Saturday, August 15, 2015

46 वां श्रम सम्मेलन: श्रम पर हमला जारी है...

वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
    21-22 जुलाई को 46 वां श्रम सम्मेलन सम्पन्न हुआ। मजदूरों की एक भी मांग पर सहमति के बगैर यह समाप्त हो गया। प्रधानमंत्री मोदी ने लच्छेदार बातों से इसका उदघाटन किया। अपनी बातों में उन्होंने श्रम सुधारों की वकालत करते हुए इसे पूंजी व श्रम दोनों के फायदे का घोषित कर डाला। मजदूरों की मांगों पर एक शब्द भी खर्च किये बगैर वे खुद ही सरकार को सबसे बड़ा मजदूर हितैषी बता कर चलते बने। 
    इस श्रम सम्मेलन में 12 केन्द्रीय ट्रेड यूनियन केन्द्रों के प्रतिनिधियों, पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों व केन्द्र-राज्य के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। किसी समय कल्याणकारी राज्य के जमाने में ये श्रम सम्मेलन पूंजी व श्रम के बीच सरकार की मध्यस्थता में सौदेबाजी का मंच थे। पर आज के नवउदारवादी दौर में जब पूंजी ने श्रम पर हमला बोल रखा हो और सरकार निर्लज्जता से पूंजी के पक्ष में एक के बाद एक कदम उठा रही हो तब ये श्रम सम्मेलन औपचारिकता के अलावा कोई महत्व नहीं रखते। 
    श्रम सम्मेलन का महत्व मोदी सरकार की निगाह में कितना है इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि लगभग एक वर्ष से यह टल रहा है। सरकार तमाम श्रम कानूनों में संशोधन के लिए अब न तो श्रम सम्मेलनों का इंतजार करती है और न ही केन्द्रीय फेडरेशनों के नेताओं को विश्वास में लेने की ही जरूरत समझती है।  
    पूंजी द्वारा श्रम पर बोले जा रहे हमले से लड़ने में केन्द्रीय ट्रेड यूनियन केन्द्रों की अक्षमता आज मजदूरों के साथ-साथ सरकार के सामने भी स्पष्ट है। हालत यह है कि भाजपा का भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) अपनी सरकार के खिलाफ संघर्ष का दिखावटी अगुआ बना हुआ है। इन सेण्टरों के वर्षों अर्थवाद-सुधारवाद में गोते लगाने व पूंजीवादी-संशोधनवादी दिशा होने से सरकार को इनके संघर्ष से कोई खतरा नहीं है। 

    सम्मेलन से 2 दिन पूर्व प्रधानमंत्री ने इन नेताओं को चाय पर चर्चा को बुलाया। वहां इनकी मांगों को प्रधानमंत्री ने सुना। नेताओं को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री सम्मेलन में संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के हित में कोई घोषणायें करेंगे पर मोदी ने ऐसा कुछ नहीं किया। 
    हर वर्ष की तरह सम्मेलन समिति ने कानों को अच्छे लगने वाले सुझावों को पारित किया जिसमें असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के पंजीकरण, उनके लिए विशेष योजनाओं ईपीएफ व ईएसआई योजनाओं को व्यापक बनाने सरीखे सुझाव थे। 
    पिछले कुछ वर्षों में असंगठित क्षेत्र पर ज्यादा बातें कर सरकार ने ज्यादा चालाकी प्रदर्शित की है। असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के पंजीकरण, उन्हें सामाजिक सुरक्षा आदि बातों से सरकार यह दिखाने का प्रयास करती रही है कि उसे मजदूरों की इस विशाल आबादी की भारी चिंता है पर वास्तविकता एकदम उलट है। सरकार की असंगठित क्षेत्र की योजनाओं से पूंजीपति वर्ग को कोई नुकसान नहीं है। इसकी आड़ में सरकार असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर एक के बाद एक हमले बोल पूंजी की सेवा में तल्लीन है। तमाम एनजीओ, सेवा सरीखे सेण्टर असंगठित क्षेत्र की मांगें उठा सरकार की राह आसान बना रहे हैं। 
    वास्तविकता यह है कि संगठित क्षेत्र के मजदूरों पर बोला जाने वाला हर हमला असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की दशा को भी और नीचे धकेलेगा। 
    ऐसे में जरूरत तो इस बात की है कि संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूर मिलकर अपने ऊपर हो रहे हर हमले के खिलाफ लड़ते। पर फिलहाल सरकार दोनों के बीच खाई पैदा कर दोनों पर हमला बोलने में सफल है। 
    केन्द्रीय श्रम संगठनों के निष्प्रभावी होती आवाज के उलट मजदूर वर्ग अपने ऊपर हो रहे हर हमले के खिलाफ फैक्टरी स्तर पर ही सही लड़ने का माद्दा दिखला रहा है। देर-सबेर ही सही क्रांतिकारी राजनीति के झण्डे तले लामबंद हो वह पूंजी के हमले को न केवल आगे बढ़कर रोक देगा बल्कि पूंजीवाद को भी ध्वस्त करेगा। 

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