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दक्षिण कोरिया में आर्थिक सुधारों के खिलाफ हड़ताल
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
    23 सितम्बर को दक्षिण कोरिया में आर्थिक सुधारों के खिलाफ हजारों मजदूरों ने एक दिनी हड़ताल की। जब ये मजदूर नेशनल असेम्बली के बाहर प्रदर्शन कर रहे थे तभी 39 मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया। द.कोरिया के कानून के मुताबिक नेशनल असेम्बली के 100 मीटर के दायरे में प्रदर्शन नहीं हो सकता। इस हड़ताल में कई जगह मजदूरों व पुलिस के बीच झड़पें भी हुयीं। 
    दक्षिण कोरिया में वैसे तो दो दशकों से आर्थिक सुधार लागू हो रहे हैं लेकिन राष्ट्रपति पार्क ग्युन-ह्वे जो सत्ताधारी पार्टी सेनुरी से हैं, आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू करना चाहती हैं। इन आर्थिक सुधारों का सीधा सा मतलब मजदूरों को पूंजीपतियों के हवाले कर देना है कि वे जैसा चाहे वैसा मजदूरों के साथ सलूक करें। इनमें मजदूरों को अपेक्षा से कम उत्पादन करने पर निकालना(अभी तक मजदूरों को केवल भ्रष्टाचार या गबन की स्थिति में ही निकाला जा सकता है।), योग्यता के हिसाब से तनख्वाह निर्धारित करना, काम को प्रबंधन द्वारा अपनी मर्जी से निर्धारित करना, आउट सोर्स पर रखने के आसान नियम, बेरोजगारी बीमा को लम्बा खींचना तथा बढ़ती हुयी उम्र के साथ मजदूरों की तनख्वाह घटाना आदि शामिल है। राष्ट्रपति पार्क ग्युन ह्वे इन आर्थिक सुधारों को अर्थव्यवस्था में गति देने के लिए ‘मेजर सर्जरी’ का नाम दे रही हैं लेकिन यह सर्जरी ऐसी है जो मजदूरों का खून ही निकाल लेगी। 
    इससे पहले दक्षिण कोरिया में 1998 में बड़े आर्थिक सुधार किये गये थे जिसमें अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से बेलआउट पैकेज पाने के एवज में कम्पनियों को यह अधिकार दिया गया कि वे आपातकालीन स्थिति में मजदूरों को ले आॅफ दे सकते हैं। 
    दक्षिण कोरिया में ओईसीडी (OECD)के औसत से दुगुना यानी 22 प्रतिशत मजदूर अस्थायी हैं। इन मजदूरों को 2004 में नियमित मजदूरों की आय का 65 प्रतिशत मिलता था जो आज घटकर 54 प्रतिशत रह गया है और यही वजह है कि कम्पनी मजदूरों को निकालने का अधिकार चाहती है ताकि वह अस्थायी मजदूरों से काम कराकर अपना मुनाफा बढ़ा सके। 
    दक्षिण कोरिया में भी मजदूर वर्ग का नेतृत्व करने वाला एक धड़ा पूंजीपतियों की ही सेवा कर रहा है। जब मजदूरों के अधिकारों को छीनने वाले ये समझौते किये जा रहे थे तब मजदूरों की तरफ से बातचीत में फेडरेशन आफ कोरियन ट्रेड यूनियन जो एक बड़ा छाता संगठन है, वहां मौजूद था लेकिन उसने पूंजी की तरफ ही झुकना स्वीकार किया और यह बात भी सच है कि उसे वार्ता में बुलाया ही इसलिए गया ताकि वह सरकार द्वारा करवाये जा रहे समझौते को मान ले और फिर मजदूरों पर उसे थोपा जा सके। 
    हालांकि कोरियन कनफेडरेशन आॅफ ट्रेड यूनियन ने इस समझौते का विरोध किया तथा 23 सितम्बर की देश व्यापी हड़ताल में उसके 5000 सदस्यों ने भाग लिया लेकिन उसकी कुल सदस्यता 6,80,000 के मुकाबले यह काफी कम है। यह उसका मजदूर वर्ग के बीच में आधार की कमजोरी को दिखाता है। 
    आज पूंजीपति वर्ग का मुकाबला करने के लिए मजदूरों को नये आधार पर संगठित करने की जरूरत है और वह आधार है व्यवस्था परिवर्तन के लिए मजदूरों के क्रांतिकारी संघर्ष खड़े करना। आज पूरी दुनिया जिस तरह से आर्थिक संकट की शिकार है और पूंजीपति वर्ग को अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए कोई उपाय नहीं दिखाई दे रहा है तो वह मजदूरों पर इसका बोझ डालकर उसकी अस्थि-मज्जा तक से मुनाफा कमाना चाहता है। आज ट्रेड यूनियनों के लम्बे क्रांतिकारी संघर्ष के द्वारा ही पूंजीपति से कुछ लिया जा सकता है एक दिनी रस्मी आम हड़ताल से कुछ हासिल नहीं होने वाला है।  

फिनलैण्डः कटौती कार्यक्रमों के विरोध में हजारों मजदूरों ने निकाली रैली
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
    18 सितम्बर को यूरोप के देश फिनलैण्ड की राजधानी हेलसिंकी में 30,000 मजदूरों ने रैली निकाली। भारी बारिश के बावजूद मजदूरों का उत्साह कम नहीं हुआ। पूरे देश भर में 18 सितम्बर को हुए प्रदर्शन में 3 लाख मजदूरों ने भाग लिया। यह रैली वर्तमान दक्षिणपंथी सरकार के प्रधानमंत्री सिपिला द्वारा लागू किये जा रहे कटौती कार्यक्रमों व ट्रेड यूनियन अधिकारों को कम किये जाने के विरोध में निकाली गयी। 
    नयी सरकार का यह कहना है कि आने वाले दिनों में वार्षिक छुट्टियां कम कर दी जायेंगी, दो बैंक छुट्टियां बिना तनख्वाह के दी जायेंगी, बीमार होने पर पहले दिन की छुट्टी का वेतन नहीं मिलेगा तथा अगले दिन की तनख्वाह कम करके दी जायेगी, ओवरटाइम व रविवार तथा रात्रि में काम करने के बदले मिलने वाली अतिरिक्त तनख्वाह में कमी की जायेगी इत्यादि। दक्षिणपंथी सरकार के प्रधानमंत्री सिपिला ने यह घोषणा भी की है कि कुछ मामलों में सामूहिक सौदेबाजी के समय अधिकतम मांग की सीमा तय की जायेगी। 
    जाहिर सी बात है कि इन कटौती कार्यक्रमों के लागू होते ही मजदूर वर्ग पर इसका व्यापक असर होगा। ओवर टाइम व रात्रि में काम करने के लिए अतिरिक्त तनख्वाह में कमी का असर सबसे ज्यादा महिलाओं पर पड़ेगा क्योंकि नर्सिंग जैसे क्षेत्रों में ज्यादातर महिलायें ही काम करती हैं और उनकी काफी ड्यूटियां रात्रि में होती हैं और चूंकि महिलायें कम वेतन मिलने के कारण ओवरटाइम करती हैं इसलिए उनकी आय कम हो जायेगी। पुलिस में ट्रेड यूनियन नेतृत्व का कहना है कि चूंकि सप्ताह के सातों दिन ड्यूटी पर रहती है अतः रविवार को मिलने वाली अतिरिक्त आय में कमी से पुलिसकर्मी प्रभावित होंगे। उनका यह भी कहना है कि वे इस स्थिति से निपटने के लिए हड़ताल पर जाने की सोच रहे हैं। साथ ही समझौते के समय अधिकतम मांग की सीमा तय करने से पूंजीपति वर्ग को ही फायदा पहुंचेगा जबकि अभी तक न्यूनतम का प्रावधान था जो मजदूरों के हित में था। इसके साथ ही निजी क्षेत्र की कम्पनियों द्वारा मजदूरों के लिए दिये जाने वाले सामाजिक बीमा योगदान को भी कम कर दिया गया है। 
    फिनलैण्ड ने पिछले दशकों में काफी प्रगति की थी तथा यहां प्रति व्यक्ति आय जर्मनी जैसे देशों के बराबर थी। लेकिन मंदी के प्रभाव से यह भी नहीं बच सका है और यहां का पूंजीपति वर्ग भी आज मजदूरों के अधिकारों में कटौती चाहता है। 
    इस सबके खिलाफ फिनलैण्ड की तीनों बड़ी ट्रेड यूनियनों अकाबा (Akava), सेक (SAK), व एसटीटीके (STTK) ने 18 सितम्बर को प्रदर्शन किया। अगर ऊपरी तौर पर देखा जाये तो तीनों ही ट्रेड यूनियनें इनके खिलाफ हैं लेकिन मजदूर वर्ग के अधिकारों की रक्षा के लिए जितनी दृढ़ता इनके अंदर होनी चाहिए उतनी इनमें नहीं दिखायी देती। वे कहीं न कहीं बीच का रास्ता निकालने की तरफ भी देख रही हैं। 
    सेक (SAK) ने कहा है कि सप्ताहंत में काम करने के बदले मिलने वाली अतिरिक्त आय में कटौती बर्दाश्त नहीं की जायेगी लेकिन साथ ही उसने सरकार से बातचीत का रास्ता भी खोला हुआ है। इसी तरह बाकी दोनों ट्रेड यूनियनें भी त्रिपक्षीय वार्ता का रास्ता खोले हुए हैं। वैसे तो ट्रेड यूनियन संघर्ष में अंततः बातचीत का समझौता ही होना होता है लेकिन अगर ट्रेड यूनियनें मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी गोलबंदी के बिना ही वार्ता में जाती हैं तो निश्चित रूप से उन्हें वह हासिल नहीं होगा जो मजदूर वर्ग को आगे बढ़ायेगा। आज जबकि पूरी दुनिया आर्थिक संकट के दौर से गुजर रही है तो ऐसे में फिनलैण्ड के मजदूर वर्ग तभी अपने अधिकारों को सुरक्षित रख सकता है जब वह समाज में क्रांतिकारी संघर्ष खड़ा करे।  
यू.एस.डब्ल्यू-क्रिसलर समझौता
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
    14 सितम्बर को यू.एस.डब्ल्यू. (यूनाइटेड आॅटो वर्कर्स) व फियेट-क्रिसलर के बीच 4 सालाना समझौता हुआ। इस समझौते में कुछ अस्पष्ट बातों व कुछ स्पष्ट बातों के साथ यह तय हो गया है कि अगले चार साल तक मजदूरों को फिएट क्रिसलर प्रबंधन द्वारा चूसा जायेगा। 
    नये समझौते के मुताबिक मजदूरों के लिए टू-टायर वेज सिस्टम लागू रहेगा। पेंशन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होगी, महंगाई भत्ता नहीं बढ़ेगा, अटैन्डेंस पाॅलिसी की वही पुरानी सड़ी-गली व्यवस्था लागू रहेगी। टू टायर-वेज सिस्टम के तहत अक्टूबर 2007 के बाद काम पर लगे मजदूरों को अक्टूबर 2007 से पहले लगे मजदूरों के मुकाबले कई लाभ(जैसे- रिटायरमेंट के बाद स्वास्थ्य बीमा) नहीं मिलते हैं और उनकी तनख्वाह काफी कम रहती है। (1998 में लम्बी हड़ताल के टूटने के बाद कैटरपिलर पहली कम्पनी थी जिसने टू-टायर वेज सिस्टम लागू किया था।) इसके अलावा पार्ट टाइम वर्कर व एक्सल प्लाण्ट के मजदूरों के लिए प्रति घंटा कम मजदूरी ही रहेगी। पुराने समझौते में यह व्यवस्था कि मजदूरों के कुछ प्रतिशत हिस्से को फर्स्ट टायर पे की सुविधा दी जायेगी, को भी, खत्म कर दिया गया है। इसके बावजूद यू.एस.डब्ल्यू. के अध्यक्ष द्वारा इस समझौते को यह कहकर उचित ठहराया गया कि इससे कम्पनी में नया निवेश होगा, नये उत्पाद बनेंगे व मजदूरों की नौकरियां सुरक्षित रहेंगी।
    जबकि हकीकत यह है कि कम्पनी की 5.3 अरब डालर निवेश कार्यक्रम की घोषणा से मजदूरों के अंदर ले आॅफ का खतरा पैदा हो गया है। मजदूरों को यह खबर भी सुनने को मिल रही है कि फियेट कारों के उत्पादन को मैक्सिको में स्थानान्तरित कर  देगी तथा अमेरिका में केवल ट्रक व एसयूवी का उत्पादन किया जायेगा। जब 2007 में टू टायर वेज सिस्टम लागू किया जा रहा था तब यह कहा गया था कि इससे क्रिसलर, फोर्ड और जनरल मोटर्स को आर्थिक दिक्कतों से जूझने में मदद मिलेगी और जब इससे उन्हें रिकार्ड तोड़ मुनाफा हुआ तो मजदूरों से कहा गया कि इस लेबर काॅस्ट के कम होने से कारों का उत्पादन वापस यू.एस. में किया जाने लगेगा। लेकिन अब आठ साल बाद पूरी स्थिति मजदूरों के सामने स्पष्ट है।
    मैक्सिको में चूंकि अमेरिका में मजदूरी का पांचवा हिस्सा ही देना पड़ेगा इसलिए कम्पनी कारों का उत्पादन वहां करवाना चाहती है और ट्रक व एसयूवी जिनमें ज्यादा लाभ होता है, का उत्पादन वह अमेरिका में ही ज्यादा मजदूरी में करायेगी हालांकि यह मजदूरी भी लगातार घटती जा रही है। 
    यू.एस.डब्ल्यू. व फियेट-क्रिसलर के बीच हुए इस समझौते में मजदूरों को निश्चित रूप से कोई फायदा नहीं हुआ बल्कि उनको नौकरियां खोने का डर दिखाकर ट्रेड यूनियन व प्रबंधन दोनों मजदूरों पर दबाव बनाने में कामयाब हुये हैं। कम्पनी में रिस्ट्रक्चरिंग की प्रक्रिया मजदूरों की लूट को और बढ़ायेगी ही। 
    मजदूरों को अगर आज ले आॅफ जैसी घटनाओं से बचना है तो उन्हें ब्राजील के जी.एम., फोर्ड, फाॅक्सवैगन व मर्सिडीज के मजदूरों की तरह संघर्ष करना होगा जो इन गर्मियों में बड़े पैमाने के स्थायी ले आॅफ को रुकवाने के लिए हड़ताल पर चले गये थे। यूनियन नेतृत्व से अब यह उम्मीद पालना कि वे अपनी मांगों को मनवाने के लिए हड़ताल पर जायेंगे, फिजूल की बात होगी। 

वीरेन डंगवाल को याद करते हुए  उनकी दो कविताएं
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
(28 सितम्बर को लम्बी बीमारी के बाद उनकी बरेली में मृत्यु हो गयी। -सम्पादक)

1. परम्परा

पहले उस ने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए
और कहा -‘असल में यह तुम्हारी स्मृति है’
फिर उस ने हमारे विवेक को सुन्न किया
और कहा- ‘अब जा कर हुए तुम विवेकवान’
फिर उस ने हमारी आंखों पर पट्टी बांधी
और कहा- ‘चलो अब उपनिषद पढ़ो’
फिर उस ने अपनी सजी हुयी डोंगी हमारे रक्त की
नदी में उतार दी
और कहा- ‘अब अपनी तो यही है परम्परा।

2. इतने भले नहीं बन जाना

इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना

इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरकतें तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बगल दबी हो बोतल मुंह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना

ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नजर थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो

काफी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनको असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी
वेतन कटौती के खिलाफ संघर्षरत अमेरिका के मजदूर 
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    22 अगस्त को यू.एस. स्टील और आर्सेलर मित्तल के हजारों मजदूरों ने करार समाप्त होने अथवा कान्ट्रेक्ट अवधि 1 सितम्बर को खत्म होने से पूर्व अमेरिका के विभिन्न शहरों में प्रदर्शन किये व रैलियां निकालीं। यू.एस. स्टील व आर्सेलर मित्तल जो कि इस्पात (स्टील) उत्पादन की दो बड़ी कम्पनियां हैं, के 30,000 मजदूरों का 1 सितम्बर को ठेका समाप्त होने के बाद पुनः नियोजन या कान्ट्रेक्ट का नवीनीकरण होता है लेकिन प्रबंधन इस बार और अधिक छूटें हासिल करना चाहता है यानी मजदूरों को और अधिक निचोड़ना व सेवा शर्तों को कठोर बनाना चाहता है। 
    दोनों कंपनियां अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए श्रमिकों के हिस्से में व्यापक कटौती करना चाहती हैं। 
    आर्सेलर मित्तल एक नया कांट्रेक्ट या समझौता करना चाहती है जिसके मुताबिक तीन वर्ष तक मजदूरों के वेतन में कोई वृद्धि नहीं होगी। इसके साथ ही स्वास्थ्य सुविधाओं (मेडिकल बेनीफिट्स) में कटौती और दो श्रेणी का वेतनमान और भत्ते का प्रावधान लागू कर नए मजदूरों के वेतन व भत्ते कम करना चाहती है। दूसरी तरफ यू.एस.स्टील आठ घंटों के काम के बाद ओवरटाईम के भुगतान से छुटकारा पाना चाहती है। 
    इस्पात मजदूरों पर दबाव बनाने के लिए अगस्त के दूसरे हफ्ते में यू.एस. स्टील ने अपने बर्मिंघम और अल्बामा स्थित कारखानों की वात्या भट्टी (ब्लास्ट फरनेस) को बंद कर 11,00 मजदूरों को ले आॅफ करने की घोषणा कर दी। इसी तरह आर्सेलर मित्तल ने धमकी दी कि यह अमेरिका स्थित अपनी पांच हाॅट स्ट्रिप मिलों को बंद कर देगी। 
    21 अगस्त को इस्पात मजदूरों ने अमेरिका के विभिन्न स्थानों में रैलियां निकाली जिनमें गैरी, इंडियाना, रिवर रूज, मिशीगन, ग्रे नाइट सिटी, इलिनोइस, ब्रेड डौक, पेंसिलवेनिया, बर्मिंघम व अल्बामा शामिल हैं। 
    इससे पूर्व 20 अगस्त को वर्जीनिया व मिनेसोटा में खनिकों व उनके समर्थकों ने विशाल रैली निकाली थी। 19 अगस्त को इंडियाना, पूर्वी शिकागो स्थित आर्सेलर मित्तल के कार्यालयों के बाहर लगभग 2600 मजदूरों ने रैली की।
    मजदूरों की बड़ी रैलियों से स्पष्ट है कि मजदूर अपने वेतन व भत्तों में कटौती व अन्य सुविधाओं को यूं ही समर्पित नहीं करना चाहते हैं वे अपने हक के लिए जुझारू संघर्ष के लिए तैयार दीखते हैं लेकिन उनका नेतृत्व दशकों से समझौतापरस्त व सुधारवादियों के हाथों में है। यू.एस. स्टील के मजदूरों की यूएसडब्ल्यू यूनियन ने आर्थिक राष्ट्रवाद व मजदूरों के वेतनों में कटौती को दशकों तक अपनी नीतियों का प्रमुख हिस्सा बनाये रखा है। यू.एस.डब्ल्यू. ने डेमोक्रेटिक पार्टी से गठजोड़ कर इसकी आर्थिक राष्ट्रवाद की नीति को अपना लिया। चीन विरोधी अथवा चीनी मालों को बहिष्कृत करने के अभियान के साथ यह यूनियन अमेरिकी इस्पात उद्योगों के संरक्षण की वकालत करती है और इस प्रक्रिया में पूंजीपति वर्ग की घोर मजदूर विरोधी नीतियों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करने लगती है। उन सभी इलाकों में जहां यू.एस.बी. यूनियन का आधार रहा है हजारों रोजगार खत्म हो चुके हैं, बड़ी संख्या में मजदूर तबाह बर्बाद हुए हैं तथा पेेंशनों को खत्म कर दिया गया है। इस सबके लिए पूंजीपति वर्ग को यू.एस.बी. नेताओं की सहमति चाहिए थी जो उन्हें शीघ्र ही हासिल हो गयी। वैश्विक पैमाने पर आर्थिक संकट के जारी रहने से जहां इस्पात की मांग में कमी आयी है वहीं चीन के द्वारा इस्पात के सस्ते निर्यात ने यू.एस.स्टील व आर्सेलर मित्तल के लिए एक गंभीर चुनौती पेश कर दी है। और जैसा कि आम तौर पर होता है। पूंजीपति वर्ग इस संकट का बोझ मजदूर वर्ग पर डालना चाहता है यानी अपने गिरते मुनाफों की पूर्ति मजदूरों के वेतन भत्तों में कटौती करके और उन्हें और अधिक निचोड़कर करना चाहता है। 
    इस्पात मजदूरों के कान्ट्रेक्ट की अवधि खत्म होने के साथ ही जनरल मोटर्स, फोर्ड व फिएट क्राइसलर जैसी कंपनियों के 1,40,000 मजदूरों की भी कान्ट्रेक्ट की अवधि खत्म होने को है। इसी तरह  कुल मिलाकर 2015 तक लगभग 50 लाख मजदूरों की कान्ट्रेक्ट की अवधि खत्म हो रही है। ऐसी स्थिति में आने वाले दिनों में अमेरिका में व्यापक मजदूरों के आंदोलन दिखाई पड़ सकते हैं। मजदूरों की यूनियनों को ऐसी स्थिति में एकजुट हो जाना था लेकिन वे सब मजदूरों को बांटने की कार्यवाही में ही मगन रहे हैं। लेकिन यूनियनों की गद्दारी एवं विभाजनकारी नीतियों के बावजूद अमेरिका में मजदूर संघर्ष कर रहे हैं। 
    इस वर्ष के प्रारम्भ में जब तेल शोधक कारखाने (आॅयल रिफायनरी) के 30,000 मजदूरों का करार (कान्ट्रेक्ट) खत्म हो गया तो यूनाइटेड स्टील वर्कर ने आंशिक हड़ताल शुरू की जिसमें 6,500 मजदूर शामिल थे। इन मजदूरों को अलग-थलग और भुखमरी की स्थिति में रखा गया। अंत में यूनियन ने मजदूरों की मुख्य मांग को नजरअंदाज कर नए कांन्ट्रेक्ट पर हस्ताक्षर कर दिये। 
    इसी तरह उन्होंने वेरिजोन के हजारों मजदूरों, यू.एस.पोस्टल सर्विस एवं ए टी एण्ड टी एवं अमेरिका भर के अध्यापकों के करार की अवधि को बढ़ा दिया तथा हड़तालों को बाधित किया। 
    अमेरिकी मजदूर वर्ग का आंदोलन के आने वाले दिनों में गति पकड़ने के चिह्न दिखायी दे रहे हैं लेकिन दलाल व गद्दार नेतृत्व को किनारे लगाए बगैर वे कोई ठोस चुनौती नहीं प्रस्तुत कर पायेंगे। निश्चित तौर पर अमेरिकी मजदूर वर्ग अपनी शानदार विरासत को पहचानकर आगे बढ़ेगा और दलाल यूनियनों व उनके नेताओं को ठिकाने लगा देगा। 
केरल के चाय बागान में महिला मजदूरों की जुझारू हड़ताल
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
    केरल के मुन्नार में चाय बागान कन्नड़ देवन हिल प्लांटेशन लिमिटेड की 7000 महिला मजदूर हड़ताल पर हैं। यह हड़ताल मजदूरों को मुख्यतः कम बोनस दिये जाने के सम्बन्ध में है। मजदूर यहां 20 प्रतिशत बोनस की मांग कर रहे हैं वहीं प्रबंधन मात्र 10 प्रतिशत बोनस देने को तैयार हैं। मजदूरों ने वेतन वृद्धि समेत अन्य मांगें भी उठायी हैं। 
    8 सितम्बर को महिलाओं ने मुन्नार में एक विशाल रैली आयोजित की तथा कोची-धनुषकोडी  राजमार्ग का यातायात पूरे दिन के लिए बाधित रहा। इस हड़ताल की खास बात यह रही कि महिला मजदूरों ने स्थापित ट्रेड यूनियन नेतृत्व (सीटू, एटक, इंटक) को अस्वीकार कर दिया तथा उसके नेताओं को आंदोलन में घुसने नहीं दिया। यहां तक कि मोर्चों की अगली कतारों में किसी पुरुष की बजाय महिला मजदूर ही नेतृत्व कर रही थीं। 
    ज्ञात हो कि इस प्लाण्ट में 13,000 मजदूर काम करते हैं। कन्नड देवन हिल प्लाण्टेशन लिमिटेड पर पहले टाटा का स्वामित्व था जब यह घाटे में था तो टाटा ने इसमें अपने शेयर कम कर दिये। आज टाटा के पास इसके मात्र 18 प्रतिशत शेयर हैं। मैनेजमेण्ट ने मजदूरों को भी इसमें शेयर देकर उन्हें यह अहसास कराने की कोशिश की कि वे भी इसके मालिक हैं। लेकिन बाद में मजदूरों के सामने प्रबंधन की चालें स्पष्ट हो गयीं। प्रत्येक मजदूर को 300 शेयर ही दिये गये जिनमें प्रत्येक की कीमत 10 रुपये थी। कहने को तो 68 प्रतिशत शेयर मजदूरों के पास थे लेकिन वास्तव में मैनेजमेण्ट के पास ही अधिकांश शेयर थे। 2009 में इस प्लाण्ट ने 41 करोड़ का मुनाफा कमाया। 2013-14 में इसका मुनाफा घटकर 4.2 करोड़ हो गया और 2014-15 में यह घटकर 68 प्रतिशत रह गया। इसी को बहाना बनाकर मैनेजमेण्ट मजदूरों को कम बोनस देना चाहता है। 
    जब मैनेजमेण्ट ने बोनस को 10 प्रतिशत करने का निर्णय लिया तो उसने इस निर्णय में ट्रेड यूनियन नेतृत्व को भी शामिल कर लिया। महिला मजदूर ट्रेड यूनियन नेतृत्व द्वारा निभायी गयी इस भूमिका से खासी नाराज हैं। पहले भी ट्रेड यूनियन नेतृत्व द्वारा जिस तरह मजदूर संघर्षों के साथ गद्दारी की गयी वह भी मजदूरों से छिपी हुयी बात नहीं है। महिला मजदूरों का कहना है कि जब कुछ साल पहले चाय की कीमतों में कमी आयी और मालिकों ने अपने बागानों को छोड़ दिया तथा मजदूरों की आजीविका पर संकट आया तो सबसे कम प्रभावित होने वालों में ट्रेड यूनियन नेतृत्व के लोग ही थे। ये मजदूर साफ तौर पर देख रहे थे कि किस तरह ट्रेड यूनियन नेतृत्व के लोग विधायक बन रहे हैं, राजनीतिक पार्टियों में पहुंच गये हैं, उनका जीवन स्तर ऊंचा हो गया है और वे वहीं के वहीं हैं। ट्रेड यूनियन नेतृत्व के लोगों व आम मजदूरों के बीच का यह अंतर उन्हें साफ समझा देता है कि नेतृत्व उनके संघर्षों को लड़ने के बजाय उनके हितों के साथ गद्दारी कर रहा है। जब महिला मजदूरों ने राजमार्ग पर जुलूस निकाला तो वे नारे लगा रही थीं ‘‘यह हम हैं जो पत्तियां तोड़ते हैं तथा उसका बोझ अपने कंधों पर रखते हैं और यह तुम हो जो नोटों से भरे झोले को ले जाते हो।’’ यह नारा सीधे-सीधे यूनियन नेतृत्व को सम्बोधित था। और इसलिए वे अब इस नेतृत्व को किनारे लगाकर अपनी लड़ाई खुद लड़ रही हैं। 
    चाय बागान की इन महिला मजदूरों ने प्रबधंन को तो यह संदेश दिया कि वे अब मजदूरों को और नहीं बहला-फुसला सकते। और कि यदि वे नेतृत्व को अपनी तरफ मिला लेते हैं तो भी वे लड़ने के लिए आगे आएंगीं। साथ ही ट्रेड यूनियन नेतृत्व को भी यह संकेत दिया कि मजदूर अब उनके नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और यदि उन्होंने अपने आपको नहीं बदला तो वे किनारे लगने के लिए तैयार रहें। 
हंसराज ‘रहबर’ की दो कविताएं
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
उनकी फितरत है कि वे धोखा करें 

उनकी फितरत है कि वे धोखा करें
हम पे लाजिम है कि हम सोचा करें। 

बज्म का माहौल कुछ ऐसा है आज
हर कोई ये पूछता है ‘‘क्या करें?’’।

फिर जवां हो जाएं दिल की हसरतें
कुछ न कुछ ऐ हमनशीं ऐसा करें।

वो जो फरमाते हैं सच होगा मगर
हम भी अपनी सोच को ताजा करें।

जो हुआ मालूम सब मालूम है,
दोस्तों से किस तरह शिकवा करें।

घोंसले में कट रही है जिंदगी
कौन-सी परवाज का दावा करें।

शहर में सब नेक हैं, ‘रहबर’ बुरा
वे भला उसकी बुराई क्या करें।
(09.05.1988 दिल्ली)

उसका भरोसा क्या यारो वो शब्दों का व्यापारी है

उसका भरोसा क्या यारो वो शब्दों का व्यापारी है,
क्यों मुंह का मीठा वो न हो जब पेशा ही बटमारी है।

रूप कोई भी भर लेता है पांचों घी में रखने को,
तू इसको होशियारी कहता लोग कहें अय्यारी है।

जनता को जो भीड़ बताते मंझधार में डूबेंगे, 
कागज की है नैया उनकी शोहरत भी अखबारी है।

सुनकर चुप हो जाने वाले बात की तह तक पहुंचे हैं,
कौवे को कौवा नहीं कहते यह उनकी लाचारी है।

पेड़ के पत्ते गिनने वालो तुम ‘रहबर’ को क्या जानो,
कपड़ा-लत्ता जैसा भी हो बात तो उसकी भारी है।

रचनाकाल: 11 अप्रैल 1976, सेण्ट्रल जेल, तिहाड़, दिल्ली
आस्ट्रेलिया: ब्लू स्कूप कम्पनी मजदूरों की छंटनी पर आमादा
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स के इलावारा क्षेत्र में ब्लू स्कूप कम्पनी के पोर्ट केम्बला प्लांट में कम्पनी ने मजदूरों की छंटनी की घोषणा की है। आस्ट्रेलियन वर्कर्स यूनियन के प्रतिनिधियों से बात करते हुए कम्पनी प्रबंधन ने कहा कि वह कम्पनी द्वारा फैक्टरी में किये जा रहे पुनर्गठन प्रक्रिया में सहयोग करे। इस प्रक्रिया के दौरान 500 मजदूरों की छंटनी के लिए उसे तैयार रहने को कहा गया है। साथ ही कम्पनी ने प्रति वर्ष 200 मिलियन डालर बचत का भी लक्ष्य रखा है। इससे साफ है कि फैक्टरी में बचे हुए बाकी मजदूरों के सुविधाओं में भी भारी कटौती होगी। जैसे कि मजदूरों द्वारा आठ घंटे काम के बाद उनको मिलने वाले ओवर टाइम को कम्पनी बंद करना चाहती है। उनकी मेडिकल सुविधाओं में कम्पनी कमी करना चाहती है। कम्पनी ने धमकी दी है कि यदि ऐसा नहीं होता है तो वह इस प्लांट को बंद कर देगी। कम्पनी ने यूनियन को आठ से दस सप्ताह का समय दिया है। 
    ब्लू स्कूप कम्पनी ने यह घोषणा ऐसे समय में ही है जब उसे इस साल 134.1 मिलियन डाॅलर का मुनाफा हुआ है जो कि पिछले साल 82.4 मिलियन डाॅलर घाटे में थी। कम्पनी ने यह मुनाफा पिछले चार सालों में देश के अंदर स्थित प्लांटों में बचत अर्थात् मजदूरों की छंटनी व सुविधाओं के कमी करके ही प्राप्त किया है। 2011 में उसने पोर्ट केम्बला में ही एक ब्लास्ट फर्नेस को बंद कर दिया था जिससे 1100 मजदूर बेरोजगार हो गये थे तथा 1500 मजदूर विक्टोरिया में स्थित वेस्टर्न पोर्ट मिल से निकाल दिये गये थे। 
    कम्पनी प्रबंधन की इस घोषणा के जवाब में आस्ट्रेलिया वर्कर्स यूनियन कितना प्रतिरोध करेगी यह उसके पहले व अभी के व्यवहार से स्पष्ट हो जाता है। 2011 में जब ब्लू स्कूप कम्पनी ने पोर्ट केम्बला में छंटनी की उस समय इस यूनियन के सचिव पोल होब्स थे जो इस केपीएमजी(ज्ञच्डळ) के वरिष्ठ अधिकारी थे। यह कम्पनी दुनिया मंे व्यवसाय को पुनर्गठन में सलाह देने वाली सबसे बड़ी कम्पनी है। हाॅव्स के लेबर सरकार में मंत्री रहे बिल शार्टन से गहरे सम्बन्ध थे। बिल शार्टन एक समय खुद आस्ट्रेलियन वर्कर्स यूनियन के सचिव रह चुके थे। यह वही सरकार थी जिसने ब्लू स्कूप को 2011 में 110 मिलियन डाॅलर की सहायता की। इसमें से एक बड़ी धनराशि कम्पनी ने अपने अधिकारियों को बोनस देने में ही खर्च कर दी। ट्रेड यूनियन नेतृत्व, सरकार व पूंजीपति वर्ग का गठबंधन कितना मजबूत है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि 2011 से अब तब 20,000 मजदूरों की छंटनी हो चुकी है। 
    अगर पूंजीपति वर्ग के दृष्टिकोण से देखा जाये तो ब्लू स्कूप कम्पनी का ऐसा करना स्वाभाविक लग सकता है। पिछले 12 महीने में स्टील के दाम 550 डालर प्रतिटन से 350 डाॅलर प्रति टन आ गये हैं। कम्पनी के अनुसार उसे 142 डाॅलर प्रतिटन के हिसाब से 5 लाख टन निर्यातित स्टील पर नुकसान होता है। और पिछले दिनों चीन में मैन्युफैक्चरिंग में आयी गिरावट की वजह से वहां स्टील की खपत हुयी है साथ ही चीन ने स्टील के अपने निर्यात में 25 प्रतिशत की वृद्धि की है। इससे दुनिया के स्तर पर स्टील के दामों में कमी आयी है। 
    यही पूंजीवाद की भारी विडम्बना है कि यहां चीजों के दाम कम होने पर भी मेहनतकश आबादी को उसका परिणाम अपनी नौकरी खोकर चुकाना पड़ता है। पूंजीवाद व्यवस्था के केन्द्र में मुनाफा है और आज जब मुनाफा नहीं हो रहा है तो वह मजदूरों को बेरोजगारी-बेकारी की तरफ धकेल रहा है। मुनाफे के कारण वह लगातार एक बड़ी आबादी की क्रय शक्ति कम करता जाता है और जब समाज में कम खपत होने से उसका मुनाफा घटता है तो वह उत्पादन बंद कर फिर से एक बड़ी आबादी की क्रय शक्ति कम करता है। अगर आज ब्लू स्कूप कम्पनी अपने मजदूरों की छंटनी कर रही है तो ऐसा नहीं है कि यह प्रक्रिया यहीं रूक जायेगी वरन् यह पुनर्गठन की प्रक्रिया आगे भी जारी रहेगी। और यही वजह है कि मजदूर वर्ग को पूंजीवाद को खत्म करने के लिए आगे आना होगा। पूंजीवाद को खत्म करने के बाद ही उसकी यह छंटनी की प्रक्रिया रूक सकती है। 
अमेरिका: 2200 स्टील मजदूरों का लाॅक आउट, मजदूरों की हड़ताल जारी
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    अमेरिका के पिट्सबर्ग में स्थित एलीघेनी टेक्नोलाॅजी इंक(ATI) के 2200 मजदूरों की हड़ताल जारी है। इन मजदूरों का कम्पनी ने 15 से अगस्त से लाॅक आउट कर रखा है। लाॅक आउट की वजह में कम्पनी द्वारा अपनी शर्ताें पर नया समझौता करवाना है जिसको मजदूरों ने मानने से इंकार कर दिया है। यह हड़ताल ट्रेड यूनियन नेतृत्व के न चाहने के बावजूद अभी तक जारी है। 
    कम्पनी प्रबंधन द्वारा मजदूरों के साथ नया समझौता किया जाना है। कम्पनी प्रबंधन मजदूरों को कम वेतन वाला कैजुअल मजदूर बनाना चाहती है। उनकी स्वास्थ्य सुविधाओं में वह भारी कमी करना चाहती है। और उनको सप्ताह में 40 घंटे काम की समयसीमा की आड़ में दरअसल उनको कंपनी का बंधुआ मजदूर बनाना चाहती है। साथ ही नये भर्ती होने वाले मजदूरों की पेंशन योजना को मार्केट के हिसाब से तय करना चाहती है। साथ ही नाॅन कोर क्षेत्र में वह ऐसे मजदूरों की भर्ती करना चाहती है जो यूनियनबद्ध न हों। मजदूरों को मिलने वाले इंसेन्टिव को  उत्पादन आधारित से हटाकर वह कम्पनी के पास आर्डर होने से जोड़ना चाहती है। 
    अगर आज एटीआई कम्पनी अपनी इन शर्तों के हिसाब से मजदूरों को काम पर लेने को राजी हो जाती है तो इसको प्रभाव केवल यहां के मजदूरों पर ही नहीं पड़ेगा बल्कि स्टील उद्योग में काम कर रहे अन्य फैक्टरियों के मजदूरों पर भी पड़ेगा। इस समय ही आर्सेलर मित्तल व यू.एस. स्टील के यहां भी कम्पनी व मजदूरों के बीच नया समझौता होना है। इसमें मिलाकर 30,000 मजदूर काम करते हैं। इनका समझौता 1 सितम्बर को खत्म हो रहा है। इन दोनों की कम्पनी का प्रबंधन भी मजदूरों के अधिकारों में कटौती करना चाहते हैं। आर्सेलर मित्तल चाहता है कि नये समझौते में तीन साल तक तनख्वाह फ्रीज कर दी जायें, मेडिकल सुविधाओं में कटौती कर दी जाये, नये मजदूरों के लिए टू टार वेज सिस्टम लागू कर दिया जाये। यू.एस. स्टील तो आठ घंटे के बाद के ओवर टाइम को ही बंद कर देना चाहती है। यू.एस.स्टील ने तो मजदूरों पर दबाव बनाने के लिए बर्मिंघम स्थित एक फास फेअर फील्ड वक्र्स में एक भट्टी को ही बंद कर दिया है जिससे 1100 मजदूर बेरोजगार हो गये हैं। आर्सेलर मित्तल ने भी इसी राह पर चलते हुए यू.एस. में अपने पांच हाॅट स्ट्रिप मिल में से एक बड़ी मिल जो बंद करने की धमकी दी है। 
    इस तरह एटीआई के प्रबंधन व उसके मजदूरों के बीच होने वाले समझौते से अन्य स्टील मजदूरों का भविष्य तय होना है। ऐसे में केन्द्रीय ट्रेड यूनियन नेतृत्व की भूमिका की मजदूरोें को ज्यादा आवश्यकता होती है कि वह ऐसी परिस्थितियों में उनको नेतृत्व दे तथा पूंजीपति वर्ग की एकता के मुकाबले में मजदूरों का संगठित प्रतिरोध खड़ा करे। लेकिन अमेरिका के यू.एस.डब्ल्यू. की उस नाविक की तरह हो चुकी है जो खुद अपनी ही नाव में बैठे लोगों को डुबो दे। वह मजदूरों साथ गद्दारी भरी भूमिका निभा रहा है। अभी हाल में ही जब रिफाइनरी के मजदूरों की हड़ताल हुई तो उसने हड़ताली मजदूरों की हड़ताल तोड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उसने 30,000 मजदूरों में से मात्र 6500 मजदूरों को ही हड़ताल पर जाने की काल दी। और महीनों तक मजदूरों के लड़ने के बावजूद उसने अपने फण्ड में से उनको आर्थिक मदद नहीं दी। और अंत में बिना मजदूरों की सहमति के मजदूरों की मुख्य मांगों के माने जाने के बिना समझौता कर लिया। 
    इस सबके बजाय यू.एस.डब्ल्यू मजदूरों के बीच अंधराष्ट्रवाद की भावना भरने का काम कर रहा है। वह चीन, ब्राजील, दक्षिण कोरिया को मजदूरों की इस हालत के लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है। इसी साल 2015 में लगभग 5 लाख मजदूरों के नये समझौते होने हैं। और इस सबमें वह मजदूर वर्ग का साथ निभाने के बजाय डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ अपने सम्बन्धों को छुपाते हुए ओबामा द्वारा 2008 की मंदी के समय लागू किये गये टू टायर वेज सिस्टम को लागू करवा रहा है। मजदूरों के अधिकारों में कटौती के लिए वह पूंजीपति वर्ग का साथ दे रहा है। 
    अमेरिका के मजदूरों को आज अपने नये ट्रेड यूनियन संगठन खड़े करने की जरूरत है। यू.एस.डब्ल्यू. का व्यवहार मजदूरों के साथ इतना स्पष्ट है कि कोई भी मजदूर उसे आसानी से समझ सकता है। समय ने दिखाया कि अमेरिकी पूंजीवाद भी पूंजीवादी व्यवस्था से जुदा नहीं है। यह भी मजदूरों को बेकारी, बेरोजगारी ही देगा। और मजदूरों को इसको खत्म करने के लिए आगे आना होगा।  

कविता -मुजफ्फरनगर 94-शेखर जोशी
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
    (संदर्भः उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन)
जुलूस से लौटकर आई वह औरत
माचिस मांगने गयी है पड़ोसन के पास।
दरवाजे पर खड़ी-खड़ी 
बतिया रही हैं दोनों
नहीं सुनाई देती उनकी आवाज
नहीं स्पष्ट होता आशय
पर लगता है
चूल्हे-चैके से हटकर
कुछ और ही मुद्दा है बातों का।

फटी आंखों, रोम-रोम उद्वेलित है श्रोता
न जाने क्या-क्या कह रही हैंः
नाचती अंगुलियां
तनी हुए भवें
जलती आंखें
और मटियाये कपड़ों की गंध

न जाने क्या कुछ कह रहे हैं
चेहरे के दाग 
फडकते नथुने
सूखे आंसुओं के निशान
आहत मर्म
और रौंदी हुई देह।

नहीं सुनाई देती उनकी आवाज
नहीं स्पष्ट होता आशय
दरवाजे पर खड़ी-खड़ी
बतियाती हैं दोनों।

माचिस लेने गयी थी औरत
आग दे आई है।
आंध्र प्रदेश में जूट मिल के मजदूरों का संघर्ष
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    आंध्र प्रदेश में पिछले दिनों जूट मिल के मजदूर संघर्षरत रहे हैं। इनमें से एक गुंटूर जिले में श्री भजरंग मिल के मजदूर हैं तो दूसरे में बोबिल में श्री लक्ष्मी निवासा जूट मिल के मजदूर हैं। दोनों ही मिलों के मजदूर मालिकों द्वारा गैर कानूनी तरीके से लाॅक आउट किये जाने के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। 
    श्री भजरंग मिल की स्थापना 1935 में हुई थी। वर्तमान में इसके मालिक दावू गोपाल लूनानी हैं जिन्होंने 1994 में इसे अधिग्रहित किया था। इस मिल में 3000 मजदूर काम करते हैं। और इसका क्षेत्रफल 7.79 एकड़ है। इसके मालिक इसे रियल स्टेट के आदित्य इन्फ्रा को बेच रहे हैं। इस कारण इन 3000 मजदूरों के सामने आजीविका का संकट खड़ा हो गया है। 
    श्री लक्ष्मी निवासा जूट मिल के 1000 मजदूर मालिक द्वारा की गयी तालाबंदी के कारण सड़क पर आ गये। जब मजदूरों ने हाइवे को बंद कर दिया तब श्रम विभाग के साथ वार्ता में फैक्टरी मैनेजमेंट ने कच्चे माल की कमी का बहाना बताया और कहा कि चूंकि कच्चे माल की आपूर्ति बंद नहीं हुई है अतः कच्चे माल के आते ही उत्पादन शुरू हो जायेगा। तथा इस लाॅक आउट को ले आफ माना जायेगा। स्थायी मजदूरों को इस अवधि की तनख्वाह दी जायेगी। 
    दोनों मामले में से जहां भजरंग मिल के मजदूर अभी भी संघर्ष कर रहे हैं वहीं श्री लक्ष्मी निवासा के मजदूरों ने आश्वासन मिलने के बाद अपने प्रदर्शन को स्थगित कर दिया है।
    इन दोनों घटनाओं को देखा जाये तो हमें पता चलता है कि किस तरह शासन-प्रशासन मजदूरों के बजाय मालिकों का पक्ष लेता है। जब मजदूरों को काम से निकाल दिया जाता है तो मजदूर मालिकों से संघर्ष कर रहे होते हैं। इन दिनों में मजदूर के घर का चूल्हा कैसे चलेगा इसकी परवाह पूंजीपति तो नहीं ही करता है बल्कि सरकार भी इसे नजरअंदाज करती है। हां! यदि मजदूरों का संघर्ष मजबूत है तब तो मजदूरों को संघर्ष के दिनों का कुछ मिलता है अन्यथा नहीं। ऐसे में सरकार का रवैया सीधे-सीधे पूंजीपतियों के पक्ष में जाता है। आर्थिक अभाव में मजदूरों का संघर्ष कमजोर पड़ जाये यही मालिक चाहता है। ऐसे में मजदूरों को ज्यादा एकजुट होने की जरूरत बनती है।  

उरुग्वे में एक दिनी हड़ताल, 10 लाख कर्मचारी व मजदूरों ने की भागेदारी
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
      6 अगस्त को उरुग्वे में ट्रेड यूनियनों ने आम हड़ताल का आहवान किया जिसमें 10 लाख तक मजदूरों व कर्मचारियों ने भागेदारी की। यह हड़ताल उस समय की गयी है जब वहां की सरकार अगले पंचवर्षीय योजना के संदर्भ में बजट बनाने की तैयारी कर रही है। इस हड़ताल की मांगे वेतन बढ़ाने, शिक्षा में जीएनपी का 6 प्रतिशत खर्च करने की तथा ‘एम्प्लायर इनसाॅल्वेन्सी कानून’ बनाने की है जिससे निजी उद्योग के फेल होने की स्थिति में उसमें काम करने वाले मजदूरों को उनके देय भुगतान हो सकें। साथ ही वे उरुग्वे की ट्रेड इन सर्विस एग्रीमेण्ट (TISA) से बाहर आने की मांग कर रहे हैं। ट्रेड इन सर्विस एग्रीमेण्ट 50 देशों का गुपचुप बनाया समूह है जो सेवाओं को बुरी तरह प्रभावित करता है तथा सार्वजनिक सेवाओं पर हमला करता है। 
    यह हड़ताल एक ऐसे देश में हो रही है जिसकी कुल आबादी 34-35 लाख है। और इस हड़ताल में उसकी एक तिहाई आबादी सम्मिलित हुई। एक छोटा सा देश होने के बावजूद यहां हड़ताल होना एक महत्वपूर्ण बात बन जाती है। जब पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी छायी तब भी इसकी अर्थव्यवस्था ठीक गति से वृद्धि कर रही थी। लेकिन जब यह मंदी हटने का नाम नहीं ले रही है तो इसने छोटे-छोटे देशों को अपने चपेट में लेना शुरू कर दिया है तथा उसके शांत वातावरण में अस्थिरता पैदा कर दी। 
    उरुग्वे एक मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था वाला देश है। 2004-08 के दौरान उसकी अर्थव्यवस्था 8 प्रतिशत की दर से वृद्धि करती रही है। उसके बाद इसकी अर्थव्यवस्था थोड़ी लड़खड़ाई लेकिन 2010 में फिर संभल गयी। लेकिन 2012, 13 व 14 में क्रमशः यह 3.7, 4.4 व     3.3 प्र्रतिशत रही है और आगे इसके 2.7 प्रतिशत तक रहने की संभावना है। ऐसे में इसका प्रभाव वहां के मजदूरों व कर्मचारियों पर पड़ना तय है और इसी आशंका ने यहां के मजदूर वर्ग को एकजुट होकर संघर्ष करने को प्रेरित किया है। इस हड़ताल में 44 ट्रेड यूनियनें और 19 विभाग शामिल थे। इस हड़ताल में बिना यूनियन की सदस्यता वाले मजदूर भी शामिल थे। 
    उरुग्वे में होने वाली इस हड़ताल ने दिखा दिया है कि किस तरह आज दुनिया की अर्थव्यवस्थायें एकीकृत हो चुकी हैं। जिस छोटे से देश का मंदी को लाने में कोई योगदान नहीं है उस देश के मजदूर व कर्मचारी भी इस प्रभाव से अछूते नहीं है तथा दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा अपनी सार्थकता को ज्यादा स्पष्ट कर रहा है। 
पाकिस्तान: स्वास्थ्य क्षेत्र के हजारों मजदूर संघर्षरत
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    पाकिस्तान में पांच संघीय अस्पतालों के हजारों कर्मचारी संघर्षरत हैं। ये कर्मचारी अपने भत्तों को फ्रीज किये जाने के खिलाफ संघर्ष कर हैं। 4 अगस्त को उन्होंने सांकेतिक हड़ताल की तथा यह घोषणा की कि उनकी मांगें न माने जाने तक वे रोज एक घण्टे प्रदर्शन करेंगे। 
    अस्पतालों में काम कर रहे कर्मचारी संक्रामक रोग जैसे टी.बी. से ग्रसित रोगियों के सम्पर्क में आते हैं। खून, पेशाब, बलगम आदि की जांच करते समय स्वयं भी संक्रमित होने का खतरा इन कर्मचारियों के सामने मौजूद रहता है। अतः रोगियों व उनके खुद के स्वास्थ्य की दृष्टि से इनका सुरक्षित रहना अति आवश्यक है। इसी वजह से 2011 में इन्होंने 35 दिन तक इस्लामाबाद के डी चैक में प्रदर्शन किया था और उसके बाद उनको स्वास्थ्य रिस्क भत्ता दिये जाने का प्रावधान तत्कालीन सरकार ने किया था। लेकिन इस साल जब 2015-16 का बजट पेश किया गया तब उसमें इससे सम्बन्धित बजट ही नहीं था। अतः कर्मचारी इन भत्तों को फ्रीज किये जाने के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। 
    आज जबकि पूरी दुनिया के स्तर पर नव उदारीकृत नीतियां लागू हो रही हैं जिसके अंतर्गत स्वास्थ्य क्षेत्र पर भी हमला बोला जा रहा है। स्वास्थ्य क्षेत्र को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। जब सरकार अपने यहां स्वास्थ्य कर्मचारियों को दी जाने वाली सुविधाओं में कटौती करेगी तभी तो निजी अस्पतालों में काम कर रहे कर्मचारियों के अधिकार कम किये जाने का मालिकों को कानूनी आधार मिल पायेगा। और साथ ही ऐसा करके सरकार अपने बजट घाटे को भी कम करना चाहती है जैसा कि इन नीतियों में प्रावधान है। ऐसे में नयी आर्थिक नीतियों का सर्वव्यापी विरोध करना बहुत जरूरी है।   
ब्राजील: जनरल मोटर्स के हजारों मजदूर हड़ताल पर
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    10 अगस्त को ब्राजील के साअ पोलो में जनरल मोटर्स के हजारों मजदूर हड़ताल पर चले गये। जनरल मोटर्स ने अपने प्लांट में 794 मजदूरों की छंटनी की घोषणा के विरोध में इन मजदूरों ने हड़ताल के पक्ष में वोट दिया था। जनरल मोटर्स के साथ ही बगल में स्थित जर्मनी की डेमलर कम्पनी भी अपने यहां मजदूरों की छंटनी करना चाहती है इसको लेकर उसके मजदूरों में भी असंतोष है। 
    आॅटो सेक्टर में छाई मंदी के अवसर को भी ये कम्पनियां अपने पक्ष में भुनाने का प्रयास कर रही हैं। तथा मजदूरों की छंटनी कर रही हैं। और अपने उद्योगों का पुनर्गठन कर रही हैं। 2014 में ब्राजील में आॅटो सेक्टर में 12,000 नौकरियां खत्म की जा चुकी हैं। जनरल मोटर्स वैसे तो ब्राजील में 2019 तक 1.9 अरब डालर नया निवेश कर रही है लेकिन इस प्लांट में नहीं। इस प्लाण्ट के बारे में उसका कहना है कि वह फायदेमंद नहीं रहा। 
    आॅटो सेक्टर में कई और कम्पनियां भी अपने प्लाण्टों में छंटनी करने का मन बना चुकी है। जर्मनी की मर्सडीज बेंज की ट्रक बनाने वाली इकाई डेमलर एजी भी अपने यहां अगले महीने मजदूरों की छंटनी करने का मन बना रही है। उसका यह प्लांट साओ पालो के बाहरी इलाके में ही स्थित है। उसका कहना है कि उसके प्लाण्ट में 2000 मजदूर ज्यादा हैं। ज्ञात हो कि डेलमर ने अपने यहां पिछले महीने मेटल वर्कर यूनियन के प्रतिनिधियों से बातचीत की थी कि या तो वह मजदूरों के वेतन में 10 प्रतिशत कटौती का प्रस्ताव स्वीकार करे या फिर मजदूरों की छंटनी के लिए तैयार रहे। मजदूरों ने इस वेतन कटौती के प्रस्ताव को मंजूर कर दिया और अब कम्पनी उनको दण्ड स्वरूप छंटनी की घोषण कर रही है। 
    ब्राजील में आॅटो बाजार में 20 प्रतिशत की गिरावट आयी है तथा जनरल मोटर्स की बिक्री में 30 प्रतिशत तक ही कमी आयी है। इस गिरावट के कारण कम्पनी उत्पादन नहीं कर रही है और फलस्वरूप मजदूरों की छंटनी कर रही है। जनरल मोटर्स जो निवेश कर रही है वह उसके लाइन को आधुनिक बनाने के लिए हो रहा है। इसका मतलब है वहां मशीनीकरण किया जाये और मजदूरों की छुट्टी कर दी जाये।
    ब्राजील के आॅटो मजदूरों को यह समझना होगा कि उनकी समस्या पूंजीवाद की आम समस्या यानी मंदी से जुड़ी है और ब्राजील में अन्य उद्योगों के मजदूर भी इससे प्रभावित हो रहे हैं। उसे ब्राजील के मजदूर वर्ग के साथ अपनी एका कायम करते हुए अपनी ताकत को बढ़ाते हुए पूंजीवाद के खिलाफ अपनी जंग छेड़नी होगी।  
त्रिलोचन की दो कविताएं
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
यही लोकतंत्र है

