Friday, August 1, 2014

इस्राइल का फिलिस्तीन पर हमला जारी

जुलाई माह की शुरूआत से ही एक बार फिर से इजरायल ने फिलिस्तीन पर हमला बोल दिया है। पहले हवाई बमबारी और अब जमीनी हमले में अब तक 1000 से अधिक फिलिस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं और हजारों घायल हो चुके हैं। मरने वालों में 100 से अधिक बच्चे हैं। फिलिस्तीन के स्कूल, अस्पतालों-बिजली उत्पादन संयत्र सबको इजरायल बमबारी में तबाह कर दिया गया है। इजरायल दुनिया भर में हो रही अपनी निन्दा के बावजूद हमला जारी रखे हुए है। फिलिस्तीनियों और हमास के प्रतिरोध में इजरायल के भी तीन दर्जन से अधिक सैनिक मारे जा चुके हैं।  
हमले के बहाने के बतौर इस्राइल ने हमास पर यह आरोप लगाया कि उसने युद्ध विराम का उल्लंघन करके 3 इस्राइली किशोरों का अपहरण कर उनकी हत्या कर दी। हमास ने इस्राइल के इस आरोप का खण्डन किया है पर साथ ही यह भी कहा कि युद्ध विराम का पिछला समझौता जिसमें फिलीस्तीन नागरिकों को एक तरह से कंस्ट्रक्शन कैम्पों में ठूंस दिया है, उसे मान्य नहीं है। इस्राइल द्वारा हमले की शुरूआत के बाद हमास ने भी कुछ राकेट इस्राइल की ओर छोड़े जिनमें 2 इस्राइली मारे गये। फिर भी इस्राइल की विशाल सैन्य शक्ति से हमास का कोई मुकाबला नहीं है।
इस्राइली हमलावरों ने गाजा पट्टी के इस्राइल से सटे 5 शहरों में बमबारी के साथ पर्चे बरसा कर यह आदेश भी दिया कि फिलिस्तीनी नागरिक इन शहरों को छोड़ कैम्पों में चले जाये। इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहु ने हमले को जायज ठहराते हुए दुनिया भर के मीडिया चैनलों पर प्रसारित हो रहे इस्राइली ज्यादती के समाचारों-विडियो आदि पर अपने नागरिकों को विश्वास न करने की अपील की है। नेतान्याहु ने इस हमले को हमास की आक्रामकता के खिलाफ अपनी रक्षात्मक कार्यवाही के तौर पर प्रस्तुत किया। 
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव के जरिये दुनिया भर के यहूदी लोगों का इस्राइल के रूप में एक अलग देश स्थापित करने का हक दिया गया तब किसी ने भी इस बात की कल्पना नहीं की थी कि हिटलर के गैस चैम्बरों में सतायी गयी यहूदी कौम का यह देश(इस्राइल) कुछ ही वर्षों में अपने कुकर्मों में हिटलर से मुकाबला करने लगेगा। 
फिलिस्तीन के एक हिस्से पर कायम हुआ इस्राइली देश पिछले 60-70 वर्षों में न केवल समूचे फिलिस्तीन को पूरा निगल चुका है बल्कि अन्य पड़ौसियों की भी भूमि पर कब्जा कर चुका है। इस्राइल ने अरब देशों के बीच संयुक्त राज्य अमेरिकी लठैत की भूमिका में अपने को ढाल लिया है। अमेरिका ने भी बदले में उसे भारी सैन्य मदद, आर्थिक सहायता के साथ अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस्राइल के हर कुकर्म को ढंकने का काम किया है। इस बीच इस्राइल अपने पड़ौसी मुल्कों से कई युद्ध लड़ चुका है। 
इस्राइली आक्रामता का सबसे अधिक शिकार फिलीस्तीन हुआ है। फिलीस्तीन के अधिकांश भूभाग को इस्राइल हड़प चुका है। फिलीस्तीनी जनता को इस्राइल ने एक छोटी सी पट्टी गाजा पट्टी और बेस्ट बैंक में सिमट जाने को मजबूर कर दिया है। और अब इस्राइल इस गाजापट्टी पर बमबारी कर उसे भी नेस्तनाबूद करने पर उतारू है। 
