Wednesday, September 16, 2015

नेताओं ने किया अनुष्ठान, मजदूरों ने की हड़ताल

 2 सितम्बर को देशव्यापी हड़ताल
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    भाजपा नीत मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में संशोधन किये जाने के खिलाफ 10 केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा 2 सितम्बर को देशव्यापी हड़ताल की गयी। पहले इस हड़ताल के आह्वान में 11 केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें शामिल थीं। बाद में भाजपा से जुड़ी बी.एम.एस. ने हड़ताल से अपने कदम वापस खींच लिये। इस हड़ताल में 15 करोड़ मजदूर-कर्मचारियों ने हिस्सा लिया। 
    जब देश में 2014 में आम चुनाव हुए तो चुनावों के दौरान ही यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही उसका पहला निशाना श्रम कानून होंगे। श्रम कानूनों में संशोधनों की मांग पूंजीपति वर्ग एक लम्बे समय से करता रहा है। पूंजीपति वर्ग ने इस चुनाव में बेतहाशा पैसा खर्च किया था और मोदी के चुनाव जीतते ही यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गयी। मोदी की शह पर राजस्थान सरकार ने श्रम कानूनों में संशोधन करने शुरू कर दिये। मोदी सरकार ने केन्द्रीय स्तर पर श्रम कानूनों में संशोधनों के पहले चरण में एप्रेन्टिस एक्ट, फैक्टरियों में रजिस्टर रखने से छूट देना, महिलाओं से रात्रि की पाली में काम करने जैसे कानून पास करना आदि संशोधन किये।

    मोदी सरकार ने पिछले डेढ़ साल में दर्जनों विदेश यात्राएं करके विदेशी पूंजीपतियों को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया और देशी-विदेशी पूंजी के हित में बाकी श्रम कानूनों में संशोधन की प्रक्रिया शुरू कर दी। उसने केन्द्रीय ट्रेड यूनियन नेताओं के साथ बातचीत कर इन संशोधनों को देश के विकास के लिए जरूरी बताते हुए मजदूरों के हितों की बात की। 
    इस हड़ताल में जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक मजदूर-कर्मचारियों ने भागेदारी की। कुछ स्थानों पर सांकेतिक या नाममात्र के प्रदर्शन हुए लेकिन कई जगहों पर इसका व्यापक असर देखने को मिला। इस हड़ताल में बैंकिंग, बीमा, परिवहन, सिविल डिफेन्स कर्मचारी, खान मजदूर, फैक्टरी मजदूर आदि ने बड़ी संख्या में भागेदारी की। हड़ताल की मुख्य मांगों में संस्थानों में निजीकरण की प्रक्रिया बंद करने, निजी पूंजी निवेश की प्रक्रिया को बंद करने, न्यूनतम वेतन 15,000 रुपये करने, 2004 से बंद हुयी नेशनल पेंशन योजना शुरू करने आदि शामिल थीं। 
    इस हड़ताल का असर राजधानी से लगे गुड़गांव में काफी रहा। गुड़गांव से लेकर बावल तक आॅटो इण्डस्ट्रीज में मजदूर हड़ताल पर रहे। इन कम्पनियों में हीरो मोटो कार्प, होण्डा, मुंजाल कीरू, अस्ती इलैक्ट्रोनिक्स आदि कम्पनियां और उनके बेण्डर कम्पनियां थीं। गारमेण्ट फैक्टरियों में मजदूरों की कोई यूनियन न होने की वजह से यहां हड़ताल तो नहीं रही लेकिन कहीं मजदूरों का गुस्सा न फूट पड़े इसलिए मालिकों ने उस दिन छुट्टी कर दी। मालिक/प्रबंधन मजदूरों के बीच आक्रोश को साफ महसूस कर रहे हैं। उत्तराखण्ड के रुद्रपुर व हरिद्वार के सिडकुलों में भी हड़ताल का असर देखने को मिला। जम्मू कश्मीर में बीस ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल की और लाल चौक पर  प्रदर्शन किया। गुजरात में 30,000 कर्मचारियों ने हड़ताल में हिस्सा लिया। और बंगाल, केरल, जैसे राज्यों में हड़ताल में सत्ता पक्ष ने हड़ताल का दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 
    इस हड़ताल में मजदूर वर्ग ने अपने खिलाफ होने वाले हमले का विरोध किया वहीं पूंजीपति वर्ग के संस्थान एसोचेम ने इन श्रम कानूनों में सुधार को विकास के लिए जरूरी बताया। उसने साफ तौर पर कहा कि मोदी सरकार विदेशी निवेश को आकर्षित करने व एशिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना चाहती है और इसलिए ब्रिटिश राज के कानूनों को बदलना जरूरी है। 
    मोदी सरकार पूंजीपति वर्ग की इसी मंशा को पूरा करने के लिए 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों व 150 राज्य के श्रम कानूनों को बदलना चाहती है और मात्र 4 नियमावलियों में तब्दील करना चाहती है। ऐसा होते ही मजदूरों के वे सारे अधिकार छीन लिये जायेंगे जो उन्होंने लम्बे संघर्ष के बाद हासिल किये थे। 
    मोदी सरकार ने जुलाई में तीन बार व अगस्त में दो बार केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के नेताओं के साथ बातचीत की और श्रम कानूनों को बदलने में उनकी सहमति चाही। लेकिन केन्द्रीय ट्रेड यूनियन नेता रस्मी तौर पर ही सही इसका विरोध करते रहे। और 2 सितम्बर की आम हड़ताल पर कायम रहे। हां! भाजपा से जुड़ी बी.एम.एस. ने जरूर 29 अगस्त को अपने कदम वापस खींचे तथा सरकार द्वारा 12 में से 7 मांगों पर सहमति बनने और शेष को संसद से सहमति बनाने के आश्वासन पर अन्य ट्रेड यूनियनों से भी हड़ताल स्थगित करने की बात की। लेकिन बाकी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने उसकी बात नहीं मानी। तब बी.एम.एस. ने उन पर यह आरोप लगाया कि वे किसी न किसी राजनीतिक पार्टियों से जुड़ी हैं इसलिए वे निजी हित के चलते हड़ताल पर जा रही हैं। लेकिन यह आरोप लगाते वक्त वह खुद भूल गयी कि यह आरोप जितना दूसरों के लिए सही है, खुद उसके लिए भी सटीक बैठता है।  
    इस हड़ताल में देखा जाए तो जहां मजदूर वर्ग ने इस हड़ताल में जाने में उत्साह दिखाया वहीं केन्द्रीय ट्रेड यूनियन नेतृत्व ने रस्मी तौर पर ही भागेदारी की। उन्होंने राष्ट्रव्यापी हड़ताल के हिसाब से तैयारी की ही नहीं। जो ट्रेड यूनियनें हड़ताल में शामिल थीं उनकी राजनीतिक पार्टियां जब-जब सत्ता में रही हैं तब उन्होंने मजदूर विरोधी कार्य ही किये हैं लेकिन उस समय ये चुप रहीं। जब पहले चरण के श्रम कानूनों में परिवर्तन किया गया तब भी उन्होंने कोई खास विरोध नहीं किया। आज अगर वे हड़ताल पर जाने को विवश हुयी हैं तो यह मजदूर वर्ग द्वारा उसको ठेले जाने के कारण ही है। अगर वे इस तरह की रस्मी कार्यवाही न करें तो उनका आधार ही खत्म हो जायेगा। आज मजदूर वर्ग को इनसे कोई खास उम्मीद नहीं पालनी चाहिए और अपने बीच से क्रांतिकारी नेतृत्व को विकसित करना चाहिए।

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