जंगल में जिन्हें बसना पड़ा है
देखा है मैंने उन्हें 
उनके किये धरे का लाभ तो
दिक्कू ही उठाते हैं

कछुए, सांप, मेढ़क उनके आहार हैं
उनको शराब दे कर बदले में
दिक्कू बनिया साग भाजी, फल, मूल, मधु
मनमाने मोल पर लेता है।
आज भी ये मकान और दुकान की
पहेलियां समझ नहीं पाते।

लुटेरे इन्हें लूटते हैं
नेता भी बातों से इनको बहलाते हैं
यही लोकतंत्र है। 

धर्म की कमाई

सौंर और गोंड स्त्रियां चिरौंजी बनिए की दुकान
पर ले जाती हैं। बनिया तराजू के एक पल्ले पर नमक
और दूसरे पर चिरौंजी बराबर तोल कर दिखा देता है
और कहता है, हम तो ईमान की कमाई खाते हैं

स्त्रियां नमक ले कर घर जाती हैं। बनिया
मिठाइयां बनाता और बेचता है। उस की दुकान
का नाम है। अब वह चिरौंजी की बर्फी बनाता है,
दूर-दूर तक उसकी चर्चा है। ग्राहक दुकान पर पूछते हुए जाते हैं। कीन कर ले जाते हैं, खाते और खिलाते हैं। 

बनिया धरम करम की चर्चा करता है। कहता
है, धरम का दिया खाते हैं, भगवान् के गुण गाते हैं।
पेरू: सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ  हजारों मजदूरों ने की हड़ताल
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    पेरू के राष्ट्रपति हुमाला द्वारा देश के अंदर जारी आर्थिक सुधारों के खिलाफ 9 जुलाई को एक दिवसीय हड़ताल आयोजित की। यह हड़ताल जनरल करफेडरेशन आॅफ वर्कर्स ने बुलायी थी। हड़ताल से कई शहर प्रभावित हुए। हड़ताल के मद्देनजर राजधानी लीमा में राष्ट्रपति आवास की कडी सुरक्षा व्यवस्था करनी पड़ी। 
    राष्ट्रपति हुमाला 2011 में राष्ट्रपति चुने गये थे। और चुने जाने के बाद से ही उन्होंने आर्थिक सुधारों को लागू करना शुरू कर दिया जिसके खिलाफ समय-समय पर प्रदर्शन होते रहे हैं। लेकिन ये प्रदर्शन केवल रस्मी तौर पर ही रहे हैं। ये प्रदर्शन केवल मजदूर वर्ग के आक्रोश को व्यक्त करने का साधन बन जा रहे हैं। 
    इस हड़ताल में बहुत सारी मांगों के साथ वेतन वृद्धि की मांग प्रमुख है। इस समय मजदूरों को मात्र 236 डाॅलर (750 न्यू सोल) ही मिलते हैं। यह तनख्वाह 2012 से स्थिर है। जबकि इसी बीच मुद्रास्फीति बढ़ने से महंगाई बढ़ती रही है (जहां 2013 में यह 2.8 प्रतिशत थी वहीं 2014 में यह   3.4 प्रतिशत थी)।
    इस हड़ताल में जहां मजदूर बढ़ती महंगाई, घटते रोजगार के अवसरों, स्वास्थ्य सुविधा, बिजली तथा पानी आदि की मांगों को लेकर शामिल हैं तो वहीं इस हड़ताल के नेतृत्व में पीएसआई जैसे गैर सरकारी संगठन हैं जो हड़ताल को सीमित रखना चाहते हैं जो जनरल कनफेडरेशन आफ वर्कर्स के साथ मिलकर काम कर रहे हैं तथा हड़ताली मजदूरों को यह भी नहीं बताते हैं कि उनकी समस्या की मूल जड़ क्या है? वे केवल सरकार को ज्ञापन ही सौंपते हैं तथा उसी सरकार से कुछ मिलने की उम्मीद मजदूरों को बंधाते हैं, जो मजदूरों के सभी अधिकारों को छीनने पर तुली हुई है। उसी सरकार से जो स्वास्थ्य, बिजली, पानी, शिक्षा जैसी चीजों को भी निजी पूंजीपतियों के हवाले कर रही है। 
    पीएसआई एक गैर सरकारी संगठन है जो 150 देशों में काम करता है और 669 ट्रेड यूनियनों के साथ मिला हुआ है। इसका अध्यक्ष जहां साम्राज्यवादी ब्रिटेन की दूसरी सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन का नेता है तो इसका हेड क्वार्टर एक अन्य साम्राज्यवादी देश फ्रांस में है। जाहिर है ऐसे गैर सरकारी संगठन जब हड़ताल में शामिल हों तो वे मजदूरों का क्या भला करेंगे। पेरू के मजदूर वर्ग को संघर्ष करने के साथ-साथ इस बात को भी समझने की जरूरत है कि जो संगठन उनको नेतृत्व दे रहे हैं उनका मूल मकसद क्या है। ऐसे संगठनों के नेतृत्व को प्रतिस्थापित कर और क्रांतिकारी नेतृत्व को स्थापित करके ही उसे आज हड़तालों में कुछ सफलता मिल सकती है। 
चिली: तांबा खान के हड़ताली मजदूरों पर  फायरिंग से एक मजदूर की मौत
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    24 जुलाई को चिली की तांबे की खान में हड़ताल कर रहे मजदूरों पर पुलिस द्वारा गोली चलाये जाने से एक मजदूर की मौत हो गयी। यह हड़ताल चिली की सरकारी तांबा खान कम्पनी कोडेल्को में 21 जुलाई से चल रही है। हड़ताल करने वाले यह मजदूर ठेके के हैं तथा ये कम्पनी में सीधे रखे जाने वाले मजदूरों को दिये जाने वाले समान लाभों की मांग कर रहे हैं। 
    कोडेल्को कम्पनी सरकारी क्षेत्र की एक बड़ी तांबा कम्पनी है। यह अपने होने वाले समस्त लाभ को सरकार को सौंप देती है। सरकार ने अभी हाल में ही इस तांबे की खान का आधुनिकीकरण करने के लिए कम्पनी में निवेश किया है, लेकिन अपने मजदूरों को यह उचित लाभ भी नहीं दे रही है। इसकी जिम्मेदारी वह ठेकेदार पर डाल देती है जबकि ठेका मजदूरों को लाभों को देने की जिम्मेदारी कम्पनी की बनती है और इसलिए ये मजदूर हड़ताल पर हैं। इससे पहले 2014 में ठेके के मजदूरों का समझौता हुआ था। हड़ताल के दौरन इन्होंने कम्पनी की तरफ जाने वाले रास्तों पर अवरोधक लगाये हुए थे जिसको खुलवाने के लिए पुलिस ने फायरिंग की और एक मजदूर की जान ले ली। 
    आज चाहे सरकारी कम्पनी हो या निजी, सभी जगह मजदूरों को दो श्रेणियों में बांट दिया गया है। इनमें ठेके के मजदूरों का बेतहाशा शोषण किया जा रहा है। जहां स्थायी मजदूरों के मुकाबले इनका वेतन बहुत कम है तथा अन्य सुविधायें मसलन् स्वास्थ्य, बोनस, पेंशन, लाभ आदि से ये महरूम होते हैं। ठेका मजदूरों के नाम पर इनके सभी अधिकार खत्म कर दिये जाते हैं। कम्पनी ठेकेदार को बीच में लाकर इस सबकी जिम्मेदारी उस पर डाल देती है और स्वयं इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती है। कहीं-कहीं तो स्थायी मजदूर इनके समर्थन में हड़ताल करते हैं तो कहीं नहीं करते। न करने की स्थिति में मजदूरों की वर्गीय एकता कमजोर हो जाती है और यही प्रबंधन व मालिक चाहता है कि मजदूरों की एकता न बने।
    चिली में चल रही इस हड़ताल में भी हमें यही देखने को मिल रहा है कि कोडेल्को कम्पनी के सल्वाडोर खान में तो फर्क पड़ा है जबकि बाकी जगह उसका काम चालू है और इसलिए मजदूरों की मोल भाव करने की क्षमता कमजोर होती है और प्रबंधन मजदूरों पर हावी हो जाता है। 
    प्रबंधन/मालिक इसके अलावा मजदूरों का दमन करने में क्रूर भी होता जा रहा है। उसकी पुलिस-फौज मजदूरों पर लाठी-गोली चला रही है। यह हमें कभी दक्षिण अफ्रीका की मारिकाना की खानों की हड़तालों में देखने को मिलता है तो कभी चिली में।  
    ऐसे में जरूरत इस बात की बनती है कि मजदूरों के अंदर क्रांतिकारी चेतना पैदा की जाये और उनको वर्गीय एकता के सूत्र में बांधा जाये। चूंकि आज पूरी दुनिया में मजदूरों के बीच क्रांतिकारी संगठनों की पहुंच बेहद सीमित है। ऐसी स्थिति में मजदूर हड़ताल तो कर रहे हैं परन्तु वे ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर पा रहे हैं। हां! उनके ये संघर्ष समाज में मौजूद क्रांतिकारी संगठनों को उनका दायित्व और ज्यादा बखूबी से निभाने की प्रेरणा देते हैं। ऐसे में क्रांतिकारी संगठनों का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। 

इण्डोनेशिया: काॅस्मेटिक फैक्टरी में विस्फोट, 17 मजदूर मरे
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    इण्डोनेशिया की राजधानी जकार्ता के बाहरी इलाके बेकासी में स्थित काॅस्मेटिक फैक्टरी ‘मेन्डम इण्डोनेशिया’ में 10 जुलाई को विस्फोट होने से 5 मजदूरों की मौत हो गयी तथा 53 मजदूर घायल हो गये। घायलों में से 12 मजदूरों की मौत अस्पताल में हो गयी। बाकी 41 मजदूरों का इलाज चल रहा है। इनमें से 21 मजदूरों की हालत गम्भीर है। यह विस्फोट फैक्टरी की गैस पाइप लाइन में हुआ था।
    बेकासी एक औद्योगिक इलाका है जिसमें यह फैक्टरी स्थित है। इस इलाके में मेन्डम की यह दूसरी फैक्टरी है तथा एक-दो महीने पहले ही यह शुरू हुई थी। सूत्रों के मुताबिक इस फैक्टरी में सुरक्षा उपकरण पर्याप्त नहीं थे तथा काॅस्मेटिक फैक्टरी होने की वजह से जो ज्वलनशील पदार्थ यहां थे उसके हिसाब से भी पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी। 
    मेन्डम फैक्टरी में हुई विस्फोट की घटना देखने में एक दुर्घटना नजर आ सकती है। परन्तु फैक्टरी में काम करने वाला मजदूर इस बात को बखूबी जानता है कि किस तरह पूंजीपति अपने मुनाफे के लिए नई फैक्टरी खोलते ही उसमें काम शुरू करवा देता है चाहे उसमें मजदूरों के लिए सुरक्षा व्यवस्था पर्याप्त हो पायी हो या नहीं। पूंजीपति के लिए कम निवेश कर अधिकतम मुनाफा कमाने की चाहत उसे शीघ्र ही उत्पादन चालू करने को बाध्य कर देती है और जो खराब परिणाम आता है उसमें पूंजीपति को तो केवल आर्थिक नुकसान ही होता है और उसकी भरपाई भी वह बीमा से कर लेता है, लेकिन वहीं मजदूर की जिन्दगी चली जाती है और उसके पीछे उसका परिवार तबाह-बर्बाद हो जाता है और दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश होता है। 
    मेन्डम फैक्टरी में हुई दुर्घटना के लिए जिम्मेदार उसका मालिक ही है। यह इस बात से भी जाहिर होता है कि बेकासी में पिछले छः महीने से फैक्टरियों में सुरक्षा व्यवस्था को लेकर शिकायतों में 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मई से जुलाई तक की 12 शिकायतें दर्ज की गयी हैं। यह दिखाता है कि बेकासी औद्योगिक इलाके में मजदूरों की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ कर मुनाफा कमाने में पूूंजीपति वर्ग लगा हुआ है। औद्योगिक जोन स्थापित करते समय विकास के सपने दिखाये जाते हैं, लेकिन औद्योगिक जोन में मजदूरों का शोषण कितना तीव्र होता है यह उसमें काम करने वाला मजदूर ही जानता है। 
    मेन्डम फैक्टरी में हुई इस दुर्घटना को हमें इसी नजर से देखने की जरूरत है।     
सुबह-ए-आज़ादी- ये दाग़ दाग़ उजाला-    फैज अहमद फैज
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर
वो इंतजार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फलक के दश्त में तरों की आखरी मंजिल 
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जा के रूकेगा सफिना-ए-गम-ए-दिल
जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख्वाब-गाहों से 
पुकारती रहीं बांहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अजीज थी लेकिन रुख-ए-सहर की लगन
बहुत करीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन

सुना है हो भी चुका है फिरक-ए-जुल्मत-ए-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंजिल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अजाब-ए-हिज्र-ए-हराम
जिगर की आग, नजर की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिज्रां का कुछ असर ही नहीं
कहां से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई 
अभी चिराग-ए-सर-ए-रह को कुछ खबर ही नहीं
अभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई 
भारत: नेवेली लिग्नाइट के मजदूर हड़ताल पर
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    भारत के तमिलनाडु राज्य में स्थित नेवेली लिग्नाइट काॅरपोरेशन के मजदूर एक बार फिर हड़ताल पर हैं। इस बार नेवेली लिग्नाइट काॅरपोरेशन के मजदूर अपनी वेतन वृद्धि को लेकर हड़ताल पर हैं। मजदूरों ने वेतन वृद्धि के लिए 30 प्रतिशत की मांग रखी थी, हालांकि बाद में वार्ता में ट्रेड यूनियन नेतृत्व उसे 24 प्रतिशत पर ले आया था लेकिन प्रबंधन 10 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि नहीं करना चाहता है।      ज्ञात हो कि नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन में प्रत्येक पांच वर्षों में वेतन वृद्धि होती थी। पिछली वृद्धि सन् 2007 में हुई थी। इसके हिसाब से जनवरी 2012 में वृद्धि होनी थी लेकिन वह आज तक नहीं हुई है। यूनियनों का कहना है कि पिछली बार जब वेतन वृद्धि हुई थी तब वह 25 प्रतिशत थी। जबकि उस समय कर्मचारियों की संख्या ज्यादा थी और मुनाफा आज के मुकाबले कम था। आज कर्मचारियों(स्थायी) की संख्या में कमी आ चुकी है और मुनाफा भी 1550 करोड़ है फिर भी मैनेजमेण्ट केवल 10 प्रतिशत की ही वेतन वृद्धि कर रहा है। 
    नेवेली लिग्नाइट काॅरपोरेशन की इस हड़ताल में सभी 13 यूनियनें शामिल हैं। शुरूआत में इसमें ठेका मजदूर शामिल नहीं थे। परन्तु बाद में ठेका मजदूरों ने इस हड़ताल को अपना समर्थन दिया और हड़ताल के आगे बढ़ने पर उनके भी इसमें शामिल होने की संभावना है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने तो इसमें अपने हाथ खड़े करते हुए प्रधानमंत्री से इस मामले का हल निकालने के लिए कहा है। 
ब्रिटेनः रेल कर्मचारियों की हड़ताल
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
नौकरी बचाने, टिकट आॅफिस बंद न करने व कांट्रेक्ट नियमों को लेकर ब्रिटेन के रेल कर्मचारियों ने 8 जुलाई शाम से हड़ताल शुरू की। यह हड़ताल लंदन अंडर ग्राउण्ड व फस्र्ट ग्रेट वेस्टर्न (एफजीडब्ल्यू) के कर्मचारियों ने की जो क्रमशः 24 व 48 घंटे की थी। इस हड़ताल में रेलवे की 4 प्रमुख यूनियनें - असलेज(ट्रेन ड्राइवरों की यूनियन), रेल, मेरीटाइम एण्ड ट्रान्सपोर्ट यूनियन (आरएमटी), ट्रांसपोर्ट सेलरीड स्टाफ एसोसिएशन और यूनाइट थीं।
आरएमटी के मिक केश के मुताबिक एफजीडब्ल्यू का मैनेजमेण्ट 2017 से हितैची इण्टरसिटी एक्सप्रेस ट्रेन चलाना चाहता है और इस प्रक्रिया में नौकरियां कम कर रहा है। इसके अलावा कम्पनी रात के समय में नाइट ट्यूब में काम करने व पांच अन्य लाइनों पर विस्तार करना चाहती है। इस प्रक्रिया में जहां 1000 के करीब नौकरियां खत्म होंगी वहीं अतिरिक्त काम का बोझ कर्मचारियों पर बढ़ जायेगा। यूनियन का कहना है कि ब्रिटिश करदाताओं के कर से जो पैसा इकट्ठा हुआ उससे नई ट्रेनें खरीदी जायेंगी और इससे मजदूरों की नौकरियां खत्म हो जायेंगीं। यूनियन का कहना है कि रात्रि में काम करने से उन्हें कोई एतराज नहीं है और जिन पांच अन्य लाइनों का विस्तार होना है उन पर भी वे काम करने को तैयार हैं किन्तु वे नौकरियों में छंटनी न होने का आश्वासन चाहते हैं। जैसा कि रेलवे का संचालन करने वाली एक अन्य कम्पनी ईस्ट कोस्ट ने उन्हें दिया है।
लंदन अंडरग्राउण्ड के मैनेजमेण्ट ने 2016-17 के लिए मामूली वेतनवृद्धि की घोषणा की है। नाइट ट्यूब में काम करने वालों के लिए 500 पौण्ड लंच भत्ता व ड्राइवरों के लिए एक समय का 2000 पौण्ड के बोनस की घोषणा की है। लेकिन लंदन अंडरग्राउण्ड के 20,000 कर्मचारियों में मात्र 1000 कर्मचारियों को ही यह फायदा मिलेगा।
लेकिन साथ ही मजदूरों के अधिकारों पर हमले भी बोले गये हैं। इनमें लंदन अंडरग्राउण्ड को रात्रि ट्यूब में काम करने के लिए 137 नये ड्राइवरों की भर्ती करनी है जिन्हें वह बेहद कम तनख्वाह पर और बिना पेंशन दिये ही भर्ती करना चाहता है। साथ ही लंदन अंडरग्राउण्ड अपने कर्मचारियों को आय आधारित पेंशन फण्ड में अपने योगदान से भी बचना चाहता है। और लंदन के मेयर की बातों से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि नई एक्सप्रेस ट्रेनों के संचालन में रेल कर्मचारियों पर मार पड़ना तय है। उसका कहना है कि वे टिकट आॅफिस में सुधार करके रहेंगे और साथ ही नाइट ट्यूब में भी।
इस हड़ताल में भी ट्रेड यूनियनों की भूमिका कोई बहुत सकारात्मक नहीं है। पहले तो इस हड़ताल का विस्तार ही बहुत कम है और साथ ही बहुत कम समयावधि के लिए है। मात्र 24 घंटे या 48 घंटे की घोषणा आज काफी नहीं है। जून माह में भी रेल कर्मचारियों की हड़ताल होनी थी लेकिन नेतृत्व ने अंतिम समय में हड़ताल को टाल दिया था और सरकार से बातचीत होने को समय दिया गया और जब बातचीत में सकारात्मक हल नहीं निकला तो रेल कर्मचारियों में आक्रोश व्याप्त था और इस आक्रोश को निकालने के लिए ही उन्होंने यह सीमित अवधि व कम विस्तार की हड़ताल की घोषणा की है। यह सभी रेल यूनियनों में आपसी एकता व तालमेल की कमी को भी दिखाता है।
जिन टिकट आॅफिसों की आज बंदी की बात हो रही है उनमें से 30 प्रतिशत तो पहले ही बंद हो चुके हैं और बाकी के भी इसी साल बंद करने की योजना है। और यूनियनों के काहिली भरे रुख के चलते वे ऐसा करने में सफल भी हो जायेंगे। यूनियनों के समझौतों की वजह से ही पिछले समयों में रेल कर्मचारियों पर काम का बोझ काफी बढ़ गया है। सन् 2008 में यूनियनों का लंदन अंडरग्राउण्ड के साथ समझौता हुआ जिसके परिणामस्वरूप 2013-14 में काम का बोझ (उत्पादकता में वृद्धि) बढ़ा और 2014-15 में यह बढ़कर 16 प्रतिशत हो गया। पिछले दिनों दो ट्रेन ड्राइवरों की इसी वजह से जान चली गयी क्योंकि वे काम के बोझ के मारे अपने दांतों में हुए संक्रमण का इलाज नहीं करा पा रहे थे।

दुनिया में सबसे पहले औद्योगिक क्रांति ब्रिटेन में ही हुई और वहां मजदूर वर्ग का विकास व उसके आंदोलन अन्य जगहों की अपेक्षा जल्दी ही शुरू हो गये। लेकिन वहां का मजदूर वर्ग केवल आर्थिक संघर्षों तक ही सीमित रहा। उसका नेतृत्व केवल मजदूरों के आने-पाई के संघर्ष को ही लड़ता रहा। वह ऐसा समय था जब ब्रिटेन के दुनिया के कई देशों में उपनिवेश थे और दुनिया के मजदूर वर्ग को लूटकर वह अपने मजदूर वर्ग के एक हिस्से को सुविधाएं दे रहा था। लेकिन दुनिया में काफी बदलाव आ चुके हैं और यह सुविधा ब्रिटेन से छिनती गयी है। पूरी दुनिया आज मंदी के कगार पर है और ब्रिटेन के मजदूर वर्ग को कहीं से कोई राहत नहीं मिलने वाली है। उसे इस बात को समझना ही होगा कि आज समाजवाद के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है। 
ग्रीस: करे कोई भरे कोई
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
यह ‘करे कोई भरे कोई’ कहावत आज ग्रीस के संकटपूर्ण हालातों में ठीक ही बैठती है। 2008 में आई मंदी और उसके बाद पूंजीपतियों को बचाने के लिए सरकारों द्वारा दिये गये भारी-भरकम बेलआउट पैकेज का दण्ड ग्रीस की जनता को झेलना पड़ रहा है। ग्रीस का मजदूर वर्ग जहां एक तरफ अपनी नौकरियां खो रहा है तो दूसरी तरफ बिना तनख्वाह के काम करने को मजबूर है।
ग्रीस में वर्तमान में चल रहे संकट ने पिछले दिनों 40,000 निर्माण क्षेत्र के मजदूरों की नौकरी छीन ली है। भुगतान संकट पैदा होने के कारण कई निर्माण कार्य बंद हो चुके हैं और इन मजदूरों का भुगतान बंद होने से इन्हें काम से निकाल दिया गया है। बड़ी व मध्यम इंजीनियरिंग कम्पनी के संगठन एसएटीई के चेयरमेन के अनुसार, ‘जब तक ग्रीस के अंदर राजनैतिक व आर्थिक हालात ठीक नहीं होते तब तक इन मजदूरों को ले आॅफ दे दिया गया है। यदि भविष्य में ये निर्माण क्षेत्र खुलता है तब भी इन मजदूरों को काम मिल पायेगा या नहीं यह निश्चित नहीं है।
ग्रीस में स्वास्थ्य सेवा में लगे कर्मचारियों के भी बुरे हाल हैं। इन्हें कई महीनों से वेतन का भुगतान नहीं हुआ है। ये कर्मचारी एक तरफ तो अपने कर्तव्यों के वशीभूत होकर बिना वेतन के काम कर रहे हैं और दूसरी तरफ उनके पास इसके सिवा कोई चारा भी नहीं है कि वे बिना वेतन के काम करें। आखिर जिस देश में 25 प्रतिशत बेरोजगारी हो और 15-24 वर्ष के जवान पूर्णतया बेरोजगार हों वहां वे काम ढूंढने जायेंगे भी तो कहां। इसके अलावा अस्पतालों में दवाईयों व उपकरणों का भी सख्त अभाव है।
पिछले सालों में ग्रीस पर अपने बजट घाटे को कम करने का दबाव रहा है और इसी कारण उसका स्वास्थ्य बजट काफी कम हुआ है। 2012 में यह जीडीपी का जहां 9.3 प्रतिशत था वहीं आज यह जीडीपी का 5 प्रतिशत रह गया है। सरकारी बीमा कम्पनियों पर प्राइवेट अस्पतालों का 70 करोड़ यूरो का बकाया है और आज सरकारी एजेंसियां निजी अस्पतालों का केवल 50 प्रतिशत ही बिल पास कर रही हैं और इसका खामियाजा ग्रीस के मजदूर वर्ग को उठाना पड़ रहा है।

आज ग्रीस जिस दोराहे पर खड़ा है वहां से समाजवाद की तरफ जाने वाला रास्ता ही ग्रीस के मजदूर-मेहनतकशों और बाकी वर्गों की समस्या को हल कर सकता है।
रघुवीर सहाय की तीन कविताएं
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
कुछ तो होगा, 
अगर मैं बोलूँगा
कुछ तो होगा
कुछ तो होगा
अगर मैं बोलूंगा
न टूटे न टूटे तिलस्म सत्ता का
मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा
टूट मेरे मन टूट
अब अच्छी तरह टूट

                                               झूठ मूठ अब मत रूठ

बड़ा अफसर
इस विषय पर विचार का कोई प्रश्न नहीं
निर्णय का प्रश्न नहीं
वक्तव्य अभी नहीं
फिर से समीक्षा का प्रश्न नहीं
प्रश्न से भागता गया

उत्तर देते हुए इस तरह बड़ा अफसर।

पढि़ए गीता
पढि़ए गीता
बनिए सीता
फिर इन सबमें लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घरबार बसाइए।
होंय कंटीली
आंखे गीली
लकड़ी सीली, तबियत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली

भरकर भात पसाइए।
(साभारः बना रहे बनारस)
दक्षिण अफ्रीका: मारिकाना के मजदूरों को न्याय मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
दक्षिण अफ्रीका में प्लेटिनम खदान मारिकाना के मजदूरों के नरसंहार के मामले में पेश की गयी रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया गया है। इस रिपोर्ट ने यह साबित कर दिया है कि पूंजीवाद में मजदूरों को न्याय मिल पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। यह रिपोर्ट केवल कुछ व्यक्तियों को तो दोषी ठहरा देती है लेकिन मजदूरों के लिए इंसाफ की आस इसमें कहीं नजर नहीं आती।
16 अगस्त 2012 को प्लेटिनम कम्पनी लोनमिन की मारिकाना खान के हड़ताली मजदूरों पर पुलिस ने चारों तरफ से घेर कर गोलियां चलायी थी। इस नरसंहार में 34 मजदूर मारे गये थे। मारिकाना खान के ये मजदूर 10 अगस्त से हड़ताल पर थे और वेतन वृद्धि (प्रति माह 12,500 रेण्ड) की मांग कर रहे थे। कठिन मेहनत करने के बावजूद इनको बहुत कम वेतन मिल रहा था। अरबों डालर का मुनाफा पीटने के बावजूद कम्पनी इनको इतना भी वेतन नहीं दे रही थी कि वे जानवरों जैसी जिंदगी से बाहर निकल सकें। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा उपलब्ध करवा सकें और बीमार पड़ने पर अपना व परिवार का इलाज करा सकें।
इस घटना के बाद खान मजदूरों में व्यापक असंतोष फैला और राष्ट्रपति जैकब जुमा ने घडियाली आंसू बहाये। जो घटना इतनी स्पष्ट थी जिसमें साफ-साफ जाहिर था कि कम्पनी मैनेजमेण्ट और पुलिस प्रशासन ने मिलकर मजदूरों का नरसंहार किया है। और पुलिस की भूमिका तो वीडियो और फोटोग्राफों के जरिये उसी दिन जाहिर थी उस घटना की जांच के लिए एक आयोग का गठन कर देना और उस आयोग का तीन साल बाद अपनी रिपोर्ट देना सिर्फ इस नरसंहार पर पर्दा डालना ही था। और इस रिपोर्ट ने यह साबित भी कर दिया जिसमें केवल पुलिस वालों की ही भूमिका संदिग्ध बताकर उनके खिलाफ जांच की बात की गयी है।
राष्ट्रपति जैकब जुमा द्वारा सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज इयान फारलेम के नेतृत्व में गठित आयोेग ने अपनी रिपोर्ट मार्च 2015 में राष्ट्रपति को सौंप दी थी। और तब जैकब जुमा ने इसे एक महीने में सार्वजनिक करने की बात की थी। लेकिन उनका भारी दबाव के बाद तीन महीने बाद रिपोर्ट सार्वजनिक करना यह दिखा देता है कि उन्हें मारे गये मजदूरों या उनके परिवारों के प्रति कितनी सहानुभूति है।
इस रिपोर्ट को पेश करते हुए राष्ट्रपति जैकब जुमा ने इसका सार प्रस्तुत करते हुए कहा कि इस मामले में पुलिस के खिलाफ आपराधिक जांच होनी चाहिए। लेकिन साथ ही इस रिपोर्ट में उस समय पुलिस मंत्री रहे नाथी म्थेथ्वा को क्लीन चिट दे दी गयी है जो इस समय कला व संस्कृति मंत्री हैं और साथ ही उपराष्ट्रपति रामाफोसा को भी सभी प्रकार के आरोपों से बरी कर दिया है जो उस समय मारिकाना खान के बोर्ड आफ डायरेक्टर में थे और इस नाते इस घटना के लिए भी कहीं न कहीं जिम्मेदार थे।
इस रिपोर्ट में यह माना गया है कि पुलिस द्वारा  हड़ताल के समय निपटने का तरीका गलत था और इस घटना के लिए वह जिम्मेदार है। जबकि पुलिस के अधिकारी इस बात को कहते रहे हैं कि उसने आत्मरक्षा में गोलियां चलायीं। यदि पुलिस के खिलाफ जांच बैठती है या मुकदमा चलता है तो इसी के इर्द-गिर्द बातें होंगीं तथा सबूत पेश किये जायेंगे। और फिर सबूतों के आधार पर हो सकता है कि जिन पुलिस वालों ने गोलियां चलायीं उन्हें सजा भी मिल जाये और मारे गये मजदूरों को कुछ मुआवजा। लेकिन इतना सब होने में इतना समय लग जायेगा कि वह न्याय, न्याय न होकर एक प्रहसन बन जायेगा।
इस मामले में लोनमिन कम्पनी की भूमिका के  बारे में रिपोर्ट केवल इतना ही कहती है कि लोनमिन कम्पनी ने अपने मजदूरों के साथ ठीक ढंग से मामले को हल नहीं किया। यह रिपोर्ट इस हत्याकांड के लिए उसे कहीं से भी दोषी नहीं ठहराती है। और न ही उसके किसी अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही की बात करती है।   पूंजीवादी व्यवस्था में हमेशा यही होता है कि मजदूरों के नरसंहार के मामले में व्यक्तियों को दोषी ठहराकर पूरी व्यवस्था को बचाने का काम किया जाता है। पूंजीवादी व्यवस्था में सेना या पुलिस का विशेष महत्व होता है। जब मजदूर और पूंजीपति वर्ग के बीच संघर्ष का हल नहीं निकलता है तो पूंजीवादी शासक मजदूर वर्ग के दमन का सहारा लेता है। इसके लिए पुलिस व सेना ही उसके मुख्य हथियार होते हैं। अगर इस दमन के खिलाफ आवाज उठती है और पूरी व्यवस्था को खतरा होता है तो वह अपने इस दमन यंत्र के चंद कल पुर्जों को बदल देता है और उसकी व्यवस्था बच जाती है।

दक्षिण अफ्रीका में भी इससे अलग कुछ नहीं होगा। हो सकता है कि कुछ पुलिस वालों को सजा मिल जाये लेकिन यह इसलिए नहीं होगा ताकि मजदूरों को न्याय मिले वरन् इसलिए होगा ताकि पूरी व्यवस्था बच जाये। लेकिन वर्ग सचेत मजदूरों के सामने यह लक्ष्य और ज्यादा स्पष्ट होता जायेगा कि मजदूर वर्ग को न्याय तभी मिलेगा जब इस व्यवस्था को बदला जाये। पूंजीवाद के स्थान पर समाजवाद कायम किया जाये।
अमेरिका में तेल शोधक कारखाने की हड़ताल खत्म
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
अमेरिका में फरवरी से शुरू हुई तेल शोधक कारखाने की हड़ताल 23 जून को उस समय खत्म हो गयी जब टेक्सास के गाल्वेस्टन में स्थित मैराथन पेट्रोलियम कम्पनी के 1200 मजदूरों को मजबूरन अपनी हड़ताल खत्म करनी पड़ी। अपनी मांगों को लेकर ये मजदूर अंत तक लड़े लेकिन यूएसडब्ल्यू के गद्दारी के कारण उन्हें बिना कुछ हासिल हुए ही हड़ताल समाप्त करनी पड़ी। इससे पहले वे यूएसडब्ल्यू के प्रस्तावों को दो बाद ठुकरा चुके थे। लेकिन जब नेतृत्व ही गद्दार हो तो भला मजदूर कब तक लड़ेंगे।
मैराथन पेट्रोलियम कम्पनी के मजदूर फैक्टरी में सुरक्षा व्यवस्था को लागू करवाने तथा जबरदस्ती ओवरटाइम करवाने को लेकर खासे आक्रोशित हैं। ज्ञात हो कि 2005 में इस कम्पनी में हुए धमाके में 15 मजदूर मारे गये थे और 170 अन्य घायल हो गये थे। आज भी वहां हालात कोई बेहतर नहीं है। मजदूरों की सुरक्षा व्यवस्था का मुद्दा इस पूरी हड़ताल में एक प्रमुख मुद्दा था।
जब फरवरी में तेल शोधक कारखाने के मजदूर हड़ताल पर गये तभी से यूएसडब्ल्यू का रुख समझौता परस्ती का रहा। इसलिए उसने 63 में से मात्र 15 रिफाइनरियों के मजदूरों को हड़ताल में उतारा जो मात्र 7000 थे। यूएसडब्ल्यू ने शेवराॅन, एक्सिन माॅबिल, आदि कम्पनियों में अपने सदस्यों को काम पर ही रहने को कहा और जिन कम्पनियों में हड़ताल की भी वहां भी हड़ताल तोड़कों की मदद से काम जारी रखा। इस हड़ताल को कमजोर करने के लिए यूएसडब्ल्यू ने अपने आधे अरब डाॅलर के हड़ताली फण्ड से मजदूरों की कोई आर्थिक सहायता नहीं की।
यूएसडब्ल्यू इस हड़ताल में सरकार से सीधे-सीधे टकराना नहीं चाहती थी। इस हड़ताल को शुरू करवाने के पीछे भी मजदूर वर्ग का ही दबाव था। और जब हड़ताल शुरू हो गयी तो यूएसडब्ल्यू ने इस हड़ताल को कमजोर करने का ही काम किया। हड़ताली मजदूर इस हड़ताल को राष्ट्रव्यापी बनाना चाहते थे परन्तु उसने केवल कुछ ही कारखानों में हड़ताल करवायी। और जब ठेके के मजदूर भी इस हड़ताल में शामिल होने लगे तो उसने तुरन्त मार्च में ही शैल कम्पनी के साथ समझौता कर लिया।
लेकिन टेक्सास के मैराथन रिफाइनरी के मजदूरों ने अपनी हड़ताल जारी रखी। यूएसडब्ल्यू ने यहां भी हड़ताल खत्म कराने की कोशिश की लेकिन जब यहां के मजदूर तैयार नहीं हुए तो उसने हड़ताल को लम्बा खींचा और अंत में मजदूरों को बिना शर्त हड़ताल खत्म करनी पड़ी।

हड़ताल ने यूएसडब्ल्यू का चरित्र मजदूरों के सामने स्पष्ट कर दिया। यूएसडब्ल्यू आज की तारीख में पूरी तरह पूंजीपतियों के पक्ष में खड़े होकर काम कर रही है। उसके नेता अन्य कम्पनियों के प्रतिनिधियों के साथ ओबामा के साथ बोर्ड में बैठते हैं और मजदूरों को लूटने-खसोटने की योजना बनाते हैं। जब 2014 में इन तेल कम्पनियों को 90 अरब डालर का मुनाफा हुआ तो मजदूरों को मात्र 12 प्रतिशत की वेतन वृद्धि पर ही संतोष करना पड़ा और यह भी चार वर्षों के लिए थी। आज ये यूनियनें मजदूरों की आर्थिक लड़ाइयों को भी लड़ने के काबिल नहीं रहीं या यह कहें कि ये मजदूरों के आर्थिक संघर्षों से भी अपने हाथ खींच चुकी हैं।
सुखी लोग -  संजय कुंदन
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
सुखी लोगों ने तय किया था कि अब केवल सुख पर बात होगी
सुख के नाना रूपों-प्रकारों पर बात करना
एक फैशन बन गया था यहां

सरकार भी हमेशा सुख की ही बात करती थी
उसका कहना था कि वह सबको सुखी तो बना ही चुकी है
अब और सुखी बनाना चाहती है
उसके प्रवक्ता रोज सुख के नए आंकड़े प्रस्तुत करते थे

सरकार के हर फैसले को सुख कायम करने की दिशा में
उठाया गया कदम बताया जाता था
लाठी और गोली चलाने का निर्णय भी इसमें शामिल था

इस सबसे दुख को बड़ा मजा आ रहा था
वह पहले से भी ज्यादा उत्पाती हो गया था
वह अट्टाहास करता और कई बार नंगे नाचता

पहले की ही तरह वह कमजोर लोगों को ज्यादा निशाना बनाता
वह खेतों का पानी पी जाता, फसलें चट कर जाता
छीन लेता किसी की छत और किसी की छैनी-हथोड़ी

यह सब कुछ खुलेआम हो रहा था
पर अखबार और न्यूज चैनलों में केवल मुस्कराता चेहरा
                 दिखाई पड़ता था
हर समय कोई न कोई उत्सव चला रहा होता मनोरंजन चैनलों पर

वैसे सुखी लोगों को भी दुख बख्शता नहीं था
कई बार अचानक किसी के सामने आकर वह उस पर थूक देता था
सुखी व्यक्ति इसे अनदेखा करता
फिर चुपके से रुमाल निकालकर थूक पोंछता
और चल देता किसी जलसे के लिए

(साभारः उद्भावना अंक 108)
कम्बोडिया:  गारमेन्ट फैक्टरी के 2000 मजदूर हड़ताल पर
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    तनख्वाह व लंच भत्ता बढ़ाने तथा बेहतर कार्यपरिस्थितियों की मांग करते हुए कम्बोडिया में स्थित एम एण्ड वी इण्टरनेशनल मैन्युफैक्चरिंग फैक्टरी के 2000 मजदूर 19 मई से हड़ताल पर हैं। यह फैक्टरी गारमेण्ट फैक्टरी है जिसमें 3000 मजदूर काम करते हैं। मजदूरों की मांग है कि उनका मासिक परिवहन भत्ता 10 डाॅलर से बढ़ाकर 15 डाॅलर किया जाये तथा लंच भत्ते में 1 डाॅलर की वृद्धि की जाये। 
    हड़ताल पर जाने से पहले मजदूरों ने मैनेजमेण्ट के साथ समझौता करने का पूरा प्रयास किया लेकिन मैनेजमेण्ट जब अपनी हठधर्मिता पर अड़ा रहा तब फिर मजदूरों को सड़क पर उतरना पड़ा। मजदूरों ने इससे पहले 7 दिन का नोटिस भी मैनेजमेण्ट को दिया। हड़ताली मजदूरों को फैक्टरी में वापिस भेजने के लिए आर्बिटेशन काउंसिल ने कोशिश की और कहा कि वे 23 मई तक काम पर वापिस चले जायें। मजदूरों ने इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया। बाद में नाम पेन्ह म्युनिसिपल कोर्ट ने हस्तक्षेप कर मजदूरों को वापस फैक्टरी में जाने को कहा। कोर्ट ने कम्बोडियन लेबर यूनियन फेडरेशन समेत आठ ट्रेड यूनियनों को यह चेतावनी भी दी कि वे मजदूरों को न उकसायें। मजदूर इस उम्मीद के साथ फैक्टरी में गये कि शायद मैनेजमेण्ट अब उनके साथ वार्ता के लिए तैयार होगा लेकिन जब मैनेजमेण्ट ने ऐसा नहीं किया तो वे फिर सड़क पर आ गये। 
    कम्बोडिया में गारमेण्ट फैक्टरियों में लगातार हो रही हड़तालें यह साबित करने के लिए काफी हैं कि मजदूर किस तरह पूंजी के जुए तले पिस रहे हैं। गारमेण्ट क्षेत्र मे मजदूरों का लगातार संघर्षरत होना इस क्षेत्र में पूंजी व श्रम के बीच के तीक्ष्ण अंतर विरोधों को उजागर करता है। कम्बोडिया में लगातार हो रहे मजदूर संघर्षों को रोकने के लिए सरकार एक नया ट्रेड यूनियन बिल लाने की तैयारी में है।  इस बिल के अनुसार ट्रेड यूनियन बनाना कठिन हो जायेगा। यूनियन नेतृत्व की योग्यता के मानक तय किये जायेंगे जो महिलाओं व अन्य राष्ट्र के मजदूरों के खिलाफ है तथा साथ ही श्रम मंत्रालय के अधिकारियों को असीमित अधिकार दिये गये हैं कि वे बिना किसी निर्धारित प्रक्रिया के यूनियन का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दें।
    सरकारें व न्यायलयें पूंजी व श्रम के बीच के अंतरविरोधों को पूंजी के पक्ष में हल करने के लिए पूरा जोर लगा रही हैं। सरकार जहां यूनियन बनाने के अधिकार को छीनकर उनको सामूहिक सौदेबाजी की ताकत से महरूम कर रही है वहीं न्यायालय ट्रेड यूनियनों को यह चेतावनी दे रही है कि वे मजदूरों को न भड़कायें। ठीक ऐसी ही भाषा का प्रयोग प्रबंधन करता है। वह कहता है कि मजदूरों को ट्रेड यूनियन उकसाती है। न्यायालय का यह बयान सीधे-सीधे पूंजीपतियों की भाषा है। 
    आज कम्बोडिया का मजदूर वर्ग भी उसी रास्ते पर खड़ा है जहां विश्व का अन्य मजदूर वर्ग। जहां बिना संघर्ष के वह अपनी स्थिति को बदतर होने से नहीं रोक सकता। आज वह जहां खड़ा है उससे आगे केवल उसके वर्गीय संघर्ष ही उसे आगे ले जा सकते हैं अन्यथा वह नारकीय जीवन परिस्थितियों में जीने को मजबूर होगा। 
एचएसबीसी बैंक करेगी 50,000 कर्मचारियों की छंटनी
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    ब्रिटिश बैंक एचएसबीसी (हांगकांग शंघाई बैंकिंग कारपोरेशन) ने एक बार फिर अपने दुनिया भर में फैली शाखाओें में से अगले एक-दो सालों के भीतर 50,000 कर्मचारियों की छंटनी की घोषणा की है। 2011 में जब से स्टअर्ट गुलीवर ने चीफ एक्जिक्यूटिव का पद संभाला है तबसे उन्होंने 2011 से 2014 के बीच 37,000 कर्मचारियों की छंटनी की है। लेकिन इस सबसे भी उनके मुनाफे की हवस पूरी नहीं हुयी है। और एक बार फिर वे 50,000 कर्मचारियों की छंटनी की अपनी योजना लेकर आये हैं। 
   एचएसबीसी 73 देशों में अपना कारोबार करती है। बैंक ने घोषणा की है कि 22,000 से 25,000 के बीच नौकरियां बैंक के निवेश कारोबार से हाथ खींचने तथा 25000 के आस-पास के बीच नौकरियां ब्राजील व तुर्की में अपना कारोबार बंद करने से कम होंगीं। स्टुअर्ट गुलीवर का कहना है कि दुनिया में बदलाव हो रहे हैं तथा हमें भी उनके साथ बदलने की आवश्यकता है। लेकिन वे यह नहीं बताते कि दुनिया में क्या बदलाव हो रहे हैं और उन्हें क्यों बदलने की आवश्यकता है?
    इन सवालों के जबाव ज्यादा कठिन नहीं हैं। इन छंटनी की घोषणा में हम उनको देख सकते हैं। बैंक ने घोषणा की है कि वह अपने निवेश कारोबार में मुनाफा कम होने के कारण इसको कम करेगी और ब्राजील और तुर्की में अपने कारोबार को बंद करेगी। और इससे उसको जो बचत होगी उसे वह एशिया खासकर चीन के गुआंगडांग प्रान्त के पर्ल रिवर डेल्टा जैसी जगहों में निवेश करेगी जहां उसको ज्यादा मुनाफा होने की संभावना है यानी छंटनियों के मूल में मुनाफा है। इस मुनाफे पर संकट के बादल तब से छाये हुए हैं जबसे दुनिया 2007 की मंदी में फंसी है। और अब जब मंदी के बादल छंटते हुए दिखायी नहीं दे रहे हैं तो वे कर्मचारियों की छंटनी कर मुनाफे को पहले के स्तर पर ही बनाये रखने और साथ ही और ज्यादा बढ़ाने पर लगे हुए है।
    कर्मचारियों की छंटनी होने के पीछे इन बैंकों की आपस की प्रतिद्वन्द्वता भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वर्कले, क्रेडिट सूसे, राॅयल बैंक आॅफ स्काटलैण्ड जैसी बैंकों ने भी अपने यहां कर्मचारियों की छंटनी की योजना बनायी है तब फिर बाजार में टिकने के लिए एचएसबीसी भी अपने कर्मचारियों की छंटनी करेगी ही। यही पूंजी का चरित्र है कि लगातार बड़ी और बड़ी होने के लिए मेहनतकश आबादी के खून से अपनी खुराक लेती है और उनको चूसकर बाहर फेंक देती है। बड़े-बड़े हाथी लड़ते हैं और खरगोश मरते हैं। 
    इन छंटनियों के माध्यम से एचएसबीसी अगले दो सालों में प्रति वर्ष 5 अरब डाॅलर के हिसाब से बचत करेगी। बैंक का कहना है कि उसने अभी 11 अरब डाॅलर जुर्माने के बतौर भरे हैं। इनमें मनी लाड्रिंग समेत कई केस शामिल हैं। इससे बैंक की छवि खराब होने से उसके शेयर गिरे है। उसे अपने निवेशकों का भी ध्यान रखना है और उन्हें सुनिश्चित करना है कि उनको अपने निवेश का पूरा लाभ मिले। और इसलिए वह अपने बचत को एशिया के देशों में लगाएगी जैसे कि पर्ल रिवर डेल्टा। पर्ल रिवर डेल्टा एक सघन आबादी वाला क्षेत्र है। 1978 के बाद से ही यह मैन्युफैक्चरिंग के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहां एचएसबीसी बीमा के कारोबार में अपना हाथ अजमायेगी जहां उसे ज्यादा मुनाफा होेने की संभावना है। 
    एचएसबीसी बैंक द्वारा की जा रही ये छंटनियां कोढ़ में खाज का काम करेंगी। बैंक का यह तर्क कि वे अपने कम मुनाफे वाले कारोबार बंद कर वहां निवेश करेगी जहां उसे ज्यादा मुनाफा मिलेगा। पूंजी का चरित्र है कि वह पूरी दुनिया में मुनाफा बटोरने के लिए चक्कर लगाती है। दुनिया भर के मजदूर- मेहनतकशों को लूटती है। और मुनाफा कमाने के बाद उनको बेरोजगार छोड़ देती है। आज जब दुनिया में आर्थिक संकट बढ़ रहा है तब वह एक रिजर्व आर्मी को पैदा कर रही है। यह रिजर्व आर्मी अपनी बारी में पूंजीवादी व्यवस्था के लिए भी संकट पैदा करेगी।
अदम गोंडवी की दो कविताएं
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे

जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे।

ये वंदे-मातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठ कर
मगर बाजार में चीजों का दुगुना दाम कर देंगे

सदन में घूस दे कर बच गयी कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैंरों में बिवाई हैं

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैंरों में बिवाई हैं
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई हैं

