ब्रिजस्टोन कम्पनी के मजदूर संघर्ष की राह पर
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
गुड़गांव! ब्रिजस्टोन इण्डिया आॅटोमोटिव लि. आईएमटी मानेसर के सेक्टर-3 प्लाट न. 11 में है। कम्पनी मालिक और प्रबंधक की ज्यादतियों और शोषण के खिलाफ यहां के मजदूर हड़ताल पर हैं।
इस कम्पनी में 400-425 मजदूर काम करते हैं जिसमें से 185 मजदूर ही स्थायी हैं जो पिछले 12-14 सालों से यहां काम कर रहे हैं। शेष मजदूर 2 से 5 साल से कम्पनी में काम कर रहे हैं। कम्पनी में 40 के लगभग महिला मजदूर भी हैं जोकि अस्थायी हैं। स्थायी मजदूरों का वेतन 12-13 हजार रुपये है और शेष अधिकतर मजदूरों का वेतन 5500 रुपये ही है।
कम्पनी में 8-8 घंटे की शिफ्ट में काम होता है परन्तु महिला मजदूरों को साढ़े नौ घंटे काम करना होता है। कम्पनी में मारुति की फोर व्हीलर गाडि़यों के लिए एण्टी वाइब्रेशन पार्ट तैयार होता है जो इंजन में लगता है ताकि इंजन बाइव्रेट न करे।
कम्पनी में चूंकि रबड का काम होता है अतः यहां का तापमान बहुत अधिक होता है। इसमें भी बगैर किसी सुविधा के काम करना होता है। कई बार मजदूरों के कहने पर भी प्रबंधक ने मजदूरों के लिए कोई सुविधा नहीं की।
इस सबसे तंग आकर मजदूरों ने यूनियन बनाने की सोची और इंटक की मदद से 6 जून को फाइल लगा दी। 7 जुलाई को डीएलसी के यहां इसका वेरिफिकेशन हुआ। इधर डीएलसी के यहां वेरिफिकेशन हो रहा था और इधर प्रबंधक ने फाइल में हस्ताक्षर करने वाले मजदूरों को निकालना शुरू कर दिया। हस्ताक्षर करने वाले 30 मजदूरों में से 23 मजदूरों को बाहर कर दिया गया।
निकाले गये मजदूरों ने अपने नेताओं के कहने पर लेबर कोर्ट में केस डाल दिया। लेबर कोर्ट में चार-पांच तारीख लगने के बाद भी कुछ नहीं हुआ। प्रबंधक हर बार एक नीचे स्तर की महिला अधिकारी को भेज देता। लेबर आॅफिसर उसको धमकाता कि अगली बार वार्ता में अपने से बड़े अधिकारी को भेजना। मजदूर खुश हो जाते।
लेकिन जब कई दौर की वार्ता में हल नहीं निकला तो मजदूरों ने अपने निकाले गये साथियों की रिहाई के लिए 17 सितम्बर को टूल डाउन कर दिया। लेकिन पूूंजीपति की सेवा के लिए तैनात पुलिस ने आकर सब मजदूरों को बाहर निकाल दिया।
मजदूरों ने भी अपना टैन्ट लगाकर संघर्ष का बिगुल बजा दिया। 17 सितम्बर से 400 मजदूर हड़ताल पर चले गये। इनमें स्थायी व अस्थायी दोनों ही मजदूर हैं। पुलिस प्रशासन रोज मजदूरों को धमकाने आ जाता है। तरह-तरह से मजदूरों को कहा जाता है कि वे काम पर चले जायें। प्रबंधन तो रात में मजदूरों को डराने के लिए गुण्डे भी भेजता है।
17 सितम्बर को प्रेमपाल नाम के मजदूर को अकेले पाकर ठेकेदार ने थप्पड़ जड़ दिया। और 18 सितम्बर को हड़ताल में शामिल होने आ रहे 4 मजदूरों को रोक लिया गया। सुबह 6 बजे से 8 बजे तक उन्हें रोका गया और कोरे कागज पर हस्ताक्षर कराके छोड़ा। महिला मजदूरों को उनके कमरों से ले जाकर जबर्दस्ती काम कराया जा रहा है और यह सब पुलिस प्रशासन की आंखों के सामने हो रहा है।
मजदूर यह सब अपनी आंखों से देख रहे हैं कि किस तरह श्रम विभाग, पुलिस प्रशासन पूंजीपति के लिये काम करते हैं। जैसे जैसे संघर्ष आगे बढ़ता है वैसे-वैसे इस व्यवस्था के सभी अंगों का चरित्र मजदूरों के सामने स्पष्ट होता जाता है। ब्रिजस्टोन के मजदूर भी अपने संघर्ष में इस सबको सीखेंगे। गुड़गांव संवाददाता
ट्रेड यूनियन नेताओं का एक दिवसीय शिविर
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
रुद्रपुर! 13 सितम्बर को इंकलाबी मजदूर केन्द्र द्वारा ‘‘ट्रेड यूनियन आन्दोलन की चुनौतियां’’ विषय पर एक दिवसीय शिविर का आयोजन आहूजा धर्मशाला, रुद्रपुर में किया गया। शिविर में गुड़गांव, फरीदाबाद, बरेली, हरिद्वार, पंतनगर, आदि जगह के ट्रेड यूनियन नेताओं एवं प्रतिनिधियों ने भागीदारी की।
शिविर में इंकलाबी मजदूर केन्द्र द्वारा एक आधार पत्र(शिविर पत्र) रखा गया। इंकलाबी मजदूर केन्द्र के महासचिव अमित द्वारा शिविर के शुरूआत में बात रखते हुए बताया गया कि ट्रेड यूनियन की शुरूआत कैसे एवं किन परिस्थितियों में मजदूरों ने की, उन्होंने बताया कि भारत में भी ट्रेडयूनियन संघर्षों का शानदार इतिहास रहा है। मजदूरों ने फैक्टरी स्तर पर अपनी आर्थिक लड़ाइयां ही नहीं लड़ीं बल्कि मजदूरों ने आजादी के संघर्ष में भागीदारी कर राजनीतिक संघर्ष में भी भागीदारी की थी। उन्होंने बताया कि वर्तमान समय में केन्द्रीय ट्रेड यूनियन केन्द्रों में व्याप्त अर्थवाद, सुधारवाद हावी है। ट्रेड यूनियन केन्द्रों ने पूंजीपति वर्ग की सेवा कर मजदूर वर्ग के साथ गद्दारी कर दी है। केन्द्र की मोदी सरकार ने श्रम कानूनों मेें संशोधन कर मजदूर वर्ग पर भारी हमला किया है। मजदूर वर्ग को अपनी क्रांतिकारी विरासत को याद कर एकजुट होकर सरकार के इस हमले का मुंहतोड़ जवाब देना होगा। आज ट्रेड यूनियन गठित करना भी मुश्किल होता जा रहा है।
शिविर में आए सभी ट्रेड यूनियन नेताओें द्वारा अपने फैक्टरी संघर्ष के अनुभव को साझा किया गया और देश की केन्द्रीय ट्रेड यूनियन केन्द्रों द्वारा मजदूरों के साथ गद्दारी और फैक्टरी मालिकों के पक्ष में काम करने की बात को रखा तथा आज के समय में नए क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन केन्द्र की जरूरत को महसूस किया गया। सभी प्रतिनिधियों ने इंकलाबी मजदूर केन्द्र द्वारा उनके फैक्टरी संघर्ष में जुझारू एवं क्रांतिकारी भूमिका की सराहना की और इस कार्यभार को अपने हाथ में लेने का सुझाव दिया और भविष्य में ऐसे शिविरों का आयोजन कर मजदूरों में वर्गीय चेतना बढ़ाने की बात की गयी।
शिविर के अंत में इंकलाबी मजदूर केन्द्र के अध्यक्ष कैलाश भट्ट ने कहा कि मजदूरों के अपने ऐतिहासिक मिशन एक वर्ग विहीन-शोषण विहीन समाज की स्थापना के मकसद को कभी नहीं भूलना चाहिए। और अपने आर्थिक एवं राजनीतिक संघर्ष को लड़ते समय समाजवाद के लिए संघर्ष को ध्यान में रखना होगा। ट्रेड यूनियन संघर्ष की महत्ता को याद करते हुए उन्होंने मजदूर वर्ग के प्रिय शिक्षक लेनिन को याद करते हुए उनकी बात को दोहराया कि ट्रेड यूनियनें कम्युनिज्म की प्राथमिक पाठशाला होती हैं। मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में किये जा रहे मजदूर विरोधी बदलावों के खिलाफ भी संघर्ष करना होगा। केन्द्र की मोदी सरकार देश भर में साम्प्रदायिकता का जहर घोल रही है। मजदूर वर्ग को साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी एकजुट होकर लड़ना होगा।
मजदूरों में वर्गीय एकता एवं क्रांतिकारी चेतना का प्रचार-प्रसार कर वर्गीय एकता पैदा करनी होगी। तभी मजदूर अपने ऐतिहासिक मिशन के लिए संघर्ष कर सकता है। मजदूरों को अपनी क्रांतिकारी विरासत को याद करना होगा और एकता बढ़ानी होगी। तभी मजदूर वर्तमान समय में ट्रेड यूनियन में व्याप्त अर्थवाद, सुधारवाद एवं संशोधनवाद को किनारे लगा पायेगा होगा। पूरी दुनिया में आज ट्रेड यूनियनों में यह विजातीय प्रवृत्तियां मौजूद हैं। दुनिया भर में मजदूर अपने संघर्ष के समय इससे रूबरू हो रहे हैं। और मजदूर वर्ग ने गद्दार ट्रेड यूनियन सेन्टरों से अपने को मुक्त कर अपनी स्वतंत्र यूनियनें बनाना शुरू कर संघर्ष चलाना शुरू किया है। दक्षिण अफ्रीका के खान मजदूरों का संघर्ष इसका उदाहरण है।
शिविर में मारुति सुजुकी गुड़गांव, वीनस यूनियन, शील पैकेजिंग यूनियन, सन फ्लैग हाॅस्पिटल यूनियन फरीदाबाद, बरेली से बैंक यूनियन, मेडिकल वर्कर एसोसिएशन, मार्केट वर्कर्स यूनियन, परसाखेडा औद्योगिक यूनियन, इफ्को आंवला, हरिद्वार सिडकुल से आईटीसी, एवरेडी, वीआईपी, एवं बीएचईएल के नेता, पंतनगर सिडकुल से आॅटोलाइन वक्र्स यूनियन, ब्रिटानिया श्रमिक संघ, एरा श्रमिक संगठन, शिरडी श्रमिक संघ, इटार्क, मिंडा, ब्हेराॅक, वीएचबी यूनियन, मित्तर फास्टनर्स प्रतिनिधि, ठेका मजदूर कल्याण समिति पंतनगर, आईएमपीसीएल मोहान के प्रतिनिधि, उत्तराखण्ड वन विभाग स्केलर संघ के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की है।
शिविर की अध्यक्षता मण्डल में इंकलाबी मजदूर केन्द्र के अध्यक्ष कैलाश भट्ट, वीनस यूनियन के लीगल एडवाइजर वीरेन्द्र चैधरी, बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन के महामंत्री संजीव महरोत्रा, भेल मजदूर ट्रेड यूनियन के अध्यक्ष राजकिशोर व उत्तराखण्ड वन विकास स्केलर संघ के क्षेत्रीय मंत्री सी.वी.छिमवाल जी ने की।
शिविर की तकनीकी कामों में विभिन्न ट्रेड यूनियन के साथियों ने सहयोग किया। रुद्रपुर संवाददाता
श्री सीमेंट के मजदूरों का धरना
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
हरिद्वार के लक्सर के पास श्री सीमेंट लिमिटेड का एक प्लाण्ट है। इस प्लाण्ट के मजदूरों ने 19 सितम्बर को अनिश्चितकालीन धरना शुरू किया था। उसी दिन दिन भर चली वार्ता के बाद 30 अक्टूबर तक मजदूरों की मांग पर प्रबंधक द्वारा सकारात्मक कार्यवाही के आश्वासन के बाद धरना समाप्त हो गया। इस धरने ने मजदूरों के भीतर अपनी समस्याओं के हल होने की काफी आशा जगाई लेकिन बगैर किसी ठोस कार्यवाही के धरना समाप्त हो जाने से मजदूरों की आशा टूटी है, लेकिन संभावना है कि वे पुनः संगठित तरीके से अपनी मांगों को उठायें।
श्री सीमेंट लिमिटेड भारत की सबसे बड़ी सीमेंट कंपनियों में से एक है। यह उत्तर भारत की सबसे बड़ी सीमेंट कम्पनी है। यह प्रतिवर्ष 1 करोड़ 75 लाख टन सीमेंट का उत्पादन करती है। इसका मुख्यालय ब्यावर(राजस्थान) में है। इसके प्लांट राजस्थान के ब्यावर, रास, कुशखेरा, जोबनर और सूरतगढ़, उत्तराखण्ड के लक्सर तथा बिहार के औरंगाबाद में है। यह छत्तीसगढ़ में भी दो प्लाण्ट स्थापित करने जा रही है। 2013-14 में इसका टर्नओवर 58.58 अरब रुपये का और शुद्ध मुनाफा 7 अरब 87 करोड़ रुपये का रहा। यह श्री अल्ट्रा, बांगर और राॅक स्ट्रांग तीन नामों से सीमेंट बेचती है। इस कंपनी के मालिक बेणुगोपाल सागर 4.1 अरब डालर की सम्पत्ति के साथ भारत के 35 सबसे अमीर भारतीयों की फोब्र्स सूची में शामिल हैं।
श्री सीमेंट लिमिटेड के लक्सर प्लांट के मजदूरों का कहना है कि इस प्लांट को स्थापित हुए 6-7 साल हुए हैं। इस प्लांट ने जमीन के एवज में ग्राम पंचायत से समझौता किया कि कंपनी में मजदूरों को उपलब्ध कराने का ठेका पंचायत के पास रहेगा। तब से स्थानीय ग्राम प्रधान ही ठेकेदार का काम करता है। मजदूर और सुपरवाइजर दोनों ही ठेकेदारी में हैं। इसके ऊपर के कर्मचारी ही कंपनी की तरफ से हैं। कंपनी मे तीन सौ मजदूर काम करते हैं। पहले इस कंपनी में राणा ठेकेदार था, लेकिन चुनाव के बाद प्रधानी बदलने पर अब राणा और अर्जुन प्रधान दोनों ही ठेकेदार के बतौर मजदूरों को काम पर रखते हैं।
फैक्टरी के भीतर इनके साइट इंचार्ज मजदूरों को काम पर लेते हैं। फैक्टरी में 8 घंटे की जनरल शिफ्ट और 12-12 घंटे की दो शिफ्ट चलती हैं। ठेकेदार के साइट इंचार्ज मजदूरों को मनमर्जी तरीके से किसी दिन काम पर रखते हैं तो कभी दो-तीन दिन का ब्रेक दे देते हैं। मैकेनिकल विभाग जिसमें कुशल मजदूरों की जरूरत होती है, को छोड़कर किसी भी मजदूरों को महीने में 20-25 दिन से ज्यादा काम नहीं मिलता है। कंपनी में साप्ताहिक अवकाश का कोई प्रावधान नहीं है और न ही 26 जनवरी, 1 मई, 15 अगस्त और 2 अक्टूबर के अलावा किसी अन्य अवकाश का। ओवरटाइम का भुगतान सिंगल रेट से होता है। सीमेंट कंपनी होने की वजह से मजदूरों को धूल-धक्कड़ में काम करना होता है, लेकिन किसी मजदूर को नोज मास्क नहीं दिया जाता। मजदूरों का पी.एफ. कटता है लेकिन पी.एफ. नम्बर मांगने पर कुछ मजदूरों का गेट बंद कर दिया गया। ईएसआई या अन्य किसी तरह की मेडिकल व्यवस्था मजदूरों को नहीं मिलती है। इतने साल में कभी कोई बोनस मजदूरों को नहीं मिला। सबसे पुराने मजदूरों को भी न्यूनतम मजदूरी की दर से ही मजदूरी मिलती है।
ज्यादातर मजदूर आस-पास के गांवों के रहने वाले हैं। कुछ कुशल मजदूर बाहर के हैं और आस-पास के गांव में किराए के कमरों में रहते हैं। कंपनी में आने-जाने के लिए मजदूरों को स्वयं इंतजाम करना पड़ता है। मजदूरों को साईकिलों/मोटर साइकिलों को खुले में खड़ा करना पड़ता है जिससे धूप बारिश में इनका नुकसान होता है। कंपनी में पीने के पानी के लिए भी मजदूरों को काफी दूर जाना पड़ता है। कंपनी के भीतर कैंटीन है लेकिन उसका खाना होटलों के खाने से भी महंगा है।
इस कंपनी के दोनों ठेकेदार छुटभैय्या नेता हैं। ठेकेदार अर्जुन प्रधान अभी स्थानीय पंचायत का प्रधान है और जिला पंचायत का सदस्य बनने की तैयारी कर रहा है। यह भाजपा से जुड़ा हुआ है। पूर्व प्रधान राणा की भी कंपनी में ठेकेदारी है और बसपा से जुड़ा हुआ है। कुछ माह पहले इन दोनों प्रधानों ने मजदूरों की बैठक करवाकर यूनियन बनाने की योजना रखी। यद्यपि मजदूर ठेकेदारों की तरफ से आने वाले प्रस्ताव होने की वजह से सशंकित थे लेकिन नेतृत्व करने के जोखिम उठाए बगैर यूनयिन बनने की संभावना से उत्साहित भी हुए। राणा ठेकेदार का साईट इंचार्ज पाण्डे भी यूनियन बनाने के मुद्दे पर काफी पहलकदमी लेता रहा है। इस दौरान इन ठेकेदारों ने प्रबंधन से कहकर मई दिवस की छुट्टी भी दिलवाई और एक मजदूर के चोटिल हो जाने पर मुआवजा भी दिलवाया। इससे मजदूरों की उम्मीदें और बढ़ीं। इन कामों में कुछ मजदूरों ने पहलकदमी लेनी शुरू की। सितम्बर माह के शुरू में एक 17 सूत्रीय मांग पत्र प्रबंधन को दिया गया और इन मांगों के समर्थन में 19 सितम्बर से अनिश्चितकालीन धरना शुरू करने की घोषणा हुई। सभी मजदूरों से पचास रुपये का चंदा लिया गया। धरने से पहले प्रबंधन ने एक तो पीने के पानी के लिए वाटर कूलर लगाकर मजदूरों के गुस्से को ठंडा करने और एक बदनाम सिक्युरिटी एजेंसी को ठेका देकर कंपनी में डर का माहौल कायम करने की कोशिश की।
19 तारीख को कंपनी गेट के बाहर टेंट, मेज, कुर्सी आदि लगाकर धरना शुरू कर दिया गया। ठेकेदारों द्वारा मजदूरों का नेतृत्व किया जा रहा था। धरने के कुछ घंटे के भीतर ही प्रबंधन ने दोनों ठेकेदारों को तथा अन्य मजदूरों को वार्ता के लिए बुलवाया। वार्ता के दौरान प्रबंधन ने ज्यादातर मांगों पर यही कहा कि श्री सीमेंट के अन्य प्लाण्टों में भी ये व्यवस्थाएं नहीं हैं इसलिए मांगें विचाराधीन रखी जा रही हैं। एक मजदूर प्रतिनिधि द्वारा कई मांगों के सम्बन्ध में जब श्रम कानूनों का हवाला दिया गया तो प्रबंधकों ने पूरी बेशर्मी से कहा कि अगर श्री सीमेंट लिमिटेड के कानून में कहीं यह बात लिखी है तो दिखाओ।
अंततः 30 अक्टूबर तक का समय लेकर और इस दौरान बातचीत जारी रखने की बात पर वार्ता समाप्त हुई। वार्ता से लौटने के बाद ठेकेदारों ने मजदूरों से पूूछे बगैर धरना समाप्त कर दिया और कंपनी में पूरे अनुशासित तरीके से काम करने की ताकीद की। रिपोर्ट लिखे जाने तक मजदूरों की एक वार्ता कमेटी ठेकेदारों द्वारा बना दी गयी है जिसमें वे स्वयं भी शामिल हैं। मजदूर ठेकेदारों की धक्कड़शाही को महसूस कर रहे हैं और पीठ पीछे उनकी बुराई भी कर रहे हैं लेकिन नौकरी के खतरे को भांपते हुए उनके सामने कोई मजदूर विरोध नहीं करता। लेकिन तय बात है कि बढ़ती चेतना वह सही बात बेखौफ होकर करना शुरू कर दें। हरिद्वार संवाददाता
शव को फैक्टरी गेट पर रखकर मजदूरों ने किया प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
इफको (आंवला) में 20 अगस्त को स्टोर के छत की गली हुई सीमेंट की चादर बदलने का काम चल रहा था। नरेश नाम का मजदूर जो रामबाबू के ठेके में मजदूरी का काम कर रहा था, सिर पर नयी सीमेंट की चादर लेकर छत पर चल रहा था कि पुरानी चादर टूटने से अचानक 40 फिट नीचे फर्श पर आ गिरा। उसे एम्बुलेंस में रखकर टाउनशिप में स्थित हाॅस्पिटल ले गये। वहां से एक डाक्टर, नरेश का भतीजा रवि, ठेकेदार रामबाबू नरेश को लेकर एम्बुलेंस से बरेली के लिए चल दिये। रास्ते में ही नरेश की मौत हो गयी। इसके बाद शव को भमोरा स्थित ‘सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र’ पर पहुंचाकर डाॅक्टर वापस फैक्टरी आ गये। ठेकेदार भी थाने चला गया।
इसकी सूचना नरेश के गांव ‘गाड़ी घाट’ के लोगों को मिल गयी। गांव के लोग सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पर पहुंचकर शव को लेकर तुरन्त इफको के फैक्टरी गेट पर पहुंच गये। ट्रैक्टर ट्रालियों से सैकड़ों की संख्या में गांव के मजदूरों एवं किसानों ने पहुंचकर फैक्टरी गेट और टाउनशिप गेट को जाम कर दिया। किसी भी आदमी को गेट से निकलने नहीं दिया। शाम साढ़े पांच बजे जनरल शिफ्ट जब छूटी तो प्रशासन भवन में काम करने वाले कर्मचारी बरेली और आंवला जाने के लिए बस में बैठने के लिए आगे बढ़े तो प्रदर्शन कर रहे लोगों ने डंडे लेकर कर्मचारियों को दौड़ा लिया। सभी कर्मचारी भागकर वापस प्रशासन भवन में चले गये। दूसरी ओर फैक्टरी प्रशासन ने सिक्योरिटी वालों की मदद से किसी भी दिहाडी या ठेका मजदूर को फैक्टरी से बाहर नहीं जाने दिया। क्योंकि दिन में कम से कम पांच-छः सौ ठेका मजदूर फैक्टरी में काम करते हैं और ये मजदूर अगर बाहर निकलते तो प्रदर्शन में शामिल होने पर मजदूरों की संख्या बहुत बढ़ जाती। इससे मैनेजमेण्ट की परेशानी और बढ़ जाती।
शव को रखकर प्रदर्शन कर रहे मजदूर एवं किसान मृतक के परिवार के एक आदमी को नौकरी और 10 लाख रुपये मुआवजे की मांग कर रहे थे। फैक्टरी प्रशासन दलील दे रहा था कि यह ठेके का मजदूर था इसलिए फैक्टरी की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है इसलिए मुआवजा या नौकरी देने का तो सवाल ही नहीं उठता।
फैक्टरी प्रशासन ने एस.डी.एम. और सी.ओ. को सूचना दी। एस.डी.एम. और सी.ओ. आंवला कोतवाली और चार-पांच थानों की पुलिस लेकर पहुंच गये। जाम एवं प्रदर्शन को समाप्त न होते और रात की शिफ्ट में और मजदूर गांव से आने की संभावना को देखते हुए मैनेजमेण्ट को बातचीत आगे बढ़ानी पड़ी। मीटिंग में मैनजमेण्ट, एस.डी.एम., सी.ओ., मृतक मजदूर का भाई, ग्राम प्रधान और ठेकेदार के साथ एक समझौता हुआ जिसके तहत इफको साढ़े तीन लाख रुपये, ठेकेदार डेढ़ लाख रुपये मृतक की पत्नी को देंगे। एस.डी.एम. ने दुर्घटना बीमा के तहत भी आर्थिक सहायता दिलाने का आश्वासन दिया। तब जाकर करीब 8 बजे रात को प्रदर्शन समाप्त हुआ और शव पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया।
यहां दिहाडी एवं ठेका मजदूरों की कोई यूनियन नहीं है। इसके कारण मजदूरों को खराब कार्य परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। यहां इन मजदूरों को कोई सुरक्षा की ट्रेनिंग भी नहीं दी जाती है इसीलिए इन्हें बीच-बीच में दुर्घटना का शिकार हो जान गंवानी पड़ती है।
इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से ज्यादा कुछ नहीं मिलता। कुछ ठेकेदार न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी देते हैं। इन मजदूरों को महीने भर मजदूरी भी नहीं मिलती और बीच-बीच में काम से बैठा दिया जाता है। इन्हें महीने में 17-18 दिन मजदूरी मिलती है। मैनेजमेण्ट अपनी विशेष सोच के तहत ऐसा करता है जिससे साल भर में 240 दिन हाजिरी पूरी न हो सके। क्योंकि 240 दिन हाजिरी होने पर स्थायी किये जाने की मांग उठा सकते हैं। इन्हें मुश्किल से महीने में 4000 रुपये तक ही मिल पाते हैं।
यहां पर करीब आठ सौ ठेका मजदूर काम करते हैं। इतने मजदूरों की मेहनत को लूटकर फैक्टरी को भारी मुनाफा होता है। इसके साथ-साथ ठेकेदार बिना कुछ किये ही माला माल हो रहे हैं। वहीं मजदूर की जिंदगी वही गरीबी-बदहाली में ठहरी रहती है। वे आये दिन स्थायी कर्मचारियों से उधार पैसे अपने खर्च के लिए मांगते रहते हैं। इन परिस्थितियों में काम करते हुए अगर कोई दुर्घटना होती है तो इफको मैनेजमेण्ट और ठेकेदार मुआवजा देने से पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं। अगर मजदूर और गांवों के किसान शव गेट पर रखकर प्रदर्शन नहीं करते तो इतना भी मुआवजा नहीं मिलता। इसलिए इन मजदूरों को अपनी मांगों को मनवाने के लिए एकता कायम कर यूनियन बनाना बहुत जरूरी है। बरेली संवाददाता
वी.एच.बी. के मजदूरों का संघर्ष रंग लाया
9 से 13 हुए निलम्बित सभी मजदूरों की कार्यबहाली का समझौता हुआ
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
पंतनगर सिडकुल स्थित कम्पनी वीएचबी के मजदूर 22 जुलाई से 9 मजदूरों की कार्यबहाली के लिए संघर्षरत थे। वी.एच.बी. के मजदूरों का 5 सितम्बर को रुद्रपुर एस.डी.एम. की मध्यस्थता में समझौता सम्पन्न हुआ। वी.एच.बी. श्रमिक संगठन 20 अगस्त से डी.एम. कोर्ट में धरने पर बैठ कर पहले आंदोलन को आगे बढ़ा रहे थे। ए.एल.सी. के समक्ष वार्ताओं में कम्पनी में प्रबंधक पहले तो किसी भी मजदूर को काम पर लेने को तैयार नहीं था बल्कि पांच और मजदूरों को निलम्बित कर दिया था। मजदूरों ने प्रशासन से भी दखल कर समझौता करवाने का ज्ञापन दिया था, धरने को भी एक माह से ऊपर हो चुका था। कम्पनी में उत्पादन (दवाई, इंजक्शन) आधे से भी कम रह गया था, जो उत्पादन हो भी रहा था वह खराब हो रहा था। इसका दबाव भी अच्छा खासा प्रबंधन पर था।
इस दौरान बीएमएस के नेताओं से मजदूरों का मोह भंग हो रहा था। आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए मजदूर जब इन नेताओं से कहते तो ये नेता उल्टा मजदूरों से ही सवाल करते कि क्या किया जाये? अपनी ओर से बीएमएस के नेताओं ने ज्ञापन देने व वार्ताओं में जाने (वार्ताओं में भी ये नेता मजदूरों के पक्ष में कोई भी बात नहीं कर पाते थे) के अलावा कोई अन्य गतिविधियां नहीं की गयीं। इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकर्ताओं ने बताया कि मजदूरों के आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अपने परिवारीजनों व अन्य कम्पनी की यूनियनों व मजदूरों से सहयोग लेने के साथ ही अन्य तरीकों से आंदोलन को आगे बढ़ाने पर ही मैनेजमेण्ट को समझौते के लिए प्रशासन दबाव दे सकता है।
इस दौरान अन्य कम्पनियों ऐरा व आॅटोलाइन के यूनियनों ने वी.एच.बी. मजदूरों के आंदोलन को समर्थन दिया व अपने अनुभव साझा किये।
वार्ता के लिए एएलसी द्वारा 26 सितम्बर की तारीख दी थी। परन्तु वार्ता में मैनेजमेण्ट ने शुरू में तो किसी भी मजदूर को लेने से मना कर दिया। मजदूर पक्ष ने सभी 13 मजदूरों की कार्यबहाली की बात रखी। अंततः मैनेजमेण्ट ने पांच मजदूरों को घरेलू जांच के बाद लेने और अन्य सभी मजदूरों को लेने की बात रखी। एएलसी द्वारा मजदूरों को धमकाया कि समझौता करना है तो कर लो वरना मैं डीएलसी हल्द्वानी को मामला ट्रांसफर कर दूंगा। इस पर मजदूर पक्ष द्वारा एक वार्ता और बुलवाने की बात की। इस पर 1 सितम्बर की तारीख दी। 1 सितम्बर को प्रबंधक ने मारपीट करने की धमकी मिलने के कारण वार्ता में आने से मना कर दिया। मजदूरों ने स्थानीय कांग्रेसी नेता से भी सहयोग मांगा। मजदूर बी.एम.एस. के नेतृत्व को अब अपने बीच से निकालने की बात करने लगे।
5 सितम्बर (जन्माष्टमी) को भी मजदूर धरने पर बैठे रहे। उसी दिन एसडीएम ने त्रिपक्षीय वार्ता बुलाई। प्रबंधन को एस.डी.एम. द्वारा मजदूरों का उत्पीड़न बंद कर कार्यबहाली के लिए दबाव बनाया। अंततः पांच मजदूर 20 दिन बाद व अन्य सभी मजदूर तत्काल काम पर लिए जाने और घरेलू जांच जारी रहने की बात पर समझौता हो गया। समझौते के मुताबिक 8 सितम्बर को जब मजदूर काम पर गये तो प्रबंधन दो तरह के कागज पर हस्ताक्षर करके ही काम पर जाने की बात करने लगा। कागज पर मारपीट को स्वीकारने व अवैधानिक हड़ताल करने, जांच कार्यवाही को स्वीकारने (गुड कंडक्ट बांड) व उत्पादन में तत्परता से काम करने की बात की बातें लिखी थीं। मजदूर नेताओं ने इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकर्ताओं को घटना से अवगत कराते हुए राय मांगी। इस पर इमके कार्यकर्ताओं ने केवल हल्का माफी नामा व एसडीएम से मैनेजमेण्ट के वादाखिलाफी की शिकायत करने को कहा। इसी को मद्देनजर रखते हुए मैनेजमेण्ट की बातों को मजदूरों ने सिरे से खारिज करते हुए अपनी तरफ से जाने-अनजाने गलती होने व उत्पादन को ईमानदारी व लगन से काम करने का लिखित आश्वासन दिया व एस.डी.एम. के समक्ष हुए समझौते का हवाला दिया परन्तु मैनेजमेण्ट अपनी बात पर अड़ गया और दो और मजदूरों को निलम्बित करने की बात करने लगा। मजदूरों ने एस.डी.एम. से इस बात की शिकायत की। एस.डी.एम. द्वारा मैनेजमेण्ट को फोन पर धमकाया तो वह मान गया।
वी.एच.बी. के मजदूरों ने अपनी एकता व संघर्ष के बल पर जीत प्राप्त की और सभी निलम्बित मजदूरों की कार्यबहाली करवा ली। इस संघर्ष में महिला मजदूरों की भी भागीदारी रही। वी.एच.बी. यूनियन के नेतृत्व को अपनी आपसी एकता को और ज्यादा मजबूत बनाने के साथ ही सिडकुल के स्तर पर चलने वाले आंदोलनों से एकता कायम करनी होगी। अपनी समझदारी को भी ऊपर उठाने के लिए देश-दुनिया में चल रहे मजदूर आंदोलन की जानकारी प्राप्त करने व उनसे सबक निकालकर अपने लिए कार्यभार निकालने की जरूरत है। रुद्रपुर संवाददाता
गीता प्रेस में मजदूरों की हडताल
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
दुनिया भर में धार्मिक आस्था का प्रचार-प्रसार करने वाला प्रकाशन गीता प्रेस गोरखपुर आजकल विवादों में हैं। लगभग एक महीने से इसमें कार्यरत मजदूर अपने कर्म का उचित फल प्रबंधन से मांग रहे हैं लेकिन प्रबंधन उनको कर्म करते रहने की सीख दे रहा है। बात अब प्रकाशन से निकलकर प्रशासन तक पहुंच चुकी है। कई दौर की समझौता वार्ता के बाद भी कोई सार्थक बात नहीं बन पाई है। फिलहाल आस्था के नाम पर प्रकाशन की दुकानदारी करने वाला गीता प्रेस अनिश्चित काल के लिए बंद हो चुका है। मजदूर हडताल पर चले गए हैं।
ज्ञात हो कि गोरखपुर में गीताप्रेस की स्थापना वर्ष 1923 में हुई थी तब से लेकर आज तक यह प्रकाशन अनवरत कार्य करता रहा है। हिन्दू धर्म के लगभग सभी धार्मिक साहित्य को दुनिया के विभिन्न भाषाओं में सस्ते दर पर प्रकाशित करने का बडा काम उक्त प्रकाशन ने किया है। महंगाई के इस दौर में जहां हिन्दी के तमाम प्रकाशनों की किताबें पाठकों से दूर होती जा रही हैं। वहीं गीता प्रेस की किताबें सस्ती होने की वजह से आम पाठक सहजता से खरीद लेते हैं। आने वाले दिनों में जिनके हाथों में प्रकाशन का काम आया उन्होंने इसे व्यावसायिक शक्ल दे दी। प्रकाशन का इससे मुनाफा बढता गया लेकिन इसमें काम करने वाले मजदूर अभी भी कम मजदूरी पर धर्म के नाम पर काम करते रहे। प्रबंधन मलाई काटता रहा और मजदूर अभाव में अपनी जिन्दगी काटते रहे।
बीते कुछ वर्षों में मजदूरों के भीतर अपने शोषण को लेकर चेतना जाग्रत हुई और वे प्रबंधन से न्यूनतम मजदूरी व अन्य सुविधाओं की मांग करने लगे। लेकिन प्रबंधन उनकी बात को मानने को तैयार नहीं हुआ। आजिज आकर मजदूरों ने बीते दिसम्बर माह में तालाबंदी की घोषणा कर दी। कई दिनों तक चले आंदोलन के बाद प्रबंधन ने समझौता वार्ता किया लेकिन बाद में वह अपने किये वादे से मुकर गया।
अब एक बार फिर मजदूरों ने गीता प्रेस प्रबंधन के खिलााफ मोर्चा खोल दिया है और मांगे पूरी होने तक हडताल जारी रखने की घोषणा कर दी है। हालांकि अब बात प्रकाशन से निकलकर प्रशासन तक पहुंच गई है। उपश्रमायुक्त की मध्यस्थता के बावजूद प्रबंधन व मजदूरों के बीच का अंतरविरोध खत्म नहीं हो पा रहा है। इस पूरे मामले में कर्मचारियों का आरोप है कि सभी श्रेणी के दौ सौ स्थाई कर्मचारियों को बहुत कम वेतन पर रखा गया है। बीस-तीस साल की नौकरी के बावजूद मामूली वेतन बढा है। दिसंबर में तालाबंदी के समय किये वादे को पूरा नहीं किया गया। वहीं जुलाई में नए दर का वेतन न मिलने पर विरोध करने पर 17 कर्मचारियों को अराजकता का आरोप लगाकर निकाला गया। मई में 337 कैजुअल कर्मचारियों को ठेकेदारों का कर्मचारी दिखाया गया। मजदूरों का आरोप यह भी है कि जहां पहले बारह हजार पर दस्तखत कराकर चार हजार दिया जाता था वहीं अब ठेका कर्मचारी बनने पर तीन चार हजार का मामूली भुगतान होता है। हालांकि एक महीने में नौ बार की वार्ता होने के बाद भी गतिरोध समाप्त नहीं हो पाया है। प्रबंधन का साफ कहना है कि बारह स्थाई मजदूरों को वापस तो ले लिया जाएगा लेकिन उनके खिलाफ जांच कराई जाएगी जिसमें बर्खास्तगी के अलावा कोई भी दंड दिया जा सकता है। वहीं प्रंबंधन पांच निलंबित अस्थाई मजदूरों की वापसी को तैयार नहीं है। इसी बीच प्रशासन की तरफ से इन पांचों को पैसा देकर कार्य मुक्त करने के प्रस्ताव पर मजदूर आक्रोशित हो गए। मजदूरों का कहना है कि इन्क्रीमेंट का एरियर व पांच अस्थाई साथियों को वापस काम पर रखने का मामला उनके लिए मामूली बात होगी लेकिन मजदूरों के लिए ऐसा नहीं है। मजदूरों का साफ कहना है कि मांगे पूरी होने तक आंदोलन जारी रहेगा। वहीं प्रंबंधन का कहना है कि हम गतिरोध को समाप्त करना चाहते हैं लेकिन अगर अराजकता की स्थिति ऐसी ही बनी रही तो प्रेस को महाराष्ट्र या गुजरात में स्थानांतरित करने पर विचार किया जाएगा।
उपरोक्त घटनाक्रम के बाद यह साफ हो गया है कि धर्म व आस्था के नाम पर मजदूरों का शोषण करने वाला प्रबंधन देश के औद्योगिक समूहों के मालिकों से कतई कम नहीं है। दुनिया भर में राम-कृष्ण का आदर्श पढ़ाने का ठेका लेने वाला प्रेस अपने यहां शोषण, उत्पीडन व अन्याय का तांडव रच रहा है। प्रबंधन का यह कर्म शर्मनाक है। प्रेस के शुभ चिंतकों ने कभी भी मजदूरों के पक्ष में कोई बात नहीं की है और नहीं तो इनका कहना है कि अगर गीता प्रेस बंद हो गया तो हिन्दू धर्म साहित्य की बहुत क्षति होगी। प्रेस को बचाने के लिए समर्थकों ने गोरखपुर शहर में पिछले दिनों स्कूली बच्चों को लेकर रैली निकाली थी। लेकिन शर्म की बात यह रही कि इस प्रदर्शन में मजदूरों के हित में कोई नारा नही था। सवाल यह है कि क्या गीता प्रेस बिना मजदूरों केे चल पाएगा, क्या यह प्रेस नहीं रहेगा तो हिन्दू धर्म का साहित्य नहीं बच पाएगा। क्या मजदूरी मांगना अराजकता की श्रेणी में आता है।
चक्रपाणि ओझा
पोंण्डीचेरी के छात्र भी संघर्ष की राह पर
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
पोंण्डीचेरी एक केन्द्र शासित व शांत प्रदेश होने की वजह से अधिकांशतः खबरों में नहीं आता। लेकिन पिछले 15 दिनों से पोंण्डीचेरी केन्द्रीय विश्व विद्यालय के छात्र इस खामोशी को तोड़कर सड़कों पर हैं। वे पिछली सरकार द्वारा 2013 में नियुक्त कुलपति चन्द्रा कृष्णामूर्ति के खिलाफ नारे लगाते हुए कक्षाओं का बहिष्कार किए हुए हैं। उनकी मांग है कि कुलपति चन्द्रा कृष्णामूर्ति को तत्काल बर्खास्त किया जाए तथा विश्वविद्यालय में हाॅस्टल से लेकर अन्य संसाधनों की पूर्ति की जाए।
संघर्षरत छात्रोेेे का कहना है कि यहां हाॅस्टल की समस्या एक बड़ी समस्या बनती है। 2 छात्रों के लिए आवंटित 1 कमरे में 8-8 छात्रों को रहना पड़ता है। ऐसे में छात्र पढ़ाई कैसे कर पायेंगे। पिछले कुलपति ने 2 बड़े हाॅस्टलों को बनवाने का काम शुरू करवाया था लेकिन 2013 के बाद से उनका भी काम रुका हुआ है तथा कुलपति द्वारा हाॅस्टल निर्माण की राशि में धांधली की गयी है।
हाॅस्टल के अलावा लाइब्रेरी में सालों से नई किताबों का ना आना, लाइब्रेरी का रात में जल्दी बंद कर दिया जाना, 780 एकड में फैले कैम्पस में आने-जाने की समुचित व्यवस्था न होना, छात्राओं के लिए टाॅयलेट की व्यवस्था ना होना आदि ऐसी मांगें बनती हैं, जिसके खिलाफ छात्र आंदोलनरत हैं।
27 जुलाई से जारी इस आंदोलन को अपना समर्थन देते हुए पोंण्डीचेरी यूनीवर्सिटी टीचर्स ऐसोसिएशन (पूटा) का कुलपति पर आरोप है कि उन्होंने अपनी किताबों व एकेडमिक पेपर में साहित्यिक चोरी की है। पिछली सरकार ने अन्य सभी नामों को छोड़कर केवल इनको ही वरीयता दी जबकि एक कुलपति के लिए आवश्यक 10 सालों का अनुभव भी उनके पास नहीं था। पूटा ने पिछले 8 महीनों में लगभग 15 पत्र इस सम्बंध में मानव संसाधन मंत्रालय को भेजे हैं। उसके बाद भी मंत्रालय द्वारा अब तक कोई सुनवाई नहीं हुयी।
कक्षाओं के बहिष्कार से शुरू हुआ ये आंदोलन, संघर्ष के विभिन्न तरीकों को अख्तियार करता रहा है। लाइब्रेरी के जल्दी बंद हो जाने की समस्या को उठाने के लिए छात्रों ने लाइब्रेरी पर कब्जा करने की रणनीति अपनयी। वे बंद होने के निर्धारित समय रात 8 बजे के बाद भी लाइब्रेरी में ही बैठे रहे जिसके बाद प्रशासन ने छात्रों की मांग के आगे झुकते हुए लाइब्रेरी को देर रात तक खोलने का फैसला लिया।
इस आंदोलन को निरंतर दमन का भी सामना करना पड़ा है। प्रशासन द्वारा निरंतर दी जा रही धमकियों के बावजूद जब छात्र भूख हड़ताल पर बैठे तो पुलिस व सरकारी गुण्डों द्वारा उन पर लाठीचार्ज किया गया। आमरण-अनशन पर बैठे छात्रों की हालत जब बिगड़ने लगी तो भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें अस्पताल भेजने में कोई मदद नहीं की। छात्रों-शिक्षकों ने ही अपने प्रयासों से उन्हें अस्पताल भिजवाया। इन तमाम प्रयासों के बावजूद छात्र कुलपति के खिलाफ डटे हुए हैं।
इसके परिणम स्वरूप ही मानव संसाधन मंत्रालय को मजबूरन अपनी दो सदस्यीय टीम कुलपति पर लगे आरोपों की जांच के लिए भेजनी पड़ी जिसने अपनी जांच के बाद कुलपति को छुट्टी पर जाने की अपील की लेकिन छात्रों की अन्य मांगों का कोई हल नहीं निकला है।
छात्रों की इस लड़ाई को कांग्रेस-भाजपा जैसी सभी चुनाव बाज राजनीति पार्टियां समर्थन दे रही हैं। इनमें से एक (कांग्रेस) के शासनकाल में नियमों को ताक पर रखकर कुलपति की नियुक्ति की गयी थी तो दूसरी (भाजपा) मामला संज्ञान में आने के बावजूद कुलपति को मौन समर्थन देती रही। छात्रों को समझना होगा कि यही वे पार्टियां है जो पूरे देश में शिक्षा व्यवस्था की बदतर हालत के लिए जिम्मेदार हैं। इसके साथ ही बल्कि इनके खिलाफ संघर्ष ही आंदोलन को सही दिशा दे सकता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय, माखनलाल चर्तुवेदी विश्वविद्यालय के बाद पोंण्डीचेरी ऐसा विश्वविद्यालय है जहां संघर्षों का मुख्य निशाना कुलपति को बनाया गया। जहां तक बात व्यक्तिगत भ्रष्टाचार की है वहां तक तो ये निशाने पर आने ही चाहिए। परंतु संघर्षरत छात्रों को भी ये समझना होगा कि उनकी अन्य मांगें देश में चल रही शिक्षा व्यवस्था व सरकार से जुड़ी हैं। पूरे देश में केन्द्र व राज्य सरकारें शिक्षा में तेजी से निजीकरण की नीति को आगे बढ़ा रही हैं। विश्वविद्यालयों के फंड में कटौती कर उनको जीर्ण-शीर्ण हालत में पहंुचाकर देशी-विदेशी पूंजीपतियों द्वारा खोले जा रहे निजी विश्वविद्यालयों के लिए उर्वर जमीन तैयार कर रही है। ऐसे में छात्रों का आंदोलन कुलपति के साथ पूरी ही शिक्षा व्यवस्था व सरकार के खिलाफ लक्षित होना चाहिए।
इन तमाम कमियों के बावजूद पोंण्डीचेरी का छात्र आंदोलन एक उम्मीद जगाता है। ये वर्षों से सुप्त छात्र आंदोलन को नींद से झकझोरने का आह्वान करता है। और ये उम्मीद करता है कि उसका संघर्ष भविष्य के छात्र आंदोलन के लिए एक अनभुव का काम करेगा।
एक एनजीओ की लूट
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
उत्तराखंड के लालकुआं कस्बे के बिन्दुखत्ता गांव में आजकल एक सरकारी संस्था एनजीओ सैटीन नाम से काम कर रही है जिसका उदेश्य गांव वालों को रोजगार के नाम पर 15-15 लोगों का एक ग्रुप बनाना और उनको 25-25 हजार का लोन देना है। जो लोग या महिलायें इस ग्रुप से जुड़ी है। उनको दो साल दो महीने के भीतर ब्याज सहित पूरी किस्तें चुकानी हैं जिससे ब्याज 5450 रुपये देना है। इस लोन को देने में इस संस्था द्वारा बीमा योजना भी चलाई गयी है जिसमें व्यक्ति को बीमा करने के लिए 710 रुपये जमा करने हैं। अगर व्यक्ति के साथ कोई दुर्घटना हो गयी या उसकी मौत हो गयी तो ये कर्ज जो उसने व्यक्ति को दिया है वह माफ हो जायेगा। इस लोन को चुकाने के लिए दो तरह की किस्तें बनायी गयी हैं। पहली किस्त 1580 रुपये की 17 किस्तें देनी है और दूसरी किस्त 410 रुपये की 9 किस्त देनी हैं। बीमा के 710 रुपये मिलाकर 1 आदमी को इस किस्तों को चुकाने में कुल पैसा मूलधन 25 हजार के अलावा 6160 रुपये ब्याज देना है। अगर 15 लोगों का एक ग्रुप इस पैसे को लेता है तो उनको ब्याज 92400 रुपये जमा करना होगा। अगर वह गांव में 4 ग्रुप बनाती है तो वह लोगों को देती 15 लाख और लोगों को बीमा सहित सैटीन संस्था को देना होगा 1869600 रुपये यानि 3,69,600 रुपये ब्याज वह लेगी।
कुल मिलाकर गरीब व निम्न मध्यम वर्ग के बीच यह कारोबार चलाया जा रहा है। अगर यह रकम लोगों को मिल भी जाए तो भी वह अपना अलग से करोबार नहीं चला सकते। 15 में से दो लोग सफल हो जाऐं, लेकिन बाकी 13 का पैसा डूबना तय है क्योंकि लोग अपना रोजगार करना भी चाहें जैसे सिलाई, साइकिल रिपेयरिंग या परचून या छोटी-मोटी दुकान खोलना भी चाहे तो इसकी सम्भावनायें बहुत कम हैं कि वह सफल हो पाये। क्योंकि बाजार पहले से ही इन धंधों से पटा पड़ा है। ऐसी स्थिति में सफल होना मुश्किल है। लिहाजा उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा बजाय कर्ज में डूबने के उनके पास कुछ नहीं बचेगा
भारत में आज के समय में 31 लाख रजिस्टर्ड एनजीओ काम कर रहे हैं। ढ़ेरों गैर पंजीकृत भी हैं। यानि 600 लोगों पर एक एनजीओ काम कर रहा है। आज हम अगर उत्तराखण्ड की बात करें तो उत्तराखण्ड की 1 करोड़ की आबादी में 1 लाख गैर सरकारी संगठन काम कर रहे हैं।
आज सरकार और इन संस्थानों के गठजोड़ में यह मकड़जाल तैयार किया जा रहा है जिसका उद्देश्य हैः
पहला, बैंक और ऐसी संस्थाओं का धंधा ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए। दूसरा, गरीब मेहनतकशों और निम्न मध्यम वर्ग से उनकी कमाई को हड़पा जाए। और तीसरी चीज कि जनता कहीं इस व्यवस्था के अत्याचारों, बुराईयों, भ्रष्टाचार, महंगाई, शोषण, उत्पीड़न आदि के खिलाफ न उठ खड़ी हो। इसलिए ऐसे सुधारों के जरिये व्यवस्था को बनाये रखने के लिए काम करता रहा जाए।
लालकुंआ संवाददाता
चे ग्वेरा की अफ्रीका को सलाह आज भी साम्राज्यवादियों के लिए सिरदर्द
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
संयुक्त राज्य अमेरिका ने जून महीने में स्पेन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं जिसके अनुसार स्पेन के दक्षिणी हिस्से में संयुक्त राज्य अमेरिका के 2200 अमरीकी फौजी स्थायी रूप से तैनात रहने की इजाजत मिल गयी है। यह फौज समय-समय पर अफ्रीका के सभी इलाकों में तैनात की जायेगी। यह पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा उठाये गये लम्बे कदमों की कड़ी में एक और उपाय है जिसके जरिये वे अफ्रीकी महाद्वीप को सैनिक तौर पर अपने प्रभुत्व और शोषण को जारी रखने की गारण्टी चाहते हैं। इन कदमों के अतिरिक्त ‘जिवोती’ में स्थाई तौर पर सैन्य उपस्थिति अफ्रीकाॅम में मौजूद है जो अधिकांश अफ्रीकी देशों में प्रशिक्षण की कार्यवाही करती रहती है तथा बारम्बार ड्रोन हमले करती है और खुफियागिरी के काम करती रहती है। इतना ही नहीं वह चुनिंदा विद्रोही शक्तियों को हथियार भी मुहैय्या कराते रहती है।
इन घटनाओं को अफ्रीका के लोग चुपचाप निष्क्रिय दर्शक के तौर पर नहीं देखते रहे हैं। मिलिट्री रिव्यू के एक लेख में एक लेखक ने कहा, ‘‘पिछले दशकों में अफ्रीका में किसी भी घटना ने इतना ज्यादा विवाद और संयुक्त विरोध नहीं पैदा किया जितना कि अफ्रीकाॅम ने पैदा किया है। समूचे अफ्रीका में अफ्रीकाॅम के विरोध में जितने पैमाने पर अभूतपूर्व एकता एवं महानता दिखाई पड़ रही है उसने कई विशेषज्ञों को चकित कर दिया है। तब भी पश्चिमी साम्राज्यवादियों की फौजों और सलाहकारों का समूचे अफ्रीकी महाद्वीप पर आगे बढ़ना जारी है। अभी तक कोई संकेत नहीं हैं कि वे इससे पीछे हटेंगे।
इस महाद्वीप पर प्रभुत्व जमाने और डराने-धमकाने के अपने इस अभियान में साम्राज्यवादी अपना एक परिचित हथियार इस्तेमाल कर रहे हैं। अफ्रीकी देशों के शासकों के लिए यह आसान नहीं है कि वे अफ्रीकाॅम की सैन्य सहायता और प्रशिक्षिण से इंकार कर सकें। यह इसलिए कि उन्हें सिर्फ सैन्य ताकत का ही सामना नहीं करना पड़ रहा है बल्कि आर्थिक और कूटनीतिक धमकियों का भी सामना करना पड़ता है। संभावित परिणामों की अंतर्निहित धमकी ही पर्याप्त होती है कि वे न सिर्फ सक्रिय प्रतिरोध नहीं करें बल्कि सीधा-सादा असहयोग भी न करें। जबकि अफ्रीकी देशो के शासकों को इन धमकियों से डरना नहीं चाहिए जैसा कि अंगोला की ऐतिहासिक घटनायें बताती हैं। उस समय अंगोला के मुक्ति युद्ध के दौरान साम्राज्यवादी शक्तियों को पीछे हटना पड़ा था।
1987 में दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदवादी हुकूमत के साथ-साथ अमरीकी साम्राज्यवादियों की कठपुतली सशस्त्र बलों का मुकाबला करते हुए अंगोला के गृहयुद्ध में उसने अपनी सेना FAPLA (अंगोला की मुक्ति के लिए सशस्त्र बल) गठन किया था। FAPLA के विरुद्ध साम्राज्यवादियों ने अंगोला के दक्षिणी हिस्सों की मुक्ति को रोकने के लिए व्यापक सैन्य शक्तियों को गोलबंद किया था। FAPLA के दुश्मन जानते थे कि क्रांतिकारी अफ्रीकी शक्तियां यदि इस हिस्से में नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं तो वे इस समय दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदवादी हुकूमत के नियंत्रण वाले नामीबिया में हमला करने की जमीन पा सकते हैं। अंगोला की केन्द्रीय सरकार ने क्यूबा से मदद मांगी थी और क्यूबा ने हथियार और फौजों से मदद की थी और इस समर्थन और मदद से अंगोला की क्रांतिकारी शक्तियों ने अफ्रीका के दुश्मनों को करारी शिकस्त दी थी। यह ऐतिहासिक लड़ाई क्यूटो कुआन वाले नामक कस्बे में हुई थी। इस लड़ाई के बाद इस क्षेत्र में रंगभेदवादी हुकूमत के पतन की प्रक्रिया तेज हो गयी।
क्यूटो कुआन वाले की लड़ाई से पहले भी क्यूबा ने अफ्रीकी युद्ध में मदद की थी। 1965 में कांगों में मुक्ति योद्धाओं के साथ लड़ते हुए चे ग्वारा ने समूचे अफ्रीकी महाद्वीप के मुक्त संगठनों के प्रतिनिधियों की एक मीटिंग को सम्बोधित करते हुए कहा था ‘‘मैं अपनी आंखों के सामने हो रहे कांगों के मुक्ति संघर्ष के बुनियादी महत्व के बारे में बात कर रहा हूं। अपनी पहुंच और अपने परिणामों में यह विजय महाद्वीपीय होगी और इसी तरह पराजय भी महाद्वीपीय होगी।’’ उनकी इस बात की प्रतिक्रिया बहुत ठंडी थी। हालांकि अधिकांश ने किसी भी किस्म की टिप्पणी करने से अपने को बचाया लेकिन कुछ लोगों ने चे-ग्वेरा से यह कहा कि उनकी सलाह ठीक नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि उनके अपने लोगों को साम्राज्यवाद द्वारा प्रताडित और अपमानित किया गया है। वे उसका विरोध तभी करेंगे जब उनकी खुद की जमीन में उनका अपना उत्पीड़न के कारण हत्यायें हो रही हों लेकिन एक-दूसरे देश को मुक्त करने के लिए वे ऐसा नहीं करेंगे। चे ग्वेरा ने उनको समझाया कि यह युद्ध समान दुश्मन के खिलाफ है। यह न सिर्फ मोजाम्बिक में, मलावी में, रोडेशिया या दक्षिण अफ्रीका में, कांगो या अंगोला में अलग-अलग नहीं है उस समय इस तरह किसी ने नहीं देखा।
तबसे 50 साल बीत चुके हैं। अधिकांश अफ्रीकी देश आजाद हो चुके हैं। 1885 से यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने बर्लिन के सम्मेलन में अफ्रीका के टुकड़े-टुकड़े कर बांट लिया था। अब वही प्रक्रिया इस समय अफ्रीकाॅम के जरिये आजाद अफ्रीकी देशों पर अपनाई जा रही है। अभी भी अफ्रीकी शासक यह समझते हैं कि वे अकेले-अकेले हैं इस समस्या से निपट सकते हैं।
अफ्रीकी देशों के शासकों का चरित्र अब वह नहीं रहा है जो अलग-अलग देशों में चल रहे मुक्ति संघर्षों के दौरान था। आज वे साम्राज्यवादियों के साथ ज्यादा सांठ-गांठ कर रहे हैं। इसलिए आज अफ्रीका का मुक्ति संघर्ष वहां के शासकों के भी विरुद्ध है। इस समय उनसे ये उम्मीद करना कि वे सुसंगत तरीके से साम्राज्यवाद या उसकी एक दूसरी शाखा अफ्रीकाॅम का विरोध करेंगे तो यह दिवास्वप्न के अलावा कुछ नहीं है। चे-ग्वेरा की राय जब 1965 में उस समय के मुक्ति संघर्ष के यौद्धाओं ने नहीं मानी थी तो आज जब वे शासक बन चुके हैं और विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के अभिन्न अंग के रूप में मौजूद हैं तो इनसे अफ्रीकाॅम के विरोध की या समग्र तौर पर साम्राज्यवाद के विरोध की उम्मीद नहीं की जा सकती।
तब भी अफ्रीकाॅम का विरोध समूचे अफ्रीकी महाद्वीप की मजदूर-मेहनतकश आबादी के जरिये हो सकता है और निश्चित ही होगा। देर-सबेर अफ्रीकी महाद्वीप की मजदूर-मेहनतकश आबादी इस काम को अंजाम देगी और कांगों में चे-ग्वेरा के दिये गये उद्गारों को पूरा करेगी।
(मार्क पी. फैंचर के लेख के आधार पर ब्लैक एजेण्डा रिपोर्ट 7 जुलाई 2015 से साभार)
साम्प्रदायिक उभार और आज की चुनौतियां
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
दिल्ली! 6 अगस्त को ‘साम्प्रदायिक उभार एवं आज की चुनौतियां विषय पर दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक सेमिनार आयोजित किया गया। इस सेमिनार में विभिन्न मजदूर एवं जनसंगठनों के कार्यकर्ताओं ने भागीदारी की।
सेमिनार में बात रखते हुए ‘मजदूर पत्रिका’ से जुड़े साथी संतोष ने कहा कि सभी सामाजिक समस्याओं की तरह साम्प्रदायिकता का एक निश्चित राजनैतिक अर्थशास्त्र है। साम्प्रदायिक हिंसा से प्रभावित इलाकों का सर्वेक्षण बताता है कि भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम उद्यमियों को निशाना बनाया जाता है। साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान पूंजीपति वर्ग के कुछ हिस्से व निम्न पूूंजीपति वर्ग के बीच अल्पसंख्यक व्यवसाइयों व उद्यमियों को नुकसान पहुंचाकर अपने आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति देखी गयी है। सत्ता के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करना भी इसका कारण है। पूंजीपति वर्ग व निम्न पूंजीपति वर्ग के ये हिस्से बहुसंख्यक मजदूर मेहनतकश आबादी को अपने इन घृणित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं। उन्होंने साम्प्रदायिकता की समस्या का मुकाबला करने के लिए मजदूर-मेहतनकश जनता की एकता पर बल दिया।
सेमिनार को संबोधित करते हुए आॅल इंडिया फेडरेशन आॅफ ट्रेड यूनियन्स(न्यू) के साथी पी.के.शाही ने कहा कि केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद भगवाकरण की मुहिम जोरों पर है। शिक्षा, संस्कृति इतिहास को हिन्दूवादी रंग में रंगा जा रहा है। उन्होंने कहा कि मजदूर वर्ग के भीतर खुद धार्मिक कट्टरपंथी विचार मौजूद हैं। उन्होंने साम्प्रदायिकता का मुकाबला करने के लिए मजदूर वर्ग को साम्प्रदायिक व कट्टरपंथी विचारों से मुक्त करने पर जोर दिया।
इसी क्रम में आगे बात रखते हुए इंकलाबी मजदूर केन्द्र के नगेन्द्र ने कहा कि अपनी घोषणा के विपरीत भारतीय राज्य कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा। समय-समय पर कांग्रेस सहित सभी पार्टियों ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए साम्प्रदायिक तत्वों का तुष्टीकरण किया है। इसका फायदा संघ मंडली व उसके राजनीतिक संगठन भाजपा को मिला जिनका घोषित उद्देश्य ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है। उन्होंने कहा कि भारत में पूंजीवादी व्यवस्था का संकट बढ़ने के साथ भारतीय पूंजीपति वर्ग का चरित्र भी अधिकाधिक निरंकुश होता गया है और आज के दौर में एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग ने हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों के साथ गठजोड़ कायम कर लिया है। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज में फासीवादी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं और खासकर मध्यम वर्ग में। उन्होंने कहा कि हिन्दू साम्प्रदायिकता के अप्रासंगिक या अव्यवहारिक होने पर पूूंजीपति वर्ग ‘सेकुलर’ फासीवाद को भी अपना सकता है। आम आदमी पार्टी को पूंजीपति वर्ग का समर्थन इस ओर संकेत करता है। उन्होंने साम्प्रदायिक फासीवाद की चुनौती का मुकाबला करने के लिए मजदूर वर्ग के आर्थिक-राजनैतिक संघर्षों को तेज करने की जरूरत पर बल दिया। साथ ही उन्होंने मजदूर वर्ग के बीच समाजवाद के विकल्प को स्थापित करने एवं पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ मजदूर राज समाजवाद के लिए संघर्ष तेज करने पर बल दिया।
इसी क्रम में सेमिनार को संबोधित करते हुए श्रमिक संग्राम कमेटी के साथी सुभाषीश ने कहा कि निश्चित तौर पर भारत में हिन्दू साम्प्रदायिकता आज बहुत आक्रामक व प्रभावी स्थिति में है लेकिन वैश्विक पैमाने पर खासकर पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में मुस्लिम साम्प्रदायिकता को भी मजबूती मिली है। उन्होंने ‘पैन इस्लामिक मूवमेन्ट’ पर भी गंभीरता से ध्यान देने की बात की।
इंडियन काउंसिल आॅफ ट्रेड यूनियंस के साथी उदय नारायण ने साम्प्रदायिकता की समस्या को मजदूर वर्ग के लिए एक बड़ी चुनौती बताया और इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए मजदूर वर्ग में क्रांतिकारी चेतना के प्रसार की बात की।
मजदूर एकता केन्द्र के साथ आलोक ने सेमिनार में बात करते हुए कहा कि हमारे समाज में धार्मिक पहचान का सबसे प्राथमिक बन जाना ही साम्प्रदायिकता का एक महत्वपूर्ण आधार है। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद से भारत में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का अंतर्विरोध था 70-80 के दशक आते-आते वह हल हो गया। आज जहां पूंजीपति वर्ग के बीच क्षेत्रीय व राष्ट्रीय का झगड़ा खत्म होने के कारण पूंजीपति वर्ग एकजुट और मजबूत है वहीं मजदूर वर्ग विभाजित है। यह साम्प्रदायिकता के भारतीय समाज में व्यापक फैलाव एवं उसके मजबूत होने का यह एक महत्वपूर्ण कारक है। उन्होंने मजदूर वर्ग की एकता को मुकाबला करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण बताया।
सेमिनार का समापन करते हुए पी.डी.एफ.आई. के साथी अर्जुन प्रसाद सिंह ने कहा कि बिना समाज की आर्थिक सामाजिक व राजनीतिक संरचना को बदले साम्प्रदायिकता का समाधान नहीं हो सकता है। उन्होंने मजदूर वर्ग के भीतर सम्प्रदायवाद व अंधराष्ट्रवाद की प्रवृत्तियों से लड़ने की जरूरत पर बात करते हुए एतिहासिक संदर्भों का हवाला देते हुए कहा कि मजदूर वर्ग के भीतर अंधराष्ट्रवादी प्रवृत्तियों के चलते जर्मनी में नाजीवाद व इटली में फासीवाद की स्थापना में वहां के मजदूर वर्ग का बड़ा हिस्सा भागीदार बन गया। भारत में भी जर्मनी व इटली का इतिहास दोहराया जा सकता है। अंततः उन्होंने मजदूर वर्ग के साथ सभी मजदूर मेहनतकश तबकों को साम्राज्यवाद पूंजीवाद के खिलाफ लामबंद करने व इसी प्रक्रिया में साम्प्रदायिकता को ध्वस्त करने की जरूरत पर बल दिया।
इस सेमिनार के आयोजक इंकलाबी मजदूर केन्द्र, मजदूर एकता केन्द्र, पी.डी.एफ.आई., ए.आई.एफ.टी.यू. (न्यू) व मजदूर पत्रिका थे। सेमिनार में 100 के लगभग मजदूर, छात्र व महिला कार्यकर्ताओं ने भागीदारी की।
दिल्ली संवाददाता
रामदरश की मौत का दोषी कौन ?
खुखुन्दू थाने में फरियादी की मौत का मामला
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद के खुखुन्दू थाने में बीते 5 अगस्त को घटी एक घटना ने न सिर्फ पुलिसिया चरित्र को उजागर कर दिया है। अपितु समूचे संवेदनहीन होते शासन-प्रशासन, समाज में मौजूद अंधविश्वास पूर्ण माहौल को भी सबके सामने ला दिया है। इस जघन्य वारदात ने समूची व्यवस्था पर कई तरह के प्रश्न खड़े कर दिये हैं।
ज्ञात हो कि यूपी के देवरिया जिले में खुखुन्दू थाना परिसर में न्याय व सुरक्षा की गुहार लेकर पहुंचा भटहर टोला निवासी रामदरस गौंड़ पुलिस (थाना प्रभारी ) की डांट व हनक को बर्दाश्त नहीं कर सका और मौके पर ही उसकी मौत हो गई।
पेशे से ओटो चालक रामदरस अपनी मेहनत के बल पर परिवार की जीविका चलाता था। उसके पट्टीदार उसके परिवार का अक्सर उत्पीड़न करते रहते थे। पट्टीदार का आरोप था कि रामदरस ने उसके घर पर मेलान (टोना) करवा दिया है जिसकी वजह से वह परेशान है। इसी आरोप को लेकर बीते दिनों पट्टीदार के घर वालों ने रामदरस की बुरी तरह पिटाई कर दी जिससे वह गंभीर रूप से जख्मी हो गया। सुरक्षा व न्याय की फरियाद लेकर पीडि़त रामदरस स्थानीय खुखुन्दू थाने पहुंचा तो पुलिस ने उसकी गुहार अनसुनी कर दी। चार दिनों तक थाने का चक्कर लगाने के बाद भी उसे पुलिस पर भरोसा था। वह शाम को फिर अपनी तहरीर लिए दरोगा के पास जा पहुंचा। दरोगा ने पीडि़त की फरियाद सुने बिना ही उसे डांटना व हड़काना शुरू कर दिया। दरोगा के रोबीले अंदाज से भयभीत रामदरस जोकि पहले से काफी जख्मी था, यह अमानवीय बर्ताव बर्दाश्त नहीं कर सका और दरोगा के सामने ही दम तोड़ दिया।
अचानक घटी इस घटना से समूचे इलाके में तनाव व्याप्त है। जागरूक लोग प्रशासन व सरकार से पीडि़त परिवार को उचित मुआवजा व नौकरी की मांग कर रहे हैं। इन सबके बावजूद स्थानीय प्रशासन लोगों के दमन करने का हर संभव प्रयास कर रहा है। आश्चर्यजनक यह है कि थाने में दरोगा के हड़काने से हुइ मौत के बाद भी खबर लिखे जाने तक उक्त आरोपी दरोगा के ऊपर महज स्थानान्तरण की कार्रवाई ही हो सकी थी। प्रशासन व समाजवादी पार्टी की सरकार ने यह दिखा दिया है कि वह असल में किसके साथ खडी हैै। इससे भी आश्चर्यजनक बात जो सामने आई वह यह है कि स्थानीय जनप्रतिनिधियों का इस पूरे घटनाक्रम के प्रति उपेक्षात्मक रवैया। इतने बडे हादसे के बाद भी क्षे़त्र का कोई जनप्रतिनिधि या किसी भी दल का नेता घटना स्थल पर नहीं पहुंचा ना ही पीडि़त परिजनों को सांत्वना देने की आवश्यकता ही महसूस की। जबकि सत्ताधारी दल सपा की गजाला लारी माननीय विधायक हैं। केंद्र सरकार में मंत्री व दिग्गज भाजपा नेता कलराज मिश्र सांसद हैं। इनके अलावा भी देवरिया में लगभग हर दल के नेता अक्सर दिखते रहते हैं। लेकिन शर्म की बात यह रही कि किसी भी दल के एक छोटे से नेता तक ने इस आम आदमी के दुख में शरीक होने की आवश्यक्ता नहीं महसूस की। नेताओं के इस बर्ताव ने उनके आम आदमी के प्रति नफरत के भाव को सामने ला दिया है।
मालूम हो कि बीते कुछ ही साल पहले इसी खुखुन्दू के जुआफर गांव में एक पुलिस अधिकारी की मौत हो जाने पर देश की सियासत गर्म हो गई थी। देश की मीडिया महीनों तक इस घटना को लेकर सक्रिय रही। वहीं देश की सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं का महीनों तक दौरा होता रहा। पुलिस अधिकारी की पत्नी परवीन आजाद ने साफ कह दिया था कि जब तक मुख्यमंत्री अखिलेश यादव नहीं आते तब तक अंतिम संस्कार नहीं होगा। आखिरकार मुख्यमंत्री को आना ही पडा । इसके बाद काग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर लगभग सभी छोटे बड़े दलों के नेता सांत्वना देने पहुंचे थे इतना ही नहीं मुस्लिम धर्म गुरू बुखारी भी अपनी संवेदना प्रकट करने जुआफर पहुंचे थे। लेकिन दुर्भाग्य कि रामदरश के परिजन को ढांढस बंधाने कोई धर्माधिकारी या राजनेता नहीं पहुंचा। इसकी वजह साफ है कि रामदरश न तो इस देश का कोई सरकारी नौकर था न ढंग का हिंदू ही था न मुसलमान था। वह था तो सिर्फ अनुसूचित जनजाति में पैदा हुआ एक मजदूर जो अपनी मेहनत के बूते पर अपनी जिन्दगी की गाड़ी चला रहा था।
रामदरश की थाने में हुई मौत ने इस अमानवीय समाज व संवेदनहीन पुलिस की कलई पूरे सभ्य समाज के सामने खोलकर रख दी है। इस घटना ने पुलिस के चरित्र को बेपर्द किया है वहीं राजनेताओं की वर्गीय पक्षधरता को भी उजागर कर दिया है। समाजवादी पार्टी के राज में आए दिन पुलिसिया उत्पीड़न की घटनाएं हो रही हैं इसके बावजूद सरकार पुलिस के व्यवहार में परिवर्तन करा पाने में सक्षम नहीं हो पा रही है और जनता के प्रतिरोध का दमन करने के लिए हर समय तैयार रहती है।
खुखुन्दू में घटी इस घटना ने हमारे समाज में मौजूद अंधविश्वास पूर्ण माहौल को भी उद्घाटित किया है। रामदरश की मौत के पीछे की मुख्य वजह अंधविश्वास ही है। टोना-टोटका की वजह से दोनों पट्टीदारों के बीच विवाद उतपन्न हुआ था जो आगे चलकर एक निर्दोष की मौत के रूप में सबके सामने आया। यदि समय रहते प्रशासन ने पीडि़त परिवार की फरियाद सुन ली होती और टोना-टोटका का आरोप लगाने वाले के खिलाफ अंधविश्वास फैलाने के आरोप में कानूनी कार्रवाई कर दी होती तो शायद इतनी बड़ी वारदात नहीं होती। हालांकि पुलिस ने रामदरश के मरने के बाद आरोपियों के खिलाफ मुकदमा कायम कर लिया है। परिजनों का साफ आरोप है कि दरोगा के पीटने से ही रामदरश की मौत हुई है। विरोधी पक्ष से पैसे लेकर पुलिस ने काम किया परिजन का कहना हैं कि वे पुलिस के दरवाजे पर न्याय मांगने गये थे लेकिन निर्दयी पुलिस ने मौत दी और मरने के बाद फरियाद सुनी।
घटना के बाद से ही स्थानीय खुखुन्दू कस्बे में विभिन्न संगठनों के द्वारा आन्दोलन जारी है। थाना घेराव, पुतला दहन, धरना प्रर्दशन, सभा आदि की कार्यवाही प्रतिदिन हो रही है। आन्दोलनकारी न सिर्फ पीडि़त परिजन को 30 लाख रु. मुआवजा व सरकारी नौकरी की मांग कर रहे हैं। बल्कि आरोपी दरोगा पर हत्या का केस दर्ज करने, पुलिस अधीक्षक को निलम्बित करने व प्रदेश सरकार से इस्तीफा तक की मांग कर रहे है। इस पूरे घटनाक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए प्रवक्ता डाक्टर चतुरानन का कहना है कि प्रदेश पुलिस पूरी तरह बेलगाम हो गई है। आम जनता की आवाज कहीं नहीं सुनी जा रही है। स्थानीय नेताओं द्वारा इस घटना को नजरअंदाज करना बेहद शर्मनाक है। टोना-टोटका वाले इस मामले को मौत तक पहुंचाने में प्रशासनिक अधिकारी भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। उनका कहना है कि पढ़े लिखे अधिकारी व उनकी पत्नियां दर्जनों पत्थरों की अंगूठी धारण करती हो तथा देश की शिक्षा मंत्री तांत्रिकों के पास हाथ दिखाने पहुंचती हो तो यह अंधविश्वास को बढावा देने वाला ही है। इन्हीं अंधविश्वासी लोगों को देश चलाने की जब जिम्मेदारी दे दी जाऐगी तो ऐसी घटनाएं तो होगी हीं। अब देखना यह है कि प्रदेश की समाजवादी सरकार पीडि़त परिजन को आर्थिक मदद और नौकरी आदि की व्यवस्था करती है या नहीं। देश की आम जनता ने तो इन सरकारों से सम्मानजनक रोजगार आदि की उम्मीद तो छोड़ ही चुकी है लेकिन रामदरश के परिजन को अभी भी सरकार से काफी उम्मीदें हैं। देवरिया संवाददाता
शहीद ऊधम सिंह की याद में सभा
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
रुद्रपुर/ 31 जुलाई को शहीद ऊधम सिंह की शहादत दिवस के अवसर पर इंकलाबी मजदूर केन्द्र द्वारा अन्य संगठनों व ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर ‘कौमी एकता मंच’ के बैनर तले डी.एम. कोर्ट परिसर में एक सभा की और शहीद ऊधम सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित की गयी। सभा में बोलते हुए इंकलाबी मजदूर केन्द्र के अध्यक्ष कैलाश भट्ट ने कहा कि ऊधम सिंह अपने जीवनपर्यन्त साम्राज्यवाद से लड़ते रहे और अंततः शहीद हो गये। लेकिन वर्तमान में देश की सरकारें साम्राज्यवाद के तलुवे चाट रही हैं और उन्हें पूरे देश की खनिज सम्पदा व मानव श्रम को लूटने की खुली छूट दे रही हैं।
ऊधम सिंह ने कहा कि साम्प्रदायिकता का विष मजदूर मेहनतकशों की एकता में बड़ी बाधा है। मजदूर मेहनतकशों को साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़कर अपनी एकजुटता बरकरार रख मानवमुक्ति के संघर्ष में लगना चाहिए। उन्होंने खुद उस समय अपना नाम ऊधम सिंह से बदलकर राम मोहम्मद सिंह आजाद रखा था। वर्तमान में मजदूर मेहनतकशों के ऊपर साम्प्रदायिकता का खतरा बढ़ता जा रहा है। मोदी सरकार एक तरफ श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलाव कर रही है और अनेकों जन विरोधी कानूनों को बना रही है दूसरी तरफ पूरे देश में साम्प्रदायिक विचारों को फैला रही है जिससे कि मजदूर मेहनतकश एकजुट न हो सकें और सरकार के खिलाफ संघर्ष न चला सकें।
क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन के अध्यक्ष पी.पी.आर्या ने कहा कि देश के मेहनतकश आबादी में सबसे बड़ी आबादी मजदूरों की है इसलिए मजदूरों को शहीद भगतसिंह एवं ऊधमसिंह के विचारों पर खड़ा करना होगा तभी मोदी सरकार के साम्प्रदायिक विचारों एवं जनविरोधी कानूनों के खिलाफ लड़ा जा सकता है।
सभा को इंकलाबी मजदूर केन्द्र के दिनेश, पछास के चंदन, सीपीआई जिला सचिव एड. राजेन्द्र गुप्ता, प्रेरणा अंशु के सम्पादक मा. प्रताप सिंह, मजदूर सहयोग केन्द्र के मुकुल, एरा श्रमिक संगठन के राजेन्द्र, शिरडी श्रमिक संघ के सुशील शर्मा, सामाजिक कार्यकर्ता प्रभुनाथ वर्मा जी, ऋषिपाल, आॅटोलाइन के संघर्षरत मजदूरों अनिल गुणवंत, संजय कोटिया, ठेका मजदूर कल्याण समिति के अभिलाख आदि साथियों ने सम्बोधित किया। क्रांतिकारी गीतों व नारों के साथ शहीद ऊधम सिंह को माल्यार्पण कर श्रद्धांजलि भी अर्पित की गयी। रुद्रपुर संवाददाता
सरकारी स्कूलों में मजदूरों के बच्चों की जान जोखिम में
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
दिल्ली के शाहबाद डेयरी स्थित उच्चतर माध्यमिक स्कूल, जिसे लोग लाल स्कूल के नाम से भी जानते हैं, में पिछले कुछ समय से लगातार छात्रों को करंट लग रहा है। लेकिन जब 16 जुलाई को सुबह की शिफ्ट में एक साथ आठवीं कक्षा की चार छात्राओं को करंट लगा और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा तो बच्चों के परिजनों के सब्र का बांध टूट गया। परिजनों के साथ स्थानीय लोगों ने इस घटना के विरोध में मुख्य बवाना रोड को जाम कर दिया।
शाहबाद डेयरी, जहां यह सरकारी स्कूल स्थित है, एक मजदूर बस्ती है। यहां बड़ी संख्या में दिहाड़ी व ठेका मजदूर रहते हैं। बस्ती की 75 से 80 प्रतिशत महिलायें फैक्टरियों व कोठियों में काम करने जाती हैं। इन्हीं गरीब मजदूरों के बेटे-बेटियां इस व इस जैसे अन्य सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं।
पिछले तीन-चार दिनों से लाल स्कूल में पानी के नल में व उसके आस-पास करंट आ रहा था। प्यास लगने पर बच्चे इसी नल पर पानी पीने जाते हैं।
16 जुलाई को भी बच्चे रोज की तरह पानी पीने गये तभी चार छात्राओं को करंट लग गया। इस बार करंट इतनी तेज लगा कि चारों बच्चों को स्थानीय भीम राव अम्बेडकर अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। एक छात्रा को सप्ताह भर अस्पताल में ही भर्ती रहना पड़ा। करंट लगने से इस छात्रा के दाहिने हाथ व पैर ने काम करना बंद कर दिया था। करंट लगने से जख्मी सभी लड़कियां आठवीं कक्षा की छात्रायें हैं। जब प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र व इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकर्ता छात्राओं व उनके परिजनों से मिले तो उन्होंने बताया कि पिछले तीन-चार साल से बरसात के दिनों में स्कूल में बच्चों को करंट लगता है परन्तु प्रशासन ने इसे ठीक कराने की कोशिश नहीं की। हर साल बरसात के बाद बात आई-गई हो जाती है।
इस बार जब 13 साल की मुस्कान तेज करंट लगने से बेहोश हो गई तब प्रिंसिपल व अन्य अध्यापिकायें उसे स्टाफ रूम में ले गईं। स्कूल द्वारा छात्राओं के परिजनों को सूचना नहीं दी गई, न ही किसी अन्य को सूचना देने दी। प्रिंसिपल व अध्यापिकाओं ने बच्चों को घटना की सूचना घर में नहीं देने के लिए फेल करने व स्कूल से नाम काटने की धमकी भी दी। मुस्कान की बड़ी बहन, जो उसी स्कूल में 12वीं कक्षा की छात्रा है, ने स्कूल की ही प्राइवेट अध्यापिका के फोन से चुपके से घटना की सूचना अपने परिजनों को दी। अध्यापिकाओं द्वारा बच्चों को घटना के बारे में घर में न बताने के लिए धमकी दी गई। स्कूल की अध्यापिकाओं का कहना है कि प्रिंसिपल किसी की समस्या या परेशानियों को नहीं सुनती हैं।
16 जुलाई को स्कूल की छुट्टी होने पर जब छात्राओं के परिजनों को अन्य छात्राओं द्वारा घटना के बारे में बताया गया तब परिजनों ने पुलिस को फोन कर घटना की सूचना दी। पुलिस द्वारा ही इन छात्राओं को अस्पताल में भर्ती कराया गया।
परिजनों ने बताया कि छात्राओं के अस्पताल में भर्ती होने के बाद प्रिंसिपल ने अपने भाई व तीन अन्य लोगों को अस्पताल में बच्चों के परिजनों को धमकाने के लिए भेजा। उन्होंने परिजनों पर नौकरी व अपने बच्चों का हवाला देते हुए भावनात्मक दबाव भी बनाया तथा शिकायत लेने की बात की।
इस घटना के बाद जब 20 जुलाई सोमवार को स्कूल खुला तब फिर एक और छात्रा को करंट लगा परन्तु पहली घटना से सबक न लेते हुए समस्या को दूर करने के बजाय बच्चों के स्कूल की छुट्टी कर दी गई। मजदूर बस्ती शाहबाद डेयरी के इस सरकारी स्कूल की हालत की सुध लेने वाला कोई नहीं है। ‘मीडिया’ के लिए भी इस तरह की घटनायें खास महत्व नहीं रखतीं हैं। प्रशासन व सरकार के लिए भी सरकारी स्कूलों की ये दुर्दशा कोई मायने नहीं रखती है। उनके लिए मजदूर बस्ती में एक सरकारी स्कूल होना ही अपने आप में बड़ी उपलब्धि है, बाकी उनके लिए न तो मजदूरों की जान की कोई कीमत है और न ही उनके बच्चों की।
तथाकथित आम आदमी की सरकार के पास भी मजदूरों के बच्चों और उनके स्कूलों की सुध लेने की फुरसत नहीं है क्योंकि उनके आम आदमी की परिभाषा में मजदूर-मेहनतकश नहीं आते। मजदूर मेहनतकश तो उनके आम आदमी से काफी नीचे हैं। दिल्ली संवाददाता
श्रम कानूनों में परिवर्तन पर विचार गोष्ठी
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की संघी सरकार ने अपने एक साल के कार्यकाल में श्रम कानूनों में कई बड़े फेरबदल प्रस्तावित कर दिये हैं। ये सभी फेरबदल पूंजीपतियों के संगठनों की वर्षों से की जा रही मांगों एवं द्वितीय श्रम आयोग की 2002 में आई सिफारिशों के अनुरूप ही हैं। यदि सरकार श्रम कानूनों में इन बड़े बदलावों को लागू करने में कामयाब हो जाती है तो मजदूर वर्ग आज से 100 साल पुरानी अधिकार विहीनता की स्थिति में धकेल दिया जायेगा। ऐसे में मजदूरों को पूंजीपति वर्ग की सरकार के इस ताजा हमले से परिचित कराने एवं मजदूर प्रतिरोध संगठित करने के उद्देश्य से इंकलाबी मजदूर केन्द्र ने गुड़गांव (हरियाणा) में ‘श्रम कानूनों में परिवर्तन’ विषय पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया। मारूति सुजुकी वर्कर्स यूनियन, गुड़गांव के साथियों ने गोष्ठी के सफल आयोजन में महती भूमिका अदा की।
उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के वकील संजय घोष ने अपने वक्तव्य में बताया कि श्रम कानून क्या होते हैं और ये किस तरह अस्तित्व में आये। उन्होंने बताया कि कई महत्वपूर्ण कानून जैसे -ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926, वेतन भुगतान अधिनियम, 1936, एवं कारखाना अधिनियम, 1947 ...देश का संविधान बनने से पूर्व ब्रिटिश काल में ही अस्तित्व में आ चुके थे। उन्होंने मजदूर वर्ग के लिए इन कानूनों के महत्व पर प्रकाश डाला साथ ही इसकी संक्षिप्त विवेचना भी की, कि कैसे सरकार इसमें बदलाव कर पूंजीपति वर्ग का हित साध रही है।
अनुमेघा यादव जो कि पत्रकार हैं और मजदूरों से जुड़े मसलों पर लेखन करती हैं, ने बताया कि सरकार का इरादा 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को खत्म कर इनके स्थान पर 4 नियमावलियां बनाने का है। ये 4 नियमावलियां वेतन सम्बन्धी, औद्योगिक संबंधी, सामाजिक सुरक्षा एवं संरक्षा संबंधी एवं कल्याण संबंधी होंगी। औद्योगिक संबंध सम्बन्धी नियमावली में ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926, स्टैण्डिंग आर्डर एक्ट 1946 एवं फैक्टरी एक्ट 1947 को समाहित करने की सरकार की योजना है। उन्होंने बताया कि राजस्थान की बसुंधरा राजे सरकार ने 300 मजदूरों तक के उद्यमों में सरकार की इजाजत के बिना तालाबंदी की छूट देकर फैक्टरी एक्ट में संशोधन को लागू भी कर दिया है। पहले यह छूट 100 मजदूरों तक ही थी, अब केन्द्र सरकार पूरे देश के स्तर पर पूंजीपतियों को यह छूट देने की तैयारी कर रही है।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र के रोहित ने कहा कि नरेन्द्र मोदी की सरकार ने सत्ता में आने के 2 माह के अंदर ही 5 केन्द्रीय कानूनों- न्यूनतम वेतन अधिनियम, कारखाना अधिनियम, अप्रेन्टिस एक्ट, कुछ उद्यमों में रिटर्न भरने एवं रजिस्टर रखने से छूट सम्बन्धी अधिनियम एवं बालश्रम विनियमन एवं उन्मूलन कानून में संशोधन प्रस्तावित कर दिये। ये संशोधन, लगभग सभी मजदूर विरोधी हैं। इनमें से अप्रैन्टिस एक्ट में संशोधन लोकसभा से बिना किसी परेशानी के पास भी हो चुका है। उन्होंने बताया कि इन बदलावों के तहत सरकार ने कारखाने की परिभाषा को ही बदल दिया है। अभी तक हस्तचालित 20 मजदूरों एवं बिजली चालित 10 मजदूरों पर कारखाना माना जाता है लेकिन नये संशोधनों के तहत हस्तचालित 40 मजदूरों एवं बिजली चालित 20 मजदूरों पर कारखाना माना जायेगा। बाकी उद्यम लघु उद्योगों के दायरे में आयेंगे और उन पर कारखाना अधिनियम या फैक्टरी एक्ट लागू ही नहीं होगा। उन्होंने 44 केन्द्रीय कानूनों को 4 नियमावलियों में समेट देने की सरकार की योजना पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि यदि सरकार इसमें कामयाब हो गई तो मजदूरों को हड़ताल के लिए 14 के बजाय 42 दिन का नोटिस देना होगा अन्यथा हड़ताल अवैध मानी जायेगी। अवैध हड़ताल में शामिल मजदूरों पर भारी-भरकम जुर्माना लगेगा और जेल भी हो सकती है। इतना ही नहीं अवैध हड़ताल को समर्थन देने वाले या चंदा देने वाले व्यक्तियों को भी भारी-भरकम जुर्माना देना होगा एवं जेल भी हो सकती है। इसके अलावा ट्रेड यूनियनों की कागजी कार्यवाही एवं हिसाब-किताब में मामूली त्रुटि होने पर भी उनका पंजीकरण रद्द हो सकता है।
गोष्ठी में बोलते हुए पी.यू.डी.आर.(पीपुल्स यूनयिन फाॅर डेमोक्रेटिक राइट्स) के पदाधिकारी गौतम नवलखा ने मारूति सुजुकी मानेसर के आंदोलन पर विस्तार से बातचीत की। उन्होंने मारुति के विनिवेशीकरण की प्रक्रिया को सिलसिलेवार सदन में रखा। उन्होंने कहा कि मारुति सुजुकी, मानेसर के मजदूरों ने अपने आंदोलन में ठेका, कैजुअल और स्थायी के विभाजन को मिटाकर नजीर पेश की है। उन्होंने मजदूरों का अभिजात एवं बाकी मजदूरों के रूप में विभाजन करने वालों की आलोचना की।
गोष्ठी के अंत में बोलते हुए प्रो.प्रभु महापात्र ने पूर्व वक्ताओं की महत्वपूर्ण बातों को संक्षेप में समेटते हुए श्रम कानूनों में परिवर्तन की सरकार की मंशा को उजागर किया। उन्होंने श्रम कानूनों पर ऐतिहासिक रूप से विस्तार से बातचीत की। उन्होंने एक दौर में श्रम कानूनों के अस्तित्व में आने एवं आज उन पर हो रहे हमलों के वर्गीय निहितार्थ को स्पष्ट किया, साथ ही राजसत्ता की भूमिका पर प्रकाश डाला।
विचार गोष्ठी में मारुति वर्कर्स यूनियन, गुड़गांव के प्रधान कुलदीप जांगू ने भी अपने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम में मारुति सुजुकी समेत गुड़गांव मानेसर, फरीदाबाद की कई फैक्टरियों के मजदूरों ने भागीदारी की और श्रम कानूनों में परिवर्तनों के खिलाफ संगठित प्रतिरोध का संकल्प व्यक्त किया।
गुड़गांव संवाददाता
मार्केट वर्कर्स एसोसिएशन ने दुकान से बंधुआ मजदूर को मुक्त कराया वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
बरेली में बड़ा बाजार में अमर पेन हाउस के नाम से एक दुकान है। इस दुकान पर हर्षित नाम का एक लड़का पिछले कई सालों से बंधुआ मजदूर की तरह काम कर रहा था। जब इस लड़के ने कहीं और काम करना चाहा तो मालिक ने उस पर 25,000 रुपये उधार निकाल दिये और काम न छोड़ने के लिए दबाव बनाने लगा।
हर्षित जब काम पर लगा था तब मालिक ने उसके घर वालों से 3000 रुपये प्रति माह वेतन देने को कहा था लेकिन वेतन मांगने पर कभी 100, 200 या 500 रुपये देता था। दुकान पर समोसा या चाय पिलाने के भी रुपये वह लिख लेता था। उसने उसका बीमा भी करवा दिया था और किस्त भी स्वयं भरता था ताकि वह कहीं और काम करने न चला जाये। जब हर्षित बड़ा हुआ तो उसने बेहतर मजदूरी के लिए कहीं और काम करना चाहा तो मालिक ने पिछले समय में उस पर खर्च किये गये रुपये जोड़कर 25,000 रु. देनदारी बता दी जिसे चुकाने में हर्षित व उसके परिवार वाले असमर्थ थे। लेकिन उसने हर्षित के 3000 रुपये की मासिक वेतन को नहीं जोड़ा। जब हर्षित ने काम पर जाना बंद कर दिया तो उसने उसके घरवालों को धमकाना शुरू कर दिया।
अंत में परेशान होकर हर्षित अपनी मां के साथ मार्केट वर्कर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष जे.पी. के पास पहुंचा और अपनी आपबीती सुनायी। यह सुनकर मार्केट वर्कर्स एसोसिएशन के पदाधिकारी हर्षित को लेकर थाने पहंुचे। थाने से दुकान के मालिक को बुलवाया गया लेकिन उसने आने से इंकार कर दिया। अंत में सिपाही भेजकर उसे बुलाया गया। पहले तो उसने हर्षित को पहचानने से इंकार कर दिया और कहा कि यह लड़का उसकी दुकान पर काम नहीं करता लेकिन जब उसे उसकी लिखावट में उसका दिया गया हिसाब दिखाया गया जो उसने हर्षित को दिया था तो उसने स्वीकार किया कि यह उसकी दुकान पर पार्ट टाइम काम करता था।
तब तक बाजार में खबर फैल गयी और दुकानदार के पक्ष में व्यापार संगठन व अन्य लोग आ गये। थाने में पूरा दिन हिसाब-किताब होता रहा। दुकानदार के पक्ष वाले बदतमीजी भी करने लगे। अंत में थानेदार की मध्यस्थता में समझौता हुआ और दुकानदार को लिखकर देना पड़ा कि आज से लड़के से उसका कोई वास्ता नहीं है। और वह कहीं भी काम करने के लिए आजाद है। इस तरह मार्केट वर्कर्स एसोसिएशन की मदद से हर्षित जो कि दुकानदार के यहां बंधुआ मजदूर बना हुआ था, को मुक्त कराया गया।
बरेली, संवाददाता
मलेथा के आंदोलन ने उत्तराखण्ड सरकार को झुका दिया
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
उत्तराखण्ड के पौड़ी जनपद के मलेथा में स्टोन क्रशरों को निरस्त करने के लिए स्थानीय ग्रामीणों ने 13 अगस्त 2014 से आंदोलन शुरू किया। 11 माह से आंदोलन कई पड़ावों से गुजरते हुए वर्तमान में उत्तराखण्ड सरकार मलेथा में पांचों क्रशरों को निरस्त कर दिया है।
मई 2015 मंे मलेथा की महिलाओं ने क्रशरों के निरस्तीकरण के लिए क्रमिक अनशन शुरू किया। 12 मई से विमला देवी व देव सिंह नेगी ने क्रमिक अनशन कर आंदोलन को गति दी। 25 मई को हेमन्ती नेगी का आमरण अनशन शुरू हुआ जिसे पुलिस प्रशासन द्वारा 6 जून को जबरन उठाकर अन्य महिलाओं पर भी बर्बरतापूर्ण लाठी चार्ज किया गया। 6 जून से ही समीर रतूड़ी आमरण अनशन पर बैठ गये। 7 जून को ग्राम प्रधान शूरवीर सिंह ने भी आमरण अनशन शुरू कर दिया। 27 जून से 8 महिलाओं ने भी आमरण अनशन शुरू किया। 30 दिन तक समीर रतूडी द्वारा आमरण अनशन करने व महिलाओं की आंदोलन में शानदार भूमिका ने मुख्यमंत्री को स्टोन क्रशरों के निरस्तीकरण करने के आदेश देने पड़े।
मलेथा का आंदोलन का नेतृत्व गैर सरकारी संगठनों के हाथ में था। परन्तु संघर्ष करते हुए ग्रामीणों को शासन, प्रशासन सभी के चरित्रों को समझने व राज्य मशीनरी का पूंजीपतियों व उद्योगपतियों के साथ सीधे खड़े होकर जनता के खिलाफ किसी भी हद तक दमनात्मक कार्यवाही पर उतर सकती है, जानने को मिला। आंदोलन में सकारात्मकता के साथ कुछ नकारात्मक भटकाव भी समय-समय पर देखने को मिले। जैसे समस्या को व्यवस्था के खिलाफ न खड़ा करके उत्तराखण्ड बनाम गैर उत्तराखण्ड में देखना। समस्या को पूंजीवाद से जोड़कर न देखकर कुछ विशिष्ट समस्या से जोड़कर आंदोलन को विकसित करना। इस समस्या से पूरा संघर्ष संकुचित होकर रह जाता है। संघर्ष का वृहद रूप नहीं बन पाता है। इसके अलावा खुद समस्या पैदा करने वाले कई तरह के एनजीओ व व्यवस्थापोषक लोगों का स्पष्ट चिह्ननीकरण नहीं था। सबको साथ लेकर एक खिचड़ी था।
मलेथा ग्रामवासी अपने संघर्ष के दौरान के अनुभव से जानते हैं कि सरकार के वादों का क्या हस्र होता है। सरकार इससे पहले भी 11 महीने में दो बार (22 सितम्बर 2014 व 13 फरवरी 15) स्टोन क्रशरों को बंद करने की घोषणा कर चुकी है किन्तु माफिया की सत्ता पर जबर्दस्त दखल के कारण ये बंद नहीं हो पाये।
मलेथावासियों को सरकार-माफिया-अधिकारी गठजोड़ के खिलाफ व्यापक संघर्ष खड़ा करना होगा। अपने गांव के संघर्ष को देश की पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ जोड़ना होगा। तभी मेहनतकशों के जीवन में कोई बदलाव हो सकता है। विशेष संवाददाता
अशोक लिलैण्ड के मजदूरों को आक्रोश फूटा
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
पंतनगर विश्वविद्यालय में ठेका मजदूरों का तीव्र शोषण
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
आपातकाल और फासीवाद के खिलाफ गोष्ठी
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
बलिया, 26जून 2015 को क्रान्तिकारी लोक अधिकार संगठन द्वारा ‘आपात काल के काले दिनों को याद करो, फासीवाद की ओर बढ़ते ‘अच्छे दिनों’ का विरोध करो! विषय पर गोष्ठी आयोजित की गयी। स्थानीय उच्च माध्यमिक विद्यालय उससा में विचार गोष्ठी में इन्कलाबी मजदूर केंद्र, किसान फ्रन्ट, एसयूसीआई सहित किसानों, मजदूरों के हमदर्दों ने भागीदारी की।
गोष्ठी के मुख्य वक्ता किसान फ्रन्ट के साथी जनार्दन सिंह ने कहा कि आज का समाज वर्गीय समाज है। वर्गेत्तर कुछ भी नहीं होता है। इसलिए आज की तानाशाही भी पूंजीवादी तानाशाही मेहनतकशों के लिए है। गोष्ठी में क्रान्तिकारी लोक अधिकार संगठन के साथी लालू तिवारी ने कहा कि आपातकाल की स्थितियां आजाद भारत की अर्थव्यवस्था की जड़ में ही था। 60 का दशक अर्थव्यवस्था का संकट था। उसकी अभिव्यक्ति खाद्यान संकट और रेलवे हड़ताल के रुप में देखा जा सकता है। आज लोकतांत्रिक तरीके से नहीं साम्प्रदायिक तरीके से तानाशाही आ सकती है। यह और खतरनाक है। विश्व के अन्य पूंजीवादी शासकों की तरह भारतीय शासकों ने भी फासीवादी ताकतों को सत्ता सौंपी है। पूंजीवादी शासकों द्वारा जनता का ध्यान बांटने की कई साजिशें की जा रही हैं।
गोष्ठी में बलवन्त, चन्द्रप्रकाश, साथी लछ्मी, जमाल राघवेन्द्र ने अपने विचारों में कहा कि पूंजीवादी
व्यवस्था को खत्म करके समाजवादी व्यवस्था के निर्माण में एकजुट होने की आवश्यकता है। गोष्ठी का संचालन डा. सत्यनारायण और क्रान्तिकारी गीतों से मुनीब यादव ने गोष्ठी में उत्साह का संचार किया। अन्त में ‘‘साम्राज्यवाद-पूंजीवाद- मुर्दाबाद और समाजवाद-जिन्दाबाद, इन्कलाब-जिन्दाबाद’’ के क्रान्तिकारी नारे के साथ गोष्ठी का समापन हुआ। बलिया संवाददाता
भारतीय किसान और पूंजीवादी व्यवस्था
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
2015 के पांच महीने बीत चुके हैं। इन चार महीनों में सबसे बड़ा मुद्दा किसानों द्वारा आत्महत्या करने का रहा। किसानों द्वारा आत्महत्या करने का कारण उनकी फसल का बरबाद होना था जो बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि से तबाह हो गयी। किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर आत्महत्या करना समाज में हलचल का विषय बना और फिर पूंजीवादी बुद्धिजीवियों की लेखनी से पन्ने काले होने लगे। लेकिन यह काले होते पन्ने किसानों की फसलों के काले होते जाने के ही समान थे जिसका व्यवहार में कोई उपयोग मूल्य नहीं था।
भारतीय किसानों द्वारा पहले भी आत्महत्या के मामले सामने आते रहे हैं। जिनमें विदर्भ के किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले प्रमुखता से उठते रहे हैं। और तब भारतीय शासकों ने किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को मुआवजा प्राप्ति के लिए उठाया गया कदम बताया। भारतीय शासकों द्वारा दिया गया ऐसा बयान बेहद शर्मनाक था तथा निर्लज्जतापूर्ण भी। लेकिन अगर एक बारगी यह सच भी था तब भी मामला गंभीर हो जाता हैै कि कोई मुआवजा(पैसे) के लिए अपनी जान गंवा दे। क्या कोई अमीर पैसेे के लिए आत्महत्या करता है। अगर वह किसान मुआवजे की रकम के लिए आत्महत्या कर रहा था तो साफ था कि समाज में पैसे ने जिंदगी के ऊपर प्रधानता हासिल कर ली है। खैर अब हम मुख्य मुद्दे पर आते हैं।
इस बार जब किसानों की आत्महत्या की खबरें मीडिया में आयीं तो सवाल उठने शुरू हो गये। हालांकि यह यह आंकड़ा विदर्भ में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या से कम ही था लेकिन इस बार मामला अलग था। विदर्भ में जहां आत्महत्या करने वाले कपास के किसान थे जिन्होंने भारी मात्रा में उधार पर पैसे लेकर कपास की खेती में निवेश किया था। उन्हें यह सब्जबाग दिखाये गये कि उनका कपास महंगा बिकेगा और उन्हें काफी लाभ होगा। परन्तु जब कपास की फसल तैयार हो गयी तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार से कपास काफी मात्रा में आयात हो गया। और किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिला। बड़ी मात्रा में किसानों ने सूदखोरों से कर्ज लिया था जिसे वे चुकाने में असमर्थ थे और मजबूरन उन्हें आत्महत्या का रास्ता चुनना पड़ा। इस बार बेमौसम की बरसात ने गेहूं जैसी फसलों को भी भारी नुकसान पहुंचाया और आने वाले समय में खाद्यान्न संकट की समस्या का चित्र प्रस्तुत कर दिया। लोगों को 1960 के दशक के खाद्यान्न संकट का भूत सताने लगा। जिस जिन्न को 1970 के दशक में हरित क्रांति के समय बोतल में बंद कर दिया था वह फिर बोतल से बाहर निकलता दिखाई देने लगा। यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी माना कि किसानों की स्थिति दयनीय है और उसके लिए पूर्व की सरकारें तथा उनकी 10 महीने की सरकार भी इसके लिए जिम्मेदार है।
और इस तरह से पूूंजीपति वर्ग के कुशल अभिनेता नरेन्द्र मोदी ने पूंजीवादी व्यवस्था को किसानों की दयनीय दशा की जिम्मेदारी से बचा लिया और सारा दोष सरकारों पर डाल दिया। उन्होंने यह नहीं बताया कि अगर सरकार किसानों की दुर्दशा के लिए लिए जिम्मेदार हैं तो सरकारों ने ऐसा क्यों किया। ऐसा करने से किसका फायदा हुआ। एक समय सरकार ने हरित क्रांति जैसी योजना शुरू कीं। बैंकों को यह निर्देश दिया कि वे अपने लोन का एक निश्चित हिस्सा ग्रामीण इलाकों में किसानों को कर्ज देने में करें, उसने न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया, एक समय नहरों के जाल बिछाये परन्तु बाद में किसानों को रामभरोसे छोड़ दिया।
आज भारत के अंदर किसानों की दुर्दशा व कृषि संकट को जानने समझने के लिए जरूरी है कि भारत में आजादी के बाद खेती व किसानों के जीवन में आ रहे परिवर्तनों को समझा जाये।
जब 1947 में भारत को आजादी मिली तो कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में सत्ता नेहरू ने संभाली। लेकिन साथ ही राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद बने जो जमींदारों के प्रतिनिधि थे। देश के नवोदित पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि के बतौर नेहरू का प्रधानमंत्री बनना और जमींदारों के प्रतिनिधि के बतौर राजेन्द्र प्रसाद का राष्ट्रपति बनना पूंजीपति वर्ग व जमींदारों के बीच अंतर्विरोध को दिखाता है। आजादी के बाद होना तो यह चाहिए था कि जमींदारों से भूमि छीनकर उनको भूमिहीनों में वितरण होना चाहिए था लेकिन संविधान के निर्माण के लिए बनी सभा में जमींदारों के 100 से अधिक प्रतिनिधि थे और इसीलिए संविधान में यह कानून न बन सका। हालांकि बाद में इन जमींदारों को प्रिवीपर्स देकर या फिर इन्हें पूंजीवादी फार्मर के नये सांचे में ढाला गया। कांग्रेस पार्टी ने किसानों को जमीन वितरण के मुद्दे पर साथ में लिया था लेकिन सत्ता में आते ही वह मुकर गयी। और इससे किसानों में तीव्र असंतोष पैदा हुआ। तेलंगाना व तिभागा जैसे आंदोलन इसी का परिणाम थे जिसे भारतीय शासक वर्ग ने काफी क्रूरता से कुचल दिया। इस तरह आजादी के बाद से ही किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ।
इसके बाद जब 1964 में अकाल पड़ा तो साम्राज्यवादी देश अमेरिका ने बेहद कड़ी व अपमानजनक शर्तों पर लाल गेहूं भारत को दिया। और तब भारतीय शासक वर्ग को किसानों की याद आयी। तब पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया। इस समस्या से निपटने के लिए भारत में हरित क्रांति शुरू की गयी। हरित क्रांति ने देश में खाद्यान्न संकट को हल तो किया परन्तु आगे जाकर यह ठहर गयी। इसको हम पंजाब में देख सकते हैं जो हरित क्रांति का एक प्रमुख केन्द्र था, वहां की एक बड़ी आबादी विदेशों में पलायन कर गयी। हरित क्रांति के ठहराव का कारण पूंजी निवेश का कम होना भी था। यह योजना चूंकि पुराने भूस्वामियों को पूंजीवादी फार्मर में बदलने व पूंजी निवेश पर आधारित थी अतः छोटे व मंझोले किसानों को इससे कोई ज्यादा फायदा नहीं हुआ। उनकी स्थिति लगातार खराब ही होती गयी। तथा परिवारों में जमीनों के बंटवारे ने उनकी संख्या व बदहाली को ही बढ़ाने का काम किया।
आज भारत में 1 हेक्टेअर से कम भूमि वाले किसानों की संख्या 71 प्रतिशत के आस-पास है। इनकी जोतों का आकार कम होने के कारण इन्हें खेती से इतनी आय भी प्राप्त नहीं होती है कि वे अपनी गुजर-बसर कर सकें। अगर आय के हिसाब से देखा जाए तो इन्हें खेती में लागत के मुकाबले आय काफी कम होती है और इसलिए ये किसान कृषि के अतिरिक्त मजदूरी आदि करने को मजबूर होते हैं।
खेती का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान तो गिरा ही है (1972-73 में यह 41 प्रतिशत था वहीं 2014-15 आते-आते यह घटकर 13 प्रतिशत रह गया है।) साथ ही खेती में प्रति व्यक्ति आय भी काफी कम रफ्तार से बढ़ी है। 1978-79 से 1983-84 के बीच कृषि से प्राप्त सालाना आय 9961 थी वहीं 1988-89 से 1993-99 के बीच यह 11179 व 1998-99 से 2003-04 के बीच यह 11996 थी।
अगर खेती में लगे रोजगार को देखा जाये तो यहां सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर कम हुयी है उसी अनुपात में खेती पर निर्भर लोगों की संख्या में कमी नहीं हुयी है। यहां 1972-73 में रोजगार में कृषि का हिस्सा 73.9 प्रतिशत था वहीं 2004-05 में यह 56.5 प्रतिशत था। इसकी वजह भारत का वह औद्योगिक विकास है जिसमें खेती से पलायन करने वाली वेशी आबादी के लिए पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाया। यह वेशी आबादी पूंजीपति के लिए रिजर्व आबादी का काम कर मजदूरी को और सस्ता कर दे रही है। जब कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा घटकर आधा रह जाये पर उस पर निर्भर आबादी में उसी अनुपात में कमी न हो तो उस आबादी की शोचनीय दशा को समझा जा सकता है।
साथ ही खेती में लगातार बढ़ रही लागत ने भी किसानों को बर्बादी की तरफ ढकेला है। खादों से सब्सिडी घटाने ने खेती में पूंजी निवेश को बढ़ा दिया है साथ ही कीटनाशक, पानी आदि में लागत तथा बढ़ी मजदूरी ने भी इसे बड़े निवेश का मामला बना दिया है। जिसके लिए बड़े किसानों को तो बैंकों से कर्ज मिल जाता है। तथा किसानों के नाम पर चलायी जा रही योजनाओं में से वे बड़ा हिस्सा डकार जाते हैं। परन्तु छोटे किसानों को सूदखोरों से कर्ज लेना पड़ता है। ये सूदखोर पुराने वाले सूदखोर नहीं हैं। इनमें माइक्रो फाइनेन्स कम्पनियां भी हैं जो 30 से लेकर 50 प्रतिशत तक पर कर्ज देती हैं। कुछ दिनों पहले सरकार ने इन सूदखोरों को संस्थागत करने की बात भी की थी।
खेती को पिछले दो दशकों में सरकारी नीतियों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है। हालांकि यह प्रक्रिया 1980-81 से ही शुरू हो गयी थी। लेकिन 1991-92 में जबसे नई आर्थिक नीतियों की घोषणा की गयी तब से खेती में सरकारी सहायता घटाकर उसे उद्योगों को देना शुरू कर दिया है। आंकड़े बताते हैं कि 1995-96 से खेती में सार्वजनिक निवेश घटा है और निजी पूंजी निवेश बढ़ा है। 1980-81 में कुल कृषि सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के तौर पर कृषि में सकल पूंजी निर्माण की बात की जाये तो यह 4 प्रतिशत था जबकि निजी पूंजी निवेश 5.2 प्रतिशत था। 2001-02 आते-आते सार्वजनिक निवेश 1.8 प्रतिशत हो गया और निजी पूंजी निवेश 8.5 प्रतिशत तथा 2004-05 में निजी पूंजी निवेश 10.7 प्रतिशत था। जाहिर था कि इस निजी पूंजी निवेश का फायदा बड़े किसानों या पूंजीवादी फार्मरों को ही मिलना था। छोटे व मंझोले किसानों की स्थिति तो खराब होनी ही थी।
सरकारी सब्सिडी कम होने तथा मिल रही सब्सिडी को बडे़ किसानों द्वारा हड़पे जाने के कारण ज्यादातर छोटे व मंझोले किसान खेती छोड़ देना चाहते हैं परन्तु भारत में जिस तरह का औद्योगिक विकास है उससे इससे उजड़ने वाली आबादी के लिए स्थान ही नहीं है और वह मजबूरी में खेती से चिपके हुए हैं या फिर स्वरोजगार में लगे हैं। यह उनकी कंगाली व दरिद्रता को ही बढ़ाता है।
अगर हम इन सब बातों को निचोड़ निकालें तो पायेंगे कि आज भारत में किसानों व कृषि की दुर्दशा की जिम्मेदार यहां की पूंजीपरस्त नीतियां हैं। भारत का पूंजीपति वर्ग है। यहां की पूंजीवादी व्यवस्था है। जो अपनी सामान्य गति में तो किसानों को उजाड़ ही रही है। खासकर भारत के सम्बन्ध में उसकी विशिष्ट गति किसानों के लिए इधर कुंआ उधर खाई की स्थिति पैदा कर रही है। पूंजीवाद की यह सामान्य गति है कि वह लगातार औद्योगिक विकास को तरजीह देती है तथा खेती में लगी आबादी का शोषण करती है उसे उजाड़कर मजदूर बनाती है ताकि उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों की कमी न रहे। उसके लिए मजदूरों की रिजर्व आर्मी तैयार करती है ताकि मजदूरी सस्ती रहे जो उसके मुनाफे को बढ़ाये। साथ ही खेती को उद्योगों को हिसाब से ढालती है और पूंजीवादी फार्मरों को पैदा करती है और खेती से अधिशेष खींचती है और इसी कारण पूंजीवादी फार्मरों व औद्योगिक पूंजीपति के बीच अंतरविरोध का कारण भी बनता है। लेकिन इन पूंजीवादी फार्मरों का हित पूंजीवादी व्यवस्था में ही होता है। और वे छोटे व मंझोले किसानों को दयनीय स्थिति में ढकेलते हैं।
पूंजीवादी देशों में पूंजीवाद का विकास पहले हो गया था वहां हम देख सकते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान कम हुआ साथ ही कृषि में लगी आबादी में भारी कमी आयी। और आज यह दोनों ही मामलों में 5 प्रतिशत के करीब है।
परन्तु भारत में पूंजीवाद का स्वतंत्र विकास न होने तथा औद्योगिक विकास की रफ्तार कम होने के कारण इसमें खेती से आने वाली बेशी आबादी को जगह नहीं मिली। इसलिए यह आबादी अभी देहातों में कंगाली व दरिद्रता का जीवन जी रही है। कहने को तो ये किसान आबादी में गिनी जाती है लेकिन इसमें ज्यादातर का जीवन मजदूरी से ही चलता है। सरकार ने इस आबादी को गांव में ही रोकने के लिए मनरेगा जैसी योजनायें भी चलाईं जिसका पूंजीपति वर्ग की तरफ से काफी विरोध भी हुआ। यह छोटी सी राहत भरी योजनायें भी उसके लिए असहनीय थीं। 1980-81 से ही सरकार ने कृषि से अपने हाथ खींचे तथा इसे खेती में लगे व्यक्तियों पर छोड़कर बाजार के हवाले कर दिया गया। और उनकी मेहनत की कमाई को पूंजीपति वर्ग लूटता रहा।
सामंती व्यवस्था में तो खेती ही अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार होती है। परन्तु पूंजीवादी व्यवस्था का मुख्य आधार उद्योग धंधे होते हैं। इनका विकास होता रहे पूंजीपति वर्ग यही चाहता है। और उद्योग धंधों का विकास अन्य बातों के अलावा खेती के शोषण पर भी टिका होता है। इसलिए पूंजीपति वर्ग को तबाह हो रही खेती की कोई चिन्ता नहीं रहती है। उसके लिए औद्योगिक विकास की रफ्तार ही महत्वपूर्ण होती है। और यही कारण है कि पिछले सालों में औद्योगिक विकास दर बढ़ने से पूंजीपति वर्ग बहुत खुश है। वह आसमान की तरफ बढ़ते सेंसेक्स बाजार की तरफ सम्मोहित होकर देखता रहा है। उसे घटते सेंसेक्स बाजार से तो चिन्ता हुयी लेकिन कृषि के अर्थव्यवस्था में घटते योगदान से वह इतना चिंतित नहीं हुआ। उसका मानना था कि अगर औद्योगिक विकास ठीक होता रहा तो कृषि उत्पादों का वह अंतर्राष्ट्रीय बाजार से आयात कर सकता है।
अभी हाल में हुई किसानों द्वारा की जा रहीं आत्महत्या उनकी अभी हाल की फसलों के खराब होने के कारण नहीं हैं बल्कि आजादी के बाद से ही इसकी पृष्ठभूमि तैयार होनी शुरू हो गयी थीं तथा 1990-91 के बाद इसमें तेजी आ गयी। और पूंजीपति वर्ग इसकी कोई परवाह नहीं करता। वह अपनी बढ़ती औद्योगिक विकास की रफ्तार से खुश रहता है और उसे बढ़ाने का प्रयत्न करता है। सरकार का पूरा प्रयास उद्योगों को छूट प्रदान करने का होता है। देहातों में पूंजीवादी फार्मर इस व्यवस्था में मुनाफा कमाते हैं। परन्तु छोटे व मंझोले किसान की स्थित बुरी होती जाती है। और उनका सीधा अंतरविरोध पूंजीपति वर्ग से बन जाता है। पूंजीपति वर्ग का समाज में एक और दुश्मन होता है वह है मजदूर वर्ग जो उसी के उत्पादन साधनों पर काम करता है। यह मजदूर वर्ग पूूंजीपति वर्ग से उत्पादन के साधनों पर कब्जे की लड़ाई लड़ता है। इसलिए किसानों की एकता देश के मजदूर वर्ग के साथ बनती है। अब छोटे व मंझोले किसानों के लिए जरूरी है कि वह पूंजीवादी पार्टियों व किसान संगठनों के पिछलग्गू बनने के बजाय मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवाद के झंडे को बुलंद करे।
सांस्कृतिक प्रतिरोध की चुनौतियां
कविताः 16 मई के बाद
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
दिल्ली/ केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी और भाजपानीत राजग गठबंधन के सत्तारूढ़ होने के बाद साम्प्रदायिक फासीवाद के उभार के अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमले, लव जिहाद, धर्मांतरण (घर वापसी), शिक्षा के भगवाकरण, विज्ञान कांग्रेस, इतिहास परिषद सहित शैक्षणिक सांस्कृतिक वैज्ञानिक संस्थाओं के फासीवादी करण की मुहिम के खिलाफ सांस्कृतिक प्रतिरोध की चुनौतियों का चिह्नित करते हुए ‘‘कविताः 16 मई के बाद’’ के बैनर तले एक संगोष्ठी का आयोजन 17 मई को इण्डियन सोशल इंस्टीट्यूट में हुआ।
संगोष्ठी के प्रारम्भ में विषय प्रवर्तन करते हुए रंजीत वर्मा ने ‘कविता 16 मई के बाद’ आंदोलन का परिप्रेेक्ष्य पत्र पढ़ा।
गोष्ठी के पहले सत्र में वक्तव्य देते हुए विभिन्न वक्ताओं ने फासीवाद के बढ़ते प्रभाव को रेखांकित करते हुए इसके विभिन्न पहलू पर बात की। कविता कृष्णन, पूर्व जे.एन.यू. अध्यक्ष ने कहा कि मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद ‘हिन्दू परिवार माॅडल’ को शैक्षणिक संस्थाओं, फैक्टरियों सहित सामाजिक जीवन के हर अंग पर लागू किया जा रहा है। जिसके तहत महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर उसकी आजादी को सीमित संकुचित करने के प्रयास हो रहे हैं। महिलाओं को हमेशा पुरुषों के संरक्षण में रखने के हिन्दू परिवार के माॅडल को संघ परिवार व भाजपा सरकार हर जगह जोर शोर से लागू करने का प्रयास कर रही है।
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए शुद्धतावादी दृष्टिकोण से बचने एवं भाषा के सरलीकरण के आग्रह से बचने की जरूरत पर जोर दिया।
जनसत्ता के पत्रकार अरविंद शेष ने कहा कि पहले एक दशक में सेकुलर एवं बुद्धिजीवी शब्दों के प्रहसन में शामिल करने की कोशिशें हो रही हैं। आज वास्तविक चुनौती को जनता तक ले जाने की है।
वार्ता को आगे बढ़ाते हुए सामाजिक कार्यकर्ता अर्जुन प्रसाद सिंह ने कहा कि न केवल मजदूर वर्ग बल्कि अन्य तमाम वर्गों को समेटने के लिए भी कविता की रचना करनी होगी। प्राथमिकता क्रम में पहले मजदूर फिर किसान फिर निम्न पूंजीपति वर्ग व छात्रों नौजवानों के बीच कविता को ले जाना होगा। इसके साथ ही उन्होंने मध्यम पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से, जिसमें राष्ट्रवाद का कुछ तत्व बचा है, के बीच भी कविता को ले जाने की जरूरत को रेखांकित किया। उन्होंने बढ़ते साम्प्रदायिक उभार व कारपोरेटीकरण का हवाला देते हुए कहा कि सांस्कृतिक आंदोलन के निशाने पर साम्प्रदायिकता व कारपोरेटवाद दोनों को रखना होगा। इलाहाबाद से आयी ‘दस्तक’ पत्रिका की संपादक सीमा आजाद ने कहा कि राज्य का दमन व उत्पीड़न तो पहले से था लेकिन 16 मई के बाद तो गुण्डागर्दी का दौर चल रहा है। अब राजनीतिक सांस्कृतिक मोर्चे पर ठहराव तोड़ने के लिए सभी धाराओं को साथ आना होगा और यह बात आज पहले से ज्यादा समझ में आ रही है।
मानवाधिकार कार्यकर्ता रणेन्द्र ने कहा कि संघ परिवार द्वारा संस्कृति को धर्म का पर्याय बना दिया गया है। वे कुशलतापूर्वक मिथकों का इस्तेमाल करते हैं। गौतम बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित करने वाले आज अंबेडकर को भी भगवान घोषित कर रहे हैं। हिन्दू धर्म के इन ठेकेदारों जो कि ब्राहम्णवादी वर्चस्व के पैरोकार हैं, के लिए पहले बुद्ध चुनौती थे तो आज अंबेडकर। अंबेडकर को आज अपने भीतर समेटने की कोशिशें संघियों द्वारा जारी हैं। उन्होंने संस्कृति को साहित्य तक सीमित करने की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए एक मुकम्मल रूप में देखने का आग्रह किया।
इंदौर से आये साहित्यकार सत्यनारायण पटेल ने कहा कि मध्य प्रदेश में साम्प्रदायिक नफरत व ध्रुवीकरण को तेज करने की कोशिशें जारी हैं। धार भविष्य की बाबरी मस्जिद बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि हमारी लड़ाई मुख्यतः साम्राज्यवाद व फासीवाद के खिलाफ है। अगर हम वर्गीय लड़ाई को मुख्य रूप से संबोधित करते हैं तभी साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ संघर्ष सम्भव है।
सामाजिक कार्यकर्ता व स्तम्भकार सुभाष गताडे ने बताया कि महाराष्ट्र में 1848 में फुले के नेतृत्व में जो ब्राहम्णवाद के खिलाफ जो संघर्ष खड़ा हुआ था उसी की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ब्राहम्णवादी प्रतिक्रांति के रूप में हिंदू साम्प्रदायिकता महाराष्ट्र में पैदा हुई जो आज अपने शिखर पर है। उन्होंने अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता को नजरअंदाज न करने की बात की। उन्होंने सांस्कृतिक हस्तक्षेप के फलक को व्यापक करने की जरूरत पर बल दिया। इसी के साथ उन्होंने सांस्कृतिक हस्तक्षेप के सवाल को साहित्य, कला, संस्कृति तक सीमित होने का सवाल उठाते हुए इसे जाति व जेंडर तक विस्तारित करने की बात की। उन्होंने फासीवाद की कोमिंटर्न के जमाने से चली आ रही परिभाषा को भी प्रश्नांकित करने की बात कही। संस्कृति कर्मी कौशल किशोर ने कहा कि आज हमें एक बार फिर मुक्तिबोध को याद करते हुए संस्कृति के खतरे उठाने के लिए तैयार होना होगा। आज शासक वर्ग द्वारा सांस्कृतिक प्रतिरोध को अनुकूलित करने के लिए एवं पुरूस्कारों के प्रलोभन द्वारा व्यवस्था में समाहित करने की कोशिशों का पुरजोर विरोध करना जरूरी है। आज कविता इवेंट मैनेजमेन्ट बनती जा रही है। इस का प्रतिकार करना होगा।
कवि व साहित्यकार नीलाभ ने गोरख पांडे को उद्धृत करते हुए कहा कि संस्कृति मनुष्य बनने की तमीज है। नाजी दमन के दौर में ब्रेख्त ने सच को पहचानने, उद्घाटित करने, प्रचारित प्रसारित करने के सम्बन्ध में जो बातें कही थीं उन्हें आज याद करने की जरूरत है। उन्होंने सांस्कृतिक संगठनों के बिखराव की पड़ताल की जरूरत को चिह्निनित करते हुए बिखरी-बिखरी चीजों को संगठित रूप देने की बात कही।
वयोवृद्ध वामपंथी नेता व सहित्यकार शिवमंगल सिद्धान्तकाार ने कहा कि आज से 70 साल पहले नाजी जर्मनी की हार हुई। तब जर्मनी से बाहर संस्कृतिकर्मी सजग थे। रूस हमारा राजनीतिक व सांस्कृतिक शस्त्रागार हुआ करता था। यह स्टालिन का नेतृत्व में मजदूर वर्ग की ताकत ही थी जिसने हिटलर का ध्वंस किया। आज एक नया हिटलर पैदा हो गया है। उन्होंने जोर देकर कहा कि जिस तरह मोदी ने आधुनिक सूचना क्रांति व तकनीक का इस्तेमाल करते हुए सत्ता हथियायी है उसी तरह संस्कृतिकर्मियों को भी आधुनिक तकनीक व आई.टी. का इस्तेमाल कर अपने प्रतिरोध को मजबूत करना होगा। उन्होंने माक्र्स के हवाले से बताया कि कविता मनुष्यता की भाषा है। और कविता को शास्त्र नहीं शस्त्र की जरूरत है।
प्रसिद्ध फिल्मकार व बाजार जैसी चर्चित फिल्म के निर्माता सागर सरहदी ने कहा कि जनता के जीवन व जमीन से जुड़ी हुयी सिनेमा की संस्कृति खत्म हो रही है। हमारे पैरों की जमीन खिसक गयी है। सामाजिक सरोकार वाली फिल्मों को वितरक तक नहीं मिलते आज केवल ‘ग्रेंड मस्ती’ व ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ जैसी फिल्में ही चल रही हैं। नंगई, बल्गैरिटी व काॅमेडी के साथ फिल्में सफल हैं। नई पीढ़ी टी.वी. व मोबाइल में कैद हो गयी है। उन्होंने अपसंस्कृति व बाजारवाद के खिलाफ संघर्ष पर जोर दिया।
पत्रकार व स्तम्भकार असद जैदी ने कहा कि फासिज्म की जड़ें हमारे समाज में बहुत गहरी हैं। यहां राज्य के भीतर राज्य जैसी स्थिति रही है। खुफिया विभाग व अद्धैसैनिक बल पहले ही समाज पर हावी रहे हैं। अर्द्धसैनिक बलों को देश के कई इलाकों में दंड से मुक्ति (Impunity) मिली हुई है। इस तरह फासिज्म का एक रूप तो पहले से विद्यमान है। इसे नजरअंदाज करना समझौतापरस्ती व सहयोगवाद है। उन्होंने सांस्कृतिक प्रतिरोध के सवाल पर बात करते हुए इस बात पर चिंता जाहिर की कि हमारा रूख अति साहित्यिक हो गया है। सवाल को दूसरे रूप में उठाते हुए उन्होंन कहा कि आज जिस तरह किसानों को नष्ट किया जा रहा है जिस तरह महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा बढ़ती जा रही है क्या इनका कोई सांस्कृतिक पहलू नहीं है। उन्होंने इस बात पर दुःख व हैरानी व्यक्त की कि जिस महाराष्ट्र में दाभोलकर व पानसरे की हत्या होती है वहीं भालचंद निमाणे जैसे साहित्यकार कैसे फासिस्टों के हाथ से पुरूस्कार ग्रहण कर लेते हैं। उन्होंने कहा कि कविता को विधा तक सीमित नहीं रखना चाहिए बल्कि उसे एक हस्तक्षेपकारी शक्ति के रूप में देखना चाहिए।
दूसरे सत्र में अलग-अलग प्रदेशों से आये विभिन्न संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों व पत्रकारों ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए व्यावहारिक कार्यक्रमों पर चर्चा की।
इलाहाबाद से आयी कवियत्री संध्या नवोदिता ने कहा कि दक्षिणपंथी शक्तियां तो एक दूसरे को अंगीकृत करते चले गये लेकिन वाम प्रगतिशील धारा के लोग शुद्धतावादी संकीर्णतावादी दृष्टिकोण का शिकार हो गये हैं। उन्होंने संकीर्णतावादी खोलों को तोड़ने के साथ सांस्कृतिक आंदोलन की धारा को आगे बढ़ाने के लिए नए मंचों की जरूरत पर बल दिया।
लखनऊ से आये संस्कृतिकर्मी आदि योग ने कहा कि दमन उत्पीड़न के शिकार निर्दोष लोगों की बंद फाइलें उन्हें रिहा करने की गुहार लगा रही है। उनकी आवाज को जनता के बीच ले जाना होगा। मलियाना, हाशिमपुरा पर अदालती फैसले के बाद यह जरूरत और मजबूती से दरवेश हुई हैं।
बलिया से आये सामाजिक कार्यकर्ता साथी बलवंत यादव ने पूर्वांचल में जनता से जुड़ने के उपक्रम में भोजपुरी भाषा में सांस्कृतिक सृजन व कार्यक्रम की जरूरत की ओर ध्यान आकृष्ट किया। संघी गुजरात से आये साथी रजक ने कहा कि कविता को नृत्य नाटिका जैसे रूपों जैसे छव नृत्यों शैली का सहारा लेकर गांव चौपालों अखाड़ों तक पहुंचाया जा सकता है।
बंगाल व बिहार में अपने संस्कृतिकर्म का अनुभव रखते हुए मृत्युजंय प्रभाकर ने बताया कि मुख्यधारा के मीडिया द्वारा जमीनी हकीकत के विपरीत बंगाल में तृणमूल व भाजपा को आमने सामने खड़ा व युद्धरत दिखाया जा रहा है। यह एक साजिश है जिसके द्वारा मध्यवर्ग का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश की जा रही है। और वामपंथ को परिदृश्य से गायब करने की कोशिश हो रही है।
मृत्युंजय की बात पर नीलाभ समेत कई लोगों ने आपत्ति जताते हुए भाकपा-माकपा की दमन कारी कार्यवाहियों की याद दिलायी व उन्हें जनविरोधी बताया राजस्थान से आये संस्कृतिकर्मी संदीप मील ने कहा कि राजस्थान जहां सदियों से लोग जल को संरक्षित रखते आये हैं वहां आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां जल संरक्षण की तकनीक सिखा रही हैं। उन्होंने बताया कि राजस्थान में साहित्य व संस्कृति पर कारेपोरेट ताकतों विराजमान हैं। जयपुर फेस्ट जैसे कारपोरेट उत्सवों से सभी लोग परिचित हैं। उन्होंने मेहनतकश जनता का वैकल्पिक मंच खड़ा करने की जरूरत को चिह्नित किया।
उत्तराखण्ड से ‘नागरिक’ पत्र के प्रतिनिधि पंकज ने कहा कि उत्तराखण्ड में भाजपा ही नहीं कांग्रेस व सपा-बसपा जैसी पार्टियां भी घोर साम्प्रदायिक हवा बहा रहे हैं। लालकुंआ व रुद्रपुर की घटनायें इसका प्रतिनिधिक उदाहरण हैं। उन्होंने बताया कि मजदूरों का घोर शोषण उत्तराखंड में हो रहा है और उनके आंदोलनों को बर्बरतापूर्वक कुचला जा रहा है। ईको सेंसिटिव जोन के नाम पर जंगलों का क्षेत्रफल बढ़ाया जा रहा है। व ग्रामीणों को बेदखल किया जा रहा है। राज्य सरकार पुलिस व माफिया गठजोड़ उत्तराखण्ड की जनता पर हावी है। उन्होंने शहीद उधम सिंह की शहादत दिवस के अवसर पर साम्प्रदायिकता के खिलाफ हर वर्ष आयोजित होने वाले अभियान में उन्होंने सभी संस्कृतिकर्मियों से सहयोग व भागीदारी की अपील की।
गोष्ठी के अगले सत्र में विभिन्न कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। इनमें प्रमुख रूप से मंगलेश डबराल, निखिलानंद गिरि, कौशल किशोर, भगवान स्वरूप कटियार, संध्या नवोदिता, देवेन्द्र रिणुआ एवं सीमा आजाद आदि ने काव्यपाठ किया।
दिल्ली संवाददाता
उत्तराखण्ड सरकार व माफिया गठजोड़ के खिलाफ दिल्ली में प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
उत्तराखण्ड सरकार और खनन माफिया के गठजोड़ के खिलाफ 5 मई 2015 को दमन विरोधी संघर्ष समिति ग्राम वीरपुर लच्छी के
आहवान पर दिल्ली में धरना प्रदर्शन का कार्यक्रम किया गया। वीरपुर लच्छी, बाजपुर, गदरपुर, पटरानी, ढेला, सांवल्दे, मालधन, रामनगर, पीरूमदारा, लेटी, सुन्दरखाल आदि गांवों-कस्बों से लोग बड़ी संख्या में बसों में सवार होकर दिल्ली पहुंचे।
जंतर-मंतर पर कार्यक्रम की शुरूवात क्रांतिकारी गीत ‘लड़ना है भाई ये तो लम्बी लड़ाई है’ से की गयी। जोशो-खरोश से लग रहे नारों से मेहनतकशों ने अपने आक्रोश व एकजुटता को प्रदर्शित किया।
सभा के संयोजक मण्डल में तीसरी दुनिया के सम्पाक आनन्द स्वरूप वर्मा, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पी.सी.तिवारी, इंकलाबी मजदूर केन्द्र के उपाध्यक्ष नगेन्द्र, मजदूर सहयोग केन्द्र के मुकुल, बुक्सा समाज के नेता बाबू तौमर, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की ललिता रावत, सामाजिक कार्यकर्ता विमला आर्या, सुमित्रा विष्ट, यूकेडी के अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी, वीरपुर लच्छी गांव से करम सिंह आदि लोगों को चुना गया।
कार्यक्रम की शुरूआत में आंदोलन को समर्थन देने के नाम पर कांग्रेस छोड़ भाजपा में गये सतपाल महाराज भी पहुंचे। सतपाल महाराज जैसे बड़ी पूंजीवादी पार्टी के बड़े नेता का आंदोलन में पहुंचना जनता की मांगों की लोकप्रियता व जनदवाब और एकजुटता को दिखाता है। इन्हीं सारी चीजों को अपने क्षुद्र राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल करने के मंशा के सिवा सतपाल महाराज का यहां उपस्थित होने का कोई और कारण नहीं है। गौरतलब है कि 1 मई 2013 को वीरपुर लच्छी में सोहन सिंह व उसके बेटे डी.पी.सिंह द्वारा ग्रामीणों के साथ की गयी मार पिटाई, फायरिंग, आगजनी के समय रामनगर क्षेत्र से सतपाल महाराज ही सांसद थे। उस समय ये कांग्रेस के नेता थे। इनकी पत्नी जो कि अब भी कांग्रेस में ही बनी हुयी हैं, रामनगर क्षेत्र की विधायक हैं। 1 मई 2013 की घटना के समय यह कैबिनेट मंत्री थीं। जब सत्ता में है तब कुछ ना कहना और अब विपक्ष में हैं तो आंदोलन से राजनीतिक हित साधना क्षुद्र राजनीति का ही परिचायक है। ऐसे नेताओं से उम्मीद भी क्या की जा सकती है?