अरब दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के हितों के वास्ते इस्राइल को लठैत की तरह विकसित किया गया। अरब के तेल तक अमेरिकी कम्पनियों की पहुंच से लेकर अरब के अपने हिसाब से न चलने वाले देशों के कान उमेठने में अमेरिका ने इस्राइल का पूरा उपयोग किया है। इस्राइल के जरिये समूचे अरब पर अपना नियंत्रण कायम करना अमेरिकी साम्राज्यवादियों की पुरानी लालसा रही है। इसके लिए अमेरिकी-इस्राइली शासक तरह-तरह की योजनायें समय-समय पर बनाते रहे हैं। 1982 में वे यीनान प्लान के तहत मध्य एशिया के बाल्कनाइजेशन के जरिये छोटे-छोटे देशों में तोड़ने और ग्रेटर इजरायल कायम करने पर उतारू थे। बाद में इसी प्लान के तहत वे इराक को तीन हिस्सों में बांटने को प्रयासरत रहे हालांकि हाल फिलहाल इन्होंने इराक विभाजन शिया, सुन्नी, कुर्द आधार पर करने को ठण्डे बस्ते में डाल दिया है।
इस्राइल की इस निर्लज्ज आक्रामकता ने उसे दुनिया भर में अन्याय-अत्याचार का प्रतीक देश बना दिया। फिलिस्तीनी अवाम का समर्थन दुनिया में न्याय के पक्ष में होने का प्रतीक बन गया। खुद फिलिस्तीनी जनता के गौरवपूर्ण संघर्ष ने उसे इस पदवी तक पहुंचाया। फिलीस्तीन मुक्ति मोरचा के नेतृत्व में जब जब फिलिस्तीनी जनता ने इंतिफादा की शुरूआत की, उसे दुनिया भर की जनता का समर्थन हासिल हुआ। 
पर फिलीस्तीन की जनता के संघर्ष को कुंद करने में अमेरिकी-इस्राइली शासकों ने भी कोर-कसर नहीं छोड़ी। पहले फिलीस्तीनी मुक्ति मोरचा को निस्तेज करने के लिए कट्टरपंथी संगठन हमास को खड़ा होने में इन ताकतों ने मदद की और बाद में फिलीस्तीनी अथाॅरिटी के नेताओं को भ्रष्ट करने और स्वतंत्रता की मांग छोड़ शर्मनाक समझौते की ओर धकेला गया। परन्तु इसके बाद भी फिलीस्तीनी जनता की मुक्ति की आकांक्षा खत्म नहीं की जा सकी। अब एक बार फिर से हमास व फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चा एक मंच पर आ इस्राइली आक्रामकता का विरोध कर रहे हैं। 
अरब दुनिया में अमेरिकी वर्चस्व, तमाम देशों में अमेरिका समर्थित शेखशाहियों शासकों की मौजूदगी के साथ दुनिया में अमेरिका की तीखी प्रतिद्वन्द्विता वाली साम्राज्यवादी ताकत के रूप में 90 के दशक में सोवियत संघ के पतन ने फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष को एक भटकती राह में पहुंचा दिया था। जहां उसके सफल होने की संभावना कम ही थी पर फिलीस्तीनी जनता बहादुरी से लड़ती रही। और अब जब दुनिया में अमेरिकी वर्चस्व को अलग-अलग कोनों से चुनौती मिलने की शुरूआत हो चुकी है तब फिलीस्तीन के संघर्ष के लिए भविष्य में अनुकूल परिस्थितियां कायम होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। 
जहां तक इस्राइल का सवाल है उसकी इस आक्रामकता के पीछे अमेरिकी साम्राज्यवादियों के हितों को आगे बढ़ाने के साथ इस्राइली शासकों की आंतरिक आवश्यकता भी काम कर रही है। इस्राइली पूंजीपतियों ने वैश्विक मंदी के दौर में अपने पूंजीपतियों के मुनाफों को सुरक्षित रखने के लिए अन्य देशों की तरह अपनी जनता पर हमला बोल रखा है। सामाजिक मदों में खर्च कम किया जा रहा है। इसके बावजूद सैन्य बजट भारी भरकम रखा जाना जारी है। ऐसे में जनता पिछले वक्त में अपने शासकों के खिलाफ लामबंद होती रही है। जनता के आक्रोश को शांत करने के लिए इस्राइली शासकों ने अंधराष्ट्रवाद फैलाने की राह अख्तियार की। फिलीस्तीनी हमास का भय कायम कर इस्राइली जनता के ध्यान को भटकाया जाने लगा और अब फिलीस्तीन पर हमले के जरिये इस्राइली शासक अपनी जनता के आक्रोश को शांत कर अपना आंतरिक संकट हल करना चाहते हैं। 
