Wednesday, June 17, 2015

भारतीय सेना का म्यांमार आॅपरेशनः यह गर्व नहीं शर्म का विषय है

वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
    गत 4 जून को मणिपुर के चंदेल जिले में भारतीय सेना पर हमला किया गया जिसमें 18 सैनिक मारे गये। इस हमले के पीछे बगैर किन्हीं खास सबूतों के भारत सरकार ने घोषणा कर दी कि एनएससीएन (खपलांग) ग्रुप है। इसके बाद प्रधानमंत्री मोदी की सहमति से भारतीय सेना ने म्यांमार की सीमा में प्रवेश कर इस संगठन के कैम्प पर हमला कर 100 से अधिक लोगों को मार गिराया।
    भारत का पूंजीवादी मीडिया इस आपरेशन पर फूला नहीं समा रहा है। वह जैसे को तैसा जवाब देने के लिए मोदी सरकार की पीठ थपथपाने में जुटा है। इस खुशी में वह यह भी भूल गया है कि म्यांमार एक स्वतंत्र देश है जिसमें घुस कर कार्यवाही करने का भारतीय सेना को कोई हक नहीं है। यह भारत की दबंगई व विस्तारवादी नीति ही है कि इस तरह की कार्यवाही के बावजूद म्यांमार सरकार इसका कोई खास विरोध तक नहीं कर पाई। मोदी तो अपनी पीठ कुछ उसी अंदाज में थपथपा रहे हैं जैसे ओबामा ने पाकिस्तान में लादेन को मारने की कहानी गढ़ कर थपथपाई थी।

    म्यांमार की सरकार को सेना की इस कार्यवाही की सूचना हमला खत्म होने के बाद दी गयी। इस तरह मोदी सरकार ने म्यांमार की सम्प्रभुता का भी ख्याल रखने की नहीं सोची। इस हरकत से भारत के विस्तारवादी मंसूबे सभी पड़ोसी देशों के लिए जाहिर हो गये हैं।
     क्या यह तारीफ की बात है कि बड़ा देश का दम्भ छोटे देश की सम्प्रभुता को तार-तार कर साबित किया जाए। जाहिर है ऐसा दम्भ भरने वाला देश जब अपने पड़ोसियों की सम्प्रभुता का सम्मान नहीं कर सकता तो भला वह अपनी जनता के हकों को कुचलने में कैसे पीछे रहेगा। क्या पूंजीवादी मीडिया तब भी ताली पीटेगा अगर अमेरिका या अन्य कोई साम्राज्यवादी मुल्क भारत में ऐसी कार्यवाही को अंजाम दे। नहीं! तब वह शायद अपनी सम्प्रभुता के हनन का राग अलापेगा।
    इस घटना ने यह भी दिखा दिया कि भारतीय शासकों की हालत उस गली के कुत्ते सरीखी है जो अपने अमेरिकी आकाओं के आगे दुम हिलाते हैं पर दक्षिण एशिया की अपनी गली में आकर शेर बन जाते हैं। इनकी गीदड भभकी अड़ोसी-पड़ोसी छोटे देशों को ही सताने के काम आती है। यहीं इनका ‘राष्ट्रवाद’ प्रदर्शित होता है। साम्राज्यवादी मुल्कों के सामने ये ‘राष्ट्रवाद’ चापलूसी करने लगता है।
    भारतीय शासकों के इसी अंधराष्ट्रवाद का परिणाम है कि उत्तर पूर्व की राष्ट्रीयतायें भारतीय राज्य की कैद में जीने को मजबूर हैं। भारत से मुक्ति की उनकी लड़ाई आज बुरी तरह भटक चुकी है और आतंकी कार्यवाहियों में सिमट गयी है। इसके चलते भारतीय शासक इनसे बंदूक की भाषा से निपटने की कोशिश कर रहे हैं।
    पड़ोसी देशों की सम्प्रभुता को ताक पर रखने वाली भारतीय सेना की यह बंदूक की भाषा गर्व नहीं शर्म का विषय है। यह बंदूकें जितना म्यांमार की सीमा में घुसकर बोलेंगी उससे जरा भी कम भारतीय जनता के सिर पर भी बोलेगीं। इसीलिए भारतीय शासकों की ऐसी कार्यवाही की मुखालफत जरूरी है।

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