Tuesday, September 1, 2015

फिर एक और काला सोमवार

शेयर बाजारों के गोते से गहराता जाता वैश्विक आर्थिक संकट
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    24 अगस्त 2015 का दिन दुनिया भर के शेयर बाजारों में हाहाकार के दिन के रूप में सामने आया। इस अकेले दिन में चीन का शंघाई कम्पोजिट 8 प्रतिशत; जापान का निक्की 4.6 प्रतिशत, हांगकांग का हांग सेंग 5.2 प्रतिशत, जर्मनी का शेयर बाजार डैक्स 4.6 प्रतिशत, फ्रांस का शेयर बाजार 5.2 प्रतिशत, अमेरिका का डाउ जोंस 3.6 प्रतिशत, एस एण्ड पी 500 3.94 प्रतिशत, नास्डाक 3.82 प्रतिशत गिर गये। भारत का सेन्सेक्स भी लगभग 6 प्रतिशत गोता लगा रहा था। 

    शेयर बाजारों की यह गिरावट इससे पहले के 4-5 कारोबारी दिनों से चल रही थी जिसने सोमवार को नई ऊंचाई हासिल कर ली। इस गिरावट से सितम्बर 2008 के वाल स्ट्रीट के ढहने की आशंका -यादें एक बार फिर से सबके दिमागों में ताजा हो गयीं। भारत में अकेले एक दिन में 7 लाख करोड़ रुपये शेयर बाजार से हवा हो गये तो अमेरिका में यह रकम 1000 अरब डालर से अधिक थी। 
    शेयर बाजारों के इस गोते ने दुनिया के पैमाने पर विश्व आर्थिक संकट के बीत जाने का दावा करने वालों के झूठ को एक झटके से नोंच कर फेंक दिया। इस गोते ने दिखा दिया कि 2008 से शुरू वैश्विक अर्थव्यवस्था का संकट न केवल जारी है बल्कि और गहरा रहा है कि आने वाले दिन 2008 के माहौल से भी खतरनाक तस्वीर पेश कर सकते हैं। शेयर बाजारों के इस गोते ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वैश्विक उत्पादन-वितरण की खस्ता हालत के बीच वित्तीय संस्थानों की सट्टेबाजी से शेयर बाजारों में पैदा किया जाने वाला बुलबुला आर्थिक संकट को किसी भी तरह हल नहीं कर सकता। यह बुलबुला अपने अचानक फटने के साथ संकट को और गहराने की ओर ले जायेगा। जैसा कि 24 अगस्त को दुनिया के शेयर बाजारों के बुलबुले के फटने के रूप में सामने आया। 
    शेयर बाजारों के इस गोते के पीछे चीनी अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने, इसके शेयर बाजारों में गिरावट के मुख्य कारण के बतौर पेश किया जा रहा है। बात कुछ इस तरह से की जा रही है कि हमारी हालत तो ठीक है पर चीन के संकट से हम अछूते नहीं रह सकते। ये बात अमेरिका से लेकर भारत सभी के नेतागण करने में जुटे हैं पर यह बात अर्द्ध सत्य है। वास्तविकता यह है कि मौजूदा शेयर मार्केट के लुढ़कने में चीन की गिरावट की अपनी भूमिका है पर वास्तविकता यह भी है कि अमेरिका-यूरोप-रूस-जापान-एशिया की अर्थव्यवस्थाओं की खस्ता होती हालत भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। 
    चीन की अर्थव्यवस्था मौजूदा समय में अमेरिका के बाद की दूसरे नम्बर की अर्थव्यवस्था है। पिछले एक दशक में दुनिया के समग्र आर्थिक विकास में एक तिहाई हिस्सा अकेले चीन का है जो कि अमेरिका के हिस्से का दो गुना व यूरोपीय यूनियन व जापान के हिस्से का तीन गुना है। यह तथ्य इस बात को बखूबी दर्शाता है कि 2008 से जारी वैश्विक अर्थव्यवस्था के संकट को थामने में चीन की अर्थव्यवस्था की बड़ी भूमिका रही है। 
