Friday, January 16, 2015

जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन

वर्ष-18, अंक-02(016-31 जनवरी, 2015)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के घोर साम्प्रदायिक दुष्प्रचार का एक नतीजा जहां चुनाव में भाजपा की सीटों में बढ़ोत्तरी के रूप में आया वहां दूसरा नतीजा राष्ट्रपति शासन के रूप में आया।
विधानसभा में स्थिति ऐसी हो गयी है कि किसी भी सरकार के लिए भाजपा आवश्यक हो गयी है। भाजपा को किनारे कर यदि पीडीपी, कांग्रेस और निर्दलीय मिली-जुली सरकार बना भी लें तो आर्थिक तौर पर पूरे तौर से केन्द्र पर निर्भर इस राज्य को दैनंदिन का काम चलाना भी मुश्किल हो जायेगा। और यदि पीडीपी भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना लेे तो उनका भावी वजूद खतरे में पड़ जायेगा। इसी तरह भाजपा अपनी पीठ थोड़ी झुकाकर पीडीपी से समझौता कर ले तो उसे भी जितना लाभ हासिल हो गया है उससे ज्यादा लाभ हासिल नहीं होगा। नेशनल कांन्फ्रेस और कांग्रेस इस स्थिति में नहीं हैं कि कोई कदम इस दिशा में उठा सकें।

पूंजीवादी राजनैतिक व्यवस्था का यह वह घृणित चेहरा है जो हर ओर से आम जनों से छल करता है। उनके मत, उनकी इच्छायें, उनकी आकांक्षायें सब घृणित पूंजीवादी राजनैतिक दलों के समीकरण में फंस कर रह जाती है। हर चुनाव के बाद उन्हें एक नया छल हासिल होता है। जम्मू कश्मीर में इस समय किसी भी तरह से सरकार गठित हो भी जाये तो वह इतने सारे अंतरविरोध और तनाव का शिकार होगी कि उसके लिए सामान्य काम-काज भी सम्भव नहीं होगा।
ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति शासन का काल लम्बा खिंचता जायेगा। और जब कोई सरकार गठित हो भी जायेगी वह अपना समय यूं ही बिताती रहेगी।
जम्मू-कश्मीर की जनता गत महीनों में आयी बाढ़ और उसके बाद पड़ रही भयानक ठण्ड से अपने बेहद सीमित संसाधनों से जूझ रही है जबकि राजनैतिक दल अपने हितों के घृणित गणित में उलझे हुए हैं। फिलवक्त जम्मू-कश्मीर के मजदूर, किसानों व अन्य मेहनतकशों की आम समस्याओं का कोई समाधान नहीं है। समाधान का रास्ता भारतीय समाज में व्यापक आमूल-चूल परिवर्तन से होकर जाता है। और यह परिवर्तन जब तक नहीं आता तब तक न तो कश्मीर और न ही भारत के आम मेहनतकशों की समस्या का कोई वास्तविक व स्थायी समाधान है। 

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