Thursday, October 1, 2015

भारतीय शासकों के ख्याली पुलाव

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बदलाव का मसला
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)

       हीनताबोध के शिकार लेकिन भयंकर महत्वाकांक्षी भारत के पूंजीपति वर्ग को खुशफहमी पालने के लिए कोई न कोई बहाना चाहिए। कोई भी कच्चा धागा चलेगा, कम से कम कुछ दिनों के लिए। अभी ऐसा ही एक धागा उसे पिछले दिनों मिला।
    सितंबर माह में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने एक प्रस्ताव स्वीकार किया। इसके तहत अगले साल संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्यों की संख्या बढ़ाने के लिए चर्चा की जायेगी। यानी इस चर्चा को एजेंडे पर लिया जायेगा। बस इतने मात्र से भारत के पूंजीवादी प्रचारतंत्र ने कुछ इस तरह का प्रचार करना शुरू किया मानो भारत की सुरक्षा परिषद की सदस्यता पक्की हो गयी हो।  एक लम्बे समय से दुनिया के कुछ ताकतवर देश अपने लिए सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता की मांग करते रहे हैं। जर्मनी, जापान, ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका इसमें प्रमुख हैं। उन्हें लगता है कि उनकी ताकत के हिसाब से विश्व व्यवस्था के निर्णय में उनकी भूमिका नहीं है। 
    संयुक्त राष्ट्र संघ की जब 1945 में स्थापना हुई तो उसमें आम सभा के साथ सुरक्षा परिषद का भी प्रावधान किया गया। जहां आम सभा में सभी सदस्य देशों के बराबर के अधिकार थे, वहीं सुरक्षा परिषद का ढांचा ताकत के हिसाब से तय हुआ। इसके कुल 15 सदस्यों की स्थिति बराबर नहीं है। इसमें से पांच स्थाई सदस्य हैं वीटो पावर के साथ। ये हैं संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस (तब सोवियत संघ), फ्रांस, इंग्लैण्ड और चीन। बाकी दस सदस्य अस्थाई देश होते हैं जिनका चुनाव दो वर्ष के लिए होता है- आम सभा के द्वारा। सुरक्षा परिषद में किसी भी प्रस्ताव को पास होने के लिए दो तिहाई बहुमत चाहिए और किसी भी स्थाई सदस्य का वीटो नहीं होना चाहिए। 
    संयुक्त राष्ट्र संघ का ढांचा पूर्णतया अलोकतांत्रिक और ताकत आधारित है। उसकी आम सभा के पास कोई ताकत नहीं है। सारी शक्ति सुरक्षा परिषद के पास है और उसमें भी वीटो धारी पांच स्थाई सदस्यों के पास। उनकी आपसी सहमति होने पर वे कुछ भी कर सकते हैं। इसके विपरीत उनमें से किसी एक के भी न चाहने पर मामला फंस सकता है। 
    इसका सबसे शानदार उदाहरण इजरायल और क्यूबा का है। इजरायल के खिलाफ और क्यूबा के पक्ष में पिछले तीस-चालीस साल से लगातार प्रस्ताव आम सभा में पास होते रहे हैं- क्रमशः फिलिस्तीन के पक्ष में और संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ। परंतु इन प्रस्तावों का कोई मतलब नहीं रहा है। ये केवल नाम के लिए रहे हैं। प्रसंगवश अमेरिकी साम्राज्यवादी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की कितनी इज्जत करतें हैं, यह इससे स्पष्ट होता है। 
    आम सभा की इस शक्तिहीनता के मुकाबले सुरक्षा परिषद की ताकत है जिसके फैसले के तहत किसी भी देश पर हमला किया जा सकता है। यह अलग बात है कि साम्राज्यवादी, खासकर अमेरिकी साम्राज्यवादी अपनी आक्रामक कार्यवाहियों के लिए सुरक्षा परिषद को भी धता बताते रहे हैं। 
    संयुक्त राष्ट्र संघ और उसकी सुरक्षा परिषद की यह संरचना 1945 के वैश्विक शक्ति संतुलन को दिखाती है। तब से अब तक इस संतुलन में काफी परिवर्तन आ गया है। इसी कारण अपनी हैसियत के प्रति गुमान वाले देश इस संरचना में परिवर्तन चाहते हैं। 
    जर्मनी, जापान या भारत के शासक दुनिया की व्यवस्था को ज्यादा लोकतांत्रिक नहीं बनाना चाहते। वे तो बस यह चाहते हैं कि सत्ता समीकरण में उन्हें भी ऊपर जगह मिल जाये। वे भी पांच वीटोधारियों की बगल में बैठ जायें। 
    वास्तव में देखा जाये तो सुरक्षा परिषद की संरचना शक्ति संतुलन के हिसाब से बेमेल हो चुकी है। इसीलिए इस तरह की बात हो रही है कि स्थाई सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाये भले ही उन्हें वीटो पावर न मिले। 
    पूंजीवादी व्यवस्था के कुछ समर्थक इससे भी आगे जाते हैं और मांग करते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के ढांचे को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाया जाये। इसके लिए वे सुरक्षा परिषद के खात्मे की बात करते हैं। यानी केवल आम सभा रहे और वही सब कुछ तय करे। 
    पर क्या वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था का वास्तव में ऐसा कोई लोकतांत्रिकीकरण किया जा सकता है। जब देशों के भीतर लोकतंत्र लगातार सीमित हो रहा है, जब निरंकुशता लगातार बढ़ रही हो तब क्या देशों के बीच सम्बन्ध लोकतांत्रिक हो सकते हैं? इससे भी बढ़कर सवाल यह है कि क्या साम्राज्यवाद के रहते यह संभव है। जिसका लक्ष्य लोकतंत्र और आजादी नहीं बल्कि एकाधिकार और कब्जा है। इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, लीबिया और यमन इत्यादि के इस युग में क्या यह महज ख्याली पुलाव नहीं है? इससे भी आगे क्या यह महज साम्राज्यवादी प्रचार नहीं है। 
    अतः ऐसा कुछ नहीं होने वाला। इतना ही नहीं, सुरक्षा परिषद में वर्तमान बदलाव भी इतना आसान नहीं। कोई भी वीटोधारी अपनी ताकत में कटौती क्यों करना चाहेगा जब इसे रोकने के लिए उसके पास वीटो अधिकार मौजूद हो। 
    इसलिए भारत के पूंजीपति जो खुशफहमी पाल रहे हैं उसका भविष्य कोई उज्जवल नहीं है। पर किसी को भी ख्याली पुलाव पकाने से नहीं रोका जा सकता। 

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