    2007 के संकट पूर्व चीन की अर्थव्यवस्था 13-14 प्रतिशत की विकास दर से बढ़ रही थी। 2009 के वर्ष को छोड़ बाद में भी यह 8-9 प्रतिशत की दर से विकसित होती रही पर पिछले एक-दो वर्ष में इसकी विकास दर 7 प्रतिशत तक जा पहुंची है और इसके अभी और नीचे जाने की संभावनायें लगायी जा रही हैं। निर्यात मूलक चीनी अर्थव्यवस्था का औद्योगिक उत्पादन लगातार गिर रहा है। उसके तैयार उत्पादों की घरेलू मांग घटने के साथ यूरोप-अमेरिका की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्थाओं में भी मांग घट रही है। निर्यात के लगातार गिरने के साथ चीन की विकास दर 2015 की द्वितीय तिमाही में 7 प्रतिशत की न्यूनतम स्तर तक जा पहुंची। पिछले 6 माह से लगातार उसका निर्यात गिर रहा है। उत्पादों की खुदरा बिक्री की वृद्धि दर 2011 की पहली तिमाही के लगभग 20 प्रतिशत से गिरकर 2015 की दूसरी तिमाही में 10.5 प्रतिशत तक जा पहुंची है। यह तथ्य ही दिखलाता है कि चीनी सामानों की देशी मांग में वृद्धि अब थमने लग गयी है।
    चीनी अर्थव्यवस्था की खस्ताहालत समझ में आने वाली बात है। पिछले दो दशकों से दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने चीन को मैन्युफैक्चरिंग हब के रूप में विकसित किया, बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी निवेश ने उसे एक निर्यात मूलक अर्थव्यवस्था में तब्दील कर दिया। चीनी उत्पाद दुनिया भर में अपनी मार करने लगे। परिणामतः चीन आंकड़ों में 13-14 प्रतिशत की विकास दर को हासिल कर तेजी से बढ़ता हुआ दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। 2008 के आर्थिक संकट के फूटने पर साम्राज्यवादी पूंजी अपने देशों में मुनाफे का जरिया न पाकर विकासशील देशों के बाजार की ओर भागी। चीन की बढ़ती अर्थव्यवस्था ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के संकट को थामने में मदद की पर यह सब अनन्त काल तक  नहीं चल सकता था। निर्यात मूलक अर्थव्यवस्था होने के चलते चीन के विकास के लिए जरूरी था कि उसके उत्पादों की बाहरी मांग बनी रहे पर जब बाकी दुनिया संकटग्रस्त हो तो यह मांग एक न एक दिन गिरना तय था और इसी के साथ घरेलू बाजार की संतृप्तता ने चीनी मैन्यूफैक्चरिंग के आगे बढ़ने के रास्ते रोक दिये। मैन्यूफैक्चरिंग में गिरावट, निर्यात में गिरावट के साथ चीन में धातुओं की कीमतों, अन्य मालों की कीमतों में गिरावट शुरू हो गयी। कच्चे तेल की चीनी मांग घटने लगी। इस सबने मिलकर चीनी अर्थव्यवस्था को धीमी विकास दर की ओर ठेल दिया। 
    पर महज मैन्यूफैक्चरिंग की गिरावट ही चीन की हालिया दुर्दशा के लिए जिम्मेदार नहीं है। चीन की सरकार ने वैश्विक बाजार में अमेरिका के सापेक्ष मजबूती से खड़े रहने के लिए लम्बे समय तक अपनी मुद्रा युवान का अवमूल्यन रोके रखा। इससे चीन का युवान एक मजबूत मुद्रा के तौर पर तो खड़ा रहा पर अपनी बारी में इसने दूसरी जटिलताओं को भी पैदा करने में भूमिका निभायी। अच्छी विकास दर के साथ स्थिर मुद्रा से चीन का शेयर बाजार व चीनी बांड दुनिया भर में सटोरियों के लिए सट्टेबाजी का केन्द्र बन गये। चीनी शेयर बाजार भी दुनिया के बाकी बाजारों की तरह सट्टेबाजी से आसमान छूने लगा। वहां भी एक के बाद दूसरे बुलबुले खड़े किये जाने लगे। ऐसे में शेयर बाजार किसी भी बुरी खबर से यकायक बैठने के खतरे से जूझने लग गया। गिरते निर्यात/गिरती विकास दर से जून माह से यह सब होने लगा और देखते-देखते 3 माह में चीनी शेयर बाजार 30 प्रतिशत सिकुड़ गया जिसने अपनी बारी में दुनिया के बाकी शेयर बाजारों को भी सिकुड़ने की ओर ढकेला। 