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकायी है

पेरू: खान मजदूरों की हड़ताल जारी
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    पेरू के 20 खानों के हजारों खान मजदूर 19 मई से हड़ताल पर हैं। यह हड़ताल नेशनल माइनिंग फेडरेशन के नेतृत्व में हो रही है जिसके 20,000 सदस्य हैं। नेशनल माइनिंग फेडरेशन अध्यक्ष रिकार्डो जुआरेज का कहना है कि यह हड़ताल सरकार द्वारा पिछले साल पास किये गये एक बिल के विरोध में हो रही है। इस बिल के अनुसार खान मालिकों को मजदूरों की छंटनी करने का अधिकार हासिल हो गया है तथा साथ ही ज्यादा से ज्यादा ठेका मजदूरों से काम करवाने का भी। 
    इस हड़ताल के दौरान 20 मई को जब पेरू की राजधानी लीमा में 100 के लगभग मजदूर मिनिस्ट्री आॅफ लेबर एण्ड एम्प्लाॅयमेण्ट प्रमोशन के सामने प्रदर्शन कर रहे थे तो पुलिस ने उन पर गोलियां चलायीं। साथ ही पुलिस ने 6 मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया। ये मजदूर ब्यूरेवेनचुरा की च्यूचाकुआ की चांदी की खान पर मजदूर थे ये लीमा के उत्तर में खाड़ी क्षेत्र में है। ये सभी मजदूर ठेके के थे और खानों में सुरक्षा व स्वास्थ्य और साफ हवा की मांग कर रहे थे। पुलिस ने उन पर सार्वजनिक रास्ते को बंद करने का आरोप लगाकर गोलियां चलायीं। 
    पेरू में खान उद्योग अर्थव्यवस्था में योगदान देने वाला एक प्रमुख क्षेत्र है। यह पेरू की अर्थव्यवस्था में 15 प्रतिशत तक योगदान करता है। और पिछले साल की अपेक्षा इस साल यह 4.7 प्रतिशत की वृद्धि से आगे बढ़ा है। यहां तांबा, टिन, चांदी व सोने की खानें हैं। तांबा, टिन व चांदी के मामले में यह तीसरा तो सोने के मामले में यह सातवां स्थान रखता है। जिन खानों में यह हड़ताल हो रही है उनमें एन्टामिना, बीएचपी विलिटन, ग्लेनकोर, मित्सुबिसी जैसी बड़ी बहुर्राष्ट्रीय कंपनियां भी हैं। 
    इस हड़ताल के बारे में नेशनल माइनिंग फेडरेशन के अध्यक्ष रिकार्डो का कहना है कि यह हड़ताल वेतन वृद्धि के लिए नहीं है। यह हड़ताल खान मजदूरों के उन अधिकारों के लिए जो छिन रहे हैं। पेरू में बनने वाले नये कानूनों के द्वारा कार्यस्थल पर निरीक्षण करने व मजदूरों के लाभों में कटौती की जा रही है। पिछले साल जुलाई में पेरू में स्वास्थ्य व सुरक्षा सम्बन्धी कानून पास किया गया। इस कानून के पास हो जाने के बाद घायल मजदूरों व उनके परिवारों का खान मालिकों पर दबाव कम हो जाता है कि वे इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहराये जायें। मजदूरों का कहना है कि छंटनी करने का अधिकार मिल जाने के बाद वे मजदूरों को छंटनी का पत्र थमा दे रहे हैं। और मजदूरों को आउटसोर्स करके काम करवा रहे हैं। फेडरेशन ने खान के कोर फंक्शन में काम कर रहे ठेके के मजदूरों को स्थायी कांट्रेक्ट में करने व सीधे रखे जाने वाले मजदूरों के समान वार्षिक लाभ का हिस्सा देने की बात की है। साथ ही स्थायी व ठेके के मजदूरों के बीच तनख्वाह में काफी अंतर है। स्थायी मजदूर को जहां 22 डालर प्रतिदिन मिलते हैं वहीं ठेका मजदूर को 16 डाॅलर प्रतिदिन मिलते हैं। और इसमें से भी एक तिहाई उनका खाने के भुगतान के रूप में काट लिये जाते हैं। 
    खान मजदूरों के हौंसले इस हड़ताल को लेकर बुलंद हैं। इसी साल के शुरूआत में जब सरकार ने 25 से कम उम्र वाले मजदूरों के लिए जब इस तरह का कानून पास किया जिसमें उनकी तनख्वाहें कम हो जातीं और लाभों में भी कटौती की तब छात्रों, मजदूरों व यूनियन के गठबंधन के जबर्दस्त दबाव में सरकार को इस कानून को वापस लेना पड़ा। मजदूरों ने साथ ही कोर्ट में भी इस मामले को डाल रखा है कि यह कानून असंवैधानिक है और पेरू की संवैधानिक कोर्ट ने इसे सुनवाई के लिए रखा हुआ है। सड़कों पर मजदूरों के संघर्ष तेज होने पर ही कोर्ट मजदूरों के पक्ष में फैसला दे सकता है। 
    मजदूरों के तात्कालिक राहत के लिए किये जाने वाले संघर्षों का आंशिक महत्व है। वास्तव में मजदूरों को उजरती गुलामी से तब ही मुक्ति मिल सकती है जब वे पूंजी की सत्ता को उखाड़ फेंकें। ऐसा करने के लिए उसे ऐसे संगठन व संघर्ष चाहिए जो क्रांति की भावना से ओतप्रोत हों। 
​तुर्की: आॅटो सेक्टर के हजारों मजदूर हड़ताल पर
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
    तुर्की में बर्सा के ओयाक शहर में फ्रांस की कार निर्माता कम्पनी रिनाॅल्ट व तुर्की के आर्मी पेंशन फण्ड के सहयोग से चलने वाली फैक्टरी के 5 हजार से ज्यादा मजदूर 14 मई से हड़ताल पर हैं तथा इनके समर्थन में कई और प्लाण्टों के मजदूर भी हड़ताल पर आ गये हैं। इससे हड़ताली मजदूरों की संख्या बढ़कर 15 हजार के ऊपर हो गयी है। इस हड़ताल ने तुर्की में आॅटो सेक्टर के मजदूरों में व्याप्त तीव्र असंतोष को उजागर कर दिया है। 
    तुर्की के ओयाक में फ्रांस की रिनाॅल्ट कम्पनी कारों का उत्पादन करती है। इसमें तुर्की के आर्मी पेंशन फण्ड की भी हिस्सेदारी है। इस कम्पनी के मजदूर पिछले 1 महीने से फैक्टरी के बड़े अधिकारियों से मिलकर बात करना चाहते थे लेकिन उनकी बात को सुनने के लिए फैक्टरी का बड़ा अधिकारी नहीं आया। इन मजदूरों की मांग मुख्यतः वेतन बढ़ाने को लेकर है। इनका कहना है बाॅस्क कम्पनी के मजदूरों का दिसम्बर 2014 में जो समझौता हुआ है उसमें उनकी तनख्वाहें 60 प्रतिशत तक बढ़ायी गयी हैं। उसी आधार पर ये मजदूर अपनी तनख्वाहें बढ़वाना चाहते हैं। उनका आक्रोश फैक्टरी के मैनेजमेण्ट के साथ-साथ अपनी ट्रेड यूनियन नेतृत्व से भी है। इस फैक्टरी में मेटल वर्कर्स ट्रेड यूनियन आॅफ तुर्की का प्रतिनिधित्व है। और यही यूनियन वाॅस्क कम्पनी के मजदूरों का भी प्रतिनिधित्व करती है। मजदूरों का आक्रोश है कि यह यूनियन प्रबंधकों से मिली हुयी है और इसी कारण इस हड़ताल के दौरान हजारों मजदूरों ने इसकी सदस्यता छोड़ी दी है। वे अपनी फैक्टरी में इस यूनियन को नहीं देखना चाहते हैं। 
    जब रिनाॅल्ट की इस फैक्टरी में हड़ताल हुयी तो तोफास कम्पनी के मजदूर भी उनके समर्थन में हड़ताल पर आ गये। तोफास कम्पनी में फियेद व स्थानीय कोक कम्पनी का संयुक्त उपक्रम है। 2014 में तुर्किश एक्सपोर्ट असेम्बली ने जब 1000 निर्यातकों की सूची जारी की तो उसमें ओयक की रिनाॅल्ट कम्पनी तीसरे व तोफास का सातवां स्थान था। ये दोनों कम्पनी मिलकर तुर्की में कुल कारों के उत्पादन का 40 प्रतिशत उत्पादन करती हैं। इनके उत्पादन का 80 प्रतिशत निर्यात के लिए ही उत्पादन होता है। 
    तोफास के अलावा माको, कोस्कुनोज, डेल्फी और आॅटोट्रिम के भी हजारों मजदूर इस हड़ताल के समर्थन में उतर आये हैं। मोका कम्पनी के मजदूरों का कहना है कि उनकी तीन मांगें हैं। पहली मजदूरों का वेतन बोस्क कम्पनी में 2014 में किये गये समझौते में मजदूरों के बराबर किया जाये। दूसरी हड़ताल में शामिल मजदूरों को नौकरी से न निकाला जाये। और तीसरा यह कि फैक्टरी में मेटल वर्कर्स ट्रेड यूनियन आॅफ टर्की की उपस्थिति न रहे। 
    इस हड़ताल में कार निर्माता फैक्टरियों के मजदूरों के अलावा अंकारा की ट्रैक्टर बनाने वाली फैक्टरी तुर्क ट्रैक्टर के मजदूर भी जुड़ गये हैं तथा उनका कहना है कि जब तक उनकी मांगें नहीं मानी जाती है वे हड़ताल पर रहेंगे। 
    इस हड़ताल ने आॅटो सेक्टर के मजदूरों के बीच पनप रहे असंतोष को दिखाया है तो साथ ही स्थानीय ट्रेड यूनियन के खिलाफ उनके असंतोष को दिखाया है। हड़ताल के दौरान ही हजारों मजदूरों का ट्रेड यूनियन की सदस्यता छोड़ना दिखाता है कि ट्रेड यूनियनें किस कदर प्रबंधकों के पक्ष में काम कर रही हैं। जब यह हड़ताल हुयी तो मेटल वर्कर्स ट्रेड यूनियन आॅफ टर्की के नेतृत्व ने मजदूरों से काम पर वापस लौटने को कहा और साथ ही अप्रत्यक्ष तरीके से प्रबंधकों की भाषा में धमकी दी कि प्रबंधकों को अब मजदूरों को बिना क्षतिपूर्ति दिये ही छंटनी का अधिकार है। यह प्रबंधक की ही भाषा थी। यह मजदूरों को धमकाना था कि यदि वे काम पर नहीं लौटे तो उन्हें नौकरी से बर्खास्त भी किया जा सकता है। 
    शायद ट्रेड यूनियन नेतृत्व यह भूल गया है कि  मजदूरों ने उस समय भी संघर्ष किये जब उन्हें कोई कानूनी अधिकार हासिल नहीं थे। यह मजदूर वर्ग का संघर्ष ही था जिसने पूंजीपतियों को इस बात के लिए मजबूर किया कि वह मजदूरों को सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार दे। कार्यस्थल पर मजदूरों की पूर्ण सुरक्षा की व्यवस्था करे। आज परिस्थितियां चूंकि पूंजी के पक्ष में हैं इसलिए वह मजदूरों से उन अधिकारों को छीनता जा रहा है जो मजदूरों ने संघर्ष करके हासिल किये थे। और ऐसा करके वह मजदूरों की उस आबादी को जन्म दे रहा है जो अधिकार विहीन होंगे और इसी कारण लड़ाकू भी। जिनके पास खोने के लिए कुछ नहीं होगा। ट्रेड यूनियन बनाने के कानून के द्वारा वह मजदूरों के संघर्ष को एक दायरे में बांधने में सफल हो जाता है लेकिन इसके उलट मजदूरों के अब जो संगठन बनेंगे वे उसके दायरे से बाहर होंगे। 
    निश्चित रूप से तुर्की के आॅटो सेक्टर के मजदूरों को यह संघर्ष एक नयी जमीन पर खड़ा हो रहा है। और इस नयी जमीन से उठने वाले मजदूर संघर्ष को क्रांतिकारी चेतना और संगठनों की जरूरत है।  
हर पहाड़ी का दिल रोता है-  रेवती कुमार
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
छूट गया गांव 
छूट गया पहाड़
छूट गया हिमालय
छूट गया जंगल।
    मेरी प्यारी नदियां
    बहती हैं अभी भी अविरल
    तुम्हारे लिए मैं रोता हूं
    आंसू बहते हैं अविकल
कनाट प्लेस में खड़ा हूं
या अंधेरी ईस्ट में रहता हूं
काम करता हूं अनथक
दौड़ता ही रहता हूं इधर-उधर
    सब कुछ के बीच हूक उठती है
    पहाड़ों की याद आती है
    खुश्बू उठती है दिल में कहीं
    आंसू बहते हैं झर-झर
    मैं रोता हूं
    जानता हूं
    हर पहाड़ी का दिल रोता है।
पलायन का दंश
विस्थापन की पीड़ा
जीवन की मजबूरी
काम की तलाश
न जाने क्या-क्या लादे फिरता हूं
झटक सकता नहीं, भाग सकता नहीं
सस्ते गीतों को सुनकर मन खिन्न रहता है
हर पहाड़ी का दिल रोता है।
    बचपन की यादें
    बर्फ की फाहें
    पाले की ठिठुरन
    धूप का आगमन
    छतों पर बैठा होमवर्क करता हूं
    बच्चों की किलकारियां
    औरतों की गप्पे
    सबकी याद कर दिल हुलस जाता है
    आंखें बारम्बार भर आती हैं
    कौन किसे क्या कहे
    अपने ही आंसू पोंछता रहता है
    हर पहाडी का दिल रोता है।
एक किसान जब मजदूर बनता है
क्या-क्या उससे छिनता है
कोई समझ नहीं पाता है
कुछ कह नहीं पाता है
कथा कहीं मिलती नहीं
व्यथा छुपाये छुपती नहीं
भाषा छूटी, बोली छूटी
मन की हर कडियां टूटी
परायापन भरता जाता है
न यहां न वहां का रह पाता है
अतीत बार बार याद आता है
भविष्य संवर नहीं पाता है
कोई किसे क्या कहे
कोई किसे क्या समझाये
हर दिल में छुपी पीड़ा है 
हर कहीं गम का कीड़ा है
मन मुरझाया रहता है
हर पहाड़ी का दिल रोता है 
    रोना-धोना छोड़ना होगा
    मन को समझाना होगा
    राह पकड़े नयी कोई
    साथ पकड़े नया कोई
वक्त को समझे बात को समझे
समाज के नाजुक हालात को समझे
दोस्त को समझे दुश्मन को समझे
हार को समझे जीत को समझे
    छोड़ना होगा हाय! हाय
    करना होगा हाय! हाय!
    आयें समझे बात को समझें
    इन्कलाब की राह को समझें। 
(साभारः ‘उठते कदम’ कविता संग्रह से )
मई दिवस, मजदूर वर्ग और पूंजीपति वर्ग तथा उसकी सरकारें
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
    मई दिवस, मजदूर वर्ग का एक ऐसा त्यौहार है जो पूरे विश्व में मनाया जाता है। यह मजदूरों की व्यापक एकता का प्रतीक है। 1 मई 1889 से शुरू होकर आज तक यह दुनिया में हर साल मनाया जाता है। मई दिवस की विरासत को याद करते हुए इस साल जब यह दिन मनाया गया तो कई देशों में पूंजीपति वर्ग व उसकी सरकारें इन प्रदर्शनों से घबड़ा गयीं। उसे फिर से मजदूर वर्ग के संघर्षों के क्रांतिकारी तेवरों की आंच की तपिश महसूस होने लगी। और इसलिए उसने जगह-जगह इन प्रदर्शनों में व्यवधान डालने की कोशिश की और कहीं-कहीं तो उसने प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया तथा पुलिस से उनको पिटवाया भी। 
    तुर्की में पुलिस ने मजदूरों पर आंसू गैस के गोले छोड़े, रबर की गोलियां चलायीं और मजदूरों को प्रदर्शन करने के लिए तकसीम चौराहे पर इकट्ठा नहीं होने दिया। जबकि मानवाधिकार के यूरोपियन कोर्ट 2012 में मजदूरों को मई दिवस पर तकसीम चौराहे पर इकट्ठा होने का आदेश दे चुकी है। तकसीम चौराहे पर इकट्ठा होने की कोशिश कर रहे प्रदर्शनकारियों में से पुलिस ने 250 लोगों को गिरफ्तार कर लिया। कई मजदूर इस प्रदर्शन में घायल हो गये। तकसीम चौराहा मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक है। सरकार की कोशिश है कि मजदूरों के संघर्षों के प्रतीक जहां से वे ऊर्जा ग्रहण करते हैं उनको मजदूरों के जीवन से निकाल दिया जाए।
    स्वाजीलैण्ड में सरकार ने केवल मान्यता प्राप्त यूनियनों को ही मई दिवस मनाने की आज्ञा दी। इस तरह मजदूर वर्ग के एक व्यापक हिस्से को मई दिवस में शामिल होने से रोकने का प्रयास किया। उन्होंने मजदूर संगठन TUCOSWA को मई दिवस में भागीदारी करने से प्रतिबंधित ही कर दिया। बावजूद इसके TUCOSWA ने मई दिवस की रैलियों में हिस्सा लिया। 
    बहरीन में आंतरिक मंत्रालय ने जनरल फेडरेशन आॅफ बहरीन ट्रेड यूनियन्स (GEBTU) को मई दिवस की रैली निकालने से मना कर दिया जबकि पहले के वर्षों में ये रैलियां शांतिपूर्ण तरीके से निकलती रही हैं। लेकिन सुरक्षा के हवाले देकर ऐसा करने से मना कर दिया गया। जबकि तथ्य यह हैं कि बहरीन में 2011 के विद्रोह के बाद स्वतंत्र ट्रेड यूनियनों को कुचलकर सरकारी फेडरेशनों को खड़ा किया गया है ताकि जनरल फेडरेशन आॅफ बहरीन ट्रेड यूनियन्स के मनोबल को कमजोर किया जा सके। 
    ईरान में मई दिवस से पहले ही 29 अप्रैल को कई मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। 28 अप्रैल को वर्कर्स डिफेन्स कमेटी के प्रवक्ता ओस्मान इस्माली को महाबाद में गिरफ्तार कर लिया गया। 29 अप्रैल को भी सनानदाज में काॅआर्डिनेटिंग कमेटी के सदस्य पेडराम नसरोल्लादी को सादा कपड़ों में खुफिया विभाग के लोगों ने उनके दोस्त के घर छापा मारकर पकड़ लिया जब वे अपनी पत्नी के साथ अपने दोस्त से मिलने गये। 30 अप्रैल को फ्री यूनियन आॅफ इरानियन वर्कर्स के शेयस ममानी को खुफिया मंत्रालय में बुलाकर पांच घंटे तक पूछताछ की गयी और उनसे मई दिवस मनाने के प्रयासों को बंद करने को कहा गया। 
    मलेशिया में दो दर्जन से ज्यादा लोगों को मई दिवस प्रदर्शनों के दौरान गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया गया। इनमें मानवाधिकार कार्यकर्ता व वकील एम्बिगा श्रीनिवासन भी थीं। यहां संगठित होने के अधिकार पर हमला किया जा रहा है और सरकार व पूंजीपति वर्ग मजदूरों की ताकत को सीमित कर देना चाहते हैं। 
    इटली के मिलान शहर में चल रहे एक्सपो 2015 में शामिल होने के बजाय 30,000 प्रदर्शनकारियों ने प्रदर्शन किया और कई जगह ये प्रदर्शन हिंसक हो गये तथा प्रदर्शनकारियों व पुलिस की मुठभेड़ें हुयीं। 
    साउथ कोरिया की राजधानी सियोल में सैकड़ों हजारों प्रदर्शनकारियों ने प्रदर्शन किये। तथा सरकार द्वारा मजदूरों के विरोध में बनायी जा रही नीतियों को न बदलने पर आम हड़ताल की भी धमकी दी।
    कनाडा के क्यूबेक शहर में मई दिवस पर प्रदर्शनकारियों ने क्यूबेक सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध किया। तथा एक इमारत आॅल्ड मान्ट्रियल जिसमें कई वित्तीय व व्यापारिक संस्थान हैं को प्रदर्शनकारियों ने घेर लिया। यहां पर पुलिस ने काफी नाकेबंदी कर रखी थी। प्रदर्शनकारियों ने मई दिवस पर यहां एक बड़ी रैली आयोजित कर सरकार की कटौती कार्यक्रम की नीतियों का विरोध किया। 
    अमेरिका के सिएटल में प्रदर्शनकारियों व पुलिस की तीखी झड़पें हुयीं। 
    इसी तरह दुनिया के अन्य मुल्कों ग्रीस, बांग्लादेश, कम्बोडिया, वर्मा आदि तमाम देशों में मई दिवस पर मजदूरों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की। तथा सरकार की मजदूर विरोधी नीतियों का विरोध किया। यह प्रदर्शन मुख्यतः वेतन बढ़ाने तथा पूंजीपति वर्ग के पक्ष में मजदूर वर्ग पर लादे जा रहे कटौती कार्यक्रमों के विरोध में थे। मई दिवस पर विश्व व्यापी मजदूरों के ये तेवर पूंजीवादी व्यवस्था के लिए कोई शुभ संकेत नहीं हैं। और इसलिए वह इन प्रदर्शनों को रोक देना चाहती है। लेकिन वह इन प्रदर्शनों को जितनी ज्यादा ताकत से रोकेगी यह प्रतिरोध उतने ही तीव्र होते जायेंगे तथा पूंजीवादी व्यवस्था के ताबूत में आखिरी कील ठोकेंगे।
जोशो खरोश से मनाया गया मई दिवस
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
   पंतनगर में मई दिवस पर मजदूरों की सभा
 मई दिवस के मौके पर इन्कलाबी मजदूर केन्द्र व ठेका मजदूर कल्याण समिति के तत्वाधान में गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, पन्तनगर के टा कालौनी मैदान में आयोजित सभा में मजदूर वर्ग द्वारा अतीत में अपने अधिकारों के लिए लड़े गये गौरवशाली संघर्षों की विरासत को याद करते हुए संघर्षों में शहीद हो चुके मजदूर वर्ग के अनेकों मजदूर नेताओं, योद्धाओं को क्रांतिकारी लाल सलाम पेश किया गया। 
    वक्ताओं ने कहा कि मई दिवस का संघर्ष पूंजीपति वर्ग व उसके सरकारों के उत्पीड़न, दमन व शोषण के खिलाफ मजदूर वर्ग का संघर्ष काम के घण्टे कम करने, आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम व आठ घण्टे मनोरंजन को लेकर शुरू हुआ तो पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने वर्ग चरित्र मुनाफे की हवस ने अमेरिकी पूंजीपति वर्ग व उनकी सरकारों द्वारा अन्य देशों की सरकारों की तरह मई, 1886 में इसका जबाब लाठी गोली से दिया। शिकागो में मजदूरों की सभा पर पूंजीपति वर्ग द्वारा गोली काण्ड घटना में नेतृत्वकारी मजदूर साथियों की गिरफ्तारी व फांसी ने यूरोप सहित पूरी दुनिया के पैमाने पर ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ जुझारू संघर्ष के रूप में व्यापक बना दिया।  समाजवादी विचारधारा के संघर्ष के दम पर मजदूर वर्ग ने पूंजीपति वर्ग व उसकी सरकारों से कुछ राहत भरे कल्याणकारी नियम श्रम कानून बनवाये। आठ घण्टे कार्य दिवस सहित नौकरी की सुरक्षा, न्यूनतम वेतन, शिक्षा, चिकित्सा सुविधा जैसे कानूनों को हासिल करते हुए पूंजीपति वर्ग का तख्ता पलट कर 13 देशों में मजदूर वर्ग ने अपना राज समाजवाद कायम कर पूरी मानवता की मुक्ति का सपना साकार किया। परन्तु आज साम्राज्यवादियों, पूंजीपतियों की साजिशन ये किले कायम नही रह सके। आज कहीं भी मजदूर राज समाजवाद नही है। पूरी दुनिया में समाजवादी राज की अनुपस्थिति के कारण शासक पूंजीपति वर्ग का मजदूर वर्ग पर चौतरफा हमला बढ़ा है। जनवादी आन्दोलनों का दमन कर लाठी गोली के दम पर मेहनतकशों की आवाज को दबाया जा रहा है। सत्ता की सारी मशीनरी पूंजीपतिवर्ग के पक्ष में खड़ी है।  
    वक्ताओं ने कहा कि आज पूंजीपरस्त फासिस्ट भाजपा मोदी सरकार सत्ता में है। सरकार द्वारा विकास के नाम पर देशी-विदेशी पूंजीपतियों के मुनाफे की गारन्टी ली जा रही है। वहीं श्रम सुधारों के नाम पर मजदूर वर्ग द्वारा अतीत में अपने संघर्षों के दम पर हासिल किये कुछ राहतकारी श्रम नियमों में संशोधन कर मजदूरों के अधिकारों में कटौती की जा रही है। हर जगह ठेका प्रथा को बढ़ावा, मान्यता मजदूरों को निकालने (छंटनी) की छूट, कारखाना अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम में संशोधन, श्रम विभाग द्वारा चेक करने का इन्सपेक्टर राज का खात्मा, लघु उद्योगों को श्रम नियमों से मुक्त कर, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मजदूरों की मजदूरी में कटौती कर रही है। आज भयंकर महंगाई के दौर में मजदूर मेहनतकश शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा से महरूम हो रहे हैं। दोहरे शोषण की मार घर के कार्यस्थल तक हर जगह असुरक्षित महिलाओं का यौन उत्पीड़न, शोषण, बलात्कार, हत्यायें रुकने के बजाय लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। सरकार पूंजीपतियों के मुनाफे के खातिर महिलाओं से रात की पाली में काम कराने की छूट देकर महिलाओं को शोषण, उत्पीड़न की नारकीय स्थिति में ढकेल रही है। ऐसी हालात से निजात हम मजदूर वर्ग की संगठित एकता और संघर्षों के दम पर ही पा सकते हैं। 
    मजदूर मेहनतकशों को मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी राजनीति के जरिए क्रांतिकारी झण्डे के नीचे संगठित करने, संघर्षों द्वारा अधिकारों को हासिल करने, मजदूर वर्ग की विचारधारा के आधार पर पूरी मानवता की मुक्ति का लक्ष्य एक शोषणविहीन वर्गविहीन मजदूर राज समाजवाद कायम करने के संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया। सभा पूर्व मजदूरों की व्यापक भागीदारी हेतु संगठनों द्वारा जारी पर्चा ‘मई दिवस पर उठे आवाज खत्म करो पूंजी का राज’ शीर्षक से एक हजार पर्चा परिसर की मजदूर बस्तियों में घर-घर बांटा गया। सभा में रमेश, विकास, त्रिलोकी शंकर मिश्रा, दुर्जन प्रसाद, राजेश, दीपक, राजकुमार, श्रवण कुमार, अभिलाख सिंह, राशिद, पनेरू, मदन भारती, पारस, विश्वकर्मा, नसीम अहमद, नन्दलाल आदि लोगों ने शिरकत की। सभा का संचालन मनोज ने किया व सभा की अध्यक्षता गोरख सिंह ने की।         पन्तनगर संवाददाता
रामनगर में मनाया गया मई दिवस 

    1 मई को मजदूरों के विश्वव्यापी प्रदर्शनों की श्रृंखला में उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले के रामनगर कस्बे में मई दिवस मनाया गया। मई दिवस के दिन सांय 4 बजे रामनगर के संघ भवन कार्यालय पर लोग एकत्र हुए और शहर के मुख्य मार्ग तथा बाजार से जुलूस निकालते हुए पुराने रोडवेज बस स्टैण्ड पर पहुंचे। जहां एक सभा की गयी। 
    इससे पहले मई दिवस आयोजन समिति के तहत एक तैयारी बैठक की गयी। इस बैठक में पर्वतीय कर्मचारी शिक्षक संगठन उत्तराखण्ड, पछास, इमके, उ.वन निगम स्केलर संघ, आदि के पदाधिकारी व कार्यकर्ता मौजूद थे। इमके के कार्यकर्ताओं ने डेल्टा फैक्टरी के इर्द-गिर्द मई दिवस से सम्बन्धित नारों का दीवार लेखन किया और डेल्टा फैक्टरी के श्रमिकों के बीच पर्चे बांटे।
    सभा का संचालन शिक्षक संगठन के नवेन्दु मठपाल ने किया। सभा की शुरूवात क्रांतिकारी गीत से की गयी। पछास के महासचिव कमलेश ने मई दिवस के बारे में बात रखते हुए बताया कि किस तरह मजदूरों ने संघर्ष करके 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार हासिल किया और दुनिया में छाई मंदी ने मजदूरों के सामने फिर वही हालात पैदा कर दिये हैं। भारत में भी पूंजीपति वर्ग के सहयोग से प्रधानमंत्री बने मोदी ने मजदूरों के सामने कठिन हालात पैदा कर दिये हैं। मोदी ने अपने 1 साल के कार्यकाल के दौरान ढेर सारे श्रम कानूनों में सुधार किये हैं तथा अच्छे दिनों का सपना दिखाकर मजदूर-मेहनतकशों के लिए बुरे दिनों की शुरूआत की है। इसके साथ ही उन्होंने नेपाल में आये भूकम्प में मारे गये मेहनतकशों के प्रति एकजुटता व्यक्त कर दो मिनट का मौन रखने का प्रस्ताव दिया और साथ ही रामनगर के ही वीरपुर लच्छी गांव में चल रहे बुक्सा जनजाति के किसानों के संघर्षों में एकजुटता का आहवान किया। 
    सभा में इमके से पंकज, पर्वतीय कर्मचारी शिक्षक संगठन से त्रिलोक सिंह गहतोड़ी, नन्द राम आर्य, स्केलर संघ के महामंत्री जमन राम, चन्द्रबल्लभ छिम्बाल आदि ने बात रखते हुए मजदूरों को एकजुट करने का आहवान किया। अंत में नेपाल में मारे गये लोगों को दो मिनट मौन रखकर श्रद्धांजलि दी गयी।                       रामनगर संवाददाता
बीज
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
 बीज 
‘... ..... ....’
ठीक है।
काटी जा सकती है जुबान
पर उसे बंद करना
किसके बस का रोग है?
‘... .... .....’
ठीक है!
किया जा सकता है लफ्जों को जब्त
पर मन में छुपी आग को
कैसे चुराओगे?
‘... ..... .....’
ठहरो! 
मुझे हथकड़ी पहनाने से पहले
संविधान की उस धारा को बदलना होगा
जिसमें सच बोलने की छूट दी गयी है

‘.... .... .....’
जानता हूं!
हो सकता है मेरा कत्ल
पर मैं इस तरह
खत्म कभी हो नहीं सकता
‘.... ..... ......’
याद रखना!
टहनियां काटी जा सकती हैं
पर बीज कोई 
नष्ट कर नहीं सकता!
                  -सी. मारकंडा

दक्षिण कोरियाः श्रम कानूनों में सुधार को लेकर लाखों मजदूर हड़ताल पर
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    दक्षिण कोरिया में 24 अप्रैल को 2 लाख से ज्यादा मजदूर हड़ताल पर रहे। यह हड़ताल सरकार के लिए एक चेतावनी थी कि वह अपनी नीतियों से बाज आये जो मजदूर वर्ग की परिस्थितियों को खराब कर रही हैं। यह हड़ताल अभी हाल में सरकार द्वारा पेंशन लाभों में कटौती व मजदूरों की छंटनी को आसान करने की प्रक्रिया के खिलाफ तथा वेतन वृद्धि के लिए की थी। इस हड़ताल में सरकारी कर्मचारी, अध्यापक व धातु तथा निर्माण मजदूर शामिल हुए। यह हड़ताल दक्षिण कोरिया की दो सबसे बड़ी ट्रेड यूनियनों में से एक कोरिया कनफेडरेशन आॅफ ट्रेड यूनियन के नेतृत्व में हुई। 
    पूरी दुनिया में 2007 से जो मंदी छायी हुयी है वह आज पूरी दुनिया के मजदूरों के अधिकारों पर कुठाराघात कर रही है। इस प्रक्रिया को पूंजीपति वर्ग की सरकारों द्वारा श्रम सुधारों का नाम दिया जा रहा है। दक्षिण कोरिया की सरकार द्वारा भी पूंजीपति वर्ग की सेवा करने के लिए मजदूरों की छंटनी प्रक्रिया को पूंजीपति वर्ग के पक्ष में किया जा रहा है। इसके अलावा उनको अब तक जो पेंशन लाभ मिलता रहा है उसको खत्म करके सार्वजनिक पेंशन को निजी पेंशन में बदला जा रहा है। यानी रिटायरमेंट के बाद अगर व्यक्ति को पेंशन लेनी है तो उसको अपनी तनख्वाह में से ही कटौती करवानी होगी। सरकार द्वारा ऐसा करने के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि इससे सभी मजदूरों/कर्मचारियों को समान पेंशन मिलेगी। इसका मतलब तथाकथित रूप से यह है कि वह निचली आय के लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठाने के बदले थोड़ा बेहतर जीवन बिताने वालों का जीवन स्तर नीचे गिरा रही है। 
    इसके साथ ही इस हड़ताल में मजदूरों/कर्मचारियों की मांग वेतन वृद्धि को लेकर भी है। वे प्रति घंटा 9.25 डाॅलर वेतन की मांग कर रहे हैं। अभी उनको इसका आधा ही मिलता है। आज वेतन को दुगुना करने की मांग एशिया के ज्यादातर देशों के मजदूर आंदोलन की मांग बन चुकी है। 
    दक्षिण कोरिया की इस हड़ताल में इस बार अध्यापकों ने भी बड़ी मात्रा में भाग लिया है। कानूनन अध्यापकों को सामूहिक रूप से कोई कार्यवाही करने का अधिकार नहीं है। परन्तु इस बार अध्यापकों ने इस कानून की परवाह न करते हुए हड़ताल में भाग लिया है। ऐसा 9 सालों बाद हुआ है। इस हड़ताल के दो दिन पहले ही सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी हाॅस्पीटल के मजदूरों ने हड़ताल की। सरकार ने यहां कर्मचारियों को उनकी परफोरमेंस के आधार पर वेतन देने की बात की थी। 
    दक्षिण कोरिया एक ऐसा देश है जिसकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने देश सहित दुनिया के कई देशों के मजदूरों को लूटती हैं। आज जब पूरी दुनिया के अंदर मंदी छायी हुयी है तो उनका मुनाफा कम हो रहा है। और अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए वे मजदूरों की छंटनी करने, उनके सामाजिक लाभों में कटौती करने आदि की छूट चाहते हैं। इसी वजह से वहां पिछले सालों में मजदूर संघर्षों में तेजी आयी है। ये संघर्ष पूंजीवादी व्यवस्था के पक्ष में हल होते हैं या फिर उसकी सीमाओं को तोड़ते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनका नेतृत्व क्रांतिकारी है या नहीं। 
फ्रांस में सामाजिक कटौती कार्यक्रम के खिलाफ लाखों लोगों ने किया प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    फ्रांस में 9 अप्रैल को लाखों लोगों ने राष्ट्रपति होलेन्दे द्वारा सामाजिक सुरक्षा में कटौती के विरोध में सड़कों पर मार्च किया। फ्रांस के राष्ट्रपति होलेन्दे ने हाल ही में 2017 तक 50 अरब यूरो की बचत की घोषणा की है। बचत का साफ मतलब है कि 50 अरब यूरो की कटौती सामाजिक मदों के खर्चों में की जायेगी। फ्रांस में विभिन्न एअर लाइनों ने भी इसी समय हड़ताल कर होलेन्दे के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं।     
    फ्रांस की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन सी.एफ.डी.टी. ने इस प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लिया। उसका कहना है कि बचत के नाम पर सरकार द्वारा सामाजिक मदों में की जाने वाली कटौती यूरोप के बाकी देशों - स्पेन, आयरलैण्ड और ग्र्रीस से काफी कम है। यानी उसके इस कथन का तात्पर्य यह है कि जब बड़ी कटौती होगी तब वह प्रदर्शन में भागीदारी करेगी। यह उसके मजदूर विरोधी रवैये को ही दिखाती है। 
    ट्रेड यूनियन सीजीटी ने बताया कि पूरे फ्रांस में 3 लाख लोगों ने भाग लिया जिसमें अकेले पेरिस शहर में 1.2 लाख लोगों ने हिस्सा लिया। एफिल टावर को बंद कर दिया। इस प्रदर्शन में स्कूल के अध्यापक भी बड़ी मात्रा में शामिल हुए। साथ ही एअर लाइन (एअर फ्रांस, इजी जेट आदि) की हड़ताल के कारण 2000 फ्लाइट रद्द कर दी गयीं। गौरतलब है कि इसी समय भारत के प्रधानमंत्री मोदी फ्रांस की यात्रा पर थे। 
    फ्रांस यूरोपीय यूनियन का एक मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश माना जाता है। लेकिन यहां का राष्ट्रपति जब सामाजिक मदों में कटौती की घोषणा करता है और इस साल अर्थव्यवस्था में मात्र 1 प्रतिशत की वृद्धि दर की बात करता है तो उसकी पतली हालत की पोल खुल जाती है। जब दुनिया की बड़ी-बड़ी अर्थव्यवस्थायें मंदी की चपेट से उबर नहीं पा रही हैं तो वे इसका बोझ अन्य देशों के मजदूर वर्ग पर डालने के साथ-साथ अपने देश के मजदूर वर्ग पर भी डाल रहे हैं। 
    फ्रांस की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन की यह घोषणा कि यह कटौती कोई बड़ी नहीं है, वास्तव में खतरे को देखकर शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर दबा लेना है। फ्रांस के राष्ट्रपति पहले स्पेन, आयरलैण्ड व ग्रीस के शासक वर्ग पर सामाजिक मदों में कटौती कर मजदूर वर्ग की परिस्थितियों को बुरी करने में शामिल रहे हैं और अब वे अपने देश के मजदूर वर्ग को उसी दिशा में धकेलने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में फ्रांस के मजदूर वर्ग को 1871 में कायम किये गये मजदूर राज के सबकों से प्रेरणा लेकर संघर्ष को आगे बढ़ाने की जरूरत है। 
पन्द्रह डाॅलर के लिए संघर्ष
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
    भारतीय मध्यमवर्ग के लिए अगर कहीं स्वर्ग है तो अमेरिका में है। अमेरिका की एक काल्पनिक तस्वीर इस देश के मध्यमवर्ग के दिमागों में घर की हुई है। इस तस्वीर में अमेरिकी वैभव, अमेरिकी तकनीक और अमेरिकी खुशहाली की एक तरफा तस्वीर है। तस्वीर का दूसरा वे न तो जानते हैं और न ही वास्तविकता के करीब आकर वे अमेरिकी स्वर्ग के अपने मिथक को टूटते हुए देखना चाहते हैं।
    परन्तु पिछले लगभग तीन वर्षों से अमेरिकी मजदूर वर्ग का एक हिस्सा संघीय सरकार के विरुद्ध न्यूनतम मजदूरी की मांग को लेकर संघर्षरत है। इस समय अमेरिका में संघीय सरकार की ओर से न्यूनतम मजदूरी दर प्रति घंटे 7.25 अमेरिकी डाॅलर है। कम तनख्वाह पाने वाले श्रमिक इसे प्रति घंटे 15 अमेरिकी डाॅलर करने की संघीय सरकार से मांग कर रहे हैं। 15 अप्रैल 2015 को अमेरिका के लगभग 200 शहरों जैसे अटलांटा, बोस्टन, न्यूयार्क, लांस एंजेल्स आदि में मजदूर काम छोड़कर इन प्रदर्शनों में शामिल हुए। एक अनुमान के अनुसार इन मजदूरों की संख्या लगभग 60 हजार थी। इस हड़ताल को अमेरिकी इतिहास में कम मजदूरी वाले श्रमिकों की सबसे बड़ी हड़ताल मानी जा रही है। 
    ये हड़ताल व प्रदर्शन उन संघर्षों की श्रंखला की ताजा श्रेणी है जो नवम्बर 2012 में न्यूयार्क में ‘फास्ट फूड’ श्रमिकों ने शुरू किया था। दरअसल 2012 में 100 से अधिक ‘फास्ट फूड’ श्रमिक न्यूयार्क में अच्छे वेतन, बेहतर कार्यपरिस्थितियों और यूनियन बनाने के अधिकार के लिए हड़ताल पर चले गये। यह श्रमिक मैकडोनोल्ड, बर्गर किंग, वैन्डीस, डोमिनोस, पापा जोन्स, एवं पिज्जा हट में कार्य करते थे। इनमें से ज्यादातर वे लोग थे जो मालिकों की तनख्वाह चोरी (Wage Theft) के कारण न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी प्राप्त कर रहे थे। ‘अमेरिका मेें कानूनी और गैर कानूनी ढंग से रह रहे अप्रवासी मजदूरों की ‘तनख्वाह चोरी’ सामान्य है। ‘फास्ट फूड’ उद्योग के इतिहास की यह सबसे बड़ी हड़ताल थी। न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी के कारण बहुत से मजदूरों को अपनी दैनंदिन की जरूरतों जैसे- खाना, कपड़ा आदि के लिए एक से अधिक नौकरियां करनी पड़ती थीं। इनकी तनख्वाहें न्यूनतम मजदूरी से भी इतनी नीचे थी कि ‘मैसाच्युटेस इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाॅजी’ ने इसे जीवित रहने की तनख्वाहें (Living Wage) घोषित किया। 
    4 अप्रैल 2013 को मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या की वर्षगांठ पर 200 से अधिक ‘फास्ट फूड’ श्रमिक न्यूयार्क सिटी में हड़ताल पर चले गये। इसके बाद  मई तक अलग-अलग शहरों में ‘फास्ट फूड’ श्रमिकों के हड़ताल पर जाने का सिलसिला चलता रहा। जुलाई 2013 में लगभग 2200 मजदूर हड़ताल पर चले गये जिनमें पूर्ववर्ती शहरों के साथ-साथ कुछ नये शहरों के श्रमिक भी हड़ताल में शामिल हुए। दिसम्बर 2013 तक आते-आते ‘फास्ट फूड’ श्रमिकों की हड़ताल देशव्यापी हो गयी और जिसमें न्यूनतम मजदूरी 15 डालर प्रति घंटे की मांग की गयी। 
    इस संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब सितम्बर 2014 में राष्ट्रव्यापी हड़ताल लगभग 150 शहरों में हुई और इस संघर्ष में हजारों की तादाद में ‘होम केयर’ मजदूर शामिल हो गये। यह उन श्रमिकों को कहा जाता है जो घर में विभिन्न कार्यों को करने में साथ देते हैं। इन श्रमिकों के धरने आदि की कार्यवाहियों पर अमेरिकी पुलिस द्वारा इनके विरुद्ध गिरफ्तारी जैसे कदम उठाये गये। 
    दिसम्बर 2014 में 15 डालर प्रति घंटे व यूनियन प्रतिनिधित्व की मांग को लेकर लगभग 190 अमेरिकी शहरों में विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए हड़ताल पर चले गये। किन्तु इस बार हड़ताल पर अन्य क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिकों ने भी कंधे से कंधा मिला दिया। हालांकि इसकी शुरूआत सितम्बर की राष्ट्रव्यापी हड़ताल में ही हो गयी थी जब ‘होम केयर’ श्रमिक भी हड़ताल में शामिल हो गये थे परन्तु इस बार हड़ताल में और भी ज्यादा क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिकों ने हिस्सेदारी की थी। इसमें देखभाल कर्मी (Caregivers), हवाई अड्डोें पर कार्यरत श्रमिक, दाम मेें रियायत व सहूलियत केन्द्रों के मजदूर भी इस हड़ताल में शामिल हो गये थे। इस प्रकार ‘फास्ट फूड’ श्रमिकों द्वारा न्यूनतम मजदूरी व यूनियन प्रतिनिधित्व के लिए किया गया संघर्ष अब केवल उनका संघर्ष भर न रह गया था वरन् अब वह अमेरिका में कार्यरत उन सभी मजदूरों का संघर्ष बन गया था जिन्हें तनख्वाहें या तो न्यूनतम मजदूरी से भी कम मिल रही थी या फिर जिनके लिए जीवन निर्वाह के साधनों को जुटाना भी मुश्किल था। अब ये संघर्ष न्यूनतम मजदूरी को दोगुना करने व यूनियन प्रतिनिधित्व की मांग के साथ ज्यादा व्यापक व गहरा होता गया था। पिछले वर्ष अश्वेतों की हत्या के विरुद्ध होने वाले संघर्षों ने इस संघर्ष को और भी ज्यादा ताकत प्रदान की थी। 
    उपरोक्त संघर्ष जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया उसका स्वरूप और ज्यादा व्यापक होता गया। ताजा हड़ताल में ‘होम केयर असिस्टेंट’(घरेलू सहायक), वालमार्ट श्रमिक, चाइल्ड केयर ऐड, हवाई अड्डों पर कार्यरत श्रमिक, अनुलग्नक प्रोफेसर और अन्य कम वेतन पाने वाले श्रमिक शामिल हो गये। इतना ही नहीं इस संघर्ष की एक अन्य विशेषता यह भी थी कि इसे वैश्विक स्तर पर भी समर्थन व सहयोग मिला। ब्राजील, न्यूजीलैण्ड, ब्रिटेन, जापान आदि देशों में इस संघर्ष का साथ श्रमिकों ने दिया। इस संघर्ष का तात्कालिक परिणाम यह निकला है कि अमेरिका के बहुत से शहरों में एकाधिकारी कम्पनियों द्वारा स्थानीय स्तरों पर वेतनों में बढ़ोत्तरी की जाने लगी है। 
    जिस प्रकार इस संघर्ष को विश्व के अन्य देशों से समर्थन मिल रहा है वह काबिलेगौर है। ‘कम मजदूरी वाले मजदूरों की तीसरी दुनिया के देशों में भरमार है। इन देशों में ‘जीवित रहने की तनख्वाहों’ पर कार्य करने वाली श्रमिक आबादी अपवाद नहीं नियम है। अगर दुनिया भर के देशों के श्रमिक जिन्हें अपने देशों की सरकारों द्वारा तय न्यूनतम वेतनमान भी नहीं मिलता है, इस ‘15 डालर प्रति घंटे और यूनियन’ के संघर्ष में शामिल होते हैं तो दुनिया के शासक वर्ग को दबाव में लाया जा सकता है और उसे झुकाया भी जा सकता है। आज के दौर के संघर्षों के लिए इसी वैश्विक संघर्षों की जरूरत है विशेषकर उन क्षेत्रों में व उन कंपनियों के विरुद्ध जो कार्यों का वैश्विक स्वरूप रखते हैं। 
यही तो सवाल है       -नाजिम हिकमत
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
दुनिया की सारी दौलत से पूरी नहीं हो सकती उनकी हवस
चाहते हैं बनाना वे ढेर सारी रकम
उनके लिए दौलत के अम्बार लगाने के लिए
तुम्हें मारना होगा औरों को, 
खुद भी मरना होगा दम-ब-दम।

