Friday, May 1, 2015

सीताराम येचुरी की सदारत में माकपा

वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)    
सीताराम येचुरी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) की केन्द्रीय कमेटी के नये महासचिव चुने गये हैं। उन्होंने प्रकाश करात को प्रतिस्थापित किया है। यह विशाखापत्तनम में आयोजित पार्टी की इक्कीसवीं कांग्रेस में सम्पन्न हुआ। 
    प्रकाश करात के बदले सीताराम येचुरी के नेतृत्व में माकपा का क्या भविष्य होगा? क्या वह देश की पूंजीवादी राजनीति में अपनी कोई प्रभावी भूमिका बना पायेगी?

    कहा जाता है कि सीताराम येचुरी माकपा के पूर्व नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के बहुत करीबी रहे हैं और सुरजीत पूंजीवादी राजनीति मेें जोड़-तोड़ के लिए मशहूर थे। जब 1996 में संयुक्त मोर्चा की सरकार में माकपा के ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया तो इसका श्रेय सुरजीत सिंह को ही दिया गया। ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का यह प्रकरण दिलचस्प है क्योंकि इसने न केवल माकपा की भावी दिशा को निर्धारित किया बल्कि इसमें येचुरी की भी एक खास भूमिका थी। 
    जब ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया तो माकपा की समूची पोलित ब्यूरो इसके लिए राजी थी पर इसका फैसला तो केन्द्रीय समिति ही कर सकती थी। केन्द्रीय समिति ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। बाद में पोलित ब्यूरो ने केन्द्रीय समिति की फिर बैठक बुलाई। केन्द्रीय समिति ने न केवल दोबारा इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया बल्कि ब्यूरो को डांट भी लगाई। 
    कहा जाता है कि केन्द्रीय समिति के इस फैसले में प्रकाश करात के साथ सीताराम येचुरी की केन्द्रीय भूमिका थी। इन्होंने पार्टी कार्यक्रम को अपना हथियार बनाया था जिसमें प्रदेशों में तो पार्टी द्वारा सरकार बनाये जाने की बात थी पर केन्द्र सरकार में भागेदारी की नहीं। वहां आशय जनसंघर्षों के जरिये केन्द्र सत्ता पर कब्जा करने का था। इस तरह ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये जिसे उन्होंने बाद में पार्टी की बहुत बड़ी भूल बताया। 
    यह गलती दोबारा न हो इसके लिए बाद में पार्टी द्वारा प्रबंध कर लिया गया। पार्टी के कार्यक्रम में संशोधन कर उसमें मौका मिलने पर केन्द्र में सरकार में शामिल होने की बात डाल दी गयी। महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस चीज का अब प्रकाश करात या सीताराम येचुरी ने विरोध नहीं किया।  
    आज यह कहना मुश्किल है कि 1996 में प्रकाश करात और सीताराम येचुरी का विरोध तकनीकी आधार पर था या राजनैतिक आधार पर अथवा इसमें कोई व्यक्तिगत कोण मौजूद था। यह भी कहना मुश्किल है कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी एक ही जमीन पर थे या अलग-अलग।
    पर इस कांग्रेस के सिलसिले में कुछ बातें उभर कर आई हैं। कांग्रेस के पहले यह सवाल उठा कि क्या 1997 की वह रणकौशलात्मक दिशा सही है जिस पर तब से पार्टी चलती रही है और कभी कांग्रेस तथा कभी भाजपा के साथ औपचारिक-अनौपचारिक मोर्चा कायम करती रही है। सीताराम येचुरी इस पक्ष में थे कि यह कार्यदिशा सही है पर इसे लागू करने में दिक्कतें रही हैं। संभवतः प्रकाश करात इसके प्रति आलोचनात्मक थे। 
    सीताराम के इस रुख और उनके पूरे राजनीतिक अतीत को देखते हुए ही उनके महासचिव बनने के तुरंत बाद यह चर्चा गरम हो गयी कि अब भाकपा-माकपा का विलय हो जायेगा। सीताराम येचुरी को इसका खंडन करना पड़ा और कहना पड़ा कि वे वाम पार्टियों की और नजदीकी एकता के पक्षधर हैं पर विचारधारात्मक मतभेदों के चलते विलय नहीं हो सकता। साथ ही उन्होंने वाम एकता और वाम की मजबूती के आधार पर वाम-जनतांत्रिक एकता की बात की। उनका सीधा इशारा जनता परिवार की ओर था। पर साथ ही कांग्रेस के साथ गठबंधन इससे बाहर नहीं था। 
    कुल मिलाकर, सीताराम येचुरी के नेतृत्व में माकपा उसी रास्ते पर और ज्यादा तेज गति से चलेगी जिस पर वह पिछले चार-पांच दशकों से चलती रही है। पूंजीवादी राजनीति में उसकी जोड़-तोड़ बदस्तूर जारी रहेगी और नये-नये आयाम ग्रहण करेगी। 
    रही जमीनी स्तर की बात तो उसका राजनीति संगठनात्मक क्षरण और बढ़ेगा जैसा कि पश्चिम बंगाल में हो रहा है। इससे उबरने का जज्बा न तो नेतृत्व में है और न कतारों में। पिछले चुनावों में बुरी तरह पिटने के बाद भी यदि यह पार्टी अपना रास्ता बदलने को तैयार नहीं है तो यह उसकी जीवन-एकता के चुक जाने को ही प्रकट करता है। एक सुधारवादी पार्टी के रूप में भी माकपा का भविष्य अंधकारमय है। 

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