Saturday, August 16, 2014

साहेब और बहादुर

भारत का पूंजीवाद प्रचारतंत्र इस समय हर तरीके से देश की संघी सरकार या ज्यादा सही-सही कहें तो मोदी सरकार का समर्थन करने में लगा हुआ है। इसके लिए वह किसी भी तुच्छ घटना को एक शानदार कारनामे की तरह पेश करता है। 
नरेन्द्र मोदी की हालिया नेपाल यात्रा के समय ऐसे ही हुआ। सारे ही अखबारों और टीवी चैनलों ने प्रमुखता से देश को बताया कि कैसे मोदी ने दसियों सालों से अपने परिवार से बिछुड़े एक लड़के को उसके परिवार से मिलाया। बताया गया कि एक छोटा सा बालक देश में यूं ही भटक रहा था। उसे यह भी पता नहीं था कि उसके मां-बाप नेपाल में कहां रहते हैं। किसी गुजराती सज्जन को यह बालक मिला तो उन्होंने उसे नरेन्द्र भाई को सौंप दिया। नरेन्द्र भाई ने उसे अहमदाबाद में अपने पास रखा। अब इतने सालों बाद जब वे प्रधानमंत्री बने तो उसे अपने पास नहीं रख सकते थे। सो उन्होंने उसका बी.बी.ए. में पढ़ाई के लिए प्रवेश करा दिया। इस बीच उन्होंने नेपाल में उसके घर का पता करवाया और जब यात्रा पर नेपाल गये तो उसे उसके परिवार को सौंप दिया। 

यह कहानी कुछ ज्यादा ही बम्बईया या अब मुंबइया फिल्मों की स्टाइल की है और इन फिल्मों की तरह इस कहानी का भी ‘डीकन्स्ट्रक्शन’ किया जा सकता है। 
भारत में नेपाली मूल के घरेलू नौकरों का होना आम बात है। इसमें बाल नौकर भी होते हैं। और वयस्क नौकर भी। बहुत पहले अमरकान्त ने इन्हीं बाल नौकरों पर एक बहुत मर्मस्पर्शी कहानी लिखी थी- ‘बहादुर’। 
नेपाल की एक बहुत बड़ी आबादी भारत में काम के लिए आती है। इस आबादी का एक बड़ा हिस्सा वह काम करता है जिसे भारत के लोग भी नहीं करना चाहते या जिसे अत्यन्त नीची निगाह से देखा जाता है। घरेलू नौकर भी इसमें से एक है। 
घरेलू नौकरों की स्थिति वैसे भी शोचनीय होती है और उसमें भी नौकर एक बालक हो तथा जिसे अपने घर का भी अता-पता न हो तो स्थिति शोचनीय हो जाती है। वह बेगारी करने वाला नौकर हो जाता है क्योंकि वह खाने-कपड़े के एवज सुबह से रात तक काम करता रहता है और घर के किसी कोने में सो जाता है। आज भी अपने देश में ऐसे लाखों बाल नौकर मिल जायेंगे। 
अस्तु नरेन्द्र भाई उर्फ नरेन्द्र मोदी को एक ऐसा ही बाल नौकर मिल गया था जिसका उन्होंने उसी तरह इस्तेमाल किया जैसा आम तौर पर किया जाता है। होना तो यह चाहिए था कि बाल श्रम का इस्तेमाल करने के लिए नरेन्द्र मोदी की भत्र्सना की जाती पर हो यह रहा है कि इसके लिए उनका गुणगान किया जा रहा है। और जिस मध्यम वर्ग के लिए यह गुणगान किया जा रहा है उसे यह जरा भी अटपटा नहीं लगता क्योंकि वह खुद भी अपने निजी जीवन में यह करता है या करना चाहता है। वह खुद भी बेगार वाला श्रमिक रखना चाहता है। 
बेगार कराकर भरपूर शोषण करना और फिर उसका एक बड़े परोपकार के रूप में प्रचार करना केवल निजी जीवन में नहीं होता। इससे मिलती-जुलती चीज भारत का पूंजीपति वर्ग नेपाल के साथ अपने पूरे संबंधों में ही करता है। यह बेहद प्रतीकात्मक है कि मोदी ने बालक वाले प्रकरण का प्रदर्शन नेपाल यात्रा के दौरान किया क्योंकि बालक का मोदी के साथ रिश्ता और नेपाल का भारत के साथ रिश्ता समानान्तर है।   
भारत का शासक पूंजीपति वर्ग लगातार यह बात कहता रहता है कि वह नेपाल की बहुत मदद करता है। भारत को इससे काफी नुकसान भी होता है। नेपाल के लोग भारत में आकर रह सकते हैं, काम कर सकते हैं, जमीन-मकान खरीद सकते हैं। 
बस भारत का शासक वर्ग यह नहीं बताता कि  इसकी एवज में भारत के शासक पूंजीपति वर्ग ने नेपाल की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण कर रखा है, कि भारत वहां राजनीति पर नियंत्रण करता है, कि भारत-नेपाल के विदेशी संबंधों को तय करता है। यह सब इस हद तक होता है कि नेपाल की पिछली क्रांति में ये बातें क्रांति का प्रमुख मुद्दा थीं।
इस बार भी नरेन्द्र मोदी की यात्रा का मकसद उपरोक्त बालक को उसके परिवार से मिलाना नहीं था। उसका मकसद नेपाल के चीन की ओर बढ़ते झुकाव को रोकना था। नेपाल में अब निवेश और व्यापार के मामले में चीन भारत को पीछे छोड़ता जा रहा है। भारत का पूंजीपति वर्ग इसे नहीं होने दे सकता। वह नेपाल को अपने चंगुल से नहीं निकलने दे सकता। 
बम्बईया फिल्मों में ‘रामू’ या ‘बहादुर’ नौकर परिवार के ‘सदस्य’ और ‘सम्मानित’ होते थे लेकिन उन्हें यह अधिकार नहीं था कि वे इस घर को छोड़कर चले जायें या अपनी बेगारी पर सवाल उठायें। नेपाल जनता पिछली क्रांति के समय से यह जुर्रत करने लगी है। नरेन्द्र मोदी की यात्रा इस स्थिति से निपटने का एक प्रयास थी। 

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