झांसा पट्टी में उनकी आना है?
या धता बताना है?
तुम्हारे सामने यही तो सवाल है!
झांसे में न आए तो जियोगे ता-कयामत
और अगर आ गए तो मरना हरहाल है।
मजदूर वर्ग के पास खोने के लिए कुछ नहीं, जीतने के लिए सारी दुनिया है
1 मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के अवसर पर
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    1 मई दुनिया भर के मजदूरों का एक ऐसा त्यौहार है जो मजदूरों को 1884 के अमेरिका के शिकागो शहर में शहीद हुए चार मजदूर योद्धाओं की याद दिलाता है। फिशर, स्पाइस, पार्सन्स, एजेंल्स नाम के ये मजदूर नेता 8 घंटे काम के दिन का झंडा उठाये हुए थे इनसे भयाक्रांत पूंजीपतियों की सरकार ने इन्हें तो फांसी पर लटका दिया पर वे मजदूरों की 8 घंटे के कार्य दिवस की मांग के आगे झुकने को मजबूर हो गये। 8 घंटे के कार्य दिवस को एक-एक कर दुनिया के तमाम देशों में लागू करवाने के कानून बनने लगे। 
    मई दिवस के शहीद न तो मजदूर वर्ग के पहले शहीद थे न आखिरी। मजदूरों के संघर्षों और साथ ही इन संघर्षों की शुरूआत काफी पहले तभी से शुरू हो गयी थी जब दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था अपने को स्थापित कर रही थी। पूंजीपति व मजदूर दो विरोधी ध्रुवों की तरह अस्तित्व में आये थे। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर था पर दोनों के हित एक दूसरे के विपरीत थे। पूंजीवाद के शुरूआती दिनों में मजदूर वर्ग ने वह वक्त भी झेला था। जब काम के दिन 16-18 घंटे तक के होते थे। जब मजदूरों को सूरज की रोशनी देखे हफ्तों बीत जाते थे। वे सूरज उगने से पहले फैक्टरी में घुसते थे और सूरज डूबने के काफी वक्त बाद काम से छुट्टी पाते थे। 
    इन्हीं बुरे हालातों में मजदूरों ने क्रमशः लड़ना सीखा। पूंजीपति के खिलाफ अपनी दुर्दशा को बदलने के लिए पहले मजदूर अकेले-अकेले लड़े। धीरे-धीरे उन्हें अहसास हुआ कि अकेले-अकेले मजदूर पूंजी की ताकत के आगे कुछ नहीं हैं। फिर उन्होंने एकजुट होकर लड़ना शुरू किया। उनकी इस एकजुटता से उन्हें कुछ सफलता भी मिली और इस तरह मजदूरों ने एकजुटता की ताकत का अहसास किया। उन्होंने शुरूआती यूनियनों की स्थापना की ओर कदम बढ़ाये। 
    मजदूर अभी लड़ना सीख ही रहे थे कि 19 वीं सदी की शुरूआती दशकों में उनका सामना एक नई विपत्ति से आ पड़ा। इन नई विपत्ति का नाम था मंदी। एक झटके से ढेरों मजदूर काम से निकाले जाने लगे, उत्पादन ठप्प पड़ने लगा। पूंजीपतियों का मुनाफा जरूर कम हुआ पर मंदी की मार सबसे अधिक मजदूर वर्ग ने झेली। कुछ वर्षों बाद फिर तेजी आ गयी। 
    तेजी से विकास कर रहे पूंजीवाद में पूंजी की बढ़ती ताकत के साथ मजदूर वर्ग की संख्या भी बढ़ रही थी। यूरोप के एक के बाद दूसरे शहरों में पूंजीवाद अपने पैर पसार रहा था। मजदूरों की बढ़ती तादाद ने क्रमशः उसे अपनी ताकत का अहसास कराया। 1840 के आस-आस मजदूर वर्ग एक वर्ग के बतौर इतिहास के रंगमंच पर दिखाई देने लगा। ब्रिटेन में चार्टिस्ट पार्टी के रूप में उसने अपनी पार्टी स्थापित कर पूंजीपतियों से श्रम दशा सुधारने, काम के घंटे कम करने सरीखी मांगे पेश करनी शुरू कर दीं। 
    1848 में जब पूरे यूरोप में क्रांति की लहर उठ रही थी तो इस लहर में मजदूर वर्ग बढ़-चढ़कर शिरकत कर रहा था। इसी दौरान मजदूर वर्ग के महान शिक्षक मार्क्स और एंगेल्स द्वारा मजदूर वर्ग की वैज्ञानिक विचारधारा सूत्रित की गयी। कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र के जरिये मजदूर वर्ग ने पूंजीपति वर्ग को अपने इंकलाबी मंसूबे जाहिर कर दिये। 
    महान शिक्षक मार्क्स व एंगेल्स ने मजदूर वर्ग को शिक्षित किया कि मजदूर वर्ग की श्रमशक्ति की लूट से ही पूंजीपति वर्ग मुनाफा कमाता है। कि जब तक मजदूर वर्ग की श्रमशक्ति की खरीद-बेच करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था कायम है तब तक मजदूर वर्ग के जीवन में खुशहाली नहीं आ सकती। साथ ही उन्होंने मजदूर वर्ग को इस ऐतिहासिक ध्येय से भी परिचित कराया कि मजदूर वर्ग आज का सबसे क्रांतिकारी वर्ग है और उसका लक्ष्य पूंजीवाद का नाश कर समाजवाद व फिर साम्यवाद की स्थापना करना है। 
    अपनी वैज्ञानिक विचारधारा मार्क्सवाद को अपनाने के जरिये मजदूर वर्ग के संघर्षों में तेजी आनी शुरू हुई। 1864 में लंदन में मजदूरों का प्रथम इंटरनेशनल कायम हुआ। 1871 में पेरिस के मजदूरों ने बहादुरी का परिचय देते हुए पूंजीपतियों को खदेड़ पहला मजदूर शासन पेरिस कम्यून के रूप में कायम किया, 71 दिन तक चले इस शासन को बाद में पूंजीपतियों ने कुचल दिया इस संघर्ष में एक लाख मजदूरोें ने कुर्बानी दी। 
    इस दौरान मार्क्सवाद को तमाम विजातीय विचारधाराओं से भी टकराना पड़ा। पर वैज्ञानिक विचारधारा मार्क्सवाद मजदूर वर्ग के भीतर की गलत विचारधाराओं को परास्त करने में सफल रही। 
    1884 के शिकागो में शहीदों ने मजदूर वर्ग को उनका त्यौहार अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में प्रदान किया। 
    1917 में रूस में अक्टूबर क्रांति के जरिये जब मजदूर वर्ग ने पूंजीपति वर्ग की सत्ता पलट दी तो इस क्रांति की धमक पूरी दुनिया में महसूस की गयी। दुनिया के सबसे बड़े देश पर अब मजदूरों का लाल झंडा लहरा रहा था। समाजवाद के निर्माण के जरिये मजदूरों के उठते जीवन स्तर से दुनियाभर के मजदूर अपने दिलों में रूसी क्रांति दोहराने का संकल्प ले रहे थे। 
    द्वितीय विश्व युद्ध का अंत होते-होते 13 देशों का समाजवादी खेमा अस्तित्व में आ चुका था। 1949 में चीन में हुई क्रांति ने दुनिया के एक तिहाई हिस्से पर मजदूरों का शासन कायम कर दिया। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के दिन अब गिने चुने लग रहे थे। पर सोवियत संघ में 1956 में पंूंजीवादी तख्तापलट करने और 1976 में माओ की मृत्यु के बाद देंग के नेतृत्व में पूंजीवादी रास्ता अपनाने से समाजवादी राज्य खत्म हो गये। मजदूर वर्ग से उनकी जीवन की खुशहाली छीन रूस-चीन में उन्हें पूूंजीवादी शोषण के जूए में ढकेल दिया गया। 
    समाजवाद की इस वक्ती पराजय ने दुनियाभर के मजदूर संघर्षों पर बुरा प्रभाव डाला। पूंजीपति वर्ग एक बार फिर से आक्रामक मुद्रा में मजदूरों को नोचने-खसोटने में सफल होने लगा। 
    मजदूर वर्ग वैश्विक तौर पर पीछे हटने लगा। उसे हासिल तमाम अधिकार एक-एक कर छीने जाने लगे। उसके संगठन कमजोर पड़ने लगे। 
    कुल मिलाकर 21 वीं सदी की शुरूआत तक यही स्थिति बनी रही। पूंजीपति वर्ग उदारीकरण-वैश्वीकरण के जरिये मजदूरों पर हमले बोल रहा था और मजदूर वर्ग बचाव की मुद्रा में खड़ा था। वह अगले पलटवार के लिए ऊर्जा जुटा रहा था। 
    हमारे देश भारत में भी हालात कुछ ऐसे ही थे। पर 2008 में वैश्विक आर्थिक संकट ने पूंजीपतियों को मजदूरों पर और हमले की ओर ढकेला पहले से निचोड़े जा चुके मजदूर वर्ग को पूंजी और निचोड़ने के प्रयास करने लगी। पर अब मजदूर वर्ग को और निचोड़ा जाना संभव नहीं था।
    परिणाम यह हुआ कि पिछले 5-6 वर्षों में पूरी दुनिया के साथ हमारे देश भारत में मजदूर संघर्षों के नये उफान के पैदा होने के संकेत मिलने लगे हैं। दुनियाभर में कटौती कार्यक्रमों के खिलाफ मजदूर सड़कों  पर उतर रहे हैं। अरब जन विद्रोहों में मजदूर वर्ग बढ़ चढ़कर भूमिका निभा रहा था। खुद अमेरिका के आक्युपाई आंदोलन में भी वह सड़कों पर डटा था। अफ्रीका में खान मजदूर लड़ रहे हैं तो बांग्लादेश में गारमेंट मजदूर। 
    हमारे देश में भी मारूति मजदूरों के संघर्ष के साथ तमाम औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूर वर्ग के संघर्ष बढ़ रहे हैं। मजदूर वर्ग इन संघर्षों के जरिये प्रशिक्षित हो अधिक व्यापक एकता की ओर बढ़ रहा है यह सब आने वाले दिनों के लिए शुभ संकेत हैं। 
    पर देश में सारे संकेत मजदूरों के शुभ संकेत नहीं है। 2014 के आम चुनाव में सत्ताशीन मोदी सरकार आज मजदूरों को हासिल श्रम कानूनों को छीनने का प्रयास कर रही है। देशी-विदेशी पूंजी को ‘मेक इन इंडिया’ नारे के तहत देश में आने की दावत दी जा रही है। ‘मेक इन इंडिया’ के नारे में मजदूरों का निर्मम शोषण छिपा हुआ है। फासीवादी मंसूबे रखने वाली मोदी सरकार मजदूरों के जीवन को नरक बनाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ रही है। 
    इन्हीं परिस्थितियों में इस वर्ष का मई दिवस हमारे सामने है। इन परिस्थितियों में मजदूर वर्ग के सामने अधिकारों के छीने जाने का खतरा है तो संघर्षों की बढ़ती के रूप में भविष्य के शुभ संकेत भी हैं। 
    हमारे देश में भी मजदूर संघर्षों की एक जुझारू परंपरा रही है। मजदूरों ने त्याग और कुर्बानी की एक से बढ़कर एक मिसालें पेश की है। पर पिछले कुछ दशकों से मजदूर आंदोलन के पीछे हटने के कारण इस सबकी स्मृति आम मजदूरों में कमजोर पड़ गयी है। साथ ही संसदीय वामपंथियों की गद्दारी के चलते मजदूरों का एक हिस्सा मार्क्सवाद से ही दूर हो चुका है यहां तक कि एक बड़ा हिस्सा फासीवादी तत्वों के प्रभाव में भी है। 
    आज भी हमारे देश का मजदूर आंदोलन बिखरा हुआ है। अलग-अलग फैक्टरी, संस्थानों में यूनियनें अलग-अलग लड़ रही हैं। इनका कोई देशव्यापी क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन सेंटर मौजूद नहीं है। 
    मजदूर वर्ग से छीने जाने वाले अधिकारों की हालत यह है कि श्रम कानूनों को व्यवहार में लागू किया जाना बंद होेता जा रहा है। यहां तक कि यूनियन बनाना भी अपराध सरीखा बना दिया गया है। सरकार निवेश बढ़ाने के नाम पर पूंजीपतियों को एक पल के लिए भी नाखुश नहीं करना चाहती पर साथ ही मजदूरों पर लाठी गोली चलाने तक से परहेज नहीं कर रही है।
    मजदूरों के काम के घंटे फिर से व्यवहारतः 10 से 12 घंटे तक पहुंचा दिये गये हैं। उनसे ठेके पर अधिकाधिक काम लिया जा रहा हैं और बदले में न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जा रही है। यह सब हमारे सामने एक चुनौतीपूर्ण तस्वीर पेश कर रहा है। ऐसे वक्त में वर्ग सचेत मजदूरों का लक्ष्य बनता है कि-
-मजदूर वर्ग की वैज्ञानिक विचारधारा मार्क्सवाद को मजदूरों के बीच प्रचारित कर क्रांति में उनके विश्वास को पुनर्जीवित करें। उसे ऐतिहासिक लक्ष्य पर उसे खड़ा करें। 
-मजदूर वर्ग को श्रम कानूनों में बदलाव के खिलाफ मजदूरों को लामबंद करें। संघर्षों के दम पर इस दिशा में सरकार के बढ़ते कदमों को रोकने का प्रयास करें। 
-मजदूर वर्ग को पूंजीवादी-संशोधनवादी-फासीवादी ताकतों के चंगुल से बाहर लाने के लिए मजदूर वर्ग के सम्मुख इनके पूंजीपरस्त चरित्र का भंड़ाफोड़ करें।
-मजदूरों के बिखरे संघर्षों-यूनियनों को देशव्यापी पैमाने पर एक क्रांतिकारी टेªड यूनियन सेंटर में लामबंद करें। 
-सभी क्रांतिकारी संगठन मिलकर एक अखिल भारतीय क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना के चैतरफा प्रयास किये जायं। 
-फासीवादी ताकतों के नापाक मंसूबों को बेपर्दा करें। 
    कुल मिलाकर ये सभी कार्यभार आज वर्ग सचेत मजदूरों के सम्मुख उपस्थित हैं। मई दिवस मजदूर वर्ग के संघर्षों का संकल्प लेने का दिन है। इसलिए इस मई दिवस पर हमें अपने संकल्प को मजबूत बनाते हुए भविष्य के शुभ संकेतों को वास्तविकता में बदलने के लिए जी-जान से जुट जाना होगा। 
    2008 से शुरू वैश्विक मंदी का लगातार गहराते जाना पूंजीपति वर्ग की तमाम कोशिशों के बावजूद किसी हल की ओर न बढ़ना इस बात का संकेत है कि पूंजीवाद-साम्राज्यवाद इतिहास की सड़गल रही अवस्था हैं जिसका कोई भविष्य नहीं है। जिस पर एक भरपूर लात लगा मजदूर वर्ग को समाजवाद के सूर्योदय को लाना है। 
    मजदूर वर्ग के पास खोने के लिए कुछ नहीं है जीतने के लिए सारी दुनिया हैं। पूंजीपति वर्ग की हार और मजदूर वर्ग की जीत दोनों निश्चित है। 
वियतनामः सामाजिक बीमा कानून में बदलाव के खिलाफ 90,000 मजदूर सड़क पर उतरे
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
    वियतनाम में 26 मार्च को ताइवान कम्पनी पोउ युयेन के 90,000 मजदूर सड़क पर उतर आये। यह फैक्टरी हो ची मिन्ह शहर के तान ताओ औद्योगिक इलाके में है। यह कम्पनी नाइक, एडिडास जैसी बहुर्राष्ट्रीय कम्पनियों के लिए जूते बनाती है। मजदूरों ने पहले शांतिपूर्ण तरीके से फैक्टरी के अंदर जाकर हड़ताल कर दी। वे फैक्टरी के अंदर ही बैठ गये और कोई काम नहीं किया। बाद में जब सुरक्षा गार्डों ने उन्हें बाहर निकालने की कोशिश की तो उन्होंने हाइवे पर जाम लगा दिया। 
    यह हड़ताल मजदूरों द्वारा सरकार के द्वारा पास किये जा रहे नये सामाजिक बीमा कानून के विरोध में की गयी। अभी तक पुराने कानून के अनुसार जब मजदूर फैक्टरी छोड़ते हैं तो उनको प्रति साल काम के एवज में मासिक वेतन का 150 प्रतिशत मिलता है। यह पैसा उनको फैक्टरी छोड़ने के तुरंत बाद मिल जाता है। नये कानून के अनुसार मजदूरों को यह पैसा फैक्टरी में काम छोड़ने के तुरंत बाद नहीं मिलेगा। इसके लिए उन्हें कम से कम 20 साल इंतजार करना पड़ेगा या फिर उन्हें अपनी रिटायरमेंट उम्र पर यह पैसा मिलेगा। रिटायरमेंट की यह उम्र पुरुषों के लिए 60 तथा महिलाओं के लिए 55 है। सरकार इस उम्र को भी बढ़ाने का प्रयास कर रही है। 
    कुछ इसी तरह का कानून चीन में भी अभी बनाने के प्रयास किया गया था। जिसके विरोध में जूता कम्पनी के मजदूर सड़कों पर उतरे थे जिसके कारण सरकार को वह कानून वापस लेना पड़ा था। वियतनाम के मजदूर भी इस कानून के खिलाफ सड़कों पर उतर आये हैं। निजीकरण-उदारीकरण के इस दौर में वियतनाम में भी मजदूरों के लिए स्थाई रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं है। उन्हें लगातार अपना काम छोड़ना पड़ता है। और नया काम तलाशना पड़ता है। यह नया काम उन्हें एकदम नहीं मिलता है। ऐसे में काम छोड़ने पर जो पैसा उन्हें मिलता है वह उनके उस समय काम आता है जब तक कि उन्हें रोजगार नहीं मिलता है। या फिर मजदूर इस पैसे का इस्तेमाल अपने घर जाकर कुछ छोटा मोटा धंधा करने के लिए करते हैं। 
    सरकार ने नये कानून के अनुसार उनको इस पैसे से वंचित कर देने का फैसला किया तो मजदूरों के अंदर आक्रोश फूट पड़ा। अब तक वियतनाम में जो मजदूर संघर्ष हुए उनमें वेतन बढ़ोत्तरी या फिर काम की बुरी परिस्थितियां थीं लेकिन अब सीधे-सीधे सरकार के फैसलों के खिलाफ मजदूर सड़क पर उतर आये। और कई दूसरी फैक्टरियों के मजदूरों के संघर्ष में उतर आने के भय से सरकार के मंत्री को कहना पड़ा कि इस सामाजिक बीमा कानून को 20 मई को राष्ट्रीय असेम्बली में पुनर्विचार के लिए रखा जायेगा। 
    इस पूरे घटनाक्रम में वियतनाम की ट्रेड यूनियन केन्द्र की भूमिका घृणित ही रही। वियतनाम जनरल कनफेडरेशन आॅफ वियतनाम का एक मात्र ट्रेड यूनियन केन्द्र है जिसकी देश के सभी संस्थानों में सभी जगह शाखायें हैं। यह ट्रेड यूनियन केन्द्र सत्तारूढ़ वियतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध है। जब हड़ताल शुरू हुई तो उसने मजदूरों को काम पर वापस जाने के लिए कहा और सरकार के फैसले को सही ठहराया। 
    वियतनाम जनवरी 2007 में डब्ल्यू टी ओ में शामिल हुआ और उनके बाद लगातार उस पर नई आर्थिक नीतियों को लागू करने का दबाव रहा। इन्हीं आर्थिक नीतियों ने मजदूर वर्ग के शोषण प्रक्रिया को गहरा किया। जहां चीन के मजदूर को 613 डाॅलर प्रति माह और थाइलैण्ड के मजदूर को 391 डाॅलर प्रति माह मिलते हैं वहीं वियतनाम में मजदूरों को मात्र 197 डाॅलर मिलते हैं। मजदूरों के इसी शोषण के कारण विकास दर 6 प्रतिशत के आस-पास रही। लेकिन यह पूरी तरह निर्यात केन्द्रित थी। जब दुनिया में मंदी छायी हुयी है तो पूंजीपति मजदूर वर्ग को लूटने की और छूट चाहते हैं। इसलिए वे चाहते हैं कि जो पैसा उन्हें मजदूर को काम छोड़ने पर देना पड़ता है उन्हें वह न देना पड़े। मजदूर पूंजीपतियों की इस मंशा से भली भांति परिचित हैं। इसी कारण अपने पैसे को नहीं छोड़ना चाहते हैं। उन्हें मालूम है कि 20 साल या फिर रिटायरमेंट उम्र तक पहुंच जाने पर उन्हें पैस मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। और दूसरे उनके पास ऐसी कोई बचत नहीं होती है जिससे वे काम ढूंढने के दौरान अपना परिवार का खर्चा चला सकें। 
    इसी कारण वे सरकार के इस नये कानून के खिलाफ सड़क पर उतरे और सरकार को इसे पुनर्विचार के लिए कहना पड़ा। मजदूरों के लिए जीत राहत भरी हो सकती है। लेकिन पूंजीपति वर्ग का यह हमला आखिरी नहीं है। पूंजीपति वर्ग का हमला मजदूर वर्ग पर जारी रहेगा और मजदूरों को इन हमलोें से मुक्ति समाजवाद में ही मिल सकती है। जिस सामाजिक सुरक्षा को बहाना बनाकर सरकार उनको इस पैसे से महरूम करना चाहती है वह सामाजिक सुरक्षा उन्हें समाजवाद में ही मिल सकती है। वियतनाम के मजदूरों का चीन के मजदूरों की तरह नकली कम्युनिस्ट पार्टी जो कि पूंजी परस्त है, के खिलाफ देर-सबेर मोर्चा खोलना ही होगा। 
साधो, मिली-जुली ये कुश्ती     -महेन्द्र नेह
साधों, मिली-जुली ये कुश्ती।
लोकतंत्र की ढपली ले कर करते धींगा-मुश्ती।।

जनता की मेहनत से बनती अरबों-खरबों पूंजी।
उसे लूट कर बन जाते हैं, चंद लुटेरे मूंजी।।

उन्हीं लुटेरों की सेवा में रहते हैं ये पण्डे।
जनता को ताबीज बांटते कभी बांटते गण्डे।।

इनका काम दलाली करना धर्म न दूजा इनका।
भले लूटेरा पश्छिम का हो या उत्तर-दक्खिन का।।

धोखा दे कर वोट मांगते पक्के ठग हैं यारों।
इनके चक्रव्यूह से निकलो नूतन पन्थ विचारों।। 

           (साभारः कविताकोश)
मैक्सिको के हजारों अप्रवासी खेत मजदूरों की हड़ताल
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    मैक्सिको के बाजा कैलीफोर्निया में सेन क्वेटिन घाटी के हजारों अप्रवासी खेत मजदूरों की हड़ताल जारी है। यह हड़ताल वेतन को बढ़ाने, काम की परिस्थितियों में सुधार और ओवरटाइम भुगतान, स्वास्थ्य सुविधा आदि को लेकर है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक इस हड़ताल में 50,000 तक मजदूर शामिल हैं। इस घाटी में 60,000 खेत मजदूर काम करते हैं। हड़ताली खेत मजदूरों ने ट्रांसपेनिनसुलर हाइवे को जाम कर दिया। 17-18 मार्च को पुलिस ने उन पर हमला किया और 200 मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया। हालांकि बाद में कुछेक को छोड़ दिया गया। 
    सेन क्वेटिन घाटी के ये मजदूर मैक्सिको के गरीब राज्यों ग्यूरोरो, ओक्सेस, प्यूब्ला के देहाती इलाकों से आते हैं। खेत फार्मों के मालिकों के एजेण्ट गांवों के इन मजदूरों को अच्छी तनख्वाह का लालच देेकर लाते हैं और इन्हें यहां मिलता है बदहाल रहने की व्यवस्था और मात्र 7 डाॅलर की प्रतिदिन की मजदूरी। इसमें से भी उनके रहने व काम पर आने-जाने का किराया काट लिया जाता है। यहां जीवन की अन्य मूलभूत आवश्यकताओं का भी सख्त अभाव रहता है। एक आंकड़ों के अनुसार यहां रहने वाले 64 प्रतिशत आबादी के पास रहने के लिए मकान नहीं हैं। 47 प्रतिशत लोगों को स्वास्थ्य सुविधा हासिल नहीं है। 15-17 साल के 59 प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। और इस सबके साथ उनसे 12-14 घंटे काम कराया जाता है। ओवर टाइम का पैसा नहीं दिया जाता है। इस हड़ताल के केन्द्र में उनका वेतन 7 डाॅलर से बढ़ाकर 20 डाॅलर प्रतिदिन करने पर मुख्य जोर है। 
    इस हड़ताल का नेतृत्व अभी हाल में अस्तित्व में आया एक गठबंधन कर रहा है। इस गठबंधन के अनुसार कनफेडरेशन आॅफ मेक्सिकन लेबर व रिवोल्यूशनरी कनफेडरेशन आॅफ मैक्सिकन लेबर मजदूरों के हितों के साथ धोखा कर रहे हैं। जिस दिन हड़ताली खेत मजदूरों ने हाइवे जाम किया उस दिन इन दोनों यूनियनों ने शासक वर्गीय पार्टी के लोगों के साथ मिलकर उकसावे पूर्ण कार्यवाही की। तथा हड़ताल को तोड़ने की कोशिश की। पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया वे अपने घरों में थे। इस गठबंधन का कहना है कि इन संगठनों के लोग संघर्षों में कहीं दिखायी नहीं देते हैं। परन्तु जब समझौता होता है तो ये सबसे आगे होते हैं। सरकार या प्रबंधन इन्हीं संगठनों के साथ समझौते करता है। 
    इस घाटी में पैदा होने वाली फसलों में टमाटर, स्ट्रोबेरी, खीरा आदि हैं। इस समय स्ट्रोबेरी की फसल का समय है। इस उत्पादन का ज्यादातर निर्यात अमेरिका को होता है। मैक्सिको के गवर्नर का कहना है कि अगर यह हड़ताल लम्बी खिंचती है तो सभी को नुकसान होगा। ऐसा कहकर वे खेत मजदूरों को भी इस हड़ताल का जिम्मेदार ठहराते हैं। वे यह नहीं बताते हैं कि अगर आज खेत मजदूर हड़ताल पर उतर आने के लिए बाध्य हुए हैं तो इसका कारण क्या है? खेतों में हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद उनको गुजारे लायक वेतन भी नहीं मिलता है। खेतों में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों के सम्पर्क में आने से उन्हें तरह-तरह की बीमारियां हो जाती हैं लेकिन उनके लिए इलाज की समुचित व्यवस्था भी नहीं होती है। एक महिला खेत मजदूर ने बताया कि वह काम पर जाने के लिए सुबह 4 बजे उठती है। उन्हें ले जाने के लिए आने वाला ट्रक उन्हें 6ः30 बजे खेत में उतार देता है जबकि काम 7 बजे से पहले शुरू नहीं होता है। ओवर टाइम का भी पैसा उनको नहीं मिलता है। 
    पूंजीपतियों की सरकार व प्रबंधन होने वाली हड़तालों के लिए मजदूरों को दोषी ठहराकर उनके संघर्षों को बदनाम करने की साजिश रचते हैं। लेकिन अब समाज की ज्यादातर शोषित व उत्पीडि़त आबादी जिसमें महिलायें, युवा, मजदूर, किसान उनकी इस बात पर यकीन नहीं करते हैं। हां, इस पर यकीन न करने के साथ उन्हें उनके अपने राज समाजवाद की स्थापना में भी यकीन करना होगा। और इसकी स्थापना के लिए भी काम करना होगा।   
दक्षिण अफ्रीका में एस्काॅम कम्पनी ने निकाले 1000 मजदूर
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    दक्षिण अफ्रीका की बिजली कम्पनी एस्काॅम ने अपने 1000 मजदूरों को काम से बाहर निकाल दिया है। इनके काम से निकाले जाने की वजह इन मजदूरों द्वारा एक दिन पहले की हड़ताल में भाग लेना था। ये मजदूर 25 मार्च को एक दिवसीय हड़ताल पर चले गये थे। इस हड़ताल का उद्देश्य अपने काम की परिस्थितियों में सुधार, बोनस का भुगतान व साथ ही उनके सब्सिडी वाले घरों में से उनको निकाले जाने के खिलाफ आक्रोश था।
    एस्काॅम के इस प्लाण्ट में 21,000 मजदूर काम करते हैं जिसमें से 6-7 हजार मजदूर नुम्सा (NUMSA) के सदस्य हैं। जब 25 मार्च को हड़ताल हुयी तो सभी मजदूर बाहर आ गये थे। अगले दिन इन मजदूरों को काम से बाहर निकाल दिया गया। हालांकि एस्काॅम के मैनेजमेण्ट ने कहा कि इन मजदूरों को काम से नहीं निकाला गया है, ठेकेदार ने इन मजदूरों को अपने-अपने घर भेज दिया है। लेकिन सच्चाई यही है कि हड़ताल करने वाले मजदूरों को सबक सिखाने के उद्देश्य से ऐसा किया गया। 
    दक्षिण अफ्रीका में चाहे खान मजदूरों की हड़ताल हो या फिर किसी अन्य क्षेत्र के मजदूरों की, हजारों की संख्या में मजदूर सड़क पर उतर आते हैं। यहां मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा यूनियनबद्ध भी है। दक्षिण अफ्रीका में मजदूरों के संघर्ष कितने तीखे हैं यह सन् 2012 में मारिकाना काण्ड दिखाता है। मारिकान काण्ड में पुलिस ने 38 मजदूरों को गोलियों से भून दिया था। लेकिन इतने बड़े हिस्से के संगठनबद्ध होने तथा हजारों की संख्या में मजदूरों के हड़तालों में शामिल होने व मजदूरों के बलिदानों के बावजूद पूंजीपति वर्ग अपनी नीतियां बदलने को मजबूर नहीं हो रहा है। ये हड़तालें थोड़ी बहुत राहत मिलने के साथ समाप्त हो जा रही हैं। 
    25 मार्च को हड़ताल के बाद नुम्सा ने कहा कि अगर मजदूरों की मांगें नहीं मानी जाती हैं तो उसकी एक अन्य सहायक कम्पनी के मजदूरों को भी संघर्ष में उतारा जायेगा परन्तु एस्काॅम ने इसका जबाव 1000 मजदूरों को बर्खास्त करके दिया। यह दिखाता है कि अगर मजदूरों के संघर्षों को व्यवस्था परिवर्तन के साथ जोड़कर नहीं लड़ा जायेगा तो पूंजीपति थोड़े सुधारों के लिए भी तैयार नहीं होता है। जब उसे लगता है कि उसकी पूरी व्यवस्था ही खतरे में है तभी वह अपनी नीतियों में बड़े फेरबदल कर सकता है। दक्षिण अफ्रीका के मजदूरों को यह भी सबक सीखना चाहिए कि सत्ता गोरे शासकों से काले शासकों के हाथ में आने के बावजूद उनकी स्थितियों में कोई मूलभूत बदलाव नहीं आया है। अगर उनकी मूलभूत स्थितियों में कोई बदलाव आ सकता है तो केवल अपने क्रांतिकारी संगठनों के दम पर। उनको आज इसी की तैयारी करने की जरूरत है। 
चीन के जूता फैक्टरी के मजदूरों का फूटा आक्रोश
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    11 मार्च को चीन के गुआंग डांग प्रान्त में स्टैला फुटवियर कम्पनी (यह कम्पनी पराडा व टिम्बरलेण्ड के लिए जूता बनाती है) के 5000 से ज्यादा मजदूर हड़ताल पर उतर आये। वहीं 17 मार्च को यू युयेन (यह कम्पनी नाइक व एडिडास के लिए जूते बनाती है) व 20 मार्च को जीबीएम फैक्टरी के मजदूरों का आक्रोश फूट पड़ा। 
    ये मजदूर हाउसिंग फण्ड के सम्बन्ध में हुए नियमों में फेरबदल का विरोध कर रहे थे। अब नये नियम के अनुसार विशेष परिस्थितियों को छोड़कर इस फण्ड से वे नकद राशि नहीं निकाल पायेंगे। ज्ञात हो कि चीन में सामाजिक बीमा व्यवस्था के अंतर्गत मजदूरों व मालिकों के खाते से यह जरूरी होता है कि वे एक निश्चित धनराशि हाउसिंग फण्ड में जमा करायेंगे। यह राशि 5 से 20 प्रतिशत तक होती है। इस राशि का प्रयोग सम्पत्ति को खरीदने व मरम्मत कराने या फिर किराया देने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। अप्रवासी मजदूरों के लिए यह राशि इतनी ज्यादा नहीं हो पाती है कि वे इससे कोई सम्पत्ति खरीद सकें। हां, इतनी बड़ी जरूर होती है कि वे इसका इस्तेमाल छोटे-मोटे खर्चों में कर सकें। इसलिए वे इस धनराशि को प्रत्येक वर्ष या फिर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय करते हैं। प्रत्येक वर्ष के अंत में यह उनकी एक महीने की तनख्वाह के बराबर हो जाती है। चूंकि मजदूरों की स्थायी नौकरी न होने व काम से निकाले जाने के कारण उन्हें बार-बार स्थान व कम्पनी बदलनी पड़ती है इसलिए वे इस राशि को निकाल लेते हैं। 
    नये नियमों के अनुसार केवल विशेष परिस्थितियों में ही यह राशि निकाली जा सकेगी। जैसे सम्पत्ति खरीदने, मरम्मत कराने या फिर सम्पत्ति कर चुकाने में, शहर में किराया चुकाने में, रिटायरमेंट पर, परिवार में स्वयं या किसी अन्य के गम्भीर बीमारी के अवसर पर, काम करने में पूर्णतः असमर्थ होने पर आदि। ऐसा करने पर एक तरीके से यह पैसा सरकार के पास ही जमा रहेगा। मजदूरों के लिए यह बहुत कम काम आ पायेगा। अतः मजदूर इस नियम को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। अतः वे सड़कों पर निकल आये। बाद में स्टैला कम्पनी ने मजदूरों को यह आश्वासन दिया कि मजदूरों का यह पैसा उन्हें पूर्ववत की तरह मिलता रहेगा। 
    इस घटना ने मजदूरों के संघर्ष व एकता को तो प्रदर्शित किया ही साथ ही चीन के मजदूर वर्ग की दयनीय स्थिति को भी दिखाया कि उनके पास इतना पैसा भी नहीं होता कि जब वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं तो उनके पास अपनी जिंदगी को शुरू करने के लिए धन हो। साथ ही वे आकस्मिक जरूरत के लिए इस छोटी सी धनराशि पर निर्भर रहते हैं। चीन में 1976 में पूंजीवादी पुनस्र्थापना के बाद से मजदूरों के हालात बद से बदतर होते गये हैं।   
राष्ट्र -के. सच्चिदानन्दन
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
राष्ट्र ने मुझसे कहा
तुम मेरे ऋणी हो
हवा के लिए जिसमें तुम सांस लेते हो
पानी के लिए जो तुम पीते हो
खाने की रोटी के लिए
चलने-फिरने की सड़क के लिए
बैठने की जमीन के लिए

मैंने राष्ट्र से पूछा
तब जवाब कौन देगा?
मेरी मां को जिनका गला घोंट दिया गया
मेरी बहन को जिसने जहर पी लिया
दादी को जो भीख मांगती भटकती रही
मेरे पिता को जो भूख से मर गए
मेरे भाई को जो तुम्हें आजाद कराता हुआ जेल चला गया

मैं किसी खेमे का नहीं हूं, हवा ने कहा
कोई मेरा मालिक नहीं, पानी ने कहा
मैं जमीन से पैदा हुई, रोटी बोली
मैं सीमाओं की परवाह नहीं करती, सड़क ने कहा
घास का कोई दोष नहीं होता, जमीन ने कहा

तब प्यार के साथ 
राष्ट्र ने मुझे ऊपर उठा लिया
गोद में और कहा
अब क्या तुम मानते हो कि राष्ट्र सच्चाई है?
लहूलुहान गर्दन से गिरता खून जमीन पर फैल गया
‘राष्ट्र की जय हो’
(साभारः कविता कोश, मूल मलयालम से स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी में अनुदित, अंग्रेजी से हिंदी अनुवादः व्योमेश शुक्ल)
कोटद्वार में साम्प्रदायिक तनाव की कोशिश
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
    उत्तराखण्ड के पौड़ी जनपद के कोटद्वार शहर में ‘हिन्दू फासिस्ट संगठन के एक हिन्दू वाहिनी संगठन के जिला अध्यक्ष सुमित पटवाल की गोली मार कर हत्या कर दी गयी। सुमित पटवाल प्रोपर्टी डीलर एवं अवैध खनन का कार्य करते थे। इस व्यक्ति के बड़े अपराधियों के साथ संबंध थे। सुमित के भाजपा व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संध के महत्वपूर्ण पद पर होना इस बात को दिखाता है कि ये संगठन छद्म राष्ट्रवाद व ईमानदारी का ढोल पीटते रहते हैं परन्तु खुद गुण्डा तत्वों को महत्वपूर्ण पद सौंपते हैं। ऐसा ही एक अपराधी तत्व नामधारी जोकि पोण्टी चढ्ढा की हत्या में लिप्त था पूर्व में संघ के सिक्ख संगठन सिक्ख पंगत का अध्यक्ष व गुरूकुल कांगडी का कुलपति था। 
    21 मार्च को दो अज्ञात बदमाशों ने सुमित पटवाल की गोली मार कर हत्या कर दी। इसके बाद भाजपा व संघ से जुड़े संगठनों ने पूरे शहर में हिन्दुओं का आह्वान कर जुलूस निकाला। पुलिस अधीक्षक का घेराव कर 3 दिन के अंदर अपराधियों को पकड़ने की चेतावनी दी और कहा कि यदि 3 दिन के अंदर नहीं पकड़े गये तो शहर में कुछ भी हो सकता है। इस धमकी से पीएसी की 4 से 5 गाडि़यां शहर में पहुंच गयी। मुस्लिम समुदाय के अंदर डर एवं खौफ का माहौल बनना शुरू हो गया। संघ मण्डली के ये तथाकथित राष्ट्रवादी शहर में महिला यौन अपराध व हत्याकाण्ड पर चुप रहते हैं। एक सैनिक व नाबालिग रचना हत्याकाण्ड में इस मण्डली के एक भी कार्यकर्ता सड़कों पर नहीं उतरे। 
    साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़े जाने के विरुद्ध जन अधिकार संयुक्त संघर्ष समिति के बैनर तले जिसमें परिवर्तनकामी छात्र संगठन, क्रालोस व प्रगतिशाल महिला एकता केन्द्र महिला समाख्या, सीटू, पूर्व सैनिक सेवा परिषद, सर्वोदय मण्डल बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ कांग्रेस, पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष व गढ़वाल सभा आदि संगठन हैं, की एक बैठक की गयी। बैठक में साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़े जाने पर चिंता व्यक्त की गयी। इसे रोकने के लिए एकजुटता से काम करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया। बैठक में हत्याकांड का खुलासा करने व साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ रहे तत्वों से सख्ती से निपटने की मांग की गयी। 
    25 मार्च को हत्याकांड का खुलासा हो गया। संघ मण्डली के साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने का आधार ही फिलहाल खत्म हो गया। किन्तु ऐसी विध्वंसक ताकतों के खिलाफ शहर की प्रगतिशील, इंसाफपसंद नागरिक को हमेशा सचेत रहने की आवश्यकता है।        कोटद्वार संवाददाता
दुबई: निर्माण क्षेत्र के सैकड़ों मजदूरों ने किया विरोध प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    संयुक्त अरब अमीरात के एक राज्य दुबई में मंगलवार को अपने वेतन बढ़ाने व बुरी कार्यपरिस्थितियों से तंग आकर सैकड़ों अप्रवासी मजदूर सड़क पर उतर आये। उन्होंने शहर के मुख्य मार्ग को जाम कर दिया। ये मजदूर निर्माण क्षेत्र के थे जो दुबई की बिल्डिंग बनाने वाली कम्पनी एमार में काम करते हैं। दुबई में इस तरह के प्रदर्शन होना आम बात नहीं है क्योंकि यहां के कानूनों के अनुसार यूनियन बनाना और प्रदर्शन करने पर प्रतिबंध है। हालांकि यह प्रदर्शन 1 घंटे बाद समाप्त हो गया परन्तु इसने दुबई के निर्माण क्षेत्र के मजदूरों में पनप रहे भारी असंतोष को दिखाया। 
    दुबई में दक्षिण एशियाई मूल (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल) आदि के लाखों मजदूर निर्माण क्षेत्र में काम करते हैं। दुबई की विशालकाय इमारतों को बनाने में इन्हीं मजदूरों का खून पसीना लगा है। अपने देश में रोजगार न मिल पाने या फिर कर्ज चुकाने की वजह से ये मजदूर पैसा कमाने के लिए दुबई जाते हैं। दलालों के जरिये इन्हें दुबई में अच्छा वेतन, रहने-खाने की उचित व्यवस्था आदि के नाम पर भरमाकर ले जाया जाता है। ये मजदूर अपनी जमीन-जेवर बेचकर या फिर कर्ज लेकर दुबई जाते हैं।
    लेकिन दुबई पहुंचते ही इनके सारे सपने तब काफूर हो जाते हैं जब ये अपने आपको 40-50 डिग्री सेल्सियस में काम करता हुआ पाते हैं। रहने के नाम पर दबड़ेनुमा घर होते हैं जो चारों तरफ बाड़ों से घिरे रहते हैं जिसके बाहर सुरक्षा गार्ड तैनात रहते हैं। 1 कमरे में 8 से 10 लोग रहते हैं। 40-50 लोगों के लिए मात्र एक शौचालय होता है। हां, काम पर जाने के लिए पहले की तरह इन्हें ट्रकों में भरकर नहीं ले जाया जाता बल्कि अब ये बस में सफर करते हैं। जितना वेतन बताकर इन्हें दुबई ले जाया जाता है उससे एक चौथाई से भी कम वेतन इनको दिया जाता है। एक बार दुबई जाने के बाद इनके पास लौटने का कोई चारा नहीं होता है क्योंकि इनका पासपोर्ट कम्पनी द्वारा जब्त कर लिया जाता है। और साथ ही इनके पास लौटने की टिकट के लिए भी पैसे नहीं होते हैं। मजबूरन इन्हें वहीं काम करना होता है। 
    ये मजदूर दिन भर में 14-14 घंटे की कड़ी मेहनत करते हैं। इन्हें अपने अधिकारों के लिए यूनियन बनाने व हड़ताल तो क्या प्रदर्शन का भी अधिकार नहीं है। क्योंकि यहां के कानून में ऐसा प्रावधान नहीं है। ‘काफला’ कानून के तहत तो किसी भी मजदूर को अपनी कम्पनी की अनुमति के बिना दूसरा रोजगार भी नहीं मिल सकता। ये सब कानून इसलिए हैं क्योंकि दुबई के शासक देश को निवेशकों के लिए स्वर्ग बनाना चाहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन बुरी कार्य परिस्थितियों को मजदूर बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लेते हैं। एक बार अरबटेक कम्पनी में मजदूरों ने विरोध किया। चूंकि उन्हें प्रदर्शन करने की इजाजत नहीं है इसलिए उन्होंने एक साथ काम पर न जाकर विरोध करने का निर्णय लिया। लेकिन मैनेजमेण्ट ने उनकी मांगें नहीं मानी और पुलिस ने उनके घरों में जाकर दबिश दी और उनको जबर्दस्ती काम पर भेजा। 20-25 मजदूरों को देश छोड़ने का आदेश भी दिया। 
    30 साल पहले दुबई मात्र एक रेगिस्तानी इलाका था जहां बंजारे अपने ऊंटों के साथ इधर-उधर यात्रा किया करते थे। जब यहां तेल की खोज हुई तो यहां के शेखों के हाथ में सोने का खजाना लग गया और तेल की आय से उन्होंने इसे एक ऐसी जगह बनाने का निर्णय लिया जहां लोगों व निवेशकों को कोई कर न देना पड़े। दुबई शब्द यहां की स्थानीय भाषा ‘दावा’ के नाम पर पड़ा है इसका मतलब ऐसी चीज से है जो अपने सामने आनी वाली हर चीज को पचा लेती है। और फिर दुबई सबको अपने अंदर समाने लगा। निवेशक यहां करोड़ों डालर निवेश करने लगे। यहां के निवासियों को सरकार ने मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य उपलब्ध कराया। और इस सबके साथ ही लाखों अप्रवासी मजदूर भी यहां आये जिनके दम पर यहां बड़ी-बड़ी विशालकाय इमारत बनीं। बुर्ज खलीफा के नाम से बनी दुनिया की सबसे ऊंची इमारत यहीं है। 
    लेकिन विशालकाय इमारत बनाने वाले इन मजदूरों को बदले में मात्र 1500-2000 डालर की वार्षिक मजदूरी ही मिली और वह भी अपना खून व पसीना बहाने के बाद। इसी दौरान यहां की बुरी कार्यपरिस्थितियों से तंग आकर मजदूरों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति भी बढ़ी। 2005 में भारतीय दूतावास ने भारतीय मजदूरों में आत्महत्या के आंकड़ों को इकट्ठा किया तो मालूम पड़ा कि उस साल 971 मजदूरों ने आत्महत्या की। इसके बाद भारतीय दूतावास ने इन आंकड़ों को इकट्ठा करना ही बंद कर दिया। प्राप्त जानकारी के मुताबिक अभी प्रति सप्ताह 2 भारतीय मजदूर आत्महत्या करते हैं। 
    कहने को तो दुबई में प्रति व्यक्ति आय 48,158 डालर है परन्तु निर्माण क्षेत्र के इन मजदूरों को मात्र 1500-2000 डालर ही मिलते हैं। ऐसे में समाज में अमीर व गरीब की खाई को समझा जा सकता है। और इस कारण समाज में बढ़ती विषमताओं तथा उसमें रहने वाले लोगों के बीच अलगाव को समझा जा सकता है और यह अलगाव भयानक तनाव को जन्म देता है और ऐसे भयानक तनाव में मजदूर आत्महत्या कर लेते हैं।   
    दुबई में मजदूरों का 10 मार्च को हुआ प्रदर्शन मजदूरों के विरोध के आगे बढ़ने का ही संकेत है। और यह साबित करता है कि मजदूरों के संघर्षों को कड़ा कानून बनाकर या ताकत के दम पर नहीं कुचला जा सकता है। इन संघर्षों की सफलता निश्चित तौर पर उनके क्रांतिकारी संगठनों पर तो निर्भर करती ही है। पूंजीवादी समाजों में इस तरह के संघर्षों का फूटना लाजिमी है।  
म्यांमार में गारमेण्ट मजदूर हड़ताल पर
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    म्यांमार के यंगून प्रान्त के श्वेपाइथार में गारमेण्ट फैक्टरी के मजदूरों की एक माह से हड़ताल जारी है। हड़ताली मजदूरों ने जब यंगून की तरफ कूच करना शुरू किया तो पुलिस ने हड़ताली मजदूरों को रोक दिया। पुलिस ने 30 हड़ताली मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया जिसमें से अधिकांश महिलायें थीं। ये मजदूर यंगून जाकर प्रदर्शन करना चाहते थे जो वहां से 140 किमी दूर है। उस इलाके में उस दिन छात्र भी अपनी फीस वृद्धि के लिए प्रदर्शन कर रहे थे। 
    यंगून प्रांत में श्वेपाइथार के दो औद्योगिक इलाकों में चार गारमेण्ट फैक्टरी (कोस्टेक इंटरनेशनल, ई लैण्ड म्यांमार, फोर्ड ग्लोरी तथा हन जेन) के 2000 से ज्यादा मजदूर 29 जनवरी से हड़ताल पर हैं। इन मजदूरों का संघर्ष अपने वेतन में 30,000 क्यात (म्यांमार की मुद्रा) की वृद्धि व कार्य परिस्थितियों को लेकर है। संघर्ष के दौरान पकड़े गये गारमेण्ट फैक्टरी वर्कर्स आर्गनाइजेशन के अध्यक्ष म्यो मिन मिन (यह ई लेण्ड म्यांमार कम्पनी में काम करते हैं) तथा एक अन्य मजदूर नेता नेंग हते (जो फोर्ड ग्लोरी फैक्टरी में काम करते हैं) को भी रिहा करने की है। 
    मजदूरों की इस हड़ताल के दौरान मजदूर संगठन, सरकारी अधिकारियों व पूंजीपतियों के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन मजदूरों के वेतन वृद्धि पर कोई सहमति नहीं बन पा रही थी। जब 3 मार्च  की वार्ता भी असफल हो गयी तो 100 मजदूरों ने यंगून में प्रदर्शन करने के लिए 5 मार्च को कूच किया तब पुलिस ने उनको कुछ ही दूरी पर जाकर रोक दिया। पुलिस द्वारा रोके जाने पर मजदूर सड़क पर ही बैठ गये लेकिन पुलिस ने उन पर लाठी चार्ज कर तितर-बितर कर दिया और 30 मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया। 
    म्यांमार की सरकार ने पूंजीपतियों के लिए सारे नियम कायदे कानून बनाये हैं। उनको जमीनों से लेकर सारी चीजें मुहैया करवाई हैं परन्तु मजदूरों के लिए उन्होंने कोई प्रावधान नहीं किये हैं। यहां तक कि इन मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी का भी अभी तक निर्धारण नहीं किया गया है। उनसे प्रतिदिन 8 घंटे की ड्यूटी व 3 घंटे प्रतिदिन का ओवरटाइम जबर्दस्ती करवाया जाता है। यहां तक कि काम होने पर उन्हें इतवार को भी चार घंटे के लिए बुलाया जाता है। 
    गारमेण्ट क्षेत्र के पूंजीपतियों के संगठन मजदूरों की इन कार्यपरिस्थितियों व फलस्वरूप उनमें पनप रहे असंतोष से बेखबर नहीं हैं। इसके लिए उन्होंने 2 फरवरी को ही एक कोड आॅफ कंडक्ट जारी किया है।  जिसमें मालिकों को इस बात की हिदायत दी गयी है कि वे मजदूरों के साथ उचित व्यवहार करें। काम की परिस्थितियों में सुधार करें। लेकिन यह ज्यादा से ज्यादा उनके लिए नैतिक उपदेश के ही समान है। हर पूंजीपति दूसरे पूंजीपति से माल सस्ता बनाने व बाजार कब्जाने के लिए मजदूरों की स्थिति को बदतर बना देता है। अगर यह कोड आॅफ कण्डक्ट लागू भी होगा तो केवल मजदूरों के संघर्षों के दम पर।
    म्यांमार में इस समय गारमेण्ट क्षेत्र में 2.5 लाख मजदूर काम करते हैं जिसमें महिलाओं की अच्छी खासी आबादी है। और अगले कुछ सालों में यह संख्या 10 लाख तक पहुंच जायेगी। साथ ही जैसे-जैसे गारमेण्ट क्षेत्र के मजदूरों की संख्या बढ़ती जा रही है उनके संघर्षों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। 2012-14 के दौरान 400 से ज्यादा संघर्ष की घटनाएं गारमेण्ट मजदूरों की हुयी हैं। 
    म्यांमार में लम्बे समय से सैनिक जुंटा का शासन रहा है। चार-पांच साल पहले जबसे वहां तथाकथित लोकतंत्र कायम हुआ है तब से वहां पूंजी निवेश बढ़ा है। म्यांमार की सरकार ने पूंजी निवेश को बढ़ाने के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना की है तथा देशी-विदेशी पूंजीपतियों को टैक्सों में भारी छूट दी है। सात साल तक टैक्सों में छूट तथा निर्माण क्षेत्र की कम्पनियों को 8 वर्ष तक टैक्सों में छूट की घोषणा की है। पूंजी निवेश बढ़ने का मुख्य कारण म्यांमार का सस्ता मजदूर है जो चीन, बांग्लादेश, कम्बोडिया से भी सस्ता है। सस्ती मजदूरी वाले चोटी के पांच देशों में इसका स्थान है। बांग्लादेश तथा कम्बोडिया में जहां मजदूरी 100 डालर के आस-पास है वहीं म्यांमार में इससे भी कम यानी 50-60 डालर के लगभग है। यहां का मजदूर दिन भर कड़ी मेहनत के बाद मात्र 1500-2000 क्यात यानी 1.5 -1.7 डालर तक घर ले जा पाता है। म्यांमार का यह सस्ता मजदूर देशी-विदेशी पूंजीपतियों को आकर्षित कर रहा है साथ ही उसकी कब्र खोदने वाले वर्ग को पैदा भी कर रहा है।
यूक्रेन में 9 व पश्चिमी वर्जीनिया में 1 मजदूर की मौत
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
    4 मार्च को सुबह यूक्रेन के दोन्तेस्क प्रांत में जेस्याद्को खान में विस्फोट होने से 9 मजदूरों की मौत हो गयी जबकि 23 मजदूर लापता हैं तथा 16 मजदूर घायल हो गये। यह खान सुरक्षा कारणों के लिहाज से लम्बे समय से बुरी स्थिति में चल रही थी। 
    यूक्रेन में कोयला खान के मजदूर इस समय वेतन, सुरक्षा व खानें बंद न किये जाने को लेकर संघर्षरत हैं। हजारों मजदूरों ने 3 मार्च से लेकर 5 मार्च तक चले प्रदर्शनों में भागीदारी की है। यूक्रेन पश्चिमी यूरोप का हिस्सा है बावजूद इसके यहां खान दुर्घटनाओं में मरने वाले मजदूरों की संख्या काफी अधिक है। यहां 1999 में 50, 2001 में 55, 2002 में 20 तथा 2006 में 13 मजदूर मारे गये हैं। 
    इसके साथ ही अमेरिका के पश्चिमी वर्जीनिया प्रांत में मार्शल काउण्टी कोल कम्पनी की एक कोयला खान मेक एलराॅय में छत गिरने से एक मजदूर की मौत हो गयी तथा दो मजदूर बुरी तरह घायल हो गये। 
    इस खान में होने वाली दुर्घटना आकस्मिक नहीं हैं। खानों की सुरक्षा के लिए बनी संस्था एमएसएचए (माइन सेफ्टी एण्ड हेल्थ एडमिनिस्ट्रेशन) ने इस खान को खान में होने वाली धूल व अन्य सुरक्षा व्यवस्था में लापरवाही के लिए 2014 में 970 बार तथा 2015 में अब तक 189 बार चेतावनी दी थी। रिकार्ड बताते हैं कि इस खान में 2014 में घायल होने की 47 तथा 2015 में अब तक 14 घटनायें घट चुकी हैं। इसको देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि यह दुर्घटना आकस्मिक है। 
    मार्शल काउण्टी कोल कम्पनी, मूरे इनर्जी कारपोरशन के अधीन है जिसका मालिक रावर्ट मूरे है जो रिपब्लिकन पार्टी को चंदा देने वाले बड़े दानदाताओं में है। मूरे इनर्जी कारपोरेशन अमेरिका की सबसे बड़ी निजी कोयला खान कम्पनी है। यह देश  में कई सहायक कम्पनियों के साथ दर्जनों कोयला खान चलाती है। जार्ज डब्ल्यू बुश ने खानों में सुरक्षा व्यवस्था देखने वाली संस्था एमएसएचए का गठन किया तो इसके अध्यक्ष पद पर पहली नियुक्ति डेविड लाॅरिस्की की की जो कि उटाह के हंटिगटन में इनर्जी वेस्ट माइनिंग कम्पनी में जनरल मैनेजर था। ऐसे में साफ समझा जा सकता है कि खानों में होने वाली दुर्घटनाओं व उसमें मरने वाले मजदूरों के लिए कौन जिम्मेदार है। 
    चाहे यूक्रेन हो या अमेरिका या फिर चीन या अन्य कोई देश, पूंजीपतियों व नापाक नेता-अधिकारियों के इस गठबंधन का तोड़े और नष्ट किये बिना मजदूरों की मौतों को नहीं रोका जा सकता है।   
हमारे समय में - शुभा
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
हम महसूस करते रहते हैं 
एक दूसरे की असहायता 
हमारे समय में यही है
जनतंत्र का स्वरूप

कई तरह की स्वाधीनता
है हमारे पास

एक सूनी जगह है
जहां हम अपनी असहमति
व्यक्त कर सकते हैं
या जंगल की ओर निकल सकते हैं

आत्महत्या करते हुए हम
एक नोट भी छोड़ सकते हैं
या एक नरबलि पर चलते
उत्सव में नाक तक डूब सकते हैं

