। अब से ‘लाइसेन्स-परमिट राज’ खटकने लगा। अब वह मांग करने लगा कि उसे व्यवसाय करने की पूरी आजादी दी जाये। सरकार अर्थव्यवस्था से अपने हाथ खींचे। संक्षेप में योजनाबद्धता विकास के पुराने माडल को त्यागकर बाजार की शक्तियों वाले माडल को अपना लिया जाये। अपने सारतत्व में यह योजना आयोग के विसर्जन की भी मांग थी।
इस समय तक दुनिया का पूंजीपति वर्ग भी इसी ओर बढ़ चुका था। साम्राज्यवादी पूंजीपति अपने यहां निजीकरण उदारीकरण वैश्वीकरण की नीतियां लागू कर रहे थे और सारी दुनिया में इसे लागू करवा रहे थे। इसमें सरकार का अर्थव्यवस्था में से हस्तक्षेप एक खास तरीके से कम करना था। यह तरीका था पूंजीपति वर्ग के हित में हस्तक्षेप पर मजदूर वर्ग के हित में नहीं।
भारत में भी जब 1991 में नयी आर्थिक नीतियां लागू की गयी तो इसी समझदारी के तहत पूंजीपतियों के हित में बाजार को छूट दी गयी, इस आश्वस्ति के साथ कि बाजार की मार से सरकार पूंजीपतियों को बचायेगी। लेकिन इसी समय मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश आबादी को मरने-खपने के लिए बाजार के हवाले छोड़ दिया गया।
ऐसे में नेहरू-महालोनबीस माॅडल वाला योजना आयोग स्वतः ही निरर्थक हो गया। उसकी कोई सार्थकता नहीं बची। लेकिन तब भी इतने लम्बे समय से चले आ रहे इस आयोग को खत्म करने की हिम्मत नरसिंह राव-मनमोहन सिंह सरकार नहीं कर पाई। इसका खत्म करने का मतलब प्रतीकात्मक तौर पर पुराने से अपना संपूर्ण नाता तोड़ना होता। कांग्रेसी यह हिम्मत नहीं जुटा पाये। इसीलिए योजना आयोग बना रहा और यथा-प्रथा पंचवर्षीय योजनाएं भी बनती रही। पर उनका कोई मलतब नहीं था। हद तो तब हो गयी जब मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में उस व्यक्ति को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया गया जो योजनाबद्धता का ही सिद्धांततः विरोधी था। इस व्यक्ति का नाम था- मोन्टेक सिंह आहलुवालिया। यह व्यक्ति नयी आर्थिक नीति के सूत्रधारों में से एक था।
अब संघी प्रचारक नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद न केवल सरकार में इतना साहस हुआ है कि वह योजना आयोग भंग कर दे बल्कि पूंजीपतियों की इस मांग को पूरा करने के लिए मोदी वचनबद्ध भी थे। लगे हाथों उन्होंने नेहरू के अतीत से भी पीछा छुड़ा लिया।
योजना आयोग का यह विसर्जन इस बात की स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि भारत का मुटियाया पूंजीपति वर्ग अब लूट की खुली छूट को चरम पर पहंुचा रहा है। वह अपने हाथ सारे बंधनों से मुक्त कर रहा है। इस आश्वस्ति के साथ कि सरकार उसे हर तरह के संकट से उबारने के लिए हमेशा उपलब्ध है।

योजना आयोग को मृत्युदंड दिया जा चुका है। पर इसके लिए किसी शोक की आवश्यकता नहीं है। उसका जीवन भी पूंजीपति वर्ग के लिए था और उसकी मौत भी उसी की खातिर हुई। बस वक्त बदल गया था।

एक नारीवादी के कुछ सकारात्मक विचार .हां! मैं एक औरत हूं!   -शालू निगम
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014) 
इस स्वाधीनता दिवस के अवसर पर मैं एक आम औरत के बतौर, इस स्वतंत्र राष्ट्र के एक नागरिक के बतौर तथा ज्यादा महत्वपूर्ण बात एक मानव होने के बतौर अपनी आजादी की लड़ाई जारी रखे हुये हूं।
हां, मैं एक औरत हूं और मुझे अपने पर गर्व है। मैं मजबूत हूं और प्रत्येक बीतते क्षण में और ज्यादा मजबूत होती जा रही हूं। मैं एक स्वतंत्र, निर्भीक, प्रत्येक कदम पर अपना चुनाव करने वाली स्वतंत्र विचार रखने वाली औरत हूं जो मेरे गर्व की पुष्टि करता है। मैं अपने सम्मान के लिए संघर्षरत और इस प्रक्रिया में अपने खुद के भवितव्य़़़़़़़ को बनाने और लिखने वाली औरत हूं।
-मैं वह हूं जिसे आप अपनी आंखों से निर्माण क्षेत्रों में ईंटें ढोेते हुए देखते हैं।
-मैं खेतों में काम करने वाली एक औरत हूं जो अपनी कल्पना की फसल तैयार होने का इंतजार करती है।
-मैं टैक्सटाइल संगठन में काम करने वाली एक मजदूर हूं जो अपने काते कपड़ों में अपनी आशाएं बुनती है।
-मैं साइकिल चलाकर भी बसों के पीछे दौड़ने वाली एक छात्रा हूं जिसकी आंखों में सपने हैं।
-मैं खोज करने वाली और कल्पनाशील एक वैज्ञानिक हूं, एक निर्माणकर्ता हूं जो पुराने भारत से छांटकर नये भारत की नीवों को शक्ल दे रही है और उसे मजबूत कर रही है।
-मैं टेªनों या मेट्रो में दिखाई पड़ने वाली अपनी आकाक्षाओं को पूरा करने में लगी एक कार्यालय कर्मी हूं।
-मैं भावी पीढ़ी को पे्ररणा देने की इच्छा रखने वाली एक शिक्षक हूं।
-मैं स्वस्थ भारत के निर्माण में निरन्तर संघर्षरत एक स्वाथ्यकर्मी हूं मैं सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए संकल्पबद्ध एक इंजीनियर हूं।
