Sunday, March 1, 2015

आंकड़ों की बाजीगरी और वाक्छल से भरा आर्थिक सर्वे

वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
    ‘मूदहुं आंख कतुहु कछु नाहि’ की तर्ज पर देश के वित्त मंत्री ने आर्थिक सर्वे बजट के ठीक एक दिन पहले पेश किया। उन्होंने ऐसी खुशनुमा तस्वीर देश की अर्थव्यवस्था की पेश की जिस पर उनकी सरकार के अलावा शायद ही कोई भरोसा कर सके। 
    आर्थिक सर्वे में सकल घरेलू उत्पाद की गणना के लिए नये घोषित तरीके को अपनाया गया। इस तरीके में सकल घरेलू उत्पाद की गणना का आधार वर्ष 2004-05 के स्थान पर 2011-12 कर दिया गया। गणना के लिए 2011-12 के मूल्यों को आधार बनाया गया है। इस आधार पर कल तक 5 फीसदी से कम दर से विकसित होती अर्थव्यवस्था रातोंरात करीब सात फीसदी तक जा पहुंची। आर्थिक सर्वे के अनुसार 2012-13 में यह 5.1, 2013-14 में 6.9 और 2014-15 में इसका अनुमान 7.4 फीसदी रहने का है। आर्थिक सर्वे के अनुसार आने वाले वर्षों में यह दर 8 फीसदी से 10 फीसदी के बीच रहेगी। वित्त मंत्री की ये खुशनुमा बातें इस ठोस हकीकत के बीच हैं कि भारत का औद्योगिक उत्पादन ठहराव ग्रस्त है और विकास दर शून्य है। निर्यात गिरा हुआ है और तेल की कीमतों में भारी कमी के बावजूद राजस्व घाटा स्थापित मापदण्ड सकल घरेलू उत्पाद के तीन फीसदी से ऊपर है। 2014-15 में इसके 4.1 फीसदी रहने का अनुमान व्यक्त किया गया है। 

    आर्थिक सर्वे के आधार पर घोषणा की गयी नये बड़े पैमाने के आर्थिक सुधार का वक्त आ गया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि सरकार देश के मजदूरों और कर्मचारियों को और निचोड़ने की तैयारी कर देशी-विदेशी थैलीशाहों की दौलत को और बढ़ाना चाहती है। 
    देश में बेरोजगारी की स्थिति भयावह है। भारत में हर तीसरा युवा बेरोजगार है। सबसे उच्च विकास दर वाले समय में भी भारत में रोजगार वृद्धि बेहद मामूली थी। यही वजह है कि पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों ने भी  इस वृद्धि को रोजगारविहीन वृद्धि कहा था। आर्थिक सर्वे बेरोजगारी के मामले में वास्तविक तस्वीर पेश नहीं करता है। 
    यही हाल महंगाई का है। आर्थिक सर्वे के अनुसार महंगाई कम हुयी है और आने वाले समय में वह काबू में रहेगी। पर हकीकत यह है कि यह अनुमान अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की निम्न कीमतों और  कृषि क्षेत्र के ठीक प्रदर्शन पर आधारित है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों के ऊपर जाने और रेल मंत्री द्वारा माल भाड़े में दस फीसदी तक की बढ़ोत्तरी के बाद मुद्रास्फीति की दर पुनः दहाई अंकों तक पहुंच सकती है। 
    आर्थिक सर्वे अर्थव्यवस्था की खुशनुमा तस्वीर जरूर पेश करता है, परन्तु पिछले नौ माह में मोदी सरकार के कामकाज से स्वयं देश के बड़े पूंजीपति संतुष्ट नहीं हैं। देश के एक मुखर पूंजीपति दीपक पारेख ने यहां तक कह दिया कि अभी तक कुछ भी नहीं बदला है। ये बातें यह बताने को पर्याप्त हैं कि देशी-विदेशी पूंजीपति मोदी सरकार पर दबाव बनाकर तेजी से आर्थिक और श्रम सुधार करवाना चाहते हैं। जेटली अपने आर्थिक सर्वे में देश की अर्थव्यवस्था की झूठी तस्वीर पेश करके, आर्थिक सुधारों के लिए मुफीद वक्त आ गया कह केे, देश के मजदूरों, कर्मचारियों की आंखों में धूल झोंक रहे हैं और एक तरह से ऐसा माहौल बना रहे हैं कि उनके ओर से किसी विरोध का आम जनमानस में नकारात्मक असर जाये।
    देश के निर्यात में मोदी के शासन काल में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुयी है। वर्ष 2013-14 में निर्यात में महज 4.1 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई थी। यह मोदी के शासन काल में उससे भी नीचे गिरकर 1.8 फीसदी रह गयी है। 
    इस तरह से देखा जाये तो आर्थिक सर्वे आंकड़़ों की बाजीगरी और झूठे आशावाद से भरा हुआ है। आम मजदूरों, किसानों और नौजवानों के लिए इस आर्थिक सर्वे के आधार पर बनने वाली नीतियों से किसी किस्म के अच्छे दिनों की उम्मीद पालना मूर्खों के स्वर्ग में रहना सरीखा है। स्वयं पूंजीपति वर्ग का एक बड़ा हिस्सा देश की अर्थव्यवस्था में मोदी के कदमों को आलोचक निगाहों से देख रहा है। विश्व आर्थिक संकट के इस दौर में मोदी की नीतियां उन्हीं नीतियों को बढ़ाने वाली हैं जिनसे यह संकट शुरू हुआ था। बस संयोग की बात है अभी भारत की अर्थव्यवस्था ग्रीस, पुर्तगाल, स्पेन की तरह घोर संकट में नहीं फंसी है। भविष्य में विश्व आर्थिक संकट के और गहराने से भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट की ओर बढ़ सकती है। आर्थिक सर्वे इस सच्चाई से मुंह चुराता है और शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर घुसेड़ कर समझता है कि संकट नहीं है। उससे आगे बढ़कर सब कुछ अच्छा और सुहावने की कल्पना पेश कर देता है। 

No comments:

Post a Comment