    चीनी सरकार द्वारा 90 बिलियन डालर बाजार में झोंकने, ब्याज दरों को 4.6 प्रतिशत के स्तर तक गिराने से भी जब शेयर बाजार नहीं संभला तो उसने अमेरिका में फेडरल रिजर्व के ब्याज दर बढ़ाने की सम्भावनाओं के बीच उससे पहले ही अपनी मुद्रा युवान का डालर की तुलना में अवमूल्यन कर डाला। युवान के इस अवमूल्यन ने बाकी देशों की मुद्राओं को भी डालर के सापेक्ष गिरने की ओर ढकेला। चीनी मुद्रा के अवमूल्यन ने चीन के संकट को बाकी देशों तक फैलने में मदद की। पर अब हालत यह है कि अपने पेंशन फण्ड को भी बाजार में झोंकने के बावजूद चीनी शेयर बाजार की गिरावट थम नहीं रही है। 
    अमेरिकी फेडरल रिजर्व की ब्याज दर की आशंका भी दुनिया भर के बाजार को गोते लगाने की पर्याप्त वजह बन जाता है। दरअसल 2008 के बाद से ही इस नाम पर कि उत्पादन के लिए पूंजी हमेशा उपलब्ध रहे अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने अपनी ब्याज दरें शून्य के स्तर तक उतार दी। जिसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिकी बैंकों से लिये गये ऋण उत्पादन के क्षेत्र में तो लगे नहीं वरन् अमेरिका के बड़े सट्टेबाज हेज फण्ड, वित्तीय संस्थान वहां से पैसा उठा बाकी दुनिया के शेयर बाजारों में बड़े पैमाने पर सट्टेबाजी में झोंकने लगे जिससे ये शेयर बाजार कई गुना ऊपर चढ़ विकास का झूठा भ्रम पेश करने लगे। आज हालत यह है कि अमेरिका की कई बड़ी म्यूचुअल बांड कम्पनियां ब्लैक राॅक, फ्रैंकलिन टैम्पलेटन एण्ड पिकाको आदि विकासशील देशों के शेयर बाजारों से लेकर उनके सरकारी बाण्डों में निवेश किये हुए हैं। ऐसे में अगर इन देशों के शेयर बाजार गिरते हैं या सरकारी बाण्डों की कीमत गिरती है और घरेलू निवेशक अपने बाण्ड की कीमत म्यूचुअल फंड कम्पनियों से वापस मांगते हैं तो इन कम्पनियों का अमेरिका के लेहमन ब्रदर्स सरीखा दिवालिया होने के अलावा और कुछ नहीं होगा। 
    बाद के समय में जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था में कुछ सुधार के संकेत दिखे तो अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में वृद्धि के संकेत दिये। पर जैसे ही यह वृद्धि होगी तो तमाम देशों के शेयर बाजारों से साम्राज्यवादी पूंजी पलायन कर अमेरिका को वापस लौटने लगेगी जिसका नतीजा इन देशों के शेयर बाजारों में गिरावट के रूप में सामने आयेगा। 
    इसीलिए जहां अमेरिका मौजूदा शेयर बाजार में गिरावट के लिए चीनी मुद्रा के अवमूल्यन को दोषी करार दे रहा है वहीं चीन फेडरल रिजर्व की ब्याज दर बढ़ाने की आशंका में अवमूल्यन को मजबूरी बता रहा है। पर हालत यह हुए कि 24 अगस्त की गिरावट के दो दिन बाद अमेरिकी अधिकारियों ने जब ब्याज दर न बढ़ाने के संकेत दिये तभी जाकर अमेरिका व दुनिया के शेयर बाजार कुछ संभलते नजर आये। पर ये कभी भी फिर गोते की ओर बढ़ सकते हैं। 
