Sunday, February 1, 2015

अध्यादेश राज

वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)   
 राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति बनने के पहले कांग्रेस पार्टी के नेता थे। कांग्रेसियों ने राहुल गांधी का रास्ता निष्कंटक बनाने के लिए उन्हें राष्ट्रपति भवन में बैठा दिया। मुखर्जी के दुर्भाग्य से उनके राष्ट्रपति भवन में बैठने के कुछ समय बाद ही कांग्रेसियों के बदले भाजपााई दिल्ली की गद्दी पर काबिज हो गये।
    अब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी दुःखी चल रहे हैं। उनके दुःख का कारण यह है कि वे औपचारिक तौर पर भारत सरकार के मुखिया हैं और कोई भी कानून उनके अंतिम हस्ताक्षर से ही कानून बनता है। इस समय प्रधानमंत्री मोदी एक के बाद एक ताबड़तोड़ अध्यादेश उनके पास भेज रहे हैं और वह भी उन कानूनों के संदर्भ में जो कभी कांग्रेस पार्टी ने बनाए थे। इन कानूनों को बनवाने में प्रणव मुखर्जी की भी भूमिका थी। अब अपने ही कानूनों की ऐसी-तैसी करने वाले अध्यादेशों पर हस्ताक्षर करना प्रणव मुखर्जी के लिए काफी पीड़ादाई काम है। 

    अपनी पीढ़ा को उन्होंने हाल के समय में आड़े-तिरछे ढंग से अभिव्यक्त किया है। उन्होंने कहा है कि देश को अध्यादेशों के जरिये नहीं चलाया जाना चाहिए। कानून संसदीय प्रक्रिया के जरिये ही लागू होने चाहिए। कानून पास कराने के लिए संसद के संयुक्त अधिवेशन का इस्तेमाल भी बेजा नहीं किया जाना चाहिए। बात थोड़ा संतुलित करने के लिए उन्होंने यह भी कह दिया कि अल्पमत को हर समय अडंगा नहीं लगाना चाहिए। 
    नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने महामहिम को ऐसी स्थिति में क्यों पहुंचा दिया कि वे सार्वजनिक तौर पर अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त करने से नहीं रोक पाये? क्यों मोदी सरकार अपनी ऐसी-तैसी करवाने पर तुली हुयी है। 
    नरेन्द्र मोदी को भारत के अंबानी-अदाणी जैसे पूंजीपतियों ने दिल्ली की गद्दी पर इसीलिए बैठाया था कि वे उनकी लूट को और ज्यादा सुगम बनाऐंगे। वे उनकी लूट के रास्ते की बाधाओं को दूर करेंगे तथा उन्हें लूटने के लिए नये-नये मौके उपलब्ध करायेंगे। 
    पूंजीपतियों की लूट के रास्ते में बाधाएं कानून व मजदूर-मेहनतकश जनता दोनों हैं। कुछ उदारीकरण के पहले के जमाने के कानून हैं। (मसलन श्रम कानून) तथा कुछ अभी हाल में ही जनदबाव में बने हैं जैसे जंगल और पर्यावरण से संबंधित कानून व भूमि अधिग्रहण कानून। इसी के साथ बड़े पैमाने पर मजदूरों, किसानों और आदिवासी जनों का प्रतिरोध भी है। 
    लोकसभा में बहुमत हासिल करने वाले मोदी ने तुरंत ही कानूनों के मामले में अपने कदम बढ़ा दिये। पर एक तो राज्य सभा में उसे बहुमत नहीं है, दूसरे कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों ने भाजपा को उसके ही नुस्खे से घेरने की चाल चली। भाजपा ने संप्रग शासन के दौरान अक्सर ही हंगामा कर संसद नहीं चलने दी थी। खासकर संप्रग के दूसरे शासन काल में यह चरम पर पहुंच गया था। अब कांग्रेसियों और अन्य विपक्षी दलों ने संसद में हंगामा मचाना शुरू कर दिया। संघी गुण्ड़ों और हुड़दंगियों के कारनामों की बढ़ती के इस दौर में इसके लिए मुद्दे तलाशना कोई मुश्किल काम नहीं था। 
    ऐसे में परिणाम यह निकला कि मोदी की जमीनी हकीकत ने उनके हवाई इरादों के रास्ते में बाधा खड़ी कर दी। उनकी संघी गुण्डा फौज ने उन्हें उनके मालिकों की सेवा में कानून बदलने के लक्ष्य को हासिल करने से रोक दिया। दूसरी ओर पूंजीपति अब लम्बे इंतजार के बाद और इंतजार करने की मानसिकता में नहीं हैं। उदारीकरण के दो दशकों में मजदूर-मेहनतकश जनता का लहू पीकर उनकी भूख बहुत बढ़ गयी है और वे हर कीमत पर अपना मनचाहा चाहते हैं। 
    नरेन्द्र मोदी भी इन मालिकों की सेवा में प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने खुद को इनका प्रधान सेवक घोषित कर भी रखा है। इसीलिए संसदीय प्रक्रिया को वे रास्ते की बाधा बनने नहीं दे सकते। अतः देरी होते देख उन्होंने अध्यादेशों का सहारा लिया। अध्यादेश छः महीने के लिए जारी किये जा सकते हैं और जोड़-तोड़ में माहिर मोदी को लगा कि इस अंतराल में वे कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेंगे। 
    अध्यादेशों के जरिये पूंजीपतियों की सेवा करने की यह हड़बड़ी मोदी और उनकी सरकार के पूंजीपरस्त घिनौने चेहरे को इतने भौंड़े तौर पर उजागर कर देती है कि महामहिम राष्ट्रपति तक भी इससे बैचेन हो उठते हैं। भूमि अधिग्रहण कानून अभी लागू भी नहीं होता कि उसे अध्यादेश के जरिये बदल दिया जाता है। यह कदम इतना स्पष्ट होता है कि पूंजीपतियों के पैसे से चलने वाले सारे गैर सरकारी संगठन भी चीत्कार कर उठते हैं। 
    मोदी सरकार को अभी छः-सात महीने ही हुए हैं। मोदी अपने लिए कभी पांच और कभी दस साल मांगते रहे हैं। इनके अभी के कार्यकाल ने व्यावहारिक तौर पर दिखाया है कि पूंजी का यह प्रधान सेवक अपनी सेवा में किसी भी हद तक जा सकता है। उसके मालिक पूंजीपति उसे पीछे से कोंच भी रहे हैं कि वह किसी भी हद तक जाये। 

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