Saturday, August 1, 2015

पूंजीवादी पार्टियों की संसद में नूराकुश्ती

वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
    भारतीय संसद के मानसून सत्र की शुरूआत हंगामे के साथ हुई। संसद में एक बार फिर वही नजारा दोहराया जा रहा है जो कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में सप्रंग शासन के अंतिम वर्षों में हुआ था। बस फर्क सिर्फ इतना हुआ है कि सत्ता पक्ष तब विपक्ष में था और तब का सत्ता पक्ष अब विपक्ष में है। तब कांग्रेस पार्टी के भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाजपा व उसके सहयोगियों ने संसद को बंधक बना लिया था और अब कांग्रेस व उसके सहयोगियों ने भाजपा के भ्रष्टाचार पर संसद को बंधक बना लिया है। यह सब पुरानी फिल्म का रीमेक है। 
    परन्तु यहां एक महत्वपूर्ण अन्तर है। भाजपा तब आक्रामक थी और कांग्रेस अपनी चोरी पर बैकफुट पर थी। परन्तु भाजपा सरकार चोरी करने के बावजूद आक्रामक है। वह अपनी चोरी पर सफाई देने या शर्मसार होने के बजाय कह रही है कि अगर हमने चोरी की है तो कांग्रेसियों ने भी तो चोरी की है और ऐसा करके भाजपा सरकार अपनी चोरी को बेशर्मी के साथ न्यायसंगत ठहराने पर लगी हुई है। 

    इसमें भी सबसे मजेदार यह है कि पूंजीवादी मीडिया भी इस नूराकुश्ती में शामिल हो गया है। वह भाजपा सरकार का हिस्सा बनकर भाजपा की तरह भाजपा की चोरी को कांग्रेस के मुकाबले सही साबित करने में जुटा हुआ है। प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया दोनों एक सुर से भाजपा के पक्ष में खड़े होकर चीख रहे हैं। यह तथाकथित लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का असली चेहरा है। 
    देश के कुछ लोग पूंजीवादी राजनीतिक दलों की इस नूराकुश्ती से दुखी हैं। इनमें एकाधिकारी घराने तो हैं ही जिन्होंने करोड़ों रुपये चुनावों में इस उम्मीद के साथ फूंका था कि उदारीकरण की नीतियों के आगे बढ़ने से उसके चुनावों में किये गये निवेश पर भारी मुनाफा वसूली होगी। तो कई इसलिए दुखी हैं कि राजनीतिक दलों के इस प्रकार की नूराकुश्ती से जनता का भरोसा संसदीय व्यवस्था से उठ जायेगा। व्यवस्था पोषक यह लोग व्यवस्था के दूरगामी हितों व संरक्षण के लिए चिंतित हो उठे हैं।
    हां! इसमें परेशान होने वाला एक हिस्सा ऐसा भी है जिसे लगता है कि संसद अगर सही काम करे तो देश की समस्याओं का मुकम्मिल समाधान हो सकता है। पर ये भलेमानस भूल जाते हैं कि संसद देश की समस्याओं के समाधान के लिए नहीं इस देश के पूंजीपतियों की समस्याओं के समाधान के लिए काम करती है। 
    देश की मेहनतकश जनता देख रही है कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि ‘चोर-सिपाही’ का खेल खेल रहे हैं। राजनीतिक दलों के ‘चोर-सिपाही’ के इस खेल में जनता को भी यह पता लग जाता है कि राजनीतिक दलों के नेताओं और इस देश के पूंजीवादी लुटेरों में कितने गहरे रिश्ते हैं। कि कैसे नेता अंबानियों, अदाणियों को फायदा पहुंचाने के लिए अपने ओहदों का इस्तेमाल करते हैं और अपनी बारी में अदाणी व अंबानी जैसे पूंजीपति इन नेताओं व उनके परिवारों को फायदा पहुंचाते हैं। पूंजीवादी नेताओं और पूंजीपतियों का गठजोड़ उजागर होने में इस खेल से भरपूर मदद मिलती है और जनता का मनोरंजन भी हो जाता है। यह गठजोड़ तो संसदीय पूंजीवादी व्यवस्था का सार है। जिसके तहत पूंजीवादी नेता और पूंजीपति मजे मारते रहते हैं और लोकतंत्र के नाम पर जनता का सम्पत्तिहरण होता रहता है और वह निरंतर छली जाती रहती है। 
    संघ परिवार के आनुषांगिक संगठन भाजपा ने पुनः यह साबित कर दिया है कि वह अपनी बारी में कांग्रेस व अन्य राजनीतिक दलों से कहीं भी उन्नीस नहीं है। कई मायनों में तो उन्होंने पतनशीलता में कांग्रेस व अन्य पार्टियों को भी पीछे छोड़ दिया। संघी जो नैतिकता के स्वयंभू ठेकेदार थे पर स्वयंसेवक तो अपनी नैतिकता, ईमानदारी, निष्ठा को पांच साल भी बचा कर न रख सके। 
    मोदी के नेतृत्व में इस देश की जनता फिर छली गयी। ‘सपनों के सौदागर’ ने पांच साल मांगे थे पर ‘मौतों के इस सौदागर’ ने एक साल के भीतर ही अपना असली चेहरा सबको दिखा दिया। मनमोहन के ‘मौन’ का टिप्पणीकार अपनी पार्टी के नेताओं के भ्रष्टाचार पर खुद ही मौन हो गये। ‘56 इंच के सीने’ को ठोेंकने वाले अपनी पार्टी के नेताओं के कारनामों के आगे रीढ़ विहीन रेंगने वाला जीव बन गये। बेशक इस देश के प्रधानमंत्री का सीना 56 इंच का है लेकिन किसानों के विरुद्ध भूमि अधिग्रहण कानून बनाने के लिए, पूंजीपतियों के पक्ष में श्रम सुधार करने के लिए। इस देश की सम्पत्ति को अडाणियों की जेब में डालने के लिए, इस देश के लोगों से छल प्रपंच करने के लिए। परन्तु 56 इंच का सीना भी इस देश में महिलाओं की मौत को एनीमिया से नहीं रोक पा रहा है। टीवी और मलेरिया जैसी सामान्य बीमारियों से होने वाली मौतों को नहीं रोक पा रहा है। इस देश के श्रम कानूनों को अपने प्रिय अडाणियों व अम्बानियों से लागू नहीं करवा पा रहा है। किसानों की होने वाली आत्महत्याओं को भी प्रधानमंत्री का 56 इंच का सीना नहीं रोक पा रहा है। 
    संसद में होने वाला यह नाटक एक अन्य पहलू से इन राजनीतिक दलों व पूंजीपतियों के लिए फायदे का जरूर रहता है। जनता के मुद्दों पर बात तो संसद में वैसे भी नहीं होती और न ही संसद व सांसदों का यह ध्येय है। हां! वे चोर-सिपाही के खेल के मार्फत जनता का ध्यान भटकाने में जरूर कामयाब रहते हैं ताकि सत्र के अंतिम दिनों में समय की कमी के नाम पर जनविरोधी बिलों को संसद में यकायक व तेजी से पास कराया जा सके। 

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