हम उन शब्दों में 
एक-दूसरे को तसल्ली दे सकते हैं
जिन शब्दों को
हमारा यकीन छोड़ गया है  (साभारः कविताकोश)
अमेरिका के तेल शोधक कारखानों के मजदूरों की हड़ताल जारी
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
    अमेरिका में तेल शोधक कारखानों के हजारों मजदूरों की हड़ताल अब चैथे सप्ताह में प्रवेश कर गयी है। इस हड़ताल में अब टेक्सास व लुइसियाना के तेल शोधक व केमिकल प्लाण्ट के 1350 मजदूर भी शामिल हो गये हैं। शेल कम्पनी द्वारा 7वीं बार समझौते की जो शर्तें बतायी गयी हैं वे इतनी शर्मनाक हैं कि खुद यूएसडब्ल्यू उन्हें मानने को तैयार नहीं है। हालांकि इन शर्तों के बारे में यूएसडब्ल्यू कुछ भी बताने को तैयार नहीं है। 
    ज्ञात हो कि मजदूरों की सुरक्षा, वेतन व लाभों को लेकर यह हड़ताल हो रही है। यूएसडब्ल्यू ने इस हड़ताल में 63 रिफाइनरी में से मात्र 9 रिफाइनरी के 5400 मजदूरों को ही हड़ताल के लिए आह्वान किया है। यूएसडब्ल्यू शुरू से ही इस हड़ताल को बांध कर रखने की कोशिश कर रही है। लेकिन अब यह संघर्ष उससे बाहर होता जा रहा है। टेक्सास व लुइसियाना के तीन तेल शोधक कारखानों के 1350 मजदूर इसमें शामिल हो गये हैं। 
    यूएसडब्ल्यू की मजदूरों के संघर्ष को बांधकर रखने की नीति के कारण तेल कम्पनियों पर कोई दबाव नहीं बन पा रहा है और वे समझौते के लिए अपनी शर्तें लागू करवाना चाहती हैं। उनकी शर्तें क्या हैं, इस बारे में यूएसडब्ल्यू कुछ भी बताने को तैयार नहीं है। मजदूरों को भी समझ में आ रहा है कि यूनियन उनके हितों के साथ गद्दारी कर रही है।  
    पिछले साल पांच बड़ी तेल कम्पनियों एक्सिन मोबिल, शैल, शेवराॅन, बीपी और कोनोकोफिलिप्स का लाभ 90 अरब डालर था। और यह सब उन्होंने प्रकृति में प्राप्त तेल के अथाह भण्डार को बेचने के साथ-साथ मजदूरों की सुरक्षा में कटौती से भी कमाये। इसी का परिणाम हमें कुछ दिनों पहले एक्सिन मोबिल कम्पनी में देखने को मिला जब एक तेज धमाका हुआ और तीन मजदूर गम्भीर रूप से घायल हो गये। अमेरिकी सरकार इन कम्पनियों को कितना संरक्षण देती है यह इससे पता चलता है कि पिछले साल मैक्सिको की खाड़ी में बीपी कम्पनी ने भारी मात्रा में तेल का रिसाव किया लेकिन उसके खिलाफ  सुरक्षा प्रावधानों को लेकर कोई कार्यवाही नहीं हुई। यह वही अमेरिकी सरकार है जो पूरे विश्व में पर्यावरण को लेकर हल्ला मचाती रहती है।  
    आज ये तेल कम्पनियां खुलेआम कहती हैं कि ठेका प्रथा उनके लिए ज्यादा सही है। आज इन कम्पनियों को मजदूरों को जब चाहे रखने व निकालने की छूट मिली हुयी है। नौकरियों में कटौती कर कम मजदूरों से ज्यादा समय तक काम करवाना। यह वही अमेेरिका है जहां शिकागो शहर के मजदूरों ने आठ घंटे काम की लड़ाई के लिए संघर्ष किया और आज भी उन्हीं संघर्षों को याद करते हुए मई दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाता है। लेकिन आज इन तेल शोधक कारखानों के मजदूर 12-12 घंटे काम करने के लिए मजबूर हैं। ये कम्पनियां अकुशल मजदूरों से काम करवाती हैं और इसलिए मजदूरों के लिए खतरा बढ़ जाता है। 
    मजदूरों का संगठन यूएसडब्ल्यू मजदूरों की तरफ कम मालिकों के पक्ष के लिए ज्यादा काम कर रहा है। आखिर हो भी क्यों न जबकि यूनियन का अध्यक्ष गेरार्ड ओबामा के कारपोरेट बोर्ड में बैठता है और मजदूरों के शोषण में उसे भी हिस्सा मिलता है। गेरार्ड को मालिकों की सेवा करने के लिए 2 लाख डालर से ज्यादा अतिरिक्त पैसा मिलता है। यूनियन के बाकी पदाधिकारियों को भी उनके पदों के हिसाब से हिस्सा मिलता है। 
    अमेरिका एक साम्राज्यवादी देश है तथा यह पूरी दुनिया के मजदूरों का शोषण कर अपने मजदूरों के एक हिस्से को बेहतर जीवन परिस्थितियां देता रहा है। हालांकि वह भी मजदूर संघर्षों के दम पर ही हासिल हुआ था। लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिन नहीं रह सकती। पूंजीवादी शरीर अब बुढ़ापे की तरफ अग्रसर है जिसकी मरने वाली कोशिकाओं की संख्या, पैदा होेने वाली कोशिकाओं से ज्यादा है। और अब यह व्यवस्था अपने मजदूरों को बेहतर जीवन परिस्थितियां नहीं दे सकती। अब तो नया शरीर यानी ‘समाजवादी समाज’ ही मजदूरों को एक स्वस्थ शरीर यानी स्वस्थ जीवन दे सकता है। और मजदूरों को इसी के लिए लड़ने की जरूरत है। 
यूएसडब्ल्यू का गद्दारी भरा इतिहास
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
    1930 के दशक में अमेरिका में मजदूर संघर्ष चरम पर था जिसमें वामपंथी विचारधारा का भी प्रभाव था। 1937 में सीआईओ के नेतृत्व में लिटिल स्टील फैक्टरी में हड़ताल हुई जिसमें पुलिस ने मजदूरों का भयंकर दमन किया और 10 हड़ताली मजदूर उसमें मारे गये। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हड़ताल की लहर खत्म हुई और स्टील मालिकों के तमाम विरोध के बावजूद मजदूर वेतन वृद्धि, लाभ और कार्यपरिस्थितियों में सुधार करवाने में कामयाब हुए। 
    उसी समय स्टील वर्कर्स आर्गेनाइजिंग कमेटी यूएसडब्ल्यू के रूप में अस्तित्व में आयी। इस यूनियन में शुरूआत से ही फिलिप मूरे और डेविड मेकडोनाल्ड जैसे दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े लोग नेतृत्व में रहे। 1940 व 1950 के बीच कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े लोगों को यूनियन से बाहर निकालने का काम किया गया। बाद में यूएसडब्ल्यू ने 1955 में सीआईओ का एएफएल के साथ गठजोड़ में भूमिका निभायी और इस गठबंधन के साथ खुद यूएसडब्ल्यू भी अफसरशाही व अवसारवाद का शिकार होती गयी। 
    द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कुछ समय तक तो मजदूरों के संघर्ष में उफान आया और उनको सुविधायें मिलती रहीं लेकिन बाद में स्थिति ठीक नहीं रही।  मजदूरों में पुनः असंतोष पैदा होने लगा। और इसी कारण 1959 में यूएसडब्ल्यू ने हड़ताल का आह्वान किया तो उसमें 50,000 मजदूर सड़क पर उतर आया और यह हड़ताल 116 दिन चली। इस हड़ताल के बाद मजदूरों के वेतन में वृद्धि हुयी और उनका जीवन स्तर सुधरा तथा पेंशन व स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ मिला। 
    1970 तक यह स्थिति रही। और प्रति वर्ष 10 प्रतिशत के हिसाब से उनकी तनख्वाहें बढ़ती रहीं। इस समय तक स्थिति ऐसी थी कि यूएसडब्ल्यू की मात्र हड़ताल की धमकी ही उनकी मांगों को मनवाने के लिए पर्याप्त थी। 
    लेकिन 1970 के बाद स्थिति बदलने लगी। अमेरिकी उद्योग को जापान जैसे देशों से चुनौती मिलने लगी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुए पुनर्निर्माण का काम मंद होने लगा। और 1973-74 में अमेरिका मंदी में फंस गया। 1929 की मंदी के बाद से अब तक की सबसे बड़ी औद्योगिक छंटनी अमेरिका में हुयी। ऐसे समय में यूएसडब्ल्यू का असली चरित्र उजागर होने लगा। अब तक जो सुविधायें मजदूरों को मिल रही थीं वे यूएसडब्ल्यू की मजबूती के कारण उतनी नहीं मिल रही थीं जितनी कि अमेरिकी कम्पनियों द्वारा दूसरे देशों की लूट में से एक हिस्से के बतौर मिल रही थीं। जब वह लूट कम हुई तो इन कम्पनियों ने अपने यहां मजदूरों की छंटनी करनी शुरू कर दी। 
    ऐसे समय में यूएसडब्ल्यू ने मालिकों के पक्ष में काम करना शुरू किया। मजदूरों के असंतोष को कम करने तथा उनके संघर्ष को थामने का काम किया। यह काम उन्होंने यूनियन-मैनेजमेण्ट की संयुक्त कमेटी के माध्यम से किया। साथ ही मजदूरों के अंदर अंधराष्ट्रवाद की भावना पैदा करने का काम भी उसने किया। मजदूरों को बताया गया कि उनकी बदहाली का कारण जापान है। जैसे द्वितीय विश्व युद्ध में पर्ल हाबर पर उसने हमला किया था वैसे ही वह आज भी हमला कर रहा है। और इसी बीच पिट्सबर्ग, क्लीवलेंड, शिकागो, यंगस्टाउन व अन्य शहरों में कई स्टील फैक्टरियां बंद हो गयीं। हजारों मजदूर बेरोजगार हो गये। 
    मजदूर वर्ग ने अपनी इन परिस्थितियों से तंग आकर हड़ताल करनी शुरू कर दीं। 1980 में स्टील मजदूरों की हड़ताल हुई। इस हड़ताल में यूएसडब्ल्यू ने हड़ताल तोड़क की भूमिका निभायी। 1983 में जब फेलप्स डोज के 2200 तांबा खनिकों ने हड़ताल की तो यूएसडब्ल्यू ने उसको लम्बा खींचा व पुलिस ने मजदूरों का भयंकर दमन किया। यूएसडब्ल्यू ने इस दमन का कोई विरोध नहीं किया। 1986-87 में जब यूएसएक्स में 6 महीने लम्बी हड़ताल हुई तो यूएसडब्ल्यू ने मजदूरों को संघर्ष करने के लिए अकेला छोड़ दिया। और बाद में समझौते में यूएसडब्ल्यू हजारों मजदूरों को निकालने के लिए राजी हो गयी। यूएसडब्ल्यू के इस गद्दारी भरे व्यवहार को समाचार पत्रों ने भी छापा। यूएसडब्ल्यू की इसी गद्दारी की वजह से 1979 से 1995 तक कुल रोजगार 4,53,000 से 1,68,000 रह गये।    जब 1990 में अमेरिका के स्टील उद्योग में मंदी शुरू हुई तो यूएसडब्ल्यू ने इंटरनेशनल स्टील ग्रुप के अध्यक्ष विल्बर रोस के साथ मिलकर काम करना शुरू किया ताकि स्टील उद्योग को पुनर्गठित किया जा सके। इस पुनर्गठन का मतलब था स्थायी व ऊंची तनख्वाह वाले मजदूरों को बाहर करना तथा उनके स्थान पर कम तनख्वाह व ठेकेदारी के मजदूरों की भर्ती। मजदूरों को मिलने वाली पेंशन व स्वास्थ्य लाभ में कटौती। साथ ही मजदूरों की सुरक्षा व्यवस्था में कटौती करना भी इस पुनर्गठन का लक्ष्य था। 
    2001 में यूएसडब्ल्यू ने इंटरनेशनल स्टील ग्रुप व दिवालिया हो चुकी स्टील कम्पनी एलटीवी के विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जिसके फलस्वरूप 7500 रोजगार खत्म हो गये। तथा 50,000 रिटायर्ड व निकाले गये मजदूरों की स्वास्थ्य सुविधा खत्म करने का रास्ता साफ किया।  
    यूएसडब्ल्यू के अध्यक्ष गेरार्ड ने 2012 में ओबामा के पुनर्निर्वाचन के समय ओबामा का समर्थन किया। यह वही ओबामा है जिसने ओसा(ओकुपेशन सेफ्टी एण्ड हेल्थ एडमिनिस्ट्रेशन) के बजट में कमी की और मजदूरों की सुरक्षा व्यवस्था को खत्म करने का काम किया। यह ओबामा व गेरार्ड की जुगलबंदी ही थी कि जब ओबामा ने मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को विकसित करने का काम किया तो मजदूरों की तनख्वाहें तथा लाभांश इतने कम हो गये कि पूंजीपति चीन, मैक्सिको व दूसरे कम मजदूरी वाले देशों से वापस आने लगे। 
    जब जनवरी 2013 में ओहियो के कूपर टायर के मजदूरों ने वेतन कटौती के खिलाफ हड़ताल की तो यूएसडब्ल्यू ने 15 करोड़ डालर का फण्ड होने के बावजूद उनकी आर्थिक मदद नहीं की। बल्कि कूपर टायर के टेक्सरकाना, अर्कन्सास के प्लाण्ट में अलग से समझौता कर लिया जबकि फिन्डले प्लाण्ट के मजदूर अभी बाहर ही थे। और जो समझौता हुआ उसके अनुसार मालिकों को इस बात का अधिकार मिल गया कि वह तनख्वाहों का पुनर्निर्धारण कर सकें, ऊंची तनख्वाह वाले मजदूरों को निकाल सकें तथा नये मजदूरों को कम तनख्वाह पर रख सकें। 
    यूएसडब्ल्यू के नेतृत्व को पूंजीपतियों की इस सेवा के लिए बख्शीस भी मिलती है। पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का जो शोषण किया जाता है उसमें एक हिस्सा इनको भी मिलता है। गेरार्ड जो यूएसडब्ल्यू का अध्यक्ष है वह ओबामा के कारपोरेट बोर्ड में बैठता है और हर साल 2 लाख डाॅलर से ज्यादा अतिरिक्त अपने घर ले जाता है। इसी तरह यूनियन का उपाध्यक्ष जो इस समय तेल कम्पनियों से होने वाले समझौते में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, ने 2013 में 1,72,000 डाॅलर कमाये। इसी तरह अन्य पदाधिकारियों को भी उनकी हैसियत के हिसाब से पारितोषिक मिलता रहा है और यूएसडब्ल्यू मजदूरों के प्रतिनिधि के बजाय मालिकों के लिए औद्योगिक पुलिस का काम करती रही है। तेल शोधक कारखानों के मजदूरों को उसके इस चरित्र को पहचानकर अपने संघर्ष मजबूत करने की जरूरत है।  
मनहूस आजादी -नाजिम हिकमत
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
तुम बेच देते हो --
अपनी आंखों की सतर्कता, अपने हाथों की चमक.
तुम गूंथते हो लोइयां जिन्दगी की रोटी के लिए,
पर कभी एक टुकड़े का स्वाद भी नहीं चखते
तुम एक गुलाम हो अपनी महान आजादी में खटनेवाले ।
अमीरों को और अमीर बनाने के लिए नरक भोगने की आजादी के साथ
तुम आजाद हो !

जैसे ही तुम जन्म लेते हो, करने लगते हो काम और चिन्ता,
झूठ की पवनचक्कियां गाड़ दी जाती हैं तुम्हारे दिमाग में ।
अपनी महान आजादी में अपने हाथों से थाम लेते हो तुम अपना माथा ।
अपने अन्तःकरण की आजादी के साथ
तुम आजाद हो !

तुम्हारा सिर अलग कर दिया गया है धड़ से ।
तुम्हारे हाथ झूलते है तुम्हारे दोनों बगल ।
सड़कों पर भटकते हो तुम अपनी महान आजादी के साथ ।
अपने बेरोजगार होने की महान आजादी के साथ
तुम आजाद हो !

तुम बेहद प्यार करते हो अपने देश को,
पर एक दिन, उदाहरण के लिए, एक ही दस्तखत में
उसे अमेरिका के हवाले कर दिया जाता है
और साथ में तुम्हारी महान आजादी भी.
उसका हवाई-अड्डा बनने की अपनी आजादी के साथ
तुम आजाद हो !

वाल-स्ट्रीट तुम्हारी गर्दन जकड़ती है
ले लेती है तुम्हें अपने कब्जे में ।
एक दिन वे भेज सकते हैं तुम्हें कोरिया,
जहां अपनी महान आजादी के साथ तुम भर सकते हो एक कब्र ।
एक गुमनाम सिपाही बनने की आजादी के साथ
तुम आजाद हो !

तुम कहते हो तुम्हें एक इन्सान की तरह जीना चाहिए,
एक औजार, एक संख्या, एक साधन की तरह नहीं ।
तुम्हारी महान आजादी में वे हथकडि़यां पहना देते हैं तुम्हें।
गिरफ्तार होने, जेल जाने, यहां तक कि
फांसी पर झूलने की अपनी आजादी के साथ
तुम आजाद हो!

तुम्हारे जीवन में कोई लोहे का फाटक नहीं,
बांस का टट्टर या टाट का पर्दा तक नहीं ।
आजादी को चुनने की जरूरत ही क्या है भला --
तुम आजाद हो !
सितारों भरी रात के तले बड़ी मनहूस है यह आजादी ।
(अनुवादकः दिनेश पोसवाल, साभारः कविताकोश)
पोलैण्ड के हजारों कोयला मजदूर हड़ताल पर
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    पोलैण्ड की कोयला खनन कम्पनी जेएचडब्ल्यू के हजारों मजदूर 2 फरवरी से हड़ताल पर हैं। ये मजदूर अपनी सामाजिक लाभों में कटौती व दस ट्रेड यूनियन नेताओं को निलम्बित किये जाने के विरोध में हड़ताल पर हैं। इन हड़ताली मजदूरों के समर्थन में सरकारी स्वामित्व वाली कम्पनी कोम्पेनिया वेग्लोवा के 14 खानों के मजदूर भी उतर आये हैं। इस कम्पनी में 49000 मजदूर काम करते हैं। 
    2 फरवरी की हड़ताल की पृष्ठभूमि में 7 जनवरी को शुरू हुई कोयला खनिकों की हड़ताल है। पोलैण्ड की संसद ने जनवरी में कोयला खानों से संबंधित एक बिल पेश कर सरकारी स्वामित्व वाली कम्पनी कोम्पेनिया वेग्लोवा की 14 खानों में से 4 खानों को बंद करने का फैसला लिया था। ये चार खानें हैं- ब्रेजेस्जेस्क, बाइटम, स्लास्का और ग्लिबिस। सरकार का कहना था कि ये चार खानें अत्यधिक घाटे पर चल रही हैं इसलिए इनको बंद कर दिया जाये। इन चार खानों के बंद होते ही 5000 मजदूरों की नौकरी चली जाती। और अप्रत्यक्ष रूप से 20,000 लोगों की आजीविका पर खतरा उत्पन्न हो गया था और इसलिए इन चारों के मजदूर हड़ताल पर उतर आये और उन्होंने हड़ताल शुरू कर दी। बाद में इनके समर्थन में बाकी दस खानों के मजदूर आ गये व जेएचडब्ल्यू व केएचडब्ल्यू के मजदूरों ने भी हड़ताल को समर्थन दिया। बाद में हालांकि सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे।
    जेएचडब्ल्यू का प्रबंधन इस बात से सख्त नाराज था कि उसके मजदूरों ने हड़ताल में भाग लिया है। उसने अपने यहां हड़ताल का नेतृत्व करने वाले 10 मजदूर नेताओं को बाहर निकाल दिया तथा मजदूरों को मिलने वाले सामाजिक लाभों में कटौती की घोषणा की। इसके बाद सामाजिक लाभों में कटौती न होने देने व 10 निलम्बित मजदूर नेताओं को निलम्बित किये जाने के खिलाफ मजदूर हड़ताल पर जाने को विवश हुए। 
    पोलैण्ड में कोयला खनन उद्योग प्रमुख उद्योग धंधों में से एक है। यह यूरोप का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक देश भी है। 2008-09 में आई आर्थिक मंदी का यहां की अर्थव्यवस्था पर कम प्रभाव पड़ा। वर्ष 2009 से इसकी अर्थव्यवस्था की गति धीमी होनी शुरू हो गयी। 2011 में जहां इसकी जीडीपी की दर 4.5 प्रतिशत थी वहीं 2012 में यह 1.9 व 2013 में 1.3 प्रतिशत रह गयी।  ऐसे में यहां की सरकारें भी उसी रास्ते पर चल पड़ी हैं जैसे दूसरे देशों की सरकारें कर रही हैं- अपने घाटे के संस्थान बंद करना और निजीकरण की नीतियों को बढ़ावा देना। 
    पूंजीपतियों के लिए आर्थिक मंदी एक ऐसा सुनहरा अवसर साबित होता है जिसकी आड़ लेकर वे मजदूरों की छंटनी कर देते हैं, उनके सामाजिक लाभों में कटौती करते हैं, और सरकारी संस्थानों/उद्योगों को औने-पौने दामों में खरीद लेते हैं। पोलैण्ड में भी सरकार जिन खानों को बंद करने की बात कर थी उन पर वहां के अरबपतियों की नजर थी। तीन खानों को तो एक पूंजीपति दोेमेरेकी ही खरीदने की पेशकश कर रहा था। कोई भी पूंजीपति घाटे का सौदा नहीं करता है। ऐसे में अगर पूंजीपति उन खानों को खरीदने की बात कर रहा था तो जाहिर था कि वह वहां से लाभ ही कमाता। हां! वह ऐसा तब ही कर सकता था जब वहां अस्थायी/ठेके के मजदूर रखता। 
    पोलैण्ड ने 1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण का रास्ता पकड़ा और आज वहां के पूंजीपति वर्ग व यूरोपीय पूंजीपति की मांग है कि सरकार अपने हाथ अर्थव्यवस्था से खींचे, श्रम कानूनों को ढीला करे, नौकरशाही खत्म करे तथा टैक्सों का बोझ कम करे। परन्तु जेएचडब्ल्यू के मजदूरों का प्रतिरोध व उनके समर्थन में हजारों अन्य मजदूरों का उतर आना यह साबित करता है कि पूंजीपतियों की राह इतनी आसान नहीं है। 
नार्वेः वर्किंग एनवायरमेंट एक्ट के विरोध में यूनियनें लामबंद
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    वर्किंग एनवायरमेण्ट एक्ट के जरिये मजदूरों पर होने वाले हमलों के विरोध में नार्वे की तीनों बड़ी ट्रेड यूनियनें एलओ(द नार्वेयिन कनफेडेरेशन आॅफ ट्रेड यूनियन्स), वाईएस(द कनफेडेरेशन आफ वोकेशनल यूनियन) और यूएनआईओ (द कनफेडेरेशन आफ यूनियन्स फाॅर प्रोफेशनल्स) सड़कों पर उतर आयी हैं। उन्होंने 28 जनवरी को 2 घंटे की आम हड़ताल करके इस बात के स्पष्ट संकेत दिये। इनकी सदस्य संख्या 15 लाख है। 
    इस एक्ट के बारे में नार्वे के श्रम एवम सामाजिक मंत्री रावर्ट एरिकसन का कहना है कि यह समय ज्यादा आधुनिक है और आज के हिसाब से काम करने के लिए माहौल बनाना जरूरी है। यूनियनों का कहना है कि यह नार्वे के सामाजिक माॅडल की बुनियाद ही हिला देगा। 
    नार्वे के श्रम एवं सामाजिक मंत्री ने क्रिसमस से पहले सरकारी श्वेत पत्र इस संबंध में जारी किया और अब यह संसद की श्रम एवं सामाजिक मामलों की स्टेण्डिंग कमेटी के पास विचाराधीन है तथा 24 मार्च को यह वोटिंग के लिए सदन के पटल पर रखा जायेगा। सरकार इस एक्ट को पास करने के लिए जोर लगा रही है। 
    इस एक्ट की मुख्यतया बात यह है कि मालिकों को अपने संस्थानों/फैक्टरियों में 12 महीने के लिए संविदा/ठेके पर मजदूरों/कर्मचारियों को रखने की छूट मिल जायेगी। हालांकि बाद में इस एक्ट में मालिकों को नियंत्रित करने के लिए भी बातें जोड़ी गयी हैं। जैसे कि 12 महीने के बाद यदि उसी काम पर उसे किसी की नियुक्ति करनी है तो उसे 12 महीने तक इंतजार करना पड़ेगा, किसी भी संस्थान में 15 प्रतिशत से ज्यादा अस्थायी कर्मचारी नहीं हो सकते आदि। 
    इस एक्ट के पास हो जाने के बाद सरकार व पूंजीपति दोनों इस बात का दावा कर रहे हैं कि इससे रोजगार के अवसर बढ़ जायेंगे। श्रम एवम सामाजिक मंत्री का कहना है कि अभी श्रम बाजार से 6 लाख लोग बाहर हैं। इस एक्ट के पास होने के बाद उन्हें भी काम का अवसर मिल सकेगा। 
    लेकिन नार्वे की अर्थव्यवस्था पर हम थोड़ी सी नजर डालें तो पायेंगे कि सरकार की नीयत ठीक नहीं है। नार्वे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर देश है। तेल व गैस के मामले में यह एक धनी देश है। आज प्रति व्यक्ति तेल व गैस उत्पादन में मध्य एशिया के बाद इसका ही स्थान है। प्राकृतिक गैस निर्यात में इसका तीसरा व तेल निर्यात में सातवां स्थान है। सरकार के पास अपने खर्च के अलावा 820 अरब डालर का अतिरिक्त कोष है।
    ऐसी स्थिति में भी यदि 6 लाख लोग श्रम बाजार से बाहर हैं तो यह सरकार पर एक प्रश्न चिह्न है। वह काम के घंटे कम करके रोजगार के अवसर बढ़ा सकती है। परन्तु वह ऐसा न करके कांट्रेक्ट पर रखने की बात कर रही है। यह सीधे-सीधे पूंजीपतियों के फायदे की बात है और इसलिए वे इस एक्ट के पास होने की उम्मीद में खुश हो रहे हैं। इससे उन्हें जब चाहे तब मजदूरों को निकालने का अधिकार मिल जायेगा। 
    पूंजीपति वर्ग के नुमांइदों का कहना है कि ट्रेड यूनियनें इस कानून का खामख्वाह ही विरोध कर रही हैं। उनके अनुसार यह व्यवस्था मजदूरों के फायदे के लिए ही है। इससे रोजगार के अवसर ज्यादा सृजित होंगे और अगर ऐसा नहीं होता है तो इस कानून को वापस भी लिया जा सकता है।
    लेकिन ट्रेड यूनियनें उनकी इस बात पर भरोसा नहीं कर रही हैं। वे इसे मजदूरों की नौकरी की सुरक्षा दांव पर लगने व उनके काम के घंटे बढ़ाने वाला मान रही हैं। इसलिए वे लगातार मजदूरों से इसका विरोध करने की बात कह रहे हैं। इससे बढ़कर उनके अपने आधार को बचाने की भी चुनौती है। वे सभी रस्मी तौर पर संघर्ष में नहीं उतरेंगे तो अपना आधार व साख खो बैठेंगे। 
    आर्थिक मंदी ने भले ही नार्वे की अर्थव्यवस्था को तबाह न किया हो परन्तु पूरी दुनिया में चल रहे श्रम कानूनों में सुधार प्रक्रिया ने यहां के पूंजीपति वर्ग को भी ज्यादा मुनाफा कमाने का रास्ता दिखला दिया है। और वह उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। इस रास्ते में मजदूर उसे रोक पाता है या नहीं, यह मजदूरों की वर्गीय चेतना पर निर्भर करता है। 
अमेरिका में तेल शोधक कारखानों के हजारों मजदूर हड़ताल पर
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    अमेरिका में त्रिवार्षिक समझौते के लिए होने वाली वार्ता फेल हो जाने के बाद यूएसडब्ल्यू ने 9 तेल शोधक कारखानों के 5400 मजदूरों से हड़ताल का आह्वान किया है। यह वार्ता यूएसडब्ल्यू व शैल कम्पनी के बीच चल रही थी। इन तेल शोधक कारखानों में टेक्सास, केंटुकी, केलीफोर्निया और वाशिंगटन के हैं। वैसे तो त्रिवार्षिक समझौते में यूनियन की मुख्य मांग वेतन वृद्धि की है परन्तु इस बार मजदूरों का दबाव इस बात के लिए भी है कि यूनियन समझौते में मजदूरों की सुरक्षा व्यवस्था का भी सवाल उठाये।
    2012 में भी जब त्रिवार्षिक समझौता हुआ था तब भी अंतिम क्षणों में जाकर ही समझौता हो पाया था। 2012 के बाद से इन कम्पनियों के शेयरों के भाव दुगुने हो गये हैं। इन कम्पनियों के सीईओं करोड़ों डालर वेतन के रूप में ले रहे हैं लेकिन मजदूरों की वेतन वृद्धि के लिए ये कम्पनियां राजी नहीं हो रही हैं। अब तो वे तेल बाजार में गिरती कीमतों को बहाना बना रही हैं। 
    इस बार के समझौते में वेतन वृद्धि के अलावा मजदूरों की सुरक्षा व्यवस्था भी एक बड़ा मुद्दा है।  2010 में वाशिंगटन में टेसोरो में विस्फोट होने से 7 मजदूरों की मौत हो गयी थी लेकिन अभी तक उस घटना के लिए किसी को भी जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। अमेरिका के तेल शोधक कारखानों में होने वाली दुर्घटनाओं की संख्या यूरोप से तीन गुनी है।   
    मजदूरों की मांगों को यूनियन कितना उठाती है यह यूनियन के जुझारूपन पर निर्भर करती है। परन्तु यूएसडब्ल्यू के व्यवहार से ऐसा नहीं लगता है कि वह मजदूरों की मांगोें के लिए गंभीरतापूर्वक प्रबंधक के साथ बातचीत कर रही होगी। उसने जब हड़ताल का आह्वान किया है तो उसे 65 में से मात्र 9 कारखानों तक सीमित कर दिया है। इन कारखानों में 30,000 मजदूर काम करते हैं परन्तु मात्र 5400 मजदूर ही हड़ताल पर हैं। यूएसडब्ल्यू का समझौतावादी रूख इस बात से भी जाहिर होता है कि 1980 की तीन सप्ताहों की हड़ताल के बाद से अभी तक कोई हड़ताल नहीं हुई है। 
    जब ओबामा प्रशासन ने ओसा(ओकुपेशन सेफ्टी एण्ड हेल्थ एडमिनिस्ट्रेशन) के बजट में कटौती की और इस कारण 59,000 मजदूरों की सुरक्षा व्यवस्था को देखने के लिए मात्र 1 इंस्पेक्टर ही रह गया तब यूएसडब्ल्यू ने इसके खिलाफ कोई संघर्ष नहीं छेड़ा। क्योंकि तब यह सीधे-सीधे राजनीतिक संघर्ष बन जाता जो कि यूनियन नहीं चाहती। उसने मजदूरों को केवल आर्थिक सोच तक ही सीमित रखा। यूएसडब्ल्यू के अध्यक्ष जो कि ओबामा के कारपोरेट बोर्ड में बैठता हो उससे आखिर और क्या उम्मीद की जा सकती है।
     यूनियन के इस चरित्र को वहां के मजदूर भी समझते हैं और इसलिए उन्होंने अलग से एक हड़ताली कमेटी बनायी है ताकि हड़ताल को अन्य उद्योगों में भी फैलाया जाये। वे अपनी लड़ाई में कितना सफल हो पाते हैं यह भविष्य की बात है लेकिन यह बात साफ है अब मजदूर संघर्ष तेज ही होंगे। 
बांग्लादेशः  प्लास्टिक फैक्टरी में आग लगने से 13 मजदूरों की मौत
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    31 जनवरी को बांग्लादेश की नसीम प्लास्टिक फैक्टरी में आग लगने से 13 मजदूरों की मौत हो गयी और दर्जनों मजदूर घायल हो गये। शायद यह मजदूरों का सौभाग्य ही था कि उस दिन सप्ताह का अंतिम दिन होने के कारण मजदूरों की संख्या कम थी अन्यथा मरने वाले मजदूरों की संख्या ज्यादा होती। 
    बांग्लादेश में पिछले दो-तीन सालों में बिल्डिंग हादसे व आग लगने से हजारों मजदूर मारे गये हैं। हर हादसे के बाद मजदूरों की सुरक्षा के कड़े इंतजाम करने की बात होती है परन्तु वे सिर्फ हवाई बातें ही बन कर रह जाती हैं। जब गारमेण्ट फैक्टरी ताजरीन फैशन में आग लगने से 112 मजदूर मारे गये तब वालमार्ट, गेप जैसी नामी-गिरामी ब्रांडेड कम्पनियों ने मजदूरों की सुरक्षा को लेकर संघ बनाने का तय किया ताकि ऐसी घटना दुबारा न हो लेकिन उसके बाद भी मजदूरों के साथ होेने वाले हादसे रुके नहीं हैं। आज भी ताजरीन व राणा प्लाजा में सावर फैक्टरी में मारे गये मजदूर के परिजनों को मुआवजा तक नहीं मिला है।  
    ऐसा नहीं है कि इन हादसों को कम नहीं किया जा सकता या रोका नहीं जा सकता। लेकिन जब व्यवस्था ऐसी हो जिसमें सुरक्षा की बात करने वाले तथा उसको लागू करने वाले ही इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार हों। तथा उनमें इस पर मौन सहमति या समझौता हो कि मजदूरों पर होने वाले खर्च को कम किया जाये, उनके वेतन में कटौती के साथ-साथ उनकी सुरक्षा व्यवस्था में भी कमी की जाये तो फिर मजदूरों की सुरक्षा व्यवस्था की बातें सिर्फ हवाई किले बनकर रह जाती हैं। 
    बांग्लादेश के अंदर पूंजीनिवेश करने वाले वालमार्ट व गेप जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बांग्लादेश जैसे मुल्कों में इस शर्त पर ही निवेश करती हैं कि बांग्लादेश के शासकवर्ग अपने यहां श्रम कानूनों को ढीला करे तथा मजदूरों को लूटने की छूट दे। तभी तो मंदी के समय में इन कम्पनियों का कारोबार ज्यादा विस्तार न पाने के बावजूद मुनाफा कम होने के बजाय बढ़ता है। साथ ही इन देशों का शासक वर्ग भी यही चाहता है। और फिर जब श्रम कानूनों में ढील आनी शुरू होती है तो बड़े पूंजीपतियों के साथ-साथ छोटा पूंजीपति भी इनसे फायदा उठाता है।
     बांग्लादेश की नसीम प्लास्टिक फैक्टरी या अन्य होने वाले छोेटे-मोटे हादसों के पीछे साम्राज्यवादी पूंजी का दबाव व खुद उनके देश के बड़े पूंजीपति हैं। बांग्लादेश के मजदूरों को इनसे संघर्ष करने की जरूरत है।   
हिन्दू सांसद -असद जैदी
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
आपका पानी बेस्वाद
आपका खाना खराब
आपकी जबान गलीज
आपकी पोशाक नकली
आपका घर बेहूदा
आपका बाहर बेकार
आपकी रूह लापता
आपका दिल मुर्दार
आपका जिस्म आपसे बेजार
आपका नौकर भी है आपसे नाराज
मेरा वोट लिये बगैर भी
आप मेरे सांसद हैं
आपको वोट दिये बगैर भी
मैं आपकी रिआया हूं

अचानक आमने-सामने पड़ जाने पर
हम करते हैं एक-दूसरे को
विनयपूर्वक नमस्कार।
वैश्विक तेल क्षेत्र में मजदूरों की छंटनी
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    आजकल वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में कमी लगातार जारी है। और इस गिरावट ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि पूंजीवादी समाज में उत्पादन चाहे सस्ता हो या अथवा महंगा उसकी मार मजदूर वर्ग को दोनों ही परिस्थितियों में झेलनी पड़ती है। तेल की कीमतों में गिरावट के कारण तेल क्षेत्र में लगी कम्पनियों ने अपने यहां मजदूरों की छंटनी कर मजदूर वर्ग की परेशानियों को और बढ़ा दिया है। साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से उन क्षेत्रों पर भी प्रभाव डालता है जो मजदूर वर्ग के सहारे अपनी जीविका चला रहे हैं। 
    सबसे पहले बात करते हैं तेल क्षेत्र में सेवा प्रदान करने वाली विश्व की सबसे बड़ी कम्पनियों ह्यूगेस व स्कमबर्गर की। इन दोनों ही कम्पनियों ने अपने यहां क्रमशः 7000 व 9000 मजदूरों की छंटनी करने का फैसला लिया है। बेकर ह्यूगोस का कारोबार जहां 90 देशों में फैला हुआ है वहीं स्कमबर्गर का व्यापार 85 देशों में फैला हुआ है। बेकर ह्यूगोस के मजदूरों की यह छंटनी कुल मजदूरों की 11 प्रतिशत तो स्कमबर्गर की 7 प्रतिशत है। स्कमबर्गर के सीईओ का कहना है कि तेल क्षेत्र में छंटनियां अभी खत्म नहीं हुयी हैं। 
    यू.एस. आॅयल इंडेक्स के वेस्ट टेक्सास इण्टरमीडिएट में तेल की कीमतें कुछ माह पूर्व के 110 डाॅलर से गिरकर 44 डालर पर आ गयी हैं। और इस कमी के कारण शैल तेल का उत्पादन के साथ-साथ कनाडा के टार शेन्ड उद्योग पर भी प्रभाव पड़ा है। जाहिर है कि इस क्षेत्र के मजदूरों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा है। 
    डेलास फेडरल रिजर्व के अनुसार अकेले टेक्सास में ही इस गर्मी के अंत तक 1,28,000 नौकरियां खत्म हो सकती हैं। एमबीआई इनर्जी सर्विसेज के सीईओ जिम अर्थोड ने सीएनएन को बताया कि उत्तरी डेकोटा के विलियम्स काउण्टी क्षेत्र में जो कि शैल बूम का क्षेत्र है, इस जून तक 20,000 नौकरियों की छंटनी हो सकती है। 
    इसके अलावा कई सारी कंपनियां जिनमें यूएस स्टील, एपाचे कारपोरेशन, सनफाॅर एनर्जी, एनसाइन एनर्जी सर्विसेज, हरक्यूलस आॅफशोर, आर्सेलर मित्तल आदि कम्पनियां हैं जो अपने यहां मजदूरों की छंटनी कर रही हैं। 
    तेल क्षेत्र से जुड़े मजदूरों की छंटनी तो हो ही रही है, इसके अलावा ये मजदूर जिन क्षेत्रों में रहते हैं वहां के रेस्टोरेण्ट, खुदरा व्यवसायी और दूसरे सेवा प्रदान करने वाले क्षेत्रों के मजदूरों पर इन छंटनियों का प्रभाव पड़ेगा। 
आईएलओ रिपोर्टः द.अफ्रीका में बेरोजगारी की भयावह स्थिति
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
    आई.एल.ओ. द्वारा 2015 के लिए विभिन्न देशों में बेरोजगारी की स्थिति के बारे में रिपोर्ट देते हुए बताया गया है कि बेरोजगारी के मामले में विश्व में द.अफ्रीका का आठवां स्थान है। स्थिति यह है कि रोजगार के मामले में सबसे खराब स्थिति वाले देशों ग्रीस व स्पेन से भी इसका स्थान आगे है। ग्रीस व स्पेन का क्रमशः नौवां व दसवां स्थान है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अगले पांच वर्षों में यह स्थिति काबू में आने वाली नहीं है। 
    द.अफ्रीका 1994 में आजाद हुआ था। उस समय यहां बेरोजगारी की दर 20 प्रतिशत थी और विश्व की बेरोजगारी तालिका में इसका स्थान 18 वां था। उसके बाद 1995 के वर्ष को छोड़ दिया जाये (जब इसका स्थान 16.9 प्रतिशत के साथ 26वां था) तो यह दर लगातार बढ़ती ही गयी है। अगले पांच वर्षों में यह स्थिति सुधरने की बजाय इसको 6वें स्थान पर ले जाने वाली है। 
    यह स्थिति सामान्य बेरोजगारी की है। यदि युवा वर्ग में बेरोजगारी की स्थिति की बात की जाये तो यह 52.5 प्रतिशत है। ऐसे में सहज ही कल्पना की जा सकती है कि जिस देश में दो में से एक युवा बेरोजगार हो वहां के हालात क्या होंगे। 
जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे 
ब्रेख्त की याद मेंः  जन्म दिन 10 फरवरी 1898
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
जर्मनी में
जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे
और यहां तक कि
मजदूर भी 
बड़ी तादाद में 
उनके साथ जा रहे थे
हमने सोचा
हमारे संघर्ष का तरीका गलत था
और हमारी पूरी बर्लिन में 
लाल बर्लिन में 
नाजी इतराते फिरते थे
चार-पांच की टुकड़ी में 
हमारे साथियों की हत्या करते हुए
पर मृतकों में उनके लोग भी थे
और हमारे भी
इसलिए हमने कहा
पार्टी में साथियों से कहा
वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं
क्या हम इंतजार करते रहेंगे
हमारे साथ मिलकर संघर्ष करो
इस फासिस्ट विरोधी मोरचे में
हमें यही जवाब मिला
हम तो आपके साथ मिल कर लड़ते 
पर हमारे नेता कहते हैं
इनके आतंक का जवाब लाल आतंक नहीं है
हर दिन 
हमने कहा
हमारे अखबार हमें सावधान करते हैं
आतंकवाद की व्यक्तिगत कार्रवाइयों से 
पर साथ-साथ यह भी कहते हैं
मोरचा बना कर ही
हम जीत सकते हैं
कामरेड, अपने दिमाग में यह बैठा लो,
यह छोटा दुश्मन
जिस साल दर साल 
काम में लाया गया है
संघर्ष से तुम्हें बिल्कुल अलग कर देने में
जल्दी ही उदरस्थ कर लेगा नाजियों को
फैक्टरियों और खैरातों की लाइन में
हमने देखा है मजदूरों को
जो लड़ने के लिए तैयार हैं
बर्लिन के पूर्वी जिले में
सोशल डेमोक्रेट जो अपने को लाल मोरचा कहते हैं
जो फासिस्ट विरोधी आंदोलन का बैज लगाते हैं
लड़ने के लिए तैयार रहते हैं
और शराबखाने की रातें बदले में मुंजार रहती हैं 
और तब कोई नाजी गलियों में चलने की हिम्मत नहीं कर सकता
क्योंकि गलियां हमारी हैं
भले ही घर उनके हों। 
(अंग्रेजी से अनुवाद: रामकृष्ण पांडेय)
ब्राजीलः आॅटो कम्पनियों में छंटनी के विरोध में हजारों मजदूर हड़ताल पर
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
ब्राजील की आॅटो राजधानी साओ पाउलो में बृहस्पतिवार 8 जनवरी को वाॅक्सवैगन कम्पनी के 11,000 मजदूर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चल गये और अगले ही दिन उसी इलाके की मर्सिडीज वेन्ज के हजारों मजदूरों ने 24 घंटे की हड़ताल का ऐलान कर दिया। यह हड़तालें मजदूरों की छंटनियों के विरोध में हैं। जहां एक ओर वाॅक्सवैगन के मजदूर अपने 800 साथियों की छंटनी के खिलाफ संघर्षरत हैं वहीं मर्सिडीज वैन्ज के 1000 से ज्यादा मजदूरों की नौकरी छीनी जा चुकी है।
पिछले दशक से ब्राजील आॅटो कम्पनियों के लिए एक महत्वपूर्ण निवेश का अड्डा बना हुआ है। आज यह विश्व में आॅटो वाहन बनाने का चौथा बड़ा देश है। और उम्मीद की जा रही थी कि 2015 तक यह जापान को पीछे छोड़कर तीसरे स्थान पर आ जायेगा। पहले स्थान पर स.रा.अमेरिका व दूसरे स्थान पर चीन है। लेकिन पिछले दो-तीन सालों में जहां ब्राजील का घरेलू आॅटो बाजार सिमटा है वहीं आॅटो वाहन व कल-पुर्जों के निर्यात में भी कमी आई है। ब्राजील के घरेलू बाजार में 7 प्रतिशत की गिरावट आई है और अर्जेन्टिना जहां ब्राजील अपने निर्यात का 75 प्रतिशत हिस्सा निर्यात करता है उसमें 40 प्रतिशत की कमी आई है।
ब्राजील में वाॅक्सवैगन, जनरल मोटर्स, पीएसए पिग्योट, मेन, मर्सिडीज वेन्ज, फोर्ड जैसी कम्पनियां अपने वाहन बना रही हैं। और सभी कम्पनियां अपने यहां मजदूरों को जबर्दस्ती अवकाश पर भेज रही हैं। पिछले साल अगस्त में जनरल मोटर्स ने भी 930 मजदूरों को पांच महीने का जबर्दस्ती का अवकाश दिया था। लेकिन आॅटो कम्पनियां केवल छुट्टी देने या कुछ दिनों के ले आॅफ से ही संतुष्ट नहीं है, वे उससे और भी ज्यादा चाहती हैं। जब इस बार वाॅक्सवैगन में हड़ताल हुयी तो वाॅक्सवैगन के प्रवक्ता ने स्पेन की न्यूज एजेंसी से बातचीत में बताया कि बाजार में बढ़ती परिस्थितियों में सामूहिक छुट्टियां देने या कान्ट्रेक्ट खत्म करना ही काफी नहीं है। उनका साफ सा मतलब मजदूरों की छंटनी करने से था। ऐसा नहीं है कि आॅटो कम्पनियों अपने यहां मजदूरों की छंटनी नहीं कर रही हैं। आॅटो सेक्टर में 2013 में जहां 1,56,970 कर्मचारी काम कर रहे थे वहीं 2014 के अंत में इनकी संख्या घटकर 1,44,623 रह गयी। कम्पनियां अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए और ज्यादा छंटनियां करना चाहती हैं।
ब्राजील में काफी लम्बे समय से वर्कर्स पार्टी की सत्ता रही है। और वहां एक तरह के लूला समाजवाद का भ्रम बना रहा है परन्तु जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में संकट बढ़ा है वैसे-वैसे यह पर्दा उतरता जा रहा है। यहां तक कि फ़ोर्ब्स पत्रिका ने कहा कि डेलिमा रूसेफ जो एक समय में मार्क्सवादी थीं अब पूंजीवादी में बदल गयी हैं। और यह बात उस समय और ज्यादा सच साबित हुयी जब पिछले साल मेटल वर्कर्स व दूसरी यूनियनों के सहयोग से चुनाव जीतने के तुरंत बाद रूसेफ ने अपने वित्त मंत्री के रूप में जोकिम लेवी को नियुक्त किया जो आईएमएफ का पूर्व अधिकारी है और शिकागो यूनिवर्सिटी से पढ़ा हुआ तथा ब्राजील में नवउदारवादी नीतियों का समर्थक रहा है और उसको कटौती कार्यक्रम तैयार करने के लिए कहा।

आज जब दुनिया की अन्य अर्थव्यवस्था की तरह ब्राजील की अर्थव्यवस्था भी मंदी का शिकार है तो पूंजीपति वर्ग की नीतियों को लागू करवाने के लिए ऐसे व्यक्तियों की जरूरत पड़ रही है जो खुलकर उसका पक्ष लें। अब राजनीति ज्यादा कठोर तरीके से पूंजीपति वर्ग की सेवा कर रही है जिससे मजदूर वर्ग के सामने वामपंथी नकाब पहने नेताओं का चेहरा ज्यादा स्पष्ट हो रहा है तथा वर्ग संघर्ष की जमीन ज्यादा पुख्ता होती जा रही है।
‘मेड इन चाइना’ और मजदूरों की दुर्घटनाओं में होती मौतें
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
होली हो या दीपावली, रक्षा बंधन हो या करवाचौथ, चाहे क्रिसमस या फिर कोई भी त्यौहार बाजार में चीन के बने उत्पाद आम आदमी का मन मोह लेते हैं और भारत-चीन सीमा विवाद की लाख खबरों के बावजूद चीन के बने उत्पादों को अपने घर लाते हैं। और चीन के सस्ते उत्पादों को सराहते हैं। हाल ही में बने प्रधानमंत्री मोदी भी ‘मेड इन चाइना’ की तर्ज पर ‘मेक इन इण्डिया’ का नारा देते हैं और उसको लागू करवाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। लेकिन मेड इन चाइना के स्याह पक्ष भी हैं जिनको चीन के अंदर होने वाली दुर्घटनायें बार-बार उजागर करती हैं।
नई साल की शुरूआत में ही चीन के गुआंगडांग प्रांत के जोशान शहर के शुंदे जिले में फुवा इंजीनियरिंग मैन्युफेक्चरिंग फैक्टरी में एक गैस विस्फोट में 17 मजदूरों की मौत हो गयी और 33 अन्य घायल हो गये। कुनशान प्रांत में आॅटोपार्ट बनाने वाली कम्पनी में कुछ माह पहले ही भयंकर दुर्घटना में कम से कम 75 लोग मारे गये थे। उसके दोषियों को अभी सजा भी नहीं मिल पाई थी कि यह दूसरी बड़ी दुर्घटना हो गयी। फुवा इंजीनियरिंग मैन्युफैक्चरिंग फैक्टरी बड़ी गाडि़यों के एक्सल बगैरह पार्ट्स बनाती हैै।
दरअसल मेड इन चाइना का सस्ता माल भारत व अन्य देशों के बाजारों में पटा पड़ा है उसके पीछे चीन के मजदूरों का अथाह शोषण है जिसके दम पर चीन का पूंजीपति वर्ग इतना सस्ता माल बना पाता है। और सस्ता माल बनाने के लिए पूंजीपति वर्ग ने जहां मजदूरों की रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली पेंशन छीन ली है वहीं मजदूरों के कार्यस्थलों की सुरक्षा घटाकर उसके जीवन को ही अनिश्चित बना दिया है। दशकों पहले जो किसान मजदूर बने वे आज पेंशन के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिसे हम शेनजेन में चल रहे मजदूर संघर्ष में देख सकते हैं जहां रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंचने वाले मजदूर संघर्ष कर रहे हैं।
पिछले साल में लगातार बढ़ रही हड़ताल व प्रदर्शन मजदूर वर्ग के बीच बढ़ती बैचेनी को उजागर करते हैं। हांगकांग स्थित एनजीओ चाइना लेबर बुलेटिन ने एक रिपोर्ट में बताया कि हड़तालों व प्रदर्शनों की संख्या पिछले साल के मुकाबले दुगुनी हो चुकी है। पिछले साल के चैथे पखवाड़े के मुकाबले तीन गुना विरोध प्रदर्शन (569) हुए। वहीं इस साल विरोध प्रदर्शनों की संख्या 1378 है।

चीन में 2014 के 11 महीनों में 2,69,000 औद्योगिक दुर्घटनायें हुई हैं जिसमें 57,000 लोग मारे गये हैं। इसकी वजह मेड इन चाइना के सस्ते माल हैं। और भारत का पूंजीपति वर्ग भी ऐसी ही हसरतें पाल कर बैठा है। वह भी ‘मेक इन इण्डिया’ नारे को लागू करना चाहता है और चीन के मजदूरों जैसे हालात बना देना चाहता है जहां लगातार कोयला खदान में मारे जाते मजदूरों की खबरें आती हैं तो वहीं मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों में होने वाली दुर्घटनाओं की खबरें सुर्खियां बनती हैं।
तुम जो हाकि़मे-वक्त हो -महेश्वर
वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
करोगे....?
करोगे तुम...?
सत्य को सेन्सर करोगे...?
और झूठ के सर धरोगे
पग्गड़ और जैतून की टहनी...?
और तुम समझते हो-
इतना खरदिमाग है वसंत
कि गर्दन में अमरबेल का फंदा डाल
लटक जायेगा नीम की डाल पर चुपचाप..?

गर्ज कि धमकाओगे...?
धमकाओगे तुम
हजारों-हजार वर्गमील धरती पर
जर्रे-जर्रे तक पहुंची हुयी धूप को...?
और
हमारे सतरंगे सपनों के उस धनुष को
जो जब भी आता है
निरंकुश आकाश की छाती पर
डर और आजादी की तरह तना-तना...?
और तुम समझते हो
सुरखाब के पर लगाकर
निकल जाओगे आर-पार बेदाग़
प्रश्नों और जवाबदेहियों के तंग गलियारे से...?

तब सिर्फ तुम होगे-?
तुम्हारे करामाती हाथ होंगे-?
और तुम्हारे हाथ की एक-एक जुम्बिश से
करवट-पे-करवट बदलने लगेगी दुनिया...?
कबूल कर लेगी
तुम्हारे आगे दुआ और सजदे में जमीन्दोज भीड़-
-कि सबसे बड़ा राजनीतिज्ञ है
राजनीति के प्रदूषण पर बिसूरता हुआ मसखरा-?
कि सबसे विचारवान है
संसद के सेन्ट्रल हाॅल में जड़ी हुई कुर्सी-?
-कि नैतिकों में परम नैतिक
और दार्शनिकों में महादार्शनिक है
सोने का झांसेबाज कोयले का दलाल?
-कि जेलखाने के नाबदान से फूटती है
संस्कृतियों की स्रोतस्विनी-?
-कि सभ्यता की रखवालन है
मरघट में फैले अंधकार के हाशिए पर
मुल्क के नाम को फेंकरती हुई स्यारिन- ?
और तुम समझते हो-
मरी छिपकलियों की तरह
उंगलियों में फांसे हुए तुम्हारे लिए ‘वी फाॅर विक्ट्री’
रामधुन गाता हुआ गुजर जायगा भूख और नंगेपन का जुलूस
स्वर यंत्र की जगह
कंठ में ठांसे हुए जनतंत्र का जैकारा?

तुम जो हाकिमे-वक्त हो-
तुम कभी नहीं सोचते
वक्त और अंजाम
पर वक्त है
कि हर वक्त तोलता है तुम्हारी औकात
और
अंजाम जानता है तुम्हारे जूतों की नाप
तुम उनके खिलाफ बनाते हो वहम को वास्तविकता
वे तुम्हारे लिए गढ़ते हैं वास्तविकता का वहम
तुम उन्हें पटाने के लिए
पेड़ों से छुपाते हो जंगल
वे तुम्हें सधाने के लिए
जंगल से अलग करते हैं पेड़
और जैसा कि होता है-
इतिहास में अमूमन होता है-
पेड़ों से घिरकर लरजती है राजधानी
और उसकी हर लरजिश पर
हो-हो- कर हंसता है
हांके पर निकला
समय का हरकारा....

पंगा लोगे...?
समय के हरकारे से पंगा लोगे...?
बांधोगे मंसूबा-
दो-दो हाथ करने का अपने ही अंजाम से...?
मगर, तुम्हारी पीठ- ?
तुम्हारी पीठ तो कब की दीवार से लग चुकी है, कमबख्तों!!

