Monday, February 16, 2015

अब मजमेबाज की सरकार

वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
    दिल्ली में आम आदमी पार्टी को भारी बहुमत मिल गया। सपनों के सौदागर ने सपनों का ऐसा बाजार लगाया गया कि हर कोई दिल्ली में ‘झाडू’ का खरीददार बन गया। इससे पहले लोकसभा चुनावों में मोदी ने आम जन को सपने बेचे थे और उनके सपनों की बिक्री खूब हुई थी। पर इस बार अरविन्द केजरीवाल जैसे तमाम लोग जिन्होंने अपनी एनजीओ की दुकान चलाने से ज्यादा ध्यान सपनों की बिक्री पर लगाया था, उनके सपनों की बिक्री खूब हुयी। सपनों की सौदागरी में अरविन्द केजरीवाल ने मोदी को पछाड़ दिया। 
    एक के खून में व्यापार है (मोदी द्वारा जापान में दिये गये भाषण के अंश से) और दूसरा जाति से व्यापारी है।(केजरीवाल द्वारा दिल्ली चुनाव के दौरान मोदी के आरोप के जबाव से) की व्यापारिक प्रतिद्वन्द्विता (सपनों के बेचने की) में जनता छली जा रही है। लोकसभा चुनाव से पहले गुजरात दंगों के रचयिता ने लोकलुभावन वादों, नारों और झूठी लफ्फाजियों के दम पर देश की जनता को ठगा था। चुनाव जीतने के लिए जाति, धर्म व क्षेत्र की विभाजनकारी राजनीति का सहारा लिया था। इससे भी बढ़कर कारपोरेट जगत के हीरो बनकर पूरे मीडिया का अपहरण कर लिया गया था। कांग्रेस के मुकाबले अपनी दीनहीन स्थिति का मुजाहिरा करके जनता से सहानुभूति हासिल की गयी थी। 

