Tuesday, September 1, 2015

संकटग्रस्त पूंजीवाद की आरक्षण की राजनीति

वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)   
 संघी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बहुप्रचारित गुजरात माॅडल के वीभत्स चेहरे को उजागर करते हुए गुजरात की दबंग पटेल जाति का आरक्षण मांग आंदोलन इस समय प्रदेश और केन्द्र दोनों सरकारों के गले की हड्डी बन गया है। बर्बर लाठीचार्ज, बड़े पैमाने की आगजनी और पुलिस की गोली की खबरों से पूंजीवादी प्रचार माध्यम भरे पड़े हैं। केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह स्वयं मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल से स्थिति का जायजा ले रहे हैं। 
    पाटीदार या पटेल समुदाय गुजरात का सबसे दबंग समुदाय है - संख्या और आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक सभी आधारों पर। यह तीन उपजातियों में विभाजित है। इसकी दबंग स्थिति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इस समय गुजरात की मुख्यमंत्री पटेल हैं, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पटेल है, प्रदेश के सात प्रमुख मंत्री पटेल हैं। साथ ही गुजरात के आधा दर्जन सांसद और तीन दर्जन विधायक पटेल हैं। यह सब बिना किसी कानूनी आरक्षण के। 

    अब यही दबंग पटेल समुदाय अपने लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रहा है- पिछड़े समुदाय के तहत। यह आरक्षण की मांग देखते-देखते ही बड़े पैमाने का जनांदोलन बन गयी है। इस मांग के समर्थन में लाखों लोग रैलियों में जुटने लगे हैं। ऊपरी तौर पर यह आंदोलन स्वतः स्फूर्त लगता है पर इस बात के सबूत हैं कि इसे सम्पन्न पटेलों का पर्याप्त समर्थन हासिल है। 
    गुजरात के सबसे सम्पन्न और दबंग जातिगत समुदाय का इस तरह पिछड़े समाज के तहत आरक्षण की मांग आज देश के पूंजीवादी विकास और उसकी राजनीति के कई आयामों को उद्घाटित करता है। यह वह तस्वीर पेश करता है जो मोदी और उसके मुरीद पूंजीपतियों की तस्वीर से बिल्कुल भिन्न है। यह खुशनुमा तस्वीर नहीं है। 
    गौरतलब है कि गुजरात के पटेलों की आरक्षण की यह मांग पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के जाटों तथा महाराष्ट्र के मराठों द्वारा आरक्षण की मांग के समानान्तर है। इन सबकी कुछ खास समरूप विशेषताएं हैं। ये प्रदेश या क्षेत्र (राजस्थान को छोड़कर) देश के सबसे विकसित हिस्सों में हैं। यहां प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। उस पर तुर्रा यह कि आरक्षण की मांग करने वाले ये तीनों जातिगत समुदाय अपने इलाके के हर तरह से प्रभुत्वशाली या दबंग समुदाय हैं। वर्ण व्यवस्था में ये भले शूद्र हों पर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर ये प्रभुत्वशाली हैं। यह प्रभुत्व भी आज का नहीं बल्कि सदी-दो सदी या इससे ज्यादा का है। 
    ऐसे में इनके द्वारा पिछड़े समुदाय के तहत आरक्षण की मांग अजीब सी लगती है। पर ऐसा केवल ऊपरी तौर पर देखने से ही है। थोड़ा सा ध्यान देते ही पता चलेगा कि यह वस्तुतः इन क्षेत्रों के पूंजीवादी विकास के तहत हुए तीव्र वर्गीय ध्रुवीकरण का परिणाम है। 