(साभारः पहल 47)
फाॅक्सकाॅन ने बंद की फैक्टरी, 1700 मजदूरों को बाहर निकाला
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    तमिलनाडु के श्रीपेरूम्बुदूर में नोकिया स्पेशल इकाॅनोमिक जोन में स्थित फाॅक्सकाॅन ने 22 दिसम्बर से फैक्टरी बंद कर दी और मजदूरों को काम पर आने से मना कर दिया। इसके बावजूद मजदूर कम्पनी गेट पर आये और काम देने की मांग की। जब कम्पनी मजदूरों को अंदर लेने के लिए राजी नहीं हुई तो मजदूर जबर्दस्ती अंदर जाने लगे। पुलिस ने 200 मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया। 
    फाॅक्सकाॅन की यह कम्पनी नोकिया के स्पेशल इकाॅनोमिक जोन में 2006 से उत्पादन कर रही थी। यह मुख्यतः नोकिया के लिए पार्ट्स बनाती थी। इसके अलावा इसके अन्य ग्राहक भी हैं। इस कम्पनी में एक समय में 8000 मजदूर कार्यरत थे जो आज घटते-घटते मात्र 1700 रहे गये हैं। पिछले साल माइक्रासाॅफ्ट द्वारा नोकिया का अधिग्रहण करने के बाद इसके आर्डर मिलना कम हो गया। फलतः मार्च 2014 से इसका काम कम हो गया। जहां शुरू में यह कम्पनी 100 मजदूरों को काम नहीं दे पा रही थी वहीं यह संख्या 850 तक पहुंच गयी।
    फाॅक्सकाॅन कम्पनी पिछले कई महीनों से इस प्लाण्ट को बंद करने के बारे में कार्यवाही कर रही थी। 12 मई 2014 को इसके प्रबंधन ने तमिलनाडु के श्रम मंत्री के सचिव को चिट्ठी लिखी कि चूंकि नोकिया का यहां उत्पादन बंद हो चुका है अतः उत्पादन कम हो जाने के कारण वह प्लाण्ट को बंद करना चाहती है और जून में इसने कर्मचारियोें के लिए वीआरएस अथवा सिवरेन्स पैकेज की घोषणा भी कर दी थी। इस पैकेज के तहत स्थायी मजदूर को 10 महीने का वेतन, लम्पसम 75,000 रुपये, 1 महीने की नोटिस पे, ग्रेच्युटी व ईएल को वेतन के रूप में देने की बात की है और 24 दिसम्बर को तो उसने पूर्णतः कम्पनी को बंद करने की घोषणा कर दी। 
    फाॅक्सकाॅन इण्डिया वर्कर्स यूनियन के होनोररी अध्यक्ष सुन्दरराजन को भी पुलिस ने मंगलवार को फैक्टरी गेट से गिरफ्तार कर लिया जब वह फैक्टरी में घुसने की कोशिश कर रहे थे। श्रम विभाग का कहना है कि उसने कम्पनी को तब तक काम बंद न करने के लिए कहा जब तक कि मजदूरों व मैनेजमेण्ट के बीच कोई सहमति नहीं हो जाती है। चूंकि इस फैक्टरी में 100 से ज्यादा मजदूर काम करते हैं इसलिए बंद करने से पहले पूरी कानूनी कार्यवाही होना जरूरी है। 
    फाॅक्सकाॅन कितनी कानूनी कार्यवाही करेगी और न करने पर उस पर कितनी कानूनी कार्यवाही होगी यह भारत में चल रही आर्थिक नीतियों की दिशा से समझा जा सकता है। ऐसे समय में जब मारूति सुजुकी के मजदूरों की जमानत अर्जी यह कहते हुए खारिज कर दी जाती है कि इससे भारत में निवेश प्रभावित होता है तो फाॅक्सकाॅन के खिलाफ भी कार्यवाही करने से निवेश प्रभावित हो सकता हैै।
    कम्पनी आज फैक्टरी में उत्पादन न होने और भविष्य में आर्डर न मिलने का तर्क देकर कम्पनी को बंद कर रही है। यह तर्क गढ़कर वह 1700 मजदूरों की रोजी-रोटी छीन रही है। अगर पूंजीपति केे तर्क के हिसाब से देखा जाए तो उसका ऐसा करना लाजिमी है। लेकिन अगर मजदूर वर्ग के तर्क से देखा जाये तो इससे उसकी रोजी-रोटी छिनती है और उसका भविष्य दांव पर लग जाता है। ऐसे में निष्पक्ष होने का दिखावा करने वाली सरकार पूंजीपति वर्ग के तर्क को जायज ठहरा देती हैै और अपनी पक्षधरता पूंजीपति वर्ग के साथ दिखाती है। आज जिस तरह देश के अंदर पूंजीपति वर्ग का नायक मोदी पूंजी के पक्ष में फैसले ले रहा है उससे यह बात साफ है कि देर-सबेर फाॅक्सकाॅन के मजदूरों का मामला भी किसी समझौते में समाप्त हो जायेगा और इसमें मजदूरों को कम ही मिलेगा परन्तु यह मजदूर वर्ग को और ज्यादा गहरा संघर्ष करने की तरफ धकेलेगा। 

हंगरी में कटौती कार्यक्रमों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    हंगरी में 14 से 16 दिसम्बर तक प्रधानमंत्री विक्टर आॅर्बन द्वारा किये जा रहे आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा कटौती कार्यक्रमों के खिलाफ कई स्थानों पर प्रदर्शन हुए। 14 दिसम्बर को राजधानी बुडापेस्ट में कोसुथ चैराहे पर तीन हजार लोगों द्वारा संसद भवन के सामने प्रदर्शन किया गया। 15 तारीख को पूरे हंगरी में सड़कें जाम हो गयीं और 16 तारीख को हंगरी के कई शहरों में तथा देश के बाहर हजारों लोगों ने प्रदर्शन किये। प्रदर्शन में वक्ताओं ने सामाजिक सुरक्षा, रिटायरमेण्ट लाभ व शिक्षा में की जा रही कटौती की आलोचना की और हंगरी में बढ़ रही सामाजिक असमानता पर चिंता व्यक्त की। 
    दरअसल सरकार ने अपने बजट में सामाजिक कामों पर किये जा रहे खर्चों में 10 प्रतिशत की कटौती की है। इसके अलावा अगले तीन सालों में 2 अरब यूरो(2.4 अरब डालर) की कटौती और की जानी है। इसका सबसे ज्यादा असर मजदूर-मेहनतकश आबादी पर पड़ेगा। सामाजिक सुरक्षा में कटौती कर इसके स्थान पर भोजन कूपन दिये जायेंगे। ज्ञात हो कि हंगरी में पिछले दस सालों में भोजन सामग्री की कीमतों में 164.6 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है जो यूरोप में दूसरी सबसे तेज वृद्धि दर है। इसके अलावा जिन परिवारों में बच्चे न तो नर्सरी स्कूल में हैं और न ही स्कूल में तो उनको पारिवारिक सब्सिडी नहीं दी जायेगी। और जिन परिवारों में केवल एक व्यक्ति ही रोजगार में होगा उन्हें ही पारिवारिक सब्सिडी दी जायेगी। यह तब है जबकि हंगरी में 19 जिलों में से 12 जिले यूरोपीय यूनियन के सबसे गरीब क्षेत्रों में हैं। 
    इतना ही नहीं, 2010 में जबसे दक्षिणपंथी फिदेज सरकार सत्ता में आयी है तबसे गरीबी बढ़ती गयी है। तारकी रिसर्च इन्स्टीट्यूट के अनुसार 50 प्रतिशत आबादी पहले से ही गरीबी रेखा के नीचे रह रही है। यूरोपीयन यूनियन की स्टेटिस्कली एजेंसी ने बताया है कि यूरो स्टेट के सबसे पांच गरीब देश हैं- बुल्गारिया, रोमानिया, ग्रीस, लाटविया और हंगरी। केवल ग्रीस ही ऐसा देश है जिसमें गरीबी की रफ्तार हंगरी से ज्यादा है। एक तरफ जहां सरकार बजट में कटौती कर रही है वहीं अमीरी की आय पर लगने वाले फ्लैट टैक्स कम कर रही है जिससे राज्य की आय और कम हो जायेगी। 
    हंगरी में हो रहे इन कटौती कार्यक्रमों में मजदूर वर्ग की बात की जाये तो उसकी भूमिका स्वतः स्फूर्त तरीके से ही बन रही है। संगठित प्रतिरोध करने के लिए उसकी ट्रेड यूनियन नाकाफी साबित हो रही हैं क्योंकि उन्होंने पहले ही शासक वर्ग से हाथ मिला लिया है। 
    हालांकि डेमोक्रेटिक कनफेडेरेशन आॅफ फ्री ट्रेड यूनियन (लीगा) ने दावा किया है कि विरोध प्रदर्शनों के जरिये प्रधानमंत्री आॅर्बन पर दबाव डालेंगे कि वह बातचीत के लिए आगे आयें। यूनियन के अध्यक्ष इस्तवान गास्को ने सरकार के द्वारा यूनियनों के साथ बातचीत न करने पर आम हड़ताल की धमकी दी है। परन्तु यह यूनियन द्वारा दी गयी बन्दरघुडकी ही है। पहले भी संघ कई मुद्दों पर सरकार के साथ समझौते कर चुकी है। जब 2011 में सरकार ने हड़ताल करने के अधिकार पर काफी प्रतिबंध लगा दिये तो लीगा ने रेल सिस्टम के निजीकरण में सरकार का साथ दिया था। इसका दिवालियापन अभी हाल में इनके द्वारा आयोजित प्रदर्शन में दिखा जब मात्र 200 लोगों ने ही भाग लिया।
    आज हंगरी में मजदूर वर्ग के सामने अपने हालातों को सुधारने की चुनौती तो मौजूद ही है साथ ही आंदोलन में शामिल हो रहे दक्षिणपंथी व निम्न बुर्जुआ से निपटने की भी है जो विरोध प्रदर्शनों की दिशा को मोड़ना चाहते हैं ताकि व्यवस्था के लिए कोई खतरा न पैदा हो। इन सबका जवाब मजदूर वर्ग केवल मजदूर वर्ग की विचारधारा पर खड़े क्रांतिकारी संगठन द्वारा ही दे सकता है। 

सं.रा.अमेरिका में मजदूरों की सुरक्षा कमी के कारण होती मौतें
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
    सितम्बर में 2013 के लिए ब्यूरो आॅफ लेबर स्टेटिक्स प्रिलिमिनरी फेटल इंजरी द्वारा जारी रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि स.रा. अमेरिका में वर्ष 2013 में कार्यस्थल पर मजदूरों की सुरक्षा में लापरवाही के कारण 4,405 मजदूरों की मौत हुई है। ऐसा नहीं है कि इन मौतों से बचा नहीं जा सकता था परन्तु मजदूरों की सुरक्षा व्यवस्था में हो रही कटौती के कारण ये मौतें हुईं। डेमोक्रेटिक व रिपब्लिक दोनों ही पार्टियां इन सब तथ्यों को नजरअंदाज करती हुयीं मजदूरों की सुरक्षा मद में कटौती कार्यक्रमों को जारी रखे हुए हैं। 
    स.रा.अमेरिका में 2011 में 4,693, 2012 में 4,628 मजदूरों की मौतें हुयीं हैं। ऐसा लगता है कि यह आंकड़ा लगातार घट रहा है लेकिन इसकी एक वजह रोजगार का घटना भी है। 2011 के 64.3 के मुकाबले रोजगार घटकर 2013 में 62.9 प्रतिशत रह गया है। इनमें ट्रांसपोर्टेशन के वक्त मारे गये मजदूरों  की संख्या सबसे ज्यादा 1740 है। इसके अलावा कंस्ट्रक्शन में भी इस साल 806 मजदूर मारे गये। 
    अमेरिका जैसे अति आधुनिक देश में इतनी संख्या में होने वाली मजदूरों की मौत पूंजीवादी व्यवस्था की पोल खोलती है। श्रम सचिव थाॅमस ई.पेरेज ने कहा कि,‘‘जीविका के लिए जान का बलिदान नहीं होना चाहिए क्योंकि एक राष्ट्र का सम्मान लोगों के लिए उपलब्ध करवाये गये सुरक्षित काम के माहौल से तय होता है। लेकिन व्यवहार में श्रम सचिव व ओबामा प्रशासन लगातार सुरक्षा में कमी कर रहा है। 2013 में इसके लिए आॅकुपेशनल सेफ्टी एण्ड हेल्थ एडमिनिस्ट्रेशन के बजट 565 मिलियन डाॅलर रखा गया जबकि 2012 में यह 583 व 2011 में 573 था। 2014 के लिए यह 570 मिलियन डालर है। हालांकि 2013 से यह थोड़ा ज्यादा है लेकिन 2011 से यह अभी भी कम है जबकि इसी बीच मुद्रा स्फीति भी काफी बढ़ी है। 
    और इस सबमें यूनियनों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है। ये यूनियनें आज चुनावों में इनके लिए पैसा मुहैय्या कराती हैं जो इन कटौती के लिए जिम्मेदार है। अमेरिकन फेडरेशन आॅफ स्टेट बाउंटी एण्ड म्युनिसिपल वर्कर्स ने पिछले साल डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए 6.65 मिलियन डालर खर्च किये। सर्विस एम्प्लायीज इण्टरनेशनल यूनियन ने 4.99 मिलियन व एएफसी-सीएलओ ने 1.9 मिलियन डालर खर्च किये। 
    आज अमेरिकी सरकार पैसे का रोना रोकर मजदूरों की सुरक्षा के मद में कटौती के साथ-साथ फूड स्टाम्प, सार्वजनिक शिक्षा, वैज्ञानिक शोध में कटौती कर रही है लेकिन वहीं दूसरी तरफ युद्ध में पैसा पानी की तरह बहा रही है। इराक, सीरिया व अफगानिस्तान में अरबों डालर खर्च किये जा रहे हैं। इस साल बसंत के मौसम में दो महीने में पेंटागन ने इराक व सीरिया पर हमले में 1.1 अरब डालर खर्च किये जबकि पिछले दो सालों का कुल बजट मात्र 1.14 अरब डालर है। इराक व सीरिया में रोजाना 1 करोड़ डालर का खर्च है और 1500 एडवाइजर को भेजने के बाद खर्च और बढ़ गया है। पेंटागन आज 1 दिन में 6 करोड़ डालर खर्च कर रहा है। 
    इस तरह हम देख सकते हैं कि दूसरे देशों में मानव अधिकारों के नाम पर ढायी जा रही तबाही में तो अमेरिका अरबों डालर खर्च करने में भी नहीं हिचकिचाता लेकिन अपने ही देश में मानवों के अधिकारों को वह कितना तुच्छ समझता है कि उन पर लाखों डालर खर्च करना उसे व्यर्थ लगता है। यह अमेरिका का असली चेहरा है जो घृणित है। 

नए साल की शुभकामनाएं!  -सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
नए साल की शुभकामनाएं
खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पांव को
कुहरे में लिपटे उस छोटे से गांव को
नए साल की शुभकामनाएं!

जांते के गीतों को बैलों की चाल को
करघे को कोल्हू को मछुओं के जाल को
नए साल की शुभकामनाएं!

इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को
चौंके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को
नए साल की शुभकामनाएं!

वीराने जंगल को तारों को रात को
ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को
नए साल की शुभकामनाएं!

इस चलती आंधी में हर बिखरे बाल को
सिगरेट की लाशों पर फूलों से ख्याल को
नए साल की शुभकामनाएं!

कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को
हर नन्हीं याद को हर छोटी भूल को
नए साल की शुभकामनाएं!

उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे
नए साल की शुभकामनाएं!
यूरो जोन में नया कटौती माॅडल और मजदूरों का विरोध
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    2008 में आयी वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद से यूरोजोन के सदस्य देश इससे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। ‘पिग्स’(पुर्तगाल, इटली, ग्रीस व स्पेन) देशों में तो नई सरकारें बनते ही कटौती कार्यक्रमों की घोषणा हो जाती है और उसके बाद मजदूर वर्ग के विरोध प्रदर्शन शुरू हो जाते हैं। ये प्रदर्शन कभी शांतिपूर्ण तो कभी हिंसक हो जाते हैं। और आने वाले समय में यूरो जोन के फ्रांस व जर्मनी जैसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों में भी मंदी का असर गहराने वाला है। 
    2008 से अब तक यूरो जोन के 18 देश दो बार मंदी देख चुके हैं और तीसरी मंदी की तरफ बढ़ रहे हैं। पहला मंदी का समय जहां 2008-09 था वहीं दूसरा समय 2011-12 का रहा। और अब 2014 में तीसरी बार यह अर्थव्यवस्थायें मंदी की तरफ जा रही हैं। यहां तक कि यूरो जोन अर्थव्यवस्था का 29 प्रतिशत भाग वाला जर्मनी भी इससे अछूता नहीं है। 30 सितम्बर को समाप्त तीसरी तिमाही में जर्मनी का फैक्टरी आर्डर 2009 से 5.7 प्रतिशत तक गिर चुका है। औद्योगिक उत्पादन 4 प्रतिशत तो निर्यात में 5.8 प्रतिशत की कमी आ चुकी है। 
    2008 के अपने उच्च स्तर से आज यह पूरा क्षेत्र 2 प्रतिशत नीचे पहुंच चुका है। अगर अलग-अलग बात की जाये तो स्पेन 6.5 प्रतिशत व इटली 9 प्रतिशत तक नीचे पहुंच चुका है। 2008 से पांच वर्ष में फ्रांस मात्र 1 प्रतिशत ऊंचे स्तर पर उत्पादन शुरू कर सका है तो जर्मनी मात्र 3 प्रतिशत। और अगर इन अर्थव्यवस्थाओं की बुरी हालत को देखना है तो यहां का श्रम बाजार है। जहां औसत बेरोजगारी की दर 11-12 प्रतिशत है। स्पेन, ग्रीस, पुर्तगाल जैसे देशों में यह 25 प्रतिशत तक है। और युवाओं में बेरोजगारी की बात की जाये तो यह 50 प्रतिशत तक जा पहुंचती है। अस्थायी रोजगार में 15-24 आयु वर्ग के युवाओं की बात की जाये तो फ्रांस में 59 प्रतिशत, जर्मनी में 52 प्रतिशत, इटली में 54 प्रतिशत व स्पेन में 65 प्रतिशत है। इटली में तो नये कामगारों का 70 प्रतिशत अस्थायी क्षेत्र में है। 
    वैसे तो इन देशों में 2008 के बाद से ही मंदी से उबरने के लिए आर्थिक कटौती कार्यक्रम लागू किये जा रहे हैं लेकिन अब नये माॅडल के कटौती कार्यक्रम लागू किये जा रहे हैं। इन कार्यक्रमों का निशाना स्थायी रोजगार को खत्म करना, स्थायी मजदूरों के वेतन में कटौती, बिजनेस टैक्स कम करना इत्यादि शामिल हैं। इनका उद्देश्य अस्थायी रोजगार पैदा करना है। अस्थायी रोजगार का मतलब कम तनख्वाह, कम लाभ, असुरक्षित रोजगार व मालिक द्वारा कभी भी काम पर रखना व निकालना है। 
    कुछ देशों में चल रहे कटौती कार्यक्रमों को देखने से स्थिति और स्पष्ट हो जाती हैः
स्पेन- स्पेन में पिछले पांच सालों में अस्थायी मजदूरों को काम पर रखने का चलन बढ़ा है जिससे मजदूरी बहुत सिकुड गयी है और 20 नवम्बर 2011 में राजोय के नेतृत्व की कंजरवेटिव सरकार ने आते ही 8.9 अरब यूरो की बचत का लक्ष्य रखा और    6.2 अरब यूरो की बजट कटौती की घोषणा की। इस सरकार ने मजदूरों द्वारा की जाने वाली सामूहिक सौदेबाजी पर प्रतिबंध लगाने शुरू किये। फलस्वरूप स्पेन में उत्पादन लागत में कमी आयी और निर्यात बढा। निवेश के लिए अनुकूल माहौल बना लेकिन इसने अपनी बारी में और बड़े संकट को पैदा किया। बेरोजगारी दर बढ़कर 25 प्रतिशत पहुंच गयी। और अस्थायी मजदूरों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ उनकी मजदूरी को कम किया और उनकी क्रय शक्ति को कम किया। यूरो जोन का सदस्य होने के कारण यह यूरो मुद्रा का अवमूल्यन तो नहीं कर सकता लेकिन इसने मजदूरों की मजदूरी कम करने के काम को किया और इसे ‘आंतरिक अवमूल्यन’ कहा गया। 
इटली- 22 फरवरी 2014 में 39 साल के प्रधानमंत्री रेंजी ने सत्ता संभाली तो पद संभालते ही प्राथमिकता में उसने श्रम बाजार सुधार की घोषणा की है। और अभी कुछ दिन पहले अक्टूबर में इसकी सीनेट ने इन सुधारों को पास कर दिया है और अब ये कानून की शक्ल ले चुके हैं। इन्हें ‘जाॅब्स एक्ट’ के नाम से जाना जा रहा है। इस कानून के खिलाफ दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में रोम व नेपल्स सहित कई शहरों में प्रदर्शन हुए हैं। और पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर डंडा चलाया। जबकि प्रधानमंत्री ने ट्विटर पर लिखा कि ‘जाॅब्स एक्ट’ कानून बन चुका है और हम इससे आगे जायेंगे। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा,‘‘आज का दिन ऐतिहासिक दिन है’’।
    जाॅब्स एक्ट के द्वारा जहां पूंजीपति वर्ग को बड़ा फायदा हुआ है वहीं इटली के मजदूर वर्ग को उनके संघर्षों में मिले अधिकार छीन लिये गये हैं। इस एक्ट के द्वारा अब मजदूरों को मालिक की इच्छा से अपदस्थ करना आसान हो जायेगा और अब कोर्ट में भी इसके खिलाफ कोई राहत नहीं मिलेगी। इसके साथ ही मालिक द्वारा नये रखे गये मजदूर को तीन साल के भीतर भी बिना कारण बताये निकाला जा सकता है। इसके बदले में मालिक को बस इतना करना होगा कि वह मजदूर की 3 महीने की सेवा के बदले में 15 दिन के वेतन के बराबर क्षतिपूर्ति दे दे। यह मालिक के लिए कुछ नहीं देेने के बराबर होगा। नये सुधारों में देश के 25 लाख मजदूर वर्ग की आबादी का चैथाई हिस्सा लक्षित हैै। यह स्थायी मजदूरों की छंटनी करना आसान बना देगा। इसके अलावा मालिक द्वारा समय पर मजदूर की तनख्वाह न देने की स्थ्तिि में सरकार द्वारा एक ऐसा फण्ड नियत था जिसमें से मजदूरों को तनख्वाह दी जा सके। इस कानून के द्वारा इस व्यवस्था को भी खत्म कर दिया गया है। नये कानून के मुताबिक कार्यस्थल पर अब कर्मचारियों की निजता खत्म कर दी गयी है। अब मालिक कर्मचारी का कम्प्यूटर, ई-मेल, इण्टरनेट और यहां तक कि सेलफोन चेक कर सकता है। इसके अलावा पूंजीपति वर्ग को एक तोहफा बिजनेस टैक्स में कटौती कर सरकार ने दिया है। इससे पूंजीपति वर्ग को 32 अरब यूरो का लाभ पहुंचेगा। 
फ्रांस- फ्रांस की ओलेंदे सरकार पर जर्मनी, आईएमएफ, केन्द्रीय बैंक का दबाव है कि वह यूरो जोन के बाकी  देशों की तरह कठोर श्रम सुधार लागू करे। इसका मतलब यह नहीं कि फ्रांस की सरकार अपने यहां मजदूर वर्ग को विशेष सुविधाएं दे रही हो। जयर्की केटेनेन जो यूरोपीयन कमिश्नर(जाॅब्स, ग्रोथ, इनवेस्टमेंट एण्ड कम्पटीटिवनेस) हैं उन्होंने यह पद संभालने से पहले ही फ्रांस में आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया धीमे-धीमे लागू करने की निंदा की है और कहा कि फ्रांस को और तेजी से सुधारों को लागू करना चाहिए। और इस मामले में इटली की प्रशंसा की है। उनकी इस चेतावनी पर ओलेंदे सरकार ने भी 2015 के शुरू से आर्थिक सुधार यानी कि कटौती कार्यक्रम लागू करने की बात की है। इन सुधारों में 100 अरब यूरो की सरकारी सम्पत्ति जैसे कि राजकीय स्वामित्व वाली कंपनियों को बेचने के साथ 40 अरब यूरो के बिजनेस टैक्स में कटौती की बात है। इसके साथ ही खरीदारी बढ़ाने के लिए फ्रांस में साप्ताहिक व छुट्टी वाले दिन कर्मचारियों को बिना कोई विशेष प्रीमियम दिये काम करवाया जायेगा। इसके साथ ही पेंशन में कटौती की बात है और साथ ही पहले के 50 अरब यूरो के कटौती करने को भी लागू किया जायेगा। 
ग्रीस- ग्रीस में लगातार हो रहे प्रदर्शन खुद ही ग्रीस की हालत बयां कर रहे हैं। 27 नवम्बर को राजधानी एथेंस के 18000 कर्मचारियों व थेसोलोनिकी में 6000 कर्मचारियों ने प्रदर्शन किया। इसके अलावा बाकी शहरों में भी प्रदर्शन हुए। एअर, रेल व फेरी(नौका परिवहन) के मजदूरों ने प्रदर्शन में हिस्सेदारी की। स्कूल पूर्णतः बंद रहे। अस्पताल व एम्बुलेंस में भी आपातकालीन सेवा ही चालू रही। इसके साथ ही जेल व कोर्ट के कर्मचारियों ने भी हड़ताल में हिस्सा लिया। पूरे एथेंस शहर को पुलिस छावनी में बदल दिया गया। 
    प्रदर्शन यहीं नहीं थमे। 6 दिसम्बर को बड़ी संख्या में ग्रीस में प्रदर्शन हुए। यह प्रदर्शन तुर्की के प्रधानमंत्री की यात्रा, 2015 के बजट के लिए पड़ने वाले वोट और साथ ही 6 दिसम्बर को मारे गये 15 वर्षीय किशोर की 6वीं बरसी पर किये गये। 6 दिसम्बर को एक पुलिसकर्मी ने सड़क पर अपने दोस्तों के साथ मजाक कर रहे 15 वर्षीय ग्रिगोरोपोलस को गोली मार दी थी। तब से 6 दिसम्बर लोगों खासकर युवाओं के लिए प्रदर्शन का दिन बन गया। और सही दिशा के अभाव में ये युवक अराजकतावादी कार्यवाहियों को अंजाम देते हैं और इसके लिए बाकयदा उन्होंने एक अराजकतावादी समूह भी बनाया है। इसके लिए हथियार खरीदने के लिए ग्रिगोरोपोलस के दोस्त ने अपने अन्य दोस्तों के साथ एक बैंक में डकैती भी डाली जिसमें वे पकड़े गये और वह जेल में बंद है। यह युवक अपनी परीक्षा के लिए जमानत न दिये जाने के कारण 28 दिन से भूख हड़ताल पर है। इन प्रदर्शनों में कई जगह पुलिस से हिंसक झड़पें भी हुयी हैं।
    पहले इन देशों में मंदी से उबरने के लिए सरकार द्वारा उद्योगों को कर्ज दिया जाता रहा है। लेकिन पिछले सालों में सरकारी व निजी कर्ज के बोझ तले दबने के बावजूद मंदी से न उबरने के कारण इन देशों के शासक वर्ग ने अपनी रणनीति बदली है। अब उन्होंने बजट कटौती कार्यक्रम को लागू करना शुरू किया है। और सबसे बड़ी चीज यह कि श्रम बाजार में सुधार करने शुरू किये हैं। इन देशों के पूंजीपति के थिंक टैंक का कहना है कि मजदूरों की मजदूरी कम की जाये, उनको दी जाने वाली सुविधायें कम की जायें, मजदूरों को रखने व निकालने की पूरी छूट मालिकों को दी जाये ताकि निवेश के लिए अनुकूल माहौल मिल सके। तथा अर्थव्यवस्था को निर्यात केन्द्रित बनाया जाए। पूंजीपति वर्ग सोचता है कि ऐसा करने से वह मंदी से उबर जायेगा। लेकिन समूचे यूरो जोन से लेकर अमेरिका, जापान हर जगह मंदी छायी हुयी है तो निर्यात कितना बढ़ेगा और यह अर्थव्यवस्था को कब तक गति दे पायेगा। हां, इस तरह अर्थव्यवस्था को निर्यात केन्द्रित बनाने के कारण यह मजदूरों की क्रय शक्ति कम कर देगा और घरेलू बाजार को और ज्यादा सिकोड़ देगा और अपनी बारी में यह एक और गहरी मंदी के लिए रास्ता तैयार करेगा। 
    इसके कारण कम हो रहे रोजगार और बढ़ती बेरोजगारी के कारण यह युवाओं में कुंठा, हताशा, तनाव आदि को जन्म दे रहा है और क्रांतिकारी शक्तियों के अभाव में अराजकतावादी कार्यवाहियों को अंजाम दे रहे हैं। आज इन देशों के मजदूर वर्ग को तो स्वयं क्रांतिकारी संगठन में संगठित होेने की जरूरत है साथ ही देश के युवा व अन्य शोषित उत्पीडि़त वर्ग के क्रांतिकारी संगठन खड़े कर समाज में क्रांति करने की जरूरत बनती है। 
गेबन में तेल कर्मचारी हड़ताल पर
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
    अफ्रीकी महाद्वीपीय देश गेबन में आजकल तेल कम्पनी के कर्मचारी हड़ताल पर हैं। यह कर्मचारी पूर्व में बर्खास्त किये गये अपने साथियों की पुनर्बहाली के साथ कई अन्य मुद्दों पर सरकार के साथ बातचीत कर रहे थे। अन्य मुद्दों में पेरेन्को व एसटीएसआई बोकार्ड के प्रबंधन द्वारा मजदूरों पर प्रतिबंध लगाने, एसटीएसआई के मैनेजर को बर्खास्त करना (जिसको फ्रेंच कम्पनी टोटल ने उपठेकेदारी के तहत रखा हुआ है) लीबिया आॅयल गेबन के जीएम को हटाना शामिल है। 
    गेबन तेल का एक बड़ा निर्यातक देश है। यह तेल निर्यातकों में छठा स्थान रखता है। 1970 से पहले इसकी अर्थव्यवस्था में लकड़ी व मैगनीज के कारोबार का मुख्य स्थान था लेकिन 1970 में वहां तेल की खोज हो जाने के बाद इसकी अर्थव्यवस्था में तेल का हिस्सा बढ़ता गया। और आज यह जीडीपी का 50 प्रतिशत है। राजस्व के मामले में तेल 70 प्रतिशत तक भूमिका निभाता है और निर्यात में 87 प्रतिशत हिस्सा तेल का है। 
    1970 में तेल की खोज हो जाने के बाद 1975 में यह ओपेक (तेल उत्पादक देशों का समूह) में शामिल हुआ। लेकिन ओपेक में यह 1995 तक ही रहा। चूंकि यहां मुख्यतया तेल ही अर्थव्यवस्था का मुख्य हिस्सा है। अतः यह ओपेक देशों द्वारा निर्धारित मात्रा में ही तेल निकालने की शर्त को पूरा न कर पाने के कारण उससे अलग हो गया। आज यह 2,80,000 बैरल प्रतिदिन तेल का उत्पादन करता है। 
    यहां तेल निकालने का काम मुख्यतः विदेशी कम्पनी ही करती हैं। चूंकि यह पूर्व में फ्रांस का उपनिवेश रहा है अतः यहां फ्रांसीसी तेल कम्पनियां राॅयल डच व टोटल की मुख्य भूमिका है। इसके अलावा शैल, टुलो आॅयल, नेचुरल रिसोर्सेज जैसी कम्पनियां तेल निकालती हैं। 
    गेबन में तेल कर्मचारी पहले भी अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर जा चुके हैं। मजदूरों की यूनियन ओएनईपी ने अपने सभी मजदूरों को हड़ताल पर रहने का दावा किया है। इस यूनियन के यहां 5000 से ज्यादा सदस्य हैं। और इस हड़ताल के कारण तेल उत्पादन में काफी कमी आयेगी और सरकार को काफी नुकसान उठाना पड़ेगा। दूसरी तरफ तेल कम्पनियों का दावा है कि इस हड़ताल से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। बेशक तेल कम्पनियों को अगर बाजार में तेल की ज्यादा कीमत मिल रही होती तब उनके लिए हड़ताल चिंता का विषय होती। आज जब कीमतें कम हैं तो उनके लिए उत्पादन का ठप्प होना भी फायदेमंद होता है। 
जवाब देना है  -वेणु गोपाल
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
जवाब देना है
किसी ऐरे-गैरे को नहीं
बल्कि मुझे समंदर को जवाब देना है।

जिस धरती के टुकडे पर खड़ा हूं इस वक्त
उसे ही 
दरवाजे की तरह खोलकर
झांकता हूं- बाहर भी धरती ही है।

‘जमा-पूंजी कितनी है?’ खुद से पूछता हूं
और गुल्लक फोड़कर 
वे सारे खनखनाते दिन निकाल लेता हूं
जो 
नदियों ने दिए थे। समन्दर के लिए।

वे
सारे के सारे दिन
रंगीन पारदर्शियों की तरह हैं
जिन्हें
धरती के परदे पर
प्रोजेक्ट करता हूं
तो दिखाई देती है

अपनी ही टुकड़ा-टुकड़ा जिम्मेदारियों से 
बनी एक टुकड़ा-टुकड़ा जिन्दगी
दिखती है
बिस्तर से दूर नींद
आती हुई
आंखों से दूर पलकें
मुंदती हुईं
पांवों से दूर यात्राएं
सम्पन्न होती हुईं
और होठों से दूर उच्चारण
शब्दों से जुड़ते हुए
कुल मिलाकर
एक कटी-फटी किताब की
पचास-साठ पन्नों वाली कथा-हलचल।

इसी के सहारे लिखना है

    मुझे अपना जवाब।
देना जिसे समन्दर को-

और समन्दर
बेताब होगा।
जरूर इंतजार कर रहा होगा।
        मेरा।
रचनाकालः 20.05.1978 (साभारः कविता कोश)

आस्ट्रेलियाः खान कम्पनी के मजदूरों ने 25 प्रतिशत वेतन कटौती से किया इंकार
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
        आस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैण्ड में स्थित खान कम्पनी हास्टिंग डीरिंग के मजदूरों ने अपनी तनख्वाह में 25 प्रतिशत कटौती किये जाने के खिलाफ वोट दिया। ज्ञात हो कि कंपनी प्रबंधन व यूनियन के बीच मजदूरों के वेतन कटौती की बात चल रही है। कंपनी प्रबंधन मजदूरों की तनख्वाह में 25 प्रतिशत कटौती की बात कर रहा है। 
    हास्टिंग डीरिंग पहले ही पिछले 18 महीनों में 600 नौकरियां खत्म कर चुकी है और उसने धमकी दी है कि अगर मजदूर तनख्वाह व अन्य मदों के भत्तों में कटौती के लिए तैयार नहीं होते तो कई अन्य मजदूरों की छंटनियां हो सकती हैं और इसलिए पिछले सप्ताह उसने वोटिंग करवायी थी। ‘आस्ट्रेलियन मैन्युफैक्चरिंग वर्कर्स यूनियन’ का कहना है कि मजदूरों ने इस प्रस्ताव के खिलाफ में ही वोट दिया है लेकिन इसके बावजूद कम्पनी अपनी बात से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है। 
    हास्टिंग डीरिंग कम्पनी मूलतः मलेशियाई कम्पनी है। जो 21 देशों में 200 कम्पनियां संचालित करती है। इसके आस्ट्रेलिया में 4000 मजदूर काम करते हैं जिसमें 2500 अकेले क्वींसलैण्ड में ही हैं। यह मुख्यतः राज्य के केन्द्रीय भाग बोवेन बेसिन कोयला खनन क्षेत्र में काम करती है जो देश का सबसे ज्यादा कोयला निर्यातक क्षेत्र है। 
    हास्टिंग डीरिंग का अपनी कम्पनी के मजदूरों के साथ यह रवैया दूसरी खनन कम्पनियों के लिए भी एक नजीर बन सकता है जो आर्थिक मंदी का पूरा बोझ मजदूर वर्ग पर डालने के लिए उत्सुक हैं। और वे ऐसा कर भी रही हैं। आस्ट्रेलिया की सबसे बड़ी कोयला उत्पादक कम्पनी ग्लेनकोर ने क्रिसमस के अवसर पर आस्ट्रेलिया में स्थित सभी खानों को बंद कर अपने मजदूरों को जबर्दस्ती तीन सप्ताह की छुट्टी पर भेजने का निर्णय लिया है। यह कम्पनी क्वींसलैण्ड व उसके पास न्यू साउथ वेल्स के 13 क्षेत्रों में 20 खानों को संचालित करती है। ग्लेन कोर के अनुसार तापीय बिजली के लिए कोयला की कीमतें 130 डालर से 60 डालर प्रति टन आ चुकी हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तापीय कोयले की कीमत में 19 प्रतिशत व कुकिंग कोल की कीमतों में 13 प्रतिशत की कमी आ चुकी है। 
    इसी तरह बीएचपी विलिंटन के निदेशक मेलकोम ब्रूम हेड का कहना है कि आस्ट्रेलिया में अकुशल मजदूर की तनख्वाह शेष दुनिया से काफी ज्यादा है। हमें ज्यादा प्रतियोगी बनना होगा अन्यथा हमारा स्तर गिर जायेगा। दरअसल ब्रूमहेड की चिंता पूंजीपति वर्ग की चिंता है। इस वर्ग को आर्थिक मंदी से उबरने का केवल एक हल दिखायी देता है और वह है मजदूर वर्ग को दी जा रही सभी सुविधाओं को हड़प लेना। 
    इस पूरे घटनाक्रम में यूनियन का रुख पीछे हटने का ही रहा है। उसने अपनी तरफ से एक प्रस्ताव रखा है कि अगर तनख्वाह में कटौती की जाये तो वह ऊपर से नीचे तक हो। उसने कहा कि सीईओ से लेकर मजदूर की तनख्वाह में 3 प्रतिशत की कटौती की जाये। यह कहकर वह कम्पनी द्वारा की जा रही कटौती के खिलाफ लड़ने की जरूरत को समाप्त कर इस बात के समझौते के लिए जमीन तैयार कर देती है कि समझौता कितने प्रतिशत वेतन कटौती पर हो। वास्तव में स्थिति यह है कि आस्ट्रेलियन मैन्युफैक्चरिंग वर्कर्स यूनियन व अन्य यूनियनों ने आस्ट्रेलिया के अंदर फोर्ड, जनरल मोटर्स व टोयटा जैसी कम्पनियों के प्लाण्टों को बंद करने में मदद पहुंचायी है। 
    आज आस्ट्रेलिया के मजदूर वर्ग को वह सब खोने के लिए मजबूर किया जा रहा है जो एक समय उसने हासिल किया था। माइनिंग बूम के समय खनन मजदूरों को जो सुविधायेें दी जा रही थीं वे आज छीनी जा रही हैं। आज मजदूरों को सुविधा व समझौतापरस्त यूनियनों के चंगुल से निकलकर क्रांतिकारी संघर्ष करने की जरूरत बनती है। 

चीन में मजदूरों की मौतों  का सिलसिला जारी है 
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
कोयला खान दुर्घटना में 24 मजदूरों की मौतः 26 नवम्बर को राजकीय स्वामित्व वाली कम्पनी फुक्सिन कोल कोरपोरेशन की लियाओंग प्रान्त में कोयले की खान में दुर्घटना होने से 24 मजदूरों की मौत हो गयी और 52 मजदूर घायल हो गये। यह आग तब लगी जब एक हल्का सा भूकम्प का झटका आया और एक शाफ्ट में कोयला डस्ट ने चिंगारी पकड़ ली। इस दुर्घटना ने एक बार फिर कोयला खान में मजदूरों की सुरक्षा व्यवस्था में होने वाली लापरवाही को उजागर किया है। कोयला खान में हो रही दुर्घटनाओं से ऐसा लगता है कि कोयला खानों में मजदूर भगवान भरोसे ही काम कर रहे हैं। 
    यह खान 1987 से काम कर रही है और इसका वार्षिक उत्पादन 15 लाख टन है। इस खान में 4,660 मजदूर काम करते हैं। इतनी बड़ी खान में दुर्घटना होना दिखाता है कि केवल छोटी व निजी खानों  में ही नहीं बल्कि राजकीय स्वामित्व वाली कोयला खानों में मजदूरों की सुरक्षा के साथ लापरवाही का रवैया अपनाया जाता है। और यह दुर्घटना यह भी दिखाती है कि राजकीय स्वामित्व वाली खाने भी अपने मुनाफे को ध्यान में रखकर ही काम करती हैं। उनका उद्देश्य में मजदूरों की सुरक्षा प्राथमिकता नहीं है। 
फूड प्रोसेसिंग प्लाण्ट में आग लगने से 18 मजदूरों की मौतः अभी चीन में तीन माह पहले कुनशान में आॅटो कम्पोनेन्ट बनाने वाली फैक्टरी में हुए हादसे को लोग भूले भी नहीं थे कि वेफांग के निकट शोउगुआंग में लांगयुआन फूड का. लिमिटेड के प्रोसेसिंग प्लाण्ट में आग लगने से 18 मजदूरों की मौत हो गयी। यह चीन का एक मुख्य फूड प्रोसेसिंग केन्द्र है। यह घटना 16 नवम्बर की शाम को हुयी जब वहां 140 मजदूर काम कर रहे थे। 
    दुर्घटना के बाद फैक्टरी मालिक को गिरफ्तार कर लिया गया। 18 नवम्बर को एक न्यूज चैनल ने बताया कि स्थानीय अधिकारियों ने पहले ही फैक्टरी में सुरक्षा में चल रही लापरवाहियों को पकड़ा था लेकिन प्रबंधन ने उसके बाद भी इनको नहीं सुधारा। मीडिया ने जब घायल लोगों से बात की तो पता चला कि उन्हें न तो सुरक्षा से संबंधित कोई ट्रेनिंग दी गयी और न ही उनकी सुरक्षा के इंतजाम वहां पर थे।
    ज्ञात हो कि कुनशान शहर में एक आॅटो कम्पोनेन्ट प्लाण्ट में तीन माह पहले एक भीषण दुर्घटना हुयी थी जिसमें 75 मजदूरों की मौत हुयी थी और 185 मजदूर घायल हुये थे। इस घटना के बाद वहां के मजदूरों में काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने एक खुला पत्र लिखकर इस बात की मांग की कि मजदूरों की सुरक्षा की जिम्मेदारी मजदूरों के ही हाथ में दी जानी चाहिए। दुर्घटनाओं में बार-बार यह बात निकलकर सामने आती है कि स्थानीय श्रम अधिकारी व फैक्टरी प्रबंधन दोनों का गठजोड़ मिलकर इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। 
    फूड प्रोसेसिंग प्लाण्ट में होने वाली यह पिछले 18 माह में दूसरी बड़ी दुर्घटना है। इससे पहले पिछली साल जून में उत्तर पूर्व के जिलिन में एक पाल्ट्री प्रोसेसिंग प्लांट में 121 लोग मारे गये थे। उस समय भी सुरक्षा में कमी, सरकारी निगरानी की कमी, प्रबंधन की लापरवाही आदि बातें सामने आयी थीं। 
    यह दुर्घटनाएं चीन के पूंजीवादी माॅडल का परिणाम हैं जहां माल की कीमत कम करने व मुनाफे को बढ़ाने के लिए मजदूरों की बलि दी जा रही है। पूंजीवादी व्यवस्था के रहते मजदूरों की यह बलि दी जाती रहेगी। चीन के मजदूर अपने यहां जितनी जल्दी मजदूर राज की स्थापना करने में सफल होंगे उतने ही मजदूरों की जानें वे बचाने में सफल होंगे। 

मिस्रः स्टील कम्पनी के हजारों मजदूर हड़ताल पर
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
    मिस्र के हेलवाना शहर में राजकीय स्वामित्व वाली आयरन एण्ड स्टील कम्पनी के हजारों मजदूर 21 नवम्बर की रात से हड़ताल पर हैं। यह मजदूर सालाना लाभांश में हिस्से, इस साल के लंबित चार बोनस, बोर्ड आॅफ डायरेक्टर्स के इस्तीफे व पिछली हड़ताल के समय स्थानान्तरित व निलंबित किये मजदूरों की बहाली की मांग कर रहे हैं। हड़ताल के दूसरे दिन हड़ताली मजदूरों की संख्या 11,000 तक पहुंच गयी। हड़ताली मजदूरों ने बताया कि कम्पनी में उत्पादन पूर्णतः ठप्प हो चुका है। 
    इसी बीच कम्पनी ने मजदूरों को इंसेटिव देकर टालना चाहा लेकिन मजदूरों ने कहा कि इंसेटिव तो उनके नियमित वेतन का हिस्सा है। हमारी हड़ताल हमारी मांगों के माने जाने के बाद ही खत्म होगी। 
    राजकीय स्वामित्व वाली इजप्टियन आयरन एण्ड स्टील कम्पनी में पिछली साल भी बोनस को लेकर हड़ताल हुयी थी जो हड़ताली मजदूरों को खानों, क्वेरीज व बंदरगाहों में स्थानान्तरण के साथ समाप्त हुयी थी। मजदूरांे का स्थानान्तरण एक तरह से उनको हड़ताल करने के लिए दण्ड देना था। 
    पूर्णतः राजकीय स्वामित्व वाली इस कम्पनी का यह प्लाण्ट काहिरा के दक्षिणी जिले अल-तिब्बिन में स्थित है। यह इलाका नासर के औद्योगिक क्षेत्र के अंतर्गत आता है जिसे 1950 के लगभग बसाया गया था। इस कम्पनी में 1982 में 25,527 मजदूर काम करते थे। जो संख्या 2009 का अंत आते-आते 13,225 तक आ गयी है। लेकिन यह अभी भी मिस्र की बड़ी फैक्टरियों में से एक है। 
    हड़ताली मजदूरों का कहना है कि कम्पनी प्रबंधन अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए कंपनी में होने वाले नुकसान के लिए मजदूरों को दोषी ठहरा देता है और अपनी जिम्मेदारियों से बच जाता है। इसलिए मजदूर हड़ताल के दौरान हालिया नुकसान के लिए वर्तमान चेयरमेन को दोषी ठहरा रहे हैं और उसके इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। 
    मजदूरों का कहना है कि 11 नवम्बर को कम्पनी की आम सभा की बैठक हुयी थी। इस बैठक में वर्तमान चेयरमेन के कार्यकाल को बढ़ा दिया गया। और कम्पनी के लाभ के बारे में जिक्र करने के बजाय केवल हानि की चर्चा की गयी जो पूरे साल के दौरान 13 अरब मिस्री पाउण्ड रहा। और बजट में कटौती को जायज ठहरा रही है। कम्पनी मजदूरों को मात्र 200 मिस्री पाउण्ड देने की बात कर रही है लेकिन मजदूरों ने इसे ठुकरा दिया है। 
    मिस्र में 2011 में आये जन सैलाब ने वहां के तानाशाह होस्नी मुबारक और उसके बाद मुर्सी को सत्ता छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। और फिर वहां क्रांति सम्पन्न होने की बात की गयी थी। और मजदूरों व युवाओं को काम पर लौटने की बात की गयी थी लेकिन मजदूर वर्ग जानता था कि यह क्रांति नहीं थी और सच्चाई उसके सामने है। आज भी उसे अपने रोजमर्रा के आर्थिक संघर्ष के लिए कमर कसनी पड़ रही है। मिस्र के मजदूरों को एक वास्तविक क्रांति समाजवादी क्रांति की जरूरत है और इसके लिए उसे अपने आपको तैयार करना है। 

पेरू में तांबा खान में अनिश्चितकालीन हड़ताल
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
    पेरू की एन्टामिना तांबा खान के मजदूर 10 नवम्बर की सुबह से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गये हैं। ये मजदूर समझौते में अपने लाभांश हिस्से के कम हो जाने की वजह से हड़ताल पर हैं। ये मजदूर अपने लिए ज्यादा बोनस की मांग कर रहे हैं। ज्ञात हो कि यूनियन व मैनेजमेण्ट के बीच नवम्बर के प्रथम सप्ताह में इस समझौते की प्रक्रिया चल रही थी। 
    एन्टामिना खान के प्रबंधन का कहना है कि लाभांश पर आधारित हिस्से के कम होने का कारण तांबे के उत्पादन का गिरना और वैश्विक स्तर पर खनिजों की कीमतों में काफी कमी का आना है। एन्टामिना तांबा खान 30,000 टन प्रति माह तांबे का उत्पादन करती है। दक्षिणी अमेेरिकी देशों के तांबा उत्पादन का यह 30 प्रतिशत उत्पादन करती है। यह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी तांबा उत्पादक है। यह पेरू की सबसे बड़ी जिंक उत्पादक खान भी है। 
    इस तांबा खान में बीएचपी बिलिटन और ग्लेनकोर एक्सट्रेटा में से प्रत्येक की हिस्सेदारी 33.75 प्रतिशत है। टेक रिसोर्सेज की हिस्सेदारी 22.5 प्रतिशत और मित्सुविशी का हिस्सा 10 प्रतिशत है। और इस विदेशी पूंजी के निवेश के हितों की पूरी सुरक्षा करने के लिए पेरू की सरकार ने मजदूरों की इस हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया है। और यूनियन सूत्रकोमासा को तीन दिन का वक्त अपील के लिए दिया है अन्यथा वह अपने सदस्यों को काम पर भेजे। इस कम्पनी में यूनियन के 1,630 सदस्य हैं तथा कुल मजदूरों की संख्या 2,860 है। कम्पनी ने भी मजदूरों की इस हड़ताल में मजदूरों के बीच फूट डालने के लिए हड़ताल पर न जाने वाले मजदूरों को कर्ज देने की सुविधा प्रदान की है। और हड़ताली मजदूरों के वेतन में कटौती करने के लिए कहा है।  
    आज पूरी दुनिया का पूंजीपति अर्थव्यवस्था में छायी हुयी मंदी से परेशान है। वह अपने उत्पादों की कीमत कम कर अर्थव्यवस्था को गति देना चाहता है और अपने मुनाफे को बढ़ाना चाहता है। इसके लिए वह तमाम तिकडमें भिड़ाकर मजदूरों के हिस्से को कम कर रहा है। पेरू की तांबा खान के मजदूर भी आज उसी का शिकार हैं। आज पेरू के मजदूरों को जरूरत इस बात की है कि वह मंदी के शिकार इस पूंजीपति वर्ग की मुनाफे पर आधारित व्यवस्था को खत्म कर दें।

सदा रहे फिलिस्तीन   -फदवा तूकान
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
महान
महान देश
चक्की का पाट घूम सकता है
बदल सकता है
संघर्ष की धुंधली रातों में
पर वे नहीं बदल सकते
बहुत कमजोर हैं वे
तुम्हारी रोशनी खत्म करने के लिए

तुम्हारी आशाओं में से
फांसी पर लटके विश्वास में से
चोरी गई शुभ्र मुस्कानों में से
खिलखिलाते हैं तुम्हारे बच्चे

तुम्हारी बर्बादी में से
घोर यंत्रणा में से
जीवन के स्पन्दन और मृत्यु के कम्पन में से
उदित होगा एक नया जीवन

ओ महान देश
ओ गम्भीर जख्म
ओ मेरे आत्मीय स्नेह
(साभारः कविता कोश)
बेल्जियम में कटौती कार्यक्रमों के विरोध में लाखों मजदूरों का प्रदर्शन 
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    अक्टूबर क्रांति की पूर्व संध्या पर (6 नवम्बर) बेल्जियम की राजधानी ब्रूसेल्स में लाखों मजदूरों ने प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन अभी एक महीने पहले बनी दक्षिणपंथी सरकार के कटौती कार्यक्रमों के विरोध में था। विरोध प्रदर्शन में शामिल होने वाले मजदूरों-कर्मचारियों की संख्या 1,20,000 बतायी जा रही है। हालांकि प्रदर्शनकारियों के मुताबिक लगभग 2 लाख लोग इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए। 
    1960-61 के बाद यह सबसे बड़ी आम हड़ताल मानी जा रही है। इस हड़ताल में केमिकल, दवा कम्पनी, परिवहन, बंदरगाह के अतिरिक्त निर्माण सामग्री के मजदूर शामिल हुए। अनेक युवा समूह व वामपार्टी संगठनों के लोगों ने ब्रूसेल्स में थोड़ी देर के लिए फेडरेशन आॅफ बेल्जियम कारपोरेशन के दफ्तर पर भी कब्जा कर लिया था।
    ये मजदूर प्रधानमंत्री चार्ल्स मिशेल की उन योजनाओं का विरोध कर रहे थे जिनके तहत पेंशन योजना में उम्र 65 से 67 वर्ष करने, सार्वजनिक क्षेत्र के वेतन बिल में 10 प्रतिशत कटौती, लम्बे समय से बेरोजगार चल रहे मजदूरों को जो बेरोजगारी भत्ता दिया जाता है उसी पर काम करने के लिए बाध्य करना। स्वास्थ्य सुविधाओं में कटौती तथा कीमतों के आधार पर वेतन तय न करने के कारण वेतन में 3 यूरो की कमी। इस अन्तिम कटौती के कारण प्रत्येक मजदूर को 336 यूरो प्रति साल का घाटा होगा। 
    इस विरोध-प्रदर्शन के दौरान पुलिसकर्मियों व प्रदर्शनकारियों में झड़पें भी हुईं। कुछ प्रदर्शनकारियों ने कई गाडि़यों में आग भी लगा दीं। पुलिस ने पानी की बौछार की और आंसू गैस के गोले छोड़े। लगभग 30 लोगों को हिरासत में लिया गया है। 
    इस विरोध प्रदर्शन को देखकर ट्रेड यूनियनें सकते में आ गयी। यह उनकी अपेक्षा से ज्यादा हो गया था। और उन्होंने इस आक्रोश को थामने की पूरी कोशिश की। विरोध प्रदर्शनों के दौरान ही सरकार ने तीन बड़ी ट्रेड यूनियनोें एससीएम, जनरल फेडरेशन आॅफ बेल्जियम वर्कर्स, द जनरल कनफेडरेशन आफ फ्री मार्केट ट्रेड यूनियन के साथ गुप्त तरीके से बात की। यूनियनों ने सरकार से बातचीत के दौरान कटौती के नये पैकेज तैयार करने की बात की जो मजदूरों व पूंजीपतियों के बीच संतुलित हो ताकि इस आक्रोश को शांत किया जा सके। 
    यूनियन के पदाधिकारी किस तरह सरकार के पक्ष में हैं, यह उनकी बातचीत से पता चलता है जब वे यह कहते हैं कि सरकार ने विनम्रता पूर्वक उनकी बात सुनी तथा कहा कि श्रम मंत्री सभी सामाजिक पार्टनर से मिलकर भविष्य में बातचीत करेंगें। 
    उधर वार्ता के बाद श्रम मंत्री ने कहा कि हमारा लक्ष्य यह है कि ‘हम किस बात पर समझौता कर सकते हैं। कि वे यूनियन व पूंजीपतियों के संगठनों से बात करेंगे। फिर भी पीटर ने संकेत किया कि तनख्वाहें फ्रीज करने सहित कई मांगों पर समझौता नहीं हो सकता। 
    पीटर के इस वक्तव्य के बावजूद यूनियन ने पीटर का स्वागत किया तथा सीएससी के महासचिव मेरी स्का ने कहा कि इससे पुनः विश्वास पैदा हुआ है तथा ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार हमारी सुनेगी और हमारे रिश्ते बेहतर बनेंगे। यह सत्ता के वर्गीय चरित्र को छुपाकर मजदूरों को भरमाने के अलावा और कुछ नहीं है। 

जर्मनी में ट्रेन ड्राइवरों की हड़ताल जारी
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    जर्मनी में ट्रेन ड्राइवरों व परिचालकों की हड़ताल अभी जारी है। यह हड़ताल जीडीएल ट्रेड यूनियन के नेतृत्व में चल रही है। इससे मालगाड़ी के अलावा सवारी गाड़ी भी प्रभावित हो रही हैं। पूंजीवादी मीडिया इस हड़ताल के खिलाफ लगातार कुत्सा प्रचार में लगा हुआ है बावजूद इस हड़ताल को भारी मात्रा में जन समर्थन मिल रहा है। 
    ट्रेन ड्राइवरों व परिचालकों की यह हड़ताल मुख्य रूप से रेल सेवाओं के निजीकरण व मजदूरों की खराब होती परिस्थितियों के कारण है। स्थायी नौकरियां खत्म हो रही हैं और मजदूरों की छंटनी हो रही है। एक ट्रेन ड्राइवर ने बताया कि पिछले सालों में काम करने की परिस्थितियां खराब हुयी हैं। काम का दबाव बढ़ता गया है। ट्रेन ड्राइवरों को दूसरे देशों में भेजा जाता है जहां उन्हें रातें होटलों में गुजारनी पड़ती हैं और इस तरह वे अपने परिवार से अलग रहते हैं। अगर प्रबंधन को ऐसी ट्रेनों का परिचालन करना है तो उसे उसके लिए अलग से व्यवस्था करनी चाहिए। 
    रेलवे के इन कर्मचारियों का गुस्सा प्रबंधकों व सरकार के अलावा अपने ट्रेड यूनियन संगठनों से भी है। एक ट्रेन ड्राइवर ने बताया कि ट्रेड यूनियनों (ईवीजी) ने सामाजिक जनवादियों के साथ मिलकर रेलवे के निजीकरण को आगे बढ़ाया और अब सब कुछ अधिकतम मुनाफे के लिए हो रहा है। एक अन्य ट्रेन परिचालक ने बताया कि हमने देखा ईवीजी के एक यूनियन नेता ने ईवीजी से जाने के बाद कंपनी प्रबंधन में शामिल हुआ और लाखों डालर कमाये। उसके इस व्यवहार के बाद वह ईवीजी को छोड़कर जीडीएल में शामिल हुआ। 
    ड्यूश्चे बेन ने 6 नवम्बर को फ्रेंकफर्ट के श्रम न्यायालय में एक याचिका दाखिल की ताकि हड़ताली ड्राइवरों को काम पर वापस लाया जा सके। जजों ने रात को एक समझौता तैयार किया। हालांकि यह स्पष्ट नहीं हो सका कि सभी पक्षों को इस समझौते को तैयार करते समय बुलाया गया या नहीं या फिर न्यायालय को इस मामले में निर्णय लेना है। 
    उधर जीडीएल के नेता का कहना है कि किसी भी समझौते पर पहुंचने के लिए जरूरी है कि प्रबंधन को ट्रेन ड्राइवरों व परिचालकों के मौलिक अधिकारों का हनन करना बंद करना होगा और जीडीएल को समझौता वार्ता का साझीदार के रूप में मान्यता देनी होगी। लेकिन प्रबंधन ने जीडीएल के साथ पृथक समझौता करने से मना कर दिया है। सरकार ने ड्राइवरों की हड़ताल को कमजोर करने के लिए पश्चिमी जर्मनी के ड्राइवरों को हड़ताल में शामिल होने के लिए प्रतिबंधित कर रखा है। ज्ञात को कि पश्चिमी जर्मनी में ड्राइवरों की संख्या ज्यादा है। 
    ट्रेन ड्राइवरों व परिचालकों की इस हड़ताल का मीडिया में जबर्दस्त कुत्सा प्रचार कर आम लोगों को इस हड़ताल के खिलाफ भड़काने की साजिश की जा रही है। केयर सेण्टर में काम करने वाली एक महिला कर्मी ने कहा कि ट्रेन ड्राइवरों की हड़ताल के बारे में कुत्साप्रचार इतना ज्यादा है कि मानो युद्ध की रिपोर्टिंग हो रही है और युद्ध में सबसे पहले सच को दफन किया जाता है। 
    लेकिन हड़ताली कर्मी आम लोगों के बीच अपनी हड़ताल के उद्देश्यों को लेकर जा रहे हैं। वे बता रहे हैं कि हड़ताल का मूल कारण निजीकरण के कारण होने वाली परेशानियां हैं। चूंकि निजीकरण के कारण पूरा मजदूर वर्ग बुरी हालत में है इसलिए वह हड़ताल के समर्थन में है।   