    इस तरह शेयर बाजारों का मौजूदा गोता और वैश्विक अर्थव्यवस्था के संकट का एक प्रमुख स्रोत चीनी अर्थव्यवस्था का संकट की ओर बढ़ना है पर यही इकलौता कारक नहीं है। 
    2015 की दूसरी तिमाही दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक खतरनाक संकेत लेकर आयी जिसकी मार से जापान, यूरोप, अमेरिका कोई भी अछूता नहीं रहा। 
    जापान की अर्थव्यवस्था की विकास दर 2015 की दूसरी तिमाही में 0.4 प्रतिशत गिर गयी। जापानी सरकार के पिछले वर्ष 80 ट्रिलियन येन बाजार में झोंकने का परिणाम उत्पादन में वृद्धि के रूप में तो नहीं सट्टेबाजी के बढ़ने के रूप में जरूर सामने आया। एक लम्बे समय से संकटग्रस्त जापानी अर्थव्यवस्था की हालत और खस्ता होती जा रही है। 
    ग्रीस संकट के कारण चर्चा में रहे यूरोपीय यूनियन के हालात भी 2015 की दूसरी तिमाही में ये रहे कि यूरो जोन की विकास दर 0.3 प्रतिशत दर्ज की गयी। फ्रांस की विकास दर जहां इस दौरान लगभग शून्य रही वहीं जर्मनी 0.4 प्रतिशत, इटली 0.2 प्रतिशत, डच 0.1 प्रतिशत विकास दर पर रहे। समूचे यूरो जोन की अर्थव्यवस्था 2008 की दूसरी तिमाही (उस समय के संकट के सबसे निम्न स्तर) से भी नीचे रही है। 
    अमेरिका की हालत यूरोपीय यूनियन सरीखी बुरी तो नहीं पर कुछ खास अच्छी भी नहीं है। अमेरिका में मैन्यूफेक्चरिंग में लगातार गिरावट हो रही है। अमेरिका में बिजनेस कंडीशन इंडेक्स पूर्व के $3.9 से गिरकर जुलाई 15 में -14.9 हो गया। अप्रैल 2009 के बाद सबसे न्यून स्तर पर है। 
    रूसी अर्थव्यवस्था कच्चे तेल के गिरते दामों के बीच -3 से -4 के बीच सिकुड़ जाने की उम्मीद है। 
    विकासशील देशों ब्राजील, अफ्रीका, भारत आदि के हालात भी अच्छे नहीं हैं। ऐसे में दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं की लुढ़कन भी संकट के गहराने में भूमिका निभा रही है। मौजूदा संकट में अगली भूमिका बुनियादी मालों की कीमतों में दर्ज की जा रही गिरावट है। कच्चा तेल, तांबा आदि की कीमतों में निरन्तर गिरावट दर्ज की जा रही है। 
    कच्चे तेल की कीमतों में पिछले एक वर्ष से अधिक समय से गिरावट देखी जा रही है। 120 डालर प्रति बैरल से गिरत-गिरते अब यह 42 डालर के निम्न स्तर पर आ चुका है। गत वर्ष तेल की कीमतों में गिरावट का दौर तब शुरू हुआ जब अमेरिका ने अपने शैल तेल उत्पादन में वृद्धि कर तेल का आयात घटा दिया। अमेरिका में तेल उत्पादन जून 2011 में 5.6 मिलियन बैरल प्रतिदिन से बढ़कर जून 14 में 8.7 मिलियन बैरल प्रति दिन हो गया। इसके साथ ही कनाडा में भी तेल उत्पादन बढ़ाने की बातें होने लगीं। अमूमन ऐसे वक्त में अभी तक होता यह आया था कि मांग के कम होते ही तेल उत्पादक ओपेक के देश अपना तेल उत्पादन गिरा कीमतों को गिरने से रोक दे रहे थे। पर इस बार सऊदी अरब ने अपना उत्पादन गिराने से इंकार कर कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट की स्थितियां पैदा कर दीं। 
    तेल की कीमतें गिरकर जब 70 डालर के नीचे चली गयीं तो अमेरिकी शैल उत्पादकों के लिए तेल उत्पादन नफे का सौदा नहीं रह गया क्योंकि अमेरिकी शैल उत्पादन की लागत खासी ज्यादा है। ऐसे में संभावना जतायी जा रही थी कि अमेरिकी तेल कम्पनियों के नये क्षेत्र में पैर पसारने की योजना छोड़ने से तेल की कीमतें फिर बढ़ने लगेंगी। कुछ माह पूर्व इसके संकेत भी दिखे जब तेल 60-65 डालर तक चढ़ गया। पर फिर से तेल उत्पादन में ईराक-ईरान के अपना हिस्सा बढ़ाने व अमेरिका द्वारा शैल उत्पादन जारी रखने से यह नीचे ढुलकने लगा। 