-मैं अपनी बेटियों को चांद में भेजने के विचारों के साथ काम के बोझ को ढोने वाली एक घरेलू मजदूर हूं।
-मैं साहस के साथ घडे़ में पानी लेकर गांव में मीलों चलने वाली एक औरत हूं।
मैं उम्मीद और आशावाद के साथ खाना पकाने, घर की सफाई करने, खेतों, फैक्टरियों में कारपोरेट कार्यालयों का प्रबंधन करने वाली एक औरत हूं। क्योंकि मैं एक स्वपन देखने वाली, विश्वास करने वाली, निर्माण करने वाली और काम करने वाली हूं।
मैं कारपोरेट और मीडिया द्वारा बहुप्रचारित संुदर और साफ त्वचा वाली, लम्बे चमकदार बालों वाली या पतली सुडौल देह वाली नहीं हो सकती हूं। मैं ऐसे तमाम झूठों और गलत मानकों पर विश्वास नहीं करती क्योंकि मैं एक असली औरत हूं और असली व्यक्तियों को कोई भी परिभाषित, बंद करने और आकार बदलने का काम, कोई लेबल लगाने या रूप देने का काम, हंसी उड़ाने या मजाक बनाने का काम नहीं कर सकता। मैं एक आम भारतीय महिला हूं जो अपने घर पर गर्व करती है और अपने ऊपर, अपनी शक्ति पर, अपने गुणों पर, हुनर और क्षमताओं पर विश्वास करती है।
मैं स्वाधीन भारत की एक बेटी हूं और गार्गी, मैत्रेई, रजिया सुल्तान, मीरा बाई, रानी लक्ष्मीबाई, कित्तूर चेन्नाम्मा, पंडिता रमाबाई, सरोजिनी नायडू, विजय लक्ष्मी पंडित, कस्तूरबा गांधी, अरूणा आसफ अली, राजकुमारी अमृतकौर, एनी बेसेंट, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, इरोम शर्मिला चानू और अन्य लाखों-लाख उन औरतों की उत्तराधिकारी हूं जिन्होंने न सिर्फ औपनिवेशिक शासकों के विरूद्ध बल्कि प्रभुत्वशाली जाति, वर्ग और पितृसत्ता द्वारा थोपे गये उत्पीड़न और शोषण के प्रभुत्व के विरूद्ध भी संघर्ष किया या कठिन मेहनत कर रहे हैं जिससे कि आने वाली पीढि़यों का बेहतर भविष्य हो सके। मेरा विश्वास है कि औरतों की पीढि़यों के प्रयास व्यर्थ नहीं जायेंगे और मैं, उनके साहस और दुःसाहस की वारिस न्याय के लिए तब तक संघर्ष करूंगी जब तक उसे हासिल नहीं कर लेती।
मुझे छेड़ा गया, अपमानित किया गया, बलात्कार का शिकार बनाया गया, पीटा गया, मेरी हत्या की गयी, यातना दी गयी, मेरे साथ भेदभाव किया गया, हिंसा की गयी तब भी मैं इन सबसे उबरकर निकली और पक्षी की तरह राख से निकलकर ज्यादा मजबूत, ज्यादा शक्तिशाली और ज्यादा दृढ़ होकर निकली चाहे मुझे कितना भी झुकाओ या मुझे तोड़ो, मेरा बलात्कार करो या मुझे मार डालो, मैं हार नहीं मानूंगी। मेरी आत्मा को या मेरी भावना को कुछ भी नष्ट नहीं कर सकते......।
मैं प्रत्येक मधुरा, भंवरी देवी, शाहबानो, अमीना, रूपन देओल बजाज, तरविंदर कौर, रूपकुंवर, इमराना, गुडि़या, सोनी सोरी, निर्भया में निवास करती हूं और अपने को अन्य उन सभी लड़कियों, जिनको देश के प्रत्येक कोने में प्रतिदिन बलात्कार का शिकार बनाया जाता है, जलाया जाता है, अपहरण किया जाता है, हिंसा का शिकार बनाया जाता है, के साथ जोड़ती हूं। ये सब शिकार लड़कियां तब भी एक या  दूसरे तरीके से आक्रांताओं के खिलाफ लड़ी थी।
मैं अपने ऊपर बरपायी गयी नृशंस हिंसा की मूकदर्शक नहीं हूं। मैं शिकार नहीं हूं। मैं अन्यायों के खिलाफ सड़कों पर उतरती हूं। मैं विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और इसके ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों के विरूद्ध संघर्ष करती हंू और ऐसे सभी कदमों के विरूद्ध संघर्ष करती हूं जो गरीबी के नारीकरण (थ्मउपदप्रंजपवद व िच्वअमतजल) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मैं घर पर और काम करने के स्थान पर भी भेदभाव और हिंसा के विरूद्ध प्रतिरोध करती हूं। मैं जल, जंगल, जमीन, जीविका के साधन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण सम्मानपूर्ण जीवन के अधिकार के अपने अधिकार की रक्षा के लिए खड़ी हूं। मेरी आवाज को कुचला नहीं जा सकता, बाधित नहीं किया जा सकता या उसे कमजोर नहीं किया जा सकता।
मैंने उस समय संघर्ष किया जब पुलिस थाने के भीतर आदिवासी लड़की के बलात्कारी दो पुलिस कर्मियों को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने छोड़ दिया। 