Saturday, November 1, 2014

काला धन और मोदी सरकारः कहां गये वे वायदे?

वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)    
कहा जाता है कि झूठ की कलई एक दिन जरूर खुलती है। आज यही मोदी सरकार के साथ हो रहा है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर लम्बे भाषण देने वाले नरेन्द्र मोदी ने बार-बार मंचों से यह दोहराया था कि वे सत्ता में आ गये तो विदेशों में जमा सारा काला धन देश में ले आयेंगे। सारे काले धन के मालिकों के नाम उजागर कर देंगे। समस्त भ्रष्टाचार का नाश कर देंगे। पर सत्ता में आये अभी 5 माह भी पूरे नहीं हुए थे कि मोदी सरकार काले घन के वायदे से पलटती नजर आने लगी है। वित्त मंत्री अरुण जेटली अब मजबूरियां गिनाने लग गये हैं कि विदेशों से हुए समझौतों की बाध्यता के चलते वे स्विस बैंक के खाता धारकों के नाम उजागर नहीं कर सकते। बाद में काफी हो-हल्ले के बाद दो-तीन नाम जाहिर भी किये गये तो मोदी की पार्टी के राम जेठमलानी ने टिप्पणी की ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’।
    काला धन व भ्रष्टाचार ही वह मुद्दा था जिस पर कांग्रेस सरकार को पहले अन्ना हजारे और रामदेव ने घेरा। भारतीय मध्यम वर्ग के बीच कांग्रेस सरकार को बदनाम कराया गया और फिर मंच पर अवतरित हुए मोदी ने वायदों की फुलझडि़यों से मध्यम वर्ग को मोह लिया। अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में ही कदमताल करते रहे और मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गये। देश के अधिकांश पूंजीवादी घरानों ने मोदी को जिताने में पूरी ताकत झोंक दी।

