Friday, January 16, 2015

निजीकरण के खिलाफ कोयला मजदूरों की हड़ताल

वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
नए वर्ष का स्वागत कोयला खनिकों ने हड़ताल के साथ किया। 6 जनवरी से देश के 5 लाख से भी अधिक कोयला खनिक 2 दिन हड़ताल पर रहे। यह हड़ताल केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व में आहूत की गयी थी। हड़ताल के मुख्य मुद्दे कोल इण्डिया लिमिटेड के निजीकरण व श्रमिकों के वेतनमान में वृद्धि थे। इस हड़ताल से लगभग 75 फीसदी कोयला उत्पादन प्रभावित हुआ। पहले से ही ऊर्जा संकट के कारण सरकार भारी दबाव में आ गयी।

दरअसल कोयला राष्ट्रीयकरण कानून 1973 के तहत भारतीय कोयला खनन क्षेत्र राष्ट्रीयकृत रहा था। कोयला खनिक मोेदी सरकार की उस आज्ञप्ति के खिलाफ हैं जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खदानों की नीलामी के आवंटन रद्द किये जाने के उपरांत जारी की गयी थी। इस आज्ञप्ति में दो मुख्य बातें थीं। पहली कोल इण्डिया लिमिटेड जोकि एक सरकारी उपक्रम है, के एकाधिकार को खत्म कर दिया जाये और दूसरा इस कंपनी का विनिवेश किया जाये।
देश के कोयला खनिक उपरोक्त के निजीकरण के विरुद्ध संघर्षरत हैं। इस हड़ताल का नेतृत्व ‘अखिल भारतीय कोयला श्रमिक संघ’ कर रहा है। इस हड़ताल में सभी बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें मसलन एटक, सीटू, इंटक, एचएमएस और यहां तक कि भाजपा का मजदूर मोर्चा बीएमएस तक शामिल है।
इससे पहले सन् 2000 में भी ऐसा ही प्रयास सरकार की तरफ से किया गया था परन्तु कड़े विरोध के परिणामस्वरूप सरकार को अपने कदम वापस खींचने पड़े थे। परन्तु इस बार मामला थोड़ा अलग है। मोदी सरकार एकाधिकारी घरानों के निर्विवाद समर्थन से सत्ता पर काबिज हुयी है। एकाधिकारी घरानों ने अरबों रुपया मोदी के चुनाव अभियान में पानी की तरह बहाया था। अब मोदी की बारी थी ‘सूद समेत वापसी’ की (मोदी द्वारा चुनाव में जनता से बोले गये शब्द)। सो! शुरूआती महीनों की ‘निन्द्रा’ व ‘आलस्य’ को त्यागकर पूंजीपतियों को ‘सूद समेत वापसी’ के एजेण्डे पर काम महाराष्ट्र व हरियाणा के चुनावों के बाद शुरू कर दिया गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण था कोल आवंटन हेतु जारी किया अध्यादेश व आज्ञप्ति। इसने एक ही झटके में अपनी ‘सुस्ती’ तोड़ते हुए पूंजीपतियों की सबसे बड़ी मांगों में से एक को पूरा कर दिया।
मोदी सरकार के इस कदम को बड़े पूंजीवादी घरानों का प्रबल समर्थन है। ऊर्जा क्षेत्र में लगे उद्योगपति पहले से ही कोयला क्षेत्र का निजीकरण चाहते रहे हैं। मोदी सरकार कोयला क्षेत्र के निजीकरण को बिजली समस्या से जोड़कर न्याय संगत ठहराने की कोशिश कर रही है। मोदी की यह चाल इसलिए है ताकि कोयला क्षेत्र के निजीकरण को जनता के बीच जायज ठहराया जा सके। उद्योग व ऊर्जा क्षेत्र की जरूरतों को पूरा न कर पाने को आधार बनाकर मोदी सरकार कोयला खनन क्षेत्र को एकाधिकारी घरानों के हवाले कर रही है।
मजेदार तथ्य यह है कि आजादी के बाद भारत सरकार ने कोयला के व्यवस्थित व वैज्ञानिक तरीकों से खनन उत्पादन को बढ़ाने के लिए स्वयं के प्रतिष्ठान खड़े किये थे ताकि उद्योगों विशेषकर इस्पात उद्योग की जरूरतों को पूरा किया जा सके। दूसरा कोयला क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण के दौरान दो महत्वपूर्ण बातें गौर करने की हैं जिन्हें कोयला क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण के आधार के तौर पर प्रस्तुत किया गया था- एक, निजी क्षेत्र की कंपनियां कोयले का अवैज्ञानिक तरीके से खनन कर रही थीं, दूसरा, खनन में गलत तरीकों का इस्तेमाल कर रही थी और सबसे महत्वपूर्ण तीसरा कारक निजी कम्पनियोें में कार्यरत खनिकों की बुरी कार्य परिस्थितियां थीं।