80 के दशक के दौर में मैंने उस समय विद्रोह किया जब दहेज के रूप में लालच, लोभ और उपभोक्तावाद के लिए मेरे एक हिस्से को जिंदा जला दिया गया। मैंने उस समय विरोध किया जब मुझे सती के बतौर दहन कर दिया गया। मैंने अपने पैदा होने से पहले, पैदा होते समय या पैदा होने के बाद मार डालने की कोशिश करने की किसी भी प्रथा के चलन का विरोध किया। मैंने विकास के नाम पर बांध की ऊंचाई बढ़ाये जाने के विरोध में अपनी आवाज उठायी क्योंकि इससे प्रत्येक चीज नष्ट होती थी। मैंने प्लांट और ऐसे किसी प्रक्रियाओं को चुनौती दी जो स्वास्थ्य के मेरे अधिकार से मुझे वंचित करते थे। मैंने विरोध करने का उस समय साहस किया जब सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने एक कानूनी प्रशिक्षु के बतौर मेरे से छेड़छाड़ की। मैं उस समय पेड़ों के साथ चिपक गयी जब जंगल पर मेरे अधिकारों से मुझे वंचित किया गया। मैंने उत्तर-पूर्व में सेना और अर्धसैनिक बलों द्वारा किये गये बलात्कार के विरूद्ध क्रांति खड़ी कर दी। मैंने उस धार्मिक उन्माद के खिलाफ प्रतिरोध किया जिसने सांप्रदायिक दंगों के रूप में अपना घिनौना चेहरा दिखा था। मैंने उस समय विरोध में आवाज उठायी जब न्यायपालिका के कुछ लोगों ने मेरी याचिका को इस आधार फेंक दिया कि उच्च जाति के पुरूष दलित महिला के साथ बलात्कार नहीं कर सकते। मैंने उन लोगों के विरूद्ध युद्ध घोषित कर दिया जिन्होंने छोटे बच्चों का अपहरण किया था। मैंने अपने बाॅस, एक पत्रिका के सम्पादक के खिलाफ उस समय आवाज उठायी जब उसने मेरे साथ छेड़छाड़ की। मैंने विभिन्न स्थानों पर शराब विरोधी आंदोलनों को शुरू किया। मैंने जीविका, स्वास्थ्य और शिक्षा के अपने अधिकार हासिल करने के लिए संघर्ष किया है। मैं तेजाब के हमलों के विरूद्ध खड़ी रही। मैं आॅनर किलिंग के विरूद्ध खड़ी रही। और डायन कहकर पीडि़त करने के विरूद्ध आवाज उठायी। दिल्ली में चलती बस में जब मेेरे साथ बलात्कार किया गया तो मैंने विरोध किया। और जब बदायूं में मेरे साथ बलात्कार किया गया और पेड़ पर लटका दिया गया तो मैं जोर-शोर से चीखी और यह मैं तब तक करती रहूंगी जब तक मुझे सम्मान व न्याय नहीं मिल जाता। मैं अपने सम्मान के लिए, अपने गौरव के लिए, अपने आत्मसम्मान के लिए अपने सशक्तिकरण के लिए, अपनी मुक्ति के लिए निरंतर लड़ती रहूंगी।
मैं गरीबी के खिलाफ संघर्ष करती हूं। मंै पितृसत्ता के खिलाफ ऐसी पितृसत्ता जो परिवार के भीतर, काम करने के स्थान पर, सार्वजनिक जगहों पर और दिमागी बनावट के भीतर अस्तित्व में है, के विरूद्ध संघर्ष करती हूं। मैं गहरायी से जड़ जमाये हुए नारी विरोधी परंपरा की धारणा को रद्द करती हूं। मैं मुक्त बाजार की आर्थिक नीतियों और ऐसे सुधारों को चुनौती देती हूं जो शांतिपूर्ण अस्तित्व के मेरे अधिकारों को मुझसे छीनते हैं। मैं आमूलवाद के खिलाफ लड़ती हूं। मैं किसी भी रूप में उत्पीड़न के विरूद्ध संघर्ष करती हूं। मैं अपने स्थान के लिए, समानता के लिए और समान अवसरों के लिए अपने सरोकारों के बारे में आवाज उठाती हंू।
आजाद भारत में पैदा हुई मैं सभी किस्म के भेदभावों से मुक्त जीवन, सम्मानपूर्ण जीवन के अपने संवैधानिक अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष करती हूं। मैं राजनीतिक आदर्शों और वास्तविकताओं के बीच अंतर को भरने के लिए काम करती हूं। मैं सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्र के अंतर्गत अपने कानून सम्मत अधिकारों, दावों और हकों के न कि भीख के तौर पर दिये गये कल्याण कार्यक्रमों या योजनाओं पर दावा करती हूं। मैं हिंसामुक्त जीवन जीने की, पानी, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, जमीनें और सभ्य जीवन के लिए आवश्यक अन्य सभी सुविधाओं सहित प्रसन्न जीवन जीने के अधिकार की कोशिश करती हूं।
मैं अपने परिवार से अपने पैदा होने की इजाजत चाहती हूं और अपना लालन-पालन वैसा ही चाहती हूं जैसा कि वे अपने लड़कों का करते हैं। मैं अपने साथ भेदभाव नहीं चाहती हूं। स्वास्थ्य, भोजन और शिक्षा के अवसर की मांग करती हूं। मैं कम उम्र में शादी न करने की मांग करती हूं। मैं अपने परिवार से यह मांग करती हूं कि मेरे प्रति यौन उत्पीड़न सहित कोई भी हिंसा न करे क्योंकि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में मैं शक्तिहीन हूं।
मैं काम करने के स्थान पर समान अवसरों की, किसी भी तरह के भेदभाव के बिना मुक्त कार्य वातावरण की या कार्य स्थल पर हिंसा से आजादी की मांग करती हूं। मैं समाज से नारी विरोधी पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण को छोड़ने की मांग करती हूं जिससे मेरा सम्मान और गौरव क्षरित होता है और नारी भू्रण हत्या, आॅनर किलिंग, डायन कहकर प्रताडित करने, अपहरण करने, दुल्हन के बतौर महिलाओं को खरीदने और बेचने जैसी चलन को त्यागने की मांग करती हूं।
मेरा यह विचार है कि पितृसत्ता को समाप्त ही होना होगा। स्वाधीन भारत में ऐसे सभी चलन जो किसी को नुकसान पहुंचाते हों, को गैरकानूनी और असंवैधानिक घोषित किया जाना चाहिए।
मैं पूंजीवादी, पितृसत्ता के खिलाफ हूं जो औरतों का पण्यीकरण करती हैं और जो महिलाओं के विरूद्ध भेदभाव करने वाले यौन रूपों को प्रोत्साहित करता है। मैं वैश्वीकरण और उदारीकरण के नये अवतार के रूप में साम्राज्यवाद का सामना करती हूं जिससे मेरी स्थिति को अधिकाधिक सीमित संसाधनों पर पहुंच, घरेलू हुनरों और ज्ञान प्रणाली का विनाश, स्थानीय पर्यावरणों को नुकसान पहुंचाने वाला और  स्थानीय जंगल, जल प्रणालियों और जमीन को तहस-नहस करने का मैं विरोध करती हूं।