    तेल की कीमतों में गिरावट की एक वजह संकटग्रस्त अर्थव्यवस्थाओं द्वारा तेल की मांग में कमी भी रही। चीन तेल का बड़ा आयातक देश रहा है। यहां करीब 4 मिलियन बैरल प्रतिदिन तेल उत्पादन होता है जबकि इसकी तेल की मांग 2004 में 6.7 मिलियन बैरल प्रतिदिन से बढ़कर 2014 में 11.1 मिलियन बैरल प्रतिदिन हो गयी। इसीलिए जब चीनी अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त होने की खबरें प्रसारित होनी शुरू हुई तो इसने तेल के दामों में इस आशंका में गिरावट को जन्म दिया कि चीन में तेल की मांग घट जायेगी जिसने अपनी बारी में तेल उत्पादन देशों के संकट को गहरा दिया। 
    कुल मिलाकर दुनिया में गहराता आर्थिक संकट फिलहाल चीन के साथ संकटग्रस्त होती साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्थाओं के साथ तेल व अन्य मालों की कीमतों में गिरावट के साथ सामने आ रहा है पर अपनी बारी में यह 2008 से शुरू संकट की निरन्तरता में ही गहराते जाने को ही दिखाता है। 
    2008 में जब साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्थायें संकटग्रस्त हुईं तो चीन-भारत सरीखी अर्थव्यवस्थाओं की ऊंची विकास दर ने वैश्विक विकास दर को जमीन पर ला पटकने से रोका, तब सरकारों ने भारी बेल आउट से संकट टालने का प्रयास किया। अब हालत यह है कि दुनिया की सरकारों का कर्ज दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद के तीन गुने से ऊपर 200 ट्रिलियन डालर तक जा पहुंचा है। यानी अब केन्द्रीय बैंकों में नये बेल आउटों की क्षमता नहीं है साथ ही अब विकासशील चीन-भारत सरीखे देशों की गिरती अर्थव्यवस्था भी संकट थामने के लिए मौजूद नहीं है। ऐसे में बढ़ती सट्टेबाजी के बीच दुनिया इस मुहाने पर खड़ी है जहां एक झटका ही एक साथ समूचे पूंजीवादी जगत मेें हाहाकार पैदा कर देगा और उसे बचाने वाला कोई न होगा। 
    अंत में भारत के शेयर बाजार के गोता लगाने पर भारत के नेताओं ने इसके लिए चीन को दोषी करार दे अपनी अर्थव्यवस्था की मजबूती के झूठे दावे किये। पर वास्तविकता यही है कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर खासकर मैन्यूफैक्चरिंग मोदी के तमाम दावों के बावजूद बढ़ नहीं रही है। पिछले कई माह से भारत का निर्यात लगातार गिर रहा है। बाकी क्षेत्रों की हालत भी खस्ता है। ऐसे में आंकड़ों की हेराफेरी से दुनिया की अर्थव्यवस्था में चीन की भूमिका निभाने की महत्वाकांक्षा पाले भारतीय नेता इसे मौके के बतौर देखने की बात कर खुद की व जनता की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। भारत की अर्थव्यवस्था ठहराव की शिकार है। मोदी की लफ्फाजी इस वास्तविकता को बदल नहीं सकती। भारत का शेयर बाजार एक हिचकोला भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। उसका बुलबुला कभी भी फूट सकता है और तब मोदी का विकास औंधे मुंह गिरा पड़ा होगा। 

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