Saturday, August 15, 2015

समझौता नगा मुक्ति के साथ छल

वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    पिछले दिनों मोदी सरकार ने नगा विद्रोहियों से एक ‘ऐतिहासिक समझौते’ की घोषणा की। इस समझौते में क्या है? इसे समझौता करने वालों के अलावा कोई नहीं जानता। और मजे की बात है दोनों ही पक्षों में से कोई भी इस पर अभी तक कुछ बोलने को तैयार नहीं है। ऐसा क्यों हो रहा है? 
    ऐसा इसलिए हो सकता है कि समझौते में कुछ ऐसा है जिसे बताने से हर ओर हल्ला-गुल्ला मच सकता है। विरोध के स्वर उभर सकते हैं। 

    यह समझौता उस वक्त होता है जब देश की संसद चल रही है। इस समझौते के बारे में सरकार एक भी बात संसद में नहीं रखती। विपक्षी पार्टी कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी और उसके द्वारा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बयानों से उस आंच को कुछ महसूस किया जा सकता है जो इस समझौते के कारण पैदा होने वाली है। मजे की एक बात और है इस समझौते के बारे में नगालैण्ड के मुख्यमंत्री को भी कुछ पता नहीं है। उन्हें समझौता वार्ता में शामिल ही नहीं किया गया।                                                                                   नगा समस्या भारत की मौजूद विभिन्न उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं की समस्या में से एक रही है। आजादी के समय जिस तरह विभिन्न राष्ट्रीयताओं को भारत में जबरदस्ती शामिल कर लिया गया था उसी तरह नगाओं को भारत में उनकी इच्छा के विरुद्ध बल व छल पूर्वक शामिल कर लिया गया। उस समय से ही नगा भारत से अपनी मुक्ति के लिए संघर्षरत रहे हैं। 
    भारत के शासकों ने नगाओं के साथ दो तरफा चालें चलीं। एक तरफ भारतीय सेना के दम पर उनका दमन करना और दूसरी तरफ उनके बीच एक ऐसे वर्ग को तैयार करना जो भारतीय व्यवस्था के साथ अपने हित देखता हो। नगाओं को विभाजित करने के लिए पहले ब्रिटिश और फिर भारतीय शासकों ने उन्हें बांट दिया। आज नगा पड़ौसी देश म्यांमार व भारत के असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर के ऐसे इलाकों में रह रहे हैं जो नगालैण्ड राज्य के सीमा के करीब हैं। मणिपुर व अरुणाचल प्रदेश के कई जिलों व ब्लाॅकों में उनकी संख्या ठीक-ठाक है। इन राज्यों के गठन के समय नगाओं को इन राज्यों में जबरदस्ती रख दिया गया था। 
    नगा भारत की आजादी के समय से ही अपनी आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष चलाते रहे हैं। उनका संघर्ष कितना जुझारू और उसे नगा जनता का कितना समर्थन प्राप्त रहा होगा इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी वहां पर दो सरकारें काम कर रही हैं। एक भारत के द्वारा चुनवायी गयी विधानसभा से बनी राज्य सरकार है जिसका नेतृत्व टी आर जिलिंयाग कर रहे हैं और दूसरी नगा सोशलिस्ट काउन्सिल आफ नगालिगम (एनएससीएन) के इशाक-मुइपा गुट की सरकार। इस संगठन के एक गुट जिसे कापलांग गुट से जाना जाता है जिसका प्रभाव म्यामांर के नगा आबादी में है, के साथ फिलवक्त भारत सरकार सशस्त्र लड़ाई में उलझी हुयी है। 
    भारत से मान्यता प्राप्त जे आर जीलिंग की सरकार का अपना पूरा तंत्र है। वहां एनएससीएन (इशाक-मुइपा ) सरकार का भी अपना तंत्र है जैसे कि पुलिस, राजस्व विभाग आदि हैं। 
    प्रधानमंत्री मोदी ने जनमानस में इस अज्ञात समझौते को ऐतिहासिक करार दिया उसके बारे में वे नगालैण्ड राज्य के मुख्यमंत्री, वहां की जनता, भारत की संसद और साथ ही उन राज्यों की सरकार व जनता को विश्वास में क्यों नहीं लेते हैं जिनके हित व सम्बन्ध प्रत्यक्ष तौर पर इस समझौते से जुड़ा है। यह एक ऐसी बात जो इस समझौते में छिपे षड्यंत्र की ओर इशारा करती है। दाल में कुछ तो काला है। 
    अतीत में ऐसे समझौतों से भारत में विभिन्न राष्ट्रीयताओं की समस्याओं का समाधान कुछ नहीं निकला। जिस गुट से समझौते किये गये वह एक हद तक भारतीय शासक वर्ग का पालतू बन गया परन्तु उसके बाद असन्तुष्ट जन समुदाय में से कोई नया सशस्त्र गुट आत्मनिर्णय की मांग को लेकर भारतीय राज्य के खिलाफ संघर्षरत हो गया। समझौतों को समर्थन और गद्दारी के रूप में ही देखा गया। और उत्तर पूर्वी भारत हो अथवा कश्मीर हर कहीं यही होता रहा है। उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं के दमन और उन्हें बांटने और फिर किसी एक गुट से समझौते करने की यह नीति भारत में मौजूद उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं की समस्या को कोई वास्तविक और सही समाधान नहीं कर सकती है। सही, वैज्ञानिक और वास्तविक समाधान आत्मनिर्णय के अधिकार से युक्त(जिसमें अलग हो जाने का अधिकार शामिल है।)भारतीय समाज में इंकलाब के बाद बनने वाले ही समाजवादी संघ में हो सकता है। भारत का वर्तमान पूंजीवादी राज्य उन्हें छल और बल के जरिये ही अपने कब्जे में रख सकता है और ऐसे छल-बल के खिलाफ शोषित-उत्पीडि़त जनता के संघर्षों का पैदा होना लाजिमी। राजकीय दमन व आतंक के जवाब में फिर वही होना है जो इन राज्यों में दशकों से होता आ रहा है। 

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