आमोलवादी और सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा मुझको अलग-थलग करके मेरी दृश्यमान्यता से इंकार करने, निहित स्वार्थों के लिए मुझे सम्पतिहीन और संसाधनहीन बनाये रखने की सभी चुनौतियों का मैं विरोध करती हूं।
मैं सौन्दर्यीकरण और आणविकीकरण के विरूद्ध खड़ी हूं जो बजट के प्रावधानों का अधिकांश हिस्सा हड़पकर जीवन के निर्मम तरीकों को प्रोत्साहित करते हैं जबकि बुनियादी जरूरतों के प्रावधानों से इंकार करते हैं।
मैं महिलाओं के आरक्षण को लागू करने को भी मांग करती हूं जिसमें एकल महिलाओं के लिए नीतियों का प्रावधान हो और ऐसे कानून हो जो उनके साथ बेहतर सलूक की बात करते हों। मैं उन सभी पितृसत्तात्मक, पितृप्रधान और भेदभाव पर तमाम कानूनों पर पुनर्विचार करने और समानता को प्रोत्साहित करने वाले तमाम कानूनों को लागू करने की मांग करती हैं।
मैं जोर देती हूं कि उन सभी लोगों की यह राय कि बलात्कार या घरेलू हिंसा कानून का महिलाएं दुरुपयोग करती हैं कि घर में ऐसे लोगों को एक बलात्कार की या घरेलू हिंसा की शिकार महिला के परिपे्रक्ष्य से फिर से सोचना चाहिए। चाहे ये घटनाएं घर के संरक्षित और सुरक्षित चहारदीवारी के भीतर हो या सार्वजनिक स्थान पर, औरतें शादी के संबंधों के दायरे में और सार्वजनिक दायरों में बलात्कार, यंत्रणा, अपमान और हिंसा और मौत की शिकार होती हैं। समाज आये दिन होने वाली इन घटनाओं से अपनी आंखें बंद नहीं कर सकता...। जहां दृष्टिकोण और दिमागी संरचना आम तौर पर महिलाओं के विरूद्ध भेदभाव भरी हैं वहां कानून के दुरुप्रयोग का सवाल ही कहां उठता है? माफ करने से सिर्फ अपराध को ही बढ़ावा मिलता है। कृपया जागो! और उन आवाजों को सुनो जो न्याय के लिए चीख रही हैं।
मैं उन लोगों को सलाह देती हूं जो इस बात की रट लगाये रहते हैं कि औरतें कानूनों का दुरुपयोग कर रही हैं। वे यह सोचें कि मुकदमों की संख्या ज्यादा से ज्यादा बढ़ती जा रही है। यह इसलिए हो रहा है क्योंकि अधिकाधिक औरतें अपने न्यायसंगत अधिकारों के प्रति सचेत हो रही हैं जिनसे पीढि़यों से उनको वंचित रखा गया था। उनकी आवाजों को दशकों से कुचला गया था। लेकिन अब क्रांति का समय हे। अधिकाधिक औरतें बोलने को तैयार हैं और अपने अधिकारों का दावा करेंगी।
मैं ऐसे लोगों को बताना चाहती हूं कि जो यह पहंुच रखते हैं कि लड़के तो लड़के ही रहेंगे। उनकी यह पितृसत्तात्मक विचारधारा अपराध की रक्षा करने वाली है। और यह सिर्फ गुंडागर्दी को बढ़ावा देगी। लड़कियां भी लड़कियां हैं लेकिन वे ज्यादा परिपक्व, स्वाधीन व समझदार हैं। अब यह लड़कियों के लिए समय है कि आगे बढ़ें ओर ज्यादा जिम्मेदार, समझदार और संवेदनशील बनें और जैसाकि हाल के नारी अधिकारों के मुद्दों पर बने पोस्टरों पर दिखाया गया है कि उन्होंने महिलाओं के विरूद्ध हिंसा में कदम से कदम मिलाकर चलने में अपने भूमिका निभायी। मैं उनको सलाम करती हूं।
मैं राजनीति, धर्म ओर दूसरे गुटांे से आने वाले इन नेताओं से अपील करती हूं जिन्होंने ऐसे बयान जारी किये जो महिलाओं को अपमानित, बेइज्जत और उनके सम्मान को कम करके आंकते हैं। मैं उनसे इस तथ्य की ओर सोचने के लिए कहती हूं कि औरतें समान नागरिक और मानव हैं कि उनके बिना जीवन का सारतत्व संभव नहीं होगा।
मैं उम्मीद करती हूं कि राज्य देश की आबादी के आधे हिस्से को सम्मान के साथ नागरिकों के बतौर की गारंटी देगा और उनको सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सभी रूपों में न्याय देगा।
और मेरा विश्वास है कि मैं परिवर्तन हूं। परिवर्तन मुझसे शुरू होता है। मैं प्रतिरोध करती हूं इसलिए मैं अस्तित्व में हूं। मैं प्रत्येक दिन, प्रत्येक क्षण अपने को आलोचनात्मक तरीके से जांच करती हूं।
आप मुझको परिवार तोड़ने वाला कह सकते हैं लेकिन मैं परिवार की संख्या के विरूद्ध नहीं हूं। इसके बजाय मैं पितृसत्ता और परिवार के भीतर असमानता के विरूद्ध लड़ती हूं। मैं धर्म के खिलाफ नहीं हूं लेकिन मैं सांप्रदायिकता के विरूद्ध लड़ती हूं। मैं देशी संस्कृति के विरूद्ध नहीं हूं फिर भी मैं पितृसत्ता, यौनवाद, भेदभाव और नारी विरोधी दृष्टिकोण का प्रतिवाद करती हूं। मैं पुरूषों के साथ समानता के लिए संघर्ष नहीं कर रही फिर भी मैं चाहती हूं कि हिंसा व भेदभाव से स्वतंत्र समाज के निर्माण में फैसला लेने में मैं बराबर की हिस्सेदार बनूं। मैं अपने को सशक्त और मुक्त करने के लिए काम कर रही हूं। विचारधारात्मक से ज्यादा मेरा संघर्ष व्यवहारिक है.....।