    दिल्ली चुनावों में अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी ने मोदी की ही पैंतरेबाजी अपनायी। अपने को दुखिया के रूप में प्रस्तुत किया, झूठे वादों और झूठी लफ्फाजी का भरपूर सहारा लिया। ‘मध्यमवर्ग’ के इस ‘नायक’ ने भी मोदी की ही तरह जाति कार्ड खेला। वे उसी घटिया राजनीति की गिरफ्त में पाये गये जिसके खिलाफ लड़ने का वे वादा कर रहे थे। मसलन उन्होंने धन का चुनाव में न सिर्फ बेतहाशा इस्तेमाल किया वरन् चुनाव के दौरान ही उन पर शराब बंटवाने और गलत तरीके से चंदा लेने के भी आरोप लगे। और ऐसे ही आरोप आप ने कांग्रेस और भाजपा पर लगाये। 
    आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के चुनावों में मुख्यरूप से कुछ मुद्दों तक खुद को सीमित रखा जिनमें बिजली, पानी और अनाधिकृत कालोनियों के नियमितीकरण का मुद्दा था। लोकपाल और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे इस चुनाव के प्रमुख मुद्दे नहीं थे हालांकि ‘आप’ स्वयं इन मुद्दों की ही पैदायश है। इस चुनाव में ‘आप’ के नेताओं ने पूंजीवादी राजनीति के सारे नेताओं के समान मंझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह व्यवहार किया। 
    लेकिन केजरीवाल क्या मध्यमवर्गीय जनता व अन्य गरीब गुरबा की समस्याओं का जरा भी समाधान प्रस्तुत कर पायेंगे जिन्होंने ‘आप’ को दो तिहाई से भी ज्यादा बहुमत प्रदान किया है। मान लीजिए पूरे भारत से अलग दिल्ली में लोगों के काम सरकारी कार्यालयों में बिना रिश्वत के होने लगे(जैसे केजरीवाल ने 49 दिनों की अपनी सरकार की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि माना) तो क्या होगा? सरकारी बाबुओं के द्वारा लगायी गयी ‘टिप्पणी’ के परिणामस्वरूप आम जनता को सरकारी कार्यालयों के पहले से कहीं ज्यादा चक्कर काटने पडेंगे और यदि जनता के काम सरकारी दफ्तरों में 100 प्रतिशत हो भी जायें तो ज्यादा से ज्यादा जनता को भ्रष्टाचार के मामले में थोड़ी राहत ही मिल पायेगी। 
    दूसरी ओर केजरीवाल ज्यादा से ज्यादा वही कर सकते हैं जो अन्य सुधारवादी पार्टियां व नेता करते रहे हैं। वे ज्यादा से ज्यादा जनता को थोड़ी राहत दिलाने का काम कर सकते हैं। हालांकि प्रकारान्तर से ऐसा करके वे पूंजीपति वर्ग की ही सेवा कर रहे होंगे। ऐसी पार्टियां जनता में न सिर्फ पूंजीवादी व्यवस्था को लेकर भ्रम पैदा करती हैं वरन् वे जनसंघर्षों व जनअसंतोष पर ठंडा पानी डालने का काम भी करती हैं। वास्तव में ‘आप’ जैसी पार्टियां व्यवस्था के विरुद्ध फलफूल रहे जनअसंतोष का गर्भपात ही होती हैं। 
    मौजूदा दौर में, उदारीकरण की इस आंधी में अरविन्द केजरीवाल उतना भी नहीं कर पायेंगे जितना कि अन्य सुधारवादी नेताओं व पार्टियों ने किया है। वैश्विक आर्थिक संकट में इस बात की संभावना और भी कम है कि वे जनता को थोड़ी बहुत भी राहत प्रदान कर सकें। हां, जनता को दिखाने के लिए वे कुछ लोकलुभावन कदम उठा सकते हैं ताकि अपने वोट बैंक को संतुष्ट किया जा सके। क्या अरविन्द केजरीवाल की पार्टी दिल्ली क्षेत्र में जारी आर्थिक नीतियों को लागू होने से रोक सकते हैं? क्या केजरीवाल दिल्ली में जारी ठेकाकरण की प्रक्रिया को रोक सकते हैं? क्या वे अनाधिकृत काॅलोनियों में बिजली, पानी व सड़क की समस्याओं का मुकम्मिल समाधान कर सकते हैं? दिल्ली जैसे राज्य में यह सब कर पाना आसान नहीं है क्योंकि दिल्ली को प्रकारान्तर से केन्द्र की सरकार चलाती है। जब दिल्ली का मुख्यमंत्री एक पुलिसवाले को नहीं हटा सकता तो वह दिल्ली में कानून का राज भी कैसे स्थापित कर पायेगा? वह आम लोगों की सुरक्षा की गारंटी का वादा कैसे कर सकता है? तब फिर यह वादे अगर छल नहीं हैं तो और क्या हैं?
    जाहिर है केजरीवाल अब विपक्षहीन विधानसभा के नेता होंगे। अब छलिया बनने के बजाय उन्हें दिखाना होगा कि वे वादे पूरे कर सकते हैं। वादे पूरे न होने पर उन्हें उसी जनता के उससे ज्यादा थप्पड़ खाने को मिल सकते हैं जो उन्हें लोकसभा चुनावों में मिले थे। जनता की आकांक्षाओं को जिस हद तक ये पार्टियां लेकर गयी हैं उसी जनता की खुमारी उतरते देर नहीं लगेगी। अर्श से फर्श तक आने में छः महीनों से ज्यादा का समय नहीं लगेगा। अगर जन आकांक्षाओं को संबोधित न किया गया तो। 
    दिल्ली के चुनावों में उन दलों का सूपड़ा पूरी तरह साफ हो गया जो साम्प्रदायिक राजनीति में सरोबार थे खासकर भाजपा का। लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा नेताओं के दंभ को दिल्ली की जनता ने तोड़ दिया। वे अपनी लाज तक न बचा सके इसके बावजूद कि उन्होंने दिल्ली को साम्प्रदायिकता की आग में झोंकने का भरपूर प्रयास किया। 
    दिल्ली के चुनावों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि केजरीवाल व उसकी पार्टी को भारतीय पूंजीपति वर्ग के व्यापक धड़े ने स्वीकार कर लिया है इसके बिना केजरीवाल को इतनी बड़ी जीत नहीं मिलती। केजरीवाल की ‘माफी सभायें’ दरअसल जनता से ज्यादा पूंजीपति वर्ग के लिए सम्बोधित थीं कि अब वह व्यवस्था के लिए समस्यायें खड़ी करने के बजाय व्यवस्था के हित में काम करेंगे। 
    दरअसल केजरीवाल ने अपना चरित्र तो उसी दिन साफ कर दिया था जब अन्ना आंदोलन के दौरान दिये गये साक्षात्कार में एंकर ने पूछा था कि आपका विश्वास संवैधानिक संस्थाओं में है या नहीं और तब केजरीवाल ने ‘हां’ में जबाव दिया था। इस प्रकार अरविंद केजरीवाल की ‘‘क्रांति’’ के पूरा होने के दिन शुरू हो गये। आने वाले दिनों में लोग अरविन्द व आप की ‘‘क्रांति’’ देखेंगे और मजमेबाज की इस ‘‘क्रांति’’ पर इस देश की जनता ‘‘मुस्करायेगी’’। 

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