इन बातों को कहने का मतलब यह नहीं है कि केवल इन कारकों की वजह से खदानों का राष्ट्रीयकरण किया गया। परन्तु ये मुख्य कारकों में से एक थे। क्या पूंजीपति वर्ग जो नीलामी के द्वारा कोल ब्लाॅक प्राप्त करेंगे, उनका व्यवहार 1973 से पूर्व कोयला खनन में लगे अपने भाई बंधुओं से अलग होगा? क्या मोदी सरकार यह गारंटी दे सकेगी कि उनके प्रिय जिंदल, रिलांयस, अदाणी वगैरह अपने पूर्ववर्तियों की तरह कार्य नहीं करेंगे। नीलामी में भाग लेनेे वाले अमूमन वही लोग होंगे जिनके कोल आवंटनों को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द किया है और इनमें से कई वहीं औद्योगिक समूह होंगे जो इस क्षेत्र में 1973 से पहले लगे थे। यहां यह कहने का आशय नहीं है कि राष्ट्रीयकरण ने अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लिया था और पूंजीवाद के रहते न तो योजनाबद्ध व पूर्णतः वैज्ञानिक तरीके से खनन हो सकता है और न ही खनिकों की कार्य व जीवन परिस्थितियां बहुत बेहतर हो सकती हैं। फिर भी खनिकों के नजरिये से राष्ट्रीयकरण ने उनको तुलनात्मक तौर पर बेहतर कार्यपरिस्थितियां प्रदान की थीं।
इसलिए खनिकों का यह डर अनायास नहीं है कि कोयला खदानों में निजीकरण की प्रक्रिया के आगे बढ़ने से न सिर्फ उनकी नौकरी पर खतरा बढ़ गया है वरन् उनकी जीवन व कार्य परिस्थितियां और भी बुरी होने वाली हैं। ‘‘श्रम सुधारों’’ के परिणामस्वरूप तो इन खनिकों की स्थिति भयावह हो जायेगी।
ऐसे में कोयला खदानों में निजीकरण की प्रक्रिया के खिलाफ खनिकों का संघर्ष ही उन्हें रियायत प्रदान करवा सकता है। संघर्ष का बिगुल फूंककर उन्होंने शुरूआत कर दी है। रेलवे की 1974 की हड़ताल के बाद 40 वर्षों बाद ऐसी बड़ी हड़ताल हुई है। खनिकों के जुझारू तेेवर ही इस हड़ताल का भविष्य और स्वयं इन खनिकों का भविष्य तय करेंगे। यदि वे एकजुट होकर जुझारू संघर्ष करते हैं तो मोदी सरकार को अपने कदम वापस खींचने होंगे नहीं तो देश की कोयला खदानें अडाणियों और अंबानियों जैसों की सम्पत्ति बन जायेंगे और स्वयं खनिक उनके जरखरीद गुलाम।
परन्तु खनिकों की यह लड़ाई इस बात पर निर्भर  करती है कि वे अपने नेतृत्व व केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के नेतृत्व व उनके समझौता परस्ती के खिलाफ भी जुझारू तेवर दिखाते हैं या नहीं। यही वह नेतृत्व है जिसने सरकारों की निजीकरण की प्रक्रिया को आगे ले जाने में भरपूर सहयोग व समर्थन प्रदान किया है और मजदूर वर्ग को पूंजीपतियों के बरक्श निशस्त्र करने का काम किया है।
दो दिन में ही हड़ताल बिना आम मजदूरों को भरोसे में लिये समाप्त करना संदेह उत्पन्न करता है। जिस कमेटी को सरकार व ट्रेड यूनियन नेताओं के बीच से बनाया गया वह अधिकारविहीन कमेटी है। वह मामले को लम्बा खींचने और सरकार को और ज्यादा वक्त देने के लिए बनायी गयी है ताकि वह अब मजदूरों पर ज्यादा धूर्त तरीके से हमला कर सके।
खान मजदूर सरकार और ट्रेड यूनियन नेताओं के बिछाये जाल में फंस चुके हैं। भविष्य में मजदूर दक्षिण अफ्रीका के मजदूरों के 2012 के संघर्षों की तर्ज पर जब नयी इबारत लिखेंगे तभी सरकार को अपने पूंजीपरस्त नीतियों से पीछे हटने को कुछ मजबूर किया जा सकता है।  

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