यूरोप के आॅटो कंपनियों में छंटनी जारी रहेगी
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
    रोनाल्ड बर्गर कंसलटिंग फर्म ने पिछले साल किये गये अनुमान के आधार पर बताया है कि अगले चार से पांच सालों में यूरोप (विशेषकर पश्चिमी यूरोप) की आॅटो कंपनियां कम से कम 75,000 नौकरियां खत्म करेंगी यानी मजदूरों को बेरोजगार बना देंगी। वाक्सवैगन, बीएमडब्ल्यू, डेमलर आदि दिग्गज आॅटो कंपनियां केवल अपने असेम्बली प्लाण्ट में ही मजदूरों की छंटनी नहीं करेंगीं बल्कि इन कम्पनियों को कल-पुर्जे सप्लाई करने वाली कंपनियों में भी छंटनी होगी और मजदूरों के कार्य करने की परिस्थितियां और खराब होंगी। 
    2008 में आई मंदी के बाद से आॅटो क्षेत्र उन क्षेत्रों में एक क्षेत्र है जिनकी स्थिति बद से बदतर होती गयी है। 2007 में जहां पश्चिमी यूरोप में 1.6 करोड़ वाहन बनेे वहीं 2016 तक यह संख्या घटकर 1.3 करोड़ रह जायेगी। इसका कारण है- जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, बेल्जियम व स्पेन में आॅटो प्लाण्टों का बंद होना। 
    पश्चिमी यूरोप के आॅटो क्षेत्र की कंपनियां अपने कल-पुर्जे की सप्लाई करने वाली कंपनियों से कम दामों में सप्लाई करने के लिए दबाव डाल रही हैं। वे स्वयं अपने प्लाण्टों को पूर्वी यूरोप व एशिया के मुल्कों में स्थानान्तरित कर रहे हैं ताकि वहां उपलब्ध सस्ते मजदूरों की बदौलत अपने मुनाफे को बढ़ा सकें। जर्मनी के सेण्टर आॅटोमोटिव रिसर्च (सीएआर) के अनुसार जहां जर्मनी में प्रति घंटे मजदूरी 48.8 यूरो(60.90 डालर) है वहीं रोमानिया(पूर्वी यूरोप का देश) में मजदूरी मात्र 4.80 यूरो(5.99 डालर) है। अमेरिका में जहां प्रति घंटे की मजदूरी 25.60 यूरो(31.95 डालर) है वहीं मैक्सिको में यह 7.90 यूरो(9.24 डालर) है। पौलेण्ड में यह 7.5 यूरो(9.36 डालर) है। जाहिर है कि ऐसे में यूरोप व अमेरिका की आॅटो कंपनियां सस्ती मजदूरी के लिए अपने प्लाण्टों को बंद कर इन देशों में उत्पादन करवाने की इच्छा रखेंगीं। 
    आर्थिक मंदी के इस दौर में मत्स्य न्याय का सिद्धान्त भी पूरी जोर-शोर से फल-फूल रहा है। बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को निगल रही है तो वहीं दो पूंजियां आपस में मिलकर बड़ी पूंजी में तब्दील होकर पूंजी के केन्द्रीकरण को बढ़ा रही हैं। सीएआर के अनुसार ही जर्मनी में अगले पांच से सात सालों में मध्यम आकार के 20 प्रतिशत कल-पुर्जे आपूर्तिकर्ता करने वाली कंपनियां अपनी स्वतंत्रता खो बैठेंगीं। यानी बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को निगल जायेगी। साथ ही इन इकाइयों में काम करने वाले मजदूर रिजर्व मजदूरों की श्रेणी में शामिल हो जायेंगे। जर्मनी की जेड एफ फ्रेडरिसशेफ ने अमेरिका की टीआरडब्ल्यू को 9.6 अरब यूरो में खरीद लिया है। पूंजी के केन्द्रीकरण का परिणाम यह है कि जर्मनी में 200 से अधिक छोटी आपूर्ति करने वाली कंपनियों का औसत राजस्व जहां 1 करोड़ यूरो है वहीं 52 बड़ी कंपनियों (बास्क, कंटीनेण्टल) का औसत राजस्व 50 करोड़ यूरो है। पूंजी के और केन्द्रीकरण के लिए ये सस्ते से सस्ते श्रम के लिए नये-नये क्षेत्र तलाशते रहते हैं। सस्ते से सस्ते माल प्राप्त करने के लिए ये कल-पुर्जे आपूर्ति कर्ता वाली कंपनियों से कल-पुर्जों की आउट सोर्सिंग करते हैं। आज ये कंपनियां तीन-चौथाई के करीब कल-पुर्जो की आपूर्ति इन कंपनियों को कर रही है।
    यूरोप में पूंजी के इस हमले से बचने के लिए आॅटो क्षेत्र की यूनियनें मजदूरों को संगठित कर संघर्ष करने के बजाय मालिकों की सेवा कर रही हैं। ये सुविधापरस्त यूनियनें मजदूरों को आगे बढ़कर पूंजी के हमलों को मुकाबला करने के बजाय पीछे हटकर बचाव की मुद्रा में खड़ा कर दे रही हैं और पूंजी इन मजदूरों की जीवन व कार्यपरिस्थितियों को खराब करती जा रही है। 
    आज आॅटो क्षेत्र के मजदूरों को जरूरत है कि वे पूंजीपरस्त ट्रेड यूनियनों से पीछा छुड़ाये और अपने क्रांतिकारी संघर्षों को विकसित करें और समाजवाद के लिए संघर्ष करें।  

मेहनतकश जनता ने सांप्रदायिक तत्वों की साजिश को किया नाकाम 
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
मोहर्रम के अवसर पर दिल्ली के बवाना क्षेत्र में दंगा फैलाने के मंसूबे पूरे न होते देखकर दिल्ली में सांप्रदायिक आंधी बहाने पर उतारू तत्वों ने एक और भयानक दंगे को षडयंत्र रच दिया।
       दक्षिण दिल्ली ओखला क्षेत्र की एक झुग्गी बस्ती में 5 नवंबर की सुबह एक सुअर मरा पाया गया। लेकिन क्षेत्र की अमन पसंद जनता ने इस अवसर पर काफी सूझबूझ से काम लेते हुए इस मामले को दफना दिया। क्षेत्र की मुस्लिम व हिंदू जनता ने एकजुटता दिखाते हुए इस मामले में एक संयुक्त शिकायत दर्ज कराई। दोनों समुदायों के लोगों ने अपने बीच से एक 20 सदस्यीय अमन कमेटी का भी गठन किया जिसमें दोनों समुदायों के लोग शामिल हुए। इस तरह मेहनतकश जनता ने सांप्रदायिक तत्वों की साजिश को नाकाम कर दिया। फिलहाल पुलिस मामले की जांच  कर रही है। अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है।                             दिल्ली संवाददाता

वाम वाम वाम दिशा  -शमशेर बहादुर सिंह
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
वाम वाम वाम दिशा,
समय: साम्यवादी।
पृष्ठभूमि का विरोध अंधकार-लीन। व्यक्ति --
कुहास्पष्ट हृदय-भार, आज हीन।
हीनभाव, हीनभाव
मध्यवर्ग का समाज, दीन।

किंतु उधर
        पथ-प्रदर्शिका मशाल
कमकर की मुट्ठी में - किंतु उधर:
        आगे-आगे जलती चलती है
        लाल-लाल
वज्र-कठिन कमकर की मुट्ठी में
        पथ-प्रदर्शिका मशाल।

भारत का
भूत-वर्तमान औ’ भविष्य का वितान लिये
काल-मान-विज्ञ मार्क्स-मान में तुला हुआ

वाम वाम वाम दिशा,
समय: साम्यवादी।
अंग-अंग एकनिष्ठ
ध्येय-धीर

सेनानी:
       वीर युवक
       अति बलिष्ठ
                  वामपंथगामी वह -
समय: साम्यवादी।

लोकतंत्र-पूत वह
दूत, मौन, कर्मनिष्ठ
                जनता का:
एकता-समन्वय वह -
मुक्ति का धनंजय वह
चिरविजयी वय में वह
                  ध्येय-धीर
                  सेनानी
                  अविराम
वाम-पक्षवादी है -

वाम वाम वाम दिशा,
समय: साम्यवादी।
(1945)
            (साभारः हिन्दी समय)

बास्क कम्पनी में मजदूरों की हड़ताल जारी
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
    आॅटो पार्ट्स बनाने वाली बड़ी कम्पनियों में से एक बास्क कम्पनी में पांच सप्ताह से चली आ रही हड़ताल अभी जारी है। यह कम्पनी बंगलौर में अडुगोडी में स्थित है। यह मूलतः जर्मनी कम्पनी है। इसके बंगलौर में ही एक अन्य प्लाण्ट नागनाथपुरा में है। नासिक(महाराष्ट्र) और जयपुर(राजस्थान) में भी इसके एक-एक प्लाण्ट हैं। यह कम्पनी मुख्यतः टोयटा व मारूति के लिए पार्ट्स बनाती है। बास्क कम्पनी के ये मजदूर 20 प्रतिशत वेतन वृद्धि की मांग के साथ-साथ पहले हड़ताल के दौरान काटी गयी तनख्वाह वापसी, मजदूरों को परेशान न करने, निकाले गये मजदूरों की वापसी की मांग कर रहे हैं। साथ ही 240 दिन पूरे होने वाले अस्थायी मजदूरों के स्थायीकरण, उत्पादन लक्ष्य को बढ़ाने के लिए लागू वेलिड टाइम स्टडी को रोकने तथा स्वास्थ्य योजना में कटौती की वापसी को लेकर हड़ताल पर हैं। कम्पनी ने मजदूरों को 5500 रुपये वेतन वृद्धि के लिए कहा लेकिन मजदूर कम से कम 8500 रुपये वेतन वृद्धि की मांग को लेकर अड़े हैं।
    बास्क कम्पनी के मैनेजमेण्ट के साथ-साथ राज्य सरकार ने भी मजदूर विरोधी कदम उठाते हुए इस हड़ताल को अवैध करार दे दिया है। मैनेजमेण्ट ने भी मौका पाकर यह घोषणा कर दी है कि वह मजदूरों की 1 घंटे की हड़ताल के एवज में 8 घंटे की तनख्वाह काटेगा। मजदूर जब अपनी आवाज मुख्यमंत्री तक पहुंचाने के लिए उनके आवास तक गये तो 150 मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया गया हालांकि बाद में उन्हें जमानत पर छोड़ दिया गया।
    बास्क कम्पनी के इस प्लाण्ट में 2300 स्थायी मजदूर, 370 अस्थायी मजदूर व 1000 ठेके के मजदूर काम करते हैं। स्थायी मजदूरों को 40,000 रुपये तथा नये व अस्थायी मजदूरों को इसके लगभग आधी तनख्वाह मिलती है। तथा ट्रेनी मजदूरों को मात्र 13,000 रुपये तनख्वाह मिलती है और इन्हें तीनों शिफ्टों में काम करना पड़ता है। और इनको कभी भी निकाला जा सकता है। कम्पनी ने इन मजदूरों को इतनी श्रेणियों में बांट दिया है ताकि वे उनकी एकता को तोड़ सकें। लेकिन इस हड़ताल में सभी मजदूर साथ मिलकर लड़ रहे हैं। 
    मैनेजमेण्ट ने मजदूरों को बैठ कर काम करने की व्यवस्था को बंद कर उन्हें खड़े रहकर काम करने को मजबूर कर दिया है। मजदूरों की तनख्वाह में से हर माह 909 रुपये मेडिकल के कटते हैं। मैनेजमेण्ट ने अब मेडिकल में क्षतिपूर्ति के नियमों को बदलकर बड़ी बीमारी के लिए 1,50,000 रुपये और कैंसर जैसी घातक बीमारियों के लिए 5,00,000 रुपये दावे की समय सीमा तय कर दी है। 
    कम्पनी यह सब तब कर रही है जब उसका मुनाफा 2013 में 8.85 अरब रुपये था और 2014 के पहले दो तिमाही में 6.33 अरब रुपये का उसे लाभ हुआ है।
    इस फैक्टरी में मजदूरों की एक यूनियन मिको एम्प्लाॅयीज एसोसिएशन भी है। लेकिन यह भी मजदूरों के संघर्षों को आगे बढ़ाने के बजाय सुलह समझौते की नीति पर ही चलती है। इसका अध्यक्ष प्रसन्ना कुमार सीटू से संबंधित है जो सीपीएम का मजदूर संगठन है। और सीपीएम का चरित्र देश के मजदूरों के सामने लगातार स्पष्ट होता चला गया है। इस यूनियन ने न तो बंगलौर में ही स्थित दूसरे प्लाण्ट के मजदूरों से हड़ताल में साथ आने को कहा और न ही अन्य प्लाण्टों के मजदूरों से सम्पर्क साधा। और जिस सरकार ने इसको अवैध करार दिया उसी सरकार के पास वह विनती करने पहुंचे। 
    आज आॅटो मोबाइल क्षेत्र में मजदूरों का भयंकर तरीके से शोषण हो रहा है। मजदूरों के संघर्ष भी इस क्षेत्र में बढ़ रहे हैं। चाहे मारुति सुजुकी के मजदूरों का संघर्ष हो या गुड़गांव में मिण्डा-फुरूकुवा जैसी आॅटो मोबाइल कम्पनियों के मजदूरों का संघर्ष हो। और मोदी के ‘मेक इन इण्डिया’ नारे के साथ मजदूरों के भयंकर शोषण होने से इसके भविष्य में और बढ़ने की संभावना है। ऐसे में मजदूरों को व्यापक एकता के साथ अपने संघर्षों को आगे बढ़ाना होगा। 

महिला मजदूर संघर्ष
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
1. चीन में पेपर मिल की महिला मजदूर हड़ताल पर- चीन के झेंजियांग में गोल्ड ईस्ट पेपर को. लिमिटेड की महिला मजदूर 15 अक्टूबर से हड़ताल पर हैं। यह महिला मजदूर अपनी तनख्वाह में वृद्धि न किये जाने से नाराज थीं। 
    पेपर मिल की ये महिला मजदूर सालों से यहां काम कर रही हैं। जब 12 अक्टूबर को ये मजदूर मैनेजमेण्ट से तनख्वाह बढ़ाने की बात करने गयीं तो मैनेजमेण्ट ने उनको लेबर एजेन्सी से आउटसोर्स किया हुआ बताकर तनख्वाह बढ़ाने से मना कर दिया। एक मानव संसाधन मैनेजर ने तो उनको बुरी तरह डांटा और चुप रहने को कहा। 
    इन महिला मजदूरों ने भी हिम्मत नहीं हारी और वे पेपर मिल के सामने धरने पर बैठ गयीं। इस पर मैनेजमेण्ट ने पुलिस बुला ली। पुलिस ने महिला मजदूरों के साथ मारपीट की। जिसमें पांच महिला मजदूरों को अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। बाद में उनका आंदोलन गलियों में चलने लगा। 
    जब महिला मजदूरों से उनकी फैक्टरी में स्थित यूनियन की उनके मामले में भूमिका के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यूनियन का काम केवल मजदूरों से हर महीने पैसा इकट्ठा करना है और वे मैनेजमेण्ट की तरफ से ही बोलते हैं। 
2. पाकिस्तान में संघर्ष की बदौलत महिला स्वास्थ्य कर्मी हुयीं नियमित- पाकिस्तान में गांव में क्षेत्रों में महिलाओं के स्वास्थ्य संबंधी देखभाल करने के लिए 1995 में महिला स्वास्थ्य कर्मियों की भर्ती की  गयी थी। ये महिला स्वास्थ्य कर्मी अस्थायी तौर पर ही भर्ती की गयीं थीं। इन महिला स्वास्थ्य कर्मियों ने बाद में अपने नियमितीकरण के लिए संघर्ष करना शुरू किया और काफी जद्दोजहद के बाद सितम्बर 2014 में जाकर चार प्रांतों की सरकार ने 90,000 महिला स्वास्थ्यकर्मियों को स्थायी किया गया। 
    जब 1995 में इन महिला स्वास्थ्यकर्मियों को नियुक्त किया गया था तब इनको मात्र 1000 रुपया प्रति महीना मिलता था। और 2014 में जाकर इनकी तनख्वाह मात्र 7000 रुपया महीना हो पायी थी। जब इन महिला स्वास्थ्यकर्मियों ने काम करना शुरू किया तो गांवों में अशिक्षा व पिछड़ेपन के कारण इनको काम करने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। और कराची के पिछड़े इलाकों में भी इन्होंने जाने का साहस किया और कई महिला स्वास्थ्य कर्मियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। बावजूद इसके ये अपने काम में लगी रहीं और इनके साहसपूर्ण परिश्रम के फलस्वरूप महिलाओं के प्रसव के दौरान होने वाली मौतों में कमी आयी और नवजात बच्चों की मृत्यु दर भी काफी कम हुयी। 
    और इन महिला स्वास्थ्य कर्मियों को इस महत्वपूर्ण काम के बदले में क्या मिलता था? एक तो समाज के पिछड़ेपन की समस्या थी वहीं सरकार ने भी इनको कोई स्थायी रोजगार नहीं दिया था। तनख्वाहें काफी कम थीं। ऐसे में इन्होंने अपने लिए स्थायी रोजगार की मांग के लिए संघर्ष शुरू करने का निर्णय लिया। और एक यूनियन का गठन किया। इस संघर्ष के दौरान सरकार ने उनके संघर्षों को कुचलने के लिए उनका दमन करना प्रारम्भ कर दिया। उनको आतंकवाद निरोधक जैसे कानूनों के अंतर्गत गिरफ्तार किया जाने लगा और यहां तक कि उनके परिवार वालों को भी आतंकवाद निरोधक कानून के तहत गिरफ्तार कर मुकदमा दर्ज किया गया। कुछ महिला स्वास्थ्य कर्मियों के पतियों ने उनको संघर्ष से बाहर रहने को कहा तथा उनके ऐसा न करने पर उन्हें तलाक तक दे दिया। बावजूद महिला स्वास्थ्य कर्मियों ने हिम्मत नहीं हारी और 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें स्थायी करने का आदेश दिया। फिर भी उन्हें इस आदेश को क्रियान्वयन करने के लिए लड़ना पड़ा और अंततः सितम्बर 2014 में वे स्थायी हुयीं। 
    चीन व पाकिस्तान की इन महिला मजदूरों/कर्मियों के संघर्ष महिला मजदूरों के संघर्षों को ऊर्जा देने का ही काम करेंगे। 

नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन के मजदूरों की हड़ताल समाप्त
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
    नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन के ठेका मजदूरों की 3 सितम्बर से शुरू हड़ताल 52 दिन बाद अंततः एक मरियल से समझौते पर जाकर समाप्त हो गयी। इस हड़ताल से मजदूरों को कुछ खास हासिल नहीं हुआ। यह हड़ताल मुख्यतः ठेका मजदूरों के नियमितीकरण करने को लेकर थी। मजदूरों की यह भी मांग थी कि जब तक नियमितीकरण नहीं हो जाता है तब तक ठेका मजदूरों को 25,000 रुपया/महीना तनख्वाह दी जाये। समझौते के तहत वेतन में केवल 110 रुपये प्रतिदिन की ही बढ़ोत्तरी हुयी है। 
    इस हड़ताल में 11 में 10 यूनियनों ने जाॅइण्ट एक्शन काउंसिल का गठन किया था। और इस समझौते में उन्होंने मैनेजमेण्ट की तरफ से दिये गये प्रस्ताव को मान लिया। समझौते के तहत मजदूरों की तनख्वाह में 110 रुपये प्रतिदिन की बढ़ोत्तरी होगी। और उसमें भी यह है कि 55 रुपये 1 नवम्बर से बढ़ेगें और बाकी 55 रुपये अप्रैल 2015 में बढ़ेंगे। और यह पांच साल के लिए होगा। यानी देखा जाये तो मजदूरों को 420 रुपये प्रतिदिन मिलेंगे यानी लगभग 10,500 रुपये प्रति माह। यह उनकी 25,000 रुपये/महीना की मांग से काफी कम हैं। इसके अलावा समझौते के तहत त्यौहार पर 10,000 रुपये का बोनस और एक साल में 18 अर्जित अवकाश मिलेंगें। 
    इस समझौते में एक यूनियन जीवा ओपान्था थोजिलालार संगम(जोट्स) ने अपना विरोध दर्ज कराया है। लेकिन उसने भी हड़ताल समाप्त कर दी है। जोट्स के महासचिव का कहना है कि वार्ता में मजदूरों के नियमितीकरण व वेतन 25,000 रुपये करने के सवाल को उठाया ही नहीं गया। वार्ता में केवल तनख्वाह को पुनर्निरीक्षण करने की बात की गयी।
    जहां तक मजदूरों के नियमितीकरण का सवाल है तो इस संबंध में मैनेजमेण्ट को जो आदेश कोर्ट की तरफ से मिला था उसी के तहत वह मात्र 200 मजदूरों की नियमितीकरण की प्रक्रिया शुरू कर रही है। और इस तरह जहां हजारों ठेका मजदूर काम कर रहे हों वहां मात्र 200 ठेका मजदूरों के नियमितीकरण की प्रक्रिया ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ ही साबित होगी। तथा यह मैनेजमेण्ट व सरकार द्वारा ठेका मजदूरों के नियमितीकरण की मंशा को स्पष्ट दिखा देती है। 
    आज पूरे देश में मोदी सरकार स्थायी रोजगार को समाप्त कर ‘मेक इन इण्डिया’ के नाम पर लोगों को बरगलाकर अस्थायी रोजगार को बढ़ावा दे रही है। और वह यह प्रक्रिया कोयला खानों के निजीकरण की तरफ कदम बढ़ा कर शुरू कर चुकी है। कोयला खानों को निजी हाथों में सौंप कर तथा उन्हें इसका स्वतंत्र रूप से बेचने का अधिकार देकर कोयला क्षेत्र में अस्थायी रोजगार पैदा कर रही है। मोदी सरकार की इन श्रम विरोधी नीतियों के विरोध में सभी यूनियनें 5 दिसम्बर से देशव्यापी हड़ताल कर रही हैं लेकिन नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन के ठेका मजदूरों के नियमितीकरण की लड़ाई को कमजोर ढंग से लड़ना इन व्यवस्थापरस्त ट्रेड यूनियनों के चरित्र को उजागर कर देता है। 
    मजदूरों को अब ऐसी व्यवस्थापरस्त ट्रेड यूनियनों से मोह भंग कर अपने क्रांतिकारी संगठन खड़े करने होंगे। और लम्बी लड़ाई के लिए खुद को तैयार करना होगा। अपनी वर्गीय एकता को मजबूत बनाना होगा।  

सरमायेदारी -मजाज ‘लखनवी’
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)

कलेजा फुंक रहा है और जबां कहने से आरी है,
बताऊं क्या तुम्हें क्या चीज यह सरमायेदारी है,

ये वो आंधी है जिसकी रौ में मुफलिस का नशेमन है,
ये वो बिजली है जिसकी जद में हर दहकन का खर्मन है

ये अपने हाथ में तहजीब का फानूस लेती है,
मगर मजदूर के तन से लहू तक चूस लेती है

यह इंसानी बला खुद खूने इंसानी की गाहक है,
वबा1 से बढ़कर मुहलक2, मौत से बढ़कर भयानक है।

न देखे हैं बुरे इसने, न परखे हैं भले इसने,
शिकंजों में जकड़ कर घोंट डाले है गले इसने।

कहीं यह खूं से फरदे माल ओ जर तहरीर करती है,
कहीं यह हड्डियां चुन कर महल तामीर करती है।

गरीबों का मुकद्दस खून पी-पी कर बहकती है
महल में नाचती है रक्सगाहों में थिरकती है।

जिधर चलती है बर्बादी के सामां साथ चलते हैं,
नहूसत हमसफर होती है शैतां साथ चलते हैं।

यह अक्सर टूटकर मासूम इंसानों की राहों में,
खुदा के जमजमें गाती है, छुपकर खानकाहों में।

ये गैरत छीन लेती है, ये हिम्मत छीन लेती है,
ये इंसानों से इंसानों की फितरत छीन लेती है।

गरजती, गूंजती यह आज भी मैदां में आती है,
मगर बदमस्त है हर हर कदम पर लड़खड़ाती है।

मुबारक दोस्तों लबरेज है अब इसका पैमाना,
उठाओ आंधियां कमजोर बुनियादे काशाना।
1. वबा- महामारी 2. मुहलक- घातक

स्वाजीलैण्ड: सरकार ने सभी ट्रेड यूनियनों व फेडरेशनों को किया प्रतिबंधित 
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
8 अक्टूबर को स्वाजीलैण्ड की कैबिनेट ने एक प्रस्ताव पास करके सभी ट्रेड यूनियनों व फेडरेशनों की मान्यता खत्म कर दी। श्रम एवम् सामाजिक सुरक्षा मंत्री बिन्नी मेगागुला ने एक प्रेस कांफ्रेस में इस बावत जानकारी दी कि अब से सभी फेडरेशनों (टेªड यूनियन कांग्रेस आॅफ स्वाजीलैण्ड, फेडरेशन आॅफ द स्वाजीलैण्ड बिजनेस कम्युनिटी, और फेडरेशन आॅफ स्वाजीलैण्ड एम्प्लाॅयर्स एण्ड चैम्बर्स आॅफ कामर्स) का अस्तित्व समाप्त माना जायेगा। साथ ही इनसे जुड़ी सभी संस्थाओं जैसे काॅन्सिलेशन मीडियेशन एण्ड आर्बिट्रेशन कमिशन, द स्वाजीलैण्ड नेशनल प्रोविडेण्ट फंड, द ट्रेनिंग एण्ड लोकेलाइजेशन कमिटी, द नेशनल सोशल डायलाॅग कमिटी और लेबर एडवायजारी बोर्ड व इनके सदस्यों की मान्यता भी खत्म हो जायेगी। उन्होंने आगे कहा कि फेडरेशनों के रजिस्ट्रेशन से संबंधित ‘इण्डस्ट्रियल रिलेशन अमेण्डमेंट बिल’ शीघ्र ही सदन में पेश किया जायेगा। 
अब तक स्वाजीलैण्ड में सरकार, पूंजीपति व मजदूर संगठन तीनों का एक ढांचा काम करता रहा है। अफ्रीकन ग्रोथ एण्ड अपोच्र्युनिटी एक्ट के तहत अब तक इन फेडरेशनों का पंजीकरण मान्य होता था। लेकिन कुछ महीनों से इस व्यवस्था में गतिरोध आने लगा था। 25 मार्च को मजदूरों के फेडरेशन टेªड यूनियन कांग्रेस आॅफ स्वाजीलैण्ड ने अपने आपको मजदूरों के प्रतिनिधि के बतौर मान्यता न देने के कारण इस ढांचे से अपने को अलग कर लिया था।  सरकार ने अफ्रीकन ग्रोथ एण्ड अपोच्र्युनिटी एक्ट की समय सीमा 15 मई 2014 खत्म होने से पहले इण्डस्ट्रियल रिलेशन अमेण्डमेंट बिल को सदन में पास करने के लिए रखा था लेकिन इसमें कुछ कमियों के चलते पास नहीं किया गया। बाद में भी अभी तक इस बिल को सदन में नहीं रखा गया। 
मजदूर संगठनों ने सरकार के इस कदम का विरोध करते हुए एक रैली निकालने का फैसला किया है। एमालगमेटेड ट्रेड यूनियन आॅफ स्वाजीलैण्ड के सचिव ने कहा है कि वे इसके विरोध में 17 अक्टूबर को एक रैली निकालेंगे और सरकार के विभिन्न मंत्रालयों को ज्ञापन देंगे। उन्होंने कहा कि यह रैली केवल फेडरेशनों की मान्यता खत्म करने के विरोध में नहीं बल्कि अफ्रीकन ग्रोथ एण्ड अपोच्र्युनिटी एक्ट के बाकी प्रावधानों को लागू करवाने के लिए भी है। 
स्वाजीलैण्ड अफ्रीका महाद्वीप का एक छोटा सा देश है जो दक्षिण अफ्रीका व मोजाम्बिक से घिरा हुआ है। इसकी जनसंख्या मात्र 14 लाख के आस-पास है। यह देश 1968 में ब्रिटेन से आजाद हुआ था। और आजादी के बाद से ही यहां राजशाही रही है। बाद में 1990 के आस-पास मजदूरों व छात्रों के आंदोलन होने के पश्चात राजशाही को थोड़ा पीछे हटना पड़ा। और 8 फरवरी 2006 को इसका संविधान बनकर तैयार हुआ। परन्तु इसके शासन पर राजशाही की पकड़ थोड़ी बहुत फिर भी बनी रही। आज भी इसके प्रधानमंत्री की नियुक्ति हाउस आफ असेम्बली के सदस्यों में से राजा द्वारा किया जाता है। हाउस आॅफ असेम्बली के 65 सदस्यों में 10 राजा द्वारा चुने जाते हैं। 
अगर स्वाजीलैण्ड की अर्थव्यवस्था की बात करें तो सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा महज 4.7 प्रतिशत है। जबकि इस पर निर्भर आबादी 70 प्रतिशत है जो स्वाजीलैण्ड की अर्थव्यवस्था की बदहाल तस्वीर के बारे में बता देती है। सकल घरेलू उत्पाद में उद्योग का हिस्सा 47.8 प्रतिशत और सेवा क्षेत्र का हिस्सा 44.6 प्रतिशत है। इसकी अर्थव्यवस्था ज्यादातार दक्षिण अफ्रीका पर निर्भर हैं जहां से इसके आयात का 90 प्रतिशत हिस्सा आता है और निर्यात का 60 प्रतिशत द. अफ्रीका को जाता है। यहां बेरोजगारी की दर 40 प्रतिशत है तो 69 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है। 
अब जबकि 21 वीं सदी में स्वाजीलैण्ड में पूंजीवाद का विकास हो रहा है और वह भी ऐसे समय में जबकि वहां अकाल के कारण अर्थव्यवस्था बहुत ही खराब स्थिति में है और वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था डांवाडोल है तब शुरूआत में ही यह संकट का शिकार हो रही है। शुरू में सरकार, पूंजीपति व मजदूर संगठन एक त्रिपक्षीय ढांचे के तहत काम कर रहे थे परन्तु पूंजीवादी विकास के साथ ही अंतरविरोध बढ़ने लगे और मजदूर फेडरेशनों द्वारा अपने को मजदूर प्रतिनिधि के बतौर मान्यता मांगना इसी की एक अभिव्यक्ति थी। और सरकार द्वारा ऐसा न करने के कारण वे अलग हो गये और सरकार अब उसी का बहाना बनाकर उल्टे इलजाम मजदूर संगठनों पर लगा रही है। 

अब जब स्वाजीलैण्ड में बेरोजगारी पर्याप्त मात्रा में है और उद्योग धंधों का विकास करने के लिए न तो उसके पास कृषि है और न ही आधारभूत ढांचे के लिए पूंजी तो ऐसे में उसकी निर्भरता विदेशी पूंजी निवेश पर बन जाती है। और इसके लिए यहां की सरकार अपने यहां श्रम के वातावरण को ज्यादा लचीला बनाना चाहती है जो इसके श्रम एवं सामाजिक सुरक्षा मंत्री के बयान में दिखता है। इसी कारण सरकार टेªड यूनियन व सभी फेडरेशनों को भंग कर नये सिरे से उनका पंजीकरण करने के लिए एक बिल पास करवाने की बात कर रही है। ताकि मजदूर फेडरेशनों को ज्यादा से ज्यादा कानूनी दायरे में बांधा जाये और इसके संघर्षों की सीमा तय कर दी जाये ताकि मजदूरों के संघर्ष व्यवस्था के दायरे में ही सिमट जायें।

कम्बोडिया में मजदूर फिर सड़क पर
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
गारमेण्ट मजदूरों का संघर्षः  5 अक्टूबर 2014 को कम्बोडिया में 6 गारमेण्ट यूनियन के 3000 लोगों ने एक रैली निकाल कर प्रदर्शन किया। ये मजदूर अपनी तनख्वाह में वृद्धि के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ये मजदूर रविवार को फ्रीडम पार्क में इकट्ठा हुये और वहां से प्रदर्शन करते हुए अमेरिका व यूरोपीय दूतावासों की तरफ बढ़े। रास्ते में कई गारमेण्ट कम्पनियों के आॅफिस भी थे। ज्ञात हो कि कम्बोडिया में ज्यादातर गारमेण्ट कंपनियां या तो अमेरिकी या यूरोपीय हैं या उनकी वैण्डर कंपनियां जो उनके लिए माल बनाती हैं। 
पिछले साल कम्बोडिया के मजदूरों ने वेतन वृद्धि  (160 डालर प्रतिमाह) के लिए जुझारू संघर्ष किये जिसमें जनवरी 2014 में पांच मजदूर मारे भी गये थे। लेकिन पूंजीपति वर्ग व सरकार ने उन्हें जीवन जीने लायक वेतन यानी 160 डालर प्रतिमाह नहीं दिया और मजदूर मामूली वृद्धि यानी 100 डालर प्रतिमाह में ही फैक्टरी के अन्दर काम करने को मजबूर किये गये। लेकिन इसी बीच महंगाई जारी रही और मजदूरों के वेतन में जो थोड़ी बहुत वृद्धि हुई थी वह फिर नाकाफी साबित होने लगी। हालांकि इस बीच उनके छिट-पुट संघर्ष जारी रहे। और अब फिर एक साल बाद मजदूर अपने वेतन को 177 डालर प्रतिमाह करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। परन्तु फैक्टरी मालिक उन्हें 110 डालर प्रतिमाह से ज्यादा देने को राजी नहीं हैं। 
मजदूरों के इस विरोध प्रदर्शन पर कंपनियों के मालिकों का कहना है कि वे 110 डालर प्रतिमाह से ज्यादा वेतन नहीं दे सकते हैं और यदि मजदूर इतने वेतन में काम करने को राजी नहीं होते हैं और हड़ताल जारी रखते हैं तो वे अपने उद्योगों को दूसरे देशों में हस्तांरित कर देेंगे। मालिकों द्वारा यह धमकी इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि ऐसे भी देश हैं जहां मजदूरी कम्बोडिया से भी सस्ती है और उन देशों की सरकार उन्हें मजदूरों को लूटने की और छूट देने को तैयार है। साथ ही यह इस बात की और भी स्पष्ट संकेत है कि कम्बोडिया में श्रम कानून किस कदर लचीले होंगे कि कोई भी पूंजीपति अपनी फैक्टरी बंद करके और मजदूरों को बेेरोजगार करके दूसरी जगह अपने उद्योगों को हस्तांरित कर सकता है। 
कम्बोडिया के मजदूरों की 177 डालर प्रति माह वेतन करने की मांग एक बात की ओर भी इशारा करती है कि वहां महंगाई की दर काफी ज्यादा है। पिछले साल की 160 डालर प्रतिमाह के मुकाबले 177 डालर प्रतिमाह करने की मांग दिखाती है कि महंगाई दर कम से कम 10 प्रतिशत है। एक तरफ जहां मजदूरों की स्थिति पहले से ही खराब है वहीं बढ़ती महंगाई उनके जीवन को और बदहाल किये हुए है। 
जूता फैक्टरी के मजदूरों की हड़ताल जारीः 
कम्बोडिया के कामपाॅंग चाम प्रांत के जुहुई फुटवियर कम्पनी के हजारों मजदूरों की हड़ताल जारी है। इस कम्पनी में 5000 मजदूर काम करते थे। ज्ञात हो कि पिछले माह यहां के मजदूर 1 डालर प्रति दिन के हिसाब से भोजन भत्ता देने और .5 डालर प्रति घंटा ओवरटाइम की मांग कर रहे थे। 
जब 16 सितम्बर को मजदूरों की मैनेजमेण्ट के साथ वार्ता विफल हो गयी तो मजदूर फैक्टरी से बाहर निकल आये। प्रबंधक ने सभी मजदूरों को बर्खास्त कर  फैक्टरी में लाॅकआउट कर दिया। बाद में मजदूरों के बीच फूट डालने के इरादे से मैनेजमेण्ट ने 3000 मजदूरों को काम पर आने के लिए अनुमति दी लेकिन कोलिशन आफ कम्बोडियन अपैरल वर्कर्स डेमोक्रेटिक यूनियन (सीसीएडब्ल्यूडीयू) के सदस्यों को लेने से मना कर दिया। यह सब फैक्टरी प्रबंधक इस सबके बावजूद करता रहा कि कम्बोडिया के कोर्ट ने मजदूरों को काम पर लेने के लिए प्रबंधक को कहा। 

आखिर थक-हारकर 6 अक्टूबर को मजदूर वही सब करने को राजी हो गये जो प्रबंधक वर्ग चाहता है। कुछ मजदूरों ने कम्पनी में प्रोजेक्टाइल्स फेंके जिससे दो-एक अधिकारियों को चोटें आ गयीं। अगर देखा जाए तो मजदूरों को इस स्थिति तक पहुंचाने का काम मैनेजमेण्ट ने ही किया। मैनेजमेण्ट मजदूरों को संघर्षों में इस कदर थका देता है कि मजदूर कुछ उत्तेजक कार्यवाहियां करने के लिए मजबूर हो जायें। और फिर मजदूरों पर हिंसक कार्यवाहियां करने का आरोप लगाकर उनका दमन करना और उनके आंदोलनों को जनता के बीच में बदनाम कर उनका दमन करना उसके लिए आसान हो जाता है।  

अदम गोंडवी की दो कविताएं
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की 
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज प्रतिरोध की, संत्रास की

यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की

                                        याद रखिये यूं नहीं ढलते हैं कविता में विचार
                                        होता है परिपाक धीमी आंच पर एहसास की।

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ खुलासा देखिये

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ खुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये

जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये

मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार

दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये।

क्यूबेकः पेंशन कटौती के विरोध में 50,000 म्युनिसिपल कर्मचारी का प्रदर्शन
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
20 सितम्बर को कनाडा के क्यूबेक प्रांत के मांट्रियल शहर में 50,000 कर्मचारियों ने प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन उनके पेंशन के संबंधित एक बिल के विरोध में था। इस प्रदर्शन में आग बुझाने वाले कर्मचारी व पुलिसकर्मी भी शामिल थे। इस बिल के कारण उनकी पेंशन पर तो प्रभाव पड़ेगा ही बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से उनकी तनख्वाह में भी कटौती हो जायेगी। कर्मचारियों का कहना है कि यह बिल तो मात्र एक शुरूआत है। सरकार आगे भी हमला करने की तैयारी में है।
क्यूबेक प्रांत की लिबरल सरकार अभी हाल में बिल-3 नाम से एक बिल पारित करवा रही है जिसके पारित होने के बाद पेंशन में कर्मचारियों का लिया जाने वाला योगदान बढ़ जायेगा और इससे उनको मिलने वाली तनख्वाह में कटौती आयेगी। यह प्रतिमाह कम से कम 600 डालर तक होगी। इस बिल के संबंध में क्यूबेक के प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री का कहना है कि केवल सार्वजनिक क्षेत्र ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य की देखभाल व शिक्षा में भी सुधार किये जायेंगे। कुछ प्रोग्रामों को बंद किया जायेगा ताकि ग्रीस जैसे संकट की स्थिति क्यूबेक में भी उत्पन्न न हो जाये। सरकार का तर्क इसमें यह भी है कि चूंकि बाद में लगने वाले कर्मचारियों को पेंशन नहीं मिलती है अतः जिन कर्मचारियों को यह पेंशन मिलती है उनकी पेंशन बंद करने से समानता स्थापित होगी। इस बिल के विरोध में सभी तरह के कर्मचारी व मजदूर हैं। चाहे वह संघीय सेवा में काम करने वाले कर्मचारी हों या फिर बाॅम्बार्डियर जैसे एअरक्राफ्ट बनाने वाले निजी क्षेत्र के हों। 
सरकार द्वारा मजदूर वर्ग पर किये जा रहे इस हमले में क्यूबेक की ट्रेड यूनियनों ने एक संघ बनाया हुआ है। इसका नाम यूनियन काॅलिशन फाॅर फ्री निगोशियेसन है। इसके प्रवक्ता रेंगर ने कहा कि यदि सरकार बिल-3 को  वापस नहीं लेती है और यूनियन की मांगों पर ध्यान नहीं देती है तो यूनियन सरकार के सामने एक बड़ा अवरोध खड़ा कर देगी। 
परन्तु यूनियन की इस गीदड़ भभकी का असर सरकार पर कितना पड़ेगा। यह देखने की बात है क्योंकि रेंगर जब एक तरफ सरकार के विरोध की बात कर रहा है वहीं दूसरी तरफ एक रिपोर्टर से बात करते हुए वह अपनी बात से पलट जाता है कि यूनियन के पास प्रतिरोध करने का अंतिम रास्ता ‘नागरिक अवज्ञा’ को संगठित करना है और यदि सरकार फिर भी आगे बढ़ती है तो फिर इस बिल को कोर्ट में चुनौती दी जायेगी। इसके अलावा जब यह गठबंधन बनाया भी गया है तो इसके नाम ‘यूनियन काॅलिशन फाॅर फ्री निगोशियेसन’ से ही इसके विरोध करने की सीमाएं उजागर हो जाती हैं। यह गठबंधन सरकार से केवल बातचीत व समझौता करने तक ही जायेगा। 
कर्मचारियों के इस आंदोलन में छात्र भी अपनी भागीदारी कर रहे हैं। क्यूबेक में पहले भी आंदोलनों के समय छात्र-मजदूर एकता देखने को मिलती रही है। 2012 में जब क्यूबेक में फीस वृद्धि के खिलाफ आंदोलन चला था तो कर्मचारियों ने छात्रों का साथ दिया था। एक छात्र का कहना है कि उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि यह उनके लिए आज का सवाल नही है लेकिन कर्मचारियों की मांगें जायज हैं और हम उनकी मांगों के समर्थन में हैं। जब 2008 में मंदी आयी तो सरकार ने बैंकों को खूब पैसा दिया और आज बजट पर अतिरिक्त भार का रोना रोकर पेंशन में कटौती की जा रही है। ज्ञात हो कि सरकार ने इस बिल के लिए समर्थन जुटाने के लिए यह प्रचारित करना शुरू किया है कि पेंशन के कारण 4 अरब डालर का भार पड़ रहा है। 
सरकार पिछले लम्बे समय से इस बिल पर काम कर रही है और कर्मचारी भी उस समय से ही इसका विरोध कर रहे हैं। लेकिन वे सरकार के कदमों को रोक नहीं पा रहे हैं तो इसके पीछे के कारण वहीं हैं जो बाकी देशों में हैं कि पुराने मजदूर संगठन आज अपने लड़ने की क्षमता खो चुके हैं। वे उस शेर की तरह हैं जो नख-दंत विहीन हो चुका है। आज सरकारों द्वारा पूंजीपति वर्ग के पक्ष में खुलकर खड़ा होना यह दिखाता है कि किसी भी देश में ट्रेड यूनियन आंदोलन चाहे कितना मजबूत क्यों न हो अगर वह अपने आंदोलन को राजनीतिक दायरे में मजदूर वर्ग की राजनीति पर खड़ा नहीं करता है और पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म कर समाजवाद की तरफ नहीं बढ़ता है तो उसका हस्र आज सभी देशों के मजदूर आंदोलन की तरह होगा जो एक समय में लड़कर हासिल किये गये अधिकारों को खो देगा। और इस सबकी जिम्मेदारी मजदूर वर्ग के अगुवा तत्वों की है कि वे मजदूर आंदोलन को एक सही दिशा में आगे ले जायें।

तिहाड़ जेल बनेगी शोषण का अड्डा
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014) 
तिहाड़ जेल में आॅटो पार्ट्स बनाने वाली कम्पनी मिण्डा फुरूकुवा इलैक्ट्रिक प्राइवेट लिमिटेड की तिहाड़ जेल में मैन्युफैक्चरिंग इकाई की स्थापना होने के साथ ही जेलों को शोषण के अड्डे में तब्दील करने की प्रक्रिया भारत में भी शुरू हो गयी है। हालांकि इससे पहले भी तिहाड जेल में कुछ काम जैसे- बढ़़ईगिरी, बेकरी आइटम, जूते बनाने, फर्नीचर बनाने जैसे काम किये जाते रहे हैं लेकिन एक फैक्टरी लगाकर कैदियों से काम करवाने का यह पहला प्रयोग है। 
30 मार्च 2014 को तिहाड जेल के प्रशासन व मिण्डा-फुरूकुवा के प्रबंधकों के बीच हुए एक समझौते के तहत उत्पादन करने के संबंधित एक ट्रायल चला और अंततः सितम्बर माह के प्रथम सप्ताह में तिहाड़ जेल में एक इकाई खोलने को फैसला लिया गया। अभी तो फिलहाल 30-35 कैदियों से काम करवाया जायेगा बाद में इसे और विस्तार देने की योजना है। तिहाड़ जेल का प्रशासन मिण्डा-फुरूकुवा के प्रबंधक से जेल की जमीन का किराया 10 रुपये प्रति वर्ग फुट से वसूल करेगा और प्रतिवर्ष यह 10 प्रतिशत की वृद्धि से बढ़ाया जायेगा। 
मिण्डा फुरूकुवा कम्पनी भारत के अशोक मिण्डा ग्रुप व जापान की फुरूकुवा कम्पनी का संयुक्त उद्यम है। यह कम्पनी चार पहिया गाडि़यों में लगने वाले प्रमुख पार्टस वायर हारनेस बनाने का काम करती है। इस पार्ट्स को मुख्यतः मारुति सुजुकी कम्पनी के लिए बनाया जायेगा। भारत में यह इसका पहला प्रयोग है। इससे पहले यह जर्मनी में स्पार्क मिण्डा के नाम से वहां की एक जेल ड्रेसडेन जेल में 2005 से उत्पादन करवा रही है। इस यूनिट में 25 कैदी काम करते हैं। 
जेल में कैदियों से काम करवाने के लिए मिण्डा फुरूकुवा अपने सुपरवाइजर नियुक्त करेगी जिनकी देखरेख में काम करवाया जायेगा। इस इकाई की स्थापना करते हुए दिल्ली जेल के डीआईजी आलोक वर्मा का कहना है कि इस इकाई में काम करने वाले मजदूरों को सामान्य मजदूरों से ज्यादा तनख्वाह मिलेगी। और प्रशिक्षिण पाने के बाद जब ये कैदी जेल से छूटेंगे तो उन्हें आसानी से पुनर्वास कर सकने में मदद मिलेगी। 
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है कि तिहाड़ जेल के अधिकारी व मिण्डा फुरूकुवा के मालिक समाज सुधार के लिए काम कर रहे हैं। और जेल में उद्योग लगाने में उनकी नेकनीयती है कि वे कैदियों व उनके परिवारों के लिए चिंतित हैं। अगर हम इसकी तह में जायेंगे तो हम पायेंगे कि वास्तविकता इसके उलट है। 
यह एक ठीक चीज है कि जो कैदी जेलों में हैं उनको काम का प्रशिक्षण दिया जाये तो ये छूटने के बाद अपने जीवन की सम्मानजनक शुरूवात कर सकते हैं। लेकिन जिन देशों व जेलों में ऐसे प्रयोग किये जा रहे हैं अगर हम वहां देखें तो बिल्कुल तस्वीर का दूसरा रुख हमारे सामने आता है। 
दुनिया में लोकतंत्र के सबसे बड़े संरक्षक अमेरिका की जेलों में इसी तरह से काम करवाया जाता है। और जब से यह प्रक्रिया वहां शुरू हुयी है तब से वहां जेलों की संख्या में बढ़ोत्तरी ही हुयी है जिसमें राजकीय जेलों की अपेक्षा निजी जेलों के खुलने की रफ्तार बढ़ती गयी है। इन निजी जेलों के मालिकों का संबंध जजों, वकीलों व पुलिस के अधिकारियों से होता है। (कई बार तो इन निजी जेलों में जजों, वकीलों व पुलिस अधिकारियों के ही शेयर होते हैं।) और फिर एक खेल शुरू होता है। पुलिस ज्यादा से ज्यादा लोगों को पकड़ती है (जिसमें बड़ी संख्या अप्रवासी मजदूरों की होती है।) वकील व जज उनको मिलकर सजा दिलाते हैं और फिर उनको जेलों में भेज दिया जाता है। हां, कैदियों को जेलों में भेजते समय एक बात का ध्यान रखा जाता है कि अहिंसक कैदियों को ही निजी जेलों में भेजा जाता है (ताकि पूंजीपतियों के उत्पादन में कोई रूकावट न आये) और हिंसक कैदियों को राज्यों की जेलों में। अमेरिका के अंदर एक बड़ी आबादी आज जेलों के अंदर है तो इसका कारण जेलों में चलने वाले उद्योग हैं जिनमें कैदियों से निम्नतम मजदूरी पर काम करवाया जाता है। अमेरिका की जेलों में दुनिया में सबसे ज्यादा कैदी हैं। 
अगर भारत के अंदर तिहाड़ जेल से होने वाले इस उत्पादन को देखा जाये तो हम इसे समझ सकते हैं। मिण्डा-फुरूकुवा कम्पनी का बावल, हरियाणा में एक प्लांट है। इस प्लांट के मजदूर अप्रैल माह से हड़ताल पर हैं। उनका कसूर केवल इतना है वे भारतीय श्रम कानूनों के हिसाब से अपनी फैक्टरी में यूनियन बनाना चाहते हैं। लेकिन प्रबंधक इस बात के खिलाफ था और उसने मजदूरों को डराने-धमकाने की कोशिश की लेकिन जब मजदूर नहीं डरे तो कई मजदूरों को बर्खास्त कर दिया। और आज तक ये मजदूर अपनी नौकरी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जाहिर है कि जेल के ये कैदी अपनी यूनियन बनाने के लिए संघर्ष नहीं करेंगे और उनको वेतन सामान्य मजदूर से भी कम देना पड़ेगा। 
दूसरी बात यह है कि ये कैदी काम का प्रशिक्षण पाकर क्या सम्मानजनक रोजगार पा सकते हैं। जब पहले से ही समाज में बड़ी मात्रा में बेरोजगारी मौजूद है तब क्या गारंटी है कि उनको काम मिल ही जायेगा। और जो काम मिलेगा भी क्या उसमें उनका परिवार का भरण-पोषण पूरा हो सकेगा। 
     पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति जो भी काम करता है उसमें उसका मुनाफा जरूर छिपा रहता है। आज अगर तिहाड जेल में उत्पादन इकाई स्थापित की जा रही है तो इसके पीछे कैदियों व उनके परिवार का भला चाहने वाली नीयत नहीं है बल्कि ये जेलें सेज से भी ज्यादा मुनाफा देंगी इसलिए वहां ये उद्योग स्थापित करने की शुरूआत हो रही है। 

कविता 
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
आदमी और देश -केशव 
सरहद के आर-पार
देश होते हैं
आदमी 
सरहद पर

आदमी 
देश के लिए लड़ता है
आदमी से 
देश के लिए
आदमी 
बस एक बंदूक होती है

आदमी के कंधे पर होती है
आदमी की आजादी 
देश के कंधे पर
आदमी का कब्रिस्तान होता है

आदमी 
सैनिक हैं
देश की हिफाजत के लिए
देश कुख्यात हैं
अदावत के लिए
गोली के सामने 
देश नहीं 
आदमी होता है
फिर भी
देश बड़ा
आदमी छोटा
होता है

आदमी पूछता है सवाल
भीतर बैठे पहरूए से
देश 
कहां है
कहां है
कहां है
सरहद से आती
संगीन की नोंक से बिंधी आवाज
यहां है
यहां है
यहां है 
(साभारः कविता कोश)