सतपाल महाराज के कार्यक्रम में आने का विरोध करते हुए संयोजक मण्डल से आनंद स्वरूप वर्मा, मुकुल, नगेन्द्र आदि जनपक्षधर ताकतों के प्रतिनिधि मंच से उतर गये। आनंद स्वरूप वर्मा जी तो कार्यक्रम छोड़कर ही चले गये। बाद में ‘नागरिक’ सम्पादक से फोन पर हुयी बातचीत में वर्मा जी ने माना कि उनका विरोध करना ठीक था पर इस तरह पूंजीवादी नेता के लिए खुला मैदान छोड़ देना गलत रहा। वर्मा जी ने आंदोलन की हर संभव मदद करने व उससे जुड़े रहने का आश्वासन दिया।
सतपाल महाराज के छुटभैय्या नेता लगातार कार्यक्रम को अपने हिसाब से ढालने की कोशिश कर रहे थे जिसका समिति ने विरोध किया। उन्हें यह सब ना करने के लिए सख्त लहजे में आगाह किया। जिस कारण ही ये पूंजीवादी पार्टी के लोग कार्यक्रम को दिग्भ्रमित व व्यक्ति पूजा की ओर नहीं ढकेल पाये। किन्तु संचालकों के चैकन्नेपन की कमी सतपाल महाराज के लिए गद्दा लगने व ताली बजवाने के रूप में दिखी। सतपाल महाराज द्वारा वक्तव्य दे देने के बाद वे और उनके समर्थक तुरंत ही कार्यक्रम से चले गये। सभा को सम्बोधित करते हुए इंकलाबी मजदूर केन्द्र के उपाध्यक्ष नगेन्द्र ने कहा कि पूरे देश में प्राकृतिक संसाधनों का बेखौफ दोहन चल रहा है। भाजपा-कांग्रेस व अन्य सभी दोनों हाथों से इस दौलत को लुटा रही हैं। उत्तराखण्ड में भी खनन माफिया इसी सब की पैदाइश हैं। पी.सी.तिवारी ने कहा कि उत्तराखण्ड में माफिया राज चल रहा है। राजनीतिक हस्तक्षेप से ही इस राज को खत्म किया जा सकता है। यूकेडी के अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी ने सरकार माफिया गठजोड़ की आलोचना करते हुए कहा कि यह उत्तराखण्ड राज्य में देखे गये सपनों से पूरी तरह बेमेल है।
पत्रकार भूपेन ने सतपाल महाराज के कार्यक्रम में शामिल होने की तीखे शब्दों में आलोचना की। मजदूर सहयोग केन्द्र के मुकुल ने आंदोलन को और अधिक व्यापकता देते हुए पूरे उत्तराखण्ड से माफियाराज की समाप्ति के लिए काम करने का आहवान किया। आरडीएफ के जीवन चन्द्र ने उत्तराखण्ड की जनता के हालात पर बात करते हुए सरकार की जन विरोधी नीतियों का पर्दाफाश किया। बेरोजगार युवा संगठन के मनीष सुन्दरियाल ने कहा कि पहाड़ों से बड़े पैमाने पर पलायन के लिए सरकार की यही सब जनविरोधी नीतियां जिम्मेदार हैं। प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की ललिता रावत ने आई.एफ.एस. अधिकारी कल्याणी पर हमले का जिक्र करते हुए कहा कि यह खनन माफिया के बढ़ते हुए हौंसलों व उसके सरकारी संरक्षण को दिखाता है।
इसके अतिरिक्त कई वक्ताओं द्वारा अपने विचार व्यक्त करते हुए आंदोलन का पुरजोर समर्थन किया गया।
सभा के बाद एक मार्च निकाला गया जोशो-खरोश से नारे लगाते हुए मार्च आगे बढ़ा। मार्च को पुलिस द्वारा बेरिकेटिंग लगाकर रोक दिया गया जिस दौरान पुलिस से नोंक-झोंक हुई। बेरिकेड के पास ही बैठक सभा चलायी गयी। क्रांतिकारी गीत गाये गये। इसी दौरान एक 4 सदस्यीय शिष्ट मंडल प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति व सोनिया गांधी को ज्ञापन देने गया। आंदोलन को और अधिक एकजुटता के साथ लड़ने के आहवान के साथ कार्यक्रम समाप्त किया गया।
विशेष संवाददाता
आलोचना, आत्मालोचना और सबक
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
प्रिय मित्रो,
‘दमन विरोधी संघर्ष समिति’ की ओर से कल 5 मई 2015 को ग्राम वीरपुर लच्छी (रामनगर) के निवासियों पर खनन माफिया द्वारा किए जा रहे जुल्म के विरोध में जंतर मंतर पर हम सारे लोग इकट्ठा हुए थे। इस सभा में वीरपुर लच्छी गांव के और उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों से लगभग डेढ़ हजार लोग आए थे और सभा बहुत शांतिपूर्ण ढंग से चल रही थी। मैं अपने साथियों को लेकर एक फैक्ट फाइंडिंग टीम के साथ वीरपुर लच्छी गया था और जब मैं मंच पर पहुंचा तो इसी रूप में मेरा परिचय भी कराया गया और लोगों ने तालियों के साथ स्वागत किया। कुछ ही देर बाद मुझसे ‘उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी’ (उपपा) के अध्यक्ष पी.सी.तिवारी ने, जो मेरे बगल में बैठे थे मुझसे धीरे से कहा कि ‘हमलोगों के आंदोलन को सतपाल महाराज ने अपना समर्थन दिया है’। जवाब में मैंने कहा कि ‘यह अच्छी बात है’। लेकिन कुछ ही देर बाद एक व्यक्ति आया और उसने मंच पर मेरे सामने कपड़ों का एक ऊंचा सा आसन बनाया और फिर सतपाल महाराज आकर उस आसन पर बैठ गए। मैंने पी.सी.तिवारी की ओर देखा और कहा कि यह व्यक्ति मंच पर कैसे आ गया लेकिन पी.सी.तिवारी काफी प्रफुल्लित नजर आ रहे थे। मंच के नीचे से भूपेन लगातार पी.सी.तिवारी और कुछ साथियों से कह रहे थे कि ऐसा नहीं होना चाहिए। सतपाल महाराज के बैठते ही विरोधस्वरूप मैंने मंच का बहिष्कार कर दिया और मेरे साथ बहुत सारे लोग नीचे आ गए। कुछ देर बाद सतपाल महाराज नीचे उतरे और उन्होंने विभिन्न चैनलों की कैमरा टीम को अपना इंटरव्यू आदि दिया और फिर मंच पर वापस जाकर बैठ गए। नीचे पी.सी.तिवारी आकर हमलोगों से अपनी सफाई देते रहे लेकिन मैं वहां से बाहर आ गया और घर चला गया।
इस पूरे प्रकरण में आलोचना के जो बिन्दु हैं उन पर मैं आप सबका ध्यान दिलाना चाहता हूंः-
आलोचना
1. सतपाल महाराज उसी राजनीतिक जमात के व्यक्ति हैं जिनकी वजह से पिछले 15 वर्षों के दौरान, उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद से ही, यह राज्य विभिन्न तरह के माफिया गिरोहों का क्रीडा स्थल बन गया है।
2. जब से उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ राज्य की जनता कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा के शासन का स्वाद चखती रही है और सतपाल महाराज जैसे लोग अपनी अवसरवादिता के चलते कभी इस पार्टी में तो कभी उस पार्टी में घूमते-फिरते रहे हैं। ऐसे लोगों को हमें अपने मंच से दूर रखना चाहिए। अगर किसी मुद्दे पर वह समर्थन देते हैं तो अच्छी बात है लेकिन उन्हें अपने साथ नहीं लेना चाहिए।
3. सतपाल महाराज सभा में आते, एक सामान्य समर्थक की तरह व्यवहार करते और भाषण देते तो एतराज करने का कोई कारण नहीं है। लेकिन जिस तरह से उनको सम्मान देकर मंच पर आसीन कराया गया वह आपत्तिजनक है।
4. सबसे बड़ी बात यह है कि 3 मई को प्रेस क्लब में संयोजन समिति के सदस्यों की बैठक में ऐसा कुछ भी तय नहीं हुआ था कि किसी राजनीतिक दल के व्यक्ति को मंच पर आने दिया जाय। ऐसी स्थिति में सतपाल महाराज का मंच पर आना किसकी रजामंदी से हुआ इस पर बाकायदा छानबीन की जानी चाहिए।
5. सतपाल महराज के मंच पर आने के प्रसंग में पी सी तिवारी का यह कहना कि ‘आंदोलन किताबी तरीके से नहीं चलते’ घोर आपत्तिजनक है।
आत्मालोचना
1. यद्यपि सतपाल महाराज के आने से मैं बहुत रोष में था और मुझे मंच से उतर कर अपना विरोध व्यक्त भी करना चाहिए था लेकिन कुछ देर बाद मुझे सभा में शामिल हो जाना चाहिए था।
2. मुझे लगता है कि सभा का पूरी तरह बहिष्कार करके मैंने उन ढेर सारे लोगों की भावनाओं का ध्यान नहीं रखा जो इतना कष्ट उठाकर रामनगर से दिल्ली तक आए थे।
3. मुझे बहिष्कार के बाद सभा को संबोधित करना चाहिए था और जो बात सोचकर मैं गया था कि जनता के अंदर एक राजनीतिक विकल्प की सोच पैदा करने का प्रयास करूं, वह मुझे करना चाहिए था।
4. उत्तेजना में मैंने वह अवसर खो दिया जिससे वहां आए लोगों के साथ मेरा एक सीधा संवाद हो सकता था।
5. इस तरह की घटना न तो पहली बार हुई है और न आखिरी बार होने जा रही है। जाहिर है कि सार्वजनिक जीवन और राजनीति में आए दिन इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी और ऐसे में पूरी ताकत के साथ विरोध व्यक्त करने के साथ ही अपनी बात कहने का कौशल हमारे अंदर होना चाहिए जिसकी कमी मैंने खुद में महसूस की।
सबक
1. इस घटना का सबसे बड़ा सबक वही है जो अनेक दशकों से हम झेलते रहे हैं लेकिन कुछ सीख नहीं सके। सारी मेहनत हमारे साथियों ने की और इस आंदोलन का श्रेय टीवी चैनलों के माध्यम से सतपाल महाराज ले गया। यह ठीक वैसे ही हुआ जैसे उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए सारा संघर्ष हमारे साथियों ने किया और जो लोग इसका विरोध करते थे अर्थात कांग्रेस और भाजपा वे ही राज्य बनने के बाद इसके भाग्य विधाता बन गए।
2. हमारे संघर्षशील नेताओं के अंदर आत्महीनता की जो ग्रंथि है उससे अगर वे छुटकारा नहीं पा सके तो कभी सतपाल महाराज तो कभी हरीश रावत के पीठ थपथपाने भर से गदगद हो जाएंगे।
3. हमें हर हाल में मंच संचालन आदि के बारे में उन फैसलों का पालन करना चाहिए जो सभा से पूर्व संचालन समिति ने तय किए हों।
4. किसी एक घटना मात्र से व्यापक उद्देश्य से विमुख नहीं होना चाहिए। यह प्रवृत्ति अगर बनी रही तो कभी भी दुश्मन खेमे की तरफ से कोई व्यक्ति आकर उत्तेजना का ऐसा माहौल पैदा कर सकता है जिसमें अपने ही साथी मूल उद्देश्य के प्रति उदासीन हो जायं।
5. हमें हर हाल में न केवल वीरपुर लच्छी की जनता पर जुल्म ढा रहे सोहन सिंह ढिल्लन जैसे खनन माफिया के खिलाफ बल्कि समूचे उत्तराखंड में फैले सोहन सिंहों के खिलाफ लड़ाई जारी रखनी है। इसके साथ ही उत्तराखंड की जनता को कांग्रेस और भाजपा से अलग किसी संघर्षशील राजनीतिक विकल्प की दिशा में आगे ले जाना है। जहां तक मेरा सवाल है, इस घटना के या भविष्य में होने वाली इस तरह की घटनाओं के बावजूद मैं उत्तराखंड की जनता के हित में किसी विकल्प की दिशा में कार्य करने के लिए प्रयासरत रहूंगा। यह मेरा संकल्प है
आनंद स्वरूप वर्मा, सम्पादक ‘तीसरी दुनिया’
ऐप्प पेपर कम्पनी में मजदूरों की जान के साथ खिलवाड़
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
ऐप्प (APP) पेपर प्राइवेट लिमिटेड बावल रेवाडी के सेक्टर-6 प्लाॅट न. 122 बी में स्थित है। जो पिछले 6 महीनों से ही चालू हुई है। इसमें अभी 30-35 मजदूर ही काम करते हैं। इनमें महिला मजदूर भी काम करती हैं।
कम्पनी में काम कर रहे सभी मजदूर बीएमएस (बालकपुरी मैन पाउर साल्यूश्न) ठेकेदारी के तहत काम करते हैं जो रेवाडी क्षेत्र में मजदूर का पैसा मारने और डरा-धमकाकर काम करने के लिए कुख्यात है।
यह कम्पनी टीसू पेपर बनाती है। कई प्रकार के टीसू पेपर आपने बाजार में देखें होंगे जो कई मौके पर काम में आते हैं। परन्तु कभी आपने सोचा ना होगा कि टीसू पेपर बनाने वाले मजदूरों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाता है।
कम्पनी में काम कर रहे बाहधो सिंह व महिला मजदूर इन्दू से बातचीत में पता चला कि जब कम्पनी ने इंटरव्यू लिया तो 8500 रुपये तनख्वाह की बात हुई परन्तु नया-नया काम है इसलिए 5800 रुपये ही दिये और 500 रुपये अटेन्डेन्स अवार्ड। जो एक छुट्टी होने पर गया और 250 रुपये दिहाडी अलग से। कोई छुट्टी न होने पर ही पूरे महीने में मजदूरों को 6300 रुपये मिलते हैं।
14 फरवरी 2015 को इन्दू नाम की महिला मजदूर का हाथ मशीन में आ गया। अगर बाहधो सिंह ने बटन नहीं दबाया होता तो शायद बड़ी घटना हो गयी होती। इस घटना में इन्दू के हाथ ही हड्डी टूट गयी। कम्पनी ने उसे प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करवाकर प्लास्टर बंधवा दिया। और जब इन्दू कुछ दिनों बाद कम्पनी में आयी तो कम्पनी के मालिक का लड़का आशीष और एच.आर. हेड गुरूवाशुदेवा ने इन्दू को कम्पनी से निकाल दिया और धमकी दी कि दुबारा कम्पनी गेट पर मत आना। और उनका इलाज करने से भी मना कर दिया।
इस पर इन्दू से 10 मार्च 2015 को लेबर कोर्ट में केस दर्ज किया जिसकी 31 मार्च को पहली तारीख लगी। जिसमें कम्पनी को और मजदूर इन्दू को अपनी तरफ से सबूत लाने को कहा गया। इन्दू के साथ बाहधों सिंह और कई मजदूर खड़े हैं। इस पर कम्पनी ने बाहधों सिंह को धमकी देने के लिए गुण्डे (बाउंसर) भेजे कि तू इस मामले से हट जा वरना अच्छा नहीं होगा।
अब भी ये मजदूर अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। 1 मई को ये मजदूर यूनियन संघ रेवाडी से मिले और अपनी आपबीती सुनाई। अब देखना कि यूनियन संघ इनकी मजदूरों की कितनी सहायता कर पाता है। गुड़गांव संवाददाता
मुंजाल आॅटो के मालिक की मनमर्जी
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
मुंजाल आॅटो इण्डस्ट्रीज लिमिटेड, प्लाॅट न. 37, सेक्टर-5, फेज-III ग्रोथ सेन्टर बावल, जिला रेवाडी में लगभग 100 मजदूरों को लेकर 1 जुलाई 2009 से उत्पादन शुरू हुआ था। उस समय इस प्लांट में हीरो ग्रुप की दोपहिया गाड़ी के एक-दो माॅडलों के लिए ही पार्ट्स तैयार किये जाते थे। और आज सभी माॅडलों के लिए पार्ट्स तैयार कियेे जाते हैं।
इस समय इस प्लांट में 350 ठेकेदारी के और 76 स्थायी मजदूर काम करते हैं। जिन्हें अभी तक कम्पनी की तरफ से कोई नियुक्ति पत्र नहीं मिला है जो मजदूर पहले दिन से काम कर रहे हैं उनके पास भी कोई पत्र नहीं है और वेतन भी 7000-9000 रु. ही है।
2009 जुलाई की पहली तारीख से काम करने वाले एक मजदूर सतीश जो आगरा के रहने वाले हैं, ने बताया कि कम्पनी ने अभी तक हमें कोई भी पत्र नहीं दिया है। कम्पनी में कोई अतिरिक्त सुविधा भी नहीं है। कन्वेन्स की सुविधा नहीं है और खाने का भी हमारा पैसा कटता है। 1 जनवरी 2011 को उसे मुंह जबानी बताया गया कि उसको स्थाई किया जाता है। वह और मन लगाकर काम करे।
मजदूरों ने मीटिंग कर अपनी यूनियन बनाने की पहली फाइल 28 जून 2014 को लगायी। जो लेबर विभाग ने रद्द कर दी तो मजदूरों ने अगली फाइल 8 दिसम्बर 2014 को फिर लगाई जिसमें मालिक स्टे लेकर आया कि ये यूनियन की फाइल एप्रूवल नहीं है जिसमें मजदूरों ने भी स्टे ले लिया है और इसमें तारीखें चल रही हैं।
अब कम्पनी मालिक अपनी चालबाजी पर उतर आया है। उसने मजदूरों को कमजोर करने के लिए चार-साढ़े चार साल से काम कर रहे ठेकेदारी के मजदूरों में से 76 मजदूरों को 27 दिसम्बर 2014 से 5 जनवरी 2015 के बीच काम से निकाल दिया और बाकी मजदूरों को धमकी दी जा रही है कि इनका साथ दिया तो काम से निकाल दिये जाओगे और नई भर्ती कम्पनी में चालू है।
अपनी यूनियन बनाने की मांग को लेकर ये मजदूर जनवरी माह से लेबर विभाग में धरने पर बैठे हैं जिसकी कोई भी सुनने वाला नहीं है। मजदूर डी.सी., ए.एल.सी. लगभग सभी अधिकारियों से मिल चुके हैं। मजदूरों का कहना है कि हमें आश्वासनों के अलाव कुछ नहीं मिलता है। हम पिछले चार माह से दिन-दिन के धरने पर हैं। हमारी कोई सुनने वाला नहीं है।
अब मजदूर अपनी फरियाद लेकर रेवाडी क्षेत्र के यूनियनों के संघ के पास गये हैं जहां से वे उम्मीद करते हैं कि उनके मामले में कुछ होगा। गुड़गांव संवाददाता
पूंजीवादी राजनीति व मीडिया का साम्प्रदायिक चरित्र बेपर्द
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
रामपुर में घर बचाने को लेकर 800 मुस्लिमों द्वारा इस्लाम अपनाने की खबर जिस तरह राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बनी और जिस तरह से आक्रामक तेवर के साथ इस खबर को बिना तथ्यों की छानबीन के तथाकथित मुख्य धारा के मीडिया ने पेश किया उसे उसके साम्प्रदायिक चरित्र की एक और बानगी सामने आयी है।
दरअसल मीडिया का साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने वाली घटनाओं को कैसे हाथों हाथ लेगा और कैसे उसे सनसनी खेज तरीके से पेश कर साम्प्रदायिक तनाव व कानून व्यवस्था के लिए एक वास्तविक खतरे की कीमत पर भी अपनी टीआरपी बढ़ाने को लेकर बढ़ा चढ़ाकर पेश करेगा इस बात को रामपुर के वाल्मीकी बस्ती के वे दलित भी जानते थे जिनके सामने नगर निगम के ‘अतिक्रमण हटाओ अभियान’ से अपने घरों को बचाने का संकट था।
रामपुर के वाल्मीकि दलित इस बात से भी परिचित थे कि संघ परिवार व उसके अनुषंगी संगठन बजरंग दल व विश्व हिन्दू परिषद को साम्प्रदायिक गोलबंदी को एक अच्छा मुद्दा भी मिल जायेगा और कुल मिलाकर समाजवादी पार्टी की सरकार व उसके मंत्री के होश ठिकाने आ जायेंगे। उनका घर बच जायेगा।
और जैसा उन्होंने सोचा वैसा ही हुआ। न्यूज चैनलों व अखबारों में मुस्लिमों की टोपी लगाये इस्लाम कबूलने की खबरें जोर-शोर से प्रचारित हुईं साथ ही यह बात भी कि उत्तर प्रदेश के सबसे ताकतवार मंत्रियों में गिने जाने वाले व रामपुर से विधायक आजम खान के किसी खास दूत ने वाल्मीकि बस्ती के लोगों को यह रास्ता बताया कि अगर वे इस्लाम कबूल कर लें तो उनका घर बच सकता है। दलितों के मुसलमान बनने की खबर से पूरे देश में साम्प्रदायिक तापमान बढ़ गया। मीडिया के लिए यह एक हिट स्टोरी व ब्रेकिंग न्यूज बना रहा। बजरंग दल व विश्व हिन्दू परिषद के उग्र प्रदर्शनों का सिलसिला चल निकला। किसी ने खुद रामपुर में जाकर जमीनी स्तर पर तहकीकात कर वास्तविकता सामने लाने की कोशिश नहीं की।
अंततः जब कुछ संजीदा पत्रकारों ने सच को सामने लाने का प्रयास करते हुए रामपुर को उक्त दलित या वाल्मीकि बस्ती का दौरा किया तो बाल्मीकि बस्ती के दलितों द्वारा शासन-प्रशासन को धर्मांतरण के बहाने ब्लैकमेल करने की कहानी सामने आयी। ये दलित साम्प्रदायिक राजनीति का महत्व पूंजीवादी राजनीति व पूंजीवादी मीडिया में समझते थे। उन्होंने इसी को अपना हथियार बनाया और इस काम के लिए ‘बुद्ध पूर्णिमा’ (14 अप्रैल) का दिन चुना। और प्रतीक के रूप में मुस्लिम टोपी पहनाकर सामूहिक फोटो खिंचवाई। ताकि इसे कुछ दलितों के बजाय दलित समुदाय के व्यापक धर्मांतरण का मुद्दा बना कर हिंदू धर्म ध्वजा धारियों की बैचेनी बढ़ाई जा सके। मीडिया ने इसे एक सनसनी खेज खबर के रूप में जानकर बिना पड़ताल किए इसे जोर-शोर से प्रचारित कर दिया और फिर जैसा दलितों ने सोचा वैसा ही हुआ। साम्प्रदायिक संगठनों से लेकर राजनीतिक दल सक्रिय हुए। प्रशासन को अंततः दलितों केे घर न तोड़ने का आश्वासन देना पड़ा और इस आश्वासन के बाद इन दलितों ने घोषणा की कि अब चूंकि उनके घर बच गए हैं। इसलिए वे अपने ‘मूल धर्म’ हिन्दू धर्म में लौट रहे हैं।
लेकिन इस ‘सनसनी खेज’ घटनाक्रम को प्रचारित करते हुए कुछ सभ्य खबरिया न्यूज चैनलों ने नहीं दिखाये या जानबूझकर पर्दे में रखे। सच्चाई यह थी कि किसी मुस्लिम धर्मगुरू ने या उलेमा ने इन दलितों को धर्मांतरित करने की रस्म अदा करने से मना कर दिया था। उनकी तो साफ आलोचना थी कि धर्मांतरण के बहाने प्रशासन को ब्लैकमेल करने और उसमें इस्लाम को इस्तेमाल करने की यह हरकत अनैतिक व नापाक है। जब किसी मौलवी ने इन दलितों को इस्लाम कुबूल करवाने की रस्म अदा करने से मना कर दिया तो उन्होंने प्रतीक रूप में मुस्लिम टोपी पहनकर फोटो खिंचवाने का तरीका अपनाया। यह बात खुद दलित नेताओं ने ‘दि हिंदू’ अखबार के पत्रकारों को बाद में बतायी। इस सच के खुलासे के बाद ‘सनसनी फैलाने वाले न्यूज चैनल व अखबार चुप लगा गए। कोई नये मुद्दे की तलाश में वे जुट गए।
खुद दलितों ने यह ब्लैकमेलिंग की हरकत यूं ही नहीं की। वे यह जानते थे कि उनका घर बचाने की अपील पर तो कोई नहीं आयेगा लेकिन मजहब बचाने तमाम लोग दौड़े चले आयेंगे। वे जानते थे कि धर्म और मजहब का मुद्दा रोटी, मकान व जिंदगी से ज्यादा महत्वपूर्ण बन चुका है।
हिंदू साम्प्रदायिक संगठनों ने इस मुद्दे को अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के सुनहरे मौके के रूप में देखते हुए इसे और मिर्च मसाला लगाकर पेश किया। विश्व हिंदू परिषद की ‘साध्वी’ प्राची ने इस धर्मांतरण के खिलाफ व्यापक जनता को गोलबंद करने का ऐलान किया। तमाम जगह बजरंगियों द्वारा आजम खान के पुतले फूंके जाने लगे। भाजपा नेताओं ने इसे उ.प्र. में व्यापक साम्प्रदायिक ध्र्रुवीकरण पैदा करने के अवसर के रूप में देखा। यह प्रचारित किया गया कि मुसलमानों के घर और बस्तियां इतनी सघन व गलियां संकरी होने के बावजूद उनमें हाथ नहीं लगाया जाता जबकि दलितों के ही घर उजाड़े जा रहे हैं। वास्तविकता जबकि इसके विपरीत है। रामपुर में अधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से दलितों के मुकाबले मुसलमानों के कहीं ज्यादा घर अतिक्रमण हटाओ अभियान का हिस्सा बने हैं। वाल्मीकि बस्ती तोपखाना के केवल 58 घरों को अतिक्रमण हटाओ अभियान के तहत चिह्नित किया गया था लेकिन अतिक्रमण हटाओ अभियान के तहत ध्वस्त किए गए मुस्लिमों के घरों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है। लेकिन मुसलमानों के पास ‘धर्मांतरण’ के बहाने घर बचाने का मौका कहां था।
साम्प्रदायिक तनाव या सियासी तापमान बढ़ने के बाद जब रामपुर के जिलाधिकारी ने दलितों की बस्ती का दौर किया तो दलितों ने मकान न तोड़े जाने का लिखित आश्वासन मिलने के बाद अपने ‘हिन्दू धर्म’ में पुनर्वापसी की घोषणा की।
रामपुर की इस घटना ने पूंजीवादी राजनीति व मीडिया के चरित्र को एक बार फिर नंगा किया है।
रमसाकर्मी आन्दोलनरत
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों में माध्यमिक शिक्षा में कार्यरत रमसा कर्मचारी देहरादून में उन्हें हटाये जाने के संबंध में जारी आदेश
को रद्द करने की मांग को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। परेड ग्राउण्ड पर 11 रमसाकर्मी अनशन पर बैठे हुए हैं।
राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत काम कर रहे ये 1863 कर्मचारी माध्यमिक स्कूलों में प्रयोगशाला सहायक व कार्यशाला सहायक के रूप में काम कर रहे थे। इन सभी की नियुक्ति को लगभग तीन साल हो चुके हैं। इन सभी को आउटसोर्सिंग के जरिये रखा गया था। इसमें उपनल भी थी तथा अन्य प्राइवेट एजेन्सियां भी थीं।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान मुख्यतः केंद्र सरकार की योजना थी। इसे वर्ष 2009 में शुरू किया गया था। भारत सरकार के दावे के हिसाब से इस अभियान का मकसद माध्यमिक स्तर पर शिक्षा में नामांकन के कमजोर प्रतिशतता को बढ़ाना था। इसे वर्ष 2005-06 के 52.2 प्रतिशत नामांकन को 2009-14 में 75 प्रतिशत किया जाना था। इस योजना में खर्च की जाने वाली राशि में केंद्र व राज्य सरकारों का अनुपात 75ः25 का था। स्पष्ट है कि यह योजना मुख्यतः केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली राशि पर निर्भर थी।
राज्य सरकार ने अप्रैल माह में (उत्तराखंड) सभी स्कूलों के लिए जारी आदेश में इन सभी की सेवा समाप्ति के निर्देश दिये हैं। राज्य सरकार के इस आदेश से राज्य के तमाम माध्यमिक स्कूलों में कार्यरत रमसाकर्मी बेरोजगार होकर सड़कों पर संघर्ष करने को विवश हैं।
ऐसा नही है कि यह आंदोलन अप्रैल माह से ही चल रहा हो। आंदोलन पिछले लगभग एक साल से चल रहा है। तब इनकी मांग थी कि इन्हें विभागीय संविदा पर रखा जाय व सेवाओं को नियमित किया जाय। लेकिन केंद्र में मोदी सरकार द्वारा बजट में भारी कटौती के बाद अब ये 1863 रमसाकर्मी पूरी ही तरह से बेरोजगार हो चुके हैं।
इन कर्मियों की स्थिति बजट में कटौती होने से कुछ पहले ही ऐसे होने लगी थी निश्चित तौर पर राज्य के कांग्रेस सरकार भी इनके भविष्य से खिलवाड़ कर रही थी।
लेकिन अब जब कि केंद्र की मोदी सरकार शिक्षा सहित अन्य मदों में खर्च की जाने वाली राशि में भारी कटौती कर चुकी है तब केवल यदि राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की ही बात भी कर ली जाय तो इसके तहत काम करने वाले शिक्षक, प्रयोगशाला व कार्यशाला सहायक जो कि हर राज्य में है जिनकी संख्या भी लाखों में हैं उन्हें मोदी सरकार बेरोजगार बना चुकी है।
सर्व शिक्षा अभियान में पिछले वर्ष के 9193.75 करोड़ रुपये के बजट को मोदी सरकार ने घटाकर 2000 करोड़ कर दिया गया है। उत्तराखंड में सर्व शिक्षा अभियान के तहत मात्र लगभग 39 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है राज्य सरकार द्वारा प्रस्तावित बजट में 88 प्रतिशत की कटौती केंद्र ने की है।
तब इन स्थितियों में जब कि सरकार शिक्षा बजट में काफी कटौती कर चुकी है उसकी मंशा आने वाले वर्षों में और कटौती की है।
राज्य सरकार रमसाकर्मियों के मामले में सीधे सीधे केंद्र सरकार को दोषी ठहरा रही है जबकि योजना में एक चैथाई फंडिंग राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। रमसा के तहत काम कर रहे कर्मचारियों को यह बात समझने की जरूरत है कि केवल उत्तराखंड के स्तर पर ही यह समस्या नहीं है बल्कि देश के हर राज्य में यह सब कुछ हो रहा है। और साथ ही यह भी समझने की जरूरत है कि व्यापक व जुझारू संघर्ष चलाये बिना समस्या को हल करने की दिशा में इंच भर भी नहीं बढ़ा जा सकता है ।
आंदोलन के चलते राज्य की कांग्रेस सरकार ने इन रमसाकर्मियों को बहु उद्देशीय कर्मचारी के बतौर काम पर रखने की बात कही है इस मकसद से प्रस्ताव केबिनेट में रखे जाने की बात सरकार द्वारा की जा रही है। बहु उद्देशीय काम पर रखे जाने से सरकार का क्या आशय है तथा यदि सरकार अपने इस वादे को पूरा कर देती है तभी यह ज्यादा साफ हो जाएगा कि इनकी क्या रमसाकर्मियों की नौकरी की क्या शर्तें व स्थिति होगी। पिछले एक साल की तरह सड़कों पर संघर्ष करते रहना पड़ेगा या फिर कुछ उम्मीद पूरी होगी। अभी तक की स्थिति को देखते हुए व सरकार की नीतियों को देखते हुए रमसाकर्मियों की उम्मीदें पूरी होने की संभावना कम ही है।
देहरादून संवाददाता
लाल ट्रेड यूनियन की जरूरत भेल मजदूरों को भी है
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
भारत हैवी इलैक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) भारत सरकार का एक सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है। हरिद्वार में इसके दो प्लाण्ट हैं- एच.ई.ई.पी. और सी.एफ.एफ.पी.। हरिद्वार स्थित बी.एच.ई.एल. के प्लांट इसके सबसे बड़े प्लाण्टों में से है। टरबाइन, जेरनेटर और ट्रांसफार्मर बनाने में देश के भीतर बी.एच.ई.एल. का एकाधिकार है। देश में उत्पादित होने वाली ऊर्जा का 70 प्रतिशत बी.एच.ई.एल. द्वारा निर्मित उपकरणों से होता है।
बी.एच.ई.एल. के 63 प्रतिशत शेयर सरकार के पास हैं। दो साल पहले केन्द्र सरकार ने अपने 5 प्रतिशत शेयर भारतीय जीवन बीमा निगम को बेच दिये थे। अब फिर से 5 प्रतिशत शेयर और बेचने की बात चल रही है। सरकार के बाद बी.एच.ई.एल. के शेयरों के दूसरे बड़े साझीदार विदेशी संस्थागत निवेशक हैं। इनके पास लगभग 20 प्रतिशत शेयर हैं।
बी.एच.ई.एल. को स्थापित हुए चालीस साल से अधिक हो चुके हैं। इन चालीस सालों में प्रति मजदूर उत्पादन लगातार बढ़ता गया है। बी.एच.ई.एल. के हरिद्वार स्थित प्लांटों में अपने सबसे अच्छे समय में दस हजार से अधिक मजदूर काम करते थे। आज इनकी जगह तीन हजार स्थायी और लगभग उतने ही ठेका के मजदूरों से पिछले किसी समय से अधिक उत्पादन क्षमता बी.एच.ई.एल. हरिद्वार हासिल कर चुका है। इसके बावजूद बी.एच.ई.एल. को विद्युत उपकरण के आर्डर कम होते जा रहे हैं।
आर्डर कम होने के नाम पर बी.एच.ई.एल. प्रबंधन लगातार मजदूरों के अधिकारों और हित लाभों में कटौती करता जा रहा है। बी.एच.ई.एल. प्रबंधन आर्डर कम होने का कारण यह बताता है कि देश में कोयले की आपूर्ति कम होने की वजह से ऊर्जा क्षेत्र में बहुत धीमा विकास हो रहा है। इसकी वजह से भारी विद्युत उपकरण की मांग कम है।
असल बात यह है कि सरकार कोयला, ऊर्जा और भारी विद्युत उपकरण सभी क्षेत्रों में निजी पूंजी को बढ़ावा देना चाहती है। कोल इण्डिया लिमिटेड को कमजोर कर निजी क्षेत्र को कोल ब्लाॅक का आवंटन करना, एनटीपीसी और राज्य सरकार के ऊर्जा निगमों की कीमत पर टाटा, अंबानी, अडाणी के ऊर्जा निगमों को बढ़ावा देना और बी.एच.ई.एल. के प्रतिस्पर्धा में लार्सन एंड टुर्बो को खड़ा करना सभी एक ही प्रक्रिया के हिस्से है।
बी.एच.ई.एल. के स्थायी मजदूर लगभग पूरी तरह से यूनियनीकृत हैं। लेकिन इन यूनियनों को प्रबंधन ने पिछले दशकों में तरह-तरह से भ्रष्ट कर नख-दंत विहीन कर दिया है। यूनियन नेताओं को नयी भर्तियों में चोरी छिपे कोटा देकर और भांति-भांति के विशेषाधिकारों से लाभ पहुंचाकर इनके लड़ाकूपन को कुंद कर दिया गया है।
प्रबंधन और भ्रष्ट यूनियन नेताओं का गठजोड़ इस हद तक पहुंच गया है कि कोई मजदूर थोड़ा सा भी सजग हो तो यह उसके आंखों से नहीं छिप सकता। इसके बावजूद इन ट्रेड यूनियनों की मजदूरों पर पकड़ बहुत मजबूत है। वे तरह-तरह के तीन-तिकड़मों से मजदूरों को अपने झांसे में लेने में सफल है। और जब तक वे सफल हैं तब तक बी.एच.ई.एल. के मजदूरों के अधिकारों में कटौती जारी रहेगी। मजदूरों की राजनीतिक चेतना उन्नत करके ही इस घृणित प्रक्रिया पर लगाम लगाई जा सकती है।
बी.एच.ई.एल. के स्थायी मजदूर भले ही अभिजात मजदूर हैं लेकिन अब वह जमाना बीत गया जब क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन (लाल ट्रेड यूनियन) के बगैर उनके अधिकार बचे रह सकते थे।
हरिद्वार संवाददाता
इंडियन आॅयल कंपनी से निकाले गये सफाई कर्मचारी
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
फरीदाबाद सैक्टर-13 स्थित इंडियन आॅयल कंपनी के ‘रिसर्च और डवलपमेंट प्लांट’ से 150 ठेका मजदूरों को अप्रैल माह के शुरू में निकाल दिया गया है। जिसमें सफाई कर्मचारी और आफिस में काम करने वाले चतुर्थ क्षेणी कर्मचारी शामिल हैं।
इंडियन आॅयल कंपनी के इस प्लांट में प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, सफाई कर्मचारी, गार्डनर आदि सभी ठेके के कर्मचारी हैं और अलग-अलग विभागों के लिए अलग-अलग ठेकेदार हैं। किसी भी ठेकेदार को दो साल के काम का ठेका दिया जाता है। और साल का विस्तार दिया जाता है। इस प्रकार एक ठेकेदार का काॅन्ट्रेक्ट 3 साल का होता है। उसके बाद ठेके का नवीनीकरण किया जाता है। पिछले कई सालों से जब भी ठेका बदलता तो ठेकेदार तो बदल जाते लेकिन कर्मचारी वही बने रहते थे। इंडियन कंपनी में सभी मजदूरों का ईएसआई कार्ड है। सभी का पीएफ काटा जाता है। तथा सभी मजदूरों का वेतन केन्द्र के नियम के अनुसार है। सभी को लगभग 10000 वेतन दिया जाता है। जबकि फरीदाबाद में अन्य फैक्टरी संस्थान में वेतन 5000-6000 है। यही वजह है कि मजदूर चाहते हैं कि उन्हें वहां काम मिले।
मार्च महीने में सफाई कर्मचारी व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी (कैजुअल) देने वाले ठेकेदार का ठेका समाप्त कर दिया गया और नया ठेका दक्ष नाम की कंपनी को मिला है। इस कंपनी उपरोक्त कर्मचारियों के सुपर वाईजर और कर्मचारियों पुराना वेतन देने से इंकार कर दिया और सभी कर्मचारियों को काम से बाहर कर दिया। निकाले गये कर्मचारी 1 अप्रैल से ही इंडियन आॅयल के गेट पर धरने पर बैठ गये। बाद में अन्य ट्रेडों के कर्मचारी उनके समर्थन में आ गये। मजदूरों का कहना है कि ठेकेदार 5000 लेकर नये कर्मचारियों को काम पर रख रहा है। पहले भी ऐसा होता रहा है। ठेकेदार मजदूरों को पूरी तनख्वाह देने के बाद गेट के बाहर कुछ पैसा वापसी मांगते रहे हैं। मजदूरों की मेहनत की कमाई पर ठेकेदार हाथ साफ करते रहे हैं।
मजदूरों का धरना लगभग एक सप्ताह चलने के बाद इस आश्वासन पर कि मजदूर काम पर वापस लिये जायेंगे और लिये जाने वाले मजदूरों की लिस्ट जारी कर दी जायेगी, के बाद धरना समाप्त कर दिया गया है। परंतु 10 अप्रैल तक निकाले गये कर्मचारियों को काम पर नहीं लिया गया था तथा समर्थन में आये मजदूरों के वेतन से अन्य ठेकेदार 5000 रुपये काटने की बात कर रहे हैं। ज्ञात रहे निकाले गये कर्मचारियों में से कई 20 साल पुराने हैं। फरीदाबाद संवाददाता
6 अप्रैल को वीरपुर लच्छी महापंचायत में पारित प्रस्ताव
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
1. खनन माफिया सोहन सिंह, डी.पी.सिंह व हमले में शामिल अपराधियों को तत्काल गिरफ्तार किया जाए। मुकदमें में दफा 307 व 326 लगायी जाए।
2. ग्राम वीरपुर लच्छी में बुक्सा जनजाति के किसानों के खेतों पर डम्परों/भारी वाहनों का संचालन बंद रहेगा। इसमें भारी वाहन चलाने वाले पर एस/एसटी एक्ट में मुकदमा कायम किया जाए।
3. नदियों में खनन, रेता, बजरी इत्यादि उपखनिज के विपणन, उपखनिज का स्टोन क्रेशर में तुड़ान इत्यादि का कार्य निजी क्षेत्र से हटाकर सरकार अपने विभाग/निगम से कराये। ताकि ट्रांसपोर्टकर्मियों को साफ-सुथरा रोजगार मिल सके। और जनता को सस्ता उपखनिज मिल सके।
4. स्टोन क्रेशरों को सरकार अधिग्रहित करे। स्टोन क्रेशर आबादी से दूर नदियों के पास खनन जोन बनाकर वहां पर स्थापित किये जायें।
5. उपखनिज चोरी को गैर जमानती अपराध बनाया जाए।
6. ढिल्लन स्टोन क्रेशर की जांच करवायी जाए। 1 मई 2013 को सोहन सिंह इत्यादि पर लगे मुकदमे वापस लेने की कार्यवाही बंद की जाए।
शासन-प्रशासन की लापरवाही ने ली 17 वर्षीय बालिका की जान
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
उत्तराखण्ड के रामनगर कस्बे से 20 किलोमीटर दूर स्थित गांव वीरपुर लच्छी में शासन-प्रशासन की लापरवाही ने एक 17 वर्षीय बालिका आशा की जान ले ली। 24 मार्च को गांव में एक ढिल्लन स्टोन क्रेशर के लिए उपखनिज ले जा रही ट्रैक्टर ट्राॅली से उछला एक पत्थर आशा की कनपटी के ऊपर लगा। आशा को तुरंत ही अस्पताल में भर्ती कराया गया और अगले दिन उसकी मौत हो गयी। गांव वालों को बालिका की इस मौत ने झकझोर दिया और उन्होंने मामले का हल न होने तक बालिका का अंतिम संस्कार न करने का निर्णय लिया।
वीरपुर लच्छी गांव सबसे पहले उस समय चर्चा में आया था जब 1 मई 2013 को ढिल्लन स्टोन क्रेशर के मालिक सोहन सिंह व उसके दोनों बेटों ने अपने गुण्डों के साथ इस गांव में कहर बरपाया था। ग्रामीणों की झोंपडि़यों को आग के हवाले कर दिया गया, उन पर सीधे फायर किये गये और महिलाओं के साथ हद दर्जे का अमानवीय व्यवहार किया गया। उनके वक्षों पर बंदूक की बट रखकर आसमानी फायर किये गये। रायफलों की बटों से उनको बुरी तरह पीटा गया।
सोहन सिंह का स्टोन क्रेशर इस गांव के दूसरे छोर पर है जहां उपखनिज ले जाने व तैयार माल को वहां से लाने के लिए वीरपुर लच्छी के बीच सैकड़ों डम्पर गुजरते हैं। ग्रामीणों व सोहन सिंह के बीच इस बात पर समझौता हुआ था कि सोहन सिंह इस रास्ते पर पानी का छिड़काव करेगा ताकि रास्ते की धूल उनके घरों में न जाये। लेकिन सोहन सिंह ने इस समझौते का पालन नहीं किया। 1 मई को ग्रामीणों ने इसी समझौते का पालन करने के लिए उसके डम्परों के ड्राइवरों से कहा। इस पर सोहन सिंह व उसके दोनों बेटों ने अपने गुण्डों के साथ इस गांव में यह कहर बरपाया।
सोहन सिंह व उसके दोनों बेटे पहले भी ग्रामीणों को मारने-पीटने-धमकाने का काम करते थे। ग्रामीण अभी तक इनके आतंक के साये मेें रह रहे थे। लेकिन इस घटना ने उनके अंदर आक्रोेश भर दिया। उन्होेंने सोहन सिंह व उसके दोनों बेटों व अन्य के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करायी। इसी दौरान उन्हें रामनगर में स्थित सामाजिक संगठनों व प्रगतिशील संगठनों का साथ मिला। तभी जाकर सोहन सिंह व उसके दोनों बेटों को इस मामले में गिरफ्तार किया गया और उनको जेल भेजा गया। बाद में वे जमानत पर बाहर आ गये। 2 साल से यह मुकदमा कोर्ट में चल रहा है।
लेकिन इस बीच उसके स्टोन क्रेशर का काम बदस्तूर जारी रहा है। उसके डम्परों से लोग दुर्घटना के शिकार होते रहे हैं। परन्तु शासन प्रशासन हर दुर्घटना के बाद पूरी मुस्तैदी के साथ दुर्घटना के मूल कारणों को दबाता रहा है। ग्रामीण बार-बार डम्परों की तेज गति, उनमें भरे हुए अतिरिक्त उपखनिज से निकलने वाले भारी पत्थरों से लोगों के दुर्घटनाग्रस्त होने तथा वीरपुर लच्छी गांव में सड़क न होने के बावजूद डम्पर चलाने के खिलाफ आंदोलन करते रहे लेकिन शासन-प्रशासन सोहन सिंह के साथ खड़ा रहा।
वीरपुर लच्छी गांव में बुक्सा जनजाति के लोग ज्यादा संख्या में रहते हैं। ये लोग बेहद सीधे व सरल स्वभाव के हैं। सोहन सिंह ने कई साल पहले बुक्सा जनजाति के इस गांव में उनके खेतों की तरफ जाने वाली कच्ची सड़क व गूल को पाटकर सड़क बनायी और इसी सड़क से वह अपने डम्परों का परिचालन करता आ रहा है। जिस किसी ने भी विरोध करने की हिम्मत की या आवाज उठायी उसे बंदूक के जोर से कुचल दिया गया। शासन-प्रशासन सोहन सिंह के इस कृत्य पर अपनी आंखें मूंदें बैठा रहा। हां! 26 मार्च की बैठक में शासन-प्रशासन ने अपनी काहिली को कुछ इस तरह ढांपा। उसने कहा कि यह सड़क तो आपने सोहन सिंह के साथ मिलकर अपने हितों के लिए बनायी होगी। यानी पहले तो चोर का साथ दिया और चोर के पकड़े जाने पर कहते हैं कि घरवालों ने खुद चोरी करवायी वरना वह चोरी कैसे कर लेता।
लेकिन ग्रामीणों ने इस बार ठान लिया कि अगर आज इस मामले का कोई हल न निकला तो आगे भी डम्फरों से मौतें होती रहेंगी। कोर्ट में मुकदमा चलता रहेगा। उन्होंने प्रशासन से दो-टूक शब्दों में कहा कि यह रास्ता राजस्व विभाग के किसी नक्शे में नहीं है। अतः इस रास्ते पर डम्पर परिचालन एकदम बंद होना चाहिए। ठोस आश्वासन न मिलने की स्थिति में वे बालिका का अंतिम संस्कार नहीं करेंगे। अंत में प्रशासन को इस बात के लिए मजबूर होना पड़ा। और उसने लिखकर दिया कि यह रास्ता कृषि कार्यों व हलके वाहनों के लिए है। तथा 10 दिन के भीतर इस रास्ते, खेत व गूल की पैमाइश कर स्थिति साफ की जायेगी।
इस बीच दमन विरोधी संघर्ष समिति ने शासन-प्रशासन को इस घटना के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए उससे 10 लाख रुपये मुआवजे की मांग की है। रामनगर संवाददाता
तीन दिवसीय शहादत दिवस कार्यक्रमों का सफल आयोजन
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
रामनगर/ 23 मार्च भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव शहादत दिवस के मौके पर रामनगर, उत्तरखण्ड में प्रभात फेरी का आयोजन किया गया। तीन दिवसीय शहीद दिवस मनाते हुए गठित शहीद दिवस आयोजन समिति द्वारा 23, 24, 25 मार्च को विभिन्न कार्यक्रम किये गये। 23 मार्च की प्रभातफेरी प्रातः 5ः30 बजे लखनपुर चैक से शुरू होते हुए भगतसिंह चैक भवानीगंज तक निकाली गयी। प्रभात फेरी की शुरूआत ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ क्रांतिकारी गीत से की गयी। भगत सिंह चैक पर की गयी सभा में वक्ताओं ने भगतसिंह और उनके विचारों को याद किया। आज की समस्याओं से लड़ने के लिए इन विचारों की आवश्यकता को महसूस किया गया। शहीद चैक के निकट ही भगतसिंह पार्क जो कि जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है वहां जाकर माल्यार्पण किया गया। पार्क के सौन्दर्यीकरण की आवश्यकता महसूस की गयी।
23 मार्च को दिन मे 12 बजे आई.एम.पी.सी.एल. फैक्टरी मोहान में एक गेट मीटिंग की गयी। गेट मीटिंग में मजदूरों के संघर्षों में भगतसिंह के विचारों की आवश्यकता पर जोर दिया गया।
23 मार्च को शाम 5 बजे एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। विचार गोष्ठी व्यापार मंडल कार्यालय पर की गयी। गोष्ठी में वक्ताओं ने विस्तार से भगतसिंह के विचारों और आज के समय में उनकी प्रासंगिकता पर चर्चा की।
24 मार्च को शहीद पार्क में क्रांतिकारी कवि पाश को याद करते हुए कविता पाठ का कार्यक्रम किया गया। 23 मार्च के दिन ही कवि पाश की पंजाब में आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी गयी थी। पाश की कविताएं आजाद भारत के पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न को उजागर करती हैं। ऐसी ही प्रेरणादायी कविताओं का पाठ विभिन्न लोगों द्वारा किया गया। जिनके द्वारा पाश को श्रद्धांजलि पेश की गयी। कविता पाठ बल्ली सिंह चीमा, नवेन्दु मठपाल, एल.एम.पाण्डे, अजीत साहनी आदि ने किया। परिवर्तनकामी छात्र संगठन, इंकलाबी मजदूर केन्द्र व अन्य संगठन के साथियों द्वारा क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत किये गये।
25 मार्च को दोपहर 12 बजे नगरपालिका भवन में पत्रकार उमेश डोभाल की शहादत दिवस को याद करते हुए विचार गोष्ठी की गयी। पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या माफियाओं द्वारा 25 मार्च 1988 को पौड़ी, उत्तराखण्ड में कर दी गयी। उमेश डोभाल एक जुझारू, निर्भीक पत्रकार रहे हैं। जो कि दलितों की आवाजों को स्वर देते थे। गोष्ठी में उमेश डोभाल को श्रद्धांजलि देते हुए उनके पत्रकारिता जीवन को याद करते हुए आज के पत्रकारिता में कारपोरेट घरानों की दखलंदाजी पर चर्चा की गयी। उमेश डोभाल जैसे पत्रकार बनने की आवश्यकता को शिद्दत से महसूस किया गया।
उपरोक्त कार्यक्रम शहीद दिवस आयोजन समिति द्वारा बनाये व चलाये गये। समिति में परिवर्तनकामी छात्र संगठन, इंकलाबी मजदूर केन्द्र, प्रगतिशील महिलए एकता केन्द्र, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी, नौजवान भारत सभा, आर.डी.एफ., कर्मचारी शिक्षक संगठन, देवभूमि व्यापार मण्डल रामनगर और तमाम जागरूक नागरिकों द्वारा गठित किया गया। रामनगर संवाददाता
शहीद भगतसिंह की याद मे सभा
पंतनगर/ 23 मार्च को भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव के शहादत दिवस के मौके पर इंकलाबी मजदूर केन्द्र, ठेका मजदूर कल्याण समिति तथा वर्कर्स यूनियन, पन्तनगर के तत्वाधान मे गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के छोटी मार्केट के पीछे मैदान मे आयोजित सभा में मेहनतकश मजदूरों की पूर्ण आजादी के नायक महान क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के जीवन की चर्चा और उनके संघर्षों को याद कर श्रद्धांजली दी गई।
भारत में ऐसी व्यवस्था शोषणविहीन, वर्गविहीन समाजवादी राज का भगत सिंह का सपना साकार करने में उनकी विचार धारा से प्रेरणा लेकर समाजवाद के स्थापना के संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया। सभा का संचालन श्री मनोज कुमार ने किया व अध्यक्षता श्री सुनील मण्डल जी ने की। सभा से पूर्व ‘भगत सिंह की बात सुनो, समाजवाद की राह चुनो’ शीर्षक पर्चा मजदूर बस्तियों में घर-घर बांटा गया। पन्तननगर संवाददाता
शहीदों की याद में साइकिल रैली
हल्द्वानी/ 23 मार्च भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव के शहादत दिवस मनाते हुए हल्द्वानी-लालकुंआ में साइकिल रैली निकाली गयी। भगतसिंह ने कहा था ‘‘क्रांति का संदेश नौजवानों को गरीब बस्तियों, किसानों-मजदूरों के बीच ले जाना होगा।’’ साइकिल रैली गरीब बस्तियों, गांवों से होते हुए गुजरी। लाल झंडों, और जोशो-खरोश से निकली साइकिल रैली जहां से भी गुजर रही थी। वहां की फिजा में जोश भर दे रही थी। रैली के दौरान तमाम चैकों पर छोटी-छोटी सभाएं की गयीं।
परिवर्तनकामी छात्र संगठन के आह्वान पर साइकिल रैली में इंकलाबी मजदूर केन्द्र, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र व तमाम नागरिकों ने हिस्सेदारी की। हल्द्वानी संवाददाता
गणेश शंकर विद्यार्थीः एक परिचय
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
आज जब देश के किसी न किसी कोने से जब तब हम साम्प्रदायिक तनाव या हिंसा की खबर सुनते हैं तो शहीद-ए-आजम भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी व गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकारों की बरबस ही याद आ जाती है।
देश संघ द्वारा प्रायोजित हिन्दू फासीवाद की प्रयोगशाला बना हुआ है। अल्पसंख्यकों तथा उनके प्रार्थना स्थलों पर हमले किये जा रहे हैं। ऐसे में गणेश शंकर विद्यार्थी के बारे में जानना बेहतर होगा, जिन्हें कानपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के दौरान उन्मादी भीड़ ने मार डाला गया।
गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 में हथगांव में हुआ। उनके पिता मध्य प्रदेश के एक स्कूल में अध्यापक थे। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा वहीं से प्राप्त की। 1905 में हाई स्कूल पास किया आर्थिक तंगी के कारण वे अपनी आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सके। पढ़ाई बीच में रोककर उन्होंने करंसी आॅफिस में क्लर्क के पद पर नौकरी की तथा बाद में हाई स्कूल, कानपुर में अध्यापन का कार्य किया। परन्तु उनकी प्रमुख पसंद पत्रकारिता व समाज में चल रही गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी करना था।
देश में आजादी के आंदोलन के उभार के साथ गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता करने लगे। उन्होंने प्रारम्भ में कर्मयोगी तथा स्वराज में लिखना शुरू किया। गणेश शंकर विद्यार्थी ज्ञान की खोज में लगे रहने वाले व्यक्ति थे। इसी दौरान वे पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आये और द्विवेदी जी ने उन्हें सरस्वती पत्र में उप सम्पादक के पद पर कार्य करने के लिए आमंत्रित किया।
1913 में वे कानपुर वापस आ गये जहां उन्होंने अपने को एक जुझारू पत्रकार एवं स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्थापित किया। उन्होंने प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र प्रताप निकाला, जो 1920 में दैनिक पत्र के रूप में छपने लगा था। प्रताप पत्र जुझारू, गरीब मजदूर-किसानों तथा पददलितों की आवाज को उठाता था। इसका अधिकतर वितरण मजदूरों व किसानों के बीच होता था। उन्होंने अपने को देश के पददलितों व वंचितों के साथ जोड़ा। उन्होंने रायबरेली के प्रसिद्ध किसानों व मजदूरों के मुद्दों को अपने पत्र के माध्यम से उठाया। इस दौरान उन पर बहुत से मुकदमे चले, जिसके चलते गणेश शंकर विद्यार्थी पर आर्थिक दण्ड के अलावा पांच साल के लिए जेल भी जाना पड़ा। इसके अलावा उन्होंने कानपुर के टेक्सटाइल उद्योग में लगे मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व किया।
1920 में ही उन्हें किसानों के आंदोलन को आगे बढ़ाने पर दो साल का सश्रम कारावास दिया गया। 1922 में रिहा हुए परन्तु फतेहगढ़ में एक भाषण में राजद्रोह भड़काने के आरोप में पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। 1924 में वे रिहा हुए। इस दौरान उनकी सेहत बहुत तेजी से गिरी। 1925 में जब प्रांतीय विधान मंडलों के चुनाव हुए तो उसमें वे कानपुर से विजय घोषित हुए। 1929 तक उन्होंने विधान मंडल के सदस्य के बतौर काम किया। 1929 में उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व के कहने पर यह पद छोड़ दिया। 1929 में उŸार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गये। वे उत्तर प्रदेश में सत्याग्रह आंदोलन को नेतृत्व देने वाले पहले सत्याग्रही बने। 1930 में वे पुनः गिरफ्तार कर लिये गये।
गणेश शंकर विद्यार्थी वैसे तो कांग्रेसी लेकिन क्रांतिकारियों के लिए उनके दिल में बहुत प्रेम व श्रद्धा थी। वे क्रांतिकारियों की गुप्त रूप से मदद करते थे। कानपुर में प्रताप का कार्यालय क्रांतिकारियों का गढ़ हुआ करता था। भगत सिंह भी बलवंत सिंह के नाम से प्रताप में लेख लिखा करते थे। प्रताप शीघ्र ही राष्ट्रीय आंदोलन के साथ-साथ मजदूरों-मेहनतकशों की आवाज व धर्मनिरपेक्षता का एक सशक्त प्रतिनिधि व मुखर स्वर बन गया।
1930 में वे कांग्रेस के कराची अधिवेशन में हिस्सा लेने के जाने की तैयारी कर रहे थे कि कानपुर में दंगे फूट पड़े। गणेश शंकर विद्यार्थी अपनी जान की परवाह किये बगैर इन दंगों की आग बुझाने के लिए खुद इस आग में कूद गये। उन्होंने लगातार 5 दिनों तक हजारों हिन्दू-मुसलमानों की जान बचाई और वे दोनों तरफ के दंगाइयों को अपने नैतिक आग्रह से नफरत व हिंसा त्यागने की अपील करते दंगाग्रस्त शहर में घूमते रहे। इसी समय 25 मार्च, 1931 को दंगाइयों की उन्मादी भीड़ के हाथों वे मारे गये।
कुशीनगर में हिन्दू युवा वाहिनी की दहशतगर्दी पर अखिलेश सरकार चुप क्यों
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
लखनऊ, 27 फरवरी 2015। गोधरा कांड की तेरहवीं बरसी पर रिहाई मंच ने गुजरात के पूर्व डीजीपी आरबी श्रीकुमार का एक पत्र मीडिया में जारी करते हुए सपा सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने जानबूझकर गोधरा कांड के चश्मदीद यूपी के पुलिस अधिकारियों का बयान इस कांड की जांच कर रही एसआईटी के सामने नहीं होने दिया। रिहाई मंच ने कहा है गोधरा कांड के चश्मदीदों को छुपाना, 2007 में सपा सरकार के दौरान गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर भड़काऊ भाषण देकर पडरौना, कसया, गोरखपुर, मऊ समेत पूरे पूर्वांचल को दंगे की आग में झोंकने वाले भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के भाषण की पुष्टि होने के बावजूद उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं होने का ही परिणाम है माधवपुर कुशीनगर की घटना जहां डेढ़ सौ मुसलमानों को जान बचा कर गांव से भागना पड़ा है।
रिहाई मंच के प्रवक्ता शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने गुजरात के पूर्व डीजीपी आरबी श्रीकुमार के पत्र के हवाले से सपा सरकार और मुलायम सिंह पर भाजपा और संघ परिवार की सांप्रदायिक गतिविधियों का संरक्षण देने का आरोप लगाते हुए कहा कि सपा सरकार के इसी रवैये के कारण गोधरा कांड की एक महत्वपूर्ण असलियत सामने नहीं आ पाई जिसके सन्दर्भ में गुजरात पुलिस के पूर्व डीजीपी आरबी श्रीकुमार ने 27 मार्च 2012 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और 30 जुलाई 2012 को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को पत्र लिखकर तथ्यों को बताने की मांग की थी। श्रीकुमार ने मुख्यमंत्री को लिखे पत्र में बताया था कि अपै्रल/मई 2010 में उन्हें इसकी पुख्ता जानकारी मिली थी कि उत्तर प्रदेश सरकार ने अयोध्या से लौट रहे कारसेवकों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए प्रदेश के कुछ पुलिस अधिकारियों को उसी ट्रेन में भेजा था। जिसके बारे में उन्हें जानकारी मिली है कि इन पुलिस अधिकारियों ने साबरमती एक्सप्रेस की एस 6 बोगी में आग लगने की पूरी घटना को अपनी आंखों से देखा था। लेकिन बावजूद इसके सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त आरके राघवन के नेतृत्व वाली एसआईटी ने उत्तर प्रदेश के इन पुलिस अधिकारियों से कभी कोई पूछ-ताछ नहीं की। जिसके बारे में श्रीकुमार ने जस्टिस नानावटी कमीशन को भी मई 2010 में ही बता दिया था। जिसकी कापी उन्होंने अखिलेश यादव को भी भेजी थी। श्रीकुमार ने पत्र में आशंका व्यक्त की है कि यूपी पुलिस अधिकारियों से इसलिए पूछताछ नहीं की गई कि मोदी और तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी द्वारा टेªन को जलाने के पीछे मुसलमानों का हाथ बताने के झूठे प्रचार की पोल खुल सकती थी। उन्होंने पत्र में यह भी कहा है कि यूपी पुलिस के बयान एसआईटी के आग लगने के निष्कर्षों के विपरीत जा सकते थे, जिसके कारण उनके बयान नहीं दर्ज किए गए। क्योंकि अगर ऐसा होता तो संघ परिवार और भाजपा का मुस्लिम विरोधी अभियान नहीं चल पाता। यह पत्र जिसे उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर बीएल जोशी को भी प्रेषित किया है, में मुख्यमंत्री से अपील की थी कि वे उत्तर प्रदेश के उन पुलिस अधिकारियों को चिह्नित करें और उनके बयान जस्टिस नानावटी कमीशन और दूसरे उचित न्यायिक संस्थाओं के समक्ष रखवाएं, ताकि कानून के राज, लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता की रक्षा की जा सके।
रिहाई मंच के नेताओं ने आरोप लगाया कि इतने महत्वपूर्ण सवाल पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव द्वारा गोधरा काण्ड के चश्मदीद पुलिस अधिकारियों का ब्योरा छुपाना सपा के सांप्रदायिक चरित्र को उजागर करता है। भाजपा सांसद आदित्यनाथ के भड़काऊ भाषणों की पुष्टि राज्य सरकार की एजेंसियों द्वारा हो जाने के बाद या फिर रिहाई मंच द्वारा भाजपा विधायकों संगीत सोम, सुरेश राणा द्वारा सांप्रदायिकता भड़काने की घटना के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराने के बावजूद कार्रवाई का न होना सपा और भाजपा के गुप्त गठजोड़ को उजागर कर देता।
रिहाई मंच के नेता अनिल यादव ने कहा कि उत्तर प्रदेश के कुशीनगर इलाके के माधोपुर गांव में हिंदू युवा वाहिनी के गुंडों जिनके सरगना भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ हैं, के हमले से घबराए डेढ़ सौ मुसलमान अपने गांवों से भागने को मजबूर हो गए हैं लेकिन मुलायम सिंह और अखिलेश शादी-ब्याह में मोदी से गले मिलने में ही मशगूल हैं। वहीं एमनेस्टी इंटरनेशल जैसी संस्था की रिपोर्ट में मोदी के शासन में बढ़ती सांप्रदायिक घटनाओं में उत्तर प्रदेश को साम्प्रदयिक घटनाओं के लिहाज से सबसे प्रमुख रूप से चिह्नित किया जाना भी प्रदेश सरकार की साम्प्रदायिक राजनीति के संरक्षण को प्रमाणित करता है। उन्होंने कहा कि जब प्रदेश सरकार के कई मंत्रियों और एजेसियों की रिपोर्टों तक में योगी आदित्यनाथ द्वारा साम्प्रदायिक और भड़काऊ भाषण देने की बात कही जाती रही है फिर भी उनके खिलाफ कार्रवाई न किया जाना साबित करता है कि सपा सरकार उनका खुला संरक्षण कर रही है। उन्होंने कहा कि एक गांव के डेढ़ सौ मुसलमानों का अपनी जान बचाकर भागने पर भी सरकार की चुप्पी, उसके मुखिया का पारिवारिक भोज में मोदी से गले मिलना और काॅपोरेटपरस्त रेल बजट की तारीफ करना मजह संयोग नहीं है। सपा-भाजपा के सांप्रदायिक गठजोड़ का ही नमूना था कि मुसलमानों की गर्दन काटने वाले विवादित बयान में वरुण गांधी को सपा सरकार द्वारा क्लीनचिट दिलवाया जाना।
शाहनवाज आलम
प्रवक्ता, रिहाई मंच
09415254919
बांग्लादेशः सीमेन्ट फैक्टरी के ढहने से कई मजदूरों की मौत
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
12 मार्च को बांग्लादेश में सीमेण्ट फैक्टरी के ढहने से कई मजदूरों की मौत हो गयी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अभी तक 6 मजदूरों की मौत की पुष्टि हो गयी है। हालांकि यह संख्या अभी बढ़ सकती है क्योंकि करीब 100 मजदूर अभी भी मलबे के अंदर दबे हैं। इस बीच 40 मजदूरों को मलबे से बाहर निकाला जा चुका था।
यह सीमेण्ट फैक्टरी राजधानी ढाका से 355 किसी दूर मोंगल कस्बे में है। इसका संचालन सेना की इकाई सेना कल्याण संगठन के अधीन है। यह सीमेण्ट फैक्टरी इस संगठन के अधीन चलने वाला सबसे बड़ा संस्थान है। इस दुर्घटना ने एक बार फिर 2013 में राणा प्लाजा बिल्डिंग हादसे की याद ताजा कर दी जिसमें 1350 मजदूर मारे गये थे।
बांग्लादेश में बिल्डिंगों का रख-रखाव कितना खराब है इसका सहज अंदाजा इन हादसों से लगाया जा सकता है। निजी पूंजीपतियों की फैक्टरियों में दुर्घटनायें होना आम बात है लेकिन जब सेना द्वारा संचालित फैक्टरी में इस तरह के हादसे होते हैं तो मामला ज्यादा गंभीर हो जाता है। गम्भीर इस मामले में कि सरकारी संस्थानों में भी उत्पादन का लक्ष्य सिर्फ मुनाफा कमाना रह गया है मजदूरों का जीवन नहीं। सवाल उठता है कि क्या यह वही जन मुक्ति सेना है जिसने 1971 का मुक्ति युद्ध लड़ा था। और आज यह सिर्फ मुनाफे के लिए उत्पादन कर रही है।
आज कल बांग्लादेश में 1971 के युद्ध अपराधियों को सजा देने का कार्यवाही तेजी से हो रही है। क्या इस तरह के हादसे में मारे जाने वाले मजदूरों की हत्याओं के लिए कोई जिम्मेदार ठहराया जायेगा जिसे सजा होगी। इसका जबाव केवल मजदूर वर्ग ही दे सकता है।
एच एम टी घड़ी कारखाना मजदूरों द्वारा धरना-प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
एच एम टी घड़ी कारखाना जो कि सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है तथा उत्तराखंड के रानीबाग (नैनीताल) में 1982 में स्थापित किया गया था।सरकार द्वारा तब यह बात कही गई कि आर्थिक रूप से पिछड़े पर्वतीय क्षेत्र के युवाओं को रोजगार दिया जायेगा। एचएमटी को भारत में मैकेनिकल घडि़यों के उत्पादन के लिए जाना जाता है, जो कि अब बंदी की कगार पर है। लगभग 45 करोड़ रूपये के देशी-विदेशी ऋण से स्थापित यह कारखाना एचएमटी के मुख्यालय प्रबंधन की भेदभाव पूर्ण नीतियों व क्षमतानुरूप लक्ष्य न देने एवं कुप्रबंधन जैसे कारणों को छुपाने केे लिए कारखाने की बैलेंससीट में छेड़छाड़ कर कारखाने को बंद करने के प्रस्ताव को एचएमटी का उच्च प्रबंधन एवं बोर्ड गलत तथ्यों को सरकार को भेजता रहा है।
1992 में 1266 कर्मचारियों की तुलना में वर्तमान में यहां 524 कर्मचारी ही बचे हैं। जिनमें से अधिकतर की कार्यावधि 8 से 12 वर्ष बची हुई है। जिन्हें पिछले एक वर्ष से वेतन नहीं मिला है तथा मात्र जीवनयापन के लिए 4000 रू. मासिक दिया जा रहा है। जबकि उनका वास्तविक वेतन 25000 से 27000 रू. है। स्वास्थ्य सुविधा के रूप में जो एक डाक्टर यहा पर स्थाई रूप से रहता था उसे भी प्रबंधन ने सेवा मुक्त कर दिया है। 12 लाख रू. से अधिक का बिल होने के कारण दिसम्बर 2013 से फैक्टी की विद्युत आपूर्ति भी ठप्प है। जिस कारण डिफेंस का 50 लाख का आर्डर भी पेडिंग है। कारखाने में वर्तमान में घडि़यों के अतिरिक्त डिफेंस, आर एंड डी व अन्य कारखानों के कलपुर्जों का निर्माण किया जा रहा है व एचएमटी इंटरनेशनल के माध्यम से लगातार मैकेनिकल घडि़यों के आर्डर मिल रहे हैं। तथा कारखाने में पूर्व से चल रहे रक्षा अनुसंधान के करोड़ों रू. के आर्डर भी लंबित चल रहे हैं जो प्रबंधन की नीति व संसाधनों के अभाव में पूरे नहीं हो पा रहे हैं। इसकी सजा मजदूरों को दी जा रही है।
यह सब केन्द्र सरकार की 1991 से चल रही नई आर्थिक नीतियों के तहत हो रहा है। जिसमें सार्वजनिक उपक्रमों की खस्ता हालत दिखाकर या तो निजी हाथों में सौंपा जा रहा है या फिर बंद किया जा रहा है। जिसकी गाज एचएमटी घड़ी कारखाना-5 रानीबाग पर भी गिरी है। जिस कारण वहां के 524 मजदूर द्वारा 18 फरवरी से तीन दिन का सांकेतिक धरना दिया गया तथा फैक्टी को सुचारू रूप से चलाने की मांग की गई। धरना कारखाने की तीन मजदूर यूनियनों द्वारा दिया गया। इंकलाबी मजदूर केन्द्र व अन्य राजनीतिक पार्टियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मजदूरों की मांगों का समर्थन कर धरने में भागीदारी की। लेकिन प्रबंधन द्वारा इन पर लगातार वीआरएस/वीएसएस या स्थानांतरण का दबाव बनाया जा रहा है। जबकि कार्यरत कर्मचारियों का वार्षिक वेतन बिल लगभग 20 करोड़ रू. है। सूत्रों से पता चला है कि कर्मचारियों के लिए बनाये जा रहे वीआरएस/वीएसएस पैकेज का मूल्य लगभग 250 करोड़ रू. है। अगर इस रकम को बैंक में रखा जाय तो उसका वार्षिक ब्याज ही 22.50 करोड़ रू. आता है जो कि कर्मचारियों के वार्षिक वेतन से कहीं ज्यादा है।
लेकिन सरकार की मंशा फैक्टी को स्थाई रूप से चलाने के बजाय बंद करने की है। संयुक्त संघर्षशील मोर्चे के तहत लड़ रहे मजदूरों को सचेत रूप से इस बात को समझने की जरूरत है कि वर्तमान शासक उनकी इस मांग को मानने वाले नहीं हैं। इसलिए दलगत राजनीति को छोड़ मजदूरों को सड़कों पर उतरना होगा। यह लड़ाई केवल एक फैक्टरी की नहीं बल्कि आज पूरे देश भर के मजदूर वर्ग की है। चाहे वह सार्वजनिक क्षेत्र हो या निजी क्षेत्र, चाहे वह स्थाई मजदूर हो या अस्थाई मजदूर सभी इस जन विरोधी उदारीकरण की नीतियों के शिकार हैं। आज इन नीतियों को पलटे बगैर देश के मजदूर वर्ग की हालत में कोई सुधार संभव नहीं है। और इन नीतियों को पलटने के लिए देश भर के मजदूर वर्ग को एकजुट होना होगा। हल्द्वानी संवाददाता
बी.टेक. की बगैर जांची परीक्षा कापियां कबाडी के पास
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
उ.प्रदेश टेक्निकल यूनिवर्सिटी की बी.टेक. पंचम सेमेस्टर की परीक्षा कापियां कबाड़ी की दुकान में पायी गयीं। इन कापियों का तो मूल्यांकन भी नहीं किया गया था। तकनीकी शिक्षा देने वाली इस यूनिवर्सिटी की छात्रों को शिक्षित करने और उनका उचित मूल्यांकन करने के रुख का इस घटना से अच्छी तरह पता चलता है।
ये परीक्षा कापियां उत्तर प्रदेश के चिह्नित में एक कबाड़ी वाले के यहां मिलीं। अधिकतर कापियों में जनवरी 2015 की तारीख पड़ी थी। सेमेस्टर परीक्षा 22 दिसम्बर 2014 से जनवरी 2015 के अंत तक चली थीं। इनकी जांच भी नहीं की गयी थी और ये कबाड़ी के पास पहुंच गयीं। अधिकतर परीक्षा कापियां इलैक्ट्रोनिक्स व संचार तथा कम्प्यूटर साइंस विभाग की हैं। अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अंकतालिका में नम्बर कैसे दर्ज होंगे? इस घोर लापरवाही की सजा छात्रों को भुगतनी पड़ती है। जब परीक्षा कापियों को बगैर जांचे ही कबाड़ी को देना है तो फिर पढ़ाई-लिखाई में मेहनत क्यों की जाये? यूनिवर्सिटी को जब परीक्षा कापियों से ही मतलब नहीं है, जब परीक्षा कापियों में क्या लिखा है, इससे भी कोई लेना-देना नहीं है तो तकनीकी शिक्षा का क्या महत्व रह जाता है। शिक्षा व्यवस्था व परीक्षा प्रणाली द्वारा छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ का यह ताजा उदाहरण है।
वैसे तो पूरे ही देश से छात्रों-बेरोजगारों के साथ भद्दा मजाक और भविष्य से खिलवाड़ की जब-तब खबरें आती ही रहती हैं। कभी कोई पेपर लीक हो जाता है, कापियां जांचने में भारी लापरवाही की जाती है, उचित मूल्यांकन नहीं किया जाता, परीक्षा कराने में देरी होती है, परीक्षा परिणामों में ढ़ेरों त्रुटियां होना आदि इसके चंद उदाहरण हैं। लेकिन यह घटना तो हद दर्जे की लापरवाही और परीक्षार्थियों के साथ घटिया व्यवहार की श्रेणी में आती है।
हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और परीक्षा प्रणाली छात्रों-नौजवानों का उत्पीड़न करने वाली है। यह उत्पीड़न इस हद तक है कि छात्रों का आत्महत्या करना आम बात है। उक्त घटना में भी इस बात की भी संभावना है कि कड़ी मेहनत करने वाले छात्रों को जब आशानुरूप अंक न प्राप्त हो तो वे काफी निराशा में जा सकते हैं और आत्महत्या की ओर उन्मुख हो सकते हैं। हर साल पहले हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आते हैं और उसके बाद आती हैं असफल या कम अंक प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राओं द्वारा की गयी आत्महत्याओं की खबरें। पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में विद्यमान गलाकाटू प्रतियोगिता शिक्षा में और विशेष तौर पर प्रतियोगी परीक्षाओं में अपने को जाहिर करती हैं। परीक्षाओं में ‘अच्छे’ और ‘ऊंचे’ अंक पाने का दबाव छात्रों के संग अभिभावकों को भी घोर मानसिक यंत्रणा में पहुंचा देता है। छात्रों के लिए परीक्षाओं का समयकाल युद्धकाल के समान होता है। सबको रोजगार देने में अक्षम इस पूंजीवादी व्यवस्था में जो मुट्ठी भर भर्तियां निकलती भी हैं तो उसके लिए छात्रों-नौजवानों के मध्य भीषण प्रतियोगिता होती है। यह भीषण प्रतियोगिता किसी भी कीमत पर सफल होने के दबाव के साथ दोस्त को भी दोस्त नहीं रहने देती।
‘जम्मू कश्मीर आपदा राहत मंच’ की आय-व्यय का ब्यौरा
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
सितम्बर 2014 में जम्मू-कश्मीर में आयी आपदा ने भयानक तबाही मचाई। तमाम लोग मारे व लापता हो गये। घर-बार उजड़ गये, कारोबार चैपट हो गया था। इस भयानक तबाही के बावजूद प्रदेश व केन्द्र सरकार का रवैया बेहद निराशाजनक रहा।
जम्मू-कश्मीर के आपदाग्रस्त क्षेत्रों में अपनी क्षमताभर राहत पहुंचाने के लिए ‘नागरिक’ समाचार पत्र द्वारा 28 सितम्बर से 4 अक्टूबर तक वहां
राहत कैम्प चलाये गये। ‘जम्मू-कश्मीर आपदा राहत मंच’ का गठन कर देश की मेहनतकश आबादी से इस कार्य में सहयोग की अपील की गयी। दिल्ली, मेरठ, देहरादून, हल्द्वानी, रामनगर, रुद्रपुर, काशीपुर, कोटद्वार, बरेली, मऊ, गुड़गांव, फरीदाबाद आदि शहरों से चंदा व दवाइयां एकत्रित की गयी। इसके अतिरिक्त तमाम अन्य जगहों से भी सहयोग प्राप्त हुआ।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र, परिवर्तनकामी छात्र संगठन, प्रोगेसिव मेडिकोज फोरम, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र, क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन सहित कई ट्रेेड यूनियनों के द्वारा चंदा व दवाइयां एकत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।
28 सितम्बर से 4 अक्टूबर तक चले चिकित्सा शिविर में स्थानीय नौजवानों ने भरपूर मदद की। 8 लोगों की टीम के रहन-सहन का भी इंतजाम स्थानीय लोगों द्वारा ही किया गया। चिकित्सा शिविर धरनूमांटी पोरा, स्थल, आरिगत्नू, नवोतु, सम्सीपोरा, नई बस्ती अनन्तनाग, श्रीनगर के खुरसु, राजबाग, मंदरबाग समेत एक दर्जन से अधिक स्थानों पर आयोजित किये गये। चिकित्सा शिविर में बड़ी संख्या में मरीजों का उपचार किया गया।
‘नागरिक’ समाचार पत्र द्वारा गठित ‘जम्मू-कश्मीर आपदा राहत मंच’ के बैनर तले एकत्रित की गयी धनराशि के इतर कई शहरों से दवाइयों के रूप में भी सहयोग प्राप्त हुआ था। यह ब्यौरे में दर्ज नहीं है। ब्यौरे में वही दवाएं शामिल हैं जो टीम द्वारा खरीदी गयीं। आय-व्यय का ब्यौरा इस प्रकार हैः(देखें तालिका)
1 लाख 27 हजार रुपये की धनराशि ‘नागरिक’ समाचार पत्र के पास सुरक्षित है जिसे भविष्य में ऐसे ही किसी संकट के समय व्यय किया जायेगा। सम्पादक
प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ फूटा आक्रोश
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
बलिया, 24 फरवरी 2015 विकासखण्ड पन्दह ‘‘क्षेत्रीय संघर्ष समिति गढ़मलपुर-सहुलाई द्वारा आयोजित कार्यक्रम में स्थानीय सैकड़ों ग्रामीणों ने प्रा.स्वा. के. के गेट पर धरना एवं जनसभा की। स्थानीय ग्रामीणों ने पंचायत भवन से ‘हमारी मांगें पूरी हो’ नारा लगाते हुए जुलूस निकाला। जुलूस व जनसभा में क्रालोस, इमके व किसान फ्रंट सहित महिलाएं भी प्रतीकात्मक शामिल रहे।
ज्ञात हो गत वर्षों से गढ़मलपुर-सहुलाईपुर का प्रा.स्वा. केन्द्र भ्रष्टाचार व दुव्र्यवस्था का शिकार हो गया है। क्षेत्रीय जनता को चिकित्सीय सुविधा नहीं मिल रही है। इलाके में बीमार होने की अवस्था में जिला चिकित्सालय या अन्य अस्पताल 40-50 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। स्थानीय अस्पताल में चिकित्सक और दवा व फार्मेसिस्ट के न होने से जनता में आक्रोश बढ़ता गया। इसके लिए 24 जनवरी व 15 फरवरी 2015 को सक्षम उच्च अधिकारियों तक ग्रामीणों ने ज्ञापन दिया। किन्तु कोई सफलता नहीं मिली। अपनी सुविधाओं की मांग को लेकर ‘‘क्षेत्रीय संघर्ष समिति’’ ने 24 फरवरी 15 को स्थानीय अस्पताल में तालाबंदी की घोषणा कर दी।
‘‘क्षेत्रीय संघर्ष समिति’’ द्वारा पर्चा, पोस्टर, निकाल कर जनसमस्याओं के प्रति ग्रामीणों को जागरूक किया। ग्रामीणों के आक्रोश एवं जागरूकता से शासन-प्रशासन की नींद 24 फरवरी 2015 को 10बजे सुबह से पहले ही खुल गयी। अस्पताल में चिकित्सक, दवा और फार्मेसिस्ट आ चुके थे। जिला मुख्यचिकित्साधिकारी को सभी मांगें मान लेने का स्पष्ट निर्देश दे दिया। टीकाकरण में घूस एवं आशा कार्यकत्रियों का उत्पीड़न एवं शोषण बंद करने की भी हिदायत दी गयी। ग्रामीणों की मांगों को लिखित रूप में प्रभारी चिकित्साधिकारी द्वारा मान लिया गया। अंत में आयोजकों द्वारा शामिल जनता का आभार प्रकट करते हुए जनसभा खत्म कर दी गयी।
छोटा संघर्ष-छोटी जीत संघर्षों पर निर्भर करता है। उत्साह एवं जोश से भरपूर संघर्षाें से इसी तरह की समस्याओं के प्रति अपने अधिकारों के लिए सोचने-विचारने की जरूरत है। स्वास्थ्य संबंधी जनसमस्याओं की तरह बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा, महंगाई आदि से जीवन तबाह हो रहा है। इन समस्याओं के जरिए मौजूदा व्यवस्था को समझा जा सकता है। यह व्यवस्था जनविरोधी व्यवस्था है। किसी काम की नहीं है। जनविकास के नाम पर सन् 1990-91 से ही मजदूर-मेहनतकश जनता, किसानों, छात्रों-नौजवानों को बरगलाया जा रहा है। जनहित की संस्थाओं को ध्वस्त कर पूंजीपरस्त संस्थाओं को पूंजीपतियों के लाभ के लिए बढ़ावा दिया जा रहा है। जोश के साथ होश में सचेत समझदारी के साथ निरन्तर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष व एकजुटता बनाए रखने की जरूरत है।
बलिया संवाददाता
इम्पीरियल आटो: ठेका प्रथा, मेहनत की लूट और तरक्की की मिसाल
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
इम्पीरियल आटो की शुरूआत सन् 1969 में एक छोटी सी वर्कशाॅप से हुई थी। इसके मालिक जगजीत सिंह और श्याम बिहारी सरदाना हैं। 31 मार्च, 1998 तक यह पार्टनरशिप कंपनी में चलने वाली प्राइवेट और अपै्रल, 1998 से यह प्राइवेट लिमिटेड कंपनी हो गयी। एक वर्कशाॅप से शुरू होकर एक बड़े उद्योग का रूप बन चुकी है। फरीदाबाद में इसके 16 प्लांट हैं और रुद्रपुर, लखनऊ, जमशेदपुर, पुणे, चेन्नई, गुजरात में भी प्लांट हैं। अमेरिका और यूरोप में इसके केयर हाउस हैं जहां से अमेरिका और यूरोप की कंपनियों को सप्लाई होती है। श्यामबिहारी सरदाना का रतन टाटा के साथ खिंचा हुआ फोटो कई प्लांटों में लगा हुआ है। शायद रतन टाटा इनके आदर्श होंगे।
नाममात्र के स्थायी मजदूर: फरीदाबाद के 16 प्लांटों में नाम मात्र के स्थायी मजदूर हैं। ये 16 प्लांट फरीदाबाद के पूरे शहर में फैले हुए हैं। बदरपुर बार्डर, ओल्ड फरीदाबाद, सेक्टर-25, पृथला, ओल्ड फरीदाबाद, रेलवे स्टेशन के पास लगे प्लांट हैं। सेक्टर-25 व ओल्ड फरीदावाद रेलवे स्टेशन के पास वाले प्लांट में ही कुछ स्थायी मजदूर बचे हैं।
ठेकेदारी के मजदूर: सभी प्लांटों में ठेका प्रथा के तहत मजदूर भर्ती हैं। जब मर्जी रखे व जब मर्जी निकाल दिये जाते हैं। किसी भी प्लांट में एक ठेकेदार के तहत नहीं बल्कि 5-6 ठेकेदार के तहत रखे जाते हैं। ताकि इससे ये समझने में आता है कि भविष्य में मजदूर अपने शोषण के खिलाफ एकजुट न हो जायं। इसलिए हर प्लांट में 5-6 ठेकेदार द्वारा मैन पावर सप्लाई किया जाता है। किसी भी महीने के अंत में अगले महीने का आर्डर पता चल जाता है। उसी के अनुसार भर्ती व बे्रक होते रहते हैं। इस समय तो आॅटो सेक्टर में मंदी की वजह से कई प्लांट में सैकड़ों मजदूर निकाल दिये गये हैं। कुछ मजदूर 8-10 साल से काम कर रहे है। 6 महीने में या उससे पहले बे्रक कर देने या बे्रक दिखा देने से अर्थात रोल बदल देने से ठेकदार, फैक्टरी और सरकारी विभागों में जैसे ई.एस.आई., पी.एफ., लेबर डिर्पाटमेंट, लेबर कोर्ट सभी को फायदा ही फायदा है।
ठेकेदार और फैक्टरी को यह फायदा होता है कि मजदूर कई सालों से काम करने के बाद भी नया बना रहता है और कोई भी कानूनी अधिकार हासिल नहीं कर पाता है। ई.एस.आई. की लगातार किस्त जमा होने पर ही मजदूर सारी सुविधाओं का हकदार होगा। ई.एस.आई. कारपोरेशन यह कहता है कि चाहे वह ठेके का मजदूर क्यों न हो उसका ई.एस.आई. अंशदान पहले दिन से कटना चाहिए। तो सवाल उठता है उसकी हकदारी 6 महीने में क्यों? 6 महीनें में ब्रेक कर दिया जाता है। ब्रेक दिया जाता है या ब्रेक दिखा दिया जाता है या रोल बदल देने से मजदूर का स्थायी मजदूर के समान ही कटौती कराने के बावजूद लाभ नहीं उठा पाते हैं।
इम्पीरियल आॅटो में 800 के करीब स्टाफ व 8000 ठेकेदार के मजदूर कार्यरत हैं। 8000 मजदूर के फैक्टरी में कार्य करने के कारण 90 लाख से ज्यादा के करीब पी.एफ. विभाग को, 14 लाख से ज्यादा के ई.एस.आई., 50,000 के लगभग वेलफेयर फण्ड और 40 लाख के करीब ठेकेदार को मिलता है जो 15-20 ठेकेदारों में बंट जाता है। 2011 में वेलफेयर फंड ने हर फैक्टरी गेट पर बडे़-बड़े बैनर लगाये जिसमें मजदूरों के लिए बहुत सारी स्कीमें थीं। इसमें से एक स्कीम साइकिल की थी परन्तु 8000 मजदूर में से किसी को भी साइकिल नहीं मिली। ई.एस.आई. ने बुखार की गोलियों के सिवाय मजदूरों को क्या दिया? श्रीजी श्रीश्याम, स्वामी सुपर, एलाइट, पारस माधव, पूजा, जी ओस, के.के.इत्यादि ये नाम हैं जो इम्पीरियल आॅटो को मैन पावर सप्लाई करते हैं। फैक्टरी मजदूरों को बिजली की पावर के समान मैन पावर से ज्यादा कुछ नहीं समझती। बोर्ड द्वारा सप्लाई बंद होने पर फैक्टरी जनरेटर चलाकर पावर प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार एक मजदूर के न आने पर दूसरा मजदूर भर्ती कर लेती है। पी.एफ. का पैसा निकालने के लिए हर मजदूर परेशान हो जाता है। पता चलता है कि ठेकदार ने पी.एफ. का पैसा आर्गेनाईजेशन को जमा ही नहीं किया है। तीन-चार महीने का जमा किया है एक या दो महीने का फंड तो मजदूर निकालता ही नहीं है। पहले से मजदूर ठेकेदार के ईमान का भरोसा नहीं करता है और छोड़ देता है। ठेकेदारों के शरीर पर चढ़ी चर्बी और गाड़ी का माॅडल बता सकता है कि उसके लिए इस मामूली रकम ने क्या किया।
यही कारण हैं कि ठेकेदारी के मजदूर न तो फंड कटवाना चाहता है न ही ई.एस.आई.। पी.एफ. व ई.एस.आई. की सुविधा स्थायी मजदूर व स्टाफ उठा पाते हैं। ठेका प्रथा मजदूरों के लिए अभिशाप है तो फैक्टरी, ठेकेदार, पी.एफ., ई.एस.आई., लेबर वेलफेयर और सरकारी खजााने को भरने की कुंजी है।
इम्पीरियल आॅटो की नीति हर काम ठेके पर कराओ:
यहां हर काम ठेके पर कराया जाता है। उसमें से अधिकांश प्रोसेस को इम्पीरियल आॅटो छोटे-छोटे वर्कशाॅप में कराती है। इससे उसे फैक्टरी एक्ट व श्रम कानूनों से मुक्ति प्राप्त होती है। फैक्टरी में हर समय माल आता-जाता रहता है। एक प्रोसेस होकर आता है तो दूसरा प्रोसेस के लिए जाता है। वास्तव में प्रोडक्शन फैक्टरी के दीवारों के भीतर न होकर पूरे जिले भर में होता है। फैक्टरी तो वह स्थान है जहां माल तैयार होकर लगभग चैकिंग के लिए आता है और पैकिंग करके कस्टमर को भेज दिया जाता है।