इस्राइल की इस आक्रामता पर दुनिया भर के देशों की प्रतिक्रिया अलग-अलग रही है। स्वाभाविक तौर पर अमेरिका ने इस्राइल की इस आक्रामकता का समर्थन करते हुए उसे हमास से निपटने का अधिकार होने की बात कही है। यूरोपीय यूनियन के देशों ने अमेरिका की तरह निर्लज्ज अवस्थिति तो नहीं ली पर उनकी बात भी दोनों संघर्षरत पक्षों के बीच शांति कायम करने हेतु वार्ता करने की रही है। अर्थात् उन्होंने इस्राइल को दोषी करार नहीं दिया बल्कि जंग के लिए दोनों पक्षों को जिम्मेदार माना है। 
अरब के तमाम देश औपचारिक तौर पर तो इस्राइल के खिलाफ अवस्थिति लेते रहे हैं पर वास्तविकता में उनके शासक अमेरिका-इस्राइल से सांठ-गांठ करते रहे हैं। अरब शासकों की दोहरी स्थिति इस कारण पैदा होती है कि अरब की जनता इस्राइल के इस कदर खिलाफ है कि वहां के शासक चाहकर भी इस्राइल के पक्ष की अवस्थिति नहीं ले पाते। पर साथ में यह भी है कि इन देशों के शासक इस्राइल के पांव पसारने से अपने हितों पर भी खतरा महसूस करते हैं। इसलिए वे जुबानी तौर पर इस्राइल के खिलाफ अवस्थिति लेते रहे हैं। 
दुनिया भर के शासकों के गोल मोल रुख के उलट दुनिया भर की जनता दिल से फिलीस्तीनी अवाम के साथ व इस्राइल के खिलाफ खड़ी है। दुनिया भर में इस्राइल के खिलाफ हो रहे व्यापक प्रदर्शन इसके गवाह हैं। तमाम वैज्ञानिक (स्टीफन हाकिन्स), कलाकार आदि भी आज इस्राइली ज्यादती की मुखालफत कर रहे हैं। 
जहां तक भारतीय शासकों का फिलीस्तीनी जनता के पक्ष में खड़े होने का सवाल है यह नवगठित मोदी सरकार में अब तक के निम्नतम स्तर पर जा पहुंचा है। जाहिर है मोदी आज नेतन्याहू को अपने अधिक करीब समझते हैं बजाय कि फिलीस्तीनी जनता के।
90 के दशक के पूर्व तक भारतीय शासक फिलीस्तीन मुक्ति के समर्थकों में अग्रणी रहे हैं। वैश्विक मंचों पर वे फिलीस्तीन के पक्ष में अवस्थिति लेते रहे हैं। पर 90 के दशक में सोवियत संघ के पराभव के बाद भारतीय शासक अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ सटते चले गये। इसी के साथ फिलीस्तीन को उनका समर्थन क्रमशः घटता चला गया। इस्राइल से भारतीय शासक रिश्ते कायम करने लगे यहां तक कि नौबत संयुक्त सैन्य अभ्यास तक जा पहुंची। पिछले दो दशक भारतीय शासकों के फिलीस्तीन से मुंह मोड़ने के दशक रहे हैं। फिर भी यह सब होने के बावजूद इस्राइल के किसी हमले के वक्त भारतीय शासक मुंहजबानी विरोध या संसद में कोई प्रस्ताव पास करने से पीछे नहीं हटते थे हालांकि यह सब रस्मी होता था। 
शासकों के उलट भारतीय जनमानस न्याय अन्याय के फर्क को समझने में अभी अंधा नहीं हुआ है। इसलिए वह इस्राइल के खिलाफ प्रदर्शन कर विश्व की मेहनतकश अवाम के सुर में सुर मिला रहा है। 
फिलीस्तीन का मुक्ति संघर्ष अब वहां के मजदूर मेहनतकशों के साथ दुनिया के मजदूर मेहनतकशों के बढ़ते संघर्षोें के साथ अपने अपने शासकों को पीछे धकेलते हुए ही अंजाम तक पहुँचा सकता है।   

No comments:

Post a Comment