तुर्की: मुनाफे की हवस में 10 निर्माण मजदूरों की मौत

प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने आंसू गैस व पानी की बौछार की
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
6 सितम्बर को तुर्की केे इस्ताम्बुल के मेसिडियेकोव जिले में चले रही 42 मंजिला निर्माणाधीन इमारत में एक लिफ्ट के टूटने से 10 मजदूरों की मौत हो गयी। लिफ्ट 32 मंजिल से सीधी जमीन पर आ गिरी। मरने वालों में यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला एक छात्र भी शामिल है जो अपनी पढ़ाई का खर्चा निकालने के लिए वहां काम कर रहा था। इस हादसे में हुयी मौतों से आक्रोशित हजारों मजदूरों ने अगले दिन निर्माणाधीन स्थल पर प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन पर पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े और पानी की बौछार की।
सुख सुविधाओं से सम्पन्न बन रही इस इमारत का काम तोर्नुलर कम्पनी के पास है। इस कम्पनी में  पहले भी निरीक्षण होने पर इसकी लिफ्ट में रखरखाव व संचालन में खामी पायी गयी थी जिसके कारण इस पर 5600 तुर्किश लीरा का जुर्माना ठोंका जा चुका है। लेकिन उसके बाद भी लिफ्ट में होने वाली यह दुर्घटना और उसमें 10 मजदूरों की मौत यह दिखाती है कि कम्पनी को अपने मुनाफे के लिए मजदूरों की जान से ज्यादा जुर्माना देना सस्ता लगा। और 10 मजदूर उसके इस मुनाफे की भेंट चढ़ गये। यह कम्पनी अपने मजदूरों पर होने वाला सुरक्षा में किसी कदर कटौती करती है यह इस बात से पता चलता है कि सन् 2013 की अपेक्षा इस साल इसके मुनाफे में 900 प्रतिशत तक की वृद्धि हुयी है।
तुर्की के अंदर मजदूरों के साथ होने वाली दुर्घटनाएं किसी एक कम्पनी या एक क्षेत्र की बात नहीं है। बल्कि निर्माण क्षेत्र के साथ खानें भी तुर्की के अंदर एक ऐसा क्षेत्र हैं जहां मजदूरों की सबसे ज्यादा मौतें होती हैं। पिछले साल ही सोमा की खान में एक दुर्घटना में 301 मजदूर मारे गये थे। निर्माण क्षेत्र में होने वाली दुर्घटनाओं पर जब हम नजर डालते हैं तो स्थिति को भयावह पाते हैं। तुर्की के अंदर होने वाली कुल औद्योगिक दुर्घटनाओं का 10 प्रतिशत, कार्यस्थल पर होने वाली स्थायी अपगंता वाली दुर्घटनाओं का 25 प्रतिशत तथा कुल होेने वाली मौतों का 34 प्रतिशत निर्माण क्षेत्र में होता है। अगस्त माह में ही 40 मौतें इस क्षेत्र में हुयी हैं। 2014 के प्रथम आठ महीनों में 197 मौतें इस क्षेत्र में हो चुकी हैं।
तुर्की में हो रही मौतों को वहां का मजदूर वर्ग किस दृष्टि से देखता है यह उनके प्रदर्शनों में रखी जा रही बातों से समझा जा सकता है। उनका साफ तौर पर कहना है कि ये दुर्घटनाएं आकस्मिक नहीं हैं। बल्कि मालिकों के ज्यादा मुनाफा कमाने की हवस में होेने वाली मौतें हैं। उनकी यह बात कहीं से भी गलत नहीं है। कई विशेषज्ञों के अनुसार यह बात कही जाती रही है कि निर्माण कम्पनियां जल्दी से जल्दी निर्माण पूरा करके ज्यादा से ज्यादा मुनाफे कमाने की होड़ में रहती हैं।
तुर्की के अंदर निर्माण क्षेत्र एक तेजी से बढ़ता हुआ उद्योग है। और इसी कारण यह पंूजीपतियों के मुनाफा कमाने का एक केन्द्र बनता जा रहा है। और ज्यादा से ज्यादा और जल्दी से जल्दी वह इस क्षेत्र में मुनाफा कमाना चाहता है। इसलिए इस क्षेत्र में पूंजीपतियों के बीच होड तीव्र है और इस होड़ की कीमत मजदूरों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही है। पूंजीपति मुनाफे के लिए मजदूरों की सुरक्षा को दांव पर लगा रहे हैं। तुर्किश रीयल ट्रेड यूनियन संघ के प्रमुख युसुफ इनगिन के मुताबिक 90 प्रतिशत मौतें सुरक्षा में बरती जा रही लापरवाही के कारण हो रही हैं। सुरक्षा में कमी के अलावा मजदूरों के काम के घंटे बढ़ाना, उनको ठेके-उपठेके पर रखना, असंगठित क्षेत्र में मजदूरों की भर्ती आदि पूंजीपतियों के लिए मुनाफे का कारण है। तुर्किश डाक्टर यूनियन ने इस तथ्य का उद्घाटन किया कि उसने दो-तीन महीने पहले ही इस कम्पनी के निर्माण स्थल पर मजदूरों के साथ बरती जा रही सुरक्षा में लापरवाही को उजागर किया और चेतावनी थी कि अगर लिफ्ट के संचालन को ठीक न किया गया तो इसमें 8 से 10 मजदूरों की जान जा सकती है। उसने इसे फेसबुक पर भी डाला था।
इस सबके बीच सरकार क्या रही थी? सरकार ने मजदूरों की सुरक्षा के लिए दो साल पहले एक बिल आॅकुपेशनल, हेल्थ एण्ड सेफ्टी लाॅ, 6331 पास किया हुआ है। होना तो यह चाहिए था कि इस बिल के पास हो जाने के बाद मजदूरों के होेने वाली दुर्घटनाओं में कुछ कमी आती परन्तु हुआ ठीक इसका उल्टा। मजदूरों के साथ होने वाली दुर्घटनाओं में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। यह कानून व उसके लागू करने वालों के लचरपन को ही दिखाता है। और यह स्थिति के आने का कारण है कि स्वास्थ्य और सुरक्षा संबंधी निरीक्षण का ठेका तुर्की में निजी कम्पनियों को दिया गया है। अब अगर चोर के मौसेरे भाई को चोर को पकड़ने को कहा जायेगा तो उसका परिणाम तो चोर के ही पक्ष में जायेगा ही। और सरकारी श्रम विभाग जो निरीक्षण का काम करता है। उसमें 12000 इंसपेक्टरों की कमी दिखाती है कि सरकार अपने पास किये हुये कानून को लागू करवाने के लिए कितना चिंतित है।

तुर्की यूरोप का एक ऐसा देश है जहां औद्योगिक दुर्घटनाओं के मामले सबसे ज्यादा हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूरों की मौतें कोई मायने नहीं रखती हैं क्योंकि यहां श्रम का कोई सम्मान नहीं है। उसे एक हीन दृष्टि से देखा जाता है। मजदूरों के साथ होने वाली दुर्घटनाओं को केवल उसी समाज व्यवस्था में रोका जा सकता है जो श्रम को उचित सम्मान देती हो, जहां श्रम करने वाले को एक गरिमामायी दृष्टि से देखा जाता हो। उसी व्यवस्था में उसके जीवन को बचाने के लिए हर संभव उपाय किये जा सकते हैं। यह समाज केवल मजदूर-मेहनतकशों का राज यानी समाजवाद है और मजदूरों को इस समाज व्यवस्था को लाने के लिए अपने प्रयास तेज करने होंगे। मजदूरों के क्रांतिकारी संगठन उसके इस प्रयास के मार्गदर्शक व निर्देशक होंगे।

नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन के 11,000 मजदूर हड़ताल पर
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
भारत के तमिलनाडु राज्य में  स्थित नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन (एनएलसी) के 11,000 ठेका मजदूर 4 सितम्बर से हड़ताल पर चले गये हैं। इन मजदूरों की मांगें वैसे तो लम्बे समय से स्थायीकरण की हैं। इन मजदूरों का कहना है कि जब तक उन्हें स्थायी नहीं किया जाता है और उनके बोनस को 8.33 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत नहीं किया जाता तब तक उन्हें कम से कम 25,000 रुपया महीना दिया जाये। उन्हें मिलने वाले 5000 से 8000 रुपये में इतनी महंगाई में अब उनका गुजारा नहीं हो पाता है। ज्ञात हो कि यह तनख्वाह स्थायी मजदूरों को मिलने वाली तनख्वाह का मात्र दस प्रतिशत है। इस हड़ताल का नेतृत्व एलडीएफ (यह विपक्षी दल डीएमके से संबंधित है), एआईडब्ल्यूएफ(यह सत्तारूढ़ दल एआईडीएमके से संबंधित है), एटक(यह सीपीआई से संबंधित है), सीटू(यह सीपीएम से संबंधित है) और अन्य ट्रेड यूनियन सेण्टर कर रहे हैं। इन मांगों के अलावा इनकी मांग एनएलसी के निजीकरण न करने की भी है। मोदी सरकार के बनने के पश्चात इसके निजीकरण की संभावनाएं बढ़ गयी हैं।
नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन भारत के उन सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों में है जो अत्यधिक मुनाफा देते हैं। इसकी नेवेली में तीन खुली खानें और राजस्थान के बारसिंगसर में एक खुली खान है जिनकी उत्पादन क्षमता क्रमशः 2.85 करोड़ टन तथा 21 लाख टन है।
आज जब नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन में हो रही हड़ताल में शामिल ट्रेड यूनियनों की वास्तविक स्थिति के बारे में बात की जाये तो सभी ट्रेड यूनियनें केवल इस कारण हड़ताल में शामिल हैं कि कहीं वे ठेका मजदूरों के बीच अपने आधार को न खो दें क्योंकि नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन में ठेका मजदूरों की संख्या कुल मजदूरों की आधी है। पिछली हड़ताल में तो इन यूनियनों ने हिस्सा ही नहीं लिया था और उनके इस धोखेबाजी के बावजूद मजदूर लड़ने के लिए निकल कर आ रहा है तो ये यूनियनें इस बात के लिए बाध्य हुई हैं तो केवल इसलिए कि इन मजदूरों के बीच अपना आधार बनाकर रखा जाए और इनके संघर्ष को कानूनी सीमा में कैद करके रखा जाए।
इन ट्रेड यूनियनों की मंशा इससे तब भी पता चलती है कि उन्होंने इस हड़ताल में स्थायी मजदूरों को शामिल होने के लिए नहीं कहा है। और ऐसी स्थिति में साफ जाहिर है कि यह मैनेजमेण्ट के हित की बात होगी और उस पर ठेका मजदूरों की मांगे मानने का दबाव कम होगा।
इसके अलावा ये ट्रेड यूनियनें मजदूरों के आंदोलन को वर्ग संघर्ष की तरफ विकसित करने के बजाय उनको कानूनवाद के चंगुल में भी फंसाने का काम कर रही हैं। अप्रैल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन के प्रबंधक को इस बात के लिए निर्देश दिये थे कि वह अपने यहां ठेका मजदूरों को स्थाई करे।  ट्रेड यूनियनों का कहना है कि वह मैनेजमेण्ट व सरकार पर दबाव डालकर इस प्रक्रिया को आगे बढ़ा सकती है। मैनेजमेण्ट ने अभी हाल में ही मात्र 200 मजदूरों को स्थायी किया है और उसके नियम के हिसाब से मात्र 750 मजदूर ही स्थायी हो सकेंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने ठेका मजदूरों के स्थायीकरण करने का आदेश तो दिया परन्तु उसके लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की है। मैनेजमेण्ट इसी लूपहोल का फायदा उठा रहा है और उसने डेढ़ साल बाद इस प्रक्रिया को अंजाम दिया और वह भी केवल बहुत थोड़े मजदूरों के लिए जबकि एनएलसी में 15, 20, 30 साल से काम करने वाले मजदूर बड़ी संख्या में हैं। यह देखने की बात है कि चेन्नई हाईकोर्ट ने इस तरह के आदेश सन् 2008 में ही जारी किये थे और इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने पांच साल बाद इस पर आदेश दिये। यह मजदूरों की लड़ाई को कानून के चंगुल में फंसाने की नहीं तो और क्या है। और ट्रेड यूनियनें इसी आदेश के आधार पर मजदूरों के स्थायी होने की बात करती हैं।
इन ट्रेड यूनियनों की पक्षधरता साफ तौर पर आज पूंजीपति वर्ग के साथ है क्योंकि जिन पार्टियों के साथ ये संबंधित हैं वे कभी न कभी सरकार में शामिल रही हैं और उस समय भी इन्होंने मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया और यह कारण है कि आज मोदी सरकार बड़े स्तर पर श्रम कानूनों में सुधार करने की तरफ बढ़ रही है। इनका आज मालिकों, सरकार का विरोध केवल रस्मी बनता जा रहा है।

अब ऐसी परिस्थिति में जब पूंजीपति वर्ग केवल किताबों में दर्ज कानूनों को ही बदलवाने की तरफ बढ़ रहा है तो इसका प्रभाव केवल संगठित मजदूरों पर ही नहीं बल्कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर सबसे ज्यादा पड़ेगा जो अपने अधिकारों के लड़ने का आधार ही खो बैठेंगे। ऐसी परिस्थितियों में नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन के मजदूरों को अपनी लड़ाई को समझना  और उन्हें अपने संघर्षों को नयी जमीन देनी होगी। उन्हें पूंजीपति वर्ग के साथ वर्ग संघर्ष के लिए अपने आपको तैयार करना होगा। और देश के क्रांतिकारी संगठनों के सामने मजदूर वर्ग को वग संघर्ष के लिए खड़ा करने की जरूरत आज ज्यादा बन जाती है।

मुक्तिबोध की याद में
कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं
(कवितांश)
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
तुम्हारे पास, हमारे पास,
सिर्फ़ एक चीज है-
ईमान का डंडा है,
बुद्धि का बल्लम है,
अभय की गेती है
हृदय की तगारी है - तसला है
नए-नए बनाने के लिए भवन
आत्मा के,
मनुष्य के,
हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोग
जीवन की गीली और
महकती हुई मिट्टी को।
जीवन-मैदानों में
लक्ष्य के शिखरों पर
नए किले बनाने में
व्यस्त हैं हमीं लोग
हमारा समाज यह जुटा ही रहता है।
पहाड़ी चट्टानों को
चढ़ान पर चढ़ाते हुए
हजारों भुजाओं से
ढकेलते हुए कि जब
पूरा शारीरिक जोर
फुफ्फुस की पूरी सांस
छाती का पूरा दम
लगाने के लक्षण-रूप
चेहरे हमारे जब
बिगड़ से जाते हैं -
सूरज देख लेता है
दिशाओं के कानों में कहता है -
दुर्गों के शिखर से
हमारे कंधे पर चढ़
खड़े होने वाले ये
दूरबीन लगा कर नहीं देखेंगे -
कि मंगल में क्या-क्या है!!
चंद्रलोक-छाया को मापकर
वहां के पहाड़ों की ऊंचाई नहीं नापेंगे,
वरन् स्वयं ही वे
विचरण करेंगे इन नए-नए लोकों में,
देश-काल-प्रकृति-सृष्टि-जेता ये।
इसलिए अगर ये लोग
सड़क-छाप जीवन की धूल-धूप
मामूली रूप-रंग
लिए हुए होने से
तथाकथित ‘सफलता’ के
खच्चरों व टट्टुओं के द्वारा यदि
निरर्थक व महत्वहीन
करार दिए जाते हों
तो कहने दो उन्हें जो यह कहते है।

(साभारः कविता कोश)

चट्टान    -केदार नाथ सिंह 
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
चट्टान को तोड़ो
वह सुन्दर हो जायेगी
उसे तोड़ो
वह और, और सुन्दर होती जायेगी

अब उसे उठा लो
रख लो कंधे पर
ले जाओ शहर या कस्बे में
डाल दो किसी चैराहे पर
तेज धूप में तपने दो उसे

जब बच्चे हो जायेंगे
उसमें अपने चेहरे तलाश करेंगे
अब उसे फिर से उठाओ
अबकी ले जाओ उसे किसी नदी या समुद्र के किनारे
छोड़ दो पानी में
उस पर लिख दो वह नाम
जो तुम्हारे अंदर गूंज रहा है
वह नाव बन जायेगी

अब उसे फिर से तोड़ो
फिर से उसी जगह खड़ा करो चट्टान को
उसे फिर से उठाओ
डाल दो किसी नींव में
किसी टूटी हुयी पुलिया के नीचे
टिका दो उसे
उसे रख दो किसी थके हुए आदमी के सिराहने

अब लौट आओ
तुमने अपना काम पूरा कर लिया है
अगर कंधे दुख रहे हों
कोई बात नहीं है
यकीन करो कंधों पर
कंधों के दुखने पर यकीन करो

यकीन करो
और खोज लाओ
कोई नयी चट्टान

     (साभारः बना रहे बनारस)

हजारों चाय बागान मजदूरों ने किया जोरदार प्रदर्शन
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
न्यूनतम वेतन और बंद चाय बागान को पुनः खुलवाने की मांग को लेकर पांच हजार से अधिक मजदूरों ने 20 अगस्त को सिलीगुडी (पं. बंगाल) में एक जोरदार प्रदर्शन किया। उत्तर बंगाल के 22 मजदूर यूनियनों ने इस प्रदर्शन को आयोजित किया था।
इस प्रदर्शन में दार्जिलिंग, जलपाईगुडी, अलीपुर, दुआर, और उत्तर देबाजपुर के 275 चाय बागानों के मजदूर शामिल थे। 22 यूनियनों के प्रतिनिधियों द्वारा सिलीगुडी में उत्तरी बंगाल सेब के संयुक्त श्रम आयुक्त को एक ज्ञापन सौंपा गया जिसमें बागान मजदूरों के लिए वेतन ढांचे के अंतिम रूप देने तथा पांच बंद चाय बागानों को पुनः खुलवाने की मांगें शामिल थीं। इससे पूर्व मजदूरों ने सिलिगुडी में 3 किलोमीटर लंबा जुलूस भी निकाला।
चाय बागान मजदूरों को इस समय 95 रुपये दैनिक मजदूरी मिलती है। न्यूनतम वेतन को लेकर मजदूर यूनियनों, चाय बागान प्रबंधन तथा राज्य सरकार के बीच त्रिपक्षीय वार्ता चल रही है। कई चरणों की वार्ता के पश्चात भी कोई परिणाम नहीं निकला है। इस बीच बंद हुई चाय बागानों के मजदूर भुखमरी के कगार पर पहुंच गये हैं। उत्तरी बंगाल के बंद चाय बागानों में पिछले कुछ महीनों में कुपोषण के चलते मजदूरों व उनके परिजनों की मृत्यु की घटनाएं सामने आयी हैं। ये घटनायें इतनी बड़ी मात्रा में थीं कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी इसे संज्ञान में लेने को मजबूर होना पड़ा और उसने इस संबंध में राज्य सरकार से स्पष्टीकरण मांगा है।
गौरतलब है कि उत्तरी बंगाल के चाय बागान मजदूरों ने पहले भी न्यूनतम वेतन के लिए आंदोलन किए हैं लेकिन चाय बागान मालिकों ने इसे मंजूर नहीं किया वेतन वृद्धि केे नाम पर 10-15 रुपये की दैनिक मजदूरी में वृद्धि ही मालिकों द्वारा की जाती रही है। वैसे पश्चिम बंगाल में कृषि क्षेत्र के अकुशल मजदूरों के लिए सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम वेतन 206 रुपये प्रतिदिन है। मनरेगा के तहत अकुशल मजदूरों की मजदूरी 169 रुपये तय है। चाय बागान मजदूर तो कुशल मजदूरों की श्रेणी में आते हैं। इसके बावजूद दार्जिलिंग क्षेत्र के चाय बागान मजदूरों का दैनिक वेतन 90 रुपये तथा दुआर व तराई क्षेत्र के मजदूरों का दैनिक वेतन 95 रुपये है।
मजदूर यूनियनों द्वारा लंबे समय से न्यूनतम वेतन की मांग उठायी जाती रही है। 25 फरवरी, 22 मार्च तथा 18 जून को तीन चरणों की त्रिपक्षीय वार्ता के बाद प्लांटरों (चाय बागान मालिकों) ने 21 रुपये प्रतिदिन बढ़ाने की बात की। यह 21 रुपये प्रतिदिन की वृद्धि भी तीन सालों में की जानी थी। प्लांटरों की इस पेशकश को यूनियन प्रतिनिधियों ने ठुकरा दिया। इस वार्ता में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के ट्रेड यूनियन, इंडियन नेशनल तृणमूल ट्रेड यूनियन कांग्रेस की अध्यक्ष डोला सेन भी मौजूद थीं। इस वार्ता के विफल होने के बाद तृणमूल के ट्रेड यूनियन ने इस संघर्ष से अपने को अलग कर लिया था।

चाय बागानों के मजदूरों का यह संघर्ष ‘‘को आर्डिनेशन कमेटी आॅफ टी प्लांटेशन वर्कर्स के बैनर तले चल रहा है जो कि कई बागान यूनियनों का एक छाता संगठन (न्उइतमससं व्तहंदप्रंजपवद) है। जिसे गोरखा जन मुक्ति मोर्चा का समर्थन भी प्राप्त है। इस कोर्डिनेशन कमेटी ने वर्तमान महंगाई व मजदूरों के बच्चों की शिक्षा व अन्य आवश्यक जरूरतों की मांग की है। कमेटी ने मांग की है कि अगर मजदूरो की मांगें शीघ्र पूरी नहीं हुई तो वे अनिश्चित काल के लिए हड़ताल पर जाने को बाध्य होंगे।

ईरानः खानों केे निजीकरण के खिलाफ खान मजदूर संघर्षरत
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
ईरान के बफ्घ शहर में ‘बफ्घ आयरन ओर’ खाने के 5000 मजदूर खान के निजीकरण के खिलाफ चले आंदोलन के बाद 2 मजदूरों की गिरफ्तारी के खिलाफ हड़ताल पर हैं। इन दो मजदूरों को खान के प्रबंधक वर्ग के इशारे पर उस समय गिरफ्तार किया गया है जबकि कुछ दिन पहले हुये समझौते को अमल में लाने की समयावधि खत्म होने जा रही थी। 16 अन्य के खिलाफ भी पुलिस गिरफ्तारी वारण्ट लेने को थी। अभी तक पुलिस ने पांच और अन्य मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया है। हड़ताली मजदूर अपने साथी मजदूरों की रिहाई को लेकर आंदोलनरत हैं।
ज्ञात हो कि मई के महीने में बफ्घ आयरन ओर खान में मजदूरों ने 40 दिन लम्बी हड़ताल की शुरूआत की थी। यह हड़ताल कम्पनी द्वारा खान के 28.5 प्रतिशत शेयर, शेयर मार्केट में बेचने के खिलाफ थी। यह अप्रत्यक्ष तरीके से खान का निजीकरण ही करना था। इसके अतिरिक्त मजदूरों की हड़ताल के समय यह भी मांग थी कि खान के निदेशक को हटाया जाये। मजदूर यह मांग कर रहे थे कि खान से होने वाले राजस्व का आधा हिस्सा बफ्घ शहर में रहने वाले मजदूरों के परिवारों व शहर के विकास के लिए खर्च किया जाये। बफ्घ शहर की आधी आबादी खान मजदूरों की है। बाद में समझौते में यह राशि 15 प्रतिशत की तय हुई। 40 दिन के बाद हुए समझौते में मजदूरों की मांगों पर दो माह के भीतर अमल करने की बात की गयी। परन्तु दो माह पूरे होने से पहले ही जिस तरह मैनेजमेण्ट ने हड़ताल में शामिल दो मजदूरों के गिरफ्तार करने की कार्यवाही करवायी उससे उसके इरादे साफ जाहिर होते हैं।
आजकल पूरी दुनिया में जिस तरह निजीकरण की बयार चल रही है उससे ईरान भी अछूता नहीं है। ईरान में अभी हाल में ही सेमनान प्रांत में एलबोर्ज कोयले की खान के निजीकरण के खिलाफ चैथी बार वहां के मजदूरों ने आवाज उठायी थी। इस खान के निजीकरण के साथी ही जहां मजदूरों की आजीविका प्रभावित होती वहीं कोयला खान की भूमि पर बने सस्ते मकानों से इन मजदूरों केे परिवारों को बेघरबार होना पड़ता।

ईरान अक्सर मीडिया में अमेरिका के साथ अपने विवादित संबंधों के कारण चर्चा में छाया रहता है। अमेरिका वैसे तो ईरान के परमाणु बमों के बनाने के खिलाफ बोलता रहता है लेकिन वह कहीं भी मजदूरों पर हो रहे हमलों के बारे में कुछ नहीं बोलता है। ईरान का शासक वर्ग भी मजदूर-मेहनतकश जनता पर हो रहे हमलों को ऐसे विवादित संबंधों के बीच छिपाता रहता है। लेकिन सच्चाई सच्चाई है आखिर कब तक छुप सकती है। और ईरान के मजदूर-मेहनतकशों के सामने भी यह सच्चाई मौजूद है कि उनका शासक वर्ग भी पूंजीपरस्त नीतियों का पक्षधर है। वह आज नहीं तो कल खानों के निजीकरण की तरफ बढ़ेगा। उसके इन कदमों को ईरान का मजदूर वर्ग अपनी संगठित एकता के दम पर ही रोक सकता है।

कम्बोडिया: गारमेण्ट फैक्टरी के हजारों मजदूर हड़ताल पर
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
कम्बोडिया के कामपोंग छांग प्रांत में 19 अगस्त को 3000 गारमेण्ट मजदूर हड़ताल पर चले गये। ये मजदूर चीनी स्वामित्व वाली कम्पनी जिउन ये के हैं। ये मजदूर अपने साथ बोनस के मामले में हुयी धोखाधड़ी से आक्रोशित थे। मजदूरों का कहना है कि मालिक ने पिछले पेमेण्ट के समय प्रतिमाह दियेे जाने वाले बोनस में 5 से 20 डालर प्रति मजदूर के हिसाब से धोखाधडी की है। इसके अलावा एक दूसरी ताइवानी स्वामित्व वाली कम्पनी जिन फेंग गारमेण्ट फैक्टरी के 400 मजदूर 18 अगस्त को हड़ताल पर चले गये। यह कम्पनी राजधानी नामपेन्ह के पुर सेन्चे प्रांत में है। इस कम्पनी ने मजदूर लंच भत्ता, गर्भवती व मां बनने वाली महिलाओं के लिए प्रसूति अवकाश व अन्य सुविधायें, छुट्टी के दिन काम करने पर 3 डालर का बोनस और प्रति माह 15 डालर आवास भत्ता की मांग कर रहे थे।
कम्बोडिया में गारमेण्ट उद्योग इन दिनों मजदूरों के शोषण के अड्डे बने हुये हैं। उनकी काम की परिस्थितियां अत्यंत खराब होती जा रही हैं। उन पर काम का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। और ऐसे में कम मजदूरी और फिर उसमें भी मालिक द्वारा धोखाधडी उनके इस आक्रोश में चिंगारी का काम कर देती है। और वे बार-बार हड़ताल कर फैक्टरी से बाहर आकर हाइवे जाम करने की स्थिति तक पहुंच जाते हैं। गारमेण्ट उद्योग में ज्यादंातर महिलायें काम करती हैं। और उनके बच्चों के लिए क्रेच तक की व्यवस्था नहीं है। उस पर फैक्टरी का वातावरण इतना दम घोंटू है कि मजदूरों के बेहोश होने की घटनायें बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही हैं। साल 2012 में 29 फैक्टरियों में हुई 31 ऐसी घटनाओं में 2107 मजदूर बेहोश हुये थे। और आज भी यह सिलसिला जारी है।
फैक्टरियों में ऐसे काम की परिस्थितियों पर वैसे तो श्रम मंत्रालय का रुख काफी कड़ा रहता है लेकिन व्यवहार उतना ही लचीला(लापरवाही भरा) होता है। श्रम मंत्री का कहना है कि फैक्टरियों में इस तरह की घटनाओं पर कड़ा कदम उठाया जायेगा और ऐसी फैक्टरियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जायेगी। परन्तु मजदूरों को ऐसे बयानों पर कोई विश्वास नहीं होता है क्योंकि वे हर रोज अपने साथ फैक्टरियों में हो रही ज्यादतियों को बर्दाश्त करते हैं।

जैसे-जैसे पूंजी का शिकंजा मजदूरों पर कसता जा रहा है उनको मिलने वाली सुविधायें कम होती जा रही है, उनकी मजदूरी घटती जा रही है और मजदूर काम छोउ़कर हड़ताल करने को विवश हो रहे हैं और यह सिलसिला पूंजीवाद में कभी खत्म नहीं होता है।

चीनः नोकिया के कर्मचारी छंटनी के खिलाफ आक्रोशित
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
चीन स्थित नोकिया कम्पनी के कर्मचारी आजकल तनाव व आक्रोश की स्थिति से गुजर रहे हैं। कारण है चीन स्थित नोकिया के रिसर्च सेण्टर और फैक्टरीज के 5000 कर्मचारियों में से 90 प्रतिशत तक कर्मचारियों की छंटनी। छंटनी व क्षतिपूर्ति भुगतान के विरोध में उन्होंने 2 अगस्त को एक रैली भी निकाली।
अभी कुछ महीनों पहले ही अमेरिका की विशालकाय साॅफ्टवेयर कम्पनी माइक्रोसाॅफ्ट ने 7.2 अरब डालर में नोकिया कम्पनी का अधिग्रहण किया था। और अधिग्रहण करने के 1 साल के भीतर की उसने अपने 18000 कर्मचारियों की छंटनी की घोषणा कर दी है। जिनमें से अधिकांश कर्मचारी नोकिया कंपनी के हैं। इन छंटनी होने वाले कर्मचारियों में से चीन स्थित नोकिया कंपनी के हैं। अधिग्रहण के वक्त भी इन कर्मचारियों ने इसके खिलाफ आवाज उठायी थी परन्तु उस समय इनको आश्वासन दिया गया था कि एक साल तक कोई छंटनी नहीं की जायेगी। चीन स्थित इन नोकिया के ये कर्मचारी छंटनी पैकेज व छंटनी करने के तरीकों को लेकर भी खासे आक्रोशित हैं।
चीन के श्रम कानूनों के मुताबिक किसी कम्पनी को बंद करने से पहले वहां मौजूद लेबर यूनियन की सहमति लेनी पड़ती है या फिर कर्मचारियों से 30 दिन पहले सूचित करना होता है। जबकि माइक्रोसाॅफ्ट ने ऐसा नहीं किया। उसने सीधे कर्मचारियों को ईमेल भेजा और दो सप्ताह के भीतर उस पर हस्ताक्षर करने को कहा और हस्ताक्षर न करने की अवस्था में उनको बर्खास्त करने की धमकी दी। इसके अलावा जो क्षतिपूर्ति भुगतान दिया जा रहा है वह भी काफी कम है। क्षतिपूर्ति भुगतान में कर्मचारी को दो माह का वेतन व जितने साल काम किया है उतने महीने का वेतन शामिल है। कर्मचारियों का कहना है कि आम तौर पर माइक्रोसाॅफ्ट कंपनी जो क्षतिपूर्ति भुगतान देती है उससे यह काफी कम है।
जब नोकिया कंपनी का अधिग्रहण किया जा रहा था उस समय भी कर्मचारी इसी आशंका के मद्देनजर इस अधिग्रहण का विरोध कर रहे थे। और आज उनकी आशंका सच साबित हो रही है। यह पूंजीवादी व्यवस्था की आम सच्चाई है कि कंपनियों के अधिग्रहण की प्रक्रिया और कंपनी के ढांचे में बदलाव किया जाता है तो इसका मतलब मजदूरों की छंटनी होता है।

माइक्रोसाॅफ्ट कंपनी का चेयरमेन बिल गेट्स है। यह अमेरिका के उन व्यक्तियों में शामिल है जिन्होंने यह दावा किया है कि उन्होंने अपनी सम्पत्ति का अधिकांश हिस्सा दान देकर ट्रस्ट बनाकर मानवता की सेवा करने के लिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करना तय किया है। माइक्रोसाॅफ्ट कंपनी की यह कार्यवाही उसके इस ढोंग की पोल भी खोलकर रख देती है। मजदूर वर्ग को ऐसे ढोंगियों का नकाब खींच कर बेनकाब करना होगा और अपने वर्ग को संगठित करके इनके खिलाफ संघर्ष करना होगा।

चीन में फैक्टरी में भीषण हादसा, 71 मजदूर मरे
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
चीन के जियांगसु प्रान्त के कुनशान शहर में 2 अगस्त को कुनशान जांगरांग मेटल प्रोडक्टस का.लि. में हुए एक भीषण हादसे में 71 मजदूरों की मौत हो गयी और 200 के लगभग मजदूर घायल हो गये। ज्ञात हो इस कम्पनी में 450 मजदूर काम करते थे। धमाका इतना भीषण था कि 500 मीटर दूर स्थित एक फैक्टरी के गार्ड हाउस की खिड़कियों के शीशे तक चटक गये। 45 मजदूरों की मौत को घटनास्थल पर ही हो गयी। यह कम्पनी ताइवानी स्वामित्व की थी जिसकी स्थापना 1998 में हुयी थी और यह अमेरिका की कार निर्माता कम्पनियों के लिए पहिये बनाने का काम करती है जिनमें जनरल मोटर्स भी शामिल है। विस्फोट का कारण ‘डस्ट एक्सप्लोजन’ बताया जा रहा है।
इस घटना ने चीन में मजदूरों की सुरक्षा के प्रति दृष्टिकोण पर एक बार फिर तीखे ढंग से सवाल उठा दिया है। इस घटना के बाद मजदूरों की सुरक्षा के मामलों को लेकर कहीं मजदूरों में आक्रोश न भड़क उठे, इसके लिए खुद प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति ने घटना की जांच कराने व दोषियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की बात की है।
डस्ट एक्सप्लोजन के कारण चीन में होने वाली दुर्घटना पहली नहीं है। इससे पहले भी कई दुर्घटनायें ऐसी हो चुकी हैं। 11 मार्च 2009 में जियांगशु प्रान्त में डंगयांग शहर में एक परित्यक्त फैक्टरी में विस्फोट के कारण 11 लोग मारे गये थे तथा 20 घायल हुए थे। यह घटना उस वक्त हुई जब चाइना रेलवे कंस्ट्रक्शन कारपोरेशन लिमिटेड की सहायक कंपनी ने मजदूरों के किराये पर रहने के लिए उसको लिया था। एक और घटना 5 अगस्त 2012 को हुयी थी जब जेझियांग प्रांत के वेझोऊ शहर में एक एल्युमिनियम की पोलिश करने वाली कंपनी में विस्फोट हुआ और 13 लोग मारे गये तथा 15 घायल हुये।

चीन में मजदूरों के साथ लगातार होने वाली दुर्घटनाओं व उनमें होने वाली मौतें इस बात को साबित करती हैं कि विश्व की दूसरी नम्बर की अर्थव्यवस्था वाले चीन की असलियत क्या है, इसमें मजदूर वर्ग की स्थिति क्या है। वास्तव में यह अर्थव्यवस्था मजदूरों की लाशों पर खड़ी है।

बांग्लादेशः भूख हड़ताल कर रहे गारमेण्ट मजदूरों पर पुलिस का लाठीचार्ज
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
बांग्लादेश के ढाका शहर में भूख हड़ताल पर बैठे मजदूरों पर पुलिस ने 7 अगस्त को बर्बर लाठीचार्ज किया। उन्होंने मजदूरों को फैक्टरी परिसर से बाहर खदेड़ने के लिए आंसू गैस का इस्तेमाल किया और मजदूरों पर पानी की बौछारें छोड़ीं। पुलिस ने इसके अलावा फैक्टरी में मौजूद महिला मजदूरों से बेहद भद्दी भाषा में बात की और उनका बलात्कार करने की धमकी दी।
ज्ञात हो कि ढाका शहर में टयूबा ग्रुप की पांच कंपनियों- बुगशान गारमेण्ट लिमिटेड, ट्यूबा फैशन लिमिटेड, ट्यूबा टैक्सटाइल मिल्स, तैयब डिजाइन लिमिटेड और मीता डिजाइन लिमिटेड के 1500 मजदूर मई, जून व जुलाई की तनख्वाह, एरियर व ईद के बोनस की मांग करते हुए 28 जुलाई से फैक्टरी में भूख हड़ताल पर बैठे थे। फैक्टरी प्रबंधन ने मजदूरों ेसे वायदा किया था कि वे ईद (29 जुलाई) के पहले तक मजदूरों को बकाया वेतन व बोनस का भुगतान कर देंगे। परन्तु प्रबंधन ने फैक्टरी मालिक के जेल में होने का बहाना बनाया और कहा कि चूंकि बैंक लोन पास नहीं हो पाया है इसलिए वे मजदूरों को बकाया भुगतान नहीं कर पायेंगे। इससे आक्रोशित मजदूर 29 जुलाई को ईद पर घर जाने के बजाय 28 जुलाई से फैक्टरी में भूख हड़ताल पर बैठ गये। (आखिर जिन मजदूरों को तीन माह से तनख्वाह न मिली हो वे त्यौहार पर घर जाकर करते भी क्या।)
ट्यूबा गु्रप का मालिकाना दिलवर हुसैन का है जिसकी आशुलिया में ताजरीन फैक्टरी में नवम्बर 2012 में आग लगने के कारण 112 मजदूर मारे गये थे। उसी केस के कारण दिलवर हुसैन फरवरी सेे जेल में है जिसके जमानत के कारण बाहर न आने के कारण मजदूरों का भुगतान लटक गया।
पिछले सालों में कम्बोडिया जैसे देशों के साथ बांग्लादेश भी कपड़ा उद्योग के लिए एक ऐसा स्थान बन गया है जहां मजदूरों का अत्यधिक शोषण होता है। उनका वेतन इतना कम है कि पिछले साल उनके वेतन में 77 प्रतिशत बढ़ोत्तरी के बाद भी उनका वेतन मात्र 5300 टका(68 डालर) है। बांग्लादेश का गारमेण्ट उद्योग 24 अरब डालर का है जिसमें 40 लाख मजदूर काम करते हैं जिनमें अधिकतर महिलायें हैं। बांग्लादेश के निर्यात में 80 प्रतिशत हिस्सा गारमेण्ट उद्योग का है। इन गारमेण्ट कम्पनियों में ज्यादातर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां (एच एण्ड एम, बालमार्ट, टेस्को आदि) हंै जो सस्ते में माल बनवाती हैं और मजदूरों का अत्यधिक शोषण व सुरक्षा व्यवस्था के कारण होने वाली मौतें उन्हें बार-बार सड़कों पर संघर्ष करने के लिए मजबूर करती हैं। इसको लेकर बांग्लादेश के गारमेण्ट मजदूरों में अत्यधिक आक्रोश भरा है। जब पुलिस ट्यूबा ग्रुप की कंपनियों के इन मजदूरों पर लाठी चार्ज कर रही थी तो आस-पास की कई फैक्टरियों के मजदूर उन मजदूरों के समर्थन में सड़क पर उतर आये और पुलिस से भिड़ गये।

पुलिस की इस तरह की कार्यवाही कोई पहली कार्यवाही नहीं है। पहले भी पुलिस ने मजदूरों के संघर्षों का दमन किया है और फायरिंग में कई मजदूरों की जानें गयीं हैं। मजदूरों की इस लड़ाई में हालांकि कुछ वामपंथी संगठन मदद कर रहे हैं परन्तु मजदूरों के संघर्षोें को अब आगे बढ़ाने के लिए केवल इतना ही काफी नहीं है। आज मजदूरोें को अपने क्रांतिकारी संगठनों की आवश्यकता है जो उसे इस पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने के लिए खड़ा करे। वरना पूंजीवादी व्यवस्था में उनकी जिंदगियां इसी तरह लड़ते-लड़ते बीत जायेंगी।

जूट उद्योग को पुनरूजीवन
जूट मजदूरों की हिंसा मदद के लिए निराशोन्मुक्त चीत्कार है
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
हुगली(प. बंगाल) स्थित नार्थब्रुक जूट मिल में नवम्बर, 2013 से ही केवल पांच घण्टे की पाली चल रही थी और इस साल के शुरू में 40 दिनों तक काम भी बंद रहा। 15 जून को जब कंपनी का मुख्य कार्यकारी अधिकारी आपूर्ति आर्डरों के अभाव व तैयार माल के ढ़ेर को देखते हुए तीन कार्यदिवस के सप्ताह वाले प्रस्ताव को लेकर आक्रोशित मजदूरों से मिला, तब कुछ क्रोधित मजदूरों ने उसे पीट-पीट कर मार डाला। हालांकि यह बयान तुरंत सार्वजनिक किये गये में से एक है। तब से विभिन्न कोनों से इस पर संदेह उठाये जा रहे हैं। यह देखना बाकी है कि क्या गिरफ्तारियां व जांच एक ज्यादा साफ तस्वीर सामने लाती हैं कि नहीं। 
पश्चिम बंगाल की 55 जूट मिलों में लगभग ढ़ाई लाख मजदूर काम करते हैं। तथापि जूट उद्योग दशकों से मुश्किल वक्त का सामना कर रहा है, जिसका खामियाजा मजदूर उठा रहे हैं। मिल मालिक सिंथेटिक धागों और प्लास्टिक से प्रतियोगिता के कारण मांग में अभाव के साथ-साथ क्षमता से कम पर काम कर  रही मिलों के लिए केन्द्र के जूट-उद्योग की भलाई के लिए किये गये उपायों के बदतर ढंग से लागू किये जाने को दोष देते हैं। इसके निहितार्थ में काम के घंटों में गिरावट से निकलने वाली वेतन कटौती न्यायसंगत दिखाई पड़ने लगती है। 
जो नहीं बताया जाता वह यह कि अच्छे समय के दौरान भी संचालन के तानाशाहीपूर्ण तौर-तरीकों के कारण अच्छे औद्योगिक रिश्तों के निर्माण और आधुनिकीकरण के लिए निवेश के प्रति अयोग्यता या अनिच्छा का होना रहा है। 1960 के दशक की शुरूआत से ही, जब त्रिपक्षीय समझौता प्रचलन में आया, मजदूरों का भुगतान, बोनस, प्रोविडेंट फंड, स्थिर डी.ए. में सुधार और बड़े पैमाने की वित्तीय अनियमितताओं की समाप्ति जिनकी वजह से मुश्किल से ही प्रबंधन पर भरोसा पैदा होता है। विरोध प्रदर्शनों का मुकाबला तालाबंदी व खर्च कटौतियों से किया जाता है, जो केवल दुश्मनी को बढ़ाता है। बाद के समय में न्यूनतम आवश्यकताओं से बहुत नीची मजदूरी पर अस्थायी मजदूरों व सहायकों को काम पर लगाये जाने ने शोषणकारी तरीकों की सूची में बढ़ोत्तरी कर दी। 
राज्य सरकार व उद्योगपतियों दोनों ने इस घटनाक्रम पर अपने अपेक्षित अंदाज में शीघ्र ही कार्यवाही की तर्ज पर तुरंत ही प्रतिक्रिया दी। लगभग हाथ-पैर फेंकते हुए और इससे पहले कि पुलिस कोई बयान जारी करती मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस हिंसा के लिए भाजपा और माकपा से जुड़ी ट्रेड यूनियनों पर आरोप मढ़ दिया। उनसे मिलने गये उद्योगों के प्रतिनिधियों ने धमकी दी कि यदि उन्हें पर्याप्त सुरक्षा नहीं मिली तो उन्हें राज्य से बाहर चले जाना पड़ेगा। तीन मिलों ने तो 15 जून की हिंसा के बाद से काम-काज स्थगित किया हुआ है। इसके बाद राज्य सरकार ने परिस्थितियों पर ‘‘गहराई से देखने’’ और एक ‘‘सम्पूर्ण’’ नजरिया अख्तियार करने के लिए एक समिति गठित की। अप्रैल माह में भारतीय जूट मिल एसोसिएशन के सदस्य राज्य के वित्त मंत्री से मिले और उन्हें पृथक जूट नीति बनाये जाने का वायदा किया गया। स्थानीय अखबारों में इस तरह की खबरें थीं कि किस तरह आम चुनाव की तैयारियों के दौरान बंद पड़ी जूट मिलों के मालिकों पर मिलें खोलने का दबाव डाला गया। नाॅर्थब्रुक मिल भी चुनाव से कुछ दिन पहले ही खुली थी। और कुछ ही समय बाद वहां काम के घंटे तेजी से घटा दिये गये। 
राष्ट्रीय जूट नीति, 2005 से एक नई रणनीति विकसित करने और जूट के जैविक ढंग से अपचयित होने के गुण के कारण इसके उत्पादों के पर्यावरण के अनुकूल होने पर जोर देने की उम्मीद थी। निर्यात बढ़ाना और कार्य परिस्थितियों को सुधारा जाना था। तथापि मौजूदा परिस्थितियों घरेलू बाजार में बांग्लादेश के जूट उत्पादों की बहुलता की वजह से एक बिल्कुल ही भिन्न तस्वीर पेश करती है। जूट उद्योग की मदद के लिए एक पूर्व प्रयास जूट पैकिंग सामग्री (पैकिंग मालों में आवश्यक उपयोग) कानून, 1987 था, जिसने खाद्यान्नों, चीनी, सीमेंट और रसायनों की जूट से पैकिंग करने को तय किया गया था। मिल मालिक लगातार कम होते आपूर्ति आर्डरों के लिए इस आवश्यक जरूरत के भारी तनुकरण और बाजार में अपेक्षाकृत सस्ते दामों में सिंथेटिक विकल्पों की उपलब्धता को दोष देते हैं। यहां तक कि अब भी मिल मालिक पश्चिम बंगाल सरकार से आलू और चावल की जूट द्वारा पैकिंग को आवश्यक बनाये जाने की आश्वस्ति के लिए कह रहे हैं। 
हालांकि जूट उद्योग पर भी यह दोष है कि अभी तक वह भी प्लास्टिक के उपयोग के विरुद्ध न्यायालयों के बहुत से आदेशों का फायदा उठाने और पर्यावरण अनुकूल जूट उत्पादों को लोकप्रिय बनाने में असफल रहा है। जबकि बहुत सी मिलें आधुनिकीकरण करने में असफल रहीं, जिन्होंने ऐसा किया भी उन्होंने भी अपने मजदूरों के साथ उद्योग स्तर पर (त्रिपक्षीय) समझौता करने के बजाय व्यक्तिगत स्तर पर समझौतों पर भरोसा करने को प्राथमिकता दी। उत्पादकता बढ़ाने से जुड़े जोरों ने बहुत से शोषणकारी श्रम तौर-तरीकों को बढ़ाया, बिना इस भय के कि उन्हें इसके लिए जबाव देना होगा। मजदूरों और उनकी यूनियनों ने चिह्नित किया है कि बहुत से मिल मालिक मिलें चलाने के लिए इच्छुक नहीं हैं। वे उन्हें बंद करने व परिसम्पत्तियां बेचने के बहाने ढूंढ रहे हैं। घरेलू व अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में नवीनतम ढंग से बाजार विभिन्न जूट उत्पादों को खोजने के लिए ‘‘जूट तकनीक अभियान’’ के साथ-साथ जूट के वैकल्पिक उपयोगों को विकसित करने के उद्देश्य से ‘‘भारतीय जूट उद्योग अनुसंधान संगठन’’ भी है। जूट उद्योग फैशन सामग्रियों व हस्तशिल्प में भी जूट के उपयोग को लोेकप्रिय बनाने की आशा रखता था, एक ऐसा क्षेत्र जिसमें उन्हें दिखाने भर के लिए थोड़े साधारण स्तर के प्रयास ही हुए लेकिन किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा जूट मिलों का तकनीकी उच्चीकरण, समर्थ प्रबंधन और न्याय संगत श्रम प्रबंध ही इस वक्त की मांग बनते हैं। यह साफ है कि यदि मिलें बंद हो जायेंगी तो मजदूर सब कुछ खो देंगे और इसलिए वे उन्हें चलाते रहना चाहेंगे। मुद्दा यह है कि क्या मिल मालिक उन्हें चलाना चाहते हैं और कि क्या केेन्द्र व राज्य दोनों सरकारें उन्हें ऐसा करने हेतु आश्वस्त करने के लिए पर्याप्त दृढ़ संकल्प हैं। इस अनदेखी के कारण लाखोें जूट मजदूरों और उनके परिवारों द्वारा झेली जा रही भूख, गरीबी, बेकारी के क्षोभ से जनित प्रतिदिन निरंतर होने वाली हिंसा को संबोधित न किया जाना उसी प्रकार की विपत्तियों के लिए परिस्थितियां निर्मित करेगी, जैसी कि नाॅर्थब्रुक में घटित हुईं। 
(साभारः  EPW के 28 जून 2014 के सम्पादकीय ‘Reviving the Golden Fibre' का हमारे द्वारा हिन्दी अनुवाद)

माइक्रोसाफ्ट ने की 18,000 कर्मचारियों की छंटनी
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31  अगस्त, 2014)
अमेरिका की विशालकाय साॅफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसाॅफ्ट ने अगले साल तक 18,000 नौकरियों को खत्म करने की घोषणा कर दी है। माइक्रासाॅफ्ट कंपनी के इतिहास में यह सबसे बड़ी छंटनी है। इससे पहले यह कम्पनी 2009 में 5800 नौकरियां (कुल नौकरियों का 5 प्रतिशत) व 2012 में सैकड़ों नौकरियां खत्म कर चुकी है। अमेरिका के स्टाॅक एक्सचेंज के अनुसार इन नौकरियों के खत्म होने से 2016 के वित्तीय वर्ष तक इसके शेयर में 30 प्रतिशत की वृद्धि तक का इजाफा हो जायेगा।
इस घोषणा से माइक्रोसाॅफ्ट अमेरिका की उन चार कंपनियों में शामिल हो गयी है जिन्होंने बड़ी भारी मात्रा में अपने कर्मचारियों की छंटनी कर उन्हें बेरोजगारी की लाइन में खड़ा कर दिया है। कुछ समय पहले ही हेलवेट पैकर्ड ने अपने 50,000 कर्मचारियों (कुल कर्मचारियों का 16 प्रतिशत) की छंटनी की है। इसके अलावा इंटेल ने 5000 कर्मचारी(कुल कर्मचारियों का 5 प्रतिशत) व आईबीएम ने 12,000कर्मचारी(कुल कर्मचारियों का 3 प्रतिशत) की छंटनी की है। और अब माइक्रोसाॅफ्ट 18,000 कर्मचारियों की छंटनी कर इनके साथ शामिल हो गयी है।
माइक्रासाॅफ्ट कंपनी ने जब यह छंटनी करने की घोषणा की है तो ऐसा नहीं है कि उसको अपने कारोबार में घाटा हो रहा है। बात बिल्कुल उल्टी है। माइक्रोसाॅफ्ट कंपनी का मुनाफा जहां 2009 में 15 अरब डालर था वहीं 2013 में यह बढ़कर 21 अरब डालर हो गया। यही वह समय है जब दुनिया के अंदर मंदी छायी हुयी थी। और जब इसने कर्मचारियों की छंटनी की घोषणा की तो एक सप्ताह के भीतर इसके शेयर 5 प्रतिशत तक बढ़ गये। यह इस बात को और स्पष्ट रूप से दिखा देता है कि छंटनी का संबंध केवल घाटे से ही नहीं होता है बल्कि कंपनी जब मुनाफे में होती है तो यह और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए भी छंटनी कर देती है। इसका संबंध सीधे-सीधे मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था से है जिसका मूल मंत्र केवल मुनाफा है।
माइक्रोसाॅफ्ट कंपनी ने अभी हाल में ही नोकिया कंपनी का अधिग्रहण किया था। और आज जब वह छंटनी कर रही है तो छंटनीशुदा कर्मचारियों में एक बड़ी संख्या (12,000 कर्मचारी) नोकिया कंपनी के हैं। इनमें नोकिया के हेडक्वार्टर फिनलैण्ड से 1100 कर्मचारी हैं तो वहीं हंगरी से 1800 और शेष सेन डियागो से हैं। इससे यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि जब भी कोई एक कंपनी किसी दूसरी कंपनी का अधिग्रहण करती है तो अधिग्रहित कंपनी के कर्मचारी इस अधिग्रहण का विरोध इसलिए कर रहे होते हैं कि उनकी नौकरियां खतरे में पड़ जाती हैं। उनको छंटनी किये जाने का भय रहता है और इसलिए वे चाहते हैं कि उनको या तो नौकरी की सुरक्षा की गारंटी मिले या फिर छंटनी करते वक्त मिलने वाला क्षतिपूर्ति भुगतान ठीक-ठाक मिले। यही आज नोकिया कंपनी के कर्मचारियों के साथ हो रहा है।
अब देखने वाली बात यह है कि जब आज माइक्रोसाॅफ्ट कंपनी के कर्मचारियों की छंटनी हो रही है तो उसके शेयर बाजार के भाव बढ़ रहे है। और दूसरी तरफ अमेरिका की अर्थव्यवस्था में सिकुडन आ रही है। ये सब आपस में विरोधाभासी बातें हैं। 2014 की पहली तिमाही में अमेरिका की अर्थव्यवस्था में 2.9 प्रतिशत की सिकुड़न की बात की जा रही है। भवन निर्माण में तो 9.3 प्रतिशत की गिरावट है और दक्षिण में तो इसमें 30 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है। इन बातों की रोशनी में देखा जाये तो मंदी से बाहर निकलने की जितनी घोषणायें की गयीं वे फिजूल साबित हुयी हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का संकट हल होने के स्थान पर गहरा रहा है।   

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