ऐसा नहीं है कि सारे प्रोसेस वही होते हैं। फैक्टरी में जो प्रोसेस किये जाते हैं वह कुल प्रोडक्शन का मात्र 20 प्रतिशत होता है। फैक्टरी के अंदर जो प्रोसेस होता है उसे ठेके पर कराया जाता है। प्रत्येक प्रोसेस का ठेका पीस रेट पर दिया जाता है। ठेकेदार अपने मजदूर रखकर काम करवाता है। जैसे कटिंग का ठेका, बैल्डिंग का ठेका अलग। फैक्टरी के कई स्थाई मजदूरों ने अपने यूनियन के नेताओं से ये ठेका लिया हुआ है। ज्यादातर ठेकेदार ऐसे हैं जो पहले स्थायी मजदूर थे अब ठेकेदार बन गये हैं। ठेकेदारी के मजदूरों से काम फैक्टरी के स्टाफ द्वारा कराया जाता है। इम्पीरियल आॅटो की नीति है कि हर काम ठेके पर कराओ चाहे फैक्टरी के भीतर मशीनें शिफ्ट करना हो। माल को फैक्टरी और वर्कशाॅप का एक प्लांट से दूसरे प्लांट ले जाने के लिए गाडि़यों का भी ठेका, प्लांट को साफ रखने के लिए सफाई का ठेका इसके उदाहरण हैं।
ड्यूटी पर हर वक्त, हर काम अर्जेट: सुबह ड्यूटी जाते ही पर्सनल विभाग व सिक्योरिटी के हर आदमी वर्कर को देखते है कि जूता, वर्दी पहना है कि नहीं। नीली कलर टी-शर्ट ठेकेदार द्वारा 200 रूपये में दिया जाता है जो ठेकेदार पहली तनख्वाह में काट लेता है। जूता बाजार से लेना पड़ता है। जूता वर्दी होने पर ही गेट के अंदर आना पड़ता है। लगभग 12 घंटे के ड्यूटी में हर काम अति आवश्यक होता है। रात की शिफ्ट में काम बताकर स्टाफ अपने घर चला जाता है। हर लाइन में एक फोरमैन होता है जिसका काम करना होता है जो उसके 500-600 रूपये बढ़ाकर तनख्वाह होती है। वह खुद काम करेगा व दूसरे मजदूरों को देखेगा कि कौन काम करता है कि कौन नहीं। कितने बार बाथरूम, टायलेट जाता है। उसके बाद सुपरवाइजर व इंजीनियर को रिपोर्टिंग करनी पड़ती है।
ओवर टाइम का भुगतान: ओवर टाइम का भुगतान न्यूनतम वेतन 5648 रूपये के अनुसार दोगुना 47 रूपये प्रति घंटे की दर से बनता है। यहां तो सिंगल ओवर टाइम 23 रूपये प्रति घंटे की दर से भी नहीं मिलता है। हर प्लांट में ठेके के मजदूर को 16-17 रूपये प्रति घंटा ओवर टाइम दिया जाता है। ओवर टाइम की दर के मामले में देश की नंबर एक कंपनी है। रात में रुकने पर 50 रूपये फूडिंग का पैसा मिलता है वह भी शाम को नहीं मिलता है। एक-दो हफ्ते बाद दिया जाता है वह भी ठेकदार या स्थायी मजदूरों द्वारा दिया जाता है। इससे ये लोग कुछ पैसा तो मार ही देते हैं।
इम्पीरियल आॅटो के ठेकेदारी के मजदूर 8 घंटे से ज्यादा या ओवर टाइम नहीं करना चाहते हैं क्योंकि ओवर टाइम का भुगतान डबल तो छोड़ सिंगल से आधे दर से भुगतान किया जाता है। जोर-जबरदस्ती ओवर टाइम पर रोकना, ये कहना कल से मत आना, प्रबंधन द्वारा हर समय ओवर टाइम के लिए दबाव बनाया जाता है। ओल्ड फरीदाबाद रेलवे स्टेशन के पास वाले प्लांट में कैंटीन है जो 25 रुपये थाली व 5 रुपये की चाय मिलती है। किसी भी प्लांट में न कैंटीन है न ही लंच करने की कोई एरिया या जगह है। कार्यस्थल पर इधर-उधर लंच करना पड़ता है। यह बेहद असुविधाजनक और अपमानजनक भी होता है।
इम्पीरियल आॅटो का मिशन है कि यह भारतीय बाजार में आॅटो मोटिव ट्यूब एवं हौज उद्योग में अविवादित लैंडिंग कंपनी बनना चाहती है। मजदूरों के शोषण पर भारत से होकर विदेशों में कंपनी व वेयर हाउस होना इसके उदाहरण हैं। ठेका प्रथा के तहत काम करना मजदूरों के श्रम कानून को लागू न करना, ये सब सरकार व पूंजीपति के गठजोड़ से हो रहा है। अपनी लड़ाई मजदूर को खुद ही लड़नी होगी। फैक्टरी मालिक के खिलाफ से लेकर और इस पूंजीपतियों के राज को उखाड़ फेंकने के लिए लड़ना होगा। जिसका सपना भगत सिंह देखा करते थे कि जब तक भ्रष्ट व्यवस्था जो शोषण और अन्याय पर टिका है, बना रहेगा। पूंजीपतियों के राज के खात्मे के लिए लड़ाई को तेज करना होगा कि यह आज मजदूर वर्ग के कंधे पर है कि वह आगे आये और संघर्ष के लिए उठ खड़े हों। फरीदाबाद संवाददाता
बेलसोनिका आॅटो कम्पोनेन्ट के मजदूर और पूंजीवादी कानून
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
बैलसोनिका आॅटो कम्पोनेन्ट इण्डिया कम्पनी आईएमटी मानेसर गुड़गांव के सेक्टर-8, प्लाट न. 1 में मारुति कम्पनी की चारदिवारी के अंदर है और मारुति कम्पनी की बैण्डर है।
इस कम्पनी का एमडी काजुताका सुजुकी है और जेएमडी ईशीकाशा है। सन् 2008 में यह कम्पनी लगी थी। उस समय कम्पनी में 150 मजदूर काम करते थे और सन् 2010 में कम्पनी का विस्तार दुगुना हो गया। और इस समय इसमें 500 मजदूर काम करते हैं।
कम्पनी में फोर व्हीलर के कम्पोनेन्ट जैसे चेसिस बनाये जाते हैं। शुरूआत में सिर्फ दो गाडियों या माॅडलों के चेसिस बनाये जाते थे फिर 2010 में चार माॅडलों के और आज कई सारी गाडि़यों जैसे- एसएक्स-4, स्विफ्ट- वीडीआई आदि के चेसिस बनाये जाते हैं।
अभी कुछ समय पहले कम्पनी के मजदूरों ने यूनियन गठित करने की कार्यवाही शुरू की। यूनियन बनाने के पीछे मजदूरों के काम की बुरी परिस्थितियां और ट्रेनिंग के मजदूरों की ट्रेनिंग खत्म न होना था जबकि इनको ट्रेनिंग करते-करते तीन-चार साल हो गये थे।
लेकिन श्रम विभाग ने उन 44 मजदूरों के नाम कम्पनी को बता दिये जिन्होंने यूनियन बनाने के लिए हस्ताक्षर किये हुए थे। कम्पनी ने उन मजदूरों को परेशान करना शुरू कर दिया। इन मजदूरों को अकेले में रखना, किसी और मजदूरों से न मिलने देना और यहां तक कि बाउंसरों के द्वारा भी धमकाने का काम किया जाने लगा।
कम्पनी ने यूनियन न बनने के देने के लिए एक चाल और चली। उसने ट्रेनिंग कर रहे मजदूरों को भी स्थायी मजदूर दिखा दिया। अब स्थायी मजदूरों की संख्या बढ़कर 452 हो गयी। जबकि यूनियन की फाइल 89 स्थायी मजदूरों के हिसाब से लगी थी। मजदूरों ने नये आंकड़ों के हिसाब से फाइल लगाई और कार्यवाही आगे बढ़ गयी।
10 अक्टूबर 2014 को जब यूनियन का रजिस्ट्रेशन नम्बर 1983 आया तो कम्पनी ने एक झटके में ही इन 44 मजदूरों को काम से बाहर निकाल दिया। जब मजदूरों ने कारण पूछा तो कहा कि उनको निलम्बित कर दिया गया है, कारण आपके घर पहुंच जायेगा।
इस पूरी घटना की सूचना मजदूरों ने श्रम विभाग पुलिस विभाग गुड़गांव, लेबर इंस्पेक्टर गुड़गांव, डीएलसी गुड़गांव और श्रम विभाग चण्डीगढ़ को लिखित रूप में दी। इसके बाद भी कम्पनी ने मजदूरों को निकालने का सिलसिला बंद नहीं किया और और जबरन आईडी कार्ड छीनकर बाहर निकाल दिया जाता था। और आज लगभग 84 (स्थाई+ट्रेनिंग के मजदूर) और 54 (ठेकेदारी के मजदूर जो पिछले चार-पांच सालों से कम्पनी में काम कर रहे थे) यानी कुल मिलाकर 138 मजदूरों को प्रबंधक कम्पनी से निकाल चुकी है। जिसमें से 24 मजदूर ऐसे हैं जिन्हें निकालने के 10 दिन बाद टर्मिनेट कर दिया गया है।
2 नवम्बर को मजदूरों ने जुलूस निकाला और कम्पनी प्रबंधकों, श्रम विभाग, पुलिस विभाग के खिलाफ ज्ञापन डीसी महोदय को दिया। डीसी महोदय ने एक सप्ताह के भीतर कार्यवाही करने का आश्वासन भी दिया परन्तु सब पहले जैसा ही चलता रहा। प्रबंधक, श्रम विभाग की मध्यस्थता में वार्ता की जो तारीखें लगीं वे केवल औपचारिकतायें निभाने के लिए ही थीं।
5 नवम्बर को मजदूरों को वापिस लेने की मांग को लेकर डीएलसी जे.पी.मान के कार्यालय के सामने नारेबाजी की तो डीएलसी ने 7 नवम्बर को प्रबंधक के साथ मीटिंग करके मामले को सुलझाने का आश्वासन दिया परन्तु आज एलओ व डीएलसी में 3 तारीख लग चुकी हैं और 3 दिसम्बर को डीएलसी से रेफर होकर केस एएलसी आॅफिस में आ गया था। एएलसी में 3 तारीखें लग चुकी हैं। इस बीच प्रबंधक मजदूरों को निकाल रहा है और धमका रहा है। झूठे केसों में फंसाने की कोशिशें भी कम्पनी की जारी हैं। इसके लिए कम्पनी में एचआर मनोज ने अपने परिचित मजदूर राजशेखर के माध्यम से यूनियन पदाधिकारियों यशवीर, अतुल और सुभाषचन्द्र पर 11 जनवरी को मारपीट का केस करवा दिया। जबकि 11 जनवरी को सुभाषचन्द्र अपने गांव में किसी के दाह संस्कार में गया हुआ था और यशवीर भी अपने गांव में लड़की की तबियत खराब होने पर गया हुआ था। इस बात की पुष्टि दोनों के ग्राम प्रधानों ने की। केवल अतुल ही शहर में था। इस झूठ के पर्दाफाश हो जाने पर भी पुलिस ने राजशेखर व मनोज के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।
कम्पनी प्रबंधन गेट पर ही मजदूरों को बाउंसरों व सिक्योरिटी गार्ड के द्वारा धमका रहा है कि यूनियन का साथ दिया तो उनके साथ कुछ भी हो सकता है। जबरन कार्ड छीनकर कागजों पर हस्ताक्षर करवाये जा रहे हैं।
दूसरी तरफ कम्पनी में ठेकेदारी के तहत छः छः महीने के कान्ट्रेक्ट पर लगभग 200 मजदूरों की भर्ती की जा चुकी है जिनको 7200 रुपये दिये जा रहे हैं। जिनमें 1500 रुपये का अटेन्डेस अवार्ड है यानी कि कोई छुट्टी न करने पर ही ये मिलेंगे। एक छुट्टी करने पर 1000 व दो छुट्टी करने पर 500 भी काट लिये जायेंगे।
गुड़गांव संवाददाता
न्याय के लिए सड़कों पर उतरी महिलाएं
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
19 जनवरी को रामनगर जिला नैनीताल में महिलाओं का एक जुलूस शहर में निकला। जुलूस में कई तलाक सम्बन्धी मामलों को कोर्ट में लड़ रही महिलाएं, समाज की तमाम जागरूक महिलाएं-पुरुष शामिल रहे।
महिलाओं की उपरोक्त मांगें समाज में महिलाओं की स्थिति और भारतीय कानून व्यवस्था की स्थिति को तीखे ढंग से उजागर कर देती हैं। ससुराल में पीडि़त महिलाएं यूं तो समझौता कर-करके अपना पूरा जीवन मार खाकर अपमानित होकर गुजार देती हैं। परन्तु कई महिलाएं साहस करके कानूनी ढंग से रिश्ते को खत्म कर अपना नया जीवन शुरू करना चाहती है। ऐसी महिलायें न्याय के लिए न्यायालयों के चक्कर काटती रहती हैं। गरीब महिलायें कोर्ट के चक्कर, वकीलों की फीस आदि से बहुत तंग हाल हो जाती हैं। कानूनी तौर पर तलाक हो जाने के बाद न्यायालय द्वारा तय भरण-पोषण से पीडि़त होकर रामनगर की महिलाएं अंततः सड़कों पर उतरने को मजबूर हुई हैं।
19 जनवरी से कार्यक्रम से पूर्व प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र व अन्य समाजसेवी महिलाओं द्वारा ऐसी महिलाओं से सम्पर्क कर जगह-जगह बैठकें की गयीं। मालधन, हिम्मतपुर डोटयाल, थारी आदि स्थानों पर बैठकें आयोजित की गयीं। इन बैठकों में ही 19 जनवरी को शहर में विरोध प्रदर्शन का कार्यक्रम बनाया गया। बैठक में उपस्थित महिलाओं द्वारा कार्यक्रम को जोरदार सहमति दी गयी। 19जनवरी को शहर में जुलूस निकाला गया। एस.डी.एम. कार्यालय के समक्ष एक सभा भी की गयी। सभा को सम्बोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा कि-महिला सशक्तीकरण, सुरक्षा की बातें करती रही हैं किन्तु पीडि़त महिलाएं न्यायालयों के चक्कर काट रही हैं। उन्हें सुरक्षित, सशक्त जीवन देने में पूंजीवादी व्यवस्था की अक्षमता इसी बात से दिख जाती है। इस व्यवस्था की कानून की किताबों में तो तमाम बातें लिखी गयी हैं किन्तु व्यवहार में लागू होते वक्त ये बातें बेमानी हो जाती हैं। भारतीय अदालतों में न्याय की कछुआ गति के कारण तमाम महिलायें तो कोर्ट-कचहरी से बचती हैं। जो महिलाएं न्यायालयों का रास्ता अपनाती भी हैं वे थक हारकर न्यायालय से बाहर बेहद अपमानजनक शर्तों पर समझौता कर लेती हैं। कहावत है कि देरी से मिला न्याय अन्याय के बराबर होता है।
पीडि़त महिला गीता व अनीता रावत ने बताया कि वे ससुराल में बेहद प्रताडि़त की जाती थीं। मुकदमों में खर्च की वजह से उनके माता-पिता और खुद उन पर भारी बोझ पड़ रहा है। जो सब कुछ वे झेल रही हैं वही सब कुछ अन्य कई महिलाएं भी झेलने को मजबूर हैं। किसी के मुकदमों को 2 साल हो गये तो कई के मुकदमों को 8 साल तक हो गये। इतने साल बीत जाने के बाद भी वे वहीं के वहीं हैं। इतने वर्ष असमंजस व मुकदमेबाजी के कारण उन्हें नया जीवन जीने में बड़ी कठिनाइयां आ रही हैं। न्यायालयों की यह लेट-लतीफी उनके जीवन को गहरे ढंग से प्रभावित कर रही है। सभा के अंत में मुख्यमंत्री को एस.डी.एम. के माध्यम से तीन सूत्रीय मांग पत्र भेजा गया।
महिलाओं की मांगें
1. महिलाओं के भरण-पोषण व तलाक सम्बन्धी मुकदमों की सुनवाई हेतु फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन कर 6 माह के भीतर मुकदमों का निस्तारण सुनिश्चित किया जाए।
2. महिलाओं के लिए न्यायालय द्वारा निर्धारित भरण-पोषण की राशि का पति/परिजनों द्वारा भुगतान न किये जाने पर भरण-पोषण की राशि के भुगतान की जिम्मेदारी सरकार स्वयं उठाए।
3. महिलाओं के तलाक व भरण-पोषण से सम्बन्धित मुकदमों की पैरवी हेतु न्यायालयों में विशेषज्ञ वकीलों का पैनल गठित किया जाए तथा वकीलों की फीस का भुगतान सरकार द्वारा किया जाए।
सभा को विमला आर्य, महेश जोशी, गीता, मुनीश कुमार, कमलेश, पंकज आदि ने सम्बोधित किया। सभा का संचालन प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की ललिता रावत ने किया। रामनगर संवाददाता
ओमेक्स ग्रुप की कम्पनी में मजदूरों का असंतोष
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
गुड़गांव क्षेत्र में ओमेक्स ग्रुप की कई कम्पनियां हैं। पर तीन बड़ी कम्पनियां काफी महत्व की हैं। इनमें आमेक्स मानेसर(आईएमटी), ओमेक्स धारूहेडा और आॅटो ओमेक्स बिनोला। बिनौला प्लांट इन सबसे पुराना है। 1995 में यह गुड़गांव में था उसके बाद बिनौला गया। बिनौला के प्लांट के दम(मजदूरों के शोषण) पर ही आईएमटी मानेसर का प्लांट लगा। इसके बाद और भी प्लांट लगे।
इन कम्पनियों में एचएमएस से सम्बद्ध यूनियनें हैं। और गुड़गांव क्षेत्र में काफी अहमियत भी रखती हैं। लम्बे समय से तीनों प्लाण्टों में तीन सालाना सेटलमेंट रुका पड़ा है। प्रबंधक कोई बात भी करने को तैयार नहीं है। ओमेक्स धारूहेडा का लगभग 10-11 महीने से सेटलमेण्ट रुका पड़ा है जिसको लेकर 20 नवम्बर 2014 को तीनों प्लांटों के ए और बी शिफ्ट के मजदूरों ने काम बंद कर दिया और शाॅप फ्लोर पर बैठ गये। देर रात जाकर श्रम विभाग की मध्यस्थता में फैसला हुआ।
आॅटो ओमेक्स बिनौला के संदर्भ में तय हुआ कि 25 दिसम्बर को मांग पत्र पर फैसला कर लिया जायेगा। कम्पनी 20 नवम्बर की घटना को लेकर बदले की भावना से काम नहीं करेगी। और कम्पनी के 20 नवम्बर को ए शिफ्ट में चार घंटे व बी शिफ्ट में चार घंटे बंद रहने के एवज में 21 व 22 नवम्बर को 10-10 घंटे काम करके पूरा कर लिया जायेगा।
मजदूरों की तरफ से शर्ताें पर पूरा अमल किया गया। परन्तु कम्पनी ने आज तक भी मांग पत्र पर बातें नहीं की हैं। लगभग 7 महीने से एलओ के यहां केस चल रहा था और अब डीएलसी गुड़गांव के पास है। इसी सम्बन्ध में 13 जनवरी से सभी मजदूरों ने कम्पनी में खाने व चाय का बहिष्कार कर दिया। परन्तु उत्पादन नहीं बंद किया। इस असंतोष को प्रदर्शित करने के बाद भी प्रबंधन बात नहीं कर रहा है। वह अडियल रुख अपनाया हुआ है। वह मजदूरों को मजबूर कर रहा है कि वह उग्र संघर्ष को बाध्य हों। गुड़गांव संवाददाता
पूंजीवादी व्यवस्था के पर्दे को नोंचता अस्ती के मजदूरों का संघर्ष
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
अस्ती के प्रबंधकों द्वारा 310 ठेका मजदूरों को 1 नवम्बर को निकाल देने के बाद अस्ती के मजदूरों का संघर्ष शुरू हुआ। 3 नवम्बर को मजदूरों द्वारा श्रम विभाग में डीएलसी के यहां शिकायत पत्र लगाया जिसकी पहली तारीख 9 नवम्बर को लगाई। लेकिन 9 तारीख और उसके बाद मिलने वाली कई तारीखों में भी मजदूरों को न्याय नहीं मिला।
इस बीच मजदूरों ने भूख हड़ताल भी की। जुलूस भी निकाले परन्तु श्रम विभाग के कानों पर जूं नहीं रेंगी। अलबत्ता वह तारीखों पर तारीखें देकर ठेकेदार व प्रबंधक को इस बात के लिए समय देता रहा कि वह मजदूरों को बहला-फुसला कर या डरा-धमकाकर उनका हिसाब कर दे। ठेकेदार व प्रबंधक इस बात में सफल भी रहे और कई मजदूर हिसाब लेकर चले गये। लेकिन बाकी बचे मजदूर संघर्ष के मैदान में डटे रहे। हां! पुलिस-प्रशासन ने भी अपनी बारी में मजदूरों को धमकाकर आंदोलन खत्म करने के प्रयास किये।
6 जनवरी को भी श्रम विभाग ने तारीख रखी परन्तु उसमें भी फैसला न होने पर उसने खानापूर्ति के लिए 7 जनवरी की तारीख लगा दी। इस तारीख पर प्रबंधक ने 2011 वाले और पीसीबी डिपार्टमेंट के मजदूरों को लेने से मना कर दिया। और फिर हिसाब लेने पर बात होने लगी। श्रम विभाग के सभी अधिकारियों ने भी हाथ खड़े कर दिये कि हम इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो मजदूर की हिम्मत टूट गयी और थक-हारकर मजदूरों को हिसाब लेना पड़ा। लेकिन 2011 के और कुछ मजदूरों ने फैसला लिया कि वे सब मिलकर केस डालेंगे। इन मजदूरों की संख्या 30-40 है।
इन मजदूरों में से कई मजदूरों को काम करते हुए कई-कई साल हो गये हैं। लेकिन कम्पनी ने इनको स्थाई नहीं किया है। ये मजदूर उत्पादन में स्थाई प्रकृति का काम करते थे अतः श्रम कानूनों के हिसाब से 240 दिन के बाद इन्हें स्थायी किया जाना चाहिए था। कुशल मजदूरों का काम करने पर भी इन्हें हेल्पर का वेतन दिया जाता था अतः पिछला वेतन इन्हें कुशल मजदूरों के हिसाब से दिया जाये इस बात की मांग भी वे केस डालने के दौरान उठायेंगे।
जब इन मजदूरों ने केस डालने का फैसला लिया तो ठेकेदार इन मजदूरों को केस न डालने के लिए मना रहा है। और जो लोग इन मजदूरों का साथ दे रहे हैं उनको धमका रहा है। पहले यही ठेकेदार मजदूरों से कहता था कि आप लोग अपना वेतन ले लो और कम्पनी पर केस कर दो। उसका तो पीछा छूटे।
मजदूरों ने अपनी मीटिंग कर 8 मजदूरों की एक कमेटी चुनी है जो केस का मामला देखेगी। सबसे पहले एक सामूहिक मांग पत्र तैयार किया जायेगा जो श्रम विभाग में डाला जायेगा और फिर लेबर कोर्ट के माध्यम से केस आगे बढ़ाया जायेगा।
इस पूरे आंदोलन ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि परिस्थितियां उनके काफी खिलाफ हैं। उन्हें और ज्यादा शिद्दत से अपने आंदोलनों को लड़ना होगा। इस आंदोलन में स्थायी व ठेकेदारी के मजदूरों की एका न बन पाना भी आंदोलन के लिए चुनौती बना तो जिन कानूनों का निर्माण भी अभी नहीं हुआ है उनको लागू करने का काम भी प्रशासन ने शुरू कर दिया है। गुड़गांव संवाददाता
लालकुंआ में दंगा भड़काने की कोशिश फिलवक्त नाकाम
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
एक लड़का और एक लड़की के सामान्य से प्रेम सम्बन्ध कैसे ‘लव-जिहाद’ का मामला बन जाता है तथा उसके कारण पूरे शहर का माहौल कैसे साम्प्रदायिक हो जाता है। इसका एक ताजा उदाहरण उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले में स्थित लालकुंआ शहर में सामने आया।
लालकुंआ में 10 दिसम्बर को बियरशिवा (हल्द्वानी) में पढ़ने वाली कक्षा 9 की छात्रा (16वर्ष) लंच टाईम के बाद छुट्टी लेकर स्कूल से बाहर आ जाती है। रोज के समय तक जब वह अपने घर नहीं पहुंचती है, तब घर से स्कूल फोन करने पर पता चलता है कि वह लंच टाइम में घर चली गयी थी। खोजबीन करने के बाद घर वाले रिपोर्ट लिखवाने के लिए थाने पहुंचते हैं। वे एक मुस्लिम लड़के (उम्र 17 वर्ष) पर लड़की के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करवाते हैं। दोनों पांच दिन तक शहर से बाहर रहते हैं। इसी बीच लालकुंआ शहर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भाजपा के लोगों को साम्प्रदायिक माहौल तैयार करने का समय मिल जाता है।
लड़का और लड़की एक दूसरे को पिछले लम्बे समय से जानते थे और पिछले एक डेढ़ साल से एक दूसरे से प्रेम करते थे। इस एक-डेढ़ साल में वे दोनों दो बार पहले भी शहर से बाहर घूमने के लिए गये थे। तब शहर के कुछ लोगों ने उनको समझा-बुझाकर घर वापस भेज दिया था। लेकिन उसके बाद भी लड़का-लड़की एक दूसरे से मिलते रहते थे, नैनीताल घूमने जाते थे, खरीदारी करते थे और इस बात की हकीकत लड़के और लड़की दोनों के परिवार वालों को पता थी।
लेकिन इस बार जब वे घूमने गये तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भाजपा के लोगों ने इसे ‘लव-जिहाद’ का मामला बना दिया। 11 दिसम्बर को थाने में जमकर हंगामा काटा। आरोप लगाया कि उनकी नाबालिग लड़की का मुस्लिम लड़के ने अपहरण कर लिया है। भाजपा, संघ, बजरंग दल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की बैठकें होनी शुरू हो गयीं। 12 दिसम्बर को करीब 12 बजे शहर में संघी मानसिकता वाले लोगों ने एक जुलूस निकाला, जिसमें ‘लड़के को फांसी दो’ और पुलिस प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी की गयी। जुलूस में संघी मानसिकता वाले लोगों के बीच आपस में ‘लड़के के घर में आग लगा दो’, ‘लड़के के घर की महिलाओं को बाहर खींचकर निकालो’ तथा ‘लड़के की जो मदद कर रहा है उसको मारो’ आदि बातें हो रही थीं। जुलूस के बाद जुलूस के नेतृत्वकर्ताओं से शहर के कोतवाल ने सख्त होकर कहा कि वे अपना काम कर रहे हैं। तुम शहर का माहौल बिगाड़ने की कोशिश न करो वरना तुम्हारे ऊपर कार्यवाही की जायेगी। इस जुलूस से सारे शहर में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो गया और सारे शहर में अफवाह फैल गयी कि इस घटना की वजह से पूरा बाजार बंद है और एक और जुलूस शाम को निकलेगा। लेकिन उस दिन शुक्रवार था और शुक्रवार के दिन लालकुंआ का बाजार वैसे ही बंद रहता है।
12 दिसम्बर को रात को कांग्रेस व भाजपा की अलग-अलग बैठकें इसी मुद्दे पर आयोजित की गयीं। 13 दिसम्बर की शाम को कांग्रेस, भाजपा, संघ, विद्यार्थी परिषद, बजरंग दल तथा सपा की एक संयुक्त बैठक सुविधा होटल में आयोजित की गयी। जिसमें 30-35 लोग शामिल थे। इस बैठक में एक महापंचायत बुलाने की योजना बनाई गयी। 14 दिसम्बर की सुबह से प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र तथा परिवर्तनकामी छात्र संगठन के चार लोग शहर के प्रतिष्ठित लोगों से मिलने निकले, उससे पहले ये लोग 12-13 दिसम्बर को लड़़के के परिवार तथा मौहल्ले के लोगों से मिल चुके थे।
इसी बीच 14 दिसम्बर को करीब 11ः30 बजे ये संगठनों के लोग व्यापार मण्डल के अशोक अग्रवाल से मिलने पहुंचे तो वहां पर संघ, भाजपा, बजरंग दल सहित 8-10 लोग उपस्थित थे। जब इन चार लोगों ने पूछा कि इस मामले पर वे लोग आगे क्या कर रहे हैं? तब उन्होंने बताया कि एक महापंचायत करने की योजना थी, पुलिस प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए कि जल्द से जल्द लड़की को ढूंढ कर लाये। लेकिन लड़का और लड़की को पुलिस ने पकड़ लिया है तो देखते हैं कि वे महापंचायत करेंगे या नहीं क्योंकि इसका उद्देश्य पुलिस प्रशासन पर दबाव बनाने का था। अभी सब लोग बातचीत कर रहे हैं। संगठनों के लोगों द्वारा पूछने पर कि इस महापंचायत में वे लोग भी आ सकते हैं। तब अशोक अग्रवाल ने कहा कि हां-हां यह नगर के सभी लोगों के लिए है। इसमें सभी लोग आमंत्रित हैं। वे भी आ सकते हैं लेकिन अभी बात हो रही है कि महापंचायत करें या नहीं। इसलिए वे लोग एक काम करें, महापंचायत के लिए शहर में लाउडस्पीकर घुमाया जायेगा। अगर माइक घोषणा हो तो वे 3 बजे जगदीश होटल में पहुंच जायें। 1ः30 बजे के करीब संगठनों के लोगों ने अलाउसमेंट सुना तथा 3 बजे जगदीश होटल में दो लोग प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र तथा 2 लोग पछास के पहुंच जाते हैं। जैसा कि सुना जाता है कि जनता के कार्यक्रमों में नेता लोग हमेशा समय के बाद पहुंचते हैं लेकिन यहां पर ठीक समय पर सभी नेता पहुंच गये और 3ः15-3ः30 बजे तक 250-300 की संख्या जगदीश होटल के दुमंजिले के हाॅल में उपस्थित हो गयी। इसमें भाजपा, कांग्रेस, सपा, विद्यार्थी परिषद, बजरंग दल, एनजीओ तथा प्रगतिशील संगठन के लोग शामिल थे। ये महापंचायत महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर की जा रही थी लेकिन 3 महिलाओं (2 प्रमएके तथा 1 पछास) के अलावा इसमें कोई महिला शामिल नहीं थी। सभा का संचालन कांग्रेस के एक व्यक्ति ने किया। मंच पर बात रखने के लिए संघ के नगर प्रमुख राधेश्याम यादव आये। उन्होंने अपनी बातों में मुस्लिमों को निशाना बनाया तथा लड़के को लालकुंआ की जमीन पर पैर नहीं रखने देंगे, चार-पांच मुस्लिम लड़कों के ग्रुप ने उनकी नाबालिग लड़कियों को बहला-फुसला कर अपने प्रेम जाल में साजिश के बतौर फंसा रहे हैं जैसी भड़काऊ बातें कीं। इनके खिलाफ युवा लड़कों की एक कमेटी बनानी चाहिए क्योंकि युवाओं के अंदर जोश होता है और वे ऐसे मनचले लड़कों के खिलाफ कार्यवाही करेंगे और ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो इसके लिए ये पंचायत यह निर्णय करे क्योंकि ये पंचायत संविधान से भी ऊपर होती हैं। इनके बाद आये वक्ताओं ने इनकी सभी बातों का समर्थन किया तथा इसके लिए कोष बनाने की बात भी आयी। प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की बिन्दु गुप्ता ने मंच पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि हमें साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखना चाहिए। जैसे लालकुंआ में आज तक ऐसी कोई घटना नहीं हुई है। मैं आशा करती हूं कि आगे भी साम्प्रदायिक सौहार्द बना रहेगा, एक कमेटी हमें बनानी चाहिए जो भी लड़के ट्यूशन व स्कूल आती-जाती लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करते हैं। उनके ऊपर नजर रखे।
इनके बाद सपा के संजय सिंह अपनी बात रखने के लिए मंच पर आये और बिन्दु गुप्ता की एक-एक बात का काट करते हुए बोले, ‘‘मुस्लिम लड़के उनकी लड़कियों को ऐसे ही ले जाते रहें और वे सौहार्द बनाकर रखें ऐसे सौहार्द से अच्छा तो दंगा है। हम जब भी अपनी लड़की की शक्ल देखेंगे और उस लड़के को फांसी नहीं हुई तो हमारा सिर शर्म से झुक जायेगा और सिर झुकाने से अच्छा हम सिर कटाना पसंद करेंगे। और इस कमेटी को बनाया जाये इसके लिए समाजवादी पार्टी लड़के मुहैय्या करायेगी और समाजवादी पार्टी आगे खड़ी रहेगी’’। इसके बाद आये सभी वक्ताओं ने संजय सिंह की बातों का समर्थन किया तथा बिन्दु गुप्ता की बातों का खण्डन किया।
करीब 4ः30 बजे सभा का समापन घोषित करते हुए अन्तिम वक्ता के रूप में व्यापार मण्डल के अध्यक्ष अशोक अग्रवाल को बुलाया गया। सभा में उपस्थित पछास की ज्योति बहुत पहले से बात रखने के लिए हाथ उठा रही थी लेकिन उसको मौका नहीं दिया गया। लेकिन जब वह खड़ी होकर कहने लगी कि उसे बात रखनी है। तब अशोक अग्रवाल से पहले ज्योति को बात रखने के लिए बुलाया।
ज्योति ने अपनी बात में कहा कि अश्लील संस्कृति पर रोक लगाने की जरूरत है और कहा कि जैसे इस मुद्दे के लिए शहर के इतने लोग इकट्ठा हुए हैं वैसे ही चंचल अपहरण, संजना हत्याकाण्ड, लाडली रेप हत्या केस पर इतने लोग क्यों इकट्ठा नहीं होते? वे भी तो लड़कियां थीं। ये मामला ‘लव-जिहाद’ का बना दिया गया इसलिए लोग इतना भड़क रहे हैं। इतने में ही पीछे से हूटिंग होने लगी और पछास व प्रमएके के लोेगों को सभा से बाहर करो, इनका बहिष्कार करो और देखते ही देखते 100-150 लोग मंच पर पहुंच गये। इतने में दो अन्य महिलायें भी ज्योति के पास मंच पर पहुंच गयी। इतने में राधेश्याम ज्योति के हाथ से माइक छीनने लगा। और तीनों महिलाओं के साथ धक्का-मुक्की, अभद्रता के साथ 150-200 लोगों ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। इसकी रिकार्डिंग के लिए पछास के एक साथी महेश ने अपना फोन निकाला तो 10-15 लोग उसको खींचकर नीचे की ओर ले जाने लगे, उसका फोन छीनने लगे। तथा उसको थप्पड़ मारने लगे। धक्का-मुक्की के बीच वह किसी तरह से बच कर तीनों महिलाओं के पास पहुंचा। उसने उस भीड़ में चार लोगों को पहचाना जिन्होंने उसको थप्पड़ मारे थे। उसमें राधेश्याम, अनिल मेलकानी, राजन भाटिया, विक्रम राणा शामिल थे। इन 200-250 में अधिकतर लोग शराब पीकर आये थे। जब चारों लोगों के हल्ला मचाने पर 8-10 लोगों ने उनको बचाने का काम किया और किसी तरीके से नीचे उतर कर थाने में रिपोर्ट लिखवाने पहुंचे और चारों लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाई।
दो घंटे तक पछास व प्रमएके के चारों लोगों को थाने में बिठाये रखा तथा हल्द्वानी से सीओ को बुलाया गया और इन चारों लोगों पर समझौता करने का दबाव पुलिस, भाजपा तथा कांग्रेस के कुछ लोगों द्वारा बनाया गया। लेकिन समझौते से मना करने पर रिपोर्ट रिसीव कर ली गयी।
इतनी बड़ी महापंचायत की घोषणा होने पर भी पुलिस और अधिकारी वहां पर नहीं थे और उल्टा संगठनों के लोगों से कह रहे थे कि जब तुम्हारे और इनके विचार नहीं मिलते तो आप वहां क्यों गये थे। और किसने महापंचायत आयोजित करायी थी उन्हें तो पता नहीं चला। जबकि एक हाल का उदाहरण मौजूद है कि मुजफ्फरनगर के दंगे में भी ऐसी ही महापंचायत जिम्मेदार थी। उसके बाद दूसरे पक्ष की तरफ से राधेश्याम के द्वारा संगठन के चार लोगों के ऊपर भी रिपोर्ट दर्ज कराई गयी।
पुलिस प्रशासन का रवैया संगठन के लोगों द्वारा लिखवाई गयी रिपोर्ट में उन पर तीन धाराएं 147,149 व 323 मारपीट आदि की लगाई गयीं। और उनकी तरफ से लिखवाई गयी रिपोर्ट में इन चारों के अलावा अज्ञात सहित लोगों पर चार धाराएं 147, 149, 504 और 506 धक्का-मुक्की, मार-पिटाई, गाली-गलौच, धमकाना लगाई गयी। और पुलिस इतनी कंगाल हो गयी है कि फोटो व वीडियो जमा करने के लिए पेन-ड्राइव दोनों पक्षों के अभियुक्तों से मांगी जाती है।
16 दिसम्बर को जब संगठनों के लोग बाजार में लोगों से मिलने गये तब उस बैठक में शामिल कांग्रेस के एक व्यक्ति ने बताया कि 13 दिसम्बर की शाम को सुविधा होटल में की गयी बैठक में इसकी तैयारी हो रही थी। बैठक में योजना बनायी जा रही थी कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को बुलाया जाए, उनके हाथों में डंडे दिये जायें तथा मुस्लिमों के साथ मार-पिटाई व तोड़फोड़ की जाये।
एक सामान्य सी घटना को ‘लव-जिहाद’ का मुद्दा बनाकर भाजपा, संघ और बजरंग दल ने लोगों के दिलों में साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाने की कोशिश की। और जो महापंचायत महिलाओं को सुरक्षा मुहैय्या कराने के नाम पर की जा रही थी, बड़ी विडम्बना की बात है कि उस महापंचायत में तीन महिलाओं के अलावा कोई महिला नहीं थी और जो महिलाओं के सुरक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही थी जैसे बहुसंख्यक सम्प्रदाय के लोग लड़कियों के साथ छेड़छाड़ नहीं करते है। ऐसी महापंचायतों में महिलाओं को बोलने का अधिकार नहीं है। और पुरुष प्रधान सोच से उन तीनों महिलाओं से कहा जाता है कि जब कोई महिला नहीं थी तो तुम वहां क्या करने गयी थी और गयी भी थी तो चुपचाप आ जाती और ये कैसी महापंचायत थी जिसमें शराब पिये हुए लोग तीन महिलाओं को चारों तरफ से घेरे हुए थे और उनके साथ अभद्र व्यवहार कर रहे थे। और पुलिस प्रशासन भी इसी मानसिकता का शिकार है जो महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करने की कोई धारा नहीं लगाता है।
आखिर कब तक ऐसा ही चलता रहेगा? कब तक कुछ लोग जनता को ऐसे ही भड़काते रहेंगे? और कब तक समाज साम्प्रदायिकता की आग में जलता रहेगा? इसको खत्म करने की जरूरत है और इसको मजदूर-मेहनतकशों की एकजुटता के आधार पर ही खत्म किया जा सकता है। लालकुंआ संवाददाता
राजस्थान में नया पंचायत अध्यादेशः तुगलकी फतवे जारी हैं
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
भाजपा द्वारा शासित विभिन्न राज्यों की सरकारें एक के बाद एक जनविरोधी नियम कानून बनाने में जुटी हैं। पहले गुजरात सरकार ने स्थानीय निकाय चुनावों में मत देना अनिवार्य किया, प्रत्याशियों के घर में शौचालय होने की अनिवार्यता घोषित की। उसके बाद राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने श्रम कानून बदलने में केन्द्र से भी आगे कदम बढ़ा झटपट कई मजदूर विरोधी कानून पास कर दिये। अब वसुंधरा राजे ने नया पंचायत अध्यादेश ला लोगों के जनवादी अधिकारों पर नया हमला बोला।
नये अध्यादेश के तहत जिला परिषद व पंचायत समिति के सदस्य का चुनाव लड़ने के लिए हाईस्कूल पास होना व सरपंच बनने के लिए 8वीं पास होना अनिवार्य बना दिया गया है। इस अध्यादेश से करीब एक तिहाई आबादी से अधिक लोगों से वसुंधरा राजे ने चुनाव लड़ने का हक छीन लिया है।
राजस्थान में साक्षरता दर 66 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय साक्षरता दर लगभग 74 प्रतिशत है। ऐसे में राजस्थान की एक तिहाई आबादी अनपढ़ है। 8 वीं पास लोगों की संख्या और कम होगी। ऐसे में मौजूदा अध्यादेश से लगभग आधे लोग चुनाव लड़ने से वंचित हो जायेंगे।
चुनाव लड़ने से वंचित होेने वाली यह आबादी अधिकतर ही गरीब मेहनतकशों की होगी क्योंकि उन्हीं के बच्चे स्कूल की पढ़ाई छोड़ने वाले प्रथम लोगों में होते हैं। दो वक्त की रोटी कमाने के लिए ढ़ेरों बच्चों को पढ़ाई छोड़ काम पर लग जाना पड़ता है। गरीबों में भी निचली दलित जातियों के लोगों की संख्या पढ़ाई छोड़ने के मामले में ज्यादा है। साथ ही मुस्लिम अल्पसंख्यकों की भी शिक्षा के मामले में बेहतर स्थिति नहीं है। इन सब तबकों में भी महिलाओं की स्थिति कहीं बुरी है।
इस तरह यह अध्यादेश महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों व गरीब मेहनतकशों की कम पढ़ी-लिखी आबादी से चुनाव लड़ने का अधिकार छीन लेता है।
तुगलकी आदेशों को जारी करने के मामले में भाजपा के मुख्यमंत्रियों में प्रतियोगिता चल रही है। दो महिलाओं में दौड़ में आगे आने की होड़ मची है। एक गुजरात की मुख्यमंत्री हैं दूसरी राजस्थान की। राजस्थान की बसुंधरा राजे आगे चल रही हैं। इनकी तुगलकी दौड़ में जनता के जनवादी हक कुचले जा रहे हैं।
हीरो मोटो कार्प का संघर्ष खत्म हुआ
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
14 अक्टूबर से हीरो मोटो कार्प हरिद्वार प्लांट के मजदूर 28 निलम्बित मजदूर अपने निलम्बन वापस के लिए सहायक श्रम आयुक्त कार्यालय के गेट पर धरना दे रहे थे। इस पूरे आंदोलन को सीटू के नेतृत्व में लड़ा जा रहा था। इस आंदोलन को प्लांट के मजदूरों ने बिना काम बंद किये पूरा समर्थन दिया। मसलन उत्पादन को गुणात्मक रूप से नीचे गिरा दिया जिसका परिणाम कम्पनी प्रबंधन ने मजदूरों को सजा के बतौर ‘कारण बताओ’ नोटिस भी दिया। 4-5 हजार हर माह वेतन भी काटा लेकिन मजदूरों ने अपने मजदूरों के भाईचारे को जिंदा रखा। प्रबंधन ने अंदर मजदूरों को तरह-तरह से कमजोर करने की हर सम्भव कोशिश की, लेकिन मजदूरों ने प्रबध्ंाक की धमकी का अपनी एकता के दम पर जबाव दिया।
जब प्रबंधन को मजदूरों को तरह-तरह से तोड़ने में सफलता न मिली तो उसने शासन-प्रशासन के साथ मिलकर अगली चाल चली। चाल यह थी कि 26 से 28 तक की मजदूरों को छुट्टी कर दी। इस दौरान प्रबंधक को सम्भलते-मजबूत होने और मजदूरों को अगली चाल में फांसने का समय मिल गया। जैसे ही 29 नवम्बर को प्लांट खुला 27 स्थाई मजदूरों का गेट बंद कर दिया। और बाकी मजदूरों से अपनी शर्तों पर लिखवाकर अंदर लिया। मजदूर कम्पनी की शर्तों पर लिखकर अन्दर काम पर चले गये। 27 मजदूरों को निलम्बन पत्र दे दिया। अब लड़ाई का रुख बदल गया। पहले वाली मांग गौण हो गयी, अब बाद वाले निलम्बित मजदूरों को अंदर करने की मांग मुख्य हो गयी। पहले वाले 28 मजदूरों में से 19 मजदूरों की सेवा समाप्त कर दी गयी थी। जिसमें 4 मजदूर रखने की बात की गयी। 4 के बारे में सोचने की बात की गयी। पहले वाले मजदूरों की समस्या को प्रशासन द्वारा मजदूरों पर दबाव डालकर मालिक के पक्ष में खत्म करा दी गयी। दूसरी बार में 27 मजदूरों को भी शासन-प्रशासन मजदूरों पर दबाव डालकर खत्म कराने की भूमिका निभाई डी.एम. ने अपने समक्ष मजदूर प्रतिनिधि और प्रबंधक को बुलाकर मीटिंग की जिसमें यह तय हुआ कि बाद वाले 27 मजदूर में से 18 मजदूर धरना जितनी जल्दी खत्म कर देंगे वैसे ही इन मजदूरों को अन्दर कर लिया जायेगा। डी.एम. ने मजदूरों से कहा कि 18 मजदूर भी अंदर जायेंगे जब आप धरना समाप्त कर देंगे नहीं तो मैं मामले को कोर्ट में डाल दूंगा।
हीरो के आंदोलन के अंत में कांग्रेसी छुटभैय्या नेताओं ने धरने पर बैठने की नौटंकी की बाद में जब मजदूरों ने कम्पनी में दबाव डालना बंद कर दिया तो शासन-प्रशासन ने मौका पाकर धरने पर बैठे मजदूरों को धरना खत्म करने का दबाव बनाया। जो अंततः 6 दिसम्बर को समाप्त करा दिया गया। आन्दोलन के बाद वाले 28 में से 18 मजदूर को 8 तारीख में कम्पनी अंदर ले लेगी बाकी 9 मजदूरों को जल्दी ही ले लेगी के आश्वासन पर भरोसा रख कर प्रशासन ने समाप्त करवा दिया। धरना समाप्त कराने के समय एसडीएम, पुलिस अधिकारी और स्थानीय कांग्रेसी नेता मौजूद थे। 18 मजदूर तो माफी लिखकर काम पर वापस ले लिए बचे मजदूरों को 15-20 दिन में लेने की बात की गयी।
हीरो मोटो कार्प के मजदूरों के संघर्ष में शासन-प्रशासन की भूमिका नकारात्मक रही। इस आंदोलन में प्रशासन के सभी अधिकारियों ने पहले 28 मजदूरों पर हिसाब लेकर चले जाने का दबाव डाला गया। एस.डी.एम. हरिद्वार ने तो मजदूरों को धमकाते हुए कहा कि हिसाब लेकर यहां से धरना खत्म करो। ऐसे ही त्रिपक्षीय वार्ता में डी.एल.सी. ने कहा कि अगर मुझे कोई 20 लाख रुपये दे तो मैं अपनी नौकरी छोड़कर चला जाऊंगा। भाजपा-कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने भी मजदूरों से हिसाब लेने को कहा।
इस आंदोलन में नेतृत्व कदम-कदम पर झुकता रहा। मजदूरों ने पूरी शिद्दत से लड़ाई लड़ी। कई मौके आये जहां पर प्रबंधन झुकता दिखाई दिया। जैसे-जैसे प्रबंधक मजदूरों को झुकता दिखाई दिया। वैसे-वैसे मजदूरों के हौंसले बढ़ते गये। लेकिन मजदूरों के नेतृत्व ने प्रबंधक के मौका गंवाने पर माहौल सही करने की मांग पर मजदूरों को आदेश दिया। इसका मजदूरों ने विरोध भी किया लेकिन मजदूर अंत में नेताओ की बात मानकर प्रबंधक की कही बातों के आधार पर अंदर माहौल सही करने लगे। मजदूरों ने अपनी एकता के दम पर प्रबंधक को घुटने के बल ला खड़ा किया। लेकिन चतुर प्रबंधक ने अपने लिए एक मोहलत मौका मांगता रहा प्रतिनिधि मौका देते रहे। संघर्ष के दौरान मजदूरों को सही वक्त पर सही कदम उठाने का अनुभव नहीं था इसलिए मजदूर तो प्रबंधन पर रहम कर सकता लेकिन मालिक कभी मजदूर पर रहम नहीं करता।
हरिद्वार संवाददाता
आईएमपीसीएल मोहान में लाखों रुपये के घोटाले का पर्दाफाश
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
आईएमपीसीएल मोहान में ठेका मजदूर कल्याण समिति के बैनर तले चल रहे आंदोलन में एक नया मुकाम आ गया है। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री द्वारा आईएमपीसीएल मोहान में भ्रष्टाचार के लिए नियुक्त अधिकारी ने जब अपनी जांच रिपोर्ट शासन में भेजी तो उसने आईएमपीसीएल मोहान में मजदूरों के पी.एफ., ईएसआई आदि में हुए घोटाले के बारे में तो खुलासा किया ही, साथ ही प्रबंधन व ठेकेदार की मिलीभगत से हुए कई और घोटालों को भी सामने ला दिया। इनमें 19 लाख रुपये से ज्यादा का सर्विस टैक्स का घोटाला भी सामने आया जिसमें ठेकेदार ने सर्विस टैक्स का 19 लाख रुपये तो लिया परन्तु सरकार के कोष में मात्र 10 हजार रुपये ही जमा किये। इसके अलावा मात्र 100 श्रमिकों का बीमा ही ठेकेदार ने करवाया और मात्र 29 हजार रुपये जमा कर लगभग 6 लाख रुपया बीमा मद का कम्पनी व ठेकेदार मिलकर हड़प कर गये। ठेकेदारी के मजदूर कानूनन बोनस के लिए दावा नहीं कर सकते लेकिन यह पैसा भी कम्पनी द्वारा ठेकेदार को भुगतान किया गया लेकिन यह मजदूरों तक नहीं पहुंचा। पीएफ राशि में एक बड़ा घोटाला भी जांच में सामने आया।
पिछले बीस सालों में देश के विभिन्न औद्योगिक इलाकों में ठेका प्रथा खरपतवार की तरह बढ़ती गयी है। इस प्रथा ने मजदूरों की मजदूरी व सुविधाएं तो कम की हीं साथ ही ठेकेदारों के रूप में एक ऐसा दलाल तबका भी पैदा किया जो मजदूरों की लूट पर अपना जीवन-यापन करता है। निजी फैक्टरियों में यह प्रबंधन के साथ ज्यादा सांठगांठ नहीं कर पाता है परन्तु सरकारी क्षेत्र में तो प्रबंधन अतिरिक्त कमाई के लिए ठेकेदार के साथ मजबूत गठजोड़ कायम करता है। आईएमपीसीएल मोहान केन्द्र सरकार का एक उपक्रम है जो लघु उद्योग के अंतर्गत आता है। यह आयुर्वेदिक दवायेें बनाने का काम करता है। 2008 में यहां भी ठेका प्रथा शुरू की गयी थी। यहां पर स्थायी मजदूरों की यूनियन ने थोड़ा विरोध जरूर किया परन्तु अंततः ठेका प्रथा यहां लागू हुयी। और फिर प्रबंधन व ठेकेदार के मध्य सांठगांठ शुरू हुई। प्रबंधन द्वारा स्थानीय अखबारों में बिना कोई टेण्डर निकलवाये ठेकेदार को दे दिया गया। यही प्रक्रिया 2010 में भी दोहरायी गयी। ठेकेदार व कम्पनी प्रबंधन मजदूरों का बोनस, पीएफ, ईएसआई आदि का पैसा हड़प कर अपना पेट भरते रहे और मजदूरों का उत्पीड़न व शोषण जारी रहा। जब भी किसी मजदूर ने आवाज उठानी चाही तो या तो उसका मुंह कुछ पैसा देकर बंद कर दिया गया या फिर उसको कम्पनी से बाहर निकाल दिया गया।
इसी तरह सितम्बर 2011 में जब मजदूरों ने अपने वेतन विसंगति, पीएफ, बोनस को लेकर आवाज उठायी तो 28 मजदूरों को बाहर निकाल दिया गया। इसके बाद मजदूरों ने अपने को संगठित किया और अपने अधिकारों के लिए फैक्टरी में हड़ताल कर दी। फैक्टरी के बाकी ठेका मजदूर भी उनके समर्थन में आ गये। और तीन चरण के आंदोलन के बाद फैक्टरी में ठेका प्रथा को खत्म कर मजदूरों को सीधे कम्पनी के माध्यम से रखा गया। लेकिन 31 मार्च 2012 के बाद प्रबंधक ने फिर से ठेका प्रथा लागू करने के अपने प्रयास शुरू कर दिये। इसके बाद मजदूरों ने फिर आंदोलन किया लेकिन 72 दिन संघर्ष करने के बाद अंततः फैक्टरी प्रबंधन ठेका प्रथा लागू करने में सफल हो गया और नेतृत्वकारी मजदूरों को बाहर कर दिया गया। लेकिन मजदूरों ने हौंसले नहीं छोड़े और कानूनी प्रक्रिया से अपनी लड़ाई को जारी रखा। अंततः जब उन्होंने उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को अपनी शिकायत भेजी तो मुख्यमंत्री ने फैक्टरी में भ्रष्टाचार की जांच करवाने के लिए सहकारी समितियां के अधिकारी को लिखा और जांच अधिकारी ने उन सभी बातों की पुष्टि की जिसको मजदूर 2011 से बार-बार उठा रहे थे।
यह तो जांच रिपोर्ट में साफ हो गया है कि मैनेजमेण्ट व ठेकेदार 2008 से 2011 तक के मजदूरों के वेतन, पीएफ, बोनस व ईएसआई आदि की रसीदें, बिल पेश नहीं कर पाया है। लेकिन इससे पहले भी एसडीएम मोहान केे साथ बातचीत में मैनेजमेण्ट इस काम को नहीं कर पाया है। बावजूद इसके अभी तक भ्रष्टाचार करने वाले अधिकारी न केवल खुलेआम घूम रहे हैं बल्कि अपने-अपने पदों पर हैं। यह हालत तब है जब देश भर में चारों तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का माहौल बना हुआ है। भ्रष्टाचार की जांच करने वाली संस्थाओं की तरफ से मैसेज भेजे जा रहे हैं लेकिन आईएमपीसीएल मोहान के मजदूरों के लाखों रुपये हड़पाने वाला प्रबंधन व ठेकेदार सीना फुलाये घूम रहे हैं। यह मजदूरों के सामने व्यवस्था की पोल ही खोलता है कि यह व्यवस्था मजदूरों के लिए नहीं है। रामनगर संवाददाता
कम्पनी द्वारा ठेका फर्म को मजदूरी की मद में 1.37 करोड़ रु. का भुगतान किया गया जिसके बिल मैनेजमेंट व ठेकेदार ने जांच अधिकारी को उपलब्ध नहीं कराए। इसमें भी भारी घोटाले का अंदेशा है।
अस्ती के मजदूरों की भूख हड़ताल समाप्त परन्तु संघर्ष जारी
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
अस्ती के ठेका मजदूरों की 16 दिन से जारी भूख हड़ताल बिना अपनी मांगों के मनवाये समाप्त हो गयी लेकिन मजदूरों के हौंसले पस्त नहीं हुए हैं और उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा हुआ है। 11 दिसम्बर को मजदूर 10 बजे कमला नेहरू पार्क में इकट्ठे हुए और जुलूस की शक्ल में सोहना चौक से होते हुए एएलसी के दफ्तर पहुंचे। आज पहली बार ऐसा हुआ कि सभी मजदूर दफ्तर पहुंचे और अंदर ही सभा की।
जब मजदूर एएलसी दफ्तर पहुंचे तो एएलसी ने मजदूरों को 18 दिसम्बर की तारीख दी और मजदूरों ने जोरदार प्रदर्शन के साथ मामले का हल निकलने तक संघर्ष जारी रखने का संकल्प व्यक्त किया।
इससे पहले 5 दिसम्बर को एएलसी के साथ त्रिपक्षीय वार्ता में एएलसी ने मैनेजमेण्ट को कहा कि वह पीसीबी के निकाले गये मजदूरों को वापस ले। और बाकी मजदूरों के लिए वह यह लिखकर दे कि काम आने पर सबसे पहले निकाले गये मजदूरों को काम पर लिया जायेगा। परन्तु कम्पनी ने ऐसा लिखकर देने से मना कर दिया।
इस पर मजदूरों ने अपनी भूख हड़ताल जारी रखी और जब हड़ताल के 14 दिन हो गये तो इसकी तपिश बाकी कम्पनियों तक पहुंचने लगी। और वे अस्ती के मजदूरों के समर्थन में आने लगे। स्वयं अस्ती के स्थायी मजदूर भी खुलकर उनके पक्ष में आने लगे। और 8 दिसम्बर को उन्होंने फैक्टरी में काली पट्टी बांधकर काम किया। साथ ही कम्पनी में काम कर रहे ठेका मजदूरों को भी उन्होंने काली पट्टी बांधी। अगले दिन 9 दिसम्बर को ठेका मजदूरों का ठेकेदार कम्पनी आया और यूनियन के प्रधान प्रताप सिंह से इस बात पर झगड़ने लगा कि उसने उसके मजदूरों को काली पट्टी क्यों बांधी? और उसने झगडे़ के दौरान यूनियन प्रधान को थप्पड़ जड़ दिया।
इस पर स्थायी मजदूरों ने फैक्टरी में काम बंद कर दिया। और कम्पनी गेट पर अन्य कम्पनियों के यूनियन पदाधिकारी पहुंचने लगे। इनमें मारुति मानेसर, सुजुकी मोटरसाइकिल, सत्यम आॅटो, बैक्स्टर, जबेरियन, मुंजाल कीरू और इंडोरेंश थीं। अंत में मालिक को वार्ता करनी पड़ी। इस वार्ता से ठेका मजदूरों की भी आशा बंधी कि उनके लिए भी कोई हल निकलेगा। लेकिन वार्ता में यूनियन ने ठेका मजदूरों के पक्ष में कोई ठोस पहलकदमी नहीं ली। और इस तरह वार्ता हड़ताल पर बैठे मजदूरों के लिए कोई हल निकलवाये बिना समाप्त हो गयी।
इसके बाद श्रम विभाग व प्रबंधन के दो-दो पदाधिकारी मजदूरों के पास आये और उनसे हड़ताल समाप्त करने को कहा और कहा कि अब कोई वार्ता नहीं होगी। इस मोड़ पर आकर वार्ता समाप्त समझो। अंत में मजदूरों के सामने भूख हड़ताल समाप्त करने के सिवाय कोई और चारा न बचा और भावुकता भरे माहौल में भूख हड़ताल समाप्त कर दी गयी। लेकिन उसके बाद भी उन्होंने संघर्ष करने का संकल्प नहीं त्यागा और एक नयी ऊर्जा के साथ उन्होंने लड़ाई लड़ने की ठान ली है। ठेका मजदूर अब कम्पनी गेट पर धरना दे रहे हैं।
आज देश में प्रधानमंत्री मोदी के ‘मेक इन इण्डिया’ के नारे की हकीकत यही है। इन नारे के तहत जहां पूंजीपतियों को खुली छूटें दी जा रही हैं और मजदूरों के अधिकार छीने जा रहे हैं। और यह सब मजदूरों के भलाई के नाम पर किया जा रहा है। लेकिन यह नारा भी अब धीरे-धीरे अपनी चमक खोता जा रहा है। मजदूरों की बदरंग होती जा रही जिंदगी को अब ये नारे चमकाने में असमर्थ में हैं और इसलिए खुद अपनी चमक खोते जायेंगे। मजदूर वर्ग का लाल सितारा ही मजदूरों की जिंदगी में एक नयी चमक पैदा कर सकता है। गुड़गांव संवाददाता
छपते-छपते
कंपनी गेट पर धरना दे रहे मजदूरों को पहले तो ठेकेदार ने बहला-फुसला और दबाव डालकर हिसाब लेने को कहा और मजदूरों द्वारा न हिसाब लेने से मना करने पर उसने टेंट मालिक के साथ मिलकर मजदूरों का टेंट उखाड़ दिया है। मजदूरों ने अब एएलसी आॅफिस पर अपना धरना देने का फैसला किया है।
हमारी यूनियन का जन्म
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
मानेसर गुड़गांव के सेक्टर 8 प्लाट न. 1 में एक कम्पनी बैलसोनिका आटो कम्पोनेन्ट इण्डिया है। इस कम्पनी के मजदूरों ने अपने शोषण के चलते यूनियन बनाने का निर्णय लिया और इसके लिए छोटी-छोटी मीटिंग शुरू कर दीं।
इसी दौरान 17 जुलाई को मैनेजमेण्ट के कुछ अधिकारियों ने वेल्ड शाॅप विभाग की लाईन को 2 घंटे के लिए बंद करवा दिया और सफाई करने को कहा। मैनेजमेण्ट को जब पता चला कि मजदूर यूनियन बनाने की कार्यवाही कर रहे हैं तो उसने लाइन बंद करने का इलजाम मजदूरों पर डाल दिया।
अगस्त माह में मजदूरों ने अपनी यूनियन बनाने की फाइल श्रम विभाग में लगा दी। जब मैनेजमेण्ट को इसके बारे में पता चला तो उसने मजदूरों के ऊपर दबाव बनाना शुरू कर दिया। श्रमिकों को सारा-सारा दिन ट्रेनिंग रूम में बैठाकर रखने लगा। पुलिस व स्थानीय सरपंच के द्वारा भी उसने मजदूरों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। सरपंच मैनेजमेण्ट की भाषा में मजदूरों को धमका रहे थे कि ‘तुम कम्पनी का माहौल क्यों खराब कर रहे हो’ जबकि श्रमिक अपना काम पूरी ईमानदारी से कर रहे थे। इसी बीच मैेनजमेण्ट ने श्रमिकों पर दबाव बनाकर कागजों पर हस्ताक्षर करवाये और उसके बाद 27 अगस्त को धमकी दी कि उन्हें काम से बाहर कर दिया जायेगा और कागजों को बिना मजदूरों को पढ़वाये उनके हस्ताक्षर करवाये। मजदूरों ने इसकी शिकायत एलसी और डीएलसी से की परन्तु कोई कार्यवाही नहीं हुई।
इतने पर भी मजदूरों ने धैर्य बनाये रखा और अनुशासन बनाये रखा। परन्तु उधर श्रम विभाग की मिलीभगत से मैनेजमेण्ट को उन 44 श्रमिकों के नाम पता चल गये जो यूनियन का गठन कर रहे थे। अब मैनेजमेण्ट ने इन श्रमिकों को परेशान करना शुरू कर दिया। और इन श्रमिकों से किसी और मजदूर को मिलने नहीं दिया जाता था। श्रमिकों से जबरन एक हलफनामे पर हस्ताक्षर करवाये गये। जिन श्रमिकों ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किये उसके फर्जी हस्ताक्षर कर दिये गये।
इसके बाद कम्पनी ने बाउंसरों (गुण्ड़ों) की मदद लेनी शुरू कर दी। बाउंसर यूनियन में शामिल मजदूरों की वीडियो बनाते और उन्हें धमकाने का काम करते थे। 10 अक्टूबर को कम्पनी ने मजदूरों को फोन करके कहा कि ‘तुम्हें आज काम पर नहीं आना है’। परन्तु इसके बावजूद जब श्रमिक गेट न. 4 पर पहुंचे तो वहां भारी मात्रा में पुलिस बल व गुण्डे तैनात थे। और श्रमिकों को आगे नहीं आने दिया गया क्योंकि हमारी कम्पनी मारुति की चारदिवारी के अंदर ही है। जब यूनियन में शामिल 44 मजदूरों ने अंदर न आने का कारण पूछा तो मैनेजमेण्ट ने कहा कि उनको निलम्बित कर दिया गया है। कारण पूछने पर मैनेजमेण्ट ने जबाव दिया कि कारण उनके घर के पते पर पहुंच जायेगा।
मजदूर सारे दिन गेट न. 4 पर बैठे रहे। उसी दिन कम्पनी की यूनियन का रजिस्ट्रेशन न. मिल गया जोकि 1983 था। इसके बाद श्रमिकों ने इसकी सूचना श्रम विभाग, पुलिस विभाग गुड़गांव, लेबर इंसपेक्टर, डीएलसी गुडगांव और श्रम विभाग चण्डीगढ़ को भी लिखित रूप में दे दी। इसके बावजूद भी प्रबंधकों पर कोई असर नहीं पड़ा। और एक श्रमिक देवी राम को गेट पर 14 अक्टूबर को रोक दिया और जबरन हस्ताक्षर करने के लिए कहा। श्रमिक द्वारा मना करने पर प्रबंधकों ने सिक्योरिटी गार्ड की सहायता से उस श्रमिक का आईडी कार्ड छीनकर बाहर निकाल दिया। जब श्रमिकों ने इसकी सूचना पुलिस प्रशासन थाना मानेसर को 15 अक्टूबर को लिखित रूप में दी तो एसएचओ ने शिकायत फाड़ दी और अनाप-शनाप बकने लगा। श्रमिकों ने इसकी जानकारी न्यूज पेपर में भी निकलवाई। इसके बाद मजदूरों ने 16 अक्टूबर को कम्पनी के गेट पर झण्डा लगाने का नोटिस कम्पनी, श्रम विभाग गुड़गांव चण्डीगढ़ तथा पुलिस प्रशासन गुडगांव को भी दी। 17 अक्टूबर को श्रमिकों व प्रबंधकों को श्रम विभाग बुलाया गया लेकिन प्रबंधक गैर हाजिर रहा। श्रम विभाग ने एक बार फिर 28 अक्टूबर की तारीख दे दी उसी दिन श्रमिकों ने कम्पनी गेट पर झण्डा फहराने का तय किया गया था। कम्पनी ने इसी बीच रणसिंह नाम के मजदूर को बाहर कर दिया। 21 अक्टूबर को जब मजदूर गेट पर हाजिर हुए तो उन्हें आरोप-पत्र दिये गये जिन्हें मजदूरोें ने लेने से इंकार कर दिया क्योंकि उन पर आरोप बेबुनियाद लगाये गये थे। परन्तु प्रबंधकों ने ये आरोप पत्र श्रमिकों के घर पर भेज दिये। 26 अक्टूबर को यूनियन के पास एक पत्र आया जो कम्पनी की तरफ से एक स्टे आर्डर था। जब यूनियन ने मानेसर थाने से स्टे आर्डर की कापी मांगी तो पुलिस अधिकारी ने उन्हें धमकाना शुरू कर दिया और मारुति सुजुकी जैसा हाल करने की धमकी दी। श्रमिकों ने इसकी सूचना 28 अक्टूबर को डीसी महोदय को दी लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई।
28 अक्टूबर को प्रबंधक श्रम विभाग आया और अपनी औपचारिकता पूरी करके चला गया। जब शाम को मजदूर झण्डा लगाने कम्पनी गेट पर पहुंचे तो वहां भारी मात्रा में पुलिस बल मौजूद था और कम्पनी ने वहां वर्दी में बाउंसर भी खडे़ कर रखे थे ताकि किसी झगड़ा होने के बाद उसका इलजाम मजदूरों पर डाला जा सके। मौके की नजाकत को देखते हुए यूनियन ने झण्डे लगाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया।
29 अक्टूबर को श्रमिक देवी राम को एसीपी मानेसर ने बुलाया परन्तु एसीपी महोदय अनुपस्थित रहे। दिनांक 2 नवम्बर को श्रमिकों ने अपने रोष को प्रकट करने के लिए कम्पनी प्रबंधकों, श्रम विभाग, पुलिस विभाग के खिलाफ अपनी मांगों को लेकर जुलूस निकाला। और एक ज्ञापन डीसी महोदय को दिया। डीसी महोदय ने एक सप्ताह के भीतर कार्यवाही करने का आश्वासन दिया। 3 नवम्बर को भी प्रबंधकों की तरफ से श्रम विभाग में आकर बस औपचारिकता ही पूरी की गयी। 5 नवम्बर को श्रमिकों को वापिस लेने की मांग के साथ डीएलसी महोदय जे.पी.मान के कार्यालय के सामने नारेबाजी की। डीएलसी महोदय ने श्रमिकों को 7 नवम्बर को मैनेजमेेण्ट के साथ एक मीटिंग कर मामले को सुलझाने का आश्वासन दिया। बैलसोनिका आॅटो कम्पोनेण्ट एम्प्लाॅइज यूनियन मानेसर गुड़गांव (हरियाणा)
भाजपाईयों की मजदूरों पर खुली गुण्डागर्दी
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
मित्तर फास्टनर्स प्रा.लि.प्लांट नं.69 से.नं.6 सिडकुल पंतनगर में भारतीय जनता पार्टी के रूद्रपुर विधायक के भाई की मजदूरों के ऊपर खुली गुण्डागर्दी चल रही है।
मित्तर फास्टनर्स फैक्टरी में टाटा और अशोक लीलैण्ड के गाडि़यों के पार्ट तैयार किये जाते हैं। फैक्टरी में मजदूर पिछले 4-5 सालों से काम कर रहे हैं। मगर अभी तक किसी भी मजदूर को स्थायी नियुक्ति पत्र नहीं दिया इसकी शिकायत मजदूरों ने डी.एल.सी. (उपश्रमायुक्त) के यहां कर दी थी। काफी हीलाहवाली के बाद डी.एल.सी.ने श्रम कानूनों के उल्लघंन का आदेश पारित कर दिया मगर उसका पालन नहीं करवाया। उससे पहले रुद्रपुर भाजपा विधायक और उसके भाई फैक्टरी में मजदूरों को धमकाने पहुंच गये थे। किसमें हिम्मत है जो स्थायी नियुक्ति पत्र ले ले। काफी धमकाने के बावजूद मजदूर फैक्टरी प्रबन्धक और भाजपा विधायक के भाई के खिलाफ निडरतापर्वूक डटे रहे और अंत में मजदूरों को स्थायी नियुक्ति पत्र प्रबन्धक को देने पड़ गये। जो मुख्यतः नेता थे उनको नहीं दिये बाकी सामान्य मजदूरों को स्थायी नियुक्ति पत्र दे दिये। प्रबन्धक लगातार मजदूर नेताओं पर हमला करने मजदूरों से अलगाव पैदा करने का काम करता रहा।
मजदूर नेताओं पर प्रबन्धक द्वारा अक्टूबर माह में फर्जी तरीके से कारण बताओ नोटिस दे दिये। इसका जवाब 24 घंटे के अंदर दे वरना उनको फैक्टरी से निकाल दिया जायेगा। मजदूरों ने नोटिस का जवाब दिया और फैक्टरी प्रबन्धक को कोई मौका नहीं मिला। अधिकतर मजदूरों पर काम का बोझ बढ़ा दिया। एक-एक मजदूर को चार-चार मशीनों पर काम करवाया और जब चाहे शिफ्ट को बदल देना और साप्ताहिक अवकाश अपनी मनमर्जी के मुताबिक करना आदि। इसके बावजूद फैक्टरी प्रबन्धक को मजदूर नेताओं को नौकरी से निकालने का कोई मौका नहीं मिल पा रहा था। एम.डी. द्वारा खुले तौर पर मजदूरों से कहा गया कि मुझे अब पुराने मजदूर नहीं चाहिए खासतौर से 20-25 मजदूर जो नेतागिरी करते हैं वह मजदूर मुझे नहीं चाहिए। इन मजदूरों की कमियां या झूठे आरोपों को मढ़ने के लिए मौके की तलाश थी कि दिनांक 12 नवम्बर को मसलुद्दीन खान को दोपहर दो बजे प्रबन्धक ने अपने केबिन में बुलाया। एम.डी. मुकेश साहनी, जी.एम. चंद्रप्रकाश शर्मा, सुपरवाइजर प्रदीप व संजय तरफदार पहले से मौजूद थे। एम.डी. और जी.एम. ने मसलददीन खान से इस्तीफा देने को कहा। इस पर मसलुद्दीन खान ने कहा कि वह तो काम करना चाहता है। और वह इस्तीफा नहीं देगा। इस पर यह चारों लोग मसलद्दीन को भद्दी-2 गालियां देने लगे और उसे तीन घंटे तक केबिन में बंधक बनाकर रखा और धमकी दी कि इस्तीफा नहीं देगा तो वह उसे जान से मरवा देंगे। मसलुददीन के इस्तीफा देने से मना करने के बाद प्रबन्धक के लोगों ने उसे जबरदस्ती धक्का मारकर फैक्टरी गेट से बाहर कर दिया। उसके बाद मसलुद्दीन खान ने सिडकुल पुलिस चौकी, ए.एल.सी.,डी.एल.सी.व कारखाना निदेशक व सहायक कारखाना निदेशक आदि सभी के पास अपने प्रार्थना पत्र दिये। मसलुद्दीन खान जब पुलिस चौकी पर गये तो वहां पर पुलिस इंचार्ज के समक्ष भाजपा विधायक का भाई नीटू ठुकराल आया और बोला इस फैक्टरी का एच.आर. वह है और उसने इसको निकाला है। इस पर मजदूरों ने तीखा आक्रोश व्यक्त किया और कहा यह फैक्टरी का एच.आर. नहीं है, यह तो दलाल है। मजदूरों ने पुलिस को बताया कि फैक्टरी में इसका भवन निर्माण का ठेका चलता है। पुलिस ने मजदूरों की बात को अनसुना कर दिया और पूंजीपतियों के सेवक होने के अपने चरित्र को उजागर किया। मजदूर को कोई न्याय नहीं दिया।
फैक्टरी में मशीनों पर कुशल स्थायी मजदूर ही काम कर सकते हैं लेकिन फैक्टरी प्रबन्धक अकुशल ठेका मजदूरों से काम कराता है। दिनांक 15नवम्बर को अकुशल ठेका मजदूर नानकचंद्र का हाथ प्रेसशाॅप मशीन में आ गया और उसकी तीन उंगलियां कट गयीं। नानकचंद्र का हाथ मशीन में करीब 20-25 मिनट तक फंसा रहा और वह तड़पता रहा। स्थायी मजदूरों ने बड़ी मुश्किल से मजदूर का हाथ मशीन से बाहर निकाला उसके बाद सुपरवाइजर प्रदीप द्वारा नानकचंद्र को रुद्रपुर स्थित शुभम सर्जिकल अस्पताल में भर्ती कराया गया। फैक्टरी प्रबन्धन मजदूर का सामान्य उपचार कर उसे अस्पताल से छुट्टी करा रहे थे और मामले को दबा रहे थे। इस पर भी भाजपा विधायक का भाई खुलकर फैक्टरी प्रबन्धन के साथ खड़ा हुआ और कहने लगा कि मजदूर नानकचंद्र को कोई मुआवजा व पेंशन नहीं मिलेगी। मजदूर खुद अपनी लापरवाही के चलते घायल हुआ। पुलिस चुपचाप मूकदर्शक बनी रही और फैक्टरी प्रबन्धन भाजपा विधायक के भाई की बात का समर्थन कर रहा था। मजदूरों के तीखे आक्रोश को देखकर पुलिस को मजबूरीवश नानकचंद्र की रिपोर्ट दर्ज करनी पड़ी।
फैक्टरी में कोई भी श्रमकानून लागू नहीं होते। मजदूरों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार होता है। आज कारखाना प्रबन्धक मशीनों पर कुशल स्थायी मजदूरों को इसलिए नहीं रखना चाहते क्योंकि उन्हें सस्ता ठेका मजदूर चाहिए और मजदूर बेरोजगारी और भुखमरी के मार के कारण खतरनाक मशीनों पर काम करने को मजबूर होते हैं और दुघर्टनाग्रस्त होते है। यही नानकचंद्र के साथ हुआ। नानकचंद्र का दूसरा ही दिन था। नानकचंद्र ने अपनी शिकायत श्रम अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों के यहां लगायी है और मुकद्मा भी दर्ज कराया है फिर भी न तो कोई श्रम अधिकारी फैैक्टरी के अंदर जांच करने गया न ही पुलिस ने प्रबन्धन के खिलाफ कार्यवाही की है।
फैक्टरी के सभी मजदूरों ने सामूहिक तौर पर हस्ताक्षर करके शिकायत पत्र सहायक श्रमायुक्त रुद्रपुर के वहां लगाया है और मांग की है कि फैक्टरी प्रबन्धन अकुशल ठेका मजदूरों से मशीनों पर काम करा रहा है और स्थायी कुशल मजदूरों को जबरन फैक्टरी से बाहर निकाल रहा है। सहायक श्रमायुक्त द्वारा मौखिक रूप से ही अभी तक त्रिपक्षीय वार्ता बुलाने की बात की है।
मसलुद्दीन खान को फैक्टरी प्रबन्धन द्वारा बगैर नोटिस दिये हुए फैक्टरी से निकाल दिया इस बात को मजदूर समझ रहे है कि यह हमला मसलुद्दीन खान पर ही नहीं हम सभी पर हमले की तैयारी है। इससे निपटना सामूहिक तौर पर ही हो सकता है। यदि मजदूर सामूहिक तौर पर लड़ेंगे तो प्रबन्धक व उसके गुर्गे भाजपाइयों से निपट लेंगे बरना परास्त होकर बाहर हो जायेंगे।
आज फैक्टरी प्रबन्धन-पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी व श्रम अधिकारी मजदूरों को संगठित नहीं होने देना चाहते है। मगर मजदूरों की जीवन परिस्थितियां उन्हें वहां धकेल रही है कि वह अपने को संगठित करें। इसी से प्रशासन-पुलिस-श्रम अधिकारी व प्रबन्धन डरते हैं। मजदूरों के आक्रोश को व संगठित ताकत को भाजपाई साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास करते रहे हैं। अब तो वे मजदूरों के साथ गुण्डागर्दी पर सीधे उतर रहे हैं। मित्तर फास्टनर्स की घटना में भाजपाइयों के व्यवहार ने बता दिया कि किसके अच्छे दिन आये और किसके बुरे दिन आये। जाहिर है फैक्टरी प्रबन्धन, ठेकेदारों के अच्छे दिन आये हैं और मजदूरों के बुरे दिन आ गये हैं। रुद्रपुर संवाददाता
त्रिलोकपुरी में प्रशासन ने आयोजित किया शांति मार्च
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
21 नवम्बर, दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में पुलिस प्रशासन द्वारा शांति मार्च निकाला गया। जनता की व्यापक भागीदारी के अभाव में यह केवल एक सरकारी आयोजन की बन कर रह गया। इस शांति मार्च को सद्भावना रैली का नाम दिया गया था, साथ में इसमें स्वच्छता जागरुकता का मुद्दा भी जोड़कर इसे पूरी तरह सरकारी बना दिया गया। इस तरह ‘सदभावना व स्वच्छता रैली’ के नाम से यह कार्यक्रम किया गया।
रैली में जितनी जनता शामिल थी उससे तीन गुनी पुलिस मौजूद थी। भागीदार लोगों में जनता बमुश्किल दो दर्जन लोग थे। वह भी घंटा भर इंतजार करने के बाद जमा हुये थे। रैली में शामिल ज्यादातर लोग पुलिस द्वारा गठित अमन कमेटी के थे। कुछ स्थानीय मोहल्लों के नेता (RWA के पदाधिकरी) थे तो कुछ नेता बनने के आकांक्षी लोग। एक नेतानुमा व्यक्ति अपने को शान से भाजपा का स्थानीय वार्ड अध्यक्ष बता रहे थे। जनता में कहने के लिए कुछ मुस्लिम महिलायें व 2-4 नौजवान थे। प्रशासन की नजर में नेता की मान्यता पाने को बेचैन लोग गले में फूलों का हार डाले घंटा भर जनता के आने का इंतजार करते रहे और अंत में प्रशासन के कहने पर मार्च शुरु किया। मार्च में शामिल लोगों को देखकर लग रहा था कि कोई मातमी जुलूस जा रहा है। एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने जब कौमी एकता का नारा लगाया तो पुलिस के अधिकारी दौड़ते हुए आये और उसे शाबाशी देते हुए जुलूस के आगे चलने का आग्रह किया। पुलिस प्रशासन के आगे नारे लगाने की हिम्मत न करने वाले नेता यह देखकर जोश में आ गये और नारे लगाने लगे। लेकिन कौमी एकता के साथ उन्होंने एक नारा और जोड़ दिया- दिल्ली पुलिस जिंदाबाद। जुलूस त्रिलोकपुरी के विभिन्न ब्लाॅकों से गुजरा। रास्ते में लोग कौतुहल से इसे देखते रहे। एक बूढ़ी महिला झुंझलाकर बोली ‘‘अब कौमी एकता की याद आ रही है, अब तक मर गये थे क्या।’’ खैर यह कौमी एकता व स्वच्छता रैली एक प्रहसन्न बनकर रह गयी।
दिल्ली संवाददाता
फैक्टरी प्रबन्धक द्वारा मजदूरों का उत्पीड़न
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
पंतनगर सिडकुल में पर्ल पोलीमर्स लि.प्लांट नं.45 से.नं.3 में फैक्टरी प्रबन्धक द्वारा दीपावली के बाद 27 अक्टूबर को तीन मजदूरों का स्थानांतरण दिल्ली, हिमाचल प्रदेश व गुड़गांव कर दिया। इससे ठीक पूर्व पांच स्थायी मजदूरों का 15 अक्टूबर से गेट बंद कर दिया।
पर्ल पोलीमर्स लि. में प्लास्टिक के जार, बोतल आदि बनायी जाती है जो कि परफैटी फैक्टरी इत्यादि में सप्लाई की जाती है। इसके अतिरिक्त बाजार में भी सप्लाई होती है। इसके माल की बाजार में मांग हमेशा रहती है। मजदूरों का कहना है कि फैक्टरी का कारोबार लगभग 250 करोड़ रुपये का होता है। इसके बावजूद फैक्टरी में मजदूरों को पांच-छः हजार रुपया मासिक दिया जाता है। फैक्टरी में वर्तमान समय में 40 स्थायी मजदूर, 12 कैजुअल मजदूर और लगभग 180 ठेकेदारी के मजदूर काम करते हैं। प्रबन्धकों का व्यवहार मजदूरों के साथ जानवरों जैसा होता हैं। नौकरी के डर की वजह से मजदूर प्रबन्धकों के अत्याचार को सहन करते हैं।
लक्ष्मण प्रसाद पिछले चार-पांच सालों से फैक्टरी में स्थायी मजदूर के रूप में काम करता था। एक दिन अचानक प्रिंट मशीन में बांये हाथ की चार अंगुलियां कट गयीं। उसके बाद प्रबन्धक ने लक्ष्मण को न तो ई.एस.आई.द्वारा पेंशन की सुविधा दिलायी और न ही कोई मुआवजा दिया। जब लक्ष्मण और कुछ मजदूरों ने प्रबन्धक से मुआवजे व ई.एस.आई. पेंशन की बात की तो प्रबन्धक गुस्से में बोला कि इसने मशीन में जान बूझकर हाथ डालकर अपनी अंगुली काट ली। अब किस बात का मुआवजा व पेंशन। इसके बाद प्रबन्धन ने लक्ष्मण को काम से निकाल दिया। एक हाथ से विकलांग लक्ष्मण को कहीं दूसरी जगह नौकरी नहीं मिली। कुछ समय बाद प्रबन्धन ने लक्ष्मण को कैजुअल में काम पर रख लिया।
फैक्टरी में किसी भी मजदूर को प्रबन्धन द्वारा नियुक्ति पत्र व स्थाई नियुक्ति पत्र नहीं दिया गया। किसी भी मजदूर के पास फैक्टरी का परिचय पत्र तक नहीं है। स्थायी मजदूरों व कैजुअल मजदूरों के बीच अंतर सिर्फ इतना है कि स्थायी मजदूरों का वेतन बैंक में तो कैजुअल मजदूरों को नकद पैसा प्रबन्धन देता है। फैक्टरी में किसी तरीके के श्रम कानूनों का पालन नहीं किया जाता है। 2007 से कार्यरत मजदूरों को मात्र 6 हजार रुपया दिया जाता है। इसी तरह गोपाल नामक मजदूर की एक अंगुली मशीन में आकर कट गयी, उसको भी कोई मुआवजा व ई.एस.आई. पेंशन आज तक नहीं दी।
अगस्त माह में मजदूरों ने प्रबन्धन से वेतन में वृद्धि की बात की तो प्रबन्धन ने बात अनसुनी कर दी। बाद में वृद्धि मात्र 350 रुपया की गयी। इस पर मजदूरों में आक्रोश फैला। मजदूर काम रोककर एक दिन गेट के भीतर बैठे। इस पर प्रबन्धन ने पुलिस बुलाकर मजदूरों को बाहर कर दिया। 26 अगस्त को मजदूरों ने अपना मांग पत्र सहायक श्रमायुक्त रुद्रपुर ऊधमसिंह नगर को सौंपा। इस पर श्रमायुक्त ने 31 अगस्त को त्रिपक्षीय वार्ता का नोटिस प्रबन्धन व मजदूरों को भेजा। श्रमायुक्त का नोटिस मिलते ही प्रबन्धन घबरा गया और त्रिपक्षीय वार्ता के एक दिन पहले 30 अगस्त को मजदूरों को अपने कार्यालय में बुलाकर समझाने लगा कि यह हमारे घर (फैक्टरी) का मामला है। तुम्हारी जो भी मांगें हैं उसे हेड कार्यालय दिल्ली से बात कर पूरी करवा देंगे। हमें 15 दिन का समय दे दो। मजदूर प्रबन्धन की कुटिल चाल के झांसे में आ गये क्योंकि मजदूर किसी भी श्रम कानून के बारे में नहीं जानते थे और न ही इनका कोई संगठन था। प्रबन्धन द्वारा दिये आश्वासन के कारण मजदूर अगले दिन त्रिपक्षीय वार्ता हेतु ए.एल.सी. कार्यालय नहीं गये और प्रबन्धक के साथ समझौते में हस्ताक्षर कर लिये। 15 दिन बीतने पर मजदूरों ने प्रबन्धक से अपनी मांगों के बारें में बातचीत की तो प्रबन्धन साफ मुकर गया।
मजदूरों ने पुनः सहायक श्रमायुक्त रुद्रपुर को 23 सितम्बर को अपना मांग पत्र सौंप कर त्रिपक्षीय वार्ता कराने की बात की तो श्रमायुक्त ने उल्टा मजदूरों को डांट लगायी और प्रबन्धन की तारीफ की। मजदूरों की मांग पर आज तक श्रम विभाग ने कोई कार्यवाही नहीं की। फैक्टरी में हो रहे श्रम कानून के उल्लघंन के जांच के लिए श्रम निरीक्षक झांकने तक नहीं पहुंचा।
श्रम विभाग की मिलीभगत से प्रबन्धन ने मजदूरों पर अपना दमन और तेज कर दिया। उसने नेतृत्वकारी तीन मजदूरों का ट्रांसफर दिल्ली, हिमाचल प्रदेश व गुडगांव कर दिया। यू.पी. स्थायी आदेश के अन्तर्गत मजदूरों का स्थानान्तरण बगैर मजदूरों की सहमति के दूसरे राज्यों में नहीं किया जा सकता। लेकिन आज सभी फैक्टरी मालिक/प्रबन्धन श्रम कानूनों को ठेंगे पर रख मजदूरों के संघर्ष को कुचलने हेतु नेतृत्वकारी मजदूरों का ट्रांसफर दूसरे राज्यों में कर रहे है। मजदूरों द्वारा स्थानांतरण पत्र नहीं लेने पर प्रबन्धन ने डाक द्वारा उनके घर पर भेज दिये।
इसके अलावा प्रबन्धन ने लक्ष्मण प्रसाद सहित पांच मजदूरों को 15 अक्टूबर को गैर कानूनी तरीके से फैक्टरी से निकाल दिया। मजदूरों ने बताया कुछ समय पूर्व प्रबन्धन ने कैजुअल में काम करने वाली लगभग 60 महिला मजदूरों को भी बगैर कारण बताये गैर कानूनी तरीके से फैक्टरी से निकाल दिया था। जबकि महिला मजदूर तीन-चार सालों से काम कर रही थीं।
फैक्टरी प्रबन्धन अप्रशिक्षित मजदूरों से मशीनों पर काम करवाता है जिस कारण मजदूरों के साथ अंग-भंग होने की दुर्घटनायें होती हंै। मजदूर चुपचाप घर बैठने को मजबूर हो जाते हैं। अपने व्यवहार से वे जानते हैं कि श्रम विभाग उनके लिए कुछ नहीं करेगा।
जब से मजदूरों ने संगठित होने की कोशिश की है तो प्रबन्धन ने नेतृत्वकारी मजदूरों का या तो स्थानांतरण करना या फिर मजदूरों को फैक्टरी से निकालना शुरू कर दिया है। इस बीच प्रबन्धन ने नेतृत्वकारी तीन मजदूरों को अपने कार्यालय में बुलाकर डेढ़-डेढ़ लाख रुपया लेकर इनसे अलग हो जाने को कहा और धमकी दी। मजदूरों ने प्रबन्धन के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और अपने सभी मजदूर भाइयों के हितों के लिए संघर्ष करने का मन बनाया।
मजदूरों को साफ समझना चाहिए कि सभी अधिकारी, श्रम विभाग पुलिस प्रशासन, शासन पूंजीपति वर्ग की सेवा करने के लिए बने हैं। मजदूरों के पास एक मात्र हथियार अपनी संगठित ताकत है जिसके दम पर मजदूर इन सबसे निपट सकते हैं। रूद्रपुर संवाददाता
निजी अस्पताल कर्मचारियों का प्रदर्शन
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
बरेली में दिनांक 16 अक्टूबर को प्राइवेट चिकित्सा संस्थानों के कर्मचारियों ने दोपहर 2 बजे से सेठ दामोदर स्वरूप पार्क में प्रदर्शन शुरू किया। इससे पहले लगभग एक हफ्ते का पर्चा अभियान विभिन्न अस्पतालों में चलाया गया जिसमें सभी कर्मचारियों से उनकी समस्याओं एवं श्रम कानूनों में संशोधनों के विषय में बातचीत की गयी।
16 अक्टूबर को दोपहर 2 बजे से सेठ दामोदर स्वरूप पार्क में कर्मचारी इकट्ठा होना शुरू हुए। लगभग 3 बजे सभा की शुरूआत हुई। सभा को सम्बोधित करते हुए मेडिकल वर्कर्स एसोसिएशन के सचिव ईश्वर चन्द्र ने कहा कि बरेली शहर में एक से बढ़कर एक अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस अस्पताल हैं। इनकी खूबसूरत इमारतें शहर की सुन्दरता बढ़ाती हैं परन्तु इन अस्पतालों में काम करने वाले कर्मचारी जब 10 से 14 घंटे तक काम करके निकलते हैं तो उनके चेहरे मुरझाये हुए होते हैं। इन लोगों को मिलने वाला वेतन इतना भी नहीं होता कि ये अपनी थकान उतारने के लिए अच्छा खा-पी सकें और आराम कर सकें। बल्कि इनमें से अधिकतर लोग अपनी जिन्दगी की जरूरतों को पूरा करने के लिए कहीं दूसरी जगह काम पर जाते हैं। अस्पतालों में कोई भी श्रम कानून लागू नहीं होते हैं। यहां मालिकों की अपनी मनमर्जी चलती है। यहां कर्मचारी मालिकोें के लिए एक इंसान न होकर एक पुर्जा हैं जब तक चाहा काम लिया और काम पूरा होने पर निकाल कर फेंक दिया। इस प्रकार अस्पताल कर्मचारी नारकीय जीवन जी रहे हैं, जरूरत है इस नारकीय जीवन के बजाय खुशहाल व शोषण विहीन जीवन के लिए संघर्ष करने की।
एसोसिएशन के महासचिव श्याम बाबू ने कहा कि अधिकतर अस्पतालों में पी.एफ., ई.एस.आई., बोनस व छुट्टियों की सुविधाएं सब को नहीं मिल रही हैं बल्कि यदि स्टाफ को छुट्टियों की जरूरत होती है तो उसके पैसे काट लिये जाते हैं। इन अस्पतालों में सबसे खराब स्थिति इन जगहों को साफ सुथरा व चमकदार रखने वाले सफाईकर्मियों व बार्ड बाॅय व आया की है। इनके काम के घंटे सबसे ज्यादा व वेतन सबसे कम होता है, ये लोग इतनी गंदगी साफ करते हैं पर इनको कोई सुरक्षा उपकरण मुहैय्या नहीं कराए जाते हैं। आगे उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अस्पतालों के सभी स्तरों के कर्मचारियों को एसोसिएशन को अपने साथ लाना होगा।
एसोसिएशन की कार्यकारिणी सदस्य भानुप्रताप शर्मा ने कहा कि तमाम अस्पतालों में स्टाफ को न तो ड्रेस दिये जा रहे हैं। आगे उन्होंने कहा कि अस्पतालों में काम करने वालों में अधिकांश संख्या महिला कर्मचारियों की है। ये महिलायें रिशेप्सन, नर्स, टैक्नीशियन से लेकर स्वीपर व आया तक का काम पूरी मुस्तैदी के साथ करती हैं। पर इन संस्थानों को न ही इनकी सुरक्षा की कोई चिन्ता है और न ही देश के भविष्य की। ये महिलायें ड्यूटी से देर रात अकेली अपने-अपने घर जाती हैं। इनका वेतन बहुत ही कम होता है। अस्पतालों में आये दिन छेड़-छाड़ की व यौन उत्पीड़न की घटनाएं होती रहती हैं। कहीं भी ‘विशाखा रूलिंग’’ को लागू नहीं किया जा रहा है। ये महिला कर्मचारी जब गर्भवती होती हैं तो उन्हें सवेतन प्रसूति अवकाश देने के बजाय काम से निकाल दिया जाता है। ऐसे में अभाव के कारण उनके बच्चे कुपोषित पैदा होते हैं। इन महिलाओं को पुरुष कर्मचारियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने की जरूरत है।
एसोसिएशन के अध्यक्ष सतीश ने कहा कि पूरे शहर में अस्पतालों में श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ायीं जा रही हैं। मालिक बेलगाम होकर कर्मचारियों को शोषण की चक्की में पीसकर मुनाफा कमा रहे हैं। शासन-प्रशासन व श्रम विभाग सभी मालिकों के साथ खड़े हुए हैं। इसलिए कर्मचारियों का एकजुट संघर्ष ही उन्हें इस आर्थिक गुलामी से मुक्ति दिला सकता है।
आगे उन्होंने कहा कि जिन श्रम कानूनों को आधार बनाकर ट्रेड यूनियनें आंदोलन खड़ा करती थीं, उन्हें खत्म किया जा रहा है। एक तो श्रम विभाग व अन्य प्रशासनिक विभागों में भ्रष्टाचार के कारण कानून वैसे ही लागू नहीं हो रहे हैं। ऊपर से सरकार का ये हमला मजदूरों/कर्मचारियों को और भी गड्ढ़े में ले जाएगा। इसलिए हमें ये समझना होगा कि इस संकट के काल में हम सभी को एकजुट होकर पूरे देश के मजदूर आंदोलन के साथ मिलकर मजदूर विरोधी नीतियों व सरकार के खिलाफ तथा इस लूट व शोषण पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ बिगुल फूंकने के लिए आगे आना होगा।
सभा में प्रमोद कुमार, प्रेमपाल, रहमतखान, माईकल राॅबर्ट, शिवकुमार, मुनीस, अली मोहम्मद, शनि आदि लोगों ने विचार व्यक्त किये। बरेली संवाददाता
साक्षात्कार
हिन्दुस्तान इंटरनेशनल एड एलाऊ करेः यासीन मलिक
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
नागरिक- जम्मू कश्मीर में बाढ़ आने के बाद सरकारी राहत कार्य की क्या स्थिति है?
