Thursday, July 16, 2015

फिलीस्तीन को समर्थन से मुंह मोड़ते भारतीय शासक

वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार परिषद में इस्राइल द्वारा फिलीस्तीन व गाजापट्टी में किये जा रहे मानवाधिकार हनन के खिलाफ एक प्रस्ताव पेश हुआ। इस प्रस्ताव पर वोटिंग के समय भारत ने फिलीस्तीन को समर्थन की पुरानी अवस्थिति छोड़ते हुए वोटिंग में तटस्थ रहने का निर्णय लिया। भारत के साथ केन्या, पराग्वे, इथोपिया व मकदूनिया तटस्थ रहने वाले अन्य देश थे। अमेरिका ने प्रस्ताव के विरोध में मत दिया। शेष 41 देशों के प्रस्ताव के समर्थन में मत देने से प्रस्ताव पारित हो गया। प्रस्ताव में इसा्रइल व संयुक्त राष्ट्र अधिकारियों को निर्देशित किया गया कि वे फिलीस्तीन व गाजापट्टी में मानवाधिकारों का पालन सुनिश्चित करायें अन्यथा इस्राइल को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा झेलना पड़ेगा।

भारत द्वारा वोटिंग में तटस्थ रहने पर इस्राइल ने भारत को धन्यवाद दिया है वहीं फिलीस्तीन ने भारत के रुख पर आश्चर्य जताया है। प्रस्ताव के पेश किये जाने पर इस्राइल ने अपने पक्ष में लाॅबिंग शुरू कर दी थी जिसका लाभ उसे 5 तटस्थ वोटों के रूप में मिला।
इस्राइल द्वारा फिलीस्तीनी जनता का क्रूर दमन-उत्पीड़न जगजाहिर है। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात उत्पीडि़त यहूदियों को फिलीस्तीनी धरती के एक हिस्से पर अपना देश बसाने को कहा गया था। परन्तु यहूदी राष्ट्र के बतौर अस्तित्व में आये इस्राइल ने अमेरिकी साम्राज्यवादियों की शह पर न केवल फिलीस्तीन के ज्यादातर हिस्से को हड़प लिया बल्कि पड़ोसी मिस्र व सीरिया, लेबनान के कुछ इलाके भी कब्जा लिये। फिलीस्तीनी जनता को दो हिस्सों में बांट इस्राइल ने उन्हें कैदखाने सरीखे जीवन में धकेल दिया। फिलीस्तीनी जनता अपने इस दमन के खिलाफ लम्बे समय से संघर्षरत है।
अमेरिकी साम्राज्यवादियों को छोड़ दुनिया के ज्यादातर देशों के शासक औपचारिक तौर पर फिलीस्तीन की राष्ट्र मुक्ति की लड़ाई का समर्थन व इस्राइल का विरोध करते रहे थे। भारत भी इनमें से एक था। संयुक्त राष्ट्र में जब भी इस्राइल की ज्यादतियों के खिलाफ प्रस्ताव पेश हुआ, भारत ने हमेशा उसका समर्थन किया।
1947 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ में फिलीस्तीन के बंटवारे व इस्राइल की स्थापना का प्रस्ताव पेश हुआ तो भारत ने इसके विरोध में मत दिया। 1949 में संयुक्त राष्ट्र संघ में इस्राइल को शामिल करने के प्रस्ताव का भी भारत ने विरोध किया। कहीं बाद में सितम्बर 1950 में भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ने इस्राइली राष्ट्र को मान्यता दी। परन्तु भारत में ही पल बढ़ रहे साम्प्रदायिक फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इस्राइल के यहूदी राष्ट्र के रूप में बनने का स्वागत किया व इसके तत्कालीन नेता सावरकर ने भारत के वोटिंग की निन्दा की। हिन्दुत्व के विचारों से लैस संघ परिवार का यह समर्थन धर्म के आधार पर राष्ट्र निर्माण की उसकी सोच के अनुरूप ही था।