हां, मैं एक नारीवादी और सक्रिय कार्यकर्ता हूं और इस पर मुझे गर्व है। नहीं! मैं अपनी पहचान कतई नहीं छिपाती, जिससे मुझे अपने अधिकारों के लिए, न्याय के लिए संघर्ष करने, आजादी के लिए संघर्ष करने और अपने सम्मान के लिए प्रयास करने की समझदारी मुझे दी है। मैं साहस, आत्मविश्वास और दृढ़ता भरे कदम को प्रदर्शित करने का तब तक साहस करती हूं जब तक इस देश में औरतें सही अर्थों में आजादी नहीं हासिल कर लेती।

(Counter Current.org के 28 जुलाई, 2014 से साभार)


डब्ल्यू.एफ.टी.यू. का सम्मेलन : मजदूर वर्ग को पूंजी के बंधनों में रखने की कोशिश
(वर्ष-17,अंक-16 : 1-31  अगस्त, 2014)
        बोलिविया के शहर कोचाबाम्बा में वल्र्ड फेडरेशन आॅफ टेªड यूनियन (डब्ल्यू.एफ.टी.यू.) का सम्मेलन 30 जून से 2 जुलाई तक हुआ जिसमें 22 देशों के टेªड यूनियन प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन को साम्राज्यवाद विरोधी अंतर्राष्ट्रीय टेªड यूनियन सम्मेलन का नाम दिया गया। इस सम्मेलन का आयोजन बोलिवियाई वर्कर्स सेंट्रल (बोलिविया की टेªड यूनियन केन्द्र-सी.ओ.बी.) ने बोलिविया की सरकार की मदद से किया था। 
वल्र्ड फेडरेशन आॅफ टेªड यूनियन की स्थापना 1945 में की गयी थी। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में संशोधनवाद आ जाने के बाद वर्ड फेडरेशन आॅफ टेªड यूनियन मुख्यतया संशोधनवादी पार्टियों के नेतृत्व में आ गया था। तब से यह फेडरेशन मुख्यतया पूंजीवादी दायरे में मजदूरों के हितों के संघर्ष करने वाला उपकरण बन गया। बोलीविया और अन्य लातिन अमेरिकी देशों में अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी सत्ता आने के बाद दुनियाभर के संशोधनवादी इनको इक्कीसवीं सदी का समाजवाद कहते हैं और इन देशों में तरह-तरह के सामाजिक आंदोलनों के बल पर आयी सत्ताओं को सहभागी जनतंत्र (Participatory Democracy) कहते हैं। स्वाभाविक है कि इस सम्मेलन में बोलीविया के राष्ट्रपति इवो मोरालेस को नायक के बतौर पेश किया और और इस सम्मेलन के बाद बोलीविया का कंेद्रीय टेªड यूनियन सी.ओ.बी. डब्ल्यू.एफ.टी.यू. का घटक हो गया। 
सम्मेलन के अंत में साम्राज्यवाद विरोधी राजनीतिक थीसिस पारित की गयी। सम्मेलन के समापन सत्र को बोलीविया के राष्ट्रपति इवो मोरालेस ने संबोधित करते हुए दुनिया भर के मजदूरों का आह्वान किया कि वे आने वाले वर्षों में साम्राज्यवादी हमलों और लूट के नये रूपों का मुकाबला करने के लिए तैयार रहे। इस संबंध में, उन्होंने इतिहास के चार चरणों को चिन्हित किया जब दुनिया के साम्राज्यों ने दुनिया को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में बांटने में आपसी सहमति व्यक्त की थी। 
पहला, 1494 में टोर्डेसिलास की संधि थी, जब स्पेन और पुर्तगाल ने अब्या याला (पश्चिमी गोलार्द्ध का देशी नाम) को इस घोषणा के साथ बांट लिया था कि इस समय का लातिन अमेरिका उन आक्रांताओं का है। 
दूसरा बंटवारा 1884-85 की मीटिंग, बर्लिन सम्मेलन में हुआ था, जिसमें बड़ी यूरोपीय शक्तियों ने अपने बीच अफ्रीका का बंटवारा कर लिया था। 
तीसरा बंटवारा 1916 में गुप्त समझौते के रूप में हुआ था (साइकेस-चिकोट समझौता) जिसमें गे्रट ब्रिटेन और फ्रांस ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद पश्चिम एशिया को आपस में बांट लिया था। 
मोरालेस ने कहा कि आज दुनिया का चैथे साम्राज्यी बंटवारे के लिए साम्राज्यवादी ताकतें लगी हुई हैं लेकिन वे इसे संधियों के जरिये नहीं बल्कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और नाटो का इस्तेमाल करके प्राकृतिक संसाधनों पर हमला करने व कब्जा करने के जरिये लगी हुई है। 
कोचाबाम्बा की साम्राज्यवाद विरोधी राजनीतिक थीसिस का सार निम्न हैः- 
प्रस्तावना- पूंजीवाद का संकट और मजदूर वर्ग के लिए इसके परिणाम-
विश्व  की जनता और विशेषतौर पर इसकी मेहनतकश आबादी पूूंजीवाद के संकट के परिणामों को झेल रही है। यह संकट पहले के किसी भी संकट से भिन्न है। यह संकट विश्वव्यापी और ढांचागत दोनों है। 
यह विश्वव्यापी संकट है क्योंकि 19 वीं. और 20 वीं. सदियों के पूंजीवाद के पूर्ववर्ती संकटों से भिन्न इस पूंजीवादी विश्व व्यवस्था में प्रतिरोध आंदोलन स्थानीय तौर पर आधारित हैं, लेकिन उन्हें अभी ऐसे संयुक्त मोर्चे का निर्माण करना है जो पूंजीवाद का विकल्प बन सकें। दुनिया के लोगों का यह विश्वास खत्म होता जा रहा है कि पूंजीवाद जनवादी होता है या कि पूंजीवादी जनतंत्र जैसी कोई चीज है। फिर भी एक वैश्विक विकल्प जैसा कि वैश्विक संकट हम अनुभव कर रहे हैं उसका विकल्प अभी तक नहीं उभरा है। 