यासीन मलिक- जम्मू-कश्मीर के तबारिकी वजूद में कहीं भी ऐसी शहादत नहीं मिलती है कि ऐसी तबाही पहले कभी आयी है। यहां का सारा बिजनेस पिट चुका है। लाखों मकान तबाह हो चुके हैं, लोगों के पास खाने-पीने के लिए कुछ नहीं है। यहां पर जो कह रहे है रेस्क्यू और रिलीफ। मेरी यह गुजारिश है कि आप खुद हर मौहल्ले में जाएं और देख लीजिये कि सरकार का जो दावा है। जो हिन्दुस्तान के मुखलिफ टीवी चैनलों पर जो दावे दिखाए गये हैं उनमें कितनी हकीकत है।
नागरिक- भारत के मीडिया ने आर्मी की कार्यवाहियों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया है लेकिन जनता के बीच में गये तो उस तरह की चीजें जनता के बीच नहीं दिखाई दी हैं?
यासीन मलिक- जहां तक आर्मी का ताल्लुक है राजबाग में उनको देखा गया है, उसके बगैर जितने भी इलाके हैं जैसे बटमालू है, बेमना है, लाल चैक है, शहीदगंज छतरा शाही......, वहां जाएं और पूछे आपने अभी तक देखा है किसी आर्मी वाले को, वोट लेकर किसी की मदद करते हुए।
नागरिक- जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत कांफ्रेस और वर्तमान में कश्मीर की आजादी के आंदोलन की क्या स्थिति है?
यासीन मलिक- आज 28 दिन हो गये मेरा मकान भी सारा खत्म हो चुका है। मैं अभी तक अपनी फैमिली से भी नहीं मिला हूं। 27 दिन हो गये हमने कंट्रोल रूम बनाया है। यहां से मुखलिफ जगहों पर हम रिलीफ लेकर जाते हैं। ये जो रिलीफ आता है वह कश्मीर के गांव के इलाके से है। कुपवाड़ा, टंडा, सोपोर, बरामूला, पूंछ, राजौरी आदि से 400 से 500 के दरम्यान गाडि़यां-ट्रक जो गांवों से आया है, रिलीफ लोगों को दे रहे हैं।
नागरिक- कितने नुकसान का आंकलन है?
यासीन मलिक- दो लाख करोड़ से भी ज्यादा का नुकसान है।
नागरिक- केन्द्र सरकार की तरफ से यहां पर क्या प्रयास दिखाई दिये हैं?
यासीन मलिक- अभी तक कुछ भी नहीं हो पा रहा है। अभी तक सिर्फ बातें की गयी हैं। आप लोगों से पूछिये कि उनका हाल क्या है। कन्सट्रक्शन के बारे में किसी तरह की एक्टीविटी नहीं हुयी है। अभी आप देख रहे हैं कि गली-कूचों में कितनी गंदगी है। इससे यहां पर बीमार होने का अंदेशा है। इससे आप खुद समझ सकते हैं कि रिलीफ, रेस्क्यू, कन्सट्रक्सन के बारे में सरकार का जो दावा है, कितना सच है।
नागरिक- कश्मीर के गांवों में तमाम नौजवान ऐसे मिले जो आजादी की बात कर रहे थे। उनका कहना था कि आर्मी को यहां से हटाया जाना चाहिए। आर्मी को लेकर उनके अंदर काफी आक्रोश था, उनका कहना था कि आम्र्स फोेर्सेज स्पेशल पावर एक्ट (आफ्सा) हटाया जाना चाहिए। इस सबके बारे में आपकी क्या राय है?
यासीन मलिक- हम मुकम्मल आजादी चाहते हैं लेकिन इस बार में केवल रिलीफ पर बात करूंगा।
नागरिक- जितना बड़ा नुकसान जम्मू-कश्मीर में हुआ है। उसे खड़ा करने में, उसे रिहैब्लीटेट करने में आपको लगता है कि कितना समय लगेगा और उसके लिए क्या प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए?
यासीन मलिक- हमारी कोशिश है कि किसी तरीके से इंटरनेशनल एंव यहां पर आ जाए। हिन्दुस्तान इंटरनेशनल एड एलाऊ करे। दुनिया में जहां कहीं इस तरह बड़े-बड़े तूफान आए हैं..... उसमें इंटरनेशनल कम्युनिटी मदद करती है। हमारी कोशिश है कि इंटरनेशनल एड यहां आ जाए और कन्सट्रक्सन के सिलसिले में मदद करे।
नागरिक- हिन्दुस्तान ऐसा क्यों कर रहा है कि इंटरनेशनल मदद को रोक रहा है। उसका क्या इंटरेस्ट है?
यासीन मलिक- यह तो मुझे मालूम नहीं लेकिन हमारी कोशिश है कि इंटरनेशनल एड यहां पर आ जाए।
नागरिक- भारत का जो मीडिया है उसने दिखाया है कि जो लोग यहां पर आजादी के लिए आवाम के बीच काम कर रहे हैं उन्होंने रिलीफ व रेस्क्यू का काम नहीं किया?
यासीन मलिक- देखिए बात यह कि हिन्दुस्तानी मीडिया ने यह कहा। हिन्दुस्तानी मीडिया बन गया है लाफिंग स्टार, डायज आॅफ द पीपुल (विश्लेषकों का मंच बन गया हैै- सम्पादक) यहां पर जो हिन्दुस्तानी शहरी फातमी है उनसे बात कीजिए कि किसने रेस्क्यू रिलीफ में आपका साथ दिया।
-कश्मीर से विशेष संवाददाता
जम्मू-कश्मीर आपदा
कहां हैं अलगाववादी नेता?
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
सितम्बर माह में आयी आपदा के दौरान भारतीय मीडिया ने जम्मू-कश्मीर के रहनुमा कहलाए जाने वाले ‘अलगाववादी नेता कहां हैं?’ इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया आपदा के दौरान राहत व बचाव की मुख्य जिम्मेदारी सरकार की होती है। शेष सामाजिक-राजनैतिक ताकतें अपनी क्षमता भर मदद ही आपदा प्रभावित जनता की कर सकती है।
जनता के बीच कश्मीर की आजादी के लिए काम कर रहे संगठन व उसके नेता आपदा के दौरान जनता के बीच में ही थे। हुर्रियत(एम) के चेयरमैन मीरवाइज फारूख के नेतृत्व वाली ‘आवामी एक्शन कमेटी’ ने बाढ़ से एक दिन पूर्व ही चावल, पानी व अन्य खाद्य सामग्री एकत्र करके रख ली थी। जब श्रीनगर में बाढ का पानी भरना शुरू हुआ तो उन्होंने कुछ ट्रक व नाव किराये पर लेकर ‘रेस्क्यू आपरेशन’ चलाया। ‘कश्मीर लाइफ’ के अनुसार बाढ़ के प्रथम सप्ताह में दो हजार से भी अधिक लोग पुराने श्रीनगर हेरिटेज स्कूल स्थित बेस कैंप में रह रहे थे। रायल पोटा में मेडिकल कैंप चलाया जा रहा था।
सैयद अली गिलानी के नेतृत्व वाली तहरीक-ए-हुर्रियत जम्मू-कश्मीर ने श्रीनगर, पुलवामा, काकापोरा, पैम्पोर इत्यादि में आपदा पीडि़तों के बीच राशन व अन्य जरूरी वस्तुओं का वितरण किया तथा गिलानी के पुत्र नईस जफर के नेतृत्व में लगभग आधा दर्जन डाक्टरों की टीम ने आपदा पीडि़तों को चिकित्सीय सहायता एवं दवाएं प्रदान कीं।
हुर्रियत जम्मू एंड कश्मीर के चेयरमैन शब्बीर शाह व उनके दल से जुड़े लोगों ने कश्मीर के दूसरे हिस्से से राहत सामग्री ट्रकों में भरकर आपदा पीडि़तों के बीच वितरित की। बाढ़ आने के शुरूआती दिनों में सड़कों पर रह रहे लोगों को बड़ी संख्या में रिलीफ कैंपों व इमारतों में शिफ्ट किया।
जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रांट के चेयरमैन यासीन मलिक ने मैसूमा (श्रीनगर) में बेस कैंप बनाया हुआ था। जहां से वे आपदा पीडि़तों के बीच में राशन व अन्य जरूरी वस्तुओं के वितरण की गतिविधियों को अंजाम दे रहे थे। कैंप में आपदा पीडि़तों की भीड़ थी। कश्मीरी पंडित नौजवान जो कि अपनी मां के साथ आया था, ने बताया कि बाढ़ की वजह से वे मंदिर परिसर में रह रहे हैं कि सरकार से कुछ नहीं मिला है जो भी रिलीफ आया है यासीन साहब की तरफ से आया है।
बरबरशाह में कढ़ाई का काम करने वाली आसमा का मकान आपदा में गिर चुका है। वे बताती हैं कि यहां पर आज तक कोई भी नहीं आया। उमर फारूख ने पहले राहत सामग्री भेजी थी अब यासीन मलिक आए हैं।
श्रीनगर का गुरूद्वारा एक मंजिल तक पानी में डूबा रहा था। गुरूद्वारे के हेड ग्रंथी त्रिलोक सिंह बताते हैं कि उन्होंने गुरूद्वारे में सभी धर्मोंं के लोगों को पनाह दी। मीर वाइज फारूख, शब्बीर शाह, गिलानी साहब सभी ने उन्हें मदद की। यासीन मलिक ने चावल देकर मदद की। अमृतसर से भी गुरूद्वारे के लिए अनाज आया था। आर्मी ने भी मदद की परंतु बाढ़ आने के सात दिन बाद।
सनातन मंदिर के पुजारी अजय कुमार शुक्ला पिछले 15 वर्षों से श्रीनगर में हैं। उनके अनुसार 8 सितम्बर को पानी 14 फुट तक बढ़ गया। 150 लोग जो धर्मशाला में रुके थे, भूखे प्यासे रह गये। 8 सितम्बर की शाम 7 बजे यासीन मलिक 20 पैकेट पीला चावल पका हुआ लेकर आए। हमने निवेदन किया कि यह चावल कम है, उस दिन रात्रि में यासीन मलिक दो नावों में बाल्टी में भरकर 150 लोगों के लिए पीला चावल लेकर आए साथ में मोमबत्ती माचिस व पानी भी दे गये। वे कहते हैं कि कश्मीर में कोई सरकार है ही नहीं उन्होंने आर्मी की शक्ल ही नहीं देखी।
पंडित जी आगे बताते हैं कि 9 सितम्बर को यासीन मलिक दिन में लगभग 12 बजे खाय रोल पर पट्टा रखकर बनी नाव पर बैठकर पुनः आए और 50-50 किलो आटा, चीनी, चाय-पत्ती इत्यादि देकर चले गये, 13 सितम्बर को पानी घटने पर फंसे यात्रियों को बाहर निकाला गया।
हमारे लड़के को फिस की बीमारी है। उसका 3 साल का कोर्स है, डाक्टर ने कहा है कि एक दिन भी दवा मिस हुई तो दोबारा 3 साल तक खानी पडे़गी। मेरे पास दवा जो फिस गार्ड थी वह नहीं थी। यासीन मलिक ने रात को दस बजे दो पत्ते दवा के लाकर हमको दिये वे कहते हैं कि सेना ने हवा से यहां पर कुछ भी ड्राॅप नहीं किया।
उनके अनुसार श्रीनगर में 50 ट्रक राहत सामाग्री रोज आ रही है। यह सामग्री जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच रही है। यासीन मलिक के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने सरकारी राहत सामग्री को छीन लिया। मैं कहता हूं यह अच्छी बात है। छीनकर उसे अपने घर में तो नहीं रख लिया, उस सामग्री को वास्तविक जरूरतमंदों तकपहुंचाया।
-विशेष संवाददाता
पन्तनगर विश्वविद्यालय में ठेका मजदूरों का आन्दोलन समाप्त
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
पंतनगर वि.वि. में ठेका प्रथा समाप्त कर संविदा पर रखे जाने को लेकर चला ठेका मजदूरों का स्वतः स्फूर्त कार्य बहिष्कार आन्दोलन 20 सितम्बर को अनौपचारिक वार्ता के साथ समाप्त हो गया।
पंतनगर विवि में पिछले 10-11 वर्षों से (मई 2003 से ठेका प्रथा लागू होने से पूर्व से ही) अति अल्प वेतन पर कार्यरत ठेका मज़दूरों को श्रम कानूनों द्वारा देय कोई सुविधा नहीं दी जा रही है।
इन्हें आज तक कोई बोनस नहीं दिया गया। उत्पादकता से जुड़ा बोनस प्रशासन यह कर बचा जाता है कि वि.वि. उत्पादक मुनाफे की इकाई नहीं है। इसे बोनस अधिनियम में छूट है तो तदर्थ बोनस ठेकेदार के कर्मचारी कह कर पल्ला झाड़ लेता है। जीवन की अति आवश्यक, चिकित्सा सुविधा की कौन कहे, प्राथमिक चिकित्सा (फस्ट एड) के नाम पर प्रशासन इनसे अपने कर्मचारियों के बरक्स शुल्क भी अधिक वसूलता है पर डाक्टर मात्र परामर्श देता है। चिकित्सालय से दवाई, पट्टी तक नहीं बांधी जाती है। आवास सुविधा देना तो दूर की बात हज़ारों एकड़ जमीन पर फैले वि.वि. में ठेका मजदूरों को झोंपड़ी बनाने की मौन सहमति भी नहीं है। ईएसआई (कर्मचारी राज्य बीमा) जैसी सरकारी स्कीम को लागू करने मंे आना-कानी आज तक की जाती रही थी। न ईपीएफ पासबुक और न ही पर्ची स्थानीय सेल कोई हिसाब नहीं है। खून-पसीने की कमाई की मिलीभगत से लूट जारी है। वेतन तक समय से नहीं मिलता है।
ठेका मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1970 के द्वारा विवि पंतनगर जैसी निरन्तर चलने वाली कोर सेक्टर संस्था में ठेका प्रथा गैर कानूनी है। यहां ठेका प्रथा के जरिये काम नहीं कराया जा सकता है। ऐसी संस्था में निरन्तर एक वर्ष में 240 दिन की सेवा पूर्ण करने पर कर्मी को नियमित नियोजित करने का प्रावधान है। और ये शासन प्रशासन ने माना भी है और यहीं हज़ारों मज़दूरों को नियमित नियोजित किया है। पर यहां पिछले 10-12 वर्षों से कार्यरत मजदूरों को ठेका प्रथा समाप्त कर नियमित नियोजित करना तो दूर श्रम नियमों द्वारा देय सुविधाएं भी नहीं दी जा रही हैं। सरकार ने शासनादेश जारी करके संस्थाओं में निरन्तर 10 वर्ष की सेवा एवं पांच वर्ष की सेवा पूर्ण कर चुके कर्मियों को नियमित करने की बात की है। पर ठेका मजदूरों की कोई बात नहीं की है बल्कि इनकी खिल्ली उड़ाई है। श्रम कानूनों का उल्लंघन, अफसर मालिकान की भाषा में आउट सोर्सिंग के जरिए शोषण अनवरत जारी है। इधर इसी समय प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा उत्तराखण्ड परिवहन विभाग में ठेका प्रथा समाप्त कर ठेकाकर्मियों को संविदा पर रखने की घोषणा से ठेका मजदूरों में ठेका प्रथा को एक झटके से समाप्त कर संविदा वि.वि. कर्मी होने की आशा जगी। दूसरी तरफ वि.वि. में गत वर्ष की भांति पुराने ठेकेदार का ठेका समाप्त कर मजदूरों की आपूर्ति हेतु नये ठेकेदार की तैनाती होनी थी। टेंडर खुलना व पास होना था। शासन-प्रशासन, ठेकेदारों, अफसरों के शोषण उत्पीड़न से तंग आकर मजदूरों में आक्रोश फूटना था सो अचानक फूटा।
सर्वप्रथम मजदूरों ने सभी यूनियन संगठनों को किनारे करते हुए स्वतः स्फूर्त ढंग से छः सितम्बर की सभा हेतु आयोजक ठेका मजदूरों की तरफ से सूचना चस्पा कर मजदूरों का आहवान किया। सभा उपरान्त इसी तरह कुलपति महोदय को संबोधित पत्र में ठेका प्रथा टेंडर रद्द कर ठेका मजदूरों के ईपीएफ कटौती, वेतन वितरण आदि की जिम्मेदारी वि.वि. प्रशासन खुद ले, इसकी मांग की। सभा उपरांत सभी मजदूरों ने जुलूस की शक्ल मंे श्रमकल्याण कार्यालय का घेराव किया और अपनी उक्त मांग को दर्ज करते हुए बिना किसी संगठन के पेड व बिना किसी हस्ताक्षर के समस्त ठेका मजदूरों की ओर से प्रशासन को दिया। मांग पूरी न होने पर नौ सितम्बर से आन्दोलन कार्य बहिष्कार का ऐलान किया था। कार्यक्रम सफल बनाने हेतु मजदूरों ने सभी विभागों से मजदूरों को निकाला, वहीं उत्साह के साथ मजदूरों ने जोशो खरोशों के साथ कार्य बहिष्कार में भागीदारी की। कार्य स्थल पर हाड़ तोड़ मेहनत उपरान्त नौकरी की असुरक्षा के चलते अफसरों के घरों में बेगारी आज्ञाकारी ठेका मजदूरों से अफसरों को ऐसी उम्मीद दूर-दूर तक नहीं थी सो प्रशासन भौंचक्का, हमलावर, हैरान, परेशान होने और करने लगा। सभा में जनप्रतिनिधि, क्षेत्रीय विधायक आये। प्रशासन-विधायक की चार घण्टे की वार्ता उपरांत आन्दोलन शान्त करने, हल निकालने में विधायक जी द्वारा बताया गया कि ठेका प्रथा समाप्त कर प्रशासन कार्यरत मजदूरों को उपनल (उत्तराखण्ड पूर्व सैनिक कल्याण निगम लिमिटेड) आउट सोर्सिंग संस्था के जरिए काम कराने को तैयार हुआ है। जो शासनादेश प्रशासन द्वारा दो वर्ष से लागू नहीं किया जा रहा था, मजदूरों के संघर्ष से दो घण्टे में लागू करने को तैयार हो गया और संविदा की मांग को शासन स्तर का मामला होने का हवाला दिया। अब उपनल के तहत रखे जाने पर नौकरी की असुरक्षा, छंटनी, कागजी जटिलता जैसी नौकरी की असुरक्षा के भय के मारे मजदूरों ने उपनल को अस्वीकार कर दिया और ठेका प्रथा समाप्त कर संविदा पर रखे जाने को लेकर आन्दोलन तेज कर दिया। अगले दिन मजदूरों ने अति आवश्यक यूनिट दूध डेरी फार्म बन्द कर दिया। इस युद्ध में प्रशासन उपनल के अलावा अन्य किसी व्यवस्था और झंझट में पड़ने को तैयार नहीं था। बल्कि निपटने और दमन करने पर उतारू था सो उसने किया। स्वतः स्फूर्त आन्दोलन, गैर संगठन, गैर अनुशासित अनियंत्रित भीड़ का बहाना बना कर प्रशासन की शह पर जिला पुलिस प्रशासन द्वारा आन्दोलन को गैर कानूनी घोषित करते हुए मजदूरों के शान्तिपूर्ण आन्दोलन पर लाठी चार्ज किया गया था। और विभिन्न अपराधिक धाराओं में 147, 332, 333, 504, 506, 523 और सात क्रिमिनल जैसी आपराधिक धाराएं लगा कर जेल में डाल दिया गया और दो सौ अज्ञात मजदूरों पर उक्त धाराएं लगाई गईं। फिलहाल सभी मजदूर जेल से बाहर आ गये हैं।
यदि आन्दोलन के नेतृत्व की बात करें तो अगुवा तत्वों में पूँजीवादी चुनावबाज पार्टियों के छुट-भैये नेताओं के पीछे भाड़े के रूप में दौड़ने वाले अधैर्यवान, तुरत फुरत में कुछ हासिल करने, हीरो बनने, वहीं प्रशासन द्वारा नौकरी से निकाले जाने का डर भी था। इसलिए शातिर तत्वों ने पूर्व कांग्रेस पार्टी से निकाली गई ठेका कर्मी, काम से हटाई गई महिला को आगे किया और अपने को प्रशासन अथवा मजदूरों से भी गोपनीय रखा। बताया जाता है कि यह तेजतर्रार महिला एक समय के बाद इनकी शातिरी के जबाब में भीड़ देख कर इन तत्वों को नजरअन्दाज कर स्वयंभू फैसले लेने लगी। आन्दोलन उग्र होने पर खुद गैर अनुशासित, अनियंत्रित तत्व भीड़ को अनुशासित नियंत्रित नहीं कर पाये। लाठी चार्ज की घटना के बाद धीर-धीरे उक्त तत्व आन्दोलन से गायब हो गये तो कुछ चिह्नित प्रशासन के सामने नत मस्तक हो गये। अवसरवादी शातिर तत्वों ने उक्त महिला नेत्री को बीच भंवर में छोड़ दिया तो हमलावर प्रशासन द्वारा इस महिला के परिसर प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। अकेली छटपटाती महिला ने इस अन्याय के खिलाफ दिनांक 26 सितम्बर 2014 से आमरण अनशन करने की कुलपति जी को पत्र द्वारा सूचना दी। उक्त दिनांक को अनशन शुरू करते ही पुलिस रुद्रपुर थाने ले गई। फिलहाल रस्साकस्सी जारी है।
इस आन्दोलन में परिसर की सभी यूनियनों की भूमिका मूक दर्शक बनकर आन्दोलन से दूर रहने की रही। बहाना था कि हमें बुलाया ही नहीं है। प्रशासन द्वारा शुरूआत से ही चिह्नित लोगों, ठेका मजदूर, ठेका मजदूर कल्याण समिति के नेता को प्रशासन द्वारा बुलाया, समझाया, धमकाया और आन्दोलन से दूर रहने को समझाया। इसके बावजूद ठेका मजदूर कल्याण समिति द्वारा मजदूरों की मांग का समर्थन किया गया और आन्दोलन की शुरूआत से लेकर अन्त तक साथ रही। समिति के नेताओं द्वारा इनके आन्दोलन के तरीके की आलोचना भी की और सामूहिक फैसले, सिस्टमैटिक आन्दोलन बेहतर परिणाम हेतु शुरू से ही मजदूरों के बीच से एक कमेटी बनाने पर खासा जोर दिया था परन्तु अघोषित आन्दोलनरत नेतृत्व ने कोई सुझाव लागू नहीं किया। अन्ततः दिशाहीन आन्दोलन की यही परिणति होनी थी, सो हुई। प्रशासन द्वारा मजदूरों पर लाठी चार्ज होने पर अन्ततः ट्रेड यूनियनें लाठी चार्ज के विरोध में मजदूरों के बीच आने को मजबूर हुईं। और इन ट्रेड यूनियनों ने प्रशासन को एक चिट्ठी द्वारा विरोध की रस्म अदायगी की। मजदूरों के बीच से एक तदर्थ कमेटी बनाई गई। जेल में बन्द साथियों की जमानत हेतु मजदूरों से पैसा इकट्ठा किया गया हालांकि काफी मजदूरों की जमानत स्वयं घरवालों ने अपने स्तर से कराई। चन्दे से एकत्रित धनराशि कुछ जरूरतमंदों को मिली तो कुछ को नहीं मिली। कई लोगों के हाथों मे पैसा कोई हिसाब किताब नहीं रहा। जमानत भी काफी मशक्कत के बाद मिली। दूसरा, पुवाल में आग लगाने जैसा क्षणिक आन्दोलन चैबीस मजदूर भाइयों पर संगीन धाराएं, जेल जैसी घटना के बावजूद अघोषित नेतृत्व के आपसी तालमेल के अभाव तो प्रशासन के डर से नेतृत्व का आगे न आना के कारण आन्दोलन टूटता रहा। इस स्थिति में यूनियन संगठनों की प्रशासन से अनौपचारिक वार्ता के बाद आन्दोलन समेट दिया। हद तो तब हो गई जब इस वार्ता में यूनियनें एक भी ठेका मजदूर को नहीं ले गयीं। जिसका ठेका मजदूरों में खासा रोष था। कारण आन्दोलन किसी संगठन के नेतृत्व में नहीं था। वहीं हमलावर प्रशासन ने मजदूरों की गैर हाजिरी, निकाला-बैठाली की तो मजदूर किससे कहें। मजदूरों की कार्य बहाली को लेकर ठेका मजदूर कल्याण समिति ही अफसरों से अनुनय, विनय व पहल कर रही है।
ऐसा नहीं कि आन्दोलन असफल ही रहा है मजदूरों की संगठित ताकत और संघर्ष से प्रशासन भयाक्रांत हुआ। लाठी चार्ज की घटना से हुई छीछालेदर से प्रशासन पीछे हटने को मजबूर हुआ था। आन्दोलन और उग्र होता पर घटना के विरोध में ट्रेड यूनियनें सामने आयीं तो मजदूरों ने लड़ने के हथियार ट्रेड यूनियनों के सहारे छोड़ दिया। पर ट्रेड यूनियनें किसी भी तरह लड़ने को तैयार नहीं थीं। अन्ततः इस घपलत में आन्दोलन बिखर गया। अब ठेका प्रथा समाप्त कराना, संविदा अथवा नियमित होना पूरे देश में मजदूर विरोधी ठेका प्रथा समर्थक चुनावबाज पूंजीवादी पार्टियां, इनके मजदूर फेडरेशन, इनकी यूनियनों जिनकी लाखों मजदूरों की सदस्यता है जिन्होंने पूरे देश में ठेका प्रथा और एक मई 2003 में पंतनगर मे ठेका प्रथा लागू होने के समय प्रभावी / गैर प्रभावी सभी यूनियनों ने शासन प्रशासन की मजदूर विरोधी कार्यवाही का विरोध के बजाय सहयोग किया जो जगजाहिर है। मजदूर वर्ग के संघर्षों के दम पर मिले न्यूनतम सुरक्षा सुविधा कानून मालिकान द्वारा आज व्यहार में लागू नहीं किये जा रहे हैं उल्टे श्रम सुधारों के नाम पर मिले न्यूनतम अधिकारों को भी कैंची चला कर मजदूर विरोधी मालिकों के हितमें सभी सरकारें तेजी से फैसले ले रही हैं और पूंजीवादी व्यवस्था की सभी मशीनरी पूंजीवादी चरित्र के अनुरूप मजदूर विरोधी मालिक वर्ग के हित, कर्तव्य में अडिग हैं। मजदूरों की दयनीय स्थिति छिपी नहीं है वहीं वह रह-रह कर संघर्ष भी कर रहा है।
ऐसे में हमें इन सभी पूंजीवादी चुनावबाज पार्टियों इनके फेडरेशनों, यूनियनों और वर्तमान ठेका प्रथा की वास्तविक जमीन वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के चरित्र को समझना होगा। इसका पर्दाफाश करना होगा। इनके माया मोह त्याग कर हमें मजदूरों के क्रांतिकारी संगठन बनाने, मजबूत करने होंगे। ठेका प्रथा एवं सामाजिक न्याय में रोज-ब-रोज संघर्षों से निजात पूरे मजदूर वर्ग की मुक्ति हेतु समाजवादी व्यवस्था मजदूर राज्य स्थापित करने के लिए मजदूर वर्ग के एक हिस्से बतौर हमें पूरी दुनिया के मजदूर वर्ग के साथ एकता बनाकर लड़ना होगा। पन्तनगर संवाददाता
हिमाचल प्रदेश में छात्र आंदोलन का दमन
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
बारहवीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा (खासकर उच्च शिक्षा) के बारे में महत्वपूर्ण और खतरनाक (मेहनतकश छात्रों के लिए) टिप्पणी की गयी है। यह टिप्पणी है ‘‘सरकार को शिक्षा मुनाफे के लिए नहीं के सिद्धांत को छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए’’। इस टिप्पणी का असर आज शिक्षा के बारे में लिए जाने वाले फैसलों में साफ देखा जा सकता है। ठीक यही मामला हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय का है, जहां सरकार ने फीस में ट्यूशन शुल्क और हास्टल (छात्रावास) शुल्क में वृद्धि की है। साथ ही छात्रों के संघर्ष के संगठित मंच छात्र संघ को कमजोर करने की कोशिश भी की। जिसमें छात्र संघ प्रतिनिधियों को मनोनीत करने का सुझाव दिया है। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय (हिप्रवि) के छात्रों ने इसका विरोध किया। जिसका जवाब राज्य सरकार ने पुलिसिया दमन के जरिये दिया।
हिमाचल प्रदेश में राज्य सरकार ने 2012-13 में ही फीस वृद्धि का प्रस्ताव रख दिया था। जिसे कि 2014-15 के सत्र से लागू किया जाना था। यह फीस वृद्धि भी अलग-अलग मदों में 100 प्रतिशत से 1760 प्रतिशत तक है। ये फीस वृद्धियां ट्यूशन शुल्क में है। छात्रावास शुल्क की वृद्धियां इससे अलग है। (फीस वृद्धि के लिए तालिका देखें)
दूसरा फैसला छात्र संघ चुनाव पर है। जिसमें शिक्षण सत्र को समय से शुरू करने और लिंगदोह कमेटी की सिफारिश- ‘‘प्रतिनिधियों का चुनाव प्रत्यक्ष चुनाव अथवा मनोनयन के जरिये किया जाये’’ का लाभ उठाकर छात्र संघ को कमजोर कर किया जा रहा है। इसका यह मतलब नहीं है कि छात्र संघ आज मजबूत हालत में है बल्कि पूंजीवादी पतित स्वार्थवादी, व्यक्तिवादी, कैरियरवादी राजनीति ही इसमें हावी है। अलग-अलग राजनीतिक दलों ने अपने छात्र संगठन खडे़ किये जिसके जरिये वे छात्रों के बीच अपनी राजनीति को फैला सकें और छात्रों को कैरियरवादी व्यक्तिवादी राजनीति के लिए मजबूती से तैयार कर सकें। अभी चल रहे इस आंदोलन में भी छात्र संघ या आम छात्रों की भूमिका सीमित या न के बराबर है बल्कि विभिन्न छात्र एसएफआई, एबीवीपी, एनएसयूआई आदि ही इसे कर रहे हैं। इसमें भी एसएफआई इस मौके पर अधिक सक्रिय है। लेकिन एक संयुक्त संघर्ष खड़ा करने और आम छात्रों को आगे बढ़ाने का काम इनके लक्ष्य में नहीं है। इसके बजाए अपने को पूरी छात्र आबादी का मसीहा बनाने के लिए अलग-अलग तीन तिड़कमें भी इसमें उपयोग की जा रही है ऐसे में किसी मौजूदा संघर्ष को निर्णायक मुकाम तक ले जाने की संभावनाएं कम हो जाती है। और छात्रों की एकता (एक लंबे संघर्ष के लिए) मजबूत होना तो और मुश्किल है।
हिमाचल सरकार ने छात्रों द्वारा किए जा रहे धरना प्रदर्शन क्रमिक अनशन आदि को दबाने के लिए भरसक पुलिस बल इस्तेमाल किया है। पानी की बौछार लाठीचार्ज, गिरफ्तारी आदि के बीच भी छात्र आज डटकर खड़े है। व्यवस्था के खतरनाक खूनी पंजे उन्हें रोक नहीं पा रहे हैं।
हिमाचल प्रदेश के अलावा भी अन्य राज्यों में अलग-अलग हथकंडे अपनाकर छात्रों को शिक्षा से दूर किया जा रहा है। उत्तराखंड में सीमित प्रवेश नीति भी इसका एक रूप है। दिल्ली यूनिवर्सिटी में एफवाईयूपी कार्यक्रम भी इसका एक रूप था जो छात्र संघर्षों के जरिये वापस लिया जा चुका है। 12वीं पंचवर्षीय योजना खुलकर पूंजीपति वर्ग की मौजूदा इच्छाओं को अभिव्यक्त कर रही है। यह केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारों की मुख्य नीति है भारतीय पूंजीपति वर्ग की चाहत शिक्षा को खुले बाजार का हिस्सा बनाने की है जिसके लिए एक सुन्दर नाम पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) दिया गया है जिसमें घिनौने मंसूबे छुपे हुए हैं।
हिमाचल प्रदेश में छात्रों के संघर्ष से यह साफ है कि मेहनतकश छात्र शिक्षा पर हो रहे हमलों को चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर रहे हैं। वे इसका मुंहतोड जवाब देने का प्रयास कर रहे हैं। संभव है हिमाचल प्रदेश के छात्र इसमें तात्कालिक जीत हासिल कर लें। साथ ही इस बात को समझना भी जरूरी है कि आज भारतीय पूंजीवाद के संगठित राज्य तंत्र के खिलाफ संघर्ष को केन्द्रित किये बिना हमारी हर तात्कालिक हार-जीत क्षणिक होगी। हमारे संघर्ष के केन्द्र में वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था होनी चाहिए जो कि इसकी सूत्रधार है।
हीरो मोटो कार्प के निलंबित मजदूरों की बहाली के लिए संघर्ष
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
पिछले साल 29 अगस्त से हड़ताल के एक साल बीत जाने के बाद भी 38 में से 28 मजदूरों (10 मजदूरों ने हिसाब ले लिया) को मैनेजमेण्ट ने निलंबित किया हुआ है। घरेलू जांच पूरी हो चुकी है। मजदूरों को इस बात का खतरा है कि इन्हें मैनेजमेण्ट निष्कासित न कर दे इसलिए मजदूरों के अंदर खलबली है। दूसरी तरफ मैनेजमेण्ट दूसरी तरह से मजदूरों पर दबाव बना रहे हैं। कांवड यात्रा के दौरान कम्पनी ने पांच दिन की छुट्टी साप्ताहिक अवकाश के दिन काम लेकर, देने की प्रणाली का विरोध करने पर अगस्त माह का एक दिन का वेतन सभी मजदूरों का काट लिया। कम्पनी मजदूरों को ‘ट्रेनिंग व मीटिंग’ के लिए कार्यदिवस समाप्त होने के बाद का समय रखती है। इस अतिरिक्त समय का कोई ओवरटाईम भी नहीं दिया जाता है। इसका एक मद (एलाउंस या प्वाइंट) बना कर वेतन में जोड़ा जाता है। मजदूर ड्यूटी टाइम में ही इस प्रकार की गतिविधियां करवाने की बात कहकर मैनेजमेण्ट की इस कार्यवाही का विरोध कर रहे हैं। इसका मैनेजमेण्ट ने 1500 से 1800 रुपये मजदूरों के काट लिये। इस कटौती के जबाव में मजदूरों ने सितम्बर माह से ही उत्पादन कम करना शुरू कर दिया। मैनेजमेण्ट द्वारा इसका कारण पूछने पर मजदूरों ने जबाव में वेतन कटौती व निलंबित मजदूरों को वापस काम पर लेने की बात बताते हैं। मैनेजमेण्ट किन्तु-परन्तु के साथ मामले को खींच रहा है। उत्पादन कम करने की प्रक्रिया कुछ ही विभागों के मजदूरों के द्वारा करने से भी मैनेजमेण्ट पर उतना असर नहीं पड़ रहा है।
उक्त दोनों मांगों वेतन कटौती के विरोध में व निलम्बित मजदूरों को काम पर वापस लेने के लिए 8 सितम्बर से 10 सितम्बर तक कैन्टीन बहिष्कार व 11 सितम्बर से काला टीका लगाकर काम करके विरोध किया गया। इस कार्यवाही में सभी मजदूरों ने भागीदारी की। इससे मजदूरों के अंदर एकजुट संघर्ष का जज्बा पैदा हुआ। निलंबित 28 मजदूरों को अंदर काम पर बहाल करवाने की जिम्मेदारी का एहसास सभी मजदूरों के अंदर गहराया है।
हीरो मोटो कार्प के मजदूरों का उत्पादन कम करने का संघर्ष अन्य बैण्डर कम्पनियों पर भी असर डाल रहा है। बैण्डर कम्पनियों में तैयार माल को रखने की जगह न होनेे के कारण उत्पादन कम हो रहा है। इन कम्पनियों के मजदूरों को जबरदस्ती छुट्टी देने, ठेका मजदूरों को ब्रेक देने का सिलसिला शुरू हो चुका है। अब हीरो के मजदूरों का संघर्ष चाहे-अनचाहे इसकी बैण्डर कम्पनियों के मजदूरों का भी संघर्ष बन जाता है। इस मौके पर हीरो का नेतृत्व अगर अपने संघर्ष की योजना में बैण्डर कम्पनियों के मजदूरों को भी गोलबंद करता है तो इससे उनकी लड़ाई को ताकत मिलेगी। बैण्डर कंपनियों के मजदूरों की समस्या के लिए हीरो के मजदूरों को उनके संघर्ष में ताकत लगानी चाहिए। अगर ऐसा हो पाता है तो मैनेजमेण्ट के ऊपर मजदूर अपना दबाव कायम कर अपनी मांगे मनवा सकते हैं। यह कार्यवाही मालिकों-मैनेजमेण्ट के ऐसोसिएशन को एक करारा जबाव भी होगा। हरिद्वार संवाददाता
आई.टी.सी. के मजदूरों ने रैली निकाली
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
10 सितम्बर 2014 को आई.टी.सी. के तीनों प्लांटों के मजदूरों ने चिन्मय डिग्री काॅलेज से सिडकुल होते हुए उपश्रमायुक्त कार्यालय तक जुलूस निकाला। जुलूस मुख्यतः औद्योगिक क्षेत्र में हो रहे श्रम कानूनों के उल्लंघन, वेतन, ई.एस.आई. सुविधा, ई.पी.एफ. समेत ठेकेदारी प्रथा का विरोध करते हुए 12 सूत्रीय मांगों (संघर्ष करने वाले मजदूरों की बहाली) के संबंध के अलावा अपने समझौता वार्ताओं के लिए शक्ति प्रदर्शन करने को लेकर था। जुलूस में आई.टी.सी. के लगभग 300-350 मजदूर (रात्रि व बी शिफ्ट) के अलावा विप्रो, सत्यम, वी.आई.पी. एवरेडी, इंकलाबी मजदूर केन्द्र व क्रालोस के नेतृत्व के लोग भी शामिल थे।
आई.टी.सी. के हरिद्वार की शाखा में तीन प्लांट क्रमशः सौंदर्य प्रसाधन(साबुन, शैम्पू) प्रिन्टिंग व फूड(बिस्कुट व चिप्स, कुरकुरा, नूडल) के हैं। सितम्बर 2011 में मजदूरों ने अपने वेतन वृद्धि समेत अन्य सुविधाओं के लिए हड़ताल की थी। समझौता वार्ताओं के शुरू होने के दो तीन माह बाद तीन साल के लिए समझौता हुआ। अब समझौते की समय सीमा समाप्त हो चुकी है। पिछले कुछ महीनों से वार्ताएं चल रही हैं। मैनेजमेण्ट मजदूरों की मांगे मानने के लिए तैयार नहीं है। उसने मजदूरों को अपनी शर्तों के साथ वार्ता करने का एक नोटिस पकडाया है।
आई.टी.सी. के तीनों प्लांटों में अलग-अलग वर्कर्स कमेटी मैनेजमेण्ट द्वारा गठित हैं। तीनों प्लांटों से दो मजदूर प्रतिनिधियों को मिलाकर टाॅप कमेटी 6 सदस्यीय बना कर ही समझौता वार्ताएं चल रही हैं। पूर्व में हुए समझौते को मजदूरों ने काफी निराशा से स्वीकार किया। नेतृत्व पर मजदूरों ने अविश्वास करते हुए अगले चरणों में नये मजदूरों को चुना। इस बार समझौता वार्ताओं के लिए नये नेतृत्व को जिम्मेदारी दी। मैनेजमेण्ट ने नये मजदूर नेतृत्व के तीखे तेवर व पुराने से मैनेजमेण्ट की एकता को एक मौके के रूप में इस्तेमाल कर मजदूरों के बीच मे नये-पुराने का अंतर्विरोध पैदा कर दिया। नये नेताओं को दबाव में(ले आॅफ, छंटनी, ट्रांसफर व ब्रेक आदि) लेकर ही मैनेजमेण्ट वार्ताएं करता है। नेता इस कार्यवाही का पुरजोर विरोध करते हैं। इस कारण मैनेजमेण्ट को वार्ताएं रोकने का मौका मिल जाता है। मैनेजमेण्ट नेताओं को मामले को कोर्ट में डालने के लिए भी धमकाते हैं। मजदूर मामले को कोर्ट में नहीं डालना चाहते हैं। इससे नये नेताओं पर दबाव और ज्यादा आ जाता है। कुछ पुराने नेताओं को आगे आने का अवसर उपलब्ध करवाता है। नये नेतृत्व के लोगों में तमाम जानकारी व अपनी बात मनवाने के लिए जिस प्रकार के तर्कपूर्ण बातें व जज्बे, अपनी एकता व मजबूत संघर्ष के बल पर मैनेजमेण्ट को दबाव में लेने की रणनीति का अभाव के साथ ही आत्म विश्वास की कमी भी है।
मैनेजमेण्ट की इस कार्यवाही का जबाव और विकल्प के लिए सिडकुल की 6-7 कम्पनियों के मजदूरों ने अपनी मीटिंग कर साझे संघर्ष को विकसित करने के प्रयास विगत मार्च माह से शुरू किया है। इसी संयुक्त प्रयासों द्वारा इस साल मई दिवस मनाया गया। कुछ माह के विराम के बाद दुबारा संयुक्त संघर्ष को आगे बढ़ाने की जरूरत महसूस होेने पर मीटिंगों का सिलसिला पुनः शुरू हुआ। इसी प्रयास के तहत ही मजदूरों के मोर्चे द्वारा एक व्यापक रैली निकालने की योजना बनायी परन्तु आई.टी.सी के कुछ मजदूर नेतृत्व द्वारा मोर्चे के अन्य कम्पनियों के नेतृत्व को विश्वास में लिए बगैर ही रैली की घोषणा कर दी गयी। इस कारण अन्य कम्पनियों के मजदूरों की भागीदारी नहीं हुयी। इस प्रकार की गतिविधियां एकता को कमजोर करती हैं। अगर मोर्चे द्वारा रैली निकाली गयी होती तो उसका असर भी व्यापक पड़ता। हरिद्वार संवाददाता
स्पीड क्राफ्ट के मजदूरों की आंशिक जीत
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
हरिद्वार में स्पीड क्राफ्ट में विगत माह की 21 तारीख से चल रही हड़ताल दो चरणों की वार्ता के बाद समाप्त हो गयी। 28 अगस्त की वार्ता में प्रबंधक की तरफ से आये एच.आर. व सहायक मैनेजर को ए.एल.सी. द्वारा मजदूरों के पक्ष में बात करते हुए फटकार लगायी। मजदूरों ने अपने मांग पत्र के अलावा भी अन्य अनियमितताओं से ए.एल.सी. को अवगत करवाया था। मैनेजमेण्ट ने निर्णय लेने के संबंध में अपनी असमर्थता जतायी। ए.एल.सी. ने सक्षम अधिकारी को वार्ता में भेजने की बात कहकर अगली तारीख 1 सितम्बर की दे दी।
हरिद्वार में विभिन्न संगठन जिनमें 7-8 फैक्टरियों के नेतृत्व के मजदूर आपस में नियमित मीटिंग करते हैं। इसके जरिये वे आपसी एकता को मजबूत करने, अपने अनुभवों को साझा करना व आगे के लिए रणनीति बनाने का काम करते हैं। इसकी मीटिंग हर हफ्ते रविवार के दिन होती है। 31 अगस्त को बैठक में स्पीड क्राफ्ट के आंदोलन के बारे में चर्चा की गयी। चर्चा करते हुए यह बात की गयी कि मौजूदा परिस्थितियों में मजदूरों की एकता काफी कमजोर है, नेतृत्व के पास कई तरह की जानकारियों का अभाव है। अतः ऐसे में कुछ प्राप्त करके भविष्य के लिए योजनाबद्ध तरीके से संघर्ष चलाने के लिए फिलहाल समझौता कर लिया जाये। इस बात का समर्थन स्पीड क्राफ्ट का नेतृत्व कर तो रहा था परन्तु वह इस बात से भी डर रहा था कि अगर इस फैसले को लागू करने से मजदूरों के अंदर कहीं गलत संदेश न जाये और कहीं वह नेतृत्व को गद्दार न समझ बैठे या अन्य कोई आरोप न लगा दे। हीरो के मजदूरों ने उन्हें अगले दिन धरना स्थल पर आकर अन्य मजदूरों को समझाने की बात कही।
1 सितम्बर को दोपहर 3 बजे से वार्ता का समय तय था। सुबह से ही स्पीड क्राफ्ट का नेतृत्व मजदूरों को आंदोलन की वास्तविक परिस्थितियों के मद्देनजर समझौता करने के लिए समझा रहा था। वार्ता होने पर मैनेजमेण्ट द्वारा घाटा होने का बहाना बनाते हुए 125 रुपये प्रतिवर्ष के हिसाब से वेतन वृद्धि करने को कहा गया। जब नेतृत्व ने यह बात अन्य मजदूरों को बतायी तो मजदूर अपने नेताओं पर भड़क गये। परन्तु संघर्ष को आगे चलाना नेतृत्व के बस में नहीं था। नेतृत्व के कुछ मजदूर सीटू के वकील से राय ले रहे थे। पहले उनका कहना था कि शांतिपूर्वक धरने पर बैठे रहो व बाद में 125 रुपये बढ़ने की बात सुनकर बोले कि यह बहुत है और हमारी जीत हुयी है। परन्तु अधिकतर मजदूर हताश हैं। उन्हें हजार-दो हजार बढ़ोत्तरी की उम्मीद थी। इस लम्बी हड़ताल में उन्होंने जुझारू तेवर नहीं अपनाये थे और नेतृत्व अनुभवहीन व मजदूरों के संघर्षों के इतिहास से अपरिचित था। वह जानता ही नहीं था कि संघर्ष को कैसे लड़ा जाए।
आज के दौर में मैनेजमेण्ट से कानूनी, शांतिपूर्वक व संघर्ष को बढ़ाते हुए व्यापक स्तर पर ले जाये बिना मजदूरों को अपने हक में जीत बहुत कम मिलती है। आर्थिक संघर्ष भी तभी मजदूर जीतेंगे जब वे राजनीतिक तौर पर परिपक्व हों। मैनेजमेण्ट, शासन-प्रशासन-सरकारों के चरित्र को समझने के साथ ही इसके हिसाब से अपने आंदोलन के तरीके विकसित करने होंगे। हरिद्वार संवाददाता
‘महिला आंदोलन की चुनौतियां’ विषय पर सेमिनार
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
24 अगस्त को प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र द्वारा महिला आंदोलन की चुनौतियां विषय पर एक सेमिनार आयोजित किया गया। जिसमें विभिन्न क्रांतिकारी एवं प्रगतिशील संगठनों ने भागीदारी की। हमारे देश में महिलाओं की स्थिति आजादी के 67 वर्षों बाद भी दोयम दर्जे की बनी हुई है। एक तरफ समाज में मौजूद पितृसत्तात्मक मूल्यों व पुरुषों द्वारा महिलाओं पर लादे गये प्रतिमानों के चलते महिलायें अपनी सहज इच्छाओं, आकांक्षाओं का गला घोंटते हुए किसी तरह अपने जीवन और अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं, तो दूसरी तरफ समाज में मौजूद सामंती व पूंजीवादी अपसंस्कृति का शिकार महिलाएं बन रही हैं। छेड़छाड़, यौन-हिंसा व उत्पीड़न का शिकार हर जगह महिलायें बन रही हैं। भारतीय समाज में व्याप्त पिछड़ी मूल्य मान्यताओं व विकृतियों का दंश भी भारी मात्रा में महिलायें झेल रही हैं। चाहे वह जातिवादी उत्पीड़न हो या साम्प्रदायिक दंगें हों, उत्पीड़कों के निशाने पर शोषित-उत्पीडि़त समुदाय की महिलायें ही रहती हैं।
इसी तरह विभिन्न सेवाओं व मेहनत-मजदूरी के कामों में महिलाओं को सबसे सस्ते श्रमिकों के रूप में नियोजित किया जा रहा है।
तमाम संचार व सम्प्रेषण माध्यमों व विज्ञापनों में महिलाओं के अस्तित्व को एक उपभोक्ता माल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। महिलाओं के खिलाफ अश्लील संस्कृति की बाढ़ आ गई है, जिसके चलते महिलाओं के खिलाफ यौन-हिंसा का ग्राफ बहुत तेजी से बढ़ रहा है। मां की कोख से लेकर समाज व घर की चाहरदीवारी के भीतर तक कहीं भी महिलायें सुरक्षित नहीं हैं। महिलाआंे की स्थिति बेहद सोचनीय बनी हुई है। कहने के लिए उसके पास सभी संवैधानिक अधिकार हैं लेकिन वास्तविकता में वह घर के अंदर दासी, समाज में एक यौन उपभोग की वस्तु तथा फैक्टरी में सबसे सस्ती मजदूर बनी हुई है।
इन्हीं परिस्थितियों में प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र ने 24 अगस्त को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में ‘महिला आंदोलन की चुनौतियां’ विषय पर एक सेमिनार आयोजित किया गया जिसमें विभिन्न क्रांतिकारी एवं प्रगतिशील संगठनों ने भागीदारी की। प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की सीमा ने विषय से परिचित कराते हुए सेमिनार का संचालन किया।
सेमिनार की शुरुआत में परिवर्तनकामी छात्र संगठन की ओर से ‘ये सन्नाटा तोड़ के आ, सारे बंधन तोड़ के आ’ गीत प्रस्तुत किया गया। जिसके बाद प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की ऋचा द्वारा संगठन की ओर से प्रस्तुत सेमिनार पत्र पढ़ा गया। जिसके बाद प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की महासचिव रजनी द्वारा बात रखी गई। जिसमें उन्होंने महिला संगठन बनाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि क्या दुनिया भर में महिलाओं की स्थिति बेहतर हुई है। भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं की दहेज हत्या, कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार के संबंध में बहुत से कानून बने हैं, जो आज भी कागजी बने हुए हैं।
उन्हांेने बताया कि धर्म के द्वारा सामन्ती मूल्य-मान्यताओं को महिला संघर्षों को रोकने के लिए बनाये रखा। एक तरफ रात-दिन महिला विरोधी उपभोक्तावादी संस्कृति परोसी जा रही है, वहीं दूसरी तरफ महिलाओं को सीता-सावित्री बनने का पाठ पढ़ाया जाता है, जबकि रोजगार और राजनीति में महिलाओं का प्रतिशत आज भी नगण्य है। संसद में महिलाओं का 33 प्रतिशत आरक्षण से संबंधित बिल अभी तक अधर में लटका है। ग्राम प्रधान महिला बनने के बाद भी उनके पति ही वास्तवकि रूप में ग्राम प्रधान के सभी काम काज को देखते हैं। ग्राम प्रधान पति की घटना अभी इतनी पुरानी नहीं पड़ी है। महिलाओं/लड़कियों के माता-पिता की सम्पत्ति में से हिस्सा मांगने वाली महिलाओं को मायके से सभी रिश्ते खत्म होने की धमकी देना आम बात है और समाज में अनर्गल बातें भी उन्हें सुननी पड़ती हैं।
पूंजीवाद ने महिलाओं को सस्ते श्रम के रूप में देखा और प्रयोग किया। फ्रांस की महान जनवादी क्रांति के समय भी जनवादी क्रांति में महिलाओं की बड़ी भूमिका होने के बाद भी महिलाओं की आजादी की बात को सिरे से नकार दिया। उन्होंने यह भी बताया कि पूंजीपति महिला मजदूरों को पुरुष मजदूरों के दुश्मन के रूप में खड़ा करता है तथा यह भ्रम बनाता है कि पूंजीपति वर्ग मजदूरों को पाल रहा है जबकि वास्तव में मजदूर वर्ग ही पूंजीपति वर्ग को पालता रहा है और आज भी पाल रहा है। शासक पूंजीपति वर्ग मजदूरों के अतिरिक्त श्रम को हड़प लेता है।
उन्होंने बताया कि वर्तमान उत्पीड़नकारी परिवार नामक संस्थाओं का चरित्र महिलाओं को गुलाम बनाये रखने का है। महिलाओं को कार्यस्थल पर मेहनत-मजदूरी करने के बाद घर आकर भी घरेलू काम करना पड़ता है, जिसमें पानी भरना, बच्चों की देखभाल, खाना बनाना, झाड़ू-पोंछा, बर्तन साफ करना, कपड़े धोना आदि शामिल है। महिलाओं को जब तक घरेलू काम से मुक्ति नहीं मिलती तब तक उन्हें समाज में भी मुक्ति नहीं मिल सकती।
उन्होंने महिला आंदोलन की विभिन्न धाराओं पर बात रखते हुए कहा कि एन.जी.ओ. महिला मुक्ति आंदोलन की धार को कुन्द करते हैं तथा हिन्दुवादी साम्प्रदायिक महिला संगठन महिलाओं को विभिन्न जाति एवं धर्मों में बांटने का काम करते हैं। दलितवादी महिला संगठन संघर्षों मंे दुश्मन चिन्हित करके करके उस पर प्रहार करने के स्थान पर दुश्मन पूंजीपति वर्ग के साथ जा खड़ा होता है और ब्राह्मणवाद को मुख्य निशाना बनाता है, जो उन्हें पूंजीवाद के पक्षपोषकों की श्रेणी में खड़ा कर देता है। क्रांतिकारी संगठनों का जनता के बीच आधार कम है, जिसे बढ़ाने की जरूरत है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों का वरदहस्त प्राप्त करके इजरायल द्वारा फिलीस्तीन पर किये गये हमले की निंदा व विरोध करते हुए साम्राज्यवाद व पूंजीवाद जो समाज में फैली सभी बुराइयों की जड़ है, के खिलाफ साझा संघर्ष चलाने की बात की गई।
उन्होंने पूरे देश में एक संयुक्त मोर्चा या संगठन न होने पर चिंता व्यक्त करते हुए साझा मंच बनाने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि इतिहास के प्रगतिशील व जनवादी आंदोलन आदि में महिला मजदूरों की बहुत बड़ी भूमिका रही है और आने वाले समय में भी व्यापक रूप से मजदूर-मेहनतकश महिलाओं को एकजुट करके ही भविष्य की दिशा समाजवाद की ओर आगे बढ़ सकेगी।
क्रांतिकारी नौजवान सभा से सुभाषिनी ने प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र को सेमिनार आयोजित करने के लिए बधाई देते हुए महिला आंदोलन की चुनौतियों के संबंध बात रखी गई। उन्होंने बताया कि गुजरात में सभी मजदूरों महिला और पुरुष की मेहनत को लूट कर एक छोटे से हिस्से का विकास हुआ है, जिसे मोदी सरकार उसी गुजरात माडल को पूरे भारत में लागू करना चाहती है जबकि दूसरी तरफ बड़ी मजजूर-मेहनतकश आबादी तबाह और बर्बाद है और लगातार हो रही है। उन्होंने कहा कि महिलाओं की बड़ी संख्या साम्प्रदायिक संगठनों के साथ जुड़ी हुई हैं। आर.एस.एस. की शाखायें, दुर्गावाहिनी में महिलाओं का शस्त्र चलाना व हर महिला को देश को बनाने की भूमिका में है, बताया जाता है। वास्तव में यह एक भ्रम है जो देश में महिलाओं के बीच में फैलाया जा रहा है। इनका सभी वर्गाें व जातियांे में आधार है। उन्होंने बताया कि दक्षिणपंथी ताकतें महिला मजदूरों व जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। इसलिए क्रांतिकारी संगठनों की महिला मजदूरों के बीच काम करने के सवाल पर सोचने की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने बताया कि पूंजीपति मजदूरों को केवल जिन्दा रहने भर के पैसे देता है लेकिन महिलाओं की मजदूरी को महत्वपूर्ण नहीं माने जाने को कारण बनाकर महिला मजदूरों को कम मजदूरी दी जाती है और महिला मजदूरों में इस सवाल को लेकर जाने, प्रगतिशील विचारों को जनता के बीच फैलाने की जरूरत है।
उन्होंने बताया कि नारीवादी विचारधारा सभी पुरुषों को महिलाओं का दुश्मन मानती है तथा सभी महिलाओं को उत्पीडि़त मानती है। इस कारण से सभी महिलायें चाहे वे शासक वर्ग की ही क्यों न हों पुरुष मजदूर की दुश्मन की श्रेणी में शामिल हो जाता हैं तथा संघर्षों के समय महिला मजदूरों से मिलने वाली सामुहिक ताकत से स्वयं को वंचित कर लेता है जिससे मजदूर संघर्ष कमजोर होते हैं इसलिए इसके खिलाफ संघर्ष करने की जरूरत है।
लेखिका सोना चैधरी ने व्यक्तिगत तौर पर छोटी-छोटी चीजों से शुरुआत करने की बात की तथा बताया कि पायदान और विचित्र उपन्यास में सबकी जिंदगी से जुड़ा हुआ कुछ न कुछ जरूर है। उन्होंने कहा कि हमें अपने से सुधार करना चाहिए उसके बाद आगे की ओर बढ़ना चाहिए। फैक्टरियों में पंूजी पति महिलाओं का शोषण करता है तो घर में पति ही महिला को उत्पीडि़त करता है। उन्होंने महिलाओं के द्वारा लगाये जाने वाले प्रतीक चिन्हों चूड़ी, बिन्दी, सिंदूर आदि को अनावश्यक बताते हुए खारिज किया।
‘टूटती सांकलें’ से सुमति ने बताया कि किसी भी तरह की हिंसा हो मजदूर महिलायें का हर जगह दोहरे-तीहरे उत्पीड़न का शिकार होती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि आज के दौर में एन जी ओ समाज के हर हिस्से व हर क्षेत्र में पहुंच रहे हैं ये हमारे आंदोलन के लिए सबसे महत्वपूर्ण चुनौतियों हैं। उन्होंने जोर देते हुए बताया कि वर्गों की उत्पत्ति के साथ ही पितृसत्ता का जन्म हुआ है। उन्होंने बताया कि वास्तव में व्यवस्था ही मुख्य दुश्मन है। उन्होंने इस पर भी चिंता जाहिर की कि पूंजीवादी साम्राज्यवादी ताकतें एक हो रही हैं जबकि मजदूर मेहनतकश जनता बिखरी हुई है।
‘साहित्य उपक्रम’ के विकास नारायण ने सेमिनार पत्र पर सहमति जताते हुए कहा कि एकता और संघर्ष जरूरी है। इसके साथ ही राज्य मजबूत होता जा रहा है पर महिलायें मजबूत नहीं हो रही हैं। उन्होंने कहा कि कानून राज्य को मजबूत बनाते हैं और हमें ऐसे कानूनों की बात करनी चाहिए जो जनता को मजबूत करें, न कि राज्य को। उन्होंने कहा कि पूंजीवादी मीडिया कभी भी अपराधों को उजागर नहीं करती।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र की पूर्णिमा ने सेमिनार में बात रखते हुए बताया कि मजदूर मेहनतकश महिलायें प्रसूति के वक्त तक काम करती हैं और उसके बाद उन्हें यह चिंता रहती है कि उनकी नौकरी बची रहेगी या नहीं। समाज में उसकी कोई हैसियत नहीं है। महिलाओं को कार्यस्थल, घर परिवार व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर, रास्ते में आते-जाते छेड़छाड़ व यौन-उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। उन्होंने महिला मजदूरों को संगठित करने पर बल देते हुए कहा कि जब तक महिलाओं को संगठित रूप से समाज के विभिन्न आंदोलनों में भागीदार नहीं बनाया जाता तब तक समाज की व्यवस्था को नहीं बदला जा सकता।
इसके अतिरिक्त सेमिनार में प्रतिध्वनि द्वारा गीत, परिवर्तनकामी छात्र संगठन से शिप्रा, श्रमिक संग्राम कमेटी की ओर से शिल्पी, समता मूलक महिला संगठन से सुनीता त्यागी, ए एस आई की ओर से आरिफ व पीडीएफआईके अर्जुन प्रसादजी ने कहा कि आदिवासी इलाके के साथ-साथ देश के कई इलाकों में संघर्षों में महिलाओं की बडी संख्या में भागीदारी हो रही है,जिसका परिणाम आना अभी बाकी है।
इसके अलावा डीयू की छात्रा निशा ने भी सेमिनार में अपनी ओर से पत्र रखा जिसमें महिलाओं की समाज में समय के साथ बदलती स्थिति पर वैज्ञानिक व ऐतिहासिक दृष्टि से बात रखते हुए पूंजीवादी व्यवस्था को महिलाओं की खराब स्थिति के लिए जिम्मेदार बताया।
अंत में प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की अध्यक्षा ने सभा को सम्बोधित किया, जिसमें उन्होंने परिवार की उत्पत्ति पर बात रखते हुए कहा कि हमारी पूर्वज महिलाओं ने लड़कर जो अधिकार हासिल किये थे जो हमें मिले लेकिन हमारे पास आगे आने वाली नई पीढ़ी को देने के लिए एक स्वस्थ समाज तक नहीं है। उन्होंने रूस व चीन की क्रांतियों को याद करते हुए कहा कि उन देशों में क्रांतियों के तुरन्त बाद महिलाओं व मजदूरों को बहुत सारे अधिकार मिले, जीवन स्तर में सुधार हुआ व दिनों दिन उन्नत हुआ तथा समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी। लेकिन भारत में आजादी के 67 वर्ष बाद भी मेहनतकश महिलाओं व मजदूरों को पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न से आजादी नहीं मिली है। जिसके बाद भागो मत दुनिया को बदलो गीत गाया गया। जोरदार नारों के साथ सेमिनार का समापन हुआ।
दिल्ली, संवाददाता
रा.इ.का. में शर्मनाक घटना
अध्यापक ने की छात्रा से छेड़खानी, विरोध में छात्र-अभिभावक
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
जिस दिन पूरा देश स्वतंत्रता दिवस मना रहा था। उसी दिन राजकीय इंटर कालेज बिन्दूखेडा (नैनीताल) में 12वीं कक्षा की छात्रा से छेड़छाड़ की घटना का विरोध कर रही थी। छेड़खानी करने वाला और कोई नहीं इसी स्कूल का अध्यापक जगत सिंह मेवाडी था। रिटायरमेण्ट की कगार पर खड़ा यह अध्यापक पिछले कई दिनों से इस छात्रा के साथ छेड़खानी कर रहा था। कभी साथ में घूमने की बात करता तो कभी पैसे देने की बात करता था। जैसा कि आमतौर पर होता है छात्रा बदनामी के डर से चुपचाप सहती रही। छात्रा की खामोशी को देखकर अध्यापक के हौंसले बढ़ते चले गये। कालेज की अन्य छात्राओं का भी मानना है कि यह अध्यापक गंदी नजरों से हमें देखा करता था।
13 अगस्त को उस समय हद पार हो गयी जब यह अध्यापक छात्रा का हाथ पकड़कर उसे अपने साथ चलने को जोर देने लगा। इस घटना से आहत लड़की ने प्रधानाचार्य को पूरी बात बताकर शिकायत की। किन्तु प्रधानाचार्य की तरफ से कोई कार्यवाही नहीं की गयी।
छात्रा ने अपने अभिभावकों को भी पूरा मामला बताया। आक्रोशित अभिभावक व कालेज के छात्र-छात्राओं ने कालेज आकर अध्यापक की बर्खास्तगी की मांग की। कालेज प्रशासन ने कार्यवाही के स्थान पर अध्यापक को कालेज में ही छिपा दिया। पुलिस के आने पर अध्यापक प्रकट हुआ। पुलिस इसे पकड़कर लालकुंआ कोतवाली ले गयी। 60-70 छात्र-छात्राएं और कई अभिभावक भी कोतवाली पहुंचे। और अध्यापक की बर्खास्तगी व कड़ी कार्यवाही की मांग करने लगे।
दिल्ली गैंगरेप के बाद कड़े कानूनों की हिमायत जोर-शोर से की गयी है। हैल्प लाइन नंबर जहां-तहां लिखे गये हैं। पुलिस द्वारा ‘महिला हिंसा के खिलाफ चुप ना रहो’ के पोस्टर-फ्लैक्सी जहां-तहां लगाये गये हैं। किन्तु इस सबसे बिल्कुल अलग नजारा लालकुंआ कोतवाली में दिखा। पुलिस छात्रों-अभिभावकों को डराने-धमकाने का काम कर रही थी। छात्रा उत्पीड़न का विरोध कर रहे छात्रों पर ही मुकदमा लगाकर भविष्य खराब होने का डर दिखाने लगी।
पुलिस के रौब व धमकियों से डर कर छात्र-छात्राएं शांत हो गये, कोतवाली से जाने लगे। तभी परिवर्तनकामी छात्र संगठन के कार्यकर्ताओं द्वारा छात्र-छात्राओं को कहा कि हमारा विरोध जायज है। डरे वें जिन्होंने छात्रा का उत्पीड़न किया है। छात्र-छात्राओं का सही मांग के लिए डटे रहने का आह्वान किया। छात्र-छात्राओं को फिर से साहस मिला। एक मजबूत साथ मिला और वे फिर से कोतवाली में आ डटे। और पुनः अध्यापक की बर्खास्तगी और कड़ी कार्यवाही की मांग करने लगे।
छात्र-छात्राओं व अभिभावकों के दबाव में पुलिस द्वारा अध्यापक पर 506 और 354 ए के तहत मुकदमा कायम किया। जल्द ही अध्यापक को जमानत भी मिल गयी।
बिन्दुखेडा की यह घटना दिखाती है कि छात्राओं को हर जगह बहशी नजरें ताक रही हैं। और यहां तक कि स्कूल में भी जहां एक भरोसे के साथ छात्र-छात्राएं पढ़ती हैं। अध्यापक उन्हें सही-गलत का ज्ञान देता है। उसी जगह इतना सब कुछ हो जा रहा है। जब छात्र-छात्राएं इस उत्पीड़न का विरोध करती हैं तो प्रधानाचार्य, प्रशासन और अन्य अध्यापक और यहां तक कि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर अपराधी अध्यापक के साथ खड़े हो जाते हैं। हो सकता है कि इनमें से कई अध्यापक अमूर्तता में महिला उत्पीड़न पर आंसू बहाते हैं पर जब मूर्त तौर पर कोई घटना उनके सामने आयी तो ये अपने अच्छे मित्र, समझदार अध्यापक, बुजुर्ग अध्यापक आदि-आदि कहकर जगत सिंह मेवाडी के साथ खड़े हुए जबकि जरूरत इस बात की है कि समाज में लोग बिना किन्तु-परन्तु के साथ मजबूती से महिला उत्पीड़न के विरोध में खड़े हों।
लालकुंआ संवाददाता
आॅटोलिव के मजदूरों का संघर्ष समझौते के बाद समाप्त
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
आॅटोलिव के मजदूरों का संघर्ष लम्बे समय तक चलने के बाद एक समझौते पर जाकर समाप्त हो गया। समझौते में सभी स्थायी मजदूरों को 3-3 लाख रुपये और ठेकेदारी के मजदूरों को 15,10 और 5 हजार रुपये दिये गये। मालिक ने इन मजदूरों को काम पर लेेने से इंकार कर दिया था।
ज्ञात हो कि 4 जून को फैक्टरी प्रबंधन ने 17 मजदूरों को फैक्टरी से निलम्बित कर दिया था। यह सजा मजदूरों को यूनियन बनाने के एवज में मिली थी। तभी से लगभग सभी मजदूर उनको काम पर लेेने के लिए हड़ताल पर थे। मालिक ने मजदूरों को डराने-धमकाने के लिए गेट पर पुलिस और बाउन्सर(गुण्डे) लगा रखे थे।
4 जून से ही ट्रेड यूनियन के नेता आकर मजदूरों को आश्वसन ही दे रहे थे। परन्तु कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे थे। इधर कम्पनी ने और मजदूर लगाकर उत्पादन कार्य आरम्भ करवा दिया था।
आॅटोलिव के मजदूरों के संघर्ष में एक बार फिर यह बात स्पष्ट हुई कि मजदूरों को अपने संघर्ष स्वयं ही लड़ने होंगे। किसी नेता के भरोसे रहकर उसके संघर्ष के दिन लम्बे ही होते जायेंगे। मजदूरों के बीच आकर जो ट्रेड यूनियन नेता लम्बे भाषण देते हैं वे दरअसल में कोई कार्यवाही करने से हिचकते रहते हैं। मजदूरों को आज अपने आर्थिक संघर्ष लड़ते हुए राजनीतिक संघर्षों को प्राथमिकता देनी होगी। श्रम विभाग भी आज एक मध्यस्थ की भूमिका में भी नहीं रह गया है। उसका पूरा ध्यान मालिक की तरफ ही रहता है।
मजदूरों को आज यूनियन बनाने की सजा फैक्टरी से निकाले जाने के रूप में भुगतनी पड़ रही है। यह दिखाता है कि आज यूनियन बनाना भी नौकरी को सुरक्षित रखने की गारण्टी नहीं रह गयी है। आज मजदूरों को अपनी एक व्यापक एकता बनाने की जरूरत है ताकि वह अपने अधिकारों की रक्षा कर सके। गुड़गांव संवाददाता
आईएमटी मानेसर में कई कम्पनियों में उत्पादन ठप्प
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
पिछले कई महीनों से आईएमटी मानेसर में कई फैक्टरियों में मजदूरों के संघर्ष छिड़े हुए हैं। इनमें से कुछ में तीव्र तो किसी फैक्टरी में हल्के संघर्ष हुए हैं। बड़ी -बड़ी यूनियन के नेता बड़े-बड़े दावे करते हैं और हर बार मजदूरों को पीछे हटते हुए समझौते करने पड़ते हैं। आखिरकार 12 अगस्त को आईएमटी मानेसर में कई फैक्टरियों के मजदूरांे का गुस्सा फूट पड़ा और कई फैक्टरियों में मजदूरों ने उत्पादन ठप्प हो गया।
इन फैक्टरियों में उत्पादन ठप्प होने की कार्यवाही बेक्सटर कम्पनी में चल रहे मजदूरों के संघर्षों से शुरू हुई। बेक्सटर कम्पनी के मजदूर 29 मई से कम्पनी गेट के बाहर धरने पर बैठे हैं। धरने के दौरान मजदूरों पर प्रबंधक वर्ग ने कई बार हमला करवाया। बांउसरों के द्वारा धमकाया। परन्तु मजदूरों का संघर्ष जारी रहा। यहां एचएमएस की यूनियन है। ट्रेड यूनियन नेता आते और उनके समर्थन में कई फैक्टरियों को बंद करने की बात कहकर चले जाते।
अंत में मजदूरों को धैर्य जबाव दे गया। धरने पर फैक्टरी में काम करने वाली कुछ लड़कियां भी बैठतीं थीं। शुरू में तो वे रात को घर चली जातीं थीं लेकिन 6 अगस्त को उन्होंने घर जाने से मना कर दिया और कहा कि वे यूनियन नेताओं से बात करेंगीं और अगर यूनियन नेता आंदोलन को ऐसे ही चलायेंगे तो वे धरना स्थल पर नहीं आयेंगी।
महिला मजदूरों के जुझारू तेवर देखकर अब ट्रेड यूनियन नेताओं को समझ में आया कि वे अब मजदूरों के आंदोलन को ऐसे नहीं खींच सकते। इसके बाद एचएमएस की मानेसर टीम ने 11 अगस्त को मीटिंग कर फैसला लिया कि आईएमटी की सभी एचएमएस से जुड़ी कम्पनियां 12 अगस्त से उत्पादन ठप्प कर देंगी।
12 अगस्त को आईएमटी में हाई-लेक्स, सत्यम आॅटो, ओमेक्स, एजी कम्पनी, इण्डोरेंश, डिगानीय और बिनौला की आॅटो मैक्स ने उत्पादन ठप्प कर दिया। इसमें एक बात यह भी थी कि इन सभी फैक्टरियों में अपने-अपने प्रबंधक वर्ग से किसी न किसी बात को लेकर संघर्ष चल रहा था। बेक्सटर कम्पनी के मामले ने इन सभी को एक साथ हड़ताल करने का मौका दे दिया। मजदूरों के आक्रोश ने सुविधापरस्त व समझौतापरस्त नेताओं को अपनी इच्छा के विरुद्ध संघर्ष करने को बाध्य कर दिया।
एक साथ कई कम्पनियों में हड़ताल होते देखकर वहां शासन-प्रशासन के हाथ-पांव फूल गये। बेशक यह हड़ताल एक ऐसी ट्रेड यूनियन के नेतृत्व में हो रही थी जो मजदूरों के संघर्षों को केवल व्यवस्था के दायरे में ही रखने का काम करती है परन्तु मजदूर आंदोलन कब इन सुविधापरस्त नेताओं के हाथ से निकल जाये, पता नहीं। कब मजदूर इन्हें अप्रांसगिक कर दें। अतः इस मामले ने तुरंत वहां के कमिश्नर ने हस्तक्षेप किया और मजदूरों से फैक्टरी चलाने का अनुरोध किया। बेक्सटर कम्पनी के मजदूरों से कहा गया कि वे 13 अगस्त तक उनके मामले का निपटारा करवा देंगे और बाकी फैक्टरियों में भी 14 दिन के अंदर मामले को निपटा देंगे।
मजदूरों को आज अपने ऐसे संघर्षों से सीख लेने और ऊर्जा लेने की जरूरत है कि अगर वे ऐसे ही एकताबद्ध होकर हड़तालें करते हैं और पूंजीपति का मुनाफा रोकते हैं तभी शासन-प्रशासन हस्तक्षेप कर उनके मामले का निपटारा करेगा। आगे देखना है कि कमिश्नर ने जो वायदा किया है वह कितना पूरा होता है या फिर शासन-प्रशासन की यह कोई चाल है। गुड़गांव संवाददाता
फिलीस्तीनी जनता के नरसंहार के विरोध में प्रदर्शन
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
इजरायल ने पिछले माह भर में फिलिस्तीन पर युद्ध थोप रखा है। इतने समय में ही इजरायल ने हवाई, जमीनी हमले कर गाजा पट्टी (फिलिस्तीन) में करीब 1500 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इसमें स्कूलों, अस्पतालों और शरणार्थी शिविरों को भी निशाना बनाया जा रहा है।
जमीइत-ए-उलेमा-ए-हिन्द के आह्वान पर हल्द्वानी (उत्तराखण्ड) में भी इजरायल का विरोध किया गया। इस विरोध प्रदर्शन में लगभग 2000 लोगों ने भागीदारी की। प्रदर्शन में हाथ में काली पट्टियां, काले झण्डे लहराते हुए लोग चल रहे थे। प्रदर्शन की शुरूआत में जमीयत-ए-उलेमा हिन्द से वक्त ने इजरायल का विरोध किया और इजरायल की इस कार्यवाही को अमेरिकी सरपरस्ती का परिणाम बताया। वक्ता ने आगे अरब के अन्य देशों की भी निन्दा की जोे कि बेशर्मी से खामोश बैठकर इजरायल की इस कार्यवाही को मौन समर्थन दे रहे हैं। उन्होंने ओपेक देशों से इजरायल को तेल सप्लाई बंद कर उसे नरसंहार करने से रोकने के लिए बाध्य करने की अपील की। भारत सरकार की खामोशी और इजरायल से कोई नीति परिवर्तन न होने की बात की निन्दा की। इजरायल के इस नरसंहार को मानवता के खिलाफ कहा गया।
जुलूस में आयोजकों ने किसी भी प्रकार के नारे न लगाने की अपील की। जुलूस शहर के मुख्य बाजार से होता हुआ एस.डी.एम. कार्यालय में पहुंचा। जहां से एक ज्ञापन एस.डी.एम. के द्वारा प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, भारत सरकार विदेश मंत्रालय, भारत सरकार, मुख्य सचिव, संयुक्त राष्ट्र संघ, न्यूयार्क फिलिस्तीन व इजरायली दूतावास, नयी दिल्ली को प्रेषित किया गया। ज्ञापन में भारत सरकार से मांग की गयी कि वह सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र की बैठक में इजरायल के खिलाफ प्रस्ताव पेश करे। और भारत इजरायल के साथ अपने संबंधों को तोड़ दे। युद्ध विराम करवाया जाय व इजरायल की सख्त निगरानी की जाए। इजरायल से व्यापार बंद कर उसके उत्पादों पर प्रतिबध्ंा लगाया जाए। इस प्रदर्शन में परिवर्तनकामी छात्र संगठन व क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठनने समर्थन दिया तथा जुलूस में भागीदारी की। हल्द्वानी संवाददाता
हीरो मोटो कार्प ने 500 ठेका मजदूरों को बाहर निकाला
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
हीरो मोटो कार्प ने जुलाई माह के अंत में 500 ठेका मजदूरों को बाहर निकाल दिया। ये मजदूर स्पेयर डिपार्टमेंट से थे और प्रबंधकों से अपनी जायज मांगों के लिए संघर्ष कर रहे थे। प्रबंधक वर्ग अब इनसे छुटकारा पाना चाह रहा था। इन मजदूरों को निकाले जाने से उसका काम न रुके इसलिए उसने राजस्थान के निमराणा में एक प्लांट लगा दिया था।
इन 500 मजदूरों में से कुछ मजदूर पांच-सात साल से काम कर रहे थे और कुछ मजदूर 2012 के बाद लगे थे। कम्पनी इन मजदूरों को ऐसे ही निकाल देना चाहती थी। लेकिन मजदूरों को इस बात का अहसास था इसलिए वे 30 जुलाई को ए शिफ्ट के बाद काम बंद करके बैठ गये। प्रबंधक ने उनके मामले को हल करने के लिए दो माह का समय मांगा लेकिन मजदूरों ने केवल 10 दिन का ही समय दिया।
11 अगस्त को तय समयसीमा खत्म होने के बाद मजदूर प्लांट में की काम बंद करके बैठ गये। अंत में श्रम विभाग की मध्यस्थता में समझौता हुआ जिसमें पांच साल से ऊपर काम करने वालों को 2 लाख तथा 2 साल से ऊपर वालों को 60 हजार व बाकी मजदूरों को मात्र वेतन पर निकालने का निर्णय लिया गया। लेकिन मजदूरों ने इस समझौते को मानने से इंकार कर दिया। और प्लांट में ही बैठे रहे।
पूंजीपतियों की सरकार ने तुरंत पुलिस बल का सहारा लिया। और रात लगभग डेढ़-दो बजे पुलिस बल ने मजदूरों को कम्पनी से बाहर निकाल दिया। रात मजदूरों ने पार्क में गुजारी और सुबह वे सचिवालय में डी सी से मिले और लेबर कमिश्नर से भी। परन्तु कोई बात नहीं बनी। अंत मेें वे फिर फैक्टरी गेट पर पहुंचे परन्तु वहां भारी मात्रा में पुलिस मौजूद थी और उनके बीच नेतृत्व के अभाव के कारण वे फैक्टरी गेट पर न बैठ सके और अपने-अपने घरों को लौट गये। इन ठेका मजदूरों को स्थायी मजदूरों का भी साथ नहीं मिला। गुड़गांव संवाददाता
एक मजदूर की मौत
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
सिडकुल पंतनगर में यूनी मैक्स इण्टर नेशनल फैक्टरी में प्रदीप नाम के मजदूर का जीवन प्रबंधक वर्ग की भेंट चढ़ गया। उससे पहले उसे चोरी के आरोप में सिडकुल पुलिस चैकी में बंद कराया गया। उसके बाद वहां से छूटने के बाद दुबारा फैक्टरी गया तो फिर उसकी लाश ही मिली।
प्रदीप भोजीपुरा बरेली का था और यहां पर यूनी मैक्स इण्टरनेशनल फैक्टरी में काम करता था। 18 जून की रात को प्लांट हेड ने प्रदीप को चोरी के आरोप में पकड़कर सिडकुल पुलिस चैकी में बंद करा दिया था। उसके बाद प्रदीप के भाई ने स्थानीय नेता सभासद की मदद से उसे छुड़ाया हालांकि भाई ने बताया कि पुलिस वालों के सामने चोरी के आरोप में उसने कई फैक्टरी के कई अधिकारियों के नाम बताये थे जो फैक्टरी प्रबन्धकों के लिए नागवार गुजर रहा था। प्रदीप की पत्नी ने बताया कि उसके पति को 19 जून की रात को फैक्टरी से फोनकर बुलाया गया कि वह फैक्टरी में आ जाये और ड्यूटी करे। उसके बाद रात को वह ड्यूटी चले गये और उसके बाद से वह दुबारा घर वापिस नहीं लौटे। 23 जून की सुबह सिडकुल में एच.सी.एल.चैक पर उनकी लाश पेड़ पर लटकी हुई मिली। पुलिस वालों ने उनकी लाश को लावारिश में घोषित कर दिया था जबकि पुलिस वालों के पास में वोटर आई.डी. और गाड़ी की आर.सी. मिली थी। मेरे पति की गाड़ी आज भी फैक्टरी के अंदर बंद है।
प्रदीप फैक्टरी में अंदर तो गया है मगर बाहर नहीं आया है। उसके बाद लाश का पोस्टमार्टम करके परिवार वालों को दे दी गयी थी। उसी समय प्रदीप का भाई नरेन्द्र जब फैक्टरी में गाड़ी लेने गया तो फैक्टरी वालों ने उसकी पिटाई कर दी । उसके बाद से वहां पर कोई नहीं गया।
प्रदीप की पत्नी मधु एक माह बाद जब यहां पर लौटी तो उसने बताया कि वे लोग फैक्टरी गये तो वहां से उनको भगा दिया गया। उसके बाद भाजपा के स्थानीय नेताओं के साथ एस.एस.पी. और उपजिलाधिकारी से मिले तो उन्होंने कहा कि ‘‘वे फैक्टरी गेट पर जायंे, वहीं से समस्या का समाधान होगा। उसके बाद अगले दिन फैक्टरी गेट पर भाजपा नेताओं के साथ गयी और वहां पर एक घंटे तक गेट पर बैठे रहे। नेता फैक्टरी के अंदर गये और आकर कहा कि वे सब यहां से चले जायें और कल रोडवेज पर मिलने को कहा है। इसके बाद लगातार टालमटाली का दौर चलता रहा। उसके बाद मधु वकील से जाकर मिली तो वकील ने उसकी प्रथम सूचना रिपोर्ट सी.आर.पी.सी. की धारा 156-3 के तहत दर्ज करवाने को कहा मगर न्यायालय में भी कम से कम रिपोर्ट दर्ज होने की जो प्रक्रिया है वह लम्बे समय की मांग करती है। उसके बाद काफी जद्दोजहद के बाद रिपोर्ट दर्ज होने को आयी वैसे ही स्थानीय भाजपा नेताओं को पता चला तो मधु को तीन लाख पच्चीस हजार रुपये लेकर मामले को खत्म करने की बात कही। मधु भी वहां पर टूट गयी और समझौता करने को तैयार हो गयी। उसके बाद वकील साहब ने बताया कि मधु ने उनसे सम्पर्क नहीं किया। और मधु भी उससे संतुष्ट हो गयी है।
फैक्टरी में प्रदीप लम्बे समय से काम कर रहा था। फैक्टरी के अन्य कर्मचारियों ने बताया कि प्रदीप तो प्रबंधन का खास आदमी था मगर इसको चोरी का आरोप सुनकर उन सभी को झकझोर कर रख दिया। प्रदीप के एक लड़की है जिसके लालन पालन की समस्या बन गयी है।
प्रदीप की मौत कई अनसुलझे प्रश्न छोड़ देती है जिनका हल नहीं हुआ है। स्थानीय प्रशासन ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया है और स्थानीय भाजपा नेता ऐसी घटनाओं को उजागर और उनका पर्दाफाश न करके बल्कि ले देकर ऐसी घटनाओं को दबाकर प्रबंधकों और फैक्टरी मालिकों के कुकृत्यों को करने की खुली छूट दे रहे हैं।
आज सिडकुल में फैक्टरियों में जो चोरी की घटनायें हो रही है वे बिना उच्च अधिकारियों की सहमति से नहीं होती हैं। मगर ऐसी घटनाओं में गरीब मजदूर पकड़े जाते हैं। जब मालिक या फिर उनके उच्च अधिकारी पकड़े जाते हैं तो उनको कोई सजा नहीं होती है। इसके उल्टे इसकी कीमत गरीब मजदूरों केा अपनी जान देकर चुकानी होती है। रूद्रपुर संवाददाता
आम बजट में पूर्वांचल को मिला आर्युविज्ञान संस्थान का तोहफा -चक्रपाणि ओझा
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
गुड़गांव! ब्रिजस्टोन इण्डिया आॅटोमोटिव लि. आईएमटी मानेसर के सेक्टर-3 प्लाट न. 11 में है। कम्पनी मालिक और प्रबंधक की ज्यादतियों और शोषण के खिलाफ यहां के मजदूर हड़ताल पर हैं।
इस कम्पनी में 400-425 मजदूर काम करते हैं जिसमें से 185 मजदूर ही स्थायी हैं जो पिछले 12-14 सालों से यहां काम कर रहे हैं। शेष मजदूर 2 से 5 साल से कम्पनी में काम कर रहे हैं। कम्पनी में 40 के लगभग महिला मजदूर भी हैं जोकि अस्थायी हैं। स्थायी मजदूरों का वेतन 12-13 हजार रुपये है और शेष अधिकतर मजदूरों का वेतन 5500 रुपये ही है।
कम्पनी में 8-8 घंटे की शिफ्ट में काम होता है परन्तु महिला मजदूरों को साढ़े नौ घंटे काम करना होता है। कम्पनी में मारुति की फोर व्हीलर गाडि़यों के लिए एण्टी वाइब्रेशन पार्ट तैयार होता है जो इंजन में लगता है ताकि इंजन बाइव्रेट न करे।
कम्पनी में चूंकि रबड का काम होता है अतः यहां का तापमान बहुत अधिक होता है। इसमें भी बगैर किसी सुविधा के काम करना होता है। कई बार मजदूरों के कहने पर भी प्रबंधक ने मजदूरों के लिए कोई सुविधा नहीं की।
इस सबसे तंग आकर मजदूरों ने यूनियन बनाने की सोची और इंटक की मदद से 6 जून को फाइल लगा दी। 7 जुलाई को डीएलसी के यहां इसका वेरिफिकेशन हुआ। इधर डीएलसी के यहां वेरिफिकेशन हो रहा था और इधर प्रबंधक ने फाइल में हस्ताक्षर करने वाले मजदूरों को निकालना शुरू कर दिया। हस्ताक्षर करने वाले 30 मजदूरों में से 23 मजदूरों को बाहर कर दिया गया।
निकाले गये मजदूरों ने अपने नेताओं के कहने पर लेबर कोर्ट में केस डाल दिया। लेबर कोर्ट में चार-पांच तारीख लगने के बाद भी कुछ नहीं हुआ। प्रबंधक हर बार एक नीचे स्तर की महिला अधिकारी को भेज देता। लेबर आॅफिसर उसको धमकाता कि अगली बार वार्ता में अपने से बड़े अधिकारी को भेजना। मजदूर खुश हो जाते।
लेकिन जब कई दौर की वार्ता में हल नहीं निकला तो मजदूरों ने अपने निकाले गये साथियों की रिहाई के लिए 17 सितम्बर को टूल डाउन कर दिया। लेकिन पूूंजीपति की सेवा के लिए तैनात पुलिस ने आकर सब मजदूरों को बाहर निकाल दिया।
मजदूरों ने भी अपना टैन्ट लगाकर संघर्ष का बिगुल बजा दिया। 17 सितम्बर से 400 मजदूर हड़ताल पर चले गये। इनमें स्थायी व अस्थायी दोनों ही मजदूर हैं। पुलिस प्रशासन रोज मजदूरों को धमकाने आ जाता है। तरह-तरह से मजदूरों को कहा जाता है कि वे काम पर चले जायें। प्रबंधन तो रात में मजदूरों को डराने के लिए गुण्डे भी भेजता है।
17 सितम्बर को प्रेमपाल नाम के मजदूर को अकेले पाकर ठेकेदार ने थप्पड़ जड़ दिया। और 18 सितम्बर को हड़ताल में शामिल होने आ रहे 4 मजदूरों को रोक लिया गया। सुबह 6 बजे से 8 बजे तक उन्हें रोका गया और कोरे कागज पर हस्ताक्षर कराके छोड़ा। महिला मजदूरों को उनके कमरों से ले जाकर जबर्दस्ती काम कराया जा रहा है और यह सब पुलिस प्रशासन की आंखों के सामने हो रहा है।
मजदूर यह सब अपनी आंखों से देख रहे हैं कि किस तरह श्रम विभाग, पुलिस प्रशासन पूंजीपति के लिये काम करते हैं। जैसे जैसे संघर्ष आगे बढ़ता है वैसे-वैसे इस व्यवस्था के सभी अंगों का चरित्र मजदूरों के सामने स्पष्ट होता जाता है। ब्रिजस्टोन के मजदूर भी अपने संघर्ष में इस सबको सीखेंगे। गुड़गांव संवाददाता
ट्रेड यूनियन नेताओं का एक दिवसीय शिविर
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
रुद्रपुर! 13 सितम्बर को इंकलाबी मजदूर केन्द्र द्वारा ‘‘ट्रेड यूनियन आन्दोलन की चुनौतियां’’ विषय पर एक दिवसीय शिविर का आयोजन आहूजा धर्मशाला, रुद्रपुर में किया गया। शिविर में गुड़गांव, फरीदाबाद, बरेली, हरिद्वार, पंतनगर, आदि जगह के ट्रेड यूनियन नेताओं एवं प्रतिनिधियों ने भागीदारी की।
शिविर में इंकलाबी मजदूर केन्द्र द्वारा एक आधार पत्र(शिविर पत्र) रखा गया। इंकलाबी मजदूर केन्द्र के महासचिव अमित द्वारा शिविर के शुरूआत में बात रखते हुए बताया गया कि ट्रेड यूनियन की शुरूआत कैसे एवं किन परिस्थितियों में मजदूरों ने की, उन्होंने बताया कि भारत में भी ट्रेडयूनियन संघर्षों का शानदार इतिहास रहा है। मजदूरों ने फैक्टरी स्तर पर अपनी आर्थिक लड़ाइयां ही नहीं लड़ीं बल्कि मजदूरों ने आजादी के संघर्ष में भागीदारी कर राजनीतिक संघर्ष में भी भागीदारी की थी। उन्होंने बताया कि वर्तमान समय में केन्द्रीय ट्रेड यूनियन केन्द्रों में व्याप्त अर्थवाद, सुधारवाद हावी है। ट्रेड यूनियन केन्द्रों ने पूंजीपति वर्ग की सेवा कर मजदूर वर्ग के साथ गद्दारी कर दी है। केन्द्र की मोदी सरकार ने श्रम कानूनों मेें संशोधन कर मजदूर वर्ग पर भारी हमला किया है। मजदूर वर्ग को अपनी क्रांतिकारी विरासत को याद कर एकजुट होकर सरकार के इस हमले का मुंहतोड़ जवाब देना होगा। आज ट्रेड यूनियन गठित करना भी मुश्किल होता जा रहा है।
शिविर में आए सभी ट्रेड यूनियन नेताओें द्वारा अपने फैक्टरी संघर्ष के अनुभव को साझा किया गया और देश की केन्द्रीय ट्रेड यूनियन केन्द्रों द्वारा मजदूरों के साथ गद्दारी और फैक्टरी मालिकों के पक्ष में काम करने की बात को रखा तथा आज के समय में नए क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन केन्द्र की जरूरत को महसूस किया गया। सभी प्रतिनिधियों ने इंकलाबी मजदूर केन्द्र द्वारा उनके फैक्टरी संघर्ष में जुझारू एवं क्रांतिकारी भूमिका की सराहना की और इस कार्यभार को अपने हाथ में लेने का सुझाव दिया और भविष्य में ऐसे शिविरों का आयोजन कर मजदूरों में वर्गीय चेतना बढ़ाने की बात की गयी।
शिविर के अंत में इंकलाबी मजदूर केन्द्र के अध्यक्ष कैलाश भट्ट ने कहा कि मजदूरों के अपने ऐतिहासिक मिशन एक वर्ग विहीन-शोषण विहीन समाज की स्थापना के मकसद को कभी नहीं भूलना चाहिए। और अपने आर्थिक एवं राजनीतिक संघर्ष को लड़ते समय समाजवाद के लिए संघर्ष को ध्यान में रखना होगा। ट्रेड यूनियन संघर्ष की महत्ता को याद करते हुए उन्होंने मजदूर वर्ग के प्रिय शिक्षक लेनिन को याद करते हुए उनकी बात को दोहराया कि ट्रेड यूनियनें कम्युनिज्म की प्राथमिक पाठशाला होती हैं। मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में किये जा रहे मजदूर विरोधी बदलावों के खिलाफ भी संघर्ष करना होगा। केन्द्र की मोदी सरकार देश भर में साम्प्रदायिकता का जहर घोल रही है। मजदूर वर्ग को साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी एकजुट होकर लड़ना होगा।
मजदूरों में वर्गीय एकता एवं क्रांतिकारी चेतना का प्रचार-प्रसार कर वर्गीय एकता पैदा करनी होगी। तभी मजदूर अपने ऐतिहासिक मिशन के लिए संघर्ष कर सकता है। मजदूरों को अपनी क्रांतिकारी विरासत को याद करना होगा और एकता बढ़ानी होगी। तभी मजदूर वर्तमान समय में ट्रेड यूनियन में व्याप्त अर्थवाद, सुधारवाद एवं संशोधनवाद को किनारे लगा पायेगा होगा। पूरी दुनिया में आज ट्रेड यूनियनों में यह विजातीय प्रवृत्तियां मौजूद हैं। दुनिया भर में मजदूर अपने संघर्ष के समय इससे रूबरू हो रहे हैं। और मजदूर वर्ग ने गद्दार ट्रेड यूनियन सेन्टरों से अपने को मुक्त कर अपनी स्वतंत्र यूनियनें बनाना शुरू कर संघर्ष चलाना शुरू किया है। दक्षिण अफ्रीका के खान मजदूरों का संघर्ष इसका उदाहरण है।
शिविर में मारुति सुजुकी गुड़गांव, वीनस यूनियन, शील पैकेजिंग यूनियन, सन फ्लैग हाॅस्पिटल यूनियन फरीदाबाद, बरेली से बैंक यूनियन, मेडिकल वर्कर एसोसिएशन, मार्केट वर्कर्स यूनियन, परसाखेडा औद्योगिक यूनियन, इफ्को आंवला, हरिद्वार सिडकुल से आईटीसी, एवरेडी, वीआईपी, एवं बीएचईएल के नेता, पंतनगर सिडकुल से आॅटोलाइन वक्र्स यूनियन, ब्रिटानिया श्रमिक संघ, एरा श्रमिक संगठन, शिरडी श्रमिक संघ, इटार्क, मिंडा, ब्हेराॅक, वीएचबी यूनियन, मित्तर फास्टनर्स प्रतिनिधि, ठेका मजदूर कल्याण समिति पंतनगर, आईएमपीसीएल मोहान के प्रतिनिधि, उत्तराखण्ड वन विभाग स्केलर संघ के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की है।
शिविर की अध्यक्षता मण्डल में इंकलाबी मजदूर केन्द्र के अध्यक्ष कैलाश भट्ट, वीनस यूनियन के लीगल एडवाइजर वीरेन्द्र चैधरी, बरेली ट्रेड यूनियन्स फेडरेशन के महामंत्री संजीव महरोत्रा, भेल मजदूर ट्रेड यूनियन के अध्यक्ष राजकिशोर व उत्तराखण्ड वन विकास स्केलर संघ के क्षेत्रीय मंत्री सी.वी.छिमवाल जी ने की।
शिविर की तकनीकी कामों में विभिन्न ट्रेड यूनियन के साथियों ने सहयोग किया। रुद्रपुर संवाददाता
श्री सीमेंट के मजदूरों का धरना
वर्ष-18, अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2015)
हरिद्वार के लक्सर के पास श्री सीमेंट लिमिटेड का एक प्लाण्ट है। इस प्लाण्ट के मजदूरों ने 19 सितम्बर को अनिश्चितकालीन धरना शुरू किया था। उसी दिन दिन भर चली वार्ता के बाद 30 अक्टूबर तक मजदूरों की मांग पर प्रबंधक द्वारा सकारात्मक कार्यवाही के आश्वासन के बाद धरना समाप्त हो गया। इस धरने ने मजदूरों के भीतर अपनी समस्याओं के हल होने की काफी आशा जगाई लेकिन बगैर किसी ठोस कार्यवाही के धरना समाप्त हो जाने से मजदूरों की आशा टूटी है, लेकिन संभावना है कि वे पुनः संगठित तरीके से अपनी मांगों को उठायें।
श्री सीमेंट लिमिटेड भारत की सबसे बड़ी सीमेंट कंपनियों में से एक है। यह उत्तर भारत की सबसे बड़ी सीमेंट कम्पनी है। यह प्रतिवर्ष 1 करोड़ 75 लाख टन सीमेंट का उत्पादन करती है। इसका मुख्यालय ब्यावर(राजस्थान) में है। इसके प्लांट राजस्थान के ब्यावर, रास, कुशखेरा, जोबनर और सूरतगढ़, उत्तराखण्ड के लक्सर तथा बिहार के औरंगाबाद में है। यह छत्तीसगढ़ में भी दो प्लाण्ट स्थापित करने जा रही है। 2013-14 में इसका टर्नओवर 58.58 अरब रुपये का और शुद्ध मुनाफा 7 अरब 87 करोड़ रुपये का रहा। यह श्री अल्ट्रा, बांगर और राॅक स्ट्रांग तीन नामों से सीमेंट बेचती है। इस कंपनी के मालिक बेणुगोपाल सागर 4.1 अरब डालर की सम्पत्ति के साथ भारत के 35 सबसे अमीर भारतीयों की फोब्र्स सूची में शामिल हैं।
श्री सीमेंट लिमिटेड के लक्सर प्लांट के मजदूरों का कहना है कि इस प्लांट को स्थापित हुए 6-7 साल हुए हैं। इस प्लांट ने जमीन के एवज में ग्राम पंचायत से समझौता किया कि कंपनी में मजदूरों को उपलब्ध कराने का ठेका पंचायत के पास रहेगा। तब से स्थानीय ग्राम प्रधान ही ठेकेदार का काम करता है। मजदूर और सुपरवाइजर दोनों ही ठेकेदारी में हैं। इसके ऊपर के कर्मचारी ही कंपनी की तरफ से हैं। कंपनी मे तीन सौ मजदूर काम करते हैं। पहले इस कंपनी में राणा ठेकेदार था, लेकिन चुनाव के बाद प्रधानी बदलने पर अब राणा और अर्जुन प्रधान दोनों ही ठेकेदार के बतौर मजदूरों को काम पर रखते हैं।
फैक्टरी के भीतर इनके साइट इंचार्ज मजदूरों को काम पर लेते हैं। फैक्टरी में 8 घंटे की जनरल शिफ्ट और 12-12 घंटे की दो शिफ्ट चलती हैं। ठेकेदार के साइट इंचार्ज मजदूरों को मनमर्जी तरीके से किसी दिन काम पर रखते हैं तो कभी दो-तीन दिन का ब्रेक दे देते हैं। मैकेनिकल विभाग जिसमें कुशल मजदूरों की जरूरत होती है, को छोड़कर किसी भी मजदूरों को महीने में 20-25 दिन से ज्यादा काम नहीं मिलता है। कंपनी में साप्ताहिक अवकाश का कोई प्रावधान नहीं है और न ही 26 जनवरी, 1 मई, 15 अगस्त और 2 अक्टूबर के अलावा किसी अन्य अवकाश का। ओवरटाइम का भुगतान सिंगल रेट से होता है। सीमेंट कंपनी होने की वजह से मजदूरों को धूल-धक्कड़ में काम करना होता है, लेकिन किसी मजदूर को नोज मास्क नहीं दिया जाता। मजदूरों का पी.एफ. कटता है लेकिन पी.एफ. नम्बर मांगने पर कुछ मजदूरों का गेट बंद कर दिया गया। ईएसआई या अन्य किसी तरह की मेडिकल व्यवस्था मजदूरों को नहीं मिलती है। इतने साल में कभी कोई बोनस मजदूरों को नहीं मिला। सबसे पुराने मजदूरों को भी न्यूनतम मजदूरी की दर से ही मजदूरी मिलती है।
ज्यादातर मजदूर आस-पास के गांवों के रहने वाले हैं। कुछ कुशल मजदूर बाहर के हैं और आस-पास के गांव में किराए के कमरों में रहते हैं। कंपनी में आने-जाने के लिए मजदूरों को स्वयं इंतजाम करना पड़ता है। मजदूरों को साईकिलों/मोटर साइकिलों को खुले में खड़ा करना पड़ता है जिससे धूप बारिश में इनका नुकसान होता है। कंपनी में पीने के पानी के लिए भी मजदूरों को काफी दूर जाना पड़ता है। कंपनी के भीतर कैंटीन है लेकिन उसका खाना होटलों के खाने से भी महंगा है।
इस कंपनी के दोनों ठेकेदार छुटभैय्या नेता हैं। ठेकेदार अर्जुन प्रधान अभी स्थानीय पंचायत का प्रधान है और जिला पंचायत का सदस्य बनने की तैयारी कर रहा है। यह भाजपा से जुड़ा हुआ है। पूर्व प्रधान राणा की भी कंपनी में ठेकेदारी है और बसपा से जुड़ा हुआ है। कुछ माह पहले इन दोनों प्रधानों ने मजदूरों की बैठक करवाकर यूनियन बनाने की योजना रखी। यद्यपि मजदूर ठेकेदारों की तरफ से आने वाले प्रस्ताव होने की वजह से सशंकित थे लेकिन नेतृत्व करने के जोखिम उठाए बगैर यूनयिन बनने की संभावना से उत्साहित भी हुए। राणा ठेकेदार का साईट इंचार्ज पाण्डे भी यूनियन बनाने के मुद्दे पर काफी पहलकदमी लेता रहा है। इस दौरान इन ठेकेदारों ने प्रबंधन से कहकर मई दिवस की छुट्टी भी दिलवाई और एक मजदूर के चोटिल हो जाने पर मुआवजा भी दिलवाया। इससे मजदूरों की उम्मीदें और बढ़ीं। इन कामों में कुछ मजदूरों ने पहलकदमी लेनी शुरू की। सितम्बर माह के शुरू में एक 17 सूत्रीय मांग पत्र प्रबंधन को दिया गया और इन मांगों के समर्थन में 19 सितम्बर से अनिश्चितकालीन धरना शुरू करने की घोषणा हुई। सभी मजदूरों से पचास रुपये का चंदा लिया गया। धरने से पहले प्रबंधन ने एक तो पीने के पानी के लिए वाटर कूलर लगाकर मजदूरों के गुस्से को ठंडा करने और एक बदनाम सिक्युरिटी एजेंसी को ठेका देकर कंपनी में डर का माहौल कायम करने की कोशिश की।
19 तारीख को कंपनी गेट के बाहर टेंट, मेज, कुर्सी आदि लगाकर धरना शुरू कर दिया गया। ठेकेदारों द्वारा मजदूरों का नेतृत्व किया जा रहा था। धरने के कुछ घंटे के भीतर ही प्रबंधन ने दोनों ठेकेदारों को तथा अन्य मजदूरों को वार्ता के लिए बुलवाया। वार्ता के दौरान प्रबंधन ने ज्यादातर मांगों पर यही कहा कि श्री सीमेंट के अन्य प्लाण्टों में भी ये व्यवस्थाएं नहीं हैं इसलिए मांगें विचाराधीन रखी जा रही हैं। एक मजदूर प्रतिनिधि द्वारा कई मांगों के सम्बन्ध में जब श्रम कानूनों का हवाला दिया गया तो प्रबंधकों ने पूरी बेशर्मी से कहा कि अगर श्री सीमेंट लिमिटेड के कानून में कहीं यह बात लिखी है तो दिखाओ।
अंततः 30 अक्टूबर तक का समय लेकर और इस दौरान बातचीत जारी रखने की बात पर वार्ता समाप्त हुई। वार्ता से लौटने के बाद ठेकेदारों ने मजदूरों से पूूछे बगैर धरना समाप्त कर दिया और कंपनी में पूरे अनुशासित तरीके से काम करने की ताकीद की। रिपोर्ट लिखे जाने तक मजदूरों की एक वार्ता कमेटी ठेकेदारों द्वारा बना दी गयी है जिसमें वे स्वयं भी शामिल हैं। मजदूर ठेकेदारों की धक्कड़शाही को महसूस कर रहे हैं और पीठ पीछे उनकी बुराई भी कर रहे हैं लेकिन नौकरी के खतरे को भांपते हुए उनके सामने कोई मजदूर विरोध नहीं करता। लेकिन तय बात है कि बढ़ती चेतना वह सही बात बेखौफ होकर करना शुरू कर दें। हरिद्वार संवाददाता
शव को फैक्टरी गेट पर रखकर मजदूरों ने किया प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
इफको (आंवला) में 20 अगस्त को स्टोर के छत की गली हुई सीमेंट की चादर बदलने का काम चल रहा था। नरेश नाम का मजदूर जो रामबाबू के ठेके में मजदूरी का काम कर रहा था, सिर पर नयी सीमेंट की चादर लेकर छत पर चल रहा था कि पुरानी चादर टूटने से अचानक 40 फिट नीचे फर्श पर आ गिरा। उसे एम्बुलेंस में रखकर टाउनशिप में स्थित हाॅस्पिटल ले गये। वहां से एक डाक्टर, नरेश का भतीजा रवि, ठेकेदार रामबाबू नरेश को लेकर एम्बुलेंस से बरेली के लिए चल दिये। रास्ते में ही नरेश की मौत हो गयी। इसके बाद शव को भमोरा स्थित ‘सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र’ पर पहुंचाकर डाॅक्टर वापस फैक्टरी आ गये। ठेकेदार भी थाने चला गया।
इसकी सूचना नरेश के गांव ‘गाड़ी घाट’ के लोगों को मिल गयी। गांव के लोग सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पर पहुंचकर शव को लेकर तुरन्त इफको के फैक्टरी गेट पर पहुंच गये। ट्रैक्टर ट्रालियों से सैकड़ों की संख्या में गांव के मजदूरों एवं किसानों ने पहुंचकर फैक्टरी गेट और टाउनशिप गेट को जाम कर दिया। किसी भी आदमी को गेट से निकलने नहीं दिया। शाम साढ़े पांच बजे जनरल शिफ्ट जब छूटी तो प्रशासन भवन में काम करने वाले कर्मचारी बरेली और आंवला जाने के लिए बस में बैठने के लिए आगे बढ़े तो प्रदर्शन कर रहे लोगों ने डंडे लेकर कर्मचारियों को दौड़ा लिया। सभी कर्मचारी भागकर वापस प्रशासन भवन में चले गये। दूसरी ओर फैक्टरी प्रशासन ने सिक्योरिटी वालों की मदद से किसी भी दिहाडी या ठेका मजदूर को फैक्टरी से बाहर नहीं जाने दिया। क्योंकि दिन में कम से कम पांच-छः सौ ठेका मजदूर फैक्टरी में काम करते हैं और ये मजदूर अगर बाहर निकलते तो प्रदर्शन में शामिल होने पर मजदूरों की संख्या बहुत बढ़ जाती। इससे मैनेजमेण्ट की परेशानी और बढ़ जाती।
शव को रखकर प्रदर्शन कर रहे मजदूर एवं किसान मृतक के परिवार के एक आदमी को नौकरी और 10 लाख रुपये मुआवजे की मांग कर रहे थे। फैक्टरी प्रशासन दलील दे रहा था कि यह ठेके का मजदूर था इसलिए फैक्टरी की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है इसलिए मुआवजा या नौकरी देने का तो सवाल ही नहीं उठता।
फैक्टरी प्रशासन ने एस.डी.एम. और सी.ओ. को सूचना दी। एस.डी.एम. और सी.ओ. आंवला कोतवाली और चार-पांच थानों की पुलिस लेकर पहुंच गये। जाम एवं प्रदर्शन को समाप्त न होते और रात की शिफ्ट में और मजदूर गांव से आने की संभावना को देखते हुए मैनेजमेण्ट को बातचीत आगे बढ़ानी पड़ी। मीटिंग में मैनजमेण्ट, एस.डी.एम., सी.ओ., मृतक मजदूर का भाई, ग्राम प्रधान और ठेकेदार के साथ एक समझौता हुआ जिसके तहत इफको साढ़े तीन लाख रुपये, ठेकेदार डेढ़ लाख रुपये मृतक की पत्नी को देंगे। एस.डी.एम. ने दुर्घटना बीमा के तहत भी आर्थिक सहायता दिलाने का आश्वासन दिया। तब जाकर करीब 8 बजे रात को प्रदर्शन समाप्त हुआ और शव पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया।
यहां दिहाडी एवं ठेका मजदूरों की कोई यूनियन नहीं है। इसके कारण मजदूरों को खराब कार्य परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। यहां इन मजदूरों को कोई सुरक्षा की ट्रेनिंग भी नहीं दी जाती है इसीलिए इन्हें बीच-बीच में दुर्घटना का शिकार हो जान गंवानी पड़ती है।
इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से ज्यादा कुछ नहीं मिलता। कुछ ठेकेदार न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी देते हैं। इन मजदूरों को महीने भर मजदूरी भी नहीं मिलती और बीच-बीच में काम से बैठा दिया जाता है। इन्हें महीने में 17-18 दिन मजदूरी मिलती है। मैनेजमेण्ट अपनी विशेष सोच के तहत ऐसा करता है जिससे साल भर में 240 दिन हाजिरी पूरी न हो सके। क्योंकि 240 दिन हाजिरी होने पर स्थायी किये जाने की मांग उठा सकते हैं। इन्हें मुश्किल से महीने में 4000 रुपये तक ही मिल पाते हैं।
यहां पर करीब आठ सौ ठेका मजदूर काम करते हैं। इतने मजदूरों की मेहनत को लूटकर फैक्टरी को भारी मुनाफा होता है। इसके साथ-साथ ठेकेदार बिना कुछ किये ही माला माल हो रहे हैं। वहीं मजदूर की जिंदगी वही गरीबी-बदहाली में ठहरी रहती है। वे आये दिन स्थायी कर्मचारियों से उधार पैसे अपने खर्च के लिए मांगते रहते हैं। इन परिस्थितियों में काम करते हुए अगर कोई दुर्घटना होती है तो इफको मैनेजमेण्ट और ठेकेदार मुआवजा देने से पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं। अगर मजदूर और गांवों के किसान शव गेट पर रखकर प्रदर्शन नहीं करते तो इतना भी मुआवजा नहीं मिलता। इसलिए इन मजदूरों को अपनी मांगों को मनवाने के लिए एकता कायम कर यूनियन बनाना बहुत जरूरी है। बरेली संवाददाता
वी.एच.बी. के मजदूरों का संघर्ष रंग लाया
9 से 13 हुए निलम्बित सभी मजदूरों की कार्यबहाली का समझौता हुआ
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
पंतनगर सिडकुल स्थित कम्पनी वीएचबी के मजदूर 22 जुलाई से 9 मजदूरों की कार्यबहाली के लिए संघर्षरत थे। वी.एच.बी. के मजदूरों का 5 सितम्बर को रुद्रपुर एस.डी.एम. की मध्यस्थता में समझौता सम्पन्न हुआ। वी.एच.बी. श्रमिक संगठन 20 अगस्त से डी.एम. कोर्ट में धरने पर बैठ कर पहले आंदोलन को आगे बढ़ा रहे थे। ए.एल.सी. के समक्ष वार्ताओं में कम्पनी में प्रबंधक पहले तो किसी भी मजदूर को काम पर लेने को तैयार नहीं था बल्कि पांच और मजदूरों को निलम्बित कर दिया था। मजदूरों ने प्रशासन से भी दखल कर समझौता करवाने का ज्ञापन दिया था, धरने को भी एक माह से ऊपर हो चुका था। कम्पनी में उत्पादन (दवाई, इंजक्शन) आधे से भी कम रह गया था, जो उत्पादन हो भी रहा था वह खराब हो रहा था। इसका दबाव भी अच्छा खासा प्रबंधन पर था।
इस दौरान बीएमएस के नेताओं से मजदूरों का मोह भंग हो रहा था। आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए मजदूर जब इन नेताओं से कहते तो ये नेता उल्टा मजदूरों से ही सवाल करते कि क्या किया जाये? अपनी ओर से बीएमएस के नेताओं ने ज्ञापन देने व वार्ताओं में जाने (वार्ताओं में भी ये नेता मजदूरों के पक्ष में कोई भी बात नहीं कर पाते थे) के अलावा कोई अन्य गतिविधियां नहीं की गयीं। इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकर्ताओं ने बताया कि मजदूरों के आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अपने परिवारीजनों व अन्य कम्पनी की यूनियनों व मजदूरों से सहयोग लेने के साथ ही अन्य तरीकों से आंदोलन को आगे बढ़ाने पर ही मैनेजमेण्ट को समझौते के लिए प्रशासन दबाव दे सकता है।
इस दौरान अन्य कम्पनियों ऐरा व आॅटोलाइन के यूनियनों ने वी.एच.बी. मजदूरों के आंदोलन को समर्थन दिया व अपने अनुभव साझा किये।
वार्ता के लिए एएलसी द्वारा 26 सितम्बर की तारीख दी थी। परन्तु वार्ता में मैनेजमेण्ट ने शुरू में तो किसी भी मजदूर को लेने से मना कर दिया। मजदूर पक्ष ने सभी 13 मजदूरों की कार्यबहाली की बात रखी। अंततः मैनेजमेण्ट ने पांच मजदूरों को घरेलू जांच के बाद लेने और अन्य सभी मजदूरों को लेने की बात रखी। एएलसी द्वारा मजदूरों को धमकाया कि समझौता करना है तो कर लो वरना मैं डीएलसी हल्द्वानी को मामला ट्रांसफर कर दूंगा। इस पर मजदूर पक्ष द्वारा एक वार्ता और बुलवाने की बात की। इस पर 1 सितम्बर की तारीख दी। 1 सितम्बर को प्रबंधक ने मारपीट करने की धमकी मिलने के कारण वार्ता में आने से मना कर दिया। मजदूरों ने स्थानीय कांग्रेसी नेता से भी सहयोग मांगा। मजदूर बी.एम.एस. के नेतृत्व को अब अपने बीच से निकालने की बात करने लगे।
5 सितम्बर (जन्माष्टमी) को भी मजदूर धरने पर बैठे रहे। उसी दिन एसडीएम ने त्रिपक्षीय वार्ता बुलाई। प्रबंधन को एस.डी.एम. द्वारा मजदूरों का उत्पीड़न बंद कर कार्यबहाली के लिए दबाव बनाया। अंततः पांच मजदूर 20 दिन बाद व अन्य सभी मजदूर तत्काल काम पर लिए जाने और घरेलू जांच जारी रहने की बात पर समझौता हो गया। समझौते के मुताबिक 8 सितम्बर को जब मजदूर काम पर गये तो प्रबंधन दो तरह के कागज पर हस्ताक्षर करके ही काम पर जाने की बात करने लगा। कागज पर मारपीट को स्वीकारने व अवैधानिक हड़ताल करने, जांच कार्यवाही को स्वीकारने (गुड कंडक्ट बांड) व उत्पादन में तत्परता से काम करने की बात की बातें लिखी थीं। मजदूर नेताओं ने इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकर्ताओं को घटना से अवगत कराते हुए राय मांगी। इस पर इमके कार्यकर्ताओं ने केवल हल्का माफी नामा व एसडीएम से मैनेजमेण्ट के वादाखिलाफी की शिकायत करने को कहा। इसी को मद्देनजर रखते हुए मैनेजमेण्ट की बातों को मजदूरों ने सिरे से खारिज करते हुए अपनी तरफ से जाने-अनजाने गलती होने व उत्पादन को ईमानदारी व लगन से काम करने का लिखित आश्वासन दिया व एस.डी.एम. के समक्ष हुए समझौते का हवाला दिया परन्तु मैनेजमेण्ट अपनी बात पर अड़ गया और दो और मजदूरों को निलम्बित करने की बात करने लगा। मजदूरों ने एस.डी.एम. से इस बात की शिकायत की। एस.डी.एम. द्वारा मैनेजमेण्ट को फोन पर धमकाया तो वह मान गया।
वी.एच.बी. के मजदूरों ने अपनी एकता व संघर्ष के बल पर जीत प्राप्त की और सभी निलम्बित मजदूरों की कार्यबहाली करवा ली। इस संघर्ष में महिला मजदूरों की भी भागीदारी रही। वी.एच.बी. यूनियन के नेतृत्व को अपनी आपसी एकता को और ज्यादा मजबूत बनाने के साथ ही सिडकुल के स्तर पर चलने वाले आंदोलनों से एकता कायम करनी होगी। अपनी समझदारी को भी ऊपर उठाने के लिए देश-दुनिया में चल रहे मजदूर आंदोलन की जानकारी प्राप्त करने व उनसे सबक निकालकर अपने लिए कार्यभार निकालने की जरूरत है। रुद्रपुर संवाददाता
गीता प्रेस में मजदूरों की हडताल
वर्ष-18, अंक-18 (16-30 सितम्बर, 2015)
दुनिया भर में धार्मिक आस्था का प्रचार-प्रसार करने वाला प्रकाशन गीता प्रेस गोरखपुर आजकल विवादों में हैं। लगभग एक महीने से इसमें कार्यरत मजदूर अपने कर्म का उचित फल प्रबंधन से मांग रहे हैं लेकिन प्रबंधन उनको कर्म करते रहने की सीख दे रहा है। बात अब प्रकाशन से निकलकर प्रशासन तक पहुंच चुकी है। कई दौर की समझौता वार्ता के बाद भी कोई सार्थक बात नहीं बन पाई है। फिलहाल आस्था के नाम पर प्रकाशन की दुकानदारी करने वाला गीता प्रेस अनिश्चित काल के लिए बंद हो चुका है। मजदूर हडताल पर चले गए हैं।
ज्ञात हो कि गोरखपुर में गीताप्रेस की स्थापना वर्ष 1923 में हुई थी तब से लेकर आज तक यह प्रकाशन अनवरत कार्य करता रहा है। हिन्दू धर्म के लगभग सभी धार्मिक साहित्य को दुनिया के विभिन्न भाषाओं में सस्ते दर पर प्रकाशित करने का बडा काम उक्त प्रकाशन ने किया है। महंगाई के इस दौर में जहां हिन्दी के तमाम प्रकाशनों की किताबें पाठकों से दूर होती जा रही हैं। वहीं गीता प्रेस की किताबें सस्ती होने की वजह से आम पाठक सहजता से खरीद लेते हैं। आने वाले दिनों में जिनके हाथों में प्रकाशन का काम आया उन्होंने इसे व्यावसायिक शक्ल दे दी। प्रकाशन का इससे मुनाफा बढता गया लेकिन इसमें काम करने वाले मजदूर अभी भी कम मजदूरी पर धर्म के नाम पर काम करते रहे। प्रबंधन मलाई काटता रहा और मजदूर अभाव में अपनी जिन्दगी काटते रहे।