90 के दशक के पूर्व तक भारत के इस्राइल से सम्बन्ध न के बराबर थे। भारत अरब राष्ट्रवाद और फिलीस्तीन मुक्ति का समर्थक रहा और इस्राइली ज्यादतियों के खिलाफ खड़ा हुआ।
परन्तु 90 के दशक की शुरूआत से भारतीय शासकों ने क्रमशः इस्राइल के प्रति अपने रुख बदलना शुरू कर दिया। 92 से दोनों देशों के बीच औपचारिक रिश्तों की शुरूआत हो गयी। रणनीतिक व सुरक्षा मामलों में सहयोग के समझौते के साथ यह रिश्ते दिनों दिन गहरे होते गयेे। हालांकि भारत इस वक्त भी औपचारिक तौर पर फिलीस्तीन के पक्ष में वक्तव्य दिया करता था और संयुक्त राष्ट्र में इस्राइल के खिलाफ वोट डालता था।
वर्ष 2000 में जसवंत सिंह भारत के इस्राइल की यात्रा पर जाने वाले पहले विदेश मंत्री बने। इस यात्रा के बाद दोनों देशों ने आतंकवाद से लड़ने के नाम पर एक संयुक्त आयोग का गठन किया। 2003 में इस्राइली प्रधानमंत्री एरियल शेरोन भारत की यात्रा पर आने वाले पहले इस्राइली प्रधानमंत्री बने। शेरोन की भारत यात्रा का भारत में खासा विरोध हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने फिलीस्तीन को लगभग पूरी तरह भुलाते हुए दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ाने व सहयोग बढ़ाने पर जोर दिया।
इसके बाद भारत-इस्राइली सेनाओं का संयुक्त युद्धाभ्यास, दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ती पर है। भारत इस्राइली हथियारों का बड़ा खरीददार बन गया। मोदी सरकार के सत्ता में आने पर दोनों देशों के बीच रिश्ते तेजी से मजबूत होने लगे। 2014 में अमेरिका में मोदी-नेतान्याहु की भेंट भी हुई। भारतीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह इस्राइल की सीमा सुरक्षा बल की मजबूती देखने 2014 में इस्राइल घूम भी आये। मोदी अपने मुख्यमंत्रित्व काल में पहले ही इस्राइल जा चुके थे और अब वह प्रधानमंत्री के बतौर इस्राइल जाने की तैयारी में हैं।
युद्ध हथियारों की खरीद, खुफिया मामलों में सहयोग के मसले पर भारत-इस्राइल के रिश्ते काफी आगे बढ़ चुके हैं। दोनों देशों के शासकों का इसे और बढ़ाने का इरादा है।
ऐसे में इस्राइल के साथ बढ़ते रिश्ते व फिलीस्तीन को समर्थन एक साथ जारी नहीं रह सकते थे। फिलीस्तीन के प्रति भारतीय शासकों का समर्थन क्रमशः कमजोर पड़ता चला गया जिसकी अन्तिम परिणति भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र में फिलीस्तीन के पक्ष में वोट न देने के रूप में सामने आयी।
भारतीय शासकों के इस्राइल के पक्ष में झुकते रुख को संघ समर्थित भाजपा के सत्ता में आने से और बल मिला है। संघ इस्राइल की तर्ज पर भारतीय मुसलमानों को फिलीस्तीन सरीखे हालातों में ढकेलना चाहता है।
संघ परिवार व भारतीय शासकों की इस्राइल से बढ़ती नजदीकी घृणास्पद तो है ही साथ ही भारतीय मेहनतकश जनता के हितों के खिलाफ है। दमनकारी इस्राइल से मिली ट्रेनिंग का इस्तेमाल भारत में संघर्षों के दमन में किया जायेगा। इस्राइल-भारत की बढ़ती नजदीकियों के खिलाफ खड़े होते हुए फिलीस्तीनी राष्ट्र मुक्ति संघर्ष के समर्थन में आवाज उठाना जरूरी है। 

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