यह ढांचागत संकट है क्योंकि इसमें आर्थिक, वित्तीय, ऊर्जा, जलवायु, खाद्य, पानी, संस्थागत, राजनीतिक और मूल्यों के विभिन्न संकटों का योग शामिल है। हम उत्पादन की आर्थिक प्रणाली के ही संकट को नहीं झेल रहे हैं बल्कि ऐसी व्यवस्था से पीडि़त हैं जो मुनाफा बढ़ाने के लिए या लोगांे, मजदूरों और दक्षिण की प्रकृति के शोषण के जरिये उत्पादित अतिरिक्त मूल्य को बनाये रखने के लिए पृथ्वीमाता और मानवों को अपने नृशंस लूटकारी प्रभुत्व को वस्तु में तब्दील कर दिया है। 
हम जलवायु संकट को इन सभी संकटों के निचोड़ के बतौर रेखांकित करना चाहते हैं। हम जिस पर्यावरण विनाश की ओर जा रहे हैं, उसके जबाव के बतौर हरित अर्थव्यवस्था का कथित विकल्प प्रकृति और अन्य सभी साझी सम्पदाओं के निजीकरण से अधिक और कुछ नहीं है। इसके अतिरिक्त यह स्पष्ट है कि मानवीय चेहरे वाले पूंजीवाद जैसी कोई चीज नहीं है। हम पूंजीवाद की ऐसी मंजिल में हैं जिसमें खुद जीवन व अन्य साझी रुझान सहित हर चीज माल बना दी गयी है। 
जब यह सब हो रहा है उसी समय राष्ट्रों के प्राकृतिक संसाधनों की लूट के मकसद से साम्राज्यवादी युद्ध छेड़े जा रहे हैं। यह उस दुश्चक्र का हिस्सा है जिसमें ये प्राकृतिक संसाधन युद्ध उद्योग के लिए ईंधन का काम करते हैं। यह साम्राज्यवाद की अतृप्त भूख को प्रदर्शित करता है। प्राकृतिक संसाधन, ऊर्जा और पानी साम्राज्यवाद के निशाने पर है। लोगों और मजदूर वर्ग को जिनकी सुरक्षा करनी होगी क्योंकि वे भविष्य की चीजें हैं जो हम अपने उत्तराधिकार के तौर पर छोड़ जायेंगे। पृथ्वी मां की हमें देखभाल करनी होगी क्योंकि यह हमारा घर है। 
इस प्रकार पूंजीवाद ने वैश्विक भू-राजनीतिक मानक अपनाया है और संकट पूंजीवाद के बुनियादी अंतरविरोध को प्रदर्शित करता है। यह उत्पादन के सामाजिक चरित्र और उत्पादन के साधनों व इसके परिणामों के हस्तगतकरण पर सम्पत्ति के पूंजीवादी स्वरूप के बीच का अंतरविरोध है। इन संकटों में पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की समूची तंत्र प्रणाली खुद पूंजीवाद द्वारा पैदा की गयी उत्पादक शक्तियों के दबाव के अधीन हो गयी है।
इसके परिणाम यह है कि खाद्य व कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) के अनुसार, एक अरब आबादी भूख की शिकार है और जब से संकट शुरू हुआ है गरीबों की संख्या लगभग 10 करोड़ बढ़ गयी है। 
लेकिन जहां गरीबी और भूख पूंजीवाद के संकट के सबसे अधिक दिखाई पढ़ने वाले प्रभाव हैं और ये सब लोगों के सामाजिक अधिकारों विशेष तौर पर मजदूरों के अधिकारों में आई कटौती से जुड़े हुए हैं। पूंजी मजदूरों की पीठ पर सवार होकर संकट को उबारने की कोशिश करेगी। 
पूंजीवाद का उच्चतर चरण साम्राज्यवाद और नवउदारवाद है जिसमें क्रमिक विनाश और मजदूर विरोधी नीतियां शामिल हैं। कुछ लातिन अमेरिकी देशों में वाशिंगटन आम सहमति तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक के नुस्खों को अवरुद्ध करना संभव था जो निजीकरण को थोपने व सामाजिक नीतियों पर कटौती करने की कोशिश करते हैं। लेकिन दुनिया के दूसरे हिस्सों में लोग संकट के कथित समाधान के बतौर पेश नवउदारवादी नुस्खों के परिणामस्वरूप परेशान हो रहे हैं। अभी भी बेरोजगारी की दरें बढ़ रही है और सामाजिक सुविधाओं, स्वास्थ्य व शिक्षा में कटौती जारी है, यहां तक कि जब समूचे परिवारांे को बेदखल किया जा रहा है और तब बैंकों को बचाया जा रहा है। 
तब भी, विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के केन्द्र के देशों की समस्याओं को भी नवउदारवादी नुस्खे से हल नहीं कर सकते। इन देशों में बहुराष्ट्रीय निगमों के रूप में कभी-कभी समांतर सरकारें होती हैं जो साम्राज्यवाद के नये औजार के रूप में उन देशों में काम करने के लिए तैयार किये गये हैं जो कथित तौर पर विकास कर रहे हैं। थोडे़ से लोगों की सम्पदा में ग्रह के बड़े हिस्से की तकलीफों की पूर्व कल्पना करती है। इसका समाहार, दुनिया के सबसे धनी व्यक्तियों में एक वारेन बफेट ने ठीक तरीके से समाहार किया है ‘‘हां, वर्ग संघर्ष है और हमारा वर्ग इसे जीत रहा है’’। 
इसलिए, यह वर्ग संघर्ष पहले कभी की तुलना में ज्यादा जीवंत है तो पूंजीवाद के संकट का सामना करने के लिए वैकल्पिक परियोजना की व्याख्या लोकप्रिय क्षेत्रों और संगठित मजदूरों की तरफ से ही आ सकती हैं। इसलिए, संगठित मजदूरों का संघर्ष इस समय विशेष महत्व ले लेते हैं। 
इससे भी आगे, पूंजीवाद के विरुद्ध संगठित मजदूरों के संघर्ष के अपनी क्षितिज के बतौर समाजवाद ही हो सकता है। एक वैश्वीकृत दुनिया में जब सामाजिक जनवाद ने अपने को नवउदारवाद के हाथों में बेच दिया है, और जहां बीसवीं सदी के समाजवाद में गंभीर कमजोरियां थी, 21 वीं सदी में समाजवाद के निर्माण को लागू करना तात्कालिक और आवश्यक कार्य भार है, जो पहले प्रयासों की कमजोरियों और पिछड़ेपन से मुक्त हो। (शब्दों पर जोर हमारा- सम्पादक)