बीते कुछ वर्षों में मजदूरों के भीतर अपने शोषण को लेकर चेतना जाग्रत हुई और वे प्रबंधन से न्यूनतम मजदूरी व अन्य सुविधाओं की मांग करने लगे। लेकिन प्रबंधन उनकी बात को मानने को तैयार नहीं हुआ। आजिज आकर मजदूरों ने बीते दिसम्बर माह में तालाबंदी की घोषणा कर दी। कई दिनों तक चले आंदोलन के बाद प्रबंधन ने समझौता वार्ता किया लेकिन बाद में वह अपने किये वादे से मुकर गया।
अब एक बार फिर मजदूरों ने गीता प्रेस प्रबंधन के खिलााफ मोर्चा खोल दिया है और मांगे पूरी होने तक हडताल जारी रखने की घोषणा कर दी है। हालांकि अब बात प्रकाशन से निकलकर प्रशासन तक पहुंच गई है। उपश्रमायुक्त की मध्यस्थता के बावजूद प्रबंधन व मजदूरों के बीच का अंतरविरोध खत्म नहीं हो पा रहा है। इस पूरे मामले में कर्मचारियों का आरोप है कि सभी श्रेणी के दौ सौ स्थाई कर्मचारियों को बहुत कम वेतन पर रखा गया है। बीस-तीस साल की नौकरी के बावजूद मामूली वेतन बढा है। दिसंबर में तालाबंदी के समय किये वादे को पूरा नहीं किया गया। वहीं जुलाई में नए दर का वेतन न मिलने पर विरोध करने पर 17 कर्मचारियों को अराजकता का आरोप लगाकर निकाला गया। मई में 337 कैजुअल कर्मचारियों को ठेकेदारों का कर्मचारी दिखाया गया। मजदूरों का आरोप यह भी है कि जहां पहले बारह हजार पर दस्तखत कराकर चार हजार दिया जाता था वहीं अब ठेका कर्मचारी बनने पर तीन चार हजार का मामूली भुगतान होता है। हालांकि एक महीने में नौ बार की वार्ता होने के बाद भी गतिरोध समाप्त नहीं हो पाया है। प्रबंधन का साफ कहना है कि बारह स्थाई मजदूरों को वापस तो ले लिया जाएगा लेकिन उनके खिलाफ जांच कराई जाएगी जिसमें बर्खास्तगी के अलावा कोई भी दंड दिया जा सकता है। वहीं प्रंबंधन पांच निलंबित अस्थाई मजदूरों की वापसी को तैयार नहीं है। इसी बीच प्रशासन की तरफ से इन पांचों को पैसा देकर कार्य मुक्त करने के प्रस्ताव पर मजदूर आक्रोशित हो गए। मजदूरों का कहना है कि इन्क्रीमेंट का एरियर व पांच अस्थाई साथियों को वापस काम पर रखने का मामला उनके लिए मामूली बात होगी लेकिन मजदूरों के लिए ऐसा नहीं है। मजदूरों का साफ कहना है कि मांगे पूरी होने तक आंदोलन जारी रहेगा। वहीं प्रंबंधन का कहना है कि हम गतिरोध को समाप्त करना चाहते हैं लेकिन अगर अराजकता की स्थिति ऐसी ही बनी रही तो प्रेस को महाराष्ट्र या गुजरात में स्थानांतरित करने पर विचार किया जाएगा।
उपरोक्त घटनाक्रम के बाद यह साफ हो गया है कि धर्म व आस्था के नाम पर मजदूरों का शोषण करने वाला प्रबंधन देश के औद्योगिक समूहों के मालिकों से कतई कम नहीं है। दुनिया भर में राम-कृष्ण का आदर्श पढ़ाने का ठेका लेने वाला प्रेस अपने यहां शोषण, उत्पीडन व अन्याय का तांडव रच रहा है। प्रबंधन का यह कर्म शर्मनाक है। प्रेस के शुभ चिंतकों ने कभी भी मजदूरों के पक्ष में कोई बात नहीं की है और नहीं तो इनका कहना है कि अगर गीता प्रेस बंद हो गया तो हिन्दू धर्म साहित्य की बहुत क्षति होगी। प्रेस को बचाने के लिए समर्थकों ने गोरखपुर शहर में पिछले दिनों स्कूली बच्चों को लेकर रैली निकाली थी। लेकिन शर्म की बात यह रही कि इस प्रदर्शन में मजदूरों के हित में कोई नारा नही था। सवाल यह है कि क्या गीता प्रेस बिना मजदूरों केे चल पाएगा, क्या यह प्रेस नहीं रहेगा तो हिन्दू धर्म का साहित्य नहीं बच पाएगा। क्या मजदूरी मांगना अराजकता की श्रेणी में आता है।
चक्रपाणि ओझा
पोंण्डीचेरी के छात्र भी संघर्ष की राह पर
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
पोंण्डीचेरी एक केन्द्र शासित व शांत प्रदेश होने की वजह से अधिकांशतः खबरों में नहीं आता। लेकिन पिछले 15 दिनों से पोंण्डीचेरी केन्द्रीय विश्व विद्यालय के छात्र इस खामोशी को तोड़कर सड़कों पर हैं। वे पिछली सरकार द्वारा 2013 में नियुक्त कुलपति चन्द्रा कृष्णामूर्ति के खिलाफ नारे लगाते हुए कक्षाओं का बहिष्कार किए हुए हैं। उनकी मांग है कि कुलपति चन्द्रा कृष्णामूर्ति को तत्काल बर्खास्त किया जाए तथा विश्वविद्यालय में हाॅस्टल से लेकर अन्य संसाधनों की पूर्ति की जाए।
संघर्षरत छात्रोेेे का कहना है कि यहां हाॅस्टल की समस्या एक बड़ी समस्या बनती है। 2 छात्रों के लिए आवंटित 1 कमरे में 8-8 छात्रों को रहना पड़ता है। ऐसे में छात्र पढ़ाई कैसे कर पायेंगे। पिछले कुलपति ने 2 बड़े हाॅस्टलों को बनवाने का काम शुरू करवाया था लेकिन 2013 के बाद से उनका भी काम रुका हुआ है तथा कुलपति द्वारा हाॅस्टल निर्माण की राशि में धांधली की गयी है।
हाॅस्टल के अलावा लाइब्रेरी में सालों से नई किताबों का ना आना, लाइब्रेरी का रात में जल्दी बंद कर दिया जाना, 780 एकड में फैले कैम्पस में आने-जाने की समुचित व्यवस्था न होना, छात्राओं के लिए टाॅयलेट की व्यवस्था ना होना आदि ऐसी मांगें बनती हैं, जिसके खिलाफ छात्र आंदोलनरत हैं।

कक्षाओं के बहिष्कार से शुरू हुआ ये आंदोलन, संघर्ष के विभिन्न तरीकों को अख्तियार करता रहा है। लाइब्रेरी के जल्दी बंद हो जाने की समस्या को उठाने के लिए छात्रों ने लाइब्रेरी पर कब्जा करने की रणनीति अपनयी। वे बंद होने के निर्धारित समय रात 8 बजे के बाद भी लाइब्रेरी में ही बैठे रहे जिसके बाद प्रशासन ने छात्रों की मांग के आगे झुकते हुए लाइब्रेरी को देर रात तक खोलने का फैसला लिया।
इस आंदोलन को निरंतर दमन का भी सामना करना पड़ा है। प्रशासन द्वारा निरंतर दी जा रही धमकियों के बावजूद जब छात्र भूख हड़ताल पर बैठे तो पुलिस व सरकारी गुण्डों द्वारा उन पर लाठीचार्ज किया गया। आमरण-अनशन पर बैठे छात्रों की हालत जब बिगड़ने लगी तो भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें अस्पताल भेजने में कोई मदद नहीं की। छात्रों-शिक्षकों ने ही अपने प्रयासों से उन्हें अस्पताल भिजवाया। इन तमाम प्रयासों के बावजूद छात्र कुलपति के खिलाफ डटे हुए हैं।
इसके परिणम स्वरूप ही मानव संसाधन मंत्रालय को मजबूरन अपनी दो सदस्यीय टीम कुलपति पर लगे आरोपों की जांच के लिए भेजनी पड़ी जिसने अपनी जांच के बाद कुलपति को छुट्टी पर जाने की अपील की लेकिन छात्रों की अन्य मांगों का कोई हल नहीं निकला है।
छात्रों की इस लड़ाई को कांग्रेस-भाजपा जैसी सभी चुनाव बाज राजनीति पार्टियां समर्थन दे रही हैं। इनमें से एक (कांग्रेस) के शासनकाल में नियमों को ताक पर रखकर कुलपति की नियुक्ति की गयी थी तो दूसरी (भाजपा) मामला संज्ञान में आने के बावजूद कुलपति को मौन समर्थन देती रही। छात्रों को समझना होगा कि यही वे पार्टियां है जो पूरे देश में शिक्षा व्यवस्था की बदतर हालत के लिए जिम्मेदार हैं। इसके साथ ही बल्कि इनके खिलाफ संघर्ष ही आंदोलन को सही दिशा दे सकता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय, माखनलाल चर्तुवेदी विश्वविद्यालय के बाद पोंण्डीचेरी ऐसा विश्वविद्यालय है जहां संघर्षों का मुख्य निशाना कुलपति को बनाया गया। जहां तक बात व्यक्तिगत भ्रष्टाचार की है वहां तक तो ये निशाने पर आने ही चाहिए। परंतु संघर्षरत छात्रों को भी ये समझना होगा कि उनकी अन्य मांगें देश में चल रही शिक्षा व्यवस्था व सरकार से जुड़ी हैं। पूरे देश में केन्द्र व राज्य सरकारें शिक्षा में तेजी से निजीकरण की नीति को आगे बढ़ा रही हैं। विश्वविद्यालयों के फंड में कटौती कर उनको जीर्ण-शीर्ण हालत में पहंुचाकर देशी-विदेशी पूंजीपतियों द्वारा खोले जा रहे निजी विश्वविद्यालयों के लिए उर्वर जमीन तैयार कर रही है। ऐसे में छात्रों का आंदोलन कुलपति के साथ पूरी ही शिक्षा व्यवस्था व सरकार के खिलाफ लक्षित होना चाहिए।
इन तमाम कमियों के बावजूद पोंण्डीचेरी का छात्र आंदोलन एक उम्मीद जगाता है। ये वर्षों से सुप्त छात्र आंदोलन को नींद से झकझोरने का आह्वान करता है। और ये उम्मीद करता है कि उसका संघर्ष भविष्य के छात्र आंदोलन के लिए एक अनभुव का काम करेगा।
एक एनजीओ की लूट
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
उत्तराखंड के लालकुआं कस्बे के बिन्दुखत्ता गांव में आजकल एक सरकारी संस्था एनजीओ सैटीन नाम से काम कर रही है जिसका उदेश्य गांव वालों को रोजगार के नाम पर 15-15 लोगों का एक ग्रुप बनाना और उनको 25-25 हजार का लोन देना है। जो लोग या महिलायें इस ग्रुप से जुड़ी है। उनको दो साल दो महीने के भीतर ब्याज सहित पूरी किस्तें चुकानी हैं जिससे ब्याज 5450 रुपये देना है। इस लोन को देने में इस संस्था द्वारा बीमा योजना भी चलाई गयी है जिसमें व्यक्ति को बीमा करने के लिए 710 रुपये जमा करने हैं। अगर व्यक्ति के साथ कोई दुर्घटना हो गयी या उसकी मौत हो गयी तो ये कर्ज जो उसने व्यक्ति को दिया है वह माफ हो जायेगा। इस लोन को चुकाने के लिए दो तरह की किस्तें बनायी गयी हैं। पहली किस्त 1580 रुपये की 17 किस्तें देनी है और दूसरी किस्त 410 रुपये की 9 किस्त देनी हैं। बीमा के 710 रुपये मिलाकर 1 आदमी को इस किस्तों को चुकाने में कुल पैसा मूलधन 25 हजार के अलावा 6160 रुपये ब्याज देना है। अगर 15 लोगों का एक ग्रुप इस पैसे को लेता है तो उनको ब्याज 92400 रुपये जमा करना होगा। अगर वह गांव में 4 ग्रुप बनाती है तो वह लोगों को देती 15 लाख और लोगों को बीमा सहित सैटीन संस्था को देना होगा 1869600 रुपये यानि 3,69,600 रुपये ब्याज वह लेगी।
कुल मिलाकर गरीब व निम्न मध्यम वर्ग के बीच यह कारोबार चलाया जा रहा है। अगर यह रकम लोगों को मिल भी जाए तो भी वह अपना अलग से करोबार नहीं चला सकते। 15 में से दो लोग सफल हो जाऐं, लेकिन बाकी 13 का पैसा डूबना तय है क्योंकि लोग अपना रोजगार करना भी चाहें जैसे सिलाई, साइकिल रिपेयरिंग या परचून या छोटी-मोटी दुकान खोलना भी चाहे तो इसकी सम्भावनायें बहुत कम हैं कि वह सफल हो पाये। क्योंकि बाजार पहले से ही इन धंधों से पटा पड़ा है। ऐसी स्थिति में सफल होना मुश्किल है। लिहाजा उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा बजाय कर्ज में डूबने के उनके पास कुछ नहीं बचेगा
भारत में आज के समय में 31 लाख रजिस्टर्ड एनजीओ काम कर रहे हैं। ढ़ेरों गैर पंजीकृत भी हैं। यानि 600 लोगों पर एक एनजीओ काम कर रहा है। आज हम अगर उत्तराखण्ड की बात करें तो उत्तराखण्ड की 1 करोड़ की आबादी में 1 लाख गैर सरकारी संगठन काम कर रहे हैं।
आज सरकार और इन संस्थानों के गठजोड़ में यह मकड़जाल तैयार किया जा रहा है जिसका उद्देश्य हैः
पहला, बैंक और ऐसी संस्थाओं का धंधा ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए। दूसरा, गरीब मेहनतकशों और निम्न मध्यम वर्ग से उनकी कमाई को हड़पा जाए। और तीसरी चीज कि जनता कहीं इस व्यवस्था के अत्याचारों, बुराईयों, भ्रष्टाचार, महंगाई, शोषण, उत्पीड़न आदि के खिलाफ न उठ खड़ी हो। इसलिए ऐसे सुधारों के जरिये व्यवस्था को बनाये रखने के लिए काम करता रहा जाए।
लालकुंआ संवाददाता
चे ग्वेरा की अफ्रीका को सलाह आज भी साम्राज्यवादियों के लिए सिरदर्द
वर्ष 18, अंक-17 (01-15 सितम्बर, 2015)
संयुक्त राज्य अमेरिका ने जून महीने में स्पेन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं जिसके अनुसार स्पेन के दक्षिणी हिस्से में संयुक्त राज्य अमेरिका के 2200 अमरीकी फौजी स्थायी रूप से तैनात रहने की इजाजत मिल गयी है। यह फौज समय-समय पर अफ्रीका के सभी इलाकों में तैनात की जायेगी। यह पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा उठाये गये लम्बे कदमों की कड़ी में एक और उपाय है जिसके जरिये वे अफ्रीकी महाद्वीप को सैनिक तौर पर अपने प्रभुत्व और शोषण को जारी रखने की गारण्टी चाहते हैं। इन कदमों के अतिरिक्त ‘जिवोती’ में स्थाई तौर पर सैन्य उपस्थिति अफ्रीकाॅम में मौजूद है जो अधिकांश अफ्रीकी देशों में प्रशिक्षण की कार्यवाही करती रहती है तथा बारम्बार ड्रोन हमले करती है और खुफियागिरी के काम करती रहती है। इतना ही नहीं वह चुनिंदा विद्रोही शक्तियों को हथियार भी मुहैय्या कराते रहती है।
इन घटनाओं को अफ्रीका के लोग चुपचाप निष्क्रिय दर्शक के तौर पर नहीं देखते रहे हैं। मिलिट्री रिव्यू के एक लेख में एक लेखक ने कहा, ‘‘पिछले दशकों में अफ्रीका में किसी भी घटना ने इतना ज्यादा विवाद और संयुक्त विरोध नहीं पैदा किया जितना कि अफ्रीकाॅम ने पैदा किया है। समूचे अफ्रीका में अफ्रीकाॅम के विरोध में जितने पैमाने पर अभूतपूर्व एकता एवं महानता दिखाई पड़ रही है उसने कई विशेषज्ञों को चकित कर दिया है। तब भी पश्चिमी साम्राज्यवादियों की फौजों और सलाहकारों का समूचे अफ्रीकी महाद्वीप पर आगे बढ़ना जारी है। अभी तक कोई संकेत नहीं हैं कि वे इससे पीछे हटेंगे।
इस महाद्वीप पर प्रभुत्व जमाने और डराने-धमकाने के अपने इस अभियान में साम्राज्यवादी अपना एक परिचित हथियार इस्तेमाल कर रहे हैं। अफ्रीकी देशों के शासकों के लिए यह आसान नहीं है कि वे अफ्रीकाॅम की सैन्य सहायता और प्रशिक्षिण से इंकार कर सकें। यह इसलिए कि उन्हें सिर्फ सैन्य ताकत का ही सामना नहीं करना पड़ रहा है बल्कि आर्थिक और कूटनीतिक धमकियों का भी सामना करना पड़ता है। संभावित परिणामों की अंतर्निहित धमकी ही पर्याप्त होती है कि वे न सिर्फ सक्रिय प्रतिरोध नहीं करें बल्कि सीधा-सादा असहयोग भी न करें। जबकि अफ्रीकी देशो के शासकों को इन धमकियों से डरना नहीं चाहिए जैसा कि अंगोला की ऐतिहासिक घटनायें बताती हैं। उस समय अंगोला के मुक्ति युद्ध के दौरान साम्राज्यवादी शक्तियों को पीछे हटना पड़ा था।
1987 में दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदवादी हुकूमत के साथ-साथ अमरीकी साम्राज्यवादियों की कठपुतली सशस्त्र बलों का मुकाबला करते हुए अंगोला के गृहयुद्ध में उसने अपनी सेना FAPLA (अंगोला की मुक्ति के लिए सशस्त्र बल) गठन किया था। FAPLA के विरुद्ध साम्राज्यवादियों ने अंगोला के दक्षिणी हिस्सों की मुक्ति को रोकने के लिए व्यापक सैन्य शक्तियों को गोलबंद किया था। FAPLA के दुश्मन जानते थे कि क्रांतिकारी अफ्रीकी शक्तियां यदि इस हिस्से में नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं तो वे इस समय दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदवादी हुकूमत के नियंत्रण वाले नामीबिया में हमला करने की जमीन पा सकते हैं। अंगोला की केन्द्रीय सरकार ने क्यूबा से मदद मांगी थी और क्यूबा ने हथियार और फौजों से मदद की थी और इस समर्थन और मदद से अंगोला की क्रांतिकारी शक्तियों ने अफ्रीका के दुश्मनों को करारी शिकस्त दी थी। यह ऐतिहासिक लड़ाई क्यूटो कुआन वाले नामक कस्बे में हुई थी। इस लड़ाई के बाद इस क्षेत्र में रंगभेदवादी हुकूमत के पतन की प्रक्रिया तेज हो गयी।
क्यूटो कुआन वाले की लड़ाई से पहले भी क्यूबा ने अफ्रीकी युद्ध में मदद की थी। 1965 में कांगों में मुक्ति योद्धाओं के साथ लड़ते हुए चे ग्वारा ने समूचे अफ्रीकी महाद्वीप के मुक्त संगठनों के प्रतिनिधियों की एक मीटिंग को सम्बोधित करते हुए कहा था ‘‘मैं अपनी आंखों के सामने हो रहे कांगों के मुक्ति संघर्ष के बुनियादी महत्व के बारे में बात कर रहा हूं। अपनी पहुंच और अपने परिणामों में यह विजय महाद्वीपीय होगी और इसी तरह पराजय भी महाद्वीपीय होगी।’’ उनकी इस बात की प्रतिक्रिया बहुत ठंडी थी। हालांकि अधिकांश ने किसी भी किस्म की टिप्पणी करने से अपने को बचाया लेकिन कुछ लोगों ने चे-ग्वेरा से यह कहा कि उनकी सलाह ठीक नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि उनके अपने लोगों को साम्राज्यवाद द्वारा प्रताडित और अपमानित किया गया है। वे उसका विरोध तभी करेंगे जब उनकी खुद की जमीन में उनका अपना उत्पीड़न के कारण हत्यायें हो रही हों लेकिन एक-दूसरे देश को मुक्त करने के लिए वे ऐसा नहीं करेंगे। चे ग्वेरा ने उनको समझाया कि यह युद्ध समान दुश्मन के खिलाफ है। यह न सिर्फ मोजाम्बिक में, मलावी में, रोडेशिया या दक्षिण अफ्रीका में, कांगो या अंगोला में अलग-अलग नहीं है उस समय इस तरह किसी ने नहीं देखा।
तबसे 50 साल बीत चुके हैं। अधिकांश अफ्रीकी देश आजाद हो चुके हैं। 1885 से यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने बर्लिन के सम्मेलन में अफ्रीका के टुकड़े-टुकड़े कर बांट लिया था। अब वही प्रक्रिया इस समय अफ्रीकाॅम के जरिये आजाद अफ्रीकी देशों पर अपनाई जा रही है। अभी भी अफ्रीकी शासक यह समझते हैं कि वे अकेले-अकेले हैं इस समस्या से निपट सकते हैं।
अफ्रीकी देशों के शासकों का चरित्र अब वह नहीं रहा है जो अलग-अलग देशों में चल रहे मुक्ति संघर्षों के दौरान था। आज वे साम्राज्यवादियों के साथ ज्यादा सांठ-गांठ कर रहे हैं। इसलिए आज अफ्रीका का मुक्ति संघर्ष वहां के शासकों के भी विरुद्ध है। इस समय उनसे ये उम्मीद करना कि वे सुसंगत तरीके से साम्राज्यवाद या उसकी एक दूसरी शाखा अफ्रीकाॅम का विरोध करेंगे तो यह दिवास्वप्न के अलावा कुछ नहीं है। चे-ग्वेरा की राय जब 1965 में उस समय के मुक्ति संघर्ष के यौद्धाओं ने नहीं मानी थी तो आज जब वे शासक बन चुके हैं और विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के अभिन्न अंग के रूप में मौजूद हैं तो इनसे अफ्रीकाॅम के विरोध की या समग्र तौर पर साम्राज्यवाद के विरोध की उम्मीद नहीं की जा सकती।
तब भी अफ्रीकाॅम का विरोध समूचे अफ्रीकी महाद्वीप की मजदूर-मेहनतकश आबादी के जरिये हो सकता है और निश्चित ही होगा। देर-सबेर अफ्रीकी महाद्वीप की मजदूर-मेहनतकश आबादी इस काम को अंजाम देगी और कांगों में चे-ग्वेरा के दिये गये उद्गारों को पूरा करेगी।
(मार्क पी. फैंचर के लेख के आधार पर ब्लैक एजेण्डा रिपोर्ट 7 जुलाई 2015 से साभार)
साम्प्रदायिक उभार और आज की चुनौतियां
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
दिल्ली! 6 अगस्त को ‘साम्प्रदायिक उभार एवं आज की चुनौतियां विषय पर दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक सेमिनार आयोजित किया गया। इस सेमिनार में विभिन्न मजदूर एवं जनसंगठनों के कार्यकर्ताओं ने भागीदारी की।
सेमिनार में बात रखते हुए ‘मजदूर पत्रिका’ से जुड़े साथी संतोष ने कहा कि सभी सामाजिक समस्याओं की तरह साम्प्रदायिकता का एक निश्चित राजनैतिक अर्थशास्त्र है। साम्प्रदायिक हिंसा से प्रभावित इलाकों का सर्वेक्षण बताता है कि भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम उद्यमियों को निशाना बनाया जाता है। साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान पूंजीपति वर्ग के कुछ हिस्से व निम्न पूूंजीपति वर्ग के बीच अल्पसंख्यक व्यवसाइयों व उद्यमियों को नुकसान पहुंचाकर अपने आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति देखी गयी है। सत्ता के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करना भी इसका कारण है। पूंजीपति वर्ग व निम्न पूंजीपति वर्ग के ये हिस्से बहुसंख्यक मजदूर मेहनतकश आबादी को अपने इन घृणित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं। उन्होंने साम्प्रदायिकता की समस्या का मुकाबला करने के लिए मजदूर-मेहतनकश जनता की एकता पर बल दिया।
सेमिनार को संबोधित करते हुए आॅल इंडिया फेडरेशन आॅफ ट्रेड यूनियन्स(न्यू) के साथी पी.के.शाही ने कहा कि केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद भगवाकरण की मुहिम जोरों पर है। शिक्षा, संस्कृति इतिहास को हिन्दूवादी रंग में रंगा जा रहा है। उन्होंने कहा कि मजदूर वर्ग के भीतर खुद धार्मिक कट्टरपंथी विचार मौजूद हैं। उन्होंने साम्प्रदायिकता का मुकाबला करने के लिए मजदूर वर्ग को साम्प्रदायिक व कट्टरपंथी विचारों से मुक्त करने पर जोर दिया।
इसी क्रम में आगे बात रखते हुए इंकलाबी मजदूर केन्द्र के नगेन्द्र ने कहा कि अपनी घोषणा के विपरीत भारतीय राज्य कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा। समय-समय पर कांग्रेस सहित सभी पार्टियों ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए साम्प्रदायिक तत्वों का तुष्टीकरण किया है। इसका फायदा संघ मंडली व उसके राजनीतिक संगठन भाजपा को मिला जिनका घोषित उद्देश्य ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है। उन्होंने कहा कि भारत में पूंजीवादी व्यवस्था का संकट बढ़ने के साथ भारतीय पूंजीपति वर्ग का चरित्र भी अधिकाधिक निरंकुश होता गया है और आज के दौर में एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग ने हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों के साथ गठजोड़ कायम कर लिया है। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज में फासीवादी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं और खासकर मध्यम वर्ग में। उन्होंने कहा कि हिन्दू साम्प्रदायिकता के अप्रासंगिक या अव्यवहारिक होने पर पूूंजीपति वर्ग ‘सेकुलर’ फासीवाद को भी अपना सकता है। आम आदमी पार्टी को पूंजीपति वर्ग का समर्थन इस ओर संकेत करता है। उन्होंने साम्प्रदायिक फासीवाद की चुनौती का मुकाबला करने के लिए मजदूर वर्ग के आर्थिक-राजनैतिक संघर्षों को तेज करने की जरूरत पर बल दिया। साथ ही उन्होंने मजदूर वर्ग के बीच समाजवाद के विकल्प को स्थापित करने एवं पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ मजदूर राज समाजवाद के लिए संघर्ष तेज करने पर बल दिया।
इसी क्रम में सेमिनार को संबोधित करते हुए श्रमिक संग्राम कमेटी के साथी सुभाषीश ने कहा कि निश्चित तौर पर भारत में हिन्दू साम्प्रदायिकता आज बहुत आक्रामक व प्रभावी स्थिति में है लेकिन वैश्विक पैमाने पर खासकर पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में मुस्लिम साम्प्रदायिकता को भी मजबूती मिली है। उन्होंने ‘पैन इस्लामिक मूवमेन्ट’ पर भी गंभीरता से ध्यान देने की बात की।
इंडियन काउंसिल आॅफ ट्रेड यूनियंस के साथी उदय नारायण ने साम्प्रदायिकता की समस्या को मजदूर वर्ग के लिए एक बड़ी चुनौती बताया और इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए मजदूर वर्ग में क्रांतिकारी चेतना के प्रसार की बात की।
मजदूर एकता केन्द्र के साथ आलोक ने सेमिनार में बात करते हुए कहा कि हमारे समाज में धार्मिक पहचान का सबसे प्राथमिक बन जाना ही साम्प्रदायिकता का एक महत्वपूर्ण आधार है। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद से भारत में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का अंतर्विरोध था 70-80 के दशक आते-आते वह हल हो गया। आज जहां पूंजीपति वर्ग के बीच क्षेत्रीय व राष्ट्रीय का झगड़ा खत्म होने के कारण पूंजीपति वर्ग एकजुट और मजबूत है वहीं मजदूर वर्ग विभाजित है। यह साम्प्रदायिकता के भारतीय समाज में व्यापक फैलाव एवं उसके मजबूत होने का यह एक महत्वपूर्ण कारक है। उन्होंने मजदूर वर्ग की एकता को मुकाबला करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण बताया।
सेमिनार का समापन करते हुए पी.डी.एफ.आई. के साथी अर्जुन प्रसाद सिंह ने कहा कि बिना समाज की आर्थिक सामाजिक व राजनीतिक संरचना को बदले साम्प्रदायिकता का समाधान नहीं हो सकता है। उन्होंने मजदूर वर्ग के भीतर सम्प्रदायवाद व अंधराष्ट्रवाद की प्रवृत्तियों से लड़ने की जरूरत पर बात करते हुए एतिहासिक संदर्भों का हवाला देते हुए कहा कि मजदूर वर्ग के भीतर अंधराष्ट्रवादी प्रवृत्तियों के चलते जर्मनी में नाजीवाद व इटली में फासीवाद की स्थापना में वहां के मजदूर वर्ग का बड़ा हिस्सा भागीदार बन गया। भारत में भी जर्मनी व इटली का इतिहास दोहराया जा सकता है। अंततः उन्होंने मजदूर वर्ग के साथ सभी मजदूर मेहनतकश तबकों को साम्राज्यवाद पूंजीवाद के खिलाफ लामबंद करने व इसी प्रक्रिया में साम्प्रदायिकता को ध्वस्त करने की जरूरत पर बल दिया।
इस सेमिनार के आयोजक इंकलाबी मजदूर केन्द्र, मजदूर एकता केन्द्र, पी.डी.एफ.आई., ए.आई.एफ.टी.यू. (न्यू) व मजदूर पत्रिका थे। सेमिनार में 100 के लगभग मजदूर, छात्र व महिला कार्यकर्ताओं ने भागीदारी की।
दिल्ली संवाददाता
रामदरश की मौत का दोषी कौन ?
खुखुन्दू थाने में फरियादी की मौत का मामला
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद के खुखुन्दू थाने में बीते 5 अगस्त को घटी एक घटना ने न सिर्फ पुलिसिया चरित्र को उजागर कर दिया है। अपितु समूचे संवेदनहीन होते शासन-प्रशासन, समाज में मौजूद अंधविश्वास पूर्ण माहौल को भी सबके सामने ला दिया है। इस जघन्य वारदात ने समूची व्यवस्था पर कई तरह के प्रश्न खड़े कर दिये हैं।
ज्ञात हो कि यूपी के देवरिया जिले में खुखुन्दू थाना परिसर में न्याय व सुरक्षा की गुहार लेकर पहुंचा भटहर टोला निवासी रामदरस गौंड़ पुलिस (थाना प्रभारी ) की डांट व हनक को बर्दाश्त नहीं कर सका और मौके पर ही उसकी मौत हो गई।
पेशे से ओटो चालक रामदरस अपनी मेहनत के बल पर परिवार की जीविका चलाता था। उसके पट्टीदार उसके परिवार का अक्सर उत्पीड़न करते रहते थे। पट्टीदार का आरोप था कि रामदरस ने उसके घर पर मेलान (टोना) करवा दिया है जिसकी वजह से वह परेशान है। इसी आरोप को लेकर बीते दिनों पट्टीदार के घर वालों ने रामदरस की बुरी तरह पिटाई कर दी जिससे वह गंभीर रूप से जख्मी हो गया। सुरक्षा व न्याय की फरियाद लेकर पीडि़त रामदरस स्थानीय खुखुन्दू थाने पहुंचा तो पुलिस ने उसकी गुहार अनसुनी कर दी। चार दिनों तक थाने का चक्कर लगाने के बाद भी उसे पुलिस पर भरोसा था। वह शाम को फिर अपनी तहरीर लिए दरोगा के पास जा पहुंचा। दरोगा ने पीडि़त की फरियाद सुने बिना ही उसे डांटना व हड़काना शुरू कर दिया। दरोगा के रोबीले अंदाज से भयभीत रामदरस जोकि पहले से काफी जख्मी था, यह अमानवीय बर्ताव बर्दाश्त नहीं कर सका और दरोगा के सामने ही दम तोड़ दिया।
अचानक घटी इस घटना से समूचे इलाके में तनाव व्याप्त है। जागरूक लोग प्रशासन व सरकार से पीडि़त परिवार को उचित मुआवजा व नौकरी की मांग कर रहे हैं। इन सबके बावजूद स्थानीय प्रशासन लोगों के दमन करने का हर संभव प्रयास कर रहा है। आश्चर्यजनक यह है कि थाने में दरोगा के हड़काने से हुइ मौत के बाद भी खबर लिखे जाने तक उक्त आरोपी दरोगा के ऊपर महज स्थानान्तरण की कार्रवाई ही हो सकी थी। प्रशासन व समाजवादी पार्टी की सरकार ने यह दिखा दिया है कि वह असल में किसके साथ खडी हैै। इससे भी आश्चर्यजनक बात जो सामने आई वह यह है कि स्थानीय जनप्रतिनिधियों का इस पूरे घटनाक्रम के प्रति उपेक्षात्मक रवैया। इतने बडे हादसे के बाद भी क्षे़त्र का कोई जनप्रतिनिधि या किसी भी दल का नेता घटना स्थल पर नहीं पहुंचा ना ही पीडि़त परिजनों को सांत्वना देने की आवश्यकता ही महसूस की। जबकि सत्ताधारी दल सपा की गजाला लारी माननीय विधायक हैं। केंद्र सरकार में मंत्री व दिग्गज भाजपा नेता कलराज मिश्र सांसद हैं। इनके अलावा भी देवरिया में लगभग हर दल के नेता अक्सर दिखते रहते हैं। लेकिन शर्म की बात यह रही कि किसी भी दल के एक छोटे से नेता तक ने इस आम आदमी के दुख में शरीक होने की आवश्यक्ता नहीं महसूस की। नेताओं के इस बर्ताव ने उनके आम आदमी के प्रति नफरत के भाव को सामने ला दिया है।
मालूम हो कि बीते कुछ ही साल पहले इसी खुखुन्दू के जुआफर गांव में एक पुलिस अधिकारी की मौत हो जाने पर देश की सियासत गर्म हो गई थी। देश की मीडिया महीनों तक इस घटना को लेकर सक्रिय रही। वहीं देश की सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं का महीनों तक दौरा होता रहा। पुलिस अधिकारी की पत्नी परवीन आजाद ने साफ कह दिया था कि जब तक मुख्यमंत्री अखिलेश यादव नहीं आते तब तक अंतिम संस्कार नहीं होगा। आखिरकार मुख्यमंत्री को आना ही पडा । इसके बाद काग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर लगभग सभी छोटे बड़े दलों के नेता सांत्वना देने पहुंचे थे इतना ही नहीं मुस्लिम धर्म गुरू बुखारी भी अपनी संवेदना प्रकट करने जुआफर पहुंचे थे। लेकिन दुर्भाग्य कि रामदरश के परिजन को ढांढस बंधाने कोई धर्माधिकारी या राजनेता नहीं पहुंचा। इसकी वजह साफ है कि रामदरश न तो इस देश का कोई सरकारी नौकर था न ढंग का हिंदू ही था न मुसलमान था। वह था तो सिर्फ अनुसूचित जनजाति में पैदा हुआ एक मजदूर जो अपनी मेहनत के बूते पर अपनी जिन्दगी की गाड़ी चला रहा था।
रामदरश की थाने में हुई मौत ने इस अमानवीय समाज व संवेदनहीन पुलिस की कलई पूरे सभ्य समाज के सामने खोलकर रख दी है। इस घटना ने पुलिस के चरित्र को बेपर्द किया है वहीं राजनेताओं की वर्गीय पक्षधरता को भी उजागर कर दिया है। समाजवादी पार्टी के राज में आए दिन पुलिसिया उत्पीड़न की घटनाएं हो रही हैं इसके बावजूद सरकार पुलिस के व्यवहार में परिवर्तन करा पाने में सक्षम नहीं हो पा रही है और जनता के प्रतिरोध का दमन करने के लिए हर समय तैयार रहती है।
खुखुन्दू में घटी इस घटना ने हमारे समाज में मौजूद अंधविश्वास पूर्ण माहौल को भी उद्घाटित किया है। रामदरश की मौत के पीछे की मुख्य वजह अंधविश्वास ही है। टोना-टोटका की वजह से दोनों पट्टीदारों के बीच विवाद उतपन्न हुआ था जो आगे चलकर एक निर्दोष की मौत के रूप में सबके सामने आया। यदि समय रहते प्रशासन ने पीडि़त परिवार की फरियाद सुन ली होती और टोना-टोटका का आरोप लगाने वाले के खिलाफ अंधविश्वास फैलाने के आरोप में कानूनी कार्रवाई कर दी होती तो शायद इतनी बड़ी वारदात नहीं होती। हालांकि पुलिस ने रामदरश के मरने के बाद आरोपियों के खिलाफ मुकदमा कायम कर लिया है। परिजनों का साफ आरोप है कि दरोगा के पीटने से ही रामदरश की मौत हुई है। विरोधी पक्ष से पैसे लेकर पुलिस ने काम किया परिजन का कहना हैं कि वे पुलिस के दरवाजे पर न्याय मांगने गये थे लेकिन निर्दयी पुलिस ने मौत दी और मरने के बाद फरियाद सुनी।
घटना के बाद से ही स्थानीय खुखुन्दू कस्बे में विभिन्न संगठनों के द्वारा आन्दोलन जारी है। थाना घेराव, पुतला दहन, धरना प्रर्दशन, सभा आदि की कार्यवाही प्रतिदिन हो रही है। आन्दोलनकारी न सिर्फ पीडि़त परिजन को 30 लाख रु. मुआवजा व सरकारी नौकरी की मांग कर रहे हैं। बल्कि आरोपी दरोगा पर हत्या का केस दर्ज करने, पुलिस अधीक्षक को निलम्बित करने व प्रदेश सरकार से इस्तीफा तक की मांग कर रहे है। इस पूरे घटनाक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए प्रवक्ता डाक्टर चतुरानन का कहना है कि प्रदेश पुलिस पूरी तरह बेलगाम हो गई है। आम जनता की आवाज कहीं नहीं सुनी जा रही है। स्थानीय नेताओं द्वारा इस घटना को नजरअंदाज करना बेहद शर्मनाक है। टोना-टोटका वाले इस मामले को मौत तक पहुंचाने में प्रशासनिक अधिकारी भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। उनका कहना है कि पढ़े लिखे अधिकारी व उनकी पत्नियां दर्जनों पत्थरों की अंगूठी धारण करती हो तथा देश की शिक्षा मंत्री तांत्रिकों के पास हाथ दिखाने पहुंचती हो तो यह अंधविश्वास को बढावा देने वाला ही है। इन्हीं अंधविश्वासी लोगों को देश चलाने की जब जिम्मेदारी दे दी जाऐगी तो ऐसी घटनाएं तो होगी हीं। अब देखना यह है कि प्रदेश की समाजवादी सरकार पीडि़त परिजन को आर्थिक मदद और नौकरी आदि की व्यवस्था करती है या नहीं। देश की आम जनता ने तो इन सरकारों से सम्मानजनक रोजगार आदि की उम्मीद तो छोड़ ही चुकी है लेकिन रामदरश के परिजन को अभी भी सरकार से काफी उम्मीदें हैं। देवरिया संवाददाता
शहीद ऊधम सिंह की याद में सभा
वर्ष-18, अंक-16(16-31 अगस्त, 2015)
रुद्रपुर/ 31 जुलाई को शहीद ऊधम सिंह की शहादत दिवस के अवसर पर इंकलाबी मजदूर केन्द्र द्वारा अन्य संगठनों व ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर ‘कौमी एकता मंच’ के बैनर तले डी.एम. कोर्ट परिसर में एक सभा की और शहीद ऊधम सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित की गयी। सभा में बोलते हुए इंकलाबी मजदूर केन्द्र के अध्यक्ष कैलाश भट्ट ने कहा कि ऊधम सिंह अपने जीवनपर्यन्त साम्राज्यवाद से लड़ते रहे और अंततः शहीद हो गये। लेकिन वर्तमान में देश की सरकारें साम्राज्यवाद के तलुवे चाट रही हैं और उन्हें पूरे देश की खनिज सम्पदा व मानव श्रम को लूटने की खुली छूट दे रही हैं।
ऊधम सिंह ने कहा कि साम्प्रदायिकता का विष मजदूर मेहनतकशों की एकता में बड़ी बाधा है। मजदूर मेहनतकशों को साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़कर अपनी एकजुटता बरकरार रख मानवमुक्ति के संघर्ष में लगना चाहिए। उन्होंने खुद उस समय अपना नाम ऊधम सिंह से बदलकर राम मोहम्मद सिंह आजाद रखा था। वर्तमान में मजदूर मेहनतकशों के ऊपर साम्प्रदायिकता का खतरा बढ़ता जा रहा है। मोदी सरकार एक तरफ श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलाव कर रही है और अनेकों जन विरोधी कानूनों को बना रही है दूसरी तरफ पूरे देश में साम्प्रदायिक विचारों को फैला रही है जिससे कि मजदूर मेहनतकश एकजुट न हो सकें और सरकार के खिलाफ संघर्ष न चला सकें।
क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन के अध्यक्ष पी.पी.आर्या ने कहा कि देश के मेहनतकश आबादी में सबसे बड़ी आबादी मजदूरों की है इसलिए मजदूरों को शहीद भगतसिंह एवं ऊधमसिंह के विचारों पर खड़ा करना होगा तभी मोदी सरकार के साम्प्रदायिक विचारों एवं जनविरोधी कानूनों के खिलाफ लड़ा जा सकता है।
सभा को इंकलाबी मजदूर केन्द्र के दिनेश, पछास के चंदन, सीपीआई जिला सचिव एड. राजेन्द्र गुप्ता, प्रेरणा अंशु के सम्पादक मा. प्रताप सिंह, मजदूर सहयोग केन्द्र के मुकुल, एरा श्रमिक संगठन के राजेन्द्र, शिरडी श्रमिक संघ के सुशील शर्मा, सामाजिक कार्यकर्ता प्रभुनाथ वर्मा जी, ऋषिपाल, आॅटोलाइन के संघर्षरत मजदूरों अनिल गुणवंत, संजय कोटिया, ठेका मजदूर कल्याण समिति के अभिलाख आदि साथियों ने सम्बोधित किया। क्रांतिकारी गीतों व नारों के साथ शहीद ऊधम सिंह को माल्यार्पण कर श्रद्धांजलि भी अर्पित की गयी। रुद्रपुर संवाददाता
सरकारी स्कूलों में मजदूरों के बच्चों की जान जोखिम में
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
दिल्ली के शाहबाद डेयरी स्थित उच्चतर माध्यमिक स्कूल, जिसे लोग लाल स्कूल के नाम से भी जानते हैं, में पिछले कुछ समय से लगातार छात्रों को करंट लग रहा है। लेकिन जब 16 जुलाई को सुबह की शिफ्ट में एक साथ आठवीं कक्षा की चार छात्राओं को करंट लगा और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा तो बच्चों के परिजनों के सब्र का बांध टूट गया। परिजनों के साथ स्थानीय लोगों ने इस घटना के विरोध में मुख्य बवाना रोड को जाम कर दिया।
शाहबाद डेयरी, जहां यह सरकारी स्कूल स्थित है, एक मजदूर बस्ती है। यहां बड़ी संख्या में दिहाड़ी व ठेका मजदूर रहते हैं। बस्ती की 75 से 80 प्रतिशत महिलायें फैक्टरियों व कोठियों में काम करने जाती हैं। इन्हीं गरीब मजदूरों के बेटे-बेटियां इस व इस जैसे अन्य सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं।
पिछले तीन-चार दिनों से लाल स्कूल में पानी के नल में व उसके आस-पास करंट आ रहा था। प्यास लगने पर बच्चे इसी नल पर पानी पीने जाते हैं।
16 जुलाई को भी बच्चे रोज की तरह पानी पीने गये तभी चार छात्राओं को करंट लग गया। इस बार करंट इतनी तेज लगा कि चारों बच्चों को स्थानीय भीम राव अम्बेडकर अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। एक छात्रा को सप्ताह भर अस्पताल में ही भर्ती रहना पड़ा। करंट लगने से इस छात्रा के दाहिने हाथ व पैर ने काम करना बंद कर दिया था। करंट लगने से जख्मी सभी लड़कियां आठवीं कक्षा की छात्रायें हैं। जब प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र व इंकलाबी मजदूर केन्द्र के कार्यकर्ता छात्राओं व उनके परिजनों से मिले तो उन्होंने बताया कि पिछले तीन-चार साल से बरसात के दिनों में स्कूल में बच्चों को करंट लगता है परन्तु प्रशासन ने इसे ठीक कराने की कोशिश नहीं की। हर साल बरसात के बाद बात आई-गई हो जाती है।
इस बार जब 13 साल की मुस्कान तेज करंट लगने से बेहोश हो गई तब प्रिंसिपल व अन्य अध्यापिकायें उसे स्टाफ रूम में ले गईं। स्कूल द्वारा छात्राओं के परिजनों को सूचना नहीं दी गई, न ही किसी अन्य को सूचना देने दी। प्रिंसिपल व अध्यापिकाओं ने बच्चों को घटना की सूचना घर में नहीं देने के लिए फेल करने व स्कूल से नाम काटने की धमकी भी दी। मुस्कान की बड़ी बहन, जो उसी स्कूल में 12वीं कक्षा की छात्रा है, ने स्कूल की ही प्राइवेट अध्यापिका के फोन से चुपके से घटना की सूचना अपने परिजनों को दी। अध्यापिकाओं द्वारा बच्चों को घटना के बारे में घर में न बताने के लिए धमकी दी गई। स्कूल की अध्यापिकाओं का कहना है कि प्रिंसिपल किसी की समस्या या परेशानियों को नहीं सुनती हैं।
16 जुलाई को स्कूल की छुट्टी होने पर जब छात्राओं के परिजनों को अन्य छात्राओं द्वारा घटना के बारे में बताया गया तब परिजनों ने पुलिस को फोन कर घटना की सूचना दी। पुलिस द्वारा ही इन छात्राओं को अस्पताल में भर्ती कराया गया।
परिजनों ने बताया कि छात्राओं के अस्पताल में भर्ती होने के बाद प्रिंसिपल ने अपने भाई व तीन अन्य लोगों को अस्पताल में बच्चों के परिजनों को धमकाने के लिए भेजा। उन्होंने परिजनों पर नौकरी व अपने बच्चों का हवाला देते हुए भावनात्मक दबाव भी बनाया तथा शिकायत लेने की बात की।
इस घटना के बाद जब 20 जुलाई सोमवार को स्कूल खुला तब फिर एक और छात्रा को करंट लगा परन्तु पहली घटना से सबक न लेते हुए समस्या को दूर करने के बजाय बच्चों के स्कूल की छुट्टी कर दी गई। मजदूर बस्ती शाहबाद डेयरी के इस सरकारी स्कूल की हालत की सुध लेने वाला कोई नहीं है। ‘मीडिया’ के लिए भी इस तरह की घटनायें खास महत्व नहीं रखतीं हैं। प्रशासन व सरकार के लिए भी सरकारी स्कूलों की ये दुर्दशा कोई मायने नहीं रखती है। उनके लिए मजदूर बस्ती में एक सरकारी स्कूल होना ही अपने आप में बड़ी उपलब्धि है, बाकी उनके लिए न तो मजदूरों की जान की कोई कीमत है और न ही उनके बच्चों की।
तथाकथित आम आदमी की सरकार के पास भी मजदूरों के बच्चों और उनके स्कूलों की सुध लेने की फुरसत नहीं है क्योंकि उनके आम आदमी की परिभाषा में मजदूर-मेहनतकश नहीं आते। मजदूर मेहनतकश तो उनके आम आदमी से काफी नीचे हैं। दिल्ली संवाददाता
श्रम कानूनों में परिवर्तन पर विचार गोष्ठी
वर्ष 18, अंक-15(01-15 अगस्त, 2015)
केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की संघी सरकार ने अपने एक साल के कार्यकाल में श्रम कानूनों में कई बड़े फेरबदल प्रस्तावित कर दिये हैं। ये सभी फेरबदल पूंजीपतियों के संगठनों की वर्षों से की जा रही मांगों एवं द्वितीय श्रम आयोग की 2002 में आई सिफारिशों के अनुरूप ही हैं। यदि सरकार श्रम कानूनों में इन बड़े बदलावों को लागू करने में कामयाब हो जाती है तो मजदूर वर्ग आज से 100 साल पुरानी अधिकार विहीनता की स्थिति में धकेल दिया जायेगा। ऐसे में मजदूरों को पूंजीपति वर्ग की सरकार के इस ताजा हमले से परिचित कराने एवं मजदूर प्रतिरोध संगठित करने के उद्देश्य से इंकलाबी मजदूर केन्द्र ने गुड़गांव (हरियाणा) में ‘श्रम कानूनों में परिवर्तन’ विषय पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया। मारूति सुजुकी वर्कर्स यूनियन, गुड़गांव के साथियों ने गोष्ठी के सफल आयोजन में महती भूमिका अदा की।
उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के वकील संजय घोष ने अपने वक्तव्य में बताया कि श्रम कानून क्या होते हैं और ये किस तरह अस्तित्व में आये। उन्होंने बताया कि कई महत्वपूर्ण कानून जैसे -ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926, वेतन भुगतान अधिनियम, 1936, एवं कारखाना अधिनियम, 1947 ...देश का संविधान बनने से पूर्व ब्रिटिश काल में ही अस्तित्व में आ चुके थे। उन्होंने मजदूर वर्ग के लिए इन कानूनों के महत्व पर प्रकाश डाला साथ ही इसकी संक्षिप्त विवेचना भी की, कि कैसे सरकार इसमें बदलाव कर पूंजीपति वर्ग का हित साध रही है।
अनुमेघा यादव जो कि पत्रकार हैं और मजदूरों से जुड़े मसलों पर लेखन करती हैं, ने बताया कि सरकार का इरादा 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को खत्म कर इनके स्थान पर 4 नियमावलियां बनाने का है। ये 4 नियमावलियां वेतन सम्बन्धी, औद्योगिक संबंधी, सामाजिक सुरक्षा एवं संरक्षा संबंधी एवं कल्याण संबंधी होंगी। औद्योगिक संबंध सम्बन्धी नियमावली में ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926, स्टैण्डिंग आर्डर एक्ट 1946 एवं फैक्टरी एक्ट 1947 को समाहित करने की सरकार की योजना है। उन्होंने बताया कि राजस्थान की बसुंधरा राजे सरकार ने 300 मजदूरों तक के उद्यमों में सरकार की इजाजत के बिना तालाबंदी की छूट देकर फैक्टरी एक्ट में संशोधन को लागू भी कर दिया है। पहले यह छूट 100 मजदूरों तक ही थी, अब केन्द्र सरकार पूरे देश के स्तर पर पूंजीपतियों को यह छूट देने की तैयारी कर रही है।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र के रोहित ने कहा कि नरेन्द्र मोदी की सरकार ने सत्ता में आने के 2 माह के अंदर ही 5 केन्द्रीय कानूनों- न्यूनतम वेतन अधिनियम, कारखाना अधिनियम, अप्रेन्टिस एक्ट, कुछ उद्यमों में रिटर्न भरने एवं रजिस्टर रखने से छूट सम्बन्धी अधिनियम एवं बालश्रम विनियमन एवं उन्मूलन कानून में संशोधन प्रस्तावित कर दिये। ये संशोधन, लगभग सभी मजदूर विरोधी हैं। इनमें से अप्रैन्टिस एक्ट में संशोधन लोकसभा से बिना किसी परेशानी के पास भी हो चुका है। उन्होंने बताया कि इन बदलावों के तहत सरकार ने कारखाने की परिभाषा को ही बदल दिया है। अभी तक हस्तचालित 20 मजदूरों एवं बिजली चालित 10 मजदूरों पर कारखाना माना जाता है लेकिन नये संशोधनों के तहत हस्तचालित 40 मजदूरों एवं बिजली चालित 20 मजदूरों पर कारखाना माना जायेगा। बाकी उद्यम लघु उद्योगों के दायरे में आयेंगे और उन पर कारखाना अधिनियम या फैक्टरी एक्ट लागू ही नहीं होगा। उन्होंने 44 केन्द्रीय कानूनों को 4 नियमावलियों में समेट देने की सरकार की योजना पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि यदि सरकार इसमें कामयाब हो गई तो मजदूरों को हड़ताल के लिए 14 के बजाय 42 दिन का नोटिस देना होगा अन्यथा हड़ताल अवैध मानी जायेगी। अवैध हड़ताल में शामिल मजदूरों पर भारी-भरकम जुर्माना लगेगा और जेल भी हो सकती है। इतना ही नहीं अवैध हड़ताल को समर्थन देने वाले या चंदा देने वाले व्यक्तियों को भी भारी-भरकम जुर्माना देना होगा एवं जेल भी हो सकती है। इसके अलावा ट्रेड यूनियनों की कागजी कार्यवाही एवं हिसाब-किताब में मामूली त्रुटि होने पर भी उनका पंजीकरण रद्द हो सकता है।
गोष्ठी में बोलते हुए पी.यू.डी.आर.(पीपुल्स यूनयिन फाॅर डेमोक्रेटिक राइट्स) के पदाधिकारी गौतम नवलखा ने मारूति सुजुकी मानेसर के आंदोलन पर विस्तार से बातचीत की। उन्होंने मारुति के विनिवेशीकरण की प्रक्रिया को सिलसिलेवार सदन में रखा। उन्होंने कहा कि मारुति सुजुकी, मानेसर के मजदूरों ने अपने आंदोलन में ठेका, कैजुअल और स्थायी के विभाजन को मिटाकर नजीर पेश की है। उन्होंने मजदूरों का अभिजात एवं बाकी मजदूरों के रूप में विभाजन करने वालों की आलोचना की।
गोष्ठी के अंत में बोलते हुए प्रो.प्रभु महापात्र ने पूर्व वक्ताओं की महत्वपूर्ण बातों को संक्षेप में समेटते हुए श्रम कानूनों में परिवर्तन की सरकार की मंशा को उजागर किया। उन्होंने श्रम कानूनों पर ऐतिहासिक रूप से विस्तार से बातचीत की। उन्होंने एक दौर में श्रम कानूनों के अस्तित्व में आने एवं आज उन पर हो रहे हमलों के वर्गीय निहितार्थ को स्पष्ट किया, साथ ही राजसत्ता की भूमिका पर प्रकाश डाला।
विचार गोष्ठी में मारुति वर्कर्स यूनियन, गुड़गांव के प्रधान कुलदीप जांगू ने भी अपने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम में मारुति सुजुकी समेत गुड़गांव मानेसर, फरीदाबाद की कई फैक्टरियों के मजदूरों ने भागीदारी की और श्रम कानूनों में परिवर्तनों के खिलाफ संगठित प्रतिरोध का संकल्प व्यक्त किया।
गुड़गांव संवाददाता
मार्केट वर्कर्स एसोसिएशन ने दुकान से बंधुआ मजदूर को मुक्त कराया वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
बरेली में बड़ा बाजार में अमर पेन हाउस के नाम से एक दुकान है। इस दुकान पर हर्षित नाम का एक लड़का पिछले कई सालों से बंधुआ मजदूर की तरह काम कर रहा था। जब इस लड़के ने कहीं और काम करना चाहा तो मालिक ने उस पर 25,000 रुपये उधार निकाल दिये और काम न छोड़ने के लिए दबाव बनाने लगा।
हर्षित जब काम पर लगा था तब मालिक ने उसके घर वालों से 3000 रुपये प्रति माह वेतन देने को कहा था लेकिन वेतन मांगने पर कभी 100, 200 या 500 रुपये देता था। दुकान पर समोसा या चाय पिलाने के भी रुपये वह लिख लेता था। उसने उसका बीमा भी करवा दिया था और किस्त भी स्वयं भरता था ताकि वह कहीं और काम करने न चला जाये। जब हर्षित बड़ा हुआ तो उसने बेहतर मजदूरी के लिए कहीं और काम करना चाहा तो मालिक ने पिछले समय में उस पर खर्च किये गये रुपये जोड़कर 25,000 रु. देनदारी बता दी जिसे चुकाने में हर्षित व उसके परिवार वाले असमर्थ थे। लेकिन उसने हर्षित के 3000 रुपये की मासिक वेतन को नहीं जोड़ा। जब हर्षित ने काम पर जाना बंद कर दिया तो उसने उसके घरवालों को धमकाना शुरू कर दिया।
अंत में परेशान होकर हर्षित अपनी मां के साथ मार्केट वर्कर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष जे.पी. के पास पहुंचा और अपनी आपबीती सुनायी। यह सुनकर मार्केट वर्कर्स एसोसिएशन के पदाधिकारी हर्षित को लेकर थाने पहंुचे। थाने से दुकान के मालिक को बुलवाया गया लेकिन उसने आने से इंकार कर दिया। अंत में सिपाही भेजकर उसे बुलाया गया। पहले तो उसने हर्षित को पहचानने से इंकार कर दिया और कहा कि यह लड़का उसकी दुकान पर काम नहीं करता लेकिन जब उसे उसकी लिखावट में उसका दिया गया हिसाब दिखाया गया जो उसने हर्षित को दिया था तो उसने स्वीकार किया कि यह उसकी दुकान पर पार्ट टाइम काम करता था।
तब तक बाजार में खबर फैल गयी और दुकानदार के पक्ष में व्यापार संगठन व अन्य लोग आ गये। थाने में पूरा दिन हिसाब-किताब होता रहा। दुकानदार के पक्ष वाले बदतमीजी भी करने लगे। अंत में थानेदार की मध्यस्थता में समझौता हुआ और दुकानदार को लिखकर देना पड़ा कि आज से लड़के से उसका कोई वास्ता नहीं है। और वह कहीं भी काम करने के लिए आजाद है। इस तरह मार्केट वर्कर्स एसोसिएशन की मदद से हर्षित जो कि दुकानदार के यहां बंधुआ मजदूर बना हुआ था, को मुक्त कराया गया।
बरेली, संवाददाता
मलेथा के आंदोलन ने उत्तराखण्ड सरकार को झुका दिया
वर्ष-18, अंक-14(16-31 जुलाई, 2015)
उत्तराखण्ड के पौड़ी जनपद के मलेथा में स्टोन क्रशरों को निरस्त करने के लिए स्थानीय ग्रामीणों ने 13 अगस्त 2014 से आंदोलन शुरू किया। 11 माह से आंदोलन कई पड़ावों से गुजरते हुए वर्तमान में उत्तराखण्ड सरकार मलेथा में पांचों क्रशरों को निरस्त कर दिया है।
मई 2015 मंे मलेथा की महिलाओं ने क्रशरों के निरस्तीकरण के लिए क्रमिक अनशन शुरू किया। 12 मई से विमला देवी व देव सिंह नेगी ने क्रमिक अनशन कर आंदोलन को गति दी। 25 मई को हेमन्ती नेगी का आमरण अनशन शुरू हुआ जिसे पुलिस प्रशासन द्वारा 6 जून को जबरन उठाकर अन्य महिलाओं पर भी बर्बरतापूर्ण लाठी चार्ज किया गया। 6 जून से ही समीर रतूड़ी आमरण अनशन पर बैठ गये। 7 जून को ग्राम प्रधान शूरवीर सिंह ने भी आमरण अनशन शुरू कर दिया। 27 जून से 8 महिलाओं ने भी आमरण अनशन शुरू किया। 30 दिन तक समीर रतूडी द्वारा आमरण अनशन करने व महिलाओं की आंदोलन में शानदार भूमिका ने मुख्यमंत्री को स्टोन क्रशरों के निरस्तीकरण करने के आदेश देने पड़े।
मलेथा का आंदोलन का नेतृत्व गैर सरकारी संगठनों के हाथ में था। परन्तु संघर्ष करते हुए ग्रामीणों को शासन, प्रशासन सभी के चरित्रों को समझने व राज्य मशीनरी का पूंजीपतियों व उद्योगपतियों के साथ सीधे खड़े होकर जनता के खिलाफ किसी भी हद तक दमनात्मक कार्यवाही पर उतर सकती है, जानने को मिला। आंदोलन में सकारात्मकता के साथ कुछ नकारात्मक भटकाव भी समय-समय पर देखने को मिले। जैसे समस्या को व्यवस्था के खिलाफ न खड़ा करके उत्तराखण्ड बनाम गैर उत्तराखण्ड में देखना। समस्या को पूंजीवाद से जोड़कर न देखकर कुछ विशिष्ट समस्या से जोड़कर आंदोलन को विकसित करना। इस समस्या से पूरा संघर्ष संकुचित होकर रह जाता है। संघर्ष का वृहद रूप नहीं बन पाता है। इसके अलावा खुद समस्या पैदा करने वाले कई तरह के एनजीओ व व्यवस्थापोषक लोगों का स्पष्ट चिह्ननीकरण नहीं था। सबको साथ लेकर एक खिचड़ी था।
मलेथा ग्रामवासी अपने संघर्ष के दौरान के अनुभव से जानते हैं कि सरकार के वादों का क्या हस्र होता है। सरकार इससे पहले भी 11 महीने में दो बार (22 सितम्बर 2014 व 13 फरवरी 15) स्टोन क्रशरों को बंद करने की घोषणा कर चुकी है किन्तु माफिया की सत्ता पर जबर्दस्त दखल के कारण ये बंद नहीं हो पाये।
मलेथावासियों को सरकार-माफिया-अधिकारी गठजोड़ के खिलाफ व्यापक संघर्ष खड़ा करना होगा। अपने गांव के संघर्ष को देश की पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ जोड़ना होगा। तभी मेहनतकशों के जीवन में कोई बदलाव हो सकता है। विशेष संवाददाता
अशोक लिलैण्ड के मजदूरों को आक्रोश फूटा
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
सिडकुल पंतनगर (रुद्रपुर) में एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी अशोक लिलैण्ड भारतीय व जापानी पूंजी का साझा उपक्रम है। जहां सही प्रोडक्शन होने पर करीब 7000 मजदूर स्थायी, ट्रेनी व ठेकेदार के काम करते हैं। इस कंपनी में बस, ट्रक व डम्पर के साथ-साथ छोटी व मध्यम ‘वास’ व ‘दोहत’ जैसी गाडि़यां बनायी जाती हैं। यहां पर एनटीटी व ओपन यूनिवर्सिटी के माध्यम से टेक्नीकल छात्रों को पढ़ाया जाता है व उनसे प्रोडक्शन में काम लिया जाता है। यहां लगभग 50 के करीब ठेकेदार हैं जिनके द्वारा आईटीआई, पाॅलिटेक्नीक की भर्ती ट्रेनी के नाम पर की जाती है जिसमें से कुछ ट्रेनी व छात्रों को कंपनी में स्थायी भी किया है।
जैसे-जैसे प्रोडक्शन बढ़ता गया वैसे-वैसे अनट्रेन्ड लोगों की भी भर्ती बढ़ती गयी और वे काम सीख कर एक कुशल मजदूर भी बन गये पर उनका वेतन अकुशल मजदूर का ही रहा। बहुत कम लोगों को कुशल की ट्रेनिंग के नाम पर वेतन 10 से 12 हजार दिया जा रहा है। कुछ ठेके के मजदूर जो कि चार या तीन साल पुराने हैं जिनका वेतन आठ हजार के करीब है व नई भर्ती का वेतन 6 से सात हजार के बीच है।
अभी जून मध्य में फैक्टरी में अफवाह फैली कि आईटीआई की सैलरी साढ़े सात हजार होगी व ठेके के मजदूर की 6 हजार से ज्यादा नहीं होगी वह चाहे नया हो या पुराना। ऐसे में जो तीन चार साल पुराने ठेके के मजदूर हैं जिनका वेतन आठ नौ हजार के करीब है, उन्हें धक्का लगना लाजिमी था जिनकी संख्या लगभग 250 के करीब होगी। इन्होंने कम्पनी के अंदर ही हल्ला-गुल्ला शुरू कर नारेबाजी करते हुए फैैक्टरी गेट पर व गेट के बाहर मैनेजमेंट के खिलाफ नारेबाजी करते रहे। पुलिस के आने पर सब शांत हो गया और सब अपने घर चले गये। दूसरे दिन ड्यूटी टाइम पर 8 बजे से पहले ही भारी पुलिस बल को देखकर जो मजदूर नारेबाजी करना चाह रहे थे शांत हो गये फिर भी एच आर वालों ने जोकि वहां पहले से मौजदू थे, लड़कों को आश्वासन दिया कि कोई वेतन में कटौती नहीं होगी। उस वक्त मजदूर काम पर चले गये जिसमें कुछ मजदूरों ने अपनी छंटनी के डर से भी विरोधी लड़कों का साथ नहीं दिया।
कंपनी के अंदर दो कैण्टीन हैं। एक कंपनी एम्प्लाइज की व एक ठेके के मजदूरों की। दोनों जगह खाने की गुणवत्ता अलग-अलग है। यह तरीका कंपनी में इंसानों को दो वर्गों में विभाजित कर देता है। ठेका मजदूरों की कैण्टीन में रोटी की किनारियां इतनी टाईट होती हैं कि मजदूर रोटी की किनारियों को तोड़कर मेजों पर ढेर लगा देते हैं। पांच से तीन रोटी ही खाने को मिलती हैं, किसी मजदूर का दो थाली से भी पेट नहीं भरता क्योंकि एक चम्मच चावल, दाल, सब्जी, पांच रोेटी से ज्यादा नहीं मिलता है जो अधिकतर मजदूरों के लिए पर्याप्त नहीं है। वहां पर इन पुराने मजदूरों का विरोध देखने को नहीं मिलता है क्योंकि ये मजदूर ज्यादा पुराने होने से एक तो परमानेन्ट के मुंह लगे हैं व नये मजदूरों के साथ गाली के साथ बात करते हैं और अपना काम भी उनसे लेना अपनी होशियारी समझते हैं।
यहां बाम्बे वर्मा हाॅस्पीटल के द्वारा एक डिस्पेन्सरी, कंपनी में चलायी जाती है जहां 12 घण्टे की दो शिफ्टों में एक डाक्टर रात में, एक दिन में जिसके साथ एक फार्मासिस्ट व एक एम्बुलेंस ड्राइवर रहते हैं। ये डिस्पेंसरी ठेका मजदूरों की परेशानी में सुस्त पड़ी रहती है। स्थायी या ट्रेनी की परेशानी में ही सक्रिय दिखती है। वहां पर इन पुराने ठेका मजदूरों का कोई विरोध दिखाई नहीं देता है।
एच आर के द्वारा सभी ठेकेदारों को आदेश है कि कोई भी ठेका मजदूर 6 महीने से ज्यादा न रहे। ब्रेक दे दो किन्तु कंपनी में अधिकतर प्रोडक्शन कम या ज्यादा होने से भर्ती पर भी असर पड़ता रहता है। किसी को चार-पांच साल के बाद भी ब्रेक नहीं दिया जाता। अधिकतर को दो-तीन महीने पर ही ब्रेक दे दिया जाता है। दूसरा उनकी एक दो दिन की हाजिरी भी गायब कर दी जाती है। अधिकतर का पीएफ काटने के बाद भी जमा नहीं किया है। इस सब पर इन पुराने मजदूरों का कोई विरोध देखने को नहीं मिलता।
एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी होने के बावजूद भी यहां पर मजदूरों के साथ बुरा व्यवहार होता है। मैनेजमेण्ट ने इतना शातिराना मकड़जाल बिछाया है कि कंपनी में लोगों के हाथ-पांव कटते-टूटते रहते हैं। इन दुर्घटनाओं का किसी अखबार में कोई जिक्र नहीं होता और यहां के पुराने मजदूरों का विरोध भी दिखाई नहीं देता। दूसरा कोई भी विरोध होता भी है वह वहीं दफा कर दिया जाता है।
दूसरा यहां के मजदूरों का ‘मजदूर राजनीति’ से कोई सरोकार नहीं है। स्वतः स्फूर्त विरोध ये दिखाता है कि पूंजी का हमला जब जीवन पर होता है तो वह विरोध कारगार नहीं होता है। यह यहां के मजदूरों ने सिद्ध कर दिया है।
मोदी सरकार मालिकों व प्रबंधकों को श्रम कानून के सुधार के नाम पर मजदूरों पर खुला हमला करने की छूट और मजदूर चूं भी न कर सके इसकी व्यवस्था कर रही है। इसलिए यहां के वह चाहे ‘स्थायी मजदूर’ हों या ‘ठेका मजदूर’ जब तक दोनों मिलकर किसी क्रांतिकारी मजदूर संगठन के नेतृत्व में मजदूर राजनीति से लैस नहीं होते हैं तो उनका विरोध कारगर साबित नहीं होगा। अतः मजदूरों के ‘विरोध’ आने वाले श्रम कानून के सुधार के नाम पर होते रहेंगे पर वे सफल कम असफल ज्यादा होंगे। अतः अशोक लिलैण्ड के स्थायी व ठेका मजदूरों को देश, दुनिया यहां तक कि सिडकुल पंतनगर की फैक्टरियों में हो रहे आंदोलन से सबक लेते हुए समय रहते अपनी मजदूर राजनीति की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए जिससे वह आने वाले पूंजी के हमले का मुकाबला कर सकें। अगले संघर्ष के लिए अपने को बचा सकें। अन्यथा बिना तैयारी के विरोध प्रदर्शन से हताशा के सिवा कुछ नहीं मिलेगा।
रुद्रपुर संवाददाता
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
पंतनगर विश्वविद्यालय में पिछले 10-15 वर्षों से लगातार अति अल्प न्यूनतम मजदूरी पर कार्यरत ठेका मजदूरों को श्रम नियमानुसार देय अति आवश्यक सुविधाएं नहीं दी जा रही हैं। इतने वर्षों से लगातार कार्यरत होने के बावजूद आज तक बोनस नहीं दिया गया। प्रशासन विश्व विद्यालय शिक्षण संस्था होने के नाते प्रशासन को उत्पादन से जुड़ा बोनस देने न देने की छूट है बावजूद अपने कर्मचारियों को तदर्थ बोनस देता है। पर ठेका मजदूरों को श्रम नियमों में छूट का बहाना बनाकर आज तक बोनस नहीं दिया। इसी तरह वि.वि. प्रशासन अपने सीधे नियोजित कर्मियों को अस्पताल से दवाई देता है पर ठेका मजदूरों को नहीं देता। इनसे अस्पताल पर्ची शुल्क अन्य कर्मियों से ज्यादा वसूली के बाद भी मात्र परामर्श दिया जाता है। अचानक स्वास्थ्य खराब होने पर इमरजेन्सी भर्ती शुल्क भी 50 रुपये की ज्यादा वसूली के बाद दवाई बाहर से ही खरीदनी पड़ती हैं, यहां ई.एस.आई. भी लागू नहीं की जा रही है। आवास की कोई व्यवस्था नहीं की जा रही है। वैध-अवैध के नाम पर मजदूरों द्वारा मेहनत से स्वयं की बनायी झोंपडि़यों को उजाड़ा जा रहा है। मजदूरों को कोई अवकाश सुविधा नहीं है और न ही महिला मजदूरों को अति आवश्यक प्रसूति अवकाश सुविधा। ये सब श्रम नियमों द्वारा देय है, मानवीय रूप से भी अति आवश्यक है पर ठेका मजदूर कल्याण समिति द्वारा अनेकों बार शासन-प्रशासन से अनुरोध किया गया। बावजूद आज तक कोई सुनवाई नहीं हुयी है।
वहीं दूसरी ओर विश्व विश्वविद्यालय में ठेका प्रथा लागू होने के कारण विश्वविद्यालय प्रशासन ठेकेदार को प्रति मजदूर की मजदूरी का 3.75 प्रतिशत सर्विस चार्ज एवं पूरी मजदूरी का 12.36 प्रतिशत सर्विस टैक्स के रूप में प्रति मजदूर प्रतिमाह रुपये 1000 से ज्यादा का भुगतान करता है। करीब 2000 मजदूरों की भुगतान राशि प्रतिमाह करीब 20 लाख रुपये, प्रतिवर्ष 2,50,00,000 भुगतान करता है। मई 2003 में ठेका प्रथा लागू होने से अब तक ठेकेदार को अनावश्यक रूप से करोड़ों का भुगतान हो चुका है जबकि निरर्थक ठेकेदार एक भी मजदूर की सप्लाई नहीं करता जिन मजदूरों की सप्लाई के नाम से करोड़ों का कमीशन लेता है वह यहीं के परमानेन्ट कर्मचारियों की संतानें पूर्व से ही कार्यरत हैं। कोई सर्विस नहीं देता। मजदूरों की भर्ती करना-निकालना, साक्षात्कार लेना, सुपरवीजन करना सब विश्वविद्यालय प्रशासन करता है।
ठेकेदार तनख्वाह में विलम्ब, ई.पी.एफ. फण्ड में हेराफेरी करता है। आज तक ई.पी.एफ. पासबुक पर्ची नहीं दी गयी और वहीं प्रशासन मजदूरों को बोनस, चिकित्सा, ईएसआई जैसी जरूरी सुविधायें देने में बजट का रोना रोता है। श्रम नियमानुसार विश्व विद्यालय में ठेका प्रथा समाप्त कर देना मजदूरों को विश्व विद्यालय कर्मी घोषित कर करोड़ों की राष्ट्र की सम्पत्ति का अपव्यय और लूट बंद करने, इस रकम को जनकल्याणकारी कामों में लगाने ठेका मजदूरों को आवास, चिकित्सा, ईएसआई, आदि जैसी जरूरी सुविधाएं दिये जाने का अनुरोध शासन-प्रशासन से लगातार पंतनगर वर्कर्स प्रशासन यूनियन एवं ठेका मजदूर कल्याण समिति द्वारा किया गया, पर प्रशासन द्वारा कुछ भी नहीं किया गया।
इतना ही नहीं उत्तराखण्ड शासनादेश नवम्बर 2011 के द्वारा संस्था में 10 वर्षों से निरन्तर कार्यरत दैनिक वेतन, तदर्थ, संविदा, नियत वेतन आदि पर कार्यरत कर्मियों को नियमित करने की बात की, नियमित भी किया गया उसके बाद उक्त शासनादेश को संशोधित कर शासनादेशानुसार दिसम्बर 2013 के द्वारा संस्था में निरन्तर 5 वर्षों की सेवा पर कर्मियों को लाभ देने की बात की गयी। पर ठेका मजदूरों की कोई बात नहीं की गयी और न ही विश्वविद्यालय प्रशासन ने शासन को बताया कि पिछले 10-15 वर्षों से कार्यरत मजदूरों के नियमितीकरण करने की कोई नीति बनायी जाये। यह शासन-प्रशासन द्वारा सरकारी संस्था में गरीब मेहनतकशों की उपेक्षा और श्रम नियमों का घोर उल्लंघन है।
ऐसा नहीं है, श्रम नियमानुसार अथवा उक्त शासनादेश द्वारा पिछले वर्ष 300 मजदूरों को नियमित किया गया एवं विश्वविद्यालय कैफे के मजदूरों सहित ‘चोपडा एवार्ड’ के तहत विश्व विद्यालय में हजारों मजदूरों को नियमित किया गया है। यह सब मजदूरों के जुझारू संघर्षों के बल पर हासिल हुआ था। प्रशासन श्रम नियम लागू करने पर मजबूर हुआ था। पर आज असंगठित, बिखरा मजदूर आंदोलन, हमलावर शासन-प्रशासन के कारण इन मजदूरों के मामले में कानून मात्र किताबों की शोभा बढ़ा रहे हैं। ठेका मजदूरों के किसी काम नहीं आ रहे हैं। तमाम लिखा पढ़ी के बाद ठेका प्रथा समाप्त एवं श्रम नियमानुसार सुविधाएं दिये बिना ही प्रशासन द्वारा लिखित जबाव में (संविदा श्रम विनियमन एवं उत्पादन अधिनियम- 1970 के तहत ठेका प्रथा जायज है।) उपरोक्त शासनादेश चाहे दस वर्ष की सेवा उपरान्त नियमितीकरण की बात हो या पांच वर्ष की (शासनादेश के अनुसार) निरन्तर सेवा उपरान्त मजदूरों के नियमित करने का मामला हो दोनों शासनादेश में ठेका मजदूर कवर नहीं होते। इस सम्बन्ध में विश्व विद्यालय स्तर पर कोई कार्यवाही शेष नहीं है’’ यह वि.वि. प्रशासन ने चुनाव के समय अपने घोषणा पत्र में ठेका प्रथा को प्रतिबंधित किया जायेगा दर्ज करने वाली कांग्रेस राज्य सरकार से पूछ कर बताया है। इसमें प्रबंध परिषद अध्यक्ष, सदस्यों सहित, जनप्रतिनिधि क्षेत्रीय विधायक भी शामिल हैं।
जबकि ठेका मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1970 के तहत संस्था में कर्मचारी को एक कलेण्डर वर्ष में निरन्तर 240 दिन की सेवा उपरान्त ठेका प्रथा में नहीं रखा जा सकता, नियमित करना जरूरी है। पर वर्ष 1960 में स्थापित विश्वविद्यालय में पिछले 10-15 वर्षों से लगातार कार्यरत ठेका मजदूरों को नियमित नहीं किया जा रहा। ठेका प्रथा समाप्त नहीं की जा रही है। जो उक्त अधिनियम की अवमानना का घोर उल्लंघन व अपराध है।
मजदूरों का अथाह शोषण, राष्ट्र की सम्पदा की लूट जिसे प्रशासन जायज ठहराता है जो ठेकेदार एक भी मजदूर की भर्ती नहीं करता सर्विस नहीं देता, सुपरवीजन नहीं करता(यह सब व्यवहार में वि.वि. प्रशासन करता है) को शासन-प्रशासन सर्विस चार्ज, सर्विस टैक्स के नाम पर लाखों-करोड़ों की सरकारी राष्ट्र की सम्पत्ति को लुटाना, किताबों में दर्ज श्रम नियम लागू न करना या सरकार द्वारा श्रम सुधार के नाम पर श्रम नियमों को बेजान करना, एक अभियान के तहत जिन श्रम नियमों को मजदूरों ने अपने जुझारू संघर्षों के बल से हासिल किये थे, को खत्म किया जा रहा है। सरकार के कृत्यों से पूंजीपतियों, ठेकेदारों, दलालों की सम्पत्ति मुनाफा तथा मजदूर वर्ग का जीवन नारकीय बनाना, पूंजीपरस्त सरकार की पक्षधरता पूंजीपति वर्ग के पक्ष में जगजाहिर हो चुकी है।
आज पूंजीपति वर्ग की चुनावबाज पार्टियां, मजदूर फेडरेशन, ट्रेड यूनियनें विरोध की बजाय मालिकों के मुनाफे बढ़ाने मजदूरों की नारकीय स्थिति का तमाशा देख रही है तो अब भुक्त भोगी मेहनतकश मजदूर वर्ग को कानूनवाद से अलग हटकर अपनी नारकीय जीवन की स्थिति हालातों की जिम्मेदार पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा और मानव मुक्ति व्यवस्था मजदूर राज, समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के लिए अपने संगठन को मजबूत करना और क्रांतिकारी संघर्ष खड़े करना लाजिमी हो गया है। पंतनगर संवाददाता
वर्ष-18, अंक-13(01-15 जुलाई, 2015)
बलिया, 26जून 2015 को क्रान्तिकारी लोक अधिकार संगठन द्वारा ‘आपात काल के काले दिनों को याद करो, फासीवाद की ओर बढ़ते ‘अच्छे दिनों’ का विरोध करो! विषय पर गोष्ठी आयोजित की गयी। स्थानीय उच्च माध्यमिक विद्यालय उससा में विचार गोष्ठी में इन्कलाबी मजदूर केंद्र, किसान फ्रन्ट, एसयूसीआई सहित किसानों, मजदूरों के हमदर्दों ने भागीदारी की।
गोष्ठी के मुख्य वक्ता किसान फ्रन्ट के साथी जनार्दन सिंह ने कहा कि आज का समाज वर्गीय समाज है। वर्गेत्तर कुछ भी नहीं होता है। इसलिए आज की तानाशाही भी पूंजीवादी तानाशाही मेहनतकशों के लिए है। गोष्ठी में क्रान्तिकारी लोक अधिकार संगठन के साथी लालू तिवारी ने कहा कि आपातकाल की स्थितियां आजाद भारत की अर्थव्यवस्था की जड़ में ही था। 60 का दशक अर्थव्यवस्था का संकट था। उसकी अभिव्यक्ति खाद्यान संकट और रेलवे हड़ताल के रुप में देखा जा सकता है। आज लोकतांत्रिक तरीके से नहीं साम्प्रदायिक तरीके से तानाशाही आ सकती है। यह और खतरनाक है। विश्व के अन्य पूंजीवादी शासकों की तरह भारतीय शासकों ने भी फासीवादी ताकतों को सत्ता सौंपी है। पूंजीवादी शासकों द्वारा जनता का ध्यान बांटने की कई साजिशें की जा रही हैं।
गोष्ठी में बलवन्त, चन्द्रप्रकाश, साथी लछ्मी, जमाल राघवेन्द्र ने अपने विचारों में कहा कि पूंजीवादी
व्यवस्था को खत्म करके समाजवादी व्यवस्था के निर्माण में एकजुट होने की आवश्यकता है। गोष्ठी का संचालन डा. सत्यनारायण और क्रान्तिकारी गीतों से मुनीब यादव ने गोष्ठी में उत्साह का संचार किया। अन्त में ‘‘साम्राज्यवाद-पूंजीवाद- मुर्दाबाद और समाजवाद-जिन्दाबाद, इन्कलाब-जिन्दाबाद’’ के क्रान्तिकारी नारे के साथ गोष्ठी का समापन हुआ। बलिया संवाददाता
भारतीय किसान और पूंजीवादी व्यवस्था
वर्ष-18, अंक-12(16-30 जून, 2015)
2015 के पांच महीने बीत चुके हैं। इन चार महीनों में सबसे बड़ा मुद्दा किसानों द्वारा आत्महत्या करने का रहा। किसानों द्वारा आत्महत्या करने का कारण उनकी फसल का बरबाद होना था जो बेमौसम बारिश व ओलावृष्टि से तबाह हो गयी। किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर आत्महत्या करना समाज में हलचल का विषय बना और फिर पूंजीवादी बुद्धिजीवियों की लेखनी से पन्ने काले होने लगे। लेकिन यह काले होते पन्ने किसानों की फसलों के काले होते जाने के ही समान थे जिसका व्यवहार में कोई उपयोग मूल्य नहीं था।
भारतीय किसानों द्वारा पहले भी आत्महत्या के मामले सामने आते रहे हैं। जिनमें विदर्भ के किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले प्रमुखता से उठते रहे हैं। और तब भारतीय शासकों ने किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को मुआवजा प्राप्ति के लिए उठाया गया कदम बताया। भारतीय शासकों द्वारा दिया गया ऐसा बयान बेहद शर्मनाक था तथा निर्लज्जतापूर्ण भी। लेकिन अगर एक बारगी यह सच भी था तब भी मामला गंभीर हो जाता हैै कि कोई मुआवजा(पैसे) के लिए अपनी जान गंवा दे। क्या कोई अमीर पैसेे के लिए आत्महत्या करता है। अगर वह किसान मुआवजे की रकम के लिए आत्महत्या कर रहा था तो साफ था कि समाज में पैसे ने जिंदगी के ऊपर प्रधानता हासिल कर ली है। खैर अब हम मुख्य मुद्दे पर आते हैं।

और इस तरह से पूूंजीपति वर्ग के कुशल अभिनेता नरेन्द्र मोदी ने पूंजीवादी व्यवस्था को किसानों की दयनीय दशा की जिम्मेदारी से बचा लिया और सारा दोष सरकारों पर डाल दिया। उन्होंने यह नहीं बताया कि अगर सरकार किसानों की दुर्दशा के लिए लिए जिम्मेदार हैं तो सरकारों ने ऐसा क्यों किया। ऐसा करने से किसका फायदा हुआ। एक समय सरकार ने हरित क्रांति जैसी योजना शुरू कीं। बैंकों को यह निर्देश दिया कि वे अपने लोन का एक निश्चित हिस्सा ग्रामीण इलाकों में किसानों को कर्ज देने में करें, उसने न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया, एक समय नहरों के जाल बिछाये परन्तु बाद में किसानों को रामभरोसे छोड़ दिया।
आज भारत के अंदर किसानों की दुर्दशा व कृषि संकट को जानने समझने के लिए जरूरी है कि भारत में आजादी के बाद खेती व किसानों के जीवन में आ रहे परिवर्तनों को समझा जाये।
जब 1947 में भारत को आजादी मिली तो कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में सत्ता नेहरू ने संभाली। लेकिन साथ ही राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद बने जो जमींदारों के प्रतिनिधि थे। देश के नवोदित पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि के बतौर नेहरू का प्रधानमंत्री बनना और जमींदारों के प्रतिनिधि के बतौर राजेन्द्र प्रसाद का राष्ट्रपति बनना पूंजीपति वर्ग व जमींदारों के बीच अंतर्विरोध को दिखाता है। आजादी के बाद होना तो यह चाहिए था कि जमींदारों से भूमि छीनकर उनको भूमिहीनों में वितरण होना चाहिए था लेकिन संविधान के निर्माण के लिए बनी सभा में जमींदारों के 100 से अधिक प्रतिनिधि थे और इसीलिए संविधान में यह कानून न बन सका। हालांकि बाद में इन जमींदारों को प्रिवीपर्स देकर या फिर इन्हें पूंजीवादी फार्मर के नये सांचे में ढाला गया। कांग्रेस पार्टी ने किसानों को जमीन वितरण के मुद्दे पर साथ में लिया था लेकिन सत्ता में आते ही वह मुकर गयी। और इससे किसानों में तीव्र असंतोष पैदा हुआ। तेलंगाना व तिभागा जैसे आंदोलन इसी का परिणाम थे जिसे भारतीय शासक वर्ग ने काफी क्रूरता से कुचल दिया। इस तरह आजादी के बाद से ही किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ।
इसके बाद जब 1964 में अकाल पड़ा तो साम्राज्यवादी देश अमेरिका ने बेहद कड़ी व अपमानजनक शर्तों पर लाल गेहूं भारत को दिया। और तब भारतीय शासक वर्ग को किसानों की याद आयी। तब पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया। इस समस्या से निपटने के लिए भारत में हरित क्रांति शुरू की गयी। हरित क्रांति ने देश में खाद्यान्न संकट को हल तो किया परन्तु आगे जाकर यह ठहर गयी। इसको हम पंजाब में देख सकते हैं जो हरित क्रांति का एक प्रमुख केन्द्र था, वहां की एक बड़ी आबादी विदेशों में पलायन कर गयी। हरित क्रांति के ठहराव का कारण पूंजी निवेश का कम होना भी था। यह योजना चूंकि पुराने भूस्वामियों को पूंजीवादी फार्मर में बदलने व पूंजी निवेश पर आधारित थी अतः छोटे व मंझोले किसानों को इससे कोई ज्यादा फायदा नहीं हुआ। उनकी स्थिति लगातार खराब ही होती गयी। तथा परिवारों में जमीनों के बंटवारे ने उनकी संख्या व बदहाली को ही बढ़ाने का काम किया।
आज भारत में 1 हेक्टेअर से कम भूमि वाले किसानों की संख्या 71 प्रतिशत के आस-पास है। इनकी जोतों का आकार कम होने के कारण इन्हें खेती से इतनी आय भी प्राप्त नहीं होती है कि वे अपनी गुजर-बसर कर सकें। अगर आय के हिसाब से देखा जाए तो इन्हें खेती में लागत के मुकाबले आय काफी कम होती है और इसलिए ये किसान कृषि के अतिरिक्त मजदूरी आदि करने को मजबूर होते हैं।
खेती का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान तो गिरा ही है (1972-73 में यह 41 प्रतिशत था वहीं 2014-15 आते-आते यह घटकर 13 प्रतिशत रह गया है।) साथ ही खेती में प्रति व्यक्ति आय भी काफी कम रफ्तार से बढ़ी है। 1978-79 से 1983-84 के बीच कृषि से प्राप्त सालाना आय 9961 थी वहीं 1988-89 से 1993-99 के बीच यह 11179 व 1998-99 से 2003-04 के बीच यह 11996 थी।
अगर खेती में लगे रोजगार को देखा जाये तो यहां सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर कम हुयी है उसी अनुपात में खेती पर निर्भर लोगों की संख्या में कमी नहीं हुयी है। यहां 1972-73 में रोजगार में कृषि का हिस्सा 73.9 प्रतिशत था वहीं 2004-05 में यह 56.5 प्रतिशत था। इसकी वजह भारत का वह औद्योगिक विकास है जिसमें खेती से पलायन करने वाली वेशी आबादी के लिए पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाया। यह वेशी आबादी पूंजीपति के लिए रिजर्व आबादी का काम कर मजदूरी को और सस्ता कर दे रही है। जब कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा घटकर आधा रह जाये पर उस पर निर्भर आबादी में उसी अनुपात में कमी न हो तो उस आबादी की शोचनीय दशा को समझा जा सकता है।
साथ ही खेती में लगातार बढ़ रही लागत ने भी किसानों को बर्बादी की तरफ ढकेला है। खादों से सब्सिडी घटाने ने खेती में पूंजी निवेश को बढ़ा दिया है साथ ही कीटनाशक, पानी आदि में लागत तथा बढ़ी मजदूरी ने भी इसे बड़े निवेश का मामला बना दिया है। जिसके लिए बड़े किसानों को तो बैंकों से कर्ज मिल जाता है। तथा किसानों के नाम पर चलायी जा रही योजनाओं में से वे बड़ा हिस्सा डकार जाते हैं। परन्तु छोटे किसानों को सूदखोरों से कर्ज लेना पड़ता है। ये सूदखोर पुराने वाले सूदखोर नहीं हैं। इनमें माइक्रो फाइनेन्स कम्पनियां भी हैं जो 30 से लेकर 50 प्रतिशत तक पर कर्ज देती हैं। कुछ दिनों पहले सरकार ने इन सूदखोरों को संस्थागत करने की बात भी की थी।
खेती को पिछले दो दशकों में सरकारी नीतियों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है। हालांकि यह प्रक्रिया 1980-81 से ही शुरू हो गयी थी। लेकिन 1991-92 में जबसे नई आर्थिक नीतियों की घोषणा की गयी तब से खेती में सरकारी सहायता घटाकर उसे उद्योगों को देना शुरू कर दिया है। आंकड़े बताते हैं कि 1995-96 से खेती में सार्वजनिक निवेश घटा है और निजी पूंजी निवेश बढ़ा है। 1980-81 में कुल कृषि सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के तौर पर कृषि में सकल पूंजी निर्माण की बात की जाये तो यह 4 प्रतिशत था जबकि निजी पूंजी निवेश 5.2 प्रतिशत था। 2001-02 आते-आते सार्वजनिक निवेश 1.8 प्रतिशत हो गया और निजी पूंजी निवेश 8.5 प्रतिशत तथा 2004-05 में निजी पूंजी निवेश 10.7 प्रतिशत था। जाहिर था कि इस निजी पूंजी निवेश का फायदा बड़े किसानों या पूंजीवादी फार्मरों को ही मिलना था। छोटे व मंझोले किसानों की स्थिति तो खराब होनी ही थी।
सरकारी सब्सिडी कम होने तथा मिल रही सब्सिडी को बडे़ किसानों द्वारा हड़पे जाने के कारण ज्यादातर छोटे व मंझोले किसान खेती छोड़ देना चाहते हैं परन्तु भारत में जिस तरह का औद्योगिक विकास है उससे इससे उजड़ने वाली आबादी के लिए स्थान ही नहीं है और वह मजबूरी में खेती से चिपके हुए हैं या फिर स्वरोजगार में लगे हैं। यह उनकी कंगाली व दरिद्रता को ही बढ़ाता है।
अगर हम इन सब बातों को निचोड़ निकालें तो पायेंगे कि आज भारत में किसानों व कृषि की दुर्दशा की जिम्मेदार यहां की पूंजीपरस्त नीतियां हैं। भारत का पूंजीपति वर्ग है। यहां की पूंजीवादी व्यवस्था है। जो अपनी सामान्य गति में तो किसानों को उजाड़ ही रही है। खासकर भारत के सम्बन्ध में उसकी विशिष्ट गति किसानों के लिए इधर कुंआ उधर खाई की स्थिति पैदा कर रही है। पूंजीवाद की यह सामान्य गति है कि वह लगातार औद्योगिक विकास को तरजीह देती है तथा खेती में लगी आबादी का शोषण करती है उसे उजाड़कर मजदूर बनाती है ताकि उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों की कमी न रहे। उसके लिए मजदूरों की रिजर्व आर्मी तैयार करती है ताकि मजदूरी सस्ती रहे जो उसके मुनाफे को बढ़ाये। साथ ही खेती को उद्योगों को हिसाब से ढालती है और पूंजीवादी फार्मरों को पैदा करती है और खेती से अधिशेष खींचती है और इसी कारण पूंजीवादी फार्मरों व औद्योगिक पूंजीपति के बीच अंतरविरोध का कारण भी बनता है। लेकिन इन पूंजीवादी फार्मरों का हित पूंजीवादी व्यवस्था में ही होता है। और वे छोटे व मंझोले किसानों को दयनीय स्थिति में ढकेलते हैं।
पूंजीवादी देशों में पूंजीवाद का विकास पहले हो गया था वहां हम देख सकते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान कम हुआ साथ ही कृषि में लगी आबादी में भारी कमी आयी। और आज यह दोनों ही मामलों में 5 प्रतिशत के करीब है।
परन्तु भारत में पूंजीवाद का स्वतंत्र विकास न होने तथा औद्योगिक विकास की रफ्तार कम होने के कारण इसमें खेती से आने वाली बेशी आबादी को जगह नहीं मिली। इसलिए यह आबादी अभी देहातों में कंगाली व दरिद्रता का जीवन जी रही है। कहने को तो ये किसान आबादी में गिनी जाती है लेकिन इसमें ज्यादातर का जीवन मजदूरी से ही चलता है। सरकार ने इस आबादी को गांव में ही रोकने के लिए मनरेगा जैसी योजनायें भी चलाईं जिसका पूंजीपति वर्ग की तरफ से काफी विरोध भी हुआ। यह छोटी सी राहत भरी योजनायें भी उसके लिए असहनीय थीं। 1980-81 से ही सरकार ने कृषि से अपने हाथ खींचे तथा इसे खेती में लगे व्यक्तियों पर छोड़कर बाजार के हवाले कर दिया गया। और उनकी मेहनत की कमाई को पूंजीपति वर्ग लूटता रहा।
सामंती व्यवस्था में तो खेती ही अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार होती है। परन्तु पूंजीवादी व्यवस्था का मुख्य आधार उद्योग धंधे होते हैं। इनका विकास होता रहे पूंजीपति वर्ग यही चाहता है। और उद्योग धंधों का विकास अन्य बातों के अलावा खेती के शोषण पर भी टिका होता है। इसलिए पूंजीपति वर्ग को तबाह हो रही खेती की कोई चिन्ता नहीं रहती है। उसके लिए औद्योगिक विकास की रफ्तार ही महत्वपूर्ण होती है। और यही कारण है कि पिछले सालों में औद्योगिक विकास दर बढ़ने से पूंजीपति वर्ग बहुत खुश है। वह आसमान की तरफ बढ़ते सेंसेक्स बाजार की तरफ सम्मोहित होकर देखता रहा है। उसे घटते सेंसेक्स बाजार से तो चिन्ता हुयी लेकिन कृषि के अर्थव्यवस्था में घटते योगदान से वह इतना चिंतित नहीं हुआ। उसका मानना था कि अगर औद्योगिक विकास ठीक होता रहा तो कृषि उत्पादों का वह अंतर्राष्ट्रीय बाजार से आयात कर सकता है।
अभी हाल में हुई किसानों द्वारा की जा रहीं आत्महत्या उनकी अभी हाल की फसलों के खराब होने के कारण नहीं हैं बल्कि आजादी के बाद से ही इसकी पृष्ठभूमि तैयार होनी शुरू हो गयी थीं तथा 1990-91 के बाद इसमें तेजी आ गयी। और पूंजीपति वर्ग इसकी कोई परवाह नहीं करता। वह अपनी बढ़ती औद्योगिक विकास की रफ्तार से खुश रहता है और उसे बढ़ाने का प्रयत्न करता है। सरकार का पूरा प्रयास उद्योगों को छूट प्रदान करने का होता है। देहातों में पूंजीवादी फार्मर इस व्यवस्था में मुनाफा कमाते हैं। परन्तु छोटे व मंझोले किसान की स्थित बुरी होती जाती है। और उनका सीधा अंतरविरोध पूंजीपति वर्ग से बन जाता है। पूंजीपति वर्ग का समाज में एक और दुश्मन होता है वह है मजदूर वर्ग जो उसी के उत्पादन साधनों पर काम करता है। यह मजदूर वर्ग पूूंजीपति वर्ग से उत्पादन के साधनों पर कब्जे की लड़ाई लड़ता है। इसलिए किसानों की एकता देश के मजदूर वर्ग के साथ बनती है। अब छोटे व मंझोले किसानों के लिए जरूरी है कि वह पूंजीवादी पार्टियों व किसान संगठनों के पिछलग्गू बनने के बजाय मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवाद के झंडे को बुलंद करे।
सांस्कृतिक प्रतिरोध की चुनौतियां
कविताः 16 मई के बाद
वर्ष-18, अंक-11(01-15 जून, 2015)
दिल्ली/ केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी और भाजपानीत राजग गठबंधन के सत्तारूढ़ होने के बाद साम्प्रदायिक फासीवाद के उभार के अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमले, लव जिहाद, धर्मांतरण (घर वापसी), शिक्षा के भगवाकरण, विज्ञान कांग्रेस, इतिहास परिषद सहित शैक्षणिक सांस्कृतिक वैज्ञानिक संस्थाओं के फासीवादी करण की मुहिम के खिलाफ सांस्कृतिक प्रतिरोध की चुनौतियों का चिह्नित करते हुए ‘‘कविताः 16 मई के बाद’’ के बैनर तले एक संगोष्ठी का आयोजन 17 मई को इण्डियन सोशल इंस्टीट्यूट में हुआ।
संगोष्ठी के प्रारम्भ में विषय प्रवर्तन करते हुए रंजीत वर्मा ने ‘कविता 16 मई के बाद’ आंदोलन का परिप्रेेक्ष्य पत्र पढ़ा।
गोष्ठी के पहले सत्र में वक्तव्य देते हुए विभिन्न वक्ताओं ने फासीवाद के बढ़ते प्रभाव को रेखांकित करते हुए इसके विभिन्न पहलू पर बात की। कविता कृष्णन, पूर्व जे.एन.यू. अध्यक्ष ने कहा कि मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद ‘हिन्दू परिवार माॅडल’ को शैक्षणिक संस्थाओं, फैक्टरियों सहित सामाजिक जीवन के हर अंग पर लागू किया जा रहा है। जिसके तहत महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर उसकी आजादी को सीमित संकुचित करने के प्रयास हो रहे हैं। महिलाओं को हमेशा पुरुषों के संरक्षण में रखने के हिन्दू परिवार के माॅडल को संघ परिवार व भाजपा सरकार हर जगह जोर शोर से लागू करने का प्रयास कर रही है।
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए शुद्धतावादी दृष्टिकोण से बचने एवं भाषा के सरलीकरण के आग्रह से बचने की जरूरत पर जोर दिया।
जनसत्ता के पत्रकार अरविंद शेष ने कहा कि पहले एक दशक में सेकुलर एवं बुद्धिजीवी शब्दों के प्रहसन में शामिल करने की कोशिशें हो रही हैं। आज वास्तविक चुनौती को जनता तक ले जाने की है।
वार्ता को आगे बढ़ाते हुए सामाजिक कार्यकर्ता अर्जुन प्रसाद सिंह ने कहा कि न केवल मजदूर वर्ग बल्कि अन्य तमाम वर्गों को समेटने के लिए भी कविता की रचना करनी होगी। प्राथमिकता क्रम में पहले मजदूर फिर किसान फिर निम्न पूंजीपति वर्ग व छात्रों नौजवानों के बीच कविता को ले जाना होगा। इसके साथ ही उन्होंने मध्यम पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से, जिसमें राष्ट्रवाद का कुछ तत्व बचा है, के बीच भी कविता को ले जाने की जरूरत को रेखांकित किया। उन्होंने बढ़ते साम्प्रदायिक उभार व कारपोरेटीकरण का हवाला देते हुए कहा कि सांस्कृतिक आंदोलन के निशाने पर साम्प्रदायिकता व कारपोरेटवाद दोनों को रखना होगा। इलाहाबाद से आयी ‘दस्तक’ पत्रिका की संपादक सीमा आजाद ने कहा कि राज्य का दमन व उत्पीड़न तो पहले से था लेकिन 16 मई के बाद तो गुण्डागर्दी का दौर चल रहा है। अब राजनीतिक सांस्कृतिक मोर्चे पर ठहराव तोड़ने के लिए सभी धाराओं को साथ आना होगा और यह बात आज पहले से ज्यादा समझ में आ रही है।
मानवाधिकार कार्यकर्ता रणेन्द्र ने कहा कि संघ परिवार द्वारा संस्कृति को धर्म का पर्याय बना दिया गया है। वे कुशलतापूर्वक मिथकों का इस्तेमाल करते हैं। गौतम बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित करने वाले आज अंबेडकर को भी भगवान घोषित कर रहे हैं। हिन्दू धर्म के इन ठेकेदारों जो कि ब्राहम्णवादी वर्चस्व के पैरोकार हैं, के लिए पहले बुद्ध चुनौती थे तो आज अंबेडकर। अंबेडकर को आज अपने भीतर समेटने की कोशिशें संघियों द्वारा जारी हैं। उन्होंने संस्कृति को साहित्य तक सीमित करने की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए एक मुकम्मल रूप में देखने का आग्रह किया।
इंदौर से आये साहित्यकार सत्यनारायण पटेल ने कहा कि मध्य प्रदेश में साम्प्रदायिक नफरत व ध्रुवीकरण को तेज करने की कोशिशें जारी हैं। धार भविष्य की बाबरी मस्जिद बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि हमारी लड़ाई मुख्यतः साम्राज्यवाद व फासीवाद के खिलाफ है। अगर हम वर्गीय लड़ाई को मुख्य रूप से संबोधित करते हैं तभी साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ संघर्ष सम्भव है।
सामाजिक कार्यकर्ता व स्तम्भकार सुभाष गताडे ने बताया कि महाराष्ट्र में 1848 में फुले के नेतृत्व में जो ब्राहम्णवाद के खिलाफ जो संघर्ष खड़ा हुआ था उसी की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ब्राहम्णवादी प्रतिक्रांति के रूप में हिंदू साम्प्रदायिकता महाराष्ट्र में पैदा हुई जो आज अपने शिखर पर है। उन्होंने अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता को नजरअंदाज न करने की बात की। उन्होंने सांस्कृतिक हस्तक्षेप के फलक को व्यापक करने की जरूरत पर बल दिया। इसी के साथ उन्होंने सांस्कृतिक हस्तक्षेप के सवाल को साहित्य, कला, संस्कृति तक सीमित होने का सवाल उठाते हुए इसे जाति व जेंडर तक विस्तारित करने की बात की। उन्होंने फासीवाद की कोमिंटर्न के जमाने से चली आ रही परिभाषा को भी प्रश्नांकित करने की बात कही। संस्कृति कर्मी कौशल किशोर ने कहा कि आज हमें एक बार फिर मुक्तिबोध को याद करते हुए संस्कृति के खतरे उठाने के लिए तैयार होना होगा। आज शासक वर्ग द्वारा सांस्कृतिक प्रतिरोध को अनुकूलित करने के लिए एवं पुरूस्कारों के प्रलोभन द्वारा व्यवस्था में समाहित करने की कोशिशों का पुरजोर विरोध करना जरूरी है। आज कविता इवेंट मैनेजमेन्ट बनती जा रही है। इस का प्रतिकार करना होगा।
कवि व साहित्यकार नीलाभ ने गोरख पांडे को उद्धृत करते हुए कहा कि संस्कृति मनुष्य बनने की तमीज है। नाजी दमन के दौर में ब्रेख्त ने सच को पहचानने, उद्घाटित करने, प्रचारित प्रसारित करने के सम्बन्ध में जो बातें कही थीं उन्हें आज याद करने की जरूरत है। उन्होंने सांस्कृतिक संगठनों के बिखराव की पड़ताल की जरूरत को चिह्निनित करते हुए बिखरी-बिखरी चीजों को संगठित रूप देने की बात कही।
वयोवृद्ध वामपंथी नेता व सहित्यकार शिवमंगल सिद्धान्तकाार ने कहा कि आज से 70 साल पहले नाजी जर्मनी की हार हुई। तब जर्मनी से बाहर संस्कृतिकर्मी सजग थे। रूस हमारा राजनीतिक व सांस्कृतिक शस्त्रागार हुआ करता था। यह स्टालिन का नेतृत्व में मजदूर वर्ग की ताकत ही थी जिसने हिटलर का ध्वंस किया। आज एक नया हिटलर पैदा हो गया है। उन्होंने जोर देकर कहा कि जिस तरह मोदी ने आधुनिक सूचना क्रांति व तकनीक का इस्तेमाल करते हुए सत्ता हथियायी है उसी तरह संस्कृतिकर्मियों को भी आधुनिक तकनीक व आई.टी. का इस्तेमाल कर अपने प्रतिरोध को मजबूत करना होगा। उन्होंने माक्र्स के हवाले से बताया कि कविता मनुष्यता की भाषा है। और कविता को शास्त्र नहीं शस्त्र की जरूरत है।
प्रसिद्ध फिल्मकार व बाजार जैसी चर्चित फिल्म के निर्माता सागर सरहदी ने कहा कि जनता के जीवन व जमीन से जुड़ी हुयी सिनेमा की संस्कृति खत्म हो रही है। हमारे पैरों की जमीन खिसक गयी है। सामाजिक सरोकार वाली फिल्मों को वितरक तक नहीं मिलते आज केवल ‘ग्रेंड मस्ती’ व ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ जैसी फिल्में ही चल रही हैं। नंगई, बल्गैरिटी व काॅमेडी के साथ फिल्में सफल हैं। नई पीढ़ी टी.वी. व मोबाइल में कैद हो गयी है। उन्होंने अपसंस्कृति व बाजारवाद के खिलाफ संघर्ष पर जोर दिया।
पत्रकार व स्तम्भकार असद जैदी ने कहा कि फासिज्म की जड़ें हमारे समाज में बहुत गहरी हैं। यहां राज्य के भीतर राज्य जैसी स्थिति रही है। खुफिया विभाग व अद्धैसैनिक बल पहले ही समाज पर हावी रहे हैं। अर्द्धसैनिक बलों को देश के कई इलाकों में दंड से मुक्ति (Impunity) मिली हुई है। इस तरह फासिज्म का एक रूप तो पहले से विद्यमान है। इसे नजरअंदाज करना समझौतापरस्ती व सहयोगवाद है। उन्होंने सांस्कृतिक प्रतिरोध के सवाल पर बात करते हुए इस बात पर चिंता जाहिर की कि हमारा रूख अति साहित्यिक हो गया है। सवाल को दूसरे रूप में उठाते हुए उन्होंन कहा कि आज जिस तरह किसानों को नष्ट किया जा रहा है जिस तरह महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा बढ़ती जा रही है क्या इनका कोई सांस्कृतिक पहलू नहीं है। उन्होंने इस बात पर दुःख व हैरानी व्यक्त की कि जिस महाराष्ट्र में दाभोलकर व पानसरे की हत्या होती है वहीं भालचंद निमाणे जैसे साहित्यकार कैसे फासिस्टों के हाथ से पुरूस्कार ग्रहण कर लेते हैं। उन्होंने कहा कि कविता को विधा तक सीमित नहीं रखना चाहिए बल्कि उसे एक हस्तक्षेपकारी शक्ति के रूप में देखना चाहिए।
दूसरे सत्र में अलग-अलग प्रदेशों से आये विभिन्न संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों व पत्रकारों ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए व्यावहारिक कार्यक्रमों पर चर्चा की।
इलाहाबाद से आयी कवियत्री संध्या नवोदिता ने कहा कि दक्षिणपंथी शक्तियां तो एक दूसरे को अंगीकृत करते चले गये लेकिन वाम प्रगतिशील धारा के लोग शुद्धतावादी संकीर्णतावादी दृष्टिकोण का शिकार हो गये हैं। उन्होंने संकीर्णतावादी खोलों को तोड़ने के साथ सांस्कृतिक आंदोलन की धारा को आगे बढ़ाने के लिए नए मंचों की जरूरत पर बल दिया।
लखनऊ से आये संस्कृतिकर्मी आदि योग ने कहा कि दमन उत्पीड़न के शिकार निर्दोष लोगों की बंद फाइलें उन्हें रिहा करने की गुहार लगा रही है। उनकी आवाज को जनता के बीच ले जाना होगा। मलियाना, हाशिमपुरा पर अदालती फैसले के बाद यह जरूरत और मजबूती से दरवेश हुई हैं।
बलिया से आये सामाजिक कार्यकर्ता साथी बलवंत यादव ने पूर्वांचल में जनता से जुड़ने के उपक्रम में भोजपुरी भाषा में सांस्कृतिक सृजन व कार्यक्रम की जरूरत की ओर ध्यान आकृष्ट किया। संघी गुजरात से आये साथी रजक ने कहा कि कविता को नृत्य नाटिका जैसे रूपों जैसे छव नृत्यों शैली का सहारा लेकर गांव चौपालों अखाड़ों तक पहुंचाया जा सकता है।
बंगाल व बिहार में अपने संस्कृतिकर्म का अनुभव रखते हुए मृत्युजंय प्रभाकर ने बताया कि मुख्यधारा के मीडिया द्वारा जमीनी हकीकत के विपरीत बंगाल में तृणमूल व भाजपा को आमने सामने खड़ा व युद्धरत दिखाया जा रहा है। यह एक साजिश है जिसके द्वारा मध्यवर्ग का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश की जा रही है। और वामपंथ को परिदृश्य से गायब करने की कोशिश हो रही है।
मृत्युंजय की बात पर नीलाभ समेत कई लोगों ने आपत्ति जताते हुए भाकपा-माकपा की दमन कारी कार्यवाहियों की याद दिलायी व उन्हें जनविरोधी बताया राजस्थान से आये संस्कृतिकर्मी संदीप मील ने कहा कि राजस्थान जहां सदियों से लोग जल को संरक्षित रखते आये हैं वहां आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां जल संरक्षण की तकनीक सिखा रही हैं। उन्होंने बताया कि राजस्थान में साहित्य व संस्कृति पर कारेपोरेट ताकतों विराजमान हैं। जयपुर फेस्ट जैसे कारपोरेट उत्सवों से सभी लोग परिचित हैं। उन्होंने मेहनतकश जनता का वैकल्पिक मंच खड़ा करने की जरूरत को चिह्नित किया।
उत्तराखण्ड से ‘नागरिक’ पत्र के प्रतिनिधि पंकज ने कहा कि उत्तराखण्ड में भाजपा ही नहीं कांग्रेस व सपा-बसपा जैसी पार्टियां भी घोर साम्प्रदायिक हवा बहा रहे हैं। लालकुंआ व रुद्रपुर की घटनायें इसका प्रतिनिधिक उदाहरण हैं। उन्होंने बताया कि मजदूरों का घोर शोषण उत्तराखंड में हो रहा है और उनके आंदोलनों को बर्बरतापूर्वक कुचला जा रहा है। ईको सेंसिटिव जोन के नाम पर जंगलों का क्षेत्रफल बढ़ाया जा रहा है। व ग्रामीणों को बेदखल किया जा रहा है। राज्य सरकार पुलिस व माफिया गठजोड़ उत्तराखण्ड की जनता पर हावी है। उन्होंने शहीद उधम सिंह की शहादत दिवस के अवसर पर साम्प्रदायिकता के खिलाफ हर वर्ष आयोजित होने वाले अभियान में उन्होंने सभी संस्कृतिकर्मियों से सहयोग व भागीदारी की अपील की।
गोष्ठी के अगले सत्र में विभिन्न कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। इनमें प्रमुख रूप से मंगलेश डबराल, निखिलानंद गिरि, कौशल किशोर, भगवान स्वरूप कटियार, संध्या नवोदिता, देवेन्द्र रिणुआ एवं सीमा आजाद आदि ने काव्यपाठ किया।
दिल्ली संवाददाता
उत्तराखण्ड सरकार व माफिया गठजोड़ के खिलाफ दिल्ली में प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
उत्तराखण्ड सरकार और खनन माफिया के गठजोड़ के खिलाफ 5 मई 2015 को दमन विरोधी संघर्ष समिति ग्राम वीरपुर लच्छी के

जंतर-मंतर पर कार्यक्रम की शुरूवात क्रांतिकारी गीत ‘लड़ना है भाई ये तो लम्बी लड़ाई है’ से की गयी। जोशो-खरोश से लग रहे नारों से मेहनतकशों ने अपने आक्रोश व एकजुटता को प्रदर्शित किया।
सभा के संयोजक मण्डल में तीसरी दुनिया के सम्पाक आनन्द स्वरूप वर्मा, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पी.सी.तिवारी, इंकलाबी मजदूर केन्द्र के उपाध्यक्ष नगेन्द्र, मजदूर सहयोग केन्द्र के मुकुल, बुक्सा समाज के नेता बाबू तौमर, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की ललिता रावत, सामाजिक कार्यकर्ता विमला आर्या, सुमित्रा विष्ट, यूकेडी के अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी, वीरपुर लच्छी गांव से करम सिंह आदि लोगों को चुना गया।
कार्यक्रम की शुरूआत में आंदोलन को समर्थन देने के नाम पर कांग्रेस छोड़ भाजपा में गये सतपाल महाराज भी पहुंचे। सतपाल महाराज जैसे बड़ी पूंजीवादी पार्टी के बड़े नेता का आंदोलन में पहुंचना जनता की मांगों की लोकप्रियता व जनदवाब और एकजुटता को दिखाता है। इन्हीं सारी चीजों को अपने क्षुद्र राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल करने के मंशा के सिवा सतपाल महाराज का यहां उपस्थित होने का कोई और कारण नहीं है। गौरतलब है कि 1 मई 2013 को वीरपुर लच्छी में सोहन सिंह व उसके बेटे डी.पी.सिंह द्वारा ग्रामीणों के साथ की गयी मार पिटाई, फायरिंग, आगजनी के समय रामनगर क्षेत्र से सतपाल महाराज ही सांसद थे। उस समय ये कांग्रेस के नेता थे। इनकी पत्नी जो कि अब भी कांग्रेस में ही बनी हुयी हैं, रामनगर क्षेत्र की विधायक हैं। 1 मई 2013 की घटना के समय यह कैबिनेट मंत्री थीं। जब सत्ता में है तब कुछ ना कहना और अब विपक्ष में हैं तो आंदोलन से राजनीतिक हित साधना क्षुद्र राजनीति का ही परिचायक है। ऐसे नेताओं से उम्मीद भी क्या की जा सकती है?