    इन इलाकों के पूंजीवादी विकास के कारण यहां जहां इन प्रभुत्वशाली जातिगत समुदायों का एक ऊपरी हिस्सा खूब ज्यादा समृद्ध हुआ है वहीं ज्यादातर हिस्सा तबाही की ओर गया है। उसकी पहले की स्थिति खराब हुई है। इसके ठीक विपरीत अपने ही समुदाय के कुछ लोगों की समृद्धि से उसकी महत्वाकांक्षायें भी बढ़ी हैं। इन बढ़ी हुई महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का रास्ता यह हिस्सा सरकारी नौकरियों में देखता है। सरकारी नौकरियां आजकल न केवल सुरक्षित रोजगार का जरिया हैं बल्कि बड़े पैमाने के बड़े भ्रष्टाचार के कारण ऊपर निकल जाने का जरिया भी हैं। पढ़े-लिखे निर्धन नौजवानों में इन नौकरियों के लिए आकर्षण समझ में आने वाली बात है। सरकारी नौकरियों की यह आकांक्षा आसानी से पूरी हो सकती है यदि नौकरियों में आरक्षण मिल जाये। बाकियों के मुकाबले कुछ सम्पन्न होने के चलते ये पिछड़े कोटे की ज्यादातर नौकरियां हथिया सकते हैं। 
    प्रभुत्वशाली जातियों के इन निर्धन नौजवानों को इस ओर धकेलने का काम इन जातियों के सम्पत्तिशाली लोग कर रहे हैं। वे इतने समझदार हैं कि जानते हैं कि यदि ये निर्धन नौजवान जातिगत आरक्षण इत्यादि में नहीं उलझे तो उनका असंतोष और गुस्सा उनकी ओर केन्द्रित होगा। तब वे ही उनका निशाना बनेंगे। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि 25 तारीख को अहमदाबाद की रैली का खर्चा वहां के समृद्ध पटेलों ने उठाया। 
    परन्तु मामला केवल यहीं तक सीमित नहीं है। देश में पूंजीवादीकरण की रफ्तार बढ़ने के साथ न केवल वर्गीय ध्रुवीकरण तेज हो रहा है बल्कि बेरोजगारी बड़े पैमाने पर बढ़ रही है। शिक्षा के क्रमशः प्रसार के साथ पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या और तेजी से बढ़ रही है। 
    ऐसे में रोजगार विहीन वृद्धि वाला छुट्टा पूंजीवाद हर चंद प्रयास करेगा कि बेरोजगार नौजवानों का गुस्सा गलत जगह फूटे। वह किसी भी हालत में व्यवस्था के खिलाफ न जाये। आरक्षण के मुद्दे पर इस पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवान समुदाय को उलझाना सबसे आसान तरीका है। 
    यहां यह गौरतलब है कि निजीकरण-उदारीकरण के पूरे दौर में जहां एक ओर सरकारी नौकरियों में लगातार कमी होती गयी है वहीं इनको लेकर मारामारी बढ़ती गयी है। इस मारामारी ने इनके लिए बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार को जन्म दिया है तो दूसरी ओर इन नौकरियों में आरक्षण को लेकर झगड़ों को भी। बेरोजगारी के खिलाफ आंदोलन में उतरने वालों की संख्या के मुकाबले आरक्षण के झगड़ों में उतरने वालों की तादात सैकड़ों गुणा ज्यादा है। यह संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था के लिए सबसे मुफीद स्थिति है। 
    इसलिए समाज की दलित जातियों और वास्तविक पिछड़ी जातियों को लेकर जातिगत आरक्षण का दृढ़ता से समर्थन करते हुए सभी जातियों के नौजवानों को यह समझाने की जरूरत बनती है कि आज उनकी रोजगार की समस्या का समाधान आरक्षण नहीं है। समाधान पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे में है जो एक ओर अरबपतियों की छोटी सी तादात तो दूसरी ओर विशाल आबादी की कंगाली को पैदा करती है। समाधान लगातार कम होती जा रही सरकारी नौकरियों की मृग मरीचिका में नहीं है बल्कि सबके लिए सम्मानजनक रोजगार के नारे में है। 

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