    सत्ता में आने के बाद भी झूठ को आकर्षक बना कर पेश करने में पूंजीवादी मीडिया मोदी की ताल से ताल मिलाये हुए है। ‘मेक इन इंडिया’ से लेकर ‘श्रमेव जयते’ तक एक-एक कर जनविरोधी बातें और स्कीमें वाक्चतुर मोदी व उनका भक्त बना पूंजीवादी मीडिया इस रूप में पेश करता रहा कि मानो इतना देशभक्ति भरा कदम किसी ने उठाया ही न हो। वास्तविकता यही है कि न तो ‘मेक इन इंडिया’, न ‘सफाई अभियान’ और न ‘श्रमेव जयते’ में मनमोहन सरकार से कुछ अलग, कुछ नया है। बदले नामों से पिछली सरकार भी यही सब कर रही थी। हां! फर्क है तो बस इतना ही कि तब मनमोहन सिंह अपनी जनविरोधी योजनाओं को देशभक्ति के लबादे में लपेट कर न तो पेश कर पाते थे और न ही पूंजीवादी मीडिया उनका इस तरह से भक्त बना था।
    तो अब अरुण जेटली ने यह सच्चाई सामने ला दी कि विदेशों में जमा काला धन देश में नहीं ला सकते, वे मजबूर हैं। याद करें यही तर्क तो पिछले वित्त मंत्री चिदम्बरम दिया करते थे। क्या वास्तव में मोदी-मनमोहन दोनों मजबूर हैं या इनकी मंशा ही काले धन को लाने की नहीं है। देश की शीर्ष सरकार भला मजबूर कैसे हो सकती हैं? वह विदेशों से संधि तोड़ सकती है। काले धन वाले लोगों को जेल में डाल सकती है। तो वास्तव में बात यहां मजबूरी की नहीं इच्छा की अधिक है। न तो मनमोहन सरकार और न ही मोदी सरकार, इनमें से किसी की इच्छा काले धन वाले लोगों पर कार्यवाही करना नहीं है।
    जब अन्ना हजारे ने दो वर्ष पूर्व भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन छेड़ा तो अन्ना हजारे के मुख्य निशाने पर सरकारी कर्मचारी, बाबू-चपरासी का भ्रष्टाचार था। इस आंदोलन में देश का पढ़ा लिखा मध्यम वर्ग भी खिंच आया था। जनलोकपाल भी सरकारी कर्मचारियों और नेताओं को ही एजेण्डे पर लेता था। चूंकि इस सबमें पूंजीपति वर्ग-कारपोरेट घराने कहीं नहीं थे इसीलिए पूंजीवादी मीडिया ने इस आन्दोलन को हाथों-हाथ लिया। यहां तक कि कई पूंजीवादी कारपोरेट घराने सीधे आन्दोलन के समर्थन में पैसा तक देने लगे। इस सबसे परिणाम क्या निकला? न तो भ्रष्टाचार में कोई कमी आयी और न ही भ्रष्टाचार को इन तौर-तरीकों से रोका ही जा सकता था। हाँ! इस पूरे आंदोलन से कांग्रेस सरकार जरूर भ्रष्ट सरकार के बतौर स्थापित हो गयी। जिसका फायदा पहले केजरीवाल तो बाद में मोदी ने ले लिया।
    इस बीच में रामदेव व एकाध अन्य लोग विदेशों में जमा काले धन का मुद्दा लेकर आ गये। पूंजीपति वर्ग इस मुद्दे के छिड़ने से थोड़ा असहज हुआ पर वह घबराया नहीं। उसे अपने सिपहसालारों भाजपा-कांग्रेस दोनों पर पूरा भरोसा था। पूंजीवादी मीडिया भी निरंतर काले धन के अज्ञात मालिक पर बमबारी करता रहा और मोदी की ताल में ताल मिला देश की जनता को स्वप्न दिखाता रहा कि मोदी आयेंगे और काला धन लायेंगे। पूंजीवादी मीडिया और पूंजीपति वर्ग के साथ मोदी ये सब जानते थे कि काला धन वापस लाना इन्दिरा के ‘गरीबी हटाओ’ नारे के स्वप्न की तरह स्वप्न दिखाने में ही अच्छा है। इसे वास्तविकता में पूरा नहीं करना है।
    काले धन का मालिक वह अज्ञात शत्रु आखिर कौन है जिससे पिछली मनमोहन सरकार तो क्या मोदी सरकार भी उलझना नहीं चाहती। जाहिर है सरकारी दफ्तर का बाबू-चपरासी विदेशों में स्विस बैंक में काला धन नहीं जमा करा सकते। वे तो ज्यादा से ज्यादा देश के भीतर मौजूद काले धन के एक बहुत छोटे हिस्से में भागीदारी करते हैं। तब फिर वे लोग कौन हैं जो विदेशों में स्विस बैंक में काला धन रखते हैं। इसका जवाब बहुत स्पष्ट है। इनमें सबसे पहले पूंजीपति हैं जो हर साल सरकार को चूना लगाते हैं और अरबों रुपया काले धन के रूप में विदेशों में पहुंचवाते हैं। उनकी इस टैक्स चोरी में इनके सहायक बनने वाले, इनसे कमीशन खाने वाले कुछ नेता और बड़े नौकरशाह इसके बाद आते हैं जो विदेशों में काला धन जमा कराते हैं।
    काले धन को गोरा करने के लिए और उसे निरन्तर मुनाफे के धंधे में लगाये रखने के लिए पूंजीवादी घराने अखबारों-टीवी, चैनलों-ट्रस्टों आदि का लम्बा चौड़ा जाल बिछाते हैं। ये घराने अपनी आय कम करके दिखाते हैं और भारी टैक्स चोरी करते हैं। सभी प्रमुख पूंजीवादी घराने व पूंजीवादी मीडिया काले धन के इस धंधे में लिप्त हैं। ये वही सब हैं जिन्होंने खुद भ्रष्टाचार का बढ़-चढ़कर मुद्दा उछाला था और मोदी का जबरदस्त प्रचार किया था।
    इसीलिए मोदी अपने आकाओं देश के बड़े पूंजीवादी घरानों के खिलाफ न तो जा सकते थे और न जायेंगे। काला धन जो, एक अनुमान के मुताबिक 120 लाख करोड़ रू. के आस-पास है वह जस का तस बना रहेगा। हां! दिखावे के लिए जरूर यह संभव है कि इसका एक बहुत छोटा हिस्सा वापस ला मोदी कुछ वाहवाही जरूर जीत लें।
    मोदी के प्रचार से अभिभूत मध्यम वर्ग मानने लगा था कि अगर काला धन देश में आ गया तो इससे सबकेे दिन फिर जायेंगे। पर यह बात भी वास्तविकता से कोसों दूर है। अगर मान भी लिया जाय कि इस काले धन का एक हिस्सा जब्त कर सरकार अपने हाथ में ले ले तो भी वह उसको फिर से पूंजीपतियों को ही लुटायेगी और जनता के हाथ में फर्जी योजनाओं के कुछ झुनझुने थमा दिये जायेंगे।
    भारतीय अर्थव्यवस्था में हर साल बड़े पैमाने पर पैदा हो रहे काले धन पर लगाम कसने में भी मोदी सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है। जाहिर है काले धन पर लगाम लगाने के लिए सरकारी तंत्र मजबूत बना पूंजीपतियों का हर कदम पर गला पकड़ना होगा। पर मौजूदा उदारवादी नीतियां इसकी उलट हैं वे पूंजीपतियो को हर तरह के सरकारी नियंत्रण से मुक्त बनाती है। खुद मोदी भी जब अपना काम कानून खत्म करना बताते हैं तो वे इन्हीं उदारवादी नीतियों को आगे बढ़ाने की बात करते हैं। यानि मोदी न तो काला धन वापस लाना चाहते हैं और न ही काले धन के पैदा होने पर ही कोई रोकथाम करना चाहते हैं। यही मोदी की सच्चाई है।
    भ्रष्टाचार और काले धन का नाश पूंजीवादी दायरे में आज नहीं किया जा सकता। इस पर कुछ रोकथाम के लिए भी जरूरी है कि नवउदारवादी नीतियों को पलट सरकारी नियंत्रण मजबूत किया जाय। पर पूंजीपति वर्ग और उसके सुयोग्य ‘नायक’ नरेन्द्र मोदी इस सबके लिए तैयार नहीं है। मजदूर वर्ग पूंजीपतियों के पास जमा समस्त काले-गोरे धन को अपनी लूट से पैदा हुआ मानता है इसीलिए केवल उसके जरिये ही इस समस्त दौलत का निपटारा हो सकता है। मनमोहन-जेटली-मोदी तो काले धन-गोरे धन के मालिकों के प्यादे हैं। मजदूर वर्ग पूंजीपतियों के साथ उनके प्यादों का भी इंसाफ करेगा।

No comments:

Post a Comment