सतपाल महाराज के कार्यक्रम में आने का विरोध करते हुए संयोजक मण्डल से आनंद स्वरूप वर्मा, मुकुल, नगेन्द्र आदि जनपक्षधर ताकतों के प्रतिनिधि मंच से उतर गये। आनंद स्वरूप वर्मा जी तो कार्यक्रम छोड़कर ही चले गये। बाद में ‘नागरिक’ सम्पादक से फोन पर हुयी बातचीत में वर्मा जी ने माना कि उनका विरोध करना ठीक था पर इस तरह पूंजीवादी नेता के लिए खुला मैदान छोड़ देना गलत रहा। वर्मा जी ने आंदोलन की हर संभव मदद करने व उससे जुड़े रहने का आश्वासन दिया।
सतपाल महाराज के छुटभैय्या नेता लगातार कार्यक्रम को अपने हिसाब से ढालने की कोशिश कर रहे थे जिसका समिति ने विरोध किया। उन्हें यह सब ना करने के लिए सख्त लहजे में आगाह किया। जिस कारण ही ये पूंजीवादी पार्टी के लोग कार्यक्रम को दिग्भ्रमित व व्यक्ति पूजा की ओर नहीं ढकेल पाये। किन्तु संचालकों के चैकन्नेपन की कमी सतपाल महाराज के लिए गद्दा लगने व ताली बजवाने के रूप में दिखी। सतपाल महाराज द्वारा वक्तव्य दे देने के बाद वे और उनके समर्थक तुरंत ही कार्यक्रम से चले गये। सभा को सम्बोधित करते हुए इंकलाबी मजदूर केन्द्र के उपाध्यक्ष नगेन्द्र ने कहा कि पूरे देश में प्राकृतिक संसाधनों का बेखौफ दोहन चल रहा है। भाजपा-कांग्रेस व अन्य सभी दोनों हाथों से इस दौलत को लुटा रही हैं। उत्तराखण्ड में भी खनन माफिया इसी सब की पैदाइश हैं। पी.सी.तिवारी ने कहा कि उत्तराखण्ड में माफिया राज चल रहा है। राजनीतिक हस्तक्षेप से ही इस राज को खत्म किया जा सकता है। यूकेडी के अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी ने सरकार माफिया गठजोड़ की आलोचना करते हुए कहा कि यह उत्तराखण्ड राज्य में देखे गये सपनों से पूरी तरह बेमेल है।
पत्रकार भूपेन ने सतपाल महाराज के कार्यक्रम में शामिल होने की तीखे शब्दों में आलोचना की। मजदूर सहयोग केन्द्र के मुकुल ने आंदोलन को और अधिक व्यापकता देते हुए पूरे उत्तराखण्ड से माफियाराज की समाप्ति के लिए काम करने का आहवान किया। आरडीएफ के जीवन चन्द्र ने उत्तराखण्ड की जनता के हालात पर बात करते हुए सरकार की जन विरोधी नीतियों का पर्दाफाश किया। बेरोजगार युवा संगठन के मनीष सुन्दरियाल ने कहा कि पहाड़ों से बड़े पैमाने पर पलायन के लिए सरकार की यही सब जनविरोधी नीतियां जिम्मेदार हैं। प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की ललिता रावत ने आई.एफ.एस. अधिकारी कल्याणी पर हमले का जिक्र करते हुए कहा कि यह खनन माफिया के बढ़ते हुए हौंसलों व उसके सरकारी संरक्षण को दिखाता है।
इसके अतिरिक्त कई वक्ताओं द्वारा अपने विचार व्यक्त करते हुए आंदोलन का पुरजोर समर्थन किया गया।
सभा के बाद एक मार्च निकाला गया जोशो-खरोश से नारे लगाते हुए मार्च आगे बढ़ा। मार्च को पुलिस द्वारा बेरिकेटिंग लगाकर रोक दिया गया जिस दौरान पुलिस से नोंक-झोंक हुई। बेरिकेड के पास ही बैठक सभा चलायी गयी। क्रांतिकारी गीत गाये गये। इसी दौरान एक 4 सदस्यीय शिष्ट मंडल प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति व सोनिया गांधी को ज्ञापन देने गया। आंदोलन को और अधिक एकजुटता के साथ लड़ने के आहवान के साथ कार्यक्रम समाप्त किया गया।
विशेष संवाददाता
आलोचना, आत्मालोचना और सबक
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
प्रिय मित्रो,
‘दमन विरोधी संघर्ष समिति’ की ओर से कल 5 मई 2015 को ग्राम वीरपुर लच्छी (रामनगर) के निवासियों पर खनन माफिया द्वारा किए जा रहे जुल्म के विरोध में जंतर मंतर पर हम सारे लोग इकट्ठा हुए थे। इस सभा में वीरपुर लच्छी गांव के और उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों से लगभग डेढ़ हजार लोग आए थे और सभा बहुत शांतिपूर्ण ढंग से चल रही थी। मैं अपने साथियों को लेकर एक फैक्ट फाइंडिंग टीम के साथ वीरपुर लच्छी गया था और जब मैं मंच पर पहुंचा तो इसी रूप में मेरा परिचय भी कराया गया और लोगों ने तालियों के साथ स्वागत किया। कुछ ही देर बाद मुझसे ‘उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी’ (उपपा) के अध्यक्ष पी.सी.तिवारी ने, जो मेरे बगल में बैठे थे मुझसे धीरे से कहा कि ‘हमलोगों के आंदोलन को सतपाल महाराज ने अपना समर्थन दिया है’। जवाब में मैंने कहा कि ‘यह अच्छी बात है’। लेकिन कुछ ही देर बाद एक व्यक्ति आया और उसने मंच पर मेरे सामने कपड़ों का एक ऊंचा सा आसन बनाया और फिर सतपाल महाराज आकर उस आसन पर बैठ गए। मैंने पी.सी.तिवारी की ओर देखा और कहा कि यह व्यक्ति मंच पर कैसे आ गया लेकिन पी.सी.तिवारी काफी प्रफुल्लित नजर आ रहे थे। मंच के नीचे से भूपेन लगातार पी.सी.तिवारी और कुछ साथियों से कह रहे थे कि ऐसा नहीं होना चाहिए। सतपाल महाराज के बैठते ही विरोधस्वरूप मैंने मंच का बहिष्कार कर दिया और मेरे साथ बहुत सारे लोग नीचे आ गए। कुछ देर बाद सतपाल महाराज नीचे उतरे और उन्होंने विभिन्न चैनलों की कैमरा टीम को अपना इंटरव्यू आदि दिया और फिर मंच पर वापस जाकर बैठ गए। नीचे पी.सी.तिवारी आकर हमलोगों से अपनी सफाई देते रहे लेकिन मैं वहां से बाहर आ गया और घर चला गया।
इस पूरे प्रकरण में आलोचना के जो बिन्दु हैं उन पर मैं आप सबका ध्यान दिलाना चाहता हूंः-
आलोचना
1. सतपाल महाराज उसी राजनीतिक जमात के व्यक्ति हैं जिनकी वजह से पिछले 15 वर्षों के दौरान, उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद से ही, यह राज्य विभिन्न तरह के माफिया गिरोहों का क्रीडा स्थल बन गया है।
2. जब से उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ राज्य की जनता कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा के शासन का स्वाद चखती रही है और सतपाल महाराज जैसे लोग अपनी अवसरवादिता के चलते कभी इस पार्टी में तो कभी उस पार्टी में घूमते-फिरते रहे हैं। ऐसे लोगों को हमें अपने मंच से दूर रखना चाहिए। अगर किसी मुद्दे पर वह समर्थन देते हैं तो अच्छी बात है लेकिन उन्हें अपने साथ नहीं लेना चाहिए।
3. सतपाल महाराज सभा में आते, एक सामान्य समर्थक की तरह व्यवहार करते और भाषण देते तो एतराज करने का कोई कारण नहीं है। लेकिन जिस तरह से उनको सम्मान देकर मंच पर आसीन कराया गया वह आपत्तिजनक है।
4. सबसे बड़ी बात यह है कि 3 मई को प्रेस क्लब में संयोजन समिति के सदस्यों की बैठक में ऐसा कुछ भी तय नहीं हुआ था कि किसी राजनीतिक दल के व्यक्ति को मंच पर आने दिया जाय। ऐसी स्थिति में सतपाल महाराज का मंच पर आना किसकी रजामंदी से हुआ इस पर बाकायदा छानबीन की जानी चाहिए।
5. सतपाल महराज के मंच पर आने के प्रसंग में पी सी तिवारी का यह कहना कि ‘आंदोलन किताबी तरीके से नहीं चलते’ घोर आपत्तिजनक है।
आत्मालोचना
1. यद्यपि सतपाल महाराज के आने से मैं बहुत रोष में था और मुझे मंच से उतर कर अपना विरोध व्यक्त भी करना चाहिए था लेकिन कुछ देर बाद मुझे सभा में शामिल हो जाना चाहिए था।
2. मुझे लगता है कि सभा का पूरी तरह बहिष्कार करके मैंने उन ढेर सारे लोगों की भावनाओं का ध्यान नहीं रखा जो इतना कष्ट उठाकर रामनगर से दिल्ली तक आए थे।
3. मुझे बहिष्कार के बाद सभा को संबोधित करना चाहिए था और जो बात सोचकर मैं गया था कि जनता के अंदर एक राजनीतिक विकल्प की सोच पैदा करने का प्रयास करूं, वह मुझे करना चाहिए था।
4. उत्तेजना में मैंने वह अवसर खो दिया जिससे वहां आए लोगों के साथ मेरा एक सीधा संवाद हो सकता था।
5. इस तरह की घटना न तो पहली बार हुई है और न आखिरी बार होने जा रही है। जाहिर है कि सार्वजनिक जीवन और राजनीति में आए दिन इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी और ऐसे में पूरी ताकत के साथ विरोध व्यक्त करने के साथ ही अपनी बात कहने का कौशल हमारे अंदर होना चाहिए जिसकी कमी मैंने खुद में महसूस की।
सबक
1. इस घटना का सबसे बड़ा सबक वही है जो अनेक दशकों से हम झेलते रहे हैं लेकिन कुछ सीख नहीं सके। सारी मेहनत हमारे साथियों ने की और इस आंदोलन का श्रेय टीवी चैनलों के माध्यम से सतपाल महाराज ले गया। यह ठीक वैसे ही हुआ जैसे उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए सारा संघर्ष हमारे साथियों ने किया और जो लोग इसका विरोध करते थे अर्थात कांग्रेस और भाजपा वे ही राज्य बनने के बाद इसके भाग्य विधाता बन गए।
2. हमारे संघर्षशील नेताओं के अंदर आत्महीनता की जो ग्रंथि है उससे अगर वे छुटकारा नहीं पा सके तो कभी सतपाल महाराज तो कभी हरीश रावत के पीठ थपथपाने भर से गदगद हो जाएंगे।
3. हमें हर हाल में मंच संचालन आदि के बारे में उन फैसलों का पालन करना चाहिए जो सभा से पूर्व संचालन समिति ने तय किए हों।
4. किसी एक घटना मात्र से व्यापक उद्देश्य से विमुख नहीं होना चाहिए। यह प्रवृत्ति अगर बनी रही तो कभी भी दुश्मन खेमे की तरफ से कोई व्यक्ति आकर उत्तेजना का ऐसा माहौल पैदा कर सकता है जिसमें अपने ही साथी मूल उद्देश्य के प्रति उदासीन हो जायं।
5. हमें हर हाल में न केवल वीरपुर लच्छी की जनता पर जुल्म ढा रहे सोहन सिंह ढिल्लन जैसे खनन माफिया के खिलाफ बल्कि समूचे उत्तराखंड में फैले सोहन सिंहों के खिलाफ लड़ाई जारी रखनी है। इसके साथ ही उत्तराखंड की जनता को कांग्रेस और भाजपा से अलग किसी संघर्षशील राजनीतिक विकल्प की दिशा में आगे ले जाना है। जहां तक मेरा सवाल है, इस घटना के या भविष्य में होने वाली इस तरह की घटनाओं के बावजूद मैं उत्तराखंड की जनता के हित में किसी विकल्प की दिशा में कार्य करने के लिए प्रयासरत रहूंगा। यह मेरा संकल्प है
आनंद स्वरूप वर्मा, सम्पादक ‘तीसरी दुनिया’
ऐप्प पेपर कम्पनी में मजदूरों की जान के साथ खिलवाड़
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
ऐप्प (APP) पेपर प्राइवेट लिमिटेड बावल रेवाडी के सेक्टर-6 प्लाॅट न. 122 बी में स्थित है। जो पिछले 6 महीनों से ही चालू हुई है। इसमें अभी 30-35 मजदूर ही काम करते हैं। इनमें महिला मजदूर भी काम करती हैं।
कम्पनी में काम कर रहे सभी मजदूर बीएमएस (बालकपुरी मैन पाउर साल्यूश्न) ठेकेदारी के तहत काम करते हैं जो रेवाडी क्षेत्र में मजदूर का पैसा मारने और डरा-धमकाकर काम करने के लिए कुख्यात है।
यह कम्पनी टीसू पेपर बनाती है। कई प्रकार के टीसू पेपर आपने बाजार में देखें होंगे जो कई मौके पर काम में आते हैं। परन्तु कभी आपने सोचा ना होगा कि टीसू पेपर बनाने वाले मजदूरों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाता है।
कम्पनी में काम कर रहे बाहधो सिंह व महिला मजदूर इन्दू से बातचीत में पता चला कि जब कम्पनी ने इंटरव्यू लिया तो 8500 रुपये तनख्वाह की बात हुई परन्तु नया-नया काम है इसलिए 5800 रुपये ही दिये और 500 रुपये अटेन्डेन्स अवार्ड। जो एक छुट्टी होने पर गया और 250 रुपये दिहाडी अलग से। कोई छुट्टी न होने पर ही पूरे महीने में मजदूरों को 6300 रुपये मिलते हैं।
14 फरवरी 2015 को इन्दू नाम की महिला मजदूर का हाथ मशीन में आ गया। अगर बाहधो सिंह ने बटन नहीं दबाया होता तो शायद बड़ी घटना हो गयी होती। इस घटना में इन्दू के हाथ ही हड्डी टूट गयी। कम्पनी ने उसे प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करवाकर प्लास्टर बंधवा दिया। और जब इन्दू कुछ दिनों बाद कम्पनी में आयी तो कम्पनी के मालिक का लड़का आशीष और एच.आर. हेड गुरूवाशुदेवा ने इन्दू को कम्पनी से निकाल दिया और धमकी दी कि दुबारा कम्पनी गेट पर मत आना। और उनका इलाज करने से भी मना कर दिया।
इस पर इन्दू से 10 मार्च 2015 को लेबर कोर्ट में केस दर्ज किया जिसकी 31 मार्च को पहली तारीख लगी। जिसमें कम्पनी को और मजदूर इन्दू को अपनी तरफ से सबूत लाने को कहा गया। इन्दू के साथ बाहधों सिंह और कई मजदूर खड़े हैं। इस पर कम्पनी ने बाहधों सिंह को धमकी देने के लिए गुण्डे (बाउंसर) भेजे कि तू इस मामले से हट जा वरना अच्छा नहीं होगा।
अब भी ये मजदूर अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। 1 मई को ये मजदूर यूनियन संघ रेवाडी से मिले और अपनी आपबीती सुनाई। अब देखना कि यूनियन संघ इनकी मजदूरों की कितनी सहायता कर पाता है। गुड़गांव संवाददाता
मुंजाल आॅटो के मालिक की मनमर्जी
वर्ष-18, अंक-10(01-15 जून, 2015)
मुंजाल आॅटो इण्डस्ट्रीज लिमिटेड, प्लाॅट न. 37, सेक्टर-5, फेज-III ग्रोथ सेन्टर बावल, जिला रेवाडी में लगभग 100 मजदूरों को लेकर 1 जुलाई 2009 से उत्पादन शुरू हुआ था। उस समय इस प्लांट में हीरो ग्रुप की दोपहिया गाड़ी के एक-दो माॅडलों के लिए ही पार्ट्स तैयार किये जाते थे। और आज सभी माॅडलों के लिए पार्ट्स तैयार कियेे जाते हैं।
इस समय इस प्लांट में 350 ठेकेदारी के और 76 स्थायी मजदूर काम करते हैं। जिन्हें अभी तक कम्पनी की तरफ से कोई नियुक्ति पत्र नहीं मिला है जो मजदूर पहले दिन से काम कर रहे हैं उनके पास भी कोई पत्र नहीं है और वेतन भी 7000-9000 रु. ही है।
2009 जुलाई की पहली तारीख से काम करने वाले एक मजदूर सतीश जो आगरा के रहने वाले हैं, ने बताया कि कम्पनी ने अभी तक हमें कोई भी पत्र नहीं दिया है। कम्पनी में कोई अतिरिक्त सुविधा भी नहीं है। कन्वेन्स की सुविधा नहीं है और खाने का भी हमारा पैसा कटता है। 1 जनवरी 2011 को उसे मुंह जबानी बताया गया कि उसको स्थाई किया जाता है। वह और मन लगाकर काम करे।
मजदूरों ने मीटिंग कर अपनी यूनियन बनाने की पहली फाइल 28 जून 2014 को लगायी। जो लेबर विभाग ने रद्द कर दी तो मजदूरों ने अगली फाइल 8 दिसम्बर 2014 को फिर लगाई जिसमें मालिक स्टे लेकर आया कि ये यूनियन की फाइल एप्रूवल नहीं है जिसमें मजदूरों ने भी स्टे ले लिया है और इसमें तारीखें चल रही हैं।
अब कम्पनी मालिक अपनी चालबाजी पर उतर आया है। उसने मजदूरों को कमजोर करने के लिए चार-साढ़े चार साल से काम कर रहे ठेकेदारी के मजदूरों में से 76 मजदूरों को 27 दिसम्बर 2014 से 5 जनवरी 2015 के बीच काम से निकाल दिया और बाकी मजदूरों को धमकी दी जा रही है कि इनका साथ दिया तो काम से निकाल दिये जाओगे और नई भर्ती कम्पनी में चालू है।
अपनी यूनियन बनाने की मांग को लेकर ये मजदूर जनवरी माह से लेबर विभाग में धरने पर बैठे हैं जिसकी कोई भी सुनने वाला नहीं है। मजदूर डी.सी., ए.एल.सी. लगभग सभी अधिकारियों से मिल चुके हैं। मजदूरों का कहना है कि हमें आश्वासनों के अलाव कुछ नहीं मिलता है। हम पिछले चार माह से दिन-दिन के धरने पर हैं। हमारी कोई सुनने वाला नहीं है।
अब मजदूर अपनी फरियाद लेकर रेवाडी क्षेत्र के यूनियनों के संघ के पास गये हैं जहां से वे उम्मीद करते हैं कि उनके मामले में कुछ होगा। गुड़गांव संवाददाता
पूंजीवादी राजनीति व मीडिया का साम्प्रदायिक चरित्र बेपर्द
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
रामपुर में घर बचाने को लेकर 800 मुस्लिमों द्वारा इस्लाम अपनाने की खबर जिस तरह राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बनी और जिस तरह से आक्रामक तेवर के साथ इस खबर को बिना तथ्यों की छानबीन के तथाकथित मुख्य धारा के मीडिया ने पेश किया उसे उसके साम्प्रदायिक चरित्र की एक और बानगी सामने आयी है।
दरअसल मीडिया का साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने वाली घटनाओं को कैसे हाथों हाथ लेगा और कैसे उसे सनसनी खेज तरीके से पेश कर साम्प्रदायिक तनाव व कानून व्यवस्था के लिए एक वास्तविक खतरे की कीमत पर भी अपनी टीआरपी बढ़ाने को लेकर बढ़ा चढ़ाकर पेश करेगा इस बात को रामपुर के वाल्मीकी बस्ती के वे दलित भी जानते थे जिनके सामने नगर निगम के ‘अतिक्रमण हटाओ अभियान’ से अपने घरों को बचाने का संकट था।
रामपुर के वाल्मीकि दलित इस बात से भी परिचित थे कि संघ परिवार व उसके अनुषंगी संगठन बजरंग दल व विश्व हिन्दू परिषद को साम्प्रदायिक गोलबंदी को एक अच्छा मुद्दा भी मिल जायेगा और कुल मिलाकर समाजवादी पार्टी की सरकार व उसके मंत्री के होश ठिकाने आ जायेंगे। उनका घर बच जायेगा।
और जैसा उन्होंने सोचा वैसा ही हुआ। न्यूज चैनलों व अखबारों में मुस्लिमों की टोपी लगाये इस्लाम कबूलने की खबरें जोर-शोर से प्रचारित हुईं साथ ही यह बात भी कि उत्तर प्रदेश के सबसे ताकतवार मंत्रियों में गिने जाने वाले व रामपुर से विधायक आजम खान के किसी खास दूत ने वाल्मीकि बस्ती के लोगों को यह रास्ता बताया कि अगर वे इस्लाम कबूल कर लें तो उनका घर बच सकता है। दलितों के मुसलमान बनने की खबर से पूरे देश में साम्प्रदायिक तापमान बढ़ गया। मीडिया के लिए यह एक हिट स्टोरी व ब्रेकिंग न्यूज बना रहा। बजरंग दल व विश्व हिन्दू परिषद के उग्र प्रदर्शनों का सिलसिला चल निकला। किसी ने खुद रामपुर में जाकर जमीनी स्तर पर तहकीकात कर वास्तविकता सामने लाने की कोशिश नहीं की।
अंततः जब कुछ संजीदा पत्रकारों ने सच को सामने लाने का प्रयास करते हुए रामपुर को उक्त दलित या वाल्मीकि बस्ती का दौरा किया तो बाल्मीकि बस्ती के दलितों द्वारा शासन-प्रशासन को धर्मांतरण के बहाने ब्लैकमेल करने की कहानी सामने आयी। ये दलित साम्प्रदायिक राजनीति का महत्व पूंजीवादी राजनीति व पूंजीवादी मीडिया में समझते थे। उन्होंने इसी को अपना हथियार बनाया और इस काम के लिए ‘बुद्ध पूर्णिमा’ (14 अप्रैल) का दिन चुना। और प्रतीक के रूप में मुस्लिम टोपी पहनाकर सामूहिक फोटो खिंचवाई। ताकि इसे कुछ दलितों के बजाय दलित समुदाय के व्यापक धर्मांतरण का मुद्दा बना कर हिंदू धर्म ध्वजा धारियों की बैचेनी बढ़ाई जा सके। मीडिया ने इसे एक सनसनी खेज खबर के रूप में जानकर बिना पड़ताल किए इसे जोर-शोर से प्रचारित कर दिया और फिर जैसा दलितों ने सोचा वैसा ही हुआ। साम्प्रदायिक संगठनों से लेकर राजनीतिक दल सक्रिय हुए। प्रशासन को अंततः दलितों केे घर न तोड़ने का आश्वासन देना पड़ा और इस आश्वासन के बाद इन दलितों ने घोषणा की कि अब चूंकि उनके घर बच गए हैं। इसलिए वे अपने ‘मूल धर्म’ हिन्दू धर्म में लौट रहे हैं।
लेकिन इस ‘सनसनी खेज’ घटनाक्रम को प्रचारित करते हुए कुछ सभ्य खबरिया न्यूज चैनलों ने नहीं दिखाये या जानबूझकर पर्दे में रखे। सच्चाई यह थी कि किसी मुस्लिम धर्मगुरू ने या उलेमा ने इन दलितों को धर्मांतरित करने की रस्म अदा करने से मना कर दिया था। उनकी तो साफ आलोचना थी कि धर्मांतरण के बहाने प्रशासन को ब्लैकमेल करने और उसमें इस्लाम को इस्तेमाल करने की यह हरकत अनैतिक व नापाक है। जब किसी मौलवी ने इन दलितों को इस्लाम कुबूल करवाने की रस्म अदा करने से मना कर दिया तो उन्होंने प्रतीक रूप में मुस्लिम टोपी पहनकर फोटो खिंचवाने का तरीका अपनाया। यह बात खुद दलित नेताओं ने ‘दि हिंदू’ अखबार के पत्रकारों को बाद में बतायी। इस सच के खुलासे के बाद ‘सनसनी फैलाने वाले न्यूज चैनल व अखबार चुप लगा गए। कोई नये मुद्दे की तलाश में वे जुट गए।
खुद दलितों ने यह ब्लैकमेलिंग की हरकत यूं ही नहीं की। वे यह जानते थे कि उनका घर बचाने की अपील पर तो कोई नहीं आयेगा लेकिन मजहब बचाने तमाम लोग दौड़े चले आयेंगे। वे जानते थे कि धर्म और मजहब का मुद्दा रोटी, मकान व जिंदगी से ज्यादा महत्वपूर्ण बन चुका है।
हिंदू साम्प्रदायिक संगठनों ने इस मुद्दे को अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के सुनहरे मौके के रूप में देखते हुए इसे और मिर्च मसाला लगाकर पेश किया। विश्व हिंदू परिषद की ‘साध्वी’ प्राची ने इस धर्मांतरण के खिलाफ व्यापक जनता को गोलबंद करने का ऐलान किया। तमाम जगह बजरंगियों द्वारा आजम खान के पुतले फूंके जाने लगे। भाजपा नेताओं ने इसे उ.प्र. में व्यापक साम्प्रदायिक ध्र्रुवीकरण पैदा करने के अवसर के रूप में देखा। यह प्रचारित किया गया कि मुसलमानों के घर और बस्तियां इतनी सघन व गलियां संकरी होने के बावजूद उनमें हाथ नहीं लगाया जाता जबकि दलितों के ही घर उजाड़े जा रहे हैं। वास्तविकता जबकि इसके विपरीत है। रामपुर में अधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से दलितों के मुकाबले मुसलमानों के कहीं ज्यादा घर अतिक्रमण हटाओ अभियान का हिस्सा बने हैं। वाल्मीकि बस्ती तोपखाना के केवल 58 घरों को अतिक्रमण हटाओ अभियान के तहत चिह्नित किया गया था लेकिन अतिक्रमण हटाओ अभियान के तहत ध्वस्त किए गए मुस्लिमों के घरों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है। लेकिन मुसलमानों के पास ‘धर्मांतरण’ के बहाने घर बचाने का मौका कहां था।
साम्प्रदायिक तनाव या सियासी तापमान बढ़ने के बाद जब रामपुर के जिलाधिकारी ने दलितों की बस्ती का दौर किया तो दलितों ने मकान न तोड़े जाने का लिखित आश्वासन मिलने के बाद अपने ‘हिन्दू धर्म’ में पुनर्वापसी की घोषणा की।
रामपुर की इस घटना ने पूंजीवादी राजनीति व मीडिया के चरित्र को एक बार फिर नंगा किया है।
रमसाकर्मी आन्दोलनरत
वर्ष-18, अंक-09(01-15 मई, 2015)
उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों में माध्यमिक शिक्षा में कार्यरत रमसा कर्मचारी देहरादून में उन्हें हटाये जाने के संबंध में जारी आदेश

राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत काम कर रहे ये 1863 कर्मचारी माध्यमिक स्कूलों में प्रयोगशाला सहायक व कार्यशाला सहायक के रूप में काम कर रहे थे। इन सभी की नियुक्ति को लगभग तीन साल हो चुके हैं। इन सभी को आउटसोर्सिंग के जरिये रखा गया था। इसमें उपनल भी थी तथा अन्य प्राइवेट एजेन्सियां भी थीं।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान मुख्यतः केंद्र सरकार की योजना थी। इसे वर्ष 2009 में शुरू किया गया था। भारत सरकार के दावे के हिसाब से इस अभियान का मकसद माध्यमिक स्तर पर शिक्षा में नामांकन के कमजोर प्रतिशतता को बढ़ाना था। इसे वर्ष 2005-06 के 52.2 प्रतिशत नामांकन को 2009-14 में 75 प्रतिशत किया जाना था। इस योजना में खर्च की जाने वाली राशि में केंद्र व राज्य सरकारों का अनुपात 75ः25 का था। स्पष्ट है कि यह योजना मुख्यतः केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली राशि पर निर्भर थी।
राज्य सरकार ने अप्रैल माह में (उत्तराखंड) सभी स्कूलों के लिए जारी आदेश में इन सभी की सेवा समाप्ति के निर्देश दिये हैं। राज्य सरकार के इस आदेश से राज्य के तमाम माध्यमिक स्कूलों में कार्यरत रमसाकर्मी बेरोजगार होकर सड़कों पर संघर्ष करने को विवश हैं।
ऐसा नही है कि यह आंदोलन अप्रैल माह से ही चल रहा हो। आंदोलन पिछले लगभग एक साल से चल रहा है। तब इनकी मांग थी कि इन्हें विभागीय संविदा पर रखा जाय व सेवाओं को नियमित किया जाय। लेकिन केंद्र में मोदी सरकार द्वारा बजट में भारी कटौती के बाद अब ये 1863 रमसाकर्मी पूरी ही तरह से बेरोजगार हो चुके हैं।
इन कर्मियों की स्थिति बजट में कटौती होने से कुछ पहले ही ऐसे होने लगी थी निश्चित तौर पर राज्य के कांग्रेस सरकार भी इनके भविष्य से खिलवाड़ कर रही थी।
लेकिन अब जब कि केंद्र की मोदी सरकार शिक्षा सहित अन्य मदों में खर्च की जाने वाली राशि में भारी कटौती कर चुकी है तब केवल यदि राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की ही बात भी कर ली जाय तो इसके तहत काम करने वाले शिक्षक, प्रयोगशाला व कार्यशाला सहायक जो कि हर राज्य में है जिनकी संख्या भी लाखों में हैं उन्हें मोदी सरकार बेरोजगार बना चुकी है।
सर्व शिक्षा अभियान में पिछले वर्ष के 9193.75 करोड़ रुपये के बजट को मोदी सरकार ने घटाकर 2000 करोड़ कर दिया गया है। उत्तराखंड में सर्व शिक्षा अभियान के तहत मात्र लगभग 39 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है राज्य सरकार द्वारा प्रस्तावित बजट में 88 प्रतिशत की कटौती केंद्र ने की है।
तब इन स्थितियों में जब कि सरकार शिक्षा बजट में काफी कटौती कर चुकी है उसकी मंशा आने वाले वर्षों में और कटौती की है।
राज्य सरकार रमसाकर्मियों के मामले में सीधे सीधे केंद्र सरकार को दोषी ठहरा रही है जबकि योजना में एक चैथाई फंडिंग राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। रमसा के तहत काम कर रहे कर्मचारियों को यह बात समझने की जरूरत है कि केवल उत्तराखंड के स्तर पर ही यह समस्या नहीं है बल्कि देश के हर राज्य में यह सब कुछ हो रहा है। और साथ ही यह भी समझने की जरूरत है कि व्यापक व जुझारू संघर्ष चलाये बिना समस्या को हल करने की दिशा में इंच भर भी नहीं बढ़ा जा सकता है ।
आंदोलन के चलते राज्य की कांग्रेस सरकार ने इन रमसाकर्मियों को बहु उद्देशीय कर्मचारी के बतौर काम पर रखने की बात कही है इस मकसद से प्रस्ताव केबिनेट में रखे जाने की बात सरकार द्वारा की जा रही है। बहु उद्देशीय काम पर रखे जाने से सरकार का क्या आशय है तथा यदि सरकार अपने इस वादे को पूरा कर देती है तभी यह ज्यादा साफ हो जाएगा कि इनकी क्या रमसाकर्मियों की नौकरी की क्या शर्तें व स्थिति होगी। पिछले एक साल की तरह सड़कों पर संघर्ष करते रहना पड़ेगा या फिर कुछ उम्मीद पूरी होगी। अभी तक की स्थिति को देखते हुए व सरकार की नीतियों को देखते हुए रमसाकर्मियों की उम्मीदें पूरी होने की संभावना कम ही है।
देहरादून संवाददाता
लाल ट्रेड यूनियन की जरूरत भेल मजदूरों को भी है
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
भारत हैवी इलैक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) भारत सरकार का एक सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है। हरिद्वार में इसके दो प्लाण्ट हैं- एच.ई.ई.पी. और सी.एफ.एफ.पी.। हरिद्वार स्थित बी.एच.ई.एल. के प्लांट इसके सबसे बड़े प्लाण्टों में से है। टरबाइन, जेरनेटर और ट्रांसफार्मर बनाने में देश के भीतर बी.एच.ई.एल. का एकाधिकार है। देश में उत्पादित होने वाली ऊर्जा का 70 प्रतिशत बी.एच.ई.एल. द्वारा निर्मित उपकरणों से होता है।
बी.एच.ई.एल. के 63 प्रतिशत शेयर सरकार के पास हैं। दो साल पहले केन्द्र सरकार ने अपने 5 प्रतिशत शेयर भारतीय जीवन बीमा निगम को बेच दिये थे। अब फिर से 5 प्रतिशत शेयर और बेचने की बात चल रही है। सरकार के बाद बी.एच.ई.एल. के शेयरों के दूसरे बड़े साझीदार विदेशी संस्थागत निवेशक हैं। इनके पास लगभग 20 प्रतिशत शेयर हैं।
बी.एच.ई.एल. को स्थापित हुए चालीस साल से अधिक हो चुके हैं। इन चालीस सालों में प्रति मजदूर उत्पादन लगातार बढ़ता गया है। बी.एच.ई.एल. के हरिद्वार स्थित प्लांटों में अपने सबसे अच्छे समय में दस हजार से अधिक मजदूर काम करते थे। आज इनकी जगह तीन हजार स्थायी और लगभग उतने ही ठेका के मजदूरों से पिछले किसी समय से अधिक उत्पादन क्षमता बी.एच.ई.एल. हरिद्वार हासिल कर चुका है। इसके बावजूद बी.एच.ई.एल. को विद्युत उपकरण के आर्डर कम होते जा रहे हैं।
आर्डर कम होने के नाम पर बी.एच.ई.एल. प्रबंधन लगातार मजदूरों के अधिकारों और हित लाभों में कटौती करता जा रहा है। बी.एच.ई.एल. प्रबंधन आर्डर कम होने का कारण यह बताता है कि देश में कोयले की आपूर्ति कम होने की वजह से ऊर्जा क्षेत्र में बहुत धीमा विकास हो रहा है। इसकी वजह से भारी विद्युत उपकरण की मांग कम है।
असल बात यह है कि सरकार कोयला, ऊर्जा और भारी विद्युत उपकरण सभी क्षेत्रों में निजी पूंजी को बढ़ावा देना चाहती है। कोल इण्डिया लिमिटेड को कमजोर कर निजी क्षेत्र को कोल ब्लाॅक का आवंटन करना, एनटीपीसी और राज्य सरकार के ऊर्जा निगमों की कीमत पर टाटा, अंबानी, अडाणी के ऊर्जा निगमों को बढ़ावा देना और बी.एच.ई.एल. के प्रतिस्पर्धा में लार्सन एंड टुर्बो को खड़ा करना सभी एक ही प्रक्रिया के हिस्से है।
बी.एच.ई.एल. के स्थायी मजदूर लगभग पूरी तरह से यूनियनीकृत हैं। लेकिन इन यूनियनों को प्रबंधन ने पिछले दशकों में तरह-तरह से भ्रष्ट कर नख-दंत विहीन कर दिया है। यूनियन नेताओं को नयी भर्तियों में चोरी छिपे कोटा देकर और भांति-भांति के विशेषाधिकारों से लाभ पहुंचाकर इनके लड़ाकूपन को कुंद कर दिया गया है।
प्रबंधन और भ्रष्ट यूनियन नेताओं का गठजोड़ इस हद तक पहुंच गया है कि कोई मजदूर थोड़ा सा भी सजग हो तो यह उसके आंखों से नहीं छिप सकता। इसके बावजूद इन ट्रेड यूनियनों की मजदूरों पर पकड़ बहुत मजबूत है। वे तरह-तरह के तीन-तिकड़मों से मजदूरों को अपने झांसे में लेने में सफल है। और जब तक वे सफल हैं तब तक बी.एच.ई.एल. के मजदूरों के अधिकारों में कटौती जारी रहेगी। मजदूरों की राजनीतिक चेतना उन्नत करके ही इस घृणित प्रक्रिया पर लगाम लगाई जा सकती है।
बी.एच.ई.एल. के स्थायी मजदूर भले ही अभिजात मजदूर हैं लेकिन अब वह जमाना बीत गया जब क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन (लाल ट्रेड यूनियन) के बगैर उनके अधिकार बचे रह सकते थे।
हरिद्वार संवाददाता
इंडियन आॅयल कंपनी से निकाले गये सफाई कर्मचारी
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
फरीदाबाद सैक्टर-13 स्थित इंडियन आॅयल कंपनी के ‘रिसर्च और डवलपमेंट प्लांट’ से 150 ठेका मजदूरों को अप्रैल माह के शुरू में निकाल दिया गया है। जिसमें सफाई कर्मचारी और आफिस में काम करने वाले चतुर्थ क्षेणी कर्मचारी शामिल हैं।
इंडियन आॅयल कंपनी के इस प्लांट में प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, सफाई कर्मचारी, गार्डनर आदि सभी ठेके के कर्मचारी हैं और अलग-अलग विभागों के लिए अलग-अलग ठेकेदार हैं। किसी भी ठेकेदार को दो साल के काम का ठेका दिया जाता है। और साल का विस्तार दिया जाता है। इस प्रकार एक ठेकेदार का काॅन्ट्रेक्ट 3 साल का होता है। उसके बाद ठेके का नवीनीकरण किया जाता है। पिछले कई सालों से जब भी ठेका बदलता तो ठेकेदार तो बदल जाते लेकिन कर्मचारी वही बने रहते थे। इंडियन कंपनी में सभी मजदूरों का ईएसआई कार्ड है। सभी का पीएफ काटा जाता है। तथा सभी मजदूरों का वेतन केन्द्र के नियम के अनुसार है। सभी को लगभग 10000 वेतन दिया जाता है। जबकि फरीदाबाद में अन्य फैक्टरी संस्थान में वेतन 5000-6000 है। यही वजह है कि मजदूर चाहते हैं कि उन्हें वहां काम मिले।
मार्च महीने में सफाई कर्मचारी व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी (कैजुअल) देने वाले ठेकेदार का ठेका समाप्त कर दिया गया और नया ठेका दक्ष नाम की कंपनी को मिला है। इस कंपनी उपरोक्त कर्मचारियों के सुपर वाईजर और कर्मचारियों पुराना वेतन देने से इंकार कर दिया और सभी कर्मचारियों को काम से बाहर कर दिया। निकाले गये कर्मचारी 1 अप्रैल से ही इंडियन आॅयल के गेट पर धरने पर बैठ गये। बाद में अन्य ट्रेडों के कर्मचारी उनके समर्थन में आ गये। मजदूरों का कहना है कि ठेकेदार 5000 लेकर नये कर्मचारियों को काम पर रख रहा है। पहले भी ऐसा होता रहा है। ठेकेदार मजदूरों को पूरी तनख्वाह देने के बाद गेट के बाहर कुछ पैसा वापसी मांगते रहे हैं। मजदूरों की मेहनत की कमाई पर ठेकेदार हाथ साफ करते रहे हैं।
मजदूरों का धरना लगभग एक सप्ताह चलने के बाद इस आश्वासन पर कि मजदूर काम पर वापस लिये जायेंगे और लिये जाने वाले मजदूरों की लिस्ट जारी कर दी जायेगी, के बाद धरना समाप्त कर दिया गया है। परंतु 10 अप्रैल तक निकाले गये कर्मचारियों को काम पर नहीं लिया गया था तथा समर्थन में आये मजदूरों के वेतन से अन्य ठेकेदार 5000 रुपये काटने की बात कर रहे हैं। ज्ञात रहे निकाले गये कर्मचारियों में से कई 20 साल पुराने हैं। फरीदाबाद संवाददाता
6 अप्रैल को वीरपुर लच्छी महापंचायत में पारित प्रस्ताव
वर्ष-18, अंक-08(16-30 अप्रैल, 2015)
1. खनन माफिया सोहन सिंह, डी.पी.सिंह व हमले में शामिल अपराधियों को तत्काल गिरफ्तार किया जाए। मुकदमें में दफा 307 व 326 लगायी जाए।
2. ग्राम वीरपुर लच्छी में बुक्सा जनजाति के किसानों के खेतों पर डम्परों/भारी वाहनों का संचालन बंद रहेगा। इसमें भारी वाहन चलाने वाले पर एस/एसटी एक्ट में मुकदमा कायम किया जाए।
3. नदियों में खनन, रेता, बजरी इत्यादि उपखनिज के विपणन, उपखनिज का स्टोन क्रेशर में तुड़ान इत्यादि का कार्य निजी क्षेत्र से हटाकर सरकार अपने विभाग/निगम से कराये। ताकि ट्रांसपोर्टकर्मियों को साफ-सुथरा रोजगार मिल सके। और जनता को सस्ता उपखनिज मिल सके।
4. स्टोन क्रेशरों को सरकार अधिग्रहित करे। स्टोन क्रेशर आबादी से दूर नदियों के पास खनन जोन बनाकर वहां पर स्थापित किये जायें।
5. उपखनिज चोरी को गैर जमानती अपराध बनाया जाए।
6. ढिल्लन स्टोन क्रेशर की जांच करवायी जाए। 1 मई 2013 को सोहन सिंह इत्यादि पर लगे मुकदमे वापस लेने की कार्यवाही बंद की जाए।
शासन-प्रशासन की लापरवाही ने ली 17 वर्षीय बालिका की जान
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
उत्तराखण्ड के रामनगर कस्बे से 20 किलोमीटर दूर स्थित गांव वीरपुर लच्छी में शासन-प्रशासन की लापरवाही ने एक 17 वर्षीय बालिका आशा की जान ले ली। 24 मार्च को गांव में एक ढिल्लन स्टोन क्रेशर के लिए उपखनिज ले जा रही ट्रैक्टर ट्राॅली से उछला एक पत्थर आशा की कनपटी के ऊपर लगा। आशा को तुरंत ही अस्पताल में भर्ती कराया गया और अगले दिन उसकी मौत हो गयी। गांव वालों को बालिका की इस मौत ने झकझोर दिया और उन्होंने मामले का हल न होने तक बालिका का अंतिम संस्कार न करने का निर्णय लिया।
वीरपुर लच्छी गांव सबसे पहले उस समय चर्चा में आया था जब 1 मई 2013 को ढिल्लन स्टोन क्रेशर के मालिक सोहन सिंह व उसके दोनों बेटों ने अपने गुण्डों के साथ इस गांव में कहर बरपाया था। ग्रामीणों की झोंपडि़यों को आग के हवाले कर दिया गया, उन पर सीधे फायर किये गये और महिलाओं के साथ हद दर्जे का अमानवीय व्यवहार किया गया। उनके वक्षों पर बंदूक की बट रखकर आसमानी फायर किये गये। रायफलों की बटों से उनको बुरी तरह पीटा गया।
सोहन सिंह का स्टोन क्रेशर इस गांव के दूसरे छोर पर है जहां उपखनिज ले जाने व तैयार माल को वहां से लाने के लिए वीरपुर लच्छी के बीच सैकड़ों डम्पर गुजरते हैं। ग्रामीणों व सोहन सिंह के बीच इस बात पर समझौता हुआ था कि सोहन सिंह इस रास्ते पर पानी का छिड़काव करेगा ताकि रास्ते की धूल उनके घरों में न जाये। लेकिन सोहन सिंह ने इस समझौते का पालन नहीं किया। 1 मई को ग्रामीणों ने इसी समझौते का पालन करने के लिए उसके डम्परों के ड्राइवरों से कहा। इस पर सोहन सिंह व उसके दोनों बेटों ने अपने गुण्डों के साथ इस गांव में यह कहर बरपाया।
सोहन सिंह व उसके दोनों बेटे पहले भी ग्रामीणों को मारने-पीटने-धमकाने का काम करते थे। ग्रामीण अभी तक इनके आतंक के साये मेें रह रहे थे। लेकिन इस घटना ने उनके अंदर आक्रोेश भर दिया। उन्होेंने सोहन सिंह व उसके दोनों बेटों व अन्य के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करायी। इसी दौरान उन्हें रामनगर में स्थित सामाजिक संगठनों व प्रगतिशील संगठनों का साथ मिला। तभी जाकर सोहन सिंह व उसके दोनों बेटों को इस मामले में गिरफ्तार किया गया और उनको जेल भेजा गया। बाद में वे जमानत पर बाहर आ गये। 2 साल से यह मुकदमा कोर्ट में चल रहा है।
लेकिन इस बीच उसके स्टोन क्रेशर का काम बदस्तूर जारी रहा है। उसके डम्परों से लोग दुर्घटना के शिकार होते रहे हैं। परन्तु शासन प्रशासन हर दुर्घटना के बाद पूरी मुस्तैदी के साथ दुर्घटना के मूल कारणों को दबाता रहा है। ग्रामीण बार-बार डम्परों की तेज गति, उनमें भरे हुए अतिरिक्त उपखनिज से निकलने वाले भारी पत्थरों से लोगों के दुर्घटनाग्रस्त होने तथा वीरपुर लच्छी गांव में सड़क न होने के बावजूद डम्पर चलाने के खिलाफ आंदोलन करते रहे लेकिन शासन-प्रशासन सोहन सिंह के साथ खड़ा रहा।
वीरपुर लच्छी गांव में बुक्सा जनजाति के लोग ज्यादा संख्या में रहते हैं। ये लोग बेहद सीधे व सरल स्वभाव के हैं। सोहन सिंह ने कई साल पहले बुक्सा जनजाति के इस गांव में उनके खेतों की तरफ जाने वाली कच्ची सड़क व गूल को पाटकर सड़क बनायी और इसी सड़क से वह अपने डम्परों का परिचालन करता आ रहा है। जिस किसी ने भी विरोध करने की हिम्मत की या आवाज उठायी उसे बंदूक के जोर से कुचल दिया गया। शासन-प्रशासन सोहन सिंह के इस कृत्य पर अपनी आंखें मूंदें बैठा रहा। हां! 26 मार्च की बैठक में शासन-प्रशासन ने अपनी काहिली को कुछ इस तरह ढांपा। उसने कहा कि यह सड़क तो आपने सोहन सिंह के साथ मिलकर अपने हितों के लिए बनायी होगी। यानी पहले तो चोर का साथ दिया और चोर के पकड़े जाने पर कहते हैं कि घरवालों ने खुद चोरी करवायी वरना वह चोरी कैसे कर लेता।
लेकिन ग्रामीणों ने इस बार ठान लिया कि अगर आज इस मामले का कोई हल न निकला तो आगे भी डम्फरों से मौतें होती रहेंगी। कोर्ट में मुकदमा चलता रहेगा। उन्होंने प्रशासन से दो-टूक शब्दों में कहा कि यह रास्ता राजस्व विभाग के किसी नक्शे में नहीं है। अतः इस रास्ते पर डम्पर परिचालन एकदम बंद होना चाहिए। ठोस आश्वासन न मिलने की स्थिति में वे बालिका का अंतिम संस्कार नहीं करेंगे। अंत में प्रशासन को इस बात के लिए मजबूर होना पड़ा। और उसने लिखकर दिया कि यह रास्ता कृषि कार्यों व हलके वाहनों के लिए है। तथा 10 दिन के भीतर इस रास्ते, खेत व गूल की पैमाइश कर स्थिति साफ की जायेगी।
इस बीच दमन विरोधी संघर्ष समिति ने शासन-प्रशासन को इस घटना के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए उससे 10 लाख रुपये मुआवजे की मांग की है। रामनगर संवाददाता
तीन दिवसीय शहादत दिवस कार्यक्रमों का सफल आयोजन
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
रामनगर/ 23 मार्च भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव शहादत दिवस के मौके पर रामनगर, उत्तरखण्ड में प्रभात फेरी का आयोजन किया गया। तीन दिवसीय शहीद दिवस मनाते हुए गठित शहीद दिवस आयोजन समिति द्वारा 23, 24, 25 मार्च को विभिन्न कार्यक्रम किये गये। 23 मार्च की प्रभातफेरी प्रातः 5ः30 बजे लखनपुर चैक से शुरू होते हुए भगतसिंह चैक भवानीगंज तक निकाली गयी। प्रभात फेरी की शुरूआत ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ क्रांतिकारी गीत से की गयी। भगत सिंह चैक पर की गयी सभा में वक्ताओं ने भगतसिंह और उनके विचारों को याद किया। आज की समस्याओं से लड़ने के लिए इन विचारों की आवश्यकता को महसूस किया गया। शहीद चैक के निकट ही भगतसिंह पार्क जो कि जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है वहां जाकर माल्यार्पण किया गया। पार्क के सौन्दर्यीकरण की आवश्यकता महसूस की गयी।
23 मार्च को दिन मे 12 बजे आई.एम.पी.सी.एल. फैक्टरी मोहान में एक गेट मीटिंग की गयी। गेट मीटिंग में मजदूरों के संघर्षों में भगतसिंह के विचारों की आवश्यकता पर जोर दिया गया।
23 मार्च को शाम 5 बजे एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। विचार गोष्ठी व्यापार मंडल कार्यालय पर की गयी। गोष्ठी में वक्ताओं ने विस्तार से भगतसिंह के विचारों और आज के समय में उनकी प्रासंगिकता पर चर्चा की।
24 मार्च को शहीद पार्क में क्रांतिकारी कवि पाश को याद करते हुए कविता पाठ का कार्यक्रम किया गया। 23 मार्च के दिन ही कवि पाश की पंजाब में आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी गयी थी। पाश की कविताएं आजाद भारत के पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न को उजागर करती हैं। ऐसी ही प्रेरणादायी कविताओं का पाठ विभिन्न लोगों द्वारा किया गया। जिनके द्वारा पाश को श्रद्धांजलि पेश की गयी। कविता पाठ बल्ली सिंह चीमा, नवेन्दु मठपाल, एल.एम.पाण्डे, अजीत साहनी आदि ने किया। परिवर्तनकामी छात्र संगठन, इंकलाबी मजदूर केन्द्र व अन्य संगठन के साथियों द्वारा क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत किये गये।
25 मार्च को दोपहर 12 बजे नगरपालिका भवन में पत्रकार उमेश डोभाल की शहादत दिवस को याद करते हुए विचार गोष्ठी की गयी। पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या माफियाओं द्वारा 25 मार्च 1988 को पौड़ी, उत्तराखण्ड में कर दी गयी। उमेश डोभाल एक जुझारू, निर्भीक पत्रकार रहे हैं। जो कि दलितों की आवाजों को स्वर देते थे। गोष्ठी में उमेश डोभाल को श्रद्धांजलि देते हुए उनके पत्रकारिता जीवन को याद करते हुए आज के पत्रकारिता में कारपोरेट घरानों की दखलंदाजी पर चर्चा की गयी। उमेश डोभाल जैसे पत्रकार बनने की आवश्यकता को शिद्दत से महसूस किया गया।
उपरोक्त कार्यक्रम शहीद दिवस आयोजन समिति द्वारा बनाये व चलाये गये। समिति में परिवर्तनकामी छात्र संगठन, इंकलाबी मजदूर केन्द्र, प्रगतिशील महिलए एकता केन्द्र, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी, नौजवान भारत सभा, आर.डी.एफ., कर्मचारी शिक्षक संगठन, देवभूमि व्यापार मण्डल रामनगर और तमाम जागरूक नागरिकों द्वारा गठित किया गया। रामनगर संवाददाता
शहीद भगतसिंह की याद मे सभा
पंतनगर/ 23 मार्च को भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव के शहादत दिवस के मौके पर इंकलाबी मजदूर केन्द्र, ठेका मजदूर कल्याण समिति तथा वर्कर्स यूनियन, पन्तनगर के तत्वाधान मे गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के छोटी मार्केट के पीछे मैदान मे आयोजित सभा में मेहनतकश मजदूरों की पूर्ण आजादी के नायक महान क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के जीवन की चर्चा और उनके संघर्षों को याद कर श्रद्धांजली दी गई।
भारत में ऐसी व्यवस्था शोषणविहीन, वर्गविहीन समाजवादी राज का भगत सिंह का सपना साकार करने में उनकी विचार धारा से प्रेरणा लेकर समाजवाद के स्थापना के संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया। सभा का संचालन श्री मनोज कुमार ने किया व अध्यक्षता श्री सुनील मण्डल जी ने की। सभा से पूर्व ‘भगत सिंह की बात सुनो, समाजवाद की राह चुनो’ शीर्षक पर्चा मजदूर बस्तियों में घर-घर बांटा गया। पन्तननगर संवाददाता
शहीदों की याद में साइकिल रैली
हल्द्वानी/ 23 मार्च भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव के शहादत दिवस मनाते हुए हल्द्वानी-लालकुंआ में साइकिल रैली निकाली गयी। भगतसिंह ने कहा था ‘‘क्रांति का संदेश नौजवानों को गरीब बस्तियों, किसानों-मजदूरों के बीच ले जाना होगा।’’ साइकिल रैली गरीब बस्तियों, गांवों से होते हुए गुजरी। लाल झंडों, और जोशो-खरोश से निकली साइकिल रैली जहां से भी गुजर रही थी। वहां की फिजा में जोश भर दे रही थी। रैली के दौरान तमाम चैकों पर छोटी-छोटी सभाएं की गयीं।
परिवर्तनकामी छात्र संगठन के आह्वान पर साइकिल रैली में इंकलाबी मजदूर केन्द्र, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र व तमाम नागरिकों ने हिस्सेदारी की। हल्द्वानी संवाददाता
गणेश शंकर विद्यार्थीः एक परिचय
वर्ष-18, अंक-07(01-15 अप्रैल, 2015)
आज जब देश के किसी न किसी कोने से जब तब हम साम्प्रदायिक तनाव या हिंसा की खबर सुनते हैं तो शहीद-ए-आजम भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी व गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकारों की बरबस ही याद आ जाती है।
देश संघ द्वारा प्रायोजित हिन्दू फासीवाद की प्रयोगशाला बना हुआ है। अल्पसंख्यकों तथा उनके प्रार्थना स्थलों पर हमले किये जा रहे हैं। ऐसे में गणेश शंकर विद्यार्थी के बारे में जानना बेहतर होगा, जिन्हें कानपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के दौरान उन्मादी भीड़ ने मार डाला गया।
गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 में हथगांव में हुआ। उनके पिता मध्य प्रदेश के एक स्कूल में अध्यापक थे। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा वहीं से प्राप्त की। 1905 में हाई स्कूल पास किया आर्थिक तंगी के कारण वे अपनी आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सके। पढ़ाई बीच में रोककर उन्होंने करंसी आॅफिस में क्लर्क के पद पर नौकरी की तथा बाद में हाई स्कूल, कानपुर में अध्यापन का कार्य किया। परन्तु उनकी प्रमुख पसंद पत्रकारिता व समाज में चल रही गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी करना था।
देश में आजादी के आंदोलन के उभार के साथ गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता करने लगे। उन्होंने प्रारम्भ में कर्मयोगी तथा स्वराज में लिखना शुरू किया। गणेश शंकर विद्यार्थी ज्ञान की खोज में लगे रहने वाले व्यक्ति थे। इसी दौरान वे पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आये और द्विवेदी जी ने उन्हें सरस्वती पत्र में उप सम्पादक के पद पर कार्य करने के लिए आमंत्रित किया।
1913 में वे कानपुर वापस आ गये जहां उन्होंने अपने को एक जुझारू पत्रकार एवं स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्थापित किया। उन्होंने प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र प्रताप निकाला, जो 1920 में दैनिक पत्र के रूप में छपने लगा था। प्रताप पत्र जुझारू, गरीब मजदूर-किसानों तथा पददलितों की आवाज को उठाता था। इसका अधिकतर वितरण मजदूरों व किसानों के बीच होता था। उन्होंने अपने को देश के पददलितों व वंचितों के साथ जोड़ा। उन्होंने रायबरेली के प्रसिद्ध किसानों व मजदूरों के मुद्दों को अपने पत्र के माध्यम से उठाया। इस दौरान उन पर बहुत से मुकदमे चले, जिसके चलते गणेश शंकर विद्यार्थी पर आर्थिक दण्ड के अलावा पांच साल के लिए जेल भी जाना पड़ा। इसके अलावा उन्होंने कानपुर के टेक्सटाइल उद्योग में लगे मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व किया।
1920 में ही उन्हें किसानों के आंदोलन को आगे बढ़ाने पर दो साल का सश्रम कारावास दिया गया। 1922 में रिहा हुए परन्तु फतेहगढ़ में एक भाषण में राजद्रोह भड़काने के आरोप में पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। 1924 में वे रिहा हुए। इस दौरान उनकी सेहत बहुत तेजी से गिरी। 1925 में जब प्रांतीय विधान मंडलों के चुनाव हुए तो उसमें वे कानपुर से विजय घोषित हुए। 1929 तक उन्होंने विधान मंडल के सदस्य के बतौर काम किया। 1929 में उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व के कहने पर यह पद छोड़ दिया। 1929 में उŸार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गये। वे उत्तर प्रदेश में सत्याग्रह आंदोलन को नेतृत्व देने वाले पहले सत्याग्रही बने। 1930 में वे पुनः गिरफ्तार कर लिये गये।
गणेश शंकर विद्यार्थी वैसे तो कांग्रेसी लेकिन क्रांतिकारियों के लिए उनके दिल में बहुत प्रेम व श्रद्धा थी। वे क्रांतिकारियों की गुप्त रूप से मदद करते थे। कानपुर में प्रताप का कार्यालय क्रांतिकारियों का गढ़ हुआ करता था। भगत सिंह भी बलवंत सिंह के नाम से प्रताप में लेख लिखा करते थे। प्रताप शीघ्र ही राष्ट्रीय आंदोलन के साथ-साथ मजदूरों-मेहनतकशों की आवाज व धर्मनिरपेक्षता का एक सशक्त प्रतिनिधि व मुखर स्वर बन गया।
1930 में वे कांग्रेस के कराची अधिवेशन में हिस्सा लेने के जाने की तैयारी कर रहे थे कि कानपुर में दंगे फूट पड़े। गणेश शंकर विद्यार्थी अपनी जान की परवाह किये बगैर इन दंगों की आग बुझाने के लिए खुद इस आग में कूद गये। उन्होंने लगातार 5 दिनों तक हजारों हिन्दू-मुसलमानों की जान बचाई और वे दोनों तरफ के दंगाइयों को अपने नैतिक आग्रह से नफरत व हिंसा त्यागने की अपील करते दंगाग्रस्त शहर में घूमते रहे। इसी समय 25 मार्च, 1931 को दंगाइयों की उन्मादी भीड़ के हाथों वे मारे गये।
कुशीनगर में हिन्दू युवा वाहिनी की दहशतगर्दी पर अखिलेश सरकार चुप क्यों
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
लखनऊ, 27 फरवरी 2015। गोधरा कांड की तेरहवीं बरसी पर रिहाई मंच ने गुजरात के पूर्व डीजीपी आरबी श्रीकुमार का एक पत्र मीडिया में जारी करते हुए सपा सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने जानबूझकर गोधरा कांड के चश्मदीद यूपी के पुलिस अधिकारियों का बयान इस कांड की जांच कर रही एसआईटी के सामने नहीं होने दिया। रिहाई मंच ने कहा है गोधरा कांड के चश्मदीदों को छुपाना, 2007 में सपा सरकार के दौरान गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर भड़काऊ भाषण देकर पडरौना, कसया, गोरखपुर, मऊ समेत पूरे पूर्वांचल को दंगे की आग में झोंकने वाले भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के भाषण की पुष्टि होने के बावजूद उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं होने का ही परिणाम है माधवपुर कुशीनगर की घटना जहां डेढ़ सौ मुसलमानों को जान बचा कर गांव से भागना पड़ा है।
रिहाई मंच के प्रवक्ता शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने गुजरात के पूर्व डीजीपी आरबी श्रीकुमार के पत्र के हवाले से सपा सरकार और मुलायम सिंह पर भाजपा और संघ परिवार की सांप्रदायिक गतिविधियों का संरक्षण देने का आरोप लगाते हुए कहा कि सपा सरकार के इसी रवैये के कारण गोधरा कांड की एक महत्वपूर्ण असलियत सामने नहीं आ पाई जिसके सन्दर्भ में गुजरात पुलिस के पूर्व डीजीपी आरबी श्रीकुमार ने 27 मार्च 2012 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और 30 जुलाई 2012 को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को पत्र लिखकर तथ्यों को बताने की मांग की थी। श्रीकुमार ने मुख्यमंत्री को लिखे पत्र में बताया था कि अपै्रल/मई 2010 में उन्हें इसकी पुख्ता जानकारी मिली थी कि उत्तर प्रदेश सरकार ने अयोध्या से लौट रहे कारसेवकों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए प्रदेश के कुछ पुलिस अधिकारियों को उसी ट्रेन में भेजा था। जिसके बारे में उन्हें जानकारी मिली है कि इन पुलिस अधिकारियों ने साबरमती एक्सप्रेस की एस 6 बोगी में आग लगने की पूरी घटना को अपनी आंखों से देखा था। लेकिन बावजूद इसके सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त आरके राघवन के नेतृत्व वाली एसआईटी ने उत्तर प्रदेश के इन पुलिस अधिकारियों से कभी कोई पूछ-ताछ नहीं की। जिसके बारे में श्रीकुमार ने जस्टिस नानावटी कमीशन को भी मई 2010 में ही बता दिया था। जिसकी कापी उन्होंने अखिलेश यादव को भी भेजी थी। श्रीकुमार ने पत्र में आशंका व्यक्त की है कि यूपी पुलिस अधिकारियों से इसलिए पूछताछ नहीं की गई कि मोदी और तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी द्वारा टेªन को जलाने के पीछे मुसलमानों का हाथ बताने के झूठे प्रचार की पोल खुल सकती थी। उन्होंने पत्र में यह भी कहा है कि यूपी पुलिस के बयान एसआईटी के आग लगने के निष्कर्षों के विपरीत जा सकते थे, जिसके कारण उनके बयान नहीं दर्ज किए गए। क्योंकि अगर ऐसा होता तो संघ परिवार और भाजपा का मुस्लिम विरोधी अभियान नहीं चल पाता। यह पत्र जिसे उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर बीएल जोशी को भी प्रेषित किया है, में मुख्यमंत्री से अपील की थी कि वे उत्तर प्रदेश के उन पुलिस अधिकारियों को चिह्नित करें और उनके बयान जस्टिस नानावटी कमीशन और दूसरे उचित न्यायिक संस्थाओं के समक्ष रखवाएं, ताकि कानून के राज, लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता की रक्षा की जा सके।
रिहाई मंच के नेताओं ने आरोप लगाया कि इतने महत्वपूर्ण सवाल पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव द्वारा गोधरा काण्ड के चश्मदीद पुलिस अधिकारियों का ब्योरा छुपाना सपा के सांप्रदायिक चरित्र को उजागर करता है। भाजपा सांसद आदित्यनाथ के भड़काऊ भाषणों की पुष्टि राज्य सरकार की एजेंसियों द्वारा हो जाने के बाद या फिर रिहाई मंच द्वारा भाजपा विधायकों संगीत सोम, सुरेश राणा द्वारा सांप्रदायिकता भड़काने की घटना के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराने के बावजूद कार्रवाई का न होना सपा और भाजपा के गुप्त गठजोड़ को उजागर कर देता।
रिहाई मंच के नेता अनिल यादव ने कहा कि उत्तर प्रदेश के कुशीनगर इलाके के माधोपुर गांव में हिंदू युवा वाहिनी के गुंडों जिनके सरगना भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ हैं, के हमले से घबराए डेढ़ सौ मुसलमान अपने गांवों से भागने को मजबूर हो गए हैं लेकिन मुलायम सिंह और अखिलेश शादी-ब्याह में मोदी से गले मिलने में ही मशगूल हैं। वहीं एमनेस्टी इंटरनेशल जैसी संस्था की रिपोर्ट में मोदी के शासन में बढ़ती सांप्रदायिक घटनाओं में उत्तर प्रदेश को साम्प्रदयिक घटनाओं के लिहाज से सबसे प्रमुख रूप से चिह्नित किया जाना भी प्रदेश सरकार की साम्प्रदायिक राजनीति के संरक्षण को प्रमाणित करता है। उन्होंने कहा कि जब प्रदेश सरकार के कई मंत्रियों और एजेसियों की रिपोर्टों तक में योगी आदित्यनाथ द्वारा साम्प्रदायिक और भड़काऊ भाषण देने की बात कही जाती रही है फिर भी उनके खिलाफ कार्रवाई न किया जाना साबित करता है कि सपा सरकार उनका खुला संरक्षण कर रही है। उन्होंने कहा कि एक गांव के डेढ़ सौ मुसलमानों का अपनी जान बचाकर भागने पर भी सरकार की चुप्पी, उसके मुखिया का पारिवारिक भोज में मोदी से गले मिलना और काॅपोरेटपरस्त रेल बजट की तारीफ करना मजह संयोग नहीं है। सपा-भाजपा के सांप्रदायिक गठजोड़ का ही नमूना था कि मुसलमानों की गर्दन काटने वाले विवादित बयान में वरुण गांधी को सपा सरकार द्वारा क्लीनचिट दिलवाया जाना।
शाहनवाज आलम
प्रवक्ता, रिहाई मंच
09415254919
बांग्लादेशः सीमेन्ट फैक्टरी के ढहने से कई मजदूरों की मौत
वर्ष-18, अंक-06(16-31 मार्च, 2015)
12 मार्च को बांग्लादेश में सीमेण्ट फैक्टरी के ढहने से कई मजदूरों की मौत हो गयी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अभी तक 6 मजदूरों की मौत की पुष्टि हो गयी है। हालांकि यह संख्या अभी बढ़ सकती है क्योंकि करीब 100 मजदूर अभी भी मलबे के अंदर दबे हैं। इस बीच 40 मजदूरों को मलबे से बाहर निकाला जा चुका था।
यह सीमेण्ट फैक्टरी राजधानी ढाका से 355 किसी दूर मोंगल कस्बे में है। इसका संचालन सेना की इकाई सेना कल्याण संगठन के अधीन है। यह सीमेण्ट फैक्टरी इस संगठन के अधीन चलने वाला सबसे बड़ा संस्थान है। इस दुर्घटना ने एक बार फिर 2013 में राणा प्लाजा बिल्डिंग हादसे की याद ताजा कर दी जिसमें 1350 मजदूर मारे गये थे।
बांग्लादेश में बिल्डिंगों का रख-रखाव कितना खराब है इसका सहज अंदाजा इन हादसों से लगाया जा सकता है। निजी पूंजीपतियों की फैक्टरियों में दुर्घटनायें होना आम बात है लेकिन जब सेना द्वारा संचालित फैक्टरी में इस तरह के हादसे होते हैं तो मामला ज्यादा गंभीर हो जाता है। गम्भीर इस मामले में कि सरकारी संस्थानों में भी उत्पादन का लक्ष्य सिर्फ मुनाफा कमाना रह गया है मजदूरों का जीवन नहीं। सवाल उठता है कि क्या यह वही जन मुक्ति सेना है जिसने 1971 का मुक्ति युद्ध लड़ा था। और आज यह सिर्फ मुनाफे के लिए उत्पादन कर रही है।
आज कल बांग्लादेश में 1971 के युद्ध अपराधियों को सजा देने का कार्यवाही तेजी से हो रही है। क्या इस तरह के हादसे में मारे जाने वाले मजदूरों की हत्याओं के लिए कोई जिम्मेदार ठहराया जायेगा जिसे सजा होगी। इसका जबाव केवल मजदूर वर्ग ही दे सकता है।
एच एम टी घड़ी कारखाना मजदूरों द्वारा धरना-प्रदर्शन
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
एच एम टी घड़ी कारखाना जो कि सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है तथा उत्तराखंड के रानीबाग (नैनीताल) में 1982 में स्थापित किया गया था।सरकार द्वारा तब यह बात कही गई कि आर्थिक रूप से पिछड़े पर्वतीय क्षेत्र के युवाओं को रोजगार दिया जायेगा। एचएमटी को भारत में मैकेनिकल घडि़यों के उत्पादन के लिए जाना जाता है, जो कि अब बंदी की कगार पर है। लगभग 45 करोड़ रूपये के देशी-विदेशी ऋण से स्थापित यह कारखाना एचएमटी के मुख्यालय प्रबंधन की भेदभाव पूर्ण नीतियों व क्षमतानुरूप लक्ष्य न देने एवं कुप्रबंधन जैसे कारणों को छुपाने केे लिए कारखाने की बैलेंससीट में छेड़छाड़ कर कारखाने को बंद करने के प्रस्ताव को एचएमटी का उच्च प्रबंधन एवं बोर्ड गलत तथ्यों को सरकार को भेजता रहा है।
1992 में 1266 कर्मचारियों की तुलना में वर्तमान में यहां 524 कर्मचारी ही बचे हैं। जिनमें से अधिकतर की कार्यावधि 8 से 12 वर्ष बची हुई है। जिन्हें पिछले एक वर्ष से वेतन नहीं मिला है तथा मात्र जीवनयापन के लिए 4000 रू. मासिक दिया जा रहा है। जबकि उनका वास्तविक वेतन 25000 से 27000 रू. है। स्वास्थ्य सुविधा के रूप में जो एक डाक्टर यहा पर स्थाई रूप से रहता था उसे भी प्रबंधन ने सेवा मुक्त कर दिया है। 12 लाख रू. से अधिक का बिल होने के कारण दिसम्बर 2013 से फैक्टी की विद्युत आपूर्ति भी ठप्प है। जिस कारण डिफेंस का 50 लाख का आर्डर भी पेडिंग है। कारखाने में वर्तमान में घडि़यों के अतिरिक्त डिफेंस, आर एंड डी व अन्य कारखानों के कलपुर्जों का निर्माण किया जा रहा है व एचएमटी इंटरनेशनल के माध्यम से लगातार मैकेनिकल घडि़यों के आर्डर मिल रहे हैं। तथा कारखाने में पूर्व से चल रहे रक्षा अनुसंधान के करोड़ों रू. के आर्डर भी लंबित चल रहे हैं जो प्रबंधन की नीति व संसाधनों के अभाव में पूरे नहीं हो पा रहे हैं। इसकी सजा मजदूरों को दी जा रही है।
यह सब केन्द्र सरकार की 1991 से चल रही नई आर्थिक नीतियों के तहत हो रहा है। जिसमें सार्वजनिक उपक्रमों की खस्ता हालत दिखाकर या तो निजी हाथों में सौंपा जा रहा है या फिर बंद किया जा रहा है। जिसकी गाज एचएमटी घड़ी कारखाना-5 रानीबाग पर भी गिरी है। जिस कारण वहां के 524 मजदूर द्वारा 18 फरवरी से तीन दिन का सांकेतिक धरना दिया गया तथा फैक्टी को सुचारू रूप से चलाने की मांग की गई। धरना कारखाने की तीन मजदूर यूनियनों द्वारा दिया गया। इंकलाबी मजदूर केन्द्र व अन्य राजनीतिक पार्टियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मजदूरों की मांगों का समर्थन कर धरने में भागीदारी की। लेकिन प्रबंधन द्वारा इन पर लगातार वीआरएस/वीएसएस या स्थानांतरण का दबाव बनाया जा रहा है। जबकि कार्यरत कर्मचारियों का वार्षिक वेतन बिल लगभग 20 करोड़ रू. है। सूत्रों से पता चला है कि कर्मचारियों के लिए बनाये जा रहे वीआरएस/वीएसएस पैकेज का मूल्य लगभग 250 करोड़ रू. है। अगर इस रकम को बैंक में रखा जाय तो उसका वार्षिक ब्याज ही 22.50 करोड़ रू. आता है जो कि कर्मचारियों के वार्षिक वेतन से कहीं ज्यादा है।
लेकिन सरकार की मंशा फैक्टी को स्थाई रूप से चलाने के बजाय बंद करने की है। संयुक्त संघर्षशील मोर्चे के तहत लड़ रहे मजदूरों को सचेत रूप से इस बात को समझने की जरूरत है कि वर्तमान शासक उनकी इस मांग को मानने वाले नहीं हैं। इसलिए दलगत राजनीति को छोड़ मजदूरों को सड़कों पर उतरना होगा। यह लड़ाई केवल एक फैक्टरी की नहीं बल्कि आज पूरे देश भर के मजदूर वर्ग की है। चाहे वह सार्वजनिक क्षेत्र हो या निजी क्षेत्र, चाहे वह स्थाई मजदूर हो या अस्थाई मजदूर सभी इस जन विरोधी उदारीकरण की नीतियों के शिकार हैं। आज इन नीतियों को पलटे बगैर देश के मजदूर वर्ग की हालत में कोई सुधार संभव नहीं है। और इन नीतियों को पलटने के लिए देश भर के मजदूर वर्ग को एकजुट होना होगा। हल्द्वानी संवाददाता
बी.टेक. की बगैर जांची परीक्षा कापियां कबाडी के पास
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
उ.प्रदेश टेक्निकल यूनिवर्सिटी की बी.टेक. पंचम सेमेस्टर की परीक्षा कापियां कबाड़ी की दुकान में पायी गयीं। इन कापियों का तो मूल्यांकन भी नहीं किया गया था। तकनीकी शिक्षा देने वाली इस यूनिवर्सिटी की छात्रों को शिक्षित करने और उनका उचित मूल्यांकन करने के रुख का इस घटना से अच्छी तरह पता चलता है।
ये परीक्षा कापियां उत्तर प्रदेश के चिह्नित में एक कबाड़ी वाले के यहां मिलीं। अधिकतर कापियों में जनवरी 2015 की तारीख पड़ी थी। सेमेस्टर परीक्षा 22 दिसम्बर 2014 से जनवरी 2015 के अंत तक चली थीं। इनकी जांच भी नहीं की गयी थी और ये कबाड़ी के पास पहुंच गयीं। अधिकतर परीक्षा कापियां इलैक्ट्रोनिक्स व संचार तथा कम्प्यूटर साइंस विभाग की हैं। अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अंकतालिका में नम्बर कैसे दर्ज होंगे? इस घोर लापरवाही की सजा छात्रों को भुगतनी पड़ती है। जब परीक्षा कापियों को बगैर जांचे ही कबाड़ी को देना है तो फिर पढ़ाई-लिखाई में मेहनत क्यों की जाये? यूनिवर्सिटी को जब परीक्षा कापियों से ही मतलब नहीं है, जब परीक्षा कापियों में क्या लिखा है, इससे भी कोई लेना-देना नहीं है तो तकनीकी शिक्षा का क्या महत्व रह जाता है। शिक्षा व्यवस्था व परीक्षा प्रणाली द्वारा छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ का यह ताजा उदाहरण है।
वैसे तो पूरे ही देश से छात्रों-बेरोजगारों के साथ भद्दा मजाक और भविष्य से खिलवाड़ की जब-तब खबरें आती ही रहती हैं। कभी कोई पेपर लीक हो जाता है, कापियां जांचने में भारी लापरवाही की जाती है, उचित मूल्यांकन नहीं किया जाता, परीक्षा कराने में देरी होती है, परीक्षा परिणामों में ढ़ेरों त्रुटियां होना आदि इसके चंद उदाहरण हैं। लेकिन यह घटना तो हद दर्जे की लापरवाही और परीक्षार्थियों के साथ घटिया व्यवहार की श्रेणी में आती है।
हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और परीक्षा प्रणाली छात्रों-नौजवानों का उत्पीड़न करने वाली है। यह उत्पीड़न इस हद तक है कि छात्रों का आत्महत्या करना आम बात है। उक्त घटना में भी इस बात की भी संभावना है कि कड़ी मेहनत करने वाले छात्रों को जब आशानुरूप अंक न प्राप्त हो तो वे काफी निराशा में जा सकते हैं और आत्महत्या की ओर उन्मुख हो सकते हैं। हर साल पहले हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आते हैं और उसके बाद आती हैं असफल या कम अंक प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राओं द्वारा की गयी आत्महत्याओं की खबरें। पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में विद्यमान गलाकाटू प्रतियोगिता शिक्षा में और विशेष तौर पर प्रतियोगी परीक्षाओं में अपने को जाहिर करती हैं। परीक्षाओं में ‘अच्छे’ और ‘ऊंचे’ अंक पाने का दबाव छात्रों के संग अभिभावकों को भी घोर मानसिक यंत्रणा में पहुंचा देता है। छात्रों के लिए परीक्षाओं का समयकाल युद्धकाल के समान होता है। सबको रोजगार देने में अक्षम इस पूंजीवादी व्यवस्था में जो मुट्ठी भर भर्तियां निकलती भी हैं तो उसके लिए छात्रों-नौजवानों के मध्य भीषण प्रतियोगिता होती है। यह भीषण प्रतियोगिता किसी भी कीमत पर सफल होने के दबाव के साथ दोस्त को भी दोस्त नहीं रहने देती।
‘जम्मू कश्मीर आपदा राहत मंच’ की आय-व्यय का ब्यौरा
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
सितम्बर 2014 में जम्मू-कश्मीर में आयी आपदा ने भयानक तबाही मचाई। तमाम लोग मारे व लापता हो गये। घर-बार उजड़ गये, कारोबार चैपट हो गया था। इस भयानक तबाही के बावजूद प्रदेश व केन्द्र सरकार का रवैया बेहद निराशाजनक रहा।
जम्मू-कश्मीर के आपदाग्रस्त क्षेत्रों में अपनी क्षमताभर राहत पहुंचाने के लिए ‘नागरिक’ समाचार पत्र द्वारा 28 सितम्बर से 4 अक्टूबर तक वहां

इंकलाबी मजदूर केन्द्र, परिवर्तनकामी छात्र संगठन, प्रोगेसिव मेडिकोज फोरम, प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र, क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन सहित कई ट्रेेड यूनियनों के द्वारा चंदा व दवाइयां एकत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।
28 सितम्बर से 4 अक्टूबर तक चले चिकित्सा शिविर में स्थानीय नौजवानों ने भरपूर मदद की। 8 लोगों की टीम के रहन-सहन का भी इंतजाम स्थानीय लोगों द्वारा ही किया गया। चिकित्सा शिविर धरनूमांटी पोरा, स्थल, आरिगत्नू, नवोतु, सम्सीपोरा, नई बस्ती अनन्तनाग, श्रीनगर के खुरसु, राजबाग, मंदरबाग समेत एक दर्जन से अधिक स्थानों पर आयोजित किये गये। चिकित्सा शिविर में बड़ी संख्या में मरीजों का उपचार किया गया।
‘नागरिक’ समाचार पत्र द्वारा गठित ‘जम्मू-कश्मीर आपदा राहत मंच’ के बैनर तले एकत्रित की गयी धनराशि के इतर कई शहरों से दवाइयों के रूप में भी सहयोग प्राप्त हुआ था। यह ब्यौरे में दर्ज नहीं है। ब्यौरे में वही दवाएं शामिल हैं जो टीम द्वारा खरीदी गयीं। आय-व्यय का ब्यौरा इस प्रकार हैः(देखें तालिका)
1 लाख 27 हजार रुपये की धनराशि ‘नागरिक’ समाचार पत्र के पास सुरक्षित है जिसे भविष्य में ऐसे ही किसी संकट के समय व्यय किया जायेगा। सम्पादक
प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ फूटा आक्रोश
वर्ष-18, अंक-05 (01-15 मार्च, 2015)
बलिया, 24 फरवरी 2015 विकासखण्ड पन्दह ‘‘क्षेत्रीय संघर्ष समिति गढ़मलपुर-सहुलाई द्वारा आयोजित कार्यक्रम में स्थानीय सैकड़ों ग्रामीणों ने प्रा.स्वा. के. के गेट पर धरना एवं जनसभा की। स्थानीय ग्रामीणों ने पंचायत भवन से ‘हमारी मांगें पूरी हो’ नारा लगाते हुए जुलूस निकाला। जुलूस व जनसभा में क्रालोस, इमके व किसान फ्रंट सहित महिलाएं भी प्रतीकात्मक शामिल रहे।
ज्ञात हो गत वर्षों से गढ़मलपुर-सहुलाईपुर का प्रा.स्वा. केन्द्र भ्रष्टाचार व दुव्र्यवस्था का शिकार हो गया है। क्षेत्रीय जनता को चिकित्सीय सुविधा नहीं मिल रही है। इलाके में बीमार होने की अवस्था में जिला चिकित्सालय या अन्य अस्पताल 40-50 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। स्थानीय अस्पताल में चिकित्सक और दवा व फार्मेसिस्ट के न होने से जनता में आक्रोश बढ़ता गया। इसके लिए 24 जनवरी व 15 फरवरी 2015 को सक्षम उच्च अधिकारियों तक ग्रामीणों ने ज्ञापन दिया। किन्तु कोई सफलता नहीं मिली। अपनी सुविधाओं की मांग को लेकर ‘‘क्षेत्रीय संघर्ष समिति’’ ने 24 फरवरी 15 को स्थानीय अस्पताल में तालाबंदी की घोषणा कर दी।
‘‘क्षेत्रीय संघर्ष समिति’’ द्वारा पर्चा, पोस्टर, निकाल कर जनसमस्याओं के प्रति ग्रामीणों को जागरूक किया। ग्रामीणों के आक्रोश एवं जागरूकता से शासन-प्रशासन की नींद 24 फरवरी 2015 को 10बजे सुबह से पहले ही खुल गयी। अस्पताल में चिकित्सक, दवा और फार्मेसिस्ट आ चुके थे। जिला मुख्यचिकित्साधिकारी को सभी मांगें मान लेने का स्पष्ट निर्देश दे दिया। टीकाकरण में घूस एवं आशा कार्यकत्रियों का उत्पीड़न एवं शोषण बंद करने की भी हिदायत दी गयी। ग्रामीणों की मांगों को लिखित रूप में प्रभारी चिकित्साधिकारी द्वारा मान लिया गया। अंत में आयोजकों द्वारा शामिल जनता का आभार प्रकट करते हुए जनसभा खत्म कर दी गयी।
छोटा संघर्ष-छोटी जीत संघर्षों पर निर्भर करता है। उत्साह एवं जोश से भरपूर संघर्षाें से इसी तरह की समस्याओं के प्रति अपने अधिकारों के लिए सोचने-विचारने की जरूरत है। स्वास्थ्य संबंधी जनसमस्याओं की तरह बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा, महंगाई आदि से जीवन तबाह हो रहा है। इन समस्याओं के जरिए मौजूदा व्यवस्था को समझा जा सकता है। यह व्यवस्था जनविरोधी व्यवस्था है। किसी काम की नहीं है। जनविकास के नाम पर सन् 1990-91 से ही मजदूर-मेहनतकश जनता, किसानों, छात्रों-नौजवानों को बरगलाया जा रहा है। जनहित की संस्थाओं को ध्वस्त कर पूंजीपरस्त संस्थाओं को पूंजीपतियों के लाभ के लिए बढ़ावा दिया जा रहा है। जोश के साथ होश में सचेत समझदारी के साथ निरन्तर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष व एकजुटता बनाए रखने की जरूरत है।
बलिया संवाददाता
इम्पीरियल आटो: ठेका प्रथा, मेहनत की लूट और तरक्की की मिसाल
वर्ष-18, अंक-04 (16-28 फरवरी, 2015)
इम्पीरियल आटो की शुरूआत सन् 1969 में एक छोटी सी वर्कशाॅप से हुई थी। इसके मालिक जगजीत सिंह और श्याम बिहारी सरदाना हैं। 31 मार्च, 1998 तक यह पार्टनरशिप कंपनी में चलने वाली प्राइवेट और अपै्रल, 1998 से यह प्राइवेट लिमिटेड कंपनी हो गयी। एक वर्कशाॅप से शुरू होकर एक बड़े उद्योग का रूप बन चुकी है। फरीदाबाद में इसके 16 प्लांट हैं और रुद्रपुर, लखनऊ, जमशेदपुर, पुणे, चेन्नई, गुजरात में भी प्लांट हैं। अमेरिका और यूरोप में इसके केयर हाउस हैं जहां से अमेरिका और यूरोप की कंपनियों को सप्लाई होती है। श्यामबिहारी सरदाना का रतन टाटा के साथ खिंचा हुआ फोटो कई प्लांटों में लगा हुआ है। शायद रतन टाटा इनके आदर्श होंगे।
नाममात्र के स्थायी मजदूर: फरीदाबाद के 16 प्लांटों में नाम मात्र के स्थायी मजदूर हैं। ये 16 प्लांट फरीदाबाद के पूरे शहर में फैले हुए हैं। बदरपुर बार्डर, ओल्ड फरीदाबाद, सेक्टर-25, पृथला, ओल्ड फरीदाबाद, रेलवे स्टेशन के पास लगे प्लांट हैं। सेक्टर-25 व ओल्ड फरीदावाद रेलवे स्टेशन के पास वाले प्लांट में ही कुछ स्थायी मजदूर बचे हैं।
ठेकेदारी के मजदूर: सभी प्लांटों में ठेका प्रथा के तहत मजदूर भर्ती हैं। जब मर्जी रखे व जब मर्जी निकाल दिये जाते हैं। किसी भी प्लांट में एक ठेकेदार के तहत नहीं बल्कि 5-6 ठेकेदार के तहत रखे जाते हैं। ताकि इससे ये समझने में आता है कि भविष्य में मजदूर अपने शोषण के खिलाफ एकजुट न हो जायं। इसलिए हर प्लांट में 5-6 ठेकेदार द्वारा मैन पावर सप्लाई किया जाता है। किसी भी महीने के अंत में अगले महीने का आर्डर पता चल जाता है। उसी के अनुसार भर्ती व बे्रक होते रहते हैं। इस समय तो आॅटो सेक्टर में मंदी की वजह से कई प्लांट में सैकड़ों मजदूर निकाल दिये गये हैं। कुछ मजदूर 8-10 साल से काम कर रहे है। 6 महीने में या उससे पहले बे्रक कर देने या बे्रक दिखा देने से अर्थात रोल बदल देने से ठेकदार, फैक्टरी और सरकारी विभागों में जैसे ई.एस.आई., पी.एफ., लेबर डिर्पाटमेंट, लेबर कोर्ट सभी को फायदा ही फायदा है।
ठेकेदार और फैक्टरी को यह फायदा होता है कि मजदूर कई सालों से काम करने के बाद भी नया बना रहता है और कोई भी कानूनी अधिकार हासिल नहीं कर पाता है। ई.एस.आई. की लगातार किस्त जमा होने पर ही मजदूर सारी सुविधाओं का हकदार होगा। ई.एस.आई. कारपोरेशन यह कहता है कि चाहे वह ठेके का मजदूर क्यों न हो उसका ई.एस.आई. अंशदान पहले दिन से कटना चाहिए। तो सवाल उठता है उसकी हकदारी 6 महीने में क्यों? 6 महीनें में ब्रेक कर दिया जाता है। ब्रेक दिया जाता है या ब्रेक दिखा दिया जाता है या रोल बदल देने से मजदूर का स्थायी मजदूर के समान ही कटौती कराने के बावजूद लाभ नहीं उठा पाते हैं।
इम्पीरियल आॅटो में 800 के करीब स्टाफ व 8000 ठेकेदार के मजदूर कार्यरत हैं। 8000 मजदूर के फैक्टरी में कार्य करने के कारण 90 लाख से ज्यादा के करीब पी.एफ. विभाग को, 14 लाख से ज्यादा के ई.एस.आई., 50,000 के लगभग वेलफेयर फण्ड और 40 लाख के करीब ठेकेदार को मिलता है जो 15-20 ठेकेदारों में बंट जाता है। 2011 में वेलफेयर फंड ने हर फैक्टरी गेट पर बडे़-बड़े बैनर लगाये जिसमें मजदूरों के लिए बहुत सारी स्कीमें थीं। इसमें से एक स्कीम साइकिल की थी परन्तु 8000 मजदूर में से किसी को भी साइकिल नहीं मिली। ई.एस.आई. ने बुखार की गोलियों के सिवाय मजदूरों को क्या दिया? श्रीजी श्रीश्याम, स्वामी सुपर, एलाइट, पारस माधव, पूजा, जी ओस, के.के.इत्यादि ये नाम हैं जो इम्पीरियल आॅटो को मैन पावर सप्लाई करते हैं। फैक्टरी मजदूरों को बिजली की पावर के समान मैन पावर से ज्यादा कुछ नहीं समझती। बोर्ड द्वारा सप्लाई बंद होने पर फैक्टरी जनरेटर चलाकर पावर प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार एक मजदूर के न आने पर दूसरा मजदूर भर्ती कर लेती है। पी.एफ. का पैसा निकालने के लिए हर मजदूर परेशान हो जाता है। पता चलता है कि ठेकदार ने पी.एफ. का पैसा आर्गेनाईजेशन को जमा ही नहीं किया है। तीन-चार महीने का जमा किया है एक या दो महीने का फंड तो मजदूर निकालता ही नहीं है। पहले से मजदूर ठेकेदार के ईमान का भरोसा नहीं करता है और छोड़ देता है। ठेकेदारों के शरीर पर चढ़ी चर्बी और गाड़ी का माॅडल बता सकता है कि उसके लिए इस मामूली रकम ने क्या किया।
यही कारण हैं कि ठेकेदारी के मजदूर न तो फंड कटवाना चाहता है न ही ई.एस.आई.। पी.एफ. व ई.एस.आई. की सुविधा स्थायी मजदूर व स्टाफ उठा पाते हैं। ठेका प्रथा मजदूरों के लिए अभिशाप है तो फैक्टरी, ठेकेदार, पी.एफ., ई.एस.आई., लेबर वेलफेयर और सरकारी खजााने को भरने की कुंजी है।
इम्पीरियल आॅटो की नीति हर काम ठेके पर कराओ:
यहां हर काम ठेके पर कराया जाता है। उसमें से अधिकांश प्रोसेस को इम्पीरियल आॅटो छोटे-छोटे वर्कशाॅप में कराती है। इससे उसे फैक्टरी एक्ट व श्रम कानूनों से मुक्ति प्राप्त होती है। फैक्टरी में हर समय माल आता-जाता रहता है। एक प्रोसेस होकर आता है तो दूसरा प्रोसेस के लिए जाता है। वास्तव में प्रोडक्शन फैक्टरी के दीवारों के भीतर न होकर पूरे जिले भर में होता है। फैक्टरी तो वह स्थान है जहां माल तैयार होकर लगभग चैकिंग के लिए आता है और पैकिंग करके कस्टमर को भेज दिया जाता है।
ऐसा नहीं है कि सारे प्रोसेस वही होते हैं। फैक्टरी में जो प्रोसेस किये जाते हैं वह कुल प्रोडक्शन का मात्र 20 प्रतिशत होता है। फैक्टरी के अंदर जो प्रोसेस होता है उसे ठेके पर कराया जाता है। प्रत्येक प्रोसेस का ठेका पीस रेट पर दिया जाता है। ठेकेदार अपने मजदूर रखकर काम करवाता है। जैसे कटिंग का ठेका, बैल्डिंग का ठेका अलग। फैक्टरी के कई स्थाई मजदूरों ने अपने यूनियन के नेताओं से ये ठेका लिया हुआ है। ज्यादातर ठेकेदार ऐसे हैं जो पहले स्थायी मजदूर थे अब ठेकेदार बन गये हैं। ठेकेदारी के मजदूरों से काम फैक्टरी के स्टाफ द्वारा कराया जाता है। इम्पीरियल आॅटो की नीति है कि हर काम ठेके पर कराओ चाहे फैक्टरी के भीतर मशीनें शिफ्ट करना हो। माल को फैक्टरी और वर्कशाॅप का एक प्लांट से दूसरे प्लांट ले जाने के लिए गाडि़यों का भी ठेका, प्लांट को साफ रखने के लिए सफाई का ठेका इसके उदाहरण हैं।
