Wednesday, July 1, 2015

योग के बहाने हिन्दुत्व का एजेण्डा आगे बढ़ाती संघी सरकार

वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया। मोदी सरकार और खुद प्रधानमंत्री मोदी न जाने कितनी बार इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपा चुके हैं कि इस दिवस को मनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में पहल उन्होंने की। इसके साथ ही भारत की जनता को भी जबरन गर्व मनाने को कह रहे हैं कि दुनिया में भारत का मान बढ़ गया है, भारत के कहने पर दिवस घोषित किया गया है कि भारत का लोहा आज पूरी दुनिया मान रही है। अफसोस की बात तो यह है कि हमारे संघी प्रधानमंत्री को संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित योग दिवस तो दिखता है पर उसी संस्था के द्वारा भारत के बारे में पेश यह बात नजर नहीं आती कि सबसे ज्यादा भूखे भारत में हैं।

योग प्राचीन भारत में मनुष्य द्वारा शरीर व मन को चुस्त-दुरूस्त रखने की एक विधा थी। इसलिए इसकी आज भी कुछ उपयोगिता हो सकती है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसीलिए अगर कोई योग के विभिन्न आसनों का शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अधिक वैज्ञानिक आंकलन कर उसे आधुनिक चिकित्सा पद्धति में शामिल करने की बात करता है तो शायद ही कोई इसके खिलाफ बात करेगा। अगर योग दिवस महज इसी उद्देश्य से मनाया जाता तो शायद इस पर न तो इतना विवाद और न हल्ला होता। तब शायद तमाम मध्यमवर्गीय जनों को इस पर अफसोस करने का भी मौका न मिलता कि योग को धर्म के चश्मे से भला क्यों देखा जा रहा है? कि क्यों कुछ लोग योग के पीछे सरकार के अनकहे मंसूबे ढूंढने में लगे हैं? ऐसे मध्यमवर्गीय जन दरअसल योग के पीछे की राजनीति देखने में विफल हैं इसलिए वे सरकार के योग दिवस के विरोध को योग का विरोध समझ सरकार के साथ खड़े हो जा रहे हैं। पर बात महज इतनी नहीं है।
पहली बात सरकार योग दिवस के जरिये हमसे इस बात पर गर्व करने को कह रही है कि हमारी एक विधा को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली, कि हमारी सरकार को अपने नागरिकों की ही नहीं दुनिया भर के लोगों की स्वास्थ्य की चिन्ता है। कि महज योग के दम पर सारे देशवासी प्रधानमंत्री की तरह चुस्त-दुरूस्त व 16-16 घण्टे काम करने वाले बन सकते हैं। अफसोस कि काश वास्तव में हमारी सरकार को जनता के स्वास्थ्य की चिन्ता होती। हमारी सरकार सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में खर्च घटा रही है। सरकारी अस्पतालों में दवा-डाॅक्टर-जांच सबकी किल्लत है। देश में बड़ी आबादी भूखे पेट सो रही है और सरकार यह सब ठीक करने के बजाय और बदहाली की ओर ढकेल रही है। इस पर जब सरकार योग को महिमामंडित करती है तो यह स्पष्ट है कि सरकार का इसके पीछे देश के नागरिकों के स्वास्थ्य को दुरूस्त करने का कोई उद्देश्य नहीं है, वह तो गरीबों को स्वास्थ्य सेवा मुहैय्या कराने की संस्थाओं को और कमजोर कर रही है। इसीलिए योग लोगों के स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए प्रचार नहीं पा रहा है। उसके पीछे मंतव्य कुछ और ही है। शासक वर्गीय पार्टियों के हलकों से यह सवाल भी सही ही उठा कि भूखे पेट योग करने का कोई लाभ नहीं है कि सरकार पहले भूखों को अनाज मुहैय्या कराये फिर योग का उपदेश दे।
