Saturday, November 1, 2014

इबोला, साम्राज्यवाद और दवा कम्पनियां

वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)   
 विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार अब तक 70 देशों गुनिया, लाइबेरिया, नाइजीरिया, सेनेगल, सेयरा लेओन, स्पेन व संयुक्त राज्य अमेरिका में इबोला संक्रमण के करीब 9 हजार मामले सामने आये हैं और लगभग 4500 लोग इससे मर चुके हैं। अफ्रीकी देशों में यह तेजी से फैल रहा है और वहां की गरीबी व स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव देखते हुए यह बहुत जानें ले रहा है। लाइबेरिया में हालात बुरे हैं।
    इबोला वायरस से संक्रमित व्यक्ति को 40 डिग्री सेन्टीग्रेड के आस पास बुखार आता है, पेट में दर्द होता है व पानी की कमी से डिहाइड्रेशन की संभावना बढ़ जाती है। इबोला वायरस 1970 के दशक में माली व एकाध अन्य अफ्रीकी देशों में पाया गया था पर तब यह इतना व्यापक रूप से नहीं फैला था और कुछ जानें लेने के बाद यह समाप्त हो गया था या निष्क्रिय हो गया था।

    अब लगभग 4 दशक बाद यह वायरस फिर से कैेसे सक्रिय हो उठा। इस संदर्भ में लाइबेरिया के डा. सायरिल ब्रोडरिक इसके लिए सीधे तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनके अनुसार अमेरिकी रक्षा मंत्रालय इबोला वायरस को एक हथियार के बतौर विकसित करने के लिए उसका मानवों पर प्रयोग करने की स्कीम चला रहा है। अफ्रीकी नागरिक इन प्रयोगों के सबसे सहज उपलब्ध लोग हैं इसलिए सेयरा लेओन की एक प्रयोगशाला से अमेरिका इस वायरस का इंसानों पर प्रयोग कर रहा है। इन्हें और खतरनाक बना वह जैविक हथियार बनाना चाहता है।
    इबोला के मौजूदा प्रसार के संदर्भ में डा. ब्रोडरिक के उपरोक्त कथन में कितनी सच्चाई है यह बात अभी सीधे तौर पर पुष्ट तो नहीं हुई है पर यह बात आज जगजाहिर है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी ही नहीं यूरोपीय व रूसी साम्राज्यवादी भी तमाम बिमारियों के वायरस से जैविक हथियार बनाने की कई प्रयोगशालायें चला रहे हैं। जहां इबोला के साथ स्वाइन फ्लू, एंथ्रेक्स व कई अन्य बिमारियों के वायरस सुरक्षित रखे हुए हैं। कई बार इन प्रयोगशालाओं में दुर्घटनायें ही इन वायरसों को हवा में फैला देती रही हैं।
    अभी हाल में सामने आया यह तथ्य भी उपरोक्त बात की पुष्टि करता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादी 1946-48 के बीच ग्वाटेमाला में वहां के नागरिकों पर सिफलिस व गाइनेरिया सरीखी गम्भीर बिमारियों के वायरसों का परीक्षण कर जैविक हथियार की संभावनायें तलाश रहे थे। जब यह खबर सामने आयी तो अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने पहले तो इनकार किया पर अन्ततः ओबामा को ग्वाटेमाला के नागरिकों से माफी मांगनी पड़ी। हालांकि तात्कालिक तौर पर ओबामा ने ऐसे प्रयोग रोकने की बात कही है। ग्वाटेमाला के उपरोक्त प्रयोग में 5500 लोगों में से 83 लोग मर गये थे।
    यह देखते हुए कि ऐसे प्रयोग कभी भी साम्राज्यवादियों द्वारा घोषित करके नहीं किये जाते इसीलिए भविष्य में भी वे किसी गरीब देश के नागरिकों को इसका शिकार बनाते रहेंगे।
    यही साम्राज्यवाद का असली चरित्र है, युद्ध आवश्यक हिस्सा है। युद्धों में तो वह लोगों को मारता ही है पर शान्तिकाल में भी युद्ध की तैयारी में लगा रहता है। लोगों को बीमार बना ‘बगैर उनकी मर्जी के’ वह जैविक हथियार के लिए उन्हें मौत के मुंह में ढकेल देता है।
    साम्राज्यवाद के इस चरित्र से कम बुरा साम्राज्यवादी दवा कम्पनियों का नहीं है। आज एक नहीं दो-तीन कम्पनियों पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि उनके पास इबोला के वायरस के रोकथाम की वैक्सीन बनाने का फार्मूला मौजूद है पर ये दवा कम्पनियां महज इसलिए इस वैक्सीन का उत्पादन नहीं कर रही हैं क्योंकि ये अभी बिमारी को और फैलाना चाहती हैं ताकि इन्हें भारी मुनाफा हो सके।
    इन कम्पनियों की सम्भवतः सोच यह है कि अफ्रीकी गरीब मुल्कों में उनकी वैक्सीन का दाम वहां के गरीब नागरिक नहीं दे पायेंगे इसलिए जब यह बीमारी कुछ समृद्व देशों में पहुंच जाये तब वैक्सीन का उत्पादन किया जाये। इस सबके लिए ये कम्पनियां 5000 लोगों की मौतों का इंतजार कर चुकी हैं।
    साम्राज्यवाद के पतनशील चरित्र की यह इंतहा है जहां दवा कम्पनी दवा दे कर मर्ज रोकने के बजाय मर्ज फैलाने का इंतजार कर मुनाफे को बढ़ता देखती हैं।

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