ड्यूटी पर हर वक्त, हर काम अर्जेट: सुबह ड्यूटी जाते ही पर्सनल विभाग व सिक्योरिटी के हर आदमी वर्कर को देखते है कि जूता, वर्दी पहना है कि नहीं। नीली कलर टी-शर्ट ठेकेदार द्वारा 200 रूपये में दिया जाता है जो ठेकेदार पहली तनख्वाह में काट लेता है। जूता बाजार से लेना पड़ता है। जूता वर्दी होने पर ही गेट के अंदर आना पड़ता है। लगभग 12 घंटे के ड्यूटी में हर काम अति आवश्यक होता है। रात की शिफ्ट में काम बताकर स्टाफ अपने घर चला जाता है। हर लाइन में एक फोरमैन होता है जिसका काम करना होता है जो उसके 500-600 रूपये बढ़ाकर तनख्वाह होती है। वह खुद काम करेगा व दूसरे मजदूरों को देखेगा कि कौन काम करता है कि कौन नहीं। कितने बार बाथरूम, टायलेट जाता है। उसके बाद सुपरवाइजर व इंजीनियर को रिपोर्टिंग करनी पड़ती है।
ओवर टाइम का भुगतान: ओवर टाइम का भुगतान न्यूनतम वेतन 5648 रूपये के अनुसार दोगुना 47 रूपये प्रति घंटे की दर से बनता है। यहां तो सिंगल ओवर टाइम 23 रूपये प्रति घंटे की दर से भी नहीं मिलता है। हर प्लांट में ठेके के मजदूर को 16-17 रूपये प्रति घंटा ओवर टाइम दिया जाता है। ओवर टाइम की दर के मामले में देश की नंबर एक कंपनी है। रात में रुकने पर 50 रूपये फूडिंग का पैसा मिलता है वह भी शाम को नहीं मिलता है। एक-दो हफ्ते बाद दिया जाता है वह भी ठेकदार या स्थायी मजदूरों द्वारा दिया जाता है। इससे ये लोग कुछ पैसा तो मार ही देते हैं।
इम्पीरियल आॅटो के ठेकेदारी के मजदूर 8 घंटे से ज्यादा या ओवर टाइम नहीं करना चाहते हैं क्योंकि ओवर टाइम का भुगतान डबल तो छोड़ सिंगल से आधे दर से भुगतान किया जाता है। जोर-जबरदस्ती ओवर टाइम पर रोकना, ये कहना कल से मत आना, प्रबंधन द्वारा हर समय ओवर टाइम के लिए दबाव बनाया जाता है। ओल्ड फरीदाबाद रेलवे स्टेशन के पास वाले प्लांट में कैंटीन है जो 25 रुपये थाली व 5 रुपये की चाय मिलती है। किसी भी प्लांट में न कैंटीन है न ही लंच करने की कोई एरिया या जगह है। कार्यस्थल पर इधर-उधर लंच करना पड़ता है। यह बेहद असुविधाजनक और अपमानजनक भी होता है।
इम्पीरियल आॅटो का मिशन है कि यह भारतीय बाजार में आॅटो मोटिव ट्यूब एवं हौज उद्योग में अविवादित लैंडिंग कंपनी बनना चाहती है। मजदूरों के शोषण पर भारत से होकर विदेशों में कंपनी व वेयर हाउस होना इसके उदाहरण हैं। ठेका प्रथा के तहत काम करना मजदूरों के श्रम कानून को लागू न करना, ये सब सरकार व पूंजीपति के गठजोड़ से हो रहा है। अपनी लड़ाई मजदूर को खुद ही लड़नी होगी। फैक्टरी मालिक के खिलाफ से लेकर और इस पूंजीपतियों के राज को उखाड़ फेंकने के लिए लड़ना होगा। जिसका सपना भगत सिंह देखा करते थे कि जब तक भ्रष्ट व्यवस्था जो शोषण और अन्याय पर टिका है, बना रहेगा। पूंजीपतियों के राज के खात्मे के लिए लड़ाई को तेज करना होगा कि यह आज मजदूर वर्ग के कंधे पर है कि वह आगे आये और संघर्ष के लिए उठ खड़े हों। फरीदाबाद संवाददाता
बेलसोनिका आॅटो कम्पोनेन्ट के मजदूर और पूंजीवादी कानून
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
बैलसोनिका आॅटो कम्पोनेन्ट इण्डिया कम्पनी आईएमटी मानेसर गुड़गांव के सेक्टर-8, प्लाट न. 1 में मारुति कम्पनी की चारदिवारी के अंदर है और मारुति कम्पनी की बैण्डर है।
इस कम्पनी का एमडी काजुताका सुजुकी है और जेएमडी ईशीकाशा है। सन् 2008 में यह कम्पनी लगी थी। उस समय कम्पनी में 150 मजदूर काम करते थे और सन् 2010 में कम्पनी का विस्तार दुगुना हो गया। और इस समय इसमें 500 मजदूर काम करते हैं।
कम्पनी में फोर व्हीलर के कम्पोनेन्ट जैसे चेसिस बनाये जाते हैं। शुरूआत में सिर्फ दो गाडियों या माॅडलों के चेसिस बनाये जाते थे फिर 2010 में चार माॅडलों के और आज कई सारी गाडि़यों जैसे- एसएक्स-4, स्विफ्ट- वीडीआई आदि के चेसिस बनाये जाते हैं।
अभी कुछ समय पहले कम्पनी के मजदूरों ने यूनियन गठित करने की कार्यवाही शुरू की। यूनियन बनाने के पीछे मजदूरों के काम की बुरी परिस्थितियां और ट्रेनिंग के मजदूरों की ट्रेनिंग खत्म न होना था जबकि इनको ट्रेनिंग करते-करते तीन-चार साल हो गये थे।
लेकिन श्रम विभाग ने उन 44 मजदूरों के नाम कम्पनी को बता दिये जिन्होंने यूनियन बनाने के लिए हस्ताक्षर किये हुए थे। कम्पनी ने उन मजदूरों को परेशान करना शुरू कर दिया। इन मजदूरों को अकेले में रखना, किसी और मजदूरों से न मिलने देना और यहां तक कि बाउंसरों के द्वारा भी धमकाने का काम किया जाने लगा।
कम्पनी ने यूनियन न बनने के देने के लिए एक चाल और चली। उसने ट्रेनिंग कर रहे मजदूरों को भी स्थायी मजदूर दिखा दिया। अब स्थायी मजदूरों की संख्या बढ़कर 452 हो गयी। जबकि यूनियन की फाइल 89 स्थायी मजदूरों के हिसाब से लगी थी। मजदूरों ने नये आंकड़ों के हिसाब से फाइल लगाई और कार्यवाही आगे बढ़ गयी।
10 अक्टूबर 2014 को जब यूनियन का रजिस्ट्रेशन नम्बर 1983 आया तो कम्पनी ने एक झटके में ही इन 44 मजदूरों को काम से बाहर निकाल दिया। जब मजदूरों ने कारण पूछा तो कहा कि उनको निलम्बित कर दिया गया है, कारण आपके घर पहुंच जायेगा।
इस पूरी घटना की सूचना मजदूरों ने श्रम विभाग पुलिस विभाग गुड़गांव, लेबर इंस्पेक्टर गुड़गांव, डीएलसी गुड़गांव और श्रम विभाग चण्डीगढ़ को लिखित रूप में दी। इसके बाद भी कम्पनी ने मजदूरों को निकालने का सिलसिला बंद नहीं किया और और जबरन आईडी कार्ड छीनकर बाहर निकाल दिया जाता था। और आज लगभग 84 (स्थाई+ट्रेनिंग के मजदूर) और 54 (ठेकेदारी के मजदूर जो पिछले चार-पांच सालों से कम्पनी में काम कर रहे थे) यानी कुल मिलाकर 138 मजदूरों को प्रबंधक कम्पनी से निकाल चुकी है। जिसमें से 24 मजदूर ऐसे हैं जिन्हें निकालने के 10 दिन बाद टर्मिनेट कर दिया गया है।
2 नवम्बर को मजदूरों ने जुलूस निकाला और कम्पनी प्रबंधकों, श्रम विभाग, पुलिस विभाग के खिलाफ ज्ञापन डीसी महोदय को दिया। डीसी महोदय ने एक सप्ताह के भीतर कार्यवाही करने का आश्वासन भी दिया परन्तु सब पहले जैसा ही चलता रहा। प्रबंधक, श्रम विभाग की मध्यस्थता में वार्ता की जो तारीखें लगीं वे केवल औपचारिकतायें निभाने के लिए ही थीं।
5 नवम्बर को मजदूरों को वापिस लेने की मांग को लेकर डीएलसी जे.पी.मान के कार्यालय के सामने नारेबाजी की तो डीएलसी ने 7 नवम्बर को प्रबंधक के साथ मीटिंग करके मामले को सुलझाने का आश्वासन दिया परन्तु आज एलओ व डीएलसी में 3 तारीख लग चुकी हैं और 3 दिसम्बर को डीएलसी से रेफर होकर केस एएलसी आॅफिस में आ गया था। एएलसी में 3 तारीखें लग चुकी हैं। इस बीच प्रबंधक मजदूरों को निकाल रहा है और धमका रहा है। झूठे केसों में फंसाने की कोशिशें भी कम्पनी की जारी हैं। इसके लिए कम्पनी में एचआर मनोज ने अपने परिचित मजदूर राजशेखर के माध्यम से यूनियन पदाधिकारियों यशवीर, अतुल और सुभाषचन्द्र पर 11 जनवरी को मारपीट का केस करवा दिया। जबकि 11 जनवरी को सुभाषचन्द्र अपने गांव में किसी के दाह संस्कार में गया हुआ था और यशवीर भी अपने गांव में लड़की की तबियत खराब होने पर गया हुआ था। इस बात की पुष्टि दोनों के ग्राम प्रधानों ने की। केवल अतुल ही शहर में था। इस झूठ के पर्दाफाश हो जाने पर भी पुलिस ने राजशेखर व मनोज के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।
कम्पनी प्रबंधन गेट पर ही मजदूरों को बाउंसरों व सिक्योरिटी गार्ड के द्वारा धमका रहा है कि यूनियन का साथ दिया तो उनके साथ कुछ भी हो सकता है। जबरन कार्ड छीनकर कागजों पर हस्ताक्षर करवाये जा रहे हैं।
दूसरी तरफ कम्पनी में ठेकेदारी के तहत छः छः महीने के कान्ट्रेक्ट पर लगभग 200 मजदूरों की भर्ती की जा चुकी है जिनको 7200 रुपये दिये जा रहे हैं। जिनमें 1500 रुपये का अटेन्डेस अवार्ड है यानी कि कोई छुट्टी न करने पर ही ये मिलेंगे। एक छुट्टी करने पर 1000 व दो छुट्टी करने पर 500 भी काट लिये जायेंगे।
गुड़गांव संवाददाता
न्याय के लिए सड़कों पर उतरी महिलाएं
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
19 जनवरी को रामनगर जिला नैनीताल में महिलाओं का एक जुलूस शहर में निकला। जुलूस में कई तलाक सम्बन्धी मामलों को कोर्ट में लड़ रही महिलाएं, समाज की तमाम जागरूक महिलाएं-पुरुष शामिल रहे।
महिलाओं की उपरोक्त मांगें समाज में महिलाओं की स्थिति और भारतीय कानून व्यवस्था की स्थिति को तीखे ढंग से उजागर कर देती हैं। ससुराल में पीडि़त महिलाएं यूं तो समझौता कर-करके अपना पूरा जीवन मार खाकर अपमानित होकर गुजार देती हैं। परन्तु कई महिलाएं साहस करके कानूनी ढंग से रिश्ते को खत्म कर अपना नया जीवन शुरू करना चाहती है। ऐसी महिलायें न्याय के लिए न्यायालयों के चक्कर काटती रहती हैं। गरीब महिलायें कोर्ट के चक्कर, वकीलों की फीस आदि से बहुत तंग हाल हो जाती हैं। कानूनी तौर पर तलाक हो जाने के बाद न्यायालय द्वारा तय भरण-पोषण से पीडि़त होकर रामनगर की महिलाएं अंततः सड़कों पर उतरने को मजबूर हुई हैं।
19 जनवरी से कार्यक्रम से पूर्व प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र व अन्य समाजसेवी महिलाओं द्वारा ऐसी महिलाओं से सम्पर्क कर जगह-जगह बैठकें की गयीं। मालधन, हिम्मतपुर डोटयाल, थारी आदि स्थानों पर बैठकें आयोजित की गयीं। इन बैठकों में ही 19 जनवरी को शहर में विरोध प्रदर्शन का कार्यक्रम बनाया गया। बैठक में उपस्थित महिलाओं द्वारा कार्यक्रम को जोरदार सहमति दी गयी। 19जनवरी को शहर में जुलूस निकाला गया। एस.डी.एम. कार्यालय के समक्ष एक सभा भी की गयी। सभा को सम्बोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा कि-महिला सशक्तीकरण, सुरक्षा की बातें करती रही हैं किन्तु पीडि़त महिलाएं न्यायालयों के चक्कर काट रही हैं। उन्हें सुरक्षित, सशक्त जीवन देने में पूंजीवादी व्यवस्था की अक्षमता इसी बात से दिख जाती है। इस व्यवस्था की कानून की किताबों में तो तमाम बातें लिखी गयी हैं किन्तु व्यवहार में लागू होते वक्त ये बातें बेमानी हो जाती हैं। भारतीय अदालतों में न्याय की कछुआ गति के कारण तमाम महिलायें तो कोर्ट-कचहरी से बचती हैं। जो महिलाएं न्यायालयों का रास्ता अपनाती भी हैं वे थक हारकर न्यायालय से बाहर बेहद अपमानजनक शर्तों पर समझौता कर लेती हैं। कहावत है कि देरी से मिला न्याय अन्याय के बराबर होता है।
पीडि़त महिला गीता व अनीता रावत ने बताया कि वे ससुराल में बेहद प्रताडि़त की जाती थीं। मुकदमों में खर्च की वजह से उनके माता-पिता और खुद उन पर भारी बोझ पड़ रहा है। जो सब कुछ वे झेल रही हैं वही सब कुछ अन्य कई महिलाएं भी झेलने को मजबूर हैं। किसी के मुकदमों को 2 साल हो गये तो कई के मुकदमों को 8 साल तक हो गये। इतने साल बीत जाने के बाद भी वे वहीं के वहीं हैं। इतने वर्ष असमंजस व मुकदमेबाजी के कारण उन्हें नया जीवन जीने में बड़ी कठिनाइयां आ रही हैं। न्यायालयों की यह लेट-लतीफी उनके जीवन को गहरे ढंग से प्रभावित कर रही है। सभा के अंत में मुख्यमंत्री को एस.डी.एम. के माध्यम से तीन सूत्रीय मांग पत्र भेजा गया।
महिलाओं की मांगें
1. महिलाओं के भरण-पोषण व तलाक सम्बन्धी मुकदमों की सुनवाई हेतु फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन कर 6 माह के भीतर मुकदमों का निस्तारण सुनिश्चित किया जाए।
2. महिलाओं के लिए न्यायालय द्वारा निर्धारित भरण-पोषण की राशि का पति/परिजनों द्वारा भुगतान न किये जाने पर भरण-पोषण की राशि के भुगतान की जिम्मेदारी सरकार स्वयं उठाए।
3. महिलाओं के तलाक व भरण-पोषण से सम्बन्धित मुकदमों की पैरवी हेतु न्यायालयों में विशेषज्ञ वकीलों का पैनल गठित किया जाए तथा वकीलों की फीस का भुगतान सरकार द्वारा किया जाए।
सभा को विमला आर्य, महेश जोशी, गीता, मुनीश कुमार, कमलेश, पंकज आदि ने सम्बोधित किया। सभा का संचालन प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की ललिता रावत ने किया। रामनगर संवाददाता
ओमेक्स ग्रुप की कम्पनी में मजदूरों का असंतोष
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
गुड़गांव क्षेत्र में ओमेक्स ग्रुप की कई कम्पनियां हैं। पर तीन बड़ी कम्पनियां काफी महत्व की हैं। इनमें आमेक्स मानेसर(आईएमटी), ओमेक्स धारूहेडा और आॅटो ओमेक्स बिनोला। बिनौला प्लांट इन सबसे पुराना है। 1995 में यह गुड़गांव में था उसके बाद बिनौला गया। बिनौला के प्लांट के दम(मजदूरों के शोषण) पर ही आईएमटी मानेसर का प्लांट लगा। इसके बाद और भी प्लांट लगे।
इन कम्पनियों में एचएमएस से सम्बद्ध यूनियनें हैं। और गुड़गांव क्षेत्र में काफी अहमियत भी रखती हैं। लम्बे समय से तीनों प्लाण्टों में तीन सालाना सेटलमेंट रुका पड़ा है। प्रबंधक कोई बात भी करने को तैयार नहीं है। ओमेक्स धारूहेडा का लगभग 10-11 महीने से सेटलमेण्ट रुका पड़ा है जिसको लेकर 20 नवम्बर 2014 को तीनों प्लांटों के ए और बी शिफ्ट के मजदूरों ने काम बंद कर दिया और शाॅप फ्लोर पर बैठ गये। देर रात जाकर श्रम विभाग की मध्यस्थता में फैसला हुआ।
आॅटो ओमेक्स बिनौला के संदर्भ में तय हुआ कि 25 दिसम्बर को मांग पत्र पर फैसला कर लिया जायेगा। कम्पनी 20 नवम्बर की घटना को लेकर बदले की भावना से काम नहीं करेगी। और कम्पनी के 20 नवम्बर को ए शिफ्ट में चार घंटे व बी शिफ्ट में चार घंटे बंद रहने के एवज में 21 व 22 नवम्बर को 10-10 घंटे काम करके पूरा कर लिया जायेगा।
मजदूरों की तरफ से शर्ताें पर पूरा अमल किया गया। परन्तु कम्पनी ने आज तक भी मांग पत्र पर बातें नहीं की हैं। लगभग 7 महीने से एलओ के यहां केस चल रहा था और अब डीएलसी गुड़गांव के पास है। इसी सम्बन्ध में 13 जनवरी से सभी मजदूरों ने कम्पनी में खाने व चाय का बहिष्कार कर दिया। परन्तु उत्पादन नहीं बंद किया। इस असंतोष को प्रदर्शित करने के बाद भी प्रबंधन बात नहीं कर रहा है। वह अडियल रुख अपनाया हुआ है। वह मजदूरों को मजबूर कर रहा है कि वह उग्र संघर्ष को बाध्य हों। गुड़गांव संवाददाता
पूंजीवादी व्यवस्था के पर्दे को नोंचता अस्ती के मजदूरों का संघर्ष
वर्ष-18, अंक-03(01-15 फरवरी, 2015)
अस्ती के प्रबंधकों द्वारा 310 ठेका मजदूरों को 1 नवम्बर को निकाल देने के बाद अस्ती के मजदूरों का संघर्ष शुरू हुआ। 3 नवम्बर को मजदूरों द्वारा श्रम विभाग में डीएलसी के यहां शिकायत पत्र लगाया जिसकी पहली तारीख 9 नवम्बर को लगाई। लेकिन 9 तारीख और उसके बाद मिलने वाली कई तारीखों में भी मजदूरों को न्याय नहीं मिला।
इस बीच मजदूरों ने भूख हड़ताल भी की। जुलूस भी निकाले परन्तु श्रम विभाग के कानों पर जूं नहीं रेंगी। अलबत्ता वह तारीखों पर तारीखें देकर ठेकेदार व प्रबंधक को इस बात के लिए समय देता रहा कि वह मजदूरों को बहला-फुसला कर या डरा-धमकाकर उनका हिसाब कर दे। ठेकेदार व प्रबंधक इस बात में सफल भी रहे और कई मजदूर हिसाब लेकर चले गये। लेकिन बाकी बचे मजदूर संघर्ष के मैदान में डटे रहे। हां! पुलिस-प्रशासन ने भी अपनी बारी में मजदूरों को धमकाकर आंदोलन खत्म करने के प्रयास किये।
6 जनवरी को भी श्रम विभाग ने तारीख रखी परन्तु उसमें भी फैसला न होने पर उसने खानापूर्ति के लिए 7 जनवरी की तारीख लगा दी। इस तारीख पर प्रबंधक ने 2011 वाले और पीसीबी डिपार्टमेंट के मजदूरों को लेने से मना कर दिया। और फिर हिसाब लेने पर बात होने लगी। श्रम विभाग के सभी अधिकारियों ने भी हाथ खड़े कर दिये कि हम इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो मजदूर की हिम्मत टूट गयी और थक-हारकर मजदूरों को हिसाब लेना पड़ा। लेकिन 2011 के और कुछ मजदूरों ने फैसला लिया कि वे सब मिलकर केस डालेंगे। इन मजदूरों की संख्या 30-40 है।
इन मजदूरों में से कई मजदूरों को काम करते हुए कई-कई साल हो गये हैं। लेकिन कम्पनी ने इनको स्थाई नहीं किया है। ये मजदूर उत्पादन में स्थाई प्रकृति का काम करते थे अतः श्रम कानूनों के हिसाब से 240 दिन के बाद इन्हें स्थायी किया जाना चाहिए था। कुशल मजदूरों का काम करने पर भी इन्हें हेल्पर का वेतन दिया जाता था अतः पिछला वेतन इन्हें कुशल मजदूरों के हिसाब से दिया जाये इस बात की मांग भी वे केस डालने के दौरान उठायेंगे।
जब इन मजदूरों ने केस डालने का फैसला लिया तो ठेकेदार इन मजदूरों को केस न डालने के लिए मना रहा है। और जो लोग इन मजदूरों का साथ दे रहे हैं उनको धमका रहा है। पहले यही ठेकेदार मजदूरों से कहता था कि आप लोग अपना वेतन ले लो और कम्पनी पर केस कर दो। उसका तो पीछा छूटे।
मजदूरों ने अपनी मीटिंग कर 8 मजदूरों की एक कमेटी चुनी है जो केस का मामला देखेगी। सबसे पहले एक सामूहिक मांग पत्र तैयार किया जायेगा जो श्रम विभाग में डाला जायेगा और फिर लेबर कोर्ट के माध्यम से केस आगे बढ़ाया जायेगा।
इस पूरे आंदोलन ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि परिस्थितियां उनके काफी खिलाफ हैं। उन्हें और ज्यादा शिद्दत से अपने आंदोलनों को लड़ना होगा। इस आंदोलन में स्थायी व ठेकेदारी के मजदूरों की एका न बन पाना भी आंदोलन के लिए चुनौती बना तो जिन कानूनों का निर्माण भी अभी नहीं हुआ है उनको लागू करने का काम भी प्रशासन ने शुरू कर दिया है। गुड़गांव संवाददाता
लालकुंआ में दंगा भड़काने की कोशिश फिलवक्त नाकाम
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
एक लड़का और एक लड़की के सामान्य से प्रेम सम्बन्ध कैसे ‘लव-जिहाद’ का मामला बन जाता है तथा उसके कारण पूरे शहर का माहौल कैसे साम्प्रदायिक हो जाता है। इसका एक ताजा उदाहरण उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले में स्थित लालकुंआ शहर में सामने आया।
लालकुंआ में 10 दिसम्बर को बियरशिवा (हल्द्वानी) में पढ़ने वाली कक्षा 9 की छात्रा (16वर्ष) लंच टाईम के बाद छुट्टी लेकर स्कूल से बाहर आ जाती है। रोज के समय तक जब वह अपने घर नहीं पहुंचती है, तब घर से स्कूल फोन करने पर पता चलता है कि वह लंच टाइम में घर चली गयी थी। खोजबीन करने के बाद घर वाले रिपोर्ट लिखवाने के लिए थाने पहुंचते हैं। वे एक मुस्लिम लड़के (उम्र 17 वर्ष) पर लड़की के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करवाते हैं। दोनों पांच दिन तक शहर से बाहर रहते हैं। इसी बीच लालकुंआ शहर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भाजपा के लोगों को साम्प्रदायिक माहौल तैयार करने का समय मिल जाता है।
लड़का और लड़की एक दूसरे को पिछले लम्बे समय से जानते थे और पिछले एक डेढ़ साल से एक दूसरे से प्रेम करते थे। इस एक-डेढ़ साल में वे दोनों दो बार पहले भी शहर से बाहर घूमने के लिए गये थे। तब शहर के कुछ लोगों ने उनको समझा-बुझाकर घर वापस भेज दिया था। लेकिन उसके बाद भी लड़का-लड़की एक दूसरे से मिलते रहते थे, नैनीताल घूमने जाते थे, खरीदारी करते थे और इस बात की हकीकत लड़के और लड़की दोनों के परिवार वालों को पता थी।
लेकिन इस बार जब वे घूमने गये तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भाजपा के लोगों ने इसे ‘लव-जिहाद’ का मामला बना दिया। 11 दिसम्बर को थाने में जमकर हंगामा काटा। आरोप लगाया कि उनकी नाबालिग लड़की का मुस्लिम लड़के ने अपहरण कर लिया है। भाजपा, संघ, बजरंग दल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की बैठकें होनी शुरू हो गयीं। 12 दिसम्बर को करीब 12 बजे शहर में संघी मानसिकता वाले लोगों ने एक जुलूस निकाला, जिसमें ‘लड़के को फांसी दो’ और पुलिस प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी की गयी। जुलूस में संघी मानसिकता वाले लोगों के बीच आपस में ‘लड़के के घर में आग लगा दो’, ‘लड़के के घर की महिलाओं को बाहर खींचकर निकालो’ तथा ‘लड़के की जो मदद कर रहा है उसको मारो’ आदि बातें हो रही थीं। जुलूस के बाद जुलूस के नेतृत्वकर्ताओं से शहर के कोतवाल ने सख्त होकर कहा कि वे अपना काम कर रहे हैं। तुम शहर का माहौल बिगाड़ने की कोशिश न करो वरना तुम्हारे ऊपर कार्यवाही की जायेगी। इस जुलूस से सारे शहर में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो गया और सारे शहर में अफवाह फैल गयी कि इस घटना की वजह से पूरा बाजार बंद है और एक और जुलूस शाम को निकलेगा। लेकिन उस दिन शुक्रवार था और शुक्रवार के दिन लालकुंआ का बाजार वैसे ही बंद रहता है।
12 दिसम्बर को रात को कांग्रेस व भाजपा की अलग-अलग बैठकें इसी मुद्दे पर आयोजित की गयीं। 13 दिसम्बर की शाम को कांग्रेस, भाजपा, संघ, विद्यार्थी परिषद, बजरंग दल तथा सपा की एक संयुक्त बैठक सुविधा होटल में आयोजित की गयी। जिसमें 30-35 लोग शामिल थे। इस बैठक में एक महापंचायत बुलाने की योजना बनाई गयी। 14 दिसम्बर की सुबह से प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र तथा परिवर्तनकामी छात्र संगठन के चार लोग शहर के प्रतिष्ठित लोगों से मिलने निकले, उससे पहले ये लोग 12-13 दिसम्बर को लड़़के के परिवार तथा मौहल्ले के लोगों से मिल चुके थे।
इसी बीच 14 दिसम्बर को करीब 11ः30 बजे ये संगठनों के लोग व्यापार मण्डल के अशोक अग्रवाल से मिलने पहुंचे तो वहां पर संघ, भाजपा, बजरंग दल सहित 8-10 लोग उपस्थित थे। जब इन चार लोगों ने पूछा कि इस मामले पर वे लोग आगे क्या कर रहे हैं? तब उन्होंने बताया कि एक महापंचायत करने की योजना थी, पुलिस प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए कि जल्द से जल्द लड़की को ढूंढ कर लाये। लेकिन लड़का और लड़की को पुलिस ने पकड़ लिया है तो देखते हैं कि वे महापंचायत करेंगे या नहीं क्योंकि इसका उद्देश्य पुलिस प्रशासन पर दबाव बनाने का था। अभी सब लोग बातचीत कर रहे हैं। संगठनों के लोगों द्वारा पूछने पर कि इस महापंचायत में वे लोग भी आ सकते हैं। तब अशोक अग्रवाल ने कहा कि हां-हां यह नगर के सभी लोगों के लिए है। इसमें सभी लोग आमंत्रित हैं। वे भी आ सकते हैं लेकिन अभी बात हो रही है कि महापंचायत करें या नहीं। इसलिए वे लोग एक काम करें, महापंचायत के लिए शहर में लाउडस्पीकर घुमाया जायेगा। अगर माइक घोषणा हो तो वे 3 बजे जगदीश होटल में पहुंच जायें। 1ः30 बजे के करीब संगठनों के लोगों ने अलाउसमेंट सुना तथा 3 बजे जगदीश होटल में दो लोग प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र तथा 2 लोग पछास के पहुंच जाते हैं। जैसा कि सुना जाता है कि जनता के कार्यक्रमों में नेता लोग हमेशा समय के बाद पहुंचते हैं लेकिन यहां पर ठीक समय पर सभी नेता पहुंच गये और 3ः15-3ः30 बजे तक 250-300 की संख्या जगदीश होटल के दुमंजिले के हाॅल में उपस्थित हो गयी। इसमें भाजपा, कांग्रेस, सपा, विद्यार्थी परिषद, बजरंग दल, एनजीओ तथा प्रगतिशील संगठन के लोग शामिल थे। ये महापंचायत महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर की जा रही थी लेकिन 3 महिलाओं (2 प्रमएके तथा 1 पछास) के अलावा इसमें कोई महिला शामिल नहीं थी। सभा का संचालन कांग्रेस के एक व्यक्ति ने किया। मंच पर बात रखने के लिए संघ के नगर प्रमुख राधेश्याम यादव आये। उन्होंने अपनी बातों में मुस्लिमों को निशाना बनाया तथा लड़के को लालकुंआ की जमीन पर पैर नहीं रखने देंगे, चार-पांच मुस्लिम लड़कों के ग्रुप ने उनकी नाबालिग लड़कियों को बहला-फुसला कर अपने प्रेम जाल में साजिश के बतौर फंसा रहे हैं जैसी भड़काऊ बातें कीं। इनके खिलाफ युवा लड़कों की एक कमेटी बनानी चाहिए क्योंकि युवाओं के अंदर जोश होता है और वे ऐसे मनचले लड़कों के खिलाफ कार्यवाही करेंगे और ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो इसके लिए ये पंचायत यह निर्णय करे क्योंकि ये पंचायत संविधान से भी ऊपर होती हैं। इनके बाद आये वक्ताओं ने इनकी सभी बातों का समर्थन किया तथा इसके लिए कोष बनाने की बात भी आयी। प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की बिन्दु गुप्ता ने मंच पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि हमें साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखना चाहिए। जैसे लालकुंआ में आज तक ऐसी कोई घटना नहीं हुई है। मैं आशा करती हूं कि आगे भी साम्प्रदायिक सौहार्द बना रहेगा, एक कमेटी हमें बनानी चाहिए जो भी लड़के ट्यूशन व स्कूल आती-जाती लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करते हैं। उनके ऊपर नजर रखे।
इनके बाद सपा के संजय सिंह अपनी बात रखने के लिए मंच पर आये और बिन्दु गुप्ता की एक-एक बात का काट करते हुए बोले, ‘‘मुस्लिम लड़के उनकी लड़कियों को ऐसे ही ले जाते रहें और वे सौहार्द बनाकर रखें ऐसे सौहार्द से अच्छा तो दंगा है। हम जब भी अपनी लड़की की शक्ल देखेंगे और उस लड़के को फांसी नहीं हुई तो हमारा सिर शर्म से झुक जायेगा और सिर झुकाने से अच्छा हम सिर कटाना पसंद करेंगे। और इस कमेटी को बनाया जाये इसके लिए समाजवादी पार्टी लड़के मुहैय्या करायेगी और समाजवादी पार्टी आगे खड़ी रहेगी’’। इसके बाद आये सभी वक्ताओं ने संजय सिंह की बातों का समर्थन किया तथा बिन्दु गुप्ता की बातों का खण्डन किया।
करीब 4ः30 बजे सभा का समापन घोषित करते हुए अन्तिम वक्ता के रूप में व्यापार मण्डल के अध्यक्ष अशोक अग्रवाल को बुलाया गया। सभा में उपस्थित पछास की ज्योति बहुत पहले से बात रखने के लिए हाथ उठा रही थी लेकिन उसको मौका नहीं दिया गया। लेकिन जब वह खड़ी होकर कहने लगी कि उसे बात रखनी है। तब अशोक अग्रवाल से पहले ज्योति को बात रखने के लिए बुलाया।
ज्योति ने अपनी बात में कहा कि अश्लील संस्कृति पर रोक लगाने की जरूरत है और कहा कि जैसे इस मुद्दे के लिए शहर के इतने लोग इकट्ठा हुए हैं वैसे ही चंचल अपहरण, संजना हत्याकाण्ड, लाडली रेप हत्या केस पर इतने लोग क्यों इकट्ठा नहीं होते? वे भी तो लड़कियां थीं। ये मामला ‘लव-जिहाद’ का बना दिया गया इसलिए लोग इतना भड़क रहे हैं। इतने में ही पीछे से हूटिंग होने लगी और पछास व प्रमएके के लोेगों को सभा से बाहर करो, इनका बहिष्कार करो और देखते ही देखते 100-150 लोग मंच पर पहुंच गये। इतने में दो अन्य महिलायें भी ज्योति के पास मंच पर पहुंच गयी। इतने में राधेश्याम ज्योति के हाथ से माइक छीनने लगा। और तीनों महिलाओं के साथ धक्का-मुक्की, अभद्रता के साथ 150-200 लोगों ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। इसकी रिकार्डिंग के लिए पछास के एक साथी महेश ने अपना फोन निकाला तो 10-15 लोग उसको खींचकर नीचे की ओर ले जाने लगे, उसका फोन छीनने लगे। तथा उसको थप्पड़ मारने लगे। धक्का-मुक्की के बीच वह किसी तरह से बच कर तीनों महिलाओं के पास पहुंचा। उसने उस भीड़ में चार लोगों को पहचाना जिन्होंने उसको थप्पड़ मारे थे। उसमें राधेश्याम, अनिल मेलकानी, राजन भाटिया, विक्रम राणा शामिल थे। इन 200-250 में अधिकतर लोग शराब पीकर आये थे। जब चारों लोगों के हल्ला मचाने पर 8-10 लोगों ने उनको बचाने का काम किया और किसी तरीके से नीचे उतर कर थाने में रिपोर्ट लिखवाने पहुंचे और चारों लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाई।
दो घंटे तक पछास व प्रमएके के चारों लोगों को थाने में बिठाये रखा तथा हल्द्वानी से सीओ को बुलाया गया और इन चारों लोगों पर समझौता करने का दबाव पुलिस, भाजपा तथा कांग्रेस के कुछ लोगों द्वारा बनाया गया। लेकिन समझौते से मना करने पर रिपोर्ट रिसीव कर ली गयी।
इतनी बड़ी महापंचायत की घोषणा होने पर भी पुलिस और अधिकारी वहां पर नहीं थे और उल्टा संगठनों के लोगों से कह रहे थे कि जब तुम्हारे और इनके विचार नहीं मिलते तो आप वहां क्यों गये थे। और किसने महापंचायत आयोजित करायी थी उन्हें तो पता नहीं चला। जबकि एक हाल का उदाहरण मौजूद है कि मुजफ्फरनगर के दंगे में भी ऐसी ही महापंचायत जिम्मेदार थी। उसके बाद दूसरे पक्ष की तरफ से राधेश्याम के द्वारा संगठन के चार लोगों के ऊपर भी रिपोर्ट दर्ज कराई गयी।
पुलिस प्रशासन का रवैया संगठन के लोगों द्वारा लिखवाई गयी रिपोर्ट में उन पर तीन धाराएं 147,149 व 323 मारपीट आदि की लगाई गयीं। और उनकी तरफ से लिखवाई गयी रिपोर्ट में इन चारों के अलावा अज्ञात सहित लोगों पर चार धाराएं 147, 149, 504 और 506 धक्का-मुक्की, मार-पिटाई, गाली-गलौच, धमकाना लगाई गयी। और पुलिस इतनी कंगाल हो गयी है कि फोटो व वीडियो जमा करने के लिए पेन-ड्राइव दोनों पक्षों के अभियुक्तों से मांगी जाती है।
16 दिसम्बर को जब संगठनों के लोग बाजार में लोगों से मिलने गये तब उस बैठक में शामिल कांग्रेस के एक व्यक्ति ने बताया कि 13 दिसम्बर की शाम को सुविधा होटल में की गयी बैठक में इसकी तैयारी हो रही थी। बैठक में योजना बनायी जा रही थी कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को बुलाया जाए, उनके हाथों में डंडे दिये जायें तथा मुस्लिमों के साथ मार-पिटाई व तोड़फोड़ की जाये।
एक सामान्य सी घटना को ‘लव-जिहाद’ का मुद्दा बनाकर भाजपा, संघ और बजरंग दल ने लोगों के दिलों में साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाने की कोशिश की। और जो महापंचायत महिलाओं को सुरक्षा मुहैय्या कराने के नाम पर की जा रही थी, बड़ी विडम्बना की बात है कि उस महापंचायत में तीन महिलाओं के अलावा कोई महिला नहीं थी और जो महिलाओं के सुरक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही थी जैसे बहुसंख्यक सम्प्रदाय के लोग लड़कियों के साथ छेड़छाड़ नहीं करते है। ऐसी महापंचायतों में महिलाओं को बोलने का अधिकार नहीं है। और पुरुष प्रधान सोच से उन तीनों महिलाओं से कहा जाता है कि जब कोई महिला नहीं थी तो तुम वहां क्या करने गयी थी और गयी भी थी तो चुपचाप आ जाती और ये कैसी महापंचायत थी जिसमें शराब पिये हुए लोग तीन महिलाओं को चारों तरफ से घेरे हुए थे और उनके साथ अभद्र व्यवहार कर रहे थे। और पुलिस प्रशासन भी इसी मानसिकता का शिकार है जो महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करने की कोई धारा नहीं लगाता है।
आखिर कब तक ऐसा ही चलता रहेगा? कब तक कुछ लोग जनता को ऐसे ही भड़काते रहेंगे? और कब तक समाज साम्प्रदायिकता की आग में जलता रहेगा? इसको खत्म करने की जरूरत है और इसको मजदूर-मेहनतकशों की एकजुटता के आधार पर ही खत्म किया जा सकता है। लालकुंआ संवाददाता
राजस्थान में नया पंचायत अध्यादेशः तुगलकी फतवे जारी हैं
वर्ष-18, अंक-01(01-15 जनवरी, 2015)
भाजपा द्वारा शासित विभिन्न राज्यों की सरकारें एक के बाद एक जनविरोधी नियम कानून बनाने में जुटी हैं। पहले गुजरात सरकार ने स्थानीय निकाय चुनावों में मत देना अनिवार्य किया, प्रत्याशियों के घर में शौचालय होने की अनिवार्यता घोषित की। उसके बाद राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने श्रम कानून बदलने में केन्द्र से भी आगे कदम बढ़ा झटपट कई मजदूर विरोधी कानून पास कर दिये। अब वसुंधरा राजे ने नया पंचायत अध्यादेश ला लोगों के जनवादी अधिकारों पर नया हमला बोला।
नये अध्यादेश के तहत जिला परिषद व पंचायत समिति के सदस्य का चुनाव लड़ने के लिए हाईस्कूल पास होना व सरपंच बनने के लिए 8वीं पास होना अनिवार्य बना दिया गया है। इस अध्यादेश से करीब एक तिहाई आबादी से अधिक लोगों से वसुंधरा राजे ने चुनाव लड़ने का हक छीन लिया है।
राजस्थान में साक्षरता दर 66 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय साक्षरता दर लगभग 74 प्रतिशत है। ऐसे में राजस्थान की एक तिहाई आबादी अनपढ़ है। 8 वीं पास लोगों की संख्या और कम होगी। ऐसे में मौजूदा अध्यादेश से लगभग आधे लोग चुनाव लड़ने से वंचित हो जायेंगे।
चुनाव लड़ने से वंचित होेने वाली यह आबादी अधिकतर ही गरीब मेहनतकशों की होगी क्योंकि उन्हीं के बच्चे स्कूल की पढ़ाई छोड़ने वाले प्रथम लोगों में होते हैं। दो वक्त की रोटी कमाने के लिए ढ़ेरों बच्चों को पढ़ाई छोड़ काम पर लग जाना पड़ता है। गरीबों में भी निचली दलित जातियों के लोगों की संख्या पढ़ाई छोड़ने के मामले में ज्यादा है। साथ ही मुस्लिम अल्पसंख्यकों की भी शिक्षा के मामले में बेहतर स्थिति नहीं है। इन सब तबकों में भी महिलाओं की स्थिति कहीं बुरी है।
इस तरह यह अध्यादेश महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों व गरीब मेहनतकशों की कम पढ़ी-लिखी आबादी से चुनाव लड़ने का अधिकार छीन लेता है।
तुगलकी आदेशों को जारी करने के मामले में भाजपा के मुख्यमंत्रियों में प्रतियोगिता चल रही है। दो महिलाओं में दौड़ में आगे आने की होड़ मची है। एक गुजरात की मुख्यमंत्री हैं दूसरी राजस्थान की। राजस्थान की बसुंधरा राजे आगे चल रही हैं। इनकी तुगलकी दौड़ में जनता के जनवादी हक कुचले जा रहे हैं।
हीरो मोटो कार्प का संघर्ष खत्म हुआ
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
14 अक्टूबर से हीरो मोटो कार्प हरिद्वार प्लांट के मजदूर 28 निलम्बित मजदूर अपने निलम्बन वापस के लिए सहायक श्रम आयुक्त कार्यालय के गेट पर धरना दे रहे थे। इस पूरे आंदोलन को सीटू के नेतृत्व में लड़ा जा रहा था। इस आंदोलन को प्लांट के मजदूरों ने बिना काम बंद किये पूरा समर्थन दिया। मसलन उत्पादन को गुणात्मक रूप से नीचे गिरा दिया जिसका परिणाम कम्पनी प्रबंधन ने मजदूरों को सजा के बतौर ‘कारण बताओ’ नोटिस भी दिया। 4-5 हजार हर माह वेतन भी काटा लेकिन मजदूरों ने अपने मजदूरों के भाईचारे को जिंदा रखा। प्रबंधन ने अंदर मजदूरों को तरह-तरह से कमजोर करने की हर सम्भव कोशिश की, लेकिन मजदूरों ने प्रबध्ंाक की धमकी का अपनी एकता के दम पर जबाव दिया।
जब प्रबंधन को मजदूरों को तरह-तरह से तोड़ने में सफलता न मिली तो उसने शासन-प्रशासन के साथ मिलकर अगली चाल चली। चाल यह थी कि 26 से 28 तक की मजदूरों को छुट्टी कर दी। इस दौरान प्रबंधक को सम्भलते-मजबूत होने और मजदूरों को अगली चाल में फांसने का समय मिल गया। जैसे ही 29 नवम्बर को प्लांट खुला 27 स्थाई मजदूरों का गेट बंद कर दिया। और बाकी मजदूरों से अपनी शर्तों पर लिखवाकर अंदर लिया। मजदूर कम्पनी की शर्तों पर लिखकर अन्दर काम पर चले गये। 27 मजदूरों को निलम्बन पत्र दे दिया। अब लड़ाई का रुख बदल गया। पहले वाली मांग गौण हो गयी, अब बाद वाले निलम्बित मजदूरों को अंदर करने की मांग मुख्य हो गयी। पहले वाले 28 मजदूरों में से 19 मजदूरों की सेवा समाप्त कर दी गयी थी। जिसमें 4 मजदूर रखने की बात की गयी। 4 के बारे में सोचने की बात की गयी। पहले वाले मजदूरों की समस्या को प्रशासन द्वारा मजदूरों पर दबाव डालकर मालिक के पक्ष में खत्म करा दी गयी। दूसरी बार में 27 मजदूरों को भी शासन-प्रशासन मजदूरों पर दबाव डालकर खत्म कराने की भूमिका निभाई डी.एम. ने अपने समक्ष मजदूर प्रतिनिधि और प्रबंधक को बुलाकर मीटिंग की जिसमें यह तय हुआ कि बाद वाले 27 मजदूर में से 18 मजदूर धरना जितनी जल्दी खत्म कर देंगे वैसे ही इन मजदूरों को अन्दर कर लिया जायेगा। डी.एम. ने मजदूरों से कहा कि 18 मजदूर भी अंदर जायेंगे जब आप धरना समाप्त कर देंगे नहीं तो मैं मामले को कोर्ट में डाल दूंगा।
हीरो के आंदोलन के अंत में कांग्रेसी छुटभैय्या नेताओं ने धरने पर बैठने की नौटंकी की बाद में जब मजदूरों ने कम्पनी में दबाव डालना बंद कर दिया तो शासन-प्रशासन ने मौका पाकर धरने पर बैठे मजदूरों को धरना खत्म करने का दबाव बनाया। जो अंततः 6 दिसम्बर को समाप्त करा दिया गया। आन्दोलन के बाद वाले 28 में से 18 मजदूर को 8 तारीख में कम्पनी अंदर ले लेगी बाकी 9 मजदूरों को जल्दी ही ले लेगी के आश्वासन पर भरोसा रख कर प्रशासन ने समाप्त करवा दिया। धरना समाप्त कराने के समय एसडीएम, पुलिस अधिकारी और स्थानीय कांग्रेसी नेता मौजूद थे। 18 मजदूर तो माफी लिखकर काम पर वापस ले लिए बचे मजदूरों को 15-20 दिन में लेने की बात की गयी।
हीरो मोटो कार्प के मजदूरों के संघर्ष में शासन-प्रशासन की भूमिका नकारात्मक रही। इस आंदोलन में प्रशासन के सभी अधिकारियों ने पहले 28 मजदूरों पर हिसाब लेकर चले जाने का दबाव डाला गया। एस.डी.एम. हरिद्वार ने तो मजदूरों को धमकाते हुए कहा कि हिसाब लेकर यहां से धरना खत्म करो। ऐसे ही त्रिपक्षीय वार्ता में डी.एल.सी. ने कहा कि अगर मुझे कोई 20 लाख रुपये दे तो मैं अपनी नौकरी छोड़कर चला जाऊंगा। भाजपा-कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने भी मजदूरों से हिसाब लेने को कहा।
इस आंदोलन में नेतृत्व कदम-कदम पर झुकता रहा। मजदूरों ने पूरी शिद्दत से लड़ाई लड़ी। कई मौके आये जहां पर प्रबंधन झुकता दिखाई दिया। जैसे-जैसे प्रबंधक मजदूरों को झुकता दिखाई दिया। वैसे-वैसे मजदूरों के हौंसले बढ़ते गये। लेकिन मजदूरों के नेतृत्व ने प्रबंधक के मौका गंवाने पर माहौल सही करने की मांग पर मजदूरों को आदेश दिया। इसका मजदूरों ने विरोध भी किया लेकिन मजदूर अंत में नेताओ की बात मानकर प्रबंधक की कही बातों के आधार पर अंदर माहौल सही करने लगे। मजदूरों ने अपनी एकता के दम पर प्रबंधक को घुटने के बल ला खड़ा किया। लेकिन चतुर प्रबंधक ने अपने लिए एक मोहलत मौका मांगता रहा प्रतिनिधि मौका देते रहे। संघर्ष के दौरान मजदूरों को सही वक्त पर सही कदम उठाने का अनुभव नहीं था इसलिए मजदूर तो प्रबंधन पर रहम कर सकता लेकिन मालिक कभी मजदूर पर रहम नहीं करता।
हरिद्वार संवाददाता
आईएमपीसीएल मोहान में लाखों रुपये के घोटाले का पर्दाफाश
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
आईएमपीसीएल मोहान में ठेका मजदूर कल्याण समिति के बैनर तले चल रहे आंदोलन में एक नया मुकाम आ गया है। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री द्वारा आईएमपीसीएल मोहान में भ्रष्टाचार के लिए नियुक्त अधिकारी ने जब अपनी जांच रिपोर्ट शासन में भेजी तो उसने आईएमपीसीएल मोहान में मजदूरों के पी.एफ., ईएसआई आदि में हुए घोटाले के बारे में तो खुलासा किया ही, साथ ही प्रबंधन व ठेकेदार की मिलीभगत से हुए कई और घोटालों को भी सामने ला दिया। इनमें 19 लाख रुपये से ज्यादा का सर्विस टैक्स का घोटाला भी सामने आया जिसमें ठेकेदार ने सर्विस टैक्स का 19 लाख रुपये तो लिया परन्तु सरकार के कोष में मात्र 10 हजार रुपये ही जमा किये। इसके अलावा मात्र 100 श्रमिकों का बीमा ही ठेकेदार ने करवाया और मात्र 29 हजार रुपये जमा कर लगभग 6 लाख रुपया बीमा मद का कम्पनी व ठेकेदार मिलकर हड़प कर गये। ठेकेदारी के मजदूर कानूनन बोनस के लिए दावा नहीं कर सकते लेकिन यह पैसा भी कम्पनी द्वारा ठेकेदार को भुगतान किया गया लेकिन यह मजदूरों तक नहीं पहुंचा। पीएफ राशि में एक बड़ा घोटाला भी जांच में सामने आया।
पिछले बीस सालों में देश के विभिन्न औद्योगिक इलाकों में ठेका प्रथा खरपतवार की तरह बढ़ती गयी है। इस प्रथा ने मजदूरों की मजदूरी व सुविधाएं तो कम की हीं साथ ही ठेकेदारों के रूप में एक ऐसा दलाल तबका भी पैदा किया जो मजदूरों की लूट पर अपना जीवन-यापन करता है। निजी फैक्टरियों में यह प्रबंधन के साथ ज्यादा सांठगांठ नहीं कर पाता है परन्तु सरकारी क्षेत्र में तो प्रबंधन अतिरिक्त कमाई के लिए ठेकेदार के साथ मजबूत गठजोड़ कायम करता है। आईएमपीसीएल मोहान केन्द्र सरकार का एक उपक्रम है जो लघु उद्योग के अंतर्गत आता है। यह आयुर्वेदिक दवायेें बनाने का काम करता है। 2008 में यहां भी ठेका प्रथा शुरू की गयी थी। यहां पर स्थायी मजदूरों की यूनियन ने थोड़ा विरोध जरूर किया परन्तु अंततः ठेका प्रथा यहां लागू हुयी। और फिर प्रबंधन व ठेकेदार के मध्य सांठगांठ शुरू हुई। प्रबंधन द्वारा स्थानीय अखबारों में बिना कोई टेण्डर निकलवाये ठेकेदार को दे दिया गया। यही प्रक्रिया 2010 में भी दोहरायी गयी। ठेकेदार व कम्पनी प्रबंधन मजदूरों का बोनस, पीएफ, ईएसआई आदि का पैसा हड़प कर अपना पेट भरते रहे और मजदूरों का उत्पीड़न व शोषण जारी रहा। जब भी किसी मजदूर ने आवाज उठानी चाही तो या तो उसका मुंह कुछ पैसा देकर बंद कर दिया गया या फिर उसको कम्पनी से बाहर निकाल दिया गया।
इसी तरह सितम्बर 2011 में जब मजदूरों ने अपने वेतन विसंगति, पीएफ, बोनस को लेकर आवाज उठायी तो 28 मजदूरों को बाहर निकाल दिया गया। इसके बाद मजदूरों ने अपने को संगठित किया और अपने अधिकारों के लिए फैक्टरी में हड़ताल कर दी। फैक्टरी के बाकी ठेका मजदूर भी उनके समर्थन में आ गये। और तीन चरण के आंदोलन के बाद फैक्टरी में ठेका प्रथा को खत्म कर मजदूरों को सीधे कम्पनी के माध्यम से रखा गया। लेकिन 31 मार्च 2012 के बाद प्रबंधक ने फिर से ठेका प्रथा लागू करने के अपने प्रयास शुरू कर दिये। इसके बाद मजदूरों ने फिर आंदोलन किया लेकिन 72 दिन संघर्ष करने के बाद अंततः फैक्टरी प्रबंधन ठेका प्रथा लागू करने में सफल हो गया और नेतृत्वकारी मजदूरों को बाहर कर दिया गया। लेकिन मजदूरों ने हौंसले नहीं छोड़े और कानूनी प्रक्रिया से अपनी लड़ाई को जारी रखा। अंततः जब उन्होंने उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को अपनी शिकायत भेजी तो मुख्यमंत्री ने फैक्टरी में भ्रष्टाचार की जांच करवाने के लिए सहकारी समितियां के अधिकारी को लिखा और जांच अधिकारी ने उन सभी बातों की पुष्टि की जिसको मजदूर 2011 से बार-बार उठा रहे थे।
यह तो जांच रिपोर्ट में साफ हो गया है कि मैनेजमेण्ट व ठेकेदार 2008 से 2011 तक के मजदूरों के वेतन, पीएफ, बोनस व ईएसआई आदि की रसीदें, बिल पेश नहीं कर पाया है। लेकिन इससे पहले भी एसडीएम मोहान केे साथ बातचीत में मैनेजमेण्ट इस काम को नहीं कर पाया है। बावजूद इसके अभी तक भ्रष्टाचार करने वाले अधिकारी न केवल खुलेआम घूम रहे हैं बल्कि अपने-अपने पदों पर हैं। यह हालत तब है जब देश भर में चारों तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का माहौल बना हुआ है। भ्रष्टाचार की जांच करने वाली संस्थाओं की तरफ से मैसेज भेजे जा रहे हैं लेकिन आईएमपीसीएल मोहान के मजदूरों के लाखों रुपये हड़पाने वाला प्रबंधन व ठेकेदार सीना फुलाये घूम रहे हैं। यह मजदूरों के सामने व्यवस्था की पोल ही खोलता है कि यह व्यवस्था मजदूरों के लिए नहीं है। रामनगर संवाददाता
कम्पनी द्वारा ठेका फर्म को मजदूरी की मद में 1.37 करोड़ रु. का भुगतान किया गया जिसके बिल मैनेजमेंट व ठेकेदार ने जांच अधिकारी को उपलब्ध नहीं कराए। इसमें भी भारी घोटाले का अंदेशा है।
अस्ती के मजदूरों की भूख हड़ताल समाप्त परन्तु संघर्ष जारी
वर्ष-17,अंक-24(16-31 दिसम्बर, 2014)
अस्ती के ठेका मजदूरों की 16 दिन से जारी भूख हड़ताल बिना अपनी मांगों के मनवाये समाप्त हो गयी लेकिन मजदूरों के हौंसले पस्त नहीं हुए हैं और उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा हुआ है। 11 दिसम्बर को मजदूर 10 बजे कमला नेहरू पार्क में इकट्ठे हुए और जुलूस की शक्ल में सोहना चौक से होते हुए एएलसी के दफ्तर पहुंचे। आज पहली बार ऐसा हुआ कि सभी मजदूर दफ्तर पहुंचे और अंदर ही सभा की।
जब मजदूर एएलसी दफ्तर पहुंचे तो एएलसी ने मजदूरों को 18 दिसम्बर की तारीख दी और मजदूरों ने जोरदार प्रदर्शन के साथ मामले का हल निकलने तक संघर्ष जारी रखने का संकल्प व्यक्त किया।
इससे पहले 5 दिसम्बर को एएलसी के साथ त्रिपक्षीय वार्ता में एएलसी ने मैनेजमेण्ट को कहा कि वह पीसीबी के निकाले गये मजदूरों को वापस ले। और बाकी मजदूरों के लिए वह यह लिखकर दे कि काम आने पर सबसे पहले निकाले गये मजदूरों को काम पर लिया जायेगा। परन्तु कम्पनी ने ऐसा लिखकर देने से मना कर दिया।
इस पर मजदूरों ने अपनी भूख हड़ताल जारी रखी और जब हड़ताल के 14 दिन हो गये तो इसकी तपिश बाकी कम्पनियों तक पहुंचने लगी। और वे अस्ती के मजदूरों के समर्थन में आने लगे। स्वयं अस्ती के स्थायी मजदूर भी खुलकर उनके पक्ष में आने लगे। और 8 दिसम्बर को उन्होंने फैक्टरी में काली पट्टी बांधकर काम किया। साथ ही कम्पनी में काम कर रहे ठेका मजदूरों को भी उन्होंने काली पट्टी बांधी। अगले दिन 9 दिसम्बर को ठेका मजदूरों का ठेकेदार कम्पनी आया और यूनियन के प्रधान प्रताप सिंह से इस बात पर झगड़ने लगा कि उसने उसके मजदूरों को काली पट्टी क्यों बांधी? और उसने झगडे़ के दौरान यूनियन प्रधान को थप्पड़ जड़ दिया।
इस पर स्थायी मजदूरों ने फैक्टरी में काम बंद कर दिया। और कम्पनी गेट पर अन्य कम्पनियों के यूनियन पदाधिकारी पहुंचने लगे। इनमें मारुति मानेसर, सुजुकी मोटरसाइकिल, सत्यम आॅटो, बैक्स्टर, जबेरियन, मुंजाल कीरू और इंडोरेंश थीं। अंत में मालिक को वार्ता करनी पड़ी। इस वार्ता से ठेका मजदूरों की भी आशा बंधी कि उनके लिए भी कोई हल निकलेगा। लेकिन वार्ता में यूनियन ने ठेका मजदूरों के पक्ष में कोई ठोस पहलकदमी नहीं ली। और इस तरह वार्ता हड़ताल पर बैठे मजदूरों के लिए कोई हल निकलवाये बिना समाप्त हो गयी।
इसके बाद श्रम विभाग व प्रबंधन के दो-दो पदाधिकारी मजदूरों के पास आये और उनसे हड़ताल समाप्त करने को कहा और कहा कि अब कोई वार्ता नहीं होगी। इस मोड़ पर आकर वार्ता समाप्त समझो। अंत में मजदूरों के सामने भूख हड़ताल समाप्त करने के सिवाय कोई और चारा न बचा और भावुकता भरे माहौल में भूख हड़ताल समाप्त कर दी गयी। लेकिन उसके बाद भी उन्होंने संघर्ष करने का संकल्प नहीं त्यागा और एक नयी ऊर्जा के साथ उन्होंने लड़ाई लड़ने की ठान ली है। ठेका मजदूर अब कम्पनी गेट पर धरना दे रहे हैं।
आज देश में प्रधानमंत्री मोदी के ‘मेक इन इण्डिया’ के नारे की हकीकत यही है। इन नारे के तहत जहां पूंजीपतियों को खुली छूटें दी जा रही हैं और मजदूरों के अधिकार छीने जा रहे हैं। और यह सब मजदूरों के भलाई के नाम पर किया जा रहा है। लेकिन यह नारा भी अब धीरे-धीरे अपनी चमक खोता जा रहा है। मजदूरों की बदरंग होती जा रही जिंदगी को अब ये नारे चमकाने में असमर्थ में हैं और इसलिए खुद अपनी चमक खोते जायेंगे। मजदूर वर्ग का लाल सितारा ही मजदूरों की जिंदगी में एक नयी चमक पैदा कर सकता है। गुड़गांव संवाददाता
छपते-छपते
कंपनी गेट पर धरना दे रहे मजदूरों को पहले तो ठेकेदार ने बहला-फुसला और दबाव डालकर हिसाब लेने को कहा और मजदूरों द्वारा न हिसाब लेने से मना करने पर उसने टेंट मालिक के साथ मिलकर मजदूरों का टेंट उखाड़ दिया है। मजदूरों ने अब एएलसी आॅफिस पर अपना धरना देने का फैसला किया है।
हमारी यूनियन का जन्म
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
मानेसर गुड़गांव के सेक्टर 8 प्लाट न. 1 में एक कम्पनी बैलसोनिका आटो कम्पोनेन्ट इण्डिया है। इस कम्पनी के मजदूरों ने अपने शोषण के चलते यूनियन बनाने का निर्णय लिया और इसके लिए छोटी-छोटी मीटिंग शुरू कर दीं।
इसी दौरान 17 जुलाई को मैनेजमेण्ट के कुछ अधिकारियों ने वेल्ड शाॅप विभाग की लाईन को 2 घंटे के लिए बंद करवा दिया और सफाई करने को कहा। मैनेजमेण्ट को जब पता चला कि मजदूर यूनियन बनाने की कार्यवाही कर रहे हैं तो उसने लाइन बंद करने का इलजाम मजदूरों पर डाल दिया।
अगस्त माह में मजदूरों ने अपनी यूनियन बनाने की फाइल श्रम विभाग में लगा दी। जब मैनेजमेण्ट को इसके बारे में पता चला तो उसने मजदूरों के ऊपर दबाव बनाना शुरू कर दिया। श्रमिकों को सारा-सारा दिन ट्रेनिंग रूम में बैठाकर रखने लगा। पुलिस व स्थानीय सरपंच के द्वारा भी उसने मजदूरों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। सरपंच मैनेजमेण्ट की भाषा में मजदूरों को धमका रहे थे कि ‘तुम कम्पनी का माहौल क्यों खराब कर रहे हो’ जबकि श्रमिक अपना काम पूरी ईमानदारी से कर रहे थे। इसी बीच मैेनजमेण्ट ने श्रमिकों पर दबाव बनाकर कागजों पर हस्ताक्षर करवाये और उसके बाद 27 अगस्त को धमकी दी कि उन्हें काम से बाहर कर दिया जायेगा और कागजों को बिना मजदूरों को पढ़वाये उनके हस्ताक्षर करवाये। मजदूरों ने इसकी शिकायत एलसी और डीएलसी से की परन्तु कोई कार्यवाही नहीं हुई।
इतने पर भी मजदूरों ने धैर्य बनाये रखा और अनुशासन बनाये रखा। परन्तु उधर श्रम विभाग की मिलीभगत से मैनेजमेण्ट को उन 44 श्रमिकों के नाम पता चल गये जो यूनियन का गठन कर रहे थे। अब मैनेजमेण्ट ने इन श्रमिकों को परेशान करना शुरू कर दिया। और इन श्रमिकों से किसी और मजदूर को मिलने नहीं दिया जाता था। श्रमिकों से जबरन एक हलफनामे पर हस्ताक्षर करवाये गये। जिन श्रमिकों ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किये उसके फर्जी हस्ताक्षर कर दिये गये।
इसके बाद कम्पनी ने बाउंसरों (गुण्ड़ों) की मदद लेनी शुरू कर दी। बाउंसर यूनियन में शामिल मजदूरों की वीडियो बनाते और उन्हें धमकाने का काम करते थे। 10 अक्टूबर को कम्पनी ने मजदूरों को फोन करके कहा कि ‘तुम्हें आज काम पर नहीं आना है’। परन्तु इसके बावजूद जब श्रमिक गेट न. 4 पर पहुंचे तो वहां भारी मात्रा में पुलिस बल व गुण्डे तैनात थे। और श्रमिकों को आगे नहीं आने दिया गया क्योंकि हमारी कम्पनी मारुति की चारदिवारी के अंदर ही है। जब यूनियन में शामिल 44 मजदूरों ने अंदर न आने का कारण पूछा तो मैनेजमेण्ट ने कहा कि उनको निलम्बित कर दिया गया है। कारण पूछने पर मैनेजमेण्ट ने जबाव दिया कि कारण उनके घर के पते पर पहुंच जायेगा।
मजदूर सारे दिन गेट न. 4 पर बैठे रहे। उसी दिन कम्पनी की यूनियन का रजिस्ट्रेशन न. मिल गया जोकि 1983 था। इसके बाद श्रमिकों ने इसकी सूचना श्रम विभाग, पुलिस विभाग गुड़गांव, लेबर इंसपेक्टर, डीएलसी गुडगांव और श्रम विभाग चण्डीगढ़ को भी लिखित रूप में दे दी। इसके बावजूद भी प्रबंधकों पर कोई असर नहीं पड़ा। और एक श्रमिक देवी राम को गेट पर 14 अक्टूबर को रोक दिया और जबरन हस्ताक्षर करने के लिए कहा। श्रमिक द्वारा मना करने पर प्रबंधकों ने सिक्योरिटी गार्ड की सहायता से उस श्रमिक का आईडी कार्ड छीनकर बाहर निकाल दिया। जब श्रमिकों ने इसकी सूचना पुलिस प्रशासन थाना मानेसर को 15 अक्टूबर को लिखित रूप में दी तो एसएचओ ने शिकायत फाड़ दी और अनाप-शनाप बकने लगा। श्रमिकों ने इसकी जानकारी न्यूज पेपर में भी निकलवाई। इसके बाद मजदूरों ने 16 अक्टूबर को कम्पनी के गेट पर झण्डा लगाने का नोटिस कम्पनी, श्रम विभाग गुड़गांव चण्डीगढ़ तथा पुलिस प्रशासन गुडगांव को भी दी। 17 अक्टूबर को श्रमिकों व प्रबंधकों को श्रम विभाग बुलाया गया लेकिन प्रबंधक गैर हाजिर रहा। श्रम विभाग ने एक बार फिर 28 अक्टूबर की तारीख दे दी उसी दिन श्रमिकों ने कम्पनी गेट पर झण्डा फहराने का तय किया गया था। कम्पनी ने इसी बीच रणसिंह नाम के मजदूर को बाहर कर दिया। 21 अक्टूबर को जब मजदूर गेट पर हाजिर हुए तो उन्हें आरोप-पत्र दिये गये जिन्हें मजदूरोें ने लेने से इंकार कर दिया क्योंकि उन पर आरोप बेबुनियाद लगाये गये थे। परन्तु प्रबंधकों ने ये आरोप पत्र श्रमिकों के घर पर भेज दिये। 26 अक्टूबर को यूनियन के पास एक पत्र आया जो कम्पनी की तरफ से एक स्टे आर्डर था। जब यूनियन ने मानेसर थाने से स्टे आर्डर की कापी मांगी तो पुलिस अधिकारी ने उन्हें धमकाना शुरू कर दिया और मारुति सुजुकी जैसा हाल करने की धमकी दी। श्रमिकों ने इसकी सूचना 28 अक्टूबर को डीसी महोदय को दी लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई।
28 अक्टूबर को प्रबंधक श्रम विभाग आया और अपनी औपचारिकता पूरी करके चला गया। जब शाम को मजदूर झण्डा लगाने कम्पनी गेट पर पहुंचे तो वहां भारी मात्रा में पुलिस बल मौजूद था और कम्पनी ने वहां वर्दी में बाउंसर भी खडे़ कर रखे थे ताकि किसी झगड़ा होने के बाद उसका इलजाम मजदूरों पर डाला जा सके। मौके की नजाकत को देखते हुए यूनियन ने झण्डे लगाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया।
29 अक्टूबर को श्रमिक देवी राम को एसीपी मानेसर ने बुलाया परन्तु एसीपी महोदय अनुपस्थित रहे। दिनांक 2 नवम्बर को श्रमिकों ने अपने रोष को प्रकट करने के लिए कम्पनी प्रबंधकों, श्रम विभाग, पुलिस विभाग के खिलाफ अपनी मांगों को लेकर जुलूस निकाला। और एक ज्ञापन डीसी महोदय को दिया। डीसी महोदय ने एक सप्ताह के भीतर कार्यवाही करने का आश्वासन दिया। 3 नवम्बर को भी प्रबंधकों की तरफ से श्रम विभाग में आकर बस औपचारिकता ही पूरी की गयी। 5 नवम्बर को श्रमिकों को वापिस लेने की मांग के साथ डीएलसी महोदय जे.पी.मान के कार्यालय के सामने नारेबाजी की। डीएलसी महोदय ने श्रमिकों को 7 नवम्बर को मैनेजमेेण्ट के साथ एक मीटिंग कर मामले को सुलझाने का आश्वासन दिया। बैलसोनिका आॅटो कम्पोनेण्ट एम्प्लाॅइज यूनियन मानेसर गुड़गांव (हरियाणा)
भाजपाईयों की मजदूरों पर खुली गुण्डागर्दी
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
मित्तर फास्टनर्स प्रा.लि.प्लांट नं.69 से.नं.6 सिडकुल पंतनगर में भारतीय जनता पार्टी के रूद्रपुर विधायक के भाई की मजदूरों के ऊपर खुली गुण्डागर्दी चल रही है।
मित्तर फास्टनर्स फैक्टरी में टाटा और अशोक लीलैण्ड के गाडि़यों के पार्ट तैयार किये जाते हैं। फैक्टरी में मजदूर पिछले 4-5 सालों से काम कर रहे हैं। मगर अभी तक किसी भी मजदूर को स्थायी नियुक्ति पत्र नहीं दिया इसकी शिकायत मजदूरों ने डी.एल.सी. (उपश्रमायुक्त) के यहां कर दी थी। काफी हीलाहवाली के बाद डी.एल.सी.ने श्रम कानूनों के उल्लघंन का आदेश पारित कर दिया मगर उसका पालन नहीं करवाया। उससे पहले रुद्रपुर भाजपा विधायक और उसके भाई फैक्टरी में मजदूरों को धमकाने पहुंच गये थे। किसमें हिम्मत है जो स्थायी नियुक्ति पत्र ले ले। काफी धमकाने के बावजूद मजदूर फैक्टरी प्रबन्धक और भाजपा विधायक के भाई के खिलाफ निडरतापर्वूक डटे रहे और अंत में मजदूरों को स्थायी नियुक्ति पत्र प्रबन्धक को देने पड़ गये। जो मुख्यतः नेता थे उनको नहीं दिये बाकी सामान्य मजदूरों को स्थायी नियुक्ति पत्र दे दिये। प्रबन्धक लगातार मजदूर नेताओं पर हमला करने मजदूरों से अलगाव पैदा करने का काम करता रहा।
मजदूर नेताओं पर प्रबन्धक द्वारा अक्टूबर माह में फर्जी तरीके से कारण बताओ नोटिस दे दिये। इसका जवाब 24 घंटे के अंदर दे वरना उनको फैक्टरी से निकाल दिया जायेगा। मजदूरों ने नोटिस का जवाब दिया और फैक्टरी प्रबन्धक को कोई मौका नहीं मिला। अधिकतर मजदूरों पर काम का बोझ बढ़ा दिया। एक-एक मजदूर को चार-चार मशीनों पर काम करवाया और जब चाहे शिफ्ट को बदल देना और साप्ताहिक अवकाश अपनी मनमर्जी के मुताबिक करना आदि। इसके बावजूद फैक्टरी प्रबन्धक को मजदूर नेताओं को नौकरी से निकालने का कोई मौका नहीं मिल पा रहा था। एम.डी. द्वारा खुले तौर पर मजदूरों से कहा गया कि मुझे अब पुराने मजदूर नहीं चाहिए खासतौर से 20-25 मजदूर जो नेतागिरी करते हैं वह मजदूर मुझे नहीं चाहिए। इन मजदूरों की कमियां या झूठे आरोपों को मढ़ने के लिए मौके की तलाश थी कि दिनांक 12 नवम्बर को मसलुद्दीन खान को दोपहर दो बजे प्रबन्धक ने अपने केबिन में बुलाया। एम.डी. मुकेश साहनी, जी.एम. चंद्रप्रकाश शर्मा, सुपरवाइजर प्रदीप व संजय तरफदार पहले से मौजूद थे। एम.डी. और जी.एम. ने मसलददीन खान से इस्तीफा देने को कहा। इस पर मसलुद्दीन खान ने कहा कि वह तो काम करना चाहता है। और वह इस्तीफा नहीं देगा। इस पर यह चारों लोग मसलद्दीन को भद्दी-2 गालियां देने लगे और उसे तीन घंटे तक केबिन में बंधक बनाकर रखा और धमकी दी कि इस्तीफा नहीं देगा तो वह उसे जान से मरवा देंगे। मसलुददीन के इस्तीफा देने से मना करने के बाद प्रबन्धक के लोगों ने उसे जबरदस्ती धक्का मारकर फैक्टरी गेट से बाहर कर दिया। उसके बाद मसलुद्दीन खान ने सिडकुल पुलिस चौकी, ए.एल.सी.,डी.एल.सी.व कारखाना निदेशक व सहायक कारखाना निदेशक आदि सभी के पास अपने प्रार्थना पत्र दिये। मसलुद्दीन खान जब पुलिस चौकी पर गये तो वहां पर पुलिस इंचार्ज के समक्ष भाजपा विधायक का भाई नीटू ठुकराल आया और बोला इस फैक्टरी का एच.आर. वह है और उसने इसको निकाला है। इस पर मजदूरों ने तीखा आक्रोश व्यक्त किया और कहा यह फैक्टरी का एच.आर. नहीं है, यह तो दलाल है। मजदूरों ने पुलिस को बताया कि फैक्टरी में इसका भवन निर्माण का ठेका चलता है। पुलिस ने मजदूरों की बात को अनसुना कर दिया और पूंजीपतियों के सेवक होने के अपने चरित्र को उजागर किया। मजदूर को कोई न्याय नहीं दिया।
फैक्टरी में मशीनों पर कुशल स्थायी मजदूर ही काम कर सकते हैं लेकिन फैक्टरी प्रबन्धक अकुशल ठेका मजदूरों से काम कराता है। दिनांक 15नवम्बर को अकुशल ठेका मजदूर नानकचंद्र का हाथ प्रेसशाॅप मशीन में आ गया और उसकी तीन उंगलियां कट गयीं। नानकचंद्र का हाथ मशीन में करीब 20-25 मिनट तक फंसा रहा और वह तड़पता रहा। स्थायी मजदूरों ने बड़ी मुश्किल से मजदूर का हाथ मशीन से बाहर निकाला उसके बाद सुपरवाइजर प्रदीप द्वारा नानकचंद्र को रुद्रपुर स्थित शुभम सर्जिकल अस्पताल में भर्ती कराया गया। फैक्टरी प्रबन्धन मजदूर का सामान्य उपचार कर उसे अस्पताल से छुट्टी करा रहे थे और मामले को दबा रहे थे। इस पर भी भाजपा विधायक का भाई खुलकर फैक्टरी प्रबन्धन के साथ खड़ा हुआ और कहने लगा कि मजदूर नानकचंद्र को कोई मुआवजा व पेंशन नहीं मिलेगी। मजदूर खुद अपनी लापरवाही के चलते घायल हुआ। पुलिस चुपचाप मूकदर्शक बनी रही और फैक्टरी प्रबन्धन भाजपा विधायक के भाई की बात का समर्थन कर रहा था। मजदूरों के तीखे आक्रोश को देखकर पुलिस को मजबूरीवश नानकचंद्र की रिपोर्ट दर्ज करनी पड़ी।
फैक्टरी में कोई भी श्रमकानून लागू नहीं होते। मजदूरों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार होता है। आज कारखाना प्रबन्धक मशीनों पर कुशल स्थायी मजदूरों को इसलिए नहीं रखना चाहते क्योंकि उन्हें सस्ता ठेका मजदूर चाहिए और मजदूर बेरोजगारी और भुखमरी के मार के कारण खतरनाक मशीनों पर काम करने को मजबूर होते हैं और दुघर्टनाग्रस्त होते है। यही नानकचंद्र के साथ हुआ। नानकचंद्र का दूसरा ही दिन था। नानकचंद्र ने अपनी शिकायत श्रम अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों के यहां लगायी है और मुकद्मा भी दर्ज कराया है फिर भी न तो कोई श्रम अधिकारी फैैक्टरी के अंदर जांच करने गया न ही पुलिस ने प्रबन्धन के खिलाफ कार्यवाही की है।
फैक्टरी के सभी मजदूरों ने सामूहिक तौर पर हस्ताक्षर करके शिकायत पत्र सहायक श्रमायुक्त रुद्रपुर के वहां लगाया है और मांग की है कि फैक्टरी प्रबन्धन अकुशल ठेका मजदूरों से मशीनों पर काम करा रहा है और स्थायी कुशल मजदूरों को जबरन फैक्टरी से बाहर निकाल रहा है। सहायक श्रमायुक्त द्वारा मौखिक रूप से ही अभी तक त्रिपक्षीय वार्ता बुलाने की बात की है।
मसलुद्दीन खान को फैक्टरी प्रबन्धन द्वारा बगैर नोटिस दिये हुए फैक्टरी से निकाल दिया इस बात को मजदूर समझ रहे है कि यह हमला मसलुद्दीन खान पर ही नहीं हम सभी पर हमले की तैयारी है। इससे निपटना सामूहिक तौर पर ही हो सकता है। यदि मजदूर सामूहिक तौर पर लड़ेंगे तो प्रबन्धक व उसके गुर्गे भाजपाइयों से निपट लेंगे बरना परास्त होकर बाहर हो जायेंगे।
आज फैक्टरी प्रबन्धन-पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी व श्रम अधिकारी मजदूरों को संगठित नहीं होने देना चाहते है। मगर मजदूरों की जीवन परिस्थितियां उन्हें वहां धकेल रही है कि वह अपने को संगठित करें। इसी से प्रशासन-पुलिस-श्रम अधिकारी व प्रबन्धन डरते हैं। मजदूरों के आक्रोश को व संगठित ताकत को भाजपाई साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास करते रहे हैं। अब तो वे मजदूरों के साथ गुण्डागर्दी पर सीधे उतर रहे हैं। मित्तर फास्टनर्स की घटना में भाजपाइयों के व्यवहार ने बता दिया कि किसके अच्छे दिन आये और किसके बुरे दिन आये। जाहिर है फैक्टरी प्रबन्धन, ठेकेदारों के अच्छे दिन आये हैं और मजदूरों के बुरे दिन आ गये हैं। रुद्रपुर संवाददाता
त्रिलोकपुरी में प्रशासन ने आयोजित किया शांति मार्च
वर्ष-17,अंक-23 (01-15 दिसम्बर, 2014)
21 नवम्बर, दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में पुलिस प्रशासन द्वारा शांति मार्च निकाला गया। जनता की व्यापक भागीदारी के अभाव में यह केवल एक सरकारी आयोजन की बन कर रह गया। इस शांति मार्च को सद्भावना रैली का नाम दिया गया था, साथ में इसमें स्वच्छता जागरुकता का मुद्दा भी जोड़कर इसे पूरी तरह सरकारी बना दिया गया। इस तरह ‘सदभावना व स्वच्छता रैली’ के नाम से यह कार्यक्रम किया गया।
रैली में जितनी जनता शामिल थी उससे तीन गुनी पुलिस मौजूद थी। भागीदार लोगों में जनता बमुश्किल दो दर्जन लोग थे। वह भी घंटा भर इंतजार करने के बाद जमा हुये थे। रैली में शामिल ज्यादातर लोग पुलिस द्वारा गठित अमन कमेटी के थे। कुछ स्थानीय मोहल्लों के नेता (RWA के पदाधिकरी) थे तो कुछ नेता बनने के आकांक्षी लोग। एक नेतानुमा व्यक्ति अपने को शान से भाजपा का स्थानीय वार्ड अध्यक्ष बता रहे थे। जनता में कहने के लिए कुछ मुस्लिम महिलायें व 2-4 नौजवान थे। प्रशासन की नजर में नेता की मान्यता पाने को बेचैन लोग गले में फूलों का हार डाले घंटा भर जनता के आने का इंतजार करते रहे और अंत में प्रशासन के कहने पर मार्च शुरु किया। मार्च में शामिल लोगों को देखकर लग रहा था कि कोई मातमी जुलूस जा रहा है। एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने जब कौमी एकता का नारा लगाया तो पुलिस के अधिकारी दौड़ते हुए आये और उसे शाबाशी देते हुए जुलूस के आगे चलने का आग्रह किया। पुलिस प्रशासन के आगे नारे लगाने की हिम्मत न करने वाले नेता यह देखकर जोश में आ गये और नारे लगाने लगे। लेकिन कौमी एकता के साथ उन्होंने एक नारा और जोड़ दिया- दिल्ली पुलिस जिंदाबाद। जुलूस त्रिलोकपुरी के विभिन्न ब्लाॅकों से गुजरा। रास्ते में लोग कौतुहल से इसे देखते रहे। एक बूढ़ी महिला झुंझलाकर बोली ‘‘अब कौमी एकता की याद आ रही है, अब तक मर गये थे क्या।’’ खैर यह कौमी एकता व स्वच्छता रैली एक प्रहसन्न बनकर रह गयी।
दिल्ली संवाददाता
फैक्टरी प्रबन्धक द्वारा मजदूरों का उत्पीड़न
वर्ष-17,अंक-22(16-30 नवम्बर, 2014)
पंतनगर सिडकुल में पर्ल पोलीमर्स लि.प्लांट नं.45 से.नं.3 में फैक्टरी प्रबन्धक द्वारा दीपावली के बाद 27 अक्टूबर को तीन मजदूरों का स्थानांतरण दिल्ली, हिमाचल प्रदेश व गुड़गांव कर दिया। इससे ठीक पूर्व पांच स्थायी मजदूरों का 15 अक्टूबर से गेट बंद कर दिया।
पर्ल पोलीमर्स लि. में प्लास्टिक के जार, बोतल आदि बनायी जाती है जो कि परफैटी फैक्टरी इत्यादि में सप्लाई की जाती है। इसके अतिरिक्त बाजार में भी सप्लाई होती है। इसके माल की बाजार में मांग हमेशा रहती है। मजदूरों का कहना है कि फैक्टरी का कारोबार लगभग 250 करोड़ रुपये का होता है। इसके बावजूद फैक्टरी में मजदूरों को पांच-छः हजार रुपया मासिक दिया जाता है। फैक्टरी में वर्तमान समय में 40 स्थायी मजदूर, 12 कैजुअल मजदूर और लगभग 180 ठेकेदारी के मजदूर काम करते हैं। प्रबन्धकों का व्यवहार मजदूरों के साथ जानवरों जैसा होता हैं। नौकरी के डर की वजह से मजदूर प्रबन्धकों के अत्याचार को सहन करते हैं।
लक्ष्मण प्रसाद पिछले चार-पांच सालों से फैक्टरी में स्थायी मजदूर के रूप में काम करता था। एक दिन अचानक प्रिंट मशीन में बांये हाथ की चार अंगुलियां कट गयीं। उसके बाद प्रबन्धक ने लक्ष्मण को न तो ई.एस.आई.द्वारा पेंशन की सुविधा दिलायी और न ही कोई मुआवजा दिया। जब लक्ष्मण और कुछ मजदूरों ने प्रबन्धक से मुआवजे व ई.एस.आई. पेंशन की बात की तो प्रबन्धक गुस्से में बोला कि इसने मशीन में जान बूझकर हाथ डालकर अपनी अंगुली काट ली। अब किस बात का मुआवजा व पेंशन। इसके बाद प्रबन्धन ने लक्ष्मण को काम से निकाल दिया। एक हाथ से विकलांग लक्ष्मण को कहीं दूसरी जगह नौकरी नहीं मिली। कुछ समय बाद प्रबन्धन ने लक्ष्मण को कैजुअल में काम पर रख लिया।
फैक्टरी में किसी भी मजदूर को प्रबन्धन द्वारा नियुक्ति पत्र व स्थाई नियुक्ति पत्र नहीं दिया गया। किसी भी मजदूर के पास फैक्टरी का परिचय पत्र तक नहीं है। स्थायी मजदूरों व कैजुअल मजदूरों के बीच अंतर सिर्फ इतना है कि स्थायी मजदूरों का वेतन बैंक में तो कैजुअल मजदूरों को नकद पैसा प्रबन्धन देता है। फैक्टरी में किसी तरीके के श्रम कानूनों का पालन नहीं किया जाता है। 2007 से कार्यरत मजदूरों को मात्र 6 हजार रुपया दिया जाता है। इसी तरह गोपाल नामक मजदूर की एक अंगुली मशीन में आकर कट गयी, उसको भी कोई मुआवजा व ई.एस.आई. पेंशन आज तक नहीं दी।
अगस्त माह में मजदूरों ने प्रबन्धन से वेतन में वृद्धि की बात की तो प्रबन्धन ने बात अनसुनी कर दी। बाद में वृद्धि मात्र 350 रुपया की गयी। इस पर मजदूरों में आक्रोश फैला। मजदूर काम रोककर एक दिन गेट के भीतर बैठे। इस पर प्रबन्धन ने पुलिस बुलाकर मजदूरों को बाहर कर दिया। 26 अगस्त को मजदूरों ने अपना मांग पत्र सहायक श्रमायुक्त रुद्रपुर ऊधमसिंह नगर को सौंपा। इस पर श्रमायुक्त ने 31 अगस्त को त्रिपक्षीय वार्ता का नोटिस प्रबन्धन व मजदूरों को भेजा। श्रमायुक्त का नोटिस मिलते ही प्रबन्धन घबरा गया और त्रिपक्षीय वार्ता के एक दिन पहले 30 अगस्त को मजदूरों को अपने कार्यालय में बुलाकर समझाने लगा कि यह हमारे घर (फैक्टरी) का मामला है। तुम्हारी जो भी मांगें हैं उसे हेड कार्यालय दिल्ली से बात कर पूरी करवा देंगे। हमें 15 दिन का समय दे दो। मजदूर प्रबन्धन की कुटिल चाल के झांसे में आ गये क्योंकि मजदूर किसी भी श्रम कानून के बारे में नहीं जानते थे और न ही इनका कोई संगठन था। प्रबन्धन द्वारा दिये आश्वासन के कारण मजदूर अगले दिन त्रिपक्षीय वार्ता हेतु ए.एल.सी. कार्यालय नहीं गये और प्रबन्धक के साथ समझौते में हस्ताक्षर कर लिये। 15 दिन बीतने पर मजदूरों ने प्रबन्धक से अपनी मांगों के बारें में बातचीत की तो प्रबन्धन साफ मुकर गया।
मजदूरों ने पुनः सहायक श्रमायुक्त रुद्रपुर को 23 सितम्बर को अपना मांग पत्र सौंप कर त्रिपक्षीय वार्ता कराने की बात की तो श्रमायुक्त ने उल्टा मजदूरों को डांट लगायी और प्रबन्धन की तारीफ की। मजदूरों की मांग पर आज तक श्रम विभाग ने कोई कार्यवाही नहीं की। फैक्टरी में हो रहे श्रम कानून के उल्लघंन के जांच के लिए श्रम निरीक्षक झांकने तक नहीं पहुंचा।
श्रम विभाग की मिलीभगत से प्रबन्धन ने मजदूरों पर अपना दमन और तेज कर दिया। उसने नेतृत्वकारी तीन मजदूरों का ट्रांसफर दिल्ली, हिमाचल प्रदेश व गुडगांव कर दिया। यू.पी. स्थायी आदेश के अन्तर्गत मजदूरों का स्थानान्तरण बगैर मजदूरों की सहमति के दूसरे राज्यों में नहीं किया जा सकता। लेकिन आज सभी फैक्टरी मालिक/प्रबन्धन श्रम कानूनों को ठेंगे पर रख मजदूरों के संघर्ष को कुचलने हेतु नेतृत्वकारी मजदूरों का ट्रांसफर दूसरे राज्यों में कर रहे है। मजदूरों द्वारा स्थानांतरण पत्र नहीं लेने पर प्रबन्धन ने डाक द्वारा उनके घर पर भेज दिये।
इसके अलावा प्रबन्धन ने लक्ष्मण प्रसाद सहित पांच मजदूरों को 15 अक्टूबर को गैर कानूनी तरीके से फैक्टरी से निकाल दिया। मजदूरों ने बताया कुछ समय पूर्व प्रबन्धन ने कैजुअल में काम करने वाली लगभग 60 महिला मजदूरों को भी बगैर कारण बताये गैर कानूनी तरीके से फैक्टरी से निकाल दिया था। जबकि महिला मजदूर तीन-चार सालों से काम कर रही थीं।
फैक्टरी प्रबन्धन अप्रशिक्षित मजदूरों से मशीनों पर काम करवाता है जिस कारण मजदूरों के साथ अंग-भंग होने की दुर्घटनायें होती हंै। मजदूर चुपचाप घर बैठने को मजबूर हो जाते हैं। अपने व्यवहार से वे जानते हैं कि श्रम विभाग उनके लिए कुछ नहीं करेगा।
जब से मजदूरों ने संगठित होने की कोशिश की है तो प्रबन्धन ने नेतृत्वकारी मजदूरों का या तो स्थानांतरण करना या फिर मजदूरों को फैक्टरी से निकालना शुरू कर दिया है। इस बीच प्रबन्धन ने नेतृत्वकारी तीन मजदूरों को अपने कार्यालय में बुलाकर डेढ़-डेढ़ लाख रुपया लेकर इनसे अलग हो जाने को कहा और धमकी दी। मजदूरों ने प्रबन्धन के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और अपने सभी मजदूर भाइयों के हितों के लिए संघर्ष करने का मन बनाया।
मजदूरों को साफ समझना चाहिए कि सभी अधिकारी, श्रम विभाग पुलिस प्रशासन, शासन पूंजीपति वर्ग की सेवा करने के लिए बने हैं। मजदूरों के पास एक मात्र हथियार अपनी संगठित ताकत है जिसके दम पर मजदूर इन सबसे निपट सकते हैं। रूद्रपुर संवाददाता
निजी अस्पताल कर्मचारियों का प्रदर्शन
वर्ष-17,अंक-21(01-15 नवम्बर, 2014)
बरेली में दिनांक 16 अक्टूबर को प्राइवेट चिकित्सा संस्थानों के कर्मचारियों ने दोपहर 2 बजे से सेठ दामोदर स्वरूप पार्क में प्रदर्शन शुरू किया। इससे पहले लगभग एक हफ्ते का पर्चा अभियान विभिन्न अस्पतालों में चलाया गया जिसमें सभी कर्मचारियों से उनकी समस्याओं एवं श्रम कानूनों में संशोधनों के विषय में बातचीत की गयी।
16 अक्टूबर को दोपहर 2 बजे से सेठ दामोदर स्वरूप पार्क में कर्मचारी इकट्ठा होना शुरू हुए। लगभग 3 बजे सभा की शुरूआत हुई। सभा को सम्बोधित करते हुए मेडिकल वर्कर्स एसोसिएशन के सचिव ईश्वर चन्द्र ने कहा कि बरेली शहर में एक से बढ़कर एक अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस अस्पताल हैं। इनकी खूबसूरत इमारतें शहर की सुन्दरता बढ़ाती हैं परन्तु इन अस्पतालों में काम करने वाले कर्मचारी जब 10 से 14 घंटे तक काम करके निकलते हैं तो उनके चेहरे मुरझाये हुए होते हैं। इन लोगों को मिलने वाला वेतन इतना भी नहीं होता कि ये अपनी थकान उतारने के लिए अच्छा खा-पी सकें और आराम कर सकें। बल्कि इनमें से अधिकतर लोग अपनी जिन्दगी की जरूरतों को पूरा करने के लिए कहीं दूसरी जगह काम पर जाते हैं। अस्पतालों में कोई भी श्रम कानून लागू नहीं होते हैं। यहां मालिकों की अपनी मनमर्जी चलती है। यहां कर्मचारी मालिकोें के लिए एक इंसान न होकर एक पुर्जा हैं जब तक चाहा काम लिया और काम पूरा होने पर निकाल कर फेंक दिया। इस प्रकार अस्पताल कर्मचारी नारकीय जीवन जी रहे हैं, जरूरत है इस नारकीय जीवन के बजाय खुशहाल व शोषण विहीन जीवन के लिए संघर्ष करने की।
एसोसिएशन के महासचिव श्याम बाबू ने कहा कि अधिकतर अस्पतालों में पी.एफ., ई.एस.आई., बोनस व छुट्टियों की सुविधाएं सब को नहीं मिल रही हैं बल्कि यदि स्टाफ को छुट्टियों की जरूरत होती है तो उसके पैसे काट लिये जाते हैं। इन अस्पतालों में सबसे खराब स्थिति इन जगहों को साफ सुथरा व चमकदार रखने वाले सफाईकर्मियों व बार्ड बाॅय व आया की है। इनके काम के घंटे सबसे ज्यादा व वेतन सबसे कम होता है, ये लोग इतनी गंदगी साफ करते हैं पर इनको कोई सुरक्षा उपकरण मुहैय्या नहीं कराए जाते हैं। आगे उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अस्पतालों के सभी स्तरों के कर्मचारियों को एसोसिएशन को अपने साथ लाना होगा।
एसोसिएशन की कार्यकारिणी सदस्य भानुप्रताप शर्मा ने कहा कि तमाम अस्पतालों में स्टाफ को न तो ड्रेस दिये जा रहे हैं। आगे उन्होंने कहा कि अस्पतालों में काम करने वालों में अधिकांश संख्या महिला कर्मचारियों की है। ये महिलायें रिशेप्सन, नर्स, टैक्नीशियन से लेकर स्वीपर व आया तक का काम पूरी मुस्तैदी के साथ करती हैं। पर इन संस्थानों को न ही इनकी सुरक्षा की कोई चिन्ता है और न ही देश के भविष्य की। ये महिलायें ड्यूटी से देर रात अकेली अपने-अपने घर जाती हैं। इनका वेतन बहुत ही कम होता है। अस्पतालों में आये दिन छेड़-छाड़ की व यौन उत्पीड़न की घटनाएं होती रहती हैं। कहीं भी ‘विशाखा रूलिंग’’ को लागू नहीं किया जा रहा है। ये महिला कर्मचारी जब गर्भवती होती हैं तो उन्हें सवेतन प्रसूति अवकाश देने के बजाय काम से निकाल दिया जाता है। ऐसे में अभाव के कारण उनके बच्चे कुपोषित पैदा होते हैं। इन महिलाओं को पुरुष कर्मचारियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने की जरूरत है।
एसोसिएशन के अध्यक्ष सतीश ने कहा कि पूरे शहर में अस्पतालों में श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ायीं जा रही हैं। मालिक बेलगाम होकर कर्मचारियों को शोषण की चक्की में पीसकर मुनाफा कमा रहे हैं। शासन-प्रशासन व श्रम विभाग सभी मालिकों के साथ खड़े हुए हैं। इसलिए कर्मचारियों का एकजुट संघर्ष ही उन्हें इस आर्थिक गुलामी से मुक्ति दिला सकता है।
आगे उन्होंने कहा कि जिन श्रम कानूनों को आधार बनाकर ट्रेड यूनियनें आंदोलन खड़ा करती थीं, उन्हें खत्म किया जा रहा है। एक तो श्रम विभाग व अन्य प्रशासनिक विभागों में भ्रष्टाचार के कारण कानून वैसे ही लागू नहीं हो रहे हैं। ऊपर से सरकार का ये हमला मजदूरों/कर्मचारियों को और भी गड्ढ़े में ले जाएगा। इसलिए हमें ये समझना होगा कि इस संकट के काल में हम सभी को एकजुट होकर पूरे देश के मजदूर आंदोलन के साथ मिलकर मजदूर विरोधी नीतियों व सरकार के खिलाफ तथा इस लूट व शोषण पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ बिगुल फूंकने के लिए आगे आना होगा।
सभा में प्रमोद कुमार, प्रेमपाल, रहमतखान, माईकल राॅबर्ट, शिवकुमार, मुनीस, अली मोहम्मद, शनि आदि लोगों ने विचार व्यक्त किये। बरेली संवाददाता
साक्षात्कार
हिन्दुस्तान इंटरनेशनल एड एलाऊ करेः यासीन मलिक
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)
नागरिक- जम्मू कश्मीर में बाढ़ आने के बाद सरकारी राहत कार्य की क्या स्थिति है?