दूसरी बात योग को ही भाजपा सरकार ने क्यों चुना? इसलिए कि योग को प्राचीन हिन्दू संस्कृति की विधा कहकर स्थापित किया जा सकता है। इसके जरिये योग को हिन्दुत्व की सांस्कृतिक विरासत करार दिया जा सकता है। इसके जरिये लोगों को हिन्दुत्व पर गर्व करने को कहा जा सकता है। वास्तव में योग दिवस से कुछ समय पूर्व जब भाजपा नेताओं ने यह कहना शुरू किया कि योग हिन्दू विधा है इसलिए इसे हिन्दू ही कर सकते हैं तब उन्होंने इस योग के इर्द-गिर्द साम्प्रदायिक कार्ड खेलना शुरू कर दिया। बाद में मुस्लिम कट्टरपंथी भी सरकार की बिछाई पिच पर आकर खेलने लगे कि योग में मंत्रों के उच्चारण व सूर्य नमस्कार से उन्हें आपत्ति है इसलिए मुसलमान योग नहीं करेंगे। बाद में सरकार ने मंत्र न पढ़ने व सूर्य नमस्कार से छूट देने की घोषणा कर मुस्लिमों से भी योग कराना चाहा पर तरीका बड़ा काम न आया। हां! सरकार का एजेण्डा जरूर सफल हो गया कि योग पर साम्प्रदायिक मुलम्मा चढ़ गया। तमाम मध्यमवर्गीय हिन्दू योग के पक्ष में खड़े होने के चलते सरकार के साथ खड़े हो गये। वे यह देखने में विफल रहे कि सारी बहस उन्हें अपने पक्ष में खड़े करने के लिए ही खड़ी की गयी थी।
तीसरा सरकार ने योग दिवस के आयोजन में फासीवादी तौर-तरीकों की एक झलक पेश कर दी। सरकार द्वारा बार-बार कहा गया कि इसकी तैयारी गणतंत्र दिवस से कम नहीं होनी चाहिए। यानि सरकार ने जिन पर उनका जोर चल सकता था उनसे जबरन योग कराया, उनकी योग न करने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीन ली। योग चाहे जितनी अच्छी चीज हो उसे करने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता। पर अपनी सरकार ने स्कूलों की छुट्टी रद्द की, सैनिकों की छुट्टियां रद्द की, हर शहर में ढेरों जगह सरकारी मशीनरी के जरिये जबरन योग कराया। दिल्ली में 35 हजार के साथ मोदी ने गिनीज बुक में रिकार्ड बनाया पर इन 35 हजार जुटे लोगों में बड़ी संख्या जोर-जबर्दस्ती से जुटाई गयी थी। इसीलिए योग दिवस पर सरकार द्वारा मीडिया में योग करने का अंधाधुंध संदेश देेने से लेकर छुट्टी रद्द करने तक सब जनता पर थोपी जबर्दस्ती थी। इसीलिए इस तरीके से योग दिवस को सरकार ने संघ द्वारा आयोजित कार्यक्रम में बदल डाला। ढेरों जगह पर संघ द्वारा जबरन मंत्रोच्चार व सूर्य नमस्कार पर अतिरिक्त उत्साह दर्शाया गया। ऐसे फासीवादी तरीके से किसी आयोजन का पक्ष नहीं लिया जा सकता।
चैथा योग के बारे में ढेरों पोंगापंथी-कूपमण्डूक बातें इस दौरान नेताओं-मीडिया चैनलों से, बाबाओं जैसे रामदेव आदि के मुख से फैलायी गयीं। बातें कुछ इस तरह पेश की गयीं कि योग सब मर्जों की एक दवा है। कि पूरा देश योग करने लग जाये तो अस्पतालों व बीमारियों का नामोनिशां मिट जायेगा। यह सब कुछ और घृणित हो उठता है जब योग को हिन्दुत्व की चाशनी में लपेट दिया जाता है। क्या देश में पूंजीपति व उनके चहेते मोदी सारी बीमारियों के लिए बाबा रामदेव की शरण मेें जायेंगे? नहीं, शायद अपना इलाज तो वे मुंबई में अंबानी के अस्पताल, वेदांता या एम्स में करायेंगे। तब फिर जनता को जितना मूर्ख बनाकर योग (जिसे हिन्दुत्व का योग कहना अधिक सही होगा) पर जरूरत से ज्यादा गर्व करने लग जायें और उससे ज्यादा हिन्दू ब्राहम्णवादी परम्पराओं को सही मान विश्वास करने लग जायें। या फिर संघ के साथ लामबंद हो जायें।
