Thursday, April 16, 2015

मजदूरों-किसानों को लूटने-ठगने को एक ‘नई’ पार्टी

वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)   
  भारतीय पूंजीवादी राजनीति में एक नई पार्टी के बनने की चर्चा जोरों पर है। यह पार्टी जनता परिवार के एकजुट होते जाने से अस्तित्व में आने वाली है। समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), जनता दल (यूनाइटेड), जनता दल (सेकूलर), इण्डियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) और समाजवादी जनता पार्टी (एसजेपी) के एक होने से इस पार्टी के अप्रैल माह के बीतते-बीतते सामने आ जाने की सम्भावना है। मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में इस पार्टी का नाम समाजवादी जनता पार्टी और चुनाव चिह्न साइकिल पर सहमति विलय करने वाले दलों के बीच बनी है।

    ये सभी पार्टियां अब तक क्षेत्रीय पार्टियां ही थीं। मुलायम सिंह यादव की पार्टी उत्तर प्रदेश, लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाली राजद व नीतिश कुमार-शरद यादव के नेतृत्व वाली जद(यू) बिहार-झारखंड, देवगोडा के नेतृत्व वाली जनता दल (सेकूलर) कर्नाटक, ओमप्रकाश चौटाला वाली आईएनएलडी हरियाणा में प्रभावी पार्टियां रही हैं। हालांकि इस परिवार की एक प्रमुख पार्टी बीजू जनता दल जो कि उड़ीसा में सत्तारूढ है इस विलय प्रक्रिया में शामिल नहीं हुयी है। बीजू जनता दल भारतीय जनता पार्टी के भय से बनने वाली ऐसी किसी पार्टी और उसके नेताओं की एकता को लेकर सशंकित है। वह पूर्व में किये गये ऐसे सभी प्रयासों ओर प्रयोगों के असफल हो जाने को उदाहरण के रूप में पेश करती है। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह जो आम चुनाव में मिली सफलता के अहंकार में अब तक डूबे हुए हैं, उन्होंने इस एकता का मजाक उड़ाते हुए कहा कि उसमें जनता कहां है। यह तो सिर्फ परिवार है। 
    जनता परिवार की इस एकता के पीछे जितने राजनैतिक दबाव व समीकरण काम कर रहे हैं उससे कहीं ज्यादा उस वर्ग के हित काम कर रहे हैं जिन्हें ये पार्टियां अभिव्यक्त करती हैं। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी भारत के बडे़ पूंजीपति वर्ग की पार्टियां हैं। देश के प्रमुख घराने इन दोनों पार्टियों को पालते-पोसते हैं। इसके उलट जनता परिवार की पार्टियां अपने-अपने जातिगत आधार के साथ देहाती पूंजीपति वर्ग, धनी किसानों की ऐसी पार्टियां हैं जिन्हें क्षेत्रीय पूंजीपति वर्ग का भी समर्थन हासिल है। इस गैर एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग का एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग से अंतरविरोध बनता रहा है। यह अंतरविरोध एक रूप में शहर देहात अथवा दिल्ली बनाम लखनऊ या पटना के रूप में अभिव्यक्त होता रहता है।
    पिछले दो दशकों में एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की सरकार की नीतियों के निर्धारण में भूमिका बढ़ती चली गयी और वास्तव में देश की नीतियां इस एकाधिकारी घरानों के हितों को प्राथमिकता में रखकर बनायी जाती रही हैं। इन नीतियों से देहाती पूंजीपतियों, कुलकों, धनी किसानों आदि का अंतरविरोध बनता रहा है। भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर अतीत में व वर्तमान में चल रहा संघर्ष इसकी ही एक अभिव्यक्ति है। पिछली सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में इन देहाती पूजीपतियों, धनी किसानों को वह स्थान दे दिया था जिससे एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग को दिक्कत थी। अब जिसे मोदी सरकार अपने अध्यादेशों के जरिये छीन रही है।
    जनता परिवार की पार्टियों की एकजुटता असल में इसी देहाती व क्षेत्रीय पूंजी की एकजुटता है। इस एकजुटता के दम पर वह न केवल अपनी सौदेबाजी की क्षमता को बढ़ाना चाहती है। बल्कि अतीत की तरह सत्ता पाने का मंसूबा भी पालती है। कांग्रेस पार्टी के पृष्ठभूमि में धकेले जाने, भाजपा के प्रति भावी आक्रोश के समय यह पार्टी अपने पीछे लामबंद हुयी जनता के दम पर केन्द्रीय सत्ता हाथ में आते हुए देखती है।
    भारतीय पूंजीवादी राजनीति में इस परिवार की एकजुटता से नये समीकरण उभरेंगे खासकर यह देखते हुए कि राज्य सभा में मोदी की पार्टी का बहुमत नहीं है। भारतीय पूंजीवादी पार्टियां अतीत में पतन और अवसरवाद के कई काण्ड लिख चुकी हैं। उत्तरकाण्ड के दौर में चल रही भारतीय पूंजीवादी राजनीति की लीला को सशक्त मजदूर आंदोलन ही समाप्त कर सकता है। जनता परिवार की एकता की उम्र पर फिलहाल सवाल न भी उठाया जाए यह तो तय है कि यह एकता भारत के शोषितों-उत्पीडि़तों के किसी काम की नहीं है। यह एकता पूंजीवाद की एक रक्षापंक्ति का ही काम करेगी। मजदूरों-किसानों के आक्रोश को ये अपनी सौदेबाजी या सत्ता पर काबिज होने के लिए ही इस्तेमाल करेगी। पूंजीपति बड़ा हो या छोटा मजदूरों और किसानों को लूटता और ठगता ही है।

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