यासीन मलिक- जम्मू-कश्मीर के तबारिकी वजूद में कहीं भी ऐसी शहादत नहीं मिलती है कि ऐसी तबाही पहले कभी आयी है। यहां का सारा बिजनेस पिट चुका है। लाखों मकान तबाह हो चुके हैं, लोगों के पास खाने-पीने के लिए कुछ नहीं है। यहां पर जो कह रहे है रेस्क्यू और रिलीफ। मेरी यह गुजारिश है कि आप खुद हर मौहल्ले में जाएं और देख लीजिये कि सरकार का जो दावा है। जो हिन्दुस्तान के मुखलिफ टीवी चैनलों पर जो दावे दिखाए गये हैं उनमें कितनी हकीकत है।
नागरिक- भारत के मीडिया ने आर्मी की कार्यवाहियों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया है लेकिन जनता के बीच में गये तो उस तरह की चीजें जनता के बीच नहीं दिखाई दी हैं?
यासीन मलिक- जहां तक आर्मी का ताल्लुक है राजबाग में उनको देखा गया है, उसके बगैर जितने भी इलाके हैं जैसे बटमालू है, बेमना है, लाल चैक है, शहीदगंज छतरा शाही......, वहां जाएं और पूछे आपने अभी तक देखा है किसी आर्मी वाले को, वोट लेकर किसी की मदद करते हुए।
नागरिक- जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत कांफ्रेस और वर्तमान में कश्मीर की आजादी के आंदोलन की क्या स्थिति है?
यासीन मलिक- आज 28 दिन हो गये मेरा मकान भी सारा खत्म हो चुका है। मैं अभी तक अपनी फैमिली से भी नहीं मिला हूं। 27 दिन हो गये हमने कंट्रोल रूम बनाया है। यहां से मुखलिफ जगहों पर हम रिलीफ लेकर जाते हैं। ये जो रिलीफ आता है वह कश्मीर के गांव के इलाके से है। कुपवाड़ा, टंडा, सोपोर, बरामूला, पूंछ, राजौरी आदि से 400 से 500 के दरम्यान गाडि़यां-ट्रक जो गांवों से आया है, रिलीफ लोगों को दे रहे हैं।
नागरिक- कितने नुकसान का आंकलन है?
यासीन मलिक- दो लाख करोड़ से भी ज्यादा का नुकसान है।
नागरिक- केन्द्र सरकार की तरफ से यहां पर क्या प्रयास दिखाई दिये हैं?
यासीन मलिक- अभी तक कुछ भी नहीं हो पा रहा है। अभी तक सिर्फ बातें की गयी हैं। आप लोगों से पूछिये कि उनका हाल क्या है। कन्सट्रक्शन के बारे में किसी तरह की एक्टीविटी नहीं हुयी है। अभी आप देख रहे हैं कि गली-कूचों में कितनी गंदगी है। इससे यहां पर बीमार होने का अंदेशा है। इससे आप खुद समझ सकते हैं कि रिलीफ, रेस्क्यू, कन्सट्रक्सन के बारे में सरकार का जो दावा है, कितना सच है।
नागरिक- कश्मीर के गांवों में तमाम नौजवान ऐसे मिले जो आजादी की बात कर रहे थे। उनका कहना था कि आर्मी को यहां से हटाया जाना चाहिए। आर्मी को लेकर उनके अंदर काफी आक्रोश था, उनका कहना था कि आम्र्स फोेर्सेज स्पेशल पावर एक्ट (आफ्सा) हटाया जाना चाहिए। इस सबके बारे में आपकी क्या राय है?
यासीन मलिक- हम मुकम्मल आजादी चाहते हैं लेकिन इस बार में केवल रिलीफ पर बात करूंगा।
नागरिक- जितना बड़ा नुकसान जम्मू-कश्मीर में हुआ है। उसे खड़ा करने में, उसे रिहैब्लीटेट करने में आपको लगता है कि कितना समय लगेगा और उसके लिए क्या प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए?
यासीन मलिक- हमारी कोशिश है कि किसी तरीके से इंटरनेशनल एंव यहां पर आ जाए। हिन्दुस्तान इंटरनेशनल एड एलाऊ करे। दुनिया में जहां कहीं इस तरह बड़े-बड़े तूफान आए हैं..... उसमें इंटरनेशनल कम्युनिटी मदद करती है। हमारी कोशिश है कि इंटरनेशनल एड यहां आ जाए और कन्सट्रक्सन के सिलसिले में मदद करे।
नागरिक- हिन्दुस्तान ऐसा क्यों कर रहा है कि इंटरनेशनल मदद को रोक रहा है। उसका क्या इंटरेस्ट है?
यासीन मलिक- यह तो मुझे मालूम नहीं लेकिन हमारी कोशिश है कि इंटरनेशनल एड यहां पर आ जाए।
नागरिक- भारत का जो मीडिया है उसने दिखाया है कि जो लोग यहां पर आजादी के लिए आवाम के बीच काम कर रहे हैं उन्होंने रिलीफ व रेस्क्यू का काम नहीं किया?
यासीन मलिक- देखिए बात यह कि हिन्दुस्तानी मीडिया ने यह कहा। हिन्दुस्तानी मीडिया बन गया है लाफिंग स्टार, डायज आॅफ द पीपुल (विश्लेषकों का मंच बन गया हैै- सम्पादक) यहां पर जो हिन्दुस्तानी शहरी फातमी है उनसे बात कीजिए कि किसने रेस्क्यू रिलीफ में आपका साथ दिया।
-कश्मीर से विशेष संवाददाता
जम्मू-कश्मीर आपदा
कहां हैं अलगाववादी नेता?
वर्ष-17,अंक-20(16-31 अक्टूबर, 2014)

जनता के बीच कश्मीर की आजादी के लिए काम कर रहे संगठन व उसके नेता आपदा के दौरान जनता के बीच में ही थे। हुर्रियत(एम) के चेयरमैन मीरवाइज फारूख के नेतृत्व वाली ‘आवामी एक्शन कमेटी’ ने बाढ़ से एक दिन पूर्व ही चावल, पानी व अन्य खाद्य सामग्री एकत्र करके रख ली थी। जब श्रीनगर में बाढ का पानी भरना शुरू हुआ तो उन्होंने कुछ ट्रक व नाव किराये पर लेकर ‘रेस्क्यू आपरेशन’ चलाया। ‘कश्मीर लाइफ’ के अनुसार बाढ़ के प्रथम सप्ताह में दो हजार से भी अधिक लोग पुराने श्रीनगर हेरिटेज स्कूल स्थित बेस कैंप में रह रहे थे। रायल पोटा में मेडिकल कैंप चलाया जा रहा था।
सैयद अली गिलानी के नेतृत्व वाली तहरीक-ए-हुर्रियत जम्मू-कश्मीर ने श्रीनगर, पुलवामा, काकापोरा, पैम्पोर इत्यादि में आपदा पीडि़तों के बीच राशन व अन्य जरूरी वस्तुओं का वितरण किया तथा गिलानी के पुत्र नईस जफर के नेतृत्व में लगभग आधा दर्जन डाक्टरों की टीम ने आपदा पीडि़तों को चिकित्सीय सहायता एवं दवाएं प्रदान कीं।
हुर्रियत जम्मू एंड कश्मीर के चेयरमैन शब्बीर शाह व उनके दल से जुड़े लोगों ने कश्मीर के दूसरे हिस्से से राहत सामग्री ट्रकों में भरकर आपदा पीडि़तों के बीच वितरित की। बाढ़ आने के शुरूआती दिनों में सड़कों पर रह रहे लोगों को बड़ी संख्या में रिलीफ कैंपों व इमारतों में शिफ्ट किया।
जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रांट के चेयरमैन यासीन मलिक ने मैसूमा (श्रीनगर) में बेस कैंप बनाया हुआ था। जहां से वे आपदा पीडि़तों के बीच में राशन व अन्य जरूरी वस्तुओं के वितरण की गतिविधियों को अंजाम दे रहे थे। कैंप में आपदा पीडि़तों की भीड़ थी। कश्मीरी पंडित नौजवान जो कि अपनी मां के साथ आया था, ने बताया कि बाढ़ की वजह से वे मंदिर परिसर में रह रहे हैं कि सरकार से कुछ नहीं मिला है जो भी रिलीफ आया है यासीन साहब की तरफ से आया है।
बरबरशाह में कढ़ाई का काम करने वाली आसमा का मकान आपदा में गिर चुका है। वे बताती हैं कि यहां पर आज तक कोई भी नहीं आया। उमर फारूख ने पहले राहत सामग्री भेजी थी अब यासीन मलिक आए हैं।
श्रीनगर का गुरूद्वारा एक मंजिल तक पानी में डूबा रहा था। गुरूद्वारे के हेड ग्रंथी त्रिलोक सिंह बताते हैं कि उन्होंने गुरूद्वारे में सभी धर्मोंं के लोगों को पनाह दी। मीर वाइज फारूख, शब्बीर शाह, गिलानी साहब सभी ने उन्हें मदद की। यासीन मलिक ने चावल देकर मदद की। अमृतसर से भी गुरूद्वारे के लिए अनाज आया था। आर्मी ने भी मदद की परंतु बाढ़ आने के सात दिन बाद।
सनातन मंदिर के पुजारी अजय कुमार शुक्ला पिछले 15 वर्षों से श्रीनगर में हैं। उनके अनुसार 8 सितम्बर को पानी 14 फुट तक बढ़ गया। 150 लोग जो धर्मशाला में रुके थे, भूखे प्यासे रह गये। 8 सितम्बर की शाम 7 बजे यासीन मलिक 20 पैकेट पीला चावल पका हुआ लेकर आए। हमने निवेदन किया कि यह चावल कम है, उस दिन रात्रि में यासीन मलिक दो नावों में बाल्टी में भरकर 150 लोगों के लिए पीला चावल लेकर आए साथ में मोमबत्ती माचिस व पानी भी दे गये। वे कहते हैं कि कश्मीर में कोई सरकार है ही नहीं उन्होंने आर्मी की शक्ल ही नहीं देखी।
पंडित जी आगे बताते हैं कि 9 सितम्बर को यासीन मलिक दिन में लगभग 12 बजे खाय रोल पर पट्टा रखकर बनी नाव पर बैठकर पुनः आए और 50-50 किलो आटा, चीनी, चाय-पत्ती इत्यादि देकर चले गये, 13 सितम्बर को पानी घटने पर फंसे यात्रियों को बाहर निकाला गया।
हमारे लड़के को फिस की बीमारी है। उसका 3 साल का कोर्स है, डाक्टर ने कहा है कि एक दिन भी दवा मिस हुई तो दोबारा 3 साल तक खानी पडे़गी। मेरे पास दवा जो फिस गार्ड थी वह नहीं थी। यासीन मलिक ने रात को दस बजे दो पत्ते दवा के लाकर हमको दिये वे कहते हैं कि सेना ने हवा से यहां पर कुछ भी ड्राॅप नहीं किया।
उनके अनुसार श्रीनगर में 50 ट्रक राहत सामाग्री रोज आ रही है। यह सामग्री जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच रही है। यासीन मलिक के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने सरकारी राहत सामग्री को छीन लिया। मैं कहता हूं यह अच्छी बात है। छीनकर उसे अपने घर में तो नहीं रख लिया, उस सामग्री को वास्तविक जरूरतमंदों तकपहुंचाया।
-विशेष संवाददाता
पन्तनगर विश्वविद्यालय में ठेका मजदूरों का आन्दोलन समाप्त
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
पंतनगर वि.वि. में ठेका प्रथा समाप्त कर संविदा पर रखे जाने को लेकर चला ठेका मजदूरों का स्वतः स्फूर्त कार्य बहिष्कार आन्दोलन 20 सितम्बर को अनौपचारिक वार्ता के साथ समाप्त हो गया।
पंतनगर विवि में पिछले 10-11 वर्षों से (मई 2003 से ठेका प्रथा लागू होने से पूर्व से ही) अति अल्प वेतन पर कार्यरत ठेका मज़दूरों को श्रम कानूनों द्वारा देय कोई सुविधा नहीं दी जा रही है।
इन्हें आज तक कोई बोनस नहीं दिया गया। उत्पादकता से जुड़ा बोनस प्रशासन यह कर बचा जाता है कि वि.वि. उत्पादक मुनाफे की इकाई नहीं है। इसे बोनस अधिनियम में छूट है तो तदर्थ बोनस ठेकेदार के कर्मचारी कह कर पल्ला झाड़ लेता है। जीवन की अति आवश्यक, चिकित्सा सुविधा की कौन कहे, प्राथमिक चिकित्सा (फस्ट एड) के नाम पर प्रशासन इनसे अपने कर्मचारियों के बरक्स शुल्क भी अधिक वसूलता है पर डाक्टर मात्र परामर्श देता है। चिकित्सालय से दवाई, पट्टी तक नहीं बांधी जाती है। आवास सुविधा देना तो दूर की बात हज़ारों एकड़ जमीन पर फैले वि.वि. में ठेका मजदूरों को झोंपड़ी बनाने की मौन सहमति भी नहीं है। ईएसआई (कर्मचारी राज्य बीमा) जैसी सरकारी स्कीम को लागू करने मंे आना-कानी आज तक की जाती रही थी। न ईपीएफ पासबुक और न ही पर्ची स्थानीय सेल कोई हिसाब नहीं है। खून-पसीने की कमाई की मिलीभगत से लूट जारी है। वेतन तक समय से नहीं मिलता है।
ठेका मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1970 के द्वारा विवि पंतनगर जैसी निरन्तर चलने वाली कोर सेक्टर संस्था में ठेका प्रथा गैर कानूनी है। यहां ठेका प्रथा के जरिये काम नहीं कराया जा सकता है। ऐसी संस्था में निरन्तर एक वर्ष में 240 दिन की सेवा पूर्ण करने पर कर्मी को नियमित नियोजित करने का प्रावधान है। और ये शासन प्रशासन ने माना भी है और यहीं हज़ारों मज़दूरों को नियमित नियोजित किया है। पर यहां पिछले 10-12 वर्षों से कार्यरत मजदूरों को ठेका प्रथा समाप्त कर नियमित नियोजित करना तो दूर श्रम नियमों द्वारा देय सुविधाएं भी नहीं दी जा रही हैं। सरकार ने शासनादेश जारी करके संस्थाओं में निरन्तर 10 वर्ष की सेवा एवं पांच वर्ष की सेवा पूर्ण कर चुके कर्मियों को नियमित करने की बात की है। पर ठेका मजदूरों की कोई बात नहीं की है बल्कि इनकी खिल्ली उड़ाई है। श्रम कानूनों का उल्लंघन, अफसर मालिकान की भाषा में आउट सोर्सिंग के जरिए शोषण अनवरत जारी है। इधर इसी समय प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा उत्तराखण्ड परिवहन विभाग में ठेका प्रथा समाप्त कर ठेकाकर्मियों को संविदा पर रखने की घोषणा से ठेका मजदूरों में ठेका प्रथा को एक झटके से समाप्त कर संविदा वि.वि. कर्मी होने की आशा जगी। दूसरी तरफ वि.वि. में गत वर्ष की भांति पुराने ठेकेदार का ठेका समाप्त कर मजदूरों की आपूर्ति हेतु नये ठेकेदार की तैनाती होनी थी। टेंडर खुलना व पास होना था। शासन-प्रशासन, ठेकेदारों, अफसरों के शोषण उत्पीड़न से तंग आकर मजदूरों में आक्रोश फूटना था सो अचानक फूटा।
सर्वप्रथम मजदूरों ने सभी यूनियन संगठनों को किनारे करते हुए स्वतः स्फूर्त ढंग से छः सितम्बर की सभा हेतु आयोजक ठेका मजदूरों की तरफ से सूचना चस्पा कर मजदूरों का आहवान किया। सभा उपरान्त इसी तरह कुलपति महोदय को संबोधित पत्र में ठेका प्रथा टेंडर रद्द कर ठेका मजदूरों के ईपीएफ कटौती, वेतन वितरण आदि की जिम्मेदारी वि.वि. प्रशासन खुद ले, इसकी मांग की। सभा उपरांत सभी मजदूरों ने जुलूस की शक्ल मंे श्रमकल्याण कार्यालय का घेराव किया और अपनी उक्त मांग को दर्ज करते हुए बिना किसी संगठन के पेड व बिना किसी हस्ताक्षर के समस्त ठेका मजदूरों की ओर से प्रशासन को दिया। मांग पूरी न होने पर नौ सितम्बर से आन्दोलन कार्य बहिष्कार का ऐलान किया था। कार्यक्रम सफल बनाने हेतु मजदूरों ने सभी विभागों से मजदूरों को निकाला, वहीं उत्साह के साथ मजदूरों ने जोशो खरोशों के साथ कार्य बहिष्कार में भागीदारी की। कार्य स्थल पर हाड़ तोड़ मेहनत उपरान्त नौकरी की असुरक्षा के चलते अफसरों के घरों में बेगारी आज्ञाकारी ठेका मजदूरों से अफसरों को ऐसी उम्मीद दूर-दूर तक नहीं थी सो प्रशासन भौंचक्का, हमलावर, हैरान, परेशान होने और करने लगा। सभा में जनप्रतिनिधि, क्षेत्रीय विधायक आये। प्रशासन-विधायक की चार घण्टे की वार्ता उपरांत आन्दोलन शान्त करने, हल निकालने में विधायक जी द्वारा बताया गया कि ठेका प्रथा समाप्त कर प्रशासन कार्यरत मजदूरों को उपनल (उत्तराखण्ड पूर्व सैनिक कल्याण निगम लिमिटेड) आउट सोर्सिंग संस्था के जरिए काम कराने को तैयार हुआ है। जो शासनादेश प्रशासन द्वारा दो वर्ष से लागू नहीं किया जा रहा था, मजदूरों के संघर्ष से दो घण्टे में लागू करने को तैयार हो गया और संविदा की मांग को शासन स्तर का मामला होने का हवाला दिया। अब उपनल के तहत रखे जाने पर नौकरी की असुरक्षा, छंटनी, कागजी जटिलता जैसी नौकरी की असुरक्षा के भय के मारे मजदूरों ने उपनल को अस्वीकार कर दिया और ठेका प्रथा समाप्त कर संविदा पर रखे जाने को लेकर आन्दोलन तेज कर दिया। अगले दिन मजदूरों ने अति आवश्यक यूनिट दूध डेरी फार्म बन्द कर दिया। इस युद्ध में प्रशासन उपनल के अलावा अन्य किसी व्यवस्था और झंझट में पड़ने को तैयार नहीं था। बल्कि निपटने और दमन करने पर उतारू था सो उसने किया। स्वतः स्फूर्त आन्दोलन, गैर संगठन, गैर अनुशासित अनियंत्रित भीड़ का बहाना बना कर प्रशासन की शह पर जिला पुलिस प्रशासन द्वारा आन्दोलन को गैर कानूनी घोषित करते हुए मजदूरों के शान्तिपूर्ण आन्दोलन पर लाठी चार्ज किया गया था। और विभिन्न अपराधिक धाराओं में 147, 332, 333, 504, 506, 523 और सात क्रिमिनल जैसी आपराधिक धाराएं लगा कर जेल में डाल दिया गया और दो सौ अज्ञात मजदूरों पर उक्त धाराएं लगाई गईं। फिलहाल सभी मजदूर जेल से बाहर आ गये हैं।
यदि आन्दोलन के नेतृत्व की बात करें तो अगुवा तत्वों में पूँजीवादी चुनावबाज पार्टियों के छुट-भैये नेताओं के पीछे भाड़े के रूप में दौड़ने वाले अधैर्यवान, तुरत फुरत में कुछ हासिल करने, हीरो बनने, वहीं प्रशासन द्वारा नौकरी से निकाले जाने का डर भी था। इसलिए शातिर तत्वों ने पूर्व कांग्रेस पार्टी से निकाली गई ठेका कर्मी, काम से हटाई गई महिला को आगे किया और अपने को प्रशासन अथवा मजदूरों से भी गोपनीय रखा। बताया जाता है कि यह तेजतर्रार महिला एक समय के बाद इनकी शातिरी के जबाब में भीड़ देख कर इन तत्वों को नजरअन्दाज कर स्वयंभू फैसले लेने लगी। आन्दोलन उग्र होने पर खुद गैर अनुशासित, अनियंत्रित तत्व भीड़ को अनुशासित नियंत्रित नहीं कर पाये। लाठी चार्ज की घटना के बाद धीर-धीरे उक्त तत्व आन्दोलन से गायब हो गये तो कुछ चिह्नित प्रशासन के सामने नत मस्तक हो गये। अवसरवादी शातिर तत्वों ने उक्त महिला नेत्री को बीच भंवर में छोड़ दिया तो हमलावर प्रशासन द्वारा इस महिला के परिसर प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। अकेली छटपटाती महिला ने इस अन्याय के खिलाफ दिनांक 26 सितम्बर 2014 से आमरण अनशन करने की कुलपति जी को पत्र द्वारा सूचना दी। उक्त दिनांक को अनशन शुरू करते ही पुलिस रुद्रपुर थाने ले गई। फिलहाल रस्साकस्सी जारी है।
इस आन्दोलन में परिसर की सभी यूनियनों की भूमिका मूक दर्शक बनकर आन्दोलन से दूर रहने की रही। बहाना था कि हमें बुलाया ही नहीं है। प्रशासन द्वारा शुरूआत से ही चिह्नित लोगों, ठेका मजदूर, ठेका मजदूर कल्याण समिति के नेता को प्रशासन द्वारा बुलाया, समझाया, धमकाया और आन्दोलन से दूर रहने को समझाया। इसके बावजूद ठेका मजदूर कल्याण समिति द्वारा मजदूरों की मांग का समर्थन किया गया और आन्दोलन की शुरूआत से लेकर अन्त तक साथ रही। समिति के नेताओं द्वारा इनके आन्दोलन के तरीके की आलोचना भी की और सामूहिक फैसले, सिस्टमैटिक आन्दोलन बेहतर परिणाम हेतु शुरू से ही मजदूरों के बीच से एक कमेटी बनाने पर खासा जोर दिया था परन्तु अघोषित आन्दोलनरत नेतृत्व ने कोई सुझाव लागू नहीं किया। अन्ततः दिशाहीन आन्दोलन की यही परिणति होनी थी, सो हुई। प्रशासन द्वारा मजदूरों पर लाठी चार्ज होने पर अन्ततः ट्रेड यूनियनें लाठी चार्ज के विरोध में मजदूरों के बीच आने को मजबूर हुईं। और इन ट्रेड यूनियनों ने प्रशासन को एक चिट्ठी द्वारा विरोध की रस्म अदायगी की। मजदूरों के बीच से एक तदर्थ कमेटी बनाई गई। जेल में बन्द साथियों की जमानत हेतु मजदूरों से पैसा इकट्ठा किया गया हालांकि काफी मजदूरों की जमानत स्वयं घरवालों ने अपने स्तर से कराई। चन्दे से एकत्रित धनराशि कुछ जरूरतमंदों को मिली तो कुछ को नहीं मिली। कई लोगों के हाथों मे पैसा कोई हिसाब किताब नहीं रहा। जमानत भी काफी मशक्कत के बाद मिली। दूसरा, पुवाल में आग लगाने जैसा क्षणिक आन्दोलन चैबीस मजदूर भाइयों पर संगीन धाराएं, जेल जैसी घटना के बावजूद अघोषित नेतृत्व के आपसी तालमेल के अभाव तो प्रशासन के डर से नेतृत्व का आगे न आना के कारण आन्दोलन टूटता रहा। इस स्थिति में यूनियन संगठनों की प्रशासन से अनौपचारिक वार्ता के बाद आन्दोलन समेट दिया। हद तो तब हो गई जब इस वार्ता में यूनियनें एक भी ठेका मजदूर को नहीं ले गयीं। जिसका ठेका मजदूरों में खासा रोष था। कारण आन्दोलन किसी संगठन के नेतृत्व में नहीं था। वहीं हमलावर प्रशासन ने मजदूरों की गैर हाजिरी, निकाला-बैठाली की तो मजदूर किससे कहें। मजदूरों की कार्य बहाली को लेकर ठेका मजदूर कल्याण समिति ही अफसरों से अनुनय, विनय व पहल कर रही है।
ऐसा नहीं कि आन्दोलन असफल ही रहा है मजदूरों की संगठित ताकत और संघर्ष से प्रशासन भयाक्रांत हुआ। लाठी चार्ज की घटना से हुई छीछालेदर से प्रशासन पीछे हटने को मजबूर हुआ था। आन्दोलन और उग्र होता पर घटना के विरोध में ट्रेड यूनियनें सामने आयीं तो मजदूरों ने लड़ने के हथियार ट्रेड यूनियनों के सहारे छोड़ दिया। पर ट्रेड यूनियनें किसी भी तरह लड़ने को तैयार नहीं थीं। अन्ततः इस घपलत में आन्दोलन बिखर गया। अब ठेका प्रथा समाप्त कराना, संविदा अथवा नियमित होना पूरे देश में मजदूर विरोधी ठेका प्रथा समर्थक चुनावबाज पूंजीवादी पार्टियां, इनके मजदूर फेडरेशन, इनकी यूनियनों जिनकी लाखों मजदूरों की सदस्यता है जिन्होंने पूरे देश में ठेका प्रथा और एक मई 2003 में पंतनगर मे ठेका प्रथा लागू होने के समय प्रभावी / गैर प्रभावी सभी यूनियनों ने शासन प्रशासन की मजदूर विरोधी कार्यवाही का विरोध के बजाय सहयोग किया जो जगजाहिर है। मजदूर वर्ग के संघर्षों के दम पर मिले न्यूनतम सुरक्षा सुविधा कानून मालिकान द्वारा आज व्यहार में लागू नहीं किये जा रहे हैं उल्टे श्रम सुधारों के नाम पर मिले न्यूनतम अधिकारों को भी कैंची चला कर मजदूर विरोधी मालिकों के हितमें सभी सरकारें तेजी से फैसले ले रही हैं और पूंजीवादी व्यवस्था की सभी मशीनरी पूंजीवादी चरित्र के अनुरूप मजदूर विरोधी मालिक वर्ग के हित, कर्तव्य में अडिग हैं। मजदूरों की दयनीय स्थिति छिपी नहीं है वहीं वह रह-रह कर संघर्ष भी कर रहा है।
ऐसे में हमें इन सभी पूंजीवादी चुनावबाज पार्टियों इनके फेडरेशनों, यूनियनों और वर्तमान ठेका प्रथा की वास्तविक जमीन वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के चरित्र को समझना होगा। इसका पर्दाफाश करना होगा। इनके माया मोह त्याग कर हमें मजदूरों के क्रांतिकारी संगठन बनाने, मजबूत करने होंगे। ठेका प्रथा एवं सामाजिक न्याय में रोज-ब-रोज संघर्षों से निजात पूरे मजदूर वर्ग की मुक्ति हेतु समाजवादी व्यवस्था मजदूर राज्य स्थापित करने के लिए मजदूर वर्ग के एक हिस्से बतौर हमें पूरी दुनिया के मजदूर वर्ग के साथ एकता बनाकर लड़ना होगा। पन्तनगर संवाददाता
हिमाचल प्रदेश में छात्र आंदोलन का दमन
वर्ष-17,अंक-19 (01-15 अक्टूबर, 2014)
बारहवीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा (खासकर उच्च शिक्षा) के बारे में महत्वपूर्ण और खतरनाक (मेहनतकश छात्रों के लिए) टिप्पणी की गयी है। यह टिप्पणी है ‘‘सरकार को शिक्षा मुनाफे के लिए नहीं के सिद्धांत को छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए’’। इस टिप्पणी का असर आज शिक्षा के बारे में लिए जाने वाले फैसलों में साफ देखा जा सकता है। ठीक यही मामला हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय का है, जहां सरकार ने फीस में ट्यूशन शुल्क और हास्टल (छात्रावास) शुल्क में वृद्धि की है। साथ ही छात्रों के संघर्ष के संगठित मंच छात्र संघ को कमजोर करने की कोशिश भी की। जिसमें छात्र संघ प्रतिनिधियों को मनोनीत करने का सुझाव दिया है। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय (हिप्रवि) के छात्रों ने इसका विरोध किया। जिसका जवाब राज्य सरकार ने पुलिसिया दमन के जरिये दिया।
हिमाचल प्रदेश में राज्य सरकार ने 2012-13 में ही फीस वृद्धि का प्रस्ताव रख दिया था। जिसे कि 2014-15 के सत्र से लागू किया जाना था। यह फीस वृद्धि भी अलग-अलग मदों में 100 प्रतिशत से 1760 प्रतिशत तक है। ये फीस वृद्धियां ट्यूशन शुल्क में है। छात्रावास शुल्क की वृद्धियां इससे अलग है। (फीस वृद्धि के लिए तालिका देखें)
दूसरा फैसला छात्र संघ चुनाव पर है। जिसमें शिक्षण सत्र को समय से शुरू करने और लिंगदोह कमेटी की सिफारिश- ‘‘प्रतिनिधियों का चुनाव प्रत्यक्ष चुनाव अथवा मनोनयन के जरिये किया जाये’’ का लाभ उठाकर छात्र संघ को कमजोर कर किया जा रहा है। इसका यह मतलब नहीं है कि छात्र संघ आज मजबूत हालत में है बल्कि पूंजीवादी पतित स्वार्थवादी, व्यक्तिवादी, कैरियरवादी राजनीति ही इसमें हावी है। अलग-अलग राजनीतिक दलों ने अपने छात्र संगठन खडे़ किये जिसके जरिये वे छात्रों के बीच अपनी राजनीति को फैला सकें और छात्रों को कैरियरवादी व्यक्तिवादी राजनीति के लिए मजबूती से तैयार कर सकें। अभी चल रहे इस आंदोलन में भी छात्र संघ या आम छात्रों की भूमिका सीमित या न के बराबर है बल्कि विभिन्न छात्र एसएफआई, एबीवीपी, एनएसयूआई आदि ही इसे कर रहे हैं। इसमें भी एसएफआई इस मौके पर अधिक सक्रिय है। लेकिन एक संयुक्त संघर्ष खड़ा करने और आम छात्रों को आगे बढ़ाने का काम इनके लक्ष्य में नहीं है। इसके बजाए अपने को पूरी छात्र आबादी का मसीहा बनाने के लिए अलग-अलग तीन तिड़कमें भी इसमें उपयोग की जा रही है ऐसे में किसी मौजूदा संघर्ष को निर्णायक मुकाम तक ले जाने की संभावनाएं कम हो जाती है। और छात्रों की एकता (एक लंबे संघर्ष के लिए) मजबूत होना तो और मुश्किल है।
हिमाचल सरकार ने छात्रों द्वारा किए जा रहे धरना प्रदर्शन क्रमिक अनशन आदि को दबाने के लिए भरसक पुलिस बल इस्तेमाल किया है। पानी की बौछार लाठीचार्ज, गिरफ्तारी आदि के बीच भी छात्र आज डटकर खड़े है। व्यवस्था के खतरनाक खूनी पंजे उन्हें रोक नहीं पा रहे हैं।
हिमाचल प्रदेश के अलावा भी अन्य राज्यों में अलग-अलग हथकंडे अपनाकर छात्रों को शिक्षा से दूर किया जा रहा है। उत्तराखंड में सीमित प्रवेश नीति भी इसका एक रूप है। दिल्ली यूनिवर्सिटी में एफवाईयूपी कार्यक्रम भी इसका एक रूप था जो छात्र संघर्षों के जरिये वापस लिया जा चुका है। 12वीं पंचवर्षीय योजना खुलकर पूंजीपति वर्ग की मौजूदा इच्छाओं को अभिव्यक्त कर रही है। यह केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारों की मुख्य नीति है भारतीय पूंजीपति वर्ग की चाहत शिक्षा को खुले बाजार का हिस्सा बनाने की है जिसके लिए एक सुन्दर नाम पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) दिया गया है जिसमें घिनौने मंसूबे छुपे हुए हैं।
हिमाचल प्रदेश में छात्रों के संघर्ष से यह साफ है कि मेहनतकश छात्र शिक्षा पर हो रहे हमलों को चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर रहे हैं। वे इसका मुंहतोड जवाब देने का प्रयास कर रहे हैं। संभव है हिमाचल प्रदेश के छात्र इसमें तात्कालिक जीत हासिल कर लें। साथ ही इस बात को समझना भी जरूरी है कि आज भारतीय पूंजीवाद के संगठित राज्य तंत्र के खिलाफ संघर्ष को केन्द्रित किये बिना हमारी हर तात्कालिक हार-जीत क्षणिक होगी। हमारे संघर्ष के केन्द्र में वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था होनी चाहिए जो कि इसकी सूत्रधार है।
हीरो मोटो कार्प के निलंबित मजदूरों की बहाली के लिए संघर्ष
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
पिछले साल 29 अगस्त से हड़ताल के एक साल बीत जाने के बाद भी 38 में से 28 मजदूरों (10 मजदूरों ने हिसाब ले लिया) को मैनेजमेण्ट ने निलंबित किया हुआ है। घरेलू जांच पूरी हो चुकी है। मजदूरों को इस बात का खतरा है कि इन्हें मैनेजमेण्ट निष्कासित न कर दे इसलिए मजदूरों के अंदर खलबली है। दूसरी तरफ मैनेजमेण्ट दूसरी तरह से मजदूरों पर दबाव बना रहे हैं। कांवड यात्रा के दौरान कम्पनी ने पांच दिन की छुट्टी साप्ताहिक अवकाश के दिन काम लेकर, देने की प्रणाली का विरोध करने पर अगस्त माह का एक दिन का वेतन सभी मजदूरों का काट लिया। कम्पनी मजदूरों को ‘ट्रेनिंग व मीटिंग’ के लिए कार्यदिवस समाप्त होने के बाद का समय रखती है। इस अतिरिक्त समय का कोई ओवरटाईम भी नहीं दिया जाता है। इसका एक मद (एलाउंस या प्वाइंट) बना कर वेतन में जोड़ा जाता है। मजदूर ड्यूटी टाइम में ही इस प्रकार की गतिविधियां करवाने की बात कहकर मैनेजमेण्ट की इस कार्यवाही का विरोध कर रहे हैं। इसका मैनेजमेण्ट ने 1500 से 1800 रुपये मजदूरों के काट लिये। इस कटौती के जबाव में मजदूरों ने सितम्बर माह से ही उत्पादन कम करना शुरू कर दिया। मैनेजमेण्ट द्वारा इसका कारण पूछने पर मजदूरों ने जबाव में वेतन कटौती व निलंबित मजदूरों को वापस काम पर लेने की बात बताते हैं। मैनेजमेण्ट किन्तु-परन्तु के साथ मामले को खींच रहा है। उत्पादन कम करने की प्रक्रिया कुछ ही विभागों के मजदूरों के द्वारा करने से भी मैनेजमेण्ट पर उतना असर नहीं पड़ रहा है।
उक्त दोनों मांगों वेतन कटौती के विरोध में व निलम्बित मजदूरों को काम पर वापस लेने के लिए 8 सितम्बर से 10 सितम्बर तक कैन्टीन बहिष्कार व 11 सितम्बर से काला टीका लगाकर काम करके विरोध किया गया। इस कार्यवाही में सभी मजदूरों ने भागीदारी की। इससे मजदूरों के अंदर एकजुट संघर्ष का जज्बा पैदा हुआ। निलंबित 28 मजदूरों को अंदर काम पर बहाल करवाने की जिम्मेदारी का एहसास सभी मजदूरों के अंदर गहराया है।
हीरो मोटो कार्प के मजदूरों का उत्पादन कम करने का संघर्ष अन्य बैण्डर कम्पनियों पर भी असर डाल रहा है। बैण्डर कम्पनियों में तैयार माल को रखने की जगह न होनेे के कारण उत्पादन कम हो रहा है। इन कम्पनियों के मजदूरों को जबरदस्ती छुट्टी देने, ठेका मजदूरों को ब्रेक देने का सिलसिला शुरू हो चुका है। अब हीरो के मजदूरों का संघर्ष चाहे-अनचाहे इसकी बैण्डर कम्पनियों के मजदूरों का भी संघर्ष बन जाता है। इस मौके पर हीरो का नेतृत्व अगर अपने संघर्ष की योजना में बैण्डर कम्पनियों के मजदूरों को भी गोलबंद करता है तो इससे उनकी लड़ाई को ताकत मिलेगी। बैण्डर कंपनियों के मजदूरों की समस्या के लिए हीरो के मजदूरों को उनके संघर्ष में ताकत लगानी चाहिए। अगर ऐसा हो पाता है तो मैनेजमेण्ट के ऊपर मजदूर अपना दबाव कायम कर अपनी मांगे मनवा सकते हैं। यह कार्यवाही मालिकों-मैनेजमेण्ट के ऐसोसिएशन को एक करारा जबाव भी होगा। हरिद्वार संवाददाता
आई.टी.सी. के मजदूरों ने रैली निकाली
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
10 सितम्बर 2014 को आई.टी.सी. के तीनों प्लांटों के मजदूरों ने चिन्मय डिग्री काॅलेज से सिडकुल होते हुए उपश्रमायुक्त कार्यालय तक जुलूस निकाला। जुलूस मुख्यतः औद्योगिक क्षेत्र में हो रहे श्रम कानूनों के उल्लंघन, वेतन, ई.एस.आई. सुविधा, ई.पी.एफ. समेत ठेकेदारी प्रथा का विरोध करते हुए 12 सूत्रीय मांगों (संघर्ष करने वाले मजदूरों की बहाली) के संबंध के अलावा अपने समझौता वार्ताओं के लिए शक्ति प्रदर्शन करने को लेकर था। जुलूस में आई.टी.सी. के लगभग 300-350 मजदूर (रात्रि व बी शिफ्ट) के अलावा विप्रो, सत्यम, वी.आई.पी. एवरेडी, इंकलाबी मजदूर केन्द्र व क्रालोस के नेतृत्व के लोग भी शामिल थे।
आई.टी.सी. के हरिद्वार की शाखा में तीन प्लांट क्रमशः सौंदर्य प्रसाधन(साबुन, शैम्पू) प्रिन्टिंग व फूड(बिस्कुट व चिप्स, कुरकुरा, नूडल) के हैं। सितम्बर 2011 में मजदूरों ने अपने वेतन वृद्धि समेत अन्य सुविधाओं के लिए हड़ताल की थी। समझौता वार्ताओं के शुरू होने के दो तीन माह बाद तीन साल के लिए समझौता हुआ। अब समझौते की समय सीमा समाप्त हो चुकी है। पिछले कुछ महीनों से वार्ताएं चल रही हैं। मैनेजमेण्ट मजदूरों की मांगे मानने के लिए तैयार नहीं है। उसने मजदूरों को अपनी शर्तों के साथ वार्ता करने का एक नोटिस पकडाया है।
आई.टी.सी. के तीनों प्लांटों में अलग-अलग वर्कर्स कमेटी मैनेजमेण्ट द्वारा गठित हैं। तीनों प्लांटों से दो मजदूर प्रतिनिधियों को मिलाकर टाॅप कमेटी 6 सदस्यीय बना कर ही समझौता वार्ताएं चल रही हैं। पूर्व में हुए समझौते को मजदूरों ने काफी निराशा से स्वीकार किया। नेतृत्व पर मजदूरों ने अविश्वास करते हुए अगले चरणों में नये मजदूरों को चुना। इस बार समझौता वार्ताओं के लिए नये नेतृत्व को जिम्मेदारी दी। मैनेजमेण्ट ने नये मजदूर नेतृत्व के तीखे तेवर व पुराने से मैनेजमेण्ट की एकता को एक मौके के रूप में इस्तेमाल कर मजदूरों के बीच मे नये-पुराने का अंतर्विरोध पैदा कर दिया। नये नेताओं को दबाव में(ले आॅफ, छंटनी, ट्रांसफर व ब्रेक आदि) लेकर ही मैनेजमेण्ट वार्ताएं करता है। नेता इस कार्यवाही का पुरजोर विरोध करते हैं। इस कारण मैनेजमेण्ट को वार्ताएं रोकने का मौका मिल जाता है। मैनेजमेण्ट नेताओं को मामले को कोर्ट में डालने के लिए भी धमकाते हैं। मजदूर मामले को कोर्ट में नहीं डालना चाहते हैं। इससे नये नेताओं पर दबाव और ज्यादा आ जाता है। कुछ पुराने नेताओं को आगे आने का अवसर उपलब्ध करवाता है। नये नेतृत्व के लोगों में तमाम जानकारी व अपनी बात मनवाने के लिए जिस प्रकार के तर्कपूर्ण बातें व जज्बे, अपनी एकता व मजबूत संघर्ष के बल पर मैनेजमेण्ट को दबाव में लेने की रणनीति का अभाव के साथ ही आत्म विश्वास की कमी भी है।
मैनेजमेण्ट की इस कार्यवाही का जबाव और विकल्प के लिए सिडकुल की 6-7 कम्पनियों के मजदूरों ने अपनी मीटिंग कर साझे संघर्ष को विकसित करने के प्रयास विगत मार्च माह से शुरू किया है। इसी संयुक्त प्रयासों द्वारा इस साल मई दिवस मनाया गया। कुछ माह के विराम के बाद दुबारा संयुक्त संघर्ष को आगे बढ़ाने की जरूरत महसूस होेने पर मीटिंगों का सिलसिला पुनः शुरू हुआ। इसी प्रयास के तहत ही मजदूरों के मोर्चे द्वारा एक व्यापक रैली निकालने की योजना बनायी परन्तु आई.टी.सी के कुछ मजदूर नेतृत्व द्वारा मोर्चे के अन्य कम्पनियों के नेतृत्व को विश्वास में लिए बगैर ही रैली की घोषणा कर दी गयी। इस कारण अन्य कम्पनियों के मजदूरों की भागीदारी नहीं हुयी। इस प्रकार की गतिविधियां एकता को कमजोर करती हैं। अगर मोर्चे द्वारा रैली निकाली गयी होती तो उसका असर भी व्यापक पड़ता। हरिद्वार संवाददाता
स्पीड क्राफ्ट के मजदूरों की आंशिक जीत
(वर्ष-17,अंक-18: 16-31 सितम्बर, 2014)
हरिद्वार में स्पीड क्राफ्ट में विगत माह की 21 तारीख से चल रही हड़ताल दो चरणों की वार्ता के बाद समाप्त हो गयी। 28 अगस्त की वार्ता में प्रबंधक की तरफ से आये एच.आर. व सहायक मैनेजर को ए.एल.सी. द्वारा मजदूरों के पक्ष में बात करते हुए फटकार लगायी। मजदूरों ने अपने मांग पत्र के अलावा भी अन्य अनियमितताओं से ए.एल.सी. को अवगत करवाया था। मैनेजमेण्ट ने निर्णय लेने के संबंध में अपनी असमर्थता जतायी। ए.एल.सी. ने सक्षम अधिकारी को वार्ता में भेजने की बात कहकर अगली तारीख 1 सितम्बर की दे दी।
हरिद्वार में विभिन्न संगठन जिनमें 7-8 फैक्टरियों के नेतृत्व के मजदूर आपस में नियमित मीटिंग करते हैं। इसके जरिये वे आपसी एकता को मजबूत करने, अपने अनुभवों को साझा करना व आगे के लिए रणनीति बनाने का काम करते हैं। इसकी मीटिंग हर हफ्ते रविवार के दिन होती है। 31 अगस्त को बैठक में स्पीड क्राफ्ट के आंदोलन के बारे में चर्चा की गयी। चर्चा करते हुए यह बात की गयी कि मौजूदा परिस्थितियों में मजदूरों की एकता काफी कमजोर है, नेतृत्व के पास कई तरह की जानकारियों का अभाव है। अतः ऐसे में कुछ प्राप्त करके भविष्य के लिए योजनाबद्ध तरीके से संघर्ष चलाने के लिए फिलहाल समझौता कर लिया जाये। इस बात का समर्थन स्पीड क्राफ्ट का नेतृत्व कर तो रहा था परन्तु वह इस बात से भी डर रहा था कि अगर इस फैसले को लागू करने से मजदूरों के अंदर कहीं गलत संदेश न जाये और कहीं वह नेतृत्व को गद्दार न समझ बैठे या अन्य कोई आरोप न लगा दे। हीरो के मजदूरों ने उन्हें अगले दिन धरना स्थल पर आकर अन्य मजदूरों को समझाने की बात कही।
1 सितम्बर को दोपहर 3 बजे से वार्ता का समय तय था। सुबह से ही स्पीड क्राफ्ट का नेतृत्व मजदूरों को आंदोलन की वास्तविक परिस्थितियों के मद्देनजर समझौता करने के लिए समझा रहा था। वार्ता होने पर मैनेजमेण्ट द्वारा घाटा होने का बहाना बनाते हुए 125 रुपये प्रतिवर्ष के हिसाब से वेतन वृद्धि करने को कहा गया। जब नेतृत्व ने यह बात अन्य मजदूरों को बतायी तो मजदूर अपने नेताओं पर भड़क गये। परन्तु संघर्ष को आगे चलाना नेतृत्व के बस में नहीं था। नेतृत्व के कुछ मजदूर सीटू के वकील से राय ले रहे थे। पहले उनका कहना था कि शांतिपूर्वक धरने पर बैठे रहो व बाद में 125 रुपये बढ़ने की बात सुनकर बोले कि यह बहुत है और हमारी जीत हुयी है। परन्तु अधिकतर मजदूर हताश हैं। उन्हें हजार-दो हजार बढ़ोत्तरी की उम्मीद थी। इस लम्बी हड़ताल में उन्होंने जुझारू तेवर नहीं अपनाये थे और नेतृत्व अनुभवहीन व मजदूरों के संघर्षों के इतिहास से अपरिचित था। वह जानता ही नहीं था कि संघर्ष को कैसे लड़ा जाए।
आज के दौर में मैनेजमेण्ट से कानूनी, शांतिपूर्वक व संघर्ष को बढ़ाते हुए व्यापक स्तर पर ले जाये बिना मजदूरों को अपने हक में जीत बहुत कम मिलती है। आर्थिक संघर्ष भी तभी मजदूर जीतेंगे जब वे राजनीतिक तौर पर परिपक्व हों। मैनेजमेण्ट, शासन-प्रशासन-सरकारों के चरित्र को समझने के साथ ही इसके हिसाब से अपने आंदोलन के तरीके विकसित करने होंगे। हरिद्वार संवाददाता
‘महिला आंदोलन की चुनौतियां’ विषय पर सेमिनार
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
24 अगस्त को प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र द्वारा महिला आंदोलन की चुनौतियां विषय पर एक सेमिनार आयोजित किया गया। जिसमें विभिन्न क्रांतिकारी एवं प्रगतिशील संगठनों ने भागीदारी की। हमारे देश में महिलाओं की स्थिति आजादी के 67 वर्षों बाद भी दोयम दर्जे की बनी हुई है। एक तरफ समाज में मौजूद पितृसत्तात्मक मूल्यों व पुरुषों द्वारा महिलाओं पर लादे गये प्रतिमानों के चलते महिलायें अपनी सहज इच्छाओं, आकांक्षाओं का गला घोंटते हुए किसी तरह अपने जीवन और अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं, तो दूसरी तरफ समाज में मौजूद सामंती व पूंजीवादी अपसंस्कृति का शिकार महिलाएं बन रही हैं। छेड़छाड़, यौन-हिंसा व उत्पीड़न का शिकार हर जगह महिलायें बन रही हैं। भारतीय समाज में व्याप्त पिछड़ी मूल्य मान्यताओं व विकृतियों का दंश भी भारी मात्रा में महिलायें झेल रही हैं। चाहे वह जातिवादी उत्पीड़न हो या साम्प्रदायिक दंगें हों, उत्पीड़कों के निशाने पर शोषित-उत्पीडि़त समुदाय की महिलायें ही रहती हैं।
इसी तरह विभिन्न सेवाओं व मेहनत-मजदूरी के कामों में महिलाओं को सबसे सस्ते श्रमिकों के रूप में नियोजित किया जा रहा है।
तमाम संचार व सम्प्रेषण माध्यमों व विज्ञापनों में महिलाओं के अस्तित्व को एक उपभोक्ता माल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। महिलाओं के खिलाफ अश्लील संस्कृति की बाढ़ आ गई है, जिसके चलते महिलाओं के खिलाफ यौन-हिंसा का ग्राफ बहुत तेजी से बढ़ रहा है। मां की कोख से लेकर समाज व घर की चाहरदीवारी के भीतर तक कहीं भी महिलायें सुरक्षित नहीं हैं। महिलाआंे की स्थिति बेहद सोचनीय बनी हुई है। कहने के लिए उसके पास सभी संवैधानिक अधिकार हैं लेकिन वास्तविकता में वह घर के अंदर दासी, समाज में एक यौन उपभोग की वस्तु तथा फैक्टरी में सबसे सस्ती मजदूर बनी हुई है।
इन्हीं परिस्थितियों में प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र ने 24 अगस्त को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में ‘महिला आंदोलन की चुनौतियां’ विषय पर एक सेमिनार आयोजित किया गया जिसमें विभिन्न क्रांतिकारी एवं प्रगतिशील संगठनों ने भागीदारी की। प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की सीमा ने विषय से परिचित कराते हुए सेमिनार का संचालन किया।
सेमिनार की शुरुआत में परिवर्तनकामी छात्र संगठन की ओर से ‘ये सन्नाटा तोड़ के आ, सारे बंधन तोड़ के आ’ गीत प्रस्तुत किया गया। जिसके बाद प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की ऋचा द्वारा संगठन की ओर से प्रस्तुत सेमिनार पत्र पढ़ा गया। जिसके बाद प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की महासचिव रजनी द्वारा बात रखी गई। जिसमें उन्होंने महिला संगठन बनाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि क्या दुनिया भर में महिलाओं की स्थिति बेहतर हुई है। भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं की दहेज हत्या, कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार के संबंध में बहुत से कानून बने हैं, जो आज भी कागजी बने हुए हैं।
उन्हांेने बताया कि धर्म के द्वारा सामन्ती मूल्य-मान्यताओं को महिला संघर्षों को रोकने के लिए बनाये रखा। एक तरफ रात-दिन महिला विरोधी उपभोक्तावादी संस्कृति परोसी जा रही है, वहीं दूसरी तरफ महिलाओं को सीता-सावित्री बनने का पाठ पढ़ाया जाता है, जबकि रोजगार और राजनीति में महिलाओं का प्रतिशत आज भी नगण्य है। संसद में महिलाओं का 33 प्रतिशत आरक्षण से संबंधित बिल अभी तक अधर में लटका है। ग्राम प्रधान महिला बनने के बाद भी उनके पति ही वास्तवकि रूप में ग्राम प्रधान के सभी काम काज को देखते हैं। ग्राम प्रधान पति की घटना अभी इतनी पुरानी नहीं पड़ी है। महिलाओं/लड़कियों के माता-पिता की सम्पत्ति में से हिस्सा मांगने वाली महिलाओं को मायके से सभी रिश्ते खत्म होने की धमकी देना आम बात है और समाज में अनर्गल बातें भी उन्हें सुननी पड़ती हैं।
पूंजीवाद ने महिलाओं को सस्ते श्रम के रूप में देखा और प्रयोग किया। फ्रांस की महान जनवादी क्रांति के समय भी जनवादी क्रांति में महिलाओं की बड़ी भूमिका होने के बाद भी महिलाओं की आजादी की बात को सिरे से नकार दिया। उन्होंने यह भी बताया कि पूंजीपति महिला मजदूरों को पुरुष मजदूरों के दुश्मन के रूप में खड़ा करता है तथा यह भ्रम बनाता है कि पूंजीपति वर्ग मजदूरों को पाल रहा है जबकि वास्तव में मजदूर वर्ग ही पूंजीपति वर्ग को पालता रहा है और आज भी पाल रहा है। शासक पूंजीपति वर्ग मजदूरों के अतिरिक्त श्रम को हड़प लेता है।
उन्होंने बताया कि वर्तमान उत्पीड़नकारी परिवार नामक संस्थाओं का चरित्र महिलाओं को गुलाम बनाये रखने का है। महिलाओं को कार्यस्थल पर मेहनत-मजदूरी करने के बाद घर आकर भी घरेलू काम करना पड़ता है, जिसमें पानी भरना, बच्चों की देखभाल, खाना बनाना, झाड़ू-पोंछा, बर्तन साफ करना, कपड़े धोना आदि शामिल है। महिलाओं को जब तक घरेलू काम से मुक्ति नहीं मिलती तब तक उन्हें समाज में भी मुक्ति नहीं मिल सकती।
उन्होंने महिला आंदोलन की विभिन्न धाराओं पर बात रखते हुए कहा कि एन.जी.ओ. महिला मुक्ति आंदोलन की धार को कुन्द करते हैं तथा हिन्दुवादी साम्प्रदायिक महिला संगठन महिलाओं को विभिन्न जाति एवं धर्मों में बांटने का काम करते हैं। दलितवादी महिला संगठन संघर्षों मंे दुश्मन चिन्हित करके करके उस पर प्रहार करने के स्थान पर दुश्मन पूंजीपति वर्ग के साथ जा खड़ा होता है और ब्राह्मणवाद को मुख्य निशाना बनाता है, जो उन्हें पूंजीवाद के पक्षपोषकों की श्रेणी में खड़ा कर देता है। क्रांतिकारी संगठनों का जनता के बीच आधार कम है, जिसे बढ़ाने की जरूरत है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों का वरदहस्त प्राप्त करके इजरायल द्वारा फिलीस्तीन पर किये गये हमले की निंदा व विरोध करते हुए साम्राज्यवाद व पूंजीवाद जो समाज में फैली सभी बुराइयों की जड़ है, के खिलाफ साझा संघर्ष चलाने की बात की गई।
उन्होंने पूरे देश में एक संयुक्त मोर्चा या संगठन न होने पर चिंता व्यक्त करते हुए साझा मंच बनाने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि इतिहास के प्रगतिशील व जनवादी आंदोलन आदि में महिला मजदूरों की बहुत बड़ी भूमिका रही है और आने वाले समय में भी व्यापक रूप से मजदूर-मेहनतकश महिलाओं को एकजुट करके ही भविष्य की दिशा समाजवाद की ओर आगे बढ़ सकेगी।
क्रांतिकारी नौजवान सभा से सुभाषिनी ने प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र को सेमिनार आयोजित करने के लिए बधाई देते हुए महिला आंदोलन की चुनौतियों के संबंध बात रखी गई। उन्होंने बताया कि गुजरात में सभी मजदूरों महिला और पुरुष की मेहनत को लूट कर एक छोटे से हिस्से का विकास हुआ है, जिसे मोदी सरकार उसी गुजरात माडल को पूरे भारत में लागू करना चाहती है जबकि दूसरी तरफ बड़ी मजजूर-मेहनतकश आबादी तबाह और बर्बाद है और लगातार हो रही है। उन्होंने कहा कि महिलाओं की बड़ी संख्या साम्प्रदायिक संगठनों के साथ जुड़ी हुई हैं। आर.एस.एस. की शाखायें, दुर्गावाहिनी में महिलाओं का शस्त्र चलाना व हर महिला को देश को बनाने की भूमिका में है, बताया जाता है। वास्तव में यह एक भ्रम है जो देश में महिलाओं के बीच में फैलाया जा रहा है। इनका सभी वर्गाें व जातियांे में आधार है। उन्होंने बताया कि दक्षिणपंथी ताकतें महिला मजदूरों व जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। इसलिए क्रांतिकारी संगठनों की महिला मजदूरों के बीच काम करने के सवाल पर सोचने की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने बताया कि पूंजीपति मजदूरों को केवल जिन्दा रहने भर के पैसे देता है लेकिन महिलाओं की मजदूरी को महत्वपूर्ण नहीं माने जाने को कारण बनाकर महिला मजदूरों को कम मजदूरी दी जाती है और महिला मजदूरों में इस सवाल को लेकर जाने, प्रगतिशील विचारों को जनता के बीच फैलाने की जरूरत है।
उन्होंने बताया कि नारीवादी विचारधारा सभी पुरुषों को महिलाओं का दुश्मन मानती है तथा सभी महिलाओं को उत्पीडि़त मानती है। इस कारण से सभी महिलायें चाहे वे शासक वर्ग की ही क्यों न हों पुरुष मजदूर की दुश्मन की श्रेणी में शामिल हो जाता हैं तथा संघर्षों के समय महिला मजदूरों से मिलने वाली सामुहिक ताकत से स्वयं को वंचित कर लेता है जिससे मजदूर संघर्ष कमजोर होते हैं इसलिए इसके खिलाफ संघर्ष करने की जरूरत है।
लेखिका सोना चैधरी ने व्यक्तिगत तौर पर छोटी-छोटी चीजों से शुरुआत करने की बात की तथा बताया कि पायदान और विचित्र उपन्यास में सबकी जिंदगी से जुड़ा हुआ कुछ न कुछ जरूर है। उन्होंने कहा कि हमें अपने से सुधार करना चाहिए उसके बाद आगे की ओर बढ़ना चाहिए। फैक्टरियों में पंूजी पति महिलाओं का शोषण करता है तो घर में पति ही महिला को उत्पीडि़त करता है। उन्होंने महिलाओं के द्वारा लगाये जाने वाले प्रतीक चिन्हों चूड़ी, बिन्दी, सिंदूर आदि को अनावश्यक बताते हुए खारिज किया।
‘टूटती सांकलें’ से सुमति ने बताया कि किसी भी तरह की हिंसा हो मजदूर महिलायें का हर जगह दोहरे-तीहरे उत्पीड़न का शिकार होती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि आज के दौर में एन जी ओ समाज के हर हिस्से व हर क्षेत्र में पहुंच रहे हैं ये हमारे आंदोलन के लिए सबसे महत्वपूर्ण चुनौतियों हैं। उन्होंने जोर देते हुए बताया कि वर्गों की उत्पत्ति के साथ ही पितृसत्ता का जन्म हुआ है। उन्होंने बताया कि वास्तव में व्यवस्था ही मुख्य दुश्मन है। उन्होंने इस पर भी चिंता जाहिर की कि पूंजीवादी साम्राज्यवादी ताकतें एक हो रही हैं जबकि मजदूर मेहनतकश जनता बिखरी हुई है।
‘साहित्य उपक्रम’ के विकास नारायण ने सेमिनार पत्र पर सहमति जताते हुए कहा कि एकता और संघर्ष जरूरी है। इसके साथ ही राज्य मजबूत होता जा रहा है पर महिलायें मजबूत नहीं हो रही हैं। उन्होंने कहा कि कानून राज्य को मजबूत बनाते हैं और हमें ऐसे कानूनों की बात करनी चाहिए जो जनता को मजबूत करें, न कि राज्य को। उन्होंने कहा कि पूंजीवादी मीडिया कभी भी अपराधों को उजागर नहीं करती।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र की पूर्णिमा ने सेमिनार में बात रखते हुए बताया कि मजदूर मेहनतकश महिलायें प्रसूति के वक्त तक काम करती हैं और उसके बाद उन्हें यह चिंता रहती है कि उनकी नौकरी बची रहेगी या नहीं। समाज में उसकी कोई हैसियत नहीं है। महिलाओं को कार्यस्थल, घर परिवार व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर, रास्ते में आते-जाते छेड़छाड़ व यौन-उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। उन्होंने महिला मजदूरों को संगठित करने पर बल देते हुए कहा कि जब तक महिलाओं को संगठित रूप से समाज के विभिन्न आंदोलनों में भागीदार नहीं बनाया जाता तब तक समाज की व्यवस्था को नहीं बदला जा सकता।
इसके अतिरिक्त सेमिनार में प्रतिध्वनि द्वारा गीत, परिवर्तनकामी छात्र संगठन से शिप्रा, श्रमिक संग्राम कमेटी की ओर से शिल्पी, समता मूलक महिला संगठन से सुनीता त्यागी, ए एस आई की ओर से आरिफ व पीडीएफआईके अर्जुन प्रसादजी ने कहा कि आदिवासी इलाके के साथ-साथ देश के कई इलाकों में संघर्षों में महिलाओं की बडी संख्या में भागीदारी हो रही है,जिसका परिणाम आना अभी बाकी है।
इसके अलावा डीयू की छात्रा निशा ने भी सेमिनार में अपनी ओर से पत्र रखा जिसमें महिलाओं की समाज में समय के साथ बदलती स्थिति पर वैज्ञानिक व ऐतिहासिक दृष्टि से बात रखते हुए पूंजीवादी व्यवस्था को महिलाओं की खराब स्थिति के लिए जिम्मेदार बताया।
अंत में प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र की अध्यक्षा ने सभा को सम्बोधित किया, जिसमें उन्होंने परिवार की उत्पत्ति पर बात रखते हुए कहा कि हमारी पूर्वज महिलाओं ने लड़कर जो अधिकार हासिल किये थे जो हमें मिले लेकिन हमारे पास आगे आने वाली नई पीढ़ी को देने के लिए एक स्वस्थ समाज तक नहीं है। उन्होंने रूस व चीन की क्रांतियों को याद करते हुए कहा कि उन देशों में क्रांतियों के तुरन्त बाद महिलाओं व मजदूरों को बहुत सारे अधिकार मिले, जीवन स्तर में सुधार हुआ व दिनों दिन उन्नत हुआ तथा समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी। लेकिन भारत में आजादी के 67 वर्ष बाद भी मेहनतकश महिलाओं व मजदूरों को पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न से आजादी नहीं मिली है। जिसके बाद भागो मत दुनिया को बदलो गीत गाया गया। जोरदार नारों के साथ सेमिनार का समापन हुआ।
दिल्ली, संवाददाता
रा.इ.का. में शर्मनाक घटना
अध्यापक ने की छात्रा से छेड़खानी, विरोध में छात्र-अभिभावक
(वर्ष-17,अंक-17: 1-15 सितम्बर, 2014)
जिस दिन पूरा देश स्वतंत्रता दिवस मना रहा था। उसी दिन राजकीय इंटर कालेज बिन्दूखेडा (नैनीताल) में 12वीं कक्षा की छात्रा से छेड़छाड़ की घटना का विरोध कर रही थी। छेड़खानी करने वाला और कोई नहीं इसी स्कूल का अध्यापक जगत सिंह मेवाडी था। रिटायरमेण्ट की कगार पर खड़ा यह अध्यापक पिछले कई दिनों से इस छात्रा के साथ छेड़खानी कर रहा था। कभी साथ में घूमने की बात करता तो कभी पैसे देने की बात करता था। जैसा कि आमतौर पर होता है छात्रा बदनामी के डर से चुपचाप सहती रही। छात्रा की खामोशी को देखकर अध्यापक के हौंसले बढ़ते चले गये। कालेज की अन्य छात्राओं का भी मानना है कि यह अध्यापक गंदी नजरों से हमें देखा करता था।
13 अगस्त को उस समय हद पार हो गयी जब यह अध्यापक छात्रा का हाथ पकड़कर उसे अपने साथ चलने को जोर देने लगा। इस घटना से आहत लड़की ने प्रधानाचार्य को पूरी बात बताकर शिकायत की। किन्तु प्रधानाचार्य की तरफ से कोई कार्यवाही नहीं की गयी।
छात्रा ने अपने अभिभावकों को भी पूरा मामला बताया। आक्रोशित अभिभावक व कालेज के छात्र-छात्राओं ने कालेज आकर अध्यापक की बर्खास्तगी की मांग की। कालेज प्रशासन ने कार्यवाही के स्थान पर अध्यापक को कालेज में ही छिपा दिया। पुलिस के आने पर अध्यापक प्रकट हुआ। पुलिस इसे पकड़कर लालकुंआ कोतवाली ले गयी। 60-70 छात्र-छात्राएं और कई अभिभावक भी कोतवाली पहुंचे। और अध्यापक की बर्खास्तगी व कड़ी कार्यवाही की मांग करने लगे।
दिल्ली गैंगरेप के बाद कड़े कानूनों की हिमायत जोर-शोर से की गयी है। हैल्प लाइन नंबर जहां-तहां लिखे गये हैं। पुलिस द्वारा ‘महिला हिंसा के खिलाफ चुप ना रहो’ के पोस्टर-फ्लैक्सी जहां-तहां लगाये गये हैं। किन्तु इस सबसे बिल्कुल अलग नजारा लालकुंआ कोतवाली में दिखा। पुलिस छात्रों-अभिभावकों को डराने-धमकाने का काम कर रही थी। छात्रा उत्पीड़न का विरोध कर रहे छात्रों पर ही मुकदमा लगाकर भविष्य खराब होने का डर दिखाने लगी।
पुलिस के रौब व धमकियों से डर कर छात्र-छात्राएं शांत हो गये, कोतवाली से जाने लगे। तभी परिवर्तनकामी छात्र संगठन के कार्यकर्ताओं द्वारा छात्र-छात्राओं को कहा कि हमारा विरोध जायज है। डरे वें जिन्होंने छात्रा का उत्पीड़न किया है। छात्र-छात्राओं का सही मांग के लिए डटे रहने का आह्वान किया। छात्र-छात्राओं को फिर से साहस मिला। एक मजबूत साथ मिला और वे फिर से कोतवाली में आ डटे। और पुनः अध्यापक की बर्खास्तगी और कड़ी कार्यवाही की मांग करने लगे।
छात्र-छात्राओं व अभिभावकों के दबाव में पुलिस द्वारा अध्यापक पर 506 और 354 ए के तहत मुकदमा कायम किया। जल्द ही अध्यापक को जमानत भी मिल गयी।
बिन्दुखेडा की यह घटना दिखाती है कि छात्राओं को हर जगह बहशी नजरें ताक रही हैं। और यहां तक कि स्कूल में भी जहां एक भरोसे के साथ छात्र-छात्राएं पढ़ती हैं। अध्यापक उन्हें सही-गलत का ज्ञान देता है। उसी जगह इतना सब कुछ हो जा रहा है। जब छात्र-छात्राएं इस उत्पीड़न का विरोध करती हैं तो प्रधानाचार्य, प्रशासन और अन्य अध्यापक और यहां तक कि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर अपराधी अध्यापक के साथ खड़े हो जाते हैं। हो सकता है कि इनमें से कई अध्यापक अमूर्तता में महिला उत्पीड़न पर आंसू बहाते हैं पर जब मूर्त तौर पर कोई घटना उनके सामने आयी तो ये अपने अच्छे मित्र, समझदार अध्यापक, बुजुर्ग अध्यापक आदि-आदि कहकर जगत सिंह मेवाडी के साथ खड़े हुए जबकि जरूरत इस बात की है कि समाज में लोग बिना किन्तु-परन्तु के साथ मजबूती से महिला उत्पीड़न के विरोध में खड़े हों।
लालकुंआ संवाददाता
आॅटोलिव के मजदूरों का संघर्ष समझौते के बाद समाप्त
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
आॅटोलिव के मजदूरों का संघर्ष लम्बे समय तक चलने के बाद एक समझौते पर जाकर समाप्त हो गया। समझौते में सभी स्थायी मजदूरों को 3-3 लाख रुपये और ठेकेदारी के मजदूरों को 15,10 और 5 हजार रुपये दिये गये। मालिक ने इन मजदूरों को काम पर लेेने से इंकार कर दिया था।
ज्ञात हो कि 4 जून को फैक्टरी प्रबंधन ने 17 मजदूरों को फैक्टरी से निलम्बित कर दिया था। यह सजा मजदूरों को यूनियन बनाने के एवज में मिली थी। तभी से लगभग सभी मजदूर उनको काम पर लेेने के लिए हड़ताल पर थे। मालिक ने मजदूरों को डराने-धमकाने के लिए गेट पर पुलिस और बाउन्सर(गुण्डे) लगा रखे थे।
4 जून से ही ट्रेड यूनियन के नेता आकर मजदूरों को आश्वसन ही दे रहे थे। परन्तु कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे थे। इधर कम्पनी ने और मजदूर लगाकर उत्पादन कार्य आरम्भ करवा दिया था।
आॅटोलिव के मजदूरों के संघर्ष में एक बार फिर यह बात स्पष्ट हुई कि मजदूरों को अपने संघर्ष स्वयं ही लड़ने होंगे। किसी नेता के भरोसे रहकर उसके संघर्ष के दिन लम्बे ही होते जायेंगे। मजदूरों के बीच आकर जो ट्रेड यूनियन नेता लम्बे भाषण देते हैं वे दरअसल में कोई कार्यवाही करने से हिचकते रहते हैं। मजदूरों को आज अपने आर्थिक संघर्ष लड़ते हुए राजनीतिक संघर्षों को प्राथमिकता देनी होगी। श्रम विभाग भी आज एक मध्यस्थ की भूमिका में भी नहीं रह गया है। उसका पूरा ध्यान मालिक की तरफ ही रहता है।
मजदूरों को आज यूनियन बनाने की सजा फैक्टरी से निकाले जाने के रूप में भुगतनी पड़ रही है। यह दिखाता है कि आज यूनियन बनाना भी नौकरी को सुरक्षित रखने की गारण्टी नहीं रह गयी है। आज मजदूरों को अपनी एक व्यापक एकता बनाने की जरूरत है ताकि वह अपने अधिकारों की रक्षा कर सके। गुड़गांव संवाददाता
आईएमटी मानेसर में कई कम्पनियों में उत्पादन ठप्प
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
पिछले कई महीनों से आईएमटी मानेसर में कई फैक्टरियों में मजदूरों के संघर्ष छिड़े हुए हैं। इनमें से कुछ में तीव्र तो किसी फैक्टरी में हल्के संघर्ष हुए हैं। बड़ी -बड़ी यूनियन के नेता बड़े-बड़े दावे करते हैं और हर बार मजदूरों को पीछे हटते हुए समझौते करने पड़ते हैं। आखिरकार 12 अगस्त को आईएमटी मानेसर में कई फैक्टरियों के मजदूरांे का गुस्सा फूट पड़ा और कई फैक्टरियों में मजदूरों ने उत्पादन ठप्प हो गया।
इन फैक्टरियों में उत्पादन ठप्प होने की कार्यवाही बेक्सटर कम्पनी में चल रहे मजदूरों के संघर्षों से शुरू हुई। बेक्सटर कम्पनी के मजदूर 29 मई से कम्पनी गेट के बाहर धरने पर बैठे हैं। धरने के दौरान मजदूरों पर प्रबंधक वर्ग ने कई बार हमला करवाया। बांउसरों के द्वारा धमकाया। परन्तु मजदूरों का संघर्ष जारी रहा। यहां एचएमएस की यूनियन है। ट्रेड यूनियन नेता आते और उनके समर्थन में कई फैक्टरियों को बंद करने की बात कहकर चले जाते।
अंत में मजदूरों को धैर्य जबाव दे गया। धरने पर फैक्टरी में काम करने वाली कुछ लड़कियां भी बैठतीं थीं। शुरू में तो वे रात को घर चली जातीं थीं लेकिन 6 अगस्त को उन्होंने घर जाने से मना कर दिया और कहा कि वे यूनियन नेताओं से बात करेंगीं और अगर यूनियन नेता आंदोलन को ऐसे ही चलायेंगे तो वे धरना स्थल पर नहीं आयेंगी।
महिला मजदूरों के जुझारू तेवर देखकर अब ट्रेड यूनियन नेताओं को समझ में आया कि वे अब मजदूरों के आंदोलन को ऐसे नहीं खींच सकते। इसके बाद एचएमएस की मानेसर टीम ने 11 अगस्त को मीटिंग कर फैसला लिया कि आईएमटी की सभी एचएमएस से जुड़ी कम्पनियां 12 अगस्त से उत्पादन ठप्प कर देंगी।
12 अगस्त को आईएमटी में हाई-लेक्स, सत्यम आॅटो, ओमेक्स, एजी कम्पनी, इण्डोरेंश, डिगानीय और बिनौला की आॅटो मैक्स ने उत्पादन ठप्प कर दिया। इसमें एक बात यह भी थी कि इन सभी फैक्टरियों में अपने-अपने प्रबंधक वर्ग से किसी न किसी बात को लेकर संघर्ष चल रहा था। बेक्सटर कम्पनी के मामले ने इन सभी को एक साथ हड़ताल करने का मौका दे दिया। मजदूरों के आक्रोश ने सुविधापरस्त व समझौतापरस्त नेताओं को अपनी इच्छा के विरुद्ध संघर्ष करने को बाध्य कर दिया।
एक साथ कई कम्पनियों में हड़ताल होते देखकर वहां शासन-प्रशासन के हाथ-पांव फूल गये। बेशक यह हड़ताल एक ऐसी ट्रेड यूनियन के नेतृत्व में हो रही थी जो मजदूरों के संघर्षों को केवल व्यवस्था के दायरे में ही रखने का काम करती है परन्तु मजदूर आंदोलन कब इन सुविधापरस्त नेताओं के हाथ से निकल जाये, पता नहीं। कब मजदूर इन्हें अप्रांसगिक कर दें। अतः इस मामले ने तुरंत वहां के कमिश्नर ने हस्तक्षेप किया और मजदूरों से फैक्टरी चलाने का अनुरोध किया। बेक्सटर कम्पनी के मजदूरों से कहा गया कि वे 13 अगस्त तक उनके मामले का निपटारा करवा देंगे और बाकी फैक्टरियों में भी 14 दिन के अंदर मामले को निपटा देंगे।
मजदूरों को आज अपने ऐसे संघर्षों से सीख लेने और ऊर्जा लेने की जरूरत है कि अगर वे ऐसे ही एकताबद्ध होकर हड़तालें करते हैं और पूंजीपति का मुनाफा रोकते हैं तभी शासन-प्रशासन हस्तक्षेप कर उनके मामले का निपटारा करेगा। आगे देखना है कि कमिश्नर ने जो वायदा किया है वह कितना पूरा होता है या फिर शासन-प्रशासन की यह कोई चाल है। गुड़गांव संवाददाता
फिलीस्तीनी जनता के नरसंहार के विरोध में प्रदर्शन
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
इजरायल ने पिछले माह भर में फिलिस्तीन पर युद्ध थोप रखा है। इतने समय में ही इजरायल ने हवाई, जमीनी हमले कर गाजा पट्टी (फिलिस्तीन) में करीब 1500 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इसमें स्कूलों, अस्पतालों और शरणार्थी शिविरों को भी निशाना बनाया जा रहा है।
जमीइत-ए-उलेमा-ए-हिन्द के आह्वान पर हल्द्वानी (उत्तराखण्ड) में भी इजरायल का विरोध किया गया। इस विरोध प्रदर्शन में लगभग 2000 लोगों ने भागीदारी की। प्रदर्शन में हाथ में काली पट्टियां, काले झण्डे लहराते हुए लोग चल रहे थे। प्रदर्शन की शुरूआत में जमीयत-ए-उलेमा हिन्द से वक्त ने इजरायल का विरोध किया और इजरायल की इस कार्यवाही को अमेरिकी सरपरस्ती का परिणाम बताया। वक्ता ने आगे अरब के अन्य देशों की भी निन्दा की जोे कि बेशर्मी से खामोश बैठकर इजरायल की इस कार्यवाही को मौन समर्थन दे रहे हैं। उन्होंने ओपेक देशों से इजरायल को तेल सप्लाई बंद कर उसे नरसंहार करने से रोकने के लिए बाध्य करने की अपील की। भारत सरकार की खामोशी और इजरायल से कोई नीति परिवर्तन न होने की बात की निन्दा की। इजरायल के इस नरसंहार को मानवता के खिलाफ कहा गया।
जुलूस में आयोजकों ने किसी भी प्रकार के नारे न लगाने की अपील की। जुलूस शहर के मुख्य बाजार से होता हुआ एस.डी.एम. कार्यालय में पहुंचा। जहां से एक ज्ञापन एस.डी.एम. के द्वारा प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, भारत सरकार विदेश मंत्रालय, भारत सरकार, मुख्य सचिव, संयुक्त राष्ट्र संघ, न्यूयार्क फिलिस्तीन व इजरायली दूतावास, नयी दिल्ली को प्रेषित किया गया। ज्ञापन में भारत सरकार से मांग की गयी कि वह सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र की बैठक में इजरायल के खिलाफ प्रस्ताव पेश करे। और भारत इजरायल के साथ अपने संबंधों को तोड़ दे। युद्ध विराम करवाया जाय व इजरायल की सख्त निगरानी की जाए। इजरायल से व्यापार बंद कर उसके उत्पादों पर प्रतिबध्ंा लगाया जाए। इस प्रदर्शन में परिवर्तनकामी छात्र संगठन व क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठनने समर्थन दिया तथा जुलूस में भागीदारी की। हल्द्वानी संवाददाता
हीरो मोटो कार्प ने 500 ठेका मजदूरों को बाहर निकाला
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
हीरो मोटो कार्प ने जुलाई माह के अंत में 500 ठेका मजदूरों को बाहर निकाल दिया। ये मजदूर स्पेयर डिपार्टमेंट से थे और प्रबंधकों से अपनी जायज मांगों के लिए संघर्ष कर रहे थे। प्रबंधक वर्ग अब इनसे छुटकारा पाना चाह रहा था। इन मजदूरों को निकाले जाने से उसका काम न रुके इसलिए उसने राजस्थान के निमराणा में एक प्लांट लगा दिया था।
इन 500 मजदूरों में से कुछ मजदूर पांच-सात साल से काम कर रहे थे और कुछ मजदूर 2012 के बाद लगे थे। कम्पनी इन मजदूरों को ऐसे ही निकाल देना चाहती थी। लेकिन मजदूरों को इस बात का अहसास था इसलिए वे 30 जुलाई को ए शिफ्ट के बाद काम बंद करके बैठ गये। प्रबंधक ने उनके मामले को हल करने के लिए दो माह का समय मांगा लेकिन मजदूरों ने केवल 10 दिन का ही समय दिया।
11 अगस्त को तय समयसीमा खत्म होने के बाद मजदूर प्लांट में की काम बंद करके बैठ गये। अंत में श्रम विभाग की मध्यस्थता में समझौता हुआ जिसमें पांच साल से ऊपर काम करने वालों को 2 लाख तथा 2 साल से ऊपर वालों को 60 हजार व बाकी मजदूरों को मात्र वेतन पर निकालने का निर्णय लिया गया। लेकिन मजदूरों ने इस समझौते को मानने से इंकार कर दिया। और प्लांट में ही बैठे रहे।
पूंजीपतियों की सरकार ने तुरंत पुलिस बल का सहारा लिया। और रात लगभग डेढ़-दो बजे पुलिस बल ने मजदूरों को कम्पनी से बाहर निकाल दिया। रात मजदूरों ने पार्क में गुजारी और सुबह वे सचिवालय में डी सी से मिले और लेबर कमिश्नर से भी। परन्तु कोई बात नहीं बनी। अंत मेें वे फिर फैक्टरी गेट पर पहुंचे परन्तु वहां भारी मात्रा में पुलिस मौजूद थी और उनके बीच नेतृत्व के अभाव के कारण वे फैक्टरी गेट पर न बैठ सके और अपने-अपने घरों को लौट गये। इन ठेका मजदूरों को स्थायी मजदूरों का भी साथ नहीं मिला। गुड़गांव संवाददाता
एक मजदूर की मौत
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
सिडकुल पंतनगर में यूनी मैक्स इण्टर नेशनल फैक्टरी में प्रदीप नाम के मजदूर का जीवन प्रबंधक वर्ग की भेंट चढ़ गया। उससे पहले उसे चोरी के आरोप में सिडकुल पुलिस चैकी में बंद कराया गया। उसके बाद वहां से छूटने के बाद दुबारा फैक्टरी गया तो फिर उसकी लाश ही मिली।
प्रदीप भोजीपुरा बरेली का था और यहां पर यूनी मैक्स इण्टरनेशनल फैक्टरी में काम करता था। 18 जून की रात को प्लांट हेड ने प्रदीप को चोरी के आरोप में पकड़कर सिडकुल पुलिस चैकी में बंद करा दिया था। उसके बाद प्रदीप के भाई ने स्थानीय नेता सभासद की मदद से उसे छुड़ाया हालांकि भाई ने बताया कि पुलिस वालों के सामने चोरी के आरोप में उसने कई फैक्टरी के कई अधिकारियों के नाम बताये थे जो फैक्टरी प्रबन्धकों के लिए नागवार गुजर रहा था। प्रदीप की पत्नी ने बताया कि उसके पति को 19 जून की रात को फैक्टरी से फोनकर बुलाया गया कि वह फैक्टरी में आ जाये और ड्यूटी करे। उसके बाद रात को वह ड्यूटी चले गये और उसके बाद से वह दुबारा घर वापिस नहीं लौटे। 23 जून की सुबह सिडकुल में एच.सी.एल.चैक पर उनकी लाश पेड़ पर लटकी हुई मिली। पुलिस वालों ने उनकी लाश को लावारिश में घोषित कर दिया था जबकि पुलिस वालों के पास में वोटर आई.डी. और गाड़ी की आर.सी. मिली थी। मेरे पति की गाड़ी आज भी फैक्टरी के अंदर बंद है।
प्रदीप फैक्टरी में अंदर तो गया है मगर बाहर नहीं आया है। उसके बाद लाश का पोस्टमार्टम करके परिवार वालों को दे दी गयी थी। उसी समय प्रदीप का भाई नरेन्द्र जब फैक्टरी में गाड़ी लेने गया तो फैक्टरी वालों ने उसकी पिटाई कर दी । उसके बाद से वहां पर कोई नहीं गया।
प्रदीप की पत्नी मधु एक माह बाद जब यहां पर लौटी तो उसने बताया कि वे लोग फैक्टरी गये तो वहां से उनको भगा दिया गया। उसके बाद भाजपा के स्थानीय नेताओं के साथ एस.एस.पी. और उपजिलाधिकारी से मिले तो उन्होंने कहा कि ‘‘वे फैक्टरी गेट पर जायंे, वहीं से समस्या का समाधान होगा। उसके बाद अगले दिन फैक्टरी गेट पर भाजपा नेताओं के साथ गयी और वहां पर एक घंटे तक गेट पर बैठे रहे। नेता फैक्टरी के अंदर गये और आकर कहा कि वे सब यहां से चले जायें और कल रोडवेज पर मिलने को कहा है। इसके बाद लगातार टालमटाली का दौर चलता रहा। उसके बाद मधु वकील से जाकर मिली तो वकील ने उसकी प्रथम सूचना रिपोर्ट सी.आर.पी.सी. की धारा 156-3 के तहत दर्ज करवाने को कहा मगर न्यायालय में भी कम से कम रिपोर्ट दर्ज होने की जो प्रक्रिया है वह लम्बे समय की मांग करती है। उसके बाद काफी जद्दोजहद के बाद रिपोर्ट दर्ज होने को आयी वैसे ही स्थानीय भाजपा नेताओं को पता चला तो मधु को तीन लाख पच्चीस हजार रुपये लेकर मामले को खत्म करने की बात कही। मधु भी वहां पर टूट गयी और समझौता करने को तैयार हो गयी। उसके बाद वकील साहब ने बताया कि मधु ने उनसे सम्पर्क नहीं किया। और मधु भी उससे संतुष्ट हो गयी है।
फैक्टरी में प्रदीप लम्बे समय से काम कर रहा था। फैक्टरी के अन्य कर्मचारियों ने बताया कि प्रदीप तो प्रबंधन का खास आदमी था मगर इसको चोरी का आरोप सुनकर उन सभी को झकझोर कर रख दिया। प्रदीप के एक लड़की है जिसके लालन पालन की समस्या बन गयी है।
प्रदीप की मौत कई अनसुलझे प्रश्न छोड़ देती है जिनका हल नहीं हुआ है। स्थानीय प्रशासन ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया है और स्थानीय भाजपा नेता ऐसी घटनाओं को उजागर और उनका पर्दाफाश न करके बल्कि ले देकर ऐसी घटनाओं को दबाकर प्रबंधकों और फैक्टरी मालिकों के कुकृत्यों को करने की खुली छूट दे रहे हैं।
आज सिडकुल में फैक्टरियों में जो चोरी की घटनायें हो रही है वे बिना उच्च अधिकारियों की सहमति से नहीं होती हैं। मगर ऐसी घटनाओं में गरीब मजदूर पकड़े जाते हैं। जब मालिक या फिर उनके उच्च अधिकारी पकड़े जाते हैं तो उनको कोई सजा नहीं होती है। इसके उल्टे इसकी कीमत गरीब मजदूरों केा अपनी जान देकर चुकानी होती है। रूद्रपुर संवाददाता
आम बजट में पूर्वांचल को मिला आर्युविज्ञान संस्थान का तोहफा -चक्रपाणि ओझा
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
मोदी सरकार ने अपने पहले बजट में पूर्वी उत्तर-प्रदेश को एक आर्युविज्ञान संस्थान का तोहफा दिया है। लखनऊ के बाद पूर्वांचल में भी एक एम्स खुलने की संभावना प्रबल हो गई है। बहुत दिनों से उठ रही पूर्वांचल में एम्स खोलने की मांग को साकार रूप अब दे रही है। सर्वविदित है कि पूर्वांचल के शहर गोरखपुर में बीआरडी मेडिकल काॅलेज एकमात्र बड़ा चिकित्सा केंद्र है जिसकी वर्तमान हालत किसी से छिपी नहीं है।
मोदी सरकार ने अपने पहले बजट में पूर्वी उत्तर-प्रदेश को एक आर्युविज्ञान संस्थान का तोहफा दिया है। लखनऊ के बाद पूर्वांचल में भी एक एम्स खुलने की संभावना प्रबल हो गई है। बहुत दिनों से उठ रही पूर्वांचल में एम्स खोलने की मांग को साकार रूप अब दे रही है। सर्वविदित है कि पूर्वांचल के शहर गोरखपुर में बीआरडी मेडिकल काॅलेज एकमात्र बड़ा चिकित्सा केंद्र है जिसकी वर्तमान हालत किसी से छिपी नहीं है।
केन्द्र सरकार ने पूर्वांचल समेत देश के चार राज्यों में एम्स खोलने की घोषणा की है। सरकार की इस घोषणा के बाद खास तौर पर यूपी की चिकित्सा की बदहाल स्थिति के बारे में चर्चा करना जरूरी हो जाता है कि किस प्रकार पूर्वांचल समेत पूरे यूपी की जनता स्वास्थ्य के नाम पर लूटी जाती है। सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं नाममात्र की होकर रह गई हैं। चिकित्सा के बाजार आम मरीजों की जेब काटने को हर घड़ी तैयार बैठे हैं। बड़ेे-बडे नर्सिंग होम मरीजों को इलाज के नाम पर भयंकर लूट मचाते देखे जा सकते हैं। कमीशन की दवाओं, गैर जरूरी जांचें जो कि मरीजों को करानी ही पड़ती हैं, वह भी डाक्टर की पसंद की पैथालाॅजी में। इस प्रकार हर रोज आम मरीज इस मुनाफाखोर चिकित्सा व्यवस्था का शिकार होता है। ऐसा इसलिए होता है कि हमारे सरकारी स्वास्थ्य केंद्र आम आदमी का बेहतर इलाज करने में सक्षम नहीं रह गये हैं। उनके पास मरीजों के लिए दवाएं नहीं होती, जांच के नाम पर बाहर की पैथालाॅजी होती है। दवाएं दुकान से खरीदनी होती हैं। अस्पतालों की बदहाली अलग है। तमाम सरकारी स्वास्थ्य केन्द्र ऐसे हैं, जहां वार्डों में सूअर, सांड व कुत्ते घूमते नजर आते हैं। इस तस्वीर के बाद हम सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों की बदहाली बखूबी जान सकते हैं।
यह हालत यूपी के आम चिकित्सा केन्द्रों की है लेकिन अगर हम उन चुनिंदा चिकित्सा संस्थानों की बात करें जिनको देश के प्रतिष्ठित संस्थान होने का दर्जा प्राप्त है वे आम मरीजों के प्रति कितने संवेदनशील हैं यह गौर करने वाली बात है। जिस एम्स की बात मोदी सरकार कर रही है, यूपी की राजधानी में वह बहुत पहले से मौजूद है जिसे हम सभी संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान के नाम से जानते हैं। इस संस्थान में वर्तमान में दोहरी व्यवस्था कायम है। पूरा संस्थान दो वर्गों में विभाजित है। एक तरफ माननीय लोग हैं तो दूसरी तरफ आम जनता। पूरा संस्थान माननीयों की सेवा में तल्लीन दिखता है। वहीं, आम मरीज और उसके परिजन इधर-उधर दौड़ लगाते रहते हैं कि किसी तरह उनका पंजीकरण हो जाए। आलम यह है कि केवल पंजीकरण कराने के लिए मरीज को कई दिनों तक लाइन लगानी पड़ती है। इसके बाद भी कोई गारंटी नहीं कि काउंटर तक पहुंचने पर उसका पंजीकरण हो ही जाय क्योंकि यहां के चिकित्सकों का अपना नियम है कि एक दिन में तीस से चालीस मरीज ही देखे जायेंगे। हजारों मरीजों की लाइन में एक विभाग के कई डाॅक्टर मिल कर चालीस मरीजों को देख पाने में सक्षम होते हैें। यहां पर मरीज देर रात से लाइन में खडे़ होकर अपनी बारी आने का इंतजार करते हैं। उन्हें निराशा तब होती है जब यह पता चलता है कि उस विभाग की चालीस सीटें फुल हो र्गइं। वह अपने भाग्य को कोसता हुआ वापस हो जाता है और किसी निजी संस्थान में इलाज करवाता है। अगर साहस करके किसी प्रकार अगले दिन रजिस्ट्रेशन कराने में सफलता पा ही लेता है तब उसे ढ़ाई सौ रुपये फीस जमा करने के लिए भी घंटों इंतजार करना पड़ता है। इसके बाद उसे ओपीडी में जाकर धक्के खाने पड़ते हैं। इतनी जलालत झेलने के बाद मरीज जब डाक्टर के पास पहुंचता है, तो पता चलता है कि उसे देखने वाला उस बीमारी का विशेषज्ञ डाक्टर नहीं, अपितु उस विभाग का वरिष्ठ छात्र है। आम मरीजों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि उसे देखने वाला कितनी योग्यता लिये हुए है, उसे तो केवल नामी संस्थान ही दिखाई पड़ता है। इसके बावजूद मरीज जब दवा की पर्ची लेकर दवा वितरण काउंटर पर पहुंचता है तब इस संस्थान की सच्चाई उसके सामने और खुलकर आती है। यहां दवा देने से पहले वहां बैठा कर्मी उससे दवा के पैसे मांगता है और एक बड़ा सा बिल उसे पकड़ा देता है। मरीज इस उम्मीद में यहां पहुंचता है कि उसे सस्ता और अच्छा इलाज यहां मिलेगा लेकिन उसके हाथ यहां निराशा ही लगती है। अब खुद को तथा इस व्यवस्था को कोसते हुए घर लौटना ही उसकी नियती है। यही है यूपी के प्रथम एम्स की संक्षिप्त दास्तान। शायद ऐसा ही एक और एम्स पूर्वांचल को केंद्र सरकार देने जा रही है। एक ऐसा संस्थान जहां पूर्वांचल के मजदूरों-किसानों व आम जनता को अपने इलाज के लिए केवल लाइनें लगानी पड़े, जलालत झेलनी पड़े और पैसे देकर दर्वाइंयां खरीदनी पड़े। अगर ऐसा ही एम्स बनाने की सरकार की योजना है तो इसे न ही बनना चाहिए क्योंकि इससे जनता के हिस्से में बहुत कुछ आने की संभावना नहीं है। पूरा संस्थान माननीयों, अधिकारियों और पूंजीपतियों व उन लोगों की सेवा में अहर्निश लगा रहेगा, जो सत्ता प्रतिष्ठानों व राजनीतिक गलियारों में पहुंच रखते हैं। पूर्वांचल की आम आबादी यहां भी हाशिये पर ही रहेगी।
सवाल यह है कि जब गोरखपुर, बनारस आदि शहरों में दो बड़े चिकित्सा केन्द्र मौजूद हैं, तब तीसरा बड़ा केन्द्र खोलने की जरूरत क्या पड़ गई? क्या सरकार गोरखपुर जैसे मेडिकल काॅलेज को अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस नहीं कर सकती। क्या डाक्टरों, भवनों, बैंकों व अन्य जरूरी सुविधाएं देकर इसकी बदहाली को दूर नहीं किया जा सकता? एम्स की वर्तमान कार्यप्रणाली को देखते हुए मरीज मेडिकल काॅलेजों व जिलाचिकित्सालयों में इलाज कराना ज्यादा सुविधाजनक व सुकून महसूस करेगा, जहां बिना कोई जलालत झेले वह संबंधित बीमारी के विशेषज्ञ से सम्पर्क कर लेता है तथा कुछ हद तक उसे सरकारी दवाइयां भी मिल जाती हैं। यहां का कर्मचारी वर्ग माननीयों की सेवा के बजाय जनता की सेवा में ज्यादा सक्रिय दिखता है। सर्वविदित है कि पूर्वांचल की सबसे बड़ी बीमारी इंसेफलाइटिस है। गोरखपुर मेडिकल काॅलेज अपनी बदहाली के बावजूद अन्य मरीजों के साथ-साथ बिहार, नेपाल व पूर्वांचल के इंसेफलाइटिस मरीजों का अपनी क्षमता भर इलाज करते हैं। इसके बावजूद सरकार की निष्क्रियता व उदासीनता के कारण हजारों बच्चे इस मानवद्रोही व्यवस्था की भेंट चढ़ जाते हैं। हमारी सरकारों का इस पर कोई ध्यान नही है। हैरत इस पर अधिक है कि बजट में इस महामारी के लिए कोई फंड नहीं घोषित हुआ है।
ऐसे में अगर केन्द्र सरकार वास्तव में पूर्वांचल की जनता को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देना चाहती है तो उसे करोड़ों खर्च करके एम्स बनाने के बजाय उन संस्थानों को बेहतर बनाने पर जोर देना चाहिए जो पहले से मौजूद हैं। पुराने संस्थानों को बर्बाद कर नये संस्थान खोलना बहुत जरूरी नहीं जान पड़ता। हो सकता हो कि यह योजना भी अन्य पुरानी स्वास्थ्य योजनाओं की भांति कमीशन व भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाये। बहरहाल, अगर सरकार माननीयों, प्रभावशाली लोगों की सुविधाओं को केन्द्र में रखकर एम्स का निर्माण करना चाहती है तो व्यापक आबादी को इससे बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि न तो यहां दवा फ्री में मिलेगी और न ही दवा की पर्ची।
टेक्सटाइल मजदूरों की हड़ताल अहम जीत हासिल करते हुए समाप्त
टेक्सटाइल मजदूर चन्द्रशेखर से बुरी तरह मारपीट करने वाले कारखाना मालिक के खिलाफ धारा 325/506 के तहत एफ.आई.आर. दर्ज
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
19 जुलाई, 2014, लुधियाना। टेक्सटाइल मजदूर चन्द्रशेखर के साथ बुरी तरह मारपीट करने वाले कारखाना मालिक के खिलाफ आज पुलिस ने मजदूरों के एकजुट संघर्ष के आगे झुकते हुए आखिर एफ.आई.आर. दर्ज कर ही ली। मोदी वूलन मिलज, मेहरबान, लुधियाना के मालिक जगदीश गुप्ता के खिलाफ धारा 325 और 506 के तहत एफ.आई.आर. दर्ज की गई है। पता चला है कि जगदीश गुप्ता पहले ही सी.एम.सी, अस्पताल में आई.सी.यू. में दाखिल हैं। पुलिस ने भरोसा दिया है कि अस्पताल के साथ उनका सम्पर्क है और उसके ठीक होने की हालत में उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा। इस जीत के बाद टेक्सटाइल-हौजरी कामगार यूनियन के नेतृत्व में पांच दिनों से जारी हड़ताल खत्म हो गई। इलाके में मजदूरों ने जोशीली रैली भी निकाली।
यह लुधियाना के टेक्सटाइल मजदूरों के एकजुट संघर्ष को कारखाना मालिकों और पुलिस के गठबंधन के खिलाफ एक अहम जीत हासिल हुई है। मेहरबान, लुधियाना के लगभग 25 कारखानों के मजदूर 14 जुलाई की शाम से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठे थे और टेक्सटाइल मालिक जगदीश गुप्ता के खिलाफ इरादा कत्ल और अगवा करने का केस दर्ज करने, उसे गिरफ्तार करके जेल भेजने की मांग कर रहे थे। हालांकि मांगें हू-ब-हू पूरी नहीं हो सकी हैं लेकिन धारा 325/506 के तहत एफ.आई.आर. दर्ज होना अपने आप में एक बड़ी और अहम जीत है।
टेक्सटाइल-हौजरी कामगार यूनियन के नेतृत्व में पांच दिन तक चली इस हड़ताल के दौरान मजदूरों ने जिस वर्ग चेतना और एकता को अभिव्यक्त किया है, वह एक बड़ी प्राप्ति है। चन्द्रशेखर के साथ हुई धक्केशाही के खिलाफ जुझारू संघर्ष लड़ने के जरिए मजदूरों ने मालिकों व पुलिस को यह स्पष्ट चेतावनी दी है कि उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार, लूट-खसोट, बेइंसाफी बंद की जाए। चन्द्रशेखर के साथ मारपीट करके उसकी नाक की हड्डी तोड़ने और आंख के ऊपरी हिस्से में गम्भीर चोट पहुंचाने वाले जगदीश गुप्ता के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई करवाने के जरिए मजदूरों ने अपने साथ हो रही लूट-खसोट, दमन, अत्याचार के खिलाफ एक विजयी कदम आगे बढ़ाया है।
टेक्सटाइल मजदूर चन्द्रशेखर ने मोदी वूलन मिल से काम छोड़ दिया था लेकिन मालिक ने उसे बकाया उजरत अदा नहीं की। चन्द्रशेखर ने इस बारे में कई बार जगदीश गुप्ता को कहा लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। मालिक ने उसे धमकाया कि अगर उसने पैसे मांगने बन्द नहीं किए तो उसे पुलिस से उठवाकर पिटवाएगा, उसे गायब करवा देगा। 14 जुलाई की शाम को वह और एक पुलिस मुलाजिम चन्द्रशेखर को थाने ले गए। मालिक ने उसे वहां बुरी तरह पीटा। इस मारपीट में उसके नाक की हड्डी टूट गई और आंख पर गम्भीर चोट आई। उसके चेहरे पर किए गए हमले के बाद वह बेहोश हो गया था। होश आने पर उसने खुद को किसी अस्पताल में पाया। इस घटना ने मेहरबान इलाके के मजदूरों में भारी रोष जगा दिया और वे तुरन्त काम बन्द करके हड़ताल पर चले गए।
इलाके के अन्य मालिकों ने भी मालिक जगदीश गुप्ता का ही पक्ष लिया और पुलिस पर किसी भी तरह की कार्रवाई न करने का दबाव डाला गया। राजनीतिक प्रभाव इस्तेमाल करके जगदीश गुप्ता को बचाने की कोशिश की गई। लेकिन मजदूरों ने जहां एक तरफ हड़ताल जारी रखते हुए मालिकों और पुलिस के होश उड़ा दिए। आज भी थाने पर धरने की योजना थी और अगर आज मसला हल न होता तो अन्य इलाकों के कारखानों में हड़ताल करके सोमवार को पुलिस थाने पर विशाल धरना-प्रदर्शन का ऐलान भी कर दिया गया था। मजदूरों के इस जुझारू एकजुट संघर्ष ने आखिर पुलिस को जगदीश गुप्ता के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के लिए मजबूर कर दिया।
मजदूरों ने भविष्य में लूट-दमन के खिलाफ, कारखानों में मजदूरों के सम्मान की बहाली, मारपीट बन्द करवाने, श्रम कानून लागू करवाने के लिए संघर्ष जारी रखने का प्रण किया है। उन्होंने पुलिस-प्रशासन को यह चेतावनी भी दी है कि अगर जगदीश गुप्ता की गिरफ्तारी और अन्य कानूनी कार्रवाई में ढील इस्तेमाल की गई तो उसे फिर से मजदूर संघर्ष का सामना करना होगा।
-जारी कर्ता, राजविन्दर,
अध्यक्ष, टेक्सटाइल-हौजरी कामगार यूनियन, पंजाब।
फोन- 98886-55663
45 वें बैंक राष्ट्रीयकरण दिवस का आयोजन
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
(वर्ष-17,अंक-16 : 16 -31 अगस्त, 2014)
यूनियन बैंक कर्मचारियों ने 19 जुलाई 2014 को बैेंक राष्ट्रीयकरण दिवस को मांग दिवस के रूप में मनाया। मुख्य शाखा में आयोजित आम सभा में प्रान्तीय उप महामंत्री संजीव महरोत्रा ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण दिवस पर प्रकाश डालते हुए कहा कि 19 जुलाई 1969 को बैंक कर्मचारियों ने लम्बी मांग को पूरा करने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति बी.बी. गिरी ने एक अध्यादेश जारी कर बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की थी। और उसके कुछ घंटे के भीतर ही तत्कालीन जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक एवं कुछ पूंजीपतियों ने इसके विरुद्ध याचिका दायर कर निजीकरण बनाये रखने की अपील की किन्तु उस समय के बुद्धिजीवियों एवं वामनेताओं ने जनहित याचिका दायर कर राष्ट्रीयकरण का समर्थन किया जिससे बैंकों का सार्वजनिक स्वरूप बन सका। इतना ही नहीं इसका प्रतिफल तत्कालीन इंदिरा सरकार को मिला और इसके बाद हुए चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल कर श्रीमती गांधी सत्ता में आसीन हुई।
श्री संजीव मेहरोत्रा ने बताया कि 1969 से सभी सार्वजनिक बैंकों की भूमिका एवं महत्व को जनता ने समझा है और देश में दुग्ध क्रांति एवं हरित क्रांति की देन यह सार्वजनिक बैंक ही रहे हैं किन्तु हमारे देश का दुर्भाग्य है कि पहले यूपीए की सरकारों ने और अब भाजपा की सरकार बैंकों के निजीकरण एवं विदेशीकरण के लिए उतारू है जो कि देश हित में नहीं है और एआईबीईए ने 45वें राष्ट्रीयकरण दिवस को ‘मांग दिवस’ के रूप में मनाने के निर्देश दिये हैं। बैंकों के सार्वजनिक रूप को बचाये रखने की जिम्मेदारी हर बैंक कर्मचारी की है।
इस अवसर पर बीमा कर्मी नेता श्रीमती गीता शांत ने संदेश दिया कि जहां सीमा पर सिपाही देश की सुरक्षा कर रहे हैं वहीं देश के भीतर सार्वजनिक उपक्रमों की रक्षा का भार कर्मचारियों के ऊपर है। उन्होंने कहा कि बैंक मर्जर एवं एफडीआई जैसे घातक अस्त्रों को हम अपने सशक्त आंदोलनों से परास्त करेंगे क्योंकि निजीकरण केवल पूंजीपतियों के हित साधने का साधन मात्र है।
इस दौरान उपस्थित सदस्यों को सार्वजनिक उपक्रमों के रक्षार्थ शपथ दिलायी गयी। आम सभा में हाल ही में मुम्बई से लौट कर आये उपमहामंत्री संजीव मेहरोत्रा ने चेयरमैन के साथ हुई वार्ता में एवं नवीन उपलब्धियों की जानकारी सदस्यों को दी। सर्वसम्मति से श्री पुष्पेन्द्र माहेश्वरी को यूनिट का जिला मंत्री मनोनीत किया गयां
इस दौरान सर्व श्री रमेश मिश्रा अफरोज, शान्तनु राय चैधरी, खलील उल्लाह, पुष्पा देवी, सुगंधा, जेएन मेहरा, किशन लाल, अरुण कुमार, अशोक कुमार, दीपक भारती, अर्जुन अग्रवाल, भगवान दास आदि ने विचार रखे, अध्यक्षता श्री लईक अहमद ने की।
संजीव महरोत्रा
यूनियन बैंक स्टाफ एसोशियेशन
उ.प्र. बरेली
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