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साम्राज्यवाद विरोध- एक वर्ष पहले राष्ट्रपति इवो मोरालेस के हवाई अपहरण ने यह स्पष्ट कर दिया कि साम्राज्यवाद ऐसे सामाजिक रूपांतरण की परियोजनाओं के समक्ष चुपचाप नहीं बैठा रहेगा जो सामाजिक बहुमतों की रक्षा में परिवर्तन की प्रक्रियाओं को लागू करता हो। 
इसलिए साम्राज्यवाद विरोध पर आधारित परियोजना को संयुक्त राज्य अमेरिका का सशस्त्र हिस्सा नाटो कहा जाता है और जो साम्राज्यवाद का राजनीतिक और सैनिक औजार है, का विरोेध करना होगा। 
हमारी साम्राज्यवाद विरोधी परियोजना हस्तक्षेप के साधन के बतौर समूची दुनिया में साम्राज्यवाद द्वारा स्थापित फौजी अड्डों की निंदा करता है। लातिन अमेरिका में ऐसे ज्ञात 77 फौजी अड्डे हैं जो हमारे अमेरिका के देशों की राजनीतिक और क्षेत्रीय प्रभुसत्ता का उल्लंघन करते हैं। 
कोलम्बिया संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा वहां स्थापित फौजी अड्डों के कारण विशेष ध्यान आकर्षित करता है। यह अमेजन को घेरे एक किला है, आने वाले वर्षों में भू-राजनीतिक विवादों का केंद्रीय तत्व है। कोलंबिया में शांति, जिसके लिए हम गहराई से प्रतिबद्ध हैं, की मांग है कि इन फौजी अड्डों को बंद किया जाय और इसके साथ ही उस शांति की गारंटी के लिए बगावत करने वाले लोगों, और कोलंबिया के मजदूर वर्ग तथा लोकप्रिय हिस्सों की राजनीतिक भागीदारी शामिल हो जो समूची कोलंबिया की जनता के लिए सामाजिक न्याय की गारंटी के साधन के बतौर हो। 
जैसे हम सैनिक अड्डों की स्थापना के जरिये साम्राज्यवादी हस्तक्षेप की निंदा करते हैं वैसे ही हम तथाकथित मानवतावादी युद्धों ‘‘आतंकवाद के विरुद्ध युद्धों’’ रोकथाम वाले युद्धों और शांति कायम करने वाले मिशनों की भी निंदा करते हैं। हम इराक, अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया की व्यापक आबादी व मजदूर वर्ग के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित करते हैं जिनके देशों को साम्राज्यवादी लालच ने नष्ट कर दिया है, लोगांे के विरुद्ध सैनिक युद्ध आर्थिक और सांस्कृतिक युद्ध होते जा रहे हैं। 
इसी प्रकार, हम 21 वीं सदी में लातिन अमेरिका की संप्रभु सरकारों के विरुद्ध किसी भी तरह के हस्तक्षेप की निंदा करते हैं चाहे वह जासूसी या तख्तापलट के जरिये हो जैसा कि होंडुरास या पैरागुए में हुआ। इसके अतिरिक्त, बेनेजुएला, बोलीविया और इक्वाडोर में हुए असफल प्रयासों की, जिनको व्यापक आबादी की गोलबंदी से पराजित कर दिया गया, निंदा करते हैं।
इन हस्तक्षेपों के साथ-साथ तथाकथित चैथी पीढ़ी के युद्ध, यानी प्रतिक्रियों, यूनियनों और सामाजिक आंदोलनों के विरुद्ध बहुराष्ट्रीय मीडिया द्वारा नियंत्रित संचार की प्रभुत्वशाली व्यवस्था की स्थापना के प्रयास के जरिये मीडिया आतंकवाद शामिल है जिसके जरिये मजदूर वर्ग और व्यापक आबादी के हितों के लगातार विरोध में पूंजी अपने राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को थोपने का प्रयास करती है। 
हमारे लोगों की राजनीतिक और आर्थिक संप्रभुता के विरुद्ध हस्तक्षेप पर काबू पाने के उपाय के बतौर हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को खत्म करने और खुद संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था के जनवादीकरण का समर्थन करते हैं। 
उपनिवेशवाद विरोध- हमारा विश्वास है कि उत्तर के देशों द्वारा थोपा गया उपनिवेशवाद का माॅडल मानवता के विरुद्ध अपराध है। हमारे लोगों की लूट और अधीनता और युद्ध जिन्हें साम्राज्यवाद अपनी राजनीतिक व आर्थिक इच्छा को थोपने के लिए लागू करता है, अधीनता और प्रभुत्व के हथियार रहे हैं, ये सभी मानवता के विरुद्ध अपराध हैं।
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हम अनौपनिवेशीकरण के लिए और नस्लवाद की भौतिक व मनोगत नींवो के विनाश के लिए आंतरिक उपनिवेशवाद और बाहरी उपनिवेशवाद के नये रूपों के विनाश के लिए संघर्ष करते है।.....
अनौपनिवेशीकरण एक क्रांतिकारी प्रक्रिया है जो वित्तीय पूंजी और बड़े राष्ट्रीय निगमों के विरूद्ध संघर्ष है। हमें जनतांत्रिक पूंजीवाद या पूंजीवादी जनवाद की कल्पना को खत्म करना होगा। अनौपनिवेशीकरण में विचारधारात्मक और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद, नस्लवाद और सभी किस्म के भेदभाव के विरूद्ध संघर्ष शामिल है। 
हमें मजदूर वर्ग के संघर्ष में महिलाआंे की भूमिका का भी यहां जिक्र करना चाहिए। हम पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष में अपने को प्रतिबद्ध करते हैं।.....