पांचवा योग दिवस के अगले दिन अखबारों ने एक झूठ मोटे हैडिंगों में छापा कि 2 अरब लोगों ने योग किया। यानि हर तीसरे-चैथे आदमी ने दुनिया में योग किया। क्या यह वास्तविकता है? यह सफेद झूठ है। अगर सवा करोड़ की दिल्ली में 35 हजार लोग येन-केन प्रकारेण योग करने आये तो यही तथ्य इस 2 अरब की संख्या को झूठी साबित करने को काफी है क्योंकि सरकार तो 40 हजार लोगों का रिकार्ड बनाना चाहती थी। पर झूठ बोल-बोल कर गद्दी पर पहुंची मोदी सरकार को लगा कि 2 अरब का आंकड़ा फैलाने पर लोग भारत की सफलता के रूप में लेंगे। पर वे यह आंकड़ा इतना बढ़ा कर पेश कर गये कि 7 अरब की दुनिया में किसी को यह हजम नहीं हुआ।
छठा, सारे विवाद के बाद भाजपा व संघी नेता बार-बार यह दावा भले ही करते रहे कि योग का धर्म से कोई लेना देना नहीं है कि हर धर्म के लोगों को योग करना चाहिए। असलियत में वे योग को हिन्दू धर्म का ही हिस्सा मानते थे। ये बात तब और खुलकर सामने आ गयी जब भाजपा के संघी नेता राम माधव ने मुस्लिम उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के दिल्ली के योग दिवस कार्यक्रम में न आने को मुद्दा बना दिया। बाद में उपराष्ट्रपति कार्यालय को सफाई देनी पड़ी कि अंसारी कार्यक्रम में आमंत्रित ही नहीं थे क्योंकि प्रोटोकाॅल के तहत अगर प्रधानमंत्री किसी कार्यक्रम के मुख्य अतिथि हों तो उनसे ऊपर के पद वाले राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति को वहां नहीं बुलाया जा सकता। यहां यह गौरतलब है कि ढेरों भाजपाई नेताओं से लेकर विपक्षी पार्टियों के नेताओं जो हिन्दू हैं, उन पर राम माधव ने सवाल नहीं उठाया। उन्होंने केवल मुस्लिम उपराष्ट्रपति पर सवाल उठाया। शायद वे उपराष्ट्रपति को संघ की सोच के आधार पर देशभक्त साबित करने को कह रहे हों। इस सवाल के उठाने ने ही साबित कर दिया कि सरकार का योग दिवस के पीछे मंसूबा हिन्दुत्व का प्रचार था। वरन योग तो अब तक न मुसलमान करते थे न संघ की शाखाओं में किया जाता था। हां! इस आधार पर रामदेव को सबसे बड़ा देशभक्त जरूर सरकार घोषित कर सकती थी।
योग का एक दिवसीय प्रहसन ढेर सारे सवाल पीछे छोड़ गया। यह संघी ताकतों की चतुराई दिखा गया कि कैसे वे एक विधा को उठा उसके जरिये हिन्दुत्व के एजेण्डे को आगे बढ़ा सकते हैं। यह पूंजीवादी मीडिया की चापलूसी दर्शा गया जो सरकार के कहने पर विज्ञान की ऐसी-तैसी कर योग के गुणगान में जुटे रहे। यह भारत के मध्यम वर्ग के लोगों का ढुलमुलापन दर्शा गया कि जो लोग सरकार की नीतियों के चलते कल मोदी की आलोचना कर रहे थे वे भी योग पर मोदी के साथ खड़े हो गये। यह सरकार द्वारा किसी आयोजन को फासीवादी तरीके से जनता पर थोपने की तस्वीर दर्शा गया। और भारी जनता अपने ऊपर थोपा जाना न देख योग करने को देशभक्ति व न करने को देश विरोध से जोड़कर देखने तक लग गयी। यही फासीवाद का खतरा है जो हमारी आजादी का अपहरण कर हमसे ताली पिटवाने का षड्यंत्र करता है। इसीलिए जरूरत है कि फासीवादी ताकतों के झांसों के प्रति सचेत रहेें। उनके हर कदम के मंसूबों को पहचानने व योग दिवस सरीखे किसी एजेण्डे के खिलाफ खड़े हों। अपने जनवाद को छीने जाने से बचाने को आगे आयें।  

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