Wednesday, September 16, 2015

दाभोलकर-पानसारे के बाद अब कलबुर्गी की हत्या

वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)  
 सत्ता की मद में चूर हिंदुत्व फासिस्टों की करतूतें एक के बाद एक बढ़ती जा रही हैं। डा. नरेन्द्र दाभोलकर, पानसारे की हत्या के बाद इस बार उनके हमले का निशाना कर्नाटक के तार्किक चिंतक डा. मालेशप्पा कलबुर्गी बने। फासिस्टों की लंपट वाहिनी ने डा. कलबुर्गी की गोली मारकर हत्या कर दी। 
    डा. कलबुर्गी एक लिंगायत थे जो जाति प्रथा, हिंदू धर्म की मूर्ति पूूजा के साथ अंधविश्वास-ज्योतिष आदि के विरोधी थे। वे तार्किक व वैज्ञानिक चिन्तन के पक्षधर थे। वे एक मशहूर लेखक और हम्पी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति थे। विभिन्न मौकों पर उन्होंने धार्मिक पाखण्ड व अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठायी थी। वे वचन साहित्य के विशेषज्ञ थे और कर्नाटक साहित्य अकादमी पुरूस्कार से 2006 में नवाजे गये थे। 

    दाभोलकर-पानसारे की कड़ी में कलबुर्गी की हत्या यह दिखलाती है कि संघी ताकतें आज किसी भी तरीके के तार्किक-वैज्ञानिक विचारों को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। फासिस्ट गुण्डावाहिनी अब खुलेआम इस कड़ी में और हत्याओं की चुनौती दे रही है। कलबुर्गी के घर पर कई बार पत्थर बरसाने के बाद उन्होंने अंत में उनकी हत्या कर दी। 
    इन तीनों व्यक्तियों के हत्यारों के जगजाहिर होने के बावजूद पुलिस-प्रशासन व जांच एजेंसियों ने इन हत्यारों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की। केन्द्र की सत्ता में काबिज भाजपा का हत्यारों के सिर पर हाथ होने से हत्यारे लंपटों पर किसी कार्यवाही की संभावना भी क्षीण ही है। 
    ये तीनों व्यक्ति तार्किक चिंतन वाले बुद्धिजीवी थे। ये भारतीय संविधान की धर्म निरपेक्षता पर विश्वास कर उसे समाज में स्थापित करना चाहते थे। वे धार्मिक पाखण्ड का अंत कर तार्किक चिंतन को स्थापित करना चाहते थे। उनकी यही बात हिन्दुत्व की विचारधारा के वाहक संघी लम्पटों को पसन्द नहीं आई। उन्हें इन लोगों के विचार समाज को अपनी कूपमण्डूक सोच के प्रसार में बाधा के बतौर नजर आये, इसीलिए उन्होंने इन पर हमला बोला और अंततः इनकी हत्या कर डाली। 
    ये तीनों व्यक्ति पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे। इनमें पानसारे संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे जो व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई छोड़ चुकी है। इसीलिए ये लोग पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में रहकर उसे अधिक तार्किक-वैज्ञानिक सोच की ओर ले जाना चाहते थे। उन्होंने अपना जीवन इसी उद्देश्य को समर्पित किया था। 
    परन्तु जब आज खुद देश के शासक वर्ग एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग ने सत्ता फासीवादी ताकतों के हाथ में सौंप दी हो तब कूपमंडूकता का बोलबाला होना और उसे शासक वर्ग का समर्थन होना स्वाभाविक है। पूंजीपति वर्ग स्वयं जिस विज्ञान व तकनीक की उन्नति का इस्तेमाल कर अपनी व्यवस्था को स्थापित कर पाया, आज उसी वैज्ञानिकता-तार्किकता को वह समाज की सोच-विचार से झाड़ बुहार देने वाली ताकतों के साथ खड़ा है। प्रतिक्रियावादी हो चुका शासक वर्ग और उसके समर्थन से सत्तासीन दक्षिणपंथी फासीवादी ताकतें पूंजीवादी दायरे में भी वैज्ञानिकता-तार्किकता की बातों को करने वालों को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। वे उन्हें मौत के घाट उतारने में भी संकोच नहीं कर रही हैं। 
    जब पूंजीवादी दायरे में वैज्ञानिकता-तार्किकता को स्थापित करने वालों के साथ फासीवादी ताकतें ऐसा सलूक कर रही हैं तो सहज ही समझा जा सकता है कि शोषण-उत्पीड़न का अंत चाहने वाली, पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा करने को संघर्षरत क्रांतिकारी ताकतों के साथ उनका सलूक कैसा होगा? वह और ज्यादा क्रूर ही होगा। 
    आज समाज में तार्किक वैज्ञानिक मूल्यों की स्थापना चाहने वाले लोगों को यह समझना होगा कि पूंजीवादी दायरे में आज तार्किक वैज्ञानिक मूल्य स्थापित करने की लड़ाई की सफलता की गुंजाइश न के बराबर है। 
    मजदूर वर्ग के नेतृत्व में आमूल चूल बदलाव के पक्षधर लोगों को आज दाभोलकर-पानसारे-कलबुर्गी सरीखे लोगों पर हो रहे हमलों के खिलाफ खड़ा होना भी जरूरी है। फासीवादी हत्यारों को सजा दिलाने की लड़ाई लड़ने के साथ उन्हें मुुंहतोड़ जवाब देने की जरूरत है। मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी देशव्यापी लामबंदी और उसके नेतृत्व में फासीवाद विरोधी मोर्चा कायम कर ही फासीवादी गुण्डावाहिनी को पीछे धकेला जा सकता है। 

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