Monday, December 1, 2014

संत-महंत और बाबा-साधु

वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)   
 हरियाणा के हिसार में संत रामपाल के मामले ने एक बार यह दिखाया कि भारत की पूंजीवादी राजनीति के इस मोड़ पर धर्म और राजनीति का कितना और किस हद तक घृणित गठबंधन हो चुका है। संत रामपाल को केवल अदालत में पेश करने के लिए तीस चालीस हजार की पुलिस तैनात की गयी और कई दिनों का नाटक रचा गया। 
    ऐसा क्यों किया गया? ऐसा इसलिए किया गया कि संत रामपाल ने पिछले चुनावों में भाजपा को समर्थन दिया था और अपने अनुयाइयों से कहा था कि वे भाजपा को वोट दें। अब भाजपा सरकार में है और वह संत का कुछ तो ख्याल रखेगी ही। 

    संत को पकड़कर न्यायालय के सामने पेश करना कोई मुश्किल काम नहीं था पर सरकार यह दिखाना चाहती थी वह तो पूरा प्रयास कर रही है पर संत रामपाल के समर्थक उन्हें गिरफ्तार नहीं होने दे रहे हैं। दूसरी तरफ वह रामपाल के समर्थकों को भी यह संदेश देना चाहती थी कि वह स्वयं कुछ नहीं करना चाहती पर न्यायालय के आदेश के सामने बेबस है।
    भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही हर तरह के संत-महंतों और बाबा-साधुओं के हौंसले बहुत बढ़ गये हैं। जब एक हिन्दू धर्म परायण पार्टी सत्ता में हो तो उनके हौसले बुलंद होने भी चाहिए। खासकर उनके तो जरूर ही जिन्होंने भाजपा को जिताने के लिए पूरा जोर लगाया था। 
    भाजपा हरियाणा में अप्रत्याशित ढंग से बहुमत हासिल कर सत्ता में आई है। इसके लिए उसने जाति-धर्म के सारे समीकरणों का सहारा लिया। डेरा सच्चा सौदा के राम-रहीम और संत रामपाल जैसे लोगों के अनुयाई गरीब आबादी तथा दलित-पिछड़ी जातियों से आते हैं। हरियाणा के दबंग जाटों के मुकाबले अन्य जातियों को अपने साथ लाने की कोशिश में भाजपा इन डेरों की शरण में गयी थी। अब इसके आधार पर उन्होंने जो जीत हासिल की उसे वे जाति से ऊपर जीत घोषित कर रहे हैं- ‘भाजपा को सभी जाति के लोगों ने वोट दिया’।
    अब ये संत भाजपा से अपनी कीमत वसूलना चाहते हैं और वे वसूलेंगे ही। यदि मोदी जीत से ‘वैश्विक नेता’ बन गये तो ये संत-महंत भी क्यों नहीं कुछ होना चाहेेंगे। 
    पिछले सालों में भारत में संतों, बाबाओं-साधुओं की बाढ़ आई हुयी है। इनका धंधा खूब चमका है। इस चमक के कारण ही पूंजीवादी राजनीति में इनका प्रभाव खूब बढ़ा है। कुछ संत सीधे-सीधे राजनीति में उतर रहे हैं तो बाकी पूंजीवादी नेताओं-पार्टियों के साथ सांठ-गांठ कर रहे हैं। इससे उन्हें सत्ता के गलियारों में जो पहुंच हासिल होती है उसका इस्तेमाल वे अपने प्रभाव का और ज्यादा विस्तार करने में करते हैं। 
    धर्म के इस चमकते धंधे की अपनी परिणतियां होनी ही हैं। जब एक बाबा का धंधा चमकेगा तो दूसरे को जलन होगी ही। दोनों में जो प्रतियोगिता होगी वह केवल शांतिपूर्ण हो वह जरूरी नहीं। बल्कि बाबाओं के चरित्र को देखते हुए यह स्वाभाविक है कि वह हिंसक हो। संत रामपाल के ऊपर जो मुकदमा है उसका संबंध उन झगड़ों से है जो रामपाल के समर्थकों और आर्य समाजियों के बीच हुए। इन झगड़ों में कुछ लोगों की मृत्यु भी हुई थी।
    अभी बहुत दिन नहीं हुए जब टीवी चैनलों पर हिन्दू धर्म के तमाम संत-महंत सांई-बाबा के मंदिरों के खिलाफ जहर उगल रहे थे। पिछले सालों में शिरडी के सांई-बाबा के सम्प्रदाय का तेजी से विस्तार हुआ है। गुरूवार को उनके मंदिरों में अपार भीड़ उमड़ रही है। स्वभावतः ही इससे सनातनी हिन्दू वाले संतों-महंतों का धंधा कमजोर होगा। टीवी पर उनकी आक्रामक बहसों से लगता था कि आमने-सामने होने पर वे जरूर मार-पीट कर लेंगे। 
    पूंजीवाद के पतन और पूंजीवादी राजनीति की सडांध के कारण धर्म की शरण जनता के एक बड़े हिस्से ले रहे हैं। जीवन के कष्टों से मुक्ति का उन्हें कोई और रास्ता नहीं सूझ रहा है। बाबाओं-साधुओं और संतों-महंतों से जनता की दूरी तभी बनेगी तथा धर्म के इनके धंधों पर वास्तविक चोट तभी पड़ेगी जब क्रांतिकारी विकल्प की ओर वह उन्मुख होगी। 

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