अनौपनिवेशीकरण में उन नवऔपनिवेशिक परिस्थितियों का मुकाबला करना शामिल है जिन्हें हमारी जनता भी भुगत रही है। लातिन अमेरिका के मामले में हम प्यूर्टो रिकों की साम्राज्यवादी कब्जे की, गुयांटानामो समाजवादी क्यूबा पर कब्जे की, क्यूबा जिसे आपराधिक नाकेबंदी का प्रतिरोध करना पड़ रहा है, यू.के. और नाटो द्वारा कालनिवास टापुओं पर कब्जे की भत्र्सना करते हैं।... हम इजरायल द्वारा फिलस्तीन पर कब्जे और समूची जनता के नरसंहार को अस्वीकार करते हैं। 
पंूजीवाद विरोध- हमारा संघर्ष पूंजीवाद और इसकी सभी अभिव्यक्तियों के विरुद्ध है। यह इस माॅडल के विरुद्ध संघर्ष है जो जीवन के सभी रूपों को नष्ट करता है और जो राष्ट्रों, व्यक्तियों और हमारी या पृथ्वी से प्राप्त अतिरिक्त मूल्य का हस्तगतकरण करता है। 
यह सब परिवर्तन की प्रक्रियाओं के विरूद्ध अत्यन्त सघन वित्तीय युद्ध छेड़कर ऐतिहासिक क्षण के दौरान हो रहा है। हम राष्ट्रपति इवो मोरालेस द्वारा अर्जेण्टाइना के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने वाले बयान के साथ और अन्यायपूर्ण व अनैतिक वैश्विक वित्तीय प्रणाली ओर तथाकथित ‘‘जंतु फंडों’’ (टनसजनतम थ्नदके) के विरुद्ध, जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक के हितों की सेवा में पूर्ववर्ती सैनिक तानाशाहों और नवउदारवादी सरकारों द्वारा लिये गये कर्जों के जरिये परिवर्तन की प्रक्रियाओं को कुचलना चाहते हैं, अपनी आवाज मिलाते हैं। 
यह अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (प्ण्स्ण्व्ण्) व विश्व बैंक के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन (आई.एल.ओ.) का इस्तेमाल राष्ट्रों और उनके मजदूरों की आर्थिक प्रभुसत्ता को कमजोर करने के लिए करती है। हम ‘‘वाल स्ट्रीट लड़कों’’(ॅंसस ैजतममज ठवले) द्वारा, सट्टेबाज वित्तीय पूंजी के आपरेटरों द्वारा लागू किये गये इस किस्म के वित्तीय नवउपनिवेशवाद की निंदा करते हैं और हम नये अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय ढांचे के लिए संघर्ष करते है। 
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जैसा कि हम प्राकृतिक संसाधनों पर प्रभुसत्ता की हिफाजत करते हैं, हमें खाद्य संप्रभुता की भी हिफाजत करनी होगी। हम पार राष्ट्रीय निगमों, एग्री बिजनेस, जहरीले रसायनों के प्रयोग और जी.एम.ओ. के इस्तेमाल के विरुद्ध व्यापक आबादी के संघर्षों के साथ एकजुटता में शामिल है और इसी के साथ ही खाद्य संप्रभुता की रक्षा में उसके साथ हैं। 
समाजवाद की ओर- इन तीनों स्तंभों के आधार पर हम राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर समाजवाद के निर्माण के संघर्ष में लगे हुए मजदूर वर्ग और लोकप्रिय हिस्सों के तालमेल और सहयोग को प्रस्तावित करते हैं। 
समाजवाद को हासिल करने के लिए हमें लोकप्रिय साम्राज्यवाद विरोधी, उपनिवेशवाद विरोधी और पूंजीवाद विरोधी सभी क्रांतिकारी शक्तियों की एकता सर्वप्रथम हासिल करनी होगी जो मजदूरों, किसानों और मूलवासी लोगों, लोकप्रिय हिस्सों के गठबंधन पर आधारित होगी...।
इस दस्तावेज के अंत में निष्कर्ष के बतौर डब्ल्यू.एफ.टी.यू. के 69 वर्ष के काल के दौरान उसकी उपलब्धियों और भूमिका की सराहना की गयी है। दुनिया भर के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों की उपलब्धियों की चर्चा की गयी है।  
डब्ल्यू.एफ.टी.यू. का यह सम्मेलन मुख्यतया बोलीविया के डूवो मोरालेस की पं्रशसा में और उनके सामाजिक प्रयोंगों की उपलब्धियों को गिनाने में लगा रहा। सम्मेलन के इस दस्तावेज में पूंजीवाद का विरोध करने की शब्दों में चर्चा है लेकिन कही भी मजदूर वर्ग की नेतृत्वकारी भूमिका की चर्चा नहीं है। पूंजीवाद विरोध वाले हिस्से में पूंजी और श्रम के बुनियादी अंतरविरोध का कहीं भी जिक्र नहीं है। यह सम्मेलन डब्ल्यू.एफ.टी.यू. का सम्मेलन न होकर बोलीविया के इक्कीसवीं सदी के समाजवाद की प्रशंसा का सम्मेलन था। 
पूरी दुनिया के पैमाने पर चल रहे मजदूर संघर्षों का न तो जिक्र है और न ही भावी मजदूर आंदोलन के लिए तात्कालिक व दूरगामी कार्यभार निश्चित किये गये हैं। 
वर्ग संघर्ष का जिक्र ऐसे किया गया है जैसे तमाम संघर्षशील वर्गों में एक मजदूर वर्ग है उसकी ऐतिहासिक भूमिका का कहीं जिक्र नहीं है। 
न ही बोलीविया, बेनेजुएला और अन्य तथाकथित इक्कीसवीं सदी के समाजवाद वाले देशों के भीतर वर्ग संघर्ष का जिक्र है। वहां के पूंजीपतियों और फार्मरों की इस इक्कीसवीं सदी के समाजवाद में क्या भूमिका होगी? इनको कैसे नियंत्रण में लाया जायेगा। 
इस दस्तावेज में रूस और चीन के शासकों को कोई जिक्र नहीं है। यह तो कह दिया गया है कि बीसवीं सदी के समाजवाद में पिछड़ापन व कमजोरियों थीं। लेकिन उससे सबक निकालना तो दूर खुद पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के दायरे में अपने को बांध लेने की संकल्प ही इससे जाहिर होता है। यदि बीसवीं सदी के समाजवाद में पिछड़ापन व कमजोरियों से सबक निकालने की बात करते तो इन्हें समूचे साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के संबंध में मतलब महज अमेरिकी साम्राज्यवाद से लगाना परिलक्षित होता है। 
डब्ल्यू.एफ.टी.यू., जिसकी शुरूआत एक क्रांतिकारी टेªड यूनियन के विश्वव्यापी केन्द्र के बतौर हुई थी, वह आज ऐसे विश्वव्यापी टेªड यूनियन केन्द्र के रूप में तब्दील हो गया है जो मजदूरों को पूंजीवादी संबंधों के दायरे में रहने का उपदेश देता है और वस्तुतः पूंजीवादी चाकरी में बांधे रहने की दिशा देता है। 
यही डब्ल्यू.एफ.टी.यू. के सम